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पैराडाइज पेपर्स: काले पन्नों के सफेद दागी पैराडाइज पेपर्स: काले पन्नों के सफेद दागी
-प्रमोद भार्गव
कालेधन पर बड़ा प्रहार मानी जा रही नोटबंदी की सालगिरह के ठीक पहले विदेशों में कालाधन सफेद करने को लेकर बड़ा नया खुलासा हुआ है। इसके अठारह माह पहले पनामा पेपर्स के जरिए दुनियाभर के सफेद कुबेरों में 426 भारतीयों के नाम सामने आए थे। यह खुलासा जर्मनी के अखबार ’ज्यूड डॉयचे त्साइटुंग’ ने किया था। इसी अखबार ने अब ’इंटरनेशनल कंसोर्टियम ऑफ इनवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट (आईसीआईजे) नामक खोजी रिपोर्ट छापी है। इस रिपोर्ट को विश्व के 96 समाचार संस्थानों के पत्रकारों ने मिलकर फर्जी कंपनियों के जरिए कालाधन जमा करने वाले कुबेरों के दस्तावेजों को खंगाला और फिर विश्वस्तरीय खुलासा किया है। इनमें भारत का इंडियन एक्सप्रेस समाचार पत्र समूह भी शामिल हैं। इसके लिए 1.34 करोड़ दस्तावेजों की छानबीन की गई। इनसे उजागर हुआ कि बरमूडा की सवा सौ साल पुरानी वित्तीय एवं कानूनी सलाहकार कंपनी ऐपलबे ने कालेधन का निवेश बड़ी मात्रा में कराया। इस खुलासे से पता चला है कि सबसे ज्यादा कालाधन जमा करने वाले लोगों में 31000 अमेरिका के 14000 ब्रिटेन और 12000 नागरिक बरमूडा के हैं। भारत के 714 लोगों के नाम पैराडाइज अभिलेखों में हैं। इनमें लोकप्रिय सिने अभिनेता अमिताभ बच्चन, केंद्रीय नागरिक एवं उड्डयन राज्य मंत्री जयंत सिन्हा, भाजपा के राज्यसभा सांसद आरके सिन्हा, राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, कांग्रेस नेता सचिन पायलट, पी. चिदंबरम के बेटे के साथ कार्ति चिदंबरम कारोबारी विजय माल्या, लॉविस्ट नीरा राडिया, फोर्टिस-एस्कॉर्टस अस्पताल के अध्यक्ष डॉ अशोक सेठ और संजय दत्त की पत्नी मान्यता दत्त जैसे प्रमुख लोगों के नाम शामिल हैं। हालांकि इस सूची में नाम होने से यह जाहिर नहीं होता कि ये लोग कर वंचना के दोषी है। दरअसल विदेशी बैंकों में धन जमा करना कोई अपराध उस स्थिति में नहीं हैं, जब कायदे-कानूनों का पालन करके धन जमा किया गया हो। इसलिए यह जांच के बाद ही साफ होगा कि भारतीय नागरिकों ने कर चोरी करते हुए धन जमा किया है। दरअसल पनामा पेपर्स उजागार होने पर 426 भरतीयों के नाम सामने आए थे। इनकी जांच करने पर पता चला कि इनमें से 147 लोग और कंपनिया ही कार्यवाही के लायक हैं। लेकिन कर चोरी में लिप्त होने के बावजूद इनके विरुद्ध अब तक कोई कड़ी कार्यवाही नहीं की गई है। इस लिहाज से यह आशंका उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि सरकार कर चोरी करने वालों के विरुद्ध कोई कार्यवाही करना चाहती भी है या नहीं ? जबकि इन्हीं पनामा पेपर्स में नाम आने पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को न केवल सत्ता से वंचित होना पड़ा, बल्कि अदालती कार्यवाही का भी सामना कर रहे हैं। पैराडाइज दस्तावेज 180 देशों के नागरिक और कंपनियों से जुड़े हैं। इनमें भारत 19वें नबंर पर हैं। बरमूडा की ऐपलबे कंपनी अपनी दुनियाभर में फैंली 118 सहयोगी कंपनियों के जरिए दुनिया के भ्रष्ट नौकरशाहों, राजनेताओं, उद्योपतियों और अन्य व्यवसायों से जुड़े लोगों का कालाधन विदेशी बैंकों में जमा कराने के दस्तावेज तैयार करती है। बहुराष्ट्रय कंपनियों के शेयर खरीदने-बेचने और उनमें भागीदारी के फर्जी दस्तावेज भी यह कंपनी तैयार कराती है। कर चोरी का ये लोग दुनिया के उन देशों में अपने धन को सुरक्षित रखते है, जिन्हें कालेधन का स्वर्ग कहा जाता है। एक जमाने में स्विट्जरलैंड इसके लिए बदनाम था। लेकिन अब मॉरिशस, बरमूडा, बहामास, लग्जमबर्ग और कैमन आईलैंड देश भी कालेधन को सुरक्षित रखने की सुविधा कालेधन के कुबेरों को दे रहे हैं। इन देशों ने ऐसे कानून बनाए हुए हैं, जिसे लोगों को कालाधन जमा करने की वैधानिक सुविधा प्राप्त होती है। दरअसल इसी धन से इन देशों की अर्थव्यवस्थाएं गतिशील हैं। बरमूडा एक छोटा देश है और वहां प्राकृतिक एवं खनिज संपदाओं की कमी है। इसलिए यह देश अपनी अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाए रखने के लिए देश तस्कर व अपराधियों का धन भी सफेद बनाने का काम बड़े पैमाने पर करता है। यही वजह है कि स्विस बैंकों की तरह बरमूडा भी काले कारोबारियों के लिए एक सुरक्षित पनाहगाह बन गया है। हालांकि इसके पहले भी भारतीय लोगों के नाम इस तरह के खुलासों में आते रहे हैं। अप्रैल 2013 में ऑफशोर लीक्स के नाम से पहला खुलासा हुआ था। इसमें 612 भारतीयों के नाम शामिल थे। फिर स्विस लीक्स नामक खुलासा हुआ। इसमें 1195 भारतीयों के नाम थे। इनके खाते एचएसबीसी बैंक की जिनेवा शाखा में बताए गए थे। इसके बाद 2016 में पनामा लीक्स के जरिए 426 भारतीयों के नाम सामने आए थे। इन सभी खुलासों के बावजूद कर चोरी करने वालों पर अब तक कोई ठोस कार्यवाही सामने नहीं आ पाई है। नरेंद्र मोदी सरकार नोटबंदी और शेल कंपनियों पर कानूनी शिकंजे को बड़ी कार्यवाही मानकर चल रही है। लेकिन इन सब कोशिशों से कालेधन के उत्सर्जन पर कितना असर पड़ा, यह पारदर्शिता के साथ स्पष्ट नहीं हो पाया है ? यदि समय रहते फर्जी कंपनियां बनाने वालों पर कड़ी कानूनी कार्यवाही नहीं की गई तो कल को फिर से कागजी कंपनियां वजूद में आ जाएंगी ? दरअसल हमारा प्रशानिक ढांचा कुछ ऐसा है कि वह गलत काम करने वालों को कानूनी सरंक्षण देता है। इसलिए अवसर मिलते ही नए-नए गोरखधंधे शुरू हो जाते हैं। सरकार जिस तरह से उद्यमिता को बढ़ावा देने के लिए स्टार्टअप और स्टेंडअप जैसे तकनीकि कारोबारियों को प्रोत्साहित कर रही है, उसमें शेल कंपनियों को बढ़ने में देर नहीं लगेगी। दरअसल दुनिया में 77.6 प्रतिशत काली कमाई ’ट्रांसफर प्राइसिंग’ मसलन संबद्ध पक्षों के बीच सौदों में मूल्य अंतरण के मार्फत पैदा हो रही है। इसमें एक कंपनी विदेशों में स्थित अपनी सहायक कंपनी के साथ हुए सौदों में 100 रुपए की वस्तु की कीमत 1000 रुपए या 10 रुपए दिखाकर करों की चोरी और धन की हेराफेरी करती हैं। ऐपलबे कंपनी यही गोरखधंधा कर रही थी। भारत समेत दुनिया में जायज-नजायज ढंग से अकूत संपत्ति कमाने वाले लोग ऐसी ही कंपनियों की मदद से एक तो कालेधन को सफेद में बदलने का काम करते हैं,दूसरे विदेश में इस पूंजी को निवेश करके पूंजी से पूंजी बनाने का काम करते हैं। हालांकि कंपनी ने दस्तावेजों के लीक होने के बाद दावा किया है कि वह तो विधि-सम्मत काम करती है। दरअसल समस्या की असली जड़ यहीं हैं। यूरोप के कई देशों ने अपनी अर्थव्यस्था को मजबूत बनाए रखने के लिए दोहरे कराधान कानूनों को वैधानिक दर्जा दिया हुआ है और इन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सरंक्षण प्राप्त है। बरमूडा, पनामा और स्विट्रलैंड जैसे देशों के बैंकों को गोपनीय खाते खोलने, धन के स्रोत छिपाने और कागजी कंपनियों के जरिए लेनदेन के कानूनी अधिकार हासिल हैं। भारत में ’प्रर्वतन निदेशालय एचएसबीसी और उससे पहले की आईसीआईजे के राजफाश पर 43 विदेशी खातों की जांच कर रहा है। आईसीआइजे द्वारा 2013 में बताई गई सूचना के आधार पर राजस्व विभाग के 434 लोगों की पहचान की है, जिनमें से 184 ने विदेशी इकाइयों से सौदे की बात स्वीकार ली है। इन खातों के विस्तृत आकलन के बाद लगभग 6500 करोड़ रुपए की अवैध संपत्ति का पता चला है। ’अमेरिका सीनेट की एक रिपोर्ट से भी यह उजागर हुआ था कि ब्रिटेन के हांगकांग एंड शंघाई बैंक कॉर्पोरेशन यानी एचएसबीसी बैंक मनी लॉन्ड्रिंग में शामिल है। रिपोर्ट में स्पष्ट तौर से कहा गया था कि इस बैंक के कर्मचारियों ने गैर कानूनी तरीक से कालाधन का हस्तांतरण किया है। कुछ धन का लेनदेन आतंकवादी संगठनों को भी किया है। इस खुलासे के बाद भारतीय रिर्जव बैंक ने भी अपने स्तर पर पड़ताल की थी, लेकिन इस पड़ताल के निष्कर्ष क्या निकले,यह कोई नहीं जानता ? भारत में इस खुलासे के बाद राजनीतिक सरगर्मी तेज होना लाजिमी है, वैसे भी गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव चल रहे है, इसलिए आरोप-प्रत्यारोप और गहराएंगे। अब तक कांग्रेस पर ही कालेधन को छुपाने के आरोप लगते रहे हैं। लेकिन इस बार केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा और सांसद आरके सिन्हा के नाम आने से भाजपा भी कठघरे में है। वह इस मुद्दे पर कैसे पाक साफ निकल पाएगी चुनावी परीक्षा की घड़ी में यह मुश्किल काम है। (लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।)
अफगान ने अड़ाया अंगद का पांव
(डॉ. वेदप्रताप वैदिक)
अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी की कुछ घंटों की यह भारत-यात्रा बहुत सार्थक रही। यह यात्रा बहुत संक्षिप्त थी लेकिन एक तो यह तब हुई जबकि अमेरिकी विदेश मंत्री रेक्स टिलरसन काबुल और इस्लामाबाद में दोनों देशों के नेताओं से बात कर चुके थे और तीसरे देश, भारत के नेताओं से बात करने दिल्ली आए हुए हैं। टिलरसन से पहले ही गनी दिल्ली पहुंचे और उन्होंने भारतीय नेताओं से विचार-विमर्श किया, इसका फायदा उन्हें यह मिलेगा कि वे अपनी जो बात टिलरसन से नहीं कह सकें होंगे या नहीं मनवा सके होंगे, वह वे भारत के जरिए मनवाने की कोशिश करेंगे। इसके अलावा भारत पहुंचकर उन्हें कई बड़ी खरी-खरी बातें कह दी है। जैसे, पहली यह कि यदि काबुल और दिल्ली के रास्ते में पाकिस्तान अडंगा लगाएगा तो वह अफगानिस्तान चीन के ओबोर (चीनी महापथ) में सहायता नहीं करेगा। यदि अफगानिस्तान उसका बहिष्कार कर देगा तो चीन की खरबों रु. की यह वृहद योजना धराशायी हो जाएगी, क्योंकि यूरोप जानेवाले सभी रास्ते अफगानिस्तान होकर ही जाते हैं। दूसरे शब्दों में चीन-पाक सहयोग निरर्थक हो जाएगा। यदि ओबोर की सड़क पाकिस्तान पहुंचकर खत्म हो जाती है तो उसे बनाने में चीन पैसा क्यों लगाएगा ? दूसरे शब्दों में अब भारत—अफगान व्यापार के लिए पाकिस्तानी रास्ता खोलने के लिए अफगानिस्तान ने चीन पर तगड़ा दबाव खड़ा कर दिया है। उसने कमाल की कूटनीति की है। उसने अंगद का पांव अड़ा दिया है। राष्ट्रपति गनी ने पाकिस्तान की उस पहल को भी रद्द कर दिया है, जिसे वह रुस, चीन और ईरान की मदद से तालिबान के साथ कर रहा है। गनी ने कहा है कि ऐसे मामलों में जो भी पहल होगी, उसका आरंभ और नेतृत्व अफगानिस्तान करेगा। गनी ने भारत द्वारा अफगानिस्तान को दी जा रही 3.1 बिलियन डाॅलर की सहायता के लिए आभार व्यक्त किया और कहा कि भारत और अफगानिस्तान के बीच कोई गुप्त और रहस्यमय सैन्य-सौदा नहीं हुआ है। भारत ने अफगानिस्तान को चार हेलिकाॅप्टर दिए हैं और उसकी पुलिस और फौज के जवानों को प्रशिक्षण दिया है। अब ईरान के चाहबहार बंदरगाह के खुल जाने से पाकिस्तानी रास्ते की अहमियत भी खत्म हो रही है। अब पाकिस्तान में से जाए बिना ही भारतीय माल ईरान के जरिए अफगानिस्तान पहुंच जाएगा। गनी की इस भारत-यात्रा से अब अमेरिका, भारत और अफगानिस्तान के बीच सहयोग का त्रिभुज तैयार हो गया-सा लगता है। टिलरसन उस पर मुहर लगा देंगे।
भारतीय संस्कृति में गौ सेवा का महत्व…!
-नईम कुरेशी
भारतीय संस्कृति एवं सनातन धर्म में “गौ सेवा” का अपना एक अलग महत्व है। आदिकाल में जब राजाओं के यहां धार्मिक शास्त्रार्थ गायें उपहार में दी जाती थीं और उन गायों के सीगों में सोने के पतरे तक मड़े जाते थे। गीता में श्री कृष्ण भगवान ने स्वयं कहा है कि गायों में कामधेनु मैं ही हूँ। सनातन धर्म में गाय को देवता और माता के समान मानकर उसकी सेवा करने की परम्परा देखी जाती है क्योंकि गाय के शरीर में सभी देवता निवास करते हैं। शास्त्रों में लिखा है- गावो विश्वस्य मतर:। अर्थात् गाय विश्व की माता है।
अग्नि पुराण में व अन्य पुराणों में
विश्वस्तर के पुराणों में से एक अग्नि पुराण में कहा गया है कि गायें परम पवित्र और मांगलिक हैं। गाय का गोबर और मूत्र दरिद्रता दूर करता है। गोमूत्र, गोबर, गो दुग्ध, गो दधि, गो घृत कुशौदक दनका मिश्रण अर्थात् पंचगव्य सभी अनिष्टों को दूर करता है। गायों को घास खिलाने वाला सद्गति प्राप्त करता है।
अथर्वेद में लिखा गया है-
माता रूद्राणां दुहिता वसूनां।
स्वसा आदित्यानां अमृतस्य नाभि:
अर्थात्् गाय रुद्रों की माता है, वसुओं की पुत्री है, सूर्य की बहन है और घृत रूपी अमृत का केन्द्र है।
मार्कण्डेय पुराण में लिखा गया है-
दुनिया की भलाई गायों पर आधारित है। गाय की पीठ ऋग्वेद, धड़ यजुर्वेद, मुख- सामवेद, ग्रीवा- इष्टापूर्ति सत्कर्म रोम साधुसूक्त हैं। गोबर और गोमूत्र में शांति और पुष्टि है।
ग्वालियर में गौ सेवा की अभिनव पहल
मध्य प्रदेश सरकार की तरफ से भी गायों की सुरक्षा सेवा पर काफी कुछ ध्यान दिया जा रहा है। ग्वालियर नगर निगम की गोशाला को देखने का इस लेखक को विगत दिनों मौका मिला जहां 5 हजार से भी ज्यादा गायों को रखे जाने की अच्छी व्यवस्था देखी गयी। उनके लिये 500-700 क्विंटल भूसा व इतना ही हरा चारा, गुड़ आदि खिलाने की उचित व्यवस्था देखी गई, जिसके लिये 94 कर्मचारी व 2 अधिकारी इंजीनियर ए.पी.एस. जादौन की देखरेख में रखे गये हैं। 70 से भी ज्यादा बीघा जमीन पर बड़े-बड़े शेडों में उन्हें रखा जाता है। इस व्यवस्था के संचालन को हरिद्वार के साधु संतों की देखरेख में किया जाने से और भी उचित संचालन देखा गया। इस काम में केन्द्रीय मंत्री नरेन्द्र तोमर की व्यक्तिगत रुचि से काफी कुछ अच्छा अनुभव इस लेखक ने स्वयं देखा। नगर निगम ग्वालियर महापौर विवेक शेजवलकर जी की देखरेख में 5 करोड़ रुपया सालाना इस पर खर्चती है। यहां सेवा भाव भी निगम कर्मचारियों में देखा गया है।
विष्णु स्मृति में गायों पर काफी कुछ लिखा गया है- गायें पवित्र व मंगलमय हैं उनमें समस्त लोक का कल्याण है। गायों से यज्ञ सफल होते हैं। उनकी सेवा से पाप नष्ट होते हैं व संपदा बढ़ती है। मुगल शासक बाबर ने भी गायों की रक्षा के मामले में अपने पुत्र युवराज हुमायूं को विशेष संदेश, उपदेश दिया था जिसे बादशाह अकबर ने भी अपने लम्बे 50 साल के शासन में लागू भी कराया। ऐसी मान्यता तमाम इतिहासकारों की है।
कुरान में भी लिखा है-
कुरान शरीफ के 30 पारों में से 2 पारों से भी ज्यादा दी गई है- सूरे-बकर- जिसका मायने है गाय से ही। उसमें साफ-साफ लिखा है इस्लाम के मानने वालों के लिये, आप जिस मुल्क में रहते हैं और वहां की आवाम व कानून गाय की रक्षा व सेवा की अगर बात करें तो आप भी उस पर अमल करें। उस जानवर गाय की रक्षा करें। इस्लाम कहता है देश प्रेम की बात और उस देश के कानून को मानने की बातें भी कुरान में साफ तौर से की गई हैं। ग्वालियर के मौलाना जफर नूस साहेब ने भी इस बात की तस्दीक की है। इतिहासकारों ने भी माना है कि गायों की सेवा व रक्षा की बातें इस्लाम व अन्य दुनिया के खास मजहबों में कही गई है।
देश दुनिया में पहचान बनाई जबलपुर की
-सनत जैन
पंडित विश्वनाथ दुबे, संस्कारधानी जबलपुर, जो जाबालि ऋषि की तपोभूमि के रूप में भी जानी जाती है। इस तपोभूमि में कई महापुरुषों ने जन्म लिया है। इसी क्रम में एक और नाम पंडित विश्वनाथ दुबे का जुड़ गया है। कर्मयोगी विश्वनाथ दुबे ने अपनी जन्मभूमि को गौरवान्वित किया है। उन्होंने यह साबित किया है कि इच्छा शक्ति पूर्ण करने का संकल्प हो तो कुछ भी असंभव नहीं है। एक कर्मयोगी के रूप में उन्होंने वास्तविक रूप में यह करके दिखाया है। 78 वर्ष की उम्र में दीपावली के दिन जबलपुर के इस प्रेरणा पुंज ने अपने मनुष्य जीवन की यात्रा पूर्ण कर वह ब्रम्हलीन हो गए।
लेखक का इस परिवार के साथ कई दशकों पुराना संबंध रहा है। लेखक स्वयं पंडित विश्वनाथ दुबे के पिताजी कुंजीलाल दुबे के समय से इस परिवार के साथ जीवंत संपर्क में रहा है। परम आदरणीय कुंजीलाल दुबे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। लेखक के पिता स्व. रूपचंद जैन भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। इन दोनों परिवारों के बीच लगातार समन्वय बना रहा। पंडित कुंजीलाल दुबे, अत्यंत गंभीर, सौम्य व्यवहार कुशल और एक आदर्श राजनेता के रूप में पहचान है। ऐसे विशिष्ट परिवार में विश्वनाथ दुबे का जन्म हुआ। इनके बड़े भाई मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के न्यायाधीश रहे। वहीं डॉ विनोद दुबे ने चिकित्सा व्यवसाय में अपना और अपने परिवार का नाम रोशन करके परिवार को गौरवान्वित किया। विश्वनाथ दुबे अपनी विरासत से हटकर कुछ अलग करने की चाह रखते थे। जिसके कारण वह अपनी युवावस्था से ही कुछ अलग करने की सोचते थे। उनके पिता मध्य प्रदेश शासन के वित्त मंत्री रह चुके थे। मध्यप्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष रहे। सामाजिक और आर्थिक रूप से समृद्धशाली परिवार के होते हुए भी वह कुछ अलग करने की इच्छा रखते थे। 1961 में उन्होंने जबलपुर से बीई की डिग्री प्राप्त कर ली थी। उसके बाद उन्होंने लगभग 2 साल तक सरकारी और गैर सरकारी नौकरी की। किंतु उन्हें नौकरी रास नहीं आई, और परिवार की असहमति के बाद भी वह पढ़ने के लिए विदेश चले गए। विश्वनाथ दुबे , जबलपुर और देश के संभवत: पहले ऐसे डिग्रीधारी थे, जिन्होंने 1968 में अमेरिका से एमबीए की डिग्री प्राप्त की। जब इस डिग्री के बारे में भारत में कोई चर्चा नहीं होती थी। लगभग 6 साल तक वह विदेश में अपनी पढ़ाई भी करते रहे, और अपना खर्च भी निकालकर दुनियादारी को सीखने का काम किया।
1970 में पिता कुंजीलाल दुबे की तबीयत बहुत खराब थी। वह विदेश से वापस आए, और लगभग 24 घंटे ही वह अपने पिता के सानिध्य में रह पाए। पिता भी शायद अपने पुत्र को देखने की आस में जिंदा थे। पंडित कुंजीलाल दुबे के निधन के पश्चात विश्वनाथ दुबे ने अपनी कर्म स्थली गृहनगर जबलपुर को बनाने का संकल्प लिया। वह सोच रहे थे, कि उन्हें कौन सा काम शुरू करना चाहिए। कहते हैं निमित्त के कारण सोच आती है। उस समय देश में खाद्यान्न संकट चल रहा था। राशन की दुकानों से खाद्यान्न मिलता था। पर्याप्त मात्रा में खाद्यान्न उपलब्ध नहीं होने से कुपोषण और तरह तरह की बीमारियों का सामना लोगों को करना पड़ रहा था। ऐसे समय पर उन्हें विचार आया कि उन्हें पोल्ट्री फार्म की स्थापना करनी चाहिए। पोल्ट्री फॉर्म के माध्यम से सस्ता प्रोटीन आम आदमी को उपलब्ध कराने की का विचार उनका था। ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने वाले व्यक्ति के लिए यह निर्णय सबसे कठिन था। उन्होंने सारे पारिवारिक एवं सामाजिक विरोध को दरकिनार करते हुए पोल्ट्री फार्म की स्थापना की। उस समय उनके दिमाग में केवल एक ही बात थी कि आम आदमी को कैसे प्रोटीन युक्त भोजन उपलब्ध कराया जाए।
चूँकि यह बिल्कुल नया काम था। उन्हें कोई पूर्व अनुभव नहीं था। जिसके कारण पोल्ट्री फॉर्म के इस व्यवसाय में लगभग एक दशक तक उन्हें कड़ा संघर्ष करना पड़ा। कई बार ऐसी विषम परिस्थिति निर्मित हुई जिससे उन्हें लगा कि यह धंधा उनके वश का नहीं है। किंतु इसके बाद भी उन्होंने चुनौतियों से लड़ने और उनसे निपटने की क्षमता विकसित की। जिसके कारण पोल्ट्री व्यवसाय में वह भारत और वैश्विक स्तर पर एक विशेषज्ञ के रूप में स्थापित हुए जो उनके कर्म योग का सबसे बड़ा प्रमाण है उन्होंने 1980 के बाद देश के अंडा व्यवसाय को एक कारपोरेट व्यवसाय के रूप में स्थापित किया अंडा उत्पादकों और आम आदमी के बीच में एक ऐसा समन्वय तैयार किया जो आगे चलकर एक मील का पत्थर साबित हुआ।
फ़ीनिक्स ग्रुप ऑफ़ कंपनीज के माध्यम से उन्होंने मध्यप्रदेश एवं देश में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। 1999 से 2004 तक वह जबलपुर नगर निगम के महापौर रहे। अपनी कार्यशीलता के कारण उन्होंने कांग्रेस में अपना स्थान बनाया। वह प्रदेश स्तर के पदाधिकारी लगातार कई दशकों तक बने रहे। उन्होंने मध्यप्रदेश वित्त विकास निगम, आईडीबीआई और वेंकटेश्वरा हेचरी प्राइवेट लिमिटेड पुणे के निदेशक के रूप में सारे देश के पोल्ट्री व्यवसाय को आगे बढ़ाने का काम किया। वर्ल्ड पोल्ट्री साइंस कांग्रेस की भारत शाखा के वह अध्यक्ष भी रहे। शैक्षणिक संस्थाओं से भी जुड़ कर हमेशा अपने सामाजिक कर्तव्यों का निर्वहन करते रहे। मृत्यु के 1 सप्ताह पूर्व तक उन्होंने अपने सभी कार्यों का निर्वहन किया। पंडित विश्वनाथ दुबे ने अपनी स्वयं की मेहनत, बुद्धि और लगनशीलता से समाज और युवा वर्ग को एक नई प्रेरणा देने का काम किया है। केवल डिग्री से नौकरी और रोजगार नहीं मिलता, वरन उसके लिए श्रम करना पड़ता है, इसका सबसे बड़ा उदाहरण पंडित विश्वनाथ दुबे हैं।
मैं जब भी उनसे मिलता था, वह हमेशा जबलपुर के विकास, सामाजिक एवं आर्थिक विषयों पर ही चर्चा करते थे। उम्र में काफी फर्क होने के बाद भी मुझे कभी ऐसा नहीं लगा की कि मैं किसी ऐसे व्यक्ति से मिल रहा हूं जो बड़ा व्यवसाई या राजनेता है। वह हमेशा वर्तमान राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक संदर्भों में जो बदलाव आ रहे हैं उनको लेकर चर्चा करते थे। वर्तमान व्यवस्था में जिस ढंग से लोग निजी हित को ध्यान में रखते हुए निर्णय करके समाज और देश हित को बोना कर रहे हैं। उस पर चर्चा करते। इस सब के बाद भी वह एक आशावादी के रूप में नई ऊर्जा के साथ इसका मुकाबला किस तरह से किया जाए इसकी चर्चा भी करते थे। उन्होंने मुझे हमेशा कार्यों को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित किया। वह हंसते हंसते बड़ी से बड़ी समस्या का भी समाधान निकालने की कोशिश करते थे। वह सभी को ईमानदारी के साथ अपने काम को करने के लिए प्रोत्साहित करते थे। पंडित विश्वनाथ दुबे का निधन जबलपुर और मध्य प्रदेश के लिए अपूरणीय क्षति है। जवाली ऋषि की इस तपोभूमि से महेश योगी , आचार्य रजनीश की श्रृंखला में 1 नाम पंडित विश्वनाथ दुबे का भी जुड़ गया है। इन्होंने अपने कर्म योग से जबलपुर को एक नई पहचान देश एवं दुनिया में दी है। शून्य से शिखर तक का सफर पूर्ण करने वाले पुरोधा पंडित विश्वनाथ दुबे को सनत जैन एवं एक्सप्रेस परिवार की, विनम्रता के साथ भावांजलि।
क्या आज मोदी का कोई विकल्प है ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गुरुदासपुर के संसदीय उप-चुनाव में भाजपा की करारी हार हुई। उसके साथ-साथ महाराष्ट्र के कुछ स्थानीय चुनावों और इलाहाबाद, गुवाहाटी, दिल्ली व ज.नेहरु विश्वविद्यालय के चुनावों में मिली हार ने मोदी सरकार के मुख पर चिंता की रेखाएं खींच दी हैं। हालांकि यह सरकार पिछले 30 वर्षों में बनी सरकारों में सबसे मजबूत सरकार है। यह अपने पांवों पर खड़ी है लेकिन राजीव गांधी की सरकार तो इससे भी बहुत ज्यादा मजबूत थी। उसके पास 410 सीटें संसद में थीं। इसके पास तो 300 सीटें भी नहीं हैं। लेकिन दो-ढाई साल गुजरे नहीं कि बोफर्स का मामला फूट पड़ा और राजीव सरकार का पानी उतरने लगा। जो चुनाव राजीव ने अपने दम-खम पर लड़ा, 1989 का, उसमें उनकी सीटें आधी रह गईं।
क्या नरेंद्र मोदी को भी 2019 में ऐसी ही स्थिति का सामना करना पड़ेगा ? इस सवाल का जवाब आसान नहीं है। इसके कई कारण हैं। पहला तो यही कि मोदी सरकार के विरुद्ध भ्रष्टाचार का कोई इतना बड़ा मामला अभी तक सामने नहीं आया है। राजीव गांधी को भी मोदी की तरह स्वच्छ राजनेता माना जाता था। बोफर्स की तोप ने इस छवि के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। मोदी की व्यक्तिगत छवि बेदाग है और लोग यह भी मानते हैं कि इस सरकार के मंत्री भी सावधान हैं। इसीलिए इस सरकार से जो लोग संतुष्ट नहीं हैं, वे भी आशा कर रहे हैं कि अगले डेढ़ साल में शायद कुछ ठोस परिणाम सामने आएंगे।
दूसरा, राजीव गांधी अचानक नेता बने थे। प्रधानमंत्री पद ही उनका पहला पद था जबकि मोदी छोटी उम्र से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक होने के नाते सार्वजनिक जीवन में सक्रिय रहे, भाजपा के पदाधिकारी और गुजरात के मुख्यमंत्री रहे। राजीव जीते, शहीद इंदिरा गांधी को मिले वोटो से जबकि मोदी को मिले वोट, उनके अपने थे, हालांकि वे कुल वोटों के सिर्फ 31 प्रतिशत ही थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद भाजपा ने देश के कई राज्यों में अपनी सरकारें बना लीं। भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने दावा किया कि भाजपा की सदस्यता इतनी तेजी से बढ़ी है कि वह दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। इससे भाजपा पर मोदी की पकड़ बढ़ी है।
तीसरा, इस समय भाजपा पर मोदी की पकड़ बेहद मजबूत है। कोई मंत्री या पार्टी-पदाधिकारी इतनी हिम्मत नहीं कर सकता कि वह असहमति की आवाज़ उठा सके या कानाफूसी भी कर सके। भाजपा में आज किसी विश्वनाथप्रताप सिंह के खड़े हो जाने की संभावना दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। मोदी की पकड़ अटलजी की पकड़ से भी ज्यादा मजबूत है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्मान में कोई कोताही दिखाई नहीं पड़ती लेकिन उसका अंकुश भी घिस-सा गया है। वह दबी जुबान से हकलाते हुए मार्गदर्शन करता रहता है। आडवाणी और डाॅ. जोशी वाला मार्गदर्शक मंडल, मार्ग का सिर्फ दर्शन करने के लिए ही बना है। भाजपा पर आज मोदी की पकड़ वैसी ही है, जैसी 1975-77 में कांग्रेस पर इंदिरा गांधी की थी।
चौथा, इंदिरा गांधी 1966 में जब सत्तारुढ़ हुईं, तब से लेकर उनके अंत समय तक उन्हें सशक्त विरोध का सामना करना पड़ा। पहले डाॅ. राममनोहर लोहिया, फिर उनके अपने बुजुर्ग कांग्रेसी नेता और फिर जयप्रकाश नारायण से उन्हें मुठभेड़ करनी पड़ी लेकिन मोदी के सामने कौन है? कोई नहीं। नीतीश हो सकते थे लेकिन वे ढेर हो चुके हैं। अखिलेश यादव पितृ-द्रोह की लपटों में झुलस गए। ममता बेनर्जी ‘एकला चालो’ का ही गीत गा रही है। कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं को अपने आतंरिक दंगल से ही फुर्सत नहीं है। मायावती की कोई गिनती ही नहीं। अब रह गई कांग्रेस ! देश की सबसे बड़ी विरोधी पार्टी, जो अब इतनी छोटी हो गई है कि ऐसी वह पहले कभी नहीं रही। उसे संसद में विधिवत प्रतिपक्ष का दर्जा भी प्राप्त नहीं है। दूसरे शब्दों में इंदिरा गांधी और राजीव गांधी को जैसा प्रचंड प्रतिपक्ष मिला था, उसकी तुलना में मोदी का प्रतिपक्ष खंड-बंड है। इसीलिए मोदी 2019 की तो बात ही नहीं करते हैं। वे 2024 की बात करते हैं।
पांचवां, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी से टक्कर लेने के लिए 1967, 1977 और 1989 में प्रतिपक्ष की एकता ने निर्णायक भूमिका निभाई थी लेकिन आज सारा प्रतिपक्ष एक होने के लिए तैयार ही नहीं है। यदि वह एक हो भी जाए तो उसके पास क्या लोहिया या जयप्रकाश या विश्वनाथप्रताप सिंह जैसा कोई प्रतीक-पुरुष है ? आज तो कोई नहीं है। ऐसे में देश के लोग, चाहे जितने असंतुष्ट हों, वे मोदी का विकल्प किसे बनाएंगे ?
ऐसा नहीं है कि मोदी का कोई विकल्प हो ही नहीं सकता। भाजपा में ही आडवाणी, जोशी, गडकरी, राजनाथसिंह, सुषमा स्वराज, शिवराज चौहान जैसे कई लोग हैं, जो श्रेष्ठ विकल्प हो सकते हैं लेकिन इनके नामों पर विचार होना तभी शुरु होगा, जबकि गुजरात जैसे प्रांत में भाजपा की सरकार गुड़क जाए, जिसकी संभावना कम ही है लेकिन इसमें शक नहीं कि गुजरात के चुनाव ने भाजपा का दम फुला दिया है। राहुल गांधी की सभाओं में आनेवाली भीड़ और उसके उत्साह ने भाजपा के कान खड़े कर दिए हैं। जीएसटी के अंतर्गत 27 चीज़ों पर रियायतें दी गई हैं, उनमें गुजराती खांखरों का विशेष जिक्र है। गुजरात की चुनाव-तिथि की घोषणा में देर करके चुनाव आयोग ने भाजपा की राह आसान कर दी है। गुजराती मतदाताओं को अरबों रुपए के लाॅलीपाॅप थमाए जा रहे हैं। गुजरात के चुनाव-अभियान ने राहुल की छवि को थोड़ा-बहुत संवार दिया है। लेकिन मोदी द्वारा गुजराती स्वाभिमान की बात छेड़ना और गुजरात में पैदा हुए गांधी, पटेल, मोरारजी, माधवसिंह सोलंकी जैसे नेताओं के साथ किए गए कांग्रेसी अन्याय के मामले को तूल देना काफी कारगर हो सकता है।
मान लिया जाए कि भाजपा गुजरात को जीत लेगी, फिर भी अगला डेढ़ साल मोदी सरकार की अग्नि-परीक्षा का समय रहेगा। लगभग आधा दर्जन राज्यों के चुनाव अगले साल होनेवाले हैं। इन सब चुनावों में एक मात्र प्रमुख प्रचारक नरेंद्र मोदी ही होंगे, जैसे कि वे बिहार, असम, उत्तरप्रदेश आदि में भी रहे हैं। ऐसे में शासन चलाने के लिए वे कितना समय दे पाएंगे, यह देखना है। पिछले तीन साल में इस सरकार ने जो भी अत्यंत साहसिक कदम उठाए हैं, उनका लक्ष्य तो जनता की भलाई ही था लेकिन उनके तात्कालिक परिणाम उल्टे ही आए हैं। नोटबंदी और जीएसटी की वजह से सरकार की जेब तो मोटी हो रही है लेकिन लाखों लोग बेरोजगार हुए हैं, सैकड़ों लोग मौत के शिकार हुए हैं और कई काम-धंधे ठप्प हो गए हैं। इसके अलावा देश के सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे में जो मौलिक परिवर्तन की आशाएं जगी थीं, वे दिवा-स्वप्न बन चुकी हैं। देश के राजनीतिक ढांचे, चुनाव-प्रक्रिया, दलीय लोकतंत्र आदि में जो बुनियादी सुधार होने थे, अब उनका कोई नाम तक नहीं लेता। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर अमल होना तो दूर, देश में सांप्रदायिक दुर्भाव, जातीय तनाव, पश्चिम की नकल, अंग्रेजी का दबदबा और निचले स्तरों पर भ्रष्टाचार ज्यों का त्यों बना हुआ है। विदेश नीति के क्षेत्र में भी अनिश्चय का माहौल बना हुआ है। पड़ौसी देशों के साथ हमारे संबंध विरल ही हैं, उन्हें घनिष्ट कैसे कहा जाए ? चीन ने गच्चा दे दिया और अमेरिका के डोनाल्ड ट्रंप का कोई भरोसा नहीं। ऐसे में 2019 तक पता नहीं, देश की स्थिति क्या होगी? तब विकल्प का सवाल उठे तो उठेt
बनियों पर क्यों बरसे कांचा ?
(डॉ. वेदप्रताप वैदिक)
श्री कांचा इल्लाइहा एक प्रभावशाली बौद्धिक हैं और दलितों के कट्टर समर्थक हैं। एक बौद्धिक के तौर पर वे आदर के योग्य है लेकिन उनके तर्कों से सहमत होना कठिन है। हाल ही में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘पोस्ट हिंदू इंडिया’ पर दक्षिण भारत के बनिया संगठनों ने प्रतिबंध की मांग की थी, जिसे अदालत ने रद्द कर दिया है। अदालत का मैं समर्थन करता हूं और यह मानता हूं कि ऐसी विवादास्पद पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाने की बजाय उन पर जमकर बहस चलानी चाहिए। इस पुस्तक का एक अध्याय देश के बनिया लोगों पर है, खास तौर से आर्य-वैश्य लोगों पर ! कांचाजी मानते हैं कि दक्षिण के बनिया आर्य नहीं हैं। वे द्रविड़ वैश्य हैं। कांचा का कहना है कि इस बनिया जाति ने भारत के उद्योग-व्यापार पर कब्जा कर रखा है और यह आरएसएस के हाथ का खिलौना है। ये बनिये दूसरी जाति के लोगों को उद्योग-व्यापार में घुसने ही नहीं देते। कांचाजी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि इस देश का पेट पालने की जिम्मेदारी बनियों की ही रही है और बनियों की वजह से ही भारत किसी समय दुनिया का सबसे मालदार और सबसे बड़ा व्यापारी देश रहा है। उनका मानना है कि भारत में यह जाति-व्यवस्था शोषणकारी वर्ग-व्यवस्था में बदल गई है। उच्च वर्ण के उच्च वर्ग में और उच्च वर्ग के उच्च वर्ण में बदलने का जितना सूक्ष्म विवेचन डाॅ. लोहिया ने किया है, किसी और ने नहीं किया है। कांचा इल्लाइहा ने कोई नई बात नहीं कही है। उनकी बात में नयापन यही है कि वे भाजपा और इस बनिया वर्ग में गहरी सांठ-गांठ का आरोप लगा रहे हैं। वे कहते हैं कि बनिया लोगों के लिए ही देश की अर्थ-व्यवस्था का निजीकरण किया जा रहा है। कांचाजी की यह बात गलत है लेकिन उसे सही मान लें तो भी इसका जितना दोष भाजपा के माथे है, उससे 10 गुना ज्यादा कांग्रेस के माथे पर है, क्योंकि लंबा राज तो उसी का रहा है। कांचा इल्लाइहा ने भाजपा और सवर्णों के विरुद्ध अपनी भडांस जमकर निकाली है लेकिन यह नहीं बताया कि देश में जातिवाद के खात्मे के लिए क्या-क्या किया जाए ? बाबासाहब आंबेडकर ने ‘जातिवाद का सर्वनाश’ पुस्तक जरुर लिखी लेकिन आज उन्हीं को दलित जातिवाद का मसीहा बना लिया गया है। वे आरक्षण के विरुद्ध थे लेकिन आज आरक्षण जातिवाद की सबसे मजबूत ढाल बन गया है। डाॅ. लोहिया आरक्षण के समर्थक थे लेकिन वे उसके साथ-साथ ‘जात तोड़ो’ आंदोलन भी चलाते थे। मैं भी आरक्षण का समर्थक हूं लेकिन जात के आधार पर नहीं, जरुरत के आधार पर! तथाकथित उच्च जातियों को कोसते रहने से समाज नहीं बदलेगा। जरुरी यह है कि शारीरिक श्रम और बौद्धिक श्रम की कीमतों में जो फासला है, उसे कम किया जाए। आय पर नहीं, खर्च पर कर लगाया जाएं और देश में जातिविहीन समतामूलक समाज स्थापित किया जाए। तभी ऊंचे और नीचे का भेद खत्म होगा।
दीपावली से जुड़े कुछ रोचक तथ्य
(दीपावली पर विशेष)
सुभारती चौरसिया
दीपावली से जुड़े कुछ रोचक तथ्य हैं जो इतिहास के पन्नों में अपना विशेष स्थान बना चुके हैं। इस पर्व का अपना ऐतिहासिक महत्व भी है, जिस कारण यह त्योहार किसी खास समूह का न होकर संपूर्ण राष्ट्र का हो गया है। त्रेतायुग में भगवान राम जब रावण को हराकर अयोध्या वापस लौटे तब उनके आगमन पर दीप जलाकर उनका स्वागत किया गया और खुशियाँ मनाई गईं। यह भी कथा प्रचलित है कि जब श्रीकृष्ण ने आतताई नरकासुर जैसे दुष्ट का वध किया तब ब्रजवासियों ने अपनी प्रसन्नता दीपों को जलाकर प्रकट की। राक्षसों का वध करने के लिए माँ देवी ने महाकाली का रूप धारण किया। राक्षसों का वध करने के बाद भी जब महाकाली का क्रोध कम नहीं हुआ तब भगवान शिव स्वयं उनके चरणों में लेट गए। भगवान शिव के शरीर स्पर्श मात्र से ही देवी महाकाली का क्रोध समाप्त हो गया। इसी की याद में उनके शांत रूप लक्ष्मी की पूजा की शुरुआत हुई। इसी रात इनके रौद्ररूप काली की पूजा का भी विधान है।
महाप्रतापी तथा दानवीर राजा बलि ने अपने बाहुबल से तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली, तब बलि से भयभीत देवताओं की प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने वामन रूप धारण कर प्रतापी राजा बलि से तीन पग पृथ्वी दान के रूप में माँगी। महाप्रतापी राजा बलि ने भगवान विष्णु की चालाकी को समझते हुए भी याचक को निराश नहीं किया और तीन पग पृथ्वी दान में दे दी। विष्णु ने तीन पग में तीनों लोकों को नाप लिया। राजा बलि की दानशीलता से प्रभावित होकर भगवान विष्णु ने उन्हें पाताल लोक का राज्य दे दिया, साथ ही यह भी आश्वासन दिया कि उनकी याद में भू लोकवासी प्रत्येक वर्ष दीपावली मनाएँगे।
कार्तिक अमावस्या के दिन सिखों के छठे गुरु हरगोविन्दसिंहजी बादशाह जहाँगीर की कैद से मुक्त होकर अमृतसर वापस लौटे थे।
कृष्ण ने अत्याचारी नरकासुर का वध दीपावली के एक दिन पहले चतुर्दशी को किया था। इसी खुशी में अगले दिन अमावस्या को गोकुलवासियों ने दीप जलाकर खुशियाँ मनाई थीं।
500 ईसा वर्ष पूर्व की मोहनजोदड़ो सभ्यता के प्राप्त अवशेषों में मिट्टी की एक मूर्ति के अनुसार उस समय भी दीपावली मनाई जाती थी। उस मूर्ति में मातृ-देवी के दोनों ओर दीप जलते दिखाई देते हैं।
बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध के समर्थकों एवं अनुयायियों ने 2500 वर्ष पूर्व गौतम बुद्ध के स्वागत में हजारों-लाखों दीप जलाकर दीपावली मनाई थी।
सम्राट विक्रमादित्य का राज्याभिषेक दीपावली के दिन हुआ था। इसलिए दीप जलाकर खुशियाँ मनाई गईं।
ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में रचित कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार कार्तिक अमावस्या के अवसर पर मंदिरों और घाटों (नदी के किनारे) पर बड़े पैमाने पर दीप जलाए जाते थे।
अमृतसर के स्वर्ण मंदिर का निर्माण भी दीपावली के ही दिन शुरू हुआ था।
जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर ने भी दीपावली के दिन ही बिहार के पावापुरी में अपना शरीर त्याग दिया। महावीर-निर्वाण संवत्इसके दूसरे दिन से शुरू होता है। इसलिए अनेक प्रांतों में इसे वर्ष के आरंभ की शुरुआत मानते हैं। दीपोत्सव का वर्णन प्राचीन जैन ग्रंथों में मिलता है। कल्पसूत्र में कहा गया है कि महावीर-निर्वाण के साथ जो अन्तर्जय़ोति सदा के लिए बुझ गई है, आओ हम उसकी क्षतिपूर्ति के लिए बहिर्जय़ोति के प्रतीक दीप जलाएँ।
पंजाब में जन्मे स्वामी रामतीर्थ का जन्म व महाप्रयाण दोनों दीपावली के दिन ही हुआ। इन्होंने दीपावली के दिन गंगातट पर स्नान करते समय श्ओमश् कहते हुए समाधि ले ली।
महर्षि दयानन्द ने भारतीय संस्कृति के महान जननायक बनकर दीपावली के दिन अजमेर के निकट अवसान लिया। इन्होंने आर्य समाज की स्थापना की। दीन-ए-इलाही के प्रवर्तक मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल में दौलतखाने के सामने 40 गज ऊँचे बाँस पर एक बड़ा आकाशदीप दीपावली के दिन लटकाया जाता था। बादशाह जहाँगीर भी दीपावली धूमधाम से मनाते थे।
मुगल वंश के अंतिम सम्राट बहादुर शाह जफर दीपावली को त्योहार के रूप में मनाते थे और इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रमों में भाग लेते थे। शाह आलम द्वितीय के समय में समूचे शाही महल को दीपों से सजाया जाता था एवं लाल किले में आयोजित कार्यक्रमों में हिन्दू-मुसलमान दोनों भाग लेते थे।
मोदी भरे हवा पंचरवाले पहिए में
(डॉ. वेदप्रताप वैदिक)
पटना विश्वविद्यालय के शताब्दि समारोह में हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अचानक पता नहीं क्या सूझी, उन्होंने घोषणा कर दी कि देश के 20 विश्वविद्यालयों को अगले पांच साल के लिए वे 10 हजार करोड़ रु. देंगे याने इनमें से हर विद्यालय को हर साल 100 करोड़ रु. मिलेंगे। क्यों मिलेंगे ? क्योंकि हमारे प्रधानमंत्रीजी उन्हें विश्व-स्तर का बनाना चाहते हैं। यह छलांग तो अच्छी है लेकिन अभी तो हाल यह है कि भारत का एक भी विश्व विद्यालय विश्व-स्तर का नहीं है। विद्यालय के पहले विश्व शब्द जुड़ा हुआ है। यह शुद्ध मजाक है। उसे पहले विद्यालय तो बनाइए, फिर उसे विश्वविद्यालय बनाना। हमारे विश्वविद्यालय, विद्यालय कम, नकलालय ज्यादा हैं। उनका काम नकलचियों कीं फौज खड़ी करना है। लार्ड मैकाले के वंशजों की संख्या में वृद्धि करना है। इसी का परिणाम है कि पिछले 70-80 साल में हम दुनिया को एक भी मौलिक दर्शनशास्त्री, अर्थशास्त्री, राजनीतिशास्त्री या समाजशास्त्री नहीं दे सके। जहां तक विज्ञान, चिकित्सा, कानून, गणित जैसे विषयों का सवाल हैं, उनमें भारतीयों ने अपनी प्रतिभा का परिचय तो दिया है, लेकिन क्या किसी विश्वविद्यालय ने नालंदा, तक्षशिला और विक्रमशिला जैसा स्थान दुनिया में पाया है ? नहीं। क्यों ? क्योंकि अंग्रेज के बनाए ढर्रे पर चल रहे हमारे विश्वविद्यालयों को नई दिशा देनेवाला कोई माई का लाल भारत में पैदा ही नहीं हुआ। देश में होनेवाली ज्ञान-विज्ञान की सारी उच्च-शिक्षा और गवेषणा अंग्रेजी में होती है। आज देश में एक भी विश्वविद्यालय ऐसा नहीं है, जहां कानून, मेडिकल, विज्ञान, गणित और अंतरराष्ट्रीय राजनीति की उच्च शिक्षा हिंदी में होती हो। अन्य भारतीय भाषाओं की बात तो जाने ही दीजिए। क्या यह स्थिति शर्मनाक नहीं है ? किसी भी राष्ट्रवादी सरकार के डूब मरने के लिए यह काफी है। अंग्रेजी के वर्चस्व के कारण हमारे विद्वान पश्चिमी देशों की दबैल में आ जाते हैं। नकल करने लगते हैं। उनकी मौलिक चिंतन की शक्ति को लकवा मार जाता है। वे अपने पश्चिमी बौद्धिक मालिकों पर निर्भर हो जाते हैं। उनके फतवे, उनके प्रमाण पत्र, उनकी शोधवृत्तियां, उनकी नौकरियां, उनकी डिगरियां, उनके पुरस्कार, उनकी मान्यताएं ही हमारे बौद्धिकों को शिरोधार्य हो जाते हैं। इन नकलचियों से लदे विश्वविद्यालयों पर 10 हजार करोड़ रु. बर्बाद करके आप क्या पाएंगे ? पहले अपनी शिक्षा-प्रणाली को सुधारिए। मैं जानता हूं कि हमारे नेता इस मामले में पूरे दीवालिए हैं। जरा हाल देखिए, अपने वर्तमान नालंदा विश्वविद्यालय का ? मेरे सुझाव पर बने भोपाल के अटलबिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय का ? और वर्धा के गांधी वि.वि. का। शिक्षा पर खर्च बढ़ाने का मैं स्वागत करता हूं लेकिन इस खर्च को हवा में मत उड़ाइए। पहले शिक्षा में मैकाले के किए हुए पंचर को जोड़िए और फिर शिक्षा के पहिए में हवा भरिए। वरना पंचरवाले पहिए में हवा भरते-भरते आप खुद हवा हो जाएंगे।
धनतेरस से प्रारम्भ होती है दीपावली की बहार
– रमेश सर्राफ
हिंदू धर्म में दीपावली का पर्व बहुत ही हर्षोल्लास से मनाया जाता है। हमारे देश में सर्वाधिक धूमधाम से मनाए जाने वाले त्योहार दीपावली का प्रारम्भ धनतेरस से हो जाता है। धनतेरस छोटी दीवाली से एक दिन पहले मनाया जाता है। इस दिन कोई भी समान लेना बहुत ही शुभ माना जाता है। इस साल धनतेरस 17 अक्टूबर को है। धनतेरस पूजा को धनत्रयोदशी के नाम से भी जाना जाता है।
धनतेरस का दिन धन्वन्तरी त्रयोदशी या धन्वन्तरि जयन्ती भी होती है। जो आयुर्वेद के देवता का जन्म दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। इस दिन गणेश लक्ष्मी घर लाएं जाते है। इस दिन की मान्यता है कि इस दिन कोई किसी को उधार नही देता है। इसलिए सभी नई वस्तुएं लातें है। इस दिन लक्ष्मी और कुबेर की पूजा के साथ-साथ यमराज की भी पूजा की जाती है। पूरे वर्ष में एक मात्र यही वह दिन है, जब मृत्यु के देवता यमराज की पूजा की जाती है। यह पूजा दिन में नहीं की जाती अपितु रात्रि होते समय यमराज के निमित्त एक दीपक जलाया जाता है। धनतेरस के दिन चांदी खरीदने की भी प्रथा है। अगर सम्भव न हो तो कोई बर्तन खरीदे। इसके पीछे यह कारण माना जाता है कि यह चन्द्रमा का प्रतीक है जो शीतलता प्रदान करता है और मन में सन्तोष रूपी धन का वास होता है। सन्तोष को सबसे बड़ा धन कहा गया है। जिसके पास सन्तोष है वह स्वस्थ है सुखी है और वही सबसे धनवान है।
धार्मिक और ऐतिहासिक दृष्टि से भी इस दिन का विशेष महत्त्व है। शास्त्रों में इस बारे में कहा है कि जिन परिवारों में धनतेरस के दिन यमराज के निमित्त दीपदान किया जाता है, वहां अकाल मृत्यु नहीं होती। घरों में दीपावली की सजावट भी आज ही से प्रारम्भ हो जाती है। इस दिन घरों को स्वच्छ कर, लीप—पोतकर, चौक, रंगोली बना सायंकाल के समय दीपक जलाकर लक्ष्मी जी का आवाहन किया जाता है। इस दिन पुराने बर्तनों को बदलना व नए बर्तन खरीदना शुभ माना गया है। इस दिन चांदी के बर्तन खरीदने से तो अत्यधिक पुण्य लाभ होता है। इस दिन कार्तिक स्नान करके प्रदोष काल में घाट, गौशाला, कुआं, बावली, मंदिर आदि स्थानों पर तीन दिन तक दीपक जलाना चाहिए।
इस दिन यम के लिए आटे का दीपक बनाकर घर के मुख्य द्वार पर रखा जाता हैं इस दीप को यमदीवा अर्थात यमराज का दीपक कहा जाता है। रात को घर की स्त्रियां दीपक में तेल डालकर नई रूई की बत्ती बनाकर, चार बत्तियां जलाती हैं। दीपक की बत्ती दक्षिण दिशा की ओर रखनी चाहिए। जल, रोली, फूल, चावल, गुड़, नैवेद्य आदि सहित दीपक जलाकर स्त्रियां यम का पूजन करती हैं। चूंकि यह दीपक मृत्यु के नियन्त्रक देव यमराज के निमित्त जलाया जाता है, अत: दीप जलाते समय पूर्ण श्रद्धा से उन्हें नमन तो करें ही, साथ ही यह भी प्रार्थना करें कि वे आपके परिवार पर दया दृष्टि बनाए रखें और किसी की अकाल मृत्यु न हो। धनतेरस की शाम घर के बाहर मुख्य द्वार पर और आंगन में दीप जलाने की प्रथा भी है।
धनतेरस के दिन यमराज को प्रसन्न करने के लिए यमुना स्नान भी किया जाता है अथवा यदि यमुना स्नान सम्भव न हो तो, स्नान करते समय यमुना जी का स्मारण मात्र कर लेने से भी यमराज प्रसन्न होते हैं, क्यों कि हिन्दु धर्म की ऐसी मान्यता है कि यमराज और देवी यमुना दोनों ही सूर्य की सन्ताने होने से आपस में भाई-बहिन हैं और दोनों में बड़ा प्रेम है। इसलिए यमराज, यमुना का स्नान करके दीपदान करने वालों से बहुत ही ज्यादा प्रसन्न होते और उन्हें अकाल मृत्यु के दोष से मुक्त कर देते है।
धनतेरस को मृत्यु के देवता यमराज जी की पूजा करने के लिए सनध्याकाल के समय एक वेदी(पट्टा) पर रोली से स्वास्तिक बनाइये। उस स्वास्तिक पर एक दीपक रखकर उसे प्रज्वलित करें और उसमें एक छिद्रयुक्त कोड़ी डाल दें। अब इस दीपक के चारों ओर तीन बार गंगा जल छिडक़ें। दीपक को रोली से तिलक लगाकर अक्षत और मिष्ठान आदि चढाएं। इसके बाद इसमें कुछ दक्षिणा आदि रख दीजिए जिसे बाद में किसी ब्राह्मण को दे देवें। अब दीपक पर कुछ पुष्पादि अर्पण करें। इसके बाद हाथ जोडक़र दीपक को प्रणाम करें और परिवार के प्रत्येक सदस्य को तिलक लगाएं। अब इस दीपक को अपने मुख्य द्वार के दाहिनी और रख दीजिए। यम पूजन करने के बाद अन्त में धनवंतरी पूजा करें।
इस प्रथा के पीछे एक लोक कथा है, कथा के अनुसार किसी समय में एक राजा थे जिनका नाम हेम था। दैव कृपा से उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। ज्योतिषियों ने जब बालक की कुण्डली बनाई तो पता चला कि बालक का विवाह जिस दिन होगा उसके ठीक चार दिन के बाद वह मृत्यु को प्राप्त होगा। राजा इस बात को जानकर बहुत दुखी हुआ और उन्होने राजकुमार को ऐसी जगह पर भेज दिया जहां किसी स्त्री की परछाई भी न पड़े। दैवयोग से एक दिन एक राजकुमारी उधर से गुजरी और दोनों एक दूसरे को देखकर मोहित हो गये और उन्होंने गन्धर्व विवाह कर लिया।
विवाह के पश्चात विधि का विधान सामने आया और विवाह के चार दिन बाद यमदूत उस राजकुमार के प्राण लेने आ पहुंचे। जब यमदूत राजकुमार प्राण ले जा रहे थे उस वक्त उसकी नवविवाहिता पत्नी का विलाप सुनकर उनका हृदय भी द्रवित हो उठा परन्तु विधि के अनुसार उन्हें अपना कार्य करना पड़ा। यमराज को जब यमदूत यह कह रहे थे उसी वक्त उनमें से एक ने यमदेवता से विनती की हे यमराज क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है जिससे मनुष्य अकाल मृत्यु के लेख से मुक्त हो जाए। दूत के इस प्रकार अनुरोध करने से यमदेवता बोले हे दूत अकाल मृत्यु तो कर्म की गति है इससे मुक्ति का एक आसान तरीका मैं तुम्हें बताता हूं सो सुनो। कार्तिक कृष्ण पक्ष की रात जो प्राणी मेरे नाम से पूजन करके दीप माला दक्षिण दिशा की ओर भेट करता है उसे अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता है। यही कारण है कि लोग इस दिन घर से बाहर दक्षिण दिशा की ओर दीप जलाकर रखते हैं।
दीपावाली धन से ज्यादा स्वास्थ्य और पर्यावरण पर आधारित त्योहार है। इस दिन आयुर्वेद मनीषी धनवन्तरी का जन्मदिन है। दीपावली एक ऐसा त्योहार है जिसके अपने पर्यावरणीय निहितार्थ है। मौसम मे बदलाव और दीप पर्व मे घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसे समझते हुए कृपया पर्यावरण को नुकसान पहुचाने वाली गतिविधिया ना करे। पटाखो का प्रयोग न्यूनतम करे, सरसो तेल के दिये जलाये। सरसो तेल के दिये से दीपोत्सव के धार्मिक निहितार्थ सामाजिक व्यवस्था और अध्यात्मिक उन्नति मे अत्यन्त सहायक है।
अपने बनें ’सरदर्द‘,तो क्या ईलाज..?
– ओमप्रकाश मेहता
इस देश में आज की तारीख में यदि सबसे परेशान कोई शख्स है, तो वे हमारे माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी है, उन्होंने अपने अकेले के बलबूते पर देश के सबसे पुराने राजनीतिक संगठन कांग्रेस को तो उसकी सही जगह दिखा दी किंतु वे अपने आस-पास के उन लोगों को सही जगह नहीं दिखा पाए जो सत्तारूढ़ दल में रहकर प्रतिपक्ष की भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। अपनी ही सरकार की आलोचना आज कतिपय भाजपा नेताओं का शगल हो गया है, इसकी शुरूआत भाजपा के वरिष्ठ नेता डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने की और उनके बाद संघ विचारक एस. गुरूमूर्ति पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा तथा स्वयं संघ प्रमुख मोहनराव भागवत ने अपने विजयादशमी सम्बोधन में मोदी सरकार की अर्थनीति को आड़े हाथों लिया। मोदी जी के निकटवर्तियों का कहना है कि सुब्रमण्यम स्वामी, गुरूमूर्ति, यशवंत सिन्हा के बयानों से मोदी जी विचलित नहीं हुए, किंतु संघ प्रमुख के द्वारा की गई आलोचना के बाद मोदी जी का परेशान होना स्वाभाविक था, इसी कारण तुरत-फुरत जीएसटी के नियमों में बदलाव के साथ पेट्रोल-डीजल की कीमतें कम करने और अर्थव्यवस्था में सुधार की गुंजाईशें खोजने की पहल शुरू की गई।
मोदी जी के सम्बोधनों में तलखी भी इसी सब घटनाक्रम के बाद नजर आने लगी, जिसमें उन्हें अपने गृह नगर में यह कहना पड़ा कि ”मैं 2001 से विष पचा रहा हूँ“ बड़नगर के हाटकेश्वर बाबा ने ही मुझे विष पीने और उसे पचाने की शक्ति प्रदान की है“। इस प्रकार इन दिनों मोदी जी जहां प्रधानमंत्री के दायित्व के निर्वहन में बाहरी चुनौतियों से जूझ रहे है, वही वे ’अपनो‘ से भी काफी परेशान है, जो गाहे-ब-गाहे मोदी को निशाना बनाकर शब्द बाणों से हमले कर रहे है।
वैसे यदि विस्तृत नजरिये से देखा जाए जो आज मोदी जी व उनकी सरकार के सामने कम चुनौतियां नहीं है। वे परोक्षरूप से जहां सरकार के मुखिया है तो अपरोक्ष रूप से पार्टी के भी ’सर्वेसर्वा‘ है, उनकी मरजी के खिलाफ सत्ता व संगठन दोनों में ही पत्ता भी नहीं हिलता। संगठन जहां 2014 की ही तरह अभी भी 2019 तक के सभी चुनावों के लेकर मोदी जी की ओर आशाभरी नजरों से देख रहा है, वहीं पूरे विश्व के देशों की नजर भी इन दिनों भारत की सरकार और उसके मुखिया मोदी जी पर ही केन्द्रित है। आज विश्व जहां अमेरिका व उत्तर कोरिया की तनातनी के कारण तीसरे विश्वयुद्ध के मुहाने पर खड़ा है, तो गुट निरपेक्ष नीति का समर्थक भारत अपनी कूटनीति का ताना-बाना बुनने में व्यस्त है। …….और भारत का पूरा दारोमदार अकेले मोदी जी पर ही है, अब ऐसे माहौल में 2019 तक देश में ’चक्रवर्ती सम्राट‘ का राजनीतिक व देश के वोटरों पर कब्जा करना तथा इसके साथ देश को चुनौतियों के बीच सकुशल निकालना भी मोदी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।
यद्यपि इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले साल के आठ नवम्बर की अर्द्धरात्रि से लेकर अभी तक आर्थिक दृष्टि से देश और देशवासी काफी परेशान है, मंहगाई आसमान छू रही है, तो हमारा अन्नदाता आत्महत्या को मजबूर है, युवा वर्ग बेरोजगारी से आह्त है तो गरीबी रेखा से नीचे का वर्ग दो जून की रोटी की भी व्यवस्था नहीं कर पा रहा है। कुल मिलाकर पूरा देश ही बेहाल है, व्यापारी वर्ग जीएसटी से तो अन्य वर्ग अपनी दैनन्दिनी समस्याओं से।….और इस स्थिति के लिए सभी अकेले नरेन्द्र मोदी और उनकी नीतियों को ही दोषी मान रहे है। इन सबके बीच यदि कोई प्रसन्न है, तो वे सत्तारूढ़ दल से जुड़े कुछ लोग और देश के मुठ्ठी भर धन कुबेर उद्योगपति। सत्ताधारी संगठन के शीर्ष पदाधिकारी अब जहां तीन साल पुराने चुनावी वादों को ’जुमला‘ बना चुके है, तो सत्ता के शीर्ष नित नए वादों की वर्षा कर रहे है, इसका ताजा उदाहरण ’गरीबी मुक्त भारत‘ का नया नारा है।
जहां तक ’गरीबी मुक्त भारत‘ का सवाल है, यह राजनीतिक नारा कोई नया नहीं है, मोदी जी से पहले चार प्रधानमंत्री यही नारा बुलंद कर चुके है। इंदिरा जी ने 1980 में स्वर्ण जयंति ग्राम योजना लागू कर ’गरीबी हटाओं‘ का नारा दिया था, 1997 में इन्द्र कुमार गुजराल ने रक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली शुरू कर रॉशन की दूकानों से सस्ता अनाज इसी योजना के तहत् देना शुरू किया था, वर्ष 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना लागू की, जिसका लक्ष्य ग्रामों से गरीबी दूर करना था, और 2006 में मनमोहन सिंह ने मनरेगा योजना लागू कर गांवों के मजदूरों को एक सौ दिन काम देकर गरीबी दूर करने का नारा दिया था, और अब मोदी जी ने अगले पांच साल में भारत को गरीबी से मुक्त कराने का बीड़ा उठाया। जबकि वर्तमान सरकारी आंकड़े स्वयं बता रहे है कि आज भी देश के दस लोगों में से तीन गरीब है। वास्तविकता तो यह है कि पिछले साठ सालों में गरीबी 57 फीसदी से घटकर सिर्फ 30 फीसदी ही हो पाई है, जबकि अब मोदी जी अगले पांच सालों में इस आंकड़े को शून्य पर लाने का दावा कर रहे है।
कुल मिलाकर इसमें कोई दो राय नहीं कि मोदी जी की सोच अच्छी है, वे बहुत कुछ करना भी चाहते है, किंतु जब अपने घर में ही आलोचक व निंदक हो तो कोई बाहर वाला कर भी क्या सकता है?
आरुषि-हेमराज हत्याकांड: सीबीआई की विश्वसनीयता कहां रही
डॉ हिदायत अहमद खान
देश और दुनिया के लिए रहस्य बन चुके आरुषि-हेमराज दोहरे हत्याकांड मामले में सीबीआई कोर्ट ने नवंबर 2013 में तलवार दंपत्ति को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। तब मीडिया ने इसे कुछ यूं प्रचारित किया था मानों सीबीआई ने अपनी जांच से दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया हो। तब सवाल नहीं उठे और इसके साथ ही तलवार दंपत्ति को दोषी बता जेल भेज दिया गया। इसके साथ ही किन्तु-परन्तु के लिए भी कोई गुंजाइश नहीं रही और सीबीआई की जांच भी मानों न्यायालयीन कसौटी पर खरी उतर गई। बहरहाल सीबीआई जांच और फैसले के खिलाफ जब इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील की गई तो यहां जो कहानी निकलकर सामने आई उससे आंखें फटी की फटी रह गईं। मानों कुछ अप्रत्याशित अचंभा हो गया हो। दरअसल इस मामले की सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति बीके नारायण और न्यायमूर्ति एके मिश्र की डबल बेंच ने जहां सीबीआई जांच की खामियां गिनाईं वहीं उसने संदेह का लाभ तलवार दंपत्ति को देते हुए उन्हें बरी कर दिया। गौरतलब है कि 26 नवंबर, 2013 को सीबीआई कोर्ट ने हत्या करने और हत्या के सुबूत मिटाने के आरोपी तलवार दंपत्ति को दोषी करार देते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई थी। इस पर टिप्पणी करते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि ऐसी सजा तो सुप्रीम कोर्ट ने भी कभी नहीं दी है। मतलब साफ था कि जो कुछ हुआ उसमें एक बड़ी दरार दिखाई दे रही है, जिसे सीबीआई ने नजरअंदाज किया हुआ था। इसका लाभ कहीं न कहीं शातिर हत्यारे उठाने में सफल रहे। इस प्रकार एक तरफ जहां तलवार दंपत्ति को संदेह का लाभ मिला वहीं दूसरी तरफ आरुषि और हेमराज की आत्माएं न्याय की गुहार लगाती प्रतीत हो रही हैं। हत्या किसने की यह सवाल आज भी अनुत्तरित वहीं, उसी चौराहे पर खड़ा जवाब की राह देख रहा है, जहां वह हत्या के समय 2008 में देखा गया था। यह सवाल जांच और फैसले करने वाले जिम्मेदारों से पूछ रहा है कि आखिर हत्या तो हुई है तो दोषियों को सजा क्योंकर नहीं दी जा सकी है? आरुषि और हेमराज को क्यों और किसने मारा? दरअसल हत्या कैसे हुई और किस चीज से हुई इसके सुबूत तो मिल गए। उसे मेडिकली प्रूफ भी कर दिया गया, लेकिन हत्याएं क्यों की गईं और किन लोगों ने कीं इसके जवाब नहीं मिल सके हैं। गौरतलब है कि 15-16 मई, 2008 की दरमियानी रात को आरुषि की लाश नोएडा स्थित उसके घर में बिस्तर पर मिली थी। इस पर पुलिस को बताया गया था कि नौकर हेमराज उसका कत्ल करके भाग गया। इससे पहले कि पुलिस जांच के जरिए निर्णय लेने की स्थिति में पहुंच पाती उसे हेमराज की लाश भी उसी घर की छत पर मिली। इसके बाद लगातार नाटकीय मोड़ आए या यूं कहें कि मामले को कमजोर करने और दूसरी दिशा में मोड़ने की गरज से इसे घुमावदार रास्ते में ले जाकर छोड़ दिया गया। जबकि पोस्टमार्टम रिपोर्ट कहती रही कि हत्या किसी ऐसे शख्स ने की है जिसके हाथ ऑपरेशन करने में माहिर हैं और जो ऑपरेशन ब्लेड का इस्तेमाल बखूबी जानता है। हत्या घबराहट में या भागते हुए नहीं की गई, इसलिए निशान भी साफ-साफ कहानी कहते नजर आए, जिसकी अनदेखी करते हुए जांचों को आगे बढ़ाया गया और अंधे मोड़ पर दोष सिद्ध कर दिए गए। जानकारों, विशेषज्ञों और शरीर विज्ञानियों की मानें तो लाश खुद कातिल का पता बताती है, लेकिन यहां दो-दो लाशें ऐसा करने में खुद को असमर्थ पा रही हैं। दरअसल इसमें कहीं न कहीं कोई ऐसा पेंच फंसा हुआ है जिससे न सिर्फ जांच प्रभावित हुई है बल्कि सच्चाई को सामने लाने में भी अच्छे-अच्छों को दिन में तारे नजर आ रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो पुलिस की जांच को आगे बढ़ाते हुए सीबीआई इस नतीजे पर नहीं पहुंचती कि आज हाईकोर्ट से उसे मुंह की खानी पड़ती। यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि सीबीआई पर राजनीतिक तौर पर पहले से ही सरकार के दबाव में काम करने के आरोप लगते रहे हैं, लेकिन एक स्कूली छात्रा और एक घरेलु नौकर की हत्या के मामले में जिस तरह से सीबीआई जांच, शक के दायरे में आई है उससे तो मानों सीबीआई की साख पर पूरी तरह बट्टा ही लग गया है। किसी क्राइम थ्रिलर फिल्म की तरह दोहरा हत्याकांड नाटकीय घटनाक्रम में तब्दील हो गया, मानों जहां से चले थे वहीं वापस पहुंच गए हों। अब भी समय है सीबीआई को चाहिए कि मामले को सही से अदालत में पेश करे और सुबूतों के साथ हत्यारों को सामने लाए, क्योंकि ऐसा नहीं करने से उसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठ रहे हैं।
कुत्ते की टायलेट कथा
दीपक दुबे
वे पेंशनर थे सुबह कुत्ते की चैन पकड कर घर से बाहर घूमने जाने लेंगी तभी पीछे से आवाज आई यह उनकी बहू थी – एक प्लास्टिक की थैली थमाते हुए बोली यह भी साथ ले जाईये।
क्यों? उन्होने प्रश्नवाचक मुद्रा बनाते हुए पूछा। क्या आज का पेपर नही पढा क्या ? हैरानी से उन्होने बहू को देखते हुए कहा नही।
अरे अब खुले मे कुत्ते को मत शौच कराना जैसे ही लगे कि टामी को पोट्टी आ रही तो यह थैली पीछे लगाकर झेल लेना बाद मे किसी डस्टबिन मे फेंक देना नही तो पांच हजार रूपये जुर्माना हो सकता है। देखे नही निगम ने आदेश दिये हैं| स्वच्छ भारत अभियान मे sअब के कुत्तो पर भी खुले मे शौच करने पर शामत आने वाली है जबलपुर नगर निगम ने ऐसे सख्त आदेश दिये है कि जो कुत्तों को खुले मे शेच करायेगा उस पर 5 हजार रूपये जुर्माना किया जायेगा।
ससुरजी ने थेली ली और भुनभुनाते हुए बडबडाते हुए – अब यह भी करना पडेगा घर स पडे। घर से बाहर निकलते ही एक देशी कुत्ते पर नजर पडी उसकी मुद्रा देखकर वह समझ गये क्या करने वाला है मगर चैन वाला कुत्ता थाडे ही है जो नियम कायदा जाने ही वो तो आवारा हे उसकी क्या जिम्मेदारी केन वसूल करेगा जुर्माना? सोचते सोचते नाक पर रूमाल रख वे आगे बढ गये रास्ते रास्ते वे जैसे ही टामी को शाच की मुद्रा बनाते देखते थैली बढा देते वे इधर थेली बढाते टॉमी विचार बदल देतां वह भी यह सोचता कि मालिक क्या आज पगला गये है जेसी ही प्रेशर बनता हे थैली बढा देता हैं। यह आंखमिचानी करीब घंटा भर चली कुत्ता भी परेशान मालिक भी परेशान । दिन निकलने को आया मगर कुत्ता शौच को तैयार, ना मालिक थैली अडाने से बाज आये। आखिरकार दोनो ही एक जगह थक हारकर बैट गये। बीच बीच मे दोनो ही एक दूसरे को देख लेते कुत्ता सोचता कि कब मालिक मुह फेरे ओर मै निकालू मालिक को शंका होती कि जैसे ही मैने मुह फेरा साला निकाल लेगा घंटो यू ही उहापोह मे बैटे हो गये अब तो पेंशनर जी का प्रेशर बनने लगा था वे भी बार बार पहलू बदलकर आडे तिरछे होकर पहलू बदल रहे थे मगर प्रेशर बढता ही जा रहा था। वे घीरे से डटे और पुलिया से उतरकर नाले मे जाकर फेश होने बैठ गये । जैसी ही बैठे उधर से निगम वालो की सीटी से वे घबरा गये। निगम वालो ने उन्हे पकडा और कच्छे पर ही उन्हे पकड कर लाये इघर मालिक के खिसकते ही टॉमी भी वही रोड किनारे निपट लिया था। निगम कर्मचारी ने पहले टामी को दो डंडे जडे फिर मालिक पर पांच हजार रूपये का जुर्माना ठोंक दिया । व मन मसोस कर अपने टामी को हिकारत की नजर से देखते हुए कच्छे पर ही घर लौटे पास से गुजरने वाले उन्हे नाक पर रूमाल रख कर चले जाते। वह सोच रहे थे घर जाकर बहू को क्या जवाब देगे? सोचकर उनकी बची खुची भी खिसक गई। घर पहुचते ही उन्होने दौड लगा दी ओर टायलेट मे घुस गये। बहू देखते ही रही – आज ससुरजी को क्या हो गया? ससुर जी टायलेट मे बैठे बैठे कुत्ते की टायलेट कथा के बारे मे सोच रहे थे।
पटाखेः बेमतलब फैसला
(डॉ. वेदप्रताप वैदिक)
सर्वोच्च न्यायालय ने अगले 20 दिन के लिए दिल्ली में पटाखों की बिक्री पर रोक लगा दी है। अदालत का यह फैसला अजीब-सा है। बिक्री पर रोक है लेकिन पटाखे छुड़ाने पर रोक नहीं है। तो अब होगा यह कि दीवाली के मौके पर अदालत की नाक के नीचे जमकर पटाखे फोड़े जाएंगे और वह उन्हें देखते रहने के अलावा कुछ नहीं कर सकती। दूसरे शब्दों में अदालत ने अपनी ही अवज्ञा का रास्ता खुद खोल दिया है। जिन दुकानदारों ने 500 करोड़ रु. के पटाखे शिवकाशी से बेचने के लिए मंगा रखे हैं, क्या वे हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे ? यदि अदालत को यह रोक लगानी थी तो साल-छह माह पहले से लगानी थी ताकि दुकानदार पटाखे मंगाते ही नहीं। अब वे इन पटाखों को अपने ग्राहकों तक पहुंचाने के लिए हजार तरीके खोज निकालेंगे। पटाखेबाज़ लोग भी कम नहीं हैं। वे अभी से पटाखे जमा कर लेंगे और कहेंगे कि ये तो हमारे पास अदालत के फैसले के पहले से ही पड़े थे। बेचारे दिल्ली के पुलिसवाले क्या करेंगे ? दीवाली के दिन एक नया सिरदर्द उनके लिए खड़ा हो गया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने जो फैसला दिया है, उसके पीछे भावना काफी अच्छी है, क्योंकि पिछले साल दीवाली के दिनों में दिल्ली का प्रदूषण सामान्य स्तर से 29 गुना बढ़ गया था। कई बीमारियां फैल गई थीं लेकिन यह खतरा तो साल में तीन-चार दिन ही कायम रहता है जबकि फसलों के जलने का धुंआ, कारों का धुंआ, उड़ती हुई धूल का प्रदूषण तथा अन्य छोटे-मोटे कारणों से फैलनेवाले सतत प्रदूषण पर हमारी नज़र क्यों नहीं जाती। मेट्रो का किराया बढ़ाना प्रदूषण को बढ़ाना है। अब लोग मेट्रो के बदले आटो रिक्शा और बसों में बैठना ज्यादा फायदेमंद समझेंगे। अदालतें और सरकार जन-यातायात की सुविधाएं क्यों नहीं बढ़ातीं, ताकि कारों का चलन कम हो। दिल्ली में 5000 बसों की जरुरत है लेकिन सिर्फ एक हजार ही चल रही हैं। इसीलिए दो-ढाई करोड़ की आबादी में लाखों कारें दौड़ती रहती हैं। दिल्ली और देश में ऐसे बड़े जन-आंदोलन भी नहीं हैं, जो हर नागरिक को प्रेरणा दें कि वह दो—चार पेड़-पौधे लगाए। राजनीतिक दल और नेता लोगों को वोट और नोट कबाड़ने से फुर्सत मिले, तब तो देश की कुछ सेवा हो।
क्या लोहिया अब भी प्रासंगिक हैं
-शिवमोहन मिश्र
(पुण्यतिथि 12 अक्टूबर पर विशेष)
राजनीति बड़ी हरजाई चीज है। वह उन लोगों को भी खत्म कर देती है। जो उसकी पवित्रता उसे लौटाना चाहती है। डॉ. राममनोहर लोहिया ऐसे ही लोगों में से एक थे, जिन्होंने हिन्दुस्तान को बार-बार झकझोरा था, लेकिन उसकी मृत्यु को सिर्फ 49 वर्ष ही हुए हैं और अब वे इतिहास की वस्तु बन गए प्रतीत होते हैं। राममनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च 1910 अकबरपुर उत्तरप्रदेश में हुआ था और उनकी मृत्यु 12 अक्टूबर 1967 में नई दिल्ली में हुई जब उनकी उम्र 57 साल की थी। कुछ क्षेत्रों में यह सवाल उठने लगा है कि क्या डॉ. लोहिया अब भी प्रासंगिक हैं? हम आप सभी जानते हैं कि हमारे देश में प्रासंगिकता का सवाल आजकल ज्यादातर निठल्लों का कवच बन गया है। जैसे साहित्य में एक विचार चलता है कि कला, कला के लिए है। वैसे ही राजनीति और समाज शास्त्र में भी बहस के लिए बहस का एक खतरनाक माहौल बनता। आम तमाम तरह के प्रासंगिक विचार लेकर भी क्या करेंगे। अगर करना आपको वही है जिससे यथास्थिति की नई जड़ें फैलती हैं? वास्तव में आगे का खतरा बनाने की बैचेनी होती है। लोहिया जैसे व्यक्तित्व की प्रासंगिकता के मूल्यांकन में दूसरा खतरा उन लोगों की तरफ से आता है, जिनके लिए प्रासंगिकता का महत्व सहज सुविधा की रणनीति है। ऐसे ही लोगों ने अपने ढंग से गांधी का मूल्यांकन किया है।
वर्तमान राजनीति में लोहिया की जो दुर्दशा हो रही है, उसकी तुलना गांधी की दुर्दशा से की जा सकती है जो गांधीवादियों ने स्वाधीनता के बाद की। जिस तरह आज के गांधीवादियों को देखकर इसकी कल्पना करना असंभव है कि गांधी जी का व्यक्तिव कितना तेजस्वी था। दरिद्रनारायण के प्रति उनके मन में कितना दर्द था और किस तरह से अन्याय के विरुद्ध लड़ने के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। उसी तरह आज के अधिकांश समाजवादियों का आचरण डॉ. लोहिया के क्रांतिकारी सोच और तीखे की छवि प्रस्तुत नहीं करता। कुछ समाजवादी तो बिल्कुल विदूषक की तरह आचरण कर रहे हैं और चूंकि वे डॉ. लोहिया के अनुयायी के रूप में प्रसिद्ध हैं, इसलिए जो लोग डॉ. लोहिया को नहीं जानते उसमें आश्चर्य नहीं कि उनके मन में लोहिया के बारे में विकृत विचार पैदा हो जाए। कुछ मायनों में यही डॉ.लोहिया की विफलता भी है। किसी भी क्रांतिकारी नेता के लिए यह जरूरी है कि वह अपने अनुयायियों को इतना चरित्रवान और मजबूत बनाये कि परीक्षा की घड़ी में से कमजोर साबित न हों। ऐसा नहीं कि लोहिया समाजवादियों से बहुत खुश और संतुष्ट रहा करते थे। दूसरे कई विचारकों की तरह डॉ. लोहिया भी इस विडंबना के शिकार हुए। आज की राजनीति में अगर लोहिया की कोई जगह दिखलाई नहीं पड़ती, तो उसके लिए लोहिया अकेले जिम्मेदार नहीं हैं-उनके अनुयायियों एक एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिसके लिए राजनीति करने का अर्थ ही बदल गया है। लोहिया की प्रासंगिकता पर विचार करते हुए हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे कोई रुके हुऐ आदमी नहीं थे। ठहरे और निथरे हुए विचारों का मूल्यांकन करना अपेक्षाकृत आसान होता है। इसके विपरीत लोहिया के विचार अभी विकसित हो रहे थे। यद्यपि उनकी पद्धति साफ हो चली थी और विचारों के खूंटे भी बन चुके थे, लेकिन मार्क्स की तरह वे विचारों का पूरा शास्त्र नहीं छोड़ गए। यह स्थिति थोड़ा कठिन भी है और सुविधाजनक भी। कठिन इसलिए कि जिन्हें काम करने के लिए धाराओं, उपधाराओं से भरी हुई एक संपूर्ण संहिता चाहिए वे लोहिया से संतुष्ट नहीं होंगे। लेकिन लोहिया उनके लिए जरूर उपयोगी हैं, जो एक नयी सभ्यता की रूपरेखा स्पष्ट करने में लगे हैं। लोहिया में हमें विचार और कर्म की कुछ ठोस दिशाएं मिलती हैं पर उन दिशाओं में कुछ धुंधलका भी है। यह धुंधलका समझ और विचार का धुंधलका नहीं, बल्कि मौजूदा व्यवस्थाओं का एक सार्थक विकल्प तलाश करने की कठिनाइयों का एक बेहद सुखद नतीजा है। जो लोग यह मानते हैं कि लोहिया का समाजवाद दो हिस्सों गांधी और एक हिस्सा मार्क्स मिलाकर बनाया गया है, वे गांधी, मार्क्स और लोहिया तीनों के साथ अन्याय करते हैं।
लोहिया अपनी कार्यपद्धति में कितने लचीले और परिस्थिति के बदलाव से सीखने को कितने उत्सुक थे इसके कुछ उदाहरण काफी हैं। शुरू में उनकी राय साफ थी कि कम्युनिस्ट कीड़ा कांग्रेसियों के घूरे पर चलता है। तब वे किसी भी पार्टी से चुनावी गठबंधन या समझौता करने के लिए तैयार नहीं थे लेकिन उनका यह सपना बहुत ही जल्द टूट गया। बाद में कम्युनिस्टों के बारे में लोहिया के विचार बदल गए लेकिन उन्हें एक ऐसी रणनीति तैयार करने की जरूरत महसूस होने लगी, जिसके कारण 50 प्रतिशत से भी कम वोट पाकर भी विधान मंडलों की तीन चौथाई सीटों पर कब्जा किये रखने वाली कांग्रेस को विस्थापित किया जा सके। जनसंघ की सांप्रदायिकता और कम्युनिस्टों की विदेश निष्ठा, से दो मामले विपक्ष की सबसे बड़ी दरार के लिए जिम्मेदार थे। डॉ. लोहिया को इस राजनीतिक छूआछूत के गंभीर परिणामों को समझने में ज्यादा समय नहीं लगा और इसी के अनुरूप उन्होंने अपनी रणनीति भी बदली।
लोहिया की एक और नीति ने उनकी मृत्यु के बाद मान्यता हासिल की है जिसके लिए समाजवादियों को श्रेय दिया जाना चाहिए किन्तु वह जिस अधूरे और विकृत ढंग से लागू की गई है, उससे समाज में अनावश्यक तनाव तो बढ़ा है, पर किसी क्रांतिकारी संघर्ष का दरवाजा नहीं खुला है। लोहिया की मान्यता थी कि जो लोग हजारों वर्ष से पिछड़े हुए हैं, जिनका लगातार शोषण हुआ है, उनसे यह उम्मीद करना गलत है कि वे समान अवसर वाली व्यवस्था में प्रतिद्वंद्विता कर आगे बढ़ जाएंगे। लोकतंत्र सभी नागरिकों की समानता में विश्वास करता है किन्तु क्या हिन्दुस्तान के सभी नागरिक वस्तुतŠ समान हैं? क्या एक मोची को एक ब्राह्मण की प्रतिद्वंद्विता में खड़ा किया जा सकता है? निश्चित है कि ब्राह्मण बाजी मार ले जाएगा। इसलिए जब तक सभी मोची योग्यता में ब्राह्मण के बराबर नहीं आ जाते, तब तक उन्हें रोजगार में विशेष अवसर मिलने चाहिए। डॉ. लोहिया की दो टूक मान्यता थी कि योग्यता में अवसर नहीं अवसर से योग्यता, वे नौकरियें में पिछड़े वर्गों के लिए कम से कम 60 प्रतिशत आरक्षण की मांग करते थे। पिछड़े वर्गों में वे शुद्ध हरिजन, औरत, आदिवासी और मुसलमानों पिछड़ी जातियों की गणना करते थे।
लेकिन आरक्षण की वह गणना लोहिया की नीति में एक अल्पकालिक कदम थी वे चाहते थे कि प्रथा पर चौतरफा हमला हो। देश में तरक्की का माहौल नहीं बन रहा है, चारों ओर एक जकड़ सी दिखाई पड़ रही है। इसका मूल कारण वे जाति प्रथा को मानते थे। लोहिया की यह स्पष्ट धारणा थी कि जो देश अपनी सीमाओं के अंदर अन्याय और विषमता की इतनी बड़ी जड़ पाले हुए हैं, वह अन्तरराष्ट्रीय बिरादरी में भी कभी सम्मानपूर्ण स्थान नहीं प्राप्त कर सकता और हिन्दुस्तान में समाजवादी समाज की स्थापना के लिए वर्ग-संघर्ष काफी नहीं। जाति और योनि के कठघरे में तोड़े बिना हम शोषण और अन्याय के खिलाफ कारगर ढंग से नहीं लड़ सकते। इसलिए जीवन में बराबरी कायम हो और इसके पूरक कदम के रूप में पिछड़ों के लिए विशेष अवसर का सिद्धांत मान्य किया जाए।
लोहिया की प्रासंगिकता भी यही है कि आज पूंजीवादी और साम्यवाद, दोनों शिविरों में लोहिया की प्रासंगिकता भी यही है। आज पूंजीवादी और साम्यवाद, दोनों शिविरों की विकृतियां स्पष्ट हो चुकी है। साम्यवाद ने दुनियाभर में आशा पैदा की थी कि वह मनुष्य को स्वतंत्र और गरिमा पूर्ण जीवन जीने का अवसर दे सकता है लेकिन अब पूंजीवाद की शायद ही कोई ऐसी बुराई हो, जिसे साम्यवाद ने न अपना लिया हो। अंतरराष्ट्रीय मामलों में तो दोनों में शायद तिल भर भी फर्क नहीं रह गया है। तीसरी दुनिया के देश इस विडंबना को नहीं समझते हों, ऐसी बात नहीं है लेकिन चूंकि उनका नेतृत्व अभी भी इस या उस शिविर से ताकत हासिल करने का सपना देखता है, इसलिए उत्तर और दक्षिण के स्पष्ट विभाजन के बावजूद दक्षिण के राष्ट्र अपने लिए कोई वैसी व्यवस्था विकसित करने में असमर्थ हैं, जिसमें उत्तर का दखल न हो। मुख्य बाधा टेलाजी का सवाल है, जो अंतरराष्ट्रीय शोषण और अविकसित देशों में गरीबी और विषमता बनाये रखने का सबसे बड़ा हथियार है। यह मानकर चला जा रहा है कि दक्षिण के विकास का यही अर्थ है कि वह उत्तर की तरह हो जाए, यद्यपि यह अहसास सभी को कि ऐसा संभव नहीं है। इस विडंबना पूर्ण स्थिति में बरबस लोहिया की याद आती है, जिन्होंने तीसरी दुनिया के देशों के लिए एक स्वतंत्र रास्ता बनाने का प्रस्ताव रखा था। यह रास्ता राजनीतिक और आर्थिक सत्ता कस विकेद्रीकरण, छोटी मशीन की टेकनोलाजी, अंतर राष्ट्रीय जमींदारी का खात्मा, विश्व संसद और मनुष्य के दुनिया भर से कहीं भी आ- जा सकने का अधिकार जैसे प्रत्यय, से बना था। लोहिया की हैसियत ऐसी नहीं बन पायी कि वे विश्व की राजनीति को प्रभावित कर सकते। लेकिन उनकी तारीफ इसलिए की जानी चाहिए कि उन्होंने अपने समय की राजनीति, को इन विचारों से जोड़ा। क्या लोहिया का बताया हुआ रास्ता आज भी प्रासंगिक नहीं है? और किस राजनीतिज्ञ ने मौजूदा पद्धतियों के विकल्प की ओर इतने सार्थक और सटीक ढंग से संकेत किया है।
कोई चाहे तो कह सकता है कि लोहिया भारतीय समाज को बदलने में विफल रहे है। भारतीय समाज को बदलना तो खैर एक बहुत बड़ी बात है- क्योंकि यह जारों वर्ष पुराना समाज है और इसकी बीमारियों भी मामूली है नहीं- लेकिन देश की राजनीति को भी बहुत गहराई से प्रभावित करने में लोहिया विफल रहे। यह वैसे ही हे जैसी गांधी देश को बदलने में विफल रहे और जय प्रकाश संपूर्ण क्रांति का सपना लिये हुए ही चले गए। लेकिन हमें इससे हतोत्साहित नहीं होना चाहिए। उद्देश्य अगर छोटा और तात्कालिक हो तो उसकी पूर्ति से हो जाती है। लेकिन जो विचारक एक नयी सभ्यता के लिए लड़ते हैं, वे वक्ती तौर पर तो विफल दिखाई पड़ते हैं पर उनके विचार इतिहास की धारा में घुल मिल जाते हैं और धीरे धीरे अपना काम करते रहते हैं।
यह कहावत पुरानी है कुछ नेता जन्म से ही महान होते हैं, कुछ महानता करते हैं और कुछ पर महानता थोप दी जाती है। इसी तर्ज पर हम चाहें तो कह सकते हैं कि कुछ नेता सामयिक तौर पर सफल होते हैं, पर लम्बे दौर में असफल, कुछ न सामयिक तौर पर सफल होते हैं न लंबे दौर में और कुछ सामयिक तौर पर विफल होते हैं, पर लम्बे दौर में सफल। सामयिक सफलता और दीर्घकालीन विफलता का सबसे अच्छा उदाहरण हिटलर है। नेताजी सुभाषचंद बोस को हम उनके प्रति पूरी श्रद्धा एवं सम्मान प्रदर्शित करते हुए दूसरी कोटि में रख सकते हैं। वे न सामयिक तौर पर सफल हो सके और न उनकी कोई दीर्घकालीन सफलता की बात की जा सकती है। लोहिया को मैं तीसरी कोटि में रखना चाहूंगा। लोहिया आज विफल दिखाई पड़ सकते हैं। लेकिन यह लोहिया का दोष नहीं है। अगर हम ऐसा सोचते हैं कि शोषण-अन्याय वाली व्यवस्था को मिटाना है और इसके स्थान पर समता आधारित समाज व्यवस्था को मिटाना है और इसके स्थान पर समता पर आधारित समाज व्यवस्था स्थापित होती है हे तो लोहिया का समय भी आएगा, क्योंकि उनकी विचार प्रणाली को विकसित करने के अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं है।
संघ और हिंदी: इतना तो करें
(डॉ. वेदप्रताप वैदिक)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अ.भा. कार्यकारी मंडल की बैठक आजकल भोपाल में हो रही है। यहां गैर-हिंदीभाषी क्षेत्रों के प्रचारकों की विशेष बैठक बुलाई गई है। इस बैठक में सर संघचालक मोहन भागवत इन प्रचारकों को ‘मातृभाषा अभियान’ चलाने की प्रेरणा देंगे याने प्राथमिक शाला के बच्चों को अंग्रेजी की चक्की में पिसने से बचाएंगे। देश के बच्चों की प्राथमिक शिक्षा मातृभाषाओं में हो, इस पर प्रचारक जोर देंगे। प्रचारक क्या जोर देंगे? कैसे जोर देंगे ? वे क्या करेंगे ? उनका कहना कौन सुनेगा ? लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के खर्चीले स्कूलों में क्यों भेजते हैं, यह सवाल मोहनजी को पहले खुद से पूछना चाहिए। उन्हें पता है कि इसका जवाब क्या है। आज भारत का गरीब से गरीब आदमी चाहता है कि उसके बच्चे पढ़ लिखकर बड़ी-बड़ी नौकरियां करें। हमारे देश में सरकारी नौकरियों के लिए सबसे बड़ी और अनिवार्य योग्यता क्या है ? अंग्रेजी भाषा ! आपको अपनी नौकरी का हर गुर अच्छी तरह मालूम है लेकिन अगर आप अंग्रेजी नहीं जानते तो वह नौकरी आपको नहीं मिलेगी। सरकारी ही नहीं, निजी नौकरियों में भी इसी की नकल चल पड़ी है। इसीलिए संघ-प्रचारकों के उपदेश चिकने घड़े पर से फिसल जाएंगे। अतः मोहनजी अपना समय और शक्ति इस उपदेश-कथा में नष्ट नहीं करें। इसकी बजाय वे तीन काम करें। सबसे पहले सर्वज्ञजी से कहें कि वे संसद में ऐसा कानून लाएं, जिससे देश में विदेशी भाषा के माध्यम की हर पढ़ाई पर प्रतिबंध लगे। सिर्फ प्राथमिक शिक्षा में ही नहीं, पीएच.डी. में भी। अब से 50 साल पहले मैंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. का शोधप्रबंध लिखकर (ज.नेहरु वि.वि. में) भारतीय भाषाओं के बंद द्वार खोल दिए थे। इसका अर्थ यह नहीं कि हम विदेशी भाषाएं न पढ़ें। स्वेच्छा से अनेक विदेशी भाषाएं पढ़ें और उनमें महारत हासिल करें। मैंने स्वयं रुसी, जर्मन और फारसी पढ़ी। अंग्रेजी तो मुझ पर बचपन से ही लदी हुई थी। स्वेच्छा से अंग्रेजी पढ़ने में कोई बुराई नहीं है। दूसरा काम सरकार यह करे कि सरकारी नौकरियों की भर्ती-परीक्षा से अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म करे। तीसरा काम, जो संघ के स्वयंसेवक करें, वह यह कि सरकार संघ की बात न माने तो लाखों स्वयंसेवक सारे देश में अहिेसक सत्याग्रह करें, धरने दें, उपवास करें, प्रदर्शन करें। वे अंग्रेजी माध्यम की शालाओं को बंद करवाएं, सरकारी दफ्तरों और नेताओं की गर्दन नापें और देश के सारे काम-काज में स्वभाषाओं को प्रतिष्ठित करें। अब से साढ़े तीन साल पहले मैंने सब स्वभाषा में हस्ताक्षर करें, ऐसा अभियान चलाया था। मोहनजी ने बेंगलूरु में संघ के विराट सम्मेलन में समस्त स्वयंसेवकों से मेरा नाम लेकर संकल्प करवाया था। मैं उनका आभारी हूं। उस अभियान को आगे बढ़ाना है। कम से कम दस करोड़ लोगों के दस्तखत अंग्रेजी से बदलवाकर हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में करवाना है। यह छोटी-सी लेकिन महत्वपूण्र शुरुआत है। कम से कम इतना तो करें।
आखिर क्या है चिकनगुनिया?
– डॉ. स्वाति वर्मा
आज हम बात करेगें चिकनगुनिया के बारे मैं- आज कल मैं देख रही हूँ 10 मे से 7 मरीज कहते हैं कि उनको चिकनगुनिया हो गया हैं क्योंकि उनको बुखार व जोडो मै दर्द हैं। परन्तु यह सत्य नही हैं सिर्फ जोडो मैं दर्द व बुखार आने से आपको चिकनगुनिया नहीं हो जाता। आईये हम जाने आखिर क्या है ये बिमारी- मलेरिया एवं डेंगू की तरह चिकनगुनिया भी मच्छर के काटने से होता हैं। यह एक वाइरल बुखार हैं जो कि एडिस मादा मच्छर के काटने से होता हैं। यह मच्छर भी डेगूं के मच्छर की तरह ही दिन में काटता है। चिकनगुनिया शब्द का अर्थ होता हैं “मुडा हुआ या विकृत” कयोंकि इस रोग से ग्रसित व्यक्ति के जोडो मैं असहनीय दर्द व सुजन होती है, जिस कारण वह ठीक से चल भी नहीं पाता और झूक कर व पेरों को मोडकर चलता है। यही वजह है की इस बिमारी को यह नाम मिला। चिकनगुनिया का विकास काल 1 से 12 दिनों का होता हैं। 12 दिनों बाद ही इस बिमारी के लक्षण नजर आते –
चिकनगुनिया के लक्षण-
– चिकनगुनिया व डेंगू के लक्षण लगभग एक जैसे ही होते है, परन्तु चिकनगुनिया मे रोगी को जोडों मे तेज दर्द व सुजन होती हैं।
– तेज बुखार आना
– जुकाम व खासी
– शरीर पर लाल चकते
– भूख कम लगना, जी मचलाना व कमजोरी
– प्रकाश ना सहन कर पाना
– रोकथाम- कयोंकि यह रोग भी मच्छर से फैलता है तो हमें अपना बचाव सिर्फ मच्छरो से करना है।
– बारिश के मौसम में यह बिमारी तेजी से पनपती है क्योंकि बारिश मे जमे हुए पानी मे मचछर ज्यादा होते है। तो लापरवाही ना बरते घर के आस-पास सफाई रखे।
– कूलर का पानी रोज बदले
– बच्चों को पूरी बाह के कपडे पहनाये
– एसे मौसम मे आउटडोर गेम से बचे
– ज्यादा दिक्कत हो तो डॉक्टर की सलाह लेद्र
– नदी व स्वमिग पूल के जितना हो सके कम जाए।
चिकनगुनिया जानलेवा बिमारी नही है पर यह आपको हाथ-पैर से लाचार बना सकती है। चिकनगुनिया का पता लक्षणों और खून की व अन्य कुछ जाचं से पता चलता है, इसके मुख्य है (चिकनगुनिया IGM) यदि निम्न लक्षण आपको या आपके किसी नजदीकी को आ रहे है तो इसे नजरअंदाज ना करें सिर्फ दर्द निवारक चिकनगुनिया का इलाज नही है। इसमे डॉक्टर की सलाह आवश्यक है, एक सही उपचार के साथ कुछ बातो का ध्यान रखें जैसे-
– ज्यादा से ज्यादा पानी पीयें, आराम करें, दूध व छाछ का सेवन करें, गरम पानी मैं पैर डालकर सेके- इत्यादि।
– सही उपचार व कुछ सावधानियों से आप अपने और अपने बच्चों को इस बिमारी से बचा सकते है।
– अधिक जानकारी हेतु मेरे फेसबुक पेज पर जाए:- डाँ. स्वाति वर्मा-मेडिकल वल्ड
(लेखिका स्त्री रोग चिकित्सक हैं)
रेलः सिर्फ अफसर क्यों, नेता क्यों नहीं ?
(डॉ. वेदप्रताप वैदिक)
रेल मंत्रालय अब वह काम करेगा, जो आजादी के बाद किसी भी मंत्रालय ने नहीं किया। रेल मंत्री पीयूष गोयल को हार्दिक बधाई ! अब रेल्वे बोर्ड के सदस्य, जनरल मेनेजर और डिविज़नल मेनेजर लोग सादे स्लीपर क्लास या तृतीय श्रेणी के वातानुकूलित डिब्बों में यात्रा करेंगे। भारत में जबसे रेल चली है, यह पहली बार हुआ है। अफसरों को रेल-जीवन की सच्चाई का अब सही—सही पता चलेगा। अंग्रेज कभी इन साधारण डिब्बों में यात्रा नहीं करते थे। यदि वे रेल्वे के अफसर होते थे तो सिर्फ एक अंग्रेज के लिए पूरा डिब्बा (स्पेशल कोच) चला करता था। कभी-कभी सिर्फ एक सवारी के लिए पूरी रेल चला दी जाती थी। शेष डिब्बों में यात्री लोग भेड़-बकरियों की तरह ठूंस दिए जाते थे। कई यात्री खिड़की-दरवाजों पर लटकते हुए यात्रा करते थे और कई डिब्बों की छतों पर बैठे-बैठे रात गुजार देते थे। इन डिब्बों के शौचालयों की दशा शोचनीय होती थी। उनकी बदबू के मारे सारा डिब्बा महकता रहता था। यह दशा अब भी सारे देश की रेलों की है। मुझे इन दोनों दशाओं का खूब अनुभव है। 1975 में जब पं. कमलापति त्रिपाठी रेलमंत्री थे, मैं रेल मंत्रालय की हिंदी सलाहकार समिति का सदस्य था। मेरे लिए रेल के अफसरों ने पांडिचेरी से कन्याकुमारी तक रेल की विशेष बोगी चला दी। जब मैंने इस फिजूलखर्ची का विरोध किया तो उन्होंने एक ठोस बहाना बनाकर अपनी जान छुड़ाई। मैं पूछता हूं कि खुद रेल मंत्री पीयूष गोयल तृतीय श्रेणी में चलकर क्यों नहीं दिखाते ? खुद प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति भी उसी में चलें तो सारे देश को बड़ी प्रेरणा मिलेगी, हालांकि उनकी सुरक्षा का विशेष इंतजाम जरुरी है। वैसे मैंने अपने साथ स्विटजरलैंड के राष्ट्रपति को ज्यूरिख की साधारण बस की लाइन में भी खड़े देखा है। इंग्लैंड के प्रधानमंत्री भी लंदन की मेट्रो में चलते हैं। मैं खुद प्रायः दिल्ली की मेट्रो और बसों में चलता हूं। हमारे ये नेता लोग क्या महात्मा गांधी से भी बड़े हैं ? यदि वे चल सकते थे तो ये तृतीय श्रेणी में क्यों नहीं चल सकते ? मैं तो कहता हूं कि रेलों, बसों और हवाई जहाजों में बस एक ही श्रेणी होनी चाहिए। हम कैसे भारतीय हैं ? क्या कुछ घंटों के लिए भी हम समतामूलक व्यवहार बर्दाश्त नहीं कर सकते ?
आरक्षण व्यवस्था पर खुली बहस की जरूरत
(आजाद सिंह डबास)
भारतवर्ष में सन् 1950 में संविधान के लागू होने के साथ ही अनुसूचित जाति को 15 : और अनुसूचित जनजाति को 7.5 : आरक्षण शासकीय सेवाओं में दिया जा रहा है। इन दोनों वर्गों को लोकसभा, राज्यों की विधानसभाओं एवं उच्च शिक्षा में भी आरक्षण प्राप्त है।वर्ष 1990 में मंडल आयोग की सिफारशें लागू होने उपरांत अन्य पिछड़ा वर्ग को वर्ष 1993 से केन्द्र सरकार की नौकरियों में27 : आरक्षण दिया जा रहा है। कुछ वर्षों बाद केन्द्र सरकार द्वारा उच्च शिक्षा में भी अन्य पिछड़ा वर्ग के लिये आधा-अधूरा आरक्षण लागू कर दिया लेकिन इस वर्ग को आज भी लोकसभा एवं राज्य की विधानसभाओं में राजनैतिक आरक्षण प्राप्त नहीं है।
मेरी वर्ष 1985 में सामान्य श्रेणी के उम्मीदवार के रूप में भारतीय वन सेवा में नियुक्ति हुई। 2 वर्ष राष्ट्रीय वन अकादमी, देहरादून एवं 4 माह लाल बहादुर शास्त्री अकादमी, मसूरी में प्रशिक्षण उपरांत मैंने अगस्त 1987 में मध्यप्रदेश में अपनी सेवा प्रारंभ की। वर्ष 2002 में म.प्र. शासन द्वारा मेरी जाति को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करने उपरांत से ही मैं आरक्षण जैसे जटिल मुद्दे को समझने की कोशिश कर रहा हूँ। मैंने विगत 15 वर्षों में यह महसूस किया है कि जिन वर्गों को आरक्षण मिला हुआ है, वे इसका आँख मूंद कर समर्थन कर रहे हैं और जिस वर्ग को नहीं मिला है, वे इस पर तार्किक रूप से सोचे बिना ही एकतरफा विरोध कर रहे हैं जिससे विभिन्न समुदायों में आपसी सद्भावना में कमी देखी जा रही है। जहाँ तक अनुसूचित जाति एवं जनजाति को दिये गये राजनैतिक आरक्षण का प्रश्न है, चूंकि सत्तारूढ़ दलों को यह आरक्षण सूट कर रहा है अत: लगभग सभी राजनैतिक दल इसको वर्तमान स्वरूप में बनाए रखने के पक्षधर हैं अत: वे इसे हर 10 साल में आगे बढ़ा देते हैं और इस आरक्षण पर कोई ज्यादा विवाद नहीं है। असली समस्या शासकीय सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में लागू आरक्षण में है। वर्तमान में अन्य पिछड़ा वर्ग को केन्द्रीय शासकीय सेवाओं एवं शिक्षा के क्षेत्र में 27 : आरक्षण प्राप्त है जबकि इनकी आबादी कहीं ज्यादा है। वर्ष 1931 के बाद एक सोची-समझी रणनीति के तहत जाति जनगणना नहीं कराई गई। लगभग 80 वर्ष बाद केन्द्र सरकार द्वारा आधी-अधूरी जाति जनगणना कराई गई लेकिन गणना पूरी होने के कई वर्ष बाद भी किसी न किसी बहाने जनगणना के आँकड़े सार्वजनिक नहीं किये जा रहे हैं। शासक वर्ग को भय है कि जातिगत आँकड़े सार्वजनिक होने के बाद अन्य पिछड़ा वर्ग द्वारा आरक्षण में वृद्धि की माँग जोर-शोर से उठाई जा सकती है अत: ऐसा नहीं होने देने की मन्शा से ही जनगणना के आँकड़ों को सार्वजनिक नहीं किया जा रहा है। देश के विभिन्न राज्यों में आरक्षित वर्गों को अपनी सहूलियत अनुसार आरक्षण दिया जा रहा है लेकिन अगर मध्यप्रदेश की बात करें तो स्थिति बहुत ही विकट है। मध्यप्रदेश में शासकीय सेवाओं में 20 : अनुसूचित जनजाति को, 16 : अनुसूचित जाति को और मात्र 14 : अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण दिया गया है जबकि मध्यप्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग की आबादी लगभग 52 : है। मेरा व्यक्तिगत तौर पर मानना है कि माननीय उच्च न्यायालय द्वारा वर्ष 1992 में आरक्षण पर जो 50 : की सिलिंग लगाई गई है, वह उचित नहीं है। मेरा सुझाव है कि केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारों द्वारा सभी 4 वर्गों, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग एवं सामान्य वर्ग के गरीबों को आरक्षण का लाभ देना चाहिये। वर्तमान में दिये जा रहे आरक्षण के बजाय अनुसूचित जाति को 16 :, अनुसूचित जनजाति को 8 :, अन्य पिछड़ा वर्ग को 41 : और सामान्य वर्ग को 10 : आरक्षण दिया जाना चाहिये।एक मोटे आंकलन के अनुसार वर्तमान में अनुसूचित जाति में 3 :, अनुसूचित जनजाति में 2 :, अन्य पिछड़ा वर्ग में 5 : एवं सामान्य वर्ग में लगभग 15 : लोग क्रीमी लेयर के अन्तर्गत आते हैं अत: इन सभी वर्गों में एक समान क्रीमी लेयर का प्रावधान कर क्रीमी लेयर के अन्तर्गत आने वाले सभी वर्गों को पृथक से 25 : आरक्षण दिया जाना चाहिये। अगर इस आंकलन के मान से आरक्षण दिया जाता है तो मुझे लगता है कि गरीबों का प्रतिनिधित्व बढ़ेगा, जो आरक्षण का मूल मकसद है। वर्तमान में जिस ढंग से आरक्षण लागू है, उसमें किसी भी वर्ग के गरीबों के लिये अब कोई स्थान नहीं बचा है। समस्त वर्गों के सक्षम लोग ही आरक्षण का फायदा उठा रहे हैं जो आरक्षण की मूल भावना के विपरीत है। उदारीकरण, भू-मंडलीकरण एवं निजीकरण (एल.पी.जी.) के दौर में शासकीय सेवाओं में ही नहीं अपितु निजी क्षेत्र में भी उपरोक्तानुसार आरक्षण लागू किया जाना चाहिये।मेरा यह भी मानना है कि भारतवर्ष में सैकड़ों वर्षों से जो समाज हजारों जातियों में बटाँ हुआ है, वह देश की प्रगति में बहुत बड़ी बाधा है।अगर भारतवर्ष को एक सशक्त देश बनाना है तो हमें जाति, वर्ण एवं वर्ग की भावना से ऊपर उठना ही होगा। आज आरक्षण व्यवस्था लागू होने के 67 वर्ष बाद उपरोक्तानुसार बदलाव करने हेतु देश हित में आरक्षण पर एक तार्किक बहस की नितांत आवश्यकता है।
म्यांमार ऑपरेशन के दूरगामी परिणाम
-प्रमोद भार्गव
भारतीय सेना ने एक बार फिर प्रतिबंधित उग्रवादी संगठन एनएससीएन खापलांग गुट पर अचानक हमला करके भारी क्षती पहुंचाई है। म्यांमार सीमा के निकट हुई इस मुठभेड़ में कई आतंकवादी मारे गए हैं। पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में भी पिछले साल 28-29 सितंबर की रात सर्जिकल स्ट्राइक के बाद सेना की यह एक और बड़ी कार्रवाई है। इससे पहले जून 2015 में सेना ने म्यांमार की सीमा में घुस कर इसी संगठन के कई शिविरों को तबाह कर दिया था। दरअसल खापलांग गुट के उग्रवादियों ने सेना की टुकड़ी पर गोलियां दागी थीं। बदले की कार्रवाई करते हुए पूर्वी कमान के जवानों ने तुरंत मोर्चा संभाला और तत्काल मुंहतोड़ जवाब दे दिया। इस कार्रवाई में सेना को कोई हानि नहीं हुई है।
भारत सरकार ने आतंकियों को मुंहतोड़ उत्तर देने की जो रणनीति अपनाई है, उससे देश की जनता और सेना में यह संदेश गया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आत्मबल मजबूत है और इनमें निर्णय लेने की क्षमता भी है। वैसे भी मोदी को इतना बड़ा बहुमत केवल विकास के लिए नहीं मिला, उससे देश की सीमाई सुरक्षा और आतंकवाद को जड़मूल से खत्म करने की मतदाता की मंशा भी शामिल है। हालांकि देश के न तो उत्तर पूर्वी राज्यों में उग्रवाद नया और न ही जम्मू-कश्मीर में। लेकिन मनमोहन सिंह सरकार के दस साल के कार्यकाल में ऐसा कभी देखने में नहीं आया कि सेना ने दूसरे देशों की सीमाओं को पार कर आतंकवादियों को ठिकाने लगाने की रणनीति को अंजाम दिया हो ? एनएससीएन के मुखिया एसएस खापलांग की 10 जून 2017 को मृत्यु म्यांमार के आस्पताल में हो चुकी है। बाबजूद यह गुट नागालैंड का सबसे खतरनाक अलगाववादी गुट है। दशकों से यह गुट नागालैंड को भारत से अलग करने की मांग कर रहा है, जबकि नागालैंड के अन्य विद्रोही गुट अब सरकार से समझौते के पक्ष में आ गए हैं। यही एक ऐसा गुट है, जो शांति समझौते का विरोध कर रहा है। इस गुट में अभी भी 1500 विद्रोहियों की संख्या बताई जाती है। भारत और म्यांमार के बीच 1640 किलोमीटर लंबी सीमा रेखा है, जो अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड व मणिपुर से सटी है। इतनी लंबी सीमा की सुरक्षा करना बीएसएफ को मुश्किल होती है, लिहाजा ये उग्रवादी मौका पाते ही सुरक्षा बलों पर हमला बोल देते हैं।
किसी दूसरे देश की सीमा में घुसकर या सीमा पर डटे रहकर आतंकवादियों और उनके शिविरों को नष्ट करना कोई मामूली काम नहीं है, क्योंकि एक देश के सीमाई देशों से मैत्रीपूर्ण संबंध होते है। म्यांमार की सीमा चीन से जुड़ी है और वहां बड़ी संख्या में चीन के प्रशंसक लोग भी रहते हैं। वैसे उग्रवादियों के खिलाफ इस तरह की कार्रवाई को संयुक्त राष्ट्र संघ की अनुमति मिली हुई है। भारत और म्यांमार के बीच भी ऐसी कार्रवाइयां करने की संधि है। इन सैद्धांतिक सहमतियों के चलते ही भारतीय सेना म्यांमार की सीमा से आतंकी शिविरों पर हमला बोलने में सफल हो पाई। असम समेत पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में बांग्लादेश भी घुसपैठ कराने और आतंक को बढ़ावा देने में उग्रवादियों को मददगार रहा है। चीन भी इन अलगाववादियों को हथियार उपलब्ध करता है। हालांकि बांग्लादेश में शेख हसीन के सत्ता में रहते और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बांग्लादेश यात्रा के बाद हालात बदले हैं। उल्फा को यहां से मदद और पनाह मिलती रही है, लेकिन अब लगभग विराम लग गया है। एक समय उल्फा की शरणगाह भूटान भी रहा है। यहां अटल बिहरी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार के दौरान 2003 में भारतीय सेना और भूटान की सैन्य टुकड़ियों ने मिलकर उल्फा तथा नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड संगठनों की कमर तोड़ दी थी। तब से इनके बचे-खुचे उग्रवादी भूटान की सीमा लांघने की हिम्मत नहीं जुटा पाए हैं। इधर मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद भूटान की पहली विदेश यात्रा करके इसे अपना खास मित्र देश बना लिया है। चीन से हुए डोकलाम मुद्दे पर भी भारत सरकार ने भूटान को यह जता दिया है कि वह हर संकट की घड़ी में उसके साथ है।
बाबजूद पूर्वोत्तर में उग्रवादियों की ताकत इसलिए बढ़ गई, क्योंकि यहां बिखरे तमाम उग्रवादी संगठनों ने मिलकर एक साझा संगठन कुछ समय पहले बना लिया है और तभी से यह सेना पर हमले तथा अन्य हिंसक वारदातें करने में लगा है। इनमें मणिपुर में सक्रिय गुटों के अलावा कमतापुर लिबरेशन ऑगनाइजेशन, नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालिम का खापलांग गुट एनडीएफबी का सोनबिजित गुट और उल्फा का परेश बरुआ गुट शामिल हैं। इस समय इनमें सबसे ताकतवर गुट एनएससीएन है। इसमें 1500 लड़ाकू जवान हैं और करीब 1000 हजार शिविरों में नए उग्रवादी तैयार किए जा रहे हैं। फिलहाल इस आकस्मिक और अप्रत्याशित ऑपरेशन से उग्रवादी तितर-बितर भी हुए और इनका मनोबल भी टूटा है, क्योंकि इन्हें इतनी त्वरित और निर्णायक सैन्य कार्रवाई की उम्मीद नहीं थी, वह भी म्यांमार की सीमा में।
इस कार्रवाई से पाकिस्तान भी सकते में है। शायद इसीलिए पाकिस्तान के विदेश मंत्री ख्वाजा आसिफ को न्यूयॉर्क में कहना पड़ा है कि ’मुंबई आतंकी हमलों का मास्टरमाइड हाफिज सईब आतंकी संगठन हक्कानी नेटवर्क और लश्कर-ए-तैयबा उनके देश के लिए बोझ बन गए है। एशिया सोयायटी फोरम को संबांधित करते हुए आसिफ ने इनसे छुटकारा पाने के लिए हमें समय चाहिए।’ पाकिस्तान ने यह लाचारी भारत सरकार द्वारा सैन्य बलों को पूरी स्वतंत्रता दे दिए जाने कारण जताई है। क्योंकि अब सेना की आक्रामक कार्रवाईयां निरंतर देखने में आ रही हैं।
पाकिस्तान भारत का खुला दुश्मन है, जबकि म्यांमार मित्र देश है। भारत-पाक सीमा पर न केवल पाक सेना मुस्तैद है, बल्कि सेना की वर्दी में बड़ी संख्या में हथियार बंद आतंकवादी भी तैनात हैं। लिहाजा अमेरिका की वायु सेना ने जिस तरह से पाक के ऐबटाबाद में उतरकर ओसामा बिन लादेने को निपटा दिया था, उसी तर्ज पर भारत का दाऊद या लखवी को निपटाना थोड़ा मुश्किल है ? पाक की परमाणु हथियार के इस्तेमाल की धमकी को भी महज गीदड भवकी मान लेना एक भूल होगी ? क्योंकि पाक इन हथियारों का इस्तेमाल आंतकवादियों के हस्ते कर सकता है। इसलिए परवेज मुर्शरफ ने कहा भी था कि हमारे परमाणु बम शब-ए-बारात में फोड़ने के लिए नहीं हैं। बाबजूद आतंकियों हाथ परमाणु बम देना इसलिए मुश्किल है, क्योंकि पाक आतंकियों का सरंक्षक देश होने के साथ आतंक से पीड़ित देश भी है। ऐसी विपरीत परिस्थिति में आतंकियों के हाथ परमाणु हथियार लगते हैं, तो ये स्वयं पाक के लिए भी घातक साबित हो सकते हैं। एक अंतरराष्ट्रीय एजेंसी द्वारा परमाणु हथियारों की उपलब्धता पर किए सर्वे के मुताबिक भारत के पास जहां 93 से 100 परमाणु बम हैं, वहीं पाक के पास 100 से 110 परमाणु बम हैं। इसलिए भारत पाकिस्तान की ओर से सचेत भी है। बाबजूद भारत पीओके में जाकर आतंकी शिविरों पर सर्जिकल स्ट्राइक की तर्ज पर हमला जरूर कर सकता है। ऐसे हमलों से ही भारत सरकार का वह संकल्प पूरा होगा जिसमें आतंकवाद और उग्रवाद के विरुद्ध शून्य सहिष्णुता की मंशा अंतर्निहित है।
-(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं)
मियां की जूती मियां के सिर
(डॉ. वेदप्रताप वैदिक)
पाकिस्तान के विदेश मंत्री ख्वाजा मुहम्मद आसिफ ने अमेरिका में जो ईमानदाराना बयान दिया है, उसने मियां की जूतियां, मियां के सिर टिका दी है। किसी पाकिस्तानी नेता ने शायद ही अमेरिका के ऐसे कान काटे हों। आसिफ मियां की साफगोई के लिए मैं उन्हें बधाई देता हूं। उन्होंने न्यूयार्क की एशिया सोसायटी में अमेरिकियों को साफ-साफ कह दिया कि आप पाकिस्तान को आतंकी राष्ट्र तो कहते हो लेकिन आप ही तो 30-40 साल पहले आतंकियों को अपना परमप्रिय (डार्लिंग) कहते थे। आप ही उन्हें व्हाइट हाउस में बुलाकर उनकी आवभगत किया करते थे। रुसियों के खिलाफ आपने ही इन आस्तीन के सांपों को पाल रखा था। पाकिस्तान ने रुस के खिलाफ आपका साथ देकर बड़ी गलती की। आपने हमें इस्तेमाल किया और बाद में फेंक दिया। अमेरिका और पाकिस्तान दोनों ने मिलकर एक गलत निर्णय लिया और डोनाल्ड ट्रंप पाकिस्तान को दोषी ठहरा रहे हैं। उनका यह कहना भी गलत है कि अमेरिका ने पाकिस्तान के लिए अरबों डाॅलर बहा दिए। यह बिल्कुल झूठ है। अमेरिका को जो भी सेवाएं उन दिनों पाकिस्तान ने दी, केवल उसका भुगतान अमेरिका ने किया। पाकिस्तान हाफिज सईद और हक्कानी जैसे लोगों से छुटकारा पाना चाहता है लेकिन उसके पास अब पर्याप्त साधन नहीं हैं। अब अमेरिका ने जो रवैया अपनाया है, उसके कारण पाकिस्तान का बोझ बढ़ता जा रहा है। अमेरिका के सोवियत-विरोधी युद्ध में शामिल होने का जो पाप हो गया था, उसी का नतीजा है कि पाकिस्तान में सांप्रदायिकता का राक्षस उसकी एकता को भंग कर रहा है। अब वहां लोग सुन्नी, शिया, ईसाई, हिंदू आदि फिरकों में बंटकर सोचने लगे हैं। यह जिहाद की वजह से हुआ है। इसकी जड़ में अमेरिका ही था। अब अमेरिका किस मुंह से पाकिस्तान को कोस रहा है। आसिफ की यह घोर स्पष्टवादिता अमेरिकियों की स्वार्थी नीति का भांडाफोड़ कर देती है और डोनाल्ड ट्रंप की जूतियां ट्रंप के सिर पर ही रख देती हैं।
अहंकार व अत्याचार के प्रतीक: रावण और यज़ीद
(निर्मल रानी)
इन दिनों पूरे विश्व में हिंदू व मुस्लिम दोनों ही प्रमुख धर्मों के अनुयायी दशहरा तथा मोहर्रम एक साथ मना रहे हैं। दशहरा अर्थात् विजयदशमी का पर्व उत्सव, हर्षोल्लास तथा विजय के रूप में मनाया जाता है। तो दूसरी ओर मोहर्रम जोकि बावजूद इसके कि इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार नए वर्ष का पहला महीना होता है फिर भी इसे शोकपूर्ण तरीके से मनाते हैं। दशहरे या विजयदशमी का जश्न मनाने का कारण यह है कि इस दिन भगवान श्री राम ने सीता माता का हरण करने वाले अहंकारी, अत्याचारी तथा दुष्ट राक्षस रूपी रावण का वध कर सीता को उसके चंगुल से मुक्त कराया था तथा पृथ्वी पर रावण के द्वारा किए जा रहे अत्याचारों से पूरी मानवता को मुक्ति दिलाई। चूंकि भगवान राम को इस राम-रावण युद्ध में विजय हासिल हुई थी इसलिए इसे विजयदशमी भी कहा जाता है और भगवान राम की जीत के जश्न के रूप में दशहरा पूरी भव्यता तथा रंग-बिरंगी रौशनी व आतिशबाज़ी के साथ मनाया जाता है। इस पावन पर्व को असत्य पर सत्य की जीत का नाम भी दिया जाता है।
दूसरी ओर मोहर्रम इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हज़रत मोहम्मद के नवासे हज़रत इमाम हुसैन व उनके 72 साथियों व परिजनों की करबला में हुई शहादत को याद करते हुए मनाया जाता है। इतिहास के अनुसार एक मुस्लिम शासक यज़ीद जो छठी शताब्दी में सीरिया का शासक था वह अत्यंत दुश्चरित्र, अत्याचारी तथा गैर इस्लामी गतिविधियों में संलिप्त रहने वाला बादशाह था। उधर हज़रत हुसैन एक सच्चे, नेक, धर्मपरायण तथा मानवता प्रेमी व्यक्ति थे। यज़ीद जैसा अधर्मी व अत्याचारी शासक हज़रत हुसैन से इस बात की उम्मीद रखता था कि वे उसे अपना राजा स्वीकार करते हुए उसके राज्य को इस्लामी धार्मिक मान्यता भी प्रदान करें। हज़रत हुसैन उसे इस्लामी राज्य के राजा के रूप में हरगिज़ स्वीकार नहीं करना चाहते थे। वे जानते थे कि यदि उन्होंने हज़रत मोहम्मद के नवासे होने के बावजूद यज़ीद के साम्राज्य अथवा उसकी सैन्य शक्ति से डरकर उसे इस्लामी राजा के रूप में मान्यता दे दी तो भविष्य में इतिहास इस बात का ज़िक्र करेगा कि यज़ीद जैसा दुश्चरित्र व अत्याचारी व्यक्ति हज़रत मोहम्मद के परिवार से संबंध रखने वाले उनके नाती हज़रत हुसैन के हाथों मान्यता प्राप्त मुस्लिम शासक था। इसी प्रतिरोध के चलते यह विवाद करबला की रक्तरंजित घटना पर आकर खत्म हुआ।
करबला में यज़ीद की विशाल सेना ने हज़रत इमाम हुसैन के परिवार के 72 लोगों को एक-एक कर शहीद कर दिया। शहादत पाने वालों में 6 महीने के बच्चे से लेकर 80 वर्ष के बुज़ुर्ग तक का नाम इतिहास में दर्ज है। यह लड़ाई भी असत्य के विरुद्ध थी। परंतु इसमें ज़ालिम यज़ीद की सेना ने हज़रत इमाम हुसैन व उनके साथियों को शहीद कर क्षणिक रूप से तलवारों व सिंहासन की जीत तो ज़रूर हासिल कर ली परंतु हज़रत इमाम हुसैन को अपने विराट मकसद में पूरी कामयाबी मिली। आज दुनिया में मुस्लिम समुदाय के लोग इसीलिए मोहर्रम के महीने को जश्न के रूप में मनाने के बजाए इसे सोग और गम के रूप में मनाते हैं। मोहर्रम के दौरान मुस्लिम समुदाय के लोग काले कपड़े पहनते हैं। नंगे पैर रहते हैं। अपने सीने पर अपने हाथों से मातम करते हैं, जुलूस अलम, ताज़िया, ताबूत निकालते हैं, ज़ंजीरों व तलवारों के मातम कर हज़रत हुसैन की याद में अपनी रक्तरंजित श्रद्धांजलि पेश करते हैं। और इस दौरान यह लोग हज़रत हुसैन को याद कर आंसू बहाते हैं।
कुल मिलाकर विजयदशमी का जश्न हो या मोहर्रम का शोक दोनों का मकसद व मूल उद्देश्य एक ही है बुराई पर इच्छाई की जीत होना। चाहे वह ज़ालिम अत्याचारी व अहंकारी को मारकर हासिल की जाए या ऐसे व्यक्ति के आगे अपनी सच्चाई पर अडिग रहते हुए अपना शीश झुकाने के बजाए शीश कटाकर जीत हासिल की जाए। पूरे भारतवर्ष में भी इन दिनों चारों ओर विजयदशमी की धूम और मोहर्रम का सोग मनाए जाने की खबरें आ रही हैं। कई स्थानों से तो ऐसे समाचार प्राप्त हो रहे हैं जहां हिंदू-मुस्लिम सिख आदि सभी धर्मों के लोग मिल-जुल कर दशहरा व मोहर्रम मना रहे हैं तो कहीं से ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि इन त्यौहारों के एक साथ पड़ने के कारण समाज में तनाव पैदा हो गया है। पिछले दिनों पश्चिम बंगाल से यह खबर आई कि मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने विजयदशमी के दिन होने वाले मूर्ति विसर्जन को यह कहते हुए रोक दिया कि उस दिन मोहर्रम के जुलूस व ताज़िए निकलेंगे इसलिए मूर्ति विसर्जन नहीं होगा हालांकि बाद में कोलकाता उच्च न्यायालय ने उनके सरकारी निर्देश को निरस्त करते हुए दोनों ही त्यौहार मनाने के आदेश जारी कर दिए।
यदि हम मानवीय नज़रों से इन दोनों ही त्यौहारों को देखें तो हमें इसके उद्देश्य में काफी समानता दिखाई देती है। आज हिंदू व मुस्लिम दोनों ही समाज के लोगों को अपने-अपने धर्मों में सिर उठाते जा रहे रावणों व यज़ीदों को मारने की ज़रूरत है। दोनों ही धर्मों के लोग इसी मकसद से इकट्ठा होते हैं तथा अपने रीति-रिवाजों के अनुसार इसे इसीलिए मनाते हैं ताकि हिंदू स्वयं को भगवान राम का पक्षधर साबित करते हुए रावण जैसे अहंकारी व दुष्ट राक्षस का विरोधी साबित कर सकें तो इसी तरह मुस्लिम समाज के लोग भी हज़रत हुसैन की याद में आंसू इसीलिए बहाते हैं ताकि वे यज़ीद के ज़ुल्म व बर्बरता से दुनिया को अवगत कराते हुए यह संदेश दे सकें कि हज़रत हुसैन अकेले, कमज़ोर, गरीब व मजबूर होने के बावजूद अत्याचार व अधर्म का परचम अपने हाथों में लिए खड़ी लाखों की सेना के समक्ष झुकने के लिए राज़ी नहीं हुए हालांकि उन्होंने अपनी व अपने परिवार के सदस्यों यहां तक कि अपने 6 महीने के बच्चे अली असगर और 18 वर्ष के जवान बेटे अली अकबर व भाई अब्बास जैसे होनहार परिजनों की कुर्बानी तक देनी स्वीकार की।
हमारे देश में हरियाणा के बराड़ा कस्बे में विश्व का सबसे ऊंचा रावण का पुतला बनाया व जलाया जाता है। यह आयोजन जहां अपनी कला व संस्कृति के लिए प्रसिद्ध है तथा 210 फुट ऊंची विशालकाय प्रतिमा को देखने के लिए पूरे देश के लोगों तथा राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मीडिया को अपनी ओर आकर्षित करता है वहीं इस आयोजन की सबसे बड़ी विशेषता यह भी है कि विश्व के सबसे ऊंचे रावण के पुतले की पृष्ठभूमि में चलने वाला पांच दिवसीय बराड़ा महोत्सव सर्वधर्म संभाव तथा सांप्रदायिक सौहार्द्र की एक जीती-जागती मिसाल पेश करता है। इस अद्भुत आयोजन के सूत्रधार तथा रावण के पुतले के निर्माता व श्री रामलीला क्लब बराड़ा के प्रमुख राणा तेजिंद्र सिंह चौहान हैं तो इसी क्लब के संयोजक के रूप में पत्रकार तनवीर जाफरी अपनी सक्रिय भूमिका निभाते आ रहे हैं। दूसरी ओर बराड़ा महोत्सव आयोजन समिति के अध्यक्ष उद्योगपति राजेश सिंगला हैं तो जीएनआई शिक्षण संस्थान के निदेशक सरदार हरजिंद्र सिंह इस समिति के चेयरमैन हैं। गोया विजयदशमी से जुड़ा देश का यह महत्वपूर्ण आयोजन आपसी भाईचारे व सांप्रदायिक सद्भाव की सबसे बड़ी मिसाल पेश करता है। आज देश को ज़रूरत इसी बात की है कि हिंदू-मुस्लिम, सिख-ईसाई सभी धर्मों के लोग खासतौर पर वे लोग जो स्वयं को धर्मपरायण समझते हैं उन्हें इन सभी धर्मों के त्यौहारों के उद्देश्यों तथा इनके मर्म को समझने की ज़रूरत है। किसी भी धर्म से ज़ड़े किसी त्यौहार को केवल उसके धर्म से जोड़कर देखने के बजाए मानवता से जुड़े उसके उद्देश्यों को समझना चाहिए और जिस दिन हम ऐसा करने लगेंगे उसी दिन हमें विजयदशमी तथा मोहर्रम दोनों ही पर्व अपने पर्व लगने लगेंगे तथा रावण व यज़ीद हिंदू या मुसलमान राक्षस नहीं बल्कि दोनों ही मानवता के दुश्मन नज़र आने लगेंगे और तभी ईश्वर हम सब को एक-दूसरे धर्मों के त्यौहार मिलजुल कर मनाने की सद्बुद्धि प्रदान करेगा।
औरंगजेब भी नहीं कर पाए थे माता के इस मंदिर को खंडित
(नवरात्रा पर विशेष) भंवरों की राणी जीण माता
(रमेश सर्राफ धमोरा)
हमारे देश में दुर्गा मां को शक्ति की देवी के रूप में पूजा जाता है। दुर्गा मां के कई रूप और अवतार हैं। पूरे भारत में नवरात्रा के अवसर पर माता के मंदिरों में श्रद्धालुओं की अपार भीड़ उमड़ पड़ती है। आस्था से भरे इस देश में माता का स्थान सबसे ऊपर है। राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र में सीकर-जयपुर मार्ग पर गोरिया के पास जीणमाता गांव में देवीस्वरूपा जीण माता का प्राचीन मंदिर बना हुआ है। जीण माता का वास्तविक नाम जयन्ती माता है। माता दुर्गा की अवतार है। यह मंदिर शक्ति की देवी को समर्पित है। घने जंगल से घिरा हुआ है यह मंदिर तीन छोटी पहाड़ों के संगम पर स्थित है।
जीण माता का यह मन्दिर बहुत प्राचीन शक्ति पीठ है। जीण माता का मंदिर दक्षिण मुखी है। लेकिन मंदिर का प्रवेश द्वार पूर्व में है। मंदिर की दीवारों पर तांत्रिकों व वाममार्गियों की मूर्तियां लगी है। जिससे यह भी सिद्ध होता है कि उक्त सिद्धांत के मतावलंबियों का इस मंदिर पर कभी अधिकार रहा है या उनकी यह साधना स्थली रही है। मंदिर के देवायतन का द्वार सभा मंडप में पश्चिम की ओर है और यहां जीण भगवती की अष्टभुजी आदमकद मूर्ति प्रतिष्ठापित है। सभा मंडप पहाड़ के नीचे मंदिर में ही एक और मंदिर है जिसे गुफा कहा जाता है जहां जगदेव पंवार का पीतल का सिर और कंकाली माता की मूर्ति है। मंदिर के पश्चिम में महात्मा का तप स्थान है जो धुणा के नाम से प्रसिद्ध है।
लोगों का मानना है कि यह मंदिर 1000 साल पुराना है। लेकिन कई इतिहासकार आठवीं सदी में जीण माता मंदिर का निर्माण काल मानते हैं। मंदिर में अलग-अलग आठ शिलालेख लगे हैं जो मंदिर की प्राचीनतम के सबल प्रमाण है। उपरोक्त शिलालेखों में सबसे पुराना शिलालेख संवत 1029 का है पर उसमें मंदिर के निर्माण का समय नहीं लिखा गया है। इसलिए यह मंदिर उससे भी अधिक प्राचीन है। चौहान चन्द्रिका नामक पुस्तक में इस मंदिर का 9 वीं शताब्दी से पूर्व के आधार मिलते हैं।
लोक कथाओं के अनुसार जीण माता का जन्म अवतार राजस्थान के चूरू जिले के घांघू गांव के अधिपति एक चौहान वंश के राजा घंघ के घर में हुआ था। जीण माता के एक बड़े भाई का नाम हर्ष था। माता जीण को शक्ति का अवतार माना गया है और हर्ष को भगवन शिव का अवतार माना गया है।कहते हैं कि दोनों बहन भाइयों में बहुत स्नेह था। लेकिन किसी बात पर दोनों मनमुटाव हो गया। तब जीण माता यहां आकर तपस्या करने लगी पीछे-पीछे हर्षनाथ भी अपनी लाडली बहन को मनाने के लिए आए। लेकिन जीण माता जिद करने लगी साथ जाने से मना कर दिया। हर्षनाथ का मन बहुत उदास हो गया और वे भी वहां से कुछ दूर जाकर वहां पर तपस्या करने लगे। दोनों भाई बहन के बीच हुई बातचीत का सुलभ वर्णन आज भी राजस्थान के लोक गीतों में मिलता है। भगवन हर्षनाथ का भव्य मन्दिर आज भी राजस्थान की अरावली पर्वतमाला में स्थित है।
एक जनश्रुति के अनुसार देवी जीण माता ने सबसे बड़ा चमत्कार मुग़ल बादशाह औरंगजेब को दिखाया था । औरंगजेब ने शेखावाटी के मंदिरों को तोडऩे के लिए एक विशाल सेना भेजी थी । यह सेना हर्ष पर्वत पर शिव व हर्षनाथ भैरव का मंदिर खंडित कर जीण मंदिर को खंडित करने आगे बढ़ी कहते है पुजारियों के आर्त स्वर में माँ से विनय करने पर माँ जीण ने भँवरे (बड़ी मधुमखियाँ ) छोड़ दिए जिनके आक्रमण से औरंगजेब की शाही सेना लहूलुहान हो भाग खड़ी हुई । कहते है स्वयं बादशाह की हालत बहुत गंभीर हो गई तब बादशाह ने हाथ जोड़ कर माँ जीण से क्षमा याचना कर माँ के मंदिर में अखंड दीप के लिए सवामण तेल प्रतिमाह दिल्ली से भेजने का वचन दिया । वह तेल कई वर्षो तक दिल्ली से आता रहा फिर दिल्ली के बजाय जयपुर से आने लगा । बाद में जयपुर महाराजा ने इस तेल को मासिक के बजाय वर्ष में दो बार नवरात्रों के समय भिजवाना आरम्भ कर दिया । और महाराजा मान सिंह जी के समय तेल के स्थान पर नगद 20 रु. 3 आने प्रतिमाह कर दिए । जो निरंतर प्राप्त होते रहे ।
औरंगजेब को चमत्कार दिखाने के बाद जीण माता भौरों की देवी भी कही जाने लगी । माता की शक्ति को जानकर मुगल बादशाह ने वहां पर भंवरो की रानी के नाम से शुद्ध खालिस सोने की बनी मूर्ति भेंट की। औरंगजेब ने भी सवामन तेल का दीपक अखंड ज्योति के रूप में मंदिर में स्थापित किया जो आज तक प्रज्वलित है । पहले शासन व्यवस्था करता था, आज भक्तो के द्वारा सुव्यवस्था है । एक अन्य जनश्रुति के अनुसार औरंगजेब को कुष्ठ रोग हो गया था। उसने कुष्ठ निवारण के लिए मां से प्रार्थना की। और मन्नत मांगी की अगर कुष्ठ ठीक हो जाएगा तो वह जीण के मंदिर में एक स्वर्ण छत्र चढ़ाएगा। बादशाह का कुष्ठ रोग ठीक होने पर उन्होने माता के मन्दिर में सोने का छत्र चढ़ाया। यह छत्र आज भी मंदिर में विद्यमान है।
जीण माता देवी शक्ति है, जो सदियों से लेकर आज तक लगातार आराध्य देवी के रूप में पूजी जाती हैं। जीण माता मंदिर में हर वर्ष चैत्र सुदी एकम् से नवमी (नवरात्रा में) व आसोज सुदी एकम् से नवमी में दो विशाल मेले लगते है जिनमे देश भर से लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते है। जीणमाता मेले के अवसर पर राजस्थान के बाह्य अंचल से भी अनेक लोग आते हैं। मन्दिर में बारह मास अखण्डदीप जलता रहता है।
जीण भवानी की सुबह 4 बजे मंगला आरती होती है। आठ बजे शृंगार के बाद आरती होती है व सायं सात बजे आरती होती है। दोनों आरतियों के बाद भोग (चावल) का वितरण होता है। माता के मन्दिर में प्रत्येक दिन आरती समयानुसार होती है। चन्द्रग्रहण और सूर्य ग्रहण के समय भी आरती अपने समय पर होती है। हर महीने शुक्ल पक्ष की अष्टमी को विशेष आरती व प्रसाद का वितरण होता है। माता के मन्दिर के गर्भ गृह के द्वार (दरवाज़े) 24 घंटे खुले रहते हैं। केवल शृंगार के समय पर्दा लगाया जाता है। हर वर्ष शरद पूर्णिमा को मन्दिर में विशेष उत्सव मनाया जाता है।
शिक्षा-शिक्षक क्या एक दूसरे के पूरक हैं ?
– डॉक्टर अरविन्द जैन
शिक्षा का अर्थ किसी के द्वारा संस्कारित करना, हमारी अज्ञानता को दूर करना, अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाना। इस सम्बन्ध में बहुत लिखा जा चूका हैं और लिखा जाता रहेगा पर हमने जितना भी सीखा हैं उसमे माता -पिता, शिक्षक, गुरु और स्वविवेक का महत्वपूर्ण भूमिका हैं। सीखना एक संक्रमण रोग हैं जैसे किसी को कोई संक्रमित बीमारी होती हैं जिसे हम लगना रोग कहते हैं, छुआछूत की बीमारी वैसे ही शिक्षा /ज्ञान /अभ्यास एक प्रकार की बीमारी होती हैं यह सकारात्मक या नकारातमक दोनों हो सकती हैं। वैसे ये छात्र की मनोदशा पर और शिक्षक की मानसिकता पर निर्भर करता हैं।
” परस्परोपग्रहो जीवाणाम” एक जीव दूसरे जीव का उपकारी हैं जैसे छात्र न हो तो शिक्षक क्या करेंगे और शिक्षक हैं और छात्र नहीं ! आज परस्पर संपर्क /सम्बाद नहीं हैं। धन के बिना मनुष्य उठ सकता हैं, विद्या के बिना भी बड़ा बन सकता हैं, पर चरित्रबल के बिना सर्वथा हीन और पंगु हैं। आचरणहीन ज्ञान पाखंड हैं। नैतिक व्यक्ति ही अपने प्रति सच्चा ईमानदार हो सकता हैं। आज की स्कूल और कॉलेज की शिक्षा में नैतिकता का अभाव हैं, बच्चे कच्चे /अपरिपक्व घड़े के समानहैं। आज समाज में यानि समस्त समाज में धार्मिक शिक्षा देने का चलन समाप्त हो गया हैं इसके कारण बच्चे, नवयुवक अपनी धार्मिक मान्यताओं से विमुख हो चुके और उन्हें आज धार्मिक मान्यताओं की अपेक्षा भौतिक, फ़िल्मी और अन्य ज्ञान में अधिक पारंगत हो रहे। समग्र विकास के लिए सब प्रकार का ज्ञान आवश्यक हैं पर बुनियाद धार्मिकता से हो तो मनुष्य को अच्छाई और बुराई की लक्षमण रेखा का ज्ञान हो जाता हैं।
वर्तमान में इस बात का ख्याल रखा जाए की टूशन /कोचिंग जैसे संस्थाओं में रटंत विद्या का चलन होता हैं। कोचिंग केबाद छात्रों को उसका रिवीजन करने का समय कहाँ मिलता हैं ?शायद आज सब विवेकानद जैसे हो गए ! इस दौरान उन्हें जीवन क्या हैं और उसे कैसे व्यतीत करना चाहिए -सिखलाना चाहिए। ! शिक्षा को कल्याणकारी बनाने के किये शिक्षक का पूर्ण दायित्व का निर्वाह करना होता हैं उसे अहंकार छोड़कर एक ही मार्ग के यात्री के रूप में शिक्षार्थी के साथ पढ़ाना और सदाचरण में भाग लेना होता हैं, पर आज अर्थ प्रधान होने से कहाँ ये बात आएँगी ? बच्चों को डांटने -डपटने की अपेक्षा नेह से समझाना और सन्तानवत वात्सल्य भाव रखें ज्यादा हितकर हैं। पर आजकल बच्चों को डांटना खतरे से खाली नहीं हैं। पहले कहा जाता था। ‘मार पड़े धम धम, विद्या आये छम छम ‘ वैसे शिक्षा देना एक साधना हैं, यह तब सफल होती हैं जब विद्यार्थियों को मनुष्य बना दिया जाता हैं। बच्चे स्थूल विविधता से परिचित नहीं होते, वे केवल जीवन को पहचानते हैं। जहाँ उन्हें जीवन से स्नेह सद्भाव की किरणें फूटती जान पड़ती हैं, वहां वे व्यक्त विषम रेखाओं की उपेक्षा कर डालते हैं, किन्तु जहाँ दंड, घृणा आदि के धुंए से जीवन आच्छादित रहता हैं, वहां वे हित की बातें भी नहीं ग्रहण करते /पाते।
इस समय हमारा समाज ऐसा हो रहा हैं या हो चूका हैं की स्वार्थ के सिवा हमें कुछ भी दिखलाई नहीं देता। आज शिक्षा जैसी पवित्र वस्तु में भी व्यापार चल गया हैं, व्यापारिक दृष्टिकोण से मोलतोल किया जाता हैं, जिससे जीवन का मर्म समझने वाले शिक्षक नहीं मिल पाते।
धरम को लोंगो ने एक प्रकार का बंधन मान लिया जबकि धरम एक प्रकार का कोड ऑफ़ कंडक्ट हैं यह हर जगह लागु होता हैं चाहे घर हो, स्कूल हो,नौकरी हो सड़क हो। यदि सड़क पर नियमों का पालन नहीं करेंगे तो दुर्घटनाग्रस्त होंगे। वर्तमान में शिक्षक बच्चों के जीवन निर्माण में भी भूमिका निभाएं जिससे आगामी पीढ़ी भ्रमित न होकर सद्मार्ग पर चल कर देश के विकास में अहम भूमिका निभा सके।
जैसा शिक्षक वैसा छात्र, उसके मन पर अमिट पड़ती छाप,
मिट्टी को सांचे में डालकर बना देते से मूर्ति।
उसके पहले कितना रौंदा जाता हैं मिटटी को,
सुखाकर आग में पकाकर बनते हैं पूज्य
पर आज न मिटटी हैं और न रौंदने वाले
और आश लगी रहती हैं चाह की,
यहाँ कोई मिलावट की गुंजाईश नहीं
चौखा शिक्षक ही, चौखा छात्र बना सकता हैं !
शिक्षक दिवस की शुभ कामनाएं और जिनके द्वारा जो
कुछ मिला उन्हें विन्रम प्रणाम
राजसात होना चाहिए कुकर्मी पाखण्डियों की सम्पत्ति
(अजित वर्मा)
एक और कुकर्मी पाखण्डी ‘बाबा डेरे से निकालकर जेल की सलाखों के पीछे पहुंचाया गया है। राजा-महाराजाओं की तरह जीवन जीने वाला तथाकथित गुरु राम-रहीम भले ही राजनैतिक स्वार्थों के कारण अभी जेल में भी ऐश जिन्दगी जीने का सुविधाओं के साथ दिन काट रहे हो, लेकिन उम्मीद की जाना चाहिए कि अदालत उसे भी सामान्य कैदी की तरह जीने पर विवश कर देगी, वैसे ही जैसे पाखण्डी और कुकर्मी आसूमल जी रहा है या रामपाल जी रहा है। राम का नाम अपने नाम के साथ जोड़कर आसाराम, रामपाल और राम-रहीम ने राम का नाम बदनाम किया है, इसकी सजा उन्हें भुगतनी पड़ रही है अपमान झेलकर। मान के भूखे का सम्मान छिन जाए तो वह जल बिन मछली की तरह पीड़ा से छटपटाता है।
जब भी साधु बाना धारण कर लोगों को ठगने वाले ऐसे पाखण्डियों के चेहरे से नकाब उतरता है, तो कुछ दिन हंगामा होता है। आस्था से खिलवाड़ का सवाल उठता है। पाखण्डियों पर भरोसा करके उनकी चरण वन्दना करने वाली भीड़ की बुद्धिमत्ता और विवेक पर सवाल खड़ा होता है। और, फिर समय बीतने के साथ सब कुछ सामान्य हो जाता है। फिर नये बाबा गुरु का वेश धारण करके सामने आ जाते हैं। लोग उन पर धन-दौलत बरसाने लगते हैं। महिलाएं उनके पैर दबाने लगती हैं। कुछ तो अपनी अस्मत भी उनके हवाले कर देती हैं। जब होश आता है-हाय-तौबा मचाती हैं और कभी बवण्डर उठ खड़ा होता है, पर अक्सर ऐसी महिलाओं की आवाज दबा दी जाती है और कुकर्मी चैन से अपनी चाल चलता रहता है।
यह देखना आश्चर्यजनक है कि कैसे कोई ना कुछ सा जीवन जीने वाला व्यक्ति गुरु बनकर अचानक प्रकट होता है और देखते-देखते अरबों की सम्पत्ति का मालिक बन जाता है। एक साम्राज्य खड़ा कर लेता है। यह इसलिए सम्भव होता है कि दान-दक्षिणा के नाम पर लोग तो उन्हें धन और सोना-चांदी चढ़ाते ही हैं, भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में वोटों की लालच में नेता और उनकी देखा देखी अफसर, उद्योगपति, व्यापारी और धनवान लोग उनके चरणों में लोट-लोटकर उन्हें सरकारी और निजी जमीनें भेंट करते हैं। थैलियां अर्पित करते हैं और उनके आभामण्डल को प्रदीप्त कर अपना उल्लू सीधा करते हैं और कालेधन से उनके रहस्यलोक के सृजन में भागीदार बनते हैं। इससे आम आदमी को उनके सिद्ध पुरुष और चमत्कारी होने का विश्वास होता है और वे अपनी कामनाओं की की पूर्ति के लिए उनके दरबारों में माथा टेकने और उनका आशीर्वाद हासिल करने के लिए मजमा जुटा लेते हैं। धक्के खाने पर स्वयं को धन्य मानते हैं और ‘दुत्कार को भी उनका आशीर्वाद मान लेते हैं। कोई ट्रक ड्राइवर, कोई सिलाई करने वाली दर्जी, कोई परचून बेचने वाला अचानक अरबपति साधु और गुरुबनकर लोगों को ठगने का धंधा इसी प्रक्रिया से चलाता रहता है।
हम मानते हैं कि भोले-भाले लोगों को इनकी ठगी से बचाने का काम केन्द्र और राज्य सरकारों को करना चाहिए। हालांकि धर्म का रंग पोत दिये जाने के कारण ऐसे ठगों पर हाथ डालना कठिन होता है। लेकिन अब हमें अपने लोकतंत्र के भीतर कुछ तो ऐसा तंत्र बनाना होगा, जहां धर्म के नाम पर ठगी को रोका जा सके।
हालांकि हमारी मान्यता है कि धर्म का धंधा करने वालों का हश्र बुरा होता है। और, यह सच भी है, क्योंकि योग, भोग, मोक्ष के व्यापारियों का अंत हमने देखा है।
अगर हाल के वर्षों की बात करें तो रामपाल, आसाराम और राम रहीम का घिनौना चेहरा बेनकाब हो जाने के बावजूद अभी उनकी सम्पत्तियां उनके ही पास हैं। अभी कई ऐसे ठगों का बेनकाब होना बाकी है और वे अब भी करोड़ोंं रुपये कमा रहे हैं। ऐसे लोगों के बैंक एकाउण्टफ्रीज और दफ्तर सील किये जाना चाहिए, उन्हें काल कोठरियों में कैद किया जाना चाहिए और उनकी सारी चल-अचल सम्पत्तियां राजसात की जाना चाहिए। लेकिन ऐसा करेगा कौन? ऐसा करने के लिए साहस चाहिए। कौन है, जिसके पास साहस हो? साहस के लिए चरित्र चाहिए। नैतिकता का आधार चाहिए। किसके पास है यह सब?
यह कर पाने की सामथ्र्य और क्षमता के लिए जमीर रखने वाली फकीरी के चरित्र वाला एक सुल्तान चाहिए। लालच से न डिगने देने वाला आंखों का नीर चाहिए। इंसानियत सिखाने वाली पीर चाहिए। हौसले वाली कोशिश चाहिए। इसके लिए राजनेताओं को नम्रतापूर्वक याद दिलाना चाहता हूं:-
जमीर जिन्दा रख,कबीर जिन्दा रख।
बन जाए गर सुल्तान तो दिल में फकीर जिन्दा रख।
लालच डिगा न पाए तुझे आंखों का नीर जिन्दा रख।
इंसानियत सिखाये जो, मन में वो पीर जिन्दा रख।
हौसले के तरकश में कोशिश का तीर जिन्दा रख।
दिखाओ, भाई! कोई तो दिखाओ अपना जमीर, अपनी फकीरी, अपनी आंखों का नीर, अपने मन की पीर, अपना हौसला और अपनी कोशिश! हम किसी से इस्तीफा नहीं मांगते, बस सबकी आंखों में नीर और मन में पीर देखना चाहते हैं। देखें, कौन दिखाता है हौसला?
क्यों पनपते हैं बाबाओं के डेरे ?
(जग मोहन ठाकन )
कार्ल मार्क्स ने कहा था- धर्म अफीम के समान है। पर कोई व्यक्ति क्यों अफीम का प्रयोग करता है , कब शुरू करता है इसका सेवन और कब तक रहता है इसके नशे का आदि ? यदि यही प्रश्न हम धर्म , सम्प्रदाय , पंथ या डेरे से जोड़कर देखें , सोचें ; तो कहीं ना कहीं कोई ना कोई कारण तो इसकी जड़ या परिस्थिति जन्य हालात में जरूर दृष्टिगोचर होगा , जो हमें सीधे सीधे नंगी आँखों से भले ही दिखाई नहीं पड़ता , अपितु इसके लिए हमें अपने तथा ‘सब्जेक्ट’ के अन्तःकरण में झांकना होगा। यहाँ मुझे मेरे ही एक हिंदी अध्यापक का प्रसंग याद आ रहा है। उस समय अध्यापक ‘सर’ नहीं , गुरू जी होते थे और एक विद्यार्थी के लिए आदर्श भी। जब मैंने अपनी शिक्षा पूरी कर जीवन यापन की नाव में सवारी प्रारम्भ कर दी थी तब एक दिन गुरु जी से अचानक मुलाकात हो गयी। श्रद्धावश मेरे हाथ गुरूजी के चरण स्पर्श करने हेतु नीचे झुके तो पाया कि गुरूजी शराब के नशे में धत थे। उन्हें इस हालत में देखकर मुझे आश्चर्य भी हुआ और दुःख भी। मैंने गुरूजी से प्रश्न किया –गुरूजी आप और शराब पीये हुए ? गुरु जी ने एक लम्बी आह भरी और मेरे सर पर हाथ रखकर कहा –तू नहीं समझ पायेगा मेरे हालात को। तू क्या सोचता है कि मैं इसके लाभ हानि के ज्ञान बिना शराब पी रहा हूँ ? मुझे इसका भला बुरा सब ज्ञात है फिर भी मैं पी रहा हूँ तो जरूर कोई भारी मजबूरी या विवश करने वाली स्थिति है। खैर उस समय तो मैं गुरु जी को प्रणाम कर वापस मुड़ लिया परन्तु अब कई बार सोचता हूँ -कोई ना कोई तो ऐसी वजह रही होगी जिसके आगे गुरु जी को यह विनाश कारी रास्ता चुनना पड़ा होगा। यही यक्ष प्रश्न उठ खड़ा होता है जब हम देखते हैं कि लाखों लोग क्यों किसी डेरे या बाबा के चंगुल में फंसकर अपना समय और जीवन व्यर्थ कर रहे हैं ? क्यों वे इतने उन्मादी हो जाते हैं कि डेरे या बाबा के एक इशारे भर से मरने मारने को तैयार हो जाते हैं ? क्यों अपने आप को सत्संगी कहने वाले प्रेमी दानव बन सब कुछ तहस नहस करने पर उतारू हो जाते हैं ? क्यों उन्हें समाज की मर्यादा , लोकलाज व कानून की सत्ता का भय नहीं रहता ? इन प्रश्नों की तह में जाने से पहले हमें इन डेरों तथा बाबाओं के पनपने की वजह तलाशनी होगी।
मध्यकालीन भारत में पन्द्रहवीं सोलहवीं सदी में संतों का एकदम प्रादुर्भाव हुआ ,जिसमे प्रमुख थे कबीर , रैदास , सूरदास ,गुरुनानक आदि। इस काल तक आते आते हिन्दू धर्म मात्र ब्राहमण धर्म बन कर रह गया था। सब कुछ ब्राह्मणों द्वारा निर्धारित पद्धति के अनुसार संचालित होने लगा था। कर्म काण्ड , पूजा पाठ , पठन पाठन एक वर्ग विशेष तक सीमित हो गया था। क्लिष्ट श्लोकों व संस्कृत के नाम पर विद्वता प्रदर्षित की जाती थी। समाज का विभक्तिकरण छूत –अछूत दो वर्गों में हो गया था । ब्राह्मण तथा उनकी पोषक जातियों को छोड़कर बाकी समाज का बृहद हिस्सा अछूत हो गया था। उसे न धार्मिक स्थलों में प्रवेश की अनुमति थी , ना सार्वजानिक उपयोग के स्थलों यथा पानी के कुओं ,जोहड़ों , सभा स्थलों का प्रयोग करने की अनुमति थी। उन्हें पीने के पानी के संसाधनों में भी अलग से जगह दी गयी थी वो भी काफी वर्जनाओं के साथ। शिक्षा ,पठन- पाठन , प्रवचन सुनने , सत्संग देखने या धार्मिक आयोजनों में उनका भाग लेना पूर्णतया वर्जित था। देवी देवताओं के दर्शन मात्र से भी उन्हें वंचित रखा जाता था। सामूहिक भोज में भाग लेने की तो वो सोच भी नहीं सकते थे। इन जातियों को केवल और केवल उच्च जातियों के चरणों को देखने की छूट थी। आंख उठाकर ऊपर देखने या उनसे जिरह बाजी करना तो बहुत बड़ा अपराध था। यहाँ तक कि ब्राह्मण व पुजारी के रूप में हिन्दू धर्म के ठेकेदार अन्य उनकी पोषक जातियों को भी भ्रम में रखते थे। मंदिर में कब पूजा शुरू होगी ,कब बंद होगी ,किस दिन होगी सब निर्धारित करना इन्हीं धर्म के ठेकेदारों के अधिकार में था। कुछ हद तक यह स्थिति आज भी बनी हुई है। आज भी मंदिर के पटल कब खुलेंगे , कब बंद होंगे पुजारियों की सुविधा के मुताबिक़ निर्णित होता है। धर्म भीरू जनता को आज भी जानबूझकर गुमराह किया जाता है। देवता के दर्शन के लिए आज भी लम्बी लम्बी कतारें लगाने के बाद मंदिर के पटल खोले जाते हैं। हाँ ,भारी दक्षिणा या ऊँची कीमत की टिकट खरीदकर भगवान् के बिना ‘वेट’ किये दर्शन किये जा सकते हैं। आम जनता का जब तक लाइन छोटी होते होते नंबर आता है तब तक या तो आरती का समय हो जाता है या देवता के श्रृंगार का समय हो जाता है या पटल बंद होने का समय हो जाता है। जानबूझकर लम्बी लम्बी लाइन लगवाई जाती हैं ,माना जाता है जितनी लम्बी लाइन देवता के दर्शन के लिए लगी दिखाई देती है उतना ही ऊँचा कद उस देवता का माना जाता है , उतना ही ज्यादा चढ़ावा वहां चढ़ाया जाता है या यों कहें देवता की उतनी ही ‘टी आर पी’ बढती है और उसी अनुपात में मंदिर का चढ़ावा।
ऐसे ही कलुषित , भेदभावपूर्ण , छूत –अछूत में विभाजित समाज में कबीर , रैदास जैसे समाज सुधारकों का संत के रूप में प्रादुर्भाव होना इन अछूत समझे जाने वाले तबके के लिए एक बहुत बड़ा वरदान सिद्ध हुआ। विशेष बात यह भी थी कि ये संत इसी अछूत तबके से जन्म लेकर अपने प्रकृति प्रदत्त ज्ञान के सहारे ऊपर उठ रहे थे। ये संत इन्ही अछूत लोगों के बीच में बैठकर लयबद्ध तरीके से इन्ही लोगों की स्थानीय बोली में साखियाँ , पद तथा दोहे गा गा कर इनको ज्ञान रस पिला रहे थे। जिन लोगों को ज्ञान की बात सुनना , धर्म अधर्म की चर्चा में शामिल होना तथा गुरु के बिलकुल साथ बैठ कर आमने सामने बात करना कभी सपने में भी नसीब नहीं हुआ , उन्हें अब यह सब इतना सहज उपलब्ध हो रहा था कि उन्हें खुद को भी अपनी आँखों पर विश्वास नहीं आ रहा था। इन लोगों ने इन सन्तों को सर आँखों पर बिठा लिया। इन सन्तों की संगत विस्तृत होने लगी और सैंकड़ों हज़ारों से बढती बढती लाखों में जा पहुंची। लगभग यह दौर दो सौ वर्षों तक यों ही चलता रहा। बाद में इन्हीं गुरुओं के अगली शिष्य प्रणाली में इन पंथों के नियम कायदे भी थोड़े कठोर होते गए। अलग अलग पंथ के प्रतीक चिन्ह बनते गए। गुरु के साथ बैठकर धर्म अधर्म की चर्चा की बजाय गुरू का आसन ऊँचा होने लगा। गुरू के पद की महिमा बढ़ने लगी। गुरु का भगतों से दुराव होने लगा। इन्ही सन्तों के नाम से और पद ,साखियाँ व दोहे जुड़ने लगे , जिन्हें इन्ही का बताकर गाया जाने लगा। गुरु को भगवान का दर्जा दिया जाने लगा। यहाँ तक कि गुरु को भगवान् से भी बढ़कर महिमा मंडित कर दिया गया।
“गुरू गोबिंद दोऊ खड़े , काके लागु पाय ,
बलिहारी गुरू आपनो गोबिंद दियो मिलाय”
हालांकि बीसवीं सदी के प्रारम्भिक काल तक सामाजिक हालात जस के तस बने रहे , इन अछूत तबकों को हिन्दू धर्म में ब्राहमण संचालित व्यवस्था में अभी भी कोई विशेष स्थान सोपान नहीं मिला। हाँ कुछ इक्के दुक्के लोग शिक्षा के बल पर अपनी कुशाग्र बुद्धि के सहारे अवश्य आगे बढे और उन्होंने इन तबकों की दुर्दशा को सुधारने हेतु आवाज़ बुलंद भी की। दक्षिण भारत के ई वी रामास्वामी नाइक्कर , जिन्हें पेरियार भी कहा जाता है, ने नान-ब्राह्मण आन्दोलन भी चलाया और कहा कि उन्हें दुःख इस बात का है कि अभी भी निम्न जातियों के व्यक्तियों को सामूहिक भोज में उच्च जातियों वाली पंक्ति से दूर एक अलग पंक्ति में बैठाया जाता है। बीसवीं सदी के शुरूआती दौर में ही बाबा साहब आंबेडकर , जो खुद उस समय की सामाजिक संरचना में एक अछूत समझी जाने वाली महार जाति से आये थे , ने भी १९२७ में मंदिर प्रवेश आन्दोलन चलाया। उस समय ब्राह्मण पुजारी बड़े आक्रोशित हुए जब इन महार जाति के दलित लोगों ने मंदिर के टैंक का पानी प्रयोग किया।उस समय बाबा साहब आंबेडकर ने कहा था –“ हम मंदिर के टैंक तक जाकर केवल यह सिद्ध करना चाहते हैं कि हम भी दूसरों की तरह मनुष्य हैं। ”
आज़ादी के बाद से विशेषकर गत तीस वर्षों में इसी अछूत तबके के एक बड़े भाग ने काफी प्रगति की है। शिक्षा के बल पर ,आरक्षण की सीढी पर चढ़कर , इन लोगों ने भी सरकारी सेवाओं में हिस्सेदारी अर्जित करके आर्थिक सुदृढ़ता प्राप्त की है तथा सम्पति अर्जन करके एक नए रुतबे को हासिल किया है। अब आर्थिक और भौतिक प्रभावी युग में ये लोग भी अपने समाज में उच्च हो गए हैं। मंदिरों व अन्य धार्मिक तथा सार्वजानिक स्थलों पर इनकी प्रवेश की वर्जनाएं काफी हद तक शिथिल हुई हैं। परन्तु ब्राहमणीकल सिस्टम में अभी भी इनको उतनी तवज्जो नहीं मिल रही है ,जितनी के ये हकदार हैं या जितनी इन्हें इन तथाकथित डेरों में मिल रही है। इन डेरों में इन्हें जातीय आधार पर कोई उपेक्षा नहीं सहनी पड़ती है ना ही छूत- अछूत की कोई वर्जना है। यहाँ इन्हें कोई इनकी जाति का नाम लेकर प्रताड़ित या तिरष्कृत नहीं करता । इन्हें यहाँ ना केवल सम्मान मिलता है अपितु शादी विवाह व अन्य किसी आपदा के समय आर्थिक मदद भी मुहैया करवाई जाती है। इन डेरों में एक विशेष बात यह देखने को भी मिल रही है ,जो स्वागत योग्य भी है , कि यहाँ कोई बैकवर्ड जाति या दलित हरिजन जाति या उच्च जाति का विभेदीकरण नहीं है और सब एक ही पंगत में बैठकर भोजन करते हैं , एक ही दरी पर बैठकर सत्संग सुनते हैं। यहाँ किसी को जाति के आधार पर कोई विशेष उच्च या निम्न सौपान हासिल नहीं है। इस समानता के व्यवहार से इन हज़ारों वर्षों से अछूत माने गए तबके को अपने पुराने घावों में मरहम सेक लगती प्रतीत होती है। उनको मिलने वाला सम्मान तथा समानता का व्यवहार उन्हें इन डेरों में आने को आकर्षित करता है। इसी आकर्षण के कारण इन डेरा अनुयायियों की संख्या निरंतर बढती जा रही है तथा रोज नए नए डेरे अस्तित्व में आते जा रहे हैं।
परन्तु गत बीस वर्षों में एक नए गठजोड़ ने जन्म लिया है , जो इन डेरा बाबाओं तथा राजनेताओं के मध्य पनपा है। इस गठजोड़ ने इन्ही अनुयायियों को एक वोट बैंक के रूप में तबदील कर दिया है। अब राजनेता इन बाबाओं से चुनाव के वक्त अपने हक में फतवे जारी करवाकर सत्ता पर कब्ज़ा पाते हैं तथा बदले में इन बाबाओं तथा डेरों को विशेष लाभ व छूट प्रदान करते हैं। इन बाबाओं के काले कारनामों को एक छतरी का ‘कवर’ देते हैं। इन्हें सरकारों में विशेष अहमियत देकर इनके अनुयायियों को बाबा की तरफ अधिक आकर्षित होने में मदद करते हैं। हरियाणा के सिरसा सच्चा सौदा डेरा के बाबा राम रहीम गुरमीत सिंह तथा वर्तमान प्रदेश की भाजपा सरकार के मध्य का गठजोड़ भी इसी कड़ी का एक उदाहरण है। बाबा ने गत चुनावों में भाजपा को सहयोग दिया तो भाजपा सरकार ने बाबा के डेरों को लाखों रुपये की ग्रांट तथा बाबा को विशेष सुरक्षा के साथ प्रान्त का स्वच्छता अभियान का एम्बेसडर बनाकर एक अहम् दर्जा प्रदान किया। बाबा की सीबीआई पेशी के समय बाबा के प्रेमियों को बेरोकटोक पंचकुला में कोर्ट के आसपास इकठ्ठा होने देना भी इसी गठजोड़ का दुष्परिणाम है। अब आवश्यकता है ऐसे पुनर्जागरण की जो समाज को बिना किसी भेदभाव के जागृत कर समानता के सूत्र में पिरोये।बाबा साहब आंबेडकर ने १९२७ में कहा था –“हिन्दू समाज को समानता तथा जाति विहीन समाज के रूप में रिओर्गेनाइज करने की आवश्यकता है।” पर क्या वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में आज के नेता , जो समाज को अपनी सुविधा अनुसार जातियों में विभक्त रखना चाहते हैं क्योकि उन्हें यह व्यवस्था अधिक रास आती है , अम्बेडकर के सपनों का जाति विहीन व समानता पर आधारित समाज का निर्माण होने देंगे ? मामला पेचीदा है।
नोटबंदी: काठ की हांडी
(डॉ. वेदप्रताप वैदिक)
नोटबंदी पर रिजर्व बैंक की जो सालाना रपट आई है, उसने सिद्ध कर दिया है कि वह वित्तीय आपात्काल से कम नहीं थी। इंदिरा गांधी ने आपात्काल थोपकर जितनी बड़ी गलती की थी, लगभग उतनी ही बड़ी दुर्घटना नरेंद्र मोदी के हाथों हो गई है। इसे मैं ‘लगभग’ उतनी बड़ी गल्ती क्यों कह रहा हूं ? इसलिए कि इंदिराजी ने आपात्काल थोपा था, अपने स्वार्थ के लिए जबकि नोटबंदी के पीछे मोदी का अपना कोई स्वार्थ नहीं था। मोदी का वह स्वार्थ नहीं, दुस्साहस था। अनिल बोकिल के नोटबंदी के विचार को मोदी ने यदि ठीक से लागू किया होता तो शायद आज यह दिन नहीं देखना पड़ता। बोकिल के विचार पर मोदी ने अपना मुखौटा तो सफलतापूर्वक चढ़ा दिया लेकिन मुंह और मुखौटे का फर्क अब खुद रिजर्व बैंक की रपट से उजागर हो गया है।
यह माना जा रहा था कि भारत की लगभग 15 लाख करोड़ रु. की अर्थ-व्यवस्था में आधे से ज्यादा काला धन है। मोदी ने दावा किया था कि नोटबंदी इसलिए लागू की गई है कि सारा कालाधन पकड़ा जाएगा लेकिन हुआ क्या ? रिजर्व बैंक की रपट कहती है कि हमारे पास पकड़ने के लिए कुछ बचा ही नहीं। सारा काला धन लोगों ने सफेद कर लिया। 99 प्रतिशत। सिर्फ एक प्रतिशत रह गया। 15.44 लाख करोड़ में से सिर्फ 16000 करोड़ के नोट वापस नहीं आए याने इस 16 हजार करोड़ रु. के कालेधन के खातिर सरकार ने नए नोट छापने में 21000 करोड़ रु. खर्च कर दिए। याने हमारे सर्वज्ञजी ने बैठे-बिठाए भारत की जनता को हजारों करोड़ रु. का चूना लगा दिया। नोट बदली की लाइन में लगे 104 लोगों की मौत तो आपात्काल से भी बदतर साबित हुई। दो-दो हजार और पांच-पांच सौ के छोटे-छोटे नोटों ने कालेधन को जमा करना अधिक सुविधाजनक बना दिया। बैंकों में जमा सफेद और काले धन पर इतना ब्याज देना पड़ा कि कई बैंकों की दाल पतली हो गई। पूंजी का विनियोग घटा और लगभग 50 लाख लोग बेरोजगार हो गए। कम से कम 4-5 लाख करोड़ रु. का काला धन पकड़ने का दावा सिर्फ सपना बनकर रह गया। नोटबंदी का एक लक्ष्य यह भी बताया गया था कि आतंकवादियों की खुराक बंद हो जाएगी। वह आज भी जस की तस है। नकली नोटों को खत्म करने का भी वादा था। वह भी डूब गया। नोटबंदी के साल में नकली नोटों की संख्या 6.32 लाख से बढ़कर 7.62 लाख हो गई। देश के सकल उत्पाद में 2 प्रतिशत की कमी हो गई। यह अर्थ-व्यवस्था को बड़ा धक्का है। यह ठीक है कि बैंकों में लाखों नए खाते खुल गए, सरकार को इस साल आयकर भी थोड़ा ज्यादा मिला और नकदी लेन-देन भी थोड़ा घटा लेकिन ये उपलब्धियां सतही हैं, ऊपरी हैं, दिखावटी हैं और अस्थायी हैं। सरकार की इस भयंकर भूल पर लोगों को गुस्सा इसलिए नहीं आया कि नोटबंदी के पीछे कोई स्वार्थ नहीं था और दूसरा इसे गरीबों के लिए उठाया गया कदम उसी तरह बताया गया, जैसे कि इंदिराजी ने 1971 में ‘गरीबी हटाओ’ का नकली नारा दिया था। डर यही है कि यह खोटा सिक्का इस बार तो चल गया लेकिन क्या काठ की हांडी दूजी बार भी चूल्हे पर चढ़ सकेगी ?
वर्णिका प्रकरण: भाजपा की नैतिकता का सवाल
(अजित वर्मा)
पिछले तीन सालों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुआई में यूटर्न लेने और कांग्रेस की नीतियों-योजनाओं पर अपनी मोहर चस्पा करने के साथ कांग्रेस के नेताओं को हड़पने के लिए बदनाम हो चुकी भाजपा के बारे में अब खुलेआम यह महसूस किया जाने लगा है कि वह वैचारिक, नैतिक और चारित्रिक पतन की खाई में फिसलती जा रही है। इस मामले में चंडीगढ़ के वर्णिका कुंडू वाले मामले ने भाजपा और उसके नेताओं को कटघरे में खड़ा कर दिया है। यद्यपि आरोपी विकास अब पुलिस रिमाण्ड पर जेल में है। लेकिन जिस तरह पहले उस पर कमजोर धाराएं लगायी गईं, जिस तरह उसके ब्लड और यूरीन सेम्पल लेने में कोताही बरती गई और इस मामले में हरियाणा भाजपा के अध्यक्ष सुभाष बराला के आरोपी बेटे विकास के पक्ष में जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी खड़ी दिख रही है, उससे भाजपा की नीयत पर गम्भीर और तीखे सवाल उठ रहे हैं।
लोग यह देखकर आहत हैं कि हरियाणा के भाजपाई मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने छेड़छाड़ के आरोपी विकास के कृत्य के लिए उसके पिता सुभाष बराला के पक्ष में यह बयान दिया है कि इस घटना के लिए सुभाष बराला को दंडित नहीं किया जा सकता। पार्टी के हरियाणा प्रभारी अनिल जैन ने भी यही कहा चंडीगढ़ भाजपा के उपाध्यक्ष रामबीर भाटी ने तो एक कदम आगे बढ़कर यही पूछ लिया कि इतनी रात को वह लड़की घर से बाहर क्या कर रही थी यह वही भाजपा है जिसने जेसिका लाल हत्याकाण्ड में दोषी बेटे की वजह से हरियाणा के कांग्रेसी नेता विनोद शर्मा का करियर तबाह कर दिया था क्योंकि भाजपा भाजपा के आक्रमणों के कारण विनोद को मंत्री पद छोड़ना पड़ा था। जेसिका लाल हत्याकाण्ड में कांग्रेस नेता विनोद शर्मा पर एक गवाह को घूस देने का आरोप लगा था और उनके बेटे मनु शर्मा को अदालत ने दोषी करार देते हुए सजा सुनाई थी।
क्या यह भी आश्चर्यजनक नहीं है कि स्वयं को हरियाणा की बेटी कहने वाली अत्यंत मुखर सुषमा स्वराज हरियाणा की ही एक और बेटी वर्णिका के उत्पीड़न के मामले में खामोश हैं। तमाम मामलों में बढ़-चढ़कर ट्वीट करने वाली सुषमा इस मामले में अब तक कुछ भी ट्वीट नहीं कर पाईं। हरियाणा के वाचाल वरि‰ मंत्री अनिल विज रात में हुई छेड़छाड़ के मुद्दे पर शांत हैं।
चंडीगढ़ की सांसद हैं किरण खेर। उन्होंने चंद दिनों पूर्व लोकसभा में यह मांग की थी कि घूरने के मामले को भी महिला के साथ हिंसा के प्रकरण की तरह लिया जाना चाहिए। ‘महान महिला हितैषी’ किरण ने भी वर्णिका कुंडू के मामले में सिर्फ फरमाया है कि वे एक मां के रूप में पीड़ित परिवार की भावना समझ सकती हैं।
खास हैं इस उप-चुनाव के मायने
-ऋतुपर्ण दवे
बवाना उप-चुनाव पर यकीनन देश भर की नजर लगी हुई थी। अब इस नतीजे को दल बदल की कीमत कहें या मतदाताओं की परिपक्वता, लेकिन इतना तो तय है कि भारत में लोकतंत्र बेहद सश्कत है और मतदाता की सूझबूझ का कोई सानी नहीं। देश में इन 4 विधानसभा उपचुनावों के नतीजें को लेकर दावे जो भी हों। सच यही है कि जहां जिसकी सरकार थी, वहां उसने जीत हासिल की। लेकिन बवाना पर भाजपा का दांव उल्टा पड़ जाना काफी कुछ कहता है। एक ओर जहां भाजपा 2019 की तैयारियों में है, वहीं 350 सीटों पर जीतने के लिए जादुई अंकगणित के नुस्खों के बीच यह नतीजा कहीं न कहीं भाजपा के लिए अच्छा नहीं है। बवाना में नुस्खा आजमाइश बेकार जाना निश्चित रूप से दुनिया की सबसे बड़ी कहलाने वाले राजनैतिक दल के लिए, जहर बुझे तीर से कम नहीं होगा। आंकड़ों के लिहाज से ही देखें तो पता चलता है कि 1998 से अभी तक भाजपा को इतने कम प्रतिशत में मत कभी नहीं मिले। निश्चित ही भाजपा के परंपरागत मतदाताओं का रुझान कमा जो 27.2 प्रतिशत तक नीचे चला गया। जिस दिल्ली विधानसभा परिणामों ने भाजपा की सुनामी रोकी थी और सभी राजनैतिक समीक्षको-आलोचकों का मुंह बंद कर दिया था, उसी दिल्ली ने सितंबर 2015 में दिल्ली छात्रसंघ चुनावों में ‘आप’ को दूसरे, तीसरे और चौथे नंबर पर पहुंचाया। अप्रैल 2016 में नगर निगम उप-चुनाव में वोट प्रतिशत में दूसरे नंबर पर ला पटका। मार्च 2017 में पंजाब और गोवाविधानसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन नहीं करना, भरपूर आत्मविश्वास के बाद पंजाब में दूसरे नंबर पर तथा गोवा में खाता तक नहीं खोल पाने से अवसाद ग्रस्त ‘आप’ में जश्न का माहौल होगा। हो भी क्यों न, अप्रैल 2017 में राजौरी गार्डन उप-चुनाव में ज़मानत तक जब्त करा देना तथा अप्रैल में ही दिल्ली नगर निगम में भाजपा 36.18 प्रतिशत मत मिलने के बाद चित्त होना और अब यह जीत की संजीवनी। निश्चित रूप से ‘आप’ के लिए नया जीवनदान है। लेकिन उससे बड़ा भाजपा के लिए चिन्ता का सबब भी। हां कांग्रेस इस बात से खुश जरूर होगी क्योंकि जहां 2015 के चुनाव में प्राप्त मतों का प्रतिशत केवल 7.87 जो अब 24.21 पर पहुंच गया है। आप के प्रत्याशी रामचन्द्र का 59886 मतों के साथ 45.4 प्रतिशत मत हासिल करना, भाजपा के वेदप्रकाश का 35834 मतों के साथ दूसरे नंबर पर रहना और कांग्रेस का 24.2 फीसदी मतों के साथ तीसरे पर ही थम जाना बताता है कि दलबदल की प्रवृत्ति को ही मतदाओं ने नकारा है जो भाजपा के लिए घातक होगी। कारण साफ है कि दलबदल से भाजपा के आंतरिक संगठन में भी बगावत और नाखुशी थी जिसे दरकिनार करके भाजपा का यह प्रयोग विफल रहा। कांग्रेस के लिए जरूर सुकून भरी हार है। बवाना उप-चुनाव इसलिए भी खास है क्योंकि देश का शायद ही कोई कोना बचता हो जहां के लोग दिल्ली में न बसे हों। इसे सैंपल या लिटमस टेस्ट भी कह सकते हैं।
आंध्रपदेश में सत्तासीन तेलुगूदेशम पार्टी की जीत हुई। नांदयाल सीट पर ब्रम्हानंद रेड्डी ने वाईएसआर कांग्रेस के शिल्पा मोहन रेड्डी को 27,000 वोटों से हराया। 2014 में यह सीट वायएसआर कांग्रेस के भुमा नागी रेड्डी ने जीती थी जो बाद में तेदेपा में चले गए। उनकी मृत्यु के बाद यह सीट रिक्त हुई।
हां, गोवा में जरूर भाजपा की जय हुई है। यहां पर भाजपा के प्रभाव में बढ़ोत्तरी दिखी जो शायद पर्रिकर के कारण ही है। क्योंकि ज्यादा सीटें जीतकर भी कांग्रेस सरकार बनाने में विफल रही और भाजपा ने पर्रिकर के दांव पर हारी हुई बाजी जीती थी। अब पणजी में मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर 4803 मतों से छठी बार इस सीट पर पर जीतकर भाजपा के लिए संकटमोचक बन चुके हैं। कांग्रेस के गिरीश चोडंकर को 5059 मत, जबकि गोवा सुरक्षा मंच के आनंद शिरोडकर केवल 220 मत ही मिले जो बताते हैं कि भाजपा ने यहां अच्छी रिकवरी की है। गोवा की ही वालपोई सीट राज्य के स्वास्थ्य मंत्री विश्वजीत राणे ने 10666 मतों से जीती। यहां कांग्रेस विधायक पद से राणे इस्तीफा देकर, भाजपा में शामिल हो गए थे जिससे उप-चुनाव हुआ।
इतना तो तय है कि भारत के मजबूत लोकतंत्र के आहूति रूपी एक-एक मतदाता अपने अधिकारों को लेकर बेहद संजीदा है। दिल्ली में अगले चुनाव में केजरीवाल के सफाए का दावा और बवाना उप चुनाव में उन्हीं के हाथों निपटना भाजपा के लिए मंथन जैसा होगा। सच तो ये है कि कहे-अनकहे ही महीने दो महीने की कई घटनाओं ने भाजपा को आईना दिखाने जैसा काम किया है जिस पर चिन्तन जरूरी है। बवाना उप-चुनाव पक रहे चावलों में एक को टटोलने जैसा है। बस देखना यह होगा कि देश की सियासी पार्टियां कितनी संजीदा हैं जो हांडी चढ़े चावल को कितना परख पाती हैं।
दोकलाम: दोनों की नाक बची
(डॉ. वेदप्रताप वैदिक)
दोकलाम पर छिड़ा भारत-चीन विवाद फिलहाल खत्म हुआ, यह दोनों एशियाई राष्ट्रों की कूटनीतिक विजय है। इसमें यह समझना कि दोनों में से एक हारा और एक जीता, गलत होगा। यह प्रश्न भी अब असंगत हो गया कि किस देश ने अपनी फौजों को पहले पीछे हटाया ? दोनों ही राष्ट्रों के नेताओं की मजबूरी है कि वे अपनी-अपनी जनता को यह बताएं कि उन्होंने अपनी नाक नहीं कटाई। चीन के लिए यह ज्यादा बड़ी मजबूरी है, क्योंकि पिछले ढाई माह में दोकलाम के मुद्दे पर चीनी प्रवक्ताओं, अखबारों और विशेषज्ञों ने जितनी जुबान चलाई है, उसके मुकाबले भारत की तरफ से बहुत संयम रखा गया है। हमारे प्रचारप्रिय प्रधानमंत्री ने तो गजब का संयम दिखाया। एक शब्द तक नहीं बोला जबकि अहमदाबाद में मोदी के संग झूला झूलनेवाले चीनी नेता शी चिन पिंग ने घुमा फिराकर भारत पर वार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हमारी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने संसद में और उसके बाहर सारे मामले को बहुत ही मर्यादित ढंग से पेश किया। जैसा उन्होंने चाहा था कि दोनों देशों की फौजें दोकलाम से एक साथ पीछे हटें। वे पीछे हट गईं। अब चीन कह रहा है कि भारत की पहले हटीं तो उसने भी अपनी हटा लीं। और दोकलाम पर वह अब भी पहरेदारी कर रहा है। उसने उस पर अपना मालिकाना हक छोड़ा नहीं है। बेहतर होगा कि भारत अब इस बतंगड़ी दलदल में अपने को न फंसाए, क्योंकि अगले सप्ताह हमारे प्रधानमंत्री को ‘ब्रिक्स राष्ट्रों’ की बैठक में चीन जाना है। उसमें खलल क्यों डाला जाए? ज्यों ही यह विवाद शुरु हुआ था, हमने कहा था कि यह बातचीत से सुलझाया जा सकता है और मुठभेड़ दोनों राष्ट्रों के लिए नुकसानदेह होगी। यदि भारत सरकार ने थोड़ा लचीलापन दिखाया है तो इसे मैं भारत की कमजोरी नहीं, कूटनीतिक चतुराई कहूंगा। यदि यह विवाद तूल पकड़ जाता तो भारत-चीन संवाद ही बंद हो जाता जबकि इस समय दोनों देशों के बीच व्यापार के अलावा पुराना सीमा-विवाद, भारत का परमाणु सप्लायर्स क्लब में प्रवेश, पाकिस्तान के आतंकियों को संयुक्तराष्ट्र संघ से चिन्हित करवाना और कब्जाए हुए कश्मीर में ‘ओबोर मार्ग’ का बनना आदि ऐसे ज्वलंत मुद्दे हैं, जिन पर तुरंत सार्थक संवाद शुरु होना चाहिए। इस बार भारत और चीन एक-दूसरे के साथ अच्छे पड़ौसियों की तरह पेश आए हैं। यदि यही भाव दोनों के बीच बना रहे तो 21 वीं सदी एशिया की सदी बनकर रहेगी।
महिला सशत्रीकरण: ढोल का पोल
-तनवीर जाफरी
एक ही समय व एक ही प्रवाह में तलाक-तलाक-तलाक बोलकर अपनी पत्नी को तलाक दिए जाने जैसी भौंडी व अमानवीय परंपरा को पिछले दिनों देश के सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक करार दे दिया। गौरतलब है कि इस्लाम धर्म अपने प्रचलन में आने के कुछ समय बाद से ही चार मुख्य अलग-अलग वर्गों में बंटा हुआ है। इन्हें सुन्नी, शिया, अहमदिया तथा ख्वारिज वर्गों के नाम से जाना जाता है। इन वर्गों में सुन्नी जमात देश व दुनिया में मुसलमानों की बहुसंख्य जमाअत है। इस सुन्नी वर्ग में भी 6 अलग-अलग विचार रखने वाले समुदाय हैं। वैचारिक तौर पर इनका वर्गीकरण हनफी, हंबली, मालिकी, शाफई, बरेलवी तथा देवबंदी आंदोलन के रूप में किया जाता है। इनमें केवल हनफी विचार रखने वाली जमाअत में ही तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कहकर तलाक दिए जाने की परंपरा थी। यह परंपरा भी एक ही बार में तीन बार तलाक बोलने की नहीं बल्कि एक महीने में एक बार तलाक कहकर दूसरे महीने में दूसरी बार तलाक बोलना और फिर इसी प्रकार तीसरे महीने में तलाक की प्रक्रिया को संपूर्ण करने के निर्देश थे। परंतु पुरुष प्रधान समाज के कुछ उतावले व खुद मुख्तार किस्म के लोगों ने इसे फिल्मी अंदाज़ का तलाक बना डाला और तीन बार तलाक बोलने का यही गलत तरीका पूरे इस्लाम धर्म व मुस्लिम जगत के लिए मज़ाक उड़ाने का एक माध्यम बन गया। दुर्भाग्यपूर्ण तो यह कि इस प्रथा का जिससे कि कुरान, इस्लाम शरीया या किसी हदीस से कोई लेना-देना नहीं है वह तरीका इसी वर्ग के कुछ मुसलमानों द्वारा अमल में भी लाया जाने लगा। परिणामस्वरूप देश की सैकड़ों मुस्लिम महिलाओं को इस कुप्रथा का शिकार होना पड़ा।
एक ही बार में लगातार तलाक-तलाक-तलाक बोलकर तलाक दिए जाने जैसी परंपरा के विरुद्ध प्रभावित मुस्लिम महिलाओं का संघर्ष हालांकि गत् तीन दशकों से जारी है। राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में छिड़ा शाहबानो का मामला भी लगभग इसी विषय से जुड़ा हुआ मामला था। उसके बाद भी सैकड़ों प्रभावित महिलाएं देश की विभिन्न अदालतों के दरवाज़े खटखटा कर इस मज़ाक रूपी परंपरा को चुनौती देती आ रही थीं। परंतु पिछले दिनों सायरा बानो नामक महिला के इसी प्रकार के एक मुकद्दमे में देश की सर्वोच्च अदालत ने अपना ऐतिहासिक निर्णय देते हुए इस क्रूर परंपरा को असंवैधानिक करार दिया तथा सरकार को इस संबंध में नया कानून बनाने के निर्देश दिए। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय के बाद ज़ाहिर है इस क्रूर परंपरा से प्रभावित महिलाओं में तो खुशी तथा विजय का वातावरण देखा ही गया परंतु इसके साथ-साथ सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के खेमे में भी जश्न का माहौल देखने को मिला। कई भाजपाई नेता तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले में अपनी बड़ी सफलता तथा जीत देख रहे थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जोकि आमतौर पर देश की गंभीर से गंभीर नज़र आने वाली समस्याओं पर भी ट्वीट नहीं करते, उनकी ओर से भी सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का यह कहते हुए स्वागत किया गया कि-‘सुप्रीम कोर्ट का फैसला ऐतिहासिक है। इससे मुस्लिम महिलाओं को बराबरी का हक मिलेगा यह महिला सबलीकरण की ओर शक्तिशाली कदम है’। इसी प्रकार भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने फरमाया कि-‘इसके साथ ही मुस्लिम महिलाओं के लिए नए युग की शुरुआत होगी’।
इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारे देश में महिलाएं पुरुषों की तुलना में अब भी काफी पीछे हैं। बावजूद इसके कि यहां महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई लड़ने के स्वर चारों ओर से सुनाई देते हैं। पक्ष-विपक्ष, नेता, धर्मगुरु, सामाजिक संगठन व कार्यकर्ता तथा बुद्धिजीवी आदि सभी महिलाओं को बराबरी का हक देने की दुहाई देते रहते हैं। परंतु हकीकत में भारत में महिलाओं की स्थिति ठीक इसके विपरीत है जैसाकि देश व दुनिया को बताने या गुमराह करने की कोशिश की जाती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि तिहरे तलाक पर उच्चतम न्यायलय के निर्णय को लेकर होने वाला शोर-शराबा शत-प्रतिशत राजनैतिक है। भारतीय जनता पार्टी इस फैसले पर एक तीर से दो शिकार खेलने की कोशिश कर रही है। ज़ाहिरी तौर पर तो पार्टी यह दिखा रही है कि वह मुस्लिम महिलाओं के सशक्तिकरण तथा उन्हें इस क्रूर परंपरा से मुक्ति दिलाकर बहुत बड़ा तीर चला रही है। यानी भाजपा मुस्लिम समाज के हितैषी के रूप में स्वयं को प्रोजेक्ट करना चाह रही है। परंतु उसका एक दूसरा एजेंडा यह भी है कि वह इस परंपरा को समाप्त करने के बहाने मुसलमानों के एक वर्ग के निजी धार्मिक मामले में दखलअंदाज़ी करने में स्वयं को कामयाब भी महसूस कर रही है। उधर दूसरी तरफ इस परंपरा के समर्थक व अधिकांश विरोधी मुस्लिम उलेमा भले ही इस फैसले का समर्थन क्यों न कर रहे हों परंतु वे भी इस विषय में अदालती हस्तक्षेप को नापसंद कर रहे हैं।
महिला सशक्तिकरण की डफली बजाए जाने के मध्य यह सवाल पूछा जाना ज़रूरी हो गया है कि क्या केवल तीन तलाक की परंपरा से प्रभावित महिलाओं को न्याय दिलाने मात्र से ही महिला सशक्तिकरण संभव हो सकेगा? हमारे देश में महिलाओं के तिरस्कार से जुड़ी अनेक सच्चाईयां ऐसी हैं जिनके निवारण के बिना महिला सशक्तिकरण की बातें करना एक मज़ाक के सिवा और कुछ नहीं। क्या कभी किसी महिला सशक्तिकरण के झंडाबरदार ने वृंदावन, वाराणसी तथा हरिद्वार व अयोध्या जैसे धर्मस्थलों पर बढ़ती जा रही विधवा तथा बेसहारा हिंदू महिलाओं के पुनर्वास व उसके सशक्तिकरण के विषय में अपनी आवाज़ बुलंद की है? यही सत्ताधारी दल जो आज मुस्लिम महिलाओं के सशक्तिकरण को लेकर ढोल बजाता फिर रहा है इसी के मुखिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पत्नी जशोदाबेन के अधिकारों अथवा उनके सशक्तिकरण की कभी चिंता की है? मोदी द्वारा किसी महिला के सशक्तिकरण की बात करना या उसके सबलीकरण की चिंता करना तो वैसा ही प्रतीत होता है जैसेकि आसाराम बापू लोगों को चरित्रवान होने तथा महिलाओं का आदर व सम्मान करने जैसा प्रवचन देने लग जाएं। सांप्रदायिक दंगों व हिंसा से प्रभावित महिलाओं के अधिकारों तथा उनके सशक्तिकरण की फिक्र क्या किसी ने की है? और तो और स्वयं संघ प्रमुख से लेकर कई वरिष्ठ भाजपाई नेता समय-समय पर देश में होने वाली महिला उत्पीड़न या बलात्कार जैसी घटनाओं पर भारतीय महिलाओं को यही सीख देते सुने गए हैं कि वे देर रात बाहर न निकला करें, ‘आपत्तिजनक’ कपड़े न पहना करें वगैरह।
और तो और महिलाओं से अपने चरण धुलवाने की परंपरा या यह रिवाज हिंदू धर्म के अतिरिक्त किसी दूसरे धर्म में नहीं है। हिंदू धर्म का भी एक सीमित वर्ग इस परंपरा का पालन करता है। ज़ाहिर है संघ परिवार भी इस परंपरा का पोषक है। क्या देश में महिलाओं के साथ बढ़ती जा रही बलात्कार की घटनाएं, उनके विरुद्ध होने वाली शरीरिक हिंसा, महिलाओं का मानसिक उत्पीड़न, विधवाओं से पुरुष प्रधान समाज द्वारा छीने जाने वाले उनके संपत्ति व अन्य अधिकार, सरकारी व गैर सरकारी कार्यालयों में किसी पुरुष सहकर्मी द्वारा अपनी महिला सहकर्मी पर आपत्तिजनक नज़रें डालना, देश के कुछ क्षेत्रों में अब भी सुनाई देने वाली सती व देवदासी प्रथा, संपत्ति में महिलाओं के अधिकार, नौकरियों में महिला आरक्षण, देश के विभिन्न क्षेत्रों व समुदायों में प्रचलित बहुविवाह प्रथा जैसी अनेक बातें है जिनकी अनदेखी कर हम महिला सशक्तिकरण की बात नहीं कर सकते। केवल तीन तलाक परंपरा पर फतेह हासिल करने को महिला सबलीकरण या सशक्तिकरण बताना ढोल में पोल के समान ही है।
राम रहीम अब बनें महासंत
– डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गुरमीत राम रहीम के नाम पर जितनी हिंसा और तोड़-फोड़ हुई है, उससे अंदाज लगाया जा सकता है कि उनके प्रति लाखों लोगों की कितनी अंध-श्रद्धा है। यह अंध-श्रद्धा कैसी है और कितनी है, इसका जितना अंदाज गुरमीत को है, उतना किसी को नहीं होगा (यहां मैं राम रहीम जैसे पवित्र शब्दों से संकोच कर रहा हूं)। गुरमीत की जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया, वह यह कि अदालत ने उन्हें जब दोषी करार दिया तो वे कुछ बोले नहीं। उन्होंने जज को कोसा नहीं, गालियां नहीं दीं और कोई शाप वगैरह भी नहीं दिया। बस उनकी आंखों से आंसू टपकते रहे। क्या ये दुख और पश्चाताप के आंसू नहीं थे ? जजों और सीबीआई के लोगों से भी ज्यादा उन्हें पता है कि उन्होंने कितने बलात्कार किए हैं, कितने व्यभिचार किए हैं और कितनी हत्याएं की हैं। इन सब से इंकार करके वे झूठ बोल सकते थे लेकिन अदालत के फैसले के बाद वे सत्यनिष्ठ बने रहे, यह आपने आप में काबिले-गौर है। अब इसी हौंसले को वे आगे बढ़ाएं और 28 अगस्त को अदालत उनको सजा सुनाए, उसके पहले ही वह अपनी सजा खुद को सुना दें। वे कहें कि वे साधारण मुजरिम नहीं हैं। वे असाधारण व्यक्ति हैं। वे संत हैं। महापुरुष हैं। भगवान हैं। मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्रियों से कहीं ज्यादा उनकी महिमा है। ऐसी बातें वे अपने चेलों को कहते रहे हैं। तो अब जज को भी कह दें। उसे अपने सारे दुष्कर्मों और जघन्य अपराधों के बारे में बता दें। वे नहीं बताएंगे तो भी उन्हें बलात्कार के लिए 7 साल और हत्याओं के लिए आजीवन जेल में रहना होगा। अब वे यह मांग करें कि वे साधारण नागरिक नहीं हैं, असाधारण हैं, इसलिए उनकी सजा भी असाधारण होनी चाहिए। उन्हें कम से कम सजा-ए-मौत मिलनी चाहिए और उनके शव को कुत्तों से नुचवाकर लाखों भक्तों के सामने नष्ट किया जाना चाहिए। यदि गुरमीत राम रहीम इतनी हिम्मत कर सकें तो उनकी मृत्यु के बाद वे अमर हो जाएंगे। सारी दुनिया के पाखंडी संत-साधुओं के लिए वे एक बेमिसाल मिसाल बन जाएंगे। वे संतों के संत, महासंत कहलाएंगे।
महिला विरोधी सामाजिक कुप्रथा का अंत
-निर्मल रानी
देश की सर्वेच्च अदालत ने पिछले दिनों मुस्लिम पंथ से जुड़े एक वर्ग में प्रचलित तिहरे तलाक से पीड़ित एक महिला सायरा बानो द्वारा अपने तलाक के विरुद्ध दायर की गई याचिका पर अपना फैसला सुनाते हुए इस परंपरा को असंवैधानिक करार दे दिया। चूंकि यह विषय धर्म विशेष से जुड़ा हुआ माना जा रहा था इसलिए पहली बार देश के पांच अलग-अलग धर्मों से संबंध रखने वाले न्यायाधीशों की एक पांच सदस्यीय उच्चस्तरीय संवैधानिक पीठ को इस विषय पर फैसला सुनाने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई। इस पांच सदस्यीय पीठ में जस्टिस जगदीश सिंह खेहर सिख समुदाय के हैं तो जस्टिस कुरियन जोसेफ का संबंध क्रिश्चियन समुदाय से है। रोहिंगटन फाली नारीमन पारसी समुदाय के सदस्य हैं तो जस्टिस उदय उमेश ललित का संबंध हिंदू धर्म से है। जबकि जस्टिस एस अब्दुल नज़ीर मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक़ रखते हैं। शादी, निकाह तथा इस प्रकार के वैवाहिक गठबंधन एवं परिस्थितिवश पति-पत्नी के मध्य संबंध विच्छेद, अलगाव या तलाक लगभग सभी धर्मों व समुदायों में प्रचलित व्यवस्थाएं हैं। ज़ाहिर है प्रत्येक धर्म व समुदाय में इनका पालन करने के तरीके ज़रूर अलग-अलग हैं। इस्लाम में जहां शादी के समय निकाह पढ़ाया जाता है और निकाह पढ़ाते समय लड़के व लड़की दोनों ही पक्षों की ओर से दो अलग-अलग ज्ञानवान धर्मगुरु मौजूद रहते हैं तथा वही लोग निकाह पढ़ाने की ज़िम्मेदारी निभाते हैं। निकाह के समय गवाहों की दस्तखत भी कराए जाते हैं। परंतु इस्लाम धर्म में ही जहां 73 अलग-अलग वर्ग बताए जाते हैं इन्हीं में हनफी वर्ग एक ऐसा वर्ग है जिसमें किसी पति द्वारा अपनी पत्नी को अलग-अलग समय में एक-एक बार कर, तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कहने से पति-पत्नी के मध्य तलाक हुआ मान लिया जाता है।
हालांकि हनफी समुदाय के धर्मगुरु भी इस परंपरा को इस कारण से उचित नहीं मानते क्योंकि उनके अनुसार हनफी दस्तूर में भी एक ही बार में या एक ही क्षण व समय में तलाक-तलाक-तलाक बोला जाना तलाक की वास्तविक नीतियों के विरुद्ध है। इन धर्मगुरुओं के अनुसार तीन अलग-अलग समय व दिनों में एक-एक बार करके तीन बार तलाक बोले जाने पर ही तलाक समझा जाना चाहिए। परंतु देश में अत्यंत मकबूल हो चुकी फिल्म निकाह में जिस प्रकार तलाक का चित्रण किया गया और एक ही झटके में तीन बार तलाक-तलाक-तलाक बोलकर तलाक दिए जाने की घटना को बड़े ही नाटकीय ढंग से फिल्माया गया निश्चित रूप से इससे मुस्लिम समाज के बड़े परंतु अनपढ़ वर्ग में यही संदेश गया कि संभवत: इस्लाम धर्म में तलाक दिए जाने का यही सही तरीका है। फिल्मों का धार्मिक आस्थावान लोगों पर कितना प्रभाव पड़ता है इसका अंदाज़ा इस उदाहरण से भी लगया जा सकता है कि हमारे देश की फिल्म नगरी ने जय संतोषी मां नामक एक हिट फिल्म क्या बना दी कि देश में जय संतोषी मां की आराधना की जाने लगी तथा इनके नाम के व्रत भी रखे जाने लगे। बाद में कुछ धर्माचार्यों द्वारा यह स्पष्ट किया गया कि संतोषी मां नाम की कोई देवी है ही नहीं बल्कि यह सिर्फ एक फिल्मी उपज मात्र है। यही हाल तीन तलाक की व्यवस्था को अमल में लाने के तरीके का भी है।
जिस प्रकार निकाह फिल्म में तीन बार एक ही समय में तलाक-तलाक-तलाक बोलकर तलाक दिए जाने की घटना को नाटकीय तरीके से फिल्माया गया उसे देखकर निश्चित रूप से प्रत्येक व्यक्ति की नज़रों में तलाक देने का यह तरीका एक अन्यायपूर्ण, भौंडा तथा मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के हनन जैसा मामला साफतौर पर नज़र आया। इसमें भी कोई शक नहीं कि जब-जब इस विषय पर इस्लाम धर्म के अनुयाईयों के मध्य बहस छिड़ी है तब-तब अधिकांश मुस्लिम धर्मगुरुओं द्वारा इस प्रथा का विरोध किया गया है। अधिकांश मुस्लिम धर्मगुरु इस बात से भी सहमत हैं कि एक साथ तीन तलाक देना न तो इस्लामी व्यवस्था का हिस्सा है न ही इसका ज़िक्र कुरान शरीफ या शरिया में कहीं मिलता है। मुस्लिम अधिकारों तथा निजी मुस्लिम कानूनों का संरक्षण करने वाली संस्था मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भी इस व्यवस्था को कुरान व शरीया से जोड़ने के बजाए इसे रीति तथा परंपरा बता चुकी है। परंतु इसके बावजूद यह बात भी पूरी तरह सही है कि सैकड़ों वर्ष पुरानी हो चुकी इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए न तो पर्सनल ला बोर्ड ने ही अब तक न कोई ठोस कदम उठाया न ही मुस्लिम धर्मगुरुओं ने इस महिला विरोधी प्रथा को समाप्त करवाने के लिए हनफी समुदाय के धर्मगुरुओं को इसके विरुद्ध राज़ी किया। परिणामस्वरूप अनेक तलाक पाने वाली मुस्लिम महिलाएं देश के हनफी समुदाय तथा हनफी शिक्षाओं व धर्म नीतियों पर अमल करने वाले मुस्लिम मर्दों के गुस्से व कहर का शिकार होती रहीं।
इस प्रकार की अनेक पीड़ित महिलाओं का यह भी आरोप है कि उसके पति ने उससे दहेज अथवा मोटी रकम की मांग की जिसे महिला के मायके वाले पूरी नहीं कर सके। इस बात से गुस्सा होकर उसके पति ने उसे तलाक-तलाक-तलाक कहकर तलाक दे दिया। महिला अधिकारों के हनन की इससे भयावह मिसाल और क्या हो सकती है? इस महिला विरोधी परंपरा का विस्तार इस हद तक हो चुका था कि कोई भी हनफी मसलक का मर्द दुनिया के किसी कोने में भी बैठकर फोन, मोबाईल, ईमेल या व्हाट्सएप जैसे माध्यमों का इस्तेमाल करते हुए भी यदि अपनी पत्नी को एक ही साथ तीन बार तलाक बोल देता था तो उस महिला का तलाक हुआ मान लिया जाता था। जबकि हनफी मसलक के अतिरिक्त अन्य मुस्लिम समुदायों में धर्मगुरुओं के अनुसार जिस प्रकार निकाह पढ़ाने के लिए दो इस्लामी विद्वानों तथा गवाहों की ज़रूरत होती है ठीक उसी प्रकार तलाक के समय भी इस्लामी विद्वान तथा गवाहों का होना ज़रूरी है। इसके अलावा इस्लामी विद्वान तथा परिवार के लोग अंतिम समय तक यही कोशिश करते हैं तलाक के रूप में पति-पत्नी के संबंध विच्छेद न ही होने पाएं तो बेहतर है। परंतु यदि परिस्थितिवश दोनों ही एक-दूसरे के साथ भविष्य में और अधिक समय तक रह पाने की स्थिति में नहीं हैं और दोनों पक्षों में सुलह-सफाई की संभावना बाकी नहीं बची है तो दोनों की सहमति से तलाक ही एक ऐसा रास्ता बचता है जिसपर अमल करके यह दोनों अपने जीवन की अलग-अलग नई राह अख्तियार कर सकते हैं।
बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय का फैसला स्वागत योग्य है। परंतु यदि सर्वोच्च न्यायालय ने महिलाओं के अधिकारों के हनन को लेकर इतनी सक्रियता दिखाई है तथा केंद्र सरकार ने भी इस विषय में पूरी दिलचस्पी ली है और कानून बनाने के लिए 6 माह का समय दिया है तो हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कहीं इस संबंध में बनने वाला कानून भी दहेज विरोधी कानून जैसा न साबित हो। दरअसल तलाक, दहेज प्रथा, महिलाओं को अशिक्षित रखने की परंपरा, िहजाब प्रथा, बाल विवाह, महिला यौन उत्पीड़न, कन्या भ्रुण हत्या जैसे अनेक विषय हैं जिनपर सभी धर्मों के धर्माचार्यों को अपने-अपने समुदाय में जागरूकता अभियान चलाकर इन कुप्रथाओं को समाप्त करना चाहिए तथा इनके विरुद्ध सामाजिक जागरूकता लानी चाहिए। यदि धर्माचार्य स्वयं सामाजिक जागरूकता के ऐसे कदम समय रहते उठा लिया करें तो हमारे देश की अदालतों को ऐसे विषयों में दखलअंदाज़ी करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी और अदालतें अपना बहुमूल्य समय दूसरे ज़रूरी कामों में लगाया करेंगी। इसके अतिरिक्त किसी भी धर्म विशेष के लोगों को सरकार अथवा अदालतों की नीयत पर किसी प्रकार का संदेह करने का कोई अवसर भी नहीं मिल सकेगा।
व्यंग्य-नमक का ढेला और गुड़ की लेप
– जगमोहन ठाकन
लगातार छह माह से इन्तजार करके आँखें थक चुकी थी कि शायद आज ही कोई लाइक आया जाए , कोई कमेंट आ जाए और तो और कोई पोक ही जाए तो भी सब्र कर लूँ। पर सब के सब कंजूस हैं। सैंकड़ों को फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी , ज्यादातर ने तो डिलीट ही मार दी और इक्के दुक्के को छोड़कर शेष ने नोट नाउ टिक कर दिया। मैं इस साठ वर्ष के डगमग हिलने वाले शरीर और झूरियों को परमानेंट पनाह देने वाले बेनूर चेहरे के आसरे भला कैसे आकर्षित कर पाता अनजान फेसबूकिये मित्रों को। जिस मंच की पंच लाइन ही फेस बुक यानि फेस देख कर बुक करना रही हो उस पर मैं कैसे ठहर पाता ? पर क्या करूँ ‘लागी छूटे ना —’
एक दिन सवेरे सवेरे देखता हूँ कि सेंधे नमक के ढेले वाले डब्बे में , जो मैं ज्यादातर बिना ढके ही भूल जाता हूँ , अन्दर बाहर चीटियों की लाइन लगी हुई है। यहाँ तक कि बड़े बड़े सर पैरों वाले खूसट मकोड़े भी डब्बे पर यों लिपटे हुए हैं जैसे फूलों पर तितलियाँ , जैसे हरिद्वार में गंगा तीरे डुबकी लगाने को आतुर श्रद्धालुओं की क़तार , जैसे मतदान के समय एक अदने से वोटर के पीछे मंडराते विभिन्न पार्टियों के कार्यकर्ता। खैर मामला घर की सीबीआई प्रमुख यानि श्रीमती जी के हवाले होते ही सुलझ गया। तुरंत जांच रिपोर्ट घोषित हो गयी कि किसी ने नमक के ढेले वाले डब्बे में बारिश के दिनों में नर्म हो चुके गुड़ की डली डाल दी है। उसी पिंघले गुड़ की लेप से आकर्षित होकर ये मकोड़ेजन बेस्वाद नमक के ढेले की तरफ दौड़े आ रहे हैं।
मुझे जवाब मिल चूका था। अब मैं बुद्ध हो चूका था। मुझे बड़ के पेड़ के नीचे बैठे बिना ही ज्ञान प्राप्त हो चूका था। मुझे किसी गृह त्याग की जरूरत नहीं पड़ी थी। मैंने जान लिया था कि असली आकर्षण गुड़ है। मकोड़े गुड़ पर आते हैं। अगर आप गुड़ नहीं हैं तो गुड़ का लेप कर लीजिये। लोगों को गुड़ दिखना चाहिए , वे तो स्वतः ही मक्खियों की तरह भिनभिनाने लगेंगे। यही कारण है कि क्यों लोग गुड़ का मिठास खो चुकी सत्ता हीन पार्टी के ऑफिस की बजाय सत्ता के गुड़ से लिपी पार्टी के ऑफिस के सामने भीड़ लगाते हैं। मैंने तुरंत इन्टरनेट से एक खूबसूरत षोडशी की अदाओं से भरी कुछ चुनिन्दा फोटो डाउनलोड कर ली और मेरी खूंसट प्रोफाइल फोटो को डिलीट कर उस अदाकारी की फोटो अपलोड कर मेरी नीरस प्रोफाइल को अपडेट कर दिया। चमत्कार , महा चमत्कार। पहले ही दिन सात सौ छप्पन लाइक और कमेंट्स बेशुमार। अब मैं हर हफ्ते नई फोटो अपडेट कर रहा हूँ , फ्रेंड लिस्ट में जुड़ने को लोग कतार में लगे हैं। अधिकतम सीमा क्रॉस हो चुकी है। किसी एक भी कमेंट के दर्शन को तरसने वाली ये धुंधली आँखें अब हर समय नये नये कमेंट्स को पढ़कर निहाल हो रही हैं। एक बानगी आप भी देखिये- ब्यूटीफुल , सेंडिंग यू अ फ्लाइंग किस। माय स्वीट हार्ट। हॉट एंड सेक्सी। और तो और पडौस के शिव मंदिर वाला बद्री पुजारी लिखता है – कभी हमारे मंदिर में पधार कर अपनी चरण पादुकाओं से मंदिर प्रांगण को पवित्र कीजिये। सब उस बाबा की कृपा है वर्ना इस गुड़ विहीन नमक के ढेले को कौन पूछता है। सो दोस्तों गुड़ का लेप कीजिये और इस वर्चुअल फेस बुक पर अपना फेस बुक कीजिये और इस मायावी संसार का आनंद लीजिये।
गणेशोत्सव की परंपरा
(दीपक दुबे)
अब तो संपूर्ण प्रदेश बल्कि देश मे गणेशोत्सव का दस दिनी आयोजन होता है। मगर स्वतंत्रता आंदोलन का वह दौर भी था जब स्वतंत्रता सेनानी महाराप्ट के नेता बालगंगाधर तिलक ने इस पर्व को आंदोलन का हिस्सा बनाया था और तभी से सार्वजनिक स्थलों पर गणेश स्थापना का शुभारंभ हुआ था।
यह आयोजन तब आंदोलन मे संदेश पहुचाने का बडा जरिया बना। सबसे पहले महाराप्ट मे यह प्रारंभ हुआ। महाराप्ट से लगे जिलो, जो कि पहले सीपी और बरार कहलाते थे मे इन जिलों मे छिंदवाडा जिला भी शामिल था। जहां यह पर्व धूमधाम से मनाया जाता है।
दुनिया के किसी भी कोने आप चले जाये लेकिन पर्व हमेशा वहीं के याद रहते है जहां पर आपका बचपन बीता हो जहां पर खेलकूद कर आप बडे हुए हों। ऐसा ही मेरा छिंदवाडा जिला है जहां गणेर्शोत्सव से लेकर देवी स्थापना और भुजरिया जैसा पर्व मनाया जाता है। करीब करीब हर मोहल्ले मे सार्वजनिक गणेश स्थापना होती हे और दसो दिन कार्यक्रम भी होते है।
छिंदवाडा मे गणेशोत्सव पर झांकियां बिठाने की परंपरा बहुत पुरानी है दस दिनी समारोह आयोजन के लिए मोहल्लावार समितियां बनती है जो दस दिन तक कार्यक्रमो का आयोजन भी करती है। इस मौके पर बडे गणपति के नाम से जाने वाले बरारीपुरा मे स्थापित होने वाले सार्वजनिक गणेशोत्सव की याद आती है। स्व.गंगाधर राव थोराट जो म्युनिस्पल स्कूल मे शिक्षक थे उत्साह से यह आयोजन करते थे काफी समय पूर्व ही वे स्वयं के निवास पर विशाल मूर्ति का निर्माण करते थे। उनकी अथक मेहनत और परिश्रम का परिणाम होता की मूर्ति जब स्थापित होती एकदम जीवंत लगती। तब सांस्कृतिक आयोजनो मे कबडडी प्रतियोगिता एक प्रमुख आकर्शन होता था। इसमे उनके सहयोगी घाटे मासाब,लक्ष्मीप्रसाद दुबे,रविदुबे एडव्होकेट,मनगटे और संपतराव घरणीधर होते।
इसी मोहल्ले मे एक और भी चर्चित मूर्ति बिठायी जाती जो नागपुर से विशेष आर्डर देकर काछी परिवार द्वारा बिठाई जाती थी। दस दिनी आयोजन मे वैसे तो प्रतिदिन ही भीड होती कितु आखिरी के तीन दिन ज्यादा ही भी डोती थी। गांव गांव से लोग शहर मे मूर्तियां देखने आते।
विसर्जन के दिन तो रात भर चल समारोह नगर ते चलते। नाचते गाते लोग मस्ती मे डुबे सडको पर नुत्य करते इस जुलूस मे शामिल होते। यह जुलूस राज्यपाल चौक से हेकर पाटनी टॉकीज होकर पहाडे की दुकान से छोटी बाजार जाता। एक बार की बात है जब चल समारोह एक मस्जिद के पास पहुचा तो विवाद की स्थिति बनी। लेकिन बडी गणपति के आयोजको ने मार्ग बदलना स्वीकार्य्र नही किया मामला कोर्ट मे गया कई दिनो तक मूर्ति वही खडी रही अंत मे फैसला अपने हक मे आने पर पुन: घूमधाम से रवाना हुई और छोटे तालाब मे इसका विसर्जन हुआ। तब से यह परंपरा अब भी चली आ रही है। अब तो बुधवारी बाजार गोलगंज,इतवारा बाजार ,स्टेशन,बस स्टैण्ड,रेल्वे स्टेशन,लाल बाग,नागपुर रोड,परासिया रोड आदि स्थानो पर भी बणेश प्रतिमाये स्थपित होती है।
गणेषेत्सव के प्रसंग आने पर एक व्यक्ति याद आते है जिसे लोग संपतराव घरणीधर के नाम से जानते है। वे क्या नहीं थे एक अच्छे साहित्यकार, गीतकार, मूर्तिकार ओर ना जाने क्या क्या। लोकगीत सृजन मे तो उनकी मास्टरी थी। उहोने गणेशजी की एक आरती भी लिखी थी जिसमे शब्दों का चयन लाजवाब था शुद्व हिन्दी के शब्दों को जिस खुबी से पिरोया और आरती की गायन शैली भी उन्होने ही विकसित की थीं यह आरती थी जय जय गणपति दीनदयाल…दीनदयाल दरस से पाप मिटे… हांलांकि यह ज्यादा लोकप्रिय नही हो पाई केन्तु उनके पडोसियों के यहां यह अब भी गणेशोत्सव पर सस्वर गाईऩ जाती है।
दोषी राम रहीम और भीड़ का हिंसक हो जाने से आशय
– डॉ हिदायत अहमद खान
यह हिन्दुस्तान है जहां ढोंगी बाबा चांदी काटते हैं और ईमानदारी से जीवन-यापन करने वाले को रोजी-रोटी के लाले पड़ते हैं। इसके पीछे भी यदि देखा जाए तो सिर्फ और सिर्फ वोटबैंक वाली गंदी राजनीति ही नजर आती है। ऐसे बाबाओं के पास जमा होने वाली भीड़ को राजनीतिक फसल के तौर पर तैयार किया जाता है। जब चुनाव करीब आते हैं तो वही फसल काटने के लिए राजनीतिक चैतुओं को बुलाया जाता है और तभी कथित ढोंगी बाबा भी किसी न किसी राजनीतिक नेता या पार्टी की पताका थामें नजर आ ही जाते हैं। यही वजह है कि इनके खिलाफ संगीन से संगीन आरोप होने के बाद भी पुलिस हाथ डालने से डरती है और न्यायालय में सुनवाई टलती चली जाती है। वैसे डेरा सच्चा सौदा प्रमुख बाबा गुरमीत राम रहीम का मामला इन सब से अलग कहा जा सकता है, क्योंकि राजनीति से परे बाबा राम रहीम की अपनी स्वयं की एक अलग सल्तनत कायम रही है। इसे बाहुबलियों द्वारा समानांतर सरकार चलाने जैसा मामला कहा जा सकता है। बहरहाल बाबा राम रहीम को यौन शोषण मामले में सीबीआई अदालत ने दोषी ठहराया और उसके बाद जिस तरह से हिंसा भड़की उसने हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर ही सवाल खड़े कर दिए। हरियाणा और पंजाब समेत अन्य राय हिंसा की चपेट में आ गए। इस प्रकार हिंसक भीड़ ने अदालती आदेश पर जिस तरह की प्रतिक्रिया दी उसने बतला दिया कि देश में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। इसके पीछे कहीं न कहीं वोट वाली राजनीति की बू आना स्वभाविक है। दरअसल देश में बीफ को लेकर भीड़ द्वारा जिस तरह से हत्याएं की गईं और कोई ठोस व सबक देने वाली कार्रवाई नहीं की गई उससे भीड़ के हौसले बुलंद होते चले गए। अब हर मामले को भीड़ अपने हिसाब से निपटाने की फिराक में है। बाबा राम रहीम के मामले में हिंसा और आगजनी के साथ लोगों की हुई मौतों ने यह साबित किया है कि भीड़तंत्र लोकतांत्रिक व्यवस्था को चकनाचूर कर अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहता है। यह भीड़तंत्र देश के सारे तंत्रों को अपने हिसाब से चलाने की हर संभव कोशिश कर रहा है। इसलिए वह अपने सामने शासन-प्रशासन समेत न्याय व्यवस्था को भी पूरी तरह नकारता नजर आता है। अगर ऐसा नहीं है तो फिर क्या कारण है कि इंसानियत और समानता के साथ प्रेम व्यवहार का संदेश देने वाले बाबा राम रहीम के समर्थक यूं आगजनी करते और दो दर्जन से ज्यादा लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता। अगर इस मामले में उन्हें अपनी आपत्ति दर्ज करानी ही थी तो वो अदालत का रुख कर सकते थे, शांतिपूर्ण धरना, प्रदर्शन करते और अपनी आबाज को शासन-प्रशासन समेत न्यायालय तक ले जाते, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और देखते ही देखते हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और दिल्ली में हिंसा भड़की और यह सब राम रहीम पर आस्था रखने वालों ने किया। गौरतलब है कि गुमनाम पत्र पर संज्ञान लेते हुए 15 साल बाद पंचकुला सीबीआई कोर्ट ने डेरा प्रमुख बाबा राम रहीम को यौन शोषण का दोषी करार दिया है। इस फैसले के बाद उन्हें न्यायिक हिरासत में अंबाला सेंट्रल जेल भेज दिया गया और बताया गया कि कोर्ट 28 अगस्त को सजा सुना सकती है। इस खबर के आम होते ही हड़कंप मच गया। शांति-व्यवस्था के लिहाज से पंचकुला में जहां पुलिस ने फ्लैग मार्च किया वहीं अनेक शहरों की बिजली काट दी गई और मोबाईल, इंटरनेट सेवा समेत अन्य सूचना संचार की सेवाओं को बाधित कर दिया गया। इससे समझा यह गया कि जब सूचना लोगों तक पहुंचेगी ही नहीं तो फिर किस आधार पर लोग अपनी प्रतिक्रिया दे सकेंगे। ऐसे में संभावना यह थी कि एक या दो जगह पर यदि अनायास हिंसा होती भी है तो उसे आसानी से काबू कर लिया जाएगा, लेकिन इस स्थिति को पहले से भांप चुके लोगों ने मानों हिंसा करने के सारे सामान एकत्र किए हुए थे। अत: यहां अदालत का फैसला आया वहां लोगों ने आगजनी के साथ ही साथ हिंसा शुरु कर दी। जेड श्रेणी की सुरक्षा प्राप्त बाबा राम रहीम तो न्यायिक हिरासत में चले गए लेकिन उनके पीछे खून-खराबा जो शुरु हुआ वह पूरी तरह से सरकार और प्रशासनिक व्यवस्था का फेल हो जाना है। क्योंकि हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर खट्टर ने जहां आश्वस्त किया था कि कड़े सुरक्षा इंतजाम किए जा चुके हैं और कोर्ट का फैसला लागू कराने के लिए संपूर्ण राज्य में किसी भी तरह के हालात से निपटने इंतजाम किए जा चुके हैं। गौरतलब है कि इस पूरे मामले में जहां गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों से बात की थी वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कानून-व्यवस्था की जानकारी लेकर मामले को इतिश्री जैसा मान लिया था। इसके बाद भी हिंसा होना भीड़तंत्र के सफल होने और सरकारी व्यवस्थाओं के फेल होने का सुबूत ही है। यह चिंतनीय है और इसे गंभीरता से लेने की आवश्यकता है, क्योंकि इससे संपूर्ण मानवता प्रभावित होती है। देश की छवि विदेशों में खराब होती है और सबसे बड़ी बात लोकतंत्र कमजोर होता है। इसलिए इस मामले में सख्त से सख्त कदम उठाने और न्याय का राज कायम करने की आवश्यकता है। जय हिन्द!
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