फिल्मी आलेख

सन 2020 बार बार रुला रहा है फिल्मी दुनिया को!
डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट
इरफ़ान के बाद ऋषि कपूर का निधन भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री को न जाने किसकी नजर लग गई,जो सन 2020 उसके लिए बार बार रुदन का कारण बन रहा है।एक दिन पहले रंगमंच का मजा हुआ कलाकार और फ़िल्म इंडस्ट्री में अपने शानदार अभिनय से सबको अपना बना लेने वाले अभिनेता इरफ़ान खान का मात्र 54 वर्ष की आयु में निधन और अब कपूर खानदान के सदाबहार फ़िल्म अभिनेता ऋषि कपूर के निधन ने फ़िल्म इंडस्ट्री ही नही बल्कि देश दुनिया को आहत कर दिया है।एक दिन के अंतर पर दो महान फ़िल्मी हस्तियों की मौत पर सदी के महानायक अमिताभ बच्चन का दुःख के सागर में डूबकर टूट सा जाना स्वाभाविक ही है।
अभिनेता ऋषि कपूर ने 67 साल की उम्र में मुंबई के सर एच एन रिलायंस फाउंडेशन हॉस्पिटल में 30 अप्रैल की सुबह अंतिम सांस ली । वह पिछले 2 साल से कैंसर की जानलेवा बीमारी से जूझ रहे थे। ऋषि कपूर के भाई रणधीर कपूर ने बताया कि ऋषि कपूर को सांस लेने में तकलीफ थी।इरफान खान की मौत के दूसरे दिन ऋषि कपूर का जाना पूरे देश दुनिया के लिए दुःख की बात है।
ऋषि कपूर आखिरी समय तक उनका इलाज कर रहे चिकित्सको व नर्सिंग स्टॉफ मनोरंजन करते रहे थे। वह इलाज के दौरान हमेशा खुश रहे और जिंदगी को पूरी तरह से जीने के लिए उत्साहित रहे। परिवार, दोस्त, खाना और फिल्में ही उनके टाइम पास का साधन होता था , जो भी उनसे इस दौरान मिलता वह हैरान रह जाता।उनकी जीवटता देखने लायक थी। वह चाहते थे कि उन्हें मुस्कुराहट के साथ याद किया जाए न कि आंसुओं के साथ। aअभिनेता ऋषि कपूर दिल्ली में ‘शर्माजी नमकीन’ की शूटिंग के दौरान बीमार हो गए थे। इसके बाद उन्हें मुंबई के हॉस्पिटल में भर्ती करवाया गया था। उन्हें कैंसर रीलैप्स हुआ था।
दिल्ली में प्रदूषण के कारण उन्हें इनफेक्शन होने पर वायरल फीवर हुआ , कैंसर के फिर से हो जाने की बात सामने आई। उन्होंने दिल्ली में 18 दिन शूटिंग की थी। इसी दौरान दिल्ली प्रदूषण होने से उन्हें इनफेक्शन हो गया था।
कैंसर की जानलेवा बीमारी के दौरान उनकी पत्नी व पूर्व अभिनेत्री नीतू कपूर हर पल उनके साथ खड़ी रही। नीतू कपूर एक दिन के लिए भी ऋषि कपूर से दूर नहीं रहीं।इसके साथ ही रणबीर कपूर ने अपने पिता और पूरे परिवार को संभालने में मदद की ।रणबीर कपूर अधिकांश शूटिंग साइट पर रहते थे, वहीं एक दिन का भी समय मिलने पर सीधे पापा ऋषि कपूर के पास पहुंच उनकी देखभाल के लिए पहुंच जाते थे। ऋषि कपूर ने न्यू यॉर्क से लौटने के बाद फ्रेंच फिल्म ‘द बॉडी’ आधारित हिंदी फिल्म ‘द बॉडी’में काम किया था।इस फिल्म में उनके साथ इमरान हाशमी और शोभिता धुलिपाला मुख्य भूमिकाओं में थे लेकिन यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह से फ्लॉप हुई ।
बॉलीवुड में प्रभावशाली कपूर खानदान के चिराग ऋषि कपूर ने अपने परिवार के नक्शे कदम पर चलकर फिल्मों में अपनी किस्मत आजमाई।सन 1973 में फिल्म बॉबी के साथ उन्होंने बॉलीवुड में जोरदार एंट्री की और तब से लेकर आजतक वह हर किसी के दिलों पर राज करते रहे। सन 1973 से पहले, सन 1970 में राजकपूर की ही फिल्म मेरा नाम जोकर में ऋषि कपूर ने एक बाल कलाकार की भूमिका निभाई थी।
ऋषि कपूर का जन्म 4 सितंबर 1952 को हुआ था।उन्होंने बॉबी, द बॉडी, प्रेम रोग, 102 नॉटऑउट, मुल्क समेत सैकड़ों फिल्में की। ऋषि कपूर एक फ़िल्म अभिनेता, फ़िल्म निर्माता और निर्देशक थे। उन्हें बॉबी के लिए सन 1974 में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार और सन 2008 में फ़िल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार प्राप्त किया । उन्होंने उनकी पहली फ़िल्म में शानदार भूमिका के लिए 1971 में राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार भी मिला।
वह अभिनेता-फिल्म निर्देशक राज कपूर पुत्र थे।उन्होंने कैंपियन स्कूल, मुंबई और मेयो कॉलेज, अजमेर में अपने भाइयों के साथ अपनी स्कूली शिक्षा की। उनके भाई रणधीर कपूर और राजीव कपूर; मातृ चाचा प्रेम नाथ और राजेंद्र नाथ; और पैतृक चाचा, शशि कपूर और शम्मी कपूर सभी अभिनेता रहे हैं। उनकी दो बहनें रितु नंदा और रिमा जैन हैं।
ऋषि कपूर स्‍वर्गीय प्रूथ्‍वीराज कपूर के पोते थे। उन्‍होने अपने दादा और पिता के नक्‍शे कदम पर चलते हुए फिल्‍मों को ही अपना कैरियर बनाया और एक सफल अभिनेता के रूप में सामने आए। ऋषि कपूर और नीतू सिंह की शादी 22 जनवरी सन1980 में हुइ थी।ऋषि कपूर के दो संतानें है जिनमे रणबीर कपूर जो की एक अभिनेता है और रिदीमा कपूर जो एक ड्रैस डिजाइन है। करिश्मा कपूर और करीना कपूर इनकी भतीजियां हैं।
वर्ष 1970 में प्रदर्शित बॉबी फिल्म में ऋषि कपूर ने 14 वर्षीय लड़के की भूमिका निभाई ,जो अपनी शिक्षिका से प्रेम करने लगता है। अपनी इस भूमिका को ऋषि कपूर ने इस तरह निभाया कि दर्शक भावविभोर हो गये। युवा प्रेम कथा पर बनी इस फिल्म में उनकी नायिका की भूमिका डिंपल कपाडिया ने निभायी थी। बतौर अभिनेत्री डिंपल कपाड़िया की भी यह पहली ही फिल्म थी। वर्ष 1975 में प्रदर्शित फिल्म “खेल खेल में” की कामयाबी के बाद ऋषि कपूर बतौर अभिनेता अपनी खोई हुयी पहचान बनाने में कामयाब हो गये। कॉलेज की जिंदगी पर बनी इस फिल्म में उनकी नायिका की भूमिका अभिनेत्री नीतु सिंह ने निभाई थी।
फिल्म “खेल खेल में” की कामयाबी के बाद ऋषि कपूर और नीतु सिंह की जोड़ी दर्शकों के बीच काफी मशहूर हो गयी थी। बाद इस जोड़ी ने रफूचक्कर, जहरीला इंसान, जिंदादिल, कभी-कभी, अमर अकबर एंथनी, अनजाने, दुनिया मेरी जेब में, झूठा कहीं का, धन दौलत, दूसरा आदमी आदि फिल्मों में युवा प्रेम की भावनाओं को अनूठे रूप में प्रस्तुत किया । वर्ष 1977 में प्रदर्शित फिल्म “अमर अकबर एंथनी” ऋषि कपूर के सिने करियर की महत्वपूर्ण फिल्मों में एक है। अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना जैसे मंझे हुये कलाकारो की मौजूदगी में भी उन्होंने अपने दमदार अभिनय से दर्शकों को दीवाना बना दिया था।
वर्ष 1980 में प्रदर्शित फिल्म “कर्ज” उनकी सुपरहिट फिल्मों में शुमार की जाती है। सुभाष घई के निर्देशन में पुनर्जन्म पर आधारित इस फिल्म में उन पर फिल्माया यह गीत “ओम शांति ओम” दर्शकों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ था। इस गीत से जुड़ा दिलचस्प तथ्य यह है कि इसे कोलकाता के नेताजी सुभाषचंद्र स्टेडियम में फिल्माया गया था। वर्ष 1989 में प्रदर्शित फिल्म “चांदनी” ऋषि कपूर अभिनीत महत्वपूर्ण फिल्म है।
लेकिन लगता है कि इस साल में बॉलीवुड ग्रहण के अंधकार में उलझ गया है। सन 2020 के पहले दो महीने में कुल 40 फिल्में प्रदर्शित हुईं, लेकिन उनमें से अजय देवगन की ‘तानाजी’ ही करीब 280 करोड़ रुपए का नेट बिजनेस करके हिट का तमगा पहन पाई है। बाकी सभी फिल्में फ्लॉप होकर धराशायी हो गई।
फिल्मों के इस ठंडे बाज़ार में बॉलीवुड को विश्वास था कि मार्च 2020 में बॉक्स ऑफिस पर जरूर सफलता मिलेगी।लेकिन कोरोना वायरस के भारत में भी पाँव पसारने से सारे समीकरण ध्वस्त होकर रह गए हैं।
यूं तो पहले ही काफी लोगों ने थिएटर में जाकर फिल्में देखना कुछ कम कर दिया था। लेकिन अब कोरोना से सुरक्षा के चलते फिल्मों की शूटिंग बंद होने के साथ, देश के कई राज्यों में सिनेमाघर बंद होने से तो फिल्म व्यवसाय पूरी तरह चौपट हो गया है। जम्मू, कश्मीर, केरल, दिल्ली, कर्नाटक, ओड़ीसा, बिहार, हरियाणा, पंजाब, असम, तेलंगाना, राजस्थान, गुजरात, अरुणाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश के साथ फिल्म नगरी मुंबई और महाराष्ट्र के पुणे, नागपुर सहित अनेक शहरों में थिएटर्स बंद हो गए है।
अभी तक भारत में सिनेमाघर बंद होने से करीब करीब 70 प्रतिशत स्क्रीन्स प्रभावित हो गयी हैं। इससे सबसे बड़ा पहला नुकसान दो फिल्मों ‘अँग्रेजी मीडियम’ और ‘बागी-3’ को हुआ है।

इरफान की पहचान का परचम पान सिंह तोमर
डा. नाज परवीन
राजस्थान के जयपुर में जन्में इरफान खान ने अभिनय को कैरियर के रूप में चुना। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा नई दिल्ली में उन्होंने इसके लिए प्रशिक्षण लिया और मुम्बई की दुनिया का रूख किया। एक सफल अभिनेता के रूप में उनकी पहचान हासिल करने के लिए उन्हें संद्यर्ष का लम्बा दौर गुजारना पडा, हांलाकि उनमें प्रतिभा प्रारम्भ से ही कमाल की थी, लेकिन शायद सिनेमा की चका-चौंध ने उसका उपयोग थोडा देर सवेर ही किया। इरफान ने अपना मुश्किल दौर टी.वी. सीरियल चन्द्रकान्ता, चाणक्य, लाल घास से प्रारम्भ किया। सिनेमा में रातोंरात स्टार बनने वाली लिस्ट से थोडा जुदा थे इरफान खान उन्हें कामयाबी, शोहरत का मुकाम हासिल करने में जिन कठिनाइयों का सामना करना पडा वह एक साधारण अभिनेता के लिए सहज नहीं था। कई बार इस जददो जहद में उनके मन की आवाज घर वापसी को भी कहती रही लेकिन उनका जुझारू व्यक्तित्व डटा रहा, लडता रहा और दुनिया को उनकी प्रतिभा पर गर्व होना ही पडा। अभिनव के रूप में उन्होंने हॉलीवुड से बॉलीवुड तक का कामयाब सफर तय किया। दोनों जगह अपनी धाक जमा पाना अकसर एक अभिनेता के रूप में आसान नहीं हो पाता। कहते हैं इरफान खान ने भारत में जितने रूपयं नहीं कमाए, उससे ज्यादा डॉलर कमाए। पीकू, तलवार, जज्बा जैसी फिल्मों में उन्हें सराहा गया, लेकिन पान सिंह तोमर का उनका किरदार सिनेमा में उनकी पहचान का परचम लहराने में सफल रहा।
इरफान खान ने अपने अभिनय से न सिर्फ अपने किरदार को एक अलग पहचान दी अपितु पान सिंह तोमर के व्यक्तित्व को जिस अन्दाज में पर्दे पर निखारा, उससे दुनिया इरफान में ही बीहड के उस जुनूनी किरदार पान सिंह को दुबारा जी पायी। पान सिंह जो कि अपने देश के लिए लडना चाहता था, एक फौजी के रूप में कैसे एक भोले भाले व्यक्ति ने देश रक्षा के लिए आर्मी में सेवा देने के बाद, देश को सीमित साधन के साथ न कोई स्पेशल तैयारी न कोई विशेष सुविधाओं के दम पर नेशनल और इन्टरनेशनल मैडल की सौगात दी, जिस तरह से पर्दे पर उतारा किसी साधारण अभिनेता के लिए वह संभव न था। उनकी आसाधारण प्रतिभा की वजह से दुनिया चम्बल के बीहडों में अपने आत्मसम्मान से जूझ रहे एक डकैत को डकैत नहीं बागी के रूप में जान पायी। उनका फिल्म में संवाद ’बीहड में बागी होत हैं, डकैत बनत हैं पार्लियामेन्ट में………दशको तक बीहड का दर्द बयां करेगा। कैसे पान सिंह एक सैनिक की सजा भी मजे से लेता और कैसे अपनी भूख को शान्त करने के लिए देश को मैडल वे मैडल दिलाता गया और अन्त में लोभ और लालच और विश्वास की भेट चढ जाता है। उनका अभिनय देश विदेश में खूब पसंद किया गया। मार्च 2012 में रूपहले पर्दे पर आयी पान सिंह तोमर ने ऐसी घूम मचायी कि कई अवार्ड अपने नाम करने में सफल रही। इस फिल्म को डारेक्ट किया था तिग्मांशु धुलिया ने। फिल्म ने 70 मिलियन के बजट में 201.80 मिलियन की कमाई की। फिल्म की स्टोरी चंबल के बीहड और म.प्र. के गांवों में रची बसी, लेकिन पान सिंह के किरदार में जान तो इरफान खान ने डाली। उनका कहना चम्बल में डाकू न है साहेब……बागी बडे भले आदमी हैं………. जा देश में आरमी छोड सबके सब चोर हैं…..पान सिंह के भोले किरदार को ऐसे दर्शाता है कि कैसे एक साधारण व्यक्ति जीवन में कुछ गलतियों की भेट चढ जाता है। फिल्म के अन्त में दददा ओ दददा हम उपर आके भी जवाब लेंगे…….हमार जवाब पूरा न भव……….बीहड में दुश्मन खतम हो जात हैं दुश्मनी नाही……..। सेना में सूबेदार पान सिहं को पुनः जीवित करने जैसा प्रतीत होता है। इरफान के जान डाल देने वाले अभिनय के कारण ही न केवल पूरी फिल्मी दुनिया के आंखे नम हुई, अपितु भारत का शायद हो कोई शख्स अछूता हो जिसे इरफान खान के अचानक जाने का सदमा न लगा हो।
इरफान अपने जीवन में भी बहुत बडे योद्धा का रोल को निभाया। 2018 से जंग लड रहे अपनी लम्बी बीमारी से अन्त समय तक लडते रहे। अपने शरीर के भीतर हो रही हलचल को महसूस करते हुए उस जंग को दुनिया के सामने अनवांटेड मेहमान की वार्तालाप छोड़ गये। अपनी मेहनत और लगन की शिददत के बल पर आपनी आखिरी फिल्म अंग्रेजी मीडियम को पूरा कर दुनिया को अलविदा कह गये। दुनिया अपने ऐसे चहीते अभिनेता की भरपाई शायद ही कभी कर पाये।

दोष आलिया या सोनाक्षी अकेले का नहीं
अनिल बिहारी श्रीवास्तव
पिछले दिनों ट्वीटर पर आए एक कमेंट पर नजर टिक गई। कहा गया था- आलिया भट्ट का डम्ब गर्ल खिताब सोनाक्षी सिन्हा ने छीन लिया। अंग्रेजी शब्द डम्ब के अर्थ शब्दकोश में गूंगा, मूक, मूढ़ और मूर्ख मिलते हैं। चर्चित टीवी शो-कौन बनेगा करोड़पति में इतिहास और पौराणिक प्रसंग से जुड़े दो आसान से सवालों के जवाब फिल्म अभिनेत्री सोनाक्षी सिन्हा नहीं दे पाईं। बस क्या था, सोशल मीडिया पर सोनाक्षी की खिंचाई शुरू हो गई। ट्रोलर्स को उन्होंने जिस अंदाज में जवाब देने की कोशिश की उसे बहुत से लोगों ने पसंद नहीं किया। खिंचाई चलती रही। एक वरिष्ठ पत्रकार ने सटीक प्रतिक्रिया व्यक्त की है। उनका कहना है कि जरूरी नहीं है कि हर व्यक्ति को हर विषय की जानकारी हो लेकिन गलती होने पर घमंडपूर्ण कुतर्क की बजाय खेद व्यक्त कर मामला शांत कर लेना चाहिए। सोनाक्षी इस मामले में चूक गई।
कौन बनेगा करोड़पति में महानायक अमिताभ बच्चन ने सवाल किया था कि महाराणा प्रताप के समकालीन मुगल शासक का नाम क्या है। जवाब बहुत आसान था। सोनाक्षी इसका जवाब नहीं दे पाईं। इतिहास की मामूली जानकारी रखने वाले भी बता देंगे कि महाराणा प्रताप ने अकबर की सेना से लोहा लिया था। दूसरा सवाल और आसान था। सोनाक्षी और उनके साथ हॉट सीट पर बैठीं एक अन्य प्रतिभागी से पूछा गया था कि हनुमान किसके लिए संजीवनी बूटी लाए थे? चलिए, महाराणा प्रताप और अकबर संबंधी सवाल का उत्तर सोनाक्षी को याद नहीं आया लेकिन उन्हें तो संजीवनी बूटी वाले आसान से सवाल का जवाब भी नहीं मालूम था। लोगों को आश्चर्य होना स्वाभाविक है। हिंदुओं से आमतौर पर अपेक्षा की जाती है कि उन्हें इस तरह की सामान्य जानकारी होगी ही। रावण के पुत्र मेघनाथ द्वारा शक्ति का प्रयोग किए जाने से मूर्छित लक्ष्मण के प्राणों की रक्षा के लिए हनुमान संजीवनी बूटी लाए थे। देश में ऐसी हजारों हनुमान प्रतिमाएं और लाखों फोटो होंगी जिनमें हनुमान जी को द्रोणगिरी पर्वत उठाये हुए दिखाया गया है। इसी पर्वत पर संजीवनी बूटी का पौधा लगा हुआ था। सोनाक्षी से लोगों की नाराजगी का एक और कारण है। उनके पिता का नाम शत्रुघन सिन्हा है। शत्रुघन के भाइयों के नाम राम, लक्ष्मण और भरत हैं। सोनाक्षी के भाइयों के नाम लव और कुश हैं। सोनाक्षी जिस मकान में रहतीं हैं उसका नाम रामायण है। ऐसे राममयी परिवार की बेटी को रामायण से जुड़ी एक आम जानकारी नहीं होना आश्चर्य की बात तो है।
याद करें, फिल्म अभिनेत्री आलिया भट्ट के लिए सोशल मीडिया पर डम्ब शब्द का उपयोग किया था? इसके बाद आलिया के सामान्य ज्ञान को लेकर चुटकुलों का दौर चल निकला? टीवी कार्यक्रम कॉफी विथ करन में करन जौहर ने सवाल किया था कि भारत के राष्ट्रपति का नाम बताएं। आलिया के मुंह से अचानक निकल गया, पृथ्वीराज चव्हाण। खास बात यह रही कि आलिया ने आलोचनाओं को बहुत सामान्य रूप से लिया। वह स्वयं पर बनाये जाने वाले चुटकुलों का आनंद उठाने लगीं। आलिया का यह अंदाज लोगों को भाया। दूसरी ओर, सोनाक्षी ने जवाबी अंदाज में लोगों को अहंकार दिखा। एक तीखा कटाक्ष पढऩे में आया। किसी ने लिखा है, सूर्पनखा की नाक लक्ष्मण ने काटी थी लेकिन यहां शत्रुघन की नाक सोनाक्षी ने काट डाली। सार्वजनिक जीवन या ग्लैमर वल्र्ड में रहते हुए प्रशंसा या आलोचना दोनों के ही जवाब देते समय सावधानी की उम्मीद की जाती है। यानी, ना तो प्रशंसा पर अधिक उडऩे की जरूरत है और ना ही आलोचनाओं पर खीझने की। विनम्रता, सहनशीलता और धैर्य जरूरी है। यदि गलती हुई है, तो खेद व्यक्त करें, क्षमा मांगें और मामला निबटा लें। ऐसा करके छीछालेदर से बच सकते हंै।
लेकिन, केवल आलिया और सोनाक्षी पर ही क्यों निशाना साधा जाए। अपने आसपास नजर डालिए। ऐसे लोग बड़ी संख्या में मिल जाएंगे जो सामान्य ज्ञान या सामान्य जानकारियों के मामले में सिरे से शून्य हैं। हर आयु और वर्ग में ऐसी विभूतियां मिल जाएंगी। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान को ही लें। कुछ माह पूर्व वह जर्मनी और जापान की सीमाएं लगीं हुईं बता कर मजाक विषय बन चुके हैं। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने मार्च 2018 में एक महाविद्यालय की छात्राओं से बात करते हुए यह कह कर लोगों को चौंका दिया था कि उन्हें एन.सी.सी. के विषय में नहीं मालूम है। लेब्राडोर प्रजाति के कुत्ते के बारे चल रही बातचीत को किसी शहर के विषय में चर्चा समझ बैठी बॉलीवुड की एक पूर्व स्टार को ससुराल में मजाक का पात्र बनना पड़ा था। अभी पिछले दिनों की ही बात है, ट्रेन से जाते हुए दो युवतियों की सामान्य ज्ञान चर्चा को सुनकर सिर धुन लेने का मन हुआ। वो नवोदय विद्यालय की शिक्षक भर्ती परीक्षा देने जा रहीं थीं। दोनों भावी शिक्षिकाओं का कहना था कि अरूणंाचल प्रदेश और मेघालय समुद्र से लगे हुए हैं। पत्रकारिता में स्नातकोत्तर उपाधि धारक एक युवती ने हद ही कर दी थी। उसका कहना था कि मिस्र(इजिप्ट)त्रिपुरा में है। लगभग तीन दशक पूर्व का एक प्रसंग भूले नहीं भुलाता। जबलपुर में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल की एक शिक्षिका ने प्रायमरी के एक बच्चे की टेस्ट कापी में इस उत्तर को गलत बताया था कि बिहार की राजधानी पटना है। काफी बहस के बाद उस भद्र महिला को अपनी गलती का अहसास कराया जा सका। आंखों देखी एक और घटना याद आ रही है। बरसों पुरानी बात है। रेल्वे रिजर्वेशन के लिए लंबी लाइन लगी थी। धाराप्रवाह अंग्रेजी बोल रहीं दो युवतियों से रिजर्वेशन फार्म भरते नहीं बन रहा था। उनकी दशा पर वहां मौजूद लोग मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। यू ट्यूब पर एक वीडियो देख कर बड़ा दुख़ हुआ। गिटपिट इंग्लिश बोल रहीं कई युवतियां और युवक काठमांडु को हिमाचल या उत्तराखंड में होना बता रहे थे। भारत के राष्ट्रपति और गृहमंत्री के नाम नहीं बता पा रहे थे। दुनिया में क्या चल रहा है इसकी उन्हें कोई जानकारी नहीं थी। देश की समस्याओं से पूरी तरह अनभिज्ञ थे।
सामान्य जानकारियों और सामान्य ज्ञान का अभाव दर्शाते इन उदाहरणों का मकसद किसी का मजाक उड़ाना कतई नहीं है। इस बीमारी से विकसित और सम्पन्न देश तक जूझ रहे हैं। अमेरिका में पाया गया है कि वहां ऐसे युवाओं की खासी तादाद है जिन्हें वैश्विक मामलों की धेले भर जानकारी नहीं है। हमारी चिंता का विषय यह होना चाहिए कि हमारी युवा पीढ़ी में भी ऐसे लोगों की संख्या क्यों बढ़ रही है? उन्हें सामान्य ज्ञान और सामान्य जानकारी जुटाने में कोई रूचि क्यों नहीं है? जबकि, ये हमारे व्यक्तित्व को निखारने, व्यवहार में परिपूर्णता लाने और लोगों के साथ सही बर्ताव में मददगार होते हैं। सामान्य ज्ञान और जानकारियां रखने वाला व्यक्ति अन्य से दो कदम आगे ही होता है। इनसे विषयों के विश£ेषण में मदद मिलती है। दोनों के विषय में काफी लिखा जा सकता है। मुद्दा यह है कि तमाम किताबी पढ़ाई-लिखाई के बीच इन दो विषयों की इतनी अनदेखी क्यों हो रही है। कुछ दोष स्कूली माहौल का है। वहां किताबी ज्ञान के साथ-साथ छात्रों के सर्वांगीण विकास पर ध्यान नहीं दिया जा रहा । कुछ दोष पारिवारिक माहौल का है। बच्चों और अभिभावकों के बीच सामान्य ज्ञान और जानकारियों पर चर्चाओं से काफी कुछ सीखना-सिखाना संभव है। इसके परिणाम भले ही धीरे-धीरे मिलें लेकिन बच्चों को जो हासिल होगा वह मजबूत होगा। बचपन से ही प्रश्र करने और उनके जवाब तलाशने की प्रवृत्ति पनपती है। सोचिये, बचपन से लेकर अब तक सोनाक्षी के मन में यह प्रश्र क्यों नहीं उठा कि हनुमान प्रतिमा में पर्वत का क्या महत्व है। जाहिर है कि प्रश्र उठता तो वह जवाब अवश्य तलाशतीं। उत्तर घर ही मिल जाता।

रानू मंडल बंगभूमि की दिलकश आवाज़ का जादू
( प्रभुनाथ शुक्ल द्वारा )
जिंदगी में कभी-कभी आपकी लाख कोशिश भी मुकाम नहीं दिला पाती। लेकिन कभी मंजिल आराम से मिल जाती है। उसके लिए कोई अतिरिक्त प्रयास भी नहीं करने पड़ते। हर इंसान की कामयाबी के पीछे एक भगवान छुपा होता है। वह चाहे इंसान के रुप में ही क्यों न हो। इसलिए जिंदगी में रियाज और प्रयास को कभी अलबिदा मत कहिए। पश्चिम बंगाल के रानाघाट की रानू मंडल आज गूगल और इंटरनेट दुनिया की स्टार बन गई हैं। फिल्मी दुनिया में उसका जादू संगीतकारों के सिर चढ़ बोल रहा है। गुमना सी जिंदगी जिने वाली रानू विकिपीडिया में बतौर भारतीय संगीतकार दर्ज हो गई हैं। एक बेहद गरीब परिवार की महिला अपनी आवाज की बुलंदियों की बदौलत सिनेमाई दुनिया में तहलका मचा दिया है। हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि वालीवुड का हर नामचीन संगीतकार उसके साथ अपनी आवाज देना चाहता है। स्वर कोकिला लता मंगेसर के गाए गीत एक प्यार का नगमा है से रानू बुलंदियों पर पहुंची। कभी वह यही गीत गाकर रानाघाट रेलवे स्टेश पर दो वक्त के लिए रोजी-रोटी तलाशती थीं। कहते हैं वक्त बदलते देर नहीं लगती। जिंदगी बदलने में सबसे बड़ा हाथ ईश्वर का है। लेकिन असली भाग्य विधाता तो धरती का भगवान साफटवेयर इंजीनियर यतींद्र चक्रवर्ती है जिसने उसका वीडियो वायरल कर सिनेमाई जगत के नामचीन हस्ताक्षर हिमेश रेशमिया तक पहुंचा दिया।
हिमेश रेशमिया वालीवुड की नामचीन हस्तियों में शुमार हैं। हिंदी फिल्मों में आज उनके गीत और संगीत का जलवा है। सोशलमीडिया पर रानू मंडल का वायरल हुआ वीडियो हिमेश को इतना भया की उन्होंने अपनी आने वाली फिल्म हैप्पी हार्डी और हीर के लिए दो गाने भी रानू की आवाज में गवाए। जिसकी वजह से उसकी ख्याति और बढ़ गई। हिमेश की तरफ से लांच किए जाने के बाद अब पूरा वालीवुड उसे हाथों-हाथ लेना चाहता है। संगीतकार ए रहमान और सोनू निगम भी उसके साथ गाना चाहते हैं। इसी को कहते हैं तदग्दीर। उसकी जिंदगी पर मुझे मशहूर शायर वशीर बद्र जी का वह शेर याद आता है कभी मैं अपने हाथों की लकीरों से नहीं उलझा। मुझे मालूम है किस्मत का लिखा भी बदलता है।। जो रानू की जिंदगी पर फिट बैठता है। हाथ की सारी लकींरे कभी मिटने के बाद उग आती हैं। शायद रानू मंडल के साथ भी यही हुआ। हालाँकि वालीवुड की दुनिया में उसका कैरियार बहोत लंबा नहीं है क्योंकि रानू जिंदगी के 60 वें मोड़ पर पहुंच चुकी है। वह 1960 में पैदा हुई। उसने कहा भी है कि उसकी जिंदगी में इतने मोड़ हैं जिस पर पूरी फिल्म बन सकती है। रानू जब छह माह की थीं तभी उसका साथ माता-पिता से छूट गया। दादी ने किसी तरफ पालन पोषण किया। बाद में उसने अपनी शादी वालीवुड स्टार फिरोज खान के रसोइये बाबू मंडल से कर लिया। जिसके बाद वह मुंबई चली आयी। लेकिन इस शादी के बाद से रानू के जीवन का संघर्ष शुरु हो गया। परिवार में दरार बढ़ने लगी। बाद में पति की मौत हो गई और जिंदगी चलाने के लिए उसने रानाघाट रेलवे स्टेशन को नया ठिकाना बना लिया। स्टेशन पर रफी साहब के गीत जिसे लता मंगेशकर ने स्वर दिया था। फिल्मी दुनिया का सदाबहार गीत एक प्यार नगमा है को गाकर आजीतिका चलाने लगी। उसी नगमें ने उसे नगमा बना दिया।
रानू मंडल की आवाज में गजब की कशिश है। जिस आवाज को अब तक कोई नहीं पढ़ पाया था। उसे यतींद्र चक्रवर्ती ने पढ़ा और वीडियो सूट कर सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया। जिस पर हिमेश रेशमिया के साथ कई नामचीन हस्तियों की निगाह पड़ी। लेकिन कहते हैं हीरे की पहचान जौहरी ही करता है। आखिर हिमेश सबसे पहले बाजी मार ले गए। हिमेश के साथ गाए रानू के वीडियो इतने वायरल हुए कि वह वालीवुड की स्टार संगीतकार बन गई। जबकि उसका भाग्य विधाता यतींद्र चक्रवर्ती अब रानू का मैनेजर है। रानू के पास एक बेटी भी है, लेकिन मां के दिन जब गर्दिश में थे तो उसने भी किनारा कर लिया था। अब तो उसकी जिंदगी और तग्दीर की तस्वीर बदल गई है। अब रानू के लाखों चाहने वाले हो गए हैं। जबकि अभी तक उसे कोई पहचानता तक नहीं था। आज उसकी आवाज की कीमत करोड़ों में हो गई है। पूरा वालीवुड उसे हाथों पर लिए फिर रहा है। हालांकि रानू की उम्र और पढ़ाई-लिखाई भी कामकाज में बांधा बन सकती है। लेकिन यतींद्र सब कुछ संभाल लेगा। क्योंकि रानू के साथ अब उसका भी भविष्य जुड़ गया है।
फिल्मी दुनिया में रानू की सफलता का रास्ता हिमेश ने खोल दिया है। आइडियल सीजन-10 के विजेता सलमान अली ने भी उसके साथ एक गीत गाया है। वह भी सोशलमीडिया में खूब धमाल मचा रहा है। अब तक उसे करोड़ों लोग देख चुके हैं। टीवी शो सुपर स्टार सिंगर के जजों से मिलने के बाद उसका गया गीत भी तेजी से वायरल हो रहा है। दुनिया भर में उसकी पहचान एक भारतीय संगीतकार के रुप में हो गई है। लोग दिन-रात उसे इंटरनेट पर खोज रहे हैं। युवाओं की वह पहली पसंद बन गई है। वह हर आम और खास के बीच चर्चा का मसला बन गयी है। उसकी आवाज में गजब कि खनक और कशिश है।यू-ट्यूब पर जो भी व्यक्ति उसकी आवाज एक बार सुन रहा है वह रानू का मुरीद हो जा रहा है। जिसकी वजह से दुनिया भर में इंटरनेट पर उसके फालोवर बढ़ते जा रहे हैं। वह मुंबई में अपना एक घर चाहती है। उसकी कामयाबी का राज इसी से पता चल सकता है कि वालीबुड के साथ दक्षिण भारतीय और बंग्ला फिल्म उद्योग में उसकी मांग बढ़ने लगी है। रानू मंडल की इस सफलता में भारतीय रेल का भी बड़ा हाथ हैं। अगर उसे रेल की शरण न मिली होती तो शायद यह कामयाबी नहीं मिल पाती। उसकी सफलता की दूसरी सबसे बड़ी वजह सोशल मीडिया है।

समानांतर सिनेमा के अग्रदूत थे मृणाल सेन
योगेश कुमार गोयल
भारत के प्रतिष्ठित दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित प्रख्यात फिल्म निर्देशक मृणाल सेन 30 दिसम्बर को अंतिम सांस लेते हुए 95 वर्ष की आयु में चिरनिद्रा में लीन हो गए। वे विगत कई वर्षों से कई गंभीर बीमारियों से पीडि़त थे और बीमारी के ही चलते पिछले 16 वर्षों से फिल्म निर्माण से भी दूर थे। वर्ष 2002 में उनकी अंतिम फिल्म ‘आमार भुवन’ आई थी। बांग्ला तथा हिन्दी की कई बेहतरीन फिल्में देने वाले मृणाल सेन भारतीय फिल्मों के जाने-माने निर्माता-निर्देशक थे। उनकी शख्सियत ऐसी थी कि उनके समय का हर दिग्गज अभिनेता उनके साथ काम करने को इच्छुक रहता था। हालांकि उनकी अधिकांश फिल्में बांग्ला भाषा में ही रही। 1955 में उनकी पहली फीचर फिल्म ‘रातभोर’ रिलीज हुई थी और लेकिन उन्हें स्थानीय स्तर पर पहचान मिली उनकी 1959 में आई अगली फिल्म ‘नील आकाशेर नीचे’ से जबकि 1960 में रिलीज हुई तीसरी फिल्म ‘बाइशे श्रावण’ से तो उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने में सफलता मिल गई थी।
उसके बाद उन्होंने पांच और फिल्में बनाई और फिर भारत सरकार से मिली छोटी सी सहायता राशि से उन्होंने ‘भुवन शोम’ नामक एक ऐसी फिल्म बनाई, जिसके लिए उन्हें पहला राष्ट्रीय पुरस्कार मिला और इसी फिल्म ने उन्हें देश के बड़े फिल्मकारों की श्रेणी में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस फिल्म के बाद भारतीय सिनेमा जगत में ऐसी क्रांति की शुरूआत हुई कि छोटे बजट की यथार्थपरक फिल्मों का नया दौर शुरू हो गया। यही वजह है कि मृणाल सेन को समानांतर सिनेमा का अग्रदूत भी कहा जाता है। वैश्विक मंचों पर उन्हें बंगाली समानांतर सिनेमा के सबसे बड़े राजदूतों में से एक माना जाता रहा है। हालांकि ‘भुवन शोम’ के उपरांत उन्होंने जितनी भी फिल्में बनाई, सभी राजनीति से प्रेरित मानी जाती रही, जिसके चलते उन्हें मार्क्सवादी कलाकार के रूप में जाना जाता रहा। फिल्मों के अलावा वह राजनीति में भी सक्रिय रहे। 1998 से 2003 तक वे कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से राज्यसभा सदस्य के रूप में नामित किए गए।
1977 में मृणाल सेन ने बॉलीवुड के सुप्रसिद्ध अभिनेता मिथुन चक्रवर्ती को फिल्म जगत में अपनी फिल्म ‘मृगया’ के जरिये पहचान दिलाई, जो मिथुन दा की पहली फिल्म मानी जाती है। उससे पहले मिथुन गौरांग चक्रवर्ती के नाम से जाने जाते थे, उन्हें मृणाल ने ही मिथुन नाम दिया। उस फिल्म में अभिनय के लिए मिथुन चक्रवर्ती को ‘सर्वश्रेष्ठ अभिनेता’ का राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। इसी प्रकार मृणाल सेन ने रेडियो की एक स्वर परीक्षा में आवाज को खराब बताते हुए खारिज कर दिए गए अमिताभ बच्चन की प्रतिभा को पहचानते हुए उन्हें भी अपनी पहली हिन्दी फिल्म ‘भुवन शोम’ में अवसर दिया, जिसमें अमिताभ मुख्य सूत्रधार थे और फिल्म में पहली बार उनकी आवाज का इस्तेमाल हुआ था। उस फिल्म के बाद अमिताभ के अभिनय और आवाज का जादू सिने दर्शकों पर ऐसा सिर चढ़कर बोला कि रेडियो स्वर परीक्षण में आवाज की क्वालिटी को लेकर खारिज कर दिए गए अमिताभ सदी के महानायक बन गए। निसंदेह इसका बहुत बड़ा श्रेय मृणाल सेन को जाता है। बिग बी ने उनके निधन के पश्चात् दुख व्यक्त करते हुए कहा भी कि उन्होंने पहली बार मृणाल की ही फिल्म ‘भुवन सोम’ में अपनी आवाज दी थी, जो सर्वाधिक मिलनसार, प्रतिष्ठित, रचनात्मक सिनेमाई शख्स थे, सत्यजीत रे और ऋत्विक घटक के समकालीन। दरअसल 1950-60 के दशक में विशेषकर बांग्ला फिल्म जगत में मृणाल सेन, सत्यजीत रे और ऋत्विक घटक का ही वर्चस्व था।
14 मई 1923 को तत्कालीन बांग्ला देश के फरीदपुर शहर में जन्मे मृणाल सेन को भारतीय सिनेमा जगत में उनके अविस्मरणीय योगदान के लिए जीवन पर्यन्त अनेक सम्मान प्राप्त हुए। भारत सरकार द्वारा 1981 में उन्हें कला के क्षेत्र में ‘पद्म भूषण’, 2005 में ‘पद्म विभूषण’ तथा उसी वर्ष ‘दादा साहब फाल्के’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 2000 में उन्हें रूसी सरकार की ओर से राष्ट्रपति ब्लादिमिर पुतिन ने ‘ऑर्डर ऑफ फ्रैंडशिप’ सम्मान से सम्मानित किया जबकि फ्रांस सरकार द्वारा उन्हें ‘कमांडर ऑफ द आर्ट ऑफ आर्ट एंडलेटर्स’ उपाधि से विभूषित किया गया था। वे भारतीय फिल्म जगत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विशेष पहचान दिलाने वाले देश के सबसे प्रशंसित फिल्मकारों में से एक माने जाते रहे। कई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म प्रतिस्पर्धाओं में उन्होंने ज्यूरी की महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई।
अपने 47 वर्ष लंबे फिल्म कैरियर में मृणाल सेन ने अनेक फिल्में बनाई, जिनमें कुछ प्रमुख रही ‘रातभोर’, ‘नील आकाशेर’, नीचे’, ‘बाइशे श्रावण’, ‘पुनश्च’, ‘अवशेष’, ‘प्रतिनिधि’, ‘अकाश कुसुम’, ‘मतीरा मनीषा’, ‘भुवन शोम’, ‘इच्छा पुराण’, ‘इंटरव्यू’, ‘एक अधूरी कहानी’, ‘कलकत्ता 1971’, ‘बड़ारिक’, ‘कोरस’, ‘मृगया’, ‘ओका उरी कथा’, ‘परसुराम’, ‘एक दिन प्रतिदिन’, ‘आकालेर सन्धाने’, ‘चलचित्र’, ‘खारिज’, ‘खंडहर’, ‘जेंनसिस’, ‘एक दिन अचानक’, ‘सिटी लाईफ-कलकत्ता भाई एल-डराडो’, ‘महापृथ्वी’, ‘अन्तरीन’, ‘100 ईयर्स ऑफ सिनेमा’, ‘आमार भुवन’ इत्यादि। अपने लंबे कैरियर में उन्होंने 1977 में एक तेलुगू फिल्म ‘ओका ओरि कथा’ का निर्माण भी किया।
अपनी फिल्मों के लिए उन्हें देश-विदेश से अनेक सम्मान प्राप्त हुए। वे कितने महान फिलमकार रहे, इसका अनुमान इसी से हो जाता है कि उनकी करीब 30 फिल्मों को 18 राष्ट्रीय तथा 25 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए। 1969 में ‘भुवन शोमे’, 1979 में ‘एक दिन प्रतिदिन’, 1980 में ‘अकालेर संधाने’, 1984 में ‘खंडहर’ के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, आलोचना की श्रेणी में 1976 में उनकी फिल्म ‘मृगया’ को सर्वश्रेष्ठ फिल्म, 1974 में ‘पदातिक’, 1983 में ‘अकालेर संधाने’ तथा 1984 में ‘खंडहर’ व ‘खारिज’ को सर्वश्रेष्ठ स्क्रीनप्ले, मास्को फिल्म समारोह में 1975 तथा 1979 में उनकी फिल्मों ‘सहगान’ तथा ‘परशुराम’ को रजत पुरस्कार, कार्लोवी वैरी फिल्म फेस्टिवल में 1977 में ‘ओका ओरी कथा’ को ‘विशेष ज्यूरी पुरस्कार’, बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में 1979 तथा 1981 में परशुराम तथा ‘अकालेर संधाने’ के लिए ‘इंटरफिल्म अवार्ड’, बर्लिन फिल्म महोत्सव में 1981 में ‘अकालेर संधाने’ के लिए ‘ग्रैंड ज्यूरी पुरस्कार’, कांस फिल्म फेस्टिवल में 1983 में फिल्म ‘खारिज’ के लिए ‘ज्यूरी प्राइज’, इसी फिल्म के लिए उसी वर्ष वैलाडोलिड फिल्म फेस्टिवल में ‘गोल्डन स्पाइक’, 1984 में शिकागो फिल्म फेस्टिवल में ‘खानधार’ को सर्वश्रेष्ठ फिल्म, उसी फिल्म को 1984 में मांन्ट्रियल फिल्म फेस्टिवल में ‘विशेष ज्यूरी पुरस्कार’, 1989 में वेनिस फिल्म फेस्टिवल में ‘एक दिन अचानक’ को ‘माननीय मेंशन’ तथा काहिरा फिल्म समारोह में उनकी आखिरी ‘आमार भुवन’ के लिए उन्हें ‘सर्वश्रेष्ठ निर्देशक सहित अनेक सम्मान प्राप्त हुए। बांग्ला सिनेमा के साथ-साथ हिन्दी सिनेमा को भी साफ-सुथरी बेहतरीन फिल्मों से समृद्ध करने वाले मृणाल सेन का दुनिया से यूं चले जाना भारतीय सिनेमा के लिए ऐसी अपूरणीय क्षति है, जो कभी पूरी नहीं हो सकती।

आखिर बाजीराव की हो गई मस्तानी
विवेक कुमार पाठक
पदमावत में जिन दीपिका पादुकोण ने महारानी पदमावती के रुप में आक्रांता अलाउदद्ीन खिलजी बने रनवीर सिंह से बेपनहा नफरत की थी और उस आतातायी चेहरे की छांव से बचने जौहर के अंगारों को अपनाया था वे ही रनवीर सिंह असल जिंदगी में दीपिका के हमसफर बनने जा रहे हैं। यह शादी तमाम प्रशंसकों को साफ करती है कि दीपिका रनवीर की पर्दे की जिंदगी को पर्दे तक ही रहने दिया जाएगा। फिल्मी सितारे पर्दे पर सिर्फ अभिनय करते हैं और जरुरी नहीं कि उनकी असल जिंदगी उस किरदार से वास्ता रखती हो। खैर दीपिका और रनवीर सिंह लंबे अफेयर के बाद इटली में शादी करने जा रहे हैं।
फिल्मी सितारों की यह साल की दूसरी बड़ी शादी है इससे पहले यशराज बैनर की पसंदीदा हीरोइन अनुष्का शर्मा भारतीय किक्रेट के चमकीले सितारे विराट कोहली से विवाह बंधन में बंधी थीं। यह शादी भी इटली में ही चंद खास रिस्तेदारों और दोस्तों के बीच संपन्न हुई थी।
साल 2018 बॉलीवुड में शादियों की बहार लेकर आया है। जो फिल्मी सितारे सिनेमा के पर्दे पर कई बार सात फेरे लेते हैं वे असल जिंदगी में शादी की बात को बार बार टालते रहते हैं। हीरो हीरोइन की इस न की अपनी वजह हैं। ये सिनेमा का वो सच है जिसकी जड़ें व्यावसायिक हितों पर टिकी हुई हैं।
पर्दे पर अविवाहित कलाकारों का चार्म किसी से छिपा नहीं है। पर्दे पर रुप की रानी अगर अविवाहित है तो सिनेमा के करोड़ों दर्शकों के ख्याबों में भी वो रुप की रानी है। सितारों के प्रति युवाओं की इस बेपनाह मोहब्बत को फिल्मी दुनिया भुनाती भी है। तमाम हीरो हीरोइन करियर के सबसे अच्छे दौर में शादी को फिल्म दर फिल्म टालते रहते हैं। सलमान इस विचार की सबसे बड़ी आवाज हैं इन दिनां। पर्दे पर सलमान खान को लेकर युवाओं के साथ युवतियों का चार्म कुछ इस तरह दशकों से बना हुआ है कि सलमान खान उसके गुलाम बन बैठे। बीबी हो तो ऐसी फिल्म से आगाज करने वाले सलमान खान साढ़े तीन दशक से सिनेमा के सरताज बने हुए हैं और इस खास हैसियत के लिए उनके बेचलर स्टेटस को भी मुबारकबाद मिलती रही है। जिन भाग्यश्री के साथ मैंने प्यार किया जैसी सुपर डुपर हिट सलमान ने दी थी उनका बेटा सलमान के साथ सिने जगत में ताल ठोंक रहा है मगर सलमान का स्टारडम बैचलर सलमान का मुरीद बना हुआ है।
सलमान भी हैं कि उम्र के पांच दशक बीत जाने पर भी लाखों फैंस के इस सवाल को अब तक झुठला रहे हैं कि आखिर सलमान शादी कब करेंगे।
सलमान की इस बैचलर लाइफ की तरह बॉलीबुड की तमाम हीरोइनें भी शादी को कैरियर का पैकअप मानकर तारीख पर तारीख बढ़ाती जा रही हों मगर ये आधा अधूरा ही सच है। बॉलीबुड के बहुत से कलाकार अब बीबी बच्चों वाले जीवन की ओर बढ़ते नजर आ रहे हैं।
खास बात ये है कि सात फेरे लेने का ये निर्णय करियर के ढलान की जगह करियर की उड़ान के वक्त लिया जा रहा है। सिने जगत के इन फैसलों से मुंबई सिने जगत में विवाह नाम की सामाजिक संस्था मजबूत होते दिखती है।
प्रियंका चोपड़ा बॉलीबुड से निकलकर हॉलीबुड में नाम कमा चुकी हैं और अब भारत और अमेरिका दोनों ही जगह उनके लिए भरपूर मौके हैं। ऐसे में उन्होंने भी शादी कर सेटल होने का फैसला कर अपने प्रशंसकों को रोमांचित कर दिया है। प्रियंका खुद से उम्र में कई साल छोटे अमेरिका सिंगर निक जोंस से सगाई कर चुकी हैं और आगामी 2 दिसंबर को जोधपुर में भारत और अमेरिका के बीच वैवाहिक संबंधों की श्रृंखला को आगे बढ़ाने जा रही हैं।
प्रियंका के साथ भारत घूम रहे निक जोंस भारत के रंग में रंगकर इन दिनों भारत भ्रमण करते हुए दिख रहे हैं।
प्रियंका की शादी के बाद दीपिका पादुकोण और रनवीर सिंह ने अपनी शादी की घोषणा से सिनेप्रेमियों को चकित कर दिया है। ऐसे में जब दोनों कलाकार टॉप फिल्मों के साथ निर्देशकों की पहली पसंद बने हुए हैं दोनों का फैसला अहम है। करियर के सबसे अच्छे दौर में शादी का फैसला साबित करता है कि दोनों कलाकार विवाह नाम की संस्था के प्रति प्रतिबद्ध हैं और पर्दे का जीवन पर्दे पर सीमित रखना चाहते हैं।
दरअसल अभिनय कलाकारों पेशा है अभिनय ही 24 घंटे वाला जीवन नहीं है। मगर ये जीवन की दशा और दिशा बदल दे तो इसकी सार्थकता कम हो जाती है।
बॉलीबुड में पिछले कुछ दशक में अंग्रेजियत का रंग कुछ इस कदर चड़ा कि शादियां बहुत कम हो रही थीं जो हुईं वे करियर के ढलान पर एक समझौते की तरह हुईं। ऐसे में इन नामी कलाकारों के विवाह बंधन के फैसले तमाम कलाकारों के लिए भविष्य के फैसले लेने के आधार बनेंगे।
जीवन सबका स्वतंत्रतापूर्ण है मगर सामाजिक व्यवस्थाएं अनेक शताब्दियों के बाद बनी हैं। विवाह भी एक सामाजिक व्यवस्था है। ऐसे दौर में जब समाज का कुछ पढ़ा लिखा वर्ग आधुनिकता के नाम पर सिंगल स्टेट्स और लिव इन रिलेशनशिप का गाना गा रहा है सिनेमा की शादियां उन्हें भी सोचने को मजबूर कर सकती हैं।
परवीन बॉबी, आशा पारेख, रेखा से लेकर सलमान खान, करन जौहर, तुषार कपूर जैसे कलाकार स्वतंत्र जीवन की बात करते हैं तो अमिताभ बच्चन, श्रीदेवी से लेकर अनुष्का शर्मा, दीपिका पादुकोण, रनवीर सिंह, प्रियंका चोपड़ा से लेकर अमरीकी गायक निक जोंस सात फेरों से शादी की राह दिखाते नजर आते हैं।
बॉलीवुड में शादियों की इस शहनाई पर लख लख बधाई।

भजन का भजन, मन जसलीन में लगन
विवेक रंजन श्रीवास्तव
शास्त्रीय संगीत, सुगम संगीत और लोक संगीत के रूपों में भारतीय संगीत की विवेचना की जाती है। सुगम संगीत की एक शैली भजन है, उपासना की प्रायः भारतीय पद्धतियों में भजन को साधन के रूप में प्रयोग किया जाता है। ये अलग बात है कि जलोटा जी ने भजन के माध्यम से धन, नाम एश्वर्य और जसलीन सहित दो चार और पत्नियो का प्रेम पाकर अंततोगत्वा बिग बास के घर को अपना परम गंतव्य बनाया है।
भजनं नाम रसनं, भजन का अर्थ होता है स्वाद लेना, ‘भजनं नाम आस्वादनम’ मतलब याद करके आनंद लेना भी भजन का ही एक प्रकार है। भजन का गूढ़ अर्थ होता है, प्रीति पूर्वक सेवा। प्रीति मन से होती है। यह और बात है कि कौन कहांं प्रीत करता है।
चाहे हाथ से पूजा करें, चाहे पाँव से प्रदक्षिणा करें, चाहे जीभ से स्तुति करें, चाहे साष्टांग दण्डवत करें और चाहे मन में ध्यान करें, भजन दरअसल प्रीति है। मंदिर मंदिर, तीरथ तीरथ भ्रमण, भगवान् के नाम, धाम, रूप, भगवान की लीला, भगवान की सेवा, भगवान के दर्शन से जो आत्मिक शांति और तृप्ति मिलती है वही भजन है।
नेता जी तीर्थ करवा कर वोट लेने को ही भजन मानते हैं। चमचे नेता जी को दण्डवत कर उन्हें ही अपना इष्ट मानते हैं। सबके अपने अपने देवता होते हैं।
“संभोग से समाधि तक” लिखकर दार्शनिक चिंतक रजनीश ने तृप्ति से भगवान को अनुभव करने की विशद व्याख्या की है और वे सारी दुनियां में चर्चित रहे। रजनीश ने भी कोई नई विवेचना नही की थी, खजुराहो के मंदिरों की दार्शनिक विवेचना की जाये तो यही समझ आता है कि परमात्मा तो भीतर है, बाहर वासना है। काम, क्रोध, को बाहर छोड़कर मंदिर के छोटे दरवाजो से जब, आत्म सम्मान को त्याग सर झुकाकर हम अंदर प्रवेश कर पाते हैं तभी हमें भीतर भगवान की प्राप्ति हो पाती है। जिसने ऐसा कर लिया वह ज्ञानी, वरना सब अहंकारी तो हैं ही।
गजल भी मूलतः खुदा की इबादत में कही जाती थी, शायर खुदा के प्रेम में ऐसा तल्लीन हो जाता है कि न भिन्नं, माशूका से एकाकार होने जैसा एटर्नल लव गजल को जन्म देता। कालान्तर में परमात्मा से यह एकात्म किंचित वैभिन्य का स्वरूप लेता गया और अब गजल बिल्कुल नये प्रयोगो से गुजर रही है। रब से शराब की गजल यात्रा शबाब के सैलाब से गुजर रही है।
कृष्ण और राधा के एटर्नल लव के कांसेप्ट से हम ही नहीं पाश्चात्य जगत भी असीम सीमा तक प्रभावित है, इस्कान के मंदिरो में भारतीय पोशाक में विदेशियो की भीड़ वही आत्मिक प्रेम ढ़ूंढ़ती नजर आती है। किसी को प्रेम मिलता है किसी को भगवान, किसी को जसलीन तो कोई राधा के चक्कर मे रुक्मणी में ही उलझ जाता है।
यू दीवाने हमेशा से उलटी ही राह चलते हैं। वे सनम के दीदार के लिये आंखो को बंद करते हैं। जरा नजरो को झुकाते हैं और हृदय में देख लेते हैं अपने आशिक को। जिसने राधा भाव से इस आशिकी में कृष्ण के दर्शन कर लिये वह संत हो जाता है, वरना मेरे आप की तरह लौकिक प्रेम के भौतिक प्रेमी हाड़ मांस में ही परम सुख ढ़ूढ़ते जीवन बिता देते हैं। और यही कहते रह जाते हैं कि मय्या मोरी मैं नहीं माखन खायो। वास्तव में “मेरे मन में राम मेरे तन में राम, रोम रोम में राम रे ” होते तो हैं पर उन्हें ढ़ूढ़कर मन मंदिर में बसा सकना ही भजन है।
कोई सफेद चोंगे में चर्च में भगवान की जगह नन ढूंढ लेता है कोई भगवा में भक्तों को धोखा देता है, कोई बुर्के को तार तार कर रहा है जन्नत पाने, भगवान करे सबको उनके लक्ष्य ही मिले।
जैसे बच्चा माँ के बिना, प्यासा पानी के बिना रह नहीं सकता, ऐसे ही जब हम भगवान के बिना रह न सकें तो इस प्रक्रिया का ही नाम भजन होता है।
करोड़पति पिता से कुछ हजार रूपये ले अलग होकर बेटा पिता की सारी सत्ता से जैसे वंचित रह जाता है ठीक उसी तरह परम पिता भगवान से कुछ माँगना उनसे अलग होना है, उनसे एकात्म बनाये रहने में ही हम भगवान की सारी सत्ता के हिस्से बने रह सकते हैं। परमात्मा में विलीन होना ही जीवन मरण के बंधन से मुक्ति पाना है।
बच्चा माँ पर अधिकार अपनेपन से करता है, तपस्या, सामर्थ्य या योग्यता से नहीं, तपस्या से सिद्धि और शक्ति भले ही प्राप्त हो जावे प्रेम नहीं मिल सकता। निष्काम होने से मनुष्य मुक्त, भक्त सब हो जाता है। भगवान के साथ सम्बन्ध रखें तो सांसारिक कामनायें स्वतः ही शांत हो जाती हैं। यह भजन का वजन है। संसार में आसक्ति का अर्थ है, भगवान में वास्तविक प्रेम की अनुभुति का अभाव। पर यह सत्य जानकर भी हम समझ नही पाते।
जो भी हो पर हम आप जो रोटी कपड़ा और मकान के चक्कर में ही आजीवन उलझे रह जाते हैं, वे बेचारे आम आदमी भगवान को पाने के चक्कर में कईयो को राम रहीम और आशाराम बना देते है, किसी को जसलीन ले जाते देखते है तो कोई रामरहीम बेटी बोलकर बोटी चबाते मिलता है।
आम जनता के लिए”भूखे भजन न होंहि गोपाला ” का सिद्धांत और सवाल ही सबसे बड़ा बना रह जाता है। लेकिन जिस दिन लगन लग जायेगी मीरा मगन हो जायेगी यही भजन का वास्तविक वजन है।

मीना कुमारी : भारतीय फिल्मों का एक अध्याय
जया केतकी
तुम क्या करोगे सुनकर मुझसे मेरी कहानी,
बेलुत्फ जिंदगी के किस्से हैं फीके-फीके।
भारतीय सिने जगत में 1930 से 70 के दशक तक अभिनय और कला की जो बहार देखने को मिली उसका जलवा आज भी बरकरार है। आज जब हम उस दौर की फिल्मों और अदाकाराओं के अभिनय को आंकने का प्रयास करते हैं, तो वह वर्तमान की खूबसूरत और अंग प्रदर्शन को स्वीकार करने वाली अभिनेत्रियों से बीस ही ठहरता है। जिस अभिनय की गहराई उस दौर की नायिकाओं में देखने को मिली वह आज की अदाकाराओं में नहीं।
भारतीय सिनेमा के इतिहास में मीनाकुमारी का नाम सदा सम्मान से लिया जाता है। उनके अभिनय की गहराई का आज कोई सानी नहीं है। उन्होंने हिन्दी सिनेमा को एक ऐसा अध्याय दिया जिसमें अभिनय की सहजता, अदा और वागी के उतार-चढ़ाव की बारीकियां सामने आईं। मीना कुमारी ने अपनी हर फिल्म में अपने पात्र को पूर्णता प्रदान की। वास्तव में वे अपने पात्र में ही जीतीं। वे पात्र में प्राण डालने के लिए उसे स्वयं में समाहित कर लेती।
खूबसूरती और मधुर आवाज की धनी मीनाजी एक नायाब शायरा भी थीं। वे अक्सर फिल्म की शूटिंग के दौरान फुरसत के क्षणों में अपनी शेरों-शायरी सुनाकर सभी को मदमस्त कर देतीं। महजबीन उर्फ मीना कुमारी का जन्म 1 अगस्त 1932 को अलीबक्श और इकबाल बेगम की तीसरी संतान के रूप में हुआ था। मीना कुमारी के पिता संगीतकार तथा माता मशहूर नर्तकी थीं। बचपन में मीना कुमारी ने महजबीन नाम से बतौर बाल कलाकार अभिनय किया। 6 वर्ष की आयु में उन्होंने पहली बार फिल्म जेलर में काम किया। अभिनय और संगीत तो उनके रक्त में विद्यमान थे इसलिए किसी भी पात्र का अभिनय करने में उन्हें कोई वक्त नहीं लगता था। उन्होंने बचपन से ही अपने अभिनय का परचम लहराया।
50 से 70 के दशक तक उन्होंने जो फिल्म भारतीय सिने जगत को अर्पित की वे अभिनय की जीती जागती मिसाल हैं। उनकी पाकीजा और साहेब बीबी और गुलाम फिल्मों ने प्रसिद्धि के सारे रिकार्ड तोड़ दिए। 1952 में बनी बैजू बावरा से मीना कुमारी की अदाकारी में नया मोड़ आया। वे फिल्म फेयर अवार्ड 1953 जीतने वाली पहली नायिका बनीं। उनके साथी कलाकारों में राजकपूर, भारत भूषण, प्रदीप कुमार, गुरुदत्त, सुनील दत्त, रहमान, राजकुमार, अशोक कुमार, दिलीप कुमार और धर्मेन्द्र प्रमुख रहे, जिन्होंने अभिनय के साथ ही मीना जी के मधुर स्वभाव का भी समय देखा। कहा जाता है कि अपने पति कमाल अमरोही से वे खुश नहीं थी और धर्मेन्द्र के साथ नाम जुड़ने के बाद मीनाजी ने शराब का सहारा लेना शुरू कर दिया। कमाल अमरोही ने मीनाजी के सौन्दर्य और अभिनय को कमाई का एक जरिया समझकर उपयोग किया और अय्याशी में उनकी गाढ़ी मेहनत की कमाई का दुरुपयोग किया। उनकी आखिरी फिल्म पाकीजा के प्रदर्शन के तीन सप्ताह बाद उनकी मृत्यु लीवर में खराबी आने के कारण हो गई।
कमाल अमरोही से जब मीनाजी का विवाह हुआ तब वह अपने पति से 15 वर्ष छोटी थीं। अमरोही जी के पहली पत्नी से बच्चे थे औ वह और बच्चे नहीं चाहते थे। 1964 में पारिवारिक क्लेशों के कारण उनका तलाक हो गया। तभी से मीनाजी ने अपनी व्यस्तता फिल्मों में और बढ़ा दी। तन्हाई से बचने के लिए वह शराब की आदी हो गईं। अपने पति के बारे में उन्होंने लिखा-
दिल सा जब साथी पाया,
बच्चे भी वो साथ ले आया।

स्मिता पाटिल : भुला ना पाएंगे तुमको
– जया केतकी
(13 दिसंबर : पुण्यतिथि पर विशेष)
भारतीय फिल्मों को विश्व में एक उच्च स्थान प्राप्त है। बॉलीवुड की फिल्में और अभिनेता पूरे फिल्म जगत में छाए हैं। फिल्मों की चर्चा हो और बॉलीवुड की अभिनेत्रियों का जिक्र न आए ऐसा हो नहीं सकता। ऐसा ही एक चिर-परिचित नाम है-स्मिता पाटिल का। 70 और 80 के दशक में अपनी अभिनय कला से धूम मचाने वाली इस अदाकारा को आज भी फिल्म जगत उसी आदर से याद करता है। कला और कलाकार का मनोरंजन की दुनिया में ऐसा स्थान है जो कलम और क़ागज का लेखन में हैं। जब मन बहुत उदास, खिन्न या थका हो उसे अदाकारी का जलवा देखने मिले तो थकान का एहसास नहीं होता। 1960 के दशक से आज तक फिल्मी दुनिया का असर हर उम्र हर क्षेत्र पर देखा जा रहा है। मनोरंजन के अनेक साधन उपलब्ध हैं, फिर भी फिल्मी हस्तियों और फिल्मों के प्रभाव और आकर्षण से बचना मुश्किल हैं थकान और व्यवस्तता के बावजूद हम फिल्मों का मोह नहीं छोड़ सकते। फिल्में हमारा मनोरंजन भी करती हैं और मुश्किल आने पर मार्गदर्शन भी करती हैं।
भारतीय सिनेमा बंगाल, मुद्रास, पंजाब के साथ ही महाराष्ट्र का भी ऋणी है। सिने सुंदरियाँ मद्रास, बंगाल और महाराष्ट्र से सबसे ज्यादा आई हैं। जिनका जादू आज भी बढ़-चढ़ कर बोल रहा है। महाराष्ट्र की अभिनेत्रियों में संध्या, दुर्गा खोटे, लीना चंद्रावकर, ललिता पवार, नंदा, राजश्री, ममता कुलकर्णी रीमा लागू, स्मिता पाटिल काफी चर्चित रही। आज भी उनकी अभिनीत फिल्में अधिक से अधिक दर्शकों द्वारा देखी जाती हैं।
महाराष्ट्र की सिने अभिनेत्रियों में स्मिता पाटिल खूबसूरत स्मार्ट, वाकपटु एवं अभिनय में परिपक्व थीं। वे 17 अक्टूबर 1955 को एक राजनीति से जुड़े परिवार में जन्मीं। बचपन से उनका लगाव कला और अभिनय की तरफ रहा। उन्होंने न्यूज रीडर तथा फोटोग्राफर के रूप में अपना व्यावसायिक जीवन आरंभ किया।
स्मिता पाटिल सुहासिनी मुले तथा शबाना आजमी से प्रभावित रहीं। वह भारतीय महिलाओं की वास्तविक परेशानियों को उजागर कर उन्हें दूर करना चाहती थीं। ग्रामीण महिलाओं से उन्हें विशेष सहानुभूति थी। उन्होंने फिल्म एवं दूरदर्शन विभाग पूना से स्नातक किया। वे भारतीय कला फिल्मों तथा स्टेज से जुड़ी रहीं।
बॉलीवुड की सफल अदाकारा स्मिता के पिता मंत्री एवं माता समाज सेविका थीं। पूना, महाराष्ट्र में जन्मी स्मिता ने प्रारंभिक पढ़ाई मराठी भाषा में की। व्यवसाय में उनकी सफजता का एक कारण मीठी आवाज रही।उनकी आंखें बहुत सुंदर थी तथा साड़ी में उनकी खूबसूरती और भी बढ़ जाती थीं। वे महिलाओं को सशक्त बनाना चाहती थी। उन्होंने फिल्मों में भी इसी प्रकार की भूमिका का चयन किया।
फिल्म निर्माता श्याम बेनेगल ने उन्हें दूरदर्शन पर समाचार वाचक के रूप में देखा और अपनी फिल्म के लिए उनका चयन कर लिया। हिंदी यथार्थवादी सिनेमा में एक नया नाम स्मिता पाटिल के रूप में जुड़ा। स्मिता ने गोविन्द निहलानी, मृणालसेन की फिल्मों में भी अभिनय किया। शीघ्र ही उनके अभिनय कला की प्रशंसा होने लगी। ‘भूमिका‘ में अभिनय के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया। एक के बाद एक उन्होंने अर्थ, मंथन, मंडी, बाजार जैसी सफल फिल्में की। आरंभिक दौर में वे कला फिल्मों से जुड़ी रहीं। धीरे-धीरे उन्होंने रोमेन्टिक रोल भी करना आरंभ किया। 80 के दषक की नमक-हलाल, शक्ति, मिर्च-मसाला, आखिर क्यों में उनके रोमांटिक रोल भी सराहे गए। हिंदी फिल्मों के अलावा स्मिता पाटिल ने मराठी, गुजराती, तेलगू, बंगला, कन्नड़ और मलयालम फिल्मों में भी अपनी कला का जौहर दिखाया। स्मिता पाटिल को महान फिल्मकार सत्यजीत रे के साथ काम करने का मौका मिला। मुंशी प्रेमचंद की बहुचर्चित कहानी पर बनी टेलीफिल्म सद्गति आज भी याद की जाती है। लगभग दो दशक तक अपने सशक्त अभिनय से दर्शकों के बीच अमिट पहचान पाई।
मराठी फिल्म ’उम्बरठा’ उनकी बहुचर्चित फिल्म रही। फिल्म ‘चक्र‘ के लिये उन्हें 1981 में अभिनय को पुरस्कार दिया गया। फिल्म चक्र में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय एवं फिल्म फेयर अवार्ड मिला। इससे पूर्व भूमिका में भी उन्हें बेस्ट एक्ट्रेस के राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया। वे एक सफल फोटोग्राफर थीं। उनके द्वारा लिए गए चित्रों की एक प्रदर्शनी उनकी मृत्यु के बाद लगाई गई। फिल्म अभिनेता राजबब्बर के साथ उन्होंने अपना वैवाहिक जीवन शुरू किया। उनके इस निर्णय को समाज में नकारा गया क्योंकि राजबब्बर पहले ही विवाहित थे। उनका जीवन उनके पुत्र प्रतीक के जनम के साथ ही 13 दिसंबर 1986 को समाप्त हो गया। प्रसव की कठिनाइयें के दौरान उनकी मृत्यु हो गई। उनके द्वारा खाली किए गए स्थान की भरपाई करना साधारण बात नहीं। जब भी नई धारा की फिल्मों की बात होगी, स्मिता पाटिल का नाम सम्मान के साथ लिया जाएगा।

अमर गायक तानसेन की ध्रुव पद गायकी…!
-नईम कुरैशी
भारत के संगीत में ग्वालियर का नाम काफी ऊँचाई पर रहा है। अमर गायक तानसेन से 60-62 साल पहले तोमर शासक मानसिंह तोमर ने 15वीं सदी के शुरू में ही ग्वालियर में ध्रुव पद गायन के विकास के लिये एक संगीत स्कूल संचालित करा दिया था।
इससे पहले ग्वालियर अंचल व देश भर में ध्रुव पद मात्र मंदिरों में ईश्वर की आराधना में गाया जाता रहा था। राजा मानसिंह तोमर के दरबार में अनेक प्रसिद्ध गायक हुये थे जिसमें बैजू, बक्शू, चरनू घोडू तथा रामदास के नाम काफी चर्चित रहे हैं। गायकी के महान कलाकारों की मदद से राजा मानसिंह तोमर ने एक पुस्तक “मानकोतुहल” भी की थी। मानसिंह तोमर के संगीत विकास को अमर गायक तानसेन ने काफी आगे बढ़ा दिया। आज ध्रुव पद संगीत शैली आम तौर से हर संगीत समारोह में गायी जाती है। इस लेखक ने मानसिंह तोमर पर 10 साल पूर्व एक पुस्तक में उनके संगीत व साहित्य प्रेम पर विस्तार से लिखा है।
ध्रुव पद की भाषा शैली मध्य प्रदेशीय व बुन्देलखण्डी है। यह ग्वालियर के आस-पास की भाषा शैली है। प्रसिद्ध लेखक राहुल सांस्कृत्यायन ने लिखा है- इस बात को जानने की जरूरत है कि साहित्य, संगीत और कला का ग्वालियर सदियों तक गढ़ रहा है। जिसे हम बृजभाषा कहते हैं, वह पहले ग्वालियर के नाम से प्रसिद्ध थी।
अकबर बादशाह के दरबारी गायक मियां तानसेन (सन्् 1606-85) के कारण भी ग्वालियर को सारी दुनियां में नाम मिला। इस यादगार गायक की जन्मभूमि बनने का गौरव ग्वालियर को ही प्राप्त है। उनकी दरगाह आज भी ग्वालियर के हजीरे के पास हजारों पर्यटकों व संगीतकारों के लिये तीर्थ के समान है।
संगीत सम्राट तानसेन बादशाह अकबर के लिये युद्धकाल में भी प्रेरणा के स्त्रोत रहे थे। बादशाह की सेना की अजेयता के लिये भी तानसेन ने लिखा है। वे गायक होने के साथ साथ कवि व लेखक भी थे। तानसेन के अनुसार-
ए आयौ, आयौ के बलवंत के शाह, आयौ छत्रपति अकबर
सप्तद्वीप और अष्ठ दिसा नर नरेन्द, धर-धर डरे
निसि दिन कर एक छिन पावै, वरन न पांवे लंगा नगर
जहां जहां जीतत फिरत सुनियत है जलालउद्दीन मुहम्मद को लस्कर
साह हुमायूं कौ नन्दन, चन्दन, एक तेग जोधा अकबर
“तानसेन” को निहाल कीजै, दीजै कोटिन जरजरी नजर कमर।
अकबर ने अपने 50 साल के शासन के लंबे दौर में अनेक युद्ध लड़े। उनमें से कई युद्धों में वे तानसेन को भी साथ ले जाते थे। सम्राट अकबर के काल की सबसे महत्वपूर्ण विजय गुजरात थी। 1587 में यह युद्ध हुआ था। इस अवसर पर तानसेन भी सम्राट के साथ गये थे जहां उन्होंने अपने गुरु बख्शू के मकबरे पर भी हाजरी लगायी थी। तानसेन काफी साहसी भी थे। वे अनेक बार सम्राट अकबर के सामने अपने को उनके बराबर का कह देते थे। उन्होंने अपने एक पद में लिखा भी है- कि अगर अकबर नरपति है तब तानसेन तानपति है। इसी तरह एक बार अकबर के सामने तानसेन ने राजा रामचन्द्र की भी प्रशंसा में कई पद गाये थे।
प्रसिद्ध पुस्तक आईने अकबरी के अनुसार अकबर के दरबार में 36 प्रमुख संगीतज्ञों में से 16 अकेले ग्वालियर के ही थे। उनमें सबके मुखिया तानसेन थे। मियां तानसेन ग्वालियर गायक। बाबा रामदास, ग्वालियर गायक। सुभान खान, ग्वालियर गायक। श्रीज्ञान खां, ग्वालियर गायक। मियांचन्द, ग्वालियर गायक। तानसेन के शिष्य विचित्र खां, ग्वालियर गायक। मोहम्मद खां, ग्वालियर गायक। वीर मण्डल खां, ग्वालियर वादक। बाजबहादुर, मालवा का शासक, अद्वितीय गायक। शिहाब खां, ग्वालियर वीणा वादक। दाऊद ढोडी गायक। सरोद खां, ग्वालियर गायक। चोच खां, ग्वालियर गायक। प्रवीण खां, ग्वालियर वीणा वादक। सूरदास, ग्वालियर (बाबा रामदास के पुत्र) गायक। रंगसेन, आगरा गायक। शेखदावन, वाद्य वादक। रहमत उल्ला, गायक। मीर सैय्यद अली मशहद, तम्बूरा वादक। उस्ताद युसुफ हिरात सुल्तान हाफिज़ हुसैन। मशहद बहरम अली हिरासत, गायक। सुल्तान हाशिम मशहद, तम्बूरा वादक। उस्ताद मुहम्मद आमिन तम्बूरा वादक। हाफिज़ ख्वाजा अली, मशहूर गायक। मीर अब्दुल्ला वादक। पीर दाजा खुरासान के मीर दवाम का भतीजा, गायक। मुहम्मद हुसैन, तम्बूरा वादक थे। उनमें से 15 गायक राजा मानसिंह की संगीत शाला से सीखे हुये थे। मानसिंह ने दुनिया में पहला संगीत स्कूल ग्वालियर के किले पर स्थापित किया था।
तानसेन से दो सदी के बाद उस्ताद बड़े मोहम्मद खां, उस्ताद हद्दू-हस्सू खां की ख्याल गायकी, बाबा दीक्षित, भाऊ साहब गुरुजी, पर्वत सिंह कृष्णराव पंडित, उस्ताद हाफिज अली खां जैसे महान संगीतज्ञों ने अपनी साधना से ग्वालियर का नाम रोशन किया।

मध्य प्रदेश का मनमौजी और मस्तमौला गायक – किशोर कुमार

13 अक्टूबर – गांगुली बंधुओं को याद करने का दिन

 अशोक मनवानी 
आज आभास कुमार गांगुली अर्थात किशोर कुमार की आज  पुण्य तिथि है । किशोर दा हमसे तीस साल पहले विदा हो गए थे।  उन जैसी शख्सियत भले  हमारे
साथ भौतिक रूप से आज न हो, लेकिन दिलों  में हमेशा कायम  रहती  है. इसके साथ ही 13 अक्टूबर का जन्म किशोर कुमार के बड़े भाई श्री कुमुद कुमार गांगुली अर्थात जाने-माने चरित्र अभिनेता अशोक कुमार का जन्मदिवस भी है। किशोर कुमार को रफ़ी साहब और मुकेश जी  की तरह जिंदगी के छठे दशक में संसार छोड़ना पड़ा । यह मध्य  प्रदेश का  सौभाग्य ही है   कि  प्रतिभा संपन्न  पार्श्व गायक   किशोर कुमार ने गायन और अभिनय  दोनों क्षेत्रों में अपनी विशिष्ट  पहचान बनाई. उन्होंने  गायन के साथ ही अभिनय  की दुनिया में भी बहुत कम वक्त में झंडे गाड़ दिए. जन्म भूमि खंडवा के लिए किशोर जी के मन मे असीम प्रेम था। आज उनके चाहने वाले यह विचार करते हैं कि जब किशोर कुमार हमारे मध्य प्रदेश के निमाड़ अंचल के हैं, तब क्या खंडवा में उनकी समाधि  के अलावा कोई ऐसा  संग्रहालय  नहीं होना चाहिए जहाँ किशोर जी के गाये सभी गीत हों ,उनकी फिल्मों  की तस्वीरें  हों  और साथ ही किशोर  कुमार अभिनीत  और निर्देशित सभी फिल्में  भी संकलित हों। साथ हीयह भी किया जा सकता है कि  केके और एके दोनों भाइयों की याद में एक शानदार संग्रहालय बने। अशोक कुमार भी जीवन भर मध्य प्रदेश से जुड़े रहे . उनकी स्मृतियाँ प्रदेश  से जुडी हैं. किशोर जी की स्मृतियाँ  तो  अनोखी और संग्रह योग्य हैं ही. दोनों भाइयों की याद में उनके कृतित्व को दर्शाते एक  म्यूजियम बनाया जा सकता है।
किशोर कुमारके नाम से  मध्य प्रदेश सरकार की ओर से काफी जतन किए गए हैं। पूरे देश मे किशोर जी को सम्मानीय स्थान मिला  है. भोपाल और खंडवा में आयोजित समारोहों में  राष्ट्रीय  स्तर पर किशोर कुमार राष्ट्रीय  पुरस्कार  समारोह आयोजित हुए हैं . प्रदेश की धरती पर आभास कुमार गांगुली के रूप  में 13 अक्टूबर 1929  में जन्म लेने वाले किशोर  कुमार की खास गायन शैली अपनाकर हजारों गायक अपनी जीविका चला रहे हैं। यह क्या कम महत्व की बात है। दरअसल स्पष्ट उच्चारण  और हाई  पिच में गाने की प्रतिभा और भी कई गायकों में रही है लेकिन गीत गायन में वैसी विविधता  कोई  न कर सका जो किशोर कुमार ने पैदा की।  मध्य प्रदेश के लोगो ने अपनी सम्मान भावना मध्य प्रदेश से  प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े रहे महान कलाकारों के लिए  समय-समय पर व्यक्त की है। सिर्फ किशोर कुमार के सन्दर्भ में बात करे तो  ऐसा लगता है मध्य प्रदेश के लोगों  ने  इस विलक्षण और मनमौजी गायक पर वो नाज नहीं किया, जो किया जाना चाहिए. इस सम्बन्ध में
यह भी जरुरी है कि किशोर कुमार की समाधि  पर  खंडवा नगर में साल में सिर्फ  एक बार नमन करने की बजाय  उनके नाम पर गायन के क्षेत्र  में स्कालरशिप  शुरू की जाएँ और गायन प्रशिक्षण अकादमी भी कार्य करे जिससे हम और भी किशोर कुमार पैदा करें. गायन और अभिनय के आयाम स्थापित करने वाले किशोर कुमार के बारे में कहते हैं कि वे बहुत कंजूस थे।हालांकि इसे बहुत लोग गलत बताते हैं। जो भी हो,यहाँ के लोगों को यह जरूर संतोष रहेगा कि पांच दशक की  सुदीर्घ  कला साधना  के लिए वरिष्ठ सिने कलाकार किशोर कुमार  के नाम से मध्य प्रदेश के संस्कृति विभाग   ने देश के अनेक अभिनेताओं ,गायकों  और सिने निर्देशकों को  मध्य प्रदेश की धरती पर सम्मानित किया है । किशोर  कुमार सम्मान राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुका है.
सामाजिक स्तर  पर ऐसी पहल होना चाहिए। सिर्फ खंडवा या भोपाल में किशोर जी की जन्म वर्षगांठ मना  लेना काफी नहीं. अन्य  नगरों  से भी उत्साह दिखाई दे ,तभी मध्य प्रदेश को गांगुली बन्धुओ पर गर्व है, यह माना  जायेगा. किशोर दा ,जिन्दगी भर कहते रहे ,दूध जलेबी खाएंगे ,खंडवा में बस जायेंगे. अपनी  पिता की कर्म भूमि के लिए अपनेपन की इस भावना को समझने की जरुरत है. किशोर जी ने आखिरी यात्रा खंडवा में पूरी की, यह उनकी इच्छा भी रही थी.  यह कोई  ताज्जुब की बात नहीं है कि  किशोर जी के गायक बेटे अमित कुमार खुद  मध्य प्रदेश से लगाव कायम रखते हैं। तभी तो अमित ने साल 2016 में पिता की जयंती पर भोपाल में परफार्म किया. बस  इतना तो मध्य प्रदेश के बाशिन्दों  को करना ही होगा कि  प्रदेश की प्रतिभाओ के परिजनों से संपर्क और संवाद बनाये रखें .दरअसल किशोर कुमार एक विश्व स्तरीय  शख्सियत हैं।

बेजोड़ था किशोर दा का गायन

कई भारतीय भाषाओं  में गाने वाले किशोर जी को जिन गीतों  के लिए फिल्म फेयर  अवार्ड से नवाजा गया उनमें मंजिलें  अपनी जगह हैं… रास्ते अपनी जगह,  हमें और जीने की चाहत न होती ..  अगर तुम न होते , हजार राहें  मुड़कर देखीं …., खाई  के पान बनारस वाला …, पग घुंघरू बाँध मीरा नाची थी .., दिल ऐसा किसी ने मेरा तोड़ा.., सागर किनारे दिल ये पुकारे…शामिल हैं.इसके अलावा।.रिमझिम गिरे सावन,सुलग सुलग जाए मन…. और 1969 में आई फिल्म आराधना का मस्त गीत  जो किशोर  साहब की  मस्तमौला  वाली शख्सियत से मेल खाता है, शायद आप सभी
इसे गुनगुनाते रहे होंगे– – रूप तेरा मस्ताना, प्यार मेरा  दीवाना …..भूल कोई हमसे न हो जाए। सिने प्रेमियों को याद होगा कि इस गीत का फिल्मांकन भी राजेश खन्ना और शर्मिला जी के साथ  बेजोड़ बन पड़ा था। इस तरह अनेक गीत किशोर कुमार के सु-मधुर गायन की वजह से यादगार बन गए।

जन्म वर्षगांठ 2 सितंबर पर विशेष

पहली सुपर अदाकारा रहीं – साधना, रूपहले परदे पर सिंध का सौंदर्य साधना

 अशोक मनवानी
हमारे देश के बंटवारे के वक्त अपने मां-बाप के साथ एक छह-सात साल की बच्ची तकलीफें उठाती हुई कराची (सिंध) से हिंदुस्तान दाखिल हुई। निर्धनता और आभाव झेलते शिवदासानी परिवार का कला के प्रति रूझान था, साधना मुम्बई में स्कूल-कॉलेज में नाटकों में हिस्सा लेती रहती थीं। एक दिन उन्हें उस जमाने के मशहूर
निर्माता सुबोध मुखर्जी ने एक पत्रिका के मुख पृष्ठ पर देखकर लव इन शिमला फिल्म के लिए बतौर अभिनेत्री चुन लिया। साधना एक वर्ष पहले 1958 में एक सिंधी फिल्म अबाणा में भूमिका कर चुकी थी। प्रेम-कथाओं के अनुरूप साधना फिल्में करती चली गई। एक मुसाफिर एक हसीना, हम दोनों, असली-नकली, वो कौन थी, राजकुमार,आरजू, दूल्हा-दुल्हन, मेरा साया, अनीता इंतकाम उनकी कामयाब फिल्में रहीं। गीता मेरा नाम के निर्देशन के कारण साधना की अलग पहचान बनी । साधना के प्रमुख नायकों में शम्मी कपूर, राजेंद्र कुमार, जॉय मुखर्जी, राजकपूर,देवानंद, सुनीलदत्त, मनोज कुमार इत्यादि शामिल थे । फिल्म दूल्हा-दुल्हन में राजकपूर के साथ साधना ने यादगार अभिनय किया। जिंदगी में सेहत रूपी धन सभी को हासिल नहीं होता। साधना साधारण बीमारियों का सामना करते-करते विवश सी हो गई और अभिनय यात्रा को विराम देना पड़ा। वे आज भी बीते दौर को याद करती रही। उनकी इच्छा सदैव यही होती थी कि उन्हें प्रशंसक युवावस्था की छवि से जानते रहें। साधना ने हिंदी सिनेमा के साथ ही देश की युवतियों को विशिष्ट केश सज्जा भी दी है। चूड़ीदार सलवार का चलन भी साधना के कारण हुआ। यही नहीं साधना ने कान के बड़े रिंग, गरारा, शरारा तिरछे काजल का फैशन भी चलाया। फिल्म एक मुसाफिर एक हसीना के लोक प्रिय होने के बाद साठ के दशक में कॉलेज की युवतियों ने हंसने के बजाय मुस्कुराना शुरु करदिया गया था । सिंध का सौंदर्य साधना के रूप रंग को देखकर जाना जा सकता है। व्यवसायी सिंधी समाज भी अभिनयनिर्देशन और फिल्म निर्माण में किसी से उन्नीस नहीं। अभाव रोड़ा नहीं बनते प्रगति में, यह साधना शिवदासानी ने सिद्व किया। जीने का अदम्य साहस उनमें रहा। अभिनय की जिन्दगी के आखिरी कुछ साल पहले छोटे पर्दे पर कार्यक्रम संयोजन से जुड़ी रहीं साधना मातृभाषा सिंधी से प्रेम करती रहीं। उन्होंने जीवन साथी आर.के.नैयर को भी सिंधी सिखा दी थी। वे गीत संगीत सुनना पसंद करती रही। स्वयं अभिनीत फिल्मों के गीत काफी रूचि से सुनती रहीं। साधना समकालीन अभिनेत्रियों, मित्रों के प्रति भी सम्मान व्यक्त करती रहीं। सिनेमा में आधुनिकता की प्रथम प्रेरणा, भावपूर्ण अदाकारी से दिलों पर छा जाने वाली, प्रसिद्ध लोकप्रिय गीतों पर अभिनय करने वाली अभिनेत्री,महिलाओं की दोहरी भूमिका निभाने वाली अभिनेत्री के रूप में स्थापित हुईं। आखिरी सांस तक उनके शांत निर्मल,निश्छल चेहरे के भाव यही कहते रहे- "नैना बरसे रिमझिम-रिमझिम। साधना फिल्म इंडस्ट्री की प्रथम फैशन आइकॉन, फर्स्ट यंग एंग्री वीमन (इंतकाम) फर्स्ट पापुलर आयटम सांग परफार्मर एक्ट्रेस (मेरा साया) पापुलर डबल रोल एक्ट करने वाली एक्ट्रेस (चार फिल्में हैं जिनमें दोहरी भूमिका है) होने के अलावा साधना ने रहस्यमय और प्रेम फिल्मों को नई परिभाषा भी प्रदान की, वे राजेश खन्ना के सुपर स्टार बनने के पहले सुपर अदाकारा बन चुकी थीं।उनकी अधिकांश फिल्में सिल्वर जुबली मनाती थीं। उन दिनों साधना फिल्म निर्माताओं के लिए सफलता का पैमाना बन गई थीं। यह भी सच है कि उस दौर में उन्हें अपनी समकालीन अभिनेत्रियों के मुकाबले ज्यादा मानदेय भी मिला। वर्ष 2015 के दिसम्बर महीने की 25 तारीख को उन्होंने देह त्यागी। आज भी वे सिने प्रेमियों के हृदय में जीवित हैं।

 

मीना कुमारी : भारतीय फिल्मों का एक अध्याय
(पुण्यतिथि 01 अगस्त पर विशेष)
– जया केतकी
तुम क्या करोगे सुनकर मुझसे मेरी कहानी,
बेलुत्फ जिंदगी के किस्से हैं फीके-फीके।
भारतीय सिने जगत में 1930 से 70 के दशक तक अभिनय और कला की जो बहार देखने को मिली उसका जलवा आज भी बरकरार है। आज जब हम उस दौर की फिल्मों और अदाकाराओं के अभिनय को आंकने का प्रयास करते हैं, तो वह वर्तमान की खूबसूरत और अंग प्रदर्शन को स्वीकार करने वाली अभिनेत्रियों से बीस ही ठहरता है। जिस अभिनय की गहराई उस दौर की नायिकाओं में देखने को मिली वह आज की अदाकाराओं में नहीं।
भारतीय सिनेमा के इतिहास में मीनाकुमारी का नाम सदा सम्मान से लिया जाता है। उनके अभिनय की गहराई का आज कोई सानी नहीं है। उन्होंने हिन्दी सिनेमा को एक ऐसा अध्याय दिया जिसमें अभिनय की सहजता, अदा और वागी के उतार-चढ़ाव की बारीकियां सामने आईं। मीना कुमारी ने अपनी हर फिल्म में अपने पात्र को पूर्णता प्रदान की। वास्तव में वे अपने पात्र में ही जीतीं। वे पात्र में प्राण डालने के लिए उसे स्वयं में समाहित कर लेती।
खूबसूरती और मधुर आवाज की धनी मीनाजी एक नायाब शायरा भी थीं। वे अक्सर फिल्म की शूटिंग के दौरान फुरसत के क्षणों में अपनी शेरों-शायरी सुनाकर सभी को मदमस्त कर देतीं। महजबीन उर्फ मीना कुमारी का जन्म 1 अगस्त 1932 को अलीबक्श और इकबाल बेगम की तीसरी संतान के रूप में हुआ था। मीना कुमारी के पिता संगीतकार तथा माता मशहूर नर्तकी थीं। बचपन में मीना कुमारी ने महजबीन नाम से बतौर बाल कलाकार अभिनय किया। 6 वर्ष की आयु में उन्होंने पहली बार फिल्म जेलर में काम किया। अभिनय और संगीत तो उनके रक्त में विद्यमान थे इसलिए किसी भी पात्र का अभिनय करने में उन्हें कोई वक्त नहीं लगता था। उन्होंने बचपन से ही अपने अभिनय का परचम लहराया।
50 से 70 के दशक तक उन्होंने जो फिल्म भारतीय सिने जगत को अर्पित की वे अभिनय की जीती जागती मिसाल हैं। उनकी पाकीजा और साहेब बीबी और गुलाम फिल्मों ने प्रसिद्धि के सारे रिकार्ड तोड़ दिए। 1952 में बनी बैजू बावरा से मीना कुमारी की अदाकारी में नया मोड़ आया। वे फिल्म फेयर अवार्ड 1953 जीतने वाली पहली नायिका बनीं। उनके साथी कलाकारों में राजकपूर, भारत भूषण, प्रदीप कुमार, गुरुदत्त, सुनील दत्त, रहमान, राजकुमार, अशोक कुमार, दिलीप कुमार और धर्मेन्द्र प्रमुख रहे, जिन्होंने अभिनय के साथ ही मीना जी के मधुर स्वभाव का भी समय देखा। कहा जाता है कि अपने पति कमाल अमरोही से वे खुश नहीं थी और धर्मेन्द्र के साथ नाम जुड़ने के बाद मीनाजी ने शराब का सहारा लेना शुरू कर दिया। कमाल अमरोही ने मीनाजी के सौन्दर्य और अभिनय को कमाई का एक जरिया समझकर उपयोग किया और अय्याशी में उनकी गाढ़ी मेहनत की कमाई का दुरुपयोग किया। उनकी आखिरी फिल्म पाकीजा के प्रदर्शन के तीन सप्ताह बाद उनकी मृत्यु लीवर में खराबी आने के कारण हो गई।
कमाल अमरोही से जब मीनाजी का विवाह हुआ तब वह अपने पति से 15 वर्ष छोटी थीं। अमरोही जी के पहली पत्नी से बच्चे थे औ वह और बच्चे नहीं चाहते थे। 1964 में पारिवारिक क्लेशों के कारण उनका तलाक हो गया। तभी से मीनाजी ने अपनी व्यस्तता फिल्मों में और बढ़ा दी। तन्हाई से बचने के लिए वह शराब की आदी हो गईं। अपने पति के बारे में उन्होंने लिखा-
दिल सा जब साथी पाया,
बच्चे भी वो साथ ले आया।