नई दिल्ली, खाद्य तेलों की कीमतों में बेहिसाब तेजी आई है। सभी छह श्रेणियों के तेल की कीमतें साल भर में 50 से 70 प्रतिशत तक बढ़ चुकी हैं। कीमतों में आई यह बढ़ोतरी सामान्य कमोडिटी साइकल का हिस्सा नहीं है। यह पिछले 11 सालों में तमाम वेजिटेबल ऑयल की कीमतों में आया सबसे बड़ा उछाल है। सरसों तेल साल भर में 44 फीसदी बढ़कर 171 रुपए हो गया है, सोया ऑयल और सूरजमुखी तेल भी पिछले साल भर 50-50 फीसदी बढ़ चुके हैं। तेलों की कीमत में आई इस वृद्धि की शुरुआत पिछले जनवरी से हो गई थी और यह पिछले लगभग 15-16 महीने से लगातार बढ़ते हुए मौजूदा स्तरों पर पहुंची है। खास बात यह है कि तमाम चिंता जताने और बैठकें करने के बावजूद सरकार के विकल्प बहुत सीमित प्रतीत हो रहे हैं,
इसका कारण यह है कि कीमतों में आई इस बढ़ोतरी की जड़ें देश में तिलहन उत्पादन और खपत में भारी अंतर और अंतरराष्ट्रीय बाजारों में तेलों के दाम में लगातार आ रही वृद्धि में निहित हैं। इनमें पहली के लिए दूरगामी रणनीति बनाकर योजना पूर्वक प्रयास करने की आवश्यकता है, जबकि दूसरे कारण पर सरकार के पास करने के लिए बहुत कुछ है नहीं।
देश में हरित क्रांति के बाद देश खाद्यान्नों के मामले में तो आत्मनिर्भर हो गया, लेकिन दलहन और तिलहन दो ऐसी फसलें हैं, जिसमें आयात पर निर्भरता बनी रही। मौजूदा संदर्भ में तिलहन की बात की जाए तो 2019-20 में देश में इनका कुल उत्पादन 106।5 लाख टन था, जबकि मांग थी 240 लाख टन। यानी भारत को अपनी घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए 130 लाख टन से ज्यादा तेलों का आयात करना पड़ा। आज के दौर में खाद्य तेलों की कीमतों का जो हाल है, यह और भी बुरा हो सकता था, यदि 2020-21 के दौरान भारत के तेल उत्पादन में बढ़ोतरी और मांग में कमी नहीं आई होती।