नई दिल्ली, हमेशा ही यह आरोप लगाता रहा है कि सीबीआई पिंजरे में बंद तोता है जो कि सत्ता में रहने वाली सरकार के अधीन काम करती है। इसके बार में अब एक किताब में खुलासा हो गया है। सीबीआई के पूर्व संयुक्त निदेशक और हरियाणा कैडर के आईपीएस अधिकारी रहे बीआर लाल ने अपनी पुस्तक हू ओंस सीबीआई: ए नेकेड ट्रुथ में लिखा है कि देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी किस तरह राजनीतिक आकाओं के इशारे पर काम करती है।यहां तक कि बड़े-बड़े अधिकारी भी इन आकाओं के खिलाफ कोई कार्रवाई करने से डरते हैं। भारत के अब तक के इतिहास में कुछ इसतरह के मामले रहे हैं जो कि इस बात का सच साबित करते रहे है।
जैन हवाला केस 1995
जैन हवाला केस में सत्तासीन उच्च अधिकारियों के खिलाफ प्रमाण के बावजूद सीबीआई कोई मामला नहीं बना सकी। दरअसल एसके जैन ने जब अपने बयान में प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव का नाम लिया तो यह प्रयास किया जाने लगा कि बयान का यह हिस्सा रिकॉर्ड में नहीं जाना चाहिए। खुद सीबीआइ के निदेशक इस मुहिम में लगे थे। जब निदेशक अपनी मुहिम में सफल नहीं हुए तो मामले की जांच कर रही टीम को विभाजित कर दिया गया ताकि जांच के अवांछित तथ्यों को हटाया जा सके। इस प्रकार किसी बड़े नाम से न ही पूछताछ की गई और न ही गिरफ्तार किया गया। केवल जैन के अतिरिक्त कुछ अधिकारियों और विपक्षी राजनीतिज्ञों से पूछताछ हो पाई।
इंडियन बैंक घोटाला 1995
सीबीआइ की एक ब्रांच इस बैंक में 100 करोड़ रुपये घोटाले की जांच कर रही थी। इसी तरह एक दूसरी ब्रांच भी ऐसे ही घोटाले की जांच कर रही थी। इन मामलों में साफ था कि बैंक के चेयरमैन ने अपने अधिकारियों पर दबाव डालकर एडवांस लोन दिलवाए जिनके बारे में पहले से ही पता था कि वे लोन चुकता नहीं कर पाएंगे। इन मामलों की जांच चल ही रही थी कि हमारे पास बैंक के सीएमडी गोपालकृष्णन के सेवा विस्तार से संबंधित कागजात आए। मैंने उनको सेवा विस्तार देने का विरोध करते हुए कहा कि यदि उनको दो वर्षों का सेवा विस्तार दिया गया तो हमको इससे भी बड़े घोटाले की जांच करनी पड़ेगी। इन सारे तथ्यों के बावजूद वित्त मंत्रालय ने उनको सेवा विस्तार दे दिया।
झारखंड मुक्ति मोर्चा केस 1995
इस मामले को ईमानदार एसपी अरुण सिन्हा देख रहे थे। उनको भी तत्कालीन सीबीआइ निदेशक ने आदेश दिया कि इस केस को खास तरीके से पेश किया जाए। उसी आधार पर सुबूतों को भी इकट्ठा किया जाए। जब अरुण सिन्हा ने उनकी बात मानने से इंकार कर दिया तो निदेशक ने उनसे मामला वापस ले लिया और उनका स्थानांतरण दिल्ली से सिलचर कर दिया गया। हालांकि बाद में कोर्ट ने केस अरुण सिन्हा को दे दिया और उनको एवं डीआइजी को निर्देश दिया कि वे कोर्ट को केस की प्रगति रिपोर्ट से अवगत कराएं। साथ ही यह निर्देश भी दिया कि सीबीआइ निदेशक से न ही इस केस के बारे में चर्चा की जाए और न ही उनको कोई कागजात दिखाए जाएं। दरअसल इसमें मुख्य आरोपी कांग्रेस अध्यक्ष पीवी नरसिंह राव थे।
चारा घोटाला 1996
चारा घोटाले की जांच कर रहे संयुक्त निदेशक यूएन बिस्वास की रिपोर्ट को ही सीबीआइ निदेशक ने बदलवा दिया था। उसमें से लालू प्रसाद का नाम हटा दिया गया था। जब पटना हाईकोर्ट में यूएन बिस्वास ने कहा कि यह उनकी रिपोर्ट नहीं है तो कोर्ट ने उनसे कहा कि वह अपनी रिपोर्ट कोर्ट को ही पेश करें। यानी कि कोर्ट ने सीबीआइ निदेशक को विश्वास लायक ही नहीं समझा।
लखूभाई पाठक केस
जब लखूभाई पाठक ने सबसे पहले 1987 में आरोप लगाया था तब पीवी नरसिंह राव का नाम भी लिया था लेकिन राव की पार्टी कांग्रेस सत्ता में थी लिहाजा कोई मामला दर्ज नहीं किया गया। यह सबको पता है कि इस केस को कई वर्षों बाद रजिस्टर किया गया वह भी तब जब सीबीआइ ऐसा करने को मजबूर हो गई। एक स्पेशल अधिकारी को लखूभाई से केस रजिस्टर करने के लिए ब्रिटेन भेजा गया जिसमें पीवी नरसिंह राव का नाम शामिल नहीं किया गया। इस तरह लखूभाई के आवेदन को संशोधित कर केस रजिस्टर किया गया। ट्रायल कोर्ट में लखूभाई पाठक ने अपने बयान में बताया कि उन्होंने केस में नरसिंह राव का नाम लिया था।
बसपा सुप्रीमो मायावती के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति मामले की जांच के दौरान सीबीआइ को केंद्र के दबाव का सामना करना पड़ा था। बड़े नेताओं के खिलाफ जांच में प्रगति रिपोर्ट को लटकाने या खास तरीके से पेश करने के लिए प्रभावित करने की कोशिश होती है।
यूएस मिश्रा, पूर्व सीबीआइ निदेशक (14 दिसंबर, 2012 को दिए गए एक बयान में)
सीबीआइ पिंजरे में बंद ऐसा तोता बन गई है जो अपने मालिक की बोली बोलता है। यह ऐसी अनैतिक कहानी है जिसमें एक तोते के कई मालिक हैं सुप्रीम कोर्ट
(मई, 2013 में कोयला ब्लॉक आवंटन घोटाला मामले में सीबीआइ जांच की प्रगति रिपोर्ट में सरकार के हस्तक्षेप पर सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी)
संप्रग सरकार सीबीआइ का राजनीतिक दुरुपयोग कर रही है। वरना केवल राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं होती। केंद्रीय मंत्री राजा स्पेक्ट्रम घोटाले में सवालों के घेरे में हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी सवाल पूछा है सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंग रही है। जांच के बावजूद राजा मंत्री पद पर हैं
निर्मला सीतारमण, भाजपा प्रवक्ता
(अक्टूबर 2010 में अमित शाह को गुजरात हाई कोर्ट से राहत मिलने के बाद सीबीआइ की फुर्ती पर प्रतिक्रिया। जिस दिन शाह को जमानत मिली उसी दिन सीबीआइ ने देर शाम सुप्रीम कोर्ट जाकर उनकी जमानत खारिज करने की गुहार लगा दी थी।)