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यूं डिगने वाला नहीं है दलितों का आत्मविश्वास
डॉ हिदायत अहमद खान
सत्य पर आधारित मानव समाज का आत्मविश्वास मरते दम तक नहीं डिगता है, लेकिन जब उसमें झूठ-फरेब या दिखावा आ जाए तो वह एक छोटी सी ठोकर से भी शीशे की तरह चकनाचूर भी हो जाता है। इसलिए कहते हैं कि वो आत्मविश्वास ही क्या जो कि ठोकरों या चंद घटनाओं से डिग जाए। दरअसल यह सब इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद देशभर में दलितों के नाम पर जो हिंसा हुई, उसके बाद अब एक बार फिर अदालत को बताया जा रहा है कि उसके फैसले से दलितों का आत्मविश्वास डिग गया है और उसका मनोबल टूटा है। इन दलीलों को यूं तो अदालत ने खारिज कर दिया, लेकिन उसके साथ ही सवाल भी खड़े हो गए कि आखिर न्याय के रास्ते पर चलते हुए किसी का मनोबल क्योंकर टूटेगा या उसका न्याय के प्रति आत्मविश्वास कैसे डिग सकता है? दरअसल पूरा मामला एससी/एसटी एक्ट को शिथिल करने से संबंधित है। इस मामले को केंद्रबिंदु में रखकर अब यह बताने की कोशिश हो रही है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी/एसटी एक्ट में बदलाव के बाद दलित संगठनों में काफी गुस्सा देखने को मिला है। भारत बंद के दौरान जगह-जगह हिंसा हुईं, लेकिन यह अधूरा सत्य है सही मायने में तो इस हिंसा के पीछे दलितों की नाराजगी कम और गंदी राजनीति का पुट ज्यादा जिम्मेदार रहा है। इसे लेकर सवाल यही उठ रहे हैं कि देश का अधिकांश दलित वर्ग दबा-कुचला, पीड़ित है और ऐसे में वह हिंसा पर विश्वास कैसे कर सकता है, जबकि हर हिंसक घटनाओं में उसे ही नुक्सान उठाना होता है। वह तो अपने हक और न्याय की मांग करता हुआ शांति के साथ प्रदर्शन करना और परेशानियों व दु:ख को जिम्मेदारों के सामने रखने का काम करता आया है, लेकिन उसके साथ कथित दंबंगों द्वारा जो ज्यादतियां की गई हैं उसे नजरअंदाज करते हुए हर वक्त राजनीतिक रोटियां सेंकने का काम किया गया है। इसे देखते हुए आरक्षण के खिलाफ आवाज उठाने वालों से सवाल किए जा रहे हैं कि क्या दलितों को समाज में बराबरी का दर्जा मिल गया है, यदि नहीं तो फिर आरक्षण व्यवस्था का विरोध इस कदर देश में क्योंकर शुरु हो गया? क्या दलितों को अपमानित करने और उन्हें दबाने के मामले खत्म प्राय: हो गए हैं जो कि नियमों को शिथिल करने की बातें की जाने लगी हैं। आरक्षण और एससी/एसटी एक्ट को हवा देने के लिए न्यायालय के आदेश को ढाल बनाने का काम आखिर किन लोगों ने किया है? इन सवालों के जवाब राजनीतिक चश्में चढ़ाए लोगों को भले न मिले लेकिन जो न्याय पर विश्वास करता है और इंसानियत को सामने रखकर विचार करता है उसे झूठ और सच साफ-साफ नजर आ रहे हैं। बहरहाल देश में हुई हिंसक घटनाओं का हवाला देते हुए केंद्र ने इस फैसले पर पुनर्विचार याचिका दायर की। सुनवाई के दौरान केंद्र ने कोर्ट में कहा कि इस फैसले से एससी/एसटी लोगों के मनोबल और आत्मविश्वास पर विपरीत असर पड़ा है। दलितों के आत्मविश्वास पर चोट पहुंची है। हद यह है कि अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने अदालत के समक्ष यह भी कहा कि शीर्ष कोर्ट ने जो फैसला दिया उससे काफी नुकसान हुआ है। इन बयानों को जोड़कर देखा जाए तो हिंसा और नुक्सान के लिए अदालत के फैसले को जिम्मेदार ठहराने का काम बदस्तूर किया गया। हालांकि, कोर्ट अपने फैसले पर अडिग है। इस नजरिये से मतलब यही निकाला जा रहा है कि फैसला सही है और उसे माना जाना चाहिए। जहां तक हिंसा होने का सवाल है तो इसकी जिम्मेदारी शासन-प्रशासन की है, जिसे बिना किसी पूर्वाग्रह या द्वेषवश कार्रवाई किए बिना उचित कदम उठाए जाने चाहिए। इस मामले में जरुर हमारी सरकारें और पुलिस महकमा असफल प्रतीत होता है। इसलिए कहा जा रहा है कि यदि अदालती फैसले को लेकर राजनीति करने की गुंजाइश नहीं तलाशी जाती तो शायद यह हिंसा भी नहीं होती। जहां तक फैसले का सवाल है तो कोर्ट ने साफ कर दिया है कि कोर्ट के फैसले से कोई हिंसा नहीं हुई है। फैसले को लोगों ने सही तरीके से समझा ही नहीं और चंद लोगों के बहकावे में आकर हिंसा की गई। इस मामले में तो जस्टिस गोयल का कहना रहा है कि दलित समुदाय के लोगों को कोर्ट भी पूर्ण सुरक्षा देता है। अंतत: केंद्र सरकार हार मानने को तैयार नहीं है और वह यह कहते हुए इस मामले में आगे बढ़ रही है कि मामले को बड़ी बेंच को सौंपा जाना चाहिए। बहरहाल दलितों के आत्मविश्वास की दुहाई देने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि आजादी के इतने सालों बाद भी दलित उत्पीड़न के मामले आम हैं। बावजूद इसके दलित यदि अपने हक की मांग कानून के दायरे में रहकर करता आया है, तो यह उसका न्याय के प्रति अटूट विश्वास ही है। उसे विश्वास है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत वह वो हक हासिल कर ही लेगा, जिसकी कि व्यवस्था भारतीय संविधान उनके लिए करता है। इसलिए दलित समाज आत्मविश्वास से परिपूर्ण है और अगर किसी का विश्वास डग-मग हुआ है तो वह गंदी राजनीति करने वालों का हुआ है, जिसे नजरअंदाज करना एक और हिंसा को दावत देने के बराबर है।
हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और
अरविन्द जैन
एक संत नित्य प्रति सुबह सुबह नदी में स्नान करने जाता और लौटकर आते समय एक व्यक्ति उनके ऊपर कुछ गन्दा या जूठन फैक देता और फिर संत नहाने जाते ।यह क्रम नित्य दो बार जरूर करता और वर्षों से करता आ रहा था। उस व्यक्ति ने एक दिन संत को रोक कर पूछा की मई आपके ऊपर रोज कुछ न कुछ डालता था पर आप ने कभी गुस्सा नहीं किया और न विरोध किया ।तह संत उस व्यक्ति से बोलै भाई तुम्हारे कारण मैंने दो बार नदी में स्नान किये ।इसके कारण आप मेरे पुण्यात्मा हो ।कुछ दिनों के बाद संत नित्य की भांति
स्नान करने जाते पर उस व्यक्ति के द्वारा गन्दा सामान नहीं फेंका गया तो संत को चिंता हुई ।तो संत उस वयक्ति के घर गया तो वह बीमार था। तो संत ने उसकी चिंता कर सेवा की ।
एक कहानी हैं की एक जमादारनी रोज राजा के महल सफाई को जाती थी ।एकदिन बीमार होने पर अपने पुत्र से बोली महल जाकर सफाई करना और नीची निगाह रखना ।पुत्र जब सफाई कर रहा था तब्कोई सामान किसी ने ऊपर से फेंका तो पुत्र ने देखा तो राजकुमारी द्वारा फेंका गया था राजकुमारी को देखकर मोहित हो गया और उसने खाना पीना छोड़ दिया ।कारण पूछने पर उसने बताया की वह राजकुमारी से प्यार कर बैठा और शादी करना चाहता हैं ।यह बात जमादारनी ने सुनी तो वह घबड़ा गयी । उसने राजकुमारी को यह बात बताई तब राजकुमारी बोली मैं शादी करने को तैयार हूँ पर शर्त यह हैं कि वह राज्य की सीमा के बाहर एक माह एक मंदिर में पूजा करे ।पुत्र गया और वह पुजारी का काम करने लगा ।धीरे धीरे उसकी प्रसिद्धि फैलने लगी और भीड़ लग गयी ,तब उसने सोचा की मैंने झूठा पुजारी बन कर इतनी प्रसिद्धि प्राप्त कर ली तो असली में मैं क्या नहीं पा सकता हूँ ।
महात्मा गाँधी जब भारत आये और उन्होंने गरीब हरिजनों की स्थिति देखी ,दुर्दशा समझी तब उन्होंने हरिजन नमक पेपर निकाला और हरिजन उध्धारक कार्य किये ।उसके बाद राजनैतिक पार्टियों को समझ में आया की इस तिरस्कृत समाज को चुनाव के लिए वोट बैंक के रूप में उपयोग किया जा सकता हैं और फिर हरिजन आदिवासियों को अंगीकार कर आरक्षण का लाभ दिया और उससे उनका जीवन यापन और शिक्षा में सुधार हुआ और उनका स्तर सुधरा ,यह भारत देश की बहुत बड़ी सफलता हुई और आज समाज में इनका बोलबाला हो गया ।
इनकी शक्ति देखकर नेताओं कोभक्तिभाव जाग्रत हुआ और अब स्थिति यह हैं की सभी सवर्ण समाज के नेता उनके घरों में जाकर खाना खाने की होड़ लगाए बैठे हैं । अधिकांश नेता लोग मात्र औपचारिकता में खाना खाने का दिखावा करते हैं और तो और कोई कोई नेता होटल से खाना पैक कराकर खाना खाते फोटो खिचवातें हैं और वह वही लूटतेहैं ।पर सुश्री उमा भारती ने बहुत साहस का काम किया और उन्होंने हरिजन के यहाँ खाना खाने से इंकार कर दिया ।कारण यह स्पष्ट हैं की अब भी हम हरिजन आदिवासियों को अंगीकार नहीं करते मात्र वोट बैंक के कारण उन्हें अपनाते हैं और सरकार के द्वारा आरक्षण का नियम पालन करने उनसे नाता जोड़ते हैं ।बात बहुत हद तक सही हैं उनसे नाता जोड़ना ,खान पान का रिश्ता जोड़ना कोई कठिन काम नहीं हैं बशर्तें वे लोग अपना खान पान रहन सहन साफ़ सुथरा और नियमों का पालन कर शुचिता का ध्यान रखकर करे ।काम पूजा हैं ।काम कोई छोटा बड़ा नहीं होता ।अनैतिक काम नहीं करना चाहिए ।मर्यादा का खाना पीना रखे ,आचरण में शुद्धता रखे और धार्मिक प्रवत्ति का पालन करे पर उनके यहाँ शुचिता ,शुद्धता, मर्यादा विहीन जीवन यापन होने से कोई भी उनसे रोटी का व्यवहार नहीं पालता ।उनके यहाँ भी बहुत अधिक फिरके हैं । वैसे शूद्र वर्ण दो प्रकार के होते हैं एक स्पर्शनीय और अस्पर्शनीय ।वे आपस में भी बहुत भेदभाव रखते ,जो उचित नहीं हैं । यदि हैं तो उसका कारण उन्हें बताना चाहिए जब उनमे भेदभाव होता हैं या रखते हैं तो अन्य सवर्ण समाज उनसे यदि भेदभाव रखता हैं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं ! ये कुरीतियां कब से चली आ रही हैं पता नहीं पर ये गलत हैं ।सबको समानता का अधिकार मिलना चाहिए पर उसका नाजायज़ फायदा उठाया जाना उचित नहीं हैं ।आज इस पर विरोध के स्वर उठने लगे ।सरकार उनको लाभ दे पढाई लिखाई का पर प्रवेश शिक्षा में ,नौकरी में योग्यता के आधार पर होना चाहिए,पदोन्नति वरिष्ठता के आधार पर ।इससे जो विसंगति आ रही हैं उससे वर्ग संघर्ष की शुरुआत होने लगी ।पर नेताओं को व्यापक हितों को ध्यान में रखकर इस प्रकार से भोजन का बहिष्कार करना उनके लिए घातक हैं और आगे चलकर इसका विपरीत असर उनके चुनाव और पार्टी पर पड़ेगा । जब नेता ,नेता बन जाता हैं तब वह सामाजिक प्राणी हो जाता हैं उसके प्रत्येक कृत्य पर समाज और समूह नई नज़र होती हैं ।यहाँ कट्टरता नहीं चलती पर क्या करे संस्कार नहीं होने देते । वैसे नेता लोग भिक्षा मांगने में प्रवीण होते हैं ।जबसे नेता बने भिखारी हो जाते हैं ,दया के पात्र होते हैं ।जब वोट के लिए जाते हैं तब हाथ नीचे रहता हैं और विनयी होते हैं ,दाता का हाथ ऊपर और याचक का नीचे ।जब इतना कुछ होता हैं तब खाना खाने में किस बात की इज़्ज़त या लाज या धरम ।अन्यथा समानता का ढकोसला बंद करो और उनसे कोई भी व्यवहार नहीं रखे ,जो असंभव हैं । सब कुछ सहन कर लेते हैं अब ,पहले तो छाया से भी रहता था परहेज़ , ऐसा सुना हैं जिन्होंने वेदों की ऋचाएं सुनी उनके कानों में शीशा डाला अभी भी गॉंव या शहरों में भेदभाव के दंश से मुक्त नहीं भारत कितना कम या अधिक हुआ यह नहीं मालूम पर होता हैं ,होता था और होता रहेगा जाति पाँति के बंधन से हम मन से मुक्त नहीं हैं अब तक न होगा तब तक जब तक मानव मन हीं नहीं होगा जानवरों ,वृक्षों ,नदियों ,पर्वतों में कोई नहीं रखता भेदभाव /बैरभाव पर हम ही हैं वो अजीब प्राणी जो भेदभाव रखता हैं पर अंत समय श्मशान में राख का अंतर आज तक कोई नहीं ढूढ़ सका|
चीन-यात्राः प्रचारमंत्रीजी गदगद्
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन-यात्रा कैसी रही? सार्थक या निरर्थक? मैं कहूंगा दोनों ही। सार्थक इसलिए कि उसका प्रचार डटकर हुआ, यात्रा के पहले और बाद में भी किसी भी प्रचारमंत्री के लिए यही बड़ीउपलब्धि है। कहा गया कि ऐसी यात्रा किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री ने मोदी के पहले कभी नहीं की। यह बिलकुल सही कहा, क्योंकि यह यात्रा अनौपचारिक थी। इसमें न तो कोई समझौता होना था, न इसमें कोई खास मुद्दे थे, न दोनों देशों के अफसरों को यात्रा में कोई बात करनी थी और न ही कोई संयुक्त वक्तव्य जारी होना था। इस यात्रा के लिए चीन से कोई निमंत्रण आया था या हमारे प्रधानमंत्री खुद ही लद लिए थे, कुछ ठीक से पता नहीं। जून में वे फिर चीन जाएंगे लेकिन वे अप्रैल के अंत में ही चीन चले गए तो इसका कारण काफी रहस्यमय है। कोई ऐसी बेहद जरूरी बात जरूर रही होगी, जिसके कारण वे एक-डेढ़ माह तक रूक नहीं सके। इसमें शक नहीं कि चीनी नेता शी चिनफिंग ने मोदी का भाव-भीना स्वागत किया। यह ठीक है कि औपचारिक संयुक्त वक्तव्य जारी नहीं हुआ लेकिन शी और मोदी ने अकेले में कई बार बात की। साथ में कोई भी अफसर नहीं थे। दोनों तरफ दुभाषिए जरूर थे, क्योंकि शी को अंग्रेंजी नहीं आती होगी और मोदी को चीनी। मोदी का बस चलता तो दुभाषिए भी बीच में नहीं रहते। मोदी हिंदी में बोले, यह अच्छा किया। दोनों देशों ने अलग-अलग बयान जारी किए। भारत ने 903 शब्दों का और चीन ने 714 का।
इन दोनों बयानों को अगर आप मोटा-मोटा पढ़े तो आपको लगेगा कि भारत-चीन संबंध अब सातवें आसमान पर पहुंचने वाले हैं। दोनों देश आतंकवाद से मिलकर लड़ेंगे, सीमा पर मुठभेड़ नहीं होगी, व्यापार और निवेश बढ़ेगा, दोनों की फौजें आपसी संपर्क बढ़ाएंगी, दोनों महान नेता बार-बार मिलते रहेंगे। शी ने नेहरू और चाउ के पंचशील का जिक्र किया और मोदी ने इधर-उधर के पांच शब्दों की अपनी तुकबंदी को पेल दिया। लेकिन इन दोनों बयानों और विदेश सचिव विजय गोखले के जवाबों में आप जरा गहरे उतरें तो आपको पता चलेगा कि यह यात्रा निरर्थक रही। क्योंकि ऐसा एक भी मुद्दा सुलझा नही, जिसने भारत और चीन के संबंधों में उलझन और कटुता बनाकर रखी है। न सीमा, न दोकलाम, न तिब्बत, न व्यापारिक असंतुलन, न परमाणु सप्लायर्स ग्रुप की सदस्यता, न मसूद अजहर के आतंकी होने की घोषणा और न ही कश्मीर में से रेशम महापथ (ओबोर) का मामला। हां, एशियाई सदी की गप्प जरूर लगाई गई। नेपाल, श्रीलंका और मालदीव में आपसी सहयोग की बात मोदी को नहीं सूझी लेकिन अफगानिस्तान में भारत-चीन सहयोग के जाल में शी ने मोदी को फंसा लिया। हमारे प्रचारमंत्री जी को हम नादान क्यों कहे, हमारे विदेश मंत्रालय के सुयोग्य अफसरों को क्या पता नहीं कि अफगानिस्तान में चीन के साथ मिलकर काम करने का अर्थ यह है कि आपने ‘ओबोर’ को गले लगा लिया और अपने आप को पाकिस्तान के मातहत कर दिया? वहां अब जो भी होगा, उसे अगली सरकार भुगतेगी। इस सरकार का लक्ष्य पूरा हुआ। प्रचारमंत्रीजी गदगद् हैं।
सवालों के घेरे में आधार, जल्दबाजी में सरकार
योगेश कुमार गोयल
आधार कार्ड की अनिवार्यता को लेकर सुप्रीम कोर्ट के अंतिम निर्णय का इंतजार किए बगैर अब आरबीआई ने एक परिपत्र जारी कर केवाईसी के संशोधित दिशा-निर्देशों के तहत आधार को बैंक खातों से जोड़ना अनिवार्य किया है, इससे एक बार फिर सरकार और आरबीआई की कार्यशैली पर सवाल उठने लगे हैं। अब सुप्रीम कोर्ट ने मोबाइल नंबर से आधार को लिंक करना जरूरी करने के सरकार के फैसले पर भी सवाल उठाया है। अदालत का कहना है कि ऑथेंटिकेशन जरूरी बनाने के लिए सरकार द्वारा हमारे पहले के आदेश को औजार बना लिया गया। सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बैंच का कहना है कि अदालत ने पहले यह आदेश दिया था कि मोबाइल उपभोक्ता को देश की सुरक्षा के हित में प्रमाणित किए जाने की जरूरत है लेकिन सुप्रीम कोर्ट से कोई निर्देश न होने पर भी सरकार ने इसे औजार बनाते हुए आधार को मोबाइल उपभोक्ता के लिए जरूरी बना दिया। बैंक खाता खुलवाना हो या मोबाइल सिम चालू करानी हो, बच्चों का स्कूल में दाखिला कराना हो या राशन लेना हो, स्थिति यह है कि बगैर आधार के आज छोटे से छोटा कार्य भी अटक जाता है।
सवाल यह उठता है कि पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट द्वारा मोबाइल, बैंक खाते तथा अन्य सेवाओं को आधार से जोड़ने पर अगले आदेश तक रोक लगाए जाने के बावजूद सरकार और आरबीआई इतनी जल्दबाजी में क्यों हैं? हालांकि रिजर्व बैंक का मानना है कि बैंकों के इस कदम से बैंकों के प्रति भरोसे का माहौल तैयार होगा लेकिन बैंकों की कार्यप्रणाली में पहले ही इतने बड़े-बड़े छिद्र हैं कि उन्हें केवल आधार के सहारे नहीं भरा जा सकता और अदालत की संविधान पीठ भी पहले ही कह चुकी है कि कल्याणकारी योजनाओं का लाभ वास्तविक लाभार्थियों को मिले, आधार इसके लिए तो लाभकारी हो सकता है किन्तु आधार से बैंक धोखाधड़ी नहीं रूक सकती। रिजर्व बैंक क्यों नहीं समझना चाहता कि जब तक बैंकों की कार्यप्रणाली में मौजूद ढ़ेरों खामियों को दूर नहीं किया जाता, बैंकों के लिए ग्राहकों का विश्वास जीतना बहुत कठिन है। जहां तक आधार के जरिये यह लक्ष्य हासिल करने की बात है तो गत 5 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट कड़ी टिप्पणियों के जरिये आधार को लेकर केन्द्र के कई तर्कों और दावों को पहले ही सिरे से खारिज कर चुका है। उससे पहले भी पासपोर्ट के लिए आधार की अनिवार्यता को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई करते हुए अदालत ने स्पष्ट कहा था कि केन्द्र सरकार आधार को अनिवार्य बनाने के लिए दबाव नहीं डाल सकती।
सरकार द्वारा तर्क दिया जाता रहा है कि बैंक खातों के साथ आधार लिंक कराने से न केवल बैंकों के व्यवहार में पारदर्शिता आएगी बल्कि बैंक घोटालों पर भी अंकुश लगेगा लेकिन सवाल यह है कि जब बैंक प्रणाली ही घोटालेबाजों को प्रोत्साहित करती हो तो आधार कैसे बैंक घोटालों पर लगाम लगाने में कारगर होगा? करीब 80 करोड़ मोबाइल नंबर आधार कार्ड और विभिन्न बैंक खातों से जोड़े जा चुके हैं किन्तु क्या उसके बाद भी बैंक धोखाधड़ी पर लगाम लगी? हजारों करोड़ के बैंक घोटाले करने वाले लोगों को न जांच एजेंसियों का भय होता है और न बैंक प्रणाली के विजिलेंस तंत्र का क्योंकि उनके तार ऊपर तक जुड़े होते हैं अन्यथा क्या कारण हो सकता है कि आधार, पासपोर्ट व अन्य सभी आवश्यक दस्तावेज होने के बावजूद ऐसे लोग बड़े-बड़े घोटाले करके आसानी से विदेश भागने में सफल हो जाते हैं। आधार को लेकर सरकार द्वारा तर्क दिए जाते रहे हैं कि इसके जरिये विभिन्न योजनाओं तथा वित्तीय लेन-देन में पारदर्शिता आएगी तथा अपराधों पर नियंत्रण और आतंकवाद से कारगर ढ़ंग से निपटने में भी यह कारगर होगा किन्तु सुप्रीम कोर्ट द्वारा केन्द्र के तर्कों को खारिज करते हुए स्पष्ट कहा जा चुका है कि आधार हर धोखाधड़ी का इलाज नहीं है और न ही इससे आतंकवादियों को पकड़ने में मदद मिल सकती है।
आधार कानून की वैधता पर सुनवाई कर रही सर्वोच्च अदालत की पांच सदस्यीय संविधान पीठ केन्द्र सरकार से सवाल कर चुकी है कि वह हर चीज को आधार से क्यों जोड़ना चाहती है? क्या वह हर व्यक्ति को आतंकवादी समझती है? आधार के जरिये हजारों करोड़ रुपये की धोखाधड़ी, बेनामी लेनदेन और तमाम फर्जी कम्पनियों का खुलासा होने संबंधी सरकार के तर्कों को खाािज करते हुए सर्वोच्च अदालत कह चुकी है कि आधार में ऐसा कुछ नहीं है, जिससे व्यक्ति को वाणिज्यिक गतिविधियों की श्रृंखला में लेन-देन से रोका जा सके और अदालत नहीं समझती कि आधार ऐसे बैंक धोखाधड़ी को रोक सकता है। आतंकवाद पर काबू पाने में आधार की भूमिका के संबंध में अदालत का साफ कहना है कि क्या चंद आतंकियों को पकड़ने के लिए सवा सौ करोड़ लोगों को मोबाइल नंबर को आधार से लिंक कराने के लिए कहा जा सकता है और वैसे भी आतंकवादी सिम कार्ड नहीं बल्कि सेटेलाइट फोन का इस्तेमाल करते हैं।
आधार की शुरूआत इसी उद्देश्य के साथ की गई थी कि कल्याणकारी योजनाएं सहजता से लक्षित समूहों तक पहुंचाई जा सकें किन्तु कुछ समय से जिस प्रकार इसे तमाम सेवाओं के साथ-साथ नागरिकता की पहचान से जोड़ने की भी बाध्यता देखी गई है, उससे आधार को लेकर व्यावहारिक मुश्किलें पैदा होने लगी हैं। आपको सैंकड़ों ऐसे बुजुर्गं ऐसे मिल जाएंगे, जो उम्र के इस नाजुक पड़ाव में भी आधार कार्ड की बदौलत यहां-वहां धक्के खाने को विवश हैं। सरकारी योजनाओं का लाभ उठाते वक्त किसी के फिंगर प्रिंट मैच नहीं होते तो किसी के समक्ष कोई अन्य तकनीकी समस्या आ जाती है। अतः आवश्यकता इस बात है कि सरकार को सभी जनोपयोगी सेवाओं के लिए आधार अनिवार्य करने से पहले इस प्रकार की अव्यवस्थाओं को दूर करने की ठोस पहल करनी चाहिए।
हालांकि इस तथ्य को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता कि कल्याणकारी योजनाओं के दृष्टिगत आधार के अनेक फायदे भी हैं। इससे कई प्रकार की कल्याणकारी योजनाओं में धोखाधडि़यों पर अंकुश लगाने में मदद मिली है। आधार की ही बदौलत करीब दो करोड़ 75 लाख फर्जी राशन कार्डों का मामला उजागर हो पाया और करीब 12 करोड़ फर्जी लोगों को वितरित हो रही राशन सामग्री पर रोक लग सकी। आधार की ही वजह से 80 हजार ऐसे शिक्षकों का पता चला, जो एक नहीं बल्कि दो-तीन जगहों से वेतन लेकर सरकार को चूना लगा रहे थे किन्तु आधार को लेकर आम जनता को हो रही व्यावहारिक परेशानियों की अनदेखी भी उचित नहीं।
आधार से निजता का प्रश्न भी जुड़ा है और इसके दुरूपयोग के मामले भी सामने आते रहे हैं। बड़ी तादाद में आधार तथा बैंक खातों से जुड़ी जानकारियां लीक होने की बातें भी सामने आती रही हैं और कुछ समय से खबरें आ रही हैं कि इंटरनेट पर लाखों लोगों के आधार कार्ड और उससे जुड़ी समस्त जानकारियां आसानी से उपलब्ध हैं, जिन्हें कोई भी हासिल कर सकता है। वैसे भी भले ही सरकार या यूआईडीएआई आधार के सुरक्षित होने को लेकर कितने भी दावे करें किन्तु हकीकत यही है कि सवा सौ करोड़ की विशाल आबादी के व्यक्तिगत आंकड़ों को सुरक्षित रखने का अभी तक हमारे पास कोई भरोसेमंद नेटवर्क है ही नहीं। कुछ दिनों पहले महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में एक कुएं की सफाई के दौरान उसमें से प्लास्टिक बैग में हजारों आधार कार्ड मिलना आधार कार्ड को लेकर संबंधित प्राधिकरण के संवेदनशीलता के दावों की पोल खोलता है। लाखों लोग ऐसे हैं, जिन्हें उनके आधार कार्ड की मूल प्रति कभी प्राप्त ही नहीं होती और ऐसे आधार कार्डों के गलत तत्वों के हाथ लगने के पश्चात् उनके दुरूपयोग की संभावना बरकरार रहती है। कुछ ऐसे मामले सामने भी आए हैं, जब दूसरों का आधार नंबर हासिल कर उनके बैंक खातों से रकम उड़ा दी गई। आधार की बायोमैट्रिक जांच प्रक्रिया होने के बावजूद कुछ माह पूर्व जाली आधार कार्ड के रैकेट का भी पर्दाफाश हुआ। इसलिए जब तक आधार के डाटा की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो जाती, आधार के प्रति संदेह तो बरकरार रहेगा।
अतदीपो भव
वीरेन्द्र सिंह परिहार
(30 अप्रैल को बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर विशेष )
भगवान बुद्ध ने अपने जमाने में जिन लोगों को देखा था। उनमें एक तो वे लोग थे – जो आत्मा को नित्य और शाश्वत मानते थे और संसार को अनित्य, क्षणभंगुर, तथा दुःख रुप मानकर कठोर तप करते थे। क्योंकि उनका मानना होता था कि इस तरह से वह कष्टरुपी संसार को पारकर एक स्थायी आनन्द के अधिकारी होंगे। दूसरे प्रकार के लोग चार्वाक नीति के अनुसार खाओ-पिओ, मौज करो – यही मानते थे। मरने के बाद क्या होगा, कौन जानता है ? वस्तुतः ये दोनो जीवन दर्शन ही अतिवादी थे। बुद्ध ने इन दोनो अतियांे अथवा अन्तों से बचने की सलाह देते हुए मध्यम मार्ग को प्रतिष्ठित किया था। वस्तुतः बुद्ध का मार्ग एक संतुलित जीवन का पक्षधर है। बुद्ध का मानना है कि जो लोग शरीर को नाना प्रकार का कष्ट देकर ही आध्यात्मिक सुख मानते है, वे वस्तुतः शरीर को ही महत्व देते है। और जो लोग शरीर के सुख में ही लीन रहते है वे तो जड़ शरीर को ही सब कुछ मानते है। बुद्ध कहते थे कि वीणा के तारों को इतना मत कसो की वों टूट जावे और न इतना ढीला छोड़ दो कि उनसे कोई सुर ही न निकले। कहने का आशय यह कि शरीर को अत्याधिक प्रताड़ना यह शरीर को अत्याधिक सुख भोग दोनो ही अभीष्ठ नही है। इसीलिए तो बुद्ध मध्यम वर्ग या संतुलित मार्ग की बात करते है। गीता में भी भगवान कृष्ण ने कहा है जिसका आहार-विहार नियमित है, कर्मों का आचरण नपा तुला है, नीद और जागरण परिमित है, उसी के लिए योग दुःख-नाशक हो सकता है। वस्तुतः यह भी मध्यम या संतुलित दृष्टि ही है, जिसका विकास आगे चलकर बुद्ध के दर्शन में देखने को मिला। बुद्ध ने कभी यह नही कहा कि मै जो कहता हूं उसे मान लो। वह कहते थे – संसार के स्वरुप की जानकारी प्राप्त करो। रोग को जानो, रोग के कारण को जानो, रोग के कारण के उच्छेद का उपाय करो। अपनी मशाल खुद बनो – अतदीपो भव।
बुद्ध की सोच निहायत ही क्रान्तिकारी एवं लोकतांत्रिक थी। वह कहते थे – भिख्खुओ मैं तुम्हारा आह्वान करता हूं, यदि मुझे में, मेरे वचन और कर्म में कोई त्रुटि देखते हो तो मुझसे कहो। उनकी यह बाते राजा राम की उन बातों की याद दिलाती है – ‘‘ जो अनीति कुछ भाषौ काई, तो मोंहि बरजहु भय बिसराई। वे कहते थे – तथागत ऐसा नही मानते कि वे ही भिक्षुओं का पथ-प्रदर्शन कर सकते है अथवा संघ उनके ऊपर ही निर्भर है। फिर संघ के विषय में किसी प्रकार के निर्देश छोड़ने की क्या आवश्यकता है। बुद्ध की शरण में जाने के बजाय वह धर्म की अथवा सत्य की शरण में जाने को प्राथमिकता देते थे, तभी उन्होने आनन्द से कहा था – सत्य को दीपक की भांति दृढ़ता से पकड़े रहो। सत्य की शरण लिए रहो। अपने से बाहर किसी से शरण की आशा न करो। इसीलिए जब उनकी पूजा के लिए स्मारक बनाने की बात उठी। तब उन्होने कहा था – तथागत की शरीर-पूजा में तुम अपने कार्य में बाधा न उत्पन्न करो। जो भिक्षु या भिक्षुणी उपासक या उपासिका बड़े-छोटे धर्मों का ठीक निर्वाह करता हुआ (धम्मानुधम्म परिपत्रो) समोचीन जीवन में लगा है। जो शिक्षाओं का पालन करता है। वही तथागत का सत्कार करता, गौरव करता, मान करता और परम -पूजा से पूजित करता है। एक बार उनके एक प्रमुख शिष्य सारिपुत्र मौगदाल्यन ने कहा – आपसे बढ़कर ज्ञानी और महान न पहले कोई हुआ न आगे कभी होगा, और न इस समय है। बुद्ध ने कहा – अवश्य सारिपुत्र – तुम भूतकाल के सभी बुद्धों को जान गये हो ? नही भगवन, सारिपुत्र ने कहा। तुम उन्हे जानते हो जो भविष्य में होंगे ? नही भगवन! तो कम से कम तुम मुझे जानते हो और मेरे मन की भलीभांति थाह ले चुके हो ? वह भी नही भगवन। तो सारिपुत्र तुम्हारे शब्द इतने भब्य और साहसपूर्ण क्यों ? कुल मिलाकर इस तरह से बुद्ध का दृष्टिकोण जहां ब्यक्ति-पूजा के एकदम विरुद्ध था, वही वह अपने शिष्यों से यह अपेक्षा करते थे कि उनकी अपनी सोच हो, दृष्टि हो, वह लकीर के फकीर न हो, बल्कि वह सत्य का मार्ग स्वतः शोधन करे। वह कहते थे – मै चमत्कारो के प्रदर्शन को भयावह समझता हूं, इसलिए मै उन्हे बिलकुल पसन्द नही करता, उन्हे घृणा की दृष्टि से देखता हू और उनकी बात से मुझे लज्जा आती है। यह बताने की जरुरत नही कि चमत्कारों और हांथ की कलाबाजी के चलते हमारा भारतीय समाज कितना दिग्भ्रमित होकर पतन की ओर गया है।
बहुत विचार के बाद बुद्ध ने यह बताया कि तृष्णा और कामना सब दुखो का मूल है, उसी के कारण प्राण बार-बार जन्म और मृत्यु के चक्कर में पड़ता है। इससे आत्यंतिक निवृत्ति तभी हो सकती है, जब तृष्णा का क्षय हो जाए। वह मानते थे कि ब्रह्म या आत्मा की नित्यता या अनित्यता की चर्चा करते रहने से यह उद्देश्य सिद्ध नही होता। इसके लिए आवश्यक है – सम्यक जीवन, विवेक सहित रहना, शील का पालन, मैत्री का आचरण – इस तरह से बुद्ध ने कर्मकाण्डो की जगह पवित्र जीवन पर ही अधिक जोर दिया है।
भगवान बुद्ध ने कहा कि वही सुखी है जो जय-पराजय की भावना का त्याग करता है। वजह यह कि जय की भावना से बैर उत्पन्न होता है, पराजय से दुःख उत्पन्न होता है। उनका मानना था – अक्रोध के द्वारा क्रोध को, साधुता के द्वारा असाधु भाव को, दान के द्वारा कदर्प और सत्य के द्वारा मृषावाद या झूंठ को जीतना चाहिए। उनके अनुसार जिसका किसी से बैर नही है और जो सभी प्राणियों से मैत्री करता है वही सुखी होता है।
बहुत से लोग यह साबित करने का प्रयास करते है, कि बुद्ध का मार्ग सनातन धर्म के विरुद्ध था, जबकि ऐसा नही है। वस्तुतः बुद्ध ने उस दौर में वैदिक धर्म में खासतौर से यज्ञो में आई अति हिंसा के चलते यज्ञों का विरोध किया था। उनका मार्ग भी हिन्दुत्व की धारा का ही विकास है। प्रकारान्तर से उन्होने हिन्दुत्व में आई विकृतियों को दूर करने का प्रयास किया था। उनका मध्यम मार्ग एक तरह से गीता का योग मार्ग ही है – जैसा कि पहले बताया जा चुका है। बुद्ध ने कहा था – श्वसन क्रिया के प्रति सचेत रहे, यही गीता भी कहती है। बुद्ध ने स्वतः कहा था आज मैने उस अविनाशी पद को प्राप्त कर लिया है जो मुझसे पूर्व ऋषियों ने प्राप्त किया है। इसलिए यह कहने में कोई झिझक नही कि वह हिन्दुत्व की ऋषि परंपरा के ही वाहक थे। वस्तुतः बुद्ध ने हिन्दुत्व में आई कमियों को दूर करने के लिए एक ऊंच-नीच और भेदभाव से परे एक समतायुक्त समाज के लिए उद्घोष किया था। यह बात अलग है कि आगे चलकर उनके पंथ में इतनी विकृतियां आई कि पंच-मकार ही अभीष्ट हो गया। जिसके चलते आदि शंकराचार्य को इस देश में बौद्ध मत का उच्छेदन करना पड़ा।
पर आज से ढाई हजार साल पहले बुद्ध ने जिस मध्यम मार्ग के माध्यम से एक संतुलित, पूर्ण एवं वैज्ञानिक मार्ग बताया। एक श्रेष्ठ जीवन और मैत्री भाव को जागृत किया, उससे आगे चलकर आधी दुनिया उनके प्रभाव में आ गई। आज वैशाखी पूर्णिमा के दिन हम उस महामानव के चरणो में शत-शत प्रणाम।
लुटिया डुबो देने वाली महाचूक
अनिल बिहारी श्रीवास्तव
उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने सही कहा है, राज्यसभा का सभापति पद कोई पोस्ट आफिस नहीं है। यह एक संवैधानिक पद है। उन्होंने बताया है कि भारत के प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के विरूद्ध कांग्रेस और छह अन्य विपक्षी दलों द्वारा दिए गए महाभियोग नोटिस को नामंजूर करने से पहले संविधान विशेषज्ञों, कानून के जानकारों और न्याय पालिका में शीर्ष पदों पर आसीन रह चुकी हस्तियों से लंबा विचार-विमर्श किया गया था। नोटिस पर फैसला लेते समय संविधान में दर्ज प्रावधानों को ध्यान में रखा गया। नायडू ने यह टिप्पणी 24 अप्रैल को देश के दस वरिष्ठ अधिवक्ताओं से मुलाकात के दौरान की। वरिष्ठ अधिवक्ता महाभियोग नोटिस नामंजूर किए जाने के निर्णय पर सभापति के प्रति सम्मान और आभार व्यक्त करने पहुंचे थे। चुटकी भर राजनेताओं को छोड़ कर बात करें तो नायडू के फैसले का सर्वत्र स्वागत ही हुआ है, बड़ी बात यह देखी गई कि संविधान और कानून की बहुत अधिक समझ नहीं रखने वालों तक ने उपराष्ट्रपति के निर्णय को सही ठहराया है। फैसले के पक्ष में ऐसी प्रतिक्रिया की कल्पना महाभियोग नोटिस देने वालों ने नहीं की होगी। इससे एक बार पुन: इस बात की पुष्टि हुई है कि आम आदमी में न्यायपालिका विशेषकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के प्रति गहरा विश्वास है। नोटिस को लेकर लोगों में एक अजीब सी बेचैनी थी। यह धारणा प्रबल हुई है कि राजनेताओं का एक समूह संविधान और न्याय पालिका की रक्षा के नाम पर लोकतंत्र के सबसे मजबूत और विश्वसनीय स्तम्भ को कमजोर करने की कोशिशों से बाज नहीं आते हैं। महाभियोग नोटिस जैसा हथकंडा न्यायपालिका को भयभीत करने का एक असफल प्रयास मात्र था।
कांग्रेस की एक बड़ी सियासी चाल नाकाम हो गई। वह बेनकाब हुई है। देशवासियों को बरगलाने का प्रयास करने वालों को आईना दिखा दिया गया है। लेकिन ताजुब्ब है कि वे इसके बाद भी सच को स्वीकार करने को तैयार नहीं दिखाई दे रहे। उपराष्ट्रपति पर महाभियोग नोटिस पर जल्दबाजी में निर्णय लेने का आरोप लगाया गया है। कांग्रेस नेता और वकील कपिल सिब्बल ने राज्यसभा के सभापति के फैसले विरूद्ध सुप्रीम कोर्ट जाने की बात की है। राजनीतिक गलियारों और विधि क्षेत्र से सुनाई दे रहीं चर्चाओं के अनुसार महाभियोग नोटिस के पीछे असली दिमाग सिब्बल का था। पिछले कुछ समय से देखी जाती रही सिब्बल की भाव-भंगिमा और संवाद अदायगी ऐसे निष्कर्षों की पुष्टि के लिए पर्याप्त हैं। याद करें, जैसे ही सिब्बल ने महाभियोग नोटिस दिए जाने की जानकारी मीडिया को दी थी उसी क्षण से दो तरह की बातें सुनी जाने लगीं थीं। एक- कांग्रेस की यह राजनीतिक चालाकी धरी रह जाएगी और दो- राहुल गांधी और सोनिया गांधी दोनों ही यह बात क्यों नहीं समझ पा रहे ऐसे कदमों से फजीहत कांग्रेस की ही होनी है। संविधान और कानून के जानकारों का कहना है कि राज्यसभा के सभापति के निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाकर कांग्रेस और बड़ा जोखिम मोल ले लेगी। इस खेल में कहीं उसकी लुटिया न डूब जाए। महाभियोग का नोटिस नायडू ने सशक्त तर्कों और तथ्यों के आधार पर नामंजूर किया है। उन्होंने जो 22 वजहें बताईं हैं वे संतुष्ट करने वाली हैं। अनेक पूर्व न्यायाधीश, विधिवेत्ता और संविधान विशेषज्ञ कांग्रेस के कदम को पहले ही आत्मघाती ठहरा चुके हैं। विधि विद्वानों का मानना था कि चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा को महाभियोग नोटिस के कारण रत्तीभर भी विचलित नहीं होना चाहिए। यह कांगे्रस का एक राजनीतिक हथकंडा है जिसके द्वारा चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा को कुछ खास मामलों की सुनवाई से दूर रखने की कोशिश की जा रही है। अनेक विद्वानों का कहना था कि महाभियोग नोटिस स्वीकार किए जाने की स्थिति में भी चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के लिए यह जरूरी नहीं है कि वे मामलों की सुनवाई से स्वयं को अलग कर लें। भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश आर. एम. लोढ़ा ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा था कि यह चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा को ही देखना है कि वह स्वयं को न्यायिक कार्य से पृथक करें या अपना काम करते रहें। एक अन्य प्रधान न्यायाधीश के. जी. बालाकृष्णन की इस टिप्पणी को भी देशवासियों ने गौर से सुना कि चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा स्वाभाविक रूप से सक्षम न्यायाधीश हैं, चीफ जस्टिस को विपक्षी दलों के महाभियोग नोटिस से प्रभावित नहीं होना चाहिए। इस बीच सबसे तीखी प्रतिक्रिया पूर्व एटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी की आई। रोहतगी ने महाभियोग नोटिस को एक सस्ती चाल निरूपित किया और कहा इस कदम से न्यायिक संस्था का सम्मान घटाने की कोशिश की गई है। महाभियोग नोटिस को लेकर कांगे्रस में ही दरार दिखाई दी। पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने महाभियोग नोटिस के समर्थन में हस्ताक्षर नहीं किए थे। इसको लेकर कांग्रेस पूरी तरह से अविश्वसनीय तर्क देती रही। इसके अलावा कम से कम आधा दर्जन वरिष्ठ कांगे्रसी नेताओं ने चीफ जस्टिस के विरूद्ध महाभियोग नोटिस जैसे कदम का समर्थन नहीं किया। इस मुद्दे पर कांग्रेस समूचे विपक्ष को अपने साथ खड़े होने पर राजी नहीं कर सकी। तृणमूल कांग्रेस और द्रमुक ने महाभियोग नोटिस के पक्ष में हस्ताक्षर करने से साफ इंकार कर दिया था। यह जिज्ञासा का विषय हो सकता है कि पर्याप्त संख्या बल नहीं जुट पाने के बावजूद कांग्रेस महाभियोग नोटिस देने के आगे क्यों बढ़ गई। क्या यह सिर्फ सिब्बल अकेले का दिमाग था। उन्होंने हाईकमान को ज्ञान की ऐसी कौन सी घुटी पिला दी जिससे जहाज का डूबना सुनिश्चित होते हुए भी आगे बढऩे की इजाजत दे दी गई। क्या पूरी कांग्रेस संविधान, कानून और न्याय संबंधी विषयों पर सिब्बल के दिमाग पर निर्भर है? राजनीति की नब्ज टटोलने में माहिर दिग्गजों को मानना है कि महाभियोग घटनाक्रम से साबित हो गया है कि कांग्रेस में सही दिशा में सोचने-समझने वालों का नितांत टोटा है। वहां अधकचरा जानकारी रखने वाले और कुंद बुद्धिधारी लोग अधिक सक्रिय नजर आते हैं। ये ही लोग अब नायडू के फैसले के विरूद्ध सुप्रीम कोर्ट जाने के लिए पार्टी नेतृत्व को राजी कर सकते हैं।
नायडू के निर्णय से यह स्पष्ट हो चुका है कि महाभियोग नोटिस में आधारहीन आरोप लगाए गए थे। आरोपों के समर्थन में प्रमाण नहीं दिया गया था। दरअसल, नोटिस का मकसद चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा को पद से हटाने की बजाय उन्हें कुछ खास मामलों की सुनवाई से दूर कराना था। इस खुरापात को समझना बेहद जरूरी है। विचार करें कि क्या इसके तार पिछले कुछ माह की घटनाओं से जुड़े हुए हैं? दिसम्बर 2017 में अयोध्या मामले की सुनवाई के दौरान वक्फ बोर्ड के वकील कपिल सिब्बल चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुआई वाली बेंंच से मांग की थी कि सुनवाई जुलाई 2019 तक स्थगित कर दी जाए। तर्क यह दिया गया कि इस मामले के फैसले के सामाजिक और राजनीतिक परिणाम सामने आ सकते हैं। सिब्बल की यह मांग नामंजूर कर दी जाती है। कांग्रेस की ओर से सफाई दी गई कि सिब्बल ने अदालत में जो कहा उससे पार्टी का लेना-देना नहीं है। यह भी कहा गया कि मामले में सिब्बल एक पक्ष के वकील के रूप में पेश हो रहे हैं, वह कांग्रेस के वकील नहीं हैं। जनवरी 2018 को सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायाधीश एक धमाका करते हैं। वे चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा पर आरोप लगाते हैं कि कुछ संवेदनशील मामले कुछ चुनी हुई बेंचों को ही दिए जा रहे हैं। इन न्यायाधीशेंा का कहना था कि लोकतंत्र खतरे में है। कुछ दिनों बाद जस्टिस दीपक मिश्रा के विरूद्ध महाभियोग प्रस्ताव लाने के कांग्रेस के प्रयासों की खबरें मीडिया में आने लगतीं हैं। जस्टिस लोया की मौत की जांच संबंधी मांग सुप्रीम कोर्ट द्वारा नामंजूर किए जाने के दूसरे दिन ही सिब्बल ने प्रेस कांफें्रस में जानकारी दी कि चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के विरूद्ध राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू को महाभियोग प्रस्ताव सौंप दिया गया है। कांग्रेस ने यह सफाई अवश्य दी कि जस्टिस लोया मामले पर अदालत के फैसले को महाभियोग नोटिस से जोड़ कर नहीं देखा जाए। उसके अनुसार इस संबंध में एक सप्ताह पूर्व ही राज्यसभा के सभापति को पत्र दिया जा चुका था। इस बीच 21 अप्रैल को मध्यप्रदेश के जबलपुर में आयोजित विधिक विमर्श-2018 में कई कांगे्रसी दिग्गज मौजूद दिखे। कार्यक्रम में सिब्बल ने आरोप लगाया कि विशेष विचारधारा के लोगों को जज बनाने का प्रयास किया जा रहा है। क्या सिब्बल की ऐसी टिप्पणी हमारी न्याय व्यवस्था के प्रति संदेह पैदा करने का प्रयास नहीं है? ऐसी हरकतों का न तो समर्थन किया जाना चाहिए और ना ही इन्हें सहन करना सही होगा। कुल मिलाकर कांग्रेस इन दिनों संविधान और लोकतंत्र खतरे का काल्पनिक भय खड़ा कर सरकार के विरूद्ध माहौल बनाने ऐड़ी-चोटी एक किए हुए है। इस सियासी हथकंडे की कामयाबी या नाकामी का फैसला 2019 में ही हो सकेगा। आम आदमी खालिस झूठ और छल-फरेब वाले राजनीतिक तू तू-मैं मैं के कान फोड़ू और उबकाई ला देने वाले शोर के बीच जीने के लिए विवश है। चलिए, सब कुछ बर्दाश्त किया जा सकता है लेकिन न्याय मंदिरों की ओर राजनीतिक गंदगी फेंकने जैसी हरकत देश कब तक नजरअंदाज कर सकेगा।
चीन पर अतिविश्वास
ओमप्रकाश मेहता
जिस पर सौ सेकण्ड का भरोसा नहीं उससे सौ साल की बात कैसे…..?
भारत के हमारे मौजुदा हुक्मरानों ने शायद हमारे धोखेबज पड़ौसी चीन के इतिहास को विस्मृत कर दिया है, जिस ड्रेगन (अज़गर) की हम पिछले सत्तर सालों में पूंछ तक टेढ़ी नहीं कर पाए और जो कदम-कदम पर हमें धोखा देता आ रहा है, उस चीन से दोस्ती की उम्मीद करना कहां की बुद्धिमानी है? जो देश आज से छप्पन साल पहले से ‘‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’’ का नारा लगा कर हमारी पीठ में छुरा भौंकता आया है, उसकी कुटिल मुस्कान पर हम कैसे भरोसा कर सकते है? जो देश हमारी चारों तरफ से घेराबंदी कर रहा है, हम पर नजर रखने के लिए जिसने श्रीलंका के समुद्र तटीय शहर हंबन टोटा पर कब्जा कर वहां अपना सैनिक बैड़ा तैनात कर दिया, जिसने भारत के पड़ौसी देश पाकिस्तान को अपना सैनिक उप-निवेश बना लिया, जो देश हमारे अपने सीमावर्ती राज्य अरूणांचल को अपना हिस्सा बताकर उसका अस्तित्व ही खत्म कर रहा है, उस देश पर हमारे मौजुदा हुक्मरान इतना भरौसा आखिर क्यों कर रहे है?
यह सही है कि चीन अपने हित साधना अच्छी तरह जानता है, उसकी जब गरज होती है तो यह अज़गर अपनी पूंछ हिलाने लगता है और जब भारत सहित किसी दूसरे देश का कोई हो तो जहरीली फुंफकार मारने लगता है, फिर भारत का तो इतिहास रहा है, जब-जब चीन की कोई भी हस्ती भारत आती है, चाहे वह राजनायिक मिशन पर आए या शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने, ठीक उसी समय हमारी सीमा पर चीनी उपद्रव बढ़ता ही है, अब मोदी जी चीन जा रहे है, भगवान इस देश की सीमा को महफूज रखे।
अब अपना हित साधने और हमारे हुक्मरानों को खुश करने के लिए हमारे प्रधानमंत्री जी का वहां ‘‘लाल जाजमी’’ (रेड काॅर्पेट) स्वागत करने की तैयारी की जा रही है और चीन व भारत दोनों ही के द्वारा कहा जा रहा है कि अगले सौ साल की बात होगी, अरे, जिस पर हम सौ सैकण्ड का भी विश्वास नहीं कर सकते, उससे अगले एक सौ बरस की बात कैसे की जा सकती है? मुझे तो आशंका है कि चीन में जो भी बात होगी या मसौदों पर हस्ताक्षर होंगे, वे प्रधानमंत्री जी के भारत लौटने तक ही कायम रह पाएं तो भारत की बड़ी उपलब्धि होगी, क्योंकि चीन के आजीवन राष्ट्रपति शी जिनपिंग अपनी सत्तासीमा खत्म कराने के बाद तानाशाही मुद्रा में आ गए है और वे अब अपने सामने किसी को कुछ भी नहीं समझते।
मोदी जी व शी के बीच होने वाली इस वार्ता की तुलना 1988 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और चीनी शासक डेंग जि आयोपिंग के बीच हुई चर्चा से की जा रही है। चीन के भारत से कई वाणिज्यिक हित जुड़े हुए है, भारत और चीन दोनों ही दक्षिण एशिया में अपना प्रभाव बढ़ाने की दिशा में प्रयत्नशील है, साथ ही नेपाल पर दोनों ही देशों की नजर है, चीन नेपाल पर अपना आधिपत्य चाहता है, जबकि नेपाल भारत का परम्परागत पड़ौसी मित्र व सहयोगी रहा है। इसीलिए भारत ने नेपाल और भूटान की दिल खोलकर मद्द की है। जबकि दूसरी ओर नेपाल में भारत का प्रभाव कम करने के लिए चीन वहां भारी निवेश कर रहा है, चूंकि नेपाल के नए प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली का झुकाव शुरू से ही चीन के साथ रहा है, इसलिए भारत नेपाल को लेकर काफी सतर्क है। यही स्थिति चीन व बांग्लादेश की है, चीन ने बांग्लादेश को नौ अरब डाॅलर का कर्ज देकर अपना आर्थिक ऋणी बनाया, इस तरह वह उसे अपने पाले में लाने को आतुर है। जबकि भारत में बांग्लादेश में निवेश करने में पीछे नहीं है।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि चीन यह मानकर भारत की ओर अपने कदम मजबूती से बढ़ा रहा है कि अगले वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद भी मोदी जी ही प्रधानमंत्री बने रहने वाले है, जबकि चीन के राष्ट्रपति पद पर शी जिनपिंग की ताउम्र ताजपोशी को भारत अपने हित में नहीं मानता।
अब मोदी की चीन यात्रा का मुख्य केन्द्र मध्यचीन के यायावरी खूबसूरत शहर बुहान को बनाया गया है, चीन के विदेशमंत्री का तर्क है कि मोदी जी चीन के उत्तरी शहर बीजिंग, दक्षिणी शहर शंघाई, पश्चिमी शहर शियाना और पूर्वी शहर शियामेन की यात्रा कर चुके है, इसलिए उनके लिए चीन का मध्य पर्यटन केन्द्र चुना गया है।
अब फिलहाल यात्रा की सफलता या असफलता अथवा उपलब्धि के बारे में कुछ कहना तो जल्दबाजी होगी, किंतु फिलहाल तो ईश्वर से यही प्रार्थना की जा सकती है कि मोदी जी की तीन दिनी चीन यात्रा के दौरान हमारी सीमाऐं सही-सलामत व शांत रहे।
आसाराम को सजा बहुत कम है
डॉ. वेद प्रताप वैदिक
आसाराम को उम्र—कैद की सजा और उसके दो साथियों को 20—20 साल की सजा हुई। एक नाबालिग शिष्या के साथ बलात्कार की है, यह सजा! बलात्कार के खिलाफ जो कानून अभी देश में है, उसके हिसाब से तो यह सजा ठीक है लेकिन मैं समझता हूं कि यह सजा बहुत कम है। बलात्कार के लिए ऐसी सजा तो किसी को भी दी जा सकती है। आसाराम जैसे आदमी को जो अपने आप को संत कहलवाता है, जिसने लाखों लोगों को उल्लू बनाया, जो नेताओं और अभिनेताओं की तरह नौटकियां रचाता है, जिसने अरबों रुपयों की संपत्तियां खड़ी कर लीं, ऐसे धूर्तराज को सिर्फ उम्र—कैद! उसने बलात्कार भी किया तो किसके साथ? अपनी एक अबोध शिष्या के साथ! उसने सारे गुरु—शिष्य संबंधों की मर्यादा मटियामेट कर दी। खुद की उम्र 70 के पार और शिष्या की उम्र 16 भी नहीं। उसके वकील जजों से कह रहे थे कि आप सजा सुनाते वक्त आसाराम जी की उम्र का ख्याल जरुर रखें। मैं उन वकीलों से पूछता हूं कि क्या आसाराम ने अपनी उम्र का खुद ख्याल रखा ? अपनी पोती की उम्रवाली शिष्या के साथ कुकर्म करनेवाले आदमी का अदालत ख्याल रखे , यह भी अजीब बात है। ऐसी बेजा मांग करनेवाले वकीलों को भी कोड़े लगाए जाने चाहिए और उन पर जुर्माना भी थोपना चाहिए। आसाराम ने बलात्कार ही नहीं किया है बल्कि उसके दो चश्मदीद गवाहों की हत्या और एक पर जानलेवा हमला भी हुआ है। ये हत्याएं किसने करवाई हैं ? झूठे दस्तावेज़ पेश करके सर्वोच्च न्यायालय को धोखा देने की भी कोशिश की गई। झूठे बहाने बनाकर जमानत पर छूटने की भी कोशिश की गई। आसाराम का बेटा भी जेल की हवा खा रहा है। लगभग आधा दर्जन धूर्त साधु—संत इस समय जेल में हैं। इन कुख्यात संतों की सारी संपत्ति सबसे पहले जब्त की जानी चाहिए। फिर इन्हें असाधारण सजा दी जानी चाहिए क्योंकि ये अपने आपको असाधारण व्यक्ति बताते है। ये हिंदुत्व के कलंक हैं। इन्हें उम्र—कैद होगी तो ये जेल की रोटियां तोड़ेगे और मुफ्त की दवाइयां खाएंगे। ये अपनी राक्षसी वासना को तृप्त करने के लिए पता नही वहां रहकर क्या क्या हथकंडे अपनाएंगे ? बेहतर तो यह होगा कि इन्हें मौत की सजा दी जाए और पूरी सज—धज के साथ दिल्ली के लाल किले या विजय चौक पर लटकाया जाए। यदि आसाराम—जैसे लोगों में ज़रा भी संतई होती तो वे अपना जुर्म खुद कुबूल करते और अपने लिए फांसी की सजा खुद मांगते या जेल में ही आत्महत्या कर लेते।
टूट गया मरूस्थल में मीठे पानी का सपना
रमेश सर्राफ धमोरा
कुंभाराम आर्य लिफ्ट केनाल परियोजना का पानी स्टोरेज करने के लिए राजस्थान में शेखावाटी क्षेत्र के झुंझुनू जिले के मलसीसर में बनाए गए दो रिजरवायर (बांध) में से एक गत माह टूट गया। बांध टूटने से झुंझुनू और सीकर जिलो के 18 शहर और 1473 गांवों का 40 साल पुराना पीने को मीठा पानी मिलने का सपना भी टूट गया। बांध टूटने का प्रमुख कारण घटिया निर्माण करना सामने आया है। बांध टूटने से बांध में एकत्रित 8 करोड़ लीटर पानी बह कर मिट्टी में व्यर्थ बह गया। विशेषज्ञों के अनुसार बांध और अन्य कार्यों की मरम्मत भी होती है तो एक साल से ज्यादा का वक्त लगेगा, ऐसे में लोगो से फिर एक बार मीठा पानी काफी दूर हो गया है। हालांकि सुखद बात यह रही की बांध दिन में टूटने से पानी से कोई जनहानि नहीं हुई।
झुंझुनू जिले को हिमालय का मीठा पानी पिलाने के लिए बहुप्रतीक्षित तारानगर-झुंझुनू-खेतड़ी कुंभाराम लिफ्ट केनाल परियोजना का काम अंतिम चरणों में है। इस योजना पर करीब 588 करोड़ रुपए खर्च होने है। योजना में मलसीसर कस्बे के पास दो रिजरवायर बनाए गए हैं। इनमें से 4.5 लाख वर्गमीटर क्षेत्रफल के नौ मीटर जल स्तर क्षमता वाले रिजरवायर में परियोजना के वाटर फिल्टर प्लांट, पंपिंग हाउस की तरफ एक स्थान पर 31 मार्च की सुबह करीब 10 बजे पानी का रिसाव होने लगा। वहां कार्यरत मजदूरों ने देखा तो अधिकारियों को इसकी सूचना दी और रिसाव को रोकने के लिए मिट्टी के कट्टे व पोकलेन मशीन से मिट्टी डालना शुरू कर दिया। लेकिन रिजरवायर में नो मीटर से ज्यादा पानी भरा होने से दबाव के कारण दोपहर एक बजकर 8 मिनट पर बांध की दीवार का 20 फीट का हिस्सा टूट गया और पानी पूरे दबाव के साथ निकलने लगा। पानी का दबाव इतना तेज था कि कुछ ही देर में मिट्टी ढहने से टूटा हिस्सा करीब 50 फीट चौड़ा हो गया और कुछ ही मिनटों में पंपिंग हाउस, क्लोरिंग हाउस, फिल्टर प्लांट्स, प्रशासनिक भवन, मुख्य नियंत्रण भवन, पीएचईडी के दफ्तर पानी में डूब गए।
बांध टूटने के कारणो में से एक इसके निर्माण में घटिया इंजीनियरिंग तकनीकि काम में लेना भी था। यह बांध बालू मिट्टी से ही बनाया गया था। इसकी दीवारों पर सीमेंट का घोल लगाकर टाइलें लगा दी गई थी। जबकि विशेषज्ञों का कहना है कि बालू मिट्टी के साथ चिकनी और दोमट मिट्टी भी काम में ली जानी चाहिए थी। इससे बांध की दीवार मजबूत होती। 4.5 लाख वर्ग मी. क्षेत्रफल में बने इस बांध में 10 दिन पहले ही पूरा भरा गया था। बांध की ऊंचाई 10 मीटर है। इसमे 9.5 मी. ऊंचाई तक पानी भर दिया था। 9 मीटर ऊंचाई से ज्यादा पानी नहीं भरा जाना था। इसके चलते बांध दवाब झेल नहीं पाया और पानी ज्यादा होने से टूट गया।
बांध से फिल्टर प्लांट में पाइप लाइन के जरिए पानी छोड़ा जाता है। बांध पाइप लाइन के पास से ही टूटा है। बांध तैयार करने के बाद पाइप लाइन डाली गई थी। उस वक्त बांध की सही ढंग से मरम्मत नहीं हुई और ये रिसने लगा। यदि रिसाव को समय रहते देख लिया होता तो बांध को टूटने से बचाया जा सकता था। आरयूआईडीपी के अधिक्षण अभियन्ता मोहनलाल मीणा का कहना है कि इस रिजरवायर में इमरजेंसी आउटलेट बनाया जाना चाहिये था ताकि ऐसी किसी स्थिति में उस तरफ से पानी सुरक्षित तरीके से निकाला जा सके। जहां आउटलेट बनाया जाये, उसके आसपास 3 से 5 फीट तक पक्का निर्माण होना चाहिए ताकि रिसाव की आशंका न रहे। इस रिजरवायर में ऐसा नहीं किया गया था।
प्रदेश में करीब तीस साल से छोटे बांध व अर्द्धन डैम (मिट्टी के बांध) बनाने वाले जोधपुर निवासी शैतान सिंह सांखला का कहना है कि किसी भी रिजरवायर या डेम के निर्माण से पहले वहां की मिट्टी की गुणवत्ता की जांच की जाती है। इसके बाद मिट्टी पानी का कितना दबाव झेल सकती है, इसकी डेनसिटी जांच होती है। इस तरह के हादसों में प्राय: यह दोनों जांच प्रॉपर नहीं की जाए तो आउटलेट में रिसाव हो सकता है और क्योंकि यह मिट्टी की दीवार ही होती है इसलिए रिसाव बड़ा हो जाता है। इसके अलावा आउटलेट के आसपास की मिट्टी की कुटाई प्रॉपर तरीके से नहीं की जाए तो भी आउटलेट के आसपास रिसाव होकर ज्यादा क्षेत्र में फैल जाता है। आशंका है कि इस बांध के टूटने के पीछे ये कारण हो सकते हैं। यहां भी मिट्टी के सैंपल की रिपोर्ट, डेनसिटी की जांच रिपोर्ट से ही असली बात सामने आ सकती है।
इस रिजरवायर को बनाने वाली कम्पनी ने अभी इस परियोजना को पूरी तरह पीएचईडी को हैंड ओवर नहीं किया है। योजना के तहत तारानगर हैड से पानी की आवक दो दिन से बंद थी, अन्यथा पानी का प्रवाह और तेज हो सकता था। गौरतलब है कि जिले को हिमालय का मीठा पानी पिलाने के लिए बहुप्रतीक्षित तारानगर-झुंझुनू-खेतड़ी कुंभाराम लिफ्ट केनाल परियोजना का काम अंतिम चरणों में है। इसका बजट करीब 588 करोड़ रुपए है। इनमें से 4.5 लाख वर्गमीटर क्षेत्रफल के नौ मीटर जल स्तर क्षमता वाला बांध टूट गया। इससे झुंझुनू-सीकर के 18 शहर व 1473 गांवों को मीठा पानी सप्लाई होना था। नागार्जुना कंस्ट्रक्शन कम्पनी हैदराबाद मलसीसर परियोजना का पूरा काम कर रही है। इस कम्पनी के संस्थापक चेयरमैन डॉ. एवीएस राजू हैं। यहां से आगे का काम एलएनटी कम्पनी देख रही है।
जलदाय विभाग के प्रमुख शासन सचिव रजत मिश्र ने बताया कि वर्ष 2013 से लेकर 2015 तक बांध निर्माण की देखरेख के लिए जिन तीन अधिशाषी अभियन्ता को जिम्मेदारी दी गई थी, उनमें से दो हरलाल नेहरा व दिलीप तरंग को सरकार ने निलंबित कर दिया है। एक स्वेच्छिक सेवानिवृति ले चुके नरसिंह दत्त को नोटिस दिया गया है।
कुंभाराम लिफ्ट परियोजना के पहले चरण में पिछले तीन माह से झुंझुनू शहर को जलापूर्ति होने लगी थी। एक-दो दिन में मलसीसर कस्बे को इससे पानी दिया जाना था, मगर डेम टूट जाने के कारण अब इस प्रोजेक्ट के तहत तय समय पर पानी मुश्किल ही मिल पाए। परियोजना के तहत मलसीसर, खेतड़ी, झुंझुनू, सीकर शहर समेत 1473 गांवों को पानी दिया जाना है। इस परियोजना का शुभारंभ अगस्त 2013 में हुआ था। 30 जुलाई 2016 तक कार्य पूर्ण होना था। गत 13 दिसम्बर को ही राज्य सरकार की चौथी वर्ष गांठ के अवसर पर झुंझुनू में आयोजित राज्य स्तरीय समारोह में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने इस परियोजना का लोकार्पण किया था। तभी से खेतड़ी के 20 गांवों और झुंझुनू शहर के कुछ इलाकों में पानी की सप्लाई भी शुरू हो गई थी।
मलसीसर में शनिवार को डेम के टूटने पर एक चौंकाने वाली जानकारी सामने आई है। बताया जा रहा है कि इस डेम को चार महीने की टेस्ट के बाद पहली बार 100 फीसदी के करीब भरा गया था। लेकिन पहली ही बार में यह डैम पानी को नहीं रोक सका और पानी ने डैम की दीवारें तोडक़र अपना रास्ता इस तरह बनाया कि सब कुछ पानी पानी कर दिया। इस मामले में कम्पनी पर जुर्माना लगाने व मलसीसर थाने में कम्पनी के खिलाफ मामला दर्ज करवा दिया गया है। इस कम्पनी को तीन साल के लिए राजस्थान से डी बार करने का निर्णय भी लिया गया। इसके अलावा पूरे प्रोजेक्ट की एक बार फिर बारीकी से जांच करने के लिए विशेषज्ञों की टीम भी बुलाई गई है। जो अब अपनी रिपोर्ट देने के बाद ही यह प्रोजेक्ट चालू होगा।
तारानगर हैड पर तैनात जल संसाधन विभाग के अधिशासी अभियंता सुरेश कुमार ने मलसीसर थाने में मलसीसर में कुंभाराम लिफ्ट कैनाल परियोजना का बांध टूटने के मामले में निर्माण करने वाली नार्गाजुना कंस्ट्रक्शन कम्पनी के प्रोजेक्ट मैनेजर बी प्रसाद के खिलाफ हजारों लोगों की जान दांव पर लगाने और करोड़ों रुपए बर्बाद करने का मामला दर्ज करवाया है। पुलिस ने कम्पनी के प्रोजेक्ट मैनेजर बी. प्रसाद को गिरफ्तार कर लिया है।
राज्य सरकार यह मान चुकी है कि निर्माण की गुणवत्ता खराब होने के कारण ही बांध के टूटने की नौबत आई है, जिससे आठ करोड़ लीटर पानी बह गया है। बांध को जो हिस्सा टूट है, वह पूरे बांध का तीन फीसदी है। ऐसे में प्रश्न यह है कि शेष 97 फीसदी की गुणवत्ता की क्या स्थिति है। भविष्य में फिर तो कहीं बांध न टूट जाए। इसकी गारंटी तय करने के लिए सरकार पूरे प्रोजेक्ट की जांच आईआईटी दिल्ली या आईआईटी रुडक़ी से कराएगी। जांच के दौरान यदि यह पाया गया कि बांध के किसी दूसरे हिस्से में गुणवत्ता खराब है तो उसे समय ठीक किया जाएगा, जिससे भविष्य में सरकार की फजीहत होने से बचाया जा सके।
जल संसाधन विभाग के प्रमुख शासन सचिव रजत मिश्र ने बताया कि जल संसाधन विभाग के तीन चीफ इंजीनियर स्पेशल प्रोजेक्ट महेश करल, रूरल के डीएम जैन व नागौर में चल रहे जायका प्रोजेक्ट के सीएम चौहान म इन तीनों की एक कमेटी बनाई है जो इस पूरे मामले में जांच करेगी कि बांध क्यों टूटा, इसके निर्माण में क्या खामी रही, और यह बांध आगे भी मजबूत रहेगा या नहीं, इसकी एक-एक इंच की गहन जांच होगी।
इस मामले में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे भी गंभीर है। उन्होंने अधिकारियों को निर्देश दिए है कि जो पानी बहा है। जहां तक संभव हो इस पानी का सदुपयोग हो। इसके अलावा कम्पनी को ब्लैक लिस्टेड करने के निर्देश भी सीएम ने दिए है। मुख्यमंत्री ने जल संसाधन मंत्री डॉ. रामप्रताप को बुलाकर पूरे मामले की रिपोर्ट मांगी है। जो पानी बहा है, उसके लिए छोटे-छोटे तालाब बनाने के निर्देश दिए हैं।
राजस्थान में पानी की हर बूंद जीवन जितनी ही कीमती है। राज्य के करोड़ो नागरिको के टैक्स की कमाई से बना यह बांध निर्माण के तीन माह बाद ही यह टूट गया। बहाव में व्यवस्था की शर्म और नाकामी तो बही ही, लाखों लोगों को महीनों तक मिलने वाला जल भी बर्बाद हो गया। इसके जिम्मेदारों पर सख्त से सख्त कार्यवाही तो होनी ही चाहिए। सरकार को उन्हें बर्खास्त कर एक मजबूत संदेश देना चाहिए। ताकि आगे कोई सरकारी कार्मिक अपने कार्यो में लापरवाही ना करे।
चीन से बात में बुराई क्या है ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत और चीन के संबंधों को पटरी पर लाने के लिए प्रधानमंत्री की इस चीन-यात्रा का (27-28 अप्रैल) कौन स्वागत नहीं करेगा ? मोदी की यह यात्रा सफल हो, इसके लिए क्या-क्या प्रयत्न पहले से नहीं किए गए ? विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल और विदेश सचिव विजय गोखले पेइचिंग जाकर सारी चौपड़ जमा आए हैं। इसके पहले दलाई लामा के भारत आगमन की षष्टि-पूर्ति के समारोहों का बहिष्कार करके भी भारत सरकार ने चीन को सदभाव-संदेश पठाया था। दोकलाम-विवाद भी भारत ने आगे होकर शांत कर लिया था। दोकलाम से भारत की वापसी के बाद चीन ने जो आक्रामक दावे किए थे, उन पर चुप्पी साध करके भारत ने बातचीत का माहौल तैयार किया था। उधर चीन ने भी कुछ अच्छे संकेत दिए थे।
चीन के विदेश मंत्री वांग यी और पोलिट ब्यूरो के सदस्य वांग जेइची भारत आए और उन्होंने रचनात्मक रवैया अपनाया। चीन ने ब्रह्मपुत्र और सतलुज आदि नदियों के प्रवाह के बारे में भी आधिकारिक जानकारी भारत को देनी शुरु कर दी है। इसके अलावा अभी-अभी चीन ने सिक्किम से नाथू ला मार्ग के जरिए मानसरोवर-यात्रा का रास्ता भी खोल दिया है। यों भी आजकल चीन और अमेरिका के संबंध तनावपूर्ण होते जा रहे हैं। वह भी एक कारण हो सकता है, भारत से संबंध सुधारने का। उधर शी चिन फिंग और इधर नरेंद्र मोदी लगभग सर्वेसर्वा हैं। दोनों के बीच संवाद भी कायम है। कोई आश्चर्य नहीं की मोदी की इस यात्रा के दौरान ऐसे मुद्दों पर भी एक राय बन सकती है, जो तात्कालिक हैं और दूरगामी भी हैं। तिब्बत, कश्मीर और सीमा-विवाद के मुद्दे- बरसों से चले आ रहे हैं और ओबोर महापथ, परमाणु सप्लायर्स ग्रुप में भारत की सदस्यता और मसूद अजहर का मामला जैसे मुद्दे तात्कालिक हैं। इतना ही नहीं, भारत-चीन व्यापार में 50 अरब डाॅलर से ज्यादा का असंतुलन है। भारत के पड़ौसी देशों में भी चीन का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। पता नहीं, इस मुद्दे को शी के साथ मोदी किस रुप में उठाएंगे ? दलाई लामा ने अभी-अभी कहा है कि तिब्बत को हम चीन का अंग मानते हैं बशर्ते कि उन्हें धार्मिक और सांस्कृति स्वायत्ता मिलती रहे। मोदी की चीन-यात्रा के संबंध में चीनी विदेश मंत्री ने बार-बार पाकिस्तान को भरोसा दिलाया है कि उसके साथ चीन की ‘इस्पाती दोस्ती’ है। यदि दोनों देशों के बीच कोई बुनियादी समझ पैदा हो जाए तो इस यात्रा का महत्व एतिहासिक हो जाएगा लेकिन वैसा होने का कोई स्पष्ट कारण दिखाई नहीं पड़ रहा है। इसके बावजूद बात करने में बुराई क्या है?
संविदा नियुक्ति – वर्ग भेद – युध्य का आगाज़
डॉक्टर अरविन्द जैन
भारतीय इतिहास में वर्ग भेद के कारण रामायण और महाभारत के युध्य हुए और ग्रंथों का निर्माण हुआ। जैसे रामायण में सौतेले भाई और माँ के कारण झगड़ा हुआ वैसे ही महाभारत में भी सौतेले भाई के कारण युध्य हुआ। युध्य के लिए दो पक्ष होना आवश्यक होता हैं। जहाँ एक पक्ष के साथ भेद भाव और दूसरे को राजाश्रय देना झगड़े का कारण होता हैं। राजा हमेशा बांटो और शासन करो, शासन में हमेशा असंतोष बनाओ या पैदा कराओ। इसी नीति पर चलकर ही राजा अपने राज्य में जानबूझकर पक्षपात करता हैं जिससे दोनों पक्ष आपस में विवादित रहते हैं और शासक मजे से बंसी बजाते रहते हैं।
जिस राज्य में शासक अपने काबीना मंत्री और संत्री यानि सचिवों के द्वारा ऐसे निरयण लेते हैं जिसका आगामी प्रभाव संघर्ष होता भी या ही होता हैं। शासक दो पुत्रों में से एक को स्थायी और दूसरे को अस्थायी पुत्र की संज्ञा देना, जबकि दोनों एक ही माता की संतान हैं पर पिता अलग अलग रहे हो पर संतान तो एक की ही मानी जावेंगी पर शासक दोनों से अलग अलग व्यवहार करती हैं, सौतेला व्यवहार करती हैं। ऐसा क्यों। ?
सरकार ने जानबूझकर संविदा वर्ग तैयार किया जिससे उनके ऊपर एक मनोवैज्ञानिक दबाब रहता हैं वे दीन हीन अवस्था में रहते हैं, प्रतिवर्ष अपनी योग्यता को बताने चमचागिरी, हाथ पाँव जोड़ने और अप्रत्यक्ष में घूसखोरी को बढ़ावा देने का एक उपक्रम हैं। संविदा की नियुक्ति निश्चित स्थान पर रहती हैं पर भ्र्ष्टाचार के कारण उनका स्थानांतरणमन माफिक कराने में सुविधा होती हैं।।
संविदा के कारण कम पैसे मिलने से वे भयग्रस्त होने से अपनी योग्यता का प्रदर्शन नहीं कर पाते। अच्छे से अच्छे योग्य लोग कुंठाग्रस्त होने से भविष्य के प्रति आशंकित रहते हैं। अनेक वर्षों तक इसी प्रक्रिया के कारण उनको वेतन वृद्धि और स्थायी कर्मचारियों के लाभ से वंचित होने से वर्गवाद की खाई बढ़ने से असंतोष फैलने लगता हैं और यही क्रम वर्षों से होने के कारण उनका विरोध शासक के प्रति होने लगता हैं। शासक एक प्रकार का हृदयहीन पत्थर के समान। मन रहित और संवेदनहीन होने से अप्रभावित रहता हैं और उसका विकल्प हड़ताल होता हैं।
हड़ताल वैसे अहिंसक होते हैं और आंदोलन हिंसक ही होते हैं। सरकार मांग मानने के समय मांग नहीं मांगती पर जब आंदोलन का उग्र रूप होता हैं तब कुछ अश्श्वान देती हैं उसके पहले नहीं ऐसा क्यों ! सरकार इतनी बेदरद होती हैं की वह कोर्ट के आदेश को भी नहीं मानती, उनके आदेशों में अपना वचाब करने अनेक तर्क कुतर्क देकर समय बर्बाद करती हैं जिससे उनको मांग को पूरी करने समय के साथ पैसों की बचत होती हैं, वहीँ पक्ष सरकार के साथ होकर हड़ताल को निष्क्रिय करने में आतुर होती हैं। इससे सामान्य समस्या जटिल हो जाती हैं।
इस प्रकार राज्य एक संतानें दो एक प्रिय और दूसरी अवैध इनमे कैसे एकता होगी जो असंतोष का कारन होता हैं
कौरव और पांडव के साथ कर्णका युध्य में रहना
कैकयी और मंथरा का होना, रावण से युध्य का कारण बना
इसी प्रकार स्थायी और अस्थायी का किया जाना भी युध्य का कारण बना
सरकार यह तो चाहती हैं की लड़ो आपस में और आओ हमारे पास भीख मांगने
इससे समय, संपत्ति, धन का नुक्सान होता हैं सरकार का
क्यों ऐसा कदम उठाते हैं, अवैध संतान भी को भी आगे चलकर मानना होगा
इनको भी अपनाओ अपने सगे पुत्रों जैसे
कारन सब करते काम स्थायी जैसे
मापदंड, मंत्री बनने के?
निर्मल रानी
हमारे देश में संवैधानिक तौर पर प्रधानमंत्री से लेकर किसी प्रदेश के मंत्री तक का पद उस व्यक्ति को दिया जाता है जो लोकसभा,राज्यसभा,विधानसभा अथवा विधान परिषद् का सदस्य हो। हालांकि नैतिकता का तकाज़ा तो यही है कि लोकसभा अथवा विधानसभा के चुनाव में निर्वाचित लोगों को ही मंत्री पद पर सुशोभित किया जाए। परंतु यह देखा जाने लगा है कि चुनाव में पराजित नेताओं को भी उनका ‘मेहरबान’ आलाकमान मंत्रिमंडल में शामिल कर लेता है। कुछ परिस्थितियों में किसी भी व्यक्ति को बिना किसी सदन के सदस्य हुए भी मंत्री बनाया जा सकता है परंतु निर्धारित सीमा के भीतर ऐसे व्यक्ति का भी किसी न किसी सदन का सदस्य बनना ज़रूरी है। ज़ाहिर है संवैधानिक रूप में हो अथवा न हो परंतु नैतिकता के लिहाज़ से मंत्री जैसे पदों पर या मंत्रिपद का दर्जा पाने वाले पदों के लिए किसी भी व्यक्ति में राजनैतिक सूझ-बूझ के साथ-साथ योग्यता का होना अत्यंत आवश्यक है। इस संदर्भ में 1977 की एक घटना का उल्लेख करना ज़रूरी है। डा० राजेंद्र कुमारी वाजपेयी भारतीय राजनीति की कांग्रेस पार्टी से संबंधित एक वरिष्ठ राजनेता रही हैं। वे उत्तर प्रदेश के मंत्री पद से लेकर केंद्रीय मंत्री तथा राज्यपाल जैसे पदों पर भी रह चुकी हैं। 1977 में इलाहाबाद शहर के उत्तरी क्षेत्र से डा० वाजपेयी के विरुद्ध जनता पार्टी के टिकट पर बाबा राम आधार यादव नामक एक लोकप्रिय संत ने विधानसभा चुनाव लड़ा था। उन्होंने डा० वाजपेयी को पराजित किया। जनता पार्टी के नेतृत्व ने बाबा राम आधार यादव को मंत्री पद का प्रस्ताव दिया जिसे उन्होंने यह कहकर अस्वीकार कर दिया था कि वे संत हैं तथा उनमें मंत्रीपद पर बैठने की योग्यता नहीं है। अत: वे इस पद को स्वीकार नहीं कर सकते।
अब ज़रा आज का तथाकथित साधू-संतों का दौर भी देख लीजिीए। उत्तर प्रदेश में गोरखपुर स्थित प्रसिद्ध गोरखनाथ मठ के मठाधीश योगी आदित्यनाथ जी अपने मठ की जि़म्मेदारियां छोड़कर तथा साधू-संतों की दिनचर्या त्यागकर काफी राजनैतिक संघर्ष करने के बाद प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर सुशोभित होने में सफल रहे। परंतु मध्यप्रदेश में जिस तरीके से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पांच साधुओं को मंत्री पद के दर्जे से नवाज़ा है वह अपने-आप में अत्यंत हैरान करने वाली बात है। इन कथित संतों में कई ऐसे भी हैं जिन्होंने मुख्यमंत्री चौहान पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाते हुए उनके विरुद्ध एक बड़ा मोर्चा खोल रखा था। मंत्री बनने से एक दिन पूर्व तक इन संतों ने नर्मदा नदी में हो रहे अवैध रेत खनन को रोकने,पर्यावरण को बचाने,गौमाता के संरक्षण आदि के कथित उद्देश्य को लेकर 45 दिवसीय संत-साधु समाज यात्रा का आयोजन किया था। इस यात्रा को नर्मदा घोटाला रथ यात्रा का नाम दिया गया था। इस सरकार विरोधी यात्रा के जो मुख्य बिंदु उजागर किए जा रहे थे तथा जिन मांगों को लेकर यह यात्रा बुलाई गई थी उनमें सबसे पहला व बड़ा आरोप यह था कि मुख्यमंत्री चौहान ने दावा किया है कि नर्मदा नदी के किनारे 6 करोड़ पौधों का रोपण किया गया है। परंतु संतों के अनुसार नर्मदा के किनारे कोई पौधे नहीं लगाए गए और सैकड़ों करोड़ का घोटाला किया गया है। इनकी मांग थी कि इस सबसे बड़े वृक्षारोपण घोटाले की जांच कर दोषियों को सज़ा दी जाए।
ज़ाहिर है इन ‘महान संतों’ को मंत्री बनाए जाने के बाद नर्मदा घोटाला रथ यात्रा का आयोजन खटाई में पड़ गया। और कल तक जो संत मुख्यमंत्री के विरुद्ध घोटाले के आरोप लगा रहे थे उनके स्वर बदल गए। क्या इस पूरे प्रकरण में कहीं संतों की गरिमा,उनकी मान-मर्यादा,राजनैतिक शुचिता आदि का दर्शन दिखाई देता है? क्या संतों के मंत्री बनते ही कथित नर्मदा घोटाला समाप्त हो गया? इन संतों को मंत्री का दर्जा दिए जाने के विरुद्ध शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती सहित अनेक संतों ने अपने वक्तव्य दिए। कई संतों ने तो इन्हें मंत्री बनाए जाने के विरोध में मुख्यमंत्री चौहान के निवास का घेराव करने की भी चेतावनी दी। कई संतों व अखाड़ा प्रमुखों ने मंत्री का दर्जा पाने वाले संतों की गरिमा पर ही सवाल खड़े कर दिए। परंतु न तो इन संतों पर अपनी आलोचना का कोई फर्क पड़ा न ही मुख्यमंत्री चौहान के कान पर जूं रेंगी। कहा जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी की रणनीति का यह एक अहम हिस्सा है कि अपने विरोधियों,अपनी आलोचना करने वालों या अपना पर्दाफाश करने वालों को अपने साथ शामिल कर लिया जाए ताकि किसी भी प्रकार के विरोध या आलोचना के स्वर उठने ही बंद हो जाएं। बेशक नर्मदा घोटाला के आयोजकों को अपने साथ जोडऩा व उन्हें मंत्रीपद का दर्जा दिया जाना इसी रणनीति की एक कड़ी है।
उधर इसी नर्मदा घोटाला को लेकर मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री तथा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने भी पिछले दिनों 6 महीने 9 दिन तक चली अपनी 33 सौ किलोमीटर लंबी नर्मदा परिक्रमा पूरी की। दिग्विजय सिंह ने इस यात्रा की समाप्ति के बाद दावा किया कि उन्हें अपनी पूरी परिक्रमा यात्रा के दौरान 18 सौ किलोमीटर के क्षेत्र में केवल तीन पौधे ही जीवित अवस्था में मिले हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि 6 करोड़ पौधों का रोपण करने वाली सरकार ने नर्मदा के किनारे अधिक से अधिक 60 हज़ार से लेकर एक लाख तक पौधे ही लगाए हैं। इसके अतिरिक्त दिग्विजय सिंह ने साधू-संतों द्वारा उठाए गए मुद्दों पर भी रौशनी डालते हुए कहा कि-नर्मदा नदी से रेत का मनमाना दोहन किया जा रहा है। उनके अनुसार मुख्यमंत्री की सहमति के बिना इतने बड़े पैमाने पर मशीनों से उत्खनन नहीं किया जा सकता। ऐसे में यह सोचना लाजि़मी है कि नर्मदा घोटाला को लेकर दिग्विजय सिंह तथा मंत्री बनाए गए साधू-संत लगभग एक जैसे ही आरोप लगा रहे थे। परंतु संतों को मंत्री पद का दर्जा देकर चुप करा दिया गया जबकि दिग्विजय सिंह पर चौहान की यह नीति काम नहीं आ सकती। मध्यप्रदेश के ही एक महंत रामगिरी महाराज ने इस विषय पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि जो संत धर्म नीति से राजनीति में प्रवेश करता है वह विश्व कल्याण करने का काम करता है। परंतु जो संत धर्म के बजाए कूटनीति से राजनीति में प्रवेश पाता है वह केवल जगत का नाश ही कर सकता है। उत्तरप्रदेश से लेकर मध्यप्रदेश तक कम से कम यही स्थिति देखने को मिल रही है।
इसके पहले भी सतपाल महाराज,चिन्मयानंद,उमा भारती जैसे और भी कई लोग साधू-संत होने के साथ-साथ मंत्री पदों को सुशोभित कर चुके हैं। परंतु परोक्ष रूप से राजनीति में हिस्सा लेने के कारण तथा चुनावों में विजयी होकर सदन में सदस्य बनने के बाद उन्हें मंत्री बनाए जाने को लेकर कभी कोई विवाद नहीं पैदा हुआ। परंतु नर्मदा घोटाला यात्रा के आयोजकों को मंत्री का दर्जा देकर तथा उनके साथ यात्रा में स्वयं शामिल होने जैसा प्रदर्शन कर चौहान ने अपने विरोधियों का मुंह बंद करने का जो खेल खेला है उसे देखकर पूरा देश स्तब्ध है। शासन चलाने का यह तरीका जहां मुख्यमंत्री चौहान की शैली पर सवालिया निशान खड़ा करता है वहीं साधू-संतों की गरिमा व उनके मान-सम्मान को भी कठघरे में खड़ा करता है। जिन लोगों ने संतों की बात मानकर उनके साथ नर्मदा घोटाला यात्रा में शिरकत करने का संकल्प किया था आज वह लोग स्वयं को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। राजनैतिक हल्क़ों में यह सवाल भी उठने लगा है कि क्या मंत्री पद पाने के लिए या मंत्री पद हासिल करने के लिए किसी पार्टी का राजनैतिक कार्यकर्ता होना ही ज़रूरी है या फिर नर्मदा घोटाला यात्रा की तर्ज पर मुख्यमंत्री को धमका कर या उनपर दबाव डालकर कोई भी व्यक्ति कभी भी मंत्री पद हासिल कर सकता है?
मध्यप्रदेश की मतदाता सूची में फर्जी नाम
अजित वर्मा
पहले गुजरात चुनावों के समय तमाम तरह की आपत्तियाँ और अब कर्नाटक चुनाव की मतदान तिथि की भाजपा प्रवक्ता द्वारा पूर्व घोषणा के सवाल पर आलोचना झेल रहे चुनाव आयोग ने मध्यप्रदेश की मतदाता सूची में करीब 7 लाख फर्जी मतदाताओं की पहचान करके अपनी निष्पक्षता की बानगी पेश करके निष्पक्ष मतदान की अपनी प्रतिबद्धता को प्रमाणित करने का प्रयास किया है। दावा किया गया है कि इन 7 लाख में से 3 लाख तो दिवंगत ही हो चुके हैं, जबकि शेष 4 लाख गुमनाम हैं, यानी उनकी कोई पहचान नहीं है।
मध्यप्रदेश की मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी सलीना सिंह ने जिस तरह से इस फर्जीवाड़े को उजागर करवाया है इससे राजनीतिक दलों में चिंता देखी जा रही है। कुछ राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव आयोग के विरोध में बातें की जा रही हैं, जबकि निर्वाचन आयोग का कहना है कि हमने यह गड़बड़ी चुनाव के पहले पकड़ी है। मतलब साफ है कि आयोग निष्पक्षता के साथ काम कर रहा है। सलीना सिंह का कहना है कि आयोग सिर्फ जनहित में काम कर रहा है। मतदान की प्रक्रिया पारदर्शी व निष्पक्ष हो इसके लिए ही हमने कलेक्टरों पर नकेल कसकर यह फर्जीवाड़ा उजागर किया है।
कहा जा रहा है कि चुनाव आयोग ने करीब 7 लाख फर्जी वोटरों की पहचान करके सभी दलों को झटका दिया है। इस सफलता का श्रेय सबसे पहले मध्यप्रदेश निर्वाचन आयोग को जा रहा है। पिछले दिनों मध्यप्रदेश के दो दिनी दौरे पर आये भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत का कथन है कि मतदाता सूची में अब भी 6.67 लाख वोटर्स की एंट्री बाकी है तो, इसका मतलब ये नहीं होता है कि ये फर्जी मतदाता हैं। रावत ने कहा कि हमारी अपडेट टेक्नालॉजी की वजह से मतदाता सूची में गलत एंट्री पकड़ में आ रही है, यही तो चुनाव आयोग की सफलता है।
श्री रावत का कहना है कि लिस्ट में भले ही गलत नाम सामने आए हैं, लेकिन यह जरूरी नहीं कि उन्होंने वोट किया है। ऐसा नहीं है कि इन नामों का फर्ज़ी इस्तेमाल हुआ हो। परन्तु किसी न किसी स्तर पर लापरवाही हुई है, और अब इसे सुधारा जाएगा। श्री रावत का यह भी कहना है कि मतदाता सूची का शुद्धिकरण लगातार चलती रहने वाली प्रक्रिया है। इससे हम लगातार सूची को अपडेट करते हैं।
मतदाता सूची को अद्यतन किये जाने की प्रक्रिया में बूथस्तर पर सक्रिय राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं द्वारा भी नाम जुड़वाने-हटाने का काम किया जाता है। लेकिन अब आधार कार्ड सूची को वाजिब बनाने और संदेह से परे रखने का आधार बन सकता है। चुनाव की बुनियादी जरूरत निर्दोष मतदाता सूची ही तो है। उसी पर चुनाव की शुचिता का दारोमदार रहता है।
प्रधानमंत्री कम, प्रचारमंत्री ज्यादा
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी लंदन-यात्रा के दौरान फिर यह सिद्ध किया कि वे भारत के प्रधानमंत्री कम और प्रचारमंत्री ज्यादा हैं। सैकड़ों प्रवासी भारतीयों की उपस्थिति में उन्होंने जबर्दस्त नौटंकी रचाई। लगभग 2 घंटे तक चले प्रश्नोत्तरों में उन्होंने कई चौके और छक्के लगाए। बार-बार तालियों से हाल गूंजता रहा। कई सवालों पर उनकी हाजिर जवाबी कमाल की थी। वैसे इस तरह की नौटंकियां जब खेली जाती हैं तो उनका पूर्वाभ्यास (रिहर्सल) पहले से ही कर लिया जाता है। सवाल पूछनेवाले को जवाब का पता पहले से होता है और जवाब देनेवाले को सवाल पहले से पता होते हैं। फिर भी मोदी कुछ मुद्दों पर फिसल गए। शायद इसका कारण प्रचार पाने की अदम्य लालसा रही हो। उन्होंने एक सवाल के जवाब में बताया कि 2016 में पाकिस्तान के खिलाफ ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ कैसे की ? जो बात उन्होंने भारतीय नागरिकों और भारतीय संसद को भी अभी तक नहीं बताई थी, वह भी उन्होंने लंदन में उजागर कर दी। उन्होंने कहा कि 2016 में पाकिस्तान में घुसकर उन्होंने जो ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ करवाई, उसकी सूचना उन्होंने पाकिस्तानी जनरलों को सुबह 11 बजे देने की कोशिश की लेकिन उन्होंने डर के मारे फोन नहीं उठाया। 12 बजे उनको और अपने मीडिया को उन्होंने एक साथ खबर की। विदेशों में रहनेवाले भारतीयों को पूरी सच्चाई का पता ही नहीं। उन्होंने तालियां पीट दीं। उन्हें क्या पता कि यह सर्जिकल स्ट्राइक, वास्तव में फर्जीकल स्ट्राइक थी ! किसी सर्जिकल स्ट्राइक की सूचना दुश्मन को देनी पड़े, यह तथ्य ही सिद्ध करता है कि वह फर्जीकल स्ट्राइक है। 1967 में इस्राइल ने जब मिस्र के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक की थी तो क्या उसे मिस्र के जनरलों को बताना पड़ा था? मिस्र ही नहीं सारी दुनिया उसे तत्काल जान गई थी। यदि यह सचमुच की सर्जिकल स्ट्राइक होती तो उसके बाद क्या लगभग 200 बार हमारी सीमा का उल्लंघन होता ? और हमारे दर्जनों सैनिक मारे जाते ? 2016 जैसी घुसपैठ तो मौनी बाबा की सरकार कई बार कर चुकी थी लेकिन वे प्रधानमंत्री थे, प्रचारमंत्री नहीं। ऐसी अधकचरी घुसपैठों का प्रचार करने से अपनी ही इज्जत को बट्टा लगता है। मोदी ने अपने आपका नाम लेकर कई सवालों के जवाब दिए। एक बार उन्होंने यह कहा कि ‘मोदी इतिहास में अमर नहीं होना चाहता’ यह कहकर वे सच्चाई के एकदम नजदीक पहुंच गए। चार साल में उन्होंने ऐसा कौनसा काम किया है, जिसकी वजह से इतहास में उनका नाम अमर हो सकता है ? क्या नोटबंदी, फर्जीकल स्ट्राइक, क्या जीएसटी ? हां, उन्हें भारत के सर्वश्रेष्ठ प्रचारमंत्री की तरह कुछ दिनों तक जरुर याद रखा जाएगा।
नकदी की समस्या सरकार के लिए खतरा !
आकाश सोनी
पूरे देश में कैश की किल्लत को देखकर ऐसा लग रहा है, जैसे नोटबंदी का दूसरा दौर आ गया । इतनी समस्या तो तब भी नहीं थी, जब प्रधानमंत्री मोदी ने आधी रात को नोटबंदी की घोषणा की थी। हालांकि वित्त मंत्री ने कैश की किल्लत से इनकार किया है और जल्द ही, इस समस्या का समाधान करने की बात कही है, लेकिन अभी की स्थिति को देखकर ऐसा नहीं लग रहा, कि कैश की किल्लत जल्द ही खत्म हो जाएगी, क्योंकि देश के ज्यादातर राज्यों में एक साथ कैश की समस्या होना यही दर्शाता है कि यह गंभीर है। भले ही सरकार नकदी की समस्या से मुह फेर रही हो लेकिन एसबीआई की रिसर्च रिपोर्ट यही बता रही है कि एटीएम खाली होने की वजह, 70,000 करोड़ रुपए की नकदी की कमी आना है। रिपोर्ट के मुताबिक, गत माह मार्च में 19.4 लाख करोड़ रुपए की नकदी सिस्टम में होनी चाहिए थी, लेकिन 17.5 लाख करोड़ ही मौजूद थे। यानी नकदी की जरूरत और उपलब्धता में 1.9 लाख करोड़ रुपए का अंतर रहा। वहीं, इस दौरान डिजिटल लेनदेन में खासी कमी दर्ज की गई। दरअसल, मार्च में 1.2 लाख करोड़ रुपए का डिजिटल लेनदेन हुआ, जो कि नोटबंदी के बाद के महीनों से भी कम रहा। कैश और डिजिटल लेनदेन की बीच यह फासला करीब 70 हजार करोड़ रुपए का रहा।
नकदी की कमी होने का दूसरा कारण डिजीटल पेमेंट में कमी आना है। सरकार का देश को डिजीटलाइज़ करना एक अच्छा मिशन है, लेकिन साइबर सिक्युरिटीज के डर से आम नागरिक इसे अपनाने को तैयार नहीं दिख रहा है और नकदी को ही महत्ता दे रहा है। वहीं दूसरी ओर, पीएनबी बैंक घोटाला और आईसीआईसीआई बैंक की खबरों से आम आदमी का विश्वास बैंको में कम होता दिख रहा है। पिछले महीने देश में ऐसी अफवाह भी थी कि देश के बैंकों में पैसा सुरक्षित नहीं है। इसके चलते लोगों ने एटीएम से ज्यादा पैसे निकाले। यह अफवाह फाइनेंशियल एंड डिपॉजिट इंश्योरेंस बिल 2017 की वजह से थी। विधेयक में बैंक के नाकाम होने या पैसा नहीं होने की स्थिती में उसे नुकसान से बचाने के लिए जमाकर्ताओं की राशि का इस्तेमाल करने का प्रावधान है। सरकार ने यह बिल पिछले साल अगस्त में लोकसभा में पेश किया था।
इसके अलावा, बैंक और सरकार आम आदमी को भरोसा दिलाने में सफल नहीं हो पा रहे हैं कि उनका पैसा बैंकों में सुरक्षित है। तीसरा कारण यह भी है कि शादी का सीजन भारत में शुरु हो चुका है और हमारे देश में अभी भी कई दुकानदार डिजीटल पेमेंट लेने से बचते हैं, तब आम आदमी के पास सिर्फ एटीएम या बैंकों से नकदी लेकर खरीद-फरोख्त करने का रास्ता बच रहा है।
कहा जा रहा है कि नोटबंदी के समय जितनी नकदी सर्कुलेशन में थी, अब उससे अधिक है। फिर भी, एटीएम में नकदी न होना व्यवस्था की खामी है या कुछ और? इसका जवाब नहीं मिल पाया है। बैंकों पर लोगों का भरोसा होता है, इसलिए लोग अपनी खून पसीने की कमाई और जमा पूंजी बैंकों में रखते हैं, लेकिन अब समूची बैंकिंग व्यवस्था में उथल-पुथल लोगों को डरा रहीं है। वहीं कई लोगों द्वारा 2000 रुपए के नोटों को दबा लेना गहरा संकट है । ऐसी स्थिती में म.प्र. के वित्त मंत्री ने 2000 रुपए के नोटों के दुरुपयोग से भी इनकार नहीं किया है। सबसे दुखद तो यह है कि लोकतांत्रिक सरकार इस समय लोगों के साथ नहीं खड़ी है। व्यवस्था में पर्याप्त मात्रा में कैश होने का बयान देकर, सरकार पल्ला झाड़ रही है। अगर नकदी का यह झमेला अगले कुछ दिन और रहा तो यह मौजूदा सरकार की परेशानी बढ़ा सकता है इसलिए सरकार को गंभीर होकर सोचने की जरुरत है।
सीरिया में ट्रंप का शीर्षासन
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन ने मिलकर सीरिया पर जो मिसाइल बरसाए हैं, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अब शीर्षासन की मुद्रा में आ गए हैं। यही ट्रंप जब राष्ट्रपति का चुनाव लड़ रहे थे, तब ओबामा को ‘बेवकूफ’ कह रहे थे, क्योंकि वे सीरिया में अमेरिकी खून और डाॅलर बहा रहे थे। ट्रंप तब वादा कर रहे थे कि वे जैसे ही राष्ट्रपति पद संभालेंगे, अमेरिकी फौजों को सीरिया से वापस बुला लेंगे। वे तो अभी भी कह रहे हैं कि अपने 2000 सिपाहियों को वापस बुलाने के लिए वे वचनबद्ध हैं। पिछले साल भी उन्होंने सीरिया पर 59 मिसाइल मारे थे और इस बार 100 मिसाइल इसलिए मारे के सीरिया की राजधानी दमिश्क के पास स्थित दौमा में रासयनिक हथियारों का एक कारखाना उन्हें नष्ट करना था। यहां बननेवाले रासायनिक हथियारों के हमले से कुछ लोगों की मौत हो गई थी। इसके जवाबी हमले में ट्रंप ने ब्रिटेन और फ्रांस को भी घसीट लिया। इन तीनों देशों के अनेक अखबार, टीवी चैनल और विरोधी नेतागण इस मिसाइल आक्रमण की निंदा कर रहे हैं। वे यह आशंका भी जाहिर कर रहे हैं कि कहीं सीरिया ही तीसरे विश्व-युद्ध की स्थली न बन जाए। यदि रुस भी सीरिया की ओर से जवाबी हमला कर दे तो ये महाशक्ति एक-दूसरे से सीधी भिड़ जाएंगी। वैसे पश्चिमी शक्तियों ने यह सावधानी तो रखी है कि उनके मिसाइलों से सीरिया के शासक बशर-अल-अस्साद या रुसी फौजों का कोई सीधा नुकसान नहीं हुआ है लेकिन इन राष्ट्रों का यह दोष तो स्पष्ट ही है कि इस हमले के पहले इन्होंने अपनी कार्रवाई पर संयुक्तराष्ट्र संघ की मुहर नहीं लगवाई और उससे भी ज्यादा यह दोष कि रासायनिक हथियारों पर प्रतिबंध लगानेवाले संगठन द्वारा इस मामले की जांच करने के पहले ही हमला बोल दिया। यह अंतरराष्ट्रीय कानून का स्पष्ट उल्लंघन है। आश्चर्य की बात तो यह है कि जिस तथाकथित इस्लामी आतंकवाद से लड़ने के बहाने ट्रंप सत्तारुढ़ हुए हैं, सीरिया में वे उसी आतंकवाद की रक्षा में डटे हुए मालूम पड़ रहे हैं। उन्हें सीरिया से क्या लेना-देना ? वे रुसी वर्चस्व का मुकाबला करने के लिए सीरिया में शीर्षासन के लिए भी तैयार हो गए हैं।
असफिला: चीन की विस्तारवादी नई चाल
प्रमोद भार्गव
भारत और चीन के बीच तनातनी का नया मुद्दा उभरकर सामने आया है। जबकि अभी डोकलम विवाद ठीक से थमा भी नहीं है चीन ने अरुणाचल प्रदेश के असफिला क्षेत्र में भारतीय सैनिकों की नियमित गश्त को लेकर कठोर आपत्ति जताई है। यह क्षेत्र अरुणाचल के सुबानसिरी जिले का हिस्सा है, जो चीन की सीमा से सटा है। चीन ने दोनों देशों के बीच सीमा कर्मियों की हुई ’बॉर्डर पर्सोनेल मीटिंग’ में कहा कि अफसिला क्षेत्र में भारतीय सेना की गश्त उसकी जमीन पर अतिक्रमण है। इसके जवाब में भारतीय सेना ने दो टूक शब्दों में कहा कि ’भारतीय सेना को वास्तविक नियंत्रण रेखा की जानकारी है इस लिहाज से उसने सीमा का उल्लघंन नहीं किया है। गोया, गश्त आगे भी जारी रहेगी।’ दरअसल चीन 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध के बाद से ही अरुणाचल के बड़े हिस्से पर दावा जताता रहा है, जबकि विवादित इलाके भारत के अटूट हिस्सा हैं।
यही नहीं चीन ने अपनी दादागिरी एवं विस्तारवार नीति को अंजाम देते हुए लद्दाख क्षेत्र की पैंगोंग झील के ईद-गिर्द चीनी सैनिकों को घुसपैठ कराकर एक अन्य घटना को भी अंजाम दिया है। भारत-तिब्बत सीमा पुलिस द्वारा सामने लाई गई एक रिपोर्ट में कहा गया है कि लद्दाख क्षेत्र में 28 फरवरी से 12 मार्च 2018 के बीच चीनी सैनिक तीन मर्तबा भारतीय सीमा में छह किमी तक घुसे चले आए थे। किंतु इन घुसपैठों को आईटीबीपी के जवानों ने सफल नहीं होने दिया। इस रिपोर्ट में रक्षा की जुम्मेबारी संभाल रहे सैनिकों ने घुसपैठों से निपटने के लिए चीन के विरुद्ध ठोस रणनीति अपनाने की मांग की है। इसके आलावा लद्दाख के दुर्गम क्षेत्रों में विकास कार्यों को गति देने की भी बात कही गई है। दरअसल, भारत चीन की सीमा लगभग 4000 किमी लंबी है। इसमें हिमालय के वे दुर्गम क्षेत्र भी हैं, जहां सीमा की स्पष्ट रेखा अब तक नहीं खींची जा सकी है। चीन की विस्तारवादी मंशा इसी अस्पष्टता का लाभ उठाकर भारतीय सीमा में घुसपैठ की दखल करती रहती है। लद्दाख में दौलता बेग ओल्डी से लेकर डोकलाम तक चीन इसी मानसिकता से काम ले रहा है।
चीन की इस कुटिलता के चलते भारत के साथ भूटान भी परेशान हैं। जापान भी चीन की समुद्र में दखल को लेकर परेशान है। इसलिए उसने अब दक्षिण चीन सागर में ड्रेगन के दबदबे को आंखें दिखाते हुए अमेरिका की तर्ज पर मरीन कमांडों की फौज उतारी है। जमीन एवं समुद्र में दुश्मन को धूल चटाने की दक्षता में कुशल 2100 मरीन कमांडों ने पूर्वी चीन सागर से सटे जापानी द्वीप क्यूशू पर एक भव्य समारोह आयोजित कर सैन्य अभ्यास भी प्रदर्शित किया। इस समारोह में आधुनिक टैंकों, लड़ाकू विमानों और कई अन्य घातक हथियारों का प्रदर्शन भी किया। इन कमाडों को ’रैपिट डिप्लॉयमेंट ब्रिगेड’ नाम दिया गया है। इस समारोह के द्वारा चीन को आंखें दिखाने की मंशा तो अंतरनिर्हित है ही, साथ ही अपनी जंगी वेड़े में विस्तार करने की योजना भी निहित है। जापान ने द्वितीय विश्वयुद्ध और हिरोशिमा-नागासाकी परमाणु बम धमाकों के करीब 73 साल बाद चीन के खिलाफ यह खुली रणनीति अपनाई है।
दरअसल चीन भारत के बरक्श बहरूपिया का चोला ओढ़े हुए है। एक तरफ वह पड़ोसी होने के नाते दोस्त की भूमिका में पेश आता है और दूसरी तरफ ढाई हजार साल पुराने भारत चीन के सांस्कृतिक संबंधो के बहाने हिंदी-चीनी भाई-भाई का राग अलाप कर भारत से अपने कारोबारी हित साध लेता है। चीन का तीसरा मूखौटा दुश्मनी का है, जिसके चलते वह पूरे अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा ठोकता है। साथ ही उसकी यह मंशा भी हमेशा रही है कि भारत न तो विकसित हो और न ही चीन की तुलना में भारतीय अर्थवयवस्था मजबूत हो। इस दृष्टि से वह पाक अधिकृत कश्मीर, लद्दाख, उत्तराखंड, सिक्किम और अरूणाचल में अपनी नापाक मौजदूगी दर्ज कराकर भारत को परेशान करता रहता है। इन बेजा हरकतों की प्रतिक्रिया में भारत द्वारा विनम्रता बरते जाने का लंबा इतिहास रहा है, इसी का परिणाम है कि चीन आक्रामकता दिखाने से बाज नहीं आता।
दरअसल चीन का लोकतंत्रिक स्वांग उस सिंह की तरह है जो गाय का मुखैटा ओढ़कर धूर्तता से दूसरे प्रणियों का श्कार करने का काम करता है। इसका नतीजा है कि चीन 1962 में भारत पर आक्रमण करता है और पूर्वोत्तर सीमा में 40 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन हड़प लेता है। कैलाश मानसरोवर जो भगवान शिव के आराध्य स्थल के नाम से हमारे प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में दर्ज हैं, सभी ग्रंथों में इसे अखंड भारत का हिस्सा बताया गया है। लेकिन भगवान भोले भंडारी अब चीन के कब्जे में हैं। यही नहीं गूगल अर्थ से होड़ बररते हुए चीन ने एक ऑनलाइन मानचित्र सेवा शुरू की है। जिसमें भारतीय भू-भाग अरुणाचल और अक्शाई चिन को चीन ने अपने हिस्से में दर्शाया है। विश्व +मानचित्र खण्ड में इसे चीनी भाषा में दर्शाते हुए अरुणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा बताया गया है, जिस पर चीन का दावा पहले से ही बना हुआ है। वह अरुणाचलवासियों को चीनी नागरिक भी मानता है। यही नहीं चीन की एक साम्यवादी रुझान की पत्रिका में वहां की एक कम्युनिस्ट पार्टी के नेता का लेख छपा था कि भारत को पांच टुकड़ों में बांट देना चाहिए। अब सवाल उठता है कि भारत इस कुटिल मंशा का जबाव किस लहजे और भाषा में दे ?
चीन की दोगलाई कूटनीति तमाम राजनीतिक मुद्दों पर साफ दिखाई देती है। चीन बार-बार जो आक्रामकता दिखा रहा है, इसकी पृष्ठभूमि में उसकी बढ़ती ताकत और बेलगाम महत्वाकांक्षा है। यह भारत के लिए ही नहीं दुनिया के लिए चिंता का कारण बनी हुई है। दुनिया जानती है कि भारत-चीन की सीमा विवादित है। सीमा विवाद सुलझाने में चीन की कोई रुची नहीं हैं। वह केवल घुसपैठ करके अपनी सीमाओं के विस्तार की मंशा पाले हुए है। चीन भारत से इसलिए नाराज है, क्योंकि उसने जब तिब्बत पर कब्जा किया था, तब भारत ने तिब्बत के धर्मगुरू दलाई लामा के नेतुत्व में तिब्बतियों को भारत में शरण दी थी। जबकि चीन की इच्छा है कि भारत दलाई लामा और तिब्बतियों द्वारा तिब्बत की आजादी के लिए लड़ी जा रही लड़ाई की खिलाफत करे। दरअसल भारत ने तिब्बत को लेकर शिथिल व असंमजस की नीति अपनाई हुई है। जब हमने तिब्बतियों को शरणर्थियों के रूप में जगह दे दी थी, तो तिब्बत को स्वंतत्र देश मानते हुए अंतरराष्ट्रीय मंच पर सर्मथन की घोषणा करने की जरुरत भी थी ? डॉ राममनोहर लोहिया ने संसद में इस आशय का बयान भी दिया था। लेकिन ढुलमुल नीति के कारण नेहरु ऐसा नहीं कर पाए ?
चीन कूटनीति के स्तर पर भारत को हर जगह मात दे रहा है। पाकिस्तान ने 1963 में पाक अधिकृत कश्मीर का 5180 वर्ग किमी क्षेत्र चीन को भेंट कर दिया। तब से चीन पाक का मददगार हो गया। चीन ने इस क्षेत्र में कुछ सालों के भीतर ही 80 अरब डॉलर का पूंजी निवेश कर दिया। चीन की पीओके में शुरू हुई गतिविधियां सामाजिक दृष्टि से चीन के लिए हितकारी हैं। यहां से वह अरब सागर पहुंचने की जुगाड़ में जुट है। इसी क्षेत्र में चीन ने सीधे इस्लामाबाद पहुंचने के लिए काराकोरम सड़क मार्ग भी तैयार कर लीया है। इस दखल के बाद चीन ने पीओके क्षेत्र को पाकिस्तान का हिस्सा भी मानना शुरू कर दिया है। यही नहीं चीन ने भारत की सीमा पर हाइवे बनाने की राह में आखिरी बाधा भी पार कर ली है। चीन ने समुद्र तल से 3750 मीटर की उंचाई पर बर्फ से ढके गैलोंग्ला पर्वत पर 33 किमी लंबी सुरंग बनाकर इस बाधा को दूर कर दिया है। यह सड़क सामारिक नजरिए से बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि तिब्बत में मोशुओ काउंटी भारत के अरूणाचल का अंतिम छोर है। अभी तक यहां कोई सड़क मार्ग नहीं था।
चीन की लगातार जारी हरकतों को देखते हुए लगने लगा है कि अब उसे माकूल जबाव दिया जाए। यह उत्तर कूटनीति, सामरिक और कारोबारी स्तर पर दिया जाना जरूरी हो गया है। चीनी आक्रामकता के विरुद्ध वैश्विक ताकतों को भी साझा रणनीति अमल में लानी होगी। तभी चीन का मुकबला करना संभव हो सकेगा। क्योंकि चीन ने दक्षिण चीन सागर में सैनिक अड्डा बनाकर अमेरिका की भी नींद हराम कर दी है। हिंद महासागर में वर्चस्व कायमी की दृष्टि से मालद्वीव में भी सैन्य ठिकाना बना लिया है। आर्थिक गलियारे के निर्माण को लेकर जहां पाकिस्तान उसके चंगुल में है, वहीं नेपाल और श्रीलंका में भी बड़े पूंजी निवेश के बहाने चीन अपना प्रभाव बढ़ा रहा है। चीन की ये ऐसी नीतिगत करतूतें हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि चीन भारत को चौतरफा घेरे रखकर पूरे एशिया महाद्वीप में अपना परचम फहराए रखना चाहता है।
कठुआ-कांडः भाजपा की इज्जत बची
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जम्मू-कश्मीर के दो मंत्रियों के इस्तीफों ने भाजपा की छवि खराब होने से बचा ली है। इन मंत्रियों पर यह आरोप था कि इन्होंने उस हिंदू एकता मंच की सभा में भाग लिया था, जिसने बलात्कारी पुलिस अफसरों को बचाने की कोशिश की थी। इन पुलिसकर्मियों ने आसिफा नामक एक बकरवाल मुस्लिम लड़की (उम्र 8 साल) के साथ पहले बलात्कार किया और फिर उसकी हत्या कर दी थी। इस जघन्य अपराध पर पर्दा डालने के लिए इसे सांप्रदायिक रंग दिया जा रहा था। इस कुकृत्य की निंदा सिर्फ जम्मू-कश्मीर में ही नहीं, सारे देश में हो रही थी। सिर्फ भाजपा-पीडीपी गठबंधन की सरकार ही तनावग्रस्त नहीं हो गई थी बल्कि केंद्र की मोदी सरकार पर भी उंगलियां उठने लगी थीं। इस घटना की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चा होने लगी थी। मोदी का मौन मनमोहनसिंह के मौन से भी ज्यादा दहाड़ें मार रहा था। यदि भाजपा इस मामले पर अकर्म की मुद्रा में कुछ दिन और रह जाती तो श्रीनगर में महबूबा मुफ्ती की सरकार का चलना मुश्किल हो जाता लेकिन भाजपा ने यह बहुत ही सराहनीय फैसला किया कि अपने दोनों मंत्रियों से इस्तीफा मांग लिया। मंत्रियों ने अपनी सफाई में यही कहा कि वे अज्ञानतावश उस कार्यक्रम में चल गए थे। उन्होंने अब मांग की है कि उन अपराधियों को मृत्युदंड दिया जाए। लगभग इसी तरह की घटना पर उत्तरप्रदेश के उस विधायक का इस्तीफा अभी तक नहीं मांगा गया, क्योंकि वहां सरकार गिरने का डर नहीं है। मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने भाजपा की इस पहल पर हृदय से धन्यवाद दिया है और उनकी पार्टी ने इस बात पर गर्व प्रकट किया है कि पूरे भारत ने आसिफा को अपनी बेटी माना है। इस मौके पर महबूबा ने यह भी कहा है कि कश्मीर के नौजवानों का असंतोष और गुस्सा चरम सीमा पर है। यदि उसका संतोषजनक समाधान शीघ्र नहीं किया गया तो जम्मू-कश्मीर में अराजकता फैल सकती है। उन्होंने यह भी कहा कि ऐसा लगता है कि सरकारों के पास अब कश्मीरियों की समस्याएं हल करने के रास्ते चुक गए हैं। यह स्थिति सचमुच चिंताजनक है।
कितना उचित है मीसा बंदी राजनीतिक कार्यकर्ताओं को पेंशन देना ?
जग मोहन ठाकन
क्या राजनैतिक उदेश्यों के लिए यानि सत्ता प्राप्ति के लिए एक राजनैतिक पार्टी के कार्यकर्ताओं व नेताओं द्वारा किसी दूसरी विरोधी सत्तासीन पार्टी के खिलाफ चलाये गए आन्दोलनों में सक्रिय भागीदारों को सरकारी खजानों से आर्थिक लाभ पहुँचाना जनहित में सही कदम है ? यह प्रश्न कौंधता है वर्तमान भाजपा सरकारों द्वारा अपने कार्यकर्ताओं को पेंशन देने के फैसलों पर . एक तरफ तो केंद्रीय व राज्य सरकारें अपने कर्मचारियों तथा अपने अधीन बैंक कर्मचारियों की पेंशन बंद कर रहे हैं . केंद्र सरकार द्वारा संचालित ग्रामीण बैंकों के लगभग तीस हज़ार कर्मचारी / अधिकारी पेंशन के लिए वर्ष २०१२ से केंद्र सरकार की हठधर्मिता का खामियाजा भुगत रहे हैं और लगभग तीन हज़ार कार्मचारी पेंशन की इन्तजार करते करते परलोक सिधार चुके हैं . दूसरी तरफ ये सरकारें अपने कार्यकर्ताओं को भी पेंशन की खैरात बाँट रहे हैं .
बुधवार,११ अप्रैल ,२०१८ को चंडीगढ़ में हुई हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की अध्यक्षता में मंत्रिमंडल की बैठक में हरियाणा राज्य शुभ्र ज्योत्सना पेंशन तथा अन्य सुविधाएं योजना,२०१८ को स्वीकृति प्रदान की गई जो प्रथम नवम्बर, २०१७ से लागू होगी। इस योजना के तहत, हरियाणा के ऐसे निवासियों को दस हज़ार रुपये मासिक पेंशन दी जाएगी, जिन्होंने २५ जून, १९७५ से २१ मार्च, १९७७ तक आपातकाल की अवधि के दौरान सक्रिय रूप से भाग लिया और आन्तरिक सुरक्षा रख-रखाव अधिनियम (एमआईएसए), १९७१ और भारत के प्रतिरक्षा अधिनियम, १९६२ के तहत कारावास जाना पड़ा। इसके अतिरिक्त, जो व्यक्ति हरियाणा के अधिवासी नहीं है परन्तु आपातकाल के दौरान हरियाणा से गिरफ्तार हुए और हरियाणा की जेलों में रहे, वे भी इस पेंशन के पात्र होंगे।
एक सरकारी सूचना के अनुसार इस योजना का लाभ उठाने के लिए हरियाणा के ऐसे निवासी पात्र होंगे, जिन्होंने आपातकाल की अवधि के दौरान संघर्ष किया तथा चाहे उन्हें एमआईएसए अधिनियम,१९७१ (मीसा ) या भारत के प्रतिरक्षा अधिनियम, १९६२ तथा इसके तहत बनाए गए नियमों के तहत एक दिन के लिए ही कारावास जाना पड़ा हो। ये नियम ऐसे व्यक्तियों की विधवाओं के लिए भी लागू होंगे। लाभार्थी को इसके लिए सम्बन्धित जेल अधीक्षक द्वारा जारी और जिला मजिस्ट्रेट द्वारा प्रतिहस्ताक्षरित जेल प्रमाणपत्र प्रस्तुत करना होगा। यदि कोई व्यक्ति रिकॉर्ड गुम होने या अनुपलब्ध होने के कारण जेल प्रमाण पत्र प्रस्तुत नहीं कर सकता, तो वह दो सह-कैदियों से प्रमाणपत्र प्रस्तुत कर सकता है। सह-कैदियों का ऐसा प्रमाणपत्र संबंधित जिले के विधायक या सांसद द्वारा प्रमाणित होना चाहिए।
इससे पहले वर्ष २०१४ में राजस्थान की भाजपा सरकार ने भी एक अधिसूचना जारी कर राज्य में वर्ष १९७५-१९७७ के दौरान मीसा एवं डी आई आर के अंतर्गत राज्य की जेलों में बंदी बनाये गए राज्य के मूल निवासियों को पेंशन दिए जाने सम्बन्धी “ मीसा एवं डी आई आर बंदियों को पेंशन नियम २००८ “ में कुछ संशोधन कर इसे बहाल किया था। भाजपा सरकार ने २००८ के अपने पूर्व के कार्यकाल में मीसा बंदियों को पेंशन प्रारम्भ की थी , परन्तु कांग्रेस सरकार ने २००९ में सत्ता में आते ही इसे बंद कर दिया था। राजस्थान भाजपा सरकार ने पुनः सत्ता सँभालते ही पेंशन को दोबारा से
शुरू करने का फैसला लिया था। संशोधन के अनुसार पेंशन नियम २००८ के पैरा १०( क ) में वर्णित सभी मीसा व डी आई आर बंदियों एवं बंदियों की पत्नी या पति को अब हर महीने राजस्थान सरकार की तरफ से १२ हजार रुपये मासिक पेंशन दी जाएगी। साथ ही सभी पेंशनर को पेंशन के साथ एक हजार दो सौ रुपये प्रतिमाह चिकित्सा सहायता भी नगद दी जाएगी , जिसके लिए किसी भी प्रकार का बिल प्रस्तुत नहीं करना होगा। यह सुविधा १ जनवरी,२०१४ से लागु होगी।
विचारणीय प्रश्न यह है की क्या किसी राजनितिक पार्टी द्वारा अपने राजनैतिक हित के लिए सरकारी खजाने से अपने नेताओं व कार्यकर्ताओं को पेंशन दिया जाना या कोई आर्थिक लाभ पहुँचाना जनहित में उचित है ? पर इस प्रश्न पर विचार करने से पहले यह जानना भी उचित रहेगा कि आखिर मीसा बंदी हैं कौन ? १९७५ में जब इंदिरा गाँधी की कांग्रेस सरकार द्वारा जबरन नसबंदी व अन्य जन दमनकारी नीतियों के विरोध में जनता में आक्रोश प्रस्फुटित होने लगा तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने इस आक्रोश से साधारण तरीकों से निपटने में असफलता के बाद देश में आपातकाल की घोषणा कर दी तथा आंतरिक सुरक्षा के नाम पर मेंटेनेंस आफ इंटरनल सिक्यूरिटी एक्ट यानि मीसा लागु कर दिया। जिसके तहत सरकार के खिलाफ जनता को आन्दोलन के लिए प्रेरित करने वाले विभिन्न राजनैतिक नेताओं व कार्यकर्ताओं को जेलों में बंद कर दिया गया। लगभग सभी विरोधी पार्टियों के बड़े नेता मीसा में बंदी बनाये गए थे। लोगों ने मीसा को मेंटेनेंस आफ इंदिरा संजय एक्ट नाम देकर खूब नारे बाजी की थी। जबरन नसबंदी के खिलाफ भी खूब विरोध पनपा था और नसबंदी के तीन दलाल , संजय , शुक्ला , बंसीलाल “ का नारा जन जन की जुबान पर चढ़ गया था।
१९ माह तक जेल की रोटियां खाने के बाद १९७७ में कांग्रेस विरोधी जबरदस्त लहर के चलते विभिन्न राजनितिक पार्टियों के जमावड़े के रूप में जनता पार्टी की सरकार बनी। वर्तमान भाजपा के भी अधिकतर बुजुर्ग नेता उस समय के आन्दोलनों में किसी न किसी दल के साथ भाग ले रहे थे। भले ही कांग्रेस सरकार के खिलाफ जनाक्रोश चरम पर था , परन्तु राजनैतिक नेताओं का आन्दोलन कांग्रेस को हरा कर सत्ता प्राप्ति मुख्य ध्येय था। वर्तमान भारतीय जनता पार्टी , राष्ट्रीय स्वम् सेवक संघ तथा पुराने जनसंघ के अधिकतर सक्रिय कर्येकर्ता व नेता कांग्रेस विरोधी आन्दोलनों में शामिल रहते थे।
परन्तु क्या राजनैतिक उदेश्यों के लिए यानि सत्ता प्राप्ति के लिए एक राजनैतिक पार्टी के कार्यकर्ताओं व नेताओं द्वारा किसी दूसरी विरोधी सत्तासीन पार्टी के खिलाफ चलाये गए आन्दोलनों में सक्रिय भागीदारों को सरकारी खजानों से आर्थिक लाभ पहुँचाना जनहित में सही कदम है ? क्या जनता से वसूले गए टैक्स व जनधन से ,अपनी पार्टी के कार्यकर्तायों व नेताओं को मात्र इस आधार पर कि उन्होंने विरोधी पार्टी को सत्ताच्युत करके अपनी पार्टी की सरकार बनवाने में अहम भूमिका अदा की है . सरकारी खजाने से बंदरबांट करना उचित है ?
सरकार चाहे कितने ही बहुमत से क्यों न बनी हो वो सरकारी धन की कस्टोडियन है मालिक नहीं। और कस्टोडियन अपने या स्वजनों के स्वार्थ साधने के लिए जनधन का दुरूपयोग करे , कदापि सही कदम नहीं हो सकता। पार्टी के कर्मठ कार्यकर्ताओं को सम्मान देना किसी भी पार्टी का अधिकार भी है और कर्तव्य भी। परन्तु ऐसा पार्टी के अपने फण्ड से किया जाये तो ही जनता में अच्छा सन्देश जाता है। चिंता की बात तो यह है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकारों द्वारा डाली गई यह पेंशन की लीक कहीं भविष्य में खजाना लूट की परम्परा न बन जाये। अत जरुरत है पुनर्चिन्तन की तथा दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखते हुए फैसले करने की।
दलितों का दलन सिर्फ कानून से बंद नहीं होगा
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दलित अत्याचार निवारण कानून में संशोधन किया है, सर्वोच्च न्यायालय ने और गुस्सा निकाला जा रहा है, केंद्र सरकार पर। देश के प्रमुख विरोधी दलों ने भी भाजपा के मत्थे ही दोष मढ़ना शुरु कर दिया है। कांग्रेस ने राजघाट पर अनशन का हास्यास्पद नाटक कर दिखाया। यहां तक कि दलित नेता मायावती ने भी अपनी तलवारें हवा में लहरा दी हैं। ये वही मायावती हैं, जिन्होंने उप्र के मुख्यमंत्री के तौर पर 2007 में दो आदेश जारी करके कहा था कि इस कानून का दुरुपयोग हो रहा है। उसे रोकने के लिए उन्होंने लगभग वैसे ही आदेश जारी किए थे, जैसे कि सर्वोच्च न्यायालय ने किए हैं।
जहां तक भाजपा का सवाल है, उसकी सरकार ने 1989 में बने इस कानून को 2015 में संशोधित करके पहले से भी अधिक कठोर बना दिया था। जनवरी 2016 से यह कानून लागू हो गया और इसके अंतर्गत अनुसूचित जातियों और जनजातियों पर होनेवाले अत्याचारों की सूची बढ़ाई गई और उसमें दलितों के सिर मूंडने, जूतों की माला पहनाने, हाथ से मेला साफ करवाने, उनको गालियां देने आदि के अपराधों पर 10 साल की सजा का प्रावधान किया गया। अब केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले के विरुद्ध एक पुनर्विचार याचिका पेश की है।
सर्वोच्च न्यायालय ने यह तो माना है कि भारत के आदिवासियों और दलितों पर अत्याचार बराबर जारी है। लेकिन उसने अपने फैसले में यह भी कहा है कि अत्याचार से लड़नेवाला कानून खुद अत्याचारी नहीं बनना चाहिए। 1989 में बना यह कानून उस समय इतना जरुरी और लाभदायक लग रहा था कि इसकी धाराओं पर ज्यादा बहस नहीं हुई। संसद में इसकी बारीकियों पर ध्यान नहीं दिया गया। इसी का नतीजा यह निकला कि इस मामले में जितने भी मुकदमे अदालत में आए, उनमें से 70-75 प्रतिशत मुकदमे रद्द हो गए। उन मुकदमों के कारण हजारों वादियों और प्रतिवादियों तथा उनके रिश्तेदारों और मित्रों के बीच बैर-भाव फैलता रहा।। मुकदमे रद्द होने पर दलितों में निराशा छाने लगी। व्यवस्था के प्रति अविश्वास पैदा होने लगा। दलितों को वकीलों की फीसें भुगतनी पड़तीं और अदालतें भी हजारों नए मुकदमों के बोझ से पीड़ित रहती। इस कानून का जो मुख्य लक्ष्य था कि हमारे दलित और आदिवासी भाइयों को सामाजिक-उत्पीड़न से बचाना, उसकी उपेक्षा हो रही थी।
ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका पर अपना फैसला देते हुए इस अत्याचार-निवारण कानून में कुछ संशोधन सुझाए हैं। जैसे किसी भी व्यक्ति को सिर्फ इसीलिए तुरंत गिरफ्तार नहीं किया जाएगा कि उसके विरुद्ध किसी आदिवासी या किसी दलित ने कोई शिकायत कर दी है। वर्तमान कानून के अनुसार किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने के लिए न तो किसी प्रकार की जांच की जरुरत होगी, न प्रमाण की और न ही किसी ऊंचे अफसर की अनुमति की। अदालत ने अब यह प्रावधान कर दिया है कि किसी भी नागरिक के विरुद्ध जैसे ही कोई शिकायत आए, पुलिस उसकी जांच करे और फिर वह अपनी रपट अपने वरिष्ठ जिला अधीक्षक को दे। यदि वह सहमत हो तब ही उस नागरिक की गिरफ्तारी की जाए।
इसी तरह यदि किसी सरकारी कर्मचारी का मामला हो तो उसकी भी बाकायदा जांच हो और जब तक उसको नियुक्त करनेवाले अधिकारी की अनुमति न मिले, उसे गिरफ्तार न किया जाए। इस तरह के अपराधों में अग्रिम जमानत और जमानत पाना भी मुश्किल था। दूसरे शब्दों में अत्याचार-निवारण के नाम पर कई लोग अपनी खुंदक निकालते थे। अपने राजनीतिक और व्यावसायिक प्रतिद्वंद्वियों को जेल भिजवा देते थे। लेकिन यह भी सत्य है कि इस कठोर कानून की वजह से लोगों के दिल में दहशत बैठ गई थी कि यदि हमने जरा भी मर्यादा का उल्लंघन किया नहीं कि अंदर हुए।
इसमें शक नहीं कि यह संशोधित कानून लागू हो गया तो इसका भी दुरुपयोग हो सकता है, क्योंकि जांच करनेवाले और गिरफ्तारी की अनुमति देनेवाले अधिकारियों का अपना पूर्वाग्रह हो सकता है। वे दलित और आदिवासी विरोधी भी हो सकते हैं या उनकी नजर में किसी को गाली दे देना या उसका अपमान कर देना वैसा ही स्वाभाविक है, जैसे कि सांस लेना। लेकिन यह तर्क तो न्यायाधीशों और कानून बनानेवाले सांसदों पर भी लागू किया जा सकता है। इस तर्क के बावजूद अत्याचार-निवारण कानून बनानेवाले ज्यादातर सांसद और उसे लागू करनेवाले अधिकतम न्यायाधीश दलित नहीं हैं। ऐसी स्थिति में यह मानकर चलना अधिक तर्कसंगत है कि कानून को अपने आप में मर्यादित होना चाहिए।
इस नए कानून के विरुद्ध जो प्रतिक्रिया हुई है, वह सहज है। इतने वंचित और उत्साही लोगों का हताहत होना अत्यंत दुखद है। उन्हें स्वयं हिसंक होने की कोई जरुरत नहीं थी और पुलिस ने भी कई स्थानों पर अति कर दी थी। भारत बंद की यह घटना स्वतःस्फूर्त थी। यह किसी दल या नेता का आह्वान नहीं था। इंटरनेट और कानोंकान हुए प्रचार ने साधारण दलितों को भड़का दिया, लगभग वैसे ही जैसे कि कुछ दिन पहले फिल्म ‘पद्मावती’ को लेकर देश के राजपूत समाज को भड़का दिया गया था।
यदि गंभीरता से विचार किया जाए तो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से दलितों को अब बेहतर न्याय मिलेगा। मैं तो समझता हूं कि भारत के दलित और सवर्ण समाज के भेद को समाप्त करने के लिए सिर्फ कानून के सहारे बैठे रहना काफी नहीं है। इसके लिए कोई ऐसा जबर्दस्त जन-आंदोलन चाहिए, जो करोड़ों लोगों से जातीय उपनाम हटवाए, अंतर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहित करे, जातीय आरक्षण का विरोध करे और समतामूलक समाज का निर्माण करे। जातिवादी समाज तो रोगी समाज होता है।
स्वयं डा. भीमराव आंबेडकर ‘जातिवाद के उन्मूलन’ के लिए कटिबद्ध थे। इसी शीर्षकवाली उनकी पुस्तक काफी प्रसिद्ध हुई है। यदि 1989 का कानून दलितों को न्याय दिलाने के साथ-साथ जातिवाद की जड़ें सींचता रहा तो यह डा. आंबेडकर के विचारों का घोर अपमान है। स्वयं डा. आंबेडकर जातीय आरक्षण को अनंतकाल तक चलाने के विरोधी थे। उन्होंने और डा. राममनोहर लोहिया ने जातिविहीन भारत का सपना देखा था लेकिन देश का दुर्भाग्य है कि सभी राजनीतिक दल जातिवादी चूल्हे पर अपनी रोटियां सेंक रहे हैं। सभी दल दलितों को अपनी—अपनी तोप का भूसा बना रहे हैं। सभी को जाति के नाम पर अंधे और थोक वोट चाहिए। आज देश में जाति-विरोधी न तो कोई नेता है, न कोई पार्टी है और न ही कोई आंदोलन है। यह कितनी दुखद घटना है कि पहले जातिवाद के नाम पर भारत बंद हुआ और अब जातिवाद के नाम पर ही जवाबी भारत बंद हो रहा है ! दलितों का दलन सदा के लिए समाप्त हो, इसकी चिंता किसी को नहीं है।
भीमराव आंबेडकर और महात्मा गांधी
मनोहर पुरी
(जयन्ती 14 अप्रैल पर विशेष)
डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर भारतीय राजनीति के महान विचारक थे। जिन्हें ’दलितों के मसीहा‘ और ’भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माता‘ के रूप में याद किया जाता है। उन्होंने स्वतंत्र भारत के भाग्य निर्माण में मुख्य भूमिका निभाई और हमारे राष्ट्रीय जीवन तथा राज्य व्यवस्था पर अमिट छाप छोड़ी। जिस समय अनेक प्रमुख नेता महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे थे, उसी समय बाबा साहब अंबेडकर ने भारत की सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त दोषों के विरोध में अपनी आवाज उठाई। उन्होंने हर क्षेत्र में दलितों के उत्थान का बीड़ा उठाया। क्योंकि वह राजनीति सेअधिक सामाजिक गतिविधियों में सक्रियता से कार्य कर रहे थे इसलिए बहुत से लोग उन्हें महात्मा गांधी का विरोधी मानने की गलती करते हैं। वास्तविकता यह है कि दोनों का एक मात्र ध्येय दलितों एवं पीड़ित वर्ग के लोगों का उत्थान करना ही था। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस ध्येय की प्राप्ति के लिए अपनाये जाने वाले मार्ग को लेकर दोनों के मध्य कुछ मतभेद थे परन्तु उनका कोई परस्पर विरोध नहीं था। बल्कि अनेक स्थानों पर तो बाबा साहब ने महात्मा गांधी के प्रति अपना आदर व्यक्त किया है और महात्मा गांधी ने भी सदैव उनकी प्रतिभा का लोहा माना है।
डॉ भीम राव आंबेडकर की विद्वता में राष्ट्पिता महात्मा गांधी को असीम विश्वास था। जब भारत की स्वतंत्रता मात्र इस एक बात पर अटकी थी कि स्वतंत्र भारत के पास अपना कोई संविधान नहीं है। इस चिन्ता में सभी घुले जा रहे थे कि संविधान का निर्माण कौन करे। इस समय पंडित जवाहर लाल नेहरू ने ब्रिटिश प्रधान मंत्री सर एटली को एक पत्र लिखकर अनुरोध किया था कि वे भारत का संविधान बनाने के लिए किसी अंतराष्ट्यी संविधान विशेषज्ञ का नाम सुझाएं। उत्तर में सर आइवर जैनिंग का नाम सुझाया गया। पं. नेहरू आइवर जैनिंग को पत्र लिख कर उन्हें संविधान बनाने का दायित्व सौंपने ही वाले थे कि तभी इस निर्णय की जानकारी महात्मा गांधी को हो गई। गांधी जी इस निर्णय से हैरान हो गए। उन्होंने कहा हमें अपना संविधान बनाने के लिए किसी विदेशी की योग्यता पर निर्भर नहीं होना चाहिए। वे मानते थे कि भारत में कानूनविदों् का कोई अभाव नहीं है। उन्होंने पंडित नेहरू को बताया कि यह कार्य तो डॉ आंबेडकर बहुत कुशलतापूर्वक कर सकेगें। गांधी जी के सुझाव पर संविधान निर्माण का कार्य डॉ भीम राव अंाबेडकर को सौंपा गया। उन्होंने भारत के लिए एक वृहद संविधान का निर्माण किया।
यह ठीक है कि आंबेडकर और गांधी जी के मध्य किन्हीं विचारों का मतभेद था। यह मतभेद बौद्धिक स्तर पर था। उन्होंने कहीं भी और कभी भी गांधी जी के लिए अपशब्दों का प्रयोग नहीं किया। बल्कि वह तो गांधी जी का बहुत आदर करते थे। आंबेडकर जी छूआछूत के कारण हिन्दूओं से इतने नाराज थे कि वह अपना धर्म बदलने के लिए तैयार हो गए। उनके साथ उनके बहुत से अनुयायी भी धर्म बदलने वाले थे। ऐसे समय में कई गैर हिन्दू धार्मिक नेता उन्हें फुसलाने का प्रयास करने लगे। ईसाई और मुस्लिम धर्मों के नेता इस समय बहुत सक्रिय हो गए थे। गांधी जी ने उन्हें ऐसा न करने का अनुरोध किया। दोनों के मध्य इस विषय पर लंबी लंबी बैठकें हुई और परस्पर विचार विमर्श हुआ। अंत में उन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाया। इस अवसर पर लोगों ने पूछा कि आपने बौद्ध धर्म ही क्यों अपनाया तो उन्होंने उत्तर दिया कि मैंने इस बारे में गांधी जी से वायदा किया था। उन्होंने गांधी जी को आश्वस्त किया था कि मैं हिन्दू धर्म को कम से कम हानि पहुंचाने वाला मार्ग अपनाउंगा। बौद्ध धर्म तो भारत में उत्पन्न हुआ धर्म है। इस प्रकार उन्होंने गांधी जी की बात का पूरा पूरा मान रखा।
महात्मा गांधी का विचार था कि सवर्ण हिन्दुओं का हृदय-परिवर्तन करके छुआछूत की प्रथा मिटाई जा सकती है, और उन्हें विश्वास था कि ऐसा जल्दी ही होगा जबकि डॉ. आंबेडकर इससे सहमत नहीं थे। दोनों के मध्य मतभेद होने के वावजूद डॉ आंबेडकर ने व्यक्तिगत रूप में गांधी जी पर कभी कोई छींटाकशी नहीं की। डॉ आंबेडकर का सर्वणों के विरोध में जो अभियान था वह दलित वर्ग विरोधी मानसिकता के खिलाफ था न कि किसी व्यक्ति अथवा वर्ग के खिलाफ। वह किसी भी दशा में सर्वण और गैर सर्वणों के बीच संघर्ष की किसी खाई को जन्म देना नहीं चाहते थे। साइमन कमीशन के सामने उन्होंने दलितों और वंचितों के लिए अलग प्रतिनिधित्व की बात की। 1930 में दलितों के प्रतिनिधि कें रूप में उन्हें गोल मेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए लंदन भेजा गया। कांग्रेस ने इस सम्मेलन में अपने किसी प्रतिनिधि को नहीं भेजा। इस सम्मेलन में डॉ आंबेडकर ने एक ओजस्वी भाषण दिया। उन्होंने अंगेजी सरकार की जम कर आलोचना की। उन्होंने कहा कि ब्रिटिश सरकार भारत में जमींदारों और उच्च वर्ग के लोगों की हिमायती है। वहां पर दलित वर्ग के शोषण की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा। 1931 में उन्होंने दूसरे गोल मेज सम्मेलन में हरिजनों के प्रतिनिधि के रूप में पुन भाग लिया। कांग्रेस की ओर से इस सम्मेलन में महात्मा गांधी भी एक प्रतिनिधि के रूप में सम्मिलित हुए थे। अपने बेजोड़ तर्कों द्वारा बाबा साहब ने अछूतों के लिए अलग मतदान करने और प्रतिनिधि भेजने का अधिकार प्राप्त कर लिया। महात्मा गांधी इस प्रकार के फैसले के खिलाफ थे। उन्होंने कहा कि यदि इस बात को माना गया तो मैं आमरण अनशन करूंगा। बाद में पूना में हुए एक समझौते के तहत इस निर्णय को बदल दिया गया। इसी गोल मेज सम्मेलन के बाद डॉ आंबेडकर के तर्कों से प्रभावित हो कर ही गांधी जी ने अछूतों को हरिजन की संज्ञा दी।
इतना ही नहीं दलित जातियों के उद्धार और अधिकारों की कानूनी रक्षा के मामले में भी दोनों के बीच मतभेद था। इस मतभेद को दूर करने काप्रयास भी पूना पैक्ट से हुआ। जिसके कारण दलितों को शिक्षा प्राप्त करने और सरकारी सेवाओं में नौकरी करने का अधिकार मिल गया। आंबेडकर इस बात को भली भांति जानते थे कि दलितों को जो रियायतें मिलीं हैं वे गांधी जी के कारण ही मिल सकीं। गांधी जी को छोड़ कर उस समय का कोई भी कांग्रेसी नेता आंबेडकर जी की पीड़ा को नहीं समझता था। दलितों को विशेष रियायतें देने के लिए यदि महात्मा गांधी वचन न दिया होता तो संविधान में इन रियायतों का प्रावधान करवाने में आंबेडकर कभी भी सफल नहीं हो सकते थे। अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को जो संरक्षण मिला उसका श्रेय महात्मा गांधी को जाता है। आंबेडकर इस बात को भली भंति समझते थे। इसलिए उनके मन में गांधी जी के प्रति बहुत आदर था।‘
महात्मा गांधी और आंबेडकर दोनों की भारत के विभाजन के खिलाफ थे। यदि दोनों के बीच यह सहमति नहीं बनती तो भारत दो की बजाय तीन टुकड़ों में विभाजित हो सकता था। हिन्दू मुसलमानों की तरह दलितों के लिए अलग से निर्वाचन मंडल बनाना अंग्रेजों की एक चाल थी। इसके द्वारा वह सर्वणों और अछूतों में फूट डालना चाहते थे। वे भारत को तीन हिस्सों में बांटना चाहते थे। गांधी जी ने इसके विरोध में आमरण अनशन करने की घोषणा कर दी। जब वह मरणासन्न हो गए तो आंबेडकर ने कहा मैं इतने बड़े आदमी को मरने नहीं दूंगा। इतना ही नहीं गांधी जी को किसी प्रकार की हानि पहुंचे ऐसा वह कभी नहीं चाहते थे। गांधी की मौत का आरोप भी वह अपने सिर पर किसी भी कीमत पर लेने के लिए तैयार नहीं थे। आंबेडकर चाहते तो दलितों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की बात पर अड़े रह सकते थे। उन्होंने उदारता का परिचय देते हुए ब्रिटिश संसद से मिले अलग मतदाता सूची के अधिकार को छोड़ दिया। वह गांधी जी की बात मानने को तैयार हो गए। इस प्रकार गांधी जी के प्राण संकट में नहीं पड़े। डॉ. आंबेडकर जीवन पर्यन्त समाज को समानता के आधार पर गठित करने के लिए संघर्ष करते रहे। उन्हीं की भान्ति महात्मा गांधी जी भी समाज में से असमानता का कलंक दूर करने के लिए निरंतर प्रयासरत रहे। दोनों ने अपने इस ध्येय की प्राप्ति के लिए दिन रात परिश्रम किया और दोनों के संयुक्त प्रयास से ही बहुत सी बातें भारत के संविधान का हिस्सा बन सकीं।
तो क्या ऐसे बचेंगी बेटियां?
निर्मल रानी
हमारे देश में नवरात्रि के दौरान व्रत तथा पूजा-पाठ का पूरे देश में धर्म एवं भक्ति का ऐसा पावन दृश्य देखने को मिलता है गोया हमारे देश से बड़े धर्मपरायण, सदाचारी तथा चरित्रवान लोग दुनिया के किसी दूसरे देश में रहते ही न हों। नेता, अभिनेता, अदालतें, सेना, पुलिस, मीडिया तथा धर्मगुरू आदि सभी महिलाओं के पक्ष में अपनी टिप्पणियां करते तथा महिलाओं के हितों व उनकी रक्षा की दुहाई देते सुनाई देते हैं। कन्या पूजन जैसी व्यवस्था तो हमारे देश खासतौर पर हिंदू धर्म के अतिरिक्त और कहीं है ही नहीं। परंतु यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि जिस प्रकार की घटनाएं हमारे ही देश में आए दिन होती रहती हैं और महिला अथवा कन्या को लेकर धरातल पर जो आचरण होता नज़र आता है उसे देखकर तो यही प्रतीत होता है कि भारतीय पुरुष समाज का एक बड़ा वर्ग कन्या पूजन अथवा देवी आराधना जैसी बातों की तो शायद फर्ज अदायगी ही करता है जबकि वास्तव में यह द्रोपदी के चीर हरण की घटना से कहीं ज़्यादा प्रेरित व प्रभावित है। अन्यथा क्या कारण है कि नेता, अभिनेता, अदालतें, सेना, पुलिस, मीडिया, धर्मगुरू तथा खेल-कूद आदि लगभग सभी क्षेत्रों से महिलाओं के शोषण खासतौर पर उनके शारीरिक शोषण की खबरें आती रहती हैं। सबसे अधिक चिंतनीय विषय तो यह है कि वह वर्ग जो बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ जैसे लोकलुभावन नारे लगाते नहीं थकता उसी वर्ग के सदस्य महिला के साथ बलात्कार करने के आरोपी पाए जाते हैं?
उदाहरण के तौर पर ताज़ातरीन मामला उत्तर प्रदेश के भारतीय जनता पार्टी के बांगरमऊ विधानसभा क्षेत्र के विधायक कुलदीप सिंह सेंगर से जुड़ा हुआ है। पिछले दिनों इस विधायक तथा इसके कुछ साथियों पर एक युवती ने सामूहिक बलात्कार करने का आरोप लगाया। युवती इस विधायक की शिकायत लेकर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लखनऊ स्थित निवास पर भी पहुंची। इस युवती ने वहां अपनी फरियाद सुनानी चाही तथा विधायक व उसके कथित बलात्कारी सहयोगियों की गिरफ्तारी की मांग की। यहां तक कि युवती ने अपनी बेबसी दर्शाते हुए आत्मदाह करने तक का प्रयास किया। इस घटना के अगले ही दिन इसी युवती के पिता की जेल में रहस्यमयी ढंग से मौत हो गई। अपने पिता की हिरासत में मौत के मामले में भी पीडि़ता ने विधायक को ही आरोपी बताया है। उत्तर प्रदेश प्रशासन ने पीडि़ता के पिता की कथित हत्या की साजि़श के आरोप में विधायक कुलदीप सिंह सेंगर के भाई अतुल सिंह व चार अन्य आरोपियों को गिरफ्तार भी कर लिया है। केवल भारतीय जनता पार्टी के नेताओं पर ही नहीं बल्कि अन्य राजनैतिक दलों के भी कई नेताओं पर ऐसे आरोप लगते रहे हैं। गोया कानून के निर्माता तथा कानून के रखवाले तथा महिलाओं के हितों की बातें करने जैसा ढोंग रचने वाले लोग ही प्राय: महिलाओं के शारीरिक शोषण में शामिल पाए जाते हैं?
याद कीजिए 2011 की वह घटना जब एक स्वयंभू संत, आश्रम संचालक तथा पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वामी चिन्मयानंद पर उन्हीं की एक सहयोगी शिष्या ने उनपर कई वर्षों तक बलात्कार व शारीरिक शोषण का आरोप लगाया था। इतना ही नहीं बल्कि इस साध्वी ने अपने ‘गुरु’ चिन्मयानंद पर बलात्कार के अलावा उसकी हत्या किए जाने के प्रयास का आरोप भी लगाया था। इस घटना के पश्वात वह साध्वी इनके आश्रम को छोड़कर भी चली गई थी। ताज़ा समाचारों के अनुसार उत्तर प्रदेश की वर्तमान योगी सरकार ने चिन्मयानंद पर चल रहे बलात्कार व हत्या के प्रयास जैसे इस गंभीर मुकद्दमे को वापस ले लिया है। क्या बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ का नारा देने वाली सरकार के सरबराहों द्वारा इसी तरीके से महिलाओं के अधिकारों तथा उनके स्वाभिमान की रक्षा के प्रयास किए जा रहे हैं? ज़रा सोचिए जब बलात्कार के आरोपियों को सरकार के मुखिया का ही संरक्षण प्राप्त हो तो पीडि़त महिलाएं आिखर किसका दरवाज़ा खटखटाएंगी? आत्महत्या, आत्मदाह करने या स्वयं को नग्र कर देने के सिवा उनके पास चारा ही क्या बचेगा?
15 जुलाई 2004 की मणिपुर की उस घटना ने पूरे विश्व का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था जब राज्य की 12 महिलाओं ने नग्र होकर सेना के इंफाल स्थित कांगला फोर्ट के समक्ष पूर्ण नग्र अवस्था में प्रदर्शन किया था। उन्होंने अपने हाथों में एक बैनर भी ले रखा था जिसपर लिखा था-‘इंडियन आर्मी रेप अस’। निश्चित रूप से भारतीय सेना देश की सीमाओं की सुरक्षा की बखूबी जि़म्मेदारी निभाती है। यहां तक कि अनेक विकट परिस्थितियों में तथा प्राकृतिक विपदाओं के समय भी सेना देश के नागरिकों की जान व माल की हिफाज़त के लिए हर समय तैयार रहती है। परंतु जब इसी समर्पित सेना का कोई सदस्य अथवा कुछ सदस्य महिलाओं के यौन शोषण अथवा बलात्कार जैसी घिनौनी हरकतों में संलिप्त पाए जाते हैं उस समय निश्चित रूप से पूरी सेना पर आक्षेप लगता है। ठीक उसी तरह जैसे राजनीति, मीडिया तथा न्यायपालिका जैसे जि़म्मेदार लोकतांत्रिक स्तंभों को चंद कुकर्मी, दुष्कर्मी तथा भ्रष्टाचारी लोगों ने बदनाम कर रखा है। बावजूद इसके कि हमारे देश की न्यायपालिका पर अभी तक महिलाओं के शारीरिक शोषण या बलात्कार जैसे विषय को लेकर कम से कम आरोप लगे हैं। परंतु यह भी कहना सच है कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस ए के गांगूली पर उन्हीं की एक सहयोगी महिला द्वारा उनपर लगाए गए शारीरिक शोषण के आरोपों ने न्यायपालिका की साख पर भी धब्बा लगा दिया।
पिछले दिनों हैदराबाद की एक घटना ने तो रोंगटे ही खड़े कर दिए। तेलगू फिल्म अभिनेत्री श्रीरेड्डी मल्लिडी ने तो हैदराबाद के फिल्म सिटी में मूवी आर्टिस्ट एसोसिएशन के समक्ष अपने पूरे कपड़े उतार कर स्वयं को पूर्ण नग्र खड़ा कर दिया। इस अभिनेत्री ने साफतौर पर यह आरोप लगाया कि फिल्मी दुनिया के लोग ही मुझसे मेरी नंगी तस्वीरें व नंगी वीडियो बनाकर भेजने के लिए कहते हैं। ऐसे में मैं सार्वजनिक तौर पर ही अपने कपड़े क्यों न उतार फेंकूं। इस अभिनेत्री ने फिल्म उद्योग में पुरुष समाज के यौन शोषण तथा इस व्यवस्था को संरक्षण दिए जाने से दु:खी होकर कहा कि अपनी लड़ाई में मैं बेसहारा हूं क्योंकि मेरा दर्द किसी को दिखाई नहीं दे रहा है जिसकी वजह से मुझे इतना बड़ा कदम उठाना पड़ा और मैंने सार्वजनिक तौर पर कपड़े उतारे। उसने कहा कि अपनी बात सुनाने व सरकार से अपनी मांगों पर जवाब लेने हेतु उसके पास यही एक रास्ता शेष बचा था।
अभिनेत्री श्री रेड्डी फिल्म उद्योग में यौन शोषण का शिकार होने वाली अथवा इस व्यवस्था से तंग आने वाली कोई पहली महिला नहीं है। फिल्म जगत में अनेक महिलाएं प्रत्येक सकारातमक अथवा नकारात्मक परिस्थितियों से अपने ‘कैरियर’ के मद्देनज़र समझौता कर लेती हैं। बेशक अधिकांश अभिनेत्रियां अथवा युवतियां श्री रेड्डी की तरह अपना विरोध इस स्तर पर जाकर दर्ज नहीं करातीं। परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि फिल्म उद्योग में सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा है। फिल्मों में काम करने या काम तलाशने वाली अनेक युवतियां यह कहते सुनाई देती हैं कि-‘फिल्म जगत में आमतौर पर अभिनेत्रियों से यह सवाल किया जाता है कि-‘यदि हम आपको फिल्मों में काम करने का अवसर देंगे तो इसके बदले में हमें क्या मिलेगा’? ज़ाहिर है जब हमारे देश के धर्मगुरू, राजनेता, फिल्म जगत, न्यायपालिका, मीडिया जैसे जि़म्मेदार व्यवस्था के लोग ही महिलाओं के सम्मान व रक्षा के लिए प्रतिबद्ध नहीं फिर आखिर हमारे देश में कैसे बचेंगी बेटियां?
हाफिज सईदः पाकिस्तानी दुविधा
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान की सरकार की हालत कितनी दयनीय है। वह हाफिज सईद का बाल भी बांका नहीं कर पा रही है। लगभग पांच साल होने आ गए लेकिन हाफिज सईद को वह अमेरिका के हवाले नहीं कर सकी। अमेरिका ने उसके सिर पर लगभग 70 करोड़ रु. का इनाम रखा हुआ है। पाकिस्तान सरकार कभी उसे नजरबंद करती है, कभी उस पर मुकदमा चलाती है और कभी उसको खुला छोड़ देती है। अब अमेरिका की ट्रंप सरकार ने इतनी धमकियां दे दी है कि पाकिस्तानी सरकार उसके खिलाफ कुछ ठोस कार्रवाई करने पर उतारु है। हाफिज सईद ने भी कच्ची गोलियां नहीं खा रखी हैं। यदि पाक सरकार डाल-डाल है तो वह पात-पात है। उसे एक अदालत पकड़ती है तो दूसरी अदालत छोड़ देती है। यदि उसकी एक संस्था पर प्रतिबंध का एलान होता है तो वह दूसरी संस्था खोल लेता है। अब वह एक राजनीतिक दल भी स्थापित करने का एलान कर चुका है। अदालत का रवैया भी ढुलमुल है। लाहौर के उच्च न्यायालय ने अभी-अभी कहा है कि समझ में नहीं आता कि सरकार सईद के पीछे हाथ धोकर क्यों पड़ी हुई है। उसके संगठन जमात-उद-दावा और फलाहे-इंसानियत फाउंडेशन समाजसेवा के इतने काम कर रहे हैं। अदालत ने सरकार से पूछा है कि सईद की संस्थाओं पर से प्रतिबंध क्यों नहीं उठा लिया जाए ? पाकिस्तान की अदालत ही नहीं, फौज भी हाफिज सईद की प्रशंसक है! क्या यह संभव है कि फौज के वरद्-हस्त के बिना हाफिज सईद पाकिस्तान में सुरक्षित रह सकता है ? जिसके सिर पर 70 करोड़ रु. का इनाम हो, वह बड़े-बड़े नेताओं की तरह खुले-आम सभाएं, प्रदर्शन और धरने कैसे आयोजित कर सकता है ? वास्तव में कश्मीर के सवाल पर सईद के संगठन पाकिस्तानी फौज के एजेंडे को क्रियान्वित करते हैं। अमेरिकी सरकार के दबाव के कारण अब पाकिस्तानी सरकार अपने 1997 के आतंकवाद-विरोधी कानून में संशोधन करके उसे इतना कठोर बनाना चाहती है कि सईद जैसे लोगों के संगठनों को पैसा, समर्थन और सहयोग मिलना पूरी तरह से बंद हो जाए। उनकी सख्त जांच हो और उन्हें सजा भी कठोर हो। सरकार ने इस संबंध में एक अध्यादेश भी जारी किया है लेकिन सईद ने उसके खिलाफ अदालत में याचिका लगा रखी है। लेकिन कहा जा रहा है कि अब फौज भी सरकार का साथ देने लगी है। यदि ऐसा है तो निश्चित ही कुछ ठोस कार्रवाई जरुर होगी लेकिन हम यह न भूलें कि पाकिस्तानी समाज का चरित्र ही कुछ ऐसा बन गया है कि वहां आतंकवाद आसानी से पैदा होता है और पनपता रहता है। इसीलिए वहां की सरकारें दुविधा में फंसी रहती हैं।
भाजपा की चिन्ता : दलित के दलदल में कैसे खिल पाएगा कमल…..?
ओमप्रकाश मेहता
अब ऐसा लगने लगा है कि केन्द्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने प्रमुख प्रतिपक्षी दलों कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी को फंसाने के लिए जो ‘दलित जाल’ बुना था, उसमें अब स्वयं भाजपा फंसती नजर आ रही है। इसी का परिणाम है कि संविधान निर्माता बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर के नाम पर जो वोट बटौरने का सपना देखा था, इन्हीं इतिहास व संविधान पुरूष की प्रतिमाऐं पूरे भारत में खंडित की जा रही है और केन्द्र सरकार को संविधान निर्माता की प्रतिमाओं की माकूल सुरक्षा का आदेश राज्य सरकारों को जारी करना पड़ा। पिछली दो अप्रैल को देशभर में ‘भारत बंद’ के दौरान हुई हिंसक वारदातों विशेषकर भाजपा शासित राज्यों में हुई हत्याओं ने पार्टी को दलदल में ढकेलने का काम किया है और अब भाजपा के लिए उसी के दल के दलित सांसद ‘सिरदर्द’ बनते जा रहे है, ये सांसद भी उस प्रदेश से है, जिसे भाजपा अपना सबसे सुरक्षित ‘गढ़’ मानने लगी है।
वास्तव में केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा ने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने की शुरूआत तब से की, जब उसने संसद में संविधान संशोधन की पहल की, यह संशोधन चाहे न्यायपालिका की देन रहा हो, किंतु इससे देश के दलित भड़क गए और उन्हें ऐसा लगा कि भाजपा संविधान में संशोधन कर उनकी आरक्षण सुविधा को छीनना चाहती है और उसका परिणाम दो अप्रैल के ‘‘भारत बंद’’ के रूप में सामने आया, जिसमें आंदोलन ने हिंसक रूप धारण कर लिया और एक दर्जन से अधिक निर्दोष मारे गए, जिनमें सर्वाधित मध्यप्रदेश के थे।
वैसे भाजपा की अनुसूचित जाति/जनजाति की नीति को लेकर दलित सांसद एक लम्बे समय से पार्टी के अंदर अपना विरोध दर्ज करवाते आ रहे है, इसके अलावा हैदराबाद में रोहित बेमूला की आत्महत्या, गुजरात के ऊना में कथित गो-रक्षकों द्वारा दलितों की बेरहमी से पिटाई, सहारनपुर के शब्बीरपुर काण्ड जैसे घटनाओं के बाद भाजपा के पाले से दलित वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा खिसक गया, इसके बाद दो अप्रैल के ‘भारत बंद काण्ड’ ने भाजपा की जड़ों को हिला कर रख दिया। इसलिए भाजपा के चार उत्तरप्रदेशिय सांसदों ने ‘विद्रोह का झण्डा’ थाम लिया, इसे भाजपा का आंतरिक मामला इसलिए नहीं कह सकते क्योंकि ये सांसद खुलकर पार्टी के सामने आकर खड़े हो गए है, अब भाजपा को आशंका है कि यह महामारी कही अन्य दलित सांसदों तक न फैल जाए, इसीलिए अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वयं इन को मनाने-पटाने की जिम्मेदारी अपने हाथों में ले ली है, मोदी ने इस बारें में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भी अपने आचार-व्यवहार में सुधार लाने के निर्देश दिए है, क्योंकि ये सांसद अपने प्रदेश के मुख्यमंत्री के दुव्यवहारी बर्ताव से भी काफी दुःखी है, साथ ही संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी भाजपाध्यक्ष को बुलवा कर दलित-पिछड़ों को पार्टी से जोड़े रखने की पर्याप्त नसीहतें दी है, इसी कारण पार्टी को अब अपनी दलित नीति में संशोधन करने को मजबूर होना पड़ रहा है। वैसे यदि हम ज्यादा नहीं सिर्फ चार साल पुराने ही इतिहास के पन्ने पलटकर देखें तो हमें पता चलेगा कि 2014 के चुनावों के समय यूपीए सरकार की जड़े उखाड़ने के लिए भाजपा ने लोकलुभावन नारे देकर दलित वोट बैंक को लुभाने का करतब किया था, इनमें प्रमोशन में आरक्षण के लिए संसद से विधेयक पारित कराने, दलितों की भर्ती का बैकलाॅग पूरा करने और प्रायवेट नौकरियों में भी आरक्षण के मुद्दे प्रमुख थे, जो अब अन्य चुनावी वादों के साथ जुमलों में बदल दिए गए है। साथ ही इस सच्चाई को भी नकारा नहीं जा सकता कि जन संघ के समय से ही इस पार्टी में दलित सरोकारों को खास वरियता नहीं दी गई थी, जब बंगरू लक्ष्मण को दलित वोट बैंक के दबाव में पार्टी अध्यक्ष बनाना पड़ा तो उन्हें रिश्वत काण्ड में फंसाकर बाहर का रास्ता दिखा दिया गया, अब राष्ट्रपति जी के दलित चयन के नाम पर राजनीतिक रोटियां सैंकने का प्रयास किया जा रहा है, जबकि इनके पहले यूपीए सरकार के दौरान दलित नेता के.आर. नारायण राष्ट्रपति रह चुके है।
कुल मिलाकर अब भाजपा धीरे-धीरे दलित दलदल में फंसती जा रही है और अब इस दलदल से बाहर निकलने का उपक्रम करने लगी है, जबकि चार राज्यों के विधानसभा चुनाव सन्निकट है और लोकसभा चुनाव भी ज्यादा दूर नहीं है, ऐसे में क्या भाजपा ‘डेमैज कन्ट्रोल’ कर पाएगी?
नेपाल के साथ कदम फूंक-फूंककर
(डॉ. वेदप्रताप वैदिक)
नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी. ओली की भारत-यात्रा ने दोनों देशों के संबंधों को नई ऊंचाइयों पर ले जाने का भरोसा पैदा किया है लेकिन उससे कोई ऐसा संकेत नहीं मिलता जिससे यह आशा उत्पन्न हो कि ओली की चीनपरस्ती में कोई कमी आई है। विदेश सचिव विजय गोखले ने साफ-साफ कहा है कि ओली से चीन के बारे में कोई बात नहीं हुई है जबकि ओली के भारत आने के पहले भारतीय अखबारों में यह खबर जमकर छपवाई गई कि भारत ओली से नाराज है, क्योंकि वे चीन की मदद से नेपाल में बड़े-बड़े बिजलीघर बनवा रहे हैं। भारत इन बिजलीघरों की बिजली बिल्कुल नहीं खरीदेगा। पता नहीं कि ओली से यह बात कहने की हिम्मत हमारी सरकार में रही या नहीं रही। यदि इसमें ही संदेह की गुंजाइश है तो हम यह आशा कैसे करें कि नेपाल से भारत चीनी महापथ (ओबोर) के बोर में खुलकर बात करेगा। हां, यहां भारत ने चीन की नकल जरुर की। चीन ने नेपाल और तिब्बत के बीच रेल लाइन डालने की घोषणा की तो अब भारत ने भी दिल्ली से काठमांडो तक रेल बनाने का संकल्प जाहिर कर दिया। स्पष्ट है कि चीनी रेल हमारी रेल से पहले बनकर चलने लगेगी। हमारे अफसर बड़े चतुर-चालाक हैं। उन्होंने मोदी को अब एक नया जुमला सिखा दिया है। मोदी ने कहा कि नेपाल अब भूवेष्टित (जमीन से घिरा हुआ) नहीं, जमीन से जुड़ा हुआ राष्ट्र बन जाएगा। यही बात हमारी सरकार अफगानिस्तान पर लागू क्यों नहीं करती ? अटलजी के जमाने में वहां जरंज-दिलाराम सड़क तो बन गई लेकिन उस देश में रेल अभी तक नहीं चलती। नेपाल और भारत के बीच गैस पाइप लाइन, सड़कें और बांध आदि बनाने पर अब भारत काफी खर्च करने को तैयार हो गया है, यह अच्छी बात है लेकिन ओली ने गलती से भी यह नहीं कहा कि भारत के साथ नेपाल के अति विशिष्ट संबंध हैं। उनके बयान काफी सधे हुए रहे। वे भारत और चीन को एक ही तराजू पर तोलते रहे बल्कि वे यह कहना भी नहीं भूले कि भारत ने 2015-16 नेपाल की जो घेराबंदी की थी, वह अवांछित थी। यह ठीक है कि ओली पहले चीन नहीं गए, भारत आए लेकिन यदि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ओली के जीतते ही काठमांडो नहीं जातीं और उन्हें नहीं पटातीं तो क्या वे पहले भारत आते ? वे पहले भारत आए तो सही लेकिन उनकी इस यात्रा का संदेश यही है कि अब भारत को नेपाल के साथ बहुत सोच-समझकर व्यवहार करना होगा।
सच्चा धर्म शांति,सद्भाव सिखाता है खून खराबा नहीं
तनवीर जाफरी
भारतवर्ष केवल विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने के नाते ही नहीं जाना जाता बल्कि इसकी इससे भी बड़ी पहचान विभिन्नता में एकता की भी है। भारत जैसे विशाल देश में सदियों से विभिन्न धर्मों,जातियों तथा आस्था व विश्वास के मानने वाले लोग न केवल मिल-जुल कर रहते आ रहे हैं बल्कि एक-दूसरे के धार्मिक त्यौहारों,एक-दूसरे की परंपराओं,रीति-रिवाजों व दुख-सुख के भी सहभागी रहे हैं। हमारा इतिहास हमें बताता है कि किस प्रकार शिवाजी तथा महाराणा प्रताप जैसे शासकों ने अपने मुस्लिम सेनापतियों पर भरोसा कर मुगल शासकों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी तो दूसरी ओर अकबर जैसे शासक ने मानसिंह जैसे योद्धा को अपना सेनापति बनाकर विश्वास व सौहार्द्र का परिचय दिया। इस देश में जहां मुगल शासकों व नवाबों ने मंदिरों के लिए अनेक ज़मीनें दीं व कोष स्थापित किए वहीं अनेक हिंदू राजाओं ने इमामबाड़े बनाए व ताज़ियादारी की। यह वह देश है जहां अनेक मुस्लिम कवि हिंदू देवी-देवताओं की प्रशंसा में भजन व दोहे लिखा करते थे। यह सिलसिला आज भी जारी है। परंतु लगता है हमारे देश की सत्तालोभी राजनीति ने इस भारतीय सौहार्द्र को कलंकित करने की ठान ली है। उम्मीद तो यह की जाती है कि यदि जनता किसी प्रकार की अशांति फैलाए, समाज में धर्म या समुदाय के आधार पर वैमनस्य फैलाने की कोशिश करे,समाज में दंगे-फसाद की स्थिति पैदा करे,समाज को बांटने की कोशिश करे तो सत्ता के ज़िम्मेदार,शासन से जुड़े लोग, संविधान के रखवाले तथा धर्मगुरु व धर्मोपदेशक अपनी भरपूर कोशिश कर ऐसे लोगों के इरादों को नाकाम करेंगे और समाज में अमन-शांति व सद्भाव कायम रखने का भरपूर प्रयत्न करेंगे।
परंतु सत्तालोभी व सत्ता प्रधान राजनीति ने तो गोया धर्म व राजनीति की मान्यताओं व उसकी परिभाषा को ही बदल कर रख दिया है। शासक दल से जुड़े लोग ही दंगा-फसाद फैलाने की कोशिशों में लगे दिखाई दे रहे हैं। उनके बयानों व उनकी गतिविधियों से साफ पता चल रहा है कि उनकी नीयत व मंशा क्या है? तो दूसरी ओर आम जनता की ओर से शांति व सद्भाव की अपीलें होती सुनी जा रही हैं। कितने शर्म की बात है कि जो काम शासक वर्ग व सत्ता से जुड़े लोगों को करना चाहिए वह काम साधारण जनता कर रही है जबकि सत्ता के चाहवान लोग समाज को धर्म के आधार पर बांट कर अपने राजनैतिक नफे-नुकसान के अनुसार अपने बयान दे रहे हैं तथा अपनी सभी गतिविधियां संचालित कर रहे हैं। पिछले दिनों देश में रामनवमी का त्यौहार मनाया गया। रामनवमी प्रत्येक वर्ष लगभग पूरे देश में पूरी श्रद्धा व उल्लास के साथ शांतिपूर्ण तरीके से मनाई जाती है। परंतु दुर्भाग्यवश इस बार की रामनवमी बिहार व पश्चिम बंगाल सहित कई अन्य राज्यों में हिंसा व खून-खराबे के बीच संपन्न हुई। देश के कई ज़िलों में सांप्रदायिक दंगे हुए और बेगुनाह,गरीब लोगों की जान व माल को कई जगह नुकसान पहुंचा।
ऐसा ही एक दुर्भाग्यपूर्ण शहर पश्चिम बंगाल का आसनसोल भी था। यहां भी कई लोग दंगों की भेंट चढ़ गए। इनमें आसनसोल की एक मस्जिद के इमाम मौलाना इमादादुल रशीदी का 16 वर्षीय पुत्र सिब्तुल्ला रशीदी भी था। इमाम के पुत्र की हत्या के बाद उसकी मौत का बदला लेने के उद्देश्य से हज़ारों की भीड़ मस्जिद के बाहर मैदान में जमा हुई जो इमाम के प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त कर रही थी। परंतु इमाम रशीदी ने बड़े ही हैरतअंगेज़ तरीके से उस भीड़ को संबोधित करते हुए कहा कि वह नहीं चाहते कि शहर में और हिंसा फैले और कोई और बाप अपना बेटा खोए। उन्होंने मुस्लिम समुदाय के लोगों से शांति बनाए रखने की अपील करते हुए कहा कि यदि समाज के किसी सदस्य ने बदले की बात की तो वे मस्जिद और शहर छोड़कर चले जाएंगे। इमाम की इस अपील की ज़िला प्रशासन सहित पूरे देश में प्रशंसा की गई।
अब इसी संदर्भ में उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री के बयानों पर भी गौर फरमाईए जो वे मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने की खातिर दिया करते थे और आखिरकार वे अपने मकसद में कामयाब भी हुए। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि सांप्रदायिकता की राजनीति के विशेषज्ञों ने योगी की इस प्रकार की विभाजनकारी व हिंसा फैलाने वाली बातों को ही सकारात्मक रूप में देखा तथा उनके ऐसे बयानों में ही उनकी योग्यता नज़र आई।
केवल योगी आदित्यनाथ या अरिजीत शाश्वत ही नहीं बल्कि इस समय पूरे देश में सैकड़ों मंत्री,सांसद,िवधायक तथा ज़िम्मेदार पदों पर पर बैठे लोग देश को धर्म व जाति के आधार पर विभाजित करने की नापाक कोशिशों में सिर्फ इसलिए लगे हैं ताकि समाज के धुवीकरण का लाभ उन्हें मतों के रूप में मिल सके तथा जनता के पैसों पर ऐश करने का उनका मकसद पूरा हो सके। तो दूसरी ओर इमाम रशीदी व सक्सेना जैसे शांतिप्रिय लोग जो इन सत्तालोभी राजनीतिज्ञों के इरादों को समझते हैं वे अपना लाख नुकसान हो जाने के बावजूद समाज को जोड़ने तथा धर्म के आधार पर बंटने से रोकने के लिए प्रयासरत हैं। निश्चित रूप से इनकी अपील से यही साबित होता है कि सच्चा धर्म शांति-सद्भाव सिखाता है खून-खराबा नहीं।
संतों की हजामत उल्टे उस्तरे से
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान गजब के नेता हैं। उन्होंने पांच बाबाओं को भी बाबा बना दिया। उनकी उल्टे उस्तरे से हजामत कर दी। चोर को चाबी पकड़ा दी। उसे चौकीदार बना दिया। सारी दुनिया भौंचक रह गई। जो पांच तथाकथित साधु-संत चौहान की नर्मदा-यात्रा पर कालिख पोतना चाहते थे, वे अपना मुंह छिपाते फिर रहे हैं। इन पांच नेता-टाइप संतों ने घोषणा की थी वे सब अगले 45 दिन तक ‘नर्मदा घोटाला यात्रा’ करेंगे और मप्र की जनता को बताएंगे कि चौहान ने जो नर्मदा-यात्रा की थी और उसके नाम पर बहुत यश अर्जित किया था, उस यात्रा में जबर्दसत घोटाला हुआ है। जिन छह करोड़ पेड़ों को लगाने की घोषणा की गई थी, उनकी खोज की जाएगी और बताया जाएगा कि कैसे सरकार के करोड़ों रु. की लूट हुई है। उनकी इस घोषणा से लोगों में यह भावना पैदा हुई कि देखो ये साधु-संत लोग कितने अच्छे हैं। ये सिर्फ अपनी आरती उतरवाने में अपना जीवन नष्ट नहीं करते बल्कि इनमें जनता की सेवा का भाव भी प्रबल है। ये भ्रष्टाचार के विरुद्ध खड़गहस्त होने के लिए भी तैयार हैं। इन संतों की घोषणा से भाजपा-विरोधी नेताओं का गुब्बारा एकदम फूल गया था लेकिन मुख्यमंत्री ने क्या जादू की सुई लगाई कि यह गुब्बारा फुस्स हो गया। चौहान ने इन पांचों संतों को राज्यमंत्री का दर्जा दे दिया। संतों ने इसे खुशी-खुशी ले लिया। वैसे भी ये संत लोग किसी की दी हुई भेंट-पूजा को अस्वीकार नहीं करते। ज्यों ही इन्होंने यह चौहान-कृपा स्वीकार की, इन्होंने अपनी घोटाला-यात्रा स्थगित कर दी और इन्होंने घोषणा की कि ये अब नर्मदा-क्षेत्र को हरा-भरा करने में सरकार का पूरा सहयोग करेंगे। यह घोषणा अपने आप में बड़ा घोटाला बन गया। जो विरोधी-दल इनकी पीठ ठोक रहे थे, वे अब इनकी दाढ़ियां नोंच रहे हैं। राज्यमंत्री का दर्जा स्वीकार करके इन संतों ने अपना अपमान स्वयं किया है। इस देश के मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तो इन संतों की चरण-धूलि पाने के लिए तरसते रहते हैं और मप्र के ये संत हैं कि दोयम दर्जे के मंत्री बनकर गदगद हैं। यदि अब जनमत से घबराकर ये संत लोग इस दर्जे को छोड़ भी दें तो क्या ? जो नुक्सान संतई का होना था, सो हो गया।
‘मूसल कांड’ के पीडि़त परिवारों के ज़ख्मों पर नमक छिड़कना
निर्मल रानी
ईरानी सैन्य शक्ति द्वारा लगभग नेस्त-ओ-नाबूद किए जा चुके दुर्दान्त आतंकवादी संगठन आईएसआईएस द्वारा विगत् वर्षों में दिखाई गई बर्बरता का दंश भारत के कई परिवारों को भी झेलना पड़ा। भारत से रोज़गार हेतु इराक पहुंचे जिन 40 कामगारों को 2014 में आईएसआईएस के आतंकवादियों ने अगवा कर उन्हें बंधक बना लिया था, आखिरकार दुर्भाग्यवश इन आतंकियों द्वारा इनमें से 39 भारतीय नागरिकों के मारे जाने की पुष्टि हो गई। मृतकों के शवों व उनके परिवार के डीएनए परीक्षण के बाद भारत सरकार ने मूसल शहर से उनके शवों के अवशेष मंगवा कर उनके परिजनों को सौंप दिए। मारे गए 39 भारतीयों में 27 कामगार केवल पंजाब राज्य से ही थे। शेष मज़दूर हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल व बिहार से संबंधित थे। हालांकि केंद्र सरकार द्वारा 2014 से लेकर अब तक इन कामगारों के परिजनों को यही बताया जा रहा था कि अपहृत किए गए उनके रिश्तेदार मूसल में सुरक्षित हैं तथा उनकी खैर-खबर ली जा रही है। परंतु इस प्रकार की बातें मात्र झूठा एवं कोरा आश्वासन साबित हुईं तथा हरजीत मसीह नामक उस व्यक्ति की बात सही निकली जिसने 2014 में ही यह कह दिया था कि उसके साथी 39 भारतीय श्रमिकों की आईएसआईएस के आतंकियों द्वारा हत्या कर दी गई है। परंतु सरकार उसकी बातों को गंभीरता से नहीं ले रही थी। यहां तक कि उसके ऊपर गलत बयानी करने के लिए मुकद्दमा भी दर्ज करा दिया गया था।
बहरहाल, केंद्रीय विदेश राज्य मंत्री जनरल वी के सिंह ने पिछले दिनों जब उन 39 मज़दूरों के शवों के अवशेष उनके परिजनों को सौंपे उस समय पीडि़त परिवार के सदस्य स्वयं को बेसहारा महसूस करने लगे। निश्चित रूप से भारत से कामकाज व मज़दूरी की तलाश में विदेशों में जाकर रोज़ी-रोटी कमाने वालों की एक बड़ी तादाद है। भारतीय कामगार दुनिया के लगभग सभी देशों में जाते रहते हैं तथा वहां से पैसे कमाकर अपने देश में भेजते हैं तथा इन्हीं पैसों से उनके परिवार के सदस्यों व बुज़ुर्ग मां-बाप का जीवन यापन होता है। सोचने का विषय है कि केंद्र सरकार जिन परिजनों को चार वर्षों से यह आश्वासन देती रही कि उनके परिवार के लोग मूसल में जिंदा व सलामत हैं जब अचानक सरकार द्वारा उन्हें यह बताया गया कि नहीं वे तो 2014 में ही मारे जा चुके हैं और सरकार उनके शवों के अवशेष लाकर परिजनों के सुपुर्द कर रही है, ऐसे में उनके आश्रित परिजनों के दिलों पर आखिर क्या गुज़री होगी? ज़ाहिर है ऐसे वातावरण में मानवता तथा नैतिकता का यही तकाज़ा है कि उनके परिजनों को व समस्त पीडि़त परिवारों को सरकार द्वारा सांत्वना दी जाए, उनके भविष्य के विषय में उन्हें कोई ठोस आश्वासन दिया जाए, उन्हें अधिक से अधिक सरकारी सहायता देने की कोशिश की जाए। यदि यह सब कुछ संभव न हो सके तो कम से कम सरकार या उसके किसी प्रतिनिधि को इन मूसल कांड पीडि़त परिवारों के साथ ज़हरीले व कड़वे बोल बोलने का तो कोई अधिकार नहीं है।
परंतु दुर्भाग्यवश केंद्रीय विदेश राज्य मंत्री जनरल विक्रम सिंह जो अपने सैन्य सेवाकाल के अंतिम दिनों में स्वयं अपने शैक्षणिक प्रमाण पत्र में दी गई जन्मतिथि को लेकर विवादों में थे, उन्होंने अपने सख्त व कड़वे बयानों से पीडि़त परिवारों को गहरा आघात पहुंचाया। सर्वप्रथम तो उन्होंने यही कहा कि इराक के मूसल शहर में जो 39 भारतीय नागरिक आतंकवादियों द्वारा मारे गए हैं वे सभीअवैध रूप से इराक गए थे। मृतकों के परिजनों को नौकरी दिए जाने के सवाल पर भी जनरल विक्रम सिंह द्वारा दिया गया बयान शिष्टाचार से परे था। उन्होंने कहा कि नौकरी देना फुटबाल का खेल नहीं है, यह कोई बिस्कुट बांटने वाला काम नहीं है। उन्होंने अपने लहजे को तल्ख करते हुए कहा कि मैं अभी एलान कहां से करूं, जेब में कोई पिटारा तो रखा हुआ नहीं है। एक ओर तो मंत्री महोदय इस प्रकार के सख्त लहजे का इस्तेमाल कर दु:खी परिवारों के ज़ख्मों पर नमक छिड़कने का काम कर रहे थे तो दूसरी ओर पंजाब सरकार यह घोषणा कर रही थी कि मूसल में मारे गए भारतीयों के परिवार के एक-एक सदस्य को राज्य सरकार नौकरी देगी। इसके अतिरिक्त पंजाब सरकार द्वारा पंजाब के मूसल कांड पीडि़त परिवारों को 5-5 लाख रुपये देने की घोषणा भी की गई।
उपरोक्त पूरा प्रकरण देश की राजनैतिक व्यवस्था पर किसी कलंक से कम नहीं है। निश्चित रूप से यह देश की सरकारों को ही सोचना चाहिए कि आखिर क्यों और किन परिस्थितियों में देश के श्रमिकों, कामगारों को अपना देश छोड़कर व अपने परिवारों से अलग होकर दूर-दराज़ के देशों में यहां तक कि युद्ध व संकटग्रस्त देशों में भी अपनी आजीविका कमाने हेतु जाना पड़ता है? दूसरी बात यह कि यदि किन्हीं अपरिहार्य परिस्थितियोंवश इस प्रकार की घटना हो भी जाए तो क्या भारत सरकार के पास इतनी व्यवस्था भी नहीं कि वह सहानुभूति, सौहार्द्र तथा जीवनयापन के दृष्टिगत् इनके परिजनों की सहायता कर सके? जिस सरकार के मुखिया दुनिया के कई देशों में घूम-घूम कर हज़ारों करोड़ रुपयों की मदद अन्य देशों को करते फिर रहे हों, जिस देश की सरकारें धार्मिक आयोजनों में जनता का पैसा पानी की तरह बहा रही हों, जो सरकारें अपने चुनाव संचालन में हज़ारों करोड़ रुपये खर्च करने से न हिचकिचाती हों, जो राजनेता अपने व अपने परिवार की ऐशपरस्ती पर करोड़ों रुपये प्रतिमाह खर्च करते रहते हों, क्या उस सरकार के प्रतिनिधि के मुंह से दु:खी व रोते-बिलखते परिवारों से इस प्रकार की बातें करना शोभनीय प्रतीत होता है? क्या नीरव मोदी, मेहुल चौकसी, विजय माल्या तथा ललित मोदी जैसे लोगों को ही यह अधिकार हासिल है कि वे भारत के आयकर दाताओं की खून-पसीने की कमाई के दम पर सत्ता के दिग्गजों से सांठगांठ कर विदेशों में एय्याशी करते फिरें और जब विदेशों में रोज़ी-रोटी कमाने गए भारतीय मज़दूरों की आतंकियों द्वारा हत्या कर दी जाए तो उनके परिजनों को सहयोग व सहायता देने के बजाए उनसे कड़वे शब्द बोलकर उनके दिल दुखाए जाएं?
निश्चित रूप से सरकारी नौकरियां बिस्कुट की तरह नहीं बंटतीं। परंतु जनरल विक्रम सिंह के मुंह से यह बात इसलिए और भी शोभा नहीं देती क्योंकि सेवा निवृति के बाद केंद्रीय मंत्री पद तक पहुंचने की उनकी जुगाड़बाज़ी भी पूरे देश ने बहुत गौर से देखी। जनरल साहब ने तो सचमुच अपनी चतुराई से मंत्रीपद कुछ इसी तरह हासिल कर लिया जैसे ‘बिस्कुट’ हासिल किया जाता हो। अन्ना हज़ारे के 2013 के जनलोकपाल आंदोलन में विक्रम सिंह अन्ना हज़ारे के सहयोगी के रूप में देश की जनता को दिखाई दिए थे। उस समय उनकी छवि एक स्वच्छ व भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनकारी सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में उभरी थी। परंतु उन्होंने किस चालाकी से अपने चेहरे को अन्ना के मंच से परिचित कराया और कुछ ही समय बाद 2014 के लोकसभा चुनाव से पूर्व अन्ना हज़ारे को छोड़कर उसी भ्रष्ट राजनीति का हिस्सा बन गए जिसे कल तक वह खुद कोसा करते थे। ज़ाहिर है उनकी इन चालों के पीछे उनकी महत्वाकांक्षा निहित थी जो उनके लोकसभा चुनाव लडऩे, जीतने तथा बाद में मंत्रीपद ग्रहण करने के रूप में सामने आई। बड़े दु:ख की बात है कि आज उन्हीं जनरल विक्रम सिंह ने खून-पसीने की गाढ़ी कमाई करने वाले अप्रवासी भारतीय मज़दूरों की हत्या के बाद उनके पीडि़त परिवारों को आश्वासन देने या उनकी सहायता करने के बजाए अपने कटु वचनों के द्वारा उनके ज़ख्मों पर नमक-मिर्च छिड़कने का काम किया है।
हमारे कायर और स्वार्थी नेता
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दलित-हिंसा में लगभग 15 लोगों का मरना और सैकड़ों का घायल होना बहुत दुखद है। सर्वोच्च न्यायालय ने दलित अत्याचार निवारण कानून में जो संशोधन किए थे, यह आंदोलन उसके खिलाफ है। याने यह आंदोलन होना था, सर्वोच्च न्यायालय के खिलाफ लेकिन इसमें निशाना बनाया जा रहा है, मोदी सरकार को ! इसका अर्थ क्या हुआ ? क्या यह नहीं कि यह दलितों का आंदोलन कम और मोदी-विरोधी ज्यादा है ? विरोधी नेताओं के पास मोदी-पार्टी के विरुद्ध न तो कोई ठोस मुद्दा है और न ही कोई प्रचंड नेता है। तो वे क्या करें ? और कुछ नहीं तो वे दलितों और आदिवासियों को ही अपनी तोप का भूसा बना दें। इस तथ्य के बावजूद बना दें कि केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका डालकर उससे अनुरोध किया है कि वह उस दलित रक्षा कानून को कमजोर न बनाए। अदालत का ताजा निर्देश था कि यदि किसी भी अनुसूचित व्यक्ति का अपमान, नुकसान और उस पर अत्याचार होने पर वैसा करनेवाले को तुरंत गिरफ्तार न किया जाए। उसे गिरफ्तार करने के पहले शिकायत की जांच हो और उच्चाधिकारी की सहमति मिलने पर ही उसे गिरफ्तार किया जाए। ऐसे मामलों में अग्रिम जमानत भी दी जाए। अदालत ने यह फैसला इसलिए किया कि अनुसूचितों पर अत्याचार के बहाने ब्लेकमेलिंग का धंधा जोरों से चल पड़ा था। ऐसे सौ मामलों में से लगभग 75 मामले अदालत में पहुंचने पर फर्जी सिद्ध हो जाते थे। मैं सोचता हूं कि इस तरह के कानून से दलितों पर होनेवाले अत्याचार में कमी नहीं आती है बल्कि वह बढ़ता ही जाता है। फर्जी मुकदमों से समाज में कटुता और तनाव फैलता है। लोगों के दिलों में घृणा भरती जाती है। जो कानून अत्याचार रोकने के लिए बना है, वह स्वयं अत्याचारी बन जाता है। सभी दलों के नेताओं को अदालत के इस फैसले का समर्थन करना चाहिए था और देश के अनुसूचितों को समझाना चाहिए था कि यह फैसला उनके लिए कितना हितकर है। लेकिन हमारे नेताओं से बढ़कर कायर और स्वार्थी प्राणी कौन हैं ? ये वोट और नोट के गुलाम हैं। इनमें सच बोलने की हिम्मत नहीं है। ये अनुसूचितों का भला नहीं, अपना भला चाहते हैं। अपने वोट और वो भी अंधे थोक वोट कबाड़ने में इन सभी दलों के नेताओं ने सभी मर्यादाओं का उल्लंघन कर दिया है। वे जातिवाद के राक्षस की रक्त-पिपासा भड़का रहे हैं। जब तक देश में से जन्मना जातिवाद खत्म नहीं होगा, अनुसूचितों पर अत्याचार होता रहेगा।
पुराने कानूनों से मुक्ति के साथ संशोधन भी जरूरी
प्रमोद भार्गव
यह अच्छी बात है कि केंद्र सरकार कुछ औपनिवेशिक कानूनों को खत्म करने के बाद अब शेष रह गए कानूनों को भी समाप्त करने की भी तैयी में है। नरेंद्र मोदी सरकार ने नई पहल करते हुए अंग्रेजों के जमाने के अप्रासंगिक हो चुके 1824 कानूनों की पहचान की थी। इनमें से अब तक 1657 कानून खत्म कर दिए हैं। बावजूद अभी 167 ऐसे कानून प्रचलन में हैं, जिन्हें दन किया जाना जरूरी है। लेकिन इसके साथ सरकार को यह तय करना भी जरूरी है कि आजादी के बाद जो कानून वजूद में आए हैं, उनको सरल बनाए। जिससे समस्या के समाधान में कानून रोड़ा बनने की बजाए, सहायक बनें। श्रम, राजस्व, कर और पर्यावरण सरंक्षण से जुड़े कई ऐसे कानून हैं, जिनकी उपधराएं समस्या को उलझाए रखने का काम करती है। यदि केंद्र और राज्य सरकारें कानूनों की जटिलताएं दूर कर देती हैं तो विचाराधीन मामलों का जल्द निराकरण होगा और जनता राहत का एहसास करेगी। खत्म किए जा रहे कानून 1834 से 1898 के बीच फिरंगी हुक्मरान वजूद में लाए थे। इनमें से कई कानून आज हस्यास्पद स्थिति उत्पन्न करने वाले हैं। मसलन, 1878 में बने एक कानून के मुताबिक यदि किसी व्यक्ति को सड़क पर नोट पड़ा दिखाई देता है और वह इसकी सूचना पुलिस को नहीं देता तो उसे कारावास हो सकता है। 1887 में बने कानून के अनुसार लोग किसी भी होटल में पेयजल और शौचालय की सुविधा मुफ्त पा सकते हैं। इसी तरह 1934 का एक कानून कहता है कि पतंग बनाने,बेचने और उड़ाने के लिए सरकारी अनुमति जरूरी है। अब भला इन कानूनों के बने रहने का क्या औचित्य है ? अनेक कानून ब्रिटिश हुकूमत के लिए तात्कालिक महत्व के थे,जिनकी जरूरत नहीं होने के बावजूद वजूद बरकरार है। इन कानूनों में बना 1836 बंगाल जिला अधिनियम, 1866 का धर्मातंरित विवाह भंग कानून और 1887 में बना गंगा चूंगी कानून शामिल हैं। इसी तरह 2013 में बने भूमि अधिग्रहण कानून के बाद पुराने भूमि अधिग्रहण कानूनों की कोई जरूरत नहीं रह गई है, लेकिन वे बने हुए हैं। नतीजतन ताकतवार लोग इन कानूनों का दुरूपयोग कर अपने हित साधने में सफल हो जाते हैं। इसका सबसे ज्यादा लाभ सामंतों और जमींनदारों ने उठाया है। इन्होंने करोड़ो-अरबों रूपए की परिसंपत्तियां भारत सरकार को विलय कर देने के बावजूद इन्हीं अप्रासंगिक हो चुके कानूनों के जरिए हथिया लीं है। ये कानून दौ सौ साल से भी ज्यादा समय से अप्रचलन में आ चुकने के बाद भी बेजा फायदा उठाने के लिए अस्तित्व में हैं। लिहाजा कानून की पोथियां बेवजह मोटी बनी हुई हैं,ं क्योंकि इनमें एक प्रकृति के सभी कानून संशोधित होने के बावजूद संकलित हैं। इनसे विरोधाभास पैदा करके पहुंच वाले लोग लाभ उठाने में सफल हो जाते हैं। इसी तरह कृषि भूमि और भवनों में किराए से जुड़े कानून विसंगतियां पैदा कर रहे हैं। इन कानूनों में कब्जे को अवैध ठहराने की बजाए वैद्यता सिद्ध करने का काम राजस्व अदालतें करती हैं। यदि कब्जे को भू-राजस्व संहिता से विलोपित कर दिया जाए तो कब्जे की धारा से जुड़े शत-प्रतिशत मामले खत्म हों जाएंगे। कब्जे को वैधानिकाता देने वाला यह कानून ग्रामों में हिंसा की इबारत लिखने का काम सबसे ज्यादा कर रहा हैं। यदि इसमें संशोधन कर दिया जाता है तो आपराधिक मामलों में आशातीत उम्मीद से ज्यादा कमी आएगी। विधि आयोग ने जिन कानूनों को समाप्त करने की राय सरकार को दी है, उन्हें 49 श्रेणियों ने बांटा है। वैसे महत्वपूर्ण इनमें तीन श्रेणियों हैं। पहले वे कानून जो इसी संदर्भ में संशोधित अधिनियम बन जाने के बावजूद किताबों का हिस्सा बने हुए हैं। दूसरे,वे जो बदलते वक्त के साथ अप्रासंगिक हो चुकें हैं और तीसरे वे विनियोग कानून हैं, जिनकी संख्या 700 से भी ज्यादा बताई गई है। विनियोग विधेयकों की उपयोगिता तात्कालिक है। ये हर वर्ष संचित निधि से राशि निकलने के लिए संसद द्वारा पारित किए जाते हैं और फिर व्यर्थ हो जाते हैं। लेकिन विधि-पुस्तकों में दर्ज बने रहते हैं। ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया में इस तरह के कानूनों के संबंध में ऐसी इबारत भी विधेयक के मसौदे में दर्ज कर दी जाती है कि ये मकसद पूर्ति के बाद खुद-ब-खुद खत्म हो जाते हैं। भारत के गणतंत्र घोषित होने के बाद देश का राज-काज भारतीय संविधान के अनुसार गतिशील होता रहा है। इस संविधान को डॉ भीमराव रामजी अंबेडकर की अघ्यक्षता वाली संविधान सभा ने स्वीकृति दी थी। लेकिन पृथक-पुथक विषयों से संबंधित औपनिवेशिक कानून विधिशास्त्रों का अधिकृत हिस्सा बने रहे। लिहाजा इनकी बुनियाद कायम रही। दण्ड प्रक्रिया संहिता और भू-राजस्व संहिता भी औपनिवेशिक तर्ज पर ही बनीं चली आ रही हैं। जबकि वैधानिक, प्रशासनिक, राजस्व और पुलिस सुधारों को आजादी के तत्काल बाद अमल में लाने की जरूरत थी। हालांकि अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने प्रशासनिक कानूनों की समीक्षा के लिए समिति गठित कर इन्हें समाप्त करने की अह्म पहल की थी। इस समिति की सिफारिश पर 1998 में 415 कानून रद्द कर दिए गए थे। लेकिन अभी भी करीब 167 ऐसे कानून हैं,जिन पर झाडू फेरना जरूरी है। राजग सरकार अनावश्यक कानूनों को लेकर चिंतित है, अन्यथा संप्रग सरकार तो कभी भी बेवजह अड़चन पैदा करने वाले कानूनों को खत्म करने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई नहीं दी। मोदी सरकार 44 श्रम कानूनों को भी रद्द करने की तैयारी में है। क्योंकि ये कानून कामगरों तथा नियोक्ताओं के कल्याण में बाधा बन रहे हैं। जाहिर है, बेमतलब कानूनों को आकलन के बाद चरणबद्ध तरीके से निपटाने की प्रक्रिया सराहनीय है। यह उल्लेखनीय पहल है कि सरकार कानूनी मकड़जालों से मुक्ति की राह पर निकल पड़ी है। इसके साथ ही न्यायालयों से भी यह दरकरार है कि वे भी कामकाज के औपनिवेशिक ढर्रे से मुक्त हों ? पेचेदगियों का सरलीकरण करें। बेमतलब के गवाहों,साक्ष्यों और तकनीकि जांचों से अदालतों को भी छुटकारे की जरूरत है। ज्यादातर अदालती दस्तावेज ऐसी भाषा में तैयार किए जाते हैं,जो भाषा चलन से बाहर हो चुकी है। इस भाषा में अभी भी मुगलकालीन अरबी व फरसी भाषा के ऐसे शब्द प्रयोग में लाए जाते हैं, जिनके अर्थ समझने के लिए बहुभाषी शब्द-कोश खोजने पड़ते हैं। राजस्व अदालतें भी इसी भाषा को चलन में लाती हैं। मसलन,अदालतें भूमि अथवा जमीन की जगह ’अराजी’ शब्द का इस्तेमाल करती हैं,जबकि यह शब्द कहीं भी प्रचलन में नहीं है। सर्वोच्च और उच्च न्यायालय केवल अंग्रेजी का प्रयोग करती हैं,जबकि प्रकरण से जुड़े बुनियादी तथ्य स्थानीय भाषा में दर्ज होते हैं। इनका अंगेजी में किया अनुवाद भी सही नहीं होता। उच्च न्यायालयों में हाजिर होने वाले कई वकील भी अंगेजी में अपना पक्ष ठीक से नहीं रख पाते। इस कारण वे अपने मुवक्किल की पैरवी में पिछड़ जाते हैं। इसी नजरिए से कुछ समय पहले ही मद्रास हाईकोर्ट की मदुरै खंठपीठ के वकीलों ने इसलिए धरना-प्रदर्शन भी किया था कि अदालतें राज्य की भाषा में काम करें। लेकिन अदालतें अंगेजी के औपनिवेशिक मोहपाश से मुक्त होना ही नहीं चाहती। लिहाजा उन्हें भी इस मोह से मुक्त होने की जरूरत है। ऊंची अदालतों में केवल अंग्रेजी के चलन से आम आदमी के अधिकारों का हनन भी हो रहा है। दरअसल भारतीय भाषाएं अदालत की दहलीज पर जाकर ठिठक सी गई हैं।
ममता का तीसरा नहीं, दूसरा मोर्चा
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
तृणमूल कांग्रेस की नेता और प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपनी दिल्ली-प्रवास में भाजपा-विरोधी कई नेताओं से मिलीं। वे वास्तव में मोदी-विरोधी भाजपा नेताओं से भी मिलीं। उन्होंने सोनिया गांधी से मिलकर यह संदेश भी दिया कि वे कोई तीसरा मोर्चा (याने गैर-भाजपा और गैर-कांग्रेस मोर्चा) खड़ा करना नहीं चाहतीं तो फिर वे क्या चाहती हैं। वे सिर्फ एक दूसरा मोर्चा खड़ा करने में लगी हुई हैं। यह दूसरा मोर्चा क्या है ? इस दूसरे मोर्चे में सभी भाजपा-विरोधी पार्टियां समा सकती हैं। इसकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह ऊपर से नीचे नहीं चलता है बल्कि नीचे से ऊपर जाता है। सभी राज्यों में जितने भी विपक्षी दल सक्रिय हैं, वे आपस में समझौता करके सीटें बांट लें और भाजपा के विरुद्ध साझा उम्मीदवार खड़ा करें। याने चुनावी दंगल प्रांतों में मुख्य रुप से दो ही पार्टियों के बीच हो याने भाजपा और विरोधी मोर्चे के बीच ! जाहिर है कि यदि ऐसा हो जाए तो भाजपा की 280 सीटें वर्तमान गणित के हिसाब से 100 से भी नीचे चली जाएंगी। इस दूसरे मोर्चे की खूबी यह होगी कि यह अपने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के नाम की घोषणा नहीं करेगी। लेकिन इसका कोई न कोई अध्यक्ष या संयोजक जरुर होगा। इस तरह का दूसरा मोर्चा बनना लगभग असंभव है। उत्तरप्रदेश में बन गया, शायद अखिलेश यादव की विनम्रता, सज्जनता और मर्यादापूर्ण आचरण के कारण लेकिन क्या ऐसा ही मोर्चा माकपा और तृणमूल कांग्रेस प. बंगाल में बना सकती हैं या कांग्रेस और माकपा केरल में बना सकती हैं ? कांग्रेस की अपनी समस्याएं हैं। वह अखिल भारतीय पार्टी होने के नाते अभी भी सभी प्रांतों में अपनी प्रमुखता बनाए रखना चाहती है। वह दूसरे मोर्चे में दूसरे दर्जे का पद क्यों स्वीकार करेगी ? इसमें शक नहीं कि नरेंद्र मोदी का नशा उतरता चला जा रहा है लेकिन आज भी देश में एक भी ऐसा नेता नहीं है, जिसकी छवि मोदी के लिए खतरा बन सके। इसके अलावा सवा साल का समय अभी बचा हुआ है। मोदी चाहे तो प्रचारमंत्री बने रहने के साथ-साथ भारत के सच्चे प्रधानमंत्री बनने की कोशिश भी कर सकते हैं और अपनी डगमगाती नैया को पार लगा सकते हैं।
रामलीला मैदान से खाली हाथ लौटे अन्ना
राजेंद्र चतुर्वेदी
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगी गिरीश महाजन के साथ दिल्ली पहुंचे, हवाई अड्डे से वह सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय गए जहां केंद्रीय मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत एक कागज लेकर उनका ही इंतजार कर रहे थे। वहां से ये तीनों रामलीला मैदान पहुंचे, अन्ना को एक कागज दिया, फिर फडनवीस ने उन्हें जूस पिलाया और इसी के साथ 23 मार्च से प्रारंभ हुई अन्ना हजारे की अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल समाप्त हो गई। सरकार खुश कि अन्ना मान गए और उसे कुछ करना भी नहीं पड़ा, अन्ना भी खुश की भूख हड़ताल नामक शेर की पीठ पर उन्होंने जो सवारी की थी, उससे उन्हें फडनवीस ने बाइज्जत उतार लिया, वरना इस बार आसार अच्छे नहीं थे। सरकार उन्हें गंभीरता से नहीं ले रही थी।
जिस कागज की चर्चा ऊपर की गई है, उस बिना रूल के ए-फोर कागज पर कुल 12 पंक्तियां लिखी थीं, जिन्हें केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह ने पढक़र सुनाया और जिसने सुना, वही समझ गया कि सरकार ने अन्ना के सामने वादों का झुनझुना बजा दिया है। नेता तो दूर की बात किसी आम आदमी की बेइज्जती का भी समर्थन नहीं किया जा सकता, लेकिन फडनवीस की तरफ उछाले गए जूते को एक व्यक्ति की शरारत नहीं, आंदोलन के लिए एकत्रित लोगों की प्रतिक्रिया माना जाना चाहिए।
बहरहाल, अन्ना इस बार तीन मांगों को लेकर अनशन पर थे। एक-लोकपाल, लोकायुक्त अधिनियम-2011 में संशोधन हो और विधायकों, मुख्यमंत्रियों, राज्यों के मंत्रियों पर लगने वाले भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच का अधिकार लोकायुक्त को मिले, जबकि सांसद, केंद्रीय मंत्रियों और प्रधानमंत्री को लोकपाल की जांच के दायरे में लाया जाए। लोकपाल और लोकायुक्तों की नियुक्ति भी जल्द की जाए। दो-अन्ना हजारे ने चुनाव सुधार के नाम पर यह हास्यास्पद मांग की थी कि ईवीएम पर चुनाव चिन्ह नहीं, उम्मीदवारों के चित्र लगाए जाने चाहिए। उनकी तीसरी मांग यह थी कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू किया जाए और कृषि लागत एवं मूल्य आयोग को संवैधानिक दर्जा देकर उसे स्वायत्त संस्था बना दिया जाए। बता दें कि अन्ना पिछले छह-सात महीने से कहते चले आ रहे थे कि वे लोकपाल के लिए 23 मार्च आंदोलन करेंगे, लेकिन तब वे किसानों और स्वामीनाथन आयोग की चर्चा नहीं करते थे। उन्हें यह आईडिया तब मिला, जब हाल ही में महाराष्ट्र के किसानों ने कर्जमाफी की मांग को लेकर नासिक से मुंबई तक की पदयात्रा करके महाराष्ट्र सरकार को हिला दिया था।
यहां यह बताना भी जरूरी है कि 2004 में एमएस स्वामीनाथन आयोग का गठन मनमोहन सिंह की सरकार ने किया था, केंद्र की सत्ता संभालने के बाद। इस आयोग को देश में अन्न की आपूर्ति पुख्ता बनाने और किसानों की दशा सुधारने पर केंद्र को सुझाव देने थे। उसने कुल मिलाकर पांच रिपोर्टें सरकार को सौंपीं, लेकिन चार रिपोर्टों में क्या लिखा है, यह कोई नहीं जानता? और जिस रिपोर्ट की चर्चा होती है, वह स्वामीनाथन आयोग की पांचवीं और अंतिम रिपोर्ट है, जो चार अक्टूबर-2006 को केंद्र को सौंपी गई थी। इस रिपोर्ट में राज्यों में किसान आयोग बनाने, कृषि कर्जों पर ब्याज की दर को तीन फीसदी से नीचे रखने, किसानों को प्राकृतिक आपदाओं से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए फंड बनाने, कृषि उपजों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को लागत से 50 फीसदी ऊपर रखने, किसानों को बिना प्रीमियम का फसल और जीवन बीमा देने, उन्हें 60 वर्ष की उम्र के बाद तर्कसंगत पेंशन देने जैसे कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए गए थे।
2014 के चुनाव घोषणा पत्र में भाजपा ने वादा किया था कि केंद्र में सरकार बनते ही स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू कर दिया जाएगा। लेकिन कुछ नहीं हुआ। जो फसल बीमा दिया गया है, वह किसानों के फायदे के लिए नहीं, बीमा कंपनियों के फायदे के लिए है, जिसकी चर्चा फिर कभी। अब स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने की अन्ना की मांग पर सरकार ने क्या वादा किया, जरा गौर इस पर भी कीजिए। उसने कहा है कि प्रधानमंत्री ने उपजों के सर्मथन मूल्य को लागत से डेढ़ गुना ज्यादा करने का जो फैसला किया है, वह इसी आयोग की सिफारिशों के आधार पर ही तो किया है और अगर कोई कमी रह गई होगी तो उसे दूर कर दिया जाएगा। क्या अन्ना को यहां यह सवाल नहीं पूछना चाहिए था कि समर्थन मूल्य किसानों को सभी फसलों पर दिया जाएगा या केवल गेहूं, धान और कुछ दलहनों पर ही? देश में 66 प्रकार की फसलें उपजाई जाती हैं, जबकि समर्थन मूल्य कुछ राज्यों में तीन, तो कुछ में चार पर मिलता है। समर्थन मूल्य पर सभी किसानों की फसलें नहीं खरीदी जातीं, केवल उनकी खरीदी जाती हैं, जिनकी जुगाड़ होती है। अन्ना ने नहीं पूछा कि क्या सभी किसानों की फसलें समर्थन मूल्य पर खरीदी जाएंगी?
चूंकि मोदी को किसानों की आमदनी 2022 में दोगुनी करनी है, उनकी सरकार तभी लागत का डेढ़ गुना समर्थन मूल्य भी देगी। इसलिए अन्ना ने यह क्यों नहीं पूछा कि समर्थन मूल्य बढ़ाने का जो वादा किया गया है, वह अभी पूरा होगा या 2022 में? अगर अन्ना यह मानकर चल रहे हैं कि 2022 तक यही सरकार रहेगी, तो भी उन्हें यह सवाल पूछना चाहिए था। 2022 अभी चार साल दूर है और किसानों को उनके हाल पर नहीं छोड़ा जा सकता। लेकिन अन्ना ने आज्ञाकारी बच्चे की तरह कुछ नहीं पूछा।
जो भी हो, अन्ना की मांग थी कि कृषि लागत एवं मूल्य आयोग को संवैधानिक दर्जा देकर स्वायत्ता दी जाए। सरकार ने वादा किया कि वह इस आयोग को स्वायत्तता देने पर विचार करेगी। क्या यह वादा मांग का पूरा हो जाना है? बता दें कि 1964 में किसानों के हितों का संरक्षण करने के लिए अनाज मूल्य समिति का गठन किया गया था, जिसका नाम 1965 में बदलकर कृषि मूल्य समिति किया गया, फिर 1985 में इसी के गले में कृषि मूल्य एवं लागत आयोग के नाम का पट्टा लटका दिया गया। इसे संवैधानिक दर्जा मिलना चाहिए, लेकिन सरकार ने जिस अंदाज में इस मांग को माना, वह न मानने जैसा है।
चुनाव सुधार पर अन्ना से सरकार ने कह ही दिया कि हम तो कुछ कर नहीं सकते, ईवीएम पर चुनाव चिन्ह की जगह प्रत्याशी का फोटो लगाने की आपकी मांग चुनाव आयोग के पास भेज दी जाएगी। लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम-2011 में संशोधन की मांग पर यह कहा गया है कि इस विषय पर सरकार ने एक मार्च को कानून के जानकारों से बात की थी, हम उनसे आगे भी बात करेंगे और फिर जैसा वे कहेंगे, वैसा हो जाएगा। यानी सरकार ने एक भी मांग नहीं मानी।
इधर, अन्ना को यह उम्मीद थी कि वे 23 मार्च को ज्यों ही दिल्ली पहुंचेंगे, मीडिया अप्रैल और अगस्त-2011 की तरह तूफान खड़ा कर देगा। लेकिन वे इतने भोले-भाले हैं कि उन्हें शायद पता ही नहीं चला कि उस समय उन्हें मनमोहन सरकार के खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा था, इसलिए कुछ दृश्य और कुछ अदृश्य ताकतों ने भीड़ की व्यवस्था कर दी थी, रामलीला मैदान को चमकाकर भीड़ के लिए खाने-पीने, बैठने आदि की व्यवस्थाएं जुटा दी थीं और मीडिया कवरेज की भी। इस बार वे ताकतें अन्ना के साथ नहीं थीं, सो न मीडिया था, न भीड़ थी, और तो और जो पांच-छह सौ किसान रामलीला मैदान में थे, उनके लिए पीने के पानी की व्यवस्था भी ठीक ठाक नहीं थी। अत: अन्ना को फडनवीस का आभारी होना चाहिए कि उन्होंने उनकी प्रतिष्ठा बचा ली। अगर अनशन हफ्तेभर और चल जाता तो अन्ना के साथ सौ आदमी भी शायद ही रहते। सरकार ने मांगें नहीं मानी, अन्ना की प्रतिष्ठा बचा दी, बड़ी बात यह है।
पंचायती अड़ंगों के विरुद्ध कानून
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जो काम सरकार और संसद को करना चाहिए, वह अदालत कर रही है। सर्वोच्च न्यायालय का फैसला है कि खाप पंचायतों द्वारा शादियों में की जानेवाली दखलंदाजी अब अवैध मानी जाएगी। कोई भी जातीय पंचायत किसी भी बहाने से दो स्त्री और पुरुष की शादी के बीच अड़ंगा नहीं लगा सकती। वह न तो सगोत्र विवाह, न स्वगांव विवाह, न पड़ौसी गांव में विवाह करनेवालों को दंडित कर सकती है। ये जातीय पंचायतें इतनी क्रूर हैं कि नव-विवाहितों की हत्या के फरमान जारी कर देती हैं। पिछले तीन वर्षों में देश में ऐसी 288 हत्याएं हो चुकी हैं। पंचायतों के डर से सैकड़ों नव-विवाहित पति-पत्नी अपना गांव और प्रदेश छोड़कर दूर-दराज के स्थानों पर छिपकर रह रहे हैं। यह हालत भारत में नहीं, पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका और अफगानिस्तान में भी है। अदालत ने कहा है कि यदि दो वयस्क स्त्री-पुरुष स्वेच्छा से शादी करना चाहें तो वैसा करने में वे पूर्ण स्वतंत्र हैं। कोई गौत्र, कोई जाति, कोई मजहब, कोई वंश आदि के नाम पर उन्हें रोका नहीं जा सकता। अदालत ने ऐसी शादियों में बाधा डालने के विरुद्ध कई कदम उठाने के निर्देश सरकार को दिए हैं और उन नव-विवाहितों की सुरक्षा के लिए भी स्थानीय प्रशासनों पर जिम्मेदारी डाली है। अदालत का यह आदेश देश के सभी नागरिकों पर लागू होगा, चाहे वे किसी भी जाति या धर्म के हों। इस आदेश के बाद अब भारत में अंतरजातीय और अंतरधार्मिक विवाह करना आसान हो जाना चाहिए लेकिन समाज में चली आ रही सैकड़ों वर्षों की परंपराओं से सिर्फ कानून छुटकारा नहीं दिला सकता। उसके लिए देश में सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलन की जरुरत है। हमारी सरकारों को चाहिए कि अन्तरधार्मिक और अंतरजातीय विवाह करनेवालों को वह प्रोत्साहन राशि दे और जातीय उपनाम हटानेवालों को भी। यों भी सगौत्र विवाह और चाचा-ताऊ के बच्चों में आपसी विवाह को भी वैज्ञानिक दृष्टि से ठीक नहीं माना जाता। इस दृष्टि से अदालत के आदेश से भी बेहतर व्यवस्था बनाना हमारा लक्ष्य होना चाहिए। यदि अदालत के आदेश को थोड़ा लंबा खींचा जाए और यदि दो वयस्क सगे भाई-बहन आपस में शादी करना चाहें तो क्या अदालत उसे भी उचित मान लेंगी ? कानूनी तौर पर तो इसे भी नहीं रोका जा सकता लेकिन तब मनुष्य समाज और पशु समाज में कोई अंतर नहीं रह जाएगा। समाज के संचालन में कानून का सहारा तो लेना ही पड़ता है लेकिन जन-जागरण उससे बेहतर और ऊंचा विकल्प है।
मध्य प्रदेश में मारे जा रहे जनजाति के हजारों बच्चे…!
नईम कुरेशी
म.प्र. की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल ने म.प्र. में दलित व अन्य जातियों के कुपोषण वाले बच्चों के सालों से मारे जाने का मामला देखकर प्रदेश सरकार को फटकार लगाई है। मध्य प्रदेश के झाबुआ व श्योपुर, शिवपुरी इलाके में अक्टूबर 2017 से जनवरी 2018 तक के 4 माह में ही अकेले 11 हजार से भी ज्यादा कुपोषित बच्चों की मौत हो गई है। उन्हें बचाने अनुसूचित जनजाति विभाग, महिला बाल विकास व सूबे के स्वास्थ्य विभाग ने कोई खास पहल नहीं की। इन विभागों का अरबों रुपये का बजट सियासतदां, अफसरान व ठेकेदार लोग डकारते आ रहे हैं।
प्रदेश सरकार के इस निकम्मेपन व भ्रष्टाचारों में डूबे होने का मुद्दा भी विपक्ष कांग्रेस पार्टी नहीं उठा पायी, ये भी हैरत और शर्म की बात है। इस मामले में मीडिया रिपोर्टों के अलावा सरकारी लीपा पोती करके सिर्फ खानापूरी करना म.प्र. सरकार के भ्रष्टाचार को उजागर करता है। बच्चे देश का भविष्य ये सिर्फ नारों में वादों में याद किया जाना बीमारू राज्यों में होता आ रहा है। बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश व राजस्थान आदि के तथाकथित जनप्रतिनिधियों को इस मामले में बराबर का दोषी मानकर उन पर भी इन कुपोषित बच्चों की मौत के लिये जिम्मेवार बनाकर मामला दर्ज करना चाहिये। इन इलाकों में कलेक्टर्स से लेकर आदिम जाति मेहकमे, महिला बाल विकास व सिविल सर्जन आदि पर भी मामले दर्ज किया जाना चाहिये। मध्य प्रदेश में जनजाति के ज्यादातर स्कूल व हाॅस्टल बुरी हालातों में देखे जा सकते हैं।
एशिया में सबसे ज्यादा
दक्षिण एशिया में भारत कुपोषण के मामले में सबसे आगे बताया जा रहा है। केन्द्र सरकार की प्राथमिकताओं में कुपोषण से मारे जा रहे बच्चों को काफी नीची पायदानों पर रखे जा रहे हैं। मध्य प्रदेश व राजस्थान में सबसे ज्यादा लापरवाही व भ्रष्टाचारों के चलते कुपोषण बच्चों की मौत हो रही हैं। इन दोनों सूबों के मुख्यमंत्री सिर्फ अपने स्वार्थों के चलते अपनी निजी प्रेस रिपोर्टों पर ध्यान देते देखे जा रहे हैं। नारों और सिर्फ नारों और वादों पर सरकारें चलाई जा रही हैं काम नहीं हो रहे हैं। दलित उत्पीड़न भी इन दोनों सूबों में सबसे ज्यादा बताया जा रहा है व महिलाओं के खिलाफ भी सबसे ज्यादा उत्पीड़न इन सूबों में हो रहे हैं। म.प्र. में तो पुलिस विभाग में महिला विभाग बना जरूर रखे हैं, आई.जी., डी.आय.जी. पदों पर अफसरान रखे हैं पर यहां उनके आधीन अमला नहीं है। डी.एस.पी. निरीक्षकगण ढूंढे नहीं मिलेंगे। ऐसा ही अजाक थानों में भी है। म.प्र. के 80 फीसद अ.जा.क. थानों में अमला नहीं है। दलितों पर खुलेआम सवर्ण वर्ग अत्याचार कर रहा है। कोई सुनने वाला नहीं है। इस वर्ग के सांसद व विधायक, महापौर, नगर पालिकाओं के अध्यक्ष कागजी साबित हो रहे हैं। दलित अत्याचारों पर बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। म.प्र. के भिण्ड व मुरैना, ग्वालियर, शिवपुरी में ऐसे अत्याचारों की खबरें काफी हैं।
बीमारू राज्यों की कथा
कुपोषित इलाकों में अमला बढ़ाना होगा। जिम्मेवारी तय करनी होगी जो इस इलाके में काम नहीं करते हैं उनका वेतन रोक दिया जाना चाहिये। जो अफसरान व कर्मचारी इस तरफ लापरवाह हैं उन्हें सेवा से हटा दिया जाना चाहिये। प्रमुख सचिव, अनुसूचित जाति मेहकमे से लेकर नीचे तक के अमले की परेड इन क्षेत्रों में कराई जानी चाहिये। उन्हें नियमित पोषक आहार दिया जाना सुनिश्चित किया जाय वरना मानवता के दुश्मन आज की व्यवस्था में काफी हैं उन्हें सजा दिया जाना जरूरी होगा। इन इलाकों को यूनाइटेड नेशन पहले से ही बीमारू राज्य मानता आ रहा है। ये सरकार में बैठे लोगों को पहले से ही पता है।
केन्द्र सरकार व सूबाई सरकार ने अटल बिहारी वाजपेयी एवं बाल आरोग्य एवं पोषण मिशन में हर साल करोड़ों का बजट भी बढ़ाया है फिर भी 70 लाख बच्चों में से 12 लाख बच्चे कम वजन के कुपोषित पाये जाना हैरत व शर्म की बात है। राज्यपाल म.प्र. में जिस तरह से सक्रिय हैं गरीबों, महिलाओं, जनजाति की योजनाओं के मामले में ये स्वागत करने का मामला है और म.प्र. की सरकार को खुद अपने दर्पण में स्वयं की तस्वीर देखने जैसा है। प्रदेश सरकार के वजीरों व अफसरों को अपने गिरेबान में झांकना होगा कि वो किस तरह जनजातियों व महिलाओं की सुरक्षा से खिलवाड़ कर रहे हैं। इनके पैसे को हड़प रहे हैं। केन्द्र सरकार की तमाम सी.बी.आई. जैसी संस्थायें मामलों में चुप बैठी हैं। सांसदों के खाने पर ही 74 करोड़ की छूट दे दी जाती है फिर भी गरीबों के बजट को हड़प कर उन्हें व उनके बच्चों को मौत दी जाना कौन सी इंसानियत है।
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