रायपुर, पश्चिम बंगाल और ओडिशा के बीच रसगुल्ले की लड़ाई के बाद एक दिलचस्प लड़ाई अब छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के बीच शुरू हो गई है। आमतौर पर ग्रामीण इलाकों में मुर्गा लड़ाई के कई नजारे आपने देखे होंगे। इन दिनों कड़कनाथ नामक मुर्गे की प्रजाति को लेकर दो राज्यों के बीच जंग छिड़ी हुई है। इस प्रजाति के मुर्गे की जीआई टैग को लेकर मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों ही राज्य अपना अपना दावा कर रहे हैं। मध्यप्रदेश का दावा है कि जीआई टैग पर उसका अधिकार है, क्योंकि इस प्रजाति का मुख्य स्रोत उनके राज्य का झाबुआ जिला है। छत्तीसगढ़ का दावा है कि यह ब्रीड झाबुआ से ज्यादा दंतेवाड़ा में पाया जाता है। यहां उसका सरंक्षण और प्राकृतिक प्रजनन सदियों से होता आया है। छत्तीसगढ़ के इस दावे पर फिक्की ने भी मुहर लगाई है। जीआई टैग को लेकर दंतेवाड़ा के कलेक्टर सौरभ कुमार ने अपना पक्ष रखते हुए कहा है कि उन्हें इस बात पर कोई आपत्ति नहीं है कि टैग मध्यप्रदेश के झाबुआ को मिले। इस मामले में छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा को नजर अंदाज नहीं किया जाना चाहिए। उनके मुताबिक दंतेवाड़ा जिले में सालाना डेढ़ लाख के लगभग कड़कनाथ प्रजाति के मुर्गों का उत्पादन होता है। कलेक्टर ने कहा कि आने वाले समय में जल्द ही उत्पादन का यह आंकड़ा चार लाख के लगभग पहुंच जाएगा। इस प्रजाति के मुर्गे के उत्पादन को बतौर खेती के रूप में प्रोत्साहित किया जा रहा है। राज्य के कृषि मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के मुताबिक आदिवासी इलाकों के सैकड़ो परिवारों को आर्थिक सहायता देकर कड़कनाथ मुर्गा पालन व्यवसाय से जोड़ा गया है। यह स्वरोजगार का अच्छा साधन भी साबित हुआ है। छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा से कई शहरों में कड़कनाथ मुर्गे की सप्लाई होती है। इस मुर्गे का मांस चार सौ से पांच सौ रुपए प्रति किलो बिकता है। इससे होने वाली आमदनी के मद्देनजर राज्य के दूसरे इलाकों में भी लोगो ने इसकी ब्रीडिंग शुरू की है। आमतौर पर ब्रायलर, कॉकरेल और अन्य चिकन जहां डेढ़ सौ से दो सौ रुपए प्रति किलो तक बिकता है। वहीं कड़कनाथ से होने वाली आमदनी काफी ज्यादा होती है। जीआई टैग को लेकर दोनों ही राज्यों के दावे अपनी-अपनी जगह है। कड़कनाथ प्रजाति का मुर्गा सदियों से आदिवासी बहुल्य राज्यों में ही उपलब्ध और संरक्षित रहा है। वास्तव में यह एक जंगली मुर्गा है, जो पूरी तरह से प्राकृतिक वातावरण में रहने से सामान्य मुर्गे की तुलना में भारी भरकम और आक्रामक होता है। आमतौर पर यह जेट ब्लैक और काले में हल्के लाल रंग के पंखों वाले रंग में मिलता है। इसका खून का रंग भी सामन्यतः काले रंग का होता है, जबकि आम मुर्गे के खून का रंग लाल पाया जाता है। इसका मांस काफी कड़ा होता है। सामान्य मुर्गों के पकने की तुलना में कड़कनाथ का मांस दुगना समय लेता है। इसका स्वाद भी लाजवाब होता है। लोगों के बीच प्रचलन है कि कड़कनाथ के मांस का सेवन करने से सैक्सुअल पवार बढ़ता है और यह शक्तिवर्धक दवाइयों से ज्यादा कारगर होता है। इसके चलते कड़कनाथ का जमकर शिकार हुआ। मध्यप्रदेश के झाबुआ में तो इसकी प्रजाति तक लुप्त होने लगी थी। सरकार ने इसके शिकार और खरीदी बिक्री पर पाबन्दी तक लगाई। चोरी छिपे इस मुर्गे की तस्करी तक हुई। काफी महंगे दाम पर यह मुर्गा के महानगरों की सैर करता रहा। अब जाकर इस मुर्गे की स्थिति सामान्य हो पाई है। हालांकि झाबुआ जिले से बाहर इसके परिवहन पर पाबंदी अभी भी लागू है। कड़कनाथ समेत दूसरे मुर्गे मुर्गियों की प्रजाति पर विशेष पड़ताल करने वाले प्रभात मेघावाले की दलील है कि कड़कनाथ पर जीआई टैग सयुंक्त रूप से छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश दोनों को ही दिया जाना चाहिए, क्योंकि यह प्रजाति प्राकृतिक रूप से आदिवासी बाहुल्य बस्तर और झाबुआ में सामन्यतः पाई जाती है।