( विष्णु अग्रवाल द्वारा ) गरूड़ रुराण के अनुसार समयनुसार श्राद्ध करने से कुल में कोई दुखी नहीं रहता। पितरों की पूजा करके मनुष्य आयु, पुत्र, यश, सवर्ग,, कीर्ति, पुष्टि, लब, श्री, पशु, सुख और धन-धान्य प्राप्त करता है। इस तरह पितृकार्य की महत्ता देवकार्य से भी पढ़कर मानी गई है। शास्त्रों में मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण बताए गए हैं। ये हैं देव ऋण, ऋषि ऋण और पित ऋण। इसमें से पितृ ऋण के निवारण के लिए श्राद्ध किया जाता है। श्रद्धायां इदम् श्राद्ध आर्थात पितरों के उद्देश्य से जो कर्म श्रद्धापूर्वक किया जाए, वही श्राद्ध है। ब्रहहापुराण के अनुसार श्रद्धापूर्वक किया जाए, वही श्राद्ध है। ब्रहापुराण के अनुसार श्रद्धापूर्वक किया जाए, वही श्राद्ध हैं। ब्रहापुराण के अनुसार श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करने वाला मनुष्य अपने पितरों के अलावा ब्रह्रा, रूद्र, आश्विनी कुमार, सूर्य, अग्नि वायु, विश्वदेन एवं मनुष्यगण को भी प्रसन्न करता है।
आस्विन कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से अमावस्या तक का समय श्राद्ध या महालय पक्ष कहलाता है। इस अवधि के सोलहदिन पितरों अर्थात श्राद्ध कर्म के लिए विशेष रूप से निर्धारित हैं। इस अवधि में किए गए कार्यों से पूर्वजों की आत्मा को शांति प्राप्त होती है। अमरता के सिद्धांत तो स्वयं भगवान श्री कृष्ण गीता में उपदेशित करते हैं। आत्मा जब तक परमात्मा सं संयोग नहीं कर लेती, तब तक विभिन्न योनियों में भटकती रहती है और इस दौरान उसे श्राद्ध कर्म में संतुष्टि मिलती हैं। यही कारण है कि पितरों का श्राद्ध करने का महत्व है। बिहार राज्य जिला गया में
यहाँ प्रत्येक वर्ष भाद्र पक्ष की चतुदर्शी से आश्विन पक्ष की अमावस्या तक 16 दिनों का पितृपक्ष मेल लगता है इसे पितृपक्ष या पितरों का पक्ष (पखवार) भी कहा जाता है। इस अवसर पर देश-विदेश के लाखों हिन्दू धर्मावलंबी अपने पूर्वजों के नाम श्राद्ध, तर्पण एवं पिण्ड दान करे के लिए यहाँ आते हैं। ऐसी मान्यता है कि गया पुण्य क्षेत्र में पिता का श्राद्ध करके पुत्र अपने पितृऋण से हमेशा-हमेशा के ऋण मुक्त हो जाता है। इनके द्वारा कये गये इस पवित्र कार्य से इनके पूवजों की भटकती आत्मा को शांति मिलती है। वे प्रेतत्व से मुक्त हो जाते है। साथ ही पितरों की प्रसन्नता से श्राद्धकर्ता को भाविषय में धन-धान्य और सुख समृद्धि व सम्पत्ति की प्राप्ति होती है।
इतिहास साक्षी है कभी यहाँ 365 वेदियाँथी जिस पर हिन्दू तीर्थ यात्रियों द्वारा प्रतिदिन पिण्डदान करने का विधान था। तब उससमय लोगो केपास भी समय सीमा की कोई बाध्यता नही थी। पूरी निश्चिता एवं इत्मीमान की साथ वे यह कार्य संपादित करते थे। लेकिन समय के साथ-साथ लोंगो के पास समय कम होने के कारण 16 दिन के तर्पण में पित्र ऋण से मुक्ति मिल जाती है।
श्री गया कथा
सूतजी शौनकजी से बोले कि एक समय नारदजी शौनकादि ऋषियों के साथ सनत्कुमार के पाये गेय और प्रमाण करके पूछा कि हे सनत्कुमारजी। कोई ऐसे तीर्थ की कथा सुनाईये जो मुक्तिदायक हो जिसका सुनने से मुक्ति प्राप्त हो, तब सनत्कुमारजी बोले हे नारद! ऐसा तीर्थ तो गया ही है, ऐसा पवित्र भूमि है यहाँ श्राद्ध और पिण्डदान करने से मुक्ति प्राप्त होती है। एस समय गयासुर नामक दैत्य बड़ा बली उत्तन्न हुआ है। उसके ऊपर ब्रह्राजी ने धर्मशिला रखकर यज्ञ किया। इस शिला के अचल होने के निमित विष्णु भगवान् गदाधर नाम से गदा लेकर उपस्थित हुए और सब देवता फल्गु का स्वरूप धारण करके आ विराजे। ब्रह्रमा ने यज्ञ करके ब्रह्राणों को गृह रतन, स्वर्ण आदि दान दिया। तभी से यह गयापूरी पवित्र हो गयी। यहा पिंतर सदैव वास करते है और हरदम यही आशा करते है कि हमारे कुल में कोई ऐसा उत्पन्न हो जो यहाँ आकर पिण्ड दे जिससे हम लोगो की मुक्त हो। गया में पुत्र के जाने से और फल्गु नदी स्पर्श करने मात्र से लोग स्वर्ग लोक चले जाते हैं।
इतनी कथा सुन नारदजी सनत्कुमार से बोले है महाराज, कृपाकर गयासुर की उत्पत्ति का वृतान्त मुझसे कहिए ऐसा विचित्र कैसे हुआ कि इसपर स्वयं ब्रह्रा ने चज्ञ किया। प्रश्न को सुनकर सनत्कुमार बोले- हे नारद एक समय स्वयं ब्रह्रमा जी सृष्ति रचते समय गयासुर को उत्पन्न किया, इसने कोलाहल पर्वत पर जाकर घोर तपस्या किया और बहुत दिनों तक श्वास रोक कर खड़ा रहा। उसकी ऐसी तपस्या देखकर इन्द्र घबराये कि ही मेरा सिंहासन न ले ले। ऐसा विचार कर सब देवताओं को ले ब्रह्रमा के पास गये और सब वृतान्त कहा। ब्रह्रमा बोले, अच्छा चलो शिवजी से राय लेना चाहिए। तब सब कोई शिवजी के पास गये। महादेवजी ने सब देवताओं को साथ लिया और विष्णु के पास गये और प्रणाम कर स्तुति की। तब विष्णु भगवान ने सब देवताओं से पूछा कि हे देवता लोग आप सब किस कारण यहाँ आये लहैं. तब सब देवता बोले कि हे नारायण गयासुर नामक एक भारी दैत्य उत्पन्न हुआ और उसने घोर तपस्या की।
हे नाथ वरदान देकर हम सबकी रक्षा कीजिए। तब विष्णु भगवान बोले- तुम लोग इसके पास चलों, मैं गरूड़ पर चढ़कर वहाँ आता हूं। सब देवताओं के चले जाने के बाद विष्णु भगवान गरूड़ पर चढ़कर गयासुर के पास आये और शंख से उसका शरीर स्पर्श कर बोले हे दैत्यराज। तुम्हारी उग्र तपस्या देखकर हम अति प्रसन्न हैं। और तुम्हें वरदान देने लिये आये हैं, वर मांगों यह सुनकर गयासुर बोला हे प्रभु यदि आप मुझ पर प्रसन्न है और वर देने आये है तो दया कर वर दीजिये कि मेरे स्पर्श से यावद् सूर, असुर, कीट, पतंग, ऋषि, मुनि प्रेत यह सभी पवित्र होकर मुक्ति को प्राप्त होवें। इसके वरदान को सुनकर विष्णु भगवान एवमस्तु कहकर सब देवता सहित आश्रम को चले गयें। इसी दिन में गयासुर के दर्शन और स्पर्श से सभी जीव मुक्त प्रापत् कर बैकुण्ठ को जाने लगे। धीरे-धीरे यमपुरी शुन्य हो गयी तब यमराज इन्द्रादि देव सहित ब्रह्रमा को लेकर विष्णु भगवान के पास गये और बोले हे दीनबन्धु गयासुर के स्पर्श से बर बैकुण्ठ को चले गये और यमपुरू जनशून्य हो गयी यमराज की इसी विनती सुन भगवान विष्णु बोले हे ब्रह्रमा आप गयासुर के समीप जाकर यज्ञार्थ उसका शरीर मागिऐ।
ब्रह्रमा ने कहा हे, दैत्यराज मैं तमाम पृथ्वी पर घूम आया और मुझे यज्ञ करने के निमित्त कोई भी पवित्र स्थान न मिला, इस वास्ते में तुम्हारे पास आया हूं कि तुम्हारा शरीर नारायण के वरदान से पवित्र है, सो अपना शरीर मुझे यज्ञ के हेतु दो। ब्रह्रमाजी का ऐसा वचन सुन गयासुर अति हर्ष से बोला हे नाथ आप ही लोगों की कृपा से यह मेरा अधर्म शरीर पवित्र हुआ है सौ आप इस पर यज्ञ अवश्य करिये जिससे यह और भी पवित्र हो जाये।
ब्रह्रमा ने सम्पूर्ण ऋषि और मुनि को बुलाकर गयासुर के ऊपर यज्ञ आरंभ किया यज्ञ के समाप्त होने पर सबके साथ ब्रह्रमा स्नान करने ब्रह्रासरोवर पर उपस्थित हुए। इसी समय गयासुर का शरीर हिलने गा, तब ब्रह्रमाजी धर्मराज से बोले कि हे धर्मराज आपके यहाँ जो देवमयी शिला है उसको लाकर इसके सिर पर रख दीजिए। इस शिला के रखने पर भी असुरका शरीर स्थिर न हुआ तब ब्रह्रमाजी फिर सब देवताओं को साथ लेकर विष्णु भगवान् के पास गये। तब ब्रह्रमाजी फिर सब देवताओं को साथ लेकर विष्णु भगवान् के पास गये। तब नारायण ने पूछा कि तुम लोग किसलिए आये हो सा कहो। तब ब्रह्रमा ने सम्पूर्ण हाल विष्णु भगवान से विनय पूर्वक कहा कि हे नाथ कोई ऐसा उपाय बातइये जिससे असुर का शरीर स्थिर हो जाये। तब नारायण ने अपने शरीर में से एक विष्णु मुर्ति निकालकर दी, परंतु मुर्ति लेकर रखने पर भी असुर स्थिर न हुआ तब ब्रह्रमाजी ने साक्षात् विष्णु का आवाहन किया।
तब भगवान् इस शिला पर गदा लेकर आ विराजे और ब्रह्रमा भी पाँच रूप में प्रपितामह पितामह, फलवाबीस, केदान कनकेश्वर होकर स्थित हुए और गजरूप धारण करके गणेशजी, गदादित्य नाम से दक्षिणायण, उत्तरायण सूर्य शांत नाम से लक्ष्मी और सावित्री त्रिसन्ध्या तथा सरस्वती नाम से इन्द्र वहस्पति, वसु, यक्ष गन्धर्व और सम्पूर्ण देवता अपनी-अपनी शक्ति से गयासुर के देह के स्थित किया। तब गयासुर का हिलना बंद हुआ। तभी से विष्णु का नाम गदाधर हुआ। गयासुर के स्थिर होने पर विष्णु भगवान ने कहा हे असुर में तुमसे अति प्रसन्न हूँ। वर माँगो तब गयासुर बोला हे नाथ यदि आप मुझपर प्रसन्न है ते यह वर दीजिये कि जब तक सूर्य चन्द्रमा, पृथ्वी पर है तब तक मेरे ऊपर इस शिला पर सब देवता विराजमान रहें और यह तीर्थ मेरे नाम से प्रसिद्ध हो। यहाँ स्नान, तर्पण दानपुण्य के हजारो कुल तर जावें। जिस पितर के लए यहाँ पिण्डदान दिया जाए वह ब्रह्रमालोक वासी हों और पापों से मुक्त हों गयासुर का यह वचन सुनकर विष्णु भगवान् ने कहा कि ऐसा ही होगा।
इतनी कथा कह चुकने पर नारदजी ने सनत्कुमार से पुनः प्रश्न किया कि जो शिला गयासुर के ऊपर रखी गयी है वह धर्मराज के घर कैसा गयी। इसका वृतान्त कृपापूर्वक कहिए। यह सुन सनत्कुमार बोले कि हे नारद वह शिला धर्मराज की पुत्री थी, पूर्वकाल में विश्वरूप नामी स्त्री से धर्मराज के घर एक कन्या उत्पन्न हुई, जब वह विवाह के योग्य ई तब धर्मराज के पुत्री के लिए योग्य वर ढूंढा परंतु कोई उत्तम वर न मिला तो कन्या को आज्ञा दिया कि तुम स्वयं वर प्राप्ति के निमित्त तपस्या करों, पिता की आज्ञा पाकर कि तू कौन है और वन में घोर तप करने लगी. तप करती कन्या का मरीचि ने देखा और उससे पूछा कि तू कौऩ और ऐसा घोर तप क्यो करती है। मरिचि का वाक्य सुन धर्मव्रता बोली में धर्मराज की कन्या हूं और पति के लिए निमित्त वन से तप करती हूं। इसका ऐसा उत्तर सुन मरीचि बोले हे सुन्दरी मैं ब्रह्रमा का मानस पुत्र हूं और में भी एक अच्छी स्त्री से विवाह करने के निमितत् घूम रहा हूं सो परमेश्वर की कृपा से हमारा और तेरा संयोग आ मिला हैं, सो तू मुझसे विवाह कर लें।
यह सुन धर्मव्रता बोली कि आप मेरे पिता धर्मराज के पास जाईये। यह सुन-मरिचि धर्मराज के पास गए। मरीचि को धर्मराज के अर्धपाद्य दे संतुष्ट किया मरीचि बोले है धर्मराज हम विवाह हेतु तमाम पृथ्वी पर घूम आये, मगर आपकी कन्या ही हमें इस योग्य मिली। इसलिए आप इस कन्या कों हमें देकर हमारा मनोरथ पूर्ण कीजिए। धर्मराज ने मरीचि की बात स्वीकार कर ली और कन्या को बुलाकर विधिपूर्वक इसके साथ विवाह कर दिया। मरीचित इस स्त्री को लेकर निज आश्रम को आये और आनंदपूर्वक रहने लगे।
इतनी कथा सुन नारद ने सनत्कुमार से पूछा है हे मुनि मरिचि ने धर्मव्रता को क्यों श्राप दिया सनत्कुमार बोले कि हे नारद कुछ समय के उपरांत मरीचि कही से थके आये और स्त्री से बोले में थक गया हूं मैं शयन करता हूं, तू मेरे चरण दबा। धर्मव्रता मरिचि की आज्ञानुसार पाँव दबाने लगी और मरिचि सो गये अभी कुछ ही समय बीता था कि मरिचि के पिता ब्रह्रमा बहाँ आ उपस्थित हुए। तब धर्मव्रता बड़े संकट में पड़ी और विचार करने लगी कि मैं किसकी सेवा करूँ। इधर पति की आज्ञा भंग होती है इधर ससुर का अपमान होता है। यह सोचकर धर्मव्रता ने ब्रह्रमा की सेवा करना ही उतत्म समझा और पति की सेवा छोड़ ब्रह्रमा का सम्मान करने लगी। उसी समय मरिचि जागे और स्त्री को समीप न देखकर क्रोध में आकर श्राप दिया कि मेरी अज्ञा को तूने भंग किया है इससे तू शिला हो जा। यह श्राप सुनकर धर्मव्रता बोली, हे पति आपके सो जाने के बाद ब्रह्रमा आये आपने मुझ निरपराध को श्राप दिया, इससे मैं भी आपको श्राप देती हूं कि महादेवजी से आपको श्राप मिल। श्राप देकर धर्मव्रता जलकर गार्हपत्यविधि से तप करने लगी। और मरीचि श्राप पाकर तप करने लगे। धर्मव्रता के तप से इन्द्रादिक देवता घबड़ाकर नारायण के पास गये और बोले हे प्रभों धर्मव्रता के तपोतेज से हम लोग व्याकुल हो रहे है रक्षा कीजिए यह सुन विष्णु भगवान धर्मव्रता के पास जा बोले- तेरे तप से प्रसन्न हूं वर माँगो तब धर्मव्रता बोली, मैं पति के श्राप से मुक्त हो जाऊँ। यह सुन भगवान बोले कि हे सुव्रते परम ऋषि के दिये श्राप को नहीं छुड़ासकता, तुम एसा वरदान माँगो कि जससे संसार की मर्यादा बनी रहे। तब धर्मव्रता बोली की आप यह वरदान दीजिए कि मैं अति पवित्र शिला गिनी जाऊँ और मुझ पर सम्पूर्ण देवता और तीर्थों का वास हो, जिससे मनुष्य स्नान-दान करने से पितरों को मुक्त कर सकें और जो कोई मनुषय या पशु-पक्षी शरीर त्यागे वह बैकुण्ड जाय और मेरे ऊपर कोई कर्म करे वह अक्षय होवें। धर्मव्रता के वचन को सुनकर तभी देवताओं सहित विष्णु भगवान ने एवंमस्तु कह वरदान दिया और कहा, जिस समय तू गयासुर के सिर पर रखी जायेगी इस समय हम लोग तुम पर स्थित होंगे। यह वरदान देकर सब देवता विष्णु सहित निज स्थान को चले गये।
सनत्कुमार बोले हे नारद पुनीत गया क्षेत्र में अति पवित्र उत्तर मानस है वहाँ विधि पूर्वक स्नानकर श्राद्ध, तर्पण करके सूर्य भगवान का पूजन कर बहाँ से मौन धारण करके दक्षिण मानस सरोवर को जाय, वहाँ पर तीन तीर्थ हैं। इस तीनों में विधि पूर्वक स्नान करके अलग-अलग श्राद्ध करें फिर उत्तर दिशा में मुक्ति देने वाला उदीची तीर्थ हैं। वहाँ पर स्नान से मनुष्य स्वर्ग को जाता है। वहाँ पर कनखल में स्नान करें, जिसके दक्षिण मानसरोवर में स्नानकर सूर्य नारायण को अर्धदेकर पूजन करें और स्तुति करे नमस्मार करे इसी मैनाक फल्गुतीर्थ मे स्नान करेंष पितृ वास्ते मुख्य तीर्थ फल्गु हैं। फल्गु तीर्थ में स्नान करने से संपूर्ण तीर्थों के स्नान का पुण्य प्राप्त होता है। एक लाख अश्वमेध यज्ञ करने के बराबर फल्गु तीर्थ के स्नान का फल है। फल्गु तीर्थ में स्नान करके गदाधर भगवान का पूरजन करने से मनुष्य के इक्कीस कुल तर जाते हैं।
यहाँ पंच तीर्थ में स्नान करने से पितर को ब्रह्रालोक प्राप्त होता है वहाँ पर जो मनुष्य विष्णु भगवान का पंचागृत धूप, नैवैद्य वस्त्र में पूजन करता है। इसको फल प्राप्ति होता है गया के सब तीर्थों में फल्गु नदी सबसे श्रेष्ठ हैं। यहाँ का श्राद्ध अक्षय होकर पितर को मुक्त देता है।
श्री सनत्कुमार जी बोले कि हे नारद गया श्राद्ध करने से पहले श्राद्ध करने वाले को चाहिए कि सबसे पहले पुनपुन नदी में मुण्डन कराकर वहीं पिण्डदान करें, उसके बाद गया श्राद्ध करें। पुनपुन में श्राद्धदि पिण्डदान करने से पित्रों का उद्धार होता है और अन्त में इसके पितृ बैकृण्ठ वास करते हैं।
दर्शनीय स्थान
फल्गु (तीर्थ)- यह नदी गया के पूर्व बहती है। इसमें केलव वर्षाऋतु में जल रहता है। अन्य महीनों में नदी की रेत को हटा कर गहरा करने पर स्वच्छ जल निकल आता है। गया के पूर्व नगकूट पहाडी है, उससे दक्षिण फल्गु नदी का नाम मुहाना हो जाता है। गया से दक्षिण 3 मील पर निरंजना नदी इस मुहाना नदी में मिलती है। इस संगम से 1मील दक्षिण सरस्वती मंदिर तक इस नदीं का नाम सरस्वती है। मधुश्रवा नाम की एक छोटी नदीं गया से दक्षिण मुहाना में मिलती है। इसकी धारा वर्षा के बाद फल्गु के सूख जाने पर फल्गु से पृथक होकर गदाधर मंदिर के नीचे बहती है।
विष्णुपद मंदिरः- काले पत्थर का यह वर्तमान सुन्दर और चित्ताकर्षक मंदिर प्रातः स्मरणीया महारानी अहिल्य बाई का बनाया हुआ है। वर्तमान विष्णुपद मंदिर का निर्माणकाल 1780 ई0 है।इससे पूर्व का मंदिर ईटों का था। मंदिर के अंदर गयासुर की प्रार्थना के अनुसार भगवान विष्णु का चरण चिह है। मंदिर में प्रतिदिन रात्रि में भगवद्चरण का चंदन का श्रृंगार होता है। रक्त चन्दन से चरण चिह्न पर शंख, चक्र, गदा पद्म आदि अंकित किए जाते हैं। पुण्यमास में जैसे वैशाख कार्तिक आदि में श्रृंगार पश्चात विष्णु सहसनाम सहित विष्णु चरण तुलसीदल अर्पण दर्शनीय शोभा है।
गया सिरः- विष्णुपद मंदिर से दक्षिण गया सिर स्थान हैं। एक बरामदे में एक छोटा कुण्ड हैं। इसी बरामदे में लोग पिण्डदान करते है गया सिर से पश्चिम एक घेरे में गया कूप हैं।
मुण्ड पृष्ठाः- गया सिर से थोडी दूर पर यह स्थान है। सहाँ बारह भुजा वाली मुण्ड पृष्ठा देवी की मूर्ति है।
आदिगयाः- गया में सबसे प्राचीन स्थान माना जाता है मुण्डापृष्ठा से यह स्थान दक्षिण पश्चिम है। यहाँ एक शिला है जिस पर पिण्डदान होता है। यहाँ से पाँच सीढ़ी इतरने पर एक आँगन मिलता है। आँगन के पश्चित तीन सीढ़ियाँ इतरने पर एक कोठरी में कुछ मुर्तियाँ है।
धौतपदः- आदिगया से दक्षिण- पश्चिम गया के दक्षिण फाटक के पूर्व बरामदे में एक सफेद शिला है। इस शिला पर तथा आप-पास पिण्डदान होता है।
सूर्य कुण्डः- विष्णुपद से लगभग थोडी दूर पर यह सरोवर है। इस कुण्ड का उतरी भाग उदीची, मध्य भाग कनखन और दक्षिण भाग दक्षिण मानस तीर्थ कहलाता है। इस कुण्ड के पश्चिम एक मंदिर में सूर्यनारायण की चतुर्भुज मुर्ति है। जिसे दक्षिणार्क कहते है।
रामगया सीताकुण्डः- विष्णु पर मंदिर के ठीक सामने फल्गु नदी के इस पार सीताकुण्ड है। यहाँ मंदिर के काले पत्थर का महाराज दशरथ का हाथ बना है। वहीं पर एक शिला है, जो भरताश्रम की वेदी कहलाती है। इसी को रामगया कहते है। यहाँ मतंग ऋषि का चरण चिह्न बना है तथा अनेक देवमूर्तियाँ है।
रामशीलाः- विष्णुपद से लगभग 3 मील उत्तर फल्गु के किनारे रामशिला पहाड़ी है। पहाडी के नीचे रामकुण्ड नामक सरोवर है। सरोवर के दक्षिण एक शिवमंदिर है।
काकबलिः- रामशिला से 200 गज दक्षिण एक घेरे के भीतर वटवृक्ष है। यहाँ काकबलि, यमबलि और श्वानबलि बेदी हैय़ यहाँ श्राद्ध की जाती है।
प्रेतशिला और ब्रह्कुण्डः-रामशिला से चार मील पश्चिम प्रेतशिला है। इसका पुरा नाम प्रेतपर्वत है। गया नगर से यह स्थान सात मील दूर है। यहाँ पर्वत के नीचे एक पक्का सरोवर है और एक धर्मशाला है। 340 सीढ़ी ऊपर रामशिला तीर्थ है।
यहाँ ऊपर एक शिव मंदिर है। इसे ब्रहाकुण्ड कहते है। यहाँ तक (रामळिला होकर आने के लिये पक्की सड़क है।) बह्कुण्ड के पास एक-दो मंदिर है। ब्रह्कुण्ड से लगभग 400 सीढी चढ़कर प्रेतशिला पहुँचते है। ऊपर एक छोटा मंदिर है। जिसमें आँगर तथा बरामदे है।
भीमगयाः- बैतरणी के पश्चिमोत्तर एक घेरे के भीतर एक शिला है। घेरे के एक बरामदे में भीमसेन की मूर्ति है। दक्षिण बरामदें में भीमसेन के अँगूठे का तीन हाथ गहरा चिह्न है।
अक्षयवटः- ब्रह्सरोवर के पास ही अक्षयवट है। चहार-दीवारी से घिरा विस्तृत पक्का आँगन है जिसके मध्य वटवृक्ष है। इसके उत्तर वटेश्वर महादेव का मंदिर है। श्राद्ध समाप्ति के बाद यहाँ पर गयापाल पण्डो के द्वारा विदाई दी जाती है।
गायत्रीदेवीः विष्णुपद मंदिर से आधा मील उत्तर फल्गु किनारे गायत्री घाट है घाट के ऊपर गायत्रीदेवी का मंदिर है। इसके उत्तर लक्ष्मीनारायण मंदिर है और वहीं पास में बभनीघाटपर फलवीश्वर शिव- मंदिर है। इसके दक्षिण गयादित्य नामक सूर्य की चतुर्भुज मूर्ति एक मंदिर में है।
ब्रह्योनीः- गया से लगभग दो मील दूर यह पर्वत है। लगभग 470 सीढ़ी ऊपर ब्रह्जी का मंदिर है। इस पर्वत पर दो गुफा के ढंग से पड़े है इन्हें ब्रह्योनि और मातृयोनी कहते है। कुछ लोग इसके नीचे सोकर आर-पार निकलते है। पर्वतशिखर से कुछ नीचे ब्रह्यकुण्ड नामक पक्का सरोवर है।
मंगलागौरी
गया स्थित गंमलागौरी शक्तिपीठ कामाक्या शक्तिपीठ के बराबर ही शक्ति प्रदान करने वाली है।
धर्मशास्त्र के अनुसार सती के दो महत्वपूर्ण अंगों में से एक योनिमंडल कामाख्या में तथा दूसरा स्तन मंडल गया में गिरा था। मंगलागौरी शक्तिपीठ गया शहर के दक्षिण छोर पर छोटे से पर्वत पर स्थित है। इस पर्वत को भस्मकूट पर्वत कहते है। विष्णुपद मंदिर यहाँ से थोड़ी ही दूरी पर है। इस शक्तिपीठ के बारे में कहा जाता है कि यहाँ भक्तिभाव से पूजन करने वाले को अवश्य पुत्र धन अच्छे वर विद्या आदि का लाभ होता है एवं मन की सारी इच्छाओं की पूर्ति होती है। मंगलागौरी की महिमा का बखान करते हुए भक्तों ने बताया कि इन्होंने माएं मंगलागौरी के दरबार में कई दुखियों के दुख और असाध्य रोगों को दूर होते देखा है।
मंगलागौरी मंदिर द्विभागीय मंडपाकृति पूर्वाभिमुख है। मंदिर में घुसन का दरवाजा काफी छोटा है। भक्तगण झुककर अंदर जाते है और पूजा अर्चना करके भगवती की कृपा प्राप्त करते है। मंदिर के गर्भगृह में अखंड दीप चलता रहता है।
जिसके दर्शन मात्र से आधयात्मिक संतुष्टि प्राप्त होती है। मंदिर में अन्य ई मूर्तियाँ भी है। जिनमें श्रीगणेश की विशाल प्रतिमा है। मंदिर परिसर में एक विशाल मौला श्री वृक्ष है, जो देवी माँ का अतिप्रिय वृक्ष है, जो सालो भर रहा भरा रहता है। परिसर में भी श्रीगणेशजी का एक छोटा मंदिर है।
इस शक्ति पीठ की विशेषता यह है कि मनुष्य अपने जीवन काल में ही अपना श्राद्ध कर्म यहाँ संपादित कर सकता है। जीवित विस्था में अपने श्राद्ध कर्म करने का विधान और कही नहीं मिलता। ऐसी मान्यात है कि जिका श्राद्ध कम करने वाला कोई न हो तो वह स्वयं अपने लिए तिल रहित दही चर्तुभुज के दाहिने में दे तो वह मोक्ष प्राप्त कर लेगा।
तिपरों को अक्षय- तृप्ति देती है फल्गु
गया श्राद्ध तर्पण एवं पिण्डदान की महत्वपूर्ण स्थली है। जिसमें फल्गू नदी (तीर्थ) के अविस्मरणीय योगदान को नकारा नहीं जा सकता। किसी भी देश के इतिहास- विनिर्माण में प्रकृति प्रदत्त उपहारों के अन्तर्गत प्रथम स्थान पर आसीन नदीका अमूलय योगदान माना जाता है। मानव के आंरभिक क्रिया- कलाप के हजारों वर्षोका एकमात्र प्रमुख सहयक तत्व के रूप में नदी से जुड़ी लौकिक- अलौकिक कथाएं प्रायः एकमत से स्वाकार्य है। प्राचीन नदी घाटी सभ्यता में प्रारंभिक मानव बस्तियों का स्थापन और विकास इस तथ्य को संतुष्ट करता है। सही अर्थों में किसी भी नगर का महत्व नदीं तठों पर अव्यवस्थित होने के कारण अन्य नगरों से द्विगुणित माना जाता है, एसी ही एक विश्वविख्यात नदीं (तीर्थ) है- फल्गु।
गया के पूर्व में बहने वाला फल्गु के इद्भव के संदर्भ में कहा जता है। कि ब्रह्राजी द्वारा जगत- कल्याण हेतु इसे स्वर्म से पृथ्वी पर लाया गया है। ऐसा भगवान विष्णु के दाहिने पैर के अंगूठे से फल्गु का उद्भव भी स्वीकार किया जाता है।
फल्गु की कथा जगत-जननी मता सीताजी के गया आगमन से जुडी है। हुआ यूँ कि जब श्रीराम, भ्राता लक्षमण व मताता सीताजी गया आये, दोनो भाई अपने पिताश्री के पिण्डदान की सामग्री लाने बाजार चले गये। इसी बीच आकाशवाणी हुई थी कि तुरंत पिण्डदान दो यही शुभ मुहूर्त है। माता पे पास बहती फल्गु पास चरती गाय, केतकी, पुष्प वटबृक्ष को साक्षय मानकर अपने ससुर को पिण्डदान कर दिया।पर यह क्या दोनो भाईयों के आने के उपरांत पूछे जाने पर सिर्फ वटबृक्ष को छोड़कर तीनो के झूठ दिया इसी पर कुपित हो माता सीताजी ने इसे सदैव अंदर ही अंदर बहनेवाली नदी को श्राप दे दिया और फल्गु अन्तः सलिला हो गयी है। विश्व की अनूठी नदी धार्मिक कथा की उपादेयता चाहे जितनी भी हो रही हो, भौगोलिक दृष्ठि से भी फल्गु अति प्राचीन नदी हैं। जिससे धीर-टधीरे बालू की राशि में वृद्धि होते रहने के कारण जलराशि नीचे चली गयी। यही कारण है कि आज भी आप जहाँ चाहे कितनी भी गर्मी में ही क्यों नहीं हाथ से बालू हटाकर जल निकाल सकते हैं।
गया जाने की विधि
गया पहुँचने से पहले यात्री को पुनपुन नदी के तट पर श्राद्ध करना चाहिए। जो लोग पटना से गया आते हैं, उन्हें पूर्वी रेलवे की पटना- गया लाईन पर पटना जंक्शन से 6 मील पर पुनपुन स्टेशन मिलता है। यहाँ छोटा सा बाजार है। यही इतरकर लोग श्राद्ध कर सकते हैं। गया में पूरे वर्ष भर किसी भी समय पिण्डदान किया जा सकता है। जो विधिपूर्वक वहाँ नहीं गये हैं, अकस्मात् पहुँच गये हैं। वे भी गया में पितृ श्राद्ध कर सकते हैं।
गया शहर में पिण्डों की भरमार है असली व नकली पण्डे भी वहाँ मिल जायेगें। जो रेल्वे स्टेशन व बस स्टेड से आपको पकड लेगेआपको अपने स्थान व किसी भी जगह पर ठहराकर पिण्डदान का मूल्य तर कर देते हैं। इसके बाद दूसरे पण्डे को ठेका दे देते है। जो सही उच्चारण व सही विधि द्वारा पिण्डदान नही कराते है। ऐसे लोगों से यात्री लोग सावधान रहें। गायत्री मंदिर ट्रस्ट चाँद चौरहा रामसागर तालाब के पास गायत्री मंदिर में ठहरने की व्यवस्था है तता इसके योग आचार्य द्वारा पिण्डदान कराया जाता है।