फिर याद आई लोक संस्कृति,गांवों में होने लगा ‘पाल्हा’ का आयोजन

रायगढ़, टीवी, वीडियो के दौर में एक समय लोग अपनी प्राचीन लोक संस्कृति को भूलने लगे थे, लेकिन अब लगता है कि वे मनोरंजन के आधुनिक संसाधनों से उकताने लगे हैं। यही कारण है कि लोगों का रूझान एक बार फिर अपनी पुरानी संस्कृति की ओर बढऩे लगा है। ओडिशा सीमा से लगे गांवों में फिर से ‘पाल्हा’ जैसे आयोजन होने लगे हैं, जहां उमडऩे वाली भीड़ को देखकर यह कहा जा सकता है कि हमारी लोक संस्कृति की जड़ काफी गहरी है, जो पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण के बाद भी जमी हुई है।
ओडिशा सीमा से लगे छत्तीसगढ़ के बरमकेला, सरिया, सारंगढ़ के गांवों में छत्तीसगढ़ी व ओडिशा संस्कृति का मिश्रण देखा जा सकता है। इन गांवों में आज भी मूलत: उडिय़ा संस्कृति के माने जाने वाले ‘पाल्हा’ का आयोजन होता है। ‘पाल्हा’ के माध्यम से मुख्यत: भगवान सत्यनाराण की आराधना की जाती है और इसका आयोजन शुभ कार्य के अवसर पर किया जाता है। जिस तरह हम भगवान सत्यनारायण की कथा या श्रीमद्भागवत का आयोजन करते हैं, उसी तरह ओडिशा सीमा से लगे गांवों में ‘पाल्हा’ का आयोजन किया जाता है। पिछले दिनों बरमकेला के रिसारो नवापाली में हेमसागर मिश्र व उनके पुत्र महेंद्र मिश्रा ने ‘पाल्हा’ का आयोजन किया, जिसमें बेहरापाली, ओडिशा से आए कलाकारों ने ‘स्वप्न समाचार’ प्रसंग का मंचन किया। इस दौरान बड़ी संख्या में ग्रामीण उपस्थित थे।
हंसी-ठिठोली के साथ गंभीर संदेश
पाल्हा’ में एक प्रमुख गायक के साथ पांच कलाकारों की टीम थी, जो भगवान सत्यनारायण की कथा में से किसी एक प्रसंग का मंचन करते हैं। बेहरापाली से आए मुख्य कलाकार गायक कीर्तिचंद्र प्रधान के साथ बाहक रामलाल बरहा व सहयोगी कलाकार अनिरुद्ध भोय, प्रदीप कुमार प्रधान, सरजीत भोय ने गायन-वादन के साथ पाल्हा का शानदार मंचन किया। इसमें दर्शकों को बांधे रखने के लिए बीच-बीच में हंसी-ठिठौली के साथ भगवान की आराधना कर संदेश दिया जाता है। इसमें छत्तीसगढ़ी व ओडिशा संस्कृति के मिला-जुला रूप देखा जा सकता है। जिस तरह से छत्तीसगढ़ के गांवों में एक समय नाचा गम्मत की धूम रहती थी, उसी तरह पाल्हा’ की धूम ओडिशा सीमा से लगे गांवों में देखा जा सकता है।

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