पद्मश्री सुभाष पालेकर ने किसानों को सिखाए प्राकृतिक कृषि के गुर

रायपुर, ​​​​​​​छत्तीसगढ़ के किसानों तथा कृषि, उद्यानिकी एवं पशुपालन विभाग के अधिकारियों एवं मैदानी कार्यकर्ताओं को प्राकृतिक कृषि का प्रशिक्षण देने के लिए छत्तीसगढ़ शासन के कृषि एवं जैव प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा कृषि महाविद्यालय, रायपुर के सभागार में शून्य बजट-प्राकृतिक कृषि पर आयोजित दो दिवसीय राज्य स्तरीय कार्यशाला आज यहां सम्पन्न हुई। शून्य बजट-प्राकृतिक कृषि अवधारणा के प्रवर्तक पद्मश्री सुभाष पालेकर ने इस अवसर पर कहा कि आज देश में किसान जिन समस्याओं का सामना कर रहे हैं उन सबका निदान प्राकृतिक कृषि में ही निहित है। उन्होंने कहा कि ‘‘शून्य बजट-प्राकृतिक कृषि’’ ऐसी तकनीक है जिसमें कृषि करने के लिए न किसी रासायनिक उर्वरक का उपयोग किया जाता है और ना ही बाजार से कीटनाशक दवाएं खरीदने की जरूरत पड़ती है। पालेकर ने कार्यशाला में उपस्थित प्रतिभागियों को शून्य बजट-प्राकृतिक कृषि पद्धति के बारे में विस्तार से जानकारी दी।
सुभाष पालेकर ने कहा कि रासायनिक खेती में अधिक लागत आती है, इससे खेत खराब होते हैं और मानव, पशुओं तथा पर्यावरण के स्वास्थय पर बुरा प्रभाव पड़ता है। उन्होंने कहा कि आदिवासी क्षेत्रों में काम करने के दौरान उन्होंने पाया कि जंगलों में एक स्व-विकसित, स्वयं पोषित और पूरी तरह से आत्म निर्भर प्राकृतिक व्यवस्था विद्यमान है। उस पारिस्थितिकी तंत्र मंे वनस्पतियों का बेहतर विकास होता है। उन्होंने इन प्राकृतिक प्रक्रियाओं का अपने खेतों पर परीक्षण कर शून्य बजट-प्राकृतिक कृषि की पद्धति विकसित की है। उन्होंने कहा कि रासायनिक कृषि से शुरू में उत्पादन बढ़ता है लेकिन कुछ सालों बाद उत्पादन में गिरावट आने लगती है जबकि प्राकृतिक कृषि में उत्पादन लगातार बढ़ता है, फसल की गुणवत्ता बेहतर होती है और खेती की लागत कम होती है। इस पद्धति का मानव स्वास्थय एवं पर्यावरण पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है। पालेकर कहा कि यह प्राकृतिक कृषि की यह पद्धति दिनों-दिन लोकप्रिय हो रही है और आज महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना, आन्ध्रप्रदेश, तमिलनाडु, केरल, पंजाब, हरयाणा, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, राजस्थान और गुजरात राज्यों के लगभग 30 लाख किसान शून्य बजट-प्राकृतिक कृषि कर रहे हैं। पालेकर ने कहा कि प्राकृतिक कृषि पद्धति में एक देशी गाय के गोबर और गौमूत्र का उपयोग कर लगभग 30 एकड़ खेत में फसल ली जा सकती है। उन्होंने प्रतिभागियों को जीवामृत, बीजामृत और घन जीवामृत निर्माण की विधि की भी जानकारी दी।

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