वंदे मातरम : कमलनाथ का ‘राष्ट्रवादी नवाचार’
(शैलेश शुक्ला)
मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री कमलनाथ ने वंदे मातरम को भव्य, सर्व सुलभ तथा जन-जन तक लोकप्रिय बना दिया. अब भोपाल में पुलिस बैंड और आम लोगों की सहायता के साथ वंदे मातरम का गायन होगा।
कमलनाथ की इस कूटनीति के फेर में भारतीय जनता पार्टी एक बार फिर फंस गई। भाजपा को लग रहा था कि कमलनाथ ने वंदे मातरम् पर प्रतिबंध लगा कर प्रदेश में भाजपा को नई जान दे दी है, लेकिन 2 दिन के भीतर ही कमलनाथ के इस ‘राष्ट्रवादी नवाचार’ ने भाजपा को एक बार फिर मात दे दी. वंदे मातरम गायन कमलनाथ को प्रारंभ से ही प्रिय रहा है। उनके अनेक कार्यक्रम वंदे मातरम गायन से ही प्रारंभ होते हैं। सेवा दल के कार्यकर्ता कमलनाथ को जहां भी रिसीव करते हैं वहां वंदे मातरम गायन होता है चाहे वह एयरपोर्ट हो या फिर कोई अन्य स्थल।
किंतु 1 जनवरी को जब वंदे मातरम गायन नहीं हुआ तो भाजपा ने प्रदेश व्यापी आंदोलन की योजना बना ली। हालांकि शंका भाजपा को भी थी, भाजपा यह भांपने का प्रयास कर रही थी कि कमलनाथ का अगला कदम क्या होगा? इसलिए शिवराज सिंह ने भी सोच समझ कर अपनी टिप्पणी की। कहीं ना कहीं उनके मन में भी दुविधा थी कि कमलनाथ किस तरह से वंदे मातरम् का प्रस्तुतीकरण करना चाहते हैं, भाजपा की आशा के विपरीत कमलनाथ ने इसे और भव्य तथा जनता के अनुरूप बनाकर एक तरह से भाजपा की आशाओं पर कुठाराघात ही किया है, जो लोकसभा चुनाव से पहले मध्यप्रदेश में मुद्दों की तलाश में है।
लोकसभा चुनाव में 5 माह से भी कम का वक्त बचा हुआ है। जनता जानती है और भाजपा भी कि 5 माह के कार्यकाल को लेकर किसी तरह की एंटी इनकंबेंसी आना संभव नहीं, इसलिए भावनात्मक मुद्दों की तलाश की जा रही है। कमलनाथ ने जिस तरह से शुरुआत की है उससे भाजपा में चिंता की लहर दौड़ गई है।
किसानों की कर्ज माफी, किसानों की पेंशन, आशा कार्यकर्ताओं के मानदेय में वृद्धि, बिजली के बिल में रियायत जैसे अनेक कदम सत्ता संभालने के कुछ ही दिन के भीतर उठाकर कमलनाथ ने विपक्ष को बोलने का मौका नहीं दिया है।
उन्होंने प्रशासनिक अधिकारियों से घोषणा करवाने का नवाचार प्रारंभ किया है, जो जनता को भा रहा है. राम वन गमन पथ कांग्रेस के एजेंडे में पहले से ही था, गौ माता को सड़कों की जगह गौशाला में रखने का आदेश कमलनाथ दे ही चुके हैं और अब वंदे मातरम को भव्यता प्रदान करके कांग्रेस ने सॉफ्ट हिंदुत्व के जरिए भाजपा के हिंदू वोट बैंक में भी सेंध लगाने की पूरी तैयारी कर ली है। कांग्रेस का यह ‘हिंदू अवतरण’ राहुल गांधी सहित अन्य नेताओं के मंदिर जाने तक ही सीमित नहीं है बल्कि उससे आगे भी हिंदुत्व को नया आयाम प्रदान करने के लिए कमलनाथ जैसे नेता नई ऊर्जा के साथ काम कर रहे हैं। राम मंदिर पर प्रधानमंत्री के बयान के बाद हिंदूवादी वादी ताकतें भारतीय जनता पार्टी से निराश हैं और अपने राजनीतिक मंतव्य की पूर्ति के लिए प्लेटफॉर्म की तलाश में हैं। यदि कमलनाथ यह मोमेंटम जारी रख सके तो कम से कम मध्यप्रदेश में तो लोकसभा चुनाव में वे अवश्य ही धूम मचा देंगे. यह जानना दिलचस्प होगा कि अगले माह के पहले कार्य दिवस को जब पुलिस बैंड के साथ वंदे मातरम गायन होगा तो उसमें मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान दल बल के साथ शामिल होंगे अथवा नहीं? क्योंकि भारतीय जनता पार्टी का कहना है कि जहां राष्ट्र का प्रश्न है वह हमेशा आगे रहती है. अब देखना यह है कि भाजपा कमलनाथ के इस ‘राष्ट्रवादी नवाचार’ का बहिष्कार करती है अथवा उसे अपनाती है।
ट्रंप और मेक्रों की नोक-झोंक
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मेक्रों के बीच आजकल जैसी नोक-झोंक चल रही है, वैसी चार्ल्स दिगाल के जमाने में भी नहीं चली थी। सारी दुनिया के गोरे देशों में यह माना जाता है कि फ्रांस अपने आप को सबसे ऊंचा और सबसे अच्छा मानता है लेकिन डोनाल्ड ट्रंप, जो कि अपने बेलगाम बयानों के लिए कुख्यात हो चुके हैं, आजकल मेक्रों पर सीधे प्रहार कर रहे हैं। ट्रंप और मेक्रों के बीच साल भर पहले तक जबर्दस्त मैत्री और अनौपचारिकता देखने को मिलती थी लेकिन इधर प्रथम विश्व युद्ध के शताब्दि समारोह में दोनों नेताओं के बीच काफी अप्रिय शब्दों का आदान-प्रदान हुआ। डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका के राष्ट्रपति बनते ही घोषणा कर दी थी कि उनकी नीति है, ‘‘पहले अमेरिका’’ याने अमेरिकी राष्ट्रहित के खातिर वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। किसी भी राष्ट्र का वे हाथ छोड़ सकते हैं और किसी का भी हाथ पकड़ सकते हैं। उन्होंने नाटो के सदस्य यूरोपीय राष्ट्रों से कई बार कह दिया कि अमेरिका आप लोगों की रक्षा के लिए यूरोप में नाटो की फौजों पर पैसा क्यों बहाए ? आप अपना खर्च खुद क्यों नहीं उठाते ? ट्रंप जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल से तो पहले ही खफा थे अब मेक्रों ने भी उन पर हमला बोल दिया है। मेक्रों ने कहा है कि यूरोपीय देशों को अपनी फौज खुद खड़ी करनी चाहिए। यूरोप को रुस, चीन और अमेरिका से खतरा है। द्वितीय महायुद्ध के बाद ऐसी बात पहली बार दुनिया के कानों में पड़ी है कि यूरोप को अमेरिका से खतरा है। ट्रंप ने इस मुद्दे पर टिप्पणी करते हुए जर्मनी और फ्रांस के साझा रवैये की काफी मजाक उड़ाई है। दशकों तक एक-दूसरे के दुश्मने रहे जर्मनी और फ्रांस के आपसी युद्धों की ट्रंप ने याद दिलाई है। ट्रंप ने मेक्रों के इस कथन की भी मजाक उड़ाई है कि जो राष्ट्रवादी होगा, उसकी देशभक्ति भी संदेहास्पद होगी। ट्रंप आजकल अमेरिकी राष्ट्रवाद की प्रतिमूर्ति बने हुए हैं। मेक्रों का तर्क है कि जो राष्ट्रवादी होते हैं, वे संकीर्ण, स्वार्थी और अल्पदृष्टि होते हैं। वे आखिरकार अपने राष्ट्र का ही नुकसान करते हैं। इस पर ट्रंप ने ट्वीट किया है कि फ्रांस से ज्यादा राष्ट्रवादी और कौनसा-राष्ट्र है। उन्होंने यह भी कहा है कि इसीलिए ताजा जनमत संग्रह में मेक्रों को फ्रांस में सिर्फ 26 प्रतिशत लोगों का समर्थन बचा है। उनका कहना है कि बढ़ती बेरोजगारी, गिरते जीवन-स्तर और मंहगाई तो मेक्रों संभाल नहीं पा रहे हैं और दूसरों को उपदेश देने पर तुले हुए हैं। पता नहीं, ट्रंप और मेक्रों की यह नोक-झोंक यूरोप को किधर ले जाएगी ?
मंदिर निर्माण में धन की कमी कैसे संभव
डॉक्टर अरविन्द जैन
एक व्यक्ति को रात में स्वप्न आया की मुझे ताजमहल बनाना हैं। सुबह उठा और वह कॉलोनी /मोहल्ले में गया और लोगों से बोलै मुझे रात में स्वप्न आया था की मुझे ताजमहल बनाना हैं। तो हम क्या करे ?आप मुझे ताजमहल बनाने चंदा दे ! बाबा तुम्हे स्वप्न आया तो तुम बनाओ हमारे प्राण क्यों खा रहे हो ?उस पर बोला आप लोग भी उसका आनंद लोगे। वास्तव में उसे ताजमहल बनाना ही नहीं था ,कारण न उसके पास कोई मुमताज़ थी ही नहीं। वह बेचारा कुँआरा हैं पर स्वप्न ताजमहल का और उससे प्राप्त होने वाले चंदा का हैं जिससे उसका उदर पोषण हो सके।
आज कल एक मोहल्ले में कई गणेश /दुर्गा जी की झाँखी रखी जाती हैं ,उसके पीछे विशेष रूप से दो कारण होते हैं पहला उसका अध्यक्ष बनना और दूसरा चंदा अलग आना जिससे झाँखी की सेवा अच्छे से हो सके.चंदा का पैसा का हिसाब किताब रखना बहुत टेडी खीर होती हैं। अलग अलग चंदा का कट्टा होता हैं जिसके काटते में जितने जमा हुए वे उसके और फिर खरच का कोई ऑडिट तो होता नहीं। जिस प्रकार चंदा की रोशनी सब पर बराबर पड़ती हैं वैसे ही चंदा का पैसा मुफ्त का होता हैं और उस समय यह लक्ष्य रहता हैं की अधिकतम राशि जमा होना चाहिए ,उस समय जोश रहता हैं और जब मिलना शुरू हुआ तो जोश ठंडा और लगने लगता हैं चलो रूपए आ रहे हैं। मजेदार बात चंदा इकठ्ठा करने वाला कोई पैसा नहीं देता और भगवानकी कृपा से उसकी गरीबी दूर होने लगती हैं। यहाँ तक देखा गया हैं की कोई भी सामाजिक निर्माण होना शुरू होता हैं उसी समय अध्यक्ष या मंत्री का भी भवन निर्माण शुरू होता हैं।
आज समाचार पढ़ने मिला कि धनाभाव के कारण मंदिर निर्माण का काम मंथर गति से चल रहा हैं ! पढ़कर आशचर्य हुआ कि इतने जल्दी भगवान का प्रभाब कम होने से पुण्य का लाभ नहीं मिल पा रहा हैं वास्तव में विगत ३० वर्षों से निरंतर निर्माण कार्य हो रहा हैं ,वैसे भी लागतबढ़ गयी। जो अनगिनित पैसा या रूपया जमा हुआ होगा उसका हिसाब जो भी हो वो तो उसके संरक्षक जाने उनसे कोई भी नहीं पूछ सकता और खरच का हिसाब भी बहुत ईमानदारी का होता हैं। ऑडिट कि भी जरुरत नहीं होती। इस समय चंदा इकठ्ठा करते समय पुण्य सलिला का प्रभाव रहता हैं और धन चारों तरफ से आता हैं और उसमे कौन से अंश का पैसा केंद्र(संस्था) तक नहीं पहुँच सकता किसी को भी नहीं मालूम। ऐसे बृहद कार्यों में डुप्लीकेट बन्दियाँ भी प्रचुरता से प्रचलन में आती हैं क्योकि उस भीड़ में सब ईमानदार लगते हैं और उसका फायदा ईमानदारी से होता हैं। क्योकि बेईमान भी ईमानदार साथी चाहता हैं।
बजट बढ़ गया ,नक्शा बदल गया। आधुनिकतम तकनिकी से निर्माण कार्य होने से और महगाई के कारण लागत बढ़ना स्वाभाविक हैं उस समय की लागत से वर्तमान की लागत अधिक हो गयी। अब जो पहले नहीं देना चाहत्ते थे अब तैयार हैं और जिन्होंने दिया हैं वे अब दुखी होंगे। वैसे प्रधानसेवक और पार्टी प्रमुख अपने किसी परोपकारी को निगाह उठाकर देख ले तो मंदिर क्या फिर से किला भी बन जायेगा। ३१हजार करोड़ का जिस पर उपकार किया उसके लिए यह बहुत छोटा कार्य हैं। पर आज तक भारत में बिरला जी ही एक ऐसे उद्योगपति हैं जिन्होंने मंदिर बनवाये और शायद किसी ने भी इस दिशा पर ध्यान नहीं दिया। और क्यों दे। धन राजा की कृपा से मिलता हैं।
मामला अभी न्यायालय में लंबित हैं और मंदिर निर्माण संघ ,पार्टी और सत्ता के बीच झूल रहा हैं। तो अभी चिंता की बात नहीं हैं ,२०१९ के चुनाव में लगभग १८० दिन हैं ,एक दिन यानि चौबीस घंटे यानि एक घंटे में ६० मिनिट और एक मिनिट में ६० सेकंड। सत्ता को इस काम को पूरा कराने में सिर्फ आँख उठाकर किसी को ओर देखना भर तो हैं.सत्ता के पास यक्षणी विद्या होती हैं। मनोकामना का कल्पवृक्ष होता हैं ,उस गरीब जैसा नहीं,आज हमारे प्रधान सेवक देश वासियों के नाम पर कई महल बना सकते हैं। मूर्तियां बनवा सकते हैं।
बात घड़ी कि सुई जैसी बारबार अटक रही हैं कि तत्समय अनगिनित धन संचय हुआ था वह कैसे ख़तम हो गया। उस समय इतना धन संचित हुआ था कि पूरा मंदिर का निर्माण किया जा सकता था ,अब मात्र पत्थर पर नक्काशी चल रही हैं ,नीव नहीं खुदी और सब काम बाकी हैं। अभी सही वक़्त हैं पैसा इकठ्ठा करने का। कारण चुनावी चंदा के नाम पर। या सत्ता पर बैठे रहने से। अब तो संघ और पार्टी विश्व कि सबसे बड़ी पार्टी और संगठन हैं जिसके करोड़ों सदस्य हैं वे यदि निकल पड़ेंगे तो जो पहले सौ रुपये देते थे अब दोहज़ार से छोटा कोई रूपया नहीं हैं। पैसा कोई समस्या नहीं हैं ,इतना जमा हो चूका हैं पार्टी के पास जिसके अधीन २० राज्य कि सरकार और केंद्र सरकार। प्रश्न यह है कि कितना पैसा जमा हुआ था यह तो जानने का अधिकार उन सबको हैं जिन्होंने पैसा/ चंदा दिया था। और खरच करने का भी ब्यौरा मिलना चाहिए।
रिध्धिश्चतविकारीनी ंयोगिनामिति सिध्धानामादेशः!
सिद्ध महापुरुषों का आदेश हैं कि संपत्ति अधिकारीयों का चित्त विकृत (गर्व-युक्त) कर देती हैं ,
सर्वोाप्यतिसम्रध्धोआधिकारी भवत्ययातयांसाधयः कृच्छसाधय स्वामीपदाभिलाषी वा !
प्रायः सभी अधिकारी विशेष ऐश्वर्यशाली हो जाने पर भविष्य में स्वामी के वशवर्ती नहीं होते अथवा कठिनाई से वश में होते हैं अथवा स्वामी के पद कि प्राप्ति के अभिलाषी होते हैं।
वैसे सामाजिक कार्य और खासतौर पर धार्मिक कार्य में ईश्वर की कृपा से सबकी गरीबी बहुत जल्दी दूर हो जाती हैं जो साधारण कपडे पहनते थे वे कलफ़दारी हो जाते थे। उनका चल चलन व्यवहार बदल जाता हैं। निर्धनता की दीनता धनवान की घमंड में बदल जाती हैं। प्रभुता पाए मद जो आये।
वैसे रामजी की कृपा से सरकार बन जाती हैं तब क्या सरकार उनका मंदिर नहीं बनवा सकती हैं पर निर्माण में विलम्ब कई फायदे का कारण हैं। कारण मंदिर बनने से पहले कोई और मुद्दा तैयार रखना होगा नहीं तो राजनीती ख़तम हो जाएगी।
सादगी नौजवानी की मौत हैं
कुछ न कुछा इल्जाम होना चाहिए।
जनता को आमद और खरच का ब्यौरा चाहिए
नहीं तो सरकार मुक्त हस्त से निर्माण कराने में सक्षम हैं।
संघ के खिलाफ और हिन्दुत्व के करीब जाती कांग्रेस
डॉ हिदायत अहमद खान
सुनने में यह बात भले ही अजीब लगती हो लेकिन हकीकत यही है कि कांग्रेस नेता यदि मंदिर और मस्जिद समेत अन्य धार्मिक स्थलों का रुख न करें तो भाजपा और उसके सहयोगी संगठन कहते देखे जाते हैं कि ये अधर्मी लोग धर्म प्रधान देश की जनता के साथ क्या न्याय कर पाएंगे? वहीं दूसरी तरफ यदि कांग्रेस नेता मंदिर में पूजा करने चले जाएं, जनेऊ संस्कार करते देखे जाएं या अन्य धार्मिक स्थलों में नतमस्तक होते दिख जाएं तो वही लोग कहते दिखेंगे कि क्या ढोंग करते हैं, क्या इन ढोंगियों को जनता माफ करेगी? मतलब राजनीतिक तौर पर धर्म का ठेका भाजपा और उनके चंद सहयोगियों और समर्थकों के हाथों में आ गया है जो कि पूरे देश के धर्मावलंबियों को अपने लिहाज से चलाना चाहते हैं और वही तय करना चाहते हैं कि उनके अनुसार ‘धर्म’ का कब सबेरा होगा और कब अंधेरे के गर्त में डूबते हुए धर्म को बचाने की गुहार लगाकर अपना उल्लू सीधा किया जाएगा। अगर यही काम कोई राजनीतिक दल या संगठन करने की चेष्टा करता है तो वो सबसे बड़ा पाखंडी, अधर्मी और धोखेबाज साबित कर दिया जाता है। इस भूमिका पर यदि यकीन नहीं हो रहा हो तो मौजूदा पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी के दौरे कार्यक्रमों को देख लें, जिनकी ज्यादातर शुरुआत किसी न किसी धार्मिक स्थल से शुरु होती दिखती है। वहीं दूसरी तरफ उन पर निशाना साधने वाले, उन्हें अधर्मी और ढोंगी साबित करने में कोई कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखने वाले लोगों पर भी गौर फरमा लें जो भाजपा के होते हैं या फिर उनके सहयोगी संगठनों से होते हैं। बहरहाल इस पूरी कवायद का सबसे ज्यादा असर इस समय मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में देखने को मिल रहा है। हमने देखा है कि जब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी उज्जैन पहुंचते हैं तो महाकाल के दर्शन कर पूजा-अर्चना को पहली प्राथमिकता देते हैं। इसके बाद राहुल और कांग्रेस पर भाजपा समेत संघ और अन्य हिंदुत्ववादी संगठन के नेता व कार्यकर्ता निशाना साधते नजर आ जाते हैं। कांग्रेस के नेता इसके जवाब में सवाल करते हुए दिखते हैं कि क्या भाजपा ने धर्म का ठेका ले रखा है कि कौन धार्मिक है और कौन नहीं क्या इसका प्रमाण पत्र उनसे लेना होगा? चूंकि कांग्रेस ने इस बार सॉफ्ट हिंदुत्व को केंद्र में रखकर अपने चुनावी कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने की कोशिश की है अत: वह कट्टरवादियों के निशाने पर आ गई है। यही वजह है कि कांग्रेस ने भी सबसे पहले कट्टरवादियों पर हमला करना उचित समझा है। मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिहाज से तैयार किए गए ‘वचनपत्र’ में इसकी झलक देखी जा सकती है। दरअसल कांग्रेस ने अपने वचनपत्र में शासकीय भवनों पर संघ की शाखा लगाने पर रोक लगाने का वादा प्रदेशवासियों से किया है। इसे लेकर अब मध्य प्रदेश की राजनीति गरमाई हुई है। इस मामले को निराराजनीतिक चश्में से देखा जाए तो एक तीर से कांग्रेस ने अनेक लक्ष्यों को साधने की कोशिश की है। दरअसल कांग्रेस द्वारा राज्य की सरकारी इमारतों और परिसरों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं पर पाबंदी लगाने की घोषणा बताती है कि इससे पहले भी प्रदेश में कांग्रेस की सरकारें रही हैं, लेकिन कभी भी संघ को ऐसा करने से रोकने या उन्हें अन्यत्र शाखाएं लगाने के लिए नहीं कहा गया। इसका कारण यही है कि सीधे तौर पर संघ ने कभी भी कांग्रेस पर हमला नहीं बोला था, लेकिन अब जबकि उसने सीधे कांग्रेस को निशाने पर लिया है तो कांग्रेस भी इसके जवाब में उन्हें उनकी सीमा बताने की कोशिश कर रही है। इसी के साथ कांग्रेस अब यह बता रही है कि संघ भी एक राजनीतिक संगठन है, जिस पर वही नियम-कायदे लागू होने चाहिए जो कि एक राजनीतिक दल पर होते हैं। इसके साथ ही इस घोषणा पत्र से पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी के उन दावों को और मजबूती प्रदान कर दी गई है जिसमें वो आरएसएस पर नफरत फैलाने के आरोप लगाते रहे हैं। कांग्रेस ने अपने वचन पत्र में कहा है कि यदि कांग्रेस सत्ता में आती है तो सरकारी इमारतों और परिसरों में आरएसएस की शाखा लगाने की इजाजत नहीं दी जाएगी। सरकारी कर्मचारियों के शाखा में हिस्सा लेने की अनुमति देने के आदेश को भी रद्द कर दिया जाएगा। इसलिए इस वचनपत्र पर भाजपा ने जोरदार तरीके से आपत्ति दर्ज कराने का काम किया है। यही नहीं कांग्रेस ने तो इस बार के घोषणा पत्र में सॉफ्ट हिंदुत्व के नाम पर भगवान राम, नर्मदा, गौवंश और गौमूत्र का उल्लेख किया मानों उसने भाजपा को उसके अपने ही अंदाज में पुरजोर तरीके से घेरने का काम कर दिखाया है। आखिर यह कैसे भुलाया जा सकता है कि राम और मंदिर निर्माण को लेकर ही भाजपा दो सीटों से पूर्ण बहुमत की स्थिति में आ गई। उसने धर्म और आस्था के नाम पर वोटरों को इस कदर मथा कि कांग्रेस मुक्त भारत की बात तक कह डाली, जबकि सभी जानते हैं कि लोकतंत्र में इस तरह की बातों का कोई औचित्य नहीं होता है, क्योंकि फैसला करने वाली असली जनता ही होती है और वह जिसे चाहती है कुर्सी पर बैठाती है और जिसे चाहती है विपक्ष के लायक भी नहीं छोड़ती है। ऐसे में ये तमाम दंभकारी बयान और उसके तहत किए जाने वाले उपक्रम सही मायने में भोली-भाली जनता को भ्रमित करने वाले ही होते हैं, जिसकी काट के तौर पर कांग्रेस ने अब सॉफ्ट हिंदुत्व का दामन थाम लिया है और इसका असर इन पांच राज्यों में देखने के बाद आगे बढ़ाने का काम और जोर-शोर से होगा, ऐसी उम्मीद न सिर्फ कांग्रेसजनों को है बल्कि भाजपा भी इसे भलिभांति जान चुकी है, इसलिए इसका विरोध तो होना तय है।
तू इधर-उधर की बात न कर
ओमप्रकाश मेहता
ये बता….. ये ‘‘आर्थिक जहाज’’ कैसे डूबा…..?
‘‘जो न माने जानकारों की सीख, ले कटौरा……’’ आज वास्तव में भारत की यही स्थिति है। पूरे विश्व के आर्थिक पण्डित भारत की मौजूदा आर्थिक दुरावस्था का कारण नोटबंदी और जीएसटी के आत्मघाती फैसले बता रहे है, जबकि अपने हाथ-पैर कट जाने के बावजूद केन्द्र सरकार यह मानने को कतई तैयार नहीं है कि नोटबंदी व जीएसटी के फैसले भारत के हित में नहीं थे। शायद इसी कारण ज्यादा नहीं सिर्फ साढ़े चार साल पहले जिस एक चमत्कारिक चेहरे के बल पर पूरे देश पर सत्ता करने वाली भारतीय जनता पार्टी को आज दिवंगत कांग्रेसी नेताओं की बैसाखी थामनी पड़ रही है और शायद इसीलिए चुनावी घोषणाओं को ‘जुमलों’ में बदलने वाले जादूगर नेता ‘‘घोषणा-पत्र’’ को प्राथमिकता नहीं मानते? यह है आज की ताजा राजनीतिक रिपोर्ट।
इतनी बड़ी आर्थिक ठोकर खाने के बाद भी शायद हमारे कर्णधारों को कोई विशेष शिक्षा नहीं मिली, तभी तो आज भी देश के रिजर्व बैंक के खजाने को सरकार व सत्तारूढ़ दल अपनी सम्पत्ति मानकर पिछले सत्तर सालों से स्वतंत्र रूप से कार्य कर रहे इस आर्थिक संस्थान को उसी तरह अपने कब्जे में करने की तैयारी चल रही है जैसे कि सीबीआई, चुनाव आयोग या सूचना आयोग पर अपना कब्जा बताया जा रहा है।
यद्यपि जहां तक रिजर्व बैंक का सवाल है, वह स्वतंत्र संगठन है किंतु दो साल पहले आठ नवम्बर 2016 को नोटबंदी की घोषणा के एक सप्ताह पूर्व रिजर्व बैंक बोर्ड ने नोटबंदी को नकार दिया था, किंतु इसके बावजूद आठ नवम्बर 2016 को रात बारह बजे अचानक नोटबंदी लागू की और पूरे देश में आर्थिक तहलका मच गया, बैंकों के सामने मीलों लम्बी कतारें लग गई और करोड़ों लोगों के कई जरूरी काम रूक गए और इसी हादसे के कारण कइ्र की जाने भी चली गई। नए नोट छपकर आने में देरी हुई और पुराने नोट करोड़ों अरबों की संख्या में बैंकों में जमा हो गए। इसके बाद प्रधानमंत्री जी ने इस आत्मघाती फैसले का कारण कालेधन की समाप्ति और विदेशी बैंकों में जमा धन भारत आना बाताया, इसी फैसले को आतंकवादी व नक्सली ‘फंडिंग’ से भी जोड़ा गया, लेकिन इन उद्देश्यों को हासिल करने में सरकार किस हद तक सफल रही? यह आज सबके सामने है। इसी बीच विजय माल्या, मोदी, चैकसे जैसे दो दर्जन अरब उद्योगपति बैंकों के अरबों रूपए डकार कर भारत छोड़कर गुपचुप भाग गए, विजय माल्या ने तो यहां तक भी कहा कि वे वित्त मंत्री जी को बताकर भारत छोड़कर आए है। लेकिन वह बात भी आई-गई हो गई। बैंक नोटबंदी के बाद जीएसटी का फैसला लिया गया, जिसने देश में छोटे-बड़े व्यापारी की आर्थिक कमर तोड़कर रख दी, व्यापारी क्या, अब तो जीवनोपयोगी वस्तुओं का आम उपभोक्ता भी इस जीएसटी का शिकार हो रहा है, पहले ही मंहगाई आसमान पर थी और जीएसटी ने इसे ‘‘पंख’’ भेंट कर दिए, अब ऐसे में देश का आम मध्यम दर्जे का नागरिक आखिर करे तो क्या? फिर सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह है कि इतना सब गुजरने के बाद भी सरकार को दया नहीं आ रही और उसने नए माल्या, मोदी, चैकसे पैदा करने की तैयारी शुरू कर दी, अब रिजर्व बैंक को निर्देश दिए जा रहे है कि नियमों में ढील दे, उन्हें सख्त न बनाए। इसी कारण भारत की आजादी के बाद से अब तक के सालों में 2014 के बाद से रिजर्व बैंक गवर्नरों के फैर-बदल ज्यादा हुए, मौजूदा गवर्नर उर्जित पटेल भी संभव है, सरकारी शिकंजें से मुक्ति हेतु अगले हफ्ते होने वाली बैंक के बोर्ड की हंगामेंदार बैठक में अपने पद से इस्तीफा दे दें? और रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने जो देश की आर्थिक दुरावस्था पर जो बयान जारी किया, वह भी किसी से भी छुपा नहीं है। उन्होंने रिजर्व बैंक को जहां क्रिकेटर राहुल द्रविड़ की तरह विवेकपूर्ण होने की सलाह दी, वहीं नवजोत सिंह सिद्धू जैसा वाचाल नहीं होने का सुझाव दिया, अब तो स्थिति यहांत तक पहुंच गई है कि रिजर्व बैंक व सरकार के बीच टकराव पर उपन्यास तक लिखे जाने लगे है, अर्थात यह टकराव कहानी तक सीमित न रहकर उपन्यास तक विस्तारित हो गया है?
अब इन दिनों चूंकि राजनीतिक चुनावी सेमीफायनल का दौर चल रहा है और अकेले प्रधानमंत्री जी पर ही पूरे नाटक की सफलता का दारोमदार है इसलिए जीत के लिए ‘‘साम-दाम-दण्ड-भेद’’ खोजने की स्पद्र्धा जारी है। जिससे कि सेमीफायनल के परिणाम ‘फायनल’ के लिए ठोस आधार बन सके? इसलिए आज सबसे अधिक दया के पात्र बैचारे प्रधानमंत्री है, जिन्हें अपने बनारस के साथ पूरे देश की चिन्ता है और नित नए अविश्वसनीय जुमले खोजने पड़ रहे हैं।
नोटबंदी: उत्सव नहीं तो पुण्यतिथि ही मना लेते?
तनवीर जाफरी
गत् 8 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा घोषित नोटबंदी के दो वर्ष पूरे हो गए। आशा थी कि अपनी मामूली सी भी उपलब्धि का डंका बजाने में माहिर भारतीय जनता पार्टी अपनी इस तथाकथित ‘महान उपलब्धि’ का भी जश्र ज़रूर मनाएगी। यह भी उम्मीद थी कि सरकार की ओर से प्रधानमंत्री अथवा देश के वित्तमंत्री प्रत्येक वर्ष नोटबंदी के दिन जनता के समक्ष आकर अपनी इस महान उपलब्धि के माध्यम से अब तक देश को होने वाले आर्थिक लाभ तथा इससे संबंधित आर्थिक सुधार व प्रगति का ब्यौरा देते रहेंगे। परंतु नोटबंदी की घोषणा के बाद तो उन सभी नेताओं को गोया सांप सूंघ गया है जो तालियां बजा-बजा कर और छाती पीट-पीट कर नोटबंदी से देश व जनता को होने वाले लाभ का बखान किया करते थे। हद तो यह है कि भाजपा के संरक्षक संगठन राष्ट्रीय स्वयं संघ ने भी कथित रूप से भाजपा के नेताओं को नोटबंदी की चर्चा जनता के मध्य करने से परहेज़ करने की सलाह दी थी। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री ने जब 8 अक्तूबर 2016 को देर रात भारतीय मुद्रा में सबसे अधिक प्रचलित एक हज़ार व पांच सौ रुपये की नोट बंद करने की घोषणा करते हुए लगभग 16.99 लाख करोड़ रुपये की मुद्रा को चलन से बाहर करने का फरमान जारी किया था उस समय प्रधानमंत्री ने इसके पीछे तीन मुख्य कारण बताए थे। एक तो यह कि नोटबंदी के इस कदम से काले धन पर रोक लगेगी। दूसरा कारण जाली मुद्रा को प्रचलन से बाहर करना बताया गया था तो तीसरी वजह आतंकवाद व नक्सलवाद पर काबू करना बताई गई थी।
देश को यह भी बखूबी याद होगा कि नोटबंदी की घोषणा करने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व उनकी सरकार द्वारा किस प्रकार नित्य नई गाईडलाईन जारी कर बैंक तथा जनता को रोज़ाना नए निर्देश दिए जाते थे। यह भी किसी से छुपा नहीं है कि बैंक कर्मचारियों ने किस प्रकार अपनी जान पर खेलकर इस आपात स्थिति से निपटने में अपनी अभूतपूर्व कार्यक्षमता का प्रदर्शन किया। परंतु इन सबके बावजूद देश के विभिन्न हिस्सों में लगभग 150 लोग नोटबंदी में उठाई जाने वाली परेशानियों के चलते अपनी जान से हाथ धो बैठे थे। कभी प्रधानमंत्री ने जनता से एक महीने का समय मांगा तो कभी स्थिति सामान्य होने में 50 दिन की मोहलत मांगी। कभी स्वयं को चौराहे पर ले जाकर अपमानित करने जैसे घटिया वाक्य भी बोलने के लिए मजबूर हुए जोकि प्रधानमंत्री की गरिमा के अनुरूप भी नहीं थे। अर्थशास्त्री इस बात को लेकर हैरान हैं कि यदि काला धन रोकने के लिए एक हज़ार व पांच सौ की नोट प्रचलन से बाहर की गई फिर आखिर दो हज़ार रुपये की नई नोट चलाने का उद्देश्य क्या था? नोटबंदी की पूर्ण असफलता का अंदाज़ा तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने जिन कारणों को बताकर नोटबंदी घोषित की थी आज सरकार उन कारणों का तो कोई जि़क्र ही नहीं करती। इसके बजाए दूसरी कथित उपलब्धियों को नोटबंदी की सफलता बताने की कोशिश की जाती है। जैसेकि इस बार भी वित्तमंत्री अरूण जेटली ने नोटबंदी की सफलता के पक्ष में यही तर्क दिया कि नोटबंदी से औपचारिक अर्थव्यवस्था का विस्तार हुआ है और टैक्स का दायरा भी बढ़ा है। वित्तमंत्री ने यह भी बताया कि पांच सौ व एक हज़ार रुपये की नोट बंद करने के परिणामस्वरूप अधिक राजस्व प्राप्त हुआ, बुनियादी ढांचा बेहतर हुआ तथा गरीबों के लिए अधिक संसाधन प्राप्त हुए।
वित्तमंत्री द्वारा नोटबंदी की दो वर्ष बाद गिनाई जा रही उपलिब्ध में कोई भी एक उपलब्धि ऐसी नहीं जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा घोषित नोटबंदी के कारणों से मेल खाती हो। परंतु विपक्ष ने गत् दो वर्षों में नोटबंदी के कारण देश की अर्थव्यवस्था, रोज़गार तथा व्यापार को लगे ज़बरदस्त आघात की चर्चा करते हुए इसे देश के लिए अत्यंत घातक कदम बताया है। कई प्रमुख अर्थशास्त्रियों व जि़म्मेदार नेताओं का कहना है कि नोटबंदी स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे बड़ा आर्थिक घोटाला है। सरकार नोटबंदी से न तो काला धन निकाल सकी न ही नकली नोट पकड़े गए न ही आतंकवाद या नक्सलवाद पर लगाम लगाई जा सकी। इसके बजाए लाखों लोगों को अपनी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा तथा देश की अर्थव्यवस्था को लगभग तीन लाख करोड़ रुपये का नुकसान पहुंचा। पूर्व प्रधानमंत्री डा०मनमोहन सिंह ने तो नोटबंदी की घोषणा के तुरंत बाद ही इस फैसले को देश की अर्थव्यवस्था के लिए लिया जाने वाला एक घातक फैसला बता दिया था। नोटबंदी की दूसरी ‘बरसी’ पर डा. मनमोहन सिंह एक बार फिर अपनी उसी बात पर कायम दिखाई दिए। उन्होंने मोदी सरकार के इस फैसले को गलत फैस्ला बताया और कहा कि इस फैसले ने भारतीय अर्थव्यवस्था तथा भारतीय समाज को हिलाकर रख दिया है। उन्होंने यह भी कहा कि देश के प्रत्येक व्यक्ति पर तथा हर उम्र, जाति तथा प्रत्येक व्यवसायी पर नोटबंदी का दुष्प्रभाव पड़ा है। अब तो भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघु राम राजन ने भी कह दिया की नोटबंदी व जी एस टी से देश की आर्थिक तरककी को तगड़ा झटका लगा है।
पश्चिम बंगाल की ममता बैनर्जी सरकार ने तो नोटबंदी से प्रभावित व इसके चलते बेरोज़गार होने वाले उद्यमियों की सहायता करने के उद्देश्य से एक समर्थन योजना की शुरुआत भी की है। इस योजना के तहत नोटबंदी से प्रभावित 50 हज़ार लोगों की पहचान कर राज्य सरकार 50-50 हज़ार रुपये से उनकी आर्थिक सहायता कर रही है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के अनुसार ‘नोटबंदी का कदम मोदी सरकार द्वारा स्वयं पैदा की गई त्रासदी व आत्मघाती हमले जैसा था। इससे उनके मित्रों ने काले धन को सफेद करने का काम किया है’। यदि यहां यह मान लिया जाए कि विपक्ष अपनी जि़म्मेदारियां निभाते हुए अथवा विपक्ष की नीतियों पर चलते हुए नोटबंदी की अकारण ही आलोचना कर रहा है ऐसे में यह सवाल ज़रूर उठता है कि यदि नोटबंदी सरकार की सफल नीति का एक उदाहरण थी फिर आखिर प्रत्येक वर्ष 8 नवंबर को सरकार अपनी इस घोषणा को जश्र व उत्सव के रूप में क्यों नहीं मनाती? पिछले दिनों तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा देश की अर्थव्यवस्था से जुड़ी एक सनसनीखेज़ खबर का रहस्य उद्घाटन किया गया। उन्होंने एक समाचार पत्र में प्रकाशित खबर का हवाला देते हुए कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय रिज़र्व बैंक की आरक्षित राशि का 3.60 लाख करोड़ रुपया मांग रही है। यह धनराशि बैंक की 9.59 लाख करोड़ रुपये की आरक्षित राशि की एक तिहाई से भी अधिक है। जबकि सरकार की ओर से इस आरोप का खंडन भी किया जा चुका है। सरकार तथा रिज़र्व बैंक की इस खींचातान के मध्य रिज़र्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने कहा है कि जो सरकारें अपने केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता का सम्मान नहीं करतीं उन्हें देर-सवेर बाज़ारों के आक्रोश का सामना करना पड़ता है।
यदि सरकार वास्तव में रिज़र्व बैंक के बफर स्टॉक में से इतनी बड़ी धनराशी मांग रही है इसका सीधा अर्थ यही है कि देश की अर्थव्यवस्था सामान्य नहीं है। वैसे भी सरकार जिन जन-धन खातों को अपनी बड़ी उपलब्धि बता रही थी खबरों के अनुसार उनमें से आधे से अधिक जन-धन खाते बंद हो चुके हैं। यह भी खबर है कि नोटबंदी के बाद यही जन-धन खाते बड़े पैमाने पर काला धन को सफेद किए जाने में सहायक हुए। उधर आतंकवाद या नक्सलवाद में से किसी पर भी नियंत्रण हासिल नहीं हुआ। नकली नोटों का चलन भी यथावत् है यहां तक कि दो हज़ार रुपये के नए नोट भी बाज़ार में नकली मुद्रा के रूप में पकड़े जाने लगे हैं। ऐसे में सरकार भले ही नोटबंदी का जश्र मनाने से पीछे क्यों न हटे परंतु विपक्षी दल नोटबंदी की पुण्यतिथि प्रत्येक 8 नवंबर को ज़रूर मनाते रहेंगे तथा देश की जनता को इस घोषणा से होने वाले नुकसान से अवगत कराते रहेंगे। 2019 के चुनाव में भी नोटबंदी विपक्ष के लिए एक बड़ा हथियार साबित होगी।
ऐसे थे बच्चों के प्यारे चाचा नेहरू
योगेश कुमार गोयल
(बाल दिवस 14 नवम्बर पर विशेष) भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की शख्सियत से भला कौन परिचित नहीं होगा। बच्चों से उन्हें इतना लगाव था कि उन्हें प्यार से ‘बच्चों के प्यारे चाचा नेहरू’ कहा जाने लगा था। अपने कोट की जेब पर हमेशा प्रेम का प्रतीक गुलाब का फूल लगाए रहने वाले पंडित जवाहरलाल नेहरू बच्चों से इतना स्नेह करते थे कि आज भी वह देश के प्रथम प्रधानमंत्री से पहले ‘चाचा नेहरू’ के रूप में ही अधिक याद किए जाते हैं। दरअसल छोटे-छोटे मासूम बच्चों को देखकर नेहरू जी आत्मविभोर हो जाया करते थे और अपने ऊंचे ओहदे का ख्याल किए बिना झट से बच्चों को गोद में उठा लिया करते थे। बच्चे भी ‘चाचा चाचा’ कहते उनसे लिपट जाते।
बच्चों के साथ त्यौहार मनाने में तो चाचा नेहरू को बहुत आनंद आता। होली पर वे बच्चों के साथ रंगों की मस्ती में डूबे होते तो दीवाली पर बच्चों के बीच अतिशबाजी का मजा लेते, मकर संक्रांति पर बच्चों की टोली के साथ पतंग उड़ाते। बच्चों की दुर्दशा देखकर वह मन ही मन तड़प उठते थे और कई बार उनकी यह पीड़ा शब्दों में मुखरित भी होती थी। फुर्सत के समय वह देश-विदेश के बच्चों से जरूर मिला करते और खुद भी बच्चा बनकर उनके साथ तरह-तरह के खेल खेलते। पं. जी के पास देश के कोने-कोने से बच्चों के ढ़ेर सारे खत आते, जिनका जवाब देते हुए वह लिखते, ‘‘बच्चों, परिश्रम से बढ़कर दुनिया में और कोई चीज नहीं, इसलिए तुम जितनी ज्यादा मेहनत करोगे, उतनी ही ज्यादा तुम्हें सफलता मिलेगी और तुम्हारा जीवन खुशियों से महक उठेगा।’’
बच्चों के प्रति पंडित नेहरू के इस विशेष लगाव को देखते हुए ही सन् 1956 से उनके जन्मदिन को ‘बाल दिवस’ के रूप में मनाने का निश्चय किया गया था और तभी से पंडित नेहरू का जन्मदिवस (14 नवम्बर) बाल दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। जब उनके जन्मदिवस को ‘बाल दिवस’ के रूप में मनाने का निश्चय किया गया था, तब नेहरू जी ने कहा था, ‘‘मुझे इस बात की बेहद खुशी है कि मेरे देश के बच्चों ने मेरे जन्मदिन को ही ‘अपना दिन’ बना लिया है। इससे ज्यादा इज्जत और खुशी की बात भला मेरे लिए और क्या हो सकती है कि मेरे मुल्क के बगीचे के इन कोमल फूलों और कोंपलों ने मुझे अपना इतना स्नेह दिया है। मेरी यही कामना है कि इन सबको फलने-फूलने का पर्याप्त अवसर मिले।’’
पं. जी के जीवनकाल के अनेक ऐसे संस्मरण एवं किस्से उद्धृत किए जा सकते हैं, जो उनकी महान् शख्सियत और बच्चों के प्रति उनका अपार स्नेह बयान करते हैं।
एक बार नेहरू जी बाल मंदिर देखने गए थे, जहां तीन से पांच साल तक के बच्चे पढ़ते थे। उस समय सभी बच्चे नाच-गाने में मग्न थे। जब पंडित जी वहां पहुंचे और दूर बैठकर बच्चों का नाच-गाना देखने लगे तो एक चार वर्षीया बालिका उनके पास आई और बड़े अनुरोधपूर्वक कहा कि आप भी हमारा साथ दीजिए। पहले तो पंडित जी काफी ना-नुकूर करते रहे। उन्होंने बच्चों को यह कहकर बहलाने का प्रयास भी किया कि इस बार तो नहीं लेकिन अगली बार तुम्हारे साथ जरूर नाचूंगा लेकिन जब उस बच्ची ने जिद पकड़ ली तो आखिर पंडित जी को उस छोटी सी बच्ची के आगे झुकना पड़ा और इतने विशाल देश के प्रधानमंत्री होते हुए भी उन बच्चों की खुशी के लिए उनके साथ वे बच्चा बनकर नाचे।
जब दीवाली का मौका होता तो वे अपने नाती राजीव और संजय के बाल मित्रों को आनंद भवन बुलाते और उनके साथ दीवाली मनाते हुए कहते कि बच्चों आतिशबाजी चलाकर दीपावली मनाओ और खुशियां बांटो। जो बच्चे पटाखे चलाते हुए डरते, उन्हें कहते कि जो बच्चे इन छोटे-छोटे पटाखों से ही डर जाएंगे, वे आगे चलकर देश के बहादुर सिपाही कैसे बनेंगे? कभी-कभी वह इलाहाबाद में दीवाली की रात बाहर का नजारा देखने निकल पड़ते और रास्ते में गरीब बच्चों को भी मिठाईयां, नए कपड़े और पटाखे देते हुए उनके साथ पटाखे चलाने लगते।
एक बार उन्हें किसी जरूरी काम से दीवाली पर मास्को जाना पड़ा। उस समय तक वहां दीवाली के मौके पर पटाखे नहीं चलाए जाते थे लेकिन पंडित जी की दीवाली तो बच्चों के साथ पटाखे चलाए बिना अधूरी थी। इसलिए उन्होंने वहां भी बच्चों से पटाखे मंगवाए और काफी बच्चों को एकत्रित कर उनके साथ पटाखे चलाने लगे। वहां के बच्चे पटाखों की रंग-बिरंगी रोशनी और धूमधड़ाके से बहुत प्रभावित हुए और खुशी से झूम उठे। उसके बाद से मास्को में भी हर साल दीवाली के मौके पर पटाखे चलाने का दौर शुरू हो गया।
नेहरू जी छोटे थे, तब की एक घटना है। एक बार मैदान में कुछ बच्चे गेंद से खेल रहे थे। खेलते-खेलते गेंद उछलकर लकड़ी के एक खोल में जा गिरी। खोल का मुंह छोटा था, इसलिए बच्चों से बहुत कोशिश के बाद भी गेंद नहीं निकल पा रही थी। जब नेहरू जी ने बच्चों की परेशानी को देखा तो उनसे रहा न गया। उन्होंने उन बच्चों से दो बाल्टी पानी मंगवाया और पानी लकड़ी के उस खोल में भर दिया। फिर क्या था, पानी भरते ही गेंद पानी में ऊपर आ गई और उन्होंने गेद निकालकर बच्चों को दे दी। सभी बच्चे बालक जवाहरलाल की बुद्धिमत्ता से बहुत प्रभावित हुए।
बच्चों के साथ-साथ देश और जनता से भी नेहरू जी बहुत प्यार करते थे और यही कारण था कि अधिकांश देशवासी भी उनसे उतना ही स्नेह करते थे और उन्हें आदर-सम्मान देते थे, जितना बच्चे देते थे। 74 वर्ष की आयु में 27 मई 1964 को पंडित जी स्वर्ग सिधार गए लेकिन अपने निधन से पूर्व अपनी वसीयत में उन्होंने लिखा, ‘‘मेरे मरने के बाद मेरी अस्थियां देश के उन खेतों में बिखेर दी जाएं, जहां भारत का किसान अपना पसीना बहाता है ताकि वे देश की मिट्टी में मिल जाएं।’’
तो ऐसे थे बच्चों के प्यारे चाचा नेहरू!
मान न मान, मैं तेरा मेहमान?
निर्मल रानी
राजधानी दिल्ली में यमुना नदी पर बनाए गए बहुप्रतीक्षित ‘सिग्रेचर ब्रिज’ का उद्घाटन दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा गत् 4 नवंबर को किया गया। इस विचित्र पुल के मुख्य स्तंभ की ऊंचाई 154 मीटर है जो भारत में इस प्रकार के बने पुलों में सबसे अधिक ऊंचा है। संयोग से इस पुल के उद्घटन से मात्र चार दिन पूर्व ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात के नर्मदा जि़ले में भारत के पूर्व गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की विश्व की सबसे ऊंची 182 मीटर की प्रतिमा को जनता को समर्पित किया। यहां यह बताने की ज़रूरत नहीं कि इन दोनों योजनाओं में कोैन सी योजना जनहितकारी है और किस योजना के माध्यम से केवल धन की बरबादी की गई है। बहरहाल, इन प्रश्रों से अलग हटकर एक दूसरा प्रश्र यह है कि जहां सरदार पटेल की प्रतिमा का उद्घाटन पूरी शांति व सद्भाव के साथ संपन्न हुआ वहीं क्या वजह थी कि दिल्ली सरकार द्वारा निर्मित किए गए उद्घाटन समारोह में हंगामा,अशांति फैलाने तथा अराजकता जैसा वातावरण बनाने की कोशिश की गई? आखिर इस प्रकार के वीडियो व समाचार क्यों प्रकाशित व प्रसारित हुए जिसमें यह देखा गया कि दिल्ली के स्थानीय सांसद एवं दिल्ली प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष मनोज तिवारी पुलिस अधिकारियों के साथ धक्कामुक्की कर रहे हैं,पुलिस के आला अधिकारियों को धमका रहे हैं यहां तक कि पुलिस अधिकारी पर हाथ उठाते हुए भी उनकी वीडियो वायरल हुई है। यदि आम आदमी पार्टी के नेताओं की मानें तो उनका तो सीधा आरोप है कि मनोज तिवारी ने ग़ैर आमंत्रित तरीके से ज़बरदस्ती स्टेज पर पहुंचने की तथा सरकारी कार्यक्रम में बाधा पहुंचाने की कोशिश की। आप की एक नेता ने तो यहां तक आरोप लगाया है कि तिवारी दंगे की स्थिति पैदा करने के लिए समारोह स्थल पर गए थे। इस बिन बुलाए मेहमान के साथ आप पार्टी के एक विधायक की गाली-गलौच व धक्कामुक्की की खबरें भी हैं।
सवाल यह है कि देश के विकास तथा जन समस्याओं से सीधे तौर पर जुड़े हुए इस पूरे कार्यक्रम में किसी विशिष्ट व्यक्ति की एक अनामंत्रित अतिथि के रूप में जाने की ज़रूरत ही क्या थी? परंतु इसी सवाल के साथ दूसरा सवाल यह भी है कि एक स्थानीय सांसद होने के नाते आखिर दिल्ली सरकार द्वारा मनोज तिवारी को आमंत्रित क्यों नहीं किया गया? क्या वजह है कि अलग-अलग राजनैतिक दलों के नेताओं के मध्य कड़वाहट अब इस निचले स्तर पर जा पहुंची है कि मेज़बानी करने वाला अपने आलोचकों को अथवा अपने विपक्षी को किसी कार्यक्रम में आमंत्रित नहीं करना चाहता तो दूसरी ओर नेताओं की बेहयाई व बेशर्मीे का पैमाना भी इतना ऊंचा हो गया है कि ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’ की कहावत को चरितार्थ करते हुए वे स्वयं ही कार्यक्रम में पहुंच जाते हैं। चाहे इसके बदले में उन्हें धक्कामुक्की,गाली-गलौच,अपमान अथवा पुलिस थाने तक का सामना क्यों न करना पड़े? वैसे भी विशेष तौर पर मनोज तिवारी के साथ दिल्ली व दिल्ली के बाहर भी कई बार इस प्रकार की घटनाएं हो चुकी हैं कि उन्हें लोगों के हाथों से अपमानित होना पड़ा है। संभव है कहीं जनता ने उनके साथ ज़्यादती भी की हो परंतु हर जगह मनोज तिवारी सही हों और जनता की गलती हो ऐसा भी संभव नहीं है। खासतौर पर सिगनेचर ब्रिज के उद्घाटन के समय मनोज तिवारी की उद्घाटन समारोह में उनके साथियों के साथ उपस्थिति तथा वहां पैदा किए गए हंगामे की सूरत तो इसी बात का सुबूत देती है।
अब आईए मनोज तिवारी को आमंत्रित न किए जाने की पृष्ठभूमि पर भी नज़र डाल लें। याद कीजिए 25 दिसंबर 2017 को जिस समय दिल्ली मैट्रो मजेंटा लाईन का उद्घाटन प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किया गया था उस समय विशिष्ट अतिथियों की सूची में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक तथा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का नाम तो था,वे लोग उद्घाटन के समय मंच पर भी आसीन थे परंतु दिल्ली सरकार की मैट्रो परियोजना में बराबर की साझेदारी होने के बावजूद राज्य के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को उस उद्घाटन समारोह में आमंत्रित किया जाना उचित नहीं समझा गया? आखिर क्यों? अब आईए ज़रा इसके पहले अर्थात् 2009 में भी झांककर देखें जबकि पहली मैट्रो ट्रेन ने नोएडा क्षेत्र में प्रवेश करते हुए उत्तर प्रदेश में अपनी प्रविष्टि दर्ज की थी। उस समय दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित तथा उत्तर प्रदेश की उस समय की मुख्यमंत्री रही मायावती दोनों ही उद्घाटन समारोह में एक साथ नज़र आए थे। ऐसे में 25 दिसंबर 2017 में दिल्ल्ी मैट्रो मजेंटा लाईन के उद्घाटन अवसर पर योगी आदित्यनाथ व राज्यपाल नाईक को आमंत्रित करना तथा अरविंद केजरीवाल को आमंत्रित न करना राजनीति में गिरावट तथा संकीर्णता की दलील पेश करता है।
निश्चित रूप से मनोज तिवारी को भी ऐसे ही फैसलों का परिणाम भुगतना पड़ा है। वैसे भी मनोज तिवारी अरविंद केजरीवाल व उनकी सरकार द्वारा किए जा रहे किसी भी विकास कार्य की सदैव आलोचना करने में काफी मुखर रहा करते हैं। बिना विरोध की बात के भी विरोध करते रहना मनोज तिवारी के कर्तव्यों में शामिल है। आप नेताओं के अनुसार वे कई बार अपने चंद साथियों के साथ दिल्ली की सांप्रदायिक सद्भाव की फिज़ा को भी खराब करने की कोशिश कर चुके हैं। इसलिए ऐसी स्थिति भी नहीं बन सकी कि अरविंद केजरीवाल एक होनहार नेता या अपना मित्र होने के नाते भी उन्हें आमंत्रित कर सकते? पंरतु इससे भी बड़ा प्रश्र यह है कि जब तिवारी को आमंत्रित ही नहीं किया गया, उन्हें इस योग्य नहीं समझा गया या दिल्ली सरकार ने उन्हें आमंत्रित करना आवश्यक नहीं समझा फिर आखिर ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’ बनने का कारण क्या था? अरविंद केजरीवाल भी यदि चाहते तो मुख्यमंत्री होने के नाते 25 दिसंबर 2017 के कार्यक्रम में अपने लाखों समर्थकों के साथ उद्घाटन स्थल पर पहुंच सकते थे और उद्घाटन समारोह का मज़ा ठीक उसी तरह किरकिरा करने की कोशिश कर सकते थे जैसा कि मनेाज तिवारी ने गत् चार नवंबर को सिग्रेचर ब्रिज के उद्घाटन के समय किया। परंतु न तो अरविंद केजरीवाल की ओर से ऐसा निचले स्तर का काम किया गया न ही उन्होंने अपने समर्थकों को उकसा कर उद्घाटन स्थल पर भेजने की कोशिश की। हां उनकी व उनके नेताओं की तरफ से प्रधानमंत्री,केंद्र सरकार व मैट्रो प्रबंधन से यह सवाल ज़रूर पूछा गया कि मुख्यमंत्री केजरीवाल को आमंत्रित क्यों नहीं किया गया?
भारतीय राजनीति का वह स्वर्णिम दौर जाने कहां विलुप्त हो गया जबकि पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने मुख्य विपक्षी नेता डाक्टर राम मनोहर लोहिया से एकांत में बुलाकर सलाह-मशविरा किया करते थे,उनकी राय लेते थे यहां तक कि उनके चुनाव में हार जाने पर चिंतित भी होते थे और सदन में उनकी कमी महसूस करते थे। अटल बिहारी वाजपेयी स्वयं बातचीत के दौरान यह बता चुके हैं कि किस प्रकार प्रधानमंत्री रहते हुए राजीव गांधी ने उन्हें भारतीय प्रतिनिधि मंडल का नेता बनाकर अमेरिका केवल इसलिए भेजा ताकि वे अमेरिका में अपना इलाज करा सकें। भारतीय संसद पर हुए हमले के दौरान किस प्रकार सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को फोन कर उनकी सुरक्षा के प्रति अपनी चिंता जा़हिर की थी। देश का वर्तमान नेतृत्व निश्चित रूप से राजनीति में मर्यादा तथा गरिमा की उन बुलंदियों से कहीं दूर चला गया है और अपने विरोधी या विपक्षी को अपना दुश्मन,देश का दुश्मन व राष्ट्रद्रोही समझने लगा है। इस प्रकार की घटनाएं ऐसे ही प्रदूषित व घिनौने राजनैतिक वातावरण का परिणाम हैं।
अमेरिका और रूस ने बढ़ाया परमाणु युद्ध का खतरा
प्रमोद भार्गव
अभी तक दुनिया को परमाणु युद्ध का खतरा पाकिस्तान और उत्तर कोरिया की जमीन से झांकता दिखाई देता रहा है। पाकिस्तान से यह आशंका इसलिए ज्यादा थी, क्योंकि वहां की जमीन पर आतंक के खिलाड़ी पनाह लिए हुए हैं, लिहाजा भूल से भी उनके हाथ परमाणु हथियार लग गए तो दुनिया को तबाह करने में उन्हें देर नहीं लगेगी। परंतु अब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के ताजा बयानों के बाद इस डर की दिशा बदलती दिख रही है। ट्रंप ने आईआरएनएफ यानी ’मध्यम दूरी परमाणु शक्ति संधि’ से पृथक होने और नए व ज्यादा मारक क्षमता वाले परमाणु शस्त्र बनाने की घोषणा करके दुनिया को चिंतित कर दिया है। वहीं दूसरी तरफ इस ऐलान की प्रतिक्रिया में पुतिन ने कहा है कि ’अगर अमेरिका ने संधि से पलटने का फैसला लिया तो रूस भी इसका प्रभावी ढंग से उत्तर देगा। जिस किसी भी यूरोपीय देश ने अमेरिका की परमाणु मिसाइलों को अपने देश में जगह दी तो उसे निशाना बनाया जाएगा।’ मसलन वैश्विक शक्तियां पुरानी परमाणु संधियों से अलग-थलग होती हैं तो इन्हीं परमाणु शक्तियों को युद्ध का शंखनाद करने में देर नहीं लगेगी ? यह युद्ध यदि हुआ तो वैश्विक परमाणु युद्ध में बदलना तय है।
दरअसल ट्रंप जो भी अंतरराष्ट्रीय संधियां हैं, उन्हें शक की निगाह से देख रहे हैं। इन संधियों के मद्देनजर उन्हें अमेरिका के राष्ट्रहित कमजोर पड़ते दिखाई दे रहे हैं। इस सोच के पनपने का कारण रूस व चीन की निरंतर हर क्षेत्र में बढ़ती ताकत और घनिष्ट होती मित्रता भी है। ट्रंप जलवायु परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में हुए समझौते को भी अमेरिका के औद्योगिक विकास में बड़ी बाधा मान रहे हैं, इसलिए वे उसे भी तोड़ने का बयान देते रहते हैं। हालांकि संधि बनाए रखने की दृष्टि से उन्होंने यह भी कहा है कि ’यदि रूस और चीन घोषणा कर दें कि दोनों देश संधि पर पुनर्विचार के लिए तैयार हैं, तो अमेरिका अपना फैसला बदल सकता है। अलबत्ता यहां सवाल उठता है कि रूस व चीन अमेरिका की धमकी के आगे क्यों घुटने टेकेंगे ? यदि अमेरिका संधि पर पुनर्विचार का शांतिपूर्ण ढंग से प्रस्ताव रखता तो एक बार इस पर विचार की संभावना रूस व चीन कर सकते थे। अलबत्ता धमकी तो आखिर में टकराव के रास्ते ही खोलती है, इसीलिए रूस ने ईंट का जबाव पत्थर से दे भी दिया है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने इस संधि को लेकर उपजे विवाद को दोनो देश को बातचीत से हल करने का सुझाव दिया है। लेकिन वर्तमान परिदृश्य में अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं जिस तरह से अप्रासंगिक होती जा रही है, उससे लगता नहीं कि इन महाशक्तियों पर उसका पर्याप्त दबाव बन पाएगा ?
संयुक्त राज्य अमेरिका और तत्कालीन सोवियत संघ ने मध्यम दूरी के परमाणु प्रक्षेपास्त्रों, यानी मिसाइलों को समाप्त करने के लिए 8 दिसंबर 1987 के दिन मध्यम दूरी परमाणु शक्ति संधि (इंटरमीडिएट रेंज न्यूक्लीयर फोर्स) पर हास्तक्षर किए थे। यह समझौता परमाणु-शस्त्रों पर नियंत्रण के लिए छह साल तक चली सकारात्मक वार्ता का परिणाम था। लेकिन 1989 में वारसा संधि के खात्मे और सोवियत रूस के विघटन की घटनाओं ने कुछ ऐसा मोड़ लिया कि इस आईआरएनएफ संधि का सामरिक महत्व नगण्य हो गया। वारसा संधि के समापन से यूरोप की सेनाओं की भूमिका एकपक्षीय हो गई। समुद्री सतह पर तैनात मिसाइलों के विस्तार का औचित्य खत्म हो गया। वैसे भी इस संधि में समुद्री मिसाइलों को नष्ट करने की शर्त नहीं जुड़ी थी। जबकि आईआरएनएफ का लक्ष्य इन्हीं मिसाइलों की निगरानी करना था। संधि के पालन में सभी परमाणु हथियार और पारंपरिक मिसाइलों के साथ-साथ उनके लांचर, जिनकी मारक क्षमता 500 से 1000 और 1000 से 3500 किमी थी, को हटा दिया गया था। 1991 तक करीब 2692 मिसाइलें नष्ट कर दी गई थीं।
दरअसल इस संधि की समय-सीमा दो साल बाद खत्म हो रही है, इसलिए अमेरिका अब अपने देशहित के चलते इसके नवीनीकरण के पक्ष में नहीं है। इस संधि का ही नतीजा था कि शीतयुद्ध के समय दुनिया तनावमुक्त रही। इससे यह भरोसा बना हुआ था कि दुनिया एकाएक परमाणु विभीषका की भट्टी में नहीं झोंकी जाएगी ? किंतु कालांतर में संधि टूटती है तो दुनिया कभी भी परमाणु हमले की चपेट में आ सकती है। हालांकि 20 अक्टूबर 2018 को टंप ने जो बयान दिया है, वह प्रस्ताव अभी अमेरिकी सीनेट से अनुमोदित नहीं हुआ है। इसलिए एकाएक यह कहना भी मुश्किल है कि यह संधि समाप्त हो ही जाएगी।
अब दोनों देश इस संधि के उल्लंघन का आरोप एक-दूसरे पर मढ़ रहे हैं। अमेरिका ने 2008 में एसएससी क्रूज मिसाइल का परीक्षण किया, तो रूस ने यूरोप को लक्षित करने वाली मिसाइलों का परीक्षण और निर्माण कर लिया। इनमें 9 एम-729 और आरएस-26 रूबेज मिसाइलें शामिल हैं। ये अंतरराष्ट्रीय बैलिस्टिक मिसाइलें हैं। इनका परीक्षण व निर्माण आईआरएनएफ संधि का खुला उल्लंघन है। इधर चीन, भारत और पाकिस्तान भी मिसाइल संपन्न देश हो गए हैं। रूस-चीन के मजबूत होते सामरिक संबंध भी अमेरिका को परेशान किए हुए हैं। उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग तो पहले ही अमेरिका पर परमाणु हमले की धमकी दे चुके हैं। किम को चीन की शह हासिल है और पाकिस्तान ने उसे गोपनीय ढंग से परमाणु शस्त्र निर्माण की तकनीक दी थी। उत्तर कोरिया हाइड्रोजन बम का भी सफल परीक्षण करके दुनिया को दहला चुका है। गोया, अमेरिका संधि तोड़ता है तो चीन व रूस की शह पर किम जोंग किसी भी हरकत को अंजाम दे सकते हैं। हालांकि फिलहाल उत्तर और दक्षिण कोरिया में सद्भाव कायम है, जो अमेरिका के हस्तक्षेप से ही सफल हुआ था।
इस समय कुल 9 देश परमाणु शक्ति संपन्न देश हैं। इनमें पांच अमेरिका, रूस, फ्रांस, चीन और ब्रिटेन ऐसे देश हैं, जिनके पास परमाणु हथियारों के इतने बड़े भंडार है कि वे पूरी दुनिया को कई बार नष्ट कर सकते हैं। विडंबना यह भी है कि यही देश परमाणु अप्रसार संधि के सदस्य हैं। अमेरिका के पास 4760, रूस 4300, फ्रांस 300, चीन 250 और ब्रिटेन के पास 225 परमाणु हथियार हैं। इन देशों के अलावा भारत, पाकिस्तान, इजराइल और उत्तर कोरिया भी परमाणु शक्ति संपन्न देश हैं। भारत के पास 90-110, पाकिस्तान 90-120, इजराइल 80-100 और उत्तर कोरिया के पास 10 परमाणु हथियार बताए जाते हैं। किस देश के पास वास्तव में कितने परमाणु अस्त्र है, इनकी वासविक गिनती नहीं हुई है, ये महज अनुमान हैं। दक्षिण अफ्रीका, बेलारूस, यूक्रेन और कजाकिस्तान अपने-अपने परमाणु हथियार खत्म कर चुके हैं। ईरान परमाणु हथियार निर्माण कार्यक्रम चला रहा था, किंतु अमेरिका के दबाव और नई संधि के चलते इस शंका को निर्मूल माना जा रहा है। परमाणु हमले का दंश झेल चुके जापान के पास कोई परमाणु हथियार नहीं है, लेकिन उत्तर कोरिया द्वारा हाइड्रोजन बम के परीक्षण के बाद जापान ने परमाणु कार्यक्रम शुरू करने के संकेत दिए हैं। चीन की विस्तारवादी नीति ने भी जापान को इस दिशा में मुड़ने को विवश किया है।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन का कहना था कि कल्पना ज्ञान से अधिक शक्तिशाली होती है। भारत के रामायण और महाभारत जैसे संस्कृत ग्रंथों में महाविध्वंसक अस्त्र-शस्त्रों का उल्लेख है। महाभारत में अस्त्र का तात्पर्य आज के प्रक्षेपास्त्र यानी मिसाइल से है और धनुष वर्तमान प्रक्षेपक यानी लांचर है। नए अनुसंधनों से ज्ञात हुआ है कि राम और कृष्ण के युग में प्रयोग में लाए जाने वाले अस्त्रों से तीव्रगामी घातक गामा किरणें निकलती थीं। इन्हीं अस्त्रों से प्रेरणा लेकर इसरो सुदर्शन चक्र के समान पुर्नप्रयोग यानी री-यूजेबल मिसाइल निर्माण के सिलसिले में अनुसंधानरत है। अस्त्रों का उपयोग बचावकारी आधुनिक टेसला शील्ड के समान होता है। परमाणु हथियारों से हमला बोलने की अनुमति का अधिकार किसी भी देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सेना प्रमुख या सामूहिक निर्णय के जरिए लिया जाता है। आम प्रचलन में परमाणु हमले को ’रेड बटन’ यानी खूनी खेल खेलने का लाल बटन माना जाता है। जो दबने के बाद सिर्फ और सिर्फ तबाही की क्रूरता रचता है। अमेरिका इस बटन को दबाकर जापान के हिरोशिमा और नागाशाकी शहरों पर 6 और 9 अगस्त 1945 को परमाणु हमला बोलकर नेस्तनाबूद कर चुका है। शायद परमाणु हमले की विभीषका व वीभत्सता को अहसास करते हुए ही अल्बर्ट आइंसटीन ने कहा था कि ’मैं यह नहीं जनता कि तीसरे विश्वयुद्ध में किस तरह के हथियारों का इस्तेमाल होगा, लेकिन यह तय है कि चौथा विश्व युद्ध लाठी और पत्थरों से लड़ा जाएगा। बहरहाल आईआरएनएफ संधि टूटती है तो दुनिया के जल्द तबाह होने का खतरा बढ़ जाएगा।
अध्यादेश लाना है तो सर्वधर्म केंद्र के लिए लाएं
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अयोध्या में राम मंदिर का मसला 2019 के चुनाव के पहले हल होता हुआ मुझे नहीं लगता और यदि चुनाव के पहले यह हल नहीं होगा तो यह भाजपा के लिए गंभीर चुनौती सिद्ध हो सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले को जनवरी 2019 तक के लिए टाल दिया है। अब से तीन महिने वह लगाएगा, उस बेंच को नियुक्त करने में, जो यह तय करेगी कि 2010 में दिया गया इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला ठीक है या नहीं। उसके फैसले में जजों ने राम जन्मभूमि की 2.77 एकड़ जमीन को तीन दावेदारों में बांट दिया था। एक रामलला, दूसरा निर्मोही अखाड़ा और तीसरा सुन्नी वक्फ बोर्ड।
जनवरी 2019 में राम-मंदिर विवाद का फैसला नहीं होगा। इस मुकदमे को सुननेवाली सिर्फ बेंच बनेगी। वह बेंच क्या इस विवाद को रोजाना सुनवाई के आधार पर तय करेगी ? मुख्य न्यायाधीश ने पिछली बहस के वक्त यह स्पष्ट कर दिया था कि मंदिर-मस्जिद का मामला इतना संगीन नहीं है कि इस पर तुरंत विचार किया जाए। पिछले आठ साल से यह मामला सबसे ऊंची अदालत में जरुर अटका हुआ है लेकिन जरा यह तो सोचिए कि 2019 के चुनाव के पहले वह इसका फैसला कैसे सुना सकती है ? इस विवाद से संबंधित सदियों पुराने दस्तावेज कई हजार पृष्ठों में फैले हुए हैं और वे संस्कृत, प्राकृत, अरबी, फारसी और हिंदी में हैं। हमारे जजों को अंग्रेजी में काम करने की आदत है। वे इन दस्तावेजों से कैसे पार पाएंगे ? जब तक इन दस्तावेज का अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध नहीं होगा, जजों को इंतजार करना पड़ेगा।
इसके अलावा मुख्य प्रश्न यह है कि अदालत किस मुद्दे पर फैसला देगी ? उसके सामने मुद्दा यह नहीं है कि अयोध्या में राम मंदिर बने या मस्जिद बने बल्कि यह है कि उस 2.77 एकड़ जमीन पर किसकी मिल्कियत है ? इलाहाबाद न्यायालय ने दो-तिहाई जमीन तो हिंदू संस्थाओं को दे दी है और एक तिहाई मुस्लिम संस्था को। मान लें कि वह सारी जमीन दोनों में से किसी एक को दे दे तो क्या दूसरे लोग उस फैसले को मान लेंगे ? यदि 2.77 एकड़ जमीन सुन्नी वक्फ बोर्ड को मिल गई तो क्या हिंदू संगठन अदालत का आदर करेंगे ? अदालत के लिए यह मामला विश्वास और श्रद्धा का नहीं, कब्जे और कानून का है।
मान लें कि सर्वोच्च न्यायालय उसी फैसले पर मोहर लगा दे, जो उच्च न्यायालय ने दिया है तो क्या होगा ? तो क्या निर्मोही अखाड़ा उस दो-तिहाई जमीन पर, जो दो एकड़ से भी कम है, मंदिर बनाना पसंद करेगा ? और क्या वह यह भी पसंद करेगा कि मंदिर की दीवार से सटकर वहां एक बाबरी मस्जिद दुबारा खड़ी हो जाए ? क्या उस राम जन्मभूमि में मंदिर और मस्जिद साथ-साथ रह पाएंगे, खास तौर से बाबरी मस्जिद के ढांचे को ढहाने की घटना के बाद ?
दूसरे शब्दों में इस मंदिर-मस्जिद के विवाद को हल करने के लिए अदालत की शरण में जाना मुझे बिल्कुल समझ में नहीं आता। अदालतों के सैकड़ों फैसले आज भी ऐसे हैं, जिन्हें कभी लागू ही नहीं किया जा सका। सर्वोच्च न्यायालय ने सबरीमाला मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश का जो फैसला किया है, उसकी कितनी दुर्गति हो रही है ? केरल की मार्क्सवादी सरकार और हमारी केंद्र की सरकार क्या कर पा रही है ? मंदिर-मस्जिद विवाद को अदालत की खूंटी पर टांगकर हमारे नेतागण खर्राटे खींच रहे हैं। यह स्थिति हमारी राजनीतिक दरिद्रता की परिचायक है। पिछले चार साल देखते-देखते निकल गए। अब चुनाव के बादल जबकि सिर पर मंडरा रहे हैं, भगवान राम याद आ रहे हैं। सारे मसले को सांप्रदायिक रंग दिया जा रहा है। कुछ संगठन कह रहे हैं कि वे 6 दिसंबर से ही मंदिर का निर्माण-कार्य शुरु कर देंगे और कुछ नेता अब मंदिरों, शिवालयों और आश्रमों के चक्कर लगा रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि राम मंदिर का मामला तूल पकड़नेवाला है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने एक अध्यादेश लाने की मांग की है।
यदि मंदिर-मस्जिद का मामला मजहबी रंग पकड़ता है तो यह भारत का दुर्भाग्य होगा। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर का मोर्चा दुबारा खोल दिया है। मुझे आश्चर्य है कि ये पिछले चार साल मौन-व्रत क्यों धारण किए रहे ? मेरे लिए अयोध्या में राम मंदिर मजहबी मसला है ही नहीं। उसे हिंदू-मुसलमान का मसला बनाना बिल्कुल गलत है। यह मसला है, देसी और विदेशी का ! यह बात मैं अपने बड़े भाई तुल्य अशोक सिंघलजी, जो कि विश्व हिन्दू परिषद के बरसों—बरस अध्यक्ष रहे, से भी हमेशा कहता रहता था। विदेशी आक्रांता जब भी किसी देश पर हमला करता है तो उसके लोगों का मनोबल गिराने के लिए वह कम से कम तीन काम जरुर करता है। एक तो उसके श्रद्धा-केंद्र और पूजा-स्थलों को नष्ट करता है। दूसरा, उसकी स्त्रियों को अपनी हवस का शिकार बनाता है और तीसरा, उसकी संपत्तियों को लूटता है। जहां तक बाबर का सवाल है, उसने और उसके-जैसे हमलावरों ने सिर्फ भारत में ही नहीं, उज़बेकिस्तान और अफगानिस्तान में भी कई श्रद्धा-केंद्र को नष्ट किया। वे मंदिर नहीं थे। वे मस्जिदें थीं। वे दुश्मनों की मस्जिदें, उनकी औरतें और उनकी संपत्तियां थीं। यह जानना हो तो आप पठानों के महान कवि खुशहालखान खट्टक की शायरी पढ़िए। सहारनपुर के प्रसिद्ध उर्दू शायर हजरत अब्दुल कुद्दुस गंगोही का कलाम देखिए। उन्होंने लिखा है कि मुगल हमलावरों ने जितने मंदिर गिराए, उनसे ज्यादा मस्जिदें गिराईं। औरंगजेब ने बीजापुर की बड़ी मस्जिद गिराई थी, क्योंकि उसे बीजापुर के मुस्लिम शासक को धराशयी करना था। इसीलिए मैं कहता हूं कि अयोध्या के राम मंदिर को मीर बाक़ी ने गिराया हो या किसी और ने, यह सवाल मज़हबी नहीं, राष्ट्रीय है।
अब मेरी राय यह है कि देश के मुसलमानों को पहल करनी चाहिए और राम जन्मभूमि की जगह विश्व का भव्यतम मंदिर ही बनने देना चाहिए और उस 70 एकड़ जमीन में एक शानदार मस्जिद के साथ-साथ दुनिया के सभी प्रमुख धर्मों के पूजा-स्थल भी बन सकें, ऐसा एक अध्यादेश सरकार को तुरंत लाना चाहिए ताकि अयोध्या सर्वधर्म समभाव का विश्व-केंद्र बन सके। अध्यादेश लाने के पहले देश के सभी प्रमुख नेताओं को संबंधित पक्षकारों से मिलकर सर्वसम्मति का निर्माण करना चाहिए ताकि उस अध्यादेश को कानून बनाने में कोई अड़चन आड़े नहीं आए। इसी आशय का अध्यादेश 1993 में प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने जारी करवाया था और 1994 में संसद ने उसे कानून का रुप दिया था। इसी कानून को थोड़ा बेहतर और सर्वसमावेशी बनाकर यदि सर्वसम्मति से लागू किया जाए तो सर्वोच्च न्यायालय का भी कष्ट दूर होगा और भारत में सांप्रदायिक सद्भाव की नई लहर चल पड़ेगी।
राजनीति के दाँव-पेंच में गुम होकर न रह जाए गंगा
अजित वर्मा
आईआईटी कानपुर के पर्यावरण विज्ञान इंजीनियरिंग विभाग के प्रमुख रहे गंगा सेवी 86 वर्षीय पर्यावरणविद् प्रो.जी.डी.अग्रवाल उर्फ स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद ने विगत ग्यारह अक्टूबर को गंगा को निर्मल और अविरल बनाने के अपने अभियान में स्वयं अपनी जान गँवा दी। उनकी मृत्यु की संदिग्ध परिस्थितियों को लेकर अब भी सवाल उठाये जा रहे हैं। पूछा जा रहा है कि 2011 में युवा सन्यासी निगमानंद और 2013 में स्वामी गोकुलानंद के बाद अब 2018 में स्वामी सानंद का बलिदान भी क्या निरर्थक और निष्फल हो जाएगा? गंगा के लिए अनशनरत युवा संयासी गोपाल दास को उत्तरप्रदेश सरकार ने उठा लिया है और इस अस्पताल से उस अस्पताल ले जा रही है। ईश्वर न करे, लेकिन अगर कल उन्हें भी कुछ हो जाता तो है तो इसका पाप भी सरकार के माथे आएगा। सरकार दावा कर रही है कि गंगा एक्ट पर काम हो रहा है। लेकिन लोग हैं कि इस बात पर भरोसा नहीं करते। क्योंकि लोगों के जेहन में यह सवाल भी कौंध रहा है कि सरकार तो स्वामी सानंद के अंतिम दर्शन तक नहीं करने देने पर आमादा थी। लेकिन जब नामचीन लोग धरने पर बैठ गये, तब कहीं स्वामी सानंद के पार्थिव के अंतिम दर्शन संभव हो सके।
लेकिन उत्तरप्रदेश सरकार और केन्द्र सरकार ने स्वामी सानंद द्वारा देहदान किये जाने की आड़ में उनका अंतिम संस्कार तक नहीं होने दिया। पहले भयभीत राज्य सरकार ने अंतिम संस्कार के लिए उनकी पार्थिव देह आश्रम को सौंपने से इन्कार किया। फिर जब हाईकोर्ट ने स्वामी जी के देह 8 घण्टे के अंदर 72 घण्टों के लिए आश्रम को सौंपने के आदेश दिये तो राज्य सरकार ने लॉ एण्ड ऑर्डर बिगड़ने की आड़ ली, जिसे हाईकोर्ट ने ठुकरा दिया तो राज्य सरकार और केन्द्र सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गयीं और यह दलील दी कि स्वामी जी ने देहदान किया है और उनकी देह अगर आश्रम को सौंपी गयी तो उनके अंग किसी काम के नहीं रह जाएंगे। सुप्रीम कोर्ट ने इस दलील को मान लिया।
इस सरकारी प्रपंच में ऐसा हुआ कि स्वामी सानंद की देह को गंगाजल से स्नान तक नहीं नसीब हुआ। परम्परा यह है कि देहदान करने वालों का भी अंतिम संस्कार किया ही जाता है। लेकिन अब एक सन्यासी का अंतिम संस्कार तक न होने देने के पाप की भागीदार भाजपा की केन्द्र और राज्य सरकारें बन गयी हैं।
उधर स्वामी सानंद की मौत को अब भी संदिग्ध माना जा रहा है। मातृसदन के प्रमुख अधिष्ठाता स्वामी शिवानंद कह रहे हैं कि जिस तरह सात साल पहले जून 2011 में उनके शिष्य ब्रह्मचारी स्वामी निगमानंद सरस्वती की 115 दिन के अनशन के बाद जॉली ग्रांट हॉस्पिटल में संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हुई ठीक उसी तरह स्वामी सानंद की मौत भी संदिग्ध है। ऋषिकेश एम्स का कहना है कि उनके शरीर में पोटेशियम और ग्लूकोज अत्याधिक निचले स्तर पर आ गया था, जिसकी वजह से उन्हें हृदयघात आया और लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका।ज्योतिष्पीठाधीश्वर एवम् द्वारका पीठाधीश्वर जगद्.गुरु स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती जी महाराज के शिष्य दण्डी स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद का कहना है कि जो व्यक्ति 111 दिन की तपस्या के बावजूद सुबह सबेरे प्रेस विज्ञप्ति खुद अपने हाथों से लिख सकता है, उसको हृदयघात कदापि नहीं हो सकता। उनका सवाल है कि यदि उनको हृदयघात हुआ था, तो उस स्थिति में उनको आईसीयू में भर्ती क्यों नहीं कराया गया?
उनकी मृत्यु के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने शोक संदेश पर दुख जताया। पूछा जा रहा है कि प्रधानमंत्री उनके निधन से इतने ही दुखी हैं तो किस कारणवश उनकी सरकार ने स्वामी सानंद के लिखे एक नहीं, दो नहीं बल्कि चार पत्रों का उत्तर तक देना उचित नहीं समझा। और तो और, हरिद्वार आने पर भी प्रधानमंत्री ने अनशनरत स्वामी सानंद से मिलना पसंद नहीं किया।
क्या यह देखना आश्चर्यजनक नहीं है कि चुनाव के भाजपाई एजेण्डे से गाय, गंगा और मन्दिर तीनों अब तक गायब हैं। देशवासियों को चौकस रहकर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि राजनीति के दाँव-पेंच में कहीं गंगा गुम हो कर न रह जाये।
हरियाणा इनेलो में विरासत की बिसात
जग मोहन ठाकन
कभी भारत की शीर्ष राजनीति के पुरोधा रहे एवं प्रधानमंत्री के ताज को अपने सिर पर न रखकर वी पी सिंह को कुर्सी सौंपने वाले किंगमेकर पूर्व उपप्रधानमंत्री स्वर्गीय चौधरी देवीलाल की विरासत पर ‘सूत न कपास – जुलाहों में लठम-लठा’ की तर्ज पर विरासत की लड़ाई की बिसात अब चौराहों पर आ बिछी है और शै दे रहे हैं खुद देवीलाल के ही वंशज।
हरियाणा प्रदेश में वर्तमान सत्ता धारी दल भाजपा के प्रति लोगों का विकर्षण , कांग्रेस की आंतरिक लड़ाई तथा किसी अन्य विकल्प के अभाव ने इनेलो –बसपा के सामयिक गठबंधन ने एक आशा की नई किरण हरियाणा के राजनैतिक क्षितिज पर प्रष्फुटित की थी। परन्तु बकरी को कहाँ हज़म होते हैं धड़ी बिनोले ? चने के खेत में थोड़ी सी हरियाली क्या दिखी , काटने वाले दराती लेकर आपस में ही भिड़ने लगे। अक्टूबर माह में चौधरी देवीलाल के जन्म दिवस पर गोहाना रैली में इनेलो के भारी संख्या में मौजूद समर्थकों के बीच पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला की उपस्थिति में ही उनके पौत्र एवं लोक सभा सांसद दुष्यंत चौटाला के पक्ष में लगे नारों ने पार्टी सुप्रीमो को उद्वेलित होने को मजबूर कर दिया और नतीजन पार्टी में अनुशासनहीनता पनपाने के आरोप में दुष्यंत चौटाला तथा उनके छोटे भाई दिग्विजय चौटाला की पार्टी पदों से निलंबन कारवाई के साथ जवाब तलबी भी की गयी। इसी क्रिया के प्रतिफल स्वरुप प्रतिक्रिया ने पार्टी की अंदर खाने चल रही चाचा –भतीजा की मुख्यमंत्री कुर्सी हथियाने की लालसा और एक दूसरे की जड़ें काटने को बिछाई बारूदी सुरंगों को आम जनता के सम्मुख ला दर्शाया।
क्या है विवाद की जड़ ?
हरियाणा में जे बी टी अध्यापक मामले में हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला अपने बड़े पुत्र अजय सिंह चौटाला के साथ दस वर्ष की सजा काट रहे हैं। उनकी अनुपस्थिति में पार्टी को चलाने का दायित्व इनेलो सुप्रीमो ओमप्रकाश चौटाला ने अपने छोटे पुत्र अभय सिंह चौटाला को सौंपा हुआ था। परन्तु अजय सिंह चौटाला ,जो सजा से पहले सुप्रीमो चौटाला के अघोषित राजनैतिक वारिस माने जाते थे ,की विरासत को सँभालने हेतु उनके बड़े पुत्र दुष्यंत चौटाला , वर्तमान में हिसार से लोक सभा सांसद , अपने छोटे भाई दिग्विजय सिंह चौटाला , जो इनेलो की स्टूडेंट विंग ‘इनसो’ के सर्वेसर्वा हैं , के साथ मिलकर दिन रात एक कर इनेलो को युवा वर्ग से जोड़ने में काफी हद तक सफल रहे हैं।
क्योंकि अधेड़ उम्र में कदम रख चुके अभय सिंह चौटाला की छवि लोगों में आक्रामक ज्यादा रही है , इसलिए दुष्यंत चौटाला की सौम्यता एवं सादगी में युवाओं को स्वर्गीय देवीलाल की ‘जन नेता’ की उभरती छवि अधिक आकर्षक लगी और प्रदेश के युवा वर्ग को दुष्यंत के रूप में अपना नेता नज़र आया। नतीजन कारवां बढ़ता गया और युवाओं को दुष्यंत का कद मुख्यमंत्री के पद के काबिल लगने लगा। इसी मध्य बहुजन समाज पार्टी से हुए गठबंधन ने इनेलो की जीत की आश और पुख्ता कर दी।
पार्टी सुप्रीमो ओमप्रकाश चौटाला तथा अजय सिंह चौटाला की गैर –मौजदगी से इनेलो में आई रिक्तता के चलते एवं दुष्यंत के प्रति पैदा हुए गर्मजोशी के माहौल में दुष्यंत को भी लगने लगा कि आगामी 2019 के विधान सभा चुनावों में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान होने का उनका सपना एक हकीकत में भी तब्दील हो सकता है। जन सभाओं में भी दुष्यंत समर्थक उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने लगे। इसी प्रोजेक्शन ने अभय चौटाला को चोकन्ना कर दिया और वो अपने आक्रामक रुख के बलबूते पर पार्टी सुप्रीमो सीनियर चौटाला को अपने प्रतिद्वंद्वी दोनों भतीजों दुष्यंत एवं दिग्विजय के कदों को छोटा करवाने के प्रयास में फिलहाल तो सफल होते नज़र आ रहे हैं।
शब्द बाणों से चल रही है लड़ाई
अपने अपने समर्थकों की रैली कर चाचा भतीजा बिना नाम लिए ही खुले रूप में एक दूसरे पर शब्द बाणों की लगातार बौछार कर रहे हैं। मीडिया को माध्यम रख कर भी तंज कसे जा रहे हैं तथा अपने आप को इनेलो का सच्चा वारिस सिद्ध करने का एकमात्र लक्ष्य सामने रखा जा रहा है , पार्टी हित कहीं गौण हो गया लगता है।
29 अक्टूबर की चरखी दादरी जनसभा में अभय सिंह चौटाला ने बिना नाम लिए अपने भतीजे दुष्यंत चौटाला को चेताया , “कई साल पहले एक षड्यंत्र के तहत पार्टी को तोड़ने के लिए रणजीत सिंह चौटाला को मुख्यमंत्री की कुर्सी का सब्जबाग दिखाया गया था , आज उसी राह पर कुछ लोग पुनः पार्टी को तोड़ने का कुप्रयास कर रहे हैं। परन्तु आगामी चुनाव में उनका भी वही हश्र होगा जो रणजीत सिंह का हुआ था। ऐसे लोग चुनाव के बाद हाशिये पर चले जायेंगे। ”
इसका उसी दिन जवाब देते हुए भतीजे दुष्यंत चौटाला ने यमुनानगर में अपने समर्थकों की सभा में कहा , “ कुछ लोग इनेलो पार्टी व संगठन को कमजोर करने का प्रयास कर रहे हैं , लेकिन उनके मंसूबों को कभी कामयाब नहीं होने देंगे। दादा जी ( पार्टी सुप्रीमो ओमप्रकाश चौटाला ) जो भी फैसला करेंगे , उन्हें उनका हर फैसला मंजूर होगा। परन्तु षड्यंत्र कारियों की इच्छा अनुरूप किसी भी कीमत पर पार्टी सुप्रीमो के कन्धों को न तो झुकने देंगे और न ही उनकी नीतियों को कमजोर पड़ने देंगे। ”
पार्टी की अनुशासन समिति द्वारा दुष्यंत को दिए गए कारण बताओ नोटिस पर टिप्पणी करते हुए दुष्यंत चौटाला ने आशंका भी व्यक्त की और कहा , “मुझे दिए गए नोटिस की ड्राफ्टिंग से मुझे बहुत आघात पहुंचा है , क्योंकि नोटिस में जिन शब्दों और शैली का इस्तेमाल किया गया है , वह शब्दावली और उसके लिखने का अंदाज मेरे दादा जी का नहीं हो सकता। नोटिस के लहजे से किसी साजिश की बू आ रही थी। ”
30 अक्टूबर की महम कार्यकर्ता सभा में सांसद दुष्यंत चौटाला ने एक शायर के अंदाज में स्पष्ट संकेत दे दिए कि वे राजनीति में जिन्दा रहने के लिए टकराव से भी नहीं डरेंगे।
“असूलों पर आंच आये तो टकराना जरूरी है ,
जिन्दा हैं तो जिन्दा नज़र आना जरूरी है। ”
इसी चाचा –भतीजे के वाक् –युद्ध एवं सत्ता रार में अजय सिंह चौटाला की पत्नी तथा डबवाली से इनेलो की विधायक नैना चौटाला अपने दोनों पुत्रों दुष्यंत तथा दिग्विजय के पक्ष में आ खड़ी हुई है। अपने पुत्रों को क्लीन चिट देते हुए नैना ने अपनी चिर –परिचित चुनरी चौपाल में कहा , “ अगर अच्छे संस्कार पर चलना अनुशासन हीनता होती है , तो मैं चाहती हूँ कि हर माँ को ऐसे संस्कार देने चाहियें और हर बेटे को अनुशासन हीनता करनी चाहिए। मेरे दोनों पुत्र मेरे द्वारा दिए गए संस्कारों के प्रतिफल स्वरुप ही पूरे अनुशासन में चलने वाले हैं। ”
क्या होगा रार का हश्र
यहाँ यह बताना उचित होगा कि चौटाला परिवार में राजनैतिक विरासत की लड़ाई कोई नई नहीं है। आज से लगभग तीन दशक पूर्व भी यही घटनाक्रम घटित हुआ था, जब स्वर्गीय चौधरी देवी लाल ने अपनी राजनैतिक विरासत की पगड़ी अपने बड़े पुत्र ओमप्रकाश चौटाला के सिर पर रख दी थी और छोटे पुत्र रणजीत सिंह ने बगावत कर दी थी। हालाँकि देवीलाल के पार्टी पर ‘स्ट्रोंग होल्ड’ के चलते रणजीत सिंह की बगावत एक फ्यूज कारतूस की भांति ठुस होकर रह गयी थी और आज रणजीत सिंह शून्य होकर राजनीति के क्षितिज में किसी अज्ञात चमक हीन तारे की तरह टिमटिमाने को मजबूर हैं। वर्तमान में भी यह चाचा (अभय चौटाला ) तथा भतीजे ( दुष्यंत चौटाला ) की राजनैतिक विरासत की लड़ाई खुद को ‘ओमप्रकाश चौटाला’ सिद्ध कर दूसरे को ‘रणजीत सिंह’ बनाकर कर रसातल में भेजने हेतु ही लड़ी जा रही है। कौन ‘रणजीत सिंह’ और कौन पार्टी सुप्रीमो ‘ओमप्रकाश चौटाला’ बनेगा यह तो वर्तमान तीरंदाजी के प्रतिफल से ही तय होगा। आज तीर कमान से निकल कर काफी दूर चला गया है , निशाने पर कितना सटीक लगता है , यह तो आने वाला समय ही तय करेगा।
हाँ पुरानी स्थिति और वर्तमान स्थिति में इतना फर्क जरूर है कि उस समय के पार्टी सुप्रीमो चौधरी देवीलाल की साख और पकड़ इतनी मजबूत थी कि पब्लिक में उनके फैसले का विशेष विरोध नहीं हुआ था। आज पार्टी सुप्रीमो ओमप्रकाश चौटाला के जेल में होने के कारण पार्टी में तथा परिवार में उनकी पकड़ उतनी मजबूत नहीं रह गयी है कि अपने फैसले को बिना किसी विरोध के एकतरफा लागू करवा सकें। भले ही दुष्यंत या अन्य कोई यह कहता रहे कि दादा जी जो मर्जी फैसला करें , उन्हें उनका हर फैसला मंजूर होगा। मगर वास्तिवकता यह प्रतीत हो रही है कि जिस किसी के विरोध में विरासत का फैसला आएगा , उसी के ही बागी होने की संभावना राजनैतिक हलकों में प्रकट की जा रही है। राजनैतिक विचारक इस विरासत की लड़ाई को आर –पार की लड़ाई मान रहे हैं। क्योंकि अब इस लड़ाई में जो सिकंदर होगा , विरासत की पगड़ी उसको और उसकी आगामी पीढ़ी को हस्तांतरित होती जायेगी तथा चूकने वाले को या तो सत्ता रेस से बाहर होना होगा या लम्बे अरसे की लड़ाई लड़नी होगी।
वर्तमान हालात में दो संभावनाएं दृष्टिगोचर हो रही हैं। विचारक दोनों परिस्थितियों में ही इनेलो की सत्ता प्राप्ति हेतु वांछित जीत पर सदेह प्रकट कर रहे हैं। अगर पार्टी दो फाड़ हो जाती है तो दोनों ही पक्ष दो अंको की भी सीटें ले पाएंगे , इसमें शंका ही शंका है। और अगर पारिवारिक दवाब या किसी अन्य समझौते के तहत दोनों पक्ष एक ही झंडे तले चुनाव लड़ते भी हैं तो भी अपनी अपनी डफली और अपने अपने राग अलापेंगें और एक दूसरे को हल्का करने के प्रयास में दूसरे के उम्मीदवारों का अंदर खाने हराने का भी पूर्ण प्रयास करेंगें ताकि मुख्यमंत्री की कुर्सी हथियाने में अपने को भारी सिद्ध कर सकें। एक अन्य शंका यह भी प्रकट की जा रही है कि पार्टी के विभाजन के बाद मायावती की बसपा का इनेलो के साथ गठबंधन रह पायेगा या टूट जायेगा ? कुछ भी हो इतना तो तय लगता है कि इनेलो के अच्छे दिन आने के आसार सिकुड़ते अवश्य जा रहे हैं।
पत्रकार खशोगी और जाँच एजेन्सियां अजित वर्मा
एक अमेरिकी अखबार के लिए काम करने वाले पत्रकार जमाल खगोशी की संदिग्ध हत्या ने यह सवाल उठा दिया है कि आखिर अमेरिका, इंग्लैण्ड, रूस, इज्राइल चीन आदि की खुफिया एजेन्सियां क्या इतनी लुंज-पुंज हो गई हैं कि एक पत्रकार की हत्या की सच्चाई तक पता न कर सकें जबकि उसकी हत्या तीन देशों के बीच कहा-सुनी का मुद्दा बन गयी है। और संयुक्त राष्ट्र को सच्चाई उजागर करने की अपील करने आगे आना पड़ता है। यो, यह लगभग सच माना जा रहा है कि इस्ताम्बूल स्थित सउदी अरब के वाणिज्य दूतावास में खशोगी की मौत हो गई थी। हो सकता है सउदी इस बात को स्वीकार भी कर ले।
सऊदी अरब और तुर्की से कहा है कि पत्रकार जमाल खशोगी के लापता होने के विषय में संयुक्त राष्ट्र के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा है कि उन्हें भी पता है उन्हें उसका खुलासा करना चाहिए। उन्होंने असंतुष्ट सऊदी पत्रकार के ठिकाने के बारे में ‘गहन एवं निष्पक्ष जांच की भी मांग की। आशंका है कि 60 वर्षीय खशोगी की इस्तांबुल में सऊदी अरब के वाणिज्य दूतावास में हत्या कर दी गयी है। इस घटना की अमेरिका और दुनियाभर में निंदा हुई। खशोगी दो अक्टूबर को इस्तांबुल में सऊदी वाणिज्य दूतावास में दाखिल होने के बाद गायब हो गये थे। तुर्की अधिकारियों को संदेह है कि सऊदियों ने उन्हें अगवा कर मार डाला।
लेकिन सऊदी अरब का कहना है कि संबंधित पत्रकार उस भवन से बाहर निकल आये थे और हत्या का दावा ‘आधारहीन’ है। खशोगी सऊदी शाह सलमान के आलोचक के रुप में जाने जाते थे।
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त मिशेल बेचलेट ने सऊदी और तुर्की की सरकारों से अपील की है कि उन्हें इन मशहूर पत्रकार की गुमशुदगी और संभावित न्यायेत्तर हत्या के बारे में जो कुछ भी मालूम है, वे उसका खुलासा करें। उन्होंने दोनों देशों के प्रशासनों से यह भी सुनिश्चित करने की अपील की कि त्वरित, गहन, प्रभावी, निष्पक्ष और पारदर्शी जांच की राह में कोई बाधा न आए।
हालांकि किसी पत्रकार के लापता होने या हत्या होने की यह पहली घटना नहीं। लेकिन इस घटना से अमेरिका और सउदी अरब के सम्बंध तनावपूर्ण हो रहे हैं। हमारा सवाल अब भी यही है कि आखिर अमेरिका की सर्वव्यापी खुफिया एजेन्सी इस मामले की सच्चाई पता करने में नाकाम क्यों है? और अन्य देशों की एजेन्सियाँ… क्या वे भी कुछ नहीं कर सकतीं? जो भी हो, तुर्की के आरोप और सउदी सफाई की सच्चाई सामने आना चाहिए।
अपने ही जाल में फंस रहा है संघ?
सनत जैन
मंदिर मुद्दे पर विजयादशमी के दिन से राम मंदिर निर्माण को लेकर संघ और उसके अनुवांशिक संगठनों ने दबाव बनाना शुरू कर दिया है। पहले यह दबाव सुप्रीम कोर्ट के ऊपर बनाने का प्रयास किया गया। नियमित सुनवाई कर मंदिर निर्माण के पक्ष में न्यायालय जल्द फैसला दे। विजयदशमी के संघ प्रमुख के उद्बोधन के बाद से यह मामला तूल पकड़ गया। साधु-संतों, संघ के अनुषांगिक संगठनों और भाजपा के नेताओं ने इस मुद्दे पर बढ़-चढ़कर बयान देना शुरू कर दिए। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने तो केरल की सभा में सुप्रीम कोर्ट को समझाइश देते हुए यह भी कह दिया, कि न्यायालय को ऐसे निर्णय देना चाहिए, जिनका पालन कराया जा सके। एक तरह से संघ और भाजपा ने सुप्रीम कोर्ट पर दबाव बनाने का काम किया था।
सुप्रीम कोर्ट ने राम मंदिर विवाद में जनवरी तक सुनवाई नहीं करने का निर्णय करके, यह संदेश दे दिया, कि वह दबाव में कोई काम नहीं करेगी। न्यायालय के निर्णय से यह संकेत भी मिलता है कि न्यायिक व्यवस्था में आस्था का भी कोई स्थान नहीं है। न्यायालय तथ्यों के आधार पर ही निर्णय करने के लिए बाध्य है। सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई आगे बढ़ाने के लिए, यह भी तथ्य ध्यान में रखा होगा। भारत में आम जनता का विश्वास न्यायपालिका में बना रहे हैं। जिस तरीके का माहौल बनाया गया था। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट कोई भी फैसला देती वह विवादों में होता। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की हर वर्ग अपने अपने तरीके से उसकी व्याख्या कर रहा होता।
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद भारतीय जनता पार्टी के नेता गिरीराज सिंह, जो केंद्रीय मंत्री भी हैं। उन्होंने बड़ा तीखा बयान दिया। उन्होंने कहा कि अब हिंदुओं का सब्र टूट रहा है। न्यायालय यदि आस्था का ध्यान नहीं रखेगा, तो कुछ भी हो सकता है। सरकार और भाजपा के जिम्मेदार पद पर बैठे हुए लोग जब इस तरह की बयानबाजी करते हैं तो उसकी बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है। सुप्रीम कोर्ट के जनवरी में सुनवाई करने के निर्णय के बाद से, अब सरकार के ऊपर यह दबाव बनाया जा रहा है, कि सरकार अध्यादेश लाकर मंदिर निर्माण का कार्य शुरू कराए।
25 साल पहले आया था अध्यादेश
6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद का विवादित ढांचा गिरा दिया गया था। उसके बाद देश में काफी दंगे और खून खराबा हुआ। तत्कालीन नरसिन्हा राव सरकार ने 7 जनवरी 93 को राष्ट्रपति से मंजूरी लेकर, मंदिर निर्माण के लिए एक अध्यादेश जारी किया था। इसे अयोध्या अधिनियम के नाम से जाना गया। तत्कालीन केंद्र सरकार ने 2.77 एकड़ विवादित भूमि के साथ इसके चारों ओर 60.70 एकड़ भूमि अधिग्रहित की थी। कांग्रेस की सरकार, इस जमीन को अयोध्या में राम मंदिर, मस्जिद, लाइब्रेरी म्यूजियम और अन्य सुविधाओं के निर्माण के लिए जमीन अधिग्रहित की थी। इस अध्यादेश का सबसे ज्यादा विरोध भारतीय जनता पार्टी ने किया। भाजपा के तत्कालीन उपाध्यक्ष एमएस भंडारी ने इस अध्यादेश को पक्षपातपूर्ण बताते हुए इसे खारिज कर दिया। नरसिंहा राव सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से भी इस मसले पर सलाह मांगी थी। पांच जजों की खंडपीठ ने इस पर विचार किया। किंतु कोई जवाब सरकार को नहीं दिया। सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत के आधार पर जमीन के मालिकाना हक से संबंधित कानून पर स्टे लगा दिया था। उस समय भी भाजपा ने इसका विरोध किया था।
25 साल पहले राम मंदिर निर्माण का रास्ता अध्यादेश के लिए कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार ने बनाया था। इसका विरोध संसद और संसद के बाहर भारतीय जनता पार्टी ने किया। अब यदि मोदी सरकार अध्यादेश लेकर आती है, तो उसका भी वही हश्र होगा। सुप्रीम कोर्ट का इस मामले में अभी भी स्थगन बना हुआ है।
हर व्यक्ति और हर समूह की आस्था अलग अलग होती हैं। आस्था के अनुसार यदि निर्णय होने लगे, तो फिर भारत में भीड़ तंत्र का कानून चलेगा। भीड़ अपने हिसाब से कानून और नियम बनाने के लिए सरकार और न्यायपालिका पर दबाव बनाएगी। अभी तक यही देखने में आ रहा है। भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस के शासनकाल में जिन मुद्दों का विरोध करती थी। केंद्र में बनी मोदी सरकार अब कांग्रेसी सरकार के ही पद चिन्हों पर चल रही है। जिससे लगता है कि कांग्रेस के कार्य में बाधा डालने और उसे श्रेय ना लेने देने के लिए राजनीतिक तौर पर भाजपा विरोध करती थी। केंद्र में भाजपा सरकार बनने के बाद जिन मुद्दों पर भाजपा विरोध कर रही थी। सरकार बनने के बाद बढ़-चढ़कर काम किया। मनरेगा, विदेशी निवेश, स्वदेशी, जीएसटी कानून, पेट्रोल-डीजल की कीमतें, एफडीआई का विरोध, बीमा बैंक पर निजी निवेश का विरोध करते हुए भाजपा सत्ता में आई थी। लेकिन सत्ता में वापस आते ही सबसे पहले 100 फ़ीसदी विदेशी निवेश की छूट, खुदरा व्यापार, रक्षा, मीडिया एवं अन्य में विदेशी निवेश की 100 फीसदी छूट, जीएसटी कानून लागू करने, मनरेगा की योजना को और व्यापक बनाने, स्वदेशी जागरण मंच के माध्यम से जो विदेशी वस्तुओं का विरोध किया जा रहा था। उन्हीं विदेशी वस्तुओं का सबसे ज्यादा आयात, भाजपा सरकार में हुआ। निर्यात घट गया, अब रही सही कसर मंदिर निर्माण के मुद्दे पर जिस तरह अध्यादेश लाने का प्रयास भारतीय जनता पार्टी और संघ द्वारा किया जा रहा है। उससे लगता है कि संघ अपने ही बुने हुए जाल में फस रहा है।
अध्यादेश को कानून नहीं बना पाने या राममंदिर निर्माण शुरु नहीं हो पाने पर संघ के अनुषांगिक संगठन, हिंदूवादी संगठन, साधु संत सभी सरकार के ऊपर दबाव बनाएंगे। प्रवीण तोगड़िया जैसे नाराज विश्व हिंदू परिषद के पूर्व अध्यक्ष, मोदी सरकार और संघ की राह में कांटे बिछाने का काम करेंगे। पिछले 30 वर्षों में राम मंदिर निर्माण को लेकर संघ और भाजपा ने जो मकड़जाल बुना था। उससे बाहर निकल पाना अब आसान नहीं है। सत्ता में होने से अब जिम्मेदारी भी है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी मोदी सरकार की जवाबदेही बन गई है। ऐसी स्थिति में इस मकड़जाल से वह कैसे बाहर निकल पाएंगे, इसको लेकर सभी के मन में संशय हैं।
जहरीली हवा से कैसे बचें ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दिल्ली की हवा में इतना जहर तैर रहा है कि अस्पतालों में मरीजों का अंबार लगता जा रहा है। वायु-प्रदूषण के कारण पांच साल से छोटे लगभग एक लाख बच्चे हर साल अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं। सर्वोच्च न्यायालय इतना परेशान हो गया है कि उसने दिवाली पर पटाखों पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगा दिए हैं लेकिन आजकल पटाखों के बिना भी हवा इतनी जहरीली हो गई है कि कहीं-कहीं वह सामान्य से पांच गुना ज्यादा जहरीली है। सरकार ने जनता को हिदायत दी है कि लोग घरों से बाहर न निकलें, सुबह की सैर बंद करें और घरों में भी अगरबत्तियां वगैरह न जलाएं। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त प्रदूषण नियंत्रण अधिकारी भूरेलाल ने कहा है कि यदि प्रदूषण का यही हाल रहा तो समस्त निजी वाहनों के चलने पर रोक लगा दी जाएगी। दिल्ली में पौने दो करोड़ निजी गाड़ियां पेट्रोल और डीजल से चलती हैं। इनमें से लाखों 10 से 20 साल पुरानी भी हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने पेट्रोल की 15 साल और डीजल की 10 साल पुरानी कारों पर रोक लगा दी है लेकिन असली सवाल यह है कि क्या इस तरीके से वाकई प्रदूषण खत्म हो जाएगा ? क्या यह व्यावहारिक तरीका है ? पिछले साल दिल्ली सरकार ने सम-विषम नंबरों की कारों के लिए अलग-अलग दिन तय किए थे लेकिन प्रदूषण में कोई खास कमी नहीं हुई। सबसे पहली बात तो यह कि खेतों में पराली जलाने पर रोक लगनी चाहिए। दूसरी बात, दिल्ली की मुख्य सड़कों पर सिर्फ वे ही कारें चलनी चाहिए, जिनमें कम से कम चार सवारी हों। जिन कारों में कम सवारियां हों, उन्हें दिल्ली की अंदरुनी सड़कों पर चलने की इजाजत न हो। वाशिंगटन में मैंने इस व्यवस्था को लागू होते हुए 40 साल पहले देखा था। तीसरा, निजी वाहनों पर रोक लगाने की बजाय बसों और मेट्रो की पहुंच बढ़ाई जानी चाहिए। दिल्ली में 15000 बसें चलनी चाहिए लेकिन चलती हैं, सिर्फ 5000 । बस और मेट्रो का किराया इतना कम होना चाहिए और उनकी पहुंच इतनी ज्यादा होनी चाहिए कि लोग अपनी कारें अपने घर पर ही खड़ी रखें। चौथा, ट्रकों, टेक्सियां और आटो रिक्शाओं पर भी पूर्ण निगरानी रखी जानी चाहिए। ये प्रदूषण के बड़े स्त्रोत हैं। पांचवां, अब सौर ऊर्जा की क्रांति की बेहद जरुरत है। सौर-वाहन प्रदूषण के दुश्मन सिद्ध होंगे। पांचवा, दिल्ली ही क्यों, सर्वोच्च न्यायालय तो पूरे देश का न्यायालय है। कई प्रदेशों के कुछ शहर दुनिया के सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में से हैं। उनके बारे में सरकारों, अदालतों और खुद जनता को ठोस पहली करनी चाहिए।
अपने ही जाल में फंस रहा है संघ?
सनत जैन
मंदिर मुद्दे पर विजयादशमी के दिन से राम मंदिर निर्माण को लेकर संघ और उसके अनुवांशिक संगठनों ने दबाव बनाना शुरू कर दिया है। पहले यह दबाव सुप्रीम कोर्ट के ऊपर बनाने का प्रयास किया गया। नियमित सुनवाई कर मंदिर निर्माण के पक्ष में न्यायालय जल्द फैसला दे। विजयदशमी के संघ प्रमुख के उद्बोधन के बाद से यह मामला तूल पकड़ गया। साधु-संतों, संघ के अनुषांगिक संगठनों और भाजपा के नेताओं ने इस मुद्दे पर बढ़-चढ़कर बयान देना शुरू कर दिए। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने तो केरल की सभा में सुप्रीम कोर्ट को समझाइश देते हुए यह भी कह दिया, कि न्यायालय को ऐसे निर्णय देना चाहिए, जिनका पालन कराया जा सके। एक तरह से संघ और भाजपा ने सुप्रीम कोर्ट पर दबाव बनाने का काम किया था।
सुप्रीम कोर्ट ने राम मंदिर विवाद में जनवरी तक सुनवाई नहीं करने का निर्णय करके, यह संदेश दे दिया, कि वह दबाव में कोई काम नहीं करेगी। न्यायालय के निर्णय से यह संकेत भी मिलता है कि न्यायिक व्यवस्था में आस्था का भी कोई स्थान नहीं है। न्यायालय तथ्यों के आधार पर ही निर्णय करने के लिए बाध्य है। सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई आगे बढ़ाने के लिए, यह भी तथ्य ध्यान में रखा होगा। भारत में आम जनता का विश्वास न्यायपालिका में बना रहे हैं। जिस तरीके का माहौल बनाया गया था। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट कोई भी फैसला देती वह विवादों में होता। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की हर वर्ग अपने अपने तरीके से उसकी व्याख्या कर रहा होता।
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद भारतीय जनता पार्टी के नेता गिरीराज सिंह, जो केंद्रीय मंत्री भी हैं। उन्होंने बड़ा तीखा बयान दिया। उन्होंने कहा कि अब हिंदुओं का सब्र टूट रहा है। न्यायालय यदि आस्था का ध्यान नहीं रखेगा, तो कुछ भी हो सकता है। सरकार और भाजपा के जिम्मेदार पद पर बैठे हुए लोग जब इस तरह की बयानबाजी करते हैं तो उसकी बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है। सुप्रीम कोर्ट के जनवरी में सुनवाई करने के निर्णय के बाद से, अब सरकार के ऊपर यह दबाव बनाया जा रहा है, कि सरकार अध्यादेश लाकर मंदिर निर्माण का कार्य शुरू कराए।
25 साल पहले आया था अध्यादेश
6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद का विवादित ढांचा गिरा दिया गया था। उसके बाद देश में काफी दंगे और खून खराबा हुआ। तत्कालीन नरसिन्हा राव सरकार ने 7 जनवरी 93 को राष्ट्रपति से मंजूरी लेकर, मंदिर निर्माण के लिए एक अध्यादेश जारी किया था। इसे अयोध्या अधिनियम के नाम से जाना गया। तत्कालीन केंद्र सरकार ने 2.77 एकड़ विवादित भूमि के साथ इसके चारों ओर 60.70 एकड़ भूमि अधिग्रहित की थी। कांग्रेस की सरकार, इस जमीन को अयोध्या में राम मंदिर, मस्जिद, लाइब्रेरी म्यूजियम और अन्य सुविधाओं के निर्माण के लिए जमीन अधिग्रहित की थी। इस अध्यादेश का सबसे ज्यादा विरोध भारतीय जनता पार्टी ने किया। भाजपा के तत्कालीन उपाध्यक्ष एमएस भंडारी ने इस अध्यादेश को पक्षपातपूर्ण बताते हुए इसे खारिज कर दिया। नरसिंहा राव सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से भी इस मसले पर सलाह मांगी थी। पांच जजों की खंडपीठ ने इस पर विचार किया। किंतु कोई जवाब सरकार को नहीं दिया। सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत के आधार पर जमीन के मालिकाना हक से संबंधित कानून पर स्टे लगा दिया था। उस समय भी भाजपा ने इसका विरोध किया था।
25 साल पहले राम मंदिर निर्माण का रास्ता अध्यादेश के लिए कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार ने बनाया था। इसका विरोध संसद और संसद के बाहर भारतीय जनता पार्टी ने किया। अब यदि मोदी सरकार अध्यादेश लेकर आती है, तो उसका भी वही हश्र होगा। सुप्रीम कोर्ट का इस मामले में अभी भी स्थगन बना हुआ है।
हर व्यक्ति और हर समूह की आस्था अलग अलग होती हैं। आस्था के अनुसार यदि निर्णय होने लगे, तो फिर भारत में भीड़ तंत्र का कानून चलेगा। भीड़ अपने हिसाब से कानून और नियम बनाने के लिए सरकार और न्यायपालिका पर दबाव बनाएगी। अभी तक यही देखने में आ रहा है। भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस के शासनकाल में जिन मुद्दों का विरोध करती थी। केंद्र में बनी मोदी सरकार अब कांग्रेसी सरकार के ही पद चिन्हों पर चल रही है। जिससे लगता है कि कांग्रेस के कार्य में बाधा डालने और उसे श्रेय ना लेने देने के लिए राजनीतिक तौर पर भाजपा विरोध करती थी। केंद्र में भाजपा सरकार बनने के बाद जिन मुद्दों पर भाजपा विरोध कर रही थी। सरकार बनने के बाद बढ़-चढ़कर काम किया। मनरेगा, विदेशी निवेश, स्वदेशी, जीएसटी कानून, पेट्रोल-डीजल की कीमतें, एफडीआई का विरोध, बीमा बैंक पर निजी निवेश का विरोध करते हुए भाजपा सत्ता में आई थी। लेकिन सत्ता में वापस आते ही सबसे पहले 100 फ़ीसदी विदेशी निवेश की छूट, खुदरा व्यापार, रक्षा, मीडिया एवं अन्य में विदेशी निवेश की 100 फीसदी छूट, जीएसटी कानून लागू करने, मनरेगा की योजना को और व्यापक बनाने, स्वदेशी जागरण मंच के माध्यम से जो विदेशी वस्तुओं का विरोध किया जा रहा था। उन्हीं विदेशी वस्तुओं का सबसे ज्यादा आयात, भाजपा सरकार में हुआ। निर्यात घट गया, अब रही सही कसर मंदिर निर्माण के मुद्दे पर जिस तरह अध्यादेश लाने का प्रयास भारतीय जनता पार्टी और संघ द्वारा किया जा रहा है। उससे लगता है कि संघ अपने ही बुने हुए जाल में फस रहा है।
अध्यादेश को कानून नहीं बना पाने या राममंदिर निर्माण शुरु नहीं हो पाने पर संघ के अनुषांगिक संगठन, हिंदूवादी संगठन, साधु संत सभी सरकार के ऊपर दबाव बनाएंगे। प्रवीण तोगड़िया जैसे नाराज विश्व हिंदू परिषद के पूर्व अध्यक्ष, मोदी सरकार और संघ की राह में कांटे बिछाने का काम करेंगे। पिछले 30 वर्षों में राम मंदिर निर्माण को लेकर संघ और भाजपा ने जो मकड़जाल बुना था। उससे बाहर निकल पाना अब आसान नहीं है। सत्ता में होने से अब जिम्मेदारी भी है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी मोदी सरकार की जवाबदेही बन गई है। ऐसी स्थिति में इस मकड़जाल से वह कैसे बाहर निकल पाएंगे, इसको लेकर सभी के मन में संशय हैं।
बिकाऊ टी वी चैनल्स की भड़काऊ बहस
तनवीर जाफरी
पूर्वी व पश्चिमी जर्मनी के मध्य बर्लिन में 1961 में बनाई गई विशाल दीवार को मात्र तीस वर्षों के भीतर जून 1990 में दोनों देशों की जनता ने मिलकर ढहा दिया। ज़ाहिर है जर्मनी के दोनों हिस्सों में रहने वाले लोग यह समझ चुके थे कि एक बड़े राजनैतिक षड्यंत्र के तहत जर्मनी को दो टुकड़ों में बांटा गया है। वहां की जनता ही नहीं बल्कि दोनों ओर के स्थानीय नेताओं ने भी इस अंतर्राष्ट्रीय साजि़श को बड़ी बारीकी से समझा। और आखिरकार मीडिया ने अपनी ज़बरदस्त सकारात्मक भूमिका निभाते हुए दोनों ही ओर के नेताओं के दोनों देशों के पुन: एकीकृत होने की अपील का इतना पुरज़ोर प्रसारण किया कि बर्लिन की दीवार की रक्षा करने हेतु दोनों ओर से खड़े सैनिकों के बावजूद पूर्वी व पश्चिमी जर्मनी की जनता अपने-अपने हाथों में फावड़े व कुदाल लेकर आगे बढ़ी और बर्लिन की विशाल दीवार को गिरा दिया। बताया जाता है कि जिस समय दोनों देशों को एक किए जाने के लिए यह दीवार जनता द्वारा गिराई जा रही थी उस समय उस दीवार के दोनों ओर खड़े पूर्वी व पश्चिमी जर्मनी के सैनिकों ने भी दीवार गिराने में जनता का साथ दिया। इस पूरे घटनाक्रम में मीडिया की अत्यंत सक्रिय भूमिका रही। गोया यदि मीडिया सकारात्मक भूमिका अदा करे तो वह बर्लिन की दीवार भी ढहा सकता है।
अब आईए इसी संदर्भ में अपने देश के मीडिया खासतौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया व टीवी चैनल्स पर भी नज़र डालते हैं। गत् कुछ वर्षों से भारतीय टीवी चैनल्स को दलाल मीडिया, बिकाऊ मीडिया और गोदी मीडिया का नाम भी दिया जाने लगा है। आखिर इसकी वजह क्या है? मीडिया जैसा जि़म्मेदार संस्थान जो अब तक स्वयं को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलवाने में फूला नहीं समाता था उसके मुंह पर दलाल, चाटुकार और बिकाऊ जैसे कलंक आखिर क्यों पोत दिए गए? अधिकांश भाारतीय टीवी चैनल्स देश की भोली-भाली जनता को आखिर क्यों गुमराह करने में लगे हुए हैं। टी वी चैनल्स की क्या प्राथमिकताएं होनी चाहिए, दलाल व बिकाऊ मीडिया इस बात की कतई परवाह नहीं कर रहा है। अपनी वास्तविक जि़म्मेदारियों को दरकिनार करता हुआ भारतीय टीवी चैनल्स का एक बड़ा वर्ग जनता की ज़रूरतों, देश के समक्ष मौजूद चुनौतियों, बेरोज़गारी, गरीबी, मंहगाई, शिक्षा तथा स्वास्थय जैसी देश की बुनियादी आवश्यकताओं को नज़रअंदाज़ कर अपने व्यवसायिक फायदे के अनुसार मुद्दे निर्धारित करता है तथा उन्हीं पर उसकी बहस आधारित रहती है। दलाल व चाटुकार मीडिया द्वारा सत्ता से सवाल पूछने के बजाए अपनी पूरी ताकत इसी बहस पर झोंकी जा रही है कि विपक्ष कमज़ोर है, विपक्ष एकजुट नहीं है और वर्तमान सरकार के विरुद्ध कोई चुनौती नहीं है आदि-आदि। गोया बिकाऊ मीडिया सत्ता की भाषा बोलने में ज़रा भी हिचकिचा नहीं रहा है।
टीवी चैनल्स का यह वर्ग अपनी अधिकांश बहस हिंदू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद, स्वर्ण-दलित, गाय, गंगा, लव जेहाद, तलाक, आरक्षण, मॉब लिंचिंग भारत-पाकिस्तान, कश्मीर, आतंकवाद जैसे विवादित तथा ज्वलंत विषयों तक ही सीमित रखना चाहता है। इतना ही नहीं वह अपनी इस प्रकार की बहस में ऐसे नेताओं अथवा कथित विशेषज्ञों को आमंत्रित करता है जो भड़काऊ या बेतुकी बयानबाजि़यों में माहिर हों। जो समाज में आग लगाने या सांप्रदायिकता अथवा जातिवाद फैलाने के विशेषज्ञ हों। हद तो यह है कि गत् चार-पांच वर्षों में टी वी डिबेट का स्तर इतना गिर गया है कि दर्शकों ने बहस के दौरान गाली-गलौज, धक्का-मुक्की, मार-पीट तथा एक-दूसरे को डराने-धमकाने जैसे निम्र दृश्य ऐसे ही टीवी चैनल्स द्वारा प्रसारित होते अपने-अपने घरों में बैठकर अनेक बार देखें हैं। जहां ऐसे घटिया व गैर जि़म्मेदार टीवी चैनल्स की प्राथमिकताओं में उपरोक्त विवादित विषय प्राथमिकता के आधार पर चुने जाते हैं वहीं जनसमस्याओं से जुड़े विषय तो इन्हें दिखाई ही नहीं देते। क्योंकि यह भलीभांति जानते हैं कि इनकी टीआरपी इसी प्रकार की भड़काऊ व उकसाऊ बहस व शोर-शराबे से ही बढ़ती है जबकि जनसमस्याओं से जुड़े मुद्दे उठाना सत्ता की कारगुज़ारियों पर प्रश्रचिन्ह लगाना है और दलाल मीडिया समूह का मालिक सत्ता के विरुद्ध कतई नहीं जाना चाहता। सत्ता की आलोचना करना या पत्रकारिता की जि़म्मेदारी निभाते हुए निष्पक्ष भूमिका अदा न कर पाने का कारण यही है कि उसे सत्ता प्रतिष्ठानों से भरपूर विज्ञापन तो मिलता ही है साथ-साथ और दूसरे बड़े व्यवसायिक लाभ भी हासिल होते हैं। कई चतुर मीडिया समूह स्वामी तो सत्ता के गलियारों में अपनी घुसपैठ बनाकर राज्यसभा की सदस्यता भी झटक लेते हैं।
ऐसे टीवी चैनल्स के जहां सबसे दुलारे मेहमान भारतीय जनता पार्टी के संबित पात्रा हैं वहीं कुछ गैर-जि़म्मेदार कथित मुस्लिम मौलानाओं के चेहरे भी गत् पांच वर्षों से टीवी पर नज़र आने लगे हैं। टीवी चैनल्स जानबूझ कर इस प्रकार के लोगों को बहस के लिए आमंत्रित करते हैं जो बहस शुरु होते ही अपना आपा खो बैठते हैं। और यदि बहस शांतिपूर्ण तरीके से आगे बढ़ रही हो तो टीवी एंकर स्वयं जलती आग में घी डालने का काम करते हुए बहस को विस्फोटक बना देता है और देखते-देखते वही गंभीर बहस हिंदू-मुस्लिम, या मंदिर-मस्जिद का रूप धारण कर लेती है। और जनता में सनसनी फैलाने वाली इस बहस की टीआरपी बढ़ जाती है। संबित पात्रा को तो भारतीय टीवी दर्शकों ने गंभीरता से लेना ही छोड़ दिया है क्योंकि वह एक नेता या भाजपा के प्रवक्ता तो कम एक नौटंकी बाज़ अधिक प्रतीत होते हैं। परंतु भारतीय जनता पार्टी उनके इसी ‘गुण व कौशल’ की वजह से उसी को किसी भी चैनल पर होने वाली टीवी डिबेट में आगे करती है क्योंकि वह अपनी कला से बहस का रुख अपनी इच्छा के अनुसार बदलने में माहिर हैं। किसी धर्मनिरपेक्ष नेता को पाकिस्तानी कह देना, कांग्रेसी नेता को मिस्टर रोम या मिस्टर इटली कहना, राहुल गांधी को गुजरात में जनेऊधारी हिंदू और यूपी बिहार में मौलाना कहना, राहुल गांधी को निकम्मा कांग्रेस अध्यक्ष बताना, किसी मुस्लिम नेता को जिन्ना या मियां कहकर संबोधित करना जैसी शब्दवली पात्रा द्वारा अपनी बहस के दौरान इस्तेमाल की जाती है। पात्रा ने एक बार राहुल गांधी को जूते मारने जैसा निम्रस्तरीय व अशोभनीय बयान तक दे डाला था जिसके बाद उसे माफी भी मांगनी पड़ी थी।
इस प्रकार की टीवी डिबेट तथा इसमें शरीक होने वाले विवादित व गैर जि़म्मेदार नेता तथा इस प्रकार के कार्यक्रमों को प्रस्तुत करने वाला गैर जि़म्मेदार मीडिया यदि जर्मनी के मीडिया से सबक लेकर समाज को जोडऩे तथा विभाजन की रेखाओं को समाप्त करने का काम नहीं कर सकता और अपनी स्वार्थ सिद्धि के सिवा उसे कुछ सुझाई नहीं देता तो कम से कम स्वयंभू चौथा स्तंभ ऐसे कार्यक्रमों का प्रसारण करने से तो ज़रूर बाज़ आए जो भारतीय समाज में पहले से खिंची हुई धर्म-जाति, वर्ग आदि की रेखाओं को और गहरा न करें। बड़े आश्चर्य की बात है कि इन्हीं मीडिया घरानों द्वारा ऐसे टीवी प्रस्तोताओं को प्राथमिकता दी जा रही है जिन्हें दर्शक भी देखना व सुनना नहीं चाहते और जो लोग रिश्वतखोरी व भ्रष्टाचार जैसे आरोपों में संलिप्त रहे हैं। ठीक इसके विपरीत जो टीवी एंकर निष्पक्ष होकर एक सजग पत्रकार की भूमिका निभाते हुए अपने किसी अतिथि से कुछ चुभते हुए ऐसे सवाल पूछ बैठता है जिसके जवाब जनता जानना चाहती है तो ऐसे एंकर्स को दलाल मीडिया समूह का स्वामी बाहर का रास्ता दिखा देता है। ऐसे में बिकाऊ टीवी चैनल्स की ऐसी भड़काऊ बहसें देश व समाज को कहां तक ले जाएंगी कुछ कहा नहीं जा सकता।
ये कैसा मोदी मंत्र; राह से भटका अर्थतंत्र……?
ओमप्रकाश मेहता
देश की मोदी सरकार द्वारा पिछले साढ़े चार साल में देश की अर्थव्यवस्था से जुड़े लिए गए फैसलों के दूरगामी परिणाम अब सामने आने लगे है, आज जहां अपनी बदहाली पर आंसू बहाते हुए देश की बैंकों की ‘जननी’ रिजर्व बैंक ने परेशान होकर मोदी सरकार को खुलेआम नसीहतें देना शुरू कर दिया है, वहीं केन्द्रीय सतर्कता आयोग ने भी बैंकिंग प्रणाली में सुधार की जरूरत जताई है। रिजर्व बैंक गवर्नर ने तो भुगतान प्रणाली के बदलने पर ही सरकार को चेतावनी दे दी है कि ‘‘भुगतान प्रणाली ऐसे बदलें कि देश का आर्थिक ढांचा ही हिल जाए? देश के विदेशी मुद्रा भंडार में आई बड़ी गिरावट को लेकर भी अर्थशास्त्रियों ने चिंता जताते हुए कहा है कि रूपए को सम्हालने की रिजर्व बैंक की कौशिशों के बावजूद डाॅलर के मुकाबले भारतीय रूपए की गिरावट जारी है। अर्थशास्त्रियों के अुनसार 2002 के बाद से यह रूपए की सबसे बड़ी गिरावट है।’’
भारत में बैंकों की दुरावस्था को लेकर रिजर्व बैंक ने पहली बार इस तरह ही नसीहत भरी चेतावनी सरकार को दी है। बैंक ने अपने चेतावनी नोट में कहा है कि सरकार की भुगतान व निपटान कानूनों में सुधार को लेकर गठित समिति की सिफारिशें देश की आर्थिक सेहत के लिए ठीक नहीं है रिजर्व बैंक ने कहा कि भुगतान प्रणाली का नियमन केन्द्रीय बैंक के पास ही रहना चाहिये गौरतलब है कि सरकार ने आर्थिक मामलों के सचिव की अध्यक्षता में भुगतान व निपटान प्रणाली (पीएसएस) कानून 2007 में संशोधनों को मूर्तरूप देने के लिए एक अन्र्तमंत्रालयीन समिति गठित की थी। शीर्ष बैंक ने अपने असहमति नोट में कहा है कि बदलाव ऐसा नहीं होना चाहिये कि इससे मौजूदा ढांचा ही हिल जाए? पैमेंट नियमन बोर्ड पर बैंक का ही नियंत्रण होना चाहिए। गौरतलब है कि डिजिटल पैमेंट में बैंक खातों के बीच लेन-देन होता है यही कारण है कि रिजर्व बैंक पी.आर.बी. को अपनी निगरानी में रखना चाहता है। रिजर्व बैंक का कहना है कि दुनिया भर में क्रेडिट व डेबिट काडर््स बैंक ही जारी करते है, ऐसे में इन पर दोहरे नियम की अपेक्षा नहीं की जा सकती। रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति ने कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों और गिरते रूपए के मद्देनजर मंहगाई के और अधिक खतरे को स्वीकार किया है, समिति ने संकेत दिए है कि वह आने वाले महीनों में रेपो रेट में वृद्धि कर सकती है, समिति ने अक्टूबर में ही हुई अपनी मिटिंग में जारी मिनिट्स के अनुसार समिति के अधिकांश सदस्यों ने मंहगाई की बढ़ती आशंका को रेखांकित किया है।
जहाँ तक देश में विदेशी मुद्रा के भंडार में आई कमी का सवाल है, पिछले एक सप्ताह में 378 हजार करोड़ रूपए की विदेशी मुद्रा में कमी आई। इसी तरह से देश के अर्थशास्त्रियों के साथ रिजर्व बैंक भी देश के कमजोर अर्थतंत्र को लेकर परेशान है।
इधर केन्द्रीय सतर्कता आयोग ने भी वर्तमान आर्थिक हालातों को लेकर काफी चिंता व्यक्त की है। आयोग की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि घोटालों और डूबत कर्ज से बचने के लिए बैंकिंग प्रणाली में बड़े सुधारों की सख्त जरूरत है। पंजाब नेशनल बैंक में 14,300 करोड़ के घोटाले के बारे में सतर्कता आयोग ने कहा है कि इसमें हीरा कारोबारी नीरव मोदी और मेहूल चैकसी की कम्पनियों को फर्जी तरीके से कर्ज दिया गया था। आयोग ने स्पष्ट कहा कि धोखाधड़ी के मामलों में छोटे कर्मियों पर ठीकरा फोड़ने के बजाए, हर स्तर पर जवाबदारी तय होना चाहिए।
यह तो हुई देश के अर्थशास्त्रियों व देश की सबसे बड़ी बैंक के साथ सतर्कता आयोग की चिंता, किंतु यदि दैनंदिनी आर्थिक परेशानी से जूझ रहे आम आदमी से बात की जाए तो वह भी इस स्थिति के लिए मौजूदा केन्द्र सरकार की आर्थिक नीतियों व सरकार द्वारा लिए गए फैसलों को इस दुरावस्था को दोषी मानता है। आम आदमी इस दुरावस्था के लिए सर्वप्रथम नोटबंदी और उसके बाद जीएसटी को ही दोषी मानता है।
देश के शिक्षित बेरोजगार भी अपनी स्वयं की दुरावस्था के लिए सरकार के इन फैसलों को दोषी मानते है। कुछ जागरूक नागरिक सरकार में या सरकार के पास कोई बड़ा आर्थिक विशेषज्ञ न होना भी इन फैसलों का कारण मानते है। वहीं सरकार से जुड़े आर्थिक विशेषज्ञ दबी जबान इस दुरावस्था के लिए स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा आर्थिक तंत्र से जुड़े फैसले लेना बता रहे हैं। अब कारण जो भी हो किंतु आज हर विद्वान या अनपढ़ देश ‘अर्थ’ के इस ‘अनर्थ’ के लिए मौजूदा केन्द्र सरकार के अदूरदर्शी आर्थिक फैसलों को ही दोषी बता रहा है।
राम मंदिर अध्यादेश कैसा हो ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने राम मंदिर के मामले को जनवरी 2019 तक के लिए टाल दिया है। जनवरी 2019 में वह फैसला दे देगा, ऐसा उसने नहीं कहा है। तीन महिने बाद वह उस बेंच का निर्माण करेगा, जो मंदिर-मस्जिद के मामले पर विचार करेगी। वह कौनसे मामले पर विचार करेगी ? इस मामले पर नहीं कि जिसे राम जन्मभूमि कहा जाता है, उस 2.77 एकड़ जमीन पर मंदिर बनेगा या मस्जिद बनेगी या दोनों बनेंगे ? वह और कितने साल तक विचार करेगा, यह भी वह नहीं बता रहा है। वह तो 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए उस फैसले पर सिर्फ अपील सुनेगा, जिसके तहत उस पौने तीन एकड़ जमीन को तीन हिस्सों में बांटकर उसने तीन दावेदारों को दे दी थी। ये तीन दावेदार हैं- रामलला, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड। इस फैसले का भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ याने तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी और संघ-प्रमुख मोहन भागवत ने स्वागत किया था लेकिन इन दोनों सज्जनों से कोई पूछे कि उस पौने तीन एकड़ में आप मंदिर-मस्जिद साथ-साथ बनने देंगे क्या ? और क्या वे साथ-साथ रह पाएंगी ? खासतौर से मस्जिद के ढांचे को ढहाने के बाद ? इसी समस्या को हल करने के लिए मेरा सुझाव यह था कि पौने तीन एकड़ नहीं, बल्कि लगभग 100 एकड़ जमीन में सरकार सर्वधर्म पूजा-स्थल बनाए और राम की अयोध्या को विश्व की अयोध्या बना दे। उसे विश्व-तीर्थ बना दे। जनवरी 1993 में प्रधानमंत्री नरसिंहरावजी एक अध्यादेश लाए और सरकार ने 70 एकड़ जमीन ले ली। बाद में संसद ने उसे कानून का रुप दे दिया। अक्तूबर 1994 में पांच जजों की संविधान पीठ ने जो फैसला दिया, उसमें इस 70 एकड़ में राम मंदिर, मस्जिद, पुस्तकालय, संग्रहालय, धर्मशाला आदि बनाने का निर्देश दिया। मैं कहता हूं कि वहां सिर्फ राम मंदिर और मस्जिद ही क्यों बने ? दुनिया के लगभग सभी प्रमुख धर्मों के तीर्थ क्यों न बनें ? यह विश्व-सभ्यता को भारत की अभूतपूर्व देन होगी। अयोध्या विश्व पर्यटन का आध्यात्मिक केंद्र बन जाएगी। यदि इसी पद्धति का अध्यादेश भाजपा सरकार लाएगी तो वह सबको पसंद आ जाएगा और सर्वोच्च न्यायालय की दुविधा भी समाप्त हो जाएगी। यदि सरकार अपनी बला अदालत के सिर टालना चाहती है तो उस पर छल-कपट, कायरता और अकर्मण्यता के आरोप लगेंगे और वह अपने आप को वचनभंगी सिद्ध करेगी।
सरदार पटेल भारतीय एकता के शिल्पी
वीरेन्द्र परिहार
(31 अक्टूबर जन्मदिन पर विशेष) सरदार पटेल का जन्म भगवान कृष्ण की कर्मभूमि स्वामी दयानन्द सरस्वती और महात्मा गांधी की जन्मभूमि गुजरात मे 31 अक्टूबर 1875 को बोरसद के करमसद गांव मे हुआ था। उनके पिता झेंबरभाई सच्चे ईश्वर-भक्त, साहसी, दूरदर्शी, संयमी और देशभक्त थे।सरदार पटेल के पिता झेंबरभाई ने1857 के स्वाधीनता सेनानियों की मदद करते हुए महारानी लक्ष्मीबाई की सेना मे शामिल होकर अग्रजों के साथ युद्ध किया था। इस तरह से सरदार पटेल जिनका वास्तविक नाम वल्लभभाई पटेल था। वल्लभभाई का साहस धेर्य और कर्तव्यपरायणता अद्भुत थी। मुम्बई मे एक आपरेशन के दौरान जब उनकी पत्नी की मृत्य हो गई,और तार द्वारा इसका समाचार उन्हे मिला तब वह एक हत्या के एक मुकदमें मे बहस कर रहे थें। तार पाकर पहले तो वह स्तब्ध हुए, पर दुसरे ही क्षण वह पूरी तरह सतर्क और सचेत होकर बहस करने लगें कि कही थाड़ी भी ढिलाई उनके पक्षकार का अहित न कर दे। तो यह थी उनके कर्तब्यबोध की मिसाल। उस समय उनकी उम्र मात्र 33 वर्ष थी, फिर भी उन्होने आजीवन दुसरा विवाह नही किया।
विलायत जाकर पढने की वल्लभभाई की तमन्ना 1910 मे पूरी हुई ऐर वह प्रथम श्रेणी मे प्रथम स्थान प्राप्त कर 1913 मे विलायत से स्वदेश लौट आए । वह अहमदाबाद को अपनी कर्मभूमि बनाकर वहां वकालत करने लगे ।शीघ्र ही वह गांधी जी के संपर्क मे आ गए और उनके द्वारा गठित गुजरात राजनैतिक परिषद के मंत्री बनाए गए। उन दिनों बेगार- प्रथा जोरो पर थी। अन्याय के विरोधी सरदार भला यह कैसे सहन करते?उन्होने बेगार प्रथा -सम्पात करने के लिए कमिशनर को पत्र लिखा कि सात दिनों के अन्दर यदि बेगार-प्रथा सम्पात नही की गई तो लोगों से स्वत: बन्द करने का अनुरोध करेगें। फलत: कमिश्नर ने बेगार -प्रथा बन्द करने का फैसला दे दिया। यही वल्लभभाई की पहली बड़ी राजनैतिक विजय थी। इसी से वह गांधी जी के निकटतम सहयोगी और विश्वासपात्र बन गये। वर्ष 1917 मे खेड़ा जिले मे लगान वसूली के विरोध मे गांधी जी के अगुवाई मे जो आन्दोलन हुआ उसके वह प्रमुख सिपहसालार रहे। गांधी जी ने इस अवसर पर कहा कि वल्लभभाई तो उनके लिए अनिवार्य है। बरदोली सत्याग्रह की समाप्ति पर महात्मा गांधी ने यह उद्गार व्यक्त किया- ”मुझे यह स्वीकार करना चाहिए कि जब बल्लभ भाई से मैं पहले-पहल मिला, तब मैंने सोचा था कि वह अख्खड़ पुरुश हमारे किस काम का होगा, परन्तु जब मैं उनसे सम्पर्क में आया, तब मुझे लगा कि बल्लभ भाई तो मेरे लिए अनिवार्य हैं। विश्णु प्रभाकर के शब्दों में कहें तो ”रामकृश्ण परमहंस ने अपने विवेकानन्द को पहचान लिया था।“
सन1920 मे लाला लाजपत राय की अध्यक्षता मे कांगेस के अधिवेशन मे ब्रिटिश सरकार से असहयोग का प्रस्ताव पारित किया गया। वल्लभभाई ने उसी दिन से वकालत छोड़ दिया और खादी पहनने लगे। इतना ही नही अपने बच्चों का नाम स्कूल से कटवा दिया,इस बीच उनकी बहुत सी उपलब्धियॉ रही। 1927 मे गुजरात के बाढ़ पीड़ितो की उन्होंने जिस ढ़ंग से सहायता की उसे देखकर ब्रिटिश सरकार को भी इसे मानवता की सच्ची -सेवा कहना पड़ा। पर वल्लभभाई को जिस घटना ने सरदार बनाया, वह 1928 का बारदोली आन्दोलन था। यहां पर अंग्रेज सरकार ने किसानों पर लगान 30 प्रतिशत बढ़ा दिया था, जबकि उनकी माली हालत काफी श्sााचनीय थी। सरदार ने किसानो को आन्दोलन के खतरों से आगाह किया और एक सच्चे नेता की तरह उन्हे पूरी तरह तैयार कर सत्याग्रह -आन्दोलन शुरू कर दिया।इसी आन्दोलन के चलते वह राष्टीय राजनीति के केन्द्र मे आ गए। उस समय देश के प्रसिद्ध अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया ने लिखा-“बारदोली मे पूरी सरकारी मशीनरी ठप्प पड़ी है, गांधी के शिष्य पटेल की वहां तूती बोलती हैं।” बिटिश सरकार ने यहा खूब अत्याचार किया, आदमियों के साथ भैसों तक को जेल मे डाल दिया। उस आन्दोलन को लेकर प्रसिद्ध साहित्यकार कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी जो उस समय मुम्बई की धारा सभा के सदस्य थे। उन्होंने अंग्रेज गर्वनर को लिखा, बारदोली ताल्लुके मे अस्सी हजार स्त्री-पुरूष सुसंगठित होकर विरोध के लिए भीष्म प्रतिज्ञा किए बैठे है। आपके कर्मी अधिकारी को मीलो तक हजामत के लिए नाई नही मिलता, आपके एक अधिकारी की गाड़ी कीचड़ मे फॅस गई तो वल्लभभाई की कृपा से ही निकली। कलेक्टर को वल्लभभाई की आज्ञा के बिना स्टेशन मे कोई सवारी नही मिलती।मैने जिन गावों की यात्रा की उनमे एक भी स्त्री-पुरूष ऐसा नही मिला जिसे अपने निर्णय पर पछतावा हो। इस आन्दोलन की दृढ़ता के चलते आखिर में बिटिश सरकार को झुकना पड़ा। गांधी ने उन्हे इस अवसर पर बारदोली का सरदार कह कर संबोधित किया और वह सचमुच पूरे देश के सरदार बन गए।
29 जून 1930 में सरदार पटेल कांग्रेस के स्थापनापत्र अध्यक्ष नियुक्त किए गए, उनके नेतृत्व में कांग्रेस का संगठन सुदृढ तो हुआ ही कांग्रेस में भी नई जान आ गई ।इस बीच वह कई बार जेल गए । 1931 में सरदार पटेल कांग्रेस के कराची अधिवेशन के अध्यक्ष बनाए गए । 14 जनवरी 1932 को कांग्रेस को सरकार द्वारा अवैध घोषित कर दिया और गॉधी जी के साथ सरदार को भी यरवदा जेल भेज दिया गया जहॉ वह गॉधी के साथ 1 वर्ष 4 माह बन्द रहें । वहॉ उन्होने गॉधी की मॉ जैसी सेवा की । 1932 मे बोरसद में भयंकर प्लेग फैला था । 1935 में यह फिर सत्ताइस गॉवों में फैल गया । सरकारी मशीनरी इस महामारी की पूर्ण उपेक्षा कर रही थी ,सरदार पटेल इस अवसर पर स्वयं- सेवकों का एक दल बनाकर और बोरसद में एक अस्पताल खोलकर गॉव – गॉव घूमकर बरसात और चिलचिलाती धूप की परवाह किए वगैर रोगियों की तीमारदारी में जुट गए और थोडे ही समय में इस महामारी से मुक्ति दिला दी ।
8 अगस्त 1942 को कांगेस के द्वारा अंग्रेजी सरकार के विरोध में ” भारत छोड़ो “ का प्रस्ताव पास किया गया , और महात्मा गॉधी ने “करो या मरो “ का नारा दिया । इसमें सरदार पटेल को गिरतार कर लिया गया और फिर 15 जून 1945 को ही उन्हे रिहा किया गया । 8 मार्च 1947 को उन्होने भी देश- विभाजन का प्रस्ताव भारी मन से स्वीकार किया ।उनका कहना था कि यदि समूचे देश को पाकिस्तान बनने से रोकना है तो देश के विभाजन की मर्मान्तक पीड़ा स्वीकार ही करनी होगी । ।1946 में अन्तरिम सरकार के समय ही 15 में से 12 प्रान्तीय कांग्रेस समितियों नें पटेल को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव किया था लेकिन महात्मा गॉधी की इच्छा के चलते सरदार पटेल ने पंडित नेहरू को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया । देश के गृह मंत्री होते हुए भी 562 देशी रियासतों का उन्होने जिस ढ़ंग से विलय किया उसमें विस्मार्क जैसी संगठन शक्ति और चाणक्य जैसी दूरदर्शिता दिखाई । महात्मा गॉधी ने स्वत: कहा कि यह कार्य किसी चमत्कार से कम नही है। उनका कहना था कि जब तक भारत को एकता के सूत्र में नही पिरो दूंगा तब तक मरॅगा नही और यह कार्य वास्तव में स्वाधीनता प्राप्ति से भी ज्यादा महत्वपूर्ण था। जरा सोचिए सरदार पटेल न होते तो उस भारत का नक्शा कई रियासतों और बुनियादी अधिकारों से वंचित प्रजा का होता । वस्तुत: सरदार ने ही भारतीय स्वाधीनता को स्थायित्व दिया था। जबकि उनकी उम्र इस समय 70 के ऊपर थी, और वह हृदय रोग के साथ पेट की भयकंर बीमारी से भी ग्रस्त थे। सरदार पटेल का पोता विपिन 21 साल का था, वह अमेरिका में रहकर पढ़ाई कर रहा था। सरदार पटेल के हार्ट अटैक की जानकारी पाकर वह उनसे मिलने आया। सरदार ने उससे कहा कि जब तक मैं इस पद पर हू, यानी गृहमंत्री हू, तुम मुझसे मिलने मत आया करो, अन्यथा तुम्हारा कोई दुरुपयोग करेगा।
सोमनाथ मंिदर जिसे विदेशी आक्राताओं ने बार-बार लूटा था 1024 में महमूद गजनवी ने इसे पूरी तरह ध्वस्त कर दिया था । भारत के स्वाधीन हो जाने पर 13 नवम्बर 1947 को सरदार पटेल जब तात्कालीन निर्माण मंत्री श्री गाडगिल के साथ सौराष्ट्र दौरे पर गए तो सोमनाथ मंदिर की दुर्दशा देखकर उनका हृदय रो पड़ा । उन्होंने तत्काल मन्दिर के पुर्ननिर्माण का निर्णय ले लिया जिसका उद्घाटन 11 मई 1951 को स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू ने किया ।यद्यपि सरदार के ऐसे कृत्यो के चलते उन्हे साम्प्रदायिक कहने वालो की कमी नही थी । पर जैसा कि महात्मा गांधी ने स्वत: कहा कि सरदार पटेल तो हीरा है,वह साम्प्रदायिक हो- ही नही सकते ।यहॉ तक कि रफी अहमद किंदवई ने भी कहा कि सरदार साम्प्रदायिक नही राष्ट्रवादी है । अमेरिकी राश्ट्रपति जे.एफ. कैनेडी ने 1956 में भारत को सुरक्षा परिवार की स्थायी सदस्यता थाल में सजाकर भेंट करनी चाही थी, क्योंकि एशिया में कम्युनिस्ट चीन के मुकाबले में वह भारत को मजबूत होते देखना चाहते थे। लेकिन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरु ने अपनी वैश्विक गुट निरपेक्ष नेता की रुमानी छवि के मोहजाल में फंसकर इसे ठुकरा दिया था। इतना ही नहीं चीन के प्रति दीवानगी की हद तक अंधविश्वास रखने वाले नेहरु ने भारत के स्थान पर चीन को सुरक्षा परिशद में प्रवेश देने की मांग कर डाली। सनद है कि सरदार पटेल ने कई साल पहले भी नेहरु को चीन पर बिलकुल भी भरोसा न करने और व्यवहारिकता के साथ अपने देश के हितों की रक्षा करने को कहा था।
अपनी मृत्यु के एक महीने पहले 7 नवम्बर 1950 को सरदार पटेल ने नेहरु को चीन के बारे में आगाह करते हुए पत्र लिखा। इसमें वे लिखते हैं- ”पिछले कुछ महीनों से रुसी रवैए के अतिरिक्त दुनिया में अकेले हम ही हैं, जिसने चीन के संयुक्त राश्ट्र में प्रवेश का समर्थन किया है। अमेरिका, ब्रिटेन के साथ और संयुक्त राश्ट्र में हमने बातचीत और पत्राचार दोनों में चीन के अधिकारों और भावनाओं की रक्षा की है। इसके बाद भी चीन द्वारा हम पर संदेह करने से ही स्पश्ट होता है कि चीन हमें शत्रु मानता है। मुझे नहीं लगता कि हम चीन के प्रति इससे अधिक उदारता दिखा सकते हैं।“
जब सरदार ने यह पत्र लिखा उस समय तिब्बत पर चीन का आक्रमण जारी था। चीन तिब्बत के बारे में कपटपूर्ण बयानबाजी कर रहा था। पटेल तिब्बत की सुरक्षा को भारत की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण मानते थे। उन्होंने लिखा- ”मैंने पत्राचार (चीन की सरकार, भारत के राजदूत और प्रधानमंत्री नेहरु के मध्य) को ध्यान से उदारतापूर्वक पढ़ा, परन्तु संतोशजनक निश्कर्श पर नहीं पहुंच सका। चीन की सरकार ने शांतिपूर्ण इरादों की घोशणा करके हमें धोखा देने का प्रयास किया है। वे हमारे राजदूत के मन में यह बात बिठाने में सफल हो गए हैं कि चीन तिब्बत मामले का शांतिपूर्ण हल चाहता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस पत्राचार के बीच के समय में चीनी तिब्बत पर भीशण आक्रमण की तैयारी कर रहे हैं। त्रासदी यह है कि तिब्बतियों ने हम पर विश्वास किया है, परन्तु हम उन्हें चीन की कूटनीति और दुश्ट इरादों से बचाने में असफल रहे हैं।“
पत्र में आगे वे कहते हैं ”उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए हमें तिब्बत के विलुप्त होने (चीन द्वारा कब्जा करने) और चीन के हमारे दरवाजे तक आ पहुंचने से नई परिस्थिति पर विचार करना चाहिए। भारत के सम्पूर्ण इतिहास में हमें शायद ही कभी अपने उत्तर-पूर्वी सीमांत की चिंता करनी पड़ी होगी। हिमालय उत्तर में होने वाले किसी भी संभावित खतरे के लिए अभेद्य दीवार सिद्ध हुआ है। (उत्तर में) हमारे पास मैत्रीपूर्ण तिब्बत था, जिसने हमारे लिए कोई समस्या उत्पन्न नहीं की।“
भारत का तिब्बत के साथ भूमि समझौता था, अब चीन तिब्बत पर चढ़ आया है। भारत यदि आगे बढ़कर तिब्बत पर चीनी हमले का विरोध करता तो अमेरिका और पश्चिमी देश भारत का साथ देने को उत्सुक होते। लेकिन प्रधानमंत्री नेहरु चीन के खिलाफ कठोर कदम उठाने के पक्ष में नहीं थे, जिसकी परिणिति 1962 के भारत-चीन युद्ध के रूप में हुई। सरदार ने य़ुद्ध के 12 साल पहले ही आगामी संकट को लेकर चेतावनी दे दी थी। उन्हीं के शब्दों में ”निकट का इतिहास हमें बताता है कि कम्युनिज्म साम्राज्यवाद के विरुद्ध कोई ढाल नहीं है। इस सन्दर्भ में चीन की महत्वाकांक्षा न केवल भारत की ओर के हिमालय के ढालों पर कब्जा करने की है, बल्कि उसकी दृश्टि असम तक है। जब रिपोर्ट समान आई कि चीन भारत के क्षेत्र (लद्दाख) में सड़क बना रहा है तो भी कोई ठोस कार्यवाई नहीं की गई। सेना को साजो-सामान और हथियारों से मोहताज रखा गया। रक्षा कारखानों में कॉफी, कप-प्लेट और सौन्दर्य प्रसाधन बनवाए जा रहे थे। चीन से युद्ध में सेना की कमान नेहरु के करीबी एक ऐसे सैन्य अधिकारी को दी गई थी, जिसे एक दिन भी युद्ध का अनुभव नहीं था और जो बहाना बनाकर दिल्ली के अस्पताल में भर्ती होकर युद्ध का संचालन कर रहा था। सरदार पटेल निहायत दृढ़ और दूरदर्शी थें, उन्होंने पंडित नेहरू से कहा था कि यदि कश्मीर मामला उन्हे दे दिया जाएं तो 15 दिन में सुलझा देंगे । पर ऐसा न होने के कारण काश्मीर कितना बड़ा नासूर बन चुका है ।
आज उनके जन्मदिन 31 अक्टूवर को जब सरदार सरोवर में स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के नाम से जब विश्व में उनकी सबसे ऊची प्रतिमा का अनावरण प्रधानमंत्री द्वारा किया जा रहा है तो निश्चित रूप से सम्पूर्ण राष्ट्र उनके प्रति उनके किए गये महान कार्यों के प्रति सच्चे अर्थों में अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर रहा है।
भाजपा की कब्र खोदते जज—राज्यपाल
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मैंने कल लिखा था कि कर्नाटक में भाजपा को बहुमत नहीं मिला और वहां वह सरकार नहीं बनाएगी यह उसके लिए फायदे का सौदा होगा क्योंकि अब 2019 के लिए वह कमर कसकर लड़ेगी लेकिन राज्यपाल वजूभाई वाला ने येदुरप्पा को मुख्यमंत्री की शपथ दिला दी। राज्यपाल ने कांग्रेस और जद के गठबंधन की सरकार बनाने की अपील रद्द कर दी। 116 सीटों वाले गठबंधन को दरी पर बिठा दिया और 104 सीटों वाली भाजपा को सिंहासन पर लिटा दिया। 36 प्रतिशत वोट पानेवाली भाजपा के दावे को राज्यपाल ने स्वीकार कर लिया और 52 प्रतिशत वोट पानेवाले गठबंधन की अर्जी को उन्होंने कूड़े में फेंक दिया। क्या यह कारनामा लोकतंत्र को मजबूत बनाएगा ? क्या राज्यपाल का स्वविवेक इसी को कहते हैं ? राज्यपाल से भाजपा ने सदन में शक्ति परीक्षण के लिए 7 दिन मांगे थे। उन्होंने 15 दिन दे दिए। राज्यपाल ने अपनी साख पैंदे में बिठा ली। अब पता चल रहा है कि उनकी पृष्ठभूमि क्या रही है। अखबार और चैनल इस भाजपा के कार्यकर्त्ता की मिट्टी पलीद करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं।
सर्वोच्च न्यायालय का हाल भी विचित्र है। उसके जजों की नौटंकी भी अदभुत है। मध्य रात्रि में अदालत लगाई और फैसला ऐसा दिया कि जैसे वे दूध पीते बच्चे हो। जैसे उन्हें पता ही न हो कि किस पार्टी को कितनी सीटें मिली हैं। यह भारत की अदालत है या टिंबकटू की ? अब उसे वह पत्र देखने हैं, जो दोनों पक्षों ने राज्यपाल को लिखे हैं। उसमें इतनी हिम्मत नहीं है कि वह येदुरप्पा की शपथ रोक सके तो क्या अब उसने तिकड़मबाजी को प्रोत्साहित नहीं कर दिया है ? क्या उसने भाजपा को सारे अनैतिक हथकंडे अपनाने का मौका नहीं दे दिया है ? मैं कहता हूं कि राज्यपाल और अदालत दोनों मिलकर भाजपा की कब्र खेाद रहे हैं। अब क्या होगा ? सारे विरोधी दलों की एकता मजबूत होगी। वे गोवा, बिहार, मेघालय, मणिपुर आदि के गड़े मुर्दों को भी उखाड़ेंगे। सारे देश में भाजपा की सत्ता-लोलुपता के नारे गूंजेगे और 2019 में मोदी की दाल पतली हो जाएगी।
हमारी नियति: हादसे और मुआवज़े?
निर्मल रानी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में पिछले दिनों एक बड़ा हादसा दरपेश आया। लगभग 1700 मीटर लंबे निर्माणाधीन फ्लाईओवर पर बीम चढ़ाने व उसके एलाईनमेंट के दौरान हुए हादसे में 18 लोगों की दर्दनाक मौत हो गई। सूत्रों के अनुसार जिस समय वाराणसी कैंट तथा लहरतारा के मध्य बन रहे इस ऊपरिगामी पुल की बीम अचानक नीचे गिरी उस समय भीड़-भाड़ वाले इस इलाके में पुल के नीचे की सड़क पर भारी जाम लगा हुआ था जिसके चलते दर्जनों कारें, मोटरसाईकल व अन्य वाहन भी विशालकाय बीम के नीचे दब गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने संसदीय क्षेत्र में हुए इस हादसे पर दु:ख व्यक्त करते हुए हादसे से प्रभावित लोगों की हर संभव सहायता करने के लिए अधिकारियों को निर्देश दिए। साथ ही साथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के अधिकारिक टविटर एकाऊंट से भी वाराणसी की इस घटना में मृतकों के प्रति शोक व्यक्त किया गया तथा मृतकों के परिजनों को पांच-पांच लाख रुपये का मुआवज़ा देने तथा इस घटना में घायल लोगों को दो-दो लाख रुपये की आर्थिक सहायता देने की घोषणा की गई।
वाराणसी में हुआ यह हादसा भारत में होने वाला इस प्रकार का कोई पहला हादसा नहीं है। इससे भी भीषण हादसे हमारे देश में होते रहे हैं। नदी के पुल के टूटने से लेकर फ्लाईओवर अथवा ऊपरिगामी सेतु के ढहने तक यहां तक कि फ्लाईओवर के रेल लाईन पर गिरने जैसे हादसे भी भारतवर्ष में हो चुके हैं। अभी दो वर्ष पूर्व ही मार्च 2016 में कोलकाता में इसी प्रकार के एक निर्माणाधीन विवेकानंद फ्लाईओवर के एक हिस्से के गिर जाने से 27 लोगों की मौत हो गई थी। 2009 में राजस्थान में एक निर्माणाधीन पुल ढह गया था जिसमें 28 मज़दूर अपनी जानें गंवा बैठे थे। इसी तरह 2006 में हावड़ा-जमालपुर सुपर फास्ट ट्रेन डेढ़ सौ वर्ष पुराने एक पुल से नीचे जा गिरी थी जिसके चलते 30 लोग मौत की आगोश में समा गए थे। 2005 में वलीगोंडा में आई बाढ़ में अचानक एक छोटा पुल बह गया। उस बहे हुए पुल के ऊपर से ट्रेने भी गुज़रने लगी। और अचानक वह भी बाढ़ के पानी में नीचे जा गिरी। परिणामस्वरूप 114 लोग मारे गए। इस प्रकार के और भी कई हादसे देश में होते रहे हैं जिनमें आम नागरिक अपनी जानें गंवाते आ रहे हैं। 2 अगस्त 2016 को महाराष्ट्र में रायगढ़ जि़ले के म्हाड़ क्षेत्र में सावित्री नदी पर अंग्रेज़ों के शासनकाल में बनाया गया एक काफी पुराना पुल नदी के पानी के तेज़ प्रवाह को सहन नहीं कर सका और पुल का एक बड़ा हिस्सा उफनती नदी में समा गया। इस हादसे में पचास से भी अधिक लोगों की मौत की सूचना मिली थी। इसमें भी कई शव ढूंढे नहीं जा सके थे। बसों व कारों समेत और भी कई वाहन इस हादसे में बह गए थे। यहां भी सरकार ने शोक व्यक्त करने तथा मुआवज़ा राशि देने का फर्ज निभाया था।
सवाल यह है कि क्या हादसे पर हादसे होते रहना और उसके बाद सरकार के मुखियाओं द्वारा अपनी शोक संवेदनाएं व्यक्त कर देना या फिर कभी अपने अधीनस्थ मीडिया कैमरों के साथ शोक संतप्त परिवारों के घर पहुंच कर पीडि़त परिजनों को सांत्वना देना व अपनी इस ‘दरियादिलीÓ व ‘करमनवाज़ीÓ के चित्र अखबारों में प्रकाशित करवा लेना ही आम भारतीय नागरिकों की नियति बनकर रह गई है? दुर्घटनाएं निश्चित रूप से दुनिया के अन्य देशों में भी होती रहती हैं। परंतु हमारे देश में अन्य देशों की तुलना में कुछ ज़्यादा ही दुर्घटनाएं घटित होती हैं। इनमें ज़्यादातर दुर्घटनाएं लापरवाही की वजह से ही होती हैं। दुर्घटनाओं संबंधी सर्वेक्षण बताते हैं कि भारतवर्ष में प्रत्येक दिन लगभग 1214 दुर्घटनाएं होती हैं। आश्चर्य की बात है कि अकेले वर्ष 2013 में सड़क दुर्घटनाओं में एक लाख सैंतीस हज़ार लोगों की मौत हुई थी। सड़क दुर्घटनाओं में प्रत्येक चार मिनट में एक दुर्घटना होने का औसत है। इसमें भी कोई शक नहीं कि गत् दस वर्षों के भीतर भारत में राजमार्गों, राज्यमार्गों, फ्लाईओवर, अंडरपास तथा सड़कों के चौड़ीकरण के कामों में बहुत तेज़ी आई है। परंतु यह बात भी बिल्कुल सत्य है कि जिस अनुपात से हमारे देश की जनसंख्या तथा वाहनों की संख्या में प्रतिदिन बढ़ोतरी हो रही है उसके अनुसार अभी भी सड़कें व फ्लाईओवर तंग नज़र आ रहे हैं। लिहाज़ा कहा जा सकता है कि यातायात संबंधी निर्माण कार्य भविष्य में भी निरंतर जारी रहने की पूरी संभावना हैे।
तो क्या पिछले हादसों को देखते हुए हम यही मानकर चलें कि भविष्य में भी इस प्रकार के हादसे होते रहेंगे और आम लोगों की जानें इसी प्रकार लापरवाही के चलते जाती रहेंगी? दिल्ली में ऐसा ही एक हादसा उस समय पेश आया था जबकि एक बीम को उठाते समय अनियंत्रित होकर क्रेन पलट गई थी। क्या यह हादसा तकनीकी दृष्टिकोण से एक ऐसा हादसा प्रतीत नहीं होता जिससे यह ज़ाहिर होता हो कि उस क्रेन द्वारा अपनी क्षमता से अधिक भार उठाने की कोशिश की गई जिसके चलते यह हादसा पेश आया? कोलकता व वाराणसी के हादसे भी यही सबक सिखाते है कि किसी भी निर्माणाधीन पुल के नीचे से आम लोगों को व यातायात को गुज़रने की इजाज़त नहीं देनी चाहिए जब तक ऊपर की ओर पुल का काम चल रहा हो उस समय तक नीचे की सर्विस लेन कतई नहीं चलानी चाहिए। इसी प्रकार महाराष्ट्र के महाड़ पुल हादसे से हमें यह सबक मिलता है कि अपनी सेवा का निर्धारित समय निकाल चुके पुल की मुरम्मत या लीपापोती करने के बजाए उसे बंद कर देना चाहिए तथा बंद करने से पूर्व ही नए पुल का निर्माण भी समय की ज़रूरत व यातायात के अनुसार कर लिया जाना चाहिए। परंतुृ हमारा शासन व प्रशासन निश्चित रूप से समय रहते इन बातों पर ध्यान नहीं दे पाता परिणामस्वरूप इस प्रकार के हादसे पेश आते रहते हैं।
इन दिनों पुरानी दिल्ली से शाहदरा को जोडऩे वाला दो मंजि़ला यमुना पुल तथ इलाहाबाद व नैनी स्टेशन के बीच बना इसी प्रकार का दो मंजि़ला यमुना सेतु लगभग एक जैसी स्थिति से गुज़र रहा है। लगभग एक ही समय में अंग्रेज़ों के शासनकाल में बनाए गए इस अजूबे पुल को प्रयोग करने की सीमा भी दशकों पूर्व समाप्त हो चुकी है। परंतु राजनेताओं की सुरक्षा व उनके दूसरे नाज़ो-नखरे उठाने पर करोड़ों रुपये खर्च करने वाली सरकार जोकि चुनावों में आए दिन देश की जनता का पैसा पानी की तरह बहाती रहती है, द्वारा इन पुलों की जगह दूसरा नया पुल बनाने की ज़रूरत महसूस नहीं की जा रही है। वैसे भी हमारे देश में इंसानों की जान की कीमत क्या है इसका अंदाज़ा हमें इस बात से भी हो जाता है कि आज सड़कों पर जगह-जगह सांड़ तथा अन्य आवारा जानवर घूमते दिखाई देते हैं तथा कोई न कोई राहगीर या वाहन इनसे टकराता रहता है। मेनहोल के ढक्कन भी जगह-जगह खुले पड़े रहते हैं। नालों व नालियों के ऊपर के लेंटर या ढक्कन जगह-जगह खुले दिखाई देते हैं जो अचानक गुज़रने वाले किसी वाहन के लिए बड़ी दुर्घटना यहां तक कि मौत का सबब बन सकते हैं। उत्तर प्रदेश में तो आवारा कुत्तों ने राहगीरों को काटने का ऐसा आतंक फैला रखा है कि पिछले दिनों मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को इस विषय पर स्वयं दिशा निर्देश जारी करने पड़े। कुल मिलाकर इन सभी बातों से यही निष्कर्ष निकलता है कि किसी भारतीय नागरिक की जान व माल की कीमत केवल हादसों व मुआवज़ों के बीच ही उलझकर रह गई है अन्यथा पिछले हादसों से यदि सबक लिए गए होते तो भविष्य में ठीक उसी प्रकार के हादसों की पुनरावृति न हो पाती।
भाजपा की कमजोर कड़ियां
राजा पटेरिया
विधानसभा चुनाव में अब कुछ ही महिनों का समय रह गया है ऐसे में यह विचार अब हर स्तर पर शुरू हो गया है कि क्या बीजेपी अपना पूर्ववर्त प्रदर्शन जारी रख राज्य में चौथी बार सरकार बनायेगी या फिर इस बार कांग्रेस अपना वनवास खत्म करते हुए सत्ता में वापसी करेगी। संगठन की लिहाज से देखें तो भाजपा कांग्रेस के मुकाबले अधिक व्यवस्थित और चुनाव के लिए तैयार दिखाई देती है। इसके अलावा नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से लेकर अब तक बीजेपी तकरीबन हर विधानसभा चुनाव में जीती भी है , इसे भी पार्टी के पक्ष में एक महत्वपूर्ण बिंदु माना जा सकता है लेकिन इन सभी बातों के बावजूद प्रदेश तथा स्थानीय स्तर पर ऐसे कई मामले हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। आज हम इन्ही कुछेक बिंदुओं पर चर्चा करेंगे जो बीजेपी की कमज़ोर कड़ी हैं।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान प्रदेश में बीजेपी के एकमात्र मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं , यह उनकी सबसे बड़ी ताकत है तो दूसरी ओर यही उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी भी है क्योंकि केंद्रीय स्तर पर बात की जाए तो शिवराज और मोदी जी के बीच चल रहे मतभेद जगजाहिर हैं। इसकी शुरूआत 2013 में ही हो गई थी जब मोदी जी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाना था तब मोदी विरोधी गुट ने शिवराज को उनके विरूद्ध सशक्त उम्मीवार घोषित किया था । इस गुट में पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और मुरलीमनोहर जोशी जैसे नेता शामिल थे। प्रधानमंत्री बनते ही मोदी जी ने सबसे पहले अपने तमाम विरोधियों को किनारे किया , शिवराज जी और वसुंधरा राजे इस लिस्ट में अंतिम बचे दो व्यक्ति हैं। केंद्रीय स्तर पर देखें तो पार्टी में शिवराज विरोधी नेताओं को लगातार मज़बूत किया जा रहा है पार्टी कैलाश विजयवर्गीय , प्रभात झा , राकेश सिंह, थावरचंद गहलोत और नरेंद्र सिंह तोमर को ज़्यादा तरजीह दे रही है, इसके अलावा फग्गनसिंह कुलस्ते के विद्रोही तेवर भी शिवराज के लिए असुविधाजनक स्थिति पैदा कर सकतें हैं। केंद्रीय नेतृत्व की वरदहस्तता प्राप्त यह नेता समय आने पर वह शिवराज को कड़ी चुनौती पेश कर सकें। चुनाव के समय केंद्रीय नेतृत्व शिवराज के लिए खासी परेशानी खड़ी कर सकता है।
शिवराज सिंह चौहान की वाचाल प्रवत्ति भी अब उनके विरोध में जाता दिखाई दे रहा है। मुख्यमंत्री जी की आदत कि जहां जाते हैं वहां कोई ना कोई घोषणा कर आते हैं। बीते करीब 13 साल को शासनकाल में उनके द्वारा की गई दसियों हज़ार घोषणाएं अधूरी हैं, जो जनता की नजर में उनकी नकारात्मक छवि निर्मित कर रही है। शिवराज जी विकास के दावे और प्रचार भी ज़ोरशोर से करते हैं लेकिन धरातल पर जनता को कुछ नहीं दिखता। जनता अब इस बड़बोलेपन से भी उकता चुकी है।
प्रदेश का पिछड़ापन भी सरकार के खिलाफ एक बड़ा मुद्दा है , शिवराज जी लाख दावे करें की प्रदेश की विकासदर बढ़ रही है और प्रदेश अब पहले जैसा नहीं रहा लेकिन ज़मीनी हकीकत उनके दावों की पोल खोल देती है क्योंकि जनता को धरातल पर विकास नहीं दिखता। और अब तो नीति आयोग ने भी यह घोषित कर दिया कि मध्यप्रदेश अब भी पिछड़ा राज्य है। 23 अप्रैल को नीति आयोग के सीईओ ने दिल्ली में मध्यप्रदेश , उत्तरप्रदेश बिहार और राजस्थान को बीमारू राज्य बताते हुए कहा है कि यह राज्य देश के विकास की गति में बाधक हैं। प्रदेश के पिछड़ेपन का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है।
मध्यप्रदेश भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के लिए अभ्यारण्य बना हुआ है,। स्वंय मुख्यमंत्री व मंत्रीमंडल के अन्य सहयोगियों पर ही कई भ्रष्टाचार के मामले हैं , लेकिन वह अब तक इनसे बचते चले आ रहें हैं। शासकीय कार्यों में भ्रष्टाचार अब शिष्टाचार का रूप ले चुका है। लेकिन जनता अब इससे त्रस्त हो चुकी है और व्यवस्था में परिवर्तन चाह रही है।
प्रदेश का नौजवान बेरोज़गारी का शिकार है क्योंकि यहां बीते डेढ़ दशक में नए रोज़गार के अवसर पैदा नहीं किये गए। ना तो नई कम्पनियां आईं ना ही सरकार ने बड़े पैमाने पर नौकरियां निकाली। स्थिति यह है कि आज प्रदेश में 23 लाख से ज़्यादा बेरोज़गार है। इसी प्रकार कर्मचारी वर्ग में वेतन और सेवाशर्तों को लेकर खासा असंतोष है। दैनिक वेतनभोगियों, आंगनवाड़ी व अन्य कॉट्रेक्चुअल कर्मचारियों में भी सरकार के खिलाफ असंतोष है।
प्रदेश का किसान मुख्यमंत्री से सबसे ज़्यादा नाराज़ है, वह सरकार और बिचौलियों के बीच की सांठगांठ को समझ गया है, हर बार फसल के समय मंडियों में दाम इतने गिरा दिये जाते हैं कि किसान को अपनी उपज घाटे में बेंचना पड़ती है, लेकिन कुछ ही हफ्तों बाद दाम फिर आसमान पर पंहुच जाते हैं, पिछले कुछ सालों से किसानों के साथ लगातार यही हो रहा है। उपज मूल्य भी नहीं मिलने के कारण किसान या तो खेती छोड़ रहा है या आत्महत्या के लिए मजबूर हो रहा है। किसानों के भीतर दबा गुस्सा सरकार को बदलने के लिए काफी है।
प्रदेश में महिलाओं और दलितों के विरूद्ध बढ़ते अत्याचार ने भी सरकार की छवि को घूमिल किया है। महिलाओं को विरूद्ध यौन अपराधों के मामले में मध्यप्रदेश देश में पहले नम्बर पर है। इसी प्रकार दलित उत्पीड़न के मामले में भी प्रदेश की स्थिति शर्मनाक है। इससे इन दोनों वर्गों में सरकार को लेकर असंतोष है। इसके अलावा प्रदेश में बिगड़ती कानून व्यवस्था व नागरिक सुरक्षा का मामला भी लोगों में चिंता का विषय बना हुआ है।
इनके अलावा जनता गरीबी , भुखमरी और कुपोषण जैसे मामलों से भी पीड़ित है प्रदेश में मातृ मृत्युदर और शिशु मृत्युदर देश में सबसे ज़्यादा है। प्रदेश में शिक्षा व्यवस्था दयनीय हैं, केंद्र सरकार की रिपोर्ट बताती है प्रदेश के हाई स्कूल छात्र गणित विज्ञान और अंग्रेजी में बहुत कमज़ोर हैं। यहां के व्यवसायिक पाठ्यक्रमों का स्तर राष्ट्रीय औसत से नीचे है जिस कारण प्रदेश के शिक्षित युवाओं को दूसरे राज्यों में नौकरियां नहीं मिलती। प्रदेश में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल है, सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों और नर्सों से लेकर चिकित्सा उपकरणों का घोर अभाव है। प्रदेश में पर्यावरण का नाश हो रहा है मुख्यमंत्री दावा करते हैं कि नर्मदा संरक्षण के लिए 6 करोड़ पौधे रोपे गए लेकिन वास्तविकता हमारे सामने हैं। आज जंगलों का नाश हो रहा , नर्मदा समेत प्रदेश की बाकी सभी नदियों का जलक्षेत्र सिकुड़ रहा है जिस कारण हर साल सूखे और बाढ़ की स्थितियां निर्मित हो रहीं हैं, जनता इससे त्रस्त है लेकिन सरकार को इसकी कोई परवाह नहीं।
सांकेतिक दलित भोज: इस ‘नाटक’ की ज़रूरत ही क्यों?
तनवीर जाफरी
भारत वर्ष कभी विश्वगुरू हुआ करता था, इस कथन को विश्व कितनी मान्यता देता है इस बात का तो पता नहीं परंतु इतना ज़रूर है कि हमारे देश में 21वीं शताब्दी में भी लोगों को इस बात के लिए शिक्षित किया जा रहा है कि वे खु़ले में शौच करने से बाज़ आएं, अपने घर व पास-पड़ोस में सफाई रखें, जनता को अभी तक यही समझाया जा रहा है कि गंदगी फैलने से बीमारी व संक्रमण फैलता है। अभी देश के लोगों को यातायात के नियम समझाए जा रहे हैं। महिला उत्पीडऩ व बलात्कार जैसी घटनाओं को लेकर हमारा देश अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में बना रहता है। हमारा स्वयंभू ‘विश्वगुरू’ आज भी अंधविश्वासों में जकड़ा हुआ है। झाड़-फूंक, जादू-टोना, दुआ-ताबीज़ जैसी चीज़ों से हम मुक्ति नहीं पा सके हैं। ऐसी ही एक अमानवीय कही जा सकने वाली त्रासदी इसी ‘विश्वगुरू’ राष्ट्र में शताब्दियों से चली आ रही है जिसे हम दलित समाज अथवा हरिजन समाज के उत्पीडऩ या उसकी उपेक्षा के नाम से जानते हैं। धर्म अथवा जाति को लेकर अछूत समझी जाने वाली व्यवस्था शायद ‘भारत महान’ के अतिरिक्त दुनिया के किसी भी देश में नहीं है। भारत ही दुनिया का अकेला ऐसा देश है जहां हरिजन अथवा दलित समाज के लोगों को तथाकथित स्वर्ण जाति के लोगों द्वारा नीच व तुच्छ समझा जाता है। हालांकि शहरी क्षेत्रों में यह कुप्रथा धीरे-धीरे कम ज़रूर होती जा रही है परंतु देश के अधिकांश ग्रामीण क्षेत्र अभी भी उसी जातिवादी मानसिकता से घिरे हुए हैं।
दलित समाज के लोगों को अपने बराबर बिठाने से परहेज़ किया जाता है। उनके खाने-पीने के बर्तन अलग रखे जाते हैं। उनके शरीर का स्पर्श भी अच्छा नहीं समझा जाता। दलित समाज के दूल्हे को घोड़ी पर बैठने नहीं दिया जाता। स्वर्ण समाज स्वयं को ही घोड़ी पर बैठने का जन्मसिद्ध अधिकारी मानता है। यदि कहीं दलित समाज का व्यक्ति भोजन बनाता है तो उसके हाथ का बना भोजन खाने से मना कर दिया जाता है। ऐसी कई घटनाएं मिड डे मील योजना के तहत स्कूलों में बनाए जाने वाले खाने को लेकर हो चुकी हैं जबकि स्कूल के स्वर्ण समाज के बच्चों ने दलित कर्मी के हाथ का बना भोजन स्कूल में खाने से मना कर दिया। हद तो यह है कि उत्तर प्रदेश के हाथरस जि़ले में जाटव समाज के एक दूल्हे को पुलिस प्रशासन द्वारा घोड़ी पर सवार होकर अपनी बारात गांव में घुमाने से इसलिए मना कर दिया गया क्योंकि उस गांव में स्वर्ण दबंगों से जाटव समाज की बारात को खतरा पहुंच सकता था। जबकि दूल्हे की ओर से प्रशासन से इस विषय पर अनुमति भी तलब की गई थी परंतु प्रशासन ने अनुमति देने के बजाए जाटव समाज के लोगों को ही स्वर्णों का भय दिखाकर उन्हें घुड़चढ़ी व गांव में बारात घुमाने की इजाज़त नहीं दी। क्या यह सवाल वाजिब नहीं है कि यह कैसा स्वयंभू विश्वगुरू राष्ट्र है जहां हम 21वीं सदी में भी बारात निकालने व घोड़ी पर चढऩे की अनुमति मांगते फिर रहे हैं और प्रशासन वह अनुमति भी देने से इंकार कर रहा है?
उधर दूसरी ओर देश के विकास और प्रगति की बात करने वाले और देश की एकता व अखंडता का दंभ भरने वाले विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं द्वारा दलित समाज से भाईचारगी व समरसता का ढोंग करने का सिलसिला भी कई दशकों से जारी है। देश का बड़े से बड़ा नेता दलितों के घर भोजन करने का स्वांग रचाकर यही दिखाने की कोशिश करता है कि वह दलितों के प्रति प्रेम व सद्भाव रखता है तथा ऊंच-नीच व जात-पात अथवा छूत-अछूत जैसी विसंगतियों को नहीं मानता। क्या राहुल गांधी तो क्या अमित शाह यह सभी नेता दलितों के घरों पर भोजन करने का प्रदर्शन करते देखे जा चुके हैं। राहुल गांधी ने पूरी रात दलित के घर गुज़ार कर यह जताने की भी कोशिश की कि हमें इनके साथ खाने-पीने, उठने-बैठने और सोने में भी कोई परहेज़ नहीं है। भारतीय जनता पार्टी 2014 में सत्ता में आने के बाद विभिन्न आयोजनों द्वारा यह प्रदर्शित करने की कोशिश करती रही है कि हिंदू धर्म में जात-पात नाम की कोई चीज़ नहीं है। सभी हिंदू एक समान हैं। ऐसे प्रदर्शन के लिए भाजपा ने महाकुंभ मेले जैसे देश के सबसे विशाल आयोजन को भी इससे जोडऩे की कोशिश की। परंतु इन सब बातों के बावजूद नतीजा यही है कि दलित समाज पर होने वाले अत्याचार तथा इनकी उपेक्षा व इस समाज के साथ सहस्त्राब्दियों से होता आ रहा सौतेला व्यवहार अब भी न केवल जस का तस है बल्कि कहीं-कहीं इसमें इज़ाफा भी होता जा रहा है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने पिछले दिनों अपने एक बयान में भाजपा नेताओं के दलितों के घर भोज करने को सीधे तौर पर नाटक करार दिया। उन्होंने यह बात कर्नाटक चुनाव के दौरान भाजपा अध्यक्ष अमित शाह व कर्नाटक भाजपा नेता बी एस येदिुरप्पा तथा कई अन्य नेताओं द्वारा सिलसिलेवार तरीके से दलितों के घर जाने तथा वहां भोजन ग्रहण करने का नाटक करने के संदर्भ में कही। संघ, हिंदू एकता जैसे राष्ट्रव्यापी मिशन पर चलते हुए देश के प्रत्येक गांव में एक मंदिर एक शमशान और एक स्थान से पानी लेने जैसे मिशन पर काम कर रहा है। परंतु जातिवाद का यह ज़हर कम होने का नाम ही नहीं ले रहा। आखिर इसकी वजह क्या है? क्यों स्वर्ण व दलित समाज एक-दूसरे के करीब खुलकर नहीं आ पा रहे हैं? इस समस्या की जड़ें आखिर हैं कहां? संघ क्या इस दुवर््यवस्था की जड़ों पर प्रहार किए बिना एक गांव में एक मंदिर, एक शमशान व एक कुंआं जैसी व्यवस्था को धरातल पर ला सकता है? क्या वजह है कि उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार का एक मंत्री पार्टी के दिशा निर्देश पर दलितों के घर भोजन करने का ‘नाटक’ तो ज़रूर करता है परंतु अपना खाना और पानी साथ लेकर जाता है? खबरें तो यहां तक हैं कि दलितों के घर भोज के ड्रामे में भी पांच सितारा होटलों से मंगवा कर इन तथाकथित राष्ट्रवादियों को खाना परोसा जाता है। ज़ाहिर है नफरत के यह रिश्ते कुछ वर्षों या इतिहास की किसी एक घटना के नतीजे नहीं बल्कि इनकी जड़ें धार्मिक शिक्षाओं तथा संस्कारों में छुपी हुई हैं।
निश्चित रूप से हमें यह सोचने की ज़रूरत है कि वर्ण व्यवस्था की शुरुआत कब, कहां से और क्या सोचकर की गई? क्यों भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जैसे महान कानूनविद् द्वारा लाखों लोगों के साथ हिंदू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली गई और क्या वजह है कि दलितों के धर्म परिवर्तन करने का यह सिलसिला आज तक जारी है? ज़ाहिर है इस अमानवीय त्रासदी के पीछे किसी इस्लामिक शिक्षा, जेहाद, कुरान, पाकिस्तान, कांग्रेस, गांधी-नेहरू परिवार, कम्युनिस्टों आदि का हाथ नहीं है बल्कि इस व्यवस्था की जड़ें उस मनुवादी संस्कारों में छुपी हुई हैं जो समाज में वर्ण व्यवस्था को लागू करने का जि़म्मेदार है। संघ को ऐसी शिक्षाओं, ऐसे शास्त्रों, ऐसे संस्कारों को जड़ से संशोधित करने के विषय में सोचने की ज़रूरत है। हद तो यह है कि दलित समाज के उत्थान तथा उन्हें उनके अधिकार दिलाने के लिए देश में आज जो भी दलित नेता सिर उठाए नज़र आते हैं वे भी सत्ता तथा माया मोह में उलझकर रह गए हैं। वे भी उसी स्वर्ण समाज की हां में हां मिलाते अक्सर देखे जाते हैं। हां जब चुनाव का समय करीब आता है उस समय ज़रूर एक से बढ़कर एक दलित मसीहा नज़र आने लगते हैं। लिहाज़ा सांकेतिक रूप से दलितों के घर भोजन जैसे नाटक बंद कर गंभीरतापूर्वक इसी बात पर मंथन करने की ज़रूरत है कि आखिर आज हमें ऐसे नाटक करने की ज़रूरत ही क्यों महसूस हो रही है?
गंदी राजनीति का सफाया करने मतदाता आगे आएं
– डॉ हिदायत अहमद खान
यह हमारे देश की बदकिस्मती ही है कि जैस-जैसे लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करने वाले ‘चुनाव’ करीब आते हैं, वैसे-वैसे सांप्रदायिक ताकतें सिर उठाना शुरु कर देती हैं। अफसोस इस बात का है कि ऐसी आसुरी ताकतों को आगे बढ़ाकर हिंसा करवाने का खेल भी कथित राजनीति के धुरंधर ही खेलते हैं। गंदी राजनीति में यह खेल काफी पुराना हो चला है, लेकिन क्या किया जाए आमजन को भूलने की आदत कुछ इस कदर है कि वह बड़े से बड़े दर्द को भी समय गुजरते ही भुला देती है। यही वजह है कि चालाक लोग इस बात का बेजा फायदा उठाते दिख जाते हैं। मतदाताओं के ध्रुवीकरण करने का राजनीतिक प्रपंच रचा जाता है और जगह-जगह, बात-बात पर लोगों को आपस में लड़वाने का बदस्तूर कार्यक्रम चलाया जाता है। इसकी जद में आने वाले अपना सब कुछ गंवाने के बाद सिर्फ चीत्कार करते देखे जाते हैं, जबकि इस सब के जिम्मेदार राजनीति की आड़ में ही साफ बच निकलते हैं। कुल मिलाकर गंदी राजनीति करने वाले वोटों की खातिर हिंसा को भी सही ठहराने से बाज नहीं आते हैं। इस समय जबकि कर्नाटक विधानसभा चुनाव करीब आ रहे हैं तब सभी की निगाहें राज्य के घटनाक्रम पर टिक गई हैं। ऐसे में भाजपा द्वारा प्रचारित किया जा रहा है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री के सिद्धारमैया हिंदू विरोधी हैं। सवाल यह है कि आखिर इस चुनावी बेला में कर्नाटक की कांग्रेस सरकार आखिर हिंदू विरोधी कैसे हो गई। दरअसल ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि राज्य सरकार ने किसानों, प्रो-कन्नड़ समर्थकों और अल्पसंख्यकों पर दर्ज मामलों को वापस लेने के लिए कदम आगे बढ़ाया है। बस इसी बात को सियासी रंग देते हुए भाजपा ने मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को हिन्दू विरोधी करार दिया, लेकिन ऐसा कहते हुए वो भूल गए कि हाल ही में उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ की सरकार ने भी तो तमाम आपराधिक मामलों में फंसे पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को बरी करने के लिए अहम फैसला लिया था। तब विचारणीय है कि यदि उत्तर प्रदेश में राजनीतिक विद्वेष के कारण आपराधिक मामले दर्ज किए जा सकते हैं तो फिर अन्य राज्यों में ऐसा क्योंकर नहीं किया जा सकता है। चूंकि कर्नाटक में बात सिर्फ अल्पसंख्यकों की नहीं है बल्कि किसानों और प्रो-कन्नड़ समर्थकों की भी है, अत: सीधे तौर पर इसे हिंदू विरोधी घोषित करना समझ से परे है। हॉं, यह अलग बात है कि कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोप लगते रहे हैं, लेकिन उसके उदाहरण भी अब देखने में नहीं आते हैं। इसी प्रकार भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों पर हिन्दुत्व की राजनीति करते हुए बड़े वोटबैंक का ध्रुवीकरण करने के आरोप भी लगते रहे हैं। यह हकीकत भी है क्योंकि हिंदुत्व के नाम पर पार्टी ने दो सीटों से राजनीति शुरु की और अब केंद्र में पूर्ण बहुमत वाली सरकार तक का सफर तय कर चुकी है। ऐसे में चुनावी शंखनाद में ही हिंदुत्व का मुद्दा गर्मा जाना आश्चर्चचकित करने जैसा कतई नहीं है। हद यह है कि भाजपा और कांग्रेस में असली हिंदू कौन को लेकर बयानबाजी सातवें आसमान पर पहुंच चुकी है। इस बहस के केंद्र में जहां कर्नाटक के मुख्यमंत्री के. सिद्धारमैया हैं तो वहीं उन्हें चुनौती देने के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भाजपा ने आगे कर रखा है। पार्टी की कोशिश है कि योगी की हिंदुत्ववादी वाली छवि को कर्नाटक चुनाव में भुनाया जाए। यही वजह है कि कर्नाटक में बताया जा रहा है कि किस तरह से उत्तर प्रदेश के सियासी गलियारे में बदलाव लाने में योगी सरकार सफल रही है। उनके फैसलों और हिंदूवादियों को आगे बढ़ाने जैसे कार्यों को घर-घर पहुंचाया जा रहा है। अगर यह सच है तो इसे सबसे गिरी हुई राजनीति का हिस्सा माना जाना चाहिए, क्योंकि हम उस अत्याधुनिक युग में प्रवेश कर चुके हैं जहां देश का विकास सर्वोपरी होना चाहिए। देश को धार्मिक और सांप्रदायिक समेत जातीय फसादों में फंसाने की बजाय इन राजनीतिक पार्टियों और नेताओं को चाहिए कि वो आगामी बीस साल के विकास का एजेंडा जनता के सामने रखें और बताएं कि वो किस तरह से आमजन का जीवन आसान बनाने जा रहे हैं। किस तरह से देश को आत्मनिर्भर बनाने में उनकी सेवाएं प्रभावी सिद्ध होने वाली हैं। इसी आधार पर मतदाताओं को मताधिकार का उपयोग भी करना होगा, तभी देश से गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा और बीमारियों से निजाद मिल सकेगी, वर्ना जो पहले से चला आ रहा है वह तो लगातार चलने ही वाला है। देश को विकास के पथ पर अग्रसर करने की जिम्मेदारी मतदाताओं को निभानी होगी तभी देश से गंदी राजनीति का सफाया हो सकेगा।
बैंक नोट प्रेस में नोट भी सुरक्षित नहीं
-डॉ. आशीष जैन आचार्य
किसी ने कहा है -गनीमत है नगर वालों, लुटेरों से लुटे हो तुम।
हमें तो गाँव में अक्सर, दरोगा लूट जाता है।।
कुछ ऐसा ही घटनाक्रम देखने में आया देवास बैंक नोट प्रेस में। जहाँ के एक डिप्टी कन्ट्रोलर ने जूतों में नोटों को छिपाकर ले जाते गिरफ्तार किया गया। आश्चर्य होता है कि जिसको भारतीय मुद्रा के सम्मान और सुरक्षा के लिये नियुक्त किया, ऐसा ही व्यक्ति उस मुद्रा को अपमानित करता है। जिस मुद्रा को भारतीय संस्कृति लक्ष्मी देवी की प्रतिमूर्ति मानता है। ऐसे मुद्रा को एक अधिकारी जूतों में रखकर ले जाता है। शायद इसी लिये नोट प्रेस की सुरक्षा एजेंसी जूतों की चेकिंग नहीं करती है, क्योंकि उनका लगता होगा, कोई अधिकारी भारतीय मुद्रा का ऐसा अपमान तो कर ही नहीं सकता है। आज इस घटना ने प्रत्येक अधिकारी के व्यक्तित्व पर प्रश्रचिह्न खड़ा कर दिया है। सारे अधिकारी शर्मिन्दा होंगे ऐसी घटना से। निश्चित ही हमारे देश के गौरव के लिये भी ऐसे लोग सही नहीं है। जिनके हृदय में देश और देश की मुद्रा के प्रति सम्मान न हो, ऐसे लोग तो देशद्रोही ही हो सकते हैं। खैर, ये कार्य न्यायालय का है।
औचित्यपूर्ण चर्चा मात्र इतनी है कि हमारी बैंक नोट प्रेस भी अब इस प्रकार की घटनाओं से चर्चाओं के विषय बन रही है। प्रश्र तो इस बात का भी खड़ा होता है क्या अधिकारी है इसलिये चेकिंग नहीं होती है? या इस अधिकारी को भी सम्बल देने वाले और लोग भी है। कर्मचारी तो कर्मचारी होता है चाहे चपरासी हो या सबसे बड़ा अधिकारी। यदि वह संस्थान अत्यंत गोपनीय और संवेदनशील है, तो निश्चित ही सभी के साथ एक जैसा व्यवहार करते हुये उनकी चेकिंग होना चाहिये।
महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि वह कितने नोट वहाँ से ले गया? महत्त्वपूर्ण यह हैै कि वह वहाँ नोट लेकर चला कैसे गया? कैसे लूटता रहा है वह हमारी इस गोपनीय और संवेदनशील संस्था को। इस भान न अधिकारियों को हुआ और न ही किसी अन्य कर्मचारी-सुरक्षा एजेन्सियों का, और न ही सीसीटीवी की फुटेज देखी जा सकी। आदि अनेक बातें प्रश्रों के रूप में खड़ी होती है। परन्तु इन सब बातों को महत्त्वपूर्ण न मानकर अब इस बात का विशेष ध्यान रखा जाए, आने वाले समय मेें ऐसी कोई घटना न हो। इसके लिये आवश्यक है कि चपरासी से अधिकारी तक एक जैसी चेकिंग ली जाए और दृढ़ता के साथ इस प्रकार के कृत्य करने वालों के लिये सजा दी जाए।
जनसामान्य के मन में संदेह उत्पन्न होगा और वे अब इस संस्था को भी शक की दृष्टि से देखेंगे। इसलिये आवश्यक सही समय पर सही कार्यवाही हो जाती है। तो जनता में विश्वास होगा और जनता इस कदम की सराहना भी करेगी।
आमजन गणतंत्र को समझे तो बात बने
– डॉ हिदायत अहमद खान
हम भारतियों को अपने संविधान पर गर्व होने का सबसे बड़ा सुबूत यही है कि आज 69वें गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में संपूर्ण देश की आठों दिशाएं जश्न में डूबी हुई नजर आ रही हैं। हमारे अपने भारतीय संविधान पर नाज होना भी चाहिए क्योंकि यही वो ताकत है जो हमें अपने पूर्ण स्वतंत्र होने का अहसास कराने के साथ ही साथ कर्तव्यों के प्रति सचेत भी करता है। अपनी-अपनी सीमा में रहते हुए सभी को देश सेवा करने और लोकतंत्र को मजबूत करने की सीख भी देता है। यह संविधान ही है जो अपराध करने पर दंड देने की व्यवस्था करता है तो बेकसूर को न्याय पाने की भी व्यवस्था करता है। कुल मिलाकर भारतियों को अनेकता में एकता का पाठ पढ़ाने का काम भी हमारा संविधान ही करता है। ऐसे संविधान की इज्जत दिल से होती है, इसमें दिखावे का कोई काम नहीं है। अत: ऐसा संविधान जिसके बनने से लेकर लागू होने तक का अपना ही एक इतिहास है। यही नहीं बल्कि तिथि 26 जनवरी को लेकर भी अपनी ही एक सच्ची कहानी भारतीय इतिहास के पन्नों में दर्ज है। इसके अनुसार सन् 1930 में इसी दिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत को पूर्ण स्वराज घोषित किया था। इसी दिन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने देश को पूर्ण स्वतंत्र कराने की शपथ ली थी और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इसी दिन सन् 1950 को भारत सरकार अधिनियम (एक्ट) (1935) को हटाकर भारत का संविधान लागू किया गया। इससे पहले एक स्वतंत्र गणराज्य बनने और देश में कानून का राज स्थापित करने के लिए संविधान को 26 नवम्बर 1949 को भारतीय संविधान सभा द्वारा अपनाया गया और उसके बाद 26 जनवरी 1950 को इसे एक लोकतांत्रिक सरकार प्रणाली के साथ लागू किया गया। इसलिए 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाने के महत्व के साथ अपनी ही खुशी है। बावजूद इसके चूंकि 68 साल का लंबा सफर किसी व्यक्ति, समाज, देश और सभ्यता के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखता है अत: विचार करने की आवश्यकता आन पड़ी है कि क्या संविधान लागू होने की खुशी देश के उस वर्ग तक पहुंच सकी है जो कि आज भी अपने आपको उपेक्षित, दबा और कुचला हुआ समेत अपमानित महसूस करते हुए गरीब से गरीबतर मान रहा है? अमीरी-गरीबी और बेरोजगारी के साथ विकास की बात छोड़ भी दें तब भी देखना तो होगा ही कि क्या अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ा वर्ग को हम मुख्यधारा पर लाकर खड़ा करने में सफलता हासिल कर पाए हैं जिसे कि आरक्षण देकर ऊपर उठाने की प्रारंभिक व्यवस्था हमारा संविधान खुद करता है। सरकारी तौर पर व्यवस्थाएं बहुत हैं, योजनाएं भी अनेकानेक हैं लेकिन ईमानदार कोशिश और पूर्ण क्रियान्वयन के आभाव में लाभ उन तक पहुंच ही नहीं पाता है, जिनके लिए ये होती हैं। ठीक वैसे ही जैसे कि महिलाओं को सुरक्षित करने वाले कानूनों की कमी नहीं है, लेकिन उसके बाद भी अत्याधुनिक समाज में महिलाएं ही सबसे ज्यादा प्रताड़ित और शोषित होती हैं। अब तो नौनिहाल बच्चियों का हाल भी बद से बदतर हो चला है। इन्हें न्याय दिलाने की बात जोर-शोर से होती दिखाई देती है, आंदोलन भी खूब होते हैं, लेकिन घटनाएं लगातार बढ़ती चली जाती हैं, जिससे देश की छवि दुनिया में भी खराब होती जा रही है। देश की इस तस्वीर ने एक अहम सवाल और खड़ा किया है और वह यह कि क्या वाकई देश में हमारा संविधान पूरी तरह से लागू है भी या नहीं, क्योंकि यहां तो संविधान की आत्मा भी कराहती हुई नजर आ जाती है। दरअसल आज भी स्त्री या तो भोग्या समझी जाती है या फिर उसे बाजारु समझा जाता है और उसके तन को दिखाकर उत्पादों का विज्ञापन बहुतायत में किया जाता है। ऐसे में स्त्री का देवी रूप पूरी तरह से ओझल होता चला जाता है। घर-परिवार में भी उसकी स्थिति सामान्य से कमतर ही मानी जाती रही है। ऐसे में हमारे देश की उपेक्षित स्त्रियां, कमियों और खामियों के बीच पलते बच्चे और बच्चियों समेत दलित और आदिवासी आज भी संविधान के पूरी तरह से लागू होने का यदि इंतजार करते नजर आते हैं तो यह झूठ नहीं लगता है। यहां भी एक अहम सवाल कि लोकप्रिय एवं सम्मानित संविधान को लागू करने की जिम्मेदारी आखिर किस पर है? क्या सरकार को इसके लिए कोसना सही है, कानून के रखवालों पर लगातार उंगलियां उठाना क्या सही है और न्यायालय की लेट-लतीफी को दोषी करार देना कहां तक सही है? आखिर कब तक यूं ही बिगड़ी व्यवस्था को दुरुस्त करने के नाम पर हम एक-दूसरे पर उंगलियां उठाने का काम करते रहेंगे? इसी के साथ विचारणीय हो जाता है कि देश की कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका तो अपने स्तर पर संविधान को लागू करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखते हैं, लेकिन अगर किसी ने इस ओर से आंख मूंद रखी है तो वह इस देश का असली मालिक आम नागरिक ही है। यदि आमजन इस ओर सजगता से काम करने लगे और खुद संविधान को लागू करने में सिर्फ मदद के तौर पर उन कार्यों को बंद कर दे जिसकी कि इजाजत हमारा संविधान नहीं देता है तो सच मानिए वो दिन दूर नहीं जबकि भारत वाकई दुनिया का सबसे ताकतबर देश साबित हो जाएगा। सौ फीसद यह बात सच है कि हमारा भारतीय संविधान देश को विश्वगुरु बनाने की ताकत रखता है, बशर्ते उसे उस तरीके से लागू किया जाए। अंतत: आमजन गणतंत्र को समझे तो जरुर बात बन सकती है।
भारतीय तिरंगे का इतिहास
जया केतकी
सभी राष्ट्रों के लिए एक ध्वज होना अनिवार्य है। लाखों लोगों ने इस पर अपनी जान न्यौछावर की है। यह एक प्रकार की पूजा है, जिसे नष्ट करना पाप होगा। ध्वज एक आदर्श का प्रतिनिधित्व करता है। यूनियन जैक अंग्रेजों के मन में भावनाएं जगाता है जिसकी शक्ति को मापना कठिन है। अमेरिकी नागरिकों के लिए ध्वज पर बने सितारे और पट्टियों का अर्थ उनकी दुनिया है। इस्लाम धर्म में सितारे और अर्ध चन्द्र का होना सर्वोत्ताम वीरता का आहवान करता है। हमारे लिए यह अनिवार्य होगा कि हम भारतीय मुस्लिम, ईसाई, ज्यूस, पारसी और अन्य सभी, जिनके लिए भारत एक घर है, एक ही ध्वज को मान्यता दें और इसके लिए मर मिटें।
– महात्मा गांधी
स्वयंसेवक स्वतंत्र राष्ट्र का अपना एक ध्वज होता है। यह एक स्वतंत्र देश होने का संकेत है। भारतीय राष्ट्रीय ध्वज की अभिकल्पना पिंगली वैंकैयानन्द ने की थी और इसे इसके वर्तमान स्वरूप में २२ जुलाई १९४७ को आयोजित भारतीय संविधान सभा की बैठक के दौरान अपनाया गया था, जो १५ अगस्त १९४७ को अंग्रेजों से भारत की स्वतंत्रता के कुछ ही दिन पूर्व की गई थी। इसे १५ अगस्त १९४७ और २६ जनवरी १९५० के बीच भारत के राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाया गया और इसके पश्चात भारतीय गणतंत्र ने इसे अपनाया। भारत में `’तिरंगे” का अर्थ भारतीय राष्ट्रीय ध्वज है।
भारतीय राष्ट्रीय ध्वज में तीन रंग की क्षैतिज पट्टियां हैं, सबसे ऊपर केसरिया, बीच में सफेद ओर नीचे गहरे हरे रंग की पट्टी और ये तीनों समानुपात में हैं। ध्वज की चौड़ाई का अनुपात इसकी लंबाई के साथ २ और ३ का है। सफेद पट्टी के मध्य में गहरे नीले रंग का एक चक्र है। यह चक्र अशोक की राजधानी के सारनाथ के शेर के स्तंभ पर बना हुआ है। इसका व्यास लगभग सफेद पट्टी की चौड़ाई के बराबर होता है और इसमें २४ तीलियां है।
तिरंगे का विकास
यह जानना अत्यंत रोचक है कि हमारा राष्ट्रीय ध्वज अपने आरंभ से किन-किन परिवर्तनों से गुजरा। इसे हमारे स्वतंत्रता के राष्ट्रीय संग्राम के दौरान खोजा गया या मान्यता दी गई। भारतीय राष्ट्रीय ध्वज का विकास आज के इस रूप में पहुंचने के लिए अनेक दौरों में से गुजरा। एक रूप से यह राष्ट्र में राजनैतिक विकास को दर्शाता है। हमारे राष्ट्रीय ध्वज के विकास में कुछ ऐतिहासिक पड़ाव इस प्रकार हैं
भारत का वर्तमान तिरंगा ध्वज
प्रथम राष्ट्रीय ध्वज ७ अगस्त १९०६ को पारसी बागान चौक (ग्रीन पार्क) कलकत्ताा में फहराया गया था जिसे अब कोलकाता कहते हैं। इस ध्वज को लाल, पीले और हरे रंग की क्षैतिज पट्टियों से बनाया गया था।
द्वितीय ध्वज को पेरिस में मैडम कामा और १९०७ में उनके साथ निर्वासित किए गए कुछ क्रांतिकारियों द्वारा फहराया गया था (कुछ के अनुसार १९०५ में)। यह भी पहले ध्वज के समान था सिवाय इसके कि इसमें सबस्ो ऊपरी की पट्टी पर केवल एक कमल था किंतु सात तारे सप्तऋषि को दर्शाते हैं। यह ध्वज बर्लिन में हुए समाजवादी सम्मेलन में भी प्रदर्शित किया गया था।
तृतीय ध्वज १९१७ में आया जब हमारे राजनैतिक संघर्ष ने एक निश्चित मोड लिया। डॉ. एनी बीसेंट और लोकमान्य तिलक ने घरेलू शासन आंदोलन के दौरान इसे फहराया। इस ध्वज में ५ लाल और ४ हरी क्षैतिज पट्टियां एक के बाद एक और सप्तऋषि के अभिविन्यास में इस पर बने सात सितारे थे। बांयी और ऊपरी किनारे पर (खंभे की ओर) यूनियन जैक था। एक कोने में सफेद अर्धचंद्र और सितारा भी था।
अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सत्र के दौरान जो १९२१ में बेजवाड़ा (अब विजयवाड़ा) में किया गया यहां आंध्र प्रदेश के एक युवक ने एक झंडा बनाया और गांधी जी को दिया। यह दो रंगों का बना था। लाल और हरा रंग जो दो प्रमुख समुदायों अर्थात हिन्दू और मुस्लिम का प्रतिनिधित्व करता है। गांधी जी ने सुझाव दिया कि भारत के शेष समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए इसमें एक सफेद पट्टी और राष्ट्र की प्रगति का संकेत देने के लिए एक चलता हुआ चरखा होना चाहिए।
वर्ष १९३१ ध्वज के इतिहास में एक यादगार वर्ष है। तिरंगे ध्वज को हमारे राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया गया। यह ध्वज जो वर्तमान स्वरूप का पूर्वज है, केसरिया, सफेद और मध्य में गांधी जी के चलते हुए चरखे के साथ था। तथापि यह स्ग्ठट रूप से बताया गया इसका कोई साम्प्रदायिक महत्व नहीं था और इसकी व्याख्या इस प्रकार की जानी थी।
२२ जुलाई १९४७ को संविधान सभा ने इसे मुक्त भारतीय राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाया। स्वतंत्रता मिलने के बाद इसके रंग और उनका महत्व बना रहा। केवल ध्वज में चलते हुए चरखे के स्थान पर सम्राट अशोक के धर्म चक्र को दिखाया गया। इस प्रकार कांग्रेस पार्टी का तिरंगा ध्वज अंततरू स्वतंत्र भारत का तिरंगा ध्वज बना।
ध्वज के रंग
भारत के राष्ट्रीय ध्वज की ऊपरी पट्टी में केसरिया रंग है जो देश की शक्ति और साहस को दर्शाता है। बीच में स्थित सफेद पट्टी धर्म चक्र के साथ शांति और सत्य का प्रतीक है। निचली हरी पट्टी उर्वरता, वृद्धि और भूमि की पवित्रता को दर्शाती है।
चक्र
इस धर्म चक्र को विधि का चक्र कहते हैं जो तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व मौर्य सम्राट अशोक द्वारा बनाए गए सारनाथ मंदिर से लिया गया है। इस चक्र को प्रदर्शित करने का आशय यह है कि जीवन गतिशील है और रुकने का अर्थ मृत्यु है।
ध्वज संहिता
२६ जनवरी २००२ को भारतीय ध्वज संहिता में संशोधन किया गया और स्वतंत्रता के कई वर्ष बाद भारत के नागरिकों को अपने घरों, कार्यालयों और फैक्टरी में न केवल राष्ट्रीय दिवसों पर, बल्कि किसी भी दिन बिना किसी रुकावट के फहराने की अनुमति मिल गई। अब भारतीय नागरिक राष्ट्रीय झंडे को शान से कहीं भी और किसी भी समय फहरा सकते है। बशर्ते कि वे ध्वज की संहिता का कठोरता पूर्वक पालन करें और तिरंगे की शान में कोई कमी न आने दें। सुविधा की दृष्टि से भारतीय ध्वज संहिता, २००२ को तीन भागों में बांटा गया है। संहिता के पहले भाग में राष्ट्रीय ध्वज का सामान्य विवरण है। संहिता के दूसरे भाग में जनता, निजी संगठनों, शैक्षिक संस्थानों आदि के सदस्यों द्वारा राष्ट्रीय ध्वज के प्रदर्शन के विषय में बताया गया है। संहिता का तीसरा भाग केन्द्रीय और राज्य सरकारों तथा उनके संगठनों और अभिकरणों द्वारा राष्ट्रीय ध्वज के प्रदर्शन के विषय में जानकारी देता है।
२६ जनवरी २००२ विधान पर आधारित कुछ नियम और विनियमन हैं कि ध्वज को किस प्रकार फहराया जाएरू
क्या करें
– राष्ट्रीय ध्वज को शैक्षिक संस्थानों (विद्यालयों, महाविद्यालयों, खेल परिसरों, स्काउट शिविरों आदि) में ध्वज को सम्मान देने की प्रेरणा देने के लिए फहराया जा सकता है। विद्यालयों में ध्वज आरोहण में निष्ठा की एक शपथ शामिल की गई है।
– किसी सार्वजनिक, निजी संगठन या एक शैक्षिक संस्थान के सदस्य द्वारा राष्ट्रीय ध्वज का अरोहणध्प्रदर्शन सभी दिनों और अवसरों, आयोजनों पर अन्यथा राष्ट्रीय ध्वज के मान सम्मान और प्रतिष्ठा के अनुरूप अवसरों पर किया जा सकता है।
-‘ नई संहिता की धारा २ में सभी निजी नागरिकों अपने परिसरों में ध्वज फहराने का अधिकार देना स्वीकार किया गया है।
क्या न करें
– इस ध्वज को सांप्रदायिक लाभ, पर्दें या वस्त्रों के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता है। जहां तक संभव हो इसे मौसम से प्रभावित हुए बिना सूर्योदय से सूर्यास्त तक फहराया जाना चाहिए।
-इस ध्वज को आशय पूर्वक भूमि, फर्श या पानी से स्पर्श नहीं कराया जाना चाहिए। इसे वाहनों के हुड, ऊपर और बगल या पीछे, रेलों, नावों या वायुयान पर लपेटा नहीं जा सकता।
– किसी अन्य ध्वज या ध्वज पट्ट को हमारे ध्वज से ऊंचे स्थान पर लगाया नहीं जा सकता है। तिरंगे ध्वज को वंदनवार, ध्वज पट्ट या गुलाब के समान संरचना बनाकर उपयोग नहीं किया जा सकता।
भारतीय राष्ट्रीय ध्वज भारत के नागरिकों की आशाएं और आकांक्षाएं द र्शाता है। यह हमारे राष्ट्रीय गर्व का प्रतीक है। पिछले पांच दशकों से अधिक समय से सशस्त्र सेना बलों के सदस्यों सहित अनेक नागरिकों ने तिरंगे की पूरी शान वâो बनाए रखने के लिए निरंतर अपने जीवन न्यौछावर किए हैं।
पाठशालाओं में लिखी जा रही खून की इबारत
-प्रमोद भार्गव
यह सच्चाई कल्पना से परे लगती है कि विद्या के मंदिरों में पढ़ाई जा रही किताबें हिंसा की रक्त रंजित इबारत भी लिखेंगी ? अलबत्ता हैरत में डालने वाली बात यही है कि ये हृदयविदारक घटनाएं एक हकीकत के रूप में सिलसिलेबार सामने आ रही हैं। गुरूग्राम के रेयान इंटरनेशनल स्कूल के छात्र प्रद्युम्न की हत्या में इसी स्कूल का एक रहीशजादे का बिगड़ैल पुत्र हत्यारा निकला। इसने केवल परीक्षा टालने की मंशा से हत्या की थी। लखनउ के ब्राइटलैंड स्कूल में 11 साल की छात्रा ने पहली कक्षा में पढ़ने वाले छात्र पर चाकू से जानलेवा हमला, सिर्फ इसलिए किया, जिससे स्कूल में छुट्टियां हो जाएं। तीसरी घटना हरियाणा के यमुनानगर स्थित स्वामी विवेकानंद विद्यालय में घटी है। इस स्कूल में 12वीं कक्षा के छात्र शिवांश ने प्राचार्या रितु छावड़ा की हत्या, महज इसलिए कर दी क्योंकि उसे अनुशासनहीनता व काम न करने के कारण प्राचार्या ने निष्कासित कर दिया था। यह हत्या उस समय की गई जब अध्यापक-अभिभावक संघ की बैठक चल रही थी। आरोपी छात्र ने अपने पिता की लाइसेंसी रिवॉल्वर से प्राचार्या की हत्या की।
ये वह विद्यालय हैं, जो विश्वस्तरीय शिक्षा देने का दावा करते हैं। ये शहर भी वैश्विक संस्कृति की आदर्श श्रेणी में आ चुके हैं और साइबर सिटी का मुहाबरा बन जाने का दंभ भरते हुए स्मार्ट शहर की हुंकार भर रहे हैं। लेकिन शिक्षा की जो परिणति देखने में आ रही है, उससे तो लगता है हम अंधकार युग की ओर बढ़ रहे हैं। कुलीन बच्चों को विद्यार्जन कराने वाले इन विद्यालयों में छात्र हिंसा से जुड़ी ऐसी घटनाएं पहले अमेरिका जैसे विकसित देशों में ही देखने में आती थीं, लेकिन अब भारत जैसे विकासशील देशों में भी क्रूरता का यह सिलसिला चल निकला है। हालांकि भारत का समाज अमेरिकी समाज की तरह आधुनिक नहीं है कि जहां पिस्तौल अथवा चाकू जैसे हथियार रखने की छूट छात्रों को हो। अमेरिका में तो ऐसी विकृत संस्कृति पनप चुकी है, जहां अकेलेपन के शिकार एवं मां-बाप के लाड-प्यार से उपेक्षित बच्चें घर, मोहल्ले और संस्थाओं में जब-तब पिस्तौल चला दिया करते हैं।
पिछले एक दशक में छात्र-हिंसा से जुड़ी अनेक वारदातें सामने आई हैं। रैंगिग से जुड़ी एकाध गंभीर घटना को छोड़ भी दें तो बाकी सभी घटनाएं पढ़ाई से उकताने की स्थिति को प्रकट करती हैं। रैंगिग के बहाने छात्र-हिंसा यौन उत्पीड़न के रूप में भी देखने में आई है। केरल के एक नर्सिंग कॉलेज में तो रैंगिग के बहाने बलात्कार की घटना भी सामने आई थी। इस घटना ने शिक्षा में मूल्यों के चरम बहिष्कार को रेखांकित कर दिया था। अंग्रेजी में पूर्ण दक्षता नहीं रखने वाले आईआईटी के छात्रों को भी रैगिंग के बहाने अपमान के दंश झेलने पड़ रहे हैं। रैंगिग के शिकार कई छात्रों ने कुण्ठा और अवसाद के दायरे में आकर आत्महत्या को ही गले लगा लिया। ऐसे छात्रों के साथ आर्थिक और शैक्षिक असमानता भी हिंसक कारणों की वजह बन रही है। बच्चों को केवल धन कमाऊ कैरियर के लायक बना देने वाली प्रतिस्पर्धा का दबाव भी उन्हें विवेक शून्य बनाकर हिंसक और कामुक हरकतों की ओर धकेल रहा है ? समाजिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ये ऐसे गंभीर कारण हैं, जिनकी पड़ताल जरूरी है।
आज अभिभावकों की अतिरिक्त व्यस्तता और एकांगिकता जहां बच्चों के मनोवेगों की पड़ताल नहीं करने के लिए दोषी है, वहीं विद्यालय नैतिक और संवेदनशील मूल्य बच्चों में रोपने से सर्वथा चूक रहे हैं। छात्रों पर विज्ञान, गणित और वाणिज्य विषयों की शिक्षा का बेवजह दबाव भी बर्बर मानसिकता विकसित करने के लिए दोषी हैं। आज साहित्यिक शिक्षा पाठ्यक्रमों में कम से कमतर होती जा रही है। जबकि साहित्य और समाजशास्त्र ऐसे विषय हैं, जो समाज से जुड़े सभी विषयों और पहलुओं का वास्तविक यथार्थ प्रकट कर बाल-मनों में संवेदनशीलता का स्वाभाविक सृजन करते है। साथ ही सामाजिक विषंगतियों भी परिचत कराते हैं। इससे हृदय की जटिलता टूटती है और सामाजिक विषंगतियों को दूर करने के कोमल भाव भी बालमनों में अंकुरित होते हैं। महान और अपने-अपने क्षेत्रों में सफल व्यक्तियों की जीवन-गाथाएं (जीवनियां) भी व्यक्ति में संघर्ष के लिए जीवटता प्रदान करती हैं। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे यहां ऐसा कोई पाठ्यक्रम पाठशालाओं में नहीं है, जिसमें कामयाब व्यक्ति की जीवनी पढ़ाई जाती हो ? जीवन-गाथाओं में जटिल परिस्थितियों से जूझने एवं उलझनों से मुक्त होने के सरल, कारगर और मनोवैज्ञानिक उपाय भी होते हैं।
भूमण्डलीकरण के आर्थिक उदारवादी दौर में हम बच्चों को क्यों नहीं पढ़ाते कि संचार तकनीक और ईंधन रसायनों का जाल बिछाए जाने की बुनियाद रखने वाले धीरूभाई अंबानी कम पढ़े लिखे एवं साधारण व्यक्ति थे। वे पेट्रोल पंप पर वाहनों में पेट्रोल डालने का मामूली काम करते थे। इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति ने अपने व्यवसाय की शुरूआत मात्र दस हजार रूपए की छोटी-सी रकम से की थी और आज अपनी व्यावसायिक दक्षता के चलते अरबों का कारोबार कर रहे हैं। दुनिया में कम्प्यूटर के सबसे बड़े उद्योगपति बिल गेट्स पढ़ने में औसत दर्जे के छात्र थे ? कामयाब लोगों के शुरूआती संघर्ष को पाठ्यक्रमों में स्थान दिया जाए तो पढ़ाई में औसत हैसियत रखने वाले छात्र भी हीनता-बोध की उन ग्रंथियों से मुक्त रहेंगे, जो अवचेतन में क्षोभ, अवसाद और हिंसक प्रवृत्ति के बीज अनजाने में ही बो देती हैं। नतीजतन छात्र तनाव व अवसाद के दौर में विवेक खोकर हत्या, आत्महत्या अथवा बलात्कार जैसे गंभीर आपराधिक कारनामे कर डालते हैं। वैसे भी सफल एवं भिन्न पहचान बनाने के लिए व्यक्तित्व में दृढ़ इच्छाशक्ति और कठोर परिश्रम की जरूरत होती है, जिसका पाठ केवल कामयाब लोगों की जीवनियों से ही सीखा जा सकता है।
शिक्षा को व्यवसाय का दर्जा देकर निजी क्षेत्र के हवाले छोड़कर हमने बड़ी भूल की है। ये प्रयास शिक्षा में समानता के लिहाज से बेमानी हैं। क्योंकि ऐसे ही विरोधाभासी व एकांगी प्रयासों से समाज में आर्थिक विषमता बढ़ी है। यदि ऐसे प्रयासों को और बढ़ावा दिया गया तो विषमता की यह खाई और बढ़ेगी ? जबकि इस खाई को पाटने की जरूरत है। यदि ऐसा नहीं किया गया तो शिक्षा केवल धन से हासिल करने का हथियार रह जाएगी। जिसके परिणाम कालांतर में और भी घातक व विस्फोटक होंगे। समाज में सवर्ण, पिछड़े, आदिवासी व दलितों के बीच आर्थिक व सामाजिक मतभेद बढ़ेंगे जो वर्ग संघर्ष के हालातों को आक्रामक व हिंसक बनाएंगे। यदि शिक्षा के समान अवसर बिना किसी जातीय, वर्गीय व आर्थिक भेद के सर्वसुलभ होते हैं तो छात्रों में नैतिक मूल्यों के प्रति चेतना, संवेदनशीलता और पारस्परिक सहयोग व समर्पण वाले सहअस्तित्व का बोध पनपेगा, जो सामाजिक न्याय और सामाजिक संरचना को स्थिर बनाएगा।
वैसे मनोवैज्ञानिकों की मानें तो आमतौर से बच्चें आक्रामकता और हिंसा से दूर रहने की कोशिश करते हैं। लेकिन घरों में छोटे पर्दे और मुट्ठी में मोबाइल स्क्रीन पर परोसी जा रही हिंसा और सनसनी फैलाने वाले कार्यक्रम इतने असरकारी साबित हो रहे हैं कि हिंसा का उत्तेजक वातावरण घर-आंगन में विकृत रूप लेने लगा है, जो बालमनों में संवेदनहीनता का बीजारोपण कर रहा है। मासूम और बौने से लगने वाले कार्टून चरित्र भी पर्दे पर बंदूक थामे दिखाई देते हैं, जो बच्चों में आक्रोश पैदा करने का काम करते हैं। लिहाजा छोटे पर्दे पर लगातार दिखाई जा रही हिंसक वारदातों के महिमामंडन पर अंकुश लगाया जाना जरूरी है। यदि बच्चों के खिलौनों का समाजशास्त्रीय एवं मनोवैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया जाए तो हम पाएंगे की हथियार और हिंसा का बचपन में अनाधिकृत प्रवेश हो चुका है।
सबसे ज्यादा नकारात्मक बात यह है कि हमने न तो पारंपरिक ज्ञान-विज्ञान को उपयोगी माना और न ही शिक्षा के सिलसिले में महात्मा गांधी व गिजुभाई बधेका जैसे शिक्षाशास्त्रियों के मूल्यों को तरजीह दी। शिक्षा आयोगों की नसीहतों को भी आज तक अमल में नहीं लाया गया। अभी भी यदि हम वैश्विक संस्कृति और अंग्रेजी शिक्षा के मोह से उन्मुक्त नहीं होते हैं तो शिक्षा परिसरों में हिंसक घटनाओं में और इजाफा होगा ? इनसे निजात पाना है तो जरूरी है कि तनावपूर्ण स्थितियों में सामंजस्य बिठाने, महत्वाकांक्षा को तुष्ट करने और चुनौतियों से सामना करने के कौशल को शैक्षिक पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए और गांधी व गिजुभाई के सिद्धांतों को शिक्षा का मानक माना जाए। गुरूजन भी अकादमिक उपलब्धियों के साथ बाल मनोविज्ञान का पाठ पढ़ें ? इसे भक्त कवि सूरदास की कृष्ण की बाल लीलाओं से भी सीखा जा सकता है। जिससे शिक्षक बालकों के चेहरे पर उभरने वाले भावों से अंतर्मन खंगालने में दक्ष हो सकें ?