चिता पर बना है रामेश्वरी श्यामा माई मंदिर
बिहार के दरभंगा में चिता पर बना है मां काली का धाम श्यामा काली मंदिर कुछ मामलों में यह मंदिर सबसे अलग है। यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं और सभी मांगलिक कार्य भी किए जाते हैं। इस मंदिर को श्यामा माई के मंदिर के नाम से जाना जाता है। श्यामा माई का मंदिर श्मशान घाट में महाराजा रामेश्वर सिंह की चिता पर बनाया गया है और यह अपने आप में असामान्य घटना है। महाराजा रामेश्वर सिंह दरभंगा राज परिवार के साधक राजाओं में थे। राजा के नाम के कारण ही इस मंदिर को रामेश्वरी श्यामा माई के नाम से जाना जाता है। मंदिर की स्थापाना 1933 में दरभंगा के महाराज कामेश्वर सिंह ने की थी।
गर्भगृह में मां काली की विशाल प्रतिमा के दाहिनी ओर महाकाल और बाईं ओर गणपति एवं बटुकभैरव देव की प्रतिमा स्थापित है। मां के गले में जो मुंड माला है उसमें हिंदी वर्णमाला के अक्षरों के बराबर मुंड हैं। श्रद्धालुओं का मानना है कि ऐसा इसलिए है क्योंकि हिंदी वर्णमाला सृष्टि की प्रतीक हैं। मंदिर में होनेवाली आरती का विशेष महत्व है। यहां आए भक्तजन मंदिर आरती में शामिल होने के लिए घंटों इंतजार करते हैं। नवरात्र के दिनों में यहां श्रद्धालुओं की संख्या बढ जाती है और मेला लगता है।
इस मंदिर में मां काली की पूजा वैदिक और तांत्रिक दोनों विधियों से की जाती है। आमतौर पर हिंदू धर्म में शादी के एक साल बाद तक जोड़ा श्मशान भूमि में नहीं जाता है लेकिन श्मशान भूमि में बने इस मंदिर में न केवल नवविवाहित आशीर्वाद लेने आते बल्कि इस मंदिर में शादियां भी सम्पन्न कराई जाती हैं। जानकारों का कहना है कि श्यामा माई माता सीता का रूप हैं। इस बात की व्याख्या राजा रामेश्वर सिंह के सेवक रहे लालदास ने रामेश्वर चरित मिथिला रामायण में की है। यह वाल्मिकी द्वारा रचित रामायण से ली गई है। इसमें बताया गया है कि रावण का वध होने के बाद माता-सीता ने भगवान राम से कहा कि जो भी सहत्रानंद का वध करेगा वही असली वीर होगा।
इस पर भगवान राम उसका वध करने निकल पड़े। युद्ध के दौरान सहस्रानंद का एक तीर भगवान राम को लग गया। इस पर माता सीता बेहद क्रोधित हुईं और सहस्त्रानंद का वध कर दिया। क्रोध से सीता माता का रंग काला पड़ गया। वध करने के बाद भी उनका क्रोध शांत नहीं हुआ तो उन्हें रोकने के लिए भगवान शिव को स्वयं आना पड़ा। भगवान के सीने पर पैर पड़ते ही माता बहुत लज्जित हुईं और उनके मुख से जीह्वा बाहर आ गई। माता के इसी रूप की पूजा की जाती है और उन्हें यहां काली नहीं श्यामा नाम से पुकारा जाता है।
क़ुदरत के हुस्न का अनमोल ख़ज़ाना -ओरछा
( राजेश बादल द्वारा)
एक सप्ताह पहले ही ओरछा गया था। इस धार्मिक -ऐतिहासिक -प्राकृतिक तीर्थ ने इस बार मन मोह लिया। पहले अक्सर रामराजा सरकार के दर्शन करने जाया करता था। एक श्रद्धालु की तरह। शायद मेरे अवचेतन में यह कहानी गहरे बैठी हुई है कि रामराजा तो बुंदेलखंड के ओरछा में विराजे हैं ,बेतवा नदी के तट पर। ओरछा में राम जी के दर्शन तो मैंने किशोरावस्था में क़रीब पैंतालीस – छियालीस बरस पहले ही कर लिए थे। इस अदभुत तीर्थ में आते ही ऐसा लगता है, मानों किसी अन्य लोक में आ गए हैं।आपको याद दिला दूँ कि ओरछा की रानी गणेश कुँअरि राम की बड़ी भक्त थीं। वे अयोध्या के मुख्य राम आवास से श्रीराम,सीता और लक्ष्मण की प्रतिमाएँ एक क़ाफ़िले की शक़्ल में लाई थीं। यही प्रतिमाएँ राजा मधुकरशाह की रानी कुँअरि गणेश अवधपुरी से ओरछा लाईंl इन प्रतिमाओं को उन्होंने अपने रानी महल में प्रतिष्ठित कराया था।तबसे यही रानी महल भगवान् राम का आज तक मंदिर बना हुआ है।
मेरे अवचेतन में ओरछा नाम लेते ही एक फ़िल्म के अनेक दृश्य उभरते हैं। सबसे पहला लाखों श्रद्धालुओं का बेतवा में डुबकी लगाते हुए दृश्य उभरता है ।फिर कई किलोमीटर तक कतारों में लोकगीत गाते ,राम की महिमा गाते महिलाओं और पुरुषों के झुंड दिखाई देते हैं। भगवान राम को सशस्त्र जवानों की टुकड़ी प्रतिदिन नियम से सलामी देती नज़र आती है।जिस तरह उज्जैन के राजा महाकाल हैं, उसी तरह श्री राम ओरछा के मालिक हैं और इसी कारण वे करोड़ों दिलों में धड़कते हैं। इलाक़े के आसपास के पचास से अधिक ज़िलों में यह परंपरा सदियों से चली आ रही है कि शादी तय होते ही पहला निमंत्रण-पत्र ओरछा में भगवान राम को भेजा जाता है। लोग तो कई-कई किलोमीटर पैदल चलकर निमंत्रण पत्र पर हल्दी चावल छिड़ककर राम के चरणों में उसे रख देते हैं। उसके बाद ही अन्न जल ग्रहण करते हैं। जो लोग ख़ुद नहीं पहुंच पाते ,वे बाकायदा डाक से निमंत्रण पत्र भेजते हैं। उसके बाद ही अन्य कार्डों को भेजने का सिलसिला शुरू होता है। हमारे यहां तो विवाह के लिए मुहूर्त निकलवाने की परंपरा है। शुभ मुहूर्त नहीं निकले तो शादी ही टल जाती है,जब तक कि अच्छा मुहूर्त नहीं निकल आता। लेकिन ओरछा में अगर आप शादी करने जाते हैं तो किसी मुहूर्त की ज़रूरत ही नहीं होती। ओरछा का एक-एक पल शुभ मुहूर्त है। इसलिए दूर दूर से लोग बसों में भरकर, रेल से या अपनी गाड़ियों में आते हैं और ठाठ से ब्याह करते हैं। ओरछा ब्याह रचाने का सबसे शानदार स्थल है। क्या किसी अन्य आराध्य के प्रति जन मानस में इतनी गहरी आस्था महसूस होती है ?
लेकिन मेरी सप्ताह भर पहले की यात्रा केवल एक श्रद्धालु के तौर पर ही नहीं थी। इस बार मंा एक सैलानी या यायावर के तौर पर ओरछा का आनंद लेना चाहता था। झांसी रेलवे स्टेशन पर उतरते ही एक मित्र की कार मुझे ओरछा ले जाने के लिए तैयार थी। बीस से पच्चीस मिनट के भीतर हम ओरछा के भीतर थे। एक छोटी सी पहाड़ी पर घने जंगलों और कल-कल बहती बेतवा के बीच मेरे सस्ते विश्रामालय का कमरा सुरक्षित था। मैं दंग था। देश भर घूमा हूं। चप्पे-चप्पे की ख़ाक छानी है ।शायद ही मुल्क का कोई हिस्सा बचा हो। हिमालय की वादियां हों या ब्रह्मपुत्र के विराट धारे,समंदर के किनारे हों या रेगिस्तान के नज़ारे। घने पेड़ों से भरे जंगल हों अथवा वन्य जीवों की बहार। कह सकता हूं कि इस बार ओरछा में जिस अलौकिक अनुभूति से गुज़रा, किसी अन्य जगह वैसा अहसास नहीं हुआ।
सुबह सुबह मोरों की आवाज़ ,चिड़ियों की चहचहाहट और पत्थरों से टकराकर बेतवा की लहरों के इठलाने की धुन से नींद जल्दी खुल गई। बाहर निकला तो सफ़ेद कोहरे की चादर बिछी हुई थी। कानों में मफ़लर लपेटकर कड़कड़ाती सुबह में सैर को निकल पड़ा। पत्थरों वाले रपट वाले पुल को पार करते हुए राष्ट्रीय अभयारण्य में जा पहुँचा।कोहरा छट गया था।नदी की धार के पार पौ फट रही थी। सूरज की किरणें पेड़ों के पत्तों के बीच से छन-छन कर आने लगी थीं। तभी सरसराहट हुई और हिरणों का एक झुण्ड कुलांचें भरता सामने से निकल गया। यह झुण्ड चट्टानों के बीच धीरे-धीरे कुछ नखरा दिखाते बहते पानी के पास पहुँचा। चौकन्नी आँखों से इधर उधर देखा और चप-चप करता पानी पीने लगा। मैं पेड़ों के बीच एक पगडण्डी पर था।एक फर्लांग भी नहीं गया कि सियारों का एक झुण्ड चपलता से निकल गया। बचपन में हम गाँव में रहते थे। सियारों को बुंदेली में लिडैया कहा जाता था। एक सेकंड की गति कितनी तेज़ होती है। सियारों की एक झलक ने मुझे पचपन साल पहले पहुँचा दिया था। मैंने ऊपर वाले को धन्यवाद देने के लिए सिर उठाया तो दो नीलकंठ एक डाल पर। फिर बचपन में जा पहुंचा। दशहरे के दिन जल्दी जगाती थीं। कहती थीं ,” आज दशहरा है। आज सुबह सुबह नीलकंठ देखना शुभ होता है।अपनी दादी की बात मानते हुए सब बच्चे नीलकंठ देखने निकल पड़ते और तभी लौटते ,जब नीलकंठ के दर्शन हो जाते चाहे कितना ही दिन चढ़ आए। हम गाते थे – नीलकंठ ! तुम नीले रहियो। हमाई ख़बर भगवान से कहियो…..
दिन वाकई चढ़ आया था। सात -साढ़े सात का समय रहा होगा। मोबाईल तो मैं कमरे में ही छोड़ गया था। क़ुदरत को पूरी तरह पीना चाहता था। लौटते हुए एक नीम से दातून तोड़ कर दाँत साफ़ करते ,यादों में उतराते उन्ही पत्थरों के पास ताज़ा बहता पानी पीने की इच्छा से गया ,जहाँ थोड़ी देर पहले हिरण प्यास बुझा रहे थे।एक पत्थर पर बैठकर ठन्डे पानी में पैर डाल कर बैठा रहा। छोटी-छोटी मछलियाँ मेरे पैर को छू कर निकल जातीं। दूर दूर तक सिर्फ़ मैं ,नदी ,चट्टानें ,बड़े-बड़े पेड़ और कुछ जंगली जानवर। सब कुछ कितना सुहाना था। दिल्ली के ज़हरीले गैस चैंबर से दूर प्रकृति की गोद मुझे दुलार रही थी।पास में सरसराहट से विचारों की तन्द्रा टूटी। चौंक कर देखा ,बाजू से एक भूरा अज़गर भी नदी किनारे एक पत्थर के इर्द गिर्द लिपट रहा था। अफ़सोस ! कोई कैमरा न था। उससे नज़र हटने का नाम ही नहीं ले रही थी। थोड़ी देर बाद आगे बढ़ा तो एक जंगली सुअर दाँत दिखाकर चिढ़ाते भाग गया। अपनी रिसॉर्ट के पास पहुंचा तो किनारे पत्थरों को चूल्हा बनाए एक गाँव वाला चाय बना रहा था। हमने भी पाँच रूपए में गिलास भर स्वादिष्ट अदरक वाली चाय पी।यक़ीन मानिए। दिल्ली के ताज़ या इण्डिया इंटरनेशनल सेंटर की चाय से कई गुना बेहतर। रिसॉर्ट के अपने कमरे के बाहर भी नदी बेतवा का नज़ारा। एक चट्टान पर बैठकर वेटर से एक और चाय तथा गरमा गरम समौसा खाया। फिर कपड़े निकालकर ठंडे पानी में नहाने उतर गया। उस खुशनुमा सर्दी में भी नदी से बाहर निकलने की इच्छा नहीं हो रही थी। मुझे बेशर्मी से नहाते देख आसपास कुछ और देसी-विदेशी सैलानी भी स्नान के लिए आ पहुँचे। मैं बाहर निकल आया।
रामराजा के दर्शन के बाद मैं लाला हरदौल के निवास पर जा पहुँचा। लाला हरदौल बुंदेलखंड ही नहीं बल्कि उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, उत्तराखंड और राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में देवता की तरह पूजे जाते हैं।लेकिन उनकी गाथा दुःख भरी है। मुझे याद आया। आकाशवाणी छतरपुर में जब उद्घोषक था तो अक्सर हम लोगों को टेपरिकॉर्डर लेकर भेज दिया जाता था। रेडियो रिपोर्ट बनाने के लिए। मैं एक रिकॉर्डिंग के लिए सहयोगियों के साथ गया। वहाँ एक मेले में डफली पर ओमप्रकाश अमर नाम के बेजोड़ लोक गायक के मुंह से हरदौल गाथा सुनी। हम भाव विह्वल हो गए। सामने दस हज़ार से अधिक लोग इन्ही हरदौल की कहानी सुनकर फूट-फूट कर रो रहे थे। हमारे भी आँसू भर आए थे।
हरदौल के बड़े भाई जुझारसिंह ओरछा के राजा थे ,लेकिन उनकी तैनाती दिल्ली दरबार में थी।उन्होंने अपने छोटे भाई हरदौल को अपना प्रतिनिधि बनाकर ओरछा का राज सौंप दिया। लेकिन जुझार सिंह कान का कच्चा था। उसके चापलूसों ने कहा कि हरदौल और जुझारसिंह की बीवी के बीच प्रेम संबंध हैं। नाराज़ जुझारसिंह ने अपनी पत्नी से कहा कि अगर वह पतिव्रता है तो हरदौल के खाने में ज़हर मिलाकर उसे मार डाले। हरदौल भाभी को माँ की तरह मानते थे।ज़हर देते समय रानी फ़फ़क उठी। चकित हरदौल ने कारण पूछा तो वह छिपा न सकी। हरदौल ने कहा , ” माँ ! बस इतनी सी बात। और हरदौल ने ज़हर पी लिया। हरदौल ने प्राण त्यागे तो शोक में सैकड़ों लोगों ने सामूहिक आत्मदाह किया। ओरछा में कई दिन तक चूल्हे नहीं जले। हरदौल की बहन कुंजावती का ब्याह दतिया में हुआ था। उसने जुझारसिंह से नाता तोड़ लिया। बरसों बाद जब उसकी बेटी का ब्याह हुआ तो मंडप के नीचे रिवाज़ के मुताबिक़ मामा को भात लेकर ( चीकट की रस्म ) जाना पड़ता है। कुंजावती जुझारसिंह से नाता तोड़ चुकी थी और हरदौल की मौत हो चुकी थी। बहन ने चीत्कार करते हुए हरदौल को पुकारा। मान्यता है कि हरदौल की आत्मा ने भात की रस्म अदा की। तबसे लेकर आज तक बुंदेलखंड की हर माँ हरदौल को अपना भाई मानती है और बेटी के ब्याह में पहला कार्ड श्री राम को देने के बाद दूसरा निमंत्रण पत्र हरदौल को देने की परंपरा है। हरदौल के वस्त्र,महल,उनका आवास आज भी जस का तस रखा हुआ है।एक पर्यटक को नैतिक मूल्यों की गाथा सुनाने वाला ऐसा बेजोड़ तीर्थ देश विदेश में कहाँ मिलेगा ?
ओरछा में गंगा – जमुनी तहजीब का अदभुत समन्वय है। हरदौल जू के घर से मैं जहाँगीर महल जा पहुँचा था।तीन मंज़िल का बेजोड़ महल।हिन्दुस्तान का हिन्दू और मुस्लिम स्थापत्य शैली का मिला जुला पहला महल।पुरातात्विक विशेषज्ञों के लिए ही नहीं आम सैलानी के लिए एक अनोखी इमारत।आप जाएँ तो ठगे से रह जाएँगे।मैं गया तो आधा दिन कैसे बीत गया -पता ही नहीं चला। होश तो तब आया,जब एक कारिंदे ने आकर सूचना दी कि महल बंद होने का वक़्त हो चुका है और मैं बाहर चला जाऊँ।मैं तो आँखों से पी रहा था।अधूरी प्यास लिए रिसॉर्ट लौट आया।प्यास तो अधूरी थी,लेकिन भूख़ भी जबरदस्त लग आई थी।रिसॉर्ट का मीनू देखा तो वेटर से कहा,” भाई ! कुछ बुंदेली व्यंजन क्यों नहीं खिलाते।उसने कहा,” चलिए।मंदिर के पास देसी घी की पूड़ी और आलू की सब्ज़ी खिलाता हूँ।वह लेकर गया। वाह।क्या बात है।पंद्रह -सत्रह पूड़ियाँ खा गया और पेट भरने का नाम ही नहीं ले रहा था।खाने से तृप्त एकदम दिव्य मैं रात रिसॉर्ट आकर सो गया।गहरी नींद में भी ओरछा दिखता रहा।हिन्दुस्तान में ऐसा दूसरा कोई पर्यटक स्थल नहीं,जो धार्मिक तीर्थ हो,घने जंगल से घिरा हो,रिवरराफ्टिंग का आनंद हो,वन्यजीवों का लुत्फ़ हो और सबसे बड़ी बात साफ़ सुथरी हवा।हम दुनिया भर के पर्यटक स्थान घूमने में लाखों रूपए बहाते हैं और पाँच-दस हज़ार रूपए में धरती के इस अनमोल ख़ज़ाने को नहीं लूटना चाहते।
अगले दिन मुझे लौटना था।अफ़सोस हो रहा था कि इस शानदार विरासत के लिए डेढ़ दिन ही क्यों लेकर आया। कम से कम तीन दिन तो बनते ही हैं। बहरहाल ! नदी और जंगल का आनंद तो पिछले दिन ही ले चुका था। कुछ ऐतिहासिक स्मारकों को देखना बाक़ी था। इसलिए अगले दिन सुबह नाश्ता करके आठ बजे ही निकल पड़ा। सबसे पहले चतुर्भुज मंदिर गया। ताज्जुब होता है कि कोई साढ़े चार सौ साल पहले न तो बिजली थी और न अन्य वैज्ञानिक उपकरण लेकिन इस मंदिर में हवा और रौशनी झकाझक जाती है। हम आज फ़्लैट कल्चर के आदी हो रहे हैं और उनमें सारे दिन घर में बिजली जलाकर रखना पड़ जाता है।अपने पूर्वजों के बनाए इंजीनियरिंग तंत्र को समझना ही नहीं चाहते। सैकड़ों साल पुराने चार मंज़िल के इस स्थापत्य नमूने को देखकर मैं दाँतों तले उँगलियाँ दबा रहा था।पीछे ही लक्ष्मी मंदिर है। इस मंदिर की ख़ास बात यह है कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की नायिका झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और गोरी फ़ौज़ के युद्ध के शानदार चित्र आप देख सकते हैं।उनकी शहादत के बाद के चित्र हैं। इसलिए एकदम प्रामाणिक मान सकते हैं।इस मंदिर के समीप ही पालकी महल अगर आपने नहीं देखा तो समझिए ओरछा का सफ़र पूरा नहीं हुआ। जैसे धार ज़िले के मांडू में एक महल जहाज़ के आकार का है ,उसी तरह ओरछा का यह महल पालकी के आकार का है। आज के बच्चों ने तो पालकी ही नहीं देखी होगी। पर हम लोगों ने बचपन में न केवल पालकी देखी ,बल्कि उसमें बैठने का भी मज़ा लिया है।
पालकी महल के बाद मैं राय प्रवीणा के महल में था। राय प्रवीणा याने सौंदर्य की मलिका ,ग़ज़ब की नर्तकी और विलक्षण गायिका। ओरछा के राजा के भाई इंद्रजीत सिंह ने अपनी प्रेमिका रायप्रवीणा के लिए इस महल का निर्माण कराया था। तीन मंज़िल का यह महल एक दर्दनाक दास्ताँ की कहानी कहता है। एक कसक के साथ इस महल से वापस आया। रायप्रवीणा की कहानी फिर कभी। फिलहाल तो बता दूँ कि ओरछा से विदा लेते समय आपने अगर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बहादुर क्रांतिकारी चंद्र शेखर आज़ाद का ओरछा के पास ही सातार नदी के किनारे अँगरेज़ों से छिपने का स्थान नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा। हम सबके लिए यह एक तीर्थ से कम नहीं है। इस आधुनिक तीर्थ के अलावा निकट ही एक साहित्यिक नज़रिए से पावन स्थान कुण्डेश्वर है। यहाँ से आज़ादी से पहले प्रख्यात पत्रकार बनारसीदास चतुर्वेदी जी ने मधुकर नाम की बेजोड़ पत्रिका निकाली थी। देश के नामी गिरामी लेखक ,पत्रकार ,उपन्यासकार ,कहानीकार इस पत्रिका में छपने को तरसते थे। एक नदी किनारे बसे कुण्डेश्वर में आज दादा बनारसी दास चतुर्वेदी की एक विशालकाय प्रतिमा है। कुण्डेश्वर जाना भी एक आधुनिक तीर्थ से कम नहीं है।
आते समय ट्रेन से झांसी जंक्शन पर उतरा था। लौटने के लिए मैंने ओरछा स्टेशन से नही,बल्कि टीकमगढ़ से ट्रेन पकड़ने का फ़ैसला किया था । नए नवेले इस छोटे से स्टेशन पर ट्रेन में भोपाल के लिए बैठा तो मन भावुक हो गया।ओरछा रास्ते भर याद आता रहा। सलाम ओरछा !
(जनसंपर्क संचालनालय की विशेष फीचर श्रृंखला)
पाताल भुवनेश्वर यहाँ ब्रह्मकमल से अभिषेक
सनातन धर्म में भगवान गणेशजी के जन्म के बारे में अनेक कथाएं प्रचलित हैं। भगवान शिव ने क्रोधवश गणेशजी का सिर धड़ से अलग कर दिया था, बाद में माता पार्वतीजी के कहने पर उन्होंने हाथी का मस्तक लगाया, लेकिन गणेशजी का जो मस्तक कटा था, उसे शिवजी ने एक गुफा में रख दिया। मान्यता है कि यह गुफा उत्तराखंड के पिथौरागढ़ में स्थित है। इसे पाताल भुवनेश्वर के नाम से जाना जाता है।
कहा जाता है कि स्कंद पुराण में भी इसका वर्णन है। जहां यह मस्तक रखा गया, उसे पाताल भुवनेश्वर के नाम से जाना जाता है। इस स्थान पर विराजित गणेशजी की मूर्ति को आदिगणेश कहा जाता है। पाताल भुवनेश्वर गुफा भक्तों की आस्था का केंद्र है। यह गुफा विशालकाय पहाड़ी के करीब 90 फुट अंदर है। मान्यता के अनुसार, इस गुफा की खोज आदिशंकराचार्य द्वारा की गई थी।
पाताल भुवनेश्वर गुफा में भगवान गणेश की कटी शिलारूपी मूर्ति के ठीक ऊपर 108 पंखुड़ियों वाला शवाष्टक दल ब्रह्मकमल सुशोभित है। इस ब्रह्मकमल से भगवान गणेश के शिलारूपी मस्तक पर जल की दिव्य बूंद टपकती है। मुख्य बूंद आदिगणेश के मुख में गिरती हुई दिखाई देती है। मान्यता है कि यह ब्रह्मकमल भगवान शिव ने ही यहां स्थापित किया था।
यहीं पर केदारनाथ, बद्रीनाथ और अमरनाथ के भी दर्शन होते हैं। बद्रीनाथ में बद्री पंचायत की शिलारूप मूर्तियां हैं जिनमें यम-कुबेर, वरुण, लक्ष्मी, गणेश तथा गरुड़ शामिल हैं। तक्षक नाग की आकृति भी गुफा में बनी चट्टान में नजर आती है। इस पंचायत के ऊपर बाबा अमरनाथ की गुफा है तथा पत्थर की बड़ी-बड़ी जटाएं फैली हुई हैं। इसी गुफा में कालभैरव की जीभ के दर्शन होते हैं। इसके बारे में मान्यता है कि मनुष्य कालभैरव के मुंह से गर्भ में प्रवेश कर पूंछ तक पहुंच जाए तो उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।
जाखू पहाड़ी यहां हनुमान जी ने किया था विश्राम
हिमाचल प्रदेश के शिमला में हनुमान जी का जाखू मंदिर देश भर के मुख्य धार्मिक स्थलों में से एक है। रामायणकालीन यह मनोरम मंदिर शिमला की हरी-भरी पहाड़ियों के बीच स्थित है। शिवालिक की श्रृंखलाओं में जाखू पहाड़ी स्थल शिमला में सबसे ऊंचा है। माना जाता है कि हनुमान जब संजीवनी बूटी लेने जा रहे थे, तब उन्होंने जाखू पहाड़ी पर विश्राम किया था।
थोड़ी देर विश्राम करने के बाद हनुमान अपने साथियों को यहीं छोड़कर अकेले ही संजीवनी बूटी लाने के लिए निकल पड़े थे हालांकि लौटते समय उनका एक दानव से युद्ध हो गया और वे जाखू पहाड़ी पर नहीं जा पाए। माना जाता है कि वानर साथी इसी पहाड़ी पर बजरंग बली के लौटने का इंतजार करते रहे। इसी के परिणामस्वरूप आज भी यहां बड़ी संख्या में वानर पाए जाते हैं। इन वानरों को हनुमान जी का ही रूप कहा जाता है। मान्यता है कि यहां मांगी गई हर मुराद पूरी होती है।
इस मंदिर को हनुमान जी के पैरों के निशान के पास बनाया गया है। खास बात यह भी है कि इस मंदिर को रामायण काल के समय का बताया जाता है। जाखू मंदिर में हनुमान जी की एक बड़ी मूर्ति है जो शिमला के अधिकांश हिस्सों से दिखाई देती है। शिमला से लगभग 2 किलोमीटर की दूरी पर यह मंदिर यह सुंदर मंदिर स्थित है। जाखू मंदिर में हनुमान जी की मूर्ति देश की सबसे ऊंची मूर्तियों में से एक है जो (108 फीट) ऊंची है। इस मूर्ति के सामने आस-पास लगे बड़े-बड़े पेड़ भी बौने लगते हैं।
ऋषि ने कराया इस मंदिर का निर्माण
राम और रावण के बीच रामायण की लड़ाई के दौरान जब लक्ष्मण, रावण के पुत्र इंद्रजीत के तीरे से गंभीर रूप से घायल हो गए तो उन्हें पुनर्जीवित करने के लिए हनुमान जी ने संजीवनी बूटी लेने के लिए हिमालय पर्वत पर गए थे। पौराणिक कथा के अनुसार कहा जाता है कि हनुमान जी जब संजीवनी लेने जा रहे थे तो वो कुछ देर के लिए इस स्थान पर रुके थे। इस स्थान पर उन्हें ऋषि ‘याकू’ मिले, जिनसे उन्होंने संजीवनी बूटी के बारे में जानकार ली।
हनुमान जी ने वापसी के समय ऋषि याकू से मिलने का वादा दिया था लेकिन दानव कालनेमि के साथ टकराव और समय अभाव के कारण हनुमान जाखू पहाड़ी पर नहीं जा पाए। इसके बाद ऋषि ने बजरंग बली के सम्मान में जाखू मंदिर का निर्माण कराया।
केदारलिंगम के दर्शन
भगवान शिव के वैसे तो कई मंदिर हैं पर जोतिबा कोल्हापुर के उत्तर में पहाड़ों से घिरा एक खूबसूरत मंदिर अलग तरह का है। इस मंदिर की मान्यता स्थानीय लोगों में ज्योतिर्लिंग के समान है। लोग इसे केदारलिंगम कहते हैं। इसके दर्शन से केदारनाथ के दर्शन का पुण्य मिलता है। मंदिर परिसर में शिव के तीन मंदिर हैं। श्रद्धालु तीनों के दर्शन करते हैं। ये तीनों शिव के तीन रूप- सत, रज और तम के प्रतीक हैं। इन्हें ब्रह्मा, विष्णु और महेश का रूप भी माना जाता है। मंदिर में विवाह के बाद दूल्हा-दुल्हन आशीर्वाद लेने आते हैं। आसपास के श्रद्धालु लोग ढोल बाजे के साथ समूह में मंदिर में दर्शन के लिए पहुंचते हैं। मंदिर में जोतिबा को गुलाल चढ़ाने की पंरपरा है। इसलिए पूरा मंदिर सालों भर गुलाबी रंग के गुलाल से रंगा नजर आता है।
जोतिबा मंदिर का निर्माण 1730 में नवाजीसवा ने करवाया था। पूरा मंदिर काले रंग के पत्थरों से बना हुआ है। मंदिर की दीवारों पर सुंदर नक्काशी देखी जा सकती है। प्रवेश द्वार पर विशाल नंदी की प्रतिमा है। जोतिबा मंदिर का वास्तु प्राचीन शैली का है। यहां स्थापित जोतिबा की प्रतिमा चारभुजा धारी है। स्थानीय लोगों में माना जाता है कि जोतिबा भैरव का पुनर्जन्म था। उन्होंने रत्नासुर से लड़ाई में महालक्ष्मी का साथ दिया था। रत्नासुर के नाम पर ही इस गांव का नाम रत्नागिरी पड़ा। बाद में गांव वालों ने इसका नाम जोतिबा रख दिया।
आसपास के लोग जोतिबा मंदिर में पुत्र या पुत्री की कामना लेकर आते हैं। कहा जाता है कि उनकी कामना पूरी भी होती है। आसपास के काफी लोग तो हर साल जोतिबा के दर्शन करने पहुंचते हैं। मंदिर में दर्शन के लिए रोज काफी भीड़ उमड़ती है। जोतिबा के मंदिर में चैत्र पूर्णिमा के अवसर पर भव्य मेले का आयोजन किया जाता है। उस समय गुलाब उड़ाकर भक्त अपनी श्रद्धा प्रकट करते हैं। उस समय तो पूरे पहाड़ भी मानो गुलाबी रंग में रंग जाते हैं।
आस्था का केन्द्र ओंकारेश्वर
ओंकारेश्वर एक हिन्दू मंदिर है। यह मध्य प्रदेश के खंडवा जिले में स्थित है। यह नर्मदा नदी के बीच मन्धाता या शिवपुरी नामक द्वीप पर स्थित है। यह भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगओं में से एक है। यह यहां के मोरटक्का गांव से लगभग 12 मील (20 कि॰मी॰) दूर बसा है। यह द्वीप हिन्दू पवित्र चिन्ह ॐ के आकार में बना है। यहां स्थित ॐकारेश्वर का निर्माण मान्यता व आस्था के अनुसार नर्मदा नदी से स्वतः ही हुआ है। यह नदी भारत की पवित्रतम नदियों में से एक है और अब इस पर विश्व का सर्वाधिक बड़ा बांध परियोजना का निर्माण हो रहा है।
जिस ओंकार शब्द का उच्चारण सर्वप्रथम सृष्टिकर्ता विधाता के मुख से हुआ, वेद का पाठ इसके उच्चारण किए बिना नहीं होता है। इस ओंकार का भौतिक विग्रह ओंकार क्षेत्र है। इसमें 68 तीर्थ हैं। यहाँ 33 करोड़ देवता परिवार सहित निवास करते हैं तथा 2 ज्योतिस्वरूप लिंगों सहित 108 प्रभावशाली शिवलिंग हैं। मध्यप्रदेश में देश के प्रसिद्ध 12 ज्योतिर्लिंगों में से 2 ज्योतिर्लिंग विराजमान हैं। एक उज्जैन में महाकाल के रूप में और दूसरा ओंकारेश्वर में ममलेश्वर (अमलेश्वर) के रूप में विराजमान हैं।
देवी अहिल्याबाई होलकर की ओर से यहाँ नित्य मृत्तिका के 18 सहस्र शिवलिंग तैयार कर उनका पूजन करने के पश्चात उन्हें नर्मदा में विसर्जित कर दिया जाता है। ओंकारेश्वर नगरी का मूल नाम ‘मान्धाता’ है।
राजा मान्धाता ने यहाँ नर्मदा किनारे इस पर्वत पर घोर तपस्या कर भगवान शिव को प्रसन्न किया और शिवजी के प्रकट होने पर उनसे यहीं निवास करने का वरदान माँग लिया। तभी से उक्त प्रसिद्ध तीर्थ नगरी ओंकार-मान्धाता के रूप में पुकारी जाने लगी। जिस ओंकार शब्द का उच्चारण सर्वप्रथम सृष्टिकर्ता विधाता के मुख से हुआ, वेद का पाठ इसके उच्चारण किए बिना नहीं होता है। इस ओंकार का भौतिक विग्रह ओंकार क्षेत्र है। इसमें 68 तीर्थ हैं। यहाँ 33 करोड़ देवता परिवार सहित निवास करते हैं।
नर्मदा क्षेत्र में ओंकारेश्वर सर्वश्रेष्ठ तीर्थ है। शास्त्र मान्यता है कि कोई भी तीर्थयात्री देश के भले ही सारे तीर्थ कर ले किन्तु जब तक वह ओंकारेश्वर आकर किए गए तीर्थों का जल लाकर यहाँ नहीं चढ़ाता उसके सारे तीर्थ अधूरे माने जाते हैं। ओंकारेश्वर तीर्थ के साथ नर्मदाजी का भी विशेष महत्व है। शास्त्र मान्यता के अनुसार जमुनाजी में 15 दिन का स्नान तथा गंगाजी में 7 दिन का स्नान जो फल प्रदान करता है, उतना पुण्यफल नर्मदाजी के दर्शन मात्र से प्राप्त हो जाता है।
ओंकारेश्वर तीर्थ क्षेत्र में चौबीस अवतार, माता घाट (सेलानी), सीता वाटिका, धावड़ी कुंड, मार्कण्डेय शिला, मार्कण्डेय संन्यास आश्रम, अन्नपूर्णाश्रम, विज्ञान शाला, बड़े हनुमान, खेड़ापति हनुमान, ओंकार मठ, माता आनंदमयी आश्रम, ऋणमुक्तेश्वर महादेव, गायत्री माता मंदिर, सिद्धनाथ गौरी सोमनाथ, आड़े हनुमान, माता वैष्णोदेवी मंदिर, चाँद-सूरज दरवाजे, वीरखला, विष्णु मंदिर, ब्रह्मेश्वर मंदिर, सेगाँव के गजानन महाराज का मंदिर, काशी विश्वनाथ, नरसिंह टेकरी, कुबेरेश्वर महादेव, चन्द्रमोलेश्वर महादेव के मंदिर भी दर्शनीय हैं।
मंदिर का इतिहास –
इस मंदिर में शिव भक्त कुबेर ने तपस्या की थी तथा शिवलिंग की स्थापना की थी। जिसे शिव ने देवताओ का धनपति बनाया था। कुबेर के स्नान के लिए शिवजी ने अपनी जटा के बाल से कावेरी नदी उत्पन्न की थी। यह नदी कुबेर मंदिर के बाजू से बहकर नर्मदाजी में मिलती है, जिसे छोटी परिक्रमा में जाने वाले भक्तो ने प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में देखा है, यही कावेरी ओमकार पर्वत का चक्कर लगाते हुए संगम पर वापस नर्मदाजी से मिलती हैं, इसे ही नर्मदा कावेरी का संगम कहते हैैं ।
इस मंदिर पर प्रतिवर्ष दिवाली की बारस की रात को ज्वार चढाने का विशेष महत्त्व है इस रात्रि को जागरण होता है तथा धनतेरस की सुबह ४ बजे से अभिषेक पूजन होता हैं इसके पश्चात् कुबेर महालक्ष्मी का महायज्ञ, हवन, (जिसमे कई जोड़े बैठते हैं, धनतेरस की सुबह कुबेर महालक्ष्मी महायज्ञ नर्मदाजी का तट और ओम्कारेश्वर जैसे स्थान पर होना विशेष फलदायी होता हैं) भंडारा होता है लक्ष्मी वृद्धि पेकेट (सिद्धि) वितरण होता है, जिसे घर पर ले जाकर दीपावली की अमावस को विधि अनुसार धन रखने की जगह पर रखना होता हैं, जिससे घर में प्रचुर धन के साथ सुख शांति आती हैं I इस अवसर पर हजारों भक्त दूर दूर से आते है व् कुबेर का भंडार प्राप्त कर प्रचुर धन के साथ सुख शांति पाते हैं I नवनिर्मित मंदिर प्राचीन मंदिर ओम्कारेश्वर बांध में जलमग्न हो जाने के कारण भक्त श्री चैतरामजी चौधरी, ग्राम – कातोरा (गुर्जर दादा) के अथक प्रयास से नवीन मंदिर का निर्माण बांध के व् ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग के बीच नर्मदाजी के किनारे २००६-०७ बनाया गया हैं ।
नर्मदा किनारे जो बस्ती है उसे विष्णुपुरी कहते हैं। यहाँ नर्मदाजी पर पक्का घाट है। सेतु (अथवा नौका) द्वारा नर्मदाजी को पार करके यात्री मान्धाता द्वीपमें पहुँचता है। उस ओर भी पक्का घाट है। यहाँ घाट के पास नर्मदाजी में कोटितीर्थ या चक्रतीर्थ माना जाता है। यहीं स्नान करके यात्री सीढ़ियों से ऊपर चढ़कर ऑकारेश्वर-मन्दिर में दर्शन करने जाते हैं। मन्दिर तट पर ही कुछ ऊँचाई पर है।
मन्दिर के अहाते में पंचमुख गणेशजी की मूर्ति है। प्रथम तल पर ओंकारेश्वर लिंग विराजमान हैं। श्रीओंकारेश्वर का लिंग अनगढ़ है। यह लिंग मन्दिर के ठीक शिखर के नीचे न होकर एक ओर हटकर है। लिंग के चारों ओर जल भरा रहता है। मन्दिर का द्वार छोटा है। ऐसा लगता है जैसे गुफा में जा रहे हों। पास में ही पार्वतीजी की मूर्ति है। ओंकारेश्वर मन्दिर में सीढ़ियाँ चढ़कर दूसरी मंजिल पर जाने पर महाकालेश्वर लिंग के दर्शन होते हैं। यह लिंग शिखर के नीचे है। तीसरी मंजिल पर सिद्धनाथ लिंग है। यह भी शिखर के नीचे है। चौथी मंजिल पर गुप्तेश्वर लिंग है। पांचवीं मंजिल पर ध्वजेश्वर लिंग है।
तीसरी, चौथी व पांचवीं मंजिलों पर स्थित लिंगों के ऊपर स्थित छतों पर अष्टभुजाकार आकृतियां बनी हैं जो एक दूसरे में गुंथी हुई हैं। द्वितीय तल पर स्थित महाकालेश्वर लिंग के ऊपर छत समतल न होकर शंक्वाकार है और वहां अष्टभुजाकार आकृतियां भी नहीं हैं। प्रथम और द्वितीय तलों के शिवलिंगों के प्रांगणों में नन्दी की मूर्तियां स्थापित हैं। तृतीय तल के प्रांगण में नन्दी की मूर्ति नहीं है। यह प्रांगण केवल खुली छत के रूप में है। चतुर्थ एवं पंचम तलों के प्रांगण नहीं हैं। वह केवल ओंकारेश्वर मन्दिर के शिखर में ही समाहित हैं। प्रथम तल पर जो नन्दी की मूर्ति है, उसकी हनु के नीचे एक स्तम्भ दिखाई देता है। ऐसा स्तम्भ नन्दी की अन्य मूर्तियों में विरल ही पाया जाता है।
श्रीओंकारेश्वरजी की परिक्रमा में रामेश्वर-मन्दिर तथा गौरीसोमनाथ के दर्शन हो जाते हैं। ओंकारेश्वर मन्दिर के पास अविमुतश्वर, ज्वालेश्वर, केदारेश्वर आदि कई मन्दिर हैं।
मान्धाता टापू में ही ऑकारेश्वर की दो परिक्रमाएँ होती हैं – एक छोटी और एक बड़ी। ऑकारेश्वर की यात्रा तीन दिन की मानी जाती है। इस तीन दिन की यात्रा में यहाँ के सभी तीर्थ आ जाते हैं। अत: इस क्रम से ही वर्णन किया जा रहा है।
प्रथम दिन की यात्रा- कोटि-तीर्थ पर ( मान्धाता द्वीप में ) स्नान और घाट पर ही कोटेश्वर, हाटकेश्वर, त्र्यम्बकेश्वर, गायत्रीश्वर, गोविन्देश्वर, सावित्रीश्वर का दर्शन करके भूरीश्वर, श्रीकालिका तथा पंचमुख गणपति का एवं नन्दी का दर्शन करते हुए ऑकारेश्वरजी का दर्शन करे। ओंकारेश्वर मन्दिर में ही शुकदेव, मान्धांतेश्वर, मनागणेश्वर, श्रीद्वारिकाधीश, नर्मदेश्वर, नर्मदादेवी, महाकालेश्वर, वैद्यनाथेश्वरः, सिद्धेश्वर, रामेश्वर, जालेश्वरके दर्शन करके विशल्या संगम तीर्थ पर विशल्येश्वर का दर्शन करते हुए अन्धकेश्वर, झुमकेश्वर, नवग्रहेश्वर, मारुति (यहाँ राजा मानकी साँग गड़ी है): साक्षीगणेश, अन्नपूर्णा और तुलसीजी का दर्शन करके मध्याह्न विश्राम किया जाता है। मध्याहोत्तर अविमुक्तेश्वर, महात्मा दरियाईनाथ की गद्दी, बटुकभैरव, मंगलेश्वर, नागचन्द्रेश्वर, दत्तात्रेय एवं काले-गोरे भैरव का दर्शन करते बाजार से आगे श्रीराममन्दिर में श्रीरामचतुष्टय का तथा वहीं गुफा में धृष्णेश्वर का दर्शन करके नर्मदाजीके मन्दिरमें नर्मदाजी का दर्शन करना चाहिये।
दूसरे दिन की यात्रा – यह दिन ऑकार ( मान्धाता ) पर्वत की पंचक्रोशी परिक्रमा का है। कोटितीर्थ पर स्नान करके चक्रेश्वर का दर्शन करते हुए गऊघाट पर गोदन्तेश्वर, खेड़ापति हनुमान, मल्लिकार्जुनः, चन्द्रेश्वर, त्रिलोचनेश्वर, गोपेश्वरके दर्शन करते श्मशान में पिशाचमुक्तेश्वर, केदारेश्वर होकर सावित्री-कुण्ड और आगे यमलार्जुनेश्वर के दर्शन करके कावेरी-संगम तीर्थ पर स्नान – तर्पणादि करे तथा वहीं श्रीरणछोड़जी एवं ऋणमुक्तेश्वर का पूजन करे। आगे राजा मुचुकुन्द के किले के द्वार से कुछ दूर जाने पर हिडिम्बा-संगम तीर्थ मिलता है। यहाँ मार्ग में गौरी-सोमनाथ की विशाल लिंगमूर्ति मिलती है (इसे मामा-भानजा कहते हैं)। यह तिमंजिला मन्दिर है और प्रत्येक मंजिल पर शिवलिंग स्थापित हैं। पास ही शिवमूर्ति है। यहाँ नन्दी, गणेशजी और हनुमानजी की भी विशाल मूर्तियाँ हैं। आगे अन्नपूर्णा, अष्टभुजा, महिषासुरमर्दिनी, सीता-रसोई तथा आनन्द भैरव के दर्शन करके नीचे उतरे। यह ऑकार का प्रथम खण्ड पूरा हुआ। नीचे पंचमुख हनुमान जी हैं। सूर्यपोल द्वार में षोडशभुजा दुर्गा, अष्टभुजादेवी तथा द्वारके बाहर आशापुरी माताके दर्शन करके सिद्धनाथ एवं कुन्ती माता ( दशभुजादेवी ) के दर्शन करते हुए किले के बाहर द्वार में अर्जुन तथा भीम की मूर्तियोंके दर्शन करे। यहाँ से धीरे-धीरे नीचे उतरकर वीरखला पर भीमाशंकर के दर्शन करके और नीचे उतरकर कालभैरव के दर्शन करे तथा कावेरी-संगम पर जूने कोटितीर्थ और सूर्यकुण्ड के दर्शन करके नौका से या पैदल (ऋतुके अनुसार जैसे सम्भव हो ) कावेरी पार करे। उस पार पंथिया ग्राम में चौबीस अवतार, पशुपतिनाथ, गयाशिला, एरंडी-संगमतीर्थ, पित्रीश्वर एवं गदाधर-भगवान के दर्शन करे। यहाँ पिण्डदानश्राद्ध होता है। फिर कावेरी पार कर के लाटभैरव-गुफा में कालेश्वर, आगे छप्पनभैरव तथा कल्पान्तभैरवके दर्शन करते हुए राजमहलमें श्रीराम का दर्शन करके औकारेश्वर के दर्शन से परिक्रमा पूरी करे।
तीसरे दिन की यात्रा- इस मान्धाता द्वीप से नर्मदा पार करके इस ओर विष्णुपुरी और ब्रह्मपुरी की यात्रा की जाती है। विष्णुपुरी के पास गोमुख से बराबर जल गिरता रहता है। यह जल जहाँ नर्मदा में गिरता है, उसे कपिला-संगम तीर्थ कहते हैं। वहाँ स्नान और मार्जन किया जाता है। गोमुख की धारा गोकर्ण और महाबलेश्वर लिंगों पर गिरती है। यह जल त्रिशूलभेद कुण्ड से आता है। इसे कपिलधारा कहते हैं। वहाँ से इन्द्रेश्वर और व्यासेश्वर का दर्शन करके अमलेश्वर का दर्शन करना चाहिये। ओंकारेश्वर के दर्शन अति पुण्यदायी व फलदायी माने जाते हैं। हर श्रध्दालु को दर्शन करना ही चाहिए। खंडवा के अलावा ओंकारेश्वर रोड निकटतम रेल्वे स्टेशन है। यहां से मंदिर तक बस व टैक्सियों मिलती है। दोनों जगह लॉज, होटल, धर्मशालाएं हैं। यह धार्मिक पर्यटन की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है।
( प्रस्तुति एस. एन. खरे )
यहां है भगवान परशुराम का तप स्थल
झारखंड के गुमला जिले में भगवान परशुराम का तप स्थल है। यह जगह रांची से करीब 150 किमी दूर है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान परशुराम ने यहां शिव की घोर उपासना की थी। यहीं उन्होंने अपने परशु यानी फरसे को धरती पर रख दिया था। इस फरसे की ऊपरी आकृति कुछ त्रिशूल से मिलती-जुलती है। यही वजह है कि यहां श्रद्धालु इस फरसे की पूजा के लिए आते है। वहीं शिव शंकर के इस मंदिर को टांगीनाथ धाम के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि टांगीनाथ धाम में साक्षात भगवान शिव निवास करते हैं।
त्रिशूल को पूजते हैं
लोग शिवरात्रि के अवसर पर ही श्रद्धालु टांगीनाथ के दर्शन के लिए आते हैं। यहां स्थित एक मंदिर में भोलेनाथ शाश्वत रूप में हैं। स्थानीय आदिवासी ही यहां के पुजारी है और इनका कहना है कि यह मंदिर अत्यंत प्राचीन है। मान्यता है महर्षि परशुराम ने यहीं अपने परशु यानी फरसे को रख दिया था। स्थानीय लोग इसे त्रिशूल के रूप में भी पूजते हैं। आश्चर्य की बात ये है कि इसमें कभी जंग नहीं लगता। खुले आसमान के नीचे धूप, छांव, बरसात- का कोई असर इस त्रिशूल पर नहीं पड़ता है।
पौराणिक महत्व
त्रेता युग में जब भगवान श्रीराम ने जनकपुर में आयोजित सीता माता के स्वयंवर में शिव जी का धनुष तोड़ा तो वहां पहुंचे भगवान परशुराम काफी क्रोधित हो गए। इस दौरान लक्ष्मण से उनकी लंबी बहस हुई और इसी बीच जब परशुराम को पता चला कि भगवान श्रीराम स्वयं नारायण ही हैं तो उन्हें बड़ी आत्मग्लानि हुई। वह पश्चाताप करने के लिए घने जंगलों के बीच एक पर्वत श्रृंखला में आ गए। यहां वे भगवान शिव की स्थापना कर आराधना करने लगे।
शनिदेव से भी जुड़ी है गाथा
टांगीनाथ धाम का प्राचीन मंदिर रखरखाव के अभाव में ढह चुका है और पूरा इलाका खंडहर में तब्दील हो गया है लेकिन आज भी इस पहाड़ी में प्राचीन शिवलिंग बिखरे पड़े हैं। यहां मौजूद कलाकृतियां- नक्काशियां और यहां की बनावट देवकाल की कहानी बयां करती हैं। साथ ही कई ऐसे स्रोत हैं, जो त्रेता युग में ले जाते हैं। वैसे एक कहानी और भी है। कहते हैं कि शिव इस क्षेत्र के पुरातन जातियों से संबंधित थे। शनिदेव के किसी अपराध के लिए शिव ने त्रिशूल फेंक कर वार किया तो वह इस पहाड़ी की चोटी पर आ धंसा। उसका अग्र भाग जमीन के ऊपर रह गया जबकि त्रिशूल जमीन के नीचे कितना गड़ा है, यह कोई नहीं जानता।
बनासकांठा का नाडेश्वरी माता का मंदिर है आस्था का केन्द्र
देश में कई मंदिर आस्था के प्रमुख केन्द हैं। इसके पीछे यहां होने वाले चमत्कार हैं और इससे भक्तों की आस्था और गहरी होती है। ऐसा ही एक मंदिर गुजरात के बनासकांठा में सीमा पर बना नाडेश्वरी माता का मंदिर है। यह मंदिर आम लोगों के साथ-साथ सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के जवानों के लिए भी आस्था और श्रद्धा का बहुत बड़ा धर्मस्थल बना हुआ है।
बनासकांठा बॉर्डर पर जब भी किसी जवान की ड्यूटी लगती है तो वह ड्यूटी देने से पहले मंदिर में माथा टेक कर ही जाता है। ऐसी मान्यता है कि मां नाडेश्वरी खुद यहां जवानों की रक्षा करती हैं।
दरअसल, पहले यहां पर कोई मंदिर नहीं था, एक छोटा सा मां का स्थान था, पर 1971 के युद्ध के बाद उस समय के कमान्डेंट ने इस मंदिर का निर्माण कराया। इस मंदिर कि खास बात यह भी है कि बीएसएफ का एक जवान ही यहां पुजारी के तौर पर ही अपनी ड्यूटी करता है।
बनासकांठा का सुई गांव जो भारत-पाकिस्तान सीमा पर आखिरी गांव है वहीं यह मंदिर स्थित है। यहां से महज 20 किलोमीटर की दूरी पर पाकिस्तान की सीमा शुरू हो जाती है। यह क्षेत्र बीएसएफ के निगरानी में ही रहता है।
मंदिर के निर्माण की कहानी भी बेहद दिलचस्प है। 1971 में पाकिस्तान के साथ लड़ाई के समय भारतीय सेना की एक टुकड़ी पाकिस्तान की सीमा में प्रवेश कर गई और इसके बाद वह रास्ता भटक गई क्योंकि रन का इलाका होने की वजह से उन्हें रास्ता भी नहीं मिल रहा था।
माना जाता है कि खुद कमान्डेंट ने मां नाडेश्वरी से मदद की गुहार लगाई और सकुशल सही जगह पहुंचाने की विनती की तो खुद मां ने दिये की रोशनी के जरिये भारतीय सेना की टुकड़ी की मदद की और उन्हें वापस अपने बेस कैंप तक लेकर आई। इस दौरान किसी भी जवान को खरोंच तक नहीं आई। तब से यहां पर आने वाले हर एक जवान के लिए मां का मंदिर अस्था और श्रद्धा का सब से बड़ा केंद्र बना हुआ है।
वहां ऐसी मान्यता है कि जब तक इस सीमा पर मां नाडेश्वरी देवी विराजमान हैं किसी भी जवान को कुछ नहीं हो सकता।
गोबर से बनी भगवान गणेश की मूर्ति
भगवान गणेश का एक ऐसा मंदिर है जिसमें गजानन की गोबर की मूर्ति बनी है। यह मंदिर मध्यप्रदेश के महेश्वर में है। इसमें भागवान गजानन की यह मूर्ति हजारों साल पुरानी है, मान्यता है कि यहां नारियल चढ़ाकर आप भगवान से मनचाहा वरदान पा सकते हैं। माथे पर मुकुट, गले में हार, और खूबूसरत श्रृंगार बाप्पा के इस मनमोहक रूप में भक्तों के हर दुख दर्द का इलाज है। गणपति का ये रुप मन मोह लेता है और हैरान भी करता है क्योंकि यहां गणपति को गोबर गणेश के नाम से पुकारते हैं भक्त। माहेश्वर में महावीर मार्ग पर बनी गणपति की ये प्रतिमा गोबर और मिट्टी से बनी है जिसमें एक बड़ा हिस्सा गोबर का है।
मां लक्ष्मी का भी मिलता है आशीर्वाद
आमतौर पर पूजा-पाठ में हम गोबर के गणपति बनाकर उनकी पूजा अर्चना करते हैं। मिट्टी और गोबर की मूर्ति में पंचतत्वों का वास माना जाता है और खासकर गोबर में तो मां लक्ष्मी साक्षात वास करती हैं। इसलिए गोबर गणेश मंदिर में आने वाले भक्तों की मान्यता है कि यहां दर्शन करने से भक्तों को भगवान गणेश के साथ मां लक्ष्मी का भी आशीर्वाद मिलता है।
उल्टा स्वास्तिक बनाते हैं भक्त
बाप्पा की प्रतिमा के साथ ही मंदिर का आकार भी भक्तों को हैरान करता है। वहीं मंदिर के अंदर की बनावट लक्ष्मी यंत्र की तरह लगती है। मंदिर में बाप्पा अपनी दोनों पत्नियों रिद्धि-सिद्धि संग देते हैं दर्शन और करते हैं भक्तों का कल्याण करते हैं। वहीं भक्तों का भी मानना है कि यहां आने से गणपति सभी भक्तों की इच्छा पूरी कर देते हैं। यही वजह है कि भक्त यहां उल्टा स्वास्तिक बनाकर भगवान तक पहुंचाते हैं, अपनी फरियाद और मनोकामना पूरी होने के बाद यहां आकर सीधा स्वास्तिक बनाना नहीं भूलते। महेश्वर के महावीर मार्ग पर स्थित गोबर गणेश मंदिर में दर्शन के लिए साल भर भक्तों का तांता लगा रहता है। विशेषकर गणेश उत्सव और दीपावली के अवसर पर मंदिर में बड़ी संख्या में भक्तों की भीड़ बाप्पा के दर्शनों के लिए उमड़ती है।
अन्नपूर्णा पहाड़ी पर स्थित है पूर्णागिरी मंदिर
उत्तराखंड के चम्पावत ज़िला में अन्नपूर्णा पहाड़ी पर 5500 फुट की ऊंचाई पर पूर्णागिरी मंदिर स्थित है, जिसे शक्तिपीठ के नाम से जाना जाता है। ये मंदिर पूरे एक दशक पुरानी पहाड़ी पर स्थित है। मान्यता है कि यहां दक्ष प्रजापति की पुत्री और भगवान शंकर जी की अर्धांगिनी माता सती की नाभि का भाग गिरा था। यही कारण है कि इसे 108 शक्ति पीठों में से एक माना गया है।
देवी सती के इस पूर्णागिरी शक्ति पीठ के दर्शन करने प्रत्येक वर्ष बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं का आगमन होता है। इसके अलावा यहां हर साल एक मेले का आयोजन होता है, जो विशुवत संक्रांति से शुरू होकर चालीस दिनों तक चलता है।
पौराणिक कथा के अनुसार जब भोलेनाथ हवन कुंड से देवी सती के शरीर को निकाल कर आकाश गंगा के मार्ग से जा रहे थे, तब श्री हरि ने शिव जी को शोक से निकालने के लिए अपने सुदर्शन चक्र से देवी की देह के टुकड़े कर दिए, जो पृथ्वी के अलग-अलग भाग में जा गिरे। मान्यता के अनुसार जहां-जहां देवी के शरीर के टुकड़े गिरे, वहीं-वहीं शक्तिपीठ स्थापित हुए। इन शक्ति पीठों की संख्या विभिन्न धर्म ग्रंथों में भिन्न-भिन्न बताई गई है।
वास्तुकला का उत्कृष्ट धाम है बैजनाथ
धौलाधार पर्वत शृंखला के बीचों-बीच स्थित प्राचीन शिव मंदिर बैजनाथ वास्तुकला का उत्कृष्ट धाम है। देश एवं विदेश में जिसे बैजनाथ (वैद्यनाथ) के नाम से जाना जाता है, मंदिर निर्माण में वास्तुकला को निखारने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। यह प्राचीन मंदिर अपनी वास्तु शैली का उत्कृष्ट नमूना है। पांडवों द्वारा निर्मित यह मंदिर अपनी सुंदरता की मिसाल है।
इस मंदिर के पीछे की पौराणिक कथा के अनुसार त्रेता युग में रावण ने कैलाश पर्वत पर शिवजी की तपस्या की थी। कोई फल न मिलने पर उसने घोर तपस्या प्रारंभ की और उसने अपना एक-एक सिर काट कर हवन कुंड में आहुति देकर शिव को अर्पित करना शुरू कर दिया। दसवां और अंतिम सिर काट कर हवन कुंड में आहुति देकर शिव को अर्पित करना शुरू किया तो शिवजी ने प्रसन्न होकर रावण का हाथ पकड़ लिया। उसके सभी सिरों को पुन: स्थापित कर शिव जी ने रावण से वर मांगने को कहा।
रावण ने कहा कि मैं आपके शिवलिंग स्वरूप को लंका में स्थापित करना चाहता हूं। आप दो भागों में अपना स्वरूप दें और मुझे बलशाली बना दें। शिवजी ने तथास्तु कहा और लुप्त हो गए।
इससे पहले शिवजी ने अपने शिवलिंग स्वरूप दो चिन्ह रावण को देते हुए कहा कि इन्हें जमीन पर न रखना। रावण लंका की ओर चला। रास्ते में गौकर्ण क्षेत्र (बैजनाथ क्षेत्र) में पहुंचा तो उसे लघुशंका लगी। यहां उसे बैजु ग्वाला दिखाई दिया। रावण ने बैजु ग्वाले को शिवलिंग पकड़ा दिए और शंका निवारण के लिए चला गया।
शिवजी की मायावी शक्ति के चलते बैजु उन दोनों शिवलिगों का वजन अधिक देर तक उठा नहीं सका। उसने उन्हें धरती पर रख दिया और स्वयं पशु चराने लगा। इस तरह दोनों शिवलिंग वहीं स्थापित हो गए।
रावण ने ये दोनों शिवलिंग मंजूषा में रखे थे। मंजूषा के सामने जो शिवलिंग था, वह चंद्र माल के नाम से प्रसिद्ध हुआ और जो पीठ की ओर था वह बैजनाथ के नाम से जाना गया।
मंदिर के प्रांगण में छोटे मंदिर और नंदी बैल की मूर्ति स्थापित है। नंदी के कान में भक्तगण अपनी मन्नत मांगते हैं। रावण खाली हाथ लंका लौट गया लेकिन बैजनाथ में शिवलिंग की अमूल्य धरोहर छोड़ गया।
इस मंदिर का निर्माण राजा लक्ष्मण चंद के राज्य के दो सगे भाइयों मन्युक व आहुक ने किया। वे इसी रास्ते से व्यापार करने जाते थे और काफी धनी थे। इन्होंने ही शिव मंडप और मंदिर बनवाए थे। राजा और दोनों भाइयों ने बहुत धन व भूमि दान भी किया।
पत्थरों पर नक्काशी एवं भारतीय वैदिक संस्कृति में वर्णत ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव तथा देव प्रतिमाओं को बखूबी उकेरा गया है जो आज भी प्राचीन वास्तु कला के अनुपम उदाहरण हैं।
इसके पुन: निर्माण का उल्लेख शिलालेखों पर वर्ष 804 में दिया गया है। समुद्र तल से लगभग चार हजार फुट की ऊंचाई पर इस दिव्य धाम को देखकर सभी अचम्भित होते हैं। शताब्दियों पूर्व इस दुर्गम स्थल में भव्य पूजा स्थल का चंद्राकार पहाडिय़ों, घने जंगलों के नैसर्गिक घाटी में निर्माण किसी अजूबे से कम नहीं है। यहां विजयादशमी पर रावण का पुतला नहीं जलाया जाता। इस कार्य को करने का जिसने भी प्रयास किया वह सफल नहीं हो सका। अत: रावण को देवत्य रूप सम्मान दिया जाता है। मंदिर की परिक्रमा एवं किलेनुमा छ: फुट चौड़ी चारदीवारी महाराजा संसार चंद द्वितीय ने बनवाई। तब से लेकर यह शैली, वास्तु, विद्या एवं वैदिक परम्परा में पूज्य शिवलिंग अपनी पहचान रखता है।
ओरछा में राफ्टिंग का एडवेंचर है
देश भर में भगवान राम की पूजा राजा के रूप में कहीं होती है तो वह मध्यप्रदेश का ओरछा है। प्रतिदिन यहाँ चार बार आरती होती है-बालभोग, राजभोग, सायंकाल आरती और शयन (ब्यारी) आरती। चारों आरती के समय राजा राम को सशस्त्र पुलिस द्वारा गार्ड ऑफ ऑनर दिया जाता है। दरअसल देश-विदेश से आने वाले श्रद्धालु तीर्थ-यात्रियों और पर्यटकों के लिये यह क्षण और दृश्य किसी कौतूहल से कम नहीं होता। आस्था और श्रद्धा से ओत-प्रोत वातावरण में वे जैसे रम जाते हैं।
ओरछा में राजा राम प्राचीन रानी महल में विराजित हैं, जो अब भव्य मंदिर के रूप में विख्यात है। मंदिर में भगवान राम, सीता और लक्ष्मण के साथ दरबार के रूप में विराजे हैं। सबसे अनूठी बात यह है कि मंदिर अपने निर्धारित समय पर ही खुलता और बंद होता है। यहाँ कोई व्ही.आई.पी. नहीं होता। राजा राम के दरबार में सभी एक समान हैं। मंदिर से प्रसादी के साथ मिलने वाला ‘पान का बीड़ा’ एक सुखद अनुभूति का अहसास कराता है। तभी गोस्वामी बालमुकुंद ने लिखा है “नदी बेतवा तीर पर बसा ओरछा धाम-कष्ट मिटे संकट टले मन पावे विश्राम “ ।
हर साल मार्गशीर्ष (अगहन) माह में राम राजा की विवाह पंचमी उत्सव के रूप में मनाई जाती है। इस मौके पर भगवान राम की बारात निकलती है। बारात ओरछा नगर और जानकी मंदिर तक भ्रमण कर वापस मंदिर लौटती है। वैदिक रीति से विवाह संस्कार और भंडारा होता है। बड़ी संख्या में श्रद्धालु और तीर्थ-यात्री इस अवसर के साक्षी बनते हैं। इसी तरह आज भी प्रत्येक पुष्य नक्षत्र में यहाँ मेला भरता है। ऐसी मान्यता है कि पुष्य नक्षत्र में ही भगवान राम ओरछा पधारे थे। स्मृति स्वरूप आज भी एक दिन का मेला भरता है।
यूँ तो बारहों महीने ओरछा में श्रद्धालुओं की आवाजाही बनी रहती है लेकिन शारदीय और चैत्र नवरात्रि तथा रामनवमी पर भारी भीड़ जुटती है। कवि केशव की जयंती भी धूमधाम से मनाई जाती है।
जनश्रुति और किवदंती की मानें तो राम राजा को अयोध्या से स्वयं कुँवर गणेशी बाई ओरछा लेकर आयीं थीं। तब उन्हें रानी महल में विराजित किया गया था। राम राजा की इच्छा के अनुरूप रूद्रप्रताप ने राम राजा महल निर्माण की शुरूआत 1501 से
1503 के मध्य की। भारतीय चन्द्र ने 1531 से 1554 के बीच इस महल को एक मंजिल तक बनवाया। कालान्तर में राजा मधुकर शाह ने निर्माण को पूरा करवाया। मंदिर का निर्माण इण्डो-इस्लामिक शैली में किया गया था। राम राजा मंदिर प्रांगण में सावन-भादो पिलर (टॉवरनुमा) बने हुए हैं। इनमें बहुत सारे झरोखे बने हैं। समीप ही हरदौल बैठिका है। हरदौल, बुंदेलखंड अंचल के देवता माने जाते हैं। आज भी विवाह-शादी जैसे मांगलिक आयोजन में सबसे पहले लाला हरदौल के नाम न्यौता देने की परम्परा कायम है।
हालांकि ओरछा में राम राजा की महिमा और ख्याति के आगे बाकी सब गौण हैं। लेकिन यहाँ चतुर्भुज मंदिर, राजा महल, जहाँगीर महल, राय प्रवीण महल और आनंद गार्डन, शीश महल, लक्ष्मी मंदिर, सुंदर महल, बेतवा के किनारे स्थित बुंदेलाओं की छत्रियाँ सहित अन्य स्थल देखने लायक हैं। सैलानियों के लिए आकर्षण के रूप में राजा महल में प्रतिदिन शाम को एक घंटे का साउण्ड एण्ड लाइट शो (हिन्दी-अंग्रेजी) भी बड़ा ही रुचिकर और ओरछा के इतिहास को रोचकता से दर्शाने वाला होता है। मध्यप्रदेश पर्यटन द्वारा एडवेंचर के रूप में बेतवा नदी में राफ्टिंग की सहूलियत मुहैया कराई गई है। यह अक्टूबर से मार्च माह तक पर्यटन निगम की बेतवा रिट्रीट के समीप से शुरू होती है, जो एक घंटे की रहती है। राफ्टिंग के दौरान हेरिटेज साइट की खूबसूरती दिखाई देती है। इसके अतिरिक्त फॉरेस्ट ट्रेकिंग भी कराया जाता है।
ओरछा के प्रसिद्ध राजा महल के निर्माण की शुरुआत 16 वीं शताब्दी में रूद्रप्रताप बुंदेला ने की थी। उन्होंने गढ़ कुड़ार से लाकर ओरछा को राजधानी बनाया था। महल में निवास कक्ष, दीवान-ए-आम, दीवान-ए-खास मुख्य आकर्षण हैं। राजा महल में बुंदेली-कांगड़ा शैली की पेंटिंग मशहूर है। ये पेंटिंग्स प्राकृतिक कलर से इस तरह उकेरी गई थी कि आज भी उनकी सुंदरता और आकर्षण में कोई कमी नहीं आई है। महल में रोशनी और हवा के प्रवाह का भी समुचित ध्यान रखा गया था, जो तत्कालीन समय की वास्तु-कला का अनूठा उदाहरण है। राजा महल के प्रांगण में हमारी भेंट कनाडा, थाईलैण्ड, इंग्लैण्ड, जर्मनी, स्पेन आदि देशों से आए हुए सैलानियों से हुई जो गाइड द्वारा दी जा रही जानकारी को बड़े चाव से सुन रहे थे। सैलानियों की यह टीम फोटोग्राफी भी कर रही थी।
जहाँगीर महल को मध्यप्रदेश पर्यटन द्वारा वेडिंग डेस्टिनेशन के रूप में तैयार किया गया है। यहाँ पिछले सीजन में दो भव्य वैवाहिक आयोजन हुए। इनमें तत्कालीन समय की स्मृतियाँ सजीव हो उठी थी। माना जाता है कि जहाँगीर महल वीरसिंह देव बुंदेला ने 1605 से 1627 के बीच जहाँगीर के सम्मान में बनवाया था। महल का आर्किटेक्चर हिन्दू-मुस्लिम शैली का मिश्रण कहा जा सकता है। पाँच मंजिला भव्य
महल में लगभग 236 कक्ष हैं, इनमें 100 अण्डर ग्राउण्ड हैं। महल का विशाल मुख्य द्वार आज भी दर्शनीय है। मुख्य द्वार पर पत्थरों में उत्कीर्ण हाथी और यहाँ से पूर्वी ओरछा का सुंदर नजारा देखने लायक होता है। इन हाथियों की संख्या भी 27 नक्षत्रों के साथ जुड़ी है जो चारों दिशाओं में है। महल के बीचों-बीच प्रांगण में चारों दिशाओं में दरवाजे हैं। बीच में पानी के कुण्ड हैं जो उस समय के स्वीमिंग पुल का आभास करवाते हैं। यहाँ दुर्लभ-गिद्ध (वल्चर) भी पाये जाते हैं।
जहाँगीर महल के मुख्य द्वार के नजदीक राय प्रवीण महल है जिसे इन्द्रमणी ने बनवाकर नृत्यांगना एवं कवियत्री को दिया था। दो मंजिला महल में आनंद गार्डन भी है। उनकी यह उक्ति ‘विनती राय प्रवीण की सुनिये शाही सुजान, झूठी पाथर भजत है, बारी, बेस और श्वान’ आज भी लोकप्रिय है। ओरछा के शीशमहल में मध्यप्रदेश पर्यटन का होटल है।
दरअसल ओरछा में राम राजा के दर्शन के साथ इतिहास, पुरातात्विक प्राचीन महल और छत्रियों के अतिरिक्त एडवेंचर के रूप में राफ्टिंग और फारेस्ट का लुत्फ भी उठाया जा सकता है। छत्रियाँ पंचरतन शैली में बनी हैं। यहाँ के प्राकृतिक दृश्य-शांति और सुकून देते हैं। यह जगह प्रदूषण से मुक्त है।
आल्हा-ऊदल की वीर गाथा आज भी यहाँ सुनाई पड़ती है। मशहूर शास्त्रीय संगीत गायिका असगरी बाई टीकमगढ़ की रहवासी थी।
कैसे पहुंचे ओरछा
उत्तरप्रदेश का झाँसी यहाँ से महज 16 किलोमीटर दूर स्थित है जो रेल्वे का बड़ा जंक्शन है। टूरिस्ट को रेल मार्ग से आने की भी समुचित सहूलियत है। ग्वालियर और खजुराहो एयरपोर्ट की दूरी भी ज्यादा नहीं है। नई दिल्ली-हबीबगंज शताब्दी एक्सप्रेस यहाँ के लिए सबसे अच्छा साधन है। हाल ही में शुरू हुई भोपाल-खजुराहो ट्रेन से टीकमगढ़ पहुँचकर वहाँ से सड़क मार्ग से भी ओरछा पहुँचा जा सकता है। वर्ल्ड हेरिटेज खजुराहो के साथ ग्वालियर, चंदेरी, शिवपुरी, धुबेला म्यूजियम और ओरछा भ्रमण को आसानी से शामिल किया जा सकता है। तो आइये….इस बार…. ओरछा।
तीन पहाड़ी नदियों का संगम है मुन्नार
तीन पहाड़ी नदियों के संगम पर स्थित मुन्नार केरल का विश्व प्रसिद्व पहाड़ी पर्यटक स्थल है,जो तीन नदियों मुदप्रुझा,नल्लथन और कुंडला से घिरा है। समुद्र तल से 1,600 मीटर की उंचाई पर यह स्थित है। अंग्रेजी हुकूमत के समय मुन्नार गर्मियों में उनका रिसॉर्ट हुआ करता था।
अगर आप गर्मी की छुट्टियां बिताने के लिए किसी पहाड़ी स्टेशन की तलाश कर रहे हैं,तो मुन्नार के विशाल चाय बागान, चित्र-पुस्तक कस्बों, घुमावदार लेन आपकी छुिट्टयों का मजा बढ़ा सकते हैं। यहां के जंगलों और घास के मैदानों में पाए जाने वाले विदेशी वनस्पतियों में नीलकुरिंजी को भी देखने लोग आते है। यह फूल जो हर बारह वर्ष में एक बार में नीले रंग की पहाडिय़ों को स्नान करता है, 2018 में अगले दिन खिल जाएगा। मुन्नार में दक्षिण भारत में सबसे ऊंची चोटी है, अनमुड़ी,जो 2,695 मी। अनमूड़ी ट्रेकिंग के लिए एक आदर्श स्थान है।
आइए जानते हैं मुन्नार की कुछ खास जगहों को
इराविकुलम राष्ट्रीय उद्यान
मुन्नार के नजदीक मुख्य आकर्षणों में से एक है ईवीविकुलम राष्ट्रीय उद्यान यह पार्क दुर्लभ तितलियों, जानवरों और पक्षियों की कई प्रजातियों के लिए दुनिया भर में जाना जाता है। यह ट्रेकिंग के लिए एक अच्छी जगह है,पार्क चाय बागानों के एक शानदार दृश्य यहां पर दिखाई देते हैं। जब पहाड़ी ढलान नीले रंग के कालीन में ढक जाते हैं,तो वह और भी खूबसूरत दिखाई देते है,जिससे नीलकुरिन्जी के फूलों के परिणामस्वरूप आते हैं। यह पश्चिमी घाट के इस हिस्से के लिए एक पौधे है जो बारह साल में एक बार खिलता है।
अन्नामडी पीक
ईराकिकुलम नेशनल पार्क के अंदर स्थित है अन्नामुदी यह दक्षिण भारत में सबसे ऊंची चोटी है जो 2700 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। चोटी के ट्रेक को इरवीकुलम में वन और वन्यजीव अधिकारियों की अनुमति के साथ अनुमति दी जाती है।
मैटपेट्टी
मन्नार टाउन से लगभग 13 किमी की दूरी पर ब्याज का एक अन्य स्थान, मैटपेट्टी है। समुद्र तल से 1700 मीटर की ऊँचाई पर स्थित, मैटूपेटी अपने भंडारण चिनाई बांध और सुंदर झील के लिए जाना जाता है, जो आनंददायक नाव की सवारी प्रदान करता है, जिससे कि एक आसपास के पहाडिय़ों और परिदृश्य का आनंद उठा सके।
पल्लीवासल
पल्लवीसल, मुन्नार के चिथीरापुरम से लगभग 3 किमी दूर स्थित केरल में पहली हाइड्रो-इलेक्ट्रिक परियोजना का स्थान है। यह विशाल सुंदर सुंदरता का स्थान है और अक्सर पिकनिक स्थल के रूप में दर्शकों द्वारा सराहा जाता है।
चिन्नाकनाल और अनयिरंगल
मुन्नार शहर के पास चिन्नाकनाल है और यहां झरने, जिसे पॉवर हाउस झरने के नाम से जाना जाता है, समुद्र तल से 2000 मीटर की दूरी पर एक विशाल चट्टान नीचे झरना। यह स्थान पश्चिमी घाट पर्वतों के सुंदर दृश्यों से समृद्ध है। जब आप चिन्नाकनाल से लगभग सात किलोमीटर की यात्रा करते हैं, तो आप अनयिरंगल तक पहुंच जाते हैं। मुन्नार से 22 किमी दूर अनयिरंगल, चाय के पौधों के हरे भरे कालीन हैं। शानदार जलाशय पर एक यात्रा एक अविस्मरणीय अनुभव है। अनयिरंगल बाँध चाय बागानों और सदाबहार वनों से घिरा हुआ है।
शीर्ष स्टेशन
मुन्नार से लगभग 32 किमी की दूरी पर शीर्ष स्टेशन, समुद्र तल से 1700 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। मुन्नार-कोडाईकनाल रोड पर यह सर्वोच्च बिंदु है। यात्रियों को मुन्नार के लिए यह एक जगह बनाने के लिए शीर्ष स्थान पर जाने के लिए मनोरम दृश्य का आनंद लेने के लिए यह पड़ोसी राज्य तमिलनाडु की पेशकश करता है। यह एक विशाल क्षेत्र पर खिलने वाले नीलकुरिंजी फूलों का आनंद लेने के लिए मुन्नार में एक स्थान है।
चाय संग्रहालय
मुन्नार की अपनी विरासत है जब यह चाय बागानों के उत्पत्ति और विकास की बात आती है। इस विरासत का विवरण लेना और केरल की उच्च श्रेणियों में चाय बागानों की उत्पत्ति और विकास पर कुछ अति सुंदर और दिलचस्प पहलुओं को संरक्षित करने और दिखाने के लिए, विशेष रूप से चाय के लिए एक संग्रहालय कुछ साल पहले मुन्नार में टाटा टी द्वारा खोला गया था। यह चाय संग्रहालय क्युरीओस, फोटोग्राफ और मशीनों का घर लेता है; जिनके सभी में मुन्नार में चाय बागान के मूल और विकास पर बताने की कहानी है। म्यूजियम मुन्नार में टाटा टी के नल्लथन्नी एस्टेट में स्थित है और एक यात्रा के लायक है।
कैसे जाएं
यहां का निकटतम रेलवे स्टेशन अलुवा 108 किमी और अंगमाली, लगभग 109 किमी
हैं, जबकि निकटतम हवाई अड्डा कोचीन इंटरनेशनल एयरपोर्ट,है जो देश के कई बड़े शहरों से जुड़ा है।
बर्फीले पहाड और टॉय ट्रेन है दार्जिलिंग का आकर्षण
उत्तर-पूर्वी भारत का दार्जिलिंग प्रमुख पहाडी स्टेशन है.यहां पहाडों की बर्फ हरी भरी चोटियां व लुभावनी सुंदरता मन को शांति प्रदान करती है.ये दुनिया की सबसे शानदार पहाड़ी सैरगाहों में से एक है. कमोबेश प्रकृति का हर रंग इसको छू कर गया है,तथा नैसर्गिक सौंदर्य से भरपूर है.
हिल स्टेशनों की रानी के रूप में दार्जिलिंग की विशिष्ट पहचान है.
दार्जिलिंग पागल बना देने वाली भीड़ से दूर शंति का अनुभव कराता है. यात्री-चाहे पर्यटक हों पक्षी विज्ञानी, फोटोग्राफर, वनस्पति विज्ञानी या फिर कलाकार हमेशा के लिए दार्जिलिंग से एक अनुभव लेकर जाते है,जो उनकी स्मृति में रच बस जाता है.
प्रमुख आकर्षण
दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे लोकप्रिय टॉय ट्रेन के रूप में जाना जाता है,क्षेत्र के मुख्य आकर्षणों में से एक है. जिस ट्रैक पर ट्रेन चलती है, वह केवल 600 मिलीमीटर चौड़ा है. यूनेस्को ने इसे विश्व विरासत स्थल के रूप में डीएचआर घोषित किया है.
यहां के स्पाट
चौैरास्ता, रिज की दुकानों और रेस्तरां के साथ लाइन में खड़ा होकर ऊपर के दृश्यों को निहारा जा सकता है. यहाँ लोग धूप सेंकने के लिए भी एकत्रित होते हैं. ब्रेबोर्न पार्क व चौरास्ता से जुड़ा हुआ है और अब एक म्यूजिकल फाउंटेन की सुविधा है. यह जगह एक खुली जगह है और जहां एक पर्वत श्रृंखला की प्राकृतिक सुंदरता का आनंद लिया जा सकता है.
टाइगर हिल शहर से 2590 मीटर की ऊंचाई पर स्थित और 13 किलोमीटर दूर इस स्थान कंचनजंगा और ग्रेट ईस्टर्न हिमालय पर्वत पर सूर्योदय के शानदार दृश्य देखे जा सकते हैं. दार्जिलिंग से लगभग 5 किलोमीटर की दूरी पर रेलवे लूप इंजीनियरिंग की एक अद्भुत उपलब्धि है. यह टॉय ट्रेन अपनी तरह पाश दौर हवा देखने के लिए आकर्षक है. शांति स्तूप एक जापानी बौद्ध द्वारा स्थापित आकर्षक स्थान है जहां,पैदल या टैक्सी से पहुंचा जा सकता है. यहां बुद्ध के चार बदलते रूपों को दर्शाया गया है. वेधशाला हिल,हिमालयन माउंटेनियरिंग इंस्टीट्यूट,पद्मजा नायडू हिमालयन प्राणी उद्यान,राजभवन जो कि पश्चिम बंगाल के राज्यपाल की गर्मियों का निवास है.रंगित घाटी यात्री केबल कार,तेनजिंग रॉक,प्राकृतिक इतिहास का संग्रहालय,लॉयड्स बॉटनिकल गार्डन भी खूबसूरत जगह हैं जिन्हें देखने आया जा सकता है. बॉटनिकल गार्डन लॉयड बॉटनिकल गार्डन दो जीवित जीवाश्म के लिए प्रसिद्ध है. यह सिर्फ ईडन अस्पताल (शहीद दुर्गा मॉल जिला अस्पताल) से नीचे के बारे में 40 एकड़ जमीन का एक क्षेत्र को कवर करने के लिए एक खुला ढलान पर स्थित है.इसके अलावा झाड़ी का जंगल जो कि दार्जिलिंग रेलवे स्टेशन से 2 से 5 किलोमीटर की दूरी पर है,देखने जाया जा सकता है.
कैसे जाएं
उत्तरी-पूर्वी भारत के पर्यटक स्थलों की सैर के लिए फरवरी के आखिरी दिनों से लेकर मार्च और अप्रैल के शुरु के दिनों को अच्छा माना जाता है.लेकिन पर्यटक यहां साल भर आते हैं.दार्जिलिंग देश के अलग-अलग हिस्सों से अच्छी तरह हवाई, सडक़ और ट्रेन मार्ग से कोलकाता के रास्ते जुड़ा है. हवाई मार्ग के लिए दार्जिलिंग का निकटतम हवाई अड्डा बागडोगरा है,जो यहां से 96 किलोमीटर दूर है. यह दिल्ली,कोलकाता और गुवाहाटी के साथ सीधी उड़ान सेवा से जुडा है. बागडोगरा से टैक्सियों और दार्जिलिंग कैब से या फिर सिलीगुड़ी की ओर से बसें या अन्य
परिवहन सुविधा से यहां पहुंचा जा सकता है. दार्जिलिंग के करीब दो निकटतम रेलवे स्टेशन सिलीगुड़ी और न्यू जलपाईगुड़ी हैं जिनकी दूरी करीब 80 से 90 किलोमीटर हैं. जोकि कोलकाता, दिल्ली, गुवाहाटी,इलाहाबाद,वाराणसी और भारत के अन्य प्रमुख शहरों से जुडे है. दार्जिलिंग भी बहुत अच्छी तरह सिक्किम, नेपाल, भूटान और उसके आसपास के पहाड़ों से जुड़ा है. टट्टू की सेवा का भी स्थानीय पर्यटन स्थलों के भ्रमण में लाभ उठाया जा सकता है.
मंदिरों की नगरी है उज्जैन
उज्जैन.सिहस्थ कुंभ नगरी उज्जैन मध्यप्रदेश की सबसे पुराने और सर्वाधिक मान्यता वाली पर्यटन नगरियों में से एक है. विक्रमादित्य की उज्जैयनी नगरी का पुराणों में पवित्रतम सप्तपुरियों में उल्लेख मिलता है. इस लिए भी उज्जैन का धार्मिक महत्व अत्यधिक है. देश में स्थापित12 ज्योतिर्लिंगों में से एक महाकालेश्वर भी यहीं स्थित हैं. इसके अलावा श्मशान, ऊषर, क्षेत्र, पीठ एवं वन जैसे 5 विशिष्ट संयोग इस प्राचीन नगरी के महत्व को और भी अधिक बढ़ाने वाले हैं.
यह मोक्षदायिनी शिप्रा के तट पर स्थित है. जो प्राचीनकाल से ही धर्म, दर्शन, संस्कृति, विद्या एवं आस्था का केंद्रङ्क्षबदु रहा है. उज्जैन, मंदिरों का शहर भी है. यहां की परम्पराएँ और मंदिर पुरातन काल की भाँति आज भी अक्षुण्ण बनी हुई हैं।
उज्जैन की पहचान अधिपति भगवान शिव से है उकी महिमा यहाँ के रोम-रोम में पाई जाती हैं. भारत के हृदयस्थल मध्यप्रदेश के उज्जैन में पुण्य सलिला क्षिप्रा के तट के निकट भगवान शिव महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में विराजमान हैं. दूसरी और चिंतामण भगवान गणेश का मन्दिर शिप्रा नदी के समीप फ़तेहाबाद रेलवे लाइन पर स्थित है. यह माना जाता है कि इस मंदिर में स्थापित गणेश जी की प्रतिमा स्वयंभू है. उनके दोनों ओर उनकी पत्नियां रिद्धि और सिद्धि विराजमान हैं.
उज्जैन के प्राचीन पवित्र स्थलों की आकाशगंगा में हरसिद्धि मन्दिर विशेष स्थान रखता है. यह मंदिर देवी अन्नपूर्णा को समर्पित है जो गहरे सिंदूरी रंग में रंगी है. देवी अन्नपूर्णा की मूर्ति देवी महालक्ष्मी और देवी सरस्वती की मूर्तियों के बीच विराजमान है. भगवान शिव के सुपुत्र की विशाल कलात्मक प्रतिमा महाकालेश्वर मन्दिर के पास एक तालाब के ऊपर स्थित है, जिसे पारम्परिक मंदिरों में से एक माना जाता है.
ये भी प्रमुख स्थान
प्राचीन विष्णु सागर के तट पर स्थित श्री रामजनार्दन मन्दिर विशाल परकोटे से घिरा मंदिर समूह है. इसमें एक राममंदिर है दूसरा जनार्दन (विष्णु) का मंदिर है. उधर,नगरकोट की रानी का मन्दिर नगरकोट के परकोटे की रक्षिका देवी है. मन्दिर परमारकालीन है. यहाँ अवन्ति खण्ड में वर्णित नौ मातृकाओं में से सातवीं कोटरी देवी है. दोनों नवरात्रि के अवसर पर यहाँ विशेष नवरात्रि उत्सव मनाया जाता है.
त्रिवेणी नवग्रह (शनि मन्दिर)
शिप्रा नदी के त्रिवेणी घाट पर नवग्रह का यह मन्दिर यात्रियों का प्रमुख केन्द्र है. त्रिवेणी घाट के पास शिप्रा नदी पर खान नदी से संगम है. इस नदी का नाम पास ही इन्दौर नगर में बाणगंगा है. कुछ लोग इस नदी को तुंगभद्रा भी मानते थे.
इधर,गढ़ कालिका मंदिर कालिका देवी को समर्पित है, जो हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार बहुत शक्तिशाली देवी हैं. कालजयी कवि कालिदास गढ़ कालिका देवी के उपासक थे.कालिदास के सम्बन्ध में मान्यता है कि जब से वे इस मंदिर में पूजा-अर्चना करने लगे तभी से उनके प्रतिभाशाली व्यक्तित्व का निर्माण होने लगा.
यहां श्री गोपाल मन्दिर मराठा स्थापत्य कला का सुन्दर उदाहरण है. इस मन्दिर के गर्भगृह में गोपाल कृष्ण के अलावा शिव-पार्वती, और बायजाबाई की प्रतिमाएँ भी हैं. अंकपात के निकट शिप्रा तट के एक टीले पर मंगलनाथ का मन्दिर है. मंगलेश्वर का भव्य मंदिर शिप्रा तट पर स्थित है. ऐसा माना जाता है कि मंगलनाथ के ठीक शीर्ष के ऊपर ही आकाश में मंगलग्रह स्थित है.
सांदिपनी आश्रम,श्री कालभैरव मन्दिर,श्री सिद्धवट मन्दिर जहां सिध्दवट घाट पर अन्त्येष्टि-संस्कार सम्पन्न किया जाता है. स्कन्द पुराण में इस स्थान को प्रेत-शिला-तीर्थ कहा गया है.यहां आने पर भर्तृहरि गुफा के दर्शन भी अवश्य करना चाहिए.
कैसे पहुंचे
उज्जैन के सबसे करीब इन्दौर का देवी अहिल्याबाई होलकर हवाई अड्डा है जो यहाँ से 55कि.मी की दूरी पर स्थित है. निजी और सार्वजनिक घरेलू विमान सेवाओं के माध्यम से इन्दौर हवाई अड्डा भारत के अन्य महत्वपूर्ण शहरों से जुड़ा है. पर्यटक उज्जैन तक आने के लिए इन्दौर हवाई अड्डे से टैक्सी भी ले सकते हैं. इन्दौर से उज्जैन तक आने के लिए यात्री बस भी ले सकते हैं.
उज्जैन जंक्शन रेलवे स्टेशन उज्जैन का मुख्य रेलवे स्टेशन है जो भारत के सभी प्रमुख रेलवे स्टेशनों से जुड़ा है. पर्यटक उज्जैन से इंदौर, दिल्ली, पुणे, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, जम्मू, भोपाल, जयपुर, वाराणसी, गोरखपुर, रतलाम, अहमदाबाद, बड़ौदा, ग्वालियर, हैदराबाद, बैंगलोर और अन्य कई बड़े शहरों के लिए सीधी रेलगाडिय़ाँ ले सकते हैं.
प्राकृतिक सौंदर्य से भरा है भोपाल का वनविहार
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के बडे तालाब के पास पहाडी पर स्थित वन विहार लोगों के आकर्षण का विशेष स्थान रहा है. जिस पहाड़ी इन दिनों वन विहार आबाद है वह लगभग तीन दशक पहले वीरान हुआ करती थी जबकि तेजी से बढ़ रही आबादी और पहाड़ो पर लोगों के बेतरतीब कब्जे से यहॉं का जंगल बरबाद होने की कगार पर था . तब एैसे में वर्ष 1981 में इस पहाडी के वनक्षेत्र का संरक्षण का काम शुरू हुआ और जल्दी ही यह पहाडी हरी भरी होने लगी. 26 जनवरी 1983 को पहाडी एवं उसके आस-पास के 445.21 हे. क्षेत्र को राष्ट्ीय उद्यान का दर्जा देकर वन विहार नाम दिया गया.
वन विहार में भोपाल के बडे तालाब का कुछ भाग (लगभग 50 हे.) भी वन विहार का हिस्सा है, जो कि सारे परिदृश्य को मनोरम बनाता है. तालाब के जल विस्तार में अठखेलियॉं करती लहरें, यहां-वहां उडते जल पक्षी और तालाब में पर्यटकों को विहार कराती नौकायें एव अद्भुत सौंदर्य की रचना करती हैं. शाम के समय बडे तालाब के पार अस्त होते हुये सूर्य को देख्नना अपने आप में एक रोमांचकारी अनुभव है.
वन विहार में काफी संख्या में वन्यप्राणी हैं जिनमें सांभर, चीतल, नीलगाय, कृष्णमृग, लंगूर, जंगली सुअर, सेही, खरगोश आदि खुले में घूमते हैं. जबकि मांसाहारी वन्यप्राणी बडे-बडे बाडों में रखे गए है.
यहां पर बाघ,सिंह, तेंदुआ, भालू, हायना, सियार, गौर, बारासिंगा, सांभर, चीतल, नीलगाय, कृष्णमृग, लंगूर, जंगली सुअर, सेही, खरगोश, मगर, घडियाल, कछुआ एवं विभिन्न प्रकार के सर्प आदि हैं.
कैसे पहुंचे
देश के लगभग सभी छोटे-बड़े स्थानों से मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल जुड़ी हुई है. जहां के बड़े रेलवे स्टेशन से लगभग लगभग 08 कि.मी. तथा हबीबगंज रेलवे स्टेशन से इसकी दूरी लगभग 6.5 कि.मी.है यहां तक ऑटो एवं टेक्सी के द्वारा पहुंचा जा सकता है.
सडक़ मार्ग यहां वन्य प्राणियों को नजदीक से निहारने के लिए पर्यटक स्वयं के वाहन से अथवा ऑटो एवं टेक्सी के द्वारा आ सकते हैं. उधर, वायु मार्ग द्वारा भी भोपाल के राजाभोज विमान तल से लगभग 17 कि.मी. का टेक्सी से सफर कर यहां पहुंचा जा सकता है . भोपाल देश के दोनों बड़े नगरों औद्योगिक राजधानी मुंबई एवं दिल्ली से वायु मार्ग के द्वारा नियमित सेवा से जुड़ा है.