संघ कार्यक्रम और प्रणब दा
ओमप्रकाश मेहता
आज यह कितनी विसंगतिपूर्ण स्थिति है कि जहां देश के वर्तमान राष्ट्रपति पर उनके पूर्व राजनीतिक दल तथा उसके आकाओं के निर्देश पर दिल्ली के बीस विधायकों को बिना सुनवाई के पदों से हटाने का आरोप लगाया गया था, वहीं इसी देश के पूर्व राष्ट्रपति, पद से हटने के बाद भी राष्ट्रपतिकाल के दौरान ली गई दलगत राजनीति से दूर रहने की शपथ का पालन कर रहे है, जिसका ताजा उदाहरण अगले सप्ताह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक कार्यक्रम में उनके द्वारा शामिल होने की स्वीकृति देना है। पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी साहब सात जून को संघ मुख्यालय नागपुर में आयोजित संघ स्वयं सेवकों के दीक्षा समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में शामिल होंगे और उन्हें सम्बोधित भी करेंगे। अब देश के राजनीतिक क्षेत्रों में चर्चा है कि जब संघ का आमंत्रण स्वीकार कर लेने पर इतना बड़ा राजनीतिक बखेड़ा खड़ा किया जा रहा है, तो प्रणब दा के भाषण को लेकर प्रतिपक्षी नेता क्या जलजला पैदा करेंगे?
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति रहते प्रणब दा ने संघ प्रमुख डाॅ. मोहन भागवत व उनके प्रमुख पदाधिकारियों को एकाधिक बार राष्ट्रपति भवन में आमंत्रित किया था और ये संघीय नेता हर बार नए जोश-खरोश के साथ प्रणब दा के आमंत्रणों पर राष्ट्रपति भवन के कार्यक्रमों में शामिल हुए थे। इसलिए अब जब प्रणब दा राष्ट्रपति नहीं है और उन्हें संघ प्रमुख द्वारा मुख्य अतिथि के रूप में किसी आयोजन के लिए बुलाया जा रहा है तो प्रणब दा कैसे इंकार कर सकते है? फिर सबसे अहम् बात यह कि यह सिर्फ प्रणब दा ही जानते है कि उन्होंने संघ प्रमुख का आमंत्रण स्वीकार क्यों किया? संभव है प्रणब दा राष्ट्रपति जैसे गौरवशाली पद से हटने के बाद दलगत राजनीति के पचड़े में नही पड़ना चाहते हो और अपनी छवि को गुटनिरपेक्ष, धर्मनिरपेक्ष, दलगत राजनीति निरपेक्ष के रूप में बना कर रखना चाहते हो? और भारतीय लोकतंत्र में एक नई मिसाल कायम करना चाहते हो? क्योंकि राष्ट्रपति पद से हटने के बाद पिछले दस महीनों में प्रणब दा ने अपने मूल राजनीतिक दल कांग्रेस के भी किसी कार्यक्रम में भाग नहीं लिया है, इसलिए शायद यही सच है कि वे अब अपने शेष जीवन में भी उसी छवि को जीवित रख भूत व भविष्य के साथ वर्तमान राष्ट्रपति के सामने एक बड़ी मिसाल कायम करना चाहते हो?
अब जहां तक प्रणब दा के इस फैसले पर दलीय प्रतिक्रियाओं का सवाल है, सीपीएम ने जहां इसे प्रणब दा का व्यक्तिगत फैसला बताकर पल्ला झाड़ लिया है, वहीं कांग्रेस से पूर्व वित्तमंत्री चिदम्बरम्, वरिष्ठ नेता जयराम रमेश तथा रमेश चैन्नीथला ने अपनी व्यक्तिगत प्रतिक्रियाऐं दी है, चिदम्बरम् ने जहां पूर्व राष्ट्रपति जी के सौम्य और मिलनसारी व्यक्तित्व पर व्यंग करते हुए उनके द्वारा ‘भारतरत्न’ प्राप्त करने के प्रयास से इस संघ के आमंत्रण को जोड़ा है, वहीं रमेश चैन्नीथला ने प्रणब दा से कहा है कि वे संघ के कार्यक्रम में संघ के स्वयं सेवकों से लेकर प्रमुख पदाधिकारियों को अपनी अब तक की कथित साम्प्रदायिक भूमिका पर चिंतन करने और देशहित में उनमें सुधार की सीख दें। कांग्रेस नेता व पूर्व मंत्री सी.के. जाफरशरीफ ने भी प्रणब दा को कुछ ऐसी ही सीख देने का प्रयास किया है। शेष राजनीतिक दलों व कांग्रेस के प्रथम श्रेणी के नेताओं ने इस मसले पर अभी मौन धारण कर रखा है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रपति पद पर रहते हुए उन सभी गौरवशाली संवैधानिक परम्पराओं का निर्वहन किया, जिनकी अपेक्षा एक निरपेक्ष राष्ट्रपति से की जानी चाहिए, यही नहीं प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी तक प्रणब दा की दिल खोलकर तारीफ करते थे। प्रणब दा की विदाई के समय नरेन्द्र भाई द्वारा किया गया सम्बोधन भी अपने आपमें संवैधानिक सौहार्द की एक मिसाल है। प्रणब दा ने राष्ट्रपति रहते देश को कभी महसूस ही नही होने दिया कि देश में उनके अपने पैतृक राजनीतिक दल की विरोधी सरकार है? यहीं तो प्रणब दा की कार्यप्रणाली और उनके अपने नैतिक आदर्शों की खूबी है, और अब संघ के कार्यक्रम का आमंत्रण मंजूर कर प्रणब दा मौजूदा और भावी राष्ट्रपति-उप-राष्ट्रपति को एक नई सीख व प्रेरणा दे रहे है।
अब प्रणब दा सात जून को संघ के नए स्वयं सेवकों को क्या संदेश देते है? यह तो भविष्य के गर्भ में है, लेकिन यह तय है कि वे नए स्वयं सेवकों राष्ट्रहित को सर्वोपरी मानने और अपने देश की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाए रखने की सीख अवश्य देगें। साथ ही यह भी तय है कि दादा की सीख को कई नजरियों से देखकर उस पर टीका-टिप्पणी अवश्य ही की जाएगी।
प्रणब दा के इस ‘एपीसोड’ पर विचार करते समय वह ऐतिहासिक क्षण भी याद आता है, जब पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलााल नेहरू ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को गणतंत्र दिवस परेड में शामिल होने का आमंत्रण दिया था और संघ के एक सौ से अधिक स्वयं सेवक गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल हुए थे। अब प्रणब दा भी पुनः पं. नेहरू जैसी ही कोई आदर्श मिसाल रखना चाहते है, क्योंकि लोकतंत्र को जीवित रखने की चिंता सिर्फ बुजुर्ग नेताओं को ही है, युवा तो बुजुर्गों की उपेक्षा में व्यस्त हैं।
एन.डी.ए. ने चार साल में लिखी गांव-गरीब-किसान समृद्धि की नई इबारत
नरेन्द्र सिंह तोमर
भारत गांवों का देश है। यहां की लगभग दो तिहाई जनसंख्या गांवों में ही निवास करती है। महत्वपूर्ण बात यह है कि देश की 60 प्रतिशत से अधिक भूमि का उपयोग कृषि कार्यों के लिए हो रहा है। भारत कृषि – अर्थव्यवस्था पर आधारित देश भले ही न हो, फिर भी इसके करीब 70 प्रतिशत ग्रामीण परिवार अपनी आजीविका के लिए मुख्य रूप से खेती पर ही निर्भर हैं। जो लोग अन्य व्यवसाय करते भी हैं, तो वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि से ही जुड़ा होता है। लेकिन गांव के युवा वर्ग में शहरों की चमक-दमक से आकृष्ट होकर शहरों की ओर पलायन करने की प्रवृत्ति बढ़ी है। आज हर इंसान सुविधा चाहता है, सुख-साधन चाहता है, बेहतर और गुणवत्तापूर्ण जीवन जीना चाहता है। केन्द्र में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने इसे ध्यान में रखते हुए गांव, गरीब, और किसान की माली हालत सुधारने, उन्हें सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने और गांवों तथा ग्रामीणों की प्रगति को देश के समग्र विकास का मूल आधार बनाने के लिएविभिन्न विकास और कल्याण योजनाओं के माध्यम से ठोस प्रयास किए हैं और यह सिलसिला लगातार जारी है।
पिछले चार साल के कार्यकाल में केन्द्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने अपने संकल्पों और वायदों को पूरा करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ते हुए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। सरकार ने न केवल जनहित, ग्राम्य-हित और देश हित की अनेक योजनाओं का प्रभावी ढंग से कार्यान्वयन किया है, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया है कि नीतियों और योजनाओं की शुरूआत के दिन से ही लक्षित व्यक्तियों, वर्गों, समुदायों और क्षेत्रों को अपेक्षित परिणाम मिलने शुरू हो जाएं। ग्रामीण क्षेत्र के विकास, उत्थान और कल्याण के लिए व्यापक नीतिगत और योजनागत उपाय किए गए हैं। सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले परिवारों को सभी आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने पर पूरा ध्यान केन्द्रित कर रही है। विभिन्न योजनाओं के माध्यम से वंचित एवं निर्धन परिवारों के लिए आवास, रोजगार, आजीविका, कौशल उन्नयन, सड़क-सम्पर्क और जल संरक्षण जैसे कार्यों को बढ़ावा देकर अंत्योदय और समृद्ध एवं सशक्त भारत की परिकल्पना को साकार करने का प्रयत्न किया जा रहा है। सरकार किसानों और ग्रामीण परिवारों की आय वर्ष 2022 तक दोगुनी करने के लिए कृत-संकल्प है।
गांव, गरीब और किसान हालांकि सभी सरकारों की प्राथमिकता सूची में रहे हैं, लेकिन इसे एक मिशन का रूप देने का श्रेय केन्द्र में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार को ही जाता है। ग्रामीण विकास मंत्रालय ग्रामीण गरीब परिवारों के जीवन स्तर की गुणवत्ता में सुधार लाने की लगातार कोशिश कर रहा है। सरकार गांव, गरीब और किसानों को ऊपर लाने के लिए कितनी प्रतिबद्ध है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि ग्रामीण विकास विभाग का बजटीय प्रावधान वर्ष 2012-13 में 50,162 करोड़ रू. था, जिसे वर्ष 2018-19 में बढ़ाकर 1,12000 करोड़ रू. कर दिया गया है। नाबार्ड से लिए गए ऋण को जोड़ने पर यह प्रावधान 1,24000 करोड़ रू. हो जाता है।
ग्रामीणों की खुशहाली के सिलसिले में सबसे पहले मैं बात करना चाहूंगा प्रधानमंत्री आवास योजना-ग्रामीण की।गांव के हर व्यक्ति के पास अपनी छतहो, उनका यह सपना पूरा करने की इस जन-कल्याणकारी योजना के अंतर्गत वर्ष 2022 तक हर पात्र व्यक्ति को पक्का मकान उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया है। इससे पहले 31 मार्च, 2019 तक 1 करोड़ मकान बना लिए जाएंगे। वर्ष 2017-18 में कुल 44.53 लाख आवास पूरे किए गए। इस योजना के अंतर्गत 1 करोड़ लाभार्थियों को मनरेगा के तहत 90 से 95 दिन का काम दिया जा रहा है। मजदूरी के भुगतान में ईएफएमएस यानी इलेक्ट्राॅनिक फंड मैनेजमेंट सिस्टम का उपयोग किया जा रहा है। इसके परिणामस्वरूप अब 86 प्रतिशत से अधिक भुगतान समय पर हो रहा है। इस संबंध में मैं यह जोड़ना चाहुंगा कि पिछली यूपीए सरकार के दौरान वर्ष 2010-11 से 2013-14 तक 25.51 लाख मकान बनाए गए थे। इसके मुकाबले मौजूदा एनडीए सरकार ने अपने चार साल के कार्यकाल में 106.8 लाख मकान पूरे कर लिए हैं जो पिछली सरकार की तुलना में चार गुना ज्यादा है।
गांवों की जीवन रेखा मानी जाने वाली सड़कों के विकास और विस्तार की दिशा में सरकार ने उल्लेखनीय काम किया है। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के अंतर्गत मार्च, 2018 तक कुल 1,52,165 बसावटों को सड़क सम्पर्क से जोड़ा गया है जो कुल बसावटों का लगभग 85 प्रतिशत है। सरकार शेष 19,725 बसावटों को मार्च, 2019 तक सड़क सम्पर्क से जोड़ने के लिए प्रतिबद्ध है। इस योजना के अंतर्गत अप्रैल, 2018 तक 5.50 लाख कि.मी. सड़क मार्गों का निर्माण किया जा चुका है। इस योजना की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि यह है कि जहां वर्ष 2013-14 में सड़क निर्माण की गति केवल 75 कि.मी. प्रतिदिन थी, वहीं आज प्रतिदिन 134 कि.मी. सड़क बनाई जा रही है। प्रधानमंत्री जी ने पीएमजीएसवाई के तीसरे चरण को स्वीकृति दे दी है। इसके अंतर्गत वर्ष 2022 तक1.25 लाख कि.मी. सड़क मार्गों का निर्माण कृषि और ग्रामीण हाटों, हायर सेकेण्डरी स्कूलों और अस्पतालों इत्यादि को जोड़ने के लिए किया जाएगा। ग्रामीण सड़कों के रख-रखाव के नए और सरल तरीके अपनाने पर जोर दिया जा रहा है।पीएमजीएसवाई सड़कों के बारे में मिलने वाली शिकायतों के त्वरित और प्रभावी तरीके से निवारण के लिए मोबाइल एप -श्मेरी सड़कश् विकसित किया गया है।इससे ई-शासन और डिजिटल इंडिया के उद्देश्यों को भी पूरा किया जा सकेगा। इस योजना की 15 प्रतिशत सड़कें अब अपशिष्ट प्लास्टिक, फ्लाई-ऐश, लोहे और तांबे का लावा तथा ठंडे मिश्रण के उपयोग जैसी अनूठी हरित प्रौद्योगिकी के उपयोग से बनाई जा रही हैं। इससे न केवल निर्माण की लागत घट रही है, बल्कि स्थानीय और बेकार पड़ी वस्तुओं के सार्थक उपयोग को भी बढ़ावा मिल रहा है।
प्रत्येक ग्रामीण परिवार के एक सदस्य को साल में कम से कम 100 दिन का गारंटीयुक्त रोजगार उपलब्ध कराने की योजनामनरेगा के अंतर्गत अब कृषि क्षेत्र के विकास और जल संरक्षण पर पर्याप्त बल दिया जा रहा है। इससे गांव, गरीब और किसान, तीनों को आशाओं के अनुरूप लाभ मिल रहा है। मनरेगा के लिए आवंटित निधियों की 68 प्रतिशत धनराशि कृषि से जुड़ी गतिविधियों पर खर्च की गई है। गत तीन वर्षों में 1.43 लाख हेक्टेयर भूमि को जल संरक्षण का लाभ पहुंचाया गया है। मनरेगा के अंतर्गत काम करने वाले व्यक्तियों को 12 करोड़ 58 लाख जाॅब कार्ड जारी किए गए हैं। 10 करोड़ को आधार से जोडकर लगभग 99 प्रतिशत मजदूरी का भुगतान इलेक्ट्राॅनिक माध्यम से किया जा रहा है। मनरेगा के तहत 6164 व्यक्तियों को बेयरफुट टेक्नीशियन का प्रशिक्षण दिया गया है और इनमें से 3934 व्यक्तियों को राज्य सरकारों ने रोजगार से जोड़ा है।
देश के युवाओं को प्रशिक्षण देकर रोजगार के योग्य बनाना आज एक बहुत बड़ी आवश्यकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में कौशल विकास योजनाओं के माध्यम से ग्रामीणों और विशेष रूप से युवा वर्ग को हुनरमंद बनाकर रोजगार उपलब्ध कराने के उद्देश्य से दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल्य योजना के अंतर्गतवर्ष 2014-15 से फरवरी, 2018 तक 5 लाख 73 हजार लोगों को प्रशिक्षण दिया गया और 3 लाख 54 हजार लोगों को रोजगार दिलाया गया है। अकेले वर्ष 2017-18 में ही फरवरी तक 1 लाख 28 हजार से अधिक लोगों को प्रशिक्षित किया गया और 69 हजार से अधिक लोगों को रोजगार उपलब्ध कराया गया।ग्राम स्व-रोजगार प्रशिक्षण संस्थानों (आरएसईटीआई) के माध्यम से वर्ष 1998 से 2014 तक 16 साल की अवधि में 10.15 लाख लोगों को ही प्रशिक्षण मिल सका और 5.92 लाख लोगों को रोजगार मिला।
गांवों को स्वच्छ परिवेश उपलब्ध कराने के लिए स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण के माध्यम से स्वच्छता पर जन-आंदोलन शुरू किया गया है। 2 अक्तूबर, 2014 को इस महत्वाकांक्षी कार्यक्रम की शुरूआत के बाद देश के ग्रामीण क्षेत्र में स्वच्छता का दायरा वर्ष 2014 के 39 प्रतिशत से बढ़कर वर्तमान में लगभग 84 प्रतिशत हो गया है। वर्ष 2014 में खुले में शौच जाने वाले लोगों की आबादी 55 करोड़ थी, जो जनवरी, 2018 में घटकर केवल 25 करोड़ रह गई। कुल 17 राज्य और केन्द्र शासित प्रदेश खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) हो चुके हैं। 12 अक्तूबर, 2014 से अबतक 7 करोड़ 25 लाख से अधिक शौचालयों का निर्माण किया जा चुका है। देश के 386 जिले और लगभग 3 लाख 70 हजार गांव स्वयं को खुले में शौच से मुक्त घोषित कर चुके हैं।
गांव के विकास और समृद्धि की नई इबारत लिखने तथा किसानों और गरीबों की स्थिति में आमूल सुधार लाने के उद्देश्य से माननीय प्रधानमंत्री जी ने 14वें वित्त आयोग की 2 लाख 292 करोड़ रू. से अधिक राशि सीधे पंचायतों को देने की स्वीकृति प्रदान की है। यह धनराशि 13वंे वित्त आयोग द्वारा स्वीकृत धनराशि से लगभग तीन गुना अधिक है। वर्ष 2014-15 से वर्ष 2017-18 के दौरान राज्यों को 1,02,023 करोड़ रू. जारी किए जा चुके हैं। केन्द्र सरकार ने देश का चैदह लाख करोड़ रू. का बजट गांव, गरीब और किसानों के कल्याण के लिए रखा है।
सरकार अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और अल्पसंख्यकों के कल्याणसे जुड़ी योजनाओं को विशेष महत्व दे रही है। अनुसूचित जातियों के वास्ते मौजूदा वित्त वर्ष 2018-19 के लिए 56,618.50 करोड़ रू. का प्रावधान किया गया है। अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए मौजूदा वर्ष के दौरान 39,135 करोड़ रू. खर्च किए जाएंगे।सरकार दिव्यांग जनों के कल्याणके लिए हमेशा समर्पित रही है। वर्ष 2010-11 से वर्ष 2013-14 के दौरान चार वर्षों में दिव्यांग-जनों को सहायता उपकरण इत्यादि उपलब्ध कराने के लिए 311.63 करोड़ रू. खर्च किए गए थे, जबकि वर्तमान सरकार ने वर्ष 2014-15 से 2017-18 के दौरान चार वर्षों में इससे लगभग दोगुनी राशि 622.45 करोड़ रू. खर्च की है।
प्रधानमंत्री जनधन योजना के अंतर्गत अबतक 31 करोड़ 80 लाख 54 हजार से अधिक खाते खोले जा चुके हैं और उनमें 81,200 करोड़ रू. से अधिक धनराशि जमा हो चुकी है। 23 करोड़ 35 लाख से अधिक खातों को आधार से जोड़ दिया गया है। 23 करोड़ 80 लाख लाभार्थियों को रूपे डेबिट कार्ड जारी किए गए हैं। 10 मई, 2018 तक 19,679 गांवों में से 18,374 गांवों का विद्युतीकरण कार्य पूरा किया जा चुका है। इससे गांवों में विकास की गति बढ़ी है। प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना में 13 करोड़ 49 लाख लाभार्थी बीमा करा चुके हैं। इसके अंतर्गत 16,469 दावों का निपटारा किया जा चुका है और 328 करोड़ रू. का भुगतान किया गया है। प्रधानमंत्री जीवन ज्योति योजना में अब तक 5 करोड़ 33 लाख लाभार्थियों का बीमा हो चुका है। 19,082 दावों के निपटान हेतु 1802 करोड़ रू. जारी किए गए हैं। सौभाग्य – प्रधानमंत्री सहज बिजली हर घर योजना सभी ग्रामीण परिवारों के घर तक सम्पर्क एवं बिजली कनेक्शन पहुंचाने के लिए चलाई जा रही है। इसके अंतर्गत वर्ष, 2019 तक 3 करोड़ 70 लाख परिवारों को कवर करने का लक्ष्य है। अब तक 41 लाख परिवारों को बिजली कनेक्षन दिए जा चुके हैं। बिजली की अधिक खपत वाले पारम्परिक बल्बों को ऊर्जा-कुशल एलईडी बल्बों से बदलने के लिए उजाला योजना के अंतर्गत 77 करोड़ एलईडी बल्ब बांटने का लक्ष्य रखा गया है। अब तक 29 करोड़ 90 लाख एलईडी बल्ब बांटे जा चुके हैं।
सबका साथ, सबका गांव, सबका विकासके लक्ष्य को आगे बढ़ाने, गरीब परिवारों तक पहुंचने और केन्द्र सरकार की विभिन्न जन कल्याणकारी योजनाओं से अभी तक वंचित रहे लोगों को इनका लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से देश के21,844 में से 16,850 गांवों में 14 अप्रैल से 15 मई, 2018 तक ग्राम स्वराज अभियानआयोजित किया गया। पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव और कर्नाटक में विधान सभा चुनाव के कारण इसे लागू नहीं किया गया। इसके अंतर्गत किसान और गरीब की जिन्दगी में खुशहाली लाने तथा गांव की आबादी की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति सुनिश्चित करने के लिए 7 योजनाओं – उज्ज्वला योजना, मिशन इन्द्रधनुश, सौभाग्य योजना, उजाला, जनधन योजना, जीवन ज्योति बीमा योजना और प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना का शत-प्रतिशत आच्छादन किया गया। 21 दिन के इस अभियान के दौरान प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के अंतर्गत 7.53 लाख उज्ज्वला कनेक्षन जारी किए गए। सौभाग्य योजना के तहत 5,30,346 ग्रामीण परिवारों को बिजली की सुविधा प्रदान की गई। उजाला योजना के तहत 16,682 गांवों में 25.03 लाख एलईडी बल्ब वितरित किए गए। हर देशवासी को बैंकिंग सुविधाओं से जोड़ने के लिए प्रधानमंत्री जन धन योजना के अंतर्गत 20 लाख 54 हजार से अधिक नए खाते खोले गए। साल में 330 रू. के प्रीमियम पर 2 लाख रू. का जीवन बीमा लाभ देने वाली प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना से 16 लाख 15 हजार से अधिक व्यक्तियों को जोड़ा गया। इसी तरह साल में केवल 12 रू. के प्रीमियम पर 2 लाख रू. तक का दुर्घटना बीमा कवर देने वाली प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना के अंतर्गत 26 लाख 11 हजार से अधिक व्यक्ति लाभान्वित हुए। मिशन इन्द्रधनुष के तहत 1 लाख 64 हजार से अधिक शिशुओं और 42,868 गर्भवती महिलाओं का प्रतिरक्षण टीकाकरण किया गया। इस तरह ग्राम स्वराज अभियान के दौरान विभिन्न सरकारी योजनाओं का लाभ आम-आदमी तक पहंुचाने में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त हुई है। अगले चरण में 45137 गांवों को 15 अगस्त, 2018 तक पूरी तरह आच्छादित करने का लक्ष्य रखा गया है।मेरा विश्वास है कि गंाव में अवसंरचना के विकास, सामाजिकता के विस्तार और मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति होने से देश निश्चित रूप से आगे बढे़गा और बहुसंख्यक ग्रामीण क्षेत्र नए भारत के निर्माण मंे महत्वपूर्ण योगदान कर सकेगा। आइये, हम सब मिलकर गांव, गरीब और किसान को आगे बढ़ाने तथा एक नए भारत के निर्माण के लिए संकल्पबद्ध होकर जुटें और अपने राष्ट्रीय दायित्व का निर्वहन कर जन-जन को खुशहाल बनाने में सक्रिय योगदान दें।
(लेखक केन्द्रीय ग्रामीण विकास, पंचायती राज एवं खान मंत्री हैं।)
कलयुग के यह उपदेशक…
निर्मल रानी
हमारे देश में उपदेशकों की गोया बाढ़ सी आई हुई है। धर्म क्षेत्र से लेकर राजनीति के क्षेत्र तक हर जगह ‘मुफ्त’ में ही ज्ञान उंडेला जा रहा है। और इस ज्ञान वर्षा का परिणाम क्या है यह बताने की ज़रूरत भी नहीं है। धर्म व अध्यात्म क्षेत्र को स्वयंभू उपदेशकों द्वारा कलंकित करने की कहानियां तो अक्सर हमारे देश में टेलीविज़न से लेकर समाचार पत्रों व पत्रिकाओं तक में प्रथम शीर्षक पर प्रसारित व प्रकाशित होती रही हैं। ऐसे कई स्वयंभू अध्यात्मवादियों व धर्माधिकारियों पर देश व दुनिया थू-थू कर चुकी है। और ऐसा ही हाल हमारे देश के लोकतंत्र तथा यहां सक्रिय अनेक राजनीतिज्ञों का भी है। बिना सोचे-समझे अतार्किक बातें कह देना, अपनी पूर्वाग्रही भड़ास निकालना, समाज में अलग-अलग तरह की दीवारें खींचने की कोशिश करना, झूठ-सच व अनर्गल बातें अपने भाषणों में करना, सत्ता हासिल करने के लिए लोकतंत्र व संविधान की धज्जियां उड़ाने जैसी अनेक बुराईयां भारतीय राजनीति में अपना घर बना चुकी हैं। कहना गलत नहीं होगा कि इस समय न केवल देश बल्कि पूरी दुनिया के हालात इसी प्रकार की सत्तालोभी, भ्रष्ट तथा व्यवसायिक राजनीति की वजह से बद से बदतर हो रहे है तथा यह भी सच है कि विश्व की राजनीति इस समय लगभग शत-प्रतिशत पुरूष समाज के हाथों में ही है। वही पुरुष समाज जो अमेरिका से लेकर उत्तर कोरिया, सीरिया, इराक, िफलिस्तीन, यमन जैसे देशों के नेतृत्व को संभाले हुए है।
दुनिया के ऐसे माहौल में हमारे देश के एक प्रतिष्ठित भाजपाई नेता तथा मध्यप्रदेश सरकार के उर्जा मंत्री पारस जैन ने स्वयं शादीशुदा व दो बच्चों के पिता होने के बावजूद एक ऐसा उपदेशपूर्ण बयान दिया है जिसे सुनकर उनकी मानसिकता तथा सोच-विचार पर तरस आता है। मंत्री महोदय फरमाते हैं कि-केवल कुंआरे अर्थात् अविवाहित लोगों को ही ‘सांसद अथवा विधायक बनाया जाना चाहिए। शादीशुदा व परिवार रखने वाले लोगों को सांसद अथवा विधायक नहीं बनाना चाहिए’। अपने इस बयान के पक्ष में उन्होंने यह तर्क दिया कि ‘शादीशुदा लोग अपने परिवार की चिंता करते हैं और उनका परिवार भी बढ़ जाता है। बाद में वह अपने बच्चों की शादी की चिंता करने लगते हैं। परंतु जो शादी नहीं करते वे केवल देश के बारे में ही सोचते हैं’। उनके इस बयान का मकसद इस वक्तव्य के शब्दों से उतना ज़ाहिर नहीं होता जितना कि उन्होंने अपने इसी बयान के संदर्भ में अपने अगले वाक्य में स्पष्ट किया। अपने इस बयान के समर्थन में उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की मिसाल देते हुए कहा कि ‘यह दोनों लोग सिर्फ अपने देश की ही चिंता करते हैं’। पंरतु उन्होंने कुंवारे जि़म्मेदार राजनीतिज्ञों की सूची में कुछ ‘वास्तविक’ कुंआरों का नाम नहीं लिया। मिसाल के तौर पर हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी, उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती व तमिलानाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता की परिवार न बसाने जैसी कुर्बानियों का जि़क्र नहीं किया। न ही उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी ‘देश की चिंता’ करते हुए नज़र आए जोकि िफलहाल कुंवारे ही हैं।
सोचने का विषय है कि पारस जैन के इस बयान में आिखर किन विचारों के दर्शन दिखाई देते हैं उपदेश के या चाटुकारिता के? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कुंआरा कहना तो तथ्यात्मक रूप से ही गलत है। क्योंकि उन्होंने अपने चुनाव नामांकन के घोषणा पत्र में अपने शादीशुदा होने की बात स्वीकार की है। परंतु जैन साहब ने महज़ मोदी व योगी जैसे बड़े नेताओं को खुश करने व उनकी खुशामदपरस्ती के लिए ऐसा बयान दिया। वे यदि किसी दूसरे दल के नेता की ही नहीं तो कम से कम अपने ही दल के नेता खट्टर साहब की कुर्बानी को तो याद करते? पारस जैन की बातों में एक विरोधाभास यह भी है कि अपने दो बच्चों व एक पत्नी जैसे खुशहाल परिवार के साथ रहते हुए आिखर उन्हें यह एहसास कैसे हुआ कि शादीशुदा व्यक्ति की तुलना में कुंआरा व्यक्ति भ्रष्टाचार नहीं करता? क्या यह उनका अपना अनुभव है? क्या वे पुत्र या परिवार मोह में ऐसा कर चुके हैं या उनके भीतर कभी ऐसा करने की इच्छा जागृत हुई?। उन्होंने अपनी बात की दलील में मोदी व योगी का नाम तो लिया परंतु श्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसे महान भाजपा नेता का नाम नहीं लिया। ऐसा इसलिए कि उन्हें वाजपेयी जी की तारीफ से कुछ हासिल नहीं होना जबकि मोदी व योगी की प्रशंसा उनके राजनैतिक जीवन में चार चांद लगा सकती है। उन्होंने डा० एपीजे अब्दुल कलाम का नाम भी नहीं लिया क्योंकि उनका नाम लेने से भी उन्हें कुछ हासिल नहीं होने वाला। हां अगर उनके संरक्षकों की ‘पैनी नज़र’ कलाम साहब के नाम पर पड़ जाए तो जैन साहब के लेने के देने ज़रूर पड़ सकते थे। इसलिए उन्हें देश के कुंआरों में केवल दो ही आदर्श कुंआरे दिखाई दिए , मोदी और योगी।
हमारे देश में लाल बहादुर शास्त्री, गुलज़ारी लाल नंदा, सरदार पटेल, पंडित जवाहर लाल नेहरू, अबुल कलाम आज़ाद, रफी अहमद कि़दवई, जगजीवन राम, मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह तथा मनमोहन सिंह जैसे हज़ारों राजनीतिज्ञों के नाम है जिन्होंने ईमानदारी, शिष्टाचार तथा सौम्यता का प्रदर्शन करते हुए आजीवन राजनीति की है। आज भी इनकी ईमानदारी के चर्चे देश व दुनिया में होते रहते हैं। परंतु यह सभी परिवार चलाने वाले शादीशुदा लोग थे। इन्होंने व इन जैसे अनेक नेताओं ने गृहस्थ जीवन बिताने के बावजूद एक आदर्श राजनीतिज्ञ का जीवन बसर किया। जहां तक कुंआरे रहने व कुंआरा रहकर सदाचारी व शिष्टाचारी होने का प्रश्र है तो इस क्षेत्र में साधू-संतों, ब्रहमचारियों, त्यागियों व तपस्वियों को सबसे अधिक श्रद्धा व सम्मान की नज़र से देखा जाता है। उनके विषय में मेरा तो कुछ लिखने का साहस नहीं परंतु देश के प्रसिद्ध अविवाहित जैन धर्मगुरू मुनि श्री तरूण सागर जी के विचारों को भी सुनना ज़रूरी है। मुनि महाराज फरमाते हैं कि-‘ यह कड़वा सच है कि आज देश के संत, महात्मा, महामंडलेश्वर व शंकराचार्य अकूत संपत्ति के मालिक बने बैठे है। उनके बड़े-बड़े आश्रम, भव्य मंहगी कारें व उनकी जीवनशैली को देखकर लगता ही नहीं कि यह भारत के विरक्त संत हैं। जैसे नेताओं की संपत्ति की कभी जांच नहीं होती। वैसे ही साधू-संतों की संपत्ति की जांच भी नहीं होती। आज वे ‘साधना’ में कम ‘साधनों’ में ज़्यादा जी रहे हैं। याद रखें कर्मचारी कोठे पर और साधू बैंक में कभी शोभा नहीं देता’।
मुनिश्री तरुण सागर जी महाराज का यह कथन केवल इसलिए उद्धृत किया ताकि मध्यप्रदेश के उर्जा मंत्री पारस जैन के ज़ेहन में यह बात बैठ सके कि उन्हीं के समाज के एक सर्वप्रतिष्ठित धर्मगुरु उन कुंआरे लोगों के बारे में कैसे स्पष्ट विचार रखते हैं जिन्होंने ब्रह्मचार्य व परिवार के त्याग की आड़ में क्या कुछ नहीं बना रखा है। मंत्री महोदय को इस प्रकार की बेतुकी बातें कर समाज में कुंवारों व शादीशुदा लोगों के मध्य लकीर खींचने की कोशिश हरगिज़ नहीं करनी चाहिए। जिसका परिवार नहीं होगा वह परिवार की तकलीफ, परिवार की जि़म्मेदारियों, परिवार की चिंता व समाज व राष्ट्र के प्रति उसकी भूमिका के बारे में कैसे सोच सकेगा? सच पूछिए तो आज के दौर में किसी कुंआरे या पत्नी छोड़े हुए व्यक्ति को कोई अपना मकान भी किराए पर नहीं देना चाहता। ज़ाहिर है कुंआरे व्यक्ति से अधिक विश्वसनीय परिवार रखने वाला व्यक्ति माना जाता है। इस प्रकार का उपदेश देने वालों को ‘कलयुग के उपदेशक’ के सिवा और कुछ नहीं का जा सकता।
आशाराम बापू-एक म्यान में दो तलवार !
डॉक्टर अरविन्द जैन
” सहें बाण-वरषा बहु सूरे, टिकेंन नैन बाण लखि कुरे “यह एक युक्ति हैं की बड़े बड़े वीर, महावीर, पहलवान, योध्या सब जगह विजयी होते हैं पर स्त्रियों के नैनों से ऐसे घायल हो जाते हैं की वे अपनी सुध बुध खो देते हैं। किसी शायर ने भी कहा हैं की “या रब निगाह नाज़ पर लाइसेंस क्यों नहीं, क़त्ल वो भी करती हैं तलवार की तरह, तब रब जबाव देते हैं “या रब निगाह पर लाइसेंस यूँ नहीं, खु इससे निकलता हैं उससे नहीं ” यह कामवासना के पीछे बड़े बड़े युध्य हुए और कहते भी हैं की क्षण पर की भूल जिंदगी भर के लिए गुनाहगार बना देती हैं। जिस प्रकार एक म्यान में दो तलवारों का रहना नहीं होता, उसी प्रकार जिस चित्त में स्त्री का रागभाव भर चुका हैं उसमे शुद्ध आत्मा का भाव टिक नहीं सकता। जैसे आग में डाह होने पर सुख नहीं मिलता, उसी रकार विषय रुपी अग्नि मैं दह्यमान जीव के सुख नहीं। विषयो के सेवन में क्षण भर का आभास होता हैं और पश्चात् विपत्ति के सिंधु मैं अपार दुःख भोगना होता हैं। इतिहास साक्षी हैं की रावण ने सीता के रूप पर आकर्षित होकर उसका अपहरण किया था उससे आज भी जगत में रावण की कितनी अपकीर्ती हुई तथा हो रही हैं। यह स्त्री सम्बन्धी आसक्ति बड़ी भयंकर हैं उसके द्वारा ठगाये गए जीव महान साम्राज्य का तथा अपने प्राणों का भी त्याग कर देते हैं रागी पुरुष ऐसी कौन सी वस्तु का त्याग नहीं करते। अष्टम एडवर्ड ने सिम्पसन नाम की युवती की आसक्ति वश इंग्लैंड का विशाल साम्राज्य के अधिपतित्व से सम्बन्ध छोड़कर विंडसर के ड्यूक की सामान्य स्थिति को स्वीकार किया। बड़े साम्राज्य को छोड़ने में उनको वेदना नहीं हुई ऐसी होती हैं तीब्र विषयाशक्ति।
किसी कवि ने कहा हैं ” सुंदरियों का चित्त वज्र से भी कठोर होता हैं। उनकी वाणी पुष्प से भी अधिक कोमल होती हैं। उनके कार्य केशों से भी अधिक कुटिलहोते हैं इसी से विवेकी पुरुष उन पर विश्वास नहीं करते हैं। इसी प्रकार ब्रह्मा जी भी अपने आपको नहीं सम्हाल पाए। ब्रह्मा जी की तपस्या को डिगाने का उपाय करने तिलोत्तमा अप्सरा को भेजा गया और वह सफल हुई। ऐसा कौन व्यक्ति है, जो न तो स्त्री -जन से वशीभूत हैं और न जिसका काम के द्वारा मान खंडित हुआ हैं ? कौन इन्द्रियों के द्वारा नहीं जीता गया और कहस्यों के द्वारा कौन संतृप्त नहीं हुआ हो ?
विश्व के उत्थान और पतन के इतिहास का समीक्षण किया जाए, तो प्रतीत होगा की इस स्त्री आसक्ति के कारण ही बड़े बड़े साम्राज्य धूलि में मिल गए और उनका पता नहीं चला। इतना नहीं नहीं उनकी कुलीनता, विद्या, तप, पराक्रम आदि सम्पूर्ण गुण राशि की यह स्मरणआग्नि क्षण भर में नष्ट कर देती हैं, कहा भी हैं “कुल शील, तप, विनय, प्रतिभा, वागिमत्व, तेजस्वितव,दक्षता आदि गुण पुंज को प्रदीप्त काम भाव क्षण मात्र में इस प्रकार भस्म कर देता हैं, जिसप्रकार अग्नि तृण राशि को जला डालती हैं। तारुण्य की वारुणी पिया हुआ व्यक्ति सदगुरु के अंकुश की परवाह न कर मत्त मतंग के समान यथेच्छ प्रवत्ति करता हैं। उसे दिन रात काम और कामिनी ही सूझा करती हैं।
उपरोक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट हो गया की किसी को पदभ्रष्ट करना हो तो कंचन और कामिनी पर्याप्त हैं। इसका उदाहरण वर्तमान में राम रहीम, आशाराम बापू और न जाने कितने साधु जो स्वादु हो गए धरम, आस्था के नाम पर व्यभिचार /यौनाचार में संलिप्त होकर पूरा जीवन नष्ट कर लिया और आज जेल की सलाखों के पीछे अपना जीवन गुजारने को मजबूर हो गाये। ये ऐसे निंदनीय कृत्य हैं इसमें कोई भी साथ नहीं देता। हां किसी की हत्या होती है बदले की भावना से तो साथ देने वाले मिल जाएंगे पर परस्त्रीगमन,वैश्याव्रती चोरी जैसे निंदनीय कामों में अपने निजियों का भी सहयोग नहीं मिलता। आज अरबों रुपयों के असामी होने के बाद जेल में हैं और बदनामी का जीवन जीने मजबूर हैं। विश्व में यह कहावत चरितार्थ हैं —
धन गया कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया कुछ गया और चरित्र गया सबकुछ गया। पर बड़ा से बड़ा विद्वान, पदच्युत होने में क्षण भर लगता हैं और दोषी बन जाता हैं।
वर्तमान में मुक्त और समानता का अधिकार के कारण स्वतंत्रता की जगह स्वच्छंदता ने अपना स्थान बना लिया हैं और उसके बाद घी और आग साथ साथ होने पर आप कितना बचाव कर सकते हैं ! कभी कभी। आज इसके पीछे समाचार पत्रों और मीडिया पर ये समाचार प्रमुख होते जा रहे हैं। यह बात जरूर हैं की आज मनुष्यों की मानसिकता यौन आकर्षण में अधिक हैं कारण फिल्म, सीरियल, मोबाइल, इंटरनेट ने इतना अविपुल साहित्य परोस दिया हैं की उससे अब कोई भी आयु वर्ग सुरक्षित नहीं हैं। आज सूचना के माध्यम से सब प्रकार की जानकारी सुलभ हो चुकी हैं और इसके अलावा खान पान, रहन सहन और अपनी पुराणी परम्पराओं को नकारना इसका बड़ा कारण हैं। ये अपराध संतान हैं जबसे मानव संस्कृति में स्त्री पुरुष का निर्माण हुआ हैं और विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षण स्वाभाविक हैं कोई दबा लेता हैं और कोई उसके पीछे दीवाना होकर कोई भी कुकर्म कर लेता हैं।
समाज में स्त्री पुरुष परिवार की धुरियां हैं, इनके बिना समाज की संरचना की कल्पना करना नामुमकिन हैं। कही कही स्त्री वर्ग को दोषी ठहराया जाता हैं पर स्त्री इसमें पैसिव होती हैं। पर शर्रेरिक संरचना के कारण उसके आकर्षण से कोई अछूता नहीं रहता।
त्रूदो की टेढ़ी भारत—यात्रा
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन त्रूदो की भारत-यात्रा भी अजीब-सी रही। वे एक सप्ताह की सरकारी यात्रा पर सपरिवार आए लेकिन आगंतुक प्रधानमंत्री को आजकल जिस गर्मजोशी से सम्मान दिया जाता है, उन्हें नहीं दिया गया। वे आगरा, अहमदाबाद और मुंबई गए। उन्होंने पंजाब के मुख्यमंत्री से भी भेंट की। आखिरी दिन वे दिल्ली आए। उनकी पत्नी और बच्चों के चित्रों ने भारतीयों को करीब-करीब सम्मोहित कर दिया। दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार करते हुए इन कनाडियन मेहमानों ने हमारा दिल जीत लिया। ये लोग मुंबई में हमारे कई फिल्मी सितारों से भी मिले। उनके चुलबुले बच्चों के साथ नरेंद्र मोदी के भावभीने चित्रों ने मोदी की छवि सुधारी लेकिन त्रूदो के साथ हमारी सरकार का रवैया इतना ठंडा क्यों रहा ? इसका कारण स्पष्ट है। त्रूदो की सरकार और पार्टी का रवैया खालिस्तानियों के प्रति काफी नरम रहा है। यह उनकी राजनीतिक मजबूरी हो सकती है कि कनाडा में रहनेवाले 15 लाख भारतीयों में सिखों की बड़ी संख्या है। उनके थोक वोट पटाने के लिए वे खुले-आम उनकी निंदा नहीं कर सकते लेकिन यह संतोष का विषय है कि हमारे प्रधानमंत्री ने जब इस मामले को उठाया तो त्रूदो ने आतंकवाद के विरुद्ध दो-टूक बयान दिया और संयुक्त वक्तव्य में बब्बर खालसा और सिख यूथ फेडरेशन की भर्त्सना की। याद रहे कि इन आतंकवादी संगठनों ने ही कनाडा से उड़े ‘एयर इंडिया’ का जहाज गिरवा दिया था, जिसके कारण सैकड़ों बेकसूर यात्री मारे गए थे। कनाडा से आए एक कुख्यात खालिस्तानी को त्रूदो के स्वागत समारोह में बुलाने पर भी रोष व्यक्त किया गया। कुल मिलाकर त्रूदो की मर्यादित उपेक्षा का असर यह होगा कि अब भारत-कनाडा संबंध ज्यादा साफ-सुथरे होंगे। यों भी त्रूदो ने मालदीव, रोहिंग्या समस्या और अफगानिस्तान पर भारत की नीतियों का समर्थन किया और छह समझौतों पर दस्तखत भी किए। भारत-कनाडा व्यापार और विनियोग बढ़ाने पर भी सहमति हुई। कनाडा और अमेरिका जुड़वां भाइयों की तरह हैं। आजकल भारत और अमेरिका के बीच जैसी जुगलबंदी चल रही है, उसे देखते हुए कनाडा और भारत के संबंधों को घनिष्ट बनाना कठिन नहीं है। त्रूदो की यह भारत-यात्रा निरर्थक नहीं सिद्ध होगी। शुरु में टेढ़ी दिखाई पड़नेवाली यह यात्रा आखिर में रास्ते पर आ ही गई।
किसान की पाती सरकार और समाज के नाम हरि प्रसाद
किसान को केवल अपने परिवार के लायक उपजा कर बाकी ज़मीन को पड़त छोड़ देना चाहिए। जो लोग अपने बच्चों को डेढ़ लाख की मोटर साइकल, लाख का मोबाइल लेकर देने में एक बार भी नहीं कहते कि महँगा है, वे लोग किसानों की माँग पर बहस कर रहे है कि दूध और गेहूँ महँगा हो जाएगा। माॅल्स में जाकर अंधाधुंध पैसा उजाड़ने वाले गेंहूँ की कीमत बढ़ जाने से डर रहे हैं। तीन सौ रुपये किलो के भाव से मल्टीप्लैक्स के इंटरवल में पॉपकॉर्न खरीदने वाले मक्का के भाव किसान को तीन रुपये किलो से अधिक न मिलें, इस पर बहस कर रहे है। एक बार भी कोई नहीं कह रहा कि मैगी, पास्ता, कॉर्नफ़्लैक्स के दाम बहुत हैं। सबको किसान का क़र्ज़ दिख रहा है और यह कि उस क़र्ज़ माफी की माँग करके किसान बहुत नाजायज़ माँग कर रहा है। यह जान लीजिए कि किसान क़र्ज़ में आपके कारण डूबा हुआ है। उसकी फसल का उसको वाजिब दाम इसलिए नहीं दिया जाता क्योंकि उससे खाद्यान्न महँगे हो जाएँगे। 1975 में सोने का दाम 500 रुपये प्रति दस ग्राम था तब गेंहू का मूल्य किसान को मिलता था 100 रुपये। आज चालीस साल बाद गेंहू लगभग 1500 रुपये प्रति क्विंटल है।मतलब केवल पन्द्रह गुना बढ़ा ,और उसकी तुलना में सोना आज तीस हज़ार रुपये प्रति दस ग्राम है। मतलब 60 गुना की दर से महँगाई बढ़ी मगर किसान के लिए उसे पन्द्रह गुना ही रखा गया। ज़बरदस्ती, ताकि खाद्यान्न महँगे न हो जाएँ। 1975 में एक सरकारी अधिकारी को 400 रुपये वेतन मिलता था जो आज 60 हज़ार मिल रहा है मतलब एक सौ पचास गुना की राक्षसी वृद्धि उसमें हुई है। इसके बाद भी सबको किसान से ही परेशानी है। किसानों को आंदोलन करने की बजाय खेती करना छोड़ देना चाहिए। बस अपने परिवार के लायक उपजाए और कुछ न करे। उसे पता ही नहीं कि उसे असल में आज़ादी के बाद से ही ठगा जा रहा है।
किसान क्यों हिंसक हो गया है,यह समझना होगा, जनता को भी और सरकार को भी। किसान अब मूर्ख बनने को तैयार नहीं है। बरसों तक किया जा रहा शोषण अंततः हिंसा को ही जन्म देता है। आदिवासियों पर हुए अत्याचार ने नक्सल आंदोलन को जन्म दिया।अब किसान भी उसी रास्ते पर है। आप क्या चाहते हैं कि आपके समर्थन मूल्य के झाँसे में फँसे किसान के खून से सनी रोटियाँ अपनी इटालियन मार्बल की टॉप वाली डाइनिंग टेबल पर खाते रहें। जब किसान को समझ में आया सारा खेल तो वह विरोध भी नहीं करे। आपको पता है,आपका एक सांसद साल भर में चार लाख की बिजली मुफ़्त फूँकने का अधिकारी होता है। लेकिन किसान का चार हजार का बिजली का बिल माफ करने के नाम पर आप टीवी चैनल देखते हुए बहस करते हैं। यह चेत जाने का समय है। कहिए कि आप 60 से 80 रुपये लीटर दूध और कम से कम 60 रुपये किलो गेंहू खरीदने के लिए तैयार हैं। कुछ कटौती अपने ऐश और आराम में कर लीजिएगा। नहीं तो कल जब अन्न ही नहीं उपजेगा, तो फिर तो आप बहुराष्ट्रीय कंपनियों से उस दाम पर खरीदेंगे ही जिस दाम पर वे बेचना चाहेंगी।
बैंकों की लूटपाट के लिए जिम्मेदार कौन
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
विजय माल्या के बाद अब नीरव मोदी और विक्रम कोठारी के नाम उछले हैं। कहने के लिए ये लोग उद्योगपति कहाते हैं लेकिन हैं ये, महाठग! इन्होंने अपनी करतूतों से स्वयं को तो कलंकित कर ही लिया है, भारत की बैकिंग व्यवस्था और सरकार की प्रतिष्ठा भी पैंदे में बिठा दी है। ऐसा नहीं है कि सारे कर्जदार उद्योगपति ठगी करते हैं। यह ठीक है कि उनमें से कई अपनी व्यावसायिक असफलता के कारण कर्ज चुका नहीं पाते। यह उनकी मजबूरी होती है लेकिन जो उद्योगपति रंगे हाथ पकड़े गए हैं, वे ऐसे हैं, जो सब नियमों का उल्लंघन करके करोड़ों-अरबों का कर्ज ले लेते हैं और उसे डूबतखाते में डलवा देते हैं। पिछले पांच साल में हमारी 27 सरकारी और 22 गैर-सरकारी बैंकों के 3 लाख 68 हजार करोड़ रु. डूबतखातों में चले गए हैं। यह राशि इतनी बड़ी है कि दुनिया के ज्यादातर देशों का सालाना बजट भी इससे कम ही होता है। इस राशि को बांटा जाए तो भारत के हर गांव को 50 लाख रु. दिए जा सकते हैं।
मोदी और कोठारी, दोनों ने मिलकर कुल 14095 करोड़ रु. का घोटाला किया है। डूबतखातों की कुल राशि के मुकाबले यह लूट-पाट ज्यादा बड़ी नहीं लगती लेकिन अभी तो यह शुरुआत है। इब्तिदाए-इश्क है, रोता है क्या ? आगे-आगे देखिए होता है क्या ? पता नहीं, अभी कितने मोदियों और कोठारियों को रंगे हाथ पकड़ा जाएगा। निजी बैंकों से जितनी लूट-पाट हुई है, उससे पांच गुना ज्यादा सरकारी बैंकों से हुई है। क्यों हुई है ? क्योंकि सरकारी बैंकों में नेताओं की चलती है। बड़े पूंजीपति और बड़े नेताओं की मिलीभगत होती है। सरकारी बैंकों के अफसरों में इतना दम नहीं होता कि वे नेताओं को ना कह सकें। इंदिरा गांधी ने 1969 में जब 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था, तब उनका लक्ष्य यह था कि बैंकों में जमा पूंजी का उपयोग राष्ट्रीय विकास के लिए किया जाए और उसके जरिए वोटों की फसल भी काटी जाए। विकास भी हुआ और वोटों की फसलें भी काटी गईं। लेकिन हमारी संपूर्ण बैंकिंग व्यवस्था में डूबतखातों का घुन लग गया।
30 सितंबर 2013 तक डूबतखातों की कुल राशि 28416 करोड़ रु. थी लेकिन 30 सितंबर 2017 तक याने चार साल में यह बढ़कर 1 लाख 11 हजार करोड़ रु. हो गई याने नरेंद्र मोदी सरकार में यह लूट लगभग चौगुनी हो गई। इस सरकार को हम लाए थे, इस नारे पर कि ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’। अभी तक यह पता तो नहीं चला है कि किसी नेता ने कुछ खाया है या नहीं लेकिन यह तो पक्का हो गया है कि उन्होंने जमकर खाने दिया है। पिछले चार साल में यह भाजपा सरकार क्या करती रही ? यदि बैंकों के अफसरों और आडिटरों का इस लूटपाट में सीधा हिस्सा था और मान लें कि ये बैंकें स्वायत्त हैं तो भी रिजर्व बैंक तो सरकारी है या नहीं ? क्या सबसे ज्यादा जिम्मेदारी उसकी नहीं है ? उसके आडिटर क्या करते रहे ? हो सकता है कि इस लूटपाट में वे शामिल न हों लेकिन क्या किसी चौकीदार को इसलिए माफ किया जा सकता है कि उसने चोरी नहीं की है ? चौकीदार की नियुक्ति किसलिए की जाती है ? चोरी न करने के लिए या चोरों को पकड़ने के लिए ?
इसमें शक नहीं कि नीरव मोदी और विक्रम कोठारी के विरुद्ध सरकार इस समय कठोर कदम उठाती हुई दिख रही है लेकिन आश्चर्य है कि माल्या की तरह नीरव भी विदेशों में मस्ती छान रहा है। ललित मोदी भी ! कैसा है, यह अंतरराष्ट्रीय कानून और कैसी है, यह हमारी विदेश नीति ? इन अपराधियों ने जिन देशों में शरण ले रखी है, उनसे हमारी सरकार दृढ़तापूर्वक पेश क्यों नहीं आती ? इन अपराधियों ने सिर्फ हमारी बैंकों को ही नहीं लूटा है, ये काले धन के सबसे मोटे अजगर हैं। हीरे का व्यापार प्रायः नकद पर ही चलता है। इन हीरा व्यापारियों ने नोटबंदी की धज्जियां उड़ा दी है। यह सरकार सारे भ्रष्टचार के लिए पिछली कांग्रेस सरकार को दोषी ठहराती है। उसका दोष तो है जरुर, लेकिन पिछले चार साल में यह लूट-पाट चौगुनी हो गई है, उसके लिए कौन दोषी है ?
इस सरकार में दम होता तो पहले से चले आ रहे भ्रष्टाचार का दम टूट जाता लेकिन मज़ा देखिए कि विदेश में बैठा नीरव मोदी पंजाब नेशनल बैंक को नसीहत दे रहा है। वह कह रहा है कि तुमने हमारे हीरे-जवाहरात जब्त करवाकर हमें बदनाम कर दिया है। अब हम तुम्हारा कर्ज क्यों चुकाएंगे, कैसे चुकाएंगे ? उल्टा चोर कोतवाल को डांटे। पिछले चार साल में हमारी सरकार को पता ही नहीं चला कि हमारी बैंकिंग व्यवस्था कितनी भ्रष्ट हो गई है ! रिजर्व बैंक की एक रपट में कहा गया है कि हर चार घंटे में एक बैंक कर्मचारी धांधलेबाजी में पकड़ा जाता है। किसी भी व्यक्ति को कर्ज देते समय हर बैंक कम से कम चार जगह जांच करता है लेकिन अरबों-खरबों रु. के कर्जे हमारी बैंकों ने बिना किसी जांच या बिना किसी रेहन के ही लोगों को पकड़ा दिए।
असली सवाल यह है कि बैंकों में जमा यह पैसा किसका है ? क्या यह पैसा पूंजीपतियों का है, उद्योगपतियों का है, व्यवसायियों का है ? नहीं। वे अपने पैसों को बैंकों में पटककर क्यों रखेंगे ? वे पैसे से पैसा कमाते हैं। वे अपने पैसे को सोने नहीं देते। उसे वे दौड़ाते रहते हैं । वह पैसा होता है, मध्यम वर्ग का, नौकरीपेशा लोगों का, छोटे व्यापारियों का, किसानों का, मजदूरों का ! वह पैसा खून-पसीने की कमाई का होता है।
उसकी लूटपाठ करके ही पूंजीपति और नेता अपनी तिजोरियां भरते हैं। यही पैसा टैक्स की तौर पर सरकार की जेब में जाता रहता है। अब इन बैंकों को बचाने के लिए सरकार दो लाख करोड़ से भी ज्यादा रुपया देने को तैयार है। सरकार से कोई पूछे कि यह किसका पैसा है और इससे आप किसको बचाने की कोशिश कर रहे हैं ? उस किसान को नहीं, जो लाख-दो लाख रु. के कर्ज को चुकाने की असमर्थता के कारण आत्महत्या कर लेता है बल्कि उस आदमी को, जो सारा पैसा खा जाता है और फिर गुर्राता है।
दोष उसका जरुर है, जो खाता है और गुर्राता है लेकिन उससे भी ज्यादा उनका है, जो रिश्वत या राजनीतिक दबाव के चलते इन अपराधियों को प्रोत्साहित करते हैं या उनकी अनदेखी करते हैं। इस धांधलेबाजी पर रोक इससे नहीं लगनेवाली है कि सारे बैंकों का निजीकरण कर दिया जाए। क्या निजी बैंकों में धोखाधड़ी नहीं होती ? जरुरी यह है कि बैकिंग के नियमों को कठोरतापूर्वक लागू किया जाए। जो भी बैंक अधिकारी उनका उल्लंघन करें, उन्हें कड़ी सजा दी जाए और यदि उन्होंने रिश्वत खाई हो तो उनकी सारी संपत्ति जब्त कर ली जाए। इसी प्रकार धोखाधड़ी करनेवाले लोगों को जन्म कैद या फांसी की सजा दी जाए और उनकी व उनके नजदीकी रिश्तेदारों की भी सारी संपत्ति जब्त कर ली जाए। संसद को चाहिए कि इस संबंध में वह कठोर कानून बनाए। कोई आश्चर्य नहीं कि समुचित और त्वरित कार्रवाई के अभाव में ये वर्तमान अपराधी भी बोफोर्स और 2जी मामलों की तरह छूट जाएं।
सवाल रोटी का……! उलझी है सारी दुनिया, रोटी के जाल में.?
ओमप्रकाश मेहता
आज कितनी विकट स्थिति है, जो किसान अन्न पैदा कर हमें रोटी मुहैया कराता है, वह आत्महत्या को मजबूर है और जो रोटी हमें उपलब्ध हो रही है उसका चालीस प्रतिशत भाग हम बर्बाद कर रहे है, अर्थात जो जीवनरक्षक वस्तु हमें बड़ी मेहनत के बाद हासिल हो रही है, उसकी भी कद्र हम नहीं जान पा रहे है, शायद इसी कारण विश्व में भारत सौवां सबसे भूखा देश है और इससे यह स्पष्ट होता है कि हमारी खाद्यनीति और हर एक को रोटी देने का नारा कितना बेदम है।
हाल ही में हंगर इण्डेक्स और संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी किए गए आंकड़ों से यह स्पष्ट हुआ है कि भूखे देशों के इण्डेक्स में हम पिछले वर्ष के 97वें स्थान से लुड़ककर सौवें स्थान पर आ गए है, इसके बावजूद हम अपने खाने का चालीस प्रतिशत भाग बर्बाद कर रहे है, इधर इण्टरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि देश के बच्चों में कुपोषण की उच्च दर से भारत में भूख का स्तर बेहद ही गंभीर है। साथ ही इसे भी दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि गरीबी और भूखमरी दो ऐसी चीजे है जिसका भारत सरकार कभी सटीक आंकड़े पेश नहीं कर पाई, फिर वह चाहे जानबूझकर छुपाए गए हो या और कोई कारण रहा हो, किंतु इन दोनों समस्याओं के वास्तविक आंकड़े आज तक सामने नहीं आ पाए। आखिरी बार योजना आयोग ने जून, 2014 में गरीबी का आंकड़ा जारी किया था, किंतु नीति आयोग बनने के बाद कोई ऐसा आंकड़ा जारी नहीं किया गया है, कुछ दिन पहले तेंदुलकर कमेटी ने इस पर रिपोर्ट जारी की, किंतु इसके आंकड़े भी योजना आयोग के ही समय के है, आश्चर्य और विस्मय की बात तो यह है कि आज भी देश में 1960 के फार्मूले से ही गरीबी परिभाषित हो रही है वहीं भूखमरी का आंकड़ा आजादी के बाद से ही अब तक जारी नहीं हुआ है, ग्लोबल हंगर इण्डेक्स के मुताबिक भारत में भूख गंभीर समस्या है, देश में उत्तर कोरिया और बांग्लादेश से भी अधिक भूखमरी है। इस रिपोर्ट को नीति आयोग ने खिलाफत की थी। यदि हमारे पड़ौसी देश पाकिस्तान की भूखमरी की बात करें तो वह इस इण्डेक्स में हमसे भी नीचे है। लेकिन सोचने समझने वाली बात यह है कि एक ओर जहां भारत भूख की गंभीर समस्या से जूझ रहा है, वहीं दूसरी ओर देश में बड़े पैमाने पर खाने की बर्बादी हो रही है, और यही भूखमरी का अहम्् कारण है, भारत में जो 40 फीसदी खाना बर्बाद किया जा रहा है, उसकी कीमत पचास हजार करोड़ के आसपास आंकी गई है।
एक ओर जहां विश्व के 119 देश भीषण भूखमरी से जूझ रहे है, वहीं संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2030 याने आज से बारह वर्ष बाद तक पूरे विश्व को भूखमरी से मुक्त कराने का लक्ष्य रखा है, 31.4 अंकों के साथ भारत का 2017 का जीएचआई (वैश्विक भूख सूचकांक) काफी ऊँचा है और इसी कारण विश्व में दक्षिण एशिया भूखमरी की दृष्टि से सबसे बदत्तर क्षेत्र मान लिया गया है और इसमें भी पाकिस्तान और भारत की स्थिति ज्यादा ही बदत्तर है। पिछले वर्ष के आंकड़ों के मुकाबले भारत की स्थिति तीन पायदान नीचे आ गई, वहीं पाकिस्तान अपनी पूर्व स्थिति से एक पायदान ऊपर आ गया है, पाकिस्तान इस वर्ष 106 वें पायदान पर है, रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 39 फीसदी बच्चे अविकसित है, जबकि आबादी का 15.2 प्रतिशत हिस्सा कुपोषण का शिकार है, इस सूचकांक में भारत का स्कोर 28.5 है, जो विकासशील देशों की तुलना में काफी अधिक है, सूचकांक में विकासशील देशों का औसत स्कोर 21.3 है। भारत के दूसरे पड़ौसी देशों की स्थिति बेहतर है, जो इस इण्डेक्स में भारत से ऊपर है, मिसाल के तौर पर नेपाल 72वें क्रम पर है, जबकि म्यांमार 75वें, श्रीलंका 84वें और बांग्लादेश 90वें क्रम पर है।
इस प्रकार ग्लोबल हंगर इण्डेक्स ने यह स्पष्ट कर दिया कि गरीबी भूखमरी हटाने के हमारे राजनीतिक नारे कितने खोखले और झूठे है, आज हमारे आधुनिक भाग्यविधाता जो संसद या सरकार में विराजित है, वे नाम मात्र के मूल्य में संसद के भोजनालय में भोजन प्राप्त कर लेते है और अपनी तोंद पर हाथ फैरते हुए संसद में फिर भूखमरी पर चर्चा करने को तैयार हो जाते है, किंतु देश का जो गरीब वर्ग है, जो जी-तोड़ मेहनत के बाद भी दो जून की रोटी से मोहताज है, उसकी चिंता किसी को भी नहीं है, न रोटी से वंचितों की और न रोटी पैदा करने वालों की? अब तो देश में एक ही मालवी कहावत चरितार्थ होती दिख रही है- ”रांडे रोती रहती है, पामणे जीमते रहे है“
कृषि का गौरव बहाल करने की जिद में किसान पुत्र
भरतचंद्र नायक
भारत कृषि प्रधान देश है। किसान अन्नदाता है। ऐसा कहकर हम उल्लासित हो जाते हैं, लेकिन वास्तव में आर्थिक उदारीकरण के युग में ये जुमले हास्यास्पद बन चुके हैं। क्योंकि खेती की लागत बढ़ने से कृषि कर्म घाटे का सौदा हो चुका है। किसानों का दर्द एक दूसरे पर जवाबदेही थोपने के लिए इस्तेमाल करने का जरिया बन चुका है। कारण स्पष्ट है कि गांवों से भारत की आत्मा विदा ले चुकी है और किसान द्वारा उठाये जा रहे सवालों का रचनात्मक उत्तर खोजने के बजाय राज्य सरकारें इसे कानून व्यवस्था का प्रश्न मानने के लिए विवश हैं। नब्बे के दशक में देश में राजनैतिक परिवर्तन के साथ सेाच में बदलाव तब देखने को मिला जब केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिका गठनबंधन की सरकार अटल जी के नेतृत्व में बनी और उन्होंने किसान की पीड़ा का अहसास करते हुए किसान के कर्ज पर लगने वाले ब्याज को घटाने की पहल की। तत्कालीन कृषि मंत्री श्री राजनाथ सिंह ने ब्याज दर घटाने का सिलसिला आरंभ किया। बहुत कुछ कर पाते कि 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए प्रथम अवतीर्ण हो गई और यह सिलसिला थम सा गया।
हर परिवर्तन के लिए एक नायक चाहिए जो निमित्त बनता है। किसान पुत्र राजनेता श्री शिवराज सिंह चैहान ने मध्यप्रदेश में एक नई कृषि क्रांति को जन्म देने का बीडा उठा लिया और मुख्यमंत्री निवास पर किसानों की पंचायत बुलाकर किसानोन्मुखी नीतियों का ताना-बाना बुनना शुरू कर दिया। कृषि कार्य की लागत घटाने का उपक्रम आरंभ हुआ। सात, पांच प्रतिशत से जब बात एक प्रतिशत ब्याज पर आई तो श्री शिवराज सिंह चैहान ने ऐलान कर दिया कि यदि किसान को जीरो प्रतिशत ब्याज पर कर्ज दिया जाता है तो यह किसान के साथ अहसान नहीं। किसान से ऋण मुक्त होना ही होगा। सरकार ही नहीं समूचा समाज अन्नदाता का ऋणी है। उससे ब्याज वसूलना उसके कर्ज से बोझिल होते जाता है। तमाम अर्थशास्त्रियों, प्रशासकों ने विरोध किया, लेकिन मुख्यमंत्री ने किसानों के लिए खजाना खोलकर चाबी भी उन्हें सौंपते हुए कहा कि राज्य सरकार खाद बीज के लिए दिए गये कर्ज का मूलधन घोटाले पर भी उन्हें 10 प्रतिशत की छूट देगी। किसान कर्ज में पैदा होता है, जीता है और कर्जदार ही मृत्यु का वरण करता है। इस नियति को बदलना ही श्री शिवराज सिंह चैहान का जज्बा और जुनून बन गया।
तथाकथित कृषि प्रधान देश में काश्तकारों की दयनीय दशा का राजनैतिक दलों ने जिक्र खूब किया। फिक्र भी सार्वजनिक मंचों से प्रदर्शित की। लेकिन ढाक के तीन पात जस के तस रहे। भारतीय जनता पार्टी की सरकार दिल्ली में बनी तो प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने जरूर कृषि की आय दोगुना करने की प्रतिबद्धता पर काम शुरू किया। लेकिन इसकी सीमा है, क्योंकि कृषि मुख्य रूप से राज्यों का विषय है। तथापि मोदी की पहल को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है। उन्होंने प्रधानमंत्री फसल बीमा का किसानों को कवच दिया। सिंचाई का बंदोबस्त आंरभ किया और विपणन व्यवस्था को सरल प्रभावी बनाने का प्रयास आरंभ किया।
मध्यप्रदेश इस दिशा में किसान की नियति बदलने की दिशा में अगर अग्रणी राज्य बनने का गौरव प्राप्त कर सका है तेा इसका श्रेय श्री शिवराज सिंह चैहान को ही जाता है जिन्होंने हर झंझाबात के समय किसान की पतवार संभाली और तूफान से लड़ने का हौसला दिखाया। जीरो प्रतिशत ब्याज पर किसान ने कर्ज लिया लेकिन निर्धारित अवधि में कर्ज न चुका पाना उसके लिए व्याधि साबित हुई और उसकी के्रडिट वर्दीनेस चुकी गई। किसान पुत्र मुख्यमंत्री ने यहाॅ भी उसे सहारा देने के लिए मुख्यमंत्री समाधान योजना ईजाद करके ब्याज का भार सरकार से बहन किये जाने के आदेश पारित कर दिये। डिफाल्टर किसान को फिर शून्य प्रतिशत ब्याज पर कर्ज की पात्रता बहाल करने का जतन हुआ। किसानों के मुरझाये चेहरे पर मुस्कार बिखरने का काम मध्यप्रदेश सरकार ने किया है और यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि देश और दुनिया में किसान परस्त सरकार के रूप में मध्यप्रदेश बेजोड़ राज्य साबित हुआ है। यह बात अलहदा है कि छिद्रान्वेषण में हमे इसमें भी स्वामी नजर आने लगी। आरोप लगाना आसान है। लेकिन वह आरोप और आपत्ति असरकारक होती जो रचनात्मक समाधान की राह बनती है। लेकिन ऐसा फिलहाल किसी राजनैतिक दल ने सकारात्मक सोच का परिचय नहीं दिया। राजनैतिक प्रतिस्पर्धा अच्छी चीज है लेकिन उसकी दिशा सकारात्मक होना चाहिए। आर्थिक मंदी के दौर में जिन्सों के भाव गिरना किसानों के लिए कोढ़ में खाज साबित होता है। किसान के साथ विरोधाभास जुड़ा है। अच्छी फसल आने पर भाव गिर जाते हैं। सूखा पड़ने पर लागत का टोटा होता है। ऐसे में जब कृषि उत्पाद के भाव गिरे मध्यप्रदेश सरकार किसान के हित में भावान्तर भुगतान लेकर किसान के पीछे चट्टान की तरह खड़ी हुई। श्री शिवराज सिंह चैहान ने छाती ठोककर मुख्यमंत्री भावांतर योजना के साथ ऐलान किया कि जिन्स का न्यूनतम मूल्य और बाजार के माॅडल रेट में जो अंतर आयेगा राज्य सरकार बहन करेगी और मुख्यमंत्री भावान्तर भुगतान योजना में अंतर राशि का भुगतान किसान के बैंक खाते में दिया जायेगा। एक क्लिक में ऐसा करके दिखा दिया गया। किसान की नियति को जहाॅ अन्य सरकारों ने व्यवस्था का प्रश्न बनाकर किसानांे का दमन किया श्री शिवराजसिंह चैहान के नेतृत्व में मध्यप्रदेश सरकार ने किसानों के घावों पर मरहम लगाया और भविष्य के लिये आश्वस्त किया कि भाजपा सरकार किसानांे, गांव गरीब, मजदूर के साथ सुखदुख में साथ खड़ी है। मुख्यमंत्री की यह संवेदना ही शिवराज को मुख्यमंत्री कम प्रदेश के प्रथम सेवक के रूप में स्थापित करती है।
पिछले तेरह चैदह वर्षों का लेखा जोखा यदि ईमानदारी से किया जाये तो महसूस किया जायेगा कि मुख्यमंत्री ने कुछ अवधारणाओं को बदलने की कोशिश की है। माना जाने लगा है कि सत्ता, अर्थव्यवस्था सभी कुछ का केंद्र शहर हो चुका है। किसान अलवत्ता गांव में रहता है जहां से भारत की आत्मा विदा ले चुकी है। इस अवधारणा को बदलने की जो कोशिश शिवराज सिंह चैहान ने की है वह वास्तव में स्तुत्य है।
राजकाज व्यवस्था से चलते हैं और व्यवस्था कानून से चलती है लेकिन कानून जनता के लिऐ होते है जनता कानून के लिए नहीं होती। इस तर्क केा शिवराज ने नियमों, कानूनों में संशोधन करके साबित कर दिया है। उन्होंने प्रदेश के अवाम से रागात्मक संबंध जोड़ कर साबित किया है कि मुख्यमंत्री के पहले वे जनता के प्रथम सेवक, बहनों के भाई, बालक-बालिकाओं के मामा और बड़े भाई हैं। बुजुर्गोंं के श्रवण हैं। जब गांव और शहर में जनता के बीच पहुंचते हैं, किशोरों, युवकों का सेलाब उमड़ता है और शिवराज के संबोधन में मामा-मामा की पुकार वातावरण को आत्मीयता घोल देती है। बेटी बचाओं-बेटी पढाओं मुहिम देश में बाद में प्रांरभ हुई इसके पहले उन्होंने लाडली लक्ष्मी योजना आरंभ कर पुत्री जन्म को परिवार के लिए वरदान बना दिया। इसी तरह एक ओर जहाॅ कोशल विकास अभियान को जनपदीय अंचल तक पहुंचाकर सबकों को स्किल्ड बना दिया वहीं उन्हें उद्यमिता से जोड़ने के लिए मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना में लाखों से करोड़ रू. तक का कर्ज सरकार की गारन्टी पर सुलभ करा दिया। प्रदेश में युवा वर्ग अपनी ऊर्जा को बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित हुआ है श्री शिवराज सिंह चैहान ने उनका हौसला बढ़ाने और गरीब अमीर की मानसिकता समाप्त करने के लिए मुख्मयंत्री मेधावी छात्र योजना आरंभ करके 70 प्रतिशत अंक बारहवी कक्षा में लाने वाले छात्र छात्राओं के लिए देश के सरकारी, निजी आईआईटी, आईआईएम, मेडीकल, इंजीनियरिंग जैसे कालेजों में प्रवेश और अध्ययन के द्वार खोल दिये हैं। सरकार उनके प्रवेश शुल्क से लेकर पाठ्यक्रम के अंतिम वर्ष तक का शुल्क वहन कर रही है।
स्वर्णिम मध्यप्रदेश का निर्माण मध्यप्रदेश सरकार की कल्पना नहीं प्रतिबद्धता बन चुकी है। नगरों से लेकर ग्रामों में स्मार्ट बनने की लालसा उनकी प्रेरणा का फल है। भविष्य के प्रति आश्वस्ति। कुछ राजनैतिक विशेषज्ञ पिछले दिनों प्रदेश में राजनैतिक स्थिरता का श्रेय शिवराज को देकर संतुष्ट हो जाते हैं। लेकिन इतना पर्याप्त नहीं है। शिवराज ने नया सोच देकर दूर दृष्टि का परिचय दिया है। दुनिया का बदलता मौसम चिंता का विषय है। कृषि विज्ञानी, स्वामीनाथन का कहना है कि यदि एक सेल्सियस तापमान बढ़ता है तो गेहूॅ का उत्पादन 70 लाख टन घट जायेगा। वैज्ञानिकों का मत है कि यदि 2100 तक धरती का तापमान बढ़ने से नहीं रोका गया तो कृषि बर्बाद हो जायेगी। श्री शिवराज सिंह चैहान ने प्रदेश में नर्मदा कछार में वर्ष 2017-18 में 6 करोड़ पौधे लगाकर सिर्फ रिकार्ड नहीं बनाया मौसम की क्रूरता के विरूद्ध हरीतिमा का कवच बनाने की अवधारणा सौंपी है। यह अवधारणा समाज के लिए विरासत बनती है तो दुनिया के लिए एक सबक भी बनेगी। एलईडी बल्ब को लोकप्रिय बनाकर कार्बन उत्सर्जन को रोकने की मुहिम छेड़ी है। मध्यप्रदेश में गत चैदह वर्ष का कार्यकाल उम्मीदो का आईना है लेकिन इसे देखने के लिए विमल विवेक की अपेक्षा युग बोध बनना चाहिए।
सेना प्रमुख, घुसपैठिये और एआइयूडीएफ
डॉ. मयंक चतुर्वेदी
सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने असम में बांग्लादेशियों की घुसपैठ और बदरुद्दीन अजमल की पार्टी एआईयूडीएफ के उभार पर जो कहा, उसे लेकर आरोप-प्रत्यारोपों का दौर शुरू हो गया है। आश्चर्य है कि जनरल रावत की कही गई सही बात के भी गलत अर्थ निकाले जा रहे हैं। वस्तुत: उन्होंने नॉर्थ-ईस्ट पर आयोजित सेमिनार में यही कहा था कि देश के उत्तर पूर्व में
बाहर से आयी अवैध आबादी के पीछे पाकिस्तान का हाथ है। चीन की मदद से पाकिस्तान अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों को भारत भेज रहा है। ये प्रॉक्सी युद्ध की तरह है, जहां पाकिस्तान और चीन चाहते हैं कि इस इलाके में लगातार तनाव बना रहे। पड़ोसी ये गेम अच्छी तरह खेल रहा है। इस इलाके को अशांत रखने के लिए अवैध आबादी भेजी जा रही है। वे परोक्ष युद्ध के जरिये इस क्षेत्र पर नियंत्रण का प्रयास करते रहेंगे। इससे उनको पारंपरिक युद्ध भी नहीं लड़ना होगा। इसके अतिरिक्त नॉर्थ-ईस्ट की आबादी में छेड़छाड़ पर उन्होंने कहा कि पिछले कई साल में बीजेपी ने जिस तेजी से विकास किया, उससे कई गुना ज्यादा तेजी से एआईयूडीएफ यहां फैली है। अगर हम जनसंघ और उसके दो सांसदों वाली पार्टी की तुलना असम में एआइयूडीएफ से करें तो पाएंगे कि ये उनसे ज्यादा तेजी से बढ़ रहे हैं, जो चिंता की बात है । इस तरह से जनरल की कही गई
समस्त बातों में देश की सीमाओं को लेकर चिंता साफ झलक रही है। साथ में यह भी कि लोकतंत्र व्यवस्था में किस तरह के खतरे होते हैं, जिनसे हमें आक्रामक होकर ही लड़ना चाहिए।
क्या आज कोई इस बात से इनकार कर सकता है कि ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआइयूडीएफ) मुस्लिमों के पैरोकार के रूप में 2005 में बनी एक राजनीतिक पार्टी है? संयोग से इसी वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने विवादास्पद अवैध अप्रवासी कानून (आइएमडीटी) को रद्द कर दिया था। स्वयं अप्रवासी मुसलमान भी मानते हैं कि केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार का
बनाया गया यह कानून उन्हें उत्पीड़न से बचाने वाला था। इसी से बदरुद्दीन अजमल को बांग्लादेशी घुसपैठियों के हक में खड़े होने का मौका मिल गया। जिसके परिणामस्वरूप 2006 के विधानसभा चुनाव में एआइयूडीएफ को 10 सीटें मिली, 2011 में उसने बांग्लाभाषी मुस्लिम बहुल निर्वाचन क्षेत्रों में 18 सीटें प्राप्त की। 2014 के लोकसभा चुनाव में उसने तीन सीटें जीतीं और 24विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त कायम किया। फिर विधानसभा चुनाव में भी वो 13सीट जीतने में कामयाब रहा। प्रश्न यह है कि क्या इस पार्टी ने भारतीय मुसलमानों की दम पर अपनी जीत सुनिश्चित की। उत्तर है, नहीं। यह बात साफ है कि ये राजनीतिक पार्टी बांग्लादेशी घुसपैठियों द्वारा गलत तरीके से बनवाये गये वोटर आईडी की दम पर ही आज असम का प्रमुख विपक्षी दल बन सकी है।
देश का वर्तमान सच यही है कि पूर्वोत्तर राज्यों की सीमाओं पर पर्याप्त चौकसी का अभाव अभी भी बना हुआ है, जिसके कारण बांग्लादेशी घुसपैठिए असम,त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल और बिहार तक ही नहीं, बल्कि राजधानी दिल्ली के अलावा कई अन्य प्रमुख शहरों तक पहुंच गए हैं। अनुमान है कि पूरे देश में इन बांग्लादेशी घुसपैठियों की संख्या तीन करोड़ से ज्यादा हो चुकी है। इस घुसपैठ के कारण सीमावर्ती जिले मुस्लिम बहुल हो गये हैं और जनसंख्या संतुलन बिगड़ गया है। इस संदर्भ में असम के पूर्व राज्यपाल अजय सिंह द्वारा केंद्र को सौंपी गयी रिपोर्ट को भी देखा जा सकता है। इसके आंकड़े साफ कहते हैं प्रतिदिन छह हजार बांग्लादेशी भारत की सीमा में घुसपैठ करते हैं। इस बात का प्रमाण संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में भी है।
वस्तुत: इस घुसपैठ की भयावहता इससे भी समझ आती है कि छत्तीसगढ, पंजाब,हरियाणा, दिल्ली, उत्तराखण्ड, तेलंगाना, जम्मू–कश्मीर, हिमाचल देश, झारखण्ड, केरल, असम राज्य एकल एवं सयुक्त रूप से तथा छोटे राज्यों में त्रिपुरा, मेघालय, मणिपुर, नागालैण्ड, गोआ जैसे कई राज्यों की कुल जनसंख्या से अधिक आज अवैध बांग्लादेशी भारत में घुस आए
हैं। आप अनुमान लगा सकते हैं कि एक राज्य के विकास एवं संसाधन एकत्र करने में कितना परिश्रम राज्य सरकार एवं केंद्र को करना पड़ता है, तब इन घुसपैठियों पर भारत का कितना अधिक संधाधन प्रतिदिन व्यय हो रहा होगा ?
इन घुसपैठियों की कुल संख्या के अंतर को आज देशों की समुची आबादी से भी जोड़कर देखा जा सकता है। अरुणाचल प्रदेश की जनसंख्या मॉरीशस के बराबर है,छत्तीसगढ़ की नेपाल के, दिल्ली की जनसंख्या बेलारूस के, गोवा की
एस्टोनिया के तथा हरियाणा की जनसंख्या यमन के बराबर है। इसी तरह से हिमाचल प्रदेश की जनसंख्या हांगकांग और जम्मू-कश्मीर की जिम्बाब्वे,झारखंड की जनसंख्या इराक के समान व केरल की कनाडा, मणिपुर की मंगोलिया,पंजाब की मलेशिया तथा सिक्किम की जनसंख्या ब्रिटेन एवं उत्तराखंड की जनसंख्या पुर्तगाल के बराबर है। इस तरह से जो कई देशों की कुल जनसंख्या है और कई छोटे देशों को मिलाकर जो जनसंख्या हमारे राज्यों की है, उससे अधिक आज भारत में इन बंग्लादेशी घुसपैठिए मुस्लिमों की जनसंख्या है। वास्तव में यह अवैध आबादी देश के संसाधनों का ही उपयोग नहीं कर रही
बल्कि इन घुसपैठियों में से अधिकांश चोरी, लूटपाट, डकैती, हथियार एवं पशु तस्करी, जाली नोट एवं नशीली दवाओं के कारोबार जैसी आपराधिक गतिविधियों में शामिल पाए जाते रहे हैं। इसके अलावा बांग्लादेशी घुसपैठ एक हथियार के
रूप में उभरकर आतंकवादी संगठनों एवं पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई की गतिविधियों से जुड़ी पाई जाकर देश की सुरक्षा के समक्ष खतरा पैदा करती रही है।
वर्तमान में बांग्लादेशी यहां अवैध रूप से राशन कार्ड और मतदाता पहचान-पत्र बनाकर कई विधानसभा और लोकसभा क्षेत्रों में निर्णायक की भूमिका निभा रहे हैं। इससे संबंधित जो आंकड़े हैं, वे बताते हैं कि किस तरह से पश्चिम बंगाल के 52 विधानसभा क्षेत्रों में 80 लाख और बिहार के 35विधानसभा क्षेत्रों में 20 लाख बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं। भारत अन्य देशों के टार्गेट में कैसे है इसका अंदाज इससे भी मिलता है कि ब्रिटेन पूर्वोत्तर क्षेत्र को मिनी इंग्लैंड बनाना चाहता है। चीन यहां अपना
नियंत्रण चाहता है तो बांग्लादेश यहां अपने प्रभाव का विस्तार कर इसे ग्रेटर बांग्लादेश बनाना चाहता है। इसलिए सेना प्रमुख रावत जो कह रहे हैं वह सही है और उनकी समस्त चिंताएं वाजिब हैं।अत: इस पर बेकार में बहस करने का कोई औचित्य नहीं, बल्कि समस्या के समाधान के लिए देश में माहौल बनना चाहिए और देश में कसी भी तरह की घुसपैठ के खिलाफ सामूहिक प्रयास होने आरंभ हो जाने चाहिए। वस्तुत: तभी आर्मी प्रमुख की कही बातों का कोई मतलब है।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार न्यूज एजेंसी के एमपी ब्यूरो प्रमुख एवं
फिल्म सेंसर बोर्ड एडवाइजरी कमेटी के पूर्व सदस्य हैं)
मप्र भाजपा सरकार – कन्याओं को उपहार
(14 दिसंबर – मुख्यमंत्री का महिला सुरक्षा क़ानून हेतु सम्मान पर विशेष)
-प्रवीण गुगनानी
भारतीय संस्कृति के मूलाधार वेदों में से अथर्व वेद में कहा गया है –
यत्र नार्यन्ति पूज्यन्ते – रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रफला: क्रिया।।
अर्थात जहां स्त्रियों का सम्मान होता है, केवल वहीँ देवी-देवता निवास करते हैं। जिन घरों में स्त्रियों का अपमान होता है, वहां सभी प्रकार की पूजा, अनुष्ठान आदि करने के बाद भी भगवान निवास नहीं करते हैं, और वहां दरिद्रता, विपन्नता व समस्याओं का चिर निवास हो जाता है। स्त्री विमर्श भारत की संस्कृति का एक मूल अंग रहा है। पश्चिम की तरह नारी विमर्श हमारे देश में एक अलग विचारधारा नहीं रही अपितु समग्र मानवीय विकास में हमने नारी को उच्चतम स्थान देकर अपनी विकास यात्रा की है। 1968 में फ्रांस के नारी मुक्ति आन्दोलन की प्रमुख व पश्चिमी नारी विमर्श की जनक सिमान द ब्वाँ ने नारी स्थिति पर कहा और सम्पूर्ण पश्चिम ने माना की “ नारी जन्म नहीं लेती बल्कि उसे नारी बना दिया जाता है”। इसके विपरीत भारत में माना जाता है कि “स्त्री न जन्म लेती है न उसे बनाया जाता है वह तो दैवीय रूप में प्रकट होती है”। हम नारी हेतु एक अलग-विलग प्रकार के पश्चिमी ढर्रे के नारी विमर्श की कल्पना नहीं करते हैं जो कि नारी विमर्श को शेष मानवीय विमर्श से अलग करके समाज में एक पृथक टापू का निर्माण करता है। हम समूची व समग्र मानवीयता में संवेदनशीलता, सर्वसमावेशी व सर्वकालिकता के गुण समावेशित करते रहते हैं, जिसमें स्त्री केन्द्रीय भाव में स्थापित रहती है। इसी यत्र नार्यन्ति पूज्यन्ते की दिशा में आगे बढ़ते हुए प्रदेश के मुखिया और प्रदेश भर की भांजियों के मूंहबोले मामा कहलाने वाले शिवराज सिंह ने अपने राज्य में महिला व कन्या केन्द्रित कई ऐसी योजनायें लागू की है जो कि देश-विदेश हेतु प्रेरणा का स्त्रोत बन गई है। लाड़ली लक्ष्मी योजना, मुख्यमंत्री कन्यादान योजना, गर्भवती माताओं- शिशुओं के टीकाकरण हेतु अनमोल एप्प, महिलाओं और बालिकाओं में कौशल विकास हेतु कौशल्या योजना, मेधावी लड़कियों को फ्री लैपटॉप और स्मार्टफोन वितरण, मप्र विधवा पुनर्विवाह योजना, विधवा महिलाओं के घर पुनः बसाने हेतु प्रतिभा किरण योजना, मेधावी छात्राओं के लिए मिशन इन्द्रधनुष जैसी कई अभिनव योजनायें मध्यप्रदेश ने लागू की है। नारी सुरक्षा, सरंक्षण, संवर्धन व उनके समुचित विकास हेतु मप्र में लाई गई योजनायें भारत के अन्य राज्यों में प्रेरणा, नवाचार व अनुकरण का विषय बन कर लागू हो रही है। निस्संदेह मप्र की यह महिला विषयक योजनायें संघ परिवार के नारी विमर्श का व वैचारिक मंथन का क्रियान्वयन ही है। मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह इन्हीं योजनाओं के दम पर ही प्रदेश भर की कन्याओं के प्रिय मामा बने हुए हैं। मध्यप्रदेश में कन्या सरंक्षण के वातावरण को और अधिक सुदृढ़ व सुनिश्चित करने हेतु मप्र ने एक कदम और बढ़ाया है जो निश्चित ही पुनः पुरे देश हेतु अनुकरणीय होगा। हाल ही में मप्र विधानसभा के शीतकालीन सत्र में 12 साल या उससे कम उम्र की लड़कियों से बलात्कार या किसी भी उम्र की महिला से गैंग रैप के दोषी को फांसी की सजा देने को मंजूरी दे दी है। मप्र इस दिशा में इस क़ानून को अपनी विस सर्वसम्मति से पारित कराकर देश का अग्रणी व प्रथम राज्य बन गया है। मुख्यमंत्री शिवराज ने इस संदर्भ में सामाजिक स्तर पर एक नैतिक आन्दोलन चलाने की पहल भी की है। स्वाभाविक ही है कि मप्र सरकार की मंशा के अनुरूप समाज भी महिला सुरक्षा हेतु समाज जागरण कार्य करेगा तब ही ये योजनायें सफल हो पाएंगी।
मप्र सरकार द्वारा चलाई गई महिला व कन्या केन्द्रित योजनाओं के सतत चक्र का ही परिणाम है कि मप्र में कन्या शिक्षा का स्तर आश्चर्यजनक रूप से ऊपर आ गया है। स्कूली शिक्षा में जहां भांजियां मामा की साइकिल योजना का लाभ उठाकर स्कूल जाने को रिकार्ड स्तर पर उद्धृत हो रही हैं वहीँ तकनीकी शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी प्रदेश में रिकार्ड स्तर पर आ गई है। महिलाओं को विशेष अवसर प्रदान करते हुए प्रदेश सरकार ने प्रदेश के 38 पॉलीटेक्निक महाविद्यालयों में 50 सीटर महिला छात्रावास स्थापित किये हैं। इन योजनाओं से महिला शिक्षा के क्षेत्र में म.प्र. आनुपातिक रूप से अव्वल राज्य बन गया है।
केवल देश में ही नहीं विदेशों में भी और पाकिस्तान जैसे परम्परागत आलोचक राष्ट्र पाकिस्तान में भी शिवराज की योजनाओं को उदाहरण के रूप में लिया जा रहा है। पाकिस्तान के जाने-माने मीडिया समूह डान से जुड़ी पत्रकार सोफिया जमाल ने चौहान के नेतृत्व में बेटी बचाओ व लाड़ली लक्ष्मी योजना के अभियान को एक बेहद महत्वाकांक्षी अभियान कहते हुए इसे महिला अधिकारों की दिशा में मील का पत्थर की संज्ञा दी थी। इसी क्रम में संयुक्त राष्ट्र की सहयोगी संस्था यूनिसेफ ने भी इस “बेटी बचाओ” योजना के विषय में प्रशंसा व्यक्त की है। इस अभियान के विषय में यूनिसेफ के स्टेट हेड श्री एडवर्ड बिडर ने इसे सम्पूर्ण विश्व के लिए सीख लेनें और महिला अधिकारों की स्थापना के अभियान का अनिवार्य भाग बताया था।
महिला सुरक्षा विषय में देश भर में अग्रणी राज्य बनने पर बढ़िया शिवराज जी और मप्र सरकार।
अब नेपाल खुद एक चुनौती है
(डॉ. वेदप्रताप वैदिक)
नेपाल में एकीकृत माओवादी-लेनिनवादी पार्टी और प्रचंड की माओवादी पार्टी ने मिलकर चुनाव में पूर्ण विजय प्राप्त कर ली है। उन्हें स्पष्ट बहुमत ही नहीं, प्रचंड बहुमत मिल रहा है। यों तो अस्पष्ट बहुमत तथा कुछ अन्य कारणों के कारण नेपाल में पिछले 10-11 साल में दस सरकारें बदल गईं याने एक साल में एक सरकार आखिर क्या चमत्कार कर सकती थी। इस बीच भयंकर भूकंप ने हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया और लाखों लोगों को बेघर कर दिया। नेपाल की अर्थ-व्यवस्था चरमरा गई। अब आशा बनी है कि यह सरकार अपनी पूरी अवधि तक नेपाली जनता की सेवा करेगी। यह दो वामपंथी दलों की गठबंधन सरकार है। इसमें सैद्धांतिक से ज्यादा व्यक्तिगत मतभेदों की गुंजाइश अधिक है लेकिन नेपाली राष्ट्रहित संपादित करने की उत्कट इच्छा इन दोनों दलों को जोड़े रखेगी। यहां चिंता का विषय यही है कि भारत के साथ अब नेपाल के संबंध कैसे रहेंगे। एमाले के नेता के.पी. ओली और माओवादी नेता पुष्पकमल दहल प्रचंड, दोनों के प्रधानमंत्रित्व के दौरान नेपाल-चीन प्रेमालाप चरमोत्कर्ष पर था। नेपाल में प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत न आकर, पहले पहल कोई चीन जाए, ऐसा पहली बार ही हुआ है। 2015 में आए भूकंप के दौरान भारत ने नेपाल की जो जबर्दस्त सहायता आनन-फानन की थी, उसके कारण नेपाल में भारत-प्रेम की जो धारा बही थी, उसे हमारी सरकार ने नेपाल की नाकेबंदी करके चूर-चूर कर दिया। नेपाल अब पता नहीं, चीन के कितने निकट चला जाएगा। चीन अब नेपाल में रेल भी बिछा रहा है और उसने उसे अपने बंदरगाहों की सुविधा भी दे दी हैं। विभिन्न परियोजनाओं के लिए वहां वह लाखों-करोड़ों डाॅलर भी उंडेल रहा है। नेपाल ने चीन की एशियाई महापथ योजना में सक्रिय भागीदारी का वादा भी किया है। नेपाल-चीन व्यापार में भी अपूर्व वृद्धि होने की संभावना है। अब तक नेपाल अपनो पेट्रोल-डीजल आदि के लिए पूरी तरह भारत पर निर्भर था। अब चीन से भी सप्लाय आने लगेगी। भारत के लिए अब एक चुनौती यह भी होगी कि मधेसियों और जनजातियों को न्याय मिले। मोदी की पड़ौसी-नीति की दृष्टि से अब स्वयं नेपाल ही एक चुनौती बन जाएगा। इस चुनौती का सामना अकेले सर्वज्ञजी कैसे करेंगे, यह देखना है।
सभी पार्टियां राहुलमय
(डॉ. वेदप्रताप वैदिक)
कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर राहुल गांधी की ताजपोशी पर बयानबाजी जोरों पर है। इसे कोई मुगलिया ताजपोशी कह रहा है तो कोई वंशवाद की राजनीति ! अचरज़ की बात यही है कि राहुल गांधी निर्विरोध ही कांग्रेस के अध्यक्ष बनने जा रहे हैं। एक भी कांग्रेसी ने राहुल के विरुद्ध उम्मीदवार बनने की हिम्मत नहीं की। उन्हें पार्टी-लोकतंत्र का कम से कम ढोंग तो कर देना था। मुझे अभी भी याद है कि जब सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ रही थीं, जितेंद्रप्रसाद ने उन्हें प्रतिद्वंदी उम्मीदवार के तौर पर चुनौती दी थी। उस दिन वे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में मेरे साथ लंच कर रहे थे। पार्टी में लोकतंत्र है, यह तो सिद्ध हो रहा था लेकिन अब इसकी भी कोई जरुरत नहीं समझी जा रही है। हो सकता है कि डूबते हुए सूर्य को कोई नमस्कार करनेवाला भी नहीं मिल रहा है। लेकिन यह सच्चाई नहीं है। पिछले दो-तीन माह में यह सूर्य डूबता हुआ नहीं, उगता हुआ दिखाई पड़ने लगा है। राहुल ने अपनी अमेरिका-यात्रा के दौरान जो भाषण और बयान दिए तथा गुजरात में वे जैसा चुनाव-अभियान चला रहे हैं, उसने अधमरे कांग्रेसियों में जान फूंक दी है। इसमें शक नहीं है कि कांग्रेस-जैसी महान पार्टी यदि खत्म हो गई तो देश के लोकतंत्र के लिए यह अशुभ होगा। देश में कोई सशक्त विपक्ष नहीं रहेगा। जो भी सरकारें बनेंगी, वे निरंकुश होती चली जाएंगी। यह अच्छा है कि भाजपा अब कांग्रेस की तरह अखिल भारतीय पार्टी बनती जा रही है लेकिन वह बेलगाम न हो जाए, इसके लिए कांग्रेस का सबल होना जरुरी है। सच्चाई तो यह है कि देश के सभी दल कांग्रेस की प्रतिलिपि (कार्बन काॅपी) बनते जा रहे हैं। कांग्रेस मां-बेटा पार्टी बन गई है। एक प्रभाहीन कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा देश में कौनसी ऐसी पार्टी है, जो दावा कर सके कि वह ‘प्राइवेट लिमिटेड कंपनी’ नहीं है ? सारी प्रांतीय पार्टियां परिवारवाद के आंगन में झूला झूल रही हैं। कोई बाप-बेटा पार्टी है, कोई चाचा-भतीजा पार्टी है, कोई भाई-बहन पार्टी है और भाजपा भी भाई-भाई पार्टी बनती जा रही है। उसके अध्यक्ष के चुनाव में किसी ने चुनौती दी थी क्या ? सारी पार्टियां एक या दो नेताओं की कठपुतली बनजी जा रही हैं। यदि हमारी पार्टियों में से आंतरिक लोकतंत्र खत्म हो गया तो वह भारतीय राजनीति का स्थायी आपात्काल बन सकता है।