केन-घड़ियाल अभयारण्य में रेतीला इलाका हुआ कम

भोपाल, केन-घड़ियाल अभयारण्य में घडियालों की प्रजाति खतरे में है। इसकी वजह है अभ्यारण्य में रेतीले इलाके का सिमटना। वन विभाग के अफसरों को इस संकट की आहट तक नहीं आई। रेत का इलाका कम होने के कारण इनका प्रजनन भी मुश्किल है, क्योंकि ये रेत में अंडे छिपाते हैं। यहां वर्तमान में एक मादा घड़ियाल है, जो करीब नौ साल की बताई जा रही है। वंशवृद्धि के लिए यहां नर की जरूरत है। घड़ियाल प्रजाति को विलुप्त होने से बचाने के लिए वर्ष 1985 में पन्ना नेशनल पार्क के अंतर्गत अभयारण्य शुरू किया गया। शुरुआत में यहां नर और मादा घड़ियाल छोड़े गए। वर्ष 2005 में घड़ियाल के बच्चे भी यहां लाए गए, लेकिन वर्ष 2006 में भारी बारिश के चलते गंगेऊ डेम बह गया, जिसमें बच्चे व बड़े घड़ियाल बहकर अभयारण्य से बाहर निकल गए। कुछ बचे तो उन्हें मगरमच्छ खा गए। सूत्र बताते हैं कि वर्ष 2008 से यहां एक मादा घड़ियाल देखी जा रही है। इसके बाद न तो नए बच्चे छोड़ने की कोशिश की गई और न ही नर घड़ियाल लाया गया।
जानकार बताते हैं कि अभयारण्य का बड़ा हिस्सा पथरीला है। जबकि घड़ियाल को प्रजनन के लिए रेत की जरूरत पड़ती है। वह अंडे रेत में ही दबाती है। पूर्व वन अफसर बताते हैं कि अभयारण्य के क्षेत्र को लेकर शुरुआत में ही लापरवाही हुई है। इसमें ज्यादा से ज्यादा रेतीला एरिया जोड़ा जाना था। घड़ियाल अभयारण्य के अस्तित्व पर संकट है, लेकिन वन अफसरों को चिंता ही नहीं है। पार्क प्रबंधन से लेकर वाइल्ड लाइफ मुख्यालय के अफसर का ध्यान सिर्फ बाघों की वंशवृद्धि पर है। केन-बेतवा लिंक परियोजना क्षेत्र के निरीक्षण के लिए नेशनल वाइल्ड लाइफ बोर्ड ने स्टैंडिंग कमेटी गठित की थी। समिति की रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ है। जबकि वन अफसर परियोजना का विरोध इसी आधार पर कर रहे थे कि इससे घड़ियालों को नुकसान होगा। इस संबंध में वन विभाग के अपर मुख्य सचिव दीपक खांडेकर का कहना है कि घड़ियाल तभी नजर आते हैं, जब वे धूप सेंकने के लिए किनारे पर नजर आते हैं। ज्यादातर समय पानी में रहने के कारण उन्हें देख पाना मुश्किल होता है। इसलिए लोगों को लगता है घड़ियाल खत्म हो गए हैं। असल में वहां पर्याप्त घड़ियाल हैं।

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