तीज-त्यौहार लेख 1 |
पूर्णिमा और अमावस्या व्रत
सनातन धर्म और ज्योतिष शास्त्र में तिथियों का विशेष महत्व होता है। हिंदू पंचांग के अनुसार पूर्णिमा और अमावस्या की तिथि मनुष्यों पर विशेष प्रभाव डालती है। हिन्दू पंचांग के मुताबिक साल में 12 पूर्णिमा और 12 अमावस्या आती हैं। प्रत्येक महीने के 30 दिन को चन्द्र काल के अनुसार 15-15 दिन के दो पक्षों में विभाजित किया गया है। एक पक्ष को शुक्ल पक्ष तो दूसरे पक्ष को कृष्ण पक्ष में बांटा गया है। जब शुक्ल पक्ष चल रहा होता है उसके अन्तिम दिन यानी 15वें दिन को पूर्णिमा कहते हैं वहीं जब कृष्ण पक्ष का अंतिम दिन होता है तो वह अमावस्या होती है।
पूर्णिमा
पूर्णिमा वाले दिन चांद अपने पूरे आकार में होता है। यानी जिस दिन आकाश में चंद्रमा अपने पूरे आकार में दिखाई देता हो उस दिन पूर्णिमा होती है। पूर्णिमा प्रत्येक महीने में एक बार जरूर आती है। धर्म ग्रंथों में पूर्णिमा को विशेष लाभकारी और पुण्यदायी होती है। हिन्दू धर्म में पूर्णिमा के दिन दान, स्नान और व्रत रखने की परंपरा होती है। साल की 12 पूर्णिमाओं में कार्तिक पूर्णिमा, वैशाख पूर्णिमा, माघ पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा, बुद्ध पूर्णिमा को विशेष महत्व होता है।
ज्योतिष महत्व
ज्योतिष शास्त्र में पूर्णिमा का विशेष महत्व होता है। ज्योतिष में चंद्रमा को मन का कारक माना गया है। ज्योतिष की लगभग प्रत्येक गणना में चंद्रमा को केन्द्र में रखकर भविष्यवाणी की जाती है। पूर्णिमा के दिन महान साधु संतों का जन्म दिन और त्योहार मनाया जाता है।
पूर्णिमा का वैज्ञानिक महत्व
चांद का गहरा संबंध पृथ्वी पर मौजूद जल से होता है। जब भी पूर्णिमा की तिथि आती है उस दिन समुद्र में ज्वार-भाटा आता है। वैज्ञानिक नजरिए से पूर्णिमा के दिन चंद्रमा समुद्र के पानी को ऊपर की ओर खींचता है। पूर्णिमा के दिन जल की गति और गुण बदल जाने के कारण इसका प्रभाव मनुष्यों के शरीर पर भी पड़ता है क्योंकि मनुष्यों के शरीर में लगभग 80 फीसदी पानी होता है। वैज्ञानिक मत के अनुसार पूर्णिमा के प्रभाव से मनुष्यों के रक्त में न्यूरॉन कण अधिक क्रियाशील हो जाते है जिसके कारण इस दिन मनुष्यों के स्वभाव में परिव्रर्तन आ जाता है। पूर्णिमा की रात को मनुष्य का मन ज्यादा बेचैन रहता है और नींद कम आती है। इस दिन जिन व्यक्तियों का दिमाग कमजोर होता है उनके मन में आत्महत्या या हत्या करने के विचार बढ़ जाते हैं।
साल 2019 में पूर्णिमा
सोमवार, 21 जनवरी पौष पूर्णिमा व्रत
मंगलवार, 19 फरवरी माघ पूर्णिमा व्रत
गुरुवार, 21 मार्च फाल्गुन पूर्णिमा व्रत
शुक्रवार, 19 अप्रैल चैत्र पूर्णिमा व्रत
शनिवार, 18 मई वैशाख पूर्णिमा व्रत
सोमवार, 17 जून ज्येष्ठ पूर्णिमा व्रत
मंगलवार, 16 जुलाई आषाढ़ पूर्णिमा व्रत
गुरुवार, 15 अगस्त श्रावण पूर्णिमा व्रत
शनिवार, 14 सितंबर भाद्रपद पूर्णिमा व्रत
रविवार, 13 अक्टूबर अश्विन पूर्णिमा व्रत
मंगलवार, 12 नवंबर कार्तिक पूर्णिमा व्रत
गुरुवार, 12 दिसंबर मार्गशीर्ष पूर्णिमा व्रत
अभिनन्दन: नव-संवत्सर
सुयश मिश्रा
यूरोपीय सभ्यता के वर्चस्व के कारण विश्व भर में 1 जनवरी को नववर्ष मनाया जाता है। भारत में भी अधिकांश लोग अंग्रेजी कलैण्डर के अनुसार नववर्ष 1 जनवरी को ही मनाते हैं किन्तु हमारे देश में एक बड़ा वर्ग चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को नववर्ष का उत्सव मनाता है। यह दिवस बहुसंख्यक हिन्दु समाज के लिए अत्यंत विशिष्ट है – क्योंकि इस तिथि से ही नया पंचांग प्रारंभ होता है और वर्ष भर के पर्व , उत्सव एवं अनुष्ठानों के शुभ मुहूर्त निश्चित होते हैं।
भारत में सांस्कृतिक विविधता के कारण अनेक काल गणनायें प्रचलित हैं जैसे- विक्रम संवत, शक संवत, हिजरी सन, ईसवी सन, वीरनिर्वाण संवत, बंग संवत आदि। इस वर्ष 1 जनवरी को राष्ट्रीय शक संवत 1939, विक्रम संवत 2074, वीरनिर्वाण संवत 2544, बंग संवत 1424, हिजरी सन 1439 थी किन्तु 18 मार्च 2018 को चैत्र मास प्रारंभ होते ही शक संवत 1940 और विक्रम संवत 2075 हो रहे हैं। इस प्रकार हिन्दु समाज के लिए नववर्ष प्रारंभ हो रहा है।
भारतीय कालगणना में सर्वाधिक महत्व विक्रम संवत पंचांग को दिया जाता है। सनातन धर्मावलम्वियों के समस्त कार्यक्रम जैसे विवाह, नामकरण, गृहप्रवेश इत्यादि शुभकार्य विक्रम संवत के अनुसार ही होते हैं। विक्रम संवत् का आरंभ 57 ई.पू. में उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के नाम पर हुआ। भारतीय इतिहास में विक्रमादित्य को न्यायप्रिय और लोकप्रिय राजा के रुप में जाना जाता है। विक्रमादित्य के शासन से पहले उज्जैन पर शकों का शासन हुआ करता था। वे लोग अत्यंत क्रूर थे और प्रजा को सदा कष्ट दिया करते थे। विक्रमादित्य ने उज्जैन को शकों के कठोर शासन से मुक्ति दिलाई और अपनी जनता का भय मुक्त कर दिया। स्पष्ट है कि विक्रमादित्य के विजयी होने की स्मृति में आज से 2075 वर्ष पूर्व विक्रम संवत पंचांग का निर्माण किया गया।
भारतवर्ष में ऋतु परिवर्तन के साथ ही हिन्दु नववर्ष प्रारंभ होता है। चैत्र माह में शीतऋतु को विदा करते हुए और वसंत ऋतु के सुहावने परिवेश के साथ नववर्ष आता हैै। यह दिवस भारतीय इतिहास में अनेक कारणों से महत्वपूर्ण है। पुराण-ग्रन्थों के अनुसार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को ही त्रिदेवों में से एक ब्रह्मदेव ने सृष्टि की रचना की थी। इसीलिए हिन्दू-समाज भारतीय नववर्ष का पहला दिन अत्यंत हर्षोल्लास से मनाते हैं। इस तिथि को कुछ ऐसे अन्य कार्य भी सम्पन्न हुए हैं जिनसे यह दिवस और भी विशेष हो गया है जैसे- श्री राम एवं युधिष्ठिर का राज्याभिषेक, माँ दुर्गा की साधना हेतु चैत्र नवरात्रि का प्रथम दिवस, आर्यसमाज का स्थापना दिवस, संत झूलेलाल की जंयती और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन के संस्थापक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार जी का जन्मदिन आदि। इन सभी विशेष कारणों से भी चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा का दिन विशेष बन जाता है।
यह विडम्वना ही है कि हमारे समाज में जितनी धूम-धाम से विदेशी नववर्ष एक जनवरी का उत्सव नगरों-महानगरों में मनाया जाता है उसका शतांश हर्ष भी इस पावन-पर्व पर दिखाई नहीं देता । बहुत से लोग तो इस पर्व के महत्व से भी अनभिज्ञ हैं। आश्चर्य का विषय है कि हम परायी परंपराओं के अन्धानुकरण में तो रुचि लेते हैं किन्तु अपनी विरासत से अनजान हंै। हमें अपने पंचांग की तिथियाँ , नक्षत्र, पक्ष , संवत् आदि प्रायः विस्मृत हो रहे हैं। यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण हैं। इसे बदलना होगा। आइये,अपने नववर्ष को पहचानें , उसका स्वागत करें और परस्पर बधाई देकर इस उत्सव को सार्थक बनायें ।
राम-कथा गायन की विश्व परंपरा
हर्षवर्धन पाठक
राष्ट्रकवि के नाम से विख्यात हिन्दी के प्रसिद्ध कवि स्व. श्री मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियाँ प्राय: उद्धृत की जाती हैं कि ”हे राम, तुम्हारा चरित्र स्वयं ही काव्य है। कोई कवि बन जाये सहज संभाव्य है।“ इन पंक्तियों की सार्थकता राम कथा की अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति से प्रगट होती है। वास्तव में विश्व में जितने काव्य ग्रन्थ दशरथ पुत्र श्री राम के जीवन पर रचे गये हैं, उतने ग्रन्थ किसी अन्य पौराणिक चरित्र पर इतनी भाषाओं में इतनी संख्या में नहीं लिखे गये हैं। यह सर्वमान्य तथ्य है कि संस्कृत विश्व की सबसे पुरानी व्याकरण निष्ठ भाषा है। महर्षि वाल्मीकि को संस्कृत ही नहीं विश्व का आदि कवि कहा जाता है और उनके द्वारा रचित वाल्मीकि रामायण को प्रथम महाकाव्य माना जाता है। वाल्मीकि रामायण में रामकथा ही कही गई है। महर्षि वाल्मीकि श्रीराम के समकालीन थे और जनकपुत्री सीता के दोनों पुत्र लव-कुश की शिक्षा-दीक्षा महर्षि वाल्मीकि के गुरूकुल में हुई थी। महर्षि वाल्मीकि ने राम कथा गायन की जिस परम्परा का सूत्रपात्र किया वह परम्परा केवल संस्कृत भाषा में ही नहीं अपितु अन्य भाषाओं में भी मुरवरित हुईं । पिछले ढाई हजार वर्षों में लिखे गये साहित्य का अध्ययन इस तथ्य की पुष्टि करता है कि भारत की सभी भाषाओं में ही नहीं अपितु भारत के बाहर की विभिन्न भाषाओं तथा बोलियों में राम कथा कही गई है तथा विभिन्न संस्कृतियों, शिल्पों तथा लोक साहित्य में राम कथा का प्रभाव देखा गया है। आधुनिक काल में तो राम कथा पर आधारित अनेक उल्लेखनीय उपन्यास भी लिखे गये है। संस्कृत में वाल्मीकि रामायण के अतिरिक्त दो अन्य प्राचीन काव्यों महाभारत तथा श्रीमद्भागवत में भी रामकथा का वर्णन है। इन सभी धर्मग्रन्थों का पठन पाठन सैकड़ों वर्षों से हो रहा है। इनके अतिरिक्त स्कन्द पुराण, पद्म पुराण, विष्णु पुराण, ब्रम्ह वैवर्त पुराण आदि पुराणों में भी राम चरित्र का गायन है। महाभारत में वन पर्व में यह वर्णन मिलता है कि पाण्डुपुत्र भीमसेन द्रैपदी को कदलीवन में रामकथा सुनाते है। इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि अनेक देवताओं तथा ऋषियों ने भी राम कथा के विभिन्न प्रसंगों का वर्णन किया है। वैदिक युग में जिन ग्रंथों का संदर्भ मिलता है, वे हैं :- वायुपुत्र रामायण, नारद रामायण, वृत्तरामायण, भारद्वाज रामायण, कौंच रामायण, जटायु रामायण, शिवरामायण, पुलस्त्य रामाणय, देवी रामायण, श्वेतकेतुकी रामायण, विश्वामित्र रामायण तथा सुतीक्ष्ण रामायण । इनमें से अनेक ग्रंथों की प्रमाणिक प्रतियां उपलब्ध नहीं है लेकिन यह प्रतीत होता है कि राम के शौर्य तथा औदार्य से लाभान्वित इन पात्रों ने राम कथा का पूर्णत: या आंशिक वर्णन किया था। वाल्मीकि रामायण तथा अन्य ग्रंथों में इनमें से अनेक चरित्रों का रामभक्त के रूप में वर्णन मिलता है। रामचरितमानस में संत तुलसीदास ने शिव पार्वती संवाद के माध्यम से रामकथा प्रस्तुत की है। महाकवि तुलसीदास ने लोकभाषा हिन्दी में राम चरित मानस की रचना की। लगभग पांच सौ वर्षों पूर्व रचित यह महाकाव्य घर-घर में पढ़ा जाने वाला धर्मग्रंथ है। इसकी धार्मिक मान्यता के अतिरिक्त श्रेष्ठ साहित्यिक कृति के रूप में भी अतुलनीय प्रतिष्ठा है। तुलसीदास के बाद रीतिकालीन महाकवि केशवदास ने भी राम चन्द्रिका नामक ग्रंथ का प्रणयन किया। आधुनिक कवियों में सर्वाधिक चर्चा छायावादी कवि स्व. मैथिलीशरण गुप्त की होती है जिन्होंने रामकथा के विभिन्न प्रसंगों पर काव्य का सृजन किया। जिन रामकथा ग्रन्थों की प्रतियां मिलती है उनमें अग्निवेश रामायण, महारामायण, गायत्री रामायण, वेदांत रामायण, योगवासिष्ठ रामायण, आध्यात्म रामायण, अद्भुत रामायण, आनन्द रामायण, भुशुण्डी रामायण, महाकवि भट्ट कृत रावण वध, महाकवि कुमार दास का जानकी हरण, महाकवि आनन्द रचित रामचरित्र, महाकवि व्यास दास उर्फ हेमेन्द्र कृत राम मन्जरी, महाकवि धनंजय कृत राघम पांडवीयम, कवि राज पंडित रचित राघव पांडवीयम, महाकवि मल्लाचार्य रचित उदार राघवम्् महाकवि क्षेमेन्द्र कृत दशावत्तार चरित्रम्् तथा हरिदास सूरी कृत दशावत्तार चरित्रम आदि ग्रन्थ उल्लेखनीय है। रीतिकालीन हिन्दी कवि केशवदास का महाकाव्य रामचन्द्रिका, तथा भास का उत्तर रामचरित्र आदि ग्रन्थ भी उल्लेखनीय है। संस्कृत के अमर महाकवि कालिदास की रचना रघुवंश में भी रामकथा मिलती है। इन सभी ग्रन्थों में वर्णित रामकथा का मूल आधार वाल्मीकि रामायण है। यद्यपि इनमें अनेक प्रसंग विवादास्पद भी है, लेकिन रामकथा की ऐतिहासिकता तथा व्यापकता का परिचय इनसे मिलता है। संस्कृत तथा हिन्दी के अतिरिक्त, अन्य भारतीय भाषाओं में रामकथा काव्य के सृजन की चर्चा भी प्रासंगिक होगी। पिछले दो हजार वर्षों में जो महाकाव्य लिखे गये हैं उनमें सर्वाधिक चर्चित ग्रन्थ कम्बन रामायण (तमिल) कृतिवास रामायण (बंगला) कदमी रामायण (असमिया) मोल्लाकृत तेलगू रामायण, आदि की लोकप्रियता आज भी है। तमिल महाकवि कम्बन ने रामावतारम्् नामक भक्ति काव्य लिखा जिसमें दस हजार चार सौ अठारह पद है। यह काव्य कम्बन रामायण के नाम से जाना जाता है। महाकवि कम्बन ने कवि तुलसीदास द्वारा रामचरित मानस की रचना के लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व तमिल भाषा में रामकथा लिखी । तमिल भाषा में इसे अपूर्व प्रतिष्ठा प्राप्त है। इसी प्रकार बंगला भाषा में रची गई कवि कृतिवास के नाम से इस ग्रन्थ को ’कृतिवास – रामायण‘ कहा जाता है। तेलगू कवियत्री मोल्लया ने तेलगू भाषा में रामकथा का गायन किया तो उड़िया भाषा में जगमोहन-रामायण, मराठी में भावार्थ – रामायण आदि ग्रन्थ लोकप्रिय हुये। कन्नड़ कवि कुमार वाल्मीकि ने तोरवे- रामायण लिखी। महाराष्ट्र में विख्यात संत समर्थ रामदास ने राम और हनुमान की भक्ति आधारित कार्यक्रम प्रारंभ किये तथा भक्ति साहित्य लिखा। केरल में तो आचार्य एजुतच्छदन कृत आध्यात्म रामायण का पाठ व्यापक तौर पर होता है। उसके पूर्व यहां रामचरित, खण्ड रामायण, भाषा रामायण, चम्पू आदि रामभक्ति ग्रन्थ लिखे गये है। उर्दू में भी रहीम, अमर, अमीर खुसरो, रज्जब साहब, बाबा नुरूद्दीन आदि ने भी रामभक्ति के पद लिखे है। यह उल्लेखनीय है कि इनमें से अधिकांश रामभक्ति काव्यों की रचना रामचरितमानस के पूर्व हो चुकी थी। यह इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण है कि रामभक्ति की धारा वैदिकयुग से निरंतर प्रवाहित हो रही है। सभी भाषाओं में रचित विराट रामभक्ति साहित्य में से उपरोक्त कुछ नाम उदाहरण के रूप में ही लिखे गये है। इनके अलावा भी भारत की सभी भाषाओं में तथा सभी क्षेत्रों में रामकथा गायक कवि हुए है। भारत के बाहर भी लगभग दो हजार वर्ष पूर्व से रामकथा के गायन की ऐतिहासिक परम्परा रही है। कम्बोडिया, वर्मा, श्रीलंका, चीन, जापान, इंडोनेशिया, जावा, सुमात्रा, मलेशिया, मंगोलिया, तिब्बत, तुर्किस्तान, थाईलैण्ड, वियतनाम, आदि एशियाई देशों में भी रामकथा पर आधारित ग्रन्थों की रचना हुई है। यद्यपि कुछ कथाओं में पात्रों के नामों में भिन्नता मिलती है। लेकिन समग्र अध्ययन से यह पता चलता है कि ये प्राचीन ग्रन्थ रामचरित्र के विभिन्न प्रसंगों पर आधारित है। कम्बोडिया (कंपूचिया) में रामकेति या रियायामकेत, लाहोस की फलक फ्रलाम, मलेशिया की हिकायत सीरीराम, थाईलैण्ड की रामकियेन, नेपाल की भानुभक्त कृत रामायण आदि काव्य ग्रन्थों के नाम इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है। यह कहा जाता है कि श्रीलंका के राजा कुमारदास संस्कृत महाकवि कालिदास के मित्र थे । कुमार दास ने जानकीहरण काव्य की रचना की थी। इसके पूर्व लगभग सात सौ साल ईसा पूर्व में श्रीलंका में मलेराज की कथा सिंहली भाषा में प्रचलित थी जो श्रीराम के जीवन से जुड़ी बताई जाती है। चीनी भाषा में रचित एक प्राचीन महाकाव्य अनामकजातकम्् भी श्रीमराम के जीवन चरित्र पर आधारित बताया जाता है। परंतु इसमें कुछ पात्रों के नामों में अंतर है। तिब्बती रामायण तथा खोतानी रामायण (तुर्किस्तान की एक भाषा) भी इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। पश्चिमी देशा में रामायण के अनेक अनुवाद हुये हैं। अंग्रेजी भाषा में फ्रेडरिक सोलोमन गाउच, रेवहिल, जी मेटकिन्स, फ्रेन्च भाषा में गारसी द तासी, डेलोलिये, डेनोविल, इलोयित फ्रांच, रसेल, शारतोस, रूसी भाषा में वारान्निकोव आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । रूसी विद्वान वारान्निकोव को रामचरितमानस के रूसी अनुवाद के कारण सोवित संघ का सर्वोच्च पुरस्कार आर्डर ऑफ लेनिन दिया गया है। अंग्रेजी लेखक फादर कामिल बुल्के के योगदान से भी सभी परिचित है। इस प्रकार के अनेक बहुराष्ट्रीय संदर्भ रामकथा की व्यापकता की पुष्टि करते है। यद्यपि यह सही है कि अनेक रामकथा ग्रन्थों में दी गई घटनायें विवादास्पद भी है। लेकिन कथा का यह व्यापक स्वरूप इस तथ्य की पुष्टि तो करता ही है कि लगभग दो हजार वर्षों से (या इसके भी पहिले से) रामकथा भारत ही नहीं अन्य देशों में भी विभिन्न कथाओं के माध्यम से कही जा रही है। यह कहा भी जाता है कि हरि अनन्त हरिकथा अनन्ता ।
हर्षोल्लास का महापर्व होली
डॉ. भगवतीशरण मिश्र
पर्व एवं त्योहारों का देश है भारतवर्ष। भारतभूमिमें वर्ष-पर्यत एक के पश्चात् एक पर्वोत्सवआते ही रहते हैं। इनमें होली-दीवाली का विशेष महत्व है। ये महोत्सव मानव-मन को प्रसन्नता-पूरित कर जाते हैं। प्रसन्न मन मनुष्य को सारी चिन्ताओं से मुक्त करता है और उसे स्वस्थ एवं दीर्घ-जीवन प्रदान करता है। श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान् श्रीकृष्ण ने प्रसन्नता के महत्त्व को रेखांकित किया है-
प्रसादेसर्वदुर्खानांहानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसोह्याशुबुद्धिर् पर्यवतिष्ठते।।
प्रसन्नता की अवस्था में सम्पूर्ण दुर्खों का विनाश हो जाता है तथा प्रसन्नचित्त वाले की बुद्धि सुस्थिर हो जाती है। हमारे आर्ष चिन्तकों ने मानव-मन की प्रसन्नता के लिए ही उत्सव-पर्वो का विधान किया। होली मात्र पर्व नहीं है। इसका आध्यात्मिक महत्व है। वैदिककालमें इसे नवान्नेष्टिनाम से संबोधित किया जाता था। उस समय अधपके अन्न का यज्ञ में हवन कर प्रसाद-वितरण करने का विधान था। इस अन्न को होला कहते थे। कालांतर में यही होला होली बन गई।
यह यज्ञ होलिका-दहन के रूप में आज भी संपादित होता है। इसके लिए होली के कई दिनों पूर्व से ही लोग लकडियां, उपले आदि एकत्रित कर उनका ढेर लगाते हैं। इस ढेर में भद्रारहितपूर्णिमा की रात्रि को अग्नि लगाई जाती है और हवन-पूजन किया जाता है। पूजन के पश्चात् लोग अपने घर से लाई हुई पुआल-तिनके से निर्मित होली को होलिकाग्निसे प्रवलित कर प्रसन्नता-पूर्वक होलिकोत्सव मनाते हैं। होली की आग ठंडी हो जाती है, तो उसके भस्म को धारण करने की प्रथा है। होलिका-दहन की इसी प्रयि का वर्णन भविष्य पुराण में विस्तार से उपलब्ध है। इसके अनुसार नारद जी ने महाराज युधिष्ठिर से कहा-राजन् फाल्गुनी पूर्णिमा को सब लोगों को अवकाश देना चाहिए, जिससे सारी प्रजा उल्लास-पूर्वक हंसे, नृत्य-गान करे। बालकगणग्राम के बाहर से लकडियों एवं कंडो का ढेर लगाएं। होलिका का पूर्ण पूजा-सामग्री सहित विधिवत पूजन किया जाए। होलिका-दहन की प्रथा के पीछे भिन्न-भिन्न कारण बताए जाते हैं। कुछ लोग इसे अग्निदेव का पूजन मानते हैं। कुछ लोग इसे नव संवत्सर के आरंभ तथा ऋतुराज वसंत के उपलक्ष्य में सम्पादित यज्ञ मानते हैं।
मुख्यतर्होलिका-दहन का संबंध प्रसिद्ध भगवद्भक्तएवं हिरण्यकशिपु-पुत्रप्रह्लाद से है। हिरण्यकशिपुस्वयं अपने को भगवान् घोषित करता था। प्रह्लाद को छोड कर उसकी सारी प्रजा, उसे ईश्वर के रूप में पूजतीथी। प्रह्लाद अभी किशोर ही थे किन्तु बाल्यकाल से ही नारायण का नाम जपते थे। श्रीमद्भागवत के अनुसार प्रह्लाद बचपन ही में खेल-कूद को छोडकर भगवान् के ध्यान में तन्मय हो जाते थे।
भगवान् श्रीकृष्ण के अनुग्रहरूपग्रह ने उनके हृदय को इस प्रकार खींच लिया था कि उन्हें जगत् की सुध-बुध ही न रहती।
हिरण्यकशिपु को इस बात का पता लगा तो उसने प्रह्लाद को बुला कर पूछा, सभी लोग मुझे भगवान् मान कर मेरी उपासना करते हैं। तुम कैसे मंदबुद्धि हो कि किसी अदृश्य को भगवान् मान बैठे हो? प्रह्लाद ने उत्तर दिया था, आप राजा हो सकते हैं, मेरे पिता हो सकते हैं पर आप भगवान् नहीं हैं। क्या तुम अपने हठ पर अडे रहोगे या औरों की तरह मेरी उपासना करोगे? मैं स्पष्ट कर देता हूं कि भगवान् नारायण को छोडकर किसी और की उपासना नहीं कर सकता।
तो फिर इसका परिणाम भोगने को भी प्रस्तुत रहो। हिरण्यकशिपुने कहा और पुत्र को जल्लादों के हाथ दे दिया। उन्होंने प्रह्लाद को समाप्त करने के सभी उपाय किए किन्तु वे प्रह्लाद का बाल बांका भी नहीं कर सके। उन्हें हाथियों से कुचलवाया गया, सर्पो से डंसवाया गया, अनेक प्रकार की माया का प्रयोग किया गया, विष पिलाया गया, पहाड की चोटी से फेंकवायागया, कालकोठरियों में बन्द कर भोजन भी बन्द कर दिया गया।
अन्यत्र कथा आती है कि प्रह्लाद को नष्ट करने के सभी उपाय समाप्त हो गए तो हिरण्यकशिपुकी बहन होलिका सामने आई। होलिका को किसी देवता की कृपा से एक ऐसा वस्त्र प्राप्त था जिसे ओढ कर बैठ जाती तो अग्नि उसका कुछ नहीं बिगाड सकती। होलिका ने उसी वस्त्र से अपने को ढक लिया और प्रह्लाद को गोद में लेकर लकडियों के ऊंचे ढेर पर बैठ गई जिसमें आग लगा दी गई। धधकती आग शांत हुई तो होलिका जली पाई गई और प्रह्लाद पूरी तरह सुरक्षित। फलत: प्रतिवर्ष यह पर्व मनाया जाता है और इसके अगले दिन उत्साह-पूर्वक एक दूसरे पर रंग तथा अबीर-गुलाल डाल कर लोग पाप पर पुण्य की विजय के उपलक्ष्य में उत्सव-मग्न हो आते हैं। होली का पर्व एक-दूसरे को समीप लाने और आपस की शत्रुता को समाप्त करने के लिए प्रसिद्ध है। राग-रंग से भरे इस पर्व में लोग मिल-जुल कर हंसते-गाते एव नृत्य-गान सम्पन्न करते हैं तथा आगामी होली के आगमन की प्रतीक्षा में पूरे वर्ष हर्षोल्लास में मग्न रहते हैं।
अपने आप में अनोखी होती है शेखावाटी की होली
रमेश सर्राफ धमोरा
उमंग व मस्ती भरे पर्व होली की शुरुआत तब होती है, जबकि बसन्त अपने पूर्ण यौवन पर होता है और बांसुरी की मदहोश करती धुनें और चंग की थाप पर मानव का मन-मयूर नाचने लगता है। होली नजदीक आने पर शेखावाटी में अंचल के गांव-गांव और ढाणी-ढाणी में ऐसा माहौल देखने को मिल रहा है। शेखावाटी की होली पूरे देश में प्रसिद्व है। फाल्गुन में सांझ ढलते ही धमाल सुनाई देने लगे हैं। चंग की थाप पर पांव थिरकने लगे हैं और बांसुरी की सुरीली आवाज कानों में मिश्री घोलने लगी है। होली नजदीक आने पर शेखावाटी में अंचल के गांव-गांव और ढाणी-ढाणी में ऐसा माहौल देखने को मिल रहा है।
राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र में हर मोहल्ले में अपनी चंग पार्टी होती है। चंग शेखावाटी क्षेत्र का प्रसिद्ध नृत्य है। इसमें प्रत्येक पुरुष चंग बजाते हुये नृत्य करते हैं। यह मुख्यत: होली के दिनों में किया जाता है। चंग को प्रत्येक पुरुष अपने एक हाथ से थाम कर और दूसरे हाथ से कटरवे का ठेका बजाते हुए वृत्ताकार घेरे में नृत्य करते हैं। घेरे के मध्य में एकत्रित होकर धमाल और होली के गीत गाते हैं। होली के एक पखवाडे पहले गींदड शुरू हो जाता है। जगह- जगह भांग घुटती है। हालांकि अब ये नजारे कम ही देखने को मिलते हैं। जबकि, शेखावाटी में ढूंढ का चलन अभी है। परिवार में बच्चे के जन्म होने पर उसका ननिहाल पक्ष और बुआ कपडे और खिलौने होली पर बच्चे को देते हैं।
शेखावाटी अंचल के हर गांव कस्बे में रात्रि में लोग एकत्रित होकर चंग की मधुर धुन पर देर रात्रि तक धमाल गाते हुए मोहल्लों में घूमते रहते हैं। होली के अवसर पर बजाया जाने वाला चंग भी इसी क्षेत्र में ही विशेष रूप से बनाया जाता है। चंग की आवाज तो ढोलक की माफिक ही होती है, मगर बनावट ढोलक से सर्वथा भिन्न। चंग ढोलक से काफी बड़ा व गोल घेरे नुमा होता है। होली के प्रारम्भ होते ही गांवों में लोग अपने-अपने चंग (ढप) संभालने लगते हैं। होली चूंकि बसंत ऋतु का प्रमुख पर्व है तथा बसंत पंचमी बसंत ऋतु प्रारम्भ होने की द्योतक है। इसलिए इस अंचल में बसंत पंचमी के दिन से चंग बजाकर होली के पर्व की विधिवत शुरुआत कर दी जाती है।
शेखावाटी अंचल में होली एक सुप्रसिद्ध लोक पर्व है तथा इस पर्व को क्षेत्र में पूरे देश से अलग ही ढंग से मनाया जाता है। उमंग व मस्ती भरे पर्व होली की शेखावाटी क्षेत्र में बसंत पंचमी के दिन से शुरुआत कर दी जाती है। क्षेत्र में होली के पर्व पर चंग की धुन पर गाई जाने वाली धमालों में यहां की लोक संस्कृति का ही वर्णन होता है। इन धमालों के माध्यम से जहां प्रेमी अपनी प्रेमिकाओं को अपने प्रेम का संदेशा पहुंचाते हैं वहाँ श्रद्धालु धमालों के माध्यम से लोक देवताओं को याद कर सुख समृद्धि की कामना करते हैं। धमाल के साथ ही रात्रि में नवयुवक विभिन्न प्रकार के स्वांग भी निकाल कर लोगों का भरपूर मनोरंजन करते हैं। गांवों में स्त्रियां रात्रि में चौक में एकत्रित होकर मंगल गीत, बधावे गाती हैं। होली के दिनों में आधी रात तक गांवों में उल्लास छाया रहता है।
शेखावाटी अंचल में होली पर कस्वों में विशेष रूप से गींदड़ नृत्य किया जाता है। गुजराती नृत्य गरवा से मिलता-जुलता गींदड़ नृत्य में काफी लोग विभिन्न प्रकार की चिताकर्षक वेशभूषा में नंगाड़े की आवाज पर एक गोल घेरे में हाथ में डंडे लिए घूमते हुए नाचते हैं तथा आपस में डंडे टकराते हैं। प्रारम्भ में धीरे-धीरे शुरू हुआ यह नृत्य धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ता जाता है। इसी रफ्तार में डंडों की आवाज भी टकरा कर काफी तेज गति से आती है तथा नृत्य व आवाज का एक अद्भुत दृश्य उत्पन्न हो जाता है जिसे देखने वाला हर दर्शक रोमांचित हुए बिना नहीं रह पाता है। होली के अवसर पर चलने वाले इन कार्यक्रमों से यहाँ का हर एक व्यक्ति स्वयं में एक नई स्फूर्ति का संचार महसूस करता है।
इन नृत्यों की लोक परम्परा को जीवित रखने के लिए क्षेत्र की कुछ संस्थाएं विगत कुछ समय से विशेष प्रयासरत हैं। झुंझुनू शहर में सद्भाव नामक संस्था गत 18 वर्षों से होली के अवसर पर चंग,गींदड़ कार्यक्रम का आयोजन करती आ रही है, जिसे देखने दूर-दराज गावों से काफी संख्या में लोग आते हैं। झुंझुनू, फतेहपुर शेखावाटी, रामगढ़ शेखावाटी, मण्डावा, लक्ष्मणगढ़,चूरू,बिसाऊ,लक्ष्मणगढ़ कस्बों का गींदड़ नृत्य पूरे देश में प्रसिद्ध है। इसी कारण चंग व गीन्दड़ नृत्य का आयोजन शेखावाटी से बाहर अन्य प्रान्तो में भी होने लगा है। धुलंडी के दिन इन नृत्यों का समापन होता है।
लोगों का कहना है कि अगर होली के त्यौहार से लोक वाद्य चंग और धमाल को निकाल दिया जाये तो होली का त्यौहार बेजान हो जायेगा। ग्रामीण चंग और धमाल को होली पर्व की आत्मा मानते है। आज ये परम्परा धीरे धीरे लुप्त होती जा रही है। पहले यहां होली का त्योहार प्यार के साथ मनाया जाता था, सब साथ मिलकर चंग पर धमाल गाते थे लेकिन आजकल वो सब खत्म सा हो गया है। क्षेत्र में बढ़ते शराब के प्रचलन के कारण लोग रात्रि में घरों से बाहर निकलने से डरने लगे हैं तथा गांवों में भी पहले की तरह सामंजस्य नहीं रहा। इसके अलावा ऑडियो कैसेटों के बढ़ते प्रचलन से भी इस लोक पर्व को कृत्रिम सा बना दिया है। कैसेटों की वजह से पर्व की मौलिकता ही समाप्त होने जा रही है। यदि समय रहते होली पर व्याप्त हो रही कुरीतियों व शराब के चलन की समाप्ति का प्रयास नहीं किया गया तो यह पर्व अपना मूल रूप खो बैठेगा।
आध्यात्मिक रूप से महत्वपूर्ण होती है महाशिवरात्रि
रमेश सर्राफ धमोरा
भारत पर्व एवं उत्सवों का देश है। भारतीय जीवन में गांवों से लेकर शहरों तक व्रतों एवं उत्सवों का स्थायी प्रभाव है। महाशिव रात्रि का पर्व भी सम्पूर्ण भारत के साथ साथ नेपाल व मारिशस आदि देशों में उत्साह पूवर्क मनाया जाता है। महाशिव रात्रि का व्रत फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को किया जाता है। महाशिवरात्रि भगवान शिव का त्यौहार है जिसका हर शिव भक्त बेसब्री से इंतजार करते है और शिव की भक्ति और भांग के रंग में मग्न हो जाते है। हिन्दू पुराणों के अनुसार इसी दिन सृष्टि के आरंभ में मध्यरात्रि मे भगवान शिव ब्रह्मा से रुद्र के रूप में प्रकट हुए थे । इसीलिए इस दिन को महाशिवरात्रि कहा जाता है। यह भी माना जाता है की इस दिन भगवान शंकर और माता पार्वती का विवाह हुआ था। इस दिन लोग व्रत रखते हैं और भगवान शिव की पूजा करते है।
शिवरात्रि के प्रसंग को हमारे वेद,पुराणों में बताया गया है कि जब समुद्र मन्थन हो रहा था उस समय समुद्र में चौदह रत्न प्राप्त हुए। उन रत्नों में हलाहल भी था। जिसकी गर्मी से सभी देव दानव त्रस्त होने लगे कोई भी उसे पीने को तैयार नहीं हुआ। अन्त में शिवजी ने हलाहल को पान किया। उन्होंने लोक कल्याण की भावना से अपने को उत्सर्ग कर दिया। इसलिए उनको महादेव कहा जाता है। जब हलाहल को उन्होंने अपने कंठ के पास रख लिया तो उसकी गर्मी से कंठ नीला हो गया। तभी से उन्हें नीलकंठ भी कहते हैं। शिव का अर्थ कल्याण होता है। जब संसार में पापियों की संख्या बढ़ जाती है तो शिव उन्हें मारकर लोगों की रक्षा करते हैं। इसीलिए उन्हें शिव कहा जाता है।
पुराणों में कहा जाता है कि एक समय पार्वती शिवजी के साथ कैलाश पर बैठी थी। उसी समय पार्वती ने प्रश्न किया कि इस तरह का कोई व्रत है जिसके करने से मनुष्य आपके धाम को प्राप्त कर सके? तब उन्होंने यह कथा सुनाई थी कि प्रत्यना नामक देश में एक व्याध रहता था, जो जीवों को मारकर या जीवित बेचकर अपना भरण पोषण करता था। वह किसी सेठ का रुपया रखे हुए था। उचित तिथि पर कर्ज न उतार सकने के कारण सेठ ने उसको शिवमठ में बन्द कर दिया। संयोग से उस दिन फाल्गुन बदी त्रयोदशी थी। अत: वहां रातभर कथा, पूजा होती रही जिसे उसने सुना। दूसरे दिन भी उसने कथा सुनी। चतुर्दशी को उसे इस शर्त पर छोड़ा गया कि दूसरे दिन वह कर्ज पूरा कर देगा। उसने सोचा रात को नदी के किनारे बैठना चाहिये। वहां जरूर कोई न कोई जानवर पानी पीने आयेगा। अत: उसने पास के बेल वृक्ष पर बैठने का स्थान बना लिया। उस बेल के नीचे शिवलिंग था। जब वह अपने छिपने का स्थान बना रहा था उस समय बेल के पत्तों को तोडक़र फेंकता जाता था जो शिवलिंग पर ही गिरते थे। वह दो दिन का भूखा था। इस तरह से वह अनजाने में ही शिवरात्रि का व्रत कर ही चुका था, साथ ही शिवलिंग पर बेल-पत्र भी अपने आप चढ़ते गये।
एक पहर रात्रि बीतने पर एक गर्भवती हिरणी पानी पीने आई। व्याध ने तीर को धनुष पर चढ़ाया किन्तु उसकी कातर वाणी सुनकर उसे इस शर्त पर जाने दिया कि प्रत्युष होने पर वह स्वयं आयेगी। दूसरे पहर में दूसरी हिरणी आई। उसे भी छोड़ दिया। तीसरे पहर भी एक हिरणी आई उसे भी उसने छोड़ दिया और सभी ने यही कहा कि प्रत्युष होने पर मैं आपके पास आऊंगी। चौथे पहर एक हिरण आया। उसने अपनी सारी कथा कह सुनाई कि वे तीनों हिरणियां मेरी स्त्री थी। वे सभी मुझसे मिलने को छटपटा रही थी। इस पर उसको भी छोड़ दिया तथा कुछ और भी बेल-पत्र नीचे गिराये। इससे उसका हृदय बिल्कुल पवित्र, निर्मल तथा कोमल हो गया। प्रात: होने पर वह बेल-पत्र से नीचे उतरा। नीचे उतरने से और भी बेल पत्र शिवलिंग पर चढ़ गये। अत: शिवजी ने प्रसन्न होकर उसके हृदय को इतना कोमल बना दिया कि अपने पुराने पापों को याद करके वह पछताने लगा और जानवरों का वध करने से उसे घृणा हो गई। सुबह वे सभी हिरणियां और हिरण आये। उनके सत्य वचन पालन करने को देखकर उसका हृदय दुग्ध सा धवल हो गया और अति कातर होकर फूट-फू ट कर रोने लगा। यह सब देखकर शिव ने उन सबों को विमान से अपने लोक में बुला लिया ओर इस तरह से उन सबों को मोक्ष की प्राप्ति हो गई।
महाशिवरात्रि आध्यात्मिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण है। इस रात धरती के उत्तरी गोलार्ध की स्थिति ऐसी होती है कि इंसान के शरीर में ऊर्जा कुदरती रूप से ऊपर की ओर बढ़ती है। इस दिन प्रकृति इंसान को अपने आध्यात्मिक चरम पर पहुंचने के लिए प्रेरित करती है। इसका लाभ उठाने के लिए इस परम्परा में हमने एक खास त्यौहार बनाया जो रात भर चलता है। ऊर्जा के इस प्राकृतिक चढ़ाव में मदद करने के लिए रात भर चलने वाले इस त्यौहार का एक मूलभूत तत्व यह पक्का करना है कि आप रीढ़ को सीधा रखते हुए रात भर जागें। गृहस्थ जीवन में रहने वाले लोग महाशिवरात्रि को शिव की विवाह वर्षगांठ के रूप में मनाते हैं। सांसारिक महत्वाकांक्षाएं रखने वाले लोग इस दिन को शिव की दुश्मनों पर विजय के रूप में देखते हैं।
योगियों और संन्यासियों के लिए यह वह दिन है, जब शिव कैलाश पर्वत के साथ एकाकार हो गए थे। योगिक परम्परा में शिव को ईश्वर के रूप में नहीं पूजा जाता है, बल्कि उन्हें प्रथम गुरु, आदि गुरु माना जाता है, जो योग विज्ञान के जन्मदाता थे। कई सदियों तक ध्यान करने के बाद शिव एक दिन वह पूरी तरह स्थिर हो गए। उनके भीतर की सारी हलचल रुक गई और वह पूरी तरह स्थिर हो गए। वह दिन महाशिवरात्रि है। इसलिए संन्यासी महाशिवरात्रि को स्थिरता की रात के रूप में देखते हैं।
योगिक परम्परा में इस दिन और रात को इतना महत्व इसलिए दिया जाता है क्योंकि यह आध्यात्मिक साधक के लिए जबर्दस्त संभावनाएं प्रस्तुत करते हैं। आधुनिक विज्ञान कई चरणों से गुजरने के बाद आज उस बिंदु पर पहुंच गया है, जहां वह प्रमाणित करता है कि हर वह चीज जिसे आप जीवन के रूप में जानते हैं, पदार्थ और अस्तित्व के रूप में जानते हैं, जिसे आप ब्रह्मांड और आकाशगंगाओं के रूप में जानते हैं। वह सिर्फ एक ही ऊर्जा है जो लाखों रूपों में खुद को अभिव्यक्त करती है।
यह वैज्ञानिक तथ्य हर योगी के लिए एक जीवन्त अनुभव है। योगी शब्द का मतलब है वह व्यक्ति जिसने अस्तित्व के ऐक्य को पहचान लिया है। महाशिवरात्रि की रात व्यक्ति को इसका अनुभव करने का एक अवसर देती है। योग से मतलब किसी खास अभ्यास या प्रणाली से नहीं है। असीमित को जानने की सारी इच्छा, अस्तित्व में एकात्मकता को जानने की सारी चाहत ही योग है। महाशिवरात्रि की रात सभी को इसका अनुभव करने का अवसर भेंट करती है। अत: जो लोग महाशिवरात्रि का व्रत निर्मल चित्त से करते हैं वे बहुत ही शीघ्र शिवधाम पहुंच जाते हैं और उन्हें मुक्ति प्राप्त हो जाती है।
रावण का सांस्कृतिक महत्व रावण का सांस्कृतिक महत्व
हर्षवर्धन पाठक
यह कथा बहुत प्रसिद्ध है कि जब मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम ने रावण की पराजय, लंका विजय तथा सीता की बंधन मुक्ति के लिये दक्षिण के समुद्र तट पर शिव की पूजा की तब उन्होंने अपने विरोधी तथा सीता के अपहर्ता राक्षस राज रावण को ही पुरोहित बनने के लिये आमंत्रित किया था। रावण को धर्मग्रन्थों तथा इतिहास की पुस्तकों में परम् शिव भक्त बताया गया हैं । रावण ने श्रीराम का आमंत्रण स्वीकार किया तथा अपने विरोधी को शिव की आराधना कराई। यह उल्लेखनीय है कि रावण को यह ज्ञात था कि उसकी पराजय के लिये ही श्रीराम शिव पूजा कर रहे है। उसके बाद भी उसने भगवान शिव की आराधना के लिये श्रीराम का पुरोहित बनने का आग्रह स्वीकार किया। यह प्रसंग इस तथ्य का परिचायक है कि शिव आराधना का कोई अवसर छोड़ना रावण पसंद नहीं करता था, भले ही उसके विरोधी ही बुलायें । दूसरी तरफ यह भी ध्यान में रखने योग्य तथ्य है कि श्रीराम ने सभी परिस्थितियां समझते हुए भी, रावण को पौरोहित्य कर्म के लिये आमंत्रित किया। इसका अर्थ यह भी है कि श्रीराम को यह विश्वास था कि महान शिव भक्त रावण इस कार्य के लिये अवश्य आयेगा। यह प्रसंग राक्षसराज रावण की शिवभक्ति का प्रतीक है। वाल्मीकि रामायण में भी यह उल्लेख है कि राक्ष्सराज रावण अनुपम शिव भक्त था। प्रथम महाकाव्य के रूप में मान्यता प्राप्त इस ग्रन्थ के उत्तरकाण्ड के इक्तीसवें श्लोक में इसका वर्णन है कि राक्षसराज रावण जहां जहां जाता था, वहां वहां एक सुवर्णमय शिवलिंग अपने साथ ले जाता था।यत्र यत्र च याति स्म रावणो राक्षसेश्वर।जाम्बूनदयम लिंगं तत्र तत्र स्म नीयते s।।इस सर्ग में श्लोक 33 से 45 में इसका वर्णन है कि जटाजूटधारी महादेव का रावण ने नर्मदा तट पर विधिवत पूजन किया। यह भी स्मरणीय है कि शिवतांडव स्नोत्र का शिव पूजा के समय उच्चारण फलदायी माना जाता है। राक्षसराज रावण ने इसकी रचना की थी।वैसे इस स्तोत्र की रचना की रोचक कथा हैं । यह कहा जाता है कि दिग्विजय के कारण रावण को अभिमान हो गया था। जब उसने इन्द्रादि देवताओं को परास्त किया तब अभिमानवश उसने उस हिमालय पर्वत को उठा लिया जिस पर स्वयं उसके आराध्य विराजमान थे। भगवान शिव रावण का अभिमान समझ गये और उन्होंने अपने पैर के अंगूठे से हिमालय को दबा दिया । रावण गिर पड़ा और उसे अपनी भूल का अहसास हुआ। तब उसने शिवतांडव स्तोत्र की रचना की और उसका सस्वर पाठ किया। भोले भंडारी प्रसन्न हो गये और उनकी प्रसन्नता का लाभ उठाकर रावण वहां से चलता बना।धार्मिक कथायें यह बताती है कि रावण की शिव भक्ति अनुपम थी और इस कारण उसे परास्त करने के लिये यह आवश्यक था कि श्रीराम भगवान शिव का आशीर्वाद प्राप्त करें। यह परिस्थिति जानते समझते हुए भी रावण ने शिवपूजा के लिये श्रीराम का पुरोहित बनना स्वीकार किया।परम शिव भक्त रावण उस समय असुर तथा विप्र कुल के बीच गठबंधन का भी प्रतीक माना जाता है । रावण मुनि पुलस्त्य का पौत्र तथा विश्रवा का पुत्र था। रावण के पितृकुल का सम्बंध ब्रम्हा से बताया जाता है ।उसकी पत्नी मंदोदरी मयासुर की पुत्री थी जो अद्वितीय शिल्पी तथा वैज्ञानिक था। यह माना जाता है कि रावण की अद्वितीय पांडित्य प्रतिभा, शिव भक्ति तथा अनुपम बल के कारण मय ने असुर कुल का होने के बाद भी मुनि पुत्र रावण से अपनी पुत्री मंदोदरी का विवाह किया था । रावण का मंदोदरी के साथ विवाह सांस्कृतिक संक्रांति का प्रतीक माना गया था। रावण संहिता एक प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसमें रावण द्वारा दिये गये उपदेशों तथा उसके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों का संकलन है। रावण ने अनेक रोगों की उपचार पद्धति भी बताई थी। यह कथा भी प्रसिद्ध है कि शक्ति बाण के दुष्प्रभाव से पीड़ित लक्ष्मण के उपचार के लिये हनुमान लंका से सुषेण वैद्य को लेकर आये थे। लंका में सुषेण का निवास और उसका आयुर्वेदिक ज्ञान भी इस तथ्य की पुष्टि करता है कि रावण की राजधानी लंका में आयुर्वेद के उपचार की विधि प्रचलित थी। रावण की सहमति के बिना यह संभव नहीं था।वाल्मीकि रामायण के युद्धकांड में अनेक प्रसंगों में उल्लेख मिलता है कि राक्षसराज रावण पराक्रमी, युद्धकुशल तथा तंत्रशास्त्र का ज्ञाता था। युद्धकांड के एक सौ ग्यारहवें सर्ग के श्लोक 98 तथा 99 में विभीषण को सम्बोधित करते हुए श्रीराम कहते हैं कि रावण संग्राम में तेजस्वी, बलवान, शूरवीर तथा महान बल सम्पन्न था । शतक्रतुमुरवैदेवे: श्रूयते न पराजितमहात्मा बल सम्पन्नो रावणो लोक रावण। (99/111)वाल्मीकि रामायण में यद्यपि श्रीराम की यश गाथा है लेकिन इस प्रथम महाकाव्य में भी रावण के पराक्रम देवताओं पर उसकी विजय, तथा रावण की शिव आराधना का अनेक स्थानों पर वर्णन मिलता है । प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में रावण द्वारा देवताओं पर विजय का बार-बार उल्लेख मिलना महत्वपूर्ण है। इसे अनेक इतिहासकारों ने स्वीकार किया है। इससे अधिक महत्व की घटना थी ब्राम्हण रावण का असुर पुत्री मंदोदरी से विवाह। उस युग में यदि इस विवाह को लेकर कोई विवाद नहीं हुआ तो यह घटना इस तथ्य की परिचायक है कि इस तरह के सम्बंध आपत्तिजनक नहीं माने जाते थे। रावण मंदोदरी का विवाह सांस्कृतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण घटना थी। ऐसी अनेक ऐतिहासिक महत्व की घटनाओं पर अधिक चर्चा तथा शोध की आवश्यकता है। यह भी गहन अनुसंधान का विषय है कि रावण की अप्रतिम शिव भक्ति, शिव तांडव स्तुति का निरंतर पाठ, संस्कृत ज्ञान तथा शास्त्रों पर उसके पांडित्य का तत्कालीन समाज और संस्कृति पर क्या प्रभाव था?
ऋतु परिवर्तन का पर्व है बसन्त पंचमी
(22 जनवरी बसन्त पंचमी पर विशेष)
-रमेश सर्राफ धमोरा
भारत में पतझड़ ऋतु के बाद बसन्त ऋतु का आगमन होता है। हर तरफ रंग-बिरंगें फूल खिले दिखाई देते हैं। खेतों में पीली सरसों लहलहाती बहुत ही मदमस्त लगती है। इस समय गेहूं की बालियां भी पक कर लहराने लगती हैं। जिन्हें देखकर किसान बहुत हर्षित होते हैं। चारों ओर सुहाना मौसम मन को प्रसन्नता से भर देता है। इसीलिये वसंत ऋतु को सभी ऋतुओं का राजा अर्थात ऋतुराज कहा गया है। इस दिन भगवान विष्णु, कामदेव तथा रति की पूजा की जाती है। इस दिन ब्रह्माण्ड के रचयिता ब्रह्मा जी ने सरस्वती जी की रचना की थी। इसलिए इस दिन देवी सरस्वती की पूजा भी की जाती है।
बसन्त पंचमी एक प्रसिद्ध भारतीय त्योहार है। इस दिन विद्या की देवी सरस्वती की पूजा सम्पूर्ण भारत में बड़े उल्लास के साथ की जाती है। इस दिन स्त्रियां पीले वस्त्र धारण करती हैं। बसन्त पंचमी के पर्व से ही बसंत ऋतु का आगमन होता है। शांत, ठंडी, मंद वायु, कटु शीत का स्थान ले लेती है तथा सब को नवप्राण व उत्साह से स्पर्श करती है। यह विद्यार्थियों का भी दिन है, इस दिन विद्या की अधिष्ठात्री देवी मां सरस्वती की पूजा आराधना भी की जाती है। बसन्त ऋतु तथा पंचमी का अर्थ है- शुक्ल पक्ष का पांचवां दिन। अंग्रेजी कलेंडर के अनुसार यह पर्व जनवरी-फरवरी तथा हिन्दू तिथि के अनुसार माघ के महीने में मनाया जाता है।
बसन्त पंचमी का दिन भारतीय मौसम विज्ञान के अनुसार समशीतोष्ण वातावरण के प्रारंभ होने का संकेत है। मकर सक्रांति पर सूर्य नारायण के उत्तरायण प्रस्थान के बाद शरद ऋतु की समाप्ति होती है। हालांकि विश्व में बदले हुए मौसम ने अनेक प्रकार के गणित बिगाड़ दिये हैं पर सूर्य के अनुसार होने वाले परिवर्तनों का उस पर कोई प्रभाव नहीं है। हमारी संस्कृति के अनुसार पर्वों का विभाजन मौसम के अनुसार ही होता है। इन पर्वो पर मन में उत्पन्न होने वाला उत्साह स्वप्रेरित होता है। सर्दी के बाद गर्मी और उसके बाद बरसात फिर सर्दी का बदलता क्रम देह में बदलाव के साथ ही प्रसन्नता प्रदान करता है।
बसन्त उत्तर भारत तथा समीपवर्ती देशों की छह ऋतुओं में से एक ऋतु है, जो फरवरी मार्च और अप्रैल के मध्य इस क्षेत्र में अपना सौंदर्य बिखेरती है। ऐसा माना गया है कि माघ महीने की शुक्ल पंचमी से बसन्त ऋतु का आरंभ होता है। फाल्गुन और चैत्र मास बसन्त ऋतु के माने गए हैं। फाल्गुन वर्ष का अंतिम मास है और चैत्र पहला। इस प्रकार हिंदू पंचांग के वर्ष का अंत और प्रारंभ बसन्त में ही होता है। इस ऋतु के आने पर सर्दी कम हो जाती है। मौसम सुहावना हो जाता है। पेड़ों में नए पत्ते आने लगते हैं। खेत सरसों के फूलों से भरे पीले दिखाई देते हैं। अत: राग रंग और उत्सव मनाने के लिए यह ऋतु सर्वश्रेष्ठ मानी गई है और इसे ऋतुराज कहा गया है।
ग्रंथों के अनुसार देवी सरस्वती विद्या, बुद्धि और ज्ञान की देवी हैं। अमित तेजस्विनी व अनंत गुणशालिनी देवी सरस्वती की पूजा-आराधना के लिए माघमास की पंचमी तिथि निर्धारित की गयी है। बसन्त पंचमी को इनका आविर्भाव दिवस माना जाता है। ऋग्वेद में सरस्वती देवी के असीम प्रभाव व महिमा का वर्णन है। मां सरस्वती विद्या व ज्ञान की अधिष्ठात्री हैं। कहते हैं जिनकी जिव्हा पर सरस्वती देवी का वास होता है, वे अत्यंत ही विद्वान व कुशाग्र बुद्धि होते हैं। बहुत लोग अपना ईष्ट मां सरस्वती को मानकर उनकी पूजा-आराधना करते हैं। जिन पर सरस्वती की कृपा होती है, वे ज्ञानी और विद्या के धनी होते हैं।
बसन्त पंचमी का दिन सरस्वती जी की साधना को ही अर्पित है। शास्त्रों में भगवती सरस्वती की आराधना व्यक्तिगत रूप में करने का विधान है, किंतु आजकल सार्वजनिक पूजा-पाण्डालों में देवी सरस्वती की मूर्ति स्थापित कर पूजा करने का विधान चल निकला है। यह ज्ञान का त्योहार है, फलत: इस दिन प्राय: शिक्षण संस्थानों व विद्यालयों में विभिन्न कार्यक्रम होते है। विद्यार्थी पूजा स्थान को सजाने-संवारने का प्रबन्ध करते हैं। महोत्सव के कुछ सप्ताह पूर्व ही, विद्यालय विभिन्न प्रकार के वार्षिक समारोह मनाना प्रारम्भ कर देते हैं। संगीत, वाद- विवाद, खेल- कूद प्रतियोगिताएं एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। बसन्त पंचमी को सभी शुभ कार्यों के लिए अत्यंत शुभ मुहूर्त माना गया है। इसलिए प्राचीन काल से बसन्त पंचमी के दिन देवी सरस्वती की पूजा की जाती है अथवा कह सकते हैं कि इस दिन को सरस्वती के जन्म दिवस के रुप में मनाया जाता है। बसन्त पंचमी के दिन विद्यालयों में भी देवी सरस्वती की आराधना की जाती है। भारत के पूर्वी प्रांतों में घरों में भी विद्या की देवी सरस्वती की मूर्ति की स्थापना की जाती है और वसंत पंचमी के दिन उनकी पूजा की जाती है। उसके बाद अगले दिन मूर्ति को नदी में विसर्जित कर दिया जाता है।
पतंगोत्सव और पोगंल पर्व
14( जनवरी : मकर संक्रांति पर विशेष)
जया केतकी
कागज का मनमोहक टुकड़ा जब आकाश में लहराता है तो अनायास ही नजरें ठहर जाती हैं। सोचने को मजबूर कर देती हैं मन को, कि काष हम भी एक पतंग होते और यूँ ही आकाष की सैर करते। उड़ती, सरसराती, लहराती, इठलाती, सुंदर ,सजीली पतंगे, अनेक रंगों की आकर्षक पतंगे सभी को लुभाती हैं। रंगीन कागज का यह नन्हा सलोना आविष्कार कुछ लोगों के लिए समय की बर्बादी हो सकता है। लेकिन आशा और विश्वास की पतंग, आकांक्षा और संकल्प की पतंग तथा प्रेम और स्वप्न की भावुक पतंग हर युग उड़ती चली आ रही है। स्मृतियों की नाजुक डोर इसे कसकर थामे हुए है। स्मृतियों के विराट समुद्र में पतंग के बहाने बहुत कुछ आलोकित होता चला आ रहा है। पतंगमयी अतीत आज भी थरथराता हुआ कहता है उस दास्तान को जो किसी के सुख और किसी के दुख से भरी है। अपनी मुट्ठी में कसकर पकड़ रखा है। षायद इसी मुट्ठी और मीठी यादों में सिमटकर आकाश पर ऊँचा उठने के लिए बेकल हो जाती है। आशा की इस पतंग को उड़ान ऐसी संक्रांति लाएगी, आने वाले वर्षों में मीठे पर्व नए महत्तव और नई मासूमियत के साथ इस तरह मनाए जाएँगे कि पुरानी परंपरा का परचम भी शान से लहराएगा।
-दक्षिण भारत का पर्व पोंगल
संक्राति पर्व दक्षिण भारत में पोंगल के नाम से मनाया जाता है। पोंगल पर्व में वर्षा के देव इंद्र की पूजा की जाती है। जिससे भरपूर वर्ष हो और अच्छी फसल हो। यह पर्व `इंद्रान` भी कहलाता है। यह पर्व तीन दिन तक मनाया जाता है, चौथे दिन इसका समापन होता है। यह दक्षिणभारत का सबसे बड़ा त्यौहार है। इसका पहला दिन बोगी पोंगल कहलाता है। इसमें घर को अच्छी तरह साफ किया जाता हो। आगन में पानी सींचकर चावल के आटे से सुंदर रंगोली बनाई जाती है। कहीं-कहीं गाय के गोबर से बने कंडे में कद्दू का फूल सजाया जाता है। चावल, गन्ना और हल्दी के पौधे लाकर पूजा के लिए रखे जाते हो। रात्रि के समय आग जलाई जाती है। जिसमें घर का बेकार, अनुपयोगी लकड़ी प्रदि का सामान जला दिया जाता है। लड़कियां उस आग के इर्द-गिर्द नृत्य करती है।
दूसरा दिन सूर्या पोंगल कहलाता है। जिसमें सूर्य की पूजा की जाती है। दरवाजे के सामने सुबह ही रंगोली बनाई जाती है। इसे कोलम कहते हो। महिलाएं बड़ी दिलचस्पी से घंटों में इसे पूरा करती है। इस दिन दाल चावल को मिलाकर षक्कर डालकर, उफान आने तक उबाला जाता है। सी उफान को देखकर बच्चे पोंगल-पोंगल पुकारते हैं। सूर्य की पूजा करके पोंगल का भोग लगाया जाता है। इसी प्रकार के अन्य पकवान चावल से ही बनाएं जाते हैं। सामूहिक भोज आयोजित किये जाते हैं।
तीसरा दिन मत्ताू पोंगल कहलाता है। इस दिन गाय-बैलों को नहलाकर रंग लगाया जाता है। उनके सीगों को सजाया जाता है। गणेष और पार्वती की पूजा की जाती है। बैलों के सींगों में रूपये बांधकर छोड़ देते हैं और बड़े-बड़े पहलवान उनसे लड़कर रूपये खोलने का प्रयास करते हैं।
सब लोग रात में एक साथ मिलकर भोजन करते हैं। पोंगल पर्व का चौथे दिन समापन का होता है, इसे कनुम पोंगल कहते हैं। धरती पर जीवन के प्र्ातीक सूर्य की पूजा के बाद, सूर्य की प्रतिमा पर गन्ने के रस की बूंदे गिराई जाती है। रक्षा-बंधन और भाई-दूज की तरह बहने अपने भाइयों की सुख और समृद्धि की प्रार्थना करती हैं। इस दिन लोग एक दूसरे के घर जाकर शुभकामनाएं देते हैं।
संक्रांति-पर्व एक-रुप अनेक
भारत में पर्वो की लंबी श्रंखला है एक ही पर्व सारे देष में अलग-अलग नाम और तरीके से मनाया जाता है। मकर संक्रांति एक बड़ा त्यौहार है, जिसे सारे भारत में धूमधाम से मनाया जाता है। कोई इसे पतंगोत्सव कहता है, कोई लोहड़ी तो कोई पोंगल। महाराष्ट्र -तिल-गुड़ घ्या, गोड़-गोड़ बोला, कहते हुए, तिल के साथ गुड़ मिलाकर देना शुभ माना जाता है। संक्रांति के दिन हल्दी-कुम-कुम लगाकर महिलाएं एक दूसरे को को तिल-गुड़ देती हैं। इसका अर्थ है कि सभी पिछले बुरे अनुभव भूलकर प्रेम और सौहार्द्र से रहें। भोजन में तिल-गुड़ से बनी पूरणपोई विषेष पकवान के रुप में जरुर बनाई जाती है।
तमिलनाडु -तमिलनाडु में संक्रांति पोंगल नाम से प्रसिठ्ठ है। यह किसानों का सबसे बड़ा पर्व है। इस दिन मीठे-चावल तथा दाल-चावल और सब्जियां मिलाकर पुलाव बनाया जाता है। इस दिन सूर्य की पूजा की जाती है। सुबह से ब्रह्म मुहूर्त में स्नान कर स्त्रियां दरवाजें के सामने बड़ी सी रंगोली बनाती हैं और ऊगते सूर्य की पूजा करती हैं। इसे बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। गाय और बैल को नहलाकर रंगा औैर पूजा जाता है।
पंजाब – यहाँ मकर संक्रांति उत्सव लोहरी के नाम से जाना जाता है। संक्रांति से एक दिन पूर्व शाम को लकड़ी का बड़ा सा अलाव जलाया जाता है। उसके चारों ओर घूमकर परिवार के सदस्य और मित्र नृत्य करते हैं। गन्ना और रेवड़ी प्रसाद के रुप में बांटा जाता है। फिर सभी आग के इर्द-गिर्द बैठकर भोजन करते हैं।
उत्तारप्रदेश – यहां मकर संक्रांति का त्यौहार खिचड़ी के नाम से मनाया जाता है। इस दिन चावल के साथ हरी मूंगदाल मिलाकर खिचड़ी के रुप में बांटते हैं। तिल के लड्डू प्रमुख व्यंजन के रुप में बनाये जाते हैं। एक माह का विषाल मेला आयोजित किया जाता है। इस दौरान पवित्र गंगा-यमुना-सरयू के संगम में स्नान करना शुभ माना जाता है।
बंगाल -गंगा सागर मेले के प्रयोजन के साथ बंगाल में संक्रांति पर्व मनाया जाता है। हजारों -लाखों श्रद्धालु इस पवित्र पर्व पर गंगा सागर में स्नान कर अपने पाप धोते हैं तथा अपने पितरों के मोक्ष के लिए प्रार्थना करते हैं।
आंध््राप्रदेश -आंध्रप्रेदष में संक्राति का पर्व तीन दिन तक मनाया जाता है। पहले दिन-भोगी पोंगल, दूसरे दिन संक्रांति तथा तीसरे दिन कनुमा पोंगल कहलाता है। चौथे दिन पर्व का समापन मुक्कानुमा के रुप में किया जाता है। सुबह स्नान कर घर के प्रमुख द्वार पर रंगोली डालना, भजन गाना और शुभ माना जाता है। तेलगू में इसे पेडा-पेन्डुगा कहते हैं।
मध्यप्रदेश – मध्यप्रदेश में मकर संक्रांति पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। यहाँ सूर्य के उत्तरायण होने के कारण विषेष पूजा की जाती है। प्रात: स्नान एवं पूजा के बाद दान करना शुभ माना जाता है। दान में दाल-चावल, तिल के लड्डू तथा दक्षिणा का महत्व है। तिल लगाकर स्नान करना भी परंपरा है।
गुजरात -संक्रांति पर्व को गुजरात में सामाजिक त्यौहार के रुप में मनाया जाता है। यहां पर इस पर्व पर किया जाने वाले पतंगोत्सव विष्व विख्यात है। इस दिन उपहार देने का विषेष महत्व है। घर के बड़े-बूढ़े छोटों को उपहार देते हैं। पड़ोसी एवं मित्र भी एक दूसरे को उपहार देकर सद्भावना बढ़ाते हैं। गुजरात में छात्रवृत्तिा देकर विद्यार्थियों को उच्च षिक्षा के लिए भेजना इस पर्व की विषेषता है।
कर्नाटक -कर्नाटक में इलू नामक तिल-नारियल-शक्कर के मिश्रण को बांटकर पर्व का स्वागत किया जाता है। गन्ने का आदान-प्रदान भी शुभ माना जाता है। गाय-बैल को नहलाकर सजाते हैं और ढोल बजाकर गलियों में घूमायें जाते हैं। रात में आग जलाकर जानवरों को उसके ऊपर से कुदाया जाता है। इलू बांटा जाता है।
केरल -केरल में अयप्पा के पूजकों द्वारा चालीस दिवसीय पर्व मनाया जाता है। यह विषाल पर्व सबरीमाला में समाप्त होता है।
उड़ीसा -उड़ीसा के कुछ आदिवासी क्षेत्रों में संक्रांति का त्यौहार नववर्ष के रुप में मनाया जाता है। अलाव जलाकर नाच, गाकर पर्व का स्वागत किया जाता है। सब एक जगह एकत्रित होकर भोजन करते हो तथा हस्तकला की वस्तुओं का बाजार लगाया जाता है। आसाम -आसाम में संक्रांति पर्व भोगोली बिहू के नाम से जाना जाता है। ब्रह्म मुहूर्त में स्नानकर दान किया जाता है। सूर्य की पूजा कर पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता है। शाम को स्त्री-पुरुष एकत्रित होकर, आग जलाकर नृत्य करते हैं।
हिन्दू धर्म में दान की परंपरा विषिष्ट महत्व रखती है। ग्रीष्म ऋतु में जल दान, शीत ऋतु में घी दान और बरसात में वस्त्र दान का विषेष महत्व पुराणों में बताया गया है। सूर्य की दषा के आधार पर देवों का निषाकाल तथा प्रभातकाल परिभाषित किया गया है। पुराणों के अनुसार सूर्य दक्षिणायन होते हैं तब देवों का निषाकाल माना जाता है तथा जब सूर्य उत्तारायन होते हैं, तब देवों का प्रभातकाल होता है। सूर्य के उत्तारायन होने का पर्व मंकर संक्रांति के रुप में मनाया जाता है।
मकर संक्रांति के दिन गंगा स्नान की महिमा को महान बताया गया है। इस दिन गंगा स्नान करके, गंगा के तट पर ऊनी वस्त्रों तथा घी का दान करना शुभ माना जाता है। इस दिन जप, तप, अनुष्ठान किये जाते हैं। मकर संक्रांति के दिन किया गया दान सौ दानों के बराबर होता है। इस पर्व के दिन तिल के लड्डूू बनाकर दान किये जाते हैं, हरी मूंग की दाल तथा चावल मिलाकर दान करना और बनाकर खाना भी शुभ माना जाता है।
भारत के अलग-अलग प्रांतों में मकर संक्रांति का त्यौहार अलग ढंग से मनाया जाता है। भारत के पर्व सभ्यता और संस्कृति के प्रतीक है। ऐसी मान्यता है कि मकर संक्रांति के दिन सभी देव तथा देवियां मानव का रुप धरकर संगम में स्नान करने आते हैं। गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम पर स्नान कर वे नवीन प्रभात का स्वागत करते हैं। इसीलिए संगम पर स्नान करना इस दिन प्रति शुभ माना जाता है।गंगा के तट पर मेले का प्रयोजन किया जाता है। जिससे उत्सव का मजा दो गुना हो जाता है।
संक्रांति का ही एक रुप लोहड़ी
लोहड़ी पर्व, सूर्य और अग्नि की पूजा से जुड़ा हुआ है। ऐसी मान्यता है कि नवविवाहित वन-वधु लोहड़ी पर्व पर सूर्य पूजा करते हैं तो उनका जीवन खुषहाल रहता है। इसी प्रकार नवजात षिषु के स्वस्थ्य व प्रसन्न रहने के लिए उसके माता-पिता और परिवार के सदस्य सूर्य और अग्नि की पूजा करते हैं। पंजाब में ऐसी मान्यता है कि जिस परिवार में विवाह अथवा षिषु जन्म के पष्चात लोहड़ी मनाई जाती है वहां सुख और समृद्धि रहती है। अपनी सामर्थ्य के मुताबिक लोग भोज का आयोजन भी करते हैं। यहाँ पर्व बंसत की शुरूआत को दर्षाता है, जहाँ से शीत ऋतु की ठंडक में कमी आना आरंभ हो जाता है।
लोहड़ी पर्व संक्रांति का ही एक स्वरुप है। पंजाब कृषि प्रधान राज्य है, जहां खेती के कार्यों से संक्रांति के समय कुछ राहत मिलती है। उस अवकाष के समय को लोहड़ी के रुप में धूमधाम से मनाते हैं। प्रतिवर्ष लोहड़ी १३ जनवरी को मनाई जाती है। १३ जनवरी की रात में भाई-बंधु एवं मित्र एक स्थान पर एकत्रित होकर प्रग जलाते हो। उसके चारों ओर बैठकर गीत गाते हो। पंजाब का प्रसिद्ध नृत्य भांगड़ा ढोल बजाकर किया जाता है। पार्टी का सा माहौल तैयार किया जाता है। लोहड़ी भाईचारे का पर्व है, जिसके माध्यम से छोटे-बड़े, अमीर-गरीब का फर्क मिटाकर सब एक दूसरे से मिलते हो। एक ही स्थान पर बैठकर सरसों का साग और मक्के की रोटी तथा गुड़ खाते हो। गजक, लाई, मूंगफली, रेवड़ी मिलाकर प्रसाद बांटा जाता है। इसमें मक्के की लाई का ही प्रयोग किया जाता है। बच्चों के लिए यह पर्व दोहरी उत्सुकता लिये प्रता है। एक दिन पहले से बच्चे लोहड़ी का चंदा एकत्रित करते हो। उसी से लकड़ियां लाकर आग जलाते हो तथा प्रसाद बांटते हो। लोहड़ी पर्व सूर्य के मकर संक्रांति में प्रवेष पर मनाया जाता है। यह जीवन के प्रकास का पर्व है। सूर्य की पूजा से नई दुल्हन तथा नवजात षिषु को नये जीवन की अच्छी शुरुआत का आषीष दिया जाता है।
सतिगुरु मेरा सरब प्रतिपालै, सतिगुर मेरा मारि जीवालै
-श्री गुरु गोबिंदसिंघजी जयंती 25 दिसंबर पर विशेष
-माधवदास ममतानी
एक समय की बात है, दसम गुरु श्री गुरु गोबिंदसिंघ महाराज कमर में तलवार व हाथ में धनुष बाण लिए घोड़े पर सवार होकर अपनी पैदल सेना के साथ नहरन शहर में पहुंचे। जहां एक चबूतरे पर चढ़ने के लिए कुछ सीढ़ियां थीं। गुरुजी घोड़े समेत सीधे चबूतरे पर चढ़ गए। चबूतरे पर खड़े होकर नगर को देखने लगे। इतने में एक सेवक दौड़ता हुआ गुरुजी के पास आया कि एक कबूतर उसके पैरों के नीचे आकर मर गया। जिसे देखकर वहां बैठे कुछ लोगों ने गुस्से में आकर गुरुजी से कहा कि आपके सिख ने यह कैसा कार्य कर दिया, न कुछ देखा, न मन में दया आई और आपके सिख ने कबूतर को पैरों तले कुचल दिया ! गुरुजी ने फरमाया सेवक ने यह जान बूझकर तो नहीं किया, हर किसी को तो एक दिन जाना ही है। इस कबूतर की मृत्यु का योग इसी प्रकार था, बताओ लिखे योग को कौन टाल सकता है ? उन लोगों ने गुरुजी के उपर व्यंग करते हुए कहा कि वाह-वाह, आप जैसे सतपुरुष आएं तो सारे कबूतर मारे जाएंगे। गुरुजी ने फरमाया यदि आपके मन में ऐसा ही है तो ऐसा ही होगा। बाणी फरमाती है- ’जो बोले पूरा सतिगुरु सो परमेसरि सुणिआ।‘
गुरुजी के मुख से वचन निकलते ही सारे कबूतर मर कर गिर पड़े। पलक झपकते ही हजारों मृत कबूतरों का ढेर जमीन पर लग गया। यह कौतुक देखकर सभी लोग हैरान हो गए और कहने लगे ये महापुरुष बड़ी कला वाले हैं जिनके वचन मात्र से सारे कबूतर नाश हो गए! सचमुच ऐसे सतपुरुष जो कहें सो होता है। सारे लोग उठकर गुरुजी के चरणों में गिर पड़े और कहने लगे क्रिपा निधान कृपा कर हमारी भूल बख्शें, अज्ञानतावश हमें आपकी महिमा का बोध नहीं था। कृपया आप दया कर मृत कबूतरों को जीवनदान दें। आगे से हम ऐसी गल्ती नहीं करेंगे।
उनकी यह विनंती सुनकर कृपालु गुरुजी ने फरमाया इन कबूतरों के लिए दाने डालें और उन्हें खिलाएं। यह सुनकर चारों तरफ दाने डाल दिए गए। देखते ही देखते सभी कबूतर जीवित होकर दाना चुगने लगे। यह देख सभी हैरत में पड़ गए, बाकी एक कबूतर जो गुरुजी के शिष्य के पैरों के नीचे आकर मरा था वह जीवित नहीं हुआ। उसे देखकर लोगों ने कहा, गुरुजी आप इस कबूतर पर भी कृपा करें। गुरुजी के शिष्यों ने भी विनंती की कि गुरुजी इस कबूतर को भी जीवनदान दें। गुरुजी ने फरमाया कि इसके लिए भी दाने डालो। शिष्यों ने मोठ व बाजरा लाकर कबूतर के आगे डाला गुरुजी की कृपा से वह कबूतर भी उठकर दाना खाने लगा। जिसे देखकर सभी लोग बड़े प्रेम व श्रद्धा से माथा टेककर कहने लगे ’धन सतिगुरु, धन कलगियांवाले‘ जैसा आपका यश सुना था वैसे ही आपके दर्शन भी किए। गुरबाणी भी फरमाती है- सतिगुरु मेरा सरब प्रतिपालै, सतिगुर मेरा मारि जीवालै। अर्थात पूर्ण सतिगुरु सभी की प्रतिपालना करते हैं और वे मृत को जीवित करने में समर्थ हैं।
ऐसे महान पूर्ण गुरु कलगियांवाले श्री गुरु गोबिंदसिंघजी का जन्म पोह सुदी सप्तमी संवत 1723 को पटना शहर में हुआ, जिसकी इस वर्श समगणित अंग्रेजी तारीख 25 दिसंबर 2017 सोमवार को है, उनकी 351 वीं जयंती पर उनके पावन चरणों में शत: शत: नमन।
शुभ दिनों की शुरूआत
(देव उठनी एकादशी और तुलसी विवाहोत्सव 31 अक्टूबर पर विशेष)
– हरिप्रसाद पाल
श्रीमद् भगवतद् पुराण के अनुसार श्रीहरि विष्णु ही सृष्टि के आदिकर्ता हैं। इन्हीं की प्रेरणा से ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की और शिव जी संहार कर रहे हैं। स्वयं भगवान विष्णु चराचर जगत का पालन कर रहे हैं। विष्णु की प्रसन्नता के लिए ही एकादशी का व्रत किया जाता है। कार्तिक शुक्ल एकादशी इनमें अत्यंत उत्तम माना गया है देव उत्थान का तात्पर्य है देव का उठना या जगना। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार श्री विष्णु जो जगत के कल्याण हेतु विभिन्न रूप धारण करते हैं और दुराचारियों एवं धर्म के शत्रुओं का अंत करते हैं, शंखचूर नामक महाअसुर का अंत कर उसे यमपुरी भेज दिया। युद्ध करते हुए भगवान स्वयं काफी थक गये तो चार मास के लिए योगनिद्रा में चले गये। जिस दिन भगवान योग निद्रा में शयन के लिए गये उस दिन आषाढ़ शुक्ल एकादशी की तिथि थी उस दिन से लेकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक भगवान निद्रा में रहते हैं अतऱ मांगलिक कार्य इन चार मासों में नहीं होता है। कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन जब भगवान निद्रा से जगते हैं तो शुभ दिनों की शुरूआत होती है, अतऱ इसे देव उत्थान एकादशी कहते है। देवोत्थान एकादशी के दिन निर्जल व्रत किया जाता है। इस दिन स्नान करके भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए और भगवान विष्णु के विभिन्न अवतारों एवं उनकी महिमा का गुणगान करना चाहिए। इस दिन संध्या काल में शालिग्राम रूप में भगवान की पूजा करनी चाहिए। जब भगवान की पूजा हो जाए तब चरणामृत ग्रहण करने के बाद फलाहार करना चाहिए। व्रत करने वालों को द्वादशी के दिन सुबह ब्रह्मण को भोजन करवा कर जनेऊ, सुपारी एवं दक्षिण देकर विदा करना चाहिए फिर अन्न जल ग्रहण करना चाहिए। इस व्रत का परायण तुलसी के पत्ते से करने का विधान शास्त्रों में बताया गया है।
इस एकादशी के दिन तुलसी विवाहोत्सव भी मानाया जाता है इसके संदर्भ में कथा यह है कि जलंधर नामक असुर की पत्नी वृंदा पतिव्रता स्त्री थी। इसे आशीर्वाद प्राप्त था कि जब तक उसका पतिव्रत भंग नहीं होगा उसका पति जीवित रहेगा। जलंधर पत्नी के पतिव्रत के प्रभाव से विष्णु से कई वर्षों तक युद्ध करता रहा लेकिन पराजित नहीं हुआ तब भगवान विष्णु जलंधर का वेश धारण कर वृंदा के पास गये जिसे वृंदा पहचान न सकी और उसका पतिव्रत भंग हो गया। वृंदा के पतिव्रत भंग होने पर जलंधर मारा गया। वृंदा को जब सत्य का पता चल गया कि विष्णु ने उनके साथ धोखा किया है तो उन्होंने विष्णु को श्राप दिया कि आप पत्थर का बन जाओ।
वृंदा के श्राप से विष्णु शालिग्राम के रूप में परिवर्तित हो गये। उसी समय भगवान श्री हरि वहां प्रकट हुए और कहा आपका शरीर गंडक नदी के रूप में होगा व केश तुलसी के रूप में पूजा जाएगा। आप सदा मेरे सिर पर शोभायमान रहेंगी व लक्ष्मी की भांति मेरे लिए प्रिय रहेंगी आपको विष्णुप्रिया के नाम से भी जाना जाएगा। उस दिन से मान्यता है कि कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन भगवान शालिग्राम और तुलसी का विवाह करवाने से कन्यादान का फल मिलता है और व्यक्ति को विष्णु भगवान की प्रसन्नता प्राप्त होती है। पद्म पुराण में तुलसी विवाह के विषय में काफी विस्तार से बताया गया है।
देवोत्थान एकादशी के दिन भीष्म पंचक व्रत भी आरम्भ किया जाता है। इस व्रत के विषय में कहा गया है कि भीष्म जब शेष शैय्या पर लेटे हुए सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतिक्षा कर रहे थे तब इसी तिथि को भगवान श्रीकृष्ण युधिष्ठिर सहित पांचों पांडवो को भीष्म के पास ले गये थे और उनसे राज धर्म, वर्ण धर्म एवं मोक्ष धर्म का ज्ञान देने के लिए कहा था। भीष्म पितामह ने एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक पांडवों को उपदेश दिया था। उपदेश समाप्त होने पर श्रीकृष्ण ने इन पांच दिनों को व्रत के रूप में मान्यता दी। इस व्रत में चार द्वारा वाला एक मण्डप बनाया जाता है। मंडप को गाय को गोबर से लीप कर मध्य में एक वेदी का निर्माण किया जाता है। वेदी पर तिल रखकर कलश स्थापित किया जाता है। इसके बाद भगवान वासुदेव की पूजा की जाती है। इस व्रत में एकादशी से लेकर पूर्णिमा तिथि तक घी के दीपक जलाए जाते हैं। इसमें व्रत करने वाले को पांच दिनों तक संयम एवं सात्विकता का पालन करते हुए यज्ञादि कर्म करना करना चाहिए। इसे श्रीकृष्ण से सभी प्रकार के पापों से मुक्त करने वाला बताया है। तीनों ही रूप में देखा जाय तो कार्तिक शुक्ल एकादशी की बडी ही मान्यता है।
काया परिवर्तन की घटनायें
– हर्षवर्धन पाठक
प्राचीन युग में योग विद्या का अतुलनीय प्रचार-प्रसार था। प्राचीन ग्रंथों मेंयह वर्णन मिलता है कि अनेक पौराणिक चरित्रों ने भिन्न-भिन्न कारणों तथा परिस्थितियों में योग का आश्रय लेकर काया परिवर्तन किया था। इस कारण पौराणिक चरित्रों , सीता , द्रोपदी, राधा आदि में अनेक समानतायें हैं। ऐसा धर्मग्रंथ विवरण देते है कि सीता, द्रोपदी, तथा राधा तीनों पौराणिक चरित्रों का काया परिवर्तन हुआ । हनुमान, ययाति अर्जुन आदि ने भी काया परिवर्तन किया था। सीता के काया परिवर्तन के सम्बन्ध में यह कथा अनेक ग्रंथों में मिलती है कि उन्होंने अपने पति श्रीराम के कहने पर कुछ समय के लिए अपना वास्तविक तन छोड़ दिया था। रावण ने उनके छाया-तन का अपहरण किया था। द्रोपदी के संबंध में यह बताया जाता है कि उनका जन्म यज्ञ की अग्नि से हुआ। द्रोपदी के पिता राजा द्रुपद ने ऐसी कन्या चाही थी जिसका विवाह अर्जुन से हो । इस कारण द्रोपदी अग्नि से उत्पन्न हुई। राधा का जन्म कमल के फूल से हुआ था तथा बाद में एक श्राप के कारण उनका काया परिवर्तन करना पड़ा। कथा इस प्रकार है कि वनवास के अंतिम चरण में श्रीराम ने सीता से यह कहा कि वे अब राक्षसों के संहार का कार्य प्रारंभ करने जा रहे है, अत: कुछ समय के लिए वे अपना वर्तमान रूप त्याग दें तथा लुप्त हो जाएं। श्रीराम की इच्छा के अनुसार सीताजी ने अग्नि प्रवेश कर लिया। अग्नि प्रवेश के बाद उनका छाया रूप (डुप्लीकेट बाडी ) अग्नि से निकली। उनका वास्तविक रूप अग्नि में छुपा रहा। रावण ने सीता के इसी छाया तन का अपहरण किया था। रावण के वध के बाद श्रीराम ने सीता की पुन:वापसी के लिये अग्नि परीक्षा नामक कार्य किया था । इस बार सीता के छाया तन ने अग्नि में प्रवेश किया और अग्नि ने श्रीराम को वास्तविक सीता लौटा दी। गोस्वामी तुलसीदास ने राम चरितमानस के अरण्यकांड में 24 वें दोहे की चौपाइयों में इस प्रसंग का वर्णन इस प्रकार किया है- सुनहू पिया ब्रंत रूचिर सुसीला। मैं कुछ करबि ललित नर लीला।। तुम पावक मंह करहु निवासा। जौं लगि करौं निसाचर नासा।। जबहिं राम सब कहा बखानी। प्रभु पद धरि हियं अनल समानी ।। निज प्रतिविम्ब राखि तंह सीता । तैसई सील रूप सुविनीता।। राधा का काया परिवर्तन एक अन्य कारण से हुआ था। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार इस जन्म के पूर्व देवलोक में श्रीदामा नामक एक देवता ने राधा को श्राप दिया कि वे मानव योनि में जन्म लेगी और उनका किसी अन्य पुरूष से विवाह होगा। इस प्रकार उनका श्रीहरि (विष्णु) से वियोग होगा। यह बताया जाता है कि देवलोक में जब श्री राधा श्रीहरि से मिलने जा रही थी तब श्रीदामा ने राधा को रोका था और कहा था कि इस समय श्रीहरि अन्य देवी-देवताओं से चर्चा कर रहे हैं अत: वे (राधा) अभी न जावें। राधा ने इसे अपना अपमान समझा और श्रीदामा को असुरयोनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया। इसके प्रत्युत्तर में श्रीदामा ने यह श्राप दिया कि राधा को मानव योनि में जन्म लेना होगा और वे जिस श्रीहरि से मिलने जा रही है, उनसे उनका वियोग हो जाएगा। इस वाद-विवाद के बाद श्रीहरि ने मध्यस्थता की। उन्होंने कहा कि राधा के श्राप के कारण श्रीदामा को असुर योनि में जाना पड़ेगा। इस जन्म के दौरान उसका नाम शंखचूड़ होगा और उसका वध वे स्वयं करेंगे। इसी प्रकार उन्होंने राधा को यह आश्वस्त किया कि श्रीदामा के श्राप के कारण उनको मानव तन धारण तो करना होगा और उनका किसी अन्य पुरूष से विवाह भी होगा, परंतु यह विवाह स्वयं राधा का नहीं होगा और उनके छाया तन का अन्य पुरूष से संयोग होगा। राधा वास्तविक रूप में किसी अन्य पुरूष से विवाह नहीं करेंगी अपितु वे सदैव श्रीहरि के पास ही रहेंगी। श्रीदामा के इसी श्राप के कारण राधा का वृषभानु के यहां जन्म हुआ। कंस के दबाव के कारण उनके पिता वृषभानु ने जब राधा का विवाह रायाण नामक वैश्य युवक से करने का निश्चय अनिच्छापूर्वक लिया तब राधा ने अपना तन छोड़ दिया। अपना यह छाया तन उन्होंने अपनी एक सखी वृंदा को दिया तथा वृंदा ने ही राधा के नाम से रायाण से विवाह किया। रायाण की मृत्यु के पश्चात राधा अपने वास्तविक रूप में आ गई और उनका श्रीकृष्ण से पुनर्मिलन हुआ। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार श्रीकृष्ण के वृंदावन से मथुरा जाने से लेकर महाभारत युद्ध के समय तक राधा ने यह काया परिवर्तन किया। महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद ही श्रीकृष्ण-राधा का पुनर्मिलन हुआ। वैसे एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार बृज क्षेत्र के आभीर वन में स्वयं ब्रह्मा ने राधा-कृष्ण का विवाह करवाया था । ब्रह्मा ने पुरोहित का दायित्व निबाहा। इस कारण राधा ने रायाण या अन्य किसी युवक से विवाह नहीं किया क्योंकि उनका विवाह पहले हो चुका था। काया कल्प या काया परिवर्तन की अनेक कथायें प्राचीन ग्रंथों में मिलती है। योग-विद्या में पारंगत व्यक्ति काया परिवर्तन कर सकते हैं ऐसा कहा जाता है। यदि पौराणिक संदर्भों, प्रचलित लोक विश्वास तथा प्राचीन कथाओं के आधार पर इस घटनाक्रम का विश्लेषण करें तो यह अस्वाभाविक या नई बात नहीं लगती है। भोग-विलास से अतृप्त राजा ययाति द्वारा अपने छोटे पुत्र पुरू का यौवन लेना और अपनी वृद्धावस्था उसको देना, अज्ञातवास के दौरान कुंतीपुत्र अर्जुन द्वारा एक वर्ष के लिये वृहन्नला का रूप धारण कर राजा विराट के यहां रहना, राजा दुपद की कन्या द्वारा शिखंडी नाम से पुरूष तन प्राप्त करना, हनुमान द्वारा सीता जी की खोज के दौरान अनेक बार रूप परिवर्तन करना आदि अनेक प्रसंग इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि यौगिक क्रियाओं द्वारा काया कल्प, काया परिवर्तन या पर काया प्रवेश आदि घटनायें पौराणिक काल में बहुत बार होती रही है। अत: पिता द्वारा चयनित वर से विवाह के लिये अनिच्छुक राधा द्वारा कुछ समय के लिये काया परिवर्तन और पिता के द्वारा चयनित वर-रायाण से विवाह के लिए अपनी किसी सखी को तैयार कर विवाह मंडप में उसे राधा नाम से भेजने का प्रसंग अस्वाभाविक नहीं लगता है। रायाण की मृत्यु के बाद वे अपने वास्तविक रूप में लौट आई। यह कथा उसी प्रकार की है जैसे रावण वध के बाद सीता द्वारा अपने वास्तविक रूप में लौटना । वैसे एक कथा सीता तथा राधा को लेकर कही जाती है। वृंदावन के विख्यात संत अखंडानन्द सरस्वती ने इस कथा का उल्लेख किया है। उनके एक ग्रंथ वाल्मीकि रामायण में किया है। कथा यह है कि भवगान राम जब अश्वमेघ यज्ञ के लिये यजमान के रूप में यज्ञ स्थल पर बैठे तब उनके सीता की स्वर्ण प्रतिमा बिठाई गई थी। यह विश्वास तथा प्रथा थी कि यदि किसी व्यक्ति की पत्नी जीवित हो तो यज्ञ के लिए उसे सपत्नीक बैठना चाहिए। यह शास्त्रों में भी कहा गया है कि धर्म-कर्म, पूजा-विधान में व्यक्ति को सपत्नीक बैठना चाहिए। विवाह के समय, सप्तपदी के दौरान वर द्वारा वधु को यह वचन भी दिया जाता है कि यज्ञ आदि देव आराधना के समय वह पत्नी को साथ में रखेगा। अत: इस धार्मिक मान्यता तथा मान्य परंपरा के अनुसार श्रीराम ने सीता की स्वर्ण प्रतिमा के साथ यज्ञ में भाग लिया। उस समय वे एक धोबी द्वारा उठाये गये लोकापवाद के कारण सीता को वन भेज चुके थे। अत: स्वयं सीता को साथ में नहीं बैठा सकते थे। यह कहा जाता है कि यज्ञ तथा पूजा के कारण सीता की उस स्वर्ण प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठा हो गई थी । यज्ञ के बाद उस स्वर्ण प्रतिमा के जब विसर्जन का प्रश्न आया तो वह स्वर्ण प्रतिमा ने आपत्ति की कि वह अब सजीव है, उसमें प्राण है और वह श्रीराम की पत्नी के रूप में यज्ञ में बैठने के कारण श्रीराम की पत्नी बन चुकी है । अत: उसका विसर्जन किया जाना अनुचित होता । चूंकि श्रीराम एक पत्नीव्रती थे और वह उनके दूसरे विवाह का प्रश्न उपस्थित नहीं होता क्योंकि स्वयं सीता जीवित भी थी अत: श्रीराम ने उस स्वर्ण प्रतिमा को यह वचन दिया के वे अगले जन्म में अर्थात श्रीकृष्णावतार के समय उसे पत्नी रूप में स्वीकार करेंगे। इसी कारण श्रीराम ने कृष्ण रूप में जन्म के sसमय राधा के रूप में इस स्वर्ण प्रतिमा को स्वीकार किया। लेकिन, उस स्वर्ण प्रतिमा के साथ उनका कभी पत्नी रूप में सम्बन्ध इसलिए नहीं रहा क्योंकि वह स्वर्ण प्रतिमा प्राणवान थी परंतु उसके धातु निर्मित होने के कारण उसमें सम्बन्धों की सीमायें थीं। इसी कारण यह विश्वास किया जाता है कि श्रीकृष्ण की राधा के साथ भावात्मक सम्बन्ध तो था परंतु लौकिक नहीं । यह कथा वाल्मीकि रामायण और तुलसी रामायण में नहीं है, लेकिन कुछ अन्य राम कथाओं में मिलती हैं।
सूर्य आराधना का पर्व है छठ पूजा
-रमेश सर्राफ
हिंदुओं के सबसे बड़े पर्व दीपावली को पर्वों की माला माना जाता है। पांच दिन तक चलने वाला ये पर्व सिर्फ भैयादूज तक ही सीमित नही है। बल्कि यह पर्व छठ पर्व तक चलता है। उत्तर प्रदेश और खासकर बिहार में मनाया जाने वाला ये पर्व बेहद अहम पर्व है। जो पूरे देश में धूम-धाम से मनाया जाता है। छठ पर्व केवल एक पर्व नहीं है बल्कि महापर्व है जो कुल चार दिन तक चलता है। नहाय खास से लेकर उगते हुए भगवान सूर्य को अर्घ्य देने तक चलने वाले इस पर्व का अपना एक ऐतिहासिक महत्व है।
छठ पर्व को किसने शुरू किया इसके पीछे कई ऐतिहासिक कहानियां प्रचलित हैं। पौराणिक कथाओं के मुताबिक जब राम-सीता 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे तो रावण वध के पाप से मुक्त होने के लिए उन्होंने ऋषि-मुनियों के आदेश पर राजसूर्य यज्ञ करने का फैसला लिया। पूजा के लिए उन्होंने मुग्दल ऋषि को आमंत्रित किया । मुग्दल ऋषि ने मां सीता पर गंगा जल छिडक़ कर पवित्र किया और कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्यदेव की उपासना करने का आदेश दिया। जिसे सीता जी ने मुग्दल ऋषि के आश्रम में रहकर छह दिनों तक सूर्यदेव भगवान की पूजा की थी।
छठ सूर्य की उपासना का पर्व है । भारत में सूर्य पूजा की परम्परा वैदिक काल से ही रही है । लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की और सप्तमी को सूर्योदय के समय अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशिर्वाद प्राप्त किया। इसी के उपलक्ष्य में छठ पूजा की जाती है। ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत सूर्य है । इस कारण हिन्दू शास्त्रों में सूर्य को भगवान मानते हैं । सूर्य के बिना कुछ दिन रहने की जरा कल्पना कीजिए । इनका जीवन के लिए इनका रोज उदित होना जरूरी है । कुछ इसी तरह की परिकल्पना के साथ पूर्वोत्तर भारत के लोग छठ महोत्सव के रूप में इनकी आराधना करते हैं । हमारे देश में सूर्य उपासना के कई प्रसिद्ध लोकपर्व हैं जो अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग रीति-रिवाजों के साथ मनाए जाते हैं। सूर्य षष्ठी के महत्व को देखते हुए इस पर्व को सूर्यछठ या डाला छठ के नाम से संबोधित किया जाता है। इस पर्व को बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और नेपाल की तराई समेत देश के उन तमाम महानगरों में मनाया जाता है, जहां-जहां इन प्रांतों के लोग निवास करते हैं। यही नहीं, मॉरिशस, त्रिनिडाड, सुमात्रा, जावा समेत कई अन्य विदेशी द्वीपों में भी भारतीय मूल के प्रवासी छठ पर्व को बड़ी आस्था और धूमधाम से मनाते हैं। डूबते सूर्य की विशेष पूजा ही छठ का पर्व है! चढ़ते सूरज को सभी प्रणाम करते हैं।
छठ पर्व की परम्परा में बहुत ही वैज्ञानिक और ज्योतिषीय महत्व भी छिपा हुआ है। षष्ठी तिथि एक विशेष खगोलीय अवसर है, जिस समय धरती के दक्षिणी गोलार्ध में सूर्य रहता है और दक्षिणायन के सूर्य की अल्ट्रावॉइलट किरणें धरती पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाती हैं क्योकि इस दौरान सूर्य अपनी नीच राशि तुला में होता है। इन दूषित किरणों का सीधा प्रभाव जनसाधारण की आंखों, पेट, त्वचा आदि पर पड़ता है। इस पर्व के पालन से सूर्य प्रकाश की इन पराबैंगनी किरणों से जनसाधारण को हानि न पहुंचे, इस अभिप्राय से सूर्य पूजा का गूढ़ रहस्य छिपा हुआ है। इसके साथ ही घर-परिवार की सुख- समृद्धि और आरोग्यता से भी छठ पूजा का व्रत जुड़ा हुआ है। इस व्रत का मुख्य उद्देश्य पति, पत्नी, पुत्र, पौत्र सहित सभी परिजनों के लिए मंगल कामना से भी जुड़ा हुआ है।
छठ पर्व की सांस्कृतिक परम्परा में चार दिन का व्रत रखा जाता है। यह व्रत भैया दूज के तीसरे दिन यानि शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि से आरंभ हो जाते है। व्रत के पहले दिन को नहा-खा कहते हैं। जिसका शाब्दिक अर्थ है स्नान के बाद खाना। इस दिन पवित्र नदी गंगा में श्रद्धालु स्नान करते हैं। वैसे तो यह पर्व मूल रूप से गृहिणियों द्वारा मनाया जाता है, लेकिन आजकल पुरुष भी इसमें समान रूप से सहयोग देते हैं।
छठ का पौराणिक महत्व अनादिकाल से बना हुआ है। रामायण काल में सीता ने गंगा तट पर छठ पूजा की थी। महाभारत काल में कुंती ने भी सरस्वती नदी के तट पर सूर्य पूजा की थी। इसके परिणाम स्वरूप उन्हें पांडवों जैसे विख्यात पुत्रों का सुख मिला था। इसके उपरांत द्रौपदी ने भी हस्तिनापुर से निकलकर गढग़ंगा में छठ पूजा की थी। छठ पूजा का सम्बंध हठयोग से भी है। जिसमें बिना भोजन ग्रहण किए हुए लगातार पानी में खड़ा रहना पड़ता है, जिससे शरीर के अशुद्ध जीवाणु परास्त हो जाते हैं।
एक मान्यता के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। जिसकी शुरुआत सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्य की पूजा करके की थी। कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे और वो रोज घंटों कमर तक पानी में खड़ेे होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बने। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही परंपरा प्रचलित है। छठ पर्व के बारे मंन एक कथा और भी है। इस कथा के मुताबिक जब पांडव अपना सारा राजपाठ जुए में हार गए तब दौपदी ने छठ व्रत रखा था। इस व्रत से उनकी मनोकामना पूरी हुई थी और पांडवों को अपना राजपाठ वापस मिल गया था। लोक परंपरा के मुताबिक सूर्य देव और छठी मईया का संबंध भाई-बहन का है। इसलिए छठ के मौके पर सूर्य की आराधना फलदायी मानी गई। छठ पूजा अथवा छठ पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाता है। छठ से जुड़ी पौराणिक मान्यताओं और लोक गाथाओं पर गौर करें तो पता चलता है कि भारत के आदिकालीन सूर्यवंशी भरत राजाओं का यह मुख्य पर्व था। मगध और आनर्त के राजनीतिक इतिहास के साथ भी छठ की ऐतिहासिक कडिय़ां जुड़ती हैं।
इस सम्बंध में मान्यता है कि मगध सम्राट जरासंध के एक पूर्वज का कुष्ठ रोग दूर करने के लिए शाकलद्वीपीय मग ब्राह्मणों ने सूर्योपासना की थी। तभी से छठ पर सूर्योपासना का प्रचलन प्रारंभ हुआ। छठ के साथ आनर्त प्रदेश के सूर्यवंशी राजा शर्याति और भार्गव ऋषि च्यवन का भी ऐतिहासिक कथानक जुड़ा है। कहते हैं कि राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या ने कार्तिक की षष्ठी को सूर्य की उपासना की तो च्यवन ऋषि के आंखों की ज्योति वापस आ गई। छठ के साथ स्कंद पूजा की भी परंपरा जुड़ी है। भगवान शिव के तेज से उत्पन्न बालक स्कंद की छह कृतिकाओं ने स्तनपान करा रक्षा की थी। इसी कारण स्कंद के छह मुख हैं और उन्हें कार्तिकेय नाम से पुकारा जाने लगा। कार्तिक से संबंध होने के कारण षष्ठी देवी को स्कंद की पत्नी ‘देवसेना’ नाम से भी पूजा जाने लगा।
षष्ठी देवी के पूजन का विधान पृथ्वी पर कब हुआ, इस संदर्भ में पुराण में एक कथा संदर्भित है। कथा के अनुसार प्रथम मनु स्वायम्भुव के पुत्र प्रियव्रत के कोई संतान न थी। एक बार महाराज ने महर्षि कश्यप से दुख व्यक्त कर पुत्र प्राप्ति का उपाय पूछा। महर्षि ने पुत्रेष्टि यज्ञ का परामर्श दिया। यज्ञ के फलस्वरूप महारानी को पुत्र जन्म हुआ, किंतु वह शिशु मृत था। पूरे नगर में शोक व्याप्त हो गया। महाराज शिशु के मृत शरीर को अपने वक्ष से लगाए प्रलाप कर रहे थे। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। सभी ने देखा आकाश से एक विमान पृथ्वी पर आ रहा है जिसमें एक ज्योर्तिमय दिव्याकृति नारी बैठी हुई थी। राजा द्वारा स्तुति करने पर देवी ने कहा- मैं ब्रह्मा की मानस पुत्री षष्ठी देवी हूं। मैं विश्व के समस्त बालकों की रक्षिका हूं और अपुत्रों को पुत्र प्रदान करती हूं। देवी ने शिशु के मृत शरीर का स्पर्श किया। वह बालक जीवित हो उठा। महाराज के प्रसन्नता की सीमा न रही। वे अनेक प्रकार से षष्ठी देवी की स्तुति करने लगे। राज्य में प्रति मास के शुक्लपक्ष की षष्ठी को षष्ठी-महोत्सव के रूप में मनाए जाने की राजा ने ऐसी घोषणा कराई। तभी से परिवार बालकों से संबंधित नामकरण, अन्नप्राशन जैसे संस्कारों में षष्ठी पूजन प्रचलन प्रारंभ हुआ।
लोक आस्था के महापर्व छठ का हिंदू धर्म में अलग महत्व है। यह एकमात्र ऐसा पर्व है जिसमें ना केवल उदयाचल सूर्य की पूजा की जाती है बल्कि अस्ताचलगामी सूर्य को भी पूजा जाता है। हिंदुओं के लिए क्यों महत्वपूर्ण हैं। सूर्य को अर्घ्य देने का मतलब, महत्व और लाभ आइये जानते हैं खास बातें सूर्य उपासना का यह पर्व कार्तिक महीने की चतुर्थी से सप्तमी तिथि तक मनाया जाता है। सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे छठ कहा जाता है। मान्यता है कि छठ देवी सूर्य देव की बहन हैं और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए भगवान सूर्य की अराधना की जाती है। पर्व का प्रारंभ नहाय-खाय से होता है, जिस दिन व्रती स्नान कर अरवा चावल, चना दाल और कद्दू की सब्जी का भोजन करते हैं। नहाय-खाय के दूसरे दिन यानी कार्तिक शुक्ल पक्ष पंचमी के दिनभर व्रती उपवास कर शाम में रोटी और गुड़ से बनी खीर का प्रसाद ग्रहण करते हैं। इस पूजा को खरना कहा जाता है। इसके अगले दिन कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी तिथि को उपवास रखकर शाम को अस्ताचलगामी सूर्य को अघ्र्य दिया जाता है। इसके अगले दिन यानी सप्तमी तिथि को सुबह उदीयमान सूर्य को अघ्र्य अर्पित करके व्रत तोड़ा जाता है।
छठ पूजा के व्रत को जो भी रखता है। वह इन दिनों में जल भी नही ग्रहण करता है। इस व्रत को करने से सुख-समृद्धि और सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है। इस पूजा वैसे तो मुख्य रुप से सू्र्य देवता की पूजा की जाती है, लेकिन साथ ही सूर्य देव की बहन छठ देवी की भी पूजा की जाती है। जिसके कारण इस पूजा का नाम छठ पूजा पड़ा। इस दिन नदी के तट में पहुंचकर पुरुष और महिलाएं पूजा-पाठ करते है। साथ ही छठ माता की पूजा को आपके संतान के लिए भी कल्याणकारी होती है।
सद्भावना, आस्था एवं श्रद्धा का प्रतीक है छठ व्रत !
-छठ व्रत पर विशेष
-भरत मिश्र प्राची
देश – विदेश के हर भाग में आज श्रद्धा एवं विश्वास के साथ मनाये जाने वाला महान पर्व छठ सूर्योपासना सुख – शांति, आपसी भाईचारा एवं सद्भावना का प्रतीक बन चुका है। आज सूर्य ही प्रत्यक्ष देवता के रूप में सभी के समने विराजमान है, जो कालजयी एवं उर्जावान है। जिन्हें उपनिषद में ब्रम्हा, विष्णु, व महेश का स्वरुप बताया गया है। जिनकी उपासना से प्राणी हर कष्ट से मुक्त हो जाता है। वेद पुराण में सूर्य उपासना को प्रमुख बताया गया है। इसी तेजवान सूर्य की उपासना सुख शांति पुत्र प्राप्ति के लिये वर्षों से कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष के शष्ठी तिथि को प्रति वर्ष छठ व्रत के रूप में श्रद्धा एवं विश्वास के साथ नदी, तालाब के किनारे देश के हर भाग में किये जाने की परम्परा अनवरत चालू है।
कोई आता है नही उजड़े चमन, उगते सूरज को सभी करते नमन ! दुनियां का यह चलन है कि सभी उगते सूर्य को ही नमस्कार करते है पर विश्व की यह पहली अराधना छठ महापर्व है जहां डूबते हुए सूर्य की भी पूजा की जाती है। यह पूजा बिहार एवं उत्तर प्रदेश अंचल से शुरू होकर आज विश्व के अनेक देश में श्रद्धा के साथ की जा रही है। दीपावली से छठे दिन शष्ठी तिथि को होने वाली यह पूजा डूबते सूर्य के अर्घ के साथ शुरू होकर दूसरे दिन सप्तमी तिथि को उगते हुए सूर्य को अर्घ देने के साथ समाप्त हो जाती है। इस पूजा में पवित्रता का सबसे ज्यादा ध्यान रखा जाता है। इस पूजा में व्रत करने वाला व्रती व्रत का प्रराम्भ पूजा से दो दिन पूर्व खरना से ही शुरू कर देता है। व्रत के दिन व्रती दिन व रात बिना आहार एवं जल ग्रहण किये इस ब्रत को करता है। इस ब्रत को प्राय: महिलाएं ही ज्यादा करती है। इस व्रत में प्रसाद के रूप में सभी प्रकार के मौसमी फल, मीठे पाकवान के साथ गन्ना का विशेष रूप से प्रयोग किया ताजा है। यह व्रत प्राय: नदी , तालाब या जलाशय के किनारे किया जाता है।
दीपावली के बाद बिहार एवं उत्तर प्रदेश में विशेष रूप से मनाये जाने वाला आस्था एवं श्रद्धा का प्रतीक प्रसिद्ध धार्मिक अनुष्ठान छठ व्रत का शुभारम्भ देश – विदेश के हर प्रांगण में हो चुका है। इस वर्श यह व्रत 26 अक्टूबर की संध्याकालीन पूजन के साथ शुरु होकर 27 अक्टूबर को प्रात:कालीन पूजन के उपरान्त समाप्त हो जायेगा। विश्व के सभी लोग प्राय: उगते सूर्य की ही पूजा करते है, परन्तु आस्था एवं विश्वास से जुडे इस छठ व्रत के अवसर पर डूबते सूर्य की भी पूजा की जाती है। प्राचीन काल से ही इस व्रत का प्रावधान चला आ रहा है। इस व्रत में सूर्य की पूजा की जाती है। व्रत करने वाला बिना अन्न जल ग्रहण किये इस व्रत को पूरा करता है। इस व्रत में प्रसाद रुप में हर प्रकार के मौसमी फल, मीठे पाकवान, सहित अन्य प्रकार के श्रद्धानुसार सामग्री शामिल की जाती है। यह पूजा नदी, पोखरा जहां जल की मात्रा प्रचूर होती है, के किनारे की जाती है। इस व्रत में जल में खड़े होकर ही उगते एवं डूबते सूर्य को जल ,दूध के साथ अर्घ्य दिया जाता है।
इस व्रत को प्राचीन काल से ही नाग, किन्नर, मानव में करने के प्रमाण मिलते है। संकट काल में द्वापर युग में दौपदी द्वारा इस व्रत को करने एवं पांडवों को अपना राज्य मिलने की भी बात प्रमुख रही है। यह व्रत बिहार ,उत्तर प्रदेश एवं झारखंड के हर परिवार में श्रद्धा के साथ प्रति वर्ष मनाया जाता है। इस प्रांत के निवासी देश, विदेश जहां भी रहते है, श्रद्धा के साथ वही इस व्रत को करते है। इसी करण यह व्रत आज अंतर्राष्ट्रीय रुप ले चुका है। देश का हर कोना कोना आज इस व्रत की गूंज से गुंजयमान तो हो ही रहा है, देश के हर प्रांत के साथ – साथ विदेश के मारिशश, फीजी, सूरीनामी आदि देशों में भी इस छठ व्रत की धूम मची हुई है। मीडिया की सराहनीय भूमिका के चलते आज इसकी झलक हर जगह देखने को मिल रही है।
शष्ठी तिथि को अस्थाचल होते हुए सूर्य को प्रथम अर्घ्य इस कामना एवं विश्वास के साथ कि उदय के समय हमारी झोली खुशियों से सूर्य देव की असीम कृपा से सदा के लिये भर जायेगी , दूसरे दिन उगते सूर्य को अर्घ्य देकर व्रत की समाप्ति होती है। इस अवसर पर घाट का दृष्य अति मनोरम होता है। ईख एवं सभी प्रकार के मौसमी फलों से अच्छादित वातावरण हर किसी को अपनी ओर खींच लेता है।
इस व्रत की महिमा अपरम्पार है। जिस किसी ने भी इस व्रत को विश्वास एवं श्रद्धा के साथ किया है। उसकी हर मनोकामना पूर्ण हुई है। पुत्र, यश , धन प्राप्ति के लिये किये इस व्रत के परिणाम सदैव ही सकरात्मक रहे है। तभी इस व्रत को करने वालों की संख्या में निरंतर वृद्धि ही होती जा रही है। आज यह व्रत केवल बिहार, झारखंड प्रांत का ही नहीं होकर पूरे देश – विदेश में फैलकर विश्वस्तरीय मानक पा चुका है। जो भी इस व्रत की अपार महिमा से परिचित हुआ है, इस व्रत को करते मिला। इस व्रत को हर जाति संप्रदाय के लोग करते मिलेगें। इसी कारण यह व्रत आपसी भाईचारा एवं सद्भावना का प्रतीक बन चुका है।
इस व्रत को देश के समस्त भागों में इस आस्था से जुड़े लोग श्रद्धा के साथ खुशहाली , अमन चैन के लिये प्रति वर्श करते आ रहे है जिनमें हर वर्श व्रत करने वालों की संख्या में वृद्धि ही होती जा रही है। इस व्रत की महिमा के प्रचार प्रसार में दृष्य मीडिया के साथ – साथ भोजपुरी कलाकारों का योगदान काफी महत्त्वपूर्ण रहा है जिसके कारण आज इस व्रत को देश की अन्य संस्कृति से जुड़े लोग भी श्रद्धा के साथ कर रहे है। विश्व का एक मात्र यहीं व्रत है जहां डूबते एवं उगते सूर्य की पूजा की जाती है।
भाई की मंगलकामना का पर्व है भैया दूज
(भाईदूज 21 अक्टूबर पर विशेष)
मनोहर पुरी
भारतवर्ष में भाई बहन का संबंध एक विशेष अर्थ रखता है। इस रिश्ते की अलग ही अहमियत है। यहां पर रक्षाबंधन का त्योहार बहुत उल्लास से मनाया जाता है। रक्षाबंधन के दिन बहन भाई की कलाई पर राखी बांध कर अपने लिए भाई से सुरक्षा की कामना करती है। अथवा भाई बहन से राखी बंधवा कर उसे यह आश्वासन देता है कि वह सदैव उसकी रक्षा करेगा। इसके विपरीत भैया दूज पर बहन भाई की मंगल कामना के लिए बेरी की पूजा करती है। भाईके माथे पर रोली चावल का टीका करके उसके दीर्घायु होने की दुआ मांगती है। विश्व में भारत एक मात्र ऐसा देश है जहां भाई बहन के पवित्र रिश्ते को सर्वोपरि माना जाता है। भावनात्मक रूपों वाले सम्बन्धें को हम आर्थिक सम्बन्धें से कहीं अधिक महत्व देते हैं। ये संबध दो व्यक्तियों की अपेक्षा परिवारों को एक दूसरे के साथ बांध कर रखते हैं। इतना ही नहीं हमारे ये संबंध अस्थायी न हो कर हर दृष्टि से स्थाई होते हैं।
कार्तिक शुक्ल द्वितीया को भैया दूज का यह पर्व पूरे भारत में उत्साहपूर्वक मनाया जाता है। यजुर्वेद के अनुसार, भाई बहनों को परस्पर द्वेष नहीं नहीं करना चाहिए,अपितु संगठित हो कर जीवन के विषम मार्ग पर चलना चाहिए।“ इस वेद वाक्य को मान्यता प्रदान करने के लिए अनेक ऐसी पौराणिक कथाओं का सजृन हुआ जिनमें भाई बहन के एक निष्ठ,निस्वाथ्र एवं अविरल स्नेह को पोषित किया जाता रहा। भैया दूज के विषय में अनेक कथाएं हिन्दू समाज में प्रचलित हैं। एक पौराणिक आख्यान के अनुसार सूर्य की पत्नी संज्ञा से ’यम‘ नामक पुत्र तथा यमुना नामक पुत्री का जन्म हुआ। अपने पति के तेज से अभिभूत संज्ञा ने छाया का रूप धारण कर उत्तरी ध्रुव में रहना प्रारम्भ कर दिया क्योंकि वहां सूर्य के तेज का प्रभाव काफी कम था। यहां रहते हुए उनके शनिचर नामक पुत्र और ताप्ती नामक पुत्री का जन्म हुआ। बाद में अश्विनी कुमार उत्पन्न हुए। अपने ज्येष्ठ पुत्र और पुत्री से संज्ञा के सम्बन्ध बिगड़ने लगे तो दु:खी यम ने अपना अलग लोक बना कर मृतक प्राणियों की व्यवस्था का कार्य भार संभाल लिया और यमराज कहलाये।
यमुना अपना घर छोड़ कर भूलोक पहुंची। यहां पर वह मथुरा स्थित विश्राम घाट पर निवास करने लगी। कालान्तर में जब यमराज को अपनी बहन की याद आई तो वह उसे खोजते हुए मथुरा पहुंचे। लम्बे अंतराल के बाद भाई को सामने देख कर यमुना को अपार हर्ष हुआ और उसने भाई का बहुत मान सम्मान किया। कुछ देर यमराज ने वहां विश्राम किया । यमराज अपनी बहन के आदर सत्कार से बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने यमुना को वरदान मांगने के लिए कहा। यमुना भी लम्बी अवधि के बाद भाई से हुए मिलाप के कारण बहुत प्रसन्न थी। उसने कहा कि आप मुझे वर दीजिए कि आज के दिन प्रतिवर्ष आप मेरे घर आया करेंगे। मेरा आदर सत्कार इसी प्रकार से स्वीकार करेंगे। मैं चाहती हूं कि इसी प्रकार सभी भाई अपनी बहनों के घर जा कर उनका आतिथ्य स्वीकार करें।
यमराज ने वरदान देते हुए कहा कि कार्तिक शुक्ल की द्वितीया के दिन जो भाई अपनी बहन से स्नेह पूर्वक मिलेगा तथा उसके द्वारा परोसी हुई खीर खायेगा उसकी आत्मा को मोक्ष प्राप्त होगा। उसे मृत्यु का भय नहीं सतायेगा। तब से यह परम्परा चली आ रही है कि इस दिन बहनें अपने भाई को तिलक करके उनके दीर्घ जीवन की कामना करती है। भाई इस दिन माध्यान्ह का भोजन अपनी विवाहित बहन के घर पर ही करता है। वह बहन को अपनी समर्थ के अनुसार वस्त्र एवं आभूषण इत्यादि देकर उनका सत्कार करता है। कुछ लोग इस दिन अपनी बहन के साथ गठबंधन करके यमुना में एक साथ स्नान करते हैं। इस दिन यम का पूजन और यमुना स्नान करना रोगविनाशक और कल्याणकारी माना जाता है। यह भी मान्यता है कि बहन के हाथों भोजन करने से यश,बल,धन,आयु और आरोग्य में वृद्धि होती है। जो महिलाएं इस दिन आदर सहित अपने भाई को भोजन करवाती हैं उन्हें वैधव्य का कष्ट नहीं उठाना पड़ता और सात जन्म तक उनके भाई नष्ट नहीं होते। अपने भाई को दीर्घायु करने के लिए यमराज, यमदूतों और चित्रगुप्त के पूजन के साथ साथ आठ चिरंजीवियों का भी पूजन करना चाहिए। आठ चिरजीवी हैं- मार्कन्डेय, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा और परशुराम। इन सब का पूजन करने के बाद मार्कन्डेय ऋषि से यह प्रार्थना करनी चाहिए कि हे महाभाग मार्कन्डेय! आप सात कल्पों के अन्त तक जीने वाले चिरजीवी हैं। वैसे ही मेरे भाई को चिरजीवी कर दीजिए। पद्म पुराण के अनुसार ऐसा करने वाला मनुष्य वर्ष भर किसी झगड़े में नहीं पड़ता और उसे शत्रुओं का भय नहीं रहता।
वास्तव में हमारे ऋषि मुनियों ने यमराज को पूरा सम्मान देने के लिए यह परम्परा प्रारम्भ की ताकि मनुष्य हर समय मृत्यु के भय से ही ग्रसित न रहे। इस कारण इस दिन मृत्यु के देवता यमराज का पूजन होता है और कलम दवात तथा चित्रगुप्त की भी पूजा की जाती है। इस दिन लिखने पढ़ने का सारा कार्य बंद रहता है। माना जाता है कि अष्टमी गुरुहन्ता व प्रतिपदा पाठविनाशनी है। देश के कुछ विश्वविद्यालयों में आज भी अष्टमी और प्रतिपदा को अवकाश रखा जाता है। द्वितीया के दिन सरस्वती के पूजन के बाद ही अध्ययन और पठन पाठन का कार्य प्रारम्भ किया जाता है।
जैन मत के अनुयायियों के अनुसार इस पर्व को मनाने का एक अलग ही कारण है। जैन धर्म ग्रंथ कल्पसूत्र के अनुसार कार्तिक कृष्ण पक्ष की अमावस्या को भगवान महावीर को निर्वाण प्राप्त हुआ। इससे नंकदवर्धन को अपार कष्ट हुआ। निवर्रण के तीसरे दिन बहन सुदर्शना ने नंदिवर्धन को अपने घर आमंत्रित किया। अत्यंत आदर सम्कार के साथ उसने भाई को बहुत ही स्वादिष्ठ भोजन खिला कर प्रसन्न किया। जैन परंपरा के अनुसार इसी की स्मृति में भातृ द्वितीया का त्योहार मनाया जाने लगा।
इस प्रकार भाई दूज का त्योहार भाई बहन के स्नेह का प्रतीक है। इस पर्व का मूल उद्श्ये है बहन द्वारा भाई की सफलता की कामना। भाई बहन के निश्चल प्यार को भावनात्मक भूमि पर स्थापित करना। इस पर्व पर भाई की ओर से बहन का स्नेह भरा अशीष पाने की अधिक उत्कण्ठा दिखाई देती है। इसीलिए विशैष रूप से यह व्यवस्था की गई है कि इस दिन भाई ही बहनों के घर जाएं। इस पर्व के माध्यम से परिवार और समाज में नारी को श्रेष्ठ भूमिका पर प्रस्थापित करने का सफल प्रयास किया गया है। आज यह त्योहार भारतीय समाज की चेतना की गहराई में उतर कर धर्म और जातियों का बंधन तोड़ कर एकता व भाई चारे का प्रतीक बन गया है।
गोवर्धन पूजा के दिन लगता है अन्नकूट का प्रसाद
रमेश सर्राफ धमोरा
गोवर्धन पूजा अथवा अन्नकूट हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। दीपावली के दूसरे दिन सायंकाल गोवर्धन पूजा का विशेष आयोजन होता है। लोग इसे अन्नकूट के नाम से भी जानते हैं। इस त्यौहार का भारतीय लोकजीवन में काफी महत्व है। इस पर्व में प्रकृति के साथ मानव का सीधा सम्बन्ध दिखाई देता है। इस पर्व की अपनी मान्यता और लोककथा है।
भगवान श्रीकृष्ण ने आज ही के दिन इन्द्र का मानमर्दन कर गिरिराज पूजन किया था। इस दिन मन्दिरों में अन्नकूट किया जाता है। अन्नकूट एक प्रकार से सामूहिक भोज का आयोजन है जिसमें पूरा परिवार एक जगह बनाई गई रसोई से भोजन करता है। इस दिन चावल, बाजरा, कढ़ी, साबुत मूंग सभी सब्जियां एक जगह मिलाकर बनाई जाती हैं। मंदिरों में भी अन्नकूट बनाकर प्रसाद के रूप में बांटा जाता है। सायंकाल गोबर के गोवर्धन बनाकर पूजा की जाती है।
गोवर्धन पूजा में गोधन यानी गायों की पूजा की जाती है। शास्त्रों में बताया गया है कि गाय उसी प्रकार पवित्र होती जैसे नदियों में गंगा। गाय को देवी लक्ष्मी का स्वरूप भी कहा गया है। देवी लक्ष्मी जिस प्रकार सुख समृद्धि प्रदान करती हैं उसी प्रकार गौ माता भी अपने दूध से स्वास्थ्य रूपी धन प्रदान करती हैं। इनका बछड़ा खेतों में हल जोतकर अनाज उगाता है। इस तरह गौ सम्पूर्ण मानव जाती के लिए पूजनीय और आदरणीय है। गौ के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए ही कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन गोर्वधन की पूजा की जाती है और इसके प्रतीक के रूप में गाय की।
वेदों में इस दिन वरुण, इन्द्र, अग्नि आदि देवताओं की पूजा का विधान है। इसी दिन बलि पूजा, गोवर्धन पूजा होती हैं। इस दिन गाय-बैल आदि पशुओं को स्नान कराकर, फूल माला, धूप, चंदन आदि से उनका पूजन किया जाता है। गायों को मिठाई खिलाकर उनकी आरती उतारी जाती है। यह ब्रजवासियों का मुख्य त्योहार है। अन्नकूट या गोवर्धन पूजा भगवान कृष्ण के अवतार के बाद द्वापर युग से प्रारम्भ हुई। उस समय लोग इन्द्र भगवान की पूजा करते थे तथा छप्पन प्रकार के भोजन बनाकर तरह-तरह के पकवान व मिठाइयों का भोग लगाया जाता था।
महाराष्ट्र में यह दिन बालि प्रतिपदा या बालि पड़वा के रूप में मनाया जाता है। वामन जो कि भगवान विष्णु के एक अवतार है, उनकी राजा बालि पर विजय और बाद में बालि को पाताल लोक भेजने के कारण इस दिन उनका पुण्यस्मरण किया जाता है। यह माना जाता है कि भगवान वामन द्वारा दिए गए वरदान के कारण असुर राजा बालि इस दिन पातल लोक से पृथ्वी लोक आता है। अधिकतर गोवर्धन पूजा का दिन गुजराती नव वर्ष के दिन के साथ मिल जाता है जो कि कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष के दौरान मनाया जाता है। गोवर्धन पूजा उत्सव गुजराती नव वर्ष के दिन के एक दिन पहले मनाया जा सकता है और यह प्रतिपदा तिथि के प्रारम्भ होने के समय पर निर्भर करता है।
इस दिन प्रात: गाय के गोबर से लेटे हुए पुरुष के रूप में गोवर्धन बनाया जाता है। अनेक स्थानों पर इसके मनुष्याकार बनाकर पुष्पों, लताओं आदि से सजाया जाता है। इनकी नाभि के स्थान पर एक कटोरी या मिट्टी का दीपक रख दिया जाता है। फिर इसमें दूध, दही, गंगाजल, शहद, बताशे आदि पूजा करते समय डाल दिए जाते हैं और बाद में इसे प्रसाद के रूप में बांट देते हैं। शाम को गोवर्धन की पूजा की जाती है। पूजा में धूप, दीप, नैवेद्य, जल, फल, फूल, खील, बताशे आदि का प्रयोग किया जाता है। पूजा के बाद गोवर्धनजी की जय बोलते हुए उनकी सात परिक्रमाएं लगाई जाती हैं। परिक्रमा के समय एक व्यक्ति हाथ में जल का लोटा व अन्य जौ लेकर चलते हैं। जल के लोटे वाला व्यक्ति पानी की धारा गिराता हुआ तथा अन्य जौ बोते हुए परिक्रमा पूरी करते हैं।
अन्नकूट में चंद्र-दर्शन अशुभ माना जाता है। यदि प्रतिपदा में द्वितीया हो तो अन्नकूट अमावस्या को मनाया जाता है। इस दिन सन्ध्या के समय दैत्यराज बलि का पूजन भी किया जाता है। गोवर्धन गिरि भगवान के रूप में माने जाते हैं और इस दिन उनकी पूजा अपने घर में करने से धन, धान्य, संतान और गोरस की वृद्धि होती है। आज का दिन तीन उत्सवों का संगम होता है। इस दिन दस्तकार और कल-कारखानों में कार्य करने वाले कारीगर भगवान विश्वकर्मा की पूजा भी करते हैं। इस दिन सभी कल-कारखाने तो पूर्णत: बंद रहते ही हैं, घर पर कुटीर उद्योग चलाने वाले कारीगर भी काम नहीं करते। भगवान विश्वकर्मा और मशीनों एवं उपकरणों का दोपहर के समय पूजन किया जाता है।
गोवर्धन पूजा के सम्बन्ध में एक लोकगाथा प्रचलित है कि देवराज इन्द्र को अभिमान हो गया था। इन्द्र का अभिमान चूर करने हेतु भगवान श्री कृष्ण ने एक लीला रची। एक दिन उन्होंने देखा के सभी बृजवासी उत्तम पकवान बना रहे हैं और किसी पूजा की तैयारी में जुटे। श्री कृष्ण ने मईया यशोदा से प्रश्न किया कि आप लोग किनकी पूजा की तैयारी कर रहे हैं । कृष्ण की बातें सुनकर यशोदा मैया बोली हम देवराज इन्द्र की पूजा के लिए अन्नकूट की तैयारी कर रहे हैं। मैया के ऐसा कहने पर श्री कृष्ण बोले मैया हम इन्द्र की पूजा क्यों करते हैं? यशोदा ने कहा वह वर्षा करते हैं जिससे अन्न की पैदावार होती है उनसे हमारी गायों को चारा मिलता है। भगवान श्री कृष्ण बोले हमें तो गोर्वधन पर्वत की पूजा करनी चाहिए क्योंकि हमारी गाये वहीं चरती हैं, इस दृष्टि से गोर्वधन पर्वत ही पूजनीय है और इन्द्र तो कभी दर्शन भी नहीं देते व पूजा न करने पर क्रोधित भी होते हैं अत: ऐसे अहंकारी की पूजा नहीं करनी चाहिए।
श्री कृष्ण की माया से सभी ने इन्द्र के बदले गोवर्घन पर्वत की पूजा की। देवराज इन्द्र ने इसे अपना अपमान समझा और मूसलाधार वर्षा शुरू कर दी। तब श्री कृष्ण ने अपनी कनिष्ठा उंगली पर पूरा गोवर्घन पर्वत उठा लिया और सभी बृजवासियों को उसमें अपने गाय और बछड़े समेत शरण लेने के लिए बुलाया। इन्द्र कृष्ण की यह लीला देखकर और क्रोधित हुए फलत: वर्षा और तेज हो गयी। इन्द्र का मान मर्दन के लिए तब श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से कहा कि आप पर्वत के ऊपर रहकर वर्षा की गति को नियत्रित करें और शेषनाग से कहा आप मेड़ बनाकर पानी को पर्वत की ओर आने से रोकें।
इन्द्र लगातार सात दिन तक मूसलाधार वर्षा करते रहे तब उन्हे एहसास हुआ कि उनका मुकाबला करने वाला कोई आम मनुष्य नहीं हो सकता अत: वे ब्रह्मा जी के पास पहुंचे और सब वृतान्त कह सुनाया। ब्रह्मा जी ने इन्द्र से कहा कि आप जिस कृष्ण की बात कर रहे हैं वह भगवान विष्णु के साक्षात अंश हैं । ब्रह्मा जी के मुंख से यह सुनकर इन्द्र अत्यंत लज्जित हुए और श्री कृष्ण से कहा कि प्रभु मैं आपको पहचान न सका इसलिए अहंकारवश भूल कर बैठा। आप दयालु हैं और कृपालु भी इसलिए मेरी भूल क्षमा करें। इसके पश्चात देवराज इन्द्र ने श्री कृष्ण की पूजा कर उन्हें भोग लगाया।
सातवें दिन श्रीकृष्ण ने गोवर्धन को नीचे रखा और ब्रजवासियों से कहा- अब तुम प्रतिवर्ष गोवर्धन पूजा कर अन्नकूट का पर्व मनाया करो। तभी से यह पर्व अन्नकूट के नाम से मनाया जाने लगा। इस पौराणिक घटना के बाद से ही गोवर्घन पूजा की जाने लगी। बृजवासी इस दिन गोवर्घन पर्वत की पूजा करते हैं। गाय बैल को इस दिन स्नान कराकर उन्हें रंग लगाया जाता है व उनके गले में नई रस्सी डाली जाती है। गाय और बैलों को गुड़ और चावल मिलाकर खिलाया जाता है।
रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि
-वाल्मीकि जयंती पर विशेष
(आशीष दुबे )
संपूर्ण विश्व में धर्म की पताका फहराती रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि के जन्म के संबंध में अवधारणा है कि अश्विन मास की शरद पूर्णिमा को जन्म हुआ था। इसे वाल्मीकि जयंती के रुप में मनाया जाता है। इस वर्ष वाल्मीकि जयंती पांच अक्टूबर को मनाई जा रही है। वैसे महर्षि वाल्मीकि के जन्म के संबंध में कोई ठोस प्रमाण नहीं है। एक पौराणिक मान्यता के अनुसार उनका जन्म महर्षि कश्यप और अदिति के नौवें पुत्र वरुण और उनकी पत्नी चर्षणी के परिवार में हुआ था। मान्यतानुसार महर्षि भृगु वाल्मीकि के भ्राता थे। महर्षि वाल्मीकि का नामकरण उनके कड़े तप के कारण पड़ा था। कथा अनुसार ध्यान में मग्न वाल्मीकि के शरीर के चारों ओर दीमकों ने अपना घर तक बना लिया था। साधना पूरी कर वाल्मीकि दीमकों के घर से बाहर निकले, इसलिए दीमकों के घर को वाल्मीकि भी कहा जाता है। ऐसे महान तपस्वी की जयंती संपूर्ण भारतवर्ष में श्रद्धा-भक्ति एवं हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती हैं। जगह-जगह बने वाल्मीकि मंदिरों में श्रद्धालु पूजा-अर्चना करते हैं। इस अवसर पर भक्तों द्वारा उनकी शोभा यात्रा भी निकाली जाती है। इसमें झांकियां सजाई जाती हैं और भक्तगण भक्ति में झूमते, गाते निकलते हैं। पौराणिक कथा अनुसार वाल्मीकि महर्षि बनने से पूर्व रत्नाकर नाम से पहचाने जाते थे। परिवार का पेट पालने के लिए वो लूटपाट जैसा कार्य किया करते थे। इसी से जुड़ी कथा हैकि एक समय नारद मुनि को उन्होंने लूटने की नीयत से जंगल में रोक लिया तब नारद ने उनसे सवाल किया कि तुम यह सब किसके लिए करते हो। नत्नाकर ने कहा कि वो ऐसा अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए करते हैं। इस पर नारद मुनि ने रत्नाकर से सवाल किया कि वो जो अपराध परिवार के लिए कर रहे हैं क्या क्या वो उनके पापों का फल भोगने मे उनकी साझीदारी निभाने को तैयार है? यह सवाल सुन हैरान रत्नाकर नारद मुनि को वहीं पेड़ से बांध अपने घर गया और वही सवाल परिजनों से किया। उसे परिजनों का उत्तर सुनकर निराशा हुई, क्योंकि कोई भी पाप का भागीदार बनने को तैयार नहीं था। उनके परिवार का एक भी सदस्य उनके इस पाप का फल भोगने में साझीदार तक बनने को तैयार नहीं दिखा। निराश वाल्मीकि वापस नारद के पास आए और उनके बंधन खोल चरणों में गिर गए। इस पर नारद मुनि ने उन्हें राम नाम रुपी ज्ञान दिया और आगे चलकर इसी कारण महर्षि वाल्मीकि के रुप में प्रसिद्ध हुए। इसलिए वाल्मीकि जयंती पर श्रीराम के भी भजन गए जाते हैं और उन्हें याद किया जाता है।
हर्ष और उल्लास का प्रतीक है दशहरा
(रमेश सर्राफ धमोरा)
दशहरा हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को इसका आयोजन होता है। इसे असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है। भगवान राम ने इसी दिन रावण का वध किया था। इसीलिये इस दशमी को विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। इसी दिन लोग नया कार्य प्रारम्भ करते हैं। शस्त्र-पूजा की जाती है। इस दिन जगह-जगह मेले लगते हैं। रामलीला का आयोजन होता है। रावण का विशाल पुतला बनाकर उसे जलाया जाता है।
दशहरा अथवा विजयदशमी भगवान राम की विजय के रूप में मनाया जाए अथवा दुर्गा पूजा के रूप में, दोनों ही रूपों में यह शक्ति-पूजा का पर्व है, शस्त्र पूजन की तिथि है। हर्ष और उल्लास तथा विजय का पर्व है। भारतीय संस्कृति वीरता की पूजक है, शौर्य की उपासक है। व्यक्ति और समाज के रक्त में वीरता प्रकट हो इसलिए दशहरे का उत्सव रखा गया है। भारत कृषि प्रधान देश है। जब किसान अपने खेत में फसल उगाकर अनाज रूपी सम्पत्ति घर लाता है तो उसके उल्लास और उमंग का पारावार नहीं रहता। इस प्रसन्नता के लिये वह भगवान की कृपा को मानता है और उसे प्रकट करने के लिए वह उसका पूजन करता है। भारतवर्ष में यह पर्व विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है।
महाराष्ट्र में नवरात्रि के नौ दिन मां दुर्गा को समर्पित रहते हैं, जबकि दसवें दिन ज्ञान की देवी सरस्वती की वंदना की जाती है। इस दिन विद्यालय जाने वाले बच्चे अपनी पढ़ाई में आशीर्वाद पाने के लिए मां सरस्वती के तांत्रिक चिह्नों की पूजा करते हैं। किसी भी चीज को प्रारंभ करने के लिए खासकर विद्या आरंभ करने के लिए यह दिन काफी शुभ माना जाता है। महाराष्ट्र के लोग इस दिन विवाह, गृह-प्रवेश एवं नये घर खरीदने का शुभ मुहूर्त समझते हैं। महाराष्ट्र में इस अवसर पर सिलंगण के नाम से सामाजिक महोत्सव के रूप में भी इसको मनाया जाता है। सायंकाल के समय पर सभी ग्रामीणजन सुंदर-सुंदर नव वस्त्रों से सुसज्जित होकर गांव की सीमा पार कर शमी वृक्ष के पत्तों के रूप में स्वर्ण लूटकर अपने ग्राम में वापस आते हैं। फिर उस स्वर्ण का परस्पर आदान-प्रदान किया जाता है।
हिमाचल प्रदेश में कुल्लू का दशहरा बहुत प्रसिद्ध है। अन्य स्थानों की ही भांति यहां भी दस दिन अथवा एक सप्ताह पूर्व इस पर्व की तैयारी आरंभ हो जाती है। स्त्रियां और पुरुष सभी सुंदर वस्त्रों से सज्जित होकर ढोल, नगाड़े, बांसुरी आदि वाद्य यंत्रो को लेकर बाहर निकलते हैं। पहाड़ी लोग अपने ग्रामीण देवता का धूम धाम से जुलूस निकाल कर पूजन करते हैं। देवताओं की मूर्तियों को बहुत ही आकर्षक पालकी में सुंदर ढंग से सजाया जाता है। साथ ही वे अपने मुख्य देवता रघुनाथ जी की भी पूजा करते हैं। इस जुलूस में प्रशिक्षित नर्तक नटी नृत्य करते हैं। इस प्रकार जुलूस बनाकर नगर के मुख्य भागों से होते हुए नगर परिक्रमा करते हैं और कुल्लू नगर में देवता रघुनाथजी की वंदना से दशहरे के उत्सव का आरंभ करते हैं। दशमी के दिन इस उत्सव की शोभा निराली होती है।
पंजाब में दशहरा नवरात्रि के नौ दिन का उपवास रखकर मनाते हैं। इस दौरान यहां आगंतुकों का स्वागत पारंपरिक मिठाई और उपहारों से किया जाता है। यहां भी रावण-दहन के आयोजन होते हैं, व मैदानों में मेले लगते हैं। बस्तर में दशहरे के मुख्य कारण को राम की रावण पर विजय ना मानकर, लोग इसे मां दंतेश्वरी की आराधना को समर्पित एक पर्व मानते हैं। दंतेश्वरी माता बस्तर अंचल के निवासियों की आराध्य देवी हैं, जो दुर्गा का ही रूप हैं। यहां यह पर्व पूरे 75 दिन चलता है। यहां दशहरा श्रावण मास की अमावस से आश्विन मास की शुक्ल त्रयोदशी तक चलता है। प्रथम दिन जिसे काछिन गादि कहते हैं, देवी से समारोहारंभ की अनुमति ली जाती है। देवी एक कांटों की सेज पर विरजमान होती हैं, जिसे काछिन गादि कहते हैं। यह कन्या एक अनुसूचित जाति की है, जिससे बस्तर के राजपरिवार के व्यक्ति अनुमति लेते हैं। यह समारोह लगभग 15वीं शताब्दी से शुरु हुआ था। इसके बाद जोगी-बिठाई होती है, इसके बाद भीतर रैनी (विजयदशमी) और बाहर रैनी (रथ-यात्रा) और अंत में मुरिया दरबार होता है। इसका समापन अश्विन शुक्ल त्रयोदशी को ओहाड़ी पर्व से होता है।
बंगाल, ओडिशा और असम में यह पर्व दुर्गा पूजा के रूप में ही मनाया जाता है। यह बंगालियों,ओडिआ, और आसाम के लोगों का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है। बंगाल में पूरे पांच दिनों के लिए मनाया जाता है। ओडिशा और असम मे 4 दिन तक त्योहार चलता है। यहां देवी दुर्गा को भव्य सुशोभित पंडालों विराजमान करते हैं। देश के नामी कलाकारों को बुलवा कर दुर्गा की मूर्ति तैयार करवाई जाती हैं। इसके साथ अन्य देवी द्वेवताओं की भी कई मूर्तियां बनाई जाती हैं। त्योहार के दौरान शहरों में छोटे मोटे स्टाल भी मिठाईयों से भरे रहते हैं। यहां षष्ठी के दिन दुर्गा देवी का बोधन, आमंत्रण एवं प्राण प्रतिष्ठा आदि का आयोजन किया जाता है। उसके उपरान्त सप्तमी, अष्टमी एवं नवमी के दिन प्रात: और सायंकाल दुर्गा की पूजा में व्यतीत होते हैं। अष्टमी के दिन महापूजा की जाति है। दशमी के दिन विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। प्रसाद चढ़ाया जाता है और प्रसाद वितरण किया जाता है। पुरुष आपस में आलिंगन करते हैं, जिसे कोलाकुली कहते हैं। स्त्रियां देवी के माथे पर सिंदूर चढ़ाती हैं, व देवी को अश्रुपूरित विदाई देती हैं। इसके साथ ही वे आपस में भी सिंदूर लगाती हैं, व सिंदूर से खेलते हैं। इस दिन यहां नीलकंठ पक्षी को देखना बहुत ही शुभ माना जाता है। अन्त में देवी प्रतिमाओं को विसर्जन के लिए ले जाया जाता है। विसर्जन की यह यात्रा भी बड़ी शोभनीय और दर्शनीय होती है।
तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश एवं कर्नाटक में दशहरा नौ दिनों तक चलता है जिसमें तीन देवियां लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा की पूजा करते हैं। पहले तीन दिन लक्ष्मी – धन और समृद्धि की देवी का पूजन होता है। अगले तीन दिन सरस्वती- कला और विद्या की देवी की अर्चना की जाती है और अंतिम दिन देवी दुर्गा-शक्ति की देवी की स्तुति की जाती है। पूजन स्थल को अच्छी तरह फूलों और दीपकों से सजाया जाता है। लोग एक दूसरे को मिठाइयां व कपड़े देते हैं। यहां दशहरा बच्चों के लिए शिक्षा या कला संबंधी नया कार्य सीखने के लिए शुभ समय होता है।
कर्नाटक में मैसूर का दशहरा भी पूरे भारत में प्रसिद्ध है। मैसूर में दशहरे के समय पूरे शहर की गलियों को रोशनी से सज्जित किया जाता है और हाथियों का शृंगार कर पूरे शहर में एक भव्य जुलूस निकाला जाता है। इस समय प्रसिद्ध मैसूर महल को दीपमालिकाओं से दुलहन की तरह सजाया जाता है। इसके साथ शहर में लोग टार्च लाइट के संग नृत्य और संगीत की शोभायात्रा का आनंद लेते हैं। इन द्रविड़ प्रदेशों में रावण-दहन का आयोजन नहीं किया जाता है।
गुजरात में मिट्टी सुशोभित रंगीन घड़ा देवी का प्रतीक माना जाता है और इसको कुंवारी लड़कियां सिर पर रखकर एक लोकप्रिय नृत्य करती हैं जिसे गरबा कहा जाता है। गरबा नृत्य इस पर्व की शान है। पुरुष एवं स्त्रियां दो छोटे रंगीन डंडों को संगीत की लय पर आपस में बजाते हुए घूम घूम कर नृत्य करते हैं। इस अवसर पर भक्ति, फिल्म तथा पारंपरिक लोक-संगीत सभी का समायोजन होता है। पूजा और आरती के बाद डांडिया रास का आयोजन पूरी रात होता रहता है। नवरात्रि में सोने और गहनों की खरीद को शुभ माना जाता है।
कश्मीर के अल्पसंख्यक हिन्दू नवरात्रि के पर्व को श्रद्धा से मनाते हैं। परिवार के सारे वयस्क सदस्य नौ दिनों तक सिर्फ पानी पीकर उपवास करते हैं। अत्यंत पुरानी परम्परा के अनुसार नौ दिनों तक लोग माता खीर भवानी के दर्शन करने के लिए जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि आश्विन शुक्ल दशमी को तारा उदय होने के समय विजय नामक मुहूर्त होता है। यह काल सर्वकार्य सिद्धिदायक होता है। इसलिए भी इसे विजयादशमी कहते हैं।
बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक हैं नवरात्रि
– रमेश सर्राफ
भारतीय जन-जीवन में धर्म की महत्ता अपरम्पार है। यह भारत की गंगा-जमुना तहजीब का ही नतीजा है कि सब धर्मों को मानने वाले लोग अपने-अपने धर्म को मानते हुए इस देश में भाईचारे की भावना के साथ सदियों से एक साथ रहते चले आ रहे हैं। यही कारण है की पूरे विश्व में भारत की धर्म व संस्कृति सर्वोतम मानी गयी है। विभिन्न धर्मों के साथ जुड़े कई पर्व भी है जिसे भारत के कोने कोने में श्रध्दा, भक्ति और धूमधाम से मनाया जाता है, उन्ही में से एक है नवरात्रि।
नवरात्रि पर्व के नौ दिनों के दौरान आदिशक्ति जगदम्बा के नौ विभिन्न रूपों की आराधना की जाती है। ये नौ दिन वर्ष के सर्वाधिक शुध्द एवं पवित्र दिवस माने गए हैं। वर्ष के इन दिनों का भारतीय धर्म एवं दर्शन में ऐतिहासिक महत्व है और इन्हीं दिनों में बहुत सी दिव्य घटनाओं के घटने की जानकारी हिन्दू पौराणिक ग्रन्थों में मिलती है। माता के इन नौ रूपों को नवदुर्गा के नाम से भी जाना जाता है जो इस प्रकार हैं -शैलपुत्री, ब्रह्माचारिणी, चन्द्रघन्टा, कूष्माण्डा, स्कन्द माता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी और सिध्दिदात्री। नवरात्रि से हमें अधर्म पर धर्म और बुराई पर अच्छाई के जीत की सीख मिलती हैं। यह हमें बताती है की इंसान अपने अंदर की मूलभूत अच्छाइयों से नकारात्मकता पर विजय प्राप्ती और स्वयं के अलौकिक स्वरूप से साक्षात्कार कैसे कर सकता है।
नवरात्रि एक संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ होता है नौ रातें। इन नौ रातों और दस दिनों के दौरान, शक्ति- देवी के नौ रूपों की पूजा की जाती है। दसवां दिन दशहरा के नाम से प्रसिद्ध है। नवरात्रि एक हिंदू पर्व है। नवरात्रि वर्ष में चार बार आता है। चैत्र, आषाढ़, अश्विन, पौष प्रतिपदा से नवमी तक मनाया जाता है। नवरात्रि के नौ रातों में तीन देवियों – महालक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा के नौ स्वरुपों की पूजा होती है जिन्हें नवदुर्गा कहते हैं। दुर्गा का मतलब जीवन के दुख को हटानेवाली होता है। नवरात्रि एक महत्वपूर्ण प्रमुख त्योहार है जिसे पूरे भारत में पूरे उत्साह के साथ मनाया जाता है।
वसन्त की शुरुआत और शरद ऋतु की शुरुआत, जलवायु और सूरज के प्रभावों का महत्वपूर्ण संगम माना जाता है। इन दो समय मां दुर्गा की पूजा के लिए पवित्र अवसर माने जाते है। त्योहार की तिथियां चन्द्र कैलेंडर के अनुसार निर्धारित होती हैं। यह पूजा वैदिक युग से पहले, प्रागैतिहासिक काल से है। नवरात्रि के पहले तीन दिन देवी दुर्गा की पूजा करने के लिए समर्पित किए गए हैं। यह पूजा उसकी ऊर्जा और शक्ति की की जाती है। प्रत्येक दिन दुर्गा के एक अलग रूप को समर्पित है। त्योहार के पहले दिन बालिकाओं की पूजा की जाती है। दूसरे दिन युवती की पूजा की जाती है। तीसरे दिन जो महिला परिपक्वता के चरण में पहुंच गयी है, उसकि पूजा की जाती है। नवरात्रि के चौथे, पांचवें और छठे दिन लक्ष्मी- समृद्धि और शांति की देवी की पूजा करने के लिए समर्पित है। आठवे दिन पर एक यज्ञ किया जाता है। यह एक बलिदान है जो देवी दुर्गा को सम्मान तथा उनको विदा करता है। नौवा दिन नवरात्रि समारोह का अंतिम दिन है। यह महानवमी के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन उन नौ जवान लड़कियों की पूजा होती है जो अभी तक यौवन की अवस्था तक नहीं पहुंची है। इन नौ लड़कियों को देवी दुर्गा के नौ रूपों का प्रतीक माना जाता है। लड़कियों का सम्मान तथा स्वागत करने के लिए उनके पैर धोए जाते हैं। पूजा के अंत में लड़कियों को उपहार के रूप में नए कपड़े प्रदान किए जाते हैं।
शक्ति की उपासना का पर्व शारदीय नवरात्र प्रतिपदा से नवमी तक निश्चित नौ तिथि, नौ नक्षत्र, नौ शक्तियों की नवधा भक्ति के साथ सनातन काल से मनाया जा रहा है। आदिशक्ति के हर रूप की नवरात्र के नौ दिनों में क्रमश: अलग-अलग पूजा की जाती है। मां दुर्गा की नौवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री है। ये सभी प्रकार की सिद्धियां देने वाली हैं। इनका वाहन सिंह है और कमल पुष्प पर ही आसीन होती हैं। नवरात्रि के नौवें दिन इनकी उपासना की जाती है।
इस पर्व से जुड़ी एक कथा अनुसार देवी दुर्गा ने एक भैंस रूपी असुर अर्थात महिषासुर का वध किया था। पौराणिक कथाओं के अनुसार महिषासुर के एकाग्र ध्यान से बाध्य होकर देवताओं ने उसे अजय होने का वरदान दे दिया। उसको वरदान देने के बाद देवताओं को चिंता हुई कि वह अब अपनी शक्ति का गलत प्रयोग करेगा। और प्रत्याशित प्रतिफल स्वरूप महिषासुर ने नरक का विस्तार स्वर्ग के द्वार तक कर दिया और उसके इस कृत्य को देख देवता विस्मय की स्थिति में आ गए। महिषासुर ने सूर्य, इन्द्र, अग्नि, वायु, चन्द्रमा, यम, वरुण और अन्य देवताओं के सभी अधिकार छीन लिए और स्वयं स्वर्गलोक का मालिक बन बैठा। देवताओं को महिषासुर के प्रकोप से पृथ्वी पर विचरण करना पड़ रहा था तब महिषासुर के इस दुस्साहस से क्रोधित होकर देवताओं ने देवी दुर्गा की रचना की।
ऐसा माना जाता है कि देवी दुर्गा के निर्माण में सारे देवताओं का एक समान बल लगाया गया था। महिषासुर का नाश करने के लिए सभी देवताओं ने अपने अपने अस्त्र देवी दुर्गा को दिए थे और कहा जाता है कि इन देवताओं के सम्मिलित प्रयास से देवी दुर्गा और बलवान हो गईं थी। इन नौ दिन देवी-महिषासुर संग्राम हुआ और अन्तत: महिषासुर-वध कर महिषासुर मर्दिनी कहलायीं। नवदुर्गा और दस महाविद्याओं में काली ही प्रथम प्रमुख हैं। भगवान शिव की शक्तियों में उग्र और सौम्य, दो रूपों में अनेक रूप धारण करने वाली दशमहाविद्या अनंत सिद्धियां प्रदान करने में समर्थ हैं। दसवें स्थान पर कमला वैष्णवी शक्ति हैं, जो प्राकृतिक संपत्तियों की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी हैं। देवता, मानव, दानव सभी इनकी कृपा के बिना पंगु हैं, इसलिए आगम-निगम दोनों में इनकी उपासना समान रूप से वर्णित है। सभी देवता, राक्षस, मनुष्य, गंधर्व इनकी कृपा-प्रसाद के लिए लालायित रहते हैं।
नवरात्रि में माँ दुर्गा के औषधि रूपों का पूजन करें
(शारदीय नवरात्र पर विशेष)
पं. सुरेन्द्र बिल्लौरे
माँ जगदम्बा दुर्गा के नौ रूप मनुष्य को शांति, सुख, वैभव, निरोगी काया एवं भौतिक आर्थिक इच्छाओं को पूर्ण करने वाले हैं। माँ अपने बच्चों को हर प्रकार का सुख प्रदान कर अपने आशीष की छाया में बैठाकर संसार के प्रत्येक दुख से दूर करके सुखी रखती है।
जानिए नवदुर्गा के नौ रूप औषधियों के रूप में कैसे कार्य करते हैं एवं अपने भक्तों को कैसे सुख पहुँचाते हैं। सर्वप्रथम इस पद्धति को मार्कण्डेय चिकित्सा पद्धति के रूप में दर्शाया परंतु गुप्त ही रहा। भक्तों की जिज्ञासा की संतुष्टि करते हुए नौ दुर्गा के औषधि रूप दे रहे हैं। इस चिकित्सा प्रणाली के रहस्य को ब्रह्माजी ने अपने उपदेश में दुर्गाकवच कहा है। नौ प्रमुख दुर्गा का विवेचन किया है। ये नवदुर्गा वास्तव में दिव्य गुणों वाली नौ औषधियाँ हैं।
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी,
तृतीयं चंद्रघण्टेति कुष्माण्डेती चतुर्थकम।।
पंचम स्कन्दमातेति षुठ कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टम।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिता।
ये औषधियाँ प्राणियों के समस्त रोगों को हरने वाली और रोगों से बचाए रखने के लिए कवच का काम करने वाली है। ये समस्त प्राणियों की पाँचों ज्ञानेंद्रियों व पाँचों कमेंद्रियों पर प्रभावशील है। इनके प्रयोग से मनुष्य अकाल मृत्यु से बचकर सौ वर्ष की आयु भोगता है।
ये आराधना मनुष्य विशेषकर नौरात्रि, चौत्रीय एवं अगहन (क्वार) में करता है। इस समस्त देवियों को रक्त में विकार पैदा करने वाले सभी रोगाणुओं को काल कहा जाता है।
प्रथम शैलपुत्री (हरड़) – प्रथम रूप शैलपुत्री माना गया है। इस भगवती देवी शैलपुत्री को हिमावती हरड़ कहते हैं।
यह आयुर्वेद की प्रधान औषधि है जो सात प्रकार की होती है। हरीतिका (हरी) जो भय को हरने वाली है। पथया – जो हित करने वाली है।
कायस्थ – जो शरीर को बनाए रखने वाली है। अमृता (अमृत के समान) हेमवती (हिमालय पर होने वाली)।चेतकी – जो चित्ता को प्रसन्न करने वाली है। श्रेयसी (यशदाता) शिवा – कल्याण करने वाली ।
द्वितीय ब्रह्मचारिणी (ब्राह्मी) – दुर्गा का दूसरा रूप ब्रह्मचारिणी को ब्राह्मी कहा है। ब्राह्मी आयु को बढ़ाने वाली स्मरण शक्ति को बढ़ाने वाली, रूधिर विकारों को नाश करने के साथ-साथ स्वर को मधुर करने वाली है। ब्राह्मी को सरस्वती भी कहा जाता है।
क्योंकि यह मन एवं मस्तिष्क में शक्ति प्रदान करती है। यह वायु विकार और मूत्र संबंधी रोगों की प्रमुख दवा है। यह मूत्र द्वारा रक्त विकारों को बाहर निकालने में समर्थ औषधि है। अतरू इन रोगों से पीड़ित व्यक्ति ने ब्रह्मचारिणी की आराधना करना चाहिए।
तृतीय चंद्रघंटा (चन्दुसूर) – दुर्गा का तीसरा रूप है चंद्रघंटा, इसे चनदुसूर या चमसूर कहा गया है। यह एक ऐसा पौधा है जो धनिये के समान है। (इस पौधे की पत्तायों की सब्जी बनाई जाती है। ये कल्याणकारी है। इस औषधि से मोटापा दूर होता है। इसलिए इसको चर्महन्ती भी कहते हैं। शक्ति को बढ़ाने वाली, खत को शुद्ध करने वाली एवं हृदयरोग को ठीक करने वाली चंद्रिका औषधि है।अतरू इस बीमारी से संबंधित रोगी ने चंद्रघंटा की पूजा करना चाहिए।
चतुर्थ कुष्माण्डा (पेठा) – दुर्गा का चौथा रूप कुष्माण्डा है। ये औषधि से पेठा मिठाई बनती है। इसलिए इस रूप को पेठा कहते हैं। इसे कुम्हडा भी कहते हैं। यह कुम्हड़ा पुष्टिकारक वीर्य को बल देने वाला (वीर्यवर्धक) व रक्त के विकार को ठीक करता है। एवं पेट को साफ करता है। मानसिक रूप से कमजोर व्यक्ति के लिए यह अमृत है। यह शरीर के समस्त दोषों को दूर कर हृदय रोग को ठीक करता है। कुम्हड़ा रक्त पित्ता एवं गैस को दूर करता है। यह दो प्रकार की होती है। इन बीमारी से पीड़ित व्यक्ति ने पेठा का उपयोग के साथ कुष्माण्डा देवी की आराधना करना चाहिए।
पंचम स्कंदमाता (अलसी) – दुर्गा का पाँचवा रूप स्कंद माता है। इसे पार्वती एवं उमा भी कहते हैं। यह औषधि के रूप में अलसी के रूप में जानी जाती है। यह वात, पित्ता, कफ, रोगों की नाशक औषधि है।
अलसी नीलपुष्पी पावर्तती स्यादुमा क्षुमा।
अलसी मधुरा तिक्ता स्त्रिग्धापाके कदुर्गरुरू।।
उष्णा दृष शुकवातन्धी कफ पित्ता विनाशिनी।
इस रोग से पीड़ित व्यक्ति ने स्कंदमाता की आराधना करना चाहिए।
षष्ठम कात्यायनी (मोइया) – दुर्गा का छठा रूप कात्यायनी है। इस आयुर्वेद औषधि में कई नामों से जाना जाता है। जैसे अम्बा, अम्बालिका, अम्बिका इसको मोइया अर्थात माचिका भी कहते हैं। यह कफ, पित्ता, अधिक विकार एवं कंठ के रोग का नाश करती है। इससे पीड़ित रोगी ने कात्यायनी की माचिका प्रस्थिकाम्बष्ठा तथा अम्बा, अम्बालिका, अम्बिका, खताविसार पित्ताास्त्र कफ कण्डामयापहस्य।
सप्तम कालरात्रि (नागदौन) – दुर्गा का सप्तम रूप कालरात्रि है जिसे महायोगिनी, महायोगीश्वरी कहा गया है। यह नागदौन औषधि के रूप में जानी जाती है। सभी प्रकार के रोगों की नाशक सर्वत्र विजय दिलाने वाली मन एवं मस्तिष्क के समस्त विकारों को दूर करने वाली औषधि है।
इस पौधे को व्यक्ति अपने घर में लगा ले तो घर के सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। यह सुख देने वाली एवं सभी विषों की नाशक औषधि है। इस कालरात्रि की आराधना प्रत्येक पीड़ित व्यक्ति को करना चाहिए।
अष्टम महागौरी (तुलसी) – दुर्गा का अष्टम रूप महागौरी है। जिसे प्रत्येक व्यक्ति औषधि के रूप में जानता है क्योंकि इसका औषधि नाम तुलसी है जो प्रत्येक घर में लगाई जाती है। तुलसी सात प्रकार की होती है। सफेद तुलसी, काली तुलसी, मरुता, दवना, कुढेरक, अर्जक, षटपत्र। ये सभी प्रकार की तुलसी रक्त को साफ करती है। रक्त शोधक है एवं हृदय रोग का नाश करती है।
तुलसी सुरसा ग्राम्या सुलभा बहुमंजरी।
अपेतराक्षसी महागौरी शूलघ्नी देवदुन्दुभिरू
तुलसी कटुका तिक्ता हुध उष्णाहाहपित्ताकृत् ।
मरुदनिप्रदो हध तीक्षणाष्णरू पित्तालो लघुरू।
इस देवी की आराधना हर सामान्य एवं रोगी व्यक्ति को करना चाहिए।
नवम सिद्धदात्री (शतावरी) – दुर्गा का नवम रूप सिद्धिदात्री है। जिसे नारायणी या शतावरी कहते हैं। शतावरी बुद्धि बल एवं वीर्य के लिए उत्ताम औषधि है। रक्त विकार एवं वात पित्ता शोध नाशक है। हृदय को बल देने वाली महाऔषधि है। सिद्धिधात्री का जो मनुष्ट नियमपूर्वक सेवन करता है। उसके सभी कष्ट स्वयं ही दूर हो जाते हैं। इससे पीड़ित व्यक्ति को सिद्धिदात्री देवी की आराधना करना चाहिए।
इस प्रकार प्रत्येक देवी आयुर्वेद की भाषा में मार्कण्डेय पुराण के अनुसार नौ औषधि के रूप में मनुष्य की प्रत्येक बीमारी को ठीक कर रक्त का संचालन उचित एवं साफ कर मनुष्य को स्वस्थ करती है। अतŠ मनुष्य को इनकी आराधना एवं सेवन करना चाहिए।
मैहर धाम की शारदा माई और गुरूजी की महिमा निराली
नवरात्र में खिचें चले आते है श्रद्धालु
सुनील साहू
शारदेय नवरात्र हो वासंतेय नवरात्र या फिर हों आम दिन। यहां जिला मुख्यालय से लगभग 160 किलोमीटर दूर स्थित मैहर धाम की महिमा ही निराली है। मैहर धाम यूं तो आम दिनों में भी हजारों-हजारों श्रद्धालु मैहर वाली शारदा माता के दर्शन करने जाते हैं। लेकिन जब बात नवरात्र की हो तो यहां मातारानी का जलवा ही कुछ खास रहता है। देश के कोने-कोने से लाखों श्रद्धालु भागे-भागे चले आते हैं। पूरे नौ दिन तक मैहर में पैर रखने की जगह नहीं होती है। यहां की होटलें और धर्मशालाएं और बाजार पूरे नौ दिनों तक शवाब पर चलता है। अभी से लोगों ने होटलों में ठहरने के लिये कमरे बुक करा लिये हैं।
ऐसा ही एक अवसर गुरू पूर्णिमा के दिन भी आता है, जब मैहर धाम के प्रमुख पुजारी पंडित देवी प्रसाद जी महाराज के अनन्य शिष्य और भक्तगण गुरू पूर्णिमा पर मैहर में एकत्रित होते हैं। गुरूजी की भी महिमा निराली है। इतने ऊंचे धाम और इतनी ख्यातिलब्ध तीर्थ स्थल में बैठे गुरूजी को सिवा मैया की भक्ति के और कुछ रास नहीं आता। हर आने-जाने वाले भक्तों को वे माई-माई बोलकर आशीर्वाद देते हैं और जिस पर मन ही मन प्रसन्न हो जाएं, समझ लो उस पर साक्षात शारदा माई की कृपा हो जाती है। पुजारी जी को किसी भी चढ़ावे, प्रसाद, दक्षिणा से कोई सरोकार नहीं होता। माई और माई की भक्ति ही उनकी पूंजी और प्रसाद है। जबलपुर निवासी माई के अनन्य भक्त और गुरू जी के अनन्य शिष्य पंडित मुन्ना तिवारी, राहुल तिवारी बताते हैं कि गुरूजी पूरी तन्मयता के साथ भक्तिभाव में विभोर होकर शारदा माई की पूजा और आरती करते हैं। बारहों महीने उनका एक सा नियम है। नवरात्र में तो महाराज जी उस गुफा में निवास करते हैं, जिसे माई का गर्भग्रह कहा जाता है। रात के एकांत में इतनी ऊंचाई पर जहां आज भी आल्हा ऊदल और शेर व अन्य खतरनाक जीव‘-जंतु माई का फेरा लगाने आते हैं, उनके बीच महाराज जी बिल्कुल विचलित नहीं होते। लेकिन महाराज जी इन बातों का जिक्र कभी किसी से नहीं किया करते। जिन लोगों ने अपनी आंखों से देखा, उन लोगों ने इसे किसी आश्चर्य से कम नहीं समझा। जिस तरह माई शारदा अपने भक्तों पर कृपा बरसाती हैं, ठीक उसी तरह गुरूजी भी माई की छत्रछाया में भक्ति में लीन रहा करते हैं।
स्त्री-शक्ति के नौ रूप
– प्रांजल भार्गव
शारदीय नवरात्रों में चैत्र नवरात्रों की तरह एक बार फिर हम स्त्री शक्ति के नौ रूपों की पूजा करेंगे। देवी दुर्गा के रूप शक्ति, स्त्रीत्व और समृद्धि के प्रतीक है। इन स्वरूपों की पूजा करते हुए स्त्री रूपी इन देवियों के भव्य रूप हमारी चेतना में उपस्थित रहते हैं। इन्हें शक्ति रूप इसलिए कहा जाता है, क्योंकि जब सृष्टि के सृजन काल में देव पुरूष दानवों से पराजित हुए, तो उन्हें राक्षसों पर विजय के लिए दुर्गा से अनुनय करना पड़ा। एक अकेली दुर्गा ने विभिन्न रूपों में अवतरित होकर अनेक रक्षसों का नाश कर सृष्टि के सृजन को व्यवस्थित रूप देकर गति प्रदान की। इन रूपों के महत्व को जानते हैं।
नवदुर्गाओं में शैल पुत्री प्रथम दुर्गा मानी जाती है। इनके हाथों में त्रिशुल और कमल पुष्प शुसोभित हैं। इनका वाहन वृषभ है। शैल पुत्री अपने पूर्वजन्म में दक्ष प्रजापति की कन्या थीं और इनका नाम सति रखा गया। पिता की इच्छा के विरुद्ध सति ने भगवान शिव से विवाह किया। दक्ष ने एक बार महायज्ञ का आयोजन किया। किंतु इसमें शिव व सति को आमंत्रित नहीं किया। इसे सति ने शिव का अपमान माना और बिना बुलाए ही यज्ञ स्थल पर पहुंच गईं। वहां उन्होंने अपने पिता को शिव को आमंत्रित करने के लिए बाध्य किया। किंतु प्रजापति ने शिव का उपहास उड़ाया और उन्हें बुलाने से इनकार कर दिया। तब सति ने क्रोधित होकर यज्ञ कुंड में कूंदकर अपने प्राणों की आहुती दे दी। शिव को जब सति के प्राण त्यागने का समाचार मिला, तो उन्होंने अपने गणों को भेजकर यज्ञ का विध्वंस करा दिया। बाद में शिव सति के जले शव को कंधे पर लेकर भटकते रहे। पुराणों में उल्लेखित है कि इस दौरान सति के अंग बारह स्थानों पर गिरे। जिन्हें बारह ज्योतिर्लिगों की मान्यता प्राप्त है। अगले जन्म में यही सति शैलराज हिमालय के घर में पैदा हुई और शैल पुत्री कहलाई। इन्हें ही पार्वती कहा जाता है।
दुर्गा का दूसरा रूप ब्रह्मचारिणी का है, स्वेत वस्त्रधारी ब्रह्मचारिणी के एक हाथ में जपमाला और दूसरे में कमण्डल है। ब्रह्मचारिणी का जन्म पर्वतराज हिमालय की पत्नी मैना के गर्भ से हुआ था। पहले इनका नाम शुभ लक्षणों को देखते हुए पार्वती रखा गया। बाद में नारद मुनि ने हिमालय को बताया कि यही पार्वती पूर्व जन्म में सति थीं। इस रहस्य को जानने के बाद पार्वती में शिव को प्राप्त करने की इच्छा जागृत हो गई। इसके लिए देवी ने कठिन तपस्या की। इससे उनका शरीर कृशकाया में बदल गया। तपस्या से तीनों लोकों में हाहाकार मच गया। तब ब्रह्मा ने उनके समक्ष उपस्थित होकर मनचाहा वर मांगने की प्रार्थना की। पार्वती ने शिव को मांगा। ब्रह्मा ने पार्वती को अर्शीवाद तो दिया ही, उनकी काया को भी सुदंर रूप दिया। यहीं ब्रह्मा ने तप का आचरण करने के कारण ब्रह्मचारिणी का नाम दिया।
नवरात्रों के तीसरे दिन दुर्गा के शरीर से नई शक्ति के रूप में चंद्रघंटा की वंदना की जाती है। सिंह पर सवार ये देवी निडरता के साथ सौम्यता के गुणों से भी भरपूर है। इनके आभामंडल से अदृश्य शक्ति का विकिरण होता रहता है। इनके शरीर का वर्ण स्वर्ण है। इनके दस हाथ हैं, जिनमें खड्ग, अस्त्र-शस्त्र, वाण आदि विभूषित हैं। देवासुर संग्राम में इनके घंटे की भयानक ध्वानि से सैंकड़ों दैत्य मारे गए थे। इनकी मुद्रा हमेशा युद्ध के लिए तत्पर दिखाई देती है।
दुर्गा का चौथा स्वरूप कूष्मांडा देवी का है। इनका निवास सूर्यलोक में है। इसीलिए इनके शरीर की कांति और आभा सूर्य के समान सदैव प्रकाशित रहती है। सृष्टि के संपूर्ण प्राणियों में इन्हीं देवी का आलोक प्रदीप्त है। जब ब्रह्माण्ड का अस्तित्व नहीं था और चारों और अंधेरा था, तब इन देवी ने अपनी मंदमुस्कान द्वारा अंड अर्थात ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की। इसी कारण इन्हें कूष्मांडा कहा जाता है। सिंह पर सवार कूष्मांडा अष्ट भुजाधारी हैं। इनके हाथों में कमण्डल, धनुष-वाण, कमल-पुष्प, अमृत-कलश, चक्र, गदा और सभी प्रकार की सिद्धियां व जपमाला सुशोभित हैं।
दुर्गा का पांचवां रूप स्कंद माता का है। इनके पुत्र कार्तिकेय का एक नाम स्कंद है, इसलिए इन्हें स्कंद माता कहा जाता है। सिंह पर सवार इन देवी की चार भुजाएं है। इनके दो हाथों में कमलपुष्प है, एक हाथ वरदान की मुद्रा में है और दूसरा हाथ पुत्र स्कंद को गोद में लिए हुए है। इस कारण ये पद्मासना देवी भी कहलाती हैं।
इनके बाद छठे दिन देवी कात्यायनी की पूजा की जाती है। कात्य नामक ऋषि की वंशावली में एक प्रसिद्ध ऋषि कात्यायन हुए हैं। यह दुर्गा के भक्त थे। इस भक्ति से प्रसन्न होकर दुर्गा ने कात्यायन को कोई वर मांगने को कहा। तब महर्षि ने दुर्गा से अपने घर में पुत्री के रूप में जन्म लेने का आग्रह किया। दुर्गा ने यही वरदान दे दिया। कुछ समय बाद जब पृथ्वी पर महिषासुर नाम के असुर का अत्याचार बढ़ गया, तब दुर्गा के तेज से कात्यायन की पत्नी की कोख से देवी कात्यायनी ने जन्म लिया। पुराणों में ऐसा कहा गया है कि इस तेज में ब्रह्मा, विष्णु और महेश के तेज का भी समावेश है। चार भुजाधारी कात्यायनी का वाहन सिंह है। इनकी चार भुजाओं को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतीक माना गया है।
दुर्गा के सांतवें रूप को देवी कालरात्रि के नाम से जाना जाता है। इनकी काया अमवस्या की गहरी काली रात की तरह काली है। इनके मस्तक पर तीन नेत्र विद्यमान है, जो ब्रह्मण कि समान गोल तथा तीन लोकों के प्रतीक हैं। इनके केस घने एवं बिखरे हुए हैं। इनके गले में विद्युत ज्वाला सी प्रकाशित माला पड़ी हुई है। सांस लेते समय इनके नासिका छिद्रों से अग्नि की लपटें निकलती रहती हैं। इनकी सवारी गधा है और ये चार भुजाओं वाली हैं। इनके दो हाथों में तलवार और नुकीला अस्त्र हैं। जबकि एक हाथ वरदान की मुद्रा में और दूसरा अभय की मुद्रा में है। इन देवी को राक्षस और भूत-प्रेत का विनाश करने वाली देवी माना जाता है।
दुर्गा पूजन के आठवें दिन महागौरी की उपासना की जाती है। महागौरी ने शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए लंबे समय तक तपस्या की। इस समय उन्होंने धूप, आंधी, वर्षा और ठंड के थपेड़े सहे। इस कारण उनका शरीर कृशकाय और काला हो गया। अंत में जब भगवान शिव ने पार्वती रूपी इन महागौरी को पत्नी रूप में स्वीकार किया तब शिव ने अपनी जटाओं से निकलने वाली गंगा की जलधारा से पार्वती का शरीर धोया। इस पवित्र और शुद्ध गंगाजल से पार्वती का मेल धुल गया और उनका शरीर गौर वर्ण की तरह चमकने लगा। इसी कारण वे महागौरी के नाम से जानी जाने लगीं। इनका वाहन बैल है और इनकी मुद्रा अत्यंत शांत एवं सौम्य है।
नवरात्रि के अंतिम यानी नवें दिन सिद्धिदात्री की पूजा करने की परंपरा है। ये सभी रिद्धी-सिद्धियों की स्वामिनि हैं। पुराण कथाओं के अनुसार जब दुर्गा के मन में सृष्टि की रचना का विचार उत्पन्न हुआ, तब उन्होंने शिव को उत्पन्न किया। शिवजी ने उत्पन्न होने पर दुर्गा से सिद्धियों की मांग की शिव को सिद्धियां प्रदान करने के लिए एक अंश से देवी सिद्धिदात्री का जन्म हुआ। जो सभी प्रकार की सिद्धियों की ज्ञाता थी। बाद में सिद्धिदात्री ने शिव को 18 प्रकार की दुर्लभ, आमोघ और शक्तिशाली सिद्धियां दी। इनसे ही शिव में अलौकिक शक्तियों का तेज उत्पन्न हुआ। इसके बाद शिव ने विष्णु की और विष्णु ने ब्रह्मा की उत्पत्ति की। ब्रह्मा को सृष्टि रचना का, विष्णु को सृष्टि पालन का और शिव को सृष्टि के संहार का दायित्व सुपुर्द किया।
ब्रह्माजी को जब नर एवं नारी के अभाव में सृष्टि की रचना असंभव लगने लगी, तब उन्होंने माता सिद्धिदात्री का स्मरण किया। तब सिद्धिदात्री ने प्रकट होकर सिद्धियों द्वारा शिव का आधा शरीर नारी का बना दिया। इस प्रकार शिव आधे नर और आधे नारी के रूप में अर्द्धनारीश्वर कहलाए। तब कहीं जाकर ब्रह्मा की सृष्टि सृजन संबंधी समस्या का समाधान हुआ। दुर्गा के इन स्त्री रूपों में नारी की इतनी महिमा होने के बावजूद हम हैं कि न केवल स्त्री के साथ दुराचार कर रहे हैं, बल्कि कोख में भी स्त्री-भूण की हत्या करने का महापाप कर रहे हैं। सही मायने में नवरात्रि व्रत उपवास का संदेश स्त्री के सरंक्षण से जुड़ा है।
श्राद्ध से बड़ा कल्याणप्रद और कोई मार्ग नहीं
(पितृ मोक्ष अमावस्या पर विशेष)
अमित व्यास
संसार में श्राद्ध से बढ़कर कोई दूसरा कल्याणप्रद मार्ग नहीं है। अत बुद्धिमान मनुष्य को प्रयत्नपूर्वक श्राद्ध करना चाहिए। श्राद्ध की आवश्यकता और लाभ पर अनेक ऋषि-महर्षियों के वचन ग्रंथों में मिलते हैं। यह कहना है कि महर्षि सुमन्तु का। उन्होंने श्राद्ध के लाभ बताए हैं। कुर्मपुराण में कहा गया है कि जो प्राणी जिस किसी भी विधि से एकाग्रचित होकर श्राद्ध करता है, वह समस्त पापों से रहित होकर मुक्त हो जाता है और पुन संसार चक्र में नहीं आता।
गरुड़ पुराण के अनुसार :- पितृ पूजन (श्राद्धकर्म) से संतुष्ट होकर पितर मनुष्यों के लिए आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, वैभव, पशु, सुख, धन और धान्य देते हैं।
मार्कण्डेय पुराण के अनुसार :– श्राद्ध से तृप्त होकर पितृगण श्राद्धकर्ता को दीर्घायु, सन्तति, धन, विद्या सुख, राज्य, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करते हैं।
ब्रह्मपुराण के अनुसार :– जो व्यक्ति शाक के द्वारा भी श्रद्धा-भक्ति से श्राद्ध करता है, उसके कुल में कोई भी दु:खी नहीं होता। साथ ही ब्रह्मपुराण में वर्णन है कि श्रद्धा एवं विश्वास पूर्वक किए हुए श्राद्ध में पिण्डों पर गिरी हुई पानी की नन्हीं-नन्हीं बूँदों से पशु-पक्षियों की योनि में पड़े हुए पितरों का पोषण होता है। जिस कुल में जो बाल्यावस्था में ही मर गए हों, वे सम्मार्जन के जल से तृप्त हो जाते हैं।
श्राद्ध में भोजन करने के बाद जो आचमन किया जाता है तथा पैर धोया जाता है, उसी से पितृगण संतुष्ट हो जाते हैं। बंधु-बान्धवों के साथ अन्न-जल से किए गए श्राद्ध की तो बात ही क्या है, केवल श्रद्धा-प्रेम से शाक के द्वारा किए गए श्राद्ध से ही पितर तृप्त होते हैं।
विष्णु पुराण के अनुसार :- श्रद्धायुक्त होकर श्राद्धकर्म करने से पितृगण ही तृप्त नहीं होते, अपितु ब्रह्मा, इंद्र, रुद्र, दोनों अश्विनी कुमार, सूर्य, अग्नि, अष्टवसु, वायु, विश्वेदेव, ऋषि, मनुष्य, पशु-पक्षी और सरीसृप आदि समस्त भूत प्राणी भी तृप्त होते हैं।
हेमाद्रि नागरखंड के अनुसार :- एक दिन के श्राद्ध से ही पितृगण वर्षभर के लिए संतुष्ट हो जाते हैं, यह निश्चित है।
यमस्मृति के अनुसार :– जो लोग देवता, ब्राह्मण, अग्नि और पितृगण की पूजा करते हैं, वे सबकी अंतरात्मा में रहने वाले विष्णु की ही पूजा करते हैं।
देवलस्मृति के अनुसार :- श्राद्ध की इच्छा करने वाला प्राणी निरोग, स्वस्थ, दीर्घायु, योग्य सन्तति वाला, धनी तथा धनोपार्जक होता है। श्राद्ध करने वाला मनुष्य विविध शुभ लोकों को प्राप्त करता है, परलोक में संतोष प्राप्त करता है और पूर्ण लक्ष्मी की प्राप्ति करता है।
अत्रिसंहिता के अनुसार :- पुत्र, भाई, पौत्र (पोता), अथवा दौहित्र यदि पितृकार्य में अर्थात् श्राद्धानुष्ठान में संलग्न रहें तो अवश्य ही परमगति को प्राप्त करते हैं।
इसके अलावा भी अनेक वेदों, पुराणों, धर्मग्रंथों में श्राद्ध की महत्ता व उसके लाभ का उल्लेख है। उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि श्राद्ध फल से पितरों की ही तृप्ति नहीं होती, वरन् इससे श्राद्धकर्ताओं को भी विशिष्ट फल की प्राप्ति होती है। वर्ष भर में पितरों की मृत्युतिथि को सर्वसुलभ जल, तिल, यव, कुश और पुष्प आदि से उनका श्राद्ध संपन्न करने और गो ग्रास देकर अपने सामर्थय़ अनुसार ब्राह्मणों को भोजन करा देने मात्र से ऋण उतर जाता है। इसलिए पुत्र को चाहिए कि भाद्रपद की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से प्रारंभ कर आश्विन कृष्ण पक्ष की अमावस्या तक सोलह दिन पितरों का तर्पण और उनकी मृत्युतिथि को श्राद्ध अवश्य करें। ऐसा करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा
( गणेश चतुर्थी पर विशेष)
-जया शर्मा
भाद्र माह की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी गणेश चतुर्थी के नाम से प्रसिद्ध है। इस दिन प्रात:काल स्नानादि से निवृत्त होकर सोना, तांबा, मिट्टी या गोबर के गणेश की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करनी चाहिए। पूजन के समय इक्कीस मोदकों का भोग लगाकर तथा हरित दुर्बा के 21 अंकुर लेकर निम्न नामों पर चढ़ाने चाहिए। गतापि, गोरी सुमन, अष्टनाशक, एकदंत, ईशपुत्र, सर्वसिद्धिप्रद, विनायक, कुमार, गुरु, एकदंताय और मूषक वाहक संत। तत्पश्चात इक्कीस लड्डुओं में से दस ब्राह्मणों को देना चाहिए तथा ग्यारह लड्डू स्वयं खाने चाहिए।
कथा- माता पार्वती को स्नान करने में विलंब हो रहा था। कोई भी आसपास दिखाई नहीं पड़ रहा था जिसे द्वार पर बैठाकर वह स्नान कर आती। उन्हें एक बात सूझी अपने शरीर के मैल से एक पुतला तैयार कर उसमें प्राण फूंक दिये। उसे द्वार पर बैठाकर वे स्नान करने चली गई। कुछ समय पश्चात शिवजी आए और अंदर जाने लगे परंतु द्वारपाल बने पार्वती के पुत्र ने उन्हें रोका तो क्रोधित होकर शिव ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।
जब देवी पार्वती स्नान कर लौटी तो उन्होंने अपने पुत्र की उत्पत्ति की कथा शिवजी को बताई। जब शिवजी को अपने पुत्र के कटे सिर को देख दुख हुआ। तब उन्होंने अपने गणों को आदेश दिया कि जो भी जीवित प्राणी तुम्हें सबसे पहले दिखे उसका सिर काटकर लाओ। शिव के गणों ने सर्वप्रथम एक हथिनी को देखा और वे उसका सिर काटकर ले आए। शिवजी ने बिना किसी विलंब के वह सिर पार्वती के पुत्र के शरीर से जोड़ दिया। शिव ने आशीर्वाद दिया कि आज से तुम्हें सभी देवों में पूज्य होंगे और तुम्हारा नाम गणेश होगा।
उसी समय से भद्र पक्ष मास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी को गणेश जन्म मनाया जाता है। इससे एक दिन पूर्व हरितालिका तीज का क्रत होता है। स्त्रियां इस क्रत की पूजन सामग्री प्रातŠकाल नदी व तालाब में विसर्जित करती हैं। घरों को हारों से सजाया जाता है और गणेश स्थापना के लिए एक पीठ बनाई जाती है और उस पीठ के चारों ओर केले के पत्ते बांधे जाते हैं। गणेश जी की पूजा में नारियल, सुपारी, पान, दूब और मोदक का विशेष महत्व है।
गणेश चतुर्थी पर्व का शुभारंभ भारत की आजादी के प्रणेता लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने एक पर्व के रूप में किया। उन्होंने भारतीय जनता को एकसूत्र में बांधने के लिए गणेश चतुर्थी से अनन्त चतुदर्शी तक एक उत्सव का आयोजन किया। इसमें प्रथम दिन गणेश जी की भव्य प्रतिमा की स्थापना की जाती है और दस दिनों तक सुबह-शाम पूजा अर्चना की जाती है। इस प्रकार गणेश जयंती पर्व के माध्यम से तिलक ने लोगों को संगठित कर आजादी के लिए अग्रसर किया। गणेश उत्सव का आयोजन पूरे भारत में पूरे जोश और आस्था के किया जाता है। इस दौरान गणेश जी की झांकी सजाई जाती है जिसमें सामूहिक रूप से लोग पूजा-अर्चना करते हैं। श्री गणेशाय नमŠ की कर्णप्रिय ध्वनि से सारा वातावरण गूंज उठता है। गणेशजी को मिठाई प्रिय है। अतŠ पूरे दस दिन अलग-अलग प्रसाद के रूप में बांटा जाता है। लड्डू गणेश जी का प्रिय भोग है। अपनी मनोकामना को पूर्ण करने के लिए लोग लड्डू का भोग लगाते हैं। महाराष्ट्र में गणेश उत्सव आज भी सबसे बड़े पर्व के रूप मनाया जाता है। जहां गणेश जी को बड़ी-बड़ी मूर्तियां झांकी के रूप में सजाई जाती हैं। झांकियों में गणेश की लीलाओं के विभिन्न दृश्य ही बनाये जाते हैं। झांकिया भी लोगों के आकर्षण का केंद्र होती हैं। आज के आधुनिकता पूर्ण युग में हम झांकियों में भी यांत्रिक तकनीकों का प्रयोग देखा जा सकता है कम्प्यूटर आदि के माध्यम से स्वचलित झांकियां अति आकर्षक होती हैं।
समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति एवं व्यापारी वर्ग अधिक से अधिक धनराशि देकर इस पर्व को महत्ता प्रदान करते हैं। गणेश स्थापना के ठीक दस दिन बाद अनन्त चतुर्दशी का पर्व आता है। इस दिन सभी प्रतिमाएं नदी या तालाब में विसर्जित की जाती हैं। रात पर चल समारोह के रूप में प्रतिमाओं को वाहनों पर रखकर नगर के विभिन्न मार्गों में घुमाया जाता है। जो लोग झांकी देखने नहीं जा पाते। इस चलित समारोह में प्रतिमाओं के दर्शन कर स्वयं को धन्य मानते हैं।
रिद्धी सिद्धी के दाता गणेश जी सदैव सबसे पहले पूजे जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि गणेश जी की लकड़ी से बनी हुई घर के प्रमुख द्वार पर लगाने से हमेशा सुख समृद्धि खुशहाली आती है।
भोक्ता के लिए भोग्य है, भोग्य के लिए भोक्ता नहीं
(हरितालिकातीज 24अगस्त पर विशेष)
– जगतगुरु स्वरूपानंद सरस्वतीजी महाराज
हमारे शास्त्रों में मनुष्य शरीर को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि जीव के पुरुषार्थ की सिद्धि इसी मानव शरीर से हो सकती है। पुरुष के द्वारा समस्त चेष्टाओं से जिस अभिलषित को प्राप्त करने की इच्छा होती हो वह पुरुषार्थ है। पुरुष क्या चाहता है? दु:खों से पूर्णरुपेण मुक्ति एवं परमानन्द की प्राप्ति। मानवयोनि से इतर योनियों में पूर्णतया दु:खों से मुक्ति आनन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती। मनुष्य-शरीर में ही इसकी पूर्ति होना सम्भव है क्योंकि मनुष्य में वह बुद्धि है जिससे वह ब्रह्मसाक्षात्कार कर सकता है। ब्रह्मसाक्षात्कार के लिए ज्ञान की आवश्यकता है। वस्तुत: जीव ब्रह्म ही है किन्तु अनादि अज्ञान के कारण वह ब्रह्म प्राप्त होते हुए भी अप्राप्त हो गया है। ब्रह्म आत्म?प से सभी को प्राप्त है पर अनात्मा के साथ स्वयं को जोड़ लेने से असीमित होते हुए भी वह सीमित सा हो गया है। विवेक-विचार से ही इस भ्रान्ति का अन्त हो सकता है। इसकी पहली सीढ़ी है शरीर को आत्मा से पृथक् रुप से जानना। हमारे शास्त्रों में शरीर की नश्वरता और आत्मा की अमरता को समझाया गया है, यही प्रथम सीढ़ी है । फिर पुनर्जन्म और उत्तरजन्म का ज्ञान कराया जाता है। गीता में भगवान् अर्जुन से कहते हैं –
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
अर्थात् हे अर्जुन! मेरे तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं, उनकी इस बात में मेरे तेरे का अर्थ वही शरीर नहीं है जिस रुप में वे जाने जा रहे हैं अपितु इसका अर्थ अजर-अमर आत्मा है, जो शरीर के अन्त के पश्चात् भी रहता है। इसी आधार पर अधर्म का त्याग एवं धर्म के अनुष्ठान की प्रेरणा मिलती है, क्योंकि शरीर नहीं रहेगा लेकिन जहाँ भी अपने कर्मोपासना के साथ वह जाएगा, उसके शुभाशुभ कर्म संस्काररुप में उसके साथ जायेंगे। यथाकर्म यथा श्रुतम्। अर्थात् यह सिद्धान्त समाज को सुव्यवस्थित रखने और यह किसी अन्य को दु:खित न करने की प्रेरणा देता है।
आज विकास के नाम पर इस तथ्य को भुलाया जा रहा है क्योंकि विकास का अर्थ इसी लोक में भौतिक सुख को सुलभ करना है। लेकिन व्यक्ति को यदि धर्म-अधर्म का बोध नहीं हुआ तो स्वाभाविक रुप से भौतिक सुख के लिए वह समाज के सुख की उपेक्षा कर सकता है। अर्थ और काम भौतिकसुख के साधन हैं और इनकी प्राप्ति के लिए मनुष्य प्रतिक्षण कुछ न कुछ करता रहता है। अगर इसमें धर्म का नियत्रण न हुआ तो अधर्म की वृद्धि को रोका नहीं जा सकता है। इसलिए भगवान् श्रीपृष्ण ने कहा –
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामो़स्मि भरतर्षभ। (गी. 7/11)
धर्म से अविरुद्ध काम मेरा स्वरुप है। यह बात अर्थ के साथ भी संगत होती है, अर्थार्जन भी धर्मविरुद्ध रीति से नहीं करना चाहिए। मनुष्य को केवल मनुष्य के बनाये हुए संविधान से संयमित नहीं किया जा सकता, और ना ही दण्ड विधान से। इसलिए धर्म के साथ-साथ ईश्वर पर विश्वास होना आवश्यक है। आज भ्रष्टाचार के विरोध में कड़े कानून हैं, नारी उत्पीडन के विरुद्ध भी कठिन से कठिन दण्ड का विधान है, लेकिन तब भी इस पर प्रभावी नियत्रण नहीं हो पा रहा है, इसके कारण आज न तो कर्म और धर्म के सम्बन्ध पर लोगों का विश्वास है और ना ही ईश्वर का भय है।
सनातनधर्म की विशेषता यह है कि – अन्य तथाकथित मत-मतान्तर केवल परलोक के सुख का प्रलोभन और नारकीय यातना का भय देकर चल रहे हैं, लेकिन हमारे उपनिषदों ने इसके आगे सोचा है और यह सिद्धान्त निश्चित किया गया है कि – सुख भोग में नहीं त्याग में है – त्यागेनैके अमृतत्वमानशु:। जो सुख भोग से मिलते हैं, उससे कई गुना अनन्त सुख विषय सुख का त्याग करके ब्रह्मसाक्षात्कार करने से प्राप्त होता है। जीवन में अधर्म का त्याग और धर्म के आचरण के द्वारा चित्त को शुद्ध करके परमात्मा की जिज्ञासा करनी चाहिए पर इसके लिए शास्त्र और आचरण आवश्यक है। क्योंकि यह विषय अत्यन्त ही सूक्ष्म है। कठोपनिषद् में लिखा है –
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहित:। नाशान्तमानसो वा।पि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ।। कठ. 1/2/24
जो श्रुति-स्मृति से अविहित निषिद्धकर्मों से अर्थात् पापकर्मों से उपरत नहीं हुआ है, जो इन्द्रियों की लोलुपता के कारण अशान्त है, जिसका चित्त समाहित नहीं है, अर्थात् जो विक्षिप्त चित्त वाला है और जिसका मन शान्त नहीं है, ऐसा व्यक्ति इस आत्मा को प्रज्ञान अर्थात् ब्रह्मविज्ञान के द्वारा भी प्राप्त नहीं कर सकता। तात्पर्य यह है कि जो दुश्चरित से, इन्द्रिय लोलुपता से उपरत है, समाहितचित्त वाला है, जिसका मन पूर्ण शान्त है, ऐसा व्यव्ति ही श्रोत्रिय, ब्रह्मनि? गुरु की कृपा से आत्मा को प्राप्त कर सकता है। इसलिए चित्त की शुद्धि आवश्यक है। चित्तशुद्धि के साथ-साथ बुद्धि की सूक्ष्मता भी आवश्यक है। कठोपनिषद् में लिखा है-
दृश्यते त्वग्रथया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि: (कठो.1/3/12) ।
छान्दोग्य उपनिषद में आख्यायिका है – प्रजापति के दो पुत्र थे सुर और असुर। दोनों के प्रतिनिधि ब्रह्म को जानने के लिये प्रजापति ब्रह्मा के पास गये और वर्षों तक ब्रह्मचर्यपूर्वक ब्रह्म को जानने की जिज्ञासा प्रकट की। ब्रह्मा ने कहा –
तौ ह प्रजापतिरुवाच य एषोयक्षिणि पुरुषो दृश्यत एष आत्मेति होवाचैतदमृतमभयमेतद्ब्रह्मेत्यथ
योद्धयं भगवोयप्सु परिख्यायते यश्चायमादर्शे कतम एष इत्येष उ एवैषु सर्वेष्वन्तेषु परिख्यायत इति होवाच । (छा.8/7)
उन्होंने अक्षिणी दृश्यते के आधार पर समस्त ब्रह्म आँख से दीखता है, यह समझकर वे कुएँ के पास गये। विरोचन ने पुँए में स्वयं के प्रतिबिम्ब को देखा तो वह शरीर को ही ब्रह्म समझकर लौट गया और शरीर की सेवा व विकास के लिए प्रयत्नशील हो गया, देवराज इन्द्र को पुन: जिज्ञासा हुई कि जो नेत्रों के द्वारा दिखायी पड़ता है, वह अमृत ब्रह्म नहीं हो सकता, ब्रह्म के लक्षण इसमें नहीं घटते। वह पुन: लौटकर ब्रह्मा जी के पास गया। अन्त में ब्रह्मा जी ने इन्द्र को ज्ञान देते हुए बताया जो जाग्रत् में इन्द्रियों के द्वारा विषय को जानता है, स्वप्न में मन के द्वारा स्वप्नदृश्यों को देखता है और सुषुप्ति में अपने स्वरुप में स्थिर हो जाता है इस तरह जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति का साक्षी तुरीय ही ब्रह्म है। इन्द्र ने उस ब्रह्म को सबसे पहले जाना, इसीलिए वे देवों में श्रेष्ठ हैं। आज हमें यह देखना है कि हम विरोचन के मार्ग पर चलें या इन्द्र के मार्ग पर।
बृहदारण्यकोपनिषद् में बतलाया गया है कि जैसे खुर के निशान देखकर पशुओं को प्राप्त कर लिया जाता है, इसी प्रकार सीमित ज्ञान से भी असीमित को प्राप्त कर लिया जाता है। हम भारतवासियों को अपने इस वैशिष्टय का ध्यान रखना है, इसी से हम जगत् को मार्ग दिखा सकते हैं। अगर यह हम न कर सके और भौतिकता ही श्रेष्ठता का आधार रहा तो जगत् हमारा गुरु और हम जगत् के शिष्य होंगे। भौतिक समृद्धि जीवन के लिए आवश्यक है, जीवन भौतिक समृद्धि के लिए नहीं। भोक्ता के लिए भोग्य है, भोग्य के लिए भोक्ता नहीं।
(स्वामी स्वरुपानन्द सरस्वती: जगद्गुरु शंकराचार्य, ज्योतिष्पीठ/द्वारकाशारदापीठ)
एनआरआई के लिए अशुभ रहेगा खग्रास सूर्य ग्रहण- पं. विनोद गौतम
सूतक काल वहीं पर होता है, जहां ग्रहण की छाया होती है पर सूर्य और चंद्रमा को सनातन धर्मावलंबी माता-पिता की संज्ञा देते हैं इनके ऊपर कहीं पर भी ग्रहण पड़े उसका प्रभाव संपूर्ण पृथ्वी पर पड़ता है। विदेशों में बहुत सनातन धर्मावलंबी निवासरत हैं जिनके लिए यह ग्रहण शुभ नहीं है।
21 अगस्त को खग्रास सूर्यग्रहण की छाया विदेशों में रहेगी, जो शोध का विषय बनेगा। इस ग्रहण के प्रभाव से ग्रहण पथ में कुछ देर के लिए अंधेरा छा जाएगा। शोध के अनुसार एक पखवाड़े में दो ग्रहणों का पडऩा खतरे की घंटी है। गौरतलब है कि इस ग्रहण के 15 दिन पूर्व 7 अगस्त को चंद्रग्रहण हुआ था। इसके प्रभाव से राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक स्थितियां बिगड़ेंगी, देश में युद्ध जैसे हालात बन सकते हैं, आतंकीय घटनाएं बढ़ेंगी एवं इस ग्रहण के प्रभाव से मकर राशि प्रभावित होगी। चूंकि मकर राशि मध्यप्रदेश की प्रभाव राशि है। अत: मध्यप्रदेश में भी इस ग्रहण का असर देखने को मिलेगा। इसके साथ ही संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के सभी देश इस ग्रहण के प्रभाव से संकट का सामना करेंगे। अमेरिकी स्टेट को इस दौरान सावधानी रखने की सलाह दी जाती है।अमेरिका एवं अन्य देशों में तीन मिनट के लिए दिन में ही रात्रि जैसा माहौल बन जाएगा। यह खग्रास ग्रहण 2017 का आखिरी ग्रहण है।
सूर्यग्रहण- भाद्रपद कृष्ण 30 सोमवार (२१ अगस्त २०१७) को लगने वाला खग्रास सूर्यग्रहण भारत में दृश्य नहीं होगा। यह ग्रहण संयुक्त राज्य अमेरिका के पश्चिमी भाग रे पूर्वी भाग तक खग्रास रूप से दिखाई देगा। ग्रहण पथ प्रशांत महासागर से प्रारंभ होकर संयुक्त राज्य अमेरिका को पार कर अटलांटिक महासागर में समाप्त होगा। खंडग्रास रूप में यह ग्रहण उत्तरी अमेरिका, दक्षिण अमेरिका के उत्तरी भाग, अटलांटिक महासागर, यूरोप के पश्चिमी भाग, उत्तर-पूर्व एशिया, उत्तर-पश्चिमी अफ्रीका, प्रशांत महासागर और आर्कटिक क्षेत्र में दृश्य होगा। भारतीय समयानुसार ग्रहण का प्रारंभ रात्रि ९.१५ पर, मध्य रात्रि ११.५० पर तथा मोक्ष रात्रि २.३३ बजे होगा। इस ग्रहण का ग्रासमान १.०३ पर होगा।
ग्रहण वेध- सूर्य ग्रहण के स्पर्श (प्रारंभ होने) से चार प्रहर अर्थात १२ घंटे का होता है। जिसे सूतक कहते हैं। सूतककाल में मूर्ति स्पर्श, पूजा-पाठ, अनुष्ठान, ध्यान निषेध हैं। इस समय संकीर्तन पाठ, रामनाम जाप एवं सूर्य मंत्र का जाप करना चाहिए। ग्रहण समाप्ति के पश्चात स्नान, दान, पूजा-पाठ इत्यादि अवश्य करनी चाहिए। ग्रहणकाल में गर्भवती स्त्रियों को सावधानी रखनी चाहिए। रोगी, वृद्धजनों एवं बालकों को धार्मिक नियमों के भंग होने का दोष नहीं लगता। सूर्यग्रहण को नंगी आंखों से देखना हानिप्रद होता है, जिस राशि में ग्रहण होता है उस राशि वालों को अनिष्ठ फल देता है। जहां पर ग्रहण की छाया पड़ती है वहां पर ही ग्रहण का सूतक मान्य होता है। ग्रहण के अनिष्ठ फल से बचने के लिए स्वर्ण निर्मित सर्प कांसे के बर्तन में तिल, व एवं दक्षिणा के साथ श्रोत्रिय ब्राह्मण को दान करना चाहिए अथवा सोने या चांदी का ग्रह बिम्ब बनाकर ग्रहण जनित दुष्ट फल निवारण हेतु दान करना चाहिए।
जन-जन के तारणहार भगवान श्रीकृष्ण
-समीर
भगवान श्रीकृष्ण का जन्म ही जनउद्धार के लिए हुआ था। यह अद्भुत है कि उनके जन्म लेते ही पृथ्वी से अन्यायी एवं दुराचारियों का नाश हो गया था। अतŠ कहा जा सकता है कि कृष्ण जन्मजात विद्रोही थे या कहिए नाराज योद्धा। उनका जन्म विकट परिस्थिति में हुआ और उन्होंने उस पर जन्म से विजय पाई। उनके जन्म से पहले ही भविष्यवाणियाँ हो गई कि वह अत्याचारी का काल करने के लिए जन्में है। गरीब यादव-अहीर का बेटा, तानाशाही के खिलाफ, उसके जन्म से ही एक मायाजाल बुना गया है। एक मनोविज्ञान कि उसे बचाना, उसकी रक्षा करना आवश्यक है।
भगवान कृष्ण विद्रोही जन्मजात है। अपने साथ बचपन से गरीब, विकलांग, किसान बच्चों को लेकर खेलने चला है। हर गलत बात पर लड़ता-झगड़ता, अन्याय के खिलाफ परचम उठाए। कृष्ण के पहले के सारे चरित्र नायक आकाश से उतरे अवतारी पुरूष हैं, देव हैं। इसमें कोई शक नहीं कि अवतार कृष्ण से पूर्व की कल्पना है, कृष्ण ऐसा महान नायक है, जो निरन्तर मनुष्य होना चाहता है। कृष्ण सुकुमार, अबोध और संपूर्ण मनुष्य है। कृष्ण का चरित्र सबको प्रसन्न और सुखी देखना है। वे कहते हैं कि हमारे गाँव का दूध बाहर क्यों जाए? जब तक यहाँ रहने वाले हर नागरिक को उसकी आवश्यकतानुसार दूध न मिले। हाँ,बचने पर दूसरे गाँव भी बेचने जाओ। पर पहले यहाँ की जरूरत तो पूरी करो। ऐसे ही छोटे-छोटे किन्तु विचारणीय मुद्दों पर लड़ते-लड़ते कृष्ण का बचपन बीता है। तानाशा (कंस), जिसने लोकतंत्र की हत्या कर अपने पिता को ही कारावास में डाल रखा है, उस आततायी-अत्याचारी का वध करके भी कृष्ण गद्दी पर नहीं बैठते। कृष्ण लोकतंत्र की स्थापना करते हैं।
निरंकुश शासन, सत्ताा के खिलाफ कृष्ण का विद्रोह जन-चेतना युक्त क्रांति है, उसमें सारे गुण क्रांतिकारियों से हैं। एक क्रांतिकारी के सारे गुण, कृष्ण में कूट-कूट कर भरे पड़े हैं। कृष्ण जी का कहना था कि अपनी रक्षा कर लोगे तभी तो दूसरा वार भी कर पाओगे। संभवत यही कारण है कि भारतीय क्रांतिकारियों को किसी और पुस्तक की बनिस्बत (गीता) ने सर्वाधिक प्रभावित किया। अनेक क्रांतिकारी फाँसी चढ़ने से पूर्व (गीता) की पोथी ही हाथ में लिए चढ़े हैं। यह तो दृष्टा की दृष्टि है किसमें क्या देखें गीता तो बच्चों का बादल है।
कृष्ण की प्रेम लीला भी अपरम्पार है। प्रेम में भी कृष्ण-कृष्ण है। नौजवान कृष्ण को राधा ही भली लगती थी।
यूँ भी गोरी के अपेक्षा साँवली सुन्दर होती है। राधा गोरी थी, बाल कृष्ण तो राधा में रमा रहा। युवा कृष्ण के मन पर कृष्णा छाई रही….। क्या गोरी क्या साँवरी? प्रेम के इतिहास में इससे साहस की भला बात क्या होगी कि सत्यभामा, रूक्मणी और अन्य सोलह हजार कन्याओं का पति, राधा से न सिर्फ प्रेम करता है, अपितु उसे (जनपूज्य) भी बना देता है। राधा उसकी आराध्या, प्राणप्रिया ही नहीं, प्राणप्रेरक, प्रेरणास्रोत, शक्ति भी है।
राधा-कृष्ण न सिर्फ एक नाम है, अपितु भारतीय दर्शन चिन्तन मनन और प्रेम साहित्य में संयुक्त-पूजन परंपरा भी है। रूक्मणी को भी लाए कृष्ण तो खुलकर, खम ठोक कर, छुपकर नहीं और रूक्मिणी भी कितने साहस से प्रेमपत्रों से अपने ही अपहरण के लिए इतना खुला उन्मुक्त उद्वाम साहसी या दु:साहसी आमंत्रण भेजती है, जो आज भी संभव नहीं।
कृष्ण 16 हजार विधवाओं को भी अपना नाम, पत्नी का दर्जा देकर सम्मान प्रदान करते हैं उसके पीछे की तार्किक वैज्ञानिक विवेचनाएँ भी अपनी जगह है।
कृष्ण पूर्णपुरूष हैं, मर्द हैं-नायक हैं, योगी भी है, यथार्थ भी। जो करते हैं खुलकर करते हैं, छुपकर नहीं। राम और कृष्ण में जो मौलिक अंतर है, वह यही कि राम शान्त, मीठे और सुसंस्कृत युग के नायक हैं और कृष्ण जटिले, तीखे और प्रखर बुद्धियुग के नायक हैं।
असंख्य-संधि और असंख्य-विग्रह, देश-प्रदेशों के संबंध उसे बदलने पड़े, शठम् प्रति शाठय़ समाचरेत नीति में भी बड़ी मेहनत और पराक्रम उसे करना पड़ता था। अपने लक्ष्य-संधान हेतु इन सारे प्रसंगों में एक और बात बेहद मजेदार है, कृष्ण कभी भी रोते नहीं, आँसू नहीं बहाते, कमजोर या भावुक नहीं होते।
कृष्ण कभी रोते नहीं, हाँ, आँखें जरूर उनकी डबडबा आती हैं, मगर हर उस प्रसंग पर जहाँ अन्याय-अत्याचार हो रहा है। जब भी किसी नन्हे बच्चे को सात-सात महा-पराक्रमी योद्धाओं ने चक्रव्यूह में घेर कर मारना चाहा है। उनकी आँखें डबडबा आईं हैं। संसार में एक कृष्ण ही है जो दर्शन को भी (गीत) बना देता है, गीता बना देता है। जो नर-नारी संबंधों को प्रेम बना देता है। कृष्ण जन-जन के मन-मन के आराध्य हैं।
श्रीकृष्ण का जीवन दर्शन और पर्यावरण संरक्षण
-हर्षवर्धन पाठक
प्रदूषण का निवारण और पर्यावरण का संरक्षण आज की प्रमुख चिंता है। सम्पूर्ण विश्व में इस समस्या के प्रति जागरूकता पैदा हुई है। ऐसे समय में वह बोध गौरव की प्रतीति करता है कि पर्यावरण संरक्षरण की चेतना भारत में पहले से रही है। भारत के प्राय सभी धार्मिक रीति-रिवाज पर्यावरण तथा प्रकृति से प्रेम के परिचायक हैं। चाहे दीपावली, गंगा-दशहरा, होली, सोमवती अमावश्या, नवरात्रि, ओणम, और पोंगल, नवाखाई, आंवला नवमी, बैसाखी, तुलसी विवाह, अक्षय तृतीया, शरदपूर्णिमा आदि सभी लोकोत्सवों में प्रकृति के विभिन्न रंगों, उपादानों की पूजा होती है। लीला पुरूषोत्तम श्रीकृष्ण की संपूर्ण यात्रा प्रकृति प्रेम का अनुपम उदाहरण है। यह स्मरण करना सुखद अनुभूति देता है कि भगवान श्रीकृष्ण की जो जीवन यात्राा यमुना की बाढ़ के बीच प्रारंभ हुई और पश्चिमी सागर में द्वारका के समुद्री तट पर जिसका विराम हुआ, उस जीवनयात्रा में जल, जंगल और जमीन के प्रति उनका अटूट स्नेह परिलक्षित होता है।
श्रीकृष्ण की शिक्षा महाकाल की नगरी उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर हुई तो ब्रज का गिरिराज पर्वत इस घटना का साक्षी है कि वहां पर श्रीकृष्ण के बाल-काल में बादल फटने जैसा प्राकृतिक प्रकोप हुआ था, जिसका सामना श्रीकृष्ण ने ब्रज की जनशक्ति और गिरिराज पर्वत का आश्रय लेकर किया था। यमुना तट को प्रदूषण से बचाने के लिए उन्होंने भयंकर कालिया नाग से संघर्ष किया, ऐसी कई रोचक गाथायें श्रीकृष्ण के जल और जंगल प्रेम से जुड़ी है।
वेद आर पुराण जैसे प्राचीन ग्रन्थों तथा आधुनिक शोधों ने यह संकेत दिया है कि प्राचीनकाल में सरस्वती की विशाल जलधारा पश्चिमी भारत से होकर बहती थी तथा श्रीकृष्ण की राजधानी द्वारका का संपूर्ण अंचल सरस्वती के जल से लाभान्वित था। द्वारका नगरी जिस क्षेत्र में बसाई गई थी, उसके पश्चिम में सिंधु नदी और दक्षिण पूर्व में नर्मदा का समुद्र संगम था। इस प्रकार श्रीकृष्ण की राजधानी द्वारका के एक ओर समुद्र की अपार जल राशि थी, तो अनेक बड़ी नदियों के जलप्रवाह से यह समूचा क्षेत्र आलोकित होता था।
श्रीकृष्ण के जीवन से जल के मानव जीवन के लिए बेहतर उपयोग और संरक्षण की प्रेरणा मिलती है। उनका जीवन प्रकृति और पर्यावरण के इस जीवनदायिनी पहलू के संरक्षण तथा प्रेम की प्रेरणा देता है।
पौराणिक कथाओं तथा जन विश्वास के अनुसार श्रीकृष्ण ने हस्तनापुर में जिस कालिन्दी नामक युवती से विवाह किया था, वह वास्तव यमुना नदी का मानवीय रूप था। यमुना को कालिन्दी के नाम से भी पुकारा जाता है। लेकिन आज यह कालिन्दी – जलधारा जिस प्रदूषित रूप में बह रही है, वह शोचनीय तथ्य है। कालिन्दी की इस जलधारा को गंदा करने में जनसाधारण का भी थाड़ा-बहुत योगदान तो रहता ही है।
अत अब यह समय है जब हम पर्यावरण संरक्षण और बेहतर जल उपयाग के सबसे बड़े पेरणा पुरूष श्रीकृष्ण के जीवन दर्शन से प्रेरणा लें। पेयजल की प्रदूषण से मुक्ति ही हमारा पहला संकल्प होना चाहिए।
किसी भी नदी को जीवनदायिनी जलधारा में बदलने में छोटी-मोटी धाराओं, जलसंरचनाओं, वनस्पति, जीवजंतु, रेत, पत्थर, खनिज आदि का संरक्षण संवर्धन महत्वपूर्ण होता है। इसके साथ ही नदी जल पर निर्भर मानव समूहों – मल्लाहों, मछुआरों, तीर्थयात्रियों, तटवर्ती खेतिहरों के अधिकारों तथा सुविधाओं की रक्षा और संवर्धन भी एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होना चाहिए । दुर्भाग्य से हमारी नदी जल परियोजनाओं में इसका समुचित समावेश नहीं है।
लीला पुरूष श्रीकृष्ण का जीवनदर्शन हमें यह संदेश देता है कि हमारे जीवन में और हमारी प्रकृति में जल का कितना महत्व है। आज जब हमको पर्यावरण के लिये नमामि गंगा परियोजना चलाना जरूरी हो गया है, गंगा यमुना, जैसी बड़ी और धार्मिक नदियों के जल प्रवाह को निर्मल तथा अक्षुण्य बनाने के लिये सैकड़ों करोड़ का व्यय करना पड़ रहा है, तब जल संरक्षण कार्यों की महत्ता तथा गरिमा स्पष्ट हो रही है। श्रीकृष्ण ने समुद्र तट पर द्वारका जैसे भव्य नगर का निर्माण कर जीवन में नगर का महत्व प्रतिपादित किया तो सांवन में वृंदावन के झूलों के द्वारा प्रकृति को रमणीय बनाया । यमुना जल को विष-मुक्त किया तो बाढ़ में वृंदावन की रक्षा कर एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया । उनकी वंशी प्रकृति की देन थी तो गौ-प्रेम पशुरक्षा का अनुपम उदाहरण। उनका जीवन दर्शन पर्यावरण प्रेम का अद्भुत उदाहरण है जो हमारे लिये प्रेरणा स्रोत हो सकता है।
श्रावण सोमवार का महत्व
अमित व्यास
हिन्दू धर्म के अनुसार श्रावण मास सर्वश्रेष्ठ मास माना गया है, क्योंकि यह मास भगवान शंकर का अतिप्रिय मास है, इस मास में जाप, अनुष्ठान, रूद्राभिषेक पूजन और भिन्न-भिन्न रूपों में भगवान शंकर की महिमा का गुणगान किया जाता है, श्रावण मास में सोमवार का विशेष महत्व होता है, श्रावण मास के समस्त सोमवारों को यह व्रत रखना चाहिए इस व्रत में शिव पार्वती गणेश, कार्तिक तथा नन्दी भगवान की पूजा की जाती है, जल, दूध, दही, चीनी, घी, मधु, पंचामृत, कलावा, वस्त्र, यज्ञोपवीत, चन्दन, रोली चावल, फूल, विल्व पत्र, दूर्वा, विजया, अर्क, धतूरा, कमल-गट्टा, पान, सुपारी, लौंग-इलायची, पंचमेवा, धूप-दीप तथा दक्षिणा सहित भगवान शिव की पूजा करनी चाहिए। पूजन के बाद दिन में केवल एक बार भोजन करना चाहिए इन दिनों श्रावण मास के महात्मय की कथा सुननी चाहिए इस प्रकार क्रत करने से मनुष्य की समस्त मनोकामनाएँ पूरी होती है और अभीष्ठ फल की प्राप्ति होती है।
श्रावण मास में सोमवार का विशेष महत्व :-
श्रावण मास में भी सोमवार का विशेष महत्व होता है, वार प्रवृत्ति के अनुसार सोमवार भी हिमांषु अर्थात चन्द्रमा का ही दिन है। स्थूल रूप में अभिलक्षणा विधि से भी यदि देखा जाए तो चन्द्रमा की पूजा भी स्वयं भगवान शिव को स्वत ही प्राप्त हो जाती है, क्योंकि चन्द्रमा का निवास भी भुजंग भूषण भगवान शिव का सिर ही है, रौद्र रूप धारी देवाधिदेव महादेव भस्माच्छादित देह वाले भूत भावन भगवान शिव जो जप-तप तथा पूजा आदि से प्रसन्न होकर भस्मासुर को ऐसा वरदान दे सकते हैं कि वह उन्हीं के लिए प्राणघातक बन गया, वह प्रसन्न होकर किसको क्या नहीं दे सकते हैं?
असुर कुलोत्पन्न कुछ यवनाचारी कहते हुए नजर आते हैं कि जो स्वयं भिखमंगा है, वह दूसरों को क्या दे सकता है? किन्तु संभवत उसे या उन्हें यह नहीं मालूम कि किसी भी देहधारी का जीवन यदि है तो वह उन्हीं दयालु शिव की दया के कारण है अन्यथा समुद्र से निकला हलाहल पता नहीं कब का शरीरधारियों को जलाकर भस्म कर देता किन्तु दया निधान शिव ने उस अति उग्र विष को अपने कण्ठ में धारण कर समस्त जीव समुदाय की रक्षा की। उग्र आतप वाले अत्यंत भयंकर विष को अपने कण्ठ में धारण करके समस्त जगत की रक्षा के लिए उस विष को लेकर हिमाच्छादित हिमालय की पर्वत श्रृंखला में अपने निवास स्थान कैलाश को चले गए।
हलाहल विष से संयुक्त साक्षात मृत्यु स्वरूप भगवान शिव यदि समस्त जगत को जीवन प्रदान कर सकते हैं। यहाँ तक कि अपने जीवन तक को दाँव पर लगा सकते हैं तो उनके लिए और क्या अदेय ही रह जाता है? सांसारिक प्राणियों को इस विष का जरा भी आतप न पहुँचे इसको ध्यान में रखते हुए वे स्वयं बर्फीली चोटियों पर निवास करते हैं। विष की उग्रता को कम करने के लिए साथ में अन्य उपकारार्थ अपने सिर पर शीतल अमृतमयी जल किन्तु उग्रधारा वाली नदी गंगा को धारण कर रखा है, उस विष की उग्रता को कम करने के लिए अत्यंत ठंडी तासीर वाले हिमांशु अर्थात चन्द्रमा को धारण कर रखा है। और श्रावण मास आते-आते प्रचण्ड रश्मि-पुंज युक्त सूर्य ( वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ में किरणें उग्र आतपयुक्त होती हैं।) को भी अपने आगोश में शीतलता प्रदान करने लगते हैं। भगवान सूर्य और शिव की एकात्मकता का बहुत ही अच्छा निरूपण शिव पुराण में किया गया है।
अर्थात् भगवान सूर्य महेश्वर की मूर्ति हैं, उनका सुन्दर मण्डल दीप्तिमान है, वे निर्गुण होते हुए भी कल्याण मय गुणों से युक्त हैं, केवल गुणरूप हैं, निर्विकार, सबके आदि कारण और एकमात्र (अद्वितीय) हैं। यह सामान्य जगत उन्हीं की सृष्टि है, सृष्टि, पालन और संहार के क्रम से उनके कर्म असाधारण हैं, इस तरह वे तीन, चार और पाँच रूपों में विभक्त हैं, भगवान शिव के चौथे आवरण में अनुचरों सहित उनकी पूजा हुई है, वे शिव के प्रिय, शिव में ही आशक्त तथा शिव के चरणारविन्दों की अर्चना में तत्पर हैं, ऐसे सूर्यदेव शिवा और शिव की आज्ञा का सत्कार करके मुझे मंगल प्रदान करें तो ऐसे महान पावन सूर्य-शिव समागम वाले श्रावण माह में भगवान शिव की अल्प पूजा भी अमोघ पुण्य प्रदान करने वाली है तो इसमे आश्चर्य कैसा?
जैसा कि स्पष्ट है कि भगवान शिव पत्र-पुष्पादि से ही प्रसन्न हो जाते हैं तो यदि थोड़ी सी विशेष पूजा का सहारा लिया जाए तो अवश्य ही भोलेनाथ की अमोघ कृपा प्राप्त की जा सकती है। शनि की दशान्तर्दशा अथवा साढ़ेसाती से छुटकारा प्राप्त करने के लिए श्रावण मास में शिव पूजन से बढ़कर और कोई श्रेष्ठ उपाय हो ही नहीं सकता है।
श्रावण मास में सोलह सोमवार का विशेष महत्व :-
श्रावण मास में भगवान त्रिलोकीनाथ, डमरूधर भगवान शिवशंकर की पूजा अर्चना का बहुत अधिक महत्व है, भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए श्रावण मास में भक्त लोग उनका अनेक प्रकार से पूजन अभिषेक करते हैं। भगवान भोलेनाथ जल्दी प्रसन्न होने वाले देव हैं, वह प्रसन्न होकर भक्तों की इच्छा पूर्ण करते हैं। इस छोटे से मंत्र से स्पष्ट होता है कि शिवजी को एक बिल्वपत्र चढ़ाने से तीन जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। मंत्र इस प्रकार है-
‘‘त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्र्यायुधम् त्रिमग्न पाप-संहारमं एकं विल्वं शिवार्पणम”।।
महिलाएँ श्रावण मास से सोलह सोमवार का व्रत धारण (प्रारंभ) करती है, सुहागिन महिलाएँ अपने पति एवं पुत्र की रक्षा के लिए कुँवारी कन्या इच्छित वर प्राप्ति के लिए एवं अपने भाई पिता की उन्नति के लिए पूरी श्रद्धा के साथ व्रत धारण करती है। श्रावण से सोलह सोमवार कुल वृद्धि के लिए, लक्ष्मी प्राप्ति के लिए, सम्मान के लिए भी किया जाता है।
इस व्रत को प्रारंभ करने के लिए विशेष मुहुर्त एवं शिवजी का निवास का ध्यान रखना चाहिए। शिव अलग-अलग स्थान पर रहते हैं, अत जिस दिन से आप सोमवार व्रत प्रारंभ करें। शिवजी का निवास अवश्य देखे क्योंकि शिवजी वृषभ पर बैठे हो तो लक्ष्मी प्राप्ति, गौरी के साथ हो तो शुभ, कैलाश पर बैठे हो, तो आपको सौख्य की प्राप्ति होती है। सभा में बैठे हों, तो कुल वृद्धि होती है। भोजन कर रहे हो तो अन्न की प्राप्ति, क्रीड़ा कर रहे हो, तो संतापकारक होता है। यदि शिवजी श्मशान घाट में हो तो मृत्यु के समान होता है अत सोच-विचार करके सोलह सोमवार प्रारंभ करे।
इस प्रकार शिव निवास देखकर व्रत आरंभ किया जाता हैं, तो भगवान भोलेनाथ हर मनोकामना पूर्ण करते हैं, मैं भगवान भोलेनाथ को प्रणाम करता हूँ।
सुहागिनों के लिए ‘मंगलागौरी क्रत’
जया
हिन्दू धर्म में श्रावण के सोमवार के समान ही सुहागिन स्त्रियों द्वारा मंगलवार के दिन मंगला गौरी की पूजा की जाती है। श्रावण मास में जितने भी मंगलवार आते है उनमें क्रत रखकर मंगलागौरी का पूजन करने से अभीष्ट फल प्राप्त होते हैं। विवाह के बाद पहला मंगलागौरी क्रत माँ के घर यानी मायके से शुरु किया जाता है। पांच वर्ष तक क्रत करने के बाद का उद्यापन कर दिया जाता है।
मंगलागौरी के क्रत में सोलह के अंक का बड़ा महत्व है। स्नानादि से निवृत्त होकर पीठ पर मंगलागौरी की प्रतिमा स्थापित की जाती है। फिर आटे के सोलह दिये बनाकर घी की बत्ती रखी जाती है। पूजा की थाली में सोलह पुष्प मालाएं, सोलह प्रकार के पत्ते, सोलह इर्वादल, सोलह प्रकार के अनाज, सोलह पान, सोलह सुपारी, सोलह इलायची, सोलह जीरा और सोलह धनिया के दाने रखते है।
‘श्री मंगलागौर्यै नम:’ इस मंत्र का जाप करते हुए विधि-विधान से पूजा करना चाहिए। पूजा के बाद ताँबे के लोटे से अर्ध्य दिया जाता है। लोटे में जल लेकर उसमें फूल, चंदन, एक सिक्का आदि रखकर अर्ध्य दें। अर्ध्य मंत्र –
‘‘पूजासंपूर्णतार्थ तु गन्धपुष्पाक्षतै: सह।
विशेषार्ध्य मया दत्तो मम सौभाग्येहेनवे ।।’’
पूजा-विसर्जन के बाद बाँस के बने छिटवा या डलिया में सौभाग्य सामग्री रखकर यथाशक्ति वस्त्र, फल आभूषण सहित अपनी सास माँ को देकर प्रणाम करना चाहिए। कहीं-कहीं अपनी सास माँ को सोलह लड्डुओं का वायना देने का भी चलन है।
क्रत की कथा
एक नगर में एक व्यक्ति था। उसकी पत्नी बड़ी पतिक्रता थी। किसी श्राप वश उसके कोई संतान न थी। अत: पुत्र शोक में दोनों ही पति-पत्नी दुखी रहते। ईश्वर की कृपा से उनके पास धनधान्य की कोई कमी न थी। वे एक भिक्षुक को प्रतिदिन अन्न-फल दान किया करते थे। पुत्रशोक से व्याकुल पत्नी ने एक दिन साधु-भिक्षुक के कमंडल में कुछ स्वर्ण मुद्राएं डाल दी। इससे भिक्षुक नाराज हो गए और उन्होंने पुत्र हीनता का श्राप दे दिया।
मंगलागौरी के क्रत के प्रभाव से उनके यहां एक पुत्र जन्मा जिसे सोलहवें वर्ष में सर्पदंश का श्राप था। किसी ने बताया कि सोलहवें वर्ष से पूर्व उसका विवाह कर दिया जाये। माता-पिता ने डरते-डरते उसका विवाह कर दिया। जिस कन्या से उसका विवाह हुआ, उस कन्या की माता भी मंगलागौरी क्रत किया करती थी। इसी कारण उसका सर्पदंश का दोष टल गया और वणिक पुत्र शतायु हो गया। उसकी पत्नी ने भी मंगलागौरी का क्रत आरंभ कर दिया।
काशी, महाराष्ट्र आदि स्थानों पर यह क्रत बड़े धूमधाम से किया जाता है। सामूहिक रूप से भी इस क्रत का पूजन किया जाता है।
उद्यापन की विधि
मंगलागौरी के सोलह क्र्रत पूर्ण होने के बाद ही उद्यापन किया जाता है। श्रावण में प्रतिवर्ष 4 या 5 मंगलवार आते हैं । यदि किसी कारण वश सोलह मंगलवार चार वर्ष में पूर्ण नही हो पाते तो पाँचवे वर्ष पूरे क्रत करके ही उद्यापन करना चाहिए। इस उद्यापन में सोलह जोड़े खिलाने का महत्व होता है। श्रावण के अंतिम मंगलवार को पूजा का यथाशक्ति आयोजन कर पंडित को सर्व सौभाग्य सामग्री दान कर भोजन कराएं। उसके बाद सोलह जोड़ खिलाकर यथाशक्ति सुहाग सामग्री दान करें। अपनी सास माँ को चांदी के पात्र में सोलह लड्डू तथा सुहाग-सामग्री देकर चरण स्पर्श करें। अंत में पति के साथ स्वयं भोजन करें।
यह क्रत सौभाग्य के साथ शतायु संतान भी देता है।