आप ट्रंप हैं या शेख चिल्ली ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सउदी अरब के प्रसिद्ध पत्रकार जमाल खाशोगी की हत्या पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की किरकिरी पहले से हो ही रही है, अब उन्होंने एक नया शोशा छोड़ दिया है। वे कह रहे हैं कि 1987 में रुस के साथ परमाणु प्रक्षेपास्त्रों संबंधी जो संधि हुई थी, उसे अब वे रद्द करनेवाले हैं। यह संधि लंबी वार्ताओं के बाद राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन और मिखाइल गोर्वाच्योफ के बीच हुई थी। इस संधि के मुताबिक 300 से 3000 मील तक मार करनेवाले परमाणु प्रक्षेपास्त्रों पर प्रतिबंध लगाने की बात मानी गई थी। अब ट्रंप का कहना है कि इस संधि की आड़ में रुस और चीन ने कई प्रक्षेपास्त्र चुपचाप बना लिये हैं और अमेरिका पिछड़ गया है। अमेरिका इस धोखाधड़ी के खिलाफ डटकर लड़ेगा। यदि रुस जमीन से मार करनेवाले नोवातोर मिसाइल बनाना बंद नहीं करेगा तो हम इस संधि को कूड़ेदान के हवाले करेंगे और हर तरह के प्रक्षेपास्त्र बनाना शुरु कर देंगे। अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जाॅन बोल्टन ने मास्को पहुंचकर भी इसी तरह का बयान दिया है लेकिन रुसी सरकार के प्रवक्ता का कहना है कि अमेरिकी सरकार को गलतफहमी हो गई है। इस तरह के कोई मिसाइल नहीं बनाए गए हैं। इस मामले में जल्दबाजी की बजाय धीरज से काम लिया जाना चाहिए। ट्रंप को चाहिए था कि खुली बयानबाजी करने की बजाय वे रुस को राजी करते और अंतरराष्ट्रीय निगरानी बिठाते। उसके बाद जो भी कार्रवाई जरुरी होती, वह करते लेकिन इस तरह से गीदड़भभकियां देना और गुर्राना ट्रंप को मसखरा बना देता है। बिल्कुल ऐसी ही नौटंकी उन्होंने पहले उत्तर कोरिया के साथ की और आजकल सउदी अरब के साथ कर रहे हैं। सउदी अरब की सरकार ने ट्रंप को ईंट का जवाब पत्थर से दिया है। जमाल खाशोगी की हत्या पर ट्रंप ने सउदी अरब को सख्त कार्रवाई की धमकी दी तो सउदी सरकार ने कहा कि वह अमेरिका के खिलाफ सख्त से भी ज्यादा सख्त कार्रवाई करेगा। ट्रंप के सारे आंटे ढीले पड़ गए। ट्रंप बोल पड़े कि वे सउदी अरब के खिलाफ कार्रवाई करके अमेरिकी हथियारों के 110 बिलियन डॉलर के सौदे को खतरे में नहीं डाल सकते। 10 लाख अमेरिकियों को नौकरी से वंचित नहीं कर सकते। अगर नहीं कर सकते तो फिर हर बार वे अपना शेख चिल्लीपन क्यों दिखा डालते हैं ? अब तो साफ जाहिर हो गया है कि इस्तांबूल के सउदी दूतावास में खाशोगी को किसने मरवाया है। अब भी ट्रंप जबानी जमा-खर्च करते रहे तो उन्हें महान अंतरराष्ट्रीय विदूषक की उपाधि से विभूषित करना होगा।
हिंदी बहन है, मालकिन नहीं : वैंकय्या
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
उप-राष्ट्रपति वैंकय्या ने हिंदी के बारे में ऐसी बात कह दी है, जिसे कहने की हिम्मत महर्षि दयानंद, महात्मा गांधी और डाॅ. राममनोहर लोहिया में ही थी। वैंकय्याजी ने कहा कि ‘‘अंग्रेजी एक भयंकर बीमारी है, जिसे अंग्रेज छोड़ गए हैं।’’ अंग्रेजी का स्थान हिंदी को मिलना चाहिए, जो कि ‘‘भारत को सामाजिक-राजनीतिक और भाषायिक दृष्टि से जोड़नेवाली भाषा है।’’ वैंकय्या नायडू के इस बयान ने भारत के अंग्रेजीदासों के दिमाग में खलबली मचा दी है। कई अंग्रेजी अखबारों और टीवी चैनलों ने वैंकय्या को आड़े हाथों लिया है। अब भी उनके खिलाफ अंग्रेजी अखबारों में लेख निकलते जा रहे हैं ? क्यों हो रहा है, ऐसा ? क्योंकि उन्होंने देश के सबसे खुर्राट, चालाक और ताकतवर तबके की दुखती रग पर उंगली रख दी है। यह तबका उन पर ‘हिंदी साम्राज्यवाद ’ का आरोप लगा रहा है और उनके विरुद्ध उल्टे-सीधे तर्कों का अंबार लगा रहा है। नायडू ने यह तो नहीं कहा कि अंग्रेजी में अनुसंधान बंद कर दो, अंग्रेजी में विदेश नीति या विदेश-व्यापार मत चलाओ या अंग्रेजी में उपलब्ध ज्ञान-विज्ञान का बहिष्कार करो। उन्होंने तो सिर्फ इतना कहा है कि देश की शिक्षा, चिकित्सा, न्याय प्रशासन आदि जनता की जुबान में चलना चाहिए। भारत लोकतंत्र है लेकिन लोक की भाषा कहां है ? उसे बिठा रखा है पदासान पर और अंग्रेजी को बिठा रखा है, सिंहासन पर ! वे अंग्रेजी का नहीं, उसके वर्चस्व का विरोध कर रहे थे। यदि भारत के पांच-दस लाख छात्र अंग्रेजी को अन्य विदेशी भाषाओं की तरह सीखें और बहुत अच्छी तरह सीखें तो उसका स्वागत है लेकिन 20-25 करोड़ छात्रों के गले में उसे पत्थर की तरह लटका दिया जाए तो क्या होगा ? वे रट्टू-तोते बन जाएंगे, उनकी मौलिकता नष्ट हो जाएगी, वे नकलची बन जाएंगे। सत्तर साल से भारत में यही हो रहा है। अंग्रेजी की जगह शिक्षा, चिकित्सा, कानून, प्रशासन और व्यापार आदि में भारतीय भाषाएं लाने को ‘‘हिंदी साम्राज्यवाद’ कहना अंग्रेजी की गुलामी के अलावा क्या है ? अंग्रेजी को बनाए रखने के लिए हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं से लड़ाना जरुरी है। अंग्रेजी की तरह हिंदी अन्य भाषाओं को दबाने नहीं, उन्हें उठाने की भूमिका निभाएगी। वह अन्य भाषाओं की भगिनी-भाषा है, बहन है, मालकिन नहीं। ऐसा ही है। तभी तो तेलुगुभाषी वैंकय्या नायडू ने इतना साहसिक बयान दिया है। हमारे तथाकथित राष्ट्रवादी संगठनों और नेताओं को वैंकय्याजी से कुछ सबक लेना चाहिए।
झूठ और फरेब के सहारे राजनीति चमकाने का गंदा खेल
डॉ हिदायत अहमद खान
यह वह राजनीतिक दौर है जिसमें आप जितनी तेजी से और विश्वास के साथ जितना ज्यादा झूठ बोलेंगे उतना ही ज्यादा स्थापित होते चले जाएंगे। मतलब सच की जगह झूठ को स्थापित करने का दौर चल रहा है। इसलिए बहुप्रचलित मुहाबरे और लोकोक्तियां भी अब अपना या तो अर्थ खो रहे हैं या फिर उन्हें पूरी तरह से पलट कर रख दिया गया है। यदि यकीन नहीं आता तो ‘सच्चे का बोलबाला और झूठे का मुंह काला’ वाले मुहाबरे को ही ले लें तो आप पाएंगे कि यहां तो ‘झूठ का बोलबाला और सच्चे का मुंह काला’ हो रहा है। जिसे देखिए वही झूठ और फरेब के पीछे भाग रहे हैं। इसे लेकर भी राजनीति चमक सकती है, क्योंकि कोई किसी से कमतर नहीं है। भाजपा कहती है कि इस तरह की भाषा का इस्तेमाल कांग्रेस करती आई है और कांग्रेस कहती है कि झूठ का व्यापार करने की जिम्मेदारी भाजपा के पास है और वह इसे बखूबी कर रही है, जिसकी वजह से आज वो केंद्र तक में पहुंच गई है। अब सवाल यह उठता है कि आखिर कौन किस बात को लेकर कितना झूठ बोल रहा है और लोग उसे कितना सच मानकर अपना रहे हैं। वैसे भाजपा के झूठ से कांग्रेस खासी परेशान है। इसलिए वह बचाव के साथ ही साथ लगातार हमले करने को मजबूर है। कांग्रेस ऐसा करे भी क्यों ना, आखिर उसकी विरासत को हथियाने का दुस्साहस जो किया जा रहा है। गौरतलब है कि कांग्रेस ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस और आजादी की लड़ाई की विरासत हथियाने का प्रयास करने का गंभीर आरोप लगाया है। इससे पहले प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस पर निशाना साधते हुए कहा था कि एक परिवार को आगे बढ़ाने के लिए महापुरुषों की अनदेखी की गई है। चूंकि आजाद हिंद सरकार के गठन के 75 साल पूरे होने के मौके पर लाल किले में आयोजित कार्यक्रम को प्रधानमंत्री मोदी संबोधित कर रहे थे, अत: उन्होंने यहां पर भी कांग्रेस पर निशाना साधना अपना धर्म समझा और यहां तक कह दिया कि कांग्रेस ने नेताजी की अनदेखी की है। इस आरोप को खारिज करने और हकीकत को बयां करने के लिए जरुरी है कि इतिहास पर नजर दौड़ाई जाए, जिससे दूध का दूध और पानी का पानी हो सके, लेकिन सवाल यही है कि आखिर सच सुनने को तैयार कौन है। यहां तो जिसे देखिए वही झूठ के पर लगाए आसमान की ऊचाइयां नापने को बेताब नजर आ रहा है। फिर भी सच के अनवेषी बनने का काम कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मनु अभिषेक सिंघवी करते देखे गए, जिन्होंने पत्रकारों को बुलाकर बकायदा यह बताने का प्रयास किया कि नेताजी के मामले में प्रधानमंत्री मोदी जी लाल किले से गलत बयानी कर रहे हैं। अब चूंकि इस बात को लेकर राजनीति ही करनी है तो दोनों ओर से अपनी बातों पर नमक-मिर्च लगाने का काम भी बहुतायत में हुआ है। मसालेदार और चटखारेदार भाषा का इस्तेमाल करते हुए बताया जा रहा है कि किस तरह से प्रधानमंत्री मोदी ने नेताजी के नारे ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ को बदलकर ‘तुम मुझे खून-पसीना दो, मैं तुम्हें भाषण दूंगा’ कर दिया है। बकौल सिंघवी राष्ट्रीय आंदोलन में भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा वाले लोगों का योगदान रत्तीभर भी नहीं रहा है, बल्कि सच बात तो यह है कि कई अवसरों पर उन्होंने ब्रिटिश शासन का साथ दिया। ऐसे में नेताजी को याद करना और फिर कांग्रेस पर हमले करना इस बात का सबूत है कि प्रधानमंत्री मोदी जी राष्ट्रीय आंदोलन की विरासत पर कब्जा करना चाहते हैं, इसलिए उन्होंने नेताजी सुभाषचंद्र बोस और सरदार वल्लभभाई पटेल और अन्य राष्ट्रीय नेताओं का गलत संदर्भों में लगातार इस्तेमाल कर रहे हैं। इस बात में इसलिए भी दम है क्योंकि नरम दल और गरम दल कांग्रेस की ही दो शाखाएं थीं और खास बात यह है कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ही थे जिन्होंने लाल किले की प्राचीर से दिए गए अपने पहले भाषण में नेताजी को याद किया और यही नहीं बल्कि यह याद रखना होगा कि आजाद हिंद फौज का मुकदमा पंडित नेहरु ने ही लड़ा था। इस प्रकार देखा जाए तो सच्चे नेताओं और जिम्मेदार लोगों ने खामोशी से काम किया दिखावा नहीं किया और न ही शोर-शराबा ही किया, क्योंकि उन्हें तो सच को स्थापित करना था, जबकि अब इस दौर में सच को झुठलाने और असत्य को स्थापित करने में लगे तथाकथित नेताओं और जिम्मेदार पदों पर विराजमान लोगों ने चीखने की शैली अपना रखी है, ताकि उनके झूठ को पकड़ा नहीं जा सके और उसे ही सच मानकर लोग उनके पीछे चलते रहें। इसलिए अब कांग्रेस को अपनी सुनहरी और बेशकीमती विरासत की याद हो आई और बताया जा रहा है कि कुछ लोग उसे हथियाने का प्रयास कर रहे हैं। यदि यह सच है तो कांग्रेस को एक बार फिर अपने उसूलों, कायदे-कानूनों और परंपराओं की ओर लौटना होगा, क्योंकि जब आप घर छोड़कर अन्यत्र चल देते हैं और आपके वापस आने की उम्मीदें भी न के बतौर हो जाती हैं तो उस पर चोरों का कब्जा हो जाता है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता है, इसलिए यदि वाकई कांग्रेस कहती है कि नेताजी उनकी विरासत में शामिल हैं तो उन्हें आगे बढ़ाया जाना चाहिए और एक उच्च आदर्शवादी व्यक्तित्व पर यूं ओछी राजनीति कतई पसंद नहीं की जाएगी, फिर चाहे वह भाजपा हो या कांग्रेस। नेताजी देशवासियों के दिलों में बसते हैं, क्योंकि उन्होंने देश की आजादी के लिए जो कुछ किया वो कोई दूसरा कर ही नहीं सकता था।
जनता कैसे कहे मी टू और कहां दर्ज कराए रिपोर्ट?
ओमप्रकाश मेहता
‘मी-टू’ के इस दौर में पिछले सत्तर सालों से हर तरीके से प्रताड़ित देश की अबला जनता अब अत्याचारी (राजनेताओं) से ही पूछ रही है कि वह अपने साथ ज्यादती की रिपोर्ट कहां जाकर दर्ज कराये? या बिना किसी कोर्ट, वकील या जिरह के खुली अदालत (चुनाव) में अत्याचारियों को सजा सुना दे? साथ ही पीड़ित जनता की यह भी सोच है कि किसी एक ही वर्ग या दल के तो शोषक अत्याचारी है नहीं, इसलिए उसे धीरज रखकर कई किश्तों (कई चुनावों) में सजा सुनाने का काम करना पड़ेगा। और इसी कारण अब देश की निरीह जनता को न सिर्फ राजनीति बल्कि प्रजातंत्र की व्यवस्था से ही विश्वास खत्म हो गया है, उसे (जनता) को ऐसा लगता है जैसे चुनाव जीतने के बाद देश सेवा की नहीं बल्कि जनता पर अत्याचार करने की ही शपथ ली जाती है, क्योंकि अब सत्तर सालों में देश में ‘प्रजा’ का ‘तंत्र’ नहीं ‘‘राजनेता तंत्र’’ स्थापित हो गया है, जिसने सत्ता का संकल्प ही बदल कर रख दिया है, पहले सत्ता प्राप्ति के समय जनसेवा का संकल्प या शपथ ली जाती थी, किंतु अब शपथ के बाद जन शोषण के तरीकों पर शोध की जाती है और नए-नए तरीके खोज कर जनता को शोषित किया जाता है, हर पांच साल में एक बार राजनेता जनता के पास वोट प्राप्ति की अपनी गरज से जाता है और उसके बाद पांच साल तक प्रजा या जनता खुद प्रताड़ित होने के लिए राजनेताओं के पास जाती है।
अब ‘प्रजातंत्र को ‘राजतंत्र’ में बदलने के लिए मूलतः दोषी कौन है? यह तो नहीं कहा जा सकता, संभव है अंग्रेजों से जिस दल ने सत्ता छीनी, वहीं उसकी मूल दोषी हो? क्योंकि देश पर राज करने का तरीका तो उस दल के नेताओं ने अंगे्रजों से ही सीखा था, और शायद इसी आशंका के चलते देश की आजादी का लक्ष्य पूरा हो जाने के बाद राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कांग्रेस को भंग या खत्म करने की राय दी थी, क्या किया जाए बूढ़े और वरिष्ठ राजनेताओं की सही बात नहीं सुनने और उनकी उपेक्षा करने की परम्परा तो हमारे यहां गांधी से लेकर अड़वानी तक चली आ रही है और हर जाने वाली पीढ़ी अपनी आने वाली पीढ़ी को यही वसीयत में देकर जा रही है, इसलिए आज के राजनेताओं का भी कुछ वर्षों बाद यही हश्र होना है, जो गांधी से लेकर अड़वानी तक हुआ।
हाँ, तो चर्चा की शुरूआत ‘मी-टू’ से हुई थी, इस ‘मी-टू’ ने तो ‘प्याज’ का रूप अख्तियार कर लिया है, प्रतिदिन इसके छिलके निकलते ही जा रहे है और ज्यौं-ज्यौं छिलके निकलते है, देश की चिंतित जनता की आंखों में अविरल अश्रुधार बहने लगती है, और चाहे इस अश्रुधार के दोषी जिन रूलाने वाले ‘प्याज’ को खुद रोना चाहिये वे बड़ी बेशर्मी से मुस्कुरा रहे है। उनमें लोक लाज या शरम जैसी कोई बात है ही नहीं? खैर, अभी तो यह प्याज से छिलकों की निकलने की शुरूआत भर है, अभी तो राजनीति को छोड़ अन्य (पूर्व या वर्तमान दिग्गज पत्रकारों या बाॅलीवुड के कलाकारों) के ‘प्याज’ के छिलके निकलना शुरू ही हुए है, ‘कट्ठू’ के आकार वाले राजनीति के प्याज के छिलके निकलना अभी शेष है, धीरज रखिये ये सबसे बड़े आकार के प्याज भी इस दौर में सुरक्षित नहीं रह पाएगें और जिस दिन इन प्याजों के छिलके निकलना शुरू होंगे, पूरे देश की अब तक प्रताड़ित जनता ही शिकायत करने वाली होगी और खुली कोर्ट (आज चुनाव) के सामने ये मूंह दिखाने लायक भी नहीं रहेंगे। क्योंकि यह सिलसिला पिछले सत्तर सालों से चल रहा है।
मूलतः इस लम्बी जिरह का खास मकसद यही है कि देश में ‘मी-टू’ के माध्यम से जो चरित्र हनन का अभियान शुरू हुआ है, यह किसी ‘खास’ तक सीमित नहीं रहेगा, देश की जनता जो हर तरीके से ‘बलात्कार’ से पीड़ित रही है, वह भी इस ‘मी-टू’ को शिकायत करने वालों में अब शामिल होने जा रही है, क्योंकि अब अगले छः महीने के लिए ‘खुली कोर्ट’ (चुनाव) शुरू होने वाले है, जिसमें पीड़िता खुद अत्याचारियों को दण्डित करेगी।
शहीद जो भुलाए नहीं भूलते
ओ.पी. गल्होत्रा
राजस्थान की वीर धरा अपनी आन-बान और शान के साथ ही मातृभूमि की रक्षा के लिये सर्वस्व समर्पण करने के लिये विख्यात रही है। शौर्य के पुण्य प्रतीक महाराणा प्रताप जैसे वीर और पराक्रमी राजस्थान के वीर सपूत अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिये अपने प्राणों की आहूति देने में कभी पीछे नहीं रहे। प्राचीन ओर मध्य काल में ही नही वरन वर्तमान समय में भी राजस्थान के वीर सपूत अपनी गौरवशाली और वीरतापूर्ण परम्पराओं के साथ रक्षाबलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
आजादी के बाद देश की 563 रियासतों का एकीकरण कर विभिन्न राज्य बने और इसी क्रम में राजस्थान का गठन हुआ। यहां की रियासतों के विलय के साथ ही उनके पुलिस बलों को मिलाकर राजस्थान पुलिस की स्थापना की गई। पुलिस महानिरीक्षक श्री आर बनजब ने 7 अप्रैल 1949 को राजस्थान पुलिस के मुखिया का पदभार संभाला तथा जनवरी 1951 में राजस्थान पुलिस सेवा का गठन किया गया।
राजस्थान के बहादुर पुलिस अधिकारियों ने सदैव अपने कर्तव्यों और दायित्वों का ज़िम्मेदारी से निर्वहन कर अपनी गौरवशाली परमपराओं को निरन्तर आगे बढाया है। राजस्थान पुलिस के अनेक पराक्रमी पुलिसकर्मियों ने राष्ट्र और समाज की रक्षा के लिये अपनी कुरबानी दी है।
भारतीय पुलिस के 10 जवानों की एक छोटी टुकड़ी ने आज से लगभग 59 वर्ष पूर्व 21 अक्टूबर 1959 को लद्दाख के दुर्गम क्षेत्र हॉट स्प्रिंग्स में चीनी सेना से मातृभूमि की रक्षा करते हुए अपने प्राण न्यौछावर कर दिये थे। इन दिवंगत शूरवीरों की स्मृति में प्रति वर्ष 21 अक्टूबर को देश भर में पुलिस शहीद दिवस का आयोजन कर उन्हें श्रृद्धान्जलि अर्पित की जाती है।
राजस्थान के पुलिसकर्मियों ने भी अनेक अवसरो पर देश और समाज की रक्षा के लिये अपनी शहादत दी है। बीएसएफ के गठन से पूर्व राजस्थान से लगती देश की सीमाओं की रक्षा करने की जिम्मेदारी आरएसी की थी। राजस्थान पुलिस की आरएसी की 7वीं बटालियन का मुख्यालय जोधपुर में था और इस बटालियन की कई कंपनियां भारत-पाक सीमा पर तैनात थी।
पाकिस्तान की सेनाओं ने 1965 में भारत पर हमला कर जैसलमेर से भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ की। थल और वायु सेना के उस क्षेत्र से काफी दूरी पर होने के कारण आरएसी के समक्ष शत्रु सेना से राष्ट्र के स्वाभिमान की रक्षा करने की कठिन चुनौती उत्पन्न हो गई। पैंटन टैंक, संरक्षित वाहन और भारी तोपखाने के साथ हजारों की संख्या में आये पाकिस्तान सैनिकों का मुकाबला करने के लिए सीमित कारतूस व 303 राइफलों के साथ आरएसी की केवल एक सेक्शन मौजूद थी। इस स्थिति में आरएसी कर्मियों के लिये मौके से भागकर अपना जीवन बचाने का विकल्प था, लेकिन उन्होंने साहस और बहादुरी के साथ दुश्मन का सामना कर पाकिस्तानी सेना को चौंका दिया। पाकिस्तानी सेना ने अपनी आर्टिलेरी द्वारा तेजी से फायरिंग शुरू कर दी लेकिन आरएसी कर्मियों ने शहादत की मिसाल कायम की। उन्होंने आखरी सांस तक “भारत माता की जय” और “आरएसी अमर रहे“ के नारे लगाते हुए पाकिस्तानी सेना से लड़ना जारी रखा।
देश भक्ति और साहस का परिचय देकर 13 सितमबर 1965 को शहीद होने वाले इन अमर शहीदों में हैड कॉन्स्टेबल सर्वश्री उमापति, समुन्दर सिंह व जगत सिंह तथा कॉन्स्टेबल सोहन सिंह, .पाल सिंह, बुद्ध सिंह, लेख राम, पेमा राम व सुजान सिंह शामिल थे।
देश के सम्मान की रक्षा करते हुए पुलिस कर्मियों के सर्वोच्च बलिदान की यह अत्यन्त दुर्लभ घटनाओं में से एक है। उनके बलिदान ने आरएसी और राजस्थान पुलिस के इतिहास में शौर्य ओर पराक्रम का एक गौरवपूर्ण अध्याय जोड़ा है। उनका यह बलिदान समस्त पुलिस कर्मियों को मातृभूमि की रक्षा और सर्वस्व समर्पण के साथ ज़िम्मेदारी निभाने के लिये प्रेरित करता है।
आरएसी ने अपनी बहादुरी का परिचय राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा के साथ ही आंतरिक सुरक्षा चुनौतियों से निपटने में भी दिया है। तत्कालीन समय में डकैती के लिये कुख्यात धौलपुर में तैनात आरएसी की पहली बटालियन ने डकैतों की चुनौतियों का बहादुरी से सामना किया। वर्ष 1965 में ठिठुरती ठण्ड के दौरान आरएसी को डकैतों द्वारा गांवों को लूटने की सूचना मिलते ही आरएसी कर्मियों ने अपनी 303 राइफलों के साथ घुप अंधेरे में डकैतों की तलाश प्रारम्भ कर दी। बीहडों के बीच अचानक टीलों पर छुपकर बैठे डकैतों ने गोलियों की बौछार कर दी। इससे आरएसी का एक जवान शहीद हो गया लेकिन शेष जवानों ने सतर्कता व सावधानी से पोजीशन ली और क्रूर डकैतों की चुनौती का जवाब दिया।
धोलपुर जिले के थोर ग्राम में 18 घंटों की लगातार फायरिंग के बाद कई डकैतों की मौत हो गई और गिरोहों को मिटा दिया गया। बर्बर डकैतों से नागरिकों और संपत्ति की रक्षा करने के लिये प्लाटून कमांडर श्री हनुमान सिंह, हैड कॉन्स्टेबल श्री डूंगर राम, कॉन्स्टेबल सर्वश्री चन्दरसिंह, जसवंत सिंह,मांगी लाल,मुरारी लाल, तेजपाल सिंह व बेजू राम ने 2 दिसम्बर 1965 को अपना सर्वस्व त्याग कर दिया।
राजस्थान पुलिस के जवानों ने जान-माल की रक्षा करने के लिये अनेक अवसरों पर त्याग और बलिदान का उदाहरण प्रस्तुत किया है। विगत दिनों 6 अक्टूबर को सीकर जिले के फतेहपुर थानाधिकारी श्री मुकेश कानूनगो और कॉन्स्टेबल श्री रामप्रकाश बदमाशों की गोलियों का शिकार हो गये।
हम सब प्रदेशवासियों और विशेष रूप से राजस्थान पुलिस को अपने अमर शहीदों की शहादत पर गर्व है। पुलिस शहीद दिवस के अवसर पर हम समस्त शहीद पुलिसकर्मियों को सादर नमन करते है एवं उनके परिजनों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते है।
(लेखक राजस्थान के पुलिस महानिदेशक है।)
चौथे स्तंभ की ‘अकबर’ शैली
निर्मल रानी
वामपंथियों द्वारा छेड़े गए ‘प्त मी टू’ अभियान का शिकार बने विदेश राज्य मंत्री मुबाशर जावेद अकबर जिन्हें भारतीय पत्रकारिता जगत में एम जे अकबर के नाम से जाना जाता है, ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया है। उनपर लगभग 20 महिलाओं द्वारा जिनमें अधिकांश पत्रकारिता जगत से जुड़ी महिलाएं हैं, ने यौन शोषण का आरोप लगाया है। बड़े आश्चर्य की बात है कि जिस व्यक्ति पर शिक्षित व समाज एवं पत्रकारिता जगत में आदर व सम्मान रखने वाली एक दो नहीं बल्कि लगभग 20 महिलाओं ने अपने साथ होने वाले यौन उत्पीडऩ का आरोप लगाया हो वह व्यक्ति स्वयं को बेगुनाह बताने की कोशिश करता देखा गया। परंतु आरोपों के लगने के बाद लगभग एक पखवाड़े तक की गई आनाकानी के बाद पिछले दिनों नरेंद्र मोदी सरकार के इस ‘अय्याश’ मंत्री को आखिरकार इस्तीफा देना ही पड़ा। मज़े की बात तो यह है कि इतनी महिलाओं द्वारा एक साथ आरोप लगाने के बावजूद यह मंत्री स्वयं को बेगुनाह बताने की कोशिश कर रहा है। और अपनी इसी कोशिश के तहत अकबर ने इनमें से एक भुक्तभोगी महिला पत्रकार प्रिया रमानी के विरुद्ध अपराधिक मानहानि का मुकद्दमा भी दायर कर दिया है। अकबर ने केवल अपने देश की उदीयमान युवा महिला पत्रकारों पर ही ‘हाथ साफ’ करने की कोशिश नहीं की बल्कि विदेशी महिला पत्रकारों ने भी अकबर पर यौन दुव्र्यहार का आरोप लगाया। गोया एम जे अकबर पत्रकारिता जगत का एक अंतर्राष्ट्रीय अय्याश व व्याभिचारी व्यक्ति है जिसने अपने चेहरे पर बौद्धिकता का नकाब डाल कर पत्रकारिता जैसे पवित्र व जि़म्मेदाराना पेशे को कलंकित करने का काम किया है।
‘प्त मी टू’ अभियान को लेकर तरह-तरह की बातें की जा रही हैं। कुछ लोग इस मुहिम को सही बता रहे हैं तो कुछ का यह भी कहना है कि यौन शोषण का आरोप लगाने वाली महिलाएं आखिर इतने लंबे अंतराल के बाद ही अपना-अपना मुंह क्यों खोल रही हैं? यदि किसी महिला की किसी पुरुष के साथ कोई सहमति नहीं बनती तो वह महिला पहली बार छेड़छाड़ करते समय ही उसका विरोध क्यों नहीं करती? यह भी कहा जा रहा है कि अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए महिलाएं स्वयं परिस्थितियों से समझौता करते हुए रज़ामंदी के साथ यौन शोषण का शिकार हो जाती हैं। और परिस्थितियां व समय देखकर अपनी सुविधा के अनुसार किसी पुरुष पर आरोप मढ़ देती हैं। एक सवाल यह भी है कि क्या पत्रकारिता जगत में ‘अकबर महान’ ही सबसे बड़ा अय्याश व्यक्ति था? या फिर पत्रकारिता से जुड़ी और भी सैकड़ों महिलाएं अपने-अपने ‘अकबरों’ के जाल में फंसी हुई हैं? मिसाल के तौर पर कुछ वर्ष पूर्व देश के एक जाने-माने सत्ता समर्थक टीवी चैनल में काम करने वाली एक महिला पत्रकार ने न केवल अपने ऊपर यौन उत्पीडऩ किए जाने का आरोप टी वी चैनल के स्वामी पर लगाया था बल्कि यह तक कहा था कि उसे सत्ता से संबंधित अन्य विशिष्ट व्यक्तियों को ‘खुश’ करने के लिए भी दबाव डाला जाता था। उस महिला पत्रकार ने उस समय अपनी आवाज़ बुलंद करने की कोशिश भी की परंतु उसे अपनी नौकरी भी गंवानी पड़ी और उसका साथ देने व उसे न्याय दिलाने के लिए कोई उसके साथ खड़ा नहीं हुआ।
उधर पत्रकारिता जगत की एक और सनसनी समझी जाने वाली शिख्सयत तरूण तेजपाल अपने ऐसे ही कर्मों की सज़ा भुगत रहा है। एक ओर साफ-सुथरी छवि रखने वाले ईमानदार पत्रकार विनोद दुआ का नाम भी ऐसे ही ‘रसिया पत्रकारों’ की सूची में आ गया है। ऐसे में सवाल यह है कि क्या देश के लोकतंत्र की रक्षा करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का दावा करने वाला स्वयंभू चौथा स्तंभ इन चंद नामों के उजागर या बदनाम होने के बाद अब साफ-सुथरा हो जाएगा? इस क्षेत्र में और भी न जाने कितने ‘अकबर’ तो अभी भी भरे पड़े हैं परंतु क्या यौन उत्पीडऩ का शिकार सभी महिलाएं प्रिया रमानी, गज़ाला वहाब, सबा नकवी या माजली कैंप जैसी हिम्मत दिखाने का साहस कर सकेंगी? या फिर ‘प्त मी टू’ जैसा अभियान प्रत्येक वर्ष दो वर्ष बाद छेड़े जाने की ज़रूरत है? इस अभियान में जिस प्रकार के गंभीर व बौद्धिकता का आवरण डाले लोगों के असली चेहरे सामने आ रहे हैं उससे यह भी स्पष्ट हो गया है कि पत्रकारिता जगत में भी ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ वाली स्थिति पैदा हो चुकी है। टीवी चैनल्स में तो खासतौर पर महिला प्रस्तोताओं का चयन ही उनकी सुंदरता, उनकी वार्ता शैली, आवाज़ व अंदाज़ को देखकर ही किया जाता है। हकीकत तो यह है कि आज भी सैकड़ों महिला पत्रकार अपने उज्जवल भविष्य को ध्यान में रखते हुए अपने चैनल के स्वामियों या उच्चाधिकारियों के जाल में फंसी हुई हैं।
समय के साथ-साथ पत्रकारिता जगत में भी ऐसी बदनामीपूर्ण स्थिति का पैदा होना भी स्वाभाविक प्रतीत होता है। क्योंकि बदलते समय के साथ लगभग सभी क्षेत्रों में नैतिकता व चरित्र का ज़बरदस्त ह्रास होता देखा जा रहा है। खासतौर पर हमारे देश में तो ऐसी-ऐसी सनसनीखेज़ घटनाएं सुनने को मिलती हैं जिनकी कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती। मिसाल के तौर पर जि़म्मेदार राजनीतिज्ञों व राजनैतिक दलों की प्रथम जि़म्मेदारी यही है कि वह देश को साफ-सुथरा, मज़बूत व पारदर्शी शासन दें, जनता का चहुंमुखी विकास व कल्याण हो तथा देश की एकता व अखंडता मज़बूती से बनी रहे। परंतु हकीकत में राजनीति छल-कपट, झूठ-मक्कारी, बेईमानी, सांप्रदायिकता व जातिवाद के सीने पर सवार होकर सत्ता हथियाने का माध्यम मात्र बनकर रह गई है। इसी प्रकार धर्म क्षेत्र में स्वयं को भगवान के रूप में पुजवाने की लालसा रखने वाले आसाराम, राम रहीम, रामपाल और न जाने कितने सफेदपोश कलंकी साधुवेश धारी जेल की सलाखों के पीछे पहुंच चुके हैं। यह लोग अब जेल में रहकर दूसरे लोगों को चरित्र निर्माण व नैतिकता का पाठ पढ़ाएंगे।
इस प्रकार के उदाहरण यही प्रमाणित करते हैं कि इस समय किसी भी क्षेत्र में चरित्र व नैतिकता की बात नहीं की जा सकती। क्योंकि जब मार्गदर्शक, गुरू तथा सरकार की आलोचना की जि़म्मेदारी उठाने वाला मीडिया व इसके जि़म्मेदार लोग ही स्वयं महिलाओं के यौन शोषण जैसे घृणित आरोपों का शिकार हो रहे हैं ऐसे में आखिर इस समाज को क्या अधिकार है कि वह दूसरों का मार्गदर्शन् करने की कोशिश करे? 67 वर्षीय एम जे अकबर के त्यागपत्र तथा ‘प्त मी टू’ अभियान से प्रोत्साहित होकर अपनी आपबीती सुनाने वाली महिला पत्रकारों ने निश्चित रूप से राहत की सांस तो ज़रूर ली है। परंतु यह सिलसिला एम जे अकबर के त्यागपत्र तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। बल्कि इस अभियान से जुड़कर उन सभी महिला पत्रकारों को अपने उन अय्याश व व्याभिचारी आकाओं के चेहरे से भी अय्याशी का नकाब हटा देना चाहिए। और यदि कोई भी महिला पत्रकार अपने उज्जवल भविष्य के बारे में सोचकर या पैसे अथवा शोहरत की लालच में अथवा किसी दूसरे दबाव के तहत स्वयं को समर्पित कर देती है और चंद वर्षों के बाद फिर किसी ‘प्त मी टू’ जैसे अभियान की प्रतीक्षा करती है तो ऐसा करना भी मुनासिब हरगिज़ नहीं है। अत: चौथे स्तंभ के जितने भी ‘अकबर’ शैली के पत्रकार हों उन सभी के नाम एक के बाद एक इसी मीडिया के माध्यम से उजागर किए जाने चाहिए। अन्यथा चौथे स्तंभ को अपनी निगरानी या आलोचना किए बिना दूसरों पर नज़र रखने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है।
कहां नेहरु और कहां मोदी ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
तीन मूर्ति के बंगले में जवाहरलाल नेहरु स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय है। इस संग्रहालय और पुस्तकालय को महत्वपूर्ण बनाने में मेरे साथी और अभिन्न मित्र स्व. डाॅ. हरिदेव शर्मा का विशेष योगदान है। वे डाॅ. लोहिया के अनन्य भक्त थे। जब तक वे जीवित रहे, वहां अक्सर मेरा जाना होता था। मेरे जैसे कुछ लोगों के सैकड़ों-हजारों पत्र और दस्तावेज भी वहां संकलित हैं। वहां नेहरुजी की स्मृति को चिरस्थायी बनाने की दृष्टि से अनेक कदम उठाए गए हैं। वह स्थान आधुनिक भारतीय इतिहास की धरोहर है। अब उसके नए निदेशक शक्ति सिन्हा ने एक अद्भुत और नया प्रस्ताव रखा है। अब 25 एकड़ के उस बंगले के शेष 23 एकड़ में देश के सभी प्रधानमंत्रियों के संग्रहालय बनाए जाएंगे। उसका शिलान्यास भी हो चुका है। यदि ये संग्रहालय बनाकर नेहरुजी का महत्व घटाने की कोशिश हो तो यह बहुत ही गलत होगा लेकिन यदि नेहरुजी की छत्रछाया में शेष सभी प्रधानमंत्रियों की स्मृति-रक्षा हो सके तो न सिर्फ नेहरुजी का एतिहासिक महत्व बढ़ जाएगा बल्कि तीन मूर्ति भवन की इस धरोहर में चार चांद लग जाएंगे। चार चांदों के नाम तो मैं आपको अभी गिना देता हूं। पहला, लालबहादुर शास्त्री, दूसरा, इंदिरा गांधी, तीसरा, नरसिंहराव और चौथा अटलबिहारी वाजपेयी। इन चारों के अलावा भी जो प्रधानमंत्री हुए हैं, उनमें से भी सबसे मेरा परिचय और घनिष्टता भी रही है। उनमें कई अदभुत गुण थे, जिन्हें आज के और भविष्य के नेताओं को सीखना चाहिए। वे सबको कैसे मालूम पड़ेंगे ? कौन बताएगा, उन्हें ? सभी प्रधानमंत्रियों के ऐसे गुणों पर हमें जोर देना चाहिए, जो भारत के लोकतंत्र को मजबूत बनाएं। जो कांग्रेसी नेता इस बहुआयामी संग्रहालय का विरोध कर रहे हैं, उन्हें डर यह है कि इस योजना के तहत कहीं नरेंद्र मोदी को नेहरु से भी बड़ा बनाकर पेश नहीं कर दिया जाए ? यह डर, यह शंका बिल्कुल निराधार है। कहां नेहरु और कहां नरेंद्र मोदी ? मोदी को बड़ा बनाकर ये लोग अपने आप को छोटा क्यों करेंगे ? मोदी का अब मुश्किल से एक साल बचा है। अगर यह साल भी वैसा ही निकल गया, जैसे पिछले चार साल निकले हैं तो जिन चार चांदों का मैंने ऊपर जिक्र किया है, उनकी पंक्ति में भी मोदी को बिठाना मुश्किल होगा। यदि इस आखिरी साल में कोई चमत्कारी काम हो गया तो मोदी तीन मूर्ति में बैठे न बैठे, मोदी की मूर्ति करोड़ों भारतीयों के दिल में जरुर बैठ जाएगी।
केवल पुरुषों को दोष देने से काम नहीं चलेगा
डॉ नीलम महेंद्र
पुरानी यादें हमेशा हसीन और खूबसूरत नहीं होती। मी टू कैम्पेन के जरिए आज जब देश में कुछ महिलाएं अपनी जिंदगी के पुराने अनुभव साझा कर रही हैं तो यह पल निश्चित ही कुछ पुरुषों के लिए उनकी नींदें उड़ाने वाले साबित हो रहे होंगे और कुछ अपनी सांसें थाम कर बैठे होंगे। इतिहास वर्तमान पर कैसे हावी हो जाता है मी टू से बेहतर उदाहरण शायद इसका कोई और नहीं हो सकता।
दरअसल इसकी शुरुआत 2006 में तराना बुरके नाम की एक 45 वर्षीय अफ्रीकन- अमेरिकन सामाजिक कार्यकर्ता ने की थी जब एक 13 साल की लड़की ने उन्हें बातचीत के दौरान बताया कि कैसे उसकी मां के एक मित्र ने उसका यौन शोषण किया। तब तराना बुरके यह समझ नहीं पा रही थीं कि वे इस बच्ची से क्या बोलें। लेकिन वो उस पल को नहीं भुला पाईं, जब वे कहना चाह रही थीं , “मी टू”, यानी “मैं भी”, लेकिन हिम्मत नहीं कर पाईं।
शायद इसीलिए उन्होंने इसी नाम से एक आंदोलन की शुरुआत की जिसके लिए वे 2017 में “टाइम परसन आफ द ईयर” सम्मान से सम्मानित भी की गईं।
हालांकि मी टू की शुरुआत 12 साल पहले हुई थी लेकिन इसने सुर्खियाँ बटोरी 2017 में जब 80 से अधिक महिलाओं ने हॉलीवुड प्रोड्यूसर हार्वे वाइंस्टीन पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया जिसके परिणामस्वरूप 25 मई 2018 को वे गिरफ्तार कर लिए गए।
और अब भारत में मी टू की शुरुआत करने का श्रेय पूर्व अभिनेत्री तनुश्री दत्ता को जाता है जिन्होंने 10 साल पुरानी एक घटना के लिए नाना पाटेकर पर यौन प्रताड़ना के आरोप लगाकर उन्हें कठघड़े में खड़ा कर दिया। इसके बाद तो “मी टू” के तहत रोज नए नाम सामने आने लगे। पूर्व पत्रकार और वर्तमान केंद्रीय मंत्री एम जे अकबर, अभिनेता आलोक नाथ, रजत कपूर, गायक कैलाश खेर, फिल्म प्रोड्यूसर विकास बहल, लेखक चेतन भगत, गुरसिमरन खंभा, फेहरिस्त काफी लम्बी है।
मी टू सभ्य समाज की उस पोल को खोल रहा है जहाँ एक सफल महिला, एक सफल और ताकतवर पुरुष पर आरोप लगा कर अपनी सफलता अथवा असफलता का श्रेय मी टू को दे रही है। यानी अगर वो आज सफल है तो इस “सफलता” के लिए उसे “बहुत समझौते” करने पड़े। और अगर वो आज असफल है, तो इसलिए क्योंकि उसने अपने संघर्ष के दिनों में “किसी प्रकार के समझौते” करने से मना कर दिया था।
यह बात सही है कि हमारा समाज पुरुष प्रधान है और एक महिला को अपने लिए किसी भी क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है।
लेकिन यह संघर्ष इसलिए नहीं होता कि ईश्वर ने उसे पुरुष के मुकाबले शारीरिक रूप से कमजोर बनाकर उसके साथ नाइंसाफी की है बल्कि इसलिए होता है कि पुरुष स्त्री के बारे में उसके शरीर से ऊपर उठकर कभी सोच ही नहीं पाता। लेकिन इसका पूरा दोष पुरुषों पर ही मढ़ दिया जाए तो यह पुरुष जाति के साथ भी नाइंसाफी ही होगी क्योंकि काफी हद तक महिला जाति स्वयं इसकी जिम्मेदार है।
इसलिए नहीं कि हर महिला ऐसा सोचती हैं कि वे केवल अपनी प्रतिभा और मेहनत के बल पर सफल नहीं हो सकतीं किन्तु इसलिए कि जो महिलाएँ बिना प्रतिभा के सफलता की सीढ़ियाँ आसानी से चढ़ जाती हैं वो इन्हें हताश कर देती हैं।
इसलिए नहीं कि एक भौतिक देह जीत जाती है बल्कि इसलिए कि एक बौद्धिक क्षमता हार जाती है।
इसलिए नहीं कि शारीरिक आकर्षण जीत जाता है बल्कि इसलिए कि हुनर और कौशल हार जाते हैं।
इसलिए नहीं कि योग्यता दिखाई नहीं देती बल्कि इसलिए कि देह से दृष्टि हट नहीं पाती।
आज जब मी टू के जरिए अनेक महिलाएं आगे आकर समाज का चेहरा बेनकाब कर रही हैं तो काफी हद तक कटघड़े में वे खुद भी हैं। क्योंकि सबसे पहली बात तो यह है कि आज इतने सालों बाद सोशल मीडिया पर जो “सच” कहा जा रहा है उससे किसे क्या हासिल होगा? अगर न्याय की बात करें तो सोशल मीडिया का बयान कोई सुबूत नहीं होता जो इन्हें न्याय दिला पाए या फिर आरोपी को कानूनी सज़ा। हाँ आरोपी को मीडिया ट्रायल और उससे उपजी मानसिक और सामाजिक प्रतिष्ठा की हानि की पीड़ा जरूर दी जा सकती है। लेकिन क्या ये महिलाएं जो सालों पहले अपने साथ हुए यौन अपराध और बलात्कार पर तब चुप रहीं इनका यह आचरण उचित है? नहीं, ये तब भी गलत थी और आज भी गलत हैं। क्योंकि कल जब उनके साथ किसी ने गलत आचरण किया था उनके पास दो रास्ते थे। उसके खिलाफ आवाज उठाने का या चुप रहने का, तब वो चुप रहीं।
आज भी उनके पास दो रास्ते थे, चुप रहने का या फिर मी टू की आवाज़ में आवाज़ मिलाने का, और उन्होंने अपनी आवाज उठाई। वो आज भी गलत हैं। क्योंकि सालों तक एक मुद्दे पर चुप रहने के बजाय अगर वो सही समय पर आवाज उठा लेतीं तो यह सिर्फ उनकी अपने लिए लड़ाई नहीं होती बल्कि हजारों लड़कियों के उस स्वाभिमान की रक्षा के लिए लड़ाई होती जो उन पुरुषों को दोबारा किसी और लड़की या महिला के साथ दुराचार करने से रोक देता लेकिन इनके चुप रहने ने उन पुरुषों का हौसला बढ़ा दिया। उस समय उनकी आवाज इस समाज में एक मधुर बदलाव ला सकती थी लेकिन आज जब वो आवाज़ उठा रही हैं तो वो केवल शोर बनकर सामने आ रही हैं। वो कल भी स्वार्थी थीं, वो आज भी स्वार्थी हैं। कल वो अपने भविष्य को संवारने के लिए चुप थीं आज शायद अपना वर्तमान संवारने के लिए बोल रही हैं। यहाँ यह समझना जरूरी है कि यह नहीं कहा जा रहा ये महिलाएँ गलत बोल रही हैं बल्कि यह कहा जा रहा है कि गलत समय पर पर बोल रही हैं। अगर सही समय पर ये आवाजें उठ गई होती तो शायद हमारे समाज का चेहरा आज इतना बदसूरत नहीं दिखाई देता। केवल पुरुषों को दोष देने से काम नहीं चलेगा। गीता में भी कहा गया है कि अन्याय सहना सबसे बड़ा अपराध है।
खाशोगी: ट्रंप की गीदड़भभकी
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सउदी अरब के प्रसिद्ध पत्रकार जमाल खाशोगी की हत्या का मामला अब गजब का तूल पकड़ रहा है। हर साल दर्जनों पत्रकारों की हत्या के मामले सामने आते हैं लेकिन वे उन देशों के आतंरिक मामले होते हैं। यह मामला तीन देशों के बीच का है। सउदी अरब, अमेरिका और तुर्की । तुर्की के शहर इस्तांबूल में सउदी वाणिज्य दूतावास है। खाशोगी इस दूतावास में अपने कानूनी कागजात लेने गए थे ताकि एक तुर्की महिला से उनकी शादी हो सके। उन्हें कागजात लेने के लिए जिस दिन बुलाया गया था (2 अक्तूबर), उस दिन उनकी मंगेतर भी उनके साथ गई हुई थी लेकिन वह घंटों इंतजार करती रही और खाशोगी बाहर ही नहीं आए। तुर्की सरकार का कहना है कि खाशोगी की तत्काल हत्या कर दी गई और उनके टुकड़े-टुकड़े करके फेंक दिए गए। इस पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा है कि यदि सउदी अरब की सरकार ने यह हत्या की है तो वे उसे कठोर सजा देंगे। ट्रंप ने ऐसा इसलिए कहा है कि खाशोगी आजकल सउदी अरब छोड़कर अमेरिका में रह रहे थे और ‘वाशिंगटन पोस्ट’ के लिए काम कर रहे थे। खाशोगी के मामले में यूरोपीय राष्ट्र भी काफी भन्नाए हुए हैं। खाशोगी और सउदी अरब के 33 वर्षीय शासक मोहम्मद बिन सलमान के बीच काफी दिनों से ठनी हुई थी। शाहजादे सलमान के खिलाफ खाशोगी जमकर लिखते रहे हैं। यमन में चल रहे सउदी सैन्य-अभियान, वहाबी ज्यादतियों और मिस्री-तख्ता-पलट आदि के खिलाफ लिखते हुए खाशोगी की कलम कभी कांपी नहीं। यदि उनकी हत्या के बारे में तुर्की का आरोप सही निकला तो शहजादे सलमान की इज्जत पैंदे में बैठ जाएगी, हालांकि इधर उन्होंने कई बहुत ही प्रगतिशील और साहसिक कदम उठाए हैं। लेकिन ट्रंप ने जो धमकी दी है, वह कोरी गीदड़भभकी दिखाई पड़ती है, क्योंकि अमेरिकी हथियारों की खरीद के लिए सउदी अरब ने 110 बिलियन डाॅलर का सौदा कर रखा है। ट्रंप ने खुद स्वीकार किया है कि यदि वे इस सौदे को रद्द कर देंगे तो अमेरिका के लगभग साढ़े चार लाख लोगों की नौकरियां खतरे में पड़ जाएंगी। सउदी अरब ने कहा है कि यदि अमेरिका कोई दुस्साहस करेगा तो उसका वह मुंहतोड़ जवाब देगा। जाहिर है कि बड़बोले ट्रंप अपने बच निकलने का रास्ता खोज निकाल ले जाएंगे।
‘बैष्णवजन’ पर आघात; कैसा होगा गाँधी का गुजरात….?
ओमप्रकाश मेहता
क्या आज राजनीति ईश्वर से भी बड़ी हो गई, अब तक कहा जाता रहा है कि ईश्वर का ‘घट मंे वास है’, किंतु राजनीति ने तो ईश्वर से भी अधिक आगे नम्बर मार लिया, इसका तो अच्छाई-बुराई, पाप-पुण्य, सत्कर्म-दुष्कर्म आदि सभी में प्रवेश हो गया और धन्य है वे हमारे कलियुगी कर्णधार जिन्होंने राजनीति को ईश्वर से भी अधिक सम्मान और महत्व देकर इसे ‘सर्वव्यापी’ बना दिया?
आज मैं बड़ा व्यथित होकर यह सब लिखने को मजबूर हो रहा हूँ, व्यथा और चिंता हमारे अपने भारत के भविष्य को लेकर है, आखिर दिल्ली दरबार से उच्चारित ‘सबका साथ-सबका विकास’ का नारा राष्ट्रªपिता महात्मका गांधी और लोहपुरूष वल्लभ भाई पटेल व हमारे प्रधानमंत्री जी की जन्मभूमि गुजरात में आकर विलुप्त कैसे हो गया? महाराष्ट्र में कुछ सालों पहले पैदा हुई ‘प्रांतवाद’ की आंधी ने गांधी के प्रदेश में कैसे प्रवेश कर लिया? आव-भगत व मनुहार के साथ स्वादिष्ट व्यंजन खिलाने वाले इस प्रदेश में आज क्षेत्रवाद का जहर बांटने की मजबूरी क्यों है? और फिर सबसे बड़े दुःख ही बात यह कि इस ‘जहरखुरानी’ को भी राजनीतिक चश्में से क्यों देखा जा रहा है?
हमारें संविधान में तो यही लिखा है कि कन्या कुमारी से कश्मीर तथा कटक से अटक तक भारत एक है, भारत के हर नागरिक को किसी भी प्रदेश में जाने-आने और अपने जीवन निर्वहन की पूरी स्वतंत्रता है, फिर उत्तर भारतीय से गुजराती के परहेज का यह नजारा क्यों? महाराष्ट्र में बिहारियों और असम में अन्य प्रदेशवासियों से यह नफरत क्यों? क्या अब देश की ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ की तमन्ना। इसी स्थान पर आकर आत्महत्या को मजबूर हो जाएगी?
……और सच पूछों तो यह अलगाववाद और क्षेत्रिय भावना सिर्फ हिन्दुस्तान या किसी देश विशेष तक सीमित नहीं रह गई है, अमेरिका में पिछले राष्ट्रपति चुनाव के समय मैं वहीं था, तब वहां राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी ट्रम्प ने देश के नौजवानों के वोट प्राप्त करने के लिए नारा ही यही दिया था कि ‘‘अमेरिका में रोजगार प्राप्त प्रवासी भारतीय युवाओं को देश से बाहर कर अमेरिका युवाओं को रोजगार दिया जाएगा।’’ और परिणामतः ट्रम्प की जीत में यह ‘ट्रम्प कार्ड’ ही काम आया। आज जब एक देश के राजनेता दूसरे देश के लोगों को प्रवेश पसंद नहीं कर रहे है तो फिर भारत के प्रान्तों मंे उन्ही विग्रही देशों के भक्त राजनेता यह सब होने दे रहे है तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है?
वास्तव में चिंता इस रोग से नुक्सान की उतनी नहीं है, जितनी कि इस रोग के ‘महारोग’ होने की? महाराष्ट्र में जन्मा यह ‘प्रान्तवाद’ का रोग अब ‘छूत’ के रोग में तब्दील हो गया है। महाराष्ट्र के बाद अब धीरे-धीरे इस रोग के खतरनाक जीवाणु देश के अधिकांश राज्यों में देखे जाने लगे है, गुजरात के बाद असम, फिर बंगाल, दक्षिण भारत भी इसकी चपेट में आते नजर आने लगे है, फिर ऐसा कतई नहीं है कि यह रोग सिर्फ क्षेत्रवाद में सिमट कर रह जाएगा, इस रोग में अब भाषा, धर्म, सम्प्रदाय के खतरनाक जीवाणु भी प्रवेश करने की तैयारी में है, फिर भारत सिर्फ नक्शें पर नहीं, धरातल पर भी उन्तीस भागों में बंटा नजर आएगा, तब पुराने आर्यावर्त और हिन्दुस्तान और हमारी आराध्या भारत माता का क्या होगा?
इसलिए इस रोग व इसके परिणामों को अभी से विस्तृत परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है, जिन खतरनाक जीवाणु को खत्म करने के लिए गुजरात के ही महापुरूषों ने विदेशों तक जाकर निर्णायक संघर्ष किया, क्या वहीं प्रदेश अब इन रोगों का ‘वाहक’ बनेगा?
परिहास में यह कहने के लिए ठीक है कि नरेन्द्र भाई मोदी भी राजनीतिक मजबूरीवश गुजरात छोड़ उत्तरप्रदेश की शरण में गए थे और संभव है इसी मजबूरी के कारण अब उन्हें उत्तरप्रदेश के काशी विश्वनाथ को छोड़ ओडिशा में भगवान जगन्नाथ की शरण में जाना पड़े, किंतु मोदी जी को राजनीति ने गुजराती राजनीति, भाषा, संस्कृति आदि छोड़ने को तो मजबूर नहीं किया, किंतु आज गुजरात के ही शांतिप्रिय और सुसंस्कृत निवासी गैर-गुजरातियों के साथ ऐसा निष्ठुर व्यवहार क्यों कर रहे है? क्या उत्तर भारतियों के गुजरात छुडवाने से बंद हुए गुजरात के उद्योगों के ताले वहां के नागरिक अपने बलबूते पर खोल पाऐंगे? क्या उत्तर भारयिों की गुजरातियों के बीच रची-बसी संस्कृति को गुजराती भुला पाएगें?
इसलिए समय की सबसे बड़ी आज की आवश्यकता यह है कि इस रोग पर तत्काल सख्ती से नियंत्रण किया जाना चाहिए, वर्ना यदि यह राष्ट्रव्यापी महारोग बनकर पूरे देश पर हावी हो गया तो हमारे एकात्मवाद और गांधी दर्शन का क्या होगा?
बुद्ध और कबीर की पुण्यभूमि में
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मेरे पिछले दो दिन ऐसे बीते, जो जीवन में हमेशा याद रहेंगे। मैंने महात्मा बुद्ध का जन्म स्थान, लुम्बिनी देखा। उनका परिनिर्वाण-स्थल कुशीनगर देखा। संत कबीर के निर्वाण स्थल मगहर के भी दर्शन किए। यहां के अत्यंत लोकप्रिय भाजपा सांसद श्री जगदंबिका पाल का निमंत्रण था कि बस्ती के प्रेस क्लब के नव-निर्वाचित पत्रकारों के समारोह में आप मुख्य अतिथि बनें। सो बन गया। बस्ती में पत्रकारों ने इतनी शालें उढ़ा दीं कि मैं दंग रह गया। महात्मा बुद्ध का जन्म लुम्बिनी में 2500 साल पहले हुआ था। तब यह स्थल भारत में ही था लेकिन अब नेपाल में है। मैं नेपाल कई बार गया लेकिन काठमांडो से लुम्बिनी का रास्ता 10 घंटे का है। किसी भी नेपाली प्रधानमंत्री या नरेश से मैं कहता तो वे हेलिकाॅप्टर या जहाज की व्यवस्था कर देते लेकिन मैं सदा संकोचग्रस्त ही रहा। जगदंबिकाजी ने इस बार सारी व्यवस्था कर दी। मैं चीन, जापान, कोरिया, श्रीलंका, भूटान, नेपाल, अफगानिस्तान और मध्य एशिया के राष्ट्रों में लगभग सभी बौद्ध क्षेत्रों को देख चुका हूं लेकिन लुम्बिनी और कुशीनगर में मुझे जो रोमांच हुआ, वैसा मुझे सिर्फ अजमेर में महर्षि दयानंद के कार्य-स्थल को देखकर हुआ था। इन दोनों महापुरुषों का कोई जोड़ीदार मुझे सारे विश्व में दिखाई नहीं पड़ता, हालांकि दोनों दार्शनिक दृष्टि से दो परस्पर विरोधी सिरों पर खड़े दिखाई पड़ते हैं। दर्शनशास्त्र के छात्र के नाते मैं आस्तिकवाद पर कितने ही गंभीर तर्क करता रहा लेकिन अब मुझे सृष्टि के निमित्त कारण (सृष्टिकर्ता) पर शक होने लगा है। ईसाइयों के एक विश्व सम्मेलन में मैंने बाइबिल के कथन से उल्टा यह भी कह दिया कि ईश्वर मनुष्यों का पिता नहीं है बल्कि मनुष्य ईश्वरों के पिता हैं। मनुष्यों को जैसा ईश्वर पसंद आता है, वैसा ही वे गढ़ लेते हैं। सृष्टि स्वचालित है। यह बुद्ध की दृष्टि है। बुद्ध आत्मा की अमरता, पुनर्जन्म और कर्मफल को मानते हैं। मैं सोचता हूं कि वे सृष्टिकर्ता को नहीं मानते हैं तो भी क्या फर्क पड़ता है ? उसकी जगह उनके भक्तों ने बुद्ध को ही भगवान मान लिया है। कबीर ने मगहर में प्राण त्यागे, क्योंकि वे इस अंधविश्वास को चुनौती देना चाहते थे कि जो काशी में मरे, वह स्वर्ग जाता है और जो मगहर में मरे, वह नरक जाता है। अगले जन्म में वह गधा बन जाता है। कबीर जैसे क्रांतिकारी चिंतक दुनिया में कितने हुए हैं ? कबीर के सैकड़ों दोहे मुझे बचपन से ही कंठस्थ हैं। कभी वे मेरी लालटेन बनते हैं, कभी मेरा कुतुबनुमा, कभी मेरी दूरबीन, कभी मेरी खुर्दबीन, कभी मेरा चश्मा, कभी मेरी बांसुरी, कभी मेरा मरहम और कभी मेरी ठंडाई !
राफेल सौदा: प्रधानमंत्री पर आरोप मढऩा क्या इतना आसान?
तनवीर जाफरी
यह और बात है कि अब तक भारत का कोई भी पूर्व प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार के अथवा किसी अन्य आरोप अथवा अपराध में जेल तो ज़रूर नहीं गया परंतु यह भी सच है कि हमारे देश के ‘क्रांतिकारी’ विपक्ष ने शायद ही देश के कुछ पूर्व प्रधानमंत्रियों को भ्रष्टाचार के आरोप से अछूता छोड़ा हो। स्वतंत्र भारत के प्रधानमंत्री बनते ही पंडित जवाहर लाल नेहरू के शासन में 1948 में भारत सरकार ने लंदन की एक कंपनी से दो हज़ार जीप खरीदने का सौदा किया था। इस सौदे को स्वयं पंडित नेहरू ने ही मंज़ूरी दी थी। उस समय 80 लाख रुपये में हुए इस सौदे के लगभग 9 महीने बाद लंदन से दो हज़ार जीप के बजाए केवल 144 जीप ही भारत पहुंची। शेष जीप कहां गई कुछ पता नहीं। और जो 144 जीप भारत आईं भी वे सौदे के समय तय किए गए मानक पर खरी नहीं उतरीं। उस समय इस सौदे में दिखाई दे रहे भ्रष्टाचार के छींटे ब्रिटेन में तत्कालीन भारतीय उच्चायुक्त वी के कृष्णा मेनन से लेकर पंडित नेहरू तक पर पड़े थे। यह मामला 6 वर्षों तक अदालतों में लटका रहा और अंतत: सबूतों के अभाव में अदालत ने इस मामले को खारिज करते हुए 1955 में हमेशा-हमेशा के लिए इस घोटाले की फाईलों को बंद कर दिया। न तो कोई पंडित नेहरू का बाल बांका कर सका न ही कृष्णा मेनन पर कोई आरोप साबित हुआ। बजाए इसके मेनन 1957 में पंडित नेहरू के मंत्रिमंडल में रक्षामंत्री के रूप में ज़रूर शामिल हो गए।
स्वतंत्र भारत का उपरोक्त घोटाला देश का पहला ऐसा घोटाला माना जाता है जो कथित रूप से उच्च स्तर पर सरकारी संरक्षण में किया गया। परंतु चूंकि इस घोटाले में कोई भी दोषी साबित नहीं हुआ और जनता का पैसा भी लुट गया ऐसे में निश्चित रूप से जनता इस सवाल के उत्तर से वंचित रह गई कि उसके टैक्स के पैसों पर आखिर किसी ने डाका डाला भी या नहीं और यदि डाला तो किसने डाला? यह हालात हमें इस निष्कर्ष पर भी पहुंचाते हैं कि किसी भी आरोप को साबित करने देने या न करने देने में सत्ता संरक्षण की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। सच को दबाना और झूठ को सच में बदलने की शक्ति निश्चित रूप से सत्ताधीशों में होती है। परंतु हमारे ही देश में कई बार ऐसा भी देखा गया है कि भ्रष्टाचार का मुद्दा विपक्ष द्वारा इतनी ज़ोरों से उठाया गया कि देश की सरकार को भी औंधे मुंह गिरना पड़ा। और कथित भ्रष्टाचार उजागर करने वाले दल आरोपी सत्ताधारी को सत्ता से नीचे उतारकर स्वयं सत्ताधीश बन बैठे। अब यहां पंडित नेहरू के कार्यकाल से ऐसे हालात की तुलना नहीं की जा सकती। क्योंकि यदि यह मान लिया जाए कि पंडित नेहरू ने स्वयं प्रधानमंत्री के पद पर रहने की वजह से जीप घोटाले की जांच व उससे संबंधित दस्तावेज प्रभावित किए होंगे फिर आखिर 1986 में जिस बोफोर्स सौदे को लेकर तत्कालीन राजीव गांधी सरकार पर बोफोर्स तोप सौदे में दलाली खाने का आरोप लगया गया था और वह आरोप भी कांग्रेस परिवार के ही विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा सबसे मुखरित होकर लगाया गया और इसी आरोप ने राजीव गांधी के विरुद्ध विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में विपक्ष ने इक_ा होकर जनता में राजीव गांधी की छवि को धूमिल करने की सामूहिक कोशिश की और इस कोशिश में विपक्ष सफल भी हुआ।
क्या तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को सबसे पहले उसी कथित बोफोर्स तोप दलाली की जांच कराकर दोषियों को जेल भेजकर यह प्रमाणित नहीं करना चाहिए था कि जो आरोप उनके द्वारा लगाए जा रहे थे वह सही थे? परंतु आज तक इस सौदे से संबंधित कोई भी व्यक्ति जेल नहीं भेजा गया। कमोबेश यही स्थिति उस 2जी घोटाले की भी रही जिसकी पीठ पर सवार होकर वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार सत्ता में आई है। अदालत ने 2जी के लगभग सभी आरोपियों को बरी कर दिया। इस उठापटक का नतीजा केवल यह निकला कि एक दल सत्ता से बाहर हो गया तथा आरोपों की ढोल बजाने वाले सत्ता पर काबिज़ हो गए। मोदी सरकार ने सत्ता में आने से पहले देश को अपराध मुक्त, भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने का वादा किया था। हालांकि केंद्र सरकार तथा भाजपा के प्रवक्ता अब भी यह दावा कर रहे हैं कि उनकी सरकार देश को भ्रष्टाचार मुक्त सरकार दे रही है। वे देशवासियों को अच्छे दिन की सौगात भी देने का दावा कर रहे हैं। परंतु इस समय कांग्रेस पार्टी द्वारा सत्तारूढ़ मोदी सरकार को भ्रष्टाचार के मामले में बोर्फार्स तथा 2 जी घोटाले से भी खतरनाक स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया गया है। स्वयं को पाक-साफ तथा भ्रष्टाचार मुक्त बताने वाली मोदी सरकार राफेल तोप सौदे में बुरी तरह उलझती जा रही है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी लोकसभा से लेकर नुक्कड़ सभाओं तक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सीधे तौर पर राफेल सौदे को प्रधानमंत्री के संरक्षण में की गई एक बड़ी लूट की संज्ञा दे रहे हैं। यहां तक राहुल गांधी द्वारा इतनेआत्मविश्वास के साथ ऐसे तर्क व तथ्य पेश किए जा रहे हैं जिससे मोदी सरकार बौखला उठी है।
राफेल सौदे के तरीकों, उसकी कीमत तथा विमान के रख-रखाव के लिए रिलायंस कंपनी का नाम प्रधानमंत्री द्वारा कथित रूप से सुझाने जैसे आरापे केवल राहुल गांधी द्वारा ही नहीं बल्कि भाजपा के अपने ही नेताओं व सहयोगियों यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्र सिन्हा, अरूण शौरी व वरिष्ठ वकीलों प्रशांत भूषण व कपिल सिब्बल द्वारा पर्याप्त दस्तावेज़ों के आधार पर लगाए जा रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस विषय में दिलचस्पी दिखानी शुरु कर दी है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राफेल विमान सौदे की विस्तृत जानकारी सीलबंद लिफाफे में मांगी गई तो दूसरी ओर अदालत की सक्रियता देखकर रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण अचानक ही फ्रांस जा पहुंची। रक्षामंत्री के इस अकस्मात फ्रांस दौरे पर भी विपक्ष ने निशाना साधा और इसे संदेहपूर्ण दौरा बताया। कांग्रेस इस सौदे की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति बनाए जाने की मांग कर रही है। परंतु सरकार जेपीसी बनाने से परहेज़ कर रही है। कांग्रेस जेपीसी न गठित किए जाने के मुद्दे पर भी सरकार पर हमलावर है और सरकार की नीयत पर संदेह कर रही है। राहुल गांधी बहुत ही तीखे शब्दों में प्रधानमंत्री मोदी पर हमलावर हैं। जगह-जगह वे कहते सुनाई दे रहे हैं कि-‘जनता के 30 हज़ार करोड़ रुपये देश के प्रधानमंत्री ने अनिल अंबानी की जेब में डाले हैं। प्रधानमंत्री ने कहा था कि मैं प्रधानमंत्री नहीं चौकीदार बनना चाहता हूं। अब पता चला है कि वे अंबानी के प्रधानमंत्री हैं हिंदुस्तान के नहीं। प्रधानमंत्री अनिल अंबानी की चौकीदारी कर रहे हैं’। उनका आरोप है कि ‘मोदी ने हिंदुस्तान की जनता का पैसा अंबानी की जेब में डाला’। वे यह भी सवाल कर रहे हैं कि ‘जो अनिल अंबानी खुद 45 हज़ार करोड़ रुपये के कर्ज में डूबा है उसी की मात्र दस दिन पहले खोली गई नाममात्र कंपनी को प्रधानमंत्री ने देश की जनता तथा वायुसेना का तीस हज़ार करोड़ रुपया कैसे उसकी जेब में डाल दिया’? ,
पिछले दिनों राहुल गांधी बंगलोर स्थित एचएएल कंपनी के उन कर्मचारियों के आंसू पोंछने भी जा पहुंचे जिनके मुंह से निवाला छीनकर कथित रूप से अंबानी को परोसा गया है। परंतु इस पूरी कवायद में एक बार फिर वही सवाल अपनी जगह बरकरार है कि क्या राफेल सौदे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गुनहगार साबित किया जा सकेगा? या फिर आरोपो-प्रत्यारोपों का यह सिलसिला भी जीप, बोफोर्स तथा 2जी जैसे तथाकथित घोटालों की ही तरह शोर-शराबे व आरोपों-प्रत्यारोपों का पर्याय बनकर ही रह जाएगा और देश की जनता एक बार फिर नेताओं की चतुराई के समक्ष स्वयं को असहाय व लाचार महसूस करती रह जाएगी?
मीटू ने दिशा बदली तो नींद हराम होना तय
डॉ हिदायत अहमद खान
हॉलीवुड के रास्ते बॉलीवुड में प्रवेश करने वाले मीटू ने तहलका मचा रखा है। इसके चलते जहां अनेक नामी-गिरामी हस्तियां, कलाकार और फिल्म निर्माता एवं निर्देशकों पर यौन शोषण के आरोप लग रहे हैं तो वहीं आरोपों के चलते अनेक प्रोजेक्ट भी इनके हाथों से निकलते दिखे हैं। यहां विचारणीय यह है कि सालों पुराने मामलों को जिस तरह से मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए उजागर किया जा रहा है, क्या वह उचित है, क्योंकि अब इस तरीके पर भी सवाल उठने लगे हैं। एक तरफ वो लोग हैं जो पीड़ित महिलाओं के पक्ष में बात कर रहे हैं तो दूसरी तरफ वो लोग भी दिख रहे हैं जो इस परिपाटी को गलत बता रहे हैं। कहने वाले कह रहे हैं यह तो भारतीय संस्कृति के खिलाफ है, यह परंपरा शुरु हो गई तो बहुत ही गलत होगा। अगर सब कुछ यूं ही चलता रहा तो शर्म और हया तो बचेगी नहीं उल्टा बेहयाई को ही सभ्य समाज की पहचान मान लिया जाएगा, जो कि आने वाली पीढ़ी के लिए बहुत ही दु:खदायी होगा। इसलिए जो लोग वर्षों पुरानी घटनाओं को लेकर जिस तरह कब्र खोदने का काम कर रहे हैं उन्हें बतलाने की आवश्यकता है कि इससे जो सड़ांध फैलेगी उसमें संपूर्ण समाज को श्वांस लेना भी दूभर हो जाएगा। इसलिए सड़ी-गली लाशों वाली कब्रों को खोदने की बजाय न्याय की खातिर उचित रास्ता अख्तियार किया जाना चाहिए, ताकि किसी तरह की कोई गलत परंपरा प्रारंभ नहीं होने पाए। जहां तक पीड़िताओं को न्याय दिलाने की बात है तो इससे किसी को भी इंकार नहीं होना चाहिए कि जो पीड़ित है उसे न्याय मिलना ही चाहिए, लेकिन मीटू के जरिए इस तरह से सालों पुराने मामलों को मिर्च-मसाला लगाकर फिल्मी कहानी की तरह पेश करना उचित नहीं कहा जा सकता है। इस संबंध में भाजपा सांसद उदित राज के उस बयान पर गौर किया जाए जिसमें उन्होंने सवाल किया है कि आखिर दस-दस साल बाद आरोप मढ़ने का औचित्य क्या है। यही नहीं बल्कि सांसद उदित राज तो मानों आरोप लगाते हुए यहां तक कह जाते हैं कि कुछ महिलाएं यौन शोषण के आरोपों के बहाने ब्लैकमेल के जरिए धन उगाही का काम भी कर रही हैं। उक्त बयान को सीधे तौर पर भाजपा के राज्यसभा सांसद एवं विदेश राज्यमंत्री एमजे अकबर के मामले से जोड़कर देखा जा रहा है। दरअसल अपने जमाने के प्रभावशाली संपादकों में शामिल किए जाने वाले एमजे अकबर पर करीब दस महिलाओं ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया है। पहले कभी राजीव गांधी के बेहद खास रहे एमजे अकबर 1989 में बिहार की किशनगंज लोकसभा सीट से कांग्रेस के टिकट पर सांसद निर्वाचित हुए थे। भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के वे प्रवक्ता भी रहे। इसके बाद 1991 में उन्होंने पुन: चुनाव लड़ा, लेकिन कामयाबी हासिल नहीं हो सकी। यह वही हार थी जिसके बाद अकबर एक बार फिर पत्रकारिता के क्षेत्र में किस्मत आजमाने पहुंचे। बहरहाल वरिष्ठ पत्रकार अकबर 2014 लोकसभा चुनावों से ठीक पहले भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुए। 2015 में वो झारखंड से राज्यसभा के लिए चुने गए और मौजूदा वक्त में मध्य प्रदेश से राज्यसभा सदस्य हैं। ऐसे में उन पर गंभीर आरोप का लगना कहीं न कहीं राजनीति से प्रेरित होना बताया जा रहा है। इसलिए उनके पक्ष में भी लोगों के मुखर होने का सिलसिला शुरु हुआ है। यह अलग बात है कि केंद्रीय महिला एवं बाल कल्याण मंत्री मेनका गांधी ने मीटू अभियान का समर्थन करते हुए सेवानिवृत्त जजों की समिति बनाकर मामलों की सुनवाई एवं जांच कराए जाने की भी बात कह दी है, लेकिन सभी जानते हैं कि यह सिर्फ कहने और सुनने की बातें हैं, क्योंकि इतने पुराने मामलों में आरोपों को सिद्ध करने के लिए सुबूत और गवाहों को पेश कर पाना टेढ़ी खीर ही है। बहरहाल इस ‘मीटू’ अभियान में अब शासन के लोग भी घिरते नजर आ रहे हैं। इसलिए आरोपों में घिरे अकबर के बहाने कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने भाजपा समेत मोदी सरकार पर निशाना साधना शुरु कर दिया है। प्रारंभिक तौर पर तो यही कहा गया है कि महिला उत्पीड़न जैसे गंभीर मामले में भी मोदी सरकार की तरफ से कोई ठोस बयान नहीं आना शर्मनाक है। कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी भी इसे गंभीर मामला मानते हैं, लेकिन वहीं दूसरी तरफ हर विषय पर सवालकर्ताओं को खामोश कर देने वाले भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा भी कुछ कहने की स्थिति में नजर नहीं आए हैं। चूंकि अकबर मध्य प्रदेश से राज्यसभा सदस्य हैं और मौजूदा समय में राज्य में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं अत: भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा को भी घेरने का काम किया जा रहा है। इस पूरे मामले में केंद्रीय मंत्री मनोज सिन्हा जरुर आरोपी को अपना पक्ष रखने और मामले की जांच करने की बात कहते देखे गए हैं, क्योंकि बगैर कानूनी प्रक्रिया अपनाए न्याय नहीं मिल सकेगा। यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि मीटू की आंच यदि शासन-प्रशासन पर पड़ी तो राजनीतिक ही नहीं बल्कि प्रशासनिक आला अधिकारियों का जीना भी दूभर हो जाएगा, क्योंकि यह अभियान कद्दावर कहे जाने वाले लोगों के लिए किसी न किसी तरह परेशानी का सबब तो बनेगा ही बनेगा। ऐसे में सभी की नींद हराम हो जाएगी। इसलिए कहा जा रहा है कि उन कब्रों को न खोदा जाए जिनसे सड़ांध आने का अंदेशा हो, लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि पीड़िताओं को न्याय ही न मिले।
एक लेखक के रूप में…डॉ एपीजे अब्दुल कलाम
विवेक रंजन श्रीवास्तव विनम्र
शाश्वत सत्य है शब्द मरते नहीं . इसीलिये शब्द को हमारी संस्कृति में ब्रम्ह कहा गया है . यही कारण है कि स्वयं अपने जीवन में विपन्नता से संघर्ष करते हुये भी जो मनीषी निरंतर रचनात्मक शब्द साधना में लगे रहे , उनके कार्यो को जब साहित्य जगत ने समझा तो वे आज लब्ध प्रतिष्ठित हस्ताक्षर के रूप में स्थापित हैं . लेखकीय गुण , वैचारिक अभिव्यक्ति का ऐसा संसाधन है जिससे लेखक के अनुभवो का जब संप्रेषण होता है , तो वह हर पाठक के हृदय को स्पर्श करता है . उसे प्रेरित करता है , उसका दिशादर्शन करता है . इसीलिये पुस्तकें सर्व श्रेष्ठ मित्र कही जाती हैं .केवल किताबें ही हैं जिनका मूल्य निर्धारण बाजारवाद के प्रचलित सिद्धांतो से भिन्न होता है . क्योकि किताबो में सुलभ किया गया ज्ञान अनमोल होता है . आभासी डिजिटल दुनिया के इस समय में भी किताबो की हार्ड कापी का महत्व इसीलिये निर्विवाद है , भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ ए. पी. जे. अब्दुल कलाम स्वयं एक शीर्ष वैज्ञानिक थे , उनसे अधिक डिजिटल दुनिया को कौन समझता पर फिर भी अपनी पुस्तकें उन्होने साफ्ट कापी के साथ ही प्रिंट माध्यम से भी सुलभ करवाईं हैं .उनकी किताबो का अनुवाद अनेक भाषाओ में हुआ है . दुनिया के सबसे बड़े डिजिटल बुक स्टोर अमेजन पर कलाम साहब की किताबें विभिन्न भाषाओ में सुलभ हैं . कलाम युवा शक्ति के प्रेरक लेखक के रूप में सुस्थापित हैं .
अवुल पकिर जैनुलअबिदीन अब्दुल कलाम का जन्म 15 अक्टूबर 1931 को तमिलनाडु के रामेश्वरम में एक साधारण परिवार मैं हुआ। उनके पिता जैनुलअबिदीन एक नाविक थे और उनकी माता अशिअम्मा एक गृहणी थीं। उनके परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थे इसलिए उन्हें छोटी उम्र से ही काम करना पड़ा। अपने पिता की आर्थिक मदद के लिए बालक कलाम स्कूल के बाद समाचार पत्र वितरण का कार्य करते थे। अपने स्कूल के दिनों में कलाम पढाई-लिखाई में सामान्य थे पर नयी चीज़ सीखने के लिए हमेशा तत्पर और तैयार रहते थे। उनके अन्दर सीखने की भूख थी और वो पढाई पर घंटो ध्यान देते थे। उन्होंने अपनी स्कूल की पढाई रामनाथपुरम स्च्वार्त्ज़ मैट्रिकुलेशन स्कूल से पूरी की और उसके बाद तिरूचिरापल्ली के सेंट जोसेफ्स कॉलेज में दाखिला लिया, जहाँ से उन्होंने सन 1954 में भौतिक विज्ञान में स्नातक किया। उसके बाद वर्ष 1955 में वो मद्रास चले गए जहाँ से उन्होंने एयरोस्पेस इंजीनियरिंग की शिक्षा ग्रहण की। वर्ष 1960 में कलाम ने मद्रास इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी से इंजीनियरिंग की पढाई पूरी की। उन्होंने देश के कुछ सबसे महत्वपूर्ण संगठनों (डीआरडीओ और इसरो) में वैज्ञानिक के रूप में कार्य किया। वर्ष 1998 के पोखरण द्वितीय परमाणु परिक्षण में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। डॉ कलाम भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम और मिसाइल विकास कार्यक्रम के साथ भी जुड़े थे। इसी कारण उन्हें ‘मिसाइल मैन’ कहा गया . वर्ष 2002 में कलाम भारत के ११ वें राष्ट्रपति चुने गए और 5 वर्ष की अवधि की सेवा के बाद, वह शिक्षण, लेखन, और सार्वजनिक सेवा में लौट आए। उन्हें भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान, भारत रत्न सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।
राष्ट्रपति रहते हुये वे बच्चो से तथा समाज से जुड़ते गये , उनहें जनता का राष्त्रपति कहा गया . राष्ट्रपति पद से सेवामुक्त होने के बाद डॉ कलाम अपने मन की मूल धारा शिक्षण, लेखन, मार्गदर्शन और शोध जैसे कार्यों में व्यस्त रहे और भारतीय प्रबंधन संस्थान, शिल्लांग, भारतीय प्रबंधन संस्थान, अहमदाबाद, भारतीय प्रबंधन संस्थान, इंदौर, जैसे संस्थानों से विजिटिंग प्रोफेसर के तौर पर जुड़े रहे।प्रायः विश्वविद्यालयो के दीक्षांत समारोहों में वे सहजता से पहुंचते तथा नव युवाओ को प्रेरक व्यक्तव्य देते . वे भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलोर के फेलो, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ स्पेस साइंस एंड टेक्नोलॉजी, थिरुवनन्थपुरम, के चांसलर, अन्ना यूनिवर्सिटी, चेन्नई, में एयरोस्पेस इंजीनियरिंग के प्रोफेसर भी रहे।
उन्होंने आई. आई. आई. टी. हैदराबाद, बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी और अन्ना यूनिवर्सिटी में सूचना प्रौद्योगिकी भी पढाया . वर्ष 2011 में प्रदर्शित हुई हिंदी फिल्म ‘आई ऍम कलाम’ उनके जीवन पर बनाई गई .
एक लेखक के रूप में अपनी पुस्तको “अदम्य साहस” जो जनवरी २००८ में प्रकाशित हुई , इस किताब में देश के प्रथम नागरिक के दिल से निकली वह आवाज है, जो गहराई के साथ देश और देशवासियों के सुनहरे भविष्य के बारे में सोचती है। अदम्य साहस जीवन के अनुभवों से जुड़े संस्मरणों, रोचक प्रसंगों, मौलिक विचारों और कार्य-योजनाओं का प्रेरणाप्रद चित्रण है। उनकी एक और किताब “छुआ आसमान” २००९ में छपी जिसमें उनकी आत्मकथा है जो उनके अद्भुत जीवन का वर्णन करती है. अंग्रेजी में इंडोमिटेबल स्प्रिट शीर्षक से उनकी किताब २००७ में छपी थी जिसे विस्व स्तर पर सराहा गया . गुजराती में २००९ में “प्रज्वलित मानस” नाम से इसका अनुवाद छपा . “प्रेरणात्मक विचार” नाम से प्रकाशित कृति में वे लिखते हैं , आप किस रूप में याद रखे जाना चाहेंगे ? आपको अपने जीवन को कैसा स्वरूप देना है, उसे एक कागज़ पर लिख डालिए , वह मानव इतिहास का महत्त्वपूर्ण पृष्ठ हो सकता है . मैने कलाम साहब को अपनी बड़ी बिटिया अनुव्रता के एम बी ए
के दीक्षान्त समारोह में मनीपाल के तापमी इंस्टीट्यूट में बहुत पास से सुना था , तब उनहोने नव डिग्रीधारी युवाओ को यही कहते हुये सम्बोधित किया था तथा उनहें देश प्रेम की शपथ दिलवाई थी।
भारत की आवाज़ , हम होंगे कामयाब , आदि शीर्षको से उनकी मूलतः अंग्रेजी में लिखी गई किताबें ‘इंडिया 2020: ए विज़न फॉर द न्यू मिलेनियम’, ‘विंग्स ऑफ़ फायर: ऐन ऑटोबायोग्राफी’, ‘इग्नाइटेड माइंडस: अनलीशिंग द पॉवर विदिन इंडिया’, ‘मिशन इंडिया’, आदि किताबें विभिन्न प्रकाशको ने प्रकाशित की हैं . ये सभी किताबें सहज शैली , पाठक से सीधा संवाद करती भाषा और उसके मर्म को छूती संवेदना के चलते बहुपठित हैं . बहु चर्चित तथा प्रेरणा की स्त्रोत हैं .
न केवल कलाम साहब स्वयं एक अच्छे लेखक के रूप में सुप्रतिष्ठित हुये हें बल्कि उन पर , उनकी कार्य शैली , उनके सादगी भरे जीवन पर ढ़ेरो किताबें अनेको विद्वानो तथा उनके सहकर्मियो ने लिखी हैं।
27 जुलाई, 2015, को शिलोंग, मेघालय में आई आई एम के युवाओ को संबोधित करते हुये ही , देश की संसद न चल पाने की चिंता और अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद का समाधान खोजते हुये हुये उनका देहाचसान हो गया पर एक लेखक के रूप में अपने विचारो के माध्यम से वे सदा सदा के लिये अमर हो गये हैं .
रेफल-सौदाः गले की चट्टान
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने रेफल-सौदे पर उंगली उठा दी है। उसने सरकार से यह पूछा है कि वह उसे सिर्फ यह बताए कि इन रेफल विमानों की खरीद का फैसला कैसे किया गया है ? अदालत को इससे मतलब नहीं कि इन विमानों को तिगुना पैसा देकर क्यों खरीदा गया है और तकनीकी दृष्टि से ये कितने शक्तिशाली हैं ? अदालत का यह तर्क समझने में मुझे कुछ दिक्कत हो रही है। 500 करोड़ रु. का विमान 1600 करोड़ में खरीदा जाए और आपको इस लूट-पाट की चिंता नहीं है ? कमाल है ? यह पैसा किसका है ? इस देश की गरीब जनता का है। किसी नेता या जनरल के बाप का नहीं है। यदि किसी जज का नौकर 100 रु. किलो के अनार के 300 रु. दे आए तो क्या जज साहब उससे पूछेंगे भी नहीं ? माना कि रेफल विमान, अनार नहीं है। यदि उसकी कुछ खर्चीली और अतिरिक्त सामरिक विशेषताओं को सरकार गोपनीय रखना चाहती है तो जरुर रखे लेकिन उसे मोटे तौर पर जनता को यह बताना चाहिए कि वह इन 36 विमानों के 60 हजार करोड़ रु. क्यों दे रही है ? यदि इसे वह छुपाएगी तो यह बोफोर्स से हजार गुना बड़ा भ्रष्टाचार बनकर उसके गले की चट्टान बन जाएगा। वह सिर्फ 60 करोड़ का था। यह 60 हजार करोड़ का है। राजीव गांधी की चुप्पी उस भोले प्रधानमंत्री को ले डूबी लेकिन चतुर-चालाक मोदी की चुप्पी ने बेजान नेताओं की आवाज़ में जान डाल दी है। बोफोर्स के बंद मामले को फिर से अदालत में ले जाने और रक्षा मंत्री निर्मला सेतुरामन को इस वक्त पेरिस भेजने से इस सौदे में भ्रष्टाचार का शक बढ़ गया है। फ्रांसीसी अखबारों में पहले राष्ट्रपति ओलांद और अब दासाल्ट कंपनी के अधिकारियों के बयान छपे हैं, जो कहते हैं कि अनिल अंबानी की कंपनी को बिचौलिया बनाने का प्रस्ताव भारत सरकार का ही था। अदालत को अब और कौनसा प्रमाण चाहिए ? क्या प्रधानमंत्री मोदी या तत्कालीन रक्षा मंत्री पर्रिकर ने अंबानी का नाम लिखकर दासाल्ट कंपनी को दिया होगा ? ऐसे घपले कलम से नहीं होते, मुंह से होते हैं। अदालत उनका मुंह कैसे पकड़ेगी ? अदालत शायद सरकार का कान पकड़ने की कोशिश कर रही है, वह भी सीधे नहीं, अपने हाथ को घुमा-फिराकर याने यदि अनिल अंबानी की दलाली की बात पकड़ा गई तो फिर यह सिद्ध करने की शायद जरुरत नहीं रहेगी कि 500 करोड़ के 1600 करोड़ क्यों हुए ? लोग सारी बात अपने आप समझ जाएंगे।
क्या हरियाणा ‘आप’ को तलाश है कद्दावर नेता की ?
जग मोहन ठाकन
ज्यों ज्यो वर्ष 2019 नजदीक आता जा रहा है , त्यों त्यों हरियाणा की राजनैतिक पार्टियों की डफलियां तेज होती जा रही हैं। भले ही डफली बजाने वाले अलग अलग हों , भले ही आवाज कम ज्यादा हो , परन्तु राग सभी एक ही अलाप रहे हैं –कुर्सी राग। वर्ष 2014 में कांग्रेस के शासन से आजिज आ चुके लोगों ने भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय पटल पर नये उभरे नेता नरेंद्र मोदी की बातों और लोभ भरे आश्वासनों पर इतना भरोसा कर लिया कि केंद्र तथा हरियाणा प्रदेश दोनों जगह भाजपा को सत्तासीन कर दिया। पांच साल पूरे होते होते मतदाताओं का तो पता नहीं मोह- बिछोह हुआ है या नहीं हुआ है , परन्तु आज हरियाणा में राजनेताओं की यह स्थिति हो गयी है कि उन्हें सत्ता का ताज रात को स्वप्न में भी अपने ही सिर पर सजता दिखाई देने लगा है। खुद भाजपा में वर्तमान मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की जगह कई कद्दावर तो क्या बौने बौने नेता लोग भी मुख्यमंत्री की कुर्सी को अपने कब्जे में करने को आतुर लग रहे हैं। भाजपा की इसी 2019 में आयोजित होने वाली कुर्सी रेस में कई घोड़े अपनी लगाम को त्याग बेलगाम हो रहे हैं। और समय समय पर खट्टर के चाबुक की परवाह किये बिना पार्टी लाइन से हटकर ब्यान बाजी करते रहते हैं। छोटी छोटी बातों पर अपनी सुपरेमेसी सिद्ध करने को तैयार रहते हैं। मोदी को हरियाणा में बुलाने के लिए भी अलग अलग तिथियों के कार्यक्रमों को अपने अपने हिसाब से तय कर अपना आधिपत्य दिखाना चाहते हैं।
भाजपा की इसी खींचतान व घटती दिखाई दे रही साख को भांपकर हरियाणा में अन्य प्रभावशाली दल कांग्रेस तथा इनेलो जैसी पार्टियां तो क्या चुनाव के बरसाती माहौल की नमी महसूस कर कुकरमुत्तों की तरह जन्म ले रहे अन्य नये नये दल भी ताजपोशी की कल्पना करने लगे हैं। जहाँ आम आदमी पार्टी जगह जगह ‘हमारा परिवार – आम आदमी पार्टी के साथ’ के पोस्टर चिपका कर लोगों को अपने साथ जोड़ने का प्रयास कर रही है , वहीँ कांग्रेस को भी गाँव स्तर पर युवाओं की हताशा दिखाई देने लगी है। पांच अक्टूबर को जींद में कांग्रेस पार्टी की प्रदेश कार्यकारिणी की मीटिंग में प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर को युवाओं की इसी हताशा को पार्टी से जोड़ने का विकल्प नज़र आया। “पिछले चुनाव में भाजपा ने जिस यूथ को टारगेट कर सत्ता हासिल की थी , वह यूथ अब पूरी तरह से उससे खफा है , अब कांग्रेस का आगामी चुनाव में इसी यूथ पर फोकस रहेगा। ‘हर घर तक कांग्रेस’ अभियान के तहत एक बूथ पर दस सहयोगी बनाए जायेंगे। ”
परन्तु किसी के पास आसमां नहीं है तो किसी के पास ज़मीं। दिल्ली में प्रचण्ड बहुमत पाकर गद गद हुई आम आदमी पार्टी को भी लगने लगा है कि यदि हरियाणा में भी खेत जोत किया जाए तो बम्पर फसल पाई जा सकती है। परन्तु हरियाणा में आम आदमी पार्टी के पास टोरा फोरी करने वाले टोपीधारी सर्वेयर तो दिखाई दे रहे हैं , सूड़ ( झाड़ झंखाड़ ) काटने वाले वर्कर तथा खेत जोतने वाला मुख्य ‘हाली’ नदारद लगता है। पार्टी के पास ग्रामीण क्षेत्र की नब्ज पहचानने वाले नेता का अभाव लगता है। देहात में जातीय तथा गौत्रीय कारक वोट बैंक को प्रभावित करते हैं तथा ग्रामीण एवं किसान के मुद्दों की अनदेखी किसी भी पार्टी को गाँव के मतदाता से जुड़ने से रोकती है। केजरीवाल द्वारा पंजाब के चुनाव के समय एस वाई एल पर दिया गया बयान भी किसान के वोट लेने में बाधक रहेगा। उल्लेखनीय है कि पंजाब चुनाव में केजरीवाल ने एस वाई एल पर हरियाणा के हक़ को सिरे से नकार दिया था
वर्तमान में पार्टी के पास ऐसा कोई नेता नहीं है जो वोट खींच सके। हल्का वाइज तो ऐसे नेताओं तथा वर्कर्स का अभाव है ही , प्रदेश स्तर पर भी कोई कद्दावर तथा करिश्माई नेता न होने की वजह से धरातल पर केवल पोस्टरबाजी ही दिखाई दे रही है। वोटर का अभी आम आदमी पार्टी से जुड़ाव न देख शायद पार्टी के कर्णधारों को भी लगने लगा है कि बिना मजबूत खेवैये के अकेले कुछ सवारियों द्वारा हाथ से पानी पीछे धकेलने से नाव को नहीं खेया जा सकता है। क्या इसी हालात को देखते हुए प्रदेश पार्टी किसी बाहरी दमदार नेता को इम्पोर्ट करने की सोच रही है ? अभी आम आदमी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नवीन जय हिन्द द्वारा अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में एक प्रेस कांफ्रेंस में इनेलो के मीडिया में उछले या उछाले गए तथाकथित चाचा –भतीजा विवाद पर टिप्पणी करते हुए दुष्यंत चौटाला को आम आदमी पार्टी ज्वाइन करने हेतु आमन्त्रण देना और दुष्यंत चौटाला को एक स्वच्छ छवि का नेता बताकर उसकी बड़ाई करना कहीं न कहीं पार्टी की किसी दबंग नेता को पार्टी में शामिल कर पार्टी के ज़मीनी स्तर के दुराव को जुड़ाव में तबदीली करने का प्रयास माना जा रहा है। हालांकि दुष्यंत चौटाला ने इनेलो में किसी प्रकार के मनमुटाव से साफ़ इनकार कर आम आदमी पार्टी द्वारा इनेलो नेता को अपनी पार्टी के साथ जोड़ने के स्वप्न को नींद खुलने से पहले ही चकनाचूर कर दिया है। वैसे भी राजनैतिक विचारक मानते हैं कि खुद दुष्यंत चौटाला भी जानते हैं कि इनेलो के ब्रांड नेम से बाहर निकल कर उनका अपना अभी कोई अस्तित्व नहीं बना है। अगर वे इस कदम बारे जरा सा सोचते भर भी हैं तो पहले उन्हें अपने ही परिवार के उस घटना क्रम को याद कर लेना चाहिए जब उनके दादा के छोटे भाई रणजीत सिंह इसी तरह के राजनैतिक उतराधिकार को लेकर चौधरी देवीलाल को छोड़कर कांग्रेस के दामन में जा विराजे थे और अभी तक गत तीस वर्षों से अधिक समय से अपनी पहचान के लिए हाथ पैर मार रहे हैं।
राजनैतिक विश्लेषकों का एक वर्ग मानता है कि आम आदमी पार्टी द्वारा दुष्यंत चौटाला को स्वच्छ छवि का नेता बताकर बड़ाई करना ‘आप’ पार्टी की एक गहरी सोची समझी राजनैतिक चाल है। इतना तो तय है कि पार्टी न तो भाजपा के साथ समझौता कर सकती है और न ही कांग्रेस के साथ। क्योकि इनमे से किसी के साथ भी गलबहियां उसकी दिल्ली की गद्दी पर पानी फेर सकती हैं। इसलिए पार्टी की मजबूरी है तथा पार्टी को इतना तो साफ़ विदित है कि हरियाणा में अकेले अपने दम पर सत्ता हासिल करना लगभग नामुमकिन है। पार्टी का बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन का रास्ता इनेलो ने पहले ही रोक दिया है। अब पार्टी के समक्ष एक ही रास्ता बचा है कि किसी तरह थर्ड फ्रंट के नाम पर इनेलो –बसपा गठबंधन में हिस्सेदारी कर ली जाए ताकि हरियाणा में भाजपा तथा कांग्रेस दोनों को सत्ता में आने से रोका जा सके। कहीं दुष्यंत चौटाला का यशोगान इसी कड़ी में गठबंधन में लॉग इन करने का पास वर्ड क्रिएट करना तो नहीं है ? पूरी स्थिति तो हालात के मुताबिक ही साफ़ होती जायेगी ,परन्तु अभी तो इतना ही लग रहा है कि आम आदमी पार्टी हरियाणा में किसी आसरे की तलास में अवश्य है।
विकसित म.प्र. की पोल खोलती रिपोर्ट
आजाद सिंह डबास
विगत कुछ माहों से अपने चुनावी भाषणों में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान यह दावा करते नही थक रहे हैं कि उन्होंने मध्यप्रदेश को बीमारु से विकासशील और विकासशील से विकसित मध्यप्रदेश बनाया है। वे अब इसे समर्द्ध प्रदेश बनाने की ओर अग्रसर हैं। मुख्यमंत्री के इन दावों की पोल वैश्विक बहु-आयामी गरीबी सूचकांक 2018 की रिपोर्ट ने खोलकर कर रख दी है। यह रिपोर्ट ही नही अपितु मध्यप्रदेश में क्रियान्वित पीडीएस और संबल जैसी योजनाएं भी इन दावों को खोखला साबित कर रही हैं।
पहले बात यूनाइटेड नेशंस डेवलपमेंट प्रोग्राम (यूएनडीपी) और ओपीएचआई की वैश्विक बहु-आयामी गरीबी सूचकांक रिपोर्ट 2018 की करते हैं, जो हाल ही में आई है। इस रिपोर्ट के अनुसार गरीबी के मामले मेंदेश के 29 राज्यों में मध्यप्रदेश चौथे नम्बर पर है। इसी रिपोर्ट में यह भी हवाला है कि मध्यप्रदेश का अलीराजपुर जिला देश का सबसे गरीब जिला है। अलीराजपुर के 76.5 फीसदी आबादी को गरीब बताया गया है। यह रिपोर्ट 10 मानकों के आधार पर तैयार की गई है जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, बाल मृत्यु दर, स्वच्छता, स्वच्छ पानी तक पहुंच, खाना पकाने के ईंधन, बिजली, आवास, सम्पति और जीवन स्तर इत्यादि शामिल हैं। यह रिपोर्ट 2015-16 के डेटा के आधार पर तैयार की गई। रिपोर्ट में बिहार, झारखण्ड और उत्तरप्रदेश के बाद मध्यप्रदेश का नाम है।
वैश्विक रिपोर्ट 2018 के अतिरिक्त मध्यप्रदेश सरकार द्वारा क्रियान्वित पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) भी प्रदेश की गरीबी पर प्रश्न खड़े करती है। खाद्यान्न सुरक्षा कानून लागू होने के बाद वर्ष 2014 से मध्यप्रदेश में 1 करोड़ 17 लाख परिवारों को राशन दिया जा रहा है। योजना अंतर्गत एक रुपये किलोग्राम के हिसाब से गेहूँ, चावल और आयोडीन युक्त नमक दिया जा रहा है। केन्द्र सरकार से यह अनाज क्रमश: दो और तीन रुपये किलो के मान से मिलता है। प्रदेश सरकार इसमें क्रमश: एक और दो रुपये की सबसिडी दे रही है। प्रदेश सरकार रियायती राशन पर 440 करोड़ रुपये प्रति वर्ष खर्च कर रही है।अगर औसतन 5 व्यक्तियों का एक परिवार माना जावे तो यह संख्या 5 करोड़ के ऊपर बैठती है। मध्यप्रदेश की आबादी लगभग 7.5 करोड़ है। इस मान से राज्य की 75 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही है।
यहां यह प्रश्न भी पैदा होता है कि जब प्रदेश की 75 फीसदी आबादी पीडीएस के तहत सस्ता राशन प्राप्त कर रही है तो या तो पीडीएस के तहत अपात्र व्यक्तियों को राशन कार्ड बनाये गये हैं या प्रदेश में गरीबों की भरमार है। ये दोनो ही स्थिति मुख्यमंत्री के विकसित प्रदेश के दावे को नकारती हैं। सरकार द्वारा पीडीएस में हो रही धांधली को रोकने के लिए एक के बाद एक प्रयोग किये गये हैं लेकिन अपेक्षित सुधार नही आ पाया है। कुछ वर्ष पूर्व समग्र सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम के तहत यूनिक आईडी बनाकर जब जांच की गई तो बड़ी मात्रा में ऐसे व्यक्तियों के नाम सामने आये जिनकी या तो मृत्यु हो चुकी थी अथवा एक ही नाम के कई व्यक्तियों के राशन कार्ड बने हुए थे। पीडीएस की धांधली रोकने के लिए फूड कूपन देने की योजना भी कारगर सिद्ध नही हो सकी। बायोमेट्रिक सिस्टम और पांइट ऑफ सेल्स (पीओएस) मशीन भी धांधली रोकने में पूरी तरह सक्षम नही हो पाई हैं।
आगामी आम चुनाव के कुछ माह पूर्व प्रारंभ की गई मुख्यमंत्री गरीब-कल्याण योजना ”संबल” भी विकसित प्रदेश के मुख्यमंत्री के दावों को झूठलाती दिखाई दे रही है। इस योजना अंतर्गत असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को कई योजनाओं का लाभ दिया जा रहा है। पूर्व में इस योजना में असंगठित मजदूरों के अतिरिक्त ढ़ाई एकड तक के किसानों को भी लिया गया था जिसे बाद में बढ़ाकर 5 एकड तक कर दिया गया है। इस योजना में भी लगभग 1.5 करोड़ मजदूरों ने अपना पंजीयन कराया है। यहाँ फिर वही प्रश्न पैदा होता है कि जब प्रदेश में 1.5 करोड़ व्यक्ति मजदूर के रुप में अपना पंजीयन किसी योजना में करा रहे हैं, तो साढ़े सात करोड़ की कुल आबादी वाला प्रदेश सिर्फ मजदूरों से ही भरा हुआ है। ऐसे आंकड़ो के साथ मध्यप्रदेश को विकसित प्रदेश कैसे कहा जा सकता है ?
हाँ, यह अवश्य है कि प्रदेश में अधोसंचना (बिजली, सड़क आदि) में कुछ काम हुआ है लेकिन देश के 1-2 प्रदेश छोड़कर मध्यप्रदेश में बिजली की दरें सबसे मंहगी हैं। सड़कों में भी कांग्रेस शासन से बेहतर काम हुआ है लेकिन मुख्यमंत्री का यह दावा कि प्रदेश की सड़कें अमेरिका से बेहतर हैं, हास्यास्पद है। कृषि क्षेत्र में भी कुछ हद तक उत्पादन बढ़ा है लेकिन ज्यादातर छोटे एवं मंझोले किसानों की हालत बद से बदत्तर है एवं गरीबी के चलते वे आत्महत्या करने तक को मजबूर हैं। अनेकों इन्वेस्टर मीटस पर सेकड़ों करोड़ रुपये खर्च करने के बावजूद उद्योगों को अपेक्षित बढ़ावा नही मिल सका है। बेरोजगारी चरम पर है। प्रदेश में शिक्षा एवं चिकित्सा सेवाएं बदहाल हैं। कुपोषण सारी सीमाएं तोड़ रहा है।
हकीकतयह भी है कि वर्ष 2003 में जब कांग्रेस सरकार विदा हुई थी तब प्रदेश पर मात्र 25 हजार करोड़ का कर्ज था जो विगत 15 वर्षों में बढ़कर लगभग 1 लाख 75 हजार करोड़ हो गया है। यह अत्यंत चिंता का विषय है। इतना कर्ज लेकर अगर प्रदेश में छोटा-मोटा विकास हो भी गया है तो इसमें उपलब्धि जैसा कुछ भी नही है।गरीबी के चलते प्रदेश के वन लगातार बरबाद हो रहे हैं। अगर इसी तरह से वनों की बरबादी जारी रही तो वह दिन दूर नही जब छोटी-मोटी नदियां ही नही अपितु नर्मदा जैसी जीवनदायनी नदी भी सूख जावेगी। मैंने भारतीय वन सेवा के अधिकारी के रुप में 30 वर्ष मध्यप्रदेश के अलीराजपुर जैसे अनेक आदिवासी जिलों में कार्य करते हुए पाया है कि प्रदेश की ज्यादातर योजनाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी हैं। भ्रष्टाचार रोकने में प्रदेश का राजनैतिक एवं प्रशासनिक नेतृत्व पूरी तरह विफल हो चुका है। अगर प्रदेश में इसी तरह से भ्रष्टाचार को संरक्षण एवं बढ़ावा दिया जाता रहा तो प्रदेश के विकसित होने का सपना कभी भी पूरा नही हो सकता। अगर मुख्यमंत्री वास्तव में प्रदेश को विकसित और समर्द्ध प्रदेश बनाना चाहते हैं तो भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना ही होगा। इसकी शुरुआत ऊपर से ही करनी होगी।
विधानसभा चुनावः ‘फीडबैक’ से परेशान भाजपा……?
(ओमप्रकाश मेहता)
चुनाव चुनौतियों के इस दौर में केन्द्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी व उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष पार्टी के आंतरिक व बाहरी माहौल से काफी परेशान है, वहीं उन्हें मीडिया तथा अन्य सर्वेक्षणों से मिल रहे ‘फीडबैक’ ने उनके सामने चुनौती और परेशानी दोनों ही बढ़ा दी है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल आदि तथा संत-साधुओं की ताजा धमकी ने भाजपाध्यक्ष की और अधिक नींद हराम कर दी है। संघ प्रमुख ने जहां पतंजलि विद्यापीठ के एक कार्यक्रम में बिना प्रधानमंत्री का नाम लिए जो कुछ टिप्पणी की, अयोध्या व अन्य तीर्थ स्थलों के साधु संतों ने राममंदिर निर्माण हेतु चार महीनें की चेतावनी दी और विश्व हिन्दू परिषद व बजरंग दल ने जो रूख अख्तियार किया है, उससे भाजपाध्यक्ष और प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी दोनों ही काफी परेशान है। फिर मीडिया चैनलों द्वारा चुनावी राज्यों में कराए गए चुनाव पूर्व सर्वेक्षण के परिणामों (जिनमें मध्यप्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ तीनों भाजपाशासित प्रमुख राज्यों पर कांग्रेस के कब्जें की बात कही गई है) से भी सत्तारूढ़ दल व सरकार के शीर्ष नेताओं की पैशानी पर पसीने की बूंदे पैदा कर दी है, फिर ऐसे माहौल में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अपनी वाराणसी सीट के बदले जगन्नाथपूरी से चुनाव लड़ने की खबरों ने भाजपा व केन्द्र सरकार के खिलाफ और अधिक माहौल तैयार कर दिया है, फिर वो चाहे पूर्वी भारत पर कब्जा इसका कारण बताया जा रहा हो, किंतु वाराणसी के आम मतदाता की नाराजी व वाराणसी विकास के वादों की पूर्ति नहीं होना मोदी के वाराणसी छोड़कर भागने का कारण बताया जा रहा है।
वैसे यहाँ यह उल्लेखनीय है कि पांच राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मिजोरम और तेलंगाना विधानसभा चुनावों के भावी परिणामों में ही 2019 के लोकसभा चुनावों का भविष्य देखा जा रहा है। स्वयं भाजपा व उसके नेता भी यही मानते है, इसीलिए प्रधानमंत्री व भाजपाध्यक्ष दोनों ने अभी से इन पांच राज्यों पर कब्जा करने या बरकरार रखने के लिए दिन-रात एक कर दिया है, अर्थात् अगले आठ महीनों तक न तो जनहित में सरकार द्वारा कोई सार्थक काम किया जाना है और न ही देश की समस्या से जुड़े किसी अन्य मसले पर कोई अंतिम फैसला ही लिया जाने वाला है। खासकर विधानसभा चुनाव वाले पांच राज्यों के लिए अगले आठ महीनें ‘‘राजनीतिक संक्रमण काल’’ ही माने जाएगें।
जहां तक देश के प्रमुख राजनीतिक दलों का सवाल है, भाजपा को तो आंतरिक व बाहरी चुनौतियों का सामना करना ही है, साथ ही प्रतिपक्षी दल भी एकजुट नहीं हो जाने से परेशान है, यद्यपि प्रतिपक्षी दलों का महागढबंधन नहीं बन पाने से भाजपा खुश है, क्योंकि कर्नाटक ‘एपीसोड’ के बाद से ही वह उरी-सहमी थी, किंतु बसपा सुप्रीमों मायावती और समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने भाजपा की प्रमुख चिंता दूर कर दी, लेकिन इसके बावजूद मायावती का हाथी अचानक किस करवट लेट जाए और अखिलेश की साईकिल कब अपना हैंडल मोड़ ले, कुछ नहीं कहा जा सकता, इसलिए भाजपा के पाले में यह आशंका व डर तो विद्यमान ही है?
यदि भाजपा के कथित संरक्षक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की बात करें तो संघ भाजपा का सबसे बड़ा प्रचारक दल है, जिसकी पैठ गांव-गांव, गली-गली में विद्यमान है, किंतु इस बार संघ कितनी ईमानदारी और समर्पण भाव से भाजपा की मद्द कर पाएगा यह संघ प्रमुख द्वारा व्यक्त भावनाओं से परिलक्षित होता है। मोदी जी अपने अब तक के साढ़े चार साल के कार्यकाल में संघ को व उसके प्रमुख को भी अपने मातहत मानते रहे और संघ की आकांक्षाओं व उम्मीदों को दर किनार करते रहे इसका दिलीक्षोभ संघ प्रमुख को अवश्य है। भाजपा के संघ सहित सभी अनुषांगी संगठनों की नाराजी का एकमात्र कारण अयोध्या में राममंदिर का नहीं बन पाना और मंदिर निर्माण सम्बंधी प्रतिपक्षी व्यंग बाणों का बरसना है। इसके अलावा कश्मीर प्रसंग भी संघ की प्रतिष्ठा से जुड़े थे, जिनकी पूति की दिशा में मोदी सरकार ने कुछ नहीं किया। फिर संघ जो देश की हर जगह से नोटबंदी व जीएसटी को लेकर जो भाजपा विरोधी ‘फीडबैक’ मिल रहा है, उससे भी संघ प्रमुख परेशान है, इन्ही सब कारणों से अमित शाह और मोदी अपनी मझधार में खड़ी नैया को असुरक्षित पा रहे है।
इस प्रकार कुल मिलाकर भाजपा के सहयोगी संगठन उनकी तमन्नाऐं पूरी नहीं हो पाने से मोदी-शाह से नाराज है तो प्रमुख प्रतिपक्षी दल कांग्रेस अपने अध्यक्ष की बचकाली व हास्यास्पद हरकतों के कारण परेशान है, मायावती व अखिलेश की अपनी पीड़ाऐं है, इस तरह कुल मिलाकर देश में राजनीति का इन दिनों संक्रमण काल चल रहा है और चुनौतियां अपनी जगह विद्यमान है।
सबरीमालाः नेताओं का भौंदूपन
डॉ. (वेदप्रताप वैदिक)
नए सर्वोच्च न्यायाधीश रंजन गोगोई को मेरी बधाई कि उन्होंने सबरीमाला मंदिर के मामले में लगाई गई याचिकाओं को तत्काल सुनने से मना कर दिया है। ये याचिकाएं इसलिए लगाई गई थीं कि 18 अक्तूबर से केरल के इस मंदिर में हर उम्र की महिलाओं का प्रवेश प्रारंभ होनेवाला है। सभी महिलाओं के प्रवेश का फैसला सर्वोच्च न्यायालय ने 28 सितंबर को किया था। इन याचिकाओं को यदि तुरंत सुन लिया जाता तो याचिकाकर्ताओं को आशा थी कि शायद रजस्वला स्त्रियों का मंदिर-प्रवेश स्थगित हो जाता। लेकिन केरल की मार्क्सवादी सरकार के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने यह घोषणा कर दी है कि वे अदालत के फैसले को लागू करके रहेंगे। अभी तक सबरीमाला मंदिर में 10 से 50 साल तक की महिलाओं के प्रवेश पर रोक है, क्योंकि वे रजस्वला हो सकती हैं। यह रुढ़ि कितने अंधविश्वास और दुराग्रह पर आधारित है, यह हम पहले लिख ही चुके हैं लेकिन इस विषय पर दुबारा इसीलिए लिख रहे हैं कि इस मामले में हमारे प्रमुख राजनीतिक दलों का रवैया कितना कायराना है। ज्यों ही यह फैसला आया था, भाजपा और कांग्रेस के नेताओं ने इसका स्वागत किया था लेकिन अब ये दल ही केरल के हिंदू वोट हथियाने के लिए नायर-समाज को उकसा रहे हैं। अदालत के फैसले के विरुद्ध वे महिलाअेां के प्रदर्शनों का समर्थन कर रहे हैं। केरल की मार्क्सवादी सरकार के विरुद्ध उन्हें यह हथियार हाथ लग गया है। वे कहते हैं कि मार्क्सवादी तो नास्तिक होते हैं। वे आयप्पा के नैष्ठिक ब्रह्मचर्य को कैसे समझेंगे ? वे लोग यह नहीं समझा पा रहे कि किसी रजस्वला स्त्री को देखते ही उस नैष्ठिक ब्रह्मचारी का ब्रह्मचर्य कैसे भंग हो सकता है ? और फिर वह तो सिर्फ पत्थर की मूर्ति है। मुख्यमंत्री विजयन ने इस मांग को रद्द कर दिया है कि केरल सरकार इस फैसले पर पुनर्विचार की याचिका अपनी तरफ से अदालत में लगाए। अब केरल की भाजपा पांच दिन की ‘सबरीमाला बचाओ’ यात्रा निकाल रही है। केरल कांग्रेस अपने ढंग से इस पाखंड का समर्थन कर रही है, क्योंकि इन दोनों पार्टियों का लक्ष्य एक ही है। इन दोनों पार्टियों के केंद्रीय नेता भौंदुओं की तरह बगलें झांक रहे हैं।
रात्रि वैवाहिक भोज सुधार अपेक्षित
डॉक्टर अरविन्द जैन
जबसे नव धनाडय लोगों का समाज में वर्चस्व हुआ हैं या बना हैं तब से विसंगतियां बहुत होना शुरू हुई। आज समाज में समाज का स्थान नहीं हैं। समाज में पंचायत नामक संस्था का कोई अस्तित्व नहीं हैं। कौन हैं समाज में ,जिनका व्यापार अनैतिक ढंग से चल रहा हैं या जिन्होंने अपने आपको स्थापित करने कब्ज़ा ना किया हो। .आज वे जबरदस्ती के नेता बन गए.पहले कोई भी सामाजिक कार्य, घर में शादी विवाह ,शोक का काम होता था तब पंचायत सभा का आना अनिवार्य होता था,या समाज में कोई समस्या आती थी ,या पारिवारिक विवाद तो पंचायत का हस्तक्षेप होता था.जब चुनाव ही हिंसा के आधार पर होता हैं तब अहिंसा ,प्रेम ,शांति की बात करना अपने आप में बेमानी हैं। दूसरा अन्य जगहों से आकर रहने से और शहर का विस्तीर्ण होने से आपसी समपर्क कम होता हैं।
रात्रि भोज और विवाह आयोजन न करना समाज का यह कदम स्तुत्य हैं पर कितना प्रभावकारी ढंग से क्रियान्वित होगा यह भविष्य के गर्भ में छिपा हैं। वैसे यह कदम बहुत ही लाभप्रद हैं। सबसे पहले जीवहिंसा से बचाव ,बिजली खरच और अन्य दिखावा कम होना और शराब आदि के प्रचलन में रोक लगेगी और इससे अन्य समाजों में एक सन्देश जायेगा की जैन समाज अहिंसा के पालन में कितना जागरूक हैं। इसके अलावा यदि जैन समाज के बंधू अन्य समाज के आयोजनों में भी भोज न करे तो बहुत अच्छा कदम होगा ,पर आजकल सबकुछ चलता हैं इससे हमारी शिथिलता के कारण हम रात्रि भोजन स्वीकार कर लेते हैं। यह कदम व्यक्तिगत के साथ जातिगत हैं।
हमारे समाज में अनेकों विसंगतियां पनप रही हैं या चुकी हैं और अब उनका निराकरण संभव नहीं हो पा रहा हैं। सबसे पहले हमारी समाज में दहेज़ का चलन बहुत ऊंचाइयों पर हैं। हर लड़का वाला पढ़ी लिखी नौकरी पेशा सुन्दर,सुशील लड़की चाहता हैं और उसके बाद दहेज़। जबकि लड़का वाला भी लड़की वाला होता हैं और उसकी कन्या भी सर्वगुण संपन्न होने के बाद भी नौकरी पेशा वाली होने पर भी यदि कोई दहेज़ मांगता हैं तब उसकी क्या प्रतिक्रियाये होंगी.वह नौकरी पेशा वाली लड़की शादी के उपरान्त आपको लाखो रूपया कमा कर देगी उसके उपरांत दहेज़ की मांग का क्या औचित्य हैं ?दूसरा कोई भी कन्या गरीब माँ बाप की संतान हैं तब समाज की क्या भूमिका होती हैं ?जब वह विजातीय सम्बन्ध स्थापित करती है तब चर्चा होती हैं। क्यों? आज समाज से कोई मदद लेना बहुत टेडी खीर हैं जब कोई सहायता मांगने जाता हैं तब अध्यक्ष ,मंत्री ,,ट्रस्टी ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे वह भिखारी हो और उसके बाद अध्यक्ष कहेंगे ,मंत्री से पूछेंगे और मंत्री अध्यक्ष से। वोट मांगने नहीं पूछते यह प्रश्न ?उस समय सच्चे भिखारी होते हैं और बाद में दाता बनते उससे इससे पूछेंगे ?इस कारण लव जिहाद या अंतर्जातीय या अन्तर संप्रदाय सम्बन्ध हो रहे हैं। इसमें श्रेष्ठि जन भी अछूते नहीं हैं।
आज हम गरीबी की बात करते हैं और हमारे हज़ारो नवयुवक नवयुवतियां नौकरी की तलाश में दर दर भटक रहे हैं। आज हमारे समाज में कितने उद्योगपति ,कारखानेदार हैं समाज को नहीं मालूम ,किस प्रकार का व्यापार हैं उसमे यदि हम लोग योग्यता के आधार पर अपने लोगों को प्राथमिकता दे तो उससे समाज के लोग समाज में रहेंगे और कम से कम अपने धर्म की रीति नीति का पालन करेंगे और स्थानीय स्तर पर रहेंगे.आज घर से बाहर पूना ,दिल्ली मद्रास आदि जगह जाते हैं और उनका आहार ,विचार ,विहार बिगड़ता हैं। आज समाज एक ऐसी सूची तैयार करे जिसमे हम सबको जानकारी हो की कोई अपने समाज में किस किस का व्यापार। ,क्या क्या निर्माण करते हैं और जानकारी के आधार पर संपर्क किया जा सके पर इस बात में हम लोग अपनों का शोषण करने में नहीं चूकते.इसके साथ ही हमारे समाज में कौन कौन प्रशासकीय पदों पर पदस्थ हैं कौन कौनपंडित ,विद्वान् साहित्यकार ,लेखक ,कवि, चिकित्सक ,वकील ,सामाजिक ,राजनीतिक कार्यकर्ता,,पत्रकारों की भी सूची प्रकाशित करना चाहिए और समय समय पर संशोधित भी करे।
आज जैन समाज की कितनी शैक्षणिक संस्थाओं में मिनिस्टर ,कलेक्टर की अनुशसाएं लगती हैं। क्या हमारी संस्थाए उन मानकों की पूर्ती करती हैं जितनी होना चाहिए.?क्या हमारी संस्थाएं सरकारी स्तर पर वेतन लाभ देती हैं या नहीं। इस बात पर समाज को विशेष गौर करना चाहिए की हम एक ऐसी संस्था बनाये जो स्तरीय हो। जिसमे प्रवेश के लिए भी अनुशंसाएं लगे। इसके अलावा आजकल हॉस्टल संस्कृति के कारण बाहर घटनाएं हो रही हैं। इसके लिए भी आवश्यक हैं हम एक ऐसा भव्य सर्वसुविधायुक्त उचित शुल्क पर बहुत बड़ा लड़का लड़कियों के लिए हॉस्टल बनाये जहाँ हमारी समाज के लोग एक साथ रहेंगे तो कम से कम अन्य बुराइयों से बचेंगे और उनकी सुरक्षा भी हो सकेगी। हम लोग अन्य भव्य जिनालयों में धन का उपयोग करते हैं तो इस पर भीएक बार धन खरच कर उससे हम सुरक्षा, संस्कार और मेलमिलाप की संभावना से वंचित नहीं हो सकेंगे।
आजकल पंचकल्याक और मंदिर निर्माण बहुत अधिक हो रहे हैं उनसे प्रभावना अंग को बढ़ावा मिलता हैं और नए नए भव्य बनने से शांति लाभ होता हैं। पर उन मंदिरों में अतिशय का अभाव का कारण उसमे लगने वाला द्रव्य या धन कैसा लग रहा हैं ?वैसे धन का कोई रंग नहीं होता जैसा सफ़ेद या काला पर उसमे न्यायोपार्जित धन न लगने से भव्यता के साथ अतिशय नहीं रहता। इस पर भी विचार होना चाहिए.आजकल बहुत जैन साहित्य लिखा और छपा जा रहा हैं पर पाठकों का अभाव हैं ,उसका कारण बुनियादी शिक्षा न होने से उसमे उपयोग होने वाले शब्दों का अर्थ न जानने से उसका मर्म नहीं समझ पाते और बिना पढ़े वे किताबे लाइब्रेरी की या तो शोभा बन जाती हैं या वे कबाड़ में बेच दी जाती हैं.उसके लिए बुनियादी शिक्षा बहुत जरुरी हैं और वह पाठशालाओं से आएँगी। जब तक प्राथमिक ज्ञान न होगा तब तक विषयवस्तु तक पहुंचना कठिन होगा। पर आज टी वी के माध्यम से शिक्षा देना उतना प्रभावकारी नहीं हैं जितना गुरुमुख से प्रत्यक्ष होना.इस पर गंभीरता से विचार होना चाहिए। नहीं तो गधे पर आप सोना लाद रहे या मिटटी गधे को उससे कोई प्रयोजन नहीं रहता। ऐसा ही हाल हमारा हैं। ऐसा ही साहित्य की स्थिति हो रही हैं और होंगी।
वर्तमान में तीर्थ क्षेत्रों की स्थिति भी बहुत चिंताजनक हैं। वैसे धर्म निजी /व्यक्तिगत होता हैं पर यात्रा के साथ मनोरंजन स्थल होने से भीड़ भाड़ बढ़ी हैं और अन्य समाज का हस्तक्षेप होने से हमारी परंपरा बहुत अधिक विकृत और हाथ से निकलती जा रही हैं। इस पर ध्यान रखना होगा। इसके अलावा हमारे मंदिरों का रखरखाव उचित ढंग से न होने से अमूल्य मूर्तियों की चोरी होती रहती हैं ,इसका कारण हम अमूल्य धरोहरों की सुरक्षा पुजारी या मालियों के द्वारा करवाते हैं उनका हम लोग बहुत शोषण करते हैं कम से कम वेतन में अधिक से अधिक काम लेना और मंदिर समिति के सदस्यों का सेवक बनना पड़ता हैं। इसमें भी मानसिकता के सुधार की आवश्यकता हैं।
रात्रि भोजन और विवाह एक शुरूआती कदम बहुत अच्छा हैं पर हमें समग्र चिंतन से सामाजिक सुधारों को दृष्टिगत रखना होगा। आज जैसे जनसँख्या की गणना होना हैं उसमे हमें अपनी उपाधि या उपनाम को त्याग कर मात्र जैन शब्द का ही उपयोग करे अन्य नाम नहीं जैसे खोपरा ,नारियल ,भेला आदि। मुनि सेवा और उनके बताये आदर्शों को न केवल सुने पर उनको जीवन में अपनाये या उतारे वह काम का हैं ना की संघवाद।
वर्तमान समय बहुत ही अधिक संक्रमणकाल हैं इसमें अनेक बुराइयों का होना लाज़िमी हैं और समय /काल का प्रभाव से कोई वंचित नहीं हो सकता पर हमें अपना लोटा साफ़ कर पानी पीना होगा. बातें बहुत बड़ी बड़ी होती हैं पर उनको जीवन में कोई नहीं उतार रहा। आज आपको आश्चर्य होगा जो जितने मुनियों के नजदीक हैं और समाज प्रमुख बने बैठे हैं मात्र दान के आधार पर और वे शराब ,मांसाहारी भोजनालय चला रहे हैं क्या हमारे समाज के लोगों को नहीं मालूम पर उनको कोई बहिष्कृत न करके उन्हें सिरमौर बना रखा हैं। आखिर क्यों ?सिर्फ दान बावत या अन्य कोई और दबाव हैं। जैसे अमरविलास होटल ,विज्ञश्री होटल ,प्लेज़र इन होटल इत्यादि जो वर्षों से कार्यरत हैं उन पर समाज की क्या प्रतिक्रिया हैं ,मात्र व्यापार करना इ लक्ष्य हैं तो वैश्यालय भी चलने में कोई अपराध नहीं हैं ,उसे भी सूचीबध्ध करे जिससे समाज के बदचलन अपनी समाज के ही व्यापारियों का व्यापार बढ़ाएंगे और यह कार्य यदि छोटे शहर या क़स्बा में होता तो उस सेठ व्यापारी को समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता और वह राजधानी में समाजगौरव माने जाते हैं ,इस पर बहुत गंभीरता से विचारकर सुधारात्मक कदम उठाना चाहिए।
नए निवेशकों को बुलाना तो दूर जो हैं उन्हें ही रोक ले सरकार
डॉ हिदायत अहमद खान
यह सच है कि निवेशकों को लुभाने के लिए सभी सरकारें समय-समय पर जरुरी कदम उठाती रही हैं। तरह-तरह के उपक्रम करती ये सरकारें निवेशकों से महज वादा नहीं करतीं दिखीं बल्कि ढांचागत सुविधाओं में बदलाव तक किया है, लेकिन इसके बाद भी यदि निवेशक आकर्षित नहीं हो पाए तो समझने वाली बात है कि कहीं न कहीं कोई बड़ी गलती या भूल हमसे जरुर हो रही है जिस कारण विदेशी निवेशक देश की ओर रुख नहीं कर रहे हैं। इस स्थिति में जो आते भी हैं तो अपनी शर्तों पर और फिर उद्देश्य पूरा नहीं होता देख वो उल्टे पैर वापस भी हो जाते हैं। बावजूद इसके हम निवेशकों को लुभाने में लगे हुए हैं। किसी और की क्या बात करें खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मौजूदा कार्यकाल में सबसे ज्यादा विदेशी दौरे करके निवेशकों को लुभाने का अथक प्रयास किया है। यही नहीं बल्कि देश में भी करोड़ों खर्च करके निवेश आधारित अनेक कार्यक्रम करवाए गए हैं, लेकिन इसका लाभ देश को कितना हुआ और कितना हमने इन सब में गंवाया इसकी जांच-परख तो जरुर होना चाहिए, ताकि सनद रहे वक्त में काम आ सके। ऐसा करने का मकसद जहां हमें मालूम हो सके कि हमने क्या खोया और क्या पाया, वहीं उन खामियों को दूर करना भी हो सकता है जो कि लगातार की जा रही हैं। यहां भूलना नहीं चाहिए कि दूर जा रहे निवेशकों को आमंत्रित करने का यह दौर अभी खत्म नहीं हुआ है, क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने उत्तराखंड सरकार की ओर से निवेशकों को आकर्षित करने के लिए आयोजित एक भव्य कार्यक्रम में जानकारी देते हुए कहा है कि उनकी सरकार ने अनेक आर्थिक सुधार किए हैं, जिससे भारत में कारोबार करना पहले से आसान हो गया है। मोदी जी कहते हैं कि कारोबार सुगमता मामले में भारत की स्थिति में 42 अंकों का सुधार हुआ है। यही नहीं दावा तो यहां तक किया जाता है कि पिछले दो साल में निवेश माहौल को अनुकूल बनाने के लिए केंद्र और राज्यों की सरकारों ने दस हजार से ज्यादा कदम उठाए हैं। अब यदि ये कागजी प्रयास और कागजी बदलाव नहीं हैं तो निवेशकों को खुद ही भारत का रुख करना चाहिए, क्योंकि जहां मीठा होता है वहां चीटियां तो खुद व खुद आती ही आती हैं, फिर उन्हें अलग से आकर्षित करने की आवश्यकता क्या है। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि सरकार की कथनी और करनी में अंतर के कारण तमाम लाभकारी योजनाएं भी क्रियांवित होने से रह जाती हैं और बेहतर परिणाम हासिल नहीं हो पाते हैं। निवेशकों के मामले में भी यही हो रहा है। सरकारें बताती कुछ हैं और हकीकत कुछ और होती है। ऐसे में सरकार कहती है कि निवेशकों को लुभाने के लिए निवेश माहौल को अनुकूल बनाया गया है, जबकि सच्चाई यह है कि भीड़ द्वारा हत्या करने जैसे मामलों से देश अभी तक निजाद नहीं पा सका है। हद यह है कि भीड़ एकत्र कर किसी के भी खिलाफ मामला बनाने और उसे खुद सजा देने जैसे मामलों ने संदेश दिया है कि कानून व्यवस्था बिगड़ रही है, ऐसे माहौल में कोई कारोबार कैसे कर सकता है। आए दिन बंद और दंगे-फसाद कारोबारियों को सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं। फिर भले ही राज्यों के पास कीमती कच्चा माल क्यों न उपलब्ध हो, लेकिन उत्पादक वहां कतई जाना पसंद नहीं करेगा जहां श्रम से ज्यादा दंगे-फसाद करने वाली राजनीति को तवज्जो दी जाती हो। इसी का दुष्प्रभाव है कि एक तरफ हमारे प्रधानमंत्री दुनियाभर के निवेशकों को भारत में निवेश करने का न्यौता देते हैं और दूसरी तरफ खबर आती है कि महज चार दिनों में विदेशी निवेशकों ने भारतीय बाजार से करीब 10 हजार करोड़ रुपए निकाल लिए हैं। निवेशकों का भारतीय बाजार से अपना पैसा निकालने के पीछे के कारणों को गिनाते हुए बताया जाता है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तेल की बढ़ती कीमतें, महंगाई और रुपए की लगातार गिरती कीमतों से निवेशक चिंतित हैं। इसलिए उन्होंने भारतीय पूंजी बाजार से पैसा वापस निकाला है। गौरतलब है कि माह सितंबर में भी विदेशी निवेशकों ने शुद्ध रुप से 21 हजार करोड़ रुपए की निकासी की थी। विदेशी निवेशकों के इस कदम से पूरा बाजार हिला हुआ है, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी शायद इससे आगे की सोचते हैं इसलिए उन्हें ये आंकड़े चिंतित नहीं करते हैं और वो बताते चले जाते हैं कि जीएसटी स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सबसे बड़ा कर सुधार है, जिससे बैंकिंग सेक्टर में भी बहुत सुधार हुए हैं। इससे न केवल बैकों का कारोबार आसान हुआ है बल्कि उन्हें ताकत भी मिली है। इन तमाम बुनियादी सुधारों के आधार पर कहा जा रहा है कि बहुत जल्द भारत दुनिया भर में विकास का इंजन बनने वाला है। मतलब जो परिस्थितियां अभी दिखाई दे रही हैं वो तो महज छलावा हैं, सही मायने में हमने अपने मौद्रिक आधार को इतना मजबूत कर लिया है कि दुनिया देखती रह जाएगी और फिर जो आज हमसे दूरी बनाकर चल रहे हैं वो भी शिष्यव्रत हमारे पास आएंगे। काश ऐसा ही हो क्योंकि नींद में देखे जाने वाले सपने साकार होंगे या नहीं कहा नहीं जा सकता, लेकिन खुली आंख से देखे और दिखाए जाने वाले ख्वाबों को अमली जामा तो पहनाया ही जा सकता है। उसके लिए मेहनत, लगन और ईमानदारी की जो आवश्यकता होती है वह सरकारों में होनी ही चाहिए, फिर निवेशकों को आमंत्रित करने की आवश्यकता शायद नहीं होगी, क्योंकि तब तो खुद हम अपनी शर्तों पर उन्हें बाजार और व्यापार करने का अवसर प्रदान करेंगे, ठीक वैसे ही जैसे कि वर्तमान में विकसित देश हमारे साथ करते नजर आते हैं। इसलिए कहा जा रहा है कि वर्तमान में रहते हुए सरकार को चाहिए कि निवेशकों को आमंत्रित करें लेकिन जो हम पर भरोसा करके पहले से निवेश कर चुके हैं उन्हें कारोबार करने के लिए बेहतर माहौल दें, क्योंकि उनके वापस लौटने से एक गलत संदेश जाएगा, जिसका खामियाजा किसी कंपनी या कारोबारी को नहीं बल्कि देश को ही उठाना होगा।
पाकिस्तान धोखा, छल-कपट और बर्बरता पाकिस्तान धोखा, छल-कपट और बर्बरता
( योगेश कुमार गोयल)
संयुक्त राष्ट्र महासभा के 73वें सत्र को सम्बोधित करते हुए अपने 22 मिनट के भाषण में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने पाक को जमकर लताड़ लगाते हुए जिस प्रकार बेहद तीखे तेवर दिखाए, वह प्रशंसनीय है लेकिन अब धरातल पर भी पाकिस्तान के खिलाफ ऐसी ही तीखी कार्रवाई की सख्त जरूरत है। सुषमा स्वराज ने इस अंतर्राष्ट्रीय मंच के माध्यम से दुनिया के समक्ष एक बार फिर पाकिस्तान के झूठ का खुलासा करते हुए उसका कुत्सित चेहरा बेनकाब किया है और समूचे विश्व को अपने तीखे अंदाज में बताया कि हत्यारे आतंकियों के रक्तपात की प्रशंसा करने वाले पाकिस्तान के साथ वार्ताएं क्यों अटक जाती हैं। विदेशमंत्री ने भारतीय जवानों के शहीद होने, जवानों को अगवा कर उनकी हत्याएं करने जैसे मुद्दे उठाते हुए स्पष्ट किया कि पाकिस्तान ने न सिर्फ आतंकवाद फैलाने में बल्कि उसे नकारने में भी महारत हासिल कर ली है और भारत के खिलाफ गलत तस्वीरें दिखाकर दुष्प्रचार करना और झूठे आरोप लगाना पाकिस्तान की आदत हो गई है।उल्लेखनीय है कि भारत को पाक प्रधानमंत्री द्वारा 14 सितम्बर को न्यूयार्क में विदेश मंत्री स्तर की द्विपक्षीय वार्ता का न्यौता दिया गया था, जिसे भारत द्वारा स्वीकार भी कर लिया गया था किन्तु पाक रेंजरों द्वारा 18 सितम्बर को बीएसएफ जवान नरेन्द्र सिंह दहिया की हत्या के बाद शव को क्षत-विक्षत करने की घिनौनी हरकत और फिर 21 सितम्बर को शोपियां जिले के कापरान गांव में तीन पुलिसकर्मियों फिरदौस अहमद, कुलदीप सिंह तथा निसार अहमद को अगवा कर उनकी हत्या करने, भारत में मारे गए कुख्यात आतंकी बुरहान बानी को ‘फ्रीडम आइकॉन’ यानी आजादी का चेहरा घोषित करते हुए उस पर पाक में जारी किए गए 20 डाक टिकटों के जरिये आतंकियों का महिमामंडन करने जैसी हरकतों के बाद आखिरकार पाकिस्तान के साथ वार्ता रद्द करने का निर्णय लिया गया, जिसके बाद पाकिस्तान इस बौखला गया कि वहां के प्रधानमंत्री इमरान खान ने भारतीय रूख को अहंकारी बताते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रति बेहद आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल किया। उन्होंने कहा कि अपने पूरे जीवन में उनका कई ऐसे छोटे लोगों से सामना हुआ है, जो बड़े पदों पर कब्जा किए हुए हैं और उन्हें बड़ी संभावनाएं नजर नहीं आती।जैसा कि संयुक्त राष्ट्र महासभा में सुषमा स्वराज ने भी कहा कि भारत ने पाकिस्तान के साथ बातचीत के लिए कई प्रयास किए किन्तु पाकिस्तान के व्यवहार के चलते यह संभव नहीं हुआ। बता दें कि हर बार हुआ यही है कि जब भी पाकिस्तान के साथ बातचीत के प्रयास शुरू हुए, वहां की सेना ने हमेशा इसमें अड़ंगा लगाया और सदैव कुछ न कुछ ऐसा किया, जिससे पिछले काफी समय से पाकिस्तान के साथ वार्ताओं का दौर शुरू नहीं हो सका। सुषमा स्वयं दिसम्बर 2016 में इस्लामाबाद गई थी और द्विपक्षीय वार्ता की पेशकश की थी किन्तु बदले में भारत को मिला पठानकोट एयरबेस पर पाकिस्तानी आतंकी हमला। भारत हर बार ऐसी वार्ताओं या बैठकों की आड़ में पाकिस्तान से धोखा और मात खाता रहा है और यह विड़म्बना ही है कि हम अब तक दुष्ट पाकिस्तान को ऐसा सबक नहीं सिखा पाए हैं, जिससे वह भारत के प्रति बदनीयती से आंख उठाकर देखने की जुर्रत भी न कर सके। हमें अब भली-भांति यह समझ लेना चाहिए कि आर्थिक रूप से बर्बादी के मुहाने पर खड़ा पाकिस्तान आतंकवाद का दामन छोड़ने को हरगिज तैयार नहीं होगा, इसलिए अब उसे उसी की भाषा में सबक सिखा का वक्त आ गया है।सेना प्रमुख विपिन रावत ने हालांकि हाल ही में कहा भी है कि पाकिस्तान को अब उसी की भाषा में जवाब देने का समय आ गया है, उसके साथ वैसा ही बर्ताव करने की जरूरत है, जैसा वह हमारे जवानों के साथ कर रहा है ताकि उन्हें भी हमारा दर्द महसूस हो लेकिन हमें बखूबी समझ लेना चाहिए कि केवल इस तरह के संदेश देने मात्र से ही पाकिस्तान की फितरत बदलने वाली नहीं है। धोखा, छल-कपट और बर्बरता उसकी रग-रग में कूट-कूटकर समाई है और उसका चरित्र ही कुछ ऐसा है कि वह हर प्रकार के छल-प्रपंच का सहारा लेकर भारत की नींव कमजोर करने के कुत्सित प्रयास करता रहा है। भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध सुधारने के लिए 26 नवम्बर 2003 को जम्मू कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर युद्धविराम की अहम शर्त रखी गई थी किन्तु यह जगजाहिर है कि पाकिस्तान आए दिन नियंत्रण रेखा पर किस कदर इस शर्त का उल्लंघन करता रहा है। बीएसएफ महानिदेशक ने हाल ही में खुलासा किया है कि एजेंसियों के जरिये पाक सीमा में 5-7 किलोमीटर की दूरी पर लांचिंग पैड तथा उनके पीछे आतंकी प्रशिक्षण शिविरों की जानकारी मिली है और इमरान के सत्ता संभालने के बाद पाक सेना की आक्रामकता बढ़ी है। पाकिस्तान की ही शह पर आतंकी संगठन अब कश्मीर में पंचायत चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे लोगों को धमका रहे हैं। खुफिया एजेंसियों द्वारा सीमा पार से कई ऐसी कॉल इंटरसेप्ट की गई हैं, जिनसे पाक एजेंसियों द्वारा पंचायत चुनाव में गड़बड़ी फैलाने की कोशिशों का खुलासा हुआ है। सीमा पार से मिले संदेशों के बाद दक्षिण कश्मीर के कई जिलों में पर्चे बांटकर लोगों को चुनाव से दूर रहने की चेतावनी दी जा रही है और सोशल मीडिया तथा मस्जिदों से भी चुनाव से दूरी बनाने के संदेश प्रसारित किए जा रहे हैं।नवाज शरीफ हों या इमरान खान, हकीकत यही है कि वहां का लोकतंत्र पूरी तरह खोखला है और वहां हर चुनाव के बाद मुखौटा भले ही बदलता है लेकिन उस मुखौटे के पीछे छिपा हर चेहरा उतना ही क्रूर, धोखेबाज, अमानवीय और बर्बर होता है। सच तो यह है कि वहां प्रधानमंत्री पद पर भले ही कोई भी आसीन रहे किन्तु वह फौजी हुक्मरानों के समक्ष पूरी तरह विवश होता है। इमरान ने 18 अगस्त को जब प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी, तब उन्होंने नया पाकिस्तान बनाने और देश की शासन प्रणाली में सुधार जैसी बातें कही थी लेकिन पिछले दिनों बार-बार इस बात के प्रमाण मिले हैं कि इमरान कट्टरपंथियों के समक्ष कितने विवश और बेबस हैं और उन्हें अब खुलकर सेना की कठपुतली कहा जाने लगा है। इससे पहले नवाज शरीफ के मामले में भी यह जगजाहिर हो गया था कि वो किस प्रकार भारत के साथ संबंध सुधारने की मंशा के बावजूद अपनी मर्जी से एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सके थे और जब उन्होंने मुम्बई में हुए आतंकी हमले में पाकिस्तानी हुकूमत और वहां की सेना का हाथ होना स्वीकार किया था तो वहां की सेना के साथ उनके संबंध इतने बिगड़ गए थे कि सेना और वहां की अदालत ने मिलकर उनकी सियासी विदाई कर उनकी जेल यात्रा तक की इबारत लिख डाली और पाकिस्तान में इमरान की कठपुतली सरकार बना दी गई।हाल ही में पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री शाहिद खाकान अब्बासी ने भी खुलासा किया है कि पाकिस्तान में सेना का ही कानून है, जो देश की राजनीति और सरकार द्वारा निर्णय लेने की प्रक्रिया में दखलंदाजी करती है तथा सरकार पर पूरी तरह हावी है और वही देश के राजनीतिक पटल पर मुख्य भूमिका निभा रही है। पाकिस्तानी राजनीति की हकीकत यही है कि वहां भले ही सरकार किसी की भी हो पर होगा वही, जो वहां की सेना चाहेगी। दरअसल वहां सत्ता के कई केन्द्र हैं और सभी पर परोक्ष या अपरोक्ष रूप से सेना का ही नियंत्रण है, जो हर कदम पर यह स्पष्ट अहसास भी कराती रही है कि प्रधानमंत्री इमरान खान रहें या कोई अन्य, उसे अपनी मर्जी से शासन करने की छूट नहीं है और यही कारण है कि भारत-पाक के बीच शांति वार्ता का कोई रास्ता शुरू होने से पहले ही सेना द्वारा कोई न कोई ऐसा षड्यंत्र रच दिया जाता है, जिससे बातचीत के तमाम रास्ते लंबे अरसे के लिए बंद हो जाते हैं। एक तरफ पाक प्रधानमंत्री दोनों देशों के संबंध सुधारने के लिए बातचीत का न्यौता देते हैं और दूसरी ओर उन्हीं के लोग हमारे सैनिकों के साथ बर्बरता की सारी सीमाएं लांघ जाते हैं। ऐसे में यह भली-भांति समझा जा सकता है कि पाकिस्तान इमरान के नेतृत्व में नए संबंधों का युग रचने के प्रति कितना गंभीर है! बहरहाल, जब तक पाकिस्तानी सत्ता पर सेना का नियंत्रण बरकरार रहेगा, दोनों देशों के संबंधों में सुधार की उम्मीद बेमानी ही है।(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)
सैदव रहेगा डाक विभाग का महत्व
रमेश सर्राफ धमोरा
डाक विभाग कई दशकों तक देश के अंदर ही नहीं बल्कि एक देश से दूसरे देश तक सूचना पहुंचाने का सर्वाधिक विश्वसनीय, सुगम और सस्ता साधन रहा है। लेकिन इस क्षेत्र में निजी कम्पनियों के बढ़ते दबदबे और फिर सूचना तकनीक के नये माध्यमों के प्रसार के कारण डाक विभाग की भूमिका लगातार कम होती गयी है। वैसे इसकी प्रासंगिकता पूरी दुनिया में आज भी बरकरार है। वर्तमान में डाक विभाग का एकाधिकार लगभग खत्म हो गया है। यही कारण है कि डाक विभाग दुनिया भर में अब कई नयी तकनीकी सेवाओं से जुड़ रहा है।
दुनियाभर में 9 अक्तूबर को विश्व डाक दिवस के तौर पर मनाया जाता है। वर्ष 1874 में इसी दिन यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन (यूपीयू) का गठन करने के लिए स्विट्जरलैंड की राजधानी बर्न में 22 देशों ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किया था। वर्ष 1969 में टोकियो, जापान में आयोजित सम्मेलन में विश्व डाक दिवस के रूप में इसी दिन को चयन किये जाने की घोषणा की गयी। एक जुलाई 1876 को भारत यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन का सदस्य बनने वाला भारत पहला एशियाई देश था। जनसंख्या और अंतरराष्ट्रीय मेल ट्रैफिक के आधार पर भारत शुरू से ही प्रथम श्रेणी का सदस्य रहा। संयुक्त राष्ट्र संघ के गठन के बाद 1947 में यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन संयुक्त राष्ट्र की एक विशिष्ट एजेंसी बन गयी।
विश्व डाक दिवस का मकसद आम आदमी और कारोबारियों के रोजमर्रा के जीवन समेत देश के सामाजिक और आर्थिक विकास में डाक क्षेत्र के योगदान के बारे में जागरुकता पैदा करना है। दुनियाभर में प्रत्येक वर्ष 150 से ज्यादा देशों में विविध तरीकों से विश्व डाक दिवस आयोजित किया जाता है। डाक सेवाओं के बदलते माहौल और उभर रही नयी कारोबारी चुनौतियों ने इस ओर ध्यान आकृष्ट किया है। विशेष रणनीति और कार्यक्रमों के माध्यम से ही इसका समाधान किया जा सकता है। योजनाबद्ध रणनीति तैयार करने से यूपीयू के सदस्यों को नयी चुनौतियों से निबटने और संचालन की नयी प्रणालियों को अपनाने में बेहतर मदद मिलती है। सितम्बर, 2012 में दोहा पोस्टल स्ट्रेटजी के तहत 2013-2016 के लिए यूपीयू सम्मेलन में रणनीति बनायी गयी थी। इससे सदस्य देशों को मूल्य आधारित सेवाएं और रणनीतिक रोड मैप तैयार करने में मदद मिली।
इंटरनेशनल ब्यूरो यूपीयू का मुख्यालय स्विट्जरलैंड की राजधानी बर्न में स्थित है। यहां तकरीबन 50 विभित्र देशों के ढाई सौ से ज्यादा कर्मचारी कार्यरत हैं। यह ब्यूरो यूपीयू निकायों के सचिवालय संबंधी कार्यों का संपादन करता है। सदस्य देशों के बीच यह सूचना और सलाह देने समेत तकनीकी सहयोग को भी बढ़ावा देता है। हाल के वर्षों में इंटरनेशनल ब्यूरो ने कुछ गतिविधियों में मजबूत नेतृत्व की भूमिका निभायी है। इसमें पोस्टल तकनीक केन्द्र के माध्यम से संबंधित तकनीकी अनुप्रयोग भी शामिल हैं।
बदलते हुए तकनीकी दौर में दुनियाभर की डाक व्यवस्थाओं ने मौजूदा सेवाओं में सुधार करते हुए खुद को नयी तकनीकी सेवाओं के साथ जोड़ा है और डाक, पार्सल, पत्रों को गंतव्य तक पहुंचाने के लिए एक्सप्रेस सेवाएं शुरू की हैं। डाक घरों द्वारा मुहैया करायी जानेवाली वित्तीय सेवाओं को भी आधुनिक तकनीक से जोड़ा गया है। नयी तकनीक आधारित सेवाओं की शुरूआत तकरीबन 20 वर्ष पहले की गयी और उसके बाद से इन सेवाओं का और तकनीकी विकास किया गया। साथ ही इस दौरान ऑनलाइन पोस्टल लेन-देन पर भी लोगों का भरोसा बढ़ा है। यूपीयू के एक अध्ययन में यह पाया गया है कि दुनियाभर में इस समय 55 से भी ज्यादा विभिन्न प्रकार की पोस्टल इ-सेवाएं उपलब्ध हैं। भविष्य में पोस्टल इ-सेवाओं की संख्या और अधिक बढ़ायी जायेगी।
पोस्टल ऑपरेशंस काउंसिल (पीओसी) यूपीयू का तकनीकी और संचालन संबंधी निकाय है। इसमें 40 सदस्य देश शामिल हैं, जिनका चयन सम्मेलन के दौरान किया जाता है। यूपीयू के मुख्यालय बर्न में इसकी सालाना बैठक होती है। यह डाक व्यापार के संचालन, आर्थिक और व्यावसायिक मामलों को देखता है। जहां कहीं भी एकसमान कार्यप्रणाली या व्यवहार जरूरी हों, वहां अपनी क्षमता के मुताबिक यह तकनीकी और संचालन समेत अन्य प्रक्रियाओं के मानकों के लिए सदस्य देशों को अपनी अनुशंसा मुहैया कराता है। संप्रेषण के अन्य माध्यमों के आने से भले ही इसकी प्रासंगिकता कम हो गयी हो, लेकिन कुछ मायने में अभी भी इसकी प्रासंगिकता बरकरार है।
दुनियाभर में पोस्ट ऑफिस से संबंधित इन आंकड़ों से हम इसे और अधिक स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं। डाक विभाग से 82 फीसदी वैश्विक आबादी को होम डिलीवरी का फायदा मिलता है। एक डाक कर्मचारी 1,258 औसत आबादी को सेवा मुहैया कराता है। इस समय दुनियाभर में 55 प्रकार की पोस्टल इ-सेवाएं उपलब्ध है। डाक ने 77 फीसदी ऑनलाइन सेवाएं दे रखी हैं। 133 पोस्ट वित्तीय सेवाएं मुहैया कराती है। पांच दिन के मानक समय के अंदर 83.62 फीसदी अंतरराष्ट्रीय डाक सामग्री बांटी जाती है। 142 देशों में पोस्टल कोड उपलब्ध है। डाक के इलेक्ट्रॉनिक प्रबंधन और निगरानी के लिए 160 देशों की डाक सेवाएं यूपीयू की अंतरराष्ट्रीय पोस्टल सिस्टम सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करती हैं। इस तरह 141 देशों ने अपनी यूनिवर्सल पोस्टल सेवा को परिभाषित किया है।
भारतीय डाक विभाग पिनकोड नम्बर(पोस्टल इंडेक्स नम्बर)के आधार पर देश में डाक वितरण का कार्य करता है। पिनकोड नम्बर का प्रारम्भ 15 अगस्त 1972 को किया गया था। इसके अन्तर्गत डाक विभाग द्वारा देश को नो भोगोलिक क्षेत्रो में बांटा गया है। संख्या 1 से 8 तक भौगोलिक क्षेत्र हैं व संख्या 9 सेना डाकसेवा को आवंटित किया गया है। पिन कोड की पहली संख्या क्षेत्र दूसरा संख्या उपक्षेत्र,तीसरी संख्या जिले को दर्शाती है। अन्तिम तीन संख्या उस जिले के विशिष्ट डाकघर को दर्शाती है।
हाल ही में केंद्र सरकार ने डाक विभाग की प्रासगिंकता बरकरार रखने के लिये इंडिया पोस्ट पेमेंट बैंक (आईपीपीबी) शुरू किया है। देश के हर व्यक्ति के पास बैंकिंग सुविधाएं पहुंचाने के क्रम में यह एक बड़ा विकल्प होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 1 सितम्बर को आईपीपीबी का विधिवत उद्घाटन कर इसका शुभारम्भ कर दिया है। इंडिया पोस्ट पेमेंट बैंक ने 1 सितम्बर को देश की 650 शाखाओं व देश भर में 3250 एक्सेस प्वाइंट में बैंकिंग सेवाएं शुरू कर दी है। आने वाले दिनों में ये सेवा देश के 1.55 लाख एक्सेस प्वाइंट पर शुरू हो जाएगी। इससे देश का सबसे बड़ा बैंकिंग नेटवर्क अस्तित्व में आएगा जिसकी गांवों के स्तर तक मौजूदगी होगी। यही नहीं इन सेवाओं के लिए पोस्ट विभाग के 11000 कर्मचारी घर-घर जाकर लोगों को बैंकिंग सेवाएं देंगे। इंडिया पोस्ट पेमेंट बैंक भारतीय डाक विभाग के अंतर्गत आने वाला एक विशेष किस्म का बैंक है जो 100 फीसद सरकारी होगा।
केन्द्रीय संचार मंत्री मनोज सिन्हा ने बताया कि आईपीपीबी को पूरे देश में पहुंचाने के लिए पोस्ट विभाग के डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क का इस्तेमाल किया जाएगा। देश भर में 40 हजार डाकिये हैं और 2.6 लाख डाक सेवक है। सरकार इन सभी का इस्तेमाल बैंकिंग सेवाओं को घर-घर पहुंचाने के लिए करने जा रही है। इन डाक सेवकों को आईपीपीबी के मुनाफे की रकम में से 30 पर्सेंट कमीशन के तौर पर भी दिए जाने की भी योजना बनायी जा रही है, जिससे कर्मचारियों के उत्साह में बना रहे।
(स्वतंत्र पत्रकार)
‘सैन्य पराक्रम’ देश का गौरव, दल का नहीं
तनवीर जाफरी
देश के अन्य राजनैतिक दलों की तुलना में भारतीय जनता पार्टी हमेशा से ही स्वयं को एक अलग पहचान रखने वाले राजनैतिक दल के रूप में प्रचारित करती रही है। भाजपा ने स्वयं भी अपने परिचय हेतु ‘पार्टी विद् डिफरेंस’ का नारा भी गढ़ा था। स्वयं को अन्य राजनैतिक दलों की तुलना में सबसे अधिक राष्ट्रवादी, राष्ट्रभक्त, हिंदुत्ववादी, ईमानदार व अनुशासित बताते रहना भाजपा की प्रारंभ से ही मुख्य रणनीति रही है। 2014 में यूपीए सरकार की नाकामियों का लाभ उठाकर किसी तरह भाजपा ने पहली बार देश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। और वरिष्ठ पत्रकार अरूण शौरी के शब्दों में डेढ़ लोगों के हाथ में जबसे यह देश गया तबसे भाजपा का वास्तविक चाल,चरित्र और चेहरा उजागर होने लगा। स्पष्ट दिखाई देने लगा है कि भाजपा देश के अन्य सभी राजनैतिक दलों से कितनी भिन्न है। भिन्नता खासतौर पर वैचारिक भिन्नता की इससे बड़ी मिसाल और क्या हो सकती है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो यह दावा कर रहे हैं कि बड़ी मुश्किल से साठ वर्षों बाद देश को तरक्की की राह पर लाया गया है। अब किसी और को बीच में मत आने देना। उधर पार्टी अध्यक्ष अमित शाह भी अपने भाषणों में अपनी उपलब्धियां बताने से ज़्यादा ज़ोर कांग्रेस की चार पीढिय़ों का हिसाब मांगने में लगा रहे हैं। और अरूण शौरी इन्हीं को डेढ़ व्यक्ति बता रहे हैं। इनमें एक व्यक्ति तो वे अमित शाह को बताते हैं और आधा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को।
इसमें कोई दो राय नहीं कि इस समय भाजपा की पार्टी से लेकर सरकार तक की सारी रणनीतियां अकेले अमित शाह व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा तय की जा रही हैं। उसी सोची-समझी तथा गुजरात में एक दशक से भी लंबे समय तक आज़माई गई रणनीति का ही नतीजा है जो हमें दिल्ली दरबार में देखने को मिल रहा है। अर्थात् विकास की माला जपते रहना, विपक्षी दलों के नेताओं को किसी भी कीमत पर दल-बदल कराना, नेहरू-गांधी परिवार व कांग्रेस पर तुष्टिकरण करने, वोट बैंक की राजनीति करने व हिंदू विरोधी होने जैसे झूठे-सच्चे लांछन लगाते रहना, देश में धार्मिक व सांप्रदायिक उन्माद को बढ़ाना या इन्हें बनाए रखना, देश के लगभग साठ वर्षों के कांग्रेस के शासनकाल की बड़ी से बड़ी उपलब्धियों की अनदेखी करना तथा अपनी छोटी से छोटी बात को बड़ी कर पेश करना, अपनी नोटबंदी जैसी नकारात्मकता को भी सकारात्मकता के रूप में पेश करना यहां तक कि भारतीय सेना की गतिविधियों का भी राजनीतिकरण करना भाजपा की ‘पार्टी विद् डिफरेंस’ की हकीकत को बेपर्दा करता है। भाजपा के नेताओं ने इसी सोची-समझी रणनीति के तहत ही अब एक नया फार्मूला यह भी ढूंढ लिया है कि जो भी नेता, राजनैतिक दल, अधिकारी, लेखक, पत्रकार, बुद्धिजीवी या कोई समाजसेवी भाजपा की नीतियों की आलोचना करता है या सरकार के किसी फैसले को अनुचित बताता है तो भाजपा के यही रणनीतिकार अपने उस आलोचक या विरोधी को पाकपरस्त बता देते हैं।
पिछले दिनों भाजपा ने अपनी पीठ थपथपाने की इसी प्रकार की एक कोशिश में भारतीय सेना की एक पराक्रम पूर्ण गतिविधि को भी शामिल करने का अनैतिक प्रयास किया। गौरतलब है कि 28 व 29 सितंबर 2016 को भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सैन्य घुसपैठ व वास्तविक नियंत्रण रेखा के आसपास चलाए जाने वाले आतंकी प्रशिक्षण शिविरों से तंग आकर सीमा के उस पार जाकर आतंकियों के कई शिविर ध्वस्त किए थे। सामरिक भाषा में सर्जिकल स्ट्राईक के नाम से जानी जाने वाली यह कार्रवाई भारतीय सेना पूर्व में भी करती रही है और पहले भी कई बार इसके अच्छे परिणाम आ चुके हैं। परंतु चूंकि 28-29 सितंबर 2016 को की गई सर्जिकल स्ट्राईक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में रहते हुई थी इसलिए भाजपा ने इसे सेना के बजाए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व भाजपा की उपलब्धि के रूप में प्रचारित करना ज़्यादा ‘लाभदायक’ समझा। हालांकि सितंबर 2016 को हुई इस सर्जिकल स्ट्राईक के बाद से ही भारतीय सेना के वर्तमान एवं निवर्तमान अधिकारियों ने मीडिया के समक्ष यह कहना शुरु कर दिया था कि इस ऑप्रेशन को राजनैतिक रंग न दिया जाए, यह भारत की ओर से दुश्मन देश के विरुद्ध की जाने वाली एक ऐसी कार्रवाई है जो भारतीय सेना दुश्मन के दांत खट्टे करने के लिए समय-समय पर करती रहती है।
परंतु भाजपा ने तो 29 सितंबर का दिन ‘लक्षित हमला दिवस’ के रूप में मनाए जाने का निर्णय ले लिया। हद तो यह है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा सर्जिकल स्ट्राईक की इस दूसरी वर्षगांठ पर देश के समस्त विश्वविद्यालयों को परिपत्र जारी कर दिए गए। देश के 51 प्रमुख शहरों में सर्जिकल स्ट्राईक की वर्षगांठ मनाए जाने का निर्देश रक्षा मंत्रालय द्वारा जारी किया गया। इस आयोजन ने एक सवाल यह भी खड़ा किया कि सर्जिकल स्ट्राईक की वर्षगंाठ मनाए जाने का विचार सितंबर 2017 में क्यों नहीं आया? 2018 के अंत में ही भारतीय सेना के इस पराक्रम को याद करने की ज़रूरत क्यों महसूस हुई? यदि यह 2019 के लोकसभा चुनाव तथा 5 राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के पूर्व अपनी पीठ थपथपाने का प्रयास नहीं तो और क्या है? और इन सबसे बड़ा सवाल यह कि क्या देश की स्वतंत्रता के बाद से लेकर अब तक भारतीय सैन्य पराक्रम की गाथा लिखे जाने हेतु सबसे बड़ी उपलब्धि 28-29 सितंबर 2016 की उपलब्धि ही है या फिर भारतीय सेना ने इससे भी बड़े ऐसे कई पराक्रम दिखाए हैं जिसने पूरे विश्व में तथा विश्व इतिहास में देश के जवानों के पराक्रम का नाम सुनहरे अक्षरों में दर्ज कर दिया है? निश्चित रूप से उन ऐतिहासिक भारतीय सैन्य पराक्रमों के समक्ष 28-29 सितंबर 2016 की घटना तो हमारी सैनिकों की वीरता की एक छोटी सी मिसाल मात्र है।
यदि भारतीय सेना का पराक्रम दिवस देश को मनाना ही है तो 6 दिसंबर 1971 को याद कर के भी मनाया जा सकता है। यही वह दिन था जिस दिन भारतीय सेना के हस्तक्षेप से पाकिस्तान दो टुकड़ों में विभाजित हो गया था और विश्व के इतिहास में बंगला देश नामक एक नए राष्ट्र ने जन्म लिया था। भारतीय सेना के पराक्रम में 16 दिसंबर 1971 का वह दिन क्यों नही दर्ज किया जाना चाहिए जबकि पाकिस्तानी सेना ने ढाका के रामना रेसकोर्स गार्डन, ढाका में विश्व इतिहास का सबसे बड़ा सैन्य आत्मसमपर्ण किया था और विश्व में लड़े जाने वाले सबसे संक्षिप्त 13 दिवसीय युद्ध का अंत करते हुए भारतीय सेना ने अपनी विजय पताका लहराई थी? कारगिल की जीत की महान उपलबिध को तो हम विजय दिवस के रूप में पहले ही मनाते आ रहे हैं। 1947, 1965, 1971 तथा 1999 गोया एक दो नहीं बल्कि कई बार देश का गौरव समझी जाने वाली भारतीय सेना ने अपने अदम्य साहस व पराक्रम का परिचय दुश्मन देशों को बार-बार दिया है। परंतु एक ऐसी विवादित सर्जिकल स्ट्राईका का श्रेय लेना जिसपर कि कई वर्तमान व पूर्व सैन्य अधिकारी भी सवाल खड़ा कर चुके हैं कतई मुनासिक नहीं है। कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में जब 1971 की लड़ाई भारतीय सेना ने जीती थी उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमतिी इंदिरा गांधी को दुर्गा बताने वाला राजनेता कोई और नहीं बल्कि भाजपा के ही सबसे वरिष्ठ नेता पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी ही थे। अमितशाह को कांग्रेस की चार पीढय़ों से हिसाब मांगने से पहले स्वर्गीय वाजपेयी जी के उपरोक्त कथन पर स्वयं गौर कर लेना चाहिए। भाजपा सहित प्रत्येक राजनैतिक दल को यह याद रखना चाहिए कि भारतीय सैन्य पराक्रम की घटनाएं पूरे देश का गौरव हैं किसी दल विशेष की जागीर नहीं।
जनता के धन को नेताओं पर उड़ा रही है सरकार
रमेश सर्राफ धमोरा
हाल ही में मध्य प्रदेश में नीमच के रहने वाले एक आरटीआई कार्यकर्ता चंद्रशेखर गौड़ ने सूचना के अधिकार के तहत लोकसभा व राज्यसभा सचिवालय से अलग-अलग जानकारी प्राप्त की है। पिछले चार वर्षों में लोकसभा और राज्यसभा सांसदों के वेतन और भत्तों पर सरकारी खजाने के 19.97 अरब रुपये की भारी-भरकम रकम खर्च की गई। सूचना के अधिकार से यह खुलासा हुआ है कि गत चार साल में लोकसभा के हर सांसद ने प्रति माह औसतन 5 लाख 94 हजार 115 रुपये के वेतन-भत्ते हासिल किए, वहीं राज्यसभा के हर सांसद ने प्रत्येक माह औसतन 3 लाख 69 हजार 473 रुपये के नकद वेतन-भत्ते पाये। इसके अलावा उनको सरकारी मकान, मुफ्त बिजली,पानी, टेलीफोन, हवाई,रेल यात्रा,मुफ्त चिकित्सा सुविधा, पद से हटने के बाद जीवन पर्यन्त पेंशन, मुफ्त रेल बस यात्रा की सुविधा मिलती है। इतना मिलने के उपरान्त भी सांसदो का सरकार पर वेतन में और बढ़ोत्तरी करने का लगातार दबाव बना हुआ है।
गुजरात विधानसभा ने गत माह एक विधेयक पारित कर विधायकों का वेतन प्रति माह 64 फीसदी बढ़ा लिया। वहां विधायकों का मासिक वेतन तकरीबन 45000 रुपए प्रतिमाह बढऩे से एक लाख 16 हजार रुपए हो गया है। वर्तमान में विधायकों का वेतन 70 हजार 727 रुपए है। वहीं मंत्रियों, विधानसभा अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और विपक्ष के नेता का वेतन तकरीबन 54 फीसदी बढक़र एक लाख 32 हजार रुपए हो गया। अभी उनका वेतन 86000 रुपए है। इतना ही नहीं संशोधित वेतन डेढ़ वर्ष पहले फरवरी 2017 से लागू होगा। गुजरात विधानसभा में विधायको के वेतन बढ़ाने के प्रस्ताव का किसी भी दल के सदस्य ने विरोध नहीं किया। सभी ने एकराय होकर इस प्रस्ताव का समर्थन कर इसे तुरन्त पास करवा दिया।
इसे हम देश का इसे दुर्भाग्य ही कहेंगें कि यहां वोट देने वाला आम मतदाता दिन प्रतिदिन गरीब होता जा रहा है, जबकि गरीबो के वोटो से जीत कर सांसद,विधायक बनने वाले जनप्रतिनिधी दिन-प्रतिदिन अमीर होते जा रहें हैं। आज राजनीति पैसा कमाने का जरिया बन गई है। लाभ के इस धन्धे में नेता करोड़पति बन रहे हैं। लोकतंत्र में संसद और विधानसभा देश की जनता का आईना होती हैं। संसद व विधानसभा के सदस्यों की समृद्वि को देखकर आसानी से समझा जा सकता है कि देश में अमीर-गरीब की खाई पहले से अधिक तेजी से बढ़ रही है। राजनीति में नेताओं की यह समृद्धि यूं ही नहीं आई है, इसके पीछे किसी न किसी का शोषण जरूर होता है।
एक चुनाव से दूसरे चुनाव के 5 बरसों के अन्तराल में जनप्रतिनिधियों की सम्पति में 10 गुना से 20 गुना तक वृद्धि हो जाती है। जबकि देश की आर्थव्यवस्था 8 फीसदी तक नहीं बढ़ पा रही है। राजनीति करने वाले राजनेता जिनको बहुत अधिक वेतन नहीं मिलता है वो किस बूते बड़े शहरों में करोड़ो रूपयो वाले महलनुमा आलिशान बंगले खरीद लेते हैं तथा लाखों-करोड़ो की महंगी गाडियो में घूमते हैं? इसमें दो राय नहीं है कि सरकारी दफ्तरों में लेकर नौकरशाहों के बीच भ्रष्टाचार की गंगा बह रही है। लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि यदि राजनीतिक नेतृत्व ईमानदार हो तो मातहत कैसे भ्रष्टाचार कर सकते हैं?
वास्तव में देश के भीतर भ्रष्टाचार की एक शृंखला बन चुकी है। देश में व्याप्त राजनीति में मूल्यों के पतन से भ्रष्टाचार की फसल लहलहा रही है। लेकिन सबसे चिंताजनक बात यह है कि राजनीति में धन व बल के बढ़ते वर्चस्व के चलते माफिया व आपराधिक तत्व राजसत्ता पर काबिज होने लगे हैं जिसके चलते भ्रष्टाचार का निरंतर पोषण जारी है। महंगी होती चुनाव प्रणाली ने इसे और प्रोत्साहित किया है। चुनाव में हुए खर्च को चुने गये जन प्रतिनिधि कई गुणा लाभ के साथ वसूलते हैं। जाहिर तौर पर यह पैसा भ्रष्ट आचरण, दलाली, कमीशन व ठेकों से उगाहा जाता है। फिर कमजोर नेतृत्व ने राजसत्ता को बरकरार रखने के लिए जिस तरह माफिया व अपराधियों का सहारा लिया उसके घातक परिणाम अब हमारे सामने आने लगे हैं।
सांसदो और विधायको के चुनाव लड़ते वक्त दिये गये शपथपत्रो के विश्लेषण से पता चला कि देश में चाहे 75 करोड़ लोग बीस रुपये रोज पर ही जीवन यापन करने पर मजबूर हो लेकिन जनता ने जिन्हे जिता कर संसद और विधानसभा में भेजा है, उसमें से 75 फिसदी यानी 4852 नुमाइन्दो में से 3460 नुमाइन्दे करोड़पति है। लोकसभा के 545 सांसदो में 445 व राज्यसभा के 250 सांसदो में से 194 सांसद करोड़पति है। इसी तरह देश के कुल 4078 विधायको में से 2825 विधायक करोड़पति है। राजनीति को समाज तथा देश सेवा का माध्यम समझा जाता है, लेकिन यहां हो रहा है उसका बिलकुल उलटा।
हमारे देश के सांसदों आार्थिक स्थिति का अंदाज तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज दोनों सदनों के सांसदों की घोषित सम्पति दस हजार करोड़ रूपए से अधिक है। सांसदों पर आरोप लगता है कि उनके पास घोषित से अधिक अघोषित संपत्ति है। आज राजनीति कमाई का सबसे अच्छा जरिया बन गई है। चुनाव लडऩे वाले नेताओं की संपत्ति में पांच वर्ष में औसत 134 प्रतिशत वृद्धि बड़े-बड़े उद्योगपतियों को चौंकाती है। कुछ मामलों में तो संपत्ति में वृद्धि की दर एक हजार प्रतिशत से ज्यादा देखी गई है। इसीलिए अब समृद्ध व्यापारी और उद्योगपति भी सांसद, विधायक बनने लगे हैं।
हमारे जनप्रतिनिधि अपना चुनाव खर्च की व्यवस्था भी उद्योगपतियों से करवाते है। यह सभी को पता है कि कोई भी व्यक्ति बिना किसी काम के किसी को पैसा अर्थात चंदा नही देता है। सांसद या विधायक बनाने के बाद उनकी संपत्ति में बेहताशा बढ़ोतरी हो जाती है। लखपति करोड़पति व करोड़पति अरबपति हो जाता है वो भी केवल पांच साल में। ये लोग संसद में सवाल पूछने के लिए भी उद्योगपतियों से पैसे लेते है। सरकार का विरोध या समर्थन करने के लिए भी पैसे व पद कि मांग करते है। और तो और सांसद व विधायक निधि से होने वाले काम में भी कमीशन लेते है।
पिछले दिनों एक बार फिर सर्वोच्च न्यायलय ने भ्रष्ट नेताओं पर प्रहार करते हुये कई सांसदों तथा विधायकों की संपत्ति में हुए पांच सौ गुणा तक के इजाफे पर सवाल खड़ा करते हुए यह जानना चाहा कि यदि ऐसे जनप्रतिनिधि यह बता भी दें कि उनकी आमदनी में इतनी तेजी से बढ़ोतरी उनके किसी व्यापार की वजह से हुई है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि अब यह सोचने का वक्त आ गया है कि भ्रष्ट नेताओं के विरुद्ध कैसे जांच की जाए। उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि जनता को यह पता होना चाहिए कि नेताओं की आय क्या है। इसे आखिर क्यों छुपा कर रखा जाए।
लोगों का मानना है कि सांसदों, विधायको का वेतन भले ही दस गुना बढ़ा दिया जाए, लेकिन वेतन के अलावा न तो उन्हें किसी तरह का भत्ता दिया जाना चाहिए, न ही मकान, वाहन, भोजन, चिकित्सा, रेल, हवाई यात्रा, टेलीफोन और अन्य सुविधाओं पर उनके खर्च का भुगतान सरकारी खजाने से किया जाना चाहिए। सांसदो विधायको को भी काम के आधार पर वेतन दिया जाना चाहिये। संसद, विधानसभा के सत्र में भाग नहीं लेने वालों को उस दिन के वेतन का भुगतान नहीं होना चाहिये।
आज सांसद, विधायक ही नही छुटभैया नेता भी महंगी गाडिय़ों में घूमते हैं। राजधानी के बड़े होटलों में ठहरते हैं। कोई उनसे यह नहीं पूछता कि अचानक उनके पास इतना धन कहां से आ गया है। वो सब नेता अपने घर से तो लाकर पैसा खर्च करने से रहे। उनके द्वारा खर्च किया जा रहा पैसा सत्ता में दलाली कर गलत तरीको से कमाया हुआ होता है, जिसे वे जमकर फिजुलखर्ची में उड़ाते हैं। जब तक सत्ता में दलाली,भ्रष्टाचार का खेल बन्द नहीं होगा तब तक राजनीति में सुचिता की बाते करना बेमानी ही होगा।
सीढ़ियाँ राममंदिर की; नज़र सत्ता सिंहासन पर……?
ओमप्रकाश मेहता
हमारे देश का आम मतदाता आजादी के सत्तर साल बाद भी कितना भोला है? वह हर मामले अर्थात् अपने अधिकार, कर्तव्य और राजनेताओं की धूर्तता से पूरी तरह वाकिफ है, किंतु जब धर्म या देवता की बात सामने आती है तो वह सब कुछ भूलकर इसके भुलावे में आ जाता है और अपने कर्तव्य या दायित्व का गलत उपयोग कर बैठता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण अयोध्या का राममंदिर विवाद है, एक सजग व शिक्षित नागरिक के हिसाब से हर मतदाता को यह पता है कि जो मामला देश की सबसे बड़ी न्यायालय के अधीन हो, उसके बारे में कोई नेता, राजनीतिक दल या स्वयं सरकार भी कोई फैसला नहीं ले सकती, फिर भी अयोध्या राममंदिर को आम आदमी या मतदाता की ‘कमजोर नस’ समझ हर राजनीतिक दल चुनावों के समय उसे दबाने लगते है और येन-केन-प्रकारेण अपना ‘उल्लू सीधा’ कर लेते है। अब तो देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस ने भी भाजपा के इस ‘मर्म’ को समझ लिया है और अब कांग्रेस ने भी भाजपा की तरह राममंदिरों (चित्रकूट आदि) की परिक्रमा के साथ ‘रामवन पथ गमन’ की यात्रा शुरू कर दी है, राम उन्हें सद्बुद्धि दे।
वैसे इन दिनों सबसे अधिक चर्चित राष्ट्रीय स्वयं संघ के प्रमुख डाॅ. मोहनराव भागवत हो रहे है, दो साल पहले बिहार विधानसभा चुनाव में हार का ठीकरा भाजपा ने उन्हीं के सिर पर फोड़ा था, क्योंकि भागवत जी ने एक आरक्षण विरोधी बयान दे दिया था। आज सबसे अधिक मोदी सरकार से कोई निराश है तो वह संघ प्रमुख ही है और अब उन्होंने इशारों-इशारों में मोदी जी को ज्ञान देना भी शुरू कर दिया है, हरिद्वार के पतंजलि आश्रम में आयोजित एक कार्यक्रम में तो उन्होंने बगैर मोदी जी का नाम लिए स्पष्ट कह दिया कि- ‘‘आदमी तो बहुत सज्जन है, आज हम देखते है कि जिनसे हमें बहुत ज्यादा उम्मीदें थी, उन्होंने किया बहुत कम है।’’ संघ की मोदी सरकार से केवल तीन उम्मीदें थी, पहली अयोध्या राममंदिर, दूसरी कश्मीर से धारा-370 हटाना और तीसरी कश्मीर से निष्कासित हिन्दूओं की ससम्मान वापसी। किंतु भाजपा ने इस उम्मीद के विपरीत जम्मू-कश्मीर में पीडीपी गठबंधन कर सरकार बना ली और अपने चुनावी घोषणा-पत्र के वादों को भूल गई और इस तरह साढ़े तीन साल का वक्त जाया करने के बाद आखिर भाजपा को गठबंधन तोड़कर 2014 से पहले की स्थिति में लौटना पड़ा।
इस तरह आज भाजपा की स्थिति उस मोर जैसी है जो आकाश में काले बादल देखकर रात भर नाचता है और सुबह अपने पैरों की ओर देखकर आंसू बहाता है, आज संघ व देश उसी मोर की भूमिका में आंसू बहाने को विवश है।
आज भाजपा की सबसे बड़ी चिंता यह है कि वह साढ़े चार साल की मोदी सरकार की किन उपलब्धियों को लेकर आम वोटर के पास जाए, क्या नोटबंदी, जीएसटी, महंगाई, फांसी लगाते किसानों व आरक्षण से पीड़ित सवर्णों के मुद्दे लेकर आम वोटर के पास जाकर वोट की भीख मांगे? आम वोटर जानता है कि आज न तो हमारी सीमाएँ सुरक्षित है और न आंतरिक सुरक्षा ही मजबूत है, न देश की बेेटियां सुरक्षित है और न अन्य। कानून-व्यवस्था की दृष्टि से उत्तरप्रदेश निष्कूष्ठतम प्रदेश बन गया है, ऐसे माहौल में स्वयं भाजपा निराश है, कि आखिर वह कौनसा चमकता चेहरा लेकर वोट मांगने आम वोटर के पास जाएं, इसीलिए अब भाजपा ने हर चुनाव की तरह इस बार भी अयोध्या राममंदिर की भावनात्मक चाल चली है और भाजपा के इसी रास्ते पर अब कांग्रेस भी चलने लगी है। क्योंकि कांग्रेस के पास भी उपलब्धि नाम का कोई ‘कार्ड’ नहीं है।
हाँ, कर्नाटक चुनावों के बाद बैंगलूरू में शपथ-ग्रहण के मंच पर नजर आई प्रतिपक्षी एकता से जरूर भाजपा घबरा गई थी और इसीलिए मोदी जी ने महागठबंधन के गुब्बारे मे से हवा निकलना शुरू किया था, किंतु अब स्वयं मायावती जी ने इस गुब्बारें में छेंद कर दिया है, जिससे सबसे अधिक खुश भाजपा ही है।
इस तरह कुल मिलाकर चार राज्यों की विधानसभाओं के 45 दिन और लोकसभा चुनावों के चार महीनें शेष बचे है, किंतु शायद पहली बार देश का आम वोटर दुविधा में है कि वह किसे व क्यों वोट दें? क्योंकि आम वोटर ने अब तक सभी को परख लिया और सभी ने देश को निराश किया, इसीलिए संभावना है कि विकल्प के अभाव में इन चुनावों में ‘नोटा’ का महत्व बढ़ सकता है, फिर न किसी का भी ‘लच्छेदार’ भाषण काम आएगा और न ही मंदिर-मस्जिद मुद्दा और इसी आशंका ने हर राजनेता की नींद हराम कर रखी है।
तेल के दामः दाल पतली
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सरकार ने पहले अनाज के दाम बढ़ाकर किसानों को राहत दी और अब पेट्रोल और डीजल के दाम घटाकर आम आदमी के गुस्से को ठंडा किया। ये दोनों काम तारीफ के लायक हैं। उचित समय पर किए गए हैं। लेकिन जरा गहराई में उतरें और खुद से पूछें कि ये काम इतनी जल्दी कैसे कर दिए गए, क्यों कर दिए गए तो इनका उत्तर पाकर हमारी तारीफ की दाल पतली हो जाएगी। मोदी सरकार को पता चल गया है कि उसकी लाख कोशिशों के बावजूद देश की जनता मोहभंग की स्थिति में है। प्रधानमंत्री का प्रचारमंत्री की तरह पेश आना एक ऐसा तेवर है, जो पहले दो-तीन साल तो काम कर गया लेकिन अब उसकी चमक उतर रही है। इस मौके पर फसलों के दाम बढ़ाना और पेट्रोल के घटाना अच्छा है लेकिन ऐसा है, जैसे किसी भूखे को चटनी चटाना। क्या अनाजों के दाम दो-चार रु. किलो बढ़ा देने से किसान की दुर्गति दूर हो जाएगी ? क्या भारत के किसानों को उनके उत्पादन पर उतना ही मुनाफा मिलता है, जितना उद्योगपतियों को अपने उत्पादनों पर मिलता है ? क्या किसानों को उनकी ही तरह अरबों-खरबों रु. का कर्ज मिलता है ? क्या उनका कर्ज उसी धड़ल्ले से माफ होता है ? उन्हें बीज, खाद और सिंचाई की सुविधाएं उचित दाम पर मिले, क्या इसके लिए कोई विशेष प्रयत्न दिखाई पड़ता है ? यही हाल पेट्रोल और डीजल का है। इनके दाम में पांच रु. कम कर देने पर सरकार को 10 हजार करोड़ रु. का घाटा होगा लेकिन वह क्यों नहीं बताती कि पिछले चार साल में उसने तेल को कितना निचोड़ा है ? उसने तेल से 13 लाख करोड़ कमाए हैं। उसने चार साल में तेल पर 12 बार टैक्स बढ़ाया है। पेट्रोल पर दुगुना और डीजल पर पांच गुना। तेल की जितनी कीमत, उससे ज्यादा टैक्स ! सासू छोटी, बहू बड़ी। तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमत बढ़ गई, यह भी झूठा बहाना है। 2014 में वह 107 डाॅलर प्रति बैरल थी। आज वह 85 डाॅलर है। तेल का आयात घटाने के लिए चार साल में सरकार ने क्या किया ? कौनसे तेल के नए कुंए खोदे हैं ? भाषणों से तालियां बज सकती हैं, जमीन से तेल नहीं निकल सकता! अभी तो ईरानी तेल पर 4 नवंबर से प्रतिबंध लगेगा, तब देखेंगे कि तेल और डाॅलर की कीमत कितनी ऊंची छलांग लगाएगी?
हलाला : एक परिपाटी की आड़ में हवस का खेल
अजित वर्मा
कुछ मुस्लिम समुदायों में प्रचलित हलाला परम्परा पर इन दिनों जमकर बहस हो रही है। मामला मीडिया के साथ राजनैतिक मंचों पर भी उठ रहा है। तीन तलाक का मामला मोदी सरकार ने उठाकर पहले ही मुस्लिमों के बीच हलचल पैदा कर रखी है। लोकसभा में बहुमत के आधार पर सरकार तीन तलाक सम्बंधी विधेयक को पारित कराने में सफल भी रही थी, लेकिन राज्यसभा में बहुमत न होने के कारण विपक्ष ने इस विधेयक को अटका दिया था। अब सरकार ने अध्यादेश के जरिये इस विधेयक को कानून की शक्ल दे दी है। पर हलाला का मुद्दा अभी केवल बहस तक सीमित है। जबकि इस परम्परा ने कई मुस्लिम महिलाओं का जीना हराम कर रखा है।
हाल ही उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में तीन तलाक पीडि़ता पर दिन दहाड़े एसिड हमला किया गया। पीडि़ता ने हलाला और बहु -विवाह को लेकर सुप्रीम कोर्ट में रिट दायर की है। उसने अपने देवर पर हमले का आरोप लगाया है। महिला को फिलहाल जिला अस्पताल में भर्ती करा दिया गया है। जहां उसका उपचार किया जा रहा है।
मामला दिल्ली के ओखला की निवासी शबनम रानी से संबंधित है। उसका विवाह अगौता के जौलीगढ़ में मुजम्मिल से हुआ था। शबनम के तीन बच्चे भी हैं। शादी के बाद मुजम्मिल ने शबनम को तलाक दे दिया। तलाक की वजह शबनम अपने देवर पर बुरी नियत रखने और हलाला करने का दबाव बताती हैं। शबनम का कहना है कि उसके पति भी इस दबाव में शामिल थे, मगर शबनम ने हलाला मंजूर नहीं किया जिससे उस पर अत्याचार बढ़ गए।
हमारा मानना है कि आधुनिक युग में हलाला जैसी बर्बर और अमानवीय प्रथा पर भी ध्यान दिया जाना जरूरी है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि सुप्रीम कोर्ट ने इसी वर्ष मार्च माह में निकाह हलाला और बहुविवाह प्रथा पर केन्द्र को नोटिस जारी किया था। अब सर्वोच्च न्यायालय निकाह, हलाला की कानूनी वैधता की पड़ताल करेगा। केन्द्र सरकार संकेत दे चुकी है कि वह सर्वोच्च न्यायालय में अपना पक्ष रखते समय निकाह हलाला का विरोध करेगी।
हमारा मानना है कि बुलंद शहर की शबनम जैसी महिलाओं को उत्पीडऩ से बचाया जाना बेहद जरूरी है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय में लम्बित याचिका पर त्वरित सुनवाई बेहद जरूरी है। और स्वयं को तीन तलाक की तरह हलाला के संबंध में भी कानून जल्द की बनाना चाहिए।
इमरान और कुरैशी जरा सोचें
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत-पाक संबंध सुधरेंगे कैसे ? बातचीत और भेंट तो भंग हो गई और अब दौर चला है, तू-तू—मैं-मैं का। पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी को मैं जानता हूं। उन्होंने आतंकवाद को लेकर जिस तरह का भाषण संयुक्तराष्ट्र संघ में दिया है, वैसी आशंका मुझे नहीं थी। वे अपने प्रधानमंत्री इमरान खान से भी आगे निकल गए। उन्होंने आरोप लगाया कि चार साल पहले पेशावर के एक फौजी स्कूल पर हुए आतंकवादी हमले में जो डेढ़ सौ बच्चे मारे गए थे, वह हमला भारत ने करवाया था। उन्होंने बलूचिस्तान में हो रही खलबली के लिए कुलभूषण जाधव को जिम्मेदार ठहराया है। उन्होंने एक और हास्यास्पद बात कह दी। ऐसी बात, जो भारत के कांग्रेसी और कम्युनिस्ट भी कहने से परहेज करते हैं। यह भी उन्होंने कह दिया कि दक्षिण एशिया में आतंकवाद के पैदा होने और फैलने का कारण राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का फासीवाद है। कुरैशी जैसे अनुभवी और समझदार विदेश मंत्री ने ऐसा भाषण देकर अपनी मजाक बनवा ली है। क्या वे भूल गए कि 2014 में जब पेशावर के स्कूली बच्चे मारे गए तो उसके खिलाफ हमारी संसद के दोनों सदनों ने उसके विरुद्ध निंदा-प्रस्ताव पारित किए थे और सारे भारत के स्कूलों में दो मिनट का मौन रखा गया था। इसी प्रकार 2017 में सं. रा. में पाकिस्तान की प्रतिनिधि मलीहा लोदी ने एक घायल फलस्तीनी औरत का फोटो दिखाकर उसे कश्मीरी औरत बता दिया था। क्या पाकिस्तान इस तथ्य से इंकार कर सकता है कि सं. रा. द्वारा घोषित 132 आतंकवादी और 22 आतंकी संगठन पाकिस्तान में पल रहे हैं और सक्रिय हैं ? भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने स.रा. के अपने भाषण में बिल्कुल सही मांग की है कि स.रा. जल्दी से जल्दी आतंकवाद की परिभाषा करे और दक्षिण एशिया को आतंकवाद से मुक्त करे। मेरी अपनी राय यह है कि सुषमा-कुरैशी भेंट को तय करने और रद्द करने, दोनों में भारत सरकार ने अपनी नादानी और जल्दबाजी दिखाई है लेकिन इमरान और कुरैशी ने भी कोई कमी नहीं की है। यदि वे दोनों थोड़े संयम का परिचय देते और थोड़ा वक्त गुजरने देते तो शायद वार्ता का सिलसिला फिर चल पड़ता। अब भी ज्यादा कुछ बिगड़ा नहीं है। यह ठीक है कि भारत में चुनाव का दौर शुरु हो गया है लेकिन यदि भारत-पाक संबंध सुधर जाएं तो मोदी को भारत वह महानता प्रदान कर सकता है, जो उसने आज तक किसी अन्य प्रधानमंत्री को नहीं दी है।
उत्तर भारत में मानसूनी बारिश का कहर
योगेश कुमार गोयल
मानसून ने जाते-जाते हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखण्ड इत्यादि उत्तर भारत के कुछ राज्यों में जो कहर बरपाया है, वह बेहद अप्रत्याशित था लेकिन इस भीषण त्रासदी के बाद एक बार फिर वही सवाल खड़ा हो गया है कि पिछले कुछ समय से प्रकृति बार-बार किसी न किसी रूप में अपना रौद्र रूप दिखा रही है लेकिन बार-बार प्रकृति का खौफनाक रूप देखने के बावजूद हम सुधरना क्यों नहीं चाहते? क्यों हम प्रकृति को सहेजने के कोई सार्थक प्रयास नहीं करना चाहते? एक ओर जहां उत्तर भारत में लोग पूरे सितम्बर माह में बारिश के लिए तरसते रहे, वहीं सितम्बर माह के आखिरी कुछ दिनों में प्रकृति ने ऐसी बारिश की कि चहुं ओर आफत टूट पड़ी। हिमाचल में जहां तेज वर्षा, बाढ़ और बादल फटने की घटनाओं के चलते 300 से भी ज्यादा स्थानों पर सड़कें बह गई, वहीं पंजाब, हरियाणा, उत्तराखण्ड में भी अनेक जगहों पर तबाही का भयानक मंजर देखने को मिला।
राजधानी दिल्ली में भी बारिश ने 8 वर्षों का रिकॉर्ड तोड़ते हुए बाढ़ जैसे हालात पैदा कर दिए। वैसे दिल्ली में कुछ ही दिनों पूर्व भी कुछ पलों की तेज बारिश के चलते कई बार ऐसे ही हालात दिखाई दिए, जब कई स्थानों पर सड़कें दरिया बन गई, सड़कों पर इतना पानी भर गया कि वाहन तक पानी में डूबे नजर आने लगे। घरों, दुकानों इत्यादि तक में इस कदर पानी भर गया कि हर तरफ बड़े-बड़े तालाबों जैसा नजारा दिखाई देने लगा। इस तरह के दृश्यों को देखकर दिल्ली में भी हर किसी को बार-बार अब यही डर सताने लगता है कि अगर चंद घंटों की बारिश में ही दिल्ली का भी यह हाल हो सकता है तो अगर देश के कुछ अन्य राज्यों की भांति यहां भी तीन-चार दिनों तक लगातार ऐसी ही बारिश हो जाए तो शायद दिल्ली भी बाढ़ की चपेट में आ जाए।
कमोवेश यही हालात आज देश के लगभग सभी शहरों में हैं, जहां थोड़ी देर की बारिश में ही जनजीवन पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हो जाता है, सड़कें पानी में डूब जाती हैं और कई स्थानों पर तो तेज बारिश के चलते मकान या अन्य इमारतें भी ताश के पत्तों की भांति पलभर में ढ़ह जाते हैं। हिमाचल में तो मानसून की विदाई की बारिश में पर्यटकों की एक बॉल्वो बस ही पानी में बह गई। बात चाहे दिल्ली की हो या मुम्बई की या फिर हिमाचल, पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड अथवा महाराष्ट्र की, हर साल मानसूनी बारिश के चलते ऐसे हालातों से रूबरू होना जैसे हमारी नियति बन गई है और इस वर्ष तो बाढ़ के चलते देश के कई राज्यों में तबाही का जो हृदयविदारक मंजर देखा जा रहा है, वह भविष्य के लिए सुखद संकेत नहीं हैं।
कोई माने या न माने किन्तु हकीकत यही है कि यह सब प्रकृति से मानवीय छेड़छाड़ के चलते कुदरत के प्रकोप का ही असर है कि एक साथ देश के कई राज्य भयानक बाढ़ से त्रस्त हैं और हम प्रकृति के इस प्रकोप के समक्ष पूरी तरह बेबस और लाचार हैं। केरल में बाढ़ से हुई भारी तबाही का मंजर तो हर किसी ने देखा ही है, इसके अलावा देश के कई अन्य राज्य भी बाढ़ से बुरी तरह बेहाल हैं। बाढ़ की वजह से देशभर में अभी तक डेढ़ हजार से अधिक मौतें हो चुकी हैं। बहुत से पर्यावरण वैज्ञानिकों ने देश के विभिन्न राज्यों में आई बाढ़ को मानव निर्मित त्रासदी की संज्ञा दी है। दरअसल अति वर्षा और बाढ़ की स्थिति के लिए जलवायु परिवर्तन, विकास की विभिन्न परियोजनाओं के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई, नदियों में होते अवैध खनन को प्रमुख रूप से जिम्मेदार माना जा रहा है, जिससे मानसून प्रभावित होने के साथ-साथ भू-रक्षण और नदियों द्वारा कटाव की बढ़ती प्रवृत्ति के चलते होती तबाही के मामले अब निरन्तर बढ़ने लगे हैं।
इस साल एक साथ कई राज्यों में आई बाढ़ कुदरत की ऐसी तबाही है, जिसे किसी भी सूरत में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। प्रतिवर्ष इसी प्रकार के हालात कई राज्यों में उत्पन्न होते हैं लेकिन न सरकारी तंत्र कोई ऐसे पुख्ता इंतजाम करता है, जिससे मानसून के दौरान पैदा होने वाली इस प्रकार की परिस्थितियों की वजह से होने वाले नुकसान को बेहद कम किया जा सके, न ही आमजन ऐसे हालातों से कोई सबक लेकर पर्यावरण संरक्षण में अपना योगदान देने की कोई पहल करता दिखता है। कितनी चिंता की बात है कि विश्वभर में बाढ़ के कारण होने वाली मौतों का पांचवां हिस्सा भारत में ही होता है और प्रतिवर्ष बाढ़ के चलते देश को करीब एक हजार करोड़ रुपये का नुकसान होता है।
निश्चित रूप से प्रकृति में व्यापक मानवीय दखलंदाजी, अवैज्ञानिक विकास, बड़े पैमाने पर वनों की कटाई और हमारी कुव्यवस्थाएं ही हर साल बाढ़ जैसे हालात पैदा करने के लिए पूरी तरह जिम्मेदार हैं। प्रकृति में बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप के चलते ही समुद्र का तल लगातार ऊंचा उठता जा रहा है, जिससे नदियों के पानी की समुद्रों में समाने की गति कम हो गई है और यही अक्सर बाढ़ का सबसे बड़ा कारण बनता है। यह विड़म्बनाजनक स्थिति ही है कि 1950 में देश में जहां करीब ढ़ाई करोड़ हैक्टेयर भूमि बाढ़ के दायरे में आती थी, वहीं अब बाढ़ के दायरे में आने वाली भूमि बढ़कर सात करोड़ हैक्टेयर हो गई है।
कुछ अध्ययनों में यह तथ्य भी सामने आया है कि मानसूनी बारिश की तीव्रता बढ़ते जाने का एक बड़ा कारण ग्लोबल वार्मिंग है और अगर पर्यावरण के साथ खिलवाड़ इसी कदर जारी रहा तो इस प्रकार की त्रासदियां अभी आने वाले समय में और भी गंभीर रूप में सामने आएंगी लेकिन हम हैं कि प्रकृति द्वारा बार-बार दी जा रही गंभीर चेतावनियों के बावजूद कोई सबक सीखने को तैयार ही नहीं हैं। बाढ़ जैसी आपदाएं आने पर हम जी भरकर प्रकृति को तो कोसते हैं किन्तु यह समझने का प्रयास ही नहीं करते कि मानसून की जो बारिश हमारे लिए प्रकृति का वरदान होनी चाहिए, वो अब साल दर बड़ी आपदा के रूप में तबाही बनकर क्यों सामने आती है? किसी भी आपदा के लिए हम सदैव सारा दोष प्रकृति पर मढ़ देते हैं किन्तु वास्तव में प्रकृति के असली गुनाहगार तो हम स्वयं हैं। हम स्वयं से ही यह क्यों नहीं पूछते कि जिस प्रकृति को हम कदम-कदम पर दोष देते नहीं थकते, उसी प्रकृति के संरक्षण के लिए हमने क्या किया है? न हम वृक्षों को बचाने और चारों ओर हरियाली के लाने के लिए वृक्षारोपण में कोई दिलचस्पी दिखाते और न ही अपने जल स्रोतों को स्वच्छ बनाए रखने के लिए कोई कदम उठाते हैं।
आज देश के पर्वतीय क्षेत्र भी प्रकृति का प्रकोप झेलने को अभिशप्त हो रहे हैं लेकिन हम तमाम कारण जानते हुए भी जान-बूझकर अनजान बने रहते हैं और जब एकाएक तबाही का कोई मंजर सामने आता है तो हाय-तौबा मचाने लगते हैं। प्रकृति ने तो पहाड़ों की संरचना ऐसी की है कि तीखे ढ़लानों के कारण वर्षा का पानी आसानी से निकल जाता था किन्तु पहाड़ों पर भी अनियोजित विकास और बढ़ते अतिक्रमण के कारण बड़े पैमाने हो रहे वनों के विनाश ने यहां भी प्रकृति को काुपित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बहरहाल, यदि हम चाहते हैं कि देश में हर साल ऐसी आपदाएं भारी तबाही न मचाएं तो हमें कुपित प्रकृति को शांत करने के उपाय करने होंगे और इसके लिए हमें प्रकृति के विभिन्न रूपों जंगल, पहाड़, वृक्ष, नदी, झीलें इत्यादि की महत्ता समझनी होगी।
कीचड़ कला में प्रगति
हर्षवर्धन पाठक
रंगों का त्यौहार – होली बरसाने की प्रसिद्ध लठमार होली से प्रारंभ होता है और रंग पंचमी तक चलता है। यों तो धुरेड़ी पर सर्वाधिक रंग-गुलाल उड़ता है लेकिन ब्रजक्षेत्र में होली की धूम एक सप्ताह पहले से प्रारंभ हो जाती है। कल्पनानीत आनन्द छा जाता है दिल-दिमाग पर इन दिनों और तन-मन थिरकने लगता है।
होली का एक विकृत रुप और होता है, होली के मूड़ में आकर कुछ लोग एक दूसरे पर कीचड़-गोबर आदि फेंकने लगते हैं। राजनीति में यह कीचड़ होली पूरे साल भर चलती रहती है। चुनाव के समय इसमें तीव्रता आ जाती है।
जब भी चुनाव का समय आता है, परस्पर आरोंपों की बौछार तेज हो जाती है। यह राजनीति का अवांछनीय स्वरुप है लेकिन चुनावी राजनीति में सब कुछ चलता है, ऐसा मान लिया गया है। आरोपों की यह राजनीति नीतिगत विषयों पर, चुनावी वायदों पर, दलों या उम्मीदवारों के सार्वजनिक आचरण पर, उपलब्धियों के दावों की वास्तविकताओं, जैसे मुद्दों पर केन्द्रित रहे तो इसमें कोई आपत्ति नहीं हैं लेकिन हैरत तब होती है, जब उम्मीदवारों ही नहीं उनके परिवारजनों पर, राजनेताओं के सगे संबंधियों को भी व्यक्तिगत आरोपों के दायरे में घसीट लिया जाता है।
यह राजनीति का गंभीर दोष बनता जा रहा है कि राजनीतिज्ञों में आत्मावलोकन की की दृष्टि धूमिल हो रही है जबकि उनकी असहिष्णुता बढ़ रही है तथा प्रतिपक्षी का सम्मान कम हो रहा हैं। इसमें इलेक्ट्रानिक मीडिया को भी कुछ प्रतिशत दोष दिया जा सकता है कि वह सामाजिक सरोकार तथा स्वस्थ राजनीति को प्रश्रय नहीं दे रही है तथा टी.आर.पी. रेटिंग बढ़ाने के लोभ में उन आरोपों को भी उछालती रहती है जो स्वस्थ राजनीति के मापदंड पर सही नहीं उतरते लेकिन समय की कमी, बढ़ती प्रतिस्पर्धा, सामाजिक दबाव तथा चतुर राजनीतिज्ञों के द्वारा निर्मित भ्रमजाल आदि अनेक जटिलतायें इजेक्ट्रानिक मीडिया के सामने होती है। प्रिन्ट मीडिया अर्थात समाचार पत्रों के लिये समय की सुविधा होती है। वे इन आरोपों की छानबीन कर सकते है। यह कीचड़ होली चुनाव के समय खेली जाती है और मतदान की तिथि आने तक राजनीतिज्ञों के द्वारा प्रतिपक्षियों पर आरोपों की बाढ़ बढ़ती जाती है। यह आरोपात्मक राजनीति है जो अधिक प्रचलन में तभी आती है, जब पक्ष में कहने के लिये सकारात्मक तथ्य कम होते है।
कुछ समय पहिले एक साबुन का विज्ञापन बहुत प्रचलित था कि मेरी साड़ी से उसकी साड़ी अधिक उजली क्यों है? लेकिन वर्तमान राजनीति में यह सिद्ध करने की प्रवृत्ति अधिक है कि मेरे दामन से उसका दामन अधिक दागदार है। राजनीतिज्ञों में अधिक उज्जवलता की होड़ नहीं होती अपितु प्रतिपक्षी को अधिक दागदार बताने की प्रतिस्पर्धा चलती है। अप्रत्यक्ष तौर पर यही बताने की कोशिश या प्रतियोगिता चलती रहती है कि हमारी तुलना में प्रतिपक्षी दल या नेता पर अधिक आरोप है।
यह निष्कर्ष निकालना गलत नहीं होगा कि राजनीति अब मात्र नकारात्मक नहीं है अपितु आरोपात्मक अधिक होती जा रही है। लोकतंत्र के लिये यह शुभ संकेत नहीं है। आजादी के बाद के इन सात दशकों में राजनीति में सहिष्णुता, और असहमति का सम्मान किये जाने की परिस्थितियां विकसित होना चाहिए था। असहमति के स्वर को धैर्य तथा प्रतिष्ठा के साथ सुने जाने की परम्परा स्थापित होना चाहिए थी, लेकिन इसके विपरीत ऐसा राजनीतिक परिवेश निर्मित हो रहा है जिसमें असहिष्णुता की जिद प्रतीत होती है, असहमत पक्ष के सम्मान की लोकतांत्रिक भावना कम हो रही है।
पिछले कई वर्षों से ऐसी घटनाएं विधानमण्डलों में तथा संसद में और बाहर सड़कों पर घटित हो रही है, जिनका भावार्थ यही है कि हमारे राजनीतिज्ञ दिनों दिन अधिक असहिष्णु होते जा रहे है। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद कुछ वर्षों तक प्रतिपक्षियों या आलोचकों की बात शांति और धैर्य से सुनने और उनका समुचित समादर करने की परम्परा थी। बाद में धीरे-धीरे इसमें गिरावट आने लगी। इसी का परिणाम है कि संसद जैसी सर्वोच्च लोकतांत्रिक संस्था की बैठक के दौरान संसद सदस्य हाथापायी पर उत्तर आते हैं। इससे लोकतंत्र की गरिमा गिरने लगी हैं।
इस माहौल में इन राजनीतिज्ञों को महात्मा गांधी के इस कथन की याद दिलाये जाने की जरुरत है- ”मेरी दृष्टि में राजनीतिक सत्ता अपने आप में साध्य नहीं है। यह जीवन के प्रत्येक विभाग में लोगों के लिये अपनी हालत सुधार सकने का एक साधन है।“ गाँधी जी के मत के विपरीत भारत में आम राजनीतिज्ञ का एक मात्र लक्ष्य राजनीतिक सत्ता की प्राप्ति रह गया है। राजनीति का गिरता स्तर अब संसद में भी दिखने लगा है। सत्ता प्राप्ति की लालसा या सत्ता में बने रहने की लालसा में सब तरह के दावपेंच अपनाये जा रहे हैं। आरोपात्मक राजनीति भी इसी लालसा का सबसे अशोभनीय पहलू है।
वैसे यदि राजनीतिज्ञों की असहिष्णुता का विश्लेषण किया जाये तो यह पाया जायेगा कि कुछ छोटे दलों के नेता संयम और औचित्य की अवहेलना अधिक करते हैं। यह स्वाभाविक है। उनके लिये यह आवश्यक नहीं होता है कि वे व्यापक परिपेक्ष्य में सोचें। राष्ट्रीय दलों के नेताओं को अपनी राजनीति व्यापक परिप्रेक्ष्य में खेलना होती है, और इस कारण असहिष्णुता की नीति कई बार उनके लिये घातक होती हैं। बड़े दलों के नेताओं को हर प्रदेश में अपने वोट बैंक और हितों को ध्यान में रखकर उदारवाद का परिचय देना होता है। छोटे दलों के नेताओं का असहिष्णु व्यवहार और प्रतिक्रिया उनकी वीरता और निर्भीकता का प्रतीक बन जाता है, जबकि बड़े दलों के नेताओं का ऐसा ही व्यवहार आलोचना का बिन्दु होता है।
होलिका दहन की रात में प्रहलाद की बुआ होलिका का पुतला जलाने की परंपरा है लेकिन पिछले कुछ वर्षों से अपने विरोधी नेता के पुतले जलाने की घटनाओं में वृद्धि हुई है। यह भी वृद्धि भी आरोपात्मक असहिष्णु राजनीति का परिचायक है। किसी नेता के पुतले जलाने से राजनीति में उसका कद और बढ़ जाता है। इसके बावजूद यदि सड़क की राजनीति में ऐसे तौर तरीके अपनायें जा रहे हैं, तो इसका एक कारण यह भी है कि अनेक वरिष्ठ नेता यह चाहते हैं कि उनके समर्थक इस प्रकार की वीरता का प्रदर्शन सरे राह करें। वे यह मानते हैं कि उनके समर्थकों में यह वीरभाव तभी पैदा किया जा सकता है, जब उनको जल्दी उत्तेजित होने वाला, धैर्य की कमी वाला और असहिष्णु बनाया जाये।
दुर्भाग्य से इन दिनों यह हो रहा है। प्रतिद्वन्दियों के लिए परस्पर घटिया शब्दावली का उपयोग हो रहा है। यह अशोभनीय कार्य राजनीतिक दलों के राष्ट्रीय स्तर के नेता भी कर रहे हैं। पुलिस या प्रशासन के बल पर विरोधियों के दमन करने की कोशिश भी हो रही है। लोकतंत्र के लिए यह शुभ संकेत नहीं है। असहमति का सम्मान करने तथा प्रतिपक्षियों को धैर्य से सुनने की क्षमता राजनीतिज्ञों में होना चाहिए। तभी लोकतंत्र सफल हो सकता है।
अमेरिका की बंदूक-संस्कृति
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा बंदूकबाज राष्ट्र है। अमेरिका के नागरिकों के पास जितनी बंदूकें हैं, उतनी दुनिया के किसी भी राष्ट्र के नागरिकों के पास नहीं है। अमेरिका में सिर्फ 31 करोड़ लोग रहते है लेकिन उनके पास लगभग 30 करोड़ बंदूकें हैं। दुनिया के सबसे उन्नत 22 देशों में बंदूकों से जितनी हत्याएं होती है, उनसे 25 गुना ज्यादा हत्या अकेले अमेरिका में हो जाती हैं। अमेरिकी टीवी चैनल और अखबार बंदूकबाजी से भरे होते हैं। पिछले दो माह में सात अमेरिकी स्कूलों में गोलीबार के वाकए हो गए है। जिस दुर्घटना ने अमेरिका में आजकल बंदूक-विरोधी माहौल खड़ा कर दिया है, वह वेलेंटाइन डे पर फ्लोरिडा के एक स्कूल में घटी थी। उसमें 17 लोग मारे गए और 15 बुरी तरह घायल हो गए। इस बंदूकबाजी पर जो प्रतिक्रिया डोनाल्ड ट्रंप ने दी, उसने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है। ट्रंप ने कहा कि इन स्कूलों के अध्यापकों केा बंदूक चलाने और उन्हें छिपाकर रखने का विशेष प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि वे बंदूकों का मुकाबला बंदूकों से कर सकें। ट्रंप के इस बयान के विरोध में कई अध्यापक और छात्र सड़कों पर उतर आए हैं। इस बयान से साफ जाहिर होता है कि ट्रंप विचारशील आदमी नहीं हैं। उन्होंने ऐसा बयान देकर अमेरिका की बंदूक संस्कृति को और अधिक मजबूत बना दिया है। वहां बंदूकें घटने की बजाय बढ़ेंगी। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि अमेरिका की रायफल एसोसिएशन ने उनके चुनाव में उनकी सक्रिय सहायता की थी। ट्रंप ने कल बंदूकबाजी के लिए वीडियो गेम्स और फिल्मों को भी जिम्मेदार ठहराया है लेकिन बंदूक रखने को नियंत्रित करने या प्रतिबंधित करने के बारे में वे एक शब्द भी नहीं बोल रहे हैं। रायफल संघ का कहना है कि ऐसा करना अमेरिकी संविधान का उल्लंघन और मानवीय स्वतंत्रता का हनन होगा। सच्चाई तो यह है कि गोरे यूरोपीय लोगों ने दो-ढाई सौ साल पहले जब अमेरिका पर कब्जा किया था तो उनका एक मात्र सहारा बंदूक ही थी। लेकिन अब वे चाहें तो बंदूक रखने पर प्रतिबंध लगा सकते हैं। अमेरिका अब इतना सभ्य और संपन्न बन गया है कि वह अपनी इस बंदूक-संस्कृति को अंतिम नमस्कार कर सकता है।
स्वास्थ्य सेवकों की मरती संवेदनाएं और सरकार ?
डॉ. मयंक चतुर्वेदी
मध्यप्रदेश में इन दिनों संविदा स्वास्थ्य कर्मी हड़ताल पर हैं। राज्य सरकार अपने स्तर पर स्वास्थ्य सेवाओं के लिए वैकल्पिक
स्त्रोत जुटाने में लगी है, जिससे कि स्वास्थ्य सेवाएं निरंतर सुचारु रूप से चल सकें, लेकिन जिस तरह से गैर जिम्मादारा निर्णय स्वास्थ्य संविदा कर्मियों ने लिया है, उसकी जितनी भर्त्सना की जाए कम ही होगा ।
क्या यह मानवीयता के हित में है ? इससे सभी सहमत हैं कि उनकी मांगे उचित हैं, किंतु क्या आप इनके लिए आमजन के जीवन से खिलवाड़ कर सकते हो ? क्या इसीलिए आपको आनायास-अप्रत्यक्ष रूप से लोगों के जीवन को समाप्त कर देने का हक दिया जाना चाहिए कि सरकार आपकी मांगों को पूरा नहीं कर पा रही है तो हड़ताल जायज है। निश्चित ही इस हड़ताल के लिए जितनी दोषी सरकार है उससे कहीं अधिक दोषी वे संविदा कर्मी हैं जोकि अनजाने में ही अपनी स्वास्थ्य सेवाएं नहीं देकर अब तक कई लोगों को मौंत के मुंह में ढकेल चुके हैं।
प्रदेश में आज संविदा कर्मचारियों की हड़ताल के कारण से पोषण पुनर्वास केंद्र का संचालन बंद हो गया है । राष्ट्रीय बाल सुरक्षा कार्यक्रम के तहत गांव-गांव जाकर बच्चों का स्वास्थ्य परीक्षण का काम ठप हो गया है। स्पतालों में पर्चा बनवाने के लिए विभाग के विशेष इंतजाम होने के बाद भी कई स्थानों पर व्यवस्था चरमराई हुई है । गहन चिकित्सा इकाई, टीकाकरण,
कार्यक्रम, मलेरिया, टीबी, अंधत्व, कुष्ठ कार्यक्रम प्रभावित हो रहे हैं। इसके अतिरिक्त संविदा स्वास्थ्य कर्मचारियों की हड़ताल में फार्मासिस्ट के शामिल होने के कारण से अप्रशिक्षित हाथों से दवा वितरण का कार्य हो रहा है। जोकि नियम फार्मासिस्ट एक्ट 1948 का सीधा उल्लंघन है लेकिन इस हड़ताल में यह नियम व्यर्थ कर दिया है।
प्रदेश में आज 19 हजार 500 संविदा स्वास्थ्यकर्मी हैं। निश्चित ही यह एक बड़ी संख्या है, जिनके स्वास्थ्य सेवाओं से पीछे हटने के कारण इस क्षेत्र में स्थितियां बिगड़ी हैं। फिर भले ही राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन म.प्र के मिशन संचालक एस.विश्वनाथन कह रहे हों कि संविदा स्वास्थ्य कर्मियों की अनिश्चितकालीन हड़ताल के बाद भी गर्भवती महिलाओं एवं बच्चों के लिये निर्धारित तालिका अनुसार टीकाकरण सेवायें उपलब्ध कराने के लिये प्रदेश शासन संकल्पित है। हम सेवानिवृत्त एएनएन, एलएचवी तथा स्टाफ नर्सों से कार्य करवाएंगे । हड़ताल से आम नागरिकों को किसी भी तरह की असुविधा नहीं होने दी जाएगी। किंतु यह कथन पूरी तरह सच नहीं है। वस्तुत: स्वास्थ्य सेवाएं प्रदेश की बुरी तरह से प्रभावित हुई हैं।
यह ठीक है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के पालन में समान कार्य के बदले समान वेतन देने जैसी मांगें रखी जानी चाहिए और इस पर प्रदेश सरकार को भी गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए । स्वास्थ्य कर्मचारी संघ एनआरएचएम द्वारा अपनाई जा रही एप्रेजल प्रथा समाप्त करने की मांग कर रहा है। इसके अलावा नर्सेस संवर्ग के कर्मचारियों का केंद्र के समान पदनाम होने, तीन साल की नियमित सेवा कर चुके कर्मचारियों का संविलियन करने के साथ ही कर्मचारियों की अन्य मांगे भी हैं। जिन्हें लेकर कहा जा सकता है कि कर्मचारियों की इन मांगों का विरोध आज कोई नहीं कर रहा, पर सत्य यही है कि जिस कार्य में संविदा स्वास्थ्य कर्मी लगे हुए हैं वह उनके व्यक्तिगत सुख से बढ़कर सेवा का कार्य है, यह बात भी उन्हें समझनी होगी।
वस्तुत: मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने वर्ष 2013 में संविदा कर्मियों को नियमित किए जाने की नीति बनाई थी, इस नीति का पूरा मसौदा उपलब्ध है, जिसके अध्ययन के बाद इसके अमल के लिए कदम बढ़ाए जा सकते हैं। वास्तव में होना यह चाहिए कि कर्मचारी इस नियमितिकरण के लिए बनी पॉलिसी पर चर्चा करें और सीधे मुख्यमंत्री से आमने-सामने की बात करें। दूसरी ओर सरकार को भी चाहिए कि वह ऐसे हालातों से बचे जिससे स्वास्थ्य सेवाएं और अधिक प्रभावित हों ।
इसी के साथ सरकार को यह भी देखना चाहिए कि महानगरों में एवं ज्यादातर स्थानों पर चिकित्सा सेवाएं जुनियर डाक्टरों के हाथों में हैं, जबकि वहां सीनियर प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मचारियों की बहुत अधिक आवश्यकता प्रदेश के अस्पतालों को है। दूसरी ओर जब सरकार संविदा शिक्षकों को नियमित करने की दिशा में कदम उठा सकती है, तब स्वास्थ्य जैसा महती जिम्मेदारी और जीवन देनेवाले विभाग के संविदा कर्मियों को नियमित करने में उसे कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। बेशक इससे सरकारी खजाने पर असर पड़ेगा लेकिन हम जानते हैं कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अत्यधिक संवेदनशील मुख्यमंत्री हैं, उनकी सरकार ने प्रदेश के विकास के लिए पिछले वर्ष ही बाजार से कर्ज लिया है। आंकड़े बताते हैं कि मध्यप्रदेश पर आज
डेढ़ लाख करोड़ रुपए से अधिक कर्ज है। स्वयं मुख्यमंत्री कह चुके हैं कि विकास की रफ्तार बढ़ाने के लिए कर्ज लेना पड़ता है और ये नियमों के दायरे में है। वस्तुत: यह सभी जानते हैं कि प्रदेश में भाजपा की सरकार आने के बाद विकास पर फोकस किया गया है। हर क्षेत्र में आज विकास दिखाई दे रहा है,सड़क, बिजली, पानी, निवास जैसी मूलभूत आवश्यकताओं के साथ सरकार ने उन सभी क्षेत्रों पर समग्रता से ध्यान दिया है जोकि एक स्वस्थ समाज की आवश्यकता है। ऐसे में यदि अपने स्वास्थ्य कर्मचारियों के लिए भी सरकार को कर्ज लेना पड़े तो इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिए कि भाजपा की शिवराज सरकार इसमें पीछे रहेगी। वहीं इसके उलट स्वास्थ्य कर्मचारियों को भी समझना होगा कि आज नहीं तो कल सरकार उनकी बात मान ही लेगी इसलिए वे हड़ताल का रास्ता त्यागकर स्वास्थ्य से जुड़े सेवा के पूनीत कार्य में तुरंत जुट जाएं ।
किम जोंग में बदलाव बड़े खतरे के संकेत तो नहीं…..? ओमप्रकाश मेहता
कल तक उत्तर कोरिया का जो तानाशाह परमाणु बम का एक बटन दबाकर अमेरिका जैसी महाशक्ति को नष्ट कर देने की धमकी देते नहीं थकता था, वहीं तानाशाह किम जोंग आज अचानक अमेरिका व दक्षिण कोरिया के राष्ट्राध्यक्षों से शांतिपूर्ण वार्ता करने और अपनी परमाणु शक्ति घटाने की बात करने लगा है, कहीं यह तानाशाह की नई साजिश की कोई रणनीति के संकेत तो नहीं है? क्योंकि किम जोंग जैसे क्रूर और बेरहम तानाशाह के मिज़ाज में अचानक ऐसा बदलाव आना कम विस्मय की बात नहीं है। इसी तानाशाह की ‘‘’गीदड़ भभकियों’’ के कारण पूरे विश्व में तीसरे विश्वयुद्ध की आशंकाएँ व्यक्त की जा रही थी और कई देशों ने महासागरों में उसकी ‘रिहर्सल’ कर तैयारी भी शुरू कर दी थी, किंतु चीन यात्रा में अपने कथित बड़े भाई व चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से भेंट करने के बाद किम जोंग में अचानक यह रहस्यमयी परिवर्तन नज़र आया।
उत्तर कोरिया के तानाशाह राष्ट्रपति किम जांेग राष्ट्रपति पद ग्रहण करने के सात साल बाद उत्तर कोरिया से बाहर की यात्रा पर निकले, चूंकि उत्तर कोरिया का नब्बे फीसदी आर्थिक व्यापार चीन पर आधारित है, इसलिए किम जोंग चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को अपना बड़ा भाई व मार्गदर्शक मानते है। यद्यपि किम जांेग की इस गोपनीय चीन यात्रा को उत्तर कोरिया व चीन दोनों ने ही अनाधिकारिक बताया, लेकिन चीन ने ‘‘गार्ड आॅफ आॅनर’’ देकर यात्रा को अधिकारिक रूप प्रदान कर दिया। चीन में किम जोंग चार दिन रहे और चीनी राष्ट्रपति से कई दौरों की बातचीत भी हुई, चर्चाओं का पूरा ब्यौरा तो उजागर नहीं किया गया, किंतु यह जरूर बताया गया कि उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जांेग अगले कुछ ही दिनों में अपने कट्टर दुश्मन दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून-जेई-इन, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प व रूस के राष्ट्रपति पुतिन से भंेट करेंगे। उन्होंने जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आपे से भी मिलने की बात कही है। किम जोंग का कहना है कि वे दक्षिण कोरिया, अमेरिका, जापान व रूस की यात्रा पर शीघ्र ही जाएगें। वैसे अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प से मई में भेंट का कार्यक्रम पहले से ही तय है। इसी के साथ किम जांेग का यह भी कहना है कि वे अब अपनी परमाणु शक्ति घटाने का प्रयास करेंगे, क्योंकि वे भी विश्वशांति के समर्थक है। पूरा विश्व आज किम जोंग में आए इस आकस्मिक परिवर्तन को शक व आश्चर्य की नज़र से देख रहा है।
वैसे जाहिरतौर पर अब हर कहीं यह पूछा जा रहा है, तानाशाह किम जांेग ने अचानक बिना किसी तामझाम के चीन की यात्रा का कार्यक्रम क्यों बनाया? इसकी वजह जाहिरतौर पर तो यही बताई जा रही है कि चूंकि चीन उत्तर कोरिया का सबसे बड़ा आर्थिक हिस्सेदार है और उत्तर कोरिया की आर्थिक निर्भरता पूरी तरह चीन आधारित है, इसलिए किम जांेग चीन को अपना सबसे बड़ा हितैषि और मद्दगार मानता है और चीन के राष्ट्रपति को अपना सबसे बड़ा हितचिंतक बड़ा भाई। इसीलिए यात्रा के दौरान किम जांेग ने यह दिखाने का प्रयास भी किया कि अब वह परमाणु कार्यक्रमों के मसलों पर चीन के अनुसार ही आगे बढ़ेगा, साथ ही उन्होंने दुनिया को यह संदेश भी दिया कि कोरियाई महाद्वीप में तनाव कम करने में चीन की भूमिका अहम् है।
यह तो हुई जाहिर बात! अब यदि अंदर की खिचड़ी पकने की बात करें तो चीन के राष्ट्रपति ने किम जोंग को कई तरह के कूटनीतिक पाठ पढ़ाए और कोई आश्चर्य नहीं कि चीन ने किम के साथ अपने समर्थक देशों के नए गुट का भी ताना-बाना बुना हो? साथ ही चीन व उत्तर कोरिया दोनों के राष्ट्राध्यक्षों ने रूस का पूरा साथ देने का फैसला ले लिया हो? क्योंकि अब जो विश्व में दो शक्ति गुट बनने वाले है, उनका नेतृत्व रूस व अमेरिका आमने-सामने आकर ही करने वाले है और जिस तरह अमेरिका सहित कई देशों ने रूस के राजनायिकों को अपने देशों से निष्कासित किया, यह इसी सोची-समझी रणनीति का अंग है, इसलिए यदि यह कहा जाए कि उत्तर कोरिया व चीन के राष्ट्राध्यक्षों ने इसी रणनीति के बारे में आपसी मंथन किया है तो कतई गलत नहीं होगा? क्योंकि कल तक जो एक छोटे से देश का तानाशाह राष्ट्रपति अमेरिका जैसी महाशक्ति को परमाणु बम से उड़ा देने की खुलेआम धमकी दे रहा था, वह अचानक पिघलकर मोम की सूरत अख्तियार कर लेगा, यह आश्चर्यजनक तो है?
इस प्रकार कुल मिलाकर उत्तर कोरिया के तानाशाह राष्ट्राध्यक्ष की अचानक चीन यात्र कई प्रश्नों को अपने पीछे तो छोड़ ही गई, जिनके जवाब भविष्य में मिलेगें।