चमोली, ग्लेशियर फटने की घटना में 150 से ज्यादा लोगों के मारे जाने की आशंका है। उत्तराखंड के जिस इलाके में यह घटना हुई है, वहां बेशकीमती कीड़ाजड़ी पाई जाती है। विशेषज्ञों के अनुसार कीड़ाजड़ी की तलाश में लोग ग्लेशियरों तक पहुंच जाते हैं और उन्हें खोद डालते हैं।
इस खिलवाड़ का मिलाजुला असर आपदा के रूप में दिखाई देता है। कीड़ा जड़ी बहुत ही कीमती होती है और मुख्य रूप से हिमालय के दुर्गम इलाकों में मिलती है। इसे हिमालयन वियाग्रा या यार्सागुम्बा भी कहा जाता है। यह एक तरह की फफूंद होती है, जो पहाड़ों पर 3500 मीटर की ऊंचाई पर मिलती है, जहां ट्रीलाइन ख़त्म हो जाती है यानी जहां पेड़ उगने बंद हो जाते हैं। इसके बनने की पूरी प्रक्रिया एक कीट के द्वारा होती है। कैटरपिलर का प्यूपा लगभग 5 साल तक हिमालय और तिब्बत के पठारों में दबा रहता है।
इसकी सुंडी बनने के दौरान इस पर ओफियोकार्डिसिपिटैसियस वंश की फफूंद लग जाती है जो धीरे-धीरे इसके शरीर में प्रवेश कर जाती है। बाद में यह उस कीट की सूंडी से ऊर्जा लेती है और कीट के सिर से बाहर निकलती है। यह किसी कीड़े की तरह ही दिखाई देती है। इसी लिए इसका लोकप्रिय नाम कीड़ा जड़ी है। इस तरह इसके बनने की प्रक्रिया काफी जटिल और लंबी है। यही वजह है कि यह हर जगह नहीं मिलती। उत्तराखंड में ईको टास्क फोर्स के पूर्व कमांडेंट ऑफिसर कर्नल हरिराज सिंह राणा ने बताया कि कीड़ा जड़ी का इस्तेमाल दवा के रूप में होता है। इसमें प्रोटीन, पेपटाइड्स, अमीनो एसिड, विटामिन बी-1, बी-2 और बी-12 जैसे पोषक तत्व होते हैं, जो शरीर को ताक़त देते हैं। यह शक्तिवर्धक है और डोपिंग टेस्ट में पकड़ में नहीं आती इसलिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खिलाड़ी इसका बहुत इस्तेमाल करते हैं। किडनी, फेफड़ों और गुर्दे को मजबूत करने, शुक्राणु उत्पादन बढ़ाने और रक्त बढ़ाने के लिहाज से यह बेहद प्रभावी दवा है।
राणा ने बताया कि इसकी कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में काफी ज्यादा है। आजकल यह करीब 50 लाख रुपए प्रतिकिलो के हिसाब से बिक रही है। यही वजह है कि लोग इसे पाने के लिए बर्फ के पहाड़ों को खोदने तक से बाज नहीं आते। जिसकी वजह से प्रकृति को काफी नुकसान पहुंचता है। बर्फ में आठ-आठ इंच तक छेद होने से बर्फ पिघलने की प्रक्रिया तेजी से शुरू हो जाती है जो बाद में बड़ी तबाही का रूप ले सकती है।