IPS अफसरों की आत्महत्याओं के पीछे कहीं काम पर दबाव वजह तो नहीं ?

नई दिल्ली/लखनऊ,उत्तरप्रदेश में बीते पांच महीने में दो पुलिस अधिकारियों ने अलग-अलग-कारणों से आत्महत्या कर ली। अपने अधिकारियों के आत्महत्या करने से यूपी पुलिस परेशान है। आत्महत्या करने वाले अधिकारियों में एक आतंकवाद-रोधी दस्ते (एटीएस) के थे, तो दूसरे कानपुर में एसपी (पूर्वी) के पद पर तैनात थे। इन आत्महत्यों के बाद सवाल उठाता है, क्या खाकी वर्दीधारी राजनीतिक व सत्ताधारी आकाओं के नापाक, अवास्तविक लक्ष्यों व मंसूबों को पूरा करने के चक्कर में अत्यधिक तनाव से गुजर रहे हैं। राजेश साहनी, जो भारतीय पुलिस सेवा में एक उच्च अधिकारी थे और एटीएस के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक के रूप में तैनात थे, उन्होंने 29 मई को राज्य की राजधानी के गौमतीनगर में अपने कार्यालय में खुद को गोली मार ली। 2014 बैच के आईपीएस अधिकारी सुरेंद्र कुमार दास ने छह सितंबर को अधिक मात्रा में सल्फास निगल लिया और तीन दिनों बाद उनकी मौत हो गई। इतना बड़ा कदम उठाने के पीछे का कारण अभी तक ज्ञात नहीं है, लेकिन सहकर्मियों का कहना है कि अलग-अलग कारणों से दोनों ‘तनाव’ में थे। पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) ओ.पी.सिंह, जिन्होंने जिंदगी के लिए संघर्ष कर रहे 30 वर्षीय दास की हालत जानने के लिए आठ सितंबर को कानपुर के एक निजी अस्पताल का दौरा किया था, उन्होंने स्वीकार किया कि पुलिस महकमा बेहद तनाव में है, जबकि अधिकारी लंबे समय से ‘काम का ज्यादा दबाव होने’,लगातार कई घंटों तक काम करने’,बर्बाद व्यक्तिगत जीवन’ और ‘मांग करने वाले मालिकों’ के बारे में निजी रूप से शिकायत करते आ रहे हैं।
राज्य सरकार पुलिस बल के लिए लक्ष्य निर्धारित कर रही है,जिससे कि वह खुद को एक अलग सरकार के रूप में दिखा सके, जो अपराधियों की धर-पकड़ करवाती है। एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न उजागर करने की शर्त पर बताया, काम पहले से कहीं ज्यादा कठिन है। आत्महत्याएं इसी दबाव का परिणाम हैं। पूर्वी उत्तरप्रदेश में एक और एसएसपी स्तर के अधिकारी का कहना है, राजनीतिक वर्ग, पिछला और मौजूदा, जमीनी हालात को समझने और जिन मुश्किलों का हम सामना कर रहे हैं, उस समझने में नाकाम रहा है। परिणामों के बाद यह एक तरह से पागल कर देने वाला है। एक सहकर्मी ने कहा कि निराशा चाहे वह निजी हो या पेशेवर, इससे निकलने के लिए..इसका मतलब मरना ही क्यों न हो..इसका इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि दास ने मौत के तरीके गूगल पर ढूंढ़े।
पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह, जिन्होंने ‘सख्त व रौब जमाने वाली मायावती’ सरकार में तीन साल तक सेवा दी थी,उन्होंने भी यह स्वीकार किया कि उच्च राजनीतिक दबाव पुलिसकर्मियों को तनाव में जाने पर मजबूर कर देते हैं। उन्होंने कहा, किसी भी मामले में पुलिस बहुत अधिक काम कर रही है और अपराधों के बढ़ने व इस अंजाम देने के बदलते तरीके इसके लिए और मुसीबत बढ़ाते हैं। उन्होंने इस पर अफसोस जाहिर किया कि बिना छुट्टी के काम करने, नींद की कमी, असफल होने की भावना, पुलिसकर्मियों की निंदा, राजनीतिक आकाओं की उदासीनता और वरिष्ठ अधिकारियों के साथ लगभग कोई संबंध नहीं होने के कारण सहनशक्ति के स्तर में काफी कमी आई है। इसके बारे में विक्रम सिंह ने कहा,युवा अधिकारी के तौर पर, हम प्रसिद्ध आईपीएस अधिकारी बी एस बेदी के साथ काम किया था.वे सभी अपने अधीनस्थ अधिकारियों के भले की चिंता करते थे.. दुख की बात है कि पुलिस का संयुक्त परिवार टूट गया है। वहीं एक और पूर्व डीजीपी केएल गुप्ता ने कहा कि पुलिस एक ‘द्रौपदी’ बन गई है, जो राजनेताओं, जनता, आरटीआई प्रश्नों, अदालतों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के प्रति जवाबदेह है।
एक अन्य पूर्व डीजीपी और वर्तमान में उत्तरप्रदेश एससी/एसटी आयोग के अध्यक्ष बृज लाल ने कहा कि वह 1981 से कई मामलों के बारे में जानते हैं, जब पुलिस अधिकारियों ने वैवाहिक विवाद के कारण बड़े कदम उठा लिए। हालांकि, उन्होंने कहा कि पुलिस बल पर निश्चित रूप से अधिक काम का दबाव है और इसका तुरंत समाधान किए जाने की जरूरत है। एक अन्य बेहद सम्मानित पूर्व डीजीपी श्रीराम अरुण ने कहा कि पुलिस सेवा में खींचतान और दबाव आजकल पहले से कहीं अधिक है। उन्होंने कहा,सभी तरफ से राजनीतिक दबाव है,अधिकारियों का एक झटके में तबादला कर दिया जाता है।

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