जबलपुर, एक तरफ एक मरीज की जान बचाने उसके परिजन बाहर ऑक्सीजन और इंजेक्शन जुटाने की मशक्कत कर रहे थे वहीं दूसरी तरफ इंजेक्शन के अभाव में मरीज की जान चली गई। ये हालात किसी निजी अस्पताल के नहीं बल्कि जिले के शासकीय जिला अस्पताल विक्टोरिया अस्पताल में सामने आए। जिला प्रशासन व स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी जितने भी गाल बजा लें उनके दावों व प्रयासों की जमीनी हकीकत कुछ और ही सामने आ रही है, मेडिकल से लेकर जिला अस्पताल विक्टोरिया में मरीजों को भरती करने के लिए एप्रोच लगाना पड़ रही है, यदि भरती कर लिया गया तो उसे इस कदर परेशान किया जाता है कि वे घर में ही बगैर उपचार के मरना पंसद कर रहे हैं। ऐसा ही एक मामला जिला अस्पताल विक्टोरिया में सामने आया। प्रत्यक्षदर्शियों एवं मरीज के परिजनों के अनुसार अस्पताल में जहाँ मरीज को आक्सीजन सिलेंडर बाजार से खरीदकर देना पड़ा, तब उसका इलाज शुरु किया गया, यहां तक कि स्टाफ ने इंजेक्शन भी बाहर से खरीदकर लाने के लिए कहा गया। जब परिजन बाहर इंजेक्शन लेने गए तो कहा गया कि अस्पताल से ही मिलेगा। परिजन इंजेक्शन के इंतजाम में इधर से उधर भटकते रहे, इस बीच मरीज मानसिंह की मौत हो गई। मृतक के परिजनों के साथ अन्य मरीजों के परिजनों ने भी आरोप लगाया कि इंजेक्शन की कालाबाजारी बाहर से नहीं बल्कि जिले के शासकीय अस्पताल से ही हो रही है, यह बात अलहदा है कि स्वास्थ्य विभाग के मुखिया व जिला प्रशासन के आला अधिकारियों को कुछ दिखाई नहीं दे रहा है।
काफी एप्रोच लगाने के बाद हुए थे भर्ती
प्रत्यक्षदर्शियों एवं मृतक के परिजनों के अनुसार विक्टोरिया जिला अस्पताल में पुराना शोभापुर निवासी मानसिंह ठाकुर को वार्ड नम्बर दो के पलंग नम्बर १३ में भरती कराया गया। इसके लिए मानसिंह के परिजनों को काफी एप्रोच लगाना पड़ी तब कहीं यह संभव हो सका। मानसिंह को भरती किए जाने के बाद कथित तौर पर जो अमानवीय व्यवहार किया गया वह दिल दहलाने वाला था। मानसिंह को आक्सीजन लगाई जाना थी, जिसके चलते स्टाफ ने कहा कि आक्सीजन की व्यवस्था कर दो तो आक्सीजन लगा दी जाएगी, यहां पर आक्सीजन नहीं है, इतना सुनते ही परिजन घबरा गए, किसी तरह भागकर आक्सीजन सिलेंडर की बाहर से व्यवस्था कर लाकर दिए, जब मानसिंह को आक्सीजन लगाई गई, यहां तक कि इंजेक्शन की बात आई तो भी स्टाफ ने कहा कि इंजेक्शन लिखकर दिया कि बाजार से लेकर आओ, यहां पर इंजेक्शन नहीं है, परिजन इंजेक्शन के लिए बाजार में भटकते रहे, हर जगह यही कहा गया कि इंजेक्शन की व्यवस्था अस्पताल से ही होगी, परिजन व रिश्तेदार भटकते रहे लेकिन उन्हे इंजेक्शन नहीं मिला और रात ११.३० बजे के लगभग पीड़ित मानसिंह की मौत हो गई।
अस्पताल में मिल जाते तो न जाती जान
परिजनों ने आरोप लगाया कि यदि समय पर आक्सीजन व इंजेक्शन मिल जाता तो मानसिंह की जान को बचाया जा सकता था लेकिन जिला अस्पताल विक्टोरिया में स्वास्थ्य कर्मियों द्वारा आक्सीजन व इंजेक्शन के लिए भटकाया गया, जिसके चलते समय पर इलाज नहीं मिल पाया और उनकी मौत हो गई। जब सरकारी अस्पतालों में मरीजों के साथ इस तरह का व्यवहार किया जा रहा है तो अन्य संस्थानों के हालात को बेहतर समझा जा सकता है। मानसिंग की मौत ने एक बार फिर यह बात तो साफ कर दी कि स्वास्थ्य विभाग के मुखिया व जिला प्रशासन के मुखिया द्वारा किए जा रहे दावे की आक्सीजन पर्याप्त मात्रा में है, इंजेक्शन के लिए भटकना नहीं होगा, सिर्फ कागजों तक ही सीमित है, इसकी जमीनी हकीकत कुछ और ही है। जिला अस्पताल विक्टोरिया से लेकर मेडिकल में मरीजों को न तो समय पर आक्सीजन मिल रही है न ही जीवन रक्षक माना जाने वाला रेमडेसिविर इंजेक्शन, जब मरीजों को इन सुविधाओं से वंचित रखा जा रहा है तो यहां पर होने वाली सप्लाई पर सवालिया निशान उठने लगे है, क्या मेडिकल व विक्टोरिया से ही आक्सीजन व रेमडेसिविर इंजेक्शन की कालाबाजारी की जा रही है, क्या इस ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है, या फिर सबकुछ सांठगांठ के तहत हो रहा है।
अच्छे नहीं शहर के हालात
खैर जो भी इस तरह के मामले सामने आने के बाद यह बात तो साफ है कि जबलपुर के हालात बेहतर नहीं है, यह बात अलग है कि कागजों में सबकुछ बेहतर बताया जा रहा है, राजधानी भोपाल में उच्चाधिकारियों के सामने पेश किए जाने वाले आंकड़े भले ही कुछ हो लेकिन शहर में हालात पूरी तरह से बिगड़ चुके है, खासतौर पर मेडिकल से लेकर विक्टोरिया अस्पताल के, जहां से एक आम आदमी को ज्यादा उम्मीद है वह सीधे यहां पर आ रहा है क्योंकि कोरोना संक्रमण का इलाज निजी अस्पतालों में कराना, हर आम के लिए संभव नहीं है।
शहर में नहीं है रेमेडेसिविर इंजेक्शन
शहर में कोरोना मरीजों के लिए जीवन उपयोगी दवाइNयों में से एक रेमेडेसिविर शहर में नहीं है वहीं अन्य महत्वपूर्ण दवाइNयों की भी न सिर्फ कमी होती जा रही है बल्कि जो उपलब्ध है वे अत्याधिक महंगी बेची जा रही हैं। शहर के निजी अस्पतालों में रेमेडेसिविर का जो वितरण हो रहा है उससे भी अस्पताल संचालकों में खासी नाराजगी है। शहर के अस्पताल संचालकों का कहना है कि मांग के अनुसार रेमेडेसिविर की दो-से-तीन फीसद आपूर्ति मिल पा रही है इससे बेहतर है कि उन्हें वर्तमान व्यवस्था में इंजेक्शन न हीं दिए जाएं तो बेहतर है। दवा कंपनियों का कहना है केंद्र और राज्य सरकारों की अनदेखी के चलते आपदा में अवसर तलाशने की तर्ज में इस नाजुक दौर में भी उन्हें २०० फीसद अधिक दामों में दवा बनाने का कच्चा माल मिल रहा है। जिसके चलते जीवन उपयोगी दवाओं में न चाहते हुए भी उन्हें मूल्यवृद्धि करनी पड़ रही है। दवा कंपनियों ने इसके चलते दवाओं की कमी की भी चेतावनी दी है।
अप्रत्याशित तौर पर बढ़े दाम
दवा कंपनियों के अनुसार २१ मार्च से २१ अप्रैल के बीच दवा बनाने के कच्चे माल की कीमतों में २९ से २०० फीसदी तक की वृद्धि हो चुकी है। कोविड की दवाएं बनाने में इस्तेमाल होने वाले आईवरमैक्टिन की कीमत १८ हजार से २०० फीसद बढ़कर ५४ हजार, मिथाईल प्रैडनिसोलोन ८५ हजार से १२३.५ फीसद बढ़कर १ लाख ९० हजार, मैरोपिनेम ८१ हजार रुपए से ८५.२ फीसद बढ़कर डेढ़ लाख रुपए, डॉक्सीसिलिन साढ़े ७ हजार रुपए से ६० फीसद बढ़कर १२ हजार रुपए, पिपरेटजो ६ हजार ७ सौ रुपए से ४१.८ फीसद बढ़कर ९ हजार ५ सौ रुपए, १७ लाख रुपए प्रति किलो में मिलने वाला एनॉक्सापरिन ४७.१ फीसद बढ़कर २५ लाख रुपए, पैरासैटामॉल ५५० रुपए से ४५.५ फीसद बढ़कर ८०० रुपए एवं ९ हजार ५ सौ रुपए प्रति किलो से मिलने वाला एजिथ्रोमाईसिन २९.५ फीसद बढ़कर १२ हजार ३ सौ रुपए प्रति किलो महंगा मिल रहा है।