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भाजपा का दर्द -गैर तो गैर थे, अपना भी हमारा न हुआ……..!
ओमप्रकाश मेहता
भारतीय जनता पार्टी अब मोदी शासन के पैने चार साल गुजर जाने के बाद यह महसूस करने लगी है कि उसने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देकर ’अपनों‘ में ही कांग्रेस का जीवाणु पैदा कर दिया है, आज भाजपा और उसके अनुषांगिक दलों के साथ सरकार के उसके सहयोगी दलों में जो उठा-पटक मची है, उससे न सिर्फ भाजपाध्यक्ष अमित शाह बल्कि स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी परेशान है, यहीं नहीं अब धीरे-धीरे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी भाजपा और उसकी सरकार के सिर से ’आशीर्वाद‘ का हाथ खींचने लगा है, संघ प्रमुख डॉ. मोहनराव भागवत ने भाजपाध्यक्ष को उज्जैन बुलवाकर जो एकांत सीख दी, वह अपने आपमें सीख नहीं बल्कि चेतावनी है, क्योंकि संघ प्रमुख को प्रधानमंत्री और भाजपाध्यक्ष के गृह राज्य गुजरात के विधानसभा चुनावों में ऐसे परिणामों की कतई उम्मीद नहीं थी और वे इन चुनाव परिणामों को भाजपा के भविष्य का आईना मानकर स्वयं कुछ डरे-सहमें से है, और अपनी इन्हीं भावनाओं से अवगत कराने के लिए भाजपाध्यक्ष को उन्होंने उज्जैन बुलाया था। वैसे यदि इस स्थिति पर बैबाक टिप्पणी की जाए तो मोदी-अमित शाह की हठवादिता, जिद और स्वेच्छाचारिता ’अपनों‘ की नाराजी का मुख्य कारण है, हाल ही में तीन तलाक विधेयक को कानूनी स्वरूप प्रदान करने के प्रयासों को जो संसद में झटका लगा, उसका भी यही एक मुख्य कारण है, वरना लोकसभा में सरलता से पारित विधेयक का उच्च सदन राज्यसभा में यह हश्र क्यों होता? प्रतिपक्ष कांग्रेस के साथ भाजपा के अनुषंगी दलों शिवसेना, अकालीदल, एआईएजीएम के आदि की सहमति क्यों होती? फिर भी यदि कांग्रेस द्वारा लाए जाने वाले छोटे-मोटे संशोधनों पर यदि उदार मन से मोदी जी विचार कर लेते तो राज्यसभा में तीन तलाक विधेयक का यह हश्र कदापि नहीं होता, किंतु मुख्य प्रश्न तो यह है कि साठ वर्षीय सत्ता अनुभव साढ़े तीन साला जिद व हठ के सामने फीका जो दिखाने का प्रयास हो रहा है। ……..और इन सब स्थितियों से संघ की परेशानी बढ़ रही है, इसीलिए संघ प्रमुख ने भाजपाध्यक्ष को स्पष्ट रूप से कह दिया है कि यही सब आगे भी चलता रहा तो 2019 के आम चुनाव भाजपा के लिए भारी पड़ सकते है, क्योंकि अब पिछले 44 महीनों के मोदी शासनकाल से न सिर्फ स्वयं मोदी की चमक देश में कम हुई है, बल्कि चुनावी वादों और जनआकांक्षाओं की पूर्ति नहीं हो पाने से देश के आम वोटर का भी मोदी जी से मोह भंग हुआ है और यह क्रम निरंतर जारी है। अब एक ओर जहां भाजपा के ’अपने‘ परेशान है, वहीं देश के आम वोटर की भी सहनशक्ति खत्म होने के कगार पर है, अब ऐसी स्थिति में संघ प्रमुख की भावना को कतई गलत नहीं ठहराया जा सकता। जहां तक भाजपा शासित राज्यों का सवाल है, वहां भी मोदी की धमक लगभग खत्म हो गई है। इसीलिए मोदी व केन्द्र संवर्धित योजनाऐं इन राज्यों में ठप पड़ी है। यह तो हुई भाजपा शासित राज्यों की बात, अब यदि हम बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र के बाद कर्नाटक की बात करें, तो वहां भी भाजपा में काफी कलह का माहौल है, कहां तो भाजपा कर्नाटक में अपनी सरकार बनाने के सपने देख रही है, वहीं दूसरी ओर वहां की अर्न्तकलह पर भाजपा अंकुश नहीं लगा पा रही है, और वहां भाजपाईयों में व्याप्त सीट और प्रतिष्ठा की महत्वाकांक्षा को शांत नहीं कर पा रही है। वही हाल ही में गठित गुजरात सरकार के मंत्रियों की नाराजी भी दूर नहीं हो पा रही है और असंतुष्ट मंत्रियों को मकर संक्रांति के बाद मंत्रीमंडल विस्तार व फैरबदल झुनझुना पकड़ाया जा रहा है। अब भाजपा के राष्ट्रव्यापी असंतुष्ट कार्यकर्ता और नेता कैसे संतुष्ट होंगे यह तो भाजपा के कर्ता-धर्ता जानें किंतु भाजपाध्यक्ष की सबसे बड़ी चिंता संघ प्रमुख मोहन भागवत के तैवर है, उन्हें कैसे संतुष्ट और शांत किया जाए? इसी पर मोदी-शाह के बीच विचार मंथन चल रहा है। क्योंकि मोहन भागवत ने भाजपा की प्रतिष्ठा को अपने साथ जोड़ लिया है, और वे कतई नहीं चाहते कि उनके कार्यकाल में कोई ’अंधेरा काल‘ आए? शायद इसीलिए उन्होंने अमित शाह को भाजपा में ऊपर से नीचे तक फैरबदल करने के निर्देश दे दिए है, यह भी कहा गया है कि यदि जरूरी समझा जाए तो केन्द्र से संगठन को जानने पहचानने या पार्टी में गहरी पैठ रखने वाले मंत्रियों को संगठन की जिम्मेदारी सौंपी जाए और संघ के सर्वे के अनुरूप जिन भाजपा शासित राज्यों में भाजपा को खतरा है, वहां के मुख्य मंत्रियों को भी बदलने में विलम्ब नहीं किया जाए, और इसीलिए यह संभावना व्यक्त की जा रही है कि ’हिन्दू मलमास‘ खत्म होने के तत्काल बाद अर्थात्् मकर संक्रांति के बाद शीर्ष से नीचे तक जरूरी फैरबदल कर दिया जाए, जिससे कि नया दायित्व सम्हालने वालों को सोचने-समझने के लिए पर्याप्त समय मिल सके। इस प्रकार कुल मिलाकर यदि यह कहा जाए कि देश में सत्तारूढ़ भाजपा का संक्रमण काल चल रहा है, तो कतई गलत नहीं होगा, क्योंकि वर्तमान स्थिति से मोदी-शाह के अलावा कोई भी खुश नहीं है, केन्द्रीय नेता व मंत्री जहां अपना दर्द अपने सीने में दबाए बैठे है, वहीं भाजपा और एनडीए सरकार के अनुषांगिक दल धीरे-धीरे अपना असली रूप दिखाने लगे है। ऐसे में मोदी-शाह की चिंता और जिम्मेदारी दोनों ही बढ़ गई है, क्योंकि न तो सीमाओं पर देश सुरक्षित है और न ही देशवासी। सभी की अपनी-अपनी पीड़ा है।
मुस्लिमों की आधी आबादी को आजादी
(प्रमोद भार्गव)
कई विपक्षी दलों और मुस्लिम धर्म-गुरूओं के विरोध के बावजूद केंद्र की राजग सरकार ने संसद में तीन तलाक विधेयक पेश कर साहसिक पहल की है। मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार सरंक्षण) विधेयक-2017 के प्रारूप में प्रस्तुत प्रावधान के मुताबिक इस्लाम धर्म से संबंधित कोई भी व्यक्ति यदि अपनी पत्नी को तत्काल ’तीन तलाक’ किसी भी माध्यम से देगा तो उसे तीन साल तक की सजा हो सकती है। अगस्त 2017 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक फैसले में तीन तलाक को अमान्य और असंवैधनिक घोषित करने के साथ केंद्र सरकार को इस बाबत छह माह के भीतर विघेयक बनाने का निर्देश दिया था। लोकसभा से पारित हुए इस कानून में न केवल शीर्ष न्यायालय की भावना को स्थापित किया गया है, बल्कि संविधान के अनुच्छेद-25 के अंतरर्गत दिए प्रावधान और धार्मिक आचार व मान्यता के सरंक्षण के प्रति भी मुस्लिम समुदाय को आश्वस्त किया गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम पुरूषों के बरक्श मुस्लिम महिलाओं को समता का दर्जा देने की भावना जताई थी। साथ ही, अदालत ने आगाह किया था कि उसे केवल तलाक का ’तलाक-ए-बिद्दत’ स्वरूप नामंजूर है। इसी के तहत एक साथ तीन मर्तबा ’तलाक, तलाक, तलाक’ कहकर वैवाहिक संबंध पल भर में तोड़ देने की 1400 साल पुरानी प्रथा के बूते मुस्लिम पुरूष पत्नी से संबंध विच्छेद को स्वतंत्र थे। शीर्ष न्यायालय ने इस ’तलाक-ए-बिद्दत’ को ही शून्य घोषित करते हुए असंवैधानिक ठहराया था। इसके अलावा शरीयत में ’तलाक-ए-अहसन’ और तलाक-ए-हसन’ नाम से भी विवाह-विच्छेद के दो प्रावधान मौजूद हैं। इनमें एक निश्चित अंतराल के बाद तलाक कहने का प्रावधान है। इस दौरान पति-पत्नि के बीच मन-मुटाव दूर कर सुलह की गुंजाइश बनी रहती है।
दरअसल मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का वजूद शरीया कानून की सुरक्षा के लिए स्थापित किया गया था। लेकिन इसके अलंबरदारों ने मामूली कहा-सुनी पर तत्काल तलाक के स्वरूप में बदलाव का जोखिम उठाने की कभी कोशिश नहीं की। यही वजह रही कि मुस्लिम महिलाएं जीवन भर ’तलाक-ए-बिद्दत’ के भय से आतंकित दिखती रही हैं। गोया, इस काले कानून बनाम कुप्रथा का खात्मा जरूरी था। तलाक-ए-बिद्दत में एक आदिम एवं अमानुषी प्रथा भी बनी चली आ रही थी। जिससे केवल मुस्लिम पुरूष के शरीरिक भोग की पूर्ति होती थी। तलाक-ए- बिद्दत का यह नितांत अमर्यादित प्रावधान था। इसके मुताबिक तत्काल तीन तलाक के बाद यदि पति-पत्नि फिर से पुराने रिश्ते को बनाए रखना चाहते हैं, मसलन पुनर्विवाह के इच्छुक हैं तो पुनर्विवाह से पुर्व स्त्री को कम से कम एक दिन के लिए किसी अन्य पुरूष की पत्नी बनकर हमबिस्तर होना जरूरी है। इस कुप्रथा को ही हलाला कहा जाता है। इस आदिम पारंपारिक मन्यता को अमल में लाने के दौरान लाचार मुस्लिम महिला को मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना का विस्मयकारी दंश झेलना पड़ता था। तय है, पहले शीर्ष न्यायालय ने इस बर्बर व्यवस्था को गैरकानूनी करार देकर और अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने कानून बनाकर मुस्लिम स्त्रियों की जहां शारीरिक मर्यादा को सुरक्षा दी है, वहीं उन्हें मानसिक वेदना झेलने से छुटकारा भी दिला दिया है। ऐसे क्रूर प्रावधानों से छुटकारे के लिए सरकार ने तत्काल तलाक कहने की स्थिति को गंभीर अपराध मानकर तीन साल की सजा का प्रावधान रखकर उचित पहल की है। फौरन तलाक के दंश से पीड़ित महिलाएं तो इसे उम्र कैद में बदलने की मांग कर रही हैं।
सायरा बनो वह पहली महिला थी, जिसने तत्काल तीन तलाक की संवैधानिक वैधता को अदालत में चुनौती दी थी। इसके बाद जकिया हसन और अतिया साबरी जैसी पीड़ित महिलाएं आगे आईं। जबकि इस कुप्रथा को बदलने के लिए ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को हस्तक्षेप की जरूरत थी। यही बोर्ड भारत के बहुसंख्यक सुन्नी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन पुरूषवादी मानसिकता रखने वाले बोर्ड का दावा और भ्रम तो यह था कि इस 1400 साल पुरानी मान्यता में दखल देने का अधिकार तो न्यायपालिका को भी नहीं है। इसलिए बोर्ड के आका इस तलाक के प्रबंध पर कुडंली मार कर बैठे हुए थे जबकि इस कुप्रथा का दंश भोगने वाली स्त्री की जिंदगी परंपरा, आधुनिकता, मजहब और कानून के दांव-पेंच में उलझकर रह गई थी। नतीजतन पति देश में हो या परदेश में बैठा हो तत्काल तलाक उसकी मर्जी का पर्याय बन गई थी।
लिहाजा, आजीवन निबाहा जाने वाले वैवाहिक संबंध को बोल या लिखकर तोड़े जाने का सिलसिला अनवरत बना हुआ था। फेसबुक, वाट्सअप और ईमेल के जरिए भी संबंध तोड़े जा रहे थे। ये संबंध न टूटें इसके लिए आवश्यक पहल करने की जरूरत तो मुस्लिम बोर्ड, धर्मगुरूओं, संसद में बैठे मुस्लिम सांसदों और मुस्लिम बुद्धिजीवियों की थी, लेकिन अगुआ बनी वे महिलाएं, जो कुरान, शरीयत और संविधान की कमोवेश जानकार नहीं थीं। अलबत्ता इतना जरूर अनुभव कर रही थीं कि ’तलाक-ए-बिद्दत’ का प्रावधान उनके मानवाधिकारों के हनन का सबसे बड़ा जरिया बना हुआ है। इसे संवैधानिक चुनौती देने का उन्होंने वीड़ा उठाया और उनके साथ इस लैंगिक अन्याय को दूर करने में भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की जकिया सोमन अगुआ बनीं। आखिर में सर्वोच्च न्यायालय और भारत सरकार भी उनकी मंशा और भावना के अनुगामी बनते दिखाई दिए। जबकि एआईएमआईएम के असदुद्दीन औवेसी ने विधेयक के प्रारूप को मुसलमानों के मौलिक अधिकारों का हनन बताया। औवेसी संशेधन प्रस्ताव भी लेकर आए, लेकिन उनके प्रस्ताव के पक्ष में महज दो वोट गिरे। इससे पता चलता है कि वे स्वयं इस्लामिक -धार्मिक जड़ता की गिरत में हैं।
मुस्लिम लीग के ईटी मोहम्मद बशीर, बीजद के केबी महताब और अन्नद्रमुक के ए अनवर ने भी इस विधेयक का विरोध किया। इन मुस्लिम सांसदों के विरोध से यह स्पष्ट होता है कि अपने क्षेत्र की एक बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले ये सांसद भारतीय संविधान की मूल भावना से कहीं ज्यादा इस्लाम धर्म में गहरे पैठ बनाए बैठी जड़ता को तव्वजो दे रहे हैं। प्रगतिशील और स्त्रीजन्य मानवीय मूल्यों को रेखांकित करने से इनका कोई वास्ता ही नहीं है। जबकि तीन तलाक का यह मुद्दा आधुनिक लोकतांत्रिक भारतीय समाज में संवैधानिक न्याय के एक आदर्श रूप में प्रस्तुत हुआ है। दुनिया के बांग्लादेश, पाकिस्तान, मिस्त्र, मोरक्को, इंडोनेशिया और मलेशिया समेत 22 इस्लामिक देशों में ’तलाक-ए-बिद्दत’ जैसे आमनवीय कानूनों का अंत बहुत पहले किया जा चुका है। इन देशों के मौलिक और महिला हितकारी सुधारों से भी भारतीय मुस्लिम सांसदों ने कोई सबक लेने की जरूरत नहीं समझी।
संसद के भीतर औवेसी जैसे सांसदों और संसद के बाहर कुछ मौलवी इस कानून को शरीयत में दखल और इस्लाम को खतरे में मानकर चलने का दावा कर रहे हैं। संसद में इन गैर जरूरी सवालों के जबाव विदेश राज्यमंत्री एमजे अकबर ने देकर लगभग सबके मुंह सिल दिए। कुरान की आयतों का हवाला देते हुए अकबर ने कहा कि ’यह पवित्र धर्मग्रंथ कहता है कि मुस्लिम महिलाओं का जो हक है, उन्हें हर हाल में उससे कहीं ज्यादा मिलना चाहिए। यह विधेयक उन नौ करोड़ मुस्लिम महिलाओं के लिए जीवनदायी संजीवनी है, जो फौरन तलाक के खौफ मैं जी रही हैं। दरअसल, इस कानून से उन लोगों को भी तगड़ा झटका लगा है, जो तलाक के बहाने महिलाओं को हमेशा दहशत और आतंक के साए में जीते रहने को विवश करते रहते हैं।’ इस्लाम खतरे में है, कहने वालों पर करारा तंज कसते हुए अकबर ने कहा, ’इस्लाम खतरे में है के नारे कों आजादी से पहले देश तोड़ने और अब समाज तोड़ने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। इस्लाम खतरे में नहीं है, बल्कि कुछ लोगों की दुकानदारियां खतरे में हैं।
देश के जाने-माने पत्रकार और केंद्र में मंत्री की इन कुरान-सम्मत दलीलों से साफ हो गया है कि भारत जैसे धर्मनिरपपेक्ष देश में लोकतांत्रिक गणतंत्र में तीन तलाक मुस्लिम महिलाओं के लिए गैर जरूरी था। इससे उनकी सामाजिक गरिमा व शारीरिक शुचिता का दमन हो रहा था। इस विधेयक के राज्यसभा से पारित होने और फिर राष्ट्रपति से अनुमोदन के बाद न केवल मुस्लिम महिलाओं को कानूनी सुरक्षा-कवच मिलेगा, बल्कि समाज में सम्मान से जीने का अधिकार भी मिलेगा।
नूतन का स्वागत और जाते साल को बिदाई
जया शर्मा
जिस प्रकार हर नए के आने के सुख से मन रोमांचित हो उठता हैं, उसी तरह जाने वाले की बिदाई भी महत्व रखती हैं। जाने वाले की चादें से मन भरा रहता हैं। उसके साथ बिताया हर क्षण पुस्तक में लिखे अक्षरों की भाँति हमारे चित्त पर अंकित रहते हैं। जो समय बीत जाता हैं उसकी यादें ही गुजरे वक्त की खटास और मिठास को बढ़ाती हैं। जो गुजर जाता है वह अपनी यादें कई रूपें में छोड़ जाता हैं। इससे अपनी मीठी और कड़वी यादें जुड़ी रहती हैं। कड़वी यादें को मिटाने और भूलने की कोशिश हमें ओर भी गति प्रदान करती हैं।
मीठी यादें से मन प्रफुल्लित रहता है और हम अपने कर्तव्यें के निर्वहन में और भी ध्यान लगाते हैं। इसका सीधा प्रभाव हमारे कार्यस्थल और घरेलू जीवन पर पड़ता हैं। दिसंबर माह की अंतिम तारीख यानी 31 दिसंबर प्रत्येक वर्ष का अंतिम दिन होता है, जिसमें सभी अपने सालभर की खट्टी-मीठी यादें का हिसाब लगाते हैं। जिनके अनुभव अच्छे होते हैं, उन्हें वह वर्ष बड़ा अच्छा लगता हैं, परन्तु जिनके साथ कुछ ऐसा धरता हैं, जिसकी याद से ही मन सिहर उठे, उनके लिए वह वर्ष दुŠखद यादें दे जाता है। पिछले बीते हुए हर वर्ष के समान 2008 भी विदा होते-होते 2009 का स्वागत करके चला जायेगा। बिदाई की तैयारियें भी जोर-शोर से दी जाती हैं, और आने वाले वर्ष के स्वागत में भी कोई कमी नहीं करना चाहता जिससे बीते दिनें की दुखद यादें को आगामी वर्ष में मीठी यादें में बदला जा सको चूँकि हमारा सारा वार्षिक कार्यकाल अंग्रेजी कैलेन्डर के हिसाब से ही चलता हैं। अतŠ हम भी 31 दिसंबर के आयोजनें में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं।
मीडिया की चकाचौंध ने इन आयोजनें में अपनी भूमिका से चार चाँद लगा दिए हैं। वर्ष के अंतिम सप्ताह से ही विभिन्न मनोरंजन कार्यक्रम आरंभ हो जाते हैं। अंतिम दिन तो रात्रि के आधे पहर तक धूम मची रहती हैं। वैसे तो बिदाई का माहौल बड़ा ही गमगीन होता हैं, क्येंकि जो बिछुड़ता है, पीछे छूटता है, वह हमारा अपना ही होता हैं फिर चाहे वह समय ही क्यें न हो। वर्ष के 12 माह, 365 दिन, 8760 घंटे और 525600 मिनट हमारे मूल्यवान जीवन से कम हो जाते हैं। उन उठते-गिरते पलें की यादें आदि अनुभव हमारे भावी समय को संवदेनशील और उज्जवल बनाते हैं।
हमारी संवेदनशीलता के कारण हो यह लगाव व जुड़ाव पैदा होता हैं। एहसास वह होता है, जो हमारे अंतŠकरण से होकर गुजरता हैं। इसी से हमारे अंदर की भावनाआंs में कल्पनाएW जागृत होती है। इसी एहसास के माध्यम से जीवन की कटुता और मधुरता के इतिहास रचे जाते हैं। हमारी झूठी संवेदनाआंs को तो हम तत्काल भूल जाते हैं और अपनी दिन चर्चा के साथ आगे बढ़ जाते हैं, परन्तु जो संवदेना हमारे अंत:करण से उत्पन्न होती है, उसे समय भी भुला नहीं पाता।
जीवन जीना एक कला है और मानव का विस्तृत दृष्टिकोण ही उसके जीने के नजरिये को नया स्वरूप प्रदान करता हैं। समय के साथ घटी घटनाआंs से ही व्यक्ति अपने जीवन को संयमित कर पाता हैं। अपने रिश्तें और संबंधों का मूल्यांकन करते समय हम स्वयं के आचरणें पर भी ध्यान देते हैं। यदि हमारा आचरण सदाचार पूर्ण होता हैं, और सामने वाले का निंदापूर्ण तो हमारे अनुभव भी खट्टे होते हैं। यदि विचार-मंथन की गहराई में जाकर देखें तो दूसरे को सुधारना हमार मूल कार्य नहीं। विगत की कड़वी यादें को आगत के स्वागत के साथ सुखद बनाने का प्रयास करना चाहिए। नूतन वर्ष की स्वर्निम आशाआंs के साथ हंसने मुस्कुराने का प्रयास करना चाहिए। आइये आगामी वर्ष के स्वागत के लिए स्वयं को तैयार करें और यह आत्मविश्वास रखकर आगे बढ़े की बीती को बिसार कर आने वाले समय में खुश रहेंगे, खुशियाँ बाटेंगे। अपनी गलतियें में सुधार करेंगे और दूसरें को भी ऐसी प्रेरणा देंगे।
पाक-अफगानः चीन की पटकनी ?
(डॉ. वेदप्रताप वैदिक)
चीन ने भारत को पहले रोहिंग्या-मामले में मात दे दी। वह बर्मा व बांग्लादेश के बीच मध्यस्थ बन बैठा। अब वह भारत को पाक-अफगान मामले में पटकनी मारने की तैयारी कर रहा है। बड़ी खबर यह है कि पेइचिंग में अफगानिस्तान, पाकिस्तान और चीन के विदेश मंत्री मिले और उन्होंने एक संयुक्त वक्तव्य जारी कर दिया। हमारी सरकार से कोई पूछे कि बताइए कि ये दोनों किसके ज्यादा पड़ौसी हैं ? भारत के या चीन के ? ये दोनों राष्ट्र दक्षेस के सदस्य भी हैं लेकिन इनमें कौन सुलह करवा रहा है ? भारत नहीं, चीन ! चीन क्यों करवा रहा है ? क्योंकि उसे अपनी 57 बिलियन डाॅलर की रेशम महापथ की योजना को कारगर करवाना है। पाकिस्तान तो उसका सक्रिय भागीदार है ही लेकिन यदि अफगानिस्तान उससे दूर रहता है तो चीन को काफी नुकसान भुगतना होगा। दूसरा, भारत की चाबहार पहल की काट कैसे होगी ? चीन चाहता है कि अफगानिस्तान यदि चाबहार बंदरगाह का इस्तेमाल करके भारत से घनिष्टता बढ़ाए तो वह ग्वादर का बंदरगाह भी इस्तेमाल करे ताकि उसकी चीन और पाकिस्तान से भी घनिष्टता बढ़े। इसके अलावा यदि पाक-अफगान आतंकवाद खत्म हो तो चीन के सिंक्यांग में फैल रहे उइगर मुस्लिम आतंकवाद पर भी नियंत्रण में मदद मिलेगी। दूसरे शब्दों में उसने गीदड़भभकियां मारनेवाले डोनाल्ड ट्रंप और भारत के लिए दक्षिण एशिया में प्रबल चुनौती खड़ी कर दी है। इसका एक अदृश्य अर्थ यह भी है कि दक्षिण एशिया के बड़े भाईजान भारत की जगह अब चीन का दादा ले रहा है। यदि अफगानिस्तान रेशम महापथ (ओबोर) अपने यहां से गुजरने देता है तो वह प्रकारांतर से ‘आजाद’ कश्मीर पर पाकिस्तानी कब्जे को मान्यता दे रहा है। इस पहेली को भारत और अफगानिस्तान कैसे सुलझाएंगे, वे ही जानें। वैसे मेरी राय यह है कि पाक-अफगान सद्भाव कायम होना आसान नहीं है। उसमें कई अंदरुनी पेंच हैं, जिनकी समझ चीनियों को नहीं है। लेकिन चीनियों को अपने राष्ट्रीय स्वार्थों की समझ सबसे ज्यादा है। यदि चीन का वर्चस्व दक्षिण एशिया में बढ़ेगा तो किसका घटेगा, यह बताने की जरुरत नहीं है।
पाक गुस्ताखी की आशंका जताई; भावी कदमों की जानकारी नही दी……!
ओमप्रकाश मेहताभारत की सामाजिक मर्यादाओं की पूरी जानकारी रखने वाला ही यह भलीं प्रकार समझ सकता है कि पाक की जेल में बंद कुलभूषण जाधव की स्थिति उस समय कैसी रही होगी, जब उसने अपनी माँ को बिना बिंदी और मंगलसूत्र के देखा होगा? क्योंकि कुलभूषण को यह थोड़े ही पता था कि यह पाकिस्तान की सोची समझी चाल है? किंतु दो दिन पहले पाक के इस्लामाबाद की जेल में कुलभूषण की बूढ़ी माँ और उसकी पत्नी के साथ जो सलूक किया गया, उससे आज पूरा देश क्षुब्ध और नाराज है, केन्द्र सरकार से पूरा देश अपेक्षा कर रहा था कि भारत सरकार पाकिस्तान की इस गुस्ताखी का मुंह तोड़ जवाब देगा, जिसका जिक्र विदेश मंत्री सुषमा स्वराज संसद के दोनों सदनों में अपने विशेष बयान में करेगी, किंतु पाक की कारस्तानियों वाले सुषमा के बयान से पूरा देश भावुक अवश्य हुआ, पाकिस्तान के प्रति देश के गुस्से में इजाफा भी हुआ, किंतु भारत सरकार द्वारा पाक की इस कारस्तानी के खिलाफ उठाए जाने वाले सख्त कदमों की जानकारी नहीं मिलने पर देश क्षुब्ध भी हुआ। सुषमा जी ने कुलभूषण की पत्नी के जूते पाक द्वारा नहीं लौटाने पर यह आशंका अवश्य की कि पाकिस्तान उन जूतों में कैमरा, चीप या रेकार्डर अवश्य बता देगा, जिससे दोनों देशों के बीच बवाल और बढ़े, लेकिन पाक की इस गैर मानवीय गुस्ताखी के लिए भारत क्या कदम उठाने जा रहा है, यह जानकारी नहीं दिए जाने से देश सुषमा जी के भाषण को लेकर निराश भी हुआ है। पूरे देश की अब यह सोच मजबूत होती जा रही है कि पाकिस्तान अपनी नित नई गुस्ताखियों से बाज नहीं आ रहा है और हम उसकी हर गुस्ताखी को या तो मुआफ करते जा रहे है या पाक सीमा के आधे कि.मी. क्षेत्र में घुसकर दो-तीन पाक सैनिकों का काम तमाम कर देते है और उसका खुलकर प्रचार-प्रसार करते है, जबकि आजादी के बाद से हमारी यह सैन्य परम्परा रही है कि ऐसी कथित सर्जिकल स्ट्राईकों की कभी भी पाब्लिसीटी नहीं की जाती, और आज जिस सर्जिकल स्ट्राईक का ढि़ंढोरा पिटा जाता है, वह भारत के लिए नई नहीं है, कांग्रेस या यूपीए सरकारों के दौरान पहले भी अनैक बार ऐसी कार्रवाईयां की जा चुकी है और उनका कभी भी ढिंढ़ोरा नहीं पिटा गया। जहां तक कुलभूषण के प्रकरण का सवाल है, इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत सरकार ने ही अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में जाकर उसकी फाँसी की सजा को रूकवाया, और इसी कारण वह आज भी पाक की जेल में विद्यमान है, किंतु उसके साथ जो वहां गैर-मानवीय अत्याचार हो रहे है, उसकी चिंता कभी भारत सरकार ने की? कुलभूषण की मां व पत्नी का कहना है कि उसने उनसे वहीं रटी-रटाई बात की, जो पाक सरकार ने उसे कहने को कहा था, जबकि उसके कान के पीछे तथा शरीर पर कई जगह घाव थे जो उसे जेल में दी गई यातनाओं की गवाही दे रहे थे। फिर इतने संवेदनशील वाक्य के बाद जान बूझकर कुलभूषण की मां व पत्नी को मीडिया के मुखातिब करवाना कहां तक न्यायपूर्ण है, जबकि भारत-पाक के बीच यह शर्त थी कि दोनों महिलाओं को मीडिया से दूर रखा जाएगा। मीडिया के आरोप पूर्ण बेहूदा शब्दों भरे सवालों से दोनों महिलाऐं कितनी आहत हुई? इसकी कल्पना कभी पाक ने की? अब तो हमारी सहनशीलता की सीमा भी टूटने के कगार पर है, देश का हर नागरिक आज उद्वेलित है, वह पाक को जहां उसकी गुस्ताखियों के लिए कोस रहा है तो भारत सरकार को उसकी सहनशीलता एवं निष्क्रियता के लिए नाराजी व्यक्त कर रहा है, क्योंकि यही सरकार है, जिसने पठानकोट पर हमले के बाद आईएसआई के लोगों को विवादित स्थल पर प्रवेश दिया था, और भारत-पाक सीमा को अब और असुरक्षित बना दिया, हमारी इसी उदासीनता के कारण पाकिस्तान की सेना और आतंकी सरगनाओं के हौसलों में अभिवृद्धि हुई है, हमारी सेना के जवानों पर पत्थरों की वर्षा कर उन्हें घायल करने वाले पाक परस्त कश्मीरी युवाओं को माफ करने से उनकी और अधिक हौसला-अफजाई हुई है। इस प्रकार कुल मिलाकर अब भारत सरकार के लिए अपनी पाक नीति के प्रति गंभीर होने का सही समय है, यदि हम कुलभूषण की माँ-पत्नी के साथ घटी घटना के बाद भी सचैत नहीं होंगे, तो फिर कब होंगे? जब ‘‘चिडि़याँ चुग जाएगी खेत’’ तब?
तीन तलाकः इरादा नेक है
(डॉ. वेदप्रताप वैदिक)
तीन तलाक पर आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड ने सरकार से अनुरोध किया है कि वह अपने विधेयक पर पुनर्विचार करे। बोर्ड से अनेक मुस्लिम नेता और महिलाएं इतनी खफा हैं कि उसकी कोई भी बात वे सुनना ही नहीं चाहतीं। यह स्वाभाविक है, क्योंकि बोर्ड सदियों पुराने घिसे-पिटे अरबी कानूनों को भारतीय मुसलमानों पर थोपना चाहता है। तीन तलाक के बारे में भी उसका रवैया आक्रामक और तर्कहीन रहा है। लेकिन अब उसकी जो बैठक हुई है, उसमें उसने कुछ नरम रवैया अख्तियार किया है और कुछ ऐसे तर्क दिए हैं कि जिन पर सरकार को विचार करना ही चाहिए। सबसे पहली बात तो यह है कि तीन तलाक विधेयक पारित करने के पहले उस पर मुस्लिम संगठनों, महिला संगठनों, मुल्ला-मौलानाओं और कानून-विशेषज्ञों से सरकार खुलकर बात करे। दूसरा, उस पर संसद में जमकर बहस हो। जल्दबाजी में वह कानून पास न हो। वरना उसका हश्र नोटबंदी की तरह हो सकता है। तीसरा, उस विधेयक में परस्पर विरोधी प्रावधान हैं। जैसे तीन तलाक बोलनेवाले पति को सजा हो गई और तीन तलाक हुआ ही नहीं तो फिर सजा क्यों हुई ? जब जुर्म हुआ ही नहीं तो सजा क्यों ? और चौथा अगर सजा हो गई तो जेल में पड़ा पति अपनी पत्नी और बच्चों को गुजारा-भत्ता कहां से देगा ? 90 प्रतिशत मुसलमान आदमी रोज कुआ खोदते हैं और रोज़ पानी पीते हैं। पांचवां, तलाक हो या न हो बच्चों की जिम्मेदारी बीवी पर डालने में क्या तुक है? वह अपना पेट तो भर नहीं सकती, बच्चों का कैसे भरेगी ? इनके अलावा भी कुछ छोटे-मोटे प्रावधान ऐसे हो सकते हैं, जिन्हें सुधारकर इस कानून को और अधिक व्यावहारिक बनाया जा सकता है। इस कानून का विरोध करनेवाले सभी लोगों और संस्थाओं को एक बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि सरकार का इरादा सौ फीसदी नेक है। वह मुस्लिम महिलाओं की दशा सुधारना चाहती है, इस्लाम का अपमान नहीं करना चाहती। वह हमारे मुसलमानों को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ और प्रगतिशील मुसलमान बनाना चाहती है।
कब मिलेगा देश में सभी को स्वच्छ पेयजल
-रमेश सर्राफ
देश में दस करोड़ से अधिक लोग फ्लोराइड की अधिक मात्रा वाले पानी का सेवन कर रहे हैं। लोकसभा में पेयजल और स्वच्छता मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने बताया कि समस्या से निपटने के लिए केंद्र सरकार ने 800 करोड़ रुपये जारी किए हैं ताकि सामुदायिक जल शुद्धिकरण संयंत्र स्थापित किए जा सकें। उन्होंने कहा कि विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों में 12577 बस्तियों में रह रहे करीब दस करोड़ छह हजार लोगों को पेयजल में फ्लोराइड की अधिक मात्रा मिल रही है। तोमर ने कहा आर्सेनिक और फ्लोराइड के दूषण से निपटने के लिए नीति आयोग की अनुशंसा के मुताबिक भारत सरकार ने मार्च 2016 में 800 करोड़ रुपये जारी किए थे ताकि 1327 आर्सेनिक प्रभावित और 12014 फ्लोराइड प्रभावित बस्तियों में पानी का शुद्धिकरण किया जा सके।
इसके अतिरिक्त पश्चिम बंगाल और राजस्थान में आर्सेनिक और फ्लोराइड की समस्याओं से निपटने के लिए सौ-सौ करोड रूपये मुहैया कराये गये है ताकि पाइप से पानी की आपूर्ति की जा सके। उन्होंने कहा कि मंत्रालय ने 22 मार्च को राष्ट्रीय जल गुणवत्ता मिशन की शुरूआत की ताकि करीब 28 हजार फ्लोराइड और आर्सेनिक प्रभावित बस्तियों को चार वर्ष के अंदर सुरक्षित पेयजल मुहैया करायी जा सके।
कहते हैं जल ही जीवन है। जल के बिना धरती पर मानव जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मनुष्य चांद से लेकर मंगल तक की सतह पर पानी तलाशने की कवायद में लगा है, ताकि वहां जीवन की संभावनायें तलाशी जा सके। पानी की महत्ता को हमारे पूर्वज भी अच्छी तरह जानते थे। जीवन के लिए इसकी आवश्यकता और उपयोगिता का हमारी तमाम प्राचीन पुस्तकों एवं धार्मिक कृतियों में व्यापक उल्लेख मिलता है। पानी के महत्त्व का वर्णन वेदों और दूसरी अन्य रचनाओं में भी मिलता है। जल न हो तो हमारे जीवन का आधार ही समाप्त हो जाये। दैनिक जीवन के कई कार्य बिना जल के सम्भव नहीं हैं। लेकिन धीरे-धीरे धरती पर जल की कमी होती जा रही है। साथ ही जो भी जल उपलब्ध है वह भी काफी हद तक प्रदूषित है। जिसका इस्तेमाल खाने-पीने एवं फसलों में कर लोग गंभीर बीमारियों से परेशान हैं। धरती पर जीवन बचाये रखने के लिए हमें इसके बचाव की ओर ध्यान देना पड़ेगा। हमें जल को व्यर्थ उपयोग नहीं करना चाहिये और उसे प्रदूषित होने से भी बचाना चाहिये।
पीने का पानी कैसा हो इस विषय पर वैज्ञानिकों ने काफी प्रयोग किये हैं और पानी की गुणवत्ता को तय करने के मापदण्ड बनाये हैं। पीने के पानी का रंग, गंध, स्वाद सब अच्छा होना चाहिए। ज्यादा कैल्शियम या मैगनेशियम वाला पानी कठोर जल होता है और पीने के योग्य नहीं होता है। पानी में उपस्थित रहने वाले हानिकारक रसायनों की मात्रा पर भी अंकुश आवश्यक है। आर्सेनिक, लेड, सेलेनियम, मरकरी तथा फ्लोराईड, नाईट्रेट आदि स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालते हैं। पानी में कुल कठोरता 300 मिली ग्राम प्रति लीटर से ज्यादा होने पर पानी शरीर के लिये नुकसानदायक हो जाता है। पानी में विभिन्न बीमारियों के कीटाणुओं का होना, हानिकारक रसायनों का होना, कठोरता होना पानी को पीने के अयोग्य बनाता है।
धरती की सतह के लगभग 70 फीसदी हिस्से में उपलब्ध होने के बावजूद अधिकांश पानी खारा है। पीने का पानी समुचित रूप से उच्च गुणवत्ता वाला पानी होता है जिसका तत्काल या दीर्घकालिक नुकसान के न्यूनतम खतरे के साथ सेवन या उपयोग किया जा सकता है। स्वच्छ पानी धरती के लगभग सभी आबादी वाले क्षेत्रों में उपलब्ध है। भारत में पेयजल की समस्या काफी विकट है। भारत में 10 करोड़ की आबादी को स्वच्छ जल सहज उपलब्ध नहीं है, जो पूरी दुनिया के देशों में स्वच्छ जल से वंचित रहने वाले लोगों की सर्वाधिक आबादी है। इतना ही नहीं विशेषज्ञों ने इस आपदा के और गंभीर होने की आशंका जताई है, क्योंकि भारत में 73 फीसदी भूमिगत जल का दोहन किया जा चुका है। जिसका मतलब है कि हमने भरण क्षमता से अधिक जल का उपयोग कर लिया है। स्वच्छ जल के सबसे बड़े स्रोत छोटी नदियां और जलधाराएं सूख चुकी हैं, जबकि बड़ी नदियां प्रदूषण से जूझ रही हैं। इन सबके बावजूद हम कुल बारिश की सिर्फ 12 फीसदी जल ही संरक्षित कर पाते हैं। बीते वर्ष आई वाटरएड की रिपोर्ट के अनुसार भारत की कुल आबादी का छह प्रतिशत हिस्सा स्वच्छ जल से वंचित है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भूमिगत जल कुल पेयजल का 85 फीसदी आपूर्ति करता है, लेकिन देश के 56 फीसदी हिस्से में भूमिगत जल के स्तर में गिरावट आई है।
भारत सरकार ने मार्च 2021 तक देश की 28,000 बस्तियों को स्वच्छ जल की आपूर्ति के लिए 25,000 करोड़ रुपये खर्च करने की घोषणा की है। सरकार का कहना है कि 2030 तक देश के हर घर को पेयजल की आपूर्ति करने वाले नल से जोड़ दिया जाएगा। देश में इस समय प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष करीब 1,745 घन मीटर जल की उपलब्धता है। केंद्रीय जल आयोग के मुताबिक बीते पांच वर्षो के दौरान स्वच्छ जल की उपलब्धता 3,000 घन मीटर से घटकर 1,123 घन मीटर रह गई है। देश में इस समय कुल 1,123 अरब घन मीटर स्वच्छ जल उपलब्ध है जिसका 84 फीसदी कृषि में इस्तेमाल होता है।
भारत सरकार दावा भले ही कुछ भी करे लेकिन हालात यह है कि देश के लोगों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध करा पाना आज भी एक बड़ी चुनौती है। देश के ग्रामीण क्षेत्र के काफी लोगों को पीने का स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं है। झारखंड, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक,उत्तर प्रदेश, राजस्थान और बिहार आदि राज्यों में रहने वाले अधिसंख्य आदिवासी नदियों, जोहड़ों, कुएं और तालाबों के पानी पर ही निर्भर हैं। आदिवासी बहुल इलाके में विकास की कोई भी रोशनी आजादी के इतना साल बाद भी नहीं पहुंच पाई है। देश के कई ग्रामीण इलाकों में कुएं और ट्यूबवेलों के पानी का उपयोग करने वाली आबादी को यह भी पता नहीं होता है कि वे जीवित रहने के लिए जिस पानी का उपयोग कर रहे हैं, वही पानी धीरे-धीरे उन्हें मौते के मुंह में ले जा रहा है।
नदियों के किनारे बसे शहरों की स्थिति तो और भी बदतर है। इन नदियों में कल-कारखानों और स्थानीय निकायों द्वारा फेंका गया रासायनिक कचरा, मल-मूत्र और अन्य अवशिष्ट उन्हें प्रदूषित कर रहे हैं। इन नदियों के जल का उपयोग करने वाले कई गंभीर रोगों का शिकार हो रहे हैं। इससे बचने का एक ही रास्ता है कि लोगों को नदियों को गंदी होने से बचाने के लिए प्रेरित किया जाए। उन्हें यह समझाया जाए कि उनके द्वारा नदियों और तालाबों में फेंका गया कूड़ा-कचरा उनके ही पेयजल को दूषित करेगा। कल-कारखाने के मालिकों को इसके लिए बाध्य करना होगा कि वे प्रदूषित और रासायनिक पदार्थों को नदियों में कतई न जाने दें। यदि कोई ऐसा करता पाया जाए, तो उसे कठोर दण्ड दिया जाए।
जब तक हम जल की महत्ता को समझते हुए नदियों को साफ रखने की मुहिम का हिस्सा नहीं बनते हैं, तब तक नदियों को कोई भी सरकार साफ नहीं रख सकती है। गंगा सफाई योजना के तहत हजारों करोड़ रुपये खर्च हो गए लेकिन अब तक नतीजा सिफर ही निकला है। भले ही सरकारी नीतियां दोषपूर्ण रही हों, लेकिन इसके लिए आम आदमी भी कम दोषी नहीं हैं। प्राचीनकाल में पर्यावरण, पेड़-पौधों और नदियों के प्रति सद्भाव रखने का संस्कार मां-बाप अपने बच्चों में पैदा करते थे। वे अपने बच्चों को नदियों, पेड़-पौधों और सम्पूर्ण प्रकृति से प्रेम करना सिखाते थे। वे इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि ये नदी, नाले, कुएं, तालाब हमारे समाज की जीवन रेखा हैं। इनके बिना जीवन असंभव हो जाएगा, इसीलिए लोग पानी के स्रोत को गंदा करने की सोच भी नहीं सकते थे। वो संस्कार आज समाज से विलुप्त हो गया है। अपने फायदे के लिए बस जल का दोहन करना ही सबका एकमात्र लक्ष्य रह गया है। हमें इस प्रवृत्ति से बचना होगा।
आबादी के तेजी से बढ़ते दबाव और जमीन के नीचे के पानी के अंधाधुंध दोहन के साथ ही जल संरक्षण की कोई कारगर नीति नहीं होने की वजह से पीने के पानी की समस्या साल-दर-साल गंभीर होती जा रही है। पानी की इस लगातार गंभीर होती समस्या की मुख्य वजह हैं आबादी का लगातार बढ़ता दबाव। इससे प्रति व्यक्ति साफ पानी की उपलब्धता घट रही है। फिलहाल देश में प्रति व्यक्ति 1000 घनमीटर पानी उपलब्ध है जो वर्ष 1951 में 4 हजार घनमीटर था। जबकि प्रति व्यक्ति 1700 घनमीटर से कम पानी की उपलब्धता को संकट माना जाता है। अमेरिका में यह आंकड़ा प्रति व्यक्ति 8 हजार घनमीटर है। इसके अलावा जो पानी उपलब्ध है उसकी गुणवत्ता भी बेहद खराब है।
संयुक्त राष्ट्र के अंतर्गत विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी दी है कि दुनिया में इस समय दो अरब लोग दूषित पानी पीने को मजबूर हैं और पानी में मानव मल भी मौजूद है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार दूषित पानी हैजा, टाइफाइड, पोलियो और पेचिश आदि का कारण बन रहा है जिससे हर साल कम से कम 5 लाख लोग मर रहे है। जबकि उनमें डायरिया का रोग शीर्ष स्थान पर है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि दूषित पानी आंत्र रोग, कीटो और अन्य बीमारियों की मुख्य वजह भी है और देशों पर जोर दिया है कि वह तुरंत साफ पानी आपूर्ति परियोजनाओं पर निवेश करें। हालांकि रिपोर्ट में इस बात का स्वागत किया गया है कि पिछले तीन वर्षों में अक्सर देशों ने साफ पानी की आपूर्ति के बजट में 4.9 प्रतिशत की वद्धि की है। लेकिन अभी भी 80 प्रतिशत देश स्वीकार कर रहे हैं कि वह अब तक पानी वितरण पर उचित राशि खर्च नहीं कर रहे है। रिपोर्ट में अफ्रीका और एशिया के गरीब देशों के बारे में कहा गया है कि वहां साफ पानी और ड्रेनेज की स्थिति बहुत खराब है।
भारत नदियों का देश होने के बावजूद यहां की ज्यादातर नदियों का पानी पीने लायक और कई जगह नहाने लायक तक नहीं है। खेती पर निर्भर इस देश में किसान सिंचाई के लिए मनमाने तरीके से भूगर्भीय पानी का दोहन करते हैं। इससे जलस्तर तेजी से घट रहा है। कुछ ऐसी ही हालत शहरों में भी हैं जहां तेजी से बढ़ते कंक्रीट के जंगल जमीन के भीतर स्थित पानी के भंडार पर दबाव बढ़ा रहे हैं। अब समय आ गया है हमें पानी के दुरूपयोग को रोकने के लिये संकल्पित होना होगा व देश की सरकार को भी भोजन के अधिकार की तरह ही पीने का साफ पानी भी देश के हर नागरिक तक उपलब्ध करवाना होगा तभी देश की जनता बिमारियों से बच पायेगी।
लालू की जेल यात्राओं का कीर्तिमान
असर दिखा रही मवेशियों की आह
(अनिल बिहारी श्रीवास्तव)
इतनी बदनामी के बाद भी पूरी बेशर्मी से खीस निपोरने के हुनर का रहस्य राष्ट्रीय जनता दल के अगुआ लालू यादव से ही समझा जा सकता है। बिहार के बहुचर्चित पशुपालन चारा घोटाले के एक और मामले में लालू को दोषी करार दिया गया है। इसी घोटाले के एक अन्य मामले में उन्हें पहले भी सजा सुनाई जा चुकी है। गत दिवस राजद प्रमुख को उस समय एक और झटका उस समय लगा जब रांची स्थित सीबीआई की विशेष अदालत ने 21 साल पूर्व हुए चारा घोटाले के एक मामले में लालू और 15 अन्य लोगों को दोषी करार दिया। खास बात यह रही कि अदालत ने पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र सहित 6 अन्य को इसी मामले में बरी कर दिया। दोषी करार दिए जाने के साथ ही लालू को गिरफ्तार कर बिरसा मुण्डा जेल भेज दिया गया। ताजा जेल यात्रा के साथ ही लालू यादव के नाम एक कीर्तिमान जुड़ गया। यह उनकी नौवीं जेल यात्रा बताई जा रही है। वह सम्भवत: इस देश के पहले ऐसे राजनेता हैं जो आपराधिक मामलों के चलते इतनी बार जेल जा चुके हैं। लोग कटाक्ष कर रहे हैं कि अब तो जेल की दीवारें तक लालू यादव की गंध को पहचानने लगीं होंगी। लेकिन लालू एक घाघ किस्म के राजनेता हैं। गत 23 दिसम्बर को सीबीआई अदालत द्वारा दोषी करार दिए जाने के बाद जेल ले जाए जाते समय मीडिया से बात करते हुए उन्होंने इसे विरोधी खास कर भाजपा की साजिश करार दिया। वह स्वयं की तुलना अपनी तुलना नेलसन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग और बाबा साहेब अम्बेडकर से करने से नहीं चूके लालू का कहना है कि धर्म युद्ध में लालू अकेला नहीं, पूरा बिहार साथ है, ये हस्तियां अपने प्रयासों में नाकाम हो जातीं तो इतिहास उन्हें खलनायकों की तरह देखता लेकिन पक्षपातियों, रंगभेदियों और जातिवादी ताकतों के लिए वे आज भी खलनायक हैं। राजद प्रमुख ने आगे कहा कि कट्टरपंथी ताकतों ने मुझे कभी भी सकारात्मक रूप से नहीं लिया, उनकी आंख में किरकिरी की तरह हूं लेकिन वो इतनी आसानी से मुझे उखाड़ नहीं सकतीं। लालू की तरह उनकी पत्नी राबड़ी देवी और दोनों पुत्रों ने भी अदालत के फैसले पर अपनी प्रतिक्रियाओं में कुछ इसी तरह की बयानबाजी की।
यहां केन्द्रीय मंत्री और लोकजन शक्ति पार्टी के नेता रामविलास पासवान की प्रतिक्रिया का उल्लेख करना उचित होगा। पासवान ने कहा है कि लालू को अपनी तुलना अम्बेडकर जैसी विभूतियों से नहीं करना चाहिए। इन विभूतियों ने राष्ट्र के लिए त्याग किया था जबकि लालू भ्रष्टाचार के कारण जेल गए हैं। पासवान यह भी कहते हैं, लालू अपने पापों का छिपाने के लिए हर बात पर भारतीय जनता पार्टी को दोष नहीं दें। गौरतलब है कि लालू का लगभग आधा परिवार भ्रष्टाचार के मामलों में फंसा हुआ है। उनकी पत्नी, पुत्र और बेटी-दामाद से भी पूछतांछ की जा रही है। जिस दिन लालू यादव चारा घोटाले के मामले में दोषी करार दिए गए, उसी शाम दिल्ली में प्रवर्तन निदेशालय ने मनी लॉन्ड्रिंग मामले में लालू की बेटी मीसा भारती और दामाद शैलेष कुमार के खिलाफ आरोप-पत्र दायर कर दिया। ऐसा माना जा रहा है कि लालू के छोटे पुत्र तेजस्वी और पत्नी राबड़ी पर भी जांच एजेन्सियों का घेरा सख्त हो सकता है। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में लालू कुनबा ऐसा राजनीतिक परिवार है जिस पर सबसे अधिक भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं।
लालू यादव को चारा घोटाले के एक और मामले में दोषी करार दिए जाने के बाद उनके परिवार के अलावा लालू की प्रायवेट प्रापर्टी कही जाने वाली पार्टी-राष्ट्रीय जनता दल और लालू के भरोसे भारतीय जनता पार्टी के विरूद्ध बड़ी चुनौती खड़ी करने का ख्वाब देख रहे राजनीतिक दलों में सदमे का माहौल देखा जा रहा है।
राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना गलत नहीं है कि अदालत के फैसले से सबसे अधिक कांग्रेस, तृणमूल
कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और वामपंथियों को आघात लगा है। सोनिया गांधी के अध्यक्षीय कार्यकाल में कांग्रेस की राजनीतिक उपलब्धियों या नाकामियों से हट कर बात करें तो भी यह साफ महसूस होता है कि कांग्रेस की स्थिति लालू के सामने उनके किसी दुम हिलाते पालतू जैसी हो गई थी। बिहार में कांग्रेस को राष्ट्रीय जनता दल की बी टीम कहा जाने लगा था। संतान मोह से पीडि़त लालू अपने पुत्र तेजस्वी को राजनीति में स्थापित करने के लिए काफी गंभीर दिखाई देते रहे। उन्होंने तेजस्वी को एक तरह से अपना उत्तराधिकारी घोषित सा कर दिया है। तेजस्वी को स्थानीय अखाड़े में मजबूती से खड़ा करने के साथ स्वयं को राष्ट्रीय राजनीति मे प्रासंगिक बनाए रखने के लिए लालू देश के अन्य भाजपा विरोधी क्षेत्रीय नेताओं से संबंध मजबूत करने में लगे रहे। सपा नेता अखिलेश यादव और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से लालू ने अपने रिश्ते खासे मधुर कर लिए हैं। वामपंथी विशेषकर माकपाई वैसे भी लालू के मुरीद दिखाई देते हैं। लालू को दोषी करार दिए जाने के बाद सामने आई राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की प्रतिक्रिया पर थोड़ा आश्चर्य हुआ। हालांकि बिहार में राकांपा में दम नहीं है लेकिन इसके नेता तारिक अनवर ने जिस अंदाज में लालू के समर्थन में बयान दिया उससे साफ है कि राकांपा भी पादुका पूजन पर उतारू है। तारिक अनवर ने कहा राजद प्रमुख को दोषी करार दिए जाने को राजनीतिक दुर्भावना और सीबीआई पर दबाव का परिणाम मानें।
अब सवाल यह उठता है कि मौजूदा परिस्थितियों के मद्देनजर लालू यादव के राजनीतिक सफर को लेकर क्या कहा जा सकता है? विश्लेषक मानते हैं कि इसे लालू के लिए उनके राजनीतिक सफर के पूरा हो जाने का संकेत कहना चाहिए। चारा घोटाले के जिन 6 मामलों में लालू का नाम लिया जा रहा है उनमे से दो में उन्हें दोषी करार दिया जा चुका है। एक मामले में उन्हें पांच साल की कैद की सजा सुनाई जा चुकी है। वह जमानत पर हैं। वह चुनाव नहीं लड़ पा रहे किन्तु इस समय का उपयोग लालू अपने कुनबे का राजनीतिक भविष्य संवारने में करते रहे हैं। कुछ लोगों का कहना है कि लालू को चुक चुका नहीं माना जा सकता। उनका दिमाग इतना शातिर है कि वह हर नुकसान से भी फायदा उठाने की कोशिश करने से नहीं चूकते। देखिए, चारा घोटाले के दूसरे मामले में भी दोषी करार दिए जाते ही वह जातिवाद का कार्ड खेलने से नहीं चूके। वह ऐसा स्वांग कर रहे हैं जैसे एक भोले और ईमानदार राजनेता को विरोधियों ने सीबीआई के साथ साठगांठ कर फंसा दिया हो। तेजस्वी यादव में लालू का ही खून दौड़ रहा है। तेजस्वी के बयान पर गौर कीजिए। तेजस्वी ने अपने पिता को जेल भेजे जाने को भाजपा की गहरी साजिश का परिणाम निरूपित कर दिया। समझा जा सकता है कि लालू की घरेलू सियासी नर्सरी में किसी तरह के पौधे तैयार हुए हैं। पूरा परिवार ही ऐसे बयान दे रहा है जैसे राजनीतिक विरोध के चलते उन्हें फंसाया जा रहा हो । जाहिर है कि लालू ने जिस तरह की टे्रनिंग दी है परिवार के सदस्य उसी के अनुसार प्रतिक्रियाएं व्यक्त कर रहे हैँ। क्या मान लिया जाए कि लालू जेल में रह कर भी राजनीतिक भांग का नशा पूरा करते रहेंगे।
कानून के जानकारों के अनुसार पहले मामले में लालू सजा सुनाए जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट से जमानत आदेश पाने में सफल हो गए थे। यह सिर्फ इसलिए संभव हो सका क्योंकि ऐसी तरह के मामलों में ऐसे ही उदाहरण थे। लेकिन दूसरे मामले में भी दोषी करार दिए जाने के बाद लालू को फिर जमानत मिलना थोड़ा मुश्किल लग रहा है। वह जेल में दरबार भी नहीं लगा सकेंगे। सप्ताह में सिर्फ तीन लोगों से ही मुलाकात कर सकते हैं। अब देखने वाली बात यह हो सकती है कि बिहार की राजनीति में लालू की प्रत्यक्ष मोैजूदगी के अभाव में राजद किस तरह चुनौतियों का सामना कर पाएगा। राबड़ी से किसी क्रांतिकारी कदम की आशा नहीं करनी चाहिए। चारा घोटाला में लालू के फंसने के बाद लालू ने मुख्यमंत्री पद पर पत्नी को जरूर बैठा दिया था किन्तु पर्दे के
पीछे से असली खेल लालू का चलता रहा। राबड़ी की आड़ में वही सरकार चला रहे थे। सामान्य बुद्धि का इंसान भी समझ सकता है कि राबड़ी किस तरह सरकार चलातीं होंगी? कल्पना असंभव नहीं है। तेजस्वी यादव मुखर अवश्य हैं परन्तु उनमें अध्ययन, परिपक्वता और समझ का अभाव साफ महसूस किया जाता है। बड़े पुत्र तेजप्रताप की अपर स्टोरी शायद खाली है। अपने पिता की सुरक्षा कम किए जाने पर तेजप्रताप ऐसे बौखला गए कि मोदी की खाल खींचने की धमकी देने की मूर्खता कर दिखाई। कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि वर्ष 2017 लालू कुनबे के लिए भारी पड़ा। घोटालों और भ्रष्टाचार के आरोप गहरे हुए, नीतिश कुमार का भाजपा से पुन: दोस्ती कर लालू परिवार को सत्ता सुख से वंचित कर देना और अब एक और मामले में लालू को दोषी करार दिया जाना, इन सब बातों से क्या निष्कर्ष निकाला जाए? बिहार में जिन मूक पशुओं का चारा चरा गया था क्या उनकी आह ने असर दिखाना शुरू कर दिया है?
कुलभूषण से मुलाकात और शीशे की दीवार के पीछे का सच
डॉ हिदायत अहमद खान
महज सात दशक पूर्व भारतभूमि रुपी शरीर का एक अहम हिस्सा रहे पाकिस्तान के अलग होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, लेकिन अंग्रेजों के द्वारा बोए गए फूट डालो और राज करो के बीज ने कुछ ऐसा कमाल दिखाया कि न सिर्फ पाकिस्तान अलग देश बना बल्कि जन्मजात दुश्मनी के पौधे अमिट शजर में तब्दील हो गए। नफरत की ये जड़ें इतनी गहरी जा बैठीं कि उनका उखड़ना भी नामुमकिन हो गया। अब हालात ये हैं कि दोनों देशों के कथित नेता और राजनीतिक पार्टियां दुश्मनी और नफरत के नाम पर अपनी-अपनी रोटियां सेंकती तो नजर आ जाती हैं, लेकिन कड़वाहट को मिठास में बदलने की कोशिशें दूर-दूर तक दिखाई नहीं देतीं। इसका सबसे ज्यादा नुक्सान दोनों ही देशों में रहने वाले आमजन का हुआ है। दरअसल ऐसे न जाने कितने परिवार हैं जिनके सगे-संबंधी सीमापार रहते हैं और चाहते हुए भी वो आत्मीयता के साथ एक-दूसरे से नहीं मिल सकते हैं। हालात खराब होने के नाम पर सीमा पर जो प्रपंच रचा जाता है उसमें अपने ही मारे जाते हैं। हमारे जवान शहीद होते हैं तो वहीं दूसरी तरफ मजबूर नौजवान जो कि राह से भटके हुए होते हैं आतंकवादी के तौर पर मार दिए जाते हैं। ऐसे में इंसानियत को कुछ इस कदर रौंदा जाता है जिसे देखकर और सुनकर कलेजा मुंह को आ जाता है। फिलहाल पाकिस्तान की जेल में बंद कुलभूषण जाधव का मार्मिक मामला है, जिसमें हम जैसे मानवतावादी न्याय की गुहार लगाते हुए उनकी रिहाई की मांग करते हैं। इसके लिए तो बकायदा सुबूत दिए जाते हैं कि जैसा पाकिस्तान के अधिकारी और मीडिया उनके संबंध में आरोप लगा रहे हैं वैसा कुछ भी नहीं है। बावजूद इसके उन्हें पाकिस्तान दुनिया के सामने एक गुप्तचर के तौर पर पेश करता और फांसी की सजा सुनाकर, मेल-मुलाकात का एक बड़ा नाटक खेलता नजर आता है। कहा तो यह भी जा रहा है कि इस मामले में अंतर्राष्ट्रीय अदालत को सुनवाई करते हुए सुबूतों और गवाहों के आधार पर दूध का दूध और पानी का पानी कर देना चाहिए। इससे पहले कहने को तो पाकिस्तान की सरकार ने कायदेआजम मोहम्मद अली जिन्ना के जन्मदिन पर दरियादिली दिखाते हुए जेल में बंद भारतीय नागरिक कुलभूषण जाधव की मुलाकात उनकी मॉं और पत्नी से कराने जैसा फैसला लिया। जो जानते हैं वो तो यही कह रहे हैं कि यह मुलाकात एक दिन में आयोजित नहीं कर दी गई है, बल्कि इसके पीछे लंबे अंतराल की कोशिशें हैं और उस पर यह कि खुद जाधव ने अपनी पत्नी से मिलने की इच्छा जाहिर की थी। उसके बाद तमाम तरह के दबाव और अदालती प्रक्रिया ने इस मुलाकात को आसान बनाया है। बहरहाल आर-पार दिखाई देने वाली मजबूत दीवार के पीछे मुलाकात तो हुई लेकिन उसके बाद जो शुक्रिया वाला वीडियो जारी हुआ उसने सारी कहानी मानों खुद ही कह दी। हमारी नजर में यह मुलाकात इस मायने में भी बेमानी रही क्योंकि मॉं व पत्नी से मिलते वक्त जाधव के बीच में एक शीशे की दीवार थी, जिससे न तो सीधे उनकी आवाज सुनी जा सकती थी और ना ही उन्हें सांत्वना ही दी जा सकती थी। इस प्रकार यह दुनिया को दिखाने के लिए तो मुलाकात कही जा सकती है, लेकिन मानवीय आधार पर यह मुलाकात की परिधि में भी नहीं आती है। उस पर यह बताया जाना कि उनके कुछ दूर इंडियन डिप्लोमैट जेपी. सिंह भी मौजूद थे, लेकिन यहां यह भी बतलाया जाना चाहिए कि उनके सामने भी कांच की एक मोटी दीवार थी जिससे वो देख तो सकते थे लेकिन यह नहीं जान सकते थे कि उनमें बातचीत क्या हो रही है। इस प्रकार इनके बीच मौजूद शीशे की दीवार बहुत कुछ कहती नजर आती है। यह तो महज देखने और दिखाने वाला सुनियोजित सियासी कार्यक्रम था। यहां मशहूर शायर बशीर बद्र का शेर याद आता है जिसमें वो कहते हैं कि ‘कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से। ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो।।’ यह वही फासला है जिसे छुपाते हुए भी पाकिस्तान ने दिखा ही दिया है। उस पर पाकिस्तान के विदेश मंत्री ख्वाजा मोहम्मद आसिफ का यह कहना कि पाकिस्तान ने मौत की सजा पाने वाले भारतीय नागरिक कुलभूषण जाधव के साथ उनके परिवार की मुलाकात के दौरान एक भारतीय राजनयिक को मौजूद रहने की इजाजत दे कर जाधव को कूटनीतिक पहुंच प्रदान की है। अपनी खुद की पीठ थप-थपाने जैसा काम किया है। मोहम्मद आसिफ का यह बयान इसलिए महत्व नहीं रखता क्योंकि वो उस मुलाकात का हिस्सा ही नहीं थे। वहीं दूसरी तरफ जब कोई किसी पर दिली एहसान करता है तो उसे जताता नहीं है और न ही दुनियाभर में डिंडोरा ही पीटता है, जैसा कि इस समय पाकिस्तान ने किया है। याद हो कि इस हाईप्रोफाइल मुलाकात के बाद पाकिस्तान विदेश मंत्रालय ने वीडियो जारी किया है जिसमें कुलभूषण को इस मुलाकात के लिए पाकिस्तान सरकार के प्रति शुक्रिया अदा करते हुए दिखाया गया है। इसमें शक नहीं कि कुलभूषण धन्यवाद दे सकते हैं क्योंकि वो पाकिस्तान में कैद हैं और उनसे जैसा कहा जा रहा होगा वो उसके आधार पर ही अपनी बात रख रहे होंगे। यहां यह भी जरुरी नहीं कि जो उन्होंने कहा उसे ही दिखाया या सुनाया जा रहा हो। ऐसा भी हो सकता है कि वीडियो असली हो ही नहीं। बहरहाल यदि पाकिस्तान चाहता है कि वाकई कुलभूषण जाधव को न्याय मिले तो उसे इस मामले को अंतर्राष्ट्रीय अदालत में ले जाना चाहिए और वहीं से इसका हल निकाला जाना चाहिए, इसके बगैर ये मुलाकातें और बातें महज ड्रामाई हैं और उसके अलावा कुछ नहीं।
नेताओं की खाल गेंडे से भी मोटी
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सत्तर साल की आजादी ने देश में नेतृत्व का चरित्र ही बदल दिया है। हमारे नेता लोगों ने अपने आपको नैतिकता से ही आजाद कर लिया है। भ्रष्टाचार के किसी गंभीर मामले में फंसने के बाद यदि अदालत उन्हें बरी कर देती है तो वे जश्न मनाते हैं। उन्हें इस बात के लिए जरा भी शर्म नहीं आती कि वे रंगे हाथ पकड़े गए थे। सारे देश के चैनलों और अखबारों में उनके भ्रष्टाचार की कहानियां जमकर प्रचारित हुई थीं। यदि वे सचमुच ईमानदार थे तो उन्होंने ऐसे अखबारों, चैनलों, विरोधी नेताओं, मुकदमा चलानेवाले लोगों, वकीलों और जजों को माफ क्यों कर दिया ? उन्हें दंडित करने की मांग क्यों नहीं की ? मान लें कि वे इतने समर्थ नहीं हैं कि वे उन्हें स्वयं दंडित कर सकें या करवा सकें तो वे कम से कम इतना तो कर सकते थे कि झूठे आरोप लगानेवालों और गलत फैसला देनेवाले जजों के खिलाफ आमरण अनशन कर दें ? लेकिन क्या अपने देश में ऐसा कोई नेता हुआ ?
असली बात तो यह है कि आज देश में ज्यादातर नेता लोग वे ही हैं, जिनकी खाल गेंडे से भी मोटी है। लालू प्रसाद अपनी तुलना नेल्सन मंडेला और मार्टिन लूथर किंग से कर रहे हैं। पहले भी वे साल भर जेल में बिता चुके हैं। अब पता नहीं, कितने दिन उन्हें फिर जेल काटना पड़े। पहले की तरह शायद उन्हें जमानत मिल जाए और ऊंची अदालतें उन्हें वैसे ही बरी कर दें जैसे ए.राजा, कनिमोझी और अशोक चव्हाण को कर दिया है। उनके खिलाफ जुटाए गए प्रमाणों को ऊंची अदालत के सामने इतना धुंधला कर दिया जाए कि उनकी जीत पर भी जश्न मनाया जाए। आज देश में नेतागीरी ऐसा धंधा बन गया है कि जिसमें रिश्वत, ठगी, चोरी उसके अविभाज्य अंग हो गए हैं। इसीलिए जो नेता पकड़े नहीं गए हैं, वे भी पकड़े गए या छूटे हुए नेताओं से परहेज़ नहीं करते, क्योंकि उन्हें पता है कि वे भी उसी बैलगाड़ी पर सवार हैं। जहां तक जनता का सवाल है, उसका रवैया भी एकदम ढीला-ढाला है। वरना पिछले विधानसभा चुनाव में लालू की पार्टी को सबसे ज्यादा सीटें कैसे मिलीं ? यह हमारे आम जनता की ही कृपा है कि हमारे नेताओं की खाल गेंडे से भी ज्यादा मोटी हो गई है।
कांग्रेस मुक्त वाली सोच का हिमाचल में स्थापित हो जाना
डॉ हिदायत अहमद खान
भारतीय संस्कृति में अतिसर्वत्र वर्जयेत का फार्मूला सभी जगह लागू होता हुआ दिखाई देता है, फिर वो राजनीतिक क्षेत्र ही क्यों न हो। कहने का अर्थ सिर्फ इतना ही है कि आप यदि सीमा से अधिक भोजन कर लेंगे तो वह अपाच्य हो जाएगा और आपके शरीर में विकार उत्पन्न कर देगा, जिससे आप रोगग्रस्त हो जाएंगे। इसी प्रकार सीमा से अधिक समय तक भूखा या प्यासा रहना भी स्वास्थ के लिहाज से नुक्सानदेह होता है। इसी प्रकार बोलचाल में अधिक कड़वाहट आपको लोगों की दृष्टि में हेय बना देती है और यदि आपने जरुरत से ज्यादा मीठा बोला तो भी आप हल्के साबित हो जाते हैं इसलिए कहा जाता है कि जो भी बोलें तोल-मोल के ही बोलें ताकि आगे चलकर आपको शर्मिदंगी का शिकार नहीं होना पड़े। राजनीति में रहते हुए यदि आप इस सूत्र का पालन नहीं करते तो बहुत जल्द आपकी छवि खराब हो जाती है और आप हाशिये पर कर दिए जाते हैं। दरअसल खास क्या आमजन को भी किसी के भी बड़े बोल नहीं भाते हैं। इसके पीछे अति होने के साथ ही जो सोच काम करती है वह दंभ पालने वाली होती है। इसके लिए कहा जाता है कि आप अपने में दंभ नहीं पालें। कहते हैं जो ईश्वर को पसंद नहीं उसे मानव कैसे पसंद कर सकता है। यही वजह है कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को कांग्रेस मुक्त करने की बात कही तो उनके अपने गृहराज्य गुजरात में न सिर्फ कांग्रेस मजबूत होती नजर आई बल्कि राहुल गांधी भी बतौर कांग्रेस अध्यक्ष स्थापित होते हुए दिखे। उनकी तारीफ में विरोधियों ने भी कोई कमी नहीं रखी। हार-जीत का फैसला मतदाता का रहा इसलिए समझा जा सकता है कि आमजन को ऐसी भाषा नहीं भाती है, क्योंकि इससे दंभ के साथ ही साथ तानाशाही की बू भी आती है। ऐसे में हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर चुने गए जयराम ठाकुर का यह कहना कि प्रदेश कांग्रेस मुक्त हो गया, इसी श्रेणी में आता है। वैसे कहने को तो जयराम ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के ‘मिशन कांग्रेस मुक्त भारत’ को ही आगे बढ़ाने का काम करते दिखते हैं, लेकिन उन्हें यह भी याद रखना होगा कि मोदी और शाह के गृह राज्य में ही कांग्रेस मजबूत होकर उभरी है और पिछले चुनावों की अपेक्षा राहुल के नेतृत्व में इस बार बेहतर परिणाम दिए हैं। बावजूद इसके यह कहना कि ‘पूरे उत्तर भारत में हिमाचल ऐसा प्रदेश रह गया था जहां सभी लोग भाजपा की सरकार का इंतजार कर रहे थे और इस जीत के साथ हमारा सपना भी पूरा हो गया है और अब यह प्रदेश भी कांग्रेस मुक्त हो गया है।’ एक तरह का दंभ पालने जैसा ही है। इस स्थिति में जबकि आप एक बड़े पद का दायित्व संभालने जा रहे हों तो आपको बड़ा दिल लेकर चलना चाहिए और उसमें सभी के लिए जगह रखनी चाहिए। चूंकि लोकतांत्रिक सरकार के मुखिया के तौर पर आप मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं तो आपको चाहिए कि विरोधियों को भी उतना ही सम्मान दें जितना कि अपनी पार्टी के सदस्यों को देते हैं। विरोध को सिरे से नकारना और उन्हें कुचलने जैसी आक्रामकता दिखाना लोकतंत्र का अपमान करने जैसा ही है, जिसे विरोधी पार्टीनेता लगातार कह रहे हैं। कांग्रेस की स्थिति देश की राजनीति में बेहतर नहीं है, लेकिन यह कहना कि देश कांग्रेस मुक्त होने जा रहा है सही नहीं होगा। दरअसल यह फैसला जनता-जनार्दन का होता है कि वह सत्ता की डोर किसके हाथ में देती है और किसे विपक्ष में बैठा कर सरकार के काम-काज का आंकलन करते हुए उस पर गहरी नजर रखने का काम देती है। इसे एक ईमानदार सेवक की तरह ही निभाना चाहिए, न कि खुद को बादशाह समझ अहम वाले बयान देने लगें। सभी को कुचल देने जैसे दंभ वाले बयानों से पहले तो परहेज किया जाना चाहिए और यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हमारा देश लोकतांत्रिक है जिसका असली मालिक आमजन ही है और जनादेश जो आता है उसे मानना नेताओं का कर्तव्य होता है। ऐसे में खुद को राजा साबित करने वाली सोच प्रथम सेवक होने की परिपाटी को तोड़ती नजर है। अंतत: जहां तक जयराम के अहम का सवाल है तो वह उनमें होना लाजमी है क्योंकि उन्होंने केंद्रीय मंत्री जगत प्रकाश नड्डा और पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल जैसे दिग्गजों को पीछे छोड़ते हुए मुख्यमंत्री की दौड़ जीतने जैसा कठिन काम किया है। यही वजह है कि शिमला में हुई विधायक दल की बैठक के बाद केंद्रीय पर्यवेक्षक नरेंद्र तोमर ने विधायक दल के नेता के तौर पर जैसे ही जयराम के नाम की घोषणा की, वैसे ही उन्होंने प्रदेश को कांग्रेस मुक्त जैसा बयान देकर अपने ही करीबियों को चेता दिया कि अब जो होगा वह उनकी अपनी मर्जी से ही होगा। वैसे भी जयराम पांचवीं बार विधायक चुने गए हैं, ऐसे में वो बेहतर जानते हैं कि उनका राजनीतिक दोस्त कौन साबित होने वाला है और कौन दुश्मन। यह अलग बात है कि जयराम के नाम का प्रस्ताव प्रेम कुमार धूमल ने किया, लेकिन इस दौड़ में तो वो भी शामिल थे। इससे पहले जेपी नड्डा का नाम भी सामने आया और समर्थकों के बीच खींचतान और झड़पें भी हुईं। यही नहीं बल्कि हद तो यह रही कि केंद्रीय मंत्री नड्डा को मुख्यमंत्री बनाने पर कुछ विधायकों ने उनके लिए अपनी विधानसभा सीट खाली करने तक का ऑफर दे दिया। ऐसे में जयराम के नाम पर मोहर लगना केंद्रीय नेतृत्व का उनके सिर पर हाथ होने जैसा ही है। इसलिए भी उन्हें गुरुर आया होगा। इसलिए कहा गया कि उनके बयान को अहम से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए, लेकिन यदि वाकई उनकी भी सोच कांग्रेस मुक्त वाली बन गई है तो यह उनकी दंभ की पराकाष्ठा ही होगी, जिसे सही नहीं कहा जा सकता है।
ट्रंप को संयुक्तराष्ट्र का तमाचा
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यरुशलम को इस्राइल की राजधानी बनाने की अमेरिकी घोषणा अभी संयुक्तराष्ट्र संघ की महासभा में बुरी तरह से पिट गई। अमेरिकी घोषणा के विरुद्ध तुर्की और यमन ने प्रस्ताव रखा। उसका समर्थन 128 राष्ट्रों ने किया और विरोध सिर्फ 9 ने ! 35 राष्ट्रों ने वोट नहीं डाला। महासभा का यह वोट डोनाल्ड ट्रंप के मुंह पर करारा तमाचा सिद्ध हुआ। वोट के पहले ट्रंप ने सभी राष्ट्रों को धमकी दी थी कि जो भी इस निंदा प्रस्ताव का समर्थन करेगा, उस राष्ट्र की खैर नहीं है। ट्रंप ने कहा कि अमेरिका जिन राष्ट्रों पर करोड़ों-अरबों डाॅलर लुटाता है, यदि वे भी अमेरिका का विरोध करेंगे तो ट्रंप-प्रशासन उन्हें देख लेगा। संयुक्तराष्ट्र में अमेरिका की प्रतिनिधि राजदूत निक्की हेली ने कहा है कि सं.रा. संघ का खर्च उठानेवाले अमेरिका के साथ यह एहसान फरामोशी क्यों हो रही है ? ट्रंप और हेली के ये तर्क बताते हैं कि ट्रंप सरकार का दिमाग कितना खोखला है ? तुर्की, जो अमेरिकी सैन्य गुट का सदस्य रहा है, आखिर वह यह प्रस्ताव लाने को मजबूर क्यों हुआ ? ट्रंप प्रशासन का यह सोच कितना घटिया है कि वह विदेशी सरकारों की संप्रभुता को खरीद सकता है ? ट्रंप का दिमाग तो इसी तथ्य से ठीक हो जाना चाहिए था कि सुरक्षा परिषद के सभी अन्य सदस्यों ने अमेरिका के खिलाफ वोट दिया है। उसके, वीटो ने उसे बचा लिया। येरुशलम को इस्राइल की राजधानी घोषित करने का विरोध उन अरब देशों- मिस्र, जोर्डन, एराक ने भी किया है, जो अमेरिका के घनिष्ट राष्ट्र हैं। भारत ने भी विरोध किया है। भारत का यह अमेरिका-विरोध उन दिनों की याद दिलाता है, जब भारत गुट-निरपेक्षता का पुरोधा था लेकिन इस समय जबकि भारत और ट्रंप की दांत-कटी रोटी है, भारत द्वारा अमेरिका के विरुद्ध वोट करना साहसिक कदम माना जा सकता है। शायद दुस्साहसिक भी! क्या अब ट्रंप का गुस्सा भारत को भी झेलना पड़ेगा ? बेहतर तो यह हो कि मोदी अब ट्रंप को फोन करके समझाए कि घोषणा तो उन्होंने कर दी लेकिन घोषणा को बस घोषणा ही रहने दें और यरुशलम को इस्राइल और फलिस्तीन, दोनों की राजधानी बनाने की कोशिश करें।
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोए…
– निर्मल रानी
हम भारतवासियों को हमारे पूर्वजों तथा देश में उपलब्ध शिक्षण सामग्री व साहित्य द्वारा यही बताया जाता रहा है कि भारतवर्ष ने पूरे विश्व में अध्यात्म, सुसंस्कार, मानवता तथा तमीज़ व तहज़ीब का पाठ पढ़ाया। यह भी बताया जाता है कि दुनिया हमारे देश को विश्वगुरू भी स्वीकार करती थी। ज़ाहिर है यदि हमारा देश कभी वैश्विक स्तर पर अध्यात्म व सुसंस्कार की पताका लहरा भी रहा होगा तो इसके पीछे हमारे देश में उस समय मौजूद ऋषियों-मुनियों, अध्यात्मवादियों तथा संतों की ही महत्वपूर्ण भूमिका रही होगी। निश्चित रूप से हमारे संतों व ऋषि-मुनियों ने हमें अनेक ऐसी सौगात दी हैं जो प्रत्येक भारतवासी के लिए गौरव का विषय है। और हमारे इन्हीं पूर्वजों से प्राप्त सुसंस्कार ही हमें यह भी सिखाते हैं कि हमें दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? किसी के साथ विमर्श में कैसी भाषा का प्रयोग करना चाहिए, दूसरे के प्रति हमें कैसी भावना रखनी चाहिए, वार्तालाप के दौरान हमें कैसे शब्दों का प्रयोग करना चाहिए तथा कैसे शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए। हमारे संस्कार ही हमें यह भी सिखाते हैं कि किसी की भावनाओं को उकसाना या भड़काना नहीं चाहिए। किसी पर बिना किसी तथ्य अथवा आधार के लांछन नहीं लगाना चाहिए। बल्कि हमारे शास्त्र तो हमें यहां तक बताते हैं कि यदि किसी व्यक्ति में कोई कमी अथवा बुराई है तो भी उसे सार्वजनिक करने या उसे बदनाम करने से परहेज़ करना चाहिए। झूठे लांछन लगाना तो हमारे धर्मशास्त्रों में महापाप भी बताया गया है।
परंतु बड़े दु:ख का विषय है कि स्वयं को भारतवर्ष का भाग्यविधाता समझने की गलतफहमी पाले कुछ लोग अपने निजी राजनैतिक स्वार्थ सिद्ध करने मात्र के उद्देश्य से समस्त प्राचीन भारतीय परंपराओं व उसकी गरिमा को तिलांजलि देते हुए ऐसे प्रत्येक कार्य कर रहे हैं जो भारतीय संस्कृति व संस्कार के बिल्कुल विरुद्ध हैं। आज हमारे देश में जब और जिधर देखिए कोई न कोई जि़म्मेदार व्यक्ति अपने मुंह से ऐसे घटिया, कड़वे व निरर्थक बोल बोलते सुनाई देगा जो समाज में बेचैनी पैदा करने वाले होते हैं। उदाहरण के तौर पर पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात चुनाव के दौरान एक जनसभा में महज़ चुनावी लाभ उठाने के मकसद से ऐसा वक्तव्य दे डाला जिससे कि देश की संसद के दोनों सदनों में भारी हंगामा बरपा हो गया। प्रधानमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर बैठे हुए किसी भी व्यक्ति ने अब तक देश के अति विशिष्ट लोगों पर ऐसे गंभीर आरोप कभी नहीं लगाए थे। मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी, पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल दीपक कपूर, पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह, पूर्व विदेश सचिव सलमान हैदर सहित कई विशिष्ट लोगों को पाकिस्तान द्वारा भारत के विरुद्ध रची जा रही साजि़श में सहभागी करार दे दिया। इतना घटिया व बेहूदा आरोप देश का मध्यम व निचले स्तर का भी कोई नेता नहीं लगा सकता। क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गुजरात में राजनैतिक लाभ हासिल करने के लिए देश के इतने विशिष्ट लोगों को भारत की जनता के समक्ष संदिग्ध स्थिति में लाकर खड़ा करना चाहिए था?
देश में अपना प्रभाव बढ़ाती जा रही बहुसंख्यवाद की राजनीति का एक सबसे अहम फार्मूला यही है कि देश के बहुसंख्य समुदाय के दिल में अल्पसंख्यक समुदाय का भय पैदा किया जाता है। उन्हें यह समझाने की कोशिश की जाती है कि भविष्य में देश का अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज बहुसंख्यक हो जाएगा और बहुसंख्य हिंदू समाज अल्पसंख्या में आ जाएगा। जब चार सौ वर्षों से भी लंबे समय तक देश में मुस्लिम शासकों के हुकूमत करने के बावजूद भारत में मुस्लिम समाज बहुसंख्यक नहीं बन सका तो आज के दौर में कैसे बहुसंख्यक हो जाएगा, इस सवाल का तो कोई जवाब नहीं है। परंतु केवल बहुसंख्य व अल्पसंख्यक के मध्य ध्रुवीकरण कर बहुसंख्यक समाज के समर्थन से सत्ता हासिल करने के मकसद से देश के हिंदुओं का आह्वान किया जाता है कि वे पांच बच्चे पैदा करें अन्यथा 2030 तक वे अल्पसंख्यक हो जाएंगे। कभी स्वर्गीय अशोक सिंघल तो कभी प्रवीण तोगडिय़ा यहां तक कि सांसद साक्षी व साध्वी प्राची जैसे जि़म्मेदार लोग हिंदू समाज की महिलाओं से चार-पांच बच्चे पैदा करने की अपील करने लगे हैं। इन्होंने बच्चों का भविष्य भी निर्धारित करते हुए यह सुझाव दिया है कि एक बच्चा सीमा की रक्षा के लिए भेजो, एक समाज की सेवा करे, एक साधू को दे दो तथा एक बच्चे को देश व संस्कृति की रक्षा हेतु विश्व हिंदू परिषद् को दिया जाना चाहिए। बद्रिका आश्रम के शंकराचार्य वासुदेवानंद सरस्वती ने तो इन सभी से काफी आगे की सोच दर्शाते हुए यह कहा है कि यदि नरेंद्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनाना है तो सभी हिंदुओं को कम से कम दस बच्चे पैदा करने चाहिए। समाज व अर्थशास्त्र के अनुसार आखिर उक्त व्यवस्था कितनी सफल, कारगर तथा न्यायसंगत हो सकती है? हां इन बातों से ऐसे लोगों के भीतर की भावनाएं तथा कड़वाहट अवश्य प्रकट होती है।
आजकल हमारे देश में राष्ट्रवाद का प्रमाण पत्र बांटने का चलन भी ज़ोरों पर चल पड़ा है। यदि आप इन स्वयंभू तथाकथित सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों की सोच व विचार के अनुरूप अपनी बात नहीं करते या आपकी कोई बात या अदा इन्हें पसंद नहीं आती तो आपको राष्ट्रविरोधी या राष्ट्रद्रोही होने तक का प्रमाण पत्र जारी किया जा सकता है। यह और बात है कि यदि आप इन्हीं लोगों से देश के स्वतंत्रता संग्राम में इनकी या इनके पूर्वजों की भूमिका के बारे में पूछें तो यही लोग बगलें झांकते दिखाई देते हैं। पिछले दिनों भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान विराट कोहली ने फिल्म अभिनेत्री अनुष्का शर्मा के साथ अपना विवाह रचाया। विवाह की रस्में इन दोनों वर-वधू ने स्वेच्छा से इटली में जाकर अदा कीं। किस व्यक्ति ने कहां विवाह करना है यह उस परिवार का बेहद निजी मामला है। परंतु हमारे देश के सांस्कृतिक राष्ट्रवादी इस विवाह को भी पचा नहीं पाए। मध्यप्रदेश में गुना से भारतीय जनता पार्टी के विधायक पन्ना लाल शाक्य को इन दोनों की शादी इटली में होने से इतनी तकलीफ पहुंची कि इन्होंने इन दोनों की देशभक्ति पर ही सवाल खड़ा कर दिया। विधायक ने कहा कि -‘विराट कोहली ने भारत में नाम और पैसा दोनो कमाया है और उन्होंने शादी इटली में जाकर की। उसने भारत में अपनी शादी समारोह क्यों नहीं रखा? यह राष्ट्रभक्ति नहीं। विधायक महोदय ने यह भी याद दिलाया कि-‘इस धरती पर भगवान राम की शादी हुई। भगवान कृष्ण ने भी यहां शादी की लेकिन इस आदमी(कोहली)ने इटली में जाकर शादी रचाई है जिससे वह राष्ट्रभक्त नहीं हो सकता। उन्होंने कहा यही बात उनकी दुलहनिया अनुष्का शर्मा पर भी लागू होती है। गौरतलब है कि जिस समय यह विधायक इस प्रकार की संकुचित भाषा का प्रयोग कर रहा था, उसके पीछे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चित्र लगा था तथा यह विधायक स्किल इंडिया कार्यक्रम के अंतर्गत् स्कूल के बच्चों को ‘ज्ञान का पाठ पढ़ा रहा था।
आज पूरे देश में अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए अपनी योग्यताओं का बखान करने के बजाए दूसरों को अपमानित करने तथा लांछन लगाकर अपने विरोधियों को मात देने का एक दुर्भाग्यपूर्ण दौर चल पड़ा है। इस दौर में जिसे चाहें भ्रष्ट बता दें, देशद्रोही, राष्ट्रद्रोही, नास्तिक, अधार्मिक, धर्मविरोधी कुछ भी किन्हीं भी शब्दों में कह डालें कोई फर्क़ पडऩे वाला नहीं भले ही संसद से लेकर सड़कों तक हंगामा क्यों न बरपा हो जाए। न जाने भारतीय संत शिरोमणि संत कबीर दास ने किस देश के लोगों के लिए यह कहा कि-‘ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोए। औरन को शीतल करें आपहुं शीतल होए।
रानी लक्ष्मीबाई के चरित्र पर सवाल खड़ा करना…!
-नईम कुरेशी
इतिहास बदलने की सनक से भारत के स्वर्ण अक्षरों वाले इतिहास को मिटाने का षड्यंत्र संघ परिवार के लोग कर रहे हैं। सिर्फ नफरतें फैलाकर वोट बैंक मजबूत करने का उनकी ये नादान कोशिशें हैं। देश के स्वर्णिम इतिहास जहां ये ईमानदारी से दर्ज है कि बादशाह अकबर की सेना के बड़े सेनापति राजा मानसिंह कछवाह थे वहीं महाराणा प्रताप के सबसे बड़े सेनापति हाकिम खॉन सूर थे जो अफगानी पठान रहे थे। अकबर व प्रताप का युद्ध महज दो राजाओं का युद्ध रहा था पर संघ परिवार भा.ज.पा. के लोगों को ये बात पसंद नहीं है। ये सांस्कृतिक एकता, धर्म निरपेक्षता व देश की मजबूती से उन्हें लेना देना नहीं है। गुजरात का दंगा कराकर 4-5 हजार लोगों महिलाओं व बच्चों की हत्याओं से उन्हें वहां सत्ता मिल गई है। ऐसा ही प्रयोग ये लोग उत्तर प्रदेश, बिहार आदि में भी करना चाहते हैं।
भोपाल के एक वरिष्ठ पत्रकार लेखक ओमप्रकाश मेहता के अनुसार आश्चर्य है कि सत्ता रूढ़ दल, सरकारें, फिल्म उद्योग के कुछ निर्माता उन पात्रों का नाम मिटाने पर आमादा हैं जो इतिहास के गौरव रहे हैं। ये लोग नई पीढ़ी को नया इतिहास पढ़ाकर उनके दिल दिमागों में नफरत भरना चाहते हैं। दुनियाभर में भारत को नाम यश, पर्यटकों के माध्यम से पैसा दिलाने वाले ताजमहल को पर्यटन सूची से हटाने की सिरफिरी हरकत करने से भी वो बाज नहीं आ रहे हैं। अंग्रेजों से आखिरी दम तक लड़ने वाले दक्षिण के टीपू सुल्तान को खलनायक बताने वाले ये लोग नफरत का व्यापार सिर्फ सत्ता पाने करने का अभियान चलाये हुये हैं। सुखद बात ये है कि देश के सभी धर्म़ों से आने वाले बुद्धिजीवीगण उनकी पोल खोलने से भी पीछे नहीं हैं।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के चरित्र पर भी इन्हीं से प्रभावित कोई महिला लेखक उनको एक अंग्रेजी अफसर पॉलिटिकल एजेंट की प्रेमिका बता रही हैं जबकि लक्ष्मीबाई जो 21-22 की उम्र में ही अंग्रेजों से लड़कर शहीद हो गई थीं, आज भारत की लाखों महिलाओं की प्रेरणा बनी हुई हैं। सिर्फ सियासत चमकाने विवाद के बहाने सुर्खियों में बने रहने और गरीबों की भुखमरी, दलितों पर अत्याचार, आदिवासी बच्चों की कुपोषण से हुइऔ मौतों से ध्यान हटाने व पुलिस थानों की लूट व अस्पतालों की डकैतियों से आम लोगों का ध्यान हटाना, बेरोजगारी, शिक्षा तंत्र में भ्रष्टाचार से लोगों पर हो रहे अत्याचारों पर चर्चा रोकना ही इन लोगों का असल मकसद रहा है। आज भी देश की 60 करोड़ आबादी को न शुद्ध पानी मिल रहा है ना ही रोजी रोटी कमाने के अवसर, न उचित सरकारी अस्पतालों में इलाज ही। प्राईवेट अस्पतालों में इलाज के लिये 15-15 लाखों के बिल दिये जा रहे हैं। ये सब सत्ता के संरक्षण में हो रहा है। इन सबसे ही ध्यान हटाने इतिहास बदलने के नारे, मंदिर मस्जिद विवादों के नारे, औरंगजेब के नारे, पाकिस्तान व चीन का हव्वा दिखाया जा रहा है। आखिर विकास की बातें सत्ता दल व संघ परिवार ने क्यों बंद करवा रखी हैं।
कांग्रेसी जमीन से जुड़ें
सिर्फ और सिर्फ सत्ता के बहाने मौजमस्ती उड़ाकर 5 फीसद लोग सरकारी संसाधनों से हवाई यात्रायें कर रहे हैं। बड़ी कोठियों व बंगलों में सैकड़ों करोड़ों के नौकरों के साथ मौज मस्तियां उड़ा रहे हैं। दलित और पिछड़े इनके ऐजेन्डे में ही नहीं हैं। कांग्रेस भी लगभग ऐसा ही कर रही थी। उनके नेता भी सामंती लहजे से लबालब भरे थे पर जनता ने उन्हें आखिर बदल ही दिया। अब उनमें 10-15 सालों के बाद कुछ सुधार सा दिखाई दे रहा है। उनके नेता राहुल गांधी अब जमीन से जुड़ते दिखाई दे रहे हैं। आमतौर से विपक्ष भी अब उन्हें गंभीरता से अपना नेता मानने लगा है। कांग्रेस से कुछ सामंती अवसरवादी लोग किनारे भी किये जा रहे हैं, जो उसे डुबाये हुये थे। पिछड़े दलितों को कांग्रेसी अब कुछ तवज्जो देते दिखाई दे रहे हैं जो शायद उनको पुन: सत्तानशी कर भी देगा पर इतिहास के नाम पर हमारे हीरो रहे लोगों का चरित्र हनन के अभियान की तरफ युवा वर्ग को जरूर गौर करना होगा। भिण्ड सांसद डॉ. भागीरथ प्रसाद ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान की याद में पिछले दिनों 100 किलोमीटर लम्बी यात्रा कर उनके बलिदान की याद ताजा कराई।
राहुल बनाए मोदी को बेहतर मोदी
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गुजरात में कांग्रेस हार गई, यह बहुत ही अच्छा हुआ। यदि वह जीत जाती तो आप ही सोचिए क्या होता ? राहुल गांधी के दिमाग में मोदी की तरह हवा भर जाती। रातोंरात वे अपने आप को मोदी-पछाड़ महानायक समझने लगते और उनके तीन युवा साथी- हार्दिक, जिग्नेश और अल्पेश- कहते कि असली महानायक तो हम हैं। जिस जीत के चार-चार दावेदार हों, उसकी दशा क्या होती, इसका अंदाज लगाना कठिन नहीं है। यदि गुजरात में मोदी की हार हो जाती तो क्या होता ? मोदी के अंहकार का गुब्बारा पिचक जाता। वे सबके बाॅस नहीं, ‘बराबरीवालों में प्रथम’ की तरह काम शुरु कर देते। मन की बात करने की बजाय काम की बात करने लगते। जिन्हें ‘ब्रेन-डेड’ कहकर मार्गदर्शक मंडल की ताक पर बिठा दिया है, उन बुजुर्ग नेताओं की वे आरती उतारते। वे पत्रकारों से डरने की बजाय उनकी संगत के लिए बेताब हो जाते। वे शेष डेढ़ साल में कुछ ऐसा कर दिखाते जो फर्जीकल स्ट्राइक, नोटबंदी और जीएसटी से बेहतर होता और इन तीनों कामों से जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई भी हो जाती। 2019 की जबर्दस्त तैयारी भी अपने आप हो जाती। अब भी वह जरुर होगी, क्योंकि मोदी और अमित भाई को सबसे ज्यादा पता है कि गुजरात की इस जीत का अर्थ क्या है ? कार्यकर्ता खुशी मनाएं, यह स्वाभाविक है लेकिन दोनों भाइयों को इस मामूली जीत के लिए कितने पापड़ बेलने पड़े हैं, यह वे ही जानते हैं। इस चुनाव ने दोनों की छवि को फीका किया है और राहुल की छवि को निखारा है। राहुल को पता होना चाहिए कि गुजरात में उनको मिली बढ़त सिर्फ उनके कारण नहीं है अर्थात 2019 में मोदी को टक्कर देना है तो अखिल भारतीय स्तर पर मोर्चा बनाना हेागा। नम्रता और त्याग के बिना यह संभव नहीं है। संभावित मोर्चे के सभी नेता (अखिलेश के अलावा) राहुल से बड़े हैं। राहुल चाहें तो अभी से कह दें (बिल्कुल अपनी मां की तरह) कि वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं हैं। देखिए, फिर क्या होता है ? कैसे सारा देश राहुल के आस-पास मंडराने लगेगा। सारे दल दौड़-दौड़कर राहुल को गले लगाने लगेंगे। मोदी की गाड़ी अपने आप पटरी पर आ जाएगी। देश का लोकतंत्र मजबूत होगा। इसके बावजूद यदि 2019 में मोदी जीत गए तो वह मोदी जरा बेहतर मोदी होगा।
अम्लीय प्रदूषण से दूषित होती नदियां
प्रमोद भार्गव
जल संपदा की दृष्टि से भारत की गिनती दुनियां ऐसे देशों में है, जहां बड़ी तादात में आबादी होने के बावजूद उसी अनुपात में विपुल जल के भंडार अमूल्य धरोहर के रूप में उपलव्ध हैं। जल के जिन अजस्त्र स्त्रोतों को हमारे पूर्वजों व मनीषियों ने पवित्रता और शुद्धता के पर्याय मानते हुये पूजनीय बनाकर सुरक्षित कर दिया था, आज वहीं जल स्त्रोत हमारे अवैज्ञानिक दृष्टिकोण, आर्थिक दोहन की उद्दाम लालसा, औद्योगिक लापरवाही, प्रशासनिक भ्रष्टाचार और राजनैतिक अदूरदर्शिता के चलते अपना अस्तित्व खो रहे हैं। गंगा और यमुना जैसी सांस्कृतिक व ऐतिहासिक महत्व की नदियों की बात तो छोड़िये, प्रादेशिक स्तर की क्षेत्रिय नदियां भी गंदे नालों में तब्दील होने लगी हैं। स्टील प्लांटों से निकले तेजाब ने मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र की नदियों के जल को प्रदूषित कर अम्लीय बना दिया है। वहीं छत्तीसगढ़ की नदियों को खदानों से उगल रहे मलवे लील रहे हैं। उत्तर प्रदेश की गोमती का पानी जहरीला हो जाने के कारण उसकी कोख में मछलियों की संख्या निरंतर घटती जा रही है। गंगा किस हाल में है, सब जानते हैं। भारत में औशत वर्षा का अधिकतम अनुपात उत्तर-पूर्वी चेरापूँजी में 11,400 मिमी और उसके ठीक विपरीत रेगिस्तान के अंतिम छोर जैसलमेर में न्यूनतम 210 मिमी के आसपास है। यही वर्षा जल हमारे जल भण्डार नदियां, तालाब, बांध, कुओं और नलकूपों को बारह महीने लबालव भरा रखते हैं। प्रकृति की वर्षा की यह देन हमारे लिये एक तरह से वरदान है। लेकिन हम अपने तात्कालिक लाभ के चलते इस वरदान को अभिशाप में बदलने में लगे हुये हैं। औद्योगिक क्षेत्र की अर्थ दोहन की ऐसी ही लापरवाहियों के चलते मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र में लगे स्टील संयंत्र रोजाना करीब 60 टन दूषित मलवा नदियों में बहाकर उन्हें जहरीला तो बना ही रहे हैं, मनुष्य-मवेशी व अन्य जलीय जीव-जन्तुओं के लिये जानलेवा भी साबित हो रहे हैं। दरअसल इन स्टील संयंत्रों में लोह के तार व चद्दरों को जंग से छुटकारा दिलाने के लिये 32 प्रतिशत सान्द्रता वाले हाइड्रोक्लोरिक अम्ल का इस्तेमाल किया जाता है। तारों और चद्दरों को तेजाब से भरी बड़ी-बड़ी हौदियों में जब तक बार-बार डुबोया जाता है तब तक ये जंग से मुक्त नहीं हो जातीं ? बाद में बेकार हो चुके तेजाब को चामला नदी से जुड़े नालों में बहा दिया जाता है। इस कारण नदी का पानी लाल होकर प्रदूषित हो जाता है, जो जीव-जन्तुओं को हानि तो पहुंचाता ही है यदि इस जल का उपयोग सिंचाई के लिये किया जाता है तो यह जल फसलों को भी पर्याप्त नुकसान पहुंचाता है। पूरे मध्यप्रदेश में इस तरह की पंद्रह औद्योगिक इकाईयां हैं। लेकिन अकेले मालवा क्षेत्र और इंदौर के आसपास ऐसी दस इकाईयां है, जो खराब तेजाब आजू-बाजू की नदियों में बहा रही हैं। नियमानुसार इस दूषित तेजाब को साफ करने के लिये रिकवरी यूनिट लगाये जाने का प्रावधान उद्योगों में हे, पर प्रदेश की किसी भी इकाई में ट्रीटमेंट प्लांट नहीं लगे हैं। दरअसल एक ट्रीटमेंट प्लांट की कीमत करीब आठ करोड़ रूपये है। कोई भी उद्योगपति इतनी बड़ी धनराशि व्यर्थ खर्च कर अपने संयंत्र को प्रदूषण मुक्त रखना नहीं चाहता ? कभी-कभी जनता की मांग पर प्राशसनिक दबाव बढ़ने के बाद औद्योगिक इकाईयां इतना जरूर करती हैं कि इस अम्लीय रसायन को टेंकरों में भरवाकर दूर फिकवाने लगती हैं। इसे नदियों और आम आदमियों का दुर्भाग्य ही कहिये कि इसी मालवा अंचल में चंबल, क्षिप्रा और गंभीर नदियां हैं, टेंकर चालक इस मलवे को ग्रामीणों कि विद्रोही नजरों से बचाकर इन्ही नदियों में जहां तहां बहा आते हैं। नतीजतन औद्योगिक अभिशाप अंतत: नदियों और मानव जाति को ही झेलना पड़ता है। ग्रामीण यदि जब कभी इन टेंकरों से रसायन नदियों में बहाते हुये चालकों को पकड़ भी लेते हैं तो पुलिस और प्रशासन न तो कोई ठोस कार्यवाही करते है और न ही इस समस्या के स्थायी समाधान की दिशा में कोई पहल करता है। ऐसे में अंतत: ग्रामीण अभिशाप भोगने के लिये मजबूर ही बने रहते हैं। इसी तरह गुना जिले के विजयपुर में स्थित खाद कारखाने का मलवा उसके पीछे बहने वाले नाले में बहा देने से हर साल इस नाले का पानी पीकर दर्जनों मवेशी मर जाते है। मलवे से नाले का पानी लाल होकर जहरीला हो जाता है। सिंचाई के लिये इस्तेमाल करने पर यह पानी फसलों की जहां पैदावार कम करता है, वहीं इन फसलों से निकले अनाज का सेवन करने पर शरीर में बीमारियां भी घर करने लगती हैं। ग्रामीण हर साल नाले में दूषित मलवा नहीं बहाने के लिये अपनी जुबान खोलते हैं लेकिन खाद कारखाने एवं जिले के आला प्रशासनिक अधिकारियों के कानों में जूं तक नहीं रेंगती ? वाराणसी में गंगा का प्रवाह सात किमी है। एक समय बृहद बनारस क्षेत्र में बारहमासी वरणा, असी, किरणा और धूतपापा नदियां गंगा में मिलकर इसके जल को प्राकृतिक रूप से प्रांजल बनाए रखने का काम करती थीं। इसके अलावा ब्रह्मनाल, मंदाकिनि और मत्स्योदरी बरसाती नदियां भी गंगा के जल प्रवाह को गातिशील बनाए रखती थीं। किंतु अब ये सब नदियां नालों-परनालों में तब्दील होकर अपना अस्तित्व खों चुकी हैं। इनके व अन्य 23 नालों के जरिए ही गंगा में 300 मीलियन लीटर से ज्यादा मल-मूत्र प्रवाहित हो रहा है। इन वजहों से गंगा जल में जीवाणु-वीषाणुओं की भरमार हो गई है। पेयजल में बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड का मानक तीन मिली ग्राम प्रति लीटर होना चाहिए, जो बनारस की गंगा में 5 से 8 मिलीग्राम प्रति लीटर है। तय है,गंगा में बड़ी मात्रा में जहर बह रहा है। जाहिर है, नदी का इस स्तर पर खराब हुआ स्वास्थ्य मनुष्य जाति को भी स्वस्थ्य नहीं रहने देगा। इसलिए यह तो अच्छी बात की देश के उर्जावान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बनारस में गंगा का कायापलट करने पर आमादा हैं,लेकिन गंगा का अवरिल प्रवाह बना रहे इस दृष्टि से माननीय प्रधानमंत्री जी को देहरादून में दिए उस बयान पर पुनर्विचार करना होगा, जिसमें उन्होंने उर्जा के लिए पहाड़ी नदियों और पहाड़ो के पानी के दोहन की बात कही थी ? अन्यथा गंगा तो दूषित रहेगी ही,पहाड़ भी वृक्षों से निर्मूल हो जाएंगे। (लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।)
मोदी और राहुल एक ही नाव में
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सोनिया गांधी का जाना और उनकी जगह राहुल गांधी का आना आज की चर्चा का सबसे बड़ा विषय है। राहुल गांधी उसी तरह कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए हैं, जैसे अमित शाह भाजपा के अध्यक्ष बने थे। देश की इन दो सबसे बड़ी पार्टियों के अध्यक्षों की योग्यता क्या है और वे कैसे चुने गए हैं, यही बताता है कि हमारे लोकतंत्र का असली हाल क्या है। नरेंद्र मोदी कहते हैं कि उन्हें कांग्रेसमुक्त भारत चाहिए तो उनसे कोई पूछे कि इसका मतलब क्या हुआ ? क्या वे विपक्षमुक्त सत्ता चाहते हैं ? क्या भारत को वे सोवियत संघ और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की तरह एकदलीय लोकतंत्र बनाना चाहते है? यदि हां तो सबसे पहले उन्हें अपनी ही पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र को बलि का बकरा बनाना होगा। उसे पार्टी नहीं, प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनाना होगा। सो, वह बनती ही जा रही है। संघ का अंकुश भी अब निरंकुश हो गया है। कांग्रेस और भाजपा में अब कितना अंतर रह गया है ? दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू नजर आते हैं। मोदी और राहुल, दोनों ही एक ही तरह की नाव में सवारी कर रहे हैं। सोनिया गांधी 19 साल तक अपनी कंपनी की लगातार मलिका बनी रहीं। उनके नामजद सीईओ मनमोहनसिंह कंपनी को चलाते रहे और अब उन्होंने अपने बेटे को उत्तराधिकारी बना दिया है। कांग्रेस मां-बेटा पार्टी है तो भाजपा आज भाई (नरेंद्र)- भाई (अमित) पार्टी है। दोनों पार्टियों की सरकारों को अफसर चलाते रहे हैं और नेतागण वोट और नोट की झांझ पीटते रहे हैं। इस बीच इन एकायामी पार्टियों ने लोक-कल्याण के कुछ उल्लेखनीय कार्य भी किए हैं लेकिन इस दुनिया का यह सबसे बड़ा लोकतंत्र जिस घोंघागति से आगे खिसकता रहा है, उसका एक बड़ा कारण यह भी है कि इसकी पार्टियां सचमुच लोकतांत्रिक नहीं है। यदि इन पार्टियों के नेता अपने आप को सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान समझने लगें तो जनता को सतत आपात्काल को भुगतने के लिए तैयार रहना होगा। यहां आशा की एक किरण यह भी है कि गुजरात के चुनाव के दौरान सर्वज्ञ नेताओं में नम्रता दिखाई पड़ी और पप्पू कहे जानेवाले नेता ने जरा परिपक्वता का परिचय दिया और खुद को एक साधारण इंसान, भूल कर सकनेवाला आदमी भी माना। दोनों नेतृत्वों का मूल चरित्र एक-जैसा ही है लेकिन अपनी भूल स्वीकार करनेवाले नेता से यह आशा बंधती है कि उसकी अल्प-पात्रता ही उसका आभूषण है याने अयोग्य वह ज्यादा ही है लेकिन वह योग्य और अनुभवी लोगों को ‘मार्गदर्शक मंडल’ में नहीं फेंकेगा। उनके मार्गदर्शन का लाभ उठाएगा, जैसे उसकी दादी ने 1966 से 1975 तक उठाया था।
शिव राज सरकार मिल्क पार्लर जैसे चिकन पार्लर खोलेंगी !
अरविन्द जैन
किसान खेती भूसे के लिए नहीं करता ,बीज से फसल के लिए और भूसा अपने आप मिलता हैं ,यदि किसान भूसा के निम्मित यदि खेती करता हैं तो वह मूर्ख होता हैं । हमारी मनपसंद सरकार यानि मध्य प्रदेश सरकार सबसे पहले मुर्गीपालन के लिए सहायता दे रही हैं जिससे मुर्गी उत्पादन बढ़ेगा और फिर उनको बेचने के लिए सरकार चिकिन पार्लर खोल रही हैं यह बहुत प्रशंसनीय और वंदनीय प्रयास हैं ,वैसे शिव की बारात में तो सब लोग गए थे।
वैसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश क्रमशः भगवन के रूप हैं और शिव संहारक रहे हैं तो कलियुग में शिव यदि जीव संहारक बने हैं तो क्या नयी बात हैं ? राजा वैसे पालक होता हैं उसका काम सम्पूर्ण प्रजा का पालन करना होता हैं । तो उसने मुर्गी उत्पादन का काम हाथ में लिया तो कोई नयी बात नहीं। उसके बाद विक्री के लिए मिल्क, चिकिन पार्लर खोल रही हैं जिससे जनता को सुविधाजनक तरीके से उत्पादित माल बेचा जा सके । हमारे भारत वर्ष में मांस मछली अंडा का उत्पादन विश्व में सबसे श्रेठ और प्रथम नंबर पर हैं । वैसे भारत मांस
उत्पादन में अग्रणी हैं । 70 बिलियन टन से अधिक मांस का निर्यात प्रति वर्ष किया जाता हैं । और अण्डों से चिकन की और मांस की बिक्री बिना हत्या किये की जाती हैं इसके लिए हमें कत्लखानों की जरुरत नहीं हैं क्योकि हम भगवान् राम, कृष्ण, महावीर, शिव के देश और प्रदेश में रहते हैं, हम अहिंसात्मक तरीके से मांस ,अंडे, चिकन मछली शराब का उत्पादन करते हैं । इसीलिए हम अहिंसा प्रेमी हैं और शिव तो बहुत भोले हैं उन्हें पता नहीं रहता हैं की प्रदेश में क्या हो रहा हैं ,उन्हें तो सबको खुश रखना हैं और मनपसंद प्रदेश में सब खुश रहे । ये परस्परो ग्रहो जीवानां के पालने वाले हैं । हम एक दूसरे के उपकारी हैं ।
हमारा मनपसद राज्य कई मामलों में देश में अग्रणी हैं उसकी सूचि तो सरकार के पास होंगी पर अभी अभी हम चोरी ,हत्यायों ,आत्महत्त्यों,बलात्कार ,अपहरण ,के साथ मांस ,मुर्गी ,मछली अण्डों के उत्पादन में सिरमौर हैं ,और शिव के राज्य में कांडों की कमी नहीं हैं ,व्यापम हो या अन्य । । कौन याद रखे इनके कांडों को । हमने विपक्ष को क्यों रखा हैं इनका लेखा जोखा रखने । वैसे ये सब प्रगति और विकास के लक्षण हैं ,विकास सर्वव्यापी होना चाहिए ,और विकास घर घर शीघ्रता से पहुंचाने के लिए मिल्क पार्लर जैसे चिकिन ,अंडे ,मांस ,मछली शराब के केंद्र खोलना चाहिए जिससे सुगमता से उपलब्ध होने पर उपभोग कर सके और जो अभी अपराध का प्रतिशत जो कम हैं उसमे भी इज़ाफ़ा हो सके।
मध्य प्रदेश सरकार का मुखिया मुख में राम बगल में छुरी कहावत चरितार्थ तो नहीं कर रहा हैं । जितना तामसिक राजसिक भोजन का भक्षण होगा अपराध अधिक बढ़ेंगे । और किसने यह अक्ल दे दी की चिकिन को भी घर घर उपलब्ध कराये । अगर मनपसंद सरकार की यही योजना हैं हैं तो स्वागतेय होगी ,अब इसके बाद या तो थानों को बंद कर दिया जाये और और अधिक खोले जाये। सरकार हिंसा से शांति का माहौल पैदा करना चाहती हैं । भूसा के लिए किसानी कर रही हैं । इससे कितना धन कमाया जा सकेगा। ध्यान रखे यदि जो राज्य पशुओं,जीवों की हिंसा से अपना राजकोष बढ़ाना चाहता हैं उसका भविष्य उज्जवल नहीं होता हैं । जितनी हिंसा उतनी हिंसा इसका तात्पर्य आप जितने जीवों की हिंसा करेंगे ,करवाएंगे और उनकी अनुमोदना करेंगे उतने अधिक पाप के भागिदार होंगे और वैसे भी राजा ,मंत्री ,सचिव ,प्रशाशक ,न्यायाधीश ,पुलिस ,वकील व्यापारी jyotishi मांस भक्षी सब नरक गामी होते हैं पर
राजा द्वारा जो यह कृत्य किया जा रहा हैं वह प्रज्ञा अपराध की श्रेणी में आता हैं ।
ये जितने भी जीव हत्यायों के कृत्य भारतीय संस्कृति ने कभी स्वीकार किया पर न जाने लोभ ,जिव्हा के लालच के वास्ते इस प्रकार के कृत्य भारतीय संस्कृति की दुहाई देने वाले राज्य को शोभा नहीं देता और यदि आपको इस व्यापार में लाभ होता हैं तो भविष्य में किसी धरम गुरुओं के पास ,मंदिरों में दर्शन करने नहीं जाना चाहिए । यह दोहरे चरित्र का घोतक
हैं और धरम के मार्ग में चोखा माल ही चलता हैं वहां कोई खोट की जरुरत नहीं होती । इसीलिए इस योजना को लागू करने के पहले सोचा जाना जरुरी हैं अन्यथा अपने आपको हिन्दू ,अहिंसक कहना बंद करो ।
राजा अधिकांश दुर्बलों और पापो का पुंज होता हैं धनार्जन के लिए जितना पाप करेंगे उतना भोगना होगा यह कभी नहीं सोचा की वाल्मीकि ने क्यों घर वार छोड़ा था पुण्य में सब सहभागी होते हैं और पाप कर्मों में स्वयं भोक्ता होगा अब बहुत कर लिया समाज और अन्यों के लिए शिव जी ये आपने किये हैं पदारोहण कर ,इसमें आपका कोई योगदान नहीं क्योकि पुण्य पाप का फल खुद को भोगना होता हैं अपना निज धन ,समय और पुरुषार्थ लगाओ अन्यों पर वही साथ जाता हैं सबके साथ ,इसलिए अब कुछ पुण्य कर्म करो और बंद करो इन संस्थाओं को
एक एक हिंसा काकर्म भोगना होगा वर्षों तक ,जन्मो तक मक्का गए मदीना गए बनकर आये हाजी न आदत गयी न इल्लत गयी रहे पाजी के पाजी अब सम्हाल जा ,कुछ अभी गया नहीं
करले वापिस जीव हिंसा के परवाने
मध्यप्रदेश में स्व-सहायता समूह से महिला स्वावलम्बन की नींव रखी गई
– सुरेश गुप्ता
प्रदेश में महिला सशक्तिकरण की दिशा में राज्य सरकार ने मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के नेतृत्व में व्यापक और प्रभावी पहल की है। मुख्यमंत्री श्री चौहान का मानना है कि आर्थिक स्वावलम्बन से ही महिला सशक्तिकरण का मार्ग प्रशस्त होता है। महिलाओं में उद्यमिता और कौशल के जो नैसर्गिक गुण होते हैं उससे महिलाएँ सहजता से आर्थिक स्वावलम्बन के लक्ष्य को प्राप्त कर लेती हैं। मुख्यमंत्री की इसी भावना के अनुरूप प्रदेश के 43 जिलों के 271 विकासखण्डों में मध्यप्रदेश दीनदयाल अंत्योदय योजना-राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन पर अमल किया जा रहा है। शेष 42 विकासखण्डों में गैर-सघन रूप से जिला पंचायतों के जरिए मिशन पर अमल हो रहा है। मध्यप्रदेश राज्य महिला वित्त एवं विकास निगम द्वारा भी प्रदेश में तेजस्विनी ग्रामीण महिला सशक्तिकरण कार्यक्रम चलाया जा रहा है। वर्ष 2007 से प्रदेश के छ: जिलों डिंडौरी,मण्डला, बालाघाट, पन्ना, छतरपुर और टीकमगढ़ में आरंभ यह कार्यक्रम वर्ष 2018- 19 तक जारी रहेगा।
आजीविका मिशन की प्रमुख उपलब्धियाँ
मिशन के जरिए अब तक लगभग 23 लाख 28 हजार परिवारों को 2 लाख से ज्यादा स्व-सहायता समूह से जोड़ा जा चुका है। आज की स्थिति में करीब डेढ़ लाख से अधिक समूह सदस्य एक लाख से अधिक आय अर्जित कर रहे हैं। करीब 17 हजार ग्राम संगठन बनाये गये हैं, जिनमें एक लाख 18 हजार समूहों की सदस्यता है। साथ ही 346 संकुल-स्तरीय संगठन भी बनाये जा चुके हैं। विभिन्न जिलों में 31 सामुदायिक प्रशिक्षण केन्द्र संचालित हैं। स्व-सहायता समूहों की
बुक-कीपिंग के लिये करीब 92 हजार बुक-कीपर्स प्रशिक्षित किये गये हैं। कम्युनिटी मोबलाइजेशन एवं कृषि गतिविधियों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से लगभग 24 हजार समुदाय स्रोत व्यक्तियों का चिन्हांकन कर प्रशिक्षण दिया गया है। लगभग 6 लाख 27 हजार ग्रामीण बेरोजगार युवाओं को रोजगारोन्मुखी प्रशिक्षण, रोजगार मेला और आरसेटी के जरिए रोजगार के अवसर सुलभ कराये गये हैं। समूहों से जुड़े 35 हजार से ज्यादा हितग्राही मुख्यमंत्री आर्थिक कल्याण और मुख्यमंत्री स्व-रोजगार योजना से लाभान्वित हुए हैं। बैंकों से करीब रुपये 1911 करोड़ के बैंक ऋणों से 1,51,438 स्व-सहायता समूह लाभान्वित हुए हैं। समूहों का लेन-देन सरल करने की दृष्टि से 215 बैंक सखी एवं 374 बैंक बिजनेस करस्पॉन्डेंट प्रशिक्षित होकर कार्यशील हैं। प्रदेश के 24 जिलों में समुदाय आधारित बीमा सुरक्षा संस्थान गठित कर 81 हजार 647 सदस्य जोड़े जा चुके हैं। मिशन द्वारा लगभग 5,000 महिलाओं को कम लागत की कृषि एवं जैविक कृषि के संबंध में प्रशिक्षित किया गया है। आज यह महिलाएँ न सिर्फ प्रदेश, बल्कि देश के अन्य प्रांतों यथा हरियाणा, उत्तरप्रदेश में भी कृषि कार्य में ग्रामीणों को सशक्त कर रही हैं।
मिशन की सबसे बड़ी उपलब्धि 14 लाख 48 हजार 940 परिवारों को आजीविका गतिविधियों से जोड़ना है। स्व-सहायता समूहों द्वारा उत्पादित सब्जियों एवं अन्य उत्पादों की बिक्री के लिये 442 आजीविका फ्रेश संचालित हैं। समूहों से जुड़े करीब डेढ़ लाख हितग्राहियों ने खरीफ सीजन में एसआरआई पद्धति से धान की फसल बोई, जिससे उत्पादन में लगभग दोगुना वृद्धि दर्ज हुई। मिशन के दायरे में करीब पौने आठ लाख आजीविका पोषण-वाटिका (किचन-गार्डन) तैयार
की गई हैं। करीब 6 लाख हितग्राहियों ने जैविक खेती को अपनाने के उद्देश्य से बर्मी पिट और नाडेप बनाये हैं। समूहों के माध्यम से 3 लाख 90 हजार से ज्यादा किसान व्यावसायिक सब्जी उत्पादन और 89 हजार से ज्यादा परिवार दुग्ध उत्पादन से जुड़ गये हैं। कुल डेढ़ लाख परिवारों ने आजीविका गतिविधियों का संवर्धन किया है। आज की स्थिति में मिशन से जुड़े स्व-सहायता समूहों की करीब 12 हजार महिलाओं द्वारा परिसंघों के जरिये अथवा स्वतंत्र रूप से परिधान तैयार किये जा रहे हैं। वर्तमान में मिशन की 159 सेनेट्री नेपकिन इकाइयों से समूहों की 5,608 महिलाएँ जुड़ी हैं। सवा पाँच सौ अगरबत्ती उत्पादन केन्द्रों से 4,713 और साबुन निर्माण से 2,877 समूह सदस्य लाभान्वित हो रहे हैं। बीस जिलों के 65 विकासखण्डों में समूह सदस्यों द्वारा गुड़, मूंगफली, चिक्की आदि का निर्माण किया जा रहा है। हथकरघा कार्य से भी 1236 हितग्राही जुड़े हैं।
समूहों के वित्त पोषण की पहल
मिशन से जुड़े समूहों की संस्थागत क्षमताओं एवं वित्तीय प्रबंधन को मजबूत करने तथा सदस्यों की छोटी-मोटी आवश्यताओं की पूर्ति के लिये ग्रेडिंग के बाद प्रत्येक समूह को 10 से 15 हजार तक की राशि रिवाल्विंग फण्ड से दी जाती है। समूह की गरीब सदस्यों की जरूरतों के लिये पूँजी की उपलब्धता सामुदायिक संगठन/सामुदायिक निवेश निधि से सुनिश्चित की जाती है। यह राशि उपलब्धता के आधार पर ग्राम संगठन के 50 प्रतिशत समूहों को संख्या के मान से दी
जाती है। एक आपदा कोष भी संचालित है, जिसका उपयोग अति गरीब वर्गों के व्यक्तियों एवं परिवारों को आने वाली आपदाओं का सामना करने में मदद के लिये किया जाता है।
मिशन के कार्यों का सम्मान एवं सराहना
मिशन में गठित 3 सर्वश्रेष्ठ समूह एवं एक ग्राम संगठन को केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा सम्मानित किया गया है। राष्ट्रीय आरसेटी दिवस पर भारत सरकार ने मिशन को स्व-रोजगार के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य के लिये पुरस्कृत किया है। इसी वर्ष मिशन अन्य प्रदेशों की तुलना में आजीविका गतिविधियों के बेहतर संचालन के लिये राष्ट्रीय-स्तर पर पुरस्कृत हुआ है। मिशन के अंतर्गत 37 उत्पादक कम्पनियाँ कार्यरत हैं। इनमें 29 कृषि आधारित, 4 दुग्ध और 4 मुर्गी-पालन से संबंधित हैं। बाड़ी विकास कार्यक्रम में बड़वानी में राजपुर, श्योपुर में कराहल एवं डिण्डोरी जिले के समनापुर में पाँच-पाँच सौ हितग्राही के साथ बाड़ी विकसित की गई है। अब तक प्रदेश में कुल 4,500 बाड़ी विकसित की जा चुकी हैं। विलेज टु कन्ज्युमर ऑनलाइन शॉप,डिजिटल प्लेटफार्म पर भी समूह के उत्पाद उपलब्ध हैं।
महिला सशक्तिकरण की सार्थक पहल तेजस्विनी
इस कार्यक्रम का उद्देश्य मजबूत और निरन्तरता वाले महिला स्व-सहायता समूहों तथा उनकी शीर्ष संस्थाओं का गठन व विकास करना, इन समूहों और संस्थाओं को सूक्ष्म वित्तीय सुविधाओं से जोड़ना और समूहों को बेहतर आजीविका के अवसर तलाशने तथा इनका उपयोग करने के लिये योग्य बनाना है। कार्यक्रम का एक और उद्देश्य समूहों को सामाजिक समानता,न्याय और विकास की गतिविधियों के लिये सशक्त करना भी है। जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य का
प्रबन्धन करना, कड़ी मजदूरी में कमी लाना, पंचायत में पूर्ण भागीदारी देना और महिलाओं के विरुद्ध हिंसा और अपराध को समाप्त करना। तेजस्विनी योजना के पाँच प्रमुख घटक हैं -सामुदायिक संस्था विकास, सूक्ष्म वित्त सेवाएँ, आजीविका व उद्यमिता और विकास, महिला सशक्तिकरण, सामाजिक न्याय एवं समानता और प्रोग्राम प्रबन्धन।
कार्यक्रम से दो लाख से अधिक महिलाएँ आर्थिक गतिविधियों से जुड़ीं छ: जिलों में चलाये जा रहे इस कार्यक्रम में वर्ष 2016 -17 तक 16 हजार 261 महिला स्व-सहायता समूहों का गठन हो चुका है। इन समूहों से जुड़कर 2 लाख 05 हजार 644 महिलाएँ लाभ पा रही हैं। कार्यक्रम के तहत इन छ: जिलों में प्रत्येक ग्राम में चार से पाँच स्व-सहायता समूहों को मिलाकर एक ग्राम स्तरीय समितियाँ भी गठित की गई है। सभी छ: जिलों में वर्ष 2016-17 तक 2,682 गाँवों में कुल 2,629 ग्राम स्तरीय समितियाँ कार्यरत है। स्व-सहायता समूहों की शीर्ष संस्थाओं के रूप में साठ स्थानों पर साठ फेडरेशन (परिसंघ)
भी गठित किये गये हैं। प्रत्येक फेडरेशन में तीन से साढ़े तीन हजार तक महिला सदस्य हैं।फेडरेशन स्वतंत्र रूप से स्व-सहायता समूहों के गठन, सुदृढ़ीकरण और ग्रेडिंग का कार्य कर रहे हैं। फेडरेशन के सदस्यों को इसके लिये विधिवत प्रशिक्षित किया जाता है।संयुक्त राष्ट्र संघ में बजा कार्यक्रम के नवाचार का डंका
डिण्डोरी जिले में कोदो-कुटकी जैसे मोटे अनाज के स्व-सहायता समूह के माध्यम से विपणन के प्रभावी प्रबन्धन से जनजातीय आबादी वाले इलाकों में जीविकोपार्जन का जो नवाचार तेजस्विनी योजना से आरम्भ हुआ था उसकी व्यापक चर्चा रही। महिला सशक्तिकरण पर संयुक्त राष्ट्र संघ मुख्यालय न्यूयार्क में जब वैश्विक समागम हुआ तो डिण्डोरी की तेजस्विनी स्व-सहायता समूह की श्रीमती रेखा पन्द्राम को न्यूयॉर्क आमंत्रित किया गया। संयुक्त राष्ट्र संघ की इस
प्रस्तुति से तेजस्विनी स्व-सहायता समूह को अन्तर्राष्ट्रीय पहचान मिली।
देर आयत, दुरूस्त आयत…… दाग हटाने से ज्यादा दागियों के भविष्य की चिंता…….?
– ओमप्रकाश मेहता
नरेन्द्र भाई मोदी ने करीब साढ़े तीन साल पहले प्रधानमंत्री की कुर्सी सम्हालने के एक पखवाड़े बाद संसद में अपने पहले भाषण में घोषणा की थी कि वे एक साल के अंदर देश के सभी दागी जन प्रतिनिधियों (सांसदों-विधायकों) के आपराधिक प्रकरणों का निपटारा करवाएगें, उन्होंने न्यायपालिका से इस कार्य में सहयोग की अपील भी की थी, तभी से पूरा देश मोदी जी के इस संकल्प की पूर्ति का इंतजार कर रहा था, अब साढ़े तीन साल बाद दागियों के मामले निपटाने हेतु एक दर्जन विशेष अदालतों के गठन के साथ आगामी एक साल (संभवत: लोकसभा चुनाव के पूर्व) की अवधि में 1581 दागी सांसद-विधायकों के आपराधिक प्रकरणों का निपटारा कराने की घोषणा माननीय प्रधानमंत्री जी ने की है और उसके लिए करीब आठ करोड़ रूपए की केन्द्र से मंजूरी भी करवा दी है। किंतु अब प्रधानमंत्री जी के इस घोषणा पर भी प्रश्न चिन्ह इसलिए लगाया जा रहा है कि इन 1581 जन प्रतिनिधियों पर करीब तैरह हजार पांच सौ आपराधिक मामले लंबित है, और ये यदि एक दर्जन विशेष अदालतों को सौंपे जाते है तो इनका निपटारा एक साल तो क्या आगामी पांच दशकों तक भी संभव नहीं है, कहा जा रहा है कि अगर इन्हें एक साल में निपटाना है तो कम से कम एक हजार विशेष अदालतों की जरूरत होगी जबकि सरकार ने अभी बारह राज्यों में एज दर्जन विशेष अदालतों की स्थापना का ही फैसला लिया है? जबकि एक हजार अदालतों पर कम से कम सात सौ करोड़ का खर्च अनुमानित है। साथ ही सरकार यह भी चाहती है कि 184 दागी लोकसभा सांसदों के प्रकरण दो विशेष अदालतों में एक साल में निपटा दिए जाए, क्या यह संभव है?
यद्यपि केन्द्र सरकार की योजना के अनुसार ये एक दर्जन विशेष अदालतों मध्यप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, केरल, तेलंगाना, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडू में स्थापित करने का प्रस्ताव है, और यदि हम दागी जन प्रतिनिधियों की प्रदेशवार संख्या देखें तो मध्यप्रदेश 70, महाराष्ट्र 160, उत्तरप्रदेश 143, बिहार 141, पश्चिम बंगाल 107, केरल 87, आंध्र प्रदेश 84, तमिलनाडू 75, कर्नाटक 73 और तेलंगाना 67 ये आंकड़े तो सिर्फ नौ राज्यों के है, जबकि पूरे देश में 29 राज्य है, केन्द्र शासित राज्य अलग, यदि इन बीस राज्यों के भी आंकड़े यदि एकत्र किए जाए तो उनकी संख्या कितनी होगी और एक दर्जन उन्हें कब निपटा पाएगी? जबकि भारत में अदालतें साल में सिर्फ 242 दिन काम करती है। यह कल्पनातीत ही है, फिर मौजूदा आंकड़े तो साढ़े तीन साल पहले अर्थात्् अप्रैल, 2014 तक के है, इन साढ़े तीन सालों में इनमें कितना ईजाफा हुआ होगा, यह भी एक विचारणीय सवाल है? इसलिए यदि यह कहा जाए कि ’दागी‘ समस्या हल करने की दिशा में केन्द्र सरकार का यह प्रयास ’ऊँट के मूंह में जीरा‘ जैसा है, तो कतई गलत नहीं होगा, किंतु यहां मुख्य विचारणीय बिन्दु यह है कि ”चलो देर से सही, माननीय प्रधानमंत्री जी को अपने ’दागी‘ साथियों की याद तो आई?“ फिर उसके पीछे चाहे चुनाव आयोग और माननीय सुप्रीम कोर्ट ही कारण क्यों न रहा हो?
इस संदर्भ में हाल ही में चुनाव आयोग, सुप्रीम कोर्ट व सरकार के बीच घटे घटनाक्रमों में यह भी उजागर होता है कि केन्द्र सरकार व राजनीतिक दलों को दागी जन प्रतिनिधियों के दाग हटाने की कम, बल्कि उनके भविष्य की ज्यादा चिंता है, तभी तो चुनाव आयोग की अनुशंसा का विरोध करते हुए केन्द्र सरकार ने एक हलफनामें के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट से गुजारिश की कि दागी सांसदों के जिन्दगी भर के लिए चुनाव लड़ने पर रोक लगाना उचित नहीं है, इन्हें कुछ सालों या कुछ चुनावों के लिए प्रतिबंधित किया जा सकता है। जबकि चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट से लिखित में अनुरोध किया है कि दोषी पाए जाने पर दोषी जन प्रतिनिधियों पर आजीवन चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए, चुनाव आयोग के इसी प्रस्ताव पर सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र से लिखित में जवाबी शपथ-पत्र देने की मांग की थी और केन्द्र सरकार ने चुनाव आयोग के प्रस्ताव पर असहमति शपथ-पत्र के माध्यम से जाहिर की। अब यहां सबसे अहम् सवाल यही है कि क्या देश में सत्तारूढ़ सरकार, उसका दल व अन्य राजनीतिक दल राजनीति में व्याप्त गंदगी को पूरी तरह साफ करने के पक्ष में नहीं है? क्या राजनीति में प्रवेश करने वाली नई पीढ़ी से यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए कि वे राजनीति को सही अर्थों में जनसेवा का माध्यम बनाए? और यदि इस सफाई की शुरूआत दागियों की सफाई से नहीं की तो देश की आकांक्षा कैसे पूरी होगी? अब ये ही कुछ सवाल है, जो सरकार व उस पर विराजित कर्णधारों से उत्तर मांग रहे है? समय रहते इन सवालों के उत्तर मिल जाए तो अच्छा है, वर्ना 2019 तो आ ही रहा है?
गुजरात में किसने मर्यादा भंग नहीं की ?
(डॉ. वेदप्रताप वैदिक)
भारत का एक पूर्व प्रधानमंत्री वर्तमान प्रधानमंत्री से माफी मांगने को कहे, यह अपने आप में एक खबर है। वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐसा क्या कर दिया कि पूर्व प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह ने उन्हें अनाप-शनाप और झूठ बोलनेवाला बताकर उन्हें माफी मांगने के लिए कह दिया। ऐसी क्या बात हुई कि मौनी बाबा को मौन तोड़ना पड़ा और एक दहाड़ लगानी पड़ी ? बात सचमुच ऐसी ही हुई है कि जिससे प्रधानमंत्री पद की गरिमा खटाई में पड़ गई है। गुजरात के चुनाव अभियान के दौरान नरेंद्र मोदी ने एक जबर्दस्त आरोप जड़ दिया। ऐसा आरोप देशद्रोहियों पर ही लगाया जा सकता है। उन्होंने यह आरोप लगाया कि कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर के घर पर एक गुप्त बैठक हुई, जिसमें इस बात पर बहस हुई कि गुजरात में मोदी को कैसे हराया जाए। मोदी ने ही बताया कि इस बैठक में पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद कसूरी, पाकिस्तानी उच्चायुक्त और उनके साथ डाॅ. मनमोहन सिंह भी थे।
यदि रात्रि-भोज की वह बैठक गुप्त थी तो मोदी को कैसे पता चला कि उसमें किन-किन मुद्दों पर बहस हुई ? क्या हमारी गुप्चतर सेवा का कोई आदमी वहां अंदर बैठा हुआ था ? क्या अय्यर की अनुमति के बिना वह वहां जा सकता था ? क्या किसी ऐसी बैठक को गुप्त बैठक कहा जा सकता है, जिसमें तरह—तरह के 10—12 लोग बैठकर मुक्त चर्चा कर रहे हों ? यदि इस बैठक में मोदी को हराने का षड़यंत्र किया गया था और पाकिस्तान के इशारे पर किया गया था तो उन सब लोगों को तत्काल गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया और उन पर देशद्रोह का मुकदमा क्यों नहीं चलाया गया ? यह आश्चर्य की बात है कि किसी के घर पर बैठक हो और उसमें पाकिस्तानी उच्चायुक्त शामिल हो और उसका पता हमारे गुप्तचर विभाग को न हो। अगर न हो तो सारा गुप्तचर विभाग बर्खास्त होने के लायक क्यों नहीं है ? यदि गुप्तचर विभाग को इस षडयंत्रकारी बैठक का पहले से पता था तो उसने इसे होने ही क्यों दिया ? उसने सबको पहले ही गिरफ्तार क्यों नहीं कर लिया ?
ये सब कौन थे? इनमें भारत के पूर्व प्रधानमंत्री, पूर्व राष्ट्रपति, पूर्व सेनापति, पूर्व विदेश मंत्री, पूर्व विदेश सचिव, पूर्व राजदूत और कई प्रमुख पत्रकार भी थे। नरेंद्र मोदी से कोई पूछे कि क्या ये सब लोग उन्हें हराने के षड़यंत्र में शामिल थे ? क्या ये सब लोग पाकिस्तान के इशारे पर काम करनेवाले लोग हैं ? इनमें से सिर्फ डाॅ. मनमोहन सिंह ने ही नहीं, लगभग सभी ने बताया कि इस बैठक में गुजरात का चुनाव तो कोई मुद्दा ही नहीं था। सारी बातचीत भारत-पाक संबंधों को सुधारने पर केंद्रित थी। जहां तक पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री कसूरी का सवाल है, ज़रा ध्यान कीजिए कि ये वही व्यक्ति हैं, जिन्होंने मनमोहन सिंह और मुशर्रफ के बीच वह चार-सूत्री समझौता करवाया था, जो आज भी कश्मीर समस्या का हल निकालने में सहायक हो सकता है। कसूरी और अय्यर व्यक्तिगत मित्र भी हैं, अपने केंब्रिज विवि के दिनों से। कसूरी यहां एक शादी में आए थे और उन्होंने इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में अनेक लोगों के साथ बैठ कर खुली बहस भी की थी। उनका गुजरात के चुनाव से कोई लेना-देना नहीं था।
गुजरात का चुनाव मोदी का सिरदर्द बन गया है। इस दर्द की दवा वे पाकिस्तान में ढूंढ रहे हैं। यह कितनी शर्म की बात है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के चुनावों के निर्णय का श्रेय पाकिस्तान को दिया जा रहा है। पाकिस्तान या किसी भी पड़ौसी देश की यह हैसियत है क्या, कि वह हमारे चुनावों के पलड़े को इधर या उधर झुका सके ? क्या किसी पाकिस्तानी अफसर के कह देने से गुजरात के लोग अहमद पटेल को मुख्यमंत्री बना देंगे ? एक बार हम यह मान भी लें कि पाकिस्तान चाहे तो वह भारत के मुसलमानों के वोटों को प्रभावित कर सकता है लेकिन आज पाकिस्तान यदि गुजरात के मुसलमान वोटरों को कहे कि आप मोदी को वोट दे दो तो क्या वे मोदी को वोट दे देंगे ? पाकिस्तान मोदी के आड़े वक्त काम आ जाए तो अच्छी बात है, क्योंकि चुनाव तो युद्ध की तरह होता है। युद्ध में सभी कुछ जायज होता है। लेकिन हिंदू वोट बैंक को मजबूत करने के लिए मोदी ने पाकिस्तान को गोमाता बनाकर जो उसे दुहने की कोशिश की है, अगर वह सफल भी हो जाती है तो उसे मैं खतरनाक कोशिश ही कहूंगा।
यह कोशिश सामने आई, उसके पहले बड़ा बचकाना आरोप उछाला गया। मोदी ने पूछा कि मणिशंकर अय्यर साढ़े तीन साल पहले जो पाकिस्तान गए थे, क्यों गए थे ? क्या वे वहां सुपारी देने गए थे ? मोदी को मारने की सुपारी ? यदि सचमुच ऐसा घृणित अपराध कोई भारतीय नागरिक करे तो उसे तत्काल सूली पर चढ़ाया जाना चाहिए। साढ़े तीन साल हो गए, यदि मोदी को इस बात की जरा-सी भनक भी लगी थी तो उन्हें चाहिए था कि वे अय्यर को गिरफ्तार करते, उन पर मुकदमा चलाते और यह बात पूरे देश को बताते लेकिन यह बात उन्होंने गुजरात के चुनाव-अभियान के दौरान ही क्यों उछाली ? सिर्फ इसीलिए कि वे वोटों का ध्रुवीकरण करवा सकें। पाकिस्तान-विरोधी भावनाओं का लाभ उठा सकें। इतना गंभीर आरोप लगाकर क्या मोदी ने प्रधानमंत्री पद की गरिमा को बरकरार रखा है ? अय्यर का यह बयान घोर आपत्तिजनक था कि ‘मोदी नीच क़िस्म का आदमी है’। उसकी सजा अय्यर को मिल गई है। उन्हें कांग्रेस से मुअत्तिल कर दिया गया है और उन्होंने माफी मांग ली है लेकिन इस बात पर बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया है कि उन्होंने मोदी के लिए जो अपशब्द कहे हैं, उनके लिए माफी नहीं मांगी है बल्कि नीच शब्द को नीची जाति से जोड़े जाने के लिए माफी मांगी है।
उधर मोदी ने अय्यर के बारे में जो कुछ कहा है और देश के अन्य जिम्मेदार लोगों के बारे में जैसा बयान दिया है, क्या उससे यह सिद्ध होता है कि वे ऊंचे किस्म के इंसान हैं ? वैसे वे जैसे भी इंसान हों, उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे भारत के प्रधानमंत्री हैं। भारत-जैसे महान और विशाल लोकतंत्र के शीर्ष पुरुष से यही आशा की जाती है कि वह मन, वचन, कर्म से किसी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करेगा। अय्यर ने वैसे शब्दों का प्रयोग करके अनचाहे ही मोदी की मदद कर दी है। यहां हम यह भी कह दें कि राहुल गांधी के संयत भाषणों और बयानों ने देश का ध्यान खींचा है। यह भी उचित नहीं कि विदेश जाकर हम हमारी सरकार या प्रधानमंत्री की खुली आलोचना करें लेकिन प्रधानमंत्रियों को भी यह ध्यान रखना होगा कि विदेशों में जब वे सार्वजनिक सभाएं करते हैं तो वहां जाकर विपक्ष की कटु भर्त्सना न करें।
गुजरात के चुनाव ने भारतीय राजनीति में संवाद के स्तर को काफी नीचे गिरा दिया है। इसका कारण यह भी है कि यह सिर्फ एक प्रांत का चुनाव नहीं है बल्कि यह अगले संसदीय चुनाव का पूर्व रुप है। भाजपा और कांग्रेस के भविष्य को यह चुनाव ही तय करेगा। एक पार्टी ने हार के डर से और दूसरी पार्टी ने जीत के उन्माद में बहकर लोकतंत्र की मर्यादाओं को ताक पर रख दिया है। संवैधानिक पदों का निष्कलंक निर्वाह करनेवाले कई लोगों के आचरण पर आक्षेप तो लगाए ही गए हैं, चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था पर भी कीचड़ उछालने में कोई कमी नहीं रखी गई है। इस चुनाव में कोई भी जीते या हारे, देश के नागरिक आशा करेंगे कि यह कटुता गुजरात के चुनाव के साथ-साथ समाप्त हो जाएगी।
नाना की बगावत के होंगे दूरगामी परिणाम
– रहीम खान द्वारा
भारतीय राजनीति के बारे मेंं एक बात स्पष्ट है कि यह परिस्थितियों पर चलती है कौन किसका साथ कब छोड़ दे, कब मिल जाए कुछ नहीं कहा जा सकता। इसलिए तो कहा जाता है कि राजनीति में कोई किसी का दोस्त नहीं न ही दुश्मन। बालाघाट जिले के सीमा से लगे भंडारा-गोंदिया के भाजपा के सांसद नाना पटोले द्वारा गत दिवस केन्द्र और राज्य की भाजपा द्वारा किसान विरोधी नीतियों से खफा होकर पद से त्याग पत्र देने के साथ पार्टी को भी उन्होंने गुडबाय कर दिया। यह कदम किसी और नेता ने उस समय उठाया जब भाजपा के भीतर मोदी के खिलाफ बोलने से लोग डरते हैं लेकिन जमीनी पकड़ रखने वाले पूर्व सांसद नाना ने अपने सिद्धांतों से समझौता न करते हुए उन्होंने भाजपा को उस समय अलविदा कहा जब गुजरात चुनाव अपने चरम सीमा पर है। इतना ही नहीं उन्होंने किसान नेता के रूप में गुजरात में राहुल गांधी के साथ विभिन्न स्थानों पर मंच साझा करके प्रधानमंत्री मोदी की नीतियों पर जमकर शब्दबाण चलाए।
पूर्व सांसद नाना हालाकि इसके पूर्व कांग्रेस और दूसरे दलों में भी रहे, दूसरे दलों से जुड़े रहे, परंतु उनका अपने क्षेत्र में एक मजबूत जनाधार और पकड़ है यही कारण है कि वह अपने नीतियों से कोई समझौता नहीं करते। किसान परिवार के सदस्य राजनीति के युवा तुर्क का राजनीतिक केरियर पर नजर दौड़ाए तो पाते है कि १९९९ में इन्होंने विधानसभा क्रमांक १५० महाराष्ट्र लखनदूर सीट पर कांग्रेस से चुनाव लड़ते हुए ४८ हजार ६५४ मत लिए और बीजेपी के दयाराम मारूति को ४७००७ मत को १६४७ मतों से पराजित करके पहली बार विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए उसके बाद २००४ में पुन: इसी विधानसभा सीट पर लड़ते हुए उन्होंने ८५ हजार ५९३ मत लेकर भाजपा के दयाराम मारूति को ४३ हजार ८३३ मत को ४१ हजार ७६० मतों से पराजित करके दूसरी बार विधायक निर्वाचित हुए जबकि वर्ष २००९ के विधानसभा चुनाव में वह कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए और साकोली विधानसभा सीट क्रमांंक ६२ से चुनाव लड़ते हुए १ लाख २२ हजार १६८ मत लेकर कांग्रेस के सेवक भाऊ वघाया ५९ हजार २५३ मत को ६२ हजार ९१५ मत से पराजित किया। इसी वर्ष जब उनको भाजपा से टिकिट नहीं मिली तो वर्ष २००९ के लोकसभा चुनाव में भंडारा गोंदिया सीट पर उन्होंने निर्दलीय के रूप में अपनी किस्मत आजमाया और २ लाख ३७ हजार ८९९ मत लेकर भाजपा के तात्कालीन सांसद शिशुपाल पटले १ लाख ५८ हजार ९३८ मत के पराजय का मार्ग प्रशस्त किया। इस चुनाव में विजयी सांसद एनसीपी के प्रफुल्ल पटेल ४ लाख ८९ हजार ८१४ मत प्राप्त कर इस चुनाव में वह २ लाख ९१ हजार ९१५ मत से विजयी रहे थे। जबकि बीएसपी के विरेन्द्र कुमार जैसवाल ६८ हजार २९६ मत ले पाए थे। निर्दलीय के रूप में दमदार प्रदर्शन करने का ही प्रभाव था कि भाजपा ने वर्ष २०१४ के लोकसभा चुनाव में उन्हें गोंदिया-भण्डारा से अपना उम्मीदवार बनाया जहां पटोले ने मोदी लहर में ६ लाख ६ हजार १२९ मत लिये और एनसीपी के प्रफुल्ल पटेल ४ लाख ५६ हजार ८७५ मत को १ लाख ४९ हजार २५४ मत से पराजित किया। जबकि बीएसपी के उम्मीदवार संजय नासरे ५० हजार ९५८ मत ले पाए। इस तरह से उनका चुनावी प्रदर्शन देखा जाए तो हम कह सकते हैं कि राजनीति में वह अस्थिर व्यक्ति के रूप में पहचाने जाते हैं कब तक वे किसके साथ रहेंगे कहना मुश्किल है। लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है कि उनका अपना जिले और क्षेत्र में स्वयं का अपना एक जनाधार है जिसके कारण उन्हें राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों को अहमियत देना पड़ता है। हालाकि अगर गोंदिया-भण्डारा में एनसीपी और कांग्रेस का गठबंधन नहीं होता तो शायद ये लोस चुनाव में कांग्रेस से ही आते। खैर जिस राजनीतिक मोड़ पर उन्होंने भाजपा को गुडबाय कहा है वह भाजपा के राजनीति का स्वर्णिम काल है। हालाकि चुनाव जीतने के बाद भाजपा हाईकमान से पराजित सांसद प्रफुल्ल पटेल के निकटता के कारण भी निर्वाचित सांसद होने के बाद भाजपा में पटोले की बांतों को वजन नहीं दिया जा रहा था। इस बात को कहने में कोई संकोच नहीं है कि अगर प्रफुल्ल पटेल के पास आर्थिक संपन्नता है तो नाना पटोले के पास मजबूत जनाधार की संपन्नता है जिसमें जमीन से जुडकर संघर्ष करने की अपार क्षमता है।
इस युवा वजनदार जनाधार वाले नेता के प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ खुला प्रहार विगत मई माह से शुरू हुआ था जब प्रधानमंत्री ने छत्तीसगढ़ महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के सांसदों की बैठक की थी उसमें नाना ने महाराष्ट्र में किसानों की दयनीय स्थिति और ओबीसी से जुड़े मुद्दे पर अपनी बात रखना चाहा तो उनको प्रधानमंत्री ने कठोर शब्दों में चुप रहने की हिदायत दी। तभी से लग रहा था कि नाना अब भाजपा में लंबे समय तक नहीं रह पाएंगे। इतना ही नहीं जब पिछले दिनों वह आकोला में पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा के किसाना आंदोलन में शामिल हुए तब इस बात का अंदेशा और बढ़ गया कि अब इनका भाजपा में साथ कुछ ही दिनों का रह गया है। भाजपा हाईकमान उनको पार्टी से निकाल पाता उसके पहले ही उन्होंने भाजपा को गुडबाय कहके अपने राजनीतिक महत्व को बनाए रखा है।
भाजपा को अलविदा कहने के बाद नाना ने गुजरात में भले ही कांग्रेस के नवनियुक्त अध्यक्ष राहुल गांधी के साथ विभिन्न स्थानों पर मंच साझा करके भाजपा और प्रधानमंत्री की नीतियों पर जमकर प्रहार किया उसके बावजूद उन्होंने कहा है कि फिलहाल वह किसी राजनीतिक दल में शामिल नहीं होंगे। वर्तमान समय नाना की पहचान उस दबंग युवा सांसद के रूप में हो रही है जिसने वर्तमान समय के सबसे प्रभावशील राजनेता नरेन्द्र मोदी के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंककर उनके कार्यप्रणाली और नीतियों पर खुला प्रहार किया है। हालाकि उनके त्यागपत्र के बाद भाजपा के नेताओं के द्वारा उनके उपर तीखे प्रहार किये जा रहे हंै लेकिन सत्य का दूसरा पहलू यह भी है कि जिस प्रकार से भाजपा को नरेन्द्र मोदी और अमित शाह चला रहे हैं ऐसी परिस्थिति में अगर गुजरात परिणाम भाजपा के पक्ष में नहीं आए तो बगावत के सुर और बुलंद होंगे। यह एक आश्चर्य ही कहा जाएगा कि गांधी नगर से सांसद होने के साथ पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवानी को पूरे चुनाव अभियान से दूर रखा गया।
प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ बगावत का बिगुल बजाकर भाजपा को गुडबाय कहने वाले राजनीति के इस युवातुर्क नाना पटोले के भविष्य के कदमों को लेकर सभी का ध्यान है। वहीं भाजपा के भीतर यह भी कहा जा रहा है कि सत्ता के लालच में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह युग में जिस प्रकार दूसरे दलों में तोड़कर पार्टी को लाकर टिकिट दिया जाता है यह गलत परंपरा है इसपर रोक लगना चाहिए। इस त्याग पत्र के पश्चात भाजपा का अगला कदम महाराष्ट्र में पार्टी के लिए क्या होता है इसके लिए कुछ समय और इंतजार करना पड़ेगा परंतु अंत में इतना कह सकते हैं कि ३ वर्ष के भीतर ही नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व के खिलाफ बगावत के सुर फूट गए हैं जो कहां तक जाएंगे इसका उत्तर फिलहाल भविष्य के गर्भ में है।
इस्लामी देशों का नेता बनने की तुर्की की चाहत
-(अजित वर्मा)
अभी कुछ दिन पहले तुर्की की राजधानी इस्तांबुल में आयोजित इस्लामिक देशों के धर्मगुरूओं की बैठक में इजरायल के साथ किसी भी रिश्ते को नाजायज और मुस्लिमों के साथ गद्दारी करार दिया गया है। बैठक में कहा गया है कि फलस्तीनियों पर यहूदी शासन द्वारा किए जा रहे अत्याचार और फलस्तीनियों की भूमि और घरों पर लगातार हो रहे यहूदियों के क़ब्ज़े को देखते हुए इजरायल के साथ किसी भी तरह के संबंध वर्जित हैं।
हमारा मानना है कि इस सम्मेलन के पीछे तुर्की की सरकार है, जो मुस्लिम देशों से सउदी अरब का प्रभाव समाप्त करके स्वयं को इन देशों का नेता बनाना चाहती है। इस बैठक का आयोजन इजरायल के साथ इस्लामी और अरब देशों के बढ़ते संबंधों पर विचार करने के लिए किया गया था।
पिछले सात-आठ सालों में कई मुस्लिम देशों ने इजरायल से अपनी नजदीकियां बढ़ा ली हैं। यहां तक कि इसी साल के हज के दौरान सउदी अरब सरकार ने सुरक्षा के लिए उसी की मदद ली थी। ईरान के अलावा अब एक भी मुस्लिम देश इजरायल का उस तरह से विरोध नहीं करता, जिस तरह पहले किया जाता था। सुन्नी देशों की सरकारें पर्दे के पीछे से उसके साथ रहती हैं, जबकि इन देशों के नागरिक, खास तौर पर धर्मगुरु इजरायल का विरोध करते हैं।
इस्तांबुल में जुटे धर्मगुरुओं ने कहा कि फलस्तीन की भूमि इस्लाम और मुसलमानों की है, इसलिए कोई भी मुसलमान या मुस्लिम देश इस बात से इंकार नहीं कर सकता कि फलस्तीनियों के अधिकारों के लिए लड़ना उसकी ज़िम्मेदारी है। बैठक में कहा गया है कि यहूदी शासन के साथ इस्लामी और अरब देशों के सभी समझौतों को धार्मिक दृष्टि से भी सही नहीं माना जाएगा और समझौता करने वाले देशों पर दबाव बनाया जाएगा कि वे ऐसे किसी भी समझौते को रद्द करें।
उलेमाओं ने तो यहां तक कहा कि जिस इस्लामी देश की सरकार इजरायल के साथ है, वह मुस्लिमों के साथ गद्दारी कर रही है। संबंधित देशों के धर्मगुरुओं का फर्ज है कि वे अपनी सरकारों पर दबाव बनाएं, ताकि वे इजरायल से दूरी बनाएं। यह भी कहा गया है कि जिस गैर-इस्लामी देश के इजरायल से संबंध हैं, मुस्लिम देशों को उनसे भी दूरी बना लेनी चाहिए। इस बैठक में सउदी अरब, मिस्र और कतर समेत 28 मुस्लिम देशों के उलेमा शामिल हुए हैं।
दरअसल, दुनिया के इस्लामी देशों में कट्टरतावादी और उदारवादी मुस्लिमों की दो धाराएं चल रही हैं। उदारतावादी बदलते वक्त के साथ सुधार की चाहत रखते हैं, जबकि कट्टरपंथी अलकायदा, आईएसआईएस और अन्य इस्लामी संगठनों के साथ नजर आते हैं। अगर तुर्की कट्टरपंथी इस्लामी देशों का नेता बन जाता है तो अमेरिका का उसके प्रति क्या व्यवहार होगा, यह देखना दिलचस्प होगा।
MP पुलिस के कारनामें और सियासतदां…!
-नईम कुरेशी
भोपाल में मुख्यमंत्री की पहल पर पुलिस ने 3 थाना प्रभारियों का निलम्बन व सी.एस.पी. के हटाने पर खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने स्वीकारा कि जब भोपाल में पुलिस का ये हाल है तो प्रदेश में कैसा होगा। पुलिस की कभी राज्य स्तर पर समीक्षा करने की किसी को भी सालों से फुर्सत नहीं है। पुलिस मुख्यालय को पिछले 10 सालों से एक नुमाइन्दा भर बना कर रख दिया है। ये सब आखिर किस ने कर रखा है, मुख्यमंत्री व उनकी बिरादरी ने ही पुलिस मुख्यालय को प्रभावहीन कर दिया है। सियासत के चलते जिलों में पुलिस अधीक्षकों से लेकर थाना प्रभारी तक सब पुलिस मुख्यालय के स्थान पर क्षेत्रीय विधायक, सांसद, स्थानीय वजीर मिलकर प्रदेश भर के लगभग हर जिले के पुलिस अधीक्षकों व थाना प्रभारियों का चयन करके पदस्थापनायें कराते हैं। जिन थानेदारों पर न्यायालयों ने कड़ी फटकारें व नोट लगाकर पुलिस महानिरीक्षकों व पुलिस अधीक्षकों को आदेश दिये हैं, उन तक पर कार्यवाही सियासत के चलते संभव नहीं हो पाती। उलटे ऐसे थाना प्रभारी जो हत्याओं को आत्महत्याओं में बदलते रहते हैं। जमीनों, मकानों को बेचने के मामलों में शामिल होकर करोड़ों की चांदी काट रहे हैं वो सब अच्छी अच्छी पदस्थापनायें खरीद पाने में सफल दिखाई देते हैं। 100 थाना प्रभारियों की पदस्थापनाओं में से 10 फीसद ही धोखे से उचित जगहों पर संभव हो पाती हैं। सीधे गृहमंत्री का थाना प्रभारियों की पदस्थापनाओं में दखल दिया जाता है। आई.जी. व डी.आई.जी. पुलिस अधीक्षकों के रिकॉर्ड के आधार पर थाना प्रभारियों की पदस्थापना के अधिकारों पर सालों से अतिक्रमण कर लिया है। ऐसे में तो पुलिस के थाना प्रभारी भोपाल जैसी हरकतें तो करेंगे ही। उन्हें मालूम है अफसरान हमारा क्या करेंगे। डी.जी.पी. तक ऐसे किसी थाना प्रभारी तक को नहीं हटा सकते जिस पर जिलों के क्षेत्रीय नेता का विधायक, सांसद का हाथ है। उस पर कोई कार्यवाही हो ही नहीं पाती चाहे उसके क्षेत्र में जुआ, सट्टा चलें या हत्यायें हों फिर भी वो सियासी दांवपेचों के चलते बचा रहेगा। चाहे अखबारों में उस पर सुर्खियां बनें या न्यायालय उसकी आलोचना करें। थाना प्रभारी पर कोई कार्यवाही नहीं देखी जाती। थानेदार के खिलाफ धरना प्रदर्शन घेराव होने पर, रैली निकालने पर जरूर कभी-कभी कार्यवाहियां संभव हो पाती हैं। प्रदेश में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर शिकायत आयोग भी नहीं बनाया गया।
मध्य प्रदेश सरकार राजस्व न्यायालयों की गड़बड़ियों पर कार्यवाही मुख्य सचिव से कह कर करा रही है जो काफी कुछ प्रभाव कार्य की भी दिखाई दे रही है। एक आय.ए.एस. अफसर के अनुसार 15 सालों से नायब तहसीलदारों, राजस्व निरीक्षकों की भर्ती सरकार ने नहीं कर पायी व ये अमला 60 फीसदी तक कानून व्यवस्था व व्ही.आई.पी. इंतेजामों में नहीं मिलता। राजस्व अमले से ज्यादा खराब पुलिस का निजाम बिगड़ा है। थानों के हेड़ मोर्हर से लेकर बीट हवलदार, थानेदार, थाना प्रभारी सब के सब फरियादियों को डांट कर भोपाल की बलात्कार वाली लड़की की तरह भगाते आ रहे हैं। हां जब व्ही.आई.पी. फोन हो या प्रभावशाली नेता का इशारा या फिर मीडिया का शोर तब जाकर कुछ सुनवाई मध्य प्रदेश के थानों में हो पाना संभव हो पाती है। जो उत्तर प्रदेश व बिहार की राह पर प्रदेश पुलिस चल रही है और मुख्यमंत्री जी का इस तरफ कोई ध्यान न होना हैरत व दुख का विषय बनता जा रहा है। यहां 90 फीसद तक थानों की तैनाती सियासी सिफारिशों पर होती है। आम जनता इस इंतजामों से बेहद नाराज है। कई थानों के पुलिस कर्मचारियों, थाना प्रभारियों को अब आम जनता दौड़ा-दौड़ा कर पीट रही है। पन्ना, छतरपुर आदि में तो दलित महिला व युवतियों पर जिंदा जला डालने व उनसे मैला तक उठवाने वाले दबंगों तक पर कार्यवाही न होने पर राष्ट्रीय महिला आयोग ने डी.जी.पी. तक से जवाब मांगे जाने पर कार्यवाही संभव मध्य प्रदेश में नहीं हो पा रही है। आखिर कौन से तत्व हैं जो प्रदेश की पुलिस को काम करने से रोक रहे हैं। ये सब जानते हैं फिर भी मौन बने बैठे हैं। अपने प्रमोशन के लिये थानेदार यहां तक कि आई.पी.एस. अफसर तक झूठी मुठभेड़ें दिखा कर यहां राष्ट्रपति मेडल पा जाते हैं। तब भी मुख्यमंत्री जी आखिर चुप क्यों रहते हैं। वो सिफारिशों पर आखिर रोक क्यों नहीं लगा पा रहे हैं। प्रदेश में 60 फीसद थानेदार डी.एस.पी. दागी हैं फिर भी कुर्सियों पर कैसे बैठे हैं, हैरत है न आखिर? इनमें ज्यादातर ऊँची जाति के अफसरान ही ज्यादा हैं।
राष्ट्रवाद व सदाचार के ‘प्रवचन’ केवल गरीबों के लिए?
-निर्मल रानी
इस बात से आखिर कौन इंकार कर सकता है कि देश के प्रत्येक नागरिक में राष्ट्रवाद तथा सदाचार की भावना का संचार होना चाहिए। देश का प्रत्येक नागरिक राष्ट्रवादी हो, स्वावलंबी बने, आर्थिक रूप से देश आत्मनिर्भर रहे तथा प्रत्येक भारतवासी विश्व के समक्ष एक आत्मनिर्भर सदाचारी व राष्ट्रवादी भावना रखने वाले देश के नागरिक के रूप में जाना व पहचाना जा सके, यह मनोकामना आखिर देश के किस नागरिक की नहीं होगी? हमारे देश के लोग कितने बलिदानी व राष्ट्रभक्त हैं तथा कैसी राष्ट्रवादी भावना रखते आ रहे हैं इस विषय पर हमें किसी प्रमाण अथवा साक्ष्य या किसी की गवाही की आवश्यकता नहीं है। पूरा विश्व जानता है कि 1857 से लेकर 1947 के मध्य की लगभग एक शताब्दी में भारतवर्ष के लोगों ने किस प्रकार बिना किसी संसाधन के एकजुट होकर संपन्न विदेशी ताकतों से जमकर मुकाबला किया तथा अपनी कुर्बानियां देकर देश को स्वाधीन कराया। आज़ादी के पहले का देशवासियों में स्वाभिमान जगाने का यही दौर था जिसमें भारतीय नागरिकों नें विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया, विदेशी सामानों की जगह-जगह होलियां जलाई गईं, स्वदेशी वत्र के रूप में महात्मा गांधी ने खादी के वत्र को प्रचलित किया जो आज भी देश के नेताओं के तन की शोभा बढ़ा रहा है। गांधी जी ने तो अपना वैभवपूर्ण रहन-सहन त्याग कर स्वयं को आजीवन एक धोती में लपेट लिया और देश के गरीबों की पंक्ति में खड़े होने की कोशिश की।
आज एक बार फिर देश के लोगों की राष्ट्रवाद तथा सदाचार को लेकर परीक्षा ली जा रही है। आज पूरे देश में लगभग सभी छोटी से छोटी व बड़ी से बड़ी वस्तुएं यहां तक कि रोज़मर्रा के इस्तेमाल की चीज़ें, सजावट के सामान, बिजली, मशीनरी, कंप्यूटर संबंधी सामग्रियां, मोबाईलआदि तमाम प्रकार की चीज़ें पड़ोसी देश चीन से आयात की जा रही हैं। ज़ाहिर है भारत में इन चीनी सामग्रियों की लोकप्रियता का कारण यही है कि वे सस्ती व कारगर हैं। देखने में आकर्षक व सुंदर हैं। और सबसे बड़ी बात तो यह कि उन चीनी सामग्रियों जैसी सामग्री अब तक भारतीय बाज़ार में निर्मित ही नहीं की गई है। यही वजह है कि सस्ती व आकर्षक सामग्री होने के कारण चीन ने भारतीय बाज़ार में अपनी गहरी पैठ बना ली है। परंतु चीन अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को लेकर भारत के साथ हमेशा से ही संदेह व अविश्वासपूर्ण रिश्ते रखता आ रहा है। कभी वह पाकिस्तान को परमाणु हथियार बनाने में सहायता देकर भारत की सुरक्षा के प्रति चिंता को बढ़ाता है तो कभी पाक स्थित मोस्ट वांटेड आतंकियों को समर्थन देकर या उनके प्रति नरम रवैया अपना कर भारत को नीचा दिखाने की कोशिश करता है। समय-समय पर चीन भारतीय सीमा से लगे अपने विभिन्न सीमावर्ती क्षेत्रों में घुसपैठ करने की कोशिश करता है। अभी पिछले दिनों डोकलाम में चीनी सैन्य घुसपैठ के कारण दोनों देशों के मध्य इतना तनाव बढ़ गया था कि यृद्ध के बादल तक मंडराने लगे थे।
ज़ाहिर है ऐसे में यह प्रत्येक देशभक्त व राष्ट्रवादी भारतीय नागरिक का दायित्व है कि वे ऐसा कोई भी कदम न उठाएं जिससे अपना देश कमज़ोर हो और चीन ताकतवर बने। ऐसे में नि:संदेह प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह चीनी वस्तुओं की खरीददारी पर अंकुश लगाए। और स्वदेशी वस्तुओं की खरीददारी कर भारतीय मुद्रा को अपने ही देश में रखने का प्रयास करे। परंतु क्या राष्ट्रवाद व राष्ट्रभक्ति की भावना को परवान चढ़ाने का ज़िम्मा केवल देश के गरीब लोगों का ही है? क्या देश की सरकारें, देश के राजनैतिक दल अथवा राजनेता या देश के साधन संपन्न धनाढ्य लोग राष्ट्रवाद की भावनाओं से अलग हैं? सवाल यह है कि यदि चीनी सामग्री खरीदने से रोकने के लिए देश के नागरिकों को प्रोत्साहित किया जाता है और इसके लिए उन्हें देशप्रेम व राष्ट्रवाद का वास्ता दिया जाता है तो आखिर केंद्र सरकार ही इन चीनी सामग्रियों के भारत में आने पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगा देती? दूसरी बात यह कि जिस समय भारत में नोटबंदी की घोषणा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा की गई उसी के साथ-साथ पूरे देश में पेटीएम नामक कंपनी ने कैशलेस लेन-देन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से देश में अपने पांव पसारे। निश्चित रूप से सरकार का भी इस कंपनी को पूरा समर्थन रहा। यहां के टीवी से लेकर अन्य तमाम माध्यमों में पेटीएम का प्रचार दिन-रात जमकर किया गया। सवाल यह है कि चीन आधारित इस कंपनी को भारत में पांव पसारने हेतु किसने आमंत्रित किया? देश की सरकार व नीति निर्माताओं ने या देश की गरीब जनता ने?
ऐसा ही एक और सवाल खासतौर पर भारतीय जनता पार्टी के कर्णधारों से है। भाजपा से यह सवाल खासतौर पर इसलिए क्योंकि देश के लोगों में कथित राष्ट्रवाद व सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भावना जागृत करने का तथा चीनी सामग्रियों के बहिष्कार करने का सबसे बड़ा ‘ठेका’ इसी दल के लोगों ने स्वयंभू रूप से ले रखा है। इसके संरक्षक हिंदूवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व स्वदेशी जागरण मंच पूरे ज़ोर-शोर से चीनी सामग्री के बहिष्कार के अभियान में लगे हुए हैं। क्या इन सत्ताधारी लोगों के पास इस बात का जवाब है कि इन्होंने नागपुर में मैट्रो रेल बनाने व इसे संचालित करने का ठेका चीन को ही क्यों दिया? वर्तमान सरकार के दौर में ओपो तथा वीवो नामक चीनी मोबाईल फोन कंपनियों ने पूरे देश में अपना व्यवसाय इतनी तेज़ी से कैसे फैला लिया? यहां तक कि प्राप्त समाचारों के अनुसार भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात चुनाव में इस्तेमाल की जाने वाली प्रचार सामग्री चीन से आयात की है। क्या चीनी सामग्री के बहिष्कार का देशवासियों को प्रवचन पिलाने वाले इन स्वयंभू राष्ट्रवादियों को यह शोभा देता है कि एक ओर तो वे स्वदेशी अपनाओ का नारा दे रहे हैं, मेक इन इंडिया की बात कर रहे हैं तो दूसरी ओर खुद करोड़ों की चुनाव सामग्री चीन से मंगवा रहे हैं? राष्ट्रवाद का प्रवचन बघारने में आखिर इस दोहरेपन का औचित्य क्या है?
इसी प्रकार देश के लोगों को प्रधानमंत्री ने यह ‘सद्वचन’ सुना रखा है कि न खाऊंगा न खाने दूंगा। ज़ाहिर है अपनी इस बात के द्वारा उनका सीधा सा मकसद यह संदेश देना है कि वे भ्रष्टाचार बिल्कुल सहन नहीं करेंगे। परंतु पिछले दिनों जिस प्रकार भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के पुत्र जय अमित शाह की अचानक एक ही वर्ष में 16 हज़ार गुणा बढ़ी कमाई का पर्दा फाश हुआ उस समय भाजपा के नेता बगलें झांकते दिखाई दिए और खिसियाहट में इस रिपोर्ट को उजागर करने वाली महिला पत्रकार तथा इस रिपोर्ट को प्रकाशित करने वाली वेबसाईट पर सौ करोड़ की मानहानि का दावा कर दिया। हिमाचल प्रदेश में जिस सुखराम को कांग्रेस पार्टी ने भ्रष्टाचार के संगीन इल्ज़ाम में पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया था और वे अपनी पार्टी बनाकर हिमाचल प्रदेश की राजनीति में सक्रिय थे उनके पुत्र अनिल शर्मा को पिछले दिनों भाजपा ने अपने साथ शामिल कर लिया। जब इस विषय पर भाजपा नेताओं का ध्यान दिलाया गया कि यह उन्हें सुखराम के पुत्र हैं जो भ्रष्टाचार के सिरमौर रह चुके हैं और कांग्रेस पार्टी से इसी विषय पर निष्कासित किए गए थे तो इस पर भाजपा प्रवक्ता फरमाते हैं कि-‘जो बीत गई वो बात गई’। गोया भ्रष्टाचार व सदाचार तथा राष्ट्रभक्ति व राष्ट्रवाद जैसे विषयों पर भाजपाईयों का काम केवल जनता को प्रवचन देना मात्र है उस पर स्वयं अमल करना नहीं। कम से कम वर्तमान दौर में उपरोक्त परिस्थितियां तो यही साबित कर रही हैं।
कश्मीर में अधिक स्वायत्तता के दुष्परिणाम
-प्रमोद भार्गव
सुलझने को आई कश्मीर की गुत्थी को उलझाने का काम पूर्व केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिंदबरम और नेशनल क्रांफेंस के अध्यक्ष फारुख अब्दुल्ला ने कर दिया है। इन दोनों नेताओं ने कश्मीर को और अधिक स्वयत्तता देने की मांग उस समय उठाई है, जब खुफिया ब्यूरो (आईबी) के पूर्व प्रमुख दिनेश्वर शर्मा की नियुक्ति जम्मू-कश्मीर में सुशासन लाने और शांति बहाली के लिए की है। इस नाते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बेंगलुरु में दिया गया यह बयान स्वाभाविक ही है कि ’जो लोग कल तक सत्ता में थे, वह अचानक यू-टर्न लेकर कश्मीर के मुद्दे पर अलगाववादियों और पाक की भाषा बोलने लगे हैं। इस समय घाटी में जैसे हालात हैं, उस परिप्रेक्ष्य में और अधिक स्वायत्तता की बात करना एक तरह से अलगाववादी तत्वों को प्रोत्साहित करने जैसा है। यह वह समय है, जब केंद्र के कड़े रुख के चलते हुर्रियत नेताओं की गतिविधियों और उनके बैंक खातों पर कड़ी नजर रखी जा रही है। आतंकवादी सैयद सलाहुदीन के बेटे सैयद शाहिद युसूफ को अपने पिता से धन ग्रहण करने के आरोप में गिरतार किया गया है। इन कार्यवाहियों से घाटी में यह संदेश गया है कि राष्ट्र विरोधियों को किसी भी हाल में बख्शा नहीं जाएगा।ऐसे में चिदंबरम और अब्दुल्ला के बयानों ने कश्मीर में स्वयत्तता का सवाल उठाकर देश की अखंडता को बरकरार बनाए रखने की चुनौतियों से जूझ रहे सशस्त्र बलों का मनोबल गिराने का काम किया है। पी.चिदंबरम ने राजकोट में कहा था कि कश्मीरियों की आजादी की मांग संविधान के अनुच्छेद 370 के पालन में है। इस बयान के आने के अगले दिन ही फारुख अब्दुल्ला ने नेशनल कांफ्रेंस की बैठक में हजारों कार्यकताओं के बीच भारतीय सांविधान के दायरे में राज्य को और अधिक स्वयत्तता दिए जाने की मांग दोहरा दी। साफ है, चिदंबरम के बयान से अब्दुला को अपनी बात कहने का बल मिला है। हालांकि यह मुद्दा नया नहीं है। आजादी के बाद से ही रह-रह कर उठता रहा है। भारत की आजादी के समय ही 26 अक्टूबर 1947 को जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्य अंग बन गया था। यह ब्रिटिश और भारतीय संसद के विभिन्न कानूनों के दायरे में था। इस पर अंतरराष्ट्रीय कानून की सहमति भी बन गई थी, जो इस रियासत को पूर्ण रूप से भारत में विलय की श्रेणी में रखता है। हालांकि 15 अगस्त 1947 को जिस तरह से भारतीय संघ में अन्य रियासतों का विलय हुआ था, उस तरह से जम्मू-कश्मीर का विलय नहीं हो पाया था। दरअसल यहां के राजा हरि सिंह ने पाकिस्तान और भारत दोनों सरकारों के समक्ष 6 सूत्री मांगें रखकर पेचीदा स्थिति उत्पन्न कर दी थी। यह स्थिति इस कारण और जटिल हो गई, क्योंकि यहां के राजा हरि सिंह तो हिंदू थे, लेकिन बहुसंख्यक आबादी मुसलमानों की थी। इसी समय शेख अब्दुल्ला ने महात्मा गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन से प्रभावित होकर भारत से आंग्रेजी राज और रियासत से राजशाही को समाप्त करने की दोहरी जंग छेड़ दी थी। शेख ने जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद सिद्धांत को भी नकारते हुए भारतीय संघ में जम्मू-कश्मीर के विलय का अभियान चला दिया था। इस कारण हरि सिंह दुविधा में पड़ गए। दरअसल हरि सिंह कांग्रेस और महात्मा गांधी के आंदोलन से प्रभावित नहीं थे। इसलिए कश्मीर का भारत में विलय करना नहीं चाहते थे। दूसरी तरफ पाकिस्तान में विलय का मतलब, हिंदू राजवंश की अस्मिता को खत्म करना था। इस दुविधा से मुक्ति के लिए उनका इरादा कश्मीर को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में पूरब का स्विट्रलेंड बनाने का था। किंतु उनके अरमानों को पंख मिलते इससे पहले ही 20 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तानी कबाइलियों ने कश्मीर पर हमला बोल दिया। 22 अक्टूबर को ये सशस्त्र कबाइली तेज गति से बारामूला को पार कर राजधानी श्रीनगर की ओर बढ़ने लगे। तब हरि सिंह श्रीनगर से भगकर दिल्ली आए और 24 अक्टूबर को भारत सरकार से मदद मांगी। बड़ी संख्या में भारतीय फौज 28 विमानों में सवार होकर कश्मीर पहुंची। अंतत: 27 अक्टूबर 1947 को हरिसिंह ने इस रियासत की भारत में विलय की घोषणा कर दी। हरि सिंह ने विलय के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करते हुए शर्त रखी कि जम्मू-कश्मीर राज्य के मामलों में भारत सरकार का दखल केवल रक्षा, विदेश और दूर-संचार क्षेत्रों में ही होगा। 1948 में शेख अब्दुल्ला को कश्मीर में प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिल गया। संयोग से हरि सिंह की तर्ज पर शेख अब्दुल्ला भी व्यापक स्वायत्तता के पैरोकार थे। 17 अगस्त 1949 को जब सरदार वल्लभ भाई पटेल ने राष्ट्रीय संविधान सभा की बैठक बुलाई तो इसका सदस्य बनने का अवसर शेख अब्दुल्ला को भी मिल गया। इसी क्रम में 1952 में दिल्ली समझौते के तहत अनुच्छेद 370 का भी प्रावधान किया गया। इस बैठक में श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी उपस्थित थे। इस प्रावधान में संविधान के अनुच्छेद 1 के तहत जम्मू-कश्मीर भारतीय परिसंघ का अभिन्न अंग होगा। वहीं अनुच्छेद 370 के जरिए इसे विशेष दर्जा दिया गया। अनुच्छेद 370 (सी) में स्पष्ट उल्लेख है कि जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 1, अनुच्छेद 370 के माध्ययम से लागू होगा। अनुच्छेद-370 में 4 ऐसे प्रावधान हैं, जो इसे भारतीय संविधान से इतर स्वायत्तता देते हैं। एक, जम्मू-कश्मीर भारतीय संविधान के उन प्रावधानों से मुक्त रहेगा, जो देश के अन्य राज्यों पर लागू होते हैं। जम्मू-कश्मीर का संचालन उस के स्वयं के संविधान से होता है, जो उसकी संविधान सभा द्वारा वर्ष 1951 से 1956 के दौरान लिखा गया था। दो, जम्मू-कश्मीर पर केंद्र सरकार की सत्ता केवल 3 क्षेत्रों रक्षा, विदेश और दूरसंचार संबंधी मामलों में लागू होगी। तीसरा, केंद्र सरकार के समस्त अधिकार इस राज्य पर तभी लागू हो सकते हैं, जब राज्य सरकार की सहमति से राष्ट्रपति आदेश पारित करें। चौथा यह है कि देश के राष्ट्रपति को अनुच्छेद 370 को समाप्त करने या उसमें संशोधन करने का अधिकार तो है, लेकिन वह ऐसा राज्य सरकार की सहमति और राज्य की संविधान सभा से अनुमोदित के पश्चात ही कर सकते है। 1957 में राज्य की संविधान सभा इसलिए भंग कर दी गई थी, क्योंकि जम्मू-कश्मीर में भारत के विलय की प्रकिया लगभग पूर्ण हो गई थी। इसी करण तकनीकी रूप से धारा-370 को समाप्त करना संभव नहीं हो रहा है। यह तभी बदली जाएगी, जब एक नई संविधान सभा का गठन हो और वह इस अनुच्छेद को समाप्त करने संबंधी प्रस्ताव को पारित करे। दरअसल इस अनुच्छेद को लेकर दो विरोधाभासी दृष्टिकोण शेख अब्दुल्ला के समय से ही देखने में आते रहे हैं। शेख अब्दुल्ला एवं इस राज्य के अन्य मुस्लिम नेता 370 की ओट में केवल मुस्लिम हितों के पक्षधर हैं। यह स्वायत्तता के व्यापक फलक को संकीर्ण बनाता है। इसी के चलते विस्थापित कश्मीरी पंडितों का अपने मूल निवास स्थलों में पुनर्वास नहीं हो पा रहा है। बावजूद मुस्लिम नेता और मुस्लिम तुष्टिकरण के पक्षधर राजनीतिक दल एक तो इस अनुच्छेद को बनाए रखने की पैरवी करते हैं, दूसरे इसके दायरे में और अधिक स्वायत्तता की मांग भी कर डालते है। जबकि स्वयं पंडित जवाहर लाल नेहरू इस अनुच्छेद को जम्मू-कश्मीर को भारत से जोड़ने की एक मजबूत कड़ी के रूप में देखते थे। यही वजह थी कि जब 1953 में शेख अब्दुल्ला ने अनुच्छेद-370 की ओट में ऊल-जलूल मांगें और अनर्गल क्रियाकलाप शुरू किए तो नेहरू ने अब्दुल्ला की निर्वाचित सरकार को बर्खास्त कर दिया और उन्हें राष्ट्रद्रोह के आरोप में लगभग 20 साल तक नजरबंद रखा गया। कांग्रेस को नेहरू के इस दृष्टिकोण से सीख लेते हुए कश्मीर की दुविधा का समाधान निकालने में सहयोग की जरूरत है न कि स्वायत्तता का प्रलाप कर अलगाववादियों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है ? क्योंकि अलगाववादी तो कश्मीरियत को अंतत: कलंकित करने का ही काम कर रहे हैं। (लेखक,वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं)
नेताजीः समरथ को नहिं दोष गुसांई
(डॉ. वेदप्रताप वैदिक)
नेताओं पर चल रहे आपराधिक मुकदमों के बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने अब नए सिरे से कठोर रुख अपनाया है। उसने केंद्र और राज्य सरकारों से मांग की है कि वे इन नेताओं के मुकदमे निपटाने के लिए विशेष अदालतों का इंतजाम करें ताकि अधिक से अधिक एक साल में उनका निपटारा हो सके। उसने पूछा है कि 1581 विधायकों और सांसदों के आपराधिक मुकदमों को कितना निपटाया गया है, जिन्होंने 2014 में चुनाव लड़ा था। नए मुकदमे कितने दायर हुए हैं ? अदालत ने सरकार से कहा है कि वह छह सप्ताह में इन सवालों के जवाब दे।
सरकार क्या जवाब देगी ? अपने देश में सरकारें बनाने और चलाने की जिम्मेदारी किसकी है ? संसद और विधानसभाओं की ! जब इनके लगभग एक-चौथाई सदस्यों के हाथ काले कारनामों से रंगे हुए हैं तो ये सरकारें क्या करेंगी ? एक-चौथाई सदस्य तो वे हैं, जो अदालतों की गिरफ्त में हैं, जो गिरफ्त से बाहर छुट्टे घूम रहे हैं, उनकी संख्या इनसे भी ज्यादा होगी। भला किस सरकार की हिम्मत होगी कि वह इन पर हाथ डाले ? यदि ये पकड़े भी जाते हैं तो जमानत पर छूट जाते हैं। वे एक के बाद दूसरी ऊंची अदालत में चले जाते हैं और उनके मरने तक मुकदमों का फैसला नहीं होता। दुनिया इन भ्रष्टाचारियों को मजे करती देखती रहती है। समाज में संदेश यह जाता है कि ‘समरथ को नहिं दोष गुसांई !’ यही वजह है कि साढ़े तीन साल होने आ रहे हैं लेकिन अभी तक यही पता नहीं है कि कितने नेताओं को सजा मिली है। साधारण अपराधियों के मुकाबले इन नेताओं की सजा कई गुना कठोर होनी चाहिए और बहुत जल्दी होनी चाहिए। क्यों होनी चाहिए ? क्योंकि साधारण लोगों के मुकाबले उनकी इज्जत, लज्जत और कीमत हर जगह बहुत ज्यादा होती है। यदि वे दंडित होते हैं तो अपराध करनेवाले साधारण लोगों के दिलों में ज्यादा भय का संचार होगा। जैसे ही उनका अपराध सिद्ध हो, उन्हें अपने पद से तत्काल बर्खास्त किया जाना चाहिए (जुलाई 2013 का फैसला), वे अपील या जमानत की कोशिश करें तो करते रहें। चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय दोनों ही चाहते हैं कि जो भी सांसद या विधायक अपराधी सिद्ध हो जाएं, उनके चुनाव लड़ने पर जीवन भर का प्रतिबंध होना चाहिए। यह प्रावधान मुझे ज़रा ज्यादा सख्त मालूम पड़ता है। उन्हें पश्चाताप और सुधार का मौका जरुर मिलना चाहिए। अपराध जितना संगीन हो, सजा भी उतनी ही कठोर होनी चाहिए।
दतिया के गामा पहलवान…!
– नईम कुरेशी
दतिया जिले का पर्यटन व इतिहास की निगाह से तो काफी नाम रहा है। इस इलाके को बुन्देलखण्ड का वृन्दावन तक कहा गया है। ये इलाका देशभर में शक्तिपीठ के लिये भी जाता जाता है। बगुलामुखी देवी का यहां प्राचीन मंदिर काफी हद तक लोकप्रिय है। यहां मुगल व सम्राट अशोक के दौर के भी स्मारक इस इलाके को खास बनाते हैं।
दतिया के गामा पहलवान भी देश दुनिया में काफी नामी रहे थे। उन्होंने कभी भी कोई कुश्ती नहीं हारी थी। उन्हें पटियाला के महाराज का भी संरक्षण प्राप्त था। गामा पहलवान 1920-30 के लगभग दतिया में रहे थे। वो देश दुनिया भर में अनेकों देशों इंग्लैण्ड, फ्रांस में कुश्तियां लड़ने गये। अपने से काफी ज्यादा वजन के तमाम पहलवानों को उन्होंने चित करके विश्व रिकॉर्ड बनाया था।
गामा पहलवान एक दिन में हजार से भी ज्यादा दण्ड बैठकें लगाते थे। उनकी डाइट में 6 देशी मुर्गे, 10 लीटर दूध, आधा किलो घी व बादाम बताये जाते हैं। गामा पहलवान का नाम गुलाम मोहम्मद उर्फ गामा था। उनसे अव्वल कोई दूसरा पहलवान अभी तक नहीं हुआ है। पंजाब के अमृतसर में उनका 1878 में जन्म हुआ था। वहां के महाराजा ने उन्हें अपना संरक्षण दिया। उनके पिता नौकरी के सिलसिले में दतिया के महाराज के यहां आ गये थे। उनके पिता मोहम्मद अजीज को भी पहलवानी का शौक था।
पिता की असमय मौत के बाद महाराजा दतिया ने गामा पहलवान को अपने पास रख लिया, जहां उन्हें पहलवानी के गुर सिखवाये गये। छोटी उम्र 10-12 साल में ही गामा ने महारथी कहे जाने वाले पहलवानों को धूल चटा दी जिससे उनका नाम तमाम इलाकों में दूर-दूर तक फैल गया। 1895 में 18 साल की उम्र में देश के सबसे बड़े पहलवान रुस्तम-ए-हिंद रहीम वक्श सुल्तानी से उनका मुकाबला कराया गया। रहीम की लम्बाई 6 फीट 9 इंच थी जबकि गामा की 5 फीट 7 इंच मात्र थी लेकिन फिर भी गामा रहीम से भयभीत नहीं हुये। बड़ी जोरदार कुश्ती हुई, आखिर मैच ड्रा हुआ। इसके बाद तो गामा पूरे देश भर में चर्चित हो गये। दिन पर दिन उनकी चर्चा बढ़ती गई। वह देश के अजय पहलवान बन गये।
1998 से 10 सालों तक 1907-8 के बीच दतिया के ही गुलाम मोहिउद्दीन इंदौर के अलीबाना सेन, भोपाल के प्रताब सिंह, मुल्तान के हसन बक्श आदि को गामा पहलवान ने अखाडों में धूल चटाते हुये करारी शिकश्तें दीं। 1910 में पुन: उनका मुकाबला रुस्तमे हिन्द रहीम बक्श सुल्तानीवाला से हुआ और फिर वही। एक फिर मैच ड्रॉ ही रहा। इसके बाद गामा देश के ऐसे अकेले पहलवान बन चुके थे जिन्हें कोई नहीं हरा पाया था। इसके बाद गामा को ब्रिटेन व फ्रांस भी ले जाया गया जहां उन्हें सभी विदेशी अपने से ज्यादा व बड़े पहलवानों को अखाड़ों में धूल चटा दी।
एक बार फिर से गामा ने दुनिया के सभी पहलवानों से अखाड़े में आने की चुनौती दी जिस पर उस दौर के सबसे बड़े विदेशी पहलवान स्टैनिसलॉस जबिश्को और फ्रौंक गॉच को चुनौती दे डाली जिस पर 10 सितम्बर 1910 में उनकी गामा से फाइट कराई गई। गामा पहलवान ने पहले ही मिनट में उन्हें पटक कर चित कर दिया फिर बाद में भी ये फाइट 2-2 घंटे से भी ज्यादा चली लेकिन उसे भी ड्रॉ कर दिया। मैच दो बार 19 सितम्बर को रखा गया जिससे विदेशी पहलवान जविश्को कुश्ती में आने की हिम्मत नहीं जुटा पाये। इस तरह गामा पहलवान विश्व के हैवीवेट चैम्पियन बन गये। ये खिताब रुस्तमे-ए-जमां के बराबर माना गया था। 1911 में गामा का सामना एक बार फिर से रहीम बक्श से हुआ। इस बार रहीम को गामा ने चित कर दिया और फिर गामा ने आखरी कुश्ती 1927 में लड़ी। उन्होंने स्वीडन के पहलवान “पीटरसन” को हराकर कुश्ती की दुनिया को अलविदा कह दिया। हैरत की बात है कि 50 साल के लम्बे दौर में गामा कभी कोई कुश्ती नहीं हारे। 1947 में भारत-पाक बंटवारे में गामा पाकिस्तान चले गये थे, जहां लम्बी बीमारी के चलते 1963 में वो दुनिया को अलविदा कह गये। उनके परिजनों में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को भी बताया जाता है पर उनका दतिया बुन्देलखण्ड में रहना हम सब को सुखद अहसास देता है। उस दौर में जब दतिया में कुछ भी न था, आज तो यह शहर विकास के दौर में काफी आगे है यहां के जनप्रतिनिधि नरोत्तम मिश्रा के कारण। उस वक्त न सड़कें थीं न बिजली तक। उस दौर में गामा का होना बड़ी बात है।
शुकदेव और क्यूटू
– सुरेश गुप्ता
क्यूटू। हाँ उसे हम प्यार से क्यूटू ही कहते हैं। क्यूटू मेरी पत्नी की बड़ी बहन के इकलौते पुत्र मानस और मेधा का पुत्र है। अभी दो माह पहले हमने भोपाल में उसकी पहली वर्षगाँठ का जश्न मनाया। दो-चार दिन पहले जब दफ्तर से घर लौटा तो श्रीमती जी ने बताया कि “लो आपको कुछ पता है कि नहीं क्यूटू कुछ माह में ही प्ले स्कूल जाने वाला है।” मेरा मुँह हैरत से खुला ही रह गया। कुछ बोलने की तो जगह ही नहीं थी। श्रीमती जी कहाँ रूकने वाली थी। वह कहे जा रही थी- “एक मेरा आपका बचपन था, छह वर्ष से कम के बच्चे को स्कूल में भर्ती ही नहीं किया जाता था। हमारे बेटे मनु को भी हमने अब से कम से कम साढ़े ग्यारह वर्ष पहले प्री नर्सरी में दाखिला दिलाया था जब वह मात्र ढाई वर्ष का था।” श्रीमती जी कहे जा रही थी और मैं सोच रहा था कि मैं तो तब भी इस पक्ष में नहीं था जिद तो इसी की थी कि “तुम अपना प्यार अपने पास रखो। अब दाखिला नहीं दिलायेंगे तो यह अपनी उम्र के बच्चों से पिछड़ जायेगा और इसके लिये एक दिन दोष हमें ही देगा।” खैर मनु की बात यही तक।
अब मूल बात पर आते हैं क्यूटू के माता-पिता कल के गुड़गाँव और आज के गुरूग्राम में रहते हैं। श्रीमती जी की बात पूरी होते-होते मैं अपनी हैरत से उबर गया था। मैंने कुछ हास्य और कुछ व्यंग्य की चाशनी के साथ कहा कि “भई अब गुरूग्राम में रहते हैं उसके माता-पिता, तो डेढ़ वर्ष में स्कूल नहीं भेजेंगे तो क्या घर में दुलारते रहेंगे।” श्रीमती जी को पता नहीं मेरा आशय, हास्य या व्यंग्य समझ में आया या नहीं परन्तु उन्होंने अपने क्यूटूनामा का पाठ जारी रखा। कहने लगी “भई यह तो हद है। मैंने जब मानस और मेधा से पूछा कि इतनी जल्दी क्या है बच्चे को स्कूल भेजने की, तो दोनों का कहना था कि यहाँ (गुरूग्राम में) तो सब यही करते हैं।” महज डेढ़-दो साल होते-होते बच्चे को प्ले स्कूल में डाल देते हैं। मैंने कहा “भागवान दोनों बच्चे समझदार है। जमाने का चलन ही ऐसा है वहाँ, तो वे क्या करें?” श्रीमती जी कहाँ चुप रहने वाली थी, लग रहा था जैसे क्यूटू नहीं उन्हें स्कूल जाना पड़ेगा। कहने लगी “यह तो हद हो गई है, अभी एक माह से बच्चा चलने लगा है, पूरा बोलना भी नहीं आता है क्यूटू को।” मैंने बीच में ही टोक दिया, “हो सकता है कि तुम्हारी सोच के अनुसार जब वह तीन साल का हो, तो उसे गुरूग्राम में अच्छे स्कूल में एडमिशन न मिले, बच्चें सोच-समझकर ही फैसला ले रहे होंगे।” अब वे चुप थी परन्तु चेहरा बहुत कुछ कह रहा था।
असल में यह एक परिवार का मामला नहीं है। लाखों परिवार देश में ऐसे हैं, जिन्हें मानस-मेधा की तरह का निर्णय लेना पड़ रहा है। हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था का ताना-बाना ही कुछ ऐसा बन गया है। न बच्चों का बचपन बचा है और न उनके बस्तों का बोझ कम हुआ है। बोझ बढ़ा है तो इस संबंध में गठित और प्रदेश के शिक्षा विभागों और मानव संसाधन मंत्रालय की अलमारियों में कैद समितियों की रिर्पोटों का, जो वर्षों से धूल खा रही है। देश और सरकारें समझ ही नहीं पा रही कि कैसी और कौनसी शिक्षा व्यवस्था या प्रणाली लागू हो जिसमें बच्चों का बचपन भी बचा रहे और उनकी कमर भी न झुके न टूटे।
एक ओर वाक्या मुझे याद आता है जब एक मित्र ने कहा था- “वह दिन दूर नहीं जब गर्भधारण के बाद ही दम्पत्ति स्कूलों के फार्म लेकर उन्हें फिल अप करना शुरू कर दे।” हो सकता है देश के मेट्रोज और एडवांस्ड शहरों में ऐसा हो भी रहा हो, अलबत्ता मुझ अज्ञानी को पता न हो !
बहरहाल यहाँ मुझे शुकदेव मुनि की कथा याद आती है। वे वेद व्यास के पुत्र थे। कहते हैं कि वे अयोनिज पुत्र थे। कहा जाता है कि वे बारह वर्ष तक माता के गर्भ से नहीं निकले थे। भगवान श्रीकृष्ण के आश्वासन देने पर कि बाहर निकलने पर भी तुम पर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा, तब वे गर्भ से निकले थे। यहाँ खास बात यह है कि जन्मते ही श्रीकृष्ण और अपने माता-पिता को प्रणाम कर शुकदेव ने तपस्या के लिये जंगल की राह ले ली थी। माता-पिता पुकारते ही रहे। इस संदर्भ को क्यूटू के शैशव में स्कूल के दाखिले की प्रक्रिया से जोड़ना मुझे समीचीन लगा। बस सवाल यही है कि शुक मुनि देव बने। उनका वैराग्य आज भी उदाहरण है। उन्हें किसी ने जन्मते ही जंगल भेजना नहीं चाहा था, वे अपनी मर्जी से गये थे। क्यूटू न देव है न मुनि। डेढ़-दो साल की उम्र में उसके स्कूल जाने की प्रक्रिया में चाहे वह प्ले स्कूल ही क्यों न हो, उसकी कोई इच्छा नहीं होगी। उसका एक तरह से जन्मते ही स्कूल जाना परिस्थितियों और सासांरिकता की वजह से होगा। शिक्षा व्यवस्था के कारण होगा। कॅरियर की बढ़ती प्रतिस्पर्धा की वजह से होगा। धन्य है ऐसी शिक्षा व्यवस्था !
अमेरिका इतना हिंसक क्यों है ?
(डॉ. वेदप्रताप वैदिक)
अमेरिका के प्रसिद्ध शहर लास वेगास मे एक ही झटके में पचासों लोग मारे गए और सैकड़ों घायल हो गए। ऐसी घटनाएं, कमोबेश, अमेरिका में अक्सर होती रहती हैं। जाहिर है कि यह इस्लामी आतंकवाद की घटना नहीं थी तो फिर यह क्या थी ? यह ऐसा सवाल है, जो अमेरिकी सभ्यता को बेनकाब कर देता है। स्टीफन पेडॉक नामक इस गोरे आदमी ने एक होटल के कमरे से इतनी गोलियां चलाईं कि सैकड़ों लोग हताहत हो गए। उसके कमरे में 10 बंदूकें पाई गईं और उसकी अपनी लाश भी ! यदि वह जिंदा पकड़ा जाता तो शायद इस हत्याकांड के सही कारण का पता चल जाता लेकिन हम तो सिर्फ अंदाज ही लगा सकते हैं। पेडॉक कोई गरीब आदमी नहीं था। उसका अपना हवाई जहाज है, अपना मकान है, अच्छी-खासी नौकरी भी रही है। तो क्या वजह हो सकती है, उसकी इस पशुता की ? मुझे इसके दो कारण दिखाई पड़ते हैं। पहला तो यह कि अमेरिका में परिवार नामक संस्था में बहुत गिरावट आ गई है। बच्चों को माता-पिता ठीक से संस्कार नहीं दे पाते हैं। व्यक्तिवादी व्यवस्था में बच्चे बड़े होते-होते स्वछन्द हो जाते हैं। उन्हें मान-मर्यादा, लिहाजदारी, संबंधों की आत्मीयता आदि का कोई खास ख्याल नहीं रहता। भौतिक सुख-सुविधाएं ही जीवन का अंतिम लक्ष्य बन जाता है। अमेरिकी नागरिकों का यह एकाकीपन उनमें गहरी हताशा, तीव्र आक्रोश और विषैले प्रतिशोध का भाव भर देता है। वे मानसिक तौर पर बीमार हो जाते हैं और इस तरह के हत्याकांड कर बैठते हैं। दूसरा कारण है- अमेरिका की ढीली-ढाली शस्त्र-धारण नीति। अमेरिका के कई राज्यों के नागरिक अपने पास जितने चाहें, उतने शस्त्र रख सकते हैं। लास वेगास के नेवादा प्रान्त में तो लाइसेंस की भी जरुरत नहीं होती। अमेरिका में बहुत कम घर ऐसे हैं, जिनमें बंदूक या पिस्तौल न हो। अमेरिका की यह शस्त्र-संस्कृति उसके जन्म के साथ जुड़ी हुई है। दो सौ-ढाई सौ साल पहले यूरोपीय लोगों ने वहां से आकर अमेरिका पर कब्जा किया तो उन्हें पग-पग पर शस्त्र इस्तेमाल करने पड़े थे- मूल निवासियों को दबाने के लिए। हिंसा की वही प्रवृत्ति आज भी जीवित है। अमेरिका की अनेक अच्छाइयां हैं लेकिन आज दुनिया में वह अपराध का सबसे बड़ा अड्डा है। अमेरिका की जेलों में आज जितने कैदी हैं, दुनिया के किसी भी देश में नहीं हैं। अमेरिका दुनिया का सबसे अधिक शक्तिशाली और सुरक्षित देश है लेकिन अमेरिकी नागरिक सबसे अधिक असुरक्षित और भयभीत नागरिक है।
अतिथि अध्यापक राजनीति के शिकार क्यों ?
(जग मोहन ठाकन)
हाल ही में दिल्ली सरकार द्वारा पन्द्रह हज़ार अतिथि अध्यापकों को नियमित करने के फैसले ने राजनैतिक गलियारों में गर्माहट पैदा कर दी है और भाजपा तथा कांग्रेस दोनों पार्टियों को कटघरे में खड़ा कर दिया है। दिल्ली सरकार के इस फैसले को ना तो कांग्रेस और ना ही भाजपा पचा पा रही है। परन्तु भाजपा अब अजीब स्थिति में फंस गयी है, वह अगर अध्यापकों को नियमित करने के फैसले में टांग अड़ाती है तो अतिथि अध्यापकों में उसकी छवि खलनायक की बन जाती है और अध्यापकों के एक तबके में उसका वोट बैंक शुन्य हो जाता है . और अगर आप सरकार के फैसले को निर्विघ्न लागू होने देती है तो भी अतिथि अध्यापक तो एहसान तो केवल आम आदमी पार्टी का ही मानेंगें तथा भाजपा को इसका कोई लाभ भी नहीं मिलेगा .देखना यह है कि क्या भाजपा कोई ऐसा रास्ता निकाल पाती है जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे।
राजनीति के विश्लेषकों को फैसले पर कांग्रेस तथा भाजपा की प्रतिक्रिया स्पष्ट रूप से नकारात्मक व राजनीति से संचालित नज़र आ रही हैं।दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के प्रधान अजय माकन कहते हैं कि सत्ता में आने के काफी पहले से ही आप पार्टी लगातार कहती रही है कि वह इन शिक्षकों को नियमित करेगी। वे सवाल उठाते हैं कि आखिर इतने दिनों से उसे ऐसा करने से किसने रोका था ? माकन आरोप लगाते हैं कि असल में यह आप पार्टी की सरकार अतिथि अध्यापकों की आँखों में धूल झोंकना चाहती है।
दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष मनोज तिवारी भी आप सरकार के इस फैसले से आहत नज़र आते हैं। वे कहते हैं कि दिल्ली की केजरीवाल सरकार का अतिथि अध्यापक नियमितीकरण का फैसला पन्द्रह हज़ार अतिथि अध्यापकों द्वारा किये गए लम्बे संघर्ष और इसके लिए भाजपा के समर्थन व दवाब का परिणाम है। तिवारी का कहना है कि दिल्ली भाजपा साल २०१३ से ही लगातार केजरीवाल सरकार से आग्रह करती रही है कि वह अतिथि शिक्षकों को नियमित करे।
परन्तु यहाँ प्रश्न उठता है कि अगर भाजपा इतनी ही शिक्षक हितेषी है तो हरियाणा की भाजपा सरकार, जो वर्ष २०१४ से सत्तासीन है, क्यों नहीं हरियाणा में बारह वर्ष से मेहमान बने बैठे अतिथि अध्यापकों को नियमित कर रही है ? दिल्ली की आप पार्टी की सरकार के फैसले पर शंका जाहिर करने वाली कांग्रेस पार्टी ने अपने दस वर्ष के सत्ता कार्यकाल (२००४-२०१४ ) में क्यों हरियाणा में इन अध्यापकों को अतिथि बनाया ? क्यों नहीं अध्यापकों की स्थाई भर्ती की गयी ? और यदि किसी मजबूरी वश इन्हें अतिथि अध्यापक के रूप में लगाना ही पड़ा तो क्यों नहीं अपने दस वर्ष के लम्बे कार्यकाल में स्थाई किया गया ?
अब हरियाणा में भी अतिथि अध्यापक पुनः आंदोलन का रास्ता अख्तियार करने की धमकी दे रहे हैं। उनका कहना है कि जब तक सरकार उनकी नौकरी को स्थार्इ करने की गारंटी नहीं देगी, वे आंदोलन जारी रखेंगें . अभी प्रथम अक्टूबर, २०१७ को कुरुक्षेत्र में हरियाणा के गेस्ट टीचर्स की यूनियन की एक मीटिंग हुई जिसमे एकजुट होकर नियमित करने की मांग को लेकर आर पार की लड़ाई लड़ने का एलान किया गया है। प्रदेश स्तरीय इस बैठक में हरियाणा सरकार पर अतिथि अध्यापकों की मांग को अनदेखा करने पर आन्दोलन करने का फैसला लिया गया है। प्रदेश अध्यक्ष राजेंदर शास्त्री ने कहा कि २९ अक्टूबर को करनाल में एक प्रदेश स्तरीय रैली का आयोजन किया जायेगा, जिसमे आगामी कदम का फैसला भी लिया जायेगा। इसी कड़ी में गेस्ट अध्यापकों द्वारा जिला स्तर पर मुख्यमंत्री के नाम ज्ञापन भी भेजा जायेगा तथा अतिथि अध्यापक घर घर जाकर भाजपा द्वारा वादा खिलाफी का प्रचार भी करेंगें।
आज स्थिति यह है कि हरियाणा में लगभग पन्द्रह हज़ार अतिथि अध्यापक पिछले बारह वर्ष से अभी भी मेहमान ही बने हुए हैं। अतिथि देवो भव: के लिए प्रसिद्ध हरियाणा प्रदेश का शिक्षा विभाग जहां एक तरफ अतिथि अध्यापकों से छुटकारा पाने का रास्ता तलाश रहा है, वहीं प्रदेश के शिक्षा विभाग में कार्यरत लगभग पन्द्रह हजार अतिथि अध्यापक मान न मान मै तेरा मेहमान की शैली में आंदोलन का रुख अपनाये हुए हैं। दोंनो की इस रस्साकसी में पिस रहा है बेचारा छात्र।
2005 से 2007 के मध्य हरियाणा के शिक्षा विभाग ने स्थायी अध्यापकों की नियुक्ति होने तक लगभग पन्द्रह हजार अतिथि अध्यापक नियुक्त किये थे। परन्तु आज तक बारह वर्ष बीत जाने के बावजूद सरकार अध्यापकों की नियमित भर्ती के माध्यम से स्कूलों में सभी खाली पदों को भरने में असफल रही है या यों कहें कि जरुरत के मुताबिक़ स्थायी भर्ती से कन्नी काटने में सफल रही है। समय समय पर इन पन्द्रह हजार अध्यापकों को विभिन्न संवर्गों में अनुबंध के आधार पर नियुक्त किया गया था। इनको जेबीटी, बीएड तथा पीजीटी अध्यापक के पदों पर नियमित अध्यापकों के समान वेतन देने की बजाए आधे से भी कम वेतन पर कार्य करवाया जा रहा है। अतिथि अध्यापकों का कहना है कि उनसे नियमित अध्यापकों के बराबर कार्य लिया जा रहा है, परन्तु वेतन आधा ही दिया जा रहा है, जबकि माननीय कोर्ट द्वारा कर्इ बार समान कार्य समान वेतन के सिद्धांत को मान्यता दी जा चुकी है। हालांकि अतिथि अध्यापकों का मानना है कि वे कम वेतन में भी नियमित अध्यापकों से बेहतर परीक्षा परिणाम दे रहे हैं, परन्तु उन पर किसी भी समय नौकरी से हटाये जाने की लटकती तलवार के कारण उनका व्यक्तिगत एवं पारिवारिक जीवन संकट में पड़ गया है। उनकी सांप छछुंदर की गति हो गर्इ है। वे अब ओवर ऐज हो गए हैं, न नौकरी छोड़ते बनता है और न नौकरी का एक पल का भरोसा है।
इतने सालों तक अध्यापकों को गेस्ट टीचर्स रखने पर तंज कसते हुए पूर्व अध्यापक नेता मास्टर छोटू राम आर्य कहते हैं कि बारह वर्ष के बाद भी अध्यापक मेहमान ही बने हुए हैं, मेहमान तो एक दो दिन के लिए होता है। बारह वर्ष में तो कुरड़ी के भी दिन फिर जाते हैं। यह इन अध्यापकों के साथ अमानवीय अत्याचार है। जब किसी अध्यापक को अपनी ही नौकरी का ही भरोसा नहीं कि अगले दिन वह अध्यापक रह भी पायेगा या नहीं, कैसे उससे बच्चों का भविष्य संवारने की अपेक्षा की जा सकती है ?
अतिथि अध्यापक अशोक कुमार, जो अपनी जगह स्थाई अध्यापक आ जाने से रिलीव किये जा चुके हैं, कहते हैं कि जब भी सरकार नियमित अध्यापकों की ट्रान्सफर करती है हर बार खामियाजा अतिथि अध्यापकों को ही भुगतना पड़ता है, उन्हें ओन रोड कर दिया जाता है। और उन्हें अगला स्टेशन मिलने तक बिना वेतन घर बैठना पड़ता है। अगला स्टेशन कब मिलेगा, कहाँ मिलेगा, कोई निश्चितता नहीं है। हाल के तबादलों के कारण सैंकड़ों अतिथि अध्यापक घर बैठे हैं और बच्चे अध्यापक न होने का खामियाजा भुगत रहे हैं।
अतिथि अध्यापक विवाद पर सरकार तथा अध्यापक यूनियनों के पास अपने अपने पक्ष में चाहे कितने ही तर्क क्यो न हों, पर इतना तो सुनिश्चित है कि सरकार की इस ढुलमुल नीति के कारण सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर गिरावट की दिशा में अग्रसर है। यदि सरकार अतिथि अध्यापकों को नियमित करने के योग्य नहीं मानती है और सरकार का आंकलन यह है कि अतिथि अध्यापक स्थायी श्रेणी की कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं तो क्यों इतने वर्षों से ऐसे अध्यापकों के माध्यम से नौनिहालों का भविष्य दांव पर लगाया जाता रहा है ? क्या उन छात्रों का वह काल दोबारा लौटाया जा सकेगा ? यदि सरकार इन अतिथि अध्यापको को नीम हकीम मानकर कम वेतन देकर शिक्षा जैसे क्षेत्र में खानापूर्ति कर रही है तो क्या यह सरकार का छात्रों के साथ विश्वासघात नहीं है ? और यदि सरकार इन अतिथि अध्यापकों को योग्य मानती है तो क्यो नहीं सरकार इनको नियमित कर शिक्षा क्षेत्र में रिक्त पड़े स्थानों पर इनको सेवा करने का मौका देना चाहती ? कारण जो भी हो सरकार को हठधर्मिता छोड़कर अपने द्वारा नियुक्त अतिथि अध्यापकों से अतिथि तुल्य सम्मान नहीं तो कम से कम अपने मातहत कर्मचारियों के समान व्यवहार तो करना ही चाहिए। सरकार, अध्यापकों एवं विधार्थियों के हित में यही उचित है कि शीघ्रतम समस्या का सम्मानजनक हल निकाला जाये ताकि कोई अध्यापक अपने माथे पर कच्चे अध्यापक का कलंक ना महसूस करे। समय राजनीति करने का नहीं, ठोस निर्णय लेने का है। सभी राजनैतिक पार्टियों को कम से कम शिक्षा क्षेत्र को तो अपनी दुर्गन्ध युक्त राजनीति से दूर ही रहने देना चाहिए।
कुरीतियों के उन्मूलन की ओर देश ?
-प्रमोद भार्गव
मुस्लिम समुदाय में पिछले 1400 वर्ष से प्रचलित तीन तलाक की कुरीति से पीड़ित सायरा बानो नाम की महिला ने सर्वोच्च न्यायालय में दस्तक देने का वीड़ा उठाया और समाज में व्याप्त बुराई को जमींदोज कर दिया। पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने बहुमत से माना कि एक झटके में तीन बार तलाक बोलकर तलाक देने की रवायत मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों का हनन है। साथ ही यह बहस भी आगे बढ़ी कि क्या यह प्रथा इस्लाम धर्म का अनिवार्य हिस्सा है ? पीड़ित महिलाओं समेत मुस्लिम पुरूषों का एक बड़ा तबका यह मान रहा था कि तीन तलाक की रवायत मजहब या कुरान का बुनियादी हिस्सा नहीं है। इसी मान्यता की तस्दीक सुप्रीम कोर्ट ने कर दी है। अब इस फैसले को किसी एक पक्ष की जय-पराजय के रूप में देखने की बजाय इसे मुस्लिम समाज सहित अन्य धर्मावलंबी समुदायों में व्याप्त कुरीतियों के उन्मूलन के रूप में देखने की जरूरत है, जिससे कुरीतियां तो दूर हों ही समान नागरिक संहिता बनाने की दिशा में भी उचित पहल हो। इस मामले में यह अच्छी बात रही कि नरेंद्र मोदी सरकार ने तीन तलाक के विरुद्ध अपना पक्ष अदालत में मजबूती से रखा और तीन तलाक के विरोध में देशव्यापी माहौल भी बनाने का काम किया।
दरअसल संविधान में दर्ज नीति-निर्देशक सिद्धांत भी यही अपेक्षा रखता है कि समान नागरिकता लागू हो। जिससे देश में रहने वाले हर व्यक्ति के लिए एक ही तरह का कानून वजूद में आ जाए, जो सभी धर्मों, संप्रदायों और जातियों पर लागू हो। आदिवासी और घूमंतू जातियां भी इसके दायरे में लाई जाएं। किंतु इसमें सबसे बड़ी चुनौतियां बहुधर्मों के व्यक्तिगत कानून और वे जातीय मान्यताएं हैं,जो विवाह, परिवार, उत्तराधिकार और गोद जैसे अधिकारों को दीर्घकाल से चली आ रही क्षेत्रीय, सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं को कानूनी स्वरूप देती हैं। इनमें सबसे ज्यादा भेद महिलाओं से बरता जाता है। एक तरह से ये लोक प्रचलित मान्यताएं महिला को समान हक देने से खिलवाड़ करती हैं। लैंगिक भेद भी इनमें स्पष्ट परिलक्षित रहता है। मुस्लिमों के विवाह व तलाक कानून महिलाओं की अनदेखी करते हुए पूरी तरह पुरुषों के पक्ष में हैं। ऐसे में इन विरोधाभासी कानूनों के तहत न्यायपालिका को सबसे ज्यादा चुनौती का सामना करना पड़ता है। अदालत में जब पारिवारिक विवाद आते हैं तो अदालत को देखना पड़ता है कि पक्षकारों का धर्म कौनसा है और फिर उनके धार्मिक कानून के आधार पर विवाद का निराकरण करती है। इससे व्यक्ति का मानवीय पहलू तो प्रभावित होता ही है, अनुच्छेद 44 की भावना का भी अनादर होता है। दरअसल ब्रिटिशकालीन भारत में 1772 में सभी धार्मिक समुदायों के लिए विवाह, तलाक और संपत्ति के उत्तराधिकार से जुड़े अलग-अलग कानून बने थे, जो आजादी के बाद भी अस्तित्व में हैं।
वैसे तो किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का बुनियादी मूल्य समानता है, लेकिन बहुलतावादी संस्कृति, पुरातन परंपराएं और धर्मनिरपेक्ष राज्य अंतत:कानूनी असमानता को अक्षुण्ण बनाए रखने का काम कर रहे हैं। इसलिए समाज लोकतांत्रिक प्रणाली से सरकारें तो बदल देता है, लेकिन सरकारों को समान कानूनों के निर्माण में दिक्कतें आती हैं। इस जटिलता को सत्तारूढ़ सरकारें समझती हैं। हांलाकि संविधान के भाग-4 में उल्लेखित राज्य-निर्देशक सिद्धांतों के अंतर्गत अनुच्छेद-44 में समान नागरिक संहिता लागू करने का लक्ष्य निर्धारित है। इसमें कहा गया है कि राज्य भारत के संपूर्ण क्षेत्र में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता पर क्रियान्वयन कर सकता है। किंतु यह प्रावधान विरोधाभासी है, क्योंकि संविधान के ही अनुच्छेद-26 में विभिन्न धर्मावलंबियों को अपने व्यक्तिगत प्रकरणों में ऐसे मौलिक अधिकार मिले हुए हैं,जो धर्म-सम्मत कानून और लोक में प्रचलित मान्यताओं के हिसाब से मामलों के निराकरण की सुविधा धर्म संस्थाओं को देते हैं।
इस्लाम और ईसाइयत से जुड़े लोग इस परिप्रेक्ष्य में यह आशंका भी व्यक्त करते हैं कि यदि कानूनों में समानता आती है तो इससे बहुसंख्यकों, मसलन हिंदुओं का दबदबा कायम हो जाएगा। जबकि यह परिस्थिति तब निर्मित हो सकती है,जब बहुसंख्यक समुदाय के कानूनों को एकपक्षीय नजरिया अपनाते हुए अल्पसंख्यकों पर थोप दिया जाए ? जो पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था में कतई संभव नहीं है। विभिन्न पर्सनल कानून बनाए रखने के पक्ष में यह तर्क भी दिया जाता है कि समान कानून उन्हीं समाजों में चल सकता है,जहां एक धर्म के लोग रहते हों। भारत जैसे बहुधर्मी देश में यह व्यवस्था इसलिए मुश्किल है,क्योंकि धर्मनिरपेक्षता के मायने हैं कि विभिन्न धर्म के अनुयायियों को उनके धर्म के अनुसार जीवन जीने की छूट हो ? इसीलिए धर्मनिरपेक्ष शासन पद्धति, बहुधार्मिकता और बहुसांस्कृतिकता को बहुलतावादी समाज के अंग माने गए हैं। इस विविधता के अनुसार समान अपराध प्रणाली तो हो सकती है, किंतु समान नागरिक संहिता संभव नहीं है ? लिहाजा देश में समान’दंड प्रक्रिया सांहिता’ तो बिना किसी विवाद के आजादी के बाद से लागू है, लेकिन समान नागरिक संहिता के प्रयास अदालत के बार-बार निर्देश के बावजूद संभव नहीं हुए हैं। इसके विपरीत संसद निजी कानूनों को ही मजबूती देती रही है।
इस बाबत सबसे अह्म 1985 में आया इंदौर का ’मोहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो बेगम’ मुकदमा है। इस प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फैसला एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला के पक्ष में सुनाया था। फैसले को सुनाते वक्त अदालत ने यह चिंता भी प्रगट की थी कि ’संविधान का अनुच्छेद-44 अभी तक लागू नहीं किया गया।’ अनुच्छेद-44 को लागू करने की बात तो छोड़िए,इस फैसले पर जब मुस्लिम समाज ने नाराजी जताई तो प्रचंड बहुमत से सत्तारूढ़ राजीव गांधी सरकार के हाथ-पांव फूल गए। गोया, आनन-फनन में मुस्लिम कट्टरपंथियों की मांग स्वीकारते हुए ’मुस्मिल महिला विधेयक-1986’ संसद से पारित कर दिया गया। इसके बाद से लेकर सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला आने तक मौलवियों की ओर से एक रटा वाक्य बोला जाता रहा कि तीन तलाक अल्लाह का कानून है, इसलिए न तो इसमें अब तक बदलाव हुआ है और न ही इसे बदला जा सकता है। तथाकथित वामपंथी प्रगतिशीलों ने भी धार्मिक चरमपंथियों की राय में अपनी राय मिलाई। जबकि दुनिया के सउदी अरब, मलेशिया, मलेशिया, पाकिस्तान और बांग्लादेश समेत 20 इस्लामिक देशों में तीन तलाक को अवैध करार दिया जा चुका है।
हालांकि कई सामाजिक और महिला संगठन अर्से से मुस्लिम पर्सनल लॉ पर पुनर्विचार की जरूरत जता रहे थे। उनकी मांग है कि तीन तलाक, हलाला और बहुविवाह पर रोक लगे। इस परिप्रेक्ष्य में मुस्लिम संगठनों की प्रतिनिधि संस्था ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ये-मुशावरत ने भी अपील की थी कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और उलेमा मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार किए जाएं। इस्लाम के अध्येता असगर अली इंजीनियर मानते थे कि भारत में प्रचलित मुस्लिम पर्सनल लॉ दरअसल ’ऐंग्लो मोहम्मडन लॉ’ है, जो फिरंगी हुकूमत के दौरान अंग्रेज जजों द्वारा दिए फैसलों पर आधारित है। लिहाजा इसे संविधान की कसौटी पर परखने की जरूरत है। लेकिन रूढ़िवादी समूह इसमें बाधा बनते रहे। लंबे समय तक देश पर काबिज रही कांग्रेस भी चरमपंथियों के पक्ष में दिखती रही। अब जरूर सलमान खुर्शीद को कहना पड़ा है कि जब अनेक मुस्लिम देशों में ऐसा नहीं है तो इसकी भारत में भी जरूरत नहीं है। किंतु हकीकत यह है कि खुर्शीद समेत उनकी पार्टी पीड़ित मुस्लिम महिलाओं के नाम पर घड़ियाली आंसू तो बहाती रही, लेकिन मोदी सरकार की तरह तीन तलाक की कुरीति समाप्त करने के पक्ष में दृढ़ता से खड़ी नहीं हो पाई। इस मामले में अब अदालत ने स्थिति स्पष्ट कर दी है, इसीलिए अब संसद से स्पष्ट कानून की भी दरकार है।
दरअसल देश में जितने भी धर्म व जाति आधारित निजी कानून हैं,उनमें से ज्यादातर महिलाओं के साथ लैंगिक भेद बरतते हैं। बावजूद ये कानून विलक्षण संस्कृति और धार्मिक परंपरा के पोषक माने जाते हैं,इसलिए इन्हें वैधानिकता हासिल है। इनमें छेड़छाड़ नहीं करने का आधार संविधान का अनुच्छेद-25 बना है। इसमें सभी नागरिकों को अपने धर्म के पालन की छूट दी गई है। दरअसल संविधान निर्माताओं ने महसूस किया था कि विवाह और भरण-पोषण से जुड़े मामलों का संबंध किसी पूजा-पद्धति से न होकर इंसानियत से है। लिहाजा यदि कोई निसंतान व्यक्ति बच्चे को गोद लेकर अपनी वंश परंपरा को आगे बढ़ाना चाहता है अथवा इससे उसे सुरक्षा बोध का अहसास होता है तो यह किसी धर्म की अवमानना कैसे हो सकती है। यदि किसी कानून से किसी महिला को सामाजिक सुरक्षा मिलती है या पति से अलग होने के बाद उसे दरबदर भटकने की बजाय गुजारे भत्ते की व्यवस्था की जाती है तो इसमें उसका धर्म आड़े कहां आता है ? स्त्री-पुरुष के दांपत्य संबंधों में यदि समानता और स्थायित्व तय किया जाता है तो इससे किसी भी सभ्य समाज की गरिमा ही बढ़ेगी, न कि उसे लज्जित होना पड़ेगा ?
ईसाई समाज में युवक-युवती ने यदि चर्च में शादी की है, तो उनको चर्च में आपसी सहमति से संबंध-विच्छेद का अधिकार है। किंतु यही सुविधा ’हिंदु विवाह अधिनियम’में नहीं है। यदि हिंदु युगल मंदिर में स्वयंवर रचाते हैं और कालांतर में उनमें तालमेल नहीं बैठता है तो वे चर्च की तरह मंदिर में जाकर आपसी सहमति से तलाक नहीं ले सकते ? उन्हें परिवार न्यायालय में कानूनी प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही तलाक मिलता है। जबकि यदि हम परंपरा को कायम रखना चाहते हैं तो मंदिरों को तलाक का अधिकार भी देना चाहिए ? हिंदुओं में खाप पंचायतें एक गौत्र में शादी करने की प्रबल विरोधी हैं। कई जनजातियां अपनी लोक मन्यताओं के अनुसार गांव और जाति से बाहर विवाह को वर्जित मानती हैं। बहरहाल नए कानून का प्रारूप तैयार करते वक्त व्यापक राय-मशविरे की जरूरत तो है ही, यत्र-तत्र-सर्वत्र फैली लोक-परंपराओं और मान्यताओं में समानताएं तलाशते हुए, उन्हें भी विधि-सम्मत एकरूपता में ढालने की जरूरत है। ऐसी तरलता बरती जाती है तो शायद निजी कानून और मान्यताओं के परिप्रेक्ष्य में अदालतों को जिन कानूनी विसंगतियों और जटिलताओं का सामना करना पड़ता है,वे दूर हो जाएं ?
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं)
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