अनिंद्रा से बढ़ता है डिमेंशिया का खतरा
अगर आप रात के समय कम सोते हैं और सोने के बाद बार-बार आपकी नींद खुल जाती है, तो सावधान हो जाएं क्योंकि एक रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि यह आपके याद रखने की क्षमता को पूरी तरह नष्ट कर सकती है।
ना केवल मानसिक, बल्कि यह शारीरिक सेहत के लिए भी ठीक नहीं है। अध्ययनकर्ताओं का दावा है कि इससे डिमेंशिया बीमारी का खतरा बढ़ जाता है।
न्यूरोलॉजिस्ट का कहना है कि सोने के दौरान हमारा मस्तिष्क बहुत से काम करता है। जैसे कि यादों को संचित करने और उन्हें संभालने जैसे काम।
डिमेंशिया एक ऐसी बामारी है, जिसमें आप चीजों को भूलने लगते हैं, आप का मूड स्वींग होने लगता है, काम में आपका मन नहीं लगता और साथ ही आप चिड़चिड़े हो जाते हैं।
कम नींद आपके दिमाग पर बुरा असर डालती है, जिसके चलते व्यक्ति में सोचने-समझने जैसी संज्ञानात्मक क्षमता के साथ चीजों को याद रखने की क्षमता भी कम होने लगती है।
यह भी सामने आया कि कम नींद की वजह से कैंसर होने का खतरा काफी बढ़ जाता है।
नींद अच्छी करने के लिए अपनाएं ये तरीके
1 सोने का एक समय बनाएं
हर दिन एक ही समय पर सोएं और उसी समय के अनुसार उठें इस तरह से अापका दिमाग एक समय पर सोने और उठने का आदि हो जाएगा और आपकी नींद अच्छी होने लगेगी।
2 देर रात खाने से बचें
रात में सोने से लगभग 3 घंटे पहले तक कुछ ना खाएं क्योंकि देर रात खाते ही लेट जाने से खाना हजम नहीं हो पाता, जिस कारण सोने के बाद बार-बार आपकी आंख खुलती रहती है और आप आराम की नींद नहीं ले पाते।
3 सोते समय लाइट्स बंद रखें
रोशनी का नींद पर बहुत असर पड़ता है। इसलिए सोने से पहले सभी लाइट्स को जरूर बंद करें क्योंकि अंधेरे में नींद अच्छी आती है।
4 दोपहर में ना सोएं
जिन लोगों को रात के समय ठीक से नींद नहीं आती वो लोग दोपहर में सोने से बचें।
इन घरेलू उपायों से बवासीर में होगी राहत
पाइल्स यानी बवासीर बहुत तकलीफ देने वाली बीमारी है। सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि संकोच के कारण लोग इस बिमारी के बारे में बताते समय हिचकते हैं। बवासीर के लक्षण मल त्याग के समय दर्द, खून निकला, गुदा से बलगम जैसा रिसाव, गुदा के पास दर्द, सूजन, गांठ या मस्सा बनना, खुजली आदि शामिल है। पाइल्स होने के कई कारण हैं। मल त्याग करते समय ज्यादा जोर लगाना, कब्ज, मोटापा और गर्भावस्था के समय गुदा की नसों में दबाव बढ़ने से भी हो सकता है। मोटापा में इसलिए ये बीमारी बन जाती है, क्योंकि पेट के अंदर का दबाव बढ़ने से गुदा की मांसपेशियों पर भी दबाव बढ़ जाता है।
मलाशय और गुदा वाले हिस्से में रक्त वाहिकाएं को हेमरॉइड्स कहते हैं। इन्हीं रक्त वाहिकाओं में सूजन आने की स्थिति को बवासीर कहा जाता है। इस बीमारी को इन घरेलू उपायों से भी राहत मिल सकती है।
छाछ या मट्ठा
एक गिलास छाछ या मट्ठे में एक चुटकी नमक और एक चौथाई चम्मच अजवाइन मिलाकर रोज पीने से बवासीर से राहत मिल सकती है।
ईसबगोल भूसी
एक गिलास में गर्म पानी या दूध में एक चम्मच ईसबगोल भूसी मिला लें। फिर सोते समय इसे पियें। इससे मल त्याग करते समय दर्द से राहत मिलेगी।
हरीतकी
बवासीर के साथ ही हरीतकी अन्य बीमारियों के उपचार में भी काम आती है। सूखा और खूनी बवासीर में यह बहुत राहत देती है। दर्द और सूजन से राहत पाने के लिए एक चम्मच हरीतकी पाउडर को दिन में तीन बार दूध के साथ पीएं।
पपीता
कब्ज और खूनी बवासीर से राहत दिलाने में पपीता बहुत ही किफायती फल है। पपीता में शक्तिशाली पाचन एंजाइम पपैन होता है। जो इस बीमारी को दूर करता है।
अरंडी का तेल
अरंडी का तेल मल को नरम करने में मदद करता करता है। इससे गुदा वाले हिस्से में नसों पर पड़ने वाले दबाव कम हो जाता है। इससे हर दिन रात में दूध के साथ एक चम्मच अरंडी के तेल का सेवन करें।
गर्मी में घमोरी और त्वचा रोगों का खतरा ज्यादा
गर्मी के मौसम में चर्म रोगियों की तादाद में तेजी आ जाती है। बढ़ती गर्मी, प्रदूषण और रहन सहन के तौर तरीकों में आए बदलाव के कारण चर्म रोग तेजी से बढ़ते हैं।
पसीना
गर्मियों में त्वचा के अधिकतर रोग पसीने से संबंधित होते हैं। चिपकी हुए जगह (जांघ, बगल आदि) में पसीने के एकत्र होने और गंदगी जमा होने से फफूंद पनपने लगती है। शुरुआत में कालापन, लालपन, फुंसियां या फिर चकत्ते बन सकते हैं। ध्यान न देने पर खुजली, एलर्जी या फिर जलन हो सकती है। छोटे बच्चों , दूध पीते नवजात में ज्यादा पसीना आने से घमोरी या फिर फोड़े फुंसी हो सकते हैं।
यह सावधानी रखें
पसीने से छुटकारे के लिए ढीले ढाले साफ सुथरे कपडे पहनें। हो सके तो दो बार स्नान करें। पूरी तरह सूखने के बाद ही अंत:वस्त्र पहनें। अपना साबुन तोलिया अलग रखें। घर में किसी को चर्म रोग है तो उनके कपड़े धोने के लिए अलग व्यवस्था करें।
यह न करें
डॉक्टर से संपर्क करें। अपने मन से दवा न लें क्योंकि बाजार में मिलने वाली अधिकतर क्रीम में स्टेरोइड होता है जो संक्रमण को थोड़े समय तक दबा देता है परन्तु इससे संक्रमण ज्यादा बढ़ सकता है इसलिए डॉक्टर से दवा लें।
कैसे बचें?
धूप में ना निकलें। फुल स्लीव कपड़े पहनें। कैप का इस्तेमाल करें। शुष्क त्वचा पर ज्यादा साबुन या हार्ड फेस वाश का इस्तेमाल न करें। जिन लोगों को धूप से एलर्जी है वो लोग अपनी त्वचा के लिए उपयुक्त सनस्क्रीन दो से तीन बार लगाएं। पानी खूब पीएं। गर्मी से कई लोगों की बिना ढकी चमड़ी शुष्क हो जाती है। अल्ट्रावायलेट किरणें और प्रदूषण से एलर्जी आम बात है।
दांतों की ठीक से हो सफाई
नियमित रूप से दांतों की सफाई से एक कैंसर जैसे बड़े खतरे से बचा जा सकता है। दरअसल एक अध्ययन में पता चला है कि मसूढ़ों की बीमारी के बैक्टीरिया आहारनाल में कैंसर का खतरा बढ़ा सकते हैं। इस अध्ययन में मुंह में पाए जाने वाले माइक्रोबायोटा और आहारनाल कैंसर के खतरों के बीच संबंधों की जांच-परख की गई।
आहारनाल का कैंसर आठवां सबसे सामान्य तौर पर होने वाला कैंसर है और दुनियाभर में सबसे ज्यादा कैंसर से होने वाली मौत के मामले में इसका छठा स्थान है। दरअसल, रोग का पता तब तक नहीं चल पाता है, जब तक ये खतरनाक स्टेज में न पहुंच जाए। आहारनाल का कैंसर होने के बाद पांच साल जीने की दर है। प्रोफेसर का कहना है कि आहारनाल का कैंसर बहुत ही घातक कैंसर है। इसलिए इसकी रोकथाम, खतरों का स्तरीकरण और शुरुआत में पता चलने को लेकर नए मार्ग तलाशने की सख्त जरूरत है। आहारनाल में आमतौर पर जो कैंसर पाए जाते हैं, उनमें एसोफेजियल एडनोकारसिनोमा (ईएसी) और एसोफेजियल स्क्वेमस सेल कारसिनोमा (ईएसीसी) हैं। टैनेरिला फोर्सिथिया नामक बैक्टीरिया 21% ईएसी कैंसर के खतरे बढ़ाने में जिम्मेदार थे। वहीं, ईएससीसी के खतरों के लिए पोरफाइरोमोनस जिंजिवलिस बैक्टीरिया जिम्मेदार थे। ये दोनों प्रकार के बैक्टीरिया आमतौर पर मसूढ़ों की बीमारियों में पाए जाते हैं।
ऑस्टियोपोरोसिस में सावधानियां
वर्तमान में संतुलित आहार की कमी और फ़ास्ट फूस संस्कृति के कारण यह रोग प्रचुरता से हो रहा हैं और आजकल डाइट कण्ट्रोल कर अपना शरीर के फिगर की चिंता से यह रोग सामान्य होता जा रहा हैं
ऑस्टियोपोरोसिस हड्डियों से जुड़ी ऐसी बीमारी है जिसमें व्यक्ति की हड्डियां इतनी कमजोरी हो जाती हैं कि उनमें आसानी से फ्रैक्चर हो जाता है।
ऑस्टियोपोरोसिस ऐसी बीमारी है जिसे लेकर जागरूकता की कमी है, जबकि डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट के मुताबिक यह बीमारी दिल की बीमारियों के बाद विश्व की दूसरी सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली बीमारी है। ऑस्टियोपोरोसिस हड्डियों की मजबूती और घनत्व को कम करता है जिससे वह खोखली सी बन जाती हैं।
यह बीमारी इसलिए भी खतरनाक है क्योंकि इसकी चपेट में आने पर हड्डियां इतनी कमजोर हो जाती हैं कि कई बार सिर्फ झुकने या छींकने बस से भी फ्रैक्चर हो जाता है। इससे जुड़े फ्रैक्चर आमतौर पर रीढ़ की हड्डी, कलाई और कूल्हे के हिस्से में होते हैं। पुरुषों से ज्यादा महिलाओं में इस बीमारी के चांस ज्यादा होते हैं।
क्यों होता है ऑस्टियोपोरोसिस
– उम्र बढ़ने के साथ हड्डियों का विकास कम होने लगता है। ऐसे में वह कमजोर हो जाती हैं और ऑस्टियोपोरोसिस का खतरा बढ़ जाता है।
– पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को हड्डियों की समस्याएं ज्यादा होती है यही वजह है कि उन्हें ऑस्टियोपोरोसिस होने के अवसर भी ज्यादा होते हैं।
– अगर आपके परिवार में कोई इस बीमारी से पहले पीड़ित रह चुका है तो संभव है कि यह आपके जीन्स में आया हो और आपको भी बढ़ती उम्र में ऑस्टियोपोरोसिस अपनी चपेट में ले ले।
– ऐसे पुरुष या महिलाएं जिनकी लम्बाई कम होती है उन्हें ऑस्टियोपोरोसिस का खतरा ज्यादा रहता है।
– थाइरॉयड और सेक्स हॉर्मोन में कमी भी ऑस्टियोपोरोसिस का खतरा बढ़ाते हैं।
भोजन में कैल्शियम से जुड़े फूड शामिल नहीं करना और शरीर में विटमिन डी की कमी हड्डियों को बहुत ज्यादा कमजोर बनाते हैं। यही वजह है कि ऑस्टियोपोरोसिस होने की आशंका बढ़ जाती है।
– लंबे समय तक स्टेरॉयड का इस्तेमाल भी हड्डियों को नुकसान पहुंचाते हुए ऑस्टियोपोरोसिस का खतरा बढ़ाता है।
– ज्यादा शराब व स्मोकिंग भी ऑस्टियोपोरोसिस होने के अधिक संभावना में शामिल हैं।
– ऑस्टियोपोरोसिस के अवसर तब भी बढ़ जाते हैं जब व्यक्ति किसी भी तरह का व्यायाम नहीं करता।
बचाव के तरीके
– अपनी भोजन में प्रोटीन की बहुलता शामिल करें। प्रोटीन हड्डियों के घनत्व को बढ़ाने में मदद करता है जिससे उनके खोखले होने की आशंका कम हो जाती है।
– वजन को नियंत्रित रखें। ज्यादा वजन हड्डियों पर प्रेशर बढ़ाता है जिससे उनका घिसाव ज्यादा होता है और ऑस्टियोपोरोसिस का खतरा बढ़ जाता है।
– 18 से 50 साल की महिलाएं व पुरुषों को रोजाना करीब 1,000 मिलिग्राम कैल्शियम और इससे ज्यादा की उम्र के लोगों को 1,000 मिलिग्राम कैल्शियम लेते /खाते रखना चाहिए ताकि हड्डी की मजबूती बरकरार रखी जा सके।
विटमिन डी टेस्ट जरूर करवाते रहें। इसकी कमी कैल्शियम को अवशोषित नहीं होने देती, जिससे हड्डियों को कैल्शियम का फायदा नहीं मिलता और वह कमजोर होती चली जाती हैं।
– रोज व्यायाम जरूर करें। चाहे अधिक मेहनती न कर पाएं लेकिन वॉकिंग या जॉगिंग या फिर योग करें, ताकि हड्डियों को मजबूत मिले।
इसमें बचाव के लिए संतुलित आहार का उपयोग जरूरी हैं तथा दूध ,दही ,टमाटर ,पालक मेथी मौसमी फल जरूर लेना चाइये .विशेषकर महिलाओं में माहवारी के कारण रक्ताल्पता होने से यह रोग शीघ्र प्रभावित करता हैं .नियमित दूध से लाभ होता हैं .
आयुर्वेद के हिसाब से मुक्त भस्म ,मोती भस्म ,नवायस लौह आदि लाभदायक होता हैं
चन्दनबलालाक्षादि तेल मालिश के लिए लाभकारी होता हैं।
कूल्हे का दर्द और उसके कारण
कूल्हे का दर्द एक ऐसा दर्द है जिसे हम अकसर ही नजरअंदाज कर देते हैं क्योंकि कभी-कभी हमें ठीक ढंग से उसका एहसास ही नहीं होता। ये है कूल्हे का दर्द , जिसकी जड़ तक पहुंचे बिना ही हम इसे कमर दर्द का असर या अपनी थकावट का नतीजा मान लेते हैं। इसके मामले ज्यादा नहीं आते, लेकिन लक्षणों को पहचानकर बचाव और उपाय करना जरूरी है।
दरअसल, कूल्हे में हड्डियों के बीच एक तरह का द्रव होता है। इसी द्रव या फ्लूइड की मदद से कूल्हे की हड्डियां सहजता से काम करती हैं। उम्र बढ़ने के साथ या किसी अन्य वजह से जब हड्डियों में फ्लूइड की कमी हो जाती है, तब कूल्हे में दर्द रहने लगता है। फ्लूइड की कमी की वजह से हड्डियों में रगड़ पैदा होने लगती है। इस रगड़ से हड्डियां कमजोर हो जाती हैं और उनमें टूट-फूट भी हो सकती है। यहीं से शुरू होता है हिप जॉइंट पेन से जुड़ी समस्याओं का सिलसिला।
ऐसे पहचानें लक्षण
कूल्हे में दर्द के कई कारण हो सकते हैं। अकसर इन कारणों पर सीधे तौर से ध्यान नहीं जाता है। इसमें जांघों में तेज दर्द होता है। कभी कूल्हे के जोड़ों के भीतर दर्द का अहसास होता है। कभी ये दर्द शरीर के अन्य हिस्सों जैसे कमर और नितंब तक पहुंच जाता है। ज्यादा तेज गति से कुछ काम करने पर ये दर्द बढ़ता हुआ भी महसूस हो सकता है। ऐसे में डॉक्टर से मिलकर परामर्श करना ही सबसे बेहतर तरीका होता है।
सही आहार लें
विशेषज्ञों के अनुसार कूल्हे के दर्द के जो कारण सामने आते हैं, उनका कारण कैल्शियम और विटामिन-डी की कमी, बढ़ती उम्र और व्यायाम की कमी। इसके अलावा चीनी का सेवन ज्यादा करने से भी तकलीफ होती है। इस समस्या को हम वात विकार में शामिल करते हैं। जब मलक्रिया ठीक नहीं होती, तब भी ये समस्या होती है। इसके लिए आंतों का साफ रहना जरूरी है। इसे खान-पान से ठीक किया जा सकता है। इसके लिए अल्कलाइन डाइट लेनी चाहिए और कैल्शियम प्रधान भोजन लेना चाहिए। इसमें मूल रूप से हरी सब्जियां शामिल होंगी। इसके साथ तिल का भी सेवन करें। इसके लिए तिल को भिगोकर पेस्ट बनाकर आटे में मिलाकर रोटी बनाएं। मेथी का सेवन करें। फाइबर वाला आटा इस्तेमाल करें। दर्द के मामले में दर्द में सिकाई भी कर सकते हैं। यह भी देखना होगा कि दर्द नया है या पुराना है। नया होगा तो गर्म पानी और ठंडे पानी से एक-एक करके सिकाई की जाएगी। 3 मिनट गर्म पानी की सिकाई और 1 मिनट ठंडा।वहीं अगर दर्द पुराना है, तो स्टीम बाथ और मालिश करना असरदार साबित होता है। मालिश के लिए तिल का तेल इस्तेमाल करना चाहिए। जोड़ों की सही सक्रियता के लिए पर्याप्त पानी पीना भी जरूरी है।
इन संकेतों को न करें नजरअंदाज
बैठने में भी दिक्कत महसूस हो रही हो
दर्द के साथ ही बुखार आये
कूल्हे के जोड़ों की बनावट बिगड़ती हुई लगे
एक-दो दिन से ज्यादा दर्द हो तो डॉक्टर को जरुर दिखाएं
हमारे शरीर के किसी भी हिस्से में दर्द तब होता है, जब उस हिस्से की सामान्य संरचना में गड़बड़ी आ जाती है। ऐसा किसी चोट लगने से हो सकता है, किसी संक्रमण से, या मांसपेशियों के असंतुलन के कारण भी हो सकता है। मांसपेशियां सख्त होने पर भी यह दर्द होता है। शरीर में जोड़ों के अंदर जो मांसपेशियां हैं, उनमें कठोरता आने के कारण दर्द पैदा होता है। ऐसे में मांसपेशियों को आराम देकर दर्द से राहत मिलती है। हिप पेन का मामला भी ऐसा ही है। हालांकि कूल्हे के दर्द के मरीजों का आंकड़ा काफी कम है। सौ में से दस मरीज ही इस दर्द से ग्रस्त होते हैं। फिर भी इसे नजरअंदाज करना समझदारी नहीं है। ज्यादातर मामले हमें गंभीर समस्याओं की तरफ ले जाते हैं। मसलन, कई बार कूल्हे में दर्द हो रहा होता है और जांच में मालूम चलता है कि मरीज की डिस्क खिसकी हुई है। कई बार कूल्हे के जोड़ में रक्त आपूर्ति कम होने से भी दर्द होता है, जोड़ क्षतिग्रस्त होने लगता है। इसके अलावा जो लोग नशा करते हैं, उनमें भी कूल्हे के दर्द की समस्या होती है। यह समस्या कई बार इतनी ज्यादा हो जाती है कि हिप जॉइंट रिप्लेसमेंट सर्जरी करानी पड़ती है। ।
ऑस्टियोआर्थराइटिस भी हो सकता है कारण
कूल्हे में दर्द ऑस्टियोआर्थराइटिस की समस्या की वजह से भी हो सकता है। इसके अलावा कोई चोट लगने के बाद भी ये समस्या सामने आ सकती है। बॉल जॉइंट में गड़बड़ी हो तो भी कूल्हे में दर्द हो सकता है। कई मामलों में अगर खून का दौरा कम हो जाता है, तब भी ये समस्या हो सकती है। इसके अलावा कई अन्य कारण भी हो सकते हैं। ऐसे में तत्काल डॉक्टर से संपर्क करें।
गले में दर्द टॉन्सिलाइटिस का है शुरुआती लक्षण
गले में दर्द बढ़ने पर घरेलू नुस्खे या खुद से कोई दवा लेने की जगह आप सीधे डॉक्टर से संपर्क करें। ऐसा इसलिए क्योंकि गले का यह दर्द टॉन्सिलाइटिस का शुरुआती लक्षण भी हो सकता है। समय पर इलाज नहीं लेने पर आपको बहुत अधिक दर्द के साथ ही बुखार आदि जैसी अन्य समस्याओं का भी सामना करना पड़ सकता है।हमारे गले के दोनों ओर ओवल शेप के अंग हैं जिन्हें टॉन्सिल्स कहा जाता है। किसी प्रकार के बैक्टीरिया या इंफेक्शन के संपर्क में आने पर इनमें सूजन आना व जलन होना शुरू हो जाती है। आमतौर पर इनका रंग हमारी जीभ जैसा ही होता है लेकिन इंफेक्शन होने पर यह सुर्ख लाल हो जाते हैं और इन पर सफेद स्पॉट दिखाई देने लगते हैं। टॉन्सिल्स में सूजन भी जा जाती है जिससे खाने व पीने के साथ ही सलाइवा निगलने में दिक्कत होने लगती है। डॉक्टरों के मुताबिक टॉन्सिलाइटिस आपके शरीर का इस ओर पहला इशारा होता है कि आप संक्रमण के संपर्क में आए हैं। आमतौर पर टॉन्सिल्स में हुआ इंफेक्शन अपने आप ठीक होने लगता है लेकिन अगर दर्द व अन्य लक्षण तीन दिन से ज्यादा बने रहें तो बेहतर होगा कि आप तुरंत डॉक्टर को दिखाएं। ऐसा नहीं करने पर यह टॉन्सिलाइटिस से होने वाली परेशानी बढ़ने के साथ ही इंफेक्शन भी बढ़ जाएगा। टॉन्सिल्स आसपास के वातावरण के प्रति संवेदनशील होते हैं ऐसे में ऐसी से बाहर गर्मी में जाने पर भी उन पर बुरा प्रभाव पड़ता है और दर्द होना शुरू हो जाता है। ज्यादा ठंडा या गर्म पानी पीना भी इन्हें प्रभावित कर सकता है। आपके आसपास यदि किसी को सर्दी या खांसी है तो उससे भी बचकर रहें। यह इंफेक्शन आपको भी लग सकता है। टॉन्सिलाइटिस के दौरान किसी प्रकार की खटास व ज्यादा मिर्ची और मसाले वाला खाना खाने से बचें। हल्के गर्म पानी में नमक मिलाकर गरारे करें, इससे आपको राहत महसूस होगी। मुंह के जरिए बैक्टीरिया के एंटर होने पर आपका इम्यून सिस्टम अलर्ट हो जाता है और पहले डिफेंस के रूप में टॉन्सिल्स में परेशानी होना शुरू हो जाती है। इस स्थिति से बचने के लिए साफ-सफाई का खास ध्यान रखें। बिना हाथ धोएं कुछ न खाएं। साथ ही बाहर का खाना खाने से बचें। डॉक्टरों के मुताबिक गले को ज्यादा ठंड व गर्मी या तापमान में अचानक होने वाले बदलाव से भी बचाना चाहिए।
मधुमेह रोगियों के लिए आयी नई तकनीक
अब मधुमेह रोगियों के इलाज के लिए एक नई तकनीक आ रही है। शोधकर्ताओं ने एआई तकनीक से कृत्रिम अग्नाशय बनाया है जो मधुमेह रोगियों के लिए इंसुलिन खुराक में सुधार कर सकता है। वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि दुनिया में पहली बार इस प्रकार के अग्नाशय का निर्माण हुआ है। जब हमारे शरीर के अग्नाशय में इंसुलिन का पहुंचना कम हो जाता है तो खून में ग्लूकोज का स्तर बढ़ जाता है। इस स्थिति को मधुमेह कहा जाता है। इंसुलिन एक हार्मोन है जोकि पाचक ग्रंथि द्वारा बनता है। इसका कार्य शरीर के अंदर भोजन को ऊर्जा में बदलने का होता है।
यह नई एआई तकनीक पूर्ण सुरक्षा के साथ प्रत्येक व्यक्ति के रक्त शर्करा के स्तर को नियंत्रित रखने के लिए सर्वोत्तम इंसुलिन खुराक की सिफारिश कर सकती है। इसे में आने वाले समय में यह तकनीक मधुमेह रोगियों के लिए वरदान साबित हो सकती है। जिस प्रकार दुनिया भर में मधुमेह तेजी से फैल रहा है उसमें ये बेहद सहायक साबित होगी। आजकल बड़ों के साथ-साथ बच्चे भी मधुमेह के शिकार हो रहे हैं। दुनियाभर में मधुमेह के रोगियों की संख्या लगातार बढ़ रही है।
एड्स के मरीजों के लिए उम्मीद की किरण
अब तक लाइलाज माने जा रहे एचआईवी एड्स से पीड़ित मरीजों के लिए उम्मीद की किरण निकली है। ब्रिटेन में जिस प्रकार एड्स का एक मरीज स्टेम सेल ट्रांसप्लांट के बाद एचआईवी संक्रतण से पूरी तरह ठीक हो गया है। उससे दुनिया भर में एड्स के मरीजों के लिए उम्मीद की एक किरण बनकर आई है। वहीं 12 साल पहले बर्लिन के एक मरीज टिमोथी ब्राउन का भी इसी तरह से इलाज किया गया और उसे भी एड्स (एक्वायर्ड इम्यून डिफिसिएंशी सिन्ड्रोम) वायरस से मुक्त करार दिया गया था हालांकि दुनिया भर के वैज्ञानिक और एड्स वायरस पर शोध कर रहे डॉक्टरों ने आगाह किया है कि अभी यह कहना गलत है कि एड्स का इलाज खोज लिया गया है। हां यह जरूर है कि इस घटना से एड्स के वायरस का इलाज खोजने की दिशा में सहायता जरुर मिली है।
अब तक करोड़ों की जान गयी
1987 में एड्स के पहले मामले के बाद अबतक करीब 3.5 करोड़ लोग एड्स की वजह से अपनी जान गवां चुके हैं। यूएन एड्स के मुताबिक, 2017 में दुनिया भर में एड्स के करीब 3.7 करोड़ मरीज थे। इन मरीजों में से करीब 18 लाख 15 साल से कम उम्र के बच्चे हैं जो अफ्रीकी महाद्वीप के उप सहारा इलाके में रहते हैं। अकेले भारत में ही 2015 में 21 लाख लोगों को एड्स था।
वायरस से मुक्त होना पहली घटनान नहीं
लंदन के इस अनाम मरीज का एड्स वायरस से मुक्त होना पहली घटना नहीं है। 2007 में जर्मनी के मरीज टिमोथी ब्राउन का इसी तरह इलाज हुआ और वह भी एड्स से मुक्त हो गया। तब से वैज्ञानिक इसी प्रयोग को दोहराने की कोशिश कर रहे थे। लंदन के इस मरीज के ठीक होने के बाद ब्राउन के इलाज के दौरान जो तथ्य पता चले थे उनकी पुष्टि हो गई है।
दोनों के इलाज में समानता
दोनों मरीजों को कैंसर हो गया था जो एड्स में आम है। इन दोनों को ही कैंसर के इलाज के लिए बोन मैरो ट्रांसप्लांट या स्टेम सेल ट्रांसप्लांट का तरीका अपनाया गया। स्टेम सेल हमारे शरीर की वे खास कोशिकाएं होती हैं जिनमें शरीर की अलग-अलग कोशिकाओं में विकसित होने की खूबी होती है। ये हमारी बोन मैरो या अस्थि मज्जा में होती हैं। स्वस्थ बोन मैरो ट्रांसप्लांट के बाद शरीर में स्वस्थ कोशिकाएं बनने लगती हैं और कैंसर ग्रस्त कोशिकाएं खत्म हो जाती हैं लेकिन यह प्रक्रिया बहुत जोखिम भरी, महंगी और तकलीफदेह है।
टिमोथी ब्राउन को जिस शख्स ने बोन मैरो डोनेट किया था, उसके शरीर में एक अनोखी आनुवांशिक गड़बड़ी थी। यह गड़बड़ी उसकी श्वेत रक्त कोशिकाओं या वाइट ब्लड सेल्स की सतह पर मौजूद रिसेप्टर मॉलिक्यूल सीसीआर 5 के जीन में थी। इस गड़बड़ी की वजह से उसे कोई परेशानी तो नहीं हुई उलटे फायदा हुआ। एचआईवी वायरस (ह्यूमन इम्यूनोडिफिसिएंशी वायरस) वाइट ब्लड सेल पर हमला बोलने के लिए सीसीआर5 के जरिए उसके भीतर जाते हैं। गड़बड़ी या म्यूटेशन वाले सीसीआर5 की वजह से वे ऐसा करने में नाकामयाब रहते हैं और ऐसे व्यक्ति को एचआईवी संक्रमण नहीं हो सकता।
‘ग्राफ्ट वर्सेज होस्ट’ बिमारी हो सकती है लाभप्रद
बोन मैरो ट्रांसप्लांट के बाद ब्राउन और मरीज को ‘ग्राफ्ट वर्सेज होस्ट’ बीमारी हो गई थी। इसमें नया बोनमैरो मरीज के शरीर को दुश्मन समझकर उसकी कोशिकाओं के खिलाफ काम करने लगता है। यही स्थिति लंदन के मरीज के साथ भी हुई। प्रयोग पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि बहुत मुमकिन है कि ‘ग्राफ्ट वर्सेज होस्ट’ बीमारी ने एड्स वायरस का सफाया कर दिया हो।
इसकी सीमाएं हैं
लेकिन यह आनुवांशिक गड़बड़ी बहुत दुर्लभ है, ऐसे डोनर खोज पाना बहुत मुश्किल काम है। अगर ऐसा डोनर मिल भी गया तो बोन मैरो ट्रांसप्लांट में बहुत जोखिम है। ब्राउन को महीनों तक कई कॉम्प्लिकेशंस का सामना करना पड़ा। उन्हें एक बार तो मेडिकल कोमा तक में रखने की नौबत आ गई थी।
विशेषाज्ञों का कहना है कि बोनमैरो ट्रांसप्लांट की बजाय सीसीआर5 में म्यूटेशन करने पर ध्यान दिया जा रहा है।
लकवा होने के कारण और निदान
लकवा दिमाग का एक रोग है, जो दिमाग में ब्लड सर्कक्युलेशन ठीक तरीके से न होने या रीढ़ की हड्डी में किसी बीमारी या खराबी हो जाने के कारण होता है। लकवा से ग्रस्त व्यक्ति अपनी एक या ज्यादा मांसपेशियों को हिलाने में असमर्थ हो जाता है। मांसपेशियों में किसी प्रकार की समस्या या अन्य बाधा कभी लकवा का कारण नहीं बनती, बल्कि मस्तिष्क से अंगों में संदेश पहुंचाने वाली तंत्रिकाओं और रीढ़ की हड्डी प्रभावित होने कि स्थिति में लकवा हो जाता है। लकवा किसी एक मांसपेशी या समूह को प्रभावित कर सकता है या शरीर के बड़े क्षेत्र को प्रभावित कर सकता है, यह सब उसके कारण पर निर्भर करता है।स्ट्रोक, सिर या मस्तिष्क में चोट, रीढ़ की हड्डी में चोट और विभिन्न स्कैलरिस आदि, लकवा के मुख्य कारणों में से एक होते हैं।
जब शरीर का कोई एक लिंब (भुजा और टाँगे) प्रभावित होता है तो उसको मोनोप्लेजिया कहा जाता है, जब शरीर के एक तरफ की एक भुजा और एक टांग प्रभावित हो जाए तो उस स्थिति को हेमिप्लेजिया कहते हैं। जब शरीर के निचले हिस्सों के लिंब प्रभावित हो जाएं तो उसे पैराप्लेजिया कहा जाता है और चारों भुजा और टाँग प्रभावित होने पर इसे टेट्राप्लेजिया या क्वॉड्रीप्लेजिया कहा जाता है। कई बार जब शरीर के किसी अंग की मांसपेशियां अपना काम करना बंद या कम कर देती हैं तो उस स्थिति को पल्सी के नाम से जाना जाता है। जैसे बेल्स पल्सी यह चेहरे की मांसपेशियों को प्रभावित करती है।
लकवा का निदान मरीज के लक्षण, शारीरिक परीक्षण और अन्य टेस्ट जैसे नसों का टेस्ट व स्कैन आदि के आधार पर किया जाता है।
अगर किसी व्यक्ति में लकवा स्थायी हो चुका है तो उसका ईलाज नहीं किया जा सकता, मगर कुछ मशीनी अपकरणों की मदद से मरीज के जीवन को जितना हो सके आसान बनाने की कोशिश की जाती है।
कुछ मामलों में, जब लकवा टाँग और भुजाओं को प्रभावित कर देता है, तब न्यूरोप्रोस्थेसिस उपकरण का इस्तेमाल किया जाता है। यह विद्युत धाराओं की मदद से मांसपेशियों को उत्तेजित करता है, जिससे मरीज लकवाग्रस्त अंगों से कुछ गतिविधि कर पाता है हालांकि, ये उपकरण काफी महंगा है और हर लकवा ग्रस्त मामलों के लिए उपयुक्त भी नहीं होता।
दौड़-भाग भरी लाइफ स्टाइल के कारण मनुष्य अनचाहे ही न जाने कितनी बीमारियों को आमंत्रण दे देता है, इन्ही घातक बीमारियों में से एक है पक्षाघात, फालिज या लकवा। हमारा दिमाग हमारे पूरे शरीर को नर्वस-सिस्टम से नियंत्रित करता है। किसी बीमारी, चोट या सदमे के कारण जब दिमाग यह नहीं कर पाता है इस स्थिति को लकवा कहते हैं।
लकवा होने का कारण
दिमाग के किसी हिस्से में ब्लड सर्कक्युलेशन बंद होने से वह हिस्सा बेकार हो जाता है। ऐसे में दिमाग का वह भाग शरीर के कुछ हिस्सों को आदेश नहीं पहुंचा पाता है। ब्लड सर्कक्युलेशन धमनी के भीतर ब्लड जम जाने व धमनी के फटने से बंद हो जाता है। इसके अलावा मिरगी, हिस्टीरिया और अधिक टेंशन लेने से भी लकवे का खतरा होता है।
जिस अंग पर लकवा होने का खतरा होता है, उस अंग की मांसपेशी निष्क्रिय होने लगती हैं। मन में उत्साह की कमी, रक्तचाप बढ़ना, जिद करना; भूख, नींद कम होने के साथ ही किसी काम को करने में परेशानी होना और लगातार कब्ज रहना।
बचाव
जिन कारणों से यह खतरा रहता है उनको दूर करने का प्रयास करें। लकवा की आशंका होने पर हार्ड वर्क वाले काम बंद कर शारीरिक व मानसिक रूप से आराम करें मॉर्निंग व इवनिंग वॉक शुरू कर दें। कसरत, मालिश, मनोरंजन, प्राणायाम, ध्यान करें।
लकवे में क्या खाना खाएं
लकवा के मरीज के आहार में सेब, अंगूर और नाशपाती, दूध, दही, मक्खन, छाछ, लहसुन, परवल, पेठा, बैंगन, केले का फूल, करेला, जमीकंद, अदरक, पका आम, पका पपीता, कच्चा नारियल, सूखा मेवा, मेथी, बथुवा, प्याज, तुरई, लौकी, टिंडा, शलजम, अंजीर, गरम पानी, पुराना चावल, खजूर, मूंग की दाल शामिल करें। वहीं नमक नया चावल, गुड़, भैंस का दूध, उड़द, भिंडी, घुइयां, तरबूज तथा बर्फ का सेवन न करें।
बंद नाक में ऐसे मिलेगी राहत
नाक में जमाव को हम “बंद नाक” कहते हैं। यह तब होता है जब नेसल कैविटी सूजने लगती है और फिर इसकी वजह से बलगम होने लगता है। इससे सांस लेना मुश्किल हो जाता है। यह समस्या जुकाम, फ्लू और एलर्जी से जुडी होती है। अगर नाक में जमाव की समस्या एक हफ्ते से ज़्यादा हो रही है तो यह साइनस, शुष्क हवा, शरीर में हार्मोनल परिवर्तन, बुखार, अस्थमा, गर्भावस्था, तनाव, थायराइड विकार और अत्यधिक तंबाकू या धुएं के कारण हो सकता है। इसके अलावा सामान्य नाक में जमाव की समस्या पॉलिप्स या ट्यूमर के कारण भी हो सकती है। नाक में जमाव के सामान्य लक्षण जैसे साइनस दर्द, बलगम बनना, नाक के उत्तकों में सूजन, आँखों से पानी निकलना, भारी आवाज़ निकलना और हल्का दर्द आदि शामिल हैं।
बंद नाक बेहद कष्टदायी होती है और यह बच्चों के लिए ज़्यादा असहज होती है। ज़रूरी है कि इसका इलाज जल्द से जल्द कर लिया जाए क्योंकि इससे कान का संक्रमण, नींद न आना जैसी समयायें हो सकती हैं। जमाव को साफ़ करने के लिए कई तरीके मौजूद हैं और वो तरीके कही और नहीं आपको अपने घर में ही मिल जाएंगे।
बंद नाक खोलने का नुस्खा है सेब का सिरका
सबसे पहले, इसकी उच्च पोटेशियम सामग्री बलगम को पतला करने में मदद करती है। साथ ही, इसमें एसिटिक एसिड बैक्टीरिया के विकास को रोकता है और नाक खोलने की प्रक्रिया को तेज़ करता है
इसे बनाने और लगाने का तरीका –
कच्चे, अनफ़िल्टर्ड सेब के सिरके के 2 बड़े चम्मच और कच्चे शहद का 1 बड़ा चम्मच एक कप गर्म पानी में मिलाएं। इस टॉनिक को दिन में दो बार पिएं।
एक साथ आधा कप कच्चे, अनफ़िल्टर्ड सेब के सिरके और पानी को मिक्स करें। इस मिश्रण को उबलने दें, फिर स्टोव से हटा दें।
अपने सिर पर एक तौलिया रख दें और अपने मुंह और आंखें बंद कर 3 से 5 मिनट के लिए भाप लें। एक दिन में इसे कई बार दोहराएँ।
भाप
भाप लेना बंद नाक को खोलने का बहुत ही अच्छा तरीका माना जाता है। यह भी उन्हें नम रखने से साइनस में सूजित रक्त वाहिकाओं को नम कर उन्हें राहत देता है।
गर्म सेक
एक गर्म सेक करना एक अच्छा तरीका है बलगम को पतला करने का ताकि वह आराम से नाक से निकलने लगे। इस सेक से गर्मी भी किसी भी दर्द से आराम प्रदान करती है और नाक में सूजन से राहत देती है।
लहसुन
लहसुन में बंद नाक को खोलने के गुण हैं। यह सूजन को कम और प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करने में भी मदद करता है जिससे बंद नाक खुलती है और संक्रमण पर विजय मिलती है।
जल नेती
जल नेती क्रिया का उपयोग करने से नाक के अंदर भरी बलगम और बैक्टीरिया साफ हो जाते हैं। नाक सिंचाई बलगम को बाहर निकालने में मदद करती है। इस प्रकार इससे नासिका और साइनस ब्लॉकेज(रुकावट) खत्म हो जाती है।
कनाडा के मेडिकल एसोसिएशन 2016 के जर्नल में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार भाप लेने के बजाए, जल नेती क्रिया क्रोनिक साइनस लोगों के लिए अधिक सुरक्षित और प्रभावी रही है।
टीबी से करें बचाव
टीबी एक संक्रमण वाली जानलेवा बीमारी है पर इसका इलाज संभव है। जैसे ही जानकारी मिले इसका इलाज करायें। अगर खांसी दो सप्ताह से ज्यादा चले तो जांच जरुर करायें। टीवी का इलाज पूरी तरह संभव है इसलिए घबरायें नहीं।
जागरुकता की कमी के कारण देश में टीबी के मामले बढ़ते जा रहे हैं हालांकि इसके लिए बढ़ता हुआ प्रदूषण भी जिम्मेदार है।
टीबी से होने वाली मौतों की संख्या में कमी आने के बावजूद, इसका उन्मूलन एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। पहचान, निदान और उपचार दरों में तत्काल सुधार करने के लिए, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और भागीदार देशों ने 2022 तक टीबी वाले 4 करोड़ लोगों को गुणवत्ता वाली देखभाल प्रदान करने के लक्ष्य को निर्धारित करने के लिए एक नई पहल शुरू की है। यह अनुमान लगाया गया है कि कम से कम 3 करोड़ लोगों को इस अवधि के दौरान टीबी निवारक उपचार तक पहुंचने में सक्षम होना चाहिए।
टीबी की रोकथाम और इलाज है संभव
डब्ल्यूएचओ के अनुसार टीबी की रोकथाम संभव है हालांकि, टीबी की देखभाल में प्रगति के बावजूद, भारत में टीबी रोग में कमी नहीं आयी है।
फैलने से रोकने के लिए प्रारंभिक पहचान है जरूरी
भारत ने टीबी से मुक्त होने के लिए 2025 की समय सीमा निर्धारित की है। हालांकि टीबी को रोकने और नियंत्रित करने के लिए एक मिलाजुला प्रयास है, जबकि टीबी के नियंत्रण में डॉक्टर प्रमुख हितधारक हैं। टीबी का नियंत्रण प्रारंभिक पहचान पर निर्भर करता है, जिसका अर्थ है टीबी को आगे फैलने से रोकने के लिए प्रारंभिक और बेहतर उपचार। संक्रामक टीबी वाले मरीजों के सभी घरों और घनिष्ठ संपर्कों का पता लगाया जाना चाहिए। यदि टीबी होने पर एटीटी के पूर्ण कोर्स के साथ जांच होती है और उनका इलाज किया जाना चाहिए। अधिकांश डॉक्टर नियमित रूप से टीबी के कई रोगियों का इलाज करते हैं।
टीबी संक्रमण रोकने के उपाय
छींकने, खांसने या मुंह या नाक छूने के बाद अपने हाथ धोएं।
खांसने, छींकने या हंसते समय अपने मुंह को टिश्यू से ढकें।
प्लास्टिक के थैले में इस्तेमाल किए हुए टिश्यू रखकर सील करें और फेंक दें।
बीमारी के दौरान कार्यस्थल या स्कूल न जाएं।
दूसरों के साथ घनिष्ठ संपर्क से बचें।
परिवार के सदस्यों से दूर किसी दूसरे कमरे में सोएं।
नियमित रूप से अपने कमरे को वेंटिलेट करें। टीबी छोटी और बंद जगहों में फैलती है। बैक्टीरिया युक्त हवा को हटाने के लिए खिड़की में एग्जहॉस्ट फैन लगाएं।
नाक से खून बहने पर क्या करें
गर्मी में कुछ लोगों की नाक से खून बहने लगता है। अचानक नाक से खून आने को नकसीर फटना कहते हैं। गर्मी में इस प्रकार की परेशानी ज्यादा होती है। वहीं कुछ लोगों को गर्म चीजें खाने से भी नकसीर आती है। बार-बार नाक से खून आना या नकसीर बहना ठीक नहीं होता। इससे शरीर में कमजोरी आती है।
क्या है ये बिमारी
नाक के अंदर मौजूद सतह की खून की वाहिनियां फटने के कारण नकसीर की समस्या होती है। हालांकि यह एक आम समस्या है लेकिन यदि बार-बार नकसीर का होना सेहत के लिहाज से ठीक नहीं है। इसका उपचार आवश्यक है। अधिक गर्मी में रहना, ज्यादा तेज मिर्च मसालों का सेवन करना, नाक पर चोट लगना और जुकाम बिगड़ जाने से भी नकसीर की समस्या होती है। इसके अलावा दिमाग में अचानक से चोट लग जाने की वजह से भी नकसीर फूट जाती है।
लक्षण
ऐसा नहीं है कि नकसीर से पहले कोई उपाय नहीं किया जा सकता है नाक से खून निकलने से पहले ही शरीर में कुछ लक्षण दिखाई देने लगते हैं जो नकसीर फूटने का संकेत हो सकते हैं। इसमें चक्कर आना, सिर का भारी लगना और दिमाग का घूमना शामिल है।
रोकने के उपाय
नाक से खून या नकसीर रोकने के घरेलू उपाय हैं
नकसीर आने पर नाक की बजाय मुंह से सांस लेना चाहिए।
प्याज को काटकर नाक के पास रखने और सूंघेने से नाक से खून आना बंद हो जाता है।
नाक से बहने पर सिर को आगे की ओर झुकाना चाहिए।
बेल के पत्तों का रस पानी में मिलाकर पीने से फायदा होता है.
गर्मियों के मौसम में सेब के मुरब्बे में इलायची डालकर खाने में नकसीर बंद हो जाती है.
बेल के पत्तों को पानी में पकाकर उसमें मिश्री या बताशा मिलाकर पीने से नकसीर बंद हो जाती है.
ज्यादा तेज धूप में घूमने की वजह से नाक से खून बह रहा हो तो सिर पर ठंडा पानी डालने से नाक से खून बहना बंद हो जाता है।
नकसीर आने पर कपड़े में बर्फ लपेटकर रोगी की नाक पर रखने से भी नकसीर रूक जाती है।
एक बड़ा चम्मच मुलतानी मिट्टी रात को आधा लीटर पानी में भिगोकर रख दें। सुबह को उस पानी को निथारकर पीने से नाक से खून आने की परेशानी से फायदा मिलेगा।
लगभग 15-20 ग्राम गुलकंद को सुबह-शाम दूध के साथ खाने से नकसीर का पुराने से पुराना रोग भी ठीक हो जाता है।
धुम्रपान है धीमा जहर
धुम्रपान से सेहत को कई प्रकार के नुकसान होते हैं। धुम्रपान करने से सबसे ज्यादा नुकसान आपके फेफड़ो को होता हैं, इससे आपको कैंसर भी हो सकता हैं। बीड़ी-सिगरेट पीने से न सिर्फ फेफड़ो को ही हानि होती हैं, बल्कि इससे पुरे शरीर पर बुरा असर पड़ता हैं। यह एक धीमे जहर के समान है।
सिगरेट, बीड़ी, तम्बाकू ये सभी चीजें हमारी सेहत के लिए कितनी हानिकारक है यह सब जानते हैं। हर व्यक्ति को यह मालूम है कि सिगरेट पीना या फिर किसी भी प्रकार के नशीले पदार्थों का सेवन करना हमारे स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है, लेकिन जागरुकता के आभाव में लोग इसका सेवन करते रहते हैं।
नशा करना किसी भी समय ठीक नहीं होता पर यदि सिगरेट ठीक भोजन करने के बाद पी जाए, तो इसका नकारात्मक प्रभाव 10 गुणा बढ़ जाता है।
इसका कारण यह है कि जब आप खाना खाते हैं तो शरीर का पाचन तंत्र पूरे शरीर को प्रभावित करता है और इस वक्त सिगरेट पीने से ज्यादा नुकसान होता है। वैज्ञानिकों के अनुसार खाना खाने के तुरंत बाद सिगरेट पीने से आंत और फेफड़ों का कैंसर होने की संभावना बढ़ जाती है।
वहीं यह भी पाया गया है कि जो लोग सिगरेट पीने के आदी होते हैं उन्हें खाना खाने के तुरंत बाद ही सिगरेट पीने का सबसे ज्यादा मन करता है। अगर आप ऐसे लोगों की श्रेणी में हैं तो बुरे परिणामों से बचने के लिए भोजन और सिगरेट पीने में कम से कम 20 मिनट का अंतर रखें।
खाली पेट
इस तरह आप एक बड़ी गलती को करने से बच सकते हैं। सिगरेट को लेकर दूसरी बड़ी गलती जो लोग करते हैं वो है सुबह खाली पेट सिगरेट पीना। कुछ लोगों का यह मानना है कि सुबह उठकर खाली पेट सिगरेट पीने से पेट अच्छी तरह से साफ होता है, लेकिन यह मात्र एक भ्रम है।
अगर आप भी ऐसा करते हैं तो आपको इस आदत को बदल देना चाहिए। दरअसल अगर आप खाली पेट सिगरेट पीएंगे तो गैस की समस्या के साथ पाचन शक्ति भी कमजोर हो जाएगी।
चाय, कोल्ड ड्रिंक के साथ बढ़ता है नशा
वहीं कई जानकारों का ये भी कहना है कि चाय के साथ भी सिगरेट नहीं पीनी चाहिए, क्योंकि चाय में कैफीन होता है जो कि सिगरेट के निकोटिन के साथ मिलकर शरीर को भारी नुकसान पहुंचाता है। इसलिए चाय और सिगरेट दोनों को कभी एक साथ ना लें।
चाय के अलावा कई लोगों को सिगरेट के साथ कोल्ड ड्रिंक पीने की भी आदत होती है। यह भी स्वास्थ्य के लिहाज से गलत है।
वैसे हमारी कोशिश यही होनी चाहिए कि हम इस आदत से दूर रहें और संभव हो तो सिगरेट पीने की इस आदत को त्याग दें क्योंकि यह आदत किसी भी रूप में स्वास्थ्य के लिए हानिकारक ही होती है।
ब्लैडर कैंसर क्या है
ब्लैडर कैंसर के मामले हाल के दिनों में बढ़ते जा रहे हैं। आंखिर क्या होता है यह कैंसर ?
डॉक्टरों के मुताबिक शरीर में ब्लैडर की वॉल के टिश्यूज के संक्रमित होने से ये कैंसर आरंभ होता है। शुरुआत में ब्लैडर में खून के थक्के जमने आरंभ होते हैं।
ये हैं लक्षण
इसके आरंभिक लक्षणों में यूरीन के साथ रक्त आना शुरु होता है। दरअसल जब ब्लैडर संक्रमित होता है तो ऐसा होता है।
ब्लैडर में संक्रमण के कारण यूरीन के समय जलन और तेज दर्द होता है। अगर ये लंबे समय तक बना रहे या बार-बार हो तो सावधान हो जाना चाहिए।
ये एक सामान्य लक्षण है जो कई बड़ी बीमारियों में होता है। ये है बिना किसी वजह के तेजी से वजन कम हो जाना। अगर आपके साथ ऐसा हुआ है या हो रहा है जो इसे हल्के में ना लें। इसके साथ ही थोड़ा सा काम करके थक जाना और कमजोरी रहना भी इसके लक्षणों में शामिल है।
यूरीन के साथ सफेद टिश्यूज डिस्चार्ज होना और पेट के निचले हिस्से यानी पेल्विक रीजन में दर्द बने रहना।
इससे पीडि़त लोग अक्सर हड्डियों में लगातार दर्द रहने की शिकायत भी करते हैं।
अगर बार-बार यूरीन इन्फेक्शन हो रहा हो तो डॉक्टर को अवश्य दिखायें।
इस बीमारी की जद में 60 साल से ज्यादा के लोग सबसे अधिक होते हैं। साथ ही, ऐसे लोग जिनका वजन ज्यादा होता है उनको भी इसका खतरा ज्यादा रहता है।
बीमारियां भी दूर भगाता है कपूर
जो लोग अक्सर धर्म-कर्म में लगे रहते हैं, उनके पास अनेक बीमारियां तो फटकती भी नहीं हैं, इसकी वजह हवन सामग्री भी हो सकती है। दरअसल हम आपको बतला दें कि पूजा में कपूर का खास प्रयोग तो होता ही है, हवन कुंड में अग्नि प्रज्जवलित करने के लिए सरसों के तेल का भी इस्तेमाल किया ही जाता है, लेकिन शास्त्रों के अनुसार कपूर का विशेष उपयोग माना गया है। ऐसे में क्या आप जानते हैं कि स्वास्थ्य की दृष्टि से कपूर बहुत ही लाभकारी होता है।
यदि आप नहीं जानते तो आपको बतला दें कि धर्म-कर्म में विशेष रूप से उपयोग होने वाले कपूर का प्रयोग कई बीमारियों को ठीक करने में भी होता है। कपूर त्वचा एवं मांसपेशियों के लिए काफी फायदेमंद होता है। यदि आपके जोड़ों में दर्द रहता है, तब भी कपूर का इस्तेमाल किया जा सकता है, यह लाभकारी साबित होगा। कपूर का इस्तेमाल कई प्रकार के मरहम बनाने में भी होता है। यदि आप आयुर्वेदिक संदर्भ से जानें, तो कपूर का प्रयोग करके भिन्न-भिन्न मकसद के लिए मरहम तैयार किए जाते हैं। आज जबकि हम सभी प्रत्येक मर्ज का इलाज एलोपैथिक दवाओं में खोजते हैं तब भी आपको बताते चलें कि आप घर बैठे ही स्वयं भी कपूर के एक प्रयोग से कई बीमारियों को अलविदा कह सकते हैं। यदि आप बताए हुए नियमानुसार और निर्देशों का पालन करते हुए कपूर का प्रयोग करेंगे, तो यह वाकई चमत्कारी साबित होगा। हम यहां आपको कपूर के कुछ उपयोग बताते हैं, जिन्हें प्रयोग में लेकर आप कई फायदे पा सकते हैं।
सर्व प्रथम, यदि किसी को नियमित रूप से पेट दर्द की परेशानी रहती है, तो इसका हल कपूर के एक प्रयोग में छिपा है। पेट दर्द होने पर कपूर, अजवाइन और पिपरमेंट यानी कि पुदीने को शर्बत में मिलाकर पीने से पेट का दर्द मिनटों में दूर किया जा सकता है।
यदि किसी को दस्त लग रहे हैं तो कपूर बेहद उपयोगी सिद्ध हो सकता है। इसके लिए कपूर, अजवाइन और पिपरमेंट को पानी में डालकर धूप में रख दें। थोड़े-थोड़े समय में इस घोल को हिलाते रहें ताकि यह अपना आकार ले ले। इसके बाद इसकी कुछ बूंदों को चीनी के पानी में मिलाकर रोगी को दे दें। इसका सेवन करने के कुछ समय पश्चात ही रोगी को आराम मिल जाएगा।
कपूर त्वचा के लिए भी फायदेमंद होता है। आपकी स्किन यानी कि त्वचा यदि किसी प्रकार के संक्रमण से घिर चुकी है तो संक्रमित स्थान पर कपूर को लगाएं, धीरे-धीरे संक्रमण दूर हो जाएगा। यही नहीं बल्कि कपूर के त्वचा पर नियमित उपयोग से निखार भी आता है। इनके अलावा भी यदि किसी को मांसपेशियां संबंधी परेशानी है या फिर जोड़ों में दर्द रहता है, तो कपूर के तेल से मालिश करें। रोग जाता रहेगा और रोगी जल्द ही स्वस्थ अनुभव करेगा।
गर्मियां बीमारियां भी लाती है रहें सावधान
चिलचिलाती गर्मियां आपके लिए जहां रसीले फल लेकर आती है तो वहीं यह आपके लिए अनेक तरह की बीमारियों का संदेश भी देती है। इन बीमारियों से बचकर रहना ही उचित होता है। अबकी गर्मी भी अपने साथ अनेक तरह की बीमारियां लेकर आई है। इनके प्रति लापरवाही आपको खासा नुक्सान भी पहुंचा सकती है। अत: ऐसी बीमारियों की पहचान और उनके बचने के उपाय यहां दिए जा रहे हैं-
आइये सबसे पहले हम यह जानते हैं कि गर्मी के मौसम में कौन सी बीमारी सबसे ज्यादा खतरा पैदा करती है। सबसे पहले गर्मी में लू लगना आम बात होती है। चिलचिलाती गर्मी में बिना सावधानी बरते बाहर निकल जाना लू का कारण होता है। इसके अतिरिक्त पानी की कमी या डिहाइड्रेशन, बुखार आना या पेट संबंधी बीमारियां जैसी अनेक समस्याएं होने की आशंका हमेशा बनी रहती है। इसलिए स्वास्थ्य के प्रति हमेशा सजग रहने की सलाह दी जाती है। गर्मी में होने वाले इन रोगों का यदि समय रहते उपचार न किया जाए तो इनके परिणाम भयानक भी हो सकते हैं।
पीलिया : गर्मियों में पीलिया होने का खतरा भी होता है। यह रोग गंदे और दूषित पानी या खाने की वजह से होता है। पीलिया में रोगी की आंखे व नाखून पीले पड़ जाते हैं। पेशाब का रंग भी पीला होता है। इस रोग से बचने के लिए अपने खाने-पीने का ध्यान रखें। बाहर के खान-पान से बचें, इन्फेक्शन से दूर रहें और रोग हो जाने पर पानी को उबाल कर ही पीएं, इसके साथ ही हल्का खाना और तेल व मिर्च मसाले से दूर रहना उचित होता है।
टायफाइड : गर्मी के मौसम में टायफाइड भी एक आम बीमारी की तरह उभर कर सामने आती है। इस बीमारी में लगातार बुखार रहना, भूख कम लगना, उल्टी होना और खांसी-जुकाम का बने रहना प्रमुख लक्षण होते हैं। इससे बचने के लिए दूषित पानी व खाने की चीज़ों से बचना चाहिए। कुछ भी खाने पीने से पहले हाथों को अच्छी तरह से साफ कर लेना चाहिए। तरल पदार्थो का अधिक सेवन करें लेकिन साफ-सफाई का भी ध्यान रखें।
लू या हीट स्ट्रोक : गर्मियों में अक्सर सुनने में आता है कि फलां शख्स को लू लग गई। लू लगने को हीट स्ट्रोक भी कहा जाता है जो कि कई बार तो जानलेवा भी साबित होती है। यह तेज़ धूप की वजह से होती है। इस बीमारी में उल्टी के साथ चक्कर आना, रक्तचाप का कम हो जाना, बुखार आना प्रमुख लक्षण हैं। इससे बचने के लिए धूप में जितना हो सके कम निकलना चाहिए। अगर धूप में जाना पड़े तो सिर को ढंक कर ही बाहर निकलें। जितना हो सके ज्यादा से ज्यादा पानी पियें. लस्सी, छाछ या आम का पना समेत प्याज का सेवन व अन्य तरह के उपाय किए जा सकते हैं।
चिकनपॉक्स : यूं तो चिकनपॉक्स वायरस के संक्रमण से होता है, लेकिन यह भी ज्यादातर गर्मियों में ही उभरता है। इस बीमारी में बुखार आना, एलर्जी, निमोनिया और मस्तिष्क में सूजन जैसी अनेक समस्याएं होती हैं। इस बीमारी में बुखार आता है और शरीर पर दाने उभर आते हैं। गर्मियों में चिकनपॉक्स बड़ी तेजी के साथ फैलती है।
डिहाइड्रेशन और फूड प्वाइजनिंग: शरीर में पानी की कमी को डिहाइड्रेशन कहा जाता है। गर्मियों में इससे बचने की सबसे ज्यादा जरुरत होती है। इसलिए सलाह दी जाती है कि गर्मियों में जितना हो सके ज्यादा से ज्यादा तरल पदार्थों जैसे जूस, लस्सी, छाछ, आमपन्ना या नारियल पानी का सेवन करना चाहिए। इसके लक्ष्ण भी बुखार जैसे होते हैं और यह फ़ूड प्वाइजनिंग गंदे खाने या गंदे पानी से होती है। इससे बुखार, उल्टी, दस्त, चक्कर आना और शरीर में दर्द और कमज़ोरी जैसी समस्याएं हो सकती हैं। इसलिए साफ-सफाई का विशेष ध्यान गर्मियों में रखा जाना चाहिए।
खसरा या मीज़ल्स : यह एक प्रकार से श्वांस के द्वारा होने वाला रोग है जो कि गर्मियों में काफी तेजी से फैलता है। इस रोग में शरीर पर छोटे-छोटे लाल रंग के दाने होते हैं और इसके साथ ही बुखार, खांसी, नाक बहना और आंखों का लाल होना जैसे लक्षण उभरने लगते हैं। इससे रोगी को खासी परेशानी व तकलीफ होती है। इससे बचने के लिए बच्चो को एमएमआर के टीके लगवाए जा सकते हैं। सफाई का समुचित ध्यान, संक्रमित व्यक्ति से दूरी ही सबसे श्रेष्ठ उपाय होता है। इस प्रकार गर्मियों में होने वाली इन बीमारियों से आपको दोचार न होना पड़े इसलिए पहले से सावधानियां बरतना बेहतर होगा। साफ़-सफाई के साथ ही तरल पदार्थों का ज्यादा से ज्यादा सेवन करें, ताकि गर्मी का प्रभाव न होने पाए।