शिक्षाः अदालतः खुश-खबर
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के सर्वोच्च न्यायालय की इस खबर ने आज मुझे बहुत खुश कर दिया है। मेरे पास लगभग 20 अखबार रोज़ आते हैं। लेकिन यह खबर मैंने आज सिर्फ ‘जागरण’ में देखी है। किसी भी अंग्रेजी अखबार ने इस खबर को नहीं छापा है। खबर यह है कि सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तरप्रदेश के मुख्य सचिव अनूपचंद्र पांडेय को अदालत की बेइज्जती करने का नोटिस भेजा है। उ.प्र. सरकार ने अदालत की बेइज्जती कैसे की है ? इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 18 अगस्त 2015 को एक आदेश जारी किया था, जिसके मुताबिक प्रदेश के सभी चुने हुए जन-प्रतिनिधियों, सरकारी कर्मचारियों और न्यायपालिका के सदस्यों के बच्चों को अनिवार्य रुप से सरकारी स्कूलों में ही पढ़ना पड़ेगा। अदालत ने यह भी कहा था कि इस नियम का उल्लंघन करनेवालों के लिए सजा का प्रावधान किया जाए। सरकार से वेतन पानेवाला कोई भी व्यक्ति अपने बच्चों को यदि किसी निजी स्कूल में पढ़ाता है तो वहां भरी जानेवाली फीस के बराबर राशि वह सरकार में जमा करवाएगा और उसकी वेतन-वृद्धि और पदोन्नति भी रोकी जा सकती है। इस आदेश का पालन करने के लिए अदालत ने छह माह का समय दिया था लेकिन साढ़े तीन साल निकल गए। न तो अखिलेश यादव और न ही योगी आदित्यनाथ की सरकार ने कोई कदम उठाया। अब शिवकुमार त्रिपाठी नामक एक प्रबुद्ध नागरिक की याचिका पर देश की सबसे बड़ी अदालत ने उप्र के मुख्य सचिव को कठघरे में खड़ा किया है। आप पूछ सकते हैं कि इस फैसले से मैं इतना खुश क्यों हूं ? क्योंकि यह सुझाव 2015 में मैंने अपने एक लेख में दिया था। बाद में मुझे पता चला कि उस लेख को उन न्यायाधीशों ने भी पढ़ा था। उसमें मैंने सरकारी लोगों के इलाज के मामले में भी यही नियम लागू करने की बात कही थी। मैं हमेशा कहता हूं कि विचार की शक्ति परमाणु बम से भी ज्यादा होती है। यदि शिक्षा और स्वास्थ्य के मामलो में मेरे इस विचार को सरकारें लागू कर दें तो भारत के स्कूलों और अस्पतालों की हालत रातोंरात सुधर सकती है। शिक्षा से मन प्रबल होता है और स्वास्थ्य-रक्षा से तन सबल होता है। ऐसे प्रबल और सबल राष्ट्र को विश्व की महाशक्ति बनने से कौन रोक सकता है ?
कब रोजे घटेंगे…कब देश में लोकपाल बनेंगे?
अजित वर्मा
भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई लड़ने का ऐलान आये दिन करती रहने वाली केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा सरकार लोकपाल की नियुक्ति के मामले की जिस तरह सुस्तचाल चल रही है, उससे सरकार के बारे में यही धारणा बन रही है कि भ्रष्टाचार के प्रति अपनी असहिष्णुता का प्रदर्शन करने के लिए केवल राजनैतिक विरोधियों को डराने और प्रताड़ित करने मात्र के लिए सीबीआई, ईडी और अन्य एजेन्सियें की छापेमारी का इस्तेमाल कर रही है लेकिन पाँच साल का कार्यकाल पूरा होने में महज तीन माह शेष रह जाने पर भी लोकपाल की नियुक्ति के प्रति उत्साहित नहीं दिखती।
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल 24 जुलाई को केंद्र सरकार की तरफ से सौंपे गए लोकपाल सर्च कमेटी के गठन के मुद्दे पर सौंपे हलफनामे पर पूर्ण असंतोष जाहिर करते हुए उसे खारिज कर दिया था और एक अच्छे हलफनामे की मांग की थी। जिसके बाद 27 सितंबर को सरकार ने लोकपाल के अध्यक्ष और इसके सदस्यों के नामों की सिफारिश करने के लिए आठ सदस्यीय सर्च कमेटी का गठन किया था। इस समिति में अध्यक्ष रंजना प्रकाश देसाई के अलावा, भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) की पूर्व अध्यक्ष अरूंधति भट्टाचार्य, प्रसार भारती के अध्यक्ष ए सूर्यप्रकाश और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) प्रमुख ए एस किरन कुमार के साथ ही इलाहाबाद हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति सखा राम सिंह यादव, गुजरात पुलिस के पूर्व प्रमुख शब्बीर हुसैन एस खंडवावाला, राजस्थान कैडर के सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी ललित के पवार और पूर्व सॉलीसीटर जनरल रंजीत कुमार समिति के अन्य सदस्यों में शामिल थे। इस 8 सदस्यीय खोज समिति को लोकपाल और इसके सदस्यों की नियुक्ति के लिए नामों की एक सूची की सिफारिश करने का अधिकार दिया गया है।
दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने 4 जनवरी को केंद्र सरकार को निर्देश दिया था कि लोकपाल की नियुक्ति को लेकर उठाए गए कदमों पर हलफनामा दायर करे और साथ ही मामले में सुस्त प्रक्रिया को लेकर दुख जताया था। एनजीओ कॉमन कॉज को की तरफ से पेश हुए वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने कहा कि सरकार अपनी वेबसाइट पर अब तक सर्च कमेटी के सदस्यों के नामों को सार्वजनिक नहीं किया है। सर्च कमेटी प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता, लोकसभा स्पीकर और प्रमुख न्यायाधीश वाली सेलेक्शन कमेटी को नाम भेजेगी।
अब लोकपाल के अध्यक्ष और सदस्यों की सिफारिश के लिए सुप्रीम कोर्ट ने लोकपाल पर बनी खोज समिति (सर्च कमेटी) को फरवरी अंत की डेडलाइन दी है। लोकपाल सर्च कमेटी की अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट की पूर्व जज रंजना प्रकाश देसाई कर रही है। चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली बेंच ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया है कि सर्च कमेटी को कामों को पूरा करने के लिए सुविधाएं और मैनपावर को उपलब्ध कराएं। जस्टिस एल एन राव और जस्टिस एस के कौल भी इस बेंच में शामिल थे, जिसने मामले की अगली सुनवाई 7 मार्च तय की है।
केंद्र सरकार की तरफ से कोर्ट में पेश हुए अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने बेंच को कहा कि इंफ्रास्ट्रक्चर और मैनपावर जैसी चीजों के अभाव के कारण समस्याएं आई हैं जिसके कारण सर्च कमेटी मुद्दे पर विचार नहीं कर सकी। स्वयं अटार्नी जनरल जब कोर्ट में कह रहे हैं कि सर्च कमेटी के सामने इन्फ्रास्ट्रक्चर और मेन पॉवर का अभाव है तो उनके इस कथन से ही सरकार का उदासीनता और अनिच्छा का रवैया स्पष्ट हो जाता है क्योंकि सर्च कमेटी को ये बुनियादी सुविधाएं आखिर सरकार को ही सुलभ कराना थीं। सरकार लोकपाल के प्रति उत्साहित होती तो वह तत्परता पहले सर्च कमेटी जल्दी बनाती और उसे तत्काल ही सुविधाएं भी उपलब्ध कराती न!
बेरोजगारीः कोरी जुमलेबाजी
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
वित्तमंत्री पीयूष गोयल का बजट-भाषण इतना प्रभावशाली था कि विपक्ष तो हतप्रभ-सा लग ही रहा था। वह अकेला भाषण नरेंद्र मोदी के पिछले पांच वर्षों के सारे भाषणों के मुकाबले भी भारी पड़ रहा था और मुझे याद नहीं पड़ता कि किसी बजट-भाषण ने लोकसभा में ऐसा चमत्कारी माहौल पैदा किया, जैसा कि पीयूष के भाषण ने किया लेकिन आश्चर्य है कि रोजगार के बारे में वित्तमंत्री ने कोई जिक्र तक नहीं किया। यदि नोटबंदी और जीएसटी से सरकार की आमदनी कई लाख करोड़ रु. बढ़ गई तो यह समझ में नहीं आता कि देश में बेकारी क्यों बढ़ती जा रही है। नेशनल सेंपल सर्वे आफिस की ताजा रपट कहती है कि इस समय देश में जैसी बेकारी फैली हुई है, वैसी पिछले 45 साल में कभी नहीं फैली। चपरासी की दर्जन भर नौकरियों के लिए लाखों अर्जियां क्यों आ जाती हैं ? अर्जियां देनेवालों में कई लोग बीए और एमए भी होते हैं। क्या यह हमारे लिए शर्म की बात नहीं है? मनमोहन-सोनिया सरकार के दौरान कितना ही भ्रष्टाचार हुआ है लेकिन उस दौरान आज की तुलना में बेकारी काफी कम थी। अब उससे वह तीन गुनी ज्यादा है। 15 से 29 साल के ग्रामीण नौजवानों में 2017-18 में 17.4 प्रतिशत लोग बेरोजगार हैं जबकि 2011-12 में वे सिर्फ 5 प्रतिशत थे। ये आंकड़े एक अंग्रेजी अखबार में क्या छपे कि सरकार में कोहराम मच गया। नीति आयोग ने कहा कि इन आंकड़ोंवाली रपट को सरकार ने प्रमाणित नहीं किया है। इस पर राष्ट्रीय आंकड़ा आयोग के दो गैर-सरकारी सदस्यों ने अपने इस्तीफे दे दिए हैं। उन्होंने कहा है कि आयोग की रपट अपने आप में प्रामाणिक मानी जाती है। उस पर सरकारी ठप्पे की कभी जरुरत नहीं पड़ती है। यह काफी गंभीर मामला है। इसके कारण यह भी शक पैदा होता है कि सरकार ने अभी तक जीडीपी (सकल उत्पाद) आदि के बारे में जो भी आंकड़े पेश किए हैं और पीयूष ने अपने बजट-भाषण में अर्थ-व्यवस्था का जो रंगीन चित्र पेश किया है, वह भी कहीं फर्जी आंकड़ों पर तो आधारित नहीं है ? इन आंकड़ों को लेकर कांग्रेस मोदी को हिटलर कह रही है तो भाजपा राहुल को मुसोलिनी बता रही है। हिटलर और मुसोलिनी, दोनों यह सुनकर नरक में अपना माथा कूट रहे होंगे। लेकिन कोई दल या नेता यह नहीं बता रहा कि साढ़े छह करोड़ बेरोजगार नौजवान क्या करें, कहां जाएं, अपना पेट कैसे भरें ? देश की दोनों प्रमुख पार्टियां और उसके नेता किसानों, नौजवानों, महिलाओं, करदाताओं को तरह-तरह की चूसनियां (लाॅलीपाॅप) पकड़ा रहे हैं ताकि उनसे अपने वोट पटा सकें। विचारधारा, सिद्धांत और नीति का स्थान जुमलों ने ले लिया है।
चुनावी घोषणाओं से परिपूर्ण मोदी सरकार का अंतरिम बजट
डॉ हिदायत अहमद खान
अंतरिम बजट को लेकर जैसी कि उम्मीद जाहिर की जा रही थी कमोवैश वैसा ही केंद्र ने अपने अंतिम बजट को चुनावी बनाने की कोशिश इसे की है। इसमें लोकलुभावन वादे हैं तो वहीं कर्मचारियों, श्रमिकों, मझौले व्यापारियों से लेकर पेंशनभोगियों तक के लिए कुछ न कुछ बतौर तोहफा देने की बात कही गई है। यह जरुर है कि किसानों के लिए यह बजट खुशियों वाला नहीं कहा जा सकता, क्योंकि महज पांच एकड़ जमीन के स्वामी किसान को साल के छह हजार रुपए देने की बात कही गई है। इसके विपरीत देशभर के किसान मोदी सरकार से कर्जमाफी की मांग लगातार करते रहे हैं। इस मांग को लेकर मोदी कार्यकाल में देशभर के किसान सड़कों पर आए, अनेक कर्जधारी परेशान किसानों ने तो आत्महत्या तक कर लीं, लेकिन तब भी सरकार का दिल नहीं पसीजा और राज्यों से अपने स्तर पर इस मामले को निपटाने का आदेश जारी कर दिया, जिसका लाभ तीन राज्यों में कांग्रेस को विधानसभा जीत के तौर पर मिला। बावजूद इसके इस अंतरिम बजट से किसानों को खासी उम्मींदें थीं, जिस पर यह खरा उतरता नहीं दिखा है। बहरहाल शुक्रवार को संसद में कार्यवाहक वित्त मंत्री पीयूष गोयल ने बजट पेश किया तो सत्ता पक्ष के चेहरे खिल गए और जोर-शोर से बताया गया कि यह बजट सही मायने में लोगों की जिंदगी को सुधारने वाला है। वित्त मंत्री अरुण जेटली बीमारी के चलते जेरेइलाज हैं और ऐसे में पीयूष गोयल ने अंतरिम बजट पेश करने की अहम जिम्मेदारी पूरी की। यहां मोदी सरकार ने अपने अंतरिम बजट में सैलरीड क्लास, पेंशनर्स, वरिष्ठ नागरिकों समेत छोटे व्यापारियों को बड़ा तोहफा प्रदान कर दिया। दरअसल अंतरिम बजट में टैक्स फ्री इनकम की सीमा बढ़ाकर दोगुनी कर दी गई। इस प्रकार अब ढाई लाख रुपये की जगह 5 लाख रुपये तक की आय पर कोई टैक्स भरना नहीं पड़ेगा। कार्यवाहक वित्त मंत्री गोयल की मानें तो इस टैक्स छूट का लाभ 3 करोड़ मध्यवर्गीय करदाताओं को मिलने वाला है। मतलब सरकार ने तीन करोड़ मतदाताओं को रिझाने के लिए यह बड़ा दांव खेला है। वहीं दूसरी तरफ पिछले बजट में लाए गए स्टैंटर्ड डिडक्शन की सीमा भी 40 हजार रुपये से बढ़ाकर 50 हजार रुपये कर दी गई है, जबकि बैंक और पोस्ट ऑफिस का ब्याज टैक्स फ्री डिपॉजिट की सीमा 10 हजार से बढ़ाकर 40 हजार रुपये कर दी गई। इससे बड़ी तादाद में लोगों को खासा लाभ होने की बात कही जा रही है। कर्मचारियों के साथ ही घरेलू कामगारों का भी अंतरिम बजट में विशेष ध्यान रखा गया है। दरअसल अब कर्मचारियों के एनपीएस में सरकार की ओर से 14 फीसदी का योगदान दिया जाएगा, जबकि घरेलू कामगारों के लिए नई पेंशन योजना जो लाई गई है उसमें भी सरकार की भागीदारी बढ़ा दी गई है। बजट में उल्लेखित है कि इन्हें प्रधानमंत्री श्रम योगी मानधन योजना का लाभ मिलेगा। तोहफे के रुप में असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को प्रति माह तीन हजार रुपये पेंशन के तौर पर देने का भी ऐलान किया गया है। ग्रैच्युइटी पेमेंट की सीमा दस लाख रुपये से बढ़ाकर 30 लाख रुपये कर दी गई है। वहीं ग्रैच्युइटी कंट्रिब्यूशन सीमा 15 हजार से बढ़ाकर 21 हजार रुपये की गई है। श्रमिकों की सर्विस के दौरान होने वाली मौत पर मिलने वाली सहायता राशि को 2 लाख से बढ़ाकर 6 लाख किया गया है। इस प्रकार इस बजट में लुभाने के लिए बहुत कुछ है, यहां तक कि अंतरिम बजट में किसानों की तरफ भी सरकार का ध्यान गया है और पांच एकड़ वाले किसानों को साल में छह हजार रुपए सीधे बैंक खाते में जमा करने का उल्लेख किया गया है। इसे लेकर जरुर सवाल उठ रहे हैं कि सरकार ने किसानों को ठगा है, क्योंकि महज 500 रुपए प्रतिमाह किसानों को मिलेगा जो कि ऊंट के मुंह में जीरा साबित होने वाला है। गौर करने वाली बात यह है कि पांच एकड़ जमीन पर एक अकेला किसान नहीं बल्कि उसके परिवार के कम से कम चार सदस्य भी आश्रित होते हैं। ऐसे में प्रतिदिन करीब 17 रुपये में उसकी उदरपूर्ति भी होना कठिन होगी। बावजूद इसके भाजपा कह रही है कि यह ‘सबका साथ, सबका विकास’ वाला बजट है। अंतरिम बजट पेश करने के उपरांत कार्यकारी वित्त मंत्री पीयूष गोयल ने जो कहा उसके मुताबिक छोटे किसानों की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए ही प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना लॉन्च की गई है। विपक्ष को बजट में चुनावी जुमलों के सिवा कुछ नजर नहीं आ रहा है। दूसरी तरफ गोयल इसे सरकार का ऐतिहासिक फैसला बता रहे हैं और कह रहे हैं कि विरोध करने वाले लोग जो एसी कमरों में बैठते हैं वो ऐसे छोटे किसानों के दर्द को और उनकी समस्याओं को समझ नहीं सकते हैं। इसलिए उन्हें यह योजना भी समझ में आने वाली नहीं है। अगर इसे सच भी मान लिया जाए तब भी सवाल तो यही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल के अंतिम क्षणों में इसे क्योंकर लाया गया है, क्या यह किसानों समेत अन्य लाभार्थियों के साथ छलावा करने जैसा नहीं है? अब जबकि आम चुनाव सिर पर हैं तो फिर इस तरह की योजनाएं और घोषणाएं क्या पूरी तरह फलीभूत हो पाएंगी समझने की बात है। इसलिए चुनावी घोषणाओं से परिपूर्ण अंतरिम बजट को मतदाताओं को छलने का प्लान करार दिया जाए तो गलत नहीं होगा।
राम मंदिर: बहानेबाजी
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कहावत है कि मरता, क्या नहीं करता ? सरकार को पता है कि अब राम मंदिर ही उसके पास आखिरी दांव बचा है। यदि यह तुरुप का पत्ता भी गिर गया तो वह क्या करेगी ? नरेंद्र मोदी ने महिने भर पहले यह कह ही दिया था कि हम सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का इंतजार करेंगे याने अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए अध्यादेश नहीं लाएंगे। जबकि अध्यादेश लाने की मांग विश्व—हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जोरों से कर रहे हैं। सारे साधु—संतों ने भी इस मामले में सरकार पर बंदूकें तान रखी हैं। शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानंदजी ने तो 21 फरवरी को राम मंदिर के शिलान्यास की घोषणा भी कर दी है। उधर कांग्रेस दावा कर रही है कि उसने ही राम मंदिर के बंद दरवाजे खुलवाए थे ओर अब सत्ता में आने पर वह ही राम मंदिर बनाएगी। ऐसे में घबराई हुई मोदी सरकार क्या करे। इधर वह साहिल से और उधर तूफान से टकरा रही है। इसी हड़बड़ाहट में उसने सर्वोच्च न्यायालय से प्रार्थना की है कि मंदिर-मस्जिद के आस-पास की जो 67 एकड़ जमीन नरसिंहराव सरकार ने एक अध्यादेश के द्वारा 1993 में अधिग्रहीत की थी, उसे वह मुक्त कर दे ताकि वहां राम मंदिर की शुरुआत की जा सके। वहां 42 एकड़ जमीन रामजन्मभूमि न्यास की है। उसी पर शुभारंभ हो सकता है। लेकिन पहला प्रश्न यही है कि क्या वह रामजन्मभूमि है ? नहीं है। दूसरा प्रश्न यह कि सर्वोच्च न्यायालय अपने दो फैसलों में उस अधिग्रहीत जमीन को तब तक वैसे ही रखने की बात कह चुका है, जब तक कि पौने तीन एकड़ राम जन्मभूमि की मिल्कियत का फैसला न हो जाए। तीसरा प्रश्न यह कि प्र मं. अटलजी ने संसद में अदालत के इस फैसले को सही बताया था। उसे आप उलट रहे हैं। चौथा, प्रश्न यह कि उस अधिग्रहीत जमीन के दर्जनों मालिक से अब मुआवजा कैसे वसूल करेंगे। पांचवां प्रश्न यह कि यदि सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद कोर्ट के फैसले को सही ठहरा दिया तो मस्जिद तक पहुंचने के लिए मुसलमानों को रास्ता कैसे मिलेगा ? मुझे लगता है कि अदालत सरकार की इस प्रार्थना को रद्द कर देगी। सरकार को सभी साधु-संतों और अपने हिंदू वोट-बैंक को यह कहने का बहाना मिल जाएगा कि हमने कौनसी कोशिश नहीं की लेकिन हम मजबूर हैं, अदालत के आगे। जाहिर है कि सरकार में बैठे लोग अपनी बुद्धि का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। वरना उस 70 एकड़ जमीन में शानदार राम मंदिर के साथ-साथ सभी धर्मों के पूजा-स्थल बन सकते थे और इस एतिहासिक समाधान के साथ-साथ सभी धर्मों के पूजा-स्थल बन सकते थे और यह एतिहासिक समाधान अदालत और अध्यादेश से नहीं, बातचीत से निकल सकता था। लेकिन हमारे भाषणबाज नेता को बातचीत करनी आती ही नहीं। इस बहानेबाज़ी से नैया कैसे पार लगेगी ?
इसे अस्पताल कहें या मानवता पर कलंक?
निर्मल रानी
प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता आमिर खां ने कुछ समय पूर्व सत्यमेव जयते नामक एक अति लोकप्रिय धारावाहिक में एक एपिसोड भारतीय चिकित्सा व्यवस्था को भी समर्पित किया था। दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश जहां जन सुविधाओं से जुड़ी अनेक समस्याओं का सामना कर रहा है वहीं देश के आम नागरिकों के लिए समय पर उपयुक्त चिकित्सा हासिल कर पाना वास्तव में एक टेढ़ी खीर बन चुका है। डॉक्टर के जिस पेशे को समाज सेवा का अवसर प्रदान करने का आदर्श पेशा समझा जाता है वही पेशा आज व्यवसाय या दुकानदारी बनकर रह गया है। देश के किसी न किसी क्षेत्र से आए दिन अनेक ऐसे समाचार मिलते रहते हैं जिनसे यह पता चलता है कि सरकारी अस्पतालों से लेकर निजी अस्पतालों तक में किस तरह चिकित्सों द्वारा मरीज़ों से नाजायज़ तरीके से पैसे वसूले जा रहे हैं और अनावश्यक जांच व टेस्ट आदि के नाम पर किस प्रकार कमीशन या दलाली का बाज़ार गर्म है। जिस समय आमिर खां ने सत्यमेव जयते में ऐसे चिकित्सों व अस्पतालों की पोल खोली थी उसके बाद ऐसा लगने लगा था कि शायद देश के डॉक्टर्स व इनके द्वारा संचालित अस्पतालों में कुछ सुधार हो सकेगा। परंतु अभी तक सब कुछ ढाक के तीन पात है। उल्टे कुछ घटनाएं तो ऐसी सामने आने लगी हैं जिन्हें सुनकर तो ऐसा लगता है गोया इस प्रकार का अमानवीय आचरण करने वाले अस्पताल किसी डॉक्टर्स द्वारा नहीं बल्कि राक्षस अथवा शैतानों द्वारा संचालित किए जा रहे हैं।
इस घटना पर ही गौर कीजिए। गत् 23 जनवरी को न्यूयार्क निवासी एक अप्रवासी भारतीय 52 वर्षीय गगनदीप सिंह जोकि सेक्टर 69 मोहाली के रहने वाले थे अपने भाारत प्रवास के दौरान अपने पूरे परिवार के साथ स्वर्ण मंदिर, अमृतसर की यात्रा पर गए थे। अचानक उन्हें स्वर्ण मंदिर की भीतर परिक्रमा करते समय मस्तिष्काघात हो गया और उस पवित्र स्थल के भीतर ही उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए। गगनदीप अत्यंत सामाजिक व्यक्ति थे तथा बढ़-चढ़ कर ज़रूरतमंदों की गुप्त रूप से मदद किया करते थे जिसकी अनेक कहानियां उनके मरणोपरांत पता चलीं। बहरहाल मरणोपरांत उनके परिवार के शेष लोग जिसमें बुज़ुर्ग माता-पिता भी शामिल थे, उन सबको कारों में अमृतसर से मोहाली के लिए रवाना करने के बाद गगनदीप के बड़े भाई व उनके दो भतीजों द्वारा गगनदीप के शव को एंबुलेंस द्वारा अमृतसर से मोहाली लाने की व्यवस्था की गई। गगनदीप की मृत्यु 23 जनवरी को सायंकाल लगभग साढ़े चार बजे के आस-पास हुई थी और उनके मृतक शरीर को मोहाली तक आते-आते लगभग बारह घंटे बीत चुके थे। यहां पहुंचकर शव के साथ चल रहे रिश्तेदारों ने गगनदीप के शव में नाक से रक्त का रिसाव होते देखा। इस बीच जब शव मोहाली स्थित सेक्टर 69 में अपने घर पहुंचने ही वाला था कि उनके घर के पास ही उसी सेक्टर 69 में स्थित एक निजी अस्पताल जिसे शिवालिक अस्पताल के नाम से जाना जाता है, उनके परिवार के सदस्य गगनदीप के शव को लेकर वहां पहुंच गए।
एंबुलेंस अस्पताल के बाहर ही खड़ी कर गगनदीप का भतीजा शिवालिक अस्पताल में दाखिल हुआ तथा भीतर जाकर मौजूद स्टाफ को अपनी व्यथा सुनाई तथा यह निवेदन किया कि वे मृतक के शरीर की नाक से रिसने वाले रक्त को साफ कर दें। गगनदीप के बड़े भाई द्वारा मृत्यु प्रमाण पत्र भी अमृतसर में ही हासिल कर लिया गया था जो अस्पताल वालों को दिखाया भी गया। परंतु अस्पताल स्टाफ ने यह कहकर किसी भी प्रकार की सहायता से मना कर दिया कि यहां मृत शरीर के साथ कोई काम नहीं किया जाता। यह सुनकर शव के साथ चलने वाले उनके मित्रों व परिजनों ने अस्पताल के स्टाफ से निवेदन किया कि वे पैसे लेकर उन्हें थोड़ी सी रुई दे दें ताकि शव की नाक से रिसने वाला खून वे स्वयं अपने हाथों से साफ कर सकें। परंतु अस्पताल के प्रबंधन द्वारा उन लोगों को पैसे लेकर भी रुई देने से मना कर दिया गया। आखिरकार उसी जगह खड़े होकर गगनदीप के बड़े भाई ने मैक्स अस्पताल में फोन कर अपनी दु:ख भरी दासतां बयान की। मैक्स अस्पताल की ओर से उन्हें शव लाकर सुरक्षित स्थान पर रखने का आश्वासन दिया गया। इस प्रकार गगनदीप का शव 24 जनवरी को प्रात:काल लगभग पांच बजे मैक्स अस्पताल के शव गृह के शीत कक्ष में साफ कराकर सुरक्षित रखा गया जिसे अगले दिन 25 जनवरी को दोपहर 2 बजे मोहाली के सेक्टर 73 के शवदाह गृह में अंतिम संस्कार हेतु लाया गया।
इस पूरे प्रकरण में कई अमानवीय पक्ष दिखाई देते हैं। एक तो यह कि शिवालिक अस्पताल जो संतोष अग्रवाल नामक डॉक्टर द्वारा संचालित किया जा रहा है,यह अस्पताल स्वर्गीय गगनदीप के घर के बिल्कुल समीप है। अर्थात् एक पड़ोसी के नाते भी इनकी सहायता करना उस अस्पताल के लोगों का कर्तव्य था जो उन्होंने पूरा नहीं किया। इस घटना से दूसरी बात यह भी सामने निकल कर आती है कि एक अप्रवासी भारतीय परिवार होने के बावजूद जब इस अस्पताल के लोगों द्वारा मामूली सी रुई इन लोगों को पैसे देने का प्रस्ताव मिलने के बावजूद नहीं दी गई तो ज़रा सोचिए एक मध्यम या निम्र मध्यम वर्ग का कोई व्यक्ति अथवा कोई गरीब व्यक्ति इन हालात से दो-चार हो रहा होता तो संभवत: यह अस्पताल वाले उसे धक्के देकर या गाली-गलौच कर के अस्पताल के गेट से बाहर निकाल देते। और तीसरी बात यह कि इस प्रकार की जो भी घटना घटी वह पूरी तरह से चिकित्सक पेशे पर कलंक है तथा चिकित्सकीय मानदंडों के बिल्कुल विरुद्ध है। गगनदीप की शव यात्रा से लेकर उनकी अंतिम अरदास तक में आने वाले अनेक राजनेता,अधिकारी व प्रतिष्ठित लोग शिवालिक अस्पताल सेक्टर 69 मोहाली द्वारा गगनदीप के शव के साथ किए गए इस अपमानजनक व अमानवीय व्यवहार को लेकर काफी आश्चर्यचकित थे। खासतौर से इस बात को लेकर उन्हें ज़्यादा तकलीफ थी कि जिस व्यक्ति की मौत हरमंदिर साहब जैसे पवित्र स्थल में हुई हो और जो व्यक्ति शिवालिक अस्पताल मोहाली के बिल्कुल समीप रहता हो ऐसे व्यक्ति के साथ अस्पताल कर्मियों द्वारा किया गया बर्ताव निश्चित रूप से अत्यंत अमानवीय था।
ऐसा भी नहीं कि देश के सभी अस्पताल अथवा समस्त डॉक्टर्स द्वारा मरीज़ों के साथ या किसी के शव के साथ इस प्रकार का बुरा बर्ताव किया जाता हो। परंतु यदि हज़ार में से एक व्यक्ति भी चिकित्सक के पेशे से जुड़ा होने के बावजूद इस प्रकार का बर्ताव करता है तो वह नि:संदेह इस पवित्र पुनीत व सेवा भाव रखने वाले पेशे को कलंकित करता है। देश में आपको ऐसे हज़ारों उदाहरण सुनने को मिल जाएंगे कि अमुक अस्पताल द्वारा परिजनों को इसलिए शव देने से इंकार कर दिया गया क्योंकि उन्होंने अस्पताल का पूरा बिल नहीं भरा। ऐसी भी तमाम मिसालें मिलेंगी कि अमुक पैथोलॉजी या लैब से ही कराई गई जांच को ही डॉक्टर स्वीकार करेगा किसी दूसरे लैब की नहीं। सरकारी अस्पतालों में काम करने वाले डॉक्टर्स की निजी प्रैक्टिस प्रतिबंधित होने के बावजूद इस प्रकार का खेल अभी भी किसी न किसी तरीके से जारी है। अस्पतालों में मुफ्त दवाईयां मिलने के बावजूद कमीशनखोर डॉक्टर अभी भी मरीज़ों को मेडिकल स्टोर्स से दवाईयां खरीदने के लिए मजबूर कर रहे हैं। कुल मिला कर ऐसे लोग और शिवलिक अस्पताल जैसे चिकित्सा गृह चिकित्सा के पेशे पर साबित हो रहे हैं।
जार्ज फर्नांडीसः कुछ संस्मरण
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जाॅर्ज फर्नांडीस जब 1967 में पहली बार लोकसभा में चुनकर आए तो सारे देश में उनके नाम की धूम मची हुई थी। वे बंबई के सबसे लोकप्रिय मजदूर नेता थे। उन्होंने कांग्रेस के महारथी एस के पाटील को मुंबई में हराया था। तब जाॅर्ज संसोपा के उम्मीदवार थे। संयुक्त समाजवादी पार्टी के नेता थे, डाॅ. राममनोहर लोहिया। लोहियाजी ने डाॅ. परिमलकुमार दास और मेरी ड्यूटी लगाई कि हम दोनों जाएं और जाॅर्ज को नई दिल्ली स्टेशन से लेकर आएं। जाॅर्ज को हमने लाकर साउथ एवेन्यू में राजनारायणजी के घर छोड़ा। जाॅर्ज के दिल्ली आते ही हमारी गतिविधियां तेज़ हो गईं। मधु लिमए, किशन पटनायक, मनीराम बागड़ी, रामसेवक यादव, लाडलीमोहन निगम, कमलेश शुक्ल, श्रीकांत वर्मा आदि हम लोग डाॅ. लोहिया के घर पर अक्सर मिला करते थे और लोहियाजी के आंदोलनों को फैलाने पर विचार किया करते थे। स्कूल आॅफ इंटरनेशनल स्टडीज के साथ चले मेरे शोधग्रंथ को हिंदी में लिखने के विवाद पर जाॅर्ज ने मेरा डटकर समर्थन किया। अंग्रेजी हटाओ, जात तोड़ो, भारत-पाक एका, रामायण-मेला, दाम-बांधो आदि कई आंदोलनों में जाॅर्ज ने नई जान फूंक दी। जाॅर्ज को 214, नार्थ एवन्यू का फ्लैट मिला। 216 नंबर में अर्जुनसिंहजी और सरलाजी भदौरिया पहले से रहते थे। भदौरियाजी की बरसाती में कमलेशजी रहते थे। मैं सप्रू हाउस में रहता था। जब डाॅक्टर लोहिया बीमार पड़े तो वे विलिंगडन अस्पताल में भर्ती थे। हम लोग रोज वहां जाते थे। मुझे देर हो जाती थी तो कभी मैं डाॅ. लोहिया के बंगलो, 7 गुरुद्वारा रकाबगंज या भदौरियाजी के घर रात को रुक जाता था। अस्पताल बिल्कुल सामने ही था। उन दिनों जाॅर्ज के साथ घनिष्टता बढ़ गई। जार्ज बेहद सादगी पसंद इंसान थे। वे अक्सर मुसा हुआ कुर्ता-पाजामा पहने रहते थे। मंत्री बनने पर भी उनकी वेश-भूषा, खान-पान और रहन-सहन में कोई फर्क नहीं आया था। मंत्री बनते ही उन्होंने कोका-कोला और आइबीएम पर प्रतिबंध लगा दिया । मंत्री बनने पर उन्हें कृष्णमेनन मार्ग का बंगला मिला, जिसके सामने के दरवाजे और खिड़कियां उन्होंने निकलवा दिए थे, क्योंकि उस सड़क पर से जब कोई वीआईपी निकलता तो सुरक्षाकर्मी उन्हें बंद करवा देते थे। आपात्काल के दिनों में वे सरदारजी का भेस धारण करके घूमते थे। सीजीके रेड्डी और कमलेशजी के जरिए उनसे मेरा संपर्क बना रहता था। ‘बड़ौदा डायनामाइट केस’ में वे गिरफ्तार हो गए थे। आपात्काल के बाद वे मंत्री बने। मैंने 1977 में नागपुर में और 1990 में इंदौर में अंग्रेजी हटाओ सम्मेलन आयोजित किए थे। जाॅर्ज ने उनमें मदद की और भाग भी लिया। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के मंत्रिमंडल में जाॅर्ज रक्षा मंत्री थे। कारगिल-युद्ध के दौरान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने मुझे फोन किया। नवाज मुशर्रफ द्वारा चालू किए गए उस युद्ध को रुकवाना चाहते थे। अटलजी को मैंने सारी बात बताई। उन्होंने कहा, आप कल ही इस्लामाबाद जाइए और बात करके आइए। पासपोर्ट पर तत्काल वीजा लग गया और टिकिट बन गया। लेकिन दूसरे दिन सुबह-सुबह जाॅर्ज का फोन आया और उन्होंने कहा कि यदि पाकिस्तानी सरकार आपकी यात्रा का बेजा फायदा उठाने की कोशिश करेगी और यह झूठा प्रचार करेगी कि अटलजी और जाॅर्ज ने अपने मित्र को युद्ध रुकवाने के लिए भेजा है तो हम यह कैसे कहेंगे कि हम डाॅ. वैदिक को नहीं जानते। यही बात कुछ देर बाद मुझे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्रा ने भी कही। मुझे भी यह सावधानी जरुरी लगी। जार्ज ने ‘प्रतिपक्ष’ नामक पत्रिका भी निकाली थी। बिहार से वे कई बार संसद में चुने गए लेकिन राजनीति से दरकिनार होने पर वे काफी अकेले पड़ गए थे। उन्हें देखने के लिए दिल्ली के ‘एम्स’ अस्पताल और पंचशील एन्कलेव में मैं अक्सर जाया करता था। सुरेंद्र मोहन, जाॅर्ज और मेरे बच्चे- सभी सरदार पटेल स्कूल में पढ़ते थे। उसके सालाना अभिभावक समारोह में ये दोनों बड़े समाजवादी नेता साधारण अभिभावकों की तरह बैठे रहते थे। हमारे वरिष्ठ और प्रिय साथी जाॅर्ज फर्नांडिस को मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि!
न्यूनतम आमदनी की गारंटी का मुकाबला पंद्रह लाख से कतई नहीं
डॉ हिदायत अहमद खान
लोकसभा चुनाव 2019 का आगाज हो उससे पहले जहां मोदी सरकार तमाम गोटियां सही जगह पर फिट करने में लगी हुई है तो वहीं दूसरी तरफ प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस भी इस चुनाव में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखना चाहती है। इसलिए उसने उन तमाम विवादित मुद्दों को हाथों हाथ लिया, जिससे केंद्र सरकार के साथ ही साथ भाजपा को घेरा जा सकता है। एक के बाद एक मुद्दा उछाला जा रहा है और तथ्यों के साथ विचार के लिए जनता के बीच में छोड़ा जा रहा है। फिर चाहे वह नोटबंदी का मामला हो या जीएसटी को अधूरी तैयारी के साथ लागू करने का मामला रहा हो। खास वर्ग की महिलाओं को हक दिलवाने के नाम पर तलाक के साथ महिला आरक्षण का मामला हो या राफेल सौदा और चुनाव पूर्व किए गए वादों को पूरा नहीं करने का ही मामला क्यों न हो। कांग्रेस ने इन्हें प्रमुखता के साथ आगे बढ़ाया और कोशिश की कि इसे सही ढंग से जनता के बीच में ले जाया जाए, इसमें वो काफी हद तक सफल भी रही, जिस कारण पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने तीन राज्यों में शानदार सफलता हासिल की और भाजपा को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखला दिया। इससे उत्साहित कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अब अपना ध्यान पूरी तरह आमचुनाव में लगाते दिखे हैं। उनका हर फैसला कांग्रेसजनों को इस समय मास्टर स्ट्रोक की तरह नजर आ रहा है। कहना गलत नहीं होगा कि जब उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा ने गठबंधन करते हुए सीटों का बंटवारा कर लिया तो कांग्रेस ने ट्रंप कार्ड की तरह प्रियंका गांधी को महासचिव नियुक्त कर उत्तर प्रदेश पूर्व की कमान सौंप दी। इससे हुआ यह कि सपा-बसपा गठबंधन की चर्चा तो एक तरफ रखी रह गई, जबकि प्रियंका और उनकी चुनाव में मौजूदगी को लेकर सियासी गलियारे में सरगर्मियां बढ़ गईं। प्रियंका मामले को पार्टी के अधिकांश नेता और जमीनी कार्यकर्ता मांगी गई मुराद पूरी हो जाने के तौर पर ले रहे हैं, जबकि विरोधी खेमें में भगदड़ जैसी स्थिति बन गई है। सत्ता पक्ष और अन्य विरोधी इससे उबर पाते कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने छत्तीसगढ़ में किसान आभार रैली को संबोधित करते हुए एक और मास्टर स्ट्रोक खेला, जिससे भाजपा और केंद्र सरकार चारों खाने चित्त होती नजर आई है। दरअसल कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने ऐलान किया है कि ‘हम एक ऐसा ऐतिहासिक फैसला लेने जा रहे हैं, जो दुनिया की किसी भी सरकार ने अब तक नहीं लिया है। चुनाव 2019 जीतने के बाद देश के हर गरीब को कांग्रेस पार्टी की सरकार न्यूनतम आमदनी की गारंटी देगी। हर गरीब इंसान के बैंक खाते में न्यूनतम आमदनी रहेगी।’ वैसे तो राहुल के इस वादे ने सीधे तौर पर भाजपा के उस चुनावी वादे की याद ताजा करा दी है जिसमें कहा गया था कि विदेश में जमा काला धन वापस लाएंगे और प्रत्येक नागरिक के खाते में 15-15 लाख रुपए जमा कराए जाएंगे। इससे सभी के दिन अच्छे आने की उम्मीद भी जगाई गई थी, लेकिन देखने वालों ने देखा कि किस तरह से कालाधन और भ्रष्टाचार भाजपा के सरकार में आते ही एजेंडे से गायब हो गया। मोदी सरकार का कार्यकाल पूरा होने को आया है और कोई अच्छे दिनों का रास्ता दिखलाने को तैयार ही नहीं है। राहुल गांधी के ऐलान के बाद जहां राजनीतिक चर्चाओं का दौर शुरु हुआ वहीं सवाल भी खड़े किए जाने लगे। भाजपा नेता कह रहे हैं कि राहुल की घोषणा की शुरुआत कांग्रेस शासित मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान से की जानी चाहिए। वहीं बसपा सुप्रीमो मायावती सवाल खड़े करते हुए कह रही हैं कि राहुल की घोषणा कांग्रेस के गरीबी हटाओ वाले वादे के समान तो नहीं होगा। पूर्व मुख्यमंत्री मायावती पहले भी कांग्रेस और भाजपा को एक ही सिक्के के दो पहलू बता चुकी हैं और दोनों दलों को गरीब, दलित विरोधी करार दिया है। इसलिए उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ के नारे की याद भी दिलवाने का काम किया है। इस तरह के सवाल खड़े करने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि अब कांग्रेस की कमान वाकई युवाशक्ति के हाथों में है और अब बदलाव का दौर है, इसलिए कथनी और करनी में अंतर की बात करने वालों को कहने का अवसर नहीं मिले ऐसा कोई वादा या बयान तो कम से कम पार्टी अध्यक्ष नहीं ही देने वाले हैं। आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस पार्टी जिस विजन डॉक्यूमेंट पर काम करती दिख रही है उसमें न्यूनतम आय गारंटी योजना वाकई ऐतिहासिक है और यदि यह संभव हुआ तो दूसरे देश भी इसे अपनाते दिख जाएं तो हैरानी नहीं होगी। इसलिए पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस की घोषणापत्र समिति के अध्यक्ष पी. चिदंबरम कहते हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की घोषणा गरीबों के जीवन में महत्वपूर्ण मोड़ साबित होगी। इसी के साथ योजनाकार बता रहे हैं कि पिछले दो वर्षों में यूनिवर्सल बेसिक इनकम के सिद्धांत पर बड़े पैमाने पर विचार-विमर्श किया गया और अब समय आया है कि हमारे हालात और हमारी जरूरतों के मुताबिक इस सिद्धांत को अपनाया जाए और इसे गरीबों की भलाई के लिए लागू किया जाए। इसमें अगर कहीं कोई रुकावट है तो वो संसाधनों और क्रियांवयन करते हुए पूर्ण ईमानदारी की है। इस पर यदि काम किया जाए तो कोई अन्य ऐसा कारण नहीं होगा, जिससे गरीब की स्थिति बदलने में कोई रुकावट आ जाए। इसलिए कहा जा रहा है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की महत्वाकांक्षी योजनाओं का तीन राज्यों में क्रियांवयन बताता है कि ये खोखले वादे साबित होने वाले नहीं हैं। अंतत: न्यूनतम आमदनी को पंद्रह लाख जमा करने वाले वादे के मुकाबिल खड़ा नहीं किया जा सकता, क्योंकि एक का परिणाम सामने है और दूसरा योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़ने के लिए आतुर नजर आ रहा है।
तालिबानः भारत सोया हुआ क्यों ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी के बारे में समझौता लगभग संपन्न हो गया है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रतिनिधि जलमई खलीलजाद के बीच जिन शर्तों पर समझौता हुआ है, उन्हें अभी पूरी तरह उजागर नहीं किया गया है लेकिन भरोसेमंद स्त्रोतों से जो सूचनाएं मिली हैं, उनके आधार पर माना जा रहा है कि अगले डेढ़ साल में पश्चिमी राष्ट्रों के सैनिक पूरी तरह से अफगानिस्तान को खाली कर देंगे। बदले में तालिबान ने आश्वासन दिया है कि वे आतंकवादियों पर पक्की रोक लगा देंगे और वे एसआईएस और अल-कायदा जैसे संगठनों से कोई संबंध नहीं रखेंगे। लेकिन अभी तक यह पता नहीं चला है कि समझौते में वर्तमान अफगान सरकार की भूमिका क्या है ? अफगान राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से तालिबान कोई बात करेंगे या नहीं ? कतर में हफ्ते भर तालिबान से बात करने के बाद अब खलीलजाद दुबारा काबुल गए हैं लेकिन राष्ट्रपति अशरफ गनी ने राष्ट्र के नाम दिए अपने संदेश में एक बड़ा सवाल उठा दिया है। उन्होंने अमेरिका के शांति-प्रयासों की सराहना की है लेकिन मांग की है कि वे सोच-समझकर किए जाने चाहिए। गनी की बात ठीक है। जब अफगानिस्तान से रुसी फौजों की वापसी हुई थी तो क्या हुआ था ? प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव के आग्रह पर अपने मित्र डॉ. नजीबुल्लाह को लेने मैं हवाई अड्डे पहुंचा लेकिन वहीं मुझे बताया गया कि राष्ट्रपति नजीबुल्लाह की हत्या करके तालिबान ने उन्हें काबुल के चौराहे पर लटका दिया है। क्या वही दृश्य अब दुबारा दोहराया जाएगा ? अमेरिकी फौजों की वापसी होते ही अफगान सरकार और फौज के पांव उखड़ जाएंगे। देश में अराजकता का माहौल खड़ा हो जाएगा। उस समय पाकिस्तान की भूमिका क्या होगी, अभी कुछ पता नहीं। जुलाई में आयोजित राष्ट्रपति के चुनाव का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। कुल मिलाकर इस समझौते का अर्थ यह है कि अमेरिका किसी भी कीमत पर अफगानिस्तान से अपना पिंड छुड़ाना चाहता है। इस सारे परिदृश्य में भारत कहीं नहीं दिखाई पड़ रहा। भारत ने लगभग 20 हजार करोड़ रु. और दर्जनों लोगों की बलि चढ़ाई है, अफगानिस्तान की सहायता के लिए लेकिन हमारी सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी हुई है। उसे समझ ही नहीं पड़ रहा है कि वह क्या करे ? वह तालिबान से सीधे बात क्यों नहीं करती ? तालिबान लोग पाकिस्तान से सहायता जरुर लेते हैं लेकिन वे अत्यंत स्वाभिमानी और देशभक्त लोग हैं। यह बात मैं पिछले 50-55 साल के अपने अफगान-संपर्कों और अध्ययन के आधार पर कह रहा हूं। यदि भारत इस नाजुक मौके पर भी सोया रहा तो उसे आगे जाकर इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।
शांति की बात है तो फिर शांतिप्रिय देशों की अनदेखी क्यों
डॉ हिदायत अहमद खान
अफगानिस्तान में तालिबान की मौजूदगी और मजबूत पकड़ का ही परिणाम है कि अमेरिका ने अंतत: उससे बातचीत के रास्ते खोल दिए हैं। बताया जा रहा है कि दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच बातचीत का दौर प्रगति पर है। इस अमेरिकी चाल से भारत का असहज होना स्वभाविक है। युद्ध के बाद से ही अफगानिस्तान में भारत लगातार शांति बहाली और मानवीयता के आधार पर सहयोग करता चला आ रहा है। ऐसे में शांतिवार्ता के लिए भारत की अनदेखी बर्दाश्त कैसे की जा सकती है। इसलिए कहा जा रहा है कि यह वार्ता भारत के लिए नई असहज स्थिति उत्पन्न करने जैसी है। आखिर यह कैसे भुलाया जा सकता है कि अमेरिका ने ही अफगानिस्तान पर सैन्य कार्रवाई करते हुए तालिबान को मिट्टी में मिलाने जैसा काम किया था। इससे पहले वर्ष 1996 से लेकर साल 2001 तक अफगानिस्तान में तालिबान का ही शासन था, जिसकी कमान मुल्ला उमर के हाथ में थी। दरअसल मुल्ला उमर ने खुद को हेड ऑफ सुप्रीम काउंसिल घोषित कर रखा था, जो कि अमेरिका को किसी तरह बर्दाश्त नहीं हुआ और इल्जाम लगाया गया कि तालिबान अफगानिस्तान को पाषाण युग में ले जा रहा है। जबकि सभी जानते हैं कि तब तालिबान सरकार को पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने भी मान्यता दे रखी थी, बावजूद इसके सहयोगी देशों के सेना समेत अमेरिकी सेना ने तालिबान की ईंट से ईंट बजाने का काम किया। इसके साथ ही दुनिया को संदेश दिया गया कि नाटो आतंकवादियों के खिलाफ बड़ी कार्रवाई कर रहा है, जिसमें सभी को साथ देना चाहिए। इस युद्ध में पाकिस्तान की भूमिका पर भी सवाल उठाए गए थे। दरअसल हुआ यह था कि जब तालिबानी लड़ाके हारने लगे तो उन्होंने खुद को महफूज करने के लिए पाकिस्तान की सीमा का इस्तेमाल किया। युद्ध के दौरान पाकिस्तान में प्रवेश कर चुके तालिबानी लड़ाकों को इसलिए भी आसानी से पनाह मिल गई थी क्योंकि तालिबान का उदय ही उत्तरी पाकिस्तान में 1990 को हुआ था। तालिबानी समर्थकों की यहां भरमार रही और उन्हें किसी तरह की कोई परेशानी न हो इसका भी ध्यान रखा गया। आरोप तो यहां तक लगे कि पाकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ अमेरिकी सेना के साथ होते हुए भी साथ नहीं रहा, क्योंकि खुद पाकिस्तान में दुनियाभर के आतंकियों ने पनाह ले रखी है। इस बात को अब जाकर अमेरिका ने माना और सख्ती से पेश आते हुए आर्थिक पाबंदियां लगाने का काम कर रहा है। वहीं दूसरी तरफ भारत अपनी तटस्थतावादी विदेश नीति का पालन करते हुए न तो युद्ध में कूदा और न ही किसी के समर्थन में ही बयानवाजी की, लेकिन मानवता के आधार पर सदा ही अफगानिस्तान के साथ खड़ा रहा। शांति बहाली से लेकर पुनर्निर्माण के कार्यों में भारत ने कोई कमी नहीं रखी। बावजूद इसके पाकिस्तान सदा से ही अफगानिस्तान में भारत की मौजूदगी को नकारता रहा है। संभवत: यही वजह है कि अमेरिका भी भारत के अफगानिस्तान में किए जा रहे अहम कार्यों को नजरअंदाज करते हुए अपने स्तर पर तालिबान से शांतिवार्ता करने में जुटा हुआ है। वैसे भारतीय आर्मी चीफ जनरल रावत ने तालिबान से बातचीत को अहम तो बताया, लेकिन विदेश मंत्रालय की स्थिति अब तक स्पष्ट नहीं होने से संशय बरकरार है। इस पर कोई खुलकर कुछ नहीं कह रहा है, क्योंकि ऐसी स्थिति में अपने पूरे पत्ते खोले भी नहीं जाने चाहिए। फिर भी जरुरी है कि तालिबान पर खुद भारत अपने रुख की समीक्षा करे। यहां अमेरिका की ओर देखते रहने से काम बनने वाला नहीं है, क्योंकि वो अपना लाभ देखेगा, जैसा कि राष्ट्रपति बनते ही ट्रंप ने कहा था कि दुनिया में नंबर वन पर अमेरिका को रखकर ही कोई कार्य किया जाएगा। पहले अमेरिका उसके बाद कुछ और की नीति अपनाते हुए ही ट्रंप ने परमाणु संधि से अपने हाथ पीछे खींच लिए, पर्यावरण की भी चिंता छोड़ दी गई और अब एक तरफ जहां तालिबान से बातचीत के लिए आगे बढ़ा है तो दूसरी तरफ सीरिया को सबक सिखाने के बाद, ईरान पर पाबंदियां और अब वेनेजुएला पर शिकंजा कसने का उसने काम किया हुआ है। इससे अमेरिका के इरादे नासमझ बच्चे भी भांप सकते हैं, लेकिन कुछ लोग इसे रेतीला तूफान मान रहे हैं और शुतुरमुर्ग की तरह रेत के ढेर में सिर को छुपाकर तूफान के थमने का इंतजार कर रहे हैं। वो भूल रहे हैं कि यदि तालिबान से बातचीत होनी ही चाहिए थी तो रुस और चीन समेत अन्य देशों ने भी तो एजेंडा तैयार कर रखा था और खुली बातचीत का आमंत्रण दिया हुआ है। सूत्र बता रहे हैं अमेरिका की तालिबान से बातचीत प्रगति पथ पर अग्रसर है, लेकिन यह सिर्फ और सिर्फ सत्ता हस्तांतरण वाली ही होगी, जबकि मूल समस्या जहां की तहां बनी रह जाएगी। बताया जाता है कि अमेरिका और तालिबान के बातचीत आगे बढ़ने की प्रमुख वजह मुल्ला अब्दुल गनी बरदार हैं, जिन्हें मध्यस्थता के लिए नियुक्त किया गया। अब यहां बतलाते चलें कि मुल्ला बरादर कोई और नहीं बल्कि तालिबान मूवमेंट के पू्र्व उप प्रमुख हैं और उन्हें पाकिस्तान ने हिरासत में लिया हुआ था जिसे कतर के हस्तक्षेप के बाद उसे रिहा करना पड़ा था। तभी यह कह दिया गया था कि अफगानिस्तान में शांति प्रक्रिया को बल मिलेगा, लेकिन अमेरिका ने जिस तरह से बातचीत को आगे बढ़ाया है उससे पड़ासी देशों को आपत्ति होना लाजमी है। यह अलग बात है कि तालिबान और अमेरिका के बीच किसी मुद्दे पर सहमति अभी तक नहीं बनी है, लेकिन इस तरह लुका-छिपी से समस्या बढ़ेगी ही बढ़ेगी। अंतत: शांति की यदि बात हो रही है तो शांतिप्रिय देशों की अनदेखी भी नहीं होनी चाहिए।
ईएमएस/30 जनवरी 2019
मोदी के उपहारों की नीलामी
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मिले उपहारों की नीलामी हो रही है। यह खबर पढ़कर मुझे अच्छा लगा। इस नीलामी से मिलनेवाला पैसा ‘नमामि गंगे’ परियोजना में खर्च होगा। आज हमारे देश में नेताओं का जो हाल है, वह किसी से छिपा नहीं है। वे अपने स्वार्थ के लिए किसी भी चीज़ को नीलाम कर सकते हें। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को मिलनेवाले उपहारों के बारे में कायदा यह है कि वे सरकारी तोशाखाने में जमा कर दिए जाते हैं लेकिन मुझे कुछ राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों के बारे में व्यक्तिगत जानकारी है कि उनके घर के लोग इन उपहारों में से कई उपहार अपने पास छिपा लेते हैं लेकिन नरेंद्र मोदी अकेले ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जिनके साथ उनके परिवार का कोई भी सदस्य नहीं रहता। शायद वे ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं, जो अपने उपहारों की खुले-आम नीलामी करवा रहे हैं। यह कम खुशी की बात नहीं है कि इन उपहारों को खरीदने के लिए सैकड़ों लोग नेशनल गैलरी आॅफ माडर्न आर्ट में पहुंच रहे हैं। वे 100 रु. मूल्य की चीज के हजार रु. तक देने को सहर्ष तैयार हो रहे हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि उनका यह पैसा जनता की सेवा के काम में लगेगा। मैं तो कहता हूं कि नरेंद्र भाई को अपनी बंडियां और कुर्ते-पाजामे भी नीलामी पर लगा देने चाहिए। उनके पास तो इनके सैकड़ों जोड़े होंगे। तीन-चार महिने बाद वे किसी काम के नहीं रहेंगे। उनसे अभी तो करोड़ों रु. प्राप्त हो जाएंगे, जिनका सदुपयोग गरीबों के लिए हो जाएगा। उनकी इस पहल से करोड़ रुपए ही नहीं, करोड़ों लोगों की दुआएं और सराहना भी उन्हें मिलेगी। यह पहल देश के सभी नेताओं के लिए एक मिसाल बन जाएगी। राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों के पास भेंट में आई असंख्य पुस्तकों का भी ढेर लग जाता है। उनमें न तो उनकी कोई रुचि होती है और न ही उनको फुर्सत होती है कि वे उन्हें पढ़े। क्या ही अच्छा हो कि वे सारी पुस्तकें भी वे किसी अच्छे ग्रंथालय को भेंट कर दें। मैंने पिछले 65 साल में देश-विदेश से लाकर जमा की गई अपनी हजारों पुस्तकें हाल ही में कुछ संस्थाओं को भेंट कर दीं। इससे मुझे बड़ा संतोष मिला। अनेक दुर्लभ और कीमती ग्रंथ आगे आनेवाली पीढ़ियों के काम आएंगे। दूसरों का तो इससे लाभ होगा ही, उससे भी बड़ा अपना खुद का लाभ होगा। अपरिग्रह का आनंद मिलेगा। संसार में रहकर संन्यास के सुख की अनुभूति होगी।
CBI और आईटी- ईडी की कार्रवाई पर लोगों को नहीं रहा विश्वास
सनत कुमार जैन
सीबीआई द्वारा आईसीआईसीआई बैंक की पूर्व प्रमुख चंदा कोचर एवं अन्य आरोपियों के खिलाफ मामला दर्ज किए जाने के बाद, जिस तरह से अमेरिका में इलाज करा रहे, भारत सरकार के मंत्री अरुण जेटली ने प्रतिक्रिया व्यक्त की। कुछ घंटों के बाद ही जिस अधिकारी ने एफआईआर दर्ज की थी। उसका तुरंत ट्रांसफर किए जाने के बाद, सीबीआई और आयकर प्रवर्तन निदेशालय द्वारा की जा रही कार्यवाही की निष्पक्षता और स्वायता पर आम आदमियों का विश्वास पूरी तरह खत्म होता दिख रहा है।
पिछले कुछ माह में आयकर प्रवर्तन निदेशालय और सीबीआई द्वारा कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान कर्नाटक के विपक्षी नेताओं कि यहां छापे डालना, हरियाणा में हो रहे उपचुनाव के दौरान भूपेंद्र सिंह हुड्डा और रॉबर्ट वाड्रा के ठिकानों पर छापे की कार्यवाही, पूर्व केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम, कांग्रेस के दिग्गज नेता अहमद पटेल, अखिलेश यादव, मायावती, ममता बनर्जी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन और अन्य राजनेताओं और नौकरशाहों के ऊपर जो कार्रवाई सीबीआई और आयकर प्रवर्तन निदेशालय ने की है। उसकी विश्वसनीयता पर अब आम आदमी के मन में भी सवाल उठने लगे हैं। प्रियंका गांधी के राजनीति में सक्रिय होने के तुरंत बाद जिस तरह हुड्डा और उनके पति रॉबर्ट वाड्रा के ठिकानों पर छापे डाले गए। उससे अब विपक्षियों को नुकसान कम फायदा ज्यादा होता नजर आ रहा है।
सीबीआई के डायरेक्टर आलोक वर्मा और स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना के विवाद में जो तथ्य सुप्रीम कोर्ट में उभर कर सामने आए। उसने सीबीआई संस्था की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। सीबीआई द्वारा सरकार के इशारे पर कार्यवाही करना और नहीं करना जैसे मामले उजागर होने के बाद सीबीआई और आयकर प्रवर्तन निदेशालय की रही सही साख भी खत्म हो गई है। अमेरिका में इलाज करा रहे, अरुण जेटली के ट्वीट करने के बाद जिस तरह वित्त मंत्रालय के प्रभारी पीयूष गोयल और रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने रीट्वीट करके अरुण जेटली का समर्थन किया। 24 घंटे के अंदर ही चंदा कोचर के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने वाले सीबीआई के अधिकारी सुधांशु मिश्रा का तबादला, दिल्ली से झारखंड की रांची के आर्थिक अपराध शाखा में कर दिया गया। उसके बाद सारे देश में यह संदेश गया कि भ्रष्ट चंदा कोचर और अन्य आरोपियों को बचाने के लिए मोदी सरकार ने यह कार्रवाई की है। उल्लेखनीय है ,चंदा कोचर के यहां छापेमारी और एफआईआर को (इन्वेस्टिगेटिव एडवेंचरिज्म) मोदी सरकार के मंत्रियों द्वारा करार दिया गया। उसके बाद यह मानने में कोई कठिनाई भी नहीं है, कि जब सरकार ही सीबीआई और आयकर प्रवर्तन निदेशालय की कार्यवाही पर विश्वास नहीं करती है। तो आम जनता को उस पर कैसे विश्वास हो सकता है। इससे सीबीआई की स्वायत्तता की भी कोई बात नहीं रही।
उल्लेखनीय है मोदी सरकार के समय राजनीतिक विरोधियों के ऊपर सीबीआई और आयकर प्रवर्तन निदेशालय ने लगातार कार्यवाही की है। सीबीआई के निदेशक और स्पेशल निदेशक की लड़ाई में रॉ एजेंसी, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, उनके परिवार जनों को लेकर जिस तरह की बातें, सुप्रीम कोर्ट के सामने आई हैं, उससे स्पष्ट हुआ सीबीआई और आयकर प्रवर्तन निदेशालय अपने राजनीतिक आकाओं के इशारे पर किस तरह कार्रवाई करता है। यह सारे भारत के सामने आ गया है। सीबीआई और ईडी में भ्रष्टाचार और भ्रष्ट अधिकारियों का बोलबाला पिछले 4 वर्षों में बड़ी तेजी के साथ बढ़ा है। सीबीआई और सरकार के महत्वपूर्ण पदों पर पिछले वर्षों में गुजरात कैडर के अधिकारियों को जिस तरह पदस्थ किया गया है। उनसे मनमाना काम सरकार द्वारा कराया गया है उसके बाद अब सीबीआई और आयकर प्रवर्तन निदेशालय द्वारा जो कार्यवाही पिछले वर्षों में जिन लोगों के ऊपर की गई है। उनके प्रति आम लोगों में यह धारणा बनने लगी है, कि सरकार ने अपने राजनीतिक विरोधियों को अपराधिक प्रकरण में फंसाने के लिए राकेश अस्थाना, एके शर्मा और नागेश्वर राव जैसे अधिकारियों का उपयोग किया है।
आईसीआईसीआई की पूर्व प्रमुख चंद्रा कोचर, उनके पति दीपक कोचर, वीडियोकॉन समूह के मालिक डीएन धूत, चहेते बैंकर केवी कामथ इत्यादि पर कार्यवाही होते देख केंद्र सरकार के मंत्री अरुण जेटली ने अमेरिका में जो रौद्र रूप धारण किया, उसके बाद आनन-फानन में जांच अधिकारी को ट्रांसफर किया गया। कुछ इसी तरीके से राफेल मामले पर एफआईआर दर्ज होने की आशंका के चलते, आधी रात में सीबीआई के पूर्व डायरेक्टर आलोक वर्मा को हटाकर छुट्टी पर भेजा गया था। उससे सरकार और सीबीआई की साख खत्म हुई है।
पिछले साढे 4 सालों में सीबीआई और आयकर प्रवर्तन निदेशालय द्वारा जो भी कार्रवाई विपक्षियों पर सरकार द्वारा कराई गई है। सीबीआई में भ्रष्टाचार का खेल अधिकारियों ने खेला है। उसके बाद से लोगों के मन में जिन लोगों के खिलाफ कार्रवाई हुई है, उनके प्रति सहानुभूति पैदा होने लगी है। आम जनता के बीच यह संदेश पहुंच रहा है, कि सीबीआई और ईडी ने सरकार के इशारे पर कार्रवाई करते हुए, अपने विरोधियों को प्रताड़ित करने का काम किया है। सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट और आम आदमी के मन में जांच एजेंसी के रूप में सीबीआई को लेकर जो धारणा बनी हुई थी। वह पूरी तरह खत्म हो गई है। अब कोई सीबीआई जांच की मांग भी नहीं कर रहा है। सीबीआई जांच की मांग अब सत्तारूढ़ दल के लोग करने लगे हैं। मध्य प्रदेश के व्यापमं घोटाला में राजनेताओं और वरिष्ठ अधिकारियों को क्लीन चिट मिली है, वहीं छात्रों, परीक्षार्थियों एवं उनके परिवारजनों को आरोपी बनाकर हजारों लोगों की जिंदगी बर्बाद करने वाले मुख्य आरोपियों को बचाने का काम सीबीआई ने किया है। उसके बाद कई राज्य सरकारों ने अपने यहां सीबीआई पर बिना इजाजत प्रदेश में प्रवेश पर प्रतिबंध लगाकर, केंद्र सरकार और संघीय व्यवस्था के लिए एक प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने भी जिस तरह से सीबीआई के बारे में टिप्पणी की है। उसके बाद इन संस्थाओं द्वारा की गई कार्यवाही का, आम जनता के मन में सरकार की कार्यवाही का सकारात्मक असर पड़ेगा ,यह संभव नहीं है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी, कि सीबीआई और आयकर प्रवर्तन निदेशालय द्वारा जो कार्रवाई विपक्षियों पर की गई हैं। उससे उन लोगों के प्रति आम जनता की सहानुभूति पैदा होने लगी है। राजनीतिक तौर पर लोकसभा चुनाव के दौरान इसका असर देखने में मिल सकता है।
ये कैसे भारत-रत्न हैं ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
‘भारत-रत्न’ सम्मान को देश का सबसे ऊंचा सम्मान कहा जाता है लेकिन इस बार जिन तीन लोगों को यह सम्मान दिया गया है, उन्हें देकर ऐसा लगता है कि मोदी सरकार अपना अपमान करवा रही है। कई अखबारों और टीवी चैनलों ने इन सम्मानों के पीछे कई दुराशय खोज निकाले हैं। प्रणव मुखर्जी को इसलिए भारत-रत्न बनाया गया है कि प. बंगाल में ममता लहर को रोकना है। यह लहर अब बंगाल के बाहर भी फैलती नजर आ रही है। भूपेन हजारिका को इसलिए भारत-रत्न दिया गया है कि नागरिकता कानून के विरोध में असम में चल रही बगावत पर काबू पाना है और नानाजी देशमुख को मोदी सरकार ने इस आखरी वक्त पर इसलिए याद किया है कि अनुसूचित अत्याचार कानून और राम मंदिर पर नाराज चल रहे हिंदू संगठनों का गुस्सा उसे ठंडा करना है। मोदी-सरकार के भारत-रत्नों की यह चीर-फाड़ इतनी तर्कसंगत लग रही है कि हम चाहते हुए भी उसे रद्द नहीं कर पा रहे हैं। दूसरे शब्दों में भारत-रत्न जैसे सर्वोच्च सम्मान को भी यह सरकार अपना चुनावी हथकंडा बनाने से नहीं चूक रही है। लेकिन इसके लिए सरकार की निंदा क्यों की जाए ? सरकार बनाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद- जिसका भी प्रयोग करना पड़े करना ही होता है। सरकार कोई सम्मान और पुरस्कार दे और उसमें भेद-भाव न करे, अपने-पराए का भाव न रखे, अपने हित-अहित का ध्यान न रखे, यह कैसे हो सकता है ? इसीलिए उन सम्मानों और पुरस्कारों की हैसियत सिर्फ कागजी रह जाती है, जो सरकारों द्वारा दिए जाते हैं। यदि सरकारें शुद्ध योग्यता, गुण और श्रेष्ठता के आधार पर सम्मान देने लगे तो उनका सरकारपना ही खत्म हो जाएगा। इसका अर्थ यह नहीं कि सरकार सभी सम्मान मनमाने देती है। कुछ तो योग्य लोगों को भी देने ही पड़ते हैं लेकिन आश्चर्य होता है जबकि प्रणव मुखर्जी जैसे नौकरशाह किस्म के अ-नेता को आप भारत-रत्न बनाते हैं और डाॅ. राममनोहर लोहिया, चंद्रशेखर और नंबूदिरियाद जैसे विचारशील, जीवनदानी और तपस्वी नेता आपकी नजर से ओझल हो जाते हैं। नानाजी देशमुख विलक्षण व्यक्ति थे। उनसे मेरा घनिष्ट परिचय भी था लेकिन क्या उनके पहले गुरु गोलवलकरजी को भारत-रत्न दिया जाना ठीक नहीं होता ? स्वयं नानाजी होते तो वे भी यही कहते। दूसरे शब्दों में यह सरकार कोई भी निर्णय करते समय अपने दिमाग को इस्तेमाल करने से परहेज़ करती है।
चुनौतियों के मध्य प्रियंका का आगमन
रहीम खान
भारतीय राजनीति में वर्षों तक केन्द्र और राज्य की सत्ता पर अपना प्रभुत्व चलाने वाली कांग्रेस पार्टी इन दिनों राजनीतिक संक्रमण काल से गुजर रही है। इस विषमता से बाहर निकलने के लिए पार्टी हर वो जरूरी प्रयास और कदम उठा रही है जो किसी राजनीतिक दल को सत्ता के करीब ले जाते हैं। २०१४ लोकसभा चुनाव उसके बाद कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के निराशाजनक प्रदर्शन ने कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को हतोउत्साहित कर दिया था किंतु लगातार बुनियादी परिवर्तन करने का परिणाम है कि गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा को उसके ही मजबूत गढ़ में कड़ी चुनौती दिया। उसके बाद कर्नाटक में राजनीतिक परिस्थितियों को समझते हुए अहम को दरकिनार कर जेडीएस को मुख्यमंत्री पद देकर भाजपा के उम्मीदों पर पानी फेर दिया। फिर हाल ही में संपन्न ५ राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा से हिंदी भाषी क्षेत्र के उसके ३ मजबूत किले मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान पर जीत का परचम लहराकर भाजपा के माथे पर शिकन ला दिया।
कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी ने भी अपने कार्यप्रणाली में बड़ा बदलाव किया और उनकी आक्रमकता ने राजनीति के गलियारे में मोदी की लोकप्रियता को प्रभावित करने में सफलता अर्जित कर ली। भले ही भाजपा कुछ भी कहे परंतु केन्द्र की राजनीति में कांग्रेस एक बार फिर संभलते हुए नजर आ रही है। इस वर्ष के मध्य होने वाले लोकसभा चुनाव के पूर्व कांग्रेस को मिली सफलताओं ने पार्टी में नई उर्जा का संचार किया है एवं ऐसे सहयोगी दल जो कल तक कांग्रेस को गया-गुजरा समझ रहे थे उनको भी कांग्रेस के साथ खड़ा होने के लिए मजबूर कर दिया। उत्तरप्रदेश में भाजपा के लिए २०१४ के लोकसभा एवं २०१७ के विधानसभा चुनाव के प्रदर्शन को बनाए रखना इसलिए आसान नहीं है कि वर्तमान प्रदेश सरकार के मुख्यमंत्री का कार्यकाल केवल अनाप-शनाप बयानबाजी एवं दम तोड़ती प्रशासनिक व्यवस्था में उलझकर रह गया है।
केन्द्र की राजनीति का भविष्य लिखने वाले उत्तरप्रदेश में कांग्रेस की हालत बेहद खराब है। ८० में से मात्र २ सांसद एवं ४३० में से मात्र ७ विधायक उसके पास हैं। ऐसे राज्य में संगठन को खड़ा करके चुनाव में एक मजबूत ताकत बनना निश्चित रूप से कांग्रेस के लिए आसान कार्य नहीं है। प्रदेश के राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए सपा, बसपा गठबंधन ने कांग्रेस को दरकिनार कर दिया है। उस समय वहां पार्टी को एक ऐसे चेहरे की आवश्यकता थी जो जनता के बीच अपनी लोकप्रियता रखता है साथ ही राजनीतिक वातावरण को प्रभावित करने की क्षमता है। इन्हीं सब बांतों को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस पार्टी ने श्रीमती प्रियंका गांधी को सक्रिय राजनीति में आने के लिए मजबूर कर दिया। उनके लिए वहां पर कांग्रेस को रातोंरात शून्य से शिखर पर लाना आसान नहीं हैं। इसका प्रमुख कारण संगठन का बेहद कमजोर होना है। किंतु उत्तरप्रदेश में अगर कांग्र्रेस अपने प्रदर्शन में प्रियंका के आने के बाद १०-२० प्रतिशत भी सुधार कर लेती है तो देश की राजनीति में उसका वजन अपने आप बढ़ जाएगा। प्रियंका गांधी ने अनेक गंभीर राजनीतिक चुनौतियों के मध्य नेतृत्व करने का जोखिम लिया है।
उत्तरप्रदेश में प्रियंका के आने के बाद राजनीतिक परिस्थितियां कितनी बदलेंगी यह तो आने वाला चुनाव परिणाम ही बतायेगा। परंतु कांग्रेस संगठन के भीतर एक सशक्त और लोकप्रिय नेतृत्व के आने से पार्टी के कार्यकर्ताओं में जो उर्जा का संचार देखने मिल रहा है उस आधार पर यह कह सकते हंै कि उसके प्रदर्शन में सुधार होगा कितना होगा कहना मुश्किल है। हालाकि प्रियंका गांधी अपने भाई और माता के लिए केवल चुनाव प्रचार में भाग ही नहीं लेती बल्कि वह उसका संचालन भी सफलतापूर्वक करती रही है। वहां की राजनीतिक परिस्थितियों से वह पूरी तरह परिचित हैं। उनके पास समय कम और काम ज्यादा वाली स्थितियां निर्मित हैं। अगर सपा, बसपा कांग्रेस को साईड नहीं करती तो शायद प्रियंका सक्रिय राजनीति में नहीं उतरती पर जिस तरह से वहां कांग्रेस को दरकिनार करने की कोशिश की गई उन हालातों में कांग्रेस को ग्लैमर एवं जनता में प्रभाव रखने वाले चेहरे की आवश्यकता थी।
बहरहाल एक लंबे कश्मकश और चर्चाओं के बाद कांग्रेस के सक्रिय राजनीति में महासचिव के रूप में पदभार ग्रहण कर उत्तरप्रदेश में कांग्रेस को शून्य से शिखर की ओर ले जाने की जिम्मेदारी लेने वाली प्रियंका गांधी के आने के बाद राजनीति के गलियारे में चर्चाओं का एक नया अध्याय शुरू हुआ है। कांग्रेस के प्रमुख विपक्षी भाजपा भी टीका-टिप्पणी करने से अपने आप को रोक नहीं पा रही है। उस आधार पर यह जरूर कह सकते हैं कि चर्चाओं का ये केन्द्र कांग्रेस को बुरी हालत से कुछ हद तक अच्छी स्थिति में जरूर लाकर खड़ा करेगा। वहीं अगर स्टार प्रचारक के रूप में प्रियंका देश का भ्रमण करती हैं तो महिला वर्ग की मतदाताओं पर उनका प्रभाव अवश्य पड़ेगा जिसका लाभ कांग्रेस के लिए वरदान साबित हो सकता है। ये कहना बेमानी है कि कांग्रेस में परिवारवाद हावी है क्योंकि सभी राजनीतिक दलों में बड़े नेता या राजघराने के सदस्य किसी न किसी रूप में संगठन के बड़े पदों पर रहकर कार्य कर रहे हैं केवल कांग्रेस ही इसके लिए अपवाद नहीं है।
तुम मुझे खून दो ,मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा के प्रणेता नेता जी
डॉक्टर अरविन्द जैन
(23 जनवरी को जन्म दिवस पर विशेष) नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा में कटक के एक संपन्न बंगाली परिवार में हुआ था। बोस के पिता का नाम ‘जानकीनाथ बोस’ और माँ का नाम ‘प्रभावती’ था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वक़ील थे। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल मिलाकर 14 संतानें थी, जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। सुभाष चंद्र उनकी नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरदचंद्र से था।
नेताजी ने अपनी प्रारंभिक पढ़ाई कटक के रेवेंशॉव कॉलेजिएट स्कूल में हुई। तत्पश्चात् उनकी शिक्षा कलकत्ता के प्रेज़िडेंसी कॉलेज और स्कॉटिश चर्च कॉलेज से हुई, और बाद में भारतीय प्रशासनिक सेवा (इण्डियन सिविल सर्विस) की तैयारी के लिए उनके माता-पिता ने बोस को इंग्लैंड के केंब्रिज विश्वविद्यालय भेज दिया। अँग्रेज़ी शासन काल में भारतीयों के लिए सिविल सर्विस में जाना बहुत कठिन था किंतु उन्होंने सिविल सर्विस की परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया।
1921 में भारत में बढ़ती राजनीतिक गतिविधियों का समाचार पाकर बोस ने अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली और शीघ्र भारत लौट आए। सिविल सर्विस छोड़ने के बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जुड़ गए। सुभाष चंद्र बोस महात्मा गांधी के अहिंसा के विचारों से सहमत नहीं थे। वास्तव में महात्मा गांधी उदार दल का नेतृत्व करते थे, वहीं सुभाष चंद्र बोस जोशीले क्रांतिकारी दल के प्रिय थे। महात्मा गाँधी और सुभाष चंद्र बोस के विचार भिन्न-भिन्न थे लेकिन वे यह अच्छी तरह जानते थे कि महात्मा गाँधी और उनका मक़सद एक है, यानी देश की आज़ादी। सबसे पहले गाँधीजी को राष्ट्रपिता कह कर नेताजी ने ही संबोधित किया था।
1938 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष निर्वाचित होने के बाद उन्होंने राष्ट्रीय योजना आयोग का गठन किया। यह नीति गाँधीवादी आर्थिक विचारों के अनुकूल नहीं थी। 1939 में बोस पुन एक गाँधीवादी प्रतिद्वंदी को हराकर विजयी हुए। गांधी ने इसे अपनी हार के रुप में लिया। उनके अध्यक्ष चुने जाने पर गांधी जी ने कहा कि बोस की जीत मेरी हार है और ऐसा लगने लगा कि वह कांग्रेस वर्किंग कमिटी से त्यागपत्र दे देंगे। गाँधी जी के विरोध के चलते इस ‘विद्रोही अध्यक्ष’ ने त्यागपत्र देने की आवश्यकता महसूस की। गांधी के लगातार विरोध को देखते हुए उन्होंने स्वयं कांग्रेस छोड़ दी।
इस बीच दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। बोस का मानना था कि अंग्रेजों के दुश्मनों से मिलकर आज़ादी हासिल की जा सकती है। उनके विचारों के देखते हुए उन्हें ब्रिटिश सरकार ने कोलकाता में नज़रबंद कर लिया लेकिन वह अपने भतीजे शिशिर कुमार बोस की सहायता से वहां से भाग निकले। वह अफगानिस्तान और सोवियत संघ होते हुए जर्मनी जा पहुंचे।
सक्रिय राजनीति में आने से पहले नेताजी ने पूरी दुनिया का भ्रमण किया। वह 1933 से 36 तक यूरोप में रहे। यूरोप में यह दौर था हिटलर के नाजीवाद और मुसोलिनी के फासीवाद का। नाजीवाद और फासीवाद का निशाना इंग्लैंड था, जिसने पहले विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी पर एकतरफा समझौते थोपे थे। वे उसका बदला इंग्लैंड से लेना चाहते थे। भारत पर भी अँग्रेज़ों का कब्जा था और इंग्लैंड के खिलाफ लड़ाई में नेताजी को हिटलर और मुसोलिनी में भविष्य का मित्र दिखाई पड़ रहा था। दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। उनका मानना था कि स्वतंत्रता हासिल करने के लिए राजनीतिक गतिविधियों के साथ-साथ कूटनीतिक और सैन्य सहयोग की भी जरूरत पड़ती है।
सुभाष चंद्र बोस ने 1937 में अपनी सेक्रेटरी और ऑस्ट्रियन युवती एमिली से शादी की। उन दोनों की एक अनीता नाम की एक बेटी भी हुई जो वर्तमान में जर्मनी में सपरिवार रहती हैं। नेताजी हिटलर से मिले। उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत और देश की आजादी के लिए कई काम किए। उन्होंने 1943 में जर्मनी छोड़ दिया। वहां से वह जापान पहुंचे। जापान से वह सिंगापुर पहुंचे। जहां उन्होंने कैप्टन मोहन सिंह द्वारा स्थापित आज़ाद हिंद फ़ौज की कमान अपने हाथों में ले ली। उस वक्त रास बिहारी बोस आज़ाद हिंद फ़ौज के नेता थे। उन्होंने आज़ाद हिंद फ़ौज का पुनर्गठन किया। महिलाओं के लिए रानी झांसी रेजिमेंट का भी गठन किया जिसकी लक्ष्मी सहगल कैप्टन बनी।
‘नेताजी’ के नाम से प्रसिद्ध सुभाष चन्द्र ने सशक्त क्रान्ति द्वारा भारत को स्वतंत्र कराने के उद्देश्य से 21 अक्टूबर, 1943 को ‘आज़ाद हिन्द सरकार’ की स्थापना की तथा ‘आज़ाद हिन्द फ़ौज’ का गठन किया इस संगठन के प्रतीक चिह्न पर एक झंडे पर दहाड़ते हुए बाघ का चित्र बना होता था। नेताजी अपनी आजाद हिंद फौज के साथ 4 जुलाई 1944 को बर्मा पहुँचे। यहीं पर उन्होंने अपना प्रसिद्ध नारा, “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा” दिया।
18 अगस्त 1945 को टोक्यो (जापान) जाते समय ताइवान के पास नेताजी का एक हवाई दुर्घटना में निधन हुआ बताया जाता है, लेकिन उनका शव नहीं मिल पाया। नेताजी की मौत के कारणों पर आज भी विवाद बना हुआ है।
नेता जी का जज्बा
जब भारत स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत था और नेताजी आज़ाद हिंद फ़ौज के लिए सक्रिय थे तब आज़ाद हिंद फ़ौज में भरती होने आए सभी युवक-युवतियों को संबोधित करते हुए नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने कहा, “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा।”
हम अपना खून देने को तैयार हैं, सभा में बैठे हज़ारों लोग हामी भरते हुए प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर करने उमड़ पड़े।
नेताजी ने उन्हें रोकते हुए कहा, “इस प्रतिज्ञा-पत्र पर साधारण स्याही से हस्ताक्षर नहीं करने हैं। वही आगे बढ़े जिसकी रगो में सच्चा भारतीय खून बहता हो, जिन्हें अपने प्राणों का मोह न हो, और जो आज़ादी के लिए अपना सर्वस्व त्यागने को तैयार हो़ं।”
नेताजी की बात सुनकर सबसे पहले सत्रह भारतीय युवतियां आगे आईं और अपनी कमर पर लटकी छुरियां निकाल कर, झट से अपनी उंगलियों पर छुरियां चलाकर अपने रक्त से प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर करने लगीं। महिलाओं के लिए रानी झांसी रेजिमेंट का गठन किया गया जिसकी कैप्टन बनी लक्ष्मी सहगल।
सुभाष की सहृदयता
नेताजी से सिंगापुर की सार्वजनिक सभाओं में अनेक भाषण दिए। उसी समय की एक घटना है। भाषण देने के बाद नेताजी ने चंदे का अनुरोध किया। हज़ारों लोग चंदा देने के लिए आगे आए। नेताजी को चंदा देने के लिए एक लंबी पंक्ति बन गई। हर व्यक्ति अपने बारी अाने पर मंच पर जाता और नेताजी के चरणों में अपनी सामर्थ्यानुसार भेंट चढ़ाकर, चले जाता।
बहुत बड़ी-बड़ी रकमें भेंट की जा रही थी। सहसा, एक मज़दूर महिला अपना चंदा देने के लिए मंच पर चढ़ी। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे और तन ढ़कने को बदन पर पूरे कपड़े भी न थे। सभी हतप्रभ उसे देख रहे थे। उसने नेताजी को तीन रूपये भेंट करते हुए कहा,”मेरी यह भेंट स्वीकार कीजिए। मेरे पास जो कुछ भी है, वह आपको भेंट कर रही हूँ!”
नेताजी संकोच कर रहे थे। वे सोच रहे थे कि यदि उसकी सारी पूंजी स्वीकार कर लेंगे तो उसका क्या होगा! वे दुविधा में थे लेकिन स्वीकार न करेंगे तो उसके दिल पर क्या बितेगी! नेताजी की आँखों से आँसू नकलकर उनके गालों पर लुढ़क पड़े। सहसा, नेताजी ने हाथ आगे बढ़ा वह भेंट स्वीकार कर ली। नेताजी ने बाद में अपने साथियों का बताया,”मेरे लिए यह तीन रूपये करोड़पतियों के लाखों रूपयों से कहीं अधिक कीमती हैं।”
विपक्ष क्या करे: देवेगौड़ा
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कोलकाता में हुई विशाल जन-सभा के बारे में मैंने कल लिखा था। आज मैं महागठबंधन के बारे में लिखूंगा। देश की चार-पांच छोटी-बड़ी पार्टियों के अलावा वहां सभी का जमावड़ा था लेकिन क्या यह जमावड़ा किसी महागठबंधन में बदल सकता है ? ऐसे पांच-छह जमावड़े अभी देश में और भी होने हैं। इससे देश में नेतृत्व-परिवर्तन का माहौल तो खड़ा हो जाएगा लेकिन जैसा कि हमारे गांवों में एक कहावत है कि ‘काणी के ब्याह में सौ-सौ जोखिम’ हैं। यह महागठबंधन, महागड़बड़ बंधन भी सिद्ध हो सकता है। क्या यह संभव है कि 31 प्रतिशत वोट की मोदी सरकार को यह 70-75 प्रतिशत वोटों से गिरा देगा ? यह आसान नहीं हैं। कोलकाता में हुए नेताओं के भाषण काफी दमदार थे लेकिन सबसे काम की बात पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा ने की है। उन्होंने इस नए गठबंधन के मार्ग में आनेवाले रोड़ों के सवाल उठाए हैं। उनका पहला सवाल तो यह था कि जिन दलों के नेता कोलकाता में एक ही मंच पर जुट गए हैं, वे अलग-अलग प्रांतों में आपस में भिड़ने के लिए मजबूर हैं। जैसे दिल्ली में आप पार्टी और कांग्रेस और उप्र में सपा-बसपा और कांग्रेस, पं.बंगाल में कांग्रेस और तृणमूल तथा कश्मीर में भी यही हाल है। ओडिशा की अपनी अलग पटरी है और केरल की भी। कर्नाटक मेें भी कौन कितनी सीट लेगा, कुछ पता नहीं। देवेगौड़ाजी का कहना है कि इन अन्तर्विरोधों का समाधान पहले होना चाहिए। इस गठबंधन को कहीं सीटों का यह बंटवारा ही न ले बैठे। दूसरी बात उन्होंने कही कि मानो आपने मोदी को हटा दिया लेकिन आप उसके बाद करेंगे क्या ? क्या आप भी मोदी की तरह जुमलेबाजी करके लोगों को वायदों की फिसलपट्टी पर चढ़ा देंगे ? आप एक ठोस घोषणा-पत्र क्यों नहीं तैयार करते ? जिसके आधार पर लोगों की सच्ची सेवा हो सके। तीसरा बात उन्होंने सबसे महत्वपूर्ण कही कि भाजपा के हर उम्मीदवार के विरुद्ध विपक्ष का सिर्फ एक ही उम्मीदवार होना चाहिए। यदि ऐसा हो जाए तो आज तो कोई लहर नहीं है। 2014 की कांग्रेस-विरोधी लहर में यदि मोदी को सिर्फ 31 प्रतिशत वोट मिले थे तो उनकी संख्या अब तो आधी तक घट सकती है। याने भाजपा को 100 सीटें भी मिल जाएं तो गनीमत है। आज भारत की राजनीति से सिद्धांत और विचारधारा का पलायन हो चुका है। सत्ता ही सत्य है, बाकी सब मिथ्या है। सत्ता से सेवा और सेवा से सत्ता ली जाए तो भी कुछ बुरा नहीं है। यही बात देवगौड़ाजी ने कही है।
धूर्त्त संत और निर्भीक पत्रकार
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हरयाणा के पत्रकार रामचंद्र छत्रपति के हत्यारे तथाकथित संत या संतों के कलंक गुरमीत राम रहीम और उसके तीन चेलों को उम्रकैद की सजा हुई है। इस फैसले का सारे देश में स्वागत होगा। 16 साल बाद यह फैसला आया, लेकिन सही आया, बड़े संतोष का विषय है। स्वर्गीय रामचंद्र छत्रपति एक अत्यंत निर्भीक और निष्पक्ष पत्रकार थे। वे पत्रकार तो थे ही, मूलतः वे समाजसेवी थे। वे हमारे साथी थे। वे स्वामी अग्निवेशजी और मेरे साथ समाज-सुधार के आंदोलनों में जुटे रहते थे। वे आर्यसमाज द्वारा चलाए गए अभियानों में अग्रणी भूमिका निभाते थे। वे सार्वदेशिक आर्य युवक परिषद के प्रधान थे। जब डेरा सच्चा सौदा के सरगना गुरमीत ने ‘सच कहूं’ पत्र निकाला तो रामचंद्र ने ‘पूरा सच’ नाम का जवाबी पत्र निकाला। उन्हें धमकियां मिलती रहती थीं। उस पत्र के प्रकाशन से उन्हें कोई खास आर्थिक लाभ भी नहीं होता था लेकिन उन्होंने आर्यसमाज के संस्थापक महान संन्यासी स्वामी दयानंद सरस्वती से सीखा था कि सत्य की रक्षा के लिए मृत्यु का वरण करना हो तो उसके लिए भी तैयार रहना चाहिए। वही हुआ। उनकी हत्या कर दी गई। बिल्कुल वैसा ही साहस एक अन्य आर्यसमाजी चौधरी कर्मवीर ने किया है। उन्होंने ‘संत’ आसाराम की पोल खोल दी है। उनकी बेटी के साथ हुए दुराचार का भांडाफोड़ करके उन्होंने अपनी जान खतरे में डाल रखी है। राम रहीम और आसाराम के कांड में दर्जनों लोगों की हत्या हुई है लेकिन फिर भी इन दोनों ‘संतों’ को कोई बचा नहीं पाया है। आजकल साधुगीरी बहुत बड़ा धंधा बन गया है। हमारे नेता, जो वोट और नोट के गुलाम होते हैं, वे जा-जाकर इन पाखंडी संतों और साधुओं के चरणों में मत्था टेकते हैं। ये साधु इन नेताओं को उल्लू बनाते हैं और ये नेता भी उन्हें उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। मैं अपने लाखों पाठक-मित्रों से कहता हूं कि आप इस उल्लूगीरी से सावधान रहा कीजिए। किसी भी संत और नेता को भुगते बिना उस पर कभी विश्वास मत कीजिए। जहां तक स्वर्गीय रामचंद्र छत्रपति का सवाल है, उन्हें निर्भीक पत्रकारिता का राष्ट्रीय सम्मान मिलना चाहिए। उनके नाम पर हरयाणा सरकार को बड़ा पुरस्कार स्थापित करना चाहिए।
गज़लों की दुनिया के बादशाह- सुरेन्द्र चतुर्वेदी
नईम कुरेशी
अजमेर राजस्थान से वास्ता रखने वाले सुरेन्द्र चतुर्वेदी ने 1974 से गज़लों की दुनिया में आगाज़ किया और देशभर में शोहरत के बड़े-बड़े खम्बे गाढ़ दिये। उन्होंने दर्द-वे-अंदाज, सलीब पर टंगा सूरज उपन्यास, वक्त के खिलाफ, कभी नही सूखता सागर, अंदाजे बयां और गज़ल आसमां मेरा भी, अंजाम खुदा जाने जैसे दर्जन भर से भी ज्यादा किताबें आवाम को दीं और मकबूलियत हासिल की।
मीरा के सूबे से वास्ता
मीराबाई के सूबे में रहने वाले सुरेन्द्र चतुर्वेदी गज़लों के अलावा उपन्यासों में भी खोये रहे। उन्होंने वेदमंत्रों का काव्यानुवाद भी कई किये। पुलिस और मानव व्यवहार जैसे संवेदनशील विषय पर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कर आम जनता में व शासन प्रशासन में पुलिस के कारनामों पर भी आयना दिखाने का साहस दिखाया। उनका लेखन सूफियाना रहा है। वो मंचों पर गज़लों के जादूगर के तौर पर अजमेर, जयपुर से लेकर मुम्बई तक शोहरत पा चुके हैं। वो मशहूर शायर हैं देश के।
सुरेन्द्र चतुर्वेदी से 30 साल से मेरी जान पहचान रही है। मानवता सद्व्यवहार उनमें कूट कूटकर भरा है। गज़लों की दुनिया के इस बादशाह को अमर गज़ल गायक जगजीत सिंह के लम्बे सानिध्य में रहने व फिल्मी गीतकार रविन्द्र जैन का भी सालों स्नेह मिलता रहा है। उन्होंने कोई 7 फिल्मों में गजलें व गाने भी लिखे थे। अनवर फिल्म में उनका गाना- “मौला मेरे मौला मेरे” काफी मकबूल रहा था।
सूफियाना अंदाज के शायर
सूफियाना अंदाज के शायर कवि व उपन्यासकार सुरेन्द्र को भारत के राष्ट्रपति रहे शंकरदयाल शर्मा से लेकर प्रतिभा पाटिल तक तमाम एज़ाज दे चुकी हैं व राजस्थान सरकार भी दर्जनों ईनामों से नवाज चुकी है। राजस्थान साहित्य अकादमी उन्हें विशिष्ट साहित्यकार सम्मान 10 साल पहले दे चुकी है। सुरेश 20 सालों तक पत्रकारिता से भी जुड़े रहकर सामाजिक न्याय का पक्ष लगातार मजबूत करते रहे थे। उन्हें पुलिस व प्रशासन ने कई बार परेशान करने का भी काफी प्रयास किया। सुरेन्द्र ने 10 सालों तक मुम्बई में रहकर भी अच्छी गज़लें फिल्मों में जोड़ने का सफल प्रयास किया। गज़ल दुआ हो जाती है, कुछ इसलिये भी हर कोई बेगाना सूफी, मेरे अंदर कई समंदर, अंधी गली है बंद मकान आदि नाम से गज़लों के दीवान लिखकर अजमेर व राजस्थान में काफी नये-नये अंदाज में गज़ल व गीतों को आम जनता में लोकप्रिय बनाने का अभियान चला रखा है। गांव कस्बों व शहरों पर उनका चन्द शेर देखें-
शातिर शहर के आगे है बेजुबान कस्बा
दावा है फिर भी देगा एक दिन बयान कस्बा
यूँ तो अपना भी चमन बेखौफ था पर क्या करें
घुस गये कुछ नाग घर में रातरानी देखकर
अजमेर दौरे के दौरान सुरेन्द्र ने मुझे (1990-91) में एक गज़ल की किताब भेंट की थी- “वक्त के खिलाफ” उसकी चन्द शेर भी गौर फर्मायें-
दोस्तों मैं जिस किसी दिन सिर फिरा हो जाऊँगा
नाम पर इंसानियत के मकबरा हो जाऊँगा
अन्नदाता किसानों पर उनका शेर भी काबिले तारीफ है देखें-
अनदाता! अब न्याय-धरम का बचा यहां रखवाला कौन?
ऊपर वाला जब रूठा हो देगा हमें निवाला कौन?
दोस्तों के नाम उनकी चन्द लाईनें-
मुझे-ऐ-दोस्त जाकर शहर में अपना पता लिखना
ये तुमने गांव क्यों छोड़ा हुई थीक्या खता लिखना।
नर्सिंग होम्स में सुधार! कितने आए और कितने गए
डॉक्टर अरविन्द जैन
जब से मध्य प्रदेश में कमलनाथ जी की मनपसंद सरकार आयी हैं तब से सरकार में नियुक्त मंत्री महोदय अपने अपने विभाग की जानकारी ले रहे हैं और विभाग की गतिविधियों को समझ रहे हैं और कुछ तो समझ गए हैं। वैसे अवलोकन और निरीक्षण में बहुत अंतर होता हैं। आजकल अवलोकन न करके निरीक्षण किया जाता हैं और निरीक्षणकर्ता को निरीक्षक कहते हैं और जिसका काम गलतियां निकालना होता हैं। निरीक्षक अच्छाई नहीं देखता ,उसकी नजर गलतियों पर पड़ती हैं जिससे सामने वाला दीन होकर विनयी होने लगता हैं। कारण सरकारी तंत्र में तो गलतियां होना स्वाभाविक हैं और गलतियां निरीक्षक की निगाह पर होती हैं।
जैसे नगरीय मंत्री महोदय द्वारा बी आर टी एस और स्मार्ट सिटी पर अपनी पैनी नज़र रखकर कार्यवाही करने के निर्देश दिए। वैसे सभी विभाग के मंत्रियों ने अपने अपने क्षेत्रों में जा जाकर वहां पर निरीक्षण किया और विधायकों ने भी निरीक्षण किया वे पहले पद पर नहीं थे तो अवलोकन करते थे। ये अंतर होता हैं पद और पद रहित होने पर ,नजरिया बदल जाता हैं जैसे कोई कुंवारा लड़का जब तक सगाई नहीं होती तब तक उच्शृंखल होता हैं और जैसे ही सगाई होती हैं और वह गंभीर होकर अपनी मंगेतर के प्रति चिंतित होने लगता हैं और वरमाला और भांवर के बाद वह पति जैसा बनकर गंभीर होता हैं चाहे उसने सुहागरात मनाई हो या न हो और वह शादीशुदा कहलाने लगता हैं।
प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री महोदय ने यह आदेशित किया हैं की भोपाल शहर में पहले नंबर नर्सिंग होम्स जो अपने मानकों के हिसाब से नहीं चल रहे हैं उन पर कार्यवाही होगी। जिनके पास कुशल अकुशल स्टाफ ,नर्सिंग होम्स का रजिस्ट्रेशन ,पैरामेडिकल स्टाफ ,आर्थो,लैब टेक्नीशियन का पंजीयन ,राज्य शासन द्वारा जारी प्रमाण पत्र ,कार्यरत डॉक्टर और सेट अप ,बायोमेडिकल वेस्ट का निष्पादन की जाँच कर कार्यवाही की जा सकेगी। इसके पहले भी पूर्ववर्ती मनपसंद सरकार के जमाने में भी कई बार कार्यवाही की गयी या चेतावनी दी गयी पर कार्यवाही न होकर जलेबी शीरा पी गयी या जाती हैं।
इन भौतिक परीक्षण में आपको मानकों के हिसाब से संभवतः एक या दो प्रतिशत का पालन मिले अन्यथा नकोई कुशल कर्मचारी और न स्थान। सबसे पहले जो रिहाइशी इलाकों में जहाँ पर प्रदुषण के कारण संक्रमण फैलने की संभावना होती हैं इसके अलावा नर्सिंग होम्स के द्वारा अंतहीन इलाज में पैसा वसूला जाता हैं उसके लिए विभाग और मंत्री को किसी मरीज़ को भेजकर उसकी स्थिति देखना चाहिए। मरीज़ को भर्ती के समय से ही शोषण शुरू हो जाता हैं। रूम रेंट ,के अलावा दिन भर जितने डॉक्टर देखने आते हैं उतने बार फीस लेते हैं ,हर रोज मरीज़ के रोग के हिसाब उसकी जांच होना और जल्दी से जल्दी आराम के वास्ते महंगी दवा लिखना और कभी कभी सामान्य रोग का इलाज़ लाखो रूपया होना सामान्य बात हैं। इस पर विशेष निगरानी की जरुरत हैं। नर्सिंग होम्स के मालिक करोड़पति होने से और सामाजिक राजनैतिक पहुँच होने से किसी प्रकार की जाँच या निरिक्षण से अप्रभावित रहते हैं और उनके यहाँ जाना यानी चक्रव्यूह में घिरने जैसा होता हैं। इतना अधिक धन का शोषण होता हैं इस पर कोई नियम लागू हैं या नहीं।
जितने भी नर्सिंग होम्स बने हैं वे मात्र मरीज़ के खून के शोषण से बने हैं। और इसके अलावा कोई चारा नहीं हैं। सरकारी अस्पताल में व्यवस्थाएं इतनी जटिल होती हैं की वहां थोड़ा भी सम्पन्न वहां नहीं जाना चाहता। वहां पर भी बिना फीस के भी कोई काम नहीं होता और वहां की तीमारदारी और भी कठिन हैं। वहां कोई भी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता। वरिष्ठतम को समय नहीं और अन्य जो होते हैं उनको कोई अधिकार नहीं। सामान्य सुविधाएँ नहीं मिलती। न वार्ड बॉय ,नर्स और अन्य मौलिक सुविधाएं अपर्याप्तत हैं इसके कारण लोग नर्सिंग होम्स जाते हैं। कुल मिलाकर गरीब की मौत बीमार होने में हैं और इलाज़ कराने में भी हैं।
इसका मुख्य कारण चिकित्सा क्षेत्र में धन की बाहुलता और नैतिकता का ह्रास। आजकल कोई भी काम बिना पैसों के नहीं होता उसका मुख्य कारण करोड़ों रुपये की आधुनिकतम उपकरण मशीनों का होना और पढाई में करोड़ों रुपये खरच करना तो उसकी वसूली मरीज़ों से ही होगी। इस कारण वसूली बहुत बेरहमी से की जाती हैं। .
और मजेदार बात नए नए मेडिकल कॉलेज खुल रहे हैं। पुरानों की मान्यताये पहले से खतरे में हैं और नए नए खुल रहे हैं। चिकित्सकों का अध्ययन व्यापम काण्ड के कारण संदिग्ध हैं। पदों की पूर्ती का अभाव और जो कार्यरत हैं उन्हें अपनी प्राइवेट प्रैक्टिस से समय नहीं हैं। कारण जब एक बार शेर नरभक्षी बन जाता हैं तब वह घास फूस नहीं पसंद करता हैं। अर्थ के कारण चिकित्सक को यमराज का बड़ा भाई कहते हैं कारण यमराज मात्र प्राण लेता हैं और डॉक्टर प्राण के साथ पैसा लेता हैं।
मंत्री महोदय का प्रयास सराहनीय हैं पर यह रोग असाध्य हैं जिसका इलाज़ लाइलाज हैं। मूल कारण को बिना जाने इलाज़ नहीं करना चाहिए। यह बहुत गंभीर समस्या हैं और इसका इलाज़ वर्षों से चल रहा हैं और कितने आये और आकर चले गए पर रोग वही का वही हैं। यह समस्या इतनी भयावह होती हैं की कइयों के घर,गहने तक बिक जाते हैं और अंत में असफलता भी हाथ लगती हैं। मंत्री की सद्भावना बहुत अच्छी हैं और इसके लिए चिकित्सकों को अपनी मानसिकता बदलनी चाहिए। माना धन के बिना कुछ नहीं होता पर अंत में धन नहीं जाता साथ में जाती हैं नेक नियति। इसीलिए थोड़ी मानवीयता का ध्यान रखकर चिकित्सा कर्म करो इसे धर्म मनो ,कारण आप ईश्वर का दूसरा रूप होते हैं। कभी कभी इतिहास की पुनरावृत्ति होती हैं। अधिक धन कामने के चक्कर में औलादें बिगड़ जाती हैं या समय न देने पर अन्य मजा लेते हैं। पारिवारिक वातावरण तनाव ग्रस्त होता हैं और डॉक्टर आजकल जलन रोग से ग्रसित होते हैं। ईर्ष्या भाव के कारण और अहंवाद के होने से अन्यों को त्रिस्क्रत करते हैं और होते हैं।
सूफी परंपरा का ध्वजावाहक:राम दरबार, चंडीगढ़
निर्मल रानी
(सर्वधर्म समागम व उर्स पर विशेष) भारतवर्ष दुनिया के उन देशों में सर्वप्रमुख है जहां विभिन्न धर्मों, आस्थाओं तथा विश्वासों के लोग रहते हैं तथा अपने-अपने रीति-रिवाजों तथा अपनी धार्मिक मान्यताओं व परंपराओं का अनुसरण करते हैं। गोया हिंदू यदि मंदिर में भगवान की पूजा करता है तो मुसलमान मस्जिद को खुदा का घर समझकर वहां नमाज़ पढऩे में पुण्य मिलने की कामना करता है। इसी प्रकार सिख समुदाय गुरुद्वारों में गुरू ग्रंथ साहब के समक्ष नतमस्तक होता है तो ईसाई समाज चर्च में प्रार्थना कर अपने प्रभु को याद करता है। गोया प्रत्येक धर्म का धर्मावलंबी अपने-अपने धार्मिक स्थलों की सीमाओं में रहकर ही अपने ईश को याद करने या पुण्य अर्जित करने का प्रयास करता है। इसमें भी कोई शक नहीं कि सभी धर्मों से संबंधित धर्मग्रंथ अथवा महापुरुष मानव जाति को सद्मार्ग पर चलने तथा मानवता का कल्याण करने का संदेश देते हैं। सभी धर्म इंसानों में सद्भाव, भाईचारा व एकता का संदेश देते हैं। सभी धर्म बुराईयों व अत्याचार, झूठ आदि के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा देते हैं। ऐसे में एक सवाल यह ज़रूर उठता है कि जब सभी धर्मों के धर्मग्रंथ अथवा महापुरुष लगभग एक जैसे ही संदेश देते हैं फिर आखिर सब के धर्मस्थान अलग-अलग क्यों हैं? क्यों मंदिर में नमाज़ नहीं पढ़ी जा सकती या मस्जिद में आरती नहीं की जा सकती? क्यों गुरुद्वारे में ईसाई बाईबल की प्रार्थना नहीं कर सकता तो क्यों चर्च में शब्द कीर्तन नहीं हो सकता? जब सारे ही धार्मिक संसाधन ईश्वर को याद करने के लिए ही हैं फिर आखिर उसे याद करने या उसके समक्ष नतमस्तक होने के लिए अलग-अलग धर्म या अलग-अलग नामों के धर्मस्थानों की ज़रूरत क्या है?
इसका जवाब हमें सूफी परंपरा के वाहक फकीरों व संतों से बड़ी आसानी से मिल जाएगा। नानक हों या कबीर, ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती हों या शिरडी वाले साईं बाबा, हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया हों या अमीर ख़ुसरो या फिर गुरू नानक देव के सहयोगी बाला, मरदाना या फिर स्वर्ण मंदिर की बुनियाद रखने वाले मियां मीर अथवा इन जैसे और अनेक महान संत, इन सभी ने इंसान को हिंदू-मुसलामन, सिख अथवा इसाई की नज़रों से देखने के बजाए केवल इंसान के रूप में देखने का संदेश दिया है। यही वह परंपरा था जिसने गुरू नानक देव के शिष्यों में हिंदू व मुसलमान का भेद नहीं रखा। इसी परंपरा ने स्वामी रामानंदाचार्य को कबीर को अपना शिष्य बनाने से नहीं रोका। यही वह परंपरा थी जिसने रहीम-रसखान व मलिक मोहम्मद जायसी जैसे अनेक ऐसे मुस्लिम महाकवि प्रदान किए जिन्होंने सारा जीवन हिंदू धर्म के आराध्य देवी-देवताओं का गुणगान किया। इसी परंपरा ने शिरडी वाले साईं बाबा को इतना लोकप्रिय व स्वीकार्य बना दिया कि आज अनेक रूढ़ीवादी धर्माधिकारियों को अपनी सत्ता पर खतरा मंडराता दिखाई देता है। इस प्रकार के और न जाने कितने उदाहरण ऐसे हैं जो सूफी परंपरा तथा सर्वधर्म संभाव का प्रतिनिधित्व करते हैं।
इसी सूफी परंपरा के ध्वजावाहक स्थानों में एक प्रमुख स्थान चंडीगढ़ स्थित राम दरबार भी है। पाकिस्तान के महान सूफी संत स्वर्गीय मोहम्मद शाह द्वारा राम दरबार में फकीरी परंपरा की शुरुआत करते हुए अपने शागिर्दों माता राम बाई अम्मी हुज़ूर तथा बाबा सख़ी चंद को सर्वधर्म संभाव की इस महान परंपरा अर्थात् सूफी मत को आगे बढ़ाने की जि़म्मेदारी सौंपी गई। यह स्थान पूरी श्रद्धा व आस्था के साथ सूफी परंपरा को आगे बढ़ा रहा है। राम दरबार स्थित माता रामबाई चेरिटेबल ट्रस्ट दरअसल इस समय वह काम कर रहा है जो देश की सरकारों तथा देश के जि़म्मेदार लोगों को करना चाहिए। राम दरबार धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक तथा जातीय आधार पर भेदभाव समाप्त करने, सबको एक साथ मिलकर बैठने, धार्मिक व जातिवादी वैमनस्य समाप्त कर सामूहिक रूप से अपने-अपने ईष्ट अथवा पीर-ो-मुर्शिद का स्मरण करने की प्रेरणा देता है। आज राम दरबार की गद्दी पर बेशक अम्मी हुज़ूर व सखी चंद जी मौजूद नहीं हैं परंतु उनके वारिस तथा इस स्थान के गद्दीनशीन शहज़ादा पप्पू सरकार अपनी कारगुज़ारियों से राम दरबार की परंपराओं को कायम रखने में अपनी ओर से कोई कसर बाकी नहीं रखना चाहते हैं। राम दरबार देश के उन स्थानों में से एक प्रमुख है जहां सभी धर्मों के लोग न केवल आते हैं बल्कि अपनी-अपनी धार्मिक परंपराओं का भी अनुसरण करते हैं।
राम दरबार के वारिस व गद्दीनशीन शहज़ादा पप्पू सरकार दरबार में अपने गुरुजनों माता रामबाई अम्मी हुज़ूर व बाबा सखी चंद जी महाराज की स्मृति में एक ऐसा विशाल मकबरा तैयार करवा रहे हैं जो केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ की एक ऐतिहासिक व आकर्षक इमारत साबित होगी। गत् दस वर्षों से सर्वधर्म संभाव के प्रतीक इस विशाल भवन का निर्माण चल रहा है। आशा है कि बीस जनवरी 2020 को इस विशाल भवन का विधिवत् मुहूर्त भी किया जाएगा। राम दरबार के इसी प्रांगण में प्रत्येक वर्ष अपने पूर्वज गुरूजनों के नाम पर एक सप्ताह का सर्वधर्म समागम एवं उर्स का आयोजन 14 जनवरी से 20 जनवरी के मध्य किया जाता है। इस साप्ताहिक कार्यक्रम में श्रीमद् भागवद का पाठ भी होता है और श्री गुरू ग्रंथ साहब का अखंड पाठ भी किया जाता है। यहां भजन-कीर्तन भी होता है और राम चरित मानस का अखंड पाठ भी होता है। यहां कव्वालियां भी होती हैं और नात तथा कसीदे आदि भी पढ़े जाते हैं। मेंहदी की रस्म व सूफी परंपरा का ध्वजारोहण भी होता है। गोया इस आयोजन में व इस स्थान पर आने वाला कोई भी व्यक्ति यहां हिंदू-मुस्लिम, सिख-ईसाई आदि की संकुचित भावनाओं से नहीं बल्कि मानवता की भावनाओं से आता है तथा इन आयोजनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेता है।
राम दरबार चंडीगढ़ की इस पवित्र व महान गद्दी से फिल्म जगत के लोगों का बहुत गहरा नाता रहा है। आज भी इस स्थान पर फिल्म अभिनेता प्राण द्वारा अम्मी हुज़ूर को भेंट की गई फि़एट कार मौजूद है। यह स्थान मुसीबतज़दा, परेशान व दु:खी लोगों को राहत पहुंचाने वाले स्थान के रूप में जाना जाता है। यहां के आशीर्वाद से अनेकानेक लोगों को स्वास्थय लाभ मिला, संतान रत्न की प्राप्ति हुई तथा नौकरियां लगीं व कारोबार फूले-फले। यहां के गद्दीनशीन शहज़ादा पप्पू सरकार जिन्हें केवल उनके गुरूजनों अर्थात् अम्मी हुज़ूर व सखी चंद जी द्वारा ही अपना शिष्य नहीं बनाया गया बल्कि स्वयं महान सूफी संत मोहम्मद शाह जी ने भी शहज़ादा पप्पू सरकार को राम दरबार का असली वारिस व गद्दीनशीन घोषित किया। निश्चित रूप से आज पप्पू सरकार के आशीर्वाद व उनकी दुआओं में भी एक सच्चे फकीर का रूप दिखाई देता है।
शहज़ादा पप्पू सरकार अप्रवासी भारतीय हैं। इनके कई व्यवसाय अमेरिका में संचालित हो रहे हैं। चूंकि सरकार को राम दरबार का वारिस व गद्दीनशीन बचपन में ही बना दिया गया था इसलिए वह अपने गुरूजनों की इच्छाओं का पालन करते हुए इस स्थान पर न केवल अपनी निजी कमाई के करोड़ों रूपये खर्च कर रहे हैं बल्कि अमेरिका में अपना कामकाज छोड़ कर इस स्थान के निर्माण व यहां की परंपराओं व रीति-रिवाजों की रक्षा करने व उन्हें आगे बढ़ाने के लिए काफी समय चंडीगढ़ में भी बिताते हैं। देश में शायद ही किसी भी गुरू का कोई शिष्य ऐसा हो जो अपनी निजी कमाई के पैसों से अपने गुरू की परंपराओं का निर्वहन इतनी गंभीरता व ईमानदारी से करता हो। आज पूरे देश में ऐसे ही स्थानों की ज़रूरत है जहां ऐसी सूफी परंपरा का पालन होता हो जिसमें सभी धर्मों, संप्रदायों व जातियों के लिए समान रूप से दरवाज़े खुले हों।
महासंग्रामः नए ‘जुमलों’ की तलाश शुरू……!
ओमप्रकाश मेहता
भारतीय गणतंत्र में चुनावी घोषणा-पत्र अब केवल और केवल ‘वोटर लुभावन वस्तु’ बनकर रह गए है, क्योंकि स्वयं वोटर अब यह जान गया है कि घोषणा-पत्र के वादे कभी भी पूरे तो होना नहीं है, बल्कि यदि यह कहा जाए कि वोटर की मुफलिसी और उनकी चाहत को चुनावी घोषणा-पत्रों में शामिल कर ये राजनीतिक दल विशेषकर सत्तारूढ़ दल मतदाताओं की मुफलिसी का मजाक उड़ा रहे है तो कतई गलत नहीं होगा। ….ओर इस बार तो केन्द्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने तो हद ही कर दी, वह स्वयं देश के आम मतदाताओं से पूछ रही है कि उनकी ‘चाहत’ क्या है? जिसे वह पूरी करने की झूठी दिलासा देकर अपने चुनावी घोषणा-पत्र में शामिल करना चाहती है, भाजपा की केन्द्रीय चुनाव घोषणा-पत्र समिति के अध्यक्ष और गृहमंत्री राजनाथ सिंह जी ने ऐसी ही अपील देश के आम मतदाताओं से की है।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आज से छप्पन महीने हुए लोकसभा चुनाव के समय भारतीय जनता पार्टी ने नरेन्द्र भाई मोदी के नये चेहरे के साथ लोकलुभावना करीब एक हजार घोषणाएं की थी, जिनमें विदेशों से कालाधन वापस लाकर हर भारतीय परिवार के खातें में पन्द्रह लाख रूपए डालना, हर साल एक करोड़ बेरोजगारों को नौकरी देना, किसानों को साधन सम्पन्न बनाना व उनके कर्जे माफ करना, महिलाओं की सुरक्षा आदि वादे शामिल थे, किंतु मोदी के नेतृत्व में सरकार बन जाने के बाद भाजपाध्यक्ष ने इन वादों को ‘जुमलें’ बताकर इन्हें खारिज कर दिया और पिछले साढ़े चाल साल मेें वैसे ही नादिरशाही सरकार चली, जैसा कि देश की जनता पिछले सत्तर सालों से देखती आ रही है। प्रधानमंत्री ने ‘विदेश यात्रा’ को अपनी प्राथमिकता की सूची में सबसे ऊपर डाल दिया और साढ़े चार साल में सत्तावन देशों की यात्रा पर देश की तीन हजार करोड़ की गाढ़ी कमाई की राशि फूंक डाली। भाजपा की यह वादाखिलाफी सिर्फ चुनावों तक ही सीमित नहीं है, संसद में भी पिछले साढ़े चार साल में बजट या अन्य विषयों के माध्यम से प्रधानमंत्री तथा अन्य मंत्रियों ने पांच सौ से अधिक वादे किए, जिनमें से केवल डेढ़ सौ वादों पर आधा-अधुरा अमल हुआ, शेष सभी आज भी वादों की पूर्ति का इंतजार कर रहे है। और देश का आम वोटर पिछली सरकारों और मौजूदा सरकार में कोई विशेष अंतर नहीं देख पा रहे है। शायद इसी का यह प्रतिफल है कि जो राजनीतिक दल साढ़े चार साल पहले केवल एक शख्स (मोदी) को सामने रखकर सत्ता के सिंहासन पर विराजित हो गया था, उसे आज चुनाव जीतने के लिए कभी अटल जी तो कभी वल्लभ भाई पटेल या किसी अन्य दिवंगत नेता का चेहरा सामने लाना पड़ रहा है, यही नहीं अपनी उपलब्धियों पर नहीं, बल्कि विपक्ष की विफलताओं को सामने लाकर अपनी जीत का सपना देखना पड़ रहा है। और प्रधानमंत्री को पद की गरिमा के प्रतिकूल वाणी का उपयोग करना पड़ रहा है।
जहाँ तक देश के आम मतदाताओं का सवाल है, उन्हें तो ऐसे राजनीतिक पैतरों की उपेक्षा करने और सहने की आदत सी पड़ गई है, क्योंकि पिछले सत्तर साल से यही सब होता आ रहा है, चाहे कोई भी सत्ता में रहे कभी मंडल कमीशन के आईने में आरक्षण देखा जाता है तो कभी गरीबी या आर्थिक कसौटी पर उसे कसा जाता है और आम मतदाताओं को यह भी पता है कि जो काम साढ़े चाल साल में सत्तारूढ़ दल ने नहीं किया, वह चुनाव के पहले के चंद महीनों में पूरा कर देता है, हाल में दस प्रतिशत आर्थिक आधार पर सवर्ण आरक्षण सत्तारूढ़ दल की उसी परम्परा का साक्षात उदाहरण है।
किंतु हाँ, मोदी जी की सरकार जनता की नजर में अन्य सरकारों से एक दृष्टि से थोड़ी अलग है और वह यह कि मोदी जी की सरकार व पार्टी ने जहां वादों की पूर्ति अन्य सरकारों की तरह नहीं कि वहीं स्वयं प्रधानमंत्री के चंद फैसलों ने पार्टी को जरूर नुकसान पहुंचाया जिसमें बैंक नोटबंदी व जीएसटी के साथ कुछ दलित आरक्षण अध्यादेश जैसे अन्य फैसले शामिल है। आम मतदाता की स्मरण शक्ति अब उतनी कमजोर नहीं रहीं, जितनी कि कुछ दशक पहले हुआ करती थी। अब जनता या आम वोटर अपनी विगत पीड़ा भरे दिन अधिक याद रखता है और उसकी पीड़ा के समय कौन उसके काम आया यह भी याद रखता है और उसी के आधार पर चुनाव के समय अपने मत का फैसला लेता है। इसलिए अब मतदाता को उतना भोला नहीं माना जाना चाहिए, जितना वह कभी था, इसलिए राजनीतिक दलों को अब मतदाताओं से सावधान रहने की जरूरत है, उसे बेवकूफ बनाने की नहीं।
सपा-बसपा गठबंधन जरूरी या मजबूरी
बीपी गौतम
समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का राजनैतिक रिश्ता 2 जून 1995 को टूटा था, जिसमें 12 जनवरी 2019 को पुनः गाँठ लगा दी गई है। खास बात सिर्फ इतनी ही है कि अखिलेश यादव और मायावती ने संयुक्त रूप से पत्रकार वार्ता आयोजित कर गाँठ बांधने की घोषणा कर दी, शेष सब वही है, जो आम जनता को पहले से पता है। गठबंधन होने की खबरें पहले से ही आ चुकी थीं, सीटों के बंटवारे के बारे में भी पहले से ही ज्ञात था। बड़ी बात यह है कि पिछले दिनों सतीश मिश्रा द्वारा किये गये खंडन के कारण गठबंधन न होने की अफवाहें चल रही थीं, उन पर अब विराम लग गया है। अखिलेश और मायावती ने गठबंधन के जो कारण बताये, वह भी स्वाभाविक ही हैं। स्वयं को जिंदा रखने के लिए कांग्रेस के विरुद्ध भी तर्क गढ़ने ही थे, सो बोल दिए गये, इस गठबंधन का असर क्या होगा, यह तो चुनाव बाद ही पता चल सकेगा लेकिन, हाल-फिलहाल संभावनायें बहुत अच्छी नहीं दिख रही हैं।
जातिवादी राजनीति के पुरोधा सपा-बसपा मुस्लिम वोट के साथ ही राजनीति में ठहर सकते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम वर्ग का झुकाव कांग्रेस की ओर बढ़ रहा है। मुस्लिम वर्ग में यह बात अब आम तौर पर मानी जाने लगी है कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का विकल्प कांग्रेस ही हो सकती है। मुस्लिम वर्ग की बदल रही सोच वोट में तब्दील हो गई तो, सपा-बसपा के भविष्य पर ही प्रश्न चिन्ह लग सकता है। मुस्लिम वर्ग एक बार कांग्रेस के पाले में चला गया तो, उत्तर प्रदेश में प्रभावशाली अवस्था में भाजपा और कांग्रेस ही रह जायेंगे, सो स्वयं को बचाने के लिए सपा-बसपा का गठबंधन करना जरूरी नहीं बल्कि, मजबूरी हो गया था।
राजनीति में समय के अनुसार निर्णय लिया जाता है। विधान सभा चुनाव में अखिलेश यादव को कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं करना था पर, मनमानी करते हुए अखिलेश यादव ने कांग्रेस से गठबंधन किया। एक महीने पहले तक जो कांग्रेस उत्तर प्रदेश की बर्बादी का नारा लगा रही थी, वही कांग्रेस अखिलेश यादव का काम बोलता है वाला नारा लगाने लगी, ऐसे में आम जनता को दूर जाना ही था, साथ ही उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास संगठन और समर्थक नहीं हैं, सो कांग्रेस के मिलन से न लाभ होना था और न ही हुआ। अखिलेश यादव की विधान सभा चुनाव में हार तय थी पर, कांग्रेस से न मिले होते तो, सम्मानजनक हार मिल सकती थी।
अब हालात बदल गये हैं। कुछ दिन पहले तक कांग्रेस हर तरह से जूझ रही थी। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में जीत मिलने से कांग्रेस का मनोबल बढ़ा है। आम जनता जीत के कारणों और वोट प्रतिशत पर मंथन नहीं करती, वह देखती है कि सरकार किसकी बनी है और इस दृष्टि से मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे बड़े राज्य कांग्रेस ने हाल ही में झटके हैं, जिससे आम जनता को अब भाजपा की जीत चुनाव परिणाम आने से पहले निश्चित नजर नहीं आ रही। मध्य प्रदेश और राजस्थान भाजपा बचाने में सफल हो जाती तो, भाजपा की जीत को लेकर आम जनता पहले से ही आश्वस्त होती। चुनाव परिणामों को लेकर अब असमंजस की अवस्था बन गई है, जो कांग्रेस के लिए अच्छी स्थिति कही जायेगी।
इसके अलावा कांग्रेस आर्थिक संकट से जूझ रही थी पर, अब उसके पास धन की कोई कमी नहीं होगी। भाजपा से हर तरह से मुकाबला करने को कांग्रेस तैयार है। बड़े राज्यों में सरकार बनने से हर तरह से मदद मिलेगी, साथ ही चुनाव परिणामों को लेकर बनी असमंजस की अवस्था के चलते कांग्रेस को उद्योग जगत से भी भरपूर मदद मिलेगी। कांग्रेस अब हर दृष्टि से भाजपा के बराबर की योद्धा नजर आ रही है, वह हर क्षेत्र में भाजपा का न सिर्फ मुकाबला कर सकती है बल्कि, बराबर की टक्कर देने को तैयार है। लोकसभा के महासंग्राम का शंखनाद होते ही राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा और कांग्रेस की ही धूम रहने की संभावना है। जमीनी और हवाई, हर के माध्यमों पर भाजपा और कांग्रेस ही छाये हुए होंगे, प्रचार वार में सपा-बसपा चाह कर भी भाजपा और कांग्रेस का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं है, प्रचार माध्यमों का भी बड़ा असर होता है। कांग्रेस उत्तर प्रदेश में भी भाजपा का विकल्प बनने में सफल हो गई तो, सपा-बसपा पर्दे के पीछे ही नजर आयेंगे।
हाल-फिलहाल सपा-बसपा गठबंधन का लाभ वीवीआईपी सीटों पर ही मिलने की संभावना जताई जा सकती है। सैफई घराने के लोग नरेंद्र मोदी की लहर वाले 2014 के चुनाव में जीत गये थे। हालाँकि उस समय प्रदेश में सपा की सरकार भी थी, फिर भी वे गठबंधन के चलते 2019 के चुनाव में भी आसानी से जीत सकते हैं। अन्य क्षेत्रों में गठबंधन की गांठ शिवपाल सिंह यादव तोड़ने में कामयाब रह सकते हैं। आजम खान को अखिलेश यादव संतुष्ट करने में सफल नहीं हो पाए तो, वे भी मशविराती काउंसिल के बहाने कई क्षेत्रों में नुकसान पहुंचा सकते हैं, वे पहले से तैयार मुस्लिम वर्ग की गठबंधन से दूर जाने में मदद कर सकते हैं।
राजनैतिक दृष्टि से सबसे खराब हालात सपा और बसपा के लिए ही कहे जा सकते हैं। अगला चुनाव सपा-बसपा की जिंदगी निर्धारित करेगा। कांग्रेस उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वर्ग को लुभाने में कामयाब हो गई तो, सपा-बसपा पुनः जमीन नहीं खोज पायेंगे और मुस्लिम वर्ग गठबंधन से जुड़ गया तो, चुनाव परिणाम जो भी हो पर, सपा-बसपा की जमीन बची रहेगी, इसीलिए कांग्रेस के बिना गठबंधन बनाने का निर्णय सही है लेकिन, इस गठबंधन को सर्वशक्तिमान नहीं कहा जा सकता, इसलिए उत्साहित होने की अवस्था नहीं हैं।
भगवान भरोसे लोकसभा चुनाव जीतने का सपना देख रही है कांग्रेस
सनत जैन
कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बन जाने के बाद, कांग्रेस के नेता अति उत्साहित हैं। कांग्रेस नेता सोनिया गांधी, राहुल गांधी, अहमद पटेल, डॉ मनमोहन सिंह, एके एंटोनी, मलिकार्जुन खड़गे, दिग्विजय सिंह, कमलनाथ, अशोक गहलोत, सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे नेता यह मानकर चल रहे हैं कि लोकसभा चुनाव वह भारी बहुमत से जीतेंगे। कांग्रेस का यह भी मानना है, कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ जो आक्रमकता कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनाई है, उसका असर सारे देश में हो रहा है। लोकसभा चुनाव के समय कांग्रेस के पक्ष में एक आंधी चलेगी। जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा को चक्रवाती हवा की तरह उड़ा देगी। कांग्रेस के नेता यह मान कर चलने लगे हैं, कि जिस तरह 1980 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने दो तिहाई बहुमत से ज्यादा की जीत हासिल की थी। वहीं स्थिति अब फिर बन गई है। कांग्रेसी नेताओं का व्यवहार और उनकी आक्रमकता यही संदेश दे रही है, जिसके कारण विपक्षी दलों के बीच में भी कोई अच्छा संदेश नहीं जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के खिलाफ जो विपक्षी दल एकजुट होना चाहते थे, वह भी कांग्रेस के इस बदले हुए तेवर को देखते हुए छिटक रहे हैं। उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश यादव ,पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी जैसे स्थापित राजनीतिक दल और राजनेता यह नहीं समझ पा रहे हैं कि कांग्रेस और उनके अध्यक्ष राहुल गांधी लोकसभा चुनाव में, भाजपा तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कूटनीति सांगठनिक क्षमता और संसाधनों का मुकाबला किस तरह कर पाएंगे।
पिछले 20 वर्षों में कांग्रेस संगठन पूरी तरह से लगभग सभी राज्यों में छिन्न भिन्न हो चुका है।हिंदी भाषी राज्यों में भी जहां पर कांग्रेस की सरकारें थीं, संगठन नाम की वर्तमान में कोई चीज नहीं है। हाल ही में 3 राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को जो जीत हासिल हुई है, वह जनता की भाजपा के प्रति नाराजगी और भाजपा नेताओं के अहंकार के कारण संभव हो सकी है। कांग्रेस के पास अभी भी संगठन नाम की कोई चीज नहीं है। कांग्रेस के नेता आपस में ही झगड़ रहे हैं। 3 राज्यों में सरकार के गठन में जिस तरह कांग्रेस के नेताओं ने मुख्यमंत्री और मंत्री पद हथियाने के लिए शक्ति प्रदर्शन किया, उससे कांग्रेस के बारे में कोई अच्छी राय आम जनता के बीच नहीं गई। लोकसभा चुनाव के लिए 2 माह का समय कांग्रेस के पास शेष है। निश्चित रूप से 2014 की तुलना में भाजपा के लिए चुनौतियां काफी बढ़ गई हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा कांग्रेस की नाकामियों को बताकर और जनता को बड़े-बड़े सपने दिखाकर, सत्ता में आई थी। 30 साल बाद केंद्र में भाजपा की सरकार को स्पष्ट बहुमत मिला। स्पष्ट बहुमत मिलने के बाद भारतीय जनता पार्टी की जवाबदेही भी काफी बढ़ गई है। 1996 से 2004 के बीच केंद्र में अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व में साझा सरकार थी। उस समय गठबंधन की सरकार होने से आम जनता के बीच में यह संदेश था, कि यह पूर्ण बहुमत की सरकार नहीं है। जिसके कारण भाजपा अपने वादों को पूरा नहीं कर पाई। किंतु नरेंद्र मोदी की सरकार पूर्ण बहुमत वाली सरकार है। आम जनता ने लोकसभा चुनाव के बाद लगभग 4 वर्ष तक जितने भी राज्यों के चुनाव हुए, सभी में भाजपा अथवा भाजपा गठबंधन की सरकारें बनाकर, भाजपा को मजबूत किया था। उसके बाद भी 2014 में किए गए वादे पूर्ण करने में भाजपा और नरेंद्र मोदी असफल होते हैं, तो इसका खामियाजा भी उन्हें भुगतना ही पड़ेगा। इसका मतलब यह नहीं है कि आम जनता कांग्रेस के पक्ष में सारे देश भर में मतदान करेगी। कांग्रेस को लोकसभा चुनाव के लिए ठोस रणनीति बनाना होगी। विपक्षी दलों को साथ लेकर चलना होगा। कांग्रेस, लोकसभा चुनाव के लिए यदि सपा-बसपा और अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन नहीं करती है, तो वोटों के बंटवारे से उसे लोकसभा चुनाव के दौरान बहुत बड़ा नुकसान हो सकता है। जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकार बन चुकी हैं, उन राज्यों में भी कांग्रेस को भाजपा से मुकाबला कर पाना मुश्किल होगा। मध्य प्रदेश एवं राजस्थान के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हठधर्मिता और क्षेत्रीय नेताओं के आपसी विवाद के कारण जिस तरह टिकट बांटे गए, उसके बाद मध्यप्रदेश और राजस्थान में समर्थन के बल पर सरकार बनाने को विवश होना पड़ा। विधानसभा में तो जैसे-तैसे सरकारें बन गई। लेकिन लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस ने गंभीरता, चातुर्यता, एवं कूटनीति का परिचय नहीं दिया, तो कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में बड़ा झटका लग सकता है। भारतीय जनता पार्टी इस समय सत्ता के मद में मदमस्त होकर,वह सब कर रही है,जो नैतिक या अनैतिक की श्रेणी में आता है। लोकसभा चुनाव जीतने के लिए नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी अपना सब कुछ दांव पर लगाने के लिए तैयार खड़ी है। भारत सरकार का खजाना पूरी तरह से लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए वोटों को कबाड़ने में खर्च किया जा रहा है। जातीय आधार पर पहले ही समुदायों को बांट दिया गया है। धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण के हर संभव प्रयास किए जा रहे हैं। विपक्षी दलों को नेस्तनाबूद करने के लिए सीबीआई, आयकर व प्रवर्तन निदेशालय का भरपूर उपयोग किया जा रहा है। चुनाव के दौरान भी भाजपा के धनबल और बाहुबल का सामना करने की स्थिति किसी भी राजनीतिक दल की नहीं है। ऐसी स्थिति में विपक्षी दलों का बिखराव भाजपा को लोकसभा चुनाव के लिए मजबूत बना रहा है। 3 राज्यों की जीत के बाद कांग्रेस का अहंकार भी अब सामने दिखने लगा है। यदि यही स्थिति अगले 2 महीने और चली, तो राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है, कि नरेंद्र मोदी को हरा पाना कांग्रेस और विपक्षी दलों के गठबंधन के लिए संभव नहीं होगा। येन- केन-प्रकारेण नरेंद्र मोदी 2019 में एक बार फिर सरकार बनाने में सफल हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में राहुल गांधी और कांग्रेस के शीर्ष नेताओं को अपनी रणनीति और कूटनीति पर विचार करते हुए जिम्मेदारी और बड़प्पन का परिचय देते हुए लोकसभा चुनाव मैदान में उतरने की तैयारी करना चाहिए। यहां यह उल्लेख करना जरुरी है कि राहुल गांधी की लहर देश में चल रही है और कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिल जाता है। ऐसी स्थिति में उन्हें प्रधानमंत्री बनने से कोई रोक भी नहीं सकता है। वर्तमान में कांग्रेस को सभी विपक्षी दलों को राष्ट्रीय स्तर की राजनीति को ध्यान में रखकर गठबंधन बनाने में अग्रणी भूमिका का निर्वाह करना चाहिए। अन्यथा भाजपा और नरेंद्र मोदी को हरा पाना संभव नहीं होगा।
अपने-अपने भ्रष्टाचारी
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सीबीआई, सवर्णों का आर्थिक आरक्षण और अध्योध्या विवाद- इन तीनों मसलों पर गौर करें तो हम किस नतीजे पर पहुंचेंगे ? सरकार, संसद, सर्वोच्च न्यायपालिका और विपक्ष — सबकी इज्जत पैंदे में बैठी जा रही है। सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा को सर्वोच्च न्यायालय ने 77 दिन के बाद अचानक बहाल कर दिया लेकिन सरकार ने फिर उन्हें हटा दिया। सीबीआई के निदेशक को लगाने और हटानेवाली कमेटी के तीन सदस्य होते हैं। प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और संसद में विपक्ष का नेता ! मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने खुद कन्नी काट ली और अपनी जगह न्यायमूर्ति ए.के. सीकरी को भेज दिया। सीकरी ने मोदी की हां में हां मिलाई याने तीन में से दो लोगों ने कमाल कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने जिस वर्मा को बहाल किया था, उसे इन दोनों ने निकाल बाहर किया। विपक्षी नेता कांग्रेस के मल्लिकार्जुन खड़गे हाथ मलते रह गए। मैं पूछता हूं सीकरी ने अपनी ही अदालत की नाक क्यों काट ली ? यदि वर्मा को हटाना ही था तो आपने उसे बहाल क्यों किया था ? यदि केंद्रीय निगरानी आयोग (सीवीसी) की जांच के आधार पर वर्मा को हटाया गया तो मैं पूछता हूं कि अपना फैसला करते वक्त अदालत ने वह रपट नहीं देखी थी क्या ? या तो अदालत गलत है या प्रधानमंत्रीवाली कमेटी गलत है। इस कमेटी का क्या यह कर्तव्य नहीं था कि वह वर्मा को बुलाकर उनसे सीवीसी के आरोपों का जवाब मांगती ? वर्मा को जिस फुर्ती से दो बार हटाया गया है, वह कांग्रेस के इन आरोपों को मजबूत बनाती है कि सरकार वर्मा से बुरी तरह डर गई है। उसे डर यह भी था कि वर्मा अगले 20 दिन में कहीं रफाल-सौदे की भी खाल न उधेड़ दे। वर्मा ने दुबारा अपने पद पर अपने ही उन 13 अफसरों को वापस बुला लिया, जिनका तबादला सरकार के इशारे पर अस्थायी निदेशक ने कर दिया था। वर्मा ने जबरदस्त हिम्मत दिखाई। आलोक वर्मा और उनके प्रतिद्वंदी राकेश अस्थाना, दोनों पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। वे सही सिद्ध भी हो सकते हैं, क्योंकि उनके मालिकों (नेताओं) के भ्रष्टाचार ने पूरी नौकरशाही को भ्रष्ट कर रखा है लेकिन यह कितना दुखद है कि हमारे देश की दोनों बड़ी पार्टियां अपने-अपने अफसर के बचाव में दीवानी हो रही हैं। कांग्रेस आलोक वर्मा और भाजपा राकेश आस्थाना को बचाने पर तुली हुई है। दोनों पार्टियां भ्रष्टाचार की दुश्मन नहीं, एक-दूसरे की दुश्मन लग रही हैं।
‘‘चार मुए तो क्या हुआ, जीवित कई हजार’’
वीरेन्द्र सिंह परिहार
(13 जनवरी गुरु गोविन्द सिंह की जयन्ती पर विशेष) सत्रहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में औरंगजेब ने सबसे पहले हिन्दुओं के धार्मिक गुरु कहे जानेवाले ब्राह्मणों को ही अपना शिकार बनाया और उन्हें इस्लाम अपनाने के लिए मजबूर करने का प्रयास किया। ऐसी स्थिति में कृपाराम के नेतृत्व में काश्मीर, मथुरा, कुरुक्षेत्र, बनारस और हरिद्वार के ब्राह्मण आनन्दपुर पहंुचे और सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर जी से अपनी दर्द-भरी कहानी सुनाई। गुरु तेग बहादुर गहरे सोच-विचार में पड़ गए। तभी उनके नौ वर्षीय पुत्र गोविंद राय उनके पास आए और पूछा कि पिता जी आप किस बात पर सोच-विचार कर रहे हैं ? गुरु तेग बहादुर ने ब्राह्मणों की समस्या बताई कि यदि ये मुसलमान न बने तो शीघ्र ही इन्हें अपनी जान गॅवानी पड़ेगी। इसलिए इन्हें बचाने का एक ही तरीका है कि कोई महापुरुष इस जुल्म के विरुद्ध आवाज उठाए और अपने शीश की बलि देने से भी न घबराए। इस पर बालक गोविंद राय ने कहा- ‘‘इस समय आपसे बढ़कर और कौन महापुरुष हो सकता है ? यदि आपके बलिदान से इन पण्डितों की रक्षा हो सकती है तो फिर हिचकिचाहट कैसी ? आगे गुरु तेग बहादुर ने अपना कैसे बलिदान दिया वह स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है, पर स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य बालक गोविन्दराय का नजरिया भी था। इस तरह से पूरे विश्व साहित्य में गुरु गोविंद सिंह ऐसे बालक हुए हैं, जिन्होंने धर्म की रक्षा के लिए अपने पिता को बलिदान हो जाने के लिए कहा। वे सिखों के अंतिम गुरु थे और उनके बाद गुरु-काल समाप्त हो गया था। उनका जन्म 22 दिसम्बर सन् 1666 को बिहार की राजधानी पटना में हुआ था। वे नवमी पातशाही श्री गुरु तेग बहादुर जी के पुत्र थे। इनकी माता जी का नाम गूजरी था। बचपन में सभी इन्हें बाला प्रीतम कहते थे। इनके मामा कृपालचंद अक्सर कहते थे- हे गोविंद आपने ही हमारे घर में अवतार लिया है, जिससे इनका नाम गोविंद राय पड़ गया। बचपन से ही वह खिलौने की वजाय तलवार, कटार और धनुष-बाण से खेलना पसंद करते थे। बचपन से ही इनकी बहुत सी चमत्कारिक कथाएॅ फैल गई थी। बचपन में ही इनका एक मानवीय पहलू देखने योग्य है। अपने घर से थोड़ी दूर एक निःसंतान बुढ़िया चरखा काटकर गुजारा करती थी। गोविंद राय चुपके से आते और उसकी सारी छल्लियां व पूनियां बिखेर देते थे। वह शिकायत लेकर माता गूजरी के पास जा पहुंचती थी। माता गूजरी उसे बहुत सारे पैसे देकर वापस भेज देती थी। एकदिन माता गूजरी ने गोविंद राय से पूछा कि वह किसलिए चरखे वाली माई को तंग करता है ? उन्होंने सहजभाव से उत्तर दिया- उस बेचारी की गरीबी दूर करने के लिए। यदि मैं उसे तंग नहीं करूंगा तो उसे आप द्वारा इतने ढेर सारे पैसे कैसे मिलेंगे ?
बाद में गुरु तेग बहादुर ने उन्हें माता गूजरी समेत पटना से आनन्दपुर बुला लिया। जहां पर गुरु गोविंद राय जी 11 नवम्बर सन् 1675 को आनन्दपुर साहिब में गुरु-गद्दी पर शोभायमान हुए। गुरु-गद्दी पर बैठते ही गुरु साहिब ने यह अनुभव किया कि जुल्म और अत्याचार का डटकर मुकाबला करने का समय आ गया है। अपने विचारों को साक्षात रूप देने के लिए उन्होंने तीन कामों की ओर विशेष रूप से ध्यान दिया। सर्वप्रथम उन्होंने फारसी, संस्कृत, पंजाबी व ब्रज भाषा की पढ़ाई में निपुणता प्राप्त की। दूसरे उन्होंने फौजी ताकत बढ़ाने के लिए फौज में भर्ती आरंभ कर दी। तीसरे सौनिकों को शिक्षित योद्धाओं व शूरवीरों द्वारा प्रशिक्षण दिलवाना शुरु कर दिया।
सन् 1699 का एक दिन था। वैशाखी का पावन पर्व निकट था। गुरु साहब ने सारे हिन्दुस्तान और अन्य देशों में यह संदेश भेजा की वैशाखी के अवसर पर समस्त सिख -संगत आनन्दपुर साहिब पहुंचे। वैशाखी वाले दिन गुरु साहब के आदेश पर सभी सिख- संगत पंडाल में आकर बैठ गई और शबद कीर्तन का कार्यक्रम शुरू हो गया। कुछ देर बाद गुरु साहब छोटे तम्बू में से निकलकर मंच पर आए, उनके हाथ में बिजली जैसी नंगी तलवार चमक रही थी। बोले- ‘‘क्या आप में से कोई श्रद्धालु सिख ऐसा है जो मुझे अपना शीश देने की हिम्मत रखता हो ?’’ कुछ ही क्षण बाद लाहौर निवासी दयाराम उठ खडा़ हुआ और हाथ जोड़कर बोला- गुरु साहब ! मेरा शीश हाजिर है, स्वीकार कीजिए। गुरु साहब ने उसे बाजू से पकड़ा और तम्बू में ले गए, कुछ ही क्षणों बाद तलवार चलने तथा शीश गिरकर कटने की आवाज आई। दूसरी, तीसरी, चैथी और पॉंचवी बार भी शीश मांगने पर क्रमशः सहारनपुर निवासी धर्मचन्द, द्वारका निवासी भाई मोहकमचन्द, बीदर निवासी भाई साहिबचन्द तथा जगन्नाथपुरी निवासी भाई हिम्मतराम ने अपना शीश प्रस्तुत कर दिया। कुछ देर बाद जब गुरु साहब बाहर लौटे तो उनके साथ सुनहरी केसरी लिबास में लिपटे उपरोक्त पाॅचों सिख नौजवान थे। गुरु साहब ने पवित्र जल से अमृत तैयार कराया, उक्त अमृत को उन पॉंचों के शरीर पर डाला और उन्हें पिलाया। इसके बाद उनके हाथों से उन्होंने खुद उस अमृत को पिया और शेष संगत को भी छकाया। इस प्रकार लाखों सिखों ने अमृत छका तथा शेर बन गए। अमृत छकने के इस संस्कार को ‘‘खंडे का पहुल’’ कहकर पुकारा जाता है। इस प्रकार एक नए समाज का निर्माण हुआ जिसे ‘‘खालसा’’ कहकर पुकारा गया तथा गुरु साहब को अमृत छकाने वाले पांच सिखों को पंज-प्यारे कहा गया। पहुल-संस्कार के बाद गुरु साहब ने कहा- ‘‘जो अमृत पान करता है, वह सिंह बन जाता है।’’ इसलिए आज के बाद सभी सिख अपने नाम के साथ सिंह लगाएंगे। इसके अलावा सभी सिख पांच ककारों को धारण करेंगे। यह पांच ककार हैं- ‘‘केश, कड़ा, कंघा, कच्छा तथा कृपाण।’’ गुरु साहब ने खालसा के लिए नई अभिवादन पद्धति भी दी- ‘‘वाहे गुरु जी दा खालसा, वाहे गुरु जी दा फतह।’’
एक बार गुरु साहब रिवालसर गए थे। वहां एक सिख ने गुरु साहब को अपने हाथों से बनाई एक दो नली बंदूक भेंट की। गुरु साहब ने कहा कि एक आदमी मेरे सामने खड़ा हो जाए, मैं उस पर यह बन्दूक चलाकर इसका निशाना देखना चाहता हूं। गुरुजी का इतना कहना था कि सैकड़ों लोग वहां अपनी-अपनी छातियां तानकर खड़े हो गए। इसी प्रकार एक बूढ़ी औरत एक बार गुरु साहब के दर्शन करने आई। उसने कहा कि मेरे पति और उसके बाद दोनों बेटे भी सिख-सेना में भर्ती होकर शहीद हो गए। मेरा तीसरा और अंतिम पुत्र बीमार है। मैं चाहती हूं कि आप उसे अपना आशीर्वाद दें जिससे वह ठीक हो जाए और वह भी अपने फर्ज और धर्म पर कुर्बान हो सके। ये घटनाए बताती हैं कि लोग गुरुजी से कितना प्रेम करते थे।
मकर संक्रांति: इसी दिन खुलता है ‘स्वर्ग का द्वार’!
योगेश कुमार गोयल
(मकर संक्रांति पर विशेष) मकर संक्रांति का पर्व शीत ऋतु का अति प्राचीन पर्व है, जो प्रतिवर्ष 14 जनवरी को बड़े उत्साह एवं श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। यह मूलतः सूर्य की उपासना का पर्व है। ग्रंथों में सूर्य पूजा के धार्मिक महत्व का उल्लेख मिलता है। भारत में सूर्य की पूजा प्राचीन काल से होती रही है। जिस प्रकार जगतपिता ब्रह्मा को सृष्टि का रचयिता कहा जाता है, उसी प्रकार सूर्य को भी सृष्टि का रचयिता, पालनहार और संहारक माना गया है। प्रसिद्ध गायत्री मंत्र विशेष रूप से सूर्य को ही समर्पित है। सूर्य को तेज, ओजस एवं गति का प्रतीक तथा अधिष्ठाता माना गया है। ऋग्वेद के अनुसार सूर्य का देवताओं में अति महत्वपूर्ण स्थान है। सूर्य की उपस्थिति से ही पृथ्वी पर जीवन संभव है।
कहा जाता है कि मकर संक्रांति से ही दिन तिल-तिल करके बढ़ता है अर्थात् इस दिन से दिन की अवधि रात के समय से अधिक होने लगती है यानी दिन लंबे होने लगते हैं, जिससे खेतों में बोए हुए बीजों को अधिक रोशनी, अधिक उष्मा और अधिक ऊर्जा मिलती है, जिसका परिणाम अच्छी फसल के रूप में सामने आता है। इसलिए इस अवसर का खासतौर से किसानों के लिए तो बड़ा महत्व है।
मकर संक्रांति को हिन्दू शास्त्रों में पुण्यदायी पर्व माना गया है। इस दिन श्राद्धकर्म तथा तीर्थ स्नान करना भी फलदायी माना गया है। इस दिन लाखों श्रद्धालु विभिन्न तीर्थ स्थलों पर पवित्र स्नान करते हैं और तिल से बने पदार्थों का दान करते हैं। गंगासागर पर तो इस अवसर पर तीर्थस्नान के लिए लाखों लोगों का हुजूम उमड़ पड़ता है, जो इस पर्व की महत्ता को परिलक्षित करता है। मान्यता है कि इस दिन देशभर के किसी भी पवित्र तीर्थ, संगम स्थल या गंगा अथवा यमुना के तट पर स्नान करने से आध्यात्मिक, शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक ऊर्जा मिलती है। कहा जाता है कि इसी दिन स्वर्ग का द्वार भी खुलता है।
मकर संक्रांति पर्व 14 जनवरी को ही मनाए जाने के पीछे भी सूर्य की भूमिका का विशेष महत्व है। माना जाता है कि इसी दिन सूर्य देवता इन्द्रधनुषी रंग से मेल खाते अपने सात घोड़ों वाले रथ पर सवार होकर मकर राशि में प्रवेश करते हुए अपनी उत्तर दिशा की यात्रा आरंभ करते हैं, जो हमारे जीवन को उजाले से भरने तथा अंधकार से छुटकारे का प्रतीक है।
सूर्य हर माह एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है अर्थात् एक-एक करके वर्षभर में कुल 12 राशियों में प्रवेश करता है। सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है तो उसे ‘संक्रांति’ कहा जाता है। पृथ्वी की गोलाकार आकृति और अक्ष पर भ्रमण की वजह से दिन और रात होते हैं। जब पृथ्वी का कोई भाग सूर्य के सामने आता है, उस समय वहां दिन होता है जबकि पृथ्वी का जो भाग सूर्य के सामने नहीं होता, वहां रात होती है। यह पृथ्वी की दैनिक गति कहलाती है। पृथ्वी सूर्य की एक परिक्रमा 12 महीने में पूरी करती है, जिसे पृथ्वी की वार्षिक गति कहा जाता है। इस वार्षिक गति के आधार पर ही दुनिया के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग समय पर अलग-अलग ऋतुएं होती हैं।
वर्ष में 6 माह सूर्य उत्तर की ओर रहता है और 6 माह दक्षिण की ओर, जिसे ‘उत्तरायण’ व ‘दक्षिणायन’ कहा जाता है। 14 जनवरी को सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में आता है। उत्तरायण में सूर्य का प्रभाव होता है जबकि दक्षिणायन में चन्द्रमा का प्रभाव अधिक होता है। पृथ्वी पर जीवन से संबद्ध सभी गतिविधियों के लिए चन्द्रमा की अपेक्षा सूर्य की जरूरत अधिक होती है, इसीलिए सूर्य का उत्तरायण होना शुभ माना गया है जबकि दक्षिणायन में कोई भी शुभ कर्म करना अच्छा नहीं माना जाता। मकर संक्रांति के दिन सूर्य की कक्षा में होने वाले परिवर्तन यानी सूर्य के दक्षिणायन से उत्तरायण में आने को अंधकार से प्रकाश की ओर परिवर्तन माना जाता है। सूर्य 14 जनवरी को ही मकर राशि में प्रवेश करता है, इसीलिए 14 जनवरी को मनाए जाने वाले पर्व को ‘मकर संक्रांति’ कहा जाता है।
(लेखक योगेश कुमार गोयल वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)
आर्थिक आरक्षण: सरासरा फर्जीवाड़ा ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सवर्णों के लिए आर्थिक आरक्षण के विधेयक को संसद के दोनों सदनों ने प्रचंड बहुमत से पारित कर दिया है। आरक्षण का आधार यदि आर्थिक है तो उसे मेरा पूरा समर्थन है। वह भी सरकारी नौकरियों में नहीं, सिर्फ शिक्षा-संस्थाओं में ! इस दृष्टि से यह शुरुआत अच्छी है लेकिन इस विधेयक को संसद ने जिस हड़बड़ी और जिस बहुमत या लगभग जिस सर्वसम्मति से पारित किया है, उससे ज्यादा शर्मनाक बात क्या हो सकती है। इसने संसद की इज्जत को पैंदे में बिठा दिया है। मुझे ऐसा लगा कि संसद के ये लगभग 800 सदस्य अपना दिमाग क्या अपने घर रखकर संसद में चले आते हैं ? लगभग सभी विरोधी वक्ताओं ने इस विधेयक को मोदी की चुनावी चालबाजी बताया, इसे हवाई झांसा कहा, इसे असंवैधानिक कहा लेकिन उनमें इतनी हिम्मत क्यों नहीं है कि वे इसका विरोध करते ? उन्होंने इसके विरुद्ध मतदान क्यों नहीं किया ? वे मोदी से डर गए । उन्हें डर लगा कि मोदी देश के सवर्ण मतदाताओं में उनके खिलाफ प्रचार करेगा। एक मंदबुद्धि नेता के सामने ये सभी विपक्षी नेता मतिहीन साबित हुए। किसी ने भी खड़े होकर यह क्यों नहीं पूछा कि 65 हजार रु. महिना कमानेवाला व्यक्ति गरीब कैसे हो गया ? यह आंकड़ा प्रधानमंत्रीजी आपको किसने पकड़ा दिया ? आपने अपनी अक्ल का इस्तेमाल क्यों नहीं किया ? यदि 8 लाख रु. सालाना कमानेवाले को आपने गरीब की श्रेणी में डाल दिया तो आपने इस ‘गरीब’ का भयंकर अपमान किया है। कोई मेरे-जैसे आदमी को गरीब कह दे तो क्या मुझे अच्छा लगेगा ? जो सरकार देश के करोड़ों मध्यवर्गीय, सुशिक्षित और सुविधासंपन्न लोगों को गरीब की श्रेणी में डाल रही है, वे उसे क्यों बख्शेंगे ? इसके अलावा वह 8 लाख तक सलाना आमदनीवालों को 10 प्रतिशत आरक्षण देकर क्या वह इस जरा-से आरक्षण को देश के सवा अरब लोगों के बीच चूरा-चूरा करके बांट नहीं रही है ? क्या यह गरीबों के साथ सरासर धोखाधड़ी नहीं है ? यह ऐसा है, जैसे 10 अंगूर हों और उन पर आप 100 लंगूरों को झपटा दें। आप सिर्फ 10 प्रतिशत आरक्षण देश के 125 करोड़ लोगों के बीच बांट रहे हैं। इससे बड़ा ढोंग, फरेब और फर्जीवाड़ा क्या हो सकता है ? नोटबंदी और जीएसटी पहले ही रोजगारों को खाए जा रही है और आप नए रोजगार बांटने चले हैं। हवा में लट्ठ चला रहे हैं। घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने। और फिर यह संशोधन अदालत में पटकनी खाने के लिए भी पूरी तरह से तैयार है। 2019 के चुनाव तक यह आर्थिक आरक्षण कोरा जबानी—जमाखर्च ही बना रहेगा।
जब स्वामी विवेकानन्द जी ने नर्तकी को मां कहा
रमेश सर्राफ धमोरा
(12 जनवरी युवा दिवस पर विशेष) देशी रियासतों के विलीनीकरण से पूर्व राजस्थान के शेखावाटी अंचल में स्थित खेतड़ी एक छोटी किन्तु सुविकसित रियासत थी, जहां के सभी राजा साहित्य एवं कला पारखी व संस्कृति के प्रति आस्थावान थे। वे शिक्षा के विकास व विभिन्न क्षेत्रों को प्रकाशमान करने की दिशा में सदैव सचेष्ट रहते थे। खेतड़ी सदैव से ही महान विभूतियों की कार्यस्थली के रूप में जानी जाती रही है। चारों तरफ फैले खेतड़ी के यश की चर्चा सुनकर ही विदेशी आक्रमणकारी महमूद गजऩवी ने अपने भारत पर किए गए सत्रह आक्रमणों में से एक आक्रमण खेतड़ी पर भी किया था, मगर उसके उपरान्त भी खेतड़ी की शान में कोई कमी नहीं आयी थी।
खेतड़ी नरेश राजा अजीतसिंह एक धार्मिक व आध्यात्मिक प्रवृत्ति वाले शासक थे। राजा अजीतसिंह ने माऊन्ट आबू में एक नया महल खरीदा था जिसे उन्होने खेतड़ी महल नाम दिया था। गर्मी में राजा उसी महल में ठहरे हुये थे उसी दौरान 4 जून 1891 को उनकी युवा सन्यासी विवेकानन्द से उनकी पहली बार मुलाकात हुई। इस मुलाकात से अजीतसिंह उस युवा सन्यासी से इतने प्रभावित हुए कि राजा ने उस युवा सन्यासी को अपना गुरू बना लिया तथा अपने साथ खेतड़ी चलने का आग्रह किया जिसे स्वामीजी ठुकरा नहीं सके। इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द 7 अगस्त 1891 को प्रथम बार खेतड़ी आये। खेतड़ी में स्वामीजी 27 अक्टूबर 1891 तक रहे। यह स्वामी विवेकानन्द जी की प्रथम खेतड़ी यात्रा थी तथा किसी एक स्थान पर स्वामीजी का सबसे बड़ा ठहराव था।
खेतड़ी प्रवास के दौरान स्वामीजी नित्यप्रति राजा अजीतसिंह जी से आध्यात्मिकता पर चर्चा करते थे।
स्वामीजी ने राजा अजीतसिंह को उदार व विशाल बनने के लिए आधुनिक विज्ञान के महत्व को समझाया। खेतड़ी में ही स्वामी विवेकानन्द ने राजपण्डित नारायणदास शास्त्री के सहयोग से पाणिनी का’अष्टाध्यायी’ व पातंजलि का’महाभाष्याधायी’ का अध्ययन किया। स्वामीजी ने व्याकरणाचार्य और पाण्डित्य के लिए विख्यात नारायणदास शास्त्री को लिखे पत्रों में उन्हे मेरे गुरु कहकर सम्बोधित किया था।
अमेरिका जाने से पूर्व राजा अजीतसिंह के निमंत्रण पर 21 अप्रेल, 1893 को स्वामीजी दूसरी बार खेतड़ी पहुंचे। स्वामी जी इस दौरान 10 मई 1893 तक खेतड़ी में प्रवास किया। यह स्वामी जी की दूसरी खेतड़ी यात्रा थी। इसी दौरान एक दिन नरेश अजीत सिंह व स्वामीजी फतेहविलास महल में बैठे शास्त्र चर्चा कर रहे थे। तभी राज्य की नर्तकियों ने वहां आकर गायन वादन का अनुरोध किया। इस पर सन्यासी होने के नाते स्वामीजी उसमें भाग नहीं लेना चाहते थे, वे उठकर जाने लगे तो नर्तकियों की दल नायिका मैनाबाई ने स्वामी जी से आग्रह किया कि स्वामीजी आप भी विराजें, मैं यहां भजन सुनाउंगी इस पर स्वामीजी बैठ गये। नर्तकी मैनाबाई ने महाकवि सूरदास रचित प्रसिद्ध भजन
प्रभू मोरे अवगुण चित न धरो ।
समदरसी है नाम तिहारो चाहे तो पार करो ॥
सुनाया तो स्वामीजी की आंखों में पश्चाताप मिश्रित आंसुओं की धारा बह निकली और उन्होंने उस पतिता नारी को ज्ञानदायिनी मां कहकर सम्बोधित किया तथा कहा कि आपने आज मेरी आंखें खोल दी हैं। इस भजन को सुनकर ही स्वामीजी सन्यासोन्मुखी हुए ओर जीवन पर्यन्त सद्भााव से जुड़े रहने का व्रत धारण किया। 10 मई 1893 को स्वामजी मात्र 28 वर्ष की अल्पायु में खेतड़ी से अमेरिका जाने को प्रस्थान किया। महाराजा अजीतसिंह के आर्थिक सहयोग से ही स्वामी विवेकानन्द अमेरिका के शिकागो शहर में आयोजित विश्वधर्म सम्मेलन में शामिल हो वेदान्त की पताका फहराकर भारत को विश्व धर्मगुरु का सम्मान दिलाया। अमेरिका जाते वक्त खेतड़ी नरेश राजा अजीत सिंह ने अपने मुंशी जगमोहन लाल व अन्य सहायक कर्मचारियों को बम्बई तक स्वामी जी की यात्रा की तैयारियों व व्यवस्था करने के लिये स्वामी जी के साथ भेजा।
इस बात का पता बहुत कम लोगों को है कि स्वामीजी का सर्वजन विदित स्वामी विवेकानन्द नाम भी राजा अजीतसिंह ने रखा था। इससे पूर्व स्वामीजी का अपना नाम विविदिषानन्द था। शिकागो जाने से पूर्व राजा अजीतसिंह ने स्वामीजी से कहा आपका नाम बड़ा कठिन है। उसका अर्थ नहीं समझा जा सकता है। उसी दिन राजा अजीतसिंह ने उनके सिर पर साफा बांधा व भगवा चोगा पहना कर नया वेश व नया नाम स्वामी विवेकानन्द प्रदान किया जिसे स्वामीजी ने जीवन पर्यन्त धारण किया। आज भी लोक उन्हें राजा अजीतसिंह द्वारा प्रदत्त स्वामी विवेकानन्द नाम से ही जानते हैं।
शिकागो में हिन्दू धर्म की पताका फहराकर स्वामीजी विश्व भ्रमण करते हुए 1897 में जब भारत लौटे तो 17 दिसम्बर 1897 को खेतड़ी नरेश ने स्वामीजी के सम्मान में 12 मील दूर जाकर उनका स्वागत किया व भव्य गाजे-बाजे के साथ खेतड़ी लेकर आये। उस वक्त स्वामी जी को सम्मान स्वरूप खेतड़ी दरबार के सभी ओहदेदारों ने दो-दो सिक्के भेंट किये व खेतड़ी नरेश ने तीन हजार सिेक्के भेंट कर दरबार हाल में स्वामी जी का स्वागत किया।
सर्वधर्म सम्मेलन से लौटने के बाद स्वामी विवेकानंद जब खेतड़ी आए तो राजा अजीत सिंह ने उनके स्वागत में चालीस मण (सोलह सौ किलो) देशी घी के दीपक पूरे खेतड़ी शहर में जलवाए थे। इससे भोपालगढ़, फतेहसिंह महल, जयनिवास महल के साथ पूरा शहर जगमगा उठा था। 20 दिसम्बर 1897 को खेतड़ी के पन्नालाल शाह तालाब पर प्रीतिभोज देकर स्वामी जी का भव्य स्वागत किया। शाही भोज में उस वक्त खेतड़ी ठिकाना के पांच हजार लोगों ने भाग लिया था। उसी समारोह में स्वामी विवेकानन्द जी ने खेतड़ी में सावजनिक रूप से भाषण दिया जिसे सुनने हजारों की संख्या में लोग उमड़ पड़े। उस भाषण को सुनने वालों में खेतड़ी नरेश अजीत सिंह के साथ काफी संख्या में विदेशी राजनयिक भी शामिल हुये। 21 दिसम्बर 1897 को स्वामीजी खेतड़ी से प्रस्थान कर गये, यह स्वामीजी का अन्तिम खेतड़ी प्रवास था।
स्वामी विवेकानन्द जी ने एक स्थान पर स्वंय स्वीकार किया था कि यदि खेतड़ी के राजा अजीत सिंह जी से उनकी भेंट नही हुयी होती तो भारत की उन्नति के लिये उनके द्वारा जो थोड़ा बहुत प्रयास किया गया, उसे वे कभी नहीं कर पाते। स्वामी जी राजा अजीत सिंह को समय-समय पर पत्र लिखकर जनहित कार्य जारी रखने की प्रेरण देते रहते थे। स्वामी विवेकानन्द जी ने जहां राजा अजीत सिंह को खगोल विज्ञान की शिक्षा दी थी वहीं उन्होने खेतड़ी के संस्कृत विद्यालय में अष्ठाध्यायी ग्रंथो का अध्ययन भी किया था। स्वामी विवेकानन्द जी के कहने पर ही राजा अजीत सिंह ने खेतड़ी में शिक्षा के प्रसार के लिये जयसिंह स्कूल की स्थापना की थी।
राजा अजीतसिंह और स्वामी विवेकानन्द के अटूट सम्बन्धों की अनेक कथाएं आज भी खेतड़ी के लोगों की जुबान पर सहज ही सुनने को मिल जाती है। स्वामीजी का मानना था कि यदि राजा अजीतसिंह नहीं मिलते तो उनका शिकागो जाना संभव नहीं होता। स्वामी जी ने माना था कि राजा अजीत सिंह ही उनके जीवन में एकमात्र मित्र थे। स्वामी जी के आग्रह पर राजा अजीत सिंह ने स्वामी की माता भुवनेश्वरी देवी को 1891 से सहयोग के लिये 100 रूपये प्रतिमाह भिजवाना प्रारम्भ करवाया था जो अजीतसिंह जी की मृत्यु तक जारी रहा। स्वामी जी का जन्म 12 जनवरी 1863 में व मृत्यु 4 जुलाई 1902 को हुयी थी। इसी तरह राजा अजीतसिंह जी का जन्म 10 अक्टूबर 1861 में व मृत्यु 18 जनवरी 1901 को हुयी थी। दोनो का निधन 39 वर्ष की उम्र में हो गया था व दोनो के जन्म व मृत्यु का समय में भी ज्यादा अन्तर नहीं था। इसे महज संयोग नहीं कहा जा सकता है।
उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए यह संदेश देने वाले युवाओं के प्रेरणास्रेत, समाज सुधारक, युवा युगपुरुष स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता (वर्तमान में कोलकाता) में हुआ। इनके जन्मदिन को ही राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। उनका जन्मदिन राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाए जाने का प्रमुख कारण उनका दर्शन, सिद्धांत, आध्यात्मिक विचार और उनके आदर्श हैं, जिनका उन्होंने स्वयं पालन किया और भारत के साथ-साथ अन्य देशों में भी उन्हें स्थापित किया। उनके ये विचार और आदर्श युवाओं में नई शक्ति और ऊर्जा का संचार कर सकते हैं, उनके लिए प्रेरणा का एक श्रेष्ठ स्रोत साबित हो सकते हैं। किसी भी देश के युवा उसका भविष्य होते हैं। उन्हीं के हाथों में देश की उन्नति की बागडोर होती है। आज के परिदृश्य में चहुं ओर भ्रष्टाचार, हिंसा, बुराई और अपराध का बोलबाला है जो घुन बनकर देश को अन्दर ही अन्दर खाए जा रहे हैं। ऐसे में देश की युवा शक्ति को जागृत करना और उन्हें देश के प्रति कर्तव्यों का बोध कराना अत्यंत आवश्यक है।
स्वामी विवेकानन्द ने रामकृष्ण मिशन नामक सेवा भावी संगठन की स्थापना की, जिसकी राजस्थान में सर्वप्रथम शाखा खेतड़ी में 1958 को राजा अजीतसिंह के पौत्र बहादुर सरदार सिंह द्वारा खेतड़ी प्रवास के दौरान स्वामी जी के ठहरने के स्थान स्वामी विवेकानन्द स्मृति भवन में प्रारम्भ करवायी गयी। मिशन द्वारा खेतड़ी में गरीब तथा पिछड़े बालक-बालिकाओं के लिए श्री शारदा शिशु विहार नाम से एक बालवाड़ी, सार्वजनिक पुस्तकालय, वाचनालय एवं एक मातृ सदन तथा शिशु कल्याण केन्द्र भी चलाया जा रहा है। खेतड़ी चौराहे पर तत्कालीन मुख्यमंत्री स्व.भैरोंसिंह शेखावत ने 1996 में स्वामी विवेकानन्दजी की आदमकद प्रतिमा का अनावरण किया था। जिससे आनेवाली पीढिय़ों को प्रेरणा मिलती रहेगी।
पड़ौसी देशों के हिंदुओं का स्वागत
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लोकसभा ने कल एक बहुत ही विवादास्पद मुद्दे पर विधेयक पारित कर दिया। इस नागरिकता विधेयक का मूल उद्देश्य पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के गैर-मुस्लिम लोगों को भारतीय नागरिकता देना है। अर्थात इन देशों का यदि कोई भी नागरिक हिंदू, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन, यहूदी हो और वह आकर भारत में बसना चाहे तो वैसी छूट मिलेगी। उनसे कानूनी दस्तावेज वगैरह नहीं मांगे जाएंगे। दूसरे शब्दों में भारत सरकार हर तरह से उनकी मदद करेगी। वैसे तो इस कानून का भारत में सभी को स्वागत करना चाहिए। उसके दो कारण हैं। पहला तो यह कि ये तीनों देश- अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश किसी जमाने में भारत ही थे। इन क्षेत्रों में मुसलमान और गैर-मुसलमान सदियों से साथ-साथ रहते रहे हैं लेकिन भारत-विभाजन और काबुल में तालिबान राज के बाद इन देशों में गैर-मुसलमानों का जीना आसान नहीं रहा। पाकिस्तान और बांग्लादेश के हिंदू विशेष तौर से भारत आकर रहना चाहते हैं। यदि भारत उनके लिए अपनी बांहें पसारता है तो इसमें कुछ बुराई नहीं है। यह स्वाभाविक ही है लेकिन असम गण परिषद और प. बंगाल की तृणमूल कांग्रेस जैसी संस्थाओं ने इस विधेयक के विरुद्ध संग्राम छेड़ दिया है। अगप ने तो असम में भाजपा से अपना गठबंधन ही तोड़ दिया है। इसका कारण यह नहीं है कि ये दोनों संगठन हिंदू विरोधी हैं या ये बांग्लादेशी हिंदुओं के दुश्मन हैं। ऐसा नहीं है। सच्चाई यह है कि इन दोनों प्रदेशों में इन राजनीतिक दलों को डर है कि इस कदम से उनका हिंदू वोट बैंक अब खिसककर भाजपा के पाले में जा बैठेगा। उनका यह डर सही है लेकिन हम यह न भूलें कि ये ही संगठन मुस्लिम वोट बैंक पटाने के चक्कर में असम और प. बंगाल के नागरिकता रजिस्टर में बांग्ला मुसलमानों को धंसाने के लिए तत्पर रहे हैं। याने यह मामला हिंदू-मुसलमान का उतना नहीं है, जितना कुर्सी का है। पड़ौसी देशों के सभी नागरिक भी भारत मां की ही संतान हैं। अभी 72 साल पहले तक पाकिस्तान और बांग्लादेश भारत के ही अंग थे। पिछले चार-पांच सौ साल पहले तक नेपाल, भूटान, बर्मा, अफगानिस्तान, श्रीलंका आदि सभी पड़ौसी देश भारत ही कहलाते थे। इसीलिए पड़ौसी देशों के दुखी नागरिकों के बारे में भारत का रवैया हमेशा जिम्मेदाराना ही होना चाहिए। जब 1971 में लाखों बांग्ला मुसलमान भारत में आ गए तो भारत ने उनका स्वागत किया या नहीं ? बेहतर यही हैं कि पड़ौसी राष्ट्रों के संकटग्रस्त लोगों को, चाहे वे किसी भी मजहब, जाति या वर्ग के हों, हम उन्हें अपने बड़े परिवार का हिस्सा ही समझें।
जय जवान जय किसान का नारा बुलंद करने वाले शास्त्री
डॉक्टर अरविन्द जैन
पुण्य तिथि (11 जनवरी पर विशेष) इतिहास में कुछ महान पुरुष होते हैं जो कम समय तक पद पर रहते हुए अनंत समय तक यादों में बसे रहते हैं। कुछ ऐसी यादगार पारी खेल जाते हैं जो समाज और देश को आंदोलित करती रहती हैं। देश जब भीषण अन्न की कमी से जूझ रहा था और अमरीका द्वारा प्रतिबन्ध लगाया गया तब देश के स्वाभिमान के लिए एक दिन का एक समय का उपवास द्वारा अन्न बचायो आंदोलन का सूत्रपात्र किया जिसको पूरे देश ने दलगत राजनीती से ऊपर उठाकर सबने अपनाया और अन्न क्रांति की शुरुआत की जिससे हरित क्रांति नाम दिया गया। जिस समय हम अन्न के लिए दूसरों पर आश्रित थे उस समय स्वावलम्बन कापाठ पढ़ाया जो बहुत सफल और चर्चित रहा।
नेहरू जी के निधन के बाद यह प्रश्न उठा था की नेहरू के बाद कौन ?उस समय बहुत नाम चर्चा में रहे पर कांग्रेस पार्टी ने बहुमत से उनका नाम का प्रस्ताव पारित कर देश का प्रधान मंत्री बनाया, उस समय चीन के युध्य के बाद की स्थिति बहुत दयनीय थी और उसी के कारण पाकिस्तान ने देश पर आक्रमण किया जिसका मुँह तोड़ जबाव दिया गया। जीतने बाद के बाद पाकिस्तान और भारत के बीच समझौता रशिया के ताशकंद में 10 जनवरी 1966 को समझौता होने के बाद उनकी संदिग्ध अवस्था में मृत्यु हुई जिसका आज तक कोई निर्णय नहीं हो पाया
जय जवान जय किसान का नारा देकर उनके द्वारा जो ऊर्जा दी गयी वह आज भी जीवंत हैं। उनका जन्म २ओक्टोबर १९०४ को बनारस के पास रामनगर में हुआ था। उनके पिता जी श्री शारदा प्रसाद श्रीवास्तव जो शिक्षक थे बाद में वे क्लर्क हुए। आपने बहुत आभाव में अपना जीवन यापन कर शिक्षा प्राप्त कर वर्ष 1920 में महात्मा गाँधी के आंदोलन से जुड़ा कर अनेको बार जेल गए और पार्टी के अनेक महत्वपूर्ण पदों पर रहकर नेहरू और गाँधी के विश्वास पात्र रहे। उन्होंने उत्तर प्रदेश की राजनीति में भाग लेकर केंद्र में गृह मंत्री और रेल मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पदों पर रहकर काम किया। एक बार रेल दुर्घटना होने पर घटना की जिम्मेदारी लेकर अपने पद से स्तीफा दिया।
आप सादगी की प्रतिमूर्ति थे तथा उन्होंने कभी भी सत्ता के लाभ को अपना साधन नहीं माना उन्होंने नेहरू जी के साथ रहकर उनके विश्वासपात्र होने से उनको प्रधान मंत्री का पद मिला। उन्होंने सरकरी सुविधायों का कोई दुरूपयोग नहीं किया। तथा वे पक्ष और विपक्ष के बड़े सम्मानीय रहे, उन्होंने कोई भी विवाद को अपने ऊपर छाने नहीं दिया। उनका कद छोटा था पर कद से कई गुना बढ़कर उन्होंने काम किया।
उन्होंने अपने पद का कभी भी दुरूपयोग नहीं किया और उसका उदहारण उन्होंने एप अच्छा को कोई भी पद का लाभ नहीं दिलाया। सादगी और ईमानदारी उनमे कूट कूट कर भरी थी। आज भी जब हम उनकी 54 वी पुण्य तिथि मना रहे हैं उनकी यादे आज भी पूरे देश में सभी वर्गों के साथ उतनी आत्मीयता से याद करते हैं।
कम समय तक देश के प्रधान मंत्री होते हुए देश को बहुत उंचाईओं तक पहुंचाया और 1965 के युध्य में उन्होंने विजय प्राप्त कर देश को गौरव प्रदान कराया। उनकी मृत्यु निःसंदेह बहुत दुखद रही पर उनका योगदान अद्वतीय अविस्मरणीय रहा, उनकी पुण्य तिथि पर देश- वसीय उन्हें कोटि कोटि नमन करते हैं। जय जवान जय किसान का नारा दिग्दिगंत रहेगा।
हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स को निजी क्षेत्र को सौंपने की साजिश?
सनत कुमार जैन
राफेल सौदे का मामला अंबानी और हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड से सीधा जुड़ता हुआ नजर आ रहा है। केंद्र में एनडीए की सरकार बनने के बाद रिलायंस को आगे करके, हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड को बाहर करने की एक सुनियोजित साजिश रची गई थी। जो अनिल अंबानी की जल्दबाजी के कारण समय के पहले उजागर हो गई। इस साजिश के तहत हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड को आर्थिक रूप से कमजोर करके उसके अधिग्रहण की साजिश उच्च स्तर पर रची गई थी। पिछले 4 वर्षों में सुनियोजित रूप से एचएएल को कमजोर करने के लिए सैन्य क्षेत्र से उसे बहुत कम काम दिया गया। जो काम कराया गया उसका भुगतान समय पर नहीं किया। इसके साथ ही हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स में सरकारी हस्तक्षेप बढ़ने से पिछले 4 वर्षों में एचएएल आर्थिक रूप से दिवालिया होने की कगार पर बढ़ चली थी। राफेल मामले में लोक सभा की बहस के दौरान कई ऐसे तथ्य उजागर हुए, जिससे इस आशंका की पुष्टि होती है। सरकार विपक्ष के किसी भी आरोप का कोई सीधा जवाब नहीं दे पाई। डसॉल्ट ने रिलायंस को क्यों चुना। विपक्ष ने रिलायंस के अनिल अंबानी और प्रधानमंत्री मोदी पर सीधे आरोप लगाए। फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति के बयान को विपक्ष ने आधार बनाया। राफेल का सौदा इस शर्त पर हुआ है, कि डसॉल्ट रिलायंस को अपना पार्टनर बनाएगी।
लोकसभा में राफेल मामले में वित्त मंत्री अरुण जेटली और रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने सरकार का पक्ष जिस तरीके से रखा, उसमें गांधी परिवार और बरसों पुराने आरोपों को दोहरा कर सौदे को सही बताने का प्रयास किया गया। आरोपों के माध्यम से राफेल मामले को शांत करने की कोशिश सरकार द्वारा की गई, किंतु सरकार स्वयं ही इसमें फंसती चली गई।
राफेल सौदे को लेकर जो बातें सामने आ रही हैं। उसके अनुसार यूपीए सरकार के समय मुकेश अंबानी समूह की रिलायंस इस सौदे में रुचि ले रही थी। 2012 में रिलायंस समूह ने हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स को अलग करने का प्रयास भी किया था। पूर्व रक्षा मंत्री एके एंटोनी इसके लिए तैयार नहीं हुए। जिसके कारण मुकेश अंबानी की राफेल सौदे से रूचि खत्म हो गई थी। एके एंटोनी राफेल की तकनीकी हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स में ट्रांसफर कराकर भारत में ज्यादा से ज्यादा विमान बनाने के पक्षधर थे। डसॉल्ट ने सरकार के रुख को देखते हुए हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स के साथ समझौता भी लगभग कर लिया था। इसी बीच केंद्र में सरकार बदल गई और रातों-रात सारी स्थितियां भी बदल गई।
केंद्र में यूपीए की सरकार बनने के बाद राफेल सौदे में अनिल अंबानी कूद पड़े। अनिल अंबानी राजनीतिक संरक्षण के कारण, हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स को आर्थिक रूप से कमजोर कर अधिग्रहण करने की योजना बना चुके थे। इस काम में सरकार भी अप्रत्यक्ष रूप से उनकी मदद कर रही थी। राफेल से समझौता होने और लंबी अवधि का अनुबंध होने से अनिल अंबानी समूह की रिलायंस कंपनी ने बड़ी तेजी के साथ रक्षा उपकरण के निर्माण में आगे आने की जो योजना बनाई थी। उसमें सरकार ने अनिल अंबानी की मदद करने के लिए हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स के आर्डर को कम करके और भुगतान नहीं करके उसे कमजोर करना शुरू कर दिया था। सरकार द्वारा एचएएल को समय पर भुगतान नहीं करने के कारण कई माह से वहां पर वेतन नहीं बंटा। जिसके कारण कंपनी को 1000 करोड़ का लोन लेने की कोशिश करनी पड़ी, जबकि यह कंपनी कुछ वर्ष पूर्व तक आर्थिक रूप से बड़ी सक्षम कंपनी थी। सरकार से ऑर्डर नहीं मिलने के कारण और खर्च ज्यादा होने के कारण आर्थिक नुकसान की ओर एचएएल तेजी से बढ़ रही थी। संसद में राफेल सौदे की बहस के दौरान यह सारे तथ्य भी उजागर हुए। रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने संसद में यह कहा कि 1 लाख करोड रुपए के आर्डर हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स को दिए गए हैं। रक्षा मंत्री की इस बयान को राहुल गांधी ने झूठा बताते हुए उन्हें संसद के अंदर चुनौती दे दी। उसके बाद उन्हें स्पष्टीकरण देना पड़ा, जिसमें उन्हें स्वीकार करना पड़ा कि 74 हजार करोड़ रुपए के ऑर्डर प्रक्रिया गत हैं। रक्षा मंत्री अपने ही जबाव में फंस गई। एचएएल के बकाया बिलों का भुगतान अभी तक क्यों नहीं किया गया। उल्लेखनीय है, फ्रांसीसी कंपनी डसॉल्ट को 20000 करोड़ रुपए का भुगतान सरकार ने कर दिया। जबकि एक भी विमान भारतीय वायु सेना को अभी तक नहीं मिला। इससे राहुल गांधी की जेपीसी की मांग को बल मिला।
अनिल अंबानी ने डसॉल्ट के साथ अनुबंध होने के बाद कंपनी की वेबसाइट में खुलासा करने की जो जल्दबाजी की, उससे उन्होंने अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार ली। राफेल सौदे के समय सरकार ने सरकार के साथ सौदा करने की बात कहकर चतुराई का परिचय दिया था। किंतु अनिल अंबानी ने स्वयं गुड़ गोबर कर लिया। रही सही कसर उन्होंने राजनेताओं को मानहानि का नोटिस देकर पूरी कर ली। वर्तमान में राफेल का सौदा अनिल अंबानी के लिए मुसीबत बन गया है। वहीं नरेंद्र मोदी और भाजपा के लिए भी यह सौदा मुसीबत का कारण बन गया है। लोकसभा चुनाव के ठीक पहले राफेल का यह मुद्दा भाजपा की गले में फांस की तरह अटक गया है।
नेता अपनी कब्र खुद क्यों खोदें
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इधर खबरें गर्म हैं कि अलग-अलग प्रांतों में विरोधी दलों के बीच गठबंधन बन रहे हैं, जैसे मायावती और अखिलेश का उप्र में, शरद पंवार और कांग्रेस का महाराष्ट्र में, आप पार्टी और कांग्रेस का दिल्ली में आदि और दूसरी तरफ खबर है कि विपक्ष के नेताओं को जेल जाने की तैयारी के लिए कहा जा रहा है। सोनिया और राहुल तो नेशनल हेरल्ड के मामले में जमानत पर पहले से हैं, मायावती पर मुकदमा चल ही रहा है, हरयाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र हुड्डा भी अदालतों के चक्कर लगा रहे हैं और उप्र के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से भी कहा जा रहा है कि तैयार रहो, तुम्हारे खिलाफ खदान घोटाले की जांच चल रही है और कहीं ऐसा न हो कि 2019 के चुनाव के पहले तुम जेल काटने लगो। चौटाला और लालू यादव को देख रहे हो या नहीं ? उधर कांग्रेस के प्रवक्ता कह रहे हैं, बस चार-छह महिने की देर है। जैसे ही पप्पूजी सत्ता में आए, रफाल-सौदे की जांच होगी और गप्पूजी अंदर हो जाएंगे। वाह क्या बात है, हमारे नेताओं की ! उनकी इस अदा पर कुरबान जाने को जी चाहता है। सबको पता है कि भ्रष्टाचार के बिना आज की राजनीति हो ही नहीं सकती। सारे नेता जानते हैं कि जैसे सत्ता में रहते हुए उन्होंने बेलगाम भ्रष्टाचार किया है, बिल्कुल वैसा ही अब उनके विरोधी भी कर रहे हैं या कर रहे होंगे। सत्ता में रहने पर खुद को चोरी करनी पड़ी है तो उसी कुर्सी में बैठनेवाले को चोर कहने में उन्हें संकोच क्यों होगा ? चोर चोर मौसेरे भाई ! लेकिन यहां एक प्रश्न है। यदि आपको यह शक है या आपको पूरा विश्वास है कि सत्ता में रहते हुए इन विरोधी नेताओं ने अवैध लूटपाट की है तो मैं आपसे पूछता हूं कि आप साढ़े चार साल से क्या घांस काट रहे थे ? कौनसा कंबल ओढ़कर आप खर्रांटे खींच रहे थे ? आपने अखिलेश, मायावती, हूडा वगैरह पर तब ही मुकदमे क्यों नहीं चलाए ? यदि वे मुख्यमंत्री रहते हुए जेल जाते तो अदालत की तो साख बढ़ती ही, आपके बारे में भी यह राय बनती कि यह उन राष्ट्रभक्तों की सरकार है, जो किसी का लिहाज नहीं करती है और ‘‘न खुद खाती है और न किसी को खाने देती है।’’ लेकिन अब चुनाव के वक्त आपके पिंजरे का तोता (सीबीआई) चाहे जितना रोए-पीटे, उसकी कोई कद्र होनेवाली नहीं है। उसकी कोई सुननेवाला नहीं है। इन नेताओं ने सचमुच कुछ जघन्य अपराध यदि किए भी हों तब भी लोग यही मानेंगे कि सरकार अपनी खाल बचाने के लिए इनकी खाल उधेड़ने में जुटी हुई है। महागठबंधन की खबरों से डरी हुई सरकार अगर इस वक्त यह पैतरा अपनाएगी तो वह अपनी कब्र खुद खोदेगी।
प्रभुता पाय मद जो आय
डॉक्टर अरविन्द जैन
यह सार्वभौम्य सत्य हैं की उगते सूर्य को सब नमस्कार करते हैं और डूबता को नहीं जबकि दोनों समय की लालिमा लगभग एक सी होती हैं पर उगते सूर्य को ही अर्घ दिया जाता हैं, वैसे ही जो सत्ता पर बैठता हैं उसका रुतबा बहुत होता हैं और होना भी चाहिए कारण उसका जीतना बहुत कठिन होता हैं और जैसे तैसे जीत गए और विधायक /मंत्री बन गए तो मानकर चलो सत्ता/शासन उनकी पादुका जैसी बन जाती हैं और सत्य यह भी हैं की वे शासक /मालिक बन जाते हैं और शासकीय सेवक को वे लोग गुलाम जैसा व्यवहार करते हैं या गुलाम मानते हैं, और मानना भी चाहिए। हारने वाले जब स्वप्न में चिंतन करते हैं तो उनको भी संभव लगता होगा की हमारे या मेरे द्वारा भी ऐसा ही व्यवहार किया जाता रहा हैं या था। अब चिड़िया चुग गयी खेत अब पछताय का होत।
आज समाचार पत्र में पढ़ने मिला की मनपसंद सरकार के काबीना मंत्री महेंद्र सिंह सिसोदिया ने एक शिकायत पर उपस्थित अफसर को भला बुरा के साथ कहा जो किसी भी व्यक्ति के द्वारा इस प्रकार की भाषा का उपयोग करना अमानवीयता कही जाती हैं और आपराधिक श्रेणी में भी माना जाता हैं पर शासकीय सेवक होने से उनकी मज़बूरी या बाध्यता हैं उसने सुना और कोई प्रतिकार नहीं कर सकता या सका। कारण उसके भरण पोषण का सवाल हैं। यह भी अजब गज़ब हैं कल तक वे श्रीमान वोट के लिए भीख मांगते फिर रहे थे और आज उसी वोट के आधार पर लात मारने जैसे शब्दों का उपयोग करने लगे। यह जनता भिखारियों को मालिक बना सकती हैं और मालिक को गुलाम जैसा।
मंत्री महोदय का कोफ़्त स्वाभाविक हैं पर उसका निराकरण सभ्यता के साथ करते तो बहुत अच्छा लगता पर इतनी अधिक उतावली का होना कुछ अच्छे लक्षण नहीं हैं। यदि वह कर्मचारी एक बार सोच ले की मुझे नौकरी नहीं करना हैं या नौकरी बेइज़्ज़ती के साथ नहीं करनी या वह भी उसी लहज़े में प्रतिकार कर देता तो माननीय की क्या स्थिति होती। ऐसा लगता हैं की नया हाजी अधिक प्याज खाता हैं। उनको लगनेलगा की हम अब पांच साल के मालिक बन गए, परन्तु राजनीति बहुत घटिया होती हैं, कल कुछ विधायक पलट जाए तो सरकार नीचे आ सकती हैं इस बात का चिंतन जरूर करना चाहिए।
इस विधान सभा चुनाव में सरकारी कर्मचारियों ने अनेक मंत्रियों और विधायकों को नोटा में वोट डाल कर उनको धरातल दिखाया और दिखा दिया। ये पद बहुत अस्थायी होते हैं और ये सब दया के पात्र होते हैं। कल तक जो राजा अर्श पर थे वे फर्श पर आ गए। कभी नाव नदी पर और नदी नाव पर। अन्तः ये पद भिखारियों के होते हैं और कभी भी घमंड नहीं करना चाहिए। आप जनता के सेवक बनकर जीते हो और अब मर्यादा छोड़कर इस तरह की भाषा बोलना उचित नहीं हैं, कर्मचारी तो उसका होता हैं जो पद पर आसीन होते हैं।
ऐसा लगता हैं की नए नेता यह समझते हैं की सेवक किसी पार्टी का समर्थक होता हैं ! पर वह किसी का नहीं होता हैं, उसका काम हैं आदेश का पालन करना जो नियम सम्मत हो, सरकारी सेवक वो शक्ति होती हैं जो उअपरी सतह पर शांत और नीचे आंदोलित होती हैं, जो काम भाई चारे से, प्रेम से, विनम्रता से से हो सकता हैं वह आक्रोश, दबाव और गुंडा गर्दी से नहीं हो सकता हैं, और काम आखिर सरकारी कर्मचारी ही करेंगे आप कितनो को बदलेंगे या कितनो को निलंबित करेंगे। अभी कार्य शैली समझे और क्या कमिया हैं उनको दूर करे। कल आप भी उसी परम्परा पर चलेंगे और आपको भी अनियमितता करना पड़ेगी या करवायेंगे। तब वे ही सेवक बचते हैं और फंसाते हैं।
भारत-बांग्ला नई ऊंचाइयां
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
बांग्लादेश में शेख हसीना वाजिद की अपूर्व विजय भारत-बांग्ला संबंधों को नई ऊंचाइयों पर ले जाएगी। यदि हसीना हार जातीं और खालिदा ज़िया जीत जातीं तो वह पाकिस्तान के लिए बड़ी खुशखबरी होती, क्योंकि खालिदा ने सत्ता में रहते हुए और उसके बाद बांग्लादेश के उन तत्वों से हाथ मिलाये रखा, जो कट्टरपंथी इस्लामिक थे, जो पाकिस्तान के अंध-समर्थक थे और जिन्होंने बांग्लादेश की आजादी के संग्राम का भी विरोध किया था। उनके विपरीत हसीना ने भारत के साथ अपने संबंधों को मजबूत बनाने की हरचंद कोशिश की है। इस चुनाव में वे तीसरी बार लगातार जीती हैं और सबसे मजेदार बात यह हुई कि विरोधी दलों के गठबंधन ने कोई भी भारत-विरोधी मुहीम नहीं चलाई, जैसा कि पिछले चुनावों में होता रहा है। भारत ने भी किसी भी प्रकार से चुनाव में कोई हस्तक्षेप नहीं किया। हसीना ने बांग्लादेश में बन रहे आतंकवादी अड्डों को नष्ट किया, जिससे भारत को राहत मिली। उन्होंने पूर्वी सीमांत पर आतंक फैलानेवाले अनूप चेतिया को पकड़कर भारत के हवाले किया। वे चीन के साथ अपने संबंध घनिष्ट जरुर बना रही हैं। उन्होंने बर्मा के लाखों रोहिंग्या मुसलमानों को चीन की पहल पर शरण देकर चीन-बांग्ला संबंधों में घनिष्टता उत्पन्न की लेकिन वे भारत और बांग्लादेश के बीच नए-नए थल और रेल मार्ग खोलने पर भी उत्साहपूर्वक कार्य कर रही हैं। दोनों देशों के बीच गैस की पाइपलाइन भी डल रही हैं। बांग्ला-छात्रों को अब तीन साल का और वरिष्ठ नागरिकों को पांच साल का वीजा देकर भारत अपने इस पड़ौसी देश के लिए विशेष सुविधा पैदा कर रहा है। भारत के पूर्वी पड़ौसियों में हर प्रकार का सहयोग ‘बिम्सटेक’ संगठन के माध्यम से बढ़ाने में बांग्लादेश अग्रणी भूमिका निभा रहा है। दक्षेस की बैठकों में भी लगभग सभी प्रमुख मुद्दों पर भारत और बांग्लादेश का रवैया एक जैसा ही होता है। फरक्का बांध और सीमा के विवाद भी सुलझ चुके हैं। उम्मीद है कि तीस्ता-जल विवाद भी शीघ्र ही सुलझ जाएगा। हसीना ने अपने पिछले दस साल के कार्यकाल में नागरिकों की प्रति व्यक्ति आय में तिगुनी वृद्धि कर दी है। इसके अलावा बांग्लादेश की आर्थिक प्रगति की रफ्तार भारत और पाकिस्तान से भी ज्यादा रही है। शेख हसीना अपने महान पिता शेख मुजीब के चरण-चिन्हों पर चलती हुईं बांग्लादेश को एक धर्म-निरपेक्ष, समृद्ध और विकसित राष्ट्र बनाने के लिए कटिबद्ध हैं।
कश्मीर में सेना यूपी में पुलिस पर पत्थरबाजी ?
प्रभुनाथ शुक्ल
लोकतंत्र में हमारे अधिकार हिंसक क्यों बन रहे हैं। हम संविधान उसके विधान और व्यवस्था को हाथ में लेकर खुद न्यायी क्यों बनना चाहते हैं। संविधान में लोकतांत्रिक ढंग से अपनी बात रखने की पूरी आजादी है। हर वह व्यक्ति, संस्था, समूह, दल और संगठन अपनी बात वैचारिक रुप से रख सकता है। यह लोकतांत्रिक तरीके से शांतिपूर्ण प्रदर्शन के जरिए भी हो सकता है। अपनी बात रखने के लिए हमारे पास संसद, राज्य विधानसभाएं, संबंधित विभाग और अधिकारी भी हैं। लेकिन हम फिर भी हिंसा का रास्ता क्यों अपनाते हैं। उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में आरक्षण की मांग कर रहे निषाद पार्टी के समर्थकों ने जिस तरह का नंगा नाच किया उसे किसी भी तरह से लोेकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता। गाजीपुर में उस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभा थी। पुलिस वहां से वापस लौट रही थी। अटवा मोड पर निषाद पार्टी की तरफ से आरक्षण की मांग को लेकर प्रदर्शन चल रहा था। जिसकी वजह से पूरी सड़क जाम थी। पुलिस लोगों को समझा-बुझा कर रास्ता खुलवाना चाहती थी। लेकिन उसी दौरान भीड़ हिंसक हो गयी और पुलिस पर पथराव करने लगी जिसकी वजह से सुरेश वत्स की मौत हो गयी। अब भला पुलिस का दोष क्या था। पुलिस पर पथराव की जरुरत क्या थी। पुलिस क्या प्रदर्शनकारियों पर लाठी बरसा रही थी या फिर फायरिंग कर रही थी। अगर वहां ऐसा कुछ नहीं था तो भीड़ को हिंसक बनने की क्या आवश्यकता थी। क्या पथराव और हिंसा से आरक्षण मिल जाएगा। यह मांग क्या पुलिस पूरी करती, अगर नही ंतो क्या पुलिस सरकार थी। किसी बेगुनाह इंसान की जान लेकर ही क्या न्याय मिल जाएगा। निश्चित रुप से यह बेहद शर्मनाक घटना है। यह लोकतंत्र को शर्मसार करने वाली है। इसकी जितनी भी भत्र्सना की जाय कम है।
उत्तर प्रदेश में भीड़ की हिंसा का शिकार कोई पहला पुलिसकर्मी नहीं हुआ। हाल में बुलंदशहर में इंस्पेक्टर सुबोध सिंह को भी माब लिंिचंग का शिकार होना पड़ा। इसके पूर्व समाजवादी सरकार में प्रतापगढ़ में सीओ जियाउल हक और मथुरा में एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी के साथ एक एसएचओ की मौत हो चुकी है। सवाल उठता है कि हम पुलिस को अपने से अलग क्यों समझते हैं। हम अपना गुस्सा पुलिस पर क्यों उतारते हैं। यह जघन्य वारदात पूर्वांचल के उस जिले में हुई जहां से सबसे अधिक लोग सेना और यूपी पुलिस में कार्यरत हैं। हमारे दिमाग में शायद यह बात घर कर गई है कि पुलिस सरकार की कठपुतली होती है। वह उसी के इशारे पर नाचती है और भीड़ पर जरुरत पड़ने पर लाठियां भांजती है। प्रशासनिक व्यवस्था में कानून और शांति व्यवस्था को संभालने के लिए सबसे पहले पुलिस नजर आती है। यह कुतर्क है इसका यह कत्तई मतलब नहीं है कि पुलिस सरकार की कठपुतली है या उसके इशारों पर नाचती है। पुलिस समाज में शांति व्यवस्था कायम रखने की प्राथमिक इकाई है। वह हमारे साथ हमेंशा खड़ी दिखती है। लूट, हत्या, डकैती या सामाजिक अपराध से बचाने के लिए पुलिस हमारा साथ नहीं देती। अपराधियों से हमें बचाने में पुलिस अपना सहयोग और बलिदान देती है। आतंकी और आपराधिक मुठभेड़ों में पुलिस को अपनी जान गंवानी पड़ती है। अगर पुलिस हमारे साथ हमेंशा खड़ी रहती है तो उसके साथ हमें और समाज को नजरिया बदलना होगा। पुलिस को मित्रवत देखना होगा साथ ही पुलिस को भी अपनी सोच बदलनी होगी। सत्ता के लिए पुलिस का उपयोग भी बंद करना होगा।
गाजीपुर में जो कुछ हुआ उसमें पुलिस को कोई गुनाह नहीं है। वहां पुलिस ने बेहद संयम बरता है।उसे अपनी आत्मरक्षा करने का पूरा अधिकार है। वह चाहती तो भीड़ पर पथराव के जबाब में फायरिंग कर सकती थी। उसके बाद की स्थिति क्या होती इसका जबाब निषाद पार्टी के लोगों के पास है। पता नहीं कितने बेगुनाह मारे जाते। पूरा विपक्ष सरकार पर अभी लामबंद है तब यह राष्टीय राजनीति का मसला बन जाता। पूरी यूपी पुलिस कटघरे में होती। संसद से लेकर सड़क तक राजनैतिक लामबंदी देखी जाती। क्योंकि सामने लोकसभा का आम चुनाव है। निश्चित रुप से यह प्रदर्शन भी निषाद पार्टी की तरफ से लोकसभा चुनावों को ध्यान में रख कर किया गया था। समय भी उचित चुना गया था क्योंकि उसी दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गाजीपुर आ रहे थे। यह सब सरकार का ध्यान खींचने के लिए किया गया था। हम इसका समर्थन करते है यह उनका लोकतांत्रिक अधिकार था। लेकिन अच्छी बात तब थी जब भीड़ ंिहंसक न होती। पुलिस वालों पर वेवजह पथराव न किए जाते। लोकतंत्र तभी संवृृद्ध और मजबूत बन सकता है जब हमारे अंदर वैचारिकता जिंदा होगी। हम हिंसा के जरिए किसी समस्या का समाधान नहीं निकाल सकते हैं। जरा सोचिए बुलंदशहर में माब लिंिचंग का शिकार हुए इंस्पेक्टर सुबोध सिंह हों या फिर गाजीपुर में सुरेश वत्स की मौत यह पूरे देश को शर्मसार करती है। हम सरकार या सत्ता से बाहर रख कर अपनी जिम्मेदारियों से नहीं बच सकते हैं। जितनी अधिक सरकार की जिम्मेदारी है उससे कहीं अधिक विपक्ष की बनती है। क्या समाजवादी सरकार में इस तरह की घटनाएं नहीं हुई थी। सिर्फ वर्दी धारण करने भर से कोई व्यक्ति हिंसक और हिटलर नहीं बन जाता। वह हमारी संवैधानिक व्यवस्था का एक अंग होता है। उसका भी अपना परिवार और सपना होता है। जरा सोचिए अगर कोई अपना असमय हादसे का शिकार हो जाता है तो हमारी उम्मीद टूट जाती है। फिर सुबोध सिंह और सुरेश सिंह क्या इंसान नहीं थे। उनका अपने परिवार, बच्चों, मां-बाप और पत्नी के प्रति कोई दायित्व नहीं था। उनकी कोई उम्मीद और सपना नहीं था।
देश में बढ़ती भीड़ की हिंसा ससंद और आम लोगों के साथ टीवी डिबेट का अहम शब्द बन गया है। सवाल उठता है कि क्या तरह की हिंसा के पीछे कौन है। सयम रहते हम उन्हें पहचान क्यों नहीं पाते। उसकावे की राजनीति के पीछे मकसद क्या होता है। सरकारों की बदनामी या और कुछ। सरकारों का दोष क्या कहा जा सकता है। लेकिन सरकारें अपनी जिम्मेदारी और से बच नहीं सकती। राज्य की योगी सरकार घटना को गंभीरता से लिया है। पीड़ित परिवार को 50 लाख की सरकारी सहायता और परिवार के एक व्यक्ति को नौकरी के अलावा पेंशन का एलान किया है। घटना में 32 लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गयी है। 22 लोग गिरफतार भी हुए हैं, लेकिन यह चुनावी मौसम है राजनीतिक हवन होंगे। सरकार को विपक्ष घेरेगा। लेकिन सवाल उठता है कि क्या सुबोध सिंह और सुरेश सिंह वापस लौट सकते हैं। इस तरह की घटनाएं कब रुकेंगी। अगला दूसरा पुलिसकर्मी निशाना न बने, इस पर कब गौर होगा। सरकार अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकती है। सवाल उठता है कि जब निषाद पार्टी ने प्रदर्शन की घोषणा कर रखी थी तो उस सयम जिला प्रशासन का खुफिया विभाग क्या कर रहा था। प्रदर्शन इतना हिंसक होगा इसकी जानकारी उसे क्यों नहीं लगी। जबकि उस समय पीएम मोदी का दौरा था। इस पूरे प्रकरण की निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। यह क्या कश्मीर में सेना और यूपी में पुलिस पर पत्थरबाजी की जा रही है। दोषियों के लिखाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। प्रदर्शन के आयोजकों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए। समाज, सत्ता, विपक्ष को पुलिस के प्रति नजरिया बदलना होगा। पुलिस को भी इस तरह की छूट मिलनी चाहिए जिससे की वह इस तरह के हिंसक प्रदर्शनों से अपने मुताबिक निपट पाए। इस तरह की घटनाओं पर राजनीति नहीं मंथन होना चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में जाति, धर्म, संप्रदाय के नाम पर राजनीतिक दलों का गठन बंद होना चाहिए।
बांग्लादेशः हसीना को दिल दिया
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
बांग्लादेश में एक बेगम की पार्टी को 300 में से 287 सीटें मिल गईं और दूसरी बेगम की पार्टी को मुश्किल से छह सीटें मिलीं। पहली बेगम शेख हसीना वाजिद हैं और दूसरी बेगम खालिदा जिया हैं। बांग्लादेश पिछले 30 साल से इन दोनों बेगमों के बीच झूल रहा है। आवामी लीग की नेता हसीना शेख मुजीब की बेटी हैं और बांग्लादेश नेशनल पार्टी की नेता खालिदा जिया राष्ट्रपति जिया-उर-रहमान की पत्नी हैं। जनरल इरशाद की फौजी तानाशाही से निजात पाते वक्त ये दोनों बेगमें कंधे से कंधा मिलाकर लड़ती रहीं लेकिन उसके बाद दोनों एक-दूसरे की जानी दुश्मन बन गईं। शेख हसीना पिछले दस साल से सत्ता में हैं और अब अगले पांच साल के लिए तीसरी बार चुन ली गई हैं। इस बार जैसी जबर्दस्त विजय उनकी हुई है, आज तक दक्षिण एशिया में किसी नेता की नहीं हुई। विपक्ष के गठबंधन को 300 में से सिर्फ 10-12 सीटों पर सिमटना पड़ा। याने हसीना को लगभग 95 प्रतिशत सीटें मिल गईं। जाहिर है कि इतनी सीटें खो देने पर विपक्ष का बौखला उठना स्वाभाविक है। आश्चर्य यह है कि बीएनपी की नेता खालिदा जिया, जो कि पहले प्रधानमंत्री रह चुकी हैं, आजकल जेल में हैं और उनके जेल में रहने के बावजूद बांग्ला मुसलमानों का दिल जरा भी नहीं पिघला। उनकी प्रतिक्रिया खालिदा के प्रति वैसी ही हुई, जैसी पाकिस्तान के लोगों की नवाज शरीफ के प्रति हुई। क्या मुस्लिम देशों के लोग इतने जागरुक होते हैं कि अपने प्रिय नेताओं पर भ्रष्टाचार सिद्ध होते ही वे उन्हें इतिहास के कूड़ेदान में बिठा देते हैं ? विपक्षी गठबंधन के नेता कमाल हुसैन का मानना है कि यह मतदान बांग्लादेश की जनता का नहीं है। यह हसीना का वोट हसीना को मिला है। उनका कहना है कि मतदान पेटियां पहले से भरकर रखी गई थीं। उनके समर्थकों को वोट ही नहीं डालने दिए गए। 17 लोग मारे गए। सैकड़ों घायल हुए। लेकिन हसीना के समर्थकों का कहना है कि उनकी सरकार की शानदार आर्थिक नीतियों का परिणाम है कि बांग्लादेश का सकल उत्पाद 7.8 प्रतिशत बढ़ा। उसे अब 10 प्रतिशत तक ले जाएंगे। कपड़ा उद्योग के मजदूरों और किसानों की आय बढ़ी है तथा बर्मा से भगाए गए रोहिंग्या मुसलमानों को शरण देकर हसीना ने आम लोगों के दिल में अपना घर बना लिया है। इसके अलावा खालिदा जिया ने अनाथालयों के लिए विदेश से आए करोड़ों रुपयों का अपने व्यक्तिगत उपयोग के लिए इस्तेमाल किया, इस घटना ने बीएनपी की कब्र खोदकर रख दी है। जो भी हो, बेगम शेख हसीना की विजय का भारत में स्वागत ही होगा। हमारे इधर के बंगालियों और उधर के बंगालियों, दोनों को जानदार महिलाओं का नेतृत्व मिला है। दोनों में मैत्री-भाव बढ़े, यही कामना है।
भाजपा दिग्गजों के किले में लगी कांग्रेस की सेंध
रहीम खान
मध्यप्रदेश में हाल ही सम्पन्न विधानसभा चुनाव के जो परिणाम सामने आये उसने परिवर्तन के प्रभाव में प्रदेश में भाजपा के अनेक वरिष्ठ दिग्गज नेता कहे जाने वाले नरेन्द्र सिंह तोमर, सुमित्रा महाजन, राकेश सिंह, भागीरथ प्रसाद, प्रहलाद पटेल, सावित्री ठाकुर, ज्योति धुर्वे, फग्गन सिंह कुलस्ते, नंदकुमार सिंह चैहान, रोडमल नागर, चिंतामणी मालवीय के मजबूत किले में कांग्रेस सेंध लगाने में सफल होने से निकट भविष्य के लोकसभा चुनाव इनके लिये सफलता प्राप्त करना इनके लिये टेढ़ी खीर बन गया है। क्योंकि इन नेताओं के जिलों में भाजपा का एकतरफा वर्चस्व था जो अब टूट चुका है। यहां तक कि राजधानी भोपाल जिले में 29 साल के बाद कांग्रेस को चार सीटों पर सफलता प्राप्त हुई। जो यह दर्शाता है कि आने वाले चुनाव में भाजपा के लिये अच्छा संकेत नहीं है। इतना ही नहीं भोपाल की अन्य सीटों में हारने के बाद कांग्रेस का प्रदर्शन भाजपा को कड़ी चुनौती देने वाला रहा है।
चुनाव परिणाम के बाद जो परिदृश्य उभर कर आया है उसमें केन्द्रीय मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर के किले ग्वालियर में वह स्वयं लोकसभा चुनाव 29699 मतों से जीते थे पर विधानसभा में कांग्रेस ने यहां पर 7 सीट ग्वालियर, ग्वालियर पूर्व, ग्वालियर दक्षिण, भीतर बाहर, डबरा, करेरा, कोहरी में जीत प्राप्त की और भाजपा केवल ग्वालियर ग्रामीण की ही सीट जीत पाई। इस तरह जिले में कांग्रेस 133936 वोटों से आगे रही। जबकि इंदौर भी कांग्रेस मजबूत गढ़ था जिसे वर्तमान सांसद सुमित्रा महाजन ने 450000 वोटों से जीता था जहां पर भाजपा की 8 में 7 सीट थी पर 2018 में परिवर्तन का प्रभाव यह रहा कि कांग्रेस इन्दौर-1, राऊ, देपालपुर, सावेर में जीत प्राप्त करने में सफल हो गई जबकि शेष 4 भाजपा के पास है। यहां भाजपा 95380 वोटों से आगे रही। संस्कारधानी जबलपुर में लोकसभा चुनाव भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह 208639 मतों से जीता था। यहां 6 सीट पर भाजपा का कब्जा था, लेकिर 2018 में कांग्रेस जबलपुर पूर्व, जबलपुर पश्चिम, बरगी, जबलपुर उत्तर अर्थात 4 सीट जीतने में सफल रही वहीं शेष 4 पर भाजपा है। यहां भाजपा मात्र 37833 वोटों से आगे है। इसी तरह सांसद अनूप मिश्रा के मुरैना सीट उन्होंने 132981 मतों से जीता था पर 2018 में बडा परिवर्तन हुआ और कांग्रेस ने यहां कि 7 सीट श्योपुर, सबलगढ़, जोरा, सुमावली, मुरैना, दीमनी, अंबा जीती और भाजपा केवल विजयपुर में जीत प्राप्त कर पाई। सांसद अनुप मिश्रा स्वयं भीरवार से हार गये। यहां पर कांग्रेस 126842 मतों से आगे है।
इसी क्रम में भिंड जिले से भी भाजपा को नुकसान हुआ। यहां उसके सांसद भागीरथ प्रसाद 159961 वोटों से जीते थे, पर 2018 में परिवर्तन हुआ और कांग्रेस लहार, मेहगांव, गोहद, सेवड़ा, भानरे मंें जीत प्राप्त कर पाई वहीं भाजपा अटेर और दतिया, बसपा भिंड में जीती। यहां कांग्रेस 99280 वोटों से आगे है। जबकि सांसद प्रहलाद पटेल के दमोह जिले में भी परिवर्तन का प्रभाव देखने मिला। पटेल ने यहां 213299 मतों से जीत प्राप्त की थी। पर 2018 में कांग्रेस यहां बंडा, देवरी मलहरा, दमोह में एवं भाजपा रेहली, जबेरा, हटा और बसपा पथरिया में जीती। इस तरह से यहां कांग्रेस का पल्ला भारी हुआ और भाजपा मात्र 11000 वोटों से आगे है। जिला धार में भी परिवर्तन देखने मिला जहां पर कांग्रेस ने 2018 में सरदारपुर, कुछी, गंधवानी, मनावर, बदनावर, धरमपुरी एवं भाजपा धार, और मऊ में जीत पाई। यहां पहले 6 सीटेे भाजपा के पास थी यहां कांग्रेस 220070 वोटों से आगे है। जिला बैतूल में भी उलटफेर हुआ, जहां भाजपा के पास पहले 6 सीट थी अब 4 रह गई। कांग्रेस ने मुल्ताई, घोड़ाडोगरी, भैंसदेही, एवं भाजपा आमला, हरदा, हदसूद, टिमरनी में जीत प्राप्त कर पाई। कांग्रेस यहां 40676 वोटों से आगे है।
वहीं मंडला जिले में सांसद फग्गनसिंह कुलस्ते 110469 मतो से जीते थे पर 2018 में कांग्रेस ने सीटों की संख्या बढ़ाते हुए शाहपुर, डिंडोरी, बिछिया, निवास, लखनादौन, गोटेगांव एवं भाजपा मात्र मंडला, केवलारी ही जीत पाई। यहां कांग्रेस 121688 मतों से जीतने में सफल रही। खण्डवा जिले में सांसद नंदकिशोर सिंह चैहान 259714 वोटों से जीते थे, पर 2018 में बड़ा परिवर्तन यहां हुआ। भाजपा 7 से घटकर 3 सीट पर सिमटगई। कांग्रेस ने नेपानगर, भीकनगांव, बडवाह, मंधाता, भाजपा खंडवा, पंधाना, बागली, व निर्दलीय बुरहानपुर में जीती। यहां कांग्रेस 26294 वोटों से आगे है। राजगढ़ जिले में लोकसभा चुनाव 2 लाख से अधिक मतों से जिताने वाले सांसद रोडमल नागर के किले में भी सेंध लग गई। और कांग्रेस ने राजगढ़, खिलचीपुर, चचैड़ा, ब्यावरा, राधौगढ़, भाजपा नरसिंहगढ़, सारंगपुर एवं निर्दलीय सुसनेर में जीते। यहां कांग्रेस 185010 मतों से आगे है। वहीं महाकाल की नगरी उज्जैन में सांसद चिंतामणी मालवीय 3 लाख से अधिक मतों से जीते थे। यहां कांग्रेस ने भाजपा से 8 में 5 सीटे जीत ली। बडनगर, नागदा, तराना, घटिया, आलोक एवं भाजपा उज्जैन उत्तर, उज्जैन दक्षिण, महिदपुर, जीतने में सफल रही। यहां भाजपा मात्र 14643 वोटों से आगे है। बालाघाट जिले में भाजपा सांसद बोधसिंह भगत 90000 से अधिक मतों से जीते थे यहां पर कांग्रेस की सीटे बढ़ी बैहर, लांजी, कटंगी, वारासिवनी, बरघाट भाजपा बालाघाट, परसवाड़ा व सिवनी ही जीत पाई।
इस तरह से उपरोक्त चुनाव परिणाम का अध्ययन करने से हम पाते है कि वर्तमान समय प्रदेश की 29 में से 26 सीटें भाजपा व 3 सीट कांग्रेस के पास है। विधानसभा चुनाव के बाद जो नतीजे आये उसमें भाजपा की 13 संसदीय सीटे डेंजर जोन में आ गई है। जबकि कांग्रेस की तीनों लोकसभा सीट छिंदवाड़ा, गुना, रतलाम सेफ जोन में चली गई है। छिंदवाड़ा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आमसभा के बाद भी भाजपा सभी 7 सीटों में हार गई वहीं सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया के जिले गुना में 5 कांग्रेस, 3 भाजपा तथा सांसद कांतिलाल भूरिया के जिले रतलाम में भी कांग्रेस की बढ़त रही है पर उनका स्वयं का बेटा झाबुआ सीट से हार गया।
बहरहाल हार-जीत के ये आंकडे स्पष्ट संकेत दे रहे है कि इस बार मध्यप्रदेश में लोकसभा चुनाव के हालात 2013 की तरह नहीं होगें और उसे अनेक संसदीय सीटों को गवाना पड़ेगा। क्योंकि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है और विधानसभा चुनाव परिणाम मंें जिस तरह से कांग्रेस के दिग्गज सांसदो के जिले में हार का सामना करना पड़ रहा है वह यह संकेत कर रहा है कि आने वाला समय भाजपा के लिये बहुत अधिक उत्साहवर्धक नहीं रहने वाला है। हालांकि यह भी सत्य है कि हर चुनाव का अपना एक अलग वातावरण व मापदंड होते है एक चुनाव की तुलना दूसरे से नहीं करना चाहिये । विधानसभा मंे प्रदेश सरकार और लोकसभा में केन्द्र सरकार को देखते हुए मतदान किया जाता है।