गुजरा जमाना

शत्रुघ्न करियर की शुरुआत में बने थे खलनायक
बॉलीवुड अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा अपने करियर की शुरुआत में खलनायक के तौर पर उभरे। उन्होंने कई फिल्मों में खलनायक की भूमिका निभाई लेकिन उनकी एक्टिंग को देखते हुए और दर्शकों के बीच उनके लिए बढ़ते हुए प्यार को देखते हुए निर्देशक निर्माताओं को उन्हें हीरो की भूमिका में लाना पड़ा और इस तरह वह खलनायक से नायक बन गए। उन्होंने अपने फिल्मी करियर में कई फिल्मों में काम किया पर सबसे हिट फिल्म दीवार और शोले फिल्म में काम न कर पाने का अफसोस उन्हें आज भी है।
शत्रुघ्न के मना करने के बाद अमिताभ को मिली ये फिल्में
शत्रुघ्न ने एक कार्यक्रम में कहा था कि फिल्म शोले और दीवार पहले उन्हें ऑफर की गई थी लेकिन किसी वजह से वह इन फिल्मों में काम नहीं कर पाए। जिसके बाद इन फिल्मों में अमिताभ बच्चन ने काम किया और आज वह सदी के महानायक बन गए। उन्होंने कहा कि ये फिल्में न करने का अफसोस उन्हें आज भी है, लेकिन खुशी भी है कि इन फिल्मों ने उनके दोस्त को स्टार बना दिया। उन्होंने यह भी बताया कि इन फिल्मों को न करना मेरी गलती थी और इस वजह से उन्होंने आजतक ‘दीवार’ और ‘शोले’ नहीं देखी।
फिल्मों में खलनायकी की अपनी पहचान पर शत्रुघ्न ने कहा, “मैंने खलनायक के रोल में होकर कुछ अलग किया। मैं पहला खलनायक था, जिसके परदे पर आते ही तालियां बजती थीं। ऐसा कभी नहीं हुआ। विदेशों के अखबारों में भी यह आया कि पहली बार हिन्दुस्तान में एक ऐसा खलनायक उभरकर आया, जिस पर तालियां बजती हैं। अच्छे-अच्छे खलनायक आए, लेकिन कभी किसी का तालियों से स्वागत नहीं हुआ। ये तालियां मुझे निर्माताओं-निर्देशकों तक ले गईं। इसके बाद निर्देशक मुझे विलेन की जगह हीरो के तौर पर लेने लगे।” उन्होंने कहा, “एक फिल्म आई थी ‘बाबुल की गलियां’, जिसमें मैं विलेन था, संजय खान हीरो और हेमा मालिनी हीरोइन थीं। इसके बाद जो फिल्म आई ‘दो ठग’, उसमें हीरो मैं था और हीरोइन हेमा मालिनी थीं। मनमोहन देसाई को कई फिल्मों में अपना अंत बदलना पड़ा। ‘भाई हो तो ऐसा’, ‘रामपुर का लक्ष्मण’ ऐसी ही फिल्में हैं।”

आशा पारेख ने बाल कलाकर के तौर पर की थी शुरुआत
गुजरे जमाने की दिग्गज अभिनेत्री आशा पारेख ने अपने कैरियर में एक अलग ही स्थान बनाया और अपनी अदाकारी से लंबे समय तक दर्शकों के दिलों में राज किया है। आशा ने अभिनय की शुरुआत बतौर बाल कलाकर के तौर पर की थी। दस साल की उम्र में वह पहली बार फिल्म मां (1952) में नजर आईं। इसके बाद उन्होंने कुछ और फिल्मों में भी काम किया लेकिन स्कूल पूरा करने के लिए अभिनय छोड़ दिया।
आशा ने 16 साल की उम्र में पर्दे पर वापसी करने की सोची। वह अब हीरोइन बनकर सिल्वर स्क्रीन पर आना चाहती थीं लेकिन उनके लिए ये बिल्कुल भी आसान नहीं रहा। विजय भट्ट की फिल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ (1959) के लिए पहुंचीं आशा को खारिज कर दिया गया। उनका कहना था कि आशा में कुछ स्टार मैटीरियल नहीं है। इस रिजेक्शन के आठ दिन बाद फिल्म प्रोड्यूसर सुबोध मुखर्जी और राइटर डायरेक्टर नासिर हुसैन ने उन्हें शम्मी कपूर के साथ फिल्म ‘दिल देके देखो’ (1959) में बतौर हीरोइन कास्ट किया। इस फिल्म ने आशा को एक बड़ा प्लैट फॉर्म दिया और एक बड़ी स्टार बन गईं।आशा के अंदर एक्टिंग के लिए लगाव ऐसा था कि वह किसी की नकल उतारने में भी कम नहीं थीं। वह स्कूल के दिनों में यह काम खूब किया करती थीं। एक टीवी शो क्लासिक लीजेंड्स के एक एपिसोड में जावेद अख्तर ने बताया था कि आशा बचपन में अपने दोस्तों और टीचर्ल की नकल किया करती थीं। इस अभिनेत्री को अपने जीवन में पसंद का हमसफर नहीं मिल पाया और वह अविवाहित ही रहीं।

सदाबहार फिल्मों के लिए याद किये जाएंगे ओमप्रकाश
दिग्गज फिल्मकार और बॉलीवुड अभिनेता ऋतिक रोशन के नाना जे.ओम प्रकाश के निधन की खबर आने के बाद हिंदी फिल्म जगत के कई हस्तियों ने सोशल मीडिया के सहारे अपना शोक व्यक्त किया। ओम प्रकाश को 70 और 80 के दशक में ‘अ’ अक्षर से शुरू हुए उनके कई सदाबहार फिल्मों के लिए आज भी याद किया जाता है जिनमें ‘आयी मिलन की बेला’, ‘आया सावन झूम के’ और ‘आप की कसम’ इत्यादि शामिल हैं। ओम प्रकाश प्रकाश ने बुधवार को अपने आवास पर आखिरी सांस ली। वह 92 साल के थे।
महिला-केंद्रित फिल्में बनाना, इंडियन मोशन पिक्च र्स प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन के एक महत्वपूर्ण कार्य और इंडस्ट्री के अन्य कार्यो के साथ वह अपने पूरे करियर में काफी सक्रिय रहे।” ओम प्रकाश की बेटी पिंकी की शादी ऋतिक रोशन के पिता राकेश रोशन से हुई है। बताया जाता है कि ऋतिक अपने नाना के बेहद करीब थे। बीते दिनों उन्होंने उन्हें एक लग्जरी कार भी उपहार में दी थी। बीते दिनों ऋतिक ने उनके जन्मदिन की कुछ खास तस्वीरें अपने इंस्टग्राम पर तस्वीरें साझा की थी।
ओम प्रकाश ने बॉलीवुड स्टार राजेश खन्ना के साथ कई सुपरहिट फिल्में दी। जिनमें साल 1974 में आई आप की कसम, 1985 में आई आखिर क्यों? शामिल हैं। उन्होंने जितेंद्र के साथ भी कई फिल्में बनाईं जिनमें अर्पण 1983, आदमी खिलौना है 1993 शामिल हैं। जे ओम प्रकाश सिर्फ निर्देशक नहीं थे बल्कि उन्होंने कई फिल्मों का निर्माण भी किया है जिनमें आई मिलन की बेला, आया सावन झूम के शामिल हैं।

अभिनेता नहीं बनना चाहते थे गुरु दत्त
बॉलीवुड अभिनेता गुरु दत्त को प्यासा और कागज के फूल जैसी उनकी फिल्मों से याद किया जाता है। फिल्म डायरेक्शन के अलावा गुरु दत्त ने अभिनय में भी अपनी अलग छाप छोड़ी है। मगर गुरु दत्त का फिल्मों में काम करने का मन कभी भी नहीं था। उन्हें प्यासा जैसी फिल्मों में भी काम बड़े इत्तेफाक से ही मिला था।
पहले ये भूमिका दिलीप कुमार करने वाले थे। मगर वे उस समय देवदास की शूटिंग कर रहे थे। दिलीप कुमार को जब ये रोल मिला तो उन्हें लगा कि ये रोल देवदास के रोल के जैसा ही है। इस वजह से उन्होंने इस फिल्म में काम करने से इंकार कर दिया।
बाद में खुद गुरु दत्त ने इस भूमिका को जानदार तरीके से निभाया। इसी दौरान वहीदा रहमान के साथ उनके अफेयर की खबरें भी खूब सुर्खियों में रही थीं।
ऐसा ही साहेब बीवी और गुलाम के साथ भी देखने को मिला। फिल्म में पहले शशि कपूर लीड रोल प्ले करने वाले थे। मगर किसी वजह से वे ये रोल पूरा नहीं कर सके। ऐसे समय में गुरु दत्त ने फिर से एक बार अभिनय का जिम्मा उठाया और यह फिल्म जबरदस्त हिट रही।
गुरु दत्त की पत्नी गीता दत्त बेहतरीन गायिका थीं। मगर फिल्म साहब बीवी और गुलाम में उन्होंने वहीदा रहमान के लिए गाना गाने से इंकार कर दिया था। इसके बाद आशा भोसले से वहीदा के लिए गाने गवाए गए थे।
गुरु दत्त पेशेवर लाइफ में जितने सफल रहे उतनी ही दर्दनाक उनकी निजी जिंदगी रही। गीता दत्त के साथ उनकी शादी शुदा जिंदगी भी काफी उतार-चढ़ाव से भरी रही। गुरु दत्त का काफी कम 39 साल की उम्र में में ही निधन हो गया। इसके पीछे उनकी शराब की लत को जिम्मेदार बताया गया था।

हिंदी सिनेमा के युगपुरुष माने जाते हैं पृथ्वीराज कपूर
कड़क व रौबदार आवाज के मालिक पृथ्वीराज कपूर भारतीय सिनेमा के ‘युगपुरुष’ कहे जाते हैं। पृथ्वीराज से लेकर अब तक उनके खानदान ने बॉलीवुड में अपनी एक खास पहचान बनायी है। कहा जाता है कि वह अपने थिएटर में तीन घंटे के शो के बाद झोली फैलाकर खड़े हो जाते थे और दर्शक उनके अभिनय से खुश होकर कुछ पैसे उसमें डाला करते थे। गौरतलब है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के विदेश में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम की पेशकश भी उन्होंने यह कहकर टाल दी थी कि थिएटर का काम छोड़कर वह विदेश नहीं जा सकते हैं।
18 वर्ष की उम्र में ही हो गयी थी शादी
पृथ्वीराज कपूर ने 18 वर्ष की उम्र में ही शादी रचा ली थी। जिसके बाद वर्ष 1928 में उन्होंने अपनी चाची से कुछ रुपयों की मदद ली और सपनों की नगरी कहे जाने वाले शहर मुंबई (बंबई) चले गए। पृथ्वीराज कपूर अपने काम के प्रति बेहद समर्पित रहने वाले इंसान थे।बंबई आने के बाद दो साल तक उनका नाता रोजाना के संघर्षों से रहा। फिर धीरे-धीरे वे इम्पीरीयल फिल्म कंपनी से जुड़ने लगे। यहां से उनको फिल्मों में छोटे-छोटे रोल मिलना शुरू हो गए। फिर साल 1929 में पृथ्वीराज को फिल्म ‘सिनेमा गर्ल’ में पहली बार लीड रोल करने का मौका मिला। इसके बाद वर्ष 1931 में प्रदर्शित फिल्म ‘आलमआरा’ में सहायक अभिनेता के रूप में काम करने का मौका मिला।
फिल्म ‘सीता’ से मिली पहचान
वहीं, वर्ष 1934 में देवकी बोस की फिल्म ‘सीता’ से उन्हें अभिनय की दुनिया में पहचाना जाने लगा। रंजीत मूवी के बैनर तले वर्ष 1940 में फिल्म ‘पागल’ में पृथ्वीराज पहली बार निगेटिव किरदार में देखे गए। इसके बाद वर्ष 1941 में सोहराब मोदी की फिल्म ‘सिकंदर’ आई, इस फिल्म ने उन्हें कामयाबी के शिखर पर ला खड़ा किया। इसके अलावा उन्होंने ‘दो धारी तलवार’, ‘शेर ए पंजाब’ और ‘प्रिंस राजकुमार’ जैसी नौ मूक फिल्मों में अपने अभिनय को तराशा।
पृथ्वीराज ने फिल्म इंडस्ट्री में जब खुद को स्थापित कर लिया तो उन्होंने वर्ष 1944 में खुद की थिएटर कंपनी ‘पृथ्वी थिएटर’ शुरू कर दी। बता दें कि 16 सालों में करीब 2662 शो हुए जिनमें पृथ्वीराज कपूर ने मुख्य किरदार निभाया। उनके पिता बसहेश्वरनाथ नाथ कपूर भी एक्टिंग करते थे।
‘पृथ्वी थिएटर’ में पहला शो कालिदास का मशहूर नाटक ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ पेश किया गया था। साल 1957 में आई फिल्म ‘पैसा’ के दौरान उनकी आवाज में खराबी होने लगी थी और उनकी आवाज में पहले जैसा दम नहीं बचा था जिसके बाद से उन्होंने पृथ्वी थिएटर को बंद कर दिया।
इन फिल्मों को पृथ्वीराज कपूर ने बनाया यादगार
‘विद्यापति’ (1937), ‘सिकंदर’ (1941), ‘दहेज’ (1950), ‘आवारा’ (1951), ‘जिंदगी’ (1964), ‘आसमान महल’ (1965), ‘तीन बहूरानियां’ (1968) आदि फिल्मों में पृथ्वीराज ने अपने दमदार अभिनय का परिचय दिया। उनके अभिनय से ही ये फिल्में हिंदी सिनेमा में यादगार बन गई।
ब्लॉकबस्टर फिल्म ‘मुगल-ए-आजम’ उनकी करियर की सबसे बड़ी फिल्मों में से एक है। फिल्म में उन्होंने शहंशाह जलालुद्दीन अकबर के किरदार को एक बार फिर जिंदा कर दिया था। इस फिल्म में उनकी संवाद अदायगी ने पर्दे पर कमाल कर दिया था। उनकी फिल्म ‘आवारा’ आज भी उनकी बेस्ट फिल्मों में से एक मानी जाती है।
भारतीय फिल्म इंडस्ट्री आज जिस मुकाम पर है वहां तक इसे पहुंचाने में एक बड़ा हाथ पृथ्वीराज कपूर का भी है। उन्होंने न सिर्फ अपने अभिनय के दम पर बल्कि सिनेमा में पर्दे के पीछे के अपने काम के चलते भी भारतीय सिनेमा में बड़ा योगदान दिया। पृथ्वीराज कपूर पर्दे पर भले ही बड़े सख्त नजर आते, लेकिन असल जिंदगी में वह बहुत सादा थे। पृथ्वीराज ने अपने घर की महिलाओं के सिनेमा में काम करने पर पाबंदी लगा रखी थी।

नरगिस ने कई रूपों में किया काम
हिंदी सिनेमा को शुरूआती दौर में जिन अभिनेत्रियों ने एक अलग उंचाई दी है उनमें एक नाम उस दौर की खूबसूरत अभिनेत्री नरगिस का भी है। नरगिस उन अभिनेत्रियों में थीं जिन्होंने इतिहास रचा। मदर इंडिया, आवारा, बरसात और श्री 420 जैसी फिल्मों में महिलाओं की भूमिका को सशक्त रुप में वह सामने लायीं।
नरगिस के बचपन का नाम फातिमा राशिद था। नरगिस के पिता उत्तमचंद मोहनदास एक जाने-माने डॉक्टर थे। उनकी मां जद्दनबाई मशहूर नर्तक और गायिका थी। मां के सहयोग से ही नरगिस फ़िल्मों से जुड़ीं और उनके करियर की शुरुआत हुई फ़िल्म ‘तलाश-ए-हक’ से। जिसमें उन्होंने बतौर बाल कलाकर काम किया। उस समय उनकी उम्र महज 6 साल की थी। इस फ़िल्म के बाद वो बेबी नरगिस के नाम से मशहूर हो गयीं। इसके बाद उन्होंने कई फ़िल्में की। नरगिस राज्यसभा के लिए नामांकित होने और पद्मश्री पुरस्कार पाने वाली पहली हीरोइन थीं।
राज कपूर से बढ़ी नजदीकियां
1940 से लेकर 1950 के बीच नरगिस ने कई बड़ी फ़िल्मों में काम किया। जैसे ‘बरसात’, ‘आवारा’, ‘दीदार’ और ‘श्री 420’। तब राज कपूर का दौर था। नरगिस ने राज कपूर के साथ 16 फ़िल्में की और ज़्यादातर फ़िल्में सफल साबित हुईं। इस बीच दोनों में नजदीकियां भी बढ़ने लगीं और दोनों को एक-दूसरे से प्यार हो गया और दोनों ने शादी करने का मन भी बना लिया। उसने दूसरे निर्माताओं की फ़िल्मों में काम करके आर.के फ़िल्म्स की खाली तिजोरी को भरने का काम भी किया।
ब्रेक-अप
राज कपूर जब 1954 में मॉस्को गए तो अपने साथ नरगिस को भी ले गए। कहते हैं यहीं दोनों के बीच कुछ ग़लतफ़हमी हुई और दोनों के बीच इगो की तकरार इतनी बढ़ी कि वह यात्रा अधूरी छोड़कर नरगिस इंडिया लौट आईं। 1956 में आई फ़िल्म ‘चोरी चोरी’ नरगिस और राज कपूर की जोड़ी वाली अंतिम फ़िल्म थी। वादे के मुताबिक, राज कपूर की फ़िल्म ‘जागते रहो’ में भी नरगिस ने अतिथि कलाकार की भूमिका निभाई थी। यहां से दोनों के रास्ते बदल गए।
राज कपूर से अलग होने के ठीक एक साल बाद नरगिस ने 1957 में महबूब ख़ान की ‘मदर इंडिया’ की शूटिंग शुरू की। मदर इंडिया की शूटिंग के दौरान सेट पर आग लग गई। सुनील दत्त ने अपनी जान पर खेलकर नरगिस को बचाया और दोनों में प्यार हो गया। मार्च 1958 में दोनों की शादी हो गई। दोनों के तीन बच्चे हुए, संजय, प्रिया और नम्रता। अपनी किताब ‘द ट्रू लव स्टोरी ऑफ़ नरगिस एंड सुनील दत्त’ में नरगिस कहती हैं कि राज कपूर से अलग होने के बाद वो आत्महत्या करने के बारे में सोचने लगी थीं, लेकिन उन्हें सुनील दत्त मिल गए,जिन्होंने उन्हें संभाल लिया। नरगिस कहती हैं कि उन्होंने अपने और राज कपूर के बारे में सुनील दत्त को सब-कुछ बता दिया था। सुनील दत्त पर नरगिस को काफी भरोसा था और दुनिया जानती है यह जोड़ी ताउम्र साथ रही।
समाज सेवा
नरगिस एक अभिनेत्री से ज्यादा एक समाज सेविका थीं। उन्होंने असहाय बच्चों के लिए काफी काम किया। उन्होंने सुनील दत्त के साथ मिलकर ‘अजंता कला सांस्कृतिक दल’ बनाया जिसमें तब के नामी कलाकार-गायक सरहदों पर जा कर तैनात सैनिकों का हौसला बढ़ाते थे और उनका मनोरंजन करते थे। गौरतलब है कि कैंसर जैसी गम्भीर बीमारी से जूझते हुए नरगिस कोमा में चली गयीं। 3 मई 1981 को मुंबई में उनका निधन हुआ।

जेलर का किरदार निभाने जेल गये थे बलराज साहनी
गुजरे जमाने के दिग्गज अभिनेता बलराज साहनी जेल भी गये थे। फिल्म के निर्माता के. आसिफ जेलर के रोल को प्रामाणिक बनाना चाहते थे, आसिफ ने शासन से इस बात की स्वीकृति हासिल कर ली कि उन्हें और जेलर का रोल निभाने वाले अभिनेता को रोज थोड़ा समय जेल में बिताने का मौका दिया जाए। बाद में हकीकत में भी बलराज को जेल जाना पड़ा। बलराज साहनी की गिनती बेहद प्रतिभाशाली अभिनेताओं में से एक होती है। उनका असली नाम युद्धिष्ठिर साहनी है।
बलराज ने उस दौर में इंग्लिश लिटरेचर से मास्टर डिग्री की। उन्होंने लाहौर यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की थी। 13 अप्रैल 1973 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। दिलीप के कहने पर के. आसिफ ने बलराज को फिल्म `हलचल’ में एक अहम रोल दिया। वो फिल्म में जेलर बने। के. आसिफ जेलर के रोल को प्रामाणिक बनाना चाहते थे, इसके लिए वे कुछ नेताओं और फिर जेल प्रशासन से मिले।
आसिफ ने शासन से इस बात की स्वीकृति हासिल कर ली कि उन्हें और जेलर का रोल निभाने वाले अभिनेता को रोज थोड़ा समय जेल में बिताने का मौका दिया जाए।
बलराज साहनी भी चाहते थे कि उनके रोल में हकीकत नजर आये, इसके लिए वो उत्साहित हो कर आसिफ के साथ आर्थर रोड जेल पहुंचे। जेलर ने बलराज और आसिफ को बैरक दिखाई, कैदियों का रहन सहन दिखाया और जेल मैनुअल के बारे में जानकारी दी।
असल में इस प्रकार पहूंचे जेल
बलराज उन दिनों बलवंत गार्गी के लिखे नाटक `सिग्नलमैन’ की तैयारियों में भी समय दे रहे थे। इसका निर्देशन वह खुद कर रहे थे। रिहर्सल के दौरान उन लोगों को एक दिन खबर मिली की परेल से कम्युनिस्ट पार्टी का जुलूस निकलने वाला है। वामपंथी विचारधारा के कट्टर समर्थक बलराज अपनी पत्नी के साथ उस जुलूस में शामिल हुए।
जुलूस के कुछ दूर चलने के बाद हिंसा शुरू हो गई। कई लोगों के साथ बलराज साहनी भी गिरफ्तार कर लिए गए। उन्हें बरेली जेल भेज दिया गया। दो महीने वहां रहने के बाद उन्हें जेल की ए क्लास श्रेणी मिल गई और फिर मुंबई की आर्थर रोड जेल भेज दिया गया। आर्थर रोड जेल के जेलर की नजर बलराज साहनी पर पड़ी तो वो उन्हें बहुत गौर से देखते हुए बोले मैंने तुम्हें कहीं देखा है। बलराज साहनी ने उन्हें यकीन दिलाया कि उन्हें कोई गलतफहमी हुई है। एक दिन जेलर ने बलराज साहनी को उनकी बैरक से अपने कमरे में बुलवाया। जब बलराज पहुंचे, तो वहीं बैठे जेलर और के.आसिफ उन्हें देख कर जोर से हंसे। अब जेलर की समझ में आया कि उन्होंने बलराज को पहले कहां देखा था।

अतिसंवेदनशील कलाकार रहे हैं दिलीप कुमार
गुजरे जमाने के दिग्गज अभिनेता और ट्रेजडी किंग के नाम से लोकप्रिय दिलीप कुमार ने रंगीन और रंगहीन (श्वेत-श्याम) सिनेमा के पर्दे पर अपने आपको कई रूपों में प्रस्तुत किया। असफल प्रेमी के रूप में उन्होंने विशेष ख्याति पाई, लेकिन यह भी सिद्ध किया कि हास्य भूमिकाओं में वे किसी से कम नहीं हैं। वे ट्रेजेडी किंग भी कहलाए और ऑलराउंडर भी। उनकी गिनती अतिसंवेदनशील कलाकारों में की जाती है, लेकिन दिल और दिमाग के सामंजस्य के साथ उन्होंने अपने व्यक्तित्व और जीवन को ढाला। वे अपने आप में सेल्फमेडमैन (स्वनिर्मित मनुष्य) की जीती-जागती मिसाल हैं। उनकी निजी जिंदगी हमेशा कौतुहल का विषय रही, जिसमें रोजमर्रा के सुख-दुःख, उतार-चढ़ाव, मिलना-बिछुड़ना, इकरार-तकरार सभी शामिल थे। दिलीप कुमार को साहित्य, संगीत और दर्शन की अभिरुचि ने गंभीर और प्रभावशाली हस्ती बना दिया।
पच्चीस वर्ष की उम्र में दिलीप कुमार देश के नंबर वन अभिनेता के रूप में स्थापित हो गए थे। वहीं राजकपूर और देव आनंद के आगमन से ‘दिलीप-राज-देव’ की प्रसिद्ध त्रिमूर्ति का निर्माण हुआ। ये नए चेहरे आम सिने दर्शकों को मोहक लगे।
दिलीप कुमार प्रतिष्ठित फिल्म निर्माण संस्था बॉम्बे टॉकिज की उपज हैं, जहाँ देविका रानी ने उन्हें काम और नाम दिया। यहीं वे यूसुफ सरवर खान से दिलीप कुमार बने और यहीं उन्होंने अभिनय का ककहरा सीखा। अशोक कुमार और शशधर मुखर्जी ने फिल्मीस्तान की फिल्मों में लेकर दिलीप कुमार के करियर को सही दिशा में आगे बढ़ाया।
फिर नौशाद, मेहबूब, बिमल राय, के. आसिफ तथा दक्षिण के एसएस वासन ने दिलीप की प्रतिभा का दोहन कर क्लासिक फिल्में देश को दीं। 44 साल की उम्र में अभिनेत्री सायरा बानो से विवाह करने तक दिलीप कुमार वे सब फिल्में कर चुके थे, जिनके लिए आज उन्हें याद किया जाता है। बाद में दिलीप कुमार ने कभी काम और कभी विश्राम की कार्यशैली अपनाई। वैसे वे इत्मीनान से काम करने के पक्षधर शुरू से थे। अपनी प्रतिष्ठा और लोकप्रियता को दिलीप कुमार ने पैसा कमाने के लिए कभी नहीं भुनाया जबकि एक बड़े परिवार के संचालन की जिम्मेदारी उन पर थी।
मान-सम्मान के महानायक
आज ज्यादातर लोगों को इस बात पर आश्चर्य होता है कि इस महानायक ने सिर्फ 54 फिल्में क्यों की। इसका जवाब है दिलीप कुमार ने अपनी छवि का सदैव ध्यान रखा और अभिनय स्तर को कभी गिरने नहीं दिया जबकि धूम-धड़ाके के साथ कई सुपर स्टार, मेगा स्टार आए और आकर चले गए।
अभिनय के लिए भारत सरकार ने उन्हें 1991 में पद्‍मभूषण की उपाधि से नवाजा था और 1995 में फिल्म का सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान ‘दादा साहब फालके अवॉर्ड’ भी प्रदान किया। पाकिस्तान सरकार ने भी उन्हें 1997 में ‘निशान-ए-इम्तियाज’ से नवाजा था, जो पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है।
1953 में फिल्म फेयर पुरस्कारों के श्रीगणेश के साथ दिलीप कुमार को फिल्म ‘दाग’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार‍ दिया था। अपने जीवनकाल में दिलीप कुमार कुल आठ बार फिल्म फेयर से सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार पा चुके हैं और यह एक कीर्तिमान है जिसे अभी तक तोड़ा नहीं जा सका। अंतिम बार उन्हें सन् 1982 में फिल्म ‘शक्ति’ के लिए यह इनाम दिया गया था, जबकि फिल्म फेयर ने ही उन्हें 1993 में राज कपूर की स्मृति में लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड दिया।
फिल्म फेयर ने जिन छह अन्य फिल्मों के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार दिया वे हैं आजाद (1955), देवदास (1956), नया दौर (1957), कोहिनूर (1960), लीडर (1964) तथा राम और श्याम (1967)। 1997 में उन्हें भारतीय सिनेमा के बहुमूल्य योगदान देने के लिए एनटी रामाराव अवॉर्ड दिया गया, जबकि 1998 में समाज कल्याण के क्षेत्र में योगदान के लिए रामनाथ गोयनका अवॉर्ड दिया गया।

शशि कपूर और जेनिफर की लव स्टोरी रही बेमिसाल
अभिनेत्री जेनिफर केंडल एक ऐसी अभिनेत्री हैं जो विदेश धरती पर पैदा हुई पर उनका दिल बॉलीवुड के सबसे बड़े रोमांटिक हीरो शशि कपूर से लग गया। दोनों की कहानी आज भी बॉलीवुड की सबसे बेमिसाल लव स्टोरी मानी जाती है। ब्रिटेन के साउथपोर्ट में जन्मीं जेनिफर को पृथ्वी थिएटर का संस्थापक कहा जाता है। जेनिफर को 1981 में आई फिल्म ’36 चौरंगी लेन’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए बाफ्टा अवार्ड के लिए नामांकित किया गया था।
शशि कपूर कोलकाता के एक थियेटर में अपना एक प्ले देख रहे थे। वहीं शशि कपूर की मुलाकात जेनिफर केंडल से हुई। शशि कपूर ने देखा कि एक लड़की कई दिनों से लगातार आ रही है और आगे वाली लाइन में बैठकर रोज उनका प्ले देखती है। तब शशि कपूर को पता चला कि जेनिफर केंडल उसी शेक्सपीयाराना इंटरनेशनल के मालिक की बेटी हैं जिसे शशि कपूर के प्ले के चक्कर में लंबा इंतजार करना पड़ रहा था।
इस लड़की देखते ही शशि कपूर के दिल में अजीब सी हलचल हुई। उसमें ना जाने कैसा जादू था कि शशि कपूर उसके दीवाने हो गए और शादी का फैसला कर बैठे
जेनिफर की छोटी बहन और ब्रिटिश रंगमंच की जानी मानी अदाकारा फैलिसिटी केंडल ने अपनी पुस्तक ‘व्हाइट कार्गो’ में लिखा है, “जेनिफर अपने दोस्त वैंडी के साथ नाटक ‘दीवार’ देखने रॉयल ओपेरा हाउस गई थी। नाटक शुरू होने से पहले उन्होंने दर्शकों का अंदाजा लगाने के लिए पर्दे से झांका और उनकी नजर चौथी कतार में बैठी एक लड़की पर गई। काली लिबास और सफेद पोल्का डॉट्स पहने वो लड़की खूबसूरत थी और अपनी सहेली के साथ हंस रह थी। शशि के मुताबिक वे उसे देखते ही दिलो-जान से उस पर फिदा हो गए थे। लेकिन तब पृथ्वी थिएटर में काम करने वाले शशि कपूर की कोई बड़ी पहचान नहीं थी, उनकी उम्र महज 18 साल थी। दूसरी तरफ जेनिफ़र अपने पिता जेफ़्री कैंडल के थिएटर समूह की लीड अभिनेत्री थीं।
दोनो की पहली मुलाकात कुछ खास नहीं रही लेकिन वो मुलाकात शशि कपूर के लिए किसी सपने के पूरा होने से कम नहीं थी और फिर धीरे-धीरे दोनों के मिलने का सिलसिला शुरू हो गया।
इसके बाद शशि कपूर और जेनिफर ने शादी कर ली। शशि कपूर और जेनिफर थियेटर बैकग्राउंड से ही थे इसलिए दोनों ने थियेटर खोलने की सोची और पृथ्वी थियेटर की नींव रखी। लेकिन शायद किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। पृथ्वी थियेटर की स्थापना के कुछ वक्त बाद ही जेनिफर केंडल शशि कपूर को हमेशा के लिए अकेला छोड़ गईं। जेनिफर को कैंसर था जिसका पता उन्हें 1982 में चला और उसके दो साल बाद ही उनकी मौत हो गई। इसके बाद शशि कपूर ने खुद को सभी से अलग कर लिया।

मनमोहन देसाई और नंदा की जिंदगी रही ट्रैजेडी से भरी
मनमोहन देसाई कमर्शियल फिल्मों के दिग्गज डायरेक्टर माने जाते थे। उन्होंने एक से बढ़कर एक यादगार फिल्में दी हैं। 57 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कहने वाले मनमोहन देसाई की लव स्टोरी किसी ट्रैजेडी से कम नहीं है। वो अभिनेत्री नंदा से बेहद प्यार करते थे और नंदा भी उनसे प्यार करती थीं। नंदा के शर्मीले स्वभाव की वजह से मनमोहन उनसे अपने प्यार का इजहार करने में झिझकते रहे। कुछ समय बाद मनमोहन देसाई ने जीवनप्रभा देसाई से शादी कर ली। साल 1979 में जीवनप्रभा की मौत हो गई।
पत्नी के निधन के बाद मनमोहन देसाई अकेले हो गए। वहीं नंदा भी अपनी जिंदगी में अकेली थीं। इसके बाद मनमोहन ने उनसे प्यार का इजहार किया, नंदा ने हामी भर दी। 1992 में जब मनमोहन देसाई 55 साल के थे और नंदा 53 की थीं, दोनों ने सगाई कर ली। सगाई के दो साल बाद मनमोहन देसाई की अचानक मौत हो गई।
मनमोहन देसाई के निधन की खबर ने पूरे बॉलीवुड को हिला दिया था। उनकी मौत घर की बालकनी से गिरने से हुई थी हालांकि खबरें तो ये भी थीं कि उन्होंने खुदकुशी कर ली। उनकी मौत का राज आज भी रहस्य है।
मनमोहन देसाई की मौत के बाद नंदा पूरी तरह से टूट गईं और उन्होंने शादी नहीं करने का फैसला लिया और अकेले ही जिंदगी गुजार दी। मनमोहन देसाई की मौत के बाद नंदा ने लोगों से मिलना जुलना तक बंद कर दिया था। साल 2014 में नंदा ने दुनिया को अलविदा कह दिया।

मुमताज ऐसे बनी मधुबाला
मधुबाला हिंदी सिनेमा की उन अभिनेत्रियों में शामिल है, जो पूरी तरह सिनेमा के रंग में रंग गईं और अपना पूरा जीवन इसी के नाम कर दिया। उन्हें अभिनय के साथ-साथ उनकी अभुद्त सुंदरता के लिए भी जाना जाता है। उन्हें ‘वीनस ऑफ इंडियन सिनेमा’ और ‘द ब्यूटी ऑफ ट्रेजेडी’ जैसे नाम भी दिए गए। बेहद कम ही लोग जानते हैं कि मधुबाला के बचपन का नाम ‘मुमताज जहां देहलवी’ था। शुरुआती दिनों में इनके पिता पेशावर की एक तंबाकू फैक्ट्री में काम करते थे। वहां से नौकरी छोड़ उनके पिता दिल्ली, और वहां से मुंबई चले आए, जहां मधुबाला का जन्म हुआ।
वेलेंटाइन डे वाले दिन जन्मीं इस खूबसूरत अदाकारा के हर अंदाज में प्यार झलकता था। उनमें बचपन से ही सिनेमा में काम करने की तमन्ना थी, जो आखिरकार पूरी हो गई। मुमताज ने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत वर्ष 1942 की फिल्म ‘बसंत’ से की थी।
यह काफी सफल फिल्म रही और इसके बाद इस खूबसूरत अदाकारा की लोगों के बीच पहचान बनने लगी। इनके अभिनय को देखकर उस समय की जानी-मानी अभिनेत्री देविका रानी बहुत प्रभावित हुई और मुमताज जेहान देहलवी को अपना नाम बदलकर ‘मधुबाला’ के नाम रखने की सलाह दी।
मधुबाला और दिलीप कुमार की प्रेम कहानी 1951 में आई फिल्म तराना के सेट से शुरू हुई थी। दोनों को पहली नजर में एक-दूसरे से प्यार हो गया था। दोनों की जोड़ी को रील लाइफ में भी कई फिल्मों में सराहा गया।
कुछ समय पहले आई दिलीप कुमार की बायोग्राफी में भी उनका जिक्र है। दिलीप कुमार ने कहा है कि मधुबाला बहुत ही जिंदादिल और एक्ट‍िव इंसान थीं।
दोनों के प्यार के बीच अड़चनें तब शुरू हुई, जब इस प्रेम कहानी के बारे में मधुबाला के पिता अताउल्ला खान को पता चला. वो द‍िलीप कुमार-मधुबाला के र‍िश्ते के सख्त खि‍लाफ थे लेकिन बात उस समय बिगड़ी जब बीआर चोपड़ा मधुबाला और दिलीप कुमार को लेकर फिल्म नया दौर की शूटिंग कर रहे थे। फिल्म की 40 द‍िनों की शूट‍िंग आउटडोर होनी थी। इस बात के लिए मधुबाला के प‍िता तैयार नहीं हुए। इसका कारण मधुबाला और दिलीप कुमार के बीच का रोमांस और मधुबाला की ब‍िगड़ी सेहत थी।
चोपड़ा ने मधुबाला की जगह वैजयंतीमाला को साइन कर लिया और मधुबाला की कट लगी तस्वीर अखबार में छपवा दी। उसके पास ही एक दूसरी तस्वीर छपी, जो वैजयंतीमाला की थी। जवाब में अताउल्ला खान ने भी मधुबाला की सभी फिल्मों के नाम लिखकर नया दौर के आगे कट लगाकर इसे अखबार में छपवा दिया।
मामला इतना बिगड़ा कि कोर्ट तक पहुंच गया। कोर्ट में फिल्म का मामला ही नहीं दोनों का प्यार भी पहुंचा। द‍िलीप कुमार ने फिल्म के डायरेक्टर का साथ द‍ेते हुए मधुबाल के खिलाफ गवाही दी। इस बात से मधुबाला को बहुत धक्का लगा।

दादा साहब फाल्के ने की थी भारत में सिनेमा की शुरुआत
दादा साहब फाल्के को भारतीय सिनेमा के जन्मदाता के रूप में जाना जाता है। उन्होंने ही भारत में सिनेमा की नींव रखी। दादा साहेब फाल्के ने ही देश में सिनेमा की शुरुआत की और साल 1913 में उन्होंने राजा हरिश्चंद्र नाम की एक फीचर फिल्म बनाई।
पहली मूक फिल्म बनायी
दादासाहब फाल्के एक जाने-माने प्रड्यूसर, डायरेक्टर और स्क्रीनराइटर थे जिन्होंने अपने 19 साल लंबे करियर में 95 फिल्में और 27 शॉर्ट मूवीज़ बनाईं। दादा साहेब फाल्के का असली नाम धुंधिराज गोविन्द फाल्के था। उनकी जिंदगी का सबसे बड़ा टर्निंग प्वाइंट ‘द लाइफ ऑफ क्रिस्ट’ फिल्म थी, यह एक मूक फिल्म थी। इस फिल्म को देखने के बाद दादा साहब के मन में कई तरह के विचार आने लगे तभी उन्होंने अपनी पत्नी से कुछ पैसे उधार लिए और पहली मूक फिल्म बनाई।
राजा हरिश्चंद्र’ पहली फीचर फिल्म
दादा साहब फाल्के ने ‘राजा हरिश्चंद्र’ से डेब्यू किया जिसे भारत की पहली फुल-लेंथ फीचर फिल्म कहा जाता है। बताया जाता है कि उस दौर में दादा साहब फाल्के की ‘राजा हरिश्चंद्र’ का बजट 15 हजार रुपये था।
दादा साहब फाल्के ने फिल्मों में मह‍िलाओं को काम करने का मौका दिया। उनकी बनाई हुई फिल्म भस्मासुर मोहिनी’ में दो औरतों को काम करने का मौका मिला जिनका नाम था दुर्गा और कमला। दादासाहब फाल्के एक जाने-माने प्रोड्यूसर, डायरेक्टर और स्क्रीनराइटर थे जिन्होंने अपने 19 साल लंबे करियर में 95 फिल्में और 27 शॉर्ट मूवीज बनाईं।
दादा साहब फाल्के की आखिरी मूक फिल्म ‘सेतुबंधन’ थी। भारतीय सिनेमा में दादा साहब के ऐतिहासिक योगदान के चलते 1969 से भारत सरकार ने उनके सम्मान में ‘दादा साहब फाल्के’ अवार्ड की शुरुआत की। भारतीय सिनेमा का यह सर्वोच्च और प्रतिष्ठित पुरस्कार माना जाता है। सबसे पहले देविका रानी चौधरी को यह पुरस्कार मिला था।

छोटी उम्र से ही फिल्मों में आने लगीं थी मीना कुमारी
बॉलीवुड के मशहूर फिल्म निर्देशक कमाल अमरोही काफी सख्त स्वभाव के थे। उन्होंने अपने करियर के दौरान केवल पांच फिल्मों का ही निर्देशन किया। कमाल ने मुग्ल-ए-आजम फिल्म के डायलॉग लिखे थे।
मीना कुमारी ने बेहद छोटी उम्र से फिल्मों में काम करना शुरू कर दिया था। महज सात साल की उम्र से ही वे फिल्मों में आ गई थीं। कमाल अमरोही उनकी अदाकारी से काफी प्रभावित हुए थे। वे उन्हें अपनी फिल्म में लेना चाहते थे, लेकिन उनके सख्त स्वभाव के कारण मीना ने उनके साथ फिल्म में काम नहीं किया।
मगर पिता के दबाव के चलते मीना कुमारी को फिल्म करनी पड़ी। फिल्म तो नहीं बन सकी, लेकिन कमाल अमरोही, मीना कुमारी के दीवाने जरूर हो गए। मीना कुमारी ने भी उनके प्यार को स्वीकार किया। मगर दोनों की शादी होनी मुश्किल थी क्योंकि कमाल पहले से ही शादीशुदा थे।
बाद में जब दोनों के बीच प्यार बढ़ गया तो बिना शादी के रह पाना कठिन हो चला। मीना के पिता इस शादी के सख्त खिलाफ थे लेकिन कमाल के दोस्त ने मीना को यह कहकर राजी कर लिया कि वे निकाह कर लें और सही वक्‍त देखकर अब्‍बा-अम्‍मी को भी मना लेंगे।
कमाल अमरोही और मीना कुमारी के निकाह की कहानी भी दिलचस्‍प है। दो घंटे के भीतर दोनों का निकाह हुआ था। दरअसल, जिस क्लीनिक में मीना की फिजियोथेरेपी चल रही थी, वहां पिता अली बख्‍श रोज मीना को रात आठ बजे उनकी बहन मधु के साथ छोड़ देते थे और दस बजे लेने पहुंच जाते थे। इसी दो घंटे के दौरान मीना का निकाह किया गया था।
कमाल और मीना की इस शादी को दोनों के ही परिवारवालों ने कभी स्वीकार नहीं किया। आखिरकार इससे तंग आकर कमाल ने मीना को खत में लिख दिया कि वे इस शादी को एक हादसा मान लें। जवाब में मीना ने कहा कि वे उन्हें कभी नहीं समझ पाए, न आगे समझ पाएंगे, अच्छा होगा कि वे उन्हें तलाक दे दें।माना जाता है कि मीना कुमारी की शोहरत देख कर कमाल उनसे जलने लगे थे। दोनों के रिश्ते में खटास बढ़ती गई। 31 मार्च 1972 को मीना कुमारी की मौत हो गयी।

हर किरदार में छाये रहे प्राण
प्राण का पूरा नाम प्राण कृष्ण सिकंद था और अपने जीवंत अभिनय से उन्होंने ना सिर्फ खलनायक के रोल में लोगों के मन में खौफ पैदा किया बल्कि उन्होंने कई अच्छे किरदार निभाकर वाहवाही भी लूटी। अपने अभिनय से दर्शकों के दिल में उतरने वाले प्राण करियर के शुरुआती दौर में फोटोग्राफर बनना चाहते थे। उन्होंने बकायदा फोटोग्राफी की ट्रेनिंग भी ली थी।
एक बार लेखक मोहम्मद वली ने प्राण को एक पान की दुकान पर खड़े देखा, उस समय वह पंजाबी फिल्म ‘यमला जट’ को बनाने की सोच रहे थे। पहली ही नजर में वली ने यह तय कर लिया कि प्राण उनकी फिल्म में काम करेंगे। उन्होंने प्राण को फिल्म में काम करने के लिए राजी किया। फिल्म 1940 में रिलीज हुई और काफी हिट भी रही।
इसके बाद प्राण ने कुछ और पंजाबी फिल्मों में काम किया और एक खलनायक के रूप में खूब नाम कमाया। 1942 में फिल्म निर्माता दलसुख पांचोली ने अपनी हिंदी फिल्म ‘खानदान’ में प्राण को काम करने का मौका दिया।
देश के बंटवारे के बाद प्राण ने लाहौर छोड़ दिया और वे मुंबई आ गए। लाहौर में चाहे प्राण ने काफी नाम कमाया लेकिन उन्हें हिन्दी सिनेमा में पांव जमाने के लिए एक‍ नए कलाकार की तरह संघर्ष करना पड़ा। प्राण को लेखक शहादत हसन मंटो और एक्टर श्याम की सहायता से बॉम्बे टॉकीज की फिल्म ‘जिद्दी’ में काम मिला। इसके बाद प्राण ‘दिल दिया दर्द लिया’, ‘राम और श्याम’, ‘आजाद’, ‘मधुमती’, ‘देवदास’, ‘आदमी’, ‘मुनीमजी’, ‘जॉनी मेरा नाम’ और ‘देस परदेस’ जैसी फिल्मों में खलनायक के रूप में नजर आए।
सबसे ज्यादा फीस पाने वाले अभिनेता थे
प्राण 1969 से 1982 के बीच सबसे ज्यादा फीस पाने वाले अभिनेता थे, यहां तक की उनकी फिल्मों का मेहनताना सुपरस्टार राजेश खन्ना से भी ज्यादा हुआ करता था। प्राण काफी शौकीन आदमी थे। वे स्मोकिंग पाइप और वॉकिंग स्टिक इक्ट्ठा करने का शौक रखते थे। प्राण ने पहली शूटिंग के दौरान अपने पिताजी को नहीं बताया था की वह फिल्म में काम कर रहे हैं, उन्हें इस बात का डर था कि उनके पिता गुस्सा हो जाएंगे। यहां तक की जब उनका पहला साक्षात्कार अखबार में छपा तो प्राण ने अपनी बहनों से वो अखबार छुपा देने तक को कहा।

क्लासिकल डांसर भी रहे नवाब बदरुल
मशहूर कॉमेडियन नवाब सैय्यद बदरुल हसन साहब बहादुर अभिनेता और कॉमेडियन के साथ-साथ एक क्लासिकल डांसर भी रहे हैं। इस अभिनेता को बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का नेशनल अवॉर्ड भी मिला था। उनका जन्म लखनऊ में हुआ था। उन्होंने कहा था, ‘ लखनऊ में मेरा जन्म हुआ और मुझे इस बात का गर्व है। लखनऊ फन और फनकार की बड़ी दुनिया है। पूरे हिंदुस्तान के लोग फनकार की कदर करते हैं।
आगे उन्होंने बताया, ‘ मेरा इस इंडस्ट्री में आना ऐसे हुआ जैसे सर्कस में शेर आता है। लखनऊ के बाद में इंग्लैंड गया और लंदन में बहुत साल रहा। लंदन में मेरी फिरोज खान और संजय खान से मुलाकात हुई। उन्होंने मुझमें अभिनय करने को कहा। जब मैं मुंबई आया तो लोगों ने मुझे इज्जत दी, मोहब्बत दी मेरी किस्मत अच्छी थी। मुझे आते ही काम मिलने लगा।’
‘मेरा पहला सीरियल बानो बेगम था। उसके बाद धीरज कुमार का सीरियल अदालत, कहां गए हो किए। इसके बाद बहुत सारे शो करता रहा। मुझे फिल्में मिलना शुरू हुईं. फरिश्ते, तहलका, एलाने जंग, हुकूमत ये सब फिल्में कीं।’
‘सबसे पहला ब्रेक मुझे मैडम सत्ती शौरी ने दिया। इस अभिनेता ने कहा कि वो हमें अपना बेटा मानती थीं। फिल्म फरिश्ते में उन्होंने मुझे अच्छा रोल दिया। हमेशा मेरी इज्जत की और प्यार किया। अर्जुन कपूर मेरी गोदी में खेलता था और मुझे गणपति अंकल कहता था।’ इसके बाद मुझे टीपू सुल्तान पर बनी फिल्म में काम मिला। इस शो से मुझे हजारों अवॉर्ड मिले

डांसिंग क्वीन रहीं हैं हेलन
बॉलीवुड की सबसे चर्चित डांसर्स में शामिल हेलन लेखक सलीम ख़ान की दूसरी पत्नी हैं। अभिनय के साथ-साथ एक डांसर के रूप में उन्होंने अपनी एक बड़ी पहचान बनाई। गीता दत्त, आशा भोंसले और लता मंगेशकर तक ने उनके लिए गीत गाये। ‘मेरा नाम चीन चीन ‘, ‘पिया तू अब तो आजा’ जैसे गीतों से वो डांसिंग क्वीन बन गयी थीं। हेलन का यहां तक का सफर आसान नहीं रहा है। हेलन का जन्म रंगून में हुआ था। हेलन का शुरूआती दौर काफी संघर्ष भरा रहा है। हेलन के पिता जॉर्ज डेस्मियर एक एंग्लोइंडियन थे जबकि मां बर्मा की ही थीं। उनके भाई का नाम रोजर और बहन का नाम जेनिफर था। विश्व युद्ध के समय उनके पिता का निधन हो गया और उसके बाद हालात ऐसे बिगड़े की वह बर्मा से भारत आ गयीं । हेलन ने एक बार कहा था ‘‘हम सैकड़ों लोग समूह में चल रहे थे। न हमारे पास खाना था और न ही पैसे। हमारे बदन पर कपड़े तक नहीं थे। रास्ते में कहीं कोई कुछ खाने को दे देता तो हम खा लेते। लोगों के रहमो-करम से बचते-बचाते हम असम तक पहुंचे। असम आते-आते हमारे समूह में आधे लोग ही बचे रहे। रास्ते में कुछ बीमारी की वजह से मर गए तो कुछ बहुत पीछे छूट गए। मेरी मां तब प्रेग्नेंट थीं और रास्ते में ही उनका मिसकैरेज हो गया। उन्हें इलाज के लिए डिब्रूगढ़ (असम) में भर्ती किया गया। मेरी हालत ऐसी हो गयी थी कि मैं ज़िन्दा कंकाल की तरह नज़र आने लगी थी। भाई की भी हालत नाज़ुक थी। हम दो महीने अस्पताल में रहे और उसके बाद हम सब कलकत्ता आ गए लेकिन, दुःख यह रहा कि मेरा भाई चिकन पॉक्स से उबर नहीं सका और उसकी मौत हो गयी।’’
ज़ाहिर है हेलन का जो संघर्ष है उसे शब्दों में नहीं ढाला जा सकता। हेलन की मां तब नर्स का काम करती थीं और उनकी कमाई से घर का खर्च नहीं चल पाता था, ऐसे में हेलन ने अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और मां का सहारा बनने के लिए काम तलाशने लगी।
साल 1962 में फ़िल्म ‘काबिल ख़ान’ के दौरान हेलन की मुलाकात सलीम ख़ान से हुई थी। सलीम हेलन को देखते ही उन्हें दिल दे बैठे। लेकिन, वो पहले से ही शादीशुदा थे इसलिए उनकी पत्नी सलमा ने इस पर आपत्ति जताई। इसके बावजूद सलीम ने हेलन से शादी की हालांकि, उसके बाद ये सभी बहुत ख़ुशी के साथ मिलकर रहे।
19 साल की उम्र में हेलन को फ़िल्म ‘हावड़ा ब्रिज’ में बड़ा ब्रेक मिला और उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। हेलन को इंडस्ट्री में उनकी ख़ास दोस्त कुक्कू लेकर आई थीं। बाद के वर्षों में वो बेटे सलमान ख़ान की कुछ फ़िल्मों में मेहमान भूमिका में भी दिखीं। हेलन को आखिरी बार साल 2000 में रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘मोहब्बतें’ में देखा गया था। उसके बाद वो अक्सर किसी पार्टी वगैरह में ही नज़र आती हैं। साल 2009 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया। साल 1980 में उन्हें फ़िल्मफेयर से ‘लहू के दो रंग’ के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का तो 1999 में लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार भी मिला।

ग्लैमरस अभिनेत्रियों में हमेशा याद की जाएगी जीनत
गुजरे जमाने की ग्लैमरस अभिनेत्री रही जीनत अमान ने बॉलीवुड में एक से बढ़कर एक फिल्मों में काम किया है।
जीनत अपने नाम के आगे अमान बतौर उपनाम ल‍िखती हैं। दरअसल, उनके प‍िता अमानुल्लाह फिल्म इंडस्ट्री में स्क्रिप्ट राइटर के रूप में काम किया करते थे और उन्होंने ‘मुगल-ए-आजम’ और ‘पाकीजा’ जैसी फिल्मों में भी सह लेखक के तौर पर कहानी लिखी। जीनत के पिता अमन के नाम से अपनी स्क्रिप्ट लिखा करते थे जिसे जीनत ने आगे चलकर अपना उपनाम बना लिया और उन्होंने अपना नाम जीनत अमान रख लिया।
जीनत ने अपनी स्कूल की पढ़ाई मुंबई के पास पंचगनी में की और उसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए वह अमेरिका गयीं लेकिन पढ़ाई पूरी नहीं कर सकी और भारत वापस आ गईं।
मॉडलिंग से की शुरुआत
भारत आते ही जीनत ने सबसे पहले ‘फेमिना’ के लिए काम करना शुरू कर दिया और उसके बाद मॉडलिंग के क्षेत्र में उतर गईं। जीनत ने साल 1970 में ‘मिस एशिया पैसिफिक’ का खिताब भी जीता। साल 1971 में जीनत ने फिल्म ‘हलचल’ में एक छोटा रोल और फिल्म ‘हंगामा’ में सेकंड लीड रोल किया लेकिन दोनों फिल्में नहीं चली और उस समय जीनत अपना बैग पैक करके मां के साथ जर्मनी जाने तक को तैयार हो गईं थी।
देव आनंद ने साल 1971 में अपनी फिल्म ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ में अपनी बहन के किरदार के लिए पहले अभिनेत्री जाहिदा को साइन किया था लेकिन जाहिदा को लीड रोल (जो मुमताज ने किया है) वह करना था, जिसकी वजह से जाहिदा ने फिल्म नहीं की और फिर लास्ट मिनट पर जीनत अमान को फिल्म में कास्ट किया गया और जीनत ने ‘जेनी’ का बेहतरीन किरदार निभाया।
‘हरे कृष्णा हरे राम’ की सफलता के बाद जीनत और देव आनंद ने एक साथ ‘हीरा पन्ना’, ‘इश्क इश्क इश्क’, ‘प्रेम शस्त्र’, ‘वारंट’, ‘डार्लिंग’, ‘कलाबाज’ जैसी हिट फिल्में की। जब राज कपूर फिल्म ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ के लिए लीड एक्ट्रेस फाइनल कर रहे थे तक जीनत अमान एक गांव की लड़की की तरह तैयार होकर और आधे जले हुए चेहरे के साथ राज कपूर के ऑफिस में पहुंची और उनकी इस बात से राज कपूर बेहद प्रभावित हुए और उन्होंने जीनत अमान को फिल्म ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ का लीड रोल दिया। साल 1988 में जीनत ने मजहर खान से शादी की और उन्हें दो बेटे अजान और जहां हैं, पति की मृत्यु के बाद अब जीनत अपने दोनों बेटों के साथ रहती हैं।

जिनके डॉयलॉग सुनने लोग जाते थे थियेटर
क्या आप जानते हैं कि फिल्मी दुनिया में एक ऐसा भी कलाकार था जिसके मुंह से निकलने वाले शब्द सुनकर ही लोग भाव-विभोर हो जाया करते थे। जी हां, उस कलाकार का नाम कुलभूषण खरबंदा ही है, जो कि अपनी डायलॉग डिलीवरी के लिए मशहूर रहे हैं। थियेटर ही नहीं बल्कि फिल्मों में भी उनके अभिनय की भूरी-भूरी प्रशंसा होती रही है। कुलभूषण ने अपने बचपन से ही थियेटर किया, जब वो कॉलेज पढ़ाई के लिए पहुंचे तो वहां भी कई प्ले किए। यह कला प्रेम ही था कि उन्होंने दोस्तों के साथ मिलकर अभियान नामक थियेटर ग्रुप बना डाला। दिल्ली यूनिवर्सिटी के करोड़ीमल कॉलेज से ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद वे कोलकाता गए और वहीं एक थियेटर ग्रुप के साथ जुड़ गए। कुलभूषण का अभिनय और डॉयलॉग डिलेवरी देखकर लोग उन्हें फिल्मों में काम करने की सलाह दिया करते थे। इसी बीच हुआ यूं कि कुलभूषण के एक परिचित ने मशहूर फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल को अपनी फिल्म में काम कराने के लिए उनके नाम का सुझाव दिया। उनकी सलाह पर कुलभूषण को मुंबई बुलाया गया, लेकिन यह क्या कुलभूषण ने तो आने से ही इंकार कर दिया। इसकी वजह गुरुर नहीं बल्कि उनकी यह सोच थी कि काम तो मिलेगा नहीं उल्टा आने-जाने और ठहरने में पैसा खर्च हो जाएगा। जब श्याम बेनेगल को यह बात मालूम चली तो उन्होंने कुलभूषण को फ्लाइट का टिकेट भेज मुंबई बुलवाया। इसके बाद इन दोनों की जोड़ी खूब जमी और देखते ही देखते श्याम बेनेगल के निर्देशन में कुलभूषण ने मंथन, भूमिका, जुनून और कलयुग जैसी फिल्मों में शानदार अभिनय किया। यही नहीं बल्कि कुलभूषण ने रमेश सिप्पी के साथ भी काम किया। शान में कुलभूषण ने शाकाल का जो निगेटिव रोल प्ले किया उसने भारतीय सिनेमा को विलेन की छवि को एक तरह से नई परिभाषा गढ़ने के लिए मजबूर कर दिया। उस दौर में कुलभूषण एक ऐसे मंजे हुए कलाकार थे जो बॉलीवुड के कॉमर्शियल और आर्ट दोनों तरह की फिल्मों में बखूबी काम कर रहे थे। कुलभूषण ने अपनी डॉयलॉग डिलेवरी और शानदार अदाकारी का जादू सूरमा, अजहर, ब्रदर्स और हैदर जैसी फिल्मों में भी बिखेरा।

अपने दमदार डायलॉग से दिलों में राज करते हैं राजकुमार
राजकुमार एक ऐसे अभिनेता थे जो अपने दमदार डायलॉग के कारण आज भी लोगों के दिलों में छाये हुए हैं। उनका डायलॉग बोलने का एक अलग ही अंदाज था जो किसी भी अन्य अभिनेता के पास नहीं था। राजकुमार ने अपने 42 साल के करियर में भूमिकाएं भी पुलिस वालों, आर्मी ऑफिसर्स और ठाकुरों की कह हैं। फिल्मों में वह खलनायकों और विरोधियों पर ऐसे डायलॉग मारते थे कि सामने वाला बेइज्जती से पहले ही मर जाता था। बेहतरीन अदाकारी के इतर राज कुमार की विरासत उनके डायलॉग और बेजोड़ स्टाइल है। इस मामले में लाइन में सब उनके बाद ही खड़े होते हैं। राजकुमार 8 अक्टूबर 1926 को बलूचिस्तान में जन्मे थे और 3 जुलाई 1996 को गले के कैंसर के कारण उनकी मौत हो गयी। उनकी याद, उनके संवादों में हमेशा बनी रहेगी।
राजकुमार की फिल्मों के डायलॉग जो छाये रहे :
जब राजेश्वर दोस्ती निभाता है तो अफसाने लिक्खे जाते हैं और जब दुश्मनी करता है तो तारीख़ बन जाती है। राजेश्वर सिंह, सौदागर (1991)
जिसके दालान में चंदन का ताड़ होगा वहां तो सांपों का आना-जाना लगा ही रहेगा।
पृथ्वीराज, बेताज बादशाह (1994)
चिनॉय सेठ, जिनके अपने घर शीशे के हों, वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंका करते।
राजा, वक्त (1965)
बेशक मुझसे गलती हुई. मैं भूल ही गया था, इस घर के इंसानों को हर सांस के बाद दूसरी सांस के लिए भी आपसे इजाज़त लेना पड़ती है और आपकी औलाद ख़ुदा की बनाई हुई ज़मीन पर नहीं चलती, आपकी हथेली पर रेंगती है।
सलीम अहमद ख़ान, पाक़ीज़ा (1972)
जब ख़ून टपकता है तो जम जाता है, अपना निशान छोड़ जाता है, और
चीख़-चीख़कर पुकारता है कि मेरा इंतक़ाम लो, मेरा इंतक़ाम लो।
जेलर राणा प्रताप सिंह, इंसानियत का देवता (1993)
जानी.. हम तुम्हे मारेंगे, और ज़रूर मारेंगे.. लेकिन वो बंदूक भी हमारी होगी, गोली भी हमारी होगी और वक़्त भी हमारा होगा.
राजेश्वर सिंह, सौदागर (1991)
हम वो कलेक्टर नहीं जिनका फूंक मारकर तबादला किया जा सकता है। कलेक्टरी तो हम शौक़ से करते हैं, रोज़ी-रोटी के लिए नहीं। दिल्ली तक बात मशहूर है कि राजपाल चौहान के हाथ में तंबाकू का पाइप और जेब में इस्तीफा रहता है। जिस रोज़ इस कुर्सी पर बैठकर हम इंसाफ नहीं कर सकेंगे, उस रोज़ हम इस कुर्सी को छोड़ देंगे समझ गए चौधरी।
– राजपाल चौहान, सूर्या (1989)

बेगम अख्तर ने दी थी गजल, ठुमरी को नई पहचान
गायिका बेगम अख्तर को गजल, ठुमरी और दादरा को एक नई पहचान देने के लिए आज भी याद किया जाता है। बेगम अख्तर ने महज 7 साल की उम्र में मौसिकी की तालीम लेनी शुरू की थी। 15 साल की उम्र में पहली बार कार्यक्रम पेश किया। उन्होंने 400 गीतों को अपनी आवाज दी। उन्हें ‘अख्तरी बाई फैजाबादी’ का नाम मिला था। बाद में उन्हें ‘मल्लिका-ए-गजल’ के नाम से जाना गया। कला क्षेत्र में योगदान के लिए भारत सरकार ने बेगम अख्तर को 1972 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1968 में पद्मश्री और 1975 में पद्मभूषण से सम्मानित किया।
बेगम अख्तर उस वक्त 15 साल की थी जब उन्होंने उन्होंने मंच पर पहला कलाम पेश किया तो सामने बैठी मशहूर कवयित्री सरोजनी नायडू ने खुश होकर उन्हें एक साड़ी भेंट की। बेगम अख्तर को बिब्बी के नाम से भी जाना जाता है। बिब्बी बहुत जल्द गजल, ठुमरी, टप्पा, दादरा और ख्याल गाने लगीं। आगे चलकर उन्हें ‘मल्लिका-ए-गजल’ नाम भी मिला। 45 साल की उम्र तक गजल गायन में सक्रिय रहीं।
सरोजनी और पंडित जसराज थे प्रशंसक
सरोजनी नायडू और शास्त्रीय गायक पंडित जसराज उनके जबर्दस्त प्रशंसक थे, तो कैफी आजमी भी अपनी गजलों को बेगम साहिबा की आवाज में सुनकर मंत्रमुग्ध हो जाते थे। अख्तर ने लखनऊ में बैरिस्टर इश्तियाक अहमद अब्बासी से शादी कराई। इसके साथ ही अख्तरी बाई, बेगम अख्तर हो गईं, लेकिन इसके बाद सामाजिक बंधनों की वजह से बेगम साहिबा को गाना छोड़ना पड़ा।
वे करीब पांच साल तक नहीं गा सकीं और बीमार रहने लगीं। यही वह वक्त था जब संगीत के क्षेत्र में उनकी वापसी उनकी गिरती सेहत के लिए हितकर साबित हुई और 1949 में वह रिकॉर्डिंग स्टूडियो लौटीं। उन्होंने लखनऊ रेडियो स्टेशन में तीन गजल और एक दादरा गाया। इसके बाद उनकी आंखों से आंसू छलक पड़े और उन्होंने संगीत गोष्ठियों का रुख कर लिया। यह सिलसिला दोबारा शुरू हुआ, तो फिर कभी नहीं रुका।

फैशन स्टाइल के लिए जाने जाते थे फिरोज खान
अभिनेता डायरेक्टर, प्रोड्यूसर और अपने फैशन स्टाइल के लिए बॉलीवुड में पहचान बनाने वाले फिरोज खान मूलत: अफगानिस्तान के रहने वाले थे। उनका परिवार विस्थापित होकर भारत आ गया था। फिरोज खान का खानदान गजनी का रहने वाला था। मां ईरानी थीं।
फिरोज खान हिंदी सिनेमा में 70-80 के दशक के सबसे स्टाइलिश हीरो में आता है। वो बॉलीवुड के पहले और आखिरी काऊब्वॉय भी कहे जाते हैं। 25 सितंबर 1939 को बंगलुरु में जन्मे फिरोज जब तक जिए अपनी रॉयल्टी को कभी नहीं छोड़ा। फिरोज खान की जिंदगी किसी राजकुमार से कम नहीं थी।
शादी से पहले फिरोज खान काफी रंगीन मिजाज के माने जाते थे। नाइट क्लब में देर रात तक पार्टियां करना उनका शौक था। उनकी पार्टी में बॉलीवुड की बड़ी-बड़ी सेलिब्रिटीज शामिल होते थेे। फिरोज खान के इन शौक से सभी वाकिफ थे। ऐसी ही एक पार्टी के दौरान फिरोज खान की मुलाकात सुंदरी से हुई।
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, सुंदरी पहले से शादीशुदा थीं और उनकी एक बेटी सोनिया भी थीं लेकिन इस बारे में कभी किसी ने बात नहीं की। फिरोज और सुंदरी ने 1965 में शादी कर ली। फिरोज खान और सुंदरी के दो बच्चे हुए। उनकी बेटी लैला का जन्म 1970 में हुआ था जबकि फरदीन खान का जन्म 1974 में हुआ।
शादी के कुछ ही सालों बाद सुंदरी को पता चला कि फिरोज किसी लड़की को डेट कर रहे हैं। ये लड़की कोई और नहीं बल्कि मशहूर धनराजगिर परिवार की बेटी ज्योतिका धनराजगिर थीं। ज्योतिका एयरहोस्टेस थीं और उनके पिता महाराजा महेंद्रगिर धनराजगिर थे।
पहले तो सुंदरी ने फिरोज को समझाने की खूब कोशिश की लेकिन जब वो नहीं माने तो दोनों एक ही घर में अलग-अलग रहने लगे। एक बार फिरोज ने कहा था कि ‘हम अपनी मर्जी से अलग रह रहे हैं।’ वहीं सुंदरी ने कहा था, ‘मैं और फिरोज अलग-अलग फ्लोर पर रहते थे। फिरोज ज्यादातर समय बेंगलुरु में किसी लड़की के साथ ही रहते थे।’ एक दिन ऐसा आया जब फिरोज अपनी बीवी और बच्चों को छोड़कर बेंगलुरु में ज्योतिका के साथ शिफ्ट हो गए।
ज्योतिका और फिरोज करीब 10 साल तक रिलेशन में रहे लेकिन जब ज्योतिका ने शादी की बात की तो फिरोज मुकर गए। ज्योतिका को फिरोज के इस रवैये से झटका लगा था। जिसके बाद वो लंदन में शिफ्ट हो गईं। वहीं शादी के 20 साल बाद साल 1985 में फिरोज खान और सुंदरी के बीच तलाक हो गया। फिरोज ने 27 अप्रैल 2009 को अपने बेंगलुरु के घर में अंतिम सांस ली थी।

60 के दशक की बोल्ड अभिनेत्री निम्मी
बॉलीवुड की अभिनेत्री निम्मी 60 के दशक में भी बोल्ड सीन के कारण जानी जाती है। निम्मी को राज कपूर के जरिए अच्छा डेब्यू मिल गया था जिसके बाद वो रातोंरात स्टार बन गईं। देखते ही देखते 50 और 60 के दशक में निम्मी का स्टारडम अपने शीर्ष पर पहुंच गया। उस वक्त निम्मी खूब डिमांड में थीं और दिलीप कुमार से लेकर राज कपूर, अशोक कुमार, धर्मेंद्र जैसे कई बड़े एक्टर उनके साथ फिल्में करने के लिए आगे-पीछे रहते। खुद राज कपूर तो उनको अपनी एक फिल्म में लेने के लिए अड़ ही गए थे लेकिन निम्मी की एक गलती ने उनके पूरे करियर को खराब कर दिया।
एक गलती से करियर हुआ खराब
साल 1963 में फिल्म ‘महबूब’ में निम्मी ने मुख्य अभिनेत्री की भूमिका से इंकार कर दिया। इस फिल्म में निर्देशक हरनाम सिंह रवैल निम्मी को मुख्य अभिनेत्री और बीना राय को अभिनेता राजेंद्र कुमार की बहन के रोल के लिए लेना चाहते थे, लेकिन निम्मी को लगा कि हीरोइन के किरदार से ज्यादा बहन का किरदार जरूरी है और ये सोचकर निम्मी ने मुख्य भूमिका से मना कर दिया।
इसके बाद फिल्म में राजेंद्र कुमार की लीड हीरोइन के लिए साधना को साइन किया गया जबकि निम्मी को उनकी बहन का किरदार मिला। इसके बाद तो जैसे सब उल्टा ही हो गया। फिल्म हिट रही और इसने साधना को शीर्ष हीरोइन बना दिया जबकि निम्मी का करियर नीचे की तरफ आने लगा।
इस फिल्म में बहन का किरदार निभाने का खामियाजा निम्मी को अपनी अगली फिल्मों में भुगतना पड़ा। साधना की रातोंरात बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए फिल्म निर्माता और निर्देशकों ने निम्मी को ‘वो कौन थी ?’ और ‘पूजा के फूल’ जैसी फिल्मों में भी किनारे कर दिया। ‘पूजा के फूल’ में उन्हें अंधी महिला का किरदार दिया गया जबकि माला सिन्हा को लीड रोल में लिया गया। मेरे महबूब’ में मुख्य भूमिका न करना निम्मी को इतना भारी पड़ा कि उनका किरदार तबाह हो गया। इसी एक गलती का नतीजा था कि किसी भी निर्माता या निर्देशक ने निम्मी को वो रोल नहीं दिए जो वो चाहतीं थीं। निम्मी ने भी बाद में माना था कि वो बढ़िया रोल कर सकतीं थीं लेकिन उन्हें किसी ने भी अच्छे रोल दिए नहीं और आज भी उनमें वो तमन्ना बाकी है। निम्मी अब 85 साल की हो चुकी हैं।निम्मी का असली नाम नवाब बानू है। लंबे समय से वो गुमनामी की जिंदगी जी रही हैं। एक दौर ऐसा भी था जब निम्मी ने फिल्म मेकर महबूब खान की मदद भी की थी।

गजल गायकी और क्लासिकल गीतों के लिए मशहूर रहीं इकबाल बानो
No Imageगजल गायकी के लिए भारत और पाकिस्तान में समान रुप से मशहूर इकबाल बानो गजल और सेमी क्लासिकल गीतों के लिए जानी जाती थीं। बानो ने छोटी सी उम्र में ही संगीत से अपने आप को जोड़ लिया था। बानो ने दिल्ली घराने से ताल्लुक रखने वाले उस्ताद चांद खान से संगीत की तालीम ली। 1950 का दशक आते-आते वो स्टार बन गईं। बानो ने सरफरोश, इंतेकाम, गुमनाम, इश्क-ए-लैला और नागिन जैसी फिल्मों में सुरमयी गीत गाए। बानो ने शायर फैज अहमद फैज की नज्मों और गजलों को अपनी आवाज दी। इन गानों ने उन्हें एक अलग पहचान बनाई और दर्शकों के बीच उनकी मांग बढ़ गई।
साल 1952 में बानो पाकिस्तान चली गई थीं। पाकिस्तान में उन्होंने अपनी गायकी का पहला सार्वजनिक प्रदर्शन पांच साल बाद लाहौर आर्ट काउंसिल में किया। बानो ने गुमनाम (1954), कातिल (1955), इंतकाम (1955), सरफरोश (1956), इश्क-ए-लैला (1957) और नागिन (1959) जैसी पाकिस्तानी फिल्मों के लिए भी अपनी आवाज दी है।
साल 1974 को इकबाल बानो को पाकिस्तानी सरकार ने प्राइड ऑफ पाकिस्तान अवॉर्ड से नवाजा। 21 अप्रैल 2009 को लाहौर में इस प्रख्यात गायिका ने अंतिम सांस ली। उनका जन्म 27 अगस्त, 1935 को दिल्ली में हुआ था। बचपन में उनकी आवाज की कशिश और संगीत के प्रति दीवानगी देखकर बानो के पिता ने उन्हें संगीत सीखने की पूरी आजादी दी। उन्होंने शास्त्रीय संगीत पर आधारित सुगम संगीत की विधा ठुमरी और दादरा में खासी महारत हासिल कर ली थी। जिसके बाद ऑल इंडिया रेडियो में गाना शुरू किया।
नज़्म हम भी देखेंगे से मिली आपार लोकप्रियता
फैज की नज़्म ‘लाज़िम है कि हम भी देखेंगे’ उनका ट्रेडमार्क बन गया था। जिया-उल-हक ने अपने शासन में कुछ पाबंदियां लगा दी थीं। इनमें औरतों का साड़ी पहनना और शायर फैज़ अहमद फैज़ के गाने गाना शामिल था।
साल 1985 में लाहौर के अलहमरा ऑडिटोरियम में इकबाल बानो उस दिन सिल्क की साड़ी पहन कर आई थीं और पूरे करीब 50 हजार लोगों के सामने फैज की मशहूर नज़्म, ‘हम देखेंगे, लाज़िम है कि हम भी देखेंगे’। गाना शुरू कर दिया। पूरा ऑडिटोरियम खचाखच भरा हुआ था। तालियों की गूंज के साथ लोग उनके साथ इस गाने को गाने को गा रहे थे। वहीं आगे चल कर ये गाना उनका ट्रेडमार्क बन गया। इस गाने को सुनने के बाद देश के युवा जिया-उल-हक के तानाशाही शासन के खिलाफ उठ खड़े हुए थे।

बांग्ला सिनेमा की पहली स्टार थीं कानन देवी
No Imageभारतीय सिनेमा में कानन देवी एक ऐसा नाम है जिन्होंने अपने अभिनय से कामयाबी के शिखर को छुआ और वह बांग्ला सिनेमा की पहली कलाकार हैं जिन्हें स्टार का दर्जा हासिल हुआ। कानन देवी का जन्म पश्चिम बंगाल के हावड़ा में 22 अप्रैल 1916 में एक मध्यमवर्गीय बंगाली परिवार में हुआ था। उन्हें भारतीय सिनेमा में एक ऐसी कलाकार के तौर पर याद किया जाता है जिन्होंने न केवल फिल्म निर्माण बल्कि अभिनय और गायिकी से भी दर्शकों के दिलों में खास पहचान बनाई थी।
बाल कलाकार के तौर पर हुई शुरुआत
परिवार की आर्थिक तंगी के चलते उन्हें 10 साल की उम्र से ही काम करना पड़ा। एक पारिवारिक मित्र की मदद से उन्हें ‘ज्योति स्टूडियो’ की फिल्म ‘जयदेव’ में काम करने का मौका मिला। इसके बाद कानन देवी ने ज्योतिस बनर्जी के निर्देशन में राधा फिल्म्स के बैनर तले बनी कई फिल्मों में बतौर बाल कलाकार काम किया।
कानन देवी की मुलाकात उसी दौरान रायचंद बोराल से हुई, जिन्होंने उनके सामने हिन्दी फिल्मों में काम करने का प्रस्ताव रखा, तभी कानन देवी ने संगीत की शिक्षा लेनी शुरू की। उन्होंने उस्ताद अल्लारक्खा और भीष्मदेव चटर्जी से संगीत की ट्रेनिंग ली। 1937 में फिल्म ‘मुक्ति’ सुपरहिट हुई, पी.सी.बरुआ के निर्देशन में बनी इस फिल्म से कानन देवी न्यू थियेटर की शीर्ष अभिनेत्री में शामिल हो गयीं।
कानन ने 1941 में न्यू थियेटर छोड़ दिया और स्वतंत्र रूप से काम करने लगीं। 1942 में आयी ‘जवाब’ कानन देवी के हिंदी फिल्मों के करियर में सबसे हिट फिल्म साबित हुई। इसी फिल्म में उन पर फिल्माया गया गीत- ‘दुनिया है तूफान मेल’ उन दिनों का लोकप्रिय गीत बना। 1948 में आई ‘चंद्रशेखर’ कानन देवी की अभिनेत्री के तौर पर आखिरी हिंदी फिल्म थी।इस फिल्म में उनके सामने अशोक कुमार थे।
निजी जिंदगी रही दर्द भरी
फिल्मों में कानन ने भले ही अपनी एक अलग पहचान बनाई लेकिन निजी जिंदगी में उन्हें काफी मुश्किलों और दर्द का सामना करना पड़ा। 1940 में कानन देवी ने ब्रह्म समाज के मशहूर शिक्षाविद् हरम्बा चंद्र मैत्रा के बेटे अशोक मैत्रा से शादी की लेकिन पूरा समाज इस शादी के खिलाफ था क्योंकि उस दौर में महिलाओं का फिल्मों में काम करना अच्छा नहीं माना जाता था।
मशहूर कवि गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कानन और अशोक की शादी पर उपहार और आर्शिवाद दिया तो ब्रह्म समाज ने उनकी भी बहुत आलोचना की। आखिरकार यह शादी टूट गई। कानन इससे बहुत दुखी हुई और तलाक के बावजूद उनके अपने ससुरालवालों से मधुर संबंध बने रहे।
1949 में कानन ने एक नौसैनिक अधिकारी हरिदास भट्टाचार्य से दूसरी शादी कर ली। 17 जुलाई 1992 को कानन देवी इस दुनिया को अलविदा कह गईं। सिनेमा जगत में कानन के योगदान को देखते हुए 1976 में ‘दादा साहेब फाल्के पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया था। 1968 में सरकार ने उन्हें पदमश्री से भी सम्मानित किया था।

हादसे के कारण फिल्म जगत को मिली क्रूर सास ललिता पवार
हिंदी फिल्मों की सबसे क्रूर सास के तौर पर लोकप्रिय हुई ललि‍ता पावर ने अपने करियर में कई बेहतरीन फ़िल्में कीं। ललिता पवार अपने आखि‍री समय में अकेली रहीं। ललिता पवार 18 अप्रैल 1916 को जन्मी थीं। फिल्मी पर्दे पर उन्हें सबसे क्रूर सास का तमगा मिला हालांकि कुछ अच्छी भूमिकाएं भी उन्होंने निभाईं पर असली पहचान नकारात्मक किरदारों से ही मिली। ललिता की एक आंख हादसे में चली गई थी। ये हादसा फिल्म की शूटिंग के दौरान ही हुआ था। इससे नायिका बनने का ललिता का सपना टूट गया।
ललिता एक आंख के जाने के बाद ही क्रूर भूमिका में आई थीं।
दरअसल, अस्सी के दशक के प्रसिद्ध अभिनेता भगवान दादा को इस सीन में अभिनेत्री ललिता पवार को एक थप्पड़ मारना था। थप्पड़ इतनी जोर का पड़ा कि ललिता पवार वहीं गिर पड़ीं और उनके कान से खून बहने लगा। फौरन सेट पर ही इलाज शुरू हो गया इसी इलाज के दौरान डॉक्टर द्वारा दी गई किसी गलत दवा से ललिता पवार के शरीर के दाहिने भाग को लकवा मार गया लकवे की वजह से उनकी दाहिनी आंख पूरी तरह सिकुड़ गई और उनकी सूरत हमेशा के लिए बिगड़ गई।
लेकिन आंख खराब होने के बावजूद भी ललिता पवार ने हार नहीं मानी। उन्हें फिल्मों में हिरोइन का रोल नहीं मिलता था लेकिन यहां से उनकी जिंदगी में एक नई शुरुआत हुई। हिंदी सिनेमा की सबसे क्रूर सास की। ललिता पवार अच्छी गायिका भी थीं। 1935 की फिल्म ‘हिम्मते मर्दां’ में उनका गाया ‘नील आभा में प्यारा गुलाब रहे, मेरे दिल में प्यारा गुलाब रहे’ उस वक्त काफी लोकप्रिय हुआ था।ललिता पवार ने रामानंद सागर की रामायण में मंथरा का रोल भी किया था

बॉलीवु़ड के पहले सुपरस्टार थे सहगल
बॉलीवु़ड के पहले सुपरस्टार के एल सहगल को कौन नहीं जानता। यह फिल्म इंडस्ट्री के पहले ऐसे गायक और अभिनेता हैं जिन्होंने महज 15 साल के फिल्मी सफर में ऐसी छाप छोड़ी जिसे लोग आज भी याद करते हैं।
के एल सहगल का दौर 1932 से 1947 तक का रहा है। सहगल की शख्सियत ऐसी थी कि गायक किशोर और मुकेश भी उनसे प्रभावित थे और आदर्श मानते थे। सहगल के अभिनय को फिल्म ‘देवदास’ में सराहा गया। इस फिल्म में उन्होंने ऐसे प्रेमी की भूमिका निभाई जिसने उन्हें लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचा दिया।
सहगल को बचपन से ही संगीत से काफी लगाव था। सहगल की मां ने उन्हें प्रारंभिक शिक्षा सुफी पीर सलमान युसुफ से दिलवाई। के एल सहगल के पिता अमरचंद प्रताप सिंह के दरबार में काम किया करते थे। सहगल ने पहली बार 12 साल की उम्र में प्रताप सिहं के दरबार में ही गाया। 13 साल की उम्र में जब के एल सहगल की आवाज में थोड़ा बदलाव आने लगा तो वह काफी डर गए। यहां तक कि वह महीनों नहीं बोले। जिससे परेशान होकर परिवार वालों ने संत को दिखाया जिन्होंने सहगल को रियाज करने की सलाह दी।
अपने मुकाम पर पहुंचने के लिए सहगल को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। जब उन्हें कुछ समझ नहीं आया तो उन्होंने पंजाब में रेलवे में टाइम कीपर और सेल्समैन की नौकरी कर ली लेकिन संगीत से खुद को दूर नहीं रख पाए। दोस्तों के बीच उनकी गायकी लोकप्रिय होने लगी। वह दोस्तों के बीच गा रहे थे तो हिंदुस्तान रिकॉर्ड कंपनी में काम करने वाले एक शख्स ने उन्हें सुना और रिकॉर्डिंग करने के लिए उनसे अनुबंध किया।
इस तरह से उनके फिल्मी करियर की शुरुआत हुई। शुरुआती दौर में देव गांधार राग में ‘झुलाना झुलाओं ‘गाना काफी हिट हुआ। इसके बाद उन्होंने गायकी के साथ-साथ अभिनय भी शुरु किया। सुबह के सितारे, जिंदा लाश और मोहब्बत के आंसू फिल्मों ने लोगों को काफी प्रभावित किया। गानों की बात करें तो जब दिल ही टूट गया, तड़पत बीती दिन रैन, गमती ए मुस्तकिल जैसे गानों ने उन्हें सफलता के शिखर पर पहुंचा दिया। सहगल के अभिनय और गायकी का कोई तोड़ नहीं था लेकिन शराब की लत की वजह से उनका स्वास्थ्य बिगड़ता गया। महज 42 साल की उम्र में इस सितारे ने दुनिया को अलविदा कह दिया।

आखिरी समय में अकेली रह गयी थी परवीन बॉबी
गुजरे जमाने की बोल्ड अभिनेत्री परवीन बॉबी का फिल्मी सफर तो बहुत ही खूबसूरत रहा, पर उनकी वास्तविक जिंदगी बेहद त्रासदीपूर्ण रही। उनका नाम कई बड़े सितारों के साथ जुड़ा और अफेयर के किस्से भी रहे पर इसके बाद भी अपने आखिरी समय में इस अभिनेत्री को अकेलेपन में गुजारा करना पड़ा।
पहली हिट फिल्म रही मजबूर
4 अप्रैल, 1949 को जन्मी परवीन बॉबी का जन्म गुजरात के जूनागढ़ में एक मुस्लिम परिवार में हुआ था। परवीन ने अपनी पढ़ाई लिखाई गुजरात से ही पूरी की। परवीन के मॉडलिंग करियर की शुरूआत 1972 में हुई। बॉलीवुड में परवीन बॉबी ने 1973 में फिल्म ‘चरित्र’ से डेब्यू किया लेकिन ये फिल्म फ्लॉप रही। इसके बाद परवीन को बहुत सारी फिल्मों के ऑफर मिले। परवीन बॉबी की पहली हिट फिल्म ‘मजबूर’ थी जो 1974 में रिलीज हुई थी और इसमें उनके साथ अमिताभ बच्चन थे।
टाइम मैगजीन के कवर पेज पर छायीं
परवीन की ग्लैमरस अदाएँ खूब चर्चा में रहती थीं। परवीन बॉबी पहली बॉलीवुड स्टार थीं जो उस दौर में किसी हॉलीवुड मैगज़ीन के कवर पेज पर नज़र आईं। 1976 में टाइम मैगजीन ने अपने कवर पेज पर परवीन को जगह दी थी।
अमिताभ के साथ दी कई सुपरहिट फिल्में
1975 में आई यश चोपड़ा की फिल्म ‘दीवार’ में अमिताभ और परवीन की जोड़ी हिट रही। इसके बाद 1977 में मनमोहन देसाई की फिल्म ‘अमर अकबर एंथोनी’ में एक बार फिर परवीन ने अमिताभ के साथ काम किया। उनकी यह फिल्म भी सुपरहिट रही। इस बीच उन्होंने ‘काला पत्थर’ और ‘सुहाग’ जैसी सुपरहिट फिल्मों में शशि कपूर के साथ भूमिकाएं निभाईं। 1981 में परवीन बॉबी ने ‘कालिया’, ‘क्रांति’ और ‘आहिस्ता-आहिस्ता’ जैसी सुपरहिट फिल्मों में भूमिकाएं कीं। इसके बाद फिल्म ‘नमक हलाल’ परवीन बॉबी के फिल्मी करियर की एक और सुपरहिट फिल्म साबित हुई। परवीन ने करीब 50 फिल्मों में काम किया। उनकी आखिरी फिल्म 1988 में ‘आकर्षण’ थी।
कबीर और महेश के साथ रहा है अफेयर
परवीन ने कभी शादी नहीं की पर उनके अफेयर के कई किस्से रहे। इंडस्ट्री में हिट होने के बाद पहली बार परवीन का नाम अभिनेता डैनी डेनजोगपा से जुड़ा। डेनी ने फिल्मफेयर को दिए एक साक्षात्कार में बताया था कि परवीन के साथ वो चार सालों तक रिलेशनशिप में रहे। इसके बाद आपसी सहमित से दोनों अलग हो गए। उन्होंने ये भी बताया था कि अमिताभ बच्चन की वजह से उनका रिश्ता खत्म हुआ।
परवीन और अमिताभ के बीच भी अफेयर की बातें मीडिया में आईं थीं। इसके बाद परवीन की ज़िंदगी में अभिनेता कबीर बेदी आये। इन दोनों के इश्क के खूब चर्चे हुए। कबीर शादीशुदा थे लेकिन फिर भी दोनों काफी समय तक रिलेशनशिप में रहे लेकिन ये रिश्ता ज्यादा वक्त तक टिक नहीं पाया। कबीर बेदी से ब्रेकअप के वक्त ही परवीन बॉबी और महेश भट्ट की नजदीकियां बढ़ीं और साल 1977 में दोनों का प्यार परवान चढ़ा। परवीन बॉबी जिन दिनों ‘अमर अकबर एंथनी’ और ‘काला पत्थर’ जैसी फिल्में कर रही थीं, उसी दौरान वो महेश भट्ट के प्यार में पागल भी थीं।
मानसिक बीमारी
प्यार का खुमार ऐसा था कि महेश भट्ट अपनी पत्नी से अलग हो चुके थे और परवीन के साथ लिव-इन में रहते थे। कुछ समय बाद परवीन बॉबी को बेहद खतरनाक मानसिक बीमारी हुई जिसका इलाज अमेरिका तक करवाया गया लेकिन वो सही नहीं हुईं. उन्हें लगता था कि कोई उन्हें मारने की कोशिश कर रहा है।
इसके बाद महेश भट्ट अपनी पत्नी के पास वापस लौट गए। इसी दौरान महेश भट्ट ने ‘अर्थ’ की स्टोरी लिखी जो उनकी खुद की कहानी थी। इसमें शबाना आज़मी और स्मिता पाटिल मुख्य भूमिका में थे। इस फिल्म को उस दौर में काफी पसंद किया गया। इसके बाद 2006 में महेश भट्ट फिल्म ‘वो लम्हें’ लेकर आए जिसमें शाइनी आहूजा और कंगना रनौत मुख्य भूमिका में थे। इस फिल्म की कहानी भी महेश भट्ट और परवीन बॉबी की लव स्टोरी जैसी ही थी।
आखिरी वक्त में रहीं अकेली
महेश भट्ट जब परवीन बॉबी से अलग हो गए तो वो अकेली पड़ गईं। अपनी बोल्डनेस के लिए जानी जाने वाली इस अभिनेत्री के साथ आखिरी वक्त में कोई भी नहीं था। बीमारी के बाद अकेलेपन ने धीरे-धीरे परवीन बॉबी को अंदर से खोखली हो गयी रुपहले पर्दे पर धूम मचाने वाली यह बोल्ड गर्ल, दुनिया से ऐसे विदा हुई कि किसी को कुछ पता ही नहीं चला।

जब बिग बी हुए बीमार
बॉलवुड के महानायक अमिताभ बच्चन की तबीयत खराब होने की खबर तब सामने आई जब उन्होंने इसका जिक्र अपने एक ब्लॉग में किया। ठग्स ऑफ हिंदोस्तान के लिए अमिताभ राजस्थान के जोधपुर में हैं। उन्हें पेट दर्द की शिकायत हुई। जिसके बाद डॉक्टरों की एक टीम ने जोधपुर पहुंचकर बिग बी की जांच की। बाद में जया बच्चन ने बताया कि अमिताभ दर्द से परेशान हैं। फिल्म के भारी कॉस्ट्यूम पहनने से उनकी पीठ में दर्द हो गया था।
पहले खबरें थीं कि अमिताभ शूटिंग छोड़कर मुंबई लौट जाएंगे लेकिन डॉक्टरों ने जांच के बाद कहा कि वो अब बेहतर हैं। कुछ आराम करने के बाद काम पर दोबारा लौट सकते हैं। शाम को तबीयत ठीक होने के बाद अमिताभ शूटिंग स्पॉट देखने गए।
उधर, तबीयत में सुधार आने के बाद देर रात बिग बी ने ट्वीट कर जानकारी दी कि अब वे स्वस्थ हैं। उन्होंने लिखा- कुछ कष्ट बढ़ा डॉक्टर को बुलाना पड़ा; इलाज प्रबल, स्वस्थ हुए नवल, चलो इसी बहाने, अपनों का पता तो चला हालांकि यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि अमिताभ ने ये ट्वीट क्यों और किसके लिए किया।
‘ठग्स ऑफ हिन्दुस्तान’ में अमिताभ, आमिर खान के साथ लीड रोल में नजर आएंगे। यशराज फिल्म्स बैनर तले बन रही फिल्म में अमिताभ पहली बार आमिर के साथ दिखाई देंगे। कुछ दिन पहले फिल्म के सेट से अमिताभ के लुक की तस्वीर लीक हुई थी। इसमें उन्हें पहचान पाना मुश्किल था। अमिताभ अपने सिर पर साफा बांधे, पीठ पर तलवार लिए एक योद्धा के रूप में नजर आए थे।
ठग्स ऑफ हिंदोस्तान एक एक्शन एडवेंचर फिल्म है। ऑफिशियल डेट तो सामने नहीं आई है लेकिन साल के अंत तक इसके रिलीज की बात की जा रही है। इस फिल्म का निर्देशन विजय कृष्णा आचार्य कर रहे हैं। फिल्म में अभिनेत्री कटरीना कैफ और फातिमा सना शेख भी अहम किरदार में हैं।

सहज और बेमिसाल अभिनेत्री थीं नूतन
अपने जमाने की दिग्गज अभिनेत्री नूतन की पहचान सहज और करिश्माई अभिनय के लिए हमेशा बनी रहेगी। अभिनेत्री नूतन ने अपने अभिनय से रुपहले पर्दे पर जो छाप छोड़ी है उसका कोई जवाब नहीं है। मौत के 27 साल बाद भी वो अपनी फ़िल्मों और अपने निभाये गए किरदारों के कारण याद की जाती हैं।
मुंबई में जन्मी नूतन के पिता कुमारसेन समर्थ एक जाने-माने निर्देशक और कवि रहे हैं जबकि उनकी मां शोभना समर्थ एक जानी-मानी अभिनेत्री थीं। ज़ाहिर है परिवार में कला को लेकर एक माहौल उन्हें विरासत में ही मिला। कॉन्वेंट स्कूल से पढ़ाई पूरी करने के बाद वो उच्च शिक्षा के लिए स्विटज़रलैंड चली गईं। जहां तकरीबन एक साल तक रहने के बाद स्वदेश लौटीं। विदेश जाने से पहले वो कुछ फ़िल्में कर चुकी थीं जो कामयाब नहीं हो पायी। केवल 14 साल की उम्र में उन्होंने अपनी मां के निर्देशन में बनी फ़िल्म ‘हमारी बेटी’ से डेब्यू किया था।
नूतन साल 1952 में मिस इंडिया पीजेंट भी चुनी गयी थीं। नूतन को पहला बड़ा ब्रेक साल 1955 में आई फ़िल्म ‘सीमा’ में मिला। इस फ़िल्म के लिए उन्होंने पहला फ़िल्मफेयर अवार्ड भी जीता। यहां से उनकी कामयाबी को एक नया आसमान मिला। एक के बाद एक कई फ़िल्में जैसे-‘पेईंग गेस्ट’, ‘अनाड़ी’, ‘सुजाता’ हिट साबित हुईं। हिंदी सिनेमा को अपनी समर्थ हीरोइन मिल गयी थी।
1963 में आई फ़िल्म ‘बंदिनी’ भारतीय सिनेमा जगत में अपनी संपूर्णता के लिए सदा याद की जाएगी। बिमल रॉय की ‘बंदिनी’ नूतन के कैरियर में एक मील की पत्थर की तरह है। इसके अलावा ‘छलिया’, ‘देवी’, ‘सरस्वतीचंद्र’, ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’, ‘सौदागर’ जैसी 70 से ज्यादा फ़िल्में करने वाली नूतन अपार कामयाबी पाने के बावजूद सादगी की एक मिसाल रही हैं।
नूतन ने अपने कैरियर के टॉप पर पहुंचने के बाद साल 1959 में लेफ्टिनेंट कमांडर रजनीश बहल से शादी कर ली थी। उनका पुत्र मोहनीश बहल भी अभिनेता है। बहरहाल, शादी ही नहीं बल्कि बेटे के जन्म साल 1961 के बाद भी वो लगातार फ़िल्में करती रहीं।
सीमा’, ‘सुजाता’, बंदिनी’, ‘मिलन’ और ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफेयर अवार्ड जीत कर नूतन ने साबित कर दिया कि वो अपनी दौर की शीर्ष अभिनेत्री हैं। साल 1985 ‘मेरी जंग’ के लिए उन्होंने फ़िल्मफेयर से श्रेष्ठ सहयोगी अभिनेत्री का अवार्ड भी जीता। पद्मश्री समेत कई सम्मान पाने वाली नूतन को साधना से लेकर स्मिता पाटिल जैसी अभिनेत्रियां अपना रोल मॉडल मानती रही हैं।
उनके फ़िल्मों के अलावा जो गाने उन पर फ़िल्माये गए वह भी यादगार हैं और आज तक गुनगुनाये जाते हैं। ‘छोड़ दो आंचल जमाना क्या कहेगा’, सावन का महीना’, ‘चन्दन सा बदन’, फूल तुम्हें भेजा है खत में’ ये सब गीत सुपरहिट्स में गिने जाते हैं। साल 1990 में नूतन को स्तन कैंसर हो गया। जिसके एक साल बाद ही इलाज के दौरान उनकी मौत हो गयी।

देविका रानी ने दिया था मधुबाला नाम
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की सबसे खूबसूरत अभिनेत्री मधुबाला हिंदी सिनेमा की उन अभिनेत्रियों में शामिल है, जो पूरी तरह सिनेमा के रंग में रंग गईं और अपना पूरा जीवन इसी के नाम कर दिया पर उनका सफर हादसों से भरा रहा। उन्हें अभिनय के साथ-साथ उनकी अभुद्त सुंदरता के लिए भी जाना जाता है। हिंदी फिल्मों की मार्लिन मुनरों भी कहा गया। मधुबाला का जन्म इनके बचपन का नाम मुमताज जहां देहलवी था। इनके पिता का नाम अताउल्लाह और माता का नाम आयशा बेगम था। शुरुआती दिनों में इनके पिता पेशावर की एक तंबाकू फैक्ट्री में काम करते थे। वहां से नौकरी छोड़ उनके पिता दिल्ली, और वहां से मुंबई चले आए, जहां मधुबाला का जन्म हुआ।
इस खूबसूरत अदाकारा के हर अंदाज में प्यार झलकता था। उनमें बचपन से ही सिनेमा में काम करने की तमन्ना थी, जो आखिरकार पूरी हो गई। मुमताज ने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत वर्ष 1942 की फिल्म ‘बसंत’ से की थी। यह काफी सफल फिल्म रही और इसके बाद इस खूबसूरत अदाकारा की लोगों के बीच पहचान बनने लगी। इनके अभिनय को देखकर उस समय की जानी-मानी अभिनेत्री देविका रानी बहुत प्रभावित हुई और मुमताज जेहान देहलवी को अपना नाम बदलकर ‘मधुबाला’ के नाम रखने की सलाह दी।
वर्ष 1947 में आई फिल्म ‘नील कमल’ मुमताज के नाम से आखिरी फिल्म थी। इसके बाद वह मधुबाला के नाम से जानी जाने लगीं। इस फिल्म में महज चौदह वर्ष की मधुबाला ने राजकपूर के साथ काम किया। ‘नील कमल’ में अभिनय के बाद से उन्हें सिनेमा की ‘सौंदर्य देवी’ कहा जाने लगा। इसके दो साल बाद मधुबाला ने बॉम्बे टॉकिज की फिल्म ‘महल’ में अभिनय किया और फिल्म की सफलता के बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उस समय के सभी कलाकारों के साथ उनकी एक के बाद एक फिल्में आती रहीं।
मधुबाला ने उस समय के सफल अभिनेता अशोक कुमार, दिलीप कुमार और देवानंद जैसे दिग्गज कलाकारों के साथ काम किया था। वर्ष 1950 के दशक के बाद उनकी कुछ फिल्में असफल भी हुईं। असफलता के समय आलोचक कहने लगे थे कि मधुबाला में प्रतिभा नहीं है बल्कि उनकी सुंदरता की वजह से उनकी फिल्में हिट हुई हैं। इन सबके बाबजूद मधुबाला कभी निराश नहीं हुईं। कई फिल्में फ्लॉप होने के बाद 1958 में उन्होंने एक बार फिर अपनी प्रतिभा को साबित किया और उसी साल उन्होंने भारतीय सिनेमा को ‘फागुन’, ‘हावड़ा ब्रिज’, ‘काला पानी’ और ‘चलती का नाम गाड़ी’ जैसी सुपरहिट फिल्में दीं।
वर्ष 1960 के दशक में मधुबाला ने किशोर कुमार से शादी कर ली। कुछ समय बाद मधुबाला बीमार हो गई। शादी के बाद रोग के इलाज के लिए दोनों ब्रिटेन भी गये। वहां के डॉक्टर ने मधुबाला को देखते ही कह दिया कि वह दो साल से ज्यादा जीवित नहीं रह सकतीं।
इसके बाद लगातार जांच से पता चला कि मधुबाला के दिल में छेद है और इसकी वजह से इनके शरीर में खून की मात्रा बढ़ती जा रही थी। डॉक्टर भी इस रोग के आगे हार मान गए और कह दिया कि ऑपरेशन के बाद भी वह ज्यादा समय तक जीवित नहीं रह पाएंगी। इसी दौरान उन्हें अभिनय छोड़ना पड़ा। इसके बाद उन्होंने निर्देशन में हाथ आजमाया। वर्ष 1969 में उन्होंने फिल्म ‘फर्ज’ और ‘इश्क’ का निर्देशन करना चाहा, लेकिन यह फिल्म नहीं बनी और इसी वर्ष अपना 36वां जन्मदिन मनाने के नौ दिन बाद 23 फरवरी,1969 को बेपनाह हुस्न की मलिका दुनिया को छोड़कर चली गईं।
उन्होंने लगभग 70 से अधिक फिल्मों में अभिनय किया. उन्होंने ‘बसंत’, ‘फुलवारी’, ‘नील कमल’, ‘पराई आग’, ‘अमर प्रेम’, ‘महल’, ‘इम्तिहान’, ‘अपराधी’, ‘मधुबाला’, ‘बादल’, ‘गेटवे ऑफ इंडिया’, ‘जाली नोट’, ‘शराबी’ और ‘ज्वाला’ जैसी फिल्मों में अभिनय से दर्शकों को अपनी अदा का दिवाना बना दिया था।

रणधीर को हुआ था बबीता से प्यार
अपने जमाने के दिग्गज अभिनेता रणधीर कपूर 71 साल के हो गये हैं। रणधीर कपूर फिल्ममेकर राज कपूर के बेटे, पृथ्वीराज कपूर के पोते और एक्टर ऋषि कपूर के भाई हैं। उन्‍होंने अपने करियर की शुरुआत फिल्‍म ‘श्री 420′ से बतौर बाज कलाकार के तौर पर की थी। उन्‍होंने दो उस्ताद, कल और आजकल, हमराही, कसमे वादे जैसी कई हिट फिल्में दी। कल और आजकल की शूटिंग के दौरान ही उन्‍हें अपनी सहकलाकार बबीता से प्‍यार हो गया।
रणधीर ने अपने प्‍यार को नया नाम दिया और बबीता से शादी कर ली हालांकि रणधीर की फैमिली इस शादी के खिलाफ थी क्‍योंकि रणधीर पंजाबी तो बबीता सिंधी परिवार से ताल्लुक रखती थीं. लेकिन रणधीर अपनी परिवार को इस शादी के लिए मनाने में कामयाब रहे।इस जोड़ी की दो बेटियां हैं करिश्‍मा कपूर और करीना कपूर हैं। दोनों बेटियां बॉलीवुड की जानीमानी अभिनेत्रियां हैं।
शादी के बाद बबीता ने तो फिल्‍मों से नाता तोड़ दिया पर वे अपनी बेटियों को अभिनेत्री बनाना चाहती थीं। इस बात के लिए रणधीर कपूर बिल्‍कुल तैयार नहीं थे, लेकिन बबीता ने फैसला कर लिया था। रणधीर अपनी जिद पर अड़े रहे और बबीता संग उनका रिश्‍ता टूटने की कगार पर आ गया। साल 1988 में बबीता अपनी दोनों बेटियों के साथ रणधीर को छोड़कर चली गई।
करिश्‍मा ने फिल्‍मों में अभिनय करना शुरू कर दिया। भले ही दोनों अलग हुए लेकिन एकदूसरे के प्रति दोनों का प्‍यार बरकरार है। रणधीर और बबीता अब भी फैमिली यूनियन में साथ नजर आते हैं। रणधीर की करिश्‍मा और करीना से अच्‍छी बॉन्डिंग है। पिता के बर्थडे के मौके पर दोनों बहनें इस दिन को और खास बनाने में जुटी हैं।
भले ही रणधीर कपूर अपनी बेटियों के एक्टिंग करियर को अपनाने से नाखुश रहे हों लेकिन अब वे अपनी बेटियों की कामयाबी पर गर्व महसूस करते हैं। एक इंटरव्यू में रणधीर ने कहा था, वह आज यह देखकर खुश हैं कि उनकी बेटियां अपनी जिंदगी में कामयाब हैं और उनसे ज्‍यादा अमीर भी हैं। उन्‍होंने कहा था,’ कई बार मैं अपनी बेटियों को क‍हता हूं कि तुम मुझसे अमीर हो तो मुझे गोद ले लो।

कमाल अमरोही ने दी थी बेहतरीन फिल्में
हिन्दी सिनेमा के शानदार फिल्ममेकर्स की फेहरि‍स्त में शामिल कमाल अमरोही ने पाकीजा 1972, रजिया सुल्तान 1983 जैसी बेहतरीन फिल्में दी। कमाल अमरोही की जितनी चर्चा फिल्मों को लेकर में रहीं उतनी ही उनकी निजी जिंदगी भी लोगों के बीच छाई रही। अपने जमाने की शानदार अदाकारा मीना कुमारी संग उनकी मोहब्ब्त, फिर शादी और फिर अलगाव की खबरों ने तब जमकर सुर्खि‍यां बटोरीं थीं।
कमाल अमरोही की मीना कुमारी से मुलाकात फिल्म तमाशा की शूटिंग के दौरान हुई थी। कमाल मीना के साथ कुछ मुलाकातों के बाद ही उन्हें दिल दे बैठे थे। वह मीना से शादी करना चाहते थे। कमाल ने अपने दोस्‍त और मैनेजर के हाथ मीना कुमारी के लिए संदेश भेजकर शादी का प्रस्ताव दिया।
मीना ने कमाल से प्‍यार की बात तो मानी, पर शादी से इनकार कर दिया लेकिन कमाल के दोस्त ने मीना को कमाल से शादी करने के लिए जैसे तैसे मना ही लिया। इस तरह‍ 14 फरवरी, 1952 को दोनों का निकाह हो गया। ये कमाल अमरोही की तीसरी शादी थी।
मीना कुमारी के प्‍यार में थे पागल
कमाल अमरोही और मीना कुमारी की लव स्टोरी बेहद दिलचस्प थी। कमाल मीना कुमारी को जिस फिल्‍म के लिए साइन किया, वह तो कभी नहीं बन पाई, लेकिन दोनों के बीच प्‍यार जरूर पनप गया. पहले से शादीशुदा अमरोही उनके प्‍यार में पागल हो गए थे।
लेकिन फिर इस प्यार भरी दास्तां में एक ऐसा मोड़ आया कि कमाल और मीना कुमारी ने एक दूसरे से किनारा कर लिया। दोनों के बीच ऐसे अनबन हुई कि फिर कभी दोनों को साथ देखना नसीब नहीं हुआ।मीना कुमारी की मौत के 20 साल बाद कमाल अमरोही भी 11 फरवरी 1993 को दुनिया से रुखसत हो गए। कमाल अमरोही को उसी कब्रि‍स्तान में दफनाया गया जहां मीना कुमारी की कब्र थी।

हर शैली की फिल्‍मों में काम कर चुके हैं अनिल कपूर
बॉलीवुड अभिनेता अनिल कपूर फिल्‍मों में अपने अभिनय और डॉयलाग बोलने के अंदाज से भी जाने जाते हैं। वे मुख्‍यत: हिन्‍दी फिल्‍मों में ही काम करते है। वे हर शैली की फिल्‍मों में काम कर चुके हैं और उन्‍हें काफी सराहना भी मिली है।
अनिल कपूर का जन्‍म चेंबूर, मुंबई में हुआ था। उनके पिता का नाम सुरिंदर कपूर और मां का नाम निर्मला कपूर है। उनके दो भाई भी हैं- बड़े भाई का नाम बोनी कपूर और छोटे भाई का नाम संजय कपूर है।
उन्‍होंने ऑवर लेडी ऑफ परपिच्‍युल सकर हाईस्‍कूल, से पढ़ाई की थी। इसके बाद उन्‍होंने सेंट जेवियर्स कॉलेज, मुंबई से पढ़ाई की।
अनिल की शादी सुनीता कपूर से हुई है जिनसे उन्‍हें तीन बच्‍चे हैं- दो लड़कियां: सोनम कपूर और रिया कपूर और एक लड़का हर्षवर्धन।
कपूर के फिल्‍मी करियर की शुरूआत फिल्‍म ‘हमारे तुम्‍हारे’ से एक छोटे के किरदार से हुई थी लेकिन फिल्‍म ‘वो सात दिन’ में उनकी पहली अग्रणी भूमिका थी। इसके बाद उन्‍होंने कई फिल्‍मों में छोटी-बड़ी भूमिकाएं निभाईं और आलोचकों के साथ साथ दर्शकों का काफी मनोरंजन किया।
मेरी जंग, चमेली की शादी, जांबाज, कर्मा, मि.इंडिया, तेजाब, रामलखन, घर हो तो ऐसा, बेटा, 1942 ए लव स्‍टोरी, विरासत, हम आपके दिल में रहते हैं, ताल, बुलंदी, पुकार, नायक, वेलकम, रेस, स्‍लमडॉग मिलेनियर जैसी फिल्‍मों में उन्‍होंने अपने अभिनय का जलवा बिखेरा। फिल्म बेटा में निभाए गए उनके किरदार ने सभी को भावनात्‍मक कर दिया था और ऐसा कहा जाने लगा था कि बेटा हो तो ऐसा। व‍हीं फिल्‍म ‘नायक’ में निभाए गए उनके एक दिन के मुख्‍यमंत्री के किरदार को खूब प्रशंसा मिली।

दिलीप कुमार ने अभिनय को दी नई परिभाषा
दिलीप कुमार ने छह दशकों तक चले अपने फ़िल्मी करियर में मात्र 63 फ़िल्में की हैं लेकिन उन्होंने हिंदी सिनेमा में अभिनय की कला को नई परिभाषा दी है. एक ज़माने में दिलीप कुमार भारत के सर्वश्रेष्ठ फ़ुटबॉल खिलाड़ी बनने का सपना देखते थे. किसे पता था कि एक दिन यह शख़्स भारत के फ़िल्म प्रेमियों को मौन की भाषा सिखाएगा। और उसकी एक निगाह भर, वह सब कुछ कह जाएगी, जिसको कई पन्नों पर लिखे डायलॉग भी कहने में सक्षम नहीं होंगे।
दिलीप कुमार, राजकपूर और देवानंद को भारतीय फ़िल्म जगत की त्रिमूर्ति कहा जाता है, लेकिन जितने बहुमुखी आयाम दिलीप कुमार के अभिनय में थे, उतने शायद इन दोनों के अभिनय में नहीं।
राज कपूर ने चार्ली चैपलिन को अपना आदर्श बनाया, तो देवानंद ग्रेगरी पेक के अंदाज़ में सुसंस्कृत, अदाओं वाले शख़्स की इमेज से बाहर नहीं आ पाए।
दिलीप कुमार ने ‘गंगा जमना’ में एक ‘गंवार’ किरदार को जिस ख़ूबी से निभाया, उतना ही न्याय उन्होंने मुग़ले आज़म में मुग़ल शहज़ादे की भूमिका के साथ किया।
देविका रानी के साथ संयोगवश हुई मुलाक़ात ने दिलीप कुमार के जीवन को बदलकर रख दिया।
यूं तो देविका रानी 40 के दशक में भारतीय फ़िल्म जगत का बहुत बड़ा नाम था पर उनका उससे भी बड़ा योगदान था पेशावर के फल व्यापारी के बेटे यूसुफ़ खां को ‘दिलीप कुमार’ बनाना।
एक फ़िल्म की शूटिंग देखने बॉम्बे टॉकीज़ गए यूसुफ़ खां से उन्होंने पूछा था कि क्या आप उर्दू जानते हैं? यूसुफ़ के हां कहते ही उन्होंने दूसरा सवाल किया था- क्या आप अभिनेता बनना पसंद करेंगे?
देविका रानी का मानना था कि एक रोमांटिक हीरो के ऊपर यूसुफ़ खां का नाम ज़्यादा जमेगा नहीं। उस समय बॉम्बे टॉकीज़ में काम करने वाले और बाद में हिंदी के बड़े कवि बने नरेंद्र शर्मा ने उन्हें तीन नाम सुझाए, जहांगीर, वासुदेव और दिलीप कुमार।
उन्होंने अपना नया नाम दिलीप कुमार चुना। इसके पीछे एक वजह यह भी थी कि इस नाम की वजह से उनके पुराने ख़्यालों वाले पिता को उनके असली पेशे का पता नहीं चल पाता। फ़िल्में बनाने वालों के बारे में उनके पिता की राय बहुत अच्छी नहीं थी और वो उन सबका नौटंकीवाला कहकर मज़ाक उड़ाते थे।
दिलचस्प बात यह है कि अपने पूरे करियर में सिर्फ़ एक बार दिलीप कुमार ने एक मुस्लिम किरदार निभाया और वह फ़िल्म थी के. आसिफ़ की मुग़ले आज़म।
छह दशकों तक चले अपने फ़िल्मी करियर में दिलीप कुमार ने कुल 63 फ़िल्में कीं और हर किरदार में अपने आप को पूरी तरह डुबो लिया।
फ़िल्म ‘कोहिनूर’ में एक गाने में सितार बजाने के रोल के लिए उन्होंने सालों तक उस्ताद अब्दुल हलीम जाफ़र ख़ां से सितार बजाना सीखा।
दिलीप कुमार ने कहा था, “सिर्फ़ यह सीखने के लिए कि सितार पकड़ा कैसे जाता है, मैंने सालों तक सितार बजाने की ट्रेनिंग ली। यहां तक कि सितार के तारों से मेरी उंगलियां तक कट गई थीं।”
उसी तरह ‘नया दौर’ बनने के दौरान भी उन्होंने तांगा चलाने वालों से तांगा चलाने की बाक़ायदा ट्रेनिंग ली।
यूं तो उन्होंने कई अभिनेत्रियों के साथ काम किया, लेकिन उनकी सबसे लोकप्रिय जोड़ी बनी मधुबाला के साथ। जिनके साथ उनकी मोहब्बत हो गई।
मधुबाला से अनबन
दिलीप कहते हैं कि मधुबाला बहुत ही जीवंत और फ़ुर्तीली महिला थीं, जिनमें मुझ जैसे शर्मीले और संकोची शख़्स से संवाद स्थापित करने में कोई दिक्कत नहीं होती थी।
लेकिन मधुबाला के पिता के कारण यह प्रेम कथा बहुत दिनों तक नहीं चल पाई।
मधुबाला की छोटी बहन मधुर भूषण याद करती हैं, “पिता को यह लगता था कि दिलीप उनसे उम्र में बड़े हैं. हालांकि, वो मेड फ़ॉर ईच अदर थे. बहुत ख़ूबसूरत कपल था. लेकिन अब्बा कहते थे इसे रहने ही दो. यह सही रास्ता नहीं है लेकिन वह उनकी सुनती नहीं थीं और कहा करती थीं कि वह उन्हें प्यार करती हैं लेकिन जब बीआर चोपड़ा के साथ ‘नया दौर’ पिक्चर को लेकर कोर्ट केस हो गया, तो मेरे वालिद और दिलीप साहब के बीच मनमुटाव हो गया।”
मधुर भूषण कहती हैं, “अदालत में उनके बीच समझौता भी हो गया. दिलीप साहब ने कहा कि चलो हम लोग शादी कर लें. इस पर मधुबाला ने कहा कि शादी मैं ज़रूर करूंगी लेकिन पहले आप मेरे पिता को ‘सॉरी’ बोल दीजिए. लेकिन दिलीप कुमार ने ऐसा करने से इनकार कर दिया. उन्होंने यहां तक कहा कि घर में ही उनके गले लग जाइए, लेकिन दिलीप कुमार इस पर भी नहीं माने। वहीं से इन दोनों के बीच ब्रेकअप हो गया।”
अनबन के बीच मोहब्बत का सीन
‘मुग़ले आज़म’ बनने के बीच नौबत यहां तक आ पहुंची कि दोनों के बीच बात तक बंद हो गई.
‘मुग़ले आज़म’ का वह क्लासिक पंखों वाला रोमांटिक दृश्य तब फ़िल्माया गया था, जब मधुबाला और दिलीप कुमार ने एक दूसरे को सार्वजनिक रूप से पहचानना तक बंद कर दिया था।
सायरा बानो से दिलीप कुमार की शादी के बाद जब मधुबाला बहुत बीमार थीं, तो उन्होंने दिलीप कुमार को संदेश भिजवाया कि वह उनसे मिलना चाहती हैं।
जब वह उनसे मिलने गए, तब तक वह बहुत कमज़ोर हो चुकी थीं। दिलीप कुमार को यह देखकर दुख हुआ। हमेशा हँसने वाली मधुबाला के होठों पर उस दिन बहुत कोशिश के बाद एक फीकी सी मुस्कान आ पाई।
‘मुग़ले आज़म’ के बाद जिस फ़िल्म में दिलीप कुमार ने सबसे ज़्यादा नाम कमाया.. वो थी ‘गंगा जमना’।

आम आदमी के हीरो रहे अमोल पालेकर
आम तौर पर हिंदी फिल्मों में हीरो की जो छवि होती है अमोल पालेकर उससे एकदम अलग रहे। आम आदमी की तरह नजर आने वाले अमोल की यही खूबी लोगों को भा गयी और उनका सफर बढ़ता चला गया।
आप और हम उन्हें एक्टर और डायरेक्टर के तौर पर जानते हैं। उनकी फिल्मों की याद आज भी जेहन में गुदगुदी सी करते हुए आती है। उनके डायरेक्शन में बने टीवी शो आज भी बेहतरीन हैं।. पिछले 45 साल से सबका चहेता रहा ये अभिनेता और डायरेक्टर अब पेंटर बन गया है।
अमोल 72 साल के हो गए हैं। उनके जन्मदिन पर जब उनकी जिंदगी की गलियों से गुजरने की कोशिश होती है, तो सामने आता है एक मनमौजी इंसान. जिसने जब चाहा, जो चाहा, वो किया और जब नहीं चाहा, तो उस काम को छोड़ने में भी वक्त नहीं लगाया।
पेंटिंग के लिए नौकरी
अमोल को पेंटिंग का शौक बचपन से था, लेकिन ये एक महंगा शौक था। एक पेंटिंग बनाने के लिए उन्हें कलर और कैनवास खरीदने होते थे। इसके लिए उन्होंने बैंक में क्लर्क की नौकरी शुरू की। वह नौकरी से कमाए पैसे पेंटिंग में लगाते और अपनी दुनिया में दुनिया के सबसे खुशनसीब इंसान की तरह रहते।
खाली वक्त में थियेटर
एक बार रंगमंच के मशहूर निर्देशक सत्यदेव दूबे की नजर उन पर पड़ी। दूबे ने उन्हें एक नाटक में काम करने का प्रस्ताव दिया। खाली वक्त का अच्छा इस्तेमाल करने के लिए अमोल नाटक में काम करने को राजी हो गए।
अमोल ने कहा था कि दूबे ने ही उन्हें एक्टिंग की एबीसीडी सिखाई। इसके बाद उन्हें फिल्मों में बासु चटर्जी, श्याम बेनेगल, तपन सिन्हा और सत्यजीत रे के साथ काम करने का मौका मिला। उन्होंने रजनीगंधा, छोटी सी बात, घरौंदा, सफेद झूठ, गोल माल, बातों बातों में जैसी यादगार फिल्में कीं।
सुपरमैन नहीं, आम आदमी
अभिनय के साथ-साथ अमोल ने डायरेक्शन में भी अच्छी-खासी सफलता हासिल की। उन्होंने कच्ची धूप, मृगनयनी, नकाब और कृष्ण कली जैसे टीवी शो डायरेक्ट किए। इन टीवी शोज के पीछे थी हिंदी लिटरेचर की क्लासिक कहानियां. लेकिन जब सवाल अमोल की एक्टिंग का उठता है, तो उनकी सबसे खास बात थी उनकी आम इंसान की छवि।
उन्होंने खुद पनी सफलता का ये राज खोला था। उन्होंने कहा था, मेरी सफलता का राज यही था कि मैं सुपरमैन नहीं था। मैं एक आम आदमी था, जो एक्टर बनने के बाद भी ट्रेन से सफर करता था। घर का सामान लाता था। उस समय फिल्मों में ऐसा हीरो दिखना अनोखी बात थी।’ आम आदमी से जुड़ा उनका एक दिलचस्प किस्सा ये भी कि उन्होंने अपनी क्लर्क की नौकरी तब छोड़ी, जब उनकी फिल्में हिट होने लगीं।

सलीम खान का सफर आसान नहीं रहा
बॉलीवुड के जाने माने पटकथा लेखक सलीम खान ने फिल्म इंडस्ट्री को कई सुपरहिट फिल्में दी हैं, लेकिन अपने शुरुआती करियर में उन्हें काफी स्ट्रगल का सामना भी करना पड़ा था। 70 और 80 के दशक में सलीम अकेले नहीं बल्कि जावेद अख्तर के साथ मिलकर काम करते थे। सलीम-जावेद की इस जोड़ी ने एक साथ करीब 10 हिट फिल्में बॉलीवुड को दी थी। जिनमें हाथी मेरे साथी, सीता और गीता, शोले जैसी कल्ट फिल्में शामिल हैं।
हीरो बनने मुंबई आए थे सलीम
सलीम साहब के लेखन का भला कौन कायल नहीं है, पर उनका पहला प्यार स्क्रिप्ट राइटिंग नहीं बल्कि अभिनय था। जब वे करीब 23 साल के थे तो इंदौर में ताराचंद बड़जात्या के बेटे की शादी में शरीक हुए। उसी दौरान एक नामी निर्देशक ने सलीम को मुंबई आकर काम करने का न्योता दिया हालांकी इसपर सलीम पहले तो थोड़ा हिचकिचाए क्योंकि उन्हें फिल्म जगत के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी लेकिन बाद में मुंबई जाने का फैसला किया लेकिन वो बतौर अभिनेता अपनी कोई खास पहचान बना नहीं पाए।
दोस्तों के लिए लिखा करते थे प्रेम पत्र
सलीम खान के अनुसार उन्हें लेखन का कोई खास शौक नहीं था लेकिन वो अपने दोस्तों के लिए प्रेम पत्र लिखा करते थे। जिससे उनकी लेखनी का सफर शुरू हुआ। वो कहते हैं कि किसी भी लेखक की यात्रा वहीं से शुरू होती है क्योंकि उस दौर में सोशल मीडिया और फोन नहीं हुआ करते थे। सलीम ये भी बताते हैं कि प्यार में धोखा खाने के बाद ही उन्होंने मुंबई का रुख किया। उनका कहना है कि वो अपनी प्रेमिका से विवाह केवल इसलिए नहीं कर पाए क्योंकि लड़की के परिवारवालों को एक कामयाब लड़का चाहिए था अपने बेटे के लिए। तभी उन्होंने तय किया कि वो अपने आप को साबित कर के दिखाएंगे।
ऐसे टूटी थी जोड़ी
सुपरहिट फिल्में देने वाली जोड़ी टूटने को लेकर उन्होंने कहा कि एक दिन अचानक जावेद आए और कहा कि मैं अलग होना चाहता हूं। तो सलीम ने सवाल किया ये खयाल अचानक तो नहीं आया होगा लेकिन अगर तुम अलग होना चाहते हो तो ठीक है। सलीम कहते हैं कि उस वक्त मुझे बहुत दुख हुआ और गुस्सा भी आया लेकिन क्योंकि वो तय कर चुके थे इसलिए उन्होंने जावेद को रोका नहीं.
हेलेन को मिला सलीम का साथ
वैसे तो आज के दौर में सलीम खान की फैमेली सिर्फ बॉलीवुड ही नहीं पूरे देश के लिए एक मिसाल है। परिवार में हेलेन और सलीम खान की पहली पत्नी सलमा दोनों ही प्यार से रहती हैं। लेकिन शुरुआती दिनों में ऐसा नहीं था। अपने करियर के शुरुआती दौर में हेलेन का रिश्ता निर्माता पीएन अरोड़ा से जुड़ा लेकिन यह रिश्ता टूट गया।
इस रिश्ते के टूटने के बाद हेलेन केवल भावनात्मक रूप से ही नहीं टूटीं बल्कि उनका करियर भी खत्म होने की कगार पर आ गया था और वो एक-एक पैसे की मोहताज हो गई थीं। ऐसे में सलीम खान ने न सिर्फ उनको संभाला बल्कि उनके करियर को भी एक नई उड़ान दी। इसके बाद इस इश्क ने सन 1981 में शादी का रूप ले लिया. हालांकि शुरुआती दौर में सलीम का परिवार और बच्चे उन्हें पसंद नहीं करते थे।
पीएम मोदी और सलीम खान के रिश्ते काफी गर्मजोश भरे हुए हैं। सलीम खान ने एक एक साक्षात्काकर में कहा था कि नरेंद्र मोदी से उनकी पहली मुलाकात एक कार्यक्रम में हुई थी। उस मुलाकात में दोनों के बीच खूब बातें हुईं और वहां से दोस्ती की जो शुरुआत हुई वो आगे चलकर काफी प्रगाढ़ होती गई। जब मोदी लोकसभा चुनाव के लिए मैदान में थे तब सलीम खान ने अपनी दोस्ती के तकाज़े को भरपूर निभाया और खुलकर मोदी का बचाव किया। मोदी के लिए उर्दू में वेबसाइट लॉन्च कराई और खुद उसकी जिम्मेदारी ली।

हेमा के प्यार में संजीव कुमार ने अकेले गुजारी जिंदगी
फिल्मी दुनिया में संजीव कुमार को एक संजीदा और मेहनती अभिनेता के तौर पर याद किया जाता है। बहुत कम बोलना और अपने में खोए रहना उनकी मानों पहचान बन गई थी। दरअसल इसके पीछे भी एक कहानी है। बताया जाता है कि संजीव कुमार दिल ही दिल में ड्रीम गर्ल हेमा मालिनी को चाहते थे, लेकिन उन्हें पा नहीं सके। यह तो सभी जानते हैं कि धर्मेंद्र ने इस्लाम धर्म अपनाकर ड्रीम गर्ल हेमा मालिनी से दूसरी शादी की थी, जबकि संजीव चाहते थे कि हेमा से उनकी शादी हो जाए। इसे लेकर फिल्म शोले की भी एक कहानी प्रचलित है। बहरहाल ड्रीम गर्ल से शादी करने की तमन्ना को दिल में लिए हुए ही हिंदी सिनेमा का एक ऐसा अभिनेता दुनिया से रुखसत हो गया, जिसकी कमी को आज भी सिने जगत पूरा नहीं कर सका है। आपको बतलाते चलें कि फिल्मी दुनिया में आप जिसे संजीव कुमार के नाम से जानते रहे और प्यार करते रहे हैं उन्हें उनके घरवालों ने नाम दिया था हरिहर जरीवाला। सूरत के गुजराती परिवार में जन्मे संजीव कुमार का परिवार बाद में मुंबई में ही बस गया। यहीं से हरिहरवाला के संजीव कुमार बनने का सफर शुरु हो गया था। इस सफर को तीन भागों में बांटकर समीक्षक देखते रहे हैं। वो हैं फिल्में, फूड और प्रेम का पक्ष। इन्हीं तीन चीजों में संजीव कुमार की जिंदगी को तलाशा जाता रहा है। उनकी जिन्दगी के पन्ने पलटने पर इन्हीं तीन चीजों का असर भी देखने को मिल जाता है। दरअसल बताया जाता है कि सजींव कुमार को बचपन से ही फिल्में देखने और तरह-तरह के खाने खाने का शौक था। वो अपना पूरा जेब खर्च अच्छा खाना खाने औऱ फिल्में देखने में खर्च कर देते थे। उनका फिल्मों से प्यार इस कदर था कि वो अपने आपको अभिनय की दुनिया से अलग नहीं रख सके। इसके लिए उन्होंने एक्टिंग स्कूल ज्वाइन किया, फिर इसी कला के दम पर उन्होंने फिल्मों में काम पाने में सफलता भी हासिल कर ली। बताया जाता है कि उनकी पहली फिल्म हम हिंदुस्तानी उन्हें सिर्फ इसलिए मिल गई थी, कि उन्होंने ऑडिशन के समय लंबे-लंबे डायलॉग भी तुरंत याद करके सुना दिए थे। ऐसे अनमोल संजीव कुमार की याद सदा आती रहेगी।

प्रतिभाशाली नीलम के चर्चे ही चर्चे
नब्बे के दशक के आस-पास सिने जगत में धूम मचाने वाली अभिनेत्री नीलम कोठारी अब क्या कर रही हैं और कैसी हैं, यह सवाल तो उनके चाहने वालों के जेहन में आता ही आता होगा। तो आपको बतला दें कि सिने पर्दे पर अपनी सहज मुस्कान और जीवन्त अभिनय के दम पर एक अलग पहचान बनाने वाली अभिनेत्री नीलम कोठारी का जन्म 9 नवंबर, 1969 को हांगकांग में हुआ था। बताया जाता है कि नीलम बचपन से ही प्रतिभा संपन्न रही हैं। नीलम सिर्फ अभिनय में ही नहीं बल्कि डांस और पियानो बजाने में भी उनका जवाब नहीं है। यह अलग बात है कि नीलम को लोगों ने उनके अभिनय या अन्य प्रतिभाओं के कारण उतना नहीं जाना जितना कि फिल्म ‘हम साथ साथ हैं’ की शूटिंग के दौरान काले हिरण के शिकार विवाद को लेकर जाना था। इस मामले में सलमान खान और फ़िल्म के तमाम स्टारकास्ट के साथ नीलम ने भी चर्चा में जगह पाई थी। वैसे कम लोग ही जानते होंगे कि नीलम जहां हांगकांग में जन्मीं वहीं उनकी परवरिश बैंकॉक में हुई। इसके बाद छुट्टियां बिताने मुंबई आईं नीलम का फिल्मी सफर भी शुरु हो गया। दरअसल, नीलम एक बार छुट्टियां बिताने के लिए मुंबई आईं, उसी समय फिल्म निर्देशक रमेश बहल ने उन्हें फ़िल्म के लिए अप्रोच किया। नीलम ने इसे सहजता से लिया और वो सिनेमा के साथ जुड़ गयीं। नीलम ने अभिनय का सफर 1984 में फ़िल्म ‘जवानी’ से शुरु किया। फिल्मी करीयर में नीलम ने आमिर ख़ान, सलमान ख़ान से लेकर गोविंदा जैसे सुपरस्टार्स के साथ काम किया। नीलम की गोविंदा के साथ 10 फ़िल्में आईं थीं जिनमें से छह हिट रहीं। सलमान ख़ान के साथ उनकी ‘एक लड़का एक लड़की’ आई वह भी हिट रही। इन तमाम फिल्मों में काम करने के बाद और सफलता हासिल करने के बावजूद 2001 में ‘कसम’ फ़िल्म के बाद नीलम रजत पर्दे पर नजर नहीं आई। इससे पहले ‘लव 86’, ‘खुदगर्ज’, ‘हत्या’, ‘ताकतवार’ जैसी हिट फ़िल्में भी नीलम के नाम रहीं। जहां तक उनकी निजी जिंदगी का सवाल है तो उन्होंने दो शादियां की हैं, पहली ऋषि सेठिया से हुई थी जो कि किन्हीं कारणों से टूट गई उसके बाद उन्होंने छोटे पर्दे के चर्चित अभिनेता समीर सोनी से साल 2011 में शादी की। इसके बाद साल 2013 में नीलम और समीर ने एक बच्ची को गोद लिया, जो कि अहाना है। फिलहाल नीलम एक नीलम ज्वेल्स के नाम से बिजनेस चला रही हैं और उसी में वो मस्त रहती हैं। यह अलग बात है कि अक्सर अपनी बेटी की तस्वीरें वो सोशल मीडिया में पोस्ट कर सभी का ध्यान अपनी ओर खींचे रहती हैं।