स्वास्थ्य जगत

स्वास्थ्य जगत 1

वृद्धावस्था : समस्या और समाधान
सामान्यत: वृद्धावस्था 60 से ज्यादा के उम्र को माना जाता है। यह अवस्था कई शारिरिक एवं मानसिक बीमारियों को अपने साथ ले आती है। जो लोग अपनी युवा अवस्था में खुद की अच्छी देख भाल करते हैं, वह वृद्धावस्था में कम दिक्कतों का सामना करते है लेकिन जिन लोगों की प्रतिरोधक क्षमता कम होती है, वह ज्यादा समस्याओं की सामना करते हैं। बदलते दिनचर्या और मौसम का प्रभाव भी वृद्धावस्था में काफी देखने को मिलता है। ठंडक बढ़ते ही बुजुर्गों का घूमना फिरना कम हो जाता है, स्वास्थ्य की समस्याएँ बढऩे लगती है। हॉस्पिटल में भी जोड़ो के दर्द, सर्दी, खाँसी यहाँ तक कि हार्ड अटैक के कई वृद्ध मरीज आने लगते हैं। वृद्धावस्था में मुख्य रूप से निम्न समस्याएं होती हैं-
अल्जाइमर
वृद्धावस्था में होने वाले रोगों में अल्जाइमर सबसे कॉमन बीमारी है। इस बीमारी में लोगों की याद करने की क्षमता या बातों को याद रख पाने की क्षमता बहुत कम हो जाती है। शुरूआत के दिनों में मेमोरी घटती है लेकिन बाद में कुछ भी याद न रहने की स्थिति आ जाती है। जाना-पहचाना चेहरा याद करने, समय, स्थान को याद रखने में इस उम्र में परेशानी आती है, वृद्धजन ठीक से खुद का ख्याल भी नहीं रख पाते हैं और अक्सर दूसरों पर आश्रित हो जाते हैं।
संज्ञनात्मक समस्या
संज्ञनात्मक समस्या में इनकी मेमोरी(स्मृति) कम हो जाती है। वृद्धावस्था में लोग चीजों को आसानी से रिलेट नहीं कर पाते है और उन्हे हर बात को समझने में सामान्य युवा की तुलना में ज्यादा वक्त लगता है। इससे परेशान व्यक्ति हमेशा कन्फ्यूज रहता है और उसे हर बात को समझने में दुगने से ज्यादा समय लग जाता है।
ऑस्टियोपोरोसिस
ऑस्टियोपोरोसिस, वृद्ध लोगों में शरीर की हड्डियों के कमजोर होने से होती है। इससे हड्डियों का घनत्व कम हो जाता है जिससे हड्डी टूटने पर मुश्किल से सही होती है।
मस्कुलर डिजेनरेशन
वृद्ध लोगों में मस्कुलर डिजेनरेशन सबसे ज्यादा होती है। इस उम्र में मस्कुला पर असर पड़ता है जो दिमाग में बनने वाली छवि, पहचानने वाले सेंस पर प्रभाव डालता है।
कमजोर पर्दे
बुजुर्ग लोगों के कान के पर्दे कमजोर हो जाने के कारण पूरी तरह से उनके कानों पर आवाज सुनाई नहीं पड़ती है और वह बातें समझ नहीं पाते हैं। उन्हें सुनने में समस्या होती है, इसी कारण वह एक ही बात को बार-बार पूछते हैं।
ग्लूकोमा
ग्लूकोमा, आंखों के भीतरी हिस्से में एक तरल पदार्थ के बढऩे के कारण होने वाले दबाब से होती है। इस बीमारी से ऑप्टिक नर्व सिस्टम खराब होने का खतरा रहता है जिससे दृष्टि जा सकती है।
ऑर्थराइटिस
ऑर्थराइटिस या गठिया एक ऐसा रोग है जो वृद्ध व्यक्ति को ज्यादा होता है। यह बीमारी मुख्य रूप से शरीर के जोड़ों में होती है।गठिया रोग में उंगलियों, घुटनों, कमर, कलाईयों और रीढ़ की हड्डी पर प्रभाव पड़ता है।
मेटाबोलिक सिंड्रोम
मेटाबोलिक सिंड्रोम के असमान्ययता के कारण वृद्धावस्था में मोटापा और अन्य समस्याएं हो जाती है। इस उम्र में डायबटीज का टाइप 2 भी हो सकता है, कार्डियोवस्कुलर डिसीज (हृदय रोग), कैंसर और ब्लड़प्रेशर की समस्याएँ सामान्य रूप से देखने को मिलती है।
असंयमता
वृद्धजनों में असंयमता भी आ जाता है, वह अक्सर बात – बात पर खीजने लगते हैं। महिलाओं में ऐसा उनकी पेल्विक बोन्स में क्षमता घटने के कारण होता है तो वहीं पुरूषों का प्रोस्टेट बहुत बढ जाता है, तब वह भी इस परेशानी को झेलते हैं।
भावनात्मक समस्याएं सबसे चिंतनीय
वृद्धावस्था में शारीरिक समस्या के साथ-साथ भावनात्मक समस्याएं भी बहुत अधिक होती है। अकेलापन, अवसाद, उदासी, जिद्दीपन, समायोजन की कमी, बीती बातों को बार-बार दुहराना, आदि अधिक देखने को मिलता है। घर में अगर किसी माता-पिता के सामने उनके बच्चों में आपसी बहस होती है तो उनके माता-पिता के मानसिक स्वास्थ्य पर इसका गहरा असर होता है। कई बार उनको तनाव से बीपी, सुगर, हार्ट अटैक, ब्रेन हैमरेज हो जाता है। वह परिवार में भी खुद को असहाय और अकेला महसूस करने लगते हैं। वह अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर अपने बच्चों को एक-दूसरे के साथ खुश देखना चाहते हैं, उनके आपसी बहस, लड़ाई उनके अपनों के दिल से काफी दूर महसूस कराने लगता है। उनमें जीवन के प्रति निराशाजनक व्यवहार, जिद्दीपन, चिड़चिड़ापन, अवसाद के साथ कई समस्याएँ हो जाती हैं। कई बार माता-पिता अपने दर्द बच्चों को नहीं बताते और हार्ट अटैक या पैरालिसिस के शिकार हो जाते हैं, बच्चे जब तक कुछ समझ पाते तब तक कई बार दे हो चुकी होती है।
केस-1
बहादुर (परिवर्तित नाम) 62 वर्ष के हैं। बच्चों के दूर होने से इतना तनावग्रस्त रहने लगे कि पिछले 2 साल में उनको दो बार पैरालिसिस का अटैक आ गया। चलने में समस्या और बोल नहीं पाने से चौकीदारी की नौकरी भी चली गई, अभी उनमें जीवन के प्रति काफी निराशा आ गई है। इनका लगातार मनोवैज्ञानिक थेरेपी, स्पीच थेरेपी और दवाईयों से इलाज किया जा रहा है।
केस-2
सुभाष (परिवर्तित नाम) 71 वर्ष के हैं, जिनके छोटा बेटा अपनी ही कंपनी में साथ काम करने वाली दूसरी जाति की लड़की से विवाह कर लिया। अंतरजातीय विवाह से पिता इतने सदमें में आ गए कि काम पर जाना छोड़ दिया, लोगों से मेलजोल छोड़ दिए। इस सामाजिक संकुचित मानसिकता से आई तनाव को दूर करने के लिए बेटा और बहू उनका इलाज कराने लाते हैं और अभी उनके मानसिक स्वास्थ्य में काफी सुधार हुआ है।
केस-3
प्रेमा (परिवर्तित नाम) 65 की थी। अभी कुछ दिन पहले रिश्तेदार के घर शादी में गई, वहाँ हार्ट अटैक आया लोग एसिडिटी का दर्द समझ घरेलू इलाज करने लगे, जब तक कुछ समझ कर डॉक्टर के पास ले जाते उनकी मृत्यु हो गई।
समस्याओं के मुख्य कारण
स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही
मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता का अभाव
पोषण आहार की कमी
परिवार के साथ समय ना व्यतीत कर पाना
वृद्धावस्था में जीवनसाथी की मृत्यु से अकेलापन
बढ़ती उम्र, अपमान, अपनों से अवहेलना, बात- बात पर बच्चों द्वारा ताना दिए जाना, घर में लड़ाई-झगड़े, बच्चों के कैरियर, नौकरी में उतार-चढ़ाव या असफलता, बच्चों के वैवाहिक जीवन में विवाद, आर्थिक तंगी आदि
सामाजिक अलगाव, सामाजिक उत्सव में बुजुर्गों को दूर रखना
बढ़ती उम्र के कारण हड्डियों की क्षरण, मस्तिष्क में न्यूरॉन का विघटन, चोट लगना
दोस्तों की कमी, अकेलापन
वृद्धावस्था में सफलता और असफलता को लेकर द्वंद आदि
इन समस्याओं का समाधान
इन समस्याओं से केवल बुजुर्गों को ही नहीं वरन परिवार के अन्य सदस्यों को भी काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है। इसलिए इन समस्याओं को कम करने के लिए कुछ योजना पहले से बनाई जाए तो बुजुर्गों की देखभाल भी बेहतर हो जाएगी और वृद्धजन अपनी उम्र की आखिरी पड़ाव खुशी से परिवार के साथ निकाल पायेंगे।
वृद्धजन को खास सदस्य होने का एहसास देना चाहिए
घर में आने वाले मेहमान के बीच घर के वृद्धजन को सम्मान के साथ शामिल करें।
पोषक आहार और उम्र के अनुसार विशेष आहार भी उनके भोजन में शामिल करें। दूध, फल आदि खिलाएँ। कम तेल मसालों का भोजन सभी के लिए उपयोग हो तो अलग से भोजन बनाने की आवश्यकता नहीं होगी और यह सभी के लिए लाभदायक होगा।
रोजाना टहलना और हल्का फुल्का व्यायाम करने से शरीर में अकडऩ की समस्या नहीं होगी।
छोटे बच्चों को बुजुर्गों के साथ खेलने एवं समय बिताने दें, इससे बच्चे अपने जड़ को तो समझेंगे ही साथ ही दादा-दादी, नाना-नानी के प्रेम से उनमें बेहतर भावनात्मक और संवेदनशील व्यवहार का विकास होगा। इससे वह अपने परिवार की अच्छे-बुरे हालातों से, संघर्षो से, सफलताओं और बड़ों के अनुभवों से वाकिफ हो सकेंगे। बुजुर्गों में भी अकेलापन नहीं आएगा।
घर का माहौल तनावपूर्ण ना रखें, किसी भी समस्या पर आपस में प्रेम से, शांत बैठकर, तर्कपूर्ण विचारों को साझा करके उससे निपटने का रास्ता निकालें। तनाव और बच्चों के आपसी मन मुटाव का सबसे बुरा असर वृद्ध माता पिता पर ही अत्यधिक पड़ता है। झगडऩा किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता है।
शारिरिक स्वास्थ्य और मानसिक स्वास्थ्य की जाँच हर छ: माह में या डॉक्टर के निर्देशानुसार कराते रहें, जिससे किसी भी बीमारी को शुरुआती दिनों में ही इलाज द्वारा नियंत्रित या खत्म किया जा सके।
बातचीत करके, साथ भोजन करते समय एक दूसरे को समय देकर, छोटे- छोटे पिकनिक या उत्सव का घर में आयोजन करके उसमें बुजुर्गों को शामिल करें।
बेहतर समाचार पढ़कर उस पर चर्चा करें और उनके विचारों को सम्मान करते हुए उस पर तर्क करें। इससे उनमें आखिरी समय तक दुनियाँ से जुड़े रहने का, दायित्व निभाने की भावना रहेगी।
बुजुर्गों को छोटे-छोटे क्रियाकलापों से जोड़े, बुजुर्गों के साथ बैठकी को उनके दिनचर्या में शामिल करें। पुरानी यादों को चर्चा कर उनके संघर्षो को सराहें। उनके जिद्द को शांत भाव से प्रेम से, अपनत्व से समझाएँ।
बुजुर्गों का कभी मजाक ना बनायें, बच्चे किसी चीज से अनजान या अज्ञानी होते हैं तब यही बुजुर्ग लाखों प्रयास से अपने बच्चों को ज्ञानी बनाते हैं। जिस प्रकार आज के समय के टेक्नोलॉजी या अन्य चीजों से वह अनजान होते हैं, वैसे उनके समय में उनके बच्चे बिल्कुल अज्ञानी होते हैं इस दुनियाँ के सभी चीजों से, तब वही उनको हर चीज से रूबरू कराते हैं। वह प्रथम गुरु होते हैं और अगर बच्चे सीखने में विश्वास रखते हो तो वह अपने घर के वृद्धजनों से आखिरी समय तक उनके अनुभवों के आधार पर कुछ ना कुछ सीखते रहेंगे।
शासन द्वारा भी वृद्धा पेंशन, नि:शुल्क स्वास्थ्य जाँच, उपकरण वितरण किया जाता है एवं रेलवे में छूट दिया जाता है, जिसका लाभ भी दिलाना चाहिए।
स्मिता कुमारी (लेखिका क्लीनिकल साइकोलोजिस्ट हैं, स्वास्थ्य एवं अन्य मनोसामाजिक मुद्दों पर इनका कई लेख एवं शोध पत्र राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित हुए हैं। 

इस तरह करें बचाव पेट के अल्सर
किसी खास तरह के खाने से न तो पेट का अल्सर होता है और न अधिक बिगड़ता है। पेट का अल्सर हैलियोबैक्टर पायलोरी नामक बैक्टेरिया के संक्रमण से होता है। इससे बचाव करने के लिए कई सावधानियां हैं जरूरी। हेल्दी ह्युमन क्लीनिक सेंटर फॉर लीवर ट्राप्लांट एंड गैस्ट्रो साइंसेज के डायरेक्टर डा.रविंदर पाल सिंह मल्होत्रा का कहना है कि पेट में फोड़ा हैलियोबैक्टर पायलोरी नामक बैक्टेरिया के संक्रमण से होता है। इसके अलावा केमिस्ट से पूछकर या अपने मन से लगतार लंबे समय तक दर्द निवारक गोलियां खाने से भी पेट में छाले या फोड़े हो जाते हैं।
पेट में अल्सर होने की स्थिति में मरीज को एंटीबायोटिक्स लंबे समय तक चलती हैं साथ ही एसिड ब्लॉकर्स भी दिए जाते हैं। इसके अलावा नियमित भोजन के रूप में मरीज को सादा भोजन करना जरूरी है। इस तरह के खाद्य पदार्थों से अल्सर पैदा करने वाले बैक्टेरिया से लडऩे में मदद मिलती है। बंद गोभी, फूल गोभी, मूली, सेबफल, ब्लूबेरीज, रास्पबेरीज, ब्लेकबेरीज, स्ट्राबेरीज, चौरीज, शिमला मिर्ची, गाजर, ब्रोकोली, हरी पत्तेदार सब्जियां, दही एवं छांछ, शहद, लहसुन, ग्रीन टी, हल्दी का दूध।
हेैलियोबैक्टर पायलोरी नामक बैक्टेरिया के इंफेक्शन के कारण हुए पेट के फोड़े को ठीक करने के लिए ये सभी खाद्य पदार्थ इसलिए मददगार साबित हो सकते हैं क्योंकि ये एंटीऑक्सीडेंट्स से भरपूर हैं। ये खाद्य पदार्थ शरीर के इम्यून सिस्टम की सुरक्षा करेंगे और सिस्टम को संक्रमण से लडऩे के लिए एक्टिवेट भी करेंगे। इनकी मदद से पेट के कैंसर से भी सुरक्षा मिल जाती है। ब्लूबेरीज, चेरीज, शिमला मिर्ची वगैरह एंटीऑक्सीडेंट्स की ताकत से भरे हुए हैं। हरी पत्तेदार सब्जियों में कैल्शियम और विटामिन बी होते हैं जो इम्यून सिस्टम को मजबूती प्रदान करते हैं। ब्रोकोली को सुपर फूड माना जाता है। इसमें सल्फोराफेन नामक एक कंपाउंड होता है जो हैलियोबैक्टर पायलोरी नामक बैक्टेरिया के खिलाफ अपनी सक्रियता के लिए जाना जाता है। कुद शोध अध्ययनों से मालूम होता है कि ऑलिव ऑइल इस बैक्टेरिया के संक्रमण को दूर करने में समर्थ है। क्लिनिकल स्टडीज से आए नतीजों के मुताबिक खमीर उठाए गए प्रोबायोटिक खाद्य पदार्थों से अल्सर ठीक होता है। दही, छांछ और खमीर उठाकर बनाई गई डबल रोटी आदि से संक्रमण को फिर से सिर उठाने से रोका जा सकता है। इसी तरह हल्दी, लहसुन और ग्रीन टी भी पेट के छालों अथवा फोड़ों को ठीक करने में मददगार साबित होते हैं।
डा.रविंदर पाल सिंह मल्होत्रा का कहना है कि जिन लोगों को पेट में अल्सर होता है उन्हें पेट से एसिड बाहर उछलकर आने की शिकायत भी होती है। उन्हें इन्हें खाने या पीने से परहेज करना चाहिए। कॉफी , चॉकलेट, मिर्च मसालेदार खाना, शराबखोरी, टमाटर या नींबू जैसे खट्टी सब्जियां, खूब ठूंस-ठूंसकर खाना, रात को सोने के समय और भोजन के बीच कम अंतराल रखना, हैलियोबैक्टर पायलोरी नामक बैक्टेरिया से होने वाले अधिकांश अल्सर इलाज से ठीक हो जाते हैं। लेकिन यदि इलाज में कोताही बरती या पूरा इलाज नहीं लिया तो पेट के अल्सर की समस्या गंभीर भी हो सकती है। पेट में खून का अंदरूनी रिसाव शुरू हो सकता है साथ ही पेट का कैंसर भी हो सकता है।

स्तन कैंसर जांच में कारगर है 3डी मैमोग्राफी
आजकल युवा महिलाओं में भी स्तन कैंसर के मामले सामने आ रहे हैं। कई बार इसका पता देर में चलता है जिससे वह लाइलाज हो जाता है पर 3डी मैमोग्राफी युवा महिलाओं में स्तन कैंसर को पकड़ने में कारगर नजर आ रहा है।
स्तन कैंसर के बढ़ते मामलों में युवा महिलाएं भी इसकी चपेट में आ रही हैं। ऐसे में 3डी मैमोग्राफी युवा महिलाओं विशेषज्ञों के अनुसार ‘स्तन कैंसर क्यों हो रहा है, इसके कारणों का हालांकि अभी पता नहीं लग पाया है, लेकिन यह तय है कि जितनी जल्दी इसका पता लगाया जाता है, ठीक होने के अवसर उतने ही बढ़ जाते हैं।
परंपरागत तौर पर मैमोग्राफी 2 डायमेंशनल ही होती है, जो ब्लैक एंड व्हाइट एक्सरे फिल्म पर परिणाम देती है।है. इसके साथ ही इन्हें कंप्यूटर स्क्रीन पर भी देखा जा सकता है। वहीं 3डी मैमोग्राम में ब्रेस्ट की कई तस्वीरें विभिन्न एंगलों से ली जाती हैं, ताकि एक स्पष्ट और अधिक आयाम की छवि तैयार की जा सके।
इस तरह के मैमोग्राम की जरूरत इसलिए है, क्योंकि युवावस्था में युवतियों के स्तन के ऊतक काफी घने होते हैं और सामान्य मैमोग्राम में कैंसर की गठान का पता नहीं लग पाता है। 3डी मैमोग्राम से तैयार किए गए चित्र में स्तन के टिश्यू के बीच छिपी कैंसर की गठान को भी पकड़ा जा सकता है।
3डी मैमोग्राम के और कई फायदे हैं, जैसे कि ब्रेस्ट कैंसर की गठान का जल्द से जल्द पता लगाकर उसका इलाज करना ही मैमोग्राम का मुख्य उद्देश्य है। इसके लिए 3डी इमेजिंग को काफी कारगर माना जाता है।
3डी मैमोग्राम की तस्वीरों और सीटी स्कैनिंग में काफी समानता है और इसमें मरीज को परंपरागत मैमोग्राफी की तुलना में काफी कम मात्रा में रेडिएशन का सामना करना पड़ता है।
40 से अधिक उम्र वाली महिलाएं करायें मैमोग्राफी
चालीस साल की उम्र के आसपास पहुंच रहीं महिलाओं को हर साल मैमोग्राफी करने की सलाह दी जाती रही है लेकिन अब उन्हें 3-डी इमेजिंग तकनीक का सहारा लेना चाहिए। इस तकनीक का फायदा हर उम्र की महिलाओं को मिल सकता है, लेकिन युवावस्था में कैंसर की गठान यदि पकड़ में आ जाती है तो उसका कारगर इलाज करके जान बचाई जी सकती है।
इसलिए होती है खास 3डी तकनीक
दरअसल, 3डी मैमोग्राफी करने का तरीका बिल्कुल 2डी मैमोग्राफी की ही तरह होता है। इसमें महिला के स्तन को एक्सरे प्लेट और ट्यूबहेड के बीच रखकर कई एंगल से अनेक तस्वीरें ली जाती हैं। इस तरह की तस्वीरों को स्लाइसेस कहा जाता है। इतने बारीक अंतर से स्तन के फोटो स्लाइसेस बनाए जाते हैं कि छोटी से छोटी कैंसर की गठान भी दिखाई देने लगती है।

ब्लैडर कैंसर से करें बचाव
आजकल ब्लैडर कैंसर के मामले बढ़ते जा रहे हैं। ऐसे में इससे सावधान रहने की जरुरत है। शरीर में ब्लैडर की वॉल के टिश्यूज संक्रमित होने से ब्लैडर कैंसर होता है। शुरुआत में ब्‍लैडर में खून के थक्के जमने आरंभ होते हैं। इसके आरंभिक लक्षणों में यूरीन के साथ खून निकलता है। इसका कारण ब्‍लैडर का संक्रमित होना है। ब्‍लैडर में संक्रमण के कारण यूरीन के समय जलन और तेज दर्द होता है। अगर ये लंबे समय तक बना रहे या बार-बार हो तो सचेत हो जाना चाहिए। ये एक सामान्‍य लक्षण है जो कई अन्य बीमारियों में भी होता है। इसके अलावा बिना किसी वजह के तेजी से वजन कम हो रहा है जो इसे हल्‍के में ना लें। इसके साथ ही थोड़ा सा काम करके थक जाना और कमजोरी रहना भी इसके लक्षणों में शामिल है।
यूरीन के साथ सफेद टिश्‍यूज डिस्‍चार्ज होना और पेट के निचले हिस्‍से यानी पेल्विक रीजन में दर्द बने रहना।इससे पीडि़त लोग अक्‍सर हड्डियों में लगातार दर्द रहने की शिकायत भी करते हैं। अगर बार-बार यूरीन संक्रमण हो रहा हो तो भी ये इसका एक लक्षण हो सकता है।इस बीमारी की जद में 60 साल से ज्‍यादा के लोग सबसे अधिक हैं। साथ ही, ऐसे लोग जिनका वजन ज्‍यादा होता है वे भी इसके खतरे में होते हैं। ज्‍यादा धूम्रपान करने वाले और शराब का अत्‍यधिक सेवन करने वालों को ये कैंसर होने का खतरा अधिक होता है।
ताजे फल और सब्जियों से होता है खतरा कम
ताजे फल और सब्जियों का सेवन होता है फायदेमंद होता है।
शोध के मुताबिक, फल-सब्जियों का सेवन करने वालों में ये कैंसर होने का खतरा कम होता है।
विटामिन्स से कम होता है खतरा
शोध में ब्‍लैडर कैंसर पीड़ितों को यह सुझाव दिया गया कि इसके जोखिम को कम करने के लिए वह अपने आहार में विटामिन ए, सी और ई को शामिल करें।

डिप्थीरिया जानें, कैसे करें बचाव
डिप्थीरिया एक प्रकार के संक्रमण से फैलने वाली बीमारी है। इसकी चपेट में ज्यादातर बच्चे आते हैं हालांकि बीमारी बड़ों में भी हो सकती है। बैक्टीरिया सबसे पहले गले में संक्रमण करता है। इससे सांस नली तक संक्रमण फैल जाता है। डिप्थीरिया संक्रामक रोग बड़ी आसानी से एक व्यक्ति से दूसरे तक फैलता है।
बीमारी के लक्षण
सांस लेने में कठिनाई
गर्दन में सूजन
ठंड लगना
बुखार
गले में खराश, खांसी
संक्रमण मरीज के मुंह, नाक और गले में रहता है और फैलता है
टीकाकरण है जरूरी
टीकाकरण से बच्चे को डिप्थीरिया बीमारी से बचाया जा सकता है। नियमित टीकाकरण में डीपीटी (डिप्थीरिया, परटूसस काली खांसी और टिटनेस) का टीका लगाया जाता है। 1 साल के बच्चे को डीपीटी के 3 टीके लगते हैं। इसके बाद डेढ़ साल पर चौथा टीका और 4 साल की उम्र पर पांचवां टीका लगता है। टीकाकरण के बाद डिप्थीरिया होने की संभावना नहीं रहती है।

तनाव से बढ़ रहे हृदयाघात के मामले
भारतीय युवाओं में हृदयाघात की समस्या बढ़ती जा रही है और यदि इस समस्या पर रोक के उपाय नहीं किए गए तो यह महामारी का रूप ले कर सकती है। विशेषज्ञों के अनुसार हृदय रोग की महामारी को रोकने का एकमात्र तरीका लोगों को शिक्षित करना है, वरना 2020 तक सबसे अधिक मौत हृदय रोग के कारण ही होगी।
आम तौर पर दिल के दौरे का संबंध पहले बुढ़ापे से माना जाता था।लेकिन अब अधिकतर लोग उम्र के दूसरे, तीसरे और चौथे दशक के दौरान ही दिल की बीमारियों से पीड़ित हो रहे हैं। आधुनिक जीवन के बढ़ते तनाव ने युवाओं में दिल की बीमारियों के खतरे पैदा कर दिया है हालांकि अनुवांशिक और पारिवारिक इतिहास अब भी सबसे आम और अनियंत्रित जोखिम कारक बना हुआ है, लेकिन युवा पीढ़ी में अधिकतर हृदय रोग का कारण अत्यधिक तनाव और लगातार लंबे समय तक काम करने के साथ-साथ अनियमित नींद पैटर्न है। धूम्रपान और आराम तलब जीवनशैली भी 20 से 30 साल के आयु वर्ग के लोगों में इसके जोखिम को बढ़ा रही है।
ओपन हार्ट सर्जरी के मामले बढ़े
देश में हृदय अस्पतालों में दो लाख से अधिक ओपन हार्ट सर्जरी की जाती है और इसमें सालाना 25 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है।यह सर्जरी केवल तात्कालिक लाभ के लिए होती है। हृदय रोग के कारण होने वाली मौतों को रोकने के लिए लोगों को हृदय रोग और इसके जोखिम कारकों के बारे में अवगत कराना महत्वपूर्ण है।
कोरोनरी हृदय रोग ठीक नहीं हो सकता है, लेकिन इसके इलाज से लक्षणों का प्रबंधन करने, दिल की कार्यप्रणाली में सुधार करने और दिल के दौरे जैसी समस्याओं को कम करने में मदद मिल सकती है। इसके लिए जीवनशैली में परिवर्तन, दवाएं और नॉन-इंवैसिव उपचार शामिल हैं। अधिक गंभीर मामलों में इंवैसिव और शल्य चिकित्सा उपचार की आवश्यकता होती है।
समान लक्षण नहीं होते
सभी हृदय रोगियों में समान लक्षण नहीं होते हैं और एंजाइना छाती का दर्द इसका सबसे आम लक्षण नहीं है। कुछ लोगों को अपच की तरह असहज महसूस हो सकता है और कुछ मामलों में गंभीर दर्द, भारीपन या जकड़न हो सकता है। आमतौर पर दर्द छाती के बीच में महसूस होता है, जो बाहों, गर्दन, जबड़े और यहां तक कि पेट तक फैलता है, और साथ ही धड़कन का बढ़ना और सांस लेने में समस्या होती है।
अगर धमनियां पूरी तरह से अवरुद्ध हो जाती हैं, तो दिल का दौरा पड़ सकता है, जो हृदय की मांसपेशियों को स्थायी नुकसान पहुंचा सकता है। दिल के दौरे में होने वाले दर्द में पसीना आना, चक्कर आना, मतली और सांस लेने में तकलीफ जैसी समस्याएं हो सकती हैं।

खतरनाक साबित हो सकता है जोड़ों का दर्द
No Imageअगर आप कमर में दर्द और अकड़न को मामूली मानकर इसकी अनदेखी करते हैं तो सावधान हो जाएं क्योंकि यह आपकी सेहत पर भारी पड़ सकता है। आम तौर पर देखा गया है कि लोगों को कमर में अकड़न, पीठ और जोड़ों में दर्द की शिकायत रहती है और वे इसे नजरअंदाज कर देते हैं पर ऐसा करना सेहत के लिए खतरनाक होता है।
अगर जोड़ों के दर्द के कारण आपकी रात में तीन-चार बजे आपकी नींद खुल जाती है और आप असहज महसूस करते हैं, तो डॉक्टर से सलाह लीजिए क्योंकि आपको स्पांडिलाइटिस की शिकायत हो सकती है। स्पांडिलाइटिस से हृदय, फेफड़े और आंत समेत शरीर के कई अंग प्रभावित हो सकते हैं।
स्पांडिलाइटिस को नजरंदाज करने से गंभीर रोगों का खतरा पैदा हो सकता है। इससे बड़ी आंत में सूजन यानी कोलाइटिस हो सकता है और आंखों में संक्रमण हो सकता है। स्पांडिलाइटिस एक प्रकार का गठिया रोग है। इसमें कमर से दर्द शुरू होता है और पीठ और गर्दन में अकड़न के अलावा शरीर के निचले हिस्से जांघ, घुटना व टखनों में दर्द होता है। रीढ़ की हड्डी में अकड़न बनी रही है। स्पांडिलाइटिस में जोड़ों में इन्फ्लेमेशन यानी सूजन और जलन के कारण तेज दर्द होता है।
वहीं नौजवानों में स्पांडिलाइटिस की शिकायत ज्यादा होती है। आमतौर पर 45 से कम उम्र के पुरुषों और महिलाओं में स्पांडिलाइटिस की शिकायत रहती है।
एंकिलोसिंग स्पांडिलाइटिस गठिया का एक सामान्य प्रकार है जिसमें रीढ़ की हड्डी प्रभावित होती है और कशेरूक में गंभीर पीड़ा होती है जिससे बेचैनी महसूस होती है। इसमें कंधों, कुल्हों, पसलियों, एड़ियों और हाथों व पैरों के जोड़ों में दर्द होता है। इससे आखें, फेफड़े, और हृदय भी प्रभावित होते हैं।
बच्चों में जुवेनाइल स्पांडिलोअर्थ्राइटिस होता है जोकि 16 साल से कम उम्र के बच्चों में पाया जाता है और यह वयस्क होने तक तकलीफ देता है। इसमें शरीर के निचले हिस्से के जोड़ों में दर्द व सूजन की शिकायत रहती है। जांघ, कुल्हे, घुटना और टखनों में दर्द होता है। इससे रीढ़, आंखें, त्वचा और आंत को भी खतरा पैदा होता है। थकान और आलस्य का अनुभव होता है।
स्पांडिलाइटिस मुख्य रूप से जेनेटिक म्युटेशन के कारण होता है। एचएलए-बी जीन शरीर के प्रतिरोधी तंत्र को वाइरस और बैक्टीरिया के हमले की पहचान करने में मदद करता है लेकिन जब जीन खास म्युटेशन में होता है तो उसका स्वस्थ प्रोटीन संभावित खतरों की पहचान नहीं कर पाता है और यह प्रतिरोधी क्षमता शरीर की हड्डियों और जोड़ों को निशाना बनाता है, जो स्पांडिलाटिस का कारण होता है हालांकि अब तक इसके सही कारणों का पता नहीं चल पाया है.
उन्होंने कहा कि जब जोड़ों में दर्द की शिकायत हो तो उसकी जांच करवानी चाहिए क्योंकि इससे उम्र बढ़ने पर और तकलीफ बढ़ती है।
एचएलए-बी 27 जांच करवाने से स्पांडिलाइटिस का पता चलता है। एचएलए-बी 27 एक प्रकार का जीन है जिसका पता खून की जांच से चलता है। इसमें खून का सैंपल लेकर लैब में जांच की जाती है. इसके अलावा एमआरआई से भी स्पांडिलाइटिस का पता चलता है.
स्पांडिलाइटिस का पता चलने पर इसका इलाज आसान हो जाता है। ज्यादातार मामलों का इलाज दवाई और फिजियोथेरेपी से हो जाता है। वहीं कुछ ही गंभीर व दुर्लभ मामलों में सर्जरी की जरूरत पड़ती है।

प्रोस्टेट कैंसर और उससे बचाव
प्रोस्टेट क्या है? यह सवाल हर पुरुष के मन में आया होगा। दरअसल हम आपको बता दें कि प्रोस्टेट जिसे हम हिंदी में पौरुष ग्रंथि के नाम से जानते हैं, ब्लाडर (मूत्राशय) के नीचे स्थित एक अंग है, जो वीर्य पैदा करता है। आपको बता दें कि संयुक्त राज्य अमेरिका में पुरुषों के बीच प्रोस्टेट कैंसर दूसरा सबसे आम कैंसर है। यह एक ऐसी बीमारी है जिसकी संभावना उम्र बढ़ने के साथ बढ़ जाती है।
प्रोस्टेट कैंसर से बचने के लिए टमाटर और दूसरे लाल फल टमाटर, तरबूज, और अन्य लाल खाद्य पदार्थों में लाइकोपिन नामक एक शक्तिशाली एंटीऑक्सीडेंट है। अध्ययनों से पता चलता है कि जो लोग इस फल और टमाटर-आधारित उत्पादों का उपभोग करते हैं वे प्रोस्टेट कैंसर के जोखिम कम कर सकते हैं।
फलों और सब्जियों का सेवन
पोषक तत्व से समृद्ध आहार कैंसर के प्रसार को धीमा करने में भी मदद कर सकते हैं। फल और सब्जियों में शामिल पोषक तत्व और विटामिन प्रोस्टेट कैंसर होने के खतरे को कम कर सकते हैं। हरी सब्जियों में ऐसे यौगिक होते हैं, जो आपके शरीर कैंसर पैदा करने वाले पदार्थों को तोड़ने में मदद करते हैं। सब्जियों और फलों का सेवन करने वाले लोगों को प्रोसेस्ड फूड से दूरी बनाकर रखनी चाहिए।
प्रोस्टेट कैंसर के लिए आहार है सोयाबीन
आइसोफ्लेवोंस नामक पोषक तत्व प्रोस्टेट कैंसर के जोखिम कर सकता है। सोया में आइसोफ्लेवोंस होता है, जो टेस्टोस्टेरॉन के स्तर को कम कर सकता है। इसलिए प्रोस्टेट कैंसर के मरीजों को सोयाबीन का सेवन करना चाहिए। सोयाबीन में पाया जाने वाला तत्व कैंसर की बढ़ती कोशिकाओं को रोकने में सहायता करता है। इसके अलावा आप टोफू (सोयाबीन से बना), चने, मसूर की दाल, अंकुरित स्प्राउट और मूंगफली का भी सेवन कर सकते हैं। कुछ अध्ययनों से पता चला है कि जो लोग ग्रीन टी पीते हैं वह प्रोस्टेट कैंसर के जोखिम को कम कर सकते हैं।
कुछ शोध ने सोयाबीन के उपयोग पर प्रश्न चिन्ह लगाए हैं। इसके लिए अलग से जानकारी दिया जाना उचित होगा। यह वृद्धावस्था की बीमारी मानी जाती पर पर यदि हम अपनी आदतों में सुधार करले जैसे कब्ज का न होना, पेशाब अधिक समय तक न रोकना यदि इन बातों पर ध्यान के साथ अपने खाना पान में मांसाहार, अंडा, मछली शराब का उपयोग बिलकुल न करे तो बहुत अच्छा रहेगा।
नट का सेवन
अध्ययन से पता चला है जिन पुरुषों की डायट में नट शामिल थे, उनमें प्रोस्टेमट कैंसर के विकास का जोखिम बहुत कम था। नट स्वस्थ्य वसा, फाइबर और एंटीऑक्सीथडेंट विटामिन ई का बहुत अच्छा स्रोत है। यह आपके सेहत के लिए भी बहुत उपयोगी है।

ऑस्टियोपेनिया की ओर बढ़ रहे बुजुर्ग
No Imageहड्डियों के अपने आप टूटने की रहस्यमयी बीमारी’ ऑस्टियोपोरोसिस और ओस्टियोपोरोसिस की पूर्व स्थिति ऑस्टियोपेनिया से पीड़ित लोगों की तादाद तेजी से बढ़ती जा रही है। एक रिपोर्ट के अनुसार देश के है शहरी इलाके के लोगों में यह रोग अधिक है। उम्रदराज लोगों में ऑस्टियोपोरोसिस के कारण होने वाले फ्रैक्चर के मामले बढ़ते जा रहे हैं। अध्ययन के अनुसार शहरों में रहने वाले लोगों में ऑस्टियोपोरोसिस की दर ग्रामीण इलाकों से अधिक है।
38 से 68 साल के पुरुषों और महिलाओं पर किये एक अध्ययन से पता चला है कि करीब 9 प्रतिशत लोग ऑस्टियोपोरोसिस से और 60 प्रतिशत लोग ऑस्टियोपेनिया से पीड़ित हैं।
ऑस्टियोपेनिया और ऑस्टियोपोरोसिस हड्डियों की बीमारी है। ऑस्टियोपोरोसिस में हड्डियां इतनी कमजोर और खोखली हो जाती हैं कि केवल झुकने या छींकने-खांसने पर भी टूट जाती हैं। ऑस्टियोपोरोसिस के कारण होने वाले फ्रैक्चर सबसे अधिक कुल्हे कलाई या रीढ़ की हड्डी में सबसे ज्यादा होते हैं।
ऑस्टियोपोरोसिस को ‘खामोश बीमारी’ भी कहा जाता है, क्योंकि इस बीमारी में जब तक फ्रैक्चर नहीं होता है तब तक इसका पता नहीं चलता है। ऑस्टियोपोरोसिस के कारण दुनियाभर में हर साल लगभग 90 लाख फ्रैक्चर होते हैं। ओस्टियोपोरोसिस की पूर्व स्थिति को ऑस्टियोपेनिया कहा जाता है जिसमें हड्डियां कमजोर हो जाती हैं लेकिन यह ऑस्टियोपोरोसिस जितनी गंभीर नहीं होती है।
डॉक्टरों के अनुसार हड्डियों के घनत्व के कम होने के कारण हड्डियां कमजोर और भंगुर हो जाती हैं बुजुर्गों की बढ़ती आबादी के कारण भी इसके मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। इसका गंभीर सामाजिक-आर्थिक दबाव भी पड़ सकता है। बचाव के लिए कैलसियम पर्याप्त मात्र में लेने के साथ ही संतुलित आहार लें।

खांसी दूर करने अपनायें ये घरेलु उपाय
No Imageमौसम में बदलाव होते ही खांसी, जुखाम होना एक आम बात है। हां अगर खांसी 15 दिनों से ज्यादा चले तो हमें जांच अवश्य करानी चाहिये। खांसी के लिए अगर आप घरेलू उपाय करें तो भी राहत मिल जाती है।
गिलोय का रस
गिलोय का रस वात, पित और कफ , तीन दोषों को शरीर में संतुलित करने के लिए जाना जाता है, ये हमारे शरीर में रोग प्रतिरोधक शक्ति को बढ़ाता है। एलर्जी वाली खांसी के इलाज में भी ये सहायता करता है। खांसी होने पर हर सुबह पानी के साथ गिलोय के रस के 2 चम्मच लेने से रोग दूर होता है। ऐसा लगातार 15 दिनों तक करना चाहिए।
शहद
अध्ययनों में पाया गया है कि शहद खांसी को शांत करने के लिए अधिक सरल उपाय है। यह बहुत समय पहले से ही खांसी के इलाज के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। इसमें एंटी-ऑक्सीडेंट और एंटी-माइक्रोबियल गुण भी बड़ी मात्रा में होते है।
तुलसी
खांसी को दूर करने के लिए तुलसी रामबाण इलाज है, इसका उपयोग अवश्य करें। तुलसी को पानी में उबाल लें। रात को सोने से पहले इस पानी को गर्म करके और थोड़ी सी चीनी डाल कर पिएं। इससे आपको खांसी से काफी आराम मिलेगा।
जिन लोगो को तुलसी की चाय पसंद है वो लोग तुलसी के पत्ते को चाय बनाते समय साथ में उबाल ले और इस चाय का सेवन करें।
हल्दी
हल्दी गुणों का खज़ाना होती है। हल्दी में एंटी-बैक्टीरियल, एंटी-वायरल और एंटी-इंफ्लेमेटरी गुण होते है। हल्दी वायरल संक्रमण को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। एक चम्मच हल्दी को अजवाइन के साथ मिलाकर उबालकर एक गिलास पानी में डालें तत्काल राहत मिलेगी।
इस मिश्रण को तब तक उबालें जब तक पानी आधा ना रह जाए और फिर इसमें थोडा सा शहद मिला लीजिए। इस मिश्रण का दिन में तीन बार सेवन करें।
अदरक और शहद
अदरक को पीसकर उसका रस एक कटोरी में निकाल लें और उसमें एक चम्मच शहद मिला लें। इस मिश्रण का धीरे-धीरे सेवन करें।
अदरक को पानी में डालकर उबाल लीजिए, जब पानी ठंडा हो जाए तब इसे पी लीजिए। इस विधि को दिन में तीन बार करें, एक चम्मच नींबू के रस में 1 चम्मच शहद मिलाएं। इसे दिन में कई बार लें। इससे गले की खराश दूर होगी।

लीवर संबंधी बीमारी और बचाव
हमारा शरीर भी किसी मशीन से कम नहीं है। इसमें हर चीज एक-दूसरे से जुड़ी हुई और एक दूसरे के सहयोग से आगे बढ़ती और चलती है। इस दृष्टि से हमारे शरीर में लीवर का स्थान प्रमुख होता है। लीवर ही है जो विषाक्त पदार्थों को नष्ट करने की क्षमता रखता है। वर्तमान जीवन शैली विषाक्त वातावरण वाली है, इस कारण बीमारियों का सबसे पहले लीवर पर ही अटैक् होता है। शरीर पर अगर कोई खराबी आती है तो पहला असर लिवर पर ही पड़ता है और ज्यादा विषाक्त पदार्थों के कारण फैट सेल्स ज्यादा हो जाते हैं जो कि पेट के आसपास के क्षेत्र में ज्यादा होते हैं। इस प्रकार जब आपके लिवर में अतिरिक्त फैट जमा हो जाता है या जितनी लिवर को जरूरत हो उस हिसाब से 5-10 प्रतिशत ज्यादा हो जाता है, तो लिवर इफेक्ट होना संभावित हो जाता है।
लिवर की बिमारी दो प्रकार की होती हैं, इनमें पहली एल्कोहलिक है और दूसरी नॉन-एल्कोहलिक। एल्कोहलिक पूरी तरह से शराब के अत्याधिक सेवन के कारण होती है और नॉन-एल्कोहलिक कोलेस्ट्रोल लेवल्स और जेनेटिक्स के मूवमेंट्स के कारण होती है।
अब आप भी सावधान रह सकते हैं लिवर की बीमारियों से। इसके लिए इन संकेतों से आप भी जान सकते हैं कि लिवर में टॉक्सिन्स तो नहीं है। यथा-
अचानक वजन बढ़ना : जब लिवर ने अच्छी तरह से टॉक्सिन्स से छुटकारा नहीं पाया हुआ हो तो आप बॉडी को कितना भी फिट रखने के लिए कुछ भी कर लें, उससे कुछ नहीं होगा। कारण यही है कि आपके लिवर के अंदर फैट मौजूद है और साथ ही अनफिल्टर्ड टॉक्सिन्स भी। जब लिवर टॉक्सिन्स को सुचारू रूप से फिल्टर नहीं करता है तो सभी फैट जो सर्कुलेट होते हैं, वापस लौट आते हैं।
एलर्जी : एक लिवर जो ठीक से काम कर रहा है, एंटीबॉडीज को रिलीज करता है जो एलर्जी को नष्ट करता है। जब यह अच्छी स्थिति में नहीं है, तो शरीर उन एलर्जी को संचय करने की कोशिश करता है और मस्तिष्क हिस्टामाइन पैदा कर लेता है, जो फिर से एलर्जी के लक्षणों को उत्तेजित करता है जैसे खुजली, सिरदर्द आदि।
अत्यंत थकावट : टॉक्सिन्स मांसपेशियों में दर्द और थकान का कारण बन सकता है जिससे मूड स्विंग्स और डिप्रेशन को बढ़वा मिल सकता है।
अत्यधिक पसीना आना : जब लिवर अधिक काम करता है, जिस तरह से यह कार्य कम हो जाता है और लिवर बहुत गर्म हो जाता है। यह गर्मी पूरे शरीर में जाती है और आपको अत्यधिक पसीना आता हैं।
मुंहासे की उपस्थिति : लिवर की खराबी के कारण हार्मोनल असंतुलन मुंहासे पैदा कर सकता है। यदि ये मुंहासे की समस्याएं लिवर के कारण होती हैं तो उनका बाह्य रूप से इलाज नहीं किया जा सकता है और उचित लिवर ट्रीटमेंट आवश्यक है।
सांसों की बदबू : यदि आप हमेशा अपनी ओरल हाइजिन का ख्याल रखते हैं और अभी भी आपने नोटिस किया है कि आपकी सांसों में बदबू है तो यह एक लिवर की समस्या हो सकती है और इस स्थिति में मरीज को चिकित्सक को दिखाया जाना ही उचित होता है।

किडनी संबंधी रोगों से रहें सचेत और करें समय पर इलाज
किडनी अर्थात गुर्दे संबंधी रोगों के लिए यूं तो घरेलू उपचार भी हैं, लेकिन सावधानी बरतते हुए सबसे पहले चिकित्सक के पास जाकर जांच करवा लेना ही उचित होता है। इस संबंध में डॉक्टर से बात जरुर करना चाहिए खासकर उन लोगों के लिए जिसको पहले से कोई और बीमारी हो। एंटीबायोटिक, मूत्रवर्धक, रक्तचाप, कोलेस्ट्रॉल, और जिगर की दवाएं किडनी के घरेलू हर्बल उपचार के साथ प्रतिक्रिया कर सकती हैं, इसीलिए डॉक्टर से सलाह मशवरा करना सही माना जाता है। किडनी में पथरी बनने से लेकर संक्रमण होना आज के दिनों में आम बात हो गया है।लोग सोचते हैं कि हमने पथरी को सर्जरी से बाहर निकलवा दिया। हमें कभी और पथरी नहीं होगा यह सोचना एकदम गलत है। किडनी की प्रवृति होती है कि अगर एक बार उसने पथरी बनाना शुरू कर दिया तो वह बार-बार बनाते रहता है। और हम बार-बार सर्जरी नहीं करवा सकते इसलिए आपको खाने पीने में खास एहतियात बरतना होगा।
किडनी संक्रमण भी कुछ ऐसा ही होता है जब हम एंटीबायोटिक खाते हैं तो कोई दिनों के लिए हमारी परेशानी बिल्कुल खत्म हो जाती है लेकिन कुछ दिनों के बाद फिर से वह परेशानी आ जाता है। ऐसे में सावधानी बरतना जरुरी है।
पानी : पथरी बनने से रोकने का सबसे बड़ा इलाज पानी है। यह दो बातों पर निर्भर करता है पहला पानी की क्वालिटी दूसरा आप कितना पानी पीते हैं।मनुष्य जो पानी पीता है वह मिनरल वाटर होता है और मिनरल वाटर में मिनरल कितने प्रतिशत है इस पर भी निर्भर करता है किडनी का स्टोन बनना। कैल्शियम, मैग्नीशियम एवं फास्फेट का प्रतिशत पता कर लें जो पानी आप पी रहे हैं।
मनुष्य को प्रतिदिन कितना पानी पीना चाहिए ?
इसमें लोगों की राय थोड़ी अलग अलग है लेकिन मेडिकल साइंस के अनुसार से कम से कम एक इंसान को प्रतिदिन 2 लीटर यानी 8 गिलास पानी कम से कम पीना चाहिए।अगर किसी को किडनी स्टोन की शिकायत है तो जरूर उसे 2 लीटर से ज्यादा पानी पीने चाहिए।पानी पीने से किडनी साफ हो जाता है। स्टोन बनने वाला कंपाउंड वहां पर इकट्ठा नहीं हो पाता है और जिससे स्टोन बनने की शिकायत कम हो जाती है।
तुलसी : तुलसी में एसिटिक एसिड नाम का योगिक मिलता है जो किडनी में यूरिक एसिड से बने पथरी को तोड़ने में काफी मददगार होता है।
तुलसी का पत्ता प्रतिदिन उपयोग करने से किडनी के इलाज में मददगार साबित हो सकता है। तुलसी के पत्ते का पाउडर अब मार्केट में भी उपलब्ध है।
गेहूं छोटे पौधे का रस : गेहूं छोटे पौधे का रस किडनी पथरी के इलाज का रामबान माना जाता है क्योंकि इसमें एंटी ऑक्सीडेंट की मात्रा बहुत ज्यादा होता है उसके साथ ऐसे और भी कंपाउंड होते हैं जो मूत्र की मात्रा को बढ़ा देता है। मूत्र की मात्रा बढ़ने से मूत्र मार्ग साफ हो जाता है जिससे पत्थर इकट्ठा नहीं हो पाता है।
गेहूं छोटे पौधे का रस बनाने के लिए पहले आपको गेहूं को पानी में भीगने होंगे, फिर उसे अंकुरित करना होगा। जब गेहूं का अंकुर बड़ा हो जाए तो उसका रस बनाकर पानी के साथ पीना चाहिए।
यूर्वा उर्सी से किडनी का इलाज का आसान तरीका
यूर्वा उर्सी एक जड़ी है जो विसर्जक और विलायक गुणों भरा होता है।मूत्र मार्ग के रास्ते को साफ करता है एवं मूत्र मार्ग में फंसे पत्थर को भी बाहर निकाल देता है !
यूर्वा उर्सी थोड़ी-थोड़ी मात्रा दिन में तीन बार लिया जा सकता है जो सबसे ज्यादा किडनी पथरी के इलाज के लिए अब तक अच्छा माना गया है। इस तरह का उत्पाद बाजार में भी मिलता है !
नींबू का रस : नींबू में साइट्रिक एसिड होता है, जो कैल्शियम के यौगिक को किडनी में बनने से रोकता है उसके साथ बने यौगिक को तोड़ने में भी मदद करता है।अध्ययन से यह पता चला है कि अगर कोई नींबू का रस सुबह-सुबह खाली पेट पानी के साथ मिलाकर पीता है तो वह ज्यादा लाभकारी साबित हो होता है। मार्केट में नींबू फ्लेवर वाला बहुत सारे रस उपलब्ध है लेकिन उसको पीने से कम फायदे की उम्मीद है क्योंकि उसमें साइट्रेट का प्रतिशत कम होता है जबकि अन्य फ्लेवर ज्यादा होते हैं। ताजा नींबू के रस को ज्यादा बेहतर माना जाता है किडनी के इलाज के लिए !
सेब साइडर सिरका : नींबू की तरह सेब साइडर सिरका में साइट्रिक एसिड होता है जो कैल्शियम के यौगिक को किडनी में बनने से रोकता है उसके साथ बने यौगिक को तोड़ने में भी मदद करता है।
दो चम्मच सेब साइडर सिरका पानी के साथ मिलाकर खाली पेट पीने से ज्यादा फायदा हो सकता है !
अजवाइन रस या बीज : गेहूं छोटे पौध की तरह अजवाइन रस या बीज एंटीऑक्सिडेंट्स है किडनी स्टोन के उपचार के लिए बेहद फायदेमंद है !
अजवाइन का रस बनाने के लिए एक या दो अजवाइन डंठल को पानी से मिश्रित किया जा सकता है। रोज़ एक गिलास पीना चाहिए।
राजमा – पानी : राजमा में मैग्नीशियम की मात्रा प्रचुर होता है जो किडनी के पथरी के लिए लाभकारी है। राजमा – पानी बनाने की विधि – राजमे बीज का छिलका निकाल कर इसे पानी में धीरे-धीरे गर्म किया जाता है, 5 से 6 घंटे के बाद इस पानी को पीने में उपयोग किया जा सकता है। एक दिन में एक से दो बार किया जा सकता है !
जैतून का तेल : जैतून का तेल में ज्यादा चिकनाई वाला केमिकल होता है जो मूत्र मार्ग में ज्यादा फिसलन पैदा कर पाता है जिससे फंसे हुए पत्थर को बाहर निकालने में मददगार साबित हो सकता है!
जैतून का तेल पानी में मिलाकर सुबह खाली पेट लेना ज्यादा अच्छा माना जाता है, उसके साथ खाना भी इसके साथ पकाकर खाने में लाभकारी सिद्ध होता है !
अनार का रस : अनार के जूस में एस्टेरीजेंट र एंटीऑक्सिडेंट होता है जो किडनी में पथरी बनने से रोकता है और उनके साथ पेशाब को ज्यादा एसिडिटी भी नहीं होने देता है। पेशाब में जलन कम करने में काफी मददगार साबित होता है !
अनार का बीज या उसका जूस बनाकर सेवन किया जा सकता है दिन में एक बार से ज्यादा बार भी लिया जा सकता है !
क्या ना खाएं – किडनी की पथरी से बचने के लिए
डिहाइडिंग फूड एवं चीनी, नमक, और अल्कोहल गुर्दे की पथरी बनने में मदद करता है। ऑक्सलेट योगिक पाए जाने वाले चीजों को खाने से भी किडनी में पथरी बनता है। अगर आपका पथरी सर्जरी के द्वारा या खुद पेशाब के रास्ते से बाहर निकल आया है तो ऐसे में उसे फेंकिए मत। आज के समय में पथरी का टेस्ट करवाने से यह पता चल जाता है कि क्या खाने से यह पथरी किडनी में बना था और उस खाने को आप अपने डाइट चार्ट से हटा सकते हैं या कम कर सकते हैं। अगर आप किडनी स्टोन से बचना चाहते हैं तो रेड मीट, आलू के चिप्स, पालक, बादाम, ओकरा और टमाटर के बीज खाने से परहेज ही करें।

बार-बार पेशाब आएं तो हो जाएं सावधान
अनेक लोग ऐसे होते हैं, जिन्हें बार-बार पेशाब आती है। वैसे यह स्थिति ज्यादा पानी पीने से हो सकती है, लेकिन बराबर यदि पेशाब आए तो फिर किसी बीमारी के लक्षण की ओर भी यह संकेत हो सकता है। इसलिए इस संबंध में सावधान रहकर उचित जांच भी करानी चाहिये। इसकी अनदेखी करने से कई बार विपरीत हालात का शिकार भी हो जाते हैं।
पेशाब के बार-बार आने का कारण : बार-बार पेशाब आने का सबसे बड़ा कारण हो सकता है मूत्राशय की अत्यधिक सक्रियता। ऐसी स्थिति में सामान्य रूप से व्यक्ति बार-बार पेशाब करने के लिए प्रेरित होता है।
मधुमेह : यदि कोई व्यक्ति मधुमेह रोग से ग्रस्त है तो उसे भी बार-बार पेशाब आ सकती है। मधुमेह भी बार-बार पेशाब आने का एक प्रमुख कारण होता है। रक्त व शरीर में शुगर की मात्रा बढ़ने पर यह समस्या बढ़ जाती है।
यूनिनल ट्रैक्ट इंफेक्शन : अगर आपको यूरीनल ट्रैक्ट इंफेक्शन है, तो आपको इस समस्या का सामना करना पड़ सकता है। इस स्थिति में बार-बार पेशाब आने के साथ ही पेशाब में जलन भी होती है।
प्रोटेस्ट ग्रंथि के बढ़ने पर भी यह समस्या पैदा हो सकती है।
किडनी संक्रमण : किडनी में संक्रमण होने पर भी बार-बार पेशाब आना बेहद आम बात है, इसलिए अगर आपको यह परेशानी है, तो इसकी जांच जरूर कराएं।
पेशाब संबंधी रोग के उपाय : भरपूर मात्रा में पानी पिएं ताकि किसी प्रकार का संक्रमण हो, तो वह पेशाब के माध्यम से निकल जाए और बाद में आपको इस तरह की परेशान न झेलनी पड़े। इसके अलावा दही, पालक, तिल, अलसी, मेथी की सब्जी आदि का रोजाना सेवन करना इस समस्या में फायदेमंद साबित होगा। सूखे आंवले को पीसकर इसका चूर्ण बना लें और इसमें गुड़ मिलाकर खाएं। इससे बार-बार पेशाब आने की समस्या में लाभ होगा। विटामिन सी से भरपूर चीजों का सेवन करें।अनार के छिलकों को सुखा लें और इसे पीसकर चूर्ण बना लें। अब सुबह-शाम इस चूर्ण का सेवन पानी के साथ करें। वैसे आप चाहें तो इसका पेस्ट बनाकर भी सेवन कर सकते हैं। मसूर की दाल, अंकुरित अनाज, गाजर का जूस एवं अंगूर का सेवन भी इस समस्या के लिए एक कारगर उपाय है।

घरेलू उपचार से ठीक करें सफेद दाग
कई बार त्वचा पर सफेद दाग निकल आते हैं जिससे आप निराशा का अनुभव करती हैं। इन्हें ठीक करने इलाज के साथ ही आप कुछ घरेलू उपाय भी कर सकती हैं। ये उपचार ऐसे है जो आपकी त्वचा को नुकसान भी नहीं पहुंचाएंगे और आपकी समस्या को भी दूर करेंगे।
एलोवेरा
एलोवेरा में कुछ ऐसे प्रोटीयोलाइटिक एंजाइम होते हैं, जो स्कैल्प पर मृत त्वचा कोशिकाओं की मरम्मत करते हैं। यह एक महान कंडीशनर के रूप में भी कार्य करता है और आपके बाल को चिकना और चमकदार बनाता है। यह हेयर ग्रोथ को बढ़ावा देता है, स्कैल्प पर खुजली को रोकता है और रूसी को कम करता है।
बालों के अलावा यह त्वचा के लिए भी बहुत फायदेमंद है। इसमें मौजूद पोषक तत्व आपके सफेद दाग को दूर करने में आपकी मदद करेंगे और आपकी त्वचा को हाइड्रेटेड रखने में मदद करेंगे। इसके लिए आप एलोवेरा जेल को दाग वाले स्थान पर लगाइए आपको जरूर फायदा मिलेगा।
चेहरे पर सफेद धब्बे के लिए हल्दी
हल्दी अपने शक्तिशाली औषधीय गुणों के लिए मशहूर है। आयुर्वेद के साथ-साथ इसका घरेलू उपायों में बहुत ही उपयोग में लाया जाता है। इसमें पाया जाने वाला करक्यूमिन एक प्राकृतिक एंटी-इन्फ़्लोमेन्टरी कम्पाउंड है, जो सूजन कम करने और चोटों को ठीक करने में मदद करता है। इसके अलावा हल्दी के सेवन से शरीर की एंटीऑक्सीडेंट क्षमता भी बढ़ जाती है।
यदि आप चेहरे पर सफेद धब्बे या दाग से परेशान हैं, तो आप हल्दी का प्रयोग कीजिए बहुत ही फायदा मिलेगा। हल्दी के उपयोग से चेहरे के सफेद दाग बहुत आसानी से दूर हो जाते हैं। साथ ही इसमें मौजूद एंटी-बैक्टीरियल गुण आपको इंफेक्शन से बचाता है। हल्दी को सरसों के तेल के साथ मिलाकर धब्बों पर लगाने से ज्यादा फायदा मिलता है।
शहद लगायें
शहर के फायदों को हर कोई जानता है। इसका इस्तेमाल कई रोगों में रामबाण उपचार के तौर भी किया जाता है। अगर हम शहद के फायदों की बात करें तो यह न केवल घावों को भरने का काम करता है बल्कि त्वचा की स्थिति ठीक करने और ऊर्जा बढ़ाने का भी काम करता है। यह पोषक तत्वों, एंटीफंगल एंटीऑक्सीडेंट और एंटी-बैक्टीरियल गुणों में समृद्ध है।
शहद बहुत जल्दी त्वचा में अवशोषित हो जाता है। शहद को त्वचा के धब्बों पर लगाने से लाभ होगा लेकिन अगर आप इसे चंदन पाउडर, हल्दी, राइस पाउडर के साथ मिलाकर लगाते हैं तो ये और भी उपयोगी साबित होगा।
सफेद दाग का घरेलू उपचार है सेब का सिरका
स्वास्थ्य और त्वचा के लिहाज से सेब के सिरके के बहुत ही फायदे हैं। यह न केवल वजन को घटाने में मदद करता है बल्कि ब्लड शुगर के स्तर को कम करने में सहायता करता है। सेब के सिरका में मुख्य घटक एसिटिक एसिड, रक्तचाप के स्तर को कम करने और हृदय स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में मदद के लिए दिखाया गया है।
कई बार सफेद दाग बैक्टीरिया या फंगस के संक्रमण के कारण भी हो जाते हैं। इसके लिए आप पानी और सेब के सिरके को दो-एक के अनुपात में मिला लें। इसे कुछ-कुछ देर में दाग पर लगाते रहिए। ऐसा करने से दाग जल्दी साफ हो जाएंगे।
पत्तागोभी का रस भी है फायदेमंद
गोभी विटामिन और खनिजों का पावरहाउस है। विटामिन बी 6, मैंगनीज़, फोलेट, विटामिन बी 2 और विटामिन बी1, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम और विटामिन ए बहुतायत से पत्तागोभी में पाए जाते हैं। गोभी के स्वास्थ्य लाभ में हृदय रोग के जोखिम को कम करना शामिल है।
पत्तागोभी के रस को सफेद दाग पर लगाने से बहुत फायदा होता है।
आप चाहें तो पत्तागोभी को पीसकर उसके रस का उपयोग कर सकते हैं या फिर उसे 12 मिनट तक उबालकर उसके पानी को प्रयोग में ला सकते हैं।
त्वचा पर हल्के सफेद दाग को हटाए अदरक
कई औषधीय गुणों से भरपूर अदरक के बहुत ही स्वास्थ्य लाभ है। आयुर्वेद में इसका बहुत ही महत्व है। यह न केवल भूख की समस्या को दूर करता है बल्कि कई बीमारियों में दर्द से भी राहत देता है। अदरक के पौधे की जड़ का उपयोग ताजा, पाउडर, मसाला के रूप में सूखे, तेल के रूप में या रस के रूप में किया जा सकता है।
नियमित रूप से अदरक का इस्तेमाल करने से ब्लड सर्कुलेशन बढ़ता है। अदरक त्वचा संबंधी कई रोगों में कारगर है। आप चाहे तो अदरक का एक छोटा टुकड़ा काट लें और उसे पीसकर रस निकाल लें। इस रस को लाल मिट्टी के साथ मिलाकर लगाने से बहुत लाभ होगा।

घुटनों में सूजन को ठीक करने घरेलू उपाय करें
घुटने के दर्द में व्यक्ति का चलना फिरना कठिन हो जाता है। इसे ठीक करने के लिए व्यायाम के साथ ही कुछ घरेलू उपाय भी करने चाहिये। घुटने के दर्द और सूजन में गठिया, जोड़ों का दर्द, घुटने की चोट, टेंडिनाइटिस या कार्टिलेज टीयर जैसे रोग शामिल है। घूटने में सूजन के इलाज के बारे में जानते हैं।
आइस पैक इस्तेमाल करें
घुटने में सूजन को कम करने के लिए आइस थेरिपी एक प्रभावी उपाय है। आइस प्रभावित घुटनों में रक्त वाहिकाओं को कसता है और तरल पदार्थ को लीक होने से रोकता है। डॉक्टर 20 मिनट के लिए घुटने पर आइस पैक लगाने की सलाह देते हैं। इसके अलावा, 20 मिनट से अधिक समय के लिए घुटने पर बर्फ नहीं छोड़ा जाना चाहिए क्योंकि बर्फ में नस और त्वचा को नुकसान पहुंचा सकता है, जो घुटने के चारों ओर है।
मछली का तेल रहेगा लाभप्रद
कई अध्ययनों से पता चला है कि मछली और मछली के तेल जोड़ों में दर्द और रयूमेटाइड आर्थराइटिस की कठोरता को कम करता है। अध्ययन से पता चलता है कि मछली में पाए जाने वाले ओमेगा-3 फैटी एसिड न केवल उन रसायनों को अवरुद्ध कर सकते हैं जो पुराने ऑस्टियोआर्थराइटिस में सूजन का कारण बन सकते हैं, बल्कि आपके कार्टिलेज के लिए भी सही रहते हैं।
विटामिन सी वाले फल
घुटने के सबसे अच्छे फलों में विटामिन सी वाले फल शामिल हैं, जैसे किवी, नारंगी, आम, अंगूर और पपीता। शोधकर्ताओं का मानना है कि इन फलों में विटामिन सी होता है, जो घुटने के संयुक्त और सहायक ढांचे को बचाता है।
घुटने पुरे शरीर का भार झेलते है, इसलिए नियमित व्यायाम कर घुटनों को मजबूत बनाना जरूरी है। रोजाना व्यायाम कुछ लोगों में घुटने के दर्द को कम करता है। गठिया से ग्रस्त लोगों के लिए, पैर को स्थिर रखने या दर्द से बचने के लिए व्यायाम आवश्यक है। इसके अलावा अधिक वजन होने से समस्या भी बढ़ सकती है, इसलिए वजन प्रबंधन महत्वपूर्ण है।
अदरक का करें उपयोग
अदरक कई रूपों में उपलब्ध है। अदरक दुनिया भर में सबसे प्राचीन मसालों में से एक है। इस मसाले का उपयोग कई व्यंजनों में उपयोग किया जाता है। अगर इसके स्वास्थ्य लाभ की बात की जाए तो हड्डी के स्वास्थ्य को बढ़ावा देने, इम्यून सिस्टम या प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत करने, भूख बढ़ाने, विभिन्न प्रकार के कैंसर को रोकने, श्वसन की स्थिति में सुधार करने, पाचन में सहायता करने, गठिया के लक्षणों को खत्म करने की क्षमता इसमें शामिल है। अध्ययन में पाया गया कि अदरक घूटने के दर्द को कम करने में मदद करता है।
इस बात का ध्यान दीजिए कि कोई भी घरेलू उपाय अपनाने से पहले चाहे वह डायट्री सप्लीमेंट हो या फिर वैकल्पिक थेरिपी अपने डॉक्टर से जरूर राय लें।
इन पदार्थ का सेवन कम करें
चीनी
घुटनों में सूजन को कम करने के लिए चीनी के सेवन की मात्रा घटानी चाहिए। वास्तव में यह आपकी प्रतिरोधी क्षमता को कमजोर बनाती है जिससे बीमारियों से लड़ने की क्षमता भी घटती है। चीनी के कारण शरीर में सूजन भी बढ़ता है, इसलिए इसका कम सेवन करना ही समझदारी है। पेस्ट्री, चॉकलेट बार, सोडा, यहां तक कि फलों के रस जिसमें चीनी होता है उसका सेवन बिलकुल ही बंद कर देना चाहिए।
कई अध्ययनों से पता चला है कि सेचुरेटेड फैट शरीर में सूजन को बढ़ाता है, जो न केवल हृदय रोग के लिए नुकसानदेह है बल्कि गठिया के सूजन को भी बदतर बना सकता है। ऐसे में वासायुक्त पदार्थों का सेवन न करें। इसके अलावा ट्रांस फैट जैसे फास्ट फूड और अन्य तली हुई उत्पादों, प्रोसेस्ड स्नैक फूड, फ्रोजन ब्रेकफास्ट प्रोडक्ट, कुकीज, डोनट्स और क्रैकर आदि आहारों का सेवन भी कम कर देना चाहिए।

गठिया कर सकता है विकलांग
जोड़ों के दर्द की बिमारी को गठिया कहते हैं, इसमें जोड़ों में सूजन आ जाती है और उठना बैठना तक कठिन हो जाता है। यह बिमारी आम तौर पर बड़ी उम्र में होती है। यह 55 वर्ष से अधिक को उम्र वाले लोगों में अशक्‍तता (विकलांगता) का मुख्‍य कारण है। गठिया रोग भिन्‍न-भिन्‍न किस्‍म का होता है जो कई तरह की तकलीफ देता है। इसके इलाज के विकल्‍पों में शारीरिक उपचार, रोगग्रस्‍त अंग का उपचार और चिकित्‍सा तथा प्रक्रियाएं जैसे कि ऑर्थोप्‍लास्‍टी अथवा जोड़ प्रतिस्‍थापन शल्‍य चिकित्‍सा, शामिल हैं। रोगी अच्‍छा महसूस करे इसके लिए संतुलित आहार, शरीर की सफाई, शारीरिक गतिविधि, पसीना लाना और विश्राम करना जैसे तकनीकों का प्रयोग किया जा सकता हैं।
वहीं आस्टियोपोरोसिस (अस्थिभंजन) एक लक्षणहीन बीमारी है जिसमें हड्डियां बिल्‍कुल भंग हो जाती हैं। यदि इसका इलाज न किया जाए तो यह बिना दर्द तब तक बढ़ती चली जाती है जब तक कि हड्डियां टूट न जाएं। हड्डियों का यह भंजन जो अस्थिभंग के (फ्रेक्‍चर) के नाम से भी जाना जाता है, विशेष रूप से कूल्‍हे, रीढ़ की हड्डी और कलाई में होता है। इसमें बहुत दर्द होता है और ठीक होने में काफी समय लग जाता है। इसका मुख्य कारण शरीर में कैल्शियम और विटामिन डी की कमी है।
निवारक उपाय
कैल्शियम और विटामिन डी का निर्धारित मात्रा में प्रतिदिन सेवन करें।
भार वाली कसरत नियमित रूप से करें।
धूम्रपान और अल्‍कोहल के अधिक सेवन से बचें।
अपनी हड्डियों की स्थिति का पता लगाने के लिए हड्डियों के घनत्‍व की जांच कराएं।

एचआईबी का आसान इलाज मिला
No Imageअगर आप समझते हैं कि एचआईवी असाध्य है तो आप गलत हैं। दरअसल अब शोधकर्ताओं ने एचआईवी का आसान इलाज खोज लिया है। इलाज से 99फीसद तक एचआईवी वायरस को खत्म कर सकता है। यू.एस. नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ हेल्थ और फार्मास्युटिकल फर्म सनोफी के शोधकर्ताओं ने ये दावा किया कि उन्होंने एक ऐसा एंटीबॉडी तैयार किया है जो ना सिर्फ 99फीसद एचआईवी वायरस पर वार करता है बल्कि ये प्राइमेट्स में इंफेक्शन को रोकने का काम भी करता है।ये एंटीडोट घातक वायरस के तीन हिस्सों पर वार करता है जिससे इस वायरस का प्रभाव अधिक से अधिक कम हो सके।
इंटरनेशनल एड्स सोसाइटी (आईएएस) ने इस एंटीडोट, जिसे ‘इंजीनियर एंटीडोट’ के नाम से जाना जाता है, को एचआईवी का प्रभावी इलाज माना जा रहा है। सनोफी के चीफ डॉ. गैरी नेबेल का कहना है कि किसी भी अन्य एंटीडोट चाहे वे खोजे गए हैं या नैचुरल हैं उनके मुकाबले ये बहुत ही शक्तिशाली और उपयोगी है। हमने रिसर्च के दौरान देखा है कि ये 99फीसद तक सही रूप से काम कर रहा है। वैज्ञानिकों ने एंटीबॉडीज को खत्म करने के लिए पहली बार इसका इलाज इस तरह से करने का प्रयास किया है। इंसान पर इसके प्रयोग की संभावना अगले साल तक शुरू होगी ताकि यह पता लगाया जा सके कि इंसान के शरीर में एचआईवी संक्रमण को रोकने या उसके इलाज में इसका क्या योगदान हो सकता है। अब एचआईवी का इलाज भी उपलब्ध कराने की दिशा में काम तेज हो चला है।

कमजोर हड्डियों का राज खोलता शोध
अभी तक समझा जाता रहा है कि हड्डियां उम्र के कारण कमजोर होती हैं, लेकिन एक नवीन शोध से पता चला है कि हड्डियों की कमजोरी का कारण कुछ और ही है। शोधकर्ताओं ने एक ऐसी प्रणाली की पहचान की है जो बताता है कि बुजुर्गो की हड्डियों में कमजोरी क्यों आ जाती है। साथ ही शोधकर्ताओं ने ऐसा तरीका खोज निकाला है, जिसके जरिए बढ़ती उम्र के साथ हड्डियां कमजोर होने के इलाज में काम आ सकता है। शोधकर्ताओं ने पाया कि ऑस्टियोपोरोसिस यानी हड्डी के पतलेपन और डेंसिटी में कमी के कारण हड्डी टूटने का खतरा बढ़ जाता है। यह बुजुर्गो की एक प्रमुख स्वास्थ्य समस्या है। अक्सर ये हालात बोन मैरो में फैट सेल्सर की वृद्धि के साथ पैदा होते हैं। बर्मिघम के अलबामा विश्वविद्यालय के प्रोफेसर यू-पिंग ली के एक अध्ययन में सामने आया है कि सीबीएफ-बीटा नामक एक प्रोटीन हड्डियों के बनने में मददगार कोशिकाओं को शरीर में बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
एक परीक्षण में पाया गया कि युवाओं की तुलना में वृद्ध लोगों की बोन मैरो सेल्स में सीबीएफ-बीटा का स्तर कम पाया गया। इस निष्कर्ष से पता चलता है कि इस प्रणाली में खराबी आने पर, कोशिकाएं हड्डियों को बनाने में मदद करना बंद कर देती हैं और फैट सेल्स को बनाने में मदद करती हैं। ली ने कहा कि सीबीएफ-बीटा नाम के प्रोटीन को बनाए रखना ह्यूमन लाइफ रिलेटिड ऑस्टियोपोरोसिस को रोकने में मदद कर सकता है। शोधकर्ताओं के अनुसार इस प्रणाली की जानकारी होने से कम से कम साइड इफेक्ट के साथ ह्यूमन बोन मेरो का इलाज किया जा सकता है।

जबड़े में तकलीफ का कारण कहीं माइग्रेन तो नहीं
No Imageजिन लोगों को जबड़े की गंभीर बीमारी होने की आशंका है उन्हें माइग्रेन की भी जांच करानी चाहिए। दरअसल बताया जाता है कि माइग्रेन वाले को जबड़े की बीमारी होने की आशंका तीन गुना तक बढ़ जाती है। इस आशय की बात एक शोध में सामने आई है। शोधकर्ताओं ने कहा कि शोध के निष्कर्षो से पता चला है कि टेम्पोरोमैंडिबुलर डिसऑर्डर (टीएमडी) सीधे तौर पर माइग्रेन पैदा न कर जबड़े के जोड़ों को प्रभावित करता है हालांकि टीएमडी, माइग्रेन के एक हमले की तीव्रता को बढ़ा सकता है। ब्राजील के साओ पाउलो विश्वविद्यालय में शोधकर्ता और प्रमुख शोध लेखक लीडियान फ्लोरेंसियो का कहना है कि माइग्रेन बहुत से कारणों के साथ एक न्यूरोलॉजिकल डिजीज़ है, जबकि टीएमडी, गर्दन का दर्द और ब्रेन सेल संबंधी अन्य विकार माइग्रेन से ग्रस्त मरीजों की सेंसेविटी और रोग को बढ़ाता है। टेम्पोरोमैंडिबुलर जोड़ जबड़े को स्कल की हड्डी से जोड़ते हुए कब्जे के समान कार्य करता है, इसलिए चबाने और जोड़ों के तनाव में कठिनाई विकार के लक्षण में शामिल हैं। उन्होंने कहा कि माइग्रेन के हमले बार-बार होने से दर्द बढ़ सकता है।
अध्ययन के लिए टीम ने 30 साल के आसपास उम्र की महिलाओं पर गौर किया, जिनका किसी तरह का कोई पुराना माइग्रेन या एपिसोडिक माइग्रेन या माइग्रेन का इतिहास नहीं था जिन्हें माइग्रेन की शिकायत नहीं थी, उनमें 54 प्रतिशत टीएमडी के लक्षण पाए गए, जबकि हाल ही में माइग्रेन की शिकार हुई महिलाओं के साथ 80 प्रतिशत और पुराने माइग्रेन वाली महिलाओं में इसके 100 प्रतिशत लक्षण पाए गए। शोधकर्ताओं ने कहा है कि माइग्रेन से पीड़ित लोगों में टीएमडी होने की प्रबल संभावना रहती है, जबकि टीएमडी ग्रस्त लोगों में जरूरी नहीं कि उन्हें माइग्रेन हो।

पर्दे की सूजन से जा सकती है आंखों की रौशनी
आंखों के पर्दे की सूजन को मैक्युलर इडिमा कहते हैं। इसमें रेटिना के केंद्र वाले भाग, जिसे मैक्युला कहा जाता है, में फ्लुएड यानी तरल का जमाव हो जाता है। रेटिना हमारी आंखों का सबसे महत्वपूर्ण भाग होता है, जो कोशिकाओं की एक संवेदनशील परत होती है। मैक्युला रेटिना का वह भाग होता है, जो हमें दूर की वस्तुओं और रंगों को देखने में सहायता करता है। जब रेटिना में तरल पदार्थ अधिक हो जाता है और रेटिना में सूजन आ जाती है तो मैक्युलर इडिमा की समस्या हो जाती है। अगर मैक्युलर इडिमा का उपचार न कराया जाए तो दृष्टि संबंधी गंभीर समस्याएं हो सकती हैं या आंखों की रोशनी भी जा सकती है।
क्या हैं लक्षण
शुरुआत में मैक्युलर इडिमा के कोई लक्षण दिखाई नहीं देते हैं, न ही इसके कारण आंखों में दर्द होता है। जब सूजन बढ़ जाती है और रक्त नलिकाओं में ब्लॉकेज होने लगती है, तब चीजें धुंधली दिखाई देने लगती हैं। सूजन जितनी व्यापक, मोटी और गंभीर होगी, उतना ही अधिक धुंधला और अस्पष्ट दिखाई देगा। अगर ऐसे लक्ष्ण दिखायी दें तो तत्काल डॉक्टर से संपर्क करें।
आंखों के आगे अंधेरा छा जाना।
चीजें हिलती हुई दिखाई देना।
पढ़ने में कठिनाई होना।
चीजों के वास्तविक रंग न दिखाई देना।
दृष्टि विकृत हो जाना। सीधी रेखाएं,टेढ़ी दिखाई देना।
आंखों के पर्दे का तेज रोशनी के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हो जाना।
अधिकतर में यह समस्या केवल एक आंख में होती है, इसलिए लक्षण गंभीर होने पर ही इनका पता लग पाता है। वैसे जिन्हें एक आंख में यह समस्या होती है, उनमें दूसरी आंख में इसके होने की आशंका 50 प्रतिशत तक बढ़ जाती है।
इस रोग के कारण
रक्त वाहिनियों से संबंधित रोग (नसों में अवरोध या रुकावट)।
उम्र का बढ़ना (एज रिलेटेड मैक्युलर डिजनरेशन)।
वंशानुगत रोग (रेटिनाइटिस पिगमेंटोसा)।
आंख में ट्यूमर हो जाना।
रेडिएशन के कारण रेटिना की महीन शिराओं में अवरोध।
आंख में गंभीर चोट लग जाना।
आंखों की सर्जरी, जैसे मोतियाबिंद, ग्लुकोमा या रेटिना संबंधी मामलों में हुई सर्जरी।
कैसे होती है जांच
विजुअल एक्युटी टेस्ट : मैक्युलर इडिमा के कारण दृष्टि को पहुंची क्षति को जांचने के लिए यह टेस्ट किया जाता है।
ऑप्टिकल कोहेरेंस टोमोग्रॉफी : ऑप्टिकल कोहेरेंस टोमोग्रॉफी में विशेष रोशनियों और कैमरे का इस्तेमाल कर रेटिना की मोटाई मापी जाती है। यह जांच मैक्युला की सूजन को निर्धारित करने में भी उपयोगी है।
एम्सलर ग्रिड : एम्सलर ग्रिड दृष्टि में हुए मामूली बदलावों की भी पहचान कर सकता है। इसके द्वारा सेंट्रल विजन को मापा जाता है।
डाइलेटेड आई एक्जाम : इसमें पूरे रेटिना की जांच की जाती है। इसमें लीकेज करने वाली रक्त नलिकाओं या सिस्ट का भी पता लगाया जाता है। फ्लोरेसीन एंजियोग्राम : फ्लोरेसीन एंजियोग्राम में रेटिना की फोटो ली जाती है। यह टेस्ट नेत्र रोग विशेषज्ञ को रेटिना को पहुंचे नुकसान को पहचानने में सहायता करता है।
क्या हैं उपचार
एक बार जब यह समस्या हो जाए तो इसके कारणों का उपचार करना भी जरूरी है। इसमें मैक्युला और उसके आसपास असामान्य रक्त वाहिकाओं से तरल के अत्यधिक रिसाव को ठीक किया जाता है। मैक्युलर इडिमा के उपचार में दवाएं, लेजर और सर्जरी प्रभावी होते हैं, पर इंट्राविट्रियल इंजेक्शन (आईवीआई) सबसे प्रचलित है। यदि मैक्युलर इडिमा एक ही जगह पर है तो फोकल लेजर किया जा सकता है।
आई ड्रॉप्स : एंटी-इनफ्लेमेटरी ड्रॉप्स द्वारा रेटिना की मामूली सूजन को कम किया जा सकता है। आंखों की सर्जरी के पश्चात डॉक्टर द्वारा सुझाई आई ड्रॉप्स नियत समय पर डालने से भी मैक्युलर इडिमा की आशंका कम हो जाती है।
फोकल लेजर ट्रीटमेंट : इसके द्वारा मैक्युला की सूजन कम करने का प्रयास किया जाता है। लेजर सर्जरी में कई सूक्ष्म लेजर पल्सेस मैक्युला के आसपास उन क्षेत्रों में डाली जाती हैं, जहां से तरल का रिसाव हो रहा है। इस उपचार के द्वारा इन रक्त नलिकाओं को सील करने का प्रयास किया जाता है। अधिकतर मामलों में फोकल लेजर ट्रीटमेंट के पश्चात दृष्टि में सुधार आ जाता है।
विटरेक्टोमी : मैक्युलर इडिमा के उपचार के लिए की जाने वाली सर्जरी को विटरेक्टोमी कहते हैं। इसके द्वारा मैक्युला पर जमे हुए फ्लूइड को निकाल लिया जाता है। इससे लक्षणों में आराम मिलता है। आईवीआई : आईवीआई डे केयर प्रक्रिया है, जो टॉपिकल एनेस्थीसिया की मदद से की जाती है, जिसमें दवा की बहुत थोड़ी मात्रा को छोटी सुई के द्वारा आंखों के अंदर डाला जा सकता है। इंजेक्शन लगाने में सामान्यता कोई दर्द नहीं होता है। आईवीआई को एक प्रशिक्षित रेटिना विशेषज्ञ के द्वारा कराना चाहिए, जो उपचार को प्रभावी तरीके से कर सके और संभावित जटिलताओं को कम कर सके। अगर मैक्युलर इडिमा का कारण ग्लुकोमा या मोतियाबिंद है तो इनका उपचार भी जरूरी है।
रोकथाम को जानें
मैक्युलर इडिमा के मामले बढ़ने का सबसे बड़ा कारण है असंतुलित जीवनशैली। इसके कारण डायबिटीज और उच्च रक्तदाब के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। इन्हें नियंत्रित करके काफी हद तक इन बीमारियों से बचा जा सकता है।
धूम्रपान न करें, क्योंकि इससे मैक्युला क्षतिग्रस्त होता है।
रोजाना कम से कम 30 मिनट व्यायाम जरूर करें।
नियमित रूप से आंखों का व्यायाम करें।
आंखों को चोट आदि लगने से बचाएं।
संतुलित और पोषक भोजन का सेवन करें, जो विटामिन ए और एंटी-ऑक्सीडेंट्स से भरपूर हो।

‘मंकी फीवर’ है जानलेवा
देश के कुछ हिस्सों में मंकी फीवर के मामले सामने आये हैं। इससे अब तक तकरीबन 19 लोगों की मौत हो गयी है। मंकी फीवर को क्यासनुर फॉरेस्ट डिजिज (केएफडी) भी कहा जाता है जो धीरे-धीरे फैलता है। 2016 में पहली बार पुष्टि के बाद से भारत में अब तक 322 लोग इसकी चपेट में आ चुके हैं। इनमें से 19 लोगों की मौत हो चुकी है। इसे क्यासनुर फॉरेस्ट डिजिज (केएफडी) भी कहा जाता है जो धीरे-धीरे फैलता है। मंकी फीवर के पीड़ित अक्सर तेज़ बुखार या फिर ब्लीडिंग होने की शिकायत करते हैं। इसके चलते शरीर में कंपकंपी, मानसिक अशांति का अहसास होता है। यही नहीं अनदेखी पर मौत भी हो सकती है। बीमारी घातक रूप पांचवें दिन के बाद लेना शुरू करती है। जब कंपकंपी जैसे दूसरे लक्षण दिखने शुरू होते हैं।
महाराष्ट्र के सिंधुदुर्ग जिले में स्वास्थ्य अधिकारियों ने बताया कि स्थिति नियंत्रण में है और मामलों में लगातार गिरावट आ रही है।
पिछले हफ्ते जारी एक रिपोर्ट के अनुसार सिंधुदुर्ग जिले के अंदर 332 मामलों की पुष्टि हुई है, जिनमें से 19 मामले घातक थे।
एक गांव में सबसे पहले यह मामला सामने आया, जहां की आबादी करीब आठ लाख पचास हज़ार है लेकिन, उसके बाद ये बीमारी तेज़ी से दूसरे गांवों में भी फैलने लगी। इस डर से कि इस बीमारी का संक्रमण कई और लोगों न फैले अधिकारियों ने गांव के लोगों को इस बीमारी के खिलाफ टीके लगवाये। इसके साथ ही, इसके संक्रमण के शिकार होने की आशंका वाले लोगों के लिए किट बांटे गए।
पहली बार कब चला पता
मंकी फीवर यानि केएफडी की पहचान पहली बार साल 1957 में की गई थी। सेंटर्स फॉर डिजिज कंट्रोल एंड प्रीवेंसन (सीडीसी) के मुताबिक, हर साल दुनिया भर में यह बीमारी करीब 500 लोगों को चपेट में ले रही है।
कैसे फैलता है मंकी फीवर
मंकी फीवर लोगों से एक दूसरे में नहीं फैलता है। बल्कि, संक्रमित जानवरों का पंजा लगने या उसके संपर्क में आने से होता है, खासकर बंदरों से। दक्षिण भारत के तीन क्षेत्रों को इस बीमारी के लिए बेहद संवेदनशील माना गया है। मंकी फीवर से पीड़ित ज्यादातर मरीज एक या दो हफ्ते में ठीक हो जाते हैं।
कहां से आया मंकी फीवर
मंकी फीवर की कहानी यास्नुर फॉरेस्ट से शुरू हुई थी। इसलिए इसे यास्नुर फॉरेस्ट डिजीज़ भी कहते है। ये पहली बार 1957 में लोगों के सामने आया था। अब तक सेंट्रल यूरोप, ईस्टर्न यूरोप और नॉर्थ एशिया में पाया गया है। भारत में ज्यादातर गोवा, कर्नाटक और केरल में देखा गया है। नीलगिरि और बांदीपुर नेशनल पार्क में भी कुछ मामले देखे गए हैं। ये वायरस अधिकतर नवम्बर से मार्च के महीने में सक्रिय होता है। इस बीमारी की चपेट में सबसे पहले बंदर आए थे। अचानक से कर्नाटक के यास्नुर जंगल में बंदरों की संख्या कम होने लगी। तो खोजबीन शुरू हुई. पता चला कि ये एक तरह का वायरस है जो केवल बंदरों को ही नुकसान पहुंचा रहा है। जैसे ही कोई बंदर इसके संपर्क में आता है उसकी तबियत ख़राब होने लगती है और एक समय के बाद उसकी मौत हो जाती। ये वायरस फ्लाविवायरस के समुदाय का था। नाम था टिक. इससे होने वाली बीमारी को टिक बॉर्न एन्सेफलाइटिस (टीबीई) कहते हैं। डॉक्टरों को उसी वक़्त अंदाजा हो गया था कि इंसान भी इसके चपेट में आने वाले है।
मंकी फीवर है लाइलाज
अभी तक लाइलाज है। डॉक्टर्स इलाज खोजने में लगे हैं। हम ज़्यादा से ज़्यादा सतर्कता बरत सकते हैं। टीकाकरण और टिक संक्रमित जानवरों से बचना ही सबसे बेहतर उपाय है। ये कुछ हफ़्तों में भी ठीक हो सकता है और कई महीने भी लग सकते हैं।

बालों की हर समस्या का इलाज है तिल का तेल
No Imageआजकल ज्यादातर लोगों बालों के झड़ने की समस्य से परेशान हैं। ऐसे में तिल का तेल लाभप्रद है। पोषक गुणों से भरपूर तिल के तेल में ना केवल त्वचा और बालों को पोषित करने की खूबी होती है बल्क‍ि उपचार की क्वालिटी भी बेहतर होती है। ये बात वैज्ञानिक तौर पर भी साबित हो चुकी है कि तिल के तेल से बालों को संपूर्ण पोषण मिलता है। इसमें पर्याप्त मात्रा में विटामिन ई, बी कॉम्प्लेक्स, कैल्शि‍यम, मैग्नीशि‍यम, फॉस्फोरस और प्रोटीन पाया जाता है।
तिल का तेल बालों से जुड़ी हर समस्या का समाधान है। बालों को भीतर से पोषित करने और जड़ों को मजबूती देने के लिए तिल के तेल को रातभर बालों में लगाकर छोड़ दें और अगली सुबह बाल धो लें।
बालों की हर समस्य का इलाज है तिल का तेल
अगर आपके बाल बेजान और रूखे हो चुके हैं तो भी तिल के तेल का इस्तेमाल करना फायदेमंद रहेगा। ये स्कैल्प से लेकर बालों के अंतिम छोर तक उन्हें पोषित करता है। तिल के तेल के इस्तेमाल से बालों का रुखापन दूर हो जाता है और उनकी खोई हुई चमक वापस आ जाती है।
अगर आपके बाल बहुत अधिक गिर रहे हैं तो तिल के तेल से बालों में मालिश करना फायदेमंद होगा। इसमें बालों को मजबूती देने के गुण होते हैं। इसके साथ ही तिल के तेल से मसाज करने पर तनाव दूर होता है और नींद भी अच्छी आती है।
तिल के तेल से मसाज करने पर ब्लड सर्कुलेशन बेहतर होता है जिससे बाल तेजी से बढ़ते हैं। अगर आपको लगता है कि आपके बाल पूरी तरह बढ़ने से पहले से ही टूट जाते हैं तो भी तिल के तेल का इस्तेमाल करें। तिल के तेल के इस्तेमाल से डेंड्रफ की समस्या भी दूर हो जाती है। अगर कम उम्र में ही बाल सफेद पड़ने लगे हैं तो रोजाना तिल के तेल को बालों में लगाए। जल्द ही सफेद बाल काले हो जाएंगे।

गले के जीवाणु हो सकते हैं खतरनाक
बच्चों के गले में किसी खास बैक्टीरिया की मौजूदगी हड्डी और जोड़ों के संक्रमण का संकेत है। इस बैक्टीरिया के कारण बच्चों के चलने-फिरने पर तो बुरा प्रभाव पड़ ही सकता है, साथ ही साथ मौत का खतरा भी हो सकता है।वैज्ञानिकों ने एक नए अध्ययन में पाया कि बच्चों के गले में पाए जाने वाला बैक्टीरिया ‘किंगेला किंगे’ हड्डियों एवं जोड़ों में होने वाले संक्रमण से जुड़ा है।
इससे पहले माना जाता था कि अधिकतर संक्रमण स्टेफेलोकोकस, स्ट्रेप्टोकोकस और हेमोफीलस इंफ्लूएंजा टाइप बी बैक्टीरिया की वजह से होता है। तब इनका इलाज लंबे समय तक एंटीबायोटिक या सर्जरी से किया जाता था। पिछले कुछ साल में बेहद संवेदनशील तकनीकों के कारण इन संक्रमणों के लिए जिम्मेदार बैक्टीरिया की सटीक पहचान संभव हो सकी है।
शोधकर्ताओं ने छह माह से चार साल तक के 77 बच्चों का अध्ययन किया। इन्हें हड्डी या जोड़ संक्रमण के संदेह के चलते भर्ती कराया गया था। इनमें से 65 बच्चों को पक्के तौर पर हड्डी या जोड़ों का संक्रमण था। उन्होंने पाया कि चार साल से कम उम्र के जिन बच्चों में हड्डी या जोड़ों का संक्रमण पाया गया था, उनमें से अधिकतर बच्चे किंगेला किंगे बैक्टीरिया से संक्रमित थे। अनुसंधानकर्ता ने कहा कि जिन बच्चों को हड्डी या जोड़ों का संक्रमण था, उनके गले में ये बैक्टीरिया मौजूद थे।
हालांकि संक्रमण से बचे हुए बच्चों (मात्र छह प्रतिशत) में यह बात सामान्य नहीं है।
आजकल ज्यादातर लोगों को जोड़ों के दर्द की शिकायत है। यूं तो जोड़ों के दर्द की समस्या एक उम्र के बाद ही सामने आती है लेकिन बेहतर यही है कि आप शुरुआत से ही इसके प्रति सचेत रहें। गठिया की समस्या हो जाने पर पूरी जिंदगी अस्त-व्यस्त हो जाती है। अगर आप चाहते हैं कि ये समस्या आपको न हो तो आज से ही अपने आहार में इन चीजों को अनिवार्य रूप से शामिल करें।
लहसुन के सेवन से जोड़ों के दर्द में काफी आराम मिलता है। विशेषज्ञ भी मानते हैं कि प्याज और लहसुन में कई ऐसे तत्व पाए जाते हैं जो जोड़ों के दर्द में फायदेमंद होते हैं। इनके नियमित सेवन से जोड़ों के दर्द की शिकायत होने का खतरा काफी कम हो जाता है। विटामिन ई जोड़ों के दर्द के लिए बहुत फायदेमंद होता है। खासतौर पर बादाम में पाया जाने वाला ओमेगा 3 फैटी एसिड सूजन और गठिया के लक्षणों को कम करने में मददगार होता है। बादाम के अलावा मछली और मूंगफली में भी पर्याप्त मात्रा में ओमेगा 3 फैटी एसिड पाया जाता है।
पपीते में बड़ी मात्रा में विटामिन C पाया जाता है। विटामिन सी न केवल इम्यून सिस्टम को बेहतर बनाता है बल्क‍ि ये जोड़ों की सेहत के लिए भी काफी फायदेमंद है।
एक गि‍लास पानी में एप्पल साइडर विनिगर मिलाकर पीने से जोडों के दर्द में फायदा मिलता है। इसके अलावा ब्रोकली खाने से भी गठिया में आराम मिलता है। ब्रोकली में कई ऐसे पोषक तत्व पाए जाते हैं जो जोड़ों की सेहत लंबे समय तक बरकरार रखते हैं। इसके अलावा व्यायाम, योग और मोटापे को कम करके भी आप जोड़ों के दर्द से बच सकते हैं।

विटामिन डी की कमी से होती है भूलने की बीमारी
विटामिन डी की कमी से डिमेंशिया (भूलने की बीमारी) होने की आशंका बढ़ जाती है। एक अध्ययन के अनुसार, विटामिन डी की अधिक कमी वाले लोगों में डिमेंशिया होने की संभावना 122 प्रतिशत अधिक होती है। वैसे तो भारत में धूप की कोई कमी नहीं होती, फिर भी लगभग 65 से 70 प्रतिशत भारतीय लोगों में इस जरूरी विटामिन की कमी पाई गई है।
विटामिन डी शरीर की लगभग हर कोशिका को प्रभावित करता है। यह सूर्य के प्रकाश में रहने पर त्वचा में उत्पन्न होता है, और कैल्शियम के अवशोषण तथा हड्डियों के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। विटामिन डी का स्तर कम होने पर हड्डियों को नुकसान पहुंचता है हालांकि, यह विटामिन दिल, मस्तिष्क और प्रतिरक्षा तंत्र के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
विटामिन डी की कमी मैटाबोलिक सिंड्रोम, हृदय रोगों और प्रजनन क्षमता से जुड़ी हुई है। उन्होंने बताया कि साल में कम से कम 40 दिन में 40 मिनट तक रोजाना सूर्य की रोशनी में जरूर रहना चाहिए। इसका सही लाभ तब मिलता है जब शरीर का कम से कम 40 प्रतिशत हिस्सा सूर्य की रोशनी के संपर्क में आए, भले ही प्रात:काल या शाम के समय ही हो।
दरअसल, विटामिन डी 2 हमें खाद्य पदार्थो से मिलता है, जबकि विटामिन डी 3 सूर्य की रोशनी पड़ने पर हमारे शरीर में उत्पन्न होता है। दोनों विटामिन हमारे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं. डी 2 जहां भोजन से प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन डी 3 का उत्पादन सूर्य के प्रकाश में ही होता है।
विटामिन डी की कमी के कई कारण होते हैं। कई बार सामाजिक कारणों से व्यक्ति धूप में कम निकलता है। भारत में प्रचुर मात्रा में धूप उपलब्ध रहती है, फिर भी बहुत से लोग अनजान हैं कि उन्हें विटामिन डी की कमी हो सकती है।
इनसे भी मिलता है विटामिन डी
कॉड लिवर ऑयल: यह तेल कॉड मछली के जिगर से प्राप्त होता है और सेहत के लिए बेहद अच्छा माना जाता है। इससे जोड़ों के दर्द को कम करने में मदद मिलती है और इसे कैप्सूल या तेल के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
मशरूम: यदि आपको मशरूम पसंद हैं, तो आपको विटामिन डी भरपूर मिल सकता है। सूखे शिटेक मशरूम विटामिन डी 3 के साथ-साथ विटामिन बी के भी शानदार स्रोत हैं। इनमें कम कैलोरी होती है और इन्हें जब चाहे खाया जा सकता है।
सूरजमुखी के बीज: इनमें न केवल विटामिन डी 3, बल्कि मोनोअनसैचुरेटेड वसा और प्रोटीन भी भरपूर मात्रा में होता है।

अपने लीवर का रखें ध्यान
लिवर शरीर को वो हिस्सा है जो टॉक्सिन (विषाक्त) पदार्थों को अलग करता है। हमारे शरीर में प्रवेश करने वाले विषाक्त पदार्थों को पहले ही लिवर रोककर बाहर कर देता है। ऐसे में लिवर एक प्रकार से फिल्टर का काम कर देता है। अगर कभी लिवर में समस्या होती है तो यह शरीर के लिए जानलेवा हो सकता है। इसलिए लीवर के लिए नुकसानदायक आदतों को छोडें और इसे ठीक रखने पर ज्यादा ध्यान दें। लीवर टॉक्सिन्स को फिल्टर करने से लेकर पित्त बनाने और शरीर के लिए जरूरी कार्बोहाइड्रेटस, प्रोटीन, मिनरल्स तथा विटामिन्स तैयार करने से सम्बन्धित हमारे शरीर के सभी महत्वपूर्ण काम करता है। यही कारण है हमारी जीवनशैली से जुडी गलत आदतें हमारे लीवर को नुकसान पहुंचा सकती है। इसलिए लीवर का भी ख्याल रखें।
हमारे लीवर को विषाक्त पदार्थों से मुक्त रखने के लिए हमें वसामुक्त या बिना चिकनाई वाला भोजन करना चाहिए। कॉलेस्ट्रोल एक ऐसा वसा है, जिसे हमारा लीवर संश्लेशित करता है और इसके बाद हमारा शरीर इसे ऊर्जा के स्रोत के रूप में लेता है। ऐसे में यह हमारे भोजन का अहम हिस्सा तो है, लेकिन हमें अधिक कॉलेस्ट्रोल वाला भोजन करने से बचना चाहिए। अधिक कॉलेस्ट्रोल वाले भोजन में हम लाल मांस, अधिक चिकनाई वाला भोजन, शक्कर, नमक आदि शामिल करते है। अधिक कॉलेस्ट्रॉल वाला भोजन करने से लीवर के कई तरह के रोग हो सकते हैं, जैसे लीवर का मोटापन जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया में सबसे ज्यादा पाई जाने वाली बीमारियों में से एक है। हमें अधिक कॉलेस्ट्रॉल वाले भोजन के बजाए रेशेदार सब्जियां और अनाज का उपयोग करना चाहिए। नाश्ता जरूर करें, नाश्ता जरूर करें. देर से सोना और देर से उठना बंद करें।
भोजन की गलत आदतों का प्रतिकूल प्रभाव हमारे जीवन में दीर्घावधि में नजर आता है. जबकि संतुलित भोजन किया जाए तो यह हमारे लीवर के लिए बहुत लाभदायक रहता है। जो लोग लीवर सिरोसिस की बीमारी से पीडित रहे है, उन्हें अधिक प्रोटीन वाला भोजन करना चाहिए ताकि लीवर खुद ही स्वयं की मरम्मत कर ले और भविष्य में कोई नुकसान न हो। यह ध्यान रखिए कि लीवर तभी खराब होता है जब हम ऐसा भोजन करते हैं जिसमें पोषक तत्व कम होते हैं और चिकनाई ज्यादा होती है। यह एक सामान्य तथ्य है कि शराब का अत्यधिक सेवन लीवर को नुकसान पहुंचाता है। शराब और अल्कोहल की अधिकता वाले पेय पदार्थों के अधिक सेवन से अल्कोहोलिक हेपेटाइटिस और अल्कोहोलिक सिरोसिस (ऐसी स्थिति जिसमें लीवर बहुत ज्यादा क्षतिग्रस्त हो जाता है और इसका आकार बिगड़ जाता है।
हमारा लीवर खराब भोजन के प्रति बहुत संवेदनशील होता है। शक्किर की अधिकता के कारण लीवर में यदि वसा बहुत ज्यादा जमा हो गया है तो यह लीवर के टिश्यूज को क्षतिग्रस्त कर सकता है। यह लीवर सिरोसिस का सबसे बडा कारण है। आजकल के प्रोसेस्ड और डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों में शक्कर की मात्रा बहुत ज्यादा होती है और फाइबर नहीं के बराबर होता है। यह हमारे लीवर के लिए नुकसानदायक है और इससे जहां तक हो सके बचना चाहिए। यही नहीं जो भी अतिरिक्त वसा हमारे शरीर में पहुंचता है वह पेट में जमा होता रहता है और लीवर तक पहुंच जाता है। यही कारण है कि मोटापा और लीवर के मोटेपन की बीमारी आपस में जुडी हुई है। कुछ लोग सुबह जल्दबाजी में उठते हैं और उठते ही अपने काम पर चले जाते है। इसके चलते न वे दैनिक नित्यकर्म करते हैं और न ही नाश्ता करते है। यह बहुत ही गलत आदत है. मूत्र को रोकना न सिर्फ लीवर को नुकसान पहुंचा सकता है, बल्कि किडनी को भी क्षतिग्रस्त कर सकता है।

साइनस में राहत देगें घरेलू उपाय
साइनस एक ऐसी बीमारी है जो सर्दी के मौसम में और बढ़ जाती है। इसलिए साइनस के मरीजों को विशेष सावधानी रखनी चाहिये। यह एक ऐसी समस्या है जिसे पूरी तरह से ठीक नहीं किया जा सकता है। सर्दी के मौसम में साइनस की समस्या को बढ़ने से रोकने के लिए आप घर पर ही आराम से उपचार कर सकते है। इसके लिए गुनगुने पानी में यूकेलिप्टस तेल की कुछ बूंदें मिला सकते हैं। साइनस के लक्षणों से राहत पाने के लिए इसकी भांप ले सकते हैं। थोड़ी-थोड़ी देर में भाप लेने से नाक को राहत मिलती है।
नाक और आंखों के चारों ओर जैतून का तेल लगाएं। यह नाक बंद में आपको आराम देगा और साफ करने में भी मदद करेगा। इससे साइनस में आराम मिलेगा और सांस लेने में राहत मिलेगी।
हल्दी और अदरक की जड़ से बनी चाय का सेवन करें। हल्दी में कई औषधीय गुण होते हैं और इसमें मौजूद तत्व इसे जलनिरोधी भी बनाते हैं। अदरक की जड़ें नाक को खोलने में मदद करती हैं।
तिल का तेल साइनस में बहुत ही उपयोगी साबित होता है। तेल को नाक में डालने से राहत मिलती है। सांस लेने में आसानी होती है।
दो चम्मच सेब के सिरके को आधा कप गुनगुने पानी में मिलाएं। इसमें एक चम्मच शहद भी मिलाएं। इस मिश्रण को गुनगुना रहते हुए पी लें। इससे साइनस में काफी आराम मिलेगा। सांस संबंधी समस्याओं में आराम पाने के लिए काले जीरे के बीज लें और उन्हें एक पतले कपड़े में बांधकर सूंघने से भी साइनस में तत्काल राहत मिलती है।

शुरुआत में आसान होता है कैंसर का इलाज
कैंसर का नाम सुनते ही हमारे दिमाग में एक लाइलाज बिमारी की तस्वीर उभरती है। वहीं डॉक्टरों की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर साल कैंसर के 10 लाख नए मरीज सामने आते हैं। बीमारी की गंभीरता की वजह से इन 10 लाख में से 7 लाख मरीजों की मौत हो जाती है। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के अनुसार साल 2020 तक मरीजों की संख्या 17.8 लाख और मौतों की संख्या 8.8 लाख हो जाएगी।
इस बीमारी में सिर्फ मौत का ही आंकड़ा बहुत ज्यादा नहीं है बल्कि कैंसर के गंभीर मरीजों को शारीरिक रूप से भी काफी कष्ट का सामना करना पड़ता है जिसमें कीमोथेरपी भी शामिल है। कैंसर की वजह से लोगों को अपनी जिंदगी में मानसिक, सामाजिक और आर्थिक परेशानी झेलनी पड़ती है।’ यही वजह है कि अनुसंधानकर्ता लंबे समय से कैंसर को हराने की कोशिशों में लगे हैं। नियमित जांच के जरिए इसका समय पर पता चल जाये तो इलाज आसन होता है।
लगातार खून में डब्ल्यूबीसी की ज्यादा मौजूदगी या फिर मल में रहस्यमय खून की मौजूदगी, कैंसर के बारे में संकेत देते हैं। इन संकेतों के बाद डॉक्टर मरीज से कह सकते हैं कि उन्हें कैंसर की पहचान के लिए सभी जरूरी टेस्ट करवाने चाहिए। हालांकि, कैंसर की जल्द पहचान के लिए जरूरी है कि खून की जांच के साथ ही शारीरिक चेकअप और सोनोग्राफी स्कैन भी कराया जाना चाहिये।
दुनियाभर के करीब दो तिहाई कैंसर के केस जीवनशैली से जुड़े होते हैं। इसका मतलब है कि इसकी रोकथाम की जा सकती है। तंबाकू और शराब के बारे में जागरूकता फैलानी जरूरी है ताकि लोगों को पता हो कि ये ऐसी चीजें हैं जिनसे टीशूज़ में कैंसर उत्पन्न हो सकता है। इसके अलावा मोटापा भी कैंसर का एक कारक बना है।
विशेषज्ञों के अनुसार सरकार को भी कैंसर की रोकथाम में आगे आकर सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। कैंसर की रोकथाम के लिए स्वस्थ जीवनशैली सबसे अहम है। सरकार जागरूकता फैलाकर कैंसर के लक्षणों और इसकी जल्द पहचान को तय कर सकती है।

गुर्दे के घरेलू उपचार से पहले रहे सावधान
किडनी (गुर्दे) के घरेलू उपचार को लेने से पहले, एक बार डॉक्टर से बात जरुर करना चाहिए खासकर उन लोगों के लिए जिसको पहले से कोई और बीमारी हो। एंटीबायोटिक, मूत्रवर्धक, रक्तचाप, कोलेस्ट्रॉल, और जिगर की दवाएं किडनी के घरेलू हर्बल उपचार के साथ प्रतिक्रिया कर सकती हैं, इसीलिए डॉक्टर से सलाह मशवरा करना सही माना जाता है।
किडनी में पथरी बनने से लेकर संक्रमण होना आज के दिनों में आम बात हो गया है।लोग सोचते हैं कि हमने पथरी को सर्जरी से बाहर निकलवा दिया। हमें कभी और पथरी नहीं होगा यह सोचना एकदम गलत है। किडनी की प्रवृति होती है कि अगर एक बार उसने पथरी बनाना शुरू कर दिया तो वह बार-बार बनाते रहता है। और हम बार-बार सर्जरी नहीं करवा सकते इसलिए आपको खाने पीने में खास एहतियात बरतना होगा।
किडनी संक्रमण भी कुछ ऐसा ही होता है जब हम एंटीबायोटिक खाते हैं तो कोई दिनों के लिए हमारी परेशानी बिल्कुल खत्म हो जाती है लेकिन कुछ दिनों के बाद फिर से वह परेशानी आ जाता है। ऐसे में सावधानी बरतना जरुरी है।
पानी –
पथरी बनने से रोकने का सबसे बड़ा इलाज पानी है। यह दो बातों पर निर्भर करता है पहला पानी की क्वालिटी दूसरा आप कितना पानी पीते हैं।मनुष्य जो पानी पीता है वह मिनरल वाटर होता है और मिनरल वाटर में मिनरल कितने प्रतिशत है इस पर भी निर्भर करता है किडनी का स्टोन बनना। कैल्शियम, मैग्नीशियम एवं फास्फेट का प्रतिशत पता कर लें जो पानी आप पी रहे हैं।
मनुष्य को प्रतिदिन कितना पानी पीना चाहिए ?
इसमें लोगों की राय थोड़ी अलग अलग है लेकिन मेडिकल साइंस के अनुसार से कम से कम एक इंसान को प्रतिदिन 2 लीटर यानी 8 गिलास पानी कम से कम पीना चाहिए।अगर किसी को किडनी स्टोन की शिकायत है तो जरूर उसे 2 लीटर से ज्यादा पानी पीने चाहिए।पानी पीने से किडनी साफ हो जाता है। स्टोन बनने वाला कंपाउंड वहां पर इकट्ठा नहीं हो पाता है और जिससे स्टोन बनने की शिकायत कम हो जाती है।
तुलसी –
तुलसी में एसिटिक एसिड नाम का योगिक मिलता है जो किडनी में यूरिक एसिड से बने पथरी को तोड़ने में काफी मददगार होता है।
तुलसी का पत्ता प्रतिदिन उपयोग करने से किडनी के इलाज में मददगार साबित हो सकता है। तुलसी के पत्ते का पाउडर अब मार्केट में भी उपलब्ध है।
गेहूं छोटे पौधे का रस –
गेहूं छोटे पौधे का रस किडनी पथरी के इलाज का रामबान माना जाता है क्योंकि इसमें एंटी ऑक्सीडेंट की मात्रा बहुत ज्यादा होता है उसके साथ ऐसे और भी कंपाउंड होते हैं जो मूत्र की मात्रा को बढ़ा देता है। मूत्र की मात्रा बढ़ने से मूत्र मार्ग साफ हो जाता है जिससे पत्थर इकट्ठा नहीं हो पाता है।
गेहूं छोटे पौधे का रस बनाने के लिए पहले आपको गेहूं को पानी में भीगने होंगे, फिर उसे अंकुरित करना होगा। जब गेहूं का अंकुर बड़ा हो जाए तो उसका रस बनाकर पानी के साथ पीना चाहिए।
यूर्वा उर्सी –
किडनी का इलाज का आसान तरीका
यूर्वा उर्सी एक जड़ी है जो विसर्जक और विलायक गुणों भरा होता है।मूत्र मार्ग के रास्ते को साफ करता है एवं मूत्र मार्ग में फंसे पत्थर को भी बाहर निकाल देता है !
यूर्वा उर्सी थोड़ी-थोड़ी मात्रा दिन में तीन बार लिया जा सकता है जो सबसे ज्यादा किडनी पथरी के इलाज के लिए अब तक अच्छा माना गया है। इस तरह का उत्पाद बाजार में भी मिलता है !
नींबू का रस –
नींबू में साइट्रिक एसिड होता है, जो कैल्शियम के यौगिक को किडनी में बनने से रोकता है उसके साथ बने यौगिक को तोड़ने में भी मदद करता है।अध्ययन से यह पता चला है कि अगर कोई नींबू का रस सुबह-सुबह खाली पेट पानी के साथ मिलाकर पीता है तो वह ज्यादा लाभकारी साबित हो होता है। मार्केट में नींबू फ्लेवर वाला बहुत सारे रस उपलब्ध है लेकिन उसको पीने से कम फायदे की उम्मीद है क्योंकि उसमें साइट्रेट का प्रतिशत कम होता है जबकि अन्य फ्लेवर ज्यादा होते हैं। ताजा नींबू के रस को ज्यादा बेहतर माना जाता है किडनी के इलाज के लिए !
सेब साइडर सिरका –
नींबू की तरह सेब साइडर सिरका में साइट्रिक एसिड होता है जो कैल्शियम के यौगिक को किडनी में बनने से रोकता है उसके साथ बने यौगिक को तोड़ने में भी मदद करता है।
दो चम्मच सेब साइडर सिरका पानी के साथ मिलाकर खाली पेट पीने से ज्यादा फायदा हो सकता है !
अजवाइन रस या बीज –
गेहूं छोटे पौध की तरह अजवाइन रस या बीज एंटीऑक्सिडेंट्स है किडनी स्टोन के उपचार के लिए बेहद फायदेमंद है !
अजवाइन का रस बनाने के लिए एक या दो अजवाइन डंठल को पानी से मिश्रित किया जा सकता है। रोज़ एक गिलास पीना चाहिए।
राजमा – पानी –
राजमा में मैग्नीशियम की मात्रा प्रचुर होता है जो किडनी के पथरी के लिए लाभकारी है।
राजमा – पानी बनाने की विधि – राजमे बीज का छिलका निकाल कर इसे पानी में धीरे-धीरे गर्म किया जाता है, 5 से 6 घंटे के बाद इस पानी को पीने में उपयोग किया जा सकता है। एक दिन में एक से दो बार किया जा सकता है !
जैतून का तेल –
जैतून का तेल में ज्यादा चिकनाई वाला केमिकल होता है जो मूत्र मार्ग में ज्यादा फिसलन पैदा कर पाता है जिससे फंसे हुए पत्थर को बाहर निकालने में मददगार साबित हो सकता है!
जैतून का तेल पानी में मिलाकर सुबह खाली पेट लेना ज्यादा अच्छा माना जाता है, उसके साथ खाना भी इसके साथ पकाकर खाने में लाभकारी सिद्ध होता है !
अनार का रस –
अनार के जूस में एस्टेरीजेंट र एंटीऑक्सिडेंट होता है जो किडनी में पथरी बनने से रोकता है और उनके साथ पेशाब को ज्यादा एसिडिटी भी नहीं होने देता है। पेशाब में जलन कम करने में काफी मददगार साबित होता है !
अनार का बीज या उसका जूस बनाकर सेवन किया जा सकता है दिन में एक बार से ज्यादा बार भी लिया जा सकता है !
क्या ना खाएं – किडनी की पथरी से बचने के लिए
डिहाइडिंग फूड एवं चीनी, नमक, और अल्कोहल गुर्दे की पथरी बनने में मदद करता है। ऑक्सलेट योगिक पाए जाने वाले चीजों को खाने से भी किडनी में पथरी बनता है। अगर आपका पथरी सर्जरी के द्वारा या खुद पेशाब के रास्ते से बाहर निकल आया है तो ऐसे में उसे फेंकिए मत। आज के समय में पथरी का टेस्ट करवाने से यह पता चल जाता है कि क्या खाने से यह पथरी किडनी में बना था और उस खाने को आप अपने डाइट चार्ट से हटा सकते हैं या कम कर सकते हैं। अगर आप किडनी स्टोन से बचना चाहते हैं तो ये न खायें।
आलू , पालक, बादाम, टमाटर और रेड मीट।

सर्दियों में ऐसे दिल रहेगा सुरक्षित
दिल के रोगियों के लिए सर्दियों का मौसम बेहद कठिन रहता है। इस दौरान उन्हें विशेष सावधानी बरतनी चाहिये। सर्दी के दौरान, धमनियां सिकुड़ किया जाती है। जिसके कारण रक्त को रक्त पंप करने के लिए अधिक प्रयास करना पड़ता है। इससे दिल पर तनाव बढ़ जाता है और इससे दिल की बीमारियों से परेशान लोगों को दिल का दौरा पड़ सकता है। यह उन लोगों के लिए भी खतरनाक है, जिन्हें पहले से दिल की बीमारियां होने का अंदाज़ा नहीं था। ऐसे में विशेषज्ञों की राय है कि अपने शरीर को गर्म रखें ताकि आप हाइपोथर्मिया से बच सके, जिसका मतलब है कि शरीर का तापमान 35 डिग्री सेल्सियस या 95 डिग्री फ़ारेनहाइट से नीचे हो। हाइपोथर्मिया के लक्षणों में समन्वय की कमी, मानसिक भ्रम, धीमी प्रतिक्रियाएं, कंपकंपी और हमेशा नींद आना जैसी समस्याएं शामिल हैं।
खुद को गर्म रखने के लिए, ढेर सारे कपड़े पहनें। एक के ऊपर एक कपड़े पहनने से हवा परतों के बीच फंस जाती है, जिससे आपको एक सुरक्षात्मक इन्सुलेशन मिलता है। इसके अलावा, अगर आवश्यक हो तो टोपी या स्कार्फ पहनें। गर्मी अपने सिर से भी खो सकती है इसके अलावा, अपने कानों की रक्षा करें।
दिल के दौरे के संकेत और लक्षण जानें और अपने शरीर पर ध्यान दें। सर्दियों में एक बार अपने दिल की जांच करना बेहतर होता है।
ठंड के मौसम में आपकी हार्ट रेट या धड़कन और ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है। इसलिए, अगर आपको दिल की बीमारी है तो बेहतर है कि आप अपनी दवाओं को लेकर सावधान रहें और अपने डॉक्टर के साथ बातचीत करते रहें।
सक्रिय रहें, बहुत ज़्यादा मेहनत ना करें। अगर आप सर्दियों में दिनभर बिस्तर या सोफे पर पड़े रहते हैं, तो यह रक्त के संचार में अड़चन डाल सकता है, और इससे रक्त के थक्के बनने का खतरा बढ़ सकता है और दिल का दौरा और स्ट्रोक की संभावना भी बढ़ सकती है। एक घंटे में कम से कम एक बार अपनी जगह से उठकर आस-पास चलें-घूमें और बहुत देर तक एक जगह पर बैठने से बचें। धूम्रपान, उच्च रक्तचाप, उच्च कोलेस्ट्रॉल, डायबिटीज , पारिवारिक इतिहास शामिल हैं, तो ऐसा करने से बचें, क्योंकि इससे आपको दिल का दौरा पड़ सकता है।

50 के उम्र के बाद टीकाकरण जरुरी
भारत में नागरिकों को भांति-भांति की स्वास्थ्य समस्याएं पहले से ही परेशान किए हुए हैं, ऐसे में एक ताजा अध्ययन से पता चला है कि लगभग 68 प्रतिशत वयस्कों को टीकाकरण के बारे में जानकारी ही नहीं है। इस सर्वेक्षण में शामिल हुए अधिकांश लोगों को लगता था कि टीकाकरण सिर्फ बच्चों के लिए ही होता है। कुछ अन्य को लगा कि वे स्वस्थ थे, इसलिए उन्हें किसी भी टीकाकरण की आवश्यकता नहीं है।
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के अनुसार, जब एक व्यक्ति वयस्क हो जाता है तब भी टीकाकरण की आवश्यकता होती है। एक बच्चे के रूप में प्राप्त टीकों से कुछ ही वर्षो तक सुरक्षा मिलती है और नए तथा विभिन्न रोगों के जोखिम से निपटने के लिए और टीकाकरण की जरूरत पड़ती है।
स्वस्थ भोजन की तरह, शारीरिक गतिविधि और नियमित जांच-पड़ताल, एक व्यक्ति को स्वस्थ रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। टीके सबसे सुविधाजनक और सुरक्षित निवारक देखभाल उपायों में से एक हैं। शहरी जीवनशैली आज भी अस्वास्थ्यकर भोजन, नींद की कमी, काम के अनियमित घंटे और अक्सर यात्राएं शामिल करती हैं। इससे लोगों की प्रतिरक्षा कम हो गई है।
इससे हम सब किसी भी बीमारी के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं। हमारे रहने और काम करने के स्थान अलग-अलग होते हैं और कभी-कभी हम सब सुदूर स्थानों पर घूमने भी जाते हैं। विभिन्न क्षेत्रों पर आने जाने से किसी भी संचारी रोग से ग्रस्त होने का खतरा पैदा हो जाता है। टीकाकरण से हर साल 30 लाख लोगों की सुरक्षा होती है।
टीकाकरण से मृत्यु दर कम होती है और चिकित्सा लागत में कमी आती है।
फ्लू वैक्सीन की वजह से अस्पताल में भर्ती होने के मामलों में 70 फीसदी कमी आई है।
हेपेटाइटिस बी के टीके से लीवर कैंसर के मामलों में कमी आई है।
सरकार अब व्यस्क लोगों के टीकाकरण के लिए कदम उठा रही है। वर्ष 1985 में, एक व्यापक टीकाकरण कार्यक्रम देशभर में शुरू किया गया था जो टीबी, टेटनस, डिप्थीरिया, पोलियो और खसरे से निपटने के लिए था।
50 वर्ष से अधिक आयु के लोगों को मौसमी इन्फ्लूएंजा (फ्लू), न्यूमोकोकल रोग (निमोनिया, सेप्सिस, मेनिन्जाइटिस), हेपेटाइटिस बी संक्रमण (जिन्हें मधुमेह है या हेपेटाइटिस बी का जोखिम है), टेटनस, डिप्थीरिया, पेरटुसिस और दाद (60 साल और उससे बड़े वयस्कों के लिए) जैसी स्थितियों से सुरक्षित रखने की आवश्यकता है।

संक्रमण से होता है हर्पीज़
हर्पीज़ एक ऐसा चर्म रोग है जो काफी है परेशान करता है। हर्पीज़ का इन्फेक्शन हर्पीज़ सिंप्लेक्स की वजह से होता है। इसका परिणाम ये होता है कि आपको बार-बार ब्रेकआउट्स की समस्या होती है हालांकि ब्रेकआउट्स की समस्या धीरे-धीरे कम हो जाती है। इस संक्रमण से आमतौर पर मुंह और जननांग का हिस्सा प्रभावित होता है। हर्पीज़ दो तरह से आपको प्रभावित करता है। पहला, ये मुंह वाले हिस्से यानि मुंह, आंख, चेहरे, होंठ और दूसरा आपके जननांग वाले हिस्से पर होता होता है। कई मामलों में हर्पीज़ संक्रमण से पीड़ित लोगों में कोई खास लक्षण नहीं देखे जाते हैं। लेकिन कुछ मामलों में कई लक्षण देखे जा सकते हैं।
घाव
इस संक्रमण से व्यक्ति के चेहरे या जननांग हिस्से में घाव हो सकते हैं, जो कुछ दिनों या हफ्तों का रह सकते हैं। इसके आलावा होंठ, चेहरे औए यहां तक की मुंह के अंदर भी घाव हो सकते हैं। इनमें मवाद या फफोले पड़ सकते हैं। इन्हें ठीक होने में कम से कम दो हफ्ते लग सकते हैं।
बुखार
घावों के कारण आमतौर पर मांसपेशियों में दर्द और सिर दर्द के साथ-साथ बुखार भी हो सकता है। ये दोनों तरह के हर्पीज़ के आम लक्षण हैं।
खुजली और जलन
अक्सर घाव या फफोले होने से पहले रोगी को खुजली या जलन का अनुभव हो सकता है। चाहे वो जननांग हर्पीज़ हो या चेहरे के।
आंखों में बेचैनी
कई बार हर्पीज़ सिंप्लेक्स वायरस की वजह से आंखों में भी संक्रमण हो जाता है। इससे आपको धुंधला दिखना, आंखों से पानी आना, दर्द या जलन होना शामिल हैं। इस तरह के इन्फेक्शन से लसीका ग्रंथि बढ़ सकती है। इससे गर्दन की लसीका ग्रंथि में सूजन हो सकती है, जो दर्द और बेचैनी का कारण बन सकता है।
ऐसा कोई इलाज नहीं है जिससे कि त्वचा रोग का उपचार किया जा सके, किंतु एन्टी वायरस दवाईयों के प्रयोग से दवाई प्रयोग की अवधि के दौरान इसे फैलने से रोका जा सकता है। इसके अतिरिक्त प्रतिदिन निरोधात्मक उपाय करने से लाक्षणिक त्वचा रोग से साथी को बचाया जा सकता है।

ब्रेन स्ट्रोक से कैसे बचें
ब्रेन स्ट्रोक जो बन जाता है स्थाई विकलांगता का कारण उससे बचने के लिए जरुरी है कि आप नियमित ब्यायाम करें और चिकित्सकों की सलाह पर इलाज करवाएं। गौरतलब है कि दुनिया भर में कोरोनरी धमनी रोग के बाद मृत्यु का दूसरा सबसे आम कारण है ब्रेन स्ट्रोक। ब्रेन स्ट्रोक स्थाई विकलांगता का भी सबसे प्रचलित कारण बन चुका है। हर साल स्ट्रोक के सभी मामलों में 20 से 25 फीसदी मामले भारत के बताए जाते हैं। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन यानी आईएमए के मुताबिक ब्रेन स्ट्रोक इस आधुनिक युग में महज वृद्धों तक सीमित नहीं है, बल्कि लाइफस्टाइल बदलने की वजह से अब 40 साल की उम्र से पहले ही लोग इस बीमारी के शिकार हो जाते हैं। जानकारों की मानें तो ब्रेन स्ट्रोक तब होता है, जब आपके मस्तिष्क के किसी हिस्से में खून की सप्लाई ठीक से नहीं हो पाती है। इस कारण मस्तिष्क के ऊतकों को ऑक्सीजन और पोषक तत्व नहीं मिलते और इस कारण मस्तिष्क की कोशिकाएं मृतप्राय: होने लगती हैं। इसके बाद ही हम ब्रेन स्ट्रोक जैसी बीमारी के शिकार हो जाते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार यदि समय रहते इलाज शुरू नहीं किया गया तो हर सेकेंड में लगभग 32,000 मस्तिष्क कोशिकाएं क्षतिग्रस्त होने का अंदेशा रहता है। लगभग 85 प्रतिशत स्ट्रोक इस्केमिक प्रकृति के होते हैं। विशेषज्ञों के अनुसार देश में ब्रेन स्ट्रोक के लिए जिम्मेदार कुछ सामान्य कारकों में उच्च रक्तचाप, मधुमेह, धूम्रपान और डिसलिपिडेमिया आदि हैं। हैरानी की बात तो यह है कि आज भी हमारे देश में स्ट्रोक के इलाज के लिए कोई उचित व्यवस्था मौजूद नहीं है। विशेषज्ञ मानते हैं कि ब्रेन स्ट्रोक एक आपातकालीन स्थिति है, जिसका समय पर इलाज करना बेहद जरूरी होता। इसलिए ब्रेन स्ट्रोक से बचने के उपायों पर ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए। इसके तहत प्रत्येक दिन लगभग 30 मिनट तक व्यायाम किया करना चाहिए। यदि वजन बढ़ रहा है तो उसे कम करने की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। सिगरेट, पान और तंबाकू का सेवन पूरी तरह बंद करना। अपनी ब्लड शुगर लेवल को नियंत्रण रखें और अंत में सबसे जरुरी है कि आप जितना हो सके तनाव से दूर रहें। इन उपायों के जरिए सामान्यतौर पर ब्रेन स्ट्रोक होने से बचा जा सकता है, फिर भी किसी प्रकार की कोई शिकायत होने पर तुरंत चिकित्सक को दिखाया जाना उचित होगा और पूर्ण इलाज किया जाना चाहिए।

खांसी और डाइजेशन को ठीक करेगा अदरक
सर्दियों में अदरक की चाय पीने का अपना ही मजा है, लेकिन आपको बतला दें कि अदरक गले से जुड़ी किसी भी समस्या में बहुत फायेदमंद होता है। चूंकि अदरक हर रसोई में आसानी से मिलने वाली चीज है तो इसके इस्तेमाल से जुड़ी जानकारी भी आपको होनी ही चाहिए। दरअसल अदरक डाइजेशन को ठीक रखता है और पेट की बीमारियों में भी फायदेमंद होता है। बावजूद इसके क्‍या आप जानते हैं कि अदरक के टुकड़े के साथ जरा सा नमक खाने से इसका फायदा दोगुना हो जाता है और कफ या बलगम की समस्या से तुरंत राहत देता है। दरअसल अदरक, श्वास नली के संकुचन में हो परेशानी को दूर करता है, जिससे मरीज को फोरन राहत मिलती है। इससे सूखी खांसी को दूर करने में भी मदद मिलती है। अदरक में मौजूद एंटीऑक्‍सीडेंट गले और सांस लेने वाली नली में जमा टॉक्‍सिन को साफ करता है और कफ को बाहर निकालता है। यही नहीं अदरक में ऐसे गुण होते हैं, जो अस्‍थमा और ब्रोंकाइटिस से भी निजाद दिलवा सकते हैं। यदि अदरक में नमक मिला दिया जाए तो इसकी ताकत दोगुनी हो जाती है क्‍योंकि नमक गले में फसे म्‍यूकस को निकालने में तेजी से मदद भी करता है और बैक्‍टीरियल ग्रोथ को रोकने में सहायक होता है। अदरक और नमक का सेवन करने के लिए पहले अदरक को छील कर धो लें और छोटे पीस में उसे काट लें, फिर उस पर थोड़ा सा नमक छिड़के। अब इसे चबाएं और इसका रस निगल लें। उसके बाद शहद चाट लें ऐसा करने से अदरक का कसैला स्वाद चला जाएगा।

ठंड में इन्हें खालीपेट नहीं खाएं क्योंकि होता है नुक्सान
अब जबकी ठंड ने दस्तक दे दी है तो खान-पान पर विशेष ध्यान रखना होगा। इस मौसम में कुछ भी खाली पेट खाकर काम चलाने वाली आदत आपको परेशानी में डाल सकती है। सेहत पर भारी पड़ने वाले इस खान-पान से बचा जाना चाहिए। इस मौसम में विशेषज्ञ जिन चीजों को खाली पेट खाने से मना करते हैं, उनमें प्रमुखत: सॉफ्ट ड्रिंक, मसालेदार खाना, खट्टे फल मुख्य हैं। इस संबंध में किए गए शोध ने भी इस बात को साबित किया है। इसके मुताबिक सुबह-सुबह खाली पेट ब्रेकफास्ट में कभी भी स्पाईसी या बहुत मिर्च-मसाला वाला खाना नहीं खाना चाहिए। इससे दिनभर पेट में एसिडिटी की शिकायत रहती है और अल्सर के भी होने का अंदेशा हो जाता है। इसी तरह सॉफ्ट ड्रिंक्स खास तौर से कोल्ड ड्रिंक्स खाली पेट कभी भी नहीं पीना चाहिए। इनमें उच्च मात्रा में कार्बोनेट एसिड होता है। यह पेट के एसिड से मिलकर गंभीर परेशानियां पैदा कर देता है। इसकी वजह से आपको गैस और मतली या उल्टी आने की समस्या भी हो सकती है। इसके साथ ही खाली पेट ठंडी चीजें जिन्हें कोल्ड बेवरेज कहते हैं, नहीं पीने चाहिए। जैसे कि कोल्ड कॉफी या कोल्ड ड्रिंक्स आदि। यह आपके पेट के मुकस मेम्ब्रेन यानी कि पेट की उस झिल्ली को क्षति पहुंचाता है। यह पाचन क्रिया में मददगार होती है और इसमें नुक्सान होने से डायजेशन धीमा हो जाता है। इसकी जगह आप गर्म ग्रीन टी या हल्का गर्म पानी पी कर अपने दिन की शुरुआत कर सकते हैं। इस मौसम में खाली पेट खट्टे फल भी नहीं खाने चाहिए। जैसे कि संतरा, नींबू, अमरूद आदि खाली पेट नहीं खायें क्योंकि ये पेट में एसिड बनाते है। यह बात सही है कि इससे आपको फाइबर और फ्रुक्टोज भी मिलेगा, लेकिन इससे आपका पाचन तंत्र भी धीमा हो जाएगा। इसलिए सलाह दी जाती है कि इन्हें खाली पेट न लिया जाए।

चर्मरोगों को इस प्रकार रखें दूर
शरीर की अगर सही प्रकार से सफाई न हो तो कई प्रकार के चर्मरोग हो जाते हैं। इससे पीड़ित को शारीरिक कष्ट के साथ ही मानसिक पीड़ा का भी सामना करना पड़ता है। यह रोग पूरे शरीर की चमड़ी पर कहीं भी हो सकता है। अनियमित खान-पान, दूषित आहार, शरीर की सफाई न होने एवं पेट में कृमि के पड़ जाने और लम्बे समय तक पेट में रहने के कारण उनका मल नसों द्वारा अवशोषित कर खून में मिलने से तरह तरह के चर्मरोग सहित शारीरिक अन्य बीमारियां पनपने लगती हैं जो इंसान के लिए अति हानिकारक होती है। इससे पीड़ित को समाज में भी अलग-थलग कर दिया जाता है।
चर्मरोग कई प्रकार के होते हैं।
दाद में खुजली बहुत ज्यादा होती है की आप उसे खुजाते ही रहते हैं। खुजाने के बाद इसमे जलन होती है व छोटे-छोटे दाने होते हैं। वहीं
खुजली
इसमें पूरे शरीर में सफेद रंग के छोटे-छोटे दाने हो जाते हैं। इन्हें फोड़ने पर पानी जैसा तरल निकलता है जो पकने पर गाढ़ा हो जाता है। इसमें खुजली बहुत होती है, यह बहुधा हांथो की उंगलियों के बीच में तथा पूरे शरीर में कहीं भी हो सकती है। इसको खुजाने को बार-बार इच्छा होती है और जब खुजा देते है तो बाद में असह्य जलन होती है। यह संक्रामक रोग है। रोगी का तौलिया व चादर उपयोग करने पर यह रोग आगे चला जाता है, अगर रोगी के हाथ में रोग हो और उससे हांथ मिलायें तो भी यह रोग सामने वाले को हो जाता है।
इन बीमारियों को घ्ररेलू इलाज के जरिये भी ठीक किया जा सकता है। दाद, खाज, खुजली, एग्जिमा होने पर अकौता, अपरस का मरहम गन्धक 10 ग्राम, पारा 3 ग्राम, मस्टर 3 ग्राम, तूतिया 3 ग्राम, कबीला 15 ग्राम, रालकामा 15 ग्राम। इन सब को अच्छे से मिला कर एक शीशी में रख लें। दाद रोग में मिट्टी के तेल (केरोसीन) में लेप बनाकर लगाएँ, खाज में सरसों के तेल के साथ मिलाकर सुबह-शाम लगायें। अकौता एग्जिमा में नीम के तेल में मिलाकर लगायें। यह दवा 10 दिन में ही सभी चर्मरोगो में पूरा आराम देती है।
चर्म रोग नाशक अर्क
शुद्ध आंवलासार गंधक, ब्रह्मदण्डी, स्वर्णछीरी की जड़, भृंगराज का पंचांग, नीम के पत्ते, बाबची, पीपल की छाल, इन सभी को 100 -100 ग्राम की मात्रा में लेकर व 10 ग्राम छोटी इलायची जौ के साथ 3 लीटर पानी में भिगो दें। सुबह इन सभी का अर्क निकाल लें। यह अर्क 10 ग्राम की मात्रा में सुबह खाली पेट मिश्री के साथ पीने से समस्त चर्म रोगों में लाभ करता है। इसके प्रयोग से खून शुद्ध होता है। इसके सेवन से चेहरे की झाइयाँ, आँखों के नीचे का कालापन, मुहासे, फुन्सियां, दाद, खाज, खुजली, अपरस, अकौता, कुष्ठ आदि समस्त चर्मरोगों में पूर्णतः लाभ होता है।

सुपारी से मुंह के कैंसर का खतरा
सुपारी सभी जगह नही उगती लेकिन इससे सभी परिचित है| जिस जगह पानी अधिक होता है सुपारी वही उगती है| यह मन को प्रसन्न रखती है साथ ही कफ,पित आदि को दूर करने वाली होती है| दुनिया भर में लाखों लोग सुपारी का सेवन करते है| सुपारी जो दुनिया के कई क्षेत्रों खायी जाती है वो दो अलग-अलग वनस्पति का एक मिश्रण है|
एक कच्ची सुपारी दूध में घिस कर पीने से पेट सभी कृमि (कीड़े) मर जाते है|
आमतौर पर सुपारी चबाने से ज्यादा लार आती है। कुछ लोग ज्यादा लार को या तो थूक देते है या निगल लेते है। परंपरागत रूप से सुपारी मौखिक स्वच्छता, भूख और लार के उत्पादन के लिए फायदेमंद होती थी। अब वैज्ञानिकों को पता चला है कि सुपारी चबाने से मुंह के कैंसर का खतरा बढ़ जाता है और यह प्रतिकूल गर्भ में बच्चों के स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकता है।
वहीं सुपारी के कई रूप उपयोगी भी है हालांकि ज्यादातर रूप जोखिम भरे और अस्वस्थ करते है। सुपारी एशियाई महाद्वीप के दक्षिण प्रशांत द्वीप समूह, दक्षिण पूर्व एशिया, पाकिस्तान और बांग्लादेश में एक साइकोएक्टिव ड्रग के रूप में लोकप्रिय है।

 

जब जल जायें तो करें ये घरेलू उपाय
अगर आप कहीं भी काम करते समय अचानक जल जायें तो कुछ घरेलू उपाय आपको तत्काल राहत दे सकते हैं। जब भी किसी कारण से त्वचा जल जाए, तो तुरंत उस पर ठंडा पानी डालें, ताकि फफोले ना पड़ सकें। इसके बाद भी आप जले हुए स्थान पर ठंडे पानी में कपड़ा भिगोकर लपेट दें, ताकि यह खतरा और भी कम हो जाए।
जलने पर एलोवेरा काफी फायदा पहुंचाता है। प्राथमिक उपचार के तौर पर इसका प्रयोग जले हुए स्थान पर किया जा सकता है। इसेक बेहतर परिणाम प्राप्त होंगे। पानी या दूध से घाव को धोने के बाद एलोवेरा को जले हुए स्थान पर लगाएं। जले हुए स्थान पर आलू या आलू का छिलका लगाकर रखने से भी जलन से राहत मिलेगी और ठंडक मिलेगी। इसके लिए आलू को दो भागों में काटकर उसे जख्म पर रखें। जलने के तुरंत बाद यह करना काफी फायदेमंद होगा। जले हुए स्थान पर तुरंत हल्दी का पानी लगाने से दर्द कम होता है और आराम मिलता है। इसलिए इसे प्राथमिक उपाचार के तौर पर प्रयोग किया जा सकता है।
शहद का प्रयोग भी जले हुए स्थान पर करने से लाभ होता है, क्योंकि यह एक अच्छा एंटीबायोटिक होता है। यह घाव के कीटाणुओं को खत्म करने में सहायक होता है। इसके लिए शहद को पट्टी पर लेकर पट्टी को घाव पर रख दें और इस पट्टी को दिन में दो से तीन बार जरूर बदलें।
जले हुए स्थान पर टी-बैग रखने से भी आपको काफी राहत मिलेगी। इसके लिए टी-बैग को फ्रि‍ज या ठंडे पानी में कुछ देर रखने के बाद घाव पर लगाएं। इसमें टैनिक अम्ल होता है, जो घाव की गर्मी को कम की उसे ठीक करने में मदद करता है।
जले हुए हिस्से पर तुलसी के पत्तों का रस लगाना भी बेहद असरकारक होता है। इससे हुए वाले भाग पर दाग बनने की संभावना कम होती है।
तिल का उपायोग भी जलने पर राहत पहुंचाने में सहायक है। तिल को पीसकर जले हुए स्थान पर लगाने से जलन और दर्द नहीं होगा। तिल लगाने से जलने वाले हिस्से पर से दाग-धब्बे भी समाप्त होते हैं।
जल जाने पर टूथपेस्ट भी एक कारगर उपचार है जिससे जलन तो कम होती ही है, साथ ही त्वचा पर फफोले भी नहीं पड़ते। इसलिए जलने पर कुछ उपलब्ध न हो तो तुरंत टूथपेस्ट लगा लिजिए।
जलने पर तुरंत पानी में नमक डालकर गाढ़ा घोल बनाएं, और प्रभावित स्थान पर लगाएं, इससे ठंडक भी मिलेगी और त्वचा फफोले भी नहीं पड़ेंगे। जले हुए स्थान पर तुरंत मीठा सोडा डालकर रगड़ने से भी फफोले नहीं पड़ते और बिल्कुल जलन नहीं होती।

मधुमेह को लेकर जागरुकता की कमी
भारत में डा‍यबिटीज (मधुमेह) को लेकर जागरुकता की कमी देखी गई है। मधुमेह एक ऐसा रोग है जो अंदर ही अंदर आपको खोखला कर देता है। इससे शरीर में कई गंभीर रोगों का भी खतरा रहता है। इसमें शरीर में बने घाव नहीं भरते और जान का भी खतरा बना रहता है। इसमें शरीर में शुगर का स्तर बढ़ जाता है और एक स्तर से आगे होने पर इंसुलिन के इंजेक्शन लेने पड़ते हैं।
इसके बाद भी शुगर नियं‍त्रण और इससे जुड़ी बीमारियों को लेकर लोगों की जानकारी बेहद कम है। इस मामले में कराये गए एक अध्‍ययन से पता चला है कि 40 फीसदी लोगों को शुगर के सामान्‍य स्‍तर का पता नहीं है। यही नहीं डायबिटीज के लिए हर तीन महीने में करवायी जाने वाली औचक जांच (एचबीएवनसी) के बारे में केवल दस फीसदी लोग ही जानते हैं। बीमारी की कम जानकारी की वजह से डायबिटीज के करीब 50 फीसदी मरीज दिल की बीमारी के करीब हैं।
डायबिटीज प्रबंधन के क्षेत्र में काम कर रहे एक अध्‍ययन के अनुसार 30 से 40 साल की उम्र के 45 फसदी लोग डा‍यबिटीज से पहले की अवस्‍था यानी प्री डायबिटीज को गंभीरता से नहीं लेते हैं। यह वह स्थिति होती है जब साधारण जांच में शुगर का स्‍तर सामान्‍य से अधिक पाया जाता है।
शुगर नियंत्रण को लेकर लोग गंभीर नहीं रहते हैं। डायबिटीज प्रबंधन की जानकारी दस प्रतिशत मरीजों को भी नहीं है। यही कारण है कि डायबिटीज की पहचान होने के पांच से आठ साल के अंदर मरीजों को दिल की धमनियों की बीमारी हो जाती है।
अध्‍ययन में पाया गया कि वर्ष 2008 में डायबिटीज के लिए पंजीकृत 50 प्रतिशत मरीज दिल की बीमारी के करीब हैं। इनके खून में साधारण कोलेस्‍ट्रॉल का स्‍तर अधिक देखा गया, जबकि 67 प्रतिशत को इस बात की जानकारी नहीं है कि डायबिटीज उनके शादीशुदा जीवन को भी प्रभावित करती है।

क्या होता है डायलिसिस
डायलिसिस को हिन्दी में अपोहन कहते हैं। डायलिसिस खून साफ करने की एक कृत्रिम विधि है इस प्रक्रिया को तब अपनाया जाता है जब किसी रोगी का किडनी। वृक्क, गुर्दे सही से काम नहीं करता है। जब हमारी किडनी सही ढंग से काम नहीं करता है ऐसे में विषैले पदार्थों (क्रिएटिनिन और यूरिया) का शरीर से बाहर नहीं निकलना कठिन हो जाता है। विषैले पदार्थों की जब मनुष्य के शरीर बढ़ जाता है, तो डायलसिस की आवश्यकता पड़ती है।
किडनी फेल होने के लक्षण
जब गुर्दे की कार्य क्षमता 80-90 % तक घट जाती है इसमें पेशाब का बनना बहुत कम हो जाता है जिससे विषाक्त पदार्थों का शरीर में जमा होने से थकान सूजन, मतली उल्टी और सांस फूलने जैसे लक्षण दिखाई दे सकता है। ऐसे समय में सामान्य चिकित्सा प्रबंधन यानि दवाई अपर्याप्त हो जाता है और मरीज़ को डायलिसिस शुरू करने की जरूरत होती है।

 

नियमित रुप से करायें दांतों की जांच
भारत में दांतों की समस्याओं को गंभीरता से नहीं लिया जाता है। हाल ही में किए गए एक अध्ययन से संकेत मिलता है कि लगभग 95 प्रतिशत भारतीयों में मसूड़ों की बीमारी है, 50 प्रतिशत लोग टूथब्रश का उपयोग नहीं करते और 15 वर्ष से कम उम्र के 70 प्रतिशत बच्चों के दांत खराब हो चुके हैं। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के अनुसार, भारतीय लोग नियमित रूप से दंत चिकित्सक के पास जाने की बजाय, कुछ खाद्य और पेय पदार्थो का परहेज करके स्वयं-उपचार को प्राथमिकता देते हैं। दांतों की सेंस्टिविटी एक और बड़ी समस्या है, क्योंकि इस समस्या वाले मुश्किल से चार प्रतिशत लोग ही दंत चिकित्सक के पास परामर्श के लिए जाते हैं।
तनाव का दांतों की सेहत पर बुरा प्रभाव
आईएमए के विशेषज्ञों के अनुसार, “तनाव का दांतों की सेहत पर बुरा असर होता है1 तनाव के चलते कई लोग मदिरापान और धूम्रपान शुरू कर देते हैं, जिसका आगे चलकर दांतों पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। जागरुकता की कमी के चलते ग्रामीण इलाकों में दांतों की समस्या अधिक मिलती है। शहरों में जंक फूड और जीवनशैली की अन्य कुछ गलत आदतों के कारण दांतों में समस्याएं पैदा हो जाती हैं। प्रसंस्कृत भोजन में चीनी अधिक होने से भी नई पीढ़ी में विशेष रूप से दांत प्रभावित हो रहे हैं।”
रक्तस्राव को न करें नजरअंदाज
दांतों में थोड़ी सी भी परेशानी को अनदेखी नहीं करनी चाहिए और जितनी जल्दी हो सके, दंत चिकित्सक से मिलना चाहिये। दांत दर्द, मसूड़ों से रक्तस्राव और दांतों में सेंस्टिविटी को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। वयस्कों के अलावा, दांतों की समस्याएं बच्चों में भी आम होती है। दूध की बोतल का प्रयोग करने वाले शिशुओं के आगे के चार दूध के दांत अक्सर खराब हो जाते हैं।”
दूध की बोतल भी है नुकसानदेह
दूध की बोतल से भी बच्चों के दांत खराब हो सकते हैं। इसलिए माताओं को हर फीड के बाद एक साफ कपड़े से शिशुओं के मसूड़े और दांत पोंछने चाहिए। अगर अनदेखा छोड़ दिया जाए तो दंत संक्रमण से हृदय संबंधी समस्याएं भी हो सकती हैं।”
दांतों की देखभाल के उपाय
दो बार ब्रश करें।
फ्लॉसिंग उन दरारों को साफ करने में मदद करता है जहां ब्रश नहीं पहुंच पाता है।
बहुत अधिक चीनी खाने से बचें। स्टार्चयुक्त खाद्य पदार्थ भी दांतों के क्षय का कारण बन सकते हैं, क्योंकि चीनी लार में जीवाणुओं के साथ प्रतिक्रिया करके एसिड बनाती है जो दांतों के इनेमल को नष्ट कर देता है।
जीभ को भी रखें साफ
किसी भी असामान्य संकेत की उपेक्षा न करें। यदि मसूड़ों में सूजन हो या खून आ जाए तो दंत चिकित्सक से परामर्श करें।
दांतों की जांच हर छह महीने में कराएं। दांतों की सफाई और एक वर्ष में दो बार जांच-पड़ताल आवश्यक है।

अब एचआईवी का इलाज होगा आसान
अब शोधकर्ताओं ने एचआईवी का आसान इलाज खोज लिया है। यह 99% तक एचआईवी वायरस को खत्म कर सकता है। यू.एस. नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ हेल्थ और फार्मास्युटिकल फर्म सनोफी के शोधकर्ताओं ने ये दावा किया कि उन्होंने एक ऐसा एंटीबॉडी तैयार किया है जो ना सिर्फ 99% एचआईवी वायरस पर वार करता है बल्कि ये प्राइमेट्स में इंफेक्शन को रोकने का काम भी करता है।ये एंटीडोट घातक वायरस के तीन हिस्सों पर वार करता है जिससे इस वायरस का प्रभाव अधिक से अधिक कम हो सके।
इंटरनेशनल एड्स सोसाइटी (आईएएस) ने इस एंटीडोट, जिसे ‘इंजीनियर एंटीडोट’ के नाम से जाना जाता है, को एचआईवी का प्रभावी इलाज माना जा रहा है। सनोफी के चीफ डॉ. गैरी नेबेल का कहना है कि किसी भी अन्य एंटीडोट चाहे वे खोजे गए हैं या नैचुरल हैं उनके मुकाबले ये बहुत ही शक्तिशाली और उपयोगी है। हमने रिसर्च के दौरान देखा है कि ये 99% तक सही रूप से काम कर रहा है। वैज्ञानिकों ने एंटीबॉडीज को खत्म करने के लिए पहली बार इसका इलाज इस तरह से करने का प्रयास किया है। इंसान पर इसके प्रयोग की संभावना अगले साल तक शुरू होगी ताकि यह पता लगाया जा सके कि इंसान के शरीर में एचआईवी संक्रमण को रोकने या उसके इलाज में इसका क्या योगदान हो सकता है।

माइग्रेन से जबड़े की बीमारी होने का खतरा तीन गुना ज्यादा
माइग्रेन से पीड़ित लोगों में जबड़े की गंभीर बीमारी होने की आशंका तीन गुना तक बढ़ जाती है। एक शोध में यह बात सामने आई। शोधकर्ताओं ने कहा कि शोध के निष्कर्षो से पता चला है कि टेम्पोरोमैंडिबुलर डिसऑर्डर (टीएमडी) सीधे तौर पर माइग्रेन पैदा न कर जबड़े के जोड़ों को प्रभावित करता है हालांकि टीएमडी, माइग्रेन के एक हमले की तीव्रता को बढ़ा सकता है। ब्राजील के साओ पाउलो विश्वविद्यालय में शोधकर्ता और प्रमुख शोध लेखक लीडियान फ्लोरेंसियो ने कहा कि माइग्रेन बहुत से कारणों के साथ एक न्यूरोलॉजिकल डिजीज़ है, जबकि टीएमडी, गर्दन का दर्द और ब्रेन सेल संबंधी अन्य विकार माइग्रेन से ग्रस्त मरीजों की सेंसेविटी और रोग को बढ़ाता है। टेम्पोरोमैंडिबुलर जोड़ जबड़े को स्कल की हड्डी से जोड़ते हुए कब्जे के समान कार्य करता है, इसलिए चबाने और जोड़ों के तनाव में कठिनाई विकार के लक्षण में शामिल हैं।उन्होंने कहा कि माइग्रेन के हमले बार-बार होने से दर्द बढ़ सकता है।
अध्ययन के लिए टीम ने 30 साल के आसपास उम्र की महिलाओं पर गौर किया, जिनका किसी तरह का कोई पुराना माइग्रेन या एपिसोडिक माइग्रेन या माइग्रेन का इतिहास नहीं था जिन्हें माइग्रेन की शिकायत नहीं थी, उनमें 54 प्रतिशत टीएमडी के लक्षण पाए गए, जबकि हाल ही में माइग्रेन की शिकार हुई महिलाओं के साथ 80 प्रतिशत और पुराने माइग्रेन वाली महिलाओं में इसके 100 प्रतिशत लक्षण पाए गए। शोधकर्ताओं ने कहा है कि माइग्रेन से पीड़ित लोगों में टीएमडी होने की प्रबल संभावना रहती है, जबकि टीएमडी ग्रस्त लोगों में जरूरी नहीं कि उन्हें माइग्रेन हो।

ज्यादा नमक से बीपी ही नहीं डायबीटीज का भी खतरा
नमक के बिना खाने का स्वाद नहीं है। यह शरीर के लिए जरुरी है पर इसकी अधिकता हमें जानलेवा रोगों का शिकार बना देती है। सभी जानते हैं कि ज्यादा नमक खाने से ब्लड प्रेशर की समस्या होती है पर हाल ही में हुए एक ताजा अध्ययन में हैरान करने वाला खुलास हुआ है। इसमें कहा गया है कि ज्यादा नमक खाने से डायबीटीज होने का खतरा भी बढ़ जाता है। प्रत्येक 2.5 ग्राम अतिरिक्त नमक के सेवन से टाइप 2 डायबीटीज का खतरा 43 प्रतिशत तक बढ़ जाता है। रिसर्च में बताया गया है कि जो लोग हर दिन तकरीबन 7.3 ग्राम नमक का सेवन करते हैं, इनमें उन लोगों के मुकाबले डायबीटीज का खतरा ज्यादा होता है जो लोग हर दिन 6 ग्राम तक नमक का सेवन करते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि नमक में मौजूद सोडियम इंसुलिन प्रतिरोध पर सीधा असर डालता है। इस वजह से हाई ब्लड प्रेशर और वजन बढ़ने जैसी समस्याएं पैदा होती हैं। ज्यादा मात्रा में नमक का सेवन वयस्कों में लेटेंट ऑटोइम्यून डायबीटीज का खतरा बढ़ा देता है। रिसर्च के मुताबिक सोडियम के प्रभाव से लेटेंट ऑटोइम्यून डायबीटीज का खतरा हर दिन प्रति ग्राम सोडियम पर 73 प्रतिशत तक बढ़ जाता है। नमक में मौजूद सोडियम इसका प्रमुख कारण है। इसलिए अपने खाने में नमक कम डालें। नमक का ज्यादा मात्रा में सेवन आपके रक्त संचरण और ब्लड प्रेशर को बिगाड़ सकता है। इसके अलावा नमक के ज्यादा सेवन से दिल की बीमारी का खतरा भी बढ़ जाता है।
ऑस्टियोपोरोसिस से बचाता है सीबीएफ-बीटा प्रोटीन
शोधकर्ताओं ने एक ऐसी प्रणाली की पहचान की है जो बताता है कि बुजुर्गो की हड्डियों में कमजोरी क्यों आ जाती है। साथ ही शोधकर्ताओं ने ऐसा तरीका खोज निकाला है, जिसके जरिए बढ़ती उम्र के साथ हड्डियां कमजोर होने के इलाज में काम आ सकता है। शोधकर्ताओं ने पाया कि ऑस्टियोपोरोसिस यानी हड्डी के पतलेपन और डेंसिटी में कमी के कारण हड्डी टूटने का खतरा बढ़ जाता है। यह बुजुर्गो की एक प्रमुख स्वास्थ्य समस्या है। अक्सर ये हालात बोन मैरो में फैट सेल्सर की वृद्धि के साथ पैदा होते हैं। बर्मिघम के अलबामा विश्वविद्यालय के प्रोफेसर यू-पिंग ली के एक अध्ययन में सामने आया है कि सीबीएफ-बीटा नामक एक प्रोटीन हड्डियों के बनने में मददगार कोशिकाओं को शरीर में बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
एक परीक्षण में पाया गया कि युवाओं की तुलना में वृद्ध लोगों की बोन मैरो सेल्स में सीबीएफ-बीटा का स्तर कम पाया गया। इस निष्कर्ष से पता चलता है कि इस प्रणाली में खराबी आने पर, कोशिकाएं हड्डियों को बनाने में मदद करना बंद कर देती हैं और फैट सेल्स को बनाने में मदद करती हैं। ली ने कहा कि सीबीएफ-बीटा नाम के प्रोटीन को बनाए रखना ह्यूमन लाइफ रिलेटिड ऑस्टियोपोरोसिस को रोकने में मदद कर सकता है।शोधकर्ताओं का कहना है कि इस प्रणाली की जानकारी होने से कम से कम साइड इफेक्ट के साथ ह्यूमन बोन मेरो का इलाज किया जा सकता है।

सीने में दर्द को न करें नजरअंदाज
आम तौर पर हम शरीर के संकेतों पर ध्यान नहीं देते। इससे आगे चलकर हमें परेशानी उठानी पड़ती है।
छाती का दर्द होने पर गैस सोचकर इसे नजरअंदाज न करें। हर्ट अटैक के अलावा कभी-कभी कई अन्य कारणों से भी छाती में दर्द की होता है। हर बार ऐसा नहीं होता कि आपकी छाती का दर्द हर्ट अटैक का ही लक्षण हो। कभी-कभी कई अन्य कारणों से भी छाती में दर्द की समस्या जन्म लेती है। छाती में किसी भी तरह का दर्द हो, उसे नजरअंदाज करना कतई सही नहीं है। हो सकता है कि यह कोई बड़ी बीमारी की वजह से न हो लेकिन अगर आप उसे यूं ही हल्के में लेते रहे तो एक दिन आपके लिए यह गंभीर समस्या भी बन सकती है। इसलिए तत्काल डॉक्टर से मिलें।
पेट में किसी भी तरह की समस्या छाती दर्द का कारण हो सकती है। पित्त की थैली में बना गैस जब छाती की तरफ आता है तो सीने में दर्द की शिकायत उठती है। सोने के टाइम पर होने वाला यह दर्द पेट में खराबी का संकेत है।
अगर आपकी छाती के बगल किसी भी तरह का दर्द हो या फिर सांस लेने और खांसने में छाती में दर्द होना शुरू हो जाए तो यह समझ लीजिए कि आपको फेफड़े से संबंधित कोई बीमारी है।
सीने की अंदुरूनी दीवारों पर कभी-कभी सूजन का हो जाना भी दर्द का कारण हो सकता है। सीने की अंदरूनी सूजन की वजह से सांस लेने पर सीने में असहनीय दर्द होता है। इसका कारण टीबी या फिर निमोनिया हो सकता है ।
टीबी की वजह से फेफड़ों की झिल्ली में सूजन आ जाती है। ऐसे में जब भी हम सांस लेते हैं तो सूजन के हवा से रगड़ खाने पर तेज दर्द उठता है। यह चिकित्सा शास्त्र में प्ल्यूराइटिस कहा जाता है।
अगर आपके सीने की बाईं ओर दर्द हो रहा है तो यह हर्ट अटैक की वजह से भी हो सकता है। एंजाइना पिक्टोरिस की वजह से भी सीने में दर्द उठ सकता है। इसमें दिल तक रक्त की बेहद कम मात्रा ही पहुंच पाती है। इस वजह से दिल को ऑक्सीजन कम मिलता है और सांस लेने में भी दिक्कत आने लगती है।

विटामिन बी 3 से आंखों में ग्लॉकोम का खतरा होता है कम
पानी में विटामिन बी3 डालने से आंख की रोशनी कम होने की बीमारी ( ग्लॉकोम) के खतरे को कम किया जा सकता है। इससे आंखें स्वस्थ रहती हैं। विशेषज्ञों के अनुसार इलाज के लिए आंखों में बार-बार ड्रॉप्स डालना महंगा पड़ता है। वहीं, पानी में विटामिन बी3 डालकर पीना सुरक्षित और सस्ता तरीका है। बुज़ुर्गों के लिए हर रोज़ आंखों में दवाई डालना मुश्किल हो सकता है। ऐसे में यह उपचार उनके लिए आसान है। पूरी दुनिया में करीब 80 मिलियन लोग ग्लॉकोम से पीड़ित हैं और आईड्राप्स पर निर्भर रहते हैं। यह बीमारी आंखों में एक्सट्रा प्रेशर के कारण होती है, क्योंकि इसमें नर्व्स डैमेज हो जाती हैं। फैमिली हिस्ट्री या डायबिटीज़ के कारण, ग्लॉकोम होने का रिस्क बढ़ जाता है। इसका ट्रीटमेंट आईड्रॉप्स हैं, जो सभी को सूट नहीं करते, और आंखों में जलन भी पैदा करते हैं। गंभीर मामलों में मरीज़ की सर्जरी या लेज़र थेरेपी करनी पड़ती है।
ग्लॉकोम के लक्षण
आंख में दर्द, उल्टी, आंख का लाल होना आदि। अचानक से आंख की रोशनी कम होना भी इस बीमारी का संकेत है।
वैसे तो इस बीमारी को ठीक करना मुश्किल है, लेकिन कुछ तरीके अपनाने से ऐसा ज़रूर हो सकता है कि आंखों की रोशनी ज़्यादा कम न हो। इसके लिए पहले तो इस बीमारी को पहले स्टेज में ही पकड़ लेना ज़रूरी है, क्योंकि इसमें रोशनी कम होने की प्रक्रिया बेहद धीमी रहती है। आंखों में दबाव को कम करने के प्राकृतिक तरीके।
अपनी जीवनशैली में कुछ ऐसे बदलाव करके जिनसे की आपका ब्लड प्रेशर कम हो, आंखों के दबाव को भी कम करता है। इस उपचार का कोई साइड इफेक्ट नहीं है।
अपने इंसुलिन लेवल को कम करें।
जैसे आपका इंसुलिन का स्तर बढ़ता है, यह आपके रक्तचाप का कारण बनता है, और इससे आपकी आंखों पर दबाव भी बढ़ता है। समय के साथ आपका शरीर इंसुलिन प्रतिरोधी बन जाता है। यह उन लोगों को ज़्यादा होता है, जो डायबिटीज़, मोटापा और हाई ब्लड प्रेशर के मरीज़ हैं।
इसका समाधान यह है कि आपको अपनी डाइट में चीनी और अनाज कम करना होगा। अगर आपको ग्लॉकोम है या इसके बारे में चिंतित हैं, तो आप ये सब खाने से बचें
ब्रेड, पास्ता, चावल, अनाज और आलू।
नियमित रूप से व्यायाम करें: इंसुलिन के स्तर को कम करने का सबसे प्रभावी तरीका है व्यायाम, जैसे- एरोबिक्स और स्ट्रेंथ ट्रेनिंग। इससे इंसुलिन लेवल कंट्रोल में रहता है और आंखों की रोशनी भी बचाई जा सकती है।
ओमेगा -3 फैट सप्लीमेंट: इसे लेने से भी इस बीमारी को दूर रखा जा सकता है। डीएचए नामक ओमेगा -3 फैट आंखों के स्वास्थ्य के लिए काफी अच्छा है। यह आंखों की रोशनी नहीं जाने देता। डीएएच सहित ओमेगा -3 फैट, मछली में पाए जाते हैं, लेकिन विशेषज्ञ मछली न खाने की राय देते हैं। उनके मुताबिक इस फैटी एसिड का सबसे अच्छा स्रोत है क्रिल ऑयल।
हरी सब्जियां खाएं: ल्यूटिन और ज़ेकैक्थिन से आंखों की रोशनी बढ़ती है। ल्यूटिन हरी, पत्तेदार सब्जियों में विशेष रूप से बड़ी मात्रा में पाया जाता है। यह एंटी-ऑक्सीडेंट है और आंखों के सेल्स को खराब होने से बचाता है।
साग, पालक, ब्रोकोली, स्प्राउट्स और अंडे के पीले भाग में भी ल्यूटिन होता है लेकिन ध्यान रहे कि ल्यूटिन ऑयल में घुलता है। इसलिए इन हरी सब्ज़ियों के साथ थोड़ा ऑयल या बटर खाना भी ज़रूरी है।
अंडे का पीला भाग न्यूट्रिएंट्स से भरपूर होता है, लेकिन इसे पकाते ही इसके सारे पोषक तत्व खत्म हो जाते हैं। इसलिए एक्सपर्ट्स सनी साइड अप खाने की सलाह देते हैं। ट्रांस फैट से बचें ट्रांस फैट को भी अपनी डाइट में कम करें। इससे भी आंखों की रोशनी जाने का खतरा बढ़ सकता है। ट्रांस फैट पैकेज्ड फूड्स, बेक्ड फूड्स और फ्राइड फूड्स में पाया जाता है।

इस प्रकार शुरुआत में कैंसर का पता चलेगा
कैंसर एक ऐसी जानलेवा बीमारी है जिसका इलाज बेहद ही मुश्किल और दर्दनाक है। कई तरह के कैंसर ऐसे भी होते हैं, जिनका कोई इलाज ही नहीं है। इसीलिए शुरुआत में ही लक्ष्णों को पहचानकर अगर हम डॉक्टर के पास जायें तो कैंसर की रोकथाम की जा सकती है। इसके लिए आपको थोड़ा सतर्क और जागरुक रहना पड़ेगा। अगर आपको कोई भी दिक्कत बार-बार होती है, तो इसे हल्के से नहीं लेते हुए अपने डॉक्टर से ज़रूर संपर्क करें। ये हैं कैंसर की शुरुआत भी हो सकती है।
अगर आपको अक्सर सांस लेने में दिक्कत होती है और सांस लेते वक्त आवाज़ भी सुनाई देती है, तो यह फेफडे के कैंसर की शुरुआत के संकेत हो सकते हैं।
सीने में दर्द और लंबी खांसी
कैंसर के कई मरीज़ बाजू और सीने में दर्द की शिकायत करते हैं। ये ट्यूमर और रक्त कैंसर (ल्यूकेमिया) का संकेत हो सकता है।
बार-बार संक्रमण और बुखार
ल्यूकेमिया के शुरुआती दिनों में मरीज़ को बार-बार इंफेक्शन और बुखार होता है। ऐसा इसीलिए, क्योंकि शरीर में सफेद रक्त कणों की गिनती सामान्य नहीं रहती। इससे शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति भी प्रभावित होती है ऐसे में बुखार और संक्रमण बार -बार होने लगता है।
गले का कैंसर होने पर मरीज़ को खाना निगलने में दिक्कत होती है।
बांहों के नीचे या गर्दन पर सूजन
लिम्फ नोड्स बीन्स की शेप में ग्लैंड्स होते हैं। कैंसर के शुरू होने पर यह सूज सकते हैं और अंडरआर्म के नीचे या गर्दन पर देखे जा सकते हैं।
चोट लगना और खून निकलना
ल्यूकेमिया के कारण लाल रक्त कण और प्लेटलेट्स में बदलाव हो सकता है, जिससे रक्त स्राव (ब्लीडिंग) का भी खतरा बढ़ जाता है।
हमेशा थकान रहना
जब शरीर ज़रूरत से ज़्यादा काम करता है, तब तो थकान होती ही है, पर थकान का हमेशा रहना भी कैंसर का संकेत हो सकता है।
पेट के निचले हिस्से में दर्द
कैंसर की शुरुआत में पेट के निचले हिस्से में दर्द रहता है और पेट फूला-फूला भी रहता है। यह ओवेरियन कैंसर का संकेत हो सकता है।
पेट का फूलना और वज़न बढ़ना
अगर आपका पेट अक्सर फूला रहता है और आप बिना किसी वजह के फूलते जा रहे हो, तो यह भी ओवेरियन कैंसर के लक्षण हो सकते हैं।
पीठ के निचले हिस्से में दर्द
कैंसर की शुरुआत में पीठ के निचले हिस्से में अक्सर दर्द रहता है। यह ब्रेस्ट ट्यूमर का भी लक्षण हो सकता है या लिवर कैंसर का भी। इसीलिए, अगर आपको अक्सर इस जगह दर्द रहती है, तो तुरंत अपने डॉक्टर से संपर्क करें।

डेंगू को लेकर फैली है गलत धारणाएं
देश भर में डेंगू के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं. जिस तरह से डेंगू से हो रही मौतों ने दहशत फैलाई है इसको देखते हुए इससे जुड़ी भ्रांतियों और तथ्यों के बारे में भी जागरूकता फैलाना बेहद जरुरी है। आईएमए के एक विशेषज्ञ ने कहा कि डेंगू के मामले अगले एक महीने तक आते रहेंगे और इसको लेकर दहशत और अव्यवस्था फैलाने की बजाए हमें इसकी रोकथाम के बारे में जागरूकता फैलाने और इसके रोकने के तरीकों के लिए सही समय पर कदम उठाने चाहिए।
साथ ही कहा कि केवल एक प्रतिशत मामलों में डेंगू जानलेवा साबित हो सकता है। डेंगू के ज्यादातर मामलों का इलाज ओपीडी में किया जा सकता है। अस्पताल में भर्ती होने की जरूरत नहीं पड़ती।
महामारी नहीं
डेंगू के कई मामले सामने आए हैं लेकिन यह महामारी के स्तर तक नहीं पहुंचा है.
यह आम धारणा है कि डेंगू के सभी मामले एक जैसे होते हैं और सभी का इलाज भी एक समान होता है जो सही नहीं है।
डेंगू को दो श्रेणियों डेंगू बुखार और गंभीर डेंगू में बांटा जा सकता है। अगर मरीज में कैपलरी लीकेज हो तो उसे गंभीर डेंगू से पीड़ित माना जाता है, जबकि अगर ऐसा नहीं है तो उसे डेंगू बुखार होता है। टाइप 2 और टाइप 4 डेंगू से लीकेज होने की ज्यादा संभावना होती है।
डेंगू से पीड़ित सभी मरीजों का अस्पताल में भर्ती होना जरूरी नहीं है। डेंगू बुखार का इलाज ओपीडी में हो सकता है और जिन मरीजों में तीव्र पेट दर्द, टैंडरनेस्स, लगातार उल्टी, असंतुलित मानसिक हालात और बेहद कमजोरी है उन्हें ही केवल भर्ती होना पड़ सकता है।
हमेशा याद रखें कि 70 प्रतिशत मामलों में डेंगू बुखार का इलाज तरल आहार लेने से हो जाता है। मरीज को साफ सुथरा 100 से 150 मिलीलीटर पानी हर घंटे देते रहना चाहिए। एक बार डेंगू होने पर दोबारा कभी डेंगू नहीं हो सकता। यह धारणा सही नहीं है।
तथ्य यह है कि डेंगू की चार किस्में हैं। एक किस्म का डेंगू दोबारा नहीं हो सकता लेकिन दूसरी किस्म का डेंगू हो सकता है। दूसरी बार हुआ डेंगू पहली बार से ज्यादा गंभीर होता है। पहली बार में केवल एजीएम या एएस1 ही पाजिटिव होगा और दूसरी बार में एजीजी भी पॉजिटिव होगा।
यह माना जाता है कि डेंगू बुखार का प्रमुख इलाज प्लेटलेट्स टरांसफ्यूजन है जो सही नहीं है। प्लेटलेट्स ट्रांसफ्यूजन की जरूरत तब होती है, जब प्लेटलेट्स की संख्या 10000 से कम होती है और ब्लीडिंग हो रही हो। ज्यादातर मामलों में प्लेटलेट्स ट्रांसफ्यूजन की जरूरत नहीं होती और यह फायदे की बजाय नुकसान कर सकता है। तरल आहार देते रहना इसके इलाज का सबसे बेहतर तरीका है। जो लोग मुंह से तरल आहार नहीं ले सकते उन्हें नाड़ी से तरल आहार दिया जा सकता है।
धारण है कि मशीन से प्राप्त प्लेट्लेट्स संख्या सटीक होती है। वास्तविकता यह है कि मशीन की रीडिंग असली प्लेटलेट्स की संख्या से कम हो सकती है।प्लेटलेट्स की संख्या का यह अंतर 30000 से ज्यादा तक का हो सकता है। केवल प्लेट्लेट्स संख्या से ही डेंगू का सम्पूर्ण और कारगर इलाज हो सकता है जबकि प्रोगनोसिस और इनक्रीज्ड कैपिलरी परमियबिल्टी की जांच करने के लिए संपूर्ण ब्लड काउंट खास कर हीमोक्रिटिक की जरूरत पड़ती है, जो सभी समस्याओं का शुरुआती केंद्रबिंदु होता है।

माइक्रोचिप से होगा क्षत-विक्षत अंगों का उपचार
ओहियो,वैज्ञानिकों ने एक ऐसी तकनीक विकसित की है, जिसकी मदद से चोटिल और क्षतिग्रस्त अंगों को आसानी से ठीक किया जा सकेगा। इस तकनीक के कारण क्षत-विक्षत अंग भी ठीक हो सकेंगे। साथ ही, घाव भी भर सकेंगे। नसों और धमनियों को भी इस तकनीक की सहायता से ठीक किया जा सकेगा। इस तकनीक का नाम टिशू नैनोट्रांसफेक्शन (टीएनटी) है। इसमें नैनो तकनीक की मदद से त्वचा की कोशिकाओं को कई अन्य तरह की कोशिकाओं में तब्दील किया जा सकता है। फिर इन कोशिकाओं के द्वारा क्षतिग्रस्त कोशिकाओं को ठीक किया जाता है। एक छोटे माइक्रोचिप के द्वारा कोशिकाओं के परिवर्तन की यह प्रक्रिया पूरी की जाती है। यह माइक्रोचिप एक सिक्के जितना बड़ा है। यह चिप जेनेटिक कोड को त्वचा की कोशिकाओं के अंदर डालता है। फिर ये कोशिकाएं अन्य तरह की कोशिकाओं में तब्दील हो जाती हैं। एक वैज्ञानिक ने बताया कि इस चिप का इस्तेमाल भी बेहद आसान है। इसे सिर्फ त्वचा पर रखना होता है और फिर एक सेकंड से भी कम समय में यह नई विशेष तरह की कोशिकाओं का निर्माण कर देता है।
ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने चूहों और सूअरों पर इस चिप का परीक्षण किया। चिप की मदद से चूहों और सुअरों की त्वचा कोशिकाओं को धमनी कोशिकाओं और नस कोशिकाओं में बदलने में कामयाबी मिली। एक हफ्ते के बाद इन नई कोशिकाओं ने धमनियों और नसों के नए उत्तकों का निर्माण किया। एक चूहे के बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुके पैर को भी इस चिप की मदद से ठीक किया गया। एक अन्य प्रयोग में वैज्ञानिकों ने चूहे के दिमाग की कोशिकाओं को भी ठीक करने में कामयाबी हासिल की। इस चूहे को ब्रेन स्ट्रोक आया था। इस चिप के कारण चूहा पूरी तरह से ठीक हो गया।
इस शोध में शामिल एक वैज्ञानिक डॉक्टर चंदन सेन ने बताया, ‘इसकी कल्पना कर पाना मुश्किल है, लेकिन इसके नतीजे बिल्कुल सटीक हैं। उन्होंने दावा किया कि 98 फीसद मामलों में यह तकनीक सफलतापूर्वक काम कर रही है। इस तकनीक की मदद से हम त्वचा की कोशिकाओं को पलक झपकते ही किसी भी अंग की कोशिकाओं में बदल सकते हैं। इस प्रक्रिया के लिए एक सेकंड से भी कम का समय चाहिए होता है। यह चिप आपके शरीर में लगा नहीं रहता, अपना काम करने के बाद इसे हटा लिया जाता है। इसे हटाने के बाद कोशिकाओं की पुनर्रचना शुरू हो जाती है।’

जीन थेरेपी से होगा डायबिटीज का स्थायी इलाज
डायबिटीज,के रोगियों के लिए अब एक स्थायी इलाज मिलने की संभावना नजर आ रही है। अभी तक मधुमेह को परहेज और दवा के जरिये ही नियंत्रित किया जा रहा है। अब एक नये अध्ययन से उम्मीद की नई किरण नजर आ रही है। वैज्ञानिकों ने उम्मीद जताई है कि जीन थेरेपी से डयबिटीज का स्थायी इलाज होगा। अब तक जीन थेरेपी को चूहों में टाइप-2 डायबिटीज और मोटापे के इलाज के लिए स्किन ट्रांसप्लांट के तौर पर इस्तेमाल किया किया है।
शोधकर्ताओं ने मौजूदा इम्यून सिस्टम के साथ चूहों से चूहों का स्किन ट्रांसप्लांट का मॉडल तैयार किया है। यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर शाओयांग वू का मानना है कि चूहों में जीन थेरेपी सुरक्षित और स्थिर होने की संभावना है और उन्हें उम्मीद है कि इंसानों पर भी ये थेरेपी सफल होगी।
शोधकर्ताओं ने सीआरआईएसपीआर आधारित टेक्नॉलोजी से जन्मे एक चूहे के स्किन स्टेम सेल्स में बदलाव किया ताकि सेल्स पेप्टाइड को छुपा सके जो ब्लड शुगर को कंट्रोल करता है। चूहे में सेल्स ट्रांसप्लांट करने से इंसुलिन स्राव बढ़ता दिखा और हाई-फैट डाइट से बढ़ता वजन कम दिखाई दिया और साथ ही इंसुलिन का लेवल नियंत्रि‍त होते दिखा।
ताज़ा शोध
मधुमेह के रोगियों का इम्‍यून सिस्‍टम कमजोर हो जाता है, जिसके कारण शरीर की बीमारियों से लड़ने की क्षमता प्रभावित होती है। मधुमेह उन कोशिकाओं को नष्ट कर देता है यह ब्लड शुगर की मात्रा को नियंत्रित करने के लिए ज़रूरी हार्मोन इंसुलिन का निर्माण करती हैं।
ताज़ा शोध से पता चला है कि ऐसी वैक्सीन विकसित की जा सकती है जो मरीज़ों के प्रतिरोधक तंत्र को मजबूत कर सके। इसके लिए 80 मरीज़ों पर शोध किया गया।
स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर में शोधकर्ताओं ने ठीक इसके वैक्सीन का इस्तेमाल प्रतिरोधक तंत्र को हमले से बचाने के लिए किया। शोध के दौरान वैक्सीन को मरीज़ के शरीर की बीटा कोशिकाओं पर हमला करने वाली सफ़ेद रक्त कोशिकाओं पर इस्तेमाल किया गया। मरीजों को तीन महीनों तक हर हफ्ते इंजेक्शन दिए जाने के बाद शरीर में सफ़ेद रक्त कोशिकाओं की मात्रा कम हो गई।
मरीज़ों की रक्त जांच से पता चला कि वैक्सीन लेने वाले मरीज़ों के शरीर में बीटा कोशिकाएं सिर्फ़ इंसुलिन के इंजेक्शन लेने वाले मरीज़ों की तुलना में बेहतर काम कर रही थी। हालांकि प्रतिरोधक तंत्र के अन्य हिस्से पहले की तरह ही थे।
प्रोफेसर लॉरेंस स्टीनमैन ने कहा, ‘इसके नतीजों से हम बहुत उत्साहित हैं। इससे पता चलता है कि पूरे प्रतिरोधक तंत्र को नष्ट किए बिना सिर्फ़ बेकार प्रतिरोधक कोशिकाओं को नष्ट करना संभव हो सकेगा।’यह शोध अभी शुरूआती दौर में है। अभी वैक्सीन के दूरगामी परिणामों को परखने के लिए बड़ी संख्या में मरीज़ों पर इसके परीक्षण की ज़रूरत है।

टमाटर के रस से कम होती है रजोनिवृत्ति की परेशानियां
रजोनिवृत्ति और उसके बाद का समय महिलाओं के लिए काफी कठिन रहता है क्योंकि इस दौरान हार्मोन का स्राव बंद होने लगता है। इससे महिलाओं को कई शारीरिक और मानसिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। ऐसे में खानपान और रहन सहन में कुछ बदलाव कर वे कई समस्याओं से राहत पा सकती हैं।
टमाटर का रस रजोनिवृत्ति के लक्षणों को कम करने में मददगार तो है ही साथ ही कोलेस्ट्रॉल और तनाव को भी नियंत्रित करता है। शोधकर्ताओं ने शोध में पाया कि आठ हफ्तों तक दिन में दो बार 200 मिलिलीटर टमाटर का रस लाभप्रद है। इस शोध में 93 महिलाओं को टमाटर का रस पीने दिया गया और उनके हृदय की गति और कई अन्य जांच की गई। इसके बाद देखा गया आया कि रजोनिवृत्ति की परेशानियां जैसे तनाव, हॉट फ्लैश आदि आधी हो गईं। यही नहीं, आराम करने के दौरान महिलाओं की ज्यादा कैलोरी भी बर्न होती है।
स्तन कैंसर का खतरा भी होता है कम
हाल ही में हुए एक अन्‍य शोध में माना गया है क‌ि रजोनिवृत्ति के बाद महिलाओं के लिए टमाटर का अधिक सेवन ब्रेस्ट कैंसर के खतरे को भी कम करता है। टमाटर में विटामिन सी, लाइकोपीन, विटामिन, पोटैशियम भरपूर मात्रा में पाया जाता है। टमाटर में कोलेस्ट्रॉल को कम करने की क्षमता होती है। टमाटर खाकर वजन को आसानी से कम किया जा सकता है।
आखिर क्यों दी जाती है रात में हल्का खाना खाने की सलाह?
टमाटर की खूबी है कि गर्म करने के बाद भी इसके विटामिन समाप्त नहीं होते हैं। न्यूजर्सी की रटगर यूनिवर्सिटी के शोध में माना गया है कि डाइट में अधिक टमाटर के सेवन से महिलाओं के हार्मोन्स पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और यह फैट्स और शुगर को न‌ियंत्रित करने में मदद करता है।

ब्लैडर कैंसर से रहें सावधान
ब्लैडर कैंसर जानलेवा होता है इसलिए इसका इलाज समय रहते करा लें। शरीर में ब्लैडर की दीवारों के टिश्यूज के इंफैक्टेड (संक्रमित) होने से ये कैंसर आरंभ होता है। इसकी शुरुआत में ब्‍लैडर में खून के थक्के जमने आरंभ होते हैं।
इस प्रकार होते हैं शुरुआती संकेत
इसके आरंभिक लक्षणों में यूरीन के साथ खून आता है। जब ब्‍लैडर इन्‍फेक्टिड होता है तो ऐसा होता है।
ब्‍लैडर में इन्‍फेक्‍शन के कारण यूरीन करते समय जलन और तेज दर्द होता है. अगर ये लंबे समय तक बना रहे या बार-बार हो तो सचेत हो जाना चाहिए।ये एक सामान्‍य लक्षण है जो कई बड़ी बीमारियों में होता है। ये है बिना किसी वजह के तेजी से वजन कम हो जाना। अगर आपके साथ ऐसा हुआ है या हो रहा है जो इसे हल्‍के में ना लें। इसके साथ ही थोड़ा सा काम करके थक जाना और कमजोरी रहना भी इसके लक्षणों में शामिल है। यूरीन के साथ सफेद टिश्‍यूज डिस्‍चार्ज होना और पेट के निचले हिस्‍से यानी पेल्विक रीजन में दर्द बने रहना भी एक संकेत भर है।
इससे पीडि़त लोग अक्‍सर हड्डियों में लगातार दर्द रहने की शिकायत भी करते हैं।
अगर बार-बार यूरीन इन्‍फेक्‍शन हो रहा हो तो भी ये इसका एक लक्षण हो सकता है। डॉक्‍टर्स और तमाम स्‍टडीज कहती हैं कि इस बीमारी की जद में 60 साल से ज्‍यादा के लोग सबसे अधिक है।. साथ ही, ऐसे लोग जिनका वजन ज्‍यादा होता है वे भी इसके खतरे में होते हैं। शराब का सिगरेट का अत्‍यधिक सेवन करने वालों को ये कैंसर होने का खतरा अधिक होता है।

गर्भावस्था में रखें खानपान का खास ध्यान
गर्भवती महिलाओं को अपने खानपान का खास ख्याल रखना पड़ता है। इस दौरान उनके शरीर को सभी पोषक तत्वों की जरूरत होती है जिससे डिलीवरी के बाद कमजोरी नहीं आती। ऐसे में गर्भावस्था में गुड़ खाना महिलाओं के लिए बहुत फायदेमंद होता है। इसमें आयरन, कैल्शियम और फॉस्फोरस जैसे कई गुण होते हैं जो शरीर की सभी जरूरतों को पूरा करते हैं। गर्भावस्था के सांतवे महीने से सभी महिलाओं को गुड़ खाना शुरू कर देना चाहिए। आइए जानिए गर्भावस्था के दौरान गुड़ खाने से क्या-क्या फायदे मिलते हैं।
खून की कमी नहीं होती
गुड़ में मौजूद आयरन शरीर में ब्लड सेल्स बनाने में मदद करता है जिससे डिलीवरी के समय महिलाओं के शरीर में खून की कमी नहीं होती और रोग प्रतिरोधक क्षमता भी मजबूत होती है। भ्रूण का सही विकास होती है और रक्त भी शुद्ध रहता है। रोजाना खाने के बाद गुड़ का सेवन करने से होने वाले बच्चे की सेहत और वजन एक दम सही रहता है। गर्भावस्था में कई महिलाओं को जोड़ों में दर्द होने लगता है। ऐसे में गुड़ का सेवन करना चाहिए। इसमें मौजूद कैल्शियम हड्डियों को मजबूत करता हैं और शरीर को भी ताकत मिलती है जिससे जोड़ों में होने वाली दर्द से राहत मिलती है।
बी पी रहता है ठीक
कुछ महिलाओं को इस दौरान ब्लड प्रैशर की समस्या हो जाती है। ऐसा सिर्फ अधिक सोचने की वजह से होता है। ऐसे में गुड़ का सेवन करने से बी पी कंट्रोल में रहता है और दिल संबंधी समस्याएं भी कम होती हैं।
गर्भावस्था के दौरान अगर शरीर में पानी की कमी हो जाए तो काफी परेशानी हो जाती है। ऐसे में गुड़ में मौजूद मिनरल्स और पोटेशियम शरीर में पानी की कमी नहीं होने देते। इसके अलावा यह हाथों-पैरों में होने वाली सूजन को भी कम करता है।

लो ब्लड प्रेशर को नजरअंदाज न करें
मन और शरीर में चलने वाली उथल-पुथल का असर स्वास्थ्य पर पड़ना बहुत स्वाभाविक है। लो ब्लड प्रेशर के पीछे भी इसी तरह के कारण हो सकते हैं। ऐसे में लाइफस्टाइल और खानपान में सुधार तथा अन्य तरह से सतर्कता रखकर बहुत हद तक इस समस्या को नियंत्रित किया जा सकता है। ब्लड प्रेशर का लो होना या हाइपोटेंशन की तकलीफ का मतलब है रक्त के दबाव का 90/60 से भी कम होना। यूं सामान्य तौर पर थोड़ा-बहुत या बिना लक्षणों के ब्लड प्रेशर का लो हो जाना कोई समस्या पैदा नहीं करता लेकिन यदि इसके लक्षण स्पष्ट नजर आने लगें और बार-बार यह तकलीफ उभरने लगे, तो यह किसी अंदरूनी समस्या की ओर इशारा हो सकता है। जैसे- मस्तिष्क, हृदय तथा अन्य प्रमुख अंगों तक रक्त के प्रवाह का अपर्याप्त होना। खासकर उम्र के बढ़ने पर इस तरह की समस्याओं के उपजने का खतरा और बढ़ सकता है।
कई बार बहुत देर तक बैठे या लेटे रहकर उठने पर या लंबे समय तक खड़े रहने पर भी ब्लड प्रेशर लो हो सकता है। इसे पोस्चरल हाइपोटेंशन कहा जाता है। कई सारी अन्य ऐसी स्थितियां हैं, जो लो ब्लड प्रेशर का कारण बन सकती हैं। इनमें गर्भावस्था, हार्मोनल समस्याएं जैसे थाइरॉइड या डायबिटीज आदि, कुछ विशेष औषधियां, अल्कोहल का अधिक सेवन, हृदय संबंधी अनियमितताएं, रक्त वाहिकाओं का चौड़ा होना या फैलना और लिवर डिसीज आदि शामिल हैं। वहीं दुर्घटना, बीमारी या किसी अन्य कारण से ब्लड प्रेशर का एकदम से बहुत लो हो जाना खतरे का संकेत भी हो सकता है।
डॉक्टर से करें सपर्क
लो ब्लड प्रेशर के शुरूआती मामले सामान्य तौर पर कोई नुकसान नहीं पहुंचाते पर इसके लक्षणों का उभरना सतर्क हो जाने का इशारा हो सकता है। ऐसे में तत्काल डॉक्टर से संपर्क करना चाहिये।
चक्कर आना या सिर घूमना। चक्कर खाकर गिर जाना। एकाग्रता में कमी होना। धुंधला दिखाई देना, उल्टी आने का अहसास होना, त्वचा का ठंडा पड़ जाना, त्वचा का चिपचिपा या पीला पड़ जाना, सांस का असामान्य होना, अधिक थकान का अनुभव होना। भोजन और जीवनशैली में परिवर्तन, इस समस्या के संदर्भ में बड़ी राहत दे सकता है।
इस प्रकार के उपाय करें
पानी भरपूर मात्रा में पीएं। इससे रक्त की मात्रा में वृद्धि होती है तथा डिहाइड्रेशन से लड़ने में मदद मिलती है
लंबे समय तक खड़े रहने या बैठने के बाद उठने पर यदि आपको समस्या होती है, तो उठने की गति को नियंत्रित करें। सुबह सोकर उठते समय तेजी से उठने की जगह पहले लेटे-लेटे कुछ गहरी सांसें लीजिए, फिर धीरे से बैठिए और फिर खड़े होइए। सोते समय सिर को थोडा ऊंचा रखना भी काफी मदद करेगा
अपने डॉक्टर के मार्गदर्शन से व्यायाम को नियमित रूप से अपनाइए
भोजन को छोटे-छोटे कई टुकड़ों में बांटकर खाइए
आलू, चावल, पास्ता, नूडल्स और ब्रैड जैसे हाई कार्बोहाइड्रेट फूड का सेवन कम से कम करें
शराब का सेवन न करें।
चाय या कॉफी का सेवन लाभ दे सकता है लेकिन इसकी मात्रा को लेकर डॉक्टर से परामर्श अवश्य लें
व्हाइट फली, सादा दही, कीवी फ्रूट, आड़ू, केला, लाल शिमला मिर्च, ब्रोकली, शकरकंद, क्विनोआ, एवोकाडो आदि इस समस्या में फायदेमंद होगें।
मल पर रखें नियंत्रण
मन और शरीर में चलने वाली उथल-पुथल का असर स्वास्थ्य पर पड़ना बहुत स्वाभाविक है। लो ब्लड प्रेशर के पीछे भी इसी तरह के कारण हो सकते हैं। ऐसे में जीवनशैली और खानपान में सुधार तथा अन्य तरह से सतर्कता रखकर बहुत हद तक इस समस्या को नियंत्रित किया जा सकता है। ब्लड प्रेशर का लो होना या हाइपोटेंशन की तकलीफ का मतलब है रक्त के दबाव का 90/60 से भी कम होना। यूं सामान्य तौर पर थोड़ा-बहुत या बिना लक्षणों के ब्लड प्रेशर का लो हो जाना कोई समस्या पैदा नहीं करता लेकिन यदि इसके लक्षण स्पष्ट नजर आने लगें और बार-बार यह तकलीफ उभरने लगे, तो यह किसी अंदरूनी समस्या की ओर इशारा हो सकता है।

बारिश के मौसम में स्वास्थ्य का रखें ध्यान
भीषण गर्मी के बाद मानसून का मौसम राहत की बारिश लाने के साथ ही ठंडक लाता है। इसमें चारों ओर हरियाली होने के साथ ही एक अलग ही अहसास होता है। इस मौसम में हमें स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखना पड़ता है क्योंकि पानी खराब होने के साथ ही वातावरण में नमी से कई रोगों का खतरा बढ़ जाता है।
मानसून में पाचन क्रिया धीमी गति से काम करती है, इस मौसम में तला भुना खाने का मन करता है पर ध्यान रहे इस प्रकार का खाना आपको नुकसान पहुंचा सकता है। इस मौसम में हल्का व कम मसालेदार खाना खाएं, विटामिन युक्त चीजें खाएं। बाजार के कटे हुए फल न खाएं, बासी जूस पीने से बचें। ताजा बना खाना खाएं और फस्ट फूड का सेवन जहां तक हो सके न करें।
बारिश के कारण भाप युक्त हवा चलने से हमारी पाचन प्रणाली पर प्रभाव पड़ता है। कफ जमने की शिकायत बढ़ती है। वायु, पित्त और कफ इन तीनों प्रकार के दोषों के कारण कई तरह के रोग होने की आशंका रहती है। इसलिए मौसम के दौरान ज्यादा लवणयुक्त, अम्लीय पदार्थ का सेवन करने से बचें। तिल-तेल, बैंगन, सरसों, राई का भी सेवन नहीं करना चाहिए।
खाने के साथ पीने के पानी से भी सबसे ज्यादा संक्रमण फैलता है। जी हां बरसात में डायरिया, हैजा, पीलिया और बुखार जैसी अधिकतर बीमारियां पानी के ही कारण होती हैं। इसलिए बेहतर होगा कि फिल्टर का पानी पीएं, नहीं तो पानी उबाल कर पीएं और दिन भर में ज्यादा से ज्यादा पानी पीने की कोशिश करें।
मानसून में जगह-जगह पानी जमा होने के कारण मच्छर ज्यादा पनपने लगते है। और मच्छरों की वजह से डेंगू और मलेरिया जैसी बीमारियों का सामना करना पड सकता है। इसलिए इनसे बचने के सभी उपाय अपनाएW। पूरी बांह के कपड़ें पहनें।
बरसात के मौसम में दूध और बटर मिल्क काफी हितकारी होते हैं। बटरमिल्क जहां हमारी पाचन क्रिया को दुरस्त करता है, वहीं बरसात के मौसम में रोजाना एक गिलास गर्म दूध हमें संक्रमण से बचाता है।
मानसून में नाश्ता भारी, लेकिन रात का खाना हल्का होना चाहिए। ऐसा करने से आपका पाचनतंत्र ठीक रहता है। रात को सोने से कम से कम एक घंटा पहले खाना खाएं और खाना खाने के बाद टहलना न भूलें।
डेंगू स्थिर पानी से पैदा होता है। इसलिए घर के आस-पास पानी जमा न होने दें, पानी के कंटेनरों को कवर कर दें, या खाली कर दें जिससे मच्छर पैदा न हो और आप मच्छरों के काटे जाने के जोखिम से बच सकें।
बरसात में भीग जाने पर कई रोग होने की आशंका बनी रहती है, लेकिन अगर अदरक और तुलसी के पत्तों की चाय पी ली जाएं तो किसी भी तरह का इंफेक्शन होने का खतरा टाला जा सकता है। इसके अलावा नियमित रूप से प्याज और अदरक भी हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता और पाचन क्रिया को मजबूत करते हैं।

दांत निकलते समय बच्चे को दें चबाने वाला भोजन
जब छोटे बच्चों के दांत निकलते हैं तो मसूड़ों में दर्द या खुजलाहट होती है। जिसकी वजह से वे चिड़चिड़े हो जाते हैं और बात-बात पर रोने लगते हैं। बच्चों की इस समस्या को देखते हुए माता पिता उन्हें बाजार में मौजूद प्लास्टिक और रबड़ के टीथर दे देते हैं। लेकिन यह आपके बच्चों के लिए नुकसानदायक होते हैं क्योंकि इसमें बहुत से रासायनिक पदार्थ होते हैं। पुराने समय से ही बच्चों के दांत निकलने के समय पर उन्हें नेचुरल टीथर यानी चबाने वाले खाद्य पदार्थ दिए जाते थे, ताकि बच्चे उससे चबाएं और उनका चिड़चिड़ापन कम हो जाए। आइए जानें नेचुरल टीथर के बारे में ताकि बच्चे की सेहत को न पहुंचे नुकसान।आप अपने छोटे बच्चों को नेचुरल टीथर में गाजर, मूली, चुकंदर का एक पीस चबाने के लिए दें सकते हैं। प्लास्टिक या रबड़ के टीथर की तुलना में नेचुरल टीथर सुरक्षित होते हैं। नेचुरल टीथर में गाजर, मूली, चुकंदर कड़क होते हैं जो बच्चों के मसूड़ों में अच्छी तरह से दबाव बनते हैं। फ्रोजेन गाजर का स्टिक दें अपने छोटे बच्चों के मसूड़ों को मजबूत बनाने के लिए एक गाजर लेकर उसे अच्छे से साफ करें, फिर छील कर काट लें। काटने के बाद इसे थोड़े समय के लिए फ्रिज में ठंडा होने के लिए रख दें। पर ध्यान में रखें कि गाजर की स्टिक मोटी हो। अगर गाजर की स्टिक मोटी होगी तो बच्चा इसे तोड़ नहीं पाएगा और इसे ज्यादा समय तक चबाता रहेगा। इससे उसे पौष्टिक तत्व भी मिलेंगे।

दिल टूटना बन रहा जानलेवा
दिल का टूटना भी हार्ट अटैक का एक बड़ा कारण है। इस कारण हो रही बीमारी का ब्रोकन हार्ट सिंड्रोम है। एक अध्ययन के अनुसार लंबे समय तक दिल का टूटा रहना दिल को बेहद बीमार कर सकता है। एक साल के दौरान ब्रिटेन में करीब 3 हजार मरीज ब्रोकन हार्ट सिंड्रोम से पीड़ित बताए गए जिसे आमतौर पर टाकोटसूबो सिंड्रोम भी कहा जाता है।
इस बीमारी के कारण दिल में एक लोटेनुमा आकृति बन जाती है। यह बीमारी सबसे ज्यादा महिलाओं को अपना शिकार बनाती है। जापान में एक ऑक्टोपॉस के नाम पर इस बीमारी का नाम पड़ा है क्योंकि यह उसी के आकार का होता है। भावनात्मक तनाव इस बीमारी के मुख्य कारण में से एक है। तलाक, प्यार में धोखा, किसी करीबी की मौत या फिर जीवनसाथी के साथ विवाद… ऐसी घटनाएं हैं जिनकी वजह से लोगों का खासतौर पर महिलाओं का दिल टूट जाता है।
रिसर्च के मुताबिक, अगर ज्यादा समय तक लोग दिल टूटने के दर्द के साथ जीते हैं तो उनमें इस बीमारी के लक्ष्य बढ़ जाते हैं जिसका इलाज भी आसान नहीं है। रिसर्च के मुताबिक इस बीमारी के कारण लोगों की मौत होने की बड़ी वजह मसल्स का कमजोर हो जाना है। इस रिसर्च में 52 ब्रोकन हार्ड सिंड्रोम से पीड़ित मरीजों को 4 महीने तक निगरानी में रखा गया।
इस टीम ने पाया कि एक बार बीमारी डायग्नोज़ हो जाती है तो हार्ट की स्थिति पता चल जाती है। इस बीमारी में इंसान का दिल कैसे काम करता है इस बारे में रिसर्च में बहुत कुछ सामने आया है। डॉ डॉसन बताते हैं, ’जो मरीज इस बीमारी से पीड़ित हैं उनमें बगैर किसी ईलाज कैसे परिवर्तन आता है इसके बारे में ही रिसर्च की गई है। इसमें हमने पाया है कि यह बीमारी हार्ट को काफी हद तक डैमेज कर देती है। आंकड़ें भी कहते हैं कि डायग्नोज़ होने के 5 साल के भीतर इस बीमारी से मरने वालों की संख्या 17 फीसदी तक है।’ जबकि ब्रिटेन में इस बीमारी से 90 फीसदी महिलाएं पीड़ित हैं। फाउंडेशन के प्रफेसर मैटीन बताते हैं कि इस रिसर्च के परिणामों के बाद यह सच्चाई सामने आ चुकी है कि इस बीमारी के इलाज को लेकर दुनिया भर में रिसर्च की जरूरत है। साथ ही लोगों को भी ऐसी बीमारी से बचने के लिए जागरूक होने की जरूरत है।

ज्यादा चाय बच्चों के लिए हानिकारक
हमारे यहां करीब-करीब सभी घरों में दिन की शुरूआत चाय से पीने से होती है। ऐसा माना जाता है कि चाय पीने से पाचन क्रिया अच्छी रहती है, रोग प्रतिरोधक क्षमता दुरुस्त रहती है और कमजोरी दूर होती है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि चाय पीने के बहुत से फायदे हैं लेकिन एक बच्चे और वयस्क पर चाय के प्रभाव अलग-अलग प्रभाव होते हैं। कई घरों में लोग चाय में दूध की मात्रा ये सोचकर बढ़ा देते हैं कि इसी बहाने से बच्चा दूध पी लेगा। लेकिन ऐसा सोचना गलत है। हम सभी के घरों में चाय पीना बहुत सामान्य बात है। लेकिन ये बात जान लेना बहुत जरूरी है कि एक बच्चे और एक वयस्क पर चाय का असर अलग-अलग होता है। अगर आपका बच्चा बहुत अधिक चाय पीता है तो इसका असर उसके मस्तिष्क, मांसपेशियों और नर्वस सिस्टम पर भी पड़ सकता है। इसके साथ ही बहुत अधिक चाय पीने का असर शारीरिक विकास पर भी पड़ता है। बहुत अधिक चाय पीने वाले बच्चों को हो ये परेशानियां सकती हैं। इससे उनकी हड्डियां कमजोर हो सकती हैं। इसके अलावा हड्डियों खासतौर पर पैरों में दर्द की शिकायत हो सकती हैं। उनके व्यवहार में बदलाव आ सकता है। इसके अलावा चाय के सेवन से मांसपेशियां कमजोर हो सकती हैं।

 

 

आई-पिल को न बनायें आदत
आजकल अनचाहे गर्भधारण को रोकने के लिए युवाओं के बीच आई-पिल इमर्जेंसी कॉन्ट्रसेप्टिव (आई-पिल) का चलन आम हो गया है पर इस्तेमाल में इस प्रकार की अति इन्हें आने वाले समय में भारी पड़ सकती है। यह सही है कि पुरुष और महिलाएं अनचाहे गर्भधारण को रोकने के लिए तरह-तरह के उपाय अपनाते हैं। ऐसे में जरूरी है कि हम दोनों की जरूरतों और सहूलियतों के हिसाब से गर्भनिरोध के सही तरीकों को जान और समझ सकें हालांकि गर्भनिरोध की ज्यादातर जिम्मेदारी महिलाओं पर ही डाल दी जाती है, आई-पिल भी ऐसा ही एक उपाय है।
क्यों बढ़ रहा उपयोग
इमर्जेंसी कॉन्ट्रसेप्टिव का उपयोग करने वाले युवा इसे सेक्शुअल लिबर्टी का सिंबल मानते हैं। उन्हें लगता है कि इसकी वजह से अनचाहे गर्भ से आसानी से पीछा छुड़ाया जा सकता है। यह एक सच्चाई है कि इमरजेंसी पिल की वजह से गर्भ ठहरने के डर से मुक्ति मिल जाती है लेकिन इमर्जेंसी पिल सेफ सेक्स का विकल्प नहीं है। अगर कभी अनसेफ सेक्स हो गया है, तो इसे लिया जा सकता है, मगर इसे रुटीन का हिस्सा नहीं बनाना चाहिए। इमरजेंसी पिल का यूज करें, मिसयूज नहीं। यह सही है कि असुरक्षित सेक्स की वजह से गर्भ ठहरने और फिर अबॉर्शन के तकलीफदेह प्रॉसेस से भी इमरजेंसी पिल बचाती है। इसके अलावा, टीवी पर दिखाए जाने वाले विज्ञापनों में दावा किया जाता है कि यह ७२ घंटे तक कारगर रहती हैं, मगर संबंध बनाने के जितनी देर बाद इन पिल्स को खाया जाता है, इनका असर उतना ही कम हो जाता है। बेहतर होगा कि किसी भी तरह की गोली को लेने से पहले किसी डॉक्टर से सलाह लें। इसके साइड इफेक्ट्स के बारे में भी पूरी जानकारी रखें।
आई-पिल से कई गंभीर बीमारियां का खतरा
आई-पिल अनचाहे गर्भ से बचाती है पर यह भी सही है कि इसकी वजह से कैजुअल सेक्स की प्रवृत्ति के साथ ही कई तरह की बीमारियां भी बढ़ रही है। युवतियों को यह बात समझनी चाहिए कि लंबे समय तक इसका इस्तेमाल उन्हें भविष्य में गर्भधारण में पूरी तरह अक्षम बना सकता है। इसके अलावा इस पिल से उल्टी महसूस होना और वॉमेटिंग हो सकती है। पिल्स से होने वाला ये सबसे आम साइड इफेक्ट्स हैं। अगर इमर्जेंसी पिल खाने के दो घंटों के भीतर वोमेटिंग होती है, तो पिल दोबारा खानी चाहिए, वरना सुरक्षा चक्र टूट सकता है और गर्भ ठहरने की संभावना रहती है। पिल की वजह से पेट दर्द या सिरदर्द की शिकायत भी हो सकती है। ज्यादातर मामलों में ये शिकायतें पिल के लगातार इस्तेमाल से सामने आती हैं। ब्रेस्ट हेवी या फिर बहुत ज्यादा सॉफ्ट होने लगती हैं। दोनों ही वजहों से महिलाओं को आम जिंदगी में दिक्कत होती है। इमरजेंसी पिल के ज्यादा यूज से अक्सर पीरियड साइकल गड़बड़ा जाती है। हालांकि कई बार पीरियड साइकल गड़बड़ाने की दूसरी वजहें भी होती हैं, जैसे कि ओवरी में प्रॉब्लम होना, हॉर्मोंस में गड़बड़ी होना आदि। इमरजेंसी पिल यूज करने पर पीरियड कुछ ज्यादा दिन खिंच सकते हैं, मगर इन्हें लेकर परेशान होने के बजाय डॉक्टर से सलाह लेन बेहतर होगा। एसटीडी का खतरा
इमर्जेंसी या दूसरी कॉन्ट्रसेप्टिव पिल एसटीडी (दूसरे पार्टनर से होने वाले यौन रोगों) के खतरे से बचाव नहीं करती। जो लोग एक ही पार्टनर के साथ सेक्स करते हैं, उन्हें तो कम रिस्क है, मगर एक से ज्यादा पार्टनर होने पर एसटीडी का खतरा ज्यादा रहता है। इमरजेंसी पिल के ज्यादा यूज की वजह से यौन संबंधी बीमारियों का रिस्क ज्यादा रहता है। इसमें भी सबसे ज्यादा खतरनाक एचपीवी ह्यूमन पैसिलोमा वायरस होता है, जो आगे जाकर सर्वाइकल कैंसर का कारण बन सकता है।

वैज्ञानिकों ने खोजी नई तकनीक, अंधे-बहरे देखेंगे टीवी 

लंदन,शोधकर्ताओं ने एक ऐसी तकनीक विकसित की है, जो ब्रेल को वास्तविक समय में टाइप करती है और नेत्रहीन व बहरे लोगों को बिना किसी की सहायता के टीवी देखने में मदद करती है। यूनिवर्सिडाड कालोर्स थर्ड डे मैड्रिड के शोधकर्ताओं ने एक प्रसारित हो सकने वाले ‘परवैसिव सब प्रोजेक्ट’ चलाया है, जो टेलीविजन चैनलों के उपशीर्षकों को संकलित करता है और उन्हें मुख्य सर्वर को भेजता है, जो आगे उसे फिर स्मार्टफोन और टैबलेट को भेजता है। वहां उन्हें एक एप्लिकेशन के माध्यम से अंधे-बहरे शख्स के ब्रेल लाइन को भेजा जाता है, जिससे अच्छे सिंप्रोनाइजेशन के साथ टीवी ब्रॉडकास्ट से सीधे कैप्चर हुए उपशीर्षकों की गति को नियंत्रित किया जा सकता है।
स्पेनिश ब्रॉडबैंड और दूरसंचार प्रदाता टेलीफोनिका द्वारा परवैसिवसब वित्त पोषित है। टेलीफोनिका (सस्टेनेबल इनोवेशन) के निदेशक अरांका डियाज-लाडो ने एक बयान में कहा, ‘टेलीफोनिका में हम और अधिक सुलभ कंपनी बनने का प्रयास करते हैं और इस तरह हम सभी के लिए समान अवसर पैदा कर रहे हैं और हालांकि हमें अभी लंबा सफर तय करना है…नई तकनीक और डिजिटल प्रांति हमें वहां पहुंचने में मदद करने वाला सबसे अच्छा माध्यम है।’ परीक्षण सफल रहा है और मैड्रिड के सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय डिजिटल टेरेस्ट्रियल टेलीविजन (डीटीटी) चैनलों के साथ इस सुविधा को जोड़ दिया गया है। शोधकतार्ओं का दल जरूरतमंदों को यह सुविधा मुफ्त में प्रदान कर रहा है।

हाइड्रोजन परॉक्साइड है कई रोगों की दवा
हाइड्रोजन परॉक्साइड का इस्तेमाल वैसे तो अस्पतालों और क्लिनिक्स में घावों और चोट की सफाई के लिए किया जाता है पर यह घर में भी कई काम आ सकता है। नहाते समय बाल्टी के पानी में दो या तीन चम्मच हाइड्रोजन परॉक्साइड डालने से त्वचा में मौजूद टॉक्सिन और केमिकल निकल जाते हैं। इससे त्वचा भी चिकनी और नरम रहती है। इसके दो-तीन बूंद कान में डालने से यह मैल को फुलाकर बाहर निकाल देता है। रात को सोते समय इसे पानी में मिलाकर पैरों को डुबाकर रखने से आराम मिलता है। यही नहीं बल्कि यह मुंह की बदबू दूर करने और दांतों को चमकाने में भी सहायक होता है। बस इसे इस्तेमाल करने की विधि आनी चाहिए। ये किसी भी केमिस्ट की दुकान में आसानी से मिल जाता है। हाइड्रोजन परॉक्साइड के इतने फायदेमंद हैं कि इसे हर घर में जरूर रखना चाहिए।
हाइड्रोजन परॉक्साइड एक प्रकार का रसायनिका मिश्रण हैं। जहां पानी में हाड्रोजन के 2 और ऑक्सीजन का एक एटम होता है, वहीं हाइड्रोजन परॉक्साइड में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन दोनों के ही 2-2 एटम्स होते हैं। इसके कारण इसमें मजबूत ऑक्सीडेटिव गुण आ जाते हैं जो संक्रमण दूर करने के साथ ही एंटीबैक्टीरियल के रूप में भी उपयोगी होते हैं।
यह एंटीसेप्टिक होता है और संक्रमण से बचाता है। रूई में हाइड्रोजन परॉक्साइड भिगोकर चोट और घावों में लगाते हुए सफाई कर सकते हैं। यह लाभकारी होगा और आराम भी पहुंचाता है।

जाने स्वस्थ्य रहने के छोटे उपाय

आप अपने शरीर को कुछ छोटे और आसान से उपायों से स्वस्थ रख सकते है जैसे हमेशा खाना खाने से पहले और बाद में साबुन से हाथ धोए और बाहर से आने के बाद अपना मुंह धोए इससे आपकी बाहरी त्वचा पर आ जाने वाले कीटाणु मर जाते है रोज़ाना नहाना अपने आस -पास की जगह को स्वछ रखना बारिश के मौसम में कुछ विशेष चीज़ों का ध्यान रखना जैसे मच्छर व कीड़े-मकोड़ो से अपना बचाव करना आवश्यक है. इसी तरह जिन विशेष बीमारियों का टीकाकरण होता है तो जरूर टीकाकरण करवाएं डॉक्टरों का कहना है की जल्दी सोने से भी आपकी कई बीमारिया दूर होती हे व् आप दिन भर जोशीले भी रहते है। आप कुछ-कुछ महीनो के अंतराल में अपना पूर्ण स्वास्थय परिक्षण भी करवाते रहे इससे भी आपको स्वस्थ्य रहने में मदद मिल सकती है. आप जैसे कहा गया है स्वस्थ खाने से भी स्वस्थ रह सकते है तो आप फल सब्ज़ी स्वस्थ रहने के लिए यह सब ज़रूर खाए अब आप स्वास्थ्य रहने के लिए यह टिप्स ज़रूर फॉलो करे:
1 हमेशा आपकी थाली में सब्ज़ी की मात्रा ज़्यादा हो
2. छोटे-छोटे वाक कर ते रहे जैसे -ऑफिस में सिद्दी लेना व् दर्वासा खोलने खुद जाना।
3. रोज़ाना आधे घंटे काम से काम कसरत करना।

स्वस्थ खाए और स्वस्थ रहें
आज -कल हममें से प्रत्येक खासकर युवा व् बच्चे junk food खाने के शौकीन हे वे पिज़्ज़ा ,बर्गर ,नूडल्स खाने के बहुत शौकीन है. मगर यह स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक है.वे इस बात को नज़रअंदाज़ करते हे मगर उनको भी यह सब मालूम है की इससे ब्लड कोलेस्ट्रॉल लेवल बढ़ता है तथा अमेरिका व कई यूरोपियन देशों में इसका असर दिख चूका हे. बच्चों में छोटी उम्र से ही फैट लेवल बढ़ जाता हे व् विशेषयज्ञों का यह कहना हे की एक हफ्ते में या महीने में सिर्फ एक ही बार जंक फ़ूड ख़ाना चाहिए तो उस से ज़्यादा नुकसान नहीं होगा ज़्यादा जंक फ़ूड का सेवन करने से मोटापा बढ़ जाता हे तथा कई सारे अन्य रोग भी हो जाते है.वही दूसरी ओर जो लोग हरी सब्ज़ीया खाते हे दूध पीते हे तथा पोष्टिक आहार लेते हे वे हमेशा स्वस्थ्य रहते है. उनको दिल की बीमारी ,ब्लड कोलेस्ट्रॉल ,अत्यधिक फैट तथा अन्य रोग नहीं होते हे पोष्टिक आहार खाने वाले का रोग -प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ जाती हे कई बार जंक फ़ूड खाना हार्ट अटैक का तक कारण बन सकता हे स्वस्थ रहने के कई और तरीके हे :
यह करना अच्छा रहे गा :
1 . रोज़ाना पैदल चलना व् कसरत करना
2. सिमित मात्रा में या जितनी भूख हो उससे कम खाना
3. रोज़ना योग करना

हार्ट अटैक पुरूषों की ही नहीं महिलाओं की भी समस्या

आमतौर पर ये माना जाता था कि हार्ट अटैक सिर्फ पुरूषों की समस्या है. लेकिन अब ये बात जाहिर हो चुकी है कि इससे महिलाएं भी नहीं बच सकी हैं.एैसे में जब अब हम ये मान रहे हैं कि हार्ट अटैक किसी को भी आ सकता है. तब जानना जरूरी है कि दिल का दौरा पडऩे पर क्या करना चाहिए.ं
ये देखा गया है कि अधिकाँश औरतों को छाती में कोई दर्द नहीं होता उन्हें हाथों और छाती में दर्द, जी मचलाना और चिपचिपी त्वचा जैसी परेशानियां लक्षण के तौर पर दिखी हैं. ये भी साफ हो गया है कि महिलाओं में मृत्यु का सबसे पहला कारण दिल की बीमारी ही है.
क्या हैं इसके लक्षण
अधिकांश महिलाएं जिन्हें हार्ट अटैक आया वे सांस लेने में परेशानी का अनुभव कर रही थी.हालाँकि पुरुषों में भी यह लक्षण होता है परंतु महिलाओं में सीने में दर्द हुए बिना सांस लेने में परेशानी जैसी समस्या का सामना करना पड़ सकता है. उनके शरीर के ऊपरी भाग में दर्द रहा. मसलन गर्दन, पीठ, दांत, जबड़ा, भुजाएं तथा कंधे की हड्डी में दर्द होना हार्ट अटैक के लक्षण हैं. इसके अलावा महिलाओं में पुरूषों से हटकर जी मिचलाना, उलटी या अपचन जैसे लक्षण अधिक दिखाई देते हैं. यह अकसर इसलिए होता है क्योंकि दिल को रक्त पहुंचाने वाली दायीं धमनी जो दिल में गहराई तक जाती है, अवरुद्ध हो जाती है.
आधी महिलाएं शिकायत करती हैं कि जब उन्हें हार्ट अटैक आया तब उन्हें अचानक थकान महसूस होने लगी जिसका कोई कारण भी नहीं था. आधी महिलाओं को नींद की समस्या का सामना भी करना पड़ा. उन्हें फ़्लू जैसे लक्षण भी दिखे हैं. इधर, रजोनिवृत्ति के दौर से गुजर रही महिलाओं में अचानक पसीना आना भी प्रमुख लक्षण था. सीने में दर्द और दबाव के साथ ही चक्कर आना सिर घूमना, जबड़े में दर्द, सीने या पीठ में जलन की शिकायत भी अचानक महसूस हुई है तो फिर आपको तुरंत डॉक्टर को जाकर दिखाना चाहिए.