मंडला, मंडला मड़ई बड़े ही उत्साह के साथ धूम धाम के साथ पारंपरिक रूप से मनाई गई। मरहाई माता की पूजा को ही मड़ई कहा जाता हे। आदिशक्ति के नाना अवतार व नाना रूप भारतीय समाज में पूजित हैं। मरहाई माता इन्ही शक्तियों की सहचारिणी शक्ति मानी जाती है। जिनकी आराधना तंत्र मंत्र के द्वारा की जाती है। गांव, बस्ती, नगर व उनके निवासियों की महामारी से रक्षा तथा कल्याण की भावना से उक्त रक्षक शक्ति की आराधना सामुहिक व सार्वजनिक रूप से किये जाने की परंपरा कब से प्रारंभ हुई यह आंकलन संभव नहीं किंतु प्रतीत होता है जबसे मनुष्य ने समाज में रहना सीखा है व उस अज्ञात शक्ति का आभास किया होगा तभी से यह क्रम चल पड़ा है। मड़ई उसी रक्षक शक्ति का प्रतीत है। दीपावली पर्व में आदिषक्ति के महालक्ष्मी रूप की सात्विक पूजन के पश्चात ही अमावस्या की रात्रि भर तांत्रिक व सिद्धियां जाग्रत करने हेतु पूजन किया जाता है। कार्तिक सुदी दूज को मंडला नगर में भरने वाली मड़ई से जिले में स्थान-स्थान पर मेला, मड़ई का क्रम प्रारंभ होता है जिसका समापन फाल्गुन पूर्णिमा को मचलेष्वर मेला हिरदेनगर के साथ होता है। जिला मुख्यालय से मड़ई श्रृंखला क्यो प्रारंभ हुई इसका कोई अभिलेखीय प्रमाण नहीं है किंतु माना जा सकता है कि राज्य वंष द्वारा सासित क्षेत्र की राजधानी होने के कारण राजा को पूजन का प्रथम अधिकार सुरक्षित करने की दृष्टि से यह परंपरा बनी हो। गौंड-राजाओं के शासन काल से ही मड़ई प्रथा प्रारंभ हुई हो इसे भी सहज स्वीकार नहीं किया जाता और इस संबंध में यह माना जाता है कि यह उससे पूर्व भी प्रचलित रही हो। मड़ई के पुजारी, पंडा निषाद वर्ग के धीवर जाति के लोग प्रारंभ स ðअब तक ज्ञात इतिहास के अनुसार हैं। नर्मदांचल में अधिकांषत: शक्तिपीठो में धीवर जाति के ही पंडा, पुजारी है जो इस परंपरा के प्राचीन इतिहास की ओर इंगित करते हैं। गौंड राजवंशीय किला में तंत्रोक्त विधि से प्रतिष्ठित आदिषक्ति महादेवी त्रिपुर-सुन्दरी पीठ, राजराजेष्वरी पूजन के उपरांत मंडला की मड़ई को नगर भ्रमण हेतु निकाला जाता है। देवी पूजन के पश्चात पतित पावनी शैलपुत्री नर्मदा के तट पर पहुंच कर पूजन किया जाता है। जिसके पश्चात नगर प्रस्थान से तांत्रिक पूजन का क्रम प्रारंभ होता है। सामान्यत: दोपहर पश्चात मड़ई निकाली जाती है तथा यात्रा के मार्ग के दोनो ओर नगरवासियों का समुदाय प्रतीक्षा में खड़ा होता है। उड़द दाल और चावल हाथ में लेकर बाल-वृद्ध, त्री-पुरूष अपने सिरों में बार बार घुमाते हुए मड़ई से रक्षा व मंगल की कामना दुहराते रहते हैं तथा मड़ई आने पर उस पर फेंक कर मारते हैं। रोग-दोष, दुष्मन से बचाव की कामना जो इस अवसर पर की जाती है वही जब मेला स्थल पर मड़ई ब्याहने लोग जाते हैं तब परिक्रमा करते हुए करते हैं और चावल दाल छिड़कते हैं। यादव परिवारों में से कुल परंपरा से जुड़े लोग अब भी दीपावली की रात्रि में घर-घर जाकर दिवाली जगाते हैं, छाहुर और आषीष देकर इनाम प्राप्त करते हैं। यही लोग दूज को गोवर्धन पूजन के बाद मड़ई ब्याह कर फिर अपने यजमानों के घर गौषाला पूजन करते नाचते और त्यौहार की सौगात लेते हैं। खेतों में पके खड़े धन धान्य को खलिहान और घर लाने के पूर्व विपदाओं की देवी की आराधना कर मड़ई ब्याहना आदिवासी क्षेत्रों में भी शैली व परंपरा बन चुकी है। मंडला मड़ई में आसपास के ग्रामों के आदिषक्तियां की चण्डियां भी पहुंचती हैं। दंड के शीर्ष में मोर पंखों का गुच्छ और फूल मालाएं चण्डी का स्वरूप हैं। गांव की मंगल कामना के साथ गांव की मढ़िया का पंडा कमर में बांधे हुए साफा में उसे सम्हालते हुए पांच दस किलोमीटर की दूरी तय करके पहुंचता है जिसके साथ अन्य ग्रामों के लोग भी जुड़ते जाते हैं। शराब इनकी पूजन और त्यौहार का अनिवार्य अंग है जिसका उत्सवी माहौल में उन्मुक्त प्रयोग होता है। जिले के ग्रामीण अंचलों में भरने वाली मड़ई का व्यापारिक महत्व है। आदिवासी युवक युवतियों के लिए जहां से प्रणय-निवेदन का अवसर होते हैं वहां नाते रिश्तेदारों से संगम का संयोग भी बनता है। सैकड़ों मील दूर काम की तलाष में जाने वाला मजदूर भी अपनी कमाई को जोड़े रखकर गांव या क्षेत्र की मड़ई करने पहुंच जाता है। नई धोती कमीज पुरूषों का परिधान है जबकि नई धुतिया, पोलका, चुनरी, फुंदरा और सुतिया और हवेल महिलाओं को संवारती हैं। मड़ई की सज-धज और उसका उनकी उमंग प्रदर्षित करती है। उनके पहनाव में अब आधुनिकता की पुट-भरपूर मिलने लगा है किंतु मवई जैसे दूरस्थ अंचलों में उनके मूल रूप व परिवेष को देखा जा सकता है। देहातों की इन मड़ई-मेलों का आयोजन वैसे परंपरागत तिथियों में ही होता है।