तेल से नये वैश्विक समीकरण
अजित वर्मा
यह देखना आश्चर्यजनक है कि ओपेक में बनी सहमति के तहत तेल के उत्पादन में 10 लाख बैरल की वृद्धि से विश्व बाज़ार में क़ीमतों में स्थिरता आने के दावों के बीच भ्रम फैल रहा है। किस तरह अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प द्वारा लगातार किए जा रहे ट्विट संदेशों के कारण अंतर्राष्ट्रीय तेल मंडी में पूरी दुनिया में कहा जा रहा है कि ट्रम्प अपने ग़ैर-ज़िम्मेदाराना बयानों के कारण अंतर्राष्ट्रीय तेल मंडी में अस्थिरता पैदा करके तेल की क़ीमतों में और अधिक वृद्धि रास्ता साफ़ कर रहे हैं।
विश्व बाजार में तेल के कारण मच रही आपा-धापी के पीछे अमेरिका द्वारा ईरान पर आरोपित प्रतिबंध भी बड़ा कारण है। लेकिन अब अमेरिकी प्रतिबंधों के खिलाफ ईरान के पक्ष में आ खड़ हुए रूस ने कहा है कि इस्लामी गणतंत्र ईरान को अंतर्राष्ट्रीय तेल बाज़ार से अलग नहीं किया जा सकता है और हमारी नीतियों का मुख्य सिद्धांत यह है कि सभी तेल उत्पादक देश एक साथ चलें। रूस के वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री मक्सिम ओरेशकीन ने पिछले दिनों सूची में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा है कि ईरान पर अमेरिका द्वारा एकपक्षीय रूप से लगाये गये प्रतिबंध अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों का खुला उल्लंघन है।
उन्होंने कहा कि दुनिया भर के देशों को सचेत किया कि अगर ईरान को तेल की मंडी से अलग कर दिया गया तो तेल की क़ीमत 100 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच जाएगी। ओरेशकीन ने कहा कि ऐसी परिस्थिति में सभी देशों को आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ेगा।
इससे पहले 15 अक्टूबर सोमवार को मास्को में ईरान के पेट्रोलियम मंत्री बीजन नामदार ज़ंगने ने रूस के ऊर्जा मंत्री अलैग्ज़ैंडर नोवाक के साथ मुलाक़ात में विश्व बाज़ार में तेल की ताज़ा स्थिति पर विचार विमर्श किया था और दोनों देशों के अधिकारियों ने ऊर्जा के क्षेत्र में ईरान और रूस के बीच सहयोग में विस्तार पर भी बल दिया था।
इस बीच अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका विरोधी मोर्चेबन्दी की आशंकाओं को बल देते हुए रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने कहा है कि उनका देश साझा हितों की सुरक्षा और वैश्विक शांति एवं विकास के लिए चीन के साथ समन्वय और सहयोग बढ़ाने के लिए तैयार है। दोनों देशों के बीच उच्चस्तर की समग्र रणनीतिक साझेदारी निरन्तर बढ़ रही है। रूस सभी स्तरों पर संपर्क बनाए रखने और सभी क्षेत्रों में व्यावहारिक सहयोग बढ़ाने के लिए चीन के साथ संयुक्त प्रयासों के इच्छुक हैं। हम लम्बे अर्से से यह सम्भावना जताते रहे हैं कि रूस -चीन-ईरान का गठबन्धन आकार ले सकता है। यह बात भारत के लिए भी महत्वपूर्ण है।
जाहिर है कि अपने हितों के लिए भारत को भी सक्रिय होना पड़ेगा। भारत के लिए ईरान तेल आपूर्ति का बड़ा स्रोत है। नहीं भूलना चाहिए कि भिन्न-भिन्न कारणों से सउदी अरब और अमेरिका के बीच भी तनातनी बढ़ रही है। भारत के लिए यह अमेरिका और रूस -चीन के समानान्तर संतुलनकारी भूमिका अपनाना जरूरी है।
ज्यादा तनाव भी घातक
डॉक्टर अरविन्द जैन
तनाव हमारी सदी का सबसे बड़ा अभिशाप हैं। इससे सब परिचित हैं और करीब करीब सभी इसके शिकंजे में हैं। ग़लतफ़हमी तनाव की माँ हैं और असंतोष इसका पिता ,आशंका इसका कारण हैं ,विक्षोभ और असंतोष परिणाम।
यह संस्कृत की “तन” धातु की संतान हैं इससे कई शब्द बने हैं जिसमे तान और तनाव विशेष हैं। तान लय को कहते हैं खाट या पलंग पर जो रस्सियां कसी जाती हैं ,उस सारे जाल को तान कहते हैं। ऐसा ही जटिल नसों और मांस पेशियों का जाल बिछा हैं इस तन में। जब इसमें खिचाव ,या कसाव होता हैं तब हम व्यग्रता महसूस करते हैं और जब शिथिल होता हैं तब हम शांति और सुख का अनुभव करते हैं। इस तरह तनाव का सीधा अर्थ हुआ मन का ऐसे असमंजस में फंस जाना की तन की नस नस तन जाये और पेशियाँ एक अजीब से कसाव में आ जाए ,चारो और बैचेनी छ जाए और चित्त लगभग विक्षिप्त हो उठे।
तनाव को प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण मानसिक या भावनात्मक तनाव की स्थिति के रूप में परिभाषित किया जाता है। ज्यादा तनाव लेना कई बीमारियों की जननी के रूप में जाना जाता है। जीर्ण तनाव आपके शरीर के लगभग सभी अंगों को प्रभावित कर सकती है।
ज्यादा तनाव लेने पर इसका असर आपके चेहरे पर मुंहासे के रूप में दिखाई देता है। तनाव की वजह से हार्मोन में बदलाव होता है जो मुहांसों का कारण है। आपको बता दें कि शरीर में जरूरत से ज्यादा टॉक्सिन तत्व जमा होने से हो एक्ने या मुंहासे हो सकते हैं। कई अध्ययनों ने यह भी पुष्टि की है कि मुंहासे तनाव के उच्च स्तर से जुड़ा हो सकता है।
शरीर के किसी भी अंग में भयंकर उठने वाले दर्द को क्रोनिक पेन कहा जाता है। दर्द और पीड़ा एक आम शिकायत है जो तनाव के स्तर को बढ़ा सकती है। कई अध्ययनों से पता चला है कि तनाव हार्मोन कार्टिसोल का बढ़ा हुआ स्तर क्रोनिक पेन से जुड़ा हुआ है।
नियमित रूप से होने वाला सिरदर्द भावनात्मक तनाव, थकान व शोरगुल से भी हो सकता है। तनाव सिरदर्द के लिए एक आम ट्रिगर है। कई अध्ययनों से पता चला है कि तनाव सिरदर्द को बढ़ा सकता है। सिर या गर्दन के क्षेत्र में ये दर्द ज्यादा होता है। ऐसे दर्द अक्सर तनाव की लंबी अवधि से संबंधित होते हैं!
अनिद्रा से ग्रसित कुछ लोग अक्सर रात में नींद न आने और पूरी रात जागने की शिकायत कर सकते हैं। यह समस्या तनाव से शुरू हो सकती है। पुरानी थकान और कम ऊर्जा के स्तर भी लंबे समय तक तनाव का कारण हो सकती है। तनाव भी नींद को बाधित कर सकता है और अनिद्रा का कारण बन सकता है, जिससे शरीर को भरपूर ऊर्जा नहीं मिलती है।
आप ज्यादा तनाव ले रहे हैं इसका एक संकेत यह है कि आपको बिना कुछ किए ज्यादा पसीना आएगा। आपको बता दें कि शरीर को अतिरिक्त तनाव में शरीर के तापमान को सामान्य बनाए रखने के लिए अधिक पसीना आता है। अत्यधिक पसीना चिंता, थकावट, थायराइड की स्थिति और कुछ दवाओं के उपयोग के कारण हो सकता है।
दिल हमारे शरीर का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। हमारी जिंदगी तभी तक है जब तक हमारे दिल की धड़कन चल रही है। तेज दिल की धड़कन और हृदय गति में वृद्धि उच्च तनाव के स्तर के लक्षण भी हो सकता है। कई अध्ययनों से पता चला है कि उच्च तनाव के स्तर में तेजी दिल के तेज धड़कने से जुड़ा हुआ है। इसके अलावा दिल की बीमारी और पक्षाघात के लिए तनाव को दोषी ठहराया जाता है।
कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि जीर्ण अवसाद के विकास में योगदान दे सकती है। अवसाद के अलावा तनाव को बढ़ाने में संभावित योगदानकर्ताओं में पारिवारिक इतिहास, हार्मोन स्तर, पर्यावरणीय कारक और यहां तक कि कुछ दवाएं भी शामिल हैं।
ज्यादा तनाव लेने से भूख में परिवर्तन आम हैं। इसमें भूख बहुत ही कम लगने लगती है। कई लोग ऐसे भी होते हैं जब वो तनाव में होते हैं तो उन्हें बहुत ज्यादा भूख लगती है।
तनाव हमें भीतर से विखंडित कर देता हैं ,हमारी जीवनी शक्ति को मटियामेट कर देती हैं ,रिश्तों को असंतुलित का देता हैं ,हमारी शेष उम्र में घुन की तरह लग जाता हैं और यदि हम इसके बखिये उधेड़ कर देखें तो पाएंगे की वस्तुतः यह कुछ नहीं हैं ,मात्र एक मरीचिका हैं जिसने इसे जनमा हैं। यदि हम इस वैयक्तिक और सामाजिक जहर से जूझ पाए तो देखेंगे की ऐसा कोई कारण नहीं हैं की हमारा समग्र वैयिक्तक ,पारिवारिक और सामाजिक जीवन शांत ,सुखद ,संतुलित ,संतुष्ट और समृद्ध न हो।
इसका इलाज़ औषधि के अलावा हमारी सोच समझ को बदलना होगा। इसका प्रभाव शरीर पर पहले पड़ता है और मन अवसाद ग्रसित होने लगता हैं।
सीबीआई काण्ड – पिंजरे के तोते रे….. तेरा दरद न जाए कोय….!
ओमप्रकाश मेहता
देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की साख उस समय भी इतनी नहीं गिरी थी, जब सर्वोच्च न्यायालय ने इस जांच एजेंसी को ‘पिंजरे के तोते’ की संज्ञा दी थी, जितनी कि अब इस संगठन के दो सर्वोच्च अधिकारियों की ‘जूतम् पैजार’ से गिरी। पूरे देश की जनता जानती है कि सीबीआई पर वास्तविक नियंत्रण सत्तारूढ़ दल व उसके प्रधानमंत्री का ही होता है और उन्हीं के निर्देश पर यह संगठन काम करता है, सिर्फ कहने को इसका स्वरूप स्वतंत्र बताया जाता है और इसके शीर्षस्थ अधिकारी की नियुक्ति व चयन प्रतिपक्षी दल के नेता और सतर्कता आयोग के साथ अन्य विशेषज्ञों व संवैधानिक पदों पर विराजित हास्तियों की आम सहमति से होता है, नियुक्ति के बाद इस संगठन के प्रमुख को करना वहीं सब पड़ता है, जो सरकार प्रधानमंत्री या सत्तारूढ़ दल की मुखिया चाहता है। यदि इनके ‘हुकूम’ की ‘उदूली’ की तो फिर सर्वोच्च पद पर विराजित शख्स पद पर ज्यादा समय टिक नहीं सकता। इसीलिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी राफेल काण्ड के बारे में सीबीआई प्रमुख द्वारा सरकार से पूछताछ के फलस्वरूप सर्वोच्च पदासीन अधिकारी के पद से हटाने का आरोप लगा रहे है।
जहाँ तक सीबीआई के दो शीर्षस्व अधिकारियों संचालक, अमन वर्मा और विशेष संचालक, राकेश अस्थाना के बीच अनबन का सवाल है, वह कोई नई नहीं बहुत पुरानी है, जब अमन वर्मा ने संचालक का पद सम्हाला तब राकेश अस्थाना सहायक निदेशक थे, अमन वर्मा के निदेशक रहते जब राकेश अस्थाना के प्रमोशन की फाईल चली, तब अमन वर्मा ने लिखित नोटशीट के माध्यम से इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए आपत्ती दर्ज कराई थी, लेकिन इसके बावजूद अपनी राजनीतिक पहुंच के बल पर अस्थाना विशेष निदेशक के पद पर पदोन्नत हो गए। इसलिए अमन और राकेश के बीच अनबन नई नहीं है।
देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी सीबीआई के पास आज की स्थिति में एक लाख से अधिक जांच के मामले लम्बित है, न्यायालय की तरह यहां भी मामले कई बार वर्षों चलते रहते है, हर बार कहा यही जाता है कि जांच अमले की कमी के कारण काम लंबित हो रहा है। फिर राज्ये सरकारों व राजनैतिक दलों का भी यह एक जुमला बन गया है कि ‘‘इस काण्ड की जांच सीबीआई से कराई जाए’’। मतलब यह कि देश में न्यायालय की तरह इस जांच एजेंसी पर देश के अवाम् का भरोसा कायम है। राजनीतिक प्रतिद्वन्दिताओं के चलते भी कई मामले राज्य सरकारें सीबीआई को जांच के लिए भेज देती है। इस प्रकार कुल मिलाकर सीबीआई की जांच पर अवाम् को भरोसा है, किंतु इस काण्ड ने जनविश्वास व भरोसे को काफी ठेंस पहुंचाई है, खासकर करोड़ों की रिश्वत के आरोपों ने। यदि देश में बड़े भ्रष्टाचारों व अपराधों की जांच करने वाली सर्वोच्च एजेंसी के शीर्षस्थ अधिकारी ही रिश्वत काण्ड के आरोपों में लिप्त पाए जाएगें तो फिर देश का अवाम् विश्वास किस पर करेंगा? इस तरह इस काण्ड ने सीबीआई पर एक बड़ा ‘धब्बा’ लगा दिया है व इसकी साख चूर-चूर होकर रह गई है।
सही और वास्तविकता तो यह है कि आज ऐसा कोई संगठन या संवैधानिक संगठन ऐसा नहीं रह गया जिसमें राजनीति ने प्रवेश न किया हो, फिर वह चाहे कार्यपालिका हो या विधायिका अथवा न्यायपालिका। आज राजनीति प्रजातंत्र के स्तंभों में भी समाहित हो गई है। अब ऐसे देश की आम जनता अपनी समस्याओं के निराकरण के लिए किसके पास जाए? व किससे न्याय की उम्मीद करें?
यह एक गंभीर सवाल है, जिसका जवाब वर्तमान संदर्भों में जिम्मेदार हस्तियों को देना होगा और वह भी सर्वमान्य व समाधान कारक।
शबरीमाला: तनाव की जिम्मेदारी किसकी?
(अजित वर्मा)
सदियों साल पुराने केरल के सुप्रसिद्ध धर्मस्थल शबरीमाला में आज भारी तनाव है हिंसा की आशंका है, क्योंकि शिवसेना की महिला कार्यकर्ता वहाँ पंबा नदी में आत्महत्या करने की चेतावनी दे रही हैं। शिवसेना की केरल इकाई ने चेताया है कि अगर महिलाओं ने साबरीमाला मंदिर में प्रवेश किया तो बड़ी संख्या में आत्महत्याएं होंगी। शिवसेना के एक सदस्य पेरिंगामाला ने मीडिया से बातचीत के दौरान बताया कि हमारी महिला कार्यकर्ता पंबा नदी के किनारे आत्महत्या के लिए 17 और 18 अक्टूबर को इक_ा होंगी। अगर किसी भी युवा महिला ने मंदिर में प्रवेश करने की कोशिश की, तो हमारी कार्यकर्ताआत्महत्या कर लेंगी। सबरीमाला में सभी उम्र की महिलाओं का प्रवेश खोल देने का फैसला तो सुप्रीम कोर्ट ने दे दिया, लेकिन अब केरल में आग भड़क रही है।
इस फैसले के आने के बाद केरल में इस फैसले को लेकर बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए हैं। इस फैसले का विरोध करने वालों में कई महिलाएं भी शामिल हैं। ये महिलाएं मंदिर में प्रवेश करने से खुद इनकार कर रही हैं। हालाँकि मुख्यमंत्री पी विजयन ने कहा है कि उनकी सरकार कोर्ट के फैसले का पालन करेगी। 28 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला मंदिर में हर उम्र की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति दे दी थी।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ भाजपा और कांग्रेस ने भी मोर्चा साध लिया है। वहाँ संघर्ष की स्थिति निर्मित हो गई है। मन्दिर में प्रवेश करने के लिए जहाँ बसों में भर-भर कर महिलाओं को भेजा जा रहा है, वहीं इन महिलाओं को रोकने के लिए जुटी भीड़ उन्हें खदेड़ रही है।
धर्मस्थल पर तनाव और अशांति के इस कृत्रिम उभार के लिए जिम्मेदार कौन है। अगर एक धर्मस्थल की मर्यादा है तो उसे अनावश्यक रूप से समानता के नाम पर कानूनन भंग किया जाना अपने आप में एक नासमझी है। ऐसा दमनकारी कृत्य तो मुगलों और अंग्रेजों ने भी नहीं किया। अगर बदलाव लाया ही जाना है तो समझा-बुझा कर तर्क के सहारे लोगों में चेतना जागृत करके लाया जाना चाहिए। नासमझी भरी कार्यवाही वांछित नहीं है।
सीबीआई: अनाड़ीपन
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
तीन दिन पहले मैंने लिखा था कि केंद्रीय जांच ब्यूरो के दोनों झगड़ालू अफसरों- आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना– को छुट्टी पर भेज दिया जाए और सारे मामले की निष्पक्ष जांच करवाई जाए। सरकार ने यह काम उसी रात कर दिखाया लेकिन जैसा कि वह प्रायः करती रहती है, इस मामले में भी उसने अपना अनाड़ीपन दिखा दिया। सीबीआई के मुखिया को लगाने और हटाने का अधिकार न तो प्रधानमंत्री को है, न गृहमंत्री को है और न ही केंद्रीय निगरानी आयोग को है। यह अधिकार कानून के मुताबिक उस कमेटी को है, जो प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और संसद में विपक्ष के नेता को मिलाकर बनती है। आलोक वर्मा, जो कि केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के मुखिया है, उन्हें इस कमेटी की राय के बिना ही छुट्टी पर भेज दिया गया है। अब वर्मा ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा दिया है। जाहिर है कि सरकार को वहां मुंह की खानी पड़ेगी, हालांकि सरकार कह सकती है कि वर्मा को हटाया नहीं गया है, सिर्फ छुट्टी पर भेजा गया है। इतना ही नहीं, सरकार ने न. 2 अफसर राकेश अस्थाना को भी छुट्टी पर भेज दिया है लेकिन उनकी जांच कर रहे दर्जन भर अफसरों का भी तबादला कर दिया है और उनकी जगह ऐसे अफसरों को नियुक्त कर दिया है, जिनकी निर्भयता और निष्पक्षता पर पहले ही प्रश्नचिन्ह लग चुके हैं। कुल मिलाकर सरकार ने मध्य-रात्रि में तत्काल कार्रवाई की और दोनों शीर्ष अफसरों के दफ्तरों को सील कर दिया, जो कि सराहनीय है लेकिन अस्थाना की जांच कर रहे एक वरिष्ठ अफसर को अंडमान-निकोबार तबादला कर दिया गया है। वहां किसी अफसर को भेजने का अर्थ क्या होता है, यह हमारे नेताओं को क्या पता नहीं है ? इसका अर्थ है, सजा। क्या इस अफसर को यह सजा इसलिए दी गई है कि वह गुजरात केडर के राकेश अस्थाना के भ्रष्टाचार के पुराने कारनामों को उजागर कर रहा था। ऐसा करने से नेताओं की बदनामी होगी, यह उन्हें पता है लेकिन इसके बावजूद इस रामभरोसे सरकार ने यह जिम्मेदारी अफसर भरोसे छोड़ दी है, ऐसा लगता है। कांग्रेसी नेता राहुल गांधी का कहना है कि आलोक वर्मा रेफल सौदे की जांच पर अड़े हुए थे, इसीलिए उनके खिलाफ यह कार्रवाई की गई है और सरकार गुजरात केडर के अस्थाना को बचाने में जुटी हुई है। यदि राहुल अपनी बात के लिए कुछ ठोस प्रमाण जुटा पाए तो सरकार के लिए संसद का यह शीतकालीन सत्र बहुत ज्यादा गर्मी पैदा कर देगा।
राममन्दिर पर अध्यादेश; संघ का आदेश या अनुरोध…? ओमप्रकाश मेहता
अब ऐसा लगने लगा है कि अयोध्या में राममंदिर निर्माण को लेकर भारतीय जनता पार्टी के संरक्षक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ सहित सभी भाजपा के अनुषांगी हिन्दू संगठनों के सब्र का बांध अब टूटता नजर आ रहा है, क्योंकि इनकी उम्मीद थी कि केन्द्र में उनकी अपनी सरकार है और इसी सरकार के कार्यकाल में राममंदिर, कश्मीर से धारा-370 की समाप्ति, कश्मीरी पण्डितों की कश्मीर वापसी व हिन्दू राष्ट्र जैसी सभी उम्मीदें पूरी हो जाएगी, किंतु अब चूंकि इस सरकार का सिर्फ छ: महीनें का ही कार्यकाल शेष बचा है इसलिए संघ सहित सभी हिन्दू संगठनों की अधीरता बढ़ती जा रही है और अब शिवसेना, संघ, विश्व हिन्दू परिषद सहित सभी दल व संगठन अपनी ही सरकार के खिलाफत में खड़े होने लगे है, शिवसेना जहां खुलकर भाजपा के सामने आ गई है, वहीं संघ प्रमुख डॉ. मोहनराव भागवत ने भी अपने दशहरें के महत्वपूर्ण सम्बोधन के माध्यम से मोदी सरकार को राममंदिर निर्माण को लेकर अध्यादेश लाने का संदेश दे दिया है, अब इस संदेश को आदेश माना जाए या अनुरोध, यह सरकार पर निर्भर है, लेकिन फिलहाल तो ऐसा ही लगता है कि सरकार व संगठन के मुखिया संघ के संदेश को अनुरोध ही मानकर उसे ठुकरा रहे है और कह रहे है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का इंतजार किया जाएगा, किंतु संघ व उसके साथी हिन्दू संगठनों को आशंका है कि अगले लोकसभा चुनाव तक कोर्ट का फैसला आना नहीं है, और उसके बाद जरूरी नहीं कि इसी सरकार की पुनरावृत्ति हो? और मंदिर का मामला फिर अटक जाएगा? इस माहौल को देखते हुए अब संघ परिवार व अन्य संगठनों द्वारा यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि अपना अनुरोध ठुकरा दिए जाने के कारण संघ विधानसभा व लोकसभा चुनाव प्रचार से कन्नी काटने जैसा सख्त कदम उठा सकता है तथा विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल आदि भी विरोध का शंखनाद कर सकते है, जहां तक शिवसेना का सवाल है, वह तो पहले से ही भाजपा के खिलाफ राजनीतिक रणक्षेत्र में खड़ी है?
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि यद्यपि केन्द्र सरकार उम्मीद लगाए बैठी है कि सुप्रीम कोर्ट जल्द ही अयोध्या मंदिर विवाद पर फैसला सुना देगा, किंतु केन्द्र शायद यह भूल गया कि सुप्रीम कोर्ट प्रतिदिन इस मामले में सुनवाई का अनुरोध पहले ही ठुकरा चुका है, इसलिए जरूरी नहीं कि इस विवाद पर कोर्ट का फैसला अगले तीन-चार महीने में आ जाए?
इसके साथ ही यहां यह भी उल्लेखनीय है कि राममंदिर के मसले को लेकर भारतीय जनता पार्टी का एक बहुसंख्यक खेमा संघ के साथ खड़ा है और उसे विश्व हिन्दू परिषद का पूरा समर्थन मिल रहा है, जबकि बहुत ही कम संख्या में कुछ भाजपाई है जो इस मामले में मोदी-शाह के पीछे खड़े है, इस तरह राममंदिर के मसले को लेकर अभी से भाजपा का स्पष्ट विभाजन नजर आ रहा है, जो मोदी-शाह का राजनीतिक भविष्य भी प्रभावित कर सकता है? और कोई आश्चर्य नहीं होगा, अगर इसका असर अगले माह होने वाले चार राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणामों पर भी नजर आए?
इस प्रकार कुल मिलाकर अयोध्या राममंदिर निर्माण को लेकर अखाड़ा तैयार हो रहा है, जिसमें संघ, विहिप, शिवसेना, बजरंग दल आदि सभी भाजपा के सामने ताल ठोंक कर आ खड़े हुए है। बात सिर्फ भाजपा के विभाजन की नहीं, केन्द्रीय मंत्री परिषद के भी कई सदस्य संघ प्रमुख की मांग को उचित मान रहे है और उनका तो यहां तक कहना है कि यदि केन्द्र सरकार द्वारा राममंदिर निर्माण की दिशा में सार्थक पहल शुरू होती है तो वह पहल भाजपा तथा केन्द्र की मौजूदा सरकार के लिए ”संजीवनी“ सिद्ध हो सकती है, वर्ना कोई सार्थक पहल इस दिशा में नहीं होने पर यह राममंदिर आंदोलन किस दिशा में रूख कर लेगा? यह भी फिलहाल कहना मुश्किल है। क्योंकि शिवसेना का स्पष्ट कहना है कि अभी यदि राममंदिर नहीं बन पाया तो फिर वह कभी भी नहीं बन पाएगा, क्योंकि फिलहाल पूरी स्थिति और माहौल मंदिर के पक्ष में है और यदि मंदिर बनाना तो दूर यदि भाजपा इस दिशा में सार्थक व विश्वसनीय पहल भी शुरू कर देती है तो फिर उसके सामने विधानसभा या लोकसभा चुनावों में कोई खास चुनौती शेष नहीं रह जाएगी? उसे अपनी मंजिल सरलता से हासिल हो जाएगी और यदि ऐसा नहीं हो पाया तो न सिर्फ संघ व उसके हिन्दूवादी संगठन ही भाजपा की कब्र खोदने में सहयोगी सिद्ध होगें और मोदी-शाह के सभी भावी मंसूबे ध्वस्त हो जाएगें, इसलिए फिलहाल इस दिशा में गंभीर चिन्तन कर सही फैसला लेने का सही वक्त है।
आखिर असली मुद्दों पर चुनाव कब लड़ा जाएगा
आजाद सिंह डबास
आगामी 28 नवम्बर को मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं। भारतीय वन सेवा के अधिकारी के रुप में अगस्त 1987 में मेरा मध्यप्रदेश में आगमन हुआ। शासकीय सेवा में 30 वर्ष तक विभिन्न पदों एवं विभिन्न जिलों में कार्य करते हुए मैंने 6 चुनाव देखे हैं। मेरे सामने मध्यप्रदेश का पहला चुनाव 1990 में हुआ। मैं तबरायगढ़ (अब छत्तीसगढ़) में वनमण्डलाधिकारी के पद पर कार्यरत था। वर्ष 1990 एवं इसके बाद हुए 5 चुनावों को मुझे नजदीक से देखने एवं समझने का मौका मिला। मुझे इस बात पर अत्यंत हैरानी होती है कि 2003 के चुनाव को छोड़कर कभी भी विधानसभा के चुनाव असली मुद्दों पर नही लड़े गये। उमा भारती की अगुवाई में 2003 में भाजपा ने जरुर बिजली, सड़क और पानी को मुद्दा बनाया लेकिन इसे भी प्रयाप्त नही माना जा सकता।
विगत 6 चुनावों में मैंने अनुभव किया कि शिक्षा की बदहाली, चिकित्सा सेवाओं की र्दुगति, सुशासन, भ्रष्टाचार, कुपोषण, बेरोजगारी, गरीबी,बढ़ती हुई मंहगाई, किसानों की खराब माली हालत, महिलाओं पर बढ़ते अपराध, औद्योगीकरण नही होने, नर्मदा एवं सहायक नदियों से रेत की लूट, खनिज संसाधनों का कुप्रबंधन, वनो की बरबादी, मंहगी बिजली, खराब सड़कें, स्वच्छ पेयजल की पहुंच नही होना, सिचांई हेतु प्रयाप्त पानी की अनुपलब्धता, जनसंख्या विस्फोट, राजनीति में बढ़ता परिवारवाद, दलित, आदिवासी एवं अन्य पिछड़ा वर्ग की निचली जातियों को मुख्य धारा में लाने जैसे असली मुद्दे हाशिये पर रहे हैं।
उपरोक्त गंभीर मुद्देन तो राजनेताओं के भाषणों का हिस्सा बनते हैं और ना ही मीडिया द्वारा इन्हें प्रमुखता से उठाया जाता है। जैसे-जैसे चुनाव पास आते हैं त्यों ही असली मुद्दे पीछे छोड़ दिये जाते हैं और धर्म एवं जातिगत मुद्दे सारे चुनावी परिदृष्य पर छा जाते हैं। नेताओं द्वारा आपस में की गई ओछी टिप्पणियां भी भाषणों एवं मीडिया में प्रमुखता से स्थान पाती हैं। ऐसा नही है कि यह सिर्फ मध्यप्रदेश में ही होता है अपितु पूरे देश में ऐसे ही निराशाजनक हालात हैं। जिस ’गुजरात मॉडल’ के विकास का अनेक वर्षों तकढ़ोल पीटा गया, वह गत वर्ष हुए गुजरात विधानसभा चुनाव में ढूंढे नही मिला। अत्यंत हैरानी हुई कि विकास के बजाय हिन्दूस्तान-पाकिस्तान, शमशान-कब्रिस्तान, ऊंची जाति-नीची जाति जैसे घिसे-पिटे जुमलों से गुजरात जैसे तथाकथित विकसित प्रदेश का चुनाव लड़ा गया।
विगत कुछ वर्षों से मध्यप्रदेश में भी तथाकथित विकास का खूब ढ़ोल पीटा जा रहा है। जब भी भाजपा के नेताओं और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को मौका मिला है, उन्होंने मध्यप्रदेश में हुए विकास, जिसका वास्तविकता से कोई लेना-देना नही है, पर खूब शेखी बघारी है। सवाल यह पैदा होता है कि अगर वास्तव में विकास हुआ होता तो मुख्यमंत्री को करोड़ो रुपये खर्च कर जन आर्शीवाद यात्रा क्यों निकालनी पड़ती ? विगत दिनों भाजपा द्वारा कार्यकर्ता सम्मेलन में 50 करोड रुपये क्यों खर्च करने पड़ते ?भारी बेरोजगारी के चलते कर्मचारियों को खुश करने के लिए उम्र की सीमा बढ़ाने का फैसला क्यों लिया जाता ? लगभग हर वर्ग के कर्मचारियों हेतु चुनाव के पास ही आर्थिक लाभ देने की घोषणाएं क्यों की जाती ? किसानों के असंतोष पर मलहम लगाने के लिए भावांतर जैसी योजना क्यों प्रांरभ करनी पड़ती ? मुतखोरी को बढ़ावा देने वाली संबल जैसी योजना क्यों लागू की जाती ?
सवाल यह भी पैदा होता है कि शिवराज सिंह चौहान तो फिर भी अपने भाषणों में अपनी योजनाओं के झूठे लाभ गिनाते रहते हैं लेकिन मुख्य विपक्षी दल के नेता असली मुद्दों पर चर्चा क्यों नही कर रहे हैं ? क्या इसके पीछे उनकी विगत सरकार की नाकामीयों का डर है अथवा वे जानबूझकर ऐसा कर रहे हैं। हकीकत यह है कि वर्तमान भाजपा की प्रदेश सरकार हर मुद्दे पर फेल है। चाहे शिक्षा का मामला हो या चिकित्सा सुविधाओं का, कुपोषण का मामला हो या बेरोजगारी का, किसानों के मसले हों अथवा युवाओं के, महिलाओं पर बढ़ते अपराधों के मामले हों या दलित, आदिवासियों एवं पिछड़ों के मसले हों, बढ़ती हुई मंहगाई का मसला हो या सुशासन अथवा भ्रष्टाचार की रोकथाम की बात हो, हर मसले पर प्रदेश की सरकार बुरी तरह विफल है। ऐसी अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद कांग्रेस पार्टी का इन विफलताओं पर हमलावर नही होना समझ से परे है।
हैरानी इसलिए भी होती है कि उपरोक्त सभी मुद्दों पर सरकार की हालत पतली होने के बावजूद कांग्रेस पार्टी के नेता राम वनगमन पथ यात्रा निकालने में वयस्त हैं। पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गाँधी प्रदेश के दौरों में अपने को शिव भक्त, राम भक्त, नर्मदा भक्त बताने पर तुले रहते हैं। राहुल गाँधी द्वारा रफाल लड़ाकू विमान की खरीद-फरोक्त में हुई अनियमित्ता का मुद्दा उठाकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को तो कटघरे में लाने का आधा-अधूरा प्रयास किया जाता रहा है लेकिन प्रदेश सरकार की विफलताओं पर ध्यान केन्द्रीत नही कर शिवराज को बक्शा जा रहा है। राहुल गाँधी को चाहिए कि मंदिर-मस्जिद और गुरुद्वारों के चक्कर न लगाते हुए प्रदेश सरकार और मुख्यमंत्री की विफलताओं पर जनता का ध्यान आकृषित करें। इस सरकार के कार्यकाल में हुए अनेक घोटालों जैसे व्यापम घोटाला, ई-टेंडर घोटाला, कुपोषण घोटाला, रेत एवं खनिजों की अवैध लूट इत्यादिसेकड़ों घोटालों को प्रमुख मुद्दा बनाया जाना चाहिए।
अभी प्रदेश के चुनाव में लगभग 40 दिन का समय है। सभी पार्टियां उम्मीदवारों के चयन में वयस्त हैं। मुझे यकीन है कि जैसे ही चुनाव अभियान तेजी पकड़ेगा वैसे ही पूर्व की तरह असली मुद्दे पीछे छूट जावेगें और नकली मुद्दे सामने आ जावेगें। एक जागरुक नागरिक की हैसियत से मेरा प्रयास रहेगा कि इस बार के चुनाव में जनता असली मुद्दों से रुबरु हो।आगामी लेख में किसी एक मुद्दे परविस्तार से बात की जावेगी। यह सिलसिला लगातार चलेगा ताकि प्रदेश की जनता एक बार फिर से न ठगी जा सके।
हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण केवल भाजपा के पक्ष में नहीं
सनत जैन
केरल में पहली बार हिंदू मतों के ध्रुवीकरण होने की स्थिति बन रही है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सबरीमाला मैं महिलाओं के प्रवेश को लेकर जो रुख अख्तियार किया है। जिस तरह से वहां परंपराओं और आस्था को लेकर आंदोलन को समर्थन दिया है। उससे केरल में हिंदू मतों के ध्रुवीकरण की स्थिति केरल में तैयार हो गई है। भारत में 30 वर्ष बाद उत्तर और दक्षिण में संघ और भाजपा ने हिंदू मतों के जो नए ध्रुवीकरण की तैयारी की है। उससे संघ और भाजपा को नुकसान ज्यादा और फायदा कम होने की स्थिति बन रही है।
संघ प्रमुख मोहन भागवत ने विजयादशमी के हाल ही में दिए गए संबोधन में सबरीमाला पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर असहमति जताते हुए कहा, कि सैकड़ों वर्षो की परंपराओं और श्रद्धा को दरकिनार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया है। वह मानने योग्य नहीं है। उन्होंने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर आपत्ती करते हुए परंपराओं और आस्थाओं के विपरीत फैसला बताया है। संघ प्रमुख मोहन भागवत का यह रुख स्पष्ट करता है, कि राम मंदिर निर्माण आस्था और श्रद्धा का विषय है। सुप्रीम कोर्ट यदि आस्था और श्रद्धा के आधार पर फैसला ना देकर संवैधानिक अधिकारों को ध्यान में रखते हुए फैसला देगा। तो यह संघ को स्वीकार्य नहीं होगा।
संघ और भाजपा ने केरल के सबरीमाला मंदिर मैं महिलाओं के प्रवेश पर आपत्ति करते हुए उग्र आंदोलन में खुल कर भाग लिया है। इससे केरल में हिंदू मतों के ध्रुवीकरण की स्थिति बन गई है संघ के अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में 2016 को दिए गए संबोधन में भैया जी जोशी ने स्पष्ट रूप से राय व्यक्त की थी, मंदिरों में बिना किसी भेदभाव के महिलाओं के प्रवेश को इजाजत होनी चाहिए। उन्होंने अनुचित परंपराओं के कारण मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश रोकने पर तीखी आपत्ति जताई थी। उसके बाद ही शनि शिंगणापुर के शनि मंदिर में महिलाओं के प्रवेश इसके अलावा अन्य मंदिरों और मुस्लिमों के धार्मिक स्थलों पर महिलाओं के प्रवेश को लेकर एक आंदोलन संघ के समर्थन से खड़ा हुआ संघ समर्थित दीप्ति देसाई ने सड़क पर और अदालतों तक इस मामले को लेकर महिलाओं को आगे किया था। सबरीमाला मंदिर मैं महिलाओं के प्रवेश को जायज ठहराने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर संघ ने अब यू टर्न ले लिया है।
1926 में संघ की स्थापना हुई थी संघ की स्थापना सांस्कृतिक धार्मिक एवं राष्ट्रवाद की परिकल्पना पर आधारित थी। अखंड भारत, सनातन धर्म की रक्षा, गौ रक्षा, राष्ट्रवाद, हिंदू राष्ट्र, समान नागरिक संहिता धारा 370 तथा स्वदेशी आंदोलन की विचारधारा को लेकर संघ पिछले 92 साल से अपनी विचारधारा की लड़ाई लड़ती आ रही है। संघ के अनुवांशिक संगठन भी बढ़-चढ़कर उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कई दशकों से काम कर रहे हैं। जिसके कारण संघ की श्रेष्ठता संघ के प्रचारको स्वयंसेवकों के साथ साथ आम जनता में भी बढ़ती जा रही थी। 1989 के राम मंदिर आंदोलन के बाद हिंदू समुदाय जिस तेजी के साथ संघ और भाजपा के पक्ष में एकजुट हुआ था। 2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद से स्थिति बड़ी तेजी के साथ बदल रही है केंद्र में सरकार बनने के बाद से संघ और भाजपा ने जिस तरह अपनी विचारधारा से समझौता किया है उसको लेकर अब संघ के प्रचारक स्वयंसेवक और हिंदू समुदाय के लोग भी आश्चर्यचकित हैं संघ यदि अपनी विचारधारा से समझौता कर रही है। वहीं हिंदू समुदाय अब केंद्र सरकार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और संघ में मोहन भागवत के होते हुए बिखर क्यों रहा है सत्ता की अपनी मजबूरी हो सकती है। लेकिन संघ की ना तो कभी कोई मजबूरी थी, और ना आगे मजबूरी होनी चाहिए। इसके बाद भी पिछले साढे चार सालों में जिस तरह से धारा 370 विदेशी निवेश कारपोरेट जगत की आर्थिक नीतियों राम मंदिर मुद्दे और महंगाई बेरोजगारी को लेकर जो नीतियां केंद्र सरकार ने लागू की उसके बाद सारे देश में जो हिंदू समाज भाजपा के पक्ष में एकजुट हुआ था। विशेष रूप से उत्तर भारत में वह संघ और भाजपा की बार-बार बदलती नीतियों एवं जुमलों के कारण अब अपनी प्रसंगिकता खो रहा है। संघ के प्रचारक और स्वयंसेवक भी खुलकर अब यह कहने लगे हैं, कि जिस तरह से मोदी सरकार सत्ता में बने रहने के लिए हिंदू, दलित, पिछड़ा और हिंदुओं के बीच जो बेमनसा से पैदा हो रहा है। उसके कारण दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर राज्य में जरूर संघ और भाजपा को हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण से विस्तार में सहायक हो। किंतु उत्तर भारत में इसका बड़े पैमाने पर नुकसान होगा। संघ की सोच भी अब दीर्घकालीन ना होकर तत्कालीन अवसर को देखते हुए निर्णय लेने की हो गई है। जिसके कारण उत्तर भारत के सं प्रचारकों एवं स्वयंसेवकों के बीच में जो निराशा देखने को मिल रही है।
हज-यात्रा अब अपने दम पर
(डॉ. वेदप्रताप वैदिक)
हज-यात्रा में दी जानेवाली सरकारी सहायता को खत्म करने का विरोध कुछ मुस्लिम नेता और संगठन जरुर करेंगे और यह प्रचार भी करेंगे कि आरएसएस के प्रधानमंत्री से इसके अलावा क्या उम्मीद की जा सकती है लेकिन ऐसा करना बिल्कुल गलत होगा। यह सहायता खत्म की जाए, ऐसा फैसला 2012 में सर्वोच्च न्यायालय ने किया था। यह फैसला दो जजों ने दिया था, जिसमें से एक हिंदू था और दूसरा मुसलमान ! दोनों जजों ने कुरान शरीफ, इस्लामी ग्रंथों और रिवाजों का गहरा अध्ययन किया और वे इस नतीजे पर पहुंचे कि हज-यात्रा किसी और की मदद से करना इस्लाम के खिलाफ है। मुख्य जज आफताब आलम ने कुरान के तीसरे अध्याय के 97 मंत्र को उदधृत करते हुए सरकार से हज-यात्रा की सब्सिडी खत्म करने के लिए कहा। उस समय कांग्रेस की सरकार थी और उसे दस साल का समय दिया गया था। अब भाजपा सरकार ने इसे खत्म करने का फैसला किया है तो देश के मुसलमानों का इसका स्वागत करना चाहिए। इस फैसले का सुझाव अफजल अमानुल्लाह कमेटी ने सारी जांच के बाद अक्तूबर 2017 में दिया था। हज-सहायता पर खर्च होनेवाले लगभग 700 करोड़ रु. अब मुस्लिम बच्चों की शिक्षा पर खर्च होंगे, ऐसा आश्वासन अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने दिया है। यदि सरकार अपनी कथनी को करनी में बदल सके तो देश के मुसलमानों की अगली पीढ़ियों की किस्मत चमक उठेगी। नकवी ने बयान में यही बताया है कि सरकारी सहायता के ज्यादातर का फायदा हाजियों को मिलने की बजाय हवाई कंपनियों और दलालों को मिलता था। अब लोग पानी के जहाज से भी हज-यात्रा पर जा सकेंगे। पहले यह जल-यात्रा सिर्फ 1600 रुपए में हो जाती थी। अब भी यह काफी सस्ती होगी। महिलाओं को अब अकेले हज-यात्रा की सुविधा सरकार ने दे दी है। जो लोग हवाई जहाज से जाना चाहें और पांच सितारा-यात्रा करना चाहें, जरुर करें। कई प्रांतीय सरकारों ने हिंदुओं की तीर्थ-यात्रा का जो जिम्मा लिया है, उस पर पुनर्विचार की जरुरत है। कानून तो कानून है। वह सबके लिए समान होना चाहिए। तीर्थ-यात्राएं अपने दम पर ही की जानी चाहिए।
अंतरिक्ष में उड़ानों का शतक अंतरिक्ष में उड़ानों का शतक –
प्रमोद भार्गव
नए साल 2018 की शुरूआत में ही भारत ने अंतरिक्ष में किर्ती पताका लहरा दी है। अंतरिक्ष में सफल उड़ान का शतक पूरा करने से पहले भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) ने एक साथ 104 उपग्रह अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करके विश्व इतिहास रच दिया था। दुनिया के किसी एक अंतरिक्ष अभियान में इससे पूर्व इतने उपग्रह एक साथ पहले अब तक कभी नहीं छोड़े गए हैं। इसरो ने पीएसएलबी-सी 40 के जरिए कार्टोसैट-2 श्रृंखला के उपग्रह का कामयाब प्रक्षेपण किया। इस यान के द्वारा 31 उपग्रह प्रक्षेपित किए गए। यह उच्च कौशल से जुड़ी तकनीक का काम था। इन सूक्ष्म (माइक्रो) एवं अति-सूक्ष्म (नैनो) उपग्रहों में से आधे अमेरिका के थे और शेष भारत, फिनलैंड, कनाडा, फ्रांस, दक्षिण कोरिया और ब्रिटेन के थे। ये उपग्रह ऐसी तकनीक से भी पूर्ण है, जिनसे किसी निर्धारित स्थल की विशेष तस्वीर खींची जा सकती है। इसीलिए इन उपग्रहों को लेकर पाकिस्तान और चीन ने आनत्ति जताई है। दरअसल इसी श्रृंखला के उपग्रहों से मिली तस्वीरों की मदद से ही भारत ने नियंत्रण रेखा पर स्थित पाकिस्तान के कई अरतंकी शिविरों को नष्ट करने में सफलता हासिल की है। दरअसल प्रक्षेपण तकनीक दुनिया के चंद छह-सात देशों के पास ही है। लेकिन सबसे सस्ती होने के कारण दुनिया के इस तकनीक से महरूम देश अमेरिका, रूस, चीन, जापान का रुख करने की बजाय भारत से अंतरिक्ष व्यापार करने लगे हैं। इसरो इस व्यापार को अंतरिक्ष निगम ;एंट्रिक्स कार्पोरेशनद्ध के जरिए करता है। इसरो पर भरोसा करने की दूसरी वजह यह भी है कि उपग्रह यान की दुनिया में केवल यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी को छोड़ कोई दूसरा ऐसा प्रक्षेपण यान नहीं है,जो हमारे पीएसएलवी-सी के मुकाबले का हो। दरअसल यह कई टन भार वाले उपग्रह ढोने में दक्ष है। व्यावसायिक उड़ानों को मुंह मांगे दाम मिल रहे हैं। यही वजह है कि अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, कनाडा, फिनलैंड, दक्षिण कोरिया, इजराइल और ब्रिटेन जैसे विकसित देश अपने उपग्रह छोड़ने का अवसर भारत को दे रहे हैं। हमारी उपग्रह प्रक्षेपित करने की दरें अन्य देशों की तुलना में 60 से 65 प्रतिशत सस्ती हैं, लेकिन इसरो की साख को कभी चुनौती नहीं मिली। बावजूद भारत को इस व्यापार में चीन से होड़ करनी पड़ रही हैं। मौजूदा स्थिति में भारत हर साल 5 उपग्रह अभियानों को मंजिल तक पहुंचाने की क्षमता रखता है। जबकि चीन की क्षमता दो अभियान प्रक्षेपित करने की है। बाबजूद इस प्रतिस्पर्धा को अंतिरक्ष व्यापार के जानकार उसी तरह से देख रहे हैं, जिस तरह की होड़ कभी वैज्ञानिक उपलब्धियों को लेकर अमेरिका और सोवियत संघ में हुआ करती थी। दूसरे देशों के छोटे उपग्रहों को अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित करने की शुरूआत 26 मई 1999 में हुई थी। और जर्मन उपग्रह टब सेट के साथ भारतीय उपग्रह ओशन सेट भी अंतरिक्ष में स्थापित किए थे। इसके बाद पीएसएलवी सी-3 ने 22 अक्टूबर 2001 को उड़ान भरी। इसमें भारत का उपग्रह बर्ड और बेल्जियम के उपग्रह प्रोबा शामिल थे। ये कार्यक्रम परस्पर साझा थे, इसलिए शुल्क नहीं लिया गया। पहली बार 22 अप्रैल 2007 को धुवीय यान पीएसएलवी सी-8 के मार्फत इटली के ’एंजाइल’ उपग्रह का प्रक्षेपण शुल्क लेकर किया गया। हालांकि इसके साथ भी भारतीय उपग्रह एएम भी था, इसलिए इसरो ने इस यात्रा को संपूर्ण वाणिज्यिक दर्जा नहीं दिया। दरअसल अंतरराष्ट्रीय मानक के अनुसार व्यावसायिक उड़ान वही मानी जाती है,जो केवल दूसरे उपग्रहों का प्रक्षेपण करे। इसकी पहली शुरूआत 21 जनवरी 2008 को हुई,जब पीएसएलवी सी-10 ने इजारइल के पोलरिस उपग्रह को अंतरिक्ष की कक्षा में छोड़ा। इसके साथ ही इसरो ने विश्वस्तरीय मानकों के अनुसार उपग्रह प्रक्षेपण मूल्य वसूलना भी शुरू कर दिया। यह कीमत 5 हजार से लेकर 20 हजार डॉलर प्रति किलोग्राम पेलोड ;उपग्रह का वजनद्ध के हिसाब से ली जाती है। सूचना तकनीक का जो भूमंडलीय विस्तार हुआ है,उसका माध्यम अंतरिक्ष में छोड़े उपग्रह ही हैं। टीवी चैनलों पर कार्यक्रमों का प्रसारण भी उपग्रहों के जरिए होता है। इंटरनेट पर बेबसाइट, फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग और वॉट्सअप की रंगीन दुनिया व संवाद संप्रेषण बनाए रखने की पृष्ठभूमि में यही उपग्रह हैं। मोबाइल और वाई-फाई जैसी संचार सुविधाएं उपग्रह से संचालित होती है। अब तो शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, मौसम, आपदा प्रबंधन और प्रतिरक्षा क्षेत्रों में भी उपग्रहों की मदद जरूरी हो गई है। भारत आपदा प्रबंधन में अपनी अंतरिक्ष तकनीक के जरिए पड़ोसी देशों की सहयता पहले से ही कर रहा है। हालांकि यह कूटनीतिक इरादा कितना व्यावहरिक बैठता है और इसके क्या नफा-नुकसान होंगे,यह अभी भविष्य के गर्भ में है। लेकिन इसमें काई संदेह नहीं कि इसरो की अंतरिक्ष में आत्मनिर्भरता बहुआयामी है और यह देश को भिन्न-2 क्षेत्रों में अभिनव अवसर हासिल करा रही है। चंद्र और मंगल अभियान इसरो के महत्वाकांक्षी अंतरिक्ष कार्यक्रम के ही हिस्सा हैं। अब इसरो शुक्र ग्रह पर भी यान उतारने और चंद्रयान-2 मिशन की तैयारी में है। बावजूद चुनौतियां कम नहीं हैं, क्योंकि हमारे अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने अनेक विपरीत परिस्थितियों और अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के बावजूद जो उपलब्धियां हासिल की हैं,वे गर्व करने लायक हैं। गोया, एक समय ऐसा भी था,जब अमेरिका के दबाव में रूस ने क्रायोजेनिक इंजन देने से मना कर दिया था। दरअसल प्रक्षेपण यान का यही इंजन वह अश्व-शक्ति है,जो भारी वजन वाले उपग्रहों को अंतरिक्ष में पहुंचाने का काम करती है। फिर हमारे जीएसएलएसवी मसलन भू-उपग्रह प्रक्षेपण यान की सफलता की निर्भरता भी इसी इंजन से संभव थी। हमारे वैज्ञानिकों ने दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय दिया और स्वेदेशी तकनीक के बूते क्रायोजेनिक इंजन विकसित कर लिया। अब इसरो की इस स्वदेशी तकनीक का दुनिया लोहा मान रही है। नई और अहम्् चुनौतियां रक्षा क्षेत्र में भी हैं। क्योंकि फिलहाल इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने की दिशा में हम मजबूत पहल ही नहीं कर पा रहे हैं। जरूरत के साधारण हथियारों का निर्माण भी हमारे यहां नहीं हो पा रहा है। आधुनिकतम राइफलें भी हम आयात कर रहे हैं। इस बद्हाली में हम भरोसेमंद लड़ाकू विमान, टैंक, विमानवाहक पोत और पनडुब्यों की कल्पना ही कैसे कर सकते हैं ? हमें विमान वाहक पोत आइएनएस विक्रमादित्य रूस से खरीदना पड़ा है। जबकि रक्षा संबंधी हथियारों के निर्माण के लिए ही हमारे यहां रक्षा अनुसंधान और विकास संस्थान ;डीआरडीओद्ध काम कर रहा हैं,परंतु इसकी उपलब्धियां गौण हैं। इसे अब इसरो से प्रेरणा लेकर अपनी सक्रियता बढ़ाने की जरूरत है। क्योंकि भारत हथियारों का सबसे बड़ा आयातक देश है। रक्षा सामग्री आयात में खर्च की जाने वाली धन-राशि का आंकड़ा हर साल बढ़ता जा रहा है। भारत वाकई दुनिया की महाशक्ति बनना चाहता है तो उसे रक्षा-उपकरणों और हथियारों के निर्माण की दिशा में स्वावलंबी होना चाहिए। अन्यथा क्रायोजेनिक इंजन की तकनीक के बाबत रूस और अमेरिका ने जिस तरह से भारत को धोखा दिया था, उसी तरह जरूरत पड़ने पर मारक हथियार प्राप्त करने के परिप्रेक्ष्य में भी मुंह की खानी पड़ सकती है। यदि देश के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालय का भी इसी तरह के वैज्ञानिक आविष्कार और व्यापर से जोड़ दिया जाए तो हम हथियार निर्माण के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो सकते है। दरअसल अकादमिक संस्थान दो तरह की लक्ष्यपूर्ति से जुड़े होते हैं, अध्यापन और अनुसंधान। जबकि विवि का मकसद ज्ञान का प्रसार और नए व मौलिक ज्ञान की रचनात्मकता को बढ़ावा देना होता है। लेकिन समय में आए बदलाव के साथ विवि में अकादमिक माहौल लगभग समाप्त हो गया है। इसकी एक वजह स्वतंत्र अनुसंधान संस्थानों की स्थापना भी रही है। इसरो की ताजा उपलब्धियों से साफ हुआ है कि अकादमिक समुदाय,सरकार और उद्यमिता में एकरूपता संभव है। इस गठजोड़ के बूते शैक्षिक व स्वतंत्र शोध संस्थानों को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। बशर्ते इसरो की तरह विश्वविद्यालयों को भी अविष्कारों से वाणिज्यिक लाभ उठाने की अनुमति दे दी जाए। इस मकसद हेतु ’सरकारी अनुदान प्राप्त बौद्धिक संपत्ति सरंक्षक विधेयक 2008’ लाया जा चुका है, लेकिन इसके अभी तक कारगर परिणाम देखने में नहीं आए हैं। इसका उद्देश्य विवि और शोध संस्थानों में अविष्कारों की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करना और बौद्धिक संपत्ति के अधिकारों को सरंक्षण तथा उन्हें बाजार उपलब्ध कराना है। इस उद्यमशीलता को यदि वाकई धरातल मिलता है तो विज्ञान के क्षेत्र में नवोन्मेषी छात्र आगे आएंगे और आविष्कारों के नायाब सिलसिले की शुरूआत संभव होगी। क्योंकि तमाम लोग ऐसे होते हैं,जो जंग लगी शिक्षा प्रणाली को चुनौती देते हुए अपनी मेधा के बूते कुछ लीक से हटकर अनूठा करना चाहते हैं। अनूठेपन की यही चाहत नए व मौलिक आविष्कारों की जननी होती है। गोया, इस मेधा को पर्याप्त स्वायत्तता के साथ अविष्कार के अनुकूल वातावरण देने की भी जरूत है। ऐसे उपाय यदि अमल में आते है तो हम स्वावलंबी तो बनेंगे ही, विदेशी मुद्रा कमाने में भी सक्षम हो जाएंगे।
दिल्ली सरकार से प्रेरणा लें
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दिल्ली सरकार के एक लोक-कल्याणकारी काम पर उप-राज्यपाल ने मोहर लगा दी, यह अच्छा किया। वे यदि इसमें अड़ंगा लगाए रखते तो उनकी बदनामी तो होती ही, केंद्र की भाजपा सरकार भी बुरी बनती। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने यह इतनी अच्छी योजना शुरु की हैं कि वे अन्य नेताओं की तरह कोरे भाषणबाज नहीं, बल्कि सच्चे जनसेवक सिद्ध हो रहे हैं। उन्होंने दिल्ली राज्य में ऐसी व्यवस्था लागू कर दी है कि दिल्ली के नागरिकों को 40 प्रकार की जनसेवाओं के लिए अब सरकारी दफ्तरों के चक्कर नहीं लगाने पड़ेंगे, अफसरों की खुशामद नहीं करनी पड़ेगी और रिश्वत भी नहीं देनी पड़ेगी। इन जन-सेवाओं को सरकारी कर्मचारी लोगों के घर पहुंचकर देंगे जैसे सुबह हाॅकर घरों पर खुद जाकर अखबार फेंक आता है या दूधवाला आकर थैलियां पकड़ा जाता है। ये सेवाएं कई प्रकार की हैं। जैसे अनुसूचितों के प्रमाण-पत्र, मोटर कारों के पंजीकरण प्रमाण पत्र, कार-चालन लाइसेंस, विकलांगों और वृद्धों की पेंशन, मकानों के मिल्कियत दस्तावेज आदि। सरकार अपने कर्मचारियों के अलावा ये काम ठेके पर भी उठाएगी ताकि लोगों को जल्दी से जल्दी राहत मिले। दिल्ली सरकार का यह अदभुत प्रयोग है। यदि देश के हर गांव की पंचायत और हर शहर की नगरपालिका और नगर निगम इस पद्धति का अनुकरण करने लगे तो देश के करोड़ों नागरिकों को बड़ी राहत मिलेगी। वे अभी नेताओं को कोसते हैं, फिर वे उन्हें दिल से दुआ देंगे। दिल्ली कि ‘आप’ सरकार ने कुछ दिन पहले दुर्घटनाग्रस्त नागरिकों के मुफ्त इलाज की व्यवस्था भी की थी। उसने दिल्ली के मोहल्ले-मोहल्ले में स्वास्थ्य केंद्र भी खोले हैं। ऐसी पार्टी को चुनावों में हराना आसान नहीं है। इस बात को उप-राज्यपाल अनिल बैजल ने अच्छी तरह समझ लिया और उन्होंने केजरीवाल सरकार के साथ सहयोग किया। उनके इस सुझाव पर भी केजरीवाल ने अमल करने का वादा किया है कि तरह-तरह की सरकारी सेवाएं वे डिजिटल माध्यम से उपलब्ध करवाएंगे। उप-राज्यपाल का यह सुझाव भी मुख्यमंत्री ने मान लिया है कि वे जगह-जगह ‘इंटरनेट कक्ष’ भी खुलवाएंगे ताकि आम लोगों को सरकारी सेवाओं का फायदा उठाने में ज्यादा सहूलियत हो जाए। यदि केजरीवाल सरकार और दिल्ली के उप-राज्यपाल इसी रचनात्मक शैली में काम करते रहे तो दिल्ली सरकार देश की प्रादेशिक सरकारों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बन जाएगी।
महिला अध्यापकों के मुंडन पर चुप्पी क्यों ?……
-ज़हीर अंसारी
मध्यप्रदेश की सरकार 14 जनवरी से 21 जनवरी के बीच आनंद उत्सव मना रही है। सहभागिता, बंधुत्व तथा परस्पर सहयोग की भावना बढ़ाने पर ज़ोर दे रही है। इसके लिए बकायदे करोड़ों रुपए के विज्ञापन दिए जा रहे हैं। हालाँकि जो पैसा इन विज्ञापनों पर ख़र्च किया जा रहा है, वह सरकारी ‘ग़ल्ले’ का नहीं है, पब्लिक की जेब से निकाला गया धन है, पर इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है, रुपया चाहे जिसका भी हो छवि चमकाने में ख़र्च तो किया जा सकता है। पब्लिक के पैसों से आनंद उत्सव के नाम पर कई तरह के आयोजन होंगे, ज़ाहिर है पैसे की कमी इन आयोजनों में नहीं आएगी, (जैसा अक्सर दावा किया जाता है)। इन आयोजनों के तहत खेल, वाद-विवाद प्रतियोगिता, निबंध लेखन आदि को बढ़ावा देने के नाम पर रुपयों को इस जेब से उस जेब में पहुँचाने का खेल होना भी स्वभाविक है। प्रायः यह देखने में आता है कि सरकारी आयोजन बनाए ही इसलिए जाते हैं कि पब्लिक के धन पर होली खेली जाए।
दुखद बात यह है कि आनंद उत्सव के ठीक एक दिन पहले राजधानी भोपाल में महिला अध्यापकों ने वो कर दिया जो शायद ही इतिहास में पहले कभी हुआ हो। पाँच महिला अध्यापकों सहित सौ शिक्षकों ने जिनके काँधे पर बच्चों का भविष्य सँवारने की ज़िम्मेदारी है, ने शासन की वायदा खिलाफ़ी से ख़फ़ा होकर अपने सिर मुंडवा लिए। विरोध प्रदर्शन का यह तरीक़ा पहली बार देश ने देखा। पूर्व घोषणा के बाद असंतुष्ट अध्यापकों ने ऐसा किया। क्या आनंद उत्सव सप्ताह की कार्ययोजना बनाने वालों को इस घोषणा की जानकारी नहीं थी? क्या इनके आनंद की सुध लेने की फ़ुर्सत किसी को नहीं मिली? क्या ये प्रदेश के निवासी और सरकार के कर्मी नहीं हैं? क्या इनकी संविलियन की माँगे नाजायज़ हैं? जो भी कहीं न कहीं उपेक्षा के दंश से शिक्षकगण दर्द से कराह रहे हैं। क्या इनके ज़ख़्म पर मलहम लगाकर इन्हें राहत नहीं दी जा सकती? शिक्षकों के इस तरह के विरोध प्रदर्शन से प्रदेश के करोड़ों छात्र-छात्राओं पर क्या असर पड़ेगा, इस पर भी किसी के पास सोचने का समय नहीं है। वैसे भी प्रदेश की शिक्षा गुणवत्ता किसी से छिपी नहीं। भावी पीढ़ी को दिशा दिखाने वाला शिक्षकों का तबक़ा जब दुखी है तो फिर कैसा आनंद उत्सव।
ट्रंप की आक्रामकता का रहस्य
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पिछले हफ्ते जब यह घोषणा की कि वे अपने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के पद पर जाॅन बोल्टन को लाएंगे और माइक पोंपियो को विदेश मंत्री बनाएंगे, तभी मैंने लिखा था कि इन दोनों अतिवादियों के कारण अब नए शीतयुद्ध के चल पड़ने की पूरी संभावना है। इस कथन के चरितार्थ होने में एक सप्ताह भी नहीं लगा। अब ट्रंप ने 60 रुसी राजनयिकों को निकाल बाहर करने की घोषणा कर दी है। अमेरिका अब सिएटल में चल रहे रुसी वाणिज्य दूतावास को बंद कर देगा और वाशिंगटन व न्यूयार्क में कार्यरत राजनयिकों को यह कहकर निकाल रहा है कि वे जासूस हैं। अमेरिका के नक्शे-कदम पर चलते हुए 21 राष्ट्रों ने अब तक लगभग सवा सौ से ज्यादा रुसी राजनयिकों को अपने-अपने देश से निकालने की घोषणा कर दी है। इन देशों में जर्मनी, फ्रांस, डेनमार्क, इटली जैसे यूरोपीय संघ के देश तो हैं ही, कनाडा और उक्रेन जैसे राष्ट्र भी शामिल है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति के इतिहास में इस तरह की यह पहली घटना है। किसी एक राष्ट्र का इतने राष्ट्रों ने एक साथ बहिष्कार कभी नहीं किया।
यह कूटनीतिक बहिष्कार इसलिए हो रहा है कि 4 मार्च को ब्रिटेन में रुस के पुराने जासूस कर्नल स्क्रिपाल और उसकी बेटी यूलिया की हत्या की कोशिश हुई। वे दोनों अभी अस्पताल में अचेत पड़े हुए हैं। इस हत्या के प्रयत्न के लिए ब्रिटेन ने रुस पर आरोप लगाया है। रुस ने अपने इस पुराने जासूस की हत्या इस संदेह के कारण करनी चाही होगी कि यह व्यक्ति आजकल ब्रिटेन के लिए रुस के विरुद्ध फिर जासूसी करने लगा था। इस दोहरे जासूस को रुस में 2005 में 13 साल की सजा हुई थी लेकिन 2010 में इसे माफ कर दिया गया था। तब से यह ब्रिटेन के शहर सेलिसबरी में रह रहा था। रुस ने ब्रिटिश आरोप का खंडन किया है और कहा है कि अभी तो इस मामले की जांच भी पूरी नहीं हुई है और रुस को बदनाम करना शुरु कर दिया गया है।
यह सबको पता है कि ब्रिटेन की यूरोपीय राष्ट्रों के साथ आजकल काफी खटपट चल रही है और ट्रंप और इन राष्ट्रों के बीच भी खटास पैदा हो गई है लेकिन मजा देखिए कि रुस के विरुद्ध ये सब देश एक हो गए हैं। जहां तक रुसी कूटनीतिज्ञों के जासूस होने का सवाल है, दुनिया का कौनसा देश ऐसा है, जिसके दूतावास में जासूस नहीं होते ? किसी एक दोहरे जासूस की हत्या कोई इतनी बड़ी घटना नहीं है कि दर्जनों देश मिलकर किसी देश के विरुद्ध कूटनीतिक-युद्ध ही छेड़ दें। रुस के विरुद्ध ट्रंप का अभियान तो इसलिए छिड़ा हो सकता है कि वे अपने आप को पूतिन की काली छाया में से निकालना चाहते हों और रुस के विरुद्ध सीरिया, एराक, ईरान, उ. कोरिया और दक्षिण एशिया में भी अपनी नई टीम को लेकर आक्रामक होना चाहते हों। घर में चौपट हो रही उनकी छवि के यह मुद्रा शायद कुछ टेका लगा दे।
रामराज:आधुनिक भारत की सर्वोपरि आवश्यकता
प्रवीण गुगनानी
राम नाम की लूट है लूट सके तो लूट। ये वाक्य न जानें कहनें वाले ने किन अर्थों में किस आव्हान को करते हुए कहा था किन्तु वर्तमान भारत में यह आव्हान चरितार्थ और सुफलित होता दिखाई पड़ रहा है। तथ्य है कि भारत में जब यहाँ के एक सौ तीस करोड़ लोग बात करतें हैं तब औसतन प्रत्येक छठे वाक्य में एक न एक बार राम नाम का उच्चारण अवश्य होता है और किसी न किसी रूप में राम स्मरण कर लिए जातें हैं। राम नाम के उच्चारण में उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि इस नाम का उल्लेख न केवल भारत में अपितु सम्पूर्ण विश्व में सतत बढ़ता और उत्साह से लिया जाता दिख रहा है। भारत वंशियो के सम्पूर्ण विश्व में प्रभावी ढंग से फैलते जानें के कारण अब वैश्विक स्तर पर राम शब्द सर्वाधिक समझा-बूझा और सुबोध-सुभाष शब्द बनता जा रहा है। भारत भूमि पर राम नाम का यह सतत उच्चारण जितना सुखद है उतना ही स्वाभाविक भी है क्योंकि राम में ही तो इस भूमि के प्राण बसते हैं और राम से ही इस भारत भूमि का आदि अखंड है और अंत असंभव है!! भारत के जन-जन, मन-मन, कण-कण, तन-तन, और यहाँ तक कि ब्रह्माण्ड के मूल तत्व क्षिति-जल-पावक-गगन-समीरा में व्याप्त प्रभु श्री राम ही तो इस भूखंड “भारत-भू” के प्रमख आधार और आराध्य रहें हैं। आज जब राम नाम का जोर शोर सम्पूर्ण विश्व में हो रहा है तब यह भी आवश्यक और समयानुकूल है कि हम सर्वाधिक चर्चित शासन प्रणाली राम-राज्य की अवधारणा को भी भली-भांति समझें और इस सर्वाधिक लोक कल्याण कारी राजकीय प्रणाली से अपनी युवा पीढ़ी को भी परिचित कराएं। राम शब्द यदि हम भारतवंशियों के लिए आराधना और श्रद्धा का परिचायक है तो रामराज्य शब्द अतिशय कौतुक, उत्सुकता और उत्कंठा के साथ साथ सर्वाधिक कामना वाला शब्द है। रामराज्य की अनूठी किन्तु प्रामाणिक और सिद्ध शासन प्रणाली को स्वयं महात्मा गांधी ने इस देश की धरती पर लागू करना चाहा था। विदेशियों से भारत की स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान इस देश के जन-जन को आन्दोलन में समाहित और सम्मिलित करनें के लिए उन्होंने अंग्रेजों की शोषक और आततायी राज्य प्रणाली के स्थान पर महात्मा गांधी ने इस देश की जनता को स्वराज के साथ साथ रामराज्य की राज्य प्रणाली का स्वप्न दिखाया था जो कि कदाचित इस देश के स्वतंत्रता आन्दोलन का सर्वाधिक बड़ा और जन-जन को जोड़ लेनें वाला तत्व रहा। राम राज्य के स्वप्न को देश ने आकंठ उत्साह में डूब कर सच करना चाहा और इस दिशा में सतत संभव प्रयास भी किये और कामना भी!! किन्तु सक्षम और प्रेरक नेतृत्व के अभाव में यह स्वप्न अधूरा ही रहा और राम राज्य की कल्पना दिन-प्रतिदिन परिकल्पना बनकर यथार्थ के धरातल से दूर जाती गई। आज जबकि राम-राज्य के प्रणेता प्रभु श्रीराम का जन्मदिवस हमारें उत्सव रामनवमी के रूप में हमारें समक्ष है तब राम नाम की आराधना उपासना तो करें ही साथ-साथ इस राम-राज्य की सर्वाधिक लोक कल्याणकारी अवधारणा का भी विश्लेषण अध्ययन करें तो सामयिक होगा। इस वर्ष राम नवमी के शुभ प्रसंग पर राम राज्य की अवधारणा का अध्ययन और अधिक प्रासंगिक और सान्दर्भिक इस लिए भी है क्योंकि इस वर्ष हमारा समूचा भारत वर्ष आगामी पांच वर्षों के लिए विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में चुनावी पद्धति से अपनी सरकार चुननें जा रहा है। आसन्न लोकसभा चुनाव हों या भारत में बीते समय में होनें वाले किसी भी स्तर के चुनाव हों, इसमें प्रत्येक चुनावी प्रत्याशी राम राज्य के सपनें का उल्लेख अवश्य ही करता है। पौराणिक या एतिहासिक सन्दर्भों को वर्तमान युग के संदर्भो की तुलना में यदि हम देखें तो राम राज्य की अवधारणा आज वर्तमान युगीन भारत में भी उतनी ही सामयिक और समीचीन दिखती है जितनी कि प्राचीन समय में थी!! हाँ इतना अवश्य है कि इन युगीन तुलनाओं को करते समय हमें या हमारें वर्तमान काल खंड को सटीक और सापेक्षिक होना होगा। सापेक्षता के साथ अध्ययन करनें पर अवश्य ही हम इस आश्चर्य जनक और विस्मयकारक तथ्य पर पहुँच जायेंगे और पायेंगे कि राम राज्य की अवधारणा तो वह राज्यीय अवधारणा है जो समय की गति से ऊपर और सर्वकालिक है। कितनी ही पीढियां बीत जाएँ या यह पृथ्वी कितना ही अलौकिक विकास और वैज्ञानिक बढ़त हासिल कर ले किन्तु शासन और प्रजा के परस्पर सम्बन्ध वैसे ही होनें चाहिए जैसे पौराणिक रामराज्य में थे। राम राज्य का यह अध्ययन करते समय हम यह भी पायेंगे कि जब विकास के इस दौर में राम राज्य की यह कालजयी अवधारणा और अधिक प्रासंगिक और सान्दर्भिक होकर प्रभावी और परिणाम मूलक हो गयी है।
कदाचित श्री राम की यही लोक पालक छवि है जिसके कारण चौदहवीं शताब्दी के प्रसिद्द कवि और शायर अमीर खुसरो ने राम नाम के महत्त्व को स्वीकारते हुए कहा था कि-
शोखी-ए-हिन्दू ब बीं, कुदिन बबुर्द अज खास ओ आम,
राम-ए-मन हरगिज़ न शुद हर चंद गुफ्तम राम राम। ——
अर्थात इस विश्व का प्रत्येक सर्वसाधारण, राजकीय और सामाजिक व्यक्ति यह जान ले कि मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री राम एक शोख-शानदार-और बार बार स्मरणीय शख्शियत हैं। राम मेरे मन में हैं और मुझसे हरगिज जुदा न होंगे और में जब भी बोलूँगा राम-राम अवश्य बोलूँगा। इसी राम नाम की महिमा को हम क्रांतिकारी कवि कबीर की वाणी में भी पातें हैं जब वे कहतें हैं-
राम मिले निर्भय भय ,रही न दूजी आस
जाई सामना शब्द में राम नाम विस्वास
जब हम राम राज्य और वर्तमान की सर्वाधिक प्रासंगिक और स्वीकार्य शासन प्रणाली लोकतंत्र की चर्चा करतें हैं तब पातें हैं कि राम राज्य तो लोकतंत्र का सबसे जीवंत उदाहरण था जिसमें धोबी की कही बात से राज परिवार का निजी जीवन भी प्रभावित होता था। आज के समय में जो राजनीतिज्ञ अपनें निजी जीवन को अपनें सार्वजनिक जीवन से अलग रखनें कि अपील करते नहीं थकते हैं और कुछ अजीबोगरीब प्रकार की आचरण गत रियायतों और छूटों की आशा रखतें हैं तब राम राज्य का माता सीता और धोबी वाला अध्याय एक प्रेरक संदेशवाही अध्याय बनकर उपस्थित होता है जिसमें राम ने धोबी की बात पर अपनें व्यक्तिगत और वैवाहिक जीवन की स्थिति पर निर्णय कर एक राजा की भूमिका का जीवंत और कालजयी उदाहरण प्रस्तुत कर दिया था। राम राज्य में नागरिकों के साथ साथ पशु-पक्षियों के साथ भी न्याय होता था। रामराज्य समाजवाद के तत्वों पर आधारित राज्य था। प्रभु श्री राम ने अपनी सम्पूर्ण संपत्ति दान में दे दी और स्वयं मिट्टी के पात्र में भोजन करते और सामान्य शयन-विहार करते थे। निस्संदेह कहा जा सकता है कि रामराज्य कल्पना से नहीं, इस प्रकार के आचरण को चरितार्थ करनें से ही स्थापित हो सकता है। लोक और और शासन में सद्भावना तभी हो पाएगी जब नीतिपूर्वक कार्य किए जाएं। वर्तमान राजनैतिक परिवेश में में राजधर्म और गठबंधन धर्म एक सर्वाधिक चर्चित पहलु है। राजनीति के इस नए उपजे पक्ष पर यदि हम चर्चा करें तो ध्यान आएगा कि सुग्रीव,विभीषण और श्रीराम से बड़ा-अनोखा और बेमेल किन्तु तादात्म्य वाला राजनीतिक गठबंधन किन्तु सफलतम गठबंधन अन्यत्र कहीं देखनें में नहीं आता है। शास्त्रोक्त है कि धर्म में राजनीति आ जाए तो वह अधर्म बन जाता है, किन्तु जहाँ राजनीति में धर्म का समावेश हो तब राजनीति नीतिवत हो कर लोक कल्याण कारी हो जाती है। राजनीति के मूल अर्थ होतें है राज्य को सुचारु और लोक कल्याण की दिशा में ले जाना और धर्म अर्थात अपने-अपने कर्त्तव्य, राज्य के प्रति कर्त्तव्य, समाज के प्रति कर्त्तव्य, प्रजा के प्रति कर्त्तव्य को धर्म की भांति धारण करना। राम ने राज्य किया तो मर्यादा में रह कर किया, और राजा बनें तो अतीव विनम्र और लोकाज्ञाकारी बनकर। आज कहा जाता है कि संक्रमण काल में आचरण में कुछ छूट और कुछ अपवाद संभव हैं और यह कर अनेक प्रकार की अनैतिकता कर ली जाती है किन्तु, अपने जीवन के कठिनतम और कठोरतम समय में भी प्रभु श्री राम नीति और धर्म सम्मत ही रहे। जब शत्रुओं की ओर से विभीषण ने राम के साथ सहयोग का प्रस्ताव रखा तब सुग्रीव ने राम से कहा कि, यह शत्रु का भाई है, राक्षस कुल से है, और हो सकता है कि यह हमारें साथ किसी प्रकार का छल कपट कर ले। सुग्रीव ने यह भी कहा कि यह अपने सहोदर का नहीं हुआ, तब हमारा कैसे हो सकता है? इस वृतांत में श्री राम के गठबंधन के साथी और बाली पुत्र अंगद ने भी लगभग सुग्रीव की ही भांति मत प्रकट किया था और कहा था कि विभीषण को बंदी बनाने अथवा वध की आज्ञा प्रदान की जाए। गठबंधन के ही जामवंत ने भी मत प्रकट किया कि शत्रु शिविर से संबंधित किसी भी व्यक्ति पर कभी विश्वास न किया जाए क्योंकि वे कभी भी धोखा दे सकते हैं। सभी ने राम को यही परामर्श दिया कि विभीषण विश्वास योग्य नहीं है। किन्तु इस सबके बाद भक्त वत्सल श्री राम ने जो निर्णय लिया वह पवन पुत्र हनुमान और राजनीति के गूढ़ ज्ञाता हनुमान के कहे अनुसार लिया और विभीषण को शरण देकर उसके साथ रावण से युद्ध किया। श्री राम के जीवन में इसके पूर्व के एक घटना क्रम में भी जनप्रिय राजा किन्तु कठोरता पूर्वक कर्तव्य पालन करनें वाले राजा की छवि दृष्टिगोचर होती है जब चित्रकूट में भरत, राम को वापस ले जाने पहुंचे तब राम ने अनुज भरत को समझाकर राजकाज चलाने के लिए मना लिया,किन्तु भरत को राज्य चलाने का अनुभव तो था ही नहीं अतः राम ने भरत को राज्य संचालन की व्यावहारिक शिक्षा दी और कहा कि मंत्री परिषद में केवल ऐसे सदाचारी और सज्जन ही सम्मिलित किए जाएं, जो घूस न लेते हों, पीढ़ीगत रूप से पिता-पितामहों के समय से काम करते आ रहे हों अर्थात अनुभवी हों तथा निष्कपट, निश्छल स्वभाव के धनी हों। कालजयी रामभक्त तुलसीदास ने रामचरित मानस की चौपाईयों में राजा राम को उद्दृत करते हुए कहा है कि-
मुखिय मुख सो चाहिए खान पान कहुं एक।
पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित विवेक।।
राम कहते हैं कि राजा को मुख के सदृश होना चाहिए। जैसे मुख अन्न को ग्रहण करता है पर अन्य अंगों का पालन-पोषण समान रूप से करता है, इसी तरह राजा शासक होकर जनता से कर, शुल्क व उपहार ग्रहण करता है, एवं इससे राजकोष का संचालन इस प्रकार करता है कि सम्पूर्ण राज्य का पालन पोषण समान रूप से हो। यही राजधर्म का एक अंश है।
क्या हरियाणा मंत्रिमंडल में नहीं है कोई फूट का स्वर ?
जग मोहन ठाकन
क्या बिन बादलों के बारिस हो सकती है ? क्या बिना किसी चिंगारी के धूंआ उठ सकता है ? क्या घर में बिना किसी फूट के होते भी परिवार का मुखिया प्रेस कांफ्रेंस में सरे आम कहता है कि उसके घर में कोई फूट नहीं है ? आखिर क्यों हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को कहना पड़ा कि उनके मंत्रिमंडल में कोई फूट नहीं है ? चाहे मुख्यमंत्री कितना ही स्पष्टीकरण दें ,परन्तु हरियाणा भाजपा के सत्तासीनों में कहीं न कहीं पानी की लीकेज तो हो ही रही है . बिना लीकेज के सीलन नहीं आती , हाँ यह अवश्य हो जाता है कि सीलन काफी पुरानी हो और दिखाई बहुत देर से दे . पर इतना भी तय है कि सीलन ज्यादा पुरानी हो तो भवन को गिरने का खतरा उतना ही बढ़ जाता है . आखिर क्यों खुद मुख्यमंत्री को इस फूट को नकारना पड़ा ? क्यों मुख्यमंत्री को अपनी सरकार के लोकसंपर्क विभाग के माध्यम से अपनी प्रेस विज्ञप्ति में इस पीड़ा को प्रसारित करना पड़ा ?
क्या कहती है प्रेस विज्ञप्ति ?
“चण्डीगढ़, 23 मार्च- हरियाणा के मुख्यमंत्री श्री मनोहर लाल ने कहा कि सामुहिक रूप से बैठक कर चर्चा करना व निर्णय लेना भारतीय जनता पार्टी की संस्कृति व परंपरा रही है और पूरा मंत्रीमंडल एक जुट है और प्रदेश के हित के लिए सामुहिक निर्णय लेता है.
मुख्यमंत्री आज पंचकूला सेक्टर 11-15 में शहीद भगत सिंह की प्रतिमा का अनावरण करने उपरांत पत्रकारों से बात कर रहे थे और मंत्रियों द्वारा गुप्त बैठक किए जाने के संबंध में पूछे जाने पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे.”
क्यों उठी चिंगारी ?
मार्च २० ,२०१८ को हरियाणा मंत्रिमंडल के चार वरिष्ठ मंत्रियों ने सरकारी सचिवालय में ही एक मंत्री के कार्यालय में चाय के बहाने एक निजी मीटिंग की , जिससे हवा उड़ी कि मुख्यमंत्री खट्टर के खिलाफ कोई चक्र – व्यूह की रचना की जा रही है . मीटिंग में भाग लेने वाले चार वरिष्ठ मंत्री बताये गए हैं –अनिल विज , राम बिलास शर्मा , ओमप्रकाश धनखड़ तथा विपुल गोयल . यहाँ उल्लेखनिय है कि प्रथम तीन मंत्री हरियाणा के मुखमंत्री की कुर्सी पर बैठने को काफी समय से लालायित बताये जा रहे हैं , यह अलग बात है कि उनकी यह मंशा भाजपा के इस कार्यकाल में फलीभूत हो पायेगी या नहीं .
फूट की चिंगारी किसी ज्वाला का रूप लेती इससे पहले ही अगले ही दिन मुख्यमंत्री खट्टर ने अपने आवास पर ‘डिनर डिप्लोमेसी’ के तहत एक भोज का आयोजन कर सभी विमुखित मंत्रियों को ठन्डे शावर के छींटे लगाकर उठ रहे फूट के धुएं को चिंगारी सहित दबा देने का काम कर दिया . बाद में भाजपा के अन्य वरिष्ठ नेताओं ने भी फूट की किसी भी चिंगारी से इनकार किया और इस डिनर को एक रूटीन की प्रक्रिया बताया .
बताया जाता है कि भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजय वर्गीय द्वारा इसी १५ मार्च को चंडीगढ़ में ली गयी कार्यकर्ताओं व पदाधिकारियों की मीटिंग में भी प्रदेश की ब्यूरोक्रेसी द्वारा कार्यकर्ताओं की उपेक्षा को लेकर आवाज उठी थी .अमित शाह की जींद रैली में भी कार्यकर्ताओं द्वारा अपेक्षा से काफी कम भीड़ जुटाने को लेकर उठे सवाल को कार्यकर्ताओं की उपेक्षा का ही परिणाम माना जा रहा है . अगर हालत यही रहे और कार्यकर्ताओं तथा मंत्री मंडल के सहयोगियों की यों ही उपेक्षा होती रही तो आगामी लोकसभा व विधान सभा चुनावों में पार्टी को इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है . धुएं को बुझा देने से चिंगारी नहीं बुझती , उसकी तह तक पानी सींचना पड़ता है .
चाहे कितना ही फूट से इनकार किया जाए , बिना चिंगारी के धुंआ नहीं उठ सकता .
उल्टी हो गईं सब तदबीरें…
निर्मल रानी
भारतीय जनता पार्टी इस समय देश के 29 राज्यों में से 21 राज्यों पर शासन कर रही है। निश्चित रूप से भारतीय जनता पार्टी का इतना राजनैतिक विस्तार देश में पहले कभी नहीं हुआ था। बेशक इन 21 राज्यों में त्रिपुरा, जम्मू-कश्मीर गोआ व मणिपुर जैसे कुछ राज्य ऐसे भी हैं जहां वह बहुमत के बल पर नहीं बल्कि अप्राकृतिक राजनैतिक गठबंधन या जोड़-तोड़ व तिकड़माबज़ी के बल पर सत्तासीन हुई है। बहरहाल, जो भी हो यह सभी सरकारें संवैधानिक दायरे के अंतर्गत् गठित हुई हैं। भारतीय जनता पार्टी अपने जनाधार के विस्तार हेतु एक कारगर फार्मूले पर अमल करते हुए यह प्रचारित करती रही है कि वह हिंदू धर्म की सबसे बड़ी हितैषी पार्टी है। वह अपने-आप को रामजन्म भूमि अयोध्या के राममंदिर के निर्माण का सपना देश के रामभक्तों को दिखाती है। वह स्वयं को गौवंश का रक्षक बताकर गौभक्तों से वोट मांगती है। इन बातों से यह साफ ज़ाहिर होता है कि भाजपा को उन गैर हिंदू मुद्दों की आवश्यकता नहीं जिन्हें साधने के लिए दूसरे गैर भाजपाई राजनैतिक दल स्वतंत्रता से लेकर अब तक हमेशा प्रयत्नशील रहे हैं।
परंतु अपनी इस बहुसंख्यवादी राजनीति को साधने में भाजपा के नेताओं द्वारा यहां तक कि स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमितशाह तथा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सहित कई केंद्रीय मंत्रियों द्वारा मात्र चुनाव जीतने की गरज़ से कुछ ऐसी बातें की जाती हैं जो बहुसंख्य समाज में अल्पसंख्यकों के प्रति भय तथा नफरत पैदा करती हैं। यह और बात है कि कभी-कभी मतदाता ऐसे चुनावी हथकंडों को नकार देते हैं। परिणामस्वरूप न केवल ऐसे दुष्प्रचार करने वालों को मुंह की खानी पड़ती है बल्कि चुनावों में हार का मुंह भी देखना पड़ता है। सवाल यह है कि जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 15 अगस्त 2014 को लाल किले से अपने पहले संबोधन में ही देशवासियों से कुछ वर्षों के लिए सांप्रदायिकता को तिलांजली देकर देश के विकास के लिए एकजुट होने की अपील करते दिखाई देते हैं, क्या उत्तर प्रदेश के फतेहपुर विधानसभा क्षेत्र के चुनाव प्रचार में उन्हीं के मुंह से ईद और दीवाली के मध्य विद्युत आपूर्ति में अंतर करना और शमशान व कब्रिस्तान जैसे विषयों का जि़क्र करना शोभा देता है? क्या प्रधानमंत्री की यह भाषा शैली उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगियों तथा पार्टी के सांसदों, विधायकों व पार्टी कार्यकर्ताओं को इस बात के लिए प्रोत्साहित नहीं करती कि किसी भी तरह देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की मुहिम तेज़ रखी जाए और इसी के बल पर सत्ता प्राप्त की जाए?
याद कीजिए 2015 में बिहार में हुए विधानसभा चुनावों के दौरान जब कांग्रेस, जनता दल युनाईटेड तथा राष्ट्रीय जनता दल मिलकर चुनाव लड़ रहे थे उस समय भाजपा अध्यक्ष अमितशाह ने एक सार्वजनिक सभा में यही कहा था कि यदि बिहार में भाजपा हारी और महागठबंधन की जीत हुई तो पाकिस्तान में जमकर आतिशबाज़ी होगी। उन्होंने भाजपा की हार को जंगलराज-2 की वापसी की संज्ञा भी दी थी। हद तो यह है कि शाह ने यह भी कहा था कि महागठबंधन की जीत से जेल में बंद गैंगस्टर मोहम्मद शहाबुद्दीन जैसे लोग जश्र मनाएंगे। शाह ने यह भी कहा था कि महागठबंधन पिछड़ों और दलितों के लिए निर्धारित आरक्षण का एक हिस्सा अल्पसंख्यकों को देने की साजि़श रच रहा है। इतना ही नहीं बल्कि उसी चुनाव में भाजपा कार्यकर्ताओं द्वारा राज्य में गाय को सजाकर तथा उससे गले मिलकर रोते-पीटते हुए कार्यकर्ता जुलूस निकालते थे तथा मतदाताओं को गौ माता की रक्षा करने का संकल्प दिलाने के साथ-साथ भाजपा को वोट देने की अपील करते थे। इन सब दुष्प्रचारों व चुनावी हथकंडों का परिणाम क्या निकला था वह देश ने भलीभांति देखा था। यह और बात है कि भाजपा ने अपना अंतिम शस्त्र चलाते हुए महागठबंधन की बनी-बनाई सरकार के नीतिश कुमार के नेतृत्व के बड़े धड़े को महागठबंधन से अलग करने में सफलता हासिल की।
गैर जि़म्मेदाराना तथा दुष्प्रचार करने वाले बयानों का सिलसिला अभी भी थमने का नाम नहीं ले रहा है। पिछले दिनों योगी आदित्यनाथ बड़े ‘गर्व’ से यह कहते सुनाई दिए कि वे ईद नहीं मनाते क्योंकि वे हिंदू हैं और इसपर उन्हें गर्व है। हमारी सांझी संस्कृति में किसी भी धर्म का वह व्यक्ति दुर्भाग्यशाली ही समझा जाएगा जो एक-दूसरे के त्यौहारों को या तो मनाता नहीं या उसके बारे में जानता नहीं अथवा उसमें शरीक नहीं होता। परंतु योगी का यह बयान भी बहुसंख्यवादी कट्टरपंथी हिंदू मतों को अपने साथ जोडऩे के उद्देश्य से दिया गया था। इस बयान के चंद दिनों बाद ही उनके अपने संसदीय क्षेत्र गोरखपुर में पिछले दिनों लोकसभा चुनाव हुआ जिसमें उन्हें ऐसी हार का सामना करना पड़ा जिसके बारे में स्वयं योगी व उनकी पार्टी कल्पना भी नहीं कर सकती थी। यह चुनाव परिणाम योगी के अहंकार तथा उनके सांप्रदायिकता पूर्ण आचरण व वक्तव्यों का एक लोकतांत्रिक जवाब था। फूलपुर संसदीय सीट पर भी भाजपा ने बाहुबली अतीक अहमद को पिछले दरवाज़े से स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में प्रत्याशी बनाकर अल्पसंख्यक मतों को विभाजित करने का खेल खेला। परंतु यह हथकंडा भी धराशायी हो गया और उपमुख्यमंत्री केशव मौर्या की सीट से भी हाथ धोना पड़ा।
बिहार के अररिया संसदीय सीट पर स्वर्गीय सांसद तसलीमुदीन के पुत्र सरफराज़ आलम आरजेडी के प्रत्याशी के रूप में चुनाव मैदान में थे। यहां भी भाजपा द्वारा पूरे क्षेत्र में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने की पूरी कोशिश की गई। हद तो यह है कि केंद्रीय मंत्री गिरीराज सिंह ने तो अररिया लोकसभा सीट पर भाजपा के पराजित होने के बाद कुछ ऐसी विवादित बयान दिए जो राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से कतई न्यायसंगत नहीं। परंतु अफसोस की बात है कि इस तरह की बेलगाम बातें करने वालों से न तो कोई सवाल करने वाला है न ही इनके विरुद्ध कोई कार्रवाई करने वाला। गिरीराज सिंह ने अररिया में कहा था कि-‘अररिया केवल सीमावर्ती इलाका नहीं है, केवल नेपाल और बंगाल से जुड़ा नहीं है, एक कट्टरपंथी विचारधारा को उन्होंने (आरजेडी) ने जन्म दिया। यह बिहार के लिए ही नहीं बल्कि देश के लिए खतरा होगा। वह आतंकवादियों का गढ़ बनेगा’। इतना ही नहीं बल्कि सोशल मीडिया पर एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की ही तर्ज पर एक ऐसी वीडियो प्रचारित की गई जिसमें कथित रूप से अररिया में कुछ विशेष समुदाय के लोगों द्वारा पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाते हुए दिखाया गया था। इस वीडियो को लेकर मीडिया में अच्छी-खासी बहस भी छिड़ गई और छद्म राष्ट्रवाद की बहस होने लगी। परंतु बाद में इस वीडियो के भी फर्जी होने का समाचार प्राप्त हुआ।
मज़े की बात तो यह है कि जम्मु-कश्मीर व नागालैंड में जहां भारतीय जनता पार्टी अलगाववादी विचारधारा रखने वाले राजनैतिक दलों व संगठनों के साथ सरकार बनाने में कोई परहेज़ नहीं करती वहीं भाजपा उन धर्मनिरपेक्षतावादी राजनैतिक दलों के प्रति मतदाताओं में भय पैदा करने के लिए उनपर आतंकी गठजोड़ या पाकिस्तानी होने का लेबल लगा देती है जो सीधेतौर पर भारतीय जनता पार्टी को चुनौती देते हैं या इनकी सांप्रदायिकतपूर्ण राजनीति की हकीकत को बेनकाब करते हैं। भाजपा अपने विरोधियों को राजनैतिक विरोधी समझने के बजाए राष्ट्रविरोधी, आतंकवाद समर्थक, पाकिस्तानपरस्त, आईएसआई व अलकायदा समर्थक, मुस्लिम तुष्टिकरण करने वाला, देशद्रोही जैसे ‘प्रमाणपत्रों’ से नवाज़ती रहती है। परंतु इन सबके बावजूद उपचुनावों के परिणाम ने बकौल मीर तकी मीर यह साबित कर दिया कि-‘उलटी हो गईं सब तदबीरें। कुछ न दवा ने काम किया-। देखा, इस बीमारी-ए-दिल ने आखिर काम तमाम किया?
अब बने कुर्सी-सापेक्ष्य मोर्चा
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेसी नेता और पूर्व मंत्री वीरप्पा मोइली का कहना है कि कांग्रेस के बिना विपक्ष का कोई भी गठबंधन बनाना उचित नहीं है। उसका अर्थ यही होगा कि आप भाजपा के विरोधियों में फूट डाल रहे हैं और भाजपा को मजबूत बना रहे हैं। मोइली का तर्क है कि सभी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को एकजुट होकर भाजपा के विरुद्ध लड़ना चाहिए। इन सभी पार्टियों का एक साझा कार्यक्रम हो, जिसके आधार पर 2019 में ये भाजपा को हरा सकें। मोइली ने यह टिप्पणी तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखरराव के इस कथन पर की है कि देश में इस समय एक गैर-भाजपाई और गैर-कांग्रेसी मोर्चा बनाना चाहिए। राव की यह बात उन्हें शोभा देती है, क्योंकि राज्यों की प्रादेशिक पार्टियों की पटरी अखिल भारतीय पार्टियों के साथ कैसे बैठ सकती है ? ये अखिल भारतीय नेता प्रादेशिक पार्टियों को घास ही नहीं डालते। उनका गठबंधन चुनाव जीत जाए, तब भी ये प्रादेशिक नेता हाशिए के हवाले कर दिए जाते हैं। इसके अलावा राव ने यह भी देख लिया कि कांग्रेस के साथ गठबंधन का अर्थ है- राहुल गांधी को नेता स्वीकार करना। राहुल के साथ गठबंधन करके उप्र में अखिलेश यादव का हाल क्या हुआ ? यह ठीक है कि देश के हर जिले में कांग्रेस अभी भी जिंदा है लेकिन उसके पास न कोई नेता है, न नीति है। आप धर्म निरपेक्ष शक्तियों का मोर्चा बनाने जा रहे हैं और उस मोर्चे के संभावित नेता आजकल क्या कर रहे हैं ? धोती और कंठी लपेटकर मंदिरों में धोक मार रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि वे चोटी और जनेऊ चढ़ाकर शिवलिंग की भी पूजा करने लगें। उन्हें देखकर उनकी धर्म निरपेक्ष पार्टी के कार्यकर्ताओं के भी हंसी के फव्वारे छूटते रहते हैं। सच्चाई तो यह है कि इस मोर्चे का धर्म-निरपेक्षता से कुछ लेना-देना नहीं है। यह मोर्चा जरुर बने लेकिन यह धर्म-निरपेक्ष नहीं, कुर्सी-सापेक्ष्य बनेगा। मोदी-सरकार से हो रहे तीव्र मोहभंग का फायदा सभी उठाना चाहते हैं। प्रधानमंत्री पद के दर्जन भर उम्मीदवार उठ खड़े हुए हैं। उनके पास वैकल्पिक भारत का कोई नक्शा नहीं है। उनमें कोई नेता ऐसा नहीं है, जिसे चुनाव के पहले सारे दल सर्वसम्मति से स्वीकार कर लें। उनके पास कोई लोहिया, कोई जयप्रकाश, कोई रामदेव, कोई अन्ना हजारे भी नहीं है।
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की राजनीती असफलता या अस्तित्व की
डॉक्टर अरविन्द जैन
भारत देश ,समस्त प्रदेश और समस्त निवासियों से बना हैं ,जिसने जन्म लिया यहाँ पर वह भारतीय और उसे सब जगह आने जाने की स्वतंत्रता होती हैं। कोई भी समाज अन्य समाजों से नहीं जुड़ता तब तक समाज की कल्पना करना बेमानी होगी. मानव जीवन में इतनी जरूरतें होती हैं और उनकी भरपाई सब प्रकार के लोगों से होती हैं .और मनुष्य अपने भविष्य की सुखद स्थिति को बनाने जहाँ उसका भाग्य , जहाँ उसकी रोजी रोटी लिखी होती हैं वहां जाने को बरबस मजबूर हो जाता हैं। वर्षों भी ग्रामीण अंचलों में भविष्य अंधकारमय होने के कारण और अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन के लिए ऐसी जगह जाता हैं जहाँ से वह अपनी कल्पना को साकार करता हैं.यह कोई जरुरी नहीं हैं की सबको अनुकूल ही सफलता मिलती हैं.करोड़ों लोग हैं जिनको एक जगह या घर नसीब नहीं होता और किसी किसी के भाग्य इतना बलशाली होता हैं और पाप पुण्य का ठाठ होने से अपनी क्षमता का योग्यतम प्रदर्शन कर सब कुछ पा लेते हैं।
महानगरों की संरचना मात्र वहां के मूल निवासियों से नहीं होती। यदि हम उदाहरण देकर बात करे तो मुंबई का अस्तित्व मात्र मानलो ४ सौवर्ष का हैं तब वहां भी कोई न कोई बाहरी व्यक्ति आये होंगे और उनके साथ अन्य लोगों का आना हुआ और जब समाज विकसित होता हैं तो उनकी पूर्ती के लिए मजदुर ,कारीगर ,मेकेनिक्स ,व्यापारी ,आना शुरू हुआ। .उन्होंने आपने विकास किया साथ ही वहां के बाशिंदों को सुविधाएं दी.कोई भी मनुष्य सब काम में निपुण नहीं होता और न हो सकता ,इस प्रकार महाराष्ट्र प्रान्त के साथ अन्य स्थानों के लोगों का आवागमन हुआ और धीरे धीरे नगर ,महानगर की संज्ञा प्राप्त कर आज आर्थिक राजधानी के रूप में पहचान बनायीं। इसमें किस किसका कितना योगदान हैं यह कहना मुश्किल हैं पर गिलहरी जैसा योगदान देकर आज यह स्थिति बनी हैं।
जब समाज समूह में होता हैं तब अस्तित्व की लड़ाई के लिए राजनीती का सहारा लिया जाता हैं अन्यथा इस बड़ी दुनिया में कोई किसी को नहीं पहचानता बून्द बून्द से सागर बनता हैं और सागर बून्द समाय हो जाता हैं। कुछ समय से यह प्रतीत हो रहा हैं की जब समाज हर प्रकार से सम्पुष्ट हो जाता हैं तब उसे अन्य समाज गौण लगने लगती हैं। राजा के साथ उसके पिच्छलग्गू न हो तो राजा वैसा ही हो जाता हैं जैसे जैसे फौज का सेनापति या बिना स्तन की औरत .महाराष्ट्र में कुछ राजनैतिक पार्टिया कुछ समय के बाद अपनी असफलता को छिपाने या अपने अस्तित्व को बताने ऐसा शिगूफा छोड़ देती हैं जिससे कुछ हलचल होने लगती हैं और वे समाचारों के मुख्य पृष्ठ पर छाने का प्रयास करने लगते हैं।
कभी उत्तर प्रदेश ,तो कभी बिहार या कभी गुजरात के लोंगो के प्रति अपना आक्रोश निकालने कुछ ना कुछ बहाना ढूढंते हैं। पर ये नहीं समझते जो वहां वर्षों से रहकर उनकी उन्नति में अपना श्रम का योगदान देकर उनको स्थापित किया। क्या वे बिना वोट या समूह के अपने को बचा सकते हैं। वैसे बाहरी निवासियों के बिना मुम्बईकर कुछ नहीं कर सकते। आज जितनी गगनचुम्बी इमारतें ,कारखाने और अन्य कामों में इनका योगदान हैं उतना स्थानीय लोगो का नहीं हैं। वे लोग अपने परिवार जानो ,नाते रिश्तेदारों को छोड़कर नारकीय जीवन जी कर व्यवसाय नौकरी मजदूरी करते हैं अपना पेट काटकर पैसा जमा करते हैं और परिवार का भरण पोषण करते हैं और मुंबईकरों को सेवा देते हैं यह क्या कम हैं। उनका ऋणी मुंबईकरों को भी होना चाहिए। पर ऐसा न करके उन्हें बाह्य मानकर उनको तिरस्कृत करना कहाँ तक उचित होगा.!
अभी कल ही गुजरातियों से कहा गया अपनी प्रतिष्ठान के बोर्ड मराठी में लगाए या वे सब लोग जो बाहर से आये हैं वे मुंबई छोड़कर जाए यह क्या संभव होगा ?कभीनहीं ,जो इसकी घोषणा करते हैं वे कब यहाँ आये थे ?या उनके पूर्वज .जितना विकास महानगरों में हुआ हैं उसका मूल में ग्रामीण और अन्य छोटे कसबे ,शहरों से आये लोगों का प्रतिफल हैं। ऐसा ही विरोध अन्य प्रांतवासी मुंबई निवासियों क साथ करे तब कैसा महसूस होगा ?यह बहुत चिंतनीय बिंदु हैं पर अनुकरणीय नहीं हैं। ये सब शिगूफा करने का मात्र उद्देश्य हैं अपनी असफलता को छिपाना या अपना खोया अस्तित्व को उजागर करना। इससे किसी का कुछ नहीं बिगड़ने का जिसका भाग्य ,पुण्य जिस जगह पर होना होता हैं वह वही होगा और जिनको सत्ता नसीब नहीं होना होंगी वे लाख कोशिश करले कुछ नहीं होगा. नेता किसी के भाग्य निर्माता नहीं होते। वे स्वयं दया के पात्र होते हैं ,वे जन्मजात भिखारी होते हैं ,हमेशा याचना करना पर उसके बाद भी राजा जैसे भाव रखना उचित महसूस नहीं होता। इसीलिए आप प्रान्त को अपना ना मानकर देश को अपना मानो।
नेता बनाकर रहते हो याचक ,जन्मजात भिखारी
लेने वाले का हाथ हमेशा नीचे रहता हैं
नग्न साधु और भिखारी होते बाह्य में एक समान
एक हाथ पसारकर मांगता हैं और एक आशीर्वाद देता हैं
कोई किसी के कर्मों का भागीदार नहीं होता हैं
जिसका पुण्य उदय जहाँ होगा वह वहीँ बढ़ेगा
जिसका पाप उदय होता हैं वह कही भी रहे ना बच सकेगा
सबको अपनाओ और इतने योग्य बनो की सब तुम्हे अपनाये
ना मेरा ना तेरा ,सब कुछ यहीं रह जाएंगे ,बस यश ही जाएगा
केजरीवाल की माफी का अर्थ
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने पहले विक्रमसिंह मजीठिया और अब नितिन गडकरी से माफी मांगकर भारत की राजनीति में एक नई धारा प्रवाहित की है। यह असंभव नहीं कि वे केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली और अन्य लोगों से भी माफी मांग लें। अरविंद पर मानहानि के लगभग 20 मुकदमे चल रहे हैं। अरविंद ने मजीठिया पर आरोप लगाया था कि वे पंजाब की पिछली सरकार में मंत्री रहते हुए भी ड्रग माफिया के सरगना हैं। गडकरी का नाम उन्होंने देश के सबसे भ्रष्ट नेताओं की सूची में रख दिया था। इसी प्रकार अरुण जेटली पर भी उन्होंने संगीन आरोप लगा दिए थे। इस तरह के आरोप चुनावी माहौल में नेता लोग एक-दूसरे पर लगाते रहते हैं लेकिन जनता पर उनका ज्यादा असर नहीं होता। चुनावों के खत्म होते ही लोग नेताओं की इस कीचड़-उछाल राजनीति को भूल जाते हैं लेकिन अरविंद केजरीवाल पर चल रहे करोड़ों रु. के मानहानि मुकदमों ने उन्हें तंग कर रखा है। उन्हें रोज़ घंटों अपने वकीलों के साथ मगजपच्ची करनी पड़ती है, अदालतों के चक्कर लगाने पड़ते हैं और सजा की तलवार भी सिर पर लटकी रहती है। ऐसे में मुख्यमंत्री के दायित्व का निर्वाह करना कठिन हो जाता है। इसके अलावा निराधार आरोपों के कारण उन नेताओं की छवि भी खराब होने की संभावनाएं हमेशा बनी रहती हैं। ऐसी स्थिति से उबरने का जो रास्ता केजरीवाल ने ढूंढा है, वह मेरी राय में सर्वश्रेष्ठ है। ऐसा रास्ता यदि सिर्फ डर के मारे अपनाया गया एक पैंतरा भर है तो यह निश्चित जानिए कि अरविंद की इज्जत पैंदे में बैठ जाएंगी। यह पैंतरा इस धारणा पर मुहर लगाएगा कि केजरीवाल से ज्यादा झूठा कोई राजनेता देश में नहीं है लेकिन यदि यह सच्चा हृदय-परिवर्तन है और माफी मांगने का फैसला यदि हार्दिक प्रायश्चित के तौर पर किया गया है तो यह सचमुच स्वागत योग्य है। यदि ऐसा है तो भविष्य में हम किसी के भी विरुद्ध कोई निराधार आरोप अरविंद केजरीवाल के मुंह से नहीं सुनेंगे। केजरीवाल के इस कदम का विरोध उनकी आप पार्टी की पंजाब शाखा में जमकर हुआ है लेकिन वह अब ठंडा पड़ रहा है। इस फैसले की आध्यात्मिक गहराई को शायद पंजाब के ‘आप’ विधायक अब समझ रहे हैं। यह फैसला देश के सभी राजनेताओं के लिए प्रेरणा और अनुकरण का स्त्रोत बनेगा।
किसान आंदोलन और मीडिया की भूमिका
तनवीर जाफरी
किसानों, खेतीहर मज़दूरों तथा आदिवासियों द्वारा पिछले दिनों नासिक से शुरु हुआ पैदल किसान मार्च लगभग 180 किलोमीटर की यात्रा तय कर 12 मार्च को मुंबई पहुंचा। सूत्रों के अनुसार इस मार्च में लगभग 60 हज़ार आंदोलनकारी अपनी मांगों को लेकर मुंबई स्थित विधानसभा भवन का घेराव करने के इरादे से मुंबई पहुंचे थे। परंतु उनके विधानसभा घेरने से पहले ही राज्य सरकार द्वारा किसानों की 90 प्रतिशत मांगें बिना किसी शर्त के मान ली गईं। हमारे देश में किसानों व मज़दूरों के आंदोलन पहले भी बड़े पैमाने पर होते रहे हैं। परंतु गत् 6 से 12 मार्च तक महाराष्ट्र में चला यह किसान मार्च अपने-आप में कई नज़रियों से ऐतिहासिक आंदोलन के रूप में जाना जाएगा। इस आंदोलन ने जहां किसानों, मज़दूरों तथा आदिवासियों की बेबसी, उनकी मजबूरी, लाचारी तथा गरीबी से आम लोगों को परिचित कराया वहीं इतनी बड़ी तादाद में एक साथ पैदल मार्च करने के बावजूद उनका अनुशासन भी देखने लायक रहा। इस आंदोलन ने न केवल उनकी जायज़ मांगों तथा उनके अनुशासन व बड़ी तादाद को देखते हुए सरकार को झुकने पर मजबूर किया वहीं नासिक से लेकर मुंबई के आज़ाद मैदान पहुंचने तक के रास्ते में आम जनता भी इन ‘अन्नदाताओं’ की सेवा में खड़ी देखी गई। कहीं रास्ते में जनता द्वारा किसानों को पानी तथा शरबत पिलाया जा रहा था तो कहीं उनके स्वास्थय की जांच-पड़ताल हेतु कैंप लगाए गए थे। गौरतलब है कि इस किसान मार्च में सैकड़ों किसानों के पैरों में छाले पड़ गए थे, कई किसानों के पैर फट जाने के कारण रक्त बहने लगा था तो कई के पैर व टांगे सूजन से फूल गई थीं। इस मार्च में हज़ारों बुज़ुर्ग किसान भी शामिल थे।
बहरहाल, कृषि प्रधान देश का लाचार कृषक समाज जब सड़कों पर उतरा तो निश्चित रूप से सरकार से लेकर जनता तक सभी पक्ष तो उसके प्रति संवेदनशनशील नज़र आए। सोशल मीडिया से लेकर क्षेत्रीय समाचार पत्रों तक ने इस किसान आंदोलन से संबंधित समाचार तथा टीका-टिप्पणियां सचित्र प्रकाशित किए। एक सप्ताह तक सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यमों में भी यह आंदोलन पूरी तरह छाया रहा। परंतु दुर्भाग्यवश हमारे देश का बिकाऊ व दलाल प्रवृति का बन चुका इलेक्ट्रॉनिक मीडिया खासतौर पर मुख्यधारा के समझे जाने वाले समाचार चैनल्स ने इस किसान आंदोलन से जुड़े समाचारों को उसके महत्व के अनुसार प्रसारित करना मुनासिब नहीं समझा। जिन दिनों में यह आंदोलन अपने शबाब पर था और सोशल मीडिया पर किसानों के लहू-लुहान पैर उनकी पत्थराती टांगें, उनके लडख़ड़ाते कदम छाए हुए थे उस समय ‘गोदी मीडिया’ मोहम्मद शमी नामक क्रिकेट खिलाड़ी तथा चियर्स गर्ल रह चुकी उसकी पत्नी, जिसने कि शमी के साथ दूसरा विवाह किया था, के मध्य धन-संपत्ति को लेकर उपजे विवाद तथा एक-दूसरे को नीचा दिखाने हेतु इनके द्वारा एक-दूसरे के विरुद्ध दिए जा रहे विवादित बयानों को मुख्य रूप से प्रसारित किए जाने में व्यस्त था।
ज़रा सोचिए कि हम जिस मेहनतकश कृषक समाज के बल पर अपने देश को कृषि प्रधान देश रटते आ रहे हों वही कृषक समाज इतनी बड़ी तादाद में समुद्र की तरह हिलोरंे मारता हुआ 180 किलोमीटर लंबी पदयात्रा करता हुआ अपना घर-परिवार छोड़कर सड़कों पर उतरने को मजबूर हो और जो कृषक समाज सरकार को जगाने तथा उसकी आंखें खोलने के लिए मीडिया के सहयोग की उम्मीद भी लगाए बैठा हो उस जि़म्मेदार मीडिया की प्राथमिकता देश के करोड़ों किसानों की आवाज़ बुलंद करने के बजाए किसी पति-पत्नी के आपसी विवाद के विषय में देश की जनता को चिल्ला-चिल्ला कर बताना और मिर्च-मसाला लगाकर ऐसे समाचारों को पेश करना ही रह गया है? क्या बेशर्म, बेगैरत तथा दलाल व चाटुकार मीडिया घराने के लोगों को उन गरीब, बेबस किसानों के पैरों से बहता लहू व उनके पैरों के छाले एक सप्ताह तक भी नज़र नहीं आए? आज यदि दिल्ली या मुंबई जैसे शहरों में बलात्कार, लूट जैसी कोई घटना हो जाती है या कोई दलबदलू नेता अपने राजनैतिक स्वार्थ के चलते अपना राजनैतिक धर्म परिवर्तन करता है या कहीं कोई ऐसी खबर इस तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया के हाथ लग जाती है जिससे सांप्रदायिकतापूर्ण बहस के द्वार खुलते हों या जिससे बहस को धर्म आधारित बहस बनाकर समाज में उत्तेजना पैदा की जा सके तो ऐसी बातों में इस मीडिया की भरपूर दिलचस्पी दिखाई देती है।
आखिर क्या वजह है कि भारतीय मीडिया का एक बड़ा वर्ग किसानों, उनकी समस्याओं, उनके जीवन व उनके रहन-सहन आदि से लगभग विमुख हो चुका है? क्या वजह है कि मीडिया की दिलचस्पी शहरी दिखावेबाज़ी, झूठी शान-ओ-शौकत, स्टूडियो में निर्मित सेट, सेलेब्रिटीज़ तथा रंगारंग स्टेज आदि को दिखाने में ज़्यादा है? आज मुख्य मीडिया न तो किसानों के बारे में चर्चा करता दिखाई देता है न ही वह छात्रों व शिक्षकों के समक्ष दरपेश परेशानियों व उनकी समस्याओं का जि़क्र करता है। न ही उसे मरीज़ों व वृद्धों के दु:ख-सुख की फिक्र है न ही उसका ध्यान महामारी की तरह फैलती जा रही बेरोज़गारी पर कोई कार्यक्रम प्रस्तुत करने में है। ऐसा प्रतीत होता है कि आज-कल मीडिया का एजेंडा भी सरकारों द्वारा तय किया जा रहा है। पत्रकारिता अपने कर्तव्य तथा दायित्व से पूरी तरह अपना मुंह मोड़ती नज़र आ रही है। पत्रकारिता का अर्थ शासन व प्रशासन को जन समस्याओं से अवगत कराना व इन्हें उजागर करना नहीं बल्कि शासन व प्रशासन की ढाल बनकर इन समस्याओं पर पर्दा डालना ही रह गया है। ऐसा प्रतीत होने लगा है कि टेलीविज़न चैनल संभवत: इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं कि उनकी टीआरपी तभी बढ़ेगी जब वह मोहम्मद शमी व हसीन जहां जैसे किसी जोड़े के पारिवारिक विवाद संबंधी खबरें चीख़-चीख कर पढ़ेंगे या मंदिर-मस्जिद व हिंदू-मुस्लिम जैसे विषय पर आधारित ज्वलंत बहस में घी-तेल डालने का काम करेंगे।
ज़रा सोचिए जिन किसानों ने जनता की परेशानियों व ट्रैफिक जाम के मद्देनज़र मुंबई क्षेत्र में दिन में मार्च निकालने के बजाए केवल रात में पैदल चलने का फैसला किया हो और रातों में भी आम जनता उन किसानों के साथ सहयोगपूर्ण तरीके से पेश आ रही हो उस सत्ता के दलाल मीडिया ने देश को यह बताने में तो अपनी पूरी ताकत झोंक डाली कि किस प्रकार त्रिपुरा में वामपंथियों का किला ढह गया। बार-बार त्रिपुरा के संदर्भ को लेकर यही मुख्य मीडिया यह बता रहा था कि भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में ‘लाल विचार’ अपना दम तोड़ रहा है। परंतु नासिक-मुंबई के 180 किलोमीटर लंबे मार्ग पर फैला ‘लाल समुद्र’ इस मीडिया को दिखाई नहीं दिया। यह वही मीडिया है जो देश के दलबदलू नेताओं से लेकर देश के उद्योगपतियों व कारपोरेट घरानों से जुड़ी मामूली खबरों को भी बढ़ा-चढ़ा कर पेश करता है। उदाहरण के तौर पर पिछले दिनों प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री श्रीदेवी की मौत पर ही मीडिया द्वारा कितना हो-हल्ला किया गया तथा किस प्रकार की गैर जि़म्मेदाराना रिपोर्टिंग भी की गई। परंतु इसी मीडिया को ऐसा प्रतीत होता है कि किसानों की खबरें प्रमुखता से प्रसारित करने पर उसकी टीआरपी में कोई इज़ाफा नहीं होगा। दूसरी ओर ‘सरकार बहादुर’ भी ऐसे प्रसारण से अपनी ‘निगाह-ए-करम’ फेर सकती है। लिहाज़ा किसानों के प्रति हमदर्दी जताने जैसा जोखिम उठाया ही क्यों जाए?
मोदी पर कांग्रेस की कृपा बनी रहे
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेस पार्टी के 84 वें महाअधिवेशन में से निकला क्या ? क्या उसमें से कुछ ऐसे सूत्र निकले, जिनसे देश को कोई आशा बंधे ? क्या कोई ऐसा नेता उसमें से उभरा, जो 2019 में देश का नेतृत्व करने लायक हो ? इन दोनों प्रश्नों का जवाब आप उस अधिवेशन में भाग लेनेवाले कांग्रेसियों से ही पूछ लीजिए। वे सब भी हाथ मलते हुए घर चले गए। यह 84 वां अधिवेशन भी किस वेला में हुआ है ? ऐसी वेला में जबकि पूर्वोतर में कांग्रेस का सफाया हो गया है और उत्तरप्रदेश में उसके दोनों संसदीय उम्मीदवारों की जमानतें जब्त हो गई हैं। अखिलेश और मायावती ने भारत की सबसे पुरानी और महान पार्टी को इस लायक भी नहीं समझा कि उससे चुनावी गंठबंधन करें। अखिलेश ने पिछले साल विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था और उसका नतीजा देख लिया। हम तो डूबें हैं सनम, तुमको भी ले डूबेंगे। इसमें शक नही कि कांग्रेस अभी भी एक पूर्ण अखिल भारतीय पार्टी है और इसका सशक्त रहना भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ ही होगा। लेकिन इसके पास न तो कोई नेता है और न ही नीति है। 2019 के चुनावों में देश के अन्य दल इसे अपना नेता क्यों मानेंगे, कैसे मानेंगे ? लोकसभा में इसके 50 सदस्य भी नहीं हैं और यह सिर्फ चार राज्यों में सिमटकर रह गई है। इसके पैसों के झरने भी सूखते जा रहे हैं।
सिर्फ नरेंद्र मोदी को अहंकारी और ड्रामेबाज कह देने से काम चल जाएगा क्या ? जनता को इससे क्या फर्क पड़ता है? मोदी क्या है, इसे आपसे ज्यादा संघ और भाजपा के लोग जानते हैं। भारत की जनता भी जानने लगी है। इसका अंदाज हम-जैसे लोगों को पहले से था लेकिन फिर भी देश की मजबूरी थी कि आप की जगह उसको लाना पड़ा, क्योंकि देश की जनता भ्रष्ट और छद्म सरकार से तंग आ चुकी थी। इतनी तंग आ गई थी कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर मोदी तो क्या, किसी को भी बिठा सकती थी। यह ठीक है कि आज चार साल में देश का मोहभंग शुरु हो गया है लेकिन देश का नेतृत्व बदलने के पहले कांग्रेस को अपने नेतृत्व पर विचार करना होगा। वोट डालने के लिए मशीनों के बजाय पर्चियों की मांग करना और लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ करवाने की मांग का विरोध करना क्या है ? क्या यह बौद्धिक शून्यता का परिचायक नहीं है ? कांग्रेस की कृपा का ही परिणाम मोदी है और मोदी का यदि दुबारा आना हुआ तो वह भी कांग्रेस की कृपा से ही होगा।
अयोध्या—विवाद ऐसे हल हो
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अयोध्या-विवाद फिर टल गया। सर्वोच्च न्यायालय ने तारीख आगे बढ़ा दी। अभी एक लाख पृष्ठ के दस्तावेज़ हिंदी, उर्दू और फारसी से अंग्रेजी में होने हैं। मुझे नहीं लगता कि रामजन्म भूमि और बाबरी मस्जिद का मामला अदालतें हल कर सकती हैं। यदि वे फैसला दे भी दें तो भी उसे लागू कौन कर सकता है ? इस नाजुक और राष्ट्रीय महत्व के मसले को अदालत के मत्थे मारने का मतलब यह भी है कि हमारे सारे नेता नाकारा हैं, सारे साधु-संत और मुल्ला-मौलवी नादान हैं, सारे समाजसेवी और बुद्धिजीवी निष्क्रिय हैं। यह मामला कानूनी है ही नहीं और आश्चर्य है कि सब लोग कानून की शरण में चले गए हैं। खुद सर्वोच्च न्यायालय की राय थी कि इसे बातचीत से हल करें। इस मामले से जुड़े सभी पक्षों से 1992 में मेरी बात चल रही थी। मेरे सुझाव पर प्रधानमंत्री नरसिंहरावजी और विश्व हिंदू परिषद के मुखिया श्री अशोक सिंहल ने सितंबर में होनेवाली कार-सेवा को तीन महिने तक टाल दिया था। उस समय का मेरा अनुभव यह था कि हिंदू, मुस्लिम और सरकार तीनों पक्ष इसे बातचीत से हल करने के पक्ष में थे लेकिन 6 दिसंबर के हादसे ने सारी तैयारी पर पानी फेर दिया। अब भी इसके हल के लिए कई सुझाव आए हैं लेकिन मेरी राय में जो सबसे अच्छा, व्यावहारिक और सर्वमान्य सुझाव हो सकता है, वह है, पुणें के डाॅ. विश्वनाथ कराड़ का, जिसका सक्रिय समर्थन पूर्व मंत्री श्री आरिफ मुहम्मद खान और मैं भी कर रहा हूं। हम तीनों की राय है कि रामजन्म भूमि पर राम का भव्यतम मंदिर बने और 60-65 एकड़ जमीन पर सभी प्रमुख धर्मों के पूजा-स्थल बन जाएं। अयोध्या की यह 70 एकड़ जमीन विश्व-तीर्थ बन जाए। विश्व-सभ्यता को यह हिंदुत्व का अनुपम उपहार होगा। सर्व-धर्म समभाव का यह सगुण-साकार रुप होगा। यह विश्व का सर्वोच्च पर्यटन-केंद्र बन सकता है। ऐसी अयोध्या सचमुच अयोध्या बन जाएगी। न कोई हारेगा न जीतेगा। युद्ध तो होगा ही नहीं। सांप्रदायिक सदभाव की नई नींव पड़ेगी। यह ऐसी भव्य और दिव्य अयोध्या बनेगी कि स्वयं राजा श्रीराम इस अयोध्या में अवतरित हो जाएं तो वे भी इसे देखकर गदगद हो जाएंगे।
बिन ईधन का सिलेंडर
जावेद अनीस
मध्यप्रदेश के शाजापुर जिले के कांजा गावं की निवासी मंजूबाई का प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत मिला गैस कनेक्शन धूल खा रहा है।कनेक्शन लेने के बाद उन्होंने दूसरी बार सिलेंडर नहीं भरवाई है। अब उनके घर के एक कोने पर पड़ा सिलेंडर सामान रखने के काम आता है और घर का खाना पहले की तरह धुएं के चूल्हे पर बनने लगा है। यह अकेले मंजूबाई की कहानी नहीं है।देश भर में उज्ज्वला योजना के ज्यादातर लाभार्थी गरीब परिवारों को गैस सिलेंडर भरवाना मुश्किल साबित हो रहा है। केंद्र सरकार भले ही निशुल्क गैस कनेक्शन के अपने आंकड़ों को दिखाकर पीठ थपथपा ले लेकिन जमीनी हकीकत तो यही है कि इनमें से बड़ी संख्या में परिवार धुंए की चूल्हे की तरफ वापस लौटने को मजबूर हुये है। अखबारों में प्रकाशित समाचार के अनुसार मध्यप्रदेश के शाजापुर जिले में 36 हजार 15 महिलाओं को कनेक्शन मिले थे लेकिन इसमें से 75 प्रतिशत कनेक्शनधारियों ने दूसरी बार भी सिलेंडर नहीं लिया। पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ से तो हितग्राहियों द्वारा मोदी सरकार के इस महत्वकांक्षी योजना के तहत दिये गये रसोई गैस कनेक्शन और कार्ड को बेचने की खबरें आयीं हैं। बिलासपुर जिले के मरवाही तहसील के कई गावों के गरीब आदिवासी परिवार सिलेंडर खत्म होने के बाद रीफिलिंग नहीं करा पाते हैं और कई लोग तो गैस कनेक्शन को पांच-पांच सौ स्र्पए में बेच दे रहे हैं। खुद छत्तीसगढ़ सरकार मान रही है कि वहां उज्ज्वला योजना के 39 फीसदी हितग्राही ही दोबारा अपने सिलेंडर को रिफिल कराते हैं। उपरोक्त स्थितयाँ मोदी सरकार द्वारा उज्ज्वला योजना को लेकर किये जा रहे दावों पर सवालिया निशान हैं। क्या उज्ज्वला योजना उतनी कामयाब हुई है जितनी बताई जा रही है या फिर हमें गुमराह किया जा रहा है। पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने 8 फरवरी को किये गये अपने प्रेस कांफ्रेंस में इस योजना का भरपूर बखान किया है, उनके अनुसार उज्ज्वला योजना के तहत अब तक तीन करोड़ 36 लाख परिवारों को रसोई गैस के कनेक्शन दिए गए हैं, उन्होंने यह भी दावा किया है कि योजना शुरू किए जाने के एक साल के भीतर कनेक्शन लेने वाले दो करोड़ लाभार्थिंयों में से 80 प्रतिशत ने इसे रिफिल भी कराया है और रिफिल कराने का औसत प्रति परिवार 4।07 सिलेंडर सालाना है। इसमें कोई शक नहीं है कि उज्ज्वला योजना के शुरू होने के बाद बड़ी संख्या में गैस कनेक्शन बांटे गए हैं लेकिन सवाल इसके दोबारा रिफिल कराने और व्यवहार परिवर्तन का है। यह मान लेना सही नहीं है कि बीपीएल परिवार गैस भरवाने के लिए एक मुश्त आठ सौ रुपए का इंतजाम कर लेंगें।
घरों में भोजन पकाने के लिए ठोस ईंधन इस्तेमाल से प्रदूषण फैलाने वाले महीन कण (फाइन पार्टिकल) निकलते हैं जोकि हवा में पाए जाने वाले सामान्य कणों की तुलना में काफी छोटे और स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक होते हैं। इसका महिलाओं और बच्चों से स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। 2014 में जारी यूनाइटेड नेशंस इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट ऑर्गनाइजेशन की रिपोर्ट के अनुसार अपने लोगों को खाना पकाने के लिए स्वच्छ ईंधन न उपलब्ध करा पाने वाले देशों की सूची में भारत शीर्ष पर है और यहां की दो-तिहाई आबादी खाना बनाने के लिए कार्बन उत्पन्न करने वाले ईंधन और गोबर से तैयार होने वाले ईंधन का इस्तेमाल करती है जिसकी वजह से इन परिवारों की महिलाओं और बच्चों के सेहत को गंभीर असर पड़ता है। सितंबर, 2015 को केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री पीयूष गोयल द्वारा ‘स्वच्छ पाक ऊर्जा और विद्युत तक पहुँच राज्यों का सर्वेक्षण’ रिपोर्ट जारी किया गया था इस सर्वेक्षण में 6 राज्यों (बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल) के 51 जिलों के 714 गांवों के 8500 परिवार शामिल किये गये थे। रिपोर्ट के अनुसार इन राज्यों में 78% ग्रामीण आबादी भोजन पकाने के लिए पारंपरिक बायोमास ईंधन का उपयोग करती है और केवल 14% ग्रामीण परिवार ही भोजन पकाने के लिए स्वच्छ ऊर्जा का उपयोग करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में खाना पकाने के लिए लकड़ी और उपले जैसे प्रदूषण फैलाने वाले ईंधन के उपयोग में कमी लाने और एलपीजी के उपयोग को बढ़ावा देने के उद्देश्य से मई 2016 में “प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना” की शुरुआत की गयी थी जिसके तहत तीन सालों में गऱीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले परिवारों की पांच करोड़ महिलाओं को रसोई गैस उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया था जिससे उन्हें जानलेवा धुंए से राहत दिलाया जा सके। इस साल केंद्र सरकार ने लक्ष्य को बढ़ाते हुये 3 करोड़ और लोगों को प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत एलपीजी कनेक्शन देने का ऐलान किया है जिसके लिये 2020 का लक्ष्य रखा गया है, इसके लिए पहले आवंटित किए गए आठ हजार करोड़ रुपए के अलावा 4,800 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बजटीय प्रावधान भी किया गया है साथ ही योजना का विस्तार करते हुए इसमें अनुसूचित जाति एवं जनजाति और अति पिछड़ा वर्ग, प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना और अंत्योदय अन्न योजना के सभी लाभार्थियों, जंगलों और द्वीपों में रहने वालों तथा पूर्वोत्तर के चाय बगानों में काम करने वाले सभी परिवारों को भी शामिल किया गया है। यह महिला केन्द्रित योजना है जिसके तहत परिवार की महिला मुखिया के नाम से गैस कनेक्शन दिया जाता है। इसके लिये 1600 रुपये की सब्सिडी दी जाती है, जबकि गैस चूल्हा, पाईप खरीदने और पहला रीफिल कराने के लिये किस्तों में पैसा चुकाने की सुविधा दी जाती है। दरअसल इस योजना को लेकर केंद्र सरकार हड़बड़ी में दिखाई पड़ती है। उसका पूरा जोर गैस कनेक्शन देने और प्रचार-प्रसार पर है, इस बात पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है कि बांटे गये गैस कनेक्शनों का जमीनी स्तर पर उपयोग कितना हो रहा है। हालांकि केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री पीयूष गोयल यह दावा जरूर कर रहे हैं कि 80 प्रतिशत परिवारों ने एलपीजी कनेक्शन लेने के बाद उसे दोबारा भरवाया है लेकिन उनके इस दावे पर गंभीर सवालिया निशान है। आंकड़े बताते हैं नये गैस कनेक्शन 16।23 प्रतिशत की दर से बढ़ी है लेकिन गैस सिलेंडर का उपयोग दर 9।83 प्रतिशत ही है जो योजना शुरू होने से पहले की दर से भी कम है, इसका मतलब है कि योजना के लागू होने के बाद गैस कनेक्शन तो बढ़े हैं लेकिन गैस सिलेंडर उपयोग करने वालों की संख्या उस तेज़ी से नहीं बढ़ रही है। हड़बड़ी में योजना लागू करने का विपरीत असर दिखाई पड़ने लगा है। दरअसल उज्ज्वला योजना लागू करने से पहले केंद्र सरकार ने गैस की जगह परम्परागत ईंधन का उपयोग के कारणों का पता लगाने के लिये क्रिसिल से एक सर्वे कराया था जिसमें 86 प्रतिशत लोगों ने बताया था कि वे गैस कनेक्शन महंगा होने की वजह से इसका प्रयोग नहीं करते हैं जबकि 83 प्रतिशत लोगों ने सिलेंडर महंगा होना भी कारण बताया था, इस सर्वे में सिलेंडर मिलने के लिए लगने वाला लम्बा समय और दूरी भी एक प्रमुख बाधा के रूप में सामने आई थी। लेकिन सरकार ने योजना लागू करते समय कनेक्शन वाली समस्या को छोड़ अन्य किसी पर ध्यान नहीं दिया है, उलटे सिलेंडर पहले के मुकाबले और ज़्यादा महंगा कर दिया गया है। इसी तरह से जल्दी सिलेंडर डिलीवरी को लेकर होने वाली झंझटों पर भी ध्यान ही नहीं दिया गया। सरकार ने गैस कनेक्शन महंगा होने की समस्या की तरफ ध्यान दिया था और इसका असर साफ़ दिखाई पड़ रहा है। बड़ी संख्या में लोगों की एलपीजी कनेक्शन लेने की बाधा दूर हुयी है लेकिन क्रिसिल द्वारा बताई गयी अन्य बाधायें ज्यों की त्यों बनी हुयी हैं। लोगों को कनेक्शन मिले हैं लेकिन इनके उपयोग का सवाल बना हुआ है। मौजूदा चुनौती उज्ज्वला स्कीम के तहत मिले गैस सिलेंडर रिफिल की है, गरीब परिवारों की आर्थिक स्थिति इस दिशा में सबसे बड़ी बाधा है। रंगराजन कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिदिन रोज 32 रुपये से कम (960 रुपये महीना) और शहरी क्षेत्रों में रोजाना 47 रुपये (1410 रुपये महीना) से कम खर्च करने वाले परिवारों को गरीबी रेखा के नीचे माना गया है। ऐसे में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले परिवार किस हिसाब से सिलेंडर भरवाने में सक्षम होंगे। इसका अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है। कुछ नयी बाधायें भी सामने आई हैं जैसे गैस चूल्हा, सिलेंडर में भरी गैस और नली के लिये हितग्राहियों को करीब 1800 रुपए चुकाने पड़ते हैं जिसे मध्यप्रदेश में कई स्थानों पर गैस सिलेंडर पर सब्सिडी से ही वसूला जा रहा है जिससे उन्हें गैस सिलेंडर और महंगा पड़ रहा है। जाहिर है सिर्फ मुफ्त में गैस सिलेंडर देने से काम नहीं चलने वाला है इससे सरकार अपनी वाह वाही कर लेगी लेकिन इससे मूल मकसद हल नही होगा। अगर महिलाओं को चूल्हे के धुंए से वाकई में निजात दिलाना है तो समस्या के अन्य पहलुओं पर भी ध्यान देना होगा। सिलेंडर बांटने के साथ ही इसके इस्तेमाल में आने वाली बाधाओं को भी प्राथमिकता से दूर करना होगा।
किसानों का बेमिसाल प्रदर्शन
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
देश में किसानों के कई आंदोलन पहले भी हो चुके हैं लेकिन जैसी सफलता महाराष्ट्र के किसानों को मिली है, वैसी, याद नहीं पड़ता कि भारत के किसानों को कभी मिली है। महाराष्ट्र की भाजपा सरकार ने किसानों की लगभग सभी मांगें मंजूर कर ली हैं। किसानों को दिए गए डेढ़ लाख रु. तक के सभी कर्जे माफ किए जाएंगे, उनकी फसलों की लागत से डेढ़ी राशि उन्हें न्यूनतम मूल्य के रुप में मिलेगी, जंगलों में पीढ़ियों से खेती कर रहे आदिवासियों को उन जमीनों की मिल्कियत मिलेगी, खेतों में सिंचाई के लिए विशेष निर्माण कार्य होंगे, आदिवासी किसानों के इलाज की व्यवस्था भी करेगी। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने छह महिने की अवधि में इन मांगों को पूरा करने का भरोसा दिलाया है। महाराष्ट्र के मंत्रियों ने खुद जाकर किसान नेताओं से बात की और स्वयं मुख्यमंत्री ने तीन घंटे किसानों से बात करके उन्हें संतुष्ट किया। किसानों का यह प्रदर्शन और महाराष्ट्र सरकार का यह सहानुभूतिपूर्ण रवैया देश की सभी सरकारों के लिए अनुकरण करने योग्य है। नाशिक से मुंबई तक की लगभग 180 किमी की पैदल-यात्रा करनेवाले इन किसानों ने कोई तोड़-फोड़ नहीं की, कोई फूहड़ नारे नहीं लगाए, कोई गदंगी नहीं फैलाई। बल्कि उन्होंने रात में भी 25 किमी का पैदल-मार्च इसलिए किया कि सबेरे-सबेरे बोर्ड की परीक्षा देनेवाले हजारों छात्रों को असुविधा न हो। ये किसान मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की किसान सभा द्वारा लाए गए थे। इन भारतीय किसानों ने दुनिया के सारे मार्क्सवादियों को अहिंसा और अनुशासन का पाठ पढ़ा दिया है। 40 हजार किसानों का यह प्रदर्शन सचमुच ऐसे किसानों का था, जिन्हें कार्ल मार्क्स ने सर्वहारा कहा है। यह किसान-यात्रा आयोजित करके माकपा ने यह सिद्ध कर दिया है कि वह देश की सभी पार्टियों के मुकाबले बेहतर काम कर रही है। खेतों में मजदूरी करनेवाले किसानों को आप सर्वहारा या वंचित या दलित नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे ? टीवी चैनलों और अखबारों में उनके सूजे हुए और छालों से छिले हुए पैर देखकर दिल दहल उठता है। कुछ संपन्न इलाकों के समृद्ध किसानों को छोड़ दें तो देश के ज्यादातर किसानों का यही हाल है। बैंकों के अरबों-खरबों के घोटालों के सामने उनकी कर्ज-माफी क्या है ? कुछ नहीं। ज्यादा जरुरी यह है कि उनके लिए उचित बीज, सिंचाई, खाद, प्रशिक्षण और बिक्री की ठीक-ठाक व्यवस्था की जाए। आदमी को जिंदा रखनेवाली सबसे जरुरी चीज पैदा करनेवालों (किसानों) की दशा आखिर कब सुधरेगी ?
योगी के ‘बोल-अनमोल’
तनवीर जाफरी
भारतीय जनता पार्टी के चुनाव प्रचार का सबसे महत्वपूर्ण वाक्य जो गत् एक दशक से सबसे अधिक प्रचारित किया जा रहा है वह है ‘गुजरात का विकास मॉडल’ या ‘पूरे देश को गुजरात बना देना’ जैसा प्रचार। प्रायोजित प्रचार माध्यमों द्वारा कहने को तो यही कहा जाता है कि गुजरात की बात करने का अर्थ है ‘गुजरात जैसे विकास मॉडल को पूरे देश में लागू करने का प्रयास’। परंतु दरअसल पूरे देश को गुजरात बनाने की बात के पीछे का असली मकसद देश को गुजरात की ही तरह धर्म के आधार पर धु्वीकरण की राह पर ले जाना है। इसमें कोई शक नहीं कि 2002 के गोधरा कांड तथा उसके बाद राज्य में भड़की सांप्रदायिक हिंसा के पश्चात राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने इस ‘मिशन ध्रुवीकरण’ में बड़ी कामयाबी हासिल की थी। और यह भी सच है कि उनकी धर्म आधारित सामाजिक विभाजन की इस सफलता को ही भाजपा के पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं संघ ने सत्य एवं यथार्थ के रूप में स्वीकार करते हुए राष्ट्रीय स्तर पर इसी दिशा में आगे बढ़ते रहने की ठान ली है। ज़ाहिर है आज वही नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बन चुके हैं परंतु उनका या देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी का अथवा पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह जैसे नेताओं का संघ के संरक्षण में चल रहा ‘मिशन ध्रुवीकरण’ पूरे ज़ोर-शोर से जारी है।
2014 से पहले की देश की सरकारें यहां तक कि विभिन्न प्रदेशों की भाजपाई सरकार और भाजपा के नेतृत्व वाली अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार भी काफी हद तक जनता की सरकार व निर्वाचित जनतांत्रिक सरकार प्रतीत होती थी। नेतागण विवादित,समाज को विभाजित करने वाली,धर्म व जाति के आधार पर पक्षपात करने वाली या समाज में नफरत फैलाने वाली बोलियां सार्वजनिक रूप से बोलने से कतराते थे। परंतु मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री से लेकर भाजपा का छुटभैय्या नेता तक अपने ज़हरीले विचार व्यक्त करने से बाज़ नहीं आ रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण भी यही है कि उन्हें अपने शीर्ष नेताओं से ही मूक निर्देश हासिल हो रहा है जोकि इनके अपने बयानों से साफ ज़ाहिर होता है। याद कीजिए फरवरी 2017 में उत्तर प्रदेश की चुनावी जनसभा में फतेहपुर में प्रधानमंत्री ने ही अखिलेश यादव की सरकार पर हमला बोलते हुए यह कहा था कि ‘जब रमज़ान के अवसर पर बिजली आती है तो दीवाली पर क्यों नहीं आती’। सुनने में तो यह बड़ा ही साधारण व न्यायप्रिय वाक्य प्रतीत होता है परंतु यदि इस वाक्य का विश्लेषण किया जाए तो यही निष्कर्ष निकलता है कि प्रधानमंत्री आरोप लगा रहे हैं कि अखिलेश यादव मुसलमानों के हमदर्द हैं और हिंदुओं के दुश्मन। क्योंकि वे रमज़ान के महीने में तो बिजली आपूर्ति कराते हैं परंतु दीपावली पर नहीं कराते। गोया वे धर्म के आधार पर पक्षपात करते हैं। ऐसे भाषणों के बाद उत्तर प्रदेश का आया चुनाव परिणाम सबके सामने है।
बहरहाल, उत्तरप्रदेश में चुनाव जीतने के बाद भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की पहली पसंद का मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को बना दिया। योगी की विशेषता यह नहीं है कि वे उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य के लोकप्रिय नेता हैं यदि ऐसा होता तो उन्हें भाजपा चुनाव पूर्व ही अपना मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित कर देती। वास्तव में उनकी भी यही खूबी है कि वे धर्म आधारित ध्रुवीकरण में नरेंद्र मोदी से भी कई गुणा आगे हैं। उनके ऊपर तो सांप्रदायिक हिंसा फैलाने के कई मुकद्दमे भी चल रहे हैं जिसे वर्तमान योगी सरकार बंद कराने की कोशिश कर रही है। योगी के कुछ बयान जो उन्होंने मुख्यमंत्री बनने से पहले दिए थे यदि आप उन्हें एक बार फिर से याद करें तो आसानी से यह समझा जा सकता है कि संघ द्वारा उन्हें किन विशेषताओं के कारण उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाना ज़रूरी समझा गया। योगी ने अगस्त 2014 में एक सार्वजनिक सभा में यह कहा था कि-‘हमने फैसला किया है कि यदि वे (मुसलमान)एक हिंदू लड़की का धर्म परिवर्तन करवाते हैं तो हम सौ मुस्लिम लड़कियों का धर्म परिवर्तन करवाएंगे’। फरवरी 2015 में आप फरमाते हैं कि-‘यदि उन्हें अनुमति मिले तो वे देश की सभी मस्जिदों में गौरी-गणेश की मूर्ति स्थापित करवा देंगे’। ‘आर्यव्रत ने आर्य बनाए हिंदुस्तान में हम हिंदू बना देंगे। पूरी दुनिया में भगवा झंडा फहरा देंगे’। इसी प्रकार योगी ने कहा कि-‘जब अयोध्या में विवादित ढांचा गिराने से कोई नहीं रोक सका तो मंदिर बनाने से कौन रोक सकेगा’ इंतेहा तो यह है कि उनकी मौजूदगी में उनकी पार्टी हिंदुवाहिनी का नेता यहां तक कहता सुना गया कि मुसलमानों की औरतों को कब्र से बाहर निकाल कर उनके साथ बलात्कार किया जाना चाहिए। ऐसे ‘महान’ नेता योगी आदित्यनाथ संघ व भाजपा की पहली पसंद के रूप में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मनोनीत किए गए हैं।
ज़ाहिर है ऐसे व्यक्ति से सद्भावना अथवा धार्मिक सौहाद्र्र की उम्मीदें रखना लगभग वैसा ही है जैसे रेगिस्तान में पानी की उम्मीद रखना। जो भी हो संघ व भाजपा दोनों ही अपने गुजरात मॉडल के विस्तार में पूरी तरह से सफल होते दिखाई दे रहे हैं। पिछले दिनों एक बार फिर विधानसभा में मुख्यमंत्री के रूप में बोलते हुए योगी ने फरमाया कि-‘हमने सभी पुलिस लाईन और थानों में जन्माष्टमी मनाना शुरु किया साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि मैं हिंदू हूं ईद क्यों मनाऊंगा? मैं जनेऊ पहनकर बाहर टोपी लगाकर माथा नहीं टेकता’। उनका यह बयान जहां उनकी कट्टरपंथी वैचारिक सोच को उजागर करता है वहीं इस प्रकार का बयान किसी निर्वाचित जनतंत्र के शासक को कतई शोभा नहीं देता। अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर एनटीरामाराव,हेमवती नंदन बहुगुणा,शिवराज सिंह चौहान,नितीश कुमार जैसे उनके सहयोगी और देश के अनेक बड़े राजनेता मुसलमानों के साथ खुशी-खुशी ईद का त्यौहार मनाते व गले लगकर ईद की मुबारकबाद देते देखे गए हैं। योगी को शायद इस बात का ज्ञान नहीं कि अयोध्या में ही हनुमान गढ़ी में मुस्लिम समुदाय के लोगों को रोज़ा-अफ्तार की दावत भी दी जा चुकी है। भारतवर्ष में हिंदू समुदाय के लोगों द्वारा हज़ारों स्थानों पर मोहर्रम के ताजि़ए रखे जाते हैं। हिंदू समुदाय के अनेक लोग रोज़ा रखते हैं, मुसलमान गणेश प्रतिमा स्थापित करते हैं यहां तक कि अयोध्या जैसे स्थान पर आज भी मुस्लिम समुदाय के लोग ही पूजा-पाठ संबंधी सामग्री बेचते व देवी-देवताओं की पौशाकें सिलते दिखाई देते हें। क्या योगी की सांप्रदायिकतापूर्ण सोच के अनुसार इन सभी लोगों को ऐसा नहीं करना चाहिए?
योगी आदित्यनाथ के जन्म लेने से सैकड़ों वर्ष पूर्व भारत में रहीम-रसखान तथा जायसी जैसे अनेक कवि जन्म ले चुके हैं। यह मुस्लिम कुल में पैदा होने के बावजूद हिंदू धर्म के देवी-देवताओं के उपासक भी रहे और इनकी शान में भजन भी लिखे। निश्चित रूप से यदि उस समय भी ‘योगी राज’ रहा होता तो शायद यह उन्हें ऐसा न करने देते। वैसे भी ईद का त्यौहार मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा तीस दिन के रमज़ान के रोज़े पूरी सफलता के साथ रखे जाने की खुशी के तौर पर रमज़ान के महीने की समाप्ति पर मनाया जाता है। इसी खुशी में लोग एक-दूसरे से गले मिलते है, उन्हें ईद की मुबारकबाद देते हैं और मीठी सेवंईं एक दूसरे को खिलाते हैं। योगी को वैमनस्यपूर्ण बातें करने के बजाए धर्म व जाति के आधार पर सद्भावना फैलाने का संदेश देना चाहिए और संत कबीर जैसे महान संत की इस वाणी का अनुसरण करना चाहिए कि-जात-पात पूछे नहीं कोई। हरि को भजे सो हरि का होई।।
अपराधी नेताः कुंभकर्ण के खर्राटे
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्याालय को सूचित किया है कि देश के 1765 सांसद और विधायक ऐसे हैं, जिन पर 3045 आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। इनमें नगर-निगमों और पालिकाओं के पार्षद और गांवों के पंच शामिल नहीं हैं। यदि उनकी संख्या भी मालूम की जाए तो यह आंकड़ा दुगुना-तिगुना भी हो सकता है। अभी तो विधायकों और सांसदों की कुल संख्या सिर्फ 4896 है। इन पर चल रहे मुकदमों की संख्या के बारे में याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय का कहना है कि वह 13,500 है। ये आंकड़े भी पूरे नहीं हैं। अभी गोवा और महाराष्ट्र की सरकारों ने आंकड़े भेजे ही नहीं। सबसे ज्यादा आपराधिक मामले उ.प्र. के हैं। फिर तमिलनाडु और बिहार के हैं। ये मामले वे हैं, जो बाकायदा अदालतों में चल रहे हैं लेकिन नेताओं के खिलाफ अदालतों में जाने की हिम्मत कितने लोग कर सकते हैं ? नेता लोग बहुत-से मामलों को डरा-धमकाकर या ले-देकर खत्म करवा देते हैं। तात्पर्य यह है कि हमारी राजनीति पर अपराधों का गहरा साया है। 2014 में इस तरह के 1581 मामले थे। उस समय अदालत के निर्देश पर सरकार ने ऐसी 12 विशेष अदालतें कायम करने की बात कही थी, जो साल भर में सारे मामले निपटा देतीं। लेकिन वे अदालतें अभी तक बनी ही नहीं और अब बनेंगी तो 12 की जगह 24 या 30 बनेंगी। सरकार ने इन अदालतों के लिए 780 करोड़ रु. देना तय किया था लेकिन अब इस राशि को दुगने से भी ज्यादा करना होगा। लेकिन यह कितनी विडंबना है कि यह राष्ट्रवादियों की सरकार इतने गंभीर मामले पर चार साल से सोई पड़ी है। कुंभकर्णजी खर्राटे खींच रहे हैं। यदि अभी तक 100 या 200 नेताओं को भी दंडित कर दिया गया होता तो इस सरकार की छवि चमचमाने लगती। अब उसका मुश्किल से डेढ़ साल बचा हुआ है। उसमें 15-20 जज हजारों मुकदमों को कैसे निपटा पाएंगे ? अपराधी नेताओं पर मुकदमे चलें और उन पर तुरंत फैसले हों, यह तो अच्छा है लेकिन भारत की राजनीति को अपराधमुक्त करना अदालतों से ज्यादा राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी है। यदि वे अपराधी नेताओं को टिकिट ही न दें तो राजनीति का शुद्धिकरण अपने आप होने लगेगा। लेकिन इन दलों की मजबूरी यह है कि वे टिकिट उसी को देते हैं, जिसका जीतना पक्का दिखाई पड़ता हो, चाहे वह अपराधी ही क्यों न हो। इस मामले में कोई दल अपवाद नहीं है।
मोदी की मुश्किलें बढ़ाएगी चंद्रबाबू की नाराजगी
डॉ.वेदप्रताप वैदिक
ज्यों-ज्यों 2019 का आम चुनाव पास आता जा रहा है, भारतीय जनता पार्टी की मुसीबतें बढ़ रही हैं। कश्मीर, पंजाब और महाराष्ट्र की जिन प्रांतीय पार्टियों से भाजपा का गठबंधन है उनके साथ उसकी तनातनी पहले से ही चल रही है। अब आंध्र प्रदेश की तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) ने भी उसके सामने नई चुनौती खड़ी कर दी है। उसकी मांग है कि आंध्र को ‘विशेष श्रेणी’ राज्य का दर्जा दिया जाए। पार्टी यह मांग 2014 से ही कर रही है, जब से आंध्र प्रदेश का विभाजन करके तेलंगाना राज्य का निर्माण हुअा है।
तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने संसद में उसे विशेष श्रेणी का राज्य बनाने का स्पष्ट आश्वासन दिया था। तब विरोधी दल के रूप में भाजपा ने भी इसका समर्थन किया था। किंतु अब जैसे ही वित्तमंत्री अरुण जेटली ने घोषणा की कि मोदी सरकार आंध्र प्रदेश को उक्त दर्जा नहीं दे सकती, क्योंकि 14वें वित्त आयोग ने इसका समर्थन नहीं किया है तो टीडीपी के दो केंद्रीय मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया।
‘विशेष श्रेणी’ राज्य का दर्जा उन्हीं राज्यों को दिया जाता है, जो बहुत दुर्गम हों, गरीब हों, कम जनसंख्या वाले हों, सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हों अौर जिनके आय के स्रोत बहुत कम हों। ऐसे राज्यों के कुल खर्च का 90 फीसदी केंद्र सरकार देती है। ऐसे राज्यों में जम्मू-कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखंड, असम, अरुणाचल, नगालैंड, मिजोरम, मेघालय, त्रिपुरा, सिक्किम और मणिपुर शामिल हैं।
आजकल बिहार, तमिलनाडु और गोवा ने भी विशेष श्रेणी की रट लगा रखी है। केंद्र सरकार आंध्र को यदि वह दर्जा दे देगी तो देश के कई और राज्य कतार लगाकर खड़े हो जाएंगे। ऐसी स्थिति में आंध्र के प्रति केंद्र के रवैए को गलत नहीं कहा जा सकता। केंद्र ने आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री को पक्का भरोसा दिलाया है कि वह आंध्र प्रदेश को उतना ही पैसा देगी, िजतना विशेष श्रेणी घोषित किए जाने पर मिलता लेकिन, नायडू का कहना है कि विशेष श्रेणी न मिलना आंध्र प्रदेश का अपमान है खासतौर पर तब जब तेलुगु देशम पार्टी केंद्र सरकार और भाजपा की सहयोगिनी है।
नायडू के इतने सख्त रवैए के पीछे मुझे दो कारण दिखाई पड़ते हैं। पहला कारण तो यह है कि आंध्र प्रदेश में विरोधी दल ‘रेड्डी कांग्रेस’ (वाईएसआर कांग्रेस) के नेता जगन मोहन रेड्डी ने ‘विशेष श्रेणी’ की मांग को उग्र आंदोलन का रूप दे दिया है। वे आंध्र प्रदेश के स्वाभिमान के प्रतीक-पुरुष बनने की कोशिश कर रहे हैं। ठीक वैसे जैसे 36 साल पहले एनटी रामाराव बन गए थे। चंद्रबाबू नायडू से ज्यादा इस बात को कौन समझ सकता है कि ‘विशेष श्रेणी’ की मांग उनके प्रतिद्वंद्वी रेड्डी को अगला चुनाव िजता सकती है। अपने मंत्रियों को मोदी सरकार से हटाकर नायडू ने फिलहाल रेड्डी की हवा ढीली कर दी है। नायडू की नाराजी का दूसरा कारण शायद ज्यादा महत्वपूर्ण है। वे केंद्र से धुआंधार मदद लेकर ‘विशेष श्रेणी’ की मांग को निरर्थक सिद्ध कर सकते हैं। किंतु प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथों उनका जो अपमान हुआ है, उसने उन्हें अंदर से हिला दिया है।
उन्होंने यह बात खुले आम कही है और कई बार कही है कि वे दर्जनों बार दिल्ली गए पर प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें मिलने का समय तक नहीं दिया और जब बुधवार को उन्होंने उनसे फोन पर बात करने की कोशिश की तो वह भी विफल हो गई। मोदी ने गुरुवार शाम को नायडू से बात जरूर की लेकिन, ‘का बरखा जब कृषि सुखानी।’ इसलिए गुरुवार को इस्तीफे हो गए। यह बात आंध्र प्रदेश के आम मतदाताओं को गहरी चोट पहुंचाए बिना नहीं रहेगी। यह उनके नेता के साथ उनके स्वाभिमान की भी बात जो है। पूर्वोत्तर के राज्यों में कांग्रेस के सफाए के पीछे राहुल गांधी के इसी रवैए का बड़ा हाथ रहा है।
इसमें शक नहीं कि प्रधानमंत्री मोदी अन्य प्रधानमंत्रियों के मुकाबले ज्यादा काम करते हैं लेकिन, वे अपना समय यात्राओं, उद्घाटनों, भाषणों, लंचों, डिनरों में खर्च करने की बजाय सरकार चलाने, देश की समस्याओं को ठीक से समझने और सुलझाने में लगाएं तो देश का ज्यादा भला होगा। यह ठीक है कि उनके गठबंधन के उनके सभी साथी उनसे नाराज हो जाएं तो भी पूर्ण बहुमत होने के कारण अगले साल तक उन्हें व उनकी सरकार को कोई खतरा नहीं है लेकिन, फिर होने वाला आम चुनाव काफी टेढ़ा पड़ सकता है।
चंद्रबाबू की टीडीपी ने मोदी सरकार से अपना संबंध विच्छेद कर लिया है लेकिन, भाजपा से उसने अपना तार अभी तक शायद इसीलिए जोड़ रखा है कि 23 मार्च को होने वाले राज्यसभा चुनाव में वह अपने तीनों उम्मीदवार जिताना चाहती है। उसका तीसरा उम्मीदवार तभी जितेगा जब भाजपा का कम से कम एक वोट उसे मिले। इस तरह की राजनीतिक मजबूरियों के खत्म होते ही गठबंधन के सभी साथी नए रास्ते खोजने लग सकते हैं।
जहां तक टीडीपी का सवाल है, जगन मोहन रेड्डी की तरफ से यह सवाल पूछा जा रहा है कि सचमुच यदि नायडू सरकार आंध्र प्रदेश के लिए विशेष दर्जा चाहती है तो वह मोदी सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव क्यों नहीं लाती। रेड्डी कांग्रेस ऐसा प्रस्ताव संसद में ला रही है। उसका टीडीपी समर्थन क्यों नहीं करती? यदि सरकार नहीं झुकेगी तो रेड्डी कांग्रेस के सभी सांसद संसद से इस्तीफा दे देंगे। तब क्या टीडीपी के 16 सांसद लोकसभा और छह सांसद राज्यसभा से इस्तीफा देंगे? यदि नहीं देंगे तो रेड्डी का जलवा आंध्र में चमकने लगेगा। अब टीडीपी मैदान में कूद ही गई है तो उसे ठेठ तक लड़ाई लड़नी ही पड़ेगी।
ऐसे में कांग्रेस का पाया मजबूत हो सकता है। रेड्डी कीकांग्रेस और राहुल की कांग्रेस में 36 का आंकड़ा है। वे तो मिल ही नहीं सकते। कांग्रेस और टीडीपी का गठजोड़ हो सकता है। यदि यह हो गया तो इसका असर अखिल भारतीय होगा। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की गल-मिलव्वल शुरू हो गई है। यह लहर पश्चिम बंगाल, अोडिशा, झारखंड, बिहार और तमिलनाडु तक फैल गई तो 22 प्रांतों में राज करने वाली भाजपा का दम फूलते देर नहीं लगेगी।
तालिबानी कृत्य है लेनिन की मूर्ति का ढहाया जाना
– निर्मल रानी
अफगानिस्तान में राष्ट्रपति नजीब की सत्ता समाप्त होने के बाद जिस समय क्रूर तालिबानियों ने सत्ता अपने हाथ में संभाली उसके बाद मार्च 2001 में आतंकवादी सोच के नायक मुल्ला मोहम्मद उमर के आदेश पर अफगानिस्तान के बामियान प्रांत में स्थित शांति दूत महात्मा बुद्ध की पहाड़ों में तराश कर बनाई गई विशालकाय मूर्तियों को तोपों तथा भारी हथियारों से आक्रमण कर क्षतिग्रस्त कर दिया गया। पांचवीं व छटी शताब्दी के मध्य निर्मित की गई इन मूर्तियों को ध्वस्त व अपमानित किए जाने जैसे घिनौने कृत्य की पूरे विश्व में निंदा की गई थी। आज उसी प्रकार की ‘कारगुज़ारीÓ भारतवर्ष में होती देखी जा रही है। वैचारिक सोच को व्यक्तिगत् रंजिश जैसी नज़रों से देखा जाने लगा है। इसका ताज़ातरीन उदाहरण पिछले दिनों भारत के त्रिपुरा राज्य में आए चुनाव परिणामों के बाद देखने को मिला। आश्चर्य की बात तो यह है कि सत्ता परिवर्तन होने के बाद नवगठित सरकार ने अभी सत्ता संभाली भी नहीं थी कि राज्य के एक दर्जन से भी अधिक जि़ले हिंसा व आगज़नी की चपेट में आ गए। और त्रिपुरा के बेलोनिया टाऊन के कॉलेज स्कवायर में लगी ब्लादिमीर लेनिन की मूर्ति को जेसीबी मशीन के द्वारा सुनियोजित तरीके से ढहा दिया गया। गौरतलब है कि ब्लादिमीर लेनिन को रूसी क्रांति तथा साम्यवादी विचारधारा के नायक के रूप में देखा जाता है। वे दुनिया में उन तमाम लोगों के लिए आदर्श पुरुष हैं जो साम्यवादी विचारधारा रखते हैं। लेनिन पूंजीवादी व्यवस्था के घोर विरोधी थे तथा श्रमिकों के अधिकारों के लिए संघर्षरत रहने वाले महान नेता थे। लेनिन की गिनती विश्व के उन गिने-चुने नेताओं में की जाती है जिन्होंने विश्व राजनीति के पटल पर अपनी वैचारिक छाप छोड़ी है तथा इनके विचारों के समर्थक तथा विरोधी लगभग पूरी दुनिया में पाए जाते हैं।
जिस प्रकार महात्मा गांधी की मूर्ति व प्रतिमाएं अथवा बुत भारत के अतिरिक्त दुनिया के कई देशों में देखे जा सकते हैं ठीक उसी प्रकार लेनिन जैसे नेताओं की प्रतिमाएं भी दुनिया के कई देशों में स्थापित हैं। अनेक देशों व राज्यों में सत्ता परिवर्तन भी होते रहते हैं। परंतु जिस प्रकार त्रिपुरा में पिछले दिनों लेनिन की प्रतिमा ढहाए जाने का समाचार मिला तथा पूरे विश्व के मीडिया का ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ उस जैसी दूसरी मिसाल केवल तालिबान के बामियान प्रांत में तालिबानी कुकृत्य के दौरान 2001 में देखी गई थी या ऐसा नज़ारा 2003 में इराक के तहरीर स्कवायर पर उस समय देखा गया था जब सद्दाम हुसैन की सत्ता के पतन के बाद अमेरिकी सेना के इराक में प्रवेश करने पर सद्दाम की आदमकद प्रतिमा को त्रिपुरा की ही तरह ढहा दिया गया था। ऐसे में यह सवाल उठना लाजि़मी है कि क्या भारतवर्ष जैसा शांतिप्रिय देश भी इराक व अफगानिस्तान जैसी हिंसक व निम्नस्तरीय राजनीति की ओर बढ़ रहा है? क्या सत्ता परिवर्तन का अर्थ यही है कि पिछली सत्ता के आदर्श पुरुषों को इसी प्रकार अपमानित किया जाए और उनकी प्रतिमाएं व मूर्तियां खंडित की जाएं? क्या ऐसे कारनामों को हम लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा कह सकते हैं?
अफसोस की बात यह है कि इस घिनौने कारनामे को भारतीय जनता पार्टी के नेताओं द्वारा अपना समर्थन दिया जा रहा है। पूंजीवादी व्यवस्था का समर्थन करने वाली तथा कारपोरेट घरानों की हिमायती भारतीय जनता पार्टी के सुब्रमण्यम स्वामी जैसे नेता लेनिन को आतंकवादी बता रहे हैं। इसी पार्टी के केंद्रीय गृहराज्य मंत्री हंसराज अहीर तो यह भी कह रहे हैं कि वह विदेशी नेतृत्व को नहीं बल्कि महात्मा गांधी व दीनदयाल उपाध्याय जैसे भारतीय नेताओं को आदर्श मानते हैं। सवाल यह है कि यदि यही विचार उन देशों के नागरिकों में भी पैदा हो जाएं जिन-जिन देशों में गांधी की प्रतिमाएं स्थापित हैं ऐसे में हम भारतवासियों पर क्या गुज़र सकती है? हिंदुत्ववादी विचारधारा रखने वाले नेताओं की मूर्तियां व प्रतिमाएं भी भारतवर्ष के कई राज्यों में स्थापित हो चुकी हैं। और ऐसे कई राज्यों में सत्ता परिवर्तन भी हुए हैं परंतु त्रिपुरा जैसी घिनौनी हरकत के समाचार पहले कभी नहीं सुनाई दिए। इस प्रकार की शुरुआत वैचारिक मतभेदों को हिंसा में परिवर्तित करने का काम करेगी। राजनैतिक व वैचारिक मतभेदों को हिंसक घटनाओं में परिवर्तित होने से बचाने के प्रयास किए जाने चाहिए। परंतु बड़े अफसोस की बात है कि सत्ता के संरक्षण में ही नफरत का इस प्रकार का माहौल बनाया जा रहा है।
लेनिन की प्रतिमा गिराने वालों को यह बात भी भलीभांति समझ लेनी चाहिए कि इस प्रकार की अभद्र व हिंसापूर्ण घटना किसी महापुरुष या विश्वस्तर के नेता के मान-सम्मान,उसकी प्रतिष्ठा तथा उसकी बुलंदी को कभी कम नहीं कर सकती। मूर्तियां या प्रतिमाएं ढहाने से उसके विचार समाप्त नहीं हो जाते। भारतवर्ष में ही एक-दो नहीं बल्कि सैकड़ों बार महात्मा गांधी के हत्यारों के विचारधारा के पक्षधर लोगों द्वारा गांधी की प्रतिमा को कभी खंडित करने,कभी उसपर काला रंग पोतने तो कभी दूसरे घिनौने तरीकों से अपमानित करने का प्रयास किया गया है। परंतु न तो महात्मा गांधी के मान-सम्मान में कोई कमी आई न ही उनकी गांधीवादी विचारधारा पर कोई प्रभाव पड़ा न ही उनकी वैश्विक मान्यता में कोई कमी आई। इसी प्रकार बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की प्रतिमाओं को भी प्राय: अपमानित करने का प्रयास किया जाता रहा है। परंतु बाबा साहब की स्वीकार्यता भी पहले से अधिक बढ़ी है। उनको अपमानित करने जैसा अधर्म करने वाले मु_ीभर ऐसे लोगों का अपना कोई मान-सम्मान नहीं होता, ऐसे लोग बाबा साहब के विचारों तथा उनकी काबिलियत के समक्ष धूल के कण जितनी हैसियत भी नहीं रखते परंतु उत्पाती भीड़ का हिस्सा बनकर समाज में विघटन पैदा करने की कोशिश ज़रूर करते हैं।
लोकतांत्रिक देशों में जनतांत्रिक तरीके से होने वाली चुनाव प्रक्रिया के बाद सत्ता का आना-जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। जो दल या लोग आज सत्ता में हैं कल भी सत्ता उन्हीं की होगी या जो नेता या दल आज विपक्ष में हैं वे कभी सत्ता में नहीं आ सकेंगे,लोकतंत्र में इस बात की कोई गारंटी नहीं होती। लिहाज़ा सत्ता हासिल करने वाले नेताओं या दलों को इस अहंकार में कतई नहीं जीना चाहिए कि वे सत्ता से चूंकि हमेशा चिपके रहेंगे लिहाज़ा जब और जो मनमानी करना चाहें करते रहें। चुनावोपरंात सत्ता हस्तांतरण बड़े ही पारदर्शी,सौम्य तथा सद्भावपूर्ण वातावरण में होना चाहिए। सत्ता में आकर किसी दूसरे सत्तामुक्त हुए दल के आदर्श नेताओं या महापुरुषों को अपमानित करना या उनकी मूर्तियों व प्रतिमाओं को खंडित करने जैसा घृणित प्रयास भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा नहीं स्वीकार किया जा सकता। यदि देश का कोई राजनैतिक दल,राजनेता अथवा संगठन इस प्रकार की गतिविधियों को संरक्षण देता है या ऐसे हिंसक प्रदर्शनों का समर्थन करता है अथवा ऐसे उपद्रवियों का बचाव करता है तो निश्चित रूप से ऐसा वर्ग देश में असिहष्णुता के वातावरण को फलने-फूलने का मौका दे रहा है। और इस प्रकार की हिंसक कार्रवाई को तालिबानी कृत्य के सिवा और कुछ नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार की घटनाएं किसी परिवर्तनकारी क्रांति का सूचक नहीं बल्कि वैचारिक मतभेदों को हिंसा तथा सामाजिक नफरत के माहौल में बदलने की एक साजि़श है। देश की जनता को ऐसे असहिष्णुतापूर्ण वातावरण व इसे बढ़ावा देने वाले संगठनों व नेताओं से स्वयं को अलग रखने की ज़रूरत है।
मानहानि के बहाने मुँह बंद कराने की कोशिश?
अजित वर्मा
फ्रांस से खरीदे गए लड़ाकू विमान राफेल के सौदे को लेकर देश के जाने-माने उद्योगपति अनिल अंबानी ने आम आदमी पार्टी (आप) के राज्यसभा सांसद संजय सिंह पर 500 करोड़ रुपए की मानहानि का मुकदमा दायर करेंगे। अंबानी का आरोप है कि संजय सिंह ने झूूठे आरोप लगाकर उनकी कंपनी को राफेल सौदे में खींचा था। उद्योगपति ने यह भी दलील दी है कि आप सांसद संजय सिंह के आरोपों से उनकी छवि को नुकसान पहुंचा है। उद्योगपति अंबानी दिल्ली के दो तिहाई हिस्से में बिजली कंपनी बीएसईएस के मालिक भी हैं।
इस विषय में संजय सिंह ने ट्वीट किया कि उद्योगपतियों की दबंगई चरम पर है। पहले घोटाला करेंगे, फिर उसके खिलाफ आवाज उठाने वालों पर मानहानि करेंगे। राफेल रक्षा सौदे का घोटाला उजागर करने पर अंबानी ने मेरे ऊपर देश का सबसे बड़ा 5000 करोड़ का मानहानि नोटिस भेजा है। मैं अपनी बात पर कायम हूं।
आम आदमी पार्टी के नेता व सांसद संजय सिंह ने बीते 13 फरवरी को कहा था कि भारत और फ्रांस के बीच 36 राफेल विमानों की खरीदी के लिए 56000 करोड़ रुपए का सौदा हुआ है। उन्होंने आरोप लगाया है कि इसमें रिलायंस डिफेंस लिमिटेड फ्रांस की एविएशन कंपनी डसॉल्ट एविएशन को 22000 करोड़ का ठेका मिला। उन्होंने सौदे की गोपनीयता पर भी सवाल उठाए थे। इस सौदे पर भ्रष्टाचार करने का आरोप लगाते हुए संजय सिंह ने ट्वीट कर लिखा- राफेल डील ही साबित होगी मोदी सरकार के ताबूत में आखिरी कील, 500 करोड़ का जहाज 1500 करोड़ में, अनुभवहीन रिलायंस कंपनी को जहाज के पार्ट बनाने का 22000 करोड़ का ठेका मिला? राफेल में हुए क्या क्या खेल?
सांसद के इसी आरोप को अपनी मानहानि करार देते हुए अंबानी ने संजय सिंह को मानहानि का नोटिस भेजा है। संजय सिंह ने इस बात पर कायम रहते हुए कहा कि बंदर घुड़की नहीं चलेगी। पार्टी के एक अन्य नेता आशुतोष ने ट्वीट करके कहा कि अब तो डर लग रहा है कहीं नीरव मोदी भी 11400 करोड़ का मानहानि का मुकदमा न कर दे।
राफेल सौदे को लेकर कांग्रेस ने भी केन्द्र की राजग सरकार को लगातार कठघरे में खड़ा कर रखा है। खुद पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी बार-बार, संसद के भीतर और बाहर आकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से इस मामले में जवाब मांग रहे हैं। आम आदमी पार्टी नेताओं ने भी इस मुद्दे को बार-बार उठाया। अब पार्टी सांसद पर मानहानि का मुकदमा होने के बाद इस मुद्दे पर नए सिरे से सियासत गरमा गई है।
यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या लोकतंत्र में बड़े लोग मानहानि की धमकी देकर किसी का मुँह बंद कर सकते हैं? वहीं यह सवाल भी उठ रहा है कि क्या कोई भी किसी पर आरोप मढ़कर उसकी इज्जत पर धब्बा लगा सकता है? सारी बात यहाँ आकर सिमट जाती है कि आरोप सच है या झूठ। तो, इसका निर्धारण तो उचित एजेन्सी द्वारा जाँच किये जाने से ही होगा। अच्छा है कि अनिल मुकदमा दायर कर ही दे। शायद सच्चाई पता चल जाए!
महल के वास्तु की खुशी; टाईल्स उखड़ने की चिंता नहीं…?
ओमप्रकाश मेहता
देश के उत्तर पूर्व के तीन राज्यों में अपनी सरकारें बनाकर भारतीय जनता पार्टी इन दिनों खुशी के ‘अतिरेक’ में है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी ने वास्तुशास्त्र का हवाला देते हुए उत्तर-पूर्व दिशा पर कब्जें को वास्तु के हिसाब से शुभ भी माना है साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि सूर्यास्त के समय ‘लाल’ होता है और सूर्योदय के समय ‘केसरिया’, (उनका ‘लाल’ से मतलब लेफ्ट पार्टी के लाल निशान से था और ‘केसरिया’ से मतलब भाजपा से था) किंतु सर्व गुणज्ञानी प्रधानमंत्री जी संस्कृत का वह प्रसिद्ध श्लोक भूल गए, जिसमें कहा गया है ‘‘उदये सविता रक्तः, रक्तश्चास्तमनै यथा’’ अर्थात सूर्य उदय होते समय भी लाल होता है और अस्त होते समय भी लाल ही होता है, इसके आगे श्लोक में कहा गया है, ‘‘सम्पत्तौच विपत्तौच, महतां मेक रूपता’’ मतलब खुशी व दुःख दोनों समय इंसान को एक जैसा रहना चाहिए। यद्यपि भाजपा को श्लोक के दूसरे अंश से भी शिक्षा लेना चाहिए, किंतु श्लोक के अनुसार सूर्य उदय होते समय केसरिया नहीं लाल होता है, शायद सूर्योदय से पहले उठकर योग करने वाले प्रधानमंत्री जी ने योग के बाद सूर्य के केसरिया रूप के दर्शन किए होगें। यह तो हुई भाजपा के महल की वास्तु की बात, अब यदि हम वास्तु के सुखद संयोग के साथ इस भाजपा महल के अंदर की बात करें तो भाजपा ने अपना मुख्यालय चाहे नया-नकोर बना लिया हो किंतु संगठन के महल की तो स्थिति ठीक नहीं है, कहीं इसकी अनुशासन की दीवार में असहमति के दरारें नजर आती है तो कहीं उप-चुनावी फर्श की टाईल्स उखड़ती नजर आ रही है, मतलब यह कि इस महल पर बाहर से चाहे ‘बेल-बूटे’ नजर आ रहे हो, किंतु अंदर से तो ‘पैंदा’ फूटा ही नजर आ रहा है, अब इसी महल पर चढ़कर भाजपा के ‘शूरवीर’ 2019 का महायुद्ध कैसे लड़ पाएगें? जो भी हो, किंतु यह तो मानना पड़ेगा कि जो भाजपा अपने विधानसभा उपचुनावों में पराजय से दुःखी और परेशान थी तथा ‘‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’’ परिणामों को लेकर काफी उत्साह का संचार हुआ है और अब उसने पुनः ‘‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’’ की झाडू उठाकर पूरे राष्ट्र से विपक्षी कचरे को हटाकर अपनी रंगोली सजाने की तैयारी शुरू कर दी है। साथ ही उप-चुनाव परिणामों से दुःखी और नाराज होकर कोप भवन में विराजे संघ प्रमुख को भी मनाने की कौशिश शुरू कर दी है, भाजपाध्यक्ष अमित शाह की संघ प्रमुख से भंेट इसी कौशिश का एक अंग है। यद्यपि ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ के नारे को मूर्तरूप देने की दिशा में कई गतिरोध है, जैसे सभी दलों को इसके लिए राजी करना, संसद से संविधान संशोधन करवाना आदि, किंतु भाजपा ने अपने राज्यों के मुख्यमंत्रियों से अनुशंसाऐं मंगवाने की शुरूआत कर दी है, पिछले दिनों प्रधानमंत्री द्वारा आहूत मुख्यमंत्रियों की बैठक में विचार का यही एक मुद्दा था, जिस पर भाजपाई मुख्यमंत्रियों ने आम सहमति जाहिर की है। अब देखने वाली बात यही होगी कि भाजपा व मोदी सरकार इसी साल के अंत में होने वाले चार राज्यों के विधानसभा चुनावों के साथ लोकसभा के चुनाव करा पाती है या नहीं, वैसे इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु लाए जाने वाला संविधान संशोधन प्रस्ताव लोकसभा में तो पारित हो जाएगा, क्योंकि वहां भाजपा व सहयोगी दलों का बहुमत है, किंतु राज्यसभा में दिक्कत हो सकती है, क्योंकि वहां भाजपा बहुमत में नहीं है, यदि इसी माह होने वाले राज्यसभा की साठ सीटों के चुनाव में भाजपा आधी भी सीटें प्राप्त कर लेती है तो वह राज्यसभा में भी बहुमत में आ जाएगी और फिर संविधान संशोधन विधेयक पारित कराना मुश्किल नहीं होगा, फिर भाजपा इसी साल नवम्बर-दिसम्बर में चार राज्यों के विधानसभा चुनावों के साथ लोकसभा के भी चुनाव करवा सकती है, यह सब तब तक बने रहने वाले भाजपा समर्थक माहौल और भाजपा की इच्छाशक्ति पर निर्भर है। अब जो भी हो, किंतु यह तो हर किसी को मानना ही पड़ेगा कि भारत में सत्ता के संचालन का तरीका एक ही जैसा होता है, फिर वह चाहे कांग्रेस चलाए या कि भाजपा। इसीलिए अब देश के बुद्धिजीवी व राजनीति के मर्मज्ञ यह मानने लगे है कि देश की वर्तमान भाजपा सरकार के प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी ने सत्ता संचालन के लिए कई कांग्रेसी हथकंडे अपनाए है, जिनमें से एक ताजा उदाहरण मेघालय में दो सीट होने के बावजूद अपनी पसंद की सरकार गठित कर लेना है, इसके पहले गोवा में भी ‘कांगे्रस नीति’ के सहारे ही सत्ता हासिल की थी, अब ‘‘गुरू गुड़ हो गया और चेला शक्कर बन गया है’’, यह समय की बलिहारी है।
सपा+बसपा = मोदी का सिरदर्द
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
उप्र में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने हाथ क्या मिलाया, यह खबर सभी अखबारों के मुखपृष्ठ पर चमकने लगी ? क्यों चमकने लगी ? क्योंकि उत्तर-पूर्व के प्रांतों में प्राप्त भाजपा की सफलता ने विपक्षियों के होश फाख्ता कर दिए थे। अब अखिलेश और मायावती के इस छोटे-से समझौते ने इतना महत्व क्यों प्राप्त कर लिया है ? इसीलिए कि दो संसदीय सीटों- गोरखपुर और फूलपुर- पर दोनों पार्टियों का समझौता हुआ है कि दोनों समाजवादी उम्मीदवारों का बसपा समर्थन करेगी। कुछ लोग यह मानकर चल रहे हैं कि इस समझौते के कारण भाजपा दोनों सीटें हार जाएगी। भाजपा को इन सीटों पर हराना आसान नहीं है। गोरखपुर तो मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की खाली की हुई सीट है और फूलपुर उप-मुख्यमंत्री केशवप्रसाद मौर्य की सीट है। क्या ये दोनों भाजपा नेता उनकी अपनी सीट हारने देंगे ? दूसरी बात यह कि दोनों सीटों पर पिछले चुनाव में भाजपा को 51 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले हैं जबकि दोनों सीटों पर सपा और बसपा को मिलाकर 37-38 प्रतिशत से ज्यादा वोट नहीं मिले हें। यह ठीक है कि मोदी लहर उतर चुकी है लेकिन उप्र की भाजपा सरकार ने ऐसा क्या कर दिया है कि उसके वोटों में 10-15 प्रतिशत की कमी हो जाए ? हां, कांग्रेस भी सपा का समर्थन कर दे तो नतीजें काफी चौंकानेवाले हो सकते हैं। यदि भाजपा ये दोनों सीटें जीत जाए, इसके बावजूद सपा और बसपा का गठबंधन 2019 के लिए बन गया तो मोदी की भाजपा को संसद में बहुमत मिलना कठिन हो सकता है लेकिन असली सवाल यह है कि सपा और बसपा का गठबंधन बन सकता है या नहीं ? मायवती किसी भी गठबंधन से इंकार कर रही हैं। मायावती को यह भुलाना कठिन पड़ेगा कि 1995 में सपा के लोगों ने उनके साथ कैसा व्यवहार किया था लेकिन आज की सपा अखिलेश की सपा है। अखिलेश ने मायावती की शान में कभी कोई गुस्ताखी नहीं की है। कोई आश्चर्य नहीं कि दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और नौजवानों का यह गठबंधन 2019 में मोदी के लिए भयंकर सिरदर्द सिद्ध हो जाए।
आतंकवाद को बेनकाब करेगी शिया-सुन्नी एकता
तनवीर जाफरी
विश्व की राजनीति इस समय एक बेहद खतरनाक दौर से गुज़र रही है। कहा जा रहा है कि दुनिया इस समय बारूद के एक बड़े ढेर पर बैठी हुई है। कुछ विश्लेषक तो तीसरे विश्व युद्ध की आहट का अंदाज़ा भी लगा रहे हैं। अमेरिका, उत्तर कोरिया, ईरान, सऊदी अरब, इज़राईल, फिलिस्तीन , सीरिया, यमन, इराक, लेबनान, रूस जैसे देश वर्तमान घमासान के केंद्र में हैं। सभी देशों के अपने अलग-अलग राजनैतिक, वैचारिक, सामाजिक तथा धार्मिक विचार हैं। इनमें सबसे प्रमुख धु्रव के रूप में ईरान व सऊदी अरब को देखा जा रहा है। इन दोनों देशों के मध्य बढ़ता तनाव निश्चित रूप से वैश्विक स्तर पर शिया-सुन्नी मतभेदों को हवा देने का काम कर रहा है। यह भी जगज़ाहिर है कि सऊदी अरब को अमेरिका अपनी दूरगामी रणनीति के तहत गत् कई दशकों से अपना संरक्षण देता आ रहा है। साथ ही साथ यह बात भी किसी से छुपी नहीं है कि ओसामा बिन लाडेन से लेकर हाफिज़ सईद तक सऊदी अरब के वैचारिक शिक्षण संस्थानों की देन हैं। दुनिया समझ सकती है कि इस्लाम के नाम पर पूरे विश्व में फैले आतंकवाद की पुश्तपनाही करने वाले सऊदी अरब से गहरी दोस्ती निभाने वाले अमेरिका का आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध छेडऩे का नारा कितना सच हो सकता है और कितना ढोंग? दूसरी तरफ यमन व सीरिया जैसे आतंरिक युद्धग्रस्त देशों में भी ईरान व सऊदी अरब अलग-अलग धड़ों को अपनी सुविधा व राजनैतिक लाभ के मद्देनज़र सहयोग दे रहे हैं। कमोबेश इन देशों का यह सहयोग अथवा विरोध भी शिया-सुन्नी पर ही आधारित है।
इस समय लगभग समूचे गैर मुस्लिम जगत का कमोबेश यही प्रयास है कि पूरे इस्लाम धर्म को व मुस्लिम जगत को आतंकवादी विचारधारा की परवरिश करने वाला धर्म प्रमाणित कर दिया जाए। समय-समय पर विभिन्न दिशाओं से कुरान शरीफ की की जाने वाली आलोचनाएं तथा इस्लामी आतंकवाद, इस्लामी जेहाद एवं जेहादी आतंकवाद जैसे शब्दों का प्रचलन इसी साजि़श का एक बड़ा हिस्सा है। ऐसे में निश्चित रूप से मुस्लिम जगत के जि़म्मेदार नेताओं का यह कर्तव्य है कि वे बिना समय गंवाए हुए आगे आएं तथा इस्लाम की आतंकवाद विरोधी विचारधारा को प्रचारित-प्रसारित करें। और इस मिशन को आगे बढ़ाने के लिए इस्लाम से संबंधित उन सभी विचारधाराओं का एकजुट होना ज़रूरी है जो कुरान शरीफ तथा पैगंबर हज़रत मोहम्मद द्वारा शांति, प्रेम, सद्भाव, आपसी भाईचारा का संदेश देते हैं तथा बेगुनाहों की हत्या व ज़ुल्म के विरुद्ध सख्त संदेश देते हैं। यह कुरान का ही कथन है कि यदि तुमने एक बेगुनाह का कत्ल कर दिया तो गोया तुमने पूरी मानवता का कत्ल कर दिया। निश्चित रूप से कुरान शरीफ व इस्लाम के इस बुनियादी उसूल का तो इतना प्रचार -प्रसार नहीं हो रहा परंतु हदीसों व इस्लामी इतिहास से संबंधित विवादित घटनाओं को लेकर विभिन्न मुस्लिम समुदायों में तलवारें खिंची ज़रूर दिखाई देती है।
ईरानी नेतृत्व तथा वहां के उलेमा गत् कई दशकों से इस बात के लिए अपनी कोशिशें जारी रखे हुए हैं कि किसी तरह पूरे विश्व में शिया-सुन्नी एकता कायम हो सके। ईरान में आई इस्लामी क्रांति के फौरन बाद ही ईरानी धर्मगुरू आयतुल्ला खुमैनी के समय से ही यह प्रयास शुरु हो गए थे। और आज तक ईरानी नेतृत्व पूरी गंभीरता के साथ शिया-सुन्नी एकता के लिए वैश्विक प्रयासों में जुटा है। गत् 16 फरवरी को भारत के दौरे पर आए ईरान के राष्ट्रपति हसन रुहानी ने हैदराबाद की सुन्नी जमाअत से संबंधित प्रसद्धि ऐतिहासिक मक्का मस्जिद में नमाज़-ए-जुमा अदा की। इस मस्जिद की बुनियाद 1616 ई० के अंत में कुतुबशाही वंश के शासक सुल्तान मोहम्मद ने रखी थी तथा 1694 में औरेंगज़ेब के शासनकाल में यह मस्जिद बनकर तैयार हुई। यहां राष्ट्रपति रूहानी के साथ सैकड़ों शिया तथा सुन्नी नेताओं ने सामूहिक रूप से नमाज़ अदा कर शिया-सुन्नी एकता का विश्वव्यापी संदेश दिया। इसके अतिरिक्त जब-जब भारत के प्रमुख शिया धर्मगुरु ईरान के दौरे पर जाते तथा ईरानी धार्मिक नेतृत्व से मिलते रहे हैं तब-तब ईरानी नेतृत्व द्वारा उन्हें बार-बार यह हिदायत दी जाती रही है कि वे सुन्नी जमाअत के लोगों को अपनी आत्मा की तरह समझें। भारत में शिया धर्मगुरू मौलाना कल्बे सादिक़ व और भी कई धर्मगुरु सुन्नी मस्जिदों में जाकर नमाज़ अदा करते रहे हैं। भारत ही नहीं बल्कि अरब के और भी कई देश इन दिनों शिया-सुन्नी एकता का प्रदर्शन करने के लिए एक-दूसरे समुदाय से जुड़ी मस्जिदों में नमाज़ अदा कर रहे हैं। ज़ाहिर है ऐसे प्रयासों को केवल प्रतीकात्मक नहीं बल्कि धरातलीय स्तर पर इसे प्रयोगात्मक रूप दिया जाना चाहिए और ऐसा वातावरण तैयार करना चाहिए कि देश व दुनिया की मस्जिदों को केवल अल्लाह की मस्जिद ही कहा जाए न कि शिया मस्जिद, सुन्नी मस्जिद, बरेवली, अहमदिया या खोजा मस्जिद।
दूसरी ओर जो ताकतें इस्लाम में फूट डालने तथा मुस्लिम जगत को विभाजित करने वालों के हाथों में खेल रही हैं वे इस बात से पूरी तरह भयभीत हैं कि यदि वैश्विक स्तर पर शिया-सुन्नी एकता के प्रयास परवान चढऩे लगे तो निश्चित रूप से आतंकवाद का पोषण करने वाली तथा इस्लाम पर आतंकवाद जैसा कलंक लगाने की जि़म्मेदार विचारधारा बेनकाब हो जाएगी। और यह विचारधारा अपने आकाओं के इशारे पर शिया-सुन्नी एकता के प्रयासों को किसी भी कीमत पर सफल नहीं होने देना चाहती। उदाहरण के तौर पर प्राप्त समाचारों के अनुसार शिया धर्मगुरु मौलाना कल्बे जव्वाद के प्रयासों से आगामी 24 मार्च को लखनऊ में आतंकवाद के विरुद्ध एक शिया-सुन्नी संयुक्त सम्मेलन आयोजित होना प्रस्तावित है। इस सम्मेलन से पहले ही शिया-सुन्नी एकता को नापसंद करने वाली विचारधारा से संबंधित किसी अज्ञात व्यक्ति ने मौलाना को फोन कर उन्हें आतंकवादी घटना अंजाम दिए जाने की धमकी दी है। धमकी देने वाले ने साफतौर पर यह कहा है कि यदि इस सम्मेलन में एक प्रमुख इस्लामी विचारधारा के विरुद्ध कुछ भी बोला गया तो असली आतंकी घटना को लखनऊ में ही अंजाम दिया जाएगा।
इसी संदर्भ में एक और बेहद अहम सवाल यह उठता है कि जिस प्रकार ईरान गत् तीन दशकों से शिया-सुन्नी एकता की कोशिश कर रहा है तथा विश्व के शिया उलेमाओं को यह संदेश दे रहा है कि वे अपने-अपने देशों में शिया-सुन्नी एकता हेतु पूरी सक्रियता से काम करें उसी प्रकार आखिर सऊदी अरब का नेतृत्व इस प्रकार के प्रयास क्यों नहीं करता? बजाए इसके सऊदी अरब को जहां-जहां ईरान की उपस्थिति नज़र आती है वहां-वहां वह अमेरिका के इशारे पर ईरान के विरुद्ध अपना परचम लेकर खड़ा हो जाता है। इतना ही नहीं बल्कि गत् पांच वर्षों में सऊदी अरब में शिया धर्मगुुरुओं तथा शिया समुदाय के सऊदी नागरिकों को विरुद्ध ज़ुल्म की घटनाओं में भी तेज़ी से बढा़ेतरी हुई है। हां इस विषय में शिया धर्मगुरुओं को एक बात पर ज़रूर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है कि वे अपनी ओर से इतिहास अथवा हदीस से संबंधित ऐसी विवादित घटनाओं का जि़क्र करने से बाज़ आएं जो घटनाएं दूसरे समुदाय के लोगों की भावनाओं को आहत करने वाली हों। सामुदायिक एकता के प्रयास करने से पहले एक-दूसरे की भावनाओं का मान-सम्मान व आदर करने का जज़्बा पैदा करना बेहद ज़रूरी है।
सक्षम नेतृत्व का नाम है शिवराज
डॉ. नरोत्तम मिश्र
देश के हृदय प्रदेश मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराजसिंह चौहान ने मध्यप्रदेश की तस्वीर बदल दी है। सीहोर जिले के एवं छोटे से गाँव की गलियों से निकलकर सार्वजनिक क्षेत्र में आने और फिर संगठन से लेकर सरकार के मुखिया की जिम्मेदारी निभाने में श्री चौहान की सक्रिय भूमिका सामने आई है। वे सामाजिक उत्थान के कार्यक्रमों को जीवन का मिशन मानते हैं। उन्होंने हर तबके के तरक्की के लिए कदम उठाये हैं। यही वजह है कि देश के मुख्यमंत्रियों में उनकी अलग पहचान भी बनी है। मुख्यमंत्री का दायित्व संभालने के पूर्व उन्होंने एक विधायक और सांसद के रूप में सक्रिय जनप्रतिनिधि का परिचय दिया था। उनकी इस पृष्ठ भूमि से आम जनता भी अवगत रही है। विधायक बनने के पहले उन्होंने भारतीय जनता युवा मोर्चा और मुख्यमंत्री बनने के पहले भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष का दायित्व भी संभाला था। आपातकाल के कठिन दौर में शिवराज जी ने कारावास में भी दिन बिताए। लोकतंत्र को कमजोर करने के तत्कालीन केन्द्र सरकार के उस निंदनीय कदम का सड़क पर आकर विरोध करने वाले शिवराज जी बहुत कम कार्यकर्ताओं और सहयोगियों के बावजूद संघर्ष के मार्ग पर डटे रहे। उनके व्यक्तित्व में धैर्य, परिश्रम, अन्य लोगों की भावनाओं को समझने और समन्वय से कार्य करने के गुण शामिल हैं।
बेटियों को बनाया है वरदान
सांसद के रूप में समाज के अभावग्रस्त परिवारों की कन्याओं के हाथ पीले करने का बीड़ा शिवराज जी ने उठाया था। उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद कन्यादान योजना और लाड़ली लक्ष्मी योजना बनाकर महिलाओं के हित में ऐतिहासिक कार्य कर दिखाया है। सत्ताईस लाख से अधिक बालिकाओं के जीवन में जो उमंग आई है, उसकी प्रसन्नता उन बालिकाओं के परिवार के लोग महसूस करते हैं। मध्यप्रदेश की बालिकाएं वयस्क होते ही लखपति बन जाती है। यदि राजाराम मोहन राय के बाद यदि समाज सुधार के क्षेत्र में कोई बड़ी पहल हुई है तो वह शिवराज जी द्वारा बहनों को सक्षम और समर्थ बनाने के रूप में मध्यप्रदेश में हुई है। जहां बेटी के जन्म से लेकर उसकी शिक्षा और विवाह तक आर्थिक रूप से सबल बनाना शामिल है। बेटियों को बोझ समझे जाने की लोगों की मानसिकता में भी परिवर्तन आया है। इसका कारण भी इस तरह की अनूठी योजनाओं पर अमल हो माना जा सकता है। आमतौर पर राजनीति से जुड़े लोग इस तरह के व्यापक समाजोपयोगी कार्यों पर उतना ध्यान नहीं दे पाते। सामाजिक क्षेत्र में किए जाने वाले कार्यों और अनेक नवाचारों को मुख्यमंत्री श्री चौहान ने सफलता पूर्वक कर दिखाया है। समाज ने भी इस तरह के नवाचारों को अंगीकार किया है। दूसरे प्रदेश मध्यप्रदेश की योजनाओं का अनुसरण कर रहे है।
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में शिवराज जी ने दायित्व संभालने से लेकर अब तक निरंतर गतिशील रहकर जन-जन का कल्याण सुनिश्चित किया है। ऐसे अनेक अवसर आए जब प्रदेश के किसान अतिवर्षा, बाढ़, दुर्घटनाओं का अनायास शिकार हुए। प्रदेश के नागरिकों की सहायता के लिए जिस ततपरता से मुख्यमंत्री श्री चौहान आगे आते हैं, वो बेमिसाल है।
अन्नदाता की चिंता
मध्यप्रदेश को पाँच बार कृषि कर्मण अवार्ड मिला है। इसके पीछे एक खास वजह मध्यप्रदेश में विकसित सिंचाई सुविधाएं भी हैं। प्रदेश सरकार लगातार किसानों, गरीबों तथा समाज के हर वर्ग के चहुँमुखी विकास के लिये तेजी से कार्य कर रही है। जहाँ पहले प्रदेश में केवल साढ़े सात लाख हेक्टेयर में सिंचाई सुविधा थी, वहीं अब यह बढ़कर सरकारी स्त्रोतों से लगभग चालीस लाख हेक्टेयर हो गयी है। मध्यप्रदेश में अगले कुछ वर्ष में यह क्षमता 60 लाख हेक्टेयर हो जाएगी। मुख्यमंत्री श्री चौहान और मध्यप्रदेश सरकार को अन्नदाता किसान दुआ दे रहे हैं। मध्यप्रदेश किसानों को अतिवर्षा, ओलावृष्टि से हुई फसल क्षति पर राहत राशि और फसल बीमा योजना के अंतर्गत राशि दिलवाने वाला अग्रणी राज्य भी मध्यप्रदेश ही है। प्रदेश की कृषि विकास दर प्रतिवर्ष बढ़ रही है। यह उपलब्धि प्राप्त करने वाला मध्यप्रदेश देश का एकमात्र राज्य है।
भावांतर का भाव पहुंचा पूरे देश में
गत वर्ष लागू भावांतर भुगतान योजना किसानों के बेहद उपयोगी सिद्ध हुई है। इसका अध्ययन अनेक राज्यों ने किया है। कुछ राज्य इसे लागू भी कर चुके है। मध्यप्रदेश में सरकार के कल्याणकारी सोच का अन्य प्रांतों तक पहुंचना साधारण बात नहीं है। शिवराज जी ने किसान की पीड़ा को समझा और महसूस किया है। यही वजह है कि उन्हें ब्याज मुक्त ऋण के साथ ही भावांतर योजना जैसी योजनाओं का फायदा दिलवाने पर ध्यान दिया गया, ताकि किसान आर्थिक रूप से इतना सक्षम बन जाए कि उसे कम उत्पादन, मौसम की प्रतिकूलता, बाजार के उतार-चढ़ाव किसी भी कारण से नुकसान न उठाना पड़े।
स्वच्छ भारत के स्वप्न को पूरा करने का जतन
प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के आव्हान पर प्रारंभ किए गए स्वच्छ भारत अभियान का भी प्रदेश में अच्छा क्रियान्वयन हुआ है। स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) का उद्देश्य दिसंबर 2018 तक पूरे प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्र को खुले में शौच की प्रथा से पूरी तरह मुक्त करवाना है। मध्यप्रदेश के दो बड़े नगर इंदौर और भोपाल सार्वजनिक स्वच्छता के नए आयाम स्थापित कर रहे। सार्वजनिक स्वच्छता से सार्वजनिक स्वास्थ्य भी सुनिश्चित होता है और बेहतर परिवेश से अच्छे मन से कार्य होते हैं। जहाँ तक लोगों की व्यक्तिगत सेहत की रक्षा और बड़ी बीमारियों से बचाने का सवाल है, मुख्यमंत्री श्री चौहान ने इस क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर दिखाया। राज्य बीमारी सहायता योजना के बजट में साल-दर-साल वृद्धि होती गई है। योजना का विकेन्द्रीकरण किया गया है। अब जिला स्तर पर कलेक्टर विभिन्न रोगों के इलाज के लिए सहायता मंजूर करते हैं। जिलों में स्वास्थ्य शिविर लगाकर रोगों की पहचान और उनके इलाज का पुण्य कार्य भी किया गया है। छोटे नगरों में बड़े चिकित्सा संस्थानों के विशेषज्ञ पहुँचकर सेवा कार्य करते हैं। प्रदेश में अनेक नए मेडीकल कॉलेज शुरू हो रहे हैं। नर्मदा सेवा यात्रा से मध्यप्रदेश के नागरिकों को पर्यावरण बचाने का संदेया दिया गया। गाँवों कस्बों में लोग नदी बचाओं संकल्प ले रहे है।
हर वर्ग को खुशी देने के प्रयास
नए उद्योगों के माध्यम से प्रदेश में निवेश बढ़ाना हो, युवाओं को रोजगार देना हो या शासकीय सेवकों को सातवां वेतनमान देने की बात हो अथवा राज्य में कौशल विकास को बढ़ाना हो, शिवराज जी ने मनोयोग से यह कार्य करवाए हैं। मुख्यमंत्री के रूप में श्री चौहान ने अपनी सहज, सरल व्यक्ति की छवि को बनाए रखा है। उनका मानना है कि राज्य का हर नागरिक खुश हो, खुशहाल हो। उनका यह भी मानना है कि प्रसन्नता का संबंध पद या पैसे से नहीं होता। इसी अवधारणा के आधार पर नए आनंद विभाग के गठन का फैसला लिया गया। हाल ही में भूटान के डॉ. साम्दु चेत्री ने सार्वजनिक रूप से कहा कि मध्यप्रदेश में आनंद विभाग बनाकर मानवता के पक्ष में बहुत अच्छा कदम उठाया गया है। इसी तरह मध्यप्रदेश के पर्यटन को नया आयाम देने, सांस्कृतिक क्षेत्र में आंचलिक कलाकारों को भी प्रोत्साहन देने के लिए प्रदेश में लगातार कार्य किया गया है।
मध्यप्रदेश में जनता को पर्यावरण संरक्षण से जोड़ने की दिशा में नर्मदा सेवा यात्रा प्रारंभ की गई। यह एक अनूठी पहल है। इसी तरह पं. दीनदयाल उपाध्याय जी के जन्मशताब्दी वर्ष में गरीबों के लिए भोजन की सुविधा एक महत्वपूर्ण कदम है। सर्वधर्म समभाव और जागृति का संदेश जन-जन तक पहुंचा। एकात्म यात्रा से भी आमजन को शंकराचार्य जी के दर्शन से अवगत करवाया गया। मुख्यमंत्री श्री चौहान ऐसी शख्सियत हैं जिनके सोच, विचार और चिंतन में हमेशा प्रदेश का नागरिक रहता है। जिनके जहन में आम व्यक्ति का कल्याण सदैव विद्यमान रहता है।
राज्य में शिवराज जी मानवीय दृष्टिकोण के लिए भी जाने जाते हैं। मध्यप्रदेश में इस सप्ताह मंजूर बजट भी बहुत अभिनव स्वरूप लिए हुए हैं। इस बजट से गरीब व्यक्ति के चेहरे पर मुस्कान आएगी। विशेष रूप से कृषि, सिंचाई, स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में अनेक अभिनव कार्यक्रमों का क्रियान्वयन शुरू हो रहा है। यह मुख्यमंत्री श्री चौहान की ही विशेषता मानी जाएगी कि मध्यप्रदेश के हर व्यक्ति के मन में अपने प्रदेश की भावना को विकसित करने में वह सफल रहे हैं। मध्यप्रदेश का अपना गान है, साथ ही अब मध्यप्रदेश की नई पहचान है। जो राज्य कभी बीमारू कहलाता था, वह अब सड़क, पानी, बिजली जैसी जरूरतों की पूर्ति करने में स्वयं सक्षम हो गया है। संभवत: अपने सरल और आम नागरिक की तरह जीवन जीने के स्वभाव के कारण ही मुख्यमंत्री श्री चौहान के लिए किसी रचनाकार की ये पंक्तियां सटीक बैठती हैं :-
‘सिर्फ आसमान छू लेना ही कामयाबी नहीं होती,
असली कामयाबी तो वो होती है कि आसमान भी छू लो
और पाँव भी जमीन पर रहें।
(लेखक मध्यप्रदेश शासन में जनसंपर्क, जल संसाधन और संसदीय कार्य मंत्री हैं।)
कर्मयोगी शिवराज
विश्वास सारंग
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान राजनेताओं के लिये रोल मॉडल के रूप में श्रद्धा का पर्याय बन गये हैं। आजादी के बाद देश में योजना विकास का ताना-बाना बुना गया तब बड़े भवन, कल-कारखाने लगाने के साथ योजना का जो एक लक्ष्य निर्धारित किया गया वह मानव गरिमा की स्थापना करना था। स्वदेशी को जीवन में उतारना था। लेकिन पाश्चात्य ऊहापोह में इनके अमल का जोश काफूर हो गया। मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री पद की जबावदेही संभालने के बाद प्रदेश के गाँव, गरीब और किसान की पीड़ा की अनुभूति की और अपनी अवधारणा को जमीन पर उतारकर साबित कर दिया कि इस दिशा में कोई भूमिपुत्र ही गाँवों में सामाजिक क्रांति ला सकता है। देश में आबादी के अनुपात में आया असन्तुलन पुत्र और पुत्री के जन्म को लेकर व्याप्त धारणाओं पर निर्भर रहा है। श्री चौहान जब क्षेत्र के विधायक और बाद में सांसद बने उन्होंने हजारों की संख्या में सामुहिक विवाह गाँवों में कराये और खुद कन्यादान लेकर आम आदमी को कहा कि कन्या बोझ नहीं है। बाद में जब वे मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने कन्या विवाह योजना को सरकार की योजना बनाया। प्रदेश की माताओं के भाई और पुत्रियों के मामा बन गये।
श्री चौहान ने भ्रूण हत्या पर जितना जबर्दस्त प्रहार लाड़ली लक्ष्मी योजना के क्रियान्वयन से किया है उतना कदापि कोई कड़े से कड़ा कानून भी नहीं कर सका है। गाँव की बेटी योजना हो, गाँव की बेटी के लिये विद्यालय जाने के लिये साइकिल प्रदाय योजना, मुफ्त पाठय-पुस्तकें, जननी सुरक्षा योजना, दीनदयाल उपचार योजना, मुख्यमंत्री अन्नपूर्णा योजना, मुख्यमंत्री मजदूर सुरक्षा योजना आदि का उद्देश्य व्यक्ति की गरिमा में चार चाँद लगाकर उनमें आत्म-विश्वास कूट-कूट कर भरना रहा है। श्री चौहान ने प्रदेश को मंदिर, जनता को आराध्य देवता और खुद अपने को पुजारी साबित कर दिया है। मुख्यमंत्री श्री चौहान के नेतृत्व में प्रदेश में परिवर्तन की ऐसी बयार चली कि अनुसूचित जाति, जनजातियों के बच्चे विदेशों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने पहुँचने लगे। महिलाओं का सशक्तीकरण किस तरह हुआ यह बात अब चौपाल की चर्चा बन चुकी है। स्थानीय स्वायत्तशासी संस्थाओं में महिलाओं को पचास प्रतिशत आरक्षण देकर शिवराज सिंह चौहान ने प्रदेश में महिलाओं में पक्की पैठ और सकारात्मक रिश्ते बना लिये हैं यही कारण है कि नगरों, ग्रामों, बस्तियों में जहाँ श्री चौहान का कार्यक्रम होता है पुरूषों से अधिक महिलाएँ और बहनें उपस्थित होकर उनके लिये पाँव-पाँव वाले भैया का संबोधन करती हैं। प्रदेश में किसानी को लाभकारी व्यवसाय बनाया जा रहा है। श्री चौहान का कहना है कि किसानों की प्रगति के बिना प्रदेश शक्तिशाली नहीं बन सकता है। उन्होंने किसानों को 7 प्रतिशत ब्याज पर मिलने वाले फसल कर्ज को सस्ता कर दिया। शून्य प्रतिशत ब्याज पर ऋण दिलाकर ऋण ग्रस्तता पर प्रहार किया। किसानों को कर्ज के बोझ से मुक्ति दिलायी हैं। अब तो शून्य प्रतिशत ब्याज के साथ-साथ ऋण पर 10 प्रतिशत की सबसिडी भी दी जा रही है।
पाँच मार्च 1959 में जैत गांव (सीहोर) में श्री प्रेमसिंह चौहान के किसान परिवार में जन्में शिवराज सिंह चौहान में प्रांरभ से ही जन-समस्याओं से जूझने का जज्बा था। आपातकाल में जेल जाने वाले वे कदाचित सबसे कम उम्र के स्वयंसेवक थे। पितृ पुरूष कुशाभाऊ ठाकरे ने राजनैतिक नेतृत्व का मंत्र और आशीर्वाद दिया और उनमें क्रांति की ज्वाला धधक उठी। पं. दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानव दर्शन ने उन्हें संस्कार दिये और उनकी गणना होनहार नेताओं में की जाने लगी। प्रचार और सत्ता के मोह से बचने की उनकी भरसक कोशिश रही। लेकिन सही यह है कि जो छाया के पीछे चलते हैं, छाया भी उनका साथ छोड़ देती हैं। जो आगे दौड़ते हैं पीछे मुड़कर नहीं देखते, पद और सत्ता उनके पीछे चली आती हैं।
एक बार वर्ष 1988 में शिवराज सिंह चौहान ने तत्कालीन सरकार के घोर जुल्म के विरोध में मशाल जुलूस का आयोजन किया तो उनकी जिद की राजमाता जी नेतृत्व करें। प्रदेश के तत्कालीन नेतृत्व के सामने दो हठ। कुशाभाऊ ठाकरे, नानाजी और राजमाता जी के कद की गरिमा के अनुसार समर्थन जुट जायेगा ? श्री शिवराज बोले देहात की चालीस हजार जनता मशाल जुलूस में भाग लेगी। शिवराज की हठ के सामने नेतृत्व सहम गया। जब 7 अक्टूबर, 1988 को भोपाल में जुलूस निकला और नेतृत्व राजमाता जी ने किया तो सारी सड़कें जुलूस से भर गयी थीं। भोपाल में पैर रखने के लिए जगह नहीं थी। वाणी में संयम, कथनी और करनी में साम्य का नाम शिवराज सिंह चौहान है।
(लेखक राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) सहकारिता, भोपाल गैस त्रासदी राहत एवं पुनर्वास विभाग है।)
बैंकों की लूटः यह कानून काफी नहीं
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नीरव मोदी के बैंकिंग घोटाले ने सरकार की नींद खोल दी है। अभी तो उसने सभी सरकारी बैंकों को निर्देश दिया है कि उनके सारे डूबतखातों की रपट वे सरकार को 15 दिन के अंदर-अंदर दे दे। इसके अलावा जिसके भी डूबतखाते की रकम 50 करोड़ से ज्यादा हो, उसके खिलाफ वे तुंरत कार्रवाई करें। इसके अलावा इन बैंकों में वर्षों से एक ही पद पर जमे हुए अफसरों के आनन-फानन तबादले हो रहे हैं। पंजाब नेेशनल बैंक के सेवा-निवृत्त और सेवारत अफसरों की खिंचाई जारी है। इस बीच नए-नए डूबतखातों के प्रमाण भी उजागर होते जा रहे हैं। मोदी और चौकसी की धोखाधड़ी में अब नए 1323 करोड़ रु. जुड़ गए हैं। जैसा कि हमने इस कांड के शुरु में ही लिखा था कि सरकार यदि सख्ती से पेश आएगी तो ऐसे सैकड़ों नए मामले सामने आते चले जाएंगे। अब सरकार पर जनमत का इतना जबर्दस्त दबाव बन गया है कि वह संसद के अगले सत्र में ऐसा कानून ला रही है, जिसकी वजह से भगोड़े कर्जदारों की संपत्तियों को सरकार आनन-फानन नीलाम कर सकेगी। उन पर मुकदमा वगैरह बाद में चलता रहेगा लेकिन यहां सवाल यह है कि भागते भूत की लंगोटी पकड़ने से सरकार को मिलेगा क्या ? ताजा खबर यह है कि मेहुल चौकसी को 100 करोड़ की गिरवी के बदले 5280 करोड़ रु. का कर्ज दे दिया गया। कई मामलों में गिरवी की संपत्तियां होती ही नहीं हैं या फर्जी होती हैं। यह कानून वैसे तो अच्छा है लेकिन यह काफी नहीं है। जरुरत इस बात की है कि बैंकों के लुटेरों और उनके परिजनों की सारी चल-अचल संपत्तियों को जब्त किया जाए और उनको उम्र-कैद की सजा तक दी जाए। जिन अफसरों ने फर्जी संपत्तियों पर मुहर लगाई या कर्ज देने में ढिलाई बरती, उन्हें बर्खास्त किया जाए, उनकी संपत्तियां भी जब्त की जाएं और उन्हें भी कठोरतम सजा दी जाए। जिन नेताओं ने बैंकों की इस लूट-पाट में सहयोग किया हो और यदि उनके प्रमाण उपलब्ध हों तो उन्हें भी कड़ी सजा दी जाए। इस मामले में संसद ऐसा कानून बनाए कि वित्तीय अपराध करने के पहले ही अपराधियों की हड्डियों में कंपकंपी दौड़ने लगे।
सिन्हां कहे तो जहरबुझी तलवार साबित हुई नोटबंदी
डॉ हिदायत अहमद खान
धर्म को मानने वाले और ईश्वर पर आस्था रखने वाले इस बात से इंकार कैसे कर सकते हैं कि जब जिव्हा पर सरस्वती का वास होता है, तब सत्य के सिवा कुछ और उजागर होता ही नहीं है। अगर वाकई यह सत्य है तो फिर यह मानने में परेशानी नहीं होना चाहिए कि भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हां ने ‘मुझे अब बोलना ही होगा’ शीर्षक से जो लेख लिखा है वह मौजूदा सरकार के सत्य को उजागर करने वाला ही है। और जब वो ऐसा लिख या कह रहे थे तब वाकई उनकी कलम या जिव्हा पर सरस्वती ही विराजमान रही होंगी जिन्होंने उनसे यह सब कहलवा दिया। दरअसल इस लेख के जरिए यशवंत सिन्हां ने देश के हालात और मौजूदा सरकार के फैसलों को जिस तरह से तथ्यों में तौला है वो वाकई दूध का दूध और पानी का पानी करने जैसा ही है। इसमें राजनीतिक छल और कपट जैसी कोई चीज नजर नहीं आती है। भले ही सरकार में बैठे लोग कुछ भी क्यों न कहें लेकिन हकीकत तो सामने आ ही गई है। इससे पहले पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह भी इसी बात को अपने अंदाज में कहते नजर आए थे, लेकिन उन्हें यह कहकर असत्यवादी बताने की कोशिश की गई थी कि चूंकि वो कांग्रेसी हैं अत: ऐसा कहना उनकी मजबूरी है। तब भाजपा के लोगों ने बढ़चढ़कर बताने की कोशिश की थी कि नोटबंदी देश के फायदे के लिए है और इसका लाभ लंबे समय तक देश को मिलने वाला है। इसी प्रकार जीएसटी को जिस अधूरी तैयारी से लागू किया गया उसे लेकर भी सवाल उठाए गए, लेकिन सरकार तो चूंकि पूर्ण बहुमत वाली है अत: किसी की सुनने के बजाय जो मन में आया वही करती चली गई और देश के हालात बद से बदतर होते चले गए। बहरहाल अब भाजपा के दिग्गज नेता और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे यशवंत सिन्हां ने मोदी सरकार और केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली पर निशाना साधते हुए कहा है कि देश के वित्त मंत्री ने अर्थव्यवस्था की हालत जो बिगाड़ दी है, ऐसे में अगर मैं अब भी चुप रहूं तो ये राष्ट्रीय कर्तव्य के प्रति अन्याय करने जैसा होगा। खास बात तो यह है कि यशवंत सिन्हां ने अपनी राय में अन्य नेताओं को भी शरीक करते हुए कहा है कि ‘इस बात का भी मुझे भरोसा है कि जो कुछ भी मैं कह रहा हूं, यही भाजपा के अन्य लोग भी मानते हैं लेकिन भयवश वो ऐसा कहेंगे नहीं।’ ये चंद लाइनें बताती हैं कि मौजूदा मोदी सरकार से विरोधियों को ही नहीं बल्कि उनकी अपनी पार्टी के लोगों को भी इस बात का भय है कि यदि उनके मुंह से सच निकल गया तो उनकी खैर नहीं है। इसलिए सभी सांप सूंघ जाने वाली स्थिति में सहमें बैठे हैं। बहरहाल कोई कुछ कहे या न कहे लेकिन यह तो सत्य है कि लगातार गिरती जीडीपी और ओंधे मुंह गिरती अर्थव्यवस्था के कारण मोदी सरकार की मुश्किलें लगातार बढ़ रही हैं। ऐसे में यशवंत सिन्हां ने वित्त मंत्री अरुण जेटली पर निशाना साधकर साहस का काम नहीं किया है बल्कि देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निभाने का काम किया है। अब सरकार को सोचना होगा कि वो जो कर रही है वह देशहित में तो कतई नहीं है, क्योंकि इससे देश की अर्थव्यवस्था औंधेमुंह गिर गई है। इस देश का असली मालिक जगह-जगह लाइन लगाकर खड़ा अपनी ही सरकार द्वारा उत्पन्न संकट का सामना करता नजर आ रहा है। सिन्हां ने सच ही कहा है कि नोटबंदी ने गिरती जीडीपी में एक तरह से आग में घी डालने का काम किया है। अगर यही हालात रहे तो वो दिन दूर नहीं जबकि प्रत्येक भारतीय उस गरीबी का मुलाहिजा खुद करेगा जिससे पहले कभी हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बहुत करीब से देख चुके थे और अपने बयानों में जिसे ज्यादातर शुमार भी करते हैं। दरअसल आज स्थिति यह है कि नौजवानों को ना ही नौकरी मिल रही है और ना विकास तेज हो रहा है। निवेश घट गया है और जीडीपी भी घट रही है। इसके लिए सरकार के गलत फैसले ही जिम्मेदार हैं, क्योंकि देश की जनता ने तो दिलो-जान से हर मोड़ पर सरकार का साथ दिया है। बकौल सिन्हां ‘आज अर्थव्यवस्था के क्या हाल हैं? निजी निवेश गिर रहा है। औद्योगिक उत्पादन सिकुड़ रहा है। कृषि पर संकट आया हुआ है, कंस्ट्रक्शन और दूसरे सर्विस सेक्टर धीमे पड़ रहे हैं, निर्यात भी मुश्किलों में है, नोटबंदी नाकाम साबित हुआ और गफ़लत में लागू किए गए जीएसटी ने कइयों को डुबो दिया, रोज़गार छीन लिए। अब आगे नए अवसर भी नहीं दिख रहे।’ कुल मिलाकर यदि देखा जाए तो नोटबंदी से लेकर सरकार के बड़े फैसले देश की अर्थव्यवस्था के लिए जहरबुझी तलबार साबित हुए हैं।
महिला आरक्षण का मुद्दा क्या प्रासंगिक बन पायेगा ?
-डा. भरत मिश्र प्राची
जब जब इस देश में संसदीय सत्र शुरू होता है हर बार महिला आरक्षण का मुद्दा जोर – शोर से उछलता है पर पुरूष प्रधान लाबी वाले इस देश में टाय – टाय फिस हो जाता है। इस बार फिर शीतकालीन सत्र से पूर्व वर्तमान केन्द्र की नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में एन.डी. ए.. सरकार द्वारा संसद में महिला आरक्षण का मुद्दा लाने व इसे पारित कराने की चर्चा जोर – शोर पर है। जिसे संसद में पारित कराने का पूर्व में कांग्रेस की ओर से भी पूरी कोशिश जारी रही एवं कांग्रेस सुप्रिमो श्रीमती सोनियां गांधी द्वारा महिला दिवस पर पूर्व से ही इसे उपहार के रुप में जानने के क्रम में संसद में पूर्ण बहुमत वाली कांग्रेस से इस बिल को संसद में पारित हो जाने की पूरी उम्मीद भी की जा रही थी पर उस समय भी पुरुष लाबी स्वयं भू परिवेश के कारण बिल पारित न हो सका और आज तक यह मुद्दा अप्रासंगिक बना हुआ है।वर्तमान में केन्द्र में एनडीए सरकार का पूर्ण बहुमत है।इसी आधार कांग्रेस सुप्रीमो श्रीमती सोनियां गांधी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के वजूद को ललकारा है । इसे 2019 के लोकसभा चुनाव के नजरिये से भी आंका जा रहा है पर संसद में इसका वास्तविक स्वरुप क्या हो पायेगा ? जहां इस तरह के प्रसंग आज तक अप्रासंगिक होते रहे है, क्या प्रासंगिक हो पायेंगे , कह पाना मुश्किल है। इसके वास्तविक कारणों को जानने के लिए, इससे जुड़े तथ्यों को परखना बहुत जरूरी है। जिसके कारण महिला आरक्षण का मुद्दा आज तक अप्रासंगिक स्वरूप धारण करता रहा है।
देश में जब कभी संसद का नया सत्र शुरू होता है, हर बार जोर-शोर से महिला आरक्षण का मुद्दा उछलता नजर आता है तथा तत्काल ही स्वहित परिधि में उठे मुक्त कंठ से एक स्वर के नीेचे दबकर टांय-टांय फिस्स हो जाता है। इस तरह का अर्थहीन क्रम कई वर्षों से यहां चल रहा है। स्वार्थ की परिधि में घिरे परिवेश के तहत इसे अमल में होने का स्वरूप कहीं दूर-दूर तक नजर नहीं आता दिखाई देता है। जहां आज यह स्परुप उभर कर सामने आया है ,वहां इसकी जो स्थिति दिख रही है, वह महिला आरक्षण के स्वरुप को अभी तक विकृृत ही करती पाई गई हैं । इस दिशा में पंचायती राज्य के उभ्रते स्वरुप को देखा जा सकता है । ंजहां आरक्षित महिला प्रत्याशी पर आज भी पुरुष वर्ग ही हावी है। यदि इसी तरह के हालात संसद में पारित महिला आरक्षण पर उभर कर सामने आये, तो इस तरह के मुद््दे की प्रासंगिकता का क्या स्वरुप होगा ? विचारणीय पहलू है?
लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि ही सर्वेसर्वा होता है। शासन की बागडोर उसके हाथ में होती है। राजतंत्र बनाम लोकतंत्र में जनता द्वारा चुना गया प्रतिनिधि जनसेवक न होकर राजतंत्र के राजा की तरह सुख, सुविधा एवं शक्ति का धारक बन गया है। जनप्रतिनिधि बनते ही वह अपने आपको आम जनता से अलग समझने लगता है तथा प्राप्त सुविधाओं के बीच लोकतंत्र की मर्यादा को भूल जाता है। इस दौरान मिली सुविधाओं एवं संचित धन व शक्ति का मोह इस तरह के परिवेश से उसे अलग कर ही नहीं पाता। जिसके कारण भारतीय लोकतंत्र में नेतृत्वधारी कुर्सी से सदा जीवन भर चिपका रहना चाहता है। इस प्रक्रिया में आयु की सीमा कहीं आड़े नहीं आती, जिसके कारण कब्र में लटके पांव में भी नेतृत्व को पकड़े रहने की चाहत सदा बनी देखी जा सकती है। इस मोह में फंसे नेतृत्व के बीच कोई आड़े आये, यह भी स्वीकार्य नहीं। महिला आरक्षण का मुद्दा निश्चित रूप से इस दिशा में बंदर बांट की स्थिति पैदा करता है। जिसकी गाज किसी न किसी नेता पर अवश्य गिरती, जो यहां के वर्तमान सुविधाभोगी नेतृत्वधारियों को कभी स्वीकार्य नहीं होगा। जिसके कारण इस तरह मुद्दे आज तक सर्वसम्मति से अमान्य होते रहे हैं। आज लोकतंत्र के बीच आज तक जिन लोगों का वर्चस्व नेतृत्व के माध्यम से बना हुआ है वे किसी भी तरह का संकट मोल नहीं लेना चाहते, जिससे उनके वर्चस्व को चुनौती मिले। महिला आरक्षण निश्चित रूप से उनके वर्चस्व को चुनौती दे रहा है, जिसके कारण प्रदेश एवं देश की राजनीति के बीच इस तरह के मुद्दे गौण होते जा रहे हैं।
जहां तक आरक्षण के इतिहास को देखे तो इसका भी यहां राजनीतिकरण ही हुआ है। पंचायती राज में इसके दुरूपयोग की तस्वीर साफ-साफ देखी जा सकती है। महिला आरक्षित सीटों पर प्रायः पूर्व नेतृत्वधारी परिवार का ही कब्जा ऐन-केन-प्रकारेण देखा जा सकता है। सरपंच, प्रधान, अध्यक्ष पदों पर विराजमान महिलाओं के निर्णय की डोर आज भी पूर्व नेतृत्वधारी इनके पति, जेठ, ससुर के हाथ दिखाई देती है, जिससे इस आरक्षण का कोई सीधा लाभ महिला वर्ग को मिल पाया हो, ऐसा भारतीय परिवेश में नजर नहीं आता है। जिसके कारण इस क्षेत्र में महिला आरक्षण का मुद्दा प्रभावहीन होकर अप्रासंगिक स्वरूप ही धारण करता जा रहा है, जहां महिला आरक्षण का वास्तविक स्वरूप उजागर नहीं हो पा रहा है।ऐसे परिवेश में महिला आरक्षण का मुद्दा क्या प्रासंगिक बन पायेगा ? सभी की नजर अब इसी ओर है।
जहां तक लोकसभा में महिला आरक्षण की उठी आवाज को अमल में लाने में स्वार्थपूरित पूर्व में जो सुझाव उभरकर पूर्व में सामने आते रहे हैं, राष्ट्र पर अनावश्यक बोझ बनते नजर आ रहे हैं जिसे राष्ट्रहित में कदापि नहीं माना जा सकता। स्वार्थ में लिप्त नेतृत्वधारियों की ओर अपने वर्चस्व के बीच महिलाओं की हिस्सेदारी प्रदान कर लोकसभा की सीटें बढ़ाने का भी जो सुझाव पूर्व में इस दिशा में रहा है, देश को अनावश्यक आर्थिक बोझ तले डालकर गलत नेतृत्व की एक और परंपरा से जोड़े जाने का कुत्सित समायोजित चाल की पृष्ठभूमि तैयार कर रहा है। जहां महिला आरक्षित पदों पर भी नेतृत्वधारियों का ही कब्जा पंचायती राज की तरह होता दिखाई दे रहा है। जिसे लोकतंत्र एवं राष्ट्रहित में सही कदम कभी नहीं माना जा सकता। राष्ट्रहित में जरूरी है कि इस नजरिये को स्वार्थ की परिधि से दूर कर स्वयंभू नेताओं की राजनीति से बचाकर महिला आरक्षण लागू करने की ऐसी प्रक्रिया अमल में लाने पर विचार किया जाय जहां सही रूप में महिलाओं का वास्तविक अधिकार मिल सके। लोकतंत्र में शासन की बागडोर जनप्रतिनिधियों के हाथ होती है। महिला एवं पुरूष दोंनो की सही भागीदारी इस दिशा को सकारात्मक रूप दे सकती है। महिला आरक्षण का मुद्दा गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि से अलग होकर ही जीवन्त पक्ष को साकार कर सकता है। इस पर की जा रही विभिन्न प्रकार की राजनीति इस तरह के गंभीर मुद्दे को अप्रासंगिक बनाते जा रहे हैं। जिस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। वर्तमान समय में महिला आरक्षण संबंधित विधेयक पूर्व की भांति इस बार भी स्वार्थपूर्ण परिवेश के बीच उलझकर सामने न आ जाय जिसे संसद पटल तक पहुंचना भी काफी मुश्किल प्रतीत होने लगे। इस तरह के उभरते परिवेश पर मंथन करना बहुत जरूरी है । नारी को अबला नहीं सबला की पहचान बनाकर इसके वास्तविक स्वरूप को उजागर किया जाना जरूरी है।