कोरोनाः अपना फर्ज निभाएं
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हमारे देश के डाक्टर, नर्स, पुलिसकर्मी और सरकारी कर्मचारी कितनी लगन से कोरोना-मरीजों की सेवा कर रहे हैं और समाजसेवियों के तो कहने ही क्या ? उनकी निस्वार्थ समाजसेवा ही आज भारत को दुनिया की पुण्यभूमि बना रही है। लेकिन जिस बात को लेकर आज मुझे भयंकर धक्का लगा और हर इंसान को लगना चाहिए, वह यह कि पंजाब के दो-तीन परिवारों ने गज़ब की पत्थरदिली दिखाई है। उन्होंने बेटे, पति, भाई, पिता या पड़ौसी का फर्ज निभाने में भी कोताही की है। पंजाब के एक अधिकारी के मुताबिक कोरोना से मरनेवालों के घरवाले उनके शवों को दफनाने या जलाने भी नहीं आते। उनकी अंत्येष्टि सरकारी अफसरों को करनी पड़ती है। लगभग 50 प्रतिशत शवों की यही गति हुई है। प्रसिद्ध ग्रंथी हुजूरी रागी भाई निर्मलसिंह खालसा के गांव के लोगों ने उनकी अंत्येष्टि में अड़ंगा लगा दिया। पटवारी अगर सख्ती से पेश नहीं आता तो वहां उनकी अंत्येष्टि ही नहीं होती। कोरोना-मरीजों के शवों को डाक्टर लोग काफी अच्छी तरह से लपेटकर सम्हलाते हैं। फिर भी लोग इतने डरे हुए क्यों रहते हैं, समझ में नहीं आता। पता नहीं, इसे डर कहें या कायरता ? डर के मारे हमारे सारे नेता अपने घरों में छिपे पड़े हुए हैं तो इन बेचारे सामान्यजन को क्या कहा जाए ?
भारत की केंद्र और राज्य सरकारें तो कोरोना से लड़ने की भरपूर कोशिश कर रही हैं और उन्होंने तालाबंदी को खोलने पर विचार करना भी शुरु कर दिया है लेकिन भारत के लिए यह बड़ी खुश खबर है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत से कोरोना की दवाई हाइड्रोक्सीक्लोरीन की मांग की है। मलेरिया की इस सफल दवाई की करोड़ों गोलियां भारत में उपलब्ध हैं। कुछ दिन पहले भारत ने इसके निर्यात पर रोक लगाई थी लेकिन अब उसे हटा लिया है। बड़बोले ट्रंप ने भारत के इन्कार की संभावना पर बदला लेने की बात कहकर अपनी ही किरकिरी करवाई है। अच्छा है कि मोदी उसकी अनदेखी करें। न्यूयार्क और अन्य अमेरिकी शहरों में सैकड़ों भारतीय मूल के लोग भी कोरोनाग्रस्त हो गए हैं। हमारी मदद उनके भी काम आएगी। भारत ने श्रीलंका को 10 टन दवाई विशेष जहाज से भिजवाई है। भारत ने जैसे एक करोड़ डाॅलर ‘दक्षेस कोरोना आपात्कोश’ में दिए हैं, वैसे ही वह सभी पड़ौसी देशों को दवाइयां भिजवाने की भी पहल करे। उन देशों की भाषाओं में कोरोना से बचने की तरकीबें भी वहां के करोड़ों लोगों को इंटरनेट, रेडियो, टीवी और उनके खबरों के जरिए बताई जा सकती हैं। बड़े भाई का फर्ज निभाने का यह सही वक्त है।
जो गलती इंदिरा ने की उससे बड़ी गलती ये सरकार कर रही
सनत जैन
1975 में इंदिरा गांधी ने भारत में आपातकाल लागू किया था। इस आपातकाल में न्यायालय की शक्तियों को कम किया गया था। सरकार किसी भी व्यक्ति को बिना किसी अपराध के जेलों में बंद कर सकती थी। मीडिया में सेंसरशिप लागू हो गई थी। समाचार पत्रों में वही छपता था जो सरकार चाहती थी। दूरदर्शन और आकाशवाणी सरकार के नियंत्रण में थे। वह सरकार का गुणगान करते थे। सेंसरशिप के कारण तब की सरकार को, आपातकाल के दौरान क्या हुआ। इसका पता नहीं चला। चुनाव हुए, इंदिरा गांधी को सत्ता से अपदस्थ होना पड़ा था। यह उस समय की बात है, जब देश में आर्थिक आधार पर कोई बहुत ज्यादा सोच नहीं थी। 2004 के बाद से जिस तरह के सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन देश में हुए हैं। उसके बाद भारत के नागरिक सरकार के ऊपर हर मामले में आश्रित हुए हैं। ऐसे समय में सरकार को यदि वास्तविक जानकारी नहीं मिलेगी। मीडिया और न्यायपालिका सरकार के साथ कदमताल करेंगे। ऐसी स्थिति में जनता को उन पर भरोसा होगा? चारों स्तंभ में से कौन सा स्तंभ होगा, जो संकट के समय जनता को भरोसा दिला पाएगा।
अभी तक विधायिका और कार्यपालिका के निर्णय से यदि कोई व्यक्ति, समुदाय असहमत होता था। तो वह न्यायपालिका में जाकर न्याय प्राप्त करता था। आम आदमी को यह विश्वास था, न्यायपालिका उसकी बात सुनेगी। संविधान के अनुरूप उसके साथ न्याय करेंगी। पिछले कुछ वर्षों में न्यायपालिका एक तरह से सरकार के सहयोगी के रूप में काम कर रही है। जिसके कारण जनता का भरोसा न्यायपालिका पर बहुत कम हो गया है। हाल ही में देश में बड़ी बड़ी घटनाएं हुई। लोग हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट गए। उन्हें न्याय पाने में इतना समय लगा कि उस न्याय का कोई मतलब ही नहीं रह गया। न्यायपालिका ने कई महत्वपूर्ण मामलों की याचिकायें ही सुनने से ही मना कर दिया। अब तो यह भी होने लगा है, कि न्यायपालिका याचिकाओं को खारिज करने के साथ उस पर जुर्माना भी लगा देती हैं। सुप्रीम कोर्ट में पिछले 6 माह में कई ऐसे मामले लंबित हैं। जिन की त्वरित सुनवाई होनी थी। जो आज तक नहीं हुई। हाईकोर्ट में जो याचिकाएं लगी थी। वह भी सुप्रीम कोर्ट ने अपने पास बुला ली, और उस पर आज तक सुनवाई नहीं की।
पिछले वर्षों में मीडिया भी चौथे स्तंभ के रूप में जनता का प्रतिनिधित्व ना करके सरकार का प्रतिनिधि बनकर काम कर रहा है। आज जितने भी न्यूज़ चैनल और समाचार पत्र हैं। वह सरकार द्वारा कही हुई बातों और सोच को ही आगे बढ़ा रहे हैं। जनता के बीच से रिपोर्टिंग करने, उनकी बात जानने या उनका पक्ष रखने का कोई भी प्रयास मीडिया में नहीं हो रहा है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी, कि दूरदर्शन और आकाशवाणी की तरह अब लगभग सभी न्यूज़ चैनल और समाचार पत्र भी सरकार के लिए अप्रत्यक्ष रूप से काम कर रहे हैं। यदा-कदा यह भी कहा जाता है, कि अघोषित रूप से सेंसरशिप लगी हुई है। ऐसी स्थिति में जनता के बीच न्यूज़ चैनल की विश्वसनीयता लगभग खत्म हो गई है। आम जनता के बीच में पिछले वर्षों में इसे गोदी मीडिया का नाम दिया गया है। न्यूज चैनलां की टीआरपी बहुत कम हो गई है। समाचार पत्रों से भी आम जनता और उनकी समस्यायें गायब है। जिससे मीडिया विश्वसनीयता संदेह के घेर में है।
कोरोनावायरस के संक्रमण से सारी दुनिया में हड़कंप मचा हुआ है। हजारों लोग रोज सारी दुनिया में मर रहे हैं। दुनिया भर में फैले कामगार बेरोजगार हो रहे हैं। सैकड़ों देशों में लाकडाउन के कारण उद्योग, व्यापार और सेवा के क्षेत्र में रोजगार के साधन लगभग लगभग खत्म हो गए हैं। विश्व बैंक का कहना है कि भारत सहित सारी दुनिया के देशों में भयंकर मंदी आने वाली है। 2008 की मंदी के सामने यह मंदी बहुत भयानक होगी। जो 100 वर्ष पुरानी मंदी की याद दिलाएगी।
भारत के 1 करोड़ 75 लाख प्रवासी भारतीय सारी दुनिया के देशों में काम करते हैं। इसमें एक करोड़ 25 लाख लोग मजदूर के रूप में अमेरिका सऊदी अरब इत्यादि देशों में कार्यरत हैं। यह प्रवासी भारतीय भारत में 78.6 बिलियन डालर की कमाई करके भेजते थे। लेकिन यह सब बेरोजगार होकर, उन देशों में फंसे हुए हैं। कुछ हजार ही अभी देश वापस आए हैं। जैसे ही अंतरराष्ट्रीय हवाई यात्रा शुरू होगी। बड़ी संख्या में प्रवासी भारतीय वापस लौटेंगे। भारत में 21 दिन का लॉकडाउन लागू किया गया है। लाकडाउन की घोषणा के 4 घंटे की अवधि में ट्रेन बस और सारे परिवहन के साधन बंद कर दिए गए। भारत में ही विभिन्न राज्यों के लगभग 5 करोड़ कामगार दूसरे राज्यों में जाकर महानगरों बड़े नगरों तथा अपने घर से सैकड़ों मील दूर छोटे शहरों में कार्य कर रहे थे। जनता कर्फ्यू लागू होने के बाद जो जहां है, वही रहे। इस आदेश का पालन इसलिए नहीं हो पाया कि जो भारतीय कामगार अपनी रोजी रोटी के लिए सैकड़ों किलोमीटर दूर गया था। उसे दूसरे दिन काम नहीं मिला। जहां काम कर रहे थे, वहां से उन्हें भगा दिया गया। वह सड़क पर रहते थे, रेहड़ी लगाते थे, वहीं सो जाते थे। दूसरे दिन उन्हें ना तो खाना मिला, ना रहने की जगह मिली। ऊपर से पुलिस के डंडे मिलने से लाखों की संख्या में लोग अपने घरों की ओर पैदल ही भागे। पिछले 16 दिन से भारत में सभी औद्योगिक प्रतिष्ठान और कारोबार बंद हैं। स्माल एवं मध्यम उद्योग बंद है। छोटे बड़े सभी कारोबार बंद है। विभिन्न प्रदेशों में लाखों की संख्या में दूसरे प्रदेशों से आए हुए कामगारों में से 25 फीसदी अपने-अपने राज्यों में पैदल ही वापस हो गए हैं। लाकडाउन खुलने के बाद जैसे ही रेल और बसें शुरू होंगी। कामगार और मजदूर कब वापस आएंगे, इसका भी कोई भरोसा नहीं है। आर्थिक मंदी के इस दौर में सरकार कैसे उद्योग धंधों को पुनः शुरू करा पाएगी। इसको लेकर आर्थिक जगत में बड़ी चिंता व्यक्त की जा रही है। केंद्र सरकार किसानों तथा मनरेगा के मजदूरों तथा केंद्रीय योजनाओं में विभिन्न मदों में दी जाने वाली सहायता राशि भी नहीं दे पा रही है। राज्यों की आर्थिक हालत इतनी खराब है, कि उन्हें वेतन बांटने के लिए अब हर माह कर्ज लेना पड़ रहा है। केंद्र सरकार तथा महाराष्ट्र राजस्थान तेलंगाना और आंध्र प्रदेश की सरकारों ने अपने कर्मचारियों के वेतन में कटौती कर दी है। विधायकों और मंत्रियों के वेतन कम कर दिए हैं। केंद्र सरकार ने सांसदों की सांसद निधि 2 साल के लिए रोक दी है। ऐसे संक्रमण काल में यदि गरीबों तक उनकी जरूरतों का सामान और खाने पीने की चीजें मुहैया नहीं करा पाए। देश में किस तरीके की स्थिति बनेगी, इसका अंदाजाभर लगाया जा सकता है। मीडिया चुप है, उसकी चुप्पी सारे भारत के लिए यहां तक कि सरकार के लिए भी एक संकट है। देश की 80 फ़ीसदी जनता गरीब है। वह कहने लगी है, कि जिंदा रहेंगे तो कोरोनावायरस से निपट लेंगे। जब खाने पीने को ही नहीं मिलेगा, हम तो वैसे ही मर जाएंगे। देश में 20 फ़ीसदी मध्यमवर्ग और उच्च कुलीन परिवार हैं। इनके ऊपर भी एक नया संकट बनने लगा है। जिनके पास खाने पीने के लिए है, वह 21 दिन नहीं 21 महीने अपना जीवन यापन कर लेंगे। लेकिन निम्न वर्ग के पास कुछ नहीं है। उनके लिए तो भूखे मरने के अलावा और कोई विकल्प नहीं रहेगा। किसानों, मजदूरों तथा राज्य सरकारों को जो वित्तीय मदद केन्द्र सरकार को करनी थी, वह नहीं हो पा रही हैं। भारत सरकार का ध्यान अभी भी आर्थिक व्यवस्था की ओर नहीं है। मीडिया भी आने वाले संकट से आम जनता को आगाह नहीं कर पा रहा है। जिसके कारण स्थिति विस्फोटक हो रही है। 1917 की जार क्रांति जिस रूप में हुई थी। वही स्थिति भारत में वर्तमान में देखने को मिल रही है। भेड़ बकरियों की तरह मजदूरों को जगह जगह पर रोक कर रखा गया है। उनके साथ जो व्यवहार हो रहा है, उससे वह व्यथित हैं। ग्रामीण अंचलों और छोटे शहरों की स्वास्थ्य सेवाएं तथा कोरोनावायरस को लेकर जो आपदा कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। उसकी कागजी कार्यवाही और वास्तविक हकीकत में जमीन आसमान का अंतर है। ऐसी स्थिति में न्यायपालिका तथा मीडिया भी अपना दायित्व नहीं निभा रहा है। जनता का विश्वास मीडिया पर खत्म होने से बहुत विस्फोटक स्थिति का सामना करना पड़ सकता है। जब आम आदमी की कहीं सुनवाई नहीं होती है। तब वह अराजक होता है। मीडिया का सरकारी हो जाना, न्यायपालिका का सरकार के साथ कदमतल करने से शासन और जनता के बीच में जो सेतु बनता था। वह अब नहीं रहा, इसके दुष्परिणाम सभी को झेलना पड़ेंगे। समय रहते संभलने की जरुरत है।
कोरोनाः मोदी को सोनिया का पत्र
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत की जनता को इस बात पर गर्व होना चाहिए कि देश के सभी राजनीतिक दल कोरोना के विरुद्ध एकजुट हो गए हैं। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री मोदी को लिखे अपने पत्र में कुछ रचनात्मक सुझाव दिए हैं। केरल, राजस्थान, छत्तीसगढ़, पंजाब और दिल्ली के गैर-भाजपाई मुख्यमंत्री लोग भाजपाई मुख्यमंत्रियों की तरह डटकर काम कर रहे हैं। गैर-राजनीतिक समाजसेवी लोग तो गजब की सेवा कर रहे हैं। यह भी गौर करने लायक बात है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा अन्य संगठनों ने जमाते-तबलीगी के मामले का सांप्रदायिकीकरण करने का विरोध किया है लेकिन हमारे कुछ टीवी चैनल इसी मुद्दे को अपनी टीआरपी के खातिर पीटे चले जा रहे हैं। संतोष की बात यह भी है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत से कोरोना की दवाई भिजवाने का अनुरोध किया है। इस दवाई का परीक्षण करके भारत में ही इसका प्रयोग जमकर क्यों नहीं किया जाए ? हमारे पड़ौसी देशों को यह दवाई बड़े पैमाने पर भारत आगे होकर भेंट क्यों न करे ?
जहां तक सोनिया गांधी के पांच प्रस्तावों का प्रश्न है, सबसे अच्छी बात तो यह है कि उन्होंने मोदी की इस घोषणा का स्वागत किया है कि सांसदों के वेतन में 30 प्रतिशत की कटौती और सांसद-निधि स्थगित की जाएगी। मैं सोचता हूं कि हर सांसद को स्वेच्छा से कम से कम पांच-पांच लाख रु. कोरोना राहत-कोष में दे देना चाहिए। चुनावों में वे करोड़ों का इंतजाम करते हैं या नहीं ? इस कोश के साथ किसी प्रधानमंत्री या व्यक्ति या पद का नाम जोड़ना हास्यास्पद है और यह कहना तो अत्यंत विचित्र है कि ‘‘पी एम केयर्स फंड’’। क्या देश की चिंता सिर्फ एक ही व्यक्ति को है ? क्या बाकी सब लोग ‘केयरलेस’ (लापरवाह) हैं ? ये सुझाव भी ठीक है कि कुछ सरकारी खर्चों में भी 30 प्रतिशत की कटौती की जाए। सरकारी खर्चे पर विदेश यात्राएं बंद हों। 20 हजार करोड़ रु. के ‘सेंट्रल विस्टा’ के निर्माण-कार्य को बंद किया जाए। उनका एक और सार्थक सुझाव है। वह भाजपाइयों और कांग्रेसियों दोनों पर लागू होता है। सरकारें और नेतागण अपने धुआंधार विज्ञापनों को रोकें। उस पैसे को कोरोना-युद्ध में लगाएं। सोनियाजी और मोदीजी अपनी पार्टी के करोड़ों कार्यकर्ताओं को घर से निकलकर दुखी लोगों की मदद करने के लिए क्यों नहीं कहते ? तबलीगियों को गाली देने और शर्मिंदा करने की बजाय उनको जांच और इलाज के लिए उन्हें प्रेरित क्यों न किया जाए ? आखिरकार, वे भी भारतमाता की ही संतान हैं।
सवाल पूछे ही नहीं जा रहे हैं ,जवाब मिलते जा रहे हैं !
श्रवण गर्ग
हवा का रुख़ देखकर लगता है कि लोगों की बेचैनी बढ़ रही है, वे पहले के मुक़ाबले ज़्यादा नाराज़ होने लगे हैं और अकेलेपन से घबराकर बाहर कहीं टूट पड़ने के लिए छटपटा रहे हैं।मनोवैज्ञानिक आगाह भी कर चुके हैं कि ऐसी स्थितियों में ‘डिप्रेशन’ के मामलों में भी काफ़ी वृद्धि हो जाती है।इनमें घरों में बंद लोगों के साथ-साथ खुली सड़कों पर अपने को और ज़्यादा अकेला और असहाय महसूस करने वाले हज़ारों-लाखों बेरोज़गार और मज़दूर भी शामिल किए जा सकते हैं।हमारे लिए ऐसा और इतना लम्बा एकांतवास पहला अनुभव है ,कम से कम उस पीढ़ी के लिए जो पिछले बीस वर्षों में बड़ी हुई है।पिछले बीस वर्षों में भी देश को कोई ऐसा युद्ध नहीं लड़ना पड़ा है जिसमें किसी ज्ञात या अज्ञात शत्रु से युद्ध के लिए अपने को घरों में क़ैद करना पड़ा हो।चीन के साथ हुए युद्ध की हमें तो याद है पर उसे भी हुए अब साठ साल होने आए।
जैसे-जैसे बैसाखी और अम्बेडकर जयंती नज़दीक आ रही है ,सरकार की चिंता कोरोना से ज़्यादा लॉक डाउन से आज़ाद होकर सड़कों पर टूट पड़ने को बेताब भीड़ से निपटने को लेकर बढ़ सकती है।
ईमानदारी की बात तो यह है कि कोरोना के फ़्रैक्चर से चढ़ा पट्टा कब और कैसे काटा जाएगा इस पर बड़े डॉक्टर मौन हैं।महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने ज़रूर संकेत दे दिया है कि 14 अप्रैल के बाद लॉक डाउन की समाप्ति जनता द्वारा सरकार के निर्देशों का पालन करने पर निर्भर करेगी।स्मरण किया जा सकता है कि मुख्यमंत्रियों से हुई वीडियो काँफ्रेंसिंग के बाद प्रधानमंत्री की ओर से सबसे ज़्यादा तारीफ़ ठाकरे की तरफ़ से आए सुझावों की की गई थी।उद्धव के सुझावों को व्यापक संदर्भों में भी पढ़ा जा सकता है कि पट्टा काटने के बाद केवल बैसाखियों पर टहलने की ही छूट दी जा सकती है।
इस बात का पता चलना शेष है कि कम से कम उन मुख्यमंत्रियों की ही ओर से जो सोनिया गांधी का ‘ही कहा’ या ‘कहा भी’ मानते हैं केंद्र को कठघरे में खड़ा करने या विचलित करने वाला ऐसा एक भी सवाल प्रधानमंत्री या उनके साथ बैठे लोगों से पूछा गया हो जिसका कि जवाब उनके राज्य की जनता मांग रही है।पत्रकारों की तरह दबी ज़ुबान में ही सही पूछा जा सकता था कि क्या स्थिति नियंत्रण में है और सामान्य की तरफ़ लौट रही है ?ख़स्ता वित्तीय हालात किस तरह संभलने वाली है ?फसलें खड़ी है,मज़दूर ग़ायब हैं।इस बात पर केवल खेद ही व्यक्त किया जा सकता है कि जिन सवालों के जवाब माँगे जाने चाहिए उन्हें कोई पूछने की हिम्मत भी नहीं कर रहा है ,विपक्ष भी नहीं।और जो कुछ कभी पूछा ही नहीं गया उसके जवाब हर तरफ़ से प्राप्त हो रहे हैं।इस बीच भूलना नहीं है कि आज रात नौ बजे नौ मिनट के लिए बिना बेचैन हुए हम सबको क्या करना है।
यह मामला हिंदू-मुसलमान का नहीं
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जमाते-तबलीगी का दोष बिल्कुल साफ-साफ है लेकिन इसे हिंदू-मुसलमान का मामला बनाना बिल्कुल अनुचित है। जिन दिनों दिल्ली में तबलीग का जमावड़ा हो रहा था, उन्हीं दिनों पटना, हरिद्वार, मथुरा तथा कई अन्य स्थानों पर हिंदुओं ने भी धार्मिक त्यौहारों के नाम पर हजारों लोगों की भीड़ जमा कर रखी थी। इन सभी के खिलाफ सरकार को मुस्तैदी दिखानी चाहिए थी लेकिन हमारी केंद्र और राज्य सरकारों ने उन दिनों खुद ही कोरोना के खतरे को इतना गंभीर नहीं समझा था। यों भी इतने कम मामले मार्च के मध्य तक सामने आए थे कि सरकार और जनता, दोनों ने लापरवाही का परिचय दिया लेकिन जमाते-तबलीगी के सरगना मौलाना साद के भाषणों पर गौर करें तो पता चलता है कि उन्होंने कोरोना के सारे मामले को मुस्लिम-विरोधी और इस्लाम-विरोधी सिद्ध करने की कोशिश की थी। उन्हें शायद पता नहीं होगा कि दक्षिण कोरिया में एक गिरजे के ईसाइयों की लापरवाही से यह सारे कोरिया में फैल गया है। यदि यह इस्लाम-विरोधी होता तो सउदी अरब के मौलाना क्या मक्का-मदीना जैसे इस्लामी विश्व-तीर्थ को बंद कर देते ? यदि यह इस्लाम-विरोधी है तो यह सबसे ज्यादा अमेरिका, इटली और स्पेन जैसे ईसाई देशों में क्यों फैल रहा है ? इसे मजहबी जामा पहनाने का नतीजा क्या हुआ ? इंदौर के मुसलमानों में यह अफवाह फैल गई कि ये डाक्टर और नर्स उन्हें कोई जहरीली सुई लगा देंगे। कई शहरों के अस्पतालों में मरीजों ने डाक्टरों और नर्सों के साथ अश्लील हरकतें भी की हैं। अभी भी सैकड़ों जमाती ऐसे हैं, जिन्होंने अपने आपको अस्पतालों के हवाले नहीं किया है। मौलाना साद ने अपनी करतूतों के लिए पश्चाताप नहीं किया और माफी नहीं मांगी है। लेकिन इस सारी घटना का दुखद पहलू यह भी है कि कुछ नेता और टीवी वक्ता इस मामले का पूर्ण सांप्रदायिकरण कर रहे हैं। भाजपा अध्यक्ष जगतप्रकाश नड्डा ने इस संकीर्णता का स्पष्ट विरोध किया है। सच्चाई तो यह है कि अपने आप को ‘इस्लामी मिश्नरी’ कहनेवाले इन तबलीगियों ने सबसे ज्यादा नुकसान खुद का किया है, मुसलमानों का किया है, अपने रिश्तेदारों और दोस्तों का किया है। उन्होंने इस्लाम की छवि को ठेस पहुंचाई है। यदि किसी मजहब के प्रचारक इतनी आपराधिक हरकतें कर सकते हैं तो क्यों उन्हें अपने आप को धर्म-प्रचारक कहने का हक है ?
कोरोनावायरस संक्रमण से बदलेगी सारी दुनिया की आर्थिक एवं सामाजिक सोच
सनत जैन
कोरोनावायरस की चपेट में सारी दुनिया के 199 देश गिरफ्त में है। अभी तक के इतिहास में पहली बार सारी दुनिया के देश एक ही बीमारी से संक्रमित हैं। जिसके कारण सारी दुनिया में राजनीतिक आर्थिक एवं सामाजिक गतिविधियों में ठहराव आ गया है। अभी तक आपदा में सबसे पहले ईश्वर को याद किया जाता था। कोरोनावायरस ने सारी दुनिया में ईश्वर को ही भुला दिया है। धार्मिक गतिविधियॉं बंद हो गई हैं। आपदा के समय में मंदिर मस्जिद चर्च गुरुद्वारे और मठों में पूजा पाठ, नमाज, अरदास, प्रार्थना सब बंद हैं। यहां तक कि भगवान के कपाट भी बंद है। मक्का में मुस्लिमों के प्रवेश एवं धार्मिक गतिविधियों में रोक लग गई है। वेटिकन सिटी में भी धार्मिक गतिविधियां बंद हैं। भारत जैसे देश में सभी मंदिर भक्तों के लिए बंद है। मंदिर और चर्च में घंटियां और घंटे बजना बंद हैं। मस्जिदों से अजान बंद है। भारत के शक्ति पर्व रामनवमी मे भी भक्त, देवी मां के दर्शन करने मंदिरों में नहीं पहुंचे। भारत में 9 देवियों की पूजा सारे देश में पूरी श्रद्धा के साथ भक्ति भाव से मनाई जाती थी। कोरोनावायरस के भय से इस बार भक्त भयभीत होकर घरों में कैद हैं। सभी धर्म गुरु कोरोनावायरस संक्रमण के भय से अपने अपने स्थानों पर कैद हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी, कि कोरोनावायरस ने एक तरह से ईश्वरीय सत्ता को भी चुनौती दी है। लगभग सभी धर्मों में कर्मों के फल स्वयं भोगने का विधान है। कोरोनावायरस के भय ने कर्मफल की अवधारणा को जनसाधारण के बीच और मजबूत करने का काम किया है।
हर बड़ी आपदा के बाद राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक एवं पारिवारिक सोच और सिद्धांत में परिवर्तन होते हैं। पहली बार वैश्विक व्यापार संधि के बाद सारी दुनिया के देशों के बीच आर्थिक संपन्नता और सामाजिक सोच में एकरूपता आई थी। वैश्विक स्तर पर पर्यटन, संस्कृति, सामाजिक एवं आर्थिक विकास, कारोबार, शैक्षणिक, स्वास्थ्य संबंधी मामलों में सारी दुनिया में एकरूपता आई थी। उधार की आर्थिक व्यवस्था ने दुनिया भर के सभी देशों तथा उसमें रहने वाले नागरिकों को, न केवल अपना कर्जदार बना लिया। वरन कर्ज देकर सारी दुनिया को एक बाजार के रूप में परिवर्तित किया गया। विज्ञापनों के माध्यम से दुनिया भर के नागरिकों के बीच भौतिक सुख-सुविधाओं तथा विकास के मॉडल का ऐसा मायाजाल रचा। जिसमें सारी दुनिया फंस कर रह गई। अर्थ के मायाजाल ने राजनेताओं और धर्मगुरुओं को भी वशीभूत करके अपने वश में कर लिया। पिछले 15 वर्षों में नेताओं में अहंकार और ईश्वरीय शक्ति का भ्रम पैदा हो गया। धार्मिक गुरु भी भौतिक सुख-सुविधाओं के अधीन होकर रह गए। धर्मगुरुओं के वैभव के सामने ईश्वरीय वैभव भी कहीं खो सा गया था। जिस तरह रावण अपने आप को सबसे बड़ा शिवभक्त मानता था। रावण ने सभी ग्रहों को अपनी कैद में रखा था। रावण को अपने अंत समय में यह भ्रम पैदा हो गया था, कि उसके कारण ही शिव की पूजा होती है। कुछ ऐसा ही भ्रम वर्तमान समय में राजनेताओं, धर्मगुरुओं और आम जनता के मन में है। भला हो कोरोनावायरस का, जिसने एक ही झटके में सभी के भ्रम तोड़ दिए हैं।
आपदा के बाद बदलती है सारी दुनिया
1918 में स्पेनिश फ्लू की महामारी दुनिया के कई देशों में फैली थी। इस महामारी में लगभग 5 करोड़ लोग मारे गए थे। महामारी से निपटने के लिए 102 साल पहले भी वही प्रयास हुए थे, जो आज कोरोनावायरस के संक्रमण से हो रहे हैं। क्वॉरेंटाइन, आइसोलेशन, सैनिटाइजेशन गर्म पानी से नमक के गरारे करने की सलाह उस समय भी चिकित्सकों ने दी थी। भारत में स्पेनिश फ्लू शुरू से 15 माह के अंदर एक करोड़ 8 लाख लोगों की मौत हुई थी। अमेरिका में उस समय 6 लाख 75 हजार लोग स्पेनिश फ्लू की बीमारी से मारे गए थे। अमेरिका और ब्रिटेन के समाचार पत्रों ने उस समय साबुन से हाथ धोने और स्पेनिश फ्लू के वायरस से बचने के लिए वही उपाय 100 साल पहिले बताए थे। जो आज कोरोनावायरस से लड़ने के लिए बताए जा रहे हैं।उस समय ब्रिटिश साम्राज्य का सूरज नहीं डूबता था। उन्हीं देशों में सबसे ज्यादा स्पेनिश फ्लू से मौतें हुई थी। उसके बाद सारी दुनिया में स्वास्थ्य सेवाओं, सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था को लेकर नई सोच बनी थी। लोकतांत्रिक व्यवस्था उसके बाद मजबूत हुई। दुनिया भर के विकासशील एवं विकसित देश, राजे रजवाड़ों के प्रभाव से मुक्त होकर लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाने के लिए विवश हुए। 2001 में अमेरिका के 9/11 हमले के बाद व्यक्तिगत स्वतंत्रता सारी दुनिया में कमजोर होना शुरू हुई। सरकारों और सरकारी एजेंसियों का शिकंजा मजबूत हुआ। डिजिटल तकनीकी एवं संचार माध्यमों ने ताकतवर लोगों के हाथों में सत्ता को मजबूत किया। वहीं व्यक्तिगत स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक व्यवस्था तेजी के साथ कमजोर होना शुरू हुई।
वैश्विक संधि के प्रभाव
2003 से सारी दुनिया के देशों के बीच वैश्विक व्यापार संधि का क्रियान्वय होना शुरू हुआ। वैश्विक वित्तीय संस्थाओं ने बड़े पैमाने पर केंद्र सरकार, राज्य सरकारों, स्थानीय निकायों और नागरिकों को कर्ज देकर सारे वित्तीय अधिकार अपने पास रख लिए। अमेरिका सहित दुनिया के सभी देशों की सरकारों के ऊपर भारी कर्ज है। कर्ज स्थानीय संस्थाओं और नागरिकों के ऊपर भी हैं। सारी दुनिया के संसाधनों पर 500 से अधिक धन पशुओं का कब्जा है। उनकी संपत्ति बड़ी तेजी के साथ पिछले 15 सालों में बढ़ी है। वहीं आम जनता उतनी ही तेजी के साथ गरीब और कर्जदार हुई। सारी सरकारें और राजनेता इन्हीं धन पशुओं के सहारे चल रही हैं। जिन्होंने सारे आर्थिक और सामाजिक अधिकार अपने पास गिरबी रख लिए हैं। भौतिक आवश्यकताओं का जो नया आर्थिक मायाजाल का बाजार खड़ा किया था। वह बाजार भी आर्थिक मंदी के कारण अब लड़खड़ा रहा है।
आर्थिक मंदी
2008 में अमेरिका की आर्थिक मंदी ने सारी दुनिया के देशों को मुसीबत में डाला था। विकासशील एवं विकसित देशों की अपनी स्वयं की अर्थव्यवस्था होने से उस समय कोई बड़ा संकट नहीं आया। 2020 में कोरोनावायरस के कारण जो संकट आया है। उसने सारी दुनिया के देशों में रहने वाले लोगों के जीवन यापन में बड़ी मुसीबत पैदा कर दी हैं। भारत में जो लॉक डाउन लागू किया गया है। उसके बाद सारे देश में गरीब मजदूरों के उपर रोजी-रोटी पर संकट उत्पन्न हुआ । वह हजारों मील दूर से अपने घरों की ओर भागे। केंद्र एवं राज्य सरकारें इस भीड़ को नहीं रोक पाई। इन मजदूरों के मन में एक ही बात थी, कि कोरोनावायरस से तो बाद में मरेंगे। अभी तो रहने और खाने का ठिकाना भी नहीं है। जगह-जगह पुलिस ने खाना तो दिया नहीं। उल्टे डंडे अलग लगाए। सैकडों किलोमीटर पैदल चलकर वह अपने बच्चों और स्वयं की जान बचाने को लेकर बिना प्राणों की परवाह किए भागे।जो स्थितियां वर्तमान में उत्पन्न हुई हैं। वह 1917 की जार क्रांति की यादों को ताजा कर रही हैं। भूख से बेहाल जनता ने मदहोशी से भरे हुए जार राजा के महल में घुसकर उनकी परिवार सहित हत्या कर दी। भीड़ से एक लेनिन निकला। जिसने पूंजीवादी और राजशाही व्यवस्था खत्म हो गई। लेनिन के नेतृत्व में रूस में कम्युनिस्ट व्यवस्था शुरु हुई। रूस और चीन जैसे देश 100 साल बाद अब पूंजीवादी देश के रूप में सामने हैं। जो व्यवस्थाओं में आने वाले परिवर्तन का संकेत हैं।
पिछले वर्षों में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप चीन के राष्ट्रपति शी जिनिपंग, जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे, रूस के प्रधानमंत्री ब्लादिमिर पुतिन तथा भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्राध्यक्ष हैं। सभी ने अपनी अपनी सत्ता को साम दाम दंड भेद से कई वर्षों के लिए सुरक्षित कर लिया है।
पिछले 100 वर्षों में प्रकृति का जितना दोहन किया जा सकता था। सारी दुनिया के देशों ने मिलकर किया है। कई देशों के राष्ट्राध्यक्ष भगवान के समकक्ष अपने आपको मान चल रहे हैं। धर्मगुरुओं ने भी राज सत्ता के साथ मिलकर वैभव पूर्ण जीवन जीना शुरु कर दिया है। रही-सही आशा न्यायपालिका से थी। न्यायपालिका भी अब सरकारों के साथ कदमताल कर रही है। जिसके कारण लोकतांत्रिक व्यवस्था और मानव अधिकार का अस्तित्व लगभग खत्म हो गया है। पिछले 15 वर्षों में सभी देशों के नागरिकों ने भौतिक सुख-सुविधाओं को लेकर, नागरिक अधिकारों के कर्तव्यों से भी पल्ला झाड़ लिया है। ऐसी स्थिति में कोरोनावायरस ने प्रकृति को संरक्षित रखने के लिए अपना एक नया रूप दिखा दिया है। कोरोनावायरस ने एक ही झटके में सारी दुनिया का आर्थिक एवं सामाजिक परिदृश्य बदल दिया है। दुनिया के 199 देशों में कोरोनावायरस का संक्रमण फैला हुआ है। इसमें दुनिया भर के कितने लोगों की मौत होगी, कहना मुश्किल है। लॉक डाउन के कारण सारी दुनिया की आर्थिक एवं सामाजिक गतिविधियां ठप्प हो गई हैं। लोग अपनी जान बचाने और अपना भरण-पोषण करने की लड़ाई लड़ रहे हैं। पेट की भूख से हर दिन लड़ना, यह पहली प्राथमिकता बन गया है। कोरोनावायरस से कब मरेंगे, यह दूसरी प्राथमिकता में चला गया है। भारत में गरीब मजदूर कोरोनावायरस के डर से कम रोजी रोजगार और दो टाइम के भोजन को लेकर यहां से वहां भाग रहा है। उसके रोजगार के साधन खत्म हो गये हैं। सरकार उसकी आर्थिक मदद करने की स्थिति में नहीं है। जिसके कारण अब स्पष्ट रूप से दिखने लगा है, कि भारत सहित सारी दुनिया, एक बार फिर नए बदलाव की ओर कदमताल कर रही है। भगवान कृष्ण ने गीता में उपदेश दिया है। कर्म का फल समय आने पर ही फलित होता है। कर्म का फल अच्छा हो या बुरा, इसे व्यक्ति को स्वयं भोगना पड़ता है। इसमें भगवान भी उनकी कोई मदद नहीं कर सकते हैं। कोरोनावायरस ने इस सत्य को पुनः सिद्ध कर दिया है। कोरोनावायरस के भय से आज मंदिर, मस्जिद, चर्च और गुरुद्वारे में बैठे विभिन्न धर्मों के बड़े-बड़े धर्मगुरु तथा बड़बोले नेता जो ईश्वर के समकक्ष होने का भ्रम पाल बैठे थे। कोरोनावायरस ने सबको कैद करके रख दिया है। उन्हें वास्तविकता का अहसास करा दिया है। कोरोनावायरस की इस आपदा के बाद सारी दुनिया में किस तरह से आर्थिक सामाजिक बदलाव आएंगे। इसके लिए हमें अभी कुछ माह और इंतजार करना होगा, बदलाव निश्चित है।
धर्म के प्रचारक या मौत के प्रचारक ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मैं पिछले 10-15 दिनों से अखबारों में लिखता रहा और टीवी चैनलों पर बोलता रहा कि कोरोना से डरो ना। कोरोना भारत में उसी तरह फैल नहीं सकता, जिस तरह वह अन्य देशों में फैला है लेकिन मुझे अब अपनी राय उलटनी पड़ रही है, क्योंकि अब सैकड़ों लोग रोज़ाना कोरोना के जाल में फंस रहे हैं। यह क्यों हो रहा है ? क्योंकि एक मौलाना ने निहायत आपराधिक लापरवाही की है, जो कई मौतों का कारण बन गई है। जमाते-तबलीगी के अधिवेशन में दिल्ली आए हजारों लोग अपने साथ कोरोना लेकर सारे देश में फैल गए हैं। इनमें लगभग 300 विदेशी लोग भी थे। ये सब लोग धर्म-प्रचार (तबलीग) के नाम पर इकट्ठे हुए थे लेकिन ये मौत के प्रचारक बन गए हैं। केरल से कश्मीर और अंडमान-निकोबार से गुजरात तक लोग थोक में कोरोना के शिकार हो रहे हैं। ये शिकार होनेवाले लोग कौन हैं ? इनमें से ज्यादातर मुसलमान हैं और वे गैर-मुसलमान भी हैं, जो इनके संपर्क में आए हैं। इन तीन हजार तबलीगियों ने मरकज से निकलने के बाद अपने-अपने गांवों और शहरों तक पहुंचने के पहले और बाद में क्या लाखों लोगों से संपर्क नहीं किया होगा ? तबलीगी जमात के मुखिया मौलाना साद ने अपनी तकरीरों में कोरोना-प्रतिबंधों की जो मजाक उड़ाई है, वह उन्हें इन सब मौतों के लिए जिम्मेदार बना देता है। उन्होंने अपने अपराध के लिए माफी भी नहीं मांगी और वे फरार भी हो गए हैं। उनका यह कायराना बर्ताव बताता है कि वे कितने धार्मिक हैं ? उनके इस बर्ताव ने यह सिद्ध किया है कि वे जिसे धर्म-प्रचार कहते हैं, वह उनका पारिवारिक धंधा है। अपने परदारा द्वारा शुरु किए गए इस धंधे को वे मुसलमानों की जान से भी ज्यादा कीमती समझते हैं। कई देशों की तरह भारत सरकार को भी इस धंधे पर प्रतिबंध लगाने का विचार करना चाहिए। इस तरह के अंधविश्वासी अभियान किसी भी धर्म, मजहब, संप्रदाय और जाति के नाम पर चल रहे हों, उन पर सरकार को बहुत सख्ती बरतनी चाहिए। उसे यह सोचकर डरना नहीं चाहिए कि वह इन पाखंडियों के खिलाफ सख्ती करेगी तो उस पर सांप्रदायिकता या हिंदूवादिता का बिल्ला चिपका दिया जाएगा। मुझे खुशी है कि केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान, जो इस्लामी विद्या के पंडित हैं, वे इस जमात के खिलाफ दो-टूक शब्दों में बोल रहे हैं। मैं देश के सभी मुस्लिम नेताओं से अनुरोध करता हूं कि धर्म के नाम पर चल रहे पाखंड का वे डटकर विरोध करें।
कोरोना प्रकोप : जनजीवन विकल : अर्थव्यवस्था रसातल
ओमप्रकाश मेहता
आज पूरा विश्व एक ऐसे अंधे मोड़ पर विवश है, जहॉ एक और कुऑ तो दूसरी ओर खाई है। ये कुआ और खाई कोरोना महामारी और हमारी अर्थव्यवस्था है। चीन द्वारा पैदा किए गए कोरोना वायरस के संकट ने न सिर्फ पूरे विश्व में कोहराम मचा दिया है, बल्कि इससे मौत का आंकडा एक लाख के करीब पहुच रहा है, विश्व का कोई भी देश इसके प्रकोप से अछूता नही रहा है, यदि हम हमारे देश हिन्दुस्तान की बात करें तो पूरा देश पिछले एक सप्ताह से अपने घरो में कैद है, और इस कैद की अवधि अभी दो सप्ताह और शेष है, अर्थात पूरा देश थम सा गया है न कही कोल्हाल और न कही आरती-भजन या मंगलगीत । इस तरह एक अजीव भय के दौर से गुजर रहा है। पूरा देश प्रधानमंत्री से लेकर आम गरीब मजदूर तक सभी अपने घरो मे कैद है, अब ऐसी विभीषिका के दौर में पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था भी रसातल की ओर अभिमुख है। पिछली दो शताब्दियों में कभी भी हमारी अर्थव्यवस्था इतनी दयनीय दौर से नही गुजरी जैसी आज गुजर रही है। इसे लेकर अंतराष्टीय मुद्वा कोष सहित अर्थ से जुडी विश्व की सभी संस्थायें व संगठन चिंताग्रस्त है। अर्थात कुल मिलाकर यदि यह कहा जाए कि हमारा भारत ही नही बल्कि पूरा विश्व दो महामारियों (कोरोना व आर्थिक) के दौर से गुजरने को मजबूर है तो कतई गलत नही होगा एक महामारी (कोरोना) तो प्राण हर लेती है और दूसरी (अर्थव्यवस्था) घुट-घुट कर मरने को मजबूर कर रही है।
कोरोना ने जहॉ विश्व के सभी एक सौ उन्तीस देशों को अपनी जकड़न में ले लिया है, प्रतिदिन हजारों इस से मर रहे है, वहीं हमारी अर्थव्यवस्था पूरे विश्व के देशो से आपस में रसातल में जाने की स्पर्धा कर रही है। हर देश की विकास दर दिनों-दिन घटती जा रही है। विश्व की जानी मानी आर्थिक संस्था मुड़ीज ने भारत की विकास दर 5.3 फीसदी से घटकर 2.5 फीसदी रह जाने की आशंका व्यक्त की है, कहा गया है कि 2008 की मंदी से भी इस वर्ष की मंदी का यह दौर खतरनाक होगा। दुनिया का हर देश इस भयावह आर्थिक गिरावट का एकमात्र कारण कोरोना वायरस का प्रकोप है, जिसके लिए केवल और केवल चीन जिम्मेंदार है। उसी ने पिछले साल कोरोना वायरस का जैविक हथियार तैयार किया था।
यद्यपि विश्व के अनैक देश व उनकी आर्थिक संस्थाये व अर्थशास्त्री आर्थिक मंदी से निपटने के विकल्प खोज रहे है, इसी गरज से रिजर्व बैंक ने हाल ही में राहत की घोषणाऍ भी कि किन्तु उन राहतो का भी कोई असर नजर नही आ रहा है, जीड़ीपी ग्रोथ की चिंता में सैंसेक्स 1.30 अंक तक लुढक गया। अब कहा जा रहा है कि वित्तीय वर्ष 20-21 में जीड़ीपी सिर्फ दो फीसदी ही बढने की संभावना रह गई है। साथ ही रिजर्व बैंक द्वारा रैपो रेट मे कटौती के बावजूद बाजार में गिरावट का दौर जारी है। विश्व की जानी मानी आर्थिक संस्थाये मार्गन, स्टेनले व गोल्ड मेन सैसेंक्स के अर्थशास्त्री भी विश्वव्यापी मंदी की भयावहता स्पष्ट कर रहे है।
इन अर्थशास्त्रियों के अनुसार इस साल वैश्विक विकास दर घटकर 0.9 प्रतिशत पर आ सकती है। इनका भारत के बारे मे कहना है कि कोरोना वायरस प्रकोप के कारण भारत में ऑफलाईन व ऑनलाईन दोनो तरह की खरीददारी पूरी तरह से बंद हो गई है, लोग भीड़ मे जाने से बच रहे है, भारत में पॉच लाख से भी ज्यादा बडे ब्रांड वाले स्टोर्स कोरोना प्रकोप के भय के कारण बंद है।
इस प्रकार कुल मिलाकर इस कोरोना महामारी प्रकोप ने पूरे विश्व की आर्थिक दशा को झकझोर कर रख दिया है, और आज पूरा विश्व अपने अब तक के इतिहास की सबसे बडी मंदी झेलने को मजबूर हो गया है।
कोरोनाः मुसलमानों से दुश्मनी
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हमें संतोष था कि भारत में कोरोना ने इतना वीभत्स रुप धारण नहीं किया था, जितना उसने चीन, इटली, स्पेन और अमेरिका जैसे देशों में कर लिया है लेकिन निजामुद्दीन के मरकजे़-तबलीग ने भारत में भी खतरे की घंटियां बजवा दी हैं। 13 मार्च से अब तक चल रहे इस इस्लामी अधिवेशन में देश के कोने-कोने से और 16 देशों से लोग आए हुए थे। इनकी संख्या तीन हजार से ज्यादा थी। इनमें से सैकड़ों लोग कोरोना से पीड़ित हैं और लगभग दर्जन भर लोगों का इंतकाल हो चुका है। दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के सारे प्रतिबंधों की अवहेलना इस मरकजे-तबलीग ने की है। ऐसा करके इस मरकज़ ने कानून का उल्लंघन तो किया ही, कोरोना को लाखों लोगों तक पहुंचाने का आपराधिक दरवाजा भी खोल दिया। इस मरकज़ ने किसके साथ दुश्मनी निभाई ? सबसे ज्यादा अपने ही मुसलमान भाइयों के साथ ! मरनेवाले सब लोग कौन हैं ? सब पीड़ित लोग कौन हैं ? ज्यादातर मुसलमान हैं। यह कोरोना अब किन लोगों के बीच सबसे ज्यादा फैलेगा ? उनके बीच जिनसे इन तबलीगी लोगों का संपर्क होगा। उनके परिजनों, रिश्तेदारों, दोस्तों में यह सबसे ज्यादा फैलेगा। ऐसा नहीं है कि इस खबर को अंदाज इस संगठन के मुखिया को नहीं था। उन्हें था। उन्होंने याने मौलाना मुहम्मद साद ने अपनी तकरीरों में कहा है कि मुसलमानों तुम मस्जिदों में जाना बंद मत करो। अगर वहां मर भी गए तो इससे उम्दा मौत तुम्हें कहां मिलेगी। उन्होंने यह भी कहा कि यह कोरोना मुसलमानों को डराने और मस्जिदों को बंद करवाने के लिए ही फैलाया जा रहा है। वे भूल गए कि भारत के सारे मंदिरों, गुरुद्वारों, गिरजों और मस्जिदें पर लोगों ने अपने आप तालाबंदी कर रखी है। मौलाना साद की इस आपराधिक गैर-जिम्मेदारी के अनदेखी करनेवाली दिल्ली पुलिस भी दंड की पात्र है। अपने-अपने गांवों की तरफ कूच करनेवाले भूखे-प्यासे मजदूरों की बेरहमी से पिटाई करनेवाली यह दिल्ली पुलिस कितनी बेशर्मी से इस जमावड़े को बर्दाश्त करती रही। मजहब के नाम पर इंसानों की बलि चढ़वाने से मजहब तो बदनाम होता ही है, लोगों की ईश्वर-अल्लाह में से आस्था भी डगमगाने लगती है।
अनुकरणीय पाथेय है श्रीराम का जीवन
डॉ. वंदना सेन
(रामनवमी पर विशेष) भारतीय सांस्कृतिक दर्शन की धारा को प्रवाहित करने वाले भारतीय साहित्य में वसुधैव कुटुम्बकम का भाव सदैव समाहित रहा है। महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण और संत तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस ने सामाजिक समरसता के भाव का प्रवाहन बहुत ही गहनता से किया है। उदारता के भाव से अनुप्राणित भारतीय साहित्य निश्चित ही विश्व समुदाय को अहिंसा और सामाजिक समरसता का धरातलीय संदेश देता है। जिसकी वर्तमान में पूरे विश्व को अत्यंत आवश्यकता है।
विश्व का प्रथम महाकाव्य महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण है। जिसमें भेदभाव और छूआछूत को महत्व न देकर केवल सामाजिक समरसता की ही प्रेरणा दी गई है। वनवासी राम का सम्पूर्ण जीवन सामाजिक समरसता का अनुकरणीय पाथेय है। श्रीराम ने वनगमन के समय प्रत्येक कदम पर समाज के अंतिम व्यक्ति को गले लगाया। केवट के बारे में हम सभी ने सुना ही है, कि कैसे भगवान राम ने उनको गले लगाकर समाज को यह संदेश दिया कि प्रत्येक मनुष्य के अंदर एक ही जीव आत्मा है। बाहर भले ही अलग दिखते हों, लेकिन अंदर से सब एक हैं। यहां जाति का कोई भेद नहीं था। वर्तमान में जिस केवट समाज को वंचित समुदाय की श्रेणी में शामिल किया जाता है, भगवान राम ने उनको गले लगाकर सामाजिक समरसता का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया है। सामाजिक समरसता के भाव को नष्ट करने वाली जो बुराई आज दिखाई दे रही है, वह पुरातन समय में नहीं थी। समाज में विभाजन की रेखा खींचने वाले स्वार्थी व्यक्तियों ने भेदभाव को जन्म दिया है।
वर्तमान में हम स्पष्ट तौर पर देख रहे हैं कि समाज को कमजोर करने का सुनियोजित प्रयास किया जा रहा है, जिसके कारण जहां एक ओर समाज की शक्ति तो कमजोर हो रही है, वहीं देश भी कमजोर हो रहा है। वर्तमान में राम राज्य की संकल्पना को साकार करने की बात तो कही जाती है, लेकिन उसके लिए सकारात्मक प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। सामाजिक एकता स्थापित करने के लिए रामायण हम सभी को उचित मार्ग दिखा सकती है।
यह भी सर्वविदित है कि राम वन गमन के दौरान भगवान राम ने निषाद राज को भी गले लगाया, इसका यही तात्पर्य है कि भारत में कभी भी जातिगत आधार पर समाज का विभाजन नहीं था। पूरा समाज एक शरीर की ही तरह था। जैसे शरीर के किसी भी हिस्से में दर्द होता है, तब पूरा शरीर अस्वस्थ हो जाता था। इसी प्रकार समाज की भी अवधारणा है, समाज का कोई भी हिस्सा वंचित हो जाए तो सामाजिक एकता की धारणा समाप्त होने लगती है। हमारे देश में जाति आधारित राजनीति के कारण ही समाज में विभाजन के बीजों का अंकुरण किया गया। जो आज एकता की मर्यादाओं को तार-तार कर रहा है।
भगवान राम ने अपने वनवास काल में समाज को एकता के सूत्र में पिरोने का काम पूरे कौशल के साथ किया। समाज की संग्रहित शक्ति के कारण ही भगवान राम ने आसुरी प्रवृति पर प्रहार किया। समाज को निर्भयता के साथ जीने का मार्ग प्रशस्त किया। इससे यही शिक्षा मिलती है समाज जब एक धारा के साथ प्रवाहित होता है तो कितनी भी बड़ी बुराई हो, उसे नत मस्तक होना ही पड़ता है। सीधे शब्दों में कहा जाए तो संगठन में ही शक्ति है। इससे यह संदेश मिलता है कि हम समाज के साथ कदम मिलाकर नहीं चलेंगे तो हम किसी न किसी रुप में कमजोर होते चले जाएंगे और हमें कोई न कोई दबाता ही चला जाएगा। सम्पूर्ण समाज हमारा अपना परिवार है। कहीं कोई भेदभाव नहीं है। जब इस प्रकार का भाव बढ़ेगा तो स्वाभाविक रुप से हमें किसी भी व्यक्ति से कोई खतरा भी नहीं होगा। आज समाज में जिस प्रकार के खतरे बढ़ते जा रहे हैं, उसका अधिकांश कारण यही है कि समाज का हिस्सा बनने से बहुत दूर हो रहे हैं। अपने जीवन को केवल भाग दौड़ तक सीमित कर दिया है। यह सच है कि व्यक्ति ही व्यक्ति के काम आता है। यही सांस्कृतिक भारत की अवधारणा है।
पूरे विश्व में भारत एक सांस्कृतिक राष्ट्र के रुप में पहचाना जाता है, जब हम भारत को राष्ट्र बोलते हैं, तब हमें इस बात का बोध होना ही चाहिए कि राष्ट्र आखिर होता क्या है? हम इसका अध्ययन करेंगे तो पता चलेगा कि राष्ट्र की एक संस्कृति होती है, एक साहित्यिक अवधारणा होती है, एक आचार विचार होता है, एक जैसी परंपराएं होती हैं। भगवान राम के जीवन में इन सभी का साक्षात दर्शन होता है, इसलिए कहा जा सकता है कि राम जी केवल वर्ग विशेष के न होकर सम्पूर्ण विश्व के हैं। उनके आदर्श हम सभी के लिए हैं। हमें राम जी के जीवन से प्रेरणा लेकर ही अपने जीवन को उत्सर्ग के मार्ग पर ले जाने का उपक्रम करना चाहिए।
कोरोनाः सरकारी दिग्भ्रम क्यों ?
डॉ0 वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के उन लोगों से माफी मांगी है, जिन्हें इस तालाबंदी (लाकडाउन) के कारण अपने गांवों की तरफ दौड़ना पड़ा है। लेकिन उन्होंने तालाबंदी की मजबूरी पर भी जोर दिया है। मोदी की इस विनम्रता और सहृदयता पर किसी को भी शक नहीं होना चाहिए। लेकिन मेरा निवेदन है सरकारें सारे कदम हड़बड़ी में क्यों उठा रही हैं ? हर कदम उठाने के पहले वे आगा-पीछा क्यों नहीं सोचतीं ? उन्होंने नोटबंदी की भयंकर भूल से भी कोई सबक नहीं सीखा।
अब जबकि उ.प्र. के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने अपने लाखों नागरिकों को उनके गांवों तक पहुंचाने के लिए सैकड़ों बसें चला दी हैं तो प्रधानमंत्री ने आदेश जारी कर दिया है कि सारे राज्यों की सीमाएं बंद कर दी जाएं और राज्यों के अंदर भी जिलाबंदी कर दी जाए। योगी की सरकार भाजपा की है, कांग्रेस की नहीं है लेकिन भाजपा की ही केंद्र सरकार ने अब उसके सारे प्रयत्नों पर पानी फेर दिया है। मैंने सभी मुख्यमंत्रियों से अनुरोध किया था कि वे कृपया तीन दिनों के लिए इस यात्रा की सुविधा दे दें। कुछ राज्यों ने यह काम शुरु भी कर दिया था लेकिन अब पुलिसवाले उन दिहाड़ी मजदूरों, छात्रों और कर्मचारियों की पिटाई कर रहे हैं और उन्हें शहरों में लौटने के लिए बाध्य कर रहे हैं। गांव की तरफ पैदल लौटनेवाले मप्र के एक नौजवान की मौत की खबर ने बड़े अपशकुन की शुरुआत कर दी है। कई शहरों में इस ‘लाॅकडाउन’ की खुले-आम धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। देश के इन करोड़ों प्रवासी मजदूरों को अब दोहरे अत्याचार का शिकार होना पड़ रहा है। उनके खाने और रहने के इंतजाम में बड़े शहरों की राज्य सरकारों की कमर टूट जाएगी। यह सरकारी दिग्भ्रम क्यों है ? कोरोना से ज्यादा लोग इस दिग्भ्रम के कारण मर सकते हैं।
इसमें शक नहीं कि केंद्र और सभी राज्यों की सरकारे इस कोरोना महामारी से लड़ने के लिए जी-तोड़ कोशिश कर रही हैं लेकिन मेरे उनसे कुछ अनुरोध हैं। पहला, कोरोना का सस्ता परीक्षण-उपकरण (टेस्ट किट) एक महिला वैज्ञानिक ने खोज निकाला है। उसकी कीमत सिर्फ 12 रु. है। उसे लाखों में बंटवाएं। दूसरा, मुंह की लाखों पट्टियां तैयार करवाकर बंटवाई जाएं। तीसरा, कोरोना हमले से ठीक हुए मरीजों के ‘प्लाज्मा’ के इस्तेमाल की बात सोची जाए। चौथा, प्रधानमंत्री ने वैद्यों से जो बात की है, उसके निष्कर्षों से सारे देश को लाभ पहुंचाया जाए। पांचवां, गैर-सरकारी अस्पतालों को कोरोना-मरीजों के मुफ्त इलाज के आदेश दिए जाएं। छठा, देश के सारे पंचों, पार्षदों और विधायकों तथा हारनेवाले उम्मीदवारों को भी घर-घर जाकर लोगों को खाद्यान्न बंटवाना चाहिए। सातवां, जनता खुद जागे। अपने भाइयों की मदद करे।
मुश्किल होती लड़ाई
सिध्दार्थ शंकर
देश भर में 21 दिन का लॉकडाउन लागू कर दिया गया है। पिछले दिनों जिस तरह कई इलाकों में लोगों ने लॉकडाउन को लेकर लापरवाही दिखाई, उससे सरकार को इस बार सख्त रुख अपनाना पड़ा। नियम तोडऩे वालों पर एक महीने से दो साल तक की सजा का प्रावधान कर दिया गया है। इस सख्ती की तात्कालिक वजह यह है कि पिछले दिनों 64 हजार के करीब भारतीय और विदेशी यूरोप, अमेरिका और खाड़ी देशों से यहां आए हैं। इन इलाकों में कोविड-19 का प्रकोप बहुत ज्यादा है, लिहाजा वहां से इनके आने के बाद भारत में बीमारी फैलने का खतरा काफी बढ़ गया है। इस लंबे लॉकडाउन का मकसद यह है कि बाहर से आए किसी व्यक्ति में अगर वायरस है भी तो वह इसे फैला न पाए। जिन मरीजों में लक्षण आने होंगे उनमें ये 14 दिन में दिख जाएंगे और उनका इलाज शुरू हो जाएगा। दूसरी तरफ जो पहले से संक्रमित हैं उनका इलाज इस बीच पूरा हो जाएगा। मगर पिछले दो दिनों में दिल्ली, गुजराज और हरियाणा में मजदूरों का पलायन और हजारों की घर जाने की जो बेबसी दिखाई दी, वह चिंतित करने वाली है। सोशल डिस्टेंशिंग का संदेश तार-तार होते दिखा। इससे संदेश यह मिला है कि लंबे लॉकडाउन से कई अप्रत्याशित चुनौतियां भी सामने आने वाली हैं। उनसे निपटने के लिए सरकार को दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा।
उपभोक्ता मामलों के मंत्री रामविलास पासवान ने कहा है कि जरूरी चीजों का मिलना सुनिश्चित करने के लिए सरकार हालात की निगरानी कर रही है। लोगों को रोजमर्रा की चीजों की किल्लत नहीं होनी चाहिए और इनकी कीमतें नियंत्रित रहनी चाहिए। कंस्ट्रक्शन सेक्टर में लगे मजदूरों के लिए श्रम मंत्री संतोष गंगवार ने राहत का ऐलान किया है। 52,000 करोड़ के लेबर सेस फंड से पैसा सीधे मजदूरों के अकाउंट में भेजा जाएगा। इसके अलावा विभिन्न श्रेणी के मजदूरों को एक माह का राशन मुफ्त दिया जाएगा।
फिर, भारत समेत पूरी दुनिया में सरकारों के सामने आर्थिक मोर्चे पर अभी तिहरी चुनौती है। एक तरफ काफी पहले से निजी क्षेत्र की ओर उन्मुख हो चुके स्वास्थ्य और चिकित्सा ढांचे के बल पर विशाल आबादी की कोरोना वायरस से जुड़ी जांच कराना और बड़ी तादाद में लोगों का इलाज सुनिश्चित करना, जिसके लिए सरकारी खजाने से काफी सारी रकम खर्च करनी पड़ रही है। दूसरे, बिना किसी काम-धाम के अपने घरों में कैद करोड़ों लोगों के कम से कम तीन-चार महीने जिंदा रहने की व्यवस्था करना। और तीसरे, आधुनिक इतिहास की सबसे बड़ी- 2008 तो क्या, 1929 की महामंदी से भी बड़ी- आर्थिक मंदी से यथाशीघ्र उबरने का एक खाका भी तैयार रखना, ताकि महामारी से बचे लोग आने वाले दिनों में बेरोजगारी और भुखमरी के शिकार न हो जाएं।
लगभग सभी देशों की सरकारों ने इन तीनों लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए विशाल राहत पैकेजों की घोषणा करनी शुरू कर दी है, हालांकि ज्यादातर के यहां विभिन्न वजहों से खजाने का बाजा बजा हुआ है। अमेरिका में 2200 अरब डॉलर के ऐतिहासिक राहत पैकेज के तुरंत बाद अपने यहां वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने पेंशनयाफ्ता बुजुर्गों, अकेले घर चलाने वाली महिलाओं, दिव्यांगों और अकुशल ग्रामीण मजदूरों से लेकर किसानों, कंपनी कर्मचारियों और स्व-सहायता समूहों तक के लिए 1 लाख 70 हजार करोड़ रुपये की ऐसी कई योजनाएं घोषित की हैं, जिनके जरिये तीन महीने तक या तो कुछ अतिरिक्त रकम सीधे उनके खाते में जाएगी, या अपनी ही रकम एडवांस में निकाल कर वे अपने पारिवारिक खर्चे पूरे कर सकेंगे।
संकट की घड़ी में लोगों को सरकारी मदद देने की बात कहने में आसान लगती है लेकिन व्यवहार में यह काम बहुत मुश्किल होता है। सीधे खाते में रकम भेजना तकनीकी तौर पर इस समस्या को संबोधित करने का सबसे अच्छा तरीका है, लेकिन सालोंसाल हम देखते आ रहे हैं कि बीच में बैठे घडिय़ालों ने इस अमानत में भी खयानत करने के तमाम तरीके खोज लिए हैं।
कोरोनाः नेता लोग घर-घर जाएं
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कल मैंने कुछ राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों से बात की और उनसे निवेदन किया कि जो लाखों दिहाड़ी मजदूर, कर्मचारी और खेरची विक्रेता अपने गांवों की तरफ भाग रहे हैं, उन्हें वे यात्रा की सुविधा दें। उन्होंने इसकी तुरंत व्यवस्था की। उन्हें किन शब्दों में धन्यवाद दिया जाए ? उन्होंने तालाबंदी को भंग नहीं किया बल्कि उसकी बर्दाश्त को बढ़ाया है। मुझे कई मित्रों ने फोन करके बताया कि उनकी वेबसाइटों और फेसबुक पर 30-30 लाख, 15-15 लाख लोगों ने मेरे कल के लेख को पढ़ा और उसके सुझावों का समर्थन किया।
आज मैं अपने सभी मुख्यमंत्रियों से निवेदन करता हूं कि वे ये तो कहते रहें कि लोग शहर छोड़कर गांवों की तरफ कूच न करें लेकिन फिर भी वे लोगों को अपने ठिकानों पर पहुंचाने की पूरी तैयारी करें। सबको अपनी जान प्यारी है। जो भी आवश्यक सावधानी है, उसका वे ध्यान अपने आप रखेंगे। उन्हें डंडे के जोर से डराया न जाए। अब मैं देश के प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों से निवेदन कर रहा हूं कि वे देश की सभी पंचायतों, नगरपालिकाओं, नगर निगमों और विधानसभाओं के सदस्यों से कहें कि वे अपने-अपने निर्वाचन-क्षेत्रों में जाएं और हर घर को मुफ्त राशन बटवाएं। वे हर घर पर जैसे वोट लेने जाते हैं, वैसे ही अब अन्न देने जाएं। दिल्ली में मुख्यमंत्री केजरीवाल हर घर को 7.50 किलो राशन बंटवा रहे हैं। जिस घर को नहीं लेना है, वह राशन न ले। लेकिन गांवों में, कस्बों में और शहरों में किसी भी नागरिक को भूखे नहीं मरने देना है। सब घरों में अगले दो हफ्ते का राशन जरुर पहुंच जाएं। मुझे पूरा विश्वास है कि हमारे हजारों वर्षों से चले आ रहे घरेलू नुस्खों के दम पर हम इस महामारी पर जल्दी ही काबू पा लेंगे। ये नुस्खे चाहे कोरोना का सीधा इलाज न करें लेकिन वे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को काफी बढ़ा देते हैं। पिछले एक सप्ताह से मैं लगभग रोज इस मुद्दे पर जोर दे रहा हूं। मुझे खुशी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्यों की आज बैठक बुलाई थी। हमारे नुस्खों का फायदा सारे विश्व को मिलना चाहिए।
यह भारत दानवीरों का देश है। यह बात इस संकट के समय सिद्ध हो रही है। देश के सेठों ने अपनी तिजोरियां खोल दी हैं। छोटे-मोटे शहरों में वे सैकड़ों-हजारों लोगों के मुफ्त भोजन की व्यवस्था कर रहे हैं। दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा के 11 करोड़ सदस्यों का विशेष दायित्व है कि वे कोरोना-युद्ध में भारत को विजयी बनाएं।
अब तक के सबसे खराब दौर में पहुंची भारतीय अर्थव्यवस्था
सनत जैन
वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसी ने वर्ष 2020 के आर्थिक अनुमान की रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट में रेटिंग एजेंसी ने 2020 में भारत की आर्थिक विकास दर 2.50 फ़ीसदी रहने का अनुमान जताया है। इसी रेटिंग एजेंसी ने पिछली रिपोर्ट में भारत की आर्थिक विकास दर 5.3 फ़ीसदी रहने का अनुमान जताया था। मूडीज की रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2020 में भारत की आय तेजी से घटेगी। घरेलू मांग भी काफी कम होगी। रेटिंग एजेंसी ने भारतीय बैंकों और एनएफसी कंपनियों के पास पर्याप्त नगदी नहीं होने के कारण आगे कर्ज हासिल करने में सबसे बड़ी बाधा बताया है। वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडीज की माने तो भारतीय अर्थव्यवस्था अपने सबसे खराब दौर पर पहुंच गई है। पिछले कई दशकों में इतनी बुरी हालत कभी नहीं रही, जो 2020 में होने जा रही है।
रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर शशिकांत दास में लाकडाउन के बाद विशेष पैकेज के रूप में जो घोषणा की है। उसमें रिजर्व बैंक ने रेपो रेट घटाकर 4.4 फ़ीसदी कर दिया है। 3 माह के लिए ईएमआई बढ़ाने का सुझाव उन्होंने बैंकों को दिया है। रेपो रेट 0.75 फ़ीसदी घटाने से ईएमआई में कर्जदारों को थोड़ी राहत मिलेगी। रिजर्व बैंक ने बैंकों का रिजर्व रेशो घटाकर 3 फ़ीसदी कर दिया है। इससे बैंकों के पास कर्ज बांटने के लिए 1.37 लाख करोड़ रुपया अतिरिक्त उपलब्ध होगा। रिजर्व बैंक ने जो घोषणा की है, वित्तीय विशेषज्ञों के अनुसार सांप गुजरने के बाद लकीर को पीटने जैसा उपाय है। इससे आर्थिक स्थिति में कोई सुधार होगा, यह अपेक्षा करना, वास्तविकता से मुंह छिपाने जैसा होगा।
वैश्विक व्यापार संधि भारत में लागू होने के बाद से भारत की आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था में बड़ी तेजी के साथ बदलाव आया। विश्व बैंक ने उधार लेकर तेजी के साथ विकास करने का जो नया फार्मूला सारी दुनिया के देशों को दिया था। उसके बाद से दुनिया भर के सभी विकासशील देशों ने विकसित देश बनने के लिए भारी पैमाने पर कर्ज लेना शुरू कर दिया। 2003 तक भारत का कोई भी नागरिक कर्जदार नहीं था। जो कर्जदार थे, उन्हें अपनी चल और अचल संपत्ति को गिरवी रखने पर संपत्ति का मात्र 25 से 50 फ़ीसदी ही ऋण उपलब्ध होता था। यदि वह नहीं चुका पाते थे, तो वह जप्त हो जाता था। लेकिन कर्जदार कोई भी भारतीय नहीं था। उस समय केंद्र एवं राज्य सरकार जरूर कर्ज लेती थी। किंतु वह भी बजट का एक सीमित हिस्सा होता था। 2004 के बाद से भारत के नागरिकों को बैंकों और फाइनेंस कंपनियों द्वारा बड़े पैमाने पर ऋण देना शुरू किया। वाहन खरीदने, टीवी, फ्रीज, मकान, प्लाट, शिक्षा के लिए कार, पर्सनल लोन, क्रेडिट कार्ड से मिलना शुरू हो गया। जिसके कारण लोगों ने बड़े पैमाने पर कर्ज लिया। कर्ज लेकर घी पीने की कहावत चरितार्थ हुई। कर्ज स्टेट्स सिंबल बन गया। कर्ज के कारण सभी सेक्टरों में 2004 के बाद बड़ी तेजी के साथ मांग बढ़ी। भारत की अर्थव्यवस्था में साल दर साल बड़ी तेज गति से बढ़त हुई। केंद्र एवं राज्य सरकारों की टैक्स से आय बड़ी तेजी के साथ बढ़ी। उधारी की अर्थव्यवस्था का नशा भारत के प्रत्येक नागरिक में चढ़ा। इस नशे से केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और नगरीय संस्थाएं भी अछूती नहीं रही। सब ने अपनी क्षमता से कई गुना कर्ज लेकर, स्वर्ग के सुख भोगने शुरू कर दिए। अर्थात जिस चीज की इच्छा होती थी, कर्ज लेकर इच्छा को पूरा करने का कोई मौका किसी ने भी नहीं छोड़ा।
भारतीय अर्थव्यवस्था में पहला तगड़ा झटका 2016 में तब लगा। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 1000 एवं 500 रुपए के नोटबंदी का निर्णय लिया। इस निर्णय से लगभग 6 माह तक भारत की अर्थव्यवस्था में ठहराव आ गया। घर-घर में महिलाओं की बचत जो स्त्री धन के रूप में थी। जो उन्होंने अपने पति और बच्चों से छुपा कर रखी थी। उसे भी बैंकों में जमा करना पड़ा। भारतीय किसानों को अपनी जमा राशि का सबूत देने के लिए, आयकर की रिटर्न भरनी पड़ी। रिजर्व बैंक ने काले धन नकली नोट तथा काली अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने का जो दावा किया था। वह तो हुआ नहीं। उल्टे रिजर्व बैंक ने जो 1000 एवं 500 रुपये के नोट जारी किए थे। उससे ज्यादा नोट रिजर्व बैंक में वापस आ गए। सरकार और रिजर्व बैंक आज भी इस आंकड़े को बताने के लिए तैयार नहीं है। यह कहा जा सकता है, कि भारत का यह सबसे बड़ा घोटाला था। जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचाया।
रही सही कसर जीएसटी लागू करने में सरकार ने जल्दबाजी कर भारतीय अर्थव्यवस्था को रसातल में पहुंचाने का काम किया। भारत की अर्थव्यवस्था में सबसे ज्यादा योगदान कृषि एवं असंगठित क्षेत्र का होता है। कृषि, रोजगार और व्यापार से जुड़े लगभग 30 करोड़ों लोग भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। भारत में औद्योगिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा 35 फ़ीसदी से ज्यादा कभी नहीं रहा भारत के 60 फ़ीसदी हिस्से में आज भी इंटरनेट सेवा उपलब्ध नहीं है। सिग्नल नहीं मिलते हैं। दिल्ली मुंबई जैसे महानगरों में भी इंटरनेट की स्पीड और उसकी उपलब्धता बहुत कम है। यहां पर भी कई स्थानों पर सिग्नल ही नहीं मिलते हैं। छोटे शहरों एवं गांव की स्थिति आज भी बहुत खराब है। व्यापार एवं व्यवसाय में लगे लोग जो मिडिल क्लास की पास नहीं थे। जो अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त और कोई भाषा नहीं जानते थे। उनके ऊपर बिना किसी प्रशिक्षण के अंग्रेजी भाषा में जीएसटी का सॉफ्टवेयर और इंटरनेट के झूले में झूला कर जिंदा ही मार दिया गया। सरकार ने यह मान लिया था, कि सामान की बिक्री और सेवा प्रदाता द्वारा सेवा दिए जाने के साथ ही बिलों का भुगतान हो जाता है। हर माह टैक्स जमा करने की अनिवार्यता की गई। 12 फ़ीसदी से 28 फ़ीसदी का भारी भरकम टैक्स लगाया गया। खुद सरकार के विभिन्न विभागों नगरीय संस्थाओं और कारोबार में बिलों का भुगतान कई माह बाद तक होता है। जीएसटी के गलत प्रावधान के कारण कारोबारियों की पूंजी टैक्स के रूप में सरकारी खजाने में जमा हो गई। टैक्स जमा करने के लिए बैंकों से कर्ज लिया गया। बैंकों से लाखों कारोबारी डिफाल्टर हो गए। जीएसटी कानून में 700 से अधिक बार नियमों में संशोधन किया गया। व्यापारियों को सीए और बाबुओं के भरोसे छोड़ दिया गया। रही सही कसर इंटरनेट और जीएसटी के सॉफ्टवेयर ने पूरी कर दी। जिसके कारण लाखों कारोबारियों के उद्योग धंधे बंद हो गए। सारे देश में करोड़ों लोग बेरोजगार हो गए। जिसने अर्थव्यवस्था को काफी बड़ा नुकसान पहुंचाया। सरकार वास्तविकता की अनदेखी करती रही वह यह मान की चल रही थी, कि अपने आप सब कुछ ठीक हो जाएगा।
पिछले एक दशक में बैंकों ने कारपोरेट जगत को अरबों रुपए का कर्ज दिया, जो वापस नहीं आया। बैंकों ने उसे एनपीए में डाल दिया। पिछले एक दशक में बैंकों एवं वित्तीय संस्थाओं द्वारा बड़े पैमाने पर शेयर बाजार में निवेश किया। शेयर बाजार एक तरह से सट्टा बाजार है। जहां संभावनाओं के आधार पर पैसा निवेश किया जाता है, और उससे भारी कमाई की जाती है। सारी दुनिया के देशों में भारत का शेयर बाजार ही एक मात्र ऐसा शेयर बाजार है। जो बड़ी तेज गति से आगे बढ़ा। दुनिया भर के निवेशक भारतीय शेयर बाजार में बार-बार निवेश करके मुनाफा वसूली करते थे। बाजार को गिराने और चढ़ाने का खेल खेल कर भारतीय धन को विदेश ले जाने में देशी-विदेशी कारपोरेट निवेशक सफल रहे। इस खेल में देसी और विदेशी निवेशकों ने मिलकर भारतीय बाजार से पूंजी निकाली और विदेशों में निवेश कर दी। जब-जब बाजार गिरने को हुआ। केंद्र सरकार के इशारे पर बैंकों, एलआईसी तथा पीएफ का पैसा शेयर बाजार में निवेश कराकर कृत्रिम तेजी बनाए रखने का घोर पाप करने में केंद्र सरकार की भी बड़ी भूमिका रही। पिछले 2 माह में शेयर बाजार 42000 के उच्चतम स्तर से वापस लौट कर 30000 अंकों के नीचे आ गया है। इससे बैंकों एलआईसी तथा वित्तीय संस्थानों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है। 2019-20 की सभी वित्तीय संस्थानों की बैलेंस शीट अब घाटे में होंगी। यही कारण है, कि बैंकों और वित्तीय संस्थानों के पास नगद पूंजी उपलब्ध नहीं है। खाते-बही में जरूर उनके पास पूंजी दिख रही है। भारतीय वित्तीय संस्थानों का धन शेयर बाजार में निवेश कराकर, देसी और विदेशी धन पशुओं के खाते में पहुंचाने में हमारे राजनेताओं और नीति निर्माताओं की भी बड़ी भूमिका है।
कोरोनावायरस के कारण देश में 21 दिनों का जो लॉकडाउन (जनता कर्फ्यू) लागू किया गया है। उससे देश की सारी आर्थिक गतिविधियां ठप्प हो गई हैं। देश में पहली बार रेलें, बसें, हवाई जहाज, उद्योग-धंधे कारोबार, मजदूरी सब बंद है। लोग घरों में कैद हैं। एक माह के अंदर ही लाखों करोड़ों रुपए की अर्थव्यवस्था का नुकसान भारत को होगा। वहीं आम आदमी के जीवन यापन और उनके जीवन को सुरक्षित बनाए रखने के लिए सरकार को अरबों रुपए अतिरिक्त खर्च करना पड़ेगा। भारतीय अर्थव्यवस्था में वर्तमान में ऐसी कोई तरलता नहीं है। जिससे वर्तमान खर्च को जुटाया जा सके। ऐसी स्थिति में भारतीय अर्थव्यवस्था का भगवान ही मालिक है। नागरिकों, नगरीय संस्थाओं, राज्य सरकारों तथा केंद्र सरकार के ऊपर आय से अधिक खर्च का बोझ है। नागरिकों के ऊपर टैक्स उच्चतम सीमा पर वसूल किया जा रहा है। नागरिकों के पास भी नगदी नहीं है। बैंकों के पास भी नगदी नहीं है। राज्य सरकारें हर माह कर्ज लेकर वेतन बांटने और उधारी चुकाने में कर रही हैं। केंद्र सरकार ने भी पिछले वर्षों में वित्तीय संस्थाओं से भारी कर्ज लिया है। नागरिकों के उपर भी भारी कर्ज है। जब सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था के बेपटरी हो रही है। ऐसी स्थिति में भारतीय अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए हमें बुजुर्गों के दिखाए मार्ग पर चलना होगा। अर्थात जितनी चादर उतना पैर पसारने, तथा कर्ज के स्थान पर बचत को बढ़ाकर ही हम अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत कर सकते हैं। उल्लेखनीय है, 1947 से लेकर 1997 तक भारत में जो भी विकास कार्य हुए हैं। वह बचत की अर्थव्यवस्था के कारण संभव हुए हैं। टैक्स भी कम था। विकास की गति कम जरुर थी। लेकिन अर्थव्यवस्था मजबूत थी। स्वतंत्रता के बाद 50 वर्षों में भारत ने प्राकृतिक आपदाओं, युद्ध और कई आपदाओं का सामना करते हुए अपने आप को लगातार मजबूत बनाया था। इसको हमें भूलना नहीं चाहिए।
कोरोनाः रेलें और बसें तुरंत चलाएं
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लॉकडाउन (तालाबंदी) की ज्यों ही घोषणा हुई, मैंने कुछ टीवी चैनलों पर कहा था और अपने लेखों में भी पहले दिन से लिख रहा हूं कि यह ‘लाॅकडाउन’ कोरोना से भी ज्यादा खतरनाक सिद्ध हो सकता है। कोरोना से पिछले दो हफ्तों में 20 लोग भी नहीं मरे हैं और 1000 लोग भी उसके मरीज़ नहीं हुए हैं लेकिन शहरों और कस्बों में काम-धंधे बंद हो जाने के कारण अब लाखों मजदूर और छोटे-मोटे कर्मचारी अपने गांवों की तरफ कूच कर रहे हैं। क्यों कर रहे हैं ? क्योंकि उन्हें हर शाम अपनी मजदूरी मिलनी बंद हो गई है। जो लोग कारखानों और दफ्तरों में ही सो जाते थे, उनमें ताले पड़ गए हैं। देश भर के इन करोड़ों लोगों के पास खाने को दाने नहीं हैं और सोने को छत नहीं है। वे अपने गांवों की तरफ पैदल ही चल पड़े हैं। उनके बीवी-बच्चे भी हैं। उनके पेट और जेब दोनों ही खाली हैं। सरकार ने 80 करोड़ लोगों के लिए खाने में मदद की घोषणा करके अच्छा कदम उठाया है लेकिन ये जो अपने गांवों की तरफ दौड़े जा रहे मजदूर, कर्मचारी और छोटे व्यापारी हैं, ये लोग भूख के मारे क्या रास्ते में ही दम नहीं तोड़ देंगे ? मरता, क्या नहीं करता ? रास्ते में घर और दुकानें बंद हैं ? इनके पास अपनी जान बचाने का अब क्या रास्ता बचा रहेगा ? क्या लूट-पाट और मार-धाड़ नहीं होगी ? सभी गृहस्थों और दुकानदारों से मेरा निवेदन है कि वे किसी भी यात्री को भूख से मरने न दें। मैं चाहता हूं कि अगले तीन दिन के लिए सभी सरकारी बसों और रेलों को खोल दिया जाए और सभी यात्रियों को मुफ्त-यात्रा की सुविधा दे दी जाए। करोड़ों लोग अपने गांवों में अपने परिवार के साथ संतोषपूर्वक रह सकेंगे। किसी तरह से वे अपने खाने-पीने का इंतजाम कर लेंगे। केंद्र और राज्य सरकारे लोगों की मदद कर ही रही हैं। जब मैं बसें और रेलें चलाने की बात कर रहा हूं तो यहां यह बताने की जरुरत भी है कि कोरोना से ज्यादातर वे ही लोग पीड़ित है, जो विदेश-यात्राओं से लौटे हैं और उनके संपर्क में आए हैं। जो मजदूर, किसान, छोटे कर्मचारी और छोटे विक्रेता गांवों की ओर भाग रहे हैं, उनका कोरोना से क्या लेना-देना है ? यदि सरकार मेरे इस सुझाव का लागू करती है तो कोरोना-युद्ध से लड़ने में उसको आसानी तो होगी ही, देश अराजकता से भी बच जाएगा। मैंने पहले भी लिखा है कि इस तरह की सावधानियां इस सरकार को पहले से सोच कर रखनी चाहिए थीं लेकिन कोई बात नहीं। अब भी मौका है। मैं अपने सभी राज्यपाल और मुख्यमंत्री दोस्तों से अनुरोध करता हूं कि वे नरेंद्र भाई और अमित भाई को यह कदम उठाने के लिए प्रेरित करें।
‘करुणा’ जाएगी तो ‘कोरोना’ ही आएगा ?
तनवीर जाफ़री
मानव इतिहास में पहली सबसे बड़ी त्रासदी के रूप में पूरा विश्व इस समय कोरोना के प्रकोप का सामना कर रहा है। दुनिया के जो शहर कभी अपने राजाओं व शासकों की मृत्यु के समय भी उनके शोक पर बंद नहीं हुए दुनिया के उन कोरोना प्रभावित कई शहरों में पूरी तरह शट डाउन देखा जा रहा है। जो बड़े से बड़े आयोजन अथवा कार्यक्रम कभी रद्द नहीं हुए उन्हें कोरोना की दहशत ने अनिश्चितकाल के लिए स्थगित करा दिया है। विश्व के अनेक राष्ट्राध्यक्ष अपने देश की जनता को अपनी अपनी सोच के अनुरूप संबोधित कर चुके हैं। जहाँ इस बात की उम्मीद की जा रही थी कि तापमान में बढ़ोत्तरी होने के साथ साथ कोरोना का प्रकोप भी संभवतः समाप्त हो जाएगा वहीँ पिछले दिनों विश्व स्वास्थ्य संग्ठन ने यह कहकर दुनिया की चिंताएं और बढ़ा दी हैं कि गर्मी के मौसम में भी कोरोना पूरी तरह से प्रभावहीन नहीं होगा। हाँ तापमान अधिक बढ़ने से इसके प्रकोप में कमी ज़रूर आ सकती है। प्रायः अधिक गर्मी के मौसम में अधिकांश वायरस प्रभाव विहीन हो जाते हैं या नष्ट हो जाते हैं। परन्तु कहा जसा रहा है कि कोरोना वायरस एक ऐसा विलक्षण वायरस है जो 37 डिग्री सेल्सियस पर भी इन्सान के शरीर में जीवित रहता है। यही वजह है कि अभी तक कोरोना को निष्क्रिय करने वाले निश्चित व सटीक तापमान का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सका है। कोरोना वायरस को लेकर अब तक जो भी दावे सामने आ रहे हैं, उनमें से ज़्यादातर का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। इस वायरस को लेकर अभी कोई पुख़्ता अध्ययन नहीं है। अभी तक ऐसा माना जा रहा है कि तापमान बढ़ने पर ये वायरस स्वतः ख़त्म हो जाएगा या इसका प्रकोप बहुत कम हो जाएगा। हालांकि, इसकी कोई वैज्ञानिक पुष्टि नहीं है।। इसीलिये विश्व स्वास्थ्य संग्ठन ने पूरी दुनिया को इससे गंभीरता से लड़ने तथा इससे बचाव के हर संभव उपाय अपनाने की सलाह दी है।
कोरोना वायरस की भयावहता तथा इसके दुष्प्रभाव से लड़ने के उपायों से जूझते स्वास्थ्य वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों के बीच इसी कोरोना से जुड़े कुछ ऐसे कई बेतुके वैश्विक तथ्य भी हैं जो सोशल मीडिया से लेकर अनेक समाचार व संचार माध्यमों में प्रमुखता से दिखाई दे रहे हैं। उदाहरण के तौर पर चूँकि इस वायरस की पहली शिनाख़्त चीन के वुहान शहर से हुई इसलिए सर्वप्रथम दुनिया ने चीन के लोगों के खान पान की शैली पर ही सवाल उठाना शुरू दिया। बाद में जब इसकी भयावहता और बढ़ी उस समय चीन से अनेक कारणों से असहज रहने वाले अमेरिका सहित कई देशों व नेताओं ने पूरी तरह से चीन को ही इस वायरस के उत्सर्जन का ज़िम्मेदार बता दिया। अमेरिका को चीन ने भी उसी भाषा में जवाब दिया और कहा कि चीन नहीं बल्कि अमेरिका इसके लिये ज़िम्मेदार है क्योंकि यह अमेरिकी सैनिकों द्वारा पैदा किया गया वायरस है। बीच बहस में शाकाहारी भी कूद पड़े,और मांसाहारी प्रवृति को ही कोरोना का ज़िम्मेदार बताने लगे। इसी बहस में इस्लामी ग्रुप से संबंधित लोगों का कूदना भी शायद ज़रूरी था तभी उस विचारधारा के लोगों ने यह बता डाला कि चीन में चूँकि मुसलमानों पर चीन सरकार ने बड़े ज़ुल्म ढाए थे इसलिए ‘ख़ुदा के क़हर के रूप में यह वायरस अल्लाह का भेजा हुआ अज़ाब है। यह कथित अति उत्साही इस्लामी ग्रुप के लोग यहीं पर नहीं रुके बल्कि इनकी तरफ़ से एक वीडीओ ऐसी भी वॉयरल की गयी जिसमें यह दावा किया गया कि चीन के लोग कोरोना के क़हर से पनाह मांगने के लिए क़ुरान शरीफ़ पढ़ हैं तथा इसे बाँट रहे हैं। परन्तु इस वर्ग की यह आवाज़ उस समय मद्धिम हो गयी जब ईरान में भी इसका भयंकर प्रकोप फैल गया और वहां के कई धर्मगुरु भी इसकी चपेट में आ गए। इतना ही नहीं बल्कि कुछ समय के लिए तो काबा शरीफ़ का दैनिक तवाफ़ (परिक्रमा) भी स्थगित कर दिया गया।
तर्कशीलों द्वारा भी इस अवसर को अपनी तार्किक नज़रों से देखा गया। इस वर्ग द्वारा जनमानस के बीच एक सवाल यह छोड़ा गया कि आज जबकि लगभग कोरोना प्रभावित या कोरोना के दुष्प्रभाव की संभावना रखने वाले देशों ने अपने सभी धर्मों के लोगों को उनके अपने अपने धर्मस्थलों पर उनके अपने इष्ट व देवताओं के समक्ष नतमस्तक होने के लिए रोक दिया। जबकि प्रायः किसी भी विपदा या संकट के समय सभी कथित धर्मभीरु लोग अपने अपने ईष्ट के आगे ही सिर झुकाते हैं तथा संकट से उबरने की प्रार्थना करते हैं। परन्तु वही कथित धर्मपरायण वर्ग इस महाविपदा के समय एक बार फिर विज्ञान,अस्पताल तथा स्वास्थ्य वैज्ञानिकों की शोध की तरफ़ उम्मीद भरी नज़रों से देखने के लिए मजबूर है। तर्कशील वर्ग का तर्क है कि एक बार फिर धार्मिक सोच पर वैज्ञानिक मान्यताओं को जीत हासिल हुई है। हालाँकि दुनिया के देशों द्वारा इस तरह के भीड़ नियंत्रण करने के उपाय इसलिए किये जा रहे हैं ताकि अधिक लोगों को एक साथ इकट्ठे होने से रोका जा सके।
इस महाविपदा के समय में दुनिया का प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति जहाँ इस प्रलयकारी मर्ज़ की भयावहता को सुन सुनकर चिंताओं में डूबता जा रहा है वहीं कोरोना पॉज़िटिव लोगों की दुर्दशा तथा कई देशों में उनके प्रति अपनाए जाने वाले दर्दनाक रवैये से भी आहत है। इस समय पूरे विश्व में कोई भी मानवतावादी व्यक्ति,संस्था या संगठन अथवा देश ऐसा नहीं होगा जो किसी व्यक्ति समूह अथवा पूरे देश के लिए ‘कोरोना प्रभावित’ होने जैसी दुर्भावना रखे। परन्तु दुर्भाग्यवश ऐसे विचार रखने वाला अपने ही देश का एक आग लगाऊ टी वी चैनल ही नज़र आया। मानवीय संवेदनाओं को ताक़ पर रखते हुए पिछले दिनों कोरोना वायरस के सम्बन्ध में एक बेहद नकारात्मक व दहशत पैदा करने वाली रिपोर्ट प्रसारित की। इस प्रसारण में उस ‘महान एंकर’ ने क्या पेश किया होगा इसका अंदाज़ा कार्यक्रम के इस दुर्भावना पूर्ण शीर्षक से ही लग जाता है। शीर्षक था ‘अब कोरोना की मौत मरेगा पाकिस्तान’। मैं नहीं समझता कि ऐसी त्रासदी के समय में किसी भी देश के किसी ज़िम्मेदार न्यूज़ चैनल के किसी एंकर ने इस प्रकार के घटिया व अमानवीयतापूर्ण शीर्षक के साथ किसी कार्यक्रम को प्रस्तुत किया होगा। परन्तु दुर्भाग्यवश कोरोना के इस विश्वव्यापी प्रकोप के समय ‘करुणा’ का त्याग करने वाला यह चैनल भारत जैसे ‘करुणामयी’ देश का ही एक चैनल है। नित्य भयावह होते जा रहे इस वातावरण में अनेक मानवतावादी यह सोचने के लिए मजबूर हैं कि विश्व के बड़े भाग में ‘कोरोना’ वायरस का पैर पसारना कहीं मानव में ‘करुणा’ भाव व मानवीय संवेदनाओं में निरंतर आती जा रही कमी का परिणाम तो नहीं ?
सरकार की सुनें
सिद्धार्थ शंकर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार रात 21 दिन के लॉकडाउन का सख्त फैसला सुना दिया। कोरोना वायरस को फैलने से रोकने के लिए यह कितना जरूरी है, यह शायद सभी को नहीं पता। यह बीमारी बाहर से भारत आई है, ऐसे में उनका लौटना खतरे की घंटी जैसा है। इसी वजह से सरकार ने पूरे भारत में लॉकडाउन और कई जगहों पर कफ्र्यू की भी घोषणा कर दी। लॉकडाउन लगाने की मुख्य वजह लोगों की लापरवाही है। पिछले दिनों मोदी ने ट्वीट कर इस पर नाराजगी भी जताई थी और कहा था कि लोग अब भी गंभीर नहीं हैं। अब 21 दिन का लॉकडाउन लगाने के पीछे सरकार की मंशा यही है कि बाहर से आए अगर किसी को कोरोना है भी तो वह उसे फैला न पाए। इस दौरान जिसमें लक्षण आने होंगे 14 जिन में दिख जाएंगे। उनका इलाज भी शुरू हो जाएगा वहीं जो पहले से पॉजेटिव हैं उनका भी इलाज पूरा हो जाएगा। हालांकि, 21 दिनों के बाद लॉकडाउन खत्म हो जाएगा, यह गारंटी के साथ नहीं कहा जा सकता है। 21 दिन की मियाद खत्म होने के बाद देश में वायरस के प्रकोप की समीक्षा आने वाले दिनों का भविष्य तय करेगी। खैर, यह सब सरकार पर छोड़ दीजिए… हमारे-आप के लिए तो बस एक ही काम है, घर पर रहिए और खुद को सुरक्षित कीजिए।
भारत में कोरोना संक्रमण से पीडि़त नए मरीजों का सामने आना बता रहा है कि बचाव के तमाम उपायों के बावजूद देश में यह महामारी फैल रही है। भले बड़े पैमाने पर संक्रमण के मामले सामने न आए हों, लेकिन रोजाना जिस तरह से नए मरीज सामने आ रहे हैं, वह चिंता का विषय है। ज्यादातर राज्यों में स्कूल और कॉलेज, सिनेमाघर, मॉल आदि बंद कर दिए गए हैं। ऐहतियात के तौर पर लोगों को दफ्तर के बजाय घर से काम करने को कहा गया है। सरकार ने हालात की गंभीरता को देखते हुए कोरोना संकट को राष्ट्रीय आपदा घोषित कर दिया है। हालात बेकाबू न हों, इसके लिए हर स्तर पर हरसंभव कदम उठाए जा रहे हैं। अभी तक कोरोना संक्रमण के जितने मामले सामने आए हैं, उनसे यह साबित हो चुका है कि यह संक्रमण संपर्क के जरिए ही फैल रहा है। ज्यादातर कोरोना पीडि़त वही लोग हैं जो विदेश यात्रा से लौटे हैं और यहां जो उनके संपर्क में आया, उसे यह संक्रमण लगा।
डॉक्टर हाथ धोने, भीड़ वाली जगहों पर मास्क लगाने और खांसी-जुकाम वाले मरीजों से एक मीटर की दूरी बनाए रखने जैसे उपायों पर जोर दे रहे हैं जो इस संक्रमण से बचाव के बुनियादी तरीके हैं। जब ऐसी महामारी फैलती है तो लोग घबरा जाते हैं और अपने स्तर पर ऐसे उपाय करने लगते हैं जो उन्हें संकट में डाल सकते हैं। सबसे जरूरी यह है कि डॉक्टर इससे बचाव के जो तरीके बता रहे हैं, उन्हें नजरअंदाज न किया जाए। यह बात सही है कि यह वायरस मनुष्य से मनुष्य में फैल रहा है, लिहाजा संक्रमित या अनजान लोगों से शारीरिक नजदीकी इसके फैलने में मददगार होती है। लेकिन हमें यह भी समझना होगा कि भारत जैसे बड़े देश को पूरा का पूरा घरों में बंद करना न तो संभव है, न ही यहां यह इस वायरस से लडऩे का सबसे उपयुक्त तरीका हो सकता है। चीन में यह बीमारी सिर्फ एक शहर वुहान में केंद्रित थी, इसलिए वहां इस शहर और इसके लोगों को आइसोलेशन में डालना कारगर साबित हुआ। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह था कि वुहान के चप्पे-चप्पे पर जबर्दस्त सैनिटाइजेशन कैंपेन चलाया गया और अब यह प्रांत फिर से पटरी पर लौटने के लिए तैयार है। चीन अपने यहां लॉकडाउन खत्म करने की तैयारी कर रहा है। यह तभी संभव हो पाया, जब वहां के लोगों ने सरकार का साथ दिया और उसके निर्देशों को माना।
भारत में अभी मरीजों की संख्या उतनी ज्यादा नहीं है, लेकिन वे बहुत बड़े भूगोल में फैले हुए हैं। ऐसे में आइसोलेशन की रणनीति सोच-समझ कर ही अपनाना ठीक रहेगा। सबको घरों में बंद रहने की हिदायत देना, बाजार बंद करवाना, ट्रेनें न चलाना, सड़कें खाली करवाना बेहद जरूरी था, इसलिए सरकार ने किया। अब हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम इस आदेश का शत-प्रतिशत पालन करें और भारत से कोरोना संक्रमण को जल्द से जल्द दूर भगाएं।
कोरोना एक अद्र्श्य सेना के खिलाफ लड़ाई है
डॉ नीलम महेंद्र
कोरोना से विश्व पर क्या असर हुआ है इसकी बानगी अमरीकी राष्ट्रपति का यह बयान है कि, “विश्व कोरोना वायरस की एक अदृश्य सेना के खिलाफ लड़ाई लड़ रहा है।” चीन के वुहान से शुरू होने वाली कोरोना नामक यह बीमारी जो अब महामारी का रूप ले चुकी है आज अकेले चीन ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के लिए परेशानी का सबब बन गई है। लेकिन इसका सबसे अधिक चिंताजनक पहलू यह है कि वैश्वीकरण की वर्तमान परिस्थितियों में यह बीमारी समूची दुनिया के सामने केवल स्वास्थ्य ही नहीं बल्कि आर्थिक चुनौतियाँ भी लेकर आई है। सबसे पहले 31 दिसंबर को चीन ने विश्व स्वास्थ्य संगठन को वुहान में न्यूमोनिया जैसी किसी बीमारी के पाए जाने की जानकारी दी। देखते ही देखते यह चीन से दूसरे देशों में फैलने लगी और परिस्थितियों को देखते हुए एक माह के भीतर यानी 30 जनवरी 2020 को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे विश्व के लिए एक महामारी घोषित कर दिया। स्थिति की भयावहता को इसी से समझा जा सकता है कि आज लगभग दो महीने बाद, चीन नहीं बल्कि यूरोप चीन से शुरू हुई इस बीमारी का नया एपिसेंटर यानी उपरिकेन्द्र बन चुका है। अब तक दुनिया भर में इसके 219357 मामले सामने आ चुके हैं जिनमें से 8970 लोगों की जान जा चुकी है। जिनमें से चीन में 3245, इटली में 2978, ईरान में 1135, अमेरिका में 155, फ्रांस में 264, ब्रिटेन में 104 मौतें हुई हैं। ईरान में तो हालत यह है कि वहाँ की सरकार ने महामारी फैलने के डर से अपनी जेलों में बंद लगभग 2500 कैदी रिहा कर दिए। कनाडा के प्रधानमंत्री की पत्नी इसकी चपेट में हैं।
भारत की अगर बात करें तो इसकी वजह से हमारे देश में अब तक तीन लोगों की जान जा चुकी है और धीरे धीरे इस महामारी ने यहाँ भी अपने पांव पसारना शुरू कर दिया है। दक्षिण भारत के राज्य केरल से देश में प्रवेश करने वाला यह वायरस कर्नाटक, महाराष्ट्र, दिल्ली,हरियाणा और पंजाब होता हुआ उत्तर भारत के केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख तक पहुंच गया है। पहले से ही आर्थिक मंदी झेल रहे भारत समेत अधिकतर देशों में कोरोना के बेकाबू होते संक्रमण से बचने के चलते शट डाउन जारी है। यानी सिनेमा हॉल, मॉल, बाजार, स्कूल, कॉलेज बंद कर दिए गए हैं। भारत में तो बोर्ड और विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाएँ तक अगले आदेश तक स्थगित कर दी गई हैं। विभिन्न मल्टीनेशनल कंपनियों ने अपने कर्मचारियों को घर से काम करने को कहा है। सरकार की ओर से भी एडवाइजरी जारी की गई है जिसमें वो लोगों से एक जगह एकत्र होने से बचने के लिए कह रहे हैं और उन्हें आइसोलेशन यानी कुछ समय के लिए एक दूसरे से मेलजोल कम करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। यह बात सही है कि भारत सरकार ने शुरू से ही कोरोना वायरस के रोकथाम के लिए गंभीर प्रयास आरम्भ कर दिए थे। विदेशों में फंसे भारतीयों को वापस लाने में भी इस सरकार ने ना सिर्फ तत्परता दिखाई बल्कि भारत आने के बाद उनकी जांच और उनके क्वारंटाइन के भी इतने बेहतरीन उपाय किए कि ना सिर्फ विदेशों से लौटे भारतीय ही भारत सरकार के इंतज़ाम को अमेरिका और ब्रिटेन जैसे विकसित देशों से बेहतर बता रहे हैं अपितु विश्व स्वास्थ्य संगठन भी भारत सरकार के इन प्रयासों की तारीफ किए बिना नहीं रह सका। विश्व स्वास्थ्य संगठन के भारत के प्रतिनिधि हेंक बेकडम ने कहा है कि, “कोरोना के खिलाफ पी एम ओ समेत पूरी भारत सरकार के प्रयास प्रभावशाली हैं।”
लेकिन दिक्कत यह है कि हालांकि इस प्रकार की आइसोलेशन से बीमारी से तो बचा जा सकता है लेकिन इससे होने वाले आर्थिक प्रभाव से नहीं। यह विषय इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इस बात का अंदेशा है कि आने वाले महीनों में बढ़ते तापमान के साथ हालांकि इस बीमारी का प्रकोप धीरे धीरे कम होकर समाप्त हो जाएगा लेकिन स्वाइन फ्लू की ही तरह तापमान कम होते ही हर साल यह फिर से सिर उठाएगी। इसलिए इस बीमारी से लड़ने के लिए हमें लघु अवधि या तात्कालिक उपाय ही नहीं दूरगामी परिणाम वाले उपाय भी करने होंगे। इस दिशा में विभिन्न देश अलग अलग कोशिशें कर रहे हैं। जैसे भारत में राजस्थान के एस एम एस अस्पताल के डॉक्टरों ने मलेरिया स्वाइन फ्लू एच आई वी की दवाइयों के कॉम्बिनेशन से कोरोना के एक ऐसे मरीज़ को ठीक किया जिसे मधुमेह भी था। यह अपने आप में एक उपलब्धि है जिसने भविष्य में इसके इलाज को खोज निकालने की नींव डाली है। वहीं अमेरिका ने कोरोना की वैक्सीन बनाने का दावा किया जिसे कथित तौर पर एक महिला पर उपयोग भी किया गया है।
लेकिन इन प्रयासों से विपरीत ब्रिटेन इस बीमारी से लड़ने के लिए एक अनोखा और रोचक किन्तु जोखिम भरा प्रयोग कर रहा है। उसने कोरोना से लड़ने के लिए आइसोलेशन थेरेपी के बजाय हर्ड यानी झुंड इम्युनिटी का सिद्धांत अपनाने का फैसला लिया है। इसके अनुसार वो अपने लोगों को एक दूसरे से दूर रहने के बजाए एक दूसरे के साथ सामान्य जीवन जीने की सलाह दे रहे हैं। इस पद्धति का मानना होता है कि स्वस्थ मानव शरीर में रोगों से लड़ने की नैसर्गिक शक्ति होती है। प्राचीन काल से अबतक मानव ने अपनी इसी रोगप्रतिरोधक क्षमता के बल पर अनेक रोगों पर विजय पाई है। दरअसल वैक्सीन भी इसी सिद्धांत पर काम करती है। किसी बीमारी की वैक्सीन के जरिए उस बीमारी के कीटाणु एक सीमित मात्रा में मानव शरीर में पहुँचाए जाते हैं। वैक्सीन के जरिए इन कीटाणुओं के सीमित मात्रा में मानव शरीर में प्रवेश करते ही शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता के चलते उससे लड़ने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है जिससे भविष्य में ऐसी किसी बीमारी के आक्रमण के लिए हमारा शरीर पहले से तैयार हो जाता है। इसी सिद्धान्त के आधार पर ब्रिटेन अपने स्वस्थ नागरिकों को सामान्य जीवन जीने की आज़ादी दे रहा है और क्वारंटाइन केवल बच्चों, बूढ़ों या फिर उनका कर रहा है जो कमजोर हैं या फिर पहले से मधुमेह जैसी बीमारियों की वजह से उनकी रोगप्रतिरोधक क्षमता कम है। देखा जाए तो यह कदम जोख़िम भरा तो है लेकिन अगर कारगार होता है ब्रिटेन के लोगों को भविष्य में इस बीमारी से डरने की जरूरत नहीं होगी। इन प्रयोगों के नतीजे जो भी हों लेकिन इतना तो निश्चित है कि अब मानव सभ्यता को अपनी अंधे वैज्ञानिक विकास की दौड़ की कीमत कोरोना नामक एक खतरनाक संक्रामक बीमारी से चुकानी होगी। लेकिन कोरोना को लेकर अफवाहों के इस दौर में यह जान लेना अति आवश्यक है कि यह खतरनाक इसलिए नहीं है कि यह जानलेवा है बल्कि इसलिए हे कि यह संक्रामक है। आंकड़ों पर गौर करें तो कोरोना से मृत्यु प्रतिशत केवल 4% है। अर्थात कोरोना से पीड़ित 100 में से केवल चार प्रतिशत लोगों की मृत्यु होती है वो भी उनकी जो बूढ़े हैं या जिनकी किसी कारणवश रोग प्रतिरोधक क्षमता कम है। बस हमें काबू पाना है इसके संक्रमण पर। देश के एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर हम में से हरेक को सावधानी बरतनी है कि यह देश में हमसे किसी दूसरे को न फैले। क्योंकि पंजाब में एक मामला सामने आया जिसमें विदेश से लाए गए लगभग 134 लोग स्वास्थ जांच कराए बिना एयरपोर्ट से भाग गए। अब प्रशासन उन्हें ढूंढने में लगा है। सोचने वाली बात है कि अगर इनमें से कोई कोरोना जांच में पोसिटिव पाया जाता है तो वह देश के लोगों के स्वास्थ्य के लिए कितना बड़ा खतरा है। इसलिए सरकार तो अपना काम कर ही रही है, हमें भी इस कठिन घड़ी में अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी।
कोरोना से डरो ना !
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जनता-कर्फ्यू तो सिर्फ इतवार को था, लेकिन आज सोमवार को भी वह सारे देश में लगा हुआ मालूम पड़ रहा है। मेरा घर गुड़गांव की सबसे व्यस्त सड़क गोल्फ कोर्स रोड पर है लेकिन इस सड़क पर आज भी हवाइयां उड़ रही हैं। घर के पास से गुजरनेवाली रेपिड मेट्रो तो बंद ही है, सड़क पर वाहन दौड़ते हुए भी नहीं दिखाई पड़ रहे हैं। यह ठीक है कि हरयाणा सरकार ने तालाबंदी (लाॅकडाउन) घोषित कर दी है लेकिन यहां न तो ताला दिखाई पड़ रहा है और न ही चाबी! सड़क के कोने पर लगनेवाले सब्जी और फलों के ठेले तक नदारद हैं। खाने-पीने की चीजों की दुकानें भी अभी (दोपहर 12 बजे) तक बंद हैं। तालाबंदी ने जिन्हें छूट दे रखी है, वे लोग भी घर बैठे हैं। कितने डर गए हैं, हम लोग ? जो लोग दिहाड़ी मजदूरी करते हैं, यदि रोज शाम को उन्हें 200-250 रु. मजदूरी न मिले तो वे खाएंगे क्या ? ऐसे लगभग 60-70 करोड़ लोगों के लिए 10-15 दिन बाद क्या कोरोना से भी बड़ा संकट खड़ा नहीं हो जाएगा ? कारखाने और दुकाने बंद होने से देश में आर्थिक आपात्काल आ धमकेगा। केरल और उत्तरप्रदेश की सरकारों ने उससे निपटने के कुछ कदम उठा लिए हैं लेकिन केंद्रीय तथा अन्य प्रांतीय सरकारें देरी क्यों कर रही हैं ? कोरोना के विरुद्ध हम जो सावधानियां बरत रहे हैं, वे तो ठीक हैं लेकिन सावधानियों से जो संकट खड़े होनेवाले हैं, उनके प्रति भी हम सावधान हैं या नहीं ? खाने-पीने की चीजें एक हफ्ते बाद इतनी मंहगी और कम हो जाएंगी कि देश में कहीं लूट-पाट का माहौल न बन जाए ? जिन लोगों को पढ़ने-लिखने, टीवी पर सिनेमा देखने, संगीत सुनने और घरेलू खेल खेलने का शौक नहीं है, वे घर बैठे-बैठे कहीं उदासीनता के अवसाद में न डूब जाएं ? कोरोना का डर इतना ज्यादा फैल गया है कि लोग एक-दूसरे को फोन करने में भी कोताही दिखा रहे हैं। कल मेरे पास मुश्किल से 8-10 फोन आए, जो कि रोजमर्रा की तुलना में 10 प्रतिशत भी नहीं हैं। आजकल घर बैठकर वैसा ही एकांत अनुभव हो रहा है, जैसा 60-70 साल पहले हम किन्हीं हिल स्टेशनों के जंगलों में बनी कुटियाओं में किया करते थे। आजकल स्वाध्याय और मौन-साधना का आनंद अनायास ही प्राप्त हो रहा है। लेकिन सभी लोग तो ऐसा आनंद नहीं कर सकते। वे क्या करेंगे ? वे डरे नहीं। तालाबंदी खुलने पर वे काम पर जाएं। भीड़-भड़क्के से बचें। लोगों से दूरी बनाए रखें। सावधान रहें। सरकारें भी कोरोना के राक्षस से निपटने की पूरी तैयारी रखें। अब एक साथ खड़े होकर ताली और थाली बजाना बंद करें। कहीं यह देश को मंहगा न पड़ जाए। (आज देश के महान विचारक और क्रांतिकारी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया की 110वीं जयंति है। उन्हें हार्दिक नमन।)
नवरात्रि-शक्ति की महत्ता का पर्व
प्रो.शरद नारायण खरे
नवरात्रि हिंदुओं का एक विशेष पर्व है। नवरात्रि शब्द एक संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ होता है ‘नौ रातें’। इन नौ रातों और दस दिनों के दौरान, शक्ति / देवी के नौ रूपों की पूजा की जाती है। दसवाँ दिन दशहरा के नाम से प्रसिद्ध है। नवरात्रि वर्ष में चार बार आता है। पौष, चैत्र,आषाढ,अश्विन प्रतिपदा से नवमी तक मनाया जाता है। नवरात्रि के नौ रातों में तीन देवियों – महालक्ष्मी, महासरस्वती या सरस्वती और दुर्गा के नौ स्वरुपों की पूजा होती है जिनको क्रमशः नंदा देवी, रक्ततदंतिका,शाकम्भरी, दुर्गा,भीमा और भ्रामरी कहते हैं। इन नौ रातों और दस दिनों के दौरान, शक्ति / देवी के नौ रूपों की पूजा की जाती है। दुर्गा का मतलब जीवन के दुख कॊ हटानेवाली होता है। नवरात्रि एक महत्वपूर्ण प्रमुख त्यौहार है जिसे पूरे भारत में महान उत्साह के साथ मनाया जाता है।
शैलपुत्री ,ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी ,सिद्धिदात्री ये दुर्गा मां के नौ रूप हैं ।
नवरात्रि भारत के विभिन्न भागों में अलग ढंग से मनायी जाती है। गुजरात में इस त्योहार को बड़े पैमाने से मनाया जाता है। गुजरात में नवरात्रि समारोह डांडिया और गरबा के रूप में जान पड़ता है। यह पूरी रात भर चलता है। डांडिया का अनुभव बड़ा ही असाधारण है। देवी के सम्मान में भक्ति प्रदर्शन के रूप में गरबा, ‘आरती’ से पहले किया जाता है और डांडिया समारोह उसके बाद। पश्चिम बंगाल के राज्य में बंगालियों के मुख्य त्यौहारो में दुर्गा पूजा बंगाली कैलेंडर में, सबसे अलंकृत रूप में उभरा है। इस अदभुत उत्सव का जश्न नीचे दक्षिण, मैसूर के राजसी क्वार्टर को पूरे महीने प्रकाशित करके मनाया जाता है।
नवरात्रि उत्सव देवी अंबा (विद्युत) का प्रतिनिधित्व है। वसंत की शुरुआत और शरद ऋतु की शुरुआत, जलवायु और सूरज के प्रभावों का महत्वपूर्ण संगम माना जाता है। इन दो समय मां दुर्गा की पूजा के लिए पवित्र अवसर माने जाते है। त्योहार की तिथियाँ चंद्र कैलेंडर के अनुसार निर्धारित होती हैं। नवरात्रि पर्व, माँ-दुर्गा की अवधारणा भक्ति और परमात्मा की शक्ति (उदात्त, परम, परम रचनात्मक ऊर्जा) की पूजा का सबसे शुभ और अनोखा अवधि माना जाता है। यह पूजा वैदिक युग से पहले, प्रागैतिहासिक काल से चला आ रहा है। ऋषि के वैदिक युग के बाद से, नवरात्रि के दौरान की भक्ति प्रथाओं में से मुख्य रूप गायत्री साधना का हैं। नवरात्रि में देवी के शक्तिपीठ और सिद्धपीठों पर भारी मेले लगते हैं । माता के सभी शक्तिपीठों का महत्व अलग-अलग हैं। लेकिन माता का स्वरूप एक ही है। कहीं पर जम्मू कटरा के पास वैष्णो देवी बन जाती है। तो कहीं पर चामुंडा रूप में पूजी जाती है। बिलासपुर हिमाचल प्रदेश मे नैना देवी नाम से माता के मेले लगते हैं तो वहीं सहारनपुर में शाकुंभरी देवी के नाम से माता का भारी मेला लगता है।
नवरात्रि के पहले तीन दिन देवी दुर्गा की पूजा करने के लिए समर्पित किए गए हैं। यह पूजा उसकी ऊर्जा और शक्ति की की जाती है। प्रत्येक दिन दुर्गा के एक अलग रूप को समर्पित है।व्यक्ति जब अहंकार, क्रोध, वासना और अन्य पशु प्रवृत्ति की बुराई प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह एक शून्य का अनुभव करता है। यह शून्य आध्यात्मिक धन से भर जाता है। प्रयोजन के लिए, व्यक्ति सभी भौतिकवादी, आध्यात्मिक धन और समृद्धि eप्राप्त करने के लिए देवी लक्ष्मी की पूजा करता है। नवरात्रि के चौथे, पांचवें और छठे दिन लक्ष्मी- समृद्धि और शांति की देवी, की पूजा करने के लिए समर्पित है। शायद व्यक्ति बुरी प्रवृत्तियों और धन पर विजय प्राप्त कर लेता है, पर वह अभी सच्चे ज्ञान से वंचित है। ज्ञान एक मानवीय जीवन जीने के लिए आवश्यक है भले हि वह सत्ता और धन के साथ समृद्ध है। इसलिए, नवरात्रि के पांचवें दिन देवी सरस्वती की पूजा की जाती है। सभी पुस्तकों और अन्य साहित्य सामग्रियों को एक स्थान पर इकट्ठा कर दिया जाता हैं और एक दीया देवी आह्वान और आशीर्वाद लेने के लिए, देवता के सामने जलाया जाता है।
सातवें दिन, कला और ज्ञान की देवी, सरस्वती, की पूजा की है। प्रार्थनायें, आध्यात्मिक ज्ञान की तलाश के उद्देश्य के साथ की जाती हैं। आठवे दिन पर एक ‘यज्ञ’ किया जाता है। यह एक बलिदान है जो देवी दुर्गा को सम्मान तथा उनको विदा करता है। …
नौवा दिन नवरात्रि का अंतिम दिन है। यह महानवमी के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन कन्या पूजन होता है। जिसमें नौ कन्याओं की पूजा होती है जो अभी तक यौवन की अवस्था तक नहीं पहुँची है। इन नौ कन्याओं को देवी दुर्गा के नौ रूपों का प्रतीक माना जाता है। कन्याओं का सम्मान तथा स्वागत करने के लिए उनके पैर धोए जाते हैं। पूजा के अंत में कन्याओं को उपहार के रूप में नए कपड़े प्रदान किए जाते हैं।
प्रकारांतर से नवरात्रि नारी शक्ति की आराधना का ही पर्व है।
“नौ रूपों में नार है,देवी का प्रतिरूप।
शीतल छाया बांटकर,देती सुखमय धूप।।”
भारत जीतेगा कोरोना-युद्ध
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जनता-कर्फ्यू की सफलता अभूतपूर्व और एतिहासिक रही है। पिछले 60-70 साल में मैंने कई भारत बंद देखे हैं और उनमें भाग भी लिया है लेकिन ऐसा भारतबंद पहले कभी नहीं देखा। इस पहल का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तो है ही, इस जनता-कर्फ्यू ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि मोदी से बड़ा प्रचारमंत्री पूरी दुनिया में कोई नहीं है। इटली, चीन, स्पेन और अमेरिका में कोरोना से हजारों लोग हताहत हुए लेकिन इन देशों में भी जनता का ऐसा कर्फ्यू कहीं नहीं हुआ। इसका एक कारण यह भी है कि लोगों के दिल में मौत का डर गहरे में बैठ गया है, वैसा शायद कहीं नहीं फैला है। इसके अलावा भारत की केंद्रीय सरकार और राज्य सरकारें भी जबर्दस्त मुस्तैदी दिखा रही हैं। यदि अगले 15 दिन ठीक-ठाक निकल गए तो भारत की यह मुस्तैदी सारी दुनिया के लिए एक मिसाल बन जाएगी। इस जनता-कर्फ्यू ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि भारत की जनता काफी जिम्मेदार और समझदार है। भारत के 60-70 प्रतिशत मतदाताओं ने मोदी के विरुद्ध मतदान किया है लेकिन एकाध अधकचरे नेता के अलावा देश के 100 प्रतिशत लोगों ने मोदी के आह्वान का सम्मान किया है। मुझे आश्चर्य है कि अभी तक मोदी ने दक्षेस के पड़ौसी राष्ट्रों के नेताओं के साथ इसी तरह का आह्वान करने की बात क्यों नहीं की और अभी तक देश के वंचित वर्ग के लोगों के लिए सीधी आर्थिक सहायता की घोषणा क्यों नहीं की ? मुझे खुशी है कि हमारे सभी प्रमुख टीवी चैनल कोरोना-युद्ध लड़ने के लिए हमारे परमप्रिय बाबा रामदेवजी को योद्धा बनाए हुए हैं। आसन और प्राणायाम के साथ-साथ वायुशोधक औषधियों से हवन करने की प्रेरणा मोदी और रामदेव जनता को क्यों नहीं दे रहे हैं ? अ-हिंदू लोग चाहें तो हवन में वेद मंत्रपाठ करने की बजाय कुरान की आयतें, बाइबिल के पद, त्रिपिटक के सूत्र, जैन-आगम आदि का पाठ कर सकते हैं। विषाणु-निरोधक आयुर्वेदिक, यूनानी और होम्योपेथिक दवाइयां लेने में भी कोई हानि नहीं है। इस कोरोना-युद्ध में भारत की विजय सुनिश्चित है।
अब रोकना ही होगा टीबी की बीमारी को ?- रमेश सर्राफ धमोरा
(24 मार्च विश्व क्षयरोग दिवस पर विशेष) टीबी एक संक्रामक बीमारी है। जो संक्रमित लोगों के खांसने, छींकने या थूकने से फैलती है। आमतौर पर यह फेफड़ों को प्रभावित करती है। लेकिन यह शरीर के किसी भी हिस्से में फैल सकती है। इस बीमारी का इलाज तो है बशर्ते लोग नियमित रूप से दवा लें। भारत की नई स्वास्थ्य नीति में 2025 तक टीबी उन्मूलन का लक्ष्य रखा गया है।
24 मार्च को पूरे विश्व में टीबी दिवस मनाया जाता है। इस दिन टीबी यानि तपेदिक रोग के बारे में लोगों को जागरूक किया जाता है। टी.बी माइक्रोबैक्टीरियम नामक बैक्टीरिया की वजह से होता है। यह बैक्टीरिया फेफड़ों में उत्पन्न होकर उसमें घाव कर देते हैं। यह कीटाणु फेफड़ों, त्वचा, जोड़ों, मेरूदण्ड, कण्ठ, हड्डियों, अंतड़ियों आदि पर हमला कर सकते हैं। ट्यूबरक्लोसिस जिसे टीबी या क्षय रोग के नाम से जानते हैं। यह एक ऐसी बीमारी है जिसकी पहचान आसानी से नहीं हो पाती है। इसलिए इसके लक्षणों पर ध्यान देना बेहद जरूरी है। दुनिया में छह-सात करोड़ लोग इस बीमारी से ग्रस्त हैं और हर वर्ष 25 से 30 लाख लोगों की इससे मौत हो जाती है।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने संसद में वित्त वर्ष 2020-2021 का आम बजट पेश करते वक्त कहा था कि 2025 तक भारत को टीवी मुक्त बनाया जायेगा। वित्त मंत्री ने अपने बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए 69 हजार करोड़ रुपये की घोषणा की है। यह पिछले दो वित्तीय वर्षों में सबसे अधिक है। पिछले वित्तीय वर्ष की तुलना में इस वर्ष स्वास्थ्य क्षेत्र को 7 हजार करोड़ रूपये अधिक आवंटित किए गए हैं। मोदी सरकार रोग रहित भारत का प्रयास कर रही है। साल 2025 तक देश को टीवी मुक्त करने का लक्ष्य भी निर्धारित किया गया है। उन्होंने कहा कि देश में जिन टीबी रोगियों का इलाज चल रहा है उन्हें 500 रुपए प्रतिमाह सहायता के रूप में दिए जा रहें हैं।
दुनिया में बीमरियों से मौत के 10 शीर्ष कारणों में टीबी को प्रमुख बताया गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2018 में टीबी मरीजों की संख्या में पिछले साल की तुलना में करीब 50,000 की कमी आई। साल 2017 में भारत में टीबी के 27.4 लाख मरीज थे जो साल 2018 में घटकर 26.9 लाख रह गए। भारत में 2018 में टीबी के करीब 26.9 लाख लाख मामले सामने आए। भारत में टीबी के इलाज की कारगर दवा रिफामसिन के हताश करने वाले आंकड़े सामने आए हैं। इस दवा के निष्प्रभावी मामलों की संख्या 2017 में 32 फीसदी थी। यह संख्या 2018 में बढ़कर 46 फीसदी हो गयी है।
रिपोर्ट के मुताबिक भारत में स्वास्थ्य सेवा का बड़ा ढांचा कमजोर है और कर्मचारियों की भारी कमी है। इसके अलावा बीमारी का शुरुआती दौर में पता लगने में दिक्कत और सही इलाज का मिलना चुनौती बनी हुई है। विश्व में भारत पर टीबी का बोझ सबसे अधिक है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश में टीबी उन्मूलन को प्राथमिकता के तौर पर लिया गया है। इसका उद्देश्य टीबी के नए मामलों में 95 प्रतिशत की कमी करना और टीबी से मृत्यु में 95 प्रतिशत की कमी लाना है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में रोजाना करीब आठ सौ लोगों की मौत टीबी की वजह से हो जाती है। भारत में टीबी के करीब 10 प्रतिशत मामले बच्चों में हैं लेकिन इसमें से केवल छह प्रतिशत मामले ही सामने आते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की वैश्विक टीबी रिपोर्ट के अनुसार भारत, इंडोनेशिया, चीन, फिलीपींस, पाकिस्तान , नाजीरिया और दक्षिण अफ्रीका इससे गंभीर रूप से प्रभावित है। दुनिया में टीबी के मरीजों की संख्या का 64 प्रतिशत सिर्फ इन्हीं सात देशों में है, जिनमें भारत का स्थान सबसे ऊपर है।
विश्वभर के टीवी मरीजों में से 27 प्रतिशत यानि सबसे अधिक मरीज भारत में है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि भारत में टीबी के केवल 58 प्रतिशत मामले ही दर्ज होते हैं। एक तिहाई से ज्यादा मामले या तो दर्ज ही नहीं होते हैं या उनका इलाज नहीं हो पाता है। इसका बड़ा कारण यह है कि गैर सरकारी सेक्टर के अस्पतालों में टीबी को दर्ज किए जाने का अब तक कोई सिस्टम नहीं बना पाना है। संगठन का ऐसा अनुमान है कि ऐसे तकरीबन दस लाख और टीबी मरीज देश में है जिन्हें पहचाना ही नहीं जा सका है। इसलिए माना यह जाना चाहिए कि हम 2025 तक टीबी को जड़ से मिटा देने की बात कर रहे हैं मगर वह इतना आसान नही है।
देश में बड़ी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जी रही है। जब तक गरीबी दूर नहीं होगी तब तक टीबी पर पूर्णतया रोक नहीं लग पायेगी। टीबी का संबंध पोषण से जुड़ा रहता है। भूखे पेट रोगों से लडऩे की क्षमता कम हो जाती है। इसलिए टीबी की बीमारी के शिकार गरीब तबके के लोग ज्यादा होते हैं। पोषण से मतलब संतुलित भोजन से माना जाना चाहिए। इसलिए यहां पर केवल टीबी का इलाज मुहैया करा भर देने से टीबी का खात्मा संभव नहीं है। यह तब मुमकिन होगा जबकि देश में लोगों को रोग प्रतिरोधक ताकत बनाए रखने के लिए संतुलित आहार भी मिले।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि भारत टीबी से निपटने को लेकर गंभीर नहीं है। अपनी ग्लोबल टीबी रिपोर्ट में उसने हमारे आंकड़ों पर भी सवाल उठाया है। उसके मुताबिक भारत ने टीबी के जितने मामले बताए हैं, वास्तव में मरीज उससे कहीं ज्यादा रहे हैं। भारत के गलत आंकड़ों की वजह से इस रोग का विश्वस्तरीय आकलन सही ढंग से नहीं हो पाया है। पिछले कुछ समय से टीबी के कई नए रूप सामने आ गए हैं। कई मानसिक बीमारियां टीबी का बड़ा कारण बनकर उभरी हैं। इस बीमारी को लेकर हमे नजरिया बदलने की जरूरत है। सरकार को परम्परागत तौर-तरीके से बाहर निकलना होगा। टीबी से निपटने के लिए सरकार को निजी क्षेत्र के साथ मिलकर व्यापक योजना बनानी होगी।
विशेषज्ञों के मुताबिक सरकार को इस क्षेत्र में एक ठोस अभियान शुरू करना होगा और साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि इस जानलेवा बीमारी पर काबू पाने की राह में पैसों की कमी आड़े नहीं आए। यदि ऐसा नहीं हुआ तो इससे मरने वालों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी होगी। अपने बजट भाषण में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने टीबी को मिटाने के लिये जो प्रतिबद्धता जतायी है उस पर तुरन्त अमल करने की जरूरत है।
एक समय टीबी की बीमारी को लाईलाज रोग माना जाता था। टीबी के मरीजो को घर से अलग रखा जाता था व उससे अछूत जैसा व्यवहार किया जाता था। मगर अब टीबी की बीमारी का देश में पर्याप्त उपचार व दवा उपलब्ध है। टीबी के रोगियों द्वारा नियमित दवा के सेवन से नो माह में ही टीबी का रोगी पूर्णत: स्वस्थ हो जाता है। सरकार को टीबी रोग की प्रभावी रोकथाम के लिये बजट में स्वास्थ्य सुविधओं के विस्तार के लिये और अधिक राशि का प्रावधान करना होगा। टीबी के प्रति लोगों को सचेत करने के लिये देश भर में टीबी जागरूकता कार्यक्रम चलाने होंगे। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य केन्द्रो की संख्या बढ़ाकर ही टीबी पर काबू पाया जा सकता है।
पाकिस्तान के जयप्रकाश नारायण
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कल लाहौर में डॉ. मुबशर हसन का निधन हो गया। वे 98 वर्ष के थे। उनका जन्म पानीपत में हुआ था। वे प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो की सरकार में वित्तमंत्री थे लेकिन उनकी विद्वता, सादगी और कर्मठता ऐसी थी कि सारा पाकिस्तान उनको उप-प्रधानमंत्री की तरह देखता था। भुट्टो की पीपल्स पार्टी आफ पाकिस्तान की स्थापना उनके घर (गुलबर्ग, लाहौर) में ही हुई थी। वे अपनी छोटी-सी फोक्सवेगन कार में ही बिठाकर भुट्टो को हवाई अड्डे से अपने घर लाए थे। उसी कार में उसी सीट पर बैठकर मैं भी मुबशर साहब के साथ लाहौर हवाई अड्डे से कई बार उनके घर पहुंचा हूं। उनके बारे में लोगों का ख्याल यह है कि वे अपने विचारों से वामपंथी थे लेकिन उन्होंने अपने जीवन के आखिरी 30 साल भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को सहज बनाने में खपा दिए। हालांकि वे मुझसे 20-22 साल बड़े थे लेकिन उनके-मेरे बीच मित्रता ऐसी हो गई थी, जैसी हम उम्र लोगों के बीच होती है। मैं जब उनके घर ही ठहरता तो वे और उनकी पत्नी डाॅ. जीनत हसन पूर्ण शाकाहारी हो जाते थे। डाॅ. जीनतजी को मैं ताईजी बोलता और उन दोनों के पांव छूता तो वे हंसकर बोलते ‘‘आप यह हिंदुआना हरकत क्यों कर रहे हैं?’’ भारत-पाक मैत्री के वे इतने बड़े वकील थे कि वे हर साल भारत आते थे और मेरे साथ सभी भारतीय प्रधानमंत्रियों से मिलने जाते थे। मेरे साथ वे उनके शागिर्द और पाकिस्तान के राष्ट्रपति फारुख लघारी से मिलने तो जाते थे लेकिन बेनजीर भुट्टो, नवाज़ शरीफ और अन्य प्रधानमंत्रियों से मिलना उन्हें पसंद नहीं था। उन्होंने मतभेद के कारण जुल्फिकारअली भुट्टो की सरकार से इस्तीफा भी दे दिया था। बाद में फौजी सरकार ने उन्हें सात साल तक जेल में भी डाले रखा। वे बाद में बेनजीर के भाई मुर्तजा की पार्टी में सक्रिय जरुर हुए थे लेकिन वे पाकिस्तान के जयप्रकाश नारायण की तरह काम करते रहे। सभी लोकतांत्रिक जन-आंदोलनों का वे डटकर समर्थन करते थे। वे जाने-माने इंजीनियर थे। इंजीनियरी में पीएच.डी. थे। उन्होंने कई महत्वपूर्ण किताबें भी लिखीं। वे पाकिस्तान ही नहीं, पूरे दक्षिण एशिया के रत्न थे। उनके अवसान से सारे दक्षिण एशिया को अपना परिवार समझनेवाले महान लोकनायक अब हमारे बीच नहीं है। उन्हें मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि।
मध्यप्रदेश : सत्ता संघर्ष राज्यपाल व स्पीकर की ’अग्नि परीक्षा‘…….?
ओमप्रकाश मेहता
मध्यप्रदेश सत्ता का सियासी संघर्ष अब धीरे-धीरे चरम पर पहुच गया है, अब इस संघर्ष के सुखद या दु:खद परिणाम का दारोमदार प्रदेश की दो प्रमुख संवैधानिक हस्तियों राज्यपाल तथा विधानसभाध्यक्ष पर है, ऐसे में यदि यह कहा जाए कि राज्यपाल व विधानसभाध्यक्ष (स्पीकर) की ”अग्निपरीक्षा“ का है, तो कतई गलत नही होगा, प्रदेश के सत्ता संघर्ष के इस दौर में दोनो संवैधानिक हस्तियॉ मूलत: अलग-अलग सियासी दलों से जुड़ी रही है, इसलिए इन दोनों के लिए मानसिक रूप से यह तय करना मुश्किल होगा कि सत्ता का भविष्य क्या होगा ? जहॉ तक नियम-कानून व संवैधानिक प्रावधानों का सवाल है, वहॉ तक दोनो ही हस्तियॉ उनका पालन करने को बाध्य होगी, किन्तु जब दोनो के स्व-विवेक का प्रश्न पैदा होगा तब राज्यपाल व विधानसभाध्यक्ष दोनो ही के लिए ’अग्निपरीक्षा‘ का समय होगा।
यहॉ यही नही बल्कि दोनो ही हस्तियों के मूल राजनीतिक दल भी इन हस्तियों से अपेक्षा रख रहे है कि वे उनके पक्ष में फैसला सुनायें, फिर जहॉ तक राज्यपाल का सवाल है, उन्हे प्रदेश में सत्ता किसी भी रहे, उन्हे कोई फर्क पडने वाला नही है अर्थात प्रदेश की सत्ता से उनक पद प्रभावित नही होगा, किन्तु स्पीकर महोदय का पद प्रदेश में सत्ता परिवर्तन से खतरे मे पड सकता है, इसलिए उन्हे हर कदम ”फूक-फूककर“ रखना पडेगा फिर उनके साथ पद की गरिमा भी जुडी हुई है और मौजूदा सत्तारूढ सरकार तो स्पीकर से यह अपेक्षा रखेगी ही कि स्पीकर अपना संवैधानिक धर्म उसके अनुसार निभायें, इसलिए स्पीकर के लिए यह विशेष परीक्षा की घउ+ाh है क्योंकि उनका इस अवसर का फैसला उनके अपना भावी राजनीतिक जीवन को प्रभावित कर सकता है।
वैसे फिलहाल राज्यपाल के अवकाश काल के दौरान विधानसभाध्यक्ष ने अपने संवैधानिक दायित्व का पालन काफी सोच-समझकर किया और सभी बाईस कांग्रेसी बागी विधायकों को नोटिस जारी किया कि वे स्वंय आकर बताऍ कि उन्होने अपने इस्तीफे स्व-विवके से दिए या किसी के दबाव में दिए यद्यपि यदि अधिकारों की बात की जाए तो स्पीकर को विधानसभा व उसके सदस्यों के बारे मे काफी अधिकार है, वे यदि चाहे तो नियमों के दायरे में इस्तीफा देने वाले विधायकों का राजनीतिक भविष्य भी धूमिल कर सकते है, किन्तु फिर वही सवाल भी उनके पद के प्रति निष्पक्षता की निष्ठा भी जुड़ी हुई है इसलिए उनसे अपेक्षा तो यही की जा रही है कि वे बिना किसी राजनीतिक पूर्वान्ह के स्पीकर पद के दायित्वों का निर्भीक होकर निर्वहन करें।
वैसे नियमों के बारे मे राजनीति में यही कहा जाता है कि वे पालन करने के लिए नही तोडने के लिए होते है, हमारे प्रदेश का ही एक उदाहरण है आज तो कांग्रेस के बागी विधायकों ने लिखित में अपने इस्तीफे राज्यपाल या स्पीकर को भेजे है, किन्तु आज से सत्रह साल पहले प्रदेश की मुख्यमंत्री साध्वी उमा भारती ने तो पद व सदन की सदस्यता से राज्यपाल व स्पीकर को फैसले से अपना इस्तीफा भेज दिया था और वह मंजूर भी हो गया था, उनसे तत्कालीन स्पीकर ने कोई नोटिस देकर जबाव-तलब नही किया था, और स्व: बाबूलाल गौर को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी गई थी, ऐसा इसलिए हो पाया था, क्योंकि तब दोनो संवैधानिक हस्तियों ने नियम-कानूनों को अपनी दृष्टि से समझकर कदम उठाया था, यद्यपि उस समय भी दोनो हस्तियॉ मूलत: अलग-अलग दलो की थी। किन्तु इस बार तो बागी विधायकों के विडियो तक जारी कर दिए गए, फिर भी नोटिस जारी किए गए, यह विधानसभाध्यक्ष की स्वंय संतुष्ठी से जुडा मामला बन गया है।
यह तो हुई दोनो मुख्य संवैधानिक हस्तियों से जुडे तथ्य। किन्तु अब आश्चर्य यह हो रहा है कि जो सियासी दल 2003 से 2018 तक प्रदेश में सत्ता मे रह ही अब विधानसभा के नियम भूलकर राज्यपाल के अभिभाषण के पूर्व सदन मे मत-विभाजन परीक्षण की मांग कर रहा है ? हॉ अभिभाषण पर बहस या सरकार के जवाब के समय वह दल मत विभाजन परीक्षण की मांग कर सकता है, किन्तु सत्र की शुरूआत में ही मत विभाजन परीक्षण कैसे व किस नियम के तहत संभव है ? क्या भारतीय जनता पार्टी सत्ता प्राप्ति की इतनी उतावली हो गई है ? फिर चार दिन पूर्व विधायक पदों से इस्तीफा देने वाले 22 विधायक अभी भी अपने इसी इरादे पर कायम हो यह कैसे कहा जा सकता है ? क्या इस्तीफे के बाद फिर से चुनाव लडने का भय उन्हे सता नही रहा होगा ? संभव है वे अपना इरादा बदल दें या अध्यक्ष महोदय उनके तर्को से सहमत न होकर उनके इस्तीफे स्वीकार न करें ? और कांग्रेस की सत्ता बरकरार रहे ? हॉ यह संभव है कि ’व्हीप‘ जारी होने के बाबजूद ये विधायक अपने दल की मंशा के विपरीत वोटिंग करें और पार्टी इन्हें दल से निष्कासित कर दें तब इनकी विधायिका सलामत रह सकती है ? अब जो भी हो, अब तक तो कहा जाता था कि ’प्यार और युद्व में सब जायज है‘ किन्तु अब इसके साथ ’राजनीति‘ शब्द भी जुड़ गया है, देखिये अब आगे आगे होता है क्या ?
म.प्र. में सिंधिया का छक्का
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकार का बचना अब असंभव-सा लग रहा है। कुछ अन्य छोटी-मोटी पार्टियों और निर्दलीय विधायकों की मदद से चल रही यह कांग्रेस सरकार यों भी तलवार की धार पर चल रही थी लेकिन मप्र की भाजपा के शीर्ष नेताओं ने उसे गिराने की साजिश नहीं की। वे उसे बर्दाश्त किए जा रहे थे लेकिन वह अब अपने ही बोझ तले दबकर धराशायी हो रही है। भोपाल में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार गिर रही है तो उसके लिए कांग्रेस ही जिम्मेदार है, भाजपा नहीं। यहां मुख्य प्रश्न यह है कि कांग्रेसी नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने बगावत क्यों की ? यदि वे अपने गुट के विधायकों समेत भाजपा में नहीं जाते तो शायद कांग्रेस सरकार चलती रह सकती थी, क्योंकि कमलनाथ सरकार काफी लोक-लुभावन कदम उठा रही थी और अपनी गलत पहलों को वापस लेने का साहस भी दिखा रही थी लेकिन कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व को जो बीमारी पोला कर रही है, उसने मप्र में भी डेरा जमा लिया था। सिंधिया की उपेक्षा प्रांतीय नेतृत्व तो कर ही रहा था, केंद्रीय नेतृत्व ने भी कोई कमी नहीं छोड़ी है। यह ठीक है कि सिंधिया लोकसभा का चुनाव हार गए थे लेकिन फिर भी वे वजनदार युवा नेता रहे हैं। उनके पिता और उनकी दादी का भी काफी प्रभाव रहा है। उनके अहंकार को चोट लगनी स्वाभाविक थी। यदि उनका उचित सम्मान किया जाता तो कांग्रेस को यह दिन नहीं देखना पड़ता। अब वे उस भाजपा में आ गए हैं, जो उनकी दादी राजमाता विजयराजे सिंधिया की पार्टी थी। जाहिर है कि यह भाजपा की अखिल भारतीय उपलब्धि मानी जाएगी। ज्योतिरादित्य भाजपा में आ तो गए हैं लेकिन उन्हें अब अपने स्वभाव को ऐसा बनाना पड़ेगा, जिससे उनका भाजपा के साथ सही ताल-मेल बैठ सके। उनकी दादीजी से मेरा बहुत ही आत्मीय संबंध रहा है। वे विलक्षण महिला थीं। ज्योति को राजमाताजी के व्यवहार और आचरण की कला को आत्मसात करना होगा। राजमाताजी इतनी सहज और विनम्र थीं कि विरोधी दलों के नेता भी उनका हृदय से सम्मान करते थे। ज्योतिरादित्य का कांग्रेस से पिंड छुड़ाना उनके लिए आगे जाकर बहुत फायदेमंद सिद्ध हो सकता है। माधवरावजी और ज्योति, दोनों अपने आपको महाराजा तो समझते रहे लेकिन मैं दोनों से कहा करता था कि आपको अपने से कम योग्य लोगों के मातहत बनकर रहना पड़ रहा है। इससे अब वे मुक्त हुए। अब उनके लिए देश के सभी पदों के द्वार खुल गए हैं।
बुजुर्ग नेताओं को विश्राम दे कांग्रेस
रमेश सर्राफ धमोरा
कभी देश पर एक छत्र राज करने वाली कांग्रेस पार्टी आज अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के हाथों सत्ता गंवाने के बाद कांग्रेस पार्टी फिर से उबर नहीं पा रही है। 2014 व 2019 के लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त के साथ ही कांग्रेस पार्टी देश के अधिकांश प्रदेशों में भी अपनी सत्ता गंवा चुकी है। इससे देश भर में कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का मनोबल कमजोर हुआ है।
दिल्ली विधानसभा चुनाव में लगातार दूसरी बार करारी हार के बाद तो कांग्रेस में नेतृत्व को लेकर आवाज मुखर होने लगी हैं। कई बड़े नेता संगठन में बदलाव की मांग करने लगे हैं। देखा जाए तो कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व बूढ़ा हो गया है। कांग्रेस में बड़े पदों पर बैठे सभी बुजुर्ग नेताओं के स्थान पर युवा नेताओं को आगे लाने की मांग धीरे-धीरे तेज होने लगी है। कांग्रेस में बड़े पदों पर बैठे कई नेता तो ऐसे हैं जिन्होंने आज तक कोई चुनाव नहीं लड़ा है। वहीं कई नेताओं को चुनाव लड़े जमाना बीत चुका है।
कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी खुद 73 वर्ष की हो चुकी है। वो अक्सर बीमार रहती है जिससे अधिक मेहनत भी नहीं कर पाती है। 1998 से कांग्रेस का नेतृत्व अधिकतर उन्हीं के हाथों में रहा है। कांग्रेस के कोषाध्यक्ष अहमद पटेल 71 वर्ष के हो चुके हैं। पटेल 18 साल तक सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार रहे हैं। हालांकि पटेल ने 1977,1980 व 1984 में लगातार तीन बार लोकसभा का चुनाव जीता था तथा राजीव गांधी सरकार में संसदीय सचिव भी बने थे। लेकिन बीते 36 वर्षों में उन्होने कोई चुनाव नहीं जीता। राज्यसभा के रास्ते ही वो अपनी संसदीय सीट बचाये रखते हैं। 78 वर्षीय अंबिका सोनी कांग्रेस की वरिष्ठ नेता है तथा वर्षों से राज्यसभा में जमी हुई है। उन्होंने अपने जीवन में कभी कोई चुनाव नहीं जीता। संजय गांधी के जमाने में आपातकाल के दौरान अंबिका सोनी युवा कांग्रेस की अध्यक्ष होती थी। उन्हे 1976 में ही राज्यसभा में भेजा गया था। सोनी लम्बे समय से केन्द्र में मंत्री व कांग्रेस महासचिव बनती आई है।
71 साल के गुलाम नबी आजाद जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे हैं। अभी हरियाणा के प्रभारी महासचिव और कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य हैं। आजाद युवा कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे है। उन्होने 1980 व 1984 में महाराष्ट्र के वाशिम से लोकसभा चुनाव जीता था। कहने को तो आजाद कांग्रेस के बड़े मुस्लिम चेहरे हैं। मगर 1984 के बाद से वे खुद कोई चुनाव नहीं जीत पाये हैं। आजाद अभी राज्यसभा में विपक्ष के नेता हैं तथा पांचवीं बार राज्यसभा के सदस्य हैं। जब भी केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनती है तो आजाद मुस्लिम कोटे से कैबिनेट मंत्री बन जाते हैं। केंद्र में सरकार नहीं रहती है तो वह कांग्रेस संगठन में पदाधिकारी रहते हैं। आजाद जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री बने थे तब भी इन्होंने विधानसभा के बजाय विधान परिषद के रास्ते ही विधायक बनना पसंद किया था।
मोतीलाल वोरा 93 वर्ष की उम्र में भी कांग्रेस महासचिव व कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य हैं। बोरा मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री, राज्यपाल व कांग्रेस के कोषाध्यक्ष रह चुके हैं। 1998 में बोरा ने अपनी जिंदगी का अंतिम चुनाव जीता था। बोरा कई बार राज्यसभा सदस्य रह चुके हैं। मलिकार्जुन खड़गे 78 साल में की उम्र में महाराष्ट्र कांग्रेस के प्रभारी महासचिव है। जहां पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 2 से 1 सीट पर आ गई थी। खड़गे कांग्रेस के बड़े दलित नेता हैं व कई बार सांसद, विधायक,मंत्री रह चुके हैं। हालांकि वे 2019 का लोकसभा चुनाव हार चुके हैं। महाराष्ट्र कांग्रेस के कई नेता इनकी कार्यशैली का अक्सर विरोध करते रहते हैं।
60 साल के मुकुल वासनिक एनएसयूआई व युवा कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं। वो 1984, 1991, 1998 व 2009 में 4 बार लोकसभा सदस्य चुने गए थे। वहीं पांच बार लोकसभा के चुनाव में हार भी चुके हैं। 2019 में उन्होंने चुनाव लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ा था। वासनिक कांग्रेस में बड़े दलित नेता माने जाते हैं। केंद्र में जब भी कांग्रेस की सरकार बनती है तो वासनिक मंत्री रहते हैं और सरकार नहीं रहने पर पार्टी महासचिव रहते हैं। 72 वर्ष के हरीश रावत कांग्रेस महासचिव हैं। रावत चार बार लोकसभा सदस्य, एक बार राज्यसभा सदस्य, एक बार विधायक, केंद्र सरकार में मंत्री व उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। 2017 में रावत जब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने अपनी पसंद के दो विधानसभा क्षेत्रों से चुनाव लड़ा था तथा दोनों ही क्षेत्रों में हार गए थे।
मध्य प्रदेश कांग्रेस के प्रभारी महासचिव व कार्यसमिति सदस्य दीपक बावरिया ने कभी चुनाव नहीं लड़ा। अपने गृह प्रदेश गुजरात में भी इनका कोई जनाधार नहीं है। कांग्रेस महासचिव अविनाश पांडे महाराष्ट्र से एक बार विधान परिषद व राज्यसभा सदस्य रह चुके है। इन्होंने जिंदगी में कभी कोई चुनाव नहीं जीता। अभी राजस्थान के प्रभारी महासचिव व कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य हैं। कांग्रेस के संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल केरल में तीन बार विधायक, दो बार सांसद, राज्य व केन्द्र सरकार में मंत्री रह चुके हैं। 2019 में इन्होंने लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा था मगर इनके स्थान पर चुनाव लड़ने वाले कांग्रेसी उम्मीदवार हार गए थे। वेणुगोपाल राहुल गांधी के नजदीकी नेताओं में शुमार होते हैं।
ज्योतिरादित्य सिंधिया आधे उत्तर प्रदेश कांग्रेस के प्रभारी महासचिव है। 49 वर्षीय सिंधिया चार बार लोकसभा सदस्य व केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके हैं। सिधिंया मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री प्रबल पद के प्रबल दावेदार थे। लेकिन वहां कमलनाथ को मुख्यमंत्री बना दिया गया जिससे यह पार्टी नेतृत्व से नाराज चल रहे हैं। प्रियंका गांधी के आधे उत्तर प्रदेश की प्रभारी महासचिव रहते पिछले लोकसभा चुनाव में उनके भाई राहुल गांधी अपनी परम्परागत अमेठी सीट से चुनाव हार गये थे। उप चुनावों में भी वहां कांग्रेस के सभी प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गयी थी।
केरल के दो बार मुख्यमंत्री रहे ओमन चांडी 77 वर्ष की उम्र में भी महासचिव बने हुए हैं। चांडी 11 बार केरल विधानसभा का चुनाव जीत चुके हैं। उम्र अधिक होने के कारण वो अधिक भागदौड़ करने में समर्थ नहीं है। कुछ समय के लिए गोवा के मुख्यमंत्री रहे लुइझिनो फलेरो 69 साल की उम्र में पूर्वोत्तर के सभी राज्यों के प्रभारी महासचिव है। वह 7 वीं बार गोवा में विधायक बने हैं। गोवा विधानसभा में कांग्रेस का बहुमत होने के बाद भी वहां सरकार बनाने में असफल रहने का ठीकरा उनके सिर पर भी फूटा था।
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, कोषाध्यक्ष अहमद पटेल के अलावा 13 महासचिवों की टीम के अधिकांश सदस्य उम्र पार कर चुके है। सोनिया गांधी को छोडक़र इनमे से कोई भी नेता लोकसभा सदस्य नहीं हैं। अहमद पटेल, अंबिका सोनी, गुलाम नबी आजाद, मोतीलाल वोरा राज्यसभा के सदस्य हैं। जबकि दीपक बावरिया, हरीश रावत, ज्योतिरादित्य सिंधिया, केसी वेणुगोपाल, मलिकार्जुन खडग़े, मुकुल वासनिक, प्रियंका गांधी राज्यसभा में जाने को प्रयासरत है। कांग्रेस कार्यसमिति में भी सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, गुलाम नबी आजाद, अहमद पटेल, एके एंटनी, अंबिका सोनी, आनंद शर्मा, हरीश रावत, मोतीलाल वोरा, मलिकार्जुन खडग़े, ओमन चांडी, लुइझिनो फलेरो की उम्र अधिक हो चुकी है। कार्यसमिति के 23 में से 3 सदस्य तो गांधी परिवार के है। कुछ नेताओं को छोड़कर अधिकांश ऐसे नेता कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य हैं जिनका जनाधार समाप्त हो चुका है।
कांग्रेस पार्टी में वर्षों से वरिष्ठ पदो पर जमे बुजुर्ग नेताओं को अब विश्राम देना चाहिये व उनके स्थान पर ऐसे युवा नेताओं को आगे बढ़ाना चाहिए जिनका अपने प्रदेशों में प्रभाव हो। जो पार्टी कार्यकर्ताओं को अपने साथ जोड़कर चल सके। आगामी राज्यसभा चुनाव में भी कांग्रेस को ऐसे ही साफ छवी के नये लोगों को टिकट देनी चाहिए। जिससे पार्टी कार्यकर्ताओं में सकारात्मक संदेश जाये। उनमें एक नई ऊर्जा का संचार हो ताकि कांग्रेस फिर से अपना खोया जनाधार हासिल कर सके।
सउदी अरब में तख्ता-पलट ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सउदी अरब के राज-परिवार में जबर्दस्त उथल-पुथल मची हुई है। बादशाह सलमान 84 साल के हो गए हैं। वे अस्वस्थ भी रहते हैं। राज-परिवार के कई शाहजादों में बादशाहत की होड़ लगी हुई है। इस समय जिन्हें युवराज बना रखा है, वे हैं, बादशाह सलमान के बेटे मोहम्मद ! ये मोहम्मद वही हैं जो सारी दुनिया में दो साल पहले बदनाम हो गए थे, तुर्की में प्रसिद्ध पत्रकार जमाल खाशोग्गी की हत्या करवाने के लिए। मोहम्मद काफी तेज-तर्रार युवराज हैं। उन्होंने सउदी अरब के पुराने ढर्रे की कई रुढ़ियों को उलट-पुलट दिया है। उन्होंने अनेक प्रगतिशील कदम भी उठाए हैं, जिनसे कई पोंगापंथी मुल्ला-मौलवी नाराज हैं और राजमहल के अन्य कई शहजादें उनसे पिंड छुड़ाने के लिए कमर कसे हुए हैं। अब उन्होंने राजमहल के तीन शाहजादों और उनके समर्थक कई अफसरों को गिरफ्तार और नजरबंद कर लिया है। उन्हें आजन्म कारावास या मौत की सजा, दोनों में से कुछ भी मिल सकता है। हमें यह घटना औरंगजेब और दाराशिकोह की याद दिला रही है। खुद मोहम्मद ने 2017 में अपने ताऊ के बेटे बड़े भाई और युवराज मोहम्मद बिन नाएफ को एक तख्ता-पलट में उलट दिया था और खुद युवराज बन बैठे थे। जब 2016 में बिन नएफ युवराज बने थे तो यही मोहम्मद बिन सलमान घुटने के बल बैठकर उनका हाथ चूमते हुए दिखाई पड़े थे। जब उन्होंने युवराज पद हासिल कर लिया तो राज परिवार के कई तीसमारखां शाहजादों को उन्होंने एक होटल में नजरबंद कर दिया था। इन सब बागी शहजादों पर आरोप है कि वे मुल्ला-मौलवियों और कबाइलियों से मिलकर सउदी अरब के राज सिंहासन पर कब्जा करना चाहते हैं। इस काम के लिए उन्होंने कई विदेशी शक्तियों से भी संपर्क बना रखे थे। ऐसा माना जा रहा है कि इन सबके ख़िलाफ़ यह सारी कार्रवाई बादशाह सलमान की जानकारी और सहमति से हो रहा है। इस कार्रवाई से युवराज मोहम्मद बिन सलमान ने राजगद्दी पर अपना शिकंजा काफी मजबूत कर लिया है। इस समय कोरोना वायरस की वजह से तेल की कीमतें गिर रही हैं और मक्का-मदीना की तीर्थ-यात्रा (उमरा) भी स्थगित कर दी गई है। शायद हज-यात्रा भी स्थगित हो जाए। सउदी अरब के लिए इस तरह एक बड़ा आर्थिक संकट खड़ा हो सकता है। युवराज मोहम्मद की महत्वकांक्षा है कि 2030 तक वे ऐसा माहौल बना दें कि सउदी अरब तेल की बजाय तीन करोड़ तीर्थ-यात्रियों से होनेवाली आमदनी से अपनी अर्थ-व्यवस्था को मजबूत बनाए।
भारत के दर्जनों बैक दिवालिया होने की कगार पर
सनत कुमार जैन
वैश्विक अर्थ व्यवस्था पर कोरोना वायरस के कारण सारी दुनिया में अफरा-तफरी मची हुई है। सारी दुनिया के शेयर बाजरों में भारी गिरावट देखने को मिल रही है। भारत भी इससे अछूता नहीं है। भारत के दर्जनों बैंक दिवालिया होने की कगार पर खड़े थे। कोरोना वायरस के कारण आई मंदी के कारण यह कब तक दिवालिया हो जाएंगे कहना मुश्किल है। पिछले एक वर्ष में केंद्र सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर बैंकों का विलय राष्ट्रीयकृत बैंकों में कराकर उन्हे दिवालिया होने से तो बचा लिया है। हाल ही में बैंक के 49 फीसदी हिस्सेदारी स्टेट बैंक ने खरीदकर यस बैंक को बचाने का प्रयास कर रहा है। इसको लेकर सारे देश में चिंता बढ़ गई है। पिछले एक दशक में शेयर बाजारों में भारतीय बैंकों, जीवन बीमा निगम, वित्तीय संस्थाओं तथा म्युचल फंड का अरबों रुपया निवेश किया गया है। 2008 के बाद अमेरिका की आर्थिक मंदी के बाद भारत का शेयर बाजार मुनाफा वसूली का केंद्र बन गया था। जब जब शेयर बाजार मुनाफा वसूली के कारण गिरावट में आया। शेयर बाजार की गिरावट को रोकने के लिए केंद्र सरकार के दबाव में शेयर बाजार में बैंकों तथा वित्तीय संस्थानों का निवेश बढ़ता चला गया। पीएफ जैसे संस्थान का पैसा भी केंद्र सरकार ने शेयर बाजार में लगवा दिया। 2010 में मुंबई स्टाक एक्सचेंज का सेंसेक्स 2100 पर था जो 2020 में 42000 के स्तर को छू गया। पिछले 1 दशक में शेयर बाजार के माध्यम से देश के वित्तीय संस्थाओं की जो लूट हुई है। अब उसके दुष्परिणाम सामने दिखने लगे हैं।
पिछले 5 वर्षों में शेयर बाजार में सूचीबद्ध सैकड़ों कंपनियां दिवालिया होने की कगार पर थी।
भारत की कंपनियों ने कंपनी का पैसा विदेशों में निवेश कर दिया था। वड़ी संख्या में पिछले 5 वर्षों में भारतीय नागरिकों ने विदेशी नागरिकता लेकर भारतीय वाजार के माध्यम से जमकर मुनाफा वसूली की है।
बैंकों से ली गई कर्ज की राशि को कंपनियां चुका नहीं रही थी। रिजर्व बैंक के पूर्व गर्वनर रघुराम राजन ने सरकार को गड़बड़ी रोकने जो सुझाव दिए थे। सरकार ने नहीं माने। उलटे रघुराम राजन को ही चलता कर दिया। बैंकों का एनपीए लगातार बढ़ता चला गया। सैकड़ों कंपनियों का कई लाख करोड़ रुपयों का ऋण सरकार ने राइट आफ कर दिया। सरकार और बैंक उनके नाम बताने को तैयार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने नाम उजागर करने का निर्देश सरकार को दिया। इसके बाद भी नाम उजागर नहीं किए गये। एनपीए की राशि अब बड़कर 10 लाख करोड़ के स्तर को छू रही है। इसके बाद भी सरकार के कानों में जूं नहीं रेंग रही है। उलटे सार्वजनिक क्षेत्र के बड़े बैंकों में, दिवालिया होने वाले बैंकों का विलय कराकर सरकार ने इन दोनो बैंकों की आर्थिक दिवालिया की कगार पर ढकेल दिया है।
बैंकों, भारतीय जीवन बीमा निगम एवं पीएफ जैसी संस्थाओं से भारी निवेश शेयर बाजार में कराया गया। शेयर बाजार में निवेश होने से बैंकों की जो बेलेन्स शीट अभी अच्छी दिख रही है। वह शेयर बाजार में आई गिराबट के बाद खराब होते देर नहीं लगेगी। शेयर बाजार का सेंसेक्स 35000 के नीचे आने पर भारतीय बैंकों की स्थिति काफी खराब होगी। इन सबकी बेलेन्स शीट घाटे में चली जायेगी। भारतीय बैंक पिछले एक दशक में शेयर बाजार के लगातार बढ़ने से कागजों में भारी मुनाफा कमा रहे थे। अब शेयर बाजार में लगातार गिरावट चल रही है। वैश्विक सपोर्ट भी मिलना अब भारत के शेयर बाजार में संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में 35000 के नीचे शेयर बाजार के आने पर जिस तरह 2008 में अमेरिका में सैकड़ों बैंक दिवालिया हुए थे। लगभग वही स्थिति देश के बैंकों और वित्तीय संस्थाओं की बन गई है।
भारत सरकार को समझना होगा, भारत के बैंकों में करोड़ों नागरिकों की बचत का पैसा जमा होता है। यही पैसा बैंक और वित्तीय संस्थान शेयर बाजार, कंपनियों एवं अन्य को लोन देने में करते हैं। कंपनियों की आर्थिक स्थिति काफी खराब है। वह अपना कर्ज नहीं लौटा पा रही है। जिनके कारण बैंकों का एनपीए हर साल बढ़ता ही जा रही है। शेयर बाजार में बैंकों ने जिन कंपनियों के शेयरों में निवेश किये थे। उन कंपनियों के शेयरों के दाम बड़ी तेजी से गिर रहे हैं। इसी तरह भारतीय जीवन बीमा निगम से करोड़ों नागरिकों ने पालिसी ले रखी है जो प्रीमियम की किस्ते कई वर्षों से जमा कर रहे हैं। कर्मचारियों का पैसा पीएफ में जमा होता है। पीएफ ने भी शेयर बाजार में पैसा लगा दिया है। ऐसी स्थिति में शेयर बाजार की गिरावट में बैंकों, भारतीय जीवन बीमा निगम सहित अन्य वित्तीय संस्थाओं तथा पीएफ में आम लोगों की जमा राशि को वापस कर पाना उपरोक्त संस्थाओं के लिए शायद संभव नहीं होगा।
स्वतंत्रता के पश्चात लगभग 50 वर्षों तक देश का विकास बचत की राशि से हुआ है। बैंकों में जमा राशि डाकघर, भारतीय जीवन बीमा निगम, यूटीआई इत्यादि की राशि रिजर्व बैंक के माध्यम से सरकार को कर्ज में मिलती थी। वैश्विक व्यापार संधि के बाद रिजर्व बैंक का नियंत्रण काम हुआ। 70 फीसदी राशि बैंकों और वित्तीय संस्थाओं ने पिछले डेढ़ दशक में शेयर बाजार, कंपनियों को ऋण देने तथा कंपनियों की हिस्सेदारी लेने में पूंजी का निवेश किया है। चूंकि अब कंपनियां डूब रही हैं। शेयर बाजार लगातार गिरावट की ओर बढ़ रहा है। आम आदमी को अपना जमा धन ही नहीं मिल पा रहा है। ऐसी स्थिति में आने वाले माहों में वित्तीय संकट और बढ़ेगा। करोना वायरस के माध्यम से दुनिया भर के देशों में जो आर्थिक मंदी आई है। उसका सबसे ज्यादा असर भारत में हो रहा है। केंद्र की मोदी सरकार हिन्दुओं की पार्टी मानी जाती है। मुसलमान बैंकों में अपनी राशि जमा नहीं कराते हैं। उनमें ब्याज को हराम माना जाता है। बैंकों में जिन लोगों का जमा पैसा नहीं हो रहा है। उनमें 90 फीसदी हिन्दू हैं। पिछले 5 वर्षों में जिस तरह से गोदी मीडिया में हिन्दू मुस्लिम का खेल चल रहा है। उसमें बैंकों की जमा राशि यदि बचत कर्ताओं को नहीं मिली। इस स्थिति मे सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा को हो सकता है। देश में जिस तरह आर्थिक मंदी के कारण मंहगाई और बेरोजगारी बढ़ी है| उससे आम आदमी में अभी निराशा है। आगे चलकर यह गुस्से में परिवर्तित हो सकता है।
मप्र: सत्ता ही ब्रह्म है
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मध्यप्रदेश में सरकार बने सवा साल ही हुआ है लेकिन उसकी अस्थिरता की चर्चा जोरों से चल पड़ी है। कांग्रेस और भाजपा दो सबसे बड़ी पार्टियां हैं, मप्र में लेकिन दोनों को विधानसभा में स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस को सीटें ज्यादा मिल गई लेकिन सत्तारुढ़ भाजपा को वोट ज्यादा मिले। कांग्रेस को 114 सीटें मिलीं और भाजपा को 107 ! जो छोटी-मोटी पार्टियां हैं, उनके तीन और चार निर्दलीय विधायकों को मिलाकर कांग्रेस ने भोपाल में अपनी सरकार बना ली। विधानसभा में कुल 230 सदस्य हैं। दो सीटें अभी खाली हैं याने 228 सदस्यों की विधानसभा में कांग्रेस पार्टी का शासन मजे में चल रहा था। मुख्यमंत्री कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार ने कुछ ऐसे कदम भी उठाए हैं, जो भाजपा की सरकार उठाती लेकिन वे सात गैर-कांग्रेसी सदस्य हिलने-डुलने लगे हैं। एक कांग्रेसी विधायक ने विधानसभा से ही इस्तीफा दे दिया है। भोपाल में इतनी भगदड़ मच गई है कि सभी पार्टियों के नेताओं ने अपने सार्वजनिक कार्यक्रम स्थगित कर दिए हैं। कुछ सरकार गिराने में व्यस्त हैं और कुछ सरकार बचाने में ! कुछ विधायकों को गुड़गांव और कुछ को बेंगलूर में घेरा गया है। कुछ लापता हैं और कुछ दावा कर रहे हैं कि उन पर फिजूल ही पाला बदलने का शक किया जा रहा है। यह शक इसलिए भी बढ़ गया है कि मप्र में राज्यसभा के लिए तीन सदस्य तुरंत चुने जाने हैं लेकिन न कांग्रेस और न ही भाजपा के पास इतने विधायक हैं कि वे दो सदस्यों को जिता सकें। एक-एक सदस्य दोनों पार्टी चुन लेगी लेकिन तीसरे सदस्य को चुनने के लिए भी यह जोड़-तोड़ हो रही है।
मध्यप्रदेश की राजनीति इतनी विचित्र हो गई है कि इसमें न तो कांग्रेस का नेतृत्व एकजुट है और न ही भाजपा का। दोनों पार्टियों में तीन-चार नेता हैं, जो अपने-अपने गुट को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं। इस गुटीय राजनीति ने दोनों पार्टियों को इस भरोसे में रख रखा है कि हमारे विरोधी आपस में बंटे हुए हैं, इसलिए सरकार गिरेगी और नहीं भी गिरेगी। यहां विचारधारा, पार्टी-आस्था, व्यक्तिगत प्रतिष्ठा, परंपरा आदि सब गौण हो गए हैं। जो राजनीति का ब्रह्म-सत्य है याने सत्ता और पत्ता, अब उसका नग्न प्रदर्शन हो रहा है। सत्ता प्राप्त करने के लिए या उसमें बने रहने के लिए कोई भी नेता कोई भी कदम उठा सकता है। वह कितने पत्ते कैसे चलेगा, कुछ पता नहीं। सत्ता के अलावा सब मिथ्या है। इसलिए अब मध्यप्रदेश में कुछ भी हो सकता है। यदि मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिरती है तो अन्य प्रदेशों में भी कांग्रेस को सतर्क रहना पड़ेगा। कांग्रेस पार्टी तो बिना चालक की गाड़ी बन गई है।
महिला दिवस का औचित्य
ज्योति मांझी
महिला का उद्देश्य सिर्फ महिलाओं के प्रति श्रद्धा और सम्मान बताना है। समाज में नारी के स्तर को उठाने के लिए सबसे ज्यादा जरूरत है महिला सशक्तिकरण की। महिला सशक्तिकरण का अर्थ है महिलाओं की आध्यात्मिक, शैक्षिक, सामजिक, राजनीतिक और आर्थिक शक्ति में वृद्धि करना, बिना इसके महिला सशक्तिकरण असंभव है। महिला सशक्तिकरण के दावे खूब किए जाते हैं। सरकारी और सामाजिक दोनों स्तरों पर। मगर वाकई महिलाएं कितनी सशक्त हुईं, यह न किसी से पूछने की जरूरत है और न ही किताब के पन्नों को पलटने की। आज हर महिला समाज में धार्मिक रूढिय़ों, पुराने नियम कानून में अपने आप को बंधा पाती है। पर अब वक्त है कि हर महिला तमाम रूढिय़ों से खुद को मुक्त करे। यह काम एक महिला अकेले कर सकती है, मगर जब पुरुषों का साथ मिलेगा तो काम जल्दी हो जाएगा। देखा जाए तो प्रकृति ने औरतों को खूबसूरती ही नहीं, दृढ़ता भी दी है। प्रजनन क्षमता भी सिर्फ उसी को हासिल है। भारतीय समाज में आज भी कन्या भ्रूण हत्या जैसे कृत्य दिन-रात किए जा रहे हैं। आज जरूरत है कि देश में बच्चियों को हम वही आत्मविश्वास और हिम्मत दें जो लड़कों को देते हैं। इससे प्रकृति का संतुलन बना रहे। इसलिए जरूरी है कि इस धरती पर कन्या को भी बराबर का सम्मान मिले। साथ ही उसकी गरिमा भी बनी रहे। एक नारी के बिना किसी भी व्यक्ति का जीवन सृजित नहीं हो सकता है। जिस परिवार में महिला नहीं होती, वहां पुरुष न तो अच्छी तरह से जिम्मेदारी निभा पाते हैं और ना ही लंबे समय तक जीते हैं। वहीं जिन परिवारों में महिलाओं पर परिवार की जिम्मेदारी होती है, वहां महिलाएं हर चुनौती, हर जिम्मेदारी को बेहतर तरीके से निभाती हैं और परिवार खुशहाल रहता है। अगर मजबूती की बात की जाए तो महिलाएं पुरुषों से ज्यादा मजबूत होती हैं क्योंकि वो पुरुषों को जन्म देती हैं।
आज जरूरत है कि समाज में महिलाओं को अज्ञानता, अशिक्षा, संकुचित विचारों और रूढि़वादी भावनाओं के गर्त से निकालकर प्रगति के पथ पर ले जाने के लिए उसे आधुनिक घटनाओं, ऐतहासिक गरिमामयी जानकारी और जातीय क्रियाकलापों से अवगत कराने के लिए उसमे आर्थिक, सामजिक, शैक्षिक, राजनैतिक चेतना पैदा करने की। जिससे कि नारी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर समाज को आगे बढ़ाने में सहयोग कर सके।
सही मायने में महिला दिवस तब सार्थक होगा जब असलियत में महिलाओं को वह सम्मान मिलेगा जिसकी वे हकदार हैं। इसके साथ ही समाज को संकल्प लेना चाहिए कि भारत में समरसता की बयार बहे, भारत के किसी घर में कन्या भ्रूण हत्या न हो और भारत की किसा भी बेटी को दहेज के नाम पर न जलाया जाए। विश्व के मानस पटल पर एक अखंड और प्रखर भारत की तस्वीर तभी प्रकट होगी जब हमारी मातृशक्ति अपने अधिकारों और शक्ति को पहचान कर अपनी गरिमा और गौरव का परिचय देगी और राष्ट्र निर्माण में अपनी प्रमुख भूमिका निभाएगी।
महिला दिवस का एक स्याह पहलू भी है। सवाल यह भी है कि महिला दिवस की एक दिन की औपचारिकता क्यों। ऐसा नहीं है कि हमारे देश में देवी की पूजा नहीं होती है। हमारा देश देवी को पूजता भी है और हमारे सम्माननीय नारियों और देवियों के लिए नतमस्तक भी है। लेकिन फिर भी हमें महिला दिवस नहीं मनाना चाहिए, क्योंकि जहां मां, पुत्री, बेटी, लड़की, महिला या स्त्री के शील धर्म की रक्षा नहीं की जा सकती, वहां महज एक दिन महिलाओं के प्रति वफादारी दिखाने का क्या औचित्य है? सिर्फ एक दिन के लिए महिलाओं का गुनगान करके उन्हें सम्मान देना और दूसरी और उनको छलना, उनके साथ कपट भाव रखना, रास्ते चलते छेड़छाड़ करना, स्त्री को लज्जित करना, शराब पीकर महिलाओं के साथ मारपीट करना …यह सब हमारे पुरुष वर्ग को शोभा नहीं देता। इससे अच्छा यही होगा कि हम महिला दिवस मनाना ही भूल जाएं। अगर सच में महिलाओं के प्रति हमारे मन में आदर और सम्मान है तो सबसे पहले हमें चाहिए कि हम उन मां, बहन, बेटियों, बहुओं और उन मासूम बच्चियों के प्रति पहले ते अपना नजरिया बदलें और उन्हें हीन दृष्टि से देखना बंद करें। पराए घर की किसी महिला या लड़की को हम हमारी घर की बेटी समझ कर उन्हें भी उसी नजरिए देखें, जो नजरिया हम अपनी मां और बहनों के लिए रखते करते हैं।
महिला दिवस मनाने का केवल यह मतलब नहीं है कि एक दिन तो बहुत ऊंचे स्थान पर बैठाकर मान-सम्मान दे दिया जाए और दूसरे ही दिन राह चलती लड़कियों से छेडख़ानी शुरू कर दी जाए। यहां युवा तो युवा, बुजुर्ग भी इन मामलों में पीछे नहीं है। रास्ते चलते महिलाओं-लड़कियों पर फब्तियां कसना इनकी आदत शुमार में है और सबसे ज्यादा शर्मनाक बात तो तब हो जाती है जब हैवानों का दल 3-5 साल की मासूम बच्चियों को भी अपना निशाना बनाने में नहीं चूकते और मौका देखते ही उनका शीलहरण करके उन्हें नारकीय जीवन में पहुंचा देते है।
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के इतिहास को देखा जाए तो करीब 100 साल पहले मजदूर महिलाएं काम के घंटे कम करवाने, बराबर वेतन पाने और वोट डालने के अधिकार को लेकर लड़ाई लड़ रही थीं पर आज जिस तरह से महिला दिवस मनाया जा रहा है वो उसके उलट है क्योंकि आज कंपनियां मुनाफा कमाने के लिए मजदूर महिलाओं (वर्किंग क्लास वीमेन) से तय समय से ज्यादा घंटे काम करवा रही हैं। घर संभालने वाली महिलाओं को आज भी उनके काम के लिए न कोई सम्मान मिलता है और न ही कोई वेतन। उनके काम को उनकी और सिर्फ उनकी जिम्मेदारी और कर्तव्य बताया जाता है और कभी भी महिलाओं को मजदूर का दर्जा नहीं मिलता है। महिलाएं आज हर क्षेत्र में काम करने के लिए आगे आ रही हैं और बहुत सी महिलाएं आर्थिक रूप से स्वतंत्र भी हैं पर क्या उनकी आर्थिक आजादी उन्हें सही मायने में आजाद कर पा रही है।
यह सच्चाई है कि अगर महिलाएं आधी आबादी हैं तो उनके सरोकार भी आधा स्थान मांगते हैं। आज महिलाएं अपने पैरों पर खड़ी हो रही हैं। वे अपने कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति जागरूक हो रही हैं। वे समाज में समानता चाहती है, जहां पति-पत्नी का समान दर्जा हो। वह पुरुष की हां में हां मिलाने वाली प्राचीन भारतीय नारी की छवि से अलग अपनी स्वतंत्र सोच रखने वाली आज की महिला है। वह अपनी पसंद-नापसंद रखती है और उसे अपनी बात कहना भी आता है। हाल ही में एक फिल्म आई ‘थप्पड़Ó, जिसमें पति अपनी पत्नी को एक पार्टी में सबके बीच थप्पड़ मारता है। हमें यह स्वीकारना होगा कि ऐसा व्यवहार सदियों से चला आ रहा है, जब पुरुष अपने निकटतम रिश्ते में रह रही महिला पर अपनी मर्दानगी का रौब झाड़ता रहा है। वह पत्नी, मां, बेटी आदि स्त्रियों पर हाथ उठाने से भी बाज नहीं आता। ऐसे में उसकी शिकायत करने या उसके खिलाफ आवाज उठाने के लिए पारंपरिक हिंदी सिनेमा प्रेरित नहीं करता, बल्कि वह इस माध्यम से भी स्त्री को घरेलू महिला होने का संदेश देता-सा नजर आता है। यानी थप्पड़ खाकर चुप रहना औरत की नियति है! जिन महिलाओं ने इसके विरोध में आवाज उठाई, हर बार उन्हें उपहास या बहिष्कार का केंद्र बना दिया गया। यह भी मनोविज्ञान ही है कि महिलाओं को अपने हक की आवाज उठाने से भी रोक दिया गया।
देश में कई महिलाएं ऐसी भी हैं जो आजकल बढ़ती महंगाई और अच्छे से अच्छा दिखने, रहने और दिखाई देने की चाह में अपना अस्तित्व कहीं खोती जा रही हैं। आज अधिकतर कम पढ़ी-लिखी लड़कियां समय से हारते हुए और महंगाई के बोझ तले दबते हुए अपने कदम वेश्यावृत्ति की ओर बढ़ा रही हैं या फिर कुछ सामाजिक तत्व उन्हें ऐसा करने पर मजबूर कर देते हैं जो कि सही नहीं है। यह एक महिला का, देश में उन देवियों का जिनकी हम पूजा करते हैं उनका बड़ा अपमान है। साल के मात्र एक दिन को महिला दिवस के रूप में मनाकर बाकी के 364 दिन हम उनकी उपेक्षा और उन पर अत्याचार ही करते हैं। सही मायने में महिला दिवस तब ही सार्थक होगा जब विश्व भर में महिलाओं को मानसिक व शारीरिक रूप से संपूर्ण आजादी मिलेगी, जहां उन्हें कोई प्रताडि़त नहीं करेगा, जहां उन्हें दहेज के लालच में जिंदा नहीं जलाया जाएगा, जहां कन्या भ्रूण हत्या नहीं की जाएगी, जहां बलात्कार नहीं किया जाएगा, जहां उसे बेचा नहीं जाएगा। समाज के हर महत्वपूर्ण फैसलों में उनके नजरिए को महत्वपूर्ण समझा जाएगा। उन्हें भी पुरूष के समान एक इंसान समझा जाएगा। जहां वह सिर उठा कर अपने महिला होने पर गर्व करे, न कि पश्चाताप कि काश मैं एक लड़का होती।
पादरी और बलात्कार
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पोप फ्रांसिस बधाई के पात्र हैं कि जिन्होंने आखिरकार केरल के पादरी राॅबिन वडक्कमचेरी को ईसाई धर्म से निकाल बाहर किया। आखिरकार शब्द मैंने क्यों लिखा ? इसलिए कि इस पादरी को केरल की एक अदालत ने बलात्कार के अपराध में 60 साल की सजा कर दी थी, इसके बावजूद पोप ने साल भर से इस पादरी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। केरल के केथोलिक चर्च ने भी इस पादरी को दंडित नहीं किया। सिर्फ उसकी पुरोहिताई को मुअत्तिल कर दिया। 2017 में एक ईसाई लड़की से इस पादरी ने कई बार बलात्कार किया और जब इस पर मुकदमा चला तो इसने कनाडा भागने की कोशिश भी की। इसने कई गवाहों को पल्टा खिला दिया। जब उस 16 साल की लड़की ने एक बच्ची को जन्म दे दिया तो इस पादरी ने उस लड़की के बाप से यह बयान दिलवा दिया कि यह बच्ची का पिता वह पादरी नहीं, मैं हूं। बाद में उस लड़की ने इस पादरी से शादी करने की गुहार भी लगाई लेकिन अदालत ने इन सारी तिकड़मों को रद्द करते हुए राॅबिन को जेल के सींखचों के पीछे भेज दिया। केरल की पुलिस ने उस बलात्कृत लड़की के पिता के विरुद्ध भी मामला दर्ज किया है। यहां असली सवाल यह है कि चर्च, मस्जिद, मंदिर और गुरुद्वारों से इस तरह की काली करतूतों की खबरें क्यों आती हैं ? ये तो भगवान के घर हैं। इनमें बैठनेवाले साधु-संन्यासी, पंडित, मुल्ला, पादरी वगैरह तो अपने आपको असाधारण पुरुष मानते हैं। इनकी असाधारणता ही इनका कवच बन जाती है। इन पर लोग शंका करते ही नहीं हैं। मेरा निवेदन है कि इस तरह के धर्म-ध्वजियों पर सबसे ज्यादा शंका की जानी चाहिए। उनके आचरण पर कड़ी निगरानी रखी जानी चाहिए। और जब ये किसी भी प्रकार का कुकर्म करते हुए पकड़े जाएं तो इन्हें असाधारण सजा दी जानी चाहिए। यूरोप और अमेरिका में पादरियों के व्यभिचार और बलात्कार के हजारों किस्से सामने आते रहते हैं लेकिन उन्हें ऐसी तगड़ी सजा कभी नहीं मिलती, जो कि भावी अपराधियों की हड्डियों में कंपकंपी मचा दे। रोमन केथोलिक चर्च में ब्रह्मचर्य पर जरुरत से ज्यादा जोर दिया जाता है, जैसे कि हमारे यहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में दिया जाता है लेकिन भारत में तो यह जोर किसी तरह निभ जाता है लेकिन गोरे देशों में इसके उल्लंघन में ही इसका पालन होता है। यदि ईसाइयत के अंधकार-युग के एक हजार साल का इतिहास देखें तो खुद कई पोप ही बलात्कार और व्यभिचार करते हुए पकड़े गए हैं। वह दिन कब आएगा, जबकि भारत के पादरियों के ऊंचे और पवित्र चरित्र का सिक्का सारी दुनिया में चमकेगा ?
लोकतंत्र बनाम राजतंत्र
सनत जैन
दिल्ली हिंसा के मामले में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे का बयान था ‘ अदालत की शक्ति सीमित है। हम यह नहीं कह रहे हैं, कि लोगों को मरना चाहिए। लेकिन जिस तरह से जनहित याचिका लगाई गई हैं। जिस तरह का दबाव सुप्रीम कोर्ट पर बन रहा है। वह दबाव कोर्ट संभाल नहीं पाएगा। ‘उन्होंने कहा’ आम आदमी को उम्मीद होती है, कि अदालत दंगा रोक सकती है। यह शक्ति हमारे पास नहीं है। ‘मुख्य न्यायाधीश ने कहा’ जिस तरह की रिपोर्टिंग हो रही है। उससे ऐसा लगता है कि इन दंगों के लिए कहीं ना कहीं अदालत भी जिम्मेदार हैं। हम इस मामले को सुनेंगे याचिकाकर्ताओं को यह समझना होगा कि घटना होने के बाद ही मामला कोर्ट में आता है। कोर्ट घटनाओं को नहीं रोक सकता है। हम शांति की अपील करते हैं। ‘ सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का यह कथन भारत के नागरिकों के लिए निराशाजनक संदेश दे रहा है।
भारतीय संविधान ने न्यायालय को सर्वोच्च स्थान पर रखा है। विधायिका और कार्यपालिका द्वारा लिए गए, किसी भी निर्णय अथवा कानून की समीक्षा का अधिकार कोर्ट का है। संविधान की दृष्टि से नागरिकों के मौलिक अधिकारों को मूलभूत अधिकारों से जोड़कर, न्यायालय समीक्षा कर गलत और सही का निर्णय करता है। न्यायालय का निर्णय मानना सभी पक्षों के लिए बंधनकारी है।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एस.ए.बोबडे ने पदभार ग्रहण करते हुए कहा था, कि वह सरकार के सहयोग से कार्य करेंगे। पिछले कुछ वर्षों में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट सुनवाई के दौरान निर्णयों में सरकार के साथ सहानुभूति करते हुए निर्णय स्पष्ट रूप से नजर आता है। उल्लेखनीय है, भारत में जितने भी मामले न्यायालयों में लंबित हैं, उनमें 70 फ़ीसदी से ज्यादा मामलों में केंद्र सरकार, राज्य सरकार, नगरीय निकाय एवं स्थानीय संस्थाएं पक्षकार होती हैं। सरकार चलाना विधायक का और कार्यपालिका का काम है। आम जनता को यदि विधायिका और कार्यपालिका के किसी भी निर्णय से असहमति है। तो न्यायालय का निर्णय ही अंतिम रूप से मान्य होता है। संविधान ने न्यायपालिका के लिए जो शक्तियां दी हैं, वह सर्वोच्च हैं। पिछले कुछ वर्षों में न्यायपालिका भी सरकार के दबाव में सहयोग करती हुई नजर आ रही है। जिसके कारण आम आदमी का विश्वास न्यायपालिका पर कम हो रहा है। हाल में मुख्य न्यायधीश का बयान सभी के लिए निराशाजनक है।
जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने का मामला हो या नागरिकता संशोधन विधेयक, पिछले कई माह से कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं। 2 माह से अधिक समय से शाहीन बाग में आंदोलन चल रहा है। दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान सांप्रदायिक आधार पर खुलेआम मंत्रियों एवं सांसदों द्वारा बयान दिए गए। दिल्ली में रहते हुए सरकार के किसी भी प्रतिनिधि ने आंदोलनकारियों से बात नहीं की। कड़कड़ाती ठंड में महिलाएं एवं बच्चे शांतिपूर्ण आंदोलन सड़क पर बैठकर करते रहे। सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि पहले शांति स्थापित हो, तब हम याचिकाओं की सुनवाई करेंगे, सरकार को लगातार समय देना कहीं ना कहीं स्थिति को बिगड़ने देने के लिए भी जिम्मेदार है। याचिकाकर्ता यह मान रहे हैं, तो यह गलत भी नहीं है। केंद्र सरकार के उपरोक्त कानून को लेकर कई राज्यों के हाईकोर्ट में याचिकाएं दाखिल हुई थीं। उन सभी याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट ने अपने पास बुला कर रख लिया। उस पर कई महीनों से सुनवाई नहीं हुई। सरकार और उसके नुमाइंदे एनआरसी और सीएए को लेकर अलग-अलग बयानबाजी कर रहे हैं। इसके बाद भी सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट नागरिकों के मौलिक अधिकार या समाज में फैली उत्तेजना को लेकर सुनवाई नहीं कर है, इससे आम जनता के बीच यही संदेश जा रहा है कि जिस तरह विधायिका के दबाव में कार्यपालिका काम करती है। लगभग वही स्थिति अब न्यायपालिका की भी हो चली है। ऐसे दर्जनों मामले हैं, जिसमें लोगों को स्पष्ट रूप से यह स्थिति देखने को मिली है। न्यायपालिका ने पिछले वर्षों में जिस तरह से सरकार के साथ सहानुभूति और पक्षपातपूर्ण रवैया सुनवाई के दौरान अपनाया है। उससे लोगों में एक अलग तरह की निराशा और उद्धेलन देखने को मिल रहा है। इससे याचिकाकर्ता न्यायालयीन प्रक्रिया में प्रताड़ित हो रहे हैं। यह स्थिति अब काफी नाजुक मोड़ पर पहुंच गई है। पिछले वर्षों में विधायिका और कार्यपालिका पर लोगों का विश्वास ना के बराबर है। आम आदमी को न्यायपालिका पर ही विश्वास था, कि वह संविधान के अनुरूप उसके मौलिक अधिकारों और नागरिक अधिकारों की रक्षा करेगी। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के इस बयान से लोगों में निराशा फैलना स्वाभाविक है। संविधान प्रदत्त असीमित शक्तियों का उपयोग करने में यदि न्यायाधीश भी अपने आपको असहाय मानेंगे। तो इससे यही लगता है कि भारत में लोकतंत्र के स्थान पर राजतंत्र स्थापित हो रहा है।
इस घर को आग लग गयी घर के चिराग़ से?
निर्मल रानी
देश की राजधानी दिल्ली आख़िरकार अशांत हो ही गयी। दिल्ली के उत्तर-पूर्वी इलाक़े हिंसा की भेंट चढ़ गए। इस साम्प्रदायिक हिंसा में अब तक भारत माता के ही 13 सपूत अपने जानें गंवा चुके हैं। इनमें एक पुलिसकर्मी भी अपनी ड्यूटी निभाते हुए दंगाइयों के हाथों शहीद हो गया जबकि दो आला पुलिस अधिकारी भी घायल हुए। बड़े पैमाने पर संपत्ति को भी क्षति पहुंचाई गयी है। टी वी तथा सोशल मीडिया पर अनेक ऐसे वी डी ओ वायरल हो रहे हैं जो अत्यंत ह्रदय विदारक हैं। इन वी डी ओज़ को देखकर यह तो पता चलता ही है कि राजनीतिज्ञों के चक्रव्यूह में उलझकर एक आम इंसान किस प्रकार से अपने ही देशवासियों के ख़ून का प्यासा हो जाता है और हैवानियत की हदों को किस तरह पार कर जाता है। साथ साथ यह भी पता चलता है कि वह पुलिस जिसपर दंगाइयों को नियंत्रित करने का ज़िम्मा है वही पुलिस किस तरह दंगाइयों की भीड़ में शामिल होकर लूट पाट व हिंसा में शरीक होती है। गत दो महीने से भी अधिक समय से दिल्ली में एन आर सी व सी ए ए के विरुद्ध निरन्तर हो रहे धरने व प्रदर्शनों के बाद से ही दिल्ली के माहौल में तनावपूर्ण गर्मी पैदा होनी शुरू हो चुकी थी। पिछले दिनों हुए दिल्ली विधान सभा चुनावों के दौरान इस गर्मी की तीव्रता उस समय और अधिक बढ़ गयी जब कि चुनाव प्रचार के दौरान अशांति पसंद करने वाले कुछ फ़ायर ब्रांड नेताओं को अपने ज़हरीले भाषणों के द्वारा राजधानी को और अधिक ‘प्रदूषित’ करने का मौक़ा मिला। दिल्ली के चुनाव परिणामों को लेकर विश्लेषकों का यही मानना है कि भले ही आम आदमी पार्टी ज़ोरदार तरीक़े से सत्ता में पुनः वापिस क्यों न आ गयी हो परन्तु 2015 में 3 सीटें जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी का 3 के आंकड़े से 2020 में 8 सीटों तक पहुंचना तथा गत 2015 के चुनाव की तुलना में भाजपा के मतों में 6.3 प्रतिशत की बढ़ौतरी होना इस बात का सुबूत है कि भाजपा नेताओं के फ़ायर ब्रांड भाषणों का निश्चित तौर पर कम ही सही परन्तु कुछ न कुछ प्रभाव ज़रूर हुआ है।
ग़ौर तलब है कि गत 8 दिसम्बर को दिल्ली में विधानसभा चुनाव संपन्न हुए। भाजपा नेता कपिल मिश्रा ने इसी चुनावी वातावरण में 20 दिसंबर को एन आर सी व सी ए ए के समर्थन में एक रैली निकाली। इस रैली में वे अपने समर्थकों से नारे लगवा रहे थे कि ‘देश के ग़द्दारों को-गोली मारो सालों को’ । इसी प्रकार 27 जनवरी को दिल्ली के रिठाला विधान सभा क्षेत्र में केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर ने भी वही उत्तेजना व हिंसा फैलाने वाला आपत्ति जनक नारा उपस्थित भीड़ से पुनः लगवाया। भाजपा नेता कपिल मिश्रा ने इसी चुनाव के दौरान 23 जनवरी को एक अति आपत्तिजनक ट्वीट किया कि ‘8 फ़रवरी को दिल्ली में हिंदुस्तान व पाकिस्तान का मुक़ाबला होगा’। अर्थात दिल्ली के चुनाव को यह महाशय भारत-पाकिस्तान के मुक़ाबले के रूप में देख रहे थे। इन्हें प्रत्येक भाजपा विरोधी ‘पाकिस्तानी ‘ दिखाई देता है। कपिल मिश्रा के इस आपत्तिजनक ट्ववीट पर संज्ञान लेते हुए चुनाव आयोग ने उसपर 48 घंटे तक चुनाव प्रचार में भाग न लेने का प्रतिबंध भी लगा दिया था। बहरहाल चुनाव समाप्त हुए,आम आदमी पार्टी ने पुनः सत्ता संभाली परन्तु हार की कसक शायद इन आग लगाऊ नेताओं से सहन न हो सकी। नतीजतन दिल्ली को उस समय दंगों की आग में सुनियोजित तरीक़े से झोक दिया गया जबकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप दिल्ली में मौजूद थे।
बहरहाल,जैसा कि पहले भी सांप्रदायिक इतिहास में काले अक्षरों में दर्ज है यहाँ भी दर्जनों ‘स्वयंभू देशभक्त दंगाई योद्धाओं’ ने कई जगहों पर एक एक व्यक्ति को घेर कर लाठी-डंडों व लोहे की रॉड आदि से इतना पीटा की उनमें से कई बुरी तरह ज़ख़्मी लोगों ने दम तोड़ दिया।सरेआम गोलियां चलाई गयीं। भीड़ में शेर बन जाने वाले ये बहादुर योद्धा भजनपुरा में एक पीर की मज़ार को भी आग लगाने से बाज़ नहीं आए। यह मज़ार हिन्दू व मुस्लिम दोनों ही समुदाय के लोगों के लिए आस्था का केंद्र थी। दंगाइयों ने अशोक नगर में एक मस्जिद में आग लगा दी।दंगाई भीड़ ने “जय श्री राम” और “हिंदू का हिंदुस्तान” के नारे लगाते हुए जलती हुई मस्जिद के चारों ओर परेड किया और मस्जिद के मीनार पर एक हनुमान ध्वज लगा दिया। इन दंगों में एक नई चीज़ यह दिखाई दी कि अनेक जगहों पर अनेक दंगाइ जहाँ हाथों में लाठी डंडे व रॉड आदि लिए थे वहीँ उन्होंने अपने सिरों पर हेलमेट भी डाला हुआ था। यह हेलमेट उन दंगाइयों को सुरक्षा तो प्रदान कर ही रहा था साथ साथ उनकी पहचान छुपाने का काम भी कर रहा था। खुले आम दंगाइयों द्वारा पेट्रोल बम का इस्तेमाल किया गया। कई पत्रकारों की पिटाई की गयी। उनके कैमरे छीने गए। दंगाई, पत्रकारों का भी धर्म पूछ रहे थे। यदि उन्हें लगता की कोई नाम ग़लत बता रहा है तो वे उसकी पैंट उतरवाकर उसका ‘धर्म चेक’ करते। एक वीडीओ में तो यह भी देखा जा रहा है कि ज़मीन पर गिरे कुछ युवाओं पर पुलिस व कुछ युवा इकट्ठे होकर लाठियों से प्रहार कर रहे हैं तथा उनसे देशभक्ति दिखाने व राष्ट्रगीत गाने के लिए भी कह रहे हैं। मेहनतकश लोगों की सारी उम्र की कमाई दंगाइयों ने आग की भेंट चढ़ा दी। सैकड़ों मकान व दुकानें राख के ढेर में बदल डालीं। दंगे भड़काकर अपने ही देशवासियों को जान व माल का नुक़सान पहुंचाकर इन ‘सूरमाओं’ को क्या हासिल हुआ यह तो यही जानते होंगे परन्तु एक बार फिर इन दंगों के बीच से ही शांति प्रेम सद्भाव व भाइचारे की वही ‘शम्मा’ रोशन होती नज़र आई जो भारतवर्ष में हमेशा से रोशनहोती नज़र आई है। दंगा प्रभावित क्षेत्र में कई स्थानों पर हिन्दुओं ने मुसलमानों की जान व माल की हिफ़ाज़त की तो कई जगह मुसलमानों ने अपने हिन्दू भाईयों की रक्षा की। मुसलमानों द्वारा मुस्लिम आबादी में एक मंदिर व उसके पुजारी की सारी सारी रात जागकर सुरक्षा की गयी। दोनों समुदाय के लोग दंगा प्रभावित क्षेत्रों में कई जगह शांति व एकता दर्शाने वाली मानव श्रृंखला बना कर खड़े हो गए और दंगाइयों को उनकी मंशा पूरी नहीं करने दिया।
दिल्ली के इन ताज़ातरीन दंगों ने 1984 की ही तरह एक बार फिर वही सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या दिल्ली पुलिस को दंगों को नियंत्रित करने का ऐसा ही प्रशिक्षण हासिल है जैसा की उसने दंगाइयों के साथ दंगे व आगज़नी में शामिल होकर प्रदर्शित किया है?1984 में भी यही दिल्ली पुलिस इसी भूमिका में नज़र आई थी जैसी कि पिछले दिनों पूर्वोत्तर दिल्ली के प्रभावित क्षेत्र में दिखाई दी।अब जब चारों तरफ़ से दिल्ली पुलिस की आलोचना हो रही है उस समय दिल्ली में दंगाइयों को देखते ही गोली मारने के आदेश दिए गए हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभवाल द्वारा प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया गया है। इन तथाकथित ‘शासकीय चौकसी’ के बीच यह सवाल ज़रूर उठता है कि क्या दंगे भड़काने वालों पर भी कोई कार्रवाई होगी ? क्या नियंत्रित करने के बजाए दंगों व दंगाइयों को उकसाने व उसमें शरीक होने वाले पुलिसकर्मियों के विरुद्ध कोई कार्रवाई होगी ? या फिर दंगाइयों को पद व मान सम्मान देकर वैसे ही पुरस्कृत किया जाएगा जैसा कि पहले भी कई बार किया जाता रहा है। जो भी हो दंगों में हिन्दू मरे या मुसलमान, मंदिर जले या मस्जिद,आख़िरकार आहत तो मानवता ही होती है। जब भी कोई भारत माता की संतान आहत होती है तो ज़ख्म भारत माता के सीने पर ही लगता है। शायद इन्हीं हालात की तरजुमानी हुए महताब रॉय ताबां फ़रमाते हैं कि –
‘दिल के फफोले जल उठे सीने के दाग़ से’- इस घर को आग लग गयी घर के चिराग़ से’।
कलेक्टर:नाम नही मन बदलने की दरकार
डा अजय खेमरिया
मप्र में सरकार कलेक्टर का नाम बदलने जा रही है। अंग्रेजी हुकूमत के लिए राजस्व वसूलने यानी कलेक्ट करने के लिए ईजाद किये गए कलेक्टर के पद में अभी भी औपनिवेशिक प्रतिध्वनि होती है। हालांकि मप्र के आईएएस अफसर इस नाम को बदलने के लिये राजी नही है। मप्र आईएएस एशोसिएशन के अध्यक्ष आईसीपी केसरी की अध्यक्षता में बनाई गई एक पांच सदस्यीय कमेटी के समक्ष राज्य के आईएएस अफसरों के अलावा राज्य प्रशासनिक सेवा और तहसीलदार संघ ने भी सरकार के इस प्रस्ताव का विरोध किया है। अब यह कमेटी राज्य के सांसद,विधायक, औऱ अन्य मैदानी जनप्रतिनिधियों से परामर्श कर मुख्यमंत्री कमलनाथ को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी। उधर राज्य के सामान्य प्रशासन मंत्री डॉ गोविंद सिंह स्पष्ट कर चुके है कि कलेक्टर का नाम बदला जाएगा। मप्र सरकार मैदानी प्रशासन तंत्र में भी नीतिगत रूप से बदलाव कर रही है अब जिलों में जिला सरकार काम करेंगी। यानी जिला प्रशासन की जगह अब सरकार लेगी जो प्रशासन की तुलना में सरकार के समावेशी स्वरूप का अहसास कराता है। कलेक्टर अभी जिले का सबसे बड़ा अफसर होता है और उसकी प्रशासनिक ताकत समय के साथ असीमित रूप से बढ़ती जा रही है। आलम यह है कि कलेक्टर के आगे विधायक सांसद जैसे चुने गए प्रतिनिधि भी लाचार नजर आते है। मप्र में छतरपुर के मौजूदा कलेक्टर तो स्थानीय विद्यायकों को मिलने के लिये घन्टो इंतजार कराकर सुर्खियों में रह चुके है। सरकार के तमाम मंत्री कलेक्टरो द्वारा असुनवाई की शिकायत करते रहते है। असल में मौजूदा राजव्यवस्था का स्वरूप स्वतः ही कलेक्टर के पद को अपरिमित ताकत देता है। लोककल्याणकारी राज के चलते सरकारें लगातार जनजीवन में अपना सकारात्मक दखल बढ़ाती जा रही है। प्रशासन का ढांचा विशालकाय हो गया है। व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक आज सरकार की भागीदारी सुनिश्चित है। ऐसे मैं कलेक्टर लोककल्याणकारी योजनाओं से लेकर आधारभूत ढांचा विकास औऱ कानून व्यवस्था के अंतहीन दायित्व कलेक्टर के पास आ गए है। इन परिस्थितियों में कलेक्टर की व्यस्तता तो बढ़ी ही है समानान्तर ताकत और अधिकारों के साथ आने वाली बुराइयों ने भी इस पद को अपने कब्जे में ले लिया है। सरकार की समस्त मैदानी प्रयोगशाला आज जिला इकाई है। कलेक्टर एक ऐसे परीक्षक बन गए है जहां से हर समीकरण निर्धारित होता है। कलेक्टर के पद से जुड़ी असीम ताकत ने निर्वाचित तंत्र को आज लाचार सा बना दिया है। आज भी आम आदमी कलेक्टर को लेकर कतई सहज नही है। इसी व्यवस्थागत विवशता को समझते हुए मप्र की कमलनाथ सरकार ने बुनियादी परिवर्तन का मन बना लिया है। जिला सरकार का प्रयोग वस्तुतः मैदानी प्रशासन तंत्र में जनभागीदारी को प्रधानता देना ही है। इस जिला सरकार में प्रभारी/पालक मंत्री अध्यक्ष होंगे और कलेक्टर सचिव। 4 सदस्य जनता की ओर से मनोनीत होंगे। कलेक्टर का पदनाम बदला जाना भी इस अंग्रेजी राज व्यवस्था पर मनोवैज्ञानिक रूप से प्रधानता हासिल करने का प्रतीक है। बेहतर होगा कलेक्टर भी अपने व्यवहार में परिवर्तन लाकर भारत के आम नागरिकों के साथ, उनकी अपेक्षाओं आकांक्षाओं के साथ समेकन का प्रयास करें। नही तो पदनाम बदले जाने का कोई औचित्य नही रह जायेगा। वैसे देश में कलेक्टर हर राज्य में नही है। पंजाब में यह डीसी,यूपी में डीएम,बिहार में समाहर्ता,के नाम से जाने जाते है। जनप्रतिनिधियों को भी चाहिये कि वे भी लोकव्यवहार में पारदर्शिता का अबलंबन करें। तभी औपनिवेशिक राजव्यवस्था से जनता को मुक्ति मिल सकेगी। अफसरशाही को लेकर यह आमधारणा है कि वह एक अनावश्यक आवरण खड़ा करके रहती है। लोकसेवक के रूप में उसकी आवश्यकता के साथ आज भी भारत की नौकरशाही न्याय नही कर पाई है और त्रासदी यह है कि 70 साल बाद मानसिकता के स्तर पर भी हमारे समाज से निकली इस जमात ने खुद को आईसीएस के मनोविज्ञान को त्यागा नही है। कलेक्टर की व्यवस्था असल में आज भी देश भर में लोगों को सुशासन का अहसास कराने में नाकाम रही है। नाम बदलकर जिला अधिकारी, जिला प्रमुख,जिलाधीश करने से उस बुनियादी लक्ष्य की ओर उन्मुख होना संभव नही है जिसे लेकर कमलनाथ यह कदम उठा रहे है।
नीतीश ने दिखाया रास्ता मोदी को
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीशकुमार ने ऐसा काम कर दिखाया है, जो उन्हें नेताओं का नेता बना देता है। पिछले कुछ दिनों से उनकी छवि गठबंधन-बदलू नेता की बन रही थी लेकिन उन्होंने बिहार की विधानसभा से राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के खिलाफ प्रस्ताव पारित करवाकर एक चमत्कार-सा कर दिया है। वह प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हुआ है याने भाजपा के विधायकों ने भी नागरिकता रजिस्टर को रद्द कर दिया है। यह वही नागरिकता रजिस्टर है, जिसके कारण दिल्ली में दंगे हो रहे हैं, सारे देश में सैकड़ों शाहीन बाग उग आए हैं और सारी दुनिया में भारत की छवि गारत हो रही है। इसी रजिस्टर के प्रस्ताव ने सारे देश में गलतफहमी का अंबार खड़ा कर दिया है। मुसलमान यह मानकर चल रहे हैं कि यह हिंदुत्ववादी मोदी सरकार मुसलमानों को छांट-छांटकर देश-निकाला दे देगी। यह धारणा बिल्कुल निराधार है लेकिन राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के तहत नागरिकों से जो सवाल पूछे जाने हैं, उन्होंने इस गलतफहमी को मजबूत कर दिया है। संसद में गृहमंत्री के बयानों और संसद के बाहर दिए गए भाजपा नेताओं के उकसाऊ भाषणों ने इस गलतफहमी को अंधविश्वास में बदल दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस आश्वासन के बावजूद कि राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर जैसी किसी योजना पर सरकार ने विचार ही नहीं किया है, सारे देश में गड़बड़झाला मचा हुआ है। इसी के कारण पड़ौसी मुस्लिम देशों के शरणार्थियों का कानून भी घृणा का पात्र बन गया है। यह गलतफहमी दूर हो और देश का माहौल बदले, इसके लिए मैं बराबर सुझाव देता रहा हूं लेकिन प्रधानमंत्री की मजबूरी मैं समझता हूं। खुशी की बात है कि नीतीश ने मोदी को इस अंधी गली से बाहर निकाल लिया है। बिहार विधानसभा ने जो प्रस्ताव पारित किया है, उसमें 2014 में बने राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) की तर्ज पर ही बिहार में अब 2020 में जनगणना होगी। यही प्रस्ताव अब चाहें तो देश की सभी विधानसभाएं पारित कर सकती हैं। इस प्रस्ताव के द्वारा बिहार के 17 प्रतिशत मुसलमानों के वोट नीतीश ने अपनी जेब में डाल लिए हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल चाहें तो दिल्ली में बिहार दोहरा सकते हैं। उन्होंने चुनाव में जो सावधानी दिखाई, यह उसका अगला रुप है। जहां तक पड़ौसी शरणार्थियों का सवाल है, उस कानून में भी संशोधन की मांग नीतीश करते तो बेहतर होता। जैसे नीतीश ने मोदी को नया रास्ता दिखाया, मैं सोचता हूं कि सर्वोच्च न्यायालय भी मोदी सरकार को इस दलदल से जरुर बाहर निकाल लेगा।
सेठजी ट्रंप के छक्के
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की इस भारत-यात्रा से किसी भी विदेशी राष्ट्रध्यक्ष की यात्रा की तुलना नहीं की जा सकती। कुछ अर्थों में यह अप्रतिम रही है। अब तक आए किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति या किसी अन्य विदेशी नेता ने भारत और उसके प्रधानमंत्री की वैसी तारीफ कभी नहीं की, जैसी कि ट्रंप ने की है। अपने दो दिन के प्रवास में ट्रंप ने एक शब्द भी ऐसा नहीं बोला और कोई भी हरकत ऐसी नहीं की, जिसके लिए वे सारी दुनिया में जाने जाते हैं। दूसरे शब्दों में उनकी भारत-यात्रा ने उन्हें काफी परिपक्व बना दिया। यदि इस परिपक्वता को वे बनाए रखेंगे तो राष्ट्रपति का अगला चुनाव जीतने में उन्हें काफी मदद मिलेगी। ट्रंप ने अपने अहमदाबाद-भाषण में पाकिस्तान का जिक्र भी बड़ी तरकीब से किया। उन्होंने उसके आतंकवाद से लड़ने की तो कसम खाई लेकिन उसे कोई दोष नहीं दिया। उस लड़ाई में उन्होंने उसकी मदद की बात भी कही। यही उच्च कोटि की कूटनीति है। उन्हें अफगानिस्तान से पिंड छुड़ाने में पाकिस्तान की मदद जो चाहिए। उन्होंने न सिर्फ नागरिकता कानून आदि ज्वलंत मुद्दों को छूने से परहेज कर लिया बल्कि मोदी को धार्मिक स्वतंत्रता के दृढ़ पक्षधर का प्रमाण-पत्र भी थमा दिया। उन्होंने कश्मीर पर मध्यस्थता का अपना पुराना राग जरुर अलापा लेकिन उसे इतने मंद स्वर में गाया कि उसका सुनना या न सुनना, एक बराबर हो गया। उनके वाशिंगटन से रवाना होने के पहले सरकारी बयानों से जो आशंकाएं पैदा हो गई थीं, वे निराधार सिद्ध हो गईं। ट्रंप ने अहमदाबाद में जो छक्के मारे हैं, उन पर अमेरिका के 40 लाख प्रवासी भारतीय क्या तालियां नहीं पीट रहे हैं ? इस चुनावी मौसम में इससे बड़े फायदे का सौदा क्या हो सकता है ? ट्रंप जैसा सेठजी कहीं जाए और खाली हाथ लौट आए, यह कैसे हो सकता है ? उन्होंने चलते-चलते 21 हजार करोड़ रु. के हेलिकाप्टर भी भारत को बेच दिए और अरबों रु. के व्यापार के सब्ज-बाग भी दिखा दिए। ट्रंप ने इस भारत-यात्रा से अपने देश का हित तो साधा ही, मोदी की और खुद की छवि को भी चार चांद लगाने में कोई कसर न छोड़ी।
सरोगेसी की जरूरत
सिद्वार्थ शंकर
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने राज्यसभा की चयन समिति की सिफारिशों को शामिल करने के बाद सरोगेसी (विनियमन) विधेयक को मंजूरी दे दी। केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने एक संवाददाता सम्मेलन में कहा कि राज्यसभा सिलेक्ट कमेटी की सिफारिशों को शामिल करने वाली सरोगेसी विनियमन विधेयक को कैबिनेट ने मंजूरी दे दी है। एक संसदीय पैनल ने सिफारिश की थी कि न केवल करीबी रिश्तेदार, बल्कि अपनी इच्छा से सरोगेसी करने वाली किसी भी महिला को सरोगेट के रूप में कार्य करने की अनुमति दी जानी चाहिए। राज्यसभा की 23 सदस्यीय चयन समिति द्वारा सरोगेसी (विनियमन) विधेयक, 2019 में सुझाए गए 15 बड़े बदलावों में बांझपन की परिभाषा को शामिल करना भी शामिल है। सरकार का यह फैसला पूरी तरह से स्वीकार्य नहीं किया गया है। इससे पहले लोकसभा में पेश कानून में सरोगेसी को सख्त बनाने की बात कही गई थी, मगर नए फैसले में इसे लचीला बना दिया गया है। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने जो फैसला लिया है, वह राज्यसभा की एक समिति के अध्ययन के बाद आया है। लोकसभा मेें बिल पास होने के बाद इसे राज्यसभा में लाया गया तो इसके परीक्षण की मांग उठी। सरकार ने कमेटी के पास बिल को भेजा। वहां से आई राय के बाद सरकार ने कानून में संशोधन किया है। इस विधेयक का मसला पिछले तीन साल से चर्चा में है और संसद की स्थाई समिति व कुछ संशोधनों के बाद अब सिरे चढ़ता दिख रहा है। यह एक ऐसा मामला है, जिस पर दुनिया के कई देशों में काफी पहले से कानून बन चुके हैं, भारत शायद इस पर सबसे देरी से कानून बनाने वाले बड़े देशों में होगा। सरोगेसी यानी पराई कोख का मामला थोड़ा टेढ़ा है। इसका सीधा सा अर्थ है कि बच्चे (यानी भ्रूण) की मां कोई और होगी और वह अपने नौ महीने के शुरुआती जीवन को किसी और की कोख में गुजारेगा। पहले इसके लिए कानून की जरूरत नहीं थी, क्योंकि यह संभव ही नहीं था, लेकिन अब जब विज्ञान ने इसे संभव कर दिखाया है, तो इसकी तमाम जटिलताएं और नैतिक प्रश्न भी हमारे सामने खड़े हैं। इसकी तकनीक, जिसे विज्ञान की भाषा में एटीआर यानी असिस्टेड रिप्रोडक्शन टेक्नोलॉजी कहते हैं, वह ऐसी माओं के लिए वरदान की तरह है, जिनकी कोख किसी कारण से बच्चे का पोषण करने में समर्थ नहीं है। लेकिन ऐसी माओं की संख्या बहुत कम है, इसकी जगह इस तकनीक के इस्तेमाल की चाहत रखने वाले ऐसे लोग काफी ज्यादा हैं, जो धन के बदले अपने भ्रूण को दूसरों की कोख के हवाले करके नौ महीने की तकलीफों और उसके बाद की प्रसव पीड़ा से मुक्ति चाहते हैं। ऐसे ही लोगों की वजह से यह तकनीक पिछले दिनों काफी बदनाम भी हुई। इसकी चर्चा तब बहुत ज्यादा हुई, जब बॉलीवुड की कई हस्तियों ने अपने बच्चे हासिल करने के लिए इस रास्ते को अपनाया। फिर अचानक ही इस तरह की खबरें आने लगीं कि बच्चों की चाहत रखने वाले दुनिया भर के लोग भारत का रुख कर रहे हैं। वे गरीब घरों की औरतों की कोख को किराए पर ले रहे हैं। सरोगेसी जो एक वरदान के रूप में आई थी, वह एक व्यवसाय के रूप में पैर पसारने लग गई। वह भी उस समय, जब दुनिया भर के कई विकसित देश व्यावसायिक सरोगेसी पर पाबंदी लगा चुके थे। अब जो कानून बन रहा है, उसके बाद भारत में भी इस सब पर पाबंदी लग जाएगी। अब सिर्फ जरूरतमंद ही यह राह अपना सकेंगे और किराए की कोख भी परिवार या नजदीकी रिश्तेदारों में ही किसी की होगी। इसके लिए रुपयों के लेन-देन पर भी पूरी पाबंदी रहेगी।
फिर भी एक सवाल तो पूछा ही जाना चाहिए कि हम हमेशा देर क्यों कर देते हैं? बदलती दुनिया की जरूरत के हिसाब से नियम-कायदे बनाने की हमारी चाल समय के साथ कदमताल नहीं करती और अचानक पता चलता है कि हम काफी पिछड़ गए। यही साइबर कानूनों के मसले पर भी हुआ था और यही साइबर सुरक्षा के मामले में भी। विश्व शक्ति बनने के हमारे सपने और हमारा यह ढुलमुल रवैया, दोनों एक साथ नहीं चल सकते, दोनों में किसी एक को छोडऩा ही होगा।
पिछले कुछ सालों के दौरान भारत के चिकित्सा बाजार में सरोगेट मदर का धंधा जिस कदर फल-फूल रहा था, उसमें चुपचाप पल रहे कुछ अमानवीय पहलुओं की अनदेखी हो रही थी। विडंबना यह है कि एक कारोबार की शक्ल ले चुके होने के बावजूद कानूनी स्तर पर फिलहाल ऐसी व्यवस्था नहीं है कि अगर इसमें कोई पीडि़त पक्ष है तो वह अपने हक में कानून का सहारा ले सके। इसलिए सरकार ने ‘किराए की कोखÓ के नियमन का जो फैसला लिया है, उसे एक सकारात्मक पहल कहा जा सकता है। मगर यह ऐसा काम है, जिस पर सतत निगरानी की जरूरत हमेशा बनी रहेगी।
हिंदू बना रहे मस्जिद
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के कुछ हिंदू और मुस्लिम नेता दोनों संप्रदायों की राजनीति जमकर कर रहे हैं लेकिन देश के ज्यादातर हिंदू और मुसलमानों का रवैया क्या है ? अदभुत है। उसकी मिसाल दुनिया में कहीं और मिलना मुश्किल है। कुछ दिन पहले मैंने तीन लेख लिखे थे। एक में बताया गया था कि वाराणसी में संस्कृत के मुसलमान प्रोफेसर के पिता गायक हैं और वे हिंदू मंदिरों में जाकर अपने भजनों से लोगों को विभोर कर देते हैं। दूसरे लेख में मैंने बताया था कि उप्र के एक गांव में एक मुस्लिम परिवार के बेटे ने अपने पिता के एक हिंदू दोस्त की अपने घर में रखकर खूब सेवा की और उनके निधन पर उनके पुत्र की तरह उनके अंतिम संस्कार की सारी हिंदू रस्में अदा कीं। तीसरे लेख में आपने पढ़ा होगा कि कर्नाटक के एक लिंगायत मठ में एक मुस्लिम मठाधीश को नियुक्त किया गया है लेकिन अब सुनिए नई कहानी। ग्रेटर नोएडा के रिठौड़ी गांव में एक भव्य मस्जिद बन रही है। उसकी नींव गांव के हिंदुओं ने छह माह पहले रखी थी। इस गांव में बसनेवाले हर हिंदू परिवार ने अपनी-अपनी श्रद्धा और हैसियत के हिसाब से मस्जिद के लिए दान दिया है। पांच हजार लोगों के इस गांव में लगभग डेढ़ हजार मुसलमान रहते हैं। ये लोग एक-दूसरे के त्यौहार मिल-जुलकर मनाते हैं। एक-दूसरे से मिलने पर हिंदुओं को सलाम कहने में और मुसलमानों को राम-राम कहने में कोई संकोच नहीं होता। इस गांव में कभी कोई सांप्रदायिक तनाव नहीं हुआ। सभी लोग एक बड़े परिवार की तरह रहते हैं, जबकि दोनों की पूजा, भोजन, पहनावे और तीज-त्यौहारों में काफी भिन्नता है। क्या हम 21 वीं सदी में ऐसे ही भारत का उदय होते हुए नहीं देखना चाहते हैं ? मैं तो चाहता हूं कि यही संस्कृति पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और मालदीव में भी पनपे। इस रिठौड़ी गांव में इस महाशिवरात्रि पर एक नए मंदिर की नींव भी रखी गई। गांव के मुसलमानों ने उत्साहपूर्वक इसमें हाथ बंटाया। यदि ईश्वर एक है तो फिर मंदिर, मस्जिद, गिरजे, गुरुद्वारे में एका क्यों नहीं है ? पूजा-पद्धतियों और पूजागृहों में जो यह फर्क है, यह देश और काल की विविधता के कारण है। यह फर्क मनुष्यकृत है, ईश्वरकृत नहीं। इस सत्य को यदि दुनिया के सारे ईश्वरभक्तों ने समझ लिया होता तो यह दुनिया अब तक स्वर्ग बन जाती।
राजनीति की नई इबारत लिखने की ओर बिहार
निर्मल रानी
महात्मा बुध से लेकर महात्मा गाँधी जैसे महापुरुषों की कर्मस्थली रहा देश का प्राचीन समय का सबसे समृद्ध राज्य बिहार गत 15 वर्षों में हुए अनेक मूलभूत विकास कार्यों के बावजूद अभी भी देश के पिछड़े राज्यों में ही गिना जाता है। आज भी बिहार के शिक्षित व अशिक्षित युवा अपनी रोज़ी रोटी की तलाश में देश के अन्य राज्यों में जाने के लिए मजबूर हैं। महाराष्ट्र जैसे राज्य में तो बिहार के लोगों की संख्या इतनी अधिक हो चुकी है कि क्षेत्रीय मराठा राजनीति करने वाले नेता उत्तर भारतियों के विरोध के नाम पर ही मराठा मतों के ध्रुवीकरण की राजनीति भी करते हैं। यह भी सच है कि डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद से लेकर जय प्रकाश नारायण व कर्पूरी ठाकुर जैसे नेता इसी राज्य का प्रतिनिधित्व करते थे परन्तु इसके बावजूद अन्य राज्यों की तुलना में बिहार का विकास होना तो दूर उल्टे बिहार तेज़ी से पिछड़ता ही चला गया। लगभग 3 दशकों तक बिहार भ्रष्टाचार,ग़रीबी,पिछड़ेपन,अपराध,जातिवाद व बेरोज़गारी का पर्याय बना रहा। परन्तु जब से राष्ट्रपति भारत रत्न ए पी जे अब्दुल कलाम ने बिहार से विकास की धारा बहाने की शुरुआत की और इसी राज्य से नई हरित क्रांति छेड़ने का आवाह्न किया तब से न केवल बिहार के नेतृत्व को भी पारम्परिक लचर राजनैतिक रवैय्ये को त्यागना पड़ा बल्कि केंद्र सरकार भी बिहार के विकास के लिए गंभीर नज़र आने लगी। बिहार को एक झटका उस समय भी लगा जबकि 15 नवंबर 2000 को बिहार विभाजित हो गया और झारखण्ड के नाम से राज्य का लगभग 80,000 वर्ग किलोमीटर का प्रकृतिक रूप से समृद्ध क्षेत्र बिहार से अलग हो गया। कहा जाता है कि झारखण्ड राज्य अपने आप में देश की 40 प्रतिशत खनिज संपदा का स्वामित्व रखता है।
बहरहाल यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं कि जहाँ राज्य के शिक्षित युवाओं ने देश-विदेश में ऊँचे से ऊँचे पदों पर बैठकर राज्य का नाम रौशन किया तथा राज्य के मेहनतकश युवाओं व श्रमिक व खेती किसानी करने वाले कामगारों ने भी अपने ख़ून पसीने से राष्ट्र निर्माण में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की वहीँ यहाँ के राजनेताओं में राज्य के विकास को लेकर गंभीरता नज़र नहीं आई। हाँ राज्य में दशकों तक भ्रष्टाचार,लूट खसोट,राजनैतिक व प्रशासनिक लापरवाही व ढुलमुलपन का माहौल ज़रूर बना रहा। धर्म व जाति के नाम पर बिहार की भोली भली जनता को ठगा जाता रहा। यही वजह थी कि राष्ट्रपति कलाम की पहल व यू पी ए सरकार के समर्थन से शुरू हुई विकास यात्रा के सारथी व उस समय के भी मुख्यमंत्री रहे नितीश कुमार को बिहार में ‘विकास बाबू’ के नाम से जाना जाने लगा था। निःसंदेह बिहार ने गत 15 वर्षों में तरक़्क़ी तो ज़रूर की है परन्तु अभी भी राज्य के विकास की गति अत्यंत धीमी है। स्कूल में जाने वाले बच्चों की संख्या ज़रूर बढ़ी है परन्तु शिक्षा के स्तर में सुधर नहीं हुआ है। विद्यालय भवन तथा अध्यापकों की कमी अभी भी राज्य में महसूस की जा रही है। इत्तेफ़ाक़ से अपनी राजनैतिक ‘सूझ बूझ’ की वजह से आज भी नितीश कुमार ही राज्य के मुख्यमंत्री हैं परन्तु उनके मुख्यमंत्री बनने के इस सत्र में यही देखा जा रहा है कि उनका बिहार के विकास से भी ज़्यादा ध्यान व समय अपनी कुर्सी को ‘येन केन प्रकरेण’ बरक़रार रखने में लगा रहा। कभी कांग्रेस व राष्ट्रीय जनता दल के साथ मिलकर महागठबंधन बनाया और भाजपा के विरुद्ध चुनाव लड़कर जीत हासिल की। फिर इन्हीं सहयोगी दलों को ठेंगा दिखाकर भाजपा के समर्थन की मिली जुली सरकार बना डाली।
अब राज्य एक बार फिर संभवतः इसी वर्ष अक्टूबर में राज्य विधान सभा का सामना करने जा रहा है। राज्य के वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में सबसे बड़े जनाधार वाले राजनैतिक दल राष्ट्रीय जनता दाल की नैय्या डगमगा रही है। अपने जादुई व लोकलुभावन अंदाज़ के लिए अपनी अलग पहचान रखने वाले नेता लालू यादव इस समय जेल में सज़ा काट रहे हैं। उनकी राजनैतिक विरासत को उनके पुत्रगण ठीक ढंग से संभाल नहीं सके। कांग्रेस पार्टी भी कमोबेश उत्तर प्रदेश जैसी स्थिति में ही यहाँ भी है। और सबसे बड़ी बात यह की स्वयं मुख्य मंत्री नितीश कुमार को भी अब राज्य में विकास बाबू के नाम के बजाए ‘पलटीमार’ के नाम से जाना जाने लगा है। उधर भाजपा भी स्वभावतयः धर्मनिरपेक्ष विचारधारा रखने वाले इस राज्य में पूरी तरह से अपने पैर नहीं फैला सकी है। संभवतः इसी चतुर्कोणीय राजनैतिक द्वन्द में से ही इस बार राज्य की जनता एक नया विकल्प प्रशांत किशोर के रूप में भी देख सकती है। गत दिनों पटना में अपने संवाददाता सम्मलेन में स्वयं ‘पी के’ ने ही अपने कुछ ऐसे ही इरादों की जानकारी भी दी। उन्होंने जे डी यू से नाता तोड़ने के बाद पहली बार नितीश कुमार पर जो सबसे बड़ा हमला बोला है वह है उनकी राजनैतिक विचारधारा को लेकर। ग़ौरतलब है कि नितीश कुमार हमेशा ही स्वयं को समाजवाद,गांधीवाद तथा राम मनोहर लोहिया व जय प्रकाश से प्रेरित मानते रहे हैं। परन्तु यह भी सच है कि उन्हें सत्ता के लिए भाजपा जैसे दक्षिण पंथी संगठन से भी हाथ मिलाने में कभी भी कोई एतराज़ नहीं हुआ। इस बार उन्हीं की पार्टी में रह चुके तथा उन्हीं के चुनावी रणनीतिकार रहे प्रशांत किशोर ने उनसे सीधे तौर पर यही सवाल पूछा है कि-‘आप कहते थे कि महात्मा गाँधी,लोहिया व जय प्रकाश की बताई हुई बातों को आप नहीं छोड़ सकते। ऐसे में जब पूरे बिहार में आप गाँधी जी के विचारों को लेकर शिलापट लगा रहे हैं और यहाँ के बच्चों को गाँधी की बातों से अवगत करा रहे हैं उसी समय गोडसे के साथ खड़े हुए लोग अथवा उसकी विचारधारा को सहमति देने वालों के साथ कैसे खड़े हो सकते हैं ? प्रशांत किशोर का पहली बार नितीश पर किया गया यह हमला निश्चित रूप से उनके उस तथाकथित ‘धर्मनिरपेक्ष आवरण’ पर सवाल खड़ा करेगा जोकि नितीश कुमार की असली पूँजी है।
‘पी के’ ने नितीश कुमार के विकास के दावों पर भी यह कहते हुए सवाल उठाए हैं कि नितीश जी को बिहार के विकास की तुलना अपने ही राज्य की पिछली स्थिति या लालू राज वाले बिहार से नहीं बल्कि देश के महाराष्ट्र,पंजाब व कर्नाटक जैसे राज्यों से करनी चाहिए। ‘पी के’ ने राज्य में विकास की गति से लेकर प्रतिभाओं व कामगारों के अब तक हो रहे पलायन पर भी सवाल उठाए। पी के ने ‘बात बिहार की’ नामक एक अभियान की शुरुआत 20 फ़रवरी से करने का निर्णय लिया है। इस अभियान के माध्यम से वे आगामी सौ दिनों में राज्य के एक करोड़ युवाओं से संपर्क बनाएँगे। माना जा रहा है कि केजरीवाल की ही तरह उनकी भी पूरी राजनीति साफ़ सुथरी तथा बिहार के तेज़ी से समग्र विकास पर आधारित होगी। और यदि राज्य की धर्मनिरपेक्ष जनता को कांग्रेस,आर जे डी व जे डी यू के बाद ‘पी के’ के नेतृत्व में इस पारम्परिक परन्तु पुराने व कमज़ोर पड़ चुके नेतृत्व के रिक्त स्थान को भरने की क्षमता नज़र आई तो कहा जा सकता है कि बिहार भी दिल्ली में केजरीवाल की ही तरह सियासत की एक नई इबारत लिखने की ओर अग्रसर है।
ट्रंप की यात्रा सिर्फ नौटंकी नहीं
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की इस भारत-यात्रा से भारत को कितना लाभ हुआ, यह तो यात्रा के बाद ही पता चलेगा लेकिन ट्रंप ऐसे नेता हैं, जो अमेरिकी फायदे के लिए किसी भी देश को कितना ही निचोड़ सकते हैं। यह तथ्य उनकी ब्रिटेन, यूरोप तथा एशियाई देशों की विभिन्न यात्राओं में से अब तक उभरकर आया है। ट्रंप की खूबी यह है कि वे सारी राजनयिक नज़ाकतों को ताक पर रखकर खरी-खरी बोल पड़ते हैं। उन्होंने नरेंद्र मोदी से अपने संबंधों की घनिष्टता पर बार-बार जोर दिया है, उन्हें ‘भारत का पिता’ भी कह दिया है लेकिन आपसी व्यापार के मामले में उन्होंने भारत के व्यवहार पर काफी कड़ुवे शब्दों में आपत्ति भी जताई है। अमेरिका ने अभी-अभी भारत का विकासमान राष्ट्र का दर्जा भी खत्म कर दिया है, जिसका अर्थ यह है कि भारत को अपने माल पर मिलनेवाले अमेरिकी तटकर में भारी कटौती हो जाएगी। भारत ने भी जवाबी कार्रवाई कर दी है। इसीलिए शायद इस यात्रा के दौरान आपसी व्यापार का मामला नहीं सुलझ पाएगा लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि ट्रंप की यह यात्रा सिर्फ एक नौटंकी बनकर रह जाएगी। नौटंकी तो वह है ही। मोदी और ट्रंप इस मामले में गुरु-शिष्य हैं। ट्रंप का बार-बार यह कहना कि अहमदाबाद में उनके स्वागत में 50-70 लाख लोग आएंगे, कोरा मजाक है। शायद उन्होंने फोन पर बातचीत में हजार को लाख समझ लिया हो। जो भी हो, ट्रंप के लिए यही बहुत फायदेमंद है कि अमेरिका के 40 लाख भारतीय वोटरों को वे अपने चुनाव के लिए प्रभावित कर लेंगे। उनकी यात्रा के दौरान पांच समझौतों पर दस्तखत की तैयारी चल रही है। एक तो आतंकवाद विरोधी सहयोग, व्यापारिक सुविधाओं, बौद्धिक मालिकाना हक, भारत-प्रशांत क्षेत्र सहयोग तथा अंतरिक्ष और परमाणु सहयोग के समझौतों की घोषणा की तैयारियां चल रही हैं। चीनी वर्चस्व के विरुद्ध लड़ने में भी अमेरिका भारत को अपने साथ लेना चाहता है लेकिन अफगानिस्तान से अपना पिंड छुड़ाने में वह पाकिस्तान को गले लगाए बिना नहीं रह सकता। तालिबानी अफगानिस्तान से निपटने की कोई तैयारी भारत के पास अभी तक दिखाई नहीं पड़ रही है। ट्रंप से इस मामले में मोदी को खुलकर बात करनी चाहिए। भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता के ट्रंप के प्रस्ताव को औपचारिक तौर पर भारत नहीं मानेगा लेकिन ट्रंप चाहे तो वे अपनी इस सदिच्छा को अनौपचारिक रुप में कृतार्थ कर सकते हैं।
चीन में क्यों और कैसे महामारी बनकर उभरा कोरोना?
योगेश कुमार गोयल
पिछले दो माह से चीन में बुरी तरह कहर बरपा रहे और पूरी दुनिया में खौफ का पर्याय बने नोवेल कोरोना वायरस को लेकर कुछ दिनों पूर्व विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा वैश्विक स्वास्थ्य आपातकाल घोषित कर दिया गया था और अब उसने इसे आतंकवाद से भी गंभीर बताते हुए बीते 11 फरवरी को कोरोना वायरस का नया अधिकारिक नामकरण भी कर दिया है। दरअसल चीन के वुहान शहर से शुरू हुआ कोरोना का आतंक अब एक-एक कर दुनिया के 31 देशों तक पहुंच चुका है। 30 दिसम्बर को चीन में कोरोना वायरस के अस्तित्व की जानकारी मिलने के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस वायरस को ‘2019-एनसीओवी एक्यूट रेस्पाइटरी डिजीज’ नामक तात्कलिक नाम दिया था और अब डब्ल्यूएचओ द्वारा ‘नोवेल कोरोना’ को ‘कोविड-19’ (सीओवीआईडी-19) नाम दिया गया है। कोविड में को का अर्थ है कोरोना, वि का अर्थ है वायरस और डी का अर्थ है डिजीज अर्थात् कोरोना वायरस डिजीज। कोरोना के वैश्विक खौफ को इसी से समझा जा सकता है कि 1 फरवरी को हांगकांग से रवाना हुआ नीदरलैंड का एक पोत ‘एमएस वेस्टरडम’ 2257 लोगों को लिए दो सप्ताह से समुद्र में भटकने को विवश हैं क्योंकि जापान, अमेरिका, फिलीपींस, थाईलैंड इत्यादि देशों द्वारा पोत में सवार लोगों में कोरोना संक्रमण को लेकर उपजे भय के चलते इस पोत को अपने तटों से लौटाया जा चुका है। हालांकि पोत की ओर से ऐलान किया गया था कि उसमें सवार कोई भी व्यक्ति कोरोना से संक्रमित नहीं है लेकिन कोई भी देश इस दावे को मानने को तैयार नहीं है। हाल ही में 3711 लोगों के साथ जापान के समुद्र तट पर कोरोना वायरस का कहर झेल रहे पोत ‘डायमंड प्रिंसेस’ में सवार 138 भारतीयों ने भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से उन्हें सुरक्षित पोत से निकालने को लेकर मार्मिक अपील की है। दरअसल इस पोत में 439 लोगों के किए गए परीक्षण में 174 लोगों के कोरोना संक्रमित पाए जाने के बाद पोत को जापान के समुद्र तट पर ही रोक दिया गया है।
कोरोना कितना खतरनाक साबित हो रहा है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि चीन सरकार के आंकड़ों के ही मुताबिक अब तक करीब दो हजार लोग कोरोना के कारण मर चुके हैं जबकि 60 हजार से अधिक लोगों में इसके संक्रमण की पुष्टि हो चुकी है। हालांकि दुनियाभर में बहुत से लोगों का मानना है कि चीन में कोरोना से अभी तक हुई वास्तविक मौतों और संक्रमण का आंकड़ा चीन सरकार के आंकड़ों से कई गुना ज्यादा है, इसीलिए चीन में कोरोना के कहर को लेकर कोहराम मचा है। अगर चीन के सरकारी आंकड़ों की ही बात करें तो उसके अनुसार भी कोरोना से हुई मौतों का आंकड़ा 2003 में कहर बनकर बरपे सार्स को भी काफी पीछे छोड़ चुका है। कोरोना वायरस के प्रकोप के चलते दुनियाभर में निवेशकों की चिंता बढ़ी है और इस वायरस के खौफ के चलते चीन के साथ वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी बहुत बड़ा नुकसान हो रहा है, जिसका असर आने वाले समय में लंबे समय तक देखा जाता रहेगा।
भारत में अब तक कोरोना संक्रमण के केरल में कुल तीन मामले सामने आए हैं और 13 फरवरी को बैंकाक से कोलकाता लौटे तीन लोगों के भी कोरोना से संक्रमित होने की आशंका जताई गई है। इसके अलावा देशभर में करीब 16 हजार व्यक्ति कोरोना के खतरे के मद्देनजर निगरानी में हैं। केरल में बीते दिनों तीन व्यक्तियों के संक्रमित पाए जाने के पश्चात् दिए गए उपचार के बाद उनमें से दो के नेगेटिव साबित होने पर एक व्यक्ति को डिस्चार्ज किया जा चुका है और केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन के अनुसार अन्य दोनों लोगों को भी अगले कुछ दिनों में डिस्चार्ज किया जा सकता है। स्पष्ट है कि भारत में जहां कोरोना के खतरे को फिलहाल सफलतापूर्वक नियंत्रित कर लिया गया है, वहीं चीन से शुरू हुआ कोरोना का कहर वहां क्यों और कैसे महामारी बनकर उभर रहा, इसके पीछे चीन सरकार की फितरत को जानना और समझना बेहद जरूरी है। दरअसल चीन पर बरसों से आरोप लगते रहे हैं कि सूचनाओं को दुनिया की नजरों से दबाना उसकी फितरत है और उसकी इसी फितरत के कारण ही कोरोना का यह खौफनाक रूप दुनिया के सामने आया है। चीन में अध्ययन करने वाले कौंसिल ऑन फॉरेन रिलेशन में फैलो यानझोंग हुआंग के मुताबिक वुहान के स्थानीय स्वास्थ्य विभाग द्वारा शुरूआती कुछ हफ्तों में इस खतरे के प्रति लोगों को सावधान करने के लिए किसी तरह की कार्रवाई नहीं की गई। अधिकारियों ने लोगों को इस बीमारी के खतरों से अनजान रखा, जिसके कारण लोग संक्रमण से अपना बचाव नहीं कर सके। विशेषज्ञों का कहना है कि चीन सरकार द्वारा कोरोना संक्रमण के प्रति लोगों को आक्रामक तरीके से सावधान नहीं करने के चलते इसे महामारी में बदलने से रोकने का एक बड़ा अवसर गंवा दिया गया, जिसका खामियाजा अब हजारों लोग भुगत रहे हैं। दरअसल एक ओर जहां कोरोना वायरस तेजी से फैलता जा रहा था, वहीं अधिकारी बार-बार एक ही राग अलाप रहे थे कि इस वायरस के फैलने की संभावना कम है।
गत वर्ष दिसम्बर माह में वुहान मेडिकल कॉलेज में जब डॉक्टरों को सात मरीज रहस्यमय बीमारी से पीडि़त मिले थे, तब उनका इलाज कर रहे 34 वर्षीय डा. ली वेनलियांग ने अपने सहयोगी चिकित्सकों को सतर्क करते हुए उन मरीजों को तुरंत आपातकालीन विभाग के आइसोलेशन वार्ड में रखने की हिदायत दी थी। लोगों के सामने कोरोना का मामला सार्वजनिक रूप से तब सामने आया था, जब 30 दिसम्बर को एक व्यक्ति ने एक ऑनलाइन चैट में वायरस संक्रमण को अत्यधिक भयावह बताते हुए डा. वेनलियांग से जानना चाहा था कि क्या वुहान में 2002 की सार्स नामक खतरनाक बीमारी की वापसी हो रही है? उल्लेखनीय है कि उस दौरान सार्स के कहर से 774 लोगों की मौत हुई थी। जैसे ही वुहान के स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों को डा. वेनलियांग के इस चैट की भनक लगी, जिसमें उन्होंने इस संक्रमण को सार्स जैसा ही खतरनाक माना था, उन्हें तुरंत हिरासत में लेते हुए उनसे पूछा गया कि उन्होंने इस सूचना को सार्वजनिक रूप से शेयर क्यों किया? तीन जनवरी को वहां की पुलिस ने डा. वेनलियांग से जबरन यह लिखवा लिया कि उनकी चेतावनी गैरकानूनी व्यवहार के दायरे में आती है और उन्होंने सोशल मीडिया की व्यवस्था को बिगाड़ा है। अगर डा. वेनलियांग पर शिकंजा कसने और कोरोना संक्रमण के मामलों को दुनिया की नजरों से छिपाने के बजाय चीन सरकार उसी समय कोरोना से निपटने के लिए व्यापक प्रबंध करती तो संभवतः कोरोना का इतना व्यापक और घातक असर देखने को नहीं मिलता। यह सरासर चीन सरकार द्वारा शुरूआत से ही इस मामले में लापरवाही बरतने का नतीजा है कि कोरोना से अब तक डेढ़ हजार से भी ज्यादा लोग मौत के मुंह में समा चुके हैं।
चीन में कोरोना वायरस की सबसे पहले चेतावनी देने वाले डा. ली वेनलियांग की भी पिछले दिनों वुहान में कोरोना वायरस की चपेट में आने के बाद मौत हो चुकी है, जिसके बाद से वहां के नागरिक सोशल मीडिया पर वेनलियांग को नायक करार देते हुए अपनी सरकार के प्रति खुलकर नाराजगी जाहिर कर रहे हैं और अधिकारियों पर अयोग्यता का आरोप लगा रहे हैं। हालांकि कम्युनिस्ट शासन वाले चीन में सरकार के प्रति ऐसा विरोध प्रायः बहुत ही कम देखने को मिलता है और यही कारण है कि वहां की सरकार को अब डा. वेनलियांग की मौत के मामले की जांच का आदेश देने पर विवश होना पड़ा है।
माना जा रहा है कि कोरोना वायरस का पहला मामला वुहान में दिसम्बर माह के शुरू में ही सामने आ गया था लेकिन प्रशासन ने उसे नजरअंदाज किया और कोरोना संक्रमण को लेकर हालात बेकाबू होने पर हड़कंप मचने के बाद ही चीन सरकार इस बीमारी को लेकर 20 जनवरी को हरकत में आई। उन सात हफ्तों के दौरान अधिकारियों द्वारा डॉक्टरों तथा अन्य लोगों के वायरस के बारे में बात करने पर पाबंदी लगा दी गई थी। सरकारी बयानों, अधिकारियों, डॉक्टरों, स्थानीय लोगों और मीडिया रिपोर्ट से स्पष्ट है कि कोरोना वायरस के पहले मामले के सामने आने और वुहान शहर को सील करने के बीच वुहान प्रशासन द्वारा करीब सात हफ्ते का समय बर्बाद कर दिया गया और यही सबसे बड़ा कारण रहा कि कोरोना का आतंक चीन में इस कदर फैल गया, जिसके बारे में अभी दावे के साथ कोई यह बताने की स्थिति में नहीं है कि इस आतंक से चीन को कब तक मुक्ति मिलेगी?
हिंदू मंदिर का मुस्लिम पुजारी
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कर्नाटक से चमत्कारी खबर आई है। एक हिंदू मंदिर में एक मुसलमान पुजारी को नियुक्त किया गया है। यह मठ लिंगायत संप्रदाय का है। कर्नाटक में दलितों के बाद लिंगायतों की संख्या सबसे ज्यादा है। कर्नाटक के कई बड़े नेता जैसे बी.डी. जत्ती, निजलिंगप्पा, बोम्मई, येदियुरप्पा आदि लिंगायत ही हैं। इस संप्रदाय की स्थापना लगभग आठ सौ साल पहले बीजापुर के बसवन्ना ने की थी। वे स्वयं जन्म से ब्राह्मण थे लेकिन उन्होंने जातिवाद पर कड़ा प्रहार किया। उनके सिद्धांत ऐसे हैं कि कोई भी जाति, कोई भी मजहब, कोई भी वंश, कोई भी देश का आदमी उन्हें मान सकता है। जैसे भगवान बस एक ही है। दो-चार नहीं। वही इस सृष्टि का जन्मदाता, रक्षक और विसर्जक है। कोई भी मनुष्य भगवान नहीं कहला सकता। ईश्वर निराकार है। जरुरतमंद मनुष्य ही ईश्वर का रुप है। उसकी सेवा ही ईश्वर की आराधना है। जाति, मजहब, वंश आदि ईश्वरकृत नहीं, मनुष्यकृत हैं। अहंकार, वासना, क्रोध को त्यागो। हिंसा मत करो। जो भी ईश्वर को मानते हैं, वे सब एक हैं। यही लिंगायत धर्म है। लिंगायतों के इन सिद्धांतों और इस्लाम की मूल मान्यताओं में कितनी समानता है। सिर्फ एक असमानता मुझे दिखाई पड़ी। लिंगायत लोग मांस नहीं खाते। मैं अपने मुसलमान दोस्तों से पूछता हूं कि कुरान शरीफ में कहीं क्या यह लिखा है कि जो मांस नहीं खाएगा, वह आदमी घटिया मुसलमान माना जाएगा ? इसीलिए जब असुति गांव के 33 वर्षीय मुसलमान युवक शरीफ रहमानसाब मुल्ला ने लिंगायत मंदिर का मुख्य पुजारी बनना स्वीकार किया तो मुझे घोर आश्चर्य हुआ लेकिन मैंने इस क्रांतिकारी घटना पर विशेष ध्यान दिया। शरीफ के पिता रहमानसाब मुल्ला ने इस मठ के निर्माण के लिए अपनी दो एकड़ जमीन भी दान दी है। शरीफ बचपन से ही बसवन्ना के वचनों का पाठ करते रहे हैं और अब उन्होंने लिंगायतों के सारे विधि-विधानों को सीख लिया है। भारत के गांवों में अभी भी दलितों और मुसलमानों का छुआ हुआ पानी भी नहीं पिया जाता लेकिन मठाधीश शरीफ मुल्ला सबके लिए आदरणीय बन गए हैं। दीक्षा लेते समय उनके फोटो में उनका मुंडा हुआ सिर, मस्तक पर तिलक और अर्धनग्न शरीर पर धोती देखकर विश्वास ही नहीं होता कि ये शरीफ मुल्ला हैं।
शहजादे की आँखें आई, गांव में धुआं मत करो !
डॉ. अरविन्द प्रेमचंद जैन
राजकुमार को आँखों का रोग हो गया तो राजा ने मुनादी कराई की राजधानी में धुआं नहीं होना चाहिए कारण राजकुमार को आखें आयी हैं, इस पर प्रधान मंत्री ने राजा को सलाह दी की एक के पीछे कितने जन परेशान होंगे, क्यों न राजकुमार को राजधानी से बाहर भेज दिया जाय, तो राजा ने कहा बहुत उपयुक्त सलाह हैं।
इसी प्रकार एक राजा को अपनी राजधानी और राज्य में पैदल घूमने की आदत थी, जब वह नंगे पाँव घूमने निकले तो उनको पाँव में घाव हुए तो उन्होंने हुकुम जारी किया की पूरे राज्य में और राजधानी में रबर की सड़कें बनवायी जावें तब हमारे देश जैसे चतुर प्रधान मंत्री बोले महाराज आप अपने पैरो में कपड़ा क्यों नहीं लपेट लेते हो, तब राजा को प्रधान मंत्री की अक्ल पर बहुत प्रसन्नता हुई। उसके बाद ही जूतों का चलन शुरू हुआ होगा।
इसी प्रकार हमारे देश में अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प साहब क्या आ रहे मानो अहमदाबाद शहर पर वज्राघात टूट पड़ा हो। यानी ट्रम्प को हमारे चतुर प्रधानमंत्री यह बताने और समझाने का प्रयास कर रहे हैं की हमारा देश अमेरिका जैसा ही विकसित हैं। जब जैसा विकसित हैं तो उसको दिखाना चाहिए या छुपाना चाहिए !।
चीन की दीवार बनाई जा रही हैं, एक सप्ताह पहले से पूरा मार्ग आवागमन के लिए बंद, पान की दुकानें बंद, शहर में कुत्ता नहीं मिलना चाहिए, ना ही नील गाय। यानी राजा के लिए राजधानी दुल्हन जैसे सज़रही हैं जैसे उससे शादी होने वाली हो। यह बहुत जायज़ बात हैं की बहुत शक्तिशाली और सम्पन्नतम शासक का आना बहुत महत्व रखता हैं, उसे भारत की जानकारी पहले से हैं, क्या वे गूगल से भारत की नंगी तस्वीर नहीं देख सकते हैं। बड़ा आदमी यदि हमारी गरीबी देखलेगा तो वह हमें कुछ उपकृत कर सकेगा, इसके लिए कितनी सुरक्षा। पता नहीं हमारे देश में भगवानों के लिए इतनी सुरक्षा की जरुरत नहीं पड़ती पर चलित भगवान जैसे राष्ट्रपति प्रधान मंत्री मुख्य मंत्री यहाँ तक की कलेक्टर आदि से मिलने हफ़्तों लग जाते हैं उसके बाद भी दर्शन नहीं होते जबकि महाकाल के दर्शन सुगम और सरल हैं।
इसके लिए एक सुझाव यह हैं की पहली बात उन्हें सड़क मार्ग से न ले जाय जाय, कारण उनकी कार कौन सी हैं किसी को नहीं पता और दूसरी बात उनकी कार की खिड़की तो खुली नहीं रहना हैं, सड़क सुनसान रहना हैं, सेकंडों में वे पार हो जायेंगे, इसके लिए जरूरत समझे तो कार के शीशों में रंगीन फिल्म लगा दे या उन्हें बच्चों वाला रंगीन चश्मा पहनावा दे जिससे सावन के —को हरा हरा दिखाई देगा। और इसके अलावा उन्हें हवाई अड्डे से सीधे स्टेडियम ले जाया जाय जैसे अमेरिका में वो सड़क से नहीं आये थे और न हमारे प्रधान सेवक भी सड़क मार्ग से स्टेडियम पहुंचे थे। अच्छा हुआ ट्रम्प साहब अपने साथ अपना खानसामा, और खाना ला रहे हैं, कारण हमारे देश का अन्न, पानी, जलवायु बहुत प्रदूषित हैं, कही बीमार न पड़ जाए, कारण अमेरिका में मलेरिया जैसी बीमारी का इलाज़ नहीं होता।
एक नन्ही सी जान के लिए कितनी व्यवस्था, पता नहीं वे या तो हाड मांस के नहीं बने हैं जैसे हम लोग या अमूल बटर के कहीं पिघल न जाएँ। विचार करे झूठी शान बघारने कितना अपव्यय क्या मिलना हैं। मेरा अनुरोध हैं ऐसा स्वागत हर राजधानी और शहरों में किया जाय जिससे शहरों की गरीबी दूर हो जाएँगी, जनता से कुछ नहीं होना हैं, उनका जन्म तो मरने की लिया होता हैं। नेता अजर अमर जो होते हैं।
राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार
मरना सबको एक दिन अपनी अपनी वार
”देश बेचू बजट“
रघु ठाकुर
केन्द्र सरकार का वर्ष 2020 का बजट ऐसे समय आया है, जबकि एक तरफ सी.ए.ए. को लेकर शाहीन बाग में हिंसा और गोलियों की धमक तो दूसरी तरफ दिल्ली विधानसभा चुनाव के शोर के बीच बजट की चर्चा लगभग दबकर रह गई। और जिससे उसकी ज्यादा चर्चा नहीं हो सकी। वित्त मंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमण ने 2 घंटे 40 मिनिट तक बजट भाषण पढ़ा और यहाँ तक की बीच में वह कुछ अस्वस्थ भी हुई, अच्छा हुआ कि गडकरी जी की भेजी गई चॉकलेट से वे संभल गई परन्तु इससे बजट नहीं संभलता। यह भी एक महत्वपूर्ण पक्ष है कि इस बार के बजट के प्रति आम लोगों में कोई दिलचस्पी नज़र नहीं आई। ऐसा लगा कि, लोग आश्वस्त थे कि बजट से उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा। आमजन की आकांक्षाओं के अनुरूप बजट लगभग निराकार बजट रहा। बजट भाषण का दो तिहाई हिस्सा तो केवल शेर-शायरी और प्रस्तावना के पाठ में चला गया, शेष में भी आमजन के लिए लगभग कुछ नहीं है। इस बार बजट पर जे.एन.यू. की बौद्धिक लावी की तरफ से भी कोई तीखी या विशेष प्रतिक्रिया नहीं आई। यह जे.एन.यू. की एकजुटता की वजह से है, या हताशा की वजह से, यह कहना कठिन है। तथ्य केवल यह है कि, श्रीमती निर्मला सीतारमण भी जे.एन.यू. की प्रोडक्ट है, और शायद इसी योग्यता की वजह से प्रतिपक्ष के आरोपों को खंडित करने के लिए उन्हें वित्त मंत्री पद से नवाजा गया है। बजट में महँगाई को रोकने के लिए उपाय तो दूर की बात है महँगाई की चर्चा तक नहीं हुई, जबकि महँगाई का चक्र बराबर बढ़ता चला जा रहा है। डॉ. लोहिया कहते थे कि, हमारे देश में आमदनी बढ़ती है गधे की चाल से, और महँगाई दौड़ती है घोड़े की चाल से। डॉ. लोहिया द्वारा 60 साल पहले कहा गया यह कथन आज भी सत्य नज़र आता है। महँगाई के प्रति तो एक प्रकार से देश भी तटस्थ जैसे हो गया है। जो मानने लगा है कि सरकारें महँगाई बढ़ाने को होती है, तथा इसका इलाज संभव नहीं है।
किसानों के लिए भी कोई योजना इस बजट में नहीं है न दाम तय करने की नीति और न ही विचोलियों से उन्हें बचाने की नीति। दोनों पर ही यह बजट खामोश है। किसानों के लिए बस एक आश्वासन का कोरा लिफाफा भर है। जिसमें लिखा गया है कि, 2022 तक किसानों की आमदनी को दोगुना करने का प्रयास किया जायेगा। वैसे यह बात सरकार पिछले 2 वर्षें से कहती आ रही है, और अब तो हद हो गई कि बजट एक वर्ष का और वायदा है 3 वर्ष का। शायद इसलिए कि 2022 इस सरकार का चौथा वर्ष होगा इसके बाद चुनावी वर्ष आ जाएगा, तब कोई नया पुलवामा या शाहीन बाग जैसे मुद्दे फिर पैदा किये जाएंगे, और जिससे सीधे थोक बंद वोटो की फसल काट ली जायेगी। किसान को मिलने वाले मूल्य और उपभोक्ता के द्वारा क्रय मूल्य के बीच की खाई को पाटने की कोई चर्चा इस बजट में नहीं है। जिस प्याज को पैदा कर किसान 2-3 रूपये के भाव में उसे बेच देता है वही प्याज कुछ समय पश्चात्् बाजार में 150 रूपये किलो तक बिकती है, इस पर बजट भी मौन है, सरकार भी मौन है, और प्रतिपक्ष भी मौन है। किसानों की आय दुगनी कैसे होगी इसके लिए क्या उपाय किए जायेंगे, इस पर भी सरकार मौन है।
कर्मचारी और मध्य वर्ग के लिए आयकर की छूट के नाम पर एक जाल डाला गया है। पहली बार सरकार ने आयकर की छूट पर दो समान्तर स्लैब तैयार किए है, एक में वे पुराने लगभग 100 कर छूट के मुद्दे है, जिन्हें दशकों से फिंज्र वेनीफिट के नाम से दिया जा रहा है, इसके अन्य विकल्प के प्रस्ताव के रूप में आयकर छूट की सीमा 2.5 से बढ़कर 5 लाख करने का प्रस्ताव है। अब यह कर दाता को चुनना है कि, वह पुरानी छूट चाहते है, या नई छूट। अगर पुरानी छूट चाहेंगे तो ढाई लाख रूपये आय के बाद आयकर लगेगा और पुरानी छूट नहीं चाहिए तो 5 लाख रूपये तक की राशि आयकर मुक्त होगी। याने कुल मिलाकर स्थिति जस की तस है। अगर रियायतों को छोड़ते है तो रियायतों की राशि 5 लाख तक की आय के कर के लगभग बराबर हो जाती है, और 5 लाख रूपये की आयकर छूट का विकल्प चुनते है, तो फिर रियायतों को छोड़ना होगा। सरकार ने आम मध्यवर्ग कर्मचारियों के लिए विकल्प दे दिया है कि चाहे बायीं या दायीं जेब कटाओं पर जेब कटानी होगी।
सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों को बेचने के निर्णय को और अधिक स्पष्ट कर दिया है। जीवन बीमा निगम जो लगभग 5 दशकों से आम आदमी के लिए जीवन की सुरक्षा और भविष्य के लिए जमा की सेवाएं दे रहा था, अब इस संस्था को खुले बाजार में बेचने का ऐलान सरकार ने संसद में कर दिया है, इसमें न केवल देशी बल्कि विदेशी पूँजी निवेश भी हो सकेगा और जो विदेशी कम्पनियां बीमा करने आएगी वे जब आम और गरीब आदमी का पैसा लेकर भागेगी तब इन गरीबों की पूँजी भी लुट जाएगी। कृषि के क्षेत्र में पिछले वर्ष के अनुभव हमारे सामने है। छ.ग. में कृषि बीमा के लिए देशी कम्पनी आई थी जिसमें अंबानी शामिल थे, किसानों से प्रीमियम का पैसा ले लिया गया परन्तु जब किसान पर विपदा पड़ती है तो उसे नियमानुसार वापिस नहीं किया गया। यहाँ तक कि, बस्तर के आदिवासी जिनकी गरीबी व शोषण को सरकारें आए दिन बेचती है, उनका भी पैसा लेकर कम्पनियां चली गई और अब हालात यह है कि, मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव व अंबानी तो दूर उनके कर्मचारी भी नहीं आते। वे जानते है कि देश की सरकारे निर्वाचित लोग नहीं चला रहे है बल्कि उनके मालिक व उनका नाम चला रहे है। वैसे भी अंबानी बन्धुओं पर सभी सरकारें मेहरबान है, चाहे वह केन्द्र की भाजपा सरकार हो या म.प्र. की कमलनाथ की कांग्रेस सरकार हो। अगर केन्द्र के इशारे पर उन्हें पब्लिक सेक्टर को छोड़कर बगैर योग्यता के राफेल का काम मिल जाता है तो म.प्र. भी पीछे नहीं है, और उनके 450 करोड़ रूपया के बकाया चुकाने के लिए किस्त बाँध देता है। अंबानी की तिजोरियों से सभी सरकारें उपकृत है, चाहे वह भाजपा हो या कांग्रेस। आश्चर्य की बात है कि, पूँजीपतियों को सैल्यूट करने पर हिन्दू या मुसलमान दोनों शांत रहते है, और दोनों को गुस्सा नहीं आता। एयर इंडिया जो सरकारी विमान कम्पनी है को बेचा जा रहा है, और देश के पुराने वित्तमंत्री एवं वर्तमान में रेल मंत्री श्री पीयुष गोयल बेशर्मी से बयान देते है कि अगर मैं मंत्री नहीं होता तो स्वत: एयर इंडिया की बोली लगाता। यह कितना विचित्र है, कि जेट एयर वेज जो निजी विमान कम्पनी जब घाटे में जाती है, तो भारत सरकार अपनी जनता के पैसे से उसे बचाने के नाम पर दस हज़ार करोड़ रूपये की राशि या सुविधाएं देती है, और उसे सरकार के अधीन लाने की पहल करती हैं, याने खेल साफ है कि निजी उद्योगपतियों के द्वारा दूध चूस कर अधमरी गाय को जनता के पैसे से सरकार पालेगी और दूधारू गाय को जनता के अधिकार से छीनकर पूँजीपतियों को सौंप देगी।
रेलवे का निजीकरण अघोषित रूप से घोषित कर दिया गया है। 150 तेजस गाड़ियां चलायी जाएगी और रेलवे के द्वारा चलायी जा रही एक्सप्रेस और सुपरफास्ट गाड़ियों का वह स्थान ले लेगी। जिनका किराया वर्तमान किराए से देढ़ से दो गुना होगा। तेजस गाड़ियों को निकालने के लिए शताब्दी जैसी महत्वाकांक्षी गाड़ियों को रोका जाएगा। बम्बई से अहमदाबाद के बीच गाड़ी को रोक कर तेजस को रास्ता दिया जाएगा और कहा जाएगा कि तेजस की रतार कितनी अच्छी है। 350 स्टेशनों को प्रबंधन के लिए निजी हाथों में देना है, और इसका परिणाम यह होगा कि आम आदमी के लिए रेलवे स्टेशन प्रधानमंत्री निवास जैसे सुरक्षित बन जाएंगे। भोपाल के हबीबगंज स्टेशन पर 4 पहिया वाहन का पार्किंग शुल्क 24 घंटे का 400 रूपये होता है, आधारभूत ढांचा वो चाहे रेलवे का हो या हवाई अड्डा का उसे सरकार बनाएगी पर उस पर निजी विमान और रेल गाड़ियां दौड़ेगी। क्या सरकार के पास इसका कोई उत्तर है? कि जब विमान और रेल आपको चलाना है, तो हवाई अड्डा के विकास, रेलवे की विद्युतीकरण ढांचे पर हज़ारों करोड़ों रूपये सरकार खर्च क्यों कर रही हैं? उनके निर्माण के टेन्डर निजी उद्योगपति क्यों नहीं लेते? क्योंकि उसमें पूँजी लगाना है, और विमानों व रेलों से पूँजी कमाना है।
शिक्षा के लिए भी सरकार के पास बस एक ही कल्पना है कि धीरे-धीरे उसे बाजार की वस्तु बनाओ और खरीददार की क्षमता पर ले जाओ। आयुष्मान योजना से गरीब को कितना लाभ पहुँचा है, और निजी अस्पतालों ने कितना पैसा कमाया है, इसका आंकड़ा चौकाने वाला होगा। सच्चाई तो यह है कि आयुष्मान योजना से बड़ी संख्या में निजी अस्पताल मालामाल हो रहे, बल्कि चिकित्सा खर्च के नाम के भ्रष्टाचार का भारी विकास हो गया है। निजी अस्पताल मनमाने बिल बनाकर लूट रहे हैं। कार्पेरेट टैक्स में बड़ी कटौती की गई है। खाद पर दी जाने वाली रियायत को सीमित किया जा रहा है, याने सुविधा को क्रमश: खत्म करने की तैयारी हैं। इससे जब पैदावार कम होगी तो जाहिर है कि विदेशों से खाधान का आयात होगा और डब्लू.टी.ओ. के समझौते का पालन होगा। ऑनलाईन शिक्षा के नाम पर सरकार की शिक्षा की जवाबदारी क्रमश: समाप्त हो जाएगी और लाखों शिक्षक बेरोजगार हो जाएंगे। नये उद्योग को टैक्स में बड़ी छूट दी गई है। परन्तु यह भुला दिया गया है कि देश के 22 करोड़ छोटे किसान मजदूर, 32 करोड़ बेरोजगार अर्ध बेरोजगार, उद्यमी नहीं बन सकते। इनके पास 5 करोड़ तो दूर 5 लाख की पूँजी नहीं है, निजी मेडीकल कॉलेज और विश्वविद्यालय पहले से थे अब पी.पी.पी. मॉडल पर मेडीकल कॉलेज और विश्वविद्यालय खुल गये। याने शिक्षा, चिकित्सा के लिए सम्पूर्णत: निजी हाथों में देने का मार्ग प्रशस्त कर दिया गया है। शिक्षा के क्षेत्र में भी विदेशी पूँजी को रास्ता दे दिया गया है।
विदेशी कम्पनियों को डेटा सेंटर बनाने की मंजूरी दी गई है, पर इसके सामाजिक प्रभाव क्या होंगे इस पर कोई विचार नहीं किया गया। कम्पनियों के अंशधारकों को जमीनों पर टैक्स लगाकर देशी पूँजी को पीछे धकेल दिया गया है। तथा अंश पूँजी से चलने वाले उद्योग की पूँजी को घटाकर बड़ी-बड़ी राक्षसी पूँजी वाले कारखानों के मुकाबले खड़ा करने की तैयारी है। जिसके परिणामस्वरूप अंश पूँजी से बने हुए कारखाने भी क्रमश: समाप्त होंगे, और शेयर को खरीद कर बचत और आमदनी को बढ़ाने वाले आम आदमी आंशिक पूँजी लगाना बंद करेंगे। सरकारी कारखानों के हिस्सों के बेचने को सरकार की आय बताया जा रहा है। संपत्ति को बेचना और उसे आय मानना इससे बद्तर कल्पना क्या हो सकती? आई.डी.बी.आई. बैंक की 46 प्रतिशत हिस्सेदारी को सरकार बेचेगी। बिजली के प्रीपेड स्पाट मीटर बदलने पर बड़ी राशि खर्च होगी, बिजली मिले न मिले परन्तु बिल सुरक्षित मिलता रहेगा। सेना का बजट बढ़ गया परन्तु इसका अधिकांश हिस्सा केवल हथियारों की खरीद पर खर्च हो रहा है, जबकि सी.ए.जी. की रिपोर्ट के अनुसार सियाचिन में तैनात सैनिकों को न उपयुक्त खाना मिल रहा, न कपड़े, न उपकरण इस कारण से सैनिकों का स्वास्थ बिगड़ रहा है।
कुल मिलाकर यह बजट देश बेचू बजट है, याने राष्ट्रीय संपत्ति को बेचकर बनने वाला बजट। मैंने तो कहा कि वित्त मंत्री जी ने इतना लम्बा भाषण पढ़ने की कसरत बैठकर की उनका पूरा बजट तो केवल कविता में समाहित हो सकता था।
कुल तो पहले बेच दिया है, बचा खुचा अब बेचेंगे।
सारे कुछ का निजीकरण कर अब चैन से घूमेंगे।
देश की संजीवनी एक दवाई, हर जगह लाओ एफ.डी.आई.।
जिनने हमें चुनाव जिताया, वहीं हमारे माई बाप।
धर्म हमारा मालिक सेवा, जिसने हमें यहाँ पहुंचाया।
मरे किसान व बेरोजगार, अपने ऊपर पूँजी की छाया।
नहीं किसी से लेना देना, अपना तो बस एक ही कहना।
चाहे जो होने दो, हमें तो बस सत्ता में रहना।
अपराध और राजनीति
सिध्दार्थ शंकर
हमारे सभी राजनीतिक दलों ने ऐसी न जाने कितनी शख्सियतों से गलबहियां की हैं जिन पर हत्या से लेकर बलात्कार तक के गंभीर मामले दर्ज हैं। हिंदुस्तान की सियासत आज जिस ढर्रे पर चल रही है वह भ्रष्टाचार और अपराध से लबालब है। चुनाव में बढ़ता धनबल, बाहुबल और अपराधीकरण लोकतंत्र को अंदर ही अंदर खाए जा रहा है। मगर राजनीतिक पार्टियों को इससे कोई लेना-देना नहीं। जो काम पार्टियों और नेताओं का है, उसे सुप्रीम कोर्ट को करना पड़ रहा है। सुप्रीम कोर्ट तक राजनीति के अपराधीकरण पर कई बार चिंता व्यक्त कर चुका है और इस बारे में संसद को कानून बनाने को कह चुका है। एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में राजनीतिक पार्टियों को अपने उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड जनता के साथ साझा करने का आदेश दिया। सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ काफी बड़ा कदम माना जा रहा है। लेकिन इसके लागू होने में संशय है। संशय इसलिए क्योंकि आज तक राजनीतिक दलों का रवैया इस ओर उदासीन ही रहा है। हाल के दिल्ली चुनाव को ही लें, तो पता चलेगा कि कुल 672 प्रत्याशियों में से 20 प्रतिशत (133) के खिलाफ क्रिमिनल केस थे। हैरानी वाली बात यह है कि राजनीति सुधारने का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी के 51 प्रतिशत उम्मीदवार दागी थे। भाजपा के 17, कांग्रेस के 13, बहुजन समाज पार्टी के 10 और एनसीपी के 2 उम्मीदवार दागी थे। मगर किसी को इस बात का पता तक नहीं चल सका। एक भी दल ने अपने उम्मीदवारों के दागी होने की बात जनता तक नहीं पहुंचाई। सब चुनाव जीतने में लगे रहे। असोसिएशन ऑफ डिमोक्रेटिक रिफॉर्म (एडीआर) के अनुसार दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के 25 प्रतिशत प्रत्याशी और भाजपा के 20 प्रतिशत प्रत्याशियों ने अपने चुनावी हलफनामों में यह घोषणा की कि उनके खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। कांग्रेस के भी 15 प्रतिशत प्रत्याशियों ने अपने खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज होने की घोषणा की है। इस आलोक में सुप्रीम कोर्ट का फैसला और भी गंभीर हो जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम आदेश में देश के राजनीतिक दलों से कहा है कि वे चुनाव मैदान में उतरने वाले प्रत्याशियों का क्रिमिनल रिकॉर्ड को जनता के सामने रखें। कोर्ट ने कहा कि वह प्रत्याशियों के आपराधिक रिकॉर्ड को साइट पर अपलोड करे। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने साथ ही आगाह किया है कि इस आदेश का पालन नहीं किया गया, तो अवमानना की कार्रवाई की जा सकती है। राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण पर चिंता जताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को बड़ा आदेश दिया। कोर्ट ने राजनीतिक दलों से कहा कि वे अपने प्रत्याशियों के आपराधिक रिकॉर्ड को अखबारों, बेवसाइट्स और सोशल साइट्स पर प्रकाशित करें। इसके साथ ही पार्टियों से सवाल किया कि आखिर उनकी ऐसी क्या मजबूरी है कि वह आपराधिक पृष्ठभूमि के प्रत्याशियों को टिकट देती हैं। यह सवाल चुभने वाला है, जिसका जवाब शायद ही किसी दल के पास हो। आज ऐसी परिपाटी बन चुकी है, जिसमें हर पार्टी चुनाव जिताऊ उम्मीदवार को टिकट देना पसंद करती है। वह दागी है या नहीं, इसकी फिक्र किसी को नहीं।15वीं लोकसभा में 543 सांसदों में से 162 पर गंभीर मामले दर्ज थे और 16वीं लोकसभा में इनकी संख्या और भी बढ़ गई। इसका एक बड़ा कारण जनप्रतिनिधित्व कानून का लचीला होना भी है। 2006 में चुनाव आयोग ने देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक पत्र लिखा। उस पत्र में गया था कि यदि जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 में जरूरी बदलाव नहीं किए गए तो वह दिन दूर नहीं जब देश की संसद और विधानसभाओं में दाऊद इब्राहीम और अबू सलेम जैसे लोग बैठेंगे। ‘हम्माम में सभी नंगे हैंÓ की तर्ज पर सभी राजनीतिक पार्टियों की गोद में ऐसे अनेक नेताओं की किलकारियां गूंजती हैं जो अपराध में गले तक डूबे हैं। अब तो ऐसा लगता है कि राजनीतिक दल स्वयं इस दलदल से नहीं उबरना चाहते तभी तो अधिकतर पार्टियों ने सितंबर 2013 में सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले का विरोध किया था जिसमें कहा गया था कि यदि अदालत विधायिका के किसी सदस्य को दो साल या उससे अधिक की सजा सुनाती है, तो वह अपनी सदस्यता बरकरार नहीं रख सकता। इसी फैसले को बेअसर करने के लिए तत्कालीन यूपीए सरकार द्वारा संसद में विधेयक लाया गया था जो पास नहीं हो सका।नेताओं और अपराधियों की दिनोंदिन बढ़ती सांठगांठ चिंतित करने वाली है। वैसे सितंबर 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने मतदाताओं को नापसंदगी का हक देकर एक ठोस पहल की थी। हालांकि चुनाव सुधार के लिए तारकुंडे समिति, गोस्वामी समिति, वोहरा कमेटी जैसी अनेक समितियों ने अपनी सिफारिशें सरकार को सौंपी हैं लेकिन निजी हितों के कारण किसी भी दल ने इन्हें लागू करने की जहमत नहीं उठाई। आज जरूरत व्यापक चुनाव सुधार की है जिससे राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण को रोका जा सके। इसके लिए पार्टियों को मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखानी होगी।
अपराधी उम्मीदवारः अधूरा फैसला
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने राजनीति को अपराधियों से मुक्त करने का जो आदेश जारी किया है, उसका स्वागत है लेकिन वह अधूरा है। यह तो ठीक है कि सभी राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों के अपराधों का विस्तार से ब्यौरा दें और नामजद करने के 48 घंटों में उसे प्रचारित करें या उम्मीदवारी का फार्म जमा करने के दो हफ्ते पहले बताएं। अदालत ने यह नहीं बताया कि वे उस ब्यौरे को कौनसे अखबारों और टीवी चैनलों पर प्रचारित करें। यह नियम तो पहले भी था लेकिन उम्मीदवारों ने ऐसे अखबार चुने, जिन्हें बहुत कम लोग पढ़ते हैं और ऐसे टीवी चैनल चुने, जिन्हें बहुत कम लोग देखते हैं। अखबारों में अपने अपराधों के विज्ञापन इतने छोटे और चैनलों पर ऐसे वक्त दिए जाते हैं, जबकि उनका कोई अर्थ नहीं होता। इस बार अदालत ने कहा है कि राजनीतिक दलों को यह भी विस्तार से बताना होगा कि अपराधी होने के बावजूद फलां उम्मीदवार को उसने क्यों चुना ? उसकी योग्यता क्या है और उसकी उपलब्धियां कितनी हैं ? यह शर्त निरर्थक है, क्योंकि भारत में किसी भी उम्मीदवार की एक मात्र योग्यता यह है कि वह 21 साल का हो। अदालत कहती है कि उसमें चुनाव जीतने की योग्यता है, यह तर्क नहीं माना जाएगा तो वह यह बताए कि पार्टियां और कौनसी योग्यताओं को देखे, अपने उम्मीदवार तय करते हुए ? चुनाव जीतने के लिए पैसा, जाति, संप्रदाय, झूठे वायदे, नफरत आदि अपने आप में योग्यता बन जाते हैं। यदि कोई पार्टी किसी उम्मीदवार की हवाई योग्यताओं या उपलब्धियों का फर्जी ब्यौरा दे दे तो चुनाव आयोग या अदालत क्या कर सकती है ? अदालत कहती है कि यह ब्यौरा निश्चित अवधि में कोई पार्टी न दे तो उस पर चुनाव आयोग मानहानि का मुकदमा दायर कर सकता है। अदालत ने यह नहीं बताया कि ऐसे मुकदमों का फैसला कितने दिनों, महिनों या वर्षों में आएगा ? अधर में लटके हुए चार करोड़ मुकदमों की तरह क्या यह चुनावी मुकदमा भी नहीं लटक जाएगा ? चुनाव आयोग यदि किसी उम्मीदवार या पार्टी का चुनाव चिन्ह जब्त कर ले तो कर ले, उससे वह उनका क्या बिगाड़ लेगा ? सारी पार्टियों का तर्क यह होगा कि मुकदमा तो आप किसी पर भी चला सकते हैं, अपराध का आरोप आप किसी पर भी लगा सकते हैं, लेकिन किसी मुकदमे या आरोप से यह सिद्ध थोड़े ही हो जाता है कि वह आदमी अपराधी है। उस उम्मीदवार को, जब तक उसका अपराध सिद्ध न हो जाए, कोई अदालत या कोई चुनाव आयोग चुनाव लड़ने से नहीं रोक सकता। इस समय संसद के 43 प्रतिशत सदस्य ऐसे हैं, जिन पर अपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। मैं पूछता हूं कि पार्टियों ने ऐसे उम्मीदवारों का चुना ही क्यों ? यदि देश में लाखों लोगों को विचाराधीन कैदी (अंडरट्रायल प्रिजनर्स) की तरह बरसों जेलों में बंद रखा जा सकता है तो संगीन अपराधी नेताओं की उम्मीदवारों को रद्द क्यों नहीं किया जा सकता ? इसीलिए हमारे सारे राजनीतिक दलों ने सर्वोच्च न्यायालय के इस हुकुम का स्वागत किया है।
आप की जीत भाजपा के लिए चेतावनी
सुरेश हिंदुस्थानी
दिल्ली विधानसभा के लिए हुए मतदान के पश्चात हालांकि यह तय लगने लगा था कि दिल्ली में फिर से आम आदमी पार्टी की सरकार बनेगी। लेकिन चुनाव परिणामों ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को एक बार फिर से जो छप्पर फाड़ बहुमत दिया है, उसकी उम्मीद आम आदमी पार्टी के अलावा किसी को भी नहीं थी। यहां तक कि चैनलों ने जो सर्वे दिखाया, उसमें भी आम आदमी पार्टी की इतनी सफलता की आशा नहीं थी। आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल के प्रति दिल्ली की जनता का यह अपार जन समर्थन यही प्रदर्शित करता है कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जड़ें बहुत गहरे तक समा चुकी हैं। केजरीवाल ने अपनी राजनीति को हर हृदय में विद्यमान कर दिया है।
भारत में प्रायः कहा जाता है कि जो जितनी जल्दी ऊपर उठता है, वह उतनी ही गति से नीचे की ओर भी जाता है, लेकिन केजरीवाल के बारे में उक्त पंक्ति एकदम फिट नहीं बैठ रही। हालांकि केजरीवाल की पार्टी को पिछले चुनाव की तुलना में पांच सीट कम मिली हैं, लेकिन इसके बाद भी उनकी पार्टी को बड़ी जीत मिली है। आम आदमी पार्टी की इस अप्रत्याशित जीत में मुफ्त की योजनाओं का बहुत बड़ा आधार है। दिल्ली में केजरीवाल की सरकार ने बिजली फ्री, शिक्षा फ्री, पानी फ्री देकर उसे वोटों में परिवर्तित करने में सफलता प्राप्त की। इससे यह भी संदेश जा रहा है भविष्य की राजनीति में इस प्रकार की फ्री की राजनीति सत्ता बना भी सकती है और बिगाड़ भी सकती है।
निश्चित रूप से यही कहा जा सकता है कि मुफ्त की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल कहीं न कहीं देश में बेरोजगारी को बढ़ाने का ही कार्य करेगी। वास्तव में होना यह चाहिए कि आम जनता के जीवन स्तर को ऊंचा उठाया जाए, उसे रोजगार प्रदान किया जाए, जिससे जनता को अपने व्यय खुद वहन करने की शक्ति मिले। मुफ्त सुविधाएं प्रदान करना एक प्रकार से समाज को निकम्मा बनाने की राह की निर्मिति करने वाला ही कहा जाएगा। सरकार कोई भी हो उसे आम जनता के जीवन स्तर उठाने का प्रयास करना चाहिए।
विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद अब इस बात में किसी भी प्रकार की आशंका नहीं होना चाहिए कि दिल्ली में अरविंद केजरीवाल का जादू बरकरार है। मुद्दे चाहे कोई भी रहे हों, जनता ने आम आदमी पार्टी के मुद्दों पर अपना व्यापक समर्थन दिया है। वहीं भाजपा के लिए यह चुनाव एक चुनौती भी है और स्पष्ट रूप से एक गंभीर चेतावनी भी है। चेतावनी इस बात की है कि भाजपा राज्यों में प्रादेशिक नेतृत्व खड़ा करने में असफल साबित हुई है। भले ही वह राष्ट्रीय नेतृत्व के हिसाब से बहुत मजबूत होगी, लेकिन दिल्ली में उसका नेतृत्व कोई कमाल नहीं कर सका। अब भाजपा के लिए यह आत्ममंथन का विषय हो सकता है कि वह अपने प्रादेशिक नेतृत्व को कैसा स्वरूप प्रदान करना चाहता है।
इसी प्रकार हम कांग्रेस की बात करें तो दिल्ली में उसका आधार ही समाप्त होता जा रहा है। लोकसभा में दिल्ली की सभी सीटें हारने वाली कांग्रेस पार्टी विधानसभा में भी अपनी हार में पूरी तरह से संतुष्ट नजर आ रही है। उसे अपनी हार का गम नहीं है। वह अरविंद केजरीवाल की जीत को ऐसे देख रही है, जैसे उसने खुद विजय प्राप्त करली हो। दिल्ली के बारे में कांग्रेस की राजनीति को देखकर यह भी कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने अप्रत्यक्ष रूप से आम आदमी पार्टी को ही समर्थन दिया है। क्योंकि यह संभव ही नहीं है कि जिस कांग्रेस पार्टी ने तीन बार बहुमत की सरकार बनाई, वह पिछले दो चुनावों में शून्य में समाहित हो जाए। कांग्रेस की करारी हार के बाद हालांकि बगावती स्वर भी उठ रहे हैं। प्रदेश अध्यक्ष सुभाष चौपड़ा ने पराजय की नैतिक जिम्मेदारी लेकर अपने पद से इस्तीफा भी दे दिया है, लेकिन यह परिणाम कांग्रेस के लिए भी गहन चिंता का विषय है।एक प्रकार से कहा जाए तो अब भी दिल्ली कांग्रेस मुक्त ही है। हालांकि भाजपा ने पिछली बार से पांच सीटों की वृद्धि की है, जो व्यापक सफलता नहीं तो कुछ सुधार तो कहा जा सकता है। कांग्रेस भी दिल्ली विधानसभा चुनावों के परिणाम को भाजपा की पराजय के रूप में देखकर प्रसन्न हो रही है। उसे अपने गिरेबान में भी झांककर देखना चाहिए कि वह कितने पानी में है।
राजनीति में जय पराजय का कोई स्थायित्व नहीं होता। जो दल आज पराजय का सामना कर रहा है, कल उसकी विजय भी हो सकती है। आज केजरीवाल के नाम है तो कल किसी और के नाम भी हो सकता है। यह बात भी सही है कि पराजय एक सबक लेकर आती है। जीत कभी कभी अहंकारी बना देती है, लेकिन पराजय बहुत कुछ सिखा देती है। दिल्ली में भाजपा पराजय से कुछ सीखेगी या नहीं, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन कांग्रेस को अपनी पराजय का भान नहीं हो रहा। भाजपा को अब यह जान लेना चाहिए कि मोदी और अमित शाह के नाम के सहारे राज्यों के चुनाव नहीं जीते जा सकते, अब उसे राज्यों में नए अध्याय का प्रारंभ करना होगा।
नए प्रधानमंत्री की दस्तक
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दिल्ली के चुनाव में भाजपा की हार देश में नयी राजनीति की शुरुआत कर सकती है। मुझे 2013 के गुजरात विधानसभा के चुनाव की याद आ रही है। जब उसके चुनाव परिणाम घोषित हो रहे थे तो मुझे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में पांच-छह टीवी चैनलों ने घेर लिया। वे पूछने लगे कि मोदी की 5-10 सीटें कम हो रही हैं, फिर भी आप कह रहे हैं कि गुजरात का यह मुख्यमंत्री अब प्रधानमंत्री के द्वार पर दस्तक देगा। यही बात आज मैं अरविंद केजरीवाल के बारे में कहूं, ऐसा मेरा मन कहता है। आप पार्टी को पिछले चुनाव के मुकाबले इस चुनाव में पाच-छह सीटें कम मिलें तो भी उसका प्रचंड बहुमत है। यह प्रचंड बहुमत याने 70 में से 60 सीटों से भी ज्यादा तब है, जबकि भाजपा और कांग्रेस ने दिल्ली प्रदेश के इस चुनाव में अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी, अपनी पूरी प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी थी। कांग्रेस और भाजपा के नेताओं ने चुनाव-प्रचार के दौरान अपना स्तर जितना नीचे गिराया, उतना गिरता हुआ स्तर मैंने 65-70 साल में कभी नहीं देखा। अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया को मैं दाद दूंगा कि उन्होंने अपना स्तर ऊंचा ही रखा। अपनी मर्यादा गिरने नहीं दी। भाजपा ने अपने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों से लेकर सैकड़ों विधायकों और सांसदों को झोंक दिया। दिल्ली की जनता के आगे 2 रु. किलो आटे तक के लालीपॉप उसने लटकाए लेकिन दिल्ली के लोग हैं कि फिसले ही नहीं। भाजपा यहीं तक नहीं रुकी। उसने शाहीन बाग को अपना रथ बना लिया। उसने खुद को पाकिस्तान की खूंटी पर लटका लिया। उसने अरविंद केजरीवाल को हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण की धुंध में फंसाने की भी कोशिश की लेकिन गुरु गुड़ रह गए और चेला शक्कर बन गया। कर्म की राजनीति ने धर्म की राजनीति को पछाड़ दिया। अरविंद इस हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के धुंआकरण से भी बच निकले। अब वे तीसरी बार दिल्ली के मुख्यमंत्री बन जाएंगे लेकिन अगले आम चुनाव में वे चाहे तो अपनी वाराणसी की हार का हिसाब मोदी से चुकता कर सकते हैं। इस दिल्ली के चुनाव को वैसा प्रचार चैनलों और अखबारों में मिला है, जैसा किसी भी प्रादेशिक चुनाव को नहीं मिला है। यह लगभग राष्ट्रीय चुनाव बन गया है। राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस को इस चुनाव ने दरी के नीचे सरका दिया है। अरविंद केजरीवाल के वचन और कर्म में भी अब नौसिखियापन नहीं रहा। एक जिम्मेदार राष्ट्रीय नेता की गंभीरता उनमें दिखाई पड़ने लगी है। वे अपने शुरुआती साथियों को फिर से अपने साथ जोड़ें, राष्ट्रीय मुद्दों पर अधिकारी विद्वानों और विशेषज्ञों का मार्गदर्शन लें और अपनी रचनात्मक छवि बनाए रखें तो वे देश को निराशा और आर्थिक संकट के गर्त्त में गिरने से बचा सकते हैं। दिल्ली में जो होता है, उसे पूरा देश देखता है।
महापुरुषों के विरोध पर केंद्रित राजनीति ?
तनवीर जाफ़री
‘सबका साथ सबका विकास’, गुजरात से शुरू हुआ यह नारा 2013-14 के दौरान चुनाव प्रचार का सबसे प्रमुख नारा बनकर उभरा था। विदेशी मीडिया ने भी इस नारे पर कई सकारात्मक टिप्पणियां कीं। और इस बात के लिए प्रशंसा की गयी कि यदि वास्तव में भारत सरकार ‘सबका साथ सबका विकास’ के नज़रिये के तहत काम करती है तो यह समग्र भारत वासियों के हित में ही होगा। परन्तु आज यही विकास ‘शब्द ‘ एक मज़ाक़ के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा है। लोग व्यंगात्मक अंदाज़ में ‘विकास ‘ को ढूंढते नज़र आ रहे हैं। कोई पूछता है कि विकास पैदा हुआ भी या नहीं तो कोई पूछ रहा है कि ‘विकास के पापा कहाँ चले गए’। वैसे भी औद्योगिक उत्पादन,अर्थ व्यवस्था,जी डी पी,विकास दर व रोज़गार संबंधी तमाम आंकड़े भी यही बता रहे हैं कि भारत में विकास नाम की चीज़ कहीं ढूंढने पर भी दिखाई नहीं दे रही है। न स्मार्ट सिटी हैं,न आदर्श गांव हैं न नौकरी न नए उद्योग। हाँ सरकारी नवरत्न कंपनियों को निजी हाथों में सौंपने के दृश्य ज़रूर दिखाई दे रहे हैं। रोज़गार के नाम पर देश के शिक्षित युवाओं को पकौड़े बेचने जैसी ‘बेशक़ीमती’ सलाह ज़रूर दी जा चुकी है। देश में साम्प्रदायिक व जातिगत आधार पर तनाव ज़रूर बढ़े हैं। सबका साथ सबका विकास करने के बजाए सब के ‘मतों का ध्रुवीकरण’ ज़रूर कराया जा रहा है। नोटबंदी से लेकर एन आर सी जैसे प्रयोगों तक में अब तक सैकड़ों देशवासी अकारण ही अपनी जानें गँवा चुके हैं। अनिश्चितता के इस वातावरण में एक सवाल यह भी पूछा जाने लगा है कि जो सरकार,दल अथवा विचारधारा देश के महापुरुषों को समान रूप से सम्मान नहीं दे सकती,सम्मान देना तो दूर की बात है जो विचारधारा अपनी ‘राजनैतिक दुकानदारी’ चलाने के मुख्य हथकंडे के रूप में महापुरुषों की आलोचना,उनकी निंन्दा व बुराई करने को ही अपना ‘शस्त्र’ समझती हो उस से देश के लोगों को साथ लेकर चलने की उम्मीद करना आख़िर कितना मुनासिब है?
सकारात्मक राजनीति का तक़ाज़ा तो यही है कि आप अपने राजनैतिक आदर्श महापुरुषों की चर्चा करें,उनके विचारों को सार्वजनिक करें और उन्हें लोकप्रिय बनाने की कोशिश करें। परन्तु धर्मनिरपेक्ष भारत सहित पूरे विश्व में चूंकि अतिवादी विचारों की स्वीकार्यता की संभावना कम है इसीलिए अपने अतिवादी विचारकों का सार्वजनिक रूप से महिमामण्डन करने के बजाए धर्मनिरपेक्षता के ध्वजावाहक महापुरुषों को नीचा दिखाने व उनपर झूठे आरोप मढ़कर उनपर हमलावर होने के लगतार प्रयास किये जाते रहे हैं। देश और दुनिया के तमाम इतिहासकारों ने यहाँ तक की आलोचकों व विरोधियों ने भी जिन महापुरुषों को सम्मान की दृष्टि से देखा,राष्ट्र का गौरव समझे जाने वाले उन्हीं महापुरुषों की आलोचना या निंदा करने में पूरी ताक़त झोंकी जा रही है। सम्राटअकबर,टीपू सुल्तान,महात्मा गांधी,पंडित जवाहरलाल नेहरू जैसी अनेक शख़्सियतें जिनकी नीयत व नीतियों की दुनिया क़ाएल है,जिनकी धर्मनिरपेक्ष नीतियों की पूरी दुनिया इज़्ज़त करती है वही महापुरुष इन अतिवादी दक्षिणपंथियों के निशाने पर रहते हैं। गुजरात में नर्मदा घाटी के मध्य मोदी सरकार द्वारा जनता के टैक्स के लगभग तीन हज़ार करोड़ रूपये ख़र्च कर जिस स्टेच्यू ऑफ़ यूनिटी का निर्माण कराया गया वह भी किसी हिंदूवादी नेता या दक्षिणपंथी विचारक की नहीं बल्कि कांग्रेस पार्टी के नेता व नेहरू मंत्रिमंडल में गृह मंत्री रहे सरदार बल्लभ भाई पटेल की है। उस जगह किसी अपने आदर्श महापुरुष की स्टेच्यू भी लगाई जा सकती थी। परन्तु इन्हें मालूम था कि सरदार पटेल के क़द का भी कोई नेता इनके पास नहीं है। इनकी पूरी ताक़त इस बात के प्रचार में लगाई जाती है कि नेहरू-पटेल एक दूसरे के दुश्मन थे। नेहरू ने पटेल को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। इन नेताओं में पटरी नहीं खाती थी। नेहरू, पटेल का कहना नहीं मानते थे। भारत पाक विभाजन से लेकर कश्मीर की समस्याओं तक के लिए अकेले नेहरू ज़िम्मेदार हैं जबकि उन सभी फ़ैसलों में गृह मंत्री के नाते सरदार पटेल की भी महत्वपूर्ण भूमिका व सहमति हुआ करती थी।
गत एक दशक से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का विरोध इस स्तर तक फैल गया है मानो देश में एक दो नहीं बल्कि सैकड़ों गोडसे फिर से पैदा हो गए हों। अतिवादी शिक्षा से प्रभावित आम लोगों द्वारा ही नहीं बल्कि महत्वपूर्ण संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों द्वारा गाँधी जी को अपमानित करने व उन्हें बदनाम करने के अनेक तरीक़े इस्तेमाल किये जा रहे हैं। जिस बापू की सोच,हौसले व विचारों के आगे अंग्रेज़ नत मस्तक होते थे और आज तक जो गाँधी दुनिया के तमाम देशों,सरकारों व शीर्ष नेताओं के लिए प्रेरणा स्रोत बने हों उसी गांधी का कभी चरित्र हनन किया जाता है,कभी उन्हें शहीद भगत सिंह का विरोधी बताया जाता है,कभी उन्हें मुस्लिम परस्त या दलित परस्त बताया जाता है। कुछ मंद बुद्धि ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवादी’ तो गाँधी के बजाए गाँधी के हत्यारे गोडसे को ही राष्ट्रभक्त व महापुरुष मान रहे हैं।कर्नाटक के एक सांसद जिन्होंने भारतीय संविधान से ‘सेक्युलर’ शब्द हटाने की बात कही थी तथा यह भी कहा था कि भारतीय जनता पार्टी संविधान में संशोधन करने के लिए ही सत्ता में आई है, उसी सांसद अनंत हेगड़े ने एक बार फिर अपनी ज़ुबान से अपनी ‘सांस्कारिक शिक्षा’ का परिचय दिया है। इस बार तो उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में गाँधी जी की किसी तरह की भूमिका को ही चुनौती दे डाली है। सांसद एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री अनंत हेगड़े ने एक जनसभा में कहा कि -‘देश के पूरे स्वतंत्रता आंदोलन के संघर्ष को अंग्रेज़ों की सहमति व समर्थन से अंजाम दिया गया। हेगड़े के अनुसार ‘इन कथित नेताओं में से किसी भी नेता को पुलिस के द्वारा नहीं पीटा गया। उनका स्वतंत्रता आंदोलन बड़ा ड्रामा था। अंग्रेज़ों की सहमति से यह आंदोलन किया गया। यह सही मायनों में आंदोलन नहीं था। यह मिलीभगत से किया गया आंदोलन था।’ हेगड़े ने महात्मा गाँधी की भूख हड़ताल और सत्याग्रह को भी ड्रामा बताया। उन्होंने कहा, ‘कांग्रेस का समर्थन करने वाले लोग कहते हैं कि भारत को आज़ादी सत्याग्रह के कारण मिली लेकिन यह सही नहीं है। अंग्रेज़ों ने इस देश को सत्याग्रह के कारण नहीं छोड़ा था।’ उन्होंने आगे कहा कि अंग्रेज़ों ने परेशान होकर देश को आज़ादी दी थी। हेगड़े ने ने कहा, ‘जब मैं इतिहास पढ़ता हूं तो मेरा ख़ून उबल जाता है। ऐसे लोग हमारे देश में महात्मा बन जाते हैं।’
दक्षिणपंथी नेताओं द्वारा देश के धर्मनिरपेक्ष महापुरुषों को अपमानित करने की एक कोई पहली घटना नहीं है। हाँ इसमें लगातार इज़ाफ़ा ज़रूर होता जा रहा है। गाँधी के साथ साथ स्वतंत्र संग्राम के अनेक नायकों व योद्धाओं को भी अपमानित किया जा रहा है। इससे साफ़ ज़ाहिर हो रहा है कि रचनात्मक,विकास आधारित राजनीति करने के बजाए महापुरुषों के विरोध पर केंद्रित राजनीति करने में ही अपने राजनैतिक लाभ की तलाश की जा रही है। ऐसे प्रयास महाप्रुषों के साथ साथ देश की छवि को भी धूमिल कर रहे हैं।
मंदिर ट्रस्ट और मतदान
सिद्वार्थ शंकर
दिल्ली विधानसभा चुनाव में 8 फरवरी को वोट डाले जा रहे हैं । इससे ठीक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में बुधवार को अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए श्री रामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट बनाने का ऐलान कर दिया। पीएम मोदी के इस ऐलान के साथ ही दिल्ली चुनाव में किस्मत आजमा रहीं राजनीतिक पार्टियों ने सरकार की मंशा पर सवाल उठाने शुरू कर दिए। वहीं, राजनीतिक विश्लेषक इससे बीजेपी को होने वाले नफा-नुकसान की गणना में जुट गए हैं। बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या विवाद पर नौ नवंबर, 2019 को अपना फैसला सुनाया था। फैसले में ही मंदिर निर्माण के लिए तीन महीने की समय सीमा के भीतर बोर्ड गठित करने के केंद्र सरकार को निर्देश थे। हालांकि चुनाव आयोग की ओर से जारी बयान के बाद राजनीतिक दलों की ओर से उठाए जा रहे सवालों पर विराम लग जाना चाहिए।चुनाव आयोग ने स्पष्ट कर दिया है कि यह घोषणा कहीं से भी आचार संहिता का उल्लंघन नहीं है। इसके लिए सरकार को चुनाव आयोग को पहले से सूचित करने की कोई जरूरत नहीं थी। बता दें कि दिल्ली में कुल 1.47 करोड़ मतदाता हैं जिनमें 81.05 लाख पुरुष, 66.80 लाख महिला मतदाता हैं। वहीं 2011 की जनगणना के धर्म आधारित आंकड़ों के मुताबिक, दिल्ली में एक करोड़ 37 लाख हिंदू हैं। यानी दिल्ली में करीब-करीब 10 लाख मुस्लिम मतदाता हैं। इनमें से ज्यादातर मुस्लिम आबादी आठ विधानसभा क्षेत्रों में सिमटी हुई है। सीलमपुर, मुस्तफाबाद, बल्लीमारान, ओखला, चांदनी चौक, मटिया महल, बाबरपुर और किराड़ी ऐसी विधानसभा सीटें हैं जहां करीब 35-50 फीसदी मुस्लिम वोटर हैं। इन सीटों पर मुस्लिम वोटर निर्णायक भूमिका में होते हैं। इसके अलावा सीमापुरी और त्रिलोकपुरी में भी मुस्लिम वोटरों की संख्या ठीक-ठाक है। आम आदमी पार्टी और कांग्रेस अंदेशा जता रही है कि भाजपा दिल्ली चुनाव को हिंदू बनाम मुस्लिम का रंग देना चाहती है, इसलिए राम मंदिर के ट्रस्ट का ऐलान करने के लिए इस वक्त को चुना गया है। यहां गौर करने वाली बात यह है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा ने किसी भी मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट नहीं दिया है। मुस्लिम बाहुल्य सीटों पर भी भाजपा ने हिंदू उम्मीदवार पर ही दांव खेला है। पिछले आंकड़ों पर नजर डालें तो इन आठ मुस्लिम बाहुल्य सीटों पर भाजपा हमेशा से पिछड़ती रही है। पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा दिल्ली की सभी 7 सीटें जीती थी, लेकिन इन आठ विधानसभा सीटों पर सबसे ज्यादा 4 लाख से ज्यादा वोट कांग्रेस के खाते में गई थी। वहीं भाजपा को जीत के बावजूद करीब 30 हजार वोट मिले थे।यहां साफ तौर से दिख रहा है कि इन आठ सीटों पर भाजपा को काफी कम वोट मिलते रहे हैं। ऐसे में केवल राम मंदिर ट्रस्ट जैसे फैसले से वोटों के इतने बड़े अंतर में कोई बदलाव आ जाए इसकी कम ही संभावना दिखती है। दूसरी तरफ लोकसभा चुनाव के वोटिंग पैटर्न से सबक लेते हुए आम आदमी पार्टी (आप) ने इन आठ सीटों पर जोर लगाया है और मुस्लिम वोटरों को अपने पाले में करने की जुगत में जुटी है। वहीं, कांग्रेस भी इन वोटरों को अपने साथ जोड़े रखकर इज्जत बचाने की जीतोड़ कोशिश कर रही है।नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में शाहीन बाग में लोग करीब डेढ़ महीने से जमा हैं। विधानसभा चुनाव प्रचार में जिस तरह से भाजपा और आम आदमी पार्टी शाहीन बाग का नाम ले रही है, उससे यह मुख्य चुनावी मुद्दा बन गया है। विस्तृत परिदृश्य में देखें तो शाहीन बाग ही दिल्ली चुनाव का मुख्य मुद्दा है। इस तात्कालिक और बड़े मुद्दे के सामने राम मंदिर ट्रस्ट की बात को दिल्ली की जनता कितना तवज्जो देगी यह समझने की जरूरत है। आम आदमी पार्टी के हालिया फैसलों पर नजर डालें तो इस पार्टी ने ऐसा कोई स्टैंड नहीं लिया है, जिससे विरोधियो को उसे हिंदू विरोधी साबित करने का मौका मिल जाए। राम मंदिर ट्रस्ट का ऐलान होते ही मुख्यमंत्री केजरीवाल ने कहा कि अच्छे फैसलों का कोई वक्त नहीं होता है। इससे पहले जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 निष्प्रभावी किए जाने पर भी केंद्र सरकार का समर्थन किया था। आप सीएए के खिलाफ भी अब तक कोई स्टैंड लेने से बचती रही है। इतना ही नहीं, केजरीवाल शाहीन बाग के मुद्दे पर भी बीजेपी की तरफ से उकसावे के बाद भी अपना रुख स्पष्ट करने से बचते रहे। इन सारे आंकड़ों के बीच देखना दिलचस्प होगा कि 11 फरवरी को जब चुनावी नतीजे आएंगे तब भाजपा को राम मंदिर ट्रस्ट का फायदा भाजपा को होता है या नहीं।
गाँधी और गोड्से का पुनर्जन्म !
प्रभुनाथ शुक्ल
हमारे मित्र ढोंगी लाल ने काफी हाउस में चुस्कियां लेते हुए चुटकी ली। “अरे भाई ! सुना है बापू यानी गाँधी जी ने पुनः सत्याग्रह करने का ऐलान किया है। उन्हें दुःख है कि कुछ लोग उनके सत्याग्रह और आजादी मार्च का पेटेंट करना चाहते हैं, जिसकी वजह से यह ऐलान करना पड़ा है। मीडिया में नया विमर्श छिड़ गया। गाँधीवादी चिंता में पड़ गए हैं कि, ऐसे कैसे हो सकता है। यह जिम्मेदारी तो वे लोग भलीभाँति निभा रहे थे। सब कुछ अच्छा था। गाँधीवाद की दुकान अच्छी चल रहीं थी लेकिन अब उनका क्या होगा कालिया! सरकार ने बाकायदा इस तरह की अफवाह से बचने का इश्तहार जारी कर दिया है। सोशलमीडिया पर बापू के सत्याग्रह की ऐसी हवा फैली कि उसे रोकना मुश्किल हो गया है।टीवी वाले डिबेट चलाने लगे। दूसरे मित्र चोंगी लाल ने कहा “अरे भाई ! ख़बर तो बासंती है। इसमें सच और झूठ की कोई गुंजाइश भी नहीं है।” दूसरे मित्र ढोंगी लाल ने कहा ” भाई ! चोंगी लाल, आपौ सठियाइ गए हो का- – – ! ” देखो ! मित्र चोंगी लाल! कहते हैं कि जिसके विचार जिंदा हैं, वह मर कर भी जिंदा है। अपने बापू ऐसे ही हैं। ख़बर सौ फीसदी सच है। क्योंकि , हमारे जीन में गाँधी और गोड्से जिंदा हैं। वह कभी मर नहीं सकते। अगर वह मर गए तो गाँधी और गोड्सेवाद मर जाएगा। सत्ता और सिंहासन के साथ सियासत मर जाएगी। देखिए ! हमारे यहाँ एक कहावत है ‘महाजनों गतेन ते संपथा’ यानी हमारे महापुरुष जिस रास्ते का अनुसरण करें, उसी मार्ग पर हमें भी चलना चाहिए। तभी तो हम आजादी के सत्तर दशक बाद भी गाँधी और गोड्से के अनुगामी हैं। क्योंकि हम लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं। हमारा संविधान समता- समानता की वकालत करता है। आजकल संविधान की प्रस्तावना पर अधिक जोर है। इसलिए हम गाँधी और गोड्से में कोई फ़र्क नहीं रखते। मित्र ! डोंगी लाल, जरा चिंतन की चाशनी में डुबो और फ़िर बाहर आओ। देखो ! देश आज़ भी गाँधी और गोड्से का ऋणी है। हमें आजादी दिलाते- दिलाते बापू शहीद हो गए। अभी हमने उनका सहादत दिवस भी मनाया है। चौराहों पर बुतों की धूल- मिट्टी को धोया है। राजघाट पर अदब से पुष्प अर्पित कर शीश झुकाया है। गाँधी दर्शन को जनजन तक पहुँचाया है। साथ में गोड्से को भी खाद- पानी दिया है। कुछ गाँधी नामधारियों ने तो बाकायदा ‘गोड्से’ का नामकरण भी कर दिया। जामिया सत्याग्रह में एक नया गोड्से अवतरित हुआ है। किसी ने सच समाजवादी ने सच कहा था , जब विचार मर जाते हैं तो इंसान जिंदा लाश बन जाता है। शायद इसीलिए हमने गाँधी और गोड्से को मरने नहीं दिया। गीता में भगवान कृष्ण ने युद्धभूमि में अर्जुन को उपदेश देते हुए स्वयं कहा है। आत्मा अजर अमर है। इसका कभी विनाश नहीं होता। वह केवल शरीर त्यागती है। यानी गाँधी और गोड्से ने केवल शरीर का त्याग किया है। उनकी आत्मा तो हमारे बीच है। तभी तो गाँधी के बताए मार्ग पर चलते हुए हम आजादी- आजादी की रट लगाए हुए हैं। आजकल अपने मुलुक में कई बाग तैयार हो रहे हैं। हमारी पंथी मीडिया और सत्याग्रही नई आजादी को लेकर गजबै पॉपकार्न हो रहे हैं। अमीरबाग, ख़ुशरोबाग के बाद हमने’शाहीनबाग’ भी तैयार कर लिया है। अपन का यह गाँधीवाद इतना पॉपुलर हो चुका है कि इसकी तर्ज़ पर पूरे मुलुक को ‘शाहीनबाग’ का क्लोन बनाने की तैयारी चल रहीं है।गाँधी और गोड्सेेवाद में बड़ा घालमेल हो गया है। गाँधीवादी और गोड्सेवादी पूरी तरह अपने को साबित करने में नाकाम दिख रहे हैं। दोनों मध्यमार्ग अपनाते दिखते हैं। लेकिन आजकल ‘आजादी मार्च’ में दोनों का प्रतिबिंब खूब दिखा और बिका है। देखो मित्र ! ढोंगी लाल, आजकल सबकुछ पीछे छूट गया है। अपन का पूरा मुलुक जाम, जामिया, बाग के साथ गाँधी और गोड्से में उलझ गया है। हर रोज एक नया गोड्से विमर्श में मौजूद है। सुना है जामिया नगर के आजादी मार्च में एक बार फ़िर किसी गोड्से का पुनर्जन्म हुआ है। हमारी मीडिया में वह खूब सुर्ख़ियां बटोर रहा है। गाँधी और गोड्से वादियों में जंग छिड़ गई है। यह सिलसिला फिलहाल थमने का नाम नहीं ले रहा है। मुझे तो इस बासंती खबर में सच दिखता है। शायद ! इस विवाद को ख़त्म करने के लिए गाँधी और गोड्से पुनः पुनर्जन्म लेंगे। उन्हें एक दूसरे से माफी मांगनी पड़ेगी कि भाई, आप लोग यह लड़ाई ख़त्म कीजिए। हम दोनों ने मिलकर यह झगड़ा निपटा लिया है। देश को और कितनी आजादी चाहिए और कितने टुकड़े चाहिए।
निराशा भरा बजट
सिद्धार्थ शंकर
बजट में किए गए ऐलानों का असर आने वाले दिनों में भले अर्थव्यवस्था को कुछ रफ्तार के तौर पर देख जा सकता है, लेकिन फिलहाल उम्मीदों को बड़ा झटका लगा है। सबसे ज्यादा निराशा ऑटो मोबाइल इंडस्ट्री को हुई है। कहा जा रहा है कि यह वो बजट नहीं था जिसकी उन्हें उम्मीद थी। बजट से उम्मीद की जा रही थी कि सरकार कुछ सीधी फायदे इंडस्ट्री को देगी जिससे मांग बढ़ेगी और इंडस्ट्री मौजूदा मंदी के दौर से उबर पाएगी लेकिन बजट भाषण से सारी बातें नदारद रहीं। अभी सरकार ने खर्च में अगले वित्तवर्ष में 13 फीसदी इजाफे का ऐलान किया है। उनके मुताबिक ये खर्च मौजूदा अर्थिक हालात के हिसाब से अच्छा स्टिमुलस नहीं कहा जा सकता है। सरकार को आने वाले दिनों में ऐलानों पर और सफाई देने से हालात कुछ बदल सकते हैं। बहरहाल, बजट से ज्यादा उम्मीदें अब नहीं करनी चाहिए। सरकार ने पिछले कई सालों में बजट से बाद भी तमाम बड़े ऐलान किए हैं जिनका अथ्र्यवस्था पर प्रभाव देखने को मिला है। इस बार बजट से तमाम स्टिमुलस पैकेज को लेकर उम्मीदें लगी हुई थीं जिनको निश्चित तौर पर झटका लगा है। देश मे इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र के खर्च से जुड़ी बड़ी घोषणा का ऐलान न होना भी चिंताजनक रहा। हालांकि, सरकार ने भारतनेट के लिए जो ऐलान किए हैं वो देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को फायदा पहुंचाएगा। देश में डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर में सरकार की तरफ से और निवेश की जरूरत है। मेक इन इंडिया के जरिए उत्पादन करने से ही देश को असली फायदा होगा। असेंबलिंग यूनिटें लगाने से मेक इन इंडिया की तुलना में कम मुनाफा होगा।
अगर रोजगार की बात करें तो केंद्र सरकार ने युवाओं के कौशल विकास के लिए करीब 3000 करोड़ रुपए खर्च करने की घोषणा की है। लेकिन खुद युवाओं का कहना है कि सरकार ने बजट में रोजागार को लेकर प्रावधान नहीं किया गया है। भले ही सरकार शिक्षा और कौशल विकास को बढ़ावा दे रही है। पर रोजगार सृजन को लेकर भी सरकार को बजट में प्रावधान करना चाहिए था। आखिर पढ़ाई पूरी करने के बाद युवाओं को एक बेहतर नौकरी की तलाश होती है और रोजगार उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी सरकार की बनती है। आज बड़ी संख्या में ऐसे युवा हैं, जिन्होंने आईटीआई, पॉलटेक्निक और अन्य कौशल विकास केंद्रों से प्रशिक्षण लिया है। पर कुछ फीसद ही युवाओं को ही बेहतर नौकरी मिली है। केंद्र और कई राज्य सरकार भी कौशल विकास के कार्यक्रम चला रहे हैं, लेकिन बीते कुछ महीने में देश में बेरोजगारी बढ़ी है। अगर प्रशिक्षण लेने के बाद भी नौकरी नहीं मिलेगी तो देश का युवा तकनीकि शिक्षा या फिर उच्च शिक्षा लेकर क्या करेगा? केंद्र सरकार को इस बारे में सोचना ही पड़ेगा।
महिलाओं की सुरक्षा की बात हमेशा की जाती है। पर हर बार बजट में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर केवल बड़ी-बड़ी घोषणाएं की जाती हैं। इस बार भी कुछ ऐसी ही घोषणाएं की गई हैं। महानगरों में आज छात्राएं हो या फिर कामकाजी महिलाएं। कोई भी अपने आप को सुरक्षित महसूस नहीं करता। रोजगार के साधन पर उपलब्ध कराए जाने चाहिए, ताकि महिलाओं और बच्चियों का सशक्तिकरण हो सके। आज भी बड़ी संख्या में बच्चों को बाल मजदूरी करते देखा जा सकता है। रेड लाइट पर बच्चियां भीख मांगते मिल जाएंगी। छोटे-बड़े शहरों में रहने वाले युवाओं के पास नौकरी के अलावा भी कई ऐसे साधन हैं, जिससे वह अपनी जीविकोपार्जन कर लेता है। इस बजट में भी रोगजार सृजन को लेकर कोई ठोस पहल नहीं की गई है। इसके साथ ही इनकम टैक्स में छूट को लेकर दुविधा की स्थिति पैदा हो गई है। दो प्रकार की व्यवस्था इस बजट में की गई है। वैसे, सरकार कह रही है कि बजट के ऐलानों से रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, मगर कैसे, यह देखने वाला होगा।
संविधान और संस्कृति की दुहाई देने वाले कहाँ है?
भूपेन्द्र गुप्ता
नागरिकता संशोधन कानून से भाजपा और उसकी आत्मा आरएसएस ने एक बार फिर साबित कर दिया है अपने राजनैतिक एजेंडे के लिए वे संविधान को भी तार तार कर सकते है। इससे यह भी साबित हो गया है कि नस्लवाद और फासीवाद ने अब अपना चेहरा बदल लिया है। अब तो केंद्रीय मंत्री भी गालियां देने लगे है। अब भारतीय संस्कृति की दुहाई देने वाले भाजपा नेता कहाँ गए?
शाहीन बाग जैसे प्रदर्शन और पूरे देश में नागरिकता संशोधन कानून को लेकर चल रहे विरोध एवं समर्थन की रैलियों से यह कानून अब गांव-गांव तक चर्चा का विषय बन गया है ।लोगों में जिज्ञासा है कि इस कानून की ऐसी क्या आवश्यकता थी जो देश की मौलिक समस्याओं बेरोजगारी, अर्थव्यवस्था, डूबती बैंकिंग व्यवस्था आदि को दरकिनार कर पूरे देश को केवल नागरिकता भारत-पाकिस्तान और हिंदू मुसलमान पर फोकस कर दिया गया।
लोग यह समझने में असमर्थ हैं इस कानून से आखिर कितने शरणार्थियों को लाभ पहुंचेगा जिसके लिए 133 करोड़ भारत के लोग आग में जलने के लिए मजबूर हैं। सरकारी स्तर पर जो आंकड़े सामने आए आए हैं वे यह बताते हैं कि धार्मिक प्रताड़ना के आधार पर जो लोग इस कानून के लागू होते ही लाभ उठा सकते हैं उनकी संख्या 31313 है ।इन शरणार्थियों में 25 हजार 447 हिंदू 5807 सिख, 55 ईसाई दो बुद्धिस्ट तथा मात्र दो पारसी शामिल हैं । यानी केवल 31313 शरणार्थियों को लाभ पहुंचाने के लिए पूरे देश को पक्ष और विपक्ष में बांट दिया गया है और यह भावना स्थापित कर दी गई है कि मुसलमान को इस देश में अब द्वितीय स्तर पर ही रखा जा सकता है । ऐसा नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने इसके पहले मुसलमानों को देश की नागरिकता नहीं दी है। अभी ताजातरीन मामले में पाकिस्तानी पायलट अरशद सामी जिन्होंने भारत पर 65 के युद्ध में बम बरसाए थे ,के पाकिस्तानी बेटे अदनान सामी को जो मुसलमान भी हैं को भारत की नागरिकता प्रदान की गई ही गई बल्कि ताबड़तोड़ आज देश के सर्वोच्च सम्मान पद्मश्री से भी नवाज दिया गया है । अगर देश की भावना कानून के साथ बताई जाती है तो सवाल उठता है कि अदनान सामी को विशेष रुप से प्राथमिकता के आधार पर यह नागरिकता क्यों दी गई? और अगर सरकार के दृष्टि में हिंदू मुसलमान जैसा कोई भेद नहीं है तो कानून में एक शब्द ष्मुसलमानों को छोड़करष् क्यों लागू किया गया है यहीं से शंका और कुशंका का वातावरण बनना शुरू हुआ है । देश को यह जानना चाहिए कि समय-समय पर देश में नागरिकता प्रदान करने के अधिकारों को भी नीचे की नौकरशाही तक भेजा गया है । 2004 में 1965 एवं 1971 के युद्ध में विस्थापित हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता देने के मामले में गुजरात एवं राजस्थान के छह कलेक्टरों को नागरिकता प्रदान करने के अधिकार दिए गए थे ।बाद में ये अधिकार 2005 तक और फिर 2006 तक बढ़ाये गये । इसका मतलब है कि नागरिकता देने ना देने के मामले में देश में कभी भी विवाद की स्थिति नहीं रही और वर्तमान कानून में अगर मुसलमानों को छोड़कर शब्द का प्रयोग न किया गया होता तो यह कानून भी देश ने स्वीकार कर लिया होता । एक तथ्य और ध्यान आकर्षित करता है कि 2014 से मोदी जी की इसी सरकार ने 2830 पाकिस्तानियों को 912 अफगानिस्तानियों को और 172 बांग्लादेशियों को भारत की नागरिकता प्रदान की है जिनमें हजारों मुसलमान है तब अचानक 2020 में मुसलमानों से इस नये व्यवहार के पीछे सरकार की क्या मंशा है यह तो देश जानना ही चाहेगा।
सरकारी अफसरों ने अलग-अलग समय पर यह बताया है कि नागरिकता संशोधन कानून का उद्देश्य उन शरणार्थियों के लिए एक एक ऐसा मैकेनिज्म तैयार करना है जो अन्यथा अवैध आब्रजन यानी ष्इल्लीगल इमीग्रेंटष् कहलाते हैं जिनके पास ऐसे दस्तावेज नहीं होते जिससे वह भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन कर सकें । अब इस कानून के बाद उन्हें इल्लीगल इमीग्रेंट्स नहीं माना जाएगा एवं उनके दस्तावेजों की विस्तृत जांच किए बिना वह ना केवल भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन कर सकेंगे बल्कि नागरिकता प्राप्त करने के अधिकारी भी बन जाएंगे सबसे बड़ी बहस यही है कि जो आर्टिकल 14 में संविधान रेखांकित करता है वह यह कि भारत का कोई भी कानून धार्मिक जातिगत या भाषाई अथवा नस्ली आधार पर किसी भी व्यक्ति से भेदभाव नहीं करेगा ना ही विशेष धार्मिक ग्रुपों को पसंद या नापसंद करेगा । केवल मुसलमानों को इस कानून के तहत इस सूची से बाहर रखने का उद्देश्य स्वतः आर्टिकल 14 के उद्देश्यों की अवहेलना करता है।
यह ध्रुवीकरण नहीं, धुंआकरण है
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
एक पुरानी कहावत है कि प्रेम और युद्ध में किसी नियम-कायदे का पालन नहीं होता। मैं सोचता हूं कि यह कहावत सबसे ज्यादा लागू होती है हमारे चुनावों पर ! चुनाव जीतने के लिए कौन-सी मर्यादा भंग नहीं होती ? कोई भी प्रमुख उम्मीदवार यह दावा नहीं कर सकता कि उसने चुनाव-अभियान के लिए अंधाधुंध पैसा नहीं बहाया है। चुनाव आयोग द्वारा बांधी गई खर्च की सीमा का उल्लंघन कौन प्रमुख उम्मीदवार नहीं करता ? शराब, नकदी और तरह-तरह के तोहफों का अंबार लगा रहता है। दिल्ली में आजकल जो चुनाव-अभियान चल रहा है, उसमें उक्त मर्यादा-भंग तो हो ही चुका है लेकिन कुछ नेताओं ने ऐसे बोल बोले हैं, जो उनकी अपनी प्रतिष्ठा को तो धूमिल करते ही है, उनकी पार्टी को भी बदनाम करते हैं। वे बयान भारतीय राजनीति को उसके निम्नतम स्तर पर ले जाते हैं। राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर और भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा, दोनों ही युवक मुझे प्रिय हैं। इन दोनों के पिताजी मेरे मित्र रहे हैं। दोनों का व्यक्तित्व आकर्षक है लेकिन मेरी समझ में नहीं आता कि दोनों ने ऐसी बातें कैसे कह दीं, क्यों कह दीं ? ‘देश के गद्दारों को, गोली मारो इन सालों’ को और ‘ये लोेग तुम्हारे घरों में घुसकर बलात्कार करेंगे’- यह सब कहने या नारे लगवाने का अर्थ क्या है ? इन दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस बयान की तुक क्या है कि यदि युद्ध हुआ तो हम पाकिस्तान को 7 से 10 दिन में धूल चटा सकते हैं ? गृहमंत्री अमित शाह और कुछ अन्य भाजपा नेता ‘शाहीन बागों’ को पाकिस्तान कह रहे हैं। ऐसी उग्रवादी बातें, क्या इसलिए की जा रही हैं कि हिंदू-मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण हो जाए ? क्या अब भाजपा का आखिरी सहारा पाकिस्तान और मुसलमान ही बचे हैं ? क्या वे ही अब एक मात्र ब्रह्मास्त्र बचे हैं, जो केजरीवाल पर चलाए जा रहे हैं ? भाजपा के नेताओं ने दिल्ली की जनता को इतना बेवकूफ क्यों समझ रखा है ? यह हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण नहीं, धुंआकरण है। यह सांप्रदायिक धुंआकरण आखिरकार भारत के लिए दमघोंटू सिद्ध हो सकता है। भाजपा को चाहिए था कि उसकी केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों ने जो उत्तम काम किए हैं, उनका वह प्रचार करती और दिल्लीवालों को बेहतर सरकार देने का वादा करती। उसके पास दिल्ली में मुख्यमंत्री के लायक कोई नेता नहीं है तो इसका नतीजा यह भी होगा कि दिल्ली के चुनाव के बाद अरविंद केजरीवाल, राष्ट्रीय स्तर पर शायद नरेंद्र मोदी के खिलाफ उभर आए और प्रधानमंत्री पद की चुनौती बन जाए।
कैसा होगा बजट…..?
ओमप्रकाश मेहता
भारत की अर्थव्यवस्था अब अन्तर्राष्ट्रीय चर्चा का विषय बन चुकी है, यद्यपि यह सही है कि विश्वव्यापी मंदी का दौर है, जिसका सहारा लेकर भारत सरकार अब तक अपनी कमजोरी छुपाती आ रही है, किंतु भारत की अर्थव्यवस्था व मौजूदा स्थिति को लेकर विश्व के कई देशों ने चिंता अवश्य व्यक्त की है इसी बीच अमेरिका की प्रमुख बैंक आॅफ अमेरिका ने भारत की अर्थव्यवस्था अच्छी बताकर यहां की सरकार के प्रति संवेदना व्यक्त की है। जिस देश के आर्थिक कुप्रबंधन से किसान व आम मजदूर तक प्रभावित हो, उस देश की आर्थिक स्थिति क्या होगी? यह किसी से भी छुपा नहीं है। इसका संभवतः एक प्रमुख कारण यह भी है कि इस सरकार में आर्थिक विषयों का विशेषज्ञ कोई नहीं है, जब तक स्व. अरूण जेटली वित्तमंत्री रहे तब तक देश का आर्थिक प्रबंधन फिर भी ठीक रहा, क्योंकि वे चाहे अर्थशास्त्री नहीं थे, किंतु उनका संसदीय आर्थिक अनुभव उनके मंत्रित्वकाल में उनके बहुत काम आया, किंतु उनके निधन के बाद वित्तमंत्री पद का उनका उत्तराधिकारी आर्थिक मामलों के ज्ञान में शून्य प्रतीत हुआ और देश के नए आर्थिक वर्ष की बजट की जिम्मेदारी भी अक्षम वित्तमंत्री के हाथों में चली गई इसीलिए स्वयं प्रधानमंत्री को सभी जरूरी काम छोड़कर बजट की जिम्मेदारी सम्हालनी पड़ी, यहाँ तक कि बजट संसद में पेश होने तक उन्होंने दिल्ली के चुनाव प्रचार में भी हिस्सा नहीं लिया। अर्थात् इस विभाग से जुड़े मंत्री व अफसर हलवा खाते रहे और प्रधानमंत्री जी बजट तैयार करते रहे।
आज जो देश में मंदी, महंगाई और बेरोजगारी का आलम है, उसे देखकर नए बजट को लेकर आमतौर पर पूरे देश में भय और उत्सुकता का वातावरण व्याप्त है, बजट राहत वाला होगा या संकट पैदा करने वाला? इसी का उत्तर जानने को हर कोई उत्सुक है, रोजगार के लिए पेरशान देश का युवा वर्ग भी इसी चिंता में है कि उसे भी बजट में कुछ रोजगार के अवसर मिल पाएगंे या नहीं? किसान, मजदूर, नौकरीपेशा, व्यापारी कुल मिलाकर सभी वर्गों के लोगों को बजट की काफी उत्सुकता से प्रतीक्षा है।
वैसे आर्थिक समीक्षकों का बजट पूर्व अनुमान है कि नए आर्थिक वर्ष (2020-21) का बजट पिछले दस सालों का सबसे मुश्किलों भरा बजट होगा क्योंकि पिछले सत्रह सालों में भारत में निवेश सबसे अधिक सुस्त है। साथ ही पिछले ग्यारह साल में सबसे कम जीडीपी ग्रोथ है, देश की खुदरा महंगाई 7.35 फीसदी तक पहुंच गई है जो पिछले साढ़े पांच साल (मोदी जी के प्रधानमंत्रित्व काल) की सबसे अधिक है, महंगी दाल के अभाव में सब्जी पर निर्भर रहने वाले लोगों के लिए सब्जी के दामों में 65 फीसदी तक इजाफा हो चुका है। खाने-पीनें की वस्तुओं की महंगाई दर 14.12 प्रतिशत बढ़ चुकी है, इस प्रकार महंगाई के कारण देश का आम नागरिक हलाकान हो चुका है। अब ऐसे में सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती बढ़ी हुई मुद्रा स्फीति दर के चलते कमजोर मांग का मुद्दा है। ऐसे में मांग और पूर्ति के बीच संतुलन बनाकर रखना सबसे बड़ी चुनौति है। आमतौर पर मांग में इजाफें के लिए रिजर्व बैंक की ओर से दरों में कटौती की जाती है, परंतु उपभोक्ता महंगाई दर के पहले से ही 7.4 प्रतिशत के स्तर पर होने के चलते केन्द्रीय बैंक के लिए ऐसा करना मुश्किल प्रतीत हो रहा है।
फिर सराकारी आंकड़ों के मुताबिक ही पिछले सत्रह सालों में वित्त वर्ष 2020 में इन्वेस्टमेंट की ग्रोथ का अनुमान महज एक फीसदी का ही है, अब तक सरकार मुश्किल दौर में निवेश के द्वार खोलकर अर्थव्यवस्था को रफ्तार देती रही है, अब यही देखना होगा कि निवेश बढ़ाने के लिए सरकार कैसे व क्या कदम उठाती है, ऐसी आर्थिक स्थिति में सरकार के पास काॅर्पोरेट टेक्स का मुख्य सहारा रहता है, लेकिन मौजूदा स्थिति में ऐसा करने पर कारोबारी माहौल पर भी विपरित असर पड़ने की संभावना है, ऐसे में सरकार को इस रास्ते पर आगे बढ़ने से पहले काफी चिंतन की जरूरत पड़ेगी। उल्लेखनीय है कि पिछले बजट में भी काॅर्पोरेट टेक्स में इजाफे में ऐलान के बाद सरकार को अपने कदम पीछे खींचना पड़े थे। जहां वैयक्तिक आयकर का सवाल है इसमें हम आम व खास वर्ग के लोग हर साल बजट के पूर्व राहत की उम्मीद जताते है, ऐसी ही उम्मीद इस साल भी जताई जा रही है, खासकर मध्यम व निम्न आय वर्ग द्वारा और हो सकता है सत्तारूढ़ दल द्वारा अपनी ओर जनविश्वास बढ़ाने के लिए इस तरफ कुछ कदम बढ़ा भी सकती है, लेकिन ऐसा होने पर राजकोषीय घाटे में इजाफा होना निश्चित है, जिसकी पूर्ति सरकार किस माध्यम से कर पाएगी, यह चिंता का विषय होगा। सरकार को इसके साथ ही ‘स्टाॅर्टअप्स’ के लिए कारोबारी सुगमता भी और बढ़ानी होगी, क्योंकि नई तकनीकों के सहारे आगे बढ़ रहे ‘स्टाॅर्टअप्स’ को भी बजट से काफी उम्मीदें है। उनका मानना है कि सरकार ने ‘स्टाॅर्टअप्स’ को सहूलियतें देने के लिए अब तक कई कदम उठाए है, लेकिन इसे और बढ़ावा देने के लिए नियमों के ढांचे का और अधिक सहज व सरल बनाया जाना जरूरी है।
इस प्रकार कुल मिलाकर देश का हर आम व खास वर्ग नए बजट को काफी उम्मीद भरी नजरों से देख रहा है, अब नया बजट सुखद होगा या दुःखद यह तो दो-एक दिन बाद ही पता चलेगा, किंतु यह सही है कि बजट को लेकर सत्तारूढ़ पार्टी को नई उम्मीद की आस है, वहीं देश के आम नागरिक को अपनी विपदाओं से मुक्ति की आस है।
यूरोप में भारत-विरोध
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यूरोपीय संघ की संसद में अब भारत की डटकर भर्त्सना होनेवाली है। उसके 751 सदस्यों में से 600 से भी ज्यादा ने जो प्रस्ताव यूरोपीय संसद में रखे हैं, उनमें हमारे नए नागरिकता कानून और कश्मीर के पूर्ण विलय की कड़ी आलोचना की है। जिन सांसदों ने इस कानून को भारत का आतंरिक मामला माना है और भारत की भर्त्सना नहीं की है, उन्होंने भी अपने प्रस्ताव में कहा है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आनेवाले शरणार्थियों में धार्मिक भेद-भाव नहीं किया जाना चाहिए। मेरी खुद की राय भी यही है लेकिन मैं यह भी मानता हूं कि यूरोपीय संसद को किसी देश के आंतरिक मामले में टांग अड़ाने का कोई अधिकार नहीं है। वहां ये प्रस्ताव शफ्फाक मुहम्मद नामक एक पाकिस्तानी मूल के सांसद के अभियान के कारण लाए जा रहे हैं। इसीलिए इन प्रस्तावों में भारत-विरोधी अमर्यादित भाषा का प्रयोग किया गया है। हमारे लोकसभा-अध्यक्ष ओम बिड़ला ने इस संबंध में यूरोपीय संघ के अध्यक्ष को पत्र भी लिखा है। मान लें कि यूरोपीय संसद इन प्रस्तावों को पारित कर देती है तो भी क्या होगा ? कुछ नहीं। भारत की संसद भी चाहे तो यूरोपीय संसद के विरुद्ध प्रस्ताव पारित कर सकती है लेकिन हम भारतीयों को यूरोपीय लोगों की एक मजबूरी को समझना चाहिए। हिटलर के जमाने में यहूदियों पर जो अत्याचार हुए थे, उनसे आज भी कांपे हुए यूरोपीय लोग दूसरे देशों की घटनाओं को उसी चश्मे से देखते हैं। वे भारत की महान और उदार परंपरा से परिचित नहीं हैं। इस समय यूरोपीय देशों के साथ भारत का व्यापार सबसे ज्यादा है। मार्च में भारत और यूरोपीय संघ की शिखर-बैठक होनेवाली है। कहीं ऐसा नहीं हो कि दोनों के बीच ये प्रस्ताव अड़ंगा बन जाएं। इससे दोनों पक्षों को काफी हानि हो सकती है। इसीलिए फ्रांसीसी दूतावास ने सफाई देते हुए कहा है कि यूरोपीय संसद की राय को यूरोपीय संघ की आधिकारिक राय नहीं माना जा सकता है। यदि ऐसा है, तो यह अच्छा है लेकिन भारत सरकार चाहे तो अगले सप्ताह शुरु होनेवाले संसद के सत्र में इस नए नागरिकता कानून में आवश्यक संशोधन कर सकती है।
गांधीवाद–जो जीने की कला सिखाता है
प्रो.शरद नारायण खरे
शहीद दिवस (30 जनवरी पर विशेष) “गांधीवाद” महात्मा गांधी के आदर्शों, विश्वासों एवं दर्शन से उदभूत विचारों के संग्रह को कहा जाता है, जो स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बड़े राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेताओं में से थे। यह ऐसे उन सभी विचारों का एक समेकित रूप है जो गांधीजी ने जीवन पर्यंत जिया था।
सत्य एवं आग्रह दोंनो ही संस्कृत भाषा के शब्द हैं, जो भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दौरान प्रचलित हुआ था, जिसका अर्थ होता है सत्य के प्रति सत्य के माध्यम से आग्रही होना।गांधीवाद के बुनियादी तत्वों में से सत्य सर्वोपरि है। वे मानते थे कि सत्य ही किसी भी राजनैतिक संस्था, सामाजिक संस्थान इत्यादि की धुरी होनी चाहिए। वे अपने किसी भी राजनैतिक निर्णय को लेने से पहले सच्चाई के सिद्धांतों का पालन अवश्य करते थे।
गांधीजी का कहना था “मेरे पास दुनियावालों को सिखाने के लिए कुछ भी नया नहीं है। सत्य एवं अहिंसा तो दुनिया में उतने ही पुराने हैं जितने हमारे पर्वत हैं।”सत्य, अहिंसा, मानवीय स्वतंत्रता, समानता एवं न्याय पर उनकी निष्ठा को उनकी निजी जिंदगी के उदाहरणों से बखूबी समझा जा सकता है।
कहा जाता है कि सत्य की व्याख्या अक्सर वस्तुनिष्ठ नहीं होती। गांधीवाद के अनुसार सत्य के पालन को अक्षरशः नहीं बल्कि आत्मिक सत्य को मानने की सलाह दी गयी है। यदि कोई ईमानदारी- पूर्वक मानता है कि अहिंसा आवश्यक है तो उसे सत्य की रक्षा के रूप में भी इसे स्वीकार करना चाहिए। जब गांधीजी प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान स्वदेश लौटे थे तो उन्होंने कहा था कि वे शायद युद्ध में ब्रिटिशों की ओर से भाग लेने में कोई बुराई नहीं मानते। गांधीजी के अनुसार ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा होते हुए भारतीयों के लिए समान अधिकार की मांग करना और साम्राज्य की सुरक्षा में अपनी भागीदारी न निभाना उचित नहीं होता। वहीं दूसरी तरफ द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जापान द्वारा भारत की सीमा के निकट पहुंच जाने पर गांधीजी ने युद्ध में भाग लेने को उचित नहीं माना बल्कि वहां अहिंसा का सहारा लेने की वकालत की है।
अहिंसा का सामान्य अर्थ है ‘हिंसा न करना’। इसका व्यापक अर्थ है – किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से कोई नुकसान न पहुँचाना। मन में भी किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी आदि के द्वारा भी पीड़ा न देना तथा कर्म से भी किसी भी अवस्था में, किसी भी प्राणी का कोई नुकसान न करना ।
गाँधीजी के अनसार धर्म और राजनीति को अलग नही किया जा सकता है,क्योंकि धर्म मनुष्य को सदाचारी बनने के लिए प्रेरित करता है । स्वधर्म सबका अपना अपना होता है पर धर्म मनुष्य को नैतिक बनाता है । सत्य बोलना, चोरी नहीं करना, परदु:खकातरता,दूसरों की सहायता करना आदी यही सभी धर्म सिखाते हैं । इन मूल्यों को अपनाने से ही राजनीति सेवा भाव से की जा सकेगी । गाँधीजी आडम्बर को धर्म नही मानते और जोर देकर कहते हैं कि मन्दिर मे बैठे भगवान मेरे राम नही है । स्वामी विवेकानंदजी के दरिद्र नारायण की संकल्पना को अपनाते हुए मानव सेवा को ही वो सच्चा धर्म मानते हैं । वास्तव मे उनका विश्वास है कि प्रत्येक प्राणी इश्वर की सन्तान हैं और ये सत्य है; सत्य ही ईश्वर है ।
गांधीजी सामाजिक समानता के समर्थक थे,वे मानवता व सामाजिक समरसता में विश्वास करते थे। वे अंत:करण की पवित्रता को मानता थे ।साम्प्रदायिक सद्भाव व बंधुता उनके जीवन के मुख्य तत्व थे ।वास्तव में गांधीवाद का अर्थ है -वे आदर्श जो हमें जीने की कला सिखाते हैं ।यह हक़ीक़त है कि गांधीवाद कालजयी है ।
अंत में यही कहूंगा कि–
“गांधी ने फैला दिया,सचमुच में उजियार ।
आओ हम समझें ज़रा,गांधीपथ का सार ।।”
दो खास मुसलमानों को पद्मश्री
(डॉ. वेदप्रताप वैदिक)
हर 26 जनवरी पर भारत सरकार पद्मश्री आदि पुरस्कार बांटती है। इन पुरस्कारों के लिए कई लोग दौड़-धूप करते हैं। नेताओं, अफसरों और पत्रकारों से सिफारिश करवाते हैं। उन्हें लालच भी देते हैं। लेकिन कई लोग ऐसे होते हैं, जिन्हें ये पुरस्कार देने पर सरकार खुद तुली रहती है। वे इन पुरस्कारों के लिए किसी के आगे अपनी नाक नहीं रगड़ते। जब उन्हें बताया जाता है तो ज्यादातर लोग इन पुरस्कारों को सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं और अपने आप को भाग्यशाली समझते हैं लेकिन देश में ऐसे लोग भी हैं, जो इस तरह के पुरस्कारों को लेने से मना कर देते हैं। उनका तर्क यह भी होता है कि मैं तो पुरस्कार के योग्य हूं लेकिन पुरस्कार देनेवाले की योग्यता क्या है ? ऐसे पुरस्कारों की प्रामाणिकता या प्रतिष्ठा क्या है ? खैर, इस बार दो खास मुसलमानों-अदनान सामी और रमजान खान को पद्मश्री पुरस्कार देने की घोषणा हुई। यों तो आजकल लोग इन सरकारी पुरस्कारों पर ज्यादा ध्यान नहीं देते लेकिन इन दोनों पुरस्कारों पर मेरा ध्यान भी गया। अदनान सामी अच्छे गायक हैं लेकिन उन्होंने इस पुरस्कार के लिए अपने आप को कतार में खड़ा किया होगा, इसमें मुझे शक है। यह उन्हें जान-बूझकर दिया गया होगा ? क्यों दिया गया होगा ? शायद सरकार ऐसा प्रभाव पैदा करना चाहती हैं कि वह मुसलमान-विरोधी नहीं है। यह बात रमजान खान के बारे में भी लागू होती है। उसने नए नागरिकता कानून के बहाने घर बैठे जो मुसीबत मोल ले ली है, इससे शायद उसे राहत मिलने की उम्मीद रही होगी। सामी, जिनके पिता पाकिस्तानी हैं, उन्हें भारत की नागरिकता भी दी गई है। रमजान खान का मामला तो और भी मजेदार हैं। वे अपने भरण-पोषण के लिए राजस्थान के मंदिरों और हिंदू कार्यक्रमों में भजन गाते हैं। गोसेवा भी करते हैं। ऐसे व्यक्ति को बिना मांगे पद्मश्री देकर यह हिंदूवादी सरकार अपनी उदारवादी छवि भी बना रही है लेकिन इससे लोग पूछेंगे कि रमजान खान के बेटे फिरोज खान को अपनी नौकरी क्यों छोड़नी पड़ी ? उसे बनारस हिंदू युनिवर्सिटी में संस्कृत क्यों नहीं पढ़ाने दी गई ? तब इस सरकार ने हस्तक्षेप क्यों नहीं किया ? वैचारिक दिग्भ्रम बने रहने के कारण ऐसे सही और गलत काम एक साथ होते रहते हैं।
दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार करना ही सहिष्णुता
ओमप्रकाश श्रीवास्तव
जीवन का रहस्य बताती गीता में ‘कुछ बात’
पृथ्वी को अस्तित्व में आए 4.6 अरब वर्ष बीत चुके हैं। प्रारंभ में आग का गोला जब ठंडा हुआ तो 2 लाख वर्ष पूर्व वर्तमान मानव अस्तित्व में आया। मानव ने 11 हजार वर्ष पूर्व कृषि करना सीखा और विभिन्न सभ्यताओं का विकास हुआ। आज से 5500 वर्ष पूर्व भारत की विकसित सभ्यता ने महाभारत का युद्ध लड़ा और गीता जैसा अद्भुत दर्शन और जीवन दृष्टि संसार को मिली। इसके समकालीन और उसके 4000 वर्ष बाद तक सुमेरिया, बेबिलोनिया, ईरान, मिस्र और यूनान जैसी सभ्यताएँ अस्तित्व में आईं। समय के साथ यह सभ्यताएँ या तो मिट गईं या ऐसी परिवर्तित हो गईं कि उनके मूल का अस्तित्व ही नहीं बचा। पर भारत में सारे धर्म, संप्रदाय, बोलियाँ, भाषाऍं एक साथ विकसित होती रहीं। संसार भर से भारत में जो भी आया उसे बगैर भेदभाव के आश्रय मिला, अपने धर्म और रिवाज के पालन की स्वतंत्रता मिली। भारत ने कुछ उनसे सीखा और कुछ उन्हें सिखाया। लचीलापन इतना कि कुछ उन्हें बदला और कुछ खुद भी बदल गये। आज भी भारत का अपने मूल तत्वों के साथ जीवित रहना रहस्य-सा लगता है। इसीलिए अल्लामा इकबाल ने कहा ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’। यही ‘कुछ बात’ है जिसका स्रोत 5200 वर्ष महाभारत युद्ध के समय कही गई गीता में मिलता है।
इस ‘कुछ बात’ का जवाब स्वामी विवेकानन्द शिकागो के धर्म सम्मेलन में दे चुके थे जब उन्होंने गीता का श्लोक पढ़ा जिसका अर्थ था कि विभिन्न व्यक्ति ईश्वर तक जाने के विभिन्न मार्ग अपनाते हैं परंतु अंत में सभी उस एक ईश्वर को प्राप्त होते हैं। इकबाल भी कुछ हद तक यही जवाब कुछ दूसरे ढंग से देते हैं ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना’। गीता कृष्ण व अर्जुन के बीच का वार्तालाप है। अर्जुन प्रश्न पर प्रश्न करता है और कृष्ण उसका उत्तर देते हैं। यह प्रश्न और उत्तर की श्रृंखला हमारी सभ्यता और संस्कृति की ‘कुछ बात’ को स्पष्ट कर देती है।
अर्जुन अपने संबंधियों और मित्रों को युद्ध के मैदान में देखकर घबरा गया । उसने अपनी समझ के अनुसार धर्म की व्याख्या की और धनुष बाण फेंककर रथ के पीछे बैठ गया। कृष्ण ने केवल दो श्लोक कहकर उसे प्रोत्साहित करना चाहा कि वह अपने हृदय की दुर्बलता को त्याग दे और युद्ध के लिए उठ खड़ा हो। परंतु अर्जुन ने अनेक तर्क देते हुए अपना निर्णय सुना दिया कि वह युद्ध नहीं करेगा। इस समय तक अर्जुन कृष्ण को अपना मित्र मानता था। परंतु कृष्ण साधारण मित्र नहीं थे। उन्होंने पांडवों की कदम-कदम पर मदद की थी। वह कंस वध कर चुके थे और अपनी शक्ति और कूटनीति का लोहा मनवा चुके थे। पूरे भारत खंड में ऐसा कौन था जो उस समय कृष्ण को न जानता हो। यदि कृष्ण चाहते तो अपने प्रभाव का उपयोग करके अर्जुन को युद्ध करने का आदेश दे सकते थे। कृष्ण के प्रभाव को देखते हुए अर्जुन इंकार कर ही नहीं सकता था। परंतु तब यह थोपा हुआ निर्णय होता। अर्जुन के तर्कों को न मानना और इकतरफा तौर पर अपनी बात थोपना असहिष्णुता होती। इसलिए कृष्ण ने लंबा संवाद किया।
अर्जुन भी निरंतर प्रश्न करता रहा। वह कृष्ण के आभामंडल से घबराया नहीं, उनके अहसानों का उसने संकोच नहीं किया बल्कि उनके वाक्यों से ही नए प्रश्न तैयार करता गया और पूछता गया। यहाँ तक कि उसने कृष्ण के कथनों पर शंका भी की। उसने पूछा कि आपका जन्म तो अभी हुआ है जबकि सूर्य अनादि काल से है तब आपने सूर्य को योग कैसे बताया। परंतु कृष्ण ने न तो अपना धैर्य खोया और न ही कुछ थोपने का प्रयास किया। ग्यारहवें अध्याय में अर्जुन कृष्ण को ईश्वर के रूप में पहचान लेता है, उनके प्रति श्रद्धा से नत हो जाता है फिर भी प्रश्नों की बौछार बंद नहीं करता है। सारी गीता सुना चुकने के बाद भी कृष्ण ने निर्णय अर्जुन पर छोड़ दिया और कहा कि मेरी कही बातों पर पूर्ण रूप से चिन्तन, मनन कर और – यथेच्छसि तथा कुरु – जैसी तेरी इच्छा हो वैसा कर। इसके बाद ही अर्जुन ने कहा कि मेरा संदेह दूर हो गया है और अब मैं आपके कहे अनुसार करूँगा।
यह वह ‘कुछ बात’ है जिसने भारतीय सभ्यता और संस्कृति को बनाए रखा है। भारत ने अपनी बात किसी पर थोपी नहीं है। अपनी बात बताई है, दूसरे की सुनी है और अंतिम निर्णय लेने का अधिकार सामने वाले के विवेक पर छोड़ दिया है। यदि वह सहमत है तो भी ठीक और यदि नहीं है तो भी ठीक । उसे अपना रास्ता चुनने का अधिकार है। सारे रास्ते उसी एक ईश्वर तक जाते हैं, ऐसा कहकर गीता ने धार्मिक विवादों को समाप्त दिया। इस स्वातंत्र्य ने ही विविध धर्मों, रीति-रिवाजों, भाषाओं-बोलियों, खान-पान आदि को फलने-फूलने का अवसर दिया। प्रकृति भी विविधता में ही विकसित होती है। यदि सब पौधे या जीव एक ही तरह के हो जाएँ, यदि सदैव दिन का प्रकाश ही फैला रहे, यदि मौसम एक सा हो जाए तो जीवन नष्ट हो जाएगा। दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार करना ही सहिष्णुता है। जीवन-मृत्यु, दिन-रात, सर्दी-गरमी एक दूसरे के अस्तित्व पर आधारित हैं। कोई अकेला नहीं रह सकता। गीता गूढ़ दार्शनिक तत्वों के साथ ही साथ जीवन जीने की यह कला भी सिखाती है जिसे अल्लामा इकबाल ने ‘कुछ बात’ कहा है।
(कई पुस्तकों के लेखक, वर्तमान में संचालक, जनसंपर्क मध्यप्रदेश हैं)
गणतंत्र या गर्वतंत्र ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अपने 71 वें वर्ष में भारत का गणतंत्र खुद पर गर्व करे या चिंता करे ? मैं सोचता हूं कि वह दोनों करे। गर्व इसलिए करे कि अगर हम एशिया और अफ्रीका के देशों पर नज़र डालें तो हमें मालूम पड़ेगा कि उन सब में भारत बेजोड़ देश है। इन लगभग सभी देशों के संविधान तीन-तीन चार-चार बार बदल चुके हैं, इन ज्यादातर देशों में कई बार तख्ता-पलट हो चुके हैं, इनमें कई लोकतंत्र फौजतंत्र बन चुके हैं और फौजतंत्र लोकतंत्र बनने की कोशिश कर रहे हैं, कई देश संघात्मक से एकात्मक और एकात्मक से संघात्मक बनने लगे हैं लेकिन भारत का संविधान है कि सत्तर साल गुजर जाने पर भी ज्यों का त्यों है। उसके मूल स्वरुप में कोई बदलाव नहीं हुआ है। हां 1975-77 के आपात्काल ने जरुर इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप किया था लेकिन भारत की जनता ने हस्तक्षेप करनेवालों को कड़ा सबक सिखाया था। हमारे संविधान में लगभग सवा सौ संशोधन हो गए हैं। लेकिन उसका मूल स्वरुप अक्षुण्ण हैं। उसके संशोधन उसके लचीले होने का प्रमाण हैं। दूसरी बात जो गर्व के लायक है, वह यह कि आजादी के बाद देश के पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में कई राज्य भारत से अलग होना चाहते थे। लेकिन आज नागालैंड, पंजाब, कश्मीर और तमिलनाडु में ऐसी कोई आवाज सुनाई नहीं पड़ती। भारत की संपन्नता, शक्ति और एकता पहले से अधिक बलवती हो गई है। यों भी भारत दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा देश है लेकिन अब चीन और भारत- एशिया के दो महाशक्ति राष्ट्र माने जा रहे हैं। भारत इस पर गर्व कर सकता है लेकिन सत्तर या बहत्तर साल गुजरने के बावजूद भारत में गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा और भ्रष्टाचार का बोलबाला है। भारत में आज तक एक भी सरकार ऐसी नहीं बनी है, जिसे जनता का 51 प्रतिशत वोट मिला है। वर्तमान सरकार भी सिर्फ 37 प्रतिशत वोटों से बनी सरकार है। भारत की चुनाव पद्धति में बुनियादी सुधार की जरुरत है। पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव होता जा रहा है। देश में भय, आतंक और अंविश्वास बढ़ रहा है। करोड़ों नागरिकों की बुनियादी जरुरतें पूरी नहीं हो पातीं और मुट्ठीभर लोग सपन्नता के हिमालयों पर चढ़ते चले जा रहे हैं। इसीलिए हमारा गणतंत्र गर्वतंत्र होते हुए भी चिंतातंत्र बना हुआ है।
फैशन की चाह में जीव, जंतुओं की मुश्किल हुई जीने की राह
मुकेश तिवारी
सौंदर्य सामग्री या प्रसाधन सामग्री के विकास और उत्पादन के लिए अनेक मासूम प्राणियों की बेरहमी से जान ले ली जाती है। तमाम सारे कामोत्तेजक परफ्यूम के निर्माण में कुछ प्राणियों की यौनग्रंथियों का स्त्राव इस्तेमाल किया जाता है। बिज्जू के नाम चिरपरिचित प्राणी की यौनग्रंथि का स्त्राव प्राप्त करने के लिए पहले इस प्राणी को बड़ी बेरहमी से पीटा जाता है। जिससे वह क्रोधित होकर ज्यादा से ज्यादा स्त्राव पैदा करे। फिर इस स्त्राव को किसी तेज धार वाले चाकू से खरोंच लिया जाता है। इस प्रक्रिया के दौरान बिज्जू को कठोर यातना सहने के साथ-साथ कभी-कभी अपने प्राणों की कुर्बानी तक देनी पड़ती है।
काबिलेगौर है कि इस तरह हर साल काफी बड़ी संख्या में बिज्जू सिर्फ कामोत्तेजक परफ्यूम बनाने के लिए मार दिए जाते हैं। बिज्जू जैसी ही दर्दनाक कहानी बिल्ली के परिवार के सिवेट नामक प्राणी की भी है। इस प्राणी से कस्तूरी जैसी सुंगधित ग्रंथि निकाली जाती है। यह ग्रंथि इसके पेट में मौजूद होती है। इसलिए इसका पेट काटकर ग्रंथि को निकाला जाता है। गं्रथि निकालने से पहले एक पखबाड़े तक सिवेज को लकड़ी कौंच-कौंच कर उत्त्ेजित किया जाता है, ताकि उसकी ग्रंथि में अधिक से अधिक सुगंध बन सके।
प्रकृति का इंजीनियर कहलाने वाले बीवर नामक प्राणी के शरीर से प्राप्त होने वाले तेल सौंद्रर्य प्रसाधन बनाने के काम आता है। इसकी रोहेदार खाल से चमड़े के स्टाइलिश कोट बनाए जाते हैं। गौरतलब है कि एक स्टाइलिश कोट के निर्माण के लिए चार दर्जन से अधिक बीवरों की जान ले ली जाती है। बीवर के तेल से दवाओं का निर्माण किया जाता है। इसे मादक द्रव्य की तरह भी उपयोग में लिया जाता है। कस्तूरी मृग की नाभि में छिपी अत्यंत सुगंधित कस्तूरी से तो सभी चिरपरिचित हैं। इसे निकालने के लिए मृग की नाभि काट दी जाती है। इस प्रक्रिया में भी कभी-कभी मृग की मौत हो जाती है। कराकुल नस्ल की भेड़ों की खाल बेहर कोमल व महीन रोहेदार बाल होते हैं। इस वजह से यह काफी ऊंचे दामों पर बिचती है। प्रौढ़ भेंडों़ के अलावा इनके मेमनों यहां तक कि कोख में पनप रहे भ्रूण की भी खाल उतारी जाती है। भ्रूण प्राप्त करने के लिए गर्भित भेंड़ों को कठोर यातनाएं तक दी जाती हैं। जिससे उसे गर्भपात हो जाए। भ्रूणों की खाल बाजार में बेहद ऊंचे दामों पर बिकती है। इसी तरह सील मछली की खाल की भी बाजार में खासी मांग रहती है। सील के नवजात बच्चों की खाल से बना कोट काफी ऊंचे दामों पर बिकता है। सील के नवजात बच्चों की खाल प्राप्त करने के लिए उन्हें बड़ी ही बेरहमी से मार दिया जाता है। लोहे की नोंकदार सलाई तक सिर में घौंप दी जाती है। जिससे खाल खराब न हो। एक कोट बनाने के लिए तकरीबन नौ से 10 सील शिशुओं की जान ले जाती है। कछुओं के अंगों से प्राप्त चर्बी से तेल बनाया जाता है। जिसका उपयोग सौंद्रर्य प्रसाधन सामग्री के निर्माण में होता है। वहीं सॉंप की खाल निकालने के लिए अमानवीय तरीके इस्तेमाल में किये जाते हैं। सॉंप को वृक्ष के तने पर कीले से ठोक दिया जाता है और फिर तेज धार वाले चाकुओं से चीरा जाता है। इतना ही काफी नहीं सॉंप के घोर शत्रु नेवले की खाल से भी फैशनेवल बस्तुएं बनाईं जाती हैं। फर के लिए मिंक नामक एक अन्य रोहेदार प्राणी की जान भी बड़ी बेरहमी से ले ली जाती है। यूरोप और अमेरिका की धनकुबेर महिलाएं मिंक के फर के कोट बड़ी शान से पहनती हैं। दिलचस्प बात है कि यह विश्व का सबसे मंहगा कोट माना जाता है। भांति-भांति के शेंपुओं को बाजार में उतारने से पहले शेंपू को खरगोश की ऑंख में डालकर जांचा परखा जात है। ऐसा करने से पूर्व उसे बांध दिया जाता है।
मुसलमानों की देशभक्ति ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने उन शांतिपूर्ण आंदोलनों की तारीफ की है, जो नए नागरिकता कानून के विरोध में चल रहे हैं। उनका कहना है कि इससे भारत का लोकतंत्र मजबूत हो रहा है। मैं तो इस कथन से भी थोड़ा आगे जाता हूं। मेरा कहना है कि यह आंदोलन चाहे इस गलतफहमी के आधार पर चल रहा है कि इस नए कानून से देश के मुसलमानों की नागरिकता छिन जाएगी जबकि इस कानून का संबंध सिर्फ उन मुसलमान शरणार्थियों से है, जो बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आ सकते हैं। भारत में रहनेवाले मुसलमान नागरिकों से इस कानून का कुछ लेना-देना नहीं है लेकिन वे और उनके साथ हिंदू और सिख नौजवान मिलकर जिस उत्साह से देश में प्रदर्शन कर रहे हैं, वह अपने आप में अनुपम है। इसके कई कारण हैं। पहला, तो यही कि देश में लोकतंत्र मजबूत हो रहा है। विरोध को पूरी आजादी है। दूसरा, यह आंदोलन अहिंसक है।। खून-खराबा बिल्कुल नहीं है। तीसरा, मुस्लिम महिलाएं पहली बार घर से बाहर निकल कर प्रदर्शन कर रही हैं। उनमें जागृति फैल रही है। हजार-बारह सौ साल में किसी मुस्लिम देश में भी ऐसा दृश्य कभी नहीं दिखा। चौथा, हिंदू-मुस्लिम एकता का यह प्रदर्शन भी अपूर्व है। पांचवां, मुसलमान छाती ठोक-ठोक कर कह रहे हैं कि हम उतने ही पक्के भारतीय हैं, देशभक्त हैं, जितना कि कोई और हो सकता है। इसका श्रेय भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को है। छठा, हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण का सांप्रदायिक दांव नाकाम होता दिखाई पड़ रहा है। सातवां, भाजपा के आम कार्यकर्ता भी महसूस कर रहे हैं कि उनके नेताओं ने घर बैठे यह कैसी मुसीबत मोल ले ली है ? नई सरकार ने अपने गले में यह सांप क्यों लटका लिया है? कौन से मुसलमान शरणार्थी भारत में शरण मांगने आ रहे हैं ? एक काल्पनिक भूत ने देश में कोहराम मचा रखा है।
गणतंत्र के मायने
सिद्धार्थ शंकर
गणतंत्र दिवस सात दशक की यात्रा पूरा कर चुका है। सात दशकों की यात्रा में हमारे गणतंत्र की चमक दिनोंदिन बढ़ती गई है। विश्व में भारत की पहचान आज एक सक्षम और मजबूत जनतांत्रिक देश की है। एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका ही नहीं, यूरोप के भी कई देश जो अपने यहां लोकतंत्र की जड़ जमाने में जुटे हैं, इसके लिए जरूरी सबक विकसित देशों से ज्यादा भारत से सीखना चाहते हैं। विज्ञान और टेक्नॉलजी के क्षेत्र में भारत काफी तेजी से आगे बढ़ रहा है, साथ ही विश्व स्तर पर जारी पर्यावरण रक्षा मुहिम में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहा है। भारत में सोलर एनर्जी का उत्पादन तेजी से बढ़ा है और इस मामले में हम दुनिया में अमेरिका के बाद दूसरे नंबर पर पहुंच गए हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था को पिछले कई वर्षों से दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं में गिना जा रहा है। लेन-देन की प्रक्रिया में डिजिटलाइजेशन बढऩा भी एक बड़ी उपलब्धि है। हालांकि, इसका ट्रिगर पॉइंट बनी नोटबंदी के साथ लोगों की बुरी स्मृतियां भी जुड़ी हैं। विकास प्रक्रिया में पीछे छूटने वाले वर्गों पर व्यवस्था का फोकस बढ़ा है। किसान की बेहतरी लिए आज सरकार ही नहीं, विपक्ष भी चिंतित है। महिलाओं की भागीदारी हर क्षेत्र में बढ़ी है। मामले का दूसरा पहलू यह है कि इधर हमारी व्यवस्था में कुछ दरारें उभरती दिखी हैं जो चिंता का विषय है। पहली बार नागरिकता की ऐसी परिभाषा सामने आई है जिसका संवैधानिक मूल्यों के साथ कोई मेल नहीं दिखता। सरकारी नीतियों के विरोध में उठती आवाजों को राजद्रोह बताने का चलन बढ़ा है और अल्पसंख्यक समुदायों में भय का एक तत्व भी दिखाई पड़ रहा है। बहरहाल, भारतीय गणतंत्र की यह खूबी है कि वह अपनी कमियों को पहचानकर उन्हें दूर कर लेता रहा है और यह सिलसिला आगे भी चलेगा।
अब आधुनिक भारत को ऐसी व्यवस्था की दरकार है जो बिना भेद किए गण को तंत्र के हर निर्णय में भागीदारी का अवसर दें, जन प्रतिनिधि के रूप में यह व्यवस्था तो है किंतु तंत्र को अधिक पारदर्शी होने की आवश्यकता है। यहां यह बात भी नहीं भूली जानी चाहिए कि गण और तंत्र एक दूसरे के पूरक है । गण अपने कर्तव्य को पूरा करें और तंत्र अपनी नीतियों से गण को उसके अधिकार दें और कर्तव्य पूर्ति के सरल नियम बनाए। आधुनिक भारत का निर्माण दोनों की ही सजग भागीदारी से संभव है। अब यह नहीं हो सकता कि एक तरफ आप अमेरिका के ट्रैफिक नियमों की तारीफ करें और खुद नियमों का पालन ना करें। विदेशों की जगमगाती सड़कों को देख आहें भरें और पिच्च से अपनी सड़कों पर थूक दे। भ्रष्टाचार की आलोचना करें और खुद भ्रष्टाचारी बने रहें, सोचिए राष्ट्र कोई जीवंत इकाई नहीं है उसे जीवंत इकाई आप बनाते हैं। एक भूमि के टुकड़े का परिचय वहां निवास करने वाले मनुष्यों से होता है वैसे बने जैसा देश आप चाहते हैं, पर उपदेश कुशल बहुतेरे, की तर्ज पर दूसरों में बदलाव किसी भी तरह की उन्नति और प्रगति की गति धीमी कर देता है।
अतएव वर्तमान में आवश्यकता इस बात की है कि उक्त तीनों पीढिय़ों को कैसे एक जाजम पर बैठाया जाए, ताकि भारतीय राष्ट्रीयता के तारतम्य में उक्त पीढिय़ों के बीच पारस्परिक संवाद पैदा हो सके। भारतीय राष्ट्रीयता की अस्मिता का भान कराने वाला एक बड़ा कारक हमारी स्वतंत्रता का तो है ही इसके उपरांत सदियों पुरानी हमारी सभ्यता, हमारी संस्कृति, परदु:खकातरता से लिप्त हमारी संवेदनाएं, युद्धों को टालने वाली और मानव मात्र के संदर्भ में हमारी अहिंसक विचारधाराएं, अतीत में प्रकाशित हमारे संधि प्रस्तावों के अभिलेख इत्यादि भी भारतीय राष्ट्रीयता की अस्मिता को मुस्तैदी देने वाले बड़े कारक हैं।
देश की चाबी अदालत के हाथ
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नागरिकता संशोधन विधेयक के बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने जो राय अभी दी है, उससे देश के गैर-भाजपाई राज्य नाखुश होंगे और वे सब लोग भी, जो इस कानून के विरुद्ध सारे देश में प्रदर्शन आदि कर रहे हैं। कई राज्यों ने तो नागरिकता रजिस्टर और उक्त कानून को लागू करने से मना कर दिया है। कई विधानसभाएं इस कानून के खिलाफ प्रस्ताव भी पारित कर रही हैं। ऐसी स्थिति में सब सोचते थे कि सर्वोच्च न्यायालय इस मामले पर तुरंत फैसला देगा और देश में फैला तनाव खत्म हो जाएगा लेकिन अदालत भी क्या करती ? उसके पास इस कानून के विरुद्ध 144 याचिकाएं आ गई हैं। उसके लिए यह जरुरी था कि वह सरकार के तर्क भी सुनती। बिना सरकारी जवाब को सुने वह फैसला करती तो वह भी ठीक नहीं होता। उसने अब सरकार को एक माह का समय दे दिया है। हो सकता है कि एक माह के बाद भी इस मामले पर लंबी बहस चले। इतने वक्त में हजारों शरणार्थियों को सरकार शरण दे देगी। उन्हें शरण देने से भाजपा सरकार को यह फायदा है कि वे भाजपा के आजीवन भक्त बन जाएंगे। लेकिन अदालत ने यह भी कहा है कि जरुरत पड़ने पर सरकार द्वारा दी गई नागरिकता को अवैध भी घोषित किया जा सकता है। इसी प्रकार अदालत ने त्रिपुरा और असम के अवैध नागरिकों की सुनवाई भी अलग से करने का निर्णय किया है। नागरिकता संबंधी सभी मामालों की सुनवाई के लिए उसने 5 जजों की एक संवैधानिक पीठ बनाने की भी घोषणा की है। आशा करनी चाहिए कि एक-डेढ़ माह में अदालत इस मामले में अपना अंतिम फैसला दे देगी। यदि उसका फैसला इस कानून के विरुद्ध आ गया तो सरकार की इज्जत भी बच जाएगी और आंदोलनकारी भी चुप हो जाएंगे। यदि अदालत ने इस कानून को सही ठहरा दिया तो सरकार का पक्ष भारी जरुर हो जाएगा। लेकिन देश में कोहराम भी मच सकता है। देश की युवा-शक्ति बगावत की मुद्रा धारण कर सकती है। वह ऐसे कई नए मुद्दे इजाद कर सकती है, जो सरकार का चलना भी मुश्किल कर सकते हैं। अहिंसक आंदोलन हिंसक रुप भी धारण कर सकता है। अब अदालत के हाथ में है, यह देखना कि देश में शांति और व्यवस्था भंग न हो ताकि आसन्न आर्थिक संकट का यह सरकार मुकाबला कर सके।
घोर अस्वच्छता के मध्य स्वच्छता के दावे ?
निर्मल रानी
केंद्र ही नहीं बल्कि राज्य सरकारों द्वारा भी स्वच्छता अभियान को लेकर बड़े बड़े दावे किये जा रहे हैं। जनता के ख़ून पसीने की कमाई का टैक्स का क़ीमती पैसा विकास या स्वच्छता संबंधित कार्यों में कम परन्तु इनके विज्ञापनों में व सरकार की अपनी पीठ थपथपाने में ज़्यादा ख़र्च हो रहा है। देश का विज्ञापन संबंधी कोई भी तंत्र स्वच्छता संबंधित विज्ञापनों से ख़ाली नहीं बचा है। देश के अनेक राज्यों व नगरों ने तो स्वयं ही इस बात का प्रमाणपत्र भी ले लिया है कि उनका राज्य या शहर गंदगी मुक्त हो गया है। कई नगरों व राज्यों का ये भी दावा है कि वे ‘खुले में शौच मुक्त’ हो चुके हैं। कई राज्यों में इसी स्वच्छता अभियान के तहत कई नए प्रयोग भी किये गए हैं। पूरे देश में जगह जगह कूड़ा डालने हेतु कहीं प्लास्टिक तो कहीं स्टील के कूड़ेदान लगाए गए। यह और बात है कि इनमें से अधिकांश कूड़ेदान या तो कमज़ोर होने की वजह से टूट फूट गए या चोरी हो गए। सैकड़ों करोड़ रुपए तो इस कूड़ेदान की ख़रीद में ही सरकार ने बर्बाद कर दिए।
हरियाणा जैसे राज्य में घर घर प्लास्टिक के छोटे कूड़ेदान सरकार द्वारा वितरित किये गए। शहरों व क़स्बों में कूड़े उठाने के ठेके दिए गए। कूड़ा उठाने वाला लगभग प्रतिदिन घर घर जाकर सीटियां बजाता और घरों से कूड़े उठाकर ले जाता। फिर एक दो स्थान पर पूरे शहर का कूड़ा इकठ्ठा किया जाता। फिर इन कूड़ों में सूखा व गीला,प्लास्टिक कचरा आदि अलग कर इसका निपटारा करने हेतु भेज दिया जाता। परन्तु गत कई महीनों से सरकार द्वारा वितरित किये गए कूड़ेदान, कूड़े का संग्रह करने वाले कर्मचारी की प्रतीक्षा कर रहे हैं परन्तु तीन माह से अधिक समय से कूड़ा उठाने कोई व्यक्ति नहीं आ रहा। यह व्यवस्था इसलिए की गयी थी ताकि जनता अपने घरों के आसपास के ख़ाली प्लाटों या चौक चौराहों पर कूड़ा न फेंके। अब जबकि वही कूड़ा उठाने वाला जोकि ठेका प्रणाली पर अपनी सेवाएं दे रहा था,नहीं आ रहा है,ऐसे में जनता के सामने क्या विकल्प है ? कहाँ ले जाए जनता अपने घरों का कूड़ा? यदि सरकार कूड़ा उठाने हेतु अपनाई गयी ठेका प्रणाली को सुचारु नहीं रख सकी तो इसमें जनता का क्या दोष है? आज यदि शहर की हालत देखें तो शायद पहले से भी बदतर हो रही है। जगह जगह कूड़े के ढेर पड़े रहते हैं। नालियां व नाले जाम पड़े रहते हैं। लोगों ने फिर से अपने घरों के ही आसपास कूड़ा फेंकना शुरू कर दिया है। गोया सरकार के स्वच्छता के दावों की पोल अच्छी तरह से खुल चुकी है।
केवल ठेके पर काम करने वाले ही नहीं बल्कि नियमित सफ़ाई कर्मचारी भी मोहल्लों की नालियों की सफ़ाई सुचारु रूप से नहीं कर रहे हैं। कई कई महीने तक गलियों में नाली की सफ़ाई नहीं हो पाती। अनेक लोगों ने अपने घरों के सामने की नाली की सफ़ाई स्वयं करनी शुरू कर दी है। परन्तु नाली से निकला गया गन्दा कीचड़ उठाने भी कोई नहीं आता। यदि आप इसकी शिकायत दर्ज कराईये तो शायद एक सप्ताह बाद दुबारा याद दिलाने पर कोई कर्मचारी नाली तो साफ़ कर जाएगा परन्तु वह भी निकाला गया नाली का कचरा नाली के बाहर ही ढेर करदेगा। उसे उठाने के लिए आपको पुनः शिकायत दर्ज करवानी पड़ेगी। परन्तु इस बात की कोई गारंटी नहीं कि आपकी दूसरी शिकायत पर कोई कर्मचारी आएगा भी या नहीं। हाँ शिकायत करने पर आने वाला कर्मचारी अपना काम पूरा करने से पहले ही आपसे इस बात के लिए हस्ताक्षर ज़रूर करा लेता है कि आपकी शिकायत का निवारण कर दिया गया है। अब यदि आप इसी सफ़ाई कर्मचारी से यह पूछें कि महीनों से सफ़ाई कर्मी लापता क्यों है तो जवाब मिलेगा की ‘अधिकारियों ने बड़े नालों की सफ़ाई के लिए अधिकांश कर्मचारी तैनात कर दिए हैं’। इसका सीधा सा अर्थ है कि सरकार के पास काम ज़्यादा है जबकि कर्मचारी कम। ऐसे में क्या यह ज़रूरी नहीं कि विज्ञापनों के माध्यम से अपनी पीठ पथपथपाने पर पैसे ख़र्च करने के बजाए कर्मचारियों की भर्ती पर पैसे ख़र्च हों ? क्या यह ज़रूरी नहीं कि बेतहाशा ख़रीद फ़रोख़्त करने व फ़ुज़ूल के निर्माण कार्यों पर पैसे ख़र्च करने की जगह कर्मचारियों की संख्या बढ़ाई जाए? ठेके पर कूड़ा उठाने की व्यवस्था जनता पर इसलिए और भी भारी पड़ रही है कि हरियाणा सरकार द्वारा अनेक नगरवासियों से 40 रूपये प्रति माह के दर से तीन वर्षों के पैसे यानी 480 रूपये प्रतिवर्ष के हिसाब से 1440 रूपये पेशगी वसूल कर लिए गए हैं। इसके लिए सरकार ने यह नियम बनाया है कि यदि आपको अपने किसी कार्य के लिए नगरपालिका से अनापत्ति प्रमाण पत्र चाहिए तो आपको नगरपालिका के सारे बक़ाया टैक्स व बक़ाया सफ़ाई शुल्क आदि देने होंगे। अब ज़रा सोचिये कि सफ़ाई वाला या कूड़ा उठाने वाला तो आ नहीं रहा है परन्तु आपको उसका शुल्क ज़रूर देना पड़ेगा। अन्यथा अनापत्ति प्रमाण पत्र नहीं मिल सकेगा। सरकार की इस प्रकार की नीतियों से स्पष्ट है कि सरकार का ध्यान जनहित में नहीं बल्कि विज्ञापनों के भ्रमजाल फैलाने में लगा है। सरकार के पास अपने देशवासियों को स्वच्छ वातावरण उपलब्ध करने की क्षमता तो दिखाई नहीं देती परन्तु विदेशियों को नागरिकता देकर वोट की राजनीति करने में अपना पूरा ध्यान ज़रूर लगा रही है। इस समय देश को फ़ुज़ूल की बहसों में बिकाऊ मीडिया ने इतना उलझा दिया है कि न तो कोई सफ़ाई के विषय पर बात हो रही है न ही मंहगाई जैसे जनसरोकार से जुड़े सबसे महत्वपूर्ण विषय पर। पूरे देश को मंदिर,एन आर सी और सी ए ए के खेल में उलझा दिया गया है जबकि पूरे देश में आवारा पशुओं का आतंक फैला हुआ है। रोज़ाना दर्जनों दुर्घटनाएं सड़कों पर घूमते सांड़ों व गायों की वजह से हो रही हैं। गौ माताएं कूड़े के ढेरों की ‘शोभा’ बढ़ा रही हैं। लगभग हर प्लाट या मैदान गार्बेज डंपिंग ग्राउंड बना पड़ा है जहाँ सांड़ व गायों द्वारा प्लास्टिक का कचरा खाया जा रहा है। परन्तु सरकारों को न कूड़े के रूप में फैली गंदगी से मतलब न ही गौमाता की दुर्दशा से कोई वास्ता,न बीमारी फैलने का कोई भय। बस केवल विज्ञापन या झूठा गऊ प्रेम दिखाकर स्वयं को भारतीय संस्कृति का रखवाला बताना ही इनका उद्देश्य रह गया लगता है। निश्चित रूप से सरकार द्वारा घोर अस्वच्छता के मध्य स्वच्छता के दावे किये जा रहे हैं।
विषमता पर प्रतिबंध क्यों नहीं ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आज आई आक्सफोम की एक रपट ने मुझे चौंका दिया। उसके मुताबिक भारत के एक प्रतिशत अमीरों के पास देश के 70 प्रतिशत लोगों से ज्यादा पैसा है। ज्यादा याने क्या ? इन एक प्रतिशत लोगों के पास 70 प्रतिशत लोगों के पास जितना पैसा है, उससे चार गुना ज्यादा है। सारी दुनिया के हिसाब से देखें तो हाल और भी बुरा है। दुनिया के 92 प्रतिशत की संपत्ति से दुगुना पैसा दुनिया के सिर्फ एक प्रतिशत लोगों के पास है। दूसरे शब्दों में दुनिया में जितनी अमीरी बढ़ रही है, उसके कई गुने अनुपात में गरीबी बढ़ रही है। भारत में हमारी सरकारें कमाल के आंकड़े उछालती रहती हैं। वे अपनी पीठ खुद ही ठोकती रहती हैं। वे दावे करती हैं कि इस साल में उन्होंने इतने करोड़ लोगों को गरीबी रेखा के ऊपर उठा दिया है। इतने करोड़ लोगों में साक्षरता फैला दी है लेकिन दावों की असलियत तब उजागर होती है, जब आप शहरों की गंदी बस्तियां और गांवों में जाकर आम आदमियों की परेशानियों से दो-चार होते हैं। आप पाते हैं कि भारत के शहरी, शिक्षित और ऊंची जातियों के 20-25 करोड़ों लोगों को आप छोड़ दें तो 100 करोड़ से भी ज्यादा लोगों के पास रोटी, कपड़ा, मकान, चिकित्सा और शिक्षा की न्यूनतम सुविधाएं भी नहीं है। सच्चाई तो यह है कि इन्हीं वंचित लोगों के खून-पसीने की कमाई से देश में बड़ी पूंजी पैदा होती है और उस पर मुट्ठीभर लोग कब्जा कर लेते हैं। समाजवाद इसी बीमारी का इलाज था लेकिन वह भी प्रवाह पतित हो गया। अब समाजवाद के पुरोधा देश भी पूंजीवाद और उपभोक्तावाद के चेले बन गए हैं। इस समय देश को आर्थिक प्रगति की जितनी जरुरत है, उससे ज्यादा जरुरत आर्थिक समानता की है। यदि संपन्नता बंटेगी तो लोग ज्यादा खुश रहेंगे, स्वस्थ रहेंगे। वे ज्यादा उत्पादन करेंगे। उनमें आत्मविश्वास बढ़ेगा। सरकार चाहे तो पूरे देश में नागरिकों की आमदनी में, वेतन में, खर्च में एक और दस का अनुपात बांध दे। फिर देखें कि अगले 5-10 साल में ही चमत्कार होता है या नहीं ?
क्या म.प्र. पुलिस की शाख खत्म की राजेन्द्र चतुर्वेदी ने?
नईम कुरेशी
मध्य प्रदेश यूँ तो उत्तर भारत के राज्यों में शांति का टापू जैसा कहा व माना जाता था पर 95-96 के बाद ये कहना गलत हो चुका था कि ये शांति का टापू है और यहां सामाजिक न्याय का पक्ष भी कभी लिया जाता था। इन्दौर के पन्नालाल, रामलाल वर्मा से लेकर ग्वालियर में आशिफ इब्राहीम जैसे चन्द पुलिस कप्तान रहे थे जो न्याय का पक्ष लेने में सियासी बॉसों से डरते नहीं थे। जबसे राजेन्द्र चतुर्वेदी जैसे भ्रष्ट पुलिस अधीक्षक साहेबान म.प्र. में आये तब से यहां पुलिस की साख पर दाग लगने शुरू हो गये थे। राजेन्द्र चतुर्वेदी को भ्रष्टाचार के मामले में हाल ही में भोपाल की एक अदालत 5 साल की सजा सुना चुकी है, वो अब जेल में हैं। हैरत की बात है कि राजेन्द्र चतुर्वेदी शुरू से ही भ्रष्टाचार करने वाले बद्मिज़ाज अफसर रहे थे फिर भी वो ग्वालियर, भिण्ड, छतरपुर, सागर जैसे बड़े व संवेदनशील जिलों में कप्तान बनाकर रखे गये थे।
राजेन्द्र चतुर्वेदी जहां बद्मिज़ाज थे वहीं उनकी खासियत ये भी थी कि वो बहादुर भी रहे थे। उन्होंने डकैतों खासतौर से मलखान सिंह व फूलनदेवी को मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के सामने आत्मसमर्पण कराने के लिये जोखिम भी उठाया था। इनाम के तौर पर मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने उन्हें ग्वालियर का पुलिस कप्तान बना दिया था जहां वो महज 6 माह ही टिक पाये थे। उनकी कप्तानी के दौरान पुलिस प्रशासन में उनकी पत्नी दीपा का काफी हाथ रहता था। थानेदारों की पदस्थापना में वो दखल देती रहती थीं। आला अफसरों तक को अपनी सियासी पहुंच का रौब भी दीपा बताती थीं। नतीजे में उन्हें ग्वालियर से हटाकर छोटे से जिले छतरपुर, सागर आदि भेजा जाता रहा था। उनके लगातार किस्से कहानियां अखबारों में छपते फिर भी सरकार उन पर चतुर्वेदी सरनेम के कारण महरबान बनी रही। 12 विभागीय जांचों के बाद भी उन्हें लगातार पदोन्नतियां दे दी गइऔ जहां मात्र एक दो विभागीय जांचों के चलते दलित आय.पी.एस. बनी सिंह, एस.आर. चौधरी को सरकार ने एक भी पदोन्नतियां नहीं दी थीं।
राजेन्द्र चतुर्वेदी पर प्रदेश सरकार की लगातार कृपा इतने खराब रिकॉर्ड के बाद भी बनी रही। कुछ आला अफसरान भी उन पर कृपा बनाये हुये थे। आखिर क्यों ये अब जांच का विषय होना चाहिये। इन्ही जैसे अफसरों ने मध्य प्रदेश पुलिस की साख आम जनता में नीलाम कर डाली थी वरना मध्य प्रदेश में पुलिस भी, आम प्रशासन भी उत्तर प्रदेश, बिहार की तुलना में काफी बेहतर माना जाता रहा था। प्रदेश में कलेक्टर के तौर पर ग्वालियर के कलेक्टर शिवराज सिंह, पी.नरहरि, राकेश श्रीवास्तव की लोकप्रियता किसी सियासतदां से भी ऊपर रही थी। इन्दौर में डॉ. भागीरथ प्रसाद भी लोकप्रिय कलेक्टर रहे थे। भिण्ड में होशियार सिंह को भी लोकप्रिय व आम आदमी का खास आदमी बताया गया था।
नेहरू भी ले जा चुके हैं म.प्र. से अफसर
मध्य प्रदेश में जहां प्रकाशचन्द्र सेठी, अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह लोकप्रिय कलेक्टर रहे थे वहीं सखलेचा व सुन्दर लाल पटवा भी जनता के लिये अच्छे काम वाले नेता कहे गये थे। मध्य प्रदेश से ही जवाहरलाल नेहरू दिल्ली के विकास हेतु भोपाल के कमिश्नर सहाय को तत्कालीन मुख्यमंत्री डी.पी. मिश्रा की सलाह पर ले जा चुके थे। मध्य प्रदेश में एम.एन. बुच, जी.एन.बुच से लेकर सुषमानाथ, सुधीरनाथ व अजयनाथ साहब गज़ब के ईमानदार अफसरान रह चुके हैं। अजयनाथ ने कमाल का काम आम लोगों के लिये ग्वालियर, रायपुर कलेक्टर के तौर पर किया था। उन्हें उच्चशिक्षा के आयुक्त के तौर पर भी काफी सराहा जा चुका था।
मध्य प्रदेश में आमतौर से 40 फीसदी गरीब आदिवासी दलित व कमजोर तब्कों के मुसलमान व पिछड़ी जातियों के दबे कुचले लोग रहते आ रहे हैं। यहां का संवेदनशील प्रशासन ही यहां के गरीबों की लाठी रही थी पर बीच में 20 सालों में संवेदनशील प्रशासन कुछ कम रहा था कहीं कहीं गायब भी था पर अब कुछ संवेदनशीलता प्रशासन में बढ़ी लगती है जबसे माफियाओं के खिलाफ प्रदेश सरकार ने मुहिम चलाई है। मिलावटखोरों पर कुछ अंकुश लगता दिखाई दे रहा है। अस्पतालों के कहीं-कहीं हालात भी सुधरे हैं व अभी भी स्कूलों पर कुछ खास असर नहीं दिखाई दे रहा है। सिफारसी शिक्षक सियासतदां के संरक्षण में 50 फीसदी तक स्कूलों से गायब देखे जाते रहे हैं। कुछ अच्छे लोगों को अभी भी वल्लभ भवन में बिठाकर रखा गया है जो काबिल आय.ए.एस. हैं उन्हें फील्ड में तैनात नहीं किया जा रहा है। ऐसे लोग दलित व पिछड़े ज्यादा हैं। कमलनाथ व राजा दिग्विजय सिंह को इस तरफ देखना होगा वरना पहले की सरकार में और आज की सरकार में फर्क ही क्या होगा। अभी पिछली सरकारों के दौर में मलाई काट रहे संघ परिवार से जुड़े लोग मौजूद देखे जा रहे हैं, उन्हें हटाया नहीं जा रहा है।
मस्जिद में हिंदू विवाह
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
केरल के कायमकुलम कस्बे के मुसलमानों ने सांप्रदायिक सदभाव की ऐसी मिसाल कायम की है, जो शायद पूरी दुनिया में अद्वितीय है। उन्होंने अपनी मस्जिद में एक हिंदू जोड़े का विवाह करवाया। निकाह नहीं, विवाह ! विवाह याने हिंदू रीति-रिवाज के अनुसार मंत्र-पाठ, पूजा, हवन, द्वीप-प्रज्जवलन, मंगल-सूत्र आदि यह सब होते हुए आप यू-टयूब पर भी देख सकते हैं। शरत शशि और अंजु अशोक कुमार के इस विवाह में आये 4000 मेहमानों को शाकाहारी प्रीति-भोज भी करवाया गया। विवाह के बाद वर-वधु ने मस्जिद के इमाम रियासुद्दीन फैजी का आशीर्वाद भी लिया। चेरावल्ली मुस्लिम जमात कमेटी ने वर-वधु को 10 सोने के सिक्के, 2 लाख रु. नकद, टीवी, फ्रिज और फर्नीचर वगैरह भी भेंट में दिए। इस जमात के सचिव नजमुद्दीन ने बताया कि वधु अंजू के पिता अशोक कुमार उनके मित्र थे और 49 वर्ष की आयु में अचानक उनका निधन हो गया था। खुद नजमुद्दीन गहनों के व्यापारी हैं और अशोक सुनार थे। अशोक की पत्नी ने अपनी 24 साल की बेटी अंजू की शादी करवाने के लिए नजमुद्दीन से प्रार्थना की। उनकी अपनी आर्थिक स्थिति काफी नाजुक थी। नजमुद्दीन को मस्जिद कमेटी ने अपना पूरा समर्थन दे दिया। और फिर यह कमाल हो गया। इस काम ने यह सिद्ध कर दिया है कि हमारे देश का मलयाली समाज कितना महान है, कितना दरियादिल है और उसमें कितनी इंसानियत है ! ऐसे ही विवाह या अन्य संस्कार हमारे मंदिरों, गिरजों और गुरुद्वारों में क्यों नहीं हो सकते ? यदि ये भगवान के घर हैं तो फिर ये सबके लिए क्यों नहीं खुले हुए हैं ? यदि ईश्वर सबका पिता है तो पूरा मानव-समाज एक-दूसरे के रीति-रिवाजों का सम्मान क्यों नहीं कर सकता ? लेकिन दुर्भाग्य यह है कि मजहब के नाम पर सदियों से निम्नतम कोटि की राजनीति होती रही है। धर्म-ध्वजियों या मजहबियों ने अपने बर्ताव से यह सिद्ध कर दिया है कि ईश्वर मनुष्यों का पिता नहीं है, मनुष्य ही ईश्वर के पिता हैं। मनुष्यों ने अपने-अपने मनपसंद भगवान घड़ लिये हैं और उन्हें वे अपने हिसाब से आपस में लड़ाते रहते हैं। उन्हें एक-दूसरे से ऊंचा-नीचा दिखाते रहते हैं। मस्जिद में हिंदू विवाह करवाकर मलयाली मुसलमानों ने सिद्ध कर दिया है कि वे पक्के मुसलमान तो है ही, पक्के भारतीय भी है। वे ऊंचे इंसान हैं, इसमें तो कोई शक है ही नहीं।
छपाक, छपास और विवाद
अनिल बिहारी श्रीवास्तव
दो शब्द हैं, छपाक और छपास। इनका उपयोग बहुत आम है। इन दिनों दोनों ही मीडिया में खासा स्पेस बटोर रहे हैं। ऐसे त्रिभुज की कल्पना करें जिसके तीन कोण छपाक, छपास और दीपिका हैं। दीपिका पादुकोण की ताजा फिल्म छपाक है। दीपिका हिंदी फिल्मों की लोकप्रिय अभिनेत्रियों में हैं, स्वाभाविक है कि छपाक की चर्चा होगी। बाक्स आफिस पर इसके रुतबे का फैसला अवश्य समय करेगा। अब सवाल यह है कि दीपिका और छपास के बीच क्या संबंध है? हाल ही में मीडियाई बहसों में छपास शब्द की धूम देखी गई। छपाक के रिलीज से पहले प्रमोशन कैम्पेन पर निकलीं दीपिका पादुकोण जेएनयू में हिंसक घटना के विरोध में छात्रों के एक वर्ग की सभा में जा पहुंचीं। इसके बाद बहसों में छपास शब्द गूंजने लगा। कुछ लोगों को सभा में दीपिका के जाने पर कोई बुराई नहीं दिखी। वो उनके साहस पर दाद दे रहे हैं। एक अन्य वर्ग मानता है कि दीपिका ने जाने-अनजाने में टुकड़े-टुकड़े गैंग का हौसला बढ़ाया है। इधर, बहिष्कार और समर्थन के आह्वानों के बीच छपाक रिलीज हो गई। भारतीय राजनीति और फिल्मों के इतिहास में पहली बार नई बात सामने आई। फिल्म के बहिष्कार के आह्वान पहले भी होते रहे हैं लेकिन पहली बार राजनेताओं का एक वर्ग किसी फिल्म की कामयाबी के लिए ऐड़ी-चोटी एक किए दिखा। रिपोर्टों के अनुसार लखनऊ में समाजवादी पार्टी ने सिनेमाघर बुक कर लोगों को मुफ्त में छपाक दिखाई। एनएसयूआई के सदस्य द्वारा छपाक की टिकट मुफ्त बाटे जाने की खबर भी सुनी गई।
जेएनयू के छात्रों की सभा में दीपिका पादुकोण कुछ बोलीं नहीं। उनकी मौन-मौजूदगी के अपने अर्थ हैं। छात्र कह रहे हैं दीपिका ने छात्रों पर हुए हमले का विरोध किया है और वह उनका साथ देने आईं थीं। इस दावे को खारिज नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर, आलोचकों के अनुसार दीपिका चतुर प्रचारक हैं। मौका भुनाना उन्हें आता है। मुद्दा यह है कि दीपिका ने सभा में जाने का फैसला खुद लिया था या यह आइडिया किसी और का था? उन्हें छपाक या छपास में से किसके लिए जमावड़ा अनुकूल दिखा? नि:संदेह यह एक सधी पीआर कवायद थी। यानि, आम के आम और गुठलियों के दाम। असर दिखने लगा है। दीपिका अचानक कांग्रेस, वामदल और मोदी सरकार विरोधी लॉबी और पाकिस्तानियों की चहेती बन गईं। ऐसी पब्लिसिटी लाखों फूंक कर भी संंभव थी? दीपिका को हौसला बढ़ाने के लिए मोदी विरोधी टूट पड़े हैं। ट्वीटर पर उनके फालोअर्स की संख्या में 40 हजार का उछाल है। यहां एक तीसरा वर्ग भी है। उसे छपाक फिल्म से कोई शिकायत नहीं थी। उसे भारत तेरे टुकड़े होंंगे जैसे देश विरोधी नारे लगाने वालों के साथ दीपिका का मंच साक्षा करना नागवार गुजरा है। छपाक के बहिष्कार के बात यहीं से शुरू हुई। बहिष्कार आह्वान के पीछे पुख्ता तर्क हैं। सभा की तस्वीरें देखें। दीपिका के साथ कन्हैया कुमार दिखाई देता है। वह नारे लगा रहा है। सिर झुकाये मुग्ध दीपिका छपास के कल्पना-लोक में गोते से लगाते महसूस की जा सकतीं हैं। क्या कन्हैया पर आरोपों से दीपिका अनभिज्ञ थीं? उनकी इस मौन-मौजूदगी से ईमानदारी से पढऩे और पढ़ाने वालों को निराशा हुई है।
फिल्मी पंडित मानते हैं कि छपाक के हिट होने के आसार हंै। ऐसी भविष्यवाणियों गलत भी साबित होती रहीं हैं। औसत कारोबार की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। चार कांग्रेस शासित राज्यों ने बेहद कमजोर तर्कों के साथ छपाक को टैक्स फ्री कर दिया। क्या यह एक तरह से दीपिका को पुरस्कार जैसी बात नहीं हैै? कांग्रेस छपाक को फ्लाप नहीं होने देना चाहती। कांग्रेस के साथ वामपंथी और सपाई खड़े हैं। दीपिका के लिए दोनों हाथों में लड्डू वाली बात हो गई। बहरहाल, यहां छपाक और छपास की संक्षिप्त व्याख्या उचित होगी। छपाक क्या है? छपाक वह ध्वनि है जो किसी तरल पदार्थ पर चोट करने से उठती है। शायद ही कोई छपाक से अपरिचित होगा। किसी पर तरल पदार्थ तेजी से फेंकने से भी यह ध्वनि उठती है। बाल्टी में भरे पानी या सरोवर में भी इसे सुना जा सकता है। यह एक अलग अनुभव होता है। दूसरा शब्द छपास है। प्रेमरोग सरीखी अनुभूति देने वाले छपास की महिमा अपार है। आये दिन अपना नाम छपवाने के लिए अखबारों के दफ्तरों में मंडराने वालों के संदर्भ में कटाक्ष के रूप मं इसका उपयोग किया जाता रहा है। वैसे छपास का प्रभाव अब समूचे मीडिया में दिखाई देता है। समाज के सभी वर्गों में छपास के प्रति मोह व्याप्त दिखता है। अत: सिल्वर स्क्रीन से दर्शकों को चुधिंया देने वाले स्टारों तक यह प्रेमरोग फैला दिख रहा है तो आश्चर्य क्यों?
पूरे विवाद पर दीपिका पादुकोण की ओर से रहस्यमयी चुप्पी बनी रही। इसे अवश्य चौंकाने वाली बात कह सकते हंै। चुप्पी और दीपिका, कोई मेल नहीं हो सकता। विवाद पर पलटवार की मुद्रा वह अपनाती रहीं हैं। बात निहार पंडया, युवराज, रनवीर, सिद्धार्थ माल्या के संदर्भ में कतई नहीं की जा रही है। बात रणबीर सिंह की भी नहीं है। याद करें क्लीवेज कंट्रोवर्सी पर उनके ट्वीट को, क्या उसे भुलाया जा सकता है। एक टीवी शो के दौरान किसी के लिए कंडोम ब्रांड एंडोर्स करने का सुझाव, उनकी बेबाकी साबित करता है। 2015 में शार्ट फिल्म माय बॉडी, माय माइंड, माय च्वाइस भी एक मजबूत उदाहरण रहा है। इनसे दीपिका के मिजाज को समझ सकते हैं। कहना सिर्फ इतना है कि आपके मिजाज से किसी को लेना-देना नहीं लेकिन आप एक सेलीब्रेटी हैं, कुछ कदम फंूक कर उठाने की अपेक्षा आपसे की जा सकती है।
कब रुकेगा हादसों का सिलसिला
सिद्धार्थ शंकर
किसी भी हादसे का सबक यह होना चाहिए कि वह भविष्य में ऐसी घटनाओं से बचाव का आधार बने। लेकिन रेल महकमे को शायद इस बात से बहुत सरोकार नहीं है कि ट्रेन हादसों पर काबू पाने के पर्याप्त इंतजामों को प्राथमिकता में शुमार किया जाए। माना कि पिछले कुछ वर्षों में रेल हादसों में कमी आई है और अब रेलवे हादसों को रोकने न सिर्फ गंभीर है बल्कि नई तकनीक का प्रयोग भी कर रहा है। लेकिन इन सबके बाद भी अगर कोई हादसा हो जाता है तो यह पूरी तैयारी को सवालों के घेरे में खड़ा कर देता है। अभी कुछ दिनों पहले ही रेल मंत्री पीयूष गोयल ने सुरक्षा और संरक्षा को लेकर तमाम दावे किए थे, मगर गुरुवार को कटक में हुए रेल हादसों ने दावों पर सवाल उठा दिए।
बता दें कि ओडिशा के कटक में गुरुवार सुबह भारी कोहरे की वजह से हुए ट्रेन हादसे में बड़ी संख्या में लोग घायल हो गए। इनमें से 6 की हालत नाजुक है। घायलों को अस्पताल में भर्ती कराया गया है। कोहरे की वजह से घटनास्थल पर रेस्क्यू ऑपरेशन में भी देरी आई। ट्रेन मुंबई से भुवनेश्वर जा रही थी। खबर मिली है कि एक्सप्रेस ट्रेन के मालगाड़ी से टकराने की वजह से ट्रेन पटरी से उतर गई। कहा जा रहा है कि ये ट्रेन धुंध की वजह से मालगाड़ी से टकरा गई थी। अब इस हादसे को मौसम की मार मानें या मानव जनित, जांच के बाद पता चलेगा, मगर अभी तो हादसा हुआ है और यही माना जाना चाहिए।
यह बेवजह नहीं है कि एक ही प्रकृति की दुर्घटनाएं बार-बार होती हैं और उनमें लोगों की जान जाती है, रेलवे का भी भारी नुकसान होता है। वह लगातार हादसों में सिर्फ एक कड़ी है। अब एक आम हो चुकी रिवायत के मुताबिक मृतकों और घायलों के लिए मुआवजे और इलाज की घोषणा के साथ-साथ भविष्य में ऐसे हादसों पर लगाम लगाने के आश्वासन दिए जाएंगे। लेकिन इन आश्वासनों की जमीनी सच्चाई यह है कि एक दुर्घटना के बारे में लोग भूल भी नहीं पाते कि फिर कोई नया हादसा सामने आ जाता है। हो सकता है कि ताजा दुर्घटना में मरने वालों और हताहतों की तादाद बड़ी नहीं मानी जाएगी, लेकिन किसी भी हादसे में जान गंवाने वालों की संख्या कितनी भी क्यों न हो हो, उसका महत्व समान माना जाना चाहिए। सवाल है कि यात्री जब सुरक्षित सफर के मकसद से ट्रेन का सहारा लेते हैं और इसकी पूरी कीमत चुकाते हैं, तो गंतव्य तक पहुंचने के बीच वे जान जाने के जोखिम से क्यों गुजरें? विडंबना यह है कि पिछले कुछ समय से जितनी भी रेल दुर्घटनाएं हो रही हैं, उनमें से ज्यादातर में कारण चलती ट्रेन का पटरी से उतर जाना है। अनेक अध्ययनों में यह तथ्य दर्ज किया जा चुका है कि पटरियों पर ज्यादा दबाव पडऩे की वजह से वे समय से पहले कमजोर पड़ जाती हैं। इसके बावजूद पटरियों पर ट्रेनों के दबाव को ध्यान में रखते हुए सुरक्षा इंतजामों को पुख्ता करने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए जा पाते।
सवाल है कि ट्रेनों के संचालन से जुड़े बुनियादी पहलुओं पर ध्यान देना और उसे पूरी तरह सुरक्षित बनाना किसकी जिम्मेदारी है। पटरियों की गुणवत्ता से लेकर रेलवे क्रॉसिंग पर कर्मचारी के मौजूद नहीं होने जैसी दूसरी तमाम वजहों से अक्सर रेल दुर्घटनाएं होती रही हैं। लेकिन इसके लिए जिम्मेदार बड़ी खामियों को पूरी तरह दुरुस्त करने के बजाय सरकार सुरक्षा के नाम पर यात्रा को ज्यादा से ज्यादा महंगी बनाने और बुलेट ट्रेन या दूसरी शानो-शौकत वाली ट्रेनों के परिचालन के लिए बढ़-चढ़ कर दावा करने में लगी है। रेलगाडिय़ों का सफर आम लोगों के लिए किस कदर मुश्किलों से भरा हो गया है, यह किसी से छिपा नहीं है। अपने गंतव्य तक जाने के लिए टिकट मिल पाने से लेकर समय पर कहीं पहुंच पाना अपने आप में एक आश्चर्य जैसा हो गया है। इसमें अब सफर के दौरान हादसों की वजह से जान पर जोखिम एक बड़ा सवाल है।
ये हैं दिगम्बर जैन संतों की मस्ती !
डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन
शायर जलाउद्दीन ने दिगम्बर पद को दिव्य ज्योति से अलंकृत करते हुए बताते हुए कहा हैं की वस्त्रधारी व्यक्ति की दृष्टि तो धोबी की ओर रहती हैं ——
मस्त बोलै मुहतसिव से कामजा, होगा क्या नंगे से तू ओहदा बरा.
हैं नज़र धोबी पैजामपोश की, हैं तजल्लीज़ेबरे उरीयंतनी .
नग्न दरवेश तार्किक से कहता हैं —“अरे भाई तू जा और अपना काम करतो दिगम्बर से ऊँचा नहीं बन सकता, वस्त्र धारक कीदृष्टि सदा धोबी पर रहती हैं, दिगम्बरत्व की शोभा देवी प्रकाश रूप हैं .या तो तुम नग्न दरवेशों से कोई सम्बन्ध न रखो अथवा उनके सदृश्य दिगम्बर और स्वाधीन बन जाओ .यदि तुम पूर्णतः दिगम्बर नहीं बन सकते तो अपने वस्त्रों को अल्पतम में रक्खो
आज से ३५० वर्ष पूर्व शाहजहां बादशाह के राज्य में मुस्लिम सूफी फ़कीर सरमद देहली में नग्न रूप में विहार करता था .उसका मज़ार दिल्ही की जमा मस्जिद में बाएं भाग में हैं . उसका कथन था “परमात्मा जिसमे दोष देखता हैं उसे वस्त्र पहना देता हैं, किन्तु जो निर्दोष हैं उसे नग्न रहने देता हैं ”
मैत्रेय -उपनिषद में दिगम्बरत्व को आनंद का कारण बताया हैं .हिन्दू अवधूत साधु दिगम्बर होते हैं .
देश -काल -विमुक्तोइस्म दिगम्बरं सुखोस्म्यहं .
भर्तहरि ने वैराग्य शतक में लिखा हैं —
एकाकी निस्पृहः शान्तः पाणि -पात्रो दिगम्बरः .
कदाशम्भो भविष्यामि कर्म -निर्मूलनक्षमः.
जिनकेहाथ ही पवित्र पात्र हैं, भिक्षा के द्वारा उपलब्ध अन्न ही भोजन हैं, दिशा ही वस्त्र हैं, पृथ्वी ही शैय्या हैं, परिग्रह रहित होना जिनकी परिणति हैं, जो स्वात्म संतोषी हैं तथा जो दैन्य समुदाय से दूर हैं ऐसी धन्य आत्माएं कर्मों का नाश करती हैं .राजश्री भर्तहरि ने कहा “भगवन ! वह दिन कब आएगा जब में अकेला लालसा रहित शांत कर पात्र वाला दिगम्बर बनकर कर्मनाश करने में समर्थ होऊंगा .
मुहम्मद जायसी ने पद्मावत में लिखा हैं —
कोई ब्रह्चारज पंथ लागे, कोई दिगम्बर अच्छा लागे
एक बादशाह ने किसी महात्मा के दर्शन से संतुष्ट हो कहा “महाराज! आपको जो चाहिए वह मुझसे मांग लीजिये ” वह साधु कहता हैं —
शहंशाह अक्ल तेरी मारी गयी हैं,
फकीरों को दौलत की परवा नहीं हैं
तमन्ना फकीरी में लाज़िम नहीं हैं,
धब्बा सफेदी में लाना नहीं हैं .
सम्पूर्ण विश्व का सूक्ष्म निरिक्षण किया गया, तार्किक अकलंक कहते हैं — इस जगत में भिन्न भिन्न उपासकों के विविध आराध्य देव हैं जिनकी वेशभूषा पृथक पृथक हैं, किन्तु किसी की वेश भूषा विश्व व्याप्त हैं .एक जिनेन्द्र की दिगम्बर मुद्रा ही सम्पूर्ण जगत के कण कण में, प्राणी प्राणी में विद्यमान पायी जाती हैं .
जैन दर्शन में समता भाव का स्थान सर्वोपरि हैं .भगवन पार्श्वनाथ के ऊपर कमठ का उपसर्ग हुआ तब वे अपनी आराधना से विचलित नहीं हुए —–
कियो उपसर्ग भयानक घोर, चली बहुतीक्षण पवन झकोर,
रहो दशहू दिशि में तमछाय,लगी बहु अग्नि लखि नहिजाय
सुरुनडन के बिन मुंड दिखाय, पड़े जल मूसलधार अथाय,
तबैं पदमावति कंत धनिन्द, चले जग आय जहाँ जिन चंद .
उपरोक्त कथानानुसार यह बात सिद्ध हो गयी की जैन दर्शन में दिगबरत्व एक अनिवार्यता हैं, वर्तमान में जब हाड कपकपाने वाली ठण्ड पड़ रही हैं तब जैन दिगम्बर साधु नग्न रहकर अपनी साधना /दिन चर्या में रत रहते हैं .जब हम कपड़ों के अंदर रहकर ठण्ड से मुक्ति नहीं पा रहे हैं तब वे नग्न किसी भी परिधान का सहारा न लेकर लकड़ी के तख़्त पर सोते हैं .इतनी गर्मी पड़ने पर भी वो बिना पखे, कूलर और ए सी तप साधना करते हैं और जीव हिंसा से बचने और बचाने के लिए वे एक स्थान पर रहकर चातुर्मास करते हैं .
वर्त्तमान में इंदौर में आने वाले आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज अपने संघ के साथ विराजित होने वाले हैं तो भोपाल में मुनि श्री प्रमाण सागर जी महाराज संघस्थ विराजे हैं.
सही साधना, तपस्या, चर्या का दर्शन करना हो तो आप मुनि श्री प्रमाण सागर जी महाराज के साथ अन्य मुनियों के दर्शन करअपने अपने को धन्यभागीबने
जैनधर्म की महिमा अपरम्पार हैं .जै हो गुरुदेव
जानलेवा मांझे पर सख्ती
सिद्धार्थ शंकर
मकर संक्रांति पर पतंगबाजी का दौर शुरू होते ही देश में कई जगह जानलेवा मांझे से जुड़ी घटनाएं सामने आने लगी हैं। यूपी के मुरादाबाद और हापुड़ के साथ गुजरात के मुरादनगर में मांझे ने राहगीरों को बुरी तरह घायल कर दिया। उनकी जान जाते-जाते बची। हालांकि, इससे पहले देश में कई लोग मांझे के चलते जान गंवा भी चुके हैं। देखा जाए तो पतंगबाजी दुनियाभर में मशहूर है। कई देशों में अलग अलग तरह के पतंगबाजी महोत्सव मनाए जाते हैं, जो वहां के पर्यटन को बढ़ावा देते हैं। एक-दूसरे की पतंग काट कर जीत का जो मजा मिलता है वह पतंगबाजों के लिए अद्भुत होता है। पतंग काटने में हवा का रुख और पतंग की कलाबाजी के साथ पतंग उड़ाने में इस्तेमाल होने वाली डोर यानी मांझा का भी खास महत्व होता है। पतंग में आगे की ओर अलग तरह के मांझे व लोहे के तार तक का प्रयोग होता है। पतंग के साथ लगे मांझे के बाद एक अलग किस्म की डोर लगाई जाती है। पतंग के साथ लगा मांझा ही दूसरी पतंग के मांझे को रगड़ता है और उसे काट देता है। मांझा दूसरी पतंग की डोर को काट सके, इस के लिए मांझे में कांच और लोहे का बुरादा लगाया जाता है। देश में कॉटन के धागे से तैयार डोर बनाई जाती है।
हाल के कुछ सालों में चीन से नायलॉन से तैयार की गई डोर बाजार में आने लगी है। नायलॉन की डोर आसानी से टूटती नहीं है। उस के ऊपर जब लोहे और कांच का बुरादा चढ़ाया जाता है तो यह कॉटन वाले मांझे से उड़ रही पतंग की डोर को आसानी से काट देती है। चाइनीज मांझे से पतंग के साथ उड़ाने वाले के हाथ भी कटने लगे हैं। सब से खतरनाक काम तो तब होता है जब कटी हुई पतंग किसी साइकिल या मोटरसाइकिल सवार के गले, मुंह या हाथ में लिपट जाती है। इससे कई बार गले की नसें तक कट जाती हैं। इस तरह की कई घटनाएं देश में घट चुकी हैं। अभी पिछले साल दिल्ली के तिमारपुर इलाके में 18 साल का युवक बाइक से कुछ सामान लाने निकला था, लेकिन बीच में एक कटी पतंग का धागा उसके गले में उलझ गया। तीखे मांझे से लैस धागे से उसकी गर्दन काफी गहराई तक कट गई और ज्यादा खून बहने से आखिरकार उसे नहीं बचाया जा सका।
खेल खेलना या मनोरंजन किसी का भी हक हो सकता है। लेकिन अगर वह किसी दूसरे और उस खेल से अनजान व्यक्ति के लिए जानलेवा बनता है तो इसे किस आधार पर सही ठहराया जा सकता है? पिछले कुछ सालों के दौरान पतंग के मांझे की वजह से लोगों की जान जाने की घटनाएं सामने आ चुकी हैं। इस मसले पर काफी चिंता भी जताई गई और इसके लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई की बात भी कही गई, लेकिन आज भी हालत यह है कि इस तरह के जानलेवा धागों की खुले बाजार में बिक्री में कोई कमी नहीं आई है। प्रशासन की ओर से बरती गई इस लापरवाही और आम लोगों की गैरजिम्मेदारी की कीमत आम लोगों को चुकानी पड़ रही है। देश में चाइनीज मांझे को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल यानी एनजीटी ने प्रतिबंधित कर रखा है। बावजूद इसके चीन से आए मांझे लोगों की जान का सबब बन रहे हैं। नायलॉन के साथ सिंथैटिक मटेरियल से तैयार दूसरे मांझे खतरनाक होते हैं।
कानून के अनुसार इस तरह के मांझे से केवल पतंग उड़ाना ही गुनाह नहीं, बल्कि इस मांझे को बेचना भी बड़ा अपराध है। ऐनवायरनमैंट प्रोटेक्शन एक्ट 1986 की धारा-5 के अंतर्गत इस के इस्तेमाल पर पांच साल की सजा और एक लाख रुपए तक का जुर्माना या फिर दोनों का प्रावधान है। यह निजी फर्म, कंंपनी अथवा सरकारी कर्मचारियों पर भी लागू होता है। भारत में चाइनीज नायलॉन के धागे की खपत शुरू हो गई। अब चाइनीज नायलॉन के धागे पर मांझा तैयार करना सरल हो गया है। कांच और लोहे के बुरादे को जब चावल के मांड के साथ इस पर लगाया जाने लगा तो यह कॉटन के धागे की तरह टूटता नहीं है। जल्दी न टूटने के कारण यह पतंग उड़ाने वालों के लिए भी खास हो गया। इस से अब दूसरी पतंग को काटना आसान हो गया है। इस कारण से चाइनीज नायलॉन से तैयार मांझा पतंगबाजी की पहली पसंद बन गया है।
बहरहाल, पतंग कटने के बाद धागा समेटने या फिर पतंग के साथ काफी निचले स्तर से गुजरता धागा आमतौर पर दिखाई नहीं देता यह अगर एक झटके से व्यक्ति के शरीर से गुजर भर जाए तो गहरा घाव तक हो सकता है। खासतौर पर मोटरसाइकिल की सवारी करने वाले लोगों की नजर चूंकि सड़क पर होती है, इसलिए धागे को देख पाना उनके लिए आमतौर पर मुश्किल होता है और कई बार वे उस जानलेवा धागे की चपेट में आ जाते हैं। यह कहा जाता है कि ये धागे चीन से भारतीय बाजारों में आ रहे हैं। हो सकता है कि यह तथ्य हो। लेकिन इसके अलावा भी पतंग के शौकीन लोग स्थानीय स्तर पर नायलॉन के धागों पर कांच का चूरा, खतरनाक अधेसिव, एल्यूमीनियम ऑक्साइड, जिरकोनिया ऑक्साइड और मैदा जैसी चीजों से तैयार लेप चढ़ा कर उसे मारक बना देते हैं। लेकिन सच यह है कि आज ये धागे कुछ लोगों के लिए पतंग काटने या इसके जरिए मनोरंजन करने का जरिया हैं तो किसी का गला भी कट जा रहा है। अब वक्त है कि खतरनाक मांझे को लेकर संवेदनशीलता बरती जाए और इसे रोकने के लिए कानून का पालन भी सुनिश्चित किया जाए।
रामचरितमानस में पारिवारिक व सामाजिक मूल्य बोध
-प्रो.शरद नारायण खरे
“ परिवार ही हमारे सामाजिक जीवन की आधारशिला है,जिसमें हमारे जन्म से लेकर मृत्यु तक सारी गतिविधियाँ संचालित होती हैं। हिन्दू परिवार का जीवन-दर्शन पुरूषार्थ पर आधारित है जो विश्व के अन्य समाजों के परिवारों का जीवन दर्शन नहीं है । अतः परिवार मनुष्य के सभ्य और सुसस्ंकृत होने का स्वाभाविक तारतम्य है जिसके माध्यम से मानव जीवन का उन्नयन होता हैं। ”
तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में परिवार के आदर्श और मर्यादा को स्थापित करने का सुन्दर प्रयास किया है यह प्रयास इतना प्रभावी है कि आचार्य शुक्ल लिखते हैं कि-
“ यदि भारतीय शिष्टता और सभ्यता का चित्र देखना हो तो इस राम समाज में देखिए। कैसी परिष्कृत भाषा में कैसी प्रवचन पटुता के साथ प्रस्ताव उपस्थित होते है किस गंभीरता और शिष्टता के साथ बात का उत्तर दिया जाता है छोटे-बड़े की मर्यादा का किस सरलता के साथ पालन होता है। ”
‘ मानस ’ में राम कैकेयी संवाद में कैकेयी की कठोर आज्ञा पर श्री राम मीठी वाणी में शिष्टता से कहते है।–
” सुनु जननी सोइ सुत बड़भागी।
जो पितु मातु वचन अनुरागी।
तनय मातु पितु तोष निहारा।
दुर्लभ जननि सकल संसारा। ’’
तुलसीदास जी ने परिवार में केवल आदर्श चरित्रों को ही नही अपितु यथार्थ चरित्रों को भी प्रस्तुत किया है। कैकयी,मंथरा ऐसे ही यथार्थ पात्र हैं,जो हर कुटुम्ब में मिल जाते हैं। राम वनवास के बाद भरत सिंहासन ग्रहण नहीं करते , भरत राम मिलाप की हृदयस्पर्शिता ‘मानस’ के पाठकों को भाव विभोर कर देती है। सीता का राम के साथ वन जाना ,वहीं सीता हरण के बाद राम द्वारा व्याकुल होकर सीता को ढूंढना ये सब वृतांत आदर्श कुटुम्ब की निर्मिति दर्शाते हैं। ‘’मानस ’’ में रचित ‘आदर्श’ आज भी समाज व परिवार के विकास के लिए उतने ही आवश्यक हैं, जितने की सोलवीं शती में थे।
गुरू शिष्य सम्बंध:-
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मानस में गोस्वामी जी ने ‘ गुरू महिमा ’ की महत्ता की असंख्य स्थानों पर चर्चा की है। बालकाण्ड के प्रारम्भ में ही ईश वन्दना के बाद गुरू महाराज की वन्दना करते हुए कहते हैं कि- ‘‘ श्री गुर पद नख मनि गन जोति/सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती ।”
हर एक मंगल कार्य पर गुरू को दान देने और आशीर्वाद लेने का वर्णन मानस में किया गया है। राजा दशरथ की गुरू के प्रति भक्ति को वर्णित करते हुए कवि कहते है कि- ‘‘ जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल विभव बस करहीं। ”
भारतीय समाज में गुरू शिष्य सम्बंध बहुत ही घनिष्ठ था। समाज में उसकी स्थिति सर्वोच्च थी, अतः गोस्वामी जी ने भारतीय समाज में गुरू को प्राप्त आदरभाव,गरिमा और प्रतिश्ठा को ही मानस में प्रतिबिम्बित किया है ।
नारी का स्थान:- हिन्दू समाज में नारी के लिए सम्मान व मर्यादायुक्त दृष्टि रखी जाती थी।रामचरितमानस में लगभग हर वर्ग के प्रति प्रगतिशीलता दिखाई देती है,अतः तुलसी के स्त्री सम्बन्धी दृष्टिकोण को संकीर्ण कहना ,हमारा एकांकी दृष्टिकोण होगा। वस्तुतः हर लेखक अथवा कवि अपने युग के सापेक्ष रचना लिखता है। युग और सन्दर्भ बदल जाने पर उसके साहित्य के मूल्यांकन के आधार भी दोबारा बदल जाते है। यह सत्य है कि तुलसी के काव्य में नारी ,नारी धर्म अथवा पति सेवा में ही शोभा पाती है,किन्तु नारी की परतन्त्रता की पीड़ा तक पहुँचना भी , उस युग में प्रगतिशीलता थी। जो प्रमाणित करता है कि समाज में नारी की स्थिति व दशा को लेकर भी गोस्वामी में चेतना थी।
अंतत: कह सकते है कि पर्यावरण अर्थात जो हमारे चारों ओर विद्यमान है ,मनुष्य समाज में भी सामाजिक मूल्य व आदर्श चारों ओर मनुष्य को घेरे रहते हैं। गोस्वामी जी के सामाजिक मूल्यों के आदर्श का जीवन्त प्रतीक ‘ मानस ’ है जिसमें सामाजिक पर्यावरण चेतना अद्भुत रूप में मुखर हुई है।
“मानस सच में है’शरद’,सामाजिक श्रंगार ।
तुलसी बाबा ने दिया,हम सबको उपहार ।।”
शिक्षा संस्थानों की फिक्र
सिद्धार्थ शंकर
नागरिकता संशोधन कानून को लेकर देश भर में मचे बवाल के बीच ऐसी अनिश्चितता की स्थिति बनती जा रही है, जिसमें यह कह पाना कठिन है कि कौन सही है और कौन गलत। अभी कुछ दिनों पहले देश के 100 से ज्यादा पूर्व नौकरशाहों ने खुला पत्र लिखकर कहा था कि देश को सीएए और एनआरसी की जरूरत नहीं है। सरकार देश के आर्थिक हालात को सुधारने पर ध्यान लगाए। नौकरशाहों के इस पत्र को सरकार के विरोध के स्वरूप लिया गया था। अब देश के 208 अकादमिक विद्वानों ने पीएम नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर कहा है कि लेफ्ट विंग के लोग शिक्षा के माहौल को खराब रहे हैं। स्टूडेंट पॉलिटिक्स के नाम पर अतिवादी वामपंथी अजेंडे को आगे बढ़ाया जा रहा है। हाल में ही जेएनयू से जामिया औ एएमयू से जाधवपुर यूनिवर्सिटी तक में सामने आए घटनाक्रम से पता चलता है किस तरह से अकादमिक माहौल को खराब किया जा रहा है। नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में हुए हिंसक प्रदर्शनों और जेएनयू में हुई हिंसा के बाद लिखे गए इस पत्र को सरकार की ओर से अकदामिक जगत में समर्थन जुटाने की कोशिश माना जा रहा है। अभी ताजा पत्र के मजमूल को देखें तो पत्र लिखने वाले लोगों में कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के वाइस चांसलर भी शामिल हैं। पत्र में लिखा गया है कि लेफ्ट विंग के ऐक्टिविस्ट्स की मंडली देश में अकादमिक माहौल को खराब करने में जुटी है। पत्र को लिखने वालों में हरि सिंह गौर यूनिवर्सिटी के कुलपति आरपी तिवारी, साउथ बिहार सेंट्रल यूनिवर्सिटी के कुलपति एचसीएस राठौर और सरदार पटेल यूनिवर्सिटी के वीसी शिरीष कुलकर्णी शामिल हैं। शिक्षण संस्थानों में लेफ्ट विंग की अराजकता के खिलाफ बयान शीर्षक से लिखे गए पत्र में कुल 208 अकादमिक विद्वानों के हस्ताक्षर हैं। शिक्षाविदों के इस पत्र के बाद देश में नए किस्म की बहस शुरू हो गई है। लेफ्ट विंग पर जिस तरह का निशाना साधा गया है, वह बता रहा है कि देश की शिक्षा व्यवस्था की समीक्षा करने की जरूरत है और शैक्षिक परिसरों की व्यवस्था इस तरह से करने की जरूरत है, जिससे वहां पढऩे गए छात्र-छात्राओं को बेवजह के विवाद का शिकार न होना पड़े। इस तरह का माहौल बनाने के कई रास्ते हैं। पहला तो यह कि शिक्षा संस्थानों में सरकार छात्र राजनीति पर सरकार रोक लगाए। विश्वविद्यालयों में चुनाव कराने और नेतागिरी करने का मार्ग सरकार ने ही तैयार किया है। जब वहां राजनीति खत्म होगी तो सब अपने आप ही ठीक हो जाएगा। वैसे भी राजनीति करने के लिए पूरा देश पड़ा है, सैकड़ों की संख्या में राजनीतिक दल हैं। जो जिस चाहे अपना सकता है। दूसरा रास्ता यह हो सकता है कि कॉलेज या विश्वविद्यालयों में आने वाले छात्रों से बॉंड भरवाया जाए कि वे राजनीति नहीं करेंगे और ऐसी कोई हरकत नहीं करेंगे, जिससे किसी समुदाय या धर्म को ठेंस पहुंचे। इससे कुछ अंकुश तो जरूर लगेगा। पिछले कुछ वर्षों मेंं कैंपस की राजनीति में कटुता का माहौल बना है, उसने शिक्षा के मायनों को ही बदल दिया है। कॉलेज में अब पढ़ाई नहीं होती, सामने वाले गुट या संगठन को कैसे पछाडऩा है, इसकी रणनीति बनती रहती है। जेएनयू में पिछले दिनों हुई हिंसा इसी का परिणाम है। हिंसा के दौरान उन छात्र-छात्राओं को भय के माहौल से दो-चार होना पड़ा, जिनका कोई कसूर नहीं था और वहां वे अपने बेहतर भविष्य का सपना संजोकर पहुंचे थे। किसी ने आज तक उन छात्रों की सुध लेने की कोशिश नहीं की। हिंसा के जिम्मेदार रहे हों या देश में अमन का झंडा उठाए वामदल और गैर भाजपाई। आज कॉलेज की राजनीति के नाम पर हर पार्टी अपना मतलब साधने में जुटी है। कोई समर्थन में पत्र लिखा रहा है तो कोई विरोध में। मगर इस पत्र-राजनीति के चक्कर में शिक्षा संस्थानों की तरफ किसी का ध्यान नहीं है।
बुन्देली कविता की धूम और लोकप्रियता…!
नईम कुरेशी
बुन्देलखण्ड को मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश के 20 जिलों की माटी माना जा सकता है जहां आल्हा ऊदल से लेकर रानी लक्ष्मीबाई, छत्रसाल, मामा माहिल जैसे वीर व महावीर हुये थे और वेदव्यास से लेकर जगनिक जैसे कवि, ईसुरी जैसे लोक कवि, गंगाधर व्यास, शिवनन्दन मिश्र, जलज जी, जो जगदीश खरे के नाम से भी प्रसिद्ध रहे थे। सीता किशोर खरे जी के नाम बिना सब सूना व अधूरा कहा जाता है। मान्यवर सीता किशोर जी से तो दो बार मिलने का भी अवसर श्योढ़ा में डॉ. कामिनी जी के साथ हुआ था 1994-95 में करीब, आपके काव्य संग्रहों में- “पानी, पानीदार है” काफी लोकप्रिय रहा है। डॉ. सीता किशोर जी ने अनेकों छात्रों की पी.एच.डी. भी कराइऔ। उन्होंने काफी मात्रा में दोहे भी लिखे।
हमारे बुन्देलखण्ड के दतिया, झांसी, जालौन, टीकमगढ़ में, सागर में, बांदा में हुये हैं। डॉ. श्यामसुन्दर सौनकिया व अन्य साहित्यकारों ने इस पर काफी कुछ लिखा है। जगनिक तो बुन्देली के सबसे प्राचीन व आदिकवि माने जा सकते हैं। वो महोबा के राजा के मित्र कवि थे। उन्होंने आल्हा ऊदल लिखकर देश दुनिया को अमरकृति दी है। लोगों का मानना है कि इससे ज्यादा लोकप्रिय गान देश दुनिया में शायद कोई दूसरा न हो।
बुन्देलखण्ड के मऊरानीपुर में जन्मे ईसुरी भी बुन्देली भाषा के काफी लोकप्रिय कवि कहे जाते रहे हैं। उनकी फागों पर दतिया के लोकेन्द्र नागर जी ने काफी कुछ लिखा है। 1990 में “बुन्देली विरासत” पुस्तक लिखने व डी.डी.1 पर फिल्म बनाने के दौरान मुझे नागर ने ये पुस्तक भेंट की थी। ईसुरी जी का लेखन, सादगी भरा व मौलिक लेखन है जो लोकजीवन से पूरी तरह जुड़ा हुआ है। ईसुरी जी भी किसी मायने में लोकप्रियता में कम नहीं रहे हैं। उनकी रचनायें फाग विधा में उनका सृजन माना जाता रहा है।
वर्मा पुरवार
बुन्देली इलाके में जन्मे होने के बाद भी मुझे डॉ. वृन्दावन लाल वर्मा जी के परिजनों व अयोध्या प्रसाद कुमुद जी व डॉ. राजेन्द्र पुरवार डॉ. हरिमोहन पुरवार के अलावा अन्य लोगों से जो बुन्देल साहित्य के महान नायक रहे हैं मिलने का खास अवसर नहीं मिल सका। श्योंढ़ा की डॉ. कामिनी से जरूर कई यादगार मुलाकातें हैं।
बुन्देली विरासत पर दिल्ली दूरदर्शन की 1993 में फिल्म बनाने के दौरान भाई साहब हरिमोहन पुरवार से गहरा सम्पर्क हुआ। उन्होंने बुन्देली की महान सेवा की अनेकों पुस्तकें लिखकर, अपने निजी निवास में बुन्देली म्यूजियम स्थापित कर पुरवार साहब खुद भी एक बुन्देली विरासत हो गये हैं।
बुन्देलखण्ड के कवियों में, लेखकों में, जालौन के डॉ. राधेश्याम योगी, गुरसराय के डॉ. शिवाजी चौहान, टीकमगढ़ के राजीव नामदेव, जालौन की डॉ. रेनू चन्द्र, डॉ. माया सिंह, डॉ. एल.आर. श्रीवास्तव, कृपा शंकर द्विवेदी, यूसुफ अंसारी, प्रिया श्रीवास्तव, रसूल अहमद सागर, मुजीब आलम, प्रो. भगवत दुबे आदि की रचनायें देखी जाती रही हैं। डॉ. रसूल अहमद साहब सागर का रचना संचार काफी बड़ा है। बुन्देली इलाके में जन्म चन्द बड़े अफसरान जालौन के सुभाष त्रिपाठी पूर्व पुलिस महानिर्देशक म.प्र. पुलिस व रमेश त्रिपाठी सचिव भारत सरकार जे.एम. कुरेशी साहब, सागर जिले के थे। यू.पी.एस.सी. के चैयरमैन रहे थे। काफी सम्पर्क भी रहा इन सबसे कुरेशी साहब ने ही मेरी पहली फिल्म बुन्देली विरासत बनवायी। इसके बाद केन्द्रीय रेलमंत्री माधवराव सिंधिया ने बनवायी थी। बुन्देलखण्ड के साहित्यकारों में सब एक से बढ़कर एक हैं। उन्होंने बुन्देली भूमि के गौरव को लगातार बढ़ाया है।
राजमाता व त्रिपाठी
बुन्देलखण्ड में जालौन से विधानसभा अध्यक्ष यू.पी. से चतुर्भुज शर्मा से लेकर ध्यानेन्द्र मामा राजमाता विजयाराजे सिंधिया से लेकर माधवराव जी सिंधिया, विद्यावती चतुर्वेदी, प्रहलाद पटेल, सत्यवृत चतुर्वेदी आदि काफी लोकप्रिय रहे है। मुझे राजमाता सिंधिया, ध्यानेन्द्र मामा व माधवराव सिंधिया से मिलने का 30-40 साल का गहरा अनुभव रहा। ये सब लोग महान व आम जनता के लिये गहराई से सोचने वाले दिखाई दिये। झांसी के दो बड़े अफसरान डॉ. प्रमोद अग्रवाल जो बंगाल में मुख्य सचिव रहे थे खुद भी 60 पुस्तकों के लेखक रहे हैं लोकप्रिय हैं, मिलनसार हैं। ओ.पी. रावत भी मुख्य चुनाव आयोग में रहे ईमानदार, निडर अफसरों में उनका नाम आता है, शशिकला खत्री अच्छी प्रशासनिक महिला अधिकारी के तौर पर लोकप्रिय हैं। डॉ. आर.एल.एस. सेंगर, अक्षय निगम, डॉ. के. जैन अच्छे लोकप्रिय डॉक्टर्स के तौर पर ग्वालियर व बुन्देलखण्ड में माने जाते हैं।
विश्व-हिंदीः नौकरानी है, अब भी
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आज विश्व हिंदी दिवस है लेकिन क्या हिंदी को हम विश्व भाषा कह सकते हैं ? हां, यदि खुद को खुश करना चाहें या अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना चाहें तो जरुर कह सकते हैं, क्योंकि यह दुनिया के लगभग पौने दो सौ विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है (इनमें भारत के भी हैं), दुनिया के लगभग आधा दर्जन प्रवासी भारतीयों के देशों में किसी न किसी रुप में यह बोली और समझी जाती है और कई देशों में विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित होता रहा है। 1975 में प्रथम बार यह नागपुर में आयोजित हुआ है। लगभग 50 साल इस विश्व हिंदी सम्मेलन को आयोजित होते हुए हो गए लेकिन हिंदी की दशा आज भी भारत में नौकरानी की है। अंग्रेजी आज भी भारत की महारानी है और हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाएं उसकी नौकरानियां हैं। देश में कांग्रेस और विरोधी दलों की इतनी सरकारें पिछले 72 साल में बनी लेकिन किसी प्रधानमंत्री की हिम्मत नहीं पड़ी कि इस अंग्रेजी महारानी को उसके सिंहासन से नीचे उतारे। भाजपा और नरेंद्र मोदी को 2014 में हम इसीलिए लाए थे। उनके लिए हमने अपना सारा अस्तित्व और संबंध दांव पर लगा दिए थे लेकिन इन पिछले साढ़े पांच वर्षों में हुआ क्या ? सिर्फ संयुक्तराष्ट्र में हिंदी का भाषण मोदी और सुषमा ने पढ़ दिया बाकी हर जगह आपको हिंदी वैसी ही पायदान पर बैठी मिलेगी, जैसी वह लाॅर्ड मैकाले के जमाने में बैठी हुई थी। कानून, चिकित्सा, इंजीनियरी, अंतरराष्ट्रीय राजनीति आदि किसी विषय की उच्च शिक्षा हिंदी या किसी अन्य भारतीय भाषा में नहीं होती न कोई शोध होता है। सरकार के फैसले, संसद के कानून, अदालतों के फैसले, मरीजों का इलाज- ये सब काम अंग्रेजी में होते हैं। देश का ठगी का यह सबसे बड़ा कारोबार है। मैं अंग्रेजी या किसी विदेशी भाषा को स्वेच्छया पढ़ने-पढ़ाने का पूर्ण समर्थक हूं लेकिन जब तक स्वभाषा में काम नहीं होगा, यह भारत एक नकलची, फिसड्डी और पिछलग्गू देश बना रहेगा। हम हिंदी को विश्व भाषा तो जरुर कहते हैं लेकिन हमें यह कहते हुए जरा भी शर्म नहीं आती कि भारत के प्रांतों के बराबर जो देश हैं उनकी भाषाएं तो संयुक्त राष्ट्र संघ में मान्य है और हिंदी को वहां घुसने की भी इजाजत नहीं है।
आध्यात्मिक गुरु भी थे स्वामी विवेकानन्द
डॉक्टर अरविन्द जैन
स्वामी विवेकानन्द (जन्म: 12 जनवरी,1863 – मृत्यु: 4 जुलाई,1902) वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उन्होंने अमेरिका स्थित शिकागो में सन् 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदान्त दर्शन अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानन्द की वक्तृता के कारण ही पहुँचा। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे। उन्हें प्रमुख रूप से उनके भाषण की शुरुआत “मेरे अमरीकी भाइयो एवं बहनों” के साथ करने के लिये जाना जाता है। उनके संबोधन के इस प्रथम वाक्य ने सबका दिल जीत लिया था।
कलकत्ता के एक कुलीन बंगाली परिवार में जन्मे विवेकानंद आध्यात्मिकता की ओर झुके हुए थे। वे अपने गुरु रामकृष्ण देव से काफी प्रभावित थे जिनसे उन्होंने सीखा कि सारे जीव स्वयं परमात्मा का ही एक अवतार हैं; इसलिए मानव जाति की सेवा द्वारा परमात्मा की भी सेवा की जा सकती है। रामकृष्ण की मृत्यु के बाद विवेकानंद ने बड़े पैमाने पर भारतीय उपमहाद्वीप का दौरा किया और ब्रिटिश भारत में मौजूदा स्थितियों का पहले हाथ ज्ञान हासिल किया। बाद में विश्व धर्म संसद 1893 में भारत का प्रतिनिधित्व करने, संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए कूच की। विवेकानंद के संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड और यूरोप में हिंदू दर्शन के सिद्धांतों का प्रसार किया , सैकड़ों सार्वजनिक और निजी व्याख्यानों का आयोजन किया। भारत में, विवेकानंद को एक देशभक्त संत के रूप में माना जाता है और इनके जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।
भारत में स्वामी विवेकानन्द की जयन्ती, अर्थात १२ जनवरी को प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्णयानुसार सन् १९८४ ई. को ‘अन्तरराष्ट्रीय युवा वर्ष’ घोषित किया गया। इसके महत्त्व का विचार करते हुए भारत सरकार ने घोषणा की कि सन १९८४ से 12 जनवरी यानी स्वामी विवेकानन्द जयन्ती का दिन राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में देशभर में सर्वत्र मनाया जाए।ऐसा अनुभव हुआ कि स्वामी जी का दर्शन एवं स्वामी जी के जीवन तथा कार्य के पश्चात निहित उनका आदर्श—यही भारतीय युवकों के लिए प्रेरणा का बहुत बड़ा स्रोत हो सकता है।
वास्तव में स्वामी विवेकानन्द आधुनिक मानव के आदर्श प्रतिनिधि हैं। विशेषकर भारतीय युवकों के लिए स्वामी विवेकानन्द से बढ़कर दूसरा कोई नेता नहीं हो सकता। उन्होंने हमें कुछ ऐसी वस्तु दी है जो हममें अपनी उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त परम्परा के प्रति एक प्रकार का अभिमान जगा देती है। स्वामी जी ने जो कुछ भी लिखा है वह हमारे लिए हितकर है और होना ही चाहिए तथा वह आने वाले लम्बे समय तक हमें प्रभावित करता रहेगा। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में उन्होंने वर्तमान भारत को दृढ़ रूप से प्रभावित किया है। भारत की युवा पीढ़ी स्वामी विवेकानन्द से निःसृत होने वाले ज्ञान, प्रेरणा एवं तेज के स्रोत से लाभ उठाएगी।
भारत में स्वामी विवेकानन्द की जयन्ती, अर्थात १२ जनवरी को प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्णयानुसार सन् १९८४ ई. को ‘अन्तरराष्ट्रीय युवा वर्ष’ घोषित किया गया। इसके महत्त्व का विचार करते हुए भारत सरकार ने घोषणा की कि सन १९८४ से 12 जनवरी यानी स्वामी विवेकानन्द जयन्ती का दिन राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में देशभर में सर्वत्र मनाया जाए। भारत सरकार का विचार था कि –
ऐसा अनुभव हुआ कि स्वामी जी का दर्शन एवं स्वामी जी के जीवन तथा कार्य के पश्चात निहित उनका आदर्श—यही भारतीय युवकों के लिए प्रेरणा का बहुत बड़ा स्रोत हो सकता है।
अमेरिका में दिया गया भाषण —
मेरे अमरीकी भाइयो और बहनो!
आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया हैं उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा हैं। संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ।
मैं इस मंच पर से बोलने वाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृत- दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में उन यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था। ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने महान जरथुष्ट जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है। भाईयो मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं:
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥
अर्थात जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।
यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है:
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥
अर्थात जो कोई मेरी ओर आता है-चाहे किसी प्रकार से हो-मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।
साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं व उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को ध्वस्त करती हुई पूरे के पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये वीभत्स दानवी शक्तियाँ न होतीं तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया हैं और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टा ध्वनि हुई है वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्यु निनाद सिद्ध हो।
स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त निम्नलिखित हैं –
१. शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक का शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास हो सके।
२. शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक के चरित्र का निर्माण हो, मन का विकास हो, बुद्धि विकसित हो तथा बालक आत्मनिर्भन बने।
३. बालक एवं बालिकाओं दोनों को समान शिक्षा देनी चाहिए।
४. धार्मिक शिक्षा, पुस्तकों द्वारा न देकर आचरण एवं संस्कारों द्वारा देनी चाहिए।
५. पाठ्यक्रम में लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार के विषयों को स्थान देना चाहिए।
६. शिक्षा, गुरू गृह में प्राप्त की जा सकती है।
७. शिक्षक एवं छात्र का सम्बन्ध अधिक से अधिक निकट का होना चाहिए।
८. सर्वसाधारण में शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार किया जाना चाहिये।
९. देश की आर्थिक प्रगति के लिए तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था की जाय।
१०. मानवीय एवं राष्ट्रीय शिक्षा परिवार से ही शुरू करनी चाहिए।
रोमां रोलां ने उनके बारे में कहा था-“उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असम्भव है, वे जहाँ भी गये, सर्वप्रथम ही रहे। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता था। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी। हिमालय प्रदेश में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देख ठिठक कर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा-‘शिव!’ यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो।
इस देश के गौरव को शत शत नमन ।।
निर्भया को न्याय
सिद्धार्थ शंकर
पूरे देश को झकझोर देने वाले निर्भया कांड में अदालत ने मंगलवार को चारों दरिंदों को डेथ वारंट यानी फांसी देने का समय तय कर दिया। सात साल पुराने मामले में पटियाला हाउस कोर्ट ने चारों दोषियों अक्षय सिंह, विनय कुमार शर्मा, मुकेश कुमार और पवन गुप्ता को 22 जनवरी की सुबह सात बजे फांसी देने का आदेश दिया। बता दें कि 16 दिसंबर, 2012 को दक्षिणी दिल्ली इलाके में चलती बस में 23 साल की पैरामेडिकल छात्रा ‘निर्भयाÓ से गैंगरेप किया गया था। 29 दिसंबर को सिंगापुर में इलाज के दौरान पीडि़ता की मौत हो गई थी। इस मामले में पुलिस ने बस चालक सहित छह को गिरफ्तार किया था। इनमें से एक नाबालिग भी था। उसे तीन साल तक सुधार गृह में रखने के बाद रिहा कर दिया गया था। एक आरोपी राम सिंह ने जेल में खुदकुशी कर ली थी। चारों आरोपियों को फांसी की सजा देने से निर्भया को भले ही इंसाफ मिल जाए, मगर देश में अब भी ऐसी कई निर्भया हैं जो इंसाफ के लिए इंतजार कर रही हैं। लगातार बढ़ते जा रहे बलात्कार के केस हमारी व्यवस्था को कोस रहे हैं। न्याय की गति बढ़ाने के उपाय मंद पड़े हैं। ऐसे में सिर्फ एक मामले में हुए न्याय को हम पूरे देश की बेटियों की जीत नहीं बता सकते। ऐसा कर हम उन बेटियों के घाव पर मरहम तो लगा सकते हैं, मगर उन्हें यह कह पाने का माद्दा नहीं रखते कि सभी का फैसला जल्द होगा। निर्भया कांड को ही देखें तो दोषियों को सजा देने में सात साल का वक्त लग गया। पीडि़त परिवार इन वर्षों में हर रोज मरकर जिया होगा। उसके दुख और पीड़ा की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। ऐसी न जाने कितनी पीडि़त होंगी, जो आज अपने दर्द से घुट-घुटकर मर चुकी होंगी। न्याय का इंतजार जितना लंबा होता है, उसकी टीस उतनी ही गहरी। इसलिए हमें एक ऐसी व्यवस्था बनानी होगी, जो कम से कम बलात्कार के मामलों में सजा देने की दर को बढ़ाए।
अगर निर्भया के मामले को ही देखें तो डेथ वारंट जारी होने के बाद भी चारों को फांसी की सजा 22 जनवरी को दी जाएगी, इसमें संदेह है। दोषियों के वकील यह दावा कर रहे हैं कि उनके पास अभी कुछ और कानूनी विकल्प हैं। नि:संदेह जघन्य अपराध के दोषियों को भी उपलब्ध कानूनी विकल्प इस्तेमाल करने का अधिकार है, लेकिन सबको पता है कि इन विकल्पों की आड़ में किस तरह तारीख पर तारीख का खेल खेला जाता है। यह केवल हास्यास्पद ही नहीं, बल्कि शर्मनाक भी है कि 2012 के जिस मामले ने पूरे देश को थर्रा दिया था, उसके दोषियों की सजा पर अमल अब तक नहीं हो सका है और वह भी तब, जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फैसला 2017 में ही सुना दिया था। इसके बाद जो कुछ हुआ, वह न्याय प्रक्रिया की कच्छप गति को ही बयान करता रहा। न्याय प्रक्रिया की सुस्त रफ्तार से न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था के शीर्ष पदों पर बैठे लोग अनजान नहीं, लेकिन दुर्भाग्य से उन परिस्थितियों का निराकरण होता नहीं दिखता, जिनके चलते समय पर न्याय पाना कठिन है।
बलात्कार-हत्या जैसे जघन्य अपराधों में जिस तेजी से मामलों का निपटारा होना चाहिए, वह मौजूदा न्यायिक व्यवस्था में बेहद मुश्किल है। न्यायिक प्रक्रिया इतनी लंबी खिंचती चली जाती है कि कई बार न्याय की उम्मीद खत्म हो जाती है। निर्भया कांड को सात साल हो चुके हैं। लेकिन अभी तक बचाव पक्ष के लोग कानूनी दांवपेंचों का सहारा लेते हुए बचाव का कोई न कोई रास्ता निकालने की जुगत में हैं। वरना एक दोषी का वकील अदालत के समक्ष ऐसा विचित्र तर्क क्यों रखता कि दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण के कारण जीवन छोटा होता है, उसके मुवक्किल के साथ अन्याय हुआ है, या उसका मामला मीडिया के दबाव से प्रभावित रहा है। जबकि हकीकत यह है कि इस मामले में मीडिया और देशभर में चले आंदोलन से जो दबाव बना, उसी से अदालतों ने भी इसमें फुर्ती दिखाई। वरना देशभर में हजारों मामले ऐसे होंगे जो सालों से लटके पड़े होंगे और जिनकी सुनवाई के बारे में किसी को कोई खबर नहीं होगी। अपराधी, आरोपी और दोषी न्यायिक व्यवस्था की इसी खामी का फायदा उठाते हैं और ज्यादातर मामलों में सजा नहीं हो पाती।
निर्भया कांड के बाद महिला सुरक्षा की दिशा में केंद्र सरकार ने जो कदम उठाए, जिस तरह के सख्त कानून बनाए, राज्यों को ऐसे मामलों से निपटने के लिए जो कड़े निर्देश दिए थे, वे एक तरह से बेअसर ही साबित हुए। राज्यों ने इस दिशा में कोई उल्लेखनीय कदम नहीं उठाया। बिहार, उत्तर प्रदेश सहित देश के तमाम राज्यों महिलाओं के प्रति ऐसे अपराधों का ग्राफ काफी ऊंचा है। उत्तर प्रदेश के उन्नाव कांड तक ने सबको हिला दिया था। आरोपी सत्तारूढ़ दल का विधायक था, इसलिए लंबे समय तक बचता रहा। सात साल में उत्तर प्रदेश में ऐसी न जाने कितनी वारदात हुई हैं, लेकिन किसी भी मामले में पीडि़त पक्ष को न्याय नहीं मिला। ऐसे मामलों के निपटारे के लिए कुछ दिन पहले ही उत्तर प्रदेश सरकार ने त्वरित अदालतोंके गठन का फैसला हुआ है। पीडि़तों को न्याय दिलाने के प्रति सरकार की उदासीनता एक बड़ी समस्या है। इसी से अपराधियों के हौसले बुलंद होते हैं। अदालतों की अपनी मजबूरियां हैं। स्थानीय पुलिस की भी इसमें बड़ी भूमिका रहती है। अपराधियों को अक्सर मिलने वाला राजनीतिक संरक्षण किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में महिलाएं कैसे सुरक्षित रहेंगी, यह गंभीर सवाल है।
तनाव है तो होने दे, इसमें बुरा क्या है?
डॉ नीलम महेंद्र
स्ट्रेस यानी तनाव। पहले इसके बारे में यदा कदा ही सुनने को मिलता था। लेकिन आज भारत समेत सम्पूर्ण विश्व के लगभग सभी देशों में यह किस कदर तेज़ी से फैलता जा रहा है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज हर जगह स्ट्रेस मैनेजमेंट अर्थात तनाव प्रबंधन पर ना सिर्फ अनेक जानकारियाँ उपलब्ध हैं बल्कि इस विषय पर अनेक रिसर्च भी की जा रही हैं। कहा जा सकता है कि आज तनाव ने एक ऐसी महामारी का रूप ले लिया है जो सीधे तौर पर भले ही जानलेवा ना हो लेकिन कालांतर में अनेक बीमारियों का कारण बनकर हमारे जीवन को जोखिम में अवश्य डाल देती है। हमारे बुजुर्गों ने भी कहा है, “चिंता चिता समान होती है”। लेकिन दिल थाम कर रखिए तनाव कितना भी बुरा हो लेकिन इस लेख के माध्यम से आपको तनाव के विषय में कुछ ऐसी रोचक जानकारियाँ दी जाएंगी जिससे तनाव के बारे में आपकी सोच ही बदल जाएगी और आप अगर तनाव को अच्छा नहीं कहेंगे तो यह तो जरूर कहेंगे कि “यार तनाव है तो होने दे, इसमें बुरा क्या है?”
यकीन नहीं है ? तो हो जाईए तैयार क्योंकि अब पेश है, तनाव के विषय में लेटेस्ट रिसर्च जो निश्चित ही आपके तनाव को कम करने वाला है।
सबसे पहले तो हमारे लिए यह जानना बेहद जरूरी है कि हमारा शरीर कुदरती रूप से तनाव झेलने के लिए बनाया गया है, जीवन में यकायक आने वाली मुश्किलों से लड़ने के लिए ईश्वर द्वारा हमारे मस्तिष्क में कुछ डिफॉल्ट फंक्शन फीड किए गए हैं। इसे यूँ समझते हैं। कल्पना कीजिए आप जंगल में रास्ता भटक गए हैं और अचानक आपके सामने एक शेर आ जाता है, या फिर आप सुबह सुबह सैर के लिए निकलते हैं अचानक एक कुत्ता आपके पीछे पड़ जाता है। आपका दिल तेज़ी से धड़कने लगता है आपका रक्तचाप बढ़ जाता है आपको पसीना आने लगता है, आदि आदि। क्योंकि इस वक्त हमारा शरीर अतिरिक्त ऊर्जा से भर जाता है जो अब हमारे लिए जीवनरक्षक सिद्ध होने वाली है। आइए अब इसके पीछे की वैज्ञानिक प्रक्रिया को समझने की कोशिश करते हैं। जैसे ही आपका मष्तिष्क किसी खतरे को भांपता है, तो मस्तिष्क में मौजूद हाइपोथैलेमस ग्रंथी द्वारा एक अलार्म बजा दिया जाता है और हमारा पूरा शरीर “हाई अलर्ट” मुद्रा में आ जाता है। हमारे ही शरीर में मौजूद एक दूसरी ग्रंथी एड्रीनल ग्लैंड से हॉर्मोन का स्राव होने लगता है। ये हॉर्मोन हैं एड्रीनलीन और कोर्टिसोल। एड्रीनलीन हमारे दिल की धड़कन को बढ़ाता है, हमारे रक्तचाप को बढ़ाता है और हमारे शरीर को ऐसे समय अतिरिक्त ऊर्जा उपलब्ध कराता है। जबकि कोर्टिसोल हमारे रक्त में ग्लूकोज की मात्रा बढ़ाता है ताकि हमारे सेल्स को काम करते रहने की शक्ति मिले साथ ही रक्त में ऐसे पदार्थों की उपलब्धता भी निश्चित करता है जिससे घायल होने वाले ऊतकों की रिपेयरिंग की जा सके। इतना ही नहीं यह हमारे पाचन तंत्र की क्रियाशीलता कम कर देता है जिससे इन परिस्थितियों में हमारी भूख मर जाती है और हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ा देता है। परिस्थिति सामान्य होते ही हमारा मष्तिष्क स्वयं इन ग्रंथियों के स्राव को रोक देता है और हमारे दिल की धड़कन रक्तचाप भूख, सभी क्रियाएँ सामान्य होने लगती हैं। सोच कर देखिए अगर वाकई में आपका सामना एक शेर से हो जाए तो तनाव के उन क्षणों में हमारे शरीर में होने वाले ये परिवर्तन हमारे लिए वरदान हैं कि नहीं? तो अब आप क्या कहेंगे? तनाव अच्छा है या बुरा? तो आइए यह अच्छा है या बुरा इसका उत्तर देने से पहले हम इसके अच्छा होने से लेकर बुरा बन जाने तक के सफर को भी समझ लेते हैं।
दरअसल जब धरती पर मानव जीवन की शुरुआत हुई थी तो वो जंगलों में जंगली जानवरों के बीच था। उस समय के तनाव ये ही होते थे कि किसी खूँखार जानवर से सामना हो गया। ऐसे समय में हमारे शरीर की यह प्रतिक्रियाएं वरदान साबित होती थीं लेकिन आज हमारे तनाव का रूप बदल गया है। आज हमारे सामने आर्थिक दिक्कत, टूटते परिवारों के परिणाम स्वरूप भावनात्मक असुरक्षा की भावना, व्यावसायिक प्रतिद्वंदिता, तरक्की अथवा स्टेटस की परवाह जैसे मानसिक तनाव के अनेक कारण उपलब्ध हैं। इस प्रकार के तनाव की स्थिति का कोई व्यक्ति कैसे सामना करता है यह उसके व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। जैसे कोई ऐसी परिस्थितियों को एक चुनौती के रूप में स्वीकार कर सकता है तो कोई इन परिस्थितियों में अवसाद में चला जाता है। तनाव होने की स्थिति में हमारी प्रतिक्रिया ही वो बारीक सी रेखा है जो तनाव के अच्छा या बुरा होने के बीच की दूरी तय करती है। यही इसके अच्छे होने से लेकर इसके बुरा बन जाने तक का सफर है।
दरअसल यू एस में आठ सालों तक 30,000 लोगों पर एक प्रयोग किया गया। इस प्रयोग में उन लोगों को शामिल किया गया जो अलग अलग कारणों से तनावग्रस्त जीवन जी रहे थे। उन्हें यह समझाया गया कि यह तनाव उनके लिए अच्छा है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जिन लोगों ने इस विश्वास के साथ स्ट्रेस का सामना किया कि यह स्थिति उनके लिए अच्छी है उन्हें तनाव से कोई नुकसान नहीं पहुंचा लेकिन जिन लोगों ने तनाव का सामना तनाव के साथ किया उन्हें ना सिर्फ अनेक बीमारियाँ हुईं बल्कि उनमें मृत्यु की संभावना 43% बढ़ गई। इस रिसर्च से यह बात सामने आई कि लोगों की मौत का कारण तनाव नहीं बल्कि तनाव के प्रति उनकी प्रतिक्रिया है। ये बिल्कुल वैसा ही था जैसे कि अधिकांश लोग साँप के द्वारा डसे जाने पर उसके जहर से नहीं बल्कि शॉक से मरते हैं। तनाव के प्रति अपनी सोच को बदलकर हम अपने शरीर के उसके प्रति रेस्पॉन्स को बदल सकते हैं। क्योंकि इस रिसर्च में यह बात सामने आई कि जो लोग तनाव में थे स्वाभाविक रूप से उनकी ग्रंथियों से होने वाले हार्मोनल स्राव से उनका दिल तेज़ी से धड़कने लगा और शरीर के बाकी सेल्स को तीव्रता से रक्त पहुंचाने के लिए उनकी धमनियां सिकुड़ने लगीं। किन्तु जिन लोगों ने तनाव का कोई तनाव नहीं लिया और यह विश्वास किया कि यह तनाव उनके लिए अच्छा है, दिल उनका भी तेजी से धड़क रहा था लेकिन उनकी धमनियाँ संकुचित नही रिलैक्स्ड थीं। यह सब बहुत कुछ वैसा था जैसा वो खुशी के माहौल में या वीरतापूर्ण कार्यों में हमारी धमनियों में रक्त का संचार तो सामान्य से अधिक गति से होता है लेकिन वे संकुचित नहीं होतीं। यह बायोलॉजिकल बदलाव कोई छोटा मोटा बदलाव नहीं था। तनाव के विषय में यह नई खोज बताती है कि हम तनाव के विषय में कैसा सोचते हैं बेहद महत्वपूर्ण है। अगर हम यह सोचते हैं कि यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसकी मदद से मेरा शरीर आने वाली चुनौती का सामना करने के लिए मुझे तैयार कर रहा है तो निश्चित ही हमें सकारात्मक परिणाम मिलते हैं। तो अब उम्मीद है की तनाव की स्थिति में हम यह कहेंगे ,डू नॉट वरी बी हैप्पी आल इस वेल
जेएनयू का गुस्सा
सिद्धार्थ शंकर
जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) में रविवार शाम बड़ी हिंसा हुई। लाठी-डंडे, हॉकी स्टिक से लैस नकाबपोश हमलावरों ने यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स और टीचरों को बेरहमी से पीटा। इसमें 25 से ज्यादा छात्र-टीचर घायल हो गए। यह घटना बताती है कि हमारे देश के शिक्षक संस्थानों में सुरक्षा का क्या हाल है। आए दिन कॉलेज में मारपीट, हॉस्टलों में अवैध गतिविधियां संचालित हो रही हैं। प्रशासन तमाशा देख रहा है। आज जिस जेएनयू हिंसा को लेकर पूरे देश में बवाल मचा है, उसमें जेएनयू प्रशासन की तरफ किसी की नजर नहीं है। आखिर क्यों। कॉलेज परिसर में नकाबपोश लोग अगर घुसे तो यह पुलिस की नाकामी नहीं, जेएनयू प्रशासन की है। दिल्ली पुलिस की गलती यह है कि वह समय पर नहीं पहुुंची। अगर घटना की जानकारी मिलते ही पुलिस मौके पर आती तो शायद बवाल इतना बड़ा नहीं होता और बदमाशों को पकड़ भी लिया जाता। कहा जा रहा है कि यूनिवर्सिटी में खुलेआम घूमते और तोडफ़ोड़ करते नकाबपोशों की तस्वीरें सामने आ चुकी हैं। ये लोग दिन की रोशनी में डंडे लेकर घूमते दिखे। लेकिन ये नकाबपोश कौन थे और कहां से आए थे इसका जवाब दिल्ली पुलिस और जेएनयू प्रशासन को जल्द से जल्द सामने लाना होगा। सवाल फिर वही कि जेएनयू प्रशासन क्या कर रहा था। जेएनयू के गेटों पर कड़ी सुरक्षा रहती है, कोई भी बाहरी शख्स कैंपस में आसानी से दाखिल नहीं हो सकता है। छात्रों को भी आई कार्ड देखने के बाद ही प्रवेश मिलता है। अगर ये लोग बाहरी थे तो इतनी बड़ी तादाद में लाठी-डंडों और रॉडों के साथ कैसे और कहां से यूनिवर्सिटी में घुस आए। इसका जवाब यूनिवर्सिटी प्रशासन को देना ही होगा। इतनी देर तक कैंपस के अंदर हंगामा और स्टूडेंट्स के साथ मारपीट होती रही, इस दौरान यूनिवर्सिटी प्रशासन क्या कर रहा था। खासतौर से कैंपस में बड़ी तादाद में सिक्योरिटी गार्ड्स तैनात रहते हैं, वे सब इस दौरान क्या कर रहे थे। उन्होंने हमलावरों को रोकने या पकडऩे की कोशिश क्यों नहीं की। बहरहाल, जेएनयू में हुई हिंसा में छात्रसंघ अध्यक्ष आईशी घोष समेत 25 से ज्यादा छात्र और टीचर गंभीर रूप से घायल हुए, जिन्हें एम्स और सफदरजंग में भर्ती कराया गया। घटना के 17 घंटे बाद एफआईआर दर्ज हो पाई, मगर राजनीतिक बयानबाजी लगातार तेज होती जा रही है। कांग्रेस और लेफ्ट के नेताओं ने हिंसा के लिए केंद्र सरकार पर निशाना साधा है। वहीं, भाजपा ने इस मामले में राजनीति न करने की सलाह दी है।
पुलिस कह रही है कि नकाबपोश युवकों की पहचान हो चुकी है, उन्हें जल्द गिरफ्तार किया जाएगा। गृह मंत्री अमित शाह ने दिल्लनी के उप-राज्यपाल अनिल बैजल और दिल्ली पुलिस कमिश्नर से बात कर हिंसा पर तत्काल रिपोर्ट मांगी है। अगर पूरे विवाद पर नजर डालें तो फीस बढ़ोतरी के बाद प्रदर्शनों के बीच जेएनयू प्रशासन ने रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया शुरू कर दी थी और 5 जनवरी को उसकी आखिरी तारीख थी। हालांकि शनिवार को प्रदर्शन कर रहे छात्रों ने रजिस्ट्रेशन के लिए जरूरी इंटरनेट और सर्वर के तार काट दिए, जिससे रजिस्ट्रेशन प्रक्रिया ठप हो गई। जब कुछ छात्रों ने इस काम का विरोध किया तो कथित तौर पर उनके साथ मारपीट हुई और फिर फीस बढ़ोतरी के खिलाफ हो रहा प्रदर्शन एबीवीपी बनाम लेफ्ट में बदल गया। रविवार शाम से ही यह प्रदर्शन उग्र हो गया और नकाबपोश बदमाशों के आने के बाद भीड़ हिंसक हो गई। इस दौरान छात्र, टीचर सबकी पिटाई हुई। छात्रों ने बताया कि हमलावर लड़कियों के हॉस्टल में हमलावर पहुंच गए और दरवाजे खटखटाने लगे। कई हॉस्टल में जमकर तोडफ़ोड़ की गई। छात्रों का कहना है कि हमलावरों की संख्या 200 से ज्यादा थी। आरोप है कि अलग-अलग गेट से जेएनयू में पढऩे वाले एबीवीपी के कार्यकताओं ने उन्हें एंट्री करवाई। छात्रों ने सोशल मीडिया पर वॉट्सएप ग्रुप की चैट भी शेयर की है, जिसमें कैंपस में घुसने और स्टूडेंट्स लीडर्स को पीटने का प्लान बनाया गया है। हालांकि, यह सही है या फेक, यह पता नहीं लगा है। एक छात्र का कहना है हमलावरों ने सुबह से तैयारी की थी, दिन में पेरियार हॉस्टल के पास ये लोग नजर भी आए। दिन में प्रशासन से भी शिकायत की गई, लेकिन रविवार का बहाना देते हुए कोई कार्रवाई नहीं की गई। हैरानी की बात है कि यहां पुलिस सुबह से ही मौजूद थी, लेकिन हमला होते ही यहां से चली गई।
2020:वास्तविक समस्यायों से मुंह मोड़ना घातक होगा
भूपेन्द्र गुप्ता
क्या ‘विश्वगुरू’ भारत में होगी गरीब की जगह? 2020 की शुरुआत हो रही है। अच्छे माहौल में 2020 गुजरना चाहिए। गिरती हुई जीडीपी, बिखरती हुई अर्थव्यवस्था, चरम पर पहुंची बेरोजगारी और नागरिकता के नाम पर देश में लगाई गई आग ऐसे काम हैं जो तकलीफ देते हुए 2020 में भी बने रहेंगे लेकिन कोशिश यही रहे कि सौहार्द नहीं बिगड़े।
2020 कैसे सर्वहितैषी बने यह भारत जैसे महान देश को स्वयं सोचना पड़ेगा ।क्या अपने ही हाथों तैयार परेशानियां लेकर भारत का लोकतंत्र रोशन होगा? क्या मानव निर्मित परेशानियों के समाधान निकाल कर एक सम्यक भारत का निर्माण कर पाएंगे? पिछले कुछ साल भारत की आधी आबादी को डराने कोसने और उसके दमन करने की नीतियों को न्यायसंगत ठहराने में निकल गया है। कोई सकारात्मक काम नही हुए। दुर्भाग्यपूर्ण तो यह कि संघ के एक विचारक ने यहां तक कह दिया कि भारतीय परंपराओं में बलात्कार की सजा देने का कोई नियम नहीं है। इस तरह 2019 इस दकियानूसी साल था। आधी आबादी को कुचल देने वाली सोच को 2020 में नष्ट करना होगा।
कुछ सवाल हैं जो खड़े रहेंगे। जवाब हमे खोजना होगा। क्या अपने ही नागरिकों को अपना ही इतिहास खोजने के लिए विवश किया जाएगा? अपनी नागरिकता सिद्ध करने के अज्ञात अंधेरे की टनल से क्या उन्हें गुजारा जाएगा ?क्या यह व्यावहारिक है कि लोग 70 साल पीछे जाकर अपने माता पिता की जन्मतिथि की खोज करें उसके दस्तावेज उठाएं और राहत की सांस लें या वे अपने स्वयं के दस्तावेज के आधार पर भारत के गौरवमयी नागरिक कहलाएं। यह सवाल 2020 की सुबह के सामने चुनौतियों के रूप में खड़े हैं।
नये एनपीआर में जिन 15 तरह की जानकारियां दी जानी हैं उन्हें आसानी से प्राप्त नहीं किया जा सकता। माता और पिता की जन्म तिथि स्थान और उसके प्रमाण कहां से लाये जायेंगे जबकि पिता की पीढ़ी तो जन्म दिनों को संवत् और तिथियों के अनुसार याद रखती थी ।किसी अन्य बड़े व्यक्ति के जन्मदिन अथवा उसकी शादी की तारीख से जोड़कर आगे पीछे के दिनों के हिसाब से याद रखती थी। अब यह पूर्णता अव्यावहारिक है कि कोई व्यक्ति अपनी नागरिकता सिद्ध करने के लिए 100 साल पुराने इस रिकॉर्ड की खोजबीन करे। कई महीने यह ढूंढने में ही खप जाएंगे कि जिस गांव में पिता का जन्म हुआ था उस गांव में उनके समय का कोई व्यक्ति जीवित भी हो। कल्पना करें कि हर नागरिक अपने होने का सबूत जुटाने में लगा है। मारा मारा फिर रहा होगा।
देश की वास्तविक समस्यायों से आज मुंह मोड़ना अनुचित होगा। देश में स्टील की कीमतें लगभग 34 प्रतिशत नीचे चली गईं है। मोटर उद्योग में लगभग 32 प्रतिशत खपत कम हुई है ।एफएमसीजी में भी लगभग 30 प्रतिशत खपत में कमी आई है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो बहुत ही विकट स्थिति है लगता है उनकी क्रय शक्ति जवाब दे चुकी है यही हाल दूसरे उत्पादन क्षेत्रों का है चाहे सीमेंट हो या अन्य जिससे अधोसंरचना क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हुआ है। आज हम अर्थव्यवस्था के उस बुरे दौर में पहुंच गए हैं जहां पर सकल घरेलू उत्पाद(जीडीपी) और प्रति व्यक्ति अनुपात में हम वहीं पहुंच गये हैं जहां चीन 2002-03 में खड़ा था ।5प्रतिशतकी वास्तविक जीडीपी हासिल करना एक चुनौती है और मंदड़ियों का सोच है कि लंबी अवधि तक यही दर बनी रह सकती है।कहीं पाकिस्तान से दो-दो हाथ करने की उतावली में हम आगे बढ़ने के बजाय पीछे तो नहीं लौट रहे हैं। जो पाकिस्तान पहले ही मरा हुआ है उससे लड़ना हमारा ध्येय तो नहीं हो सकता।
हमारे बैंकों की हालत खराब हो चुकी है। सहकारी बैंक डूब रहे हैं बैंकों से कर्जा नहीं उठ रहा है स्वाभाविक है बैंकिंग उद्योग घाटे में जायेगा आज देश के सामने यही सबसे बड़ी चुनौती है जिससे हमें बाहर निकलना है और 2020 में इस चुनौती से बाहर निकलने के लिए हमें सी ए ए और एनसीआर जैसी थोपी गई प्राथमिकताओं से देश को बाहर निकलना पड़ेगा। देश की प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि गरीब के पेट में खाना कैसे पहुंचे उसे काम कैसे मिले उसे रोजगार से कैसे जोड़ा जाए? हमें यह भी ख्याल रखना होगा कि भारत सिर्फ हिन्दुओं, मुसलमानों, सिखों ईसाईयों, पारसियों या किसी एक कौम का देश नहीं है। यह गरीबों का देश है। सभी कौमों में गरीब हैं। क्या उनकी भी कोई बात करेगा? क्या महान भारत और, विश्वगुरु भारत मे गरीब लोगों की भी जगह होगी?
कम हो तनाव
सिध्दार्थ शंकर
ईरान के दूसरे सबसे ताकतवर नेता जनरल कासिम सुलेमानी के बगदाद में अमेरिकी ड्रोन हमले में मारे जाने के बाद पूरे पश्चिम एशिया में तनाव अपने चरम पर है। इस हत्याकांड के बाद विश्व की 13वीं सबसे बड़ी सैन्य शक्ति ईरान और सुपर पावर अमेरिका के बीच जुबानी जंग तेज हो गई है और दुनिया के तीसरे विश्वयुद्ध की ओर बढऩे की आशंका जाने लगी हैं। इस बीच खाड़ी देशों में बढ़ते तनाव को देखते हुए अमेरिका ने 3 हजार अतिरिक्त सैनिक भेजने का फैसला किया है। इतना सब होने के बाद भी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कह रहे हैं कि उनका देश ईरान के साथ युद्ध शुरू नहीं करना चाहता है लेकिन अगर इस्लामिक देश ने कोई जवाबी कार्रवाई की तो अमेरिका इससे निपटने के लिए पूरी तरह से तैयार है। ट्रंप ने कहा, कासिम सुलेमानी की हत्या ईरान के साथ विवाद बढ़ाने के लिए नहीं की गई है। हालांकि, ईरान ने कहा है कि वह इस हत्याकांड का बदला लेगा। इस बीच ईरान के राष्ट्रीय सुरक्षा काउंसिल की राजधानी तेहरान में बैठक हुई है जिसकी अध्यक्षता ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला खामेनेई ने स्वयं की है। ऐसा पहली बार है जब खामेनेई ने किसी बैठक की अध्यक्षता की है। जो भी हो, हालात बेहद नाजुक हैं।
पश्चिम एशिया में बढ़ते तनाव को देखते हुए सोशल मीडिया से लेकर राजनयिक हलके तक में तीसरे विश्वयुद्ध के शुरुआत की अटकलें तेज हो गई हैं। आशंका यह भी जताई जा रही है कि ईरान अमेरिका के सहयोगी इजरायल के सुरक्षाकर्मियों, होरमुज की खाड़ी में तेल टैंकरों और सऊदी अरब के तेल ठिकानों पर हमले कर सकता है। उसके इस कदम में हिज्बुल्ला, हूती विद्रोही और सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद मदद कर सकते हैं।
सुलेमानी के मारे जाने से खाड़ी में फिलहाल जबरदस्त तनाव का माहौल है। इस तनाव से भारत भी अछूता नहीं रहेगा। अमेरिका के दबाव की वजह से ईरान के साथ भारत के रिश्ते पहले ही नाजुक दौर में हैं और अब ईरानी कमांडर के मारे जाने के बाद भारत और तेहरान के रिश्ते और भी जटिल हो सकते हैं। अमेरिका की इस कार्रवाई से महज दो हफ्ते पहले ही विदेश मंत्री एस. जयशंकर तेहरान पहुंचे थे। इस दौरान दोनों ही देश चाबहार पोर्ट को विकसित करने के प्रोजेक्ट को तेजी देने पर सहमत हुए थे। ईरान के साथ संबंध रखने वाले देशों पर प्रतिबंधों लगाने वाले अमेरिका ने भारत को चाबहार पोर्ट को विकसित करने की इस शर्त पर छूट दी है कि ईरानी सेना रिवोलूशनरी गार्ड्स इस प्रॉजेक्ट में शामिल न हो। चाबहार पोर्ट के जरिए भारत की अफगानिस्तान तक पहुंच सुनिश्चित होगी। चाबहार व्यापारिक के साथ-साथ रणनीतिक तौर पर बेहद महत्वपूर्ण है। यह चीन की मदद से विकसित किए गए पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट से महज 100 किलोमीटर दूर है। कभी चाबहार भारत की सीमा से सटा था। 10वीं सदी के मशहूर विद्वान और इतिहासकार अल बरूनी ने लिखा था कि भारत के समुद्री तट की शुरुआत चाबहार से होती है।
आज ईरान और अमेरिका एक दूसरे के कट्टर विरोधी हैं लेकिन एक वक्त में दोनों देशों के रिश्ते काफी मजबूत थे। 1979 में ईरान में इस्लामिक क्रांति के बाद वॉशिंगटन और तेहरान के रिश्तों में तल्खी आ गई। इसके बाद भारत को भी तेहरान के साथ अपने रिश्तों को लेकर संतुलन साधना पड़ा। तब से नई दिल्ली अमेरिका और इजरायल के साथ अपने रणनीतिक रिश्तों को बरकरार रखते हुए तेहरान को भी साधे रखने की कोशिश करता है। ईरान के साथ भारत के रिश्तों की जटिलता सिर्फ अमेरिका और इजरायल की वजह से नहीं है। सऊदी अरब और ईरान की दुश्मनी भी जगजाहिर है। इस वजह से भारत के तेहरान से रिश्ते हमेशा नाजुक रहे हैं। ईरान शिया बहुल देश है जबकि खाड़ी की ज्यादातर राजशाही सुन्नियों की है। एक वक्त था जब ईरान भारत का मुख्य तेल आपूर्तिकर्ता था, लेकिन अमेरिका के दबावों की वजह से नई दिल्ली को तेहरान से तेल आयात को तकरीबन खत्म करना पड़ा। इस बीच अमेरिका बड़े तेल आपूर्तिकर्ता देश के तौर पर उभरा है और दुनियाभर में तेल और गैस का निर्यात कर रहा है। आज स्थिति यह है कि भारत की तेल जरूरतों के करीब 10 प्रतिशत की आपूर्ति अमेरिका से होती है जबकि ईरान से आपूर्ति शून्य के करीब है।
दरअसल भारत को अब चाबहार में अपने हितों को लेकर अमेरिका को आश्वस्त करने के लिए बड़ी मशक्कत करनी होगी। चाबहार चारों तरफ से जमीन से घिरे अफगानिस्तान तक संपर्क का जरिया होगा। इससे अमेरिका को भी फायदा होगा क्योंकि अफगानिस्तान नई दिल्ली और वॉशिंगटन दोनों के लिए काफी अहम है। दोनों देशों के वहां अपने-अपने हित हैं। चाबहार पर भारत को छूट देने को लेकर अमेरिका के एक अधिकारी ने पिछले महीने कहा था कि इससे भारत अफगानिस्तान में जरूरी सामानों को निर्यात करने में सक्षम होगा जो काबुल के भी हित में है। हालांकि, अगर खाड़ी में मौजूदा तनाव बड़े युद्ध का रूप लेता है तो चाबहार प्रोजेक्ट पर ग्रहण लग सकता है। इसके अलावा खाड़ी में भारत के करीब 50 लाख लोग काम करते हैं। ये भारत के लिए विदेशी पूंजी का एक बड़ा स्रोत भी हैं। तनाव बहुत ज्यादा बढऩे पर इन लोगों के वहां फंसने की आशंका भी रहेगी।
आओ प्रार्थना करें 2020 में बदल जाएं हमारे प्रतिमान
डॉ अजय खेमरिया
बदलते अवचेतन को बयां करती न्यू इंडिया की आइकॉन रैंकिंग मप्र के झाबुआ औऱ अलीराजपुर जिलों के करीब पांच सौ से अधिक गांवों में ” हलमा ” (एक वनवासी लोकप्रथा) के जरिये जल सरंक्षण और सहकार आधारित ग्राम्य विकास की अद्धभुत कहानी लिखने वाले पद्मश्री महेश शर्मा।
चित्रकूट और सतना सहित आधे बघेलखंड में ग्राम्य विकास,नवदम्पति मिशन,और पुलिस हस्तक्षेप से मुक्त ग्राम्यसमाज व्यवस्था की नींव रखने वाले नानाजी देशमुख।
जल जंगल,जमीन और जानवर के महत्व को समझ कर स्थानीय गरीबी के समेकित प्रक्षालन के लिए काम करने वाले महाराष्ट्र के धुले जिले के चेतराम पवार ।
ऐसे पारंपरिक सेवा,और लोककल्याण के अनगिनत कामों में भारत के हजारों लोग निस्वार्थ भाव से लगे है।लेकिन इन्हें आज का भारतीय समाज आदर्श नही मान रहा है।मीडिया इन्हें जगह नही देता है। अगर देता भी है तो परिस्थिति जन्य।ऐसे प्रकल्पों में धन और कारपोरेट की ताकत नहीं है।वे अंग्रेजी के बड़े अखबारों को पहले पेज के विज्ञापन के अपीलीय चेहरे जो नही।
यही कारण है कि हाल ही में फोर्ब्स के 100 प्रतिमान (आइकॉन)भारतीय चेहरों में एक भी सामाजिक क्षेत्र का व्यक्ति नही है।धन कमाने और मीडिया में मिले कवरेज को आधार बनाकर जिन 100 भारतीय आइकॉन को फोर्ब्स जैसी पत्रिका ने इस बर्ष जारी किया है उसमें सबसे उपर है विराट कोहली।नंबर दो पर अक्षय कुमार,फिर आलिया भट्ट दीपिका पादुकोण से लेकर अनुष्का शर्मा,महेंद्र सिंह धोनी,माधुरी दीक्षित, कटरीना कैफ,प्रियंका चोपड़ा,ऋषभ पंत,के आर राहुल,सोनाक्षी सिन्हा,के नाम शामिल है।
सेलिब्रिटीज की यह सूची दुनिया भर में हर साल जारी होती है।भारत के लिए इसका महत्व वैसे तो आम आदमी के सरोकार से समझे तो कोई खास नही है ।क्योंकि कोई कितना कमाता है और कितना मीडिया में जगह हासिल करता है इससे उसबहुसंख्यक भारतीय को कोई लेना देना नही है जो पेज थ्री और मेट्रो कल्चर से परे मेहनत मजदूरी कर अपने लिये दो जून की रोटी ही बमुश्किल जुटा पाता है।लेकिन भारत में पिछले तीन दशक से जिस नए मध्यम और निम्न मध्यमवर्गीय तबके का जन्म हुआ है उसके लिये इस सेलिब्रिटीज रैंकिंग का बड़ा महत्व है।यह सेलिब्रिटी रैंकिंग भारत गणराज्य में इंडियन और हिंदुस्तान के विभाजन को स्पष्ट करते सामाजिक आर्थिक विकास की कहानी भी है।सवाल यह है कि क्या नया भारतीय समाज सिर्फ धन के आदर्शों पर संकेंद्रित हो रहा है?क्या मीडिया निर्मित छवियाँ ही हमारे अवचेतन में आदर्श के रूप में स्थापित हो रही है। जो सिर्फ धनी है सम्पन्न है। और जिनकी करणी का सेवा,या उपकार, के भारतीय मूल्यों से कोई सरोकार नही। कैसे ये चेहरे हमारे लोकजीवन के आदर्शों में ढलते जा रहे है।
कला,संगीत,खेल ,व्यवसाय,उधमता का अपना महत्व है यह सभ्य लोकजीवन के आधारों में भी एक है। लेकिन जब समेकित रूप से हम समाज के आदर्शों की चर्चा करते है तो भारतीय सन्दर्भ पश्चिम से अलग पृष्ठभूमि पर नजर आता है।हम आज भी अपनी परोपकारी, सहकार, सहअस्तित्व, सहभागी औऱ समावेशी समाज व्यवस्था के बल पर ही हजारों साल से सभ्यता, संस्कृति और लोकाचार के मामलों में एक वैशिष्ट्य के साथ अक्षुण्ण बने हुए है।यह अक्षुण्यता
हमारी समाज व्यवस्था या सामूहिक चेतना में किसी आर्थिक संपन्नता की वजह से नही है,बल्कि वसुधैव कुटुम्बकम, अद्वेत,और सर्वजन सुखाय,सर्वजन हिताय जैसे कालजयी जीवन आदर्शों के चलते ही है।
इसलिये फोर्ब्स के यह ताजा सूची हमें आमंत्रित कर रही है कि हम हमारी समाज व्यवस्था के बदलते आइकॉन्स का विश्लेषण करें।हमें यह समझने की जरूरत है कि नई आर्थिकी से गढ़ी गई नई सामाजिकी के अवचेतन में अब हमारे जीवन मूल्य किस इबारत के साथ स्थापित हो रहे है।मिश्रित व्यवस्था वाले भारतीय से ग्लोबल कन्जयूमर में तब्दील करीब 30 करोड़ भारतीय (मिडिल एवं लोअर मिडिल क्लास का एक अनुमान आधारित आंकड़ा)क्या अपनी जड़ों से कट रहे है?क्या इस नए भारत के प्रतिमान पूरी तरह बदल रहे है?क्या इस विशाल तबके के लोकाचार में पैसा ,कमाई, औऱ जीवन शैली की सम्पन्नता के आगे की मूल भारतीय सोच महज रस्मी बनकर रह गई है?सवाल कई है जो हमें सामाजिक धरातल पर चेताने की कोशिशों में लगे है।सरकार द्वारा बाध्यकारी सीएसआर की परोपकारी सरकारी आर्थिक व्यवस्था ने असल में हमारे हजारों साल के लोकजीवन को कुचलने का प्रयास ही किया है।नया मध्यमवर्गीय भारत एक नकली सामाजिक चेतना को गढ़ रहा है।वह एक रात या सोशल मीडिया की आभासी लोकप्रियता जैसी अस्थायी अवधि वाले आदर्श को अपने अक्स में देखने लगा है।उसके लोकाचार में संवेदना की व्याप्ति सिर्फ खुद की चारदीवारी तक सिमट गई है।इसीलिये समाज में परिवार और रिश्तों की दरकन ने बड़ी गंभीर चुनौती खड़ी कर दी है।इसे समाजशास्त्र के नजरिये से समझा जाये तो कहा जा सकता है कि भारत मे नागरिकशास्त्र और समाजशास्त्र दोनों को उपभोक्ताशास्त्र ने अपनी जमीन से बेदखल सा कर दिया है।यही कारण है कि बिग बॉस और इंडियन आइडल जैसे मंचो की पकड़ हमारे मन मस्तिष्क में नाना जी देशमुख,जलपुरुष राजेन्द्र सिंह,नर्मदा सेवी अमृतलाल बेगड़,अपना घर भरतपुर या शिवगंगा झाबुआ के आग्रहों से अधिक है। गली की एक बिटिया अभावों से जूझती है एक दिन कलेक्टर बन जाती है लेकिन वह समाज और मीडिया के लिए क्षणिक आदर्श है उस बिटिया की तुलना में जो सिनेमा या रंगमंच के किसी कमाऊ या कारपोरेट प्लेटफॉर्म पर मौजूद है।
हमारे अवचेतन के 360 डिग्री कंज्यूमर बेस्ड बदलाव को समझिए उन विज्ञापनों से जो नहाने,पहनने,खाने,सोने,रतिकर्म, से लेकर विलासिता के हर उत्पाद से जुड़े है और हर उस उत्पाद के उपयोग की अपील कामुक भाव भंगिमा के साथ महिलाएं कर रही है।
फोर्ब्स की भारतीय सेलिब्रिटी लिस्ट में इस साल पॉर्नस्टार सनी लियोन भी शामिल है। क्योंकि उन्हें हम भारतीयों ने इंटरनेट पर सबसे ज्यादा सर्च किया है।इसलिये उनकी कमाई और मिडिया स्पेस किसी सुपर 30 वाले से ज्यादा रहा है। हमारी सामूहिक चेतना में सनी लियॉन सचिन शर्मा, आशीष सिंह या राजाबाबू सिंह जैसे नवाचारी और काबिल अफसरों से भी ज्यादा आदर्श स्थिति में है। जिन्होंने अजमेर और इंदौर जैसे शहरों को वैश्विक मानकों पर ला खड़ा किया या ग्वालियर चंबल जैसे डकैत प्रभावित जोन में सोशल पुलीसिंग की नई कहानी लिख दी है। असल में यह हमारे बदल चुके अवचेतन की ही कहानी है।जहां सनी लियॉन ने हमारे मध्यमवर्गीय समाज को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। तथ्य है जब समाज के चेतना का स्तर अपनी जड़ों से कट जाता है तब उस समाज के नए स्वरूप का अवतरण होता। भारतीय समाज इसी प्रक्रिया से गुजर रहा है। राजनीति, क्रिकेट,सिनेमा,क्राइम का घनीभूत हो चुका आवरण फिलहाल मस्तिष्क के किसी भी कोने में हमारे पारंपरिक लोकाचार को जगह देने के लिए तैयार नही है।केंद्रीय मंत्री प्रताप षड़ंगी को कोई नही जानता था मोदी कैबिनेट में जगह मिलने से पहले लेकिन प्रतापगढ़ के राजा भैया के लिए रॉबिनहुड बताने वाले 120 विशेष बुलेटिन अब तक जारी हो चुके है।हमारे 24 घण्टे खबरिया चैनल्स पर।आशा कीजिये हम विवेकानंद के आग्रह पर अपनी मूल चेतना की ओर लौटेंगे और अगले वर्ष जब यह सूची जारी हो तब उसमें सामाजिक क्षेत्र के चेहरे भी हमें नजर आएं।
विदेश नीतिः नरम-गरम, दोनों
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कई लोग पूछ रहे हैं कि विदेश नीति के हिसाब से पिछला साल कैसा रहा ? मैं कहूंगा कि खट्टा-मीठा और नरम-गरम दोनों रहा। कश्मीर के पूर्ण विलय को चीन के अलावा सभी महाशक्तियों ने भारत का आतंरिक मामला मान लिया। सउदी अरब और संयुक्त अरब अमारात (यूएई) ने भी भारत का स्पष्ट समर्थन किया। कश्मीर में धारा 370 खत्म करने और उसके पूर्ण विलय ने दुनिया में यह संदेश भेजा कि भारत सरकार का रवैया पहले की तरह ढीला-ढाला नहीं रहेगा। कश्मीर के पूर्ण विलय पर तुर्की और मलेशिया-जैसे देशों ने थोड़ी बहुत आलोचना की लेकिन दुनिया के अधिकतर राष्ट्रों ने मौन धारण कर लिया था। भारत के पड़ौसी मुस्लिम राष्ट्रों- बांग्लादेश, मालदीव और अफगानिस्तान ने भी भारत का समर्थन किया। जहां तक पाकिस्तान का सवाल है, उसे तो कड़ा विरोध करना ही था। उसने किया भी लेकिन अंतरराष्ट्रीय जगत तब भी कश्मीर के सवाल पर तटस्थ ही रहा। उसके पहले बालाकोट पर हुए भारत के हमले को चाहे पाकिस्तान ने ‘हवाई’ करार दे दिया हो लेकिन उसने मोदी सरकार की छवि में चार चांद लगा दिए। भारत-पाक संबंधों में इतना तनाव पैदा हो गया कि मोदी ने नए साल की शुभकामनाएं सभी पड़ौसी नेताओं को दी लेकिन इमरान को नहीं दीं। उधर इमरान ने करतारपुर साहब में सिखों के अलावा किसी के भी जाने पर पाबंदी लगा दी। यह हमारे उस नए नागरिकता कानून का जवाब मालूम पड़ता है, जिसमें पड़ौसी देशों के मुसलमानों के अलावा सबको शरण देने की बात कही गई है। इस कानून का सारी दुनिया में विरोध हो रहा है। इसने भारत में सारे विरोधी दलों को एक कर दिया है और सभी नौजवानों में जोश भर दिया है। यही वह कारण है, जिसके चलते अब इस्लामी सहयोग संगठन पाकिस्तान में कश्मीर के बहाने सम्मेलन करके इस मुद्दे को उठाएगा। दुनिया की कई संस्थाएं मानव अधिकार के मामले को कश्मीर और नागरिकता के संदर्भ में उठा रही हैं। अमेरिका के साथ हमारी व्यापारिक गुत्थी अभी तक उलझी हुई है और चीन के साथ व्यापारिक असंतुलन बढ़ता ही जा रहा है। सीमा का सवाल ज्यों का त्यों है। हमारे नागरिकता पैंतरे से बांग्लादेश नाराज है। हमारे पड़ौसी देशों में चीन की घेराबंदी बढ़ रही है। अफगान-संकट के बारे में भारत की उदासीनता आश्चर्यजनक है। हमारी विदेश नीति में कोई दूरगामी और गहन व्यापक दृष्टि अभी तक दिखाई नहीं पड़ रही है।
क्या और क्यों ? नागरिकता संशोधन अधिनियम एवं राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर
रघु ठाकुर
पिछले लगभग दो सप्ताह से देश में एक भूचाल सा आया हुआ है और देश के भिन्न भिन्न इलाकों में छुटपुट हिंसा की घटनायें भी हुई। पिछले लगभग 4-5 माह से लगतार ऐसी घटनायें घट रही हैं जो राष्ट्रीय एकता के लिए या देश के लिए वांछनीय नहीं है। भारत सरकार पहले एनआरसी का कानून लाई और गृहमंत्री ने एलान किया कि देश भर के ऐसे लोगों की छटनी की जायेगी जो देश के नागरिक नहीं है या कानून और नियमों के आधार पर नागरिकता के पात्र नहीं है। दरअसल इसकी शुरूआत तो आसाम के लोगों ने ही की थी। जब अस्सी के दशक में असम गण परिषद के नाम से गैर असमियों को बाहर निकालने का आन्दोलन किया था। इस आन्दोलन की मुख्य मांग बंग्लादेशी लोगों को बाहर निकालने की थी और बंग्लादेश से घुसपैठ रोकने की थी। क्योंकि बग्लादेशी सीमा भारत की असम की सीमा से सटी हुई है। पुराने कालखण्ड में बग्लादेश से लोग रोजगार के लिए आते रहे, असम के जमीन के मालकों ने उन्हें खेती या चाय बगानों में काम पर रखना शुरू किया और वे धीरे-धीरे बसते चले गये तथा परिवार बढ़ते गये। सन्् 1971 के बग्लादेश के निर्माण के समय जिस प्रकार पाकिस्तानी फौज ने बग्लादेशियों पर जुल्म किये उससे भी काफी लोग सीमा पार कर भारत में आये। 17वीं 18वीं सदी में अंगेजों ने चाय बगानो में काम करने के लिए देश के भिन्न-भिन्न अंचलों से मजदूरों को असम लाने का काम किया था। जिसमें बिहार, यू0पी0, कुछ उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल के मजदूर थे वे भी सदियों में आकर असम में बस गये। असम गण परिषद का अभियान मुख्य तौर पर बग्लादेशी मुसलमानों को निकालने का था और उसकी पीछे भाजपा, आरएसएस, जैसे संगठनों की अहम भूमिका थी। इसी तथाकथित असमियां अस्मिता के नाम पर वहां अगले चुनाव में असमगण परिषद की सरकार बनी और प्रफुल्ल महन्त सीएम बने। कालान्तर में बीजेपी और संघ ने असमगण परिषद का सत्व निचोड़ लिया और ए0जी0पी0 जो बड़ी पार्टी बनी थी जो घटकर तीसरे नंबर पर पहुंच गयी। इस दरमियान असम सरकार और केन्द्र सरकार ने भारत बंगला सीमा पर बाढ़ लगाने का तय किया। जो काम अभी भी अधूरा है। यद्यपि संघ 70 के दशक से यह प्रचार करता रहा, छपवाकर पर्चें बंटवाता रहता था कि देश में 10 करोड़ घुसपैठिये हैं। हालांकि एजीपी, बीजेपी और सभी सरकारें बमुश्किल कुछ हजार लोगों को ही विदेशी सिद्ध कर पाईं और निकाल पाईं। इसी बीच एनआरसी का प्रस्ताव जो पहले केन्द्र सरकार की फायलों में दबा पड़ा था निकल कर बाहर आया। बाद में मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और सुप्रीम कोर्ट ने श्री हजेला को एनआरसी बनाने का काम सौंपा। उन्होंने अपनी निगरानी में एनआरसी बनवायें। करोड़ों रूपया खर्च होने के बाद श्री हजेला ने जो सूची बनायी उसमें भी भारी त्रृटियां पायी गयी। श्री हजेला ने अकेले असम के 19 लाख लोगों को एनआरसी से बाहर बताया। यहां तक कि सदियों से रह रहे परिवार जिनके लोग सेना में नौकरी करके रिटायर्ड हो चुके है उनको भी नागरिकता सूची से बाहर कर दिया गया। यह उन्होंने नियमों की या कानून की खामी की वजह से अथवा उनके दस्तावेजों की कमी की वजह से की या द्वेषभाव से किया। परन्तु उनकी एनआरसी सूची बनने के बाद भारी हल्ला हुआ और उन पर पक्षपात और भ्रष्टाचार के आरोप लगे। केन्द्र की भाजपा सरकार को कहना पड़ा यह सूची अंतिम नहीं है 19 लाख लोगों को निकाला नहीं जायेगा तथा सुप्रीम कोर्ट ने भी श्री हजेला को दोषी पाया और उन्हें कार्य से मुक्त कर दिया। कुल मिलाकर ढाक के तीन पात रहे। बीजेपी सरकार के सामने गंभीर संकट खड़ा हो गया क्योकि 19 लाख लोगों में अधिकांश लोग यू0पी0, बिहार और बंगाल आदि के हिन्दु है जो बीजेपी के मतदाता है जिन राज्यों से वह यहां पर काम पर आये है वहां भी उनके परिजन हिन्दू होने के नाम पर बीजेपी के मतदाता है। बीजेपी के इस वोट बैंक के गड़बढ़ाते गणित से स्वत: बीजेपी को कहना पड़ा कि हम नहीं मानते और इसे मान्य नहीं किया जावेगा। परन्तु कुल मिलाकर देश में भय और आशंका का माहौल बन गया।
अब दूसरा मामला सीएबी का आया याने नागरिकता संशोधन नियम इस कानून की धारा 6 में यह जोड़ा गया है कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बंगलादेश के हिन्दू, सिक्ख, बौद्ध, जैन, पारसी और क्रिश्चियन समाज के लोगों को जो पांच वर्ष से भारत में रह रहे है को नागरिकता दी जा सकेगी। दरअसल भारतीय नागरिकता का कानून संविधान के लागू होने के लगभग पांच वर्ष बाद 1955 में संसद में पारित हुआ। इस कानून का मूल आधार था कि जो लोग भारत की जमीन पर या भारत में पैदा हुए हैं उन्हें भारत का नागरिक माना जावेगा। यथार्थ में 1946-47 में आजादी के पहले तत्कालीन कांगेस ने और मुस्लिम लीग ने बंटवारे के समझौते में जो आपसी निर्णय किया था कि अगर कोई व्यक्ति जो वर्तमान पाकिस्तान से भारत जाना चाहेगा या भारत से कोई व्यक्ति पाकिस्तान जाना चाहेगा तो उसे वहां जाकर बसने की अनुमति होगी। इस निर्णय से दोनों तरफ हिंसा और धार्मिक भावना का फैलाव हुआ। कुछ लोग अपने धार्मिक कारणों से, कुछ लोग हिंसा की वजह से भारत और पाक के बीच में आये गये। इसमें बड़ी अफरातफरी मची और मामला गैर धर्मावलंबियों को याने पाकिस्तान से हिन्दुओं और हिन्दुस्तान से मुसलमानों का अफरातफरी का सिलसिला चल पड़ा जिसका बड़ा कारण सम्पत्ति का लालच था। लाखों लोग इस अफरातफरी में साम्प्रदायिक हिंसा के शिकार हुए और विशेषता इन्डो पाक की पश्चिमी सीमा और पूर्वी सीमा पर साम्प्रदायिक तनाव नहीं फैल सका क्योंकि महात्मा गांधी ने कलकत्ता तथा नोआखाली को अपने अभियान का केन्द्र बनाया था। उपवास किया और हिन्दु मुस्लिम नेताओं को आपसी संघर्ष से रोक दिया। जो काम अंग्रेज वाइसराय और भारत की सरकार की सेना पश्चिम की सीमा पर नहीं कर सकी वह काम महात्मा गांधी ने अकेले अपने अहिंसक साधन से पूरा कर दिया। जिसे बाद में अंग्रेज वाइसराय माउन्टवेंटन ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया और कहा कि हमारी लाखों की फौज पश्चिम सीमा पर साम्प्रदयिक हिंसा नहीं रोक पायी परन्तु गांधी – एक व्यक्ति सेना ने उसे पूरा कर दिखाया।
विभाजन के गलत निर्णय के परिणाम गंभीर हुये। जो लोग पाक सीमा से चलकर हिन्दुस्तान आये थे और शरणार्थियों के रूप में बसे थे उन्हें 1951 में एक आदेश पारित कर भारत सरकार ने देश का नागरिक मान लिया और उसके बाद उनके बच्चों आदि को 1955 में नागरिकता कानून के तहत नागरिकता मिल गई। इसके बाद भी लगातार पाकिस्तान से अधिकांश हिन्दू आबादी और कुछ मुस्लिम आबादी भी बहुत कम का भारत आने का सिलसिला चलता रहा। पाकिस्तान से आने वाले लोगों का बड़ा कारण पाकिस्तान के इस्लामिक देश बनने के बाद तनावपूर्ण जीवन था तथा वहां क्रमश: फैले कट्टरपंथी उनके जीवन को अधिक संकटपूर्ण बना रहे थे। पाकिस्तान ने ईश निंदा कानून लागू कर वहां के अल्पसंख्यकों को और भयभीत कर दिया। अनेक लोगों को इस कानून के नाम पर मृत्युदण्ड और उम्र कैद मिली जिससे भय और अधिक हो गया। गैर मुस्लिम आबादी को इस कानून के दुरूपयोग से भगाकर उनकी संपत्ति और रोजगार को छीनने के लालच में ज्यादा अन्याय हुये। 2019 के नागरिकता कानून के पारित होने के पहले भी लगातार पाकिस्तान से आने वाली हिन्दू आबादी के लोगों को नागरिकता मिलती रही है। उस समय सरकार ने 12 वर्ष के लिये बनाया था जो व्यक्ति लगातार 12 वर्ष तक रह गया हो उसे नागरिकता दी जा सकती है। हमारे देश के चलन के अनुसार नागरिकता दिलाने वाली एजेंसीज़ और अन्य लोग सक्रिय हो गये जो वहां से आने वालों से तगड़ी रकम वसूलते थे और उन्हें भारत की नागरिकता दिलाते रहे। इन नागरिकता पाने वाले लोगों में अधिकतर हिन्दू ही रहे जो ईसाई पाकिस्तान छोड़कर गये वे अधिकांशत: यूरोप के ईसाई बाहुल्य देश में गये। चूंकि पाकिस्तान के हिन्दूओं की रिश्तेदारियां भारत में थी अत: उन्हें भारत में आकर 12 साल टिके रहना, प्रमाण पत्र पाना आदि ज्यादा आसान था। इसी बीच 1990 के दशक में वैश्वीकरण के दौर शुरू होने पर यूरोप और अमेरिका से अप्रवासी भारतियों का आना शुरू हुआ तथा भारत सरकार ने उन्हें भारतीय मूल के आधार पर तथा एफ.डी.आई. (फॉरेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट) के तर्क पर द्वितीय नागरिकता देना शुरू कर दिया। यह कांग्रेस के जमाने में ज्यादा हुआ जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे। इस माईग्रेसन में ज्यादातर लोग भारत से गये हुये हिन्दू लोग ही शामिल थे। याने गुजरात, पंजाब, राजस्थान, हरियाणा और भारत के अन्य प्रदेशों से गये वे लोग जो ब्रिटिश काल में या तो रोजी रोटी कमाने के लिये गये थे या गिरमिटिया मजदूर बनाकर ले जाये गये थे।
दरअसल नागरिकता संशोधन कानून में मूलभूत स्थितियों से कुछ ज्यादा फर्क नहीं है सिवाय इसके कि इसकी भाषा एक योजना के तहत लिखी गई। अगर सरकार संशोधन की धारा 6 में भा.ज.पा. सरकार ने केवल अल्पसंख्यक शब्द लिखा होता तो यह बवाल नहीं मचता और नागरिकता पाने के लिये आने वाली जमातें लगभग वहीं होतीं जो इस कानून के बाद हैं। जो लोग यह तर्क दे रहे हैं कि उदारता की सीमा नहीं बांधना चाहिये तथा मुसलमानों को भी जो धार्मिक अल्पसंख्यक नहीं हैं वरन्् मुस्लिम आबादी की संख्या के पंथगत अल्पसंख्यक हैं तथा बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी से पीढ़ित हैं यथा अफगानिस्तान और पाकिस्तान के शिया या कराची के मुहाजिर। उनका यह तर्क नि:संदेह मानवीय और ”वसुधैव कुटुम्बकम“ की कल्पना पर आधारित है परंतु केवल तर्क है व्यवहारिक तौर पर संभव नहीं है। आज कराची के मुहाजिर भारत में आकर 12 साल या 5 साल किसके यहां रहेगें। वे गरीब लोग मुसलमान है और उनके परिजन भी भारत में आमतौर पर अमीर नहीं है इसलिये पिछले 1955 से लेकर 2019 तक जितने आवेदन भारत की नागरिकता को प्राप्त हुये हैं उनमें मुस्लिम आवेदक नगण्य हैं, और एक प्रतिशत भी नहीं हैं। चीन में उईगर मुसलमानों को भी भारत आने का वीजा नहीं मिलेगा एक तो वहां की सरकार नहीं देगी और उनके भारत आने का कोई कारण नहीं बनता। न रिश्तेदारियां हैं और न सुविधा और साधन हैं। बंग्लादेश और वर्मा रोहिंग्या मुसलमानों के साथ भी यही स्थिति है। नागरिकता कानून जो 1955 में बना और उसके अंतर्गत जो नियम बने तथा 2019 का संशोधित कानून भारत में आकर पहले 12 वर्ष और अब 5 वर्ष के लगातार रहने के आधार पर है। यह कानून कोई न पहले और न अब दुनिया की बढ़ती आबादी या आंतरिक पीढ़ा के आधार पर नागरिकता देने का नहीं। 1971 में बंग्लादेश में मुक्तिवाहिनी को सहयोग के लिये भारतीय सेना को भेजने का आधार भी तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी ने यही निर्धारित किया था कि भारत इन 70 लाख से एक करोड़ भागे हुये शरणार्थियों का बोझ नहीं सह सकता और इसलिये भारत का हस्तक्षेप जरूरी है। यह निर्विवाद है कि आज भी भारत उन सीमित शरणार्थियों का बोझ उठाने की स्थिति में नहीं है। हमारे प्राकृतिक स्रोत भी इसे बर्दास्त नहीं कर सकेगें।
परंतु भा.ज.पा. की नीयत सांप्रदायिक गोलबंदी को हिन्दू को बढ़ाकर जैन, सिख, बुद्ध, पारसी, ईसाई आदि को अपने मतदाता समूह बनाने की है। और इसलिये उन्होंने चुनावी रणनीति के तौर पर मुसलमानों को अलग रखा और बकाया सबके नाम शामिल किये। दरअसल यह श्री नरेन्द्र मोदी का संशोधित कानून नहीं बल्कि संशोधित जाल है जिसमें उन्होंने प्रतिपक्ष को फांस लिया है। कल दिल्ली की रैली में आक्षेप किया कि कांग्रेस और विरोधियों ने इस कानून को बगैर पढ़े ही विरोध किया है। उनका आक्षेप सही है परंतु अर्धसत्य है क्या सरकार की यह जबावदारी नहीं बनती कि वह अपने प्रस्तावित कानूनों से आमजन को अवगत कराए। होना तो यह चाहिए था कि वे इस कानून को पारित करने के पहले और बाद में आमलोगों में प्रचारित कराते अखबारों में कानून को यथावत छपवाते, नागरिक समूहों को विश्वास में लेते। क्या जनमत को शिक्षित करना सरकार का दायित्व नहीं है। परंतु वे तो हिंसा ही चाहते थे ताकि उनके पक्ष के धार्मिक समूह के मतदाता एकजुट हों तथा विरोधी मतदाता व उनका वोट लेने वाली पार्टियां देश में खलनायक सिद्ध हों।
देश का प्रतिपक्ष भी सरकार गिराने या आक्षेप करने में इतना बेचैन हो उठा कि उन्होंने न तो संशोधित कानून को ठीक से पढ़ा और न प्रस्तुत किया, और मुस्लिम भाईयों को इतना भयभीत कर दिया कि उनकी नागरिकता समाप्त होने वाली हो। उन्हें देश से निकाले जाने वाला हो तथा मुस्लिम भाईयों को सड़कों पर और हिंसा पर ला दिया। सरकार के सुनियोजित षडयंत्र, प्रतिपक्ष की जल्दबाजी और अदूरदर्शिता तथा मुस्लिम मतदाता की बेचैनी को देश ने दस दिवसीय हिंसा के भयावय दौर पर ढकेल दिया और आखिरी में इतना कहना और जरूरी है कि मोदी सरकार के मंत्री भले ही विश्वविद्यालयीन शिक्षित हों परंतु लोगों को भड़काने के लिये जाने अनजाने गलत तर्क पेश कर रहे हैं।
श्री अर्जुन मेघवाल जो केंद्रीय संसदीय कार्यमंत्री भी हैं का लेख ”सात दसक से अधूरा काम पूरा“ शीर्षक से 21 दिसम्बर 2019 की पत्रिका में छपा है। वे लिखते हैं कि पाकिस्तान में 1947 में अल्पसंख्यकों की संख्या 30 प्रतिशत थी जो घटकर 2011 में 3.7 प्रतिशत रह गई। इसी प्रकार बंग्लादेश में अल्पसंख्यकों की संख्या 1947 में 22 प्रतिशत थी गिरकर 2011 में 7 प्रतिशत रह गई है। एक तो उन्हें यह याद रखना चाहिये कि 1947-1971 तक 24 वर्ष पाकिस्तान और बंग्लादेश एक ही देश था। 1947 में बंग्लादेश बना ही नहीं था उसकी जनगणना के आकड़े कैसे और कहां से निकाले। दरअसल देश में ये और दो उनके विश्वविद्यालय झूठे आंकड़ों को बढ़ाने और प्रसारित करने में बहुत सिद्धहस्त हैं वे हैं संघ विष्वविद्यालय और वॉट्सऐप विश्वविद्यालय। मैं सत्तापक्ष से कहूंगा कि वे सांप्रदायिकता की आग जलाकर वोट की रोटी सेंकना बंद करें क्योंकि देश के मन के ऊपर जो घाव बन रहे हैं उन्हें दूर करना लंबे समय तक कठिन हो जायेगा। और प्रतिपक्ष से भी अपील करूंगा कि वे मुद्दों को गहराई से सोचें और मोदी के जाल में फसने से बचें। दरअसल राजनीति का काम लोगों को जाग्रत करना और चैतन्य बनाना है नाकि उन्हें गुमराह कर मस्तिष्क को सुषुप्त कर हिंसा और अज्ञानता फैलाना।
नए साल में लेने होंगे नए प्रण
सिद्वार्थ शंकर
हर बार हम जो संकल्प लेते हैं, भले ही वे धरे के धरे रह जाते हों, भले ही हर साल नववर्ष की पूर्व संध्या पर बनाई गई हमारी तमाम योजनाएं भी अधूरी ही रह जाती हों, इसके बावजूद न हम संकल्प लेना छोड़ेंगे और न ही योजनाएं बनाना भी। हम इंसानों का यही स्वभाव है। इस धरती के तमाम दूसरे जीवों से हटकर मनुष्य की यही खूबी है कि वह कुछ करना चाहता है। अपनी तमाम नाकामियों से बार-बार प्रेरित होने का माद्दा हम में नहीं होता, तो हमारा इतिहास आज भी हजारों वर्ष पहले ही ठिठककर रह गया होता। इसलिए इससे हमें निराश नहीं होना चाहिए कि हर बार हमारे संकल्प अधूरे रह जाते हैं, हर बार योजनाएं बस योजनाएं ही बनी रहती हैं। इस वर्ष हम नाकामियों को भूलकर और निराशा से बाहर निकालकर फिर से नई योजनाएं बनाएं, नए संकल्प लें, नई प्रेरणाएं ढूंढें और नए लक्ष्य तय करें। यही इंसान होने की खूबी है और यही खूबसूरती भी। इसी खूबी के कारण हम धरती पर दूसरे जीवों से बेहतर हैं। बहरहाल, 2019 कितने भी कष्टों का वर्ष रहा हो, कितनी भी उठापटक का साल रहा हो, कितनी भी बेचैनियों और कितनी ही परेशानियों से रूबरू कराता रहा हो, लेकिन गुजरा साल हमें नए साल का एक तोहफा देकर गया है।
हर गुजरा साल हमें बहुत कुछ सिखाकर जाता है। यह तोहफा 2019 ने भी दिया है। अत: हमें उसका शुक्रगुजार जरूर होना चाहिए कि चाहे कैसी भी परिस्थितियां रही हों, हम उनसे जूझकर बाहर निकलने में सफल रहे। विषम परिस्थितियां हमें तोड़ नहीं पाईं। गुजरे वर्ष के प्रति आभारी होने के लिए क्या यह कम है कि उसने हमें टूटने नहीं दिया? उसने हमें जो सबक दिए हैं, याद तो उन्हें भी रखना होगा। साल 2019 हमारे लिए एक नहीं, तमाम सबक देकर गया है। उसने सभी के लिए अलग-अलग सबक दिए होंगे। अत: उनकी चर्चा करना न तो जरूरी है, न ही व्यावहारिक। लेकिन हमें अपने उन सभी सबकों को याद रखना चाहिए। प्रयास यह भी होना चाहिए कि जो गलतियां हमने बीते वर्ष की थीं, उन्हें फिर नहीं दोहराएंगे। यदि हम पुरानी गलतियों को न दोहराने का संकल्प ले सके तो यही एक बड़ी उपलब्धि भी होगी।
हां, कुछ सबक ऐसे भी हैं, जो पूरे समाज पर समान रूप से लागू होते हैं। बलात्कार की घटनाओं को लेकर यह साल खासा याद किया जाएगा। इस साल बलात्कार की ऐसी दर्दनाक और चर्चित घटनाएं सामने आईं, जिसका प्रभाव पूरे समाज पर पड़ा। नए साल में हमें सबसे पहला काम अपने नजरिए को पूरी तरह दुरुस्त करने का करना होगा। सकारात्मक सोच वह ताकत होती है, जो विषम परिस्थितियों को भी अंत में हमारे पक्ष में झुका देती है। इसके विपरीत हमारी सोच अगर नकारात्मक होगी तो वह अनुकूल स्थिति को भी हमारे खिलाफ कर देती है। विफलता व सफलता कुल मिलाकर हमारे नजरिए पर निर्भर करती है। अगर उदाहरण नोटबंदी का ही दें तो विपक्षी राजनीतिक दलों का कहना यह है कि 2016 के आखिरी में जिस तरह से नोटबंदी का कहर टूटा, उससे लाखों लोग बेरोजगार हुए हैं। पर इन लोगों का ध्यान इस तरफ क्यों नहीं जाता कि नोटबंदी के बाद जो लेन-देन और भुगतान के नए तौर-तरीके सामने आए हैं, भले ही वे मजबूरी में आएं हों, उनसे लाखों नए रोजगारों की संभावना बनी है। इसमें सकारात्मकता यह होगी कि हम अपने आप में योग्यता विकसित करें और इन अवसरों के दावेदार बनें। व्यक्तिगत स्तर पर हमें अपने चिंतन की दिशा को सकारात्मक ही रखना चाहिए। एक और संकल्प यह लिया जा सकता है कि यदि हम बेरोजगार हैं तो कोई ऐसा काम सीखें, जो हमें रोजी मुहैया कराए, जबकि हमारे पास यदि रोजगार है तो उसके हिसाब से हम अपने अंदर नई-नई योग्यताएं भी विकसित करें, ताकि दौड़ में पीछे न खड़ा होना पड़े। हम अपने बच्चों को भी कुशल बनाएं और इसके लिए स्कूलों-कॉलेजों के भरोसे न रहें।
इस साल देश को खुशी के पल भी मिले, तो हिंसा की आग से भी रूबरू होना पड़ा। पाकिस्तान पर भारत की एयरस्ट्राइक ने जहां करोड़ों हिंदुस्तानियों के दिल पर सुकून की लौ जलाई, वहीं नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ भड़की हिंसा की आग ने गंगा-जमुनी तहजीब वाले देश के मुंह पर कालिख भी पोती। 2019 का साल महिलाओं को संबल देने वाला रहा, तो उनकी आबरू सुरक्षित न रख पाने वाला भी। बीता साल अब नए साल में प्रवेश कर चुका है। हर दिन हमें नया करने और सेाचने को प्रेरित करता है। सो अब जबकि साल गुजर गया है, तो हमें बीती बातों को यहीं छोडऩा होगा और एक ऐसा देश और समाज बनाने का प्रण लेना होगा, जिसमें हर एक देशवासी सुखी हो और उसका जीवन किसी भी कष्ट के बिना बीते।
महिलाओं के लिए सुरक्षित समाज की नींव डालनी तो बेहद जरूरी है। पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से महिलाओं के लिए असुरक्षित वातावरण बन रहा है वह हर भारतीय के लिए शर्मनाक है। हम बेटियों की आबरू नहीं बचा पा रहे हैं तो यह ठीक नहीं है। हमें इस दिशा में प्रण लेना ही होगा।
दिल्ली के लाक्षागृहों में खाक होती मासूम जिंदगियां
योगेश कुमार गोयल
दिल्ली में आगजनी की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही। बीते 8 दिसम्बर को दिल्ली के अनाज मंडी इलाके में भयावह अग्निकांड में हुई 46 मौतों के सदमे से दिल्ली अभी तक उबरी भी नहीं थी कि 20 दिनों के भीतर पांच और ऐसे ही अग्निकांडों ने न केवल हर किसी को अंदर तक झकझोर दिया है बल्कि सभी जिम्मेदार संस्थाओं पर भी गंभीर सवाल खड़े किए हैं। 22 दिसम्बर की रात दिल्ली के किराड़ी इलाके में इंदर एनक्लेव में एक चार मंजिला इमारत के निचले हिस्से में बने कपड़ों के गोदाम में लगी आग ने पूरी इमारत को अपनी चपेट में ले लिया और देखते ही देखते यह आग 9 मासूम लोगों का काल बन गई। उसके दो ही दिन बाद 24 दिसम्बर को दिल्ली के नरेला इलाके में तीन फैक्टरियों में आग लग गई, जिसे बुझाने में 36 दमकल वाहनों की मदद से करीब 150 दकमलकर्मियों को सात घंटों तक कड़ी मशक्कत करनी पड़ी। 27 दिसम्बर को सदर बाजार इलाके में एक इमारत में, महारानी बाग क्षेत्र में एक दुकान में तथा वसंत विहार इलाके में एक आवासीय इमारत में भीषण आग लग गई, जिसे दमकलकर्मियों ने कई घंटों की जद्दोजहद के बाद बुझाया। गनीमत यह रही कि आगजनी के इन हादसों में कोई हताहत नहीं हुआ। इससे पहले 8 दिसम्बर को अनाज मंडी इलाके में एक मकान में बहुमंजिला इमारत में चल रही फैक्टरी में लगी भयानक आग में 46 लोगों की मौत हो गई थी।
कितनी बड़ी विड़म्बना है कि दिल्ली में बार-बार ऐसे अग्निकांड सामने आते रहे हैं और लोग लाक्षागृह बनी ऐसी इमारतों में जलकर राख होते रहे हैं लेकिन ऐसे हादसों से कभी कोई सबक नहीं लिया जाता। दिल्ली में ऐसे अनेक इलाके हैं, जहां संकरी गलियों में अनेक फैक्टरियां या कारखाने चल रहे हैं और यह सब प्रशासन की नाक तले होता है। ऐसी लगभग तमाम औद्योगिक इकाईयों में आग से बचने के कोई इंतजाम नहीं होते लेकिन बार-बार होते ऐसे हादसों के बावजूद अगर उन पर कभी कोई कार्रवाई नहीं होती तो भला उसके लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाए? अक्सर यही देखा गया है कि दिल्ली में अग्निकांड की घटनाएं हों या बहुमंजिला इमारतें गिरकर उनके तले दबकर मासूम लोगों के मारे जाने की, ऐसी दर्दनाक घटनाओं में प्रायः पीडि़तों को मुआवजा देने की घोषाणाएं कर सरकारों द्वारा अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री कर ली जाती है और भविष्य में ऐसी घटनाएं दोबारा न हों, इसकी ओर से सब बेपरवाह हो जाते हैं। जब भी ऐसा कोई हादसा सामने आता है, तब ऐसी अव्यवस्थाओं पर खूब हो-हल्ला मचता है लेकिन चंद दिन बीतते-बीतते सब शांत हो जाता है और सारी व्यवस्था पुराने ढ़र्रे पर पूर्ववत रेंगने लगती है। ऐसे में गंभीर सवाल यही उठता है कि दिल्ली के इन अग्निकांडों का जिम्मेदार आखिर कौन है और कब तक ऐसे अग्निकांडों में जान-माल की बलि चढ़ती रहेगी? आखिर क्यों ‘मौत की नगरी’ बनती जा रही है दिल्ली? संकरी गलियों में ऊंची-ऊंची इमारतों के बीच बिजली की हाई वोल्टेज तारों का मकड़जाल भी बड़े हादसों को न्यौता देता प्रतीत होता रहा है।
कहना असंगत नहीं होगा कि अगर अनाज मंडी इलाके के अग्निकांड में हुई 46 मौतों से कोई सबक लिया जाता और दिल्ली में अवैध रूप से बनी इमारतों तथा संकरी गलियों में चल रही अवैध फैक्टरियों पर लगाम कसने की कवायद शुरू कर दी गई होती तो शायद 22 और 24 दिसम्बर के हादसों से बचा जा सकता था। दिल्ली के कई इलाकों में तमाम नियम-कायदों की धज्जियां उड़ाते कुकुरमुत्ते की भांति अवैध कारखाने फैले हैं, जहां हल्की सी चिंगारी को भी दावानल बनते देर नहीं लगती लेकिन शायद गहरी नींद में सोये अधिकारियों ने सोचा हो कि 8 दिसम्बर को घटी घटना के बाद अभी इतनी जल्दी कोई और घटना तो घटने वाली है नहीं, इसलिए क्यों ऐसे कारखानों पर लगाम लगाने के लिए बेवजह की जद्दोजहद की जाए। विड़म्बना है कि 1997 के उपहार सिनेमा की भीषण आग में खाक हुई 59 मासूम जिंदगियों की त्रासदी के बाद के इन 22 वर्षों में किसी ने कोई सबक सीखा। ऐसे हादसों के बाद अक्सर यही तथ्य सामने आते रहे हैं कि हादसाग्रस्त कारखानों वाली इमारतों में आग से बचने के कोई उपकरण नहीं थे और फिर भी वे धड़ल्ले से चल रहे थे।
कोई भी बड़ा हादसा होने के बाद मुख्यमंत्री, मंत्री तथा तमाम राजनीतिक दलों के बड़े-बड़े नेता घटनास्थल पर पहुंचते हैं और मीडिया से मुखातिब होकर एक-दूसरे पर अपनी भड़ास निकालने के बाद वहां से खिसक लेते हैं। ऐसे अग्निकांडों में मासूम लोगों की मौत के बाद राजनीतिक दलों द्वारा एक-दूसरे पर दोषारोपण का घृणित दौर शुरू होता है लेकिन हकीकत यही है कि अगर इन्हीं लोगों ने नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए धड़ल्ले से चल रहे कारखानों पर सख्त कदम उठाने की पहल की होती तो ऐसे हादसे होते ही नहीं। बार-बार हो रहे ऐसे दर्दनाक हादसों के बाद भी इस बात का जवाब कहीं से नहीं मिलता कि आखिर संकरी गलियों में चल रहे अवैध कारखानों पर लगाम कब और कैसे लगेगी और जिम्मेदार अधिकारियों को दंडित करने के लिए सख्त कदम कब उठाए जाएंगे? सवाल यह भी है कि ऐसी संकरी गलियों में 4-5 मंजिला इमारतें कैसे बन गई और कैसे उनमें बिजली के मीटर लग गए? कैसे उन आवासीय इमारतों के भीतर औद्योगिक कारखाने स्थापित करने की इजाजत मिल गई? फायर विभाग के अनापत्ति प्रमाण पत्र नहीं होने के बावजूद अगर धड़ल्ले से ऐसे कारखाने दिल्ली के अनेक इलाकों में चल रहे हैं तो उसकी जिम्मेदारी आखिर किसकी है? बहुत से ऐसे कारखाने भी हैं, जिन्हें फायर विभाग के अनापत्ति प्रमाण पत्र तो मिले हुए हैं लेकिन उनके पास आग बुझाने के जरूरी उपकरण ही नहीं हैं। आखिर उन्हें फायर विभाग द्वारा अनापत्ति प्रमाण पत्र कैसे दे दिए गए? जवाब बिल्कुल सीधा और स्पष्ट है कि यह सब प्रशासन और कारोबारियों की मिलीभगत तथा भ्रष्ट मंसूबों की ही देन है। ऐसे में बेहद गंभीर सवाल यही उठता है कि हमारे देश में लोगों की जान क्या इतनी सस्ती है कि सिस्टम इस तरह उनकी जिंदगी के साथ खेलता है? इसी का ताजा उदाहरण है 8 दिसम्बर को हुए अग्निकांड में 43 लोगों की मौत के बाद 22 दिसम्बर के अग्निकांड में हुुई 9 लोगों की दर्दनाक मौतें।
इस तरह का हर बड़ा हादसा हमें सबक के साथ-साथ कड़वे अनुभव भी देकर जाता है लेकिन विड़म्बना यही है कि हमारे यहां ऐसे हादसों या गलतियों से कभी कोई सबक नहीं लिया जाता। ऐसे हादसों में एक ही पल में कितने ही परिवारों के घर के चिराग बुझ जाते हैं। लोगों के स्मृति पटल में वर्ष 1997 का ‘उपहार कांड’ अब तक तरोताजा है, जो दिल्ली का अब तक का सबसे खौफनाक अग्निकांड माना जाता है। 13 जून 1997 को उपहार सिनेमा में लगी उस आग में 59 लोगों ने अपनी जान गंवाई थी। हादसे के वक्त उपहार सिनेमा में सैंकड़ों लोग ‘बॉर्डर’ फिल्म देख रहे थे और सिनेमा हॉल में आग लगने के बाद उन्हीं में से 59 लोग मारे गए थे। आग लगने के बाद सिनेमा हॉल में धुआं भर गया था, जिसके बाद लोग वहां से निकल भागने की कोशिश तो कर रहे थे किन्तु उनकी बदनसीबी यह थी कि उपहार सिनेमा के सभी दरवाजे बाहर से बंद थे। आखिर सिनेमा हाल के ही भीतर 59 लोगों ने आग की चपेट में आकर और धुएं से दम घुटने के कारण दम तोड़ दिया था। उपहार कांड के बाद से लेकर अब तक दिल्ली में भीषण आगजनी की कई घटनाएं सामने आ चुकी हैं। उस भयावह हादसे को बीते 22 वर्ष लंबा समय गुजर चुका है किन्तु आज भी विड़म्बनापूर्ण स्थिति यह है कि इस दिशा में एक-दूसरे पर दोष मढ़ने के अलावा कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया जाता। इस वास्तविकता से कोई अनजान नहीं है कि दिल्ली के अनेक इलाकों में बरसों से बहुत सारी अवैध फैक्टरियां चल रही हैं, जिनमें सुरक्षा के कोई उपाय नहीं होते। तमाम जिम्मेदार सरकारी विभागों को ऐसी फैक्टरियों की पूरी जानकारी भी होती है लेकिन कोई ऐसे कदम नहीं उठाए जाते, जिससे ऐसे दर्दनाक हादसों को टाला जा सके।
इसी साल 12 फरवरी को करोलबाग के होटल अर्पित में लगी भयानक आग में 17 लोगों ने अपनी जान गंवाई थी और तब यह खुलासा हुआ था कि करोलबाग के उस इलाके में चार मंजिल से ज्यादा नहीं बनाई जा सकती किन्तु उस होटल को भ्रष्ट अधिकारियों के संरक्षण के चलते छह मंजिला बनाया गया था। दिल्ली में जगह-जगह ऐसे ही न जाने कितने होटल अर्पित या अवैध फैक्टरियां चल रही हैं, जो हर कदम पर बड़े हादसों को न्यौता दे रहे हैं लेकिन न जाने प्रशासन की तंद्रा कब टूटेगी? कोई बड़ा हादसा होने के बाद जब थोड़े दिन मामला गर्म रहता है तो अक्सर सामने आता है कि जिन होटलों, रेस्टोरेंट तथा फैक्टरियों को अग्निशमन विभाग द्वारा एनओसी दी गई, उनमें से कईयों में आग बुझाने वाले उपकरण काम ही नहीं कर रहे थे। दिल्ली के विभिन्न आवासीय क्षेत्रों में ऐसी घटनाओं में अक्सर अवैध फैक्टरियां चलने तथा सिनेमाघरों, होटलों, रेस्टोरेंट इत्यादि में आग से सुरक्षा के पर्याप्त इंतजाम के अभाव की बातें सामने आती रही हैं लेकिन प्रशासन हमेशा किसी बड़े हादसे को न्यौता देता प्रतीत होता है। कोई बड़ा हादसा सामने आने पर सारी एजेंसियां एकाएक गहरी नींद से जाग जाती हैं लेकिन जैसे ही मामला थोड़ा ठंडा पड़ता है, सब कुछ पुराने ढ़र्रे पर रेंगने लगता है और फिर से तमाम एजेंसियां किसी दूसरी घटना के इंतजार में गहरी नींद सो जाती हैं। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही उठ खड़ा होता है कि मौत की नगरी बनती जा रही दिल्ली में आखिर कब तक रह-रहकर इसी प्रकार के भयानक हादसे सामने आते रहेंगे और हम अपनी बेबसी पर आंसू बहाते रहेंगे। सरकारी संस्थाओं के साथ-साथ आम लोगों और नागरिक संस्थाओं का भी दायित्व है कि भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के लिए वे स्वयं भी अपने कर्त्तव्यों के प्रति ईमानदार और जागरूक रहें।
भारत को इस्लामी राष्ट्रों की चुनौती
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत भी कमाल का देश है। इसकी वजह से इस्लामी देशों में फूट पड़ गई है। दुनिया के 57 इस्लामी देशों का अब तक एक ही संगठन है। इस्लामी देशों का संगठन (ओआईसी) लेकिन अब एक दूसरा इस्लामी संगठन भी उठ खड़ा हुआ है। इसका नेतृत्व मलेशिया के राष्ट्रपति महाथिर मोहम्मद और तुर्की के राष्ट्रपति तय्यब इरदोगन कर रहे हैं। इन दोनों नेताओं ने कश्मीर के पूर्ण विलय के मामले में भारत का विरोध किया था। लेकिन सउदी अरब और संयुक्त अरब अमारात ने उसे भारत का आतंरिक मामला कहकर टाल दिया था। इन दोनों देशों के नेता एक-दूसरे के देशों में जाकर गदगद हुए थे और नरेंद्र मोदी को सउदी और यूएई ने अपने सर्वोच्च सम्मान भी दिए थे। इसकी काट करने के लिए पिछले हफ्ते मलेशिया में एक वैकल्पिक इस्लामी सम्मेलन आयोजित किया गया था। इसमें तुर्की के अलावा ईरान के राष्ट्रपति हसन रुहानी भी शामिल हुए थे। इस वैकल्पिक इस्लामी सम्मेलन के पीछे अमेरिका-विरोधी भाव भी छिपा हुआ है। इस सम्मेलन के नायक के तौर पर पाकिस्तान को उभरना था लेकिन सउदी अरब ने अड़ंगा लगा दिया। उसके इशारे पर इमरान खान ने मलेशिया जाने से मना कर दिया। तो अब कश्मीर के सवाल पर इस्लामी देशों का संगठन एक नया सम्मेलन आयोजित कर रहा है। पाकिस्तान और सउदी अरब दोनों को अपनी नाक बचानी है। लेकिन अभी-अभी पता चला है कि इस्लामाबाद में होनेवाले इस सम्मेलन में इस्लामी राष्ट्रों के विदेश मंत्री भाग नहीं लेंगे। उनकी जगह उनके सांसद आएंगे। याने इन देशों की सरकारें भारत को कह सकेंगी कि जहां तक उनका सवाल है, कश्मीर के मुद्दे पर वे तटस्थ है। दूसरे शब्दों में वे भारत और पाकिस्तान दोनों को खुश करने की तरकीब कर रहे हैं। जाहिर है कि भारतीय विदेश नीति के लिए यह बड़ा धक्का है। यहां प्रश्न यही है कि जैसे पिछले इस्लामी सम्मेलन में भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को ससम्मान आमंत्रित किया गया था, क्या इस बार भी भारतीय विदेश मंत्री या भारतीय सांसदों को उसमें आमंत्रित किया जाएगा ? मुझे लगता है कि ये इस्लामी राष्ट्र कश्मीर के कारण भारत के विरुद्ध उतने नहीं हो रहे हैं, जितने ये नागरिकता कानून और नागरिकता रजिस्टर की वजह से हो रहे हैं। भारत सरकार को इस चुनौती का सामना अत्यंत दूरदृष्टि के साथ करना होगा।
नए भारत के विरुद्ध खड़े वाममार्गी बुद्धिजीवी
डॉ अजय खेमरिया
भारत में अल्पसंख्यकवाद को क्यों जिंदा रखना चाहते है वामपंथी रामचन्द्र गुहा और अन्य लेखकों को विरोध प्रदर्शन करते समय पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया इसे लेकर वामपंथी विचारक और समर्थक सरकार को गरिया रहे है।इस बीच सोशल मिडिया पर ऐसे तमाम वीडियो जारी हुए है जिनमें नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों ने हिंसक रुख अख्तियार करते हुए पुलिसकर्मियों पर खूनी हमले किये है ।सरकारी सम्पति को नुकसान पहुचाया है।लेकिन किसी वामपंथी और जनवादी लेखक ने इस तरह के हिंसक कृत्यों की कोई निंदा नही की है।सवाल उठता है कि क्या देश का वाममार्गी बौद्धिक वर्ग आज सत्ताच्युत होते ही भारत के विरुद्ध खड़ा हो गया है ।जनवाद की आड़ में आज भारत के राष्ट्रीय विचार से हद दर्जे तक खिलवाड़ किया जा रहा है। नागरिकता संशोधन कानून से भारत के 20 करोड़ से ज्यादा मुसलमान में से किसी एक को भी किसी प्रकार का कानूनी संकट नही आने वाला है यह वैधानिक रुप से तथ्य है और देश के प्रधानमंत्री ,गृह मंत्री संसद से लेकर हर लोकमंच पर स्पष्ट कर चुके है। इसके बाबजूद भारत की जनता खासकर मुस्लिम भाइयों को लगातार गुमराह किया जा रहा है।उन्हें उसी क्षद्म बौद्धिक नजरिये से भयादोहित किया जा रहा है जिसके जरिये 70 सालों से अल्पसंख्यकवाद की राजनीतिक दुकान को चलाया गया है।हिटलर और नाजिज्म के उदय की डरावनी दलीले खड़ी की जा रही है लेकिन वास्तविकता यह है कि बौद्धिक रूप से असली नाजिज्म का अबलंबन तो भारत के वाममार्गी कर रहे है एक कपोल काल्पनिक झूठ को लोकजीवन में न्यस्त राजनीतिक स्वार्थों के लिये खड़ा कर दिया गया है।जो एनआरसी अभी प्रस्तावित ही नही है उसका पूरा खाका बनाकर पेश कर दिया गया है।इतिहास की भारत विरोधी ऋचाएँ गढ़ने वाले ये बुद्धिजीवी असल में अपने असली चरित्र पर आ गए है उनकी अपनी नाजिज्म मानसकिता आज सबके सामने आ गई है जो किसी भी सूरत में दक्षिणपंथी या अन्य विचार को स्वीकार नहीं करती है।इसके लिये वह झूठ,हिंसा सबको जायज मानती है।बहुलतावाद के यह वकील सच मायनों में नाजिज्म के अलमबरदार है इन्हें भारत की संसदीय व्यवस्था तक में भरोसा नही है वे इस बात को आज भी स्वीकार नही कर पा रहे है कि भारत की जनता ने एक विहित संवैधानिक प्रक्रिया के तहत नरेंद्र मोदी को भारत का प्रधानमंत्री चुना है।वह आज भी मानने को तैयार नही है कि उनकी भारत विरोधी और अल्पसंख्यकवादी राजनीतिक दलीलों को नया भारत खारिज कर चुका है।वरन क्या कारण है कि रामचन्द्र गुहा, मुन्नवर राणा,हर्ष मन्दर,रोमिला थापर, अरुणा राय,भाषा सिंह,जैसे लोग एक नकली नैरेटिव देश मे सेट करने की कोशिशें कर रहे है।क्यों भारत के प्रधानमंत्री और गृह मंत्री की बातों को सुना नही जा रहा है क्यों देश की सर्वोच्च अदालत के रुख को समझने के लिये यह वर्ग तैयार नही है?हकीकत की इबारत असल में कुछ और ही है -नए भारत का विचार इस बड़े सत्ता पोषित तबके के अस्तित्व पर चोट कर रहा है।जिस भारतीय शासन और राजनीति का केंद्रीय तत्व ही अल्पसंख्यकवाद रहा हो आज वह तत्व तिरोहित हो चुका है।इसके साथ ही हिंदुत्व की बात और इसके संपुष्टि के कार्य जब देश के शीर्ष शासन में अब नियमित हो गए है तब इस डराने और दबाने की सियासत का पिंडदान तय है।इसी डर ने देश भर के वाममार्ग को आज खुद अंदर से भयादोहित कर रखा है अपनी दुकानों को बचाने की कवायद में यह बुद्धिजीवी भारत के मुसलमानों को एक उपकरणों की तरह प्रयोग कर रहे है।भारत में 70 साल बाद भी अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की राजनीति असल में एक सुनियोजित राजनीति ही है।2014 के बाद इस राजनीति का अंत असल में नए भारत का अभ्युदय ही है जिसमें सबका साथ सबका विश्वास अगर आकार लेगा तो कुछ लोग बौद्धिक विमर्श में बेरोजगार ही हो जाएंगे है ।इस षडयंत्र को आज भारत के मुसलमानों को गहराई से समझने की जरूरत है।याद कीजिये यूपीए के कार्यकाल में एक बिल लाया गया था”साम्प्रदयिक लक्षित हिंसा निरोधक कानून”इसे हर्ष मन्दर जैसे जनवादी बुद्धिजीवियों ने सोनिया गांधी की सरपरस्ती में बनाया था।इस बिल का मसौदा हिंदुओ को घोषित रूप से साम्प्रदायिक रूप से हिंसक साबित करता था।इसके प्रावधान अंग्रेजी राज से भी कठोर होकर हिंदुओ औऱ मुसलमान को स्थाई रूप से प्रतिक्रियावादी बनाने वाले थे।तब भारत की बहुलता इसलिये खतरे में नही दिखी क्योंकि इसे बनाने वाले हर्ष मन्दर जैसे चेहरे थे।आज यही हर्ष मन्दर नागरिकता बिल पर खुद को मुसलमान घोषित करना क्यों चाहते थे इसे आसानी से समझा जा सकता है।पूरे देश में सिर्फ मुस्लिम बहुल इलाकों और शैक्षणिक संस्थानों में नफरत की राजनीति क्यों की जा रही है?सिर्फ इसलिये ताकि भारत की 20 करोड़ से ज्यादा की आबादी को सरकार के विरुद्ध हिंसक विरोध के लिये उकसाया जाए क्योंकि तीन तलाक ,राममंदिर और 370 पर इस मुल्क में जो भाईचारा और अमन चैन नए भारत ने दिखाया है उसने सत्ता पोषित विभाजनकारी ब्रिगेड को बेचैन कर रखा था।सरकार के स्तर पर भी इस मामले में संचार और सँवाद पर कुछ कमी रह गई है यह भी एक तथ्य है।गृह मंत्री के रूप में 370 और राममंदिर निर्णय पर अमित शाह ने जिस सख्ती और सतत निगरानी से देश मे अमन चैन बनाये रखा उसकी निरन्तरता इस मामले में चूक गई है।यह सुगठित और सुनियोजित विरोध असल में इन्ही सब मामलों में भारतीय लोकजीवन में दिखे अमन चैन का ही चकित कर देने वाला रुख था वामपंथ और उसके साथी राजनीतिक दलों के लिये।इसलिये सरकार को अपना सँवाद कौशल फिर से दोहराए जाने की जरूरत है।
इस पूरे मामले में गांधी और संविधान की दुहाई दी जा रही है विरोध प्रदर्शन को तार्किक साबित करने के लिये लेकिन गांधी विचार में राष्ट्रीय सम्पति को नुकसान पहुँचाने की अनुमति किसने दी है यह भी विचार करने योग्य है।आज राजनीतिक रूप से भले केंद्र सरकार के विरुद्ध एक मोर्चा हमें नजर आ रहा है लेकिन इस मोर्चाबंदी का एक अदृश्य पहलू शायद अभी भी लोग देख नही पा रहे है वह नया भारत है।इस नए भारत को कांग्रेस नेता ए के एंटोनी 2014 में हुई पार्टी की पराजय पर पकड़ कर 10 जनपथ को बता चुके थे।एंटोनी कमेटी ने कांग्रेस की हार के लिये अल्पसंख्यकवाद को सबसे बड़ा फैक्टर बताया था, 2019 में भी जेएनयू जाकर राहुल गांधी ने इसी गलती को दोहराया था और अब उनकी बहन इंडिया गेट पर धरना देकर जामिया को समर्थन नही कर रही है बल्कि नए भारत से आंखे फेर रही है।इस तथ्य को अनदेखा कर की एक समावेशी कांग्रेस भारत के संसदीय लोकतंत्र के लिये बेहद अनिवार्यता है।कांग्रेस और वामपंथी मिलकर भारत के मुसलमानों को लोकजीवन से दरकिनार करने के पाप में जुटे है।यह उनका नकली बहुलतावाद है।बेहतर होगा भारत के मुस्लिम इसे जल्द से जल्द समझ लें।
आधार के बाद सीएए- एनआरसी और एनपीआर की जरूरत क्यों
सनत जैन
संपूर्ण भारत में एनआरसी (नेशनल रजिस्टर फार सिविलियन) तथा सीएए (सिविलियन अमेंडमेंट एक्ट) को लेकर आंदोलन चल रहे हैं। पहले यह आंदोलन एक्ट के विरोध में शुरू हुए अब भाजपा ने भी समर्थन में देशभर में आंदोलन शुरू कर दिए हैं। आंदोलन को रोकने के लिए दिल्ली सहित कई राज्यों में धारा 144 लगाकर आंदोलन को रोकने का उपाय किया गया। जिसके कारण आंदोलनकारियों को आंदोलन करने की अनुमति नहीं मिली| बिना अनुमति आंदोलन करने के कारण पुलिस और आंदोलनकारियों के बीच अनावश्यक झड़पें हुई| पत्थरबाजी एवं लाठीचार्ज के कारण जगह-जगह आंदोलन हिंसक भी हुए पुलिस ने आंदोलनों को नियंत्रित करने के लिए लाठीचार्ज, अश्रु गैस तथा कई स्थानों पर गोली चालान भी किया। आंदोलन में लगभग दो दर्जन आंदोलनकारियों की मौत भी हुई। इसमें से कई मौतें गोली लगने से हुई दिल्ली और उत्तर प्रदेश पुलिस ने गोली चालाने से पहले इनकार किया। जब घटना के वीडियो सोशल मीडिया के माध्यम से सामने आए| इसमें पुलिस जवान गोली चलाते हुए दिखे। तब पुलिस ने जांच की बात कहकर मामले को ठंडा करने का प्रयास किया। जामिया विश्वविद्यालय के अंदर जाकर पुलिस ने लाइब्रेरी में बैठे छात्र और छात्राओं के ऊपर जबरदस्त बल प्रयोग किया। लाइब्रेरी कक्ष को तोड़ दिया लड़कियों के साथ भी मारपीट के वीडियो सामने आने और अलीगढ़ विश्वविद्यालय में भी कुछ इसी तरीके की पुलिसिया कार्रवाई से, सारे देश के छात्र आंदोलित हो गए पुलिस एवं सरकार अब बचाव की मुद्रा में आकर तरह-तरह के जवाब दे रहे हैं। सरकार विपक्षियों पर अफवाह फैलाने का ठीकरा फोड़कर बचने का प्रयास कर रही है।
लोकसभा एवं राज्यसभा में जिस ताबड़तोड़ तरीके से सिविलियन अमेंडमेंट एक्ट (जीएए) पास कराया गया। इसमें मुस्लिमों को नागरिकता देने से बाहर रखा गया। गृह मंत्री शाह ने जिस तरह से पाकिस्तान बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए । अल्पसंख्यकों को मान्यता देने और मुसलमानों को मान्यता नहीं देने की बात की साथ ही यह कहा कि इस बिल के पास होने के बाद सरकार जल्द ही सारे देश में एनआरसी की प्रक्रिया शुरू करेगी। गृह मंत्री के इस बयान की बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया सबसे पहले असम से शुरू हुई। असम में 4 साल तक एनआरसी को लेकर असम के सभी नागरिकों को जिस तरह दस्तावेज जुटाने और नागरिकता को साबित करने परेशान होना पड़ा। हजारों रुपए दस्तावेज जुटाने में खर्च करने पड़े । अपना काम-धाम छोड़कर लाइनों में लगना पड़ा। असम में रहने वाले पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, झारखंड इत्यादि राज्यों के हजारों हिंदू नागरिकों को भी नागरिकता साबित करने में काफी परेशान होना पड़ा। उसके बाद भी लगभग 19लाख लोग नागरिकता रजिस्टर में स्थान नहीं पा पाए । इसमें से 14 लाख से अधिक लोग गैर मुस्लिम थे जो अन्य राज्यों से आकर आसाम में रह रहे भारतीय नागरिक थे। परिणाम स्वरूप सबसे ज्यादा उग्र प्रदर्शन सबसे पहले आसाम से शुरू हुआ।
भाजपा के रणनीतिकार केंद्रीय मंत्री अमित शाह ने सीएए पास कराते समय जिस तरह से मुस्लिमों को नागरिकता से दूर रखने का प्रावधान का उल्लेख किया। पाकिस्तान अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आए हुए हिंदुओं, सिखों जिसमें ईसाई, जैन, बौद्ध एवं पारसियों को नागरिकता देने की बात कही। वही नागरिकता रजिस्टर में शामिल नहीं होने वाले मुस्लिमों को मुस्लिम देशों में नागरिकता मिलने की बात कही। उससे भारत के मुसलमान काफी उद्वेलित हो गए। उनके मन में यह भय बैठ गया, कि वह जरूरी दस्तावेज पेश नहीं कर सके तो उन्हें भारत से बाहर किया जाएगा, उन्हें डिटेंशन सेंटर में भेजा जाएगा।
इस एक्ट के पास होने के बाद हिंदू मुस्लिम ध्रुवीकरण पैदा करने की जो कोशिश की गई। निश्चित रूप से विभिन्न राज्यों जिसमें महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड, दिल्ली और बिहार के चुनाव को ध्यान में रखकर केंद्र सरकार ने इस मामले में हिंदू मुस्लिम ध्रुवीकरण को ही ध्यान में रखकर इतना बड़ा कदम उठा लिया। इससे भारत के बहुसंख्यक हिंदू भी नाराज हो गए। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से संविधान की मूल भावना के विपरीत धार्मिक आधार पर नागरिकता नहीं देने की बात पर बहुसंख्यक वर्ग का समर्थन भी इस एक्ट के विरोध में सारे देश में देखने को मिल रहा है। हिंदू बहुसंख्यक और गैर मुस्लिम अल्पसंख्यकों को एकजुट करने का जो फार्मूला भाजपा ने अपना आया। उस फार्मूले के दलदल में भाजपा बुरी तरह फंस कर रह गई है। अभी तक जो आंदोलन इस एक्ट के विरोध में हो रहे हैं। उसमें छात्रों के साथ-साथ बड़ी संख्या में हिंदू और अन्य वर्गों के लोग भी शामिल हो रहे हैं। भारतीय संविधान में सभी नागरिकों को धर्म की स्वतंत्रता दी गई है। भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की जो कोशिश भाजपा ने अप्रत्यक्ष रूप से की है। उससे सारा देश नाराज है। पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान तथा तालिबान जैसे धार्मिक आधार पर बने देशों में जिस तरह से लड़ाई झगड़े कट्टरवादिता देखने को मिलती है। उससे उन राष्ट्रों का कोई भला नहीं हुआ। भारत का बहु संख्यक वर्ग भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के खिलाफ है, यह आंदोलनों से स्पष्ट हो रहा है।
आधार के बाद एनआरसी क्यों
केंद्र सरकार ने आधार इनरोलमेंट के माध्यम से पिछले 10 वर्षों में प्रत्येक व्यक्ति का पंजीयन लगभग-लगभग कर लिया है। आधार पंजीयन के समय 33 तरीके के दस्तावेज एवं जानकारी के साथ आधार में पंजीयन किया गया है। आधार में पंजीयन के पूर्व प्रत्येक व्यक्ति का फिंगरप्रिंट एवं आंखों की पुतलियों का रिकॉर्ड भी फोटो के माध्यम से डिजिटल सुरक्षित किया गया है। आधार में जिन लोगों का पंजीयन हो चुका है। सारे देश में कहीं पर भी जांच एजेंसियों और सरकार के पास यह डाटा उपलब्ध है। आधार पंजीयन के समय पूर्व और वर्तमान सरकार ने यह भरोसा दिलाया था। आधार बनने के बाद अन्य किसी दस्तावेज अथवा पंजीयन की जरूरत नहीं होगी। सभी सरकारी कामकाज एवं सरकारी सहायता के लिए आधार अनिवार्य होगा। आधार में जब शत प्रतिशत पंजीयन हो गया है। इस जानकारी के आधार पर ही नागरिक रजिस्टर बनाने में भी कोई कठिनाई नहीं है। नई तरीके से सारी प्रक्रिया शुरू करने पर हजारों करोड़ रुपए खर्च करने का कोई औचित्य भी नहीं है। केंद्र सरकार चाहे तो आधार का जो डिजिटल डाटा उसके पास है। उसके आधार पर ही नागरिक रजिस्टर तैयार किया जा सकता है। इसे आधार से लिंक भी किया जा सकता है।
विदेशियों को भारतीय नागरिकता
दुनिया भर के देशों में बाहर से आए हुए लोगों को नागरिकता देने के लिए कानून बने हुए हैं। भारत में भी पहले से ही विदेशियों के लिए नागरिक कानून प्रचलित हैं। सभी सरकारें नागरिकता देने के नियम समय-समय पर बदलती रहती हैं। किसी भी देश में धर्म के आधार पर नागरिकता देने का कोई प्रावधान नहीं है। भारत दुनिया का पहला देश है, जिसने नागरिकता कानून में मुस्लिमों को प्रतिबंधित किया है। भारत में 20 करोड़ के आसपास मुस्लिम आबादी है। ऐसी स्थिति में मुसलमानों का भयभीत होना लाजमी है। भारत सरकार बिना किसी धार्मिक भेदभाव के राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए, किसी भी विदेशी को भारत की नागरिकता देती है| इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं है| किंतु जिस तरीके से इसे हिंदू मुस्लिम ध्रुवीकरण करने के लिए सीएए एक्ट राजनैतिकक कारणों से लाया गया है। उसकी प्रतिक्रिया इसी तरीके से होनी थी।
राष्ट्रीय जनगणना में हजारों करोड़ की बर्बादी क्यों
भारत में जनगणना का काम बीसवीं सदी में शुरू हुआ था। अब हम सूचना प्रौद्योगिकी एवं डिजिटल तकनीकी के 21वीं सदी में रह रहे हैं। आधार इनरोलमेंट के माध्यम से भारत सरकार ने सभी भारतीय नागरिकों का आधार इनरोलमेंट कर लिया है स्कूल में प्रवेश लेने के लिए सभी बच्चों को आधार इनरोलमेंट प्रस्तुत करना होता है। इसके साथ ही गरीब से गरीब व्यक्ति को जिसे सरकारी सहायता मिलती है। उसे भी आधार कार्ड प्रस्तुत करना पड़ता है। इसका आशय यह है कि 6 वर्ष की उम्र में प्रत्येक बच्चे का आधार में पंजीयन अनिवार्य होगा। भारत में जन्म और मृत्यु का पंजीयन अनिवार्य कर दिया गया है। यदि इसे आधार के डाटा से लिंक कर दिया जाता है, तो हर 6 वर्ष में जनसंख्या का डाटा डिजिटल माध्यम से प्रदर्शित किया जा सकता है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति के माता पिता स्वयं की जानकारी, जन्म स्थान, आयकर ड्राइविंग लाइसेंस, वोटर कार्ड, राशन कार्ड, जन्म-मृत्यु प्रमाण, पंजीयन, धर्म, जाति एवं मूल निवास से संबंधित सभी जानकारी आसानी से उपलब्ध होगी।
अभी 10 वर्ष में जनगणना होती है। इसमें हजारों करोड़ रुपए भारत सरकार के प्रत्यक्ष रूप में खर्च होते हैं। 6 माह तक चलने वाले जनगणना की जानकारी एकत्रित करने के लिए हर राज्य के लाखों कर्मचारी और अधिकारी इस काम में लगते हैं। इसका डाटा तैयार करने में और कर्मचारियों की वेतन एवं अन्य खर्च में प्रत्येक 10 वर्ष में दो लाख करोड़ रुपए से अधिक केंद्र एवं राज्य सरकार का खर्च होता है। भारत सरकार ने सेल्फ सर्टिफिकेशन के माध्यम से राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर तैयार करने का काम 1 अप्रैल 2020 से 30 सितंबर 2020 तक कराने का निर्णय लिया है। इसमें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से 2 लाख करोड रुपए से कम खर्च नहीं होंगे। केंद्र सरकार यदि आधार के डाटा के आधार पर राष्ट्रीय जनगणना रजिस्टर प्रत्येक 6 वर्ष में तैयार करें, तो इसमें 100 से 200 करोड़ रुपए खर्च करने में यह काम आसानी से होगा। जनगणना के दौरान 6 माह तक केंद्र एवं राज्य सरकारों का काम पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो जाता है। वह भी नहीं होगा। आधार से जोड़कर प्रक्रिया अपनाने से हजारों करोड़ रुपए की केंद्र एवं राज्य सरकारों की बचत होगी।
इस दिशा में सरकार को ध्यान देने की जरूरत है।
समाजवादी विचार की जीवंत मूर्ति थे – मामा जी
डॉ. सुनीलम
( मामा बालेश्वर की 21 वीं पुण्यतिथि पर विशेष ) मामा जी के जीवन काल में मैंने उन्हें देखा भर था। जॉर्ज साहब और मधु लिमये जी के यहां परिचय हुआ , मुलाकात हुई। परंतु मामा जी के देहांत के बाद उनके कार्य क्षेत्र में जाने के बाद मामा जी के विराट व्यक्तित्व के बारे में पता चला। मैंने समाजवादी आंदोलन के दस्तावेजों का प्रो. विनोद प्रसाद सिंह जी के साथ संकलन करने के दौरान बहुत कुछ पढ़ा। यहां तक कह सकता हूं कि आज तक मैंने समाजवादियों के बारे में जितना भी पढ़ा है और जानता हूं उसमें जितना जमीनी असरकारी कार्य मामा जी ने किया उसकी तुलना किसी दूसरे व्यक्ति के साथ नहीं की जा सकती।
मामा जी विशुद्ध राजनीतिक व्यक्ति थे। केवल समाजवादी सिद्धातों में भरोसा ही नहीं करते थे। उन्होंने आजीवन समाजवादी आचरण ही किया। समाजवाद की जीवन्त मूर्ति कहना ही न्यायसंगत होगा ।उनका यही गुण उन्हें अन्य नेताओं की तुलना में विश्ष्टि स्थान दिलाता है। हमने डॉ. राममनोहर लोहिया जी के ‘जेल, वोट, फावड़ा’ के सिद्धांत को सुना लेकिन तीनों क्षेत्रों में योगदान करते मामा जी को जाना और समझा । मामा जी अंग्रेजों के जेल में रहे और आजादी के बाद भी जेल गये। उन्होंने पूरे भीलांचल के आदिवासियों को अन्याय, अत्याचार के खिलाफ लाल टोपी पहनकर, लाल झंडा लेकर संघर्ष करना सिखाया। मामा जी ने पूरे भीलांचल की राजनीति को प्रभावित किया। आज भी चुनाव के दौरान विभिन्न पार्टियों के नेतागण मामाजी के नाम का उपयोग करते हुये दिखलाई देते हैं। आज भी मामा जी के अनुयाइयों का राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात में वोट बैंक है। मामा जी ने शिक्षा के क्षेत्र में स्कूल चलाकर योगदान किया। वैसे भी वे भीलों के लिये सदा हेडमास्टर के तौर पर कार्य करते। कैसे रहना चाहिये, क्या कपड़े पहनना चाहिये, क्या खाना-पीना चाहिये सबकुछ उन्होंने सिखाया। भीलांचल के लोग आज भी ये मानते हैं कि मामा जी के प्रयासों के चलते ही आदिवासियों ने लंगोटी छोड़कर पूरे कपड़े पहनना शुरू किया। मामा जी ने दहेज दापा की प्रथा को समाप्त करने तथा मांस-मदिरा छोड़ने के लिये आदिवासियों को प्रेरित किया। मामा जी ने न केवल राजनीतिक और वैचारिक प्रशिक्षण दिया बल्कि उन्होंने धर्मग्रंथों के माध्यम से भी आदिवासियों को तमाम किस्म की सीख देने का काम किया।
मामा जी लोक भाषा, लोक भूषा, लोक भोजन और लोक संस्कृति को अपनाने वाले समाजवादी नेता रहे। उन्होंने भीली भाषा में तमाम किताबें लिखीं। हिन्दी तो मामा जी की मातृ भाषा थी ही लेकिन उन्होंने गांव-गांव में जाकर भीली भाषा में भी आदिवासियों के साथ संवाद किया। इस तरह जेल, वोट, फावड़ा के सिद्धांत को मूर्त रूप देने का काम मामा जी ने किया।
मामा जी ने कभी परिवार से कोई घनिष्ठ रिश्ता नहीं रखा। एक बार जब निवाड़ी कला यानि अपना पैतृक गांव छोड़ा, उसके बाद गांव से बहुत ज्यादा रिश्ता नहीं रखा। यही कारण रहा कि हमने जब मामा जी के जन्मस्थान निवाड़ी कला,इटावा से कर्म क्षेत्र बामनिया तक की यात्रा की तब उनके खुद के गांव में मामाजी की विद्ववता तथा उनके स्वतंत्रता आंदोलन एवं समाजवादी आंदोलन में योगदान को जानने वाले बहुत कम मिले। आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि मामाजी के अनुयाइयों ने राजस्थान से जाकर उनके अपने गांव में मूर्ति लगाई, शायद इसी को कहते हैं घर की मुर्गी दाल बराबर। मैंने जब निवाड़ी कला में कार्यक्रम किया था तब तमाम नेताओं ने, तमाम घोषणायें मामाजी को लेकर की थीं जैसा निवाड़ी कला में हुआ वैसा ही बामनिया में भी हुआ। मामाजी के तमाम चेले मंत्री बनकर बामनिया गये, तमाम घोषणायें कीं, लेकिन उनको घोषणाओं पर अमल नहीं हुआ।
इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि जिस व्यक्ति के 150 से ज्यादा मंदिर स्वयं आदिवासियों ने बनाए हों, जिसकी पूजा लाखों आदिवासियों द्वारा की जाती हो, जिसने आजादी के आंदोलन में ही नहीं, आजादी के बाद भी भीलांचल को मुख्य धारा से जोड़ने में अहम योगदान किया हो उस व्यक्ति की एक मूर्ति भी झाबुआ जिलाधीश कार्यालय के सामने आज तक न लगाई गई हो। मामा जी का सम्मान तो सभी पार्टियों और विचारधाराओं के लोग व्यक्तिगत तौर पर करते हैं लेकिन मामा जी की विचारधारा को खतरनाक मानते हैं तथा उस समाजवादी विचारधारा को खत्म करने का हर संभव प्रयास करते हैं। सरकारों और समाज के बलशाली लोगों को मामा जी के देवता हो जाने से कोई परेशानी नहीं है। लेकिन उन्हें समाजवादी विचार के नेता के तौर पर वे किसी भी हालत में स्थापित नहीं होने देना चाहते। यही कारण है कि मामा जी के समाधि स्थल – भीलाश्रम को किसी भी सरकार ने विकसित नहीं होने दिया है।
मामा जी को भारत रत्न देने की मांग उनके अनुयायी कई वर्षों से कर रहे हैं। अभी तक सरकारों के कान पर जूं तक नहीं रेंगा है। मामा जी के नाम से बामनिया रेलवे स्टेशन का नामकरण किया जाये इस मांग को भी किसी सरकार ने भी तवज्जो नहीं दी है।
मामा जी के नाम को आगे बढ़ाने का काम मूल तौर पर भक्ति मार्ग से जुड़े मामाजी के अनुयायी( भगत ) कर रहे हैं। मामा जी के जीवन काल में ही राजस्थान के आदिवासियों ने मामा जी के जन्मदिन पर आश्रम में आना शुरू कर दिया था। देहांत के बाद आश्रम आने वाले आदिवासियों की संख्या दिन दुगनी रात चैगनी बढ़ती चली गई। लेकिन 25-26 दिसम्बर की रात को हर वर्ष पच्चीस हजार से अधिक अनुयाइयों के लिये कोई सुविधा का इंतजाम शासन और सरकार की ओर से अब तक नहीं किया जा सका है।
अक्सर यह कहा जाता है कि सभी नेता एक जैसे होते हैं लेकिन मामा जी का पूरा जीवन उन्हें अन्य नेताओं से पूरी तरह अलग करता है। जो लोग सार्वजनिक जीवन में समाज के लिये योगदान करना चाहते हैं उनके लिये मामा जी का संपूर्ण जीवन एक मॉडल पेश करता है। एक तरफ
जहां मामा जी के व्यक्तित्व में सादगी, सरलता, निर्भीकता, बहादुरी, त्याग, कथनी और करनी का तारतम्य है वहां उनके सार्वजनिक जीवन में समाजवादी विचार के प्रति अडिग प्रतिबद्धता दिखलाई पड़ती है। मामा जी जैसे नेता कई सदियों में एक बार ही होते हैं इसलिये मामा जी के अनुयायी नारा लगाते हैं ‘जब तक सूरज चांद रहेगा, मामा जी का नाम रहेगा’।
जरूरत इस बात की है कि मामा जी के समाजवादी विचारों को आगे बढ़ाने के लिये सुनियोजित तौर पर कार्य किया जाये। मामा जी के फोटो और कैलेन्डर तो हजारों की संख्या में हर साल बेचे जाते हैं। मामा जी पूरे भीलांचल के हर घर में मौजूद हैं लेकिन यही बात मामा जी के विचार के बारे में नहीं कही जा सकती। यह तो सभी मानते हैं कि यदि मामाजी ने अपना पूरा जीवन इस इलाके में नहीं लगाया होता तो यह इलाका भी नक्सलवाद और माओवाद से प्रभावित होता यह निष्कर्ष भी सरकारों के लिये एक रास्ता बताता है।
मामा जी के जीवन पर मैंने क्रांति कुमार जी, राजेश बैरागी जी तथा राजस्थान के साथियों के साथ मिलकर मालती बेन ,पुंजा भगत और मास्टर रामलाल निनामा के मार्गदर्शन में आठ से अधिक किताबें प्रकाशित की हैं लेकिन यह बहुत कम हैं। मामा जी के समाजवादी साहित्य को भीलांचल के हर घर तक पहुंचाने की जरूरत है ताकि मामा जी के जीवन से प्रेरणा अधिक से अधिक लोग ले सकें।
धर्म की कम देश की अधिक चिंता करने का समय
तनवीर जाफ़री
नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा संसद के दोनों सदनों में पारित करवाया जा चुका नागरिकता संशोधन विधेयक अब क़ानून का रूप लेने जा रहा है। इस नव संशोधित नागरिकता क़ानून के दोनों सदनों यानी लोकसभा व राज्य सभा में पेश होने के दौरान ही देश के कई राज्यों में इस विधेयक का बड़े पैमाने पर विरोध शुरू हुआ था जो अब भी जारी है।असम व बंगाल में तो इस आंदोलन ने हिंसक रूप धारण कर लिया है। इससे पहले राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर लागू करने के प्रयासों के दौरान भी असमवासियों में काफ़ी बेचैनी दिखाई दी थी। मोदी सरकार द्वारा लाया जाने वाला नागरिकता संशोधन क़ानून हो या राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर इन दोनों ही प्रयासों से स्पष्ट हो गया है कि यह सरकार भारतवासियों अथवा मानवता के दृष्टिकोण से नहीं बल्कि धर्म के नज़रिये से अपना सत्ता सञ्चालन कर रही है। हालांकि सरकार द्वारा समय समय पर संविधान की रक्षा की दुहाई भी दी जाती है। परन्तु उसके द्वारा बहुमत की आड़ में उठाए जाने वाले कई क़दम ऐसे प्रतीत होते हैं गोया मोदी सरकार संविधान विरोधी कार्य कर रही हो। भारतीय संविधान की उद्देशिका के रूप में संविधान के शुरूआती प्रथम पृष्ठ पर मोटे शब्दों में अंकित है-“हम भारत के लोग भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न,समाजवादी, पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्याय,विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता व अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख़ 26 नवंबर 1949 ईस्वी(मिति मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी संवत दो हज़ार छः विक्रमी ) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत,अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।” इस प्रस्तावना में किसी धर्म जाति या क्षेत्र अथवा भाषा का ज़िक्र करने के बजाए ‘हम भारत के लोग’ और ‘उसके समस्त नागरिकों’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है तथा धर्म,जाति व क्षेत्र आदि के भेद भाव के बिना समस्त भारतवासियों को साथ लेकर राष्ट्र की एकता व अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने का दृढ़ संकल्प व्यक्त किया गया है।
क्या मोदी सरकार संविधान की इस प्रस्तावना का अनुपालन कर पा रही है ? नागरिकता संशोधन क़ानून और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर तैयार करने जैसी कोशिशें क्या भारतीय संविधान की मूल आत्मा अर्थात पंथ निरपेक्षता का पालन करती हैं? आख़िर क्या वजह है कि देश के कई राज्यों में इस समय बेचैनी दिखाई दे रही है। क्या बहुमत का अर्थ यह है कि सरकार अपने पूर्वाग्रही,गुप्त व साम्प्रदायिक एजेंडे को लागू करते हुए पंथ निरपेक्ष होने के बजाए बहुसंख्यवाद की राजनीति कर अपनी सत्ता सुरक्षित रखने की कोशिश करे?आख़िर सरकार द्वारा किस आधार पर अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के केवल हिंदू, ईसाई, सिख, जैन, बौद्ध और पारसी धर्म के लोगों को ही नए नागरिकता क़ानून के तहत भारत की नागरिकता देने का प्रावधान किया गया है? इसमें मुसलमानों को शामिल क्यों नहीं किया गया ? हालाँकि इस विषय पर संसद में चली बहस के दौरान रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का कहना था कि “भारत के तीनों पड़ोसी धर्मशासित देशों में अल्पसंख्यकों का लगातार मज़हबी उत्पीड़न हुआ है, जिसकी वजह से उन्हें भारत में शरण लेनी पड़ी है. छह अल्पसंख्यक समूहों को नागरिकता का अधिकार देने का फ़ैसला सर्व धर्म समभाव की भावना के अनुरूप है.” गृह मंत्री अमित शाह ने भी चर्चा के दौरान फ़रमाया कि -‘पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान में इस्लाम को मानने वाले अल्पसंख्यक हैं क्या? देश का धर्म इस्लाम हो तो मुस्लिमों पर अत्याचार की संभावना कम है’ उन्होंने कहा कि मुसलमानों के आने से ही क्या धर्मनिरपेक्षता साबित होगी?
देश व देश के स्वयंभू रखवालों से कोई पूछे कि इन तीनों ही देशों में आज तक सबसे अधिक प्रताड़ना किन लोगों को सहनी पड़ी है ? अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश तीनों ही देशों में कट्टरपंथी ताक़तें चाहे वे सत्ता द्वारा संरक्षित हों या सत्ता विरोधी परन्तु इन अतिवादी ताक़तों द्वारा सबसे अधिक प्रताड़ित उन लोगों को ही किया जाता है जो वैचारिक रूप से इनसे सहमत न हों। इनमें मुसलमानों में ही गिने जाने वाले शिया,बरेलवी,अहमदिया,सूफ़ी जैसे समुदाय के लोग सबसे बड़ी संख्या में शामिल हैं। इन समुदायों के लोग मुसलमान हैं भी और ज़ाहिर है स्वयं को मुसलमान ही कहते भी हैं। परन्तु आतंक का पर्याय बनी कट्टर मुस्लिम शक्तियां इन्हें मुसलमान नहीं मानतीं। विचारधारा के इस टकराव में निश्चित रूप से सबसे अधिक उत्पीड़न इन तीनों देशों में इन्हीं मुसलमानों का किया जाता है। शिया,बरेलवी,अहमदिया,सूफ़ीआदि समुदाय के लोगों के धर्मस्थलों,मस्जिदों,दरगाहों,इमामबारगाहों को ध्वस्त किया जाता है। मुहर्रम के जुलूसों व मजलिसों पर आत्मघाती हमले किये जाते हैं।कई दरगाहों में उर्स जैसे बड़े समागमों यहाँ तक कि शादी समारोह तक में आतंकी आत्मघाती हमले करे गए जिसमें अब तक हज़ारों मुसलमान मारे जा चुके हैं।क्या इन पीड़ितों को भारत में नागरिकता लेने का अधिकार नहीं? और यह हालात गृह मंत्री अमित शाह के इस दावे कि ‘देश का धर्म इस्लाम हो तो मुस्लिमों पर अत्याचार की संभावना कम है’की कहाँ तक पुष्टि करते हैं ?
अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेशको छोड़ कर यदि हम श्री लंका,चीन,नेपाल,तिब्बत और म्यांमार जैसे देशों की बात करें तो यहाँ भी मुसलमानों के साथ साथ अन्य धर्मावलंबी भी धर्म के आधार पर उत्पीड़न का शिकार होते रहते हैं। उदाहरण स्वरूप तिब्बत के बौद्ध, श्रीलंका के तमिल, नेपाल के मधेसी,म्यांमार में रोहंगिया मुस्लिम,चिन, काचिन व अराकान समुदाय के लोग भी ज़ुल्म का शिकार होते रहते हैं परन्तु उन्हें भारत की नागरिकता दिए जाने वाले धर्मों की सूची में शामिल नहीं किया गया है ? क्या भारतीय संविधान इसी प्रकार के धार्मिक भेदभाव करने की शिक्षा देता है? क्या देश की स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने वालों ने ऐसे ही स्वतंत्र भारत की कल्पना की थी जो धर्म के आधार पर क़ानून बनाया करेगा? वर्तमान भाजपा सरकार दरअसल मुस्लिम विरोध पर आधारित राजनीति में ही अपनी सफलता देखती आ रही है। 2014 से लेकर अब तक मोदी सरकार तथा कई भाजपा शासित राज्य सरकारों ने ऐसे अनेक फ़ैसले लिए हैं जो भाजपा के मुस्लिम विरोधी रुख़ को दर्शाते हैं। जिस पंथ निरपेक्षता की बात भारतीय संविधान में की गयी है भाजपा उसपर विश्वास करने के बजाए हिंदूवादी राजनीति पर अधिक विश्वास करती है। और जो भी दल या नेता मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हितों की बात करता है उसे हिन्दू विरोधी साबित करने की चतुराई करती है। विपक्ष को मुस्लिम तुष्टीकरण करने वाला बताकर स्वयं हिन्दू वोट बैंक की राजनीति करती है।
उपरोक्त परिस्थितियों में देश व संविधान की मूल आत्मा को बचाने की ज़िम्मेदारी निश्चित रूप से समूचे विपक्ष के साथ साथ पूरे देश की जनता की भी है। भाजपा के रणनीतिकारों ने बड़े ही शातिराना तरीक़े से नवनिर्मित नागरिकता संशोधन क़ानून तथा राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर जैसे अति गंभीर विषयों पर विपक्ष को भी विभाजित करने की कोशिश की है।ऐसे में जो भी विपक्षी दल व नेता भारतीय संविधान व देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के पैरोकार हैं उन्हें बिना समय गंवाए ऐसे काले क़ानूनों के विरुद्ध एकजुट हो जाना चाहिए। यह वक़्त देश की आत्मा के लिए संकट का समय है। यह समय धर्म से भी अधिक देश की चिंता करने का समय है।
भारतीय राजनीति के आकाश का ध्रुवतारा थे अटल जी
योगेश कुमार गोयल
(अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती 25 दिसम्बर) पर विशेष) तीन बार देश के प्रधानमंत्री रहे भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी आज हमारे बीच नहीं हैं। उन्होंने 93 वर्ष की आयु में 16 अगस्त 2018 को दिल्ली के एम्स अस्पताल में अंतिम सांस ली थी। देहांत से पूर्व वे कई वर्षों से अस्वस्थ चल रहे थे। 27 मार्च 2015 को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने स्वयं उनके आवास पर जाकर प्रोटोकॉल तोड़ते हुए उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया था। अटल जी तीन बार प्रधानमंत्री, दो बार राज्यसभा सदस्य तथा दस बार लोकसभा सदस्य रहे। अटल जी भले ही भाजपा के शीर्ष नेता रहे लेकिन वो देश के सर्वाधिक लोकप्रिय प्रधानमंत्रियों में से एक थे। सही मायने में अटल जी भारतीय राजनीति के आकाश का ध्रुवतारा थे। उनकी शख्सियत ऐसी थी कि हर राजनीतिक दल में उनकी स्वीकार्यता रही।
2005 में जब वाजपेयी जी ने राजनीति से सन्यास लेने की घोषणा की थी, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने ही उन्हें ‘मौजूदा राजनीति का भीष्म पितामह’ की संज्ञा दी थी। अटल जी एक ऐसी शख्सियत थे, जिन्होंने अपने जीवन का हर पल राष्ट्र को समर्पित कर दिया था। भारतीय राजनीति की महान विभूति रहे अटल जी का विराट व स्नेहिल व्यक्तित्व, विलक्षण नेतृत्व, दूरदर्शिता तथा अद्भुत भाषण देने का सामर्थ्य उन्हें एक विशाल व्यक्तित्व प्रदान करते थे। सही मायने में अटल जी का अवसान ‘अटल युग’ का अवसान है। बतौर प्रधानमंत्री उनकी सबसे बड़ी उपलब्धियों में से था 1 मई 1998 को राजस्थान के पोरखण में किया गया परमाणु बम परीक्षण, जिससे देश समूची दुनिया में एक प्रमुख परमाणु शक्ति सम्पन्न देश के रूप में उभरा। उन्होंने अपनी कुशल भाषण कला शैली से राजनीति के शुरूआती दिनों में ही ऐसा रंग जमा दिया था कि हर कोई उनके भाषणों का कायल हो जाता था। कहा जाता है कि उनके भाषण इतने प्रभावशाली होते थे, जिन्हें सुनने विरोधी भी चुपके से उनकी सभाओं में जाते थे। पूर्व लोकसभा अध्यक्ष अनंतशयनम अयंगार ने एक बार कहा था कि हिन्दी में अटल बिहारी वाजपेयी से अच्छा वक्ता कोई नहीं है। यह भी कहा जाता रहा है कि स्वयं नेहरू वाजपेयी द्वारा उठाए गए मुद्दों को बहुत ध्यान से सुना करते थे।
बात वर्ष 1957 की है, जब वाजपेयी जी पहली बार सांसद चुने गए थे। अटल जी उस समय 34 वर्ष के युवा थे और उन्हें संसद में बोलने का ज्यादा समय नहीं मिलता था लेकिन वाजपेयी जी की हिन्दी पर इतनी अच्छी पकड़ थी कि उन्होंने संसद में अपनी एक अलग पहचान बना ली थी। पं. नेहरू उस समय देश के प्रधानमंत्री थे, वे भी वाजपेयी जी की हिन्दी से बहुत प्रभावित थे और यही कारण था कि नेहरू संसद में उनके सवालों का जवाब हिन्दी में ही दिया करते थे। ऐसे ही संसद में बहस के दौरान एक बार नेहरू जी ने जनसंघ की कटु आलोचना की तो अपनी हाजिरजवाबी का परिचय देते हुए अटल जी ने तपाक से कहा कि मैं जानता हूं कि पंडित जी रोज शीर्षासन करते हैं, वे शीर्षासन करें, उस पर मुझे कोई आपत्ति नहीं है लेकिन वे शीर्षासन करते हुए मेरी पार्टी की तस्वीर उल्टी न देखें। वाजपेयी जी के इस जवाब को सुनकर नेहरू भी ठहाका लगाकर हंस पड़े थे।
25 दिसम्बर 1924 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर में एक स्कूल अध्यापक के घर जन्मे अटल बिहारी वाजपेयी मूल रूप से कवि और शिक्षक थे। कॉलेज में शिक्षण के दौरान ही उन्होंने कविताएं लिखनी शुरू कर दी थीं। 1943 में वे कॉलेज यूनियन के सचिव रहे और 1944 में उपाध्यक्ष बने। वे बचपन में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए थे और उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शाखा प्रभारी के रूप में भी कार्य किया। देश के लिए कुछ करने के जज्बे के साथ उन्होंने पत्रकारिता का रास्ता चुना और एक पत्रकार बन गए। राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर के बाद उन्होंने पत्रकारिता में अपना कैरियर शुरू किया था। अटल जी ने राष्ट्रधर्म, पांचजन्य, वीर अर्जुन और स्वदेश का संपादन किया। 1951 में जब जनसंघ की स्थापना हुई थी, तब अटल जी ने चुनावी राजनीति में प्रवेश किया था। हालांकि लखनऊ में लोकसभा उपचुनाव में अटल जी हार गए थे किन्तु वो इस हार से निराश नहीं हुए।
अटल जी भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्य थे और जनसंघ ने 1957 में अटल जी को एक साथ तीन लोकसभा सीटों लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से मैदान में उतारा किन्तु मथुरा में उनकी जमानत जब्त हो गई, लखनऊ में उन्हें हार का सामना करना पड़ा लेकिन बलरामपुर से वे चुनाव जीत गए और जीतकर वो पहली बार द्वितीय लोकसभा में पहुंचे। 1968 से 1973 तक अटल जी भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे और 1975-77 के आपातकाल के दौरान उन्हें भी जेल भेजा गया। 1977 में जनता पार्टी की मोरारजी देसाई सरकार में वे विदेश मंत्री बने और उस दौरान संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन में अटल जी ने हिन्दी में ऐसा ओजस्वी भाषण दिया, जिसकी दुनियाभर में व्यापक सराहना हुई, जिसे स्वयं अटल जी अपने जीवन का सबसे सुखद क्षण बताया करते थे। 1979 में जनता पार्टी की सरकार गिर गई, जिसके बाद 1980 में भारतीय जनता पार्टी का गठन किया गया, जिसके संस्थापक सदस्य अटल जी ही थे और वे भाजपा के पहले अध्यक्ष भी बने तथा 1986 तक इस पद पर आसीन रहे और संसद में भाजपा संसदीय दल के नेता भी बने रहे। 1962 से 1967 और 1986 में अटल जी राज्यसभा के सदस्य भी रहे। आपातकाल के बाद जब चुनाव की घोषणा हुई थी तो कवि हृदय वाजपेयी जी ने कहा था:-
बाद मुद्दत के मिले हैं दीवाने,
कहने सुनने को बहुत हैं अफसाने।
खुली हवा में जरा सांस तो ले लें,
कब तक रहेगी आजादी कौन जाने!
पहली बार अटल जी 16 मई 1996 को देश के प्रधानमंत्री बने किन्तु उनकी सरकार मात्र 13 दिन ही चली क्योंकि सदन में बहुमत साबित न कर पाने के कारण उन्हें इस्तीफा देना पड़ा और वे 1998 तक लोकसभा में विपक्ष के नेता बने रहे। दूसरी बार वे 1998 में प्रधानमंत्री बने लेकिन सहयोगी दलों द्वारा समर्थन वापस लेने के कारण 13 माह के अंतराल बाद उनकी सरकार गिर गई, जिसके बाद 1999 में हुए राजग के साझा घोषणापत्र पर चुनाव लड़ा गया, जिसमें वाजपेयी के नेतृत्व को प्रमुख मुद्दा बनाया गया। चुनाव में राजग को बहुमत हासिल हुआ और 13 अक्तूबर 1999 को अटल जी ने तीसरी बार प्रधानमंत्री पद संभाला तथा कार्यकाल पूरा करते हुए 2004 तक इस पद को सुशोभित किया। 2005 में उन्होंने सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा कर दी थी। 2007 में उनकी अंतिम सभा 25 अप्रैल को कपूरथला चौराहे पर भाजपा उम्मीदवारों के समर्थन में हुई थी लेकिन उसके बाद उनका स्वास्थ्य खराब होता गया। 2009 में उनकी तबीयत ज्यादा खराब होने पर उन्हें कई दिनों तक वेंटिलेटर पर रखा गया था लेकिन ठीक होने पर उन्हें अस्पताल से छुट्टी तो दे दी गई थी किन्तु उसके बाद के वर्षों में उन्हें स्वास्थ्य संबंधी गंभीर परेशानियां लगातार बनी रही और वे 16 अगस्त 2018 को समस्त देशवासियों को एक अटल शून्य में छोड़ चिरनिद्रा में लीन हो गए।
शिक्षा के मन्दिरों को कलंकित करते दरिन्दे
रमेश सर्राफ धमोरा
राजस्थान में झुंझुनू जिले के सैनिक स्कूल के एक शिक्षक ने स्कूल में पढ़ने वाले 12 नाबालिग बच्चों का यौन शोषण कर एक शर्मनाक काम किया है। कड़े सैनिक अनुशासन व चरित्र निर्माण की शिक्षा के लिए विख्यात सैनिक स्कूल पर इस घटना ने एक बदनुमा दाग लगा दिया है। इस घटना से देश के अंदर चल रहे सभी 28 सैनिक स्कूलों की छवि खराब हुई है। हालांकि दोषी शिक्षक को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है। लेकिन सैनिक स्कूल में इस तरह की घटना का होना कई सवालों को खड़ा करती है। सैनिक स्कूल में लंबा चौड़ा स्टाफ व हर जगह सीसीटीवी कैमरे लगे रहते हैं। उसके उपरांत लगातार ऐसी घटना को अंजाम देना स्कूल प्रबंधन पर गंभीर सवाल खड़े करते हैं। इस घटना से पुलिस भी लोगों के निशाने पर आई है। पुलिस ने इस घटना को जानबूझकर दबाने का प्रयास किया था जिसकी सर्वत्र निंदा हो रही है।
पश्चिम बंगाल सरकार ने राज्य के सरकारी और सरकार की ओर से वित्तपोषित स्कूलों के शिक्षकों के लिए एक आचार संहिता तैयार की है जिसका सभी शिक्षकों व गैर-शिक्षण कर्मचारियों को पालन करना अनिवार्य है। इसके उल्लंघन का दोषी पाए जाने की स्थिति में नौकरी से बर्खास्त करने तक की सजा का प्रावधान है। बंगाल संभवत: ऐसी आचार संहिता बनाने वाला देश का पहला राज्य है। सरकार की ओर से जारी एक अधिसूचना में तमाम स्कूलों में इसका पालन अनिवार्य कर दिया गया है। हाल के वर्षों में पश्चिम बंगाल के स्कूलों में छात्र छात्राओं के यौन शोषण की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। कोलकाता में ही बीते दो वर्षों के दौरान ऐसी एक दर्जन से ज्यादा घटनाएं दर्ज की गई हैं। इनमें एक दर्जन से ज्यादा शिक्षकों और गैर-शिक्षण कर्मचारियों की गिरफ्तारी हुई है। ऐसे घटनाओं से संबंधित अभियुक्त के साथ ही स्कूल की भी बदनामी होती है।
झारखंड के धनबाद जिले में चौथी कक्षा की एक छात्रा से स्कूल के चिकित्सा कक्ष में उप-प्रधानाचार्य समेत दो अध्यापकों द्वारा कथित तौर पर दुष्कर्म करने का मामला सामने आया है। तोपचांची स्थित स्कूल के दो शिक्षकों और एक नर्स के खिलाफ कतरास थाने में एफआईआर दर्ज की गई है। छात्रा ने आरोपियों पर एक महीने पहले संस्थान के चिकित्सा कक्ष में उससे दुष्कर्म करने का आरोप लगाया है। पुलिस के मुताबिक पीड़ित छात्रा कक्षा में बेहोश हो गई थी। शिक्षक ने उसे चिकित्सा कक्ष में भेज दिया जहां नर्स ने उसे दवा दी जिससे वो बेसुध हो गई फिर उसके साथ दुष्कर्म हुआ।
आंध्र प्रदेश में कृष्णा जिले के एक सरकारी उच्च प्राथमिक स्कूल के प्रधानाध्यापक को अपने ही स्कूल की कक्षा 2 की बच्ची के साथ बलात्कार के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। स्कूल के प्रधानाध्यापक ने आठ साल की बच्ची को एक खाली कमरे में ले जाकर उसके साथ बलात्कार किया। इस घटना के बाद बच्ची रोती हुई घर गई थी। उसके कपड़ों पर चोट और खून के निशान थे। उसकी मां उसे एक निजी अस्पताल में ले गई जहां डॉक्टरों ने उसे बताया कि उसके साथ यौन उत्पीडऩ किया गया है। उत्तरी केरल के मलप्पुरम जिले में स्कूल के एक शिक्षक ने छात्रा से कथित तौर पर बलात्कार किया। सातवीं कक्षा की 12 वर्षीय छात्रा अब गर्भवती है। पुलिस के अनुसार दो महीने तक बच्ची के साथ बलात्कार किया गया।
राजस्थान के जैसलमेर के स्थानीय कोर्ट ने एक प्राइवेट स्कूल के मालिक को आठ वर्षीय बच्ची के बलात्कार के आरोप में 20 साल के कारावास की सजा सुनाई गई है। कोर्ट ने आरोपी हरि सिंह पर एक लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया गया। आरोपी हरि सिंह जैसलमेर के मोहनगढ़ जिले में एक स्कूल का मालिक हैं। मगर लोगों का मानना था कि उसके अपराध को देखते हुये उसे मौत की सजा दी जानी चाहिये थी। राजस्थान के भीलवाड़ा के सरकारी स्कूल में टीचर ने गुरु शिष्य के संबंधों को शर्मसार कर दिया। सरकारी स्कूल में इंटर्नशिप करने आए एक युवक ने अपनी ही छात्रा के साथ बलात्कार किया। उसके बाद आरोपी ने नाबालिग छात्रा की तस्वीरें सोशल मीडिया में वायरल कर दी। बताया जा रहा है कि आरोपी सरकारी स्कूल में पढ़ाता था और नाबालिग छात्रा को ब्लैकमेल करता था। यह मामला तब सामने आया जब आरोपी ने नाबालिग छात्रा की ब्लैकमेल करने वाली तस्वीरें सोशल मीडिया में वायरल कर दीं। नाबालिग लडक़ी की तस्वीरें जब उसकी मां तक पहुंचीं तब पूरे मामले का खुलासा हुआ।
हिमाचल प्रदेश के ऊना जिले के उपमंडल अंब के तहत सीनियर सेकेंडरी स्कूल में एक शिक्षक ने नाबालिग छात्रा से स्कूल के वॉशरूम में दुष्कर्म कर डाला। 15 साल की छात्रा ने पुलिस को बताया कि वह रोजाना की तरह स्कूल गई हुई थी। इसी दौरान करीब 11 बजे जब वह स्कूल के वॉशरूम में गई थी तो आरोपी शिक्षक भी उसी के पीछे आ गया। जहां उसने छात्रा के साथ रेप किया। ओडिशा के कोरापुट के एक स्कूल में 7वीं क्लास में पढ़ने वाली छात्रा के साथ रेप की घटना सामने आई है। रेप का आरोप स्कूल के हेडमिस्ट्रेस के पति पर लगाया है। पुलिस का कहना है कि पीड़िता गर्भवती है। इस मामले में पुलिस ने आरोपी को गिरफ्तार कर लिया है।
बिहार में महिलाओं के साथ बढ़ती आपराधिक घटनाएं थमने का नहीं ले रही हैं। बिहार के बक्सर जिले में एक नाबालिग लड़की के साथ स्कूल में रेप की वारदात सामने आई है। वारदात जिले के कोरानसराय थाना इलाके की है। बिहार के मुजफ्फरपुर बालिका गृह रेप कांड में 34 बच्चियों के साथ बलात्कार किया गया था। उस कांड में कई बड़े लोगों को जेल की हवा खानी पड़ रही है।
देश के विभिन्न प्रांतों के स्कूलों में आए दिन छात्र छात्राओं के साथ स्कूल के शिक्षकों द्वारा यौन दुराचार की घटनाओं की खबर अखबारों की सुर्खियां बनती रहती है। जिससे ना केवल स्कूल ही बदनाम होता है बल्कि पूरी शिक्षा व्यवस्था ही दागदार हो जाती है। केन्द्र व राज्य सरकारों को इस तरह की घटनाओं पर रोक लगाने की दिशा में प्रभावी कदम उठाने चाहिये।
नाबालिग बच्ची से बलात्कार करने पर फांसी देने तक की सजा का प्रावधान किया जा चुका है। मगर आज भी ऐसे आरोपियों को निचली अदालतें आजन्म कारावास की सजा नहीं सुना रही है जिससे ऐसे वहशी दरिंदो में कानून का डर व्याप्त नहीं हो पा रहा है। हमारे देश के कानून में मिली नागरिक अधिकारों की रक्षा की छूट का फायदा भी ऐसे अपराधी आसानी से उठा कर कड़ी सजा से बच जाते हैं। शिक्षा के मन्दिरों को कलंकित करने वाले लोगों को जब तक कड़ी सजा नहीं मिलेगी तब तक शिक्षण संस्थाये ऐसे ही दागदार होती रहेगी।
वायु सेवाओं को मिली नई उड़ान
दुर्गेश रायकवार
राज्य सरकार ने अपने वचन-पत्र में प्रदेश में वायु सेवाओं का विस्तार करने का वादा किया था। वादे के मुताबिक राज्य सरकार पहले साल ही भोपाल और इंदौर विमानतल को “कस्टम नोटिफाइड एयरपोर्ट” घोषित कराने में सफल रही। वर्ष 2019 में इंदौर से विस्तारा एयरलाइंस और ट्रू-जेट एयरलाइन द्वारा हवाई उड़ानें शुरू की गईं। इन एयरलाइंस द्वारा दिल्ली-अहमदाबाद-हैदराबाद के लिये अतिरिक्त उड़ान सेवा इंदौर को मिली।
भोपाल से वर्ष 2019 में इंडिगो एयरलाइंस और स्पाइस जेट एयरलाईन ने उड़ान सेवा शुरू की। इसमें इंडिगो एयरलाइंस द्वारा भोपाल से हैदराबाद, दिल्ली, मुम्बई और बैंगलुरू की सेवाएँ दी जा रही हैं। स्पाइस जेट एयरलाईन द्वारा भोपाल से दिल्ली, मुम्बई, जयपुर और उदयपुर के लिए उड़ान सेवाएँ दी जा रही हैं। इन्दौर विमानतल कस्टम नोटिफाईड एयरपोर्ट घोषित होते ही यहाँ से दुबई के लिये अंतर्राष्ट्रीय उड़ानें संचालित हो रही हैं।इस एयरपोर्ट पर कार्गो सेवा भी चालू हो गई है। भोपाल हवाई अड्डा कस्टम नोटिफाईड एयरपोर्ट घोषित होते ही कस्टम विभाग एवं गृह मंत्रालय द्वारा स्थल निरीक्षण किया गया और शीघ्र ही नोटिफिकेशन जारी किया जा रहा है।
रीवा, दतिया, रतलाम, उज्जैन, मंदसौर, छिंदवाड़ा, उमरिया एवं बालाघाट स्थित शासकीय हवाई पट्टियां पायलट प्रशिक्षण तथा अन्य उड्डयन गतिविधियाँ संचालित करने, एयरो स्पोर्टस गतिविधियां संचालित करने तथा एयरक्रॉफ्ट रिसाइक्लिंग, हेलीकॉप्टर अकादमी तथा एयरो स्पोर्टस आदि सुविधाएँ विकसित करने के लिए निर्धारित शुल्क पर आवंटित की गई हैं। इसी प्रकार अन्य हवाई पट्टियों को भी निर्धारित शुल्क पर दिये जाने की कार्य-योजना है।
वर्तमान में रीजनल कनेक्टिविटी योजना में निजी वैमानिक संस्थाओं द्वारा ग्वालियर-इन्दौर-ग्वालियर, ग्वालियर-दिल्ली, बैंगलुरू-ग्वालियर-बैंगलुरू, कोलकाता-ग्वालियर-कोलकाता, ग्वालियर-जम्मू-ग्वालियर तथा हैदराबाद-ग्वालियर- हैदराबाद रूट पर हवाई सेवाएँ संचालित हो रही हैं। भारत सरकार की रीजनल कनेक्टिविटी योजना (आर.सी.एस) के तहत रीवा-भोपाल एवं रीवा-झाँसी रूट विस्तारित किये गये हैं।
रीजनल कनेक्टिविटी योजना 4.0 में प्रदेश की बिरवा, छिंदवाड़ा, दतिया, मण्डला, नीमच, पचमढ़ी, रीवा, सतना एवं उमरिया हवाई पट्टियों को शामिल करने के लिये विमानन विभाग की ओर से भारत सरकार को पत्र लिखा गया है।
अब प्रदेश में विमान सेवाओं के विस्तार के जरिए पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा। लोग कम समय में लंबी दूरी तय कर अपना समय बचा सकेंगे। इसी के साथ, बीमारी की दशा में भी लोगों को समय रहते इलाज मिल सकेगा।
नागरिकता के फर्जी मुद्दे पर फंसी भाजपा
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कोई कानून हमारी संसद स्पष्ट बहुमत से बनाए और उस पर इतना देशव्यापी हंगामा होने लगे, ऐसा मुझे कभी याद नहीं पड़ता। संसद के दोनों सदनों ने नागरिकता संशोधन विधेयक पारित किया, जिसके अनुसार पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आनेवाले शरणार्थियों को भारत की नागरिकता प्रदान की जाएगी। लेकिन यह नागरिकता सिर्फ हिंदुओं, सिखों, ईसाइयों, पारसियों और यहूदियों को दी जाएगी। इन देशों के मुसलमानों को नहीं दी जाएगी ? क्योंकि हमारी सरकार का दावा है कि इन पड़ौसी मुस्लिम देशों के उक्त अल्पसंख्यकों पर काफी अत्याचार होते हैं। उन्हें शरण देना भारत का धर्म है, कर्तव्य है, फर्ज है। इसी फर्ज को निभाने के लिए मोदी सरकार ने यह नया कानून बनाया है।
इसमें शक नहीं कि शरणार्थियों को शरण देना किसी भी सभ्य देश का कर्तव्य है। इस दृष्टि से यह कानून सराहनीय है लेकिन शरण देने के लिए जो शर्त रखी गई है, वह अधूरी है, अस्पष्ट है और भ्रामक है। भारतीय नागरिकता देने की शर्त यह है कि इन पड़ौसी इस्लामी देशों में गैर-मुस्लिमों पर अत्याचार होता है। मान लें कि यह आरोप सही है तो क्या उसका एक मात्र इलाज यही है कि धार्मिक अत्याचार के बहाने जो भी भारत पर लदना चाहे, उसे हम लाद लें ? भारत आनेवाले इन लाखों लोगों में से आप कैसे तय करेंगे कि कितने लोग धार्मिक उत्पीड़न के कारण शरण मांग रहे हैं ? हो सकता है कि वे बेहतर काम-धंधों के लालच में आए हों, भारत के जरिए अमेरिका और यूरोप जाने के लिए आए हों, अपने रिश्तेदारों के साथ रहने आए हों या उन सरकारों के लिए जासूसी करने के लिए भेजे गए हों। उनके पास तुरुप का बस एक ही पत्ता है कि वे मुसलमान नहीं है। बस, उनकी गाड़ी पार है। हम धार्मिक उत्पीड़न के बहाने भारत को दक्षिण एशिया का अनाथालय क्यों बना देना चाहते हैं ? इसी कारण पूर्वोत्तर के प्रांतों में बगावत की आग भड़की हुई है।
मूल प्रश्न यह है कि उत्पीड़न क्या सिर्फ धार्मिक होता है ? यदि यह सही होता तो 1971 में बांग्लादेश से लगभग एक करोड़ मुसलमान भागकर भारत क्यों आ गए थे ? पाकिस्तान के अहमदिया, शिया, बलूच, सिंधी और पठान लोग क्या मुसलमान नहीं हैं ? वे भागकर अफगानिस्तान, भारत और पश्चिमी देशों में क्यों जाते हैं ? क्या अफगानिस्तान के शिया, हजारा, मू-ए-सुर्ख, परचमी और खल्की लोग मुसलमान नहीं हैं ? वे वहां से क्यों भागते रहे ? इन तीनों देशों से बाहर भागनेवाले लोगों में हिंदू कम और मुसलमान बहुत ज्यादा क्यों हैं ? अंतरराष्ट्रीय मानव अधिकार घोषणा-पत्र और शरणार्थी अभिसमय के अनुसार कोई भी व्यक्ति सिर्फ धार्मिक उत्पीड़न ही नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और आनुवांशिक उत्पीड़न से त्रस्त होने पर शरण पाने का अधिकारी होता है। इसीलिए हमारा यह नागरिकता संशोधन कानून अधूरा है।
यह कानून सपाट भी है। यह सिर्फ पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों की ही चिंता करता है। क्यों करता है ? क्योंकि 1947 में बहुत-से गैर-मुस्लिम इन देशों में रह गए थे। वे मूलतः भारतीय ही हैं। यहां पहला सवाल है कि क्या 1947 में अफगानिस्तान भारत का हिस्सा था ? यदि नहीं तो उसे क्यों जोड़ा गया ? यदि उसे जोड़ा गया तो बर्मा, भूटान, श्रीलंका और नेपाल को क्यों छोड़ा गया ? बर्मा और श्रीलंका तो ब्रिटिश भारत के अंग ही थे। इन देशों के हजारों-लाखों गैर-मुस्लिम शरणार्थी भारत आते रहे हैं। उनमें तमिल, मुस्लिम, ईसाई और हिंदू शरणार्थी भी हैं। दुनिया के पचासों देशों में बसे दो करोड़ प्रवासी भारतीयों पर कभी संकट आया तो वे क्या करेंगे ?
यह ठीक है कि इस नए नागरिकता कानून से भारतीय मुसलमान नागरिकों को कोई नुकसान नहीं है लेकिन उन्हें क्या हुआ है ? वे क्यों भड़क उठे हैं ? क्योंकि इस कानून के पीछे छिपी सांप्रदायिकता दहाड़ मार-मारकर चिल्ला रही है। भाजपा ने अपने आप को मुसलमान-विरोधी घोषित कर दिया है। भाजपा जब विपक्ष में थी, तब वोट पाने के लिए यह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण समझ में आता था। चुनावी घोषणा-पत्र में इसे डाल दिया गया था लेकिन आप अब सत्ता में हैं। किसे नागरिकता देना, किसे नहीं, यह आपके हाथ में है। इसके लिए गुण-दोष का शुद्ध और निष्पक्ष पैमाना लगाइए और बिना किसी भेद-भाव के नागरिकता दीजिए या मत दीजिए। मेरी राय में यही सच्ची हिंदुत्व दृष्टि है।
यदि हिंदुओं के वोट-बैंक को मजबूत करने के लिए यह पैंतरा मारा गया है तो बंगाल, असम, त्रिपुरा और पूर्वोतर के अन्य प्रांतों में सारे हिंदू क्यों भड़के हुए हैं ? वहां की भाजपा सरकारें क्यों हतप्रभ हैं ? यह ठीक है कि इन प्रांतों के कुछ जिलों में शरणार्थी वर्जित हैं लेकिन अभी भी राष्ट्रीय नागरिकता सूची तैयार की गई है, उसमें से 19 लाख लोग बाहर कर दिए गए। उनमें से 11 लाख हिंदू बंगाली हैं। इन सीमांत प्रदेशों में से भाजपा का सूंपड़ा साफ होने की पूरी आशंका है। यह देश का दुर्भाग्य है कि पूर्वी सीमांत के प्रांतों में कोई भी अखिल भारतीय पार्टी जम नहीं पा रही है। भाजपा के इस कानून ने देश के परस्पर विरोधी दलों को भी एकजुट कर दिया है।
यह कानून बनाते समय सरकार और हमारे सांसदों ने यह भी ठीक से नहीं सोचा कि इससे अंतरराष्ट्रीय जगत में भारत की प्रतिष्ठा को कितनी ठेस पहुंचेगी। इस कानून के कारण मचे कोहराम के चलते गुवाहाटी में आयोजित भारतीय और जापानी प्रधानमंत्रियों की भेंट रद्द करनी पड़ गई। अमेरिकी सरकार और संयुक्तराष्ट्र के मानव अधिकार आयोग ने हमारे इस कदम की कड़ी आलोचना की है। पाकिस्तान के एक हिंदू सांसद और एक हिंदू विधायक ने इस कानून को वहां के हिंदुओं के लिए हानिकारक बताया है। बांग्लादेश, जो कि भारत का अभिन्न मित्र है, इस कानून से बहुत परेशान है। उसके विदेश मंत्री और गृहमंत्री ने अपनी भारत-यात्रा स्थगित कर दी है। इमरान खान इस कानून की निंदा करें, इसमें कोई अचरज नहीं है। मुझे डर यह है कि कहीं अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी और प्रधानमंत्री डाॅ. अब्दुल्ला भी भारत की आलोचना न करने लगें। भाजपा ने यह कानून लाकर पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान को, जो कई मामलों में परस्पर विरोधी हैं, एकजुट कर दिया है। कहीं ये तीनों देश अपने यहां भारत-जैसा कोई जवाबी कानून ही पास न कर दें। याने वे भारत के अल्पसंख्यकों- मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों और दलितों को नागरिकता सहर्ष देने का कानून न बना दें। दुनिया में उनकी जितनी बदनामी होगी, उतनी ही हमारी भी होने लगेगी।
यदि भाजपा सरकार भारत में जनसंख्या का धार्मिक अनुपात सही करना चाहती है, जो कि उचित है तो उसे चाहिए कि वह ‘हम दो और हमारे दो’ का सख्त कानून बनाए। उसका उल्लंघन करनेवालों का जीना भारत में फिर आसान नहीं होगा। मेरा राय में सरकार में इतना साहस और आत्मविश्वास होना चाहिए कि वह इस कानून को वापस ले ले। इस फर्जी मुद्दे पर देश का समय बर्बाद करने की बजाय हमारे राजनीतिक दल देश की आर्थिक स्थिति को डावांडोल होने से बचाएं तो बेहतर होगा। यदि सर्वोच्च न्यायालय इस कानून को असंवैधानिक घोषित कर दे तो वह भारत को इस निरर्थक और फर्जी संकट से बचा सकता है।
जब गंगोत्री ही अपवित्र हैं तो गंगा कहाँ तक पवित्र होगी !
डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन
आजकल बलात्कार के साथ हिंसा ,चोरी, डैकेती ,वैश्यावृत्ति आदि पाप या अपराध बहुलता से हो रहे हैं ,और अपराधियों को आजकल कोई भय नहीं हैं ,जबकि सी सी टी वी ,तकनीकी की बहुलता होने से शीघ्र पकडे भी जाते हैं उसके बाद भी अपराधों की कमी न होना ,यह एक यक्ष्य प्रश्न हमारे समाज में हैं .क्या हमारे देश का कानून लचीला हैं ,उसमे युगानुसार परिवर्तन और परिवर्धन की आवश्यकता नहीं हैं ?या ऐसा तो नहीं हमारे देश की संसद और विधान सभा में निर्वाचित स्वयं इन अपराधों के बावजूद सम्मान पा रहे हैं .इसका मतलब यह हुआ की जब गंगोत्री ही अपवित्र हो रही हैं तो गंगा कहाँ तक पवित्र होंगी .
यह एक चिंतन का प्रश्न हैं की क्यों ये अपराध हो रहे हैं ?इसके मूल में बेरोजगारी ,महगाई ,नशा व्यसन ,परिवेश दूषित होना जैसे पहले फिल्मों को ,उसके बाद टी वी सेरिअल्स को और अब मोबाइल संस्कृति को आरोपित करना ,ये कितना सच हैं इसका विश्लेषण करना अलग बात हैं पर घटनाएं निरंतर बढ़ रही हैं .और ये अब कम होने वाली नहीं हैं ,उसका कारण भयमुक्त समाज और कठोर दंड का न होना या शीघ्र दंड न मिलना ,न्यायिक प्रक्रिया इतनी जटिल की अपराधी को नैसर्गिक न्याय हेतु सुसंगत अवसर देना ,उदहारण के लिए निर्भया काण्ड के अपराधियों का अपराध सिद्ध होने के बाद आज भी वे दंड से दूर हैं ,सरकार उनका पालन पोषण करती हैं और यह न्याय व्यवस्था भी हैं .क्या उनकी दया याचिका के लिए या दंड देने के लिए घटना की तुलना में कितना अधिक समय लग रहा हैं ,ऐसा क्यों ? एक बात और समझ में आ रही हैं की बेरोजगारी और महंगाई के कारण अब अपराधी अपराध कर सरकारी सम्पत्ति बनकर जेलों में सुरक्षित हो जाता हैं जहाँ सर्कार की जिम्मेदारी होती हैं उसके भरण पोषण ,रखरखाव की .और जेलों से सुरक्षित अन्य जगह नहीं हैं और कोई दुर्घटना हुई तो मानवाधिकार का डंडा चलने लगता हैं .
ऐसा सुनने में आया हैं की देश में जल्लादों की कमी होने से फांसी देने में कठनाइयां हैं ,ठीक भी हैं ,पर मौत से बड़ी सजा तो नहीं हो सकती हैं न ,जब अपराधियों को उससे डर नहीं लग रहा हैं इसका मतलब अपराधियों का कलेजा बहुत मजबूत होता हैं .
वर्त्तमान में जो अपराधों की संख्या में वृद्धि ,अनेकों प्रकार के अपराध और उनके करने ढंग बहुत चिंतनीय विषय हैं ,अकल्पनीय तरीकों को अपनाना .इसका हल मात्र यदि अपराध की पुष्टि होती हैं तो अपराधियों को भी त्वरित दंड देना चाहिए जैसे उन्होंने अपराध के लिए कोई समय नहीं लिया ,न कोई समय निश्चित किया और न कोई मुहूर्त देखा ,और उसके क्या दुष्परिणाम पीड़ित को होंगे और इसका हश्र उनके साथ कैसा होगा .तब न्याय व्यवस्था क्यों इतना विचार करती हैं .?
समाज में जागरूकता के बावजूद भी अपराधियों को कोई भय नहीं हैं ,खासतौर पर बलात्कार का मामला इतना सामान्य होने लगा की अब तो एक माह से लेकर कोई भी उम्र सुरक्षित नहीं हैं ,इसको वहशीपना कहना उचित होगा या बीमारियां .बात एक पक्षीय नहीं हैं ,किसी किसी प्रकरण में पीड़ित भी इसमें भागीदार होते हैं .आज सामाजिक मर्यादाएं तार तार हो रही हैं पर इनका उदगम फिल्म ,टी वी ,साहित्य मोबाइल के साथ दूषित मानसिकता हैं .
इन बुराइयों के लिए व्यापक चिंतन मनन की जरुरत हैं और सबसे पहले बचाव ही इलाज़ हैं ,सुरक्षा में ही जीवन हैं ,देखा देखी करने से हम को ही नुक्सान होता हैं .इसीलिए जितने भी सुरक्षा कवच हों उन्हें अपनाये .और अपराधियों के प्रति सरकार को निर्मम होना चाहिए .दंड व्यवस्था शीघ्र हो ,बिलम्व से न्याय भी अन्याय लगने लगता हैं .और सबसे पहले निर्वाचित नेताओं का बहिष्कार होना चाहिए और यदि वे अपराधी सिद्ध हो चुके हो तो उन्हें जेल में होना चाहिए.तभी कुछ संभावना दिखाई देगी .
कहां सावरकर और कहां राहुल ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हमारे आजकल के नेताओं से यह आशा करना कि वे नेहरु, लोहिया, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, विनोबा, अटलबिहारी वाजपेयी और नरसिंहराव की तरह पढ़े-लिखे होंगे, उनके साथ अन्याय करना होगा। वे सत्ता में हों या विपक्ष हों, उनका बौद्धिक स्तर लगभग एक-जैसा ही होता है। सलाहकार तो उनके भी होते हैं। लेकिन वे अपने स्तर के लोगों से ही घिरे रहते हैं। इसी का नतीजा है कि कांग्रेस के राहुल गांधी ने कह दिया कि मैं सावरकर हूं क्या, जो माफी मांगूगा। मैं सावरकर नहीं, राहुल गांधी हूं। क्या पिद्दी और क्या पिद्दी का शोरबा ? आप कौनसे गांधी हैं ? आपके दादाजी, फिरोज भाई तो खुद को गांधी भी नहीं लिखते थे। उनके सरनेम की स्पेलिंग होती थी ghendi याने घेंडी, घंदी या गंधी । राहुल ने यह नहीं बताया कि उसके माफी मांगने और सावरकर का क्या संबंध है। या तो उसे पता ही नहीं होगा कि उसने जो कहा, उसके पीछे कौनसी कहानी है। यह भी हो सकता है, जैसा कि होता हुआ अक्सर दिखाई पड़ता है कि किसी ने आकर कान में चाबी भरी और गुड्डा नाचने लगा। चाबी खतम तो नाच भी खतम। उसे आगा-पीछा कुछ पता नहीं। यह तो ठीक है कि रेप इन इंडिया (भारत में बलात्कार) कहने पर उसे माफी मांगने की कोई जरुरत नहीं थी, क्योंकि ऐसा कहकर वह बलात्कार का समर्थन नहीं कर रहा था बल्कि उसे धिक्कार रहा था लेकिन ‘मैं मर जाऊंगा लेकिन माफी नहीं मांगूंगा’, यह कहने की क्या मजबूरी थी ? जो सर्वोच्च न्यायालय से पहले ही माफी मांग चुका है, चौकीदार चोर है पर, उसे इतनी डींग मारने की क्या जरुरत है ? जहां तक अपने आपकी तुलना सावरकर से करने की बात है, यह तथाकथित नेता, जो पांच-सात वाक्य भी शुद्ध नहीं बोल सकता, उसकी यह हिमाकत ही है कि वह सावरकर को खुद से नीचा दिखाने की कोशिश करे। ऐसा करके अपनी भद्द पिटाने के अलावा इस घिसे-पीटे नौसिखिए ने और क्या किया ? सावरकर ने भारत की आजादी के लिए जैसी कुर्बानियां की हैं, क्या किसी कांग्रेसी नेता ने की है ? सावरकर ने जैसे मौलिक और खोजपूर्ण ग्रंथ लिखे हैं, उन्हें पढ़ने की भी क्षमता या बुद्धि आज के नेताओं में है ? सावरकर इतने बुद्धिवादी और तर्कशील थे कि उन्हें कांग्रेस तो क्या, जनसंघ, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के लिए भी पचाना मुश्किल रहा है। यह ठीक है कि सावरकर और गांधी में कभी पटी नहीं लेकिन सावरकर में दम नहीं होता तो गांधी उनसे मिलने के लिए 1909 में लंदन के इंडिया हाउस और 1927 में उनके घर रत्नागिरि में क्यों गए थे ?
नेशनल स्पोर्ट्स हब बनने की ओर अग्रसर मध्यप्रदेश
बिन्दु सुनील
मध्यप्रदेश में पिछले एक साल में खेलों के लिये विश्व-स्तरीय अधोसंरचना विकास को वांछित गति मिली है। साथ ही, विभिन्न खेलों की पदक तालिका में लगातार पहले और दूसरे स्थान पर अपनी उपस्थिति कायम रखने में भी प्रदेश सफल है। प्रदेश की राज्य खेल अकादमियों के मॉडल को अंडमान-निकोबार, राजस्थान, छत्तीसगढ़, नागालैंड, मेघालय, असम, गोवा और उड़ीसा आदि राज्यों ने सराहा है। ये सभी राज्य आंशिक अथवा पूर्ण रूप से मध्यप्रदेश अकादमी के मॉडल को लागू करने का प्रयास भी कर रहे हैं। अब राज्य सरकार ने प्रदेश की खेल प्रतिभाओं को बढ़ावा देने के लिए नई खेल नीति और खेलों का महत्त्व स्थापित करने के लिए स्पोर्ट्स कोर्स को कंपलसरी करने की योजना लागू करने का निर्णय लिया है।
-खिलाड़ियों के लिये चिकित्सा एवं दुर्घटना बीमा
प्रदेश के खिलाड़ियों को अब चिकित्सा एवं दुर्घटना बीमा का लाभ मिलेगा। मध्यप्रदेश अब खिलाड़ियों का बीमा कराने वाला देश का पहला राज्य बन गया है। प्रथम चरण में विभिन्न खेल अकादमियों के लगभग 822 खिलाड़ियों को बीमा का लाभ दिया जा रहा है। चिकित्सा बीमा से खिलाड़ी देश के चुनिन्दा अस्पतालों में से किसी भी अस्पताल में अपना इलाज करवा सकते हैं। इसके लिये उन्हें 2 लाख रुपये तक नि:शुल्क उपचार सुविधा उपलब्ध कराई गई है। खिलाड़ियों का 5 लाख रुपये का जीवन बीमा भी कराया गया है। साथ ही, आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के खिलाड़ियों के अभिभावकों को भी जीवन बीमा में शामिल किया गया है।
बीमा के माध्यम से खिलाड़ियों को पूरे देश में कैशलेस उपचार की सुविधा उपलब्ध रहेगी। प्रदेश के ऐसे खिलाड़ी, जो अधिकृत रूप से राष्ट्रीय प्रतियोगिता में प्रतिभागिता कर रहे हैं, उन्हें भी चिकित्सा एवं दुर्घटना बीमा की कैशलेस सुविधा उपलब्ध कराने की प्रक्रिया जारी है। इसके लिये संबंधित खेल संघ को राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी की प्रमाणित सूची उपलब्ध करानी होगी। परीक्षण के बाद खिलाड़ी का पंजीयन कर उसे यह सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी।
-शासकीय सेवा में खिलाड़ियों को 5 प्रतिशत आरक्षण
प्रस्तावित नई खेल नीति में यह व्यवस्था की जा रही है कि शासकीय नौकरी में खिलाड़ियों को 5 प्रतिशत आरक्षण का लाभ मिल सके।
अंतर्राष्ट्रीय पदक विजेता और सहभागिता के लिए प्रोत्साहन राशि
प्रदेश में पहली बार ओलंपिक, विश्व कप, एशियाई गेम्स, राष्ट्र-मंडल खेल और दक्षिण एशियाई खेलों में पदक प्राप्त करने वाले खिलाड़ियों के लिये प्रोत्साहन राशि निश्चित की गयी है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वर्ण पदक हासिल करने पर 2 करोड़, रजत पदक पर एक करोड़ तथा कांस्य पदक हासिल करने पर 50 लाख की प्रोत्साहन राशि का प्रावधान किया गया है। इसके अतिरिक्त कोई भी खिलाड़ी, जिसने अंतर्राष्ट्रीय खेलों में प्रतिभागिता की है और पदक नहीं भी लिया है, तब भी उसे प्रोत्साहन के तौर पर 10 लाख की राशि दी जायेगी। राष्ट्रीय खेल एवं राष्ट्रीय चेंपियनशिप में पदक विजेता खिलाडियों को स्वर्ण पदक जीतने पर 5 लाख, रजत पर 3 लाख 20 हज़ार और कांस्य पदक जीतने पर 2 लाख 40 हज़ार रूपये की राशि दी जाएगी। इसी प्रकार, अधिकृत राष्ट्रीय चेंपियनशिप में स्वर्ण पदक हासिल करने वाले खिलाड़ी को एक लाख, रजत पदक पर 75 हजार और कांस्य पदक पर 50 हजार रूपये प्रोत्साहन राशि दी जाएगी। प्रतियोगिता के दौरान खिलाडियों को उपकरण क्रय करने एवं किराये पर लेने के लिए अधिकतम 5 लाख रूपये की राशि दी जाएगी। यह भी निर्णय लिया गया है कि खिलाडि़यों को उच्च स्तरीय अंतर्राष्ट्रीय/राष्ट्रीय तकनीकी प्रशिक्षण के लिए अधिकतम 5 लाख रूपये की राशि दी जाएगी। राज्य शासन ने यह भी निर्णय लिया है कि प्रशिक्षक, जिनके देख-रेख में खिलाड़ी अपनी पहचान बनाने में सफल होता है, उन्हें भी प्रोत्साहित किया जायेगा। इस संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय/राष्ट्रीय चेंपियनशिप तथा राष्ट्रीय खेल में पदक प्राप्त करने पर खिलाड़ियों को देय राशि का दस प्रतिशत हिस्सा प्रशिक्षकों को दिया जायेगा।
-स्पोर्ट्स साइंस विशेषज्ञों की नियुक्ति
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उच्च स्तरीय प्रदर्शन करने के लिए स्पोर्ट्स साइंस की भूमिका महत्वपूर्ण है। वर्त्तमान में जितने खिलाड़ी ओलंपिक, एशियाई गेम्स एवं कॉमन वेल्थ गेम्स जैसी अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं, उन सभी को स्पोर्ट्स साइंस की सपोर्ट टीम मदद करती है। प्रदेश के खिलाड़ी राष्ट्रीय स्तर पर उत्कृष्ट प्रदर्शन कर रहे हैं परन्तु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उच्च स्तरीय प्रदर्शन के लिए स्पोर्ट्स साइकोलॉजिस्ट, स्पोर्ट्स न्यूट्रीशियंस, स्पोर्ट्स फिजिओलॉजिस्ट, फ़िज़ियोथेरेपिस्ट, बायो- मैकेनिकल एक्सपर्ट, वीडियो एनालिस्ट, एक्सरसाइज साइंस एक्सपर्ट, फिटनेस ट्रेनर की बहुत जरूरत होती है। इसलिये राज्य सरकार ने इन पदों पर भी भर्ती करने का निर्णय लिया है।
-गुरुनानक देवजी प्रांतीय ओलम्पिक खेल
ग्रामीण खेल प्रतिभाओं को अवसर प्रदान करने के लिये विकासखण्ड, जिला एवं संभागीय स्तर पर गुरूनानक देव प्रांतीय ओलम्पिक प्रारंभ किया गया है। इसके तहत हॉकी, बास्केटबॉल, फुटबॉल, वॉलीबॉल, कबड्डी ,खो-खो, एथेलेटिक्स, कुश्ती, बेडमिंटन और टेबल-टेनिस खेल को शामिल किया गया है। प्रांतीय ओलंपिक खेल में 16 वर्ष से अधिक आयु समूह के बालक/बालिका खिलाड़ी सम्मिलित होंगे। राज्य स्तरीय प्रांतीय ओलंपिक प्रतियोगिताओं के दलीय खेलों में प्रथम को एक लाख, द्वितीय को 75 हज़ार और तृतीय को 50 हजार रूपये दिये जाएंगे। व्यक्तिगत खेल में यह राशि क्रमशः 7 हजार, 5 हजार और 3 हजार रूपये होगी। अब स्कूली स्तर पर भी अण्डर-16 प्रांतीय ओलंम्पिक शुरू किया जाएगा। अगले वर्ष से प्रांतीय ओलम्पिक में ट्राफी के साथ प्रोत्साहन राशि देने का प्रावधान भी किया जाएगा।
-प्रमुख उपलब्धियाँ
मध्यप्रदेश में विश्व स्तरीय खेल विश्वविद्यालय की स्थापना करने का निर्णय लिया गया है। इस दिशा में कार्यवाही प्रारम्भ कर दी गई है। इंदौर में स्वीमिंग पूल, छिन्दवाड़ा में फुटबाल और नरसिंहपुर में वॉलीबाल अकादमी की स्थापना की कार्यवाही भी पूरी की जा रही है। राज्य सरकार ने महिला खिलाड़ियों की सुरक्षा के मद्देनजर खेल प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेने के लिये महिला खिलाड़ियों के साथ महिला क्रीड़ा अधिकारी का जाना अनिवार्य कर दिया है।
-पीपीपी मोड से खेल अधोसरंचना निर्माण
प्रदेश में अब पीपीपी मोड से खेल अधोसंरचना के निर्माण कार्य कराये जायेंगे। इसके लिये पायलट प्रोजेक्ट के तहत इंदौर में स्पोर्ट्स काम्पलेक्स बनाये जाने का प्रस्ताव तैयार किया गया है। इसकी सफलता के बाद भोपाल, ग्वालियर, जबलपुर और उज्जैन में स्पोर्ट्स इन्फ्रास्ट्रक्चर स्थापित किया जाएगा। इसी मोड में ब्यावरा, राजगढ़, खिलचीपुर, सारंगपुर, नरसिंहपुर, विदिशा, शिवपुरी, पोहरी, कोलारस, अशोकनगर, पवई में इंडोर हाल निर्माणाधीन है। छिन्दवाड़ा, आगर-मालवा, कालापीपल, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, बैतूल, खरगौन, मंदसौर, मुरैना, गुना और दमोह में इंडोर हाल प्रस्तावित है। टी.टी. नगर स्टेडियम में तीन मंजिला बहुउददे्शीय इंडोर हाल का निर्माण कार्य जारी है। टी.टी. नगर स्टेडियम में रॉक क्लाइंबिंग वॉल का निर्माण प्रस्तावित है।
-विधायक खेल प्रोत्साहन योजना
राज्य सरकार ने प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में विधायक खेल प्रोत्साहन योजना क्रियान्वित करने का निर्णय लिया है। इस योजना में खेलों की आधारभूत अधोसंरचना और खेल गतिविधियों के प्रभावी संचालन के लिये क्षेत्रीय विधायक को प्रतिवर्ष 5 लाख रुपये व्यय करने का प्रावधान किया गया है। साथ ही, विधायक के लिये निर्धारित राशि को 50 हजार से बढ़ाकर एक लाख रुपये किया गया है। प्रशिक्षकों के लिये कोच डेव्हलपमेंट प्रोग्राम प्रारंभ किया गया है। राज्य खेल अकादमी के खिलाड़ियों के प्रवेश के लिए नवीन मार्गदर्शी नियम बनाकर लागू किये गये हैं। रोजगार उन्मुखी कार्यक्रम में फिटनेस के क्षेत्र में टी. टी. नगर स्टेडियम, भोपाल में फिटनेस अकादमी प्रारम्भ कर युवाओं को रोजगारोन्मुखी प्रशिक्षण दिया जा रहा है। शिवपुरी में क्रिकेट अकादमी पुनः प्रारम्भ की गई है। छिंदवाड़ा में नवीन फुटबॉल अकादमी जल्द शुरू की जा रही है। पुरुष हॉकी अकादमी के लिए ग्राम गौरा में 2 नवीन हॉकी टर्फ का अनुमोदन कर दिया गया है।
मध्यप्रदेश में खेल विकास असीम संभावनाएं हैं। प्रदेश में चर्चित खेलों के अलावा पारम्परिक और आधुनिक खेल में भी खिलाड़ी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पदक हासिल कर रहे हैं। अकादमी के शूटर्स ऐश्वर्या प्रताप सिंह और चिंकी यादव दोनों ने ही अगले ओलंपिक का कोटा हासिल कर लिया है। ओलंपिक 2020 के भारतीय हॉकी दल में मध्यप्रदेश राज्य हॉकी अकादमी की 6 खिलाड़ी शामिल हैं। प्रदेश में निरंतर बढ़ती खेल सुविधाओं ने न सिर्फ कयाकिंग-कैनोइंग, तीरंदाजी, घुड़सवारी, एथलेटिक्स जैसे खेलों के खिलाड़ियों ने देश में अपना परचम लहराया है बल्कि प्रदेश की दो लाड़ली बेटियों ने माउंट एवरेस्ट को फतेह कर वहाँ भारत का झंडा भी लहराया है। राज्य शासन की प्राथमिकता में खेल और खिलाड़ी शामिल हैं और हर संभव कोशिश की जा रही है कि देश की खेल राजधानी बने मध्यप्रदेश।
शक्तिशाली मध्यप्रदेश के लिए रखें बड़ी सोच
कमलनाथ
एक साल बीत गया। सरकार की स्थिरता के सम्बन्ध में तमाम अटकलों का अंत हो गया है। मैंने बार-बार दोहराया कि जब से हमारी सरकार सत्ता में आई है, यह सरकार लोगों की आकांक्षाओं और उम्मीदों का प्रतिबिंब है। लोग चाहते थे कि उनकी पसंद का एजेंडा लागू हो, न कि उन पर कोई एजेंडा थोपा जाए। लोगों के फैसले का सम्मान स्वस्थ रूप से किया जाना चाहिए। यदि हम लोकतंत्र में विश्वास करते हैं, तो हमें लोगों की पसंद और उनके विवेक का सम्मान करना चाहिए।
मैंने मध्य प्रदेश को अपार अवसरों और संभावनाओं के प्रदेश के रूप में देखा है। इस बात को ध्यान में रखते हुए, मध्य प्रदेश के लोगों ने जो पाया उससे कहीं ज्यादा बेहतर के हक़दार है। मुझे लगता है कि विकास की प्रक्रियाओं का विश्लेषण करते समय अच्छे और बुरे समय बिंदुओं की परस्पर तुलना करना उचित और तार्किक नहीं होगा क्योंकि हर समय बिंदु पर प्राथमिकताएँ बदलती रहती हैं। नए-नए परिदृश्य उभरते हैं और नए रास्ते खुलते जाते हैं। नए क्षेत्र खुलते हैं। इसलिए अंधेरे को कोसने से अच्छा रोशनी करना बेहतर है। अतीत को कोसने की अपेक्षा भविष्य की ओर आगे देखना बेहतर है। हमें नए क्षितिजों पर ध्यान लगाना होगा।
हमारे सभी फैसले लोगों की अपेक्षाओं पर आधारित हैं। हमने अब तक अनसुने लोगों को भी सुना और एक नई शुरुआत की। मध्य प्रदेश अब एक बहुप्रतीक्षित आर्थिक गतिशीलता के लिए तैयार है। लोग उत्तरदायी और जवाबदेह शासन चाहते हैं। उनकी समस्याओं को संवेदनशील तरीके से हल किया जाना चाहिए। उनके वैधानिक अधिकारों और सहूलियतों का ध्यान रखा जाना चाहिए। वे एक प्रभावी और सक्षम सेवा प्रदाय तंत्र की अपेक्षा करते हैं। हमने बहुत कम समय में जो किया है वह सबके सामने है। मैं मानता हूँ कि पारदर्शिता सुशासन की आत्मा है। लोगों को यह जानने का पूरा अधिकार है कि सरकार उनके लिए क्या कर रही है।
हमें लोगों की बुद्धिमत्ता पर विश्वास है। वे भी सरकार की चुनौतियों से वाकिफ हैं। लंबे समय से चली आ रही दूरी को पाटने के लिए शासन में संरचनात्मक सुधारों की बहुत आवश्यकता है। हम संविधान से प्रेरणा लेते हैं, जिसमें स्पष्ट रूप से राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों का उल्लेख है। केंद्र में हमारी सरकार ने पहले अनिवार्य शिक्षा का अधिकार, खाद्य सुरक्षा का अधिकार लागू किया। इनका व्यापक असर आज दिख रहा है। इसी तरह से, हम स्वास्थ्य के अधिकार और पानी के अधिकार के बारे में कानून ला रहे हैं। इसके अलावा, हम रोजगार के अधिकार पर भी विचार-विमर्श कर रहे हैं। यह तभी संभव है जब राज्य में बड़े पैमाने पर आर्थिक गतिविधियाँ बढ़े और आर्थिक उद्यमिता का विकास हो। मध्य प्रदेश में वह सब कुछ है, जो इसे एक आर्थिक शक्ति बना सकता है। इस सच्चाई के बावजूद कि हमारे पास मजबूत, प्रतिबद्ध और कुशल जनशक्ति, अपार संसाधन और अच्छी भौगोलिक कनेक्टिविटी है, मध्य प्रदेश की अर्थ-व्यवस्था में सब ठीक नहीं है। कोई कारण नहीं है कि हमें धीमी गति से चलना पड़े। हमें अपनी जीडीपी का विस्तार करना होगा और इसे वास्तविक रूप में और ज्यादा सहभागी बनाना होगा। हर वर्ग और क्षेत्र का जीडीपी के विस्तार में योगदान होना चाहिए। इसके लिए हमें ऐसा माहौल बनाना होगा, जिसमें हर नागरिक अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान देने के बारे में सोच सके। विशाल लेकिन यथार्थवादी आर्थिक लक्ष्य निर्धारित करने होंगे और उन्हें हासिल करने के लिए खुद को संकल्पित होना होगा।सरकार ने ऋणग्रस्त किसानों के ऋण माफ करने का अपना पहला बड़ा निर्णय लिया। ऋण माफी प्रक्रिया अभी जारी है और हम अपना वादा पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
आदिवासी समुदायों को आर्थिक विकास की प्रक्रिया में शामिल होना चाहिए। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि वर्षों से जंगलों में रहने वाले आदिवासी लोगों को उनका वाजिब हक मिले। उनकी ऋणग्रस्तता सरकार के आवश्यक हस्तक्षेप के साथ समाप्त होनी चाहिए। उनका सामाजिक अलगाव राज्य के आर्थिक स्वास्थ्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है।
हमारे सभी निर्णय चाहे वह अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27% आरक्षण हो या आवारा मवेशियों के लिए शेड का निर्माण, बेसहारा, विकलांग लोगों के लिए पेंशन को दोगुना करना, मध्य प्रदेश को खाद्य मिलावट मुक्त राज्य बनाने के लिए संकल्प करना, बिजली दर को कम कर प्रथम 100 यूनिट 100 रूपये में देना, आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10% आरक्षण, निर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए कलेक्टर गाइडलाइन दर को 20% तक कम करना, आदिवासी समुदायों के तीर्थों का संरक्षण करना हो, सभी उत्तरदायी सरकार बनने के संकल्प की झलक दिखाते हैं। भविष्य में भी यह सिलसिला जारी रहेगा।
हम अपने इकानॉमिक विजन डॉक्यूमेंट का अनावरण कर रहे हैं। हर नागरिक से अपील है कि वे इसे लागू करने में सहयोग करें। मध्य प्रदेश को आर्थिक शक्ति बनाने के लिए बड़ा सोचें।
(ब्लॉगर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं)
अब अदालत से ही आशा
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संसद ने किसी कानून को स्पष्ट बहुमत से पारित किया हो और उसके खिलाफ इतना जबर्दस्त आंदोलन चल पड़ा हो, ऐसा स्वतंत्र भारत के इतिहास में कम ही हुआ है। ये तो नरेंद्र मोदी की किस्मत है कि इस समय देश में कोई अखिल भारतीय नेता नहीं है, वरना इस सरकार को लेने के देने पड़ जाते। इस नए नागरिकता कानून को पिछले हफ्ते तक सिर्फ मुस्लिम-विरोधी बताया जा रहा था लेकिन अब मालूम पड़ रहा है कि बंगाल और पूर्वोत्तर के सभी प्रांतों के हिंदू लोग लट्ठ लेकर इसके पीछे पड़ गए हैं। देश के गैर-भाजपाई राज्यों के कई मुख्यमंत्रियों ने कह दिया है कि इस कानून को हम अपने प्रदेशों में लागू नहीं करेंगे। देश के 16 प्रांतों में गैर-भाजपाई मुख्यमंत्री हैं। तो क्या केंद्र सरकार इन मुख्यमंत्रियों को बर्खास्त करेगी ? बिहार के नीतीशकुमार की सरकार, जो भाजपा के समर्थन से चल रही है, उसने भी हाथ ऊंचे कर दिए हैं। इस समय देश जिस भयंकर आर्थिक खाई की तरफ बढ़ता जा रहा है, उसका इलाज करने की बजाय केंद्र सरकार ने यह फिजूल का शोशा छोड़ दिया है। देश का सकल उत्पाद (जीडीपी) गिरता जा रहा है, मंहगाई बढ़ती जा रही है, बेरोजगारी बेलगाम हो रही है और सभी पार्टियों के नेता इस फर्जी मुद्दे पर आपस में भिड़ रहे हैं। सरकार ने इस फर्जी मुद्दे को तूल देकर अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश को तो एक मंच पर ला ही दिया है, वह भारत के सभी विरोधी दलों को भी एकजुट होने का बहाना दे रही है। सर्वोच्च न्यायालय में इस नागरिकता कानून को रद्द करवाने के लिए दर्जनों याचिकाएं रोज़ लग रही हैं। यह तो स्पष्ट है कि इस सरकार के पास न तो इतना विवेक है और न ही आत्म-विश्वास कि वह इस कानून को वापस ले ले। इस सरकार की इज्जत बचाने का काम अब सिर्फ न्यायपालिका के जिम्मे है। उसी के हाथ में है कि दल-दल में फंसी भाजपा सरकार को वह किसी तरह से बाहर निकाले। यह कानून ऐसा है, जो भाजपा के माथे पर सांप्रदायिकता का काला टीका तो जड़ ही देता है, भारत को भी बदनाम करता है। यह कानून सिर्फ मुस्लिम-विरोधी होता तो पूर्वोत्तर भारत के हिंदू इसका विरोध क्यों कर रहे हैं ? यह वास्तव में इंसानियत-विरोधी है। कोई भी इंसान किसी भी जाति, धर्म, वंश या रंग का हो और यदि वह पीड़ित है तो उसे शरण देना किसी भी सभ्य देश का कर्तव्य है। लेकिन हर गैर-मुस्लिम को पीड़ित मान लेना कहां की बुद्धिमानी है ?
विरोध का यह तरीका अस्वीकार्य
सिद्धार्थ शंकर
सरकार के किसी फैसले के विरोध में नाराजगी जताने का अधिकार जनता को है, मगर वह विरोध मर्यादा की रेखा में हो तो उसे स्वीकार किया जा सकता है। नागरिकता संशोधन कानून को लेकर पूर्वोत्तर भारत में अभी जिस तरह के हालात हैं, उसमें विरोध के तरीके को न तो स्वीकार किया जा सकता है और न ही समर्थन दिया जा सकता है। सरकार स्पष्ट कर चुकी है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह आश्वासन दे चुके हैं कि किसी को भी देश से बाहर नहीं किया जाएगा। यह कानून सिर्फ उन लोगों के लिए है, जो भारत में शरण लेना चाहते हैं, फिर विरोध के क्या मायने बचते हैं। लेकिन राजनीतिवश जिस तरह से पूरे पूर्वाेत्तर को हिंसा की आग में झोंक दिया गया है, वह चिंता नहीं बढ़ा रहा। आज पूर्वाेत्तर के तीन राज्यों असम, मेघालय और त्रिपुरा में तनावपूर्ण हालात बने हुए हैं। असम में स्कूल और कॉलेज बंद कर दिए गए हैं। सेना और पुलिस की तैनाती के बाद भी प्रदर्शनकारी लगातार कफ्र्यू का उल्लंघन कर रहे हैं। प्रदर्शनकारियों ने गुरुवार को यात्रियों से भरी एक ट्रेन में आग लगाने का भी प्रयास किया। विमान सेवाएं ठप हैं, जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। आखिर क्यों…। ऐसा क्या है बिल में जो लोगों के लिए मुसीबत बन जाएगा। देश के दूसरे हिस्सों में विरोध की आग क्यों नहीं जल रही। सिर्फ पूर्वाेत्तर के लोग ही क्यों मरने-मारने पर तुले हैं। इसका जवाब वहां के लोगों को देना होगा।
विरोध की मर्यादा होती है, मगर जब वह सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुंचाने लगे और दूसरों के लिए मुसीबत का सबब बनने लगे तो इसे रोकने के लिए हर सीमा से पार जाना ही होगा। बिल के विरोध में पूर्वाेत्तर के राज्यों में जिस तरह से उत्पात मचाया जा रहा है, भला कोई तो पूछे उन्हें इसकी इजाजत दी किसने। विरोध शांतिपूर्ण भी हो सकता है और गांधीजी के सिद्धांतों के मुताबिक भी। हम गांधीजी के सिद्धांतों की दुहाई देते नहीं थकते, मगर उनके उसूलों को मसलने में देर भी नहीं लगाते।
कानून के विरोध में हो रही हिंसा की वजह से फ्लाइट्स और रेल सेवाएं ठप होने से सैकड़ों लोग नॉर्थ ईस्ट के तमाम शहरों में फंस गए हैं। कई एयरलाइंस ने अपने फ्लाइट ऑपरेशन रोक दिए हैं। तमाम हाइवे बंद होने से लोग फ्लाइट्स और ट्रेन पकडऩे एयरपोर्ट और रेलवे स्टेशनों पर पहुंचे तो वहां आगे जाने के लिए कोई साधन नहीं है। उनकी समस्याओं के बारे में कौन सोचेगा। देश में पहले भी कई मौके आए हंै, जब जनता किसी फैसले के विरोध में सड़क पर उतर आई थी और उसने हिंसा का ऐसा तांडव मचाया, जो समर्थन से ज्यादा गुस्से की परिणति के रूप में सामने आया। राम-रहीम के खिलाफ फैसला हो या फिर आसाराम का मामला, उनके समर्थकों ने कानून-व्यवस्था की जिस तरह से धज्जियां उड़ाई थीं, उसे कौन भूल सकता है।
शासन-प्रशासन की मजबूती और लोकसेवकों के कल्याण की कोशिशों का साल
पंकज मित्तल
राज्य सरकार ने पिछले एक वर्ष में शासन-प्रशासन के सुदृढ़ीकरण, सभी वर्गों के कल्याण एवं शासकीय सेवकों के हित में महत्वपूर्ण फैसले लिए और उन्हें लागू भी किया हैं। मध्यप्रदेश लोकसेवा अनुसूचित जातियों/ अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण अधिनियम 1994 में संशोधन कर अन्य पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावधान 14 से बढ़ाकर 27 प्रतिशत किया गया। इसी दौरान, आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को शैक्षणिक संस्थाओं और शासकीय नौकरियों में 10 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। शासकीय सेवाओं में मध्यप्रदेश के युवाओं को प्राथमिकता देने के लिए अभ्यर्थियों का रोजगार कार्यालय में जीवित पंजीयन अनिवार्य किया गया।
राज्य शासन ने खुली प्रतियोगिता से भरे जाने वाले पदों के लिए अधिकतम आयु सीमा 40 वर्ष निर्धारित कर दी है। इसमें अजा/ अजजा/ अन्य पिछड़ा वर्ग/ शासकीय निगम, मंडल/ स्वशासी संस्थान/ नगर सैनिक/ नि:शक्तजन/ महिलाओं(अनारक्षित/ आरक्षित) आदि के लिए अधिकतम आयु सीमा 45 वर्ष निर्धारित की गई है। इसके अलावा, लोक सेवा आयोग की राज्य सेवा परीक्षा 2019 के लिए अधिकतम आयु सीमा में एक वर्ष की छूट भी दी गई है।
प्रदेश में ‘आपकी सरकार आपके द्वार’ कार्यक्रम शुरू किया गया है। सभी शासकीय विभागों को ग्रामीण अंचलों में रहने वाली आम जनता की रोजमर्रा की समस्याओं का समाधान और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए गाँवों के आकस्मिक भ्रमण एवं विकासखंड मुख्यालयों में शिविर लगाए जाने के निर्देश दिए गए हैं। प्रभारी सचिवों को अपने प्रभार के जिले में प्रतिमाह कम से कम एक बार भ्रमण करने के निर्देश दिए गए हैं।
बीते एक साल में मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित परीक्षाओं में 5116 पदों के लिए विज्ञापन जारी किए गए। इनमें से 3784 पदों के लिए अभ्यर्थियों का योग्यतानुसार चयन भी किया गया। इसी दौरान, जरूरतमंद बालकों तथा बाल देख-रेख संस्थाओं एवं विपत्तिग्रस्त महिलाओं को संरक्षण प्रदान करने के लिए संचालित संस्थाओं के पर्यवेक्षण एवं निगरानी के लिए जिलों में अनुविभागीय अधिकारी (राजस्व) को नामित किया गया। शासकीय विभागों में विभिन्न पदों पर संविदा/ नियमित नियुक्तियों की परीक्षाओं में सूचना प्रौद्योगिकी और कम्प्यूटर क्षेत्र में कम्प्यूटर दक्षता प्रमाणीकरण परीक्षा (सीपीसीटी) के प्रमाण-पत्र (स्कोर कार्ड) की वैधता अवधि को 2 वर्ष से बढ़ाकर 4 वर्ष किया गया है। शासकीय सेवक को प्रथम प्रसूति में जुड़वा संतान होने के बाद नसबंदी कराए जाने पर 2 अग्रिम वेतन वृद्धि की पात्रता प्रदान की गई, जैसी एक जीवित संतान के बाद नसबंदी पर प्राप्त होती है।
राज्य सरकार ने सभी संवेदनशील मामलों का समाधान खोजने के लिये विगत 9 फरवरी को मंत्रि-परिषद् समितियों का गठन किया। सामान्य प्रशासन विभाग ने सरकार के इस निर्णय अनुपालन में आर्थिक मामलों, राजनैतिक मामलों तथा अतिथि शिक्षकों, रोजगार सहायकों और संविदा कर्मचारी संगठनों के अभ्यावेदनों और माँगों पर विचार करने, अनुसूचित जनजातियों के वन भूमि के निरस्त दावों के निराकरण और निवेश संवर्धन सहित कुल 16 मुद्दों पर मंत्रि-परिषद् समितियों के गठन के आदेश जारी किये। यह समितियाँ नियमित बैठकें कर संबंधित मुद्दों पर विचार कर शासन को रिपोर्ट प्रस्तुत कर रही हैं।
नागरिकताः सरकार की नादानी
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नया नागरिकता विधेयक अब जो जो गुल खिला रहा है, उसकी भविष्यवाणी हमने पहले ही कर दी थी। सबसे पहले तो मोदी और जापानी प्रधानमंत्री की गुवाहाटी-भेंट स्थगित हो गई। दूसरा, बांग्लादेश और पाकिस्तान में इस विधेयक की कड़ी प्रतिक्रिया हो रही है। बांग्लादेश के गृहमंत्री और विदेश मंत्री की भारत-यात्रा स्थगित हो गई। पाकिस्तान के एक हिंदू सांसद और एक हिंदू विधायक ने इस नए कानून की भर्त्सना कर दी है। अभी तक अफगानिस्तान की प्रतिक्रिया नहीं आई है, क्योंकि उसके राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री, दोनों ही भारत के पुराने मित्र हैं। यह ठीक है कि वे इस नए कानून की इमरान खान की तरह भर्त्सना नहीं करेंगे और इसे संघ का हिंदुत्ववादी एजेंडा नहीं कहेंगे लेकिन उन्हें इमरान और शेख हसीना से भी ज्यादा अफसोस होगा, क्योंकि उन पर भी यह इल्जाम लग गया है कि वे हिंदू-विरोधी हैं। इन तीनों मुस्लिम राष्ट्रों को किसी मुद्दे पर एक करने का श्रेय किसी को मिलेगा तो वह हमारी मोदी सरकार को मिलेगा। हमारी सरकार पता नहीं क्यों यह कानून ले आई है ? इस कानून के बिना भी वह पड़ौसी देशों के हर सताए हुए आदमी को भारत की नागरिकता दे सकती थी। उनमें हिंदू तो अपने आप ही आ जाते लेकिन उस सूची में से शरणार्थी मुसलमानों को निकालकर भाजपा सरकार ने अपने गले में सांप्रदायिकता का पत्थर लटका लिया है। क्यों लटका लिया है, समझ में नहीं आता ? जब वह विपक्ष में थी, तब उसका यह पैंतरा हिदू वोट पटाने के लिए सही था लेकिन अब वह सरकार में है। उसे अब पूरा अधिकार है कि वह किसी भी विदेशी को नागरिकता दे या न दे। इस अधिकार के बावजूद उसे अपने आप को नंगा करने की जरुरत क्या थी ? उसने सिर्फ अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश का नाम ही क्यों लिया ? क्या अफगानिस्तान भी 1947 के पहले भारत का हिस्सा था ? श्रीलंका और बर्मा तो भारत के हिस्से ही थे। उनके यहां से आनेवाले शरणार्थियों के लिए इस नए कानून में कोई प्रावधान नहीं है। यह कानून भी नोटबंदी-जैसी ही भयंकर भूल है। इससे फायदा कम, नुकसान ज्यादा है। बंगाल सहित सभी पूर्वोत्तर प्रांतों से भाजपा ने हाथ धो लिये हैं। बेहतर होता कि राष्ट्रपति इस विधेयक पर दस्तखत नहीं करते तो संसद इस पर पुनर्विचार करती और सरकार को अपनी नादानी से मुक्ति का रास्ता मिल जाता।
मप्र में बढ़ रहा नवीन और नवकरणीय ऊर्जा का प्रयोग
अशोक मनवानी
राज्य सरकार ने अपने पहले साल के कार्यकाल में ही प्रदेश को ‘सोलर स्टेट’ और भोपाल को ‘सोलर सिटी’ की पहचान दिलाने में सफलता पाई है। प्रदेश के औद्योगिक प्रक्षेत्रों में सौर ऊर्जा के उपयोग के लिये किये गये नवाचारों की विश्व बैंक ने भी प्रशंसा की है। सोलर रूफ टॉप परियोजनाओं के क्रियान्वयन में मध्यप्रदेश बहुत आगे निकल गया है। एक वर्ष में ही प्रदेश में ग्रिड कनेक्टेड परियोजनाओं में 670 मेगावाट क्षमता की वृद्धि हुई है। प्रदेश में 645 मेगावाट की सौर परियोजनाएँ और 25 मेगावाट की बायोमास परियोजनाएं स्थापित की गईं हैं। अगले 4 वर्ष में करीब 6 हजार मेगावाट क्षमता की नवीन और नवकरणीय ऊर्जा आधारित परियोजनाएं क्रियान्वित की जाएंगी। आगर-मालवा, शाजापुर और नीमच जिलों में 1500 मेगावाट की सोलर परियोजनाएँ भी शुरू होंगी। इसके लिये भूमि आवंटन कर दिया गया है।
प्रदेश में सौर ऊर्जा, सोलर पम्प स्थापना, पॉवर स्टोरेज, ई-व्हीकल उपयोग, पवन ऊर्जा और फ्लोटिंग पावर प्लांट स्थापना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य हुए हैं। रीवा परियोजना से अब पूर्ण क्षमता 750 मेगावाट विद्युत उत्पादन प्राप्त हो रहा है। इसमें से प्रतिदिन लगभग 100 मेगावाट बिजली दिल्ली मेट्रो को दी जा रही है। प्रदेश में 2.97 रूपये प्रति यूनिट की मितव्ययी दर से बिजली प्रदान की जा रही है। प्रदेश के बुन्देलखण्ड और चम्बल अंचल में बंजर भूमि पर सोलर पार्क स्थापित करने का निर्णय लिया गया है। ओंकारेश्वर और इंदिरा सागर जलाशयों में एक हजार मेगावाट क्षमता के फ्लोटिंग सौर संयंत्र विकसित करने की कार्यवाही शुरू हो गई है। इस क्षमता के तैरते हुए संयंत्र स्थापित करने की यह देश में अनूठी पहल है।
प्रदेश में 8.5 मेगावाट क्षमता की सौर ऊर्जा परियोजनाएँ सफल सिद्ध हुई हैं। इसके अलावा 43 मेगावाट क्षमता की परियोजनाएं आकार ले रही हैं। अगले चार वर्ष में लगभग 500 मेगावाट की सोलर रूफ टॉप परियोजनाएं काम करना शुरू कर देंगी। उन्होंने कहा कि भोपाल नगर में बड़ी झील के पास ब्रिज और रिटेनिंग वॉल पर 500 किलोवाट क्षमता के सौर संयत्र की स्थापना की गई है। संयंत्र के नजदीक करबला पम्प हाउस का संचालन सौर ऊर्जा से हो रहा है। इससे सालाना 40 लाख रूपये की बचत और लगभग 10 हजार वृक्षों के बराबर पर्यावरण संरक्षण संभव हुआ है। उज्जैन के वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट में भी सौर संयंत्र स्थापित किया गया है। विश्वविद्यालयीन भवनों, मेडिकल कॉलेजों और स्टेडियम तथा विभिन्न संस्थानों में सौर संयंत्र संचालित हैं। मण्डीदीप में करीब 600 उद्योगों का सर्वे किया गया है और विभिन्न ईकाइयों द्वारा 28 मेगावाट क्षमता का उत्पादन रेस्को मॉडल पर हो रहा है। पीलूखेड़ी और पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्रों में भी सोलर रूफटॉप परियोजनाओं के लिये उद्यमी आकर्षित हो रहे हैं।
रिन्यूएबल एनर्जी सर्विस (रेस्को) मॉडल पर कार्य प्रारंभ
नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा विभाग ने रेस्को (रिन्यूएबल एनर्जी सर्विस कम्पनी) मॉडल में कार्य प्रारंभ किया है। परियोजना में देश में सबसे कम 1.38 रूपये यूनिट की दर की बिजली की उपलब्धता की भी सराहना हुई है। प्रदेश में 2 लाख सोलर पम्प लगाए जाएंगे। अब तक 18 हजार सोलर पम्प लगाए जा चुके हैं। इस वर्ष 25 हजार सोलर पम्प लगाने का लक्ष्य है। सोलर पम्प उपभोक्ताओं की शिकायतों को हल करने के लिये टोल फ्री कॉल सेंटर जल्द ही शुरू किये जा रहे हैं।
विनोबा भावे अंतर्राष्ट्रीय सोलर पम्प पुरस्कार
मध्यप्रदेश सरकार ने विनोबा भावे अंतर्राष्ट्रीय सोलर पम्प पुरस्कार स्थापित किया है, जो इस क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वाले देश को इंटरनेशनल सोलर अलाइंस के माध्यम से दिया जायेगा। प्रदेश में ई-व्हीकल के उपयोग को बढ़ाने के लिये सोलर चार्जिंग स्टेशन स्थापित होंगे। मध्यप्रदेश ऊर्जा विकास निगम के मुख्यालय में चार्जिंग स्टेशन की स्थापना की जा चुकी है। यह पुरस्कार मुख्यमंत्री श्री कमल नाथ की पहल पर शुरू हुआ है।विभागीय मंत्री श्री हर्ष यादव योजनाओं की नियमित समीक्षा
का कार्य कर रहे हैं।
इस कानून से हिंदू क्यों नाराज हैं
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कितने मजे की बात है कि गृहमंत्री अमित शाह ने जो नया नागरिकता विधेयक संसद से पारित करवाया है, उसका विरोध भारत के मुसलमान नहीं कर रहे हैं बल्कि हिंदू कर रहे हैं और ये हिंदू हैं, पूर्वोत्तर राज्यों के। असम, त्रिपुरा, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, अरुणाचल के। इन राज्यों में रहनेवाले मूल निवासियों को डर है कि नए नागरिकता कानून का फायदा उठाकर बांग्लादेश के बंगाली हिंदू उनके शहरों और गांवों में छा जाएंगे। वे पाकिस्तान और अफगानिस्तान के हिंदू और सिखों की तरह सैकड़ों और हजारों में नहीं आएंगे बल्कि वे अब तक हजारों और लाखों में आ चुके हैं और आते जा रहे हैं। वे कई जिलों में बहुमत में हो गए हैं। कुछ वर्षों में इन प्रदेशों के मूल निवासी अल्पमत में हो जाएंगे। उनके मन पर इस बात का कोई खास प्रभाव दिखाई नहीं पड़ रहा है कि इस नए नागरिकता विधेयक में पड़ौसी देशों के मुसलमानों को शरण देने की बात नहीं कही गई है। इस विधेयक ने पूर्वोत्तर में तूफान खड़ा कर दिया है। जिन राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं, वहां भी शहरों और गांवों में हजारों लोग सड़कों पर उतर आए हैं। सरकारें हतप्रभ हैं। भीड़ लूटपाट और तोड़-फोड़ से भी बाज़ नहीं आ रही है। हजारों फौजी जवान तैनात किए जा रहे हैं। कई शहरों में कर्फ्यू लग गया है। हवाई अड्डे और रेल-स्टेशन ठप्प हो गए हैं। 34 साल बाद इतना बड़ा आंदोलन असम में फिर उठ खड़ा हुआ है। यह आंदोलन कहीं पूर्वोत्तर क्षेत्र से भाजपा का सफाया ही न कर दे। यदि कुछ लोग हताहत हो गए तो मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी का रविवार को जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे से गुवाहाटी में मिलने का कार्यक्रम भी रद्द करना पड़ेगा। इस विधेयक ने एक तरफ पूर्वोत्तर के हिंदुओं को नाराज कर दिया है और दूसरी तरफ तमिलों को भी ! श्रीलंका से जो तमिल मुसलमान और हिंदू भारत में शरण लेना चाहते हैं, यह विधेयक उनके बारे में भी चुप है। यह ठीक है कि इस विधेयक से भारत के मुसलमानों को कोई सीधा नुकसान नहीं है लेकिन बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के मुसलमानों पर शक की छाप लगा देने का असर क्या हमारे मुसलमानों पर नहीं पड़ेगा ? इसके अलावा इन मुस्लिम देशों से जो गैर-मुसलमान भारत में आकर जमना चाहते हैं, क्या वे सब सताए हुए ही होते हैं ? क्या हमारी सरकार को यह पता है कि इन मुस्लिम देशों से बाहर जाकर बसनेवालों की संख्या में मुसलमान ही सबसे ज्यादा हैं ? वहां से हिंदू, सिख और ईसाई भी बाहर निकले हैं लेकिन जिनके पांवों में दम था, वे अमेरिका, यूरोप और सुदूर एशिया में जा बसे हैं। हम इस विधेयक के द्वारा भारत को अनाथालय क्यों बनाना चाहते हैं ? किसी को भी भारत की नागरिकता चाहिए तो उसका पैमाना मजहब, जाति या वर्ग नहीं, बल्कि उसके गुण, कर्म और स्वभाव को होना चाहिए।
पॉप कॉर्न के अलावा भी बहुत कुछ है मक्का
अवनीश सोमकुवर
मक्के की रोटी और सरसों के साग का स्वाद तो सबको पता है लेकिन यह जानकारी कम लोगों को पता है कि मध्यप्रदेश में सबसे ज्यादा मक्के का उत्पादन छिंदवाड़ा जिले में होता है। छिन्दवाड़ा अब कॉर्न सिटी के रूप में पहचाना जाता है।
छिंदवाड़ा के मक्का उत्पादक किसानों की मेहनत कॉर्न फेस्टिवल 2019 में दिखाई देगी, जो 15 और 16 दिसंबर को आयोजित किया जा रहा है। किसानों को मक्का प्र-संस्करण से संबंधित नई मशीनों, मक्का से खाद्य सामग्री बनाने वाली मशीनों और मक्का बाजार की जानकारी मिलेगी। साथ ही, उन्हें मक्का उत्पादन से जुड़े वैज्ञानिकों की बात सुनने और उनसे बात करने का मौका भी मिलेगा।
आज मक्का एक व्यावसायिक फसल बन चुका है। इसके उत्पादन का लाभ लेने के लिए मक्का आधारित प्र-संस्करण (कृषि प्र-संस्करण) इकाइयों का स्थापित होना जरूरी हो गया है। मक्का पोषक तत्वों से भरपूर होता है। इसलिये मक्का व्यंजन और मक्के से बनी खाद्य सामग्री का उद्योग लगाने की भरपूर संभावनाएँ बनी हैं। प्रदेश में मक्का उत्पादन 46 लाख मीट्रिक टन पहुँच गया है। अकेले छिंदवाड़ा जिले में मक्का का उत्पादन 6 लाख 23 हजार मीट्रिक टन से बढ़कर 12 लाख मीट्रिक टन हो गया है। मक्का का क्षेत्रफल 1 लाख 24 हजार हेक्टेयर से बढ़कर 2 लाख 95 हजार हेक्टेयर बढ़ गया है।
भारतीय मक्का अनुसंधान संस्थान लुधियाना के निदेशक डॉ संजय रक्षित का कहना है कि मध्यप्रदेश में मक्के का उत्पादन तो बहुत हो रहा है लेकिन मूल्य संवर्धन और प्र-संस्करण नहीं हो पा रहा है। यह अपेक्षा है कि यहाँ मक्के का प्र-संस्करण शुरू हो जाए जिससे मक्का उत्पादक किसानों को भरपूर लाभ मिल सके।
हरियाणा से आए किसान श्री कमल चौहान का कहना है कि मक्का फेस्टिवल का आयोजन एक अच्छी पहल है। ऐसे आयोजन से किसानों को नई-नई तकनीकी जानकारियाँ मिलती हैं, जिनका उपयोग वे अपने खेतों में करते हैं।
खाद्य प्र-संस्करण विशेषज्ञ डॉक्टर रामनाथ सूर्यवंशी का मानना है कि कृषि उद्योग से जुड़े बड़े उद्योगपतियों को मक्का आधारित प्र-संस्करण इकाई लगाने की पहल करना चाहिए क्योंकि इसका आर्थिक बाजार बढ़ रहा है। यह अब रोज़गार पैदा करने वाली फसल है। साथ ही किसानों की आय बढ़ाने में मददगार है। आदिवासी महिला किसानों को मक्के के व्यंजन जैसे मक्का टोस्ट, बिस्किट बनाने का प्रशिक्षण देकर उन्हें बाजार उपलब्ध कराने की पहल करने वाले मध्यप्रदेश विज्ञान सभा के निदेशक डॉक्टर एस.आर. आजाद का कहना है कि मक्के के पोषक तत्वों के प्रति आम लोगों में जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है। मक्का उत्पादन करने वाले छोटे किसानों को सीधे मक्का आधारित खाद्य प्र-संस्करण इकाइयों से जोड़ने की भी जरूरत है। छिंदवाड़ा इसके लिए आदर्श जिला है।
न्यूट्री बेकरी
मुख्यमंत्री श्री कमल नाथ की सोच है कि किसानों को कृषि उद्यमिता से जुड़ने के मौके मिलना चाहिए, जिससे वे सिर्फ उत्पादन तक सीमित नहीं रहें बल्कि एक उद्यमी के रूप में भी सामने आएं। मुख्यमंत्री की इस सोच के अनुरूप छिंदवाड़ा जिले के तामिया विकासखंड में आदिवासी महिलाओं ने न्यूट्री बेकरी की स्थापना कर खुद को आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर बनाने में सफलता हासिल की है।
न्यूट्री बेकरी यानी पोषक तत्व से भरपूर खाद्य पदार्थ बनाने की बेकरी। इससे जहाँ एक ओर पोषण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है, वहीं दूसरी ओर इससे जुड़ी आदिवासी महिलाएँ आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर भी बन रही हैं। तामिया में अब चार न्यूट्री बेकरी यूनिट चल रही है। एक-डेढ़ हजार रुपए महीना कमाने वाली महिलाएँ अब 4 से 5 हजार रुपए महीना कमा रही हैं।
न्यूट्री बेकरी यूनिट शुरू होने से पहले यहाँ की आदिवासी महिलाएँ या तो खेती-बाड़ी में लगी रहती थीं या फिर लघु वनोपज इकट्ठा कर रही थी। खरीफ के समय काम की तलाश में वे आसपास के जिलों में चली जाती थी। मुश्किल से हजार-डेढ़ हजार रुपए महीना कमा पाती थी। उन्होंने मक्का, कोदो, कुटकी, ज्वार, बाजरा के साथ-साथ महुआ, आंवला, बेल जैसी वनोपज को लेकर बेकरी का काम शुरू किया। मक्के का बना टोस्ट और बिस्किट इस क्षेत्र में लोकप्रिय हो गए हैं। स्थानीय बाजार में महिलाएँ अपने उत्पादों की मार्केटिंग खुद करती हैं।
अब ये आदिवासी महिलाएँ दूसरे जिलों की महिलाओं को भी प्रशिक्षण देने के काबिल हो गई हैं। तामिया के हर्ष दिवारी गाँव के रागिनी स्व-सहायता समूह की सदस्य समोका बाई ने सात दिन का बेकरी प्रशिक्षण लिया। वे बताती है कि कैसे उन्होंने बेकरी में काम आने वाली मशीनों के बारे में जाना और कैसे मक्का टोस्ट बनाना सीखा। गुणवत्ता, लागत और मार्केटिंग के बारे में भी समझा। ऐसे ही सुमरवती बाई मटकाढाना गाँव के दुर्गा स्व-सहायता समूह की सदस्य हैं। उन्होंने मक्का टोस्ट बनाना सीखा। उनका समूह छोटी भट्टी का उपयोग कर टोस्ट बनाकर बाजार में बेच रहा है। मार्केटिंग में रुचि रखने वाली सालढाना (बागई) गाँव के राधाकृष्णा स्व-सहायता समूह की सदस्य सरोज बाई ने अब सबके साथ मिलकर व्यवसाय शुरू कर दिया है।
न्यूट्री बेकरी की सफलता को देखकर कई सरकारी विभागों एवं स्वयंसेवी संस्थाओं ने इसमें दिलचस्पी जाहिर की है। राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन, महिला-बाल विकास विभाग की तेजस्विनी, वन विभाग और चाय इंडिया (मध्यप्रदेश चेप्टर) ने न्यूट्री बेकरी की स्थापना में मदद के लिए संपर्क किया। तेजस्विनी ने मंडला जिले में दो बेकरी स्थापित कर ली है और दो की तैयारी चल रही है।
मक्का ऐसे बनी व्यावसायिक फसल
मक्के का उपयोग चार प्रकार से होता है। इसका पशु आहार विशेषकर पोल्ट्री फीड बनता है। पोल्ट्री उद्योग बढ़ने के साथ ही पोल्ट्री फीड की मांग बढ़ी है। कॉर्न फ्लेक्स जैसी लोकप्रिय खाद्य सामग्री बनती है। कॉर्न फ्लेक्स अब सुबह के नाश्ते में शामिल हो गया है। अन्न के रूप में भी इसका सेवन किया जाता है और औद्योगिक उपयोग होता है। कम पानी और कम लागत में अच्छी फसल हो जाती है। जलवायु परिवर्तन के खतरों को सह लेती है। मक्का पोषक तत्वों से भरपूर होता है। इसमें 71 प्रतिशत स्टार्च, 9 से 10 प्रतिशत प्रोटीन, 4 से 45 प्रतिशत फैट, 9 से 10 प्रतिशत फाइबर, 2 से 3 प्रतिशत शुगर और 1.4 प्रतिशत मिनरल होता है।
फिर आरक्षण का अंधा कानून
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संसद ने कल सर्वानुमति से आरक्षण विधेयक पारित कर दिया। सदन में उपस्थित 352 सदस्यों में से एक की भी हिम्मत नहीं हुई कि इस आरक्षण का विरोध करे। अब 10 साल के लिए नौकरशाही के पैर में बेड़ियां फिर से डाल दी गई है। 70 साल से चल रहे इस आरक्षण का मेरे जैसे लोगों ने 40-50 साल पहले तक डटकर समर्थन किया था। जब प्रधानमंत्री विश्वनाथप्रतापसिंह ने पिछड़ों को आरक्षण दिया, तब तक हम यह नारा लगाते रहे कि ”हम सबने बांधी गांठ। पिछड़े पावे सौ में साठ।।’’ याने सरकारी नौकरियों में अनुसूचितों और पिछड़ों को जमकर आरक्षण दिया जाए ताकि उन पर सदियों से चलते रहे अत्याचार की हम कुछ हद तक भरपाई कर सकें। कई पार्टियों द्वारा आयोजित विशाल जन-सभाओं को भी मैं उन दिनों संबोधित करता रहा लेकिन अब मैं यह अनुभव करता हूं कि सरकारी नौकरियों में से आरक्षण एक दम खत्म किया जाना चाहिए। संसद के सभी सदस्यों द्वारा चली गई यह भेड़चाल बताती है कि हमारे सांसदों को कोई भी कानून बनाते समय जितनी अक्ल लगानी चाहिए, वे नहीं लगाते। यदि कुछ सांसद इस आरक्षण का विरोध करते तो क्या उन्हें संसद से निकाल दिया जाता ? मैं तो समझता हूं कि आरक्षित सीटों से जीते हुए सांसदों को इस आरक्षण का सबसे पहले विरोध करना चाहिए, क्योंकि यह आरक्षण उनके वर्ग में ‘मलाईदार परते’ तैयार कर रहा है। अनुसूचितों और पिछड़ों का यह मलाईदार वर्ग मुश्किल से 10 प्रतिशत भी नहीं है। इस वर्ग के लोग आरक्षित पदों पर पीढ़ी दर पीढ़ी कब्जा करते चले जा रहे हैं। जो सचमुच गरीब हैं, वंचित हैं, पिछड़े हैं, असहाय हैं, निरुपाय हैं, वे अब भी वैसे ही हैं, जैसे सदियों पहले थे। उनके बच्चों को न पढ़ने की सुविधा है, न ही उनकी सेहत की ठीक देखभाल हो पाती है और न ही समाज में उनकी समुचित प्रतिष्ठा है। वे जो शारीरिक श्रम करते हैं, उसकी कीमत भी आज बहुत कम है। इसीलिए समतामूलक समाज बनाने के लिए सबसे ज्यादा जरुरी यह है कि शारीरिक श्रम और बौद्धिक श्रम की कीमतों में जो खाई है, उसको पाटा जाए। यदि ऐसा हम कर सके तो लोग सफेदपोश नौकरियों में जाकर दुम हिलाने की बजाय अपनी मेहनत-मजदूरी से आत्म-सम्मान की जिंदगी क्यों नहीं जिएंगे ? इसके अलावा जातिगत भेदभाव के बिना शिक्षा और चिकित्सा हर गरीब और वंचित परिवार को न्यूनतम कीमत पर उपलब्ध करवाई जाए तो ये ही लोग आरक्षण की भीख से मिलनेवाले पदों पर थूक देंगे। क्या उनका अपना स्वाभिमान नहीं है ? अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए अनुसूचितों और पिछड़ों को खुद आगे आना चाहिए। हमारे सारे नेता मजबूर हैं। वे वोट और नोट के गुलाम हैं। वे अनंतकाल तक जातिगत आरक्षण का समर्थन करते रहेंगे।
किसानों को ऋण-मुक्त कर समृद्ध बनाने के लिए हुए क्रांतिकारी फैसले
आशीष शर्मा
प्रदेश की कृषि प्रधान अर्थ-व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिये जरूरी है कि किसान चिन्ता-मुक्त हो, उसके पास आमदनी के स्थाई इंतजाम हो और उसे समय पर आवश्यक वित्तीय सहयोग भी मिले। मध्यप्रदेश में राज्य सरकार ने इस शाश्वत सत्य को सिर्फ स्वीकार ही नहीं किया है बल्कि अपने प्रारंभिक अल्प-काल में ही इस दिशा में क्रांतिकारी फैसले लिये हैं और उन्हे जमीनी स्तर पर लागू भी किया है। सरकार ने अपने वचन-पत्र में किसान कल्याण और कृषि विकास के मुद्दों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है। सरकार ने सत्ता संभालते ही किसानों को पीढ़ियों के कर्जो से मुक्ति दिलाई है। साथ ही यह क्रम तब तक जारी रखने का संकल्प भी लिया है, जब तक प्रत्येक पात्र किसान कर्ज-मुक्त नहीं हो जाता। किसान को फसल बोने से लेकर फसल बेचने तक के काम में राज्य सरकार मदद कर रही है। बिजली, पानी आदि भी किसानों को रियायती दरों पर दिया जा रहा है।
जय किसान फसल ऋण माफी योजना
प्रदेश में “जय किसान फसल ऋण माफी योजना” लागू कर किसानों को ऋण-मुक्त करने का अभियान चलाया गया है। पहले चरण में 20 लाख 22 हजार 731 पात्र किसानों के 7154 करोड़ 36 लाख रूपये के ऋण माफ किये गये हैं। शीघ्र प्रारंभ किये जा रहे दूसरे चरण में 12 लाख से अधिक ऋण खाताधारक पात्र किसानों के ऋण माफ किये जाने की कार्यवाही शुरू कर दी गई है।
जय किसान समृद्धि योजना
प्रदेश में 5 मार्च 2019 को ”जय किसान समृद्धि योजना” लागू की गई है। इस योजना में रबी सीजन 2019-20 के लिए कृषि उपज मंडी और ई-उर्पाजन केंद्र के माध्यम से किसान द्वारा विक्रय किये गये गेहूँ पर 160 रूपये प्रति क्विंटल प्रोत्साहन राशि दी जा रही है। राज्य सरकार ने कुल 92 लाख 67 हजार मीट्रिक टन गेहूँ विक्रय करने वाले कुल 11 लाख 79 हजार किसानों को कुल 1463 करोड़ 42 लाख प्रोत्साहन राशि देने की पुख्ता व्यवस्था की है।
कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिये ”शुद्ध के लिए युद्ध”
राज्य सरकार ने कृषि के क्षेत्र में विरासत में मिली बदहाल स्थिति को समृद्धता की ओर ले जाने का निश्चय किया है। किसानों को हर कदम पर हर तरह की मदद मुहैया कराई जा रही है। गुणवत्तापूर्ण खाद, बीज और कीटनाशक की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए प्रदेश में ”शुद्ध के लिए युद्ध” अभियान चलाया जा रहा है। इस दौरान न सिर्फ बीज, उर्वरक और कीटनाशक के मानक स्तर का परीक्षण किया जा रहा है बल्कि कम मात्रा में सामग्री विक्रय, अनाधिकृत विक्रय, कालाबाजारी, अधिक मूल्य पर विक्रय आदि पर भी गंभीरता से कार्यवाही की जा रही है।
मंडियों में नगद भुगतान की व्यवस्था
कृषि उपज मंडी समितियों में किसानों को उनकी उपज बेचने पर दो लाख रूपये तक के नगद भुगतान की व्यवस्था की गई है। बैंकों से एक करोड़ रूपये से अधिक नगद आहरण पर टीडीएस कटौती के आयकर प्रावधानों से मंडियों में नगद भुगतान कठिनाई आई, तो तुरंत भारत सरकार का ध्यान आकर्षित किया गया। इस तरह मंडी व्यापारियों को इस प्रावधान से मुक्त कराने की पहल की गई है।
ई-नाम योजना से जुड़ी कृषि उपज मंडियाँ
राष्ट्रीय कृषि बाजार योजना के द्वितीय चरण में राज्य सरकार द्वारा 25 कृषि उपज मंडियों को ई-नाम योजना से जोड़ा गया है। मंडी बोर्ड द्वारा 16 अगस्त, 2019 से प्रदेश की सभी मंडियों में एक साथ ई-अनुज्ञा प्रणाली लागू कर 4 लाख से ज्यादा ई-अनुज्ञा जारी किये गए हैं। इससे मण्डी व्यापारियों का समय बचा है। प्रदेश में 27 मण्डी प्रांगण में सोलर एनर्जी प्लांट भी स्थापित किये गये हैं। कृषकों को मण्डी प्रांगण में संतुष्टि अनुरूप मूल्य प्राप्त नहीं होने पर चार माह की निःशुल्क सुविधा और 80 प्रतिशत राशि कृषि उपज का भुगतान करने के लिये कोलेटेरल मैनेजमेंट एजेंसीस के चयन की कार्यवाही प्रक्रियाधीन है।
किसानों को सस्ती बिजली
प्रदेश में किसानों के लिये दस हॉर्स पॉवर तक के कृषि पंप की विद्युत दरों को आधा कर दिया गया है। पूर्व मे निर्धारित 1400 रूपये प्रति हॉर्स पॉवर प्रतिवर्ष कृषि पंप की विद्युत दर को अब आधा कर 700 रूपये कर दिया गया है। इससे लगभग 20 लाख किसान लाभान्वित हो रहे हैं। इस योजना में प्रति कृषि उपभोक्ता लगभग 47 हजार रूपये प्रति वर्ष सब्सिडी भी दी जा रही है। राज्य सरकार ने अब तक 2622 करोड़ 53 लाख रूपये सब्सिडी प्रदान की है। अक्टूबर 2019 से मार्च 2020 तक 20 लाख 10 हजार कृषि पंपों के लिए करीब 6138 करोड़ रूपये की सब्सिडी का प्रावधान किया गया है। स्थायी कृषि पंप कनेक्शन के अतिरिक्त अस्थायी कृषि पंप उपभोक्ताओं की विद्युत दरें भी कम की गई हैं।
अजजा/अजा किसानों को नि:शुल्क बिजली
प्रदेश में अब एक हेक्टेयर तक की भूमि वाले अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग के किसानों को 5 हार्सपॉवर तक के कृषि पंप कनेक्शनों के लिये निःशुल्क बिजली दी जा रही है। इसके एवज में राज्य सरकार बिजली कंपनियों को 3800 करोड़ रूपये वार्षिक सब्सिडी देगी।
जैविक खेती
जैविक खेती के क्षेत्र में मध्यप्रदेश देश में नंबर-वन राज्य बन गया है। एपीडा के अनुसार प्रदेश में 2 लाख 13 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में कपास, गेहूँ, धान, अरहर, चना, सोयाबीन इत्यादि फसलों की जैविक खेती की जा रही है। जैविक खेती के दृष्टिकोण से गौ-शालाएँ बेहद महत्वपूर्ण हैं। ग्राम पंचायत स्तर पर गौ-शालाओं का निर्माण कराया जा रहा है।
प्रदेश का किसान अब निश्चिंत होकर कृषि कार्य में जुट गया है। कृषि की नई-नई तकनीक अपनाने लगा है। उद्यानिकी और खाद्य प्र-संस्करण के क्षेत्र में भी सक्रिय हो गया है।
सियासत की अपनी अलग एक ज़ुबाँ है ….
तनवीर जाफ़री
इस समय पूरे विश्व में उदारवाद बनाम रूढ़िवाद के मध्य द्वन्द की स्थिति देखी जा रही है। विश्व के अधिकांश देश इस प्रकार के वैचारिक द्वन्द का शिकार हैं। ज़ाहिर है भारतवर्ष भी इससे अछूता नहीं है। परन्तु अन्य देशों के नेताओं में जहाँ काफ़ी हद तक वैचारिक प्रतिबद्धता नज़र आती है वहीं हमारे देश के नेताओं में प्रायः वैचारिक प्रतिबद्धता नाम की कोई चीज़ दिखाई नहीं देती। कौन सा नेता सुबह किस पार्टी का सदस्य है और शाम को वह किस दल में शामिल हो जाएगा,कुछ कहा नहीं जा सकता । व्यक्ति विशेष तक ही नहीं बल्कि सामूहिक रूप से दलीय स्तर पर भी इस तरह का वैचारिक ढुलमुलपन देखा जा सकता है। अर्थात कौन सा दल आज किस विचारधारा के गठबंधन का हिस्सा है और वही दल कल किस विचारधारा के गठबंधन का हिस्सा बन जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। आम तौर पर इस तरह की स्थिति उस समय उत्पन्न होती है जब विचारधारा के सामने सत्ता का सवाल आ खड़ा हो जाए।
पिछले दिनों भारतीय राजनीति में महाराष्ट्र इस तरह के प्रयोग का एक और उदाहरण नज़र आया। कल तक कट्टर हिंदूवादी विचारधारा का अनुसरण व समर्थन करने वाला क्षेत्रीय दल शिव सेना जो दो दशकों से भी लम्बे समय से समान विचारधारा रखने वाली भारतीय पार्टी का लगभग स्थाई सहयोगी दल था,उसने महज़ महाराष्ट्र की सत्ता हासिल करने के लिए अपने वैचारिक सहयोगी संगठन से नाता तोड़ लिया। और अपनी धुर वैचारिक विरोधी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से हाथ मिला कर सत्ता में आ गया। निश्चित रूप से अपने हाथों से राज्य की सत्ता फिसल जाने के बाद भारतीय जनता पार्टी में काफ़ी बेचैनी व छटपटाहट दिखाई दी। भाजपा के नेताओं की तरफ़ से शिवसेना के नेताओं को अवसरवादी तथा राज्य की जनता के साथ छल करने वाला बताया गया। नैतिकता के लिहाज़ से भी देखा जाए तो यह इसलिए मुनासिब नहीं था क्योंकि भाजपा व शिवसेना एक साथ मिलकर चुनाव पूर्व गठबंधन सहयोगी के रूप में चुनाव लड़े थे। इसलिए सरकार का गठन करना इन्हीं दोनों दलों का नैतिक दायित्व था। परन्तु राज्य की सत्ता के शीर्ष पर बैठने के दोनों ही दलों के उतावलेपन ने राज्य के सभी राजनैतिक समीकरण बदल कर रख दिए।
महाराष्ट्र के इस पूरे घटनाक्रम में भाजपा ने भी सत्ता पर क़ब्ज़ा करने की ख़ातिर शिवसेना से भी पहले एक बड़ा राजनैतिक पाप यह कर डाला कि एक तो उसने राजभवन का दुरूपयोग किया दूसरे यह कि उसने जल्दबाज़ी में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के उस नेता पर विश्वास जताया जिसके विरुद्ध पूरे चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा करोड़ों रूपये के घोटाले व भ्रष्टाचार का आरोप लगाती रही है। यही वजह है कि जहाँ देश की जागरूक जनता जो शिवसेना+एन सी पी+कांग्रेस गठबंधन जिसे ‘महा विकास अघाड़ी ‘का नाम दिया गया है, के इस नए नवेले अवसरवादी गठबंधन को पचा नहीं पा रही है। वहीँ वह भाजपा द्वारा किये गए ‘सत्ता हरण’ के प्रयास को भी असंवैधानिक,सत्ता का दुरूपयोग तथा अनैतिकता की पराकाष्ठा के रूप में देख रही है। रहा सवाल शिवसेना व कांग्रेस के साथ आने का तो,शिवसेना का कांग्रेस प्रेम या उसका उदारवादी दलों से समझौता करना भी कोई नई बात नहीं है। 1975 में जब इंदिरा गाँधी ने देश में आपातकाल की घोषणा की थी उस समय शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने आपातकाल का समर्थन क्या था। इतना ही नहीं बल्कि आपातकाल के बाद हुए 1977 के लोकसभा तथा इसके बाद 1980 में महाराष्ट्र में हुए विधानसभा चुनावों में भी शिवसेना ने कांग्रेस पार्टी को समर्थन दिया था। आज शिवसेना को कांग्रेस या राष्ट्रवादी कांग्रेस से मिलकर सरकार बनाने पर हैरानी जताने वाले शायद भूल गए कि 1989 में शिवसेना इंडियन मुस्लिम लीग के साथ भी समझौता कर चुकी है तथा तत्कालीन मुस्लिम लीग नेता जी एम बनातवाला के साथ सेना प्रमुख बल ठाकरे मंच भी सांझा कर चुके हैं।
इन परस्पर अंतर्विरोधों के बीच एक सवाल यह भी उठता है कि क्या भाजपा को भी यह कहने का अधिकार है कि शिवसेना ने हिंदूवादी राजनीति की राह छोड़ उदारवादी दलों से समझौता क्यों कर लिया ? हरगिज़ नहीं। वर्तमान में बिहार में चल रही भाजपा व जे डी यू की संयुक्त सरकार इस समय का सबसे बड़ा उदाहरण है। सर्वविदित है कि गत वर्ष कांग्रेस+जे डी यू+आर जे डी के महागठबंधन को बड़ी ही चतुराई से धराशाई कर भाजपा ने कथित सेक्युलर पार्टी जे डी यू से समझौता कर उसे समर्थन देकर अपनी संयुक्त सरकार बनाई। स्वयं को हिंदूवादी व धर्मनिरपेक्ष बताने वाले भाजपा व जे डी यू पहले भी बिहार से लेकर केंद्र तक गठबंधन का हिस्सा रह चुकी है। इससे भी बड़ा उदाहरण पूर्व जम्मू कश्मीर का रहा है जहाँ भाजपा ने केवल सत्ता के लिए उस पी डी पी के साथ मिलकर राज्य में सरकार का गठन किया जिसे वह हमेशा ही कश्मीर का अलगाववादी दल कहा करती थी। फ़ारूक़ अब्दुल्ला व उनके पुत्र उमर अब्दुल्ला को भी भाजपा ने अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व वाली केंद्र की गठबंधन सरकार में मंत्री बनाया था। कल तक भाजपा की नज़रों में यही नेता व यही राजनैतिक दल जो राष्ट्रवादी नज़र आते थे आज कश्मीर के हालात बदलने पर यही दल व इनके यही नेता राष्ट्रविरोधी,पाकिस्तान परस्त व अलगाववादी दिखाई दे रहे हैं।
इन राजनैतिक व वैचारिक द्वंदपूर्ण परिस्थितियों में आख़िर देश की आम जनता व मतदाता स्वयं को कहाँ खड़ा हुआ महसूस करता है?निश्चित रूप से वैचारिक सोच या विचारधारा किसी एक नेता या दल अथवा किसी संगठन विशेष से जुड़ी विषयवस्तु नहीं है न ही इसपर किसी का एकाधिकार हो सकता है। देश का प्रत्येक व्यक्ति अपने निजी विचार व सोच रखता है। परन्तु वही व्यक्ति जब किसी अवसरवादी या ढुलमुल सोच रखने वाले नेता,पार्टी या समूह से जुड़ जाता है तो वह भी इसी वैचारिक द्वन्द में उलझ जाता है। गोया कल तक जो हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई आपस में सब भाई भाई का नारा लगाया करता था उसी केमाथे पर या तो इस्लाम ख़तरे में है जैसी अनर्गल चिंताओं की लकीरें उभरती दिखाई देती हैं या उसके मुंह से “जो हिन्दू हितों की बात करेगा:वही देश पर राज करेगा ” जैसे समाज में साम्प्रदायिकता फैलाने वाले नारे सुनाई देते हैं। यानी जनता में आने वाले इस कथित वैचारिक बदलाव की वजह वह अवसरवादी नेता या दल बनते हैं जो सत्ता की ख़ातिर अपने विचारों की ही नहीं बल्कि अपने ज़मीर तक का सौदा कर बैठते हैं।
यह हालात इस नतीजे तक पहुँचने के लिए काफ़ी हैं कि प्रायः देश के किसी भी दल में वैचारिक प्रतिबद्धता नाम की कोई चीज़ बाक़ी नहीं रह गयी है। सत्ता पर नियंत्रण हासिल करना ही इनकी सबसे बड़ी प्राथमिकता है। लिहाज़ा आम लोगों को इनकी वैचारिक ग़ुलामी से बचने की ज़रुरत है। जनता को स्वयं यह महसूस करना चाहिए और चुनाव में वोट मांगते समय इनसे यह ज़रूर पूछना चाहिए की आख़िर ये लोग समय समय पर अपने ‘वैचारिक केचुल ‘बदल कर जनता को क्यों गुमराह करते रहते हैं ? बेशक,ऐसी सियासत तो यही सोचने पर मजबूर करती है कि-“सियासत की अपनी अलग एक जुबां है-जो लिखा हो इक़रार,इंकार पढ़ना “।
अब विदेश से आ रही है प्याज
अजित वर्मा
प्याज के बढ़ते दामों ने केन्द्र सरकार की नींद हराम कर दी है। लगातार बढ़ती प्याज की कीमतों की वजह से सरकार अब विदेश से प्याज मंगवाने की तैयारी भी कर रही है। प्याज के बढ़ते दाम पर अंकुश लगाने के लिए आपूर्ति बढ़ाने के वास्ते सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी एमएमटीसी ने विदेशों से 6,090 टन प्याज आयात करने का अनुबंध किया है।
केंद्रीय मंत्रिमण्डल ने पिछले हफ्ते ही 1.2 लाख टन प्याज आयात करने को मंजूरी दी है। सरकार ने सौ रुपए प्रति किलोग्राम पर पहुंचे प्याज के खुदरा दाम पर अंकुश लगाने के लिए यह फैसला किया है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्याज का दाम 70 रुपए किलोग्राम के आसपास चल रहा है।
उपभोक्ता मामले सचिव एके श्रीवास्तव प्याज के दाम, उसकी आपूर्ति और दाम को लेकर विभिन्न राज्य सरकारों के साथ समीक्षा बैठक भी कर चुके हैं। एमएमटीसी ने 6,090 टन प्याज का अनुबंध किया है। यह अनुबंध मिस्र से किया गया है, और इसकी खेप जल्द ही मुंबई बंदरगाह पर पहुंच जाएगी। सूत्रों के अनुसार एमएमटीसी को जहां एक तरफ प्याज के आयात का काम दिया गया है वहीं सरकारी क्षेत्र की संस्था नेफेड रसोई में काम आने वाली इस महत्वपूर्ण सामग्री की घरेलू बाजार में आपूर्ति करेगी।
खाद्य मंत्री रामविलास पासवान ने यह कहा था कि खरीफ और खरीफ के आखिरी दौर में होने वाली प्याज की पैदावार में 26 फीसद तक कमी आने का अनुमान है। प्याज का उत्पादन 2019-20 के खरीफ मौसम में घटकर 52 लाख टन रहने का अनुमान व्यक्त किया गया। इससे प्याज की आपूर्ति और दाम पर दबाव बढ़ गया। पासवान ने लोकसभा में एक सवाल के लिखित जवाब में कहा कि प्याज की फसल मौसमी होती है। रबी मौसम में मार्च से जून के दौरान इसकी पैदावार होती है जबकि खरीफ की फसल अक्टूबर से दिसंबर और खरीफ की आखिरी दौर की फसल जनवरी-मार्च में होती है। अब यह देखना है कि विदेश से आने वाली प्याज का कीमतों में कितना असर पड़ता है।
न्याय के नाम पर ठगी क्यों ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जोधपुर के एक समारोह में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और भारत के मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबदे ने जो टिप्पणियों की हैं, उन पर मेरा प्रतिक्रिया करने का मन हो रहा है। बोबदेजी ने यह ठीक ही कहा है कि न्याय न्याय है, वह प्रतिशोध या बदला नहीं हो सकता है। इसीलिए किसी भी व्यक्ति का अपराध सिद्ध होने के पहले गुस्से में आकर उसको सजा दे देना उचित नहीं है। यही ठीक हो तो फिर देश में अदालतों की जरुरत ही क्या है ? लोग अपने आप ‘न्याय’ करने लगेंगे। ऐसा न्याय समाज में अराजकता फैला देगा। लेकिन न्याय मिलने में सालों-साल लग जाएं और हजारों-लाखों रु. खर्च हो जाएं तो क्या आप उसे न्याय कहेंगे ? जब खेती ही सूख जाए और फिर आप झमाझम बारिश ले आएं तो लोग आपको क्या कहेंगे ? ‘का बरखा, जब कृषि सुखानी ?’ हमारे देश में करोड़ों मुकदमे अधर में लटके रहते हैं। तीस-तीस चालीस-चालीस साल वे फैसलों का इंतजार करते रहते हैं। उन मुकदमों के जज सेवा-निवृत्त हो जाते हैं। उनके वादी, प्रतिवादी और वकील दिवंगत हो जाते हैं। जो फैसले निचली अदालतें करती हैं, उनमें से कई ऊंची अदालतों में जाकर उलट जाते हैं। इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि अदालतों की बहसें और फैसले अंग्रेजी में होते हैं, जो वादी और प्रतिवादी के लिए जादू-टोने की तरह बने रहते हैं। न्याय के नाम पर यह ठगी आजादी के बाद भी देश में धड़ल्ले से चल रही है। भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, मालदीव, बांग्लादेश जैसे देशों में अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही इस ठगी को रोकने की हिम्मत आज तक किसी भी प्रधानमंत्री ने नहीं की है। इसके विरुद्ध राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद बराबर आवाज उठा रहे हैं। उनकी पहल पर ही सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी वेबसाइट कई भारतीय भाषाओं में कर दी है। कोविंदजी मेरे पुराने साथी हैं। मुझे उन पर गर्व है। वे राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठकर भी अपने सिद्धांतों को नहीं भूले हैं। कोविंदजी ने जोधपुर में फिर कहा है कि न्याय को जरा सस्ता करो, सुलभ करो, गरीब आदमी की हैसियत ही नहीं होती कि वह मुकदमा लड़ सके। गरीब आदमी को जैसे मैं शिक्षा और इलाज मुफ्त देने की वकालता करता हूं, वैसे ही उसे इन्साफ भी मुफ्त मिलना चाहिए। इन तीनों चीजों को जादू-टोने से बाहर निकालने का एक ही शुरुआती उपाय है। वह है, इनकी पढ़ाई के माध्यम से अंग्रेजी को निकाल बाहर किया जाए। यदि वकालत, डाक्टरी और शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाएं बन जाएं तो कुछ ही वर्षों में भारत महाशक्ति बन सकता है
मानवाधिकारों की चेतना
प्रो.शरद नारायण खरे
(10 दिसम्बर दिवस पर विशेष) द्वितीय महायुद्ध के आरंभ में जहाँ एक ओर नात्सी और फासिस्ट देश प्रजातांत्रिक एवं नागरिक अधिकारों का उपहास कर रहे थे उसके साथ ही दूसरी ओर प्रजातांत्रिक मित्र राष्ट्रों की ओर से समस्त देशों के नागरिकों के मौलिक, मानवीय अधिकारों को सुरक्षित करने के आश्वासन दिए जा रहे थे। अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने तो सन् 1941 में अमरीकी कांग्रेस को भेजे गए अपने संदेश में चार प्रकार के मौलिक, नागरिक अधिकारों की चर्चा की थी जिनमें, भाषण और अभिव्यक्ति, धर्मोंपासना, आर्थिक अभाव से मुक्ति तथा भय से मुक्ति शामिल हैं।
सर्वराष्ट्रीय मानव अधिकारपत्र की धारा 1 तथा 2 में कहा गया है कि सभी मनुष्य जन्म से स्वतंत्र हैं और प्रत्येक मनुष्य की प्रतिष्ठा और अधिकार समान हैं अत: प्रत्येक मनुष्य सभी प्रकार के अधिकारों और स्वतंत्रताओं को पाने का अधिकारी है। उनमें किसी प्रकार के जाति, वर्ण, लिंग, भाषा, धर्म, राजनीति अथवा अभिमत, राष्ट्रीयता, सामाजिक उत्पत्ति, संपत्ति, जन्म पद, आदि का भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। आगे की धाराओं में कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को जीवित रहने, स्वतंत्रता का उपभोग करने तथा अपने आपको निरापद बनाने का अधिकार है । किसी व्यक्ति को दास बनाकर नहीं रखा जा सकेगा, दासता और दासों के सभी प्रकार के क्रय विक्रय पर कानूनी प्रतिबंध रखा जाएगा । किसी व्यक्ति को शारीरिक यंत्रणा नहीं दी जाएगी और न क्रूरतापूर्ण तथा अमानवीय बर्ताव ही किया जाएगा। किसी व्यक्ति का न तो अपमान किया जाएगा और न उसे अपमानजनक दंड ही दिया जाएगा । प्रत्येक व्यक्ति को संसार के प्रत्येक भाग में कानून की दृष्टि में समान मनुष्य समझे जाने का अधिकार है । कानून की दृष्टि में सभी मनुष्य समान हैं और बिना किसी प्रकार के भेदभाव के उन्हें कानून का समान संरक्षण पाने का अधिकार है। इस घोषणापत्र का उल्लंघन होने और भेदभाव किए जाने पर प्रत्येक व्यक्ति को कानूनी संरक्षण प्रदान किया जाएगा । विधान या कानून से प्राप्त मौलिक अधिकारों का अपहरण होने की स्थिति में प्रत्येक व्यक्ति को अधिकारसंपन्न राष्ट्रीय न्यायालयों द्वारा परित्राण पाने का अधिकार है । किसी व्यक्ति को मनमाने ढंग से गिरफ्तार और नजरबंद न किया जा सकेगा और न उसको निष्कासित किया जा सकेगा । आरोप और अभियोगों की जाँच तथा अधिकार और कर्तव्यों का निर्णय स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायाधीशों द्वारा उचित और खुले रूप से कराने का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त होगा । खुली अदालत में मुकादमा चलाकर सजा मिले बिना, जिसमें उसे अपने बचाव की सभी आवश्यक सुविधाएँ दी गई हों, प्रत्येक व्यक्ति निर्दोष समझा जाएगा; किसी भी ऐसे कार्य या गलती के लिए किसी व्यक्ति को दोषी न ठहराया जाएगा तो उस समय अपराध न माना जाता रहा हो जब वह कार्य या गलती हुई हो और न उससे अधिक सजा दी जा सकेगी जो उस समय कानून के अनुसार मिल सकती हो जब वह कार्य या गलती हुई थी । किसी के एकांत जीवन, परिवार, घर या पत्रव्यवहार के मामले में अनुचित हस्तक्षेप न किया जाएगा और न उसके सम्मान और प्रतिष्ठा पर ही किसी प्रकार का आघात किया जाएगा और अनुचित हस्तक्षेप के विरुद्ध कानूनी संरक्षण का अधिकार रहेगा । प्रत्येक व्यक्ति अपने राज्य की सीमा के अंदर स्वेच्छापूर्वक आने जाने और मनचाहे स्थान पर बसने का अधिकारी है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने देश को छोड़कर दूसरे देश जाने और वहाँ से लौटने का अधिकार है । प्रत्येक व्यक्ति को उत्पीड़न से परित्राण पाने के लिए दूसरे देशों में जाने का अधिकार उनको प्राप्त नहीं होगा जो अराजनीतिक मामलों के कानूनी अपराधी होंगे। जो लोग संयुक्त राष्ट्रसंघ के उद्देश्य और सिद्धांतों के प्रतिकूल होंगे उन्हें भी यह अधिकार नहीं मिलेगा । प्रत्येक व्यक्ति को किसी न किसी राष्ट्र का नागरिक बनने का अधिकार है। कोई व्यक्ति राष्ट्रीयता के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता और राष्ट्रीयता बदलने का अधिकार ही उससे छीना जा सकता है । प्रत्येक स्त्री और पुरुष को राष्ट्र, राष्ट्रीयता और धर्म के प्रतिबंध के बिना विवाह करने और परिवार बनाने का अधिकार है। प्रत्येक पुरुष और स्त्री को विवाह करने, वैवाहिक जीवन में और विवाह संबंधविच्छेद के मामलों में समान अधिकार हैं। परिवार को समान और राज्य संरक्षण प्राप्त होगा । प्रत्येक को अकेले या दूसरे के साथ मिलकर संपत्ति पर स्वामित्व करने का अधिकार है। कोई व्यक्ति मनमाने तरीके से अपनी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा । प्रत्येक व्यक्ति को विचार, अंत:करण, धर्मोपासना को स्वतंत्रता का अधिकार है। इसमें धर्मपरिवर्तन, धर्मोपदेश, व्यवहार, पूजा और अनुष्ठान की स्वतंत्रता सम्मिलित है । प्रत्येक व्यक्ति को विचार और विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता है। सूचना प्राप्त करने और उसका प्रसार करने की स्वतंत्रता है । प्रत्येक व्यक्ति को शांतिमय सभा करने और संघटन बनाने का अधिकार है। किसी व्यक्ति को किसी संघटन में रहने को बाध्य नहीं किया जा सकता ।
मानव अधिकारपत्र की 21वीं धारा में कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने देश के प्रशासन में प्रत्यक्ष रूप से अथवा निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से हिस्सा लेने का अधिकार है। प्रत्येक व्यक्ति को किसी भी सार्वजनिक पद पर नियुक्त होने का समान अधिकार प्राप्त है। प्रशासन का संचालन जनता के इच्छानुसार होगा और जनता की इच्छा, समय समय पर स्वतंत्र, निष्पक्ष और गुप्त या प्रकट मतदान के आधार पर हुए निर्वाचनों से प्रकट होगी। समाज के सदस्य की हैसियत से प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक सुरक्षा का अधिकार है । प्रत्येक व्यक्ति का काम करने, स्वतंत्रतापूर्वक पेशा चुनने, काम करने के लिए न्यायसंगत एवं अनुकूल परिस्थितियों तथा बेकारी से संरक्षण का अधिकार है। प्रत्येक व्यक्ति बिना किसी भेदभाव के समान कार्य के लिए समान वेतन पाने का अधिकारी है। उसे उचित पारिश्रमिक पाने और मजदूर संघ बनाने का अधिकार है । प्रत्येक व्यक्ति को अपने और अपने परिवार के स्वास्थ्य तथा हितवर्धन के लिए अपेक्षित जीवनस्तर प्राप्त करने का, भोजन, वस्त्र, निवास, उपचार और आवश्यक सामाजिक सहायता प्राप्त करने का अधिकार है । माता और बच्चे की देखभाल और सहायता पाने का भी यह अधिकारी है । प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है। प्रारंभिक शिक्षा अनिवार्य एवं नि:शुल्क होनी चाहिए शिक्षा का लक्ष्य मानव व्यक्तित्व का पूर्ण विकास तथा आधारभूत स्वतंत्रताओं एवं मानव अधिकारों के प्रति सम्मान में वृद्धि करना होगा। इसके द्वारा सब राष्ट्रों और जातीय या धार्मिक समुदायों के बीच विचारों के सामंजस्य, सहिष्णुता और मैत्री को प्रोत्साहित किया जाएगा तथा शांतिरक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ की ओर से होनेवाले कार्यों में सहायता प्रदान की जाएगी। बच्चों को किस प्रकार की शिक्षा दी जाए, इसका अधिकार उनके मातापिता को है । प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्रतापूर्वक समाज के सांस्कृतिक जीवन में भाग लेने का अधिकार है। वैज्ञानक, साहित्यिक अथवा कला कृति से मिलनेवाली ख्याति तथा उसके भौतिक लाभ की रक्षा का भी उसे अधिकार है ।
मानव अधिकारपत्र की धाराओं में कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को इस अधिकारपत्र के अनुरूप सामाजिक और अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था प्राप्त करने का अधिकार है। प्रत्येक व्यक्ति अपने अधिकारों और स्वतंत्रताओं का उपभोग करते हुए समाज के प्रति उत्तरदायी है और उसका कर्तव्य है कि वह अन्य व्यक्तियों के अधिकारों का सम्मान करे। दूसरों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा, नैतिकता, सार्वजनिक शांति और जनतांत्रिक समाज के सामान्य हितों के लिए कानून द्वारा प्रतिबंध लगाए जा सकेंगे। इन अधिकारों और स्वतंत्रताओं का उपयोग किसी भी दशा में संयुक्त राष्ट्रसंघ के उद्देश्यों और सिद्धांतों के विपरीत नहीं हो सकेगा।
पर,इस घोषणा का यह भी अर्थ नहीं लगाया जा सकेगा कि किसी राज्य, व्यक्ति, समुदाय अथवा व्यक्ति को किसी ऐसे कार्य में संलग्न होने या कोई ऐसा कार्य करने का अधिकार है जिसका उद्देश्य इस घोषणा में निहित अधिकारों तथा स्वतंत्रताओं में से किसी का भी उन्मूलन करना हो।
श्रीराम जन्मभूमि के साथ न्याय या अन्याय ?
ब्रह्मचारी सुबुधानंद
9 नवम्बर 2019 को भारत की सर्वोच्च न्यायालय ने श्रीराम जन्मभूमि के वर्षों से लम्बित वाद पर बहुप्रतीक्षित निर्णय पर अपनी मुहर लगाई। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को भारत की भोली-भाली सनातन धर्मावलम्बी जनता ने हृदय से स्वीकार किया। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को सम्मान देना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य भी है परन्तु- साथ ही साथ विद्वज्जनों को अपना मत प्रकट करने का अधिकार भी संविधान के अंतर्गत सुरक्षित है। अत: न्यायालय के आदेशों की स्वस्थ समीक्षा शोध का विषय है। न्याय करना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु न्याय होते दीखना भी चाहिए। हमारी इस समीक्षा का उद्देश्य देश में भिन्न-भिन्न धर्मावलंबियों के प्रति आपस में विद्वेष बढ़ाना नहीं अपितु समन्वय स्थापित करना ही है। हमारा विश्वास है कि देश का संविधान धर्मनिरपक्ष (पंथ निरपेक्ष) है। इसलिए अपने-अपने विश्वास के अनुसार प्रत्येक धर्म के अनुयायी को दी जाने वाली सुविधा के हम समर्थक हैं। इसके द्वारा हमारे मुस्लिम बन्धु बड़ी से बड़ी मस्जिद बनाकर खुदा की इबादत करे, हमें कोई परेशानी नहीं। इस समीक्षा द्वारा हम वर्ग विद्वेष नहीं अपितु स्थाई शान्ति के लिए प्रयास कर रहे हैं।
(1) सुन्नी सेण्ट्रल वक्फ बोर्ड “डेडीकेशन वाई यूजर” (समर्पण द्वारा उपयोगकर्ता) एवं एडवर्स पजेशन (प्रतिकूल कब्जा) के आवश्यक घटकों एवं सिद्धान्तों को सिद्ध नहीं कर पाया। (पृ. 914) हमारी संस्था श्रीराम जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति के द्वारा जब यह सिद्ध किया गया कि अयोध्या में बाबर के जाने एवं बाबर द्वारा मस्जिद निर्माण का कोई प्रमाण ही नहीं है, ऐसी स्थिति में यह कहकर कि कुछ हिन्दू पक्षों ने इसे मान लिया है। अत: इस पर विचार ही न करना अनुचित है।
(2) श्रीराम जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति द्वारा मुस्लिम साहित्य शरिया, हदीस इत्यादि के हवाले से कहा गया कि जिस भूमि में बुत होते हैं। वहां नमाज पढ़ने पर खुदा को सूचना देने वाला, फरिश्ता जिब्राइल नहीं आता और नमाज पढ़ना गुनाह होता है। ऐसी स्थिति में यह कहकर इस बात को टाल देना कि यहां के मुसलमानों ने यहां का तौर-तरीका अपना लिया है। अत: इसे कसौटी पर नहीं कसा जा सकता, यह अनुचित है। सुन्नी सेण्ट्रल वक्फ बोर्ड कट्टरपंथी मुस्लिम हैं तो इनके द्वारा तो यह सिद्ध किया जाना था कि जो भवन तोड़ा गया, वहां बुत नहीं थे, वहां मस्जिद में आवश्यक रुप से होने वाला वजू का कुंआ था, वहॉ अजान के लिए मीनारें थीं, यह सिद्ध करने में बोर्ड असफल रहा। जबकि वास्तविकता तो यह थी कि वहां कसौटी के 14 खम्भे थे, जो निश्चित रुप से मस्जिद का हिस्सा नहीं थे। इसे मुस्लिम नेता सैयद शहाबुद्दीन ने भी अपने पत्र स्वीकार किया है। इसके उलट श्रीराम जन्मभूमि को पूर्णरुप से मस्जिद मानते हुए यह कहा जाना कि मूर्ति मस्जिद में रखी गई और मस्जिद को नापाक किया गया अनुचित है।
इसके अतिरिक्त जब आप यह भूमि धर्माचार्यों को सौंप ही रहे हैं, तो इसका ट्रस्ट बनाने की क्या आवश्यकता है? रामालय न्यास अधिग्रहण के बाद बना है। जिसका उद्देश्य ही रामालय का निर्माण करना है और जिसमें चारों शंकराचार्यों सहित वैष्णवाचार्य एवं अखाड़ों के प्रतिनिधि सम्मिलित हैं। ऐसी स्थिति में किसी अन्य ट्रस्ट की आवश्यकता तो तब होती जबकि रामालय न्यास मन्दिर निर्मण करने से मना कर देता। जब कोई पार्टी सरकार बनाना चाहती है तो राज्यपाल सभी दावेदारों को बुलाता है तो यहॉ रामालय न्याय को क्यों नहीं बुलाया गया? जबकि रामालय न्याय धारा 6 के सभी प्रावधानों को पूर्ण करता है।
सुप्रीम कोर्ट के जजों ने लिखा है- हम आस्था पर कोई निर्णय नहीं दे सकते। तो यहां समझना चाहिए, आस्था दो तरह की होती है। पहली अप्रामाणिक आस्था दूसरी प्रमाणित आस्था। इस पेड़ में प्रेत है यह अंधविश्वास है। पीपल की पूजा करनी चाहिए, यह प्रामाणिक विश्वास है। गीता में लिखा है “अश्वत्थ:सर्ववृक्षाणाम्” इसे अंधविश्वास की श्रेणी में डालना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना है। मुसलमानों की आस्था को क्या आप अंधविश्वास की श्रेणी में डालना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना है। मुसलमानों की आस्था को क्या आप अंधविश्वास कह सकते है? किसी नारी ने होली घोस्ट से संतान पैदा की उसको मानने वाले अरबों लोगों की यह आस्था क्या अंधविश्वास होगी? कोर्ट का निर्णय अन्य फैसलों पर भी प्रमाण बनता है। इसका ध्यान रखा जाना चाहिए था।
भारतीय न्याय प्रणाली की बेदाग छबि विश्व में जानी जाती है। स्वयं भगवान श्रीराम के न्याय के मापदण्ड शास्त्रों में वर्णित हैं। प्राचीनकाल से ही भारतीय संस्कृति में न्याय और न्यायाधीश को ईश्वर की बराबरी का स्थान दिया गया है। उसी न्याय व्यवस्था में जब कोई पूर्वाग्रह दीखने लगता है तो फिर भय का वातावरण बनने लगता है। इस ऐतिहासिक निर्णय के मूलतत्वों का जब आगे विश्लेषण होगा, तब उक्त खामियों को चिन्हित करके अधिवक्तागण इस निर्णय के आलोक में अनेकों मामलों पर इसका प्रभाव लाएगें। यह कभी हमारे विरुद्ध भी प्रयोग होगा। अत: मानवाधिकार के दायरे में उक्त समीक्षा की गई है। जिस पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है।
हमारी संस्था श्रीराम जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति ने कोर्ट में सिद्ध किया कि अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि है, जिसे हमारे शास्त्र प्रामाणित करते हैं। वहॉ एडवर्ड के द्वारा लगाये गये खम्भे बतलाते हैं कि यह श्रीराम जन्मभूमि है। हमने हंसबकर की पुस्तक पेश की जिसमें श्रीराम जन्मभूमि का प्राचीन नक्शा दर्ज था। जो श्रीराम जन्मभूमि की लोकेशन बतलाता है। ऐसी स्थिति में कोर्ट द्वारा यह कहा जाना कि मंदिर उस स्थान पर बनाया जाएगा, जहॉ मस्जिद थी, तथ्य के विपरीत है।
(3) सुन्नी सेण्ट्रल वक्फ बोर्ड का कहना था यह मस्जिद है और जब मस्जिद बन जाती है तो हमेशा के लिए खुदा की हो जाती है। जहॉ बहुत दिनों तक नमाज नहीं पढ़ी जाती, वहां मस्जिद खारिज हो जाती है। बोर्ड कहता है अमुक तारीख तक वहां नमाज पढ़ने के सबूत नहीं है। जबकि कोर्ट कहता है कि वहां हमेशा नमाज पढ़ी जाती थी, तो यह बहुत बड़ा विरोधाभास है।
हमने मस्जिद को नापाक करने का अपराध किया है, यह कहकर आपने हमें अपराधी सिद्ध किया है। सुप्रीम कोर्ट के माननीय जजों को यह ध्यान देना चाहिए कि हिन्दू ने विश्व में कहीं भी किसी धार्मिक स्थल को नहीं तोड़ा है और इसके प्रमाण भी नहीं मिलते हैं। आपने यह भी माना है कि बाबर ने खाली जमीन पर मस्जिद नहीं बनाई। वहां खुदाई में जो मूर्ति निकली हैं क्या वह मस्जिद का हिस्सा हो सकतीं हैं? क्या वे मूर्तियां प्रमाण है कि हमने मस्जिद को नापाक करने का अपराध किया है? हिन्दुओं ने कभी भी भिन्न धर्म को दबाकर कार्य नहीं किया क्योंकि हिन्दू धर्मशास्त्र और नीतिशास्त्र के ग्रंथ शुक्रनीति में लिखा है-
यस्मिन् देशे य आचार: कुलाचारश्च यादृश:। तथैव परिपाल्योसौ यदावशमुपागत:।।
राजा जिस देश को जीत लेता है तो वहॉ की संस्कृति, कुलाचार आदि को उसी रुप में पालन करावे जैसा कि वहां विद्यमान है। तो हमारे यहां तो विश्वविजय के अनेकों उल्लेख हैं किन्तु हिन्दू द्वारा परधर्म को या उनके चिन्ह को कभी नष्ट नहीं किया गया है और कभी भी विजित देश की संस्कृति को नष्ट नहीं किया गया। हम तो न्याय के लिए सुप्रीमकोर्ट गये थे, अपराधी बनकर सुप्रीम कोर्ट का अनुग्रह प्राप्त करने नहीं।
एक समझौते में सुन्नी सेण्ट्रल वक्फ बोर्ड ने हस्ताक्षर किया था। उन्होंने हस्ताक्षर पूर्व सुरक्षा मांगी थी और जिसमें उन्होंने कहा था कि हम विवादित भूमि से अपना दावा वापिस लेते हैं। यह दस्तावेज सुप्रीमकोर्ट पहुंचा दिया गया था। तो ऐसी स्थिति में जबकि उन्होंने दावा वापिस ले लिया था तो स्वाभाविक रुप से उनका दावा कि मस्जिद का स्थान परिवर्तित नहीं होता और वह हमेशा के लिए खुदा की हो जाती है, समाप्त हो जाता है। कोर्ट ने इस बात को संज्ञान में लिये बिना कैसे छोड़ दिया?
(4) कालबाधित मामले खारिज होते हैं। आपने वॉड वाई लिमिटेशन के तहत सुन्नी सेण्ट्रल वक्फ बोर्ड को खारिज नहीं किया, जबकि निर्मोही अखाड़े को लिमिटेशन के अंतर्गत मानते हुए खारिज किया तो हाईकोर्ट के निर्णय की अनदेखी करके यह दोहरा मापदण्ड क्यों अपनाया गया?
राज्यपाल धनखड़ के कृत्य से संवैधानिक पद अपमानित
सनत जैन
पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ इन दिनों चर्चाओं में बने हुए हैं। राज्यपाल धनखड़ बड़े नाटकीय ढंग से पश्चिम बंगाल की विधानसभा की ऐतिहासिक इमारत और लाइब्रेरी देखने के लिए पहुंचे। राजभवन सचिवालय ने विधानसभा सचिवालय को पत्र लिखकर राज्यपाल के विधानसभा पहुंचने की सूचना दी थी। विधानसभा सचिवालय ने राजभवन के पत्र का कोई जवाब नहीं भेजा था, नाही कार्यक्रम को लेकर दोनों संवैधानिक प्रमुखों के बीच कोई चर्चा हुई। ऐसी स्थिति मैं राज्यपाल को विधानसभा भवन जाना ही नहीं चाहिए था। यदि वह जा रहे थे, तो विधान सभा सचिवालय जिस समय पर खुलता है। उस समय वहां पर सामान्य नागरिक की तरह पहुंचते, तो भी यह माना जाता कि वह विधानसभा की ऐतिहासिक इमारत और लाइब्रेरी देखने पहुंचे हैं।
राज्यपाल धनखड़ लगभग 9 बजे सुबह ही विधानसभा भवन के गेट नंबर 3 पर पहुंच गए। इस गेट से वीवीआइपी ही विधानसभा में प्रवेश करते हैं। चूंकि विधानसभा में इस बात की कोई सूचना सुरक्षा अधिकारियों को नहीं थी। न ही सचिवालय खुलने का समय हुआ था। ऐसी स्थिति में दरवाजा बंद ही मिलना था। राज्यपाल गेट के सामने खड़े हुए। उन्होंने अपना विरोध एक आम आदमी की तरह दर्ज कराया। मीडिया ने उसका कवरेज किया। उसके बाद वह विधानसभा के द्वार नंबर 2 से विधानसभा के अंदर प्रवेश कर गए।
नाराज राज्यपाल धनखड़ ने कहा कि वह अपने आप को अपमानित महसूस कर रहे हैं। में व्यवस्था सुधार के लिए हूं। मेरी भूमिका रचनात्मक जिम्मेदारी निभाने की है।मुझे हैरानी है की विधानसभा का द्वार क्यों बंद है। मुझे 3 नंबर से प्रवेश क्यों नहीं करने दिया। राज्यपाल ने यह भी कहा कि सत्र नहीं चलने के दौरान भी सचिवालय काम करता है। फिर भी गेट बंद रखकर मुझे अपमानित किया है। में ना तो रबड़ स्टांप हूं और ना ही पोस्ट ऑफिस हूं। विधानसभा का भवन और लाइब्रेरी देखना कौन सा रचनात्मक या संवैधानिक काम था। इसे आसानी से समझा जा सकता है। इसके मायने भी निकाले जा सकते हैं।
समाचार पत्रों में राज्यपाल का इस तरीके से विधानसभा पहुंचना। स्वयं प्रोटोकॉल का पालन नहीं करना। संवैधानिक पद के मुखिया विधानसभा अध्यक्ष को लेकर यह कहना कि उन्होंने प्रोटोकॉल का पालन नहीं किया है, बड़ा हास्यप्रद हैं।
वह भी ऐसे समय पर जब राजभवन में विधानसभा द्वारा भेजे गए 2 विधेयक की मंजूरी राज्यपाल द्वारा नहीं दिए जाने पर, विधानसभा अध्यक्ष द्वारा 2 दिन के लिए विधानसभा के सदन की कार्यवाही स्थगित कर दी थी। इस दौरान विधानसभा में पहुंचना, राज्यपाल पद की गरिमा के खिलाफ है। निश्चित रूप से महाराष्ट्र और बंगाल में राज्यपालों की जिस तरह की भूमिका हाल ही के दिनों में देखने को मिली है। उससे राज्यपाल पद की गरिमा ही कम हुई है। वहीं राज्यपाल एक पार्टी विशेष के लिए काम करते हुए नजर आ रहे हैं।इससे संघीय व्यवस्था में राजनीतिक दलों एवं आम जनता के बीच में एक अविश्वास भी पैदा हुआ है। जो केंद्र एवं राज्यों के संबंधों में दूरियां पैदा करेगा। संवैधानिक पदों पर बैठे हुए पदाधिकारी यदि अपने प्रोटोकॉल का स्वयं पालन नहीं करेंगे। आम राजनेताओं की तरह सड़कों पर आकर इस तरह अपने आप को विवादित बनाएंगे। इससे समझा जा सकता है,कि हमारा लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं किस ओर जा रही हैं। महाराष्ट्र के राज्यपाल द्वारा आधी रात को राष्ट्रपति शासन समाप्त करने की अनुशंसा करना, सुबह-सुबह बिना किसी को सूचना दिए मुख्यमंत्री की शपथ ग्रहण करा देना। ऐसी घटनाएं हैं, जो राज्यपाल के पद की महत्ता और गरिमा को नष्ट करने का काम कर रही हैं। यदि यही स्थिति रही,तो भारत की संघीय व्यवस्था को कायम रख पाना बड़ा मुश्किल होगा। वहीं संवैधानिक व्यवस्था को बनाए रखना बहुत मुश्किल होगा।
इंदर गुजराल का सौंवा साल
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
श्री इंदर गुजराल आज जिंदा होते तो हम उनका सौंवा जन्मदिन मनाते। वे मेरे घनिष्ट मित्र थे। वे भारत के प्रधानमंत्री रहे, सूचना मंत्री रहे और मुझे याद पड़ता है कि वे दिल्ली की नगरपालिका के भी सदस्य रहे। उनसे मेरा परिचय अब से लगभग 50 साल पहले हुआ, जब वे इंदिराजी की सरकार में मंत्री थे। सोवियत रुस का सांस्कृतिक दूतावास बाराखंभा रोड के कोने पर हुआ करता था। वहां गुजराल साहब का भाषण था। मैं उन दिनों बाराखंभा रोड स्थित सप्रू हाउस में रहता था और अंतराष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. कर रहा था। मैं भी पहुंचा वहां। देखा कि रुसी कामरेड लोग रुसी भाषा में भाषण दे रहे हैं लेकिन गुजराल साहब अंग्रेजी में बोलने लगे। मैंने खड़े होकर कहा कि वे अपनी राष्ट्रभाषा में बोल रहे हैं। आप अपनी राष्ट्रभाषा में क्यों नहीं बोलते ? उसी दिन उनसे मेरा परिचय हो गया। धीरे-धीरे यही परिचय दोस्ती में बदल गया। गुजराल साहब एक दिन अपनी फिएट कार में बिठाकर मुझे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में ले गए। मेरी अनिच्छा के बावजूद उन्होंने मुझे ‘सटेरडे लंच ग्रुप’ का सदस्य बनवा दिया। इस ग्रुप में देश और विदेश की ज्वलंत समस्याओं पर इतना गहरा विचार-विमर्श होता है कि किसी भी सरकार के मंत्रिमंडल को इससे ईर्ष्या हो सकती है। इसका कारण है। इसमें विभिन्न विषयों के उत्कृष्ट विशेषज्ञों के अलावा हमारे कई मंत्री, नेता, सेवा-निवृत्त सेनापति, राजदूत, नौकरशाह, प्रोफेसर, पत्रकार आदि होते हैं। इसमें होनेवाले विचार-विमर्श को गोपनीय रखा जाता है। इस ग्रुप की पहली सीट गुजराल साहब के लिए और उसके पासवाली मेरे लिए लगभग आरक्षित-सी ही रहती थी। उनकी पत्नी शीलाजी अच्छी लेखिका थी। वे आर्यसमाजी परिवार की थी। उनके भाई प्रेस एनक्लेव में मेरे पड़ौस में ही रहते थे। इंदरजी और शीलाजी, दोनों ही शिष्टता की प्रतिमूर्ति थे। इंदरजी मास्को में हमारे राजदूत भी रहे। नरसिंहरावजी के जमाने में मैं अपने मित्र पूर्व अफगान प्रधानमंत्री बबरक कारमल से मिलने मास्को गया। गुजराल साहब बाहर थे लेकिन उन्होंने और शीलाजी ने मेरे लिए सारी सुविधाएं जुटा दीं। जब वे देवगौड़ाजी के साथ विदेश मंत्री थे, तब देवेगौड़ाजी मुझे अपने साथ ढाका ले गए थे। गुजराल साहब ने आगे होकर सभी बांग्लादेशी नेताओं से मेरा परिचय करवाया। जब गुजराल साहब प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने मुझे राजदूत पद लेने के लिए भी कहा। उस दौरान ‘दूरदर्शन’ पर सप्ताह में दो-तीन बार राजनीतिक विश्लेषण के लिए मुझे नियमित बुलाया जाता रहा। मैंने एक-दो बार उनकी विदेश नीति की आलोचना भी की लेकिन उन्होंने उसका कभी बुरा नहीं माना। उनसे हर मुद्दे पर हमेशा खुलकर विचार-विमर्श होता था। उनके और शीलाजी के व्यवहार में मैने रत्ती भर भी परिवर्तन नहीं देखा। जिस दिन उन्होंने इस्तीफा दिया, उसी दिन प्रधानमंत्री निवास भी खाली कर दिया। वे मूलतः बुद्धिजीवी थे। वे हमारे नेताओं की तरह नेता नहीं थे। वे प्रधानमंत्री भी अचानक ही बने थे। यदि वे लंबे समय तक टिक जाते तो हमारे पड़ौसी देशों के साथ हमारे संबंध शायद बहुत अच्छे हो जाते। उनके सौवें जन्मदिन पर उन्हें मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि।
भारत की बौद्धिक संपदा और सुरक्षा पर इंटरनेट कंपनियों का अधिकार
सनत जैन
पिछले दो दशक से भारत में इंटरनेट का बड़े पैमाने पर उपयोग हो रहा है। केंद्र एवं राज्य सरकारों ने ई गर्वमेंट के माध्यम से डिजिटल प्रक्रिया का मुख्य संचालन इंटरनेट के माध्यम से किया है। पिछले एक दशक में गूगल, फेसबुक, व्हाट्सएप, यूट्यूब, टि्वटर एवं संचार के विभिन्न माध्यमों से, देश की सुरक्षा व्यवस्था और गोपनीय जानकारियां इंटरनेट कंपनियों के पास पहुंच रही हैं। जिसके कारण देश की सुरक्षा व्यवस्था अब इन अमेरिकी कंपनियों के अधिकार में पहुंच गई है। इसी तरह भारत की बौद्धिक संपदा एवं विभिन्न सरकारों एवं सुरक्षा से जुड़ी जानकारियां, गूगल, व्हाट्सएप, यूट्यूब के माध्यम से अमेरिकी कंपनियों के अधिकार में जाकर कापीराइट के अधिकार के साथ एकत्रित होते जा रही हैं। हमारी जानकारी और हमारी संपदा जाने अनजाने में अमेरिकी कंपनियों के पास पहुंच गई है। कानूनन कम्पनियां कॉपीराइट के अधिकार भी ले रही हैं। इस मामले में भारत सरकार का मौन इतने संवेदनशील मामले में लापरवाही और गैर जिम्मेदारी वाला है। इसको देखते हुए यही कहा जा सकता है कि भारत सरकार अमेरिका की इन इंटरनेट कंपनियों के आगे समर्पण कर चुकी है। उसे ना देश की चिंता है, ना जनता की।
भारतीय सुप्रीम कोर्ट के नौ जजों ने केंद्र सरकार से डेटा सुरक्षा कानून बनाने का निर्देश 10 साल पहले दिया था। उस समय व्हाट्सएप, यूट्यूब, स्मार्टफोन इत्यादि चलन में बहुत ज्यादा नहीं थे। इसके बाद भी पिछले 10 सालों में केंद्र सरकार ने कोई नियम नहीं बनाए। आज भी अंग्रेजों के बनाए 1885 के टेलीग्राफ कानून तथा भारतीय नागरिकों की निजी जानकारी और भारत की बौद्धिक संपदा को सुरक्षित रखने के लिए सरकार ने कोई उपाय नहीं किए। आज सभी इंटरनेट कंपनियां, जो भारत में सबसे ज्यादा व्यापार कर रही हैं, या नि:शुल्क सेवाएं दे रही हैं। वह सभी अमेरिकी कंपनियां हैं। जब भी हम कोई ऐप डाउनलोड करते हैं, अथवा इंटरनेट पर व्हाट्सएप, फेसबुक, यूट्यूब, ईमेल इत्यादि की नि:शुल्क सेवाएं लेने के लिए जो शर्तें जाने-अनजाने में ऑनलाईन स्वीकार कर लेते हैं। उसके कारण आज हमारी सभी जानकारियां और बौद्धिक संपदा के अधिकार पिछले एक दशक में अमेरिकी कंपनियों के पास चले गए हैं।
हाल ही में गूगल ने नि:शुल्क वेबसाइट बनाकर देने का नया धंधा शुरू किया है। 3 साल तक गूगल नि:शुल्क सेवाएं देगी। जो डाटा आप उस पर अपलोड करेंगे, उस पर गूगल का अधिकार होगा। यदि वही जानकारी आप उपयोग करना चाहेंगे, तो आपको गूगल से खरीदना होगा। इन कंपनियों का गोरख धंधा और कमाई का मकड़जाल केवल इसी बात से समझा जा सकता है। व्हाट्सएप को 5 साल पहले फेसबुक ने 19 अरब डालर में खरीदा था। व्हाट्सएप भारत में नि:शुल्क सेवा उपलब्ध कराती है। लोकसभा के आम चुनाव के 5 महीनों में 120 करोड़ रुपए की कमाई व्हाट्सएप ने विज्ञापनों के माध्यम से एक नम्बर में कर ली। परदे के पीछे की कमाई का अंदाजा लगा पाना मुश्किल है। सरकार के दबाव में भारत में व्हाट्सएप ने अपना कार्यालय जरूर बनाया। किंतु 1 साल में मात्र इस कंपनी ने, 57 लाख रुपए की मात्र कमाई की। फेसबुक ने भारत की आधी आबादी और सभी सरकारों के डाटा पर कब्जा कर लिया है। गूगल में इंटरनेट पर जो भी डाटा अपलोड या डाउनलोड हुआ है। वह सारा डाटा गूगल के पास पहुंच गया है। इससे भारत के आम नागरिकों की निजता, राज्य और केंद्र सरकारों की सभी गोपनीय और सार्वजनिक जानकारियों पर इन्हीं अमेरिकी कंपनियों का एकाधिकार हो गया है। भारत ने इस संबंध में ना तो अभी तक कोई कानून बनाया है। नाही इन कंपनियों के डाटा सेंटर भारत में खुले हैं। भारत सरकार का आज इन कम्पनियों पर कोई नियंत्रण भी नहीं है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी के अधिकारी एडवर्ड स्नोडेन ने इंटरनेट कंपनियों और खुफिया संगठनों की सांठगांठ से चल रहे, मामलों का खुलासा करने के लिए ऑपरेशन प्रिज्म 6 साल पहले किया था। खलासे के बाद इन ताकतवर कंपनियों का कुछ भी नहीं बिगड़ा। आज स्नोडेन निर्वासित होकर दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। सारी दुनिया में इंटरनेट के क्षेत्र में काम करने वाले 9 कंपनियां, जो अमेरिका की हैं। वह सारी दुनिया को अपने नियंत्रण में लेने के लिए सारी जानकारियां लेकर आज सबसे खतरनाक स्थिति में पहुंच गई हैं। अमेरिका के खुफिया संगठनों का इन्हें संरक्षण प्राप्त है।
हाल ही में इजराइल के पेगासस सॉफ्टवेयर की मदद से जासूसी का जो खेल भारत में शुरू हुआ है। उसमें अधिकृत रूप से यह कहा जा रहा है कि 121 लोगों की जासूसी की गई है। जिनकी जासूसी हुई है वह शासन, प्रशासन, राजनीति एवं पत्रकारिता में महत्वपूर्ण स्थिति में थे। सरकार इस मामले की सही जानकारी देने के स्थान पर इससे पल्ला झाड़ रही है। सूत्रों के अनुसार जांच एजेंसियों ने बिना रिकॉर्ड में लाए हुए, देश के कई हजार नेताओं, अधिकारियों, पत्रकारों एवं सुरक्षा से जुड़े हुए लोगों की जासूसी, इसी सॉफ्टवेयर के माध्यम से कराई है। फौरी तौर पर सरकार की सरपरस्ती में की गई जासूसी का लाभ, वर्तमान सत्ताधारी दल को मिल गया हो। लेकिन इससे संबंधित सभी डाटा अमेरिकी कंपनियों के पास भी पहुंच गया है। इससे समझा जा सकता है कि भारत किस विस्फोटक स्थिति में पहुंच गया है। इन अमेरिकी कंपनियों पर अमेरिका के खुफियां संगठनों का भारी दबदबा है। भारत सरकार ना तो इन कम्पनियों को नियंत्रित करने के लिए, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी कोई कानून नहीं बना पाई। नाही सरकार भारत के डाटा को भारत के ही डाटा सेंटर में रखने के लिए इन कंपनियों को बाध्य कर पाई।
भारतीय संविधान की 70 वी जयंती पर आम जनता को संवैधानिक कर्तव्यों का बोध कराने के लिए सरकार अभियान चला रही हैं। वहीं सरकार, इंटरनेट कंपनियों की जासूसी, भारत की बौद्धिक संपदा, निजी अधिकार और सुरक्षा तंत्र को मजबूत बनाने के स्थान पर, अमेरिकी कंपनियों को सौंप रही है। सरकार और संसद राष्ट्रीय हितों को इस तरह से अनदेखा करेगी, इसकी कल्पना कोई कैसे कर सकता है। लेकिन भारत में कुछ भी संभव है, यह इसका सबसे बड़ा प्रमाण है।
वक्त की जरूरत
ओमप्रकाश मेहता
भाजपा के लिए अब दम्भ नहीं, आत्मचिंतन का वक्त…? भारतीय जनता पार्टी अब देश या देश की जनता के लिए नहीं बल्कि वक्त की जरूरत बन चुकी है, जो पिछले साढ़े पांच साल से देश पर राज कर रही है, पार्टी के इस साढ़े पांच साल के शासन में देश, जनता व स्वयं पार्टी ने क्या हासिल किया? यह तो आंक्लन करने वाले करते रहेंगे और आगे भी करते रहेंगे, किंतु इसके साथ ही स्वयं भारतीय जनता पार्टी के धुरंधरों के लिए अपने स्वयं की साढ़े पांच साला भूमिका पर आत्मचिंतन करने का सही वक्त है, आखिर महज डेढ़ साल में दहाई प्रदेशों की सत्ता से सिमट कर इकाई में कैसे आ गई? इसी बिन्दु पर पार्टी को गंभीर चिंतन करना चाहिये, क्या मोदी के जादू या उनके चेहरे की चमक में कमी आ गई है, या पार्टी प्रज्ञा ठाकुर जैसे पार्टी नेताओं के कारण अथवा आम जनता की असंतुष्टी के कारण अपनी चमक खोने को मजबूर है, इन सब बिन्दुओं पर गंभीर आत्मचिंतन जरूरी है, इसके साथ ही पार्टी की ‘‘यूज एण्ड थ्रो’’ नीति का यह दुष्परिणाम है या सिर्फ राष्ट्रीय मुद्दों पर ध्यान देने का असर, इस पर भी विश्लेषणात्मक चिंतन जरूरी है, आज से दो साल पहले लगभग पूरे देश पर केसरिया ध्वज लहराता नजर आता था, जो आज सीमावर्ती बनकर रह गया है, सिर्फ उत्तरप्रदेश जैसा अहम् व बड़ा राज्य उसके कब्जें में रह गया है, पिछले पन्द्रह बीस महीनों में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और अब महाराष्ट्र जैसे अहम् प्रदेश उसकी पकड़ से बाहर हो गए, आखिर यह पार्टी की किस गलती के परिणाम है? इस मसले पर फिलहाल आत्मचिंतन का यही सही वक्त है, यदि अभी भी अहम् और दम्भ से पार्टी और उसके नेता मुक्त नहीं हुए तो राज्यों में और भी दुर्गति संभावित है।
ये तो सब वे बिन्दु है, जो बिना किसी ‘दुर्बिन’ के नजर आ रहे है, किंतु कुछ बिन्दु ऐसे है जो अपने पूर्ववर्ती फैसले पर आत्मचिंतन से जुड़े है, जैसे देश की आर्थिक स्थिति, देश की बढ़ती बेरोजगारी, भारत से बाहर के देशों द्वारा भारत पर कराये गए चैकाने वाले सर्वेक्षण आदि, जैसे अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की सर्वे रिपोर्ट में दावा कि देश में कृषि और मैन्यूफेक्चरिंग क्षेत्र के रोजगार में गिरावट देखी गई और उसके कारण पिछले छः सालों में आजाद भारत के इतिहास में पहली बार करीब एक करोड़ नौकरियां घटी। जबकि 2014 के चुनावी घोषणा-पत्र में भाजपा ने प्रतिवर्ष एक करोड़ नौकरियां देने का वादा किया था। इसी तरह देश में किसानों द्वारा की जा रही आत्म हत्याओं के आंकड़ों में बढ़ौतरी परिलक्षित हुई अर्थात् किसानों का कर्ज व अन्य परेशानियां यथावत है, यही स्थिति राज्य व केन्द्र सरकार के कर्मचारियों की समस्याओं को लेकर है, वे भी अपने आपकों ठगा सा महसूस कर रहे है।
यह एक कटु सत्य है कि मोदी सरकार का पहला पांच साला कार्यकाल सिर्फ चिंतनकाल ही सिद्ध हुआ किंतु उस चिंतन के राष्ट्रीय दृष्टि से कुछ सुखद परिणाम अब नजर आने लगे है, जैसे सामाजिक क्षेत्र में तीन तलाक प्रथा की समाप्ति, जम्मू-कश्मीर से धारा-370 व 35ए की मुक्ति, राम-मंदिर निर्माण क्षेत्र में एक सफल न्यायिक कदम। इन फैसलों से देश खुश है, किंतु मानव मनोविज्ञान का प्रथम सिद्धांत ही यही है कि वह पहले अपने बारे में सोचता है, उसके बाद समाज, देश व दुनिया के बारे में और वह अपने प्रथम सिद्धांत में ही खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है, इसके लिए दोषी तो मौजूदा सरकार को ही माना जाएगा न, और इसी का नतीजा आज मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान व महाराष्ट्र में सामने आ रहा है। आखिर क्यों भारत के आधे भाग का भाजपा से मोहभंग होता परिलक्षित हो रहा है? इस एक अहम् सवाल पर भाजपा के भाग्यविधाताओं को कुछ बुजुर्गो से सलाह मशवरा कर गंभीर चिंतन करना चाहिए, वरिष्ठों को घर के कौने में बैठने को मजबूर कर देना और अपने अहम् के साथ पार्टी और देश के लिए सप्तरंगी सपने देखना कहां तक सही माना जा सकता है?
आज यदि आजादी के प्रमुख स्तंभों व उनकी सोच का सूक्ष्म परीक्षण किया जाए तो न्यायपालिका सहित सभी स्तंभों की वास्तविकता सामने आती है। आज आए दिन सुप्रीम कोर्ट सरकार के फैसलों पर अपनी बेबाक टिप्पणियां जारी करता जा रहा है, और वास्तविकता यह भी है कि वहीं अब जन आकांक्षा की पूर्ति और आस्था का सबसे लोकप्रिय केन्द्र बनता जा रहा है, शेष दो स्तंभों विधायिका व कार्यपालिका पर तो सरकार का ही कब्जा है और जहां तक अघोषित चैथे स्तंभ ‘खबर पालिका’ का सवाल है, उसे तो अब ‘विक्रय प्रसाधन’ ही मान लिया गया है।
इस विकट स्थिति से देश गुजरने को आज मजबूर है, जिसका एक मात्र विकल्प सत्तारूढ़ दल व सरकार का ‘सद्बुद्धि’ हासिल होना ही है और उसके लिए पूरा देश भगवान से प्रार्थना कर रहा है।
ज्वलंत समस्या बलात्कार—- एक असाध्य बीमारी –इलाज असंभव !
डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन
बलात्कार कोई नया रोग या घटना नहीं हैं जबसे सृष्टि में पुरुष स्त्री का प्रादुर्भाव हुआ हैं और विपरीत लिंग में जो आकर्षण होता हैं उससे अधिकतर ये विकार पैदा हुए और और होते रहेंगे.इनको कोई रोकने वाला नहीं हैं।
हमारा पूरा इतिहास इन्ही घटनाओं से हर युग में भरा पड़ा हैं।तरीके या ढंग बदले पर घटनाये तो होती रही और रहेंगी।वर्तमान में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया की जागरूकता से इनका उजागर होना अधिकतम हो गया हैं ,वरना पहले घटनाएं हो जाती थी पर पता भी नहीं चलता था.
इस विषय पर बहुत शोध ,चिंतन ,मनन हुआ और होता रहेगा ,सरकारें ,संस्थाएं बहुत जागरूकता फैलाएं हैं पर ज्यों ज्यों इलाज हो रहा हैं रोग बढ़ता ही जा रहा हैं ,इसके लिए कोई फिल्म ,टी वी सीरियल ,साहित्य ,पहनावा आदि कोई भी कारण बताएं पर इन पर रोकथाम होना कठिन होता जा रहा हैं।
हमारे देश में संविधान और उनके पालन कर्ताओं में कोई भय नहीं हैं ,जैसे घटना होने के बाद थाना क्षेत्र पर विवाद ,हमारा इलाका नहीं या उनका इलाका हैं ,पुलिस की अपनी कार्यवाही का ढंग हैं।हमारे यहाँ घटना घटने के बाद कार्यवाही होती हैं ,वचाव का कोई स्थान नहीं हैं ,उसके बाद नियमों के कारण कोई भी लकीर से हट नहीं सकता ,फिर मेडिकल रिपोर्र्ट पर आधारित प्रकरण बनते हैं ,न्यायलय में प्रमाण प्रस्तुत करना।प्राकृतिक न्याय हेतु सुसंगत अवसर देना यह अपराधियों के लिए ब्रह्मास्त्र हैं ,उनके बचाव के लिए वकील के अपने तर्क और फिर पेशी ,फिर पेशी ,गवाह ,बचाव और निर्णय।हमारे देश में अनेक अपराधी बच जाए पर निरपराधी को सजा नहीं होना चाहिए।
न्यायिक प्रक्रिया की अपनी व्यवस्थाएं हैं ,उसमे किसी का हस्तक्षेप नहीं होता।ताऱीख पर ताऱीख ,दलील पर दलील ,फिर उसके बाद अपील ,हाई कोर्ट ,सुप्रीम कोर्ट ,राष्ट्रपति महोदय के यहाँ दया की अपील ,और फिर सजा का निर्धारण।फांसी की सजा के लिए जल्लाद भी नहीं हैं।
इस प्रक्रिया में इतना अधिक समय लगता हैं की मुद्दई ,अपराधी ,पुलिस, न्यायाधीश ,समाज की रूचि ख़तम हो जाती हैं।प्रभावित होता हैं जिसके ऊपर बीतती हैं।इसके अलावा यदि बलात्कार से पीड़ित मर जाती हैं तो उसके परिवार को न्याय की इच्छा रहती हैं ,और यदि पीड़ित जिन्दा बच गयी तो उसको समाज और कचहरी में इतना जलील होना पड़ता हैं ,कोर्ट की जिरह के दौरान उसका अनेकों बार मौखिक बलात्कार होता हैं जैसे वह अपराधी हो, न की पीड़िता।
इसके लिए हमारे देश में जो कानूनव्यवस्था हैं उसमे और भी अधिक सुधारकी जरुरत के साथ यदि अपराधी दोषयुक्त हैं तो बिना देरी के जैसा अपराध वैसा दंड त्वरित होना चाहिए।जैसे अन्य देशों में खासकर मुस्लिम देशों में मृत्युदंड या लिंग विछेदन या चौराहे पर जनता के समक्ष पत्थर से मरना इत्यादि इत्यादि।
हज़ारों की संख्याओं में मुकदमे चल रहे हैं ,दंड घोषित हो चुके पर क्रियान्वयन नहीं है ,दंड व्यवस्था शीघ्रतम हो।
वास्तव में हत्या ,चोरी ,बलात्कार आदि पाप का होना एक क्षण का गुनाह, जिंदगी भर के लिए गुनहगार बना देता हैं और पीड़ित जिंदगी भर उस दर्द को झेलता रहता हैं। जब तक समाज में नैतिक ,चारित्रिक ,धार्मिक, शिक्षा का प्रसार प्रचार नहीं होगा तब तक इसका रोकना असंभव हैं।यह असाध्य रोग होता जा रहा हैं।हम कब तक अपनी बेटी ,बहिन ,पत्नी ,माँ ,भाभियों को बंदिश में रखेंगे ,क्या उन्हें भी खुली हवा में सांस लेने का अधिकार नहीं हैं।?
हैदराबाद हो या कही अन्य जगह की घटना ,विद्रूपता तो वही होती हैं ,पीड़िता का कष्ट वही जानती समझती हैं ,इस पर प्रतिबन्ध कैसे लगे या नियंत्रित कैसे हो यह यक्ष्य प्रश्न हमारे सामने हैं।पर खान पान और सामाजिक परिवेश इस प्रकार दूषित हो चूका हैं और दिन रात बलात्कार ,चोरी ,डकैती के साथ व्यसनों का सेवन अधिकतम होने से मानसिक प्रदुषण ने बहुत गहरा स्थान बना लिया हैं जिससे मुक्त होने की किरणे दिखना असंभव हैं
सृष्टि की शुरुआत के साथ हमारे वेद पुराणों में इनका उल्लेख मिलता हैं ,यानी मानव में हिंसा ,झूठ ,चोरी ,परस्त्री सेवन ,परिग्रह के अलावा क्रोध मान माया लोभ रुपी दुर्गुण जन्मजात होते हैं इनको हम धरम या व्रत रुपी दवा से दूर कर सकेंगे यानी जब तक समाज व्यक्ति और देश में अहिंसा ,सत्य ,अचौर्य ,ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की जानकारी पहुँचाना पड़ेगा।इसके अलावा और कोई चारा नहीं हैं।यह रोग कैंसर से भी अधिक खतरनाक और कष्टकारी हैं।
क्या हमें अब पुरानी परम्परा का पालन तो नहीं करना होगा ,जल्दी शादी ,दहेज़ बिना शादी ,और परिवार में धार्मिक वातावरण पैदा करना होगा।
अब नहीं तो कब होगा इसका इलाज़ घर घर में रावण बैठ गए
इतने राम कहाँ से लाएंगे जितना अधिक शिक्षित उतना अधिक पापी
असंभव नहीं पर संभावना क्षीण हैं रोक थाम की
अर्थशास्त्रियों का अनर्थशास्त्र
रघु ठाकुर
नोबल पुरूस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री श्री अभिजीत बनर्जी पिछले दिनों भारत के दौरे पर थे। उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में कहा की ट्रेड वॉर का फायदा उठाने के लिए भारत को कंपनियों को स्थापित करने की प्रक्रिया को आसान बनाना होगा- साथ ही कनेक्टीविटी – आसान बनाना, जमीन अधिग्रहण और आधुनिक श्रम कानूनों पर भी ध्यान देना होगा।
2. उन्होंने यह भी कहा की भारत के ज्यादातर गरीब उद्यमी नहीं बनना चाहते इसलिए भारत में गरीबी बड़ी समस्या है।
श्री बनर्जी को जो नोबल पुरूस्कार मिला है वह देने वाले कौन लोग है और उनके देने के आधार क्या है यह दुनिया को कम ज्ञात है? नोबल पुरूस्कार जिन महानुभाव के नाम से स्थापित है श्री अल्फ्रेड नोबल वे हथियारों के बड़े व्यापारी थे और हथियारों की कमाई से यह पुरूस्कार स्थापित हुआ हैं। वैसे तो दुनिया के सभी वैश्विक पुरूस्कारों के पीछे की ऐसी ही कहानियां है, मेगसाय पुरूस्कार भी जिन महानुभाव के नाम से है उन्होंने अमेरिकी कारपोरेट की पूर्ति के लिए ही अपने देश के लोगों को बली का बकरा बनाया था। ऐसे ही कारपोरेट के पिट्ठूओं की गद्दारी की सेवाओं के लिए ही अमेरिकी कारपोरेट के द्वारा पुरूस्कार स्थापित करना कारपोरेट धर्म है। आखिर अंग्रेज भी तो आजादी के आंदोलन के खिलाफ उनके सेवकों को राय बहादुर आदि उपाधियों से नवाजा करते थे।
जहां तक पहले मुद्दे का सवाल है, श्री अभिजीत बनर्जी ने ट्रेड वॉर का फायदा उठाने के लिए जो सुझाव दिए है, वे उद्योग जगत व कारपोरेट्स के ही हथियार है, जिन्हें डब्लू.टी.ओ. के माध्यम से और वैश्वीकरण के नाम से कई दशको से दुनिया के सामने परोसा जा रहा है।
कंपनी स्थापित करने की प्रक्रिया आज भी कोई कठिन नहीं है, बल्कि भ्रष्टाचार का एक बड़ा तरीका है। उद्यम के नाम पर लोग कम्पनियां बनाते है, फिर अनुदान लेते है, किसानों की जमीनों का अधिग्रहण कर जमीने लेते है, कारखाना लगाया तो ठीक व न भी लगाया तो अनुदान व ऋण लेकर विदेशों की सैर करते है। बाद में कोई न कोई बहाना बता कर कारखाना बंद कर देते है और अधिग्रहित ज़मीन के मालिक बनकर उसे बेचकर अरबपति बने रहते है। श्री बनर्जी को पता नहीं है, भारत में सात लाख से अधिक कारखाने जो कंपनी के रूप में पंजीकृत है वो पहले से ही बंद है। उनके कब्जे में कई करोड़ एकड़ ज़मीन किसानों की है, तथा जिनके ऊपर सरकारी बैंकों का लाखों करोड़ों का कर्ज बकाया है जो, डूबते खातों के रूप में (एन.पी.ए. बनाकर) लगभग साफ या माफ कर दिया गया है। ट्रेड वॉर इस समय मुख्यत: अमेरिका और चीन के बीच है, इसमें कभी-कभी थोड़ी भूमिका यूरोप के देश निभाते है। ये सभी दुनिया के विकसित और संपन्न देश है, जिनकी कम्पनियां महाकाय है व दशकों से स्थापित है, और भारी मुनाफे कमाती रही है। भारत की सत्ता और खजाने पर आधारित नवजात कम्पनियां क्या इन ट्रेड वॉर प्रतिभागियों का मुकाबला कर सकेगी या आने वाले कुछ वर्षें में भी इनके लायक समर्थ बन सकेगी, यह कहना भी मुश्किल होगा? यह कुछ ऐसी कल्पना है कि जैसे कोई यह कहे की दारा सिंह जैसे दुनिया के बड़े पहलवान का मुकाबला करने के लिए बच्चा पैदा किया जाए व उसे सरकारी मदद और खुराक के पोषण से पहलवान से लड़ाया जाए। अगर श्री अभिजीत बनर्जी कारपोरेट अर्थशास्त्री नहीं होते या भारत के जमीनी अर्थशास्त्री होते तो शायद वह यह कहते की भारत सरकार को कारपोरेट वॉर का हिस्सेदार बनने की बजाय कृषि को एक लाभप्रद उद्योग के रूप में विकसित करना चाहिए जिससे करोड़ों लोगों को रोजगार मिल सकता है और अर्थव्यवस्था को स्थाई मजबूती मिल सकती है। वे अगर कारपोरेट के अर्थशास्त्री नहीं होते तो शायद यह सुझाव भारत की सरकार व जनता को देते कि वह मितव्ययता और संयमित उपभोग के रास्ते का वरण कर, बापू को उनके 150वें वर्ष में कर्म श्रद्धांजलि अर्पित करें।
दूसरा बिंदू जो उन्होंने कहा है कि भारत के गरीब ज्यादातर उद्यमी नहीं बनना चाहते इसलिए गरीबी बड़ी समस्या है। श्री बनर्जी उच्च शिक्षा प्राप्त है और वे जरूर जानते होंगे कि भारत देश की स्थति यह है कि हम दुनिया में पेट भरने के क्रम में यानि भूख मिटाने में बहुत नीचे 102वें पायदान पर है। वे यह भी जानते होंगे कि योजना आयोग के द्वारा गठित सेन गुप्ता समिति ने अपनी रपट में यह कहा था कि देश के 80 करोड़ लोगों की क्रय क्षमता 20रू. से भी कम है, उनमें से भी लगभग 30 करोड़ लोग ऐसे है जिनकी दैनिक क्रय क्षमता 10रू. से भी कम है। वह यह भी जानते होंगे कि पिछले डेढ़ दशक में लगभग पाँच लाख से अधिक किसानों ने कर्ज न चुका पाने के कारण आत्महत्या की है। इन हालात में गरीबों पर यह तोहमत लगाना की वे उद्यमी नहीं बनना चाहते। यह गरीबों का अपमान है। बहुत संभव है कि वे स्व. धीरू भाई अम्बानी का उदाहरण दें कि धीरू भाई पेट्रोल पंप पर काम करते करते कारपोरेट बन गए। मैं धीरू भाई की लगन व मेहनत को न चुनौती दे रहा हू न नकार रहा हू। मैं उम्मीद करता हू कि धीरू भाई से लेकर अभी तक अम्बानी परिवार के विशाल सम्राज्य खड़ा करने के पीछे राजसत्ता, नौकरशाही, और राजनैतिक भ्रष्टाचार का त्रि-सूत्रीय गठ-जोड़ है। मैं मानता हू कि कुछ एक अपवाद होते है, परन्तु दुनिया में यह स्थापित तथ्य है कि उद्योग लगाने के लिए पूँजी चाहिए वरना वैश्वीकरण के बाद की भारत और दुनिया की सरकारें विदेशी पूँजी निवेश का रोना क्यों रोती।
श्री अभिजीत बनर्जी नहीं जानते या नहीं जानना चाहते कि भारत की गरीबी के पीछे दो बड़े कारण है, विषमता और बेरोजगारी। जब श्री मुकेश अम्बानी की कम्पनियां 3 माह में ग्यारह हज़ार दो सौ करोड़ का मुनाफा कमाती है, 18 फीसदी मुनाफा वृद्धि करती है तो वह यह उन एक करोड़ लोगों को गरीब बनाकर कमाती है, जिनकी क्रय क्षमता 20 रू. से कम होती है। उनके आधार पर ही अपनी संपन्नता और सफलता हासिल करती है। विश्व के बाजार में अम्बानी बंधु कहीं नजर नहीं आते, चीन या अमेरिका के ट्रेड वॉर में भिड़ने वाली किन कंपनीयों से इनका मुकाबला है या इन्होंने कभी मुकाबला किया है बतायें? श्री अभिजीत बनर्जी कृपया बताएँ कि हमारे देश की बड़ी कम्पनियां या कारपोरेट या तो अमेरीका या चीन की विशालकाय कम्पनियों की सहायक कंपनी है या पेटी कान्ट्रेक्टर है या फिर अफ्रीकी देशों में उनकी गरीबी या लाचारी का लाभ उठाकर बनने वाले बड़े जमींदार या उद्योगपति है। श्री बनर्जी को भूलना नहीं चाहिए कि अम्बानी बंधु को राफल विमान डील का पेटी कान्ट्रेक्ट मिला है, तो वह भी राजसत्ता के सहारे। अडानी को यदि आस्ट्रेलिया में खनन का ठेका मिला है तो वह भी राजसत्ता के सहारे और देश में भी यह कारपोरेट रूपी झाड़ हरे-भरे हो रहे या बढ़ रहे है तो इसमें भी राजसत्ता का हाथ है। माइक्रो क्रेडिट और स्वयं सहायता समूह गरीबों को फ्रिज, टी.वी., आदि खरीदने का पैसा देते है यह सही है। परंतु क्या माइको फाइनेंसिंग, अम्बानी, अडानी, या बिल गेट्स की पूँजी के मुकाबले पूँजी बनाने के मदद देने के लायक है। स्वयं सहायता समूह द्वारा अचार, पापड़ बनाने के माध्यम से जीने का सहारा तो मिल सकता है परंतु वह कंपनी खड़े करने और ऐसी कम्पनी याने ट्रेड वॉर के मुकाबले कंपनी खड़ा करने या पूँजी देने लायक नहीं हो सकते।
हमारे नोबल लारेट कितने काबिल है इसका प्रमाण तो नालंदा विश्वविद्यालय के पिछले 10 वर्ष की प्रगति और खर्च करने की तुलना कर देखा जा सकता हैं श्री अमर्त्य सेन इस विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति बने थे। उनके वेतन और यात्राओं पर कितना खर्च हुआ और विश्वविद्यलाय का कितना विकास हुआ, यह कहानी छुपी नहीं है। हालत यह हो गये थे कि सरकार को उनसे मुक्ति लेनी पड़ी।
श्री बनर्जी की लंबी मुलाकात प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी से हो चुकी है, और यह समझ जाना चाहिए की कारपोरेट पोषक सत्ता और कारपोरेट पोषित अर्थशास्त्री का मिलन किस व्यवस्था और किस अर्थशास्त्र को जन्म देगा।
रेप करने वाले मानसिक रोगी या अपराधी?
सनत जैन
भारत में पिछले एक दशक में बलात्कार की घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है। बलात्कार की घटनाओं को रोकने के लिए और अपराधियों को दंडित करने के लिए सरकार ने पिछले एक दशक में कई सख्त कानून बनाए हैं। इसके अलावा लड़कियों और लड़कों को सेक्स संबंधी शिक्षा भी दी जा रही है। यौन अपराधों को रोकने के लिए पुलिस को भी विशेष अधिकार दिए गए हैं। न्यायालयों में बलात्कार के दोषियों पर जल्द से जल्द सुनवाई हो और सजा मिले, उसका भी प्रावधान किया गया है। कम उम्र की बच्चियों के साथ बलात्कार करने के मामले में फांसी की सजा का भी प्रावधान किया गया है। लेकिन इसके बाद भी बलात्कार की घटनाएं कम होने के स्थान पर बढ़ती ही जा रही हैं। सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि बहुत कम उम्र की बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाएं बढ़ी हैं। बलात्कार के बाद बच्चियों को मारने की घटनाएं भी पहले की तुलना में बहुत ज्यादा देखने को मिली हैं। इसका एक ही अर्थ है कि बलात्कार के बाद अपराधी फांसी से बचने के लिए महिलाओं और बच्चियों की हत्या करके सबूत मिटाने की चेष्टा करते हैं। जहां बलात्कार जैसे अपराध होते हैं, वहां कोई प्रत्यक्षदर्शी तो होता नहीं है। ऐसी स्थिति में दोषी को पकड़ पाना भी पुलिस के लिए मुश्किल होता है। सीसीटीवी कैमरे की सहायता से यदि संदिग्ध व्यक्ति को पकड़ भी लिया जाता है। तो उसको सजा दिला पाना, प्रत्यक्षदर्शी नहीं होने की दशा में बहुत मुश्किल होता है। भीड़ तंत्र के दबाव में पुलिस निरपराध को भी फंसाकर मामले को शांत करती है।
इस तरह की घटनाओं के बाद समाज में व्याप्त भारी रोष और भीड़तंत्र की मांग पर, सरकार बिना सोचे समझे कानून बना देती हैं। सख्त कानून बन जाने के बाद भी घटनाएं कम होने के स्थान पर बढ़ती ही जा रही हैं। समाज, सरकार, पुलिस कोई भी इनके वास्तविक कारणों को जानने की कोशिश नहीं कर रहा है। यह चिंता का विषय है।
कारणों को खोजने की जरूरत
पिछले एक दशक में बलात्कार की घटनाएं बड़ी तेजी के साथ भारत में बढ़ी हैं। छोटी-छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार होना सबसे बड़ी चिंता का कारण है। सेक्स करना एक मानसिक अवस्था है। जो अपराधी रेप जैसी घटनाओं को अंजाम देते हैं। निश्चित रूप से वह मानसिक रोग के शिकार होते हैं। अन्यथा वह कभी भी छोटी-छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार कर ही नहीं पाते। सामाजिक व्यवस्था और सोच में पिछले एक दशक में बड़ी तेजी के साथ परिवर्तन आया है। सेक्स संबंधों को लेकर भारतीय समाज में अनैतिकता बढ़ी है। लंबी उम्र तक शादी नहीं होने के कारण अनैतिक संबंध बड़ी तेजी के साथ बढ़े हैं। बलात्कार जैसी घटनाएं भी बड़ी तेजी के साथ बढ़ रही हैं। पिछले एक दशक में बच्चों से लेकर बड़ों के बीच स्मार्टफोन और इंटरनेट का प्रभाव देखने को मिल रहा है। कम उम्र के बच्चे सेक्स संबंधों को लेकर समय के पहले ही परिपक्व हो रहे हैं। दो दशक पहले जब इंटरनेट और मोबाइल फोन नहीं था। तब सेक्स संबंधों को लेकर भारतीय समाज की एक अलग सोच थी। युवाओं में भी 18 से 20 साल की उम्र तक-सेक्स संबंध बनाने की मानसिकता तथा उत्कण्ठा नहीं होती थी। वर्ष 2000 तक 18 से 25 वर्ष की उम्र में युवा युवतियों की शादी हो जाया करती थी। महिलाओं एवं लड़कियों का पहनावा एवं घूमने फिरने में शालीनता थी। परिवार के सदस्य संयुक्त एवं समूह के साथ रहने के कारण, बलात्कार जैसी घटनाएं होने का अवसर आसानी से नहीं मिलता था।
पिछले 20 वर्षों में युवा युवतियों की सोच, रहन-सहन, शिक्षा के लिए शहरों में जाकर अकेले रहना, मोबाइल और इंटरनेट के साथ लगातार बने रहते हैं। जिसके कारण पिछले दो दशक में भारतीय समाज की सोच और युवा-युवतियों की सोच में भारी परिवर्तन आया है। कैरियर बनाने के चक्कर में युवा और युवती 30 से 35 साल की उम्र तक शादी नहीं करते हैं। पढ़ाई, कोचिंग, पीएचडी एवं अन्य कोर्स करने के नाम पर वह घर से बाहर रहकर, उन्मुक्त व्यवहार, शार्ट एवं फैशन का पहनावा, देर रात तक घूमना फिरना शुरू हो जाता है। इस बीच अनैतिक संबंध भी बन जाते हैं। कुछ लोग जो इस तरह के संबंध नहीं बना पाते हैं। वह धीरे-धीरे मानसिक रोगी होने लगते हैं।
पाश्चात्य देशों की नकल सबसे ज्यादा नुकसानदेह
वर्तमान स्थिति में युवा युवतियों द्वारा पाश्चात्य देशों की नकल करने के कारण, भारतीय सामाजिक व्यवस्था और सोच में भारी परिवर्तन आया है। भारतीय समाज अपनी सामाजिक परंपराओं का पालन भी करना चाहता है। वहीं पुरानी अपनी सोच को बदलने के लिए तैयार नहीं है। युवाओं के बीच दोहरी मानसिकता के चलते बहुत सारी विसंगतियां देखने को मिल रही हैं। युवा वर्ग खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हुए नजर आ रहे हैं। पश्चिमी देशों में 14 से 18 साल के युवा युवती सेक्स संबंध बना लेते हैं। वहां के परिवार और समाज में इसकी मान्यता है। कानून भी इसकी इजाजत देता है। पश्चिमी देशों में शादी की उम्र 30 से 35 वर्ष के बाद आमतौर पर शुरू होती हैं। जब परिपक्वता दोनों में आ जाती है। उनके सेक्स संबंध उनकी शारीरिक और मानसिक आवश्यकता के अनुसार बहुत कम उम्र में ही बन जाते हैं। इसके विपरीत भारत में 30 से 35 वर्ष की उम्र तक युवा-युवती शादी नहीं कर रहे हैं। युवाओं में आपस में संबंध बनाना सामाजिक तौर पर स्वीकार नहीं किया जाता है। दुनिया भर के देशों में सेक्स वर्कर आसानी से उपलब्ध होते हैं। भारत में सेक्स वर्कर का धंधा गैरकानूनी है। जिसके कारण भारत में मोबाइल और इंटरनेट के बाद वैवाहिक बंधन में नहीं बधने के कारण यौन संबंधों सें अपराध बड़ी तेजी के साथ बढ़ रहे हैं। चिकित्सा विज्ञान की बात करें तो 14 वर्ष की उम्र से अधिक के युवा युवतियों में सेक्स संबंधी प्राकृतिक मांग उत्पन्न होती है। यदि यह प्राकृतिक मांग पूरी नहीं हो पाती है, तो यह धीरे-धीरे मानसिक रूप से बीमार होने लगते है। भारत के कई राज्यों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं का अनुपात काफी कम है। जिसके कारण शादी करने के लिए लड़कियां उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। वैकल्पिक अन्य कोई व्यवस्था ना होने से भी बलात्कार और छेड़छाड़ की घटनाएं, भारत में तेजी के साथ बढ़ रही हैं। चुकी यह मानसिक रोग है, अतः इसे कानून बनाकर भी नियंत्रित कर पाना संभव नहीं होगा।
प्रकृति के साथ खिलवाड़ ठीक नहीं
भारत में स्त्री पुरुषों के बीच सेक्स संबंधों को लेकर जो दूरियां और विसंगतियां बढ़ रही हैं। उसको दूर किए जाने की आवश्यकता है। भारत में लड़कियों के लिए शादी की उम्र 18 वर्ष तथा युवकों के लिए 21 वर्ष है। कई दशक पहले भारत में बाल विवाह बड़ी संख्या में होते थे। किंतु अब 25 से 30 वर्ष की उम्र हो जाने के बाद भी युवा युवती शादी के बंधन में नहीं बंध पा रहे हैं। जिसके कारण सामाजिक व्यवस्था तेजी के साथ बिगड़ रही है। पिछले एक दशक में युवा-युवती अपना कैरियर बनाने के लिए 30 और 35 वर्ष की उम्र तक शादी करने के लिए तैयार नहीं होते हैं। इस बीच वह अपने अनैतिक संबंध भी बनाने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। स्वेच्छा से बने योन संबंध एवं लिविंग रिलेशन में कई वर्ष रहने के बाद विवाद होने की स्थिति में बलात्कार के प्रकरण दर्ज कराना भी आज आम बात हो गई है। भारत में महिलाओं के लिए विशेष कानून लागू किए गए हैं। इसका लाभ उठाने के लिए महिलाओं द्वारा बलात्कार के प्रकरण दर्ज कराने से रिकॉर्ड बड़ी तेजी के साथ बढ़ रहा है। जिससे सामाजिक सद्भाव और महिला पुरुषों के संबंध में एक अलग तरीके का तनाव देखने को मिल रहा है।
वर्तमान स्थिति में भारतीय सामाजिक, आर्थिक एवं प्राकृतिक स्थिति को देखते हुए समाज और सरकार को इस समस्या के वास्तविक कारणों को खोजना होगा। केवल कानून और पुलिस के माध्यम से बलात्कार और यौन अपराधों को रोकना संभव नहीं है। सेक्स प्रकृति जन्य मानसिक एवं शारीरिक मांग है। जो समय पर पूरी ना हो तो यह धीरे-धीरे सामान्य व्यक्ति को भी मानसिक रोगी बना देता है। इसमें महिलाओं और पुरुषों के बीच में भेद करना संभव नहीं है। जरूरत इस बात की है, कि इस समस्या पर विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ, सामाजिक एवं धार्मिक नेतृत्व करने वाले विशिष्ट व्यक्ति, इस संबंध में खुलकर चर्चा करें। वास्तविक समस्या के कारणों को खोज कर उसके निदान के प्रयास करें दो। नावों की सवारी और भीड़तंत्र की सोच से इस समस्या का समाधान संभव नहीं है।
ड्रोन उड़ाने वाले नक्सलियों को देखते ही गोली मारने का आदेश
अजित वर्मा
माओवादियों द्वारा ड्रोन कब्जाने और उसके संचालन की घटना के हाल में सामने आने के बाद वामपंथी चरमपंथी प्रभावित राज्यों में तैनात सुरक्षा बलों को इन्हें देखते ही गोली मारने के आदेश जारी किए गए हैं। यह नया निर्देश केंद्र में स्थित सुरक्षा एवं खुफिया एजेंसियों की केंन्द्रीय कमान द्वारा दिया गया है। हाल में छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में नक्सल हिंसा से सबसे बुरी तरह प्रभावित सुकमा जिले के केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (केरिपुब) शिविर पर ड्रोन या मानव रहित यान (यूएवी) मंडराने के मामले सामने आने के बाद यह निर्देश दिये गए है।
मौके पर तैनात बलों से साझा किए गए आधिकारिक संदेश के मुताबिक, लाल और सफेद रोशनी उत्सर्जित करने वाले ड्रोन पिछले तीन दिनों में कम से कम चार बार किस्ताराम और पालोडी में केरिपुब शिविर के पास उड़ते देखे गए। ड्रोन द्वारा होने वाली हल्की आवाज ने शिविर में तैनात जवानों का ध्यान खींचा जिसके बाद जवानों ने मोर्चा संभाला और नक्सलियों द्वारा गड़बड़ी फैलाने की आशंका को देखते हुए आसपास के शिविरों को सतर्क किया गया। हालांकि सुरक्षा बल जब तक इन ड्रोनों पर लक्ष्य साधकर उन्हें मार गिराते ये छोटे मानवरहित यान आसमान में गायब हो गए।
इस घटनाक्रम के सामने आने के बाद सुरक्षा प्रतिष्ठानों ने मामले की जांच शुरू की, जिसके बाद खुफिया एजंसियां मुुंंबई के एक दुकानदार के पास पहुंची जिसके बारे में संदेह है कि उसने अज्ञात लोगों को ड्रोन बेचे। ये लोग संभवत: नक्सली थे। इस संबंध में जांच जारी है।
खुफिया एजंसियां खास तौर पर दो शिविरों को लेकर चिंतित हैं, जहां ड्रोन देखे गए। ये दोनों शिविर नक्सल प्रभाव वाले इलाके में हैं। जहां समुचित सड़क संपर्क नहीं है और नियमित रूप से इसके आसपास सशस्त्र माओवादियों की आवाजाही देखी गई है क्योंकि इस इलाके की सीमा ओड़ीशा, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश के जंगल से सटे इलाकों से लगती है। इस गतिविधि से जुड़ी जानकारी रखने वाले एक शीर्ष सुरक्षा अधिकारी का मानना है कि यह घटनाक्रम गंभीर चिंता का विषय है। माओवादियों द्वारा ड्रोन रखना और उसका इस्तेमाल करना एक नई चुनौती है और सुरक्षा बलों को लंबे समय से इसकी आशंका थी। अब जाकर यह मामला सामने आया है। इसी बात को ध्यान में रखकर ही वामपंथी चरमपंथ प्रभावित सभी राज्यों में सुरक्षा बलों को नक्सलियों द्वारा संचालित ऐसे ड्रोनों या मानवरहित यान को देखते ही मार गिराने का आदेश दिया गया है।
शुरुआती विश्लेषण में सामने आया है कि जो ड्रोन देखे गए वो ऐसे थे जिनका इस्तेमाल शादी या सार्वजनिक सभाओं जैसे सामाजिक कार्यक्रमों में किया जाता है। एजंसियों को शक है कि नक्सलियों ने हाल में ये छोटे ड्रोन हासिल किए हैं जिनका उद्देश्य सुरक्षा बलों के शिविरों से जुड़ी जानकारियां हासिल करना और उनकी गतिविधियोंं पर नजर रखना आदि है।
गीता में धर्म का अर्थ
हर्षवर्धन पाठक
पिछले कुछ वर्शों से धर्म और सम्प्रदाय की बहुत चर्चा हो रही है। इस संबंध में विष्लेशण रोचक होगा कि हिन्दुओं के प्रमुख धर्म ग्रंथ गीता में धर्म का क्या अर्थ दिया गया है और क्या क्या सन्दर्भ मिलते हैं?
महाभारत ग्रंथ का यह उदाहरण इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि जब कीचड़ में फंसे रथ के पहिये को निकालने के लिए कर्ण नीचे उतरा तब श्री कृश्ण ने उस पर बाण चलाने के लिए अर्जुन से कहा। इस पर कर्ण ने कहा कि यह धर्म संगत नहीं है। इसके उत्तर में श्रीकृश्ण ने पूछा कि तुम्हारा धर्म उस कहां गया था जब निषस्त्र अभिमन्यु पर सात महारथी आक्रमण कर रहे थे और उनमें तुम भी षामिल थे। श्री कृश्ण कर्ण से पूछते हैं- क्व ते धर्मस्तदागत: (अर्थात तुम्हारा धर्म तब कहां गया?) गीता में अर्जुन को श्री कृश्ण ने जो उपदेष दिया इस उपदेष की अलग-अलग व्याख्यायें हैं। आचार्य विनाबा भावे ने अपने प्रसिद्ध ”गीता प्रवचन“ में लिखा है कि अर्जुन वास्तव में स्वजन आसक्ति से प्रभावित था। गीता में इसी पर प्रहार है। अर्जुन अहिंसा समर्थक नहीं था लेकिन वह स्वजनों पर प्रहार नहीं करना चाहता था।
यदि आप समझते हैं कि गीता में धर्म की चर्चा निम्नलिखित ष्लोक तक सीमित है, यदा यदा हि धर्मस्यग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम््, तब आप निष्चित रुप से गलत हैं। गीता में धर्म को व्यापक तथा प्रसंग अनुसार लिया गया है। उदाहरण के लिये गीता के अठारहवें अध्याय का यह ष्लोक देखें। श्रीकृश्ण अर्जुन से कहते हैं।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं षरणं ब्रज , अहं त्वां सर्व पापेभ्यो मा षुच:
इस ष्लोक का षब्दार्थ यह है कि श्रीकृश्ण अर्जुन से कहते हैं कि सभी धर्मों का परित्याग कर मेरी षरण आ जाओ। मैं तुम्हारे सभी पापों से तुम्हें मुक्त कर तुम्हें मोक्ष प्रदान करुंगा। इसमें कोई संषय नहीं है। लेकिन ष्लोक का भावार्थ कुछ और इषारा करता है। यह सभी को मालूम है कि जिस समय यह महायुद्ध हुआ उस समय ईसाई धर्म और बौद्ध धर्म नहीं था। इस्लाम धर्म का प्रष्न ही नहीं है? षायद जैन धर्म था। उस कालखंड में केवल सनातन धर्म या नारायणी धर्म था जिसे आज हिन्दू धर्म के नाम से जानते हैं। अत: सभी धर्मों के परित्याग का कोई मतलब नहीं है। जिस धर्म का अर्थ लिया जाता है यहां वह अर्थ लागू नहीं होता।
लोकमान्य तिलक ने अपने विख्यात ग्रंथ ”गीता रहस्य“ में इस ष्लोक के संदर्भ में धर्म से आषय विभिन्न व्यावहारिक धर्मों से लिया है जैसे दान धर्म, पुत्र धर्म, यज्ञ धर्म, सत्य धर्म, सन्यास धर्म आदि। यहां श्रीकृश्ण अर्जुन से कहते हैं कि उक्त धर्मों के चक्कर में नहीं फंस कर केवल मुझे भज मैं तुम्हारा उद्धार कर दूंगा। वृन्दावन के संत स्वामी अखंडानंद सरस्वती ने सभी धर्मों से आषा विधि-विधान, प्रवत्ति और निवृत्ति से लिया है। यहां इसका अर्थ इन्द्रियों मन बुद्धि आदि के धर्म से हैं। वस्तुत: कोई धर्माधर्म न मेरा है और न उसका कोई अस्तित्व है। वे कहते हैं इसी का नाम है सर्व धर्म परित्याग।
इस अन्तिम अध्याय में तीन ष्लोक के बाद यह ष्लोक आता है जब श्रीकृश्ण अर्जुन से पूछते हैं अध्येश्यते च य इमं धर्म संवादमावयो: ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिश्ट: स्यामिति में मत:।“
इस ष्लोक का अर्थ है।
जो भी इस धर्म संवाद का अध्ययन करेगा वह अपनी बुद्धि के अनुसार इसका ज्ञान प्राप्त करेगा।
इन ष्लोकों के उदाहरण का तात्पर्य यही है कि गीता में धर्म को बहुत व्यापक अर्थ में लिया गया है।
गीता के इस ष्लोक को लें इसमें धर्म की अलग व्याख्या है।
श्रेयान्स्वधर्मों विगुण: परधर्मात्वनुश्टितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मों भयावह:।।
इस ष्लोक में स्वधर्मे निधनं श्रेय: का अर्थ भिनन् है। यह पहले ही स्पश्ट किया गया है कि गीता प्रवचन के समय केवल एक ही धर्म की चर्चा है। अत: यहां पर धर्म का अर्थ बिल्कुल अलग है।
द्वितीय अध्याय के प्रारंभ में अर्जुन के द्ववारा प्रकट यह संषय भी उल्लेखनीय है कि वह धर्मसम्मूढचेता है और उसे अपने धर्म या कर्तव्य का ज्ञान नहीं है अर्थात वह उलझन में हैं। उसे धर्म या कर्तव्य का ज्ञान नहीं है अर्थात वह उलझन में है।
यहां धर्म का अर्थ कर्तव्य से है। गीता में वास्तव में अर्जुन के इसी संषय का निराकर्ण है। वह स्वजनासक्ति का षिकार हो कर युद्ध से पलायन चाहता था। गीता में अर्जुन के इसी मोह का उपचार है।
चतुर्थ अध्याय में यह बहुत चर्चित ष्लोक है। यदा यदा ही धर्मस्यग्लानिर्भवति भारत अभ्युस्थानम्धर्मस्य तदात्मानम्् सृजाम्यहम। इस ष्लोक का अर्थ बहुधा गलत समझा जाता है। अठारहवें अध्याय में अन्त में श्री कृश्ण का यह कथन भी उल्लेखनीय है कि हम दोनों के इस धर्म संवाद का जो अध्ययन करेगा उसे ज्ञान प्राप्त होगा। यह ष्लोक ऊपर उद्धत किया गया है।
इस अद्धुत ग्रंथ के कुछ उदाहरण दिये गये हैं। लेकिन यह कुछ उदाहरण मात्र हैं। गीता का पूर्ण अध्ययन ऐसे अनेक उदाहरण प्रस्तुत करेगा। गीता में धर्म षब्द के अनेक अर्थ हैं परन्तु धर्म से कही हिन्दू धर्म मात्र का आषय नहीं है। सोवियत रुश और अनेक देषों में गीता के महत्व को स्वीकार किया गया है।
मुफ़्त की ‘लोक लुभावन रेवड़ियां’ बांटने से ज़रूरी है ‘मुफ़्त शिक्षा’
तनवीर जाफ़री
देश का प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान, दिल्ली का जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, इन दिनों एक बार फिर चर्चा में है। दिल्ली की सड़कों पर आए दिन जे एन यू के छात्रों द्वारा अनेक छोटे बड़े धरने प्रदर्शन किये जा रहे हैं। इस बार छात्रों में आए उबाल का कारण है विश्वविद्यालय के छात्रावास नियमों में किया जाने वाला बदलाव तथा छात्रावास की फ़ीस में की गयी बेतहाशा वृद्धि । हालांकि इस विषय पर विश्वविद्यालय प्रशासन का यह कहना है कि चूँकि पिछले 14 वर्षों से छात्रावास शुल्क के ढांचे में कोई बदलाव नहीं किया गया था इसलिए इतने लम्बे समय के बाद इसमें संशोधन किया जाना ज़रूरी हो गया था। विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा घोषित किये गए नए नियमों के अनुसार छात्रावास की फ़ीस में भारी भरकम बदलाव किया गया है। इसके अंतर्गत छात्रावास के डबल सीटर कमरे का किराया जो पहले केवल 10 रुपये था उसे बढ़ा कर 300 रुपये प्रति माह किया गया। अर्थात इसमें अचानक 30 गुणा की वृद्धि कर दी गयी है। इसी तरह छात्रावास के एकल (सिंगल) सीटर कमरे का किराया 20 रुपये से 30 गुणा बढ़ाकर 600 रुपये कर दिया गया है। इसी तरह एक बार एकमुश्त जमा की जाने वाली वन टाइम मेस सिक्यूरिटी फ़ीस 5500 रुपये से बढ़ा कर 12000 रुपये कर दी गयी थी। ख़बरों के अनुसार छात्रों के आंदोलन के दबाव में आकर इसे पुनः 12000 से घटाकर 5500 कर दिया गया है। वैसे भी यह रक़म किसी भी छात्र के छात्रावास छोड़ने के समय उसे वापस कर दी जाती है। अन्य नियम जो प्रशासन द्वारा लागू किये गए हैं उनके तहत छात्रावास में रहने वाले छात्रों को ज़्यादा से ज़्यादा रात11.30 बजे के बाद अपने हॉस्टल के भीतर रहना होगा इसके बाद वे बाहर नहीं निकल सकेंगे। कोई छात्र या छात्रा अपने छात्रावास के अलावा किसी अन्य छात्रावास या कैंपस में किसी अन्य जगह पाया जाता है तो उसे छात्रावास से निष्कासित कर दिया जाएगा। इस पर छात्रों का कहना है कि पुस्तकालय में बैठने के लिए अथवा किताबों अथवा नोट्स के आदान प्रदान के लिए या फिर परीक्षा की तैयारी हेतु उन्हें कैम्पस में किसी भी समय निकलना पड़ता है। इसके अतिरिक्त छात्रावास के नए नियमों में छात्रों को डाइनिंग हॉल में ”उचित कपड़े” पहन कर आने का निर्देश भी दिया गया है। इस विषय पर छात्रों का सवाल है कि ‘उचित कपड़े’ की आख़िर परिभाषा क्या है और कौन से लिबास उचित हैं कौन से अनुचित इसका निर्धारण कौन करेगा। इसके अतिरिक्त भी विश्वविद्यालय प्रशासन ने छात्रावास में रह रहे छात्र-छात्राओं से छात्रावास के रखरखाव के लिए 1700 रुपये की फ़ीस प्रति माह वसूलने का फ़ैसला भी लिया है। छात्रों में इस नए नियम को लेकर सबसे अधिक नाराज़गी है। इससे पहले विश्वविद्यालय में पानी, बिजली, रख-रखाव अथवा सफ़ाई के नाम पर छात्रों से कोई पैसे वसूले नहीं जाते थे। छात्रों का कहना है कि ग़रीब परिवारों से आने वाले छात्र प्रति माह 1700 रूपये जैसी भारी भरकम रक़म हरगिज़ नहीं दे सकते।
जे एन यू छात्र संघ द्वारा छात्रावास की फ़ीस बढ़ोत्तरी के इस नए नियमों को वापस लिए जाने की मांग को लेकर आंदोलन किया जा रहा है। अनेक छात्र-छात्राओं का कहना है यह ‘काला-ड्राफ़्ट’ न केवल छात्रों के मौलिक अधिकारों का हनन है बल्कि यदि बढ़ाई गयी यह फ़ीस की नई रक़म घटाई नहीं जाती तो वे पढ़ाई छोड़ने तक के लिए मजबूर हो सकते हैं। जे एन यू में लगभग 20 दिनों से चल रहे इस आंदोलन में पुलिस भी अपनी दमनकारी नीति अपना चुकी है। कई लहूलुहान छात्रों के चित्र सोशल मीडिया पर वॉयरल होते देखे गए। जे एन यू में फ़ीस बढ़ोत्तरी के विरुद्ध छात्रों के आंदोलनरत होने का एक कारण यह भी है कि यहाँ ग़रीब परिवारों के लगभग 40 प्रतिशत छात्र-छात्राएं दाख़िला लेते हैं और वे बढ़े हुए नए शुल्क को दे पाने में स्वयं को असमर्थ महसूस कर रहे हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि देश की जो सरकारें अथवा राजनैतिक दल शिक्षा हासिल करने को हर भारतीय नागरिक का मौलिक अधिकार बताने की दुहाईयाँ दिया करते थे वही आज शिक्षा को इतना मंहगा बनाने पर क्यों तुले हुए हैं? ख़ासतौर पर प्रायः जे एन यू ही सरकार के निशाने पर क्यों रहती है। जे एन यू का चरित्र हनन किये जाने का प्रयास प्रायः दक्षिणपंथी शक्तियों द्वारा किया जाता रहा है। वर्ष 2016 में जब यहाँ के छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को देशद्रोह के झूठे मामले में गिरफ़्तार किया गया था उस समय भी जे एन यू के कई ‘पारम्परिक अशिक्षित विरोधियों’ द्वारा कैम्पस को बदनाम करने के उद्देश्य से उपयोग में लाए गए निरोध से लेकर बकरे व मुर्ग़े की चबाई गयी हड्डियां,बियर व शराब की बोतलें,अधिया व पौव्वे तथा सिगरेट व बीड़ी के जले हुए टोटे तक की गिनती एक विधायक द्वारा बताई गयी थी। बुरी नज़र से कैम्पस को देखने वाले इन पूर्वाग्रही लोगों ने यह सब तो गिनकर मीडिया को ज़रूर बताया था परन्तु उन्होंने यह नहीं बताया कि यह विश्वविद्यालय देश को कितने भारत रत्न,कितने नोबल पुरस्कार विजेता,कितने आई ए एस टॉपर,कितने मंत्री व उच्चाधिकारी तथा कितने न्यायाधीश आदि दे चुका है?
निश्चित रूप से देश का यह सर्वप्रतिष्ठित विश्व विद्यालय देश के कर दाताओं के पैसों से चलता है। इसकी सब्सिडी का भुगतान भी देश करता है। परन्तु देश का यह पैसा यदि ग़रीब या मध्यम परिवारों से आने वाले छात्रों की शिक्षा पर लगे तो उसमें क्या हर्ज है? क्या सरदार पटेल की मूर्ति पर 500 करोड़ रूपये से अधिक की जनता की रक़म ख़र्च करना ज़्यादा ज़रूरी है ? आज देश के सैकड़ों शहरों में अनेक निर्माण कार्य ऐसे हो रहे हैं जो बिल्कुल ग़ैर ज़रूरी हैं परन्तु लोकलुभावन ज़रूर हैं। उदाहरण के तौर पर कहीं बने बनाए घंटाघर को तोड़ कर नए डिज़ाइन का स्मारक या प्रतीक बनाया जा रहा है। कहीं पार्क या तालाबों का पुनर्निर्माण किया जा रहा है। पार्कों व तालाबों जैसे सार्वजनिक स्थलों पर मंहगे पत्थर लगवाए जा रहे हैं तथा उन्हें मंहगी डिज़ाइन से आकार दिया जा रहा है। इस प्रकार के निर्माण के पीछे बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार हो रहा है। गुजरात के मुख्यमंत्री महोदय अपने लिए नया विमान ले रहे हैं तो प्रधानमंत्री के लिए नई अत्याधुनिक कार ली जा रही है। देश को बुलेट ट्रेन के सपने दिखाए जा रहे हैं।अयोध्या के दीपोत्सव और कांवड़ियों पर पुष्प वर्षा,हरियाणा में प्रत्येक वर्ष होने वाला गीता महोत्सव जैसे अनेक आयोजनों पर जनता के हज़ारों करोड़ रूपये ख़र्च किये जा सकते हैं परन्तु उस शिक्षा के लिए पैसे क्यों नहीं ख़र्च किये जा सकते या सरकार उस शिक्षा पर सब्सिडी क्यों नहीं दे सकती जिस शिक्षा से न केवल एक पूरे का पूरा परिवार आत्मनिर्भर व शिक्षित बनता है बल्कि देश भी शिक्षित होता है और आगे बढ़ता है? अतः देश की सरकारों को सबसे अधिक धन शिक्षा व स्वास्थ पर ही ख़र्च करना चाहिए न कि लोकलुभावन रेवड़ियां बांटने अथवा धर्म या रक्षा से संबंधित ज़रूरतों पर। यदि कोई भी सरकार शिक्षा को किसी भी रूप से मंहगा या ग़रीबों की पहुँच से बाहर करने का प्रयास करती है इसका सीधा सा मतलब यही है कि यह देश के ग़रीब तबक़े के लोगों को शिक्षा से दूर रखने की बड़ी साज़िश है। और यह भी कि राजनैतिक लोग स्वयं को शिक्षित समाज से ही सबसे अधिक भयभीत महसूस करते हैं।
राजनीति में कोई किसी का नहीं होता सगा !
डॉ. भरत मिश्र प्राची
महाराश्ट्र राज्य के विधान सभा चुनाव उपरान्त जो स्थिति उभर कर सामने आई जहां भाजपा एवं शिव सेना तथा एनसीपी एवं काग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा जिसमें भाजपा एवं शिव सेना को सरकार बनाने हेतु सपश्ट बहुमत तो मिला पर सियासती समझौते के चलते भाजपा व शिव सेना दोनों अलग – थलग पड़ गये। महाराश्ट्र में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी भाजपा बहुमत के आभाव में अपने सहयोगी दल शिव सेना के साथ मुख्यमंत्री कार्यकाल के बटवारे को लेकर सियासती समझौता नहीं हो पाने के कारण सरकार नहीं बना सकी। वहां एक साथ चुनाव लड़ने वाले राजनीतिक दल भाजपा व शिवसेना एक दूसरे से अलग ही नहीं हुये बल्कि सत्ता के लिये शिव सेना ने अपनो वर्शो संबंध भी तोड़ अपने को एनडीए से अलग कर लिया। फिर भी राज्यपाल द्वारा दिये समय के अंतराल तक सरकार बनाने के लिये एनसीपी एवं कांग्रेस का समर्थन पत्र नहीं जुटा पाई। इसी बीच राज्यपाल ने एनसीपी को सरकार बनाने के लिये आमंत्रण पत्र दे डाला। कांग्रेस इस सियासती गेम को अंत समय तक खेलती रही। इस तरह के हालात किसी भी दल को स्पश्ट बहुमत नहीं मिल पाने के कारण ही उभरे जहां सियासी जंग में कौन किधर हो जाये कह पाना मुश्किल है। इस तरह के हालात में खरीद – फरोख्त की भी प्रक्रिया तेजी से उभरती है। इससे बचने के लिये कांग्रेस ने अपने विधायकों को जयपुर भेज दिया एवं शिवसेना व एनसीपी अपने विधायकों पर अुत समय तक नजर गड़ाये रही कि उनका कोई विधायक इस तरह की प्रक्रिया का शिकार न हो जाय। शिव सेना का साथ नहीं मिलने पर भाजपा ने अपनी समझदारी दिखाते हुये राज्यपाल से सरकार बनाने के न्योता को नकार दिया। इसके बाद महाराश्ट्र राज्य में राश्ट्रपति शासन भी लग गया जिसके खिलाफ शिव सेना सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी। सुप्रीम कोर्ट का फैसला क्या होगा, कब आयेगा यह तो आगे की बात रही फिलहाल महाराश्ट्र राज्य की राजनीति में रातों रात नई घटना घट गई। जहां शिव सेना को सरकार बनाने का साथ दे रही एनसीपी के विधायक रातों रात पाला बदलकर भाजपा के साथ खड़े हो गये। जिससे जहां कल तक शिव सेना, एनसीपी एवं कांग्रेस की मिली जुली सरकार बनती नजर आ रही थी वहीं एनसीपी के सहयोग से भाजपा की सरकार बन गई। जहां कल तक राश्ट्रपति शासन लगा था वहां रातों रात राश्ट्रपति शासन भी हट गया एवं सुबह होते – होते सरकार भी गठित हो गई। इस तरह का राजनीति में तत्काल का उलट फेर पहली बार देखा गया जिसकी भनक मीडिया तक को नहीं रही। यह राजनीतिक खेल पूर्व नियोजित रहा जिसमें एनसीपी के साथ भाजपा की सांठ गाठ पहले से ही तय रही जिसका साकार रूप नई सरकार के गठन के तहत पर्दे से बाहर उभर कर सामने आया। इस खेल का राजनीतिक खामियाजा शिव सेना को भुगतना पड़ा जिसका सरकार बनाने का सपना सदा सदा के लिये खटाई में पड़ गया। शिव सेना को सरकार बनाने की भूमिका में मदद देने की कवायद करने वाले राजनीतिक दल एनसीपी एवं कांग्रेस से एनसीपी का एक धड़ा अजीत पंवार के साथ भाजपा से जा मिला जिससे शिव सेना के साथ सरकार बनाये जाने की सारी संभवनाएं हवा में उड़ गई।
महाराश्ट्र राज्य में राश्ट्रपति शासन लागू होने एवं सरकार बनने की पृश्ठिभूमि में शिव सेना , एनसीपी एवं कांग्रेस सभी के सभी जिम्मेवार है। राज्य की जनता ने तो सरकार बनाने के लिये भाजपा एवं शिव सेना गठबंधन को जनादेश दिया पर सत्ता बनाने की ललक ने शिव सेना को आज अलग – थलग कर दिया। सहयोगी दल का साथ नहीं मिलने से भाजपा ने सरकार बनाने के मामले को पहले तो नकार दिया और मौका मिलते ही शिव सेना को सरकार बनाने के मामले में साथ दे रहे एनसीपी में तोड़ फोड़ कर सरकार बना ली। कांग्रेस को समर्थन पत्र देने के मामलें में देर करने का खामियाजा भुगतना पड़ा। इस तरह के बदलते राजनीतिक प्रकरण पर एनसीपी के मुखिया शरद पंवार ने भाजपा से नफरत होने की बात कर अपने को पाक तो कर लिया पर इस तरह के प्रकरण के शक के दायरे से वे निकल नहीं पाये। राजनीति में कोई किसी का सगा नहीं होता। सभी मौका परस्त होते है। सत्ता पाने के लिये कोई किसी से भी हाथ मिला सकता। इस तरह के प्रकरण इस बात के साक्शी रहे है, भविश्य में भी रहेंगे।
इस सत्ता उलट-पुलट के अर्थ
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
महाराष्ट्र में रातों-रात जो सत्ता-पलट हुआ था, वह अब सत्ता-उलट हो गया है। पहले अजित पवार का इस्तीफा हुआ। फिर देवेंद्र फड़नवीस का भी इस्तीफा हो गया। क्यों नहीं होता ? अजित पवार के उपमुख्यमंत्रिपद पर ही फड़नवीस का मुख्यमंत्री पद टिका हुआ था। फड़नवीस के इस्तीफे की वजह से अब विधान-सभा में शक्ति-परीक्षण की जरुरत नहीं होगी। सर्वोच्च न्यायालय ने शक्ति-परीक्षण का आदेश जारी करके अपनी निष्पक्षता जरुर सिद्ध कर दी है लेकिन क्या किसी लोकतंत्र के लिए यह शर्म की बात नहीं है कि 188 विधायकों को सिर्फ तीन जजों ने नाच नचा दिया ? अदालत ऊपर हो गई और जनता के प्रतिनिधि नीचे हो गए। महाराष्ट्र की विधानसभा में यदि शक्ति परीक्षण होता तो भाजपा की इज्जत पैंदे में बैठ जाती। इसीलिए इस्तीफा देकर फड़नवीस ने अच्छा किया लेकिन भाजपा को इस घटना ने जबर्दस्त धक्का लगा दिया है। शिव सेना, राकांपा और कांग्रेस के मुंबई में साथ आने का एक संदेश यह भी है कि दिल्ली की भाजपा सरकार के खिलाफ भारत की सभी पार्टियां एक होने में नहीं चूकेंगी। मोदी के लिए यह बड़ी चुनौती होगी। फड़नवीस और अजित पवार को जो आनन-फानन शपथ दिलाई गई थी, उससे प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, महाराष्ट्र के राज्यपाल और भाजपा अध्यक्ष की छवि भी विकृत हुए बिना नहीं रहेगी। यदि फड़नवीस की सरकार बन जाती तब भी उसका परिणाम यही होता। यदि सत्ता-पलट का यह क्षणिक नाटक नहीं होता और विपक्ष के ‘अप्राकृतिक’ गठबंधन की सरकार बन जाती तो फड़नवीस के प्रति महाराष्ट्र की सहानुभूति बढ़ जाती। अब विपक्ष का यह गठबंधन पहले से ज्यादा मजबूत हो गया है, हालांकि इसके आतंरिक अन्तर्विरोध इतने गहरे हैं कि यह पांच साल तक ठीक से चल पाएगा या नहीं, यह कहना अभी मुश्किल है।
गर्भवती महिलाओं को भी मोबाइल का उपयोग कितना लाभप्रद हैं ?
डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन
महाभारत काल में जब अर्जुन सुभद्रा को चक्रव्यूह के बारे में बता रहे थे जितने समय तक जाएगी उतना अभिमन्यु ने सुना .इससे यह सिद्ध होता हैं की गर्भस्थ शिशु पर भी उनके भावों का प्रभाव पड़ता हैं .गर्भिणी स्त्री जैसे भाव रखती हैं वैसे भावों का प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर पड़ता हैं .आज कल मोबाइल ,टी वी और उपलब्ध साहित्य का प्रभाव भी माँ के साथ शिशु पर भी पड़ता हैं .इसके प्रभाव और दुष्प्रभाव दोनों उपयोगकर्ता पर पड़ते हैं .
मोबाइल फोन को लंबे समय तक देखते रहने से न सिर्फ आपकी आंखों को नुकसान होता है। बल्कि हाल ही में हुई एक अध्ययन की मानें तो अगर गर्भवती महिला लंबे समय तक मोबाइल फोन उपयोग करे तो होने वाले बच्चे में स्वाभाव से जुड़ी दिक्कतें हो सकती हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि मोबाइल फोन जो अब स्मार्टफोन बन चुका है हमारी जिंदगी का ऐसा अहम हिस्सा बन चुका है जिसे हम अपनी जिंदगी से अब अलग नहीं कर सकते। मोबाइल के बिना अपनी जिंदगी की कल्पना करना भी शायद मुश्किल ही लगे। बच्चों से लेकर युवावस्था और बुजुर्गों तक… हर किसी के हाथ में स्मार्टफोन रहता है और बड़ी संख्या में लोगों की इसकी लत भी लग चुकी है। इस लिस्ट में गर्भवती महिलाएं भी शामिल हैं। लेकिन मोबाइल के अधिकतम उपयोग का न सिर्फ आप पर बल्कि गर्भ के अंदर पल रहे बच्चे पर भी बुरा असर पड़ता है।
बच्चे में बिहेवियर से जुड़ी दिक्कतें
मोबाइल फोन की स्क्रीन और उससे निकल रही ब्राइट ब्लू लाइट को लंबे समय तक देखते रहने से न सिर्फ आपकी आंखों को नुकसान होता है। बल्कि हाल ही में हुई एक स्टडी की मानें तो अगर प्रेग्नेंट महिला लंबे समय तक मोबाइल फोन यूज करे तो होने वाले बच्चे में बिहेवियर से जुड़ी दिक्कतें हो सकती हैं। वैज्ञानिकों ने डेनमार्क में इसको लेकर एक स्टडी की जिसमें प्रसव पूर्व और प्रसव के बाद मोबाइल फोन यूज करने का बच्चे के व्यवहार और इससे जुड़ी समस्याओं के बीच क्या लिंक ये जानने की कोशिश की गई।
हाइपरऐक्टिविटी और बिहेवियरल इशू का शिकार
इस स्टडी में ऐसी महिलाओं को शामिल किया गया जिनके बच्चे 7 साल के थे। स्टडी के दौरान महिलाओं को एक प्रश्नोत्तरी दिया गया था जिसमें उनके बच्चे की हेल्थ और बिहेवियर के साथ-साथ वे खुद फोन का कितना इस्तेमाल करती हैं, इससे जुड़े सवालों के जवाब देने थे। स्टडी के आखिर में यह बात सामने आयी कि जिन महिलाओं के बच्चे प्रसव से पूर्व और प्रसव के बाद स्मार्टफोन के प्रति एक्सपोज थे यानी जिन मांओं ने प्रेग्नेंसी के दौरान और डिलिवरी के बाद भी मोबाइल यूज ज्यादा किया उनके बच्चे हाइपरऐक्टिविटी और बिहेवियरल इशूज का शिकार थे।
प्रेग्नेंट महिलाएं इन बातों का रखें ध्यान
– मोबाइल फोन पर बहुत ज्यादा बात करने की बजाए टेक्स्ट भेजें या लैंडलाइन का उपयोग करें
– प्रेग्नेंसी के दौरान बहुत ज्यादा सोशल मीडिया को स्क्रॉल न करें
– जहां तक संभव हो हैंड्स फ्री किट यूज करें ताकि सिर और शरीर के नजदीक रेडिएशन को कम किया जा सके।
संभव हो तो इनका उपयोग ना करना ही हितकारी हैं और जन्म के बाद आजकल मोबाइल से फोटो लेना भी हानिकारक हैं .कारण गर्भस्थ शिशु नौ माह तक अँधेरे माहौल में रहता हैं और उसे प्रकाश का संसर्ग उसके लिए हानिकारक होता हैं और वह उस प्रकाश से अभ्यस्त होने से उसका लती बनने लगता हैं जिस कारण उसे दूध पीना ,खेलने में भी मोबाइल या टी वी की जरुरत पड़ती हैं .यह घातकता की निशानी हैं।
हालात में बदलाव क्या संघ को अब अहमियत मिलने लगी…..?
ओमप्रकाश मेहता
बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान संघ प्रमुख डाॅ. मोहनराव भागवत के आरक्षण सम्बंधी एक बयान पर भारतीय जनता पार्टी द्वारा अपनी हार का ठीकरा भागवत के सिर पर फोड़ने के बाद से ही मोदी सरकार ने अपने कथित संरक्षक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से दूरी बना ली थी और संरक्षक को मजबूर होकर ‘सेवक’ की मुद्रा अख्तियार करनी पड़ी थी। इसी तिरस्कार के कारण संघ प्रवक्ता को एक बार सरकार व भाजपा को चेतावनी भी देनी पड़ी थी कि यदि संघ के स्वयं सेवक भाजपा के प्रति असहयोग आंदोलन छोड़ दें तो इस सरकार की क्या हालत होगी? लेकिन प्रधानमंत्री व भाजपाध्यक्ष पर इस चेतावनी का भी कोई असर नहीं हुआ था और संघ से दूरी बनाए रखाने का दौर जारी रखा गया, किंतु अब जब हरियाणा और महाराष्ट्र के विधान सभा चुनावों के परिणामों और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के करिश्में में कभी आने का अहसास मोदी-शाह को हुआ तो अब संघ की अहमियत को स्वीकारा जाने लगा है और संघ प्रमुख ने भी पुरानी सभी गुस्ताखियां माफ कर सरकार व पार्टी को सहयोग करने का निर्णय लिया है।
हाल ही में महाराष्ट्र में चुनाव परिणामों के बाद पैदा हुए राजनीतिक बवंडर को व खत्म करने के लिए भागवत का ‘ब्रम्हास्त्र’ काम में लेने का तय किया गया और भागवत जी अमित शाह के अनुरोध को स्वीकार कर महाराष्ट्र के इस महासमर में कूद पड़े। अब यह अलग विषय है कि भागवत जी के बयान का असर ‘भाजपा या शिवसेना’ पर हुआ या नहीं? किंतु यह जरूर सिद्ध हो गया कि मोदी- अमित शाह ने भागवत व संघ की अहमियत को मंजूर किया और इसी का परिणा है कि संघ प्रमुख अब राजनीतिक महत्व के विषयों पर खुलकर बयान देने लगे, फिर वह चाहे एनआरसी का मामला हो या अगले केन्द्र के बजट में ग्रामोद्योग को विशेष महत्व का सवाल हो। संघ से जुड़े अर्थशास्त्रियों ने पिछले दिनों वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण से मिलकर भावी बजट के बारे में बहुमूल्य सुझाव सौंपे है जिसमें ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़े आर्थिक व औद्योगिक मसलों पर विशेष ध्यान देने का अनुरोध किया था, वित्तमंत्री ने सुझावों को सहर्ष स्वीकार कर बजट बनाते समय इन पर विशेष रूप से ध्यान देने का आश्वासन भी दिया।
वैसे देश के राजनीतिक क्षेत्र में मोदी-अमित शाह के प्रति संघ की ‘स्नेहवृष्टि’ का एक प्रमुख कारण यह भी माना जा रहा है कि भाजपा की केन्द्र सरकार अपने दूसरे कार्यकाल में संघ व भाजपा के प्रमुख बिन्दुओं पर विशेष ध्यान दे रही है, जिनमें संघ के तीन प्रमुख बिन्दु तीन तलाक, धारा-370 और राम मंदिर के मुद्दें शामिल है। एनआरसी को दी जा रही प्राथामिकताा से भी संघ प्रुफल्लित है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि भाजपा व संघ के मूल उद्देश्य ‘‘हिन्दू राष्ट्र’’ की दिशा में संघ एनआरसी को सरकार का एक महत्वपूर्ण कदम मान रहा है, क्योंकि असम में सम्पन्न एनआरसी का निचैड़ यही निकाला जा रहा है कि वहां जो उन्नीस लाख घुसपैठिए घोषित किए गए उनमें नब्बें फीसदी मुस्लिम है, संघ व सरकार का तर्क है कि यदि पूरे देश में एनआरसी लागू कर दी गई तो भारत की मौजूदा जनसंख्या का एक बड़ा भाग घुसपैठियां घोषित होगा और जब ये कथित मुस्लिम घुसपैठियें देश से बाहर कर दिए जाएगें तो यह देश हिन्दू बाहुल्य होकर ‘हिन्दूराष्ट्र’ बना जाएगा। असम के बाद केन्द्र सरकार की नजर पश्चिम बंगाल पर है, जहां बताया जा रहा है कि ममता सरकार का मुख्य आधार ही बंगलादेशी घुसपैठियें है जो करोड़ों की संख्या में पिछले कई दशकों से पश्चिम बंगाल में डेरा डाले हुए है, मोदी-शाह को विश्वास है कि यदि एनआरसी में असम के बाद पश्चिम बंगाल का नम्बर लगा दिया तो प्रदेश में अगले साल आसानी से भाजपा की सरकार बन सकेगी, इसी तरह अगले एक-दो सालों में जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होना है, उन राज्यों पर केन्द्र सरकार एनआरसी को लेकर विशेष ध्यान दे रही है। जिससे कि अभी नहीं तो अगले पांच सालों में पूरे देश के सभी राज्यों पर भाजपा का ‘एकछत्र राज’ कायम हो सके।
इसके साथ ही भाजपा ने अब राष्ट्रीय चुनावी मुद्दों के साथ उन मुद्दों पर भी ध्यान देने का फैसला लिया है जो देश के आम वोटर से जुड़े है। क्योंकि अभी तक केन्द्र की मोदी सरकार पर यही मुख्य आरोप लगाया जा रहा था कि सरकार सिर्फ राष्ट्रीय मुद्दों पर ध्यान दे रही है, आम जनता व किसानों की समस्याऐं यथावत है, साथ ही मोदी सरकार के पहले कार्यकाल (2014-19) की भी अब खुलकर समीक्षा की जाने लगी है और उस कार्यकाल को निरर्थक माना जा रहा है, इन सब राष्ट्रीय चर्चा से जुड़े मुद्दों पर अब सरकार का ध्यान जा रहा है, जिसका श्रेय आमतौर पर संघ को दिया जा रहा है, सरकार ने संघ के ‘तिरस्कार काल’ की समीक्षा भी की और उसी के परिणाम स्वरूप अब संघ को अहमियत देना दिख रहा है, यद्यपि संघ स्वयं विवादित रहा है, क्योंकि कई विवाद उससे जुड़े है, किंतु ऐसा कहा जा रहा है कि ‘‘मोदी मेहरबान तो संघ पहलवान’’।
भाजपा ने डाले हथियार
सिद्धार्थ शंकर
अब तक सिर्फ सुना गया था कि राजनीति न जाने कब कौन सा रंग दिखा दे, मगर महाराष्ट्र के नाटक में पल-पल जिस तरह से सीन बदले और किरदार बदले, उसने सभी तरह की संभावनाओं और आशंकाओं को निर्मूल साबित कर दिया। पिछले एक माह से चल रहे महाराष्ट्र के घटनाक्रम में लगभग रोज अनिश्चय की स्थिति बनी है। कभी भाजपा हावी तो कभी विपक्ष। समाधान आज तक किसी की तरफ से नहीं आया। इन सबके बीच सवाल तब उठने लगा जब रातों रात अजित पवार के समर्थन से सरकार बनाने वाले मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस का दिनदहाड़े इस्तीफा हो गया। पिछले शुक्रवार-शनिवार की रात सरकार बनाने के बाद का घटनाक्रम जिस तरह से बदला, उसने भाजपा को बुरी तरह फंसा दिया। बहुमत का जुगाड़ न होते देख पहले एनसीपी में अकेले पड़े उपमुख्यमंत्री अजित पवार ने इस्तीफा सौंपा, फिर फडणवीस ने भी हथियार डाल दिए। यह सब तब हुआ, जब सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार शाम 5 बजे तक फ्लोर टेस्ट कराने का आदेश दिया था। जो भी फडणवीस को इस्तीफा देने का आदेश दिल्ली से आया, जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और कार्यवाहक अध्यक्ष जेपी नड्डा की उच्चस्तरीय बैठक हुई। बैठक में सरकार बचाने की सभी संभावनाओं को टटोला गया, मगर बात बनते न देख भाजपा ने पैर पीछे खींचने में भलाई समझी। हालांकि, यह सोमवार की शाम ही तय हो गया था कि भाजपा बहुमत हासिल नहीं कर पाएगी। हयात होटल में शिवसेना, राकांपा और कांग्रेस के विधायकों ने जिस तरह से एकजुटता दिखाई, उससे भाजपा की सारी योजना धरी रह गई।
भाजपा समर्थन हासिल करने के लिए जिन संभावनाओं पर काम कर रही थी, वह काफी पेचीदा था। महाराष्ट्र में सुप्रीम कोर्ट की ओर से बुधवार शाम पांच बजे तक बहुमत परीक्षण की डेडलाइन फिक्स करने के बाद से यह सबसे बड़ा सवाल था कि क्या सीएम देवेंद्र फडणवीस 145 का मैजिक नंबर जुटा पाएंगे? विपक्ष अपने पास 162 विधायकों के समर्थन का दावा कर रहा है। 105 विधायकों वाली भाजपा अजित पवार के दम पर बहुमत के दावे पर अडिग थी, मगर ऐसा हो नहीं पाया। कहा जा रहा था कि एनसीपी के पास कुल 54 विधायक हैं। दल-बदल कानून के प्रावधान के तहत अलग गुट को मान्यता हासिल करने के लिए दो तिहाई विधायकों के समर्थन की जरूरत होती है। इस लिहाज से अजित पवार को 36 विधायकों का समर्थन चाहिए। अगर अजित 36 या इससे ज्यादा विधायकों का समर्थन हासिल कर लेते हैं तो उन्हें नई पार्टी बनाने में मुश्किल नहीं होगी लेकिन अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो बागी विधायकों की सदस्यता खत्म हो सकती है। उनके अलावा करीब 13 निर्दलीय विधायकों के समर्थन का दावा भाजपा पहले ही कर रही थी। ये निर्दलीय शिवसेना और बीजेपी के बागी नेता हैं। ऐसे में भाजपा के 105+36+13= 154 यानी फडणवीस सरकार आसानी से बहुमत साबित कर लेती। दूसरी स्थिति यह हो सकती थी कि विपक्षी दलों के कुछ विधायक वोटिंग के दौरान सदन से अनुपस्थित हो जाएं। इस स्थिति में प्रोटेम स्पीकर की भूमिका भी अहम हो जाती। ऐसे में बहुमत का आंकड़ा घट जाता और भाजपा आसानी से बहुमत साबित कर लेती। फडणवीस सरकार बचने की यही एकमात्र सबसे संभव स्थिति दिख रही थी, मगर भाजपा ने इस राह पर जाने से इंकार कर दिया। तीसरी स्थिति यह हो सकती थी कि भाजपा शिवसेना के खेमे में ही सेंध लगा ले और विधायकों को तोड़ ले या फिर उनसे इस्तीफा दिलवा दे। विधानसभा में इस समय शिवसेना के पाक 56 विधायक हैं। ऐसी स्थिति में भी विधानसभा में बहुमत का आंकड़ा घट जाता। बीते कुछ दिनों से भाजपा के कुछ नेता भी दबी जुबान में यह दावा कर रहे थे कि शिवसेना के कुछ विधायक उनसे संपर्क में हैं। बाकी सबके खिलाफ होने पर फडणवीस के लिए सरकार बचाने की एक अंतिम स्थिति यह हो सकती थी कि कांग्रेस के 44 विधायकों में से बड़ा खेमा टूटकर भाजपा में शामिल हो जाए या फिर उसे समर्थन कर दे। मगर ऐसा होना दिन में चंाद निकलने जैसा होता।
बहरहाल, अब जबकि सारी संभावनाएं गौण हो चुकी हैं तो उस व्यक्ति की भी तलाश शुरू हो गई है, जिस पर इस नाकामी का ठीकरा फोड़ा जाए। जाहिर है भाजपा इस कूटनीतिक हार का पूरा खामियाजा फडणवीस पर फोड़ेगी।
न्यायिक सक्रियता से ही रूकेगी सीवर में होने वाली मौत
रमेश सर्राफ धमोरा
राजस्थान में सीकर जिले के फतेहपुर में सीवरेज की खुदाई के दौरान हुई तीन मजदूरों की मौत के मामले में वहां के अपर जिला एवम सेशन न्यायाधीश शिवप्रसाद तम्बोली ने कुछ दिनो पूर्व ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। कोर्ट ने इस मामले में कंपनी के इंजीनियर सहित तीन लोगों को गैर इरादतन हत्या का दोषी मानते हुये दस-दस साल के कारावास की सजा सुनाई थी। कोर्ट ने माना कि काम कर रहे मजदूरों के लिए सुरक्षा का इंतजाम करना कम्पनी और ठेकेदार की जिम्मेदारी थी। कोर्ट ने माना कि उस दिन कम्पनी की ओर से सीवरेज का काम किया जा रहा था और सुरक्षा संबंधी उपाय नहीं करने के कारण तीन मजदूरों को जान गंवानी पड़ी थी।
सुप्रीम कोर्ट ने भी कुछ समय पहले हाथ से मैला साफ करने के दौरान सीवर में होने वाली मौतों पर चिंता जताने के साथ ही सख्त टिप्पाणी की थी। देश के सबसे बड़े कोर्ट ने कहा था कि देश को आजाद हुए 72 साल से अधिक समय हो चुका है। लेकिन देश में जाति के आधार पर भेदभाव जारी है। मनुष्य के साथ इस तरह का व्यवहार सबसे अधिक अमानवीय आचरण है। इस हालात में बदलाव होना चाहिए। जस्टिस अरुण मिश्रा, एमआर शाह और बीआर गवई की पीठ ने अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल से सवाल किया कि आखिर हाथ से मैला साफ करने और सीवर के नाले या मैनहोल की सफाई करने वालों को मास्क व ऑक्सीजन सिलेंडर जैसे सुरक्षा उपकरण क्यों नहीं मुहैया कराई जाते हैं? दुनिया के किसी भी देश में लोगों को गैस चैंबर में मरने के लिये नहीं भेजा जाता है। इस वजह से हर महीने चार से पांच लोगों की मौत हो जाती है। कोर्ट ने कहा संविधान में प्रावधान है कि सभी मनुष्य समान हैं लेकिन प्राधिकारी उन्हें समान सुविधाएं मुहैया नहीं कराते।
पीठ ने इस स्थिति को अमानवीय करार देते हुए कहा कि बिना सुरक्षा उपकरणों के सफाई करने वाले लोग सीवर और मैनहोल में अपनी जान गंवा रहे हैं। वेणुगोपाल ने पीठ से कहा कि देश में नागरिकों को होने वाली क्षति और उनके लिए जिम्मेदार लोगों से निपटने के लिये अपकृत्य कानून बना नहीं है। ऐसी घटनाओं का स्वत: संज्ञान लेने का मजिस्ट्रेट को अधिकार नहीं है। उन्होंने कहा कि सडक़ पर झाड़ू लगा रहे या मैनहोल की सफाई कर रहे व्यक्ति के खिलाफ कोई मामला दायर नहीं किया जा सकता, लेकिन ये काम करने का निर्देश देने वाले अधिकारी या प्राधिकारी को इसका जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए।
सीवर सफाई के दौरान हादसों में मजदूरों की दर्दनाक मौतों की खबरें लगातार आती रहती हैं। उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर में कुछ दिनो पूर्व सीवर टैंक की जहरीली गैस की चपेट में आने से 5 लोगों की मौत हो गई थी। कुछ माह पूर्व गुजरात के वड़ोदरा जिले के डभोई तहसील में एक होटल की सीवेरेज टैंक साफ करने उतरे सात मजदूरों की दम घुटने से मौत हो गई थी। घटना की रात सात मजदूर एक होटल की सीवरेज टैंक साफ करने के लिए उतरे थे। लेकिन टैंक सफाई के दौरान दम घुटने से उन सभी मजदूरों की मौत हो गई थी।
मई में उत्तर पश्चिम दिल्ली के एक मकान के सेप्टिक टैंक में उतरने के बाद दो मजदूरों की मौत हो गई थी। इस मामले में भी जांच में यह बात सामने आई थी कि मजदूर टैंक में बिना मास्क, ग्लव्स और सुरक्षा उपकरणों के उतरे थे। नोएडा स्थित सलारपुर में सीवर की खुदाई करते समय पास में बह रहे नाले का पानी भरने से दो मजदूरों की डूबने से मौत हो गई थी। गत वर्ष आन्ध्र प्रदेश राज्य के चित्तूर जिले के पालमनेरू मंडल गांव में एक गटर की सफाई करने के दौरान जहरीली गैस की चपेट में आने से सात लोगो की मौत हो गयी थी। देश के विभिन्न हिस्सो में हम आये दिन इस प्रकार की घटनाओं से सम्बन्धित खबरें समाचार पत्रों में पढ़ते रहते हैं।
देश के विभिन्न हिस्सो में पिछले एक वर्ष में सीवर की सफाई करने के दौरान 200 से अधिक व्यक्तियों की मौत हो चुकी है। इस अमानवीय त्रासदी में मरने वाले अधिकांश लोग असंगठित दैनिक मजदूर होते हैं। इस कारण इनके मरने पर कहीं विरोध दर्ज नहीं होता है। देश में 27 लाख सफाई कर्मचारी हैं जिसमें 20 लाख ठेके पर काम करते हैं। एक सफाईकर्मी की औसतन कमाई 6 से 10 हजार रुपये प्रति माह होती है। आधे से ज्यादा सफाई कर्मी अनेको बिमारियों से पीडि़त होते हैं। इस कारण 90 फीसदी गटर-सीवर साफ करने वालों की मौत 60 वर्ष की उम्र से पहले ही हो जाती है। इस कार्य को करने वालों के लिये बीमा की भी कोई सुविधा नहीं होती है।
कोर्ट के निर्देशों के अनुसार सीवर की सफाई करने वाली एजेंसी के पास सीवर लाईन के नक्शे, उसकी गहराई से सम्बंधित आंकड़े होना चाहिए। सीवर सफाई के काम में लगे लोगों की नियमित स्वास्थ्य की जांच, नियमित प्रशिक्षण के नियम का पालन होता कहीं नहीं दिखता है।
सभी सरकारी दिशा-निर्देशों में दर्ज हैं कि सीवर सफाई करने वालों को गैस -टेस्टर, गंदी हवा को बाहर फेंकन के लिए ब्लोअर, टॉर्च, दस्ताने, चश्मा और कान को ढंकन का कैप, हैलमेट मुहैया करवाना आवश्यक है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी इस बारे में कड़े आदेश जारी कर चुका है। इसके बावजूद ये उपकरण और सुविधाएं गायब है। दिनों दिन सीवर लाइनों की लंबाई बढ़ रही है वहीं मजदूरों की संख्या में कमी की जा रही है।
गटर की सफाई करने वालो की मौत होने के साथ ही उनपर निर्भर उनका परिवार भी बेसहारा हो जाता है। परिवार की आमदनी का स्रोत अचानक से बंद हो जाता है। देश में जाम सीवर की मरम्मत करने के दौरान प्रतिवर्ष दम घुटने से काफी लोग मारे जाते हैं। इससे पता चलता है कि हमारी गंदगी साफ करने वाले हमारे ही जैसे इंसानों की जान कितनी सस्ती है। सीवर सफाई के काम में लगे लोगों को सामाजिक उपेक्षा का भी सामना करना पड़ता है।
आमतौर पर सीवर में उतरने से पहले सफाईकर्मी शराब पीते है। शराब पीने के बाद शरीर में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। तभी सीवर में उतरते ही इनका दम घुटने लगता है। सफाई का काम करने के बाद उन्हें नहाने के लिए साबुन, नहाने को पानी तथा पीने का स्वच्छ पानी उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी भी कार्यकारी एजेंसी की है। इसके बावजूद ये उपकरण और सुविधाएं इनको अभी तक नहीं मिल पा रही है। भारत में इसे प्रतिबंधित किये जाने के उपरान्त भी यह गंभीर समस्या बनी हुई है। अब देश की सर्वोच्च अदालत ने गटर की सफाई करने वालों की सुध लेते हुये सरकार की खिंचाई की है। इससे लगता है कि सफाई करने वाले इन स्वच्छता सिपाहियों के भी जल्दी ही अच्छे दिन आयेगें व सरकारी अकर्मण्यता से होने वाली उनकी असामयिक मौत पर रोक लग पायेगी।
भारतीय संविधान के सत्तर वर्ष
हर्षवर्धन पाठक
इस 26 नवम्बर को भारतीय संविधान बने सत्तर वर्श हो जायेंगे। सत्तर वर्श पूर्व इसी तिथि अर्थात 26 नवम्बर 1949 को हमने अपना संविधान आत्मार्पित किया था। तीन माह बाद 26 जनवरी 1950 को हमारे देष ने पहला गणतन्त्र दिवस मनाया। इसके पूर्व ब्रिटिष संविधान लागू था। यह परंपराओं पर आधारित है। इसके विपरीत हमारा संविधान लिखित है।
भारत का संविधान विष्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान माना जाता है। इसमें 448 अनुच्छेद 12 अनुसूचियां हैं , हाल ही में अयोध्या विवाद का फैसला दिया गया। जब सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 142 का उपयोग करते हुये अयोध्या विवाद के सम्बंध में अपना निर्णय दिया तब यह अनुच्छेद फिर चर्चा में आये। डॉ. भीमराव अंबेडकर को यह वृहत संविधान बनाने का श्रेय दिया जाता है।
संविधान सभा में वैसे 284 सदस्य थे। डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में गठित इस सभा में डाक्टर भीमराव अम्बेडकर ने जिस मेहनत और मेधा के साथ संविधान बनाने में रुचि ली वह अभूतपूर्व थी। इस कारण इससे डा. अम्बेडकर की यादें जुड़ी हुई है जिसकी वजह से इस संविधान में फेर बदल की कोई भी बात उनके अनुनायियों को बहुत बुरी लगती है। हर षहर में भीम नगर है तो उनकी प्रतिमायें सर्वत्र स्थापित हैं। हमारे देष का हर राजनीतिज्ञ संविधान की षपथ खाता है।
भारतीय संविधान राश्ट्र का सर्वोच्च विधान है। संविधान की प्रस्तावना ”हम भारत के लोग“ से प्रारंभ होती है, जिसका स्पश्ट संकेत है कि संविधान निर्माण में नागरिकों को अधिक महत्व दिया गया है। यह भी डा. अम्बेडकर के लोक प्रेम का परिचायक है। संविधान में यह घोशणा की गई कि देष में संसदीय लोकतांत्रिक समाजवादी गण तंत्र स्थापित किया गया है। बाद में इसमें श्रीमती इन्दिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में धर्म निरपेक्ष शब्द भी जोड़ा गया।
संविधान की एक विषेशता यह भी है कि इसमें राज्य को नीति निर्देष भी हैं तो राश्ट्र के नागरिकों के लिये अधिकार भी दिये गये हैं। इन मूल अधिकारों का कुछ मामलों में दुरुपयोग भी होता है लेकिन ये अधिकार भारतीय संविधान के सर्वाधिक महत्वपूर्ण बिन्दु हैं। कुछ व्यक्तियों के द्वारा दुरुपयोग होने के कारण इनका महत्व कम नहीं होता। इनमें प्रमुख हैं अभिव्यक्ति का अधिकार, समानता का अधिकार, षिक्षा तथा संस्कृति का अधिकार, षोशण के विरुद्ध अधिकार।
भारतीय संविधान में भारत को राज्यों का संघ बताया गया है किन्तु हमारे संविधान निर्माताओं ने राश्ट्रीय एकता का भी ध्यान रखा है। राज्यों को असीमित अधिकार नहीं दिये गये हैं। भारत राश्ट्र में संविधान निर्माताओं ने एक राश्ट्रीय ध्वज , राश्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सर्वोच्च न्यायाधीश रखे गए हैं। भारत में संसद सम्प्रभु तथा सर्वोच्च है। नियम बनाने के अधिकारों का भी विभाजन किया गया है, संघ और राज्यों को अलग-अलग अधिकार दिये गये हैं लेकिन एक समवर्ती सूची भी बनाई है। इसमें यह स्पश्ट किया गया है कि यदि संघ और राज्य दोनों नियम बनायेंगें तो संघ के नियम लागू होंगे।
संविधान निर्माण के समय यह ध्यान भी रखा गया है कि किसी को भी असीमित अधिकार न हो। राश्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायलय के मुख्य न्यायाधीष पर भी महाभियोग का प्रावधान रखा गया है। चैक एण्ड बैंलेंस का प्राकृतिक नियम ध्यान में रखा गया है।
भारत का संविधान प्रेम बिहारी रायजादा ने पेन से लिखा था। इसकी मूल प्रति संसद के पुस्तकालय में रखी है। इसके निर्माण का कार्य आजादी मिलने के 14 दिन बाद ही षुरु हो गया था। डाक्टर भीमराव अम्बेडकर को यह महत्वपूर्ण कार्य सौंपा गया। उन्होंने दूसरे देषों के उस समय लागू संविधानों का अध्ययन किया। उसके बाद भारतीय संविधान बनाया गया। इस संविधान की खूबी यह है कि संघात्मक होने के साथ ही एकात्मक भी है। प्रति वर्श 26 नवम्बर को मनाया जाने वाला संविधान दिवस डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर की अमिट स्मृति है। यह संविधान उनके परिश्रम और प्रतिभा का परिचय देता है।
खानपान बना– बहस का बड़ा मुद्दा
डॉक्टर अरविन्द
खानपान एक महत्वपूर्ण मुद्दा बनता जा रहा हैं उसका कारण अपने अपने तर्क पर सच्चाई एक ही होती हैं .आज लोग मांसाहार की वकालत बहुत करते हैं और उससे किसी को कोई परहेज़ नहीं हैं .खूब जो भी खाना हो खाओ .जैसे हम कभी मिटटी का घड़ा खरीदते हैं तो उसे थोक पीटकर देखते हैं उसी प्रकार जो हम खा रहे हैं वह हमारे लिए लाभप्रद हैं या नहीं .यदि लाभप्रद हैं तो अवश्य सेवन करो और हानिकारक हैं तो उसका विश्लेषण करो और उपयोग करो.वह खाना जो हानिकारक के अलावा स्वास्थ्य निर्माण में सहायक नहीं हैं उसका सेवन नहीं करना चाहिए.
वैसे खाना पीना पहनना पूजा पाठ व्यक्ति की अपनी अपनी मान्यता के साथ स्वतंत्रता हैं पर हमें विवेक पूर्ण निर्णय लेकर सेवन करना चाहिए .
इन दिनों दुनिया में यह बहस जोरों पर है कि बेहतर स्वास्थ्य और फिटनेस के लिए क्या खाना चाहिए क्या नहीं। बाजार में तरह-तरह के डायट प्लान और उन्हें सपोर्ट करने वाली उतनी ही तरह की रिसर्च आ रही हैं। लोगों को अपनी-अपनी जरूरत के मुताबिक डायट प्लान चाहिए। अगर डायबिटीज पर नियंत्रण चाहिए तो एक तरह की डायट, कोलेस्ट्रॉल और ब्लड प्रेशर के लिए दूसरी तरह की। जिम में वजन उठाने के लिए यानी पावरलिफ्टिंग के लिए खास तरह की डायट। तेज दौड़ने, दिन भर तरोताजा महसूस करने, कैंसर के खतरों से बचने के लिए अलग-अलग किस्म की डायट। आप अगर चाहें तो न्यूट्रिशनिस्ट से अपने ब्लड ग्रुप के हिसाब से या अपने शरीर की पाचन शक्ति के मुताबिक भी खास अपने लिए डायट प्लान बनवा सकते हैं।
खिलाड़ियों के दावे
डायट के बाजार में कुछ साल पहले तक कीटो डायट का बहुत बोलबाला था। कीटो यानी कीटोजेनिक डायट में कार्बोहाइड्रेट की मात्रा घटा दी जाती है और जरूरी ऊर्जा प्रोटीन व फैट से ली जाती है। कई एथलीटों ने अपनी कीटो डायट के बारे में पब्लिक में घोषणा की और अपने अनुभव भी साझा किए। कुछ साल पहले भारत में वजन घटाने के लिए कीटो डायट अपनाने का फैशन चल निकला था। पर सबसे तीखी बहस जिस डायट को लेकर चल रही है वह है वीगन डायट जिसमें सिर्फ पौधों से मिलने वाला भोजन शामिल है। बहस पौधों से मिलने वाले भोजन पर नहीं बल्कि इस बात को लेकर हो रही है कि वीगन डायट लेने वाले अपनी ताकत की जरूरतों के लिए जानवरों से मिलने वाले किसी भी तरह के उत्पाद के खिलाफ हैं और दावा कर रहे हैं कि ऐसा करने से उनके शारीरिक प्रदर्शन पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा बल्कि उसमें सुधार आ रहा है।
पिछले साल नेटफ्लिक्स पर आई डॉक्युमेंट्री फिल्म ‘गेम चेंजर्स’ ने इस संबंध में एक अभूतपूर्व बहस छेड़ दी है। इसमें वीगन डायट लेने वाले कई सिलेब्रिटी खिलाड़ियों से बातचीत की गई है जिन्होंने अपने-अपने तरीकों से दावा किया कि कैसे वीगन डायट लेने के कारण ही वे अपने प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ पाए और खेल की थकान, चोट आदि से रिकवर करने में भी किस तरह इसने सबसे कारगर भूमिका निभाई। दुनिया भर के शाकाहारियों की हमेशा से यह चिंता रही है कि पौधों से मिलने वाले भोजन में पर्याप्त प्रोटीन नहीं मिल पाता। मांसाहारियों ने अपनी प्रोटीन की जरूरतों को लेकर कभी कोई फिक्र नहीं की क्योंकि उनके पास जानवरों से मिलने वाले भोजन की बेशुमार चॉइस रही है।
‘गेम चेंजर्स’ मांसाहारियों को शाकाहारियों की अपेक्षा प्रोटीन के बेहतर और ज्यादा विकल्प मिलने की बात को निरस्त करते हुए इस नई खोज का दावा करती है कि जानवरों के उत्पादों से मिलने वाला प्रोटीन शरीर के लिए न सिर्फ नुकसानदायक होता है क्योंकि उससे कैंसर व कई अन्य बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है बल्कि प्लांट प्रोटीन मानव शरीर के लिए ज्यादा प्रभावी और अनुकूल है। डॉक्युमेंट्री में जर्मनी के स्ट्रांगमैन पैट्रिक बाबूमियां को दिखाया गया है जो वीगन होते हुए भी 555 किलो वजन उठाने का कीर्तिमान बनाते दिखाते हैं। फिल्म में उनका एक डायलॉग है- ‘एक आदमी ने मुझसे पूछा कि तुम बिना प्रोटीन खाए सांड जैसे ताकतवर कैसे हो गए? मेरा जवाब था – तुमने क्या कभी सांड को मीट खाते हुए देखा?’ इस डॉक्युमेंट्री में अपनी बॉडी बिल्डिंग के दम पर हॉलिवुड में धूम मचाने वाले आर्नोल्ड श्वार्जनेगर, फॉर्म्युला वन चैंपियन लिविस हेमिल्टन, ऑस्ट्रेलियाई स्प्रिंटर मोर्गन मिशेल, मिक्स्ड मार्शल आर्ट के नंबर वन फाइटर रहे जेम्स विल्क्स, अल्ट्रामैराथन दौड़ने वाले दुनिया के टॉप रनर स्कॉट ज्यूरेक जैसे दिग्गज वीगन डायट की ताकीद करते दिखते हैं। डॉक्युमेंट्री यहां तक बताती है कि वीगन डायट मर्दों में सेक्शुअल पावर भी बढ़ाता है। इसके हिमायती दावा करते हैं कि हमारे दांतों का स्ट्रक्चर शाकाहार के अनुकूल है। वे फिक्रमंद हैं कि नॉन-वेज डायट के लिए पशुपालन करने में पृथ्वी के संसाधन खर्च हो रहे हैं और पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है।
भारत के विराट कोहली समेत जिस तरह दिग्गज खिलाड़ियों ने वीगन डायट अपनाया है, उससे दुनिया भर के लोगों का ध्यान इसकी ओर गया है। पर यह बात नॉन-वेज डायट के धंधे में लगे तबके के गले नहीं उतरने वाली। डॉक्युमेंट्री ने सीधे-सीधे उनके पेट पर लात मारी है। इसलिए कोई हैरानी नहीं कि कुछ ही महीनों में फिल्म के दावों को झूठा करार करने वालों का तांता लग गया। उस पर सबसे बड़ा आरोप यह लगाया जा रहा है कि इसके निर्माता और इसमें काम करने वाले ज्यादातर लोग वीगन डायट के बिजनेस से जुड़े हुए हैं। लिहाजा उन्होंने अपने व्यावसायिक लाभ के लिए झूठे और अपुष्ट स्रोतों के आधार पर फिल्म बनाकर लोगों के साथ धोखा किया है। चूंकि मामला खरबों रुपये के डायट बिजनेस का है, इसलिए दोनों ओर से दावे और प्रतिदावे किए जा रहे हैं।
सतर्कता की जरूरत
जाहिर है, दोनों में से किसी एक को सही मानकर उसे फॉलो नहीं किया जा सकता। भोजन निजी मसला है और सबकी भोजन से अपनी अलग-अलग जरूरतें और अपेक्षाएं रहती हैं। सिर्फ भोजन को महत्व देने वालों का कहना है कि अपने लिए भोजन के चयन का सबसे अच्छा तरीका है कि हम खुद ही जांच करें कि हमारे शरीर के लिए क्या अनुकूल है और क्या प्रतिकूल। वैसे यह तो तय है कि हम क्या खा रहे हैं, इसे लेकर सतर्क होने का वक्त आ गया है क्योंकि शोध हमें कई हैरतअंगेज परिणाम दे रहे हैं। आप अगर वीगन होना चाहते हैं, तो बेहतर है कि खुद जांच लें कि आपका शरीर ऐसे भोजन के साथ कैसे निर्वाह करता है। याद रखें कि आपसे ज्यादा आपके शरीर को भोजन की जरूरत है और उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि दुनिया में कौन कैसा भोजन कर रहा है।
तन मन धन करता कौन ख़राब ,
मछली ,अंडा, मांस ,शराब
चुनौतियों से भरा होगा जस्टिस बोबड़े का कार्यकाल
योगेश कुमार गोयल
चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की सेवानिवृत्ति के पश्चात् 18 नवम्बर को जस्टिस शरद अरविंद बोबड़े ने मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्यभार संभाल लिया है और इस प्रकार वे भारत के 47वें मुख्य न्यायाधीश बन गए हैं। स्थापित परम्परा के अनुरूप न्यायमूर्ति रंजन गोगोई ने अपनी विदाई से कुछ दिनों पहले ही अपने उत्तराधिकारी के रूप में सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम जज न्यायमूर्ति बोबड़े की नियुक्ति की सिफारिश कर दी थी और राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद द्वारा 29 अक्तूबर को उनकी नियुक्ति को स्वीकृति दे दी गई थी। जस्टिस गोगोई 3 अक्तूबर 2018 को देश के 46वें मुख्य न्यायाधीश बने थे, जिनके 17 नवम्बर को रिटायर होने के बाद जस्टिस एस ए बोबड़े ने उनका स्थान लिया है। जस्टिस गोगोई का कार्यकाल करीब एक साल का था, जिसमें उन्होंने अयोध्या विवाद कई महत्वपूर्ण मसलों पर फैसले सुनाकर न्याय जगत में एक नया इतिहास रचा और अब जस्टिस बोबड़े के करीब डेढ़ वर्षीय कार्यकाल पर भी सबकी नजरें केन्द्रित रहेंगी क्योंकि उनके समक्ष भी कई महत्वपूर्ण मुद्दे सामने आएंगे, जिन पर उन्हें अपना निर्णय सुनाना है। गौरतलब है कि जस्टिस बोबड़े का कार्यकाल 23 अप्रैल 2021 तक का होगा। जस्टिस बोबड़े ही वह न्यायाधीश हैं, जिन्होंने करीब छह साल पूर्व सबसे पहले स्वेच्छा से ही अपनी सम्पत्ति की घोषणा करते हुए दूसरों के लिए आदर्श प्रस्तुत किया था। उन्होंने बताया था कि उनके पास बचत के 2158032 रुपये, फिक्स्ड डिपोजिट में 1230541 रुपये, मुम्बई के एक फ्लैट में हिस्सा तथा नागपुर में दो इमारतों का मालिकाना हक है।
न्यायमूूर्ति बोबड़े इस साल उस वक्त ज्यादा चर्चा में आए थे, जब उन्हें सुप्रीम कोर्ट की ही एक पूर्व महिला कर्मचारी द्वारा मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए जाने के बाद उस अति संवेदनशील मामले की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित हाउस पैनल का अध्यक्ष बनाया गया था, जिसमें न्यायमूर्ति एन वी रमन तथा इंदिरा बनर्जी शामिल थे। इस पैनल ने अपनी जांच के बाद जस्टिस गोगोई को क्लीनचिट दी थी। जनवरी 2018 में जब सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ प्रेस कांफ्रैंस की थी, तब जस्टिस गोगोई, जे चेलमेश्वर, मदन लोकुर तथा कुरियन जोसेफ के बीच मतभेदों को निपटाने में अहम भूमिका निभाने के चलते भी जस्टिस बोबड़े चर्चा में आए थे। उस समय उन्होंने कहा था कि कोलेजियम ठीक तरीके से काम कर रहा है और केन्द्र के साथ उसके कोई मतभेद नहीं हैं।
24 अप्रैल 1956 को महाराष्ट्र के नागपुर में जन्मे न्यायमूर्ति शरद अरविंद बोबड़े को वकालत का पेशा विरासत में ही मिला था। उनके दादा एक वकील थे और पिता अरविंद बोबड़े महाराष्ट्र के एडवोकेट जनरल रहे हैं जबकि बड़े भाई स्व. विनोद अरविंद बोबड़े सुप्रीम कोर्ट के जाने-माने वकील रहे थे। उनकी बेटी रूक्मणि दिल्ली में वकालत कर रही हैं और बेटा श्रीनिवास मुम्बई में वकील है। शरद अरविंद बोबड़े ने नागपुर विश्वविद्यालय से एलएलबी करने के पश्चात् वर्ष 1978 में बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र की सदस्यता लेते हुए अपने वकालत कैरियर की शुरूआत की थी, जिसके बाद उन्होंने बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ में वकालत की और 1998 में वरिष्ठ अधिवक्ता मनोनीत किए गए। 29 मार्च 2000 को उन्होंने बॉम्बे हाईकोर्ट में बतौर अतिरिक्त न्यायाधीश पदभार ग्रहण किया और फिर 16 अक्तूबर 2012 को मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस बने। पदोन्नति मिलने के बाद 12 अप्रैल 2013 को उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में बतौर जज कमान संभाली। सुप्रीम कोर्ट में जज बनने के बाद वे सर्वोच्च अदालत की कई महत्वपूर्ण खण्डपीठों का हिस्सा रहे। वे अदालत की उस बेंच का भी हिस्सा थे, जिसने आदेश दिया था कि आधार कार्ड न रखने वाले किसी भी भारतीय नागरिक को सरकारी फायदों से वंचित नहीं किया जा सकता। बहुतप्रतीक्षित और राजनीतिक दृष्टि से सर्वाधिक संवेदनशील माने जाते रहे रामजन्मभूमि विवाद की सुनवाई कर रही मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली उस पांच सदस्यीय संविधान पीठ का भी वे अहम हिस्सा थे, जिसने अपने फैसले से देश की न्याय प्रणाली के प्रति हर देशवासी का भरोसा बनाए रखा है।
जस्टिस बोबड़े ने देश के मुख्य न्यायाधीश के रूप में अति महत्वपूर्ण कार्यभार तो संभाल लिया है लेकिन यह भी तय है कि उनका यह पूरा कार्यकाल चुनौतियों से भरा रहेगा। सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट तथा निचली अदालतों में लंबित मामलों के निपटारे, अदालतों में न्यायाधीशों की बड़ी कमी, विचाराधीन कैदियों की सुनवाई में विलम्ब, न्यायपालिका तथा कार्यपालिका के बीच टकराव जैसी स्थितियां इत्यादि उनके समक्ष कई ऐसी बड़ी चुनौतियां होंगी, जिनसे निपटते हुए उन्हें इनके समाधान के प्रयास भी करने होंगे। अदालतों में लंबित मामलों को निपटाने और मुकद्दमों में होने वाली देरी को दूर करने के लिए वर्ष 2009 में प्रक्रियागत खामी को दूर करना, मानव संसाधन का विकास करना, निचली अदालतों में बुनियादी सुविधाओं को बेहतर बनाना जैसे रणनीतिक नीतिगत कदम उठाए जाने की जरूरत पर विशेष जोर दिया गया था लेकिन इस दिशा में सकारात्मक प्रयास नहीं हुए। न्यायमूर्ति बोबड़े इस चुनौती से कैसे निपटेंगे, यह देखना दिलचस्प होगा।
अगर भारतीय अदालतों में लंबित मामलों पर नजर डालें तो फिलहाल देशभर की अदालतों में 3.53 करोड़ से भी ज्यादा मामले लंबित हैं। यदि निचली अदालतों या उच्च न्यायालयों की बात छोड़ भी दें तो सर्वोच्च न्यायालय में ही करीब 58669 मामले लंबित हैं, जिनमें से 40409 मामले ऐसे हैं, जो करीब तीस सालों से लंबित हैं। ‘नेशनल ज्यूडिशयरी डेटा ग्रिड’ के अनुसार उच्च न्यायालयों में 4363260 मामले लंबित हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने कहा था कि मामलों को जिस गति से निपटाया जा रहा है, उस हिसाब से लंबित मामलों को निपटाने में 400 साल लग जाएंगे और वो भी तब, जब और कोई नया मामला सामने न आए। देश में प्रतिवर्ष मुकद्दमों की संख्या जिस गति से बढ़ रही है, उससे भी तेज गति से लंबित मामलों की संख्या बढ़ रही है। सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2012 में ‘नेशनल कोर्ट मैनेजमेंट सिस्टम’ आरंभ किया था, जिसका आकलन है कि भारतीय अदालतों में वर्ष 2040 तक मुकद्दमों की संख्या बढ़कर 15 करोड़ हो जाएगी और इसके लिए 75 हजार और अदालतें बनाने की जरूरत है। यह न्यायमूर्ति बोबड़े की चिंता का प्रमुख विषय रहेगा।
सर्वोच्च न्यायालय सहित देश की सभी अदालतें न्यायाधीशों की भारी कमी से जूझ रही हैं। विधि आयोग ने वर्ष 1987 में सुझाव दिया था कि प्रत्येक दस लाख भारतीयों पर 10.5 न्यायाधीशों की नियुक्ति का अनुपात बढ़ाकर 107 किया जाना चाहिए लेकिन यह विड़म्बना ही है कि इन सिफारिशों के 32 साल भी यह अनुपात मात्र 15.4 ही है। सर्वोच्च न्यायालय में फिलहाल 31 न्यायाधीश हैं, जहां आठ अतिरिक्त न्यायाधीशों की आवश्यकता है। इसी प्रकार उच्च न्यायालय और निचली अदालतों में भी 5535 न्यायाधीशों की कमी है। आर्थिक सर्वेक्षण में अनुमान लगाया गया है कि अदालतों में लंबित मामलों को पांच वर्षों के भीतर निपटाने के लिए करीब 8521 न्यायाधीशों की जरूरत है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने स्वयं इस तथ्य को रेखांकित करते हुए कहा था कि जिला और उपमंडल स्तरों पर अदालतों में ही स्वीकृत न्यायाधीशों की संख्या 18 हजार है लेकिन फिलहाल इन अदालतों में केवल 15 हजार के करीब ही न्यायाधीश हैं।
मुख्य न्यायाधीश बोबड़े के लिए चिंता का एक बड़ा विषय यह भी रहेगा कि अदालतों में न्यायाधीशों की कमी के चलते जेलों में बंद करीब चार लाख विचाराधीन कैदी अपनी सुनवाई का नंबर आने के लिए ही लंबा इंतजार कर रहे हैं। ये ऐसे कैदी होते हैं, जिन्हें उनका अपराध साबित नहीं होने दोषी नहीं माना जा सकता और इनमें से काफी बड़ी संख्या ऐसे कैदियों की है, जिन्हें अगर जमानत मिल भी जाए तो उनके पास इतनी राशि नहीं होती कि वे अपने लिए जमानत का इंतजाम कर सकें। न्यायमूर्ति बोबड़े के लिए इस दिशा में सक्रिय पहल करते हुए ऐसे कैदियों को शीघ्र सुनवाई का अवसर मिलने की व्यवस्था करना बहुत बड़ी चुनौती रहेगी।
समय-समय पर न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच टकराव देखा जाता रहा है। सरकार द्वारा कई अवसरों पर कहा गया है कि न्यायपालिका ने जरूरत से ज्यादा सक्रियता दिखाते हुए अपनी सीमारेखा का उल्लंघन किया है और वह कार्यपालिका के क्षेत्र में दखल दे रही है। हालांकि यह अलग बात है कि ऐसा अक्सर तभी हुआ, जब कार्यपालिका अपने दायित्वों के निर्वहन में विफल हुई और न्यायपालिका को न्याय सुनिश्चित करने के लिए स्वयं आगे आना पड़ा। जस्टिस अरविंद बोबड़े की नियुक्ति पर भले ही कोई विवाद नहीं रहा हो और न्यायपालिका व कार्यपालिका के बीच भी कोई टकराव नहीं देखा गया लेकिन अक्सर देखा गया है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में भी न्यायपालिका का सरकार के साथ टकराव रहा है। पिछले दिनों भी कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा था कि ऐसी उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि सरकार कॉलेजियम की सिफारिशों पर राजी ही होगी। हालांकि जस्टिस बोबड़े का कहना है कि सरकार के साथ उनके संबंध ठीक हैं और सरकार तथा न्यायपालिका को साथ चलना होगा। भारत की न्याय वितरण प्रणाली को अच्छा बताते हुए उनका कहना है कि इसमें आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस जैसी अच्छी तकनीक शामिल करने जैसे कुछ मामूली बदलावों की जरूरत हो सकती है। उनका कहना है कि सभी मुकद्दमों में न्याय सुनिश्चित करना उनका फौरी लक्ष्य है और वे न्यायपालिका में बहुप्रतीक्षित सुधार करके उन्हें अमल में लाना चाहते हैं। बहरहाल, देखना होगा कि अपने समक्ष सामने आने वाली उपरोक्त चुनौतियों का मुकाबला करते हुए वे अपने इस डेढ़ वर्ष से भी कम समय के छोटे कार्यकाल में न्यायपालिका में सुधार के लिए कितना कार्य कर पाते हैं। न्यायमूर्ति एस ए बोबड़े का कहना है कि किसी भी न्यायिक प्रणाली की शीर्ष प्राथमिकता समय पर न्याय मुहैया कराना है, जिसमें न तो ज्यादा देरी की जा सकती है और न ही जल्दबाजी। उनका कहना है कि न्याय में देरी से अपराधों में वृद्धि हो सकती है। ऐसे में सभी की नजरें इस ओर केन्द्रित रहेंगी कि वे कैसे इन चुनौतियों से पार पाते हैं।
राजनैतिक नैतिकता के आईने में उद्धव ठाकरे व लालू यादव
निर्मल रानी
महाराष्ट्र की राजनीति में जो भूचाल की स्थिति पैदा हुई है,नैतिकता के लिहाज़ से यदि देखें तो ऐसे हालात की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। मगर जब कुर्सी की चाह, ख़ास तौर पर मुख्यमंत्री के पद की लालसा का सवाल हो तो राजनीति में ‘नैतिकता’ शब्द की कोई गुंजाईश नज़र नहीं आती। भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना का लगभग 25 वर्ष पुराना गठबंधन इन्हीं हालात की भेंट चढ़ गया। 288 सीटों वाली महाराष्ट्र विधानसभा में पिछले दिनों हुए आम चुनावों किसी भी दाल को बहुमत नहीं मिल सका। इन चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को 105 सीटें मिलीं और शिवसेना को 56 सीटें हासिल हुईं। उधर एनसीपी को 54 और कांग्रेस को 44 सीटों पर जीत मिली। सर्कार बनाने के लिए ज़रूरी 146 सीटों का आंकड़ा चुनाव पूर्व गठबंधन वाली भाजपा व शिवसेना आसानी से पूरा करती नज़र आ रही है। परन्तु 56 सीटें जितने वाली शिव सेना ने भाजपा के सामने मुख्यमंत्री पद लिए जाने की शर्त रख दी जिसे भाजपा ने मंज़ूर नहीं किया। नतीजतन स्थिति राष्ट्रपति शासन तक जा पहुंची। इस राजनैतिक उठापटक में ऊंट किस करवट बैठेगा यह तो बाद में पता चलेगा परन्तु फ़िलहाल जो बड़े राजनैतिक बदलाव हुए हैं उनमें शिव सेना न केवल घाटे में बल्कि राजनैतिक रूप से अलग थलग पड़ती भी दिखाई दे रही है। शिव सेना का भाजपा से गठबंधन भी टूट चूका है और शिव सेना के लोकसभा सांसद व सेना के एकमात्र केंद्रीय मंत्री अरविंद सावंत ने ”शिव सेना सच के साथ है. इस माहौल में दिल्ली में सरकार में बने रहने का क्या मतलब है?,यह कहते हुए नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा भी दे दिया है।वे मोदी सरकार में भारी उद्योग मंत्री थे। अब सच क्या है,राजनीति में सच की परिभाषा क्या है,राजनीति में ‘वास्तविक सच’ की कोई ज़रुरत या गुंजाईश है भी या नहीं या फिर मौक़ापरस्ती ही ‘सच’ की सबसे बड़ी परिभाषा बन चुकी है इन बातों पर चिंतन करने की सख़्त ज़रुरत है।
आज भाजपा व शिव सेना एक दूसरे को वर्तमान राजनैतिक उथल पुथल के लिए ज़िम्मेदार ही नहीं ठहरा रहे बल्कि एक दुसरे पर झूठ बोलने का इल्ज़ाम भी लगा रहे हैं। शिव सेना का कहना है कि महारष्ट्र के राजनैतिक हालात के लिए शिवसेना नहीं बल्कि भाजपा का अहंकार ज़िम्मेदार है। परन्तु एक बात तो ज़रूर स्पष्ट है कि हिंदुत्व के नाम पर साथ आए ये दोनों राजनैतिक दल मुख्यमंत्री के पद की ख़ातिर अलग हो गए इसका सीधा सा मतलब यही हुआ कि दोनों ही दलों के लिए हिंदुत्व या विचारधारा की बातें करना महज़ एक छलावा था वास्तव में तो मुख्यमंत्री का पर हिंदुत्व वाद से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण था। इस राजनैतिक उथल पुथल के दौरान शिव सेना की तरफ़ से भाजपा के और कुछ ऐसे ‘विषायुक्त ‘तीर भी छोड़े गए जो विपक्षी दाल समय समय पर छोड़ा करते थे। सत्ता की खींचतान के बीच जब शिवसेना के राज्यसभा सांसद संजय राउत से जब पूछा गया था कि भाजपा के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन होने के बावजूद सरकार बनाने में देरी क्यों हो रही है तो उन्होंने कहा, ‘यहां कोई दुष्यंत नहीं है जिसके पिता जेल में हों। हम धर्म और सत्य की राजनीति करते हैं।उनका इशारा हरियाणा में सत्ता के लिए भाजपा व जननायक जनता पार्टी में सत्ता के लिए हुए समझौते की तरफ़ था। क्योंकि दोनों ही एक दुसरे के विरुद्ध चुनाव लाडे थे तथा चुनाव प्रचार के दौरान दोनों ही ने एक दुसरे पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए थे।दूसरा सवाल शिव सेना ने भाजपा के सामने यह भी रखा कि जब भाजपा महबूबा मुफ़्ती की पार्टी पी डी पी से जम्मू कश्मीर में गठबंधन कर सकती हो तो शिव सेना को कांग्रेस से आपत्ति क्यों ?
बहरहाल राजनीति में अनैतिकता का बोलबाला है,ऐसे वातावरण में आज राष्ट्रीय जनता दाल के प्रमुख लालू यादव को 2015 के बिहार विधान सभा के चुनाव परिणाम के सन्दर्भ में याद करना ज़रूरी है। भारतीय जनता पार्टी को बिहार की सत्ता से दूर रखने के लिए महागठबंधन बनाया गया था जिसमें नितीश कुमार के नेतृत्व वाली जनता दाल यूनाइटेड,लालू यादव की राष्ट्रिय जनता दाल तथा कांग्रेस पार्टी शामिल थे। जबकि भाजपा राम विलास पासवान की लोक जान शक्ति पार्टी के साथ चुनाव मैदान में थी। लालू यादव ने राज्य में नितीश कुमार की ‘विकास बाबू’ की छवि को सामने रखकर चुनाव लड़ा था लिहाज़ा सत्ता में आने पर मुख्यमंत्री नितीश ही बनेंगे यह उनका वादा था। चुनाव परिणाम आने पर राज्य जनता दाल यूनाइटेड को 71 सीटें मिलीं जबकि राष्ट्रिय जनता दाल को 80 व कांग्रेस पार्टी को 27 सीटें प्राप्त हुईं। उधर भाजपा को 53 व उसकी सहयोगी लोजपा को मात्र 2 सीटों पर संतोष करना पड़ा। इस चुनाव परिणाम बाद महाराष्ट्र की स्थिति की ही तरह सबकी नज़रें लालू यादव पर जा टिकी थीं। अनैतिकता की राजनीति के वर्तमान वातावरण में यह क़यास लगाए जाने लगे थे कि राज्य में सबसे बड़ी पार्टी में उभरी आरजेडी अपने वादे के अनुसार नितीश को मुख्यमंत्री बनने देगी या सबसे बड़े दल होने के नाते स्वयं मुख्यमंत्री पद का दवा करेगी। परन्तु अत्यंत संक्षिप्त राजनैतिक बाद लालू यादव ने अपने वेड पर क़ाएम रहते हुए कुमार मुख्यमंत्री बनाए जाने का रास्ता हमवार किया और अपने दोनों पुत्रों को नितीश मंत्रिमंडल में सम्मानपूर्ण जगह दिला दी। यानी सबसे बड़े दल के रूप उभरने के बावजूद मुख्यमंत्री पद के लिए नहीं अड़े। भले ही इस वादा वफ़ाई का बुरा नतीजा भुगतना पड़ा और आज तक वे भुगत भी रहे हैं।
उधर ठीक इसके विपरीत दूसरे नंबर पर आने वाली शिवसेना महाराष्ट्र में मुख्य मंत्री पद के लिए इस हद तक आई कि विधान सभा भंग होने तक की नौबत आ गयी। शिवसेना व भाजपा का अलग होना हिन्दुत्व के दो तथाकथित अलम्बरदारों का अलग होना है जो यह साबित करता है कि सत्ता व पद के आगे हिंदुत्व या हिंदुत्ववादी विचारधारा की कोई अहमियत नहीं जबकि साम्प्रदायिक ताक़तों को सत्ता से रोकने व धर्मर्निर्पेक्षता को मज़बूत करने की ख़ातिर लालू यादव ने 2015 में न केवल मुख्यमंत्री पद पर अपना दावा पेश नहीं किया बल्कि जनता से किये गए अपने चुनाव पूर्व वादे को भी निभाया। आगे चलकर नितीश कुमार ने कैसे राजनैतिक चरित्र का परिचय दिया वो भी पूरे देश ने देखा। इसलिए कहा जा सकता है वैचारिक व सैद्धांतिक दृष्टिकोण से महाराष्ट्र की राजनीति की तुलना में 2015 में बिहार में लिया गया लालू यादव का स्टैंड उद्धव ठाकरे की तुलना में कहीं ज़्यादा वैचारिक,सिद्धांतवादी व नैतिक प्रतीत होता है। शायद यही वजह है कि चारा घोटाला व भ्रष्टाचार के दूसरे आरोपों के बावजूद लालू यादव की धर्मनिर्पेक्ष छवि व उनकी लोकप्रियता अभी भी बरक़रार है। जबकि शिवसेना को पुत्रमोह, सत्तामोह तथा वैचारिक व सैद्धांतिक उल्लंघन का भी सामना करना पड़ रहा है।
प्रदूषण के उपाय
सिद्धार्थ शंकर
सुप्रीम कोर्ट के सख्त निर्देशों और सरकारों को डांट-फटकार व चेतावनियों के बावजूद दिल्ली सहित उत्तर भारत के बड़े हिस्से में वायु प्रदूषण से निपटने को लेकर सरकारी तंत्र और जनप्रतिनिधियों में जिस तरह की उदासीनता और लापरवाही देखने को मिल रही है, वह हतप्रभ करने वाली है। शहरी विकास मंत्रालय से जुड़ी संसद की स्थायी समिति ने दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण के मुद्दे पर बैठक बुलाई थी, 29 में 25 सांसद बैठक से नदारद रहे। ज्यादातर वरिष्ठ अधिकारियों ने भी इसे तवज्जो नहीं दी। दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण से निपटने के लिए प्रयासों के नाम पर जो भी किया जा रहा है, उससे सर्वोच्च अदालत भी संतुष्ट नहीं है। इसीलिए उसे कहना पड़ा है कि दिल्ली सरकार की सम-विषम योजना एक तरह से आधा अधूरा प्रयास है। सम-विषम योजना के पीछे मूल भावना को लेकर किसी तरह का कोई संदेह नहीं है, लेकिन जिस तरह से इसे लागू किया जाता रहा है, उससे इस पर सवाल खड़े होते हैं। आपत्ति का बड़ा कारण तो दोपहिया, तिपहिया वाहनों को छूट दी गई है। फिर महिलाओं को इससे अलग रखा गया है। अगर वायु प्रदूषण से निपटने के लिए कोई ठोस योजना लागू करनी है तो उसे सब पर लागू किया जाना चाहिए, तभी उनके नतीजे देखने को मिलेंगे। दोपहिया और तिपहिया से होने वाले प्रदूषण की भागीदारी कारों के प्रदूषण से काफी ज्यादा है। सम-विषम योजना से छूट के प्रावधान इसकी गंभीरता को कम करते हैं। सच्चाई यह है कि हम वायु प्रदूषण को लेकर केवल विलाप कर रहे हैं, लेकिन उससे निपटने के उपाय खोजने के लिए हमारे पास वक्त है, न इच्छाशक्ति।
वायु प्रदूषण से उत्पन्न गंभीर हालात पर अगर सर्वोच्च अदालत सक्रियता और कड़ा रुख नहीं दिखाती तो सरकारें शायद इतना भी नहीं करतीं और लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया जाता। फिर विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट ‘एयर पॉल्यूशन एंड चाइल्ड हेल्थ: प्रिसक्राइबिंग क्लीन एयर के हवाले से बताया गया है कि वर्ष 2016 में भारत में पांच वर्ष से कम वायु प्रदूषण के कारण मरने वाले बच्चों की संख्या एक लाख के करीब थी। यह संख्या विश्व में पांच वर्ष से कम आयु वर्ग के बच्चों की वायु प्रदूषण से होने वाली मृत्यु का पांचवा भाग है। इन मौतों में पांच वर्ष से कम आयु की बच्चियों का प्रतिशत भारत में 55 प्रतिशत के लगभग है व पांच से 14 वर्ष की आयु के बीच यह प्रतिशत बढ़कर 57 प्रतिशत के लगभग हो जाता है। (वर्ष 2016 में 5 से 14 आयु वर्ग के बच्चों की वायु प्रदूषण से होने वाली मौतें 7000 हैं, जिसमें से बच्चियों की संख्या 4000 के लगभग हैं)। यदि हम भारत की तुलना इसके अन्य पड़ोसी देशों से करें तो बांग्लादेश में 11,487, भूटान में 37, चीन में 11,377, म्यांमार में 5,543, नेपाल में 2,086, पाकिस्तान में 38,252 एवं श्रीलंका में 2016 में 5 वर्ष से कम मरने वाले शिशुओं की संख्या 94 है। प्रति लाख बच्चों पर यह आंकड़ा 96.6 बच्चियां व 74.3 बच्चे हैं, जो 5 वर्ष से कम आयु वर्ग में आते हैं। वहीं 5 से 14 आयु वर्ग में प्रति लाख पर 3.4 बच्चियां व 2.3 बच्चे हैं। भारत में बढ़ते प्रदूषण का स्तर एक चिंता का विषय है परंतु आज इतने सारे संसाधनों होने के बावजूद भी हम प्रदूषण के स्तर को कम कर पाने में नाकाम ही साबित हुए हैं। भारत, जो कि एक विश्व शक्ति बनने की ओर अग्रसर है, आज अफ्रीका के निम्न आय वर्ग के देशों के साथ, प्रदूषण नियंत्रण में नाकाम होने पर खड़ा है। हमारे देश के करीब एक दर्जन से अधिक शहर विश्व के सबसे अधिक प्रदूषित शहरों की सूची में गिने जाते हैं। उत्तर-भारत का ‘कानपुरÓ शहर वर्ष 2016 में विश्व का सबसे प्रदूषित शहर घोषित हुआ है।
देश में नदियों के प्रदूषण स्तर में कोई सुधार नहीं हुए हैं। हालांकि नदियों की सफाई हेतु कार्य योजना व कार्यक्रम बनाए गए हैं परंतु काम होता नहीं दिख रहा है। जहां हम पहले थे आज भी वहीं खड़े हैं। पर्यावरण से जुड़े न्यायिक मामले देखने हेतु हमारे देश में एक राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण भी कार्य रहा है। साथ ही कई कार्यक्रम समय-समय पर सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा चलाए जा रहे हैं। इसके बावजूद भी पर्यावरण के प्रति चेतना जगाने में समाज असफल रहा है।
मध्यप्रदेश के बेहतर विकास का भविष्य दृष्टा
माधवेन्द्र सिंह
मध्यप्रदेश सौभाग्यशाली है कि उसे मुख्यमंत्री के रूप में कमल नाथ जैसा वैश्विक सोच का भविष्य दृष्टा व्यक्तित्व मिला है। यह अलंकरण उन लोगों को अतिशयोक्तिपूर्ण लग सकता है, जो कमल नाथ जी के व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित नहीं है। जिन्होंने केन्द्र में विभिन्न मंत्रालयों में मंत्री के रूप में और छिंदवाड़ा में बतौर सांसद उनके द्वारा करवाये गए क्षेत्र के चहुँमुखी विकास को न केवल देखा है बल्कि नजदीक से समझा है वे इस विशेषण से सौ फीसदी सहमत होंगे।
कमल नाथ जी को जब भी जहाँ भी जो जिम्मेदारी मिली है उन्होंने उस क्षेत्र में बुनियादी बदलाव किए भविष्य की जरूरतों को देखकर निर्णय लिए, नीति बनाई और उसे जमीनी हकीकत में तब्दील किया। उन्होंने बहुत पहले यह समझ लिया था कि युवाओं को अगर रोजगार उपलब्ध करवाना हैं, तो शिक्षा के साथ कौशल विकास बहुत जरूरी है। जब वे रोजगार की बात करते है तो उनके मस्तिष्क में इंजीनियर, डॉक्टर या स्नातक-स्नातकोत्तर शिक्षा पाए लोगों की चिंता नहीं होती है बल्कि वे उस बेरोजगार के लिए भी सोच रखते है जो पाँचवीं, आठवीं पास है। उनका छिंदवाड़ा मॉडल का रोजगार क्षेत्र इसी सोच के अनुरूप बना है। उन्होंने शिक्षित लोगों के साथ अशिक्षित लोगों को रोजगार मिले इसके लिए ऐसी संरचना तैयार की कि लोग अपने कौशल विकास से सम्मानित रोजगार प्राप्त करने में सफल हुए। राजनीति में इस तरह की दृष्टि और उसे दिशा देने वाले नेता कमतर ही है।
बेहतर भविष्य की उनकी सोच हर क्षेत्र में इतनी गहरी है कि वह सतही परिवर्तन नहीं करती बल्कि वह मूल में जाकर जड़ों को मजबूत बनाती है। किसानों की ऋण माफी को वो कृषि क्षेत्र की हालात में सुधार लाने का समाधान नहीं मानते। वे इसे एक ऐसी राहत मानते हैं, जो किसानों को आगे बढ़ने के लिए या तनाव मुक्त होने में सहायक होती है। कृषि क्षेत्र को उन्नत बनाने के लिए उनकी स्पष्ट मान्यता है कि जब तक हम किसानों के बढ़ते हुए उत्पादन का उपयोग उनकी आय दोगुना करने में नहीं करेंगे तब तक किसानों के चेहरे पर मुस्कुराहट लाना असंभव है। जब वे मुख्यमंत्री बने और दो घण्टे के अंदर किसानों की ऋण माफी का निर्णय लिया तो वे इस बात के लिए अपनी पीठ नहीं थपथपाते कि उन्होंने 20 लाख किसानों का कर्ज माफ कर दिया और आने वाले दिनों 18 लाख किसानों का कर्ज और माफ करेंगे। कर्ज माफी के साथ ही उनकी खेती-किसानी को आय से जोड़ने की चिंता शुरू हो जाती है। वे खाद्य प्र-संस्करण इकाइयों की बात करते है। सोच है तो परिणाम मिलेंगे ही। आज प्रदेश में खाद्य प्र-संस्करण इकाईयां स्थापित हो रही हैं, कई स्थानों पर स्थापित हो गई हैं। इसके जरिए वे किसानों के उत्पादन से उनकी आय कैसे दोगुना हो, इस बारे में सोचना शुरू कर देते है। उन्होंने किसानों को कर्ज माफी, बिजली एवं अन्य सुविधाएँ देने के बुनियादी निर्णय लिए लेकिन उसके बाद उनके लिए एक समग्र योजना बनाना प्रारंभ कर दिया, जो आने वाले दिनों में किसानों की खुशहाली की दिशा में एक बड़ा क्रांतिकारी बदलाव का आधार बनेगी।
समाज के कमजोर तबके के प्रति उनकी संवेदनशील सोच का ही नतीजा था कि उन्होंने आते ही बुजुर्गों की पेंशन राशि को बढ़ाकर 300 से 600 रुपए किया जिसे वे 1000 रुपए तक बढ़ाएंगे। गरीब परिवार की कन्याओं के विवाह के लिये दिए जाने वाले अनुदान राशि को 28 हजार से बढ़ाकर 51 हजार रुपए कर दिया। यह मध्यप्रदेश के इतिहास में पहली बार है और अगर हम यह कहे कि ऐसा भी पहली बार हुआ जब बढ़ते हुए बिजली बिल को थामते हुए उन्होंने इंदिरा गृह ज्योति योजना के जरिए गरीब से लेकर मध्यम वर्ग तक को राहत पहुँचाई। एक मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने बिजली बिल के जो स्लेब निर्धारित किए, उससे लोगों की जेब को तो राहत मिली ही साथ ही ऊर्जा बचत के लिए भी उनका यह कदम आज के समय में उनकी भविष्य की बेहतर सोच का अनूठा उदाहरण है। आदिवासी समाज को साहूकारों के कर्ज से मुक्त करने का क्रांतिकारी निर्णय लिया, पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला लिया। ग्यारह माह में इतने बड़े फैसले और उन पर अमल भी शुरू हो गया। मुख्यमंत्री घोषणाएं नहीं करते हैं वे कहते हैं मैं काम करता हूँ और उन्होंने मध्यप्रदेश की बेहतर तस्वीर के लिए ऐतिहासिक बदलाव कर दिए।
विश्वास है तभी निवेश आएगा उनकी इस वन लाइनर सोच ने उनके 11 माह के शासनकाल में प्रदेश में उद्योग और निवेश के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी परिवर्तन की शुरूआत की है। कार्यभार सम्हालने के दो माह बाद ही उन्होंने मिंटो हॉल में मध्यप्रदेश में उद्योग, व्यापार, व्यवसाय से जुड़े लोगों की गोलमेज कॉन्फ्रेंस बुलवाई। कॉन्फ्रेंस का उद्देश्य था प्रदेश में निवेश में आने वाली बाधाओं को जानना। यह जानना वे इसलिए जरूरी मानते हैं क्योंकि जब तक हम हमारे ही प्रदेश में उद्योग और व्यवसाय के क्षेत्र में काम कर रहे लोग अगर सरकार की उद्योग एवं निवेश नीति से असंतुष्ट है, तब हम नए निवेश की कल्पना कैंसे कर सकते हैं। वे कहते है कि यह हमारे ब्रांड एम्बेसडर हैं, अगर हमने इनकी समस्याओं का समाधान कर दिया तो ये ही लोग प्रदेश में नए निवेश की ब्रांडिंग करने में मददगार साबित होंगे। नीतियों को लेकर उनकी सोच ही अभिनव है। वे कहते है कि नीतियाँ वही सफल होती हैं, जो निवेश को या किसी अन्य को आकर्षित करती है उनकी मदद करती है। सिर्फ नीति बनाकर बैठ जाने से परिणाम हासिल नहीं होते। “मैग्नीफिसेंट मध्यप्रदेश” के आयोजन की सफलता इस बात का प्रतीक है कि उन्होंने अपने अल्प कार्यकाल में ही मध्यप्रदेश के प्रति उद्योग जगत और निवेशकों के विश्वास को प्राप्त किया। मुकेश अंबानी, आदि गोदरेज, इंडिया सीमेंट के श्रीनिवासन, रवि झुनझुनवाला से लेकर जितने उद्योगपति मैग्नीफिसेंट मध्यप्रदेश में शामिल हुए उन्होंने निवेश के क्षेत्र में मुख्यमंत्री की साहसिक सोच और दूरदृष्टि की सराहना की। आज के किसी राजनेता को यह खिताब मिलना दुर्लभता की श्रेणी में ही गिना जाएगा।
विरासत में मिले खाली खजाने और जर्जर अर्थ-व्यवस्था के बीच जो दायित्व कमल नाथ जी को मिला और उन्होंने अपने कुशल प्रबंधन के साथ जिस तरह सभी चुनौतियों का सामना किया उससे पता चलता है कि वे किस कद के नेता है। किसानों की कर्ज माफी आसान नहीं थी पर अपने इस वचन को उन्होंने जिस कौशल से पूरा किया, वह एक शोध का विषय है। वे उन नेताओं में शुमार नहीं है जो लोकप्रियता के लिए अर्नगल घोषणाएँ करते है। कांग्रेस का वचन-पत्र जब तैयार हो रहा था तो उन्होंने हर वचन को पूरा करने के लिए आने वाली चुनौतियों को समझा और उसके समाधान की भी तैयारी की। यही कारण है कि वे सरकार बनते ही मात्र 73 दिनों में 83 वचनों को पूरा करने जैसा बड़ा काम कर पाये।
त्वरित निर्णय, समय – सीमा, क्रियान्वयन, गुणवत्ता, परिणाम और समय प्रबंधन कमल नाथ जी के दैनंदिन काम का अहम हिस्सा है। इससे वे कोई भी समझौता नहीं करते है। वे जब विभागों की समीक्षा करते है तो उनकी विभागीय गतिविधियों के आकलन इन बिन्दुओं पर ही आधारित होते हैं। वे समस्या और उसके समाधान को जितनी शीघ्रता से समझते है, वह उनका दुर्लभ गुण है। वे योजनाओं की डिलेवरी सिस्टम पर जोर देते है। उन्होंने कहा कि योजनाएँ चाहे कितनी अच्छी हो लेकिन उसका क्रियान्वयन जमीन पर जरूरतमंदों को लाभान्वित नहीं कर रहा है तो वे सिर्फ हमारी सरकार की सजावट का ही हिस्सा है। वे इस सजावट को खत्म करके योजनाओं की क्रियान्वयन व्यवस्था को सुधारने के लिए निरंतर काम कर रहे हैं। वे हर काम की समय – सीमा का निर्धारण करते हैं। गुणवत्ता और परिणाम सुनिश्चित हो, इस पर उनकी पैनी निगाह रहती है। समय प्रबंधन के मामले में उनका कोई सानी नहीं है। अगर 11 बजे का समय दिया है तो कमल नाथ जी 11 बजने में पाँच मिनिट पहले पहुँच जाएँगे, लेकिन पाँच मिनिट बाद नहीं।
मुख्यमंत्री कमल नाथ की साफ नीयत और नीति, ईमानदार कोशिशों से मध्यप्रदेश में पिछले 10-11 माह में जन- उम्मीदें पूरी होने लगी हैं। ऊर्जावान सोच, बगैर शोरगुल, आत्म-प्रशंसा से दूर और सधे हुए कदमों के साथ उनकी पदचाप और उनके फैसलों की धमक, जन और तंत्र के बीच महसूस होने लगी है। पाँच साल बाद निश्चित ही मध्यप्रदेश की तस्वीर उज्जवल होगी और प्रदेशवासियों की तकदीर बेहतर होगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार है)
ब्रिक्स में भारत की धाक
सिद्धार्थ शंकर
ग्लोबल बिजनेस फोरम में अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वैश्विक मंदी का जिक्र किया तो वहीं दुनिया में ब्रिक्स देशों के महत्व की भी चर्चा की। आतंकवाद का जिक्र करने के साथ ही पीएम मोदी ने आपसी संबंधों को मजबूती प्रदान करने के लिए सहयोग बढ़ाने की जरूरत पर जोर दिया तो लंबे समय के लिए व्यावसायिक भागीदारी की तरफ इशारा भी कर दिया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ब्राजील की राजधानी ब्रासिलिया में आयोजित ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) सम्मेलन में शिरकत कर भारत की धाक जमा दी। ग्लोबल बिजनेस फोरम में अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वैश्विक मंदी का जिक्र किया, तो वहीं दुनिया में ब्रिक्स देशों के महत्व की भी चर्चा की। आतंकवाद का जिक्र करने के साथ ही पीएम मोदी ने आपसी संबंधों को मजबूती प्रदान करने के लिए सहयोग बढ़ाने की जरूरत पर जोर दिया तो व्यापार के लिए महत्वपूर्ण क्षेत्रों को चिन्हित करने का सुझाव देकर लंबे समय के लिए व्यावसायिक भागीदारी की तरफ इशारा भी कर दिया। प्रधानमंत्री ने भारतीय अर्थव्यवस्था को दुनिया की सबसे ओपन अर्थव्यवस्था बताने के साथ बिजनेस फ्रेंडली एनवायरनमेंट का जिक्र करते हुए निवेशकों को भारत में निवेश का निमंत्रण भी दे दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह दौरा कूटनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण और सफल माना जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ब्रिक्स सम्मेलन के इतर भी सदस्य देशों के राष्ट्राध्यक्षों से मुलाकात की और संबंधों की पुरातनता के साथ ही महत्व की चर्चा कर द्विपक्षीय संबंधों को नया आयाम देने की प्रतिबद्धता दोहराई। पीएम मोदी ने अमेरिकी प्रायद्वीप के महत्वपूर्ण देश ब्राजील के राष्ट्रपति को जहां भारत के गणतंत्र दिवस समारोह में बतौर मुख्य अतिथि आने का निमंत्रण दिया, वहीं भारत के पुराने मित्र रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भी पीएम मोदी को अपने देश आने का न्योता दिया। पीएम मोदी ने रूसी राष्ट्रपति के साथ वार्ता में दोनों देशों के पुराने संबंधों का जिक्र किया। दोनों ही देशों ने स्पेशल और प्रिविलेज स्ट्रेटेजिक पार्टनरशिप को आगे बढ़ाने पर सहमति व्यक्त की और इसे आगे बढ़ाने के तरीकों पर चर्चा की। इससे भारत और रूस के संबंधों के लिए महत्वपूर्ण माना जा रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पड़ोसी देश चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ बैठक में अपनी दोस्ती का जिक्र करते हुए व्यापार से जुड़े पहलुओं पर चर्चा की। दोनों देशों के शीर्ष नेताओं के बीच हुई वार्ता का लब्बोलुआब यह रहा कि सीमा पर शांति बनाए रखने की प्रतिबद्धता व्यक्त करते हुए दोनों देशों ने वर्षों पुराने सीमा विवाद के समाधान की दिशा में पहल करते हुए विशेष प्रतिनिधियों के बीच अगले दौर की वार्ता का ऐलान कर दिया।
बहरहाल, पीएम बनने के बाद पीएम मोदी ने छठी बार इस सम्मेलन में शिरकत की। यह भारत के लिए ब्रिक्स देशों के दूसरे चक्र की शुरुआत है। भारत के लिए यह संगठन काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह विकासशील देशों की उभरती हुई आवाज बन चुका है। ब्रिक्स देशों को विकसित देशों के आक्रामक संगठनों से तगड़ी चुनौती मिलती रहती है, इसके अलावा डब्लूटीओ से लेकर जलवायु परिवर्तन के मसले तक विकासशील देशों को कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, ऐसे में भारत का यह मानना है कि ब्रिक्स से ही विकासशील देशों के हितों की रक्षा हो सकती है। पिछले एक दशक में वैश्विक मंच पर भारत की भूमिका बढ़ी है, ऐसे में भारत ब्रिक्स में भी लीडरशिप करना चाहता है। भारत ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर इस संगठन का आतंकवाद के प्रति रुख को सख्त बनाया है और इसकी वजह से आतंकवाद से निपटने पर ध्यान केंद्रित किया गया है। आतंकवाद को ब्रिक्स देशों के शीर्ष एजेंडे में रखवाना वास्तव में भारत के लिए एक बड़ी सफलता है।
भारत के कालापानी-लिपुलेख पर नेपाल का दावा
अजित वर्मा
जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के दो केंद्रशासित प्रदेश बनने के बाद जारी भारत के नए राजनीतिक नक्शे पर नेपाल ने आपत्ति जताई है। नेपाल ने दावा किया है कि उत्तराखंड के कालापानी और लिपुलेख उसके धारचूला जिले के हिस्से हैं। नेपाल ने कहा है कि संबंधित क्षेत्र को लेकर भारत से बात जारी है और ये मुद्दा अभी तक अनसुलझा है। वहीं भारत ने कहा है कि दोनों देशों के बीच सीमा विवाद को सुलझाने के लिए विदेश सचिवों को जिम्मेदारी सौंपी गयी है। ऐसे में बातचीत के जरिये नेपाल से मतभेद को सुलझा लिया जाएगा। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता बताते हैं कि नए मानचित्र में भारत ने अपने ही हिस्से को दिखाया है। चूंकि पूर्ण राज्य जम्मू-कश्मीर को दो हिस्सों में बांट कर दो नए केंद्रशासित प्रदेश बनाए गए हैं। इसी के मद्देनजर नया राजनीतिक मानचित्र जारी किया गया है। नए मानचित्र में भारत ने किसी नए भूभाग को अपने हिस्से में शामिल नहीं किया है। जहां तक नेपाल की आपत्तियों का सवाल है तो दोनों देश सीमा विवाद के मसले को सचिव स्तर की बातचीत में सुलझाने पर सहमत हैं। ऐसे में नेपाल की आपत्तियों को इसी बातचीत में सुलझा लिया जाएगा।
नेपाल के दावे को लेकर नेपाल सरकार के प्रवक्ता संचार और सूचना मंत्री गोकुल प्रसाद बास्कोटा ने कालापानी को नेपाल का अभिन्न अंग बताया है। संचार मंत्री ने कहा कि 58 वर्ष पहले नेपाल द्वारा कालापानी में जनगणना कराना ही इसका ऐतिहासिक प्रमाण है। उन्होंने संचार मंत्रालय द्वारा आयोजित किए गए नियमित पत्रकार सम्मेलन में कहा कि ’नेपाल और भारत के बीच जुड़े भू-भाग में से केवल दो प्रतिशत जगह पर ही सीमा विवाद है और इसका समाधान करना अभी बाकी है। हम राजनीतिक और कूटनीतिक पहल से प्रमाण के साथ इस विवाद का समाधान करेंगे। बास्कोटा ने नेपाल सरकार के विदेश मंत्रालय द्वारा भारत को सार्वजनिक राजनीतिक नक्शे पर अपनी धारणा स्पष्ट रूप से रख देने की बात भी कही है।
पाक की मति मारी गई…
सिद्धार्थ शंकर
अयोध्या मुद्दे पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पाकिस्तान ने यूनेस्को के मंच पर उठाकर अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय दिया है। हालांकि, भारत ने कड़ी आपत्ति जताई है, मगर इसकी कोई जरूरत नहीं थी। उसका तमाशा पूरी दुनिया देख रही है।
अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को भारत के मुस्लिम समुदाय ने स्वीकार कर लिया। देश में भाई चारे का माहौल बना हुआ है। दोनों पक्षों ने जिस तरह की मिसाल पेश की, वह किसी भी देश के लिए नजीर है। दुनिया के कई देशों खासकर मुस्लिम देशों ने भी अयोध्या मुद्दे पर आए फैसले को भारत का अंदरूनी मानकर प्रतिक्रिया नहीं दी, लेकिन पाकिस्तान इन सबसे अलग है। फैसला आने के दिन से पड़ोसी मुल्क में मातम पसरा है। वहां के लोगों की छोड़ो सरकार भी जाहिलों की तरह सोचने और करने लगी है। अयोध्या में मंदिर-मस्जिद विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले की चर्चा पाकिस्तान में खूब हो रही है। पाकिस्तानी मीडिया में भी इस फैसले को काफी तवज्जो मिली है। वहां की सेना से लेकर विदेश मंत्रालय तक की प्रतिक्रिया आ चुकी है। वहां के अखबार संपादकीय लिख रहे हैं कि भारत के सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या में तोड़ी गई मस्जिद की जगह मंदिर बनाने की अनुमति दे दी है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद विध्वंस को अवैध बताया है लेकिन दूसरी तरफ मंदिर बनाने की अनुमति देकर अप्रत्यक्ष रूप से भीड़ की तोडफ़ोड़ का समर्थन भी किया है। शायद यह ज्यादा अच्छा होता कि कोर्ट किसी भी पक्ष की तरफदारी नहीं करता क्योंकि यह मुद्दा भारत में काफी संवेदनशील था और इसका संबंध सांप्रदायिक सौहार्द से भी है। कुछ ऐसी प्रतिक्रिया सरकार के स्तर पर भी आई थी। तब भारत ने पाकिस्तान की प्रतिक्रिया पर कड़ा ऐतराज जताया था और कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर पाकिस्तान के बयान को हम अस्वीकार करते हैं। ये भारत का आंतरिक मामला है. यह कानून के शासन और सभी धर्मों, अवधारणाओं के लिए समान सम्मान से संबंधित है, जो उनका मामला नहीं है। विदेश मंत्रालय ने कहा था कि पाकिस्तान की समझ की कमी आश्चर्य की बात नहीं है। गौरतलब है कि अयोध्या का फैसला उस दिन आया था जब सिख श्रद्धालुओं के लिए करतारपुर कॉरिडोर खोला गया। पाकिस्तान को इस फैसले को सकारात्मक अंदाज में लेना चाहिए था, जो वह नहीं कर सका।
अब वह इससे भी एक कदम आगे निकल गया है। कश्मीर के मुद्दे पर दुनिया में अलग पडऩे के बाद भी पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आया और यूनेस्को जैसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसने अयोध्या का मामला उठा दिया। पाकिस्तान के शिक्षा मंत्री शफाकत महमूद ने कहा था कि यह फैसला यूनेस्को धार्मिक स्वतंत्रता के मूल्यों के अनुरूप नहीं है। हालांकि, यूनेस्को के मंच पर उसकी दाल नहीं गली और भारत से खूब खरीखोटी सुनने को मिली। भारत ने कहा, पाक को हमारे अंदरूनी मामलों में टांग अड़ाने की मानसिक बीमारी है। भारत ने कहा कि पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से दुनिया परेशान है। अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कानूनी फैसला दिया है लेकिन पाक जिस तरह की घृणास्पद बातें फैला रहा है, वो निंदनीय है और उन्हें बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। निश्चित रूप से पाक के इस कदम के पीछे उसकी बौखलाहट है। वह कैसे भी भारत को घेरना चाह रहा है। इसीलिए कभी कश्मीर तो कभी अयोध्या जैसे मामलों को वह अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठा रहा है। दरअसल, पाक के साथ इस समय एक-दो को छोड़ कोई भी देश नहीं है। यही बात उसे अखर रही है। पाकिस्तान में इन दिनों ऐसे कई अंदरूनी मसले हैं, मगर वहां की सरकार उन पर ध्यान नहीं दे रही है। महंगाई आसमान छू रही है, उसे काबू में करने के प्रति इमरान सरकार के पास न कोई नीति है और न ही नीयत। संभव यह भी है कि पाकिस्तान एक दिन अपने देश की बढ़ती महंगाई के लिए भारत को ही जिम्मेदार ठहरा दे।
महाराष्ट्र; शर्मसार प्रजातंत्र
ओमप्रकाश मेहता
राष्ट्र के अंदर समाहित महाराष्ट्र में विधानसभा चुनावों के बाद पिछले एक पखवाड़े से ’पदलिप्सा‘ का नाटक खेला जा रहा है, और यहां राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद भी इस नाटक का पटाक्षेप नजर नहीं आ रहा है, अभी भी यहां के राजनेता अपनी गोटी फिट करने में व्यस्त है। ……और यदि सत्ता के अमृत के प्याले से चूकी भाजपा और उसके प्रधानमंत्री जी विरोधियों को प्रतिशोध का ”डोज़“ देने से बाज नहीं आए तो छ: महीनें बाद महाराष्ट्र में पुन: चुनाव के माध्यम से जनता की खून पसीने की कमाई का हजारों करोड़ रूपया फिर जाया होगा और देश की जनता को मूकदर्शक बनकर यह ’दुखांत नाटक‘ देखने को मजबूर होना पड़ेगा। आज की राजनीति का यह सबसे अहम्् दु:खद नाटक होगा, जिसने प्रजातंत्र को निर्वस्त्र होने को मजबूर कर दिया है। यदि देश के अन्य प्रान्तों में भी यही नाटक खेला जाने लगा तो देश के प्रजातंत्र की आयु अत्यंत अल्प हो जाएगी और फिर प्रजातंत्र के लिए आंसू बहाने के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रहेगा।
देश की मोदी सरकार ने सामाजिक क्षेत्र से चाहे ’तीन तलाक‘ का कलंक मिटा दिया हो, किंतु राजनीतिक क्षेत्र में यह प्रथा जोर-शोर से जारी है और अब तो स्वयं भाजपा को ही इससे अभिशप्त होने को मजबूर होना पड़ रहा है। राष्ट्र के प्रमुख राज्य महाराष्ट्र में पिछले महीने राज्य विधानसभा के चुनावा सम्पन्न हुए, ये चुनाव भाजपा और शिवसेना ने एकजुट होकर लड़े थे और इस गठबंधन ने सत्ता के लिए जरूरी बहुमत का आंकड़ा भी हासिल कर लिया था, इसलिए परिणाम घोषित होने पर किसी की भी यह कल्पना नहीं थी कि महाराष्ट्र में किसी राजनीतिक नाटक के प्रहसन लिखे जा रहे हैं, बल्कि आशंका हरियाणा को लेकर थी जहां सत्तारूढ़ भाजपा बहुमत हासिल करने में कुछ पीछे रह गई थी किंतु वहां के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने जोड़तोड़ करके पूर्व कांग्रेस नेता के प्रपौत्र से राजनीतिक गठबंधन किया और सरकार बना ली, जबकि महाराष्ट्र में जहां सरकार आसानी से बनती नजर आ रही, वहां भाजपा की सहयोगी शिवसेना ने चुनाव पूर्व वादे का रायता फैला दिया और स्थिति गठबंधन तोड़ने केन्द्र से अपने मंत्री का इस्तीफा दिलवाने और राजनीतिक गाली-गलौच तक पहुंच गई। शिवसेना की दलील थी कि भाजपाध्यक्ष अमित शाह के सामने चुनाव पूर्व सत्ता प्राप्ति पर पचास-पचास प्रतिशत भागीदारी की बात हुई थी, जिसमें मुख्यमंत्री का पद भी शामिल था, जबकि भाजपा पहले ही दैवेन्द्र फणनवीस को मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा कर चुकी थी, इस दलीय विग्रह के बाद ’तीन तलाक‘ लागू हो गया और भाजपा अल्पमत में आ गई और अंतत: उन्होंने राज्यपाल को सरकार नहीं बनाने का टका सा जवाब दे दिया। इसके बाद शिवसेना ने कांगेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस की ओर रूख किया, किंतु दोनों दल एक सप्ताह तक फैसला नहीं कर पाए कि उन्हें शिवसेना के साथ सरकार बनाना है या नहीं, इधर राज्यपाल ने भाजपा के बाद शिवसेना से पूछा सरकार बना सकने के बारें में किंतु कांग्रेस व एनसीपी की ढीली नीति के कारण राज्यपाल ने राष्ट्रपति शासन की विधिवत घोषणा कर दी गई। किंतु इस नाटक का दु:खद अंत हो जाने के बाद शिवसेना व दोनों कांग्रेस ’मुर्दालोकतंत्र‘ में जान फूंकने के प्रयास जारी रखे हुए है और आश्वस्त है कि अगले छ: महीनें में तो वे बहुमत जुटा ही लेंगे।
यद्यपि शिवसेना का आरोप है कि राज्यपाल ने उन्हें समर्थन जुटाने का पर्याप्त समय नहीं दिया और कांग्रेस का कहना है कि राज्यपाल ने उन्हें अपना बहुमत सिद्ध कर सरकार बनाने का मौका ही नहीं दिया, लेकिन ये दल यही अपने आरोप सही भी मानते है तो यह क्यों भूलते है कि आज देश में मोदी के राज्यपाल है, और उनका नियंत्रण अघोषित रूप से केन्द्रीय गृहमंत्री के हाथों में है, जो अभी भी भाजपा के अध्यक्ष है।
इस प्रकार कुल मिलाकर इस नाटक को ’दु:खांत‘ बनाने में किसी एक दल विशेष की नहीं बल्कि महाराष्ट्र के सभी राजनीतिक दलों व कथित रूप से महामहिम राज्यपाल की भूमिकाएँ अहम्् रही। अब तो यही उम्मीद करें कि इसका मंचन किसी अन्य राज्य में न हों?
इस प्रकार कुल मिलाकर विश्व के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में कुछ ऐसे प्रयासों का शुभारंभ हो गया है, जिससे यहां के लोकतंत्र को केवल क्षति ही नहीं बल्कि खात्में तक की आशंका पैदा हो सकती है? जिस देश में ’कुर्सी‘ सबसे अहम्् मान ली जाए और देश व देशवासियों को गौण मान लिया जाए, वहां के लोकतंत्र की दुर्गति की कल्पना भी संभव नहीं है, इसलिए इस देश में तो अब प्रजातंत्र या लोकतंत्र का भगवान ही मालिक रहेगा। भगवान इस नाटक के पात्रों को सद्बुद्धि प्रदान करें।
मंत्री तोमर का नालों में उतर कर सफाई करना क्यों नींद उड़ा रहा है…!
नईम कुरेशी
उत्तर भारत में ग्वालियर शहर में कोलकत्ता के साथ् 1908 में बिजली और इससे भी काफी पहले शुद्ध पेय जल सिंधिया शासक ले आये थे। यहां कि नगर पालिका के तो स्वयं अध्यक्ष भी रहे थे। 1905 में दौलतगंज क्षेत्र लश्कर के बड़े सेठ को नगर पालिका के पार्षद भी थे। उन्होंने अपने दरवाजे पर एक बिना इजाजत चबूतरा बना लिया। तब के अध्यक्ष ने ये चबूतरा हटवाकर पार्षद पर 5 रुपये का जुर्माना भी लगा दिया था। इसके निर्माण में इसे भव्य बनाने में सिंधिया राजवंश के काम की सब तरफ तारीफें भी देखी सुनी जाती हैं।
आज ग्वालियर राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की ऊँचाई पर है। यहां का पर्यटन, स्मारक व संगीत इसे अपने आप में खास बनाये हुए है। उस्ताद अमजद अलि खाॅन साहब जैसे सरोद वादक व मीता पंडित के गायन को देश दुनिया में काफी नाम मिलता रहा है। यहां के ग्वालियर फोर्ट पर 1526 में मुगल बादशाह बाबर ने आकर 7 दिन तक ठहर कर भी यहां का विस्तार से वर्णन अपने बाबरनामे में 4 पेजों में कर इसके महत्व व यहां निर्माण कार्यों, वास्तुकला को भरपूर सराहा था। जिसे सिंधिया वंश ने 18-19 सदी में और आगे बढ़ाया पर आज पिछले 40 सालों में शहर का विकास काफी धीमा पड़ गया है। साफ सफाई भी गड़बड़ा चुकी है। यहां के नुमाइन्दों व नौकरशाहों में शहर की सफाई सड़कों के सुचारु निर्माण कर उन्हें ठीक ठाक रखने व पेयजल की समस्याओं पर पिछले 30 सालों में 3 से 4 हजार करोड़ों के घोटाले तो अमृत योजना के नाम पर किये गये न जांचें हुईं और न कोई दंडित हुआ। सियासतदां इन मामलों में कुछ ज्यादा दोषी लगते हैं। एक स्वर्ण रेखा नदी के 10 किलोमीटर तक के इलाके को बर्बाद कर उस पर सीमेंट, कांक्रीट से पक्का करा दिया गया। 400 करोड़ रुपये बर्बाद हो गये। इस नदी के किनारे के 200 से भी ज्यादा कुएँ व बाबड़ियाँ जो ज्यादातर रियासतकाल की थीं सूख गये कोई एक लाख लोगों को जल संकट में भांजे साहब ने झौंक दिया। तत्कालीन मुख्यमंत्री से लेकर इस अन्याय के खिलाफ ग्वालियर में उपविधायकगण ठगे से खड़े रह गये।
आज का शहर ग्वालियर लापरवाह नगर निगम अतिक्रमणों व गन्दगी की राजधानी बनी हुई है। एक से पांच दिनों तक सफाई कर्मचारी नहीं आते। उनमें भी सफाई वालों को लेकर उनके दरोगा निरीक्षकों की कमजोर निगरानी व कुछ मिलीभगत से शहर की साफ सफाई चरमराई हुई है। निगम के ज्यादातर क्षेत्राधिकार जेड.ओ. थानेदारों की तरह सिर्फ उगाई में लगे हैं। सरकारी जमीनों पर मार्केट बनवाकर लाखों करोड़ों डकार रहे हैं। नाला सफाई के बजट के 80 फीसद तक फंड आपस में बांट लिया जाता है पर कोई सुनने को तैयार नहीं है। निगम की सड़कें अधिकतर महीनों में टूटती दिखाई दे रही हैं। इन पर कभी कार्यवाही भी कुछ भी नहीं होती। किसी को जेल भेज दें तो 50 फीसद भ्रष्टाचार रुक जायेगा। मंत्री, विधायक, कलेक्टर, निगम आयुक्त सब के सब परेशान हैं। कुछ पार्षदों का आरोप है कि पिछले 2 सालों में ही नगर निगम अफसरों ने सफाई कम्पनी से मिलकर 500 करोड़ का घोटाला तक कर लिया है। यहां के 66 पार्षदों में से आधे से भी ज्यादा खुद ठेकेदारी करते देखे जाते हैं। जो सड़क सीमेंटों की वो बनवाते हैं वो कहीं-कहीं एक महीने में ही खराब हो जाती है। पिछले 10 सालों में उपनगर ग्वालियर से दूसरी बार विधायक प्रद्यम्न सिंह तोमर पहले सियासतदां देखे गये जो आम जनता की मुश्किल परेशानी के लिये फौरन सड़कों पर आ जाते रहे थे। अस्पतालों की दुर्दशा से लेकर नगर निगम की साफ सफाई, गन्दे नालों से पनप रही महामारी डेंगू को पूरे प्रदेश में अपनी राजधानी बना चुकी है। तोमर इस मामले में पिछले एक महीने से आक्रामक होकर सफाई करने, खुद गहरे नालों में सफाई करते दिखाई दे रहे हैं। जिससे एक तरफ नगर निगम प्रशासन बेचैन हैं वहीं दूसरी तरफ उनके राजनैतिक विरोधियों की भी नींदें उड़ी हुई हैं। कांग्रेसी तो कांग्रेसी संघ वालों में भी तोमर को हीरो बताया जा रहा है।
निगम में भ्रष्टाचार
ग्वालियर में गंदगी के लिये जहां निगम अमले की कमियां यहां होने वाले भ्रष्टाचार हैं वहीं सियासी दांव पेच व खुद जनता की उदासीनता व जागरुक न होना है पर सत्ता दल वालों में महापौरों की बेवजह आलोचना करना वहां ऐसे आयुक्तों को पदस्थ करा देना जो महापौरों की न सुनकर सिर्फ उनकी सुनते थे भी रहा है। ग्वालियर के समीक्षा गुप्ता भी अच्छी संवेदनशील महापौर रहीं और विवेक शेजवलकर भी लाजवाब व मिलनसार, मृदुभाषी के तौर पर जाने जाते हैं पर उन्हें उनकी ही पार्टी वालों ने विपक्ष से ज्यादा उन्हें परेशान कराया। साफ सफाई के मामले में इन्दौर को छोड़कर कहीं भी खासतौर से ग्वालियर में ईमानदारी से कोशिशें नहीं की जा रही हैं। यहां के ज्यादातर पार्षद जब खुद ठेकेदार बन बैठे हों तथा वो साफ सफाई को शहर का मुद्दा ही न मानें तो क्या बन पडेगा। अफसर तो मीटिंगे करेंगे, निरीक्षण पर निरीक्षण करेंगे, बैठकों पर बैठकें और अंत में रिजल्ट तो शून्य का शून्य ही रहने वाला है। 1978-80 तक डाॅ. भागीरथ प्रसाद साहब ने व 83-84 में अनिल जैन साहब ने काफी बेहतर निजाम चलाया। ग्वालियर नगर निगम का नगरों में स्थानीय सरकारें बनते ही निजाम बिगड़ गया। ऊपर से लूटखसोट की सियासत इस सब पर मंत्री तोमर की गांधीगिरी से कुछ प्रभाव जरूर पड़ने वाला है। अब तक कोई आम जनता के लिये नालों में क्यों नहीं उतरा ये बड़ा सवाल है।
ये नेता नहीं, कुर्सीदास हैं
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारतीय राजनीति के घोर अधःपतन का घिनौना रुप किसी को देखना हो तो वह आजकल के महाराष्ट्र को देखे। जो लोग अपने आप को नेता कहते हैं, वे क्या हैं ? वे सिर्फ कुर्सीदास हैं। कुर्सी के लिए वे किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। शिव सेना-जैसी पार्टी कांग्रेस से हाथ मिलाकर सरकार बनाने के लिए उतावली हो गई है। बाल ठाकरे से लेकर आदित्य ठाकरे ने कांग्रेस की कब्र खोदने में कौन-कौन-सी कुल्हाड़ियां नहीं चलाई हैं, उस पर उन्होंने कितनी बार नहीं थूका है लेकिन अब उसी कांग्रेस के तलुवे चाटने को आज शिव सेना बेताब है। बालासाहब ठाकरे स्वर्ग में बैठे-बैठें अब क्या सोच रहे होंगे, अपने उत्तराधिकारियों के बारे में ? मुझे उनकी वह पुरानी भेंट-वार्ता अभी भी याद है, जिसमें उन्होंने साफ-साफ कहा था कि भाजपा और शिव सेना में से जिसे भी ज्यादा सीटें मिलेंगी, मुख्यमंत्री उसी पार्टी का बनेगा। इसमें विवाद करने की जरुरत ही नहीं है। अभी भाजपा को 105 और शिव सेना को उससे लगभग आधी (56) सीटें मिली हैं। फिर भी वह अड़ी हुई है, मुख्यमंत्री पद लेने के लिए। अब यदि वह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (54) से गठबंधन कर लेती है तो भी उसकी सीटें सिर्फ 110 होंगी याने कांग्रेस (44) की खुशामद के बिना वह सरकार नहीं बना सकती। मैंने तीन दिन पहले लिखा था कि यदि शिवसेना, राकांपा और कांग्रेस मिलकर सरकार बना लें तथा भाजपा बाहर बैठी रहे तो उक्त तीन पार्टियों का भट्ठा बैठे बिना नहीं रहेगा। कोई ईश्वरीय चमत्कार ही इस उटपटांग सरकार को पांच साल तक चला सकता है। उसके बाद जो भी चुनाव होंगे, उसमें महाराष्ट्र की जनता इस बेमेल खिचड़ी को उलट देगी। महाराष्ट्र ही नहीं, सारा देश यह नज्जारा देखकर चकित है। लोग यह समझ नहीं पा रहे हैं कि ये हमारे नेता हैं कि गिरगिटान हैं। उनके कोई आदर्श, कोई सिद्धांत, उनकी कोई नीति, कोई परंपरा, कोई मर्यादा भी होती है या नहीं ? यह बात सिर्फ शिव सेना पर ही लागू नहीं होती। भाजपा ने इस चुनाव में क्या किया है ? दर्जनों कांग्रेसियों को रातोंरात भाजपा में ले लिया है। उनमें से कुछ जीते भी हैं। वे कुर्सी के चक्कर में इधर आ फंसे। अब वे क्या करेंगे ? वे दल-बदल करने की स्थिति में भी नहीं हैं। वे मन-बदल पहले ही कर चुके। महाराष्ट्र में शिव सेना, राकांपा और कांग्रेस की सरकार चाहे बन ही जाए लेकिन उसे पता है कि केंद्र में भाजपा की सरकार है। वह क्या उसे चलने देगी ? पता नहीं, ये तीनों पार्टियां क्या सोचकर सांठ-गांठ कर रही हैं?
ए डी एच डी : बीमारी को अनदेखा तो नहीं कर रहे आप?
डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन
जो जीव /शिशु जन्म लेता हैं यदि वह जन्मजात रोगग्रस्त होता हैं या जन्म के बाद बाह्य संक्रमन से ग्रसित होता हैं .शिशु या मानव में रोग के स्थान दो होते हैं पहला शरीर और दूसरा मन .दोनों का एक दूसरे पर प्रभाव पड़ता हैं .कभी कभी शिशु के क्रियाकलापों से हम बहुत प्रभावित होते हैं पर कभी कभी वे रोगजन्य होते हैं .इस पर ध्यान रखना आवश्यक हैं .
हम सभी अपने बच्चे की परवरिश में अपना सर्वोत्तम देना चाहते हैं। लेकिन कई बार स्थितियां ऐसी होती हैं कि हम अपने बच्चे की बीमारी को नहीं पहचान पाते हैं, खासतौर पर अगर बीमारी उसकी मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी हो। ऐसी ही एक दिक्कत या मेडिकल लैंग्वेज में कहें तो डिसऑर्डर है ADHD (Attention Deficient Hyperactive Disorder)यह डिसऑर्डर बच्चे की लर्निंग और सोशल ग्रोथ में दिक्कतें खड़ी करता है और बच्चा अपनी योग्यता के अनुसार रिजल्ट नहीं दे पाता है।
बच्चे शरारती होते ही हैं
हम सभी जानते हैं बच्चे शरारती होते ही हैं। लेकिन शरारती बच्चों और एडीएचडी डिसऑर्डर से पीड़ित बच्चों में फर्क पहचानना बहुत जरूरी है। इस बीमारी के लक्षण आमतौर पर बच्चे में 3 से 4 साल की उम्र में दिखने शुरू हो जाते हैं और 12 से 13 साल की उम्र तक बने रहते हैं और बच्चे की चीजें सीखने की क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। जबकि कुछ बच्चों में ये लक्षण 20-25 की उम्र तक भी बने रह सकते हैं।
इस डिसऑर्डर से पीड़ित बच्चों को अटेंशन(ध्यान ) और कंसंट्रेशन(एकाग्रता) से जुड़ी समस्याएं होती हैं। इनके लिए किसी एक चीज पर ध्यान बनाए रखना या किसी बात को ध्यान से सुनना मुश्किल होता है। यही वजह होती है कि पालक और शिक्षक की बताई गई बातों को ये ध्यान से नहीं सुनते हैं या याद नहीं रख पाते हैं, क्योंकि इनका ब्रेन लगातार ऐक्टिव रहता है और इससे इनकी याददाश्त पर बुरा असर पड़ता है।
इस डिसऑर्डर से पीड़ित बच्चे बार-बार वही गलतियां दोहराते हैं, जिन्हें लेकर उन्हें पहले भी कई बार डांट पड़ चुकी होती है और समझाया जा चुका होता है। ये बच्चे किसी भी काम को बमुश्किल पूरा कर पाते हैं, ऐसा इसलिए क्योंकि ये बहुत देर तक किसी काम में ध्यान नहीं लगा पाते और पहले काम को बीच में ही छोड़कर तुरंत दूसरे काम में लग जाते हैं और दिनभर उछलकूद मचाते हुए इसी तरह की ऐक्टिविटीज दोहराते रहते हैं।
ए डी एच डी डिसऑर्डर से पीड़ित बच्चे अक्सर अपना सामान खोते रहते हैं। जैसे, स्कूल बैग, बुक्स और लंच बॉक्स जैसी डेली यूज की चीजें संभालना भी उनके लिए मुश्किल रहता है और इन्हें याद नहीं रहता कि इन्होंने अपना सामान कहां रखा है?
ए डी एच डी से पीड़ित बच्चे हर समय बेचैन से रहते हैं, हाई एनर्जी फील करते हैं और एक साथ कई काम करने की कोशिश करते हैं।
जिन बच्चों को एडीएचडी की शिकायत होती है, वे बहुत बातें करते हैं और बहुत जल्दी गुस्सा भी हो जाते हैं। ये बहुत अधिक उछलकूद करते हैं, दूसरों के काम में दिक्कतें पैदा करते हैं या दो लोगों को आपस में बात भी नहीं करने देते हैं। ऐसे बच्चों को शांत होकर खेलने या आराम करने में दिक्कत होती है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि नॉर्मल IQ होने के बावजूद ये शिक्षण में उतना अच्छा कार्य नहीं कर पाते, जितना अच्छा करने की क्षमता इनके अंदर होती है।
अगर इस तरह के लक्षण आप बच्चे में देखते हैं तो इनके समाधान के लिए आप अपने नजदीकी पेडियाट्रिशियनशिशु रोग विशेषज्ञ या मनोरोग चिकित्सक से जरूर मिलें। इसका इलाज संभव है और बिहेवियर थेरपी के साथ-साथ कुछ एक्सपर्ट आपको कुछ जरूरी मेडिसिन्स भी बच्चे के लिए दे सकते हैं।
बच्चे से जुड़ी इस समस्या को पहचानने में पैरंट्स के साथ ही स्कूल टीचर्स का बहुत बड़ा योगदान हो सकता है। बच्चे को लेकर शिक्षकों का फीडबैक बहुत महत्वपूर्ण होता है। ताकि उसकी क्रियाकलापों को सही तरीके से समझकर, उसे बेहतर तरीके से चिकित्सा किया जा सके। यह रोग भविष्य में बहुत दुखद परिणति लाकर खड़ा देता हैं .शिशु ,परिवार और अपने भविष्य के प्रति एक प्रकार से जिम्मेदारी बन जाता हैं।
गुरु नानक देव जी ने भारत को जागृत किया
कमलनाथ
गुरु नानक देव जी मानवता में विश्वास रखने वालों और नि:स्वार्थ भाव से मानवता की सेवा में समर्पित लोगों के लिए अनन्य प्रेरणा-स्रोत रहे हैं। हम इस महान संत की 550 वीं जयंती मनाते हुए आध्यात्मिक रूप से स्वयं को धन्य समझते हैं।
नानक शाह फकीर जी की शिक्षाएं आज और भी ज्यादा प्रासंगिक हो गई हैं क्योंकि मनुष्य स्वरचित दुखों का सामना कर रहा है। सामाजिक, सांस्कृतिक एकता की भावना को खतरों का सामना करना पड़ रहा है और मानवीय मूल्यों में मनुष्य का विश्वास बुरी तरह डगमगा गया है। वर्षों पहले गुरुनानक देव जी ने इस तरह की स्थितियों की चेतावनी दी थी और सुधारवादी कदम भी सुझाए थे।
भारत के गौरवान्वित नागरिकों के रूप में हम गुरु नानक देव जी को अपने मार्गदर्शक और दार्शनिक के रूप में पाकर खुद को भाग्यशाली मानते हैं। आज, जब दुनिया में सांस्कृतिक विविधता के लिए नापाक ताकतों और कट्टरपंथी सोच ने खतरे पैदा किये है, हम अपने मार्गदर्शक के रूप में गुरु नानक देव जी की बानी पाकर धन्य हैं। वे सिर्फ सिख समुदाय के गुरु नहीं हैं। वे मानवता के महान आध्यात्मिक शिक्षक हैं क्योंकि वे मन और हृदय के विकारों से मुक्ति पर जोर देते हैं।
गुरु नानक देव जी सामाजिक-धार्मिक और सांस्कृतिक सद्भाव के प्रतीक हैं। गुरु नानक देव जी और भाई मरदाना का साथ एक अनूठा उदाहरण है। यह सांस्कृतिक एकता को रेखांकित करता है। दो महान पुण्यात्माएँ परस्पर आध्यात्मिक गहराई से एकाकार थी। भाई मरदाना गुरुजी से 10 साल बड़े थे और अपने अंतिम समय तक उनके साथ रहे। उन्होंने निरंकार की महिमा का गायन करते हुए दो दशकों तक एक साथ आध्यात्मिक यात्रा की। गुरुनानक देव जी गाते थे और भाई मरदाना उनके साथ रबाब पर संगत करते थे। वे विलक्षण रबाब वादक थे। यहाँ तक कि उन्होंने इसे छह-तार वाला यंत्र बनाकर इसमें सुधार किया। उनका जन्म एक मुस्लिम परिवार में हुआ था। संगीत का उनका ज्ञान श्री गुरु ग्रंथ साहिब में स्पष्ट झलकता है। उसे विभिन्न रागों में निबद्ध किया गया है। भाई मरदाना का उल्लेख श्री गुरु ग्रंथ साहिब में भी है। भाई गुरुदास जी ने लिखा है –
‘इक बाबा अकाल रूप दूजा रबाबी मरदाना।’
दुनिया को यह जानने की जरूरत है कि – ‘आदि सच, जुगादि सच, है भी सच, नानक होसी भी सच।’ इसका सीधा सा अर्थ यह है कि ईश्वर एक परम सत्य, सर्वव्यापी है। सिवाय उसके कुछ भी वास्तविक नहीं है । वह सर्वकालिक है। अनन्त था अनन्त रहेगा।
ज्ञान के ऐसे शब्दों से गुरु नानक देव जी ने भारत के लोगों को जागृत किया। उर्दू के दार्शनिक कवि अल्लामा इक़बाल ने कहा है –
‘फिर उठी आखिर सदा तौहीद की पंजाब से,
हिंद को एक मर्द-ए-कामिल ने जगाया ख्वाब से’
(एक बार फिर पंजाब से एक दिव्य आवाज उठी जिसने उद्घोष किया कि ईश्वर एक है। एक सिद्ध पुरुष गुरु नानक देव जी ने भारत को जगाया।)
गुरु नानक देव जी और भाई मरदाना ने कीर्तन की परंपरा शुरू की, जो आध्यात्मिक जागृति का माध्यम साबित हुई है। समानता के विचार को प्रदर्शित करने के लिए, उन्होंने लंगर के आयोजन की परंपरा शुरू की। वर्षों बाद हम समझ पाए हैं कि यह एक क्रांतिकारी धार्मिक सुधारवादी कदम था।
गुरु नानक देव जी ने भारत को आध्यात्मिक भव्यता दी। उन्होंने कहा कि आंतरिक जागृति ही मूल्यवान वस्तु है। उन्होंने घोषणा की कि सभी समान हैं और सभी दिव्य ऊर्जा से भरपूर है। अपनी आध्यात्मिक यात्राओं के माध्यम से गुरु नानक देव जी ने भारत को जागृत किया और इसकी महिमा को ऊँचाइयाँ दी।
गुरु नानक देव जी ने जो उपदेश दिया उसका पालन किया। उन्होंने अपने बोले प्रत्येक शब्द को आत्मसात किया और सामाजिक सुधार लाए। मानवता की भलाई के लिए हमारे पास उनके दर्शन की सबसे अच्छी सीख हैं। उन्होंने कहा- हमेशा सच्चाई के पक्ष में रहें और मानवता की सेवा के लिए तैयार रहें। हमेशा पाँच बुराइयों को दूर करें- काम, क्रोध, लोभ, मोह ,अहंकार। गुरु ज्ञान का सच्चा स्रोत होते हैं। गुरु पर विश्वास रखें।
आइए हम अपने दैनिक जीवन में गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं, वैश्विक भाईचारे व सांस्कृतिक अखंडता को मजबूत करने के लिए सदैव तैयार रहें।
(ब्लॉगर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं)
भाजपा के सामने अब चुनौती
सिद्वार्थशंकर
अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण एक लंबे समय से भारतीय जनता पार्टी का एक मुख्य मुद्दा रहा है। आज यह पार्टी जो कुछ भी है, इसी मुद्दे की वजह से ही है। जहां एक तरफ सुप्रीम कोर्ट का फैसला भाजपा कार्यकर्ताओं और समर्थकों को कुछ समय तक प्रसन्नता देगा, वहीं पार्टी के सामने अब चुनौती होगी अपनी आगे की यात्रा के लिए नया एजेंडा तय करने की। यह मुद्दा लंबे समय तक लंबित रहा था, जिसने पार्टी को अपना आधार बनाने और समर्थकों को संगठित रखने में पार्टी की खासी मदद की, लेकिन अब यह मील का पत्थर पार होते ही सब कुछ पीछे छूट जाएगा, तब यह सोचना पड़ेगा कि इसके आगे क्या? यह भी सच है कि 2014 में भाजपा विकास के वादे के साथ सत्ता में आई थी। हमें यह नहीं पता कि 2024 के अगले आम चुनाव तक इसका कामकाज कैसा रहेगा।
पार्टी की जरूरत अब यह है कि वह अब किसी ऐसे बड़े मुद्दे को पहचाने और अपनाए, जो उसे सीधे लोगों से जोड़ता हो। जरूरी नहीं है कि पार्टी का नया एजेंडा किसी आस्था या किसी तरह धर्म से जुड़ा हुआ ही हो। मुद्दा, दरअसल ऐसा होना चाहिए जो लोगों को यह संदेश देने में कामयाब रहे कि पार्टी अपने मतदाताओं और समर्थकों का वास्तव में पूरा खयाल रखती है। यह मुद्दा विकास से जुड़ा हुआ भी हो सकता है। फिलहाल यह घोषणा कठिन है कि लोग 2024 तक किन मुद्दों को पसंद करेंगे। सुप्रीम कोर्ट के शनिवार के फैसले पर कुछ लोग अपना अति-उत्साह प्रदर्शित करने के लिए बढ़-चढ़कर आगे आ सकते हैं। ये ऐसे लोग हो सकते हैं, जो यह चाहेंगे कि भावनाएं भड़कें। अगर ऐसा हुआ, तो इस समय सरकार पर रोजगार के नए अवसर तैयार करने का जो दबाव बन रहा है, वह कुछ समय के लिए हल्का पड़ सकता है।
सर्वोच्च अदालत को जो फैसला आया है, उसमें केंद्र सरकार की अपनी कोई भूमिका नहीं है, लेकिन इस फैसले ने केंद्र सरकार को कुछ राहत तो दी ही है। खासकर आर्थिक मसलों पर सरकार के ऊपर जो दबाव बना था, वह इससे कुछ कम तो हुआ ही है, लेकिन यह एक अलग मसला है। हमें जो फैसला मिला है, वह सर्वोच्च न्यायालय का फैसला है, जिसने दशकों पुरानी एक समस्या को समाधान तक पहुंचाने की कोशिश की है। किसी भी तरह से इसके जरिये विभिन्न धर्मों के धर्मावलंबियों के बीच तनाव फैलाने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। मोदी सरकार ने दूसरे कार्यकाल की छह महीने की छोटी अवधि में दशकों पुराने तीन मुद्दों (अनुच्छेद 370, राम मंदिर और समान नागरिक संहिता) में से दो मुद्दों का हल निकाल लिया। अनुच्छेद 370 निरस्त करने के बाद शुक्रवार को अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की राह प्रशस्त हुई है। इससे पहले मोदी सरकार ने तीन तलाक को दंडनीय अपराध बनाया। हालांकि भाजपा की हिंदुत्व की राजनीति की झोली में अब सिर्फ समान नागरिक संहिता का मुद्दा नहीं बचा है। इससे पहले सरकार धर्मांतरण विरोधी कानून, नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय जनसंख्या नीति को अमलीजामा पहनाने की तैयारी में है। दरअसल वर्तमान स्थिति भाजपा के हिंदुत्व की राजनीति के अनुकूल है।
लोकसभा में जहां पार्टी और राजग को प्रचंड बहुमत हासिल है, वहीं राज्यसभा में भी राजग धीरे धीरे बहुमत की ओर बढ़ रहा है। बीती सदी के नब्बे के दशक में हिंदुत्व की राजनीति का मुखर विरोध करने वाले कई विपक्षी दल नरम हिंदुत्व की राह पर हैं। इसी के परिणामस्वरूप उच्च सदन में बहुमत न होने के बावजूद सरकार अनुच्छेद 370 को निरस्त करने और इससे पहले तीन तलाक को दंडनीय अपराध बनाने वाले बिल को पारित करा पाई। राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त होने के बाद हिंदुत्व की राजनीति की गाड़ी की रफ्तार धीमी नहीं होगी। सरकार के पास इस राजनीति की गाड़ी को रफ्तार देने के लिए पर्याप्त मुद्दे मौजूद हैं। मसलन सरकार की रणनीति तीसरे हफ्ते से शुरू हो रहे संसद के शीतकालीन सत्र में धर्मांतरण विरोधी बिल के साथ नागरिकता संशोधन बिल पारित कराने की तैयारी में है। इसके बाद सरकार के एजेंडे में नई जनसंख्या नीति तैयार करना है। अंत में सरकार देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की ओर कदम बढ़ाएगी।
खासतौर पर समान नागरिक संहिता लागू करने में केंद्र सरकार के समक्ष कोई अड़चन नहीं है। सुप्रीम कोर्ट में जज रहते अपने एक फैसले में जस्टिस विक्रमजीत सिंह सहित एक अन्य जज ने समान नागरिक संहिता की वकालत की थी। हिंदूवादी संगठनों के एजेंडे में अयोध्या में राम मंदिर के साथ मथुर और काशी में भी मंदिर निर्माण की बात थी। हालांकि 1991 में संसद ने एक बिल को मंजूरी दी थी जिसमें 1947 के बाद धार्मिक स्थलों की यथास्थिति बरकरार रखने की बात कही गई है। इसमें तब अयोध्या को शामिल नहीं किया गया था। फिर सरकार ने ट्रस्ट गठन को लेकर भी एजेंडा साफ कर दिया है। सरकार इस मामले में जल्दबाजी के मूड में नहीं है। सरकार पहले कमेटी बनाएगी और कानूनी पहलुओं पर विचार करेगी। मतलब साफ है मंदिर बनने से पहले इस मुद्दे को पूरी तरह भुना लेना। वैसे सरकार के इस फैसले को कुछ लोग प्रशासनिक नजरिए से भी देख रहे हैं। शनिवार को सुप्रीम कोर्ट का फैसला आते ही विहिप ने ट्रस्ट में भागीदारी का दावा ठोक दिया है।
उधर, अखिल भारतीय संत समिति ने कहा है कि राम जन्मभूमि न्यास के पास करोड़ों हिंदुओं की तरफ से इकट्ठा हुई शिला व धन है। लिहाजा ट्रस्ट पहले इन संसाधनों का इस्तेमाल कर उसकी गरिमा को बरकरार रखे। निर्मोही अखाड़ा भी दावा पेश करने की तैयारी है। उससे सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा करने को कहा है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में निर्मोही अखाड़ा से कहा है कि वह ट्रस्ट का हिस्सा बनने के लिए केंद्र सरकार के पास जा सकता है। इस ट्रस्ट के लिए मोदी सरकार को कई कानूनी और प्रशासनिक पहलुओं पर फैसला करना होगा। साथ ही इसके कई पहलू भी हैं, जिन्हें नजरंदाज नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ 2.77 एकड़ जमीन के मसले पर फैसला दिया है। बाकी बचे 64.23 एकड़ जमीन का क्या होगा इसका फैसला भी ट्रस्ट अपने हाथों में ले सकता है।
शेष जमीन को केंद्र सरकार ने 1993 में अधिगृहीत कर लिया था। इसमें 43 एकड़ जमीन विहिप के पास थी, जिसका उसने मुआवजा नहीं लिया है। इस आधार पर विहिप ट्रस्ट में शामिल होने का दावा कर सकता है। इसके अलावा करीब 20 एकड़ जमीन श्री अरविंद आश्रम समेत कई संगठनों की थी। इन्होंने केंद्र से इसका मुआवजा ले लिया था। यह मसला भी ट्रस्ट की जिम्मेदारी बनेगा। उम्मीद है कि मुआवजा लेने के बावजूद यह संगठन जमीन मंदिर के नाम दान कर देंगे। वहीं सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक निर्णय के बाद अब राम मंदिर निर्माण का रास्ता साफ हो गया है। लेकिन भव्य राम मंदिर के निर्माण में अभी 5 साल का समय और लगेगा। इस फैसले का लंबे समय से इंतजार कर रहे विश्व हिंदू परिषद ने मंदिर का डिजाइन पहले से ही तैयार किया हुआ है।
राम मंदिर निर्माण की कार्यशाला से जुड़े एक पर्यवेक्षक के मुताबिक, भव्य राम मंदिर के निर्माण में अभी कम से कम 5 साल का समय और लगेगा और इस निर्माण कार्य के लिए 250 विशेषज्ञ शिल्पकारों की जरूरत होगी, जो बिना रुके व बिना थके मंदिर का निर्माण कर सकें। जो भी हो अभी तो भाजपा फायदे में है और मंदिर फैसले का पूरा श्रेय मिलने की आस भी है। लिहाजा भाजपा का हिंदुत्व मुद्दा अभी खत्म नहीं हुआ है, बल्कि यह शुरुआत है।
अपनो के निशाने पर गहलोत सरकार
रमेश सर्राफ धमोरा
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत इन दिनों अपनी ही कांग्रेस पार्टी के नेताओं के निशाने पर आ रहे हैं। कुछ दिनों पहले गहलोत सरकार ने प्रदेश में नगरीय निकाय चुनाव में हाइब्रिड फार्मूला लागू किया था जिसको लेकर प्रदेश भर में बवाल मचा था। राजस्थान कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष व राजस्थान सरकार में उप मुख्यमंत्री सचिन पायलेट ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के उस फार्मूले का डटकर विरोध किया था। परिवहन मंत्री प्रताप सिंह खाचरियावास, खाद्य आपूर्ति मंत्री रमेश मीणा, सहकारिता मंत्री उदयलाल आंजना सहित कांग्रेस के कई विधायकों ने भी सरकार के फैसले को जन विरोधी बताते हुए पायलेट का समर्थन किया था।
सचिन पायलेट का कहना था कि कांग्रेस विधायक दल की बैठक में या केबीनेट की मिटिंग में ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं लाया गया था। यहां तक कि प्रदेश कांग्रेस कमेटी को भी इस बाबत कभी कोई जानकारी नहीं दी गयी थी। ऐसे में जन विरोधी फैसले को राज्य में कैसे लागू होने दिया जा सकता है। पायलेट का कहना था कि इस फार्मूले से तो कोई भी व्यक्ति बिना चुनाव लड़े ही पैसों के बल पर नगरीय निकायों का प्रमुख बन जायेगा। फिर वर्षों से पार्टी में काम करने वाले कार्यकर्ताओं का क्या होगा। उस वक्त मुख्यमंत्री अशोक गहलोत व स्वायत्त शासन मंत्री शांति धारीवाल ने हाइब्रिड फार्मूले का बचाव भी किया था मगर अंतत: मामला कांग्रेस आलाकमान के पास दिल्ली तक पहुंचा और अशोक गहलोत को अपना हाइब्रिड फार्मूला वापस लेकर फिर से चुने गए पार्षदों में से ही नगरीय निकायों के अध्यक्ष बनाने का नियम लागू करना पड़ा था।
हाल ही में गहलोत सरकार ने भाजपा सरकार द्वारा प्रदेश में सडक़ों पर चलने वाले निजी वाहनों को टोल टैक्स से दी गई छूट को वापस लेने का निर्णय किया है जिसका भी कांग्रेस सहित सभी दलों में विरोध हो रहा है। नगरीय निकायों के चुनाव से पूर्व टोल टैक्स लागू करने के फैसले का खामियाजा कांग्रेस को उठाना पड़ सकता है। टोल टैक्स को फिर से लागू करने के फैसले का भी गहलोत ने बचाव करते हुए कहा है कि टोल टैक्स की छूट निजी वाहन चलानेवालों को को दी जा रही थी जो टैक्स टोल टैक्स चुकाने में सक्षम है। भाजपा की पूर्ववर्ती सरकार द्वारा टोल टैक्स में दी गई छूट नियम विरुद्ध है। इसलिए राज्य सरकार ने इसे फिर से लागू करने का फैसला किया है।
इसी तरह अक्टूबर 2018 में वसुंधरा राजे सरकार ने प्रदेश के किसानों को उनके कृषि कुओं के बिजली बिलों में 833 रूपये प्रतिमाह का अनुदान देना का निर्णय किया था। जिस में भी अब बिजली कंपनियों के अधिकारी दिक्कत पैदा करने लगे हैं। बिजली विभाग के अधिकारियों का कहना है कि कृषि उपभोक्ता पहले बिजली का पूरा बिल चुकाये फिर अनुदान की राशि उसके बैंक खाते में भेजी जायेगी। उपभोक्ता के खातों में जमा कराने के नियम से प्रदेश के आधे से अधिक किसान इस छूट का लाभ नही उठा पायेगें। प्रदेश में कई किसानों के भूमि का नामांतरण नहीं हुआ है तो कई किसानों के आपस में पारिवारिक विवाद चल रहे हैं। इसलिए एक साथ बैंक खाता नहीं खुल सकता है। इसमें किसानों को विभिन्न तरह की समस्या आ रही है। किसान संगठनों का कहना है कि पूर्व की भाजपा सरकार ने किसानों को मिलने वाले अनुदान को बिजली बिलों में ही समायोजित करने का जो फैसला किया था उसे ही बरकरार रखना चाहिए। बैंक खाते में अनुदान की राशि जाने से काफी किसानो को परेशानी उठानी पड़ेगी। अधिकतर किसानो का सामूहिक कृषि कनेक्शन है। कई कृषि कनेक्शन मृतको के नाम से ही चल रहे हैं उनका अभी तक नामान्तरण दर्ज नहीं हो पाया है। ऐसे में उनको अनुदान से वंचित रहना पड़ सकता है।
राजस्थान रोडवेज ने प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिदिन करीब 2 लाख किलोमीटर रूट पर बसों के परिचालन में कटौती कर दी है। जिससे गांव में परिवहन सेवा की पहुंच कम हो गई है। जिसका असर आम ग्रामीण पर पड़ रहा है। इससे गांवों के लोगों को आवागमन के साधनों की कमी महसूस होने लगी है। प्रदेश सरकार के इन फैसलों का सीधा असर गांव के गरीब, किसान, मजदूरों पर पड़ रहा है। प्रदेश में खनन माफिया पुलिस, प्रशासन पर भारी पड़ रहा हैं। प्रदेश भर में अवैध खनन जोरों पर हैं। खनन माफियाओं का दुस्सास इतना बढ़ गया है कि वह सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों पर भी हमला करने से नहीं चूक रहे हैं। पत्थर, रोड़ी, बजरी की ठेकेदारों द्धारा मनमानी कीमत वसूली जा रही है। प्रतिबंधित क्षेत्र में भी खनन का कार्य धड़ल्ले से जारी है।
बसपा से कांग्रेस में आए 6 विधायकों का विधायक दल में तो विलय हो गया है लेकिन कांग्रेस की अंदरूनी कलह की वजह से अभी तक उन्हें प्रदेश कांग्रेस कमेटी कार्यालय में विधिवत रूप से कांग्रेस की सदस्यता नहीं प्रदान की गई है। जबकि उनको कांग्रेस में शामिल करने से पूर्व इस बात का वायदा किया गया था कि उन्हें सम्मान के साथ कांग्रेस में शामिल किया जाएगा। उनमें से कुछ विधायकों को मंत्री व कुछ विधायकों को विभिन्न निगम बोर्ड का अध्यक्ष बनाया जाएगा। लेकिन उनके साथ किया वायदा भी अभी अधर झूल में लटका हुआ है। मंत्रिमंडल के पुनर्गठन की मांग भी लंबे समय से चल रही है लेकिन अभी तक उस पर भी कोई निर्णय नहीं हो पाया है। प्रदेश में सत्ता व संगठन के गतिरोध के कारण विभिन्न निगम, बोर्ड, आयोग में गैर सरकारी सदस्यों,अध्यक्षों की नियुक्तियां नहीं हो पा रही है।
हाल ही में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव व राजस्थान के प्रभारी अविनाश पांडे ने जयपुर के एक निजी होटल में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलेट के बीच सुलह कराने के उद्देश्य से लम्बी चर्चा की लेकिन उसके अभी कोई नतीजे सामने नहीं आयें है। उस मीटिंग में बसपा से कांग्रेस में शामिल होने वाले पांच विधायकों से भी फेस टू फेस चर्चा की गई थी। उनकी शिकायत थी कि कांग्रेस ने उनसे किया वादा अभी तक पूरा नहीं किया है।
राजस्थान में विधानसभा की दो सीटो मंडावा व खींवसर के उपचुनावों में में कांग्रेस ने मंडावा सीट तो जीत ली मगर कांग्रेस के दिग्गज नेता हरेंद्र मिर्धा खींवसर सीट पर सांसद हनुमान बेनीवाल के भाई नारायण बेनीवाल के हाथों से हाथों पराजित हो गए। कांग्रेस की आपसी फूट मिर्धा की हार की प्रमुख वजह मानी जा रही है।
प्रदेश में कानून व्यवस्था की स्थिति बदतर हो रही है। आए दिन जगह-जगह बलात्कार की घटनाएं घट रही हैं। कांग्रेस सरकार के आने के बाद भी प्रदेश में कर्ज से परेशान होकर करीबन एक दर्जन किसानों ने आत्महत्या कर ली है। दिन दहाड़े सरेआम दुकानदारों को गोली मारकर लूटा जा रहा है। अपराधियों में बिल्कुल भी भय नहीं है। प्रदेश में अपराधी बेखौफ होकर अपराध को अंजाम दे रहे हैं। प्रदेश की जनता भय के साए में जीने को मजबूर हो रही है। इन सब परिस्थितियों के कारण प्रदेश की आम जनता को लगने लगा है कि उन्होंने कांग्रेस को वोट देकर कहीं गलती तो नहीं कर दी है।
यदि समय रहते कांग्रेस अपने सत्ता व संगठन के झगड़े को नहीं सुलटा पाती है तो उसका खामियाजा उसे आगे आने वाले निकाय व पंचायती राज चुनाव में उठाना पड़ेगा। आगे चलकर प्रदेश में सरकार के खिलाफ एक नकारात्मक वातावरण बनेगा जो सरकार के लिए खतरे की घंटी साबित होगा।
मंदिर विवाद का पटाक्षेप
सिद्धार्थ शंकर
2010 में इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के बाद सुप्रीम कोर्ट पहुंचे सुन्नी वक्फ बोर्ड, रामलला विराजमान और निर्मोही अखाड़ा के बीच अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद से जुड़े भूमि विवाद का पटाक्षेप हो गया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस भूमि को 3 बराबर-बराबर हिस्सों में बांटने का आदेश दिया था। इस फैसले के खिलाफ अलग-अलग पक्ष सुप्रीम कोर्ट पहुंचे। सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी और इस साल अगस्त में मामले की नियमित सुनवाई शुरू की। 40 दिन की नियमित सुनवाई के बाद शनिवार को सुप्रीम कोर्ट ने शिया बोर्ड और निर्मोही अखाड़े के दावे को खारिज करते हुए रामलला विराजमान और सुन्नी वक्फ बोर्ड के बीच फैसला दिया। फैसले में कोर्ट ने विवादित भूमि पर मंदिर बनाने और अयोध्या में ही पांच एकड़ जमीन मस्जिद के लिए देने का आदेश दिया। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली खण्डपीठ में जस्टिस एसए बोबड़े, जस्टिस डीवाई चन्द्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस अब्दुल नजीर शामिल थे। इस खण्डपीठ ने जो फैसला दिया है, वह इस लिहाज से ऐतिहासिक है, क्योंकि कोर्ट के सामने मामले का समाधान करने के साथ ही दोनों पक्षों को संतुष्ट करना भी था। इस फैसले से पहले पूरे देश का माहौल जिस तरीके से तनावपूर्ण था, उसे देखते हुए भी सुप्रीम कोर्ट के सामने फैसले में सामंजस्य बैठाना जरूरी हो गया था। हालांकि कोर्ट ने जो फैसला दिया, उस पर आपत्ति किसी को नहीं है और सभी सहमत हैं। इसी परंपरा को कायम करने की अपील काफी दिनों से की जा रही थी। देश के सौहार्द्र को कायम रखने की जो मिसाल लोगों ने दिखाई है, वह उम्दा है। अगर पूरे विवाद पर नजर डालें तो अयोध्या विवाद करीब साढ़े चार सौ साल से भी ज्यादा पुराना है। राम मंदिर और बाबरी मस्जिद को लेकर दो समुदायों के बीच यह विवाद 1528 से चला आ रहा है। 1885 में मामला पहली बार कोर्ट पहुंचा। महंत रघुवर दास ने फैजाबाद की अदालत में मुकदमा दर्ज कर विवादित ढांचे में पूजा की इजाजत मांगी। इसके बाद 1886 में फैजाबाद कोर्ट ने फैसले में कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मस्जिद हिंदुओं के पवित्र स्थल पर बनी है। बता दें कि 1853 में मंदिर-मस्जिद विवाद को लेकर पहली बार हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हिंसा हुई। हिंदुओं ने आरोप लगाया कि भगवान राम के मंदिर को तोडक़र मस्जिद का निर्माण हुआ। निर्मोही अखाड़े के महंत रघुबर दास ने फैजाबाद कोर्ट में मस्जिद परिसर में मंदिर बनवाने की अपील की पर कोर्ट ने मांग खारिज कर दी। ब्रिटिश सरकार ने दीवार और गुंबदों को फिर से बनवाया। कहा जाता है कि 1949 में मस्जिद में श्रीराम की मूर्ति मिली। इस पर विरोध व्यक्त किया गया और मस्जिद में नमाज पढऩा बंद कर दिया गया। फिर दोनों पक्षों ने लोग कोर्ट पहुंच गए। इसपर सरकार ने इस स्थल को विवादित घोषित कर ताला लगवाया दिया। अयोध्या विवाद एक राजनीतिक, ऐतिहासिक और सामाजिक-धार्मिक विवाद है जो नब्बे के दशक में सबसे ज्यादा उभार पर था। इस विवाद का मूल मुद्दा राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद की स्थिति को लेकर है। विवाद इस बात को लेकर है कि क्या हिंदू मंदिर को ध्वस्त कर वहां मस्जिद बनाया गया या मंदिर को मस्जिद के रूप में बदल दिया गया।
मुगल शासक बाबर 1526 में भारत आया। 1528 तक वह अवध वर्तमान अयोध्या तक पहुंच गया। बाबर के सेनापति मीर बाकी ने 1528-29 में एक मस्जिद का निर्माण कराया था। यह अभी भी रहस्य है कि क्या मंदिर को तोडक़र मस्जिद बनवाई गई या मंदिर की ही मस्जिद के अनुसार बदला गया किन्तु यहां पर आकर यहां की धार्मिक भावनाओं के विपरीत कार्य किये और इस्लाम धर्म को बढ़ाने के लिए हिन्दुओं को जबरदस्ती मुस्लिम बनाया, लगभग 90 फीसदी मुस्लिम पहले हिन्दू ही थे जिनका धर्म परिवर्तन करके मुस्लिम बनाया गया है, अत: मुस्लिम समाज (पूर्व मे हिन्दू समाज) को राम मंदिर बनने की संभावना है, और सबको पता है कि बाबरी मस्जिद की जगह पहले रामलला ही विराजमान थे। 1528 में राम जन्म भूमि पर मस्जिद बनाई गई थी। हिन्दुओं के पौराणिक ग्रन्थ रामायण और रामचरित मानस के अनुसार यहां भगवान राम का जन्म हुआ था।
बता दें कि 9 मई 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी थी। 21 मार्च 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने आपसी सहमति से विवाद सुलझाने को कहा। 19 अप्रैल 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती सहित भाजपा और आरएसएस के कई नेताओं के खिलाफ आपराधिक केस चलाने का आदेश दिया।
8 मार्च 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या के राम मंदिर और बाबरी मस्जिद मामले को मध्यस्थता के लिए भेज दिया। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता में पांच जजों वाली पीठ ने तीन सदस्यों को मध्यस्थता समिति का सदस्य बनाया गया। सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस फकीर मोहम्मद इब्राहिम खलीफुल्ला इस समिति के प्रमुख थे। उनके अलावा पैनल में आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर और वरिष्ठ अधिवक्ता श्रीराम पंचू भी शामिल किया गया। हिंदू महासभा के वकील वरुण कुमार सिन्हा ने इस फैसले का विरोध करते हुए कहा कि मध्यस्था के हमारे पुराने अनुभव बुरे ही रहे हैं, इसलिए सुप्रीम कोर्ट को इसपर विचार करना चाहिए।
मध्यस्थता की कोशिशें नाकाम होने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने मामला अपने हाथ में लिया और ४० दिन तक नियमित सुनवाई की। ९ नवंबर २०१९ को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए पूरे विवाद का पटाक्षेप कर दिया। १०४५ पन्नों वाले फैसले में शीर्ष कोर्ट ने न सिर्फ विवाद का समाधान दिया, बल्कि देश को इस तरह के मामलों में आपसी एकता बनाए रखने और धैर्य से काम लेने का संदेश भी दिया। उम्मीद है कि अब हिन्दू और मुस्लिमों के बीच उन्माद का कारण बनने वाला यह विवाद सदा-सदा के लिए खत्म हो जाएगा और देश मंदिर-मस्जिद से आगे की सोच सकेगा।
भारत-सऊदी संबंधों का नया दौर
योगेश कुमार गोयल
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सऊदी अरब यात्रा को दोनों देशों के बीच संबंधों में नई ऊर्जा भरने के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण माना जा रहा है। प्रधानमंत्री ‘फ्यूचर इन्वेस्टमेंट इनिशिएटिव’ फोरम (दावोस इन द डेजर्ट) में शामिल होने के लिए दो दिन के दौरे पर सऊदी अरब गए थे, जहां दोनों देशों के बीच तेल एवं गैस, रक्षा तथा नागर विमानन सहित विभिन्न प्रमुख क्षेत्रों में कई अहम समझौते हुए। मोदी की सऊदी यात्रा के दौरान दो महत्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर हुए, जिनमें से एक है ‘इंडियन स्ट्रैटिजिक पैट्रोलियम रिजर्व लिमिटेड’ तथा ‘सऊदी आरामको’ के बीच हुआ समझौता, जिसके तहत सऊदी अरब कर्नाटक में तेल रिजर्व रखने का दूसरा प्लांट बनाने में अहम रोल अदा करेगा। दूसरा समझौता है, भारत के इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन की पश्चिमी एशिया यूनिट तथा सऊदी अरब की अल-जेरी कम्पनी के बीच हुआ समझौता। इस यात्रा के दौरान ‘भारत-सऊदी अरब रणनीतिक साझेदारी परिषद’ के गठन की घोषणा भी की गई, जिसमें दोनों देशों का नेतृत्व शामिल होगा, जो भारत को अपनी उम्मीदों और आकांक्षाओं को पूरा करने में मदद करेगा। इस परिषद की अगुवाई प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा सऊदी प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान करेंगे और परिषद दो वर्ष के अंतराल पर मिला करेगी।
सऊदी अरब ही वह प्रमुख देश है, जिसकी मुस्लिम देशों में भारत की पैठ बनाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है और वह ऊर्जा क्षेत्र तथा आर्थिक मोर्चे के साथ-साथ कूटनीतिक मोर्चे पर भी भारत के प्रमुख सहयोगी के रूप में तेजी से उभरा है। हालांकि एक समय था, जब भारत और सऊदी अरब के बीच संबंध इतनेे बेहतर नहीं थे। इसका सबसे बड़ा कारण था कि सऊदी अरब को एक ऐसे राष्ट्र के रूप में देखा जाता था, जिसकी नीति सदैव पाकिस्तान परस्त और पाक समर्थित ही रही और जो भारत के विरूद्ध पाक प्रायोजित आतंकवाद को धन तथा अन्य संसाधन मुहैया कराता था। तब सऊदी अरब हर कदम पर पाकिस्तान के साथ ही खड़ा नजर आता था लेकिन भारत की 2008 में शुरू हुई ‘लुक ईस्ट नीति’ के बाद से वह धीरे-धीरे भारत के करीब आ रहा है और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अब तक दो बार की सऊदी अरब यात्राओं के बाद दोनों देशों के संबंधों में व्यापक सुधार देखा जा रहा है। पिछले तीन वर्षों में प्रधानमंत्री की यह दूसरी सऊदी यात्रा थी। इससे पहले वे 2016 में सऊदी अरब गए थे और तब वहां के बादशाह सलमान ने उन्हें सऊदी अरब के ‘सर्वोच्च नागरिक सम्मान’ से सम्मानित किया था। उसके बाद इसी साल पुलवामा हमले के बाद दोषियों को सजा दिलाने की भारत की वैश्विक मुहिम को अंतर्राष्ट्रीय समर्थन मिलने के दौर में सऊदी क्राउन प्रिंस भारत के दौरे पर आए थे। भारत यात्रा के दौरान उन्होंने आतंकवाद के खिलाफ भारत की मुहिम का समर्थन किया था। उस दौरान दोनों देशों के बीच पांच महत्वपूर्ण समझौते भी हुए थे।
यह भारत की आर्थिक और कूटनीतिक सफलता ही है कि एक ओर वह सऊदी अरब को एक बड़े व्यापारिक साझेदार के रूप में जोड़ने में सफल रहा है, वहीं सऊदी अरब भारत के रूख को समझते हुए कश्मीर को अब भारत का आंतरिक मामला मानता है और संकेत दे चुका है कि इस मुद्दे पर वह अब पाकिस्तान के पक्ष में नहीं है। गौरतलब है कि मोदी और सऊदी अरब के युवराज के बीच प्रतिनिधिमंडल स्तर की वार्ता के बाद जारी संयुक्त बयान में दोनों देशों के आंतरिक मामलों में सभी रूपों में हस्तक्षेप को खारिज कर दिया गया। प्रधानमंत्री की इस बार की सऊदी यात्रा के बाद दोनों पक्ष रक्षा तथा सुरक्षा क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने पर भी सहमत हुए हैं और अब दोनों देश अपना पहला संयुक्त नौसैनिक अभ्यास मार्च 2020 में करेंगे। भारत तथा सऊदी अरब के घनिष्ठ होते संबंधों की अहमियत इसी से समझी जा सकती है कि पाकिस्तान के लाख प्रयासों के बावजूद सऊदी अरब अब भारत को पूरा महत्व देने लगा है। सऊदी अरब के लिए भारत उन आठ बड़ी शक्तियों में से एक है, जिनके साथ वह अपने ‘विजन 2030’ के तहत रणनीतिक साझेदारी करना चाहता है। भारत के साथ संबंधों में सुधार के पीछे उसके सहयोग का यह भी एक बड़ा कारण है। आपसी संबंधों को बेहतर करने की दिशा में दोनों देश अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अब लगातार दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय दे रहे हैं।
सऊदी अरब ने बेहद बुरे समय में भी हमेशा पाकिस्तान की भरपूर मदद की है और पाकिस्तान के साथ उसके रिश्ते आज भी अच्छे ही हैं लेकिन इसके बावजूद जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 खत्म करने के बाद तुर्की और मलेशिया के एकदम विपरीत जिस प्रकार का सकारात्मक रूख सऊदी ने दिखाया और कश्मीर मुद्दे पर बढ़ते संकट को लेकर पाकिस्तान को चेताया भी, उससे भारत-सऊदी संबंधों की ऊष्मा को महसूस किया जा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान के तमाम प्रोपेगेंडा के बाद भी सऊदी साफ संकेत दे चुका है कि वह कश्मीर मसले पर भारत की चिंताओं और संवेदनशीलता को समझता है। सऊदी अरब कश्मीर मसले पर भारत के रूख का सम्मान करते हुए यह मानने लगा है कि भारत जो भी कर रहा है, अपनी आबादी की बेहतरी के लिए कर रहा है। पाकिस्तान का प्रमुख सहयोगी माना जाने वाला सऊदी अरब ही अगर अब क्षेत्र को आतंकवाद मुक्त बनाने के भारत के अभियान में उसका पक्ष ले रहा है और इस चुनौती से निपटने के लिए पूर्ण सहयोग देने की प्रतिबद्धता जता रहा है तो भारत की इससे बड़ी कूटनीतिक सफलता और कोई हो भी नहीं सकती। बदलते वैश्विक परिदृश्य में भारत को आतंकवाद के मुद्दे पर सऊदी अरब का समर्थन भारत के बढ़ते महत्व और सकारात्मक कूटनीति का ही परिणाम है।
भारत और सऊदी अरब के बीच प्रगाढ़ होते संबंधों का सीधा असर अब सऊदी-पाकिस्तान के संबंधों पर देखा जा रहा है, जिसकी बानगी पिछले दिनों देखने को भी मिली। संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में हिस्सा लेने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान सऊदी क्राउन प्रिंस के विमान में ही न्यूयार्क गए थे और उस समय प्रिंस ने इमरान को सख्त हिदायत भी दी थी कि वह संयुक्त राष्ट्र के मंच पर कश्मीर का मुद्दा न उछालें और इस मुद्दे को दूसरे इस्लामिक राष्ट्रों से भी न जोड़ें लेकिन जब इमरान ने संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में इसी मुद्दे को पुरजोर तरीके से उछालते हुए भारतीय प्रधानमंत्री को सीधे-सीधे निशाना बनाने की कोशिश की तो उनकी इस हरकत से सऊदी प्रिंस इस कदर खफा हुए कि उन्होंने अपना विमान ही वापस बुला लिया था, जिसके बाद इमरान को कमर्शियल प्लेन से अपने वतन लौटना पड़ा था। सऊदी अरब की इस नाराजगी को भांपते हुए इमरान ने पिछले माह इसीलिए दोबारा सऊदी का दौरा किया था।
पिछले कुछ वर्षों में भारत और सऊदी अरब के बीच व्यापारिक रिश्ते काफी मजबूत हुए हैं और दोनों के बीच व्यापार तेजी से बढ़ा है। सही मायनों में पिछले कुछ समय में सऊदी अरब विभिन्न मोर्चों पर भारत का एक भरोसेमंद साथी ही साबित हुआ है। भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल उपभोक्ता देश है, जो अपनी जरूरतों का करीब 83 फीसदी तेल आयात करता है और इराक के बाद भारत के लिए सऊदी अरब ही दूसरा सबसे बड़ा तेल आपूर्तिकर्ता है, जो भारत का चौथा सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी बन गया है। दोनों देशों के संबंधों के पुख्ता होने का स्पष्ट संकेत देती सबसे अहम बात यह है कि तेल के उत्पादन में 50-60 फीसदी कमी हो जाने के दिनों में भी सऊदी ने कभी भी भारत को तेल देने में आनाकानी नहीं की। वर्ष 2017-18 में दोनों देशों के बीच 27.48 अरब डॉलर का द्विपक्षीय व्यापार हुआ था और अब सऊदी अरब भारत में 100 अरब डॉलर का निवेश करने जा रहा है, जो ऊर्जा, रिफाइनरी, पैट्रोकेमिकल्स, कृषि तथा खनन क्षेत्र में होगा। दूसरी ओर भारत भी सऊदी में स्मार्ट सिटी, रेड सी टूरिज्म, एंटरटेनमेंट सिटी जैसी परियोजनाओं में हिस्सेदारी बढ़ा रहा है। भारत अपनी आवश्यकताओं का 18 फीसदी कच्चा तेल तथा 32 फीसदी एलपीजी सऊदी से ही आयात करता है और वहां से करीब 22 अरब डॉलर के पैट्रो पदार्थ खरीदता है। 2018-19 में सऊदी अरब ने भारत को 40.33 मिलियन टन क्रूड ऑयल बेचा था। सऊदी में 27 लाख से भी ज्यादा भारतीय रहते हैं, जिनमें से करीब 15 लाख वहां रोजगार कर रहे हैं और इन्हीं के जरिये प्रतिवर्ष भारत में 11 बिलियन डॉलर से भी अधिक विदेशी मुद्रा आती है।
ऐसा नहीं है कि केवल भारत को ही सऊदी अरब की जरूरत है बल्कि आजकल जिस तरह का वैश्विक माहौल है, उसके चलते सऊदी को भारत की भी उतनी ही जरूरत है। वैश्विक मंचों पर जिस प्रकार भारत की हैसियत लगातार बढ़ रही है, ऐसे में सऊदी भी विभिन्न क्षेत्रों में भारत के साथ साझेदारी करना चाहता है। पूरी दुनिया जिस तरह की आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रही है, उससे सऊदी भी अछूता नहीं है। सऊदी अरब की अर्थव्यवस्था तेल पर ही निर्भर रही है लेकिन कच्चे तेल के दामों में गिरावट से वह पहले से ही परेशान है। दूसरी ओर यमन के साथ लड़ाई में शामिल होने के चलते उसका खर्च काफी बढ़ गया है। यही कारण है कि उसने अब तेल और गैस के व्यापार से बाहर निकलकर दूसरे क्षेत्रों में भी निवेश कर अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के प्रयास शुरू किए हैं। भारत के अलावा अमेरिका, जापान, दक्षिण कोरिया इत्यादि देशों के साथ संबंधों में सुधार की कवायद के पीछे यह भी बहुत महत्वपूर्ण कारक है। सऊदी अरब अब अपनी कट्टर मुस्लिम राष्ट्र की छवि से बाहर निकलने की लगातार कोशिश कर रहा है, जिसके चलते उसने अपने वहां महिलाओं को कई प्रकार के अधिकार भी दिए हैं। सऊदी अरब के इस तरह के प्रयासों की पूरी दुनिया ने सराहना की है। बहरहाल, जहां भारत और सऊदी अरब के प्रगाढ़ होते संबंधों से दोनों देशों में बढ़ते आपसी कारोबार के चलते दोनों में ही आर्थिक तरक्की के नए रास्ते खुलेंगे, वहीं इन रिश्तों में नई ऊर्जा भरने से आने वाले समय में एशिया महाद्वीप के राजनीतिक समीकरण भी नए रूप में सामने आ सकते हैं।
रियल एस्टेट को डोज
सिद्धार्थ शंकर
सरकार ने अटकी परियोजनाओं में फंसे मकान खरीदारों और रीयल एस्टेट कंपनियों को बड़ी राहत देने की घोषणा करते हुए 25,000 करोड़ रुपए का फंड देने का ऐलान किया है। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि देशभर में 1600 हाउसिंग प्रोजेक्ट और 4.58 लाख यूनिट्स (घर या फ्लैट्स) अटके पड़े हंै। सरकार इस वैकल्पिक निवेश कोष (एआईएफ) में 10,000 करोड़ रुपए डालेगी जबकि शेष 15,000 करोड़ रुपए का योगदान स्टेट बैंक और भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) की ओर से किया जायेगा। इससे कोष का समूचा आकार 25,000 करोड़ रुपए तक पहुंच जाएगा। इस कोष के तहत केवल रेरा में पंजीकृत परियोजनाओं पर ही विचार किया जायेगा। वित्त मंत्री ने साफ किया कि यह राहत उन्हीं परियोजनाओं को मिलेगी, जो लटके हैं। परियोजना यदि शुरू ही नहीं हुई है तो इस कोष से कोई राहत नहीं मिलेगी। उदाहरण के लिए यदि किसी परियोजना में तीन टावर बनने हैं, उसमें एक टावर में 50 प्रतिशत काम हुआ है, दूसरे में 30 प्रतिशत और तीसरे में कोई ही काम नहीं हुआ है, तो हम सबसे पहले 50 प्रतिशत पूरी हुई परियोजना को कोष उपलब्ध कराया जाएगा। सरकार की इस पहल से न केवल अर्थव्यवस्था में रोजगार पैदा होंगे बल्कि सीमेंट, लोहा और इस्पात उद्योग की भी मांग बढ़ेगी। इस फैसले का उद्देश्य अर्थव्यवस्था के इस प्रमुख क्षेत्र पर बने दबाव से उसे राहत पहुंचाना भी है।
सरकार ने रियल एस्टेट कारोबार को मंदी से उबारने की दिशा में जो पहल शुरू की है उससे यह उम्मीद बंधती है कि सरकार आने वाले दिनों में ऐसे बड़े कदम उठाएगी, जिनसे इस क्षेत्र में पिछले चार-पांच साल से चला आ रहा संकट खत्म हो और बिल्डरों के साथ-साथ ग्राहकों का भी भला हो। अभी तक रियल एस्टेट क्षेत्र एक तरह से दम तोड़े हुए है। जायदाद खरीदने-बेचने का कारोबार करने वाले सड़क पर हैं और सिर्फ बड़े कारोबारी थोड़ी-बहुत हिम्मत से डटे हैं। रियल एस्टेट में लंबे समय से खरीदार नहीं हैं। नोटबंदी के बाद यह संकट और गहराता चला गया। ये उसी का असर है कि आज लाखों फ्लैट बन कर तैयार हैं, लेकिन खरीदार नहीं हैं।
जमीन-जायदाद का कारोबार लंबे समय से नगदी संकट की मार झेल रहा है। इसकी एक वजह यह भी है कि बैंक और गैरबैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसी) पहले तो इस क्षेत्र के लिए पैसे दे रही थीं, लेकिन अब इन्होंने हाथ खींच लिए हैं। एनबीएफसी तो खुद नगदी संकट में फंसी हैं और ऐसी आशंका भी बनी हुई है कि कहीं इन्हें भी एनपीए की बीमारी न लग जाए।
यह पहले से कहा जा रहा था कि रियल एस्टेट क्षेत्र में जान फूंकने के लिए सरकार को एक साथ कई मोर्चों पर जूझना होगा। इनमें सबसे जटिल काम इस क्षेत्र को पूंजी मुहैया कराने का है, ताकि बिल्डर अटकी हुई परियोजनाएं पूरी कर सकें। अब जबकि सरकार ने यह कर दिखाया है, तो उम्मीद करनी चाहिए कि हालात कुछ हद तक सुधरेंगे। दूसरी बड़ी समस्या मकान खरीदारों को लेकर है। आम्रपाली, जेपी जैसे कुछ बड़े समूहों की परियोजनाओं में 42 हजार से ज्यादा लोगों के पैसे फंसे हुए हैं और सर्वोच्च अदालत ने अब इनका काम पूरा करने और लोगों को मकान दिलाने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार पर डाली है। इसलिए ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि सरकार अटकी परियोजनाओं को पूरा करने और खरीदारों को संकट से निकालने के लिए अलग से कोष बना सकती है।
हाल में रिजर्व बैंक ने भी अपनी मौद्रिक नीति में चौथी बार नीतिगत दरों में कटौती है और साथ ही बैंकों पर कर्ज सस्ता करने के लिए दबाव बनाया है। बैंक कर्ज सस्ता होने से भी रियल एस्टेट क्षेत्र को पटरी पर लाने में मदद मिलेगी।
इसमें कोई दो राय नहीं कि भारतीय अर्थव्यवस्था इस वक्त फिर से मंदी जैसे हालात का सामना कर रही है। ऐसे में रियल एस्टेट उद्योग को फिर से खड़ा कर पाना कोई आसान काम नहीं हैं। उसे हर स्तर पर भारी रियायतों की जरूरत है। इसीलिए बिल्डरों और क्रेडाई (कनफेडरेशन ऑफ रियल एस्टेट डेवलपर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया) और नारेडको (नेशनल रियल एस्टेट डेवलपमेंट काउंसिल) ने सबसे ज्यादा जोर इस बात पर दिया है कि सरकार बैंकों और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों पर इस क्षेत्र में पैसा डालने के लिए दबाव बनाए। लेकिन हकीकत यह है कि ज्यादातर बैंक पहले ही एनपीए की गंभीर समस्या से जूझ रहे हैं। ऐसे में वे कोई जोखिम नहीं ले सकते। सीमेंट और इस्पात जैसे क्षेत्र रियल एस्टेट कारोबार पर टिके होते हैं। इसमें मंदी का मतलब है सीमेंट और इस्पात जैसे उद्योगों पर खतरा मंडराना। इसलिए सरकार को अब ऐसी रणनीति बनानी होगी, जिसमें बैंकों के जोखिम का खयाल रखते हुए रियल एस्टेट उद्योग में पैसा डलवाया जाए, ताकि इससे जुड़े दूसरे प्रमुख क्षेत्रों में भी मंदी के हालात दूर हों। मंदी की वजह से बड़ी संख्या में लोगों का रोजगार जा रहा है, यह भी कम गंभीर चिंता का विषय नहीं है। ऐसे में सरकार के प्रयास कहां तक सफल हो पाते हैं, यह आने वाला वक्त ही बताएगा!
क्या कश्मीरी कभी भारतीय हो पाएगें…..?
ओमप्रकाश मेहता
आज से जम्मू-कश्मीर का दर्जा बदल गया, अब वह देश का नौवां केन्द्र शासित राज्य हो गया है, जम्मू-कश्मीर के साथ लद्दाख भी केन्द्र शासित राज्य हो गया है, इस तरह देश में केन्द्र शासित राज्यों की संख्या सात से बढ़कर नौ हो गई है। जम्मू-कश्मीर के केन्द्र शासित राज्य हो जाने के बाद आज भी वही बहात्तर साल पुराना सवाल जीवित है कि क्या कश्मीरी कभी भारतीय हो पाएगें? स्मरणीय है कि भारत की आजादी के बाद जब पाकिस्तान का जन्म हुआ था, तब कश्मीर को लेकर काफी खींचतान हुई थी, पाक के तत्कालीन जनक मोहम्मद अली जिन्ना कश्मीर को पाक के साथ जोड़ना चाहते थे जबकि प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू व शेख अब्दुल्ला कश्मीर को भारत में रखना चाहते थे, इस विवाद को बढ़ता देख जिन्ना व नेहरू के बीच कश्मीर में इसी मुद्दें पर रायशुमारी का फैसला हुआ, किंतु नेहरू जी यह जानते थे कि कश्मीर का पूरा अवाम पाकिस्तान के साथ है, इसलिए उन्होंने अपनी चार्तुथ से कश्मीर को भारत के साथ रख लिया और फिर अपने जीते जी रायशुमारी नहीं कराई, शेख अब्दुल्ला की जिद पर संविधान की धारा-370 का प्रावधान कर कश्मीर को विशेष अधिकार प्राप्त राज्य का दर्जा दे दिया गया।
अब मौजूदा मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से धारा-370 के एक झटके में खत्म तो कर दिया, किंतु क्या वे कश्मीरियों को ‘‘सच्चा भारतीय’’ बना पाएगें? जम्मू-कश्मीर से धारा-370 खत्म किए नब्बे दिन होने को आ रहे है, और पहले दिन से ही वहां स्थिति सामान्य होने का ढ़िढोरा पीटा जा रहा है, यदि वहां स्थिति सामान्य थी तो फिर बच्चों के स्कूल अब क्यों खोले गए? और जो स्कूल पहले प्रशासन के दबाव में खुल गए थे, उनमें बच्चें क्यों नहीं आए? इस दौरान जितने भी समाचार चैनलों ने जम्मू-कश्मीर की विशेष रिपोर्ट जारी की, किसी ने भी यह स्वीकार नही किया कि वहां स्थिति सामान्य है, बल्कि जिन चैनलों ने कश्मीरियों से बात की सभी ने वहां की स्थिति को लेकर चिंता प्रकट की और आज भी वही स्थिति है, और अब तो वहां घटी आतंकी घटनाओं और उनमें हुई निरीहों की हत्याओं ने भी यह सिद्ध कर दिया कि कश्मीर में स्थिति सामान्य नहीं है।
यही नहीं पिछले दिनों तो हद तब हो गई जब सरकार ने अपने देश के सांसदों को जम्मू-कश्मीर जाने से रोक कर यूरोपीय संघ के सांसदों को कश्मीर की सैर करवा दी। ऐसा क्यों किया गया? यह तो अधिकारिक तौर पर केन्द्र की किसी भी हस्ती ने नहीं बताया, किंतु युरोपीय संघ के सांसदों ने जो कश्मीर में देखा उससे वे संतुष्ट नहीं थे और यह कहने को मजबूर थे कि आज भी कश्मीर में स्थिति सामान्य नहीं है। अब ये ही सांसद अपने-अपने देशों में जाकर वहां के विधान मंडलों में कश्मीर का हाल बयां करेगें तो देश की विश्व पटल पर क्या इज्जत रह जाएगी? जब इन विदेशी सांसदों ने यही की सरकार से हमारे विपक्षी सांसदों को कश्मीर जाने देने की सिफारिश कर दी तो अब इस सरकार में विराजित महापुरूषों से क्या कहा जाए?
जहां तक लद्दाख का सवाल है, वह जम्मू-कश्मीर जैसा समस्या प्रधान देश नहीं है, यद्यपि वहां चीन की दखलंदाजी की स्थायी समस्या है, और वह रहेगी, क्योंकि केन्द्र शासित राज्य बना दिए जाने से वह समस्या खत्म नहीं होगी, उसके लिए कोई सार्थक द्विपक्षीय पहल करनी पड़ेगी, इसलिए लद्दाख को जम्मू-कश्मीर के साथ जोड़ना कतई ठीक नहीं है। यह उसका दुर्भाग्य था कि उसे अब तक जम्मू-कश्मीर के साथ जोड़ रखा था।
अब यह तो फिलहाल कहना मुश्किल ही है कि जम्मू-कश्मीर में स्थिति सामान्य कब होगी? क्योंकि वहां की स्थिति वहां के नागरिकों से जुड़ी है, जब तक कश्मीरियों के दिल नहीं बदलते, जब तक वे अपने आपकों भावनात्मक रूप से भारत के साथ नहीं जोड़ते तब तक जम्मू कश्मीर में स्थिति सामान्य नहीं हो सकती, और उसके लिए इस सरकार को कश्मीरियों की मूल समस्याएँ समझकर, उन्हें दूर कर कश्मीरियों का दिल जीतना होगा, सिर्फ सेना में वहां के युवकों की भर्ती करके उन्हें आतंकवादी बनने से रोकने का ढ़िढोरा पीटने से कुछ नहीं होगा। कश्मीरियों की कुछ अपनी स्थानीय समस्याएँ है जो उनके व्यवसाय व उद्योग के साथ उनकी रोजी-रोटी से जुड़ी है, उनका समाधान प्राथमिकता के आधार पर खोजना होगा तथा उसे कार्यरूप में परिणित करना होगा, तभी कश्मीर व कश्मीरी सही अर्थों में भारत का अंग बन पाएगा। विदेशियों को कश्मीर की सैर करवाने से कुछ नहीं होगा, उल्टा वहां की समस्याओं का विश्वव्यापीकरण हो जाएगा, इसके लिए सरकार को अपनी प्राथमिकताएँ बदलनी होगी।
आर्थिक सुस्ती के गंभीर असर
सिद्वार्थ शंकर
इस वित्त वर्ष की शुरुआत से ही आर्थिक सुस्ती देखने को मिल रही है। इसके चलते औद्योगिक उत्पादन और रोजगार से लेकर मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर पर बुरा असर पड़ा है। कई महीने तक ऑटोमोबाइल सेक्टर भी सुस्ती का सामना करता रहा। हालांकि त्योहारों की वजह से इसमें सुधार देखा गया है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी ने अब जो डेटा जारी किया जिसमें साफ देखा जा सकता है कि स्लोडाउन की वजह से अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा असर पड़ा है। अक्टूबर में बेरोजगारी की दर बढ़कर 8.5 प्रतिशत हो गई जो कि अगस्त 2016 के बाद सबसे ज्यादा है। यह सितंबर के मुकाबले भी 7.2 फीसदी ज्यादा है। सीएमआईई के आंकड़ों के मुताबिक यह स्लोडाउन का असर है। इसके अलावा अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की तरफ से एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई है, जिसके मुताबिक पिछले 6 सालों में करीब 90 लाख रोजगार के अवसरों में कमी आई है। इस रिपोर्ट को संतोष मेहरोत्रा और जगति के परीदा ने मिलकर तैयार किया है और इसे अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के सेंटर ऑफ सस्टेनेबेल एंप्लॉयमेंट की तरफ से प्रकाशित किया गया है।
अक्टूबर में मैन्युफैक्चरिंग आउटपुट पिछले दो साल में सबसे स्लो रहा। आईएचएस इंडिया के पैकेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स में भी गिरावट देखी गई। यह सितंबर में 51.4 थी जो कि अक्टूबर में घटकर 50.6 हो गई। एजेंसी 400 प्रोड्यूसर्स को शामिल करके सर्वे करवाती है जिसमें नए ऑर्डर, आउटपुट, जॉब, सप्लायर के डिलिवरी टाइम और स्टॉक परचेज के आंकड़े इक_े किए जाते हैं। यह सूचकांक अगर 50 के ऊपर होता है तो वृद्धि मानी जाती है वहीं 50 के नीचे आ जाने से बाजार में स्लोडाउन की स्थिति मानी जाती है।
टैक्स कलेक्शन में भी सरकार को झटका लगा है। अक्टूबर में जीएसटी कलेक्शन गिरकर 95,380 करोड़ पर पहुंच गया। पिछले साल इस महीने में जीएसटी संग्रह 1,00,710 था। यह लगातार तीसरा महीना है जब जीएसटी 1 लाख करोड़ से कम है। आंकड़ों के मुताबिक इस वित्त वर्ष के पहले छह महीने में टैक्स कलेक्शन में ग्रोथ केवल 1.5 फीसदी की रही है जो कि 2009-10 के बाद सबसे कम है। बता दें कि अप्रैल-जून की तिमाही में जीडीपी ग्रोथ 5 प्रतिशत दर्ज की गई जो कि 6 साल में सबसे कम है। जुलाई-सितंबर का डेटा 30 नवंबर में जारी किया जाएगा। निवेशकों के मुताबिक यह स्लोडाउन साल 2006 से भी लंबा है। पिछले कुछ दिनों में जिस तरह की रिपोर्ट आई है, वह शुभ संकेत नहीं है। आर्थिक सुधार के सरकार के प्रयास असर नहीं दिखा रहे हैं और आम जनता पर भार पड़ता जा रहा है। यह वक्त सरकार के लिए चेतने वाला है। अगर अब भी मंदी को दरकिनार किया जाता रहा तो आने वाला कल और भी भयावह होगा।
चिंताजनक है ‘पुलिसिया तफ़्तीश’ पर सवाल उठना
निर्मल रानी
देश में पिछले दिनों दो ऐसी घटनाएं घटित हुईं जिन्होंने जनता का पूरा ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। पहली घटना गत 12 अक्टूबर शनिवार को प्रातःकाल उत्तरी दिल्ली का वीआईपी इलाक़ा समझे जाने वाले सिविल लाइंस थाना क्षेत्र में घटित हुई। इस घटना में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भतीजी दमयंती मोदी के साथ झपटमारी अथवा राहज़नी की घटना पेश आई। दिल्ली पुलिस के अनुसार 12 अक्टूबर शनिवार को क़रीब सात बजे दमयंती बेन मोदी ऑटो में बैठकर जैसे ही गुजराती समाज भवन के पास अपने परिवार के साथ ऑटो से उतरने लगीं, उसी समय दो स्कूटी सवारों ने उन पर झपट्टा मारा। दमयंती बेन सपरिवार अमृतसर से दिल्ली आई थीं तथा उन्हें उत्तरी दिल्ली के सिविल लाइंस क्षेत्र स्थित गुजराती समाज भवन पहुंचना था।ज्यूँ ही उनका ऑटो गुजराती समाज भवन के मुख्य द्वार के सामने पहुंचा ठीक उसी क्षण स्कूटी पर सवार दो बदमाशों ने दमयंती बेन मोदी पर झपट्टा मारा और उनका पर्स उनके हाथों से छीन कर फ़रार हो गए। दमयंती बेन के अनुसार उनके पर्स में लगभग 56 हज़ार रुपये, दो मोबाइल फ़ोन और कई ज़रूरी काग़ज़ात थे। उन्हें घटना के दिन अर्थात शनिवार को ही अहमदाबाद की विमान यात्रा भी करनी थी। परन्तु पर्स के साथ ही उनके यात्रा संबंधी ज़रूरी काग़ज़ात भी झपटमारी में चले गए थे। सिविल लाइंस के जिस इलाक़े में प्रधानमंत्री की भतीजी के साथ दिनदहाड़े यह सनसनीख़ेज़ वारदात पेश आई उसी स्थान के बिल्कुल क़रीब ही दिल्ली के उप-राज्यपाल का आवास है और वहीँ पर पर दिल्ली के मुख्यमंत्री का निवास भी है। दिल्ली विधानसभा भी इसी घटना स्थल के समीप ही स्थित है।
बहरहाल,बधाई के पात्र है दिल्ली की चुस्त,दुरुस्त,कुशल,सक्षम व कर्तव्यनिष्ठ पुलिस जिसने राहज़नी की इस घटना के मात्र 24 घंटे के भीतर ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भतीजी दमयंती मोदी के साथ राजधानी दिल्ली में हुई इस लूट के मामले में दिल्ली पुलिस ने गौरव उर्फ़ नोनू (21वर्ष) नाम के एक बदमाश को हरियाणा के सोनीपत से गिरफ़्तार कर लिया । और कुछ ही देर बाद पुलिस ने बादल नामक दूसरे आरोपी को भी गिरफ़्तार कर लिया। पुलिस के अनुसार नोनू नाम का अपराधी पहाड़गंज थाना क्षेत्र में नबी करीम का रहने वाला है। पुलिस ने अपराधी नोनू की निशानदेही पर पीएम मोदी की भतीजी दमयंती बेन के पर्स में मौजूद 56 हज़ार रूपये की नक़दी, दो मोबाइल फ़ोन और काग़ज़ात भी बरामद कर लिए। इतना ही नहीं बल्कि दिल्ली पुलिस ने राहज़नी की इस घटना में इस्तेमाल की गई स्कूटी भी बरामद कर ली। निश्चित रूप से देश को दिल्ली पुलिस की इस क़द्र चौकसी व उसकी तत्परता पर नाज़ है जिसने भीड़ भाड़ वाली घनी राजधानी में होने वाले इस अपराध का पटाक्षेप अपनी कार्यकुशलता का शानदार प्रदर्शन करते हुए कर डाला।
ऐसा ही एक हाई प्रोफ़ाइल अपराध गत 18 अक्टूबर शुक्रवार की दोपहर को पुराने लखनऊ के अति व्यस्त एवं भीड़ भरे चौक इलाक़े में उस समय घटित हुआ जबकि हिन्दू समाज पार्टी के अध्यक्ष कमलेश तिवारी की हत्यारों ने उन्हीं के घर में ही गला रेत कर हत्या कर दी। उत्तर प्रदेश पुलिस ने भी इस हत्याकांड की गुत्थी सुलझाने का दावा मात्र 48 घंटे के भीतर ही कर डाला। पुलिस ने संदिग्धों के स्केच भी जारी किये और उनपर ढाई लाख रुपए के इनाम की घोषणा भी कर दी। अब तक चार संदिग्ध हत्यारों की गिरफ़्तारी का दावा भी उत्तर प्रदेश पुलिस कर चुकी है। उत्तर प्रदेश,गुजरात तथा महाराष्ट्र से संदिग्धों की गिरफ़्तारी की ख़बरें हैं। माना जा सकता है कि उत्तर प्रदेश पुलिस ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भतीजी दमयंती मोदी के साथ झपटमारी की घटना की ही तरह वैसी ही तत्परता कमलेश तिवारी की हत्या के मामले में भी दिखाई जैसी दिल्ली पुलिस ने गत दिनों दिखाई थी। निश्चित रूप से पूरा देश पुलिस से ऐसी ही चौकसी बरतने व अपराधियों को पकड़ने में इसी प्रकार की तेज़ी व तत्परता प्रदर्शित करने की उम्मीद करता है।
परन्तु उपरोक्त वारदातों के बाद दिखाई गई त्वरित पुलिसिया तफ़्तीश व इससे सम्बंधित गिरफ़्तारियों से एक सवाल यह भी उठता है कि क्या इस प्रकार की तफ़्तीश और यथाशीघ्र संभव लूटे गए माल की बरामदगी करना व हत्या के आरोपियों को गिरफ़्तार करने जैसा कर्तव्य निर्वाहन चुनिंन्दा व हाई प्रोफ़ाइल मामलों तक ही सीमित रहता है या फिर आम लोगों के साथ घटित होने वाले अपराधों में भी पुलिस इतनी ही तत्परता बरतती है? आज देश में ऐसे ही न जाने कितने ऐसे अपराधिक मामले हैं जिनमें अपराधियों का कोई सुराग़ ही नहीं मिल पा रहा है। ऐसा ही सबसे चर्चित जे एन यू के छात्र नजीब की गुमशुदगी का मामला है। यह जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की तीन वर्ष पूर्व अक्तूबर 2016 की घटना है। 14 अक्तूबर 2016 की रात जे एन यू कैंपस स्थित हॉस्टल में नजीब अहमद और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के कुछ छात्रों के बीच मारपीट की घटना घटित हुई। इससे अगले ही दिन यानी 15 अक्तूबर 2016 को जे एन यू कैंपस स्थित माही-मांडवी हॉस्टल से नजीब अहमद लापता हो गया। इसके अगले दिन 17 अक्तूबर को विश्वविद्यालय प्रबंधन ने नजीब के परिजनों के साथ दिल्ली पुलिस में नजीब के लापता होने की रिपोर्ट दर्ज करवाई। इसके बाद दिल्ली पुलिस की जांच चलती रही। परिजनों की मांग पर अदालत ने जांच का ज़िम्मा सीबीआई को सौंपा। इसके बावजूद आज तक किसी भी जांच एजेंसी को नजीब से जुड़ी कोई जानकारी हासिल नहीं हो पाई है। गत 15 अक्टूबर को अपने बेटे नजीब की गुमशुदगी के तीन वर्ष पूरे होने की पूर्व संध्या पर उसकी मां फ़ातिमा नफ़ीस जेएनयू पहुंची। दिल्ली में पत्रकारों माध्यम से फ़ातिमा नफ़ीस ने सरकर व पुलिस से यह सवाल पूछा कि ‘जब अपराधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भतीजी का पर्स झपट लेते हैं और देश की सबसे स्मार्ट पुलिस 24 घंटे में अपराधियों के साथ-साथ लूट का सारा सामान व पैसा भी फ़ौरन बरामद कर लेती है। काश उसी तरह मेरे बेटे नजीब के लिए भी दिल्ली पुलिस और सीबीआई ने इसी तरह से जांच की होती तो आज मैं शहर-दर-शहर नहीं भटकती’। परन्तु आज तक दिल्ली पुलिस व सीबीआई न तो नजीब की तलाश कर सकी न ही अपराधियों तक पहुँच सकी। यह तक पता नहीं चल पा रहा है कि नजीब ज़िंदा भी है या नहीं।
ऐसी ही और भी कई घटनाएं हैं जो पुलिस व जांच एजेंसियों की कार्य प्रणाली पर उंगली उठाती हैं। यह सवाल उस समय और भी प्रखर हो जाते हैं जबकि हाई प्रोफ़ाइल मामलों में पुलिस आनन फ़ानन में अपराधियों की गर्दन पर तो अपने हाथ डाल देती है परन्तु आम लोगों के मामले में ऐसी तत्परता नहीं दिखा पाती। । लिहाज़ा यदि भारतीय पुलिस व सुरक्षा एजेंसियों को अपनी प्रतिष्ठा क़ायम रखनी है तथा आम जनता में अपने प्रति विश्वास बनाए रखना है तो साधारण से साधारण घटना में भी वैसी ही चौकसी,कुशलता व तत्परता का परिचय देना चाहिए जैसा कि उसने गत एक सप्ताह में घटी उपरोक्त दोनों घटनाओं में दिया है।
न कांग्रेस मुक्त भारत न पचहत्तर पार:टूटा अहंकार
तनवीर जाफ़री
महाराष्ट्र तथा हरियाणा राज्यों में हुए विधानसभा के आम चुनावों के परिणाम आ चुके हैं। देश के एक समाचार पत्र ने इन परिणामों के संबंध में अत्यंत उपयुक्त शीर्षक लगाते हुए लिखा -‘मतदाताओं ने सभी को कहा -हैप्पी दीपावली’। वास्तव में इन परिणामों ने इन चुनावों में सक्रिय लगभग सभी राजनैतिक दलों को खुश रहने का कोई न कोई अवसर ज़रूर प्रदान किया है। हरियाणा में जैसे भी हो मगर भारतीय जनता पार्टी सत्ता में वापसी करने में सफल रही जबकि महाराष्ट्र उसकी अपनी चुनाव पूर्व सहयोगी शिवसेना के साथ मुख्यमंत्री पद को लेकर घमासान जारी है । कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी दोनों ही दलों ने अपने आप में पहले से काफ़ी अधिक सुधार किया दोनों ही दलों की राजनैतिक स्थित महाराष्ट्र तथा हरियाणा के आम चुनावों से लेकर विभिन्न राज्यों में हुए लोकसभा व विधान सभा के उप चुनावों तक में काफ़ी बेहतर हुई। उधर हरियाणा के चुनावी मैदान में उतरी सबसे नई नवेली पार्टी जननायक जनता पार्टी ने अपने चुनाव निशान ‘चाबी’ की हैसियत को अपने पहले ही चुनाव में ही उस समय पहचनवा दिया जबकि पहली बार में ही सत्ता की चाबी भी उसी के पास रही और पहले ही चुनाव में उप मुख्यमंत्री का पद हासिल कर पाने में जजपा कामयाब रही। उपरोक्त पूरे राजनैतिक घटनाक्रम में किसी प्रकार की नैतिकता आदि की बात करने की ज़रुरत इसलिए नहीं कि यह राजनैतिक जोड़ तोड़ और सत्ता समीकरण बिठाने के विषय हैं लिहाज़ा यहाँ ‘नैतिकता ‘,सिद्धांत अथवा वैचारिक प्रतिबद्धता के दृष्टिकोण से किसी भी पहलू पर नज़र डालना क़तई मुनासिब नहीं।
24 अक्टूबर की शाम तक जिस समय लगभग पूरे चुनाव परिणाम आ चुके थे और यह स्पष्ट हो चुका था कि प्रधानमंत्री मोदी व ग़ृह मंत्री अमित शाह द्वारा बार बार दिया जाने वाला ‘कांग्रेस मुक्त भारत ‘ बनाए जाने का नारा जहाँ एक बार फिर असफल हुआ वहीं हरियाणा में भी पिछले कई महीनों से भाजपा द्वारा चलाया जा रहा ‘अब की बार 75 पार’ का अभियान भी मुंह के बल गिर पड़ा। कांग्रेस पार्टी ने तमाम तरह की नकारात्मकता अर्थात संगठन में खींचतान,अनेक कांग्रेस नेताओं के ठीक चुनाव पूर्व पार्टी छोड़ने,टिकट आवंटन में मचे घमासान,कई लोगों के पार्टी टिकट न मिलने पर उनके स्वतंत्र चुनाव लड़ने,आख़री समय पर प्रत्याशी घोषित करने,सोनिया गाँधी,राहुल गाँधी व प्रियंका गाँधी जैसे सर्वप्रमुख नेताओं की चुनाव प्रचार अभियान में पूरी दिलचस्पी न लिए जाने,कई प्रमुख पार्टी नेताओं के विरुद्ध हो रही क़ानूनी जाँच पड़ताल और आर्थिक संकट आदि झेलने के बावजूद जैसा प्रदर्शन महाराष्ट्र,हरियाणा तथा कई राज्यों के उप चुनावों में किया है उसकी किसी भी राजनैतिक विश्लेषक को यहाँ तक कि शायद कांग्रेसजनों को भी उम्मीद नहीं थी। चुनाव परिणामों से यह भी स्पष्ट हो गया कि चुनाव में ‘मोदी के नाम का जादू’ जैसी कोई भी चीज़ अब मतदाताओं के बीच नहीं रह गई है।
भारतीय जनता पार्टी ने हरियाणा में 2005 में हुए चुनाव में मात्र दो सीटों पर जीत दर्ज की थी जो 2009 का चुनाव आते आते केवल चार सीटें जीतने की स्थिति में आ सकी। परन्तु 2014 में पहली बार भाजपा ने जब राज्य की 90 में से 46 सीटों पर जीत दर्ज की उस समय से ही बहुमत के नशे में चूर भाजपाइ नेताओं में पार्टी को अजेय समझने जैसा अहंकार पैदा होना शुरू हो गया था।अन्यथा लोकतान्त्रिक व्यवस्था में,जहाँ जीत हार,और यश अपयश की सारी चाभियाँ ही ‘लोक ‘ अथवा जनता के पास हों वहां स्वयं भू रूप से यह घोषणा कर देना कि ‘अब की बार-75 पार’ न केवल लोकतंत्र का अपमान है बल्कि अहंकार की पराकाष्ठा भी है। और हरियाणा चुनाव नतीजों ने यह दिखा भी दिया कि नारों व अहंकार के प्रभाव में जनता नहीं आने वाली। हरियाणा में खट्टर मंत्रिमंडल के सात मंत्रियों को भी जनता ने इस चुनाव में धूल चटा दी। इन में कई जो स्वयं को मुख्यमंत्री पद का दावेदार बताते थे उनकी ज़मानत भी ज़ब्त हो गई। और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी,अमित शाह तथा राजनाथ सिंह जैसे नेताओं की कई जनसभाएं करवाने के बावजूद हरियाणा में बीजेपी ने कुल 40 सीटें जीती जबकि कांग्रेस ने 31, जननायक जनता पार्टी ने 10, तथा निर्दलीयों ने सात सीटों पर जीत दर्ज कर ‘अब की बार-75 पार’ के नारे को हवा हवाई नारा साबित कर दिया। ठीक इसके विपरीत संगठनात्मक तौर पर बुरे दौर से गुज़र रही कांग्रेस पार्टी जो कि हरियाणा में विशेष रूप से ठीक चुनाव पूर्व ही एक निर्णायक संकटकालीन दौर से गुज़री। यहाँ तक कि आला कमान ने ठीक चुनाव पूर्व ही 3 वर्षों से हरियाणा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पर आसीन रहे अशोक तंवर को हटाकर कुमारी शैलजा को राज्य कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने जैसा ज़ोख़िम भरा फ़ैसला लिया। उधर भाजपा के नेता पूरे देश में घूम घूम कर जनता से देश को कांग्रेस मुक्त करने की ज़ोरदार अपील करते आ रहे हैं। पंडित जवाहर लाल नेहरू और कांग्रेस पार्टी को जम कर एक साथ कोसा जा रहा है। कश्मीर से धरा 370 हटाने के केंद्र सरकार के फ़ैसले के बाद इसी बहाने कांग्रेस व नेहरू पर महाराष्ट्र से हरियाणा तक एक बार फिर निशाने साधे गए। परन्तु नतीजा यही रहा की भाजपा को लड़खड़ाना पड़ा और कांग्रेस सहित लगभग सभी विपक्षी दल पहले से अधिक मज़बूत हुए।
इसके बावजूद भाजपा द्वारा बहुमत के जादुई आंकड़े छूकर सत्ता हासिल करना, यह वास्तव में जनादेश का कितना सम्मान है और कितना अपमान,सत्ता के लिए भाजपा को कहाँ किस प्रकार घुटने टेकने पड़े हैं,यहाँ तक कि अपनी हर आलोचना हर तरह का विरोध करने वाले यहाँ तक कि अपने ही विरुद्ध चुनाव लड़कर 10 सीटें जीत कर आने वाले जजपा जैसे नव गठित क्षेत्रीय दल के साथ उन्हीं की शर्तों पर सरकार बनाना यह सब कुछ देश ने भली भांति देखा है। जो भाजपा 90 सीटों की हरियाणा विधान सभा में ‘अब की बार 75 पार’ का नारा दे रही थी वह कितने बुलंद हौसले व इरादे से चुनाव मैदान में रही होगी इसका अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है। वहीं राज्य में त्रिकोणीय चुनावी संघर्ष के बाद और कहीं कहीं तो चतुर्थकोणीय चुनाव होने के बावजूद यदि पार्टी बहुमत का 46 का आंकड़ा भी नहीं छू सकी तो इससे साफ़ है कि हरियाणा का जनमत भाजपा की खट्टर सरकार के विरुद्ध था। भले ही भाजपा विरोधियों में से भी किसी एक दल को जनता ने पूर्ण बहुमत नहीं दिया। परन्तु केंद्र में सत्ता व सत्ता सम्बन्धी प्रतिष्ठानों का लाभ उठाकर भाजपा ने जननायक जनता पार्टी के नेता दुष्यंत चौटाला को उप मुख्यमंत्री पद देकर अपनी सत्ता की रह आसान कर ली। इस तिकड़मबाज़ी को दोनों ही दलों भाजपा व जननायक जनता पार्टी की मौक़ा परस्ती तो कहा जा सकता है परन्तु जनादेश का सम्मान हरगिज़ नहीं। जनता जनार्दन ने तो महाराष्ट्र व हरियाणा दोनों ही जगह यह दिखा दिया कि न तो भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत का नारा साकार हुआ न ही पार्टी हरियाणा में ‘पचहत्तर पार’ कर सकी,हाँ जनता ने ऐसे नारे लगाने वालों का अहंकार ज़रूर चूर चूर कर दिया।
मेहनती लोगों का मध्यप्रदेश नई उड़ान क्यों नहीं भर सकता ?
कमल नाथ
मध्य प्रदेश के स्थापना दिवस पर सभी नागरिकों को हार्दिक शुभकामनाएँ । हम सबके लिए यह एक ऐतिहासिक अवसर है। मैं उन सभी बंधुओं को भी हार्दिक बधाई देता हूँ जो विदेशों में बस गए हैं और अपने प्रदेश की खूबसूरत वादियों और सुनहरे पलों को याद करते हैं। मैं उन सबको भी नमन करता हूँ, जिन्होंने मध्यप्रदेश के निर्माण में अपूर्व योगदान दिया है और उत्साहपूर्वक राज्य के नवनिर्माण में जुटे हुए हैं।
मध्यप्रदेश एक लंबा सफर तय कर चुका है। यह एक शानदार राज्य है। सिर्फ इसलिए नहीं कि यहाँ शांतिपूर्ण सांस्कृतिक विविधता है, मोहक जैव-विविधता, प्राकृतिक सौंदर्य है या लुभावने स्मारक है। यह अपने शांतिप्रिय और मेहनती लोगों के कारण अद्वितीय है। सर्वधर्म समभाव मध्यप्रदेश की पहचान है।
निस्संदेह, मध्य प्रदेश का सौंदर्य सबको सम्मोहित कर देता है। नर्मदा नदी का निर्मल प्रवाह, स्वतंत्र विचरण करते टाइगर, कान्हा नेशनल पार्क की अद्भुत सुंदरता, पत्थरों पर अंकित कविता खजुराहो, अद्भुत महेश्वरी और चंदेरी साड़ी, सांस्कृतिक विविधता और भी बहुत है यहाँ।
छह दशकों की यात्रा के बाद हम बेहतर भविष्य के लिए नई रणनीतियाँ तैयार कर रहे हैं।
मैं समझता हूँ कि हमने भविष्य की रणनीतियों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय बातों में अपना कीमती समय और ऊर्जा खर्च की। मध्यप्रदेश आगे क्यों नहीं बढ़ सकता जब यहाँ के लोग मेहनती है? हम हर क्षेत्र में उत्कृष्ट बन सकते हैं। हमारे विश्वविद्यालय उत्कृष्टता हासिल कर सकते हैं। हमारा पर्यटन तेजी से पनप सकता है । औद्योगिक विकास में हम नया मुकाम हासिल कर सकते हैं। हमारे उत्साही और प्रतिभाशाली युवा चमत्कार कर सकते हैं। हमारे किसान अपने कौशल से कमाल कर सकते हैं। हमें उनके लिए नए रास्ते बनाने होंगे। लोग अपने आत्म-विश्वास ,अपनी ऊर्जा, प्रतिभा और ज्ञान से आश्चर्यजनक परिवर्तन ला सकते हैं।
मध्य प्रदेश को एक शांतिपूर्ण राज्य बनाने का श्रेय यहाँ नागरिकों को जाता है। मध्य प्रदेश को एक उत्कृष्ट कार्य-योजना चाहिए। मौजूदा बुनियादी ढाँचे का उपयोग करते हुए मानव और प्राकृतिक संसाधनों के उत्कृष्ट प्रबंधन की जरुरत है। प्रदेश की सबसे बड़ी पूंजी यहाँ की युवा प्रतिभाएँ हैं। उन्हें अवसरों की आवश्यकता है। यह हमारा कर्त्तव्य है कि हम उनके लिए अवसर पैदा करें। मध्य प्रदेश को आगे ले जाने में हर नागरिक की समान जिम्मेदारी है। हमने लोक विवेक का आदर किया है। अपनी नीतियों और निर्णयों में लोगों की अपेक्षाओं का ध्यान रखा है।
आज मध्य प्रदेश नए क्षितिज में उड़ान भरने को तैयार है। हमारी अर्थ-व्यवस्था की सबसे बड़ी ताकत हमारा कृषि क्षेत्र है। अब हमें खेती में उद्यमिता को बढ़ावा देना होगा ताकि हमारे किसान आत्म-निर्भर बनें।
अब आर्थिक गतिविधि से युवा जनशक्ति को जोड़ने और उनके लिए नौकरी के अवसर पैदा करना पहली प्राथमिकता है। औद्योगिक विकास का उद्देश्य नौकरी के अवसर बढ़ाना है।
मेरा विचार है कि वर्तमान का बेहतर प्रबंधन और भविष्य की उत्कृष्ट प्लानिंग जरुरी है। प्रदेश के लोग निपुण, प्रतिभाशाली और ज्ञान से परिपूर्ण हैं। प्रत्येक नीति में उनकी आकांक्षाओं को स्थान मिलना चाहिए। नागरिकों को बेहतर सेवाएँ देने के लिए हम वचनबद्ध है। इसके लिए आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का सहारा लेने का समय आ गया है।
मुझे लोगों की शक्ति पर भरोसा है। मैं युवा पीढ़ी की प्रतिभा में विश्वास करता हूँ। हमें अपने उद्यमियों पर भरोसा है। मैं सशक्त हो रही महिलाओं की प्रतिभा की प्रशंसा करता हूँ।
हमने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह लोगों की सरकार है । जवाबदेह शासन के साथ लोगों के सहयोग से हम मध्य प्रदेश को हर क्षेत्र में मजबूत बनाएंगे। मध्यप्रदेश अब नई उड़ान भरेगा। यह हमारा संकल्प है।
– ब्लॉगर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री हैं।
कश्मीर में हिंसा
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कश्मीर के हाल देखने के लिए इधर से 23 यूरोपीय सांसद श्रीनगर पहुंचे और उधर कुलगाम में आतंकवादियों ने पांच मजदूरों की हत्या कर दी। इस खबर के आगे मोदी की सउदी यात्रा और बगदादी की हत्या की खबर फीकी पड़ गई। यूरोपीय सांसदों का कश्मीर-भ्रमण भी अखबारों के पिछले पृष्ठों पर सरक गया। जो लोग मारे गए, वे कौन थे ? वे सब बांग्लादेशी और मुसलमान थे। मुर्शिदाबाद के निवासी इन मजदूरों का राजनीति से क्या लेना-देना लेकिन आतंकवादियों ने इन्हें मार गिराया। यह कौनसी बहादुरी है ? यह तो शुद्ध कायरता है। निहत्थे मजदूरों को मारनेवालों को कौनसी जगह मिलेगी ? जन्नत या दोजख (नरक)? इन हत्यारों को आप क्या कहेंगे ? क्या वे जिहादी हैं ? उन्हें पता नहीं कि उनकी यह हरकत, यह बेवजह तशद्दुद (अकारण हिंसा) किसी भी काफिराना हरकत से कम नहीं है। ये दहशतगर्द लोग कश्मीरी आवाम के घोर शत्रु हैं। कश्मीर के हालात धीरे-धीरे ठीक हो रहे थे लेकिन अब सरकार को भी सोचना पड़ेगा कि सारे प्रतिबंध इतनी जल्दी हटा लेना ठीक है या नहीं ? इन आतंकवादियों ने भारत सरकार के हाथ में नई बंदूक पकड़ा दी है। ये लोग पाकिस्तान की अंतरराष्ट्रीय छवि बिगाड़ने के लिए भी जिम्मेदार हैं। ये समझ रहे हैं कि ये हत्याएं करके वे यूरोपीय सांसदों को भारत के दावों के बारे में एक निषेधात्मक संदेश दे सकेंगे लेकिन कश्मीर में उनकी उपस्थिति में ये हिंसा उन्हें (और पाकिस्तान को भी) बदनाम किए बिना नहीं रहेगी। यूरोपीय सांसदों से उम्मीद थी कि वे कश्मीर के हालात के बारे में अपनी निष्पक्ष और निडर राय देंगे लेकिन अब जरा सोचिए कि इन हत्याओं का उनके मन पर क्या असर पड़ेगा। मैं पहले भी लिख चुका हूं कि यदि कश्मीरी लोग शांति और सदभावना का रास्ता पकड़ेंगे तो भारत सरकार ही नहीं भारत के करोड़ों लोग उनके अधिकारों, सुविधाओं और सम्मान के लिए जी-जान लगा देंगे। वरना कश्मीर का यह आपात्काल बढ़ता ही चला जाएगा और उसका मामला उलझता ही चला जाएगा।
कश्मीर के अंगने में विदेशियों का क्या काम है?
सनत जैन
जम्मू-कश्मीर में धारा 370 और 35ए खत्म करने के पूर्व जिस तरह से इंटरनेट और मोबाइल फोन की सेवाएं बंद हैं। विपक्षी दलों के नेताओं को नजर बंद करके रखा गया। पूरे कश्मीर में सेना के जवान तैनात किए गए। धारा 144 लगाकर लोगों का आना-जाना प्रतिबंधित किया गया। पिछले ढाई महीनों से जम्मू-कश्मीर में व्यापार, पर्यटन और निर्माण कार्य रुके पड़े हैं। उसको लेकर जम्मू-कश्मीर ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। इसमें कोई संदेह नहीं है, प्रधानमंत्री मोदी उनके सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल तथा विदेश मंत्री ने एक रणनीति के तहत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत का पक्ष बहुत बेहतर तरीके से रखकर इसे अंदरूनी मामला बताया। पाकिस्तान की सारी कोशिशें नाकाम करने में भारत की रणनीति काफी काम आई। यह भी सही है, कि मानवाधिकार उल्लंघन के मामले में जिस तरह से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि कमजोर हुई है। समय बीतने के साथ ही अंतरराष्ट्रीय दबाव, भारत के ऊपर बढ़ता जा रहा है। चीन पाकिस्तान के समर्थन में खड़ा है। भारत का विरोध कश्मीर मुद्दे को लेकर नहीं कर रहा है। इसके पीछे उसकी व्यापारिक रणनीति है। इसके बाद भी पाकिस्तान को चीन का खुला समर्थन है। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप “दोई पलीतो दे दो तेल, तुम नाचो हम देखें खेल” में अमेरिका को दोहरा लाभ हो रहा है। पाकिस्तान को वह आंतरिक रूप से शह दे रहा है, वहीं भारत के ऊपर दबाव बनाकर रक्षा सौदे और अन्य मामलों में समर्थन की खुलकर कीमत भी वसूल कर रहा है। कश्मीर पर गतिरोध को लगभग 3 माह होने को जा रहे हैं। उसके बाद भी वहां पर शांति स्थापित नहीं हो पा रही है। सेना और पुलिस बल की वापसी नहीं हो रही है। कश्मीर से भारत का संपर्क लगभग टूटा हुआ है। ट्रक वाले भी वहां जाने से मना कर रहे हैं। उत्तर भारत के जो मजदूर कश्मीर में जाकर काम करते थे। वह भी इस परिवर्तन के बाद नहीं पहुंचे हैं। पर्यटन उद्योग भी ठप्प पड़ा हुआ है। बार-बार मोबाइल फोन, एसएमएस सेवा और इंटरनेट सेवा बंद की जा रही है। जिसके कारण अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के ऊपर दबाव लगातार बढ़ रहा है। भारत के लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय है कि यूरोपीय देशों के 27 सांसद कश्मीर के हालात को देखने के लिए भारत में पहुंचे हैं। जो प्रतिनिधि मण्डल आया है। उसे यूरोपीय यूनियन ने नहीं भेजा है। यह कयास लग रहे है कि भारत सरकार की पहल पर विदेशों में बसे मोदी समर्थकों ने दक्षिण पंथी यूरोपिय नेताओं का प्रतिनिधि मण्डल भारत भेजा है। यह प्रायोजित कार्यक्रम है। जिसमें भारत सरकार के उपर मानव अधिकार संगठन तथा यूरोपिय समुदाय का जो दबाव बढ़ रहा है। उसे अंर्तरराष्ट्रीय स्तर पर दबाया जा सके। विदेशी पत्रकारों को भी जम्मू-कश्मीर जाने की अनुमति भारत सरकार ने नहीं दी। भारतीय सांसदों की टीम भी कश्मीर के दौरे पर नहीं भेजी गई। वहीं यूरोपिय सांसदों के समूह का प्रायोजित कार्यक्रम बताकर इसकी आलोचना भी भारत में हो रही है।
कई देशों के सांसद, कश्मीर की हालत को जानने के लिए सरकारी बंदोबस्त के साथ कश्मीर पहुंचे हैं। भारत सरकार के अधिकारी उनके दौरे का इंतजाम कर रहे हैं। वह जहां ले जाना चाहेंगे, वहीं तक प्रतिनिधिमंडल जाएंगे। लेकिन इतना तय है, कि यहां से लौटने के बाद कश्मीर के बारे में उनकी रिपोर्ट और दौरे की डिटेल भारत सरकार के लिए नई मुसीबतों को खड़ा करेगी। यूरोपीय संघ के जो सांसद कश्मीर पहुंचे हैं। उन्हें बंद बाजार देखने को मिले हैं। वैसी गतिविधियां नहीं मिली जैसे आमतौर पर देखने को मिलती हैं। कश्मीर में अभी तक बिना सुरक्षा के स्थानीय लोगों की भी आवाजाही सुनिश्चित नहीं हो पा रही है। ऐसी स्थिति में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आने वाले समय में भारत को अपनी स्थिति को मजबूत बनाने के लिए बहुत सोच समझकर तैयारी करनी होगी। अमेरिका और यूरोपीय देश मानव अधिकारों को लेकर हमेशा से सजग रहे हैं। भारत में 1975 में जब आपातकाल लगा था और 1 साल का कार्यकाल संसद का बढ़ाया गया था। उस समय भी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के ऊपर अंतरराष्ट्रीय दबाव बना था। लोकतंत्र बहाल करने के लिए उन्हें इमरजेंसी हटाने या अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध झेलने के लिए तैयार रहने के लिए कहा गया था। अंतरराष्ट्रीय दबाव के चलते 1977 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को आपातकाल हटाना पड़ा था। जेलों में बंद विपक्षी नेताओं को अंर्तराष्ट्रीय दबाव में रिहा करना पड़ा था। 1977 में हुए चुनाव में कांग्रेस की जबरदस्त पराजय हुई। केंद्र में पहली बार विवक्षी दलों की जनता पार्टी की सरकार केंद्र में बनी।
कश्मीर मुद्दे को लेकर भारत की स्थिति अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बीच कमजोर हुई है। अमेरिका चीन और रूस जैसे देशों ने इस स्थिति का लाभ, अपने व्यापारिक हितों को ध्यान में रखते हुए, भारत पर दबाव बनाकर अपना हित साधा है। पाकिस्तान को सहायता भी दे रहे हैं, और बदले में भारत से फायदा भी ले रहे हैं। भारत सरकार को इस बात को अच्छी तरह से समझना होगा। बेहतर होगा कि जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में शांति व्यवस्था कायम हो। स्थानीय नेताओं को सरकार विश्वास में ले। कानून व्यवस्था की स्थिति बिना स्थानीय नेताओं के बनाए रखना नामुमकिन है। लंबे समय तक फोर्स को तैनात रख पाना भी भारत सरकार के लिए संभव नहीं है। पिछले 3 माह में कश्मीर की स्थिति नियंत्रित नहीं हो पाना चिंता का विषय है। नेपाल, भूटान, श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देशों में चीन ने अपना जबरदस्त प्रभाव बनाया है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता। अमेरिका और चीन के बीच व्यापारिक प्रतिस्पर्धा के चलते भारत दो पाटों के बीच जिस तरह गेहूं पिसता है उसी तरह की स्थिति अब भारत की बनती हुई दिख रही है। ऐसी स्थिति में भारत को सतर्क रहने की जरूरत है। अमेरिका और चीन को लेकर हमारे 70 सालों के अनुभव भी हैं। इनसे सबक लेते हुए राष्ट्रीय स्तर पर स्थिति को बेहतर बनाने के लिए, विपक्षी दलों को भी विश्वास में लेना सरकार के लिए जरूरी हो गया है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो आगे चलकर काफी बड़ी परेशानी और नुकसान भारत को उठाना पड़ सकता है। पाकिस्तान तो शुरू से ही मुफलिसी में जीने का आदी हो चुका है। पाकिस्तान की तुलना भारत से ना कभी हुई है, और ना कभी हो सकती हैं। पाकिस्तान हमेशा से अमेरिका का मोहरा बनकर जीवन जीने का आदी रहा है। अब चीन भी उसके साथ हैं। ऐसी स्थिति में भारत सरकार को सजगता के साथ दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखते हुए, निर्णय लेने की अपेक्षा है। अंतरराष्ट्रीय कूटनीति को जानने वाले विशेषज्ञों का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दबाव भारत के ऊपर बढ़ रहा है। यूरोपीय संघ के जो सांसद कश्मीर का दौरा करने आए हैं। वह इस बात का प्रमाण है, उनके वापस जाने के बाद निश्चित रूप से भारत के ऊपर कश्मीर के मुद्दे पर दबाव बढ़ेगा। भारत के आंतरिक मुद्दे पर विदेशियों का क्या काम है। इस मुद्दे पर मीडिया और विपक्ष ने सरकार को घेरा है।
भारतीय एकता के शिल्पी
वीरेन्द्र परिहार
(31अक्टूबर-जन्मदिवस पर) सरदार पटेल का जन्म भगवान कृष्ण की कर्मभूमि स्वामी दयानन्द सरस्वती और महात्मा गांधी की जन्मभूमि गुजरात मे 31 अक्टूबर 1875 को बोरसद के करमसद गांव मे हुआ था। उनके पिता झेंबरभाइ सच्चे ईश्वर-भक्त, साहसी, दूरदर्शी, संयमी और देशभक्त थे।सरदार पटेल के पिता झेंबरभाई ने1857 के स्वाधीनता सेनानियों की मदद करते हुए महारानी लक्ष्मीबाई की सेना मे शामिल होकर अग्रजों के साथ युद्ध किया था। इस तरह से सरदार पटेल जिनका वास्तविक नाम वल्लभभाई पटेल था। वल्लभभाई का साहस धेर्य और कर्तव्यपरायणता अद्भुत थी। मुम्बई मे एक आपरेशन के दौरान जब उनकी पत्नी की मृत्य हो गई,और तार द्वारा इसका समाचार उन्हे मिला तब वह एक हत्या के एक मुकदमें मे बहस कर रहे थें। तार पाकर पहले तो वह स्तब्ध हुए, पर दुसरे ही क्षण वह पूरी तरह सतर्क और सचेत होकर बहस करने लगें कि कही थाड़ी भी ढिलाई उनके पक्षकार का अहित न कर दे। तो यह थी उनके कर्तब्यबोध की मिसाल। उस समय उनकी उम्र मात्र 33 वर्ष थी, फिर भी उन्होने आजीवन दुसरा विवाह नही किया।
विलायत जाकर पढने की वल्लभभाई की तमन्ना 1910 मे पूरी हुई ऐर वह प्रथम श्रेणी मे प्रथम स्थान प्राप्त कर 1913 मे विलायत से स्वदेश लौट आए । वह अहमदाबाद को अपनी कर्मभूमि बनाकर वहां वकालत करने लगे ।शीघ्र ही वह गांधी जी के संपर्क मे आ गए और उनके द्वारा गठित गुजरात राजनैतिक परिषद के मंत्री बनाए गए। उन दिनों बेगार- प्रथा जोरो पर थी। अन्याय के विरोधी सरदार भला यह कैसे सहन करते?उन्होने बेगार प्रथा -सम्पात करने के लिए कमिशनर को पत्र लिखा कि सात दिनों के अन्दर यदि बेगार-प्रथा सम्पात नही की गई तो लोगों से स्वत: बन्द करने का अनुरोध करेगें। फलत: कमिश्नर ने बेगार -प्रथा बन्द करने का फैसला दे दिया। यही वल्लभभाई की पहली बड़ी राजनैतिक विजय थी। इसी से वह गांधी जी के निकटतम सहयोगी और विश्वासपात्र बन गये। वर्ष 1917 मे खेड़ा जिले मे लगान वसूली के विरोध मे गांधी जी के अगुवाई मे जो आन्दोलन हुआ उसके वह प्रमुख सिपहसालार रहे। गांधी जी ने इस अवसर पर कहा कि वल्लभभाई तो उनके लिए अनिवार्य है। बरदोली सत्याग्रह की समाप्ति पर महात्मा गांधी ने यह उद्गार व्यक्त किया- ”मुझे यह स्वीकार करना चाहिए कि जब बल्लभ भाई से मैं पहले-पहल मिला, तब मैंने सोचा था कि वह अख्खड़ पुरुश हमारे किस काम का होगा, परन्तु जब मैं उनसे सम्पर्क में आया, तब मुझे लगा कि बल्लभ भाई तो मेरे लिए अनिवार्य हैं। विश्णु प्रभाकर के शब्दों में कहें तो ”रामकृश्ण परमहंस ने अपने विवेकानन्द को पहचान लिया था।“
सन1920 मे लाला लाजपत राय की अध्यक्षता मे कांगेस के अधिवेशन मे ब्रिटिश सरकार से असहयोग का प्रस्ताव पारित किया गया। वल्लभभाई ने उसी दिन से वकालत छोड़ दिया और खादी पहनने लगे। इतना ही नही अपने बच्चों का नाम स्कूल से कटवा दिया,इस बीच उनकी बहुत सी उपलब्धियॉ रही। 1927 मे गुजरात के बाढ़ पीड़ितो की उन्होंने जिस ढ़ंग से सहायता की उसे देखकर ब्रिटिश सरकार को भी इसे मानवता की सच्ची -सेवा कहना पड़ा। पर वल्लभभाई को जिस घटना ने सरदार बनाया, वह 1928 का बारदोली आन्दोलन था। यहां पर अंग्रेज सरकार ने किसानों पर लगान 30 प्रतिशत बढ़ा दिया था, जबकि उनकी माली हालत काफी श्sााचनीय थी। सरदार ने किसानो को आन्दोलन के खतरों से आगाह किया और एक सच्चे नेता की तरह उन्हे पूरी तरह तैयार कर सत्याग्रह -आन्दोलन शुरू कर दिया।इसी आन्दोलन के चलते वह राष्टीय राजनीति के केन्द्र मे आ गए। उस समय देश के प्रसिद्ध अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया ने लिखा-“बारदोली मे पूरी सरकारी मशीनरी ठप्प पड़ी है, गांधी के शिष्य पटेल की वहां तूती बोलती हैं।” बिटिश सरकार ने यहा खूब अत्याचार किया, आदमियों के साथ भैसों तक को जेल मे डाल दिया। उस आन्दोलन को लेकर प्रसिद्ध साहित्यकार कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी जो उस समय मुम्बई की धारा सभा के सदस्य थे। उन्होंने अंग्रेज गर्वनर को लिखा, बारदोली ताल्लुके मे अस्सी हजार स्त्री-पुरूष सुसंगठित होकर विरोध के लिए भीष्म प्रतिज्ञा किए बैठे है। आपके कर्मी अधिकारी को मीलो तक हजामत के लिए नाई नही मिलता, आपके एक अधिकारी की गाड़ी कीचड़ मे फॅस गई तो वल्लभभाई की कृपा से ही निकली। कलेक्टर को वल्लभभाई की आज्ञा के बिना स्टेशन मे कोई सवारी नही मिलती।मैने जिन गावों की यात्रा की उनमे एक भी स्त्री-पुरूष ऐसा नही मिला जिसे अपने निर्णय पर पछतावा हो। इस आन्दोलन की दृढ़ता के चलते आखिर में बिटिश सरकार को झुकना पड़ा। गांधी ने उन्हे इस अवसर पर बारदोली का सरदार कह कर संबोधित किया और वह सचमुच पूरे देश के सरदार बन गए।
29 जून 1930 में सरदार पटेल कांग्रेस के स्थापनापत्र अध्यक्ष नियुक्त किए गए, उनके नेतृत्व में कांग्रेस का संगठन सुदृढ तो हुआ ही कांग्रेस में भी नई जान आ गई ।इस बीच वह कई बार जेल गए । 1931 में सरदार पटेल कांग्रेस के कराची अधिवेशन के अध्यक्ष बनाए गए । 14 जनवरी 1932 को कांग्रेस को सरकार द्वारा अवैध घोषित कर दिया और गॉधी जी के साथ सरदार को भी यरवदा जेल भेज दिया गया जहॉ वह गॉधी के साथ 1 वर्ष 4 माह बन्द रहें । वहॉ उन्होने गॉधी की मॉ जैसी सेवा की । 1932 मे बोरसद में भयंकर प्लेग फैला था । 1935 में यह फिर सत्ताइस गॉवों में फैल गया । सरकारी मशीनरी इस महामारी की पूर्ण उपेक्षा कर रही थी ,सरदार पटेल इस अवसर पर स्वयं- सेवकों का एक दल बनाकर और बोरसद में एक अस्पताल खोलकर गॉव – गॉव घूमकर बरसात और चिलचिलाती धूप की परवाह किए वगैर रोगियों की तीमारदारी में जुट गए और थोडे ही समय में इस महामारी से मुक्ति दिला दी ।
8 अगस्त 1942 को कांगेस के द्वारा अंग्रेजी सरकार के विरोध में ” भारत छोड़ो “ का प्रस्ताव पास किया गया , और महात्मा गॉधी ने “करो या मरो “ का नारा दिया । इसमें सरदार पटेल को गिरतार कर लिया गया और फिर 15 जून 1945 को ही उन्हे रिहा किया गया । 8 मार्च 1947 को उन्होने भी देश- विभाजन का प्रस्ताव भारी मन से स्वीकार किया ।उनका कहना था कि यदि समूचे देश को पाकिस्तान बनने से रोकना है तो देश के विभाजन की मर्मान्तक पीड़ा स्वीकार ही करनी होगी । ।1946 में अन्तरिम सरकार के समय ही 15 में से 12 प्रान्तीय कांग्रेस समितियों नें पटेल को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव किया था लेकिन महात्मा गॉधी की इच्छा के चलते सरदार पटेल ने पंडित नेहरू को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया । देश के गृह मंत्री होते हुए भी 562 देशी रियासतों का उन्होने जिस ढ़ंग से विलय किया उसमें विस्मार्क जैसी संगठन शक्ति और चाणक्य जैसी दूरदर्शिता दिखाई । महात्मा गॉधी ने स्वत: कहा कि यह कार्य किसी चमत्कार से कम नही है। उनका कहना था कि जब तक भारत को एकता के सूत्र में नही पिरो दूंगा तब तक मरॅगा नही और यह कार्य वास्तव में स्वाधीनता प्राप्ति से भी ज्यादा महत्वपूर्ण था। जरा सोचिए सरदार पटेल न होते तो उस भारत का नक्शा कई रियासतों और बुनियादी अधिकारों से वंचित प्रजा का होता । वस्तुत: सरदार ने ही भारतीय स्वाधीनता को स्थायित्व दिया था। जबकि उनकी उम्र इस समय 70 के ऊपर थी, और वह हृदय रोग के साथ पेट की भयकंर बीमारी से भी ग्रस्त थे। सरदार पटेल का पोता विपिन 21 साल का था, वह अमेरिका में रहकर पढ़ाई कर रहा था। सरदार पटेल के हार्ट अटैक की जानकारी पाकर वह उनसे मिलने आया। सरदार ने उससे कहा कि जब तक मैं इस पद पर हू, यानी गृहमंत्री हू, तुम मुझसे मिलने मत आया करो, अन्यथा तुम्हारा कोई दुरुपयोग करेगा।
सोमनाथ मंिदर जिसे विदेशी आक्राताओं ने बार-बार लूटा था 1024 में महमूद गजनवी ने इसे पूरी तरह ध्वस्त कर दिया था । भारत के स्वाधीन हो जाने पर 13 नवम्बर 1947 को सरदार पटेल जब तात्कालीन निर्माण मंत्री श्री गाडगिल के साथ सौराष्ट्र दौरे पर गए तो सोमनाथ मंदिर की दुर्दशा देखकर उनका हृदय रो पड़ा । उन्होंने तत्काल मन्दिर के पुर्ननिर्माण का निर्णय ले लिया जिसका उद्घाटन 11 मई 1951 को स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू ने किया ।यद्यपि सरदार के ऐसे कृत्यो के चलते उन्हे साम्प्रदायिक कहने वालो की कमी नही थी । पर जैसा कि महात्मा गांधी ने स्वत: कहा कि सरदार पटेल तो हीरा है,वह साम्प्रदायिक हो- ही नही सकते ।यहॉ तक कि रफी अहमद किंदवई ने भी कहा कि सरदार साम्प्रदायिक नही राष्ट्रवादी है । अमेरिकी राश्ट्रपति जे.एफ. कैनेडी ने 1956 में भारत को सुरक्षा परिवार की स्थायी सदस्यता थाल में सजाकर भेंट करनी चाही थी, क्योंकि एशिया में कम्युनिस्ट चीन के मुकाबले में वह भारत को मजबूत होते देखना चाहते थे। लेकिन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरु ने अपनी वैश्विक गुट निरपेक्ष नेता की रुमानी छवि के मोहजाल में फंसकर इसे ठुकरा दिया था। इतना ही नहीं चीन के प्रति दीवानगी की हद तक अंधविश्वास रखने वाले नेहरु ने भारत के स्थान पर चीन को सुरक्षा परिशद में प्रवेश देने की मांग कर डाली। सनद है कि सरदार पटेल ने कई साल पहले भी नेहरु को चीन पर बिलकुल भी भरोसा न करने और व्यवहारिकता के साथ अपने देष के हितों की रक्षा करने को कहा था।
अपनी मृत्यु के एक महीने पहले 7 नवम्बर 1950 को सरदार पटेल ने नेहरु को चीन के बारे में आगाह करते हुए पत्र लिखा। इसमें वे लिखते हैं- ”पिछले कुछ महीनों से रुसी रवैए के अतिरिक्त दुनिया में अकेले हम ही हैं, जिसने चीन के संयुक्त राश्ट्र में प्रवेश का समर्थन किया है। अमेरिका, ब्रिटेन के साथ और संयुक्त राश्ट्र में हमने बातचीत और पत्राचार दोनों में चीन के अधिकारों और भावनाओं की रक्षा की है। इसके बाद भी चीन द्वारा हम पर संदेह करने से ही स्पश्ट होता है कि चीन हमें शत्रु मानता है। मुझे नहीं लगता कि हम चीन के प्रति इससे अधिक उदारता दिखा सकते हैं।“
जब सरदार ने यह पत्र लिखा उस समय तिब्बत पर चीन का आक्रमण जारी था। चीन तिब्बत के बारे में कपटपूर्ण बयानबाजी कर रहा था। पटेल तिब्बत की सुरक्षा को भारत की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण मानते थे। उन्होंने लिखा- ”मैंने पत्राचार (चीन की सरकार, भारत के राजदूत और प्रधानमंत्री नेहरु के मध्य) को ध्यान से उदारतापूर्वक पढ़ा, परन्तु संतोशजनक निश्कर्श पर नहीं पहुंच सका। चीन की सरकार ने शांतिपूर्ण इरादों की घोशणा करके हमें धोखा देने का प्रयास किया है। वे हमारे राजदूत के मन में यह बात बिठाने में सफल हो गए हैं कि चीन तिब्बत मामले का षांतिपूर्ण हल चाहता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस पत्राचार के बीच के समय में चीनी तिब्बत पर भीशण आक्रमण की तैयारी कर रहे हैं। त्रासदी यह है कि तिब्बतियों ने हम पर विश्वास किया है, परन्तु हम उन्हें चीन की कूटनीति और दुश्ट इरादों से बचाने में असफल रहे हैं।“
पत्र में आगे वे कहते हैं ”उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए हमें तिब्बत के विलुप्त होने (चीन द्वारा कब्जा करने) और चीन के हमारे दरवाजे तक आ पहुंचने से नई परिस्थिति पर विचार करना चाहिए। भारत के सम्पूर्ण इतिहास में हमें शायद ही कभी अपने उत्तर-पूर्वी सीमांत की चिंता करनी पड़ी होगी। हिमालय उत्तर में होने वाले किसी भी संभावित खतरे के लिए अभेद्य दीवार सिद्ध हुआ है। (उत्तर में) हमारे पास मैत्रीपूर्ण तिब्बत था, जिसने हमारे लिए कोई समस्या उत्पन्न नहीं की।“
भारत का तिब्बत के साथ भूमि समझौता था, अब चीन तिब्बत पर चढ़ आया है। भारत यदि आगे बढ़कर तिब्बत पर चीनी हमले का विरोध करता तो अमेरिका और पश्चिमी देश भारत का साथ देने को उत्सुक होते। लेकिन प्रधानमंत्री नेहरु चीन के खिलाफ कठोर कदम उठाने के पक्ष में नहीं थे, जिसकी परिणिति 1962 के भारत-चीन युद्ध के रूप में हुई। सरदार ने य़ुद्ध के 12 साल पहले ही आगामी संकट को लेकर चेतावनी दे दी थी। उन्हीं के शब्दों में ”निकट का इतिहास हमें बताता है कि कम्युनिज्म साम्राज्यवाद के विरुद्ध कोई ढाल नहीं है। इस सन्दर्भ में चीन की महत्वाकांक्षा न केवल भारत की ओर के हिमालय के ढालों पर कब्जा करने की है, बल्कि उसकी दृश्टि असम तक है। जब रिपोर्ट समान आई कि चीन भारत के क्षेत्र (लद्दाख) में सड़क बना रहा है तो भी कोई ठोस कार्यवाई नहीं की गई। सेना को साजो-सामान और हथियारों से मोहताज रखा गया। रक्षा कारखानों में कॉफी, कप-प्लेट और सौन्दर्य प्रसाधन बनवाए जा रहे थे। चीन से युद्ध में सेना की कमान नेहरु के करीबी एक ऐसे सैन्य अधिकारी को दी गई थी, जिसे एक दिन भी युद्ध का अनुभव नहीं था और जो बहाना बनाकर दिल्ली के अस्पताल में भर्ती होकर युद्ध का संचालन कर रहा था। सरदार पटेल निहायत दृढ़ और दूरदर्शी थें, उन्होंने पंडित नेहरू से कहा था कि यदि कश्मीर मामला उन्हे दे दिया जाएं तो 15 दिन में सुलझा देंगे । पर ऐसा न होने के कारण काश्मीर कितना बड़ा नासूर बन चुका है । आज उनके जन्मदिन 31 अक्टूवर को जब सरदार सरोवर में स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के नाम से जब विश्व में उनकी सबसे ऊँची प्रतिमा का अनावरण प्रधानमंत्री द्वारा किया जा रहा है तो निश्चित रूप से सम्पूर्ण राष्ट्र उनके प्रति उनके किए गये महान कार्यों के प्रति सच्चे अर्थों में अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर रहा है।
कब मुक्त होगी पुलिस
सिद्धार्थ शंकर
पुलिस महानिदेशकों की नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव से संबंधित पांच राज्यों द्वारा दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने काफी पहले ही यह स्पष्ट कर दिया था कि पुलिस-प्रशासन का राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त होना जरूरी है। मगर ऐसा आज तक नहीं हो पाया है। मौजूदा दौर में भारतीय पुलिस अतिशय राजनीतिक दबाव में है। यहां तक कि विभागीय कामकाज पर भी अब राजनीतिक दबाव देखने को मिलता रहता है। नियुक्तियों एवं स्थानांतरण में तो विशेष रूप से। कहीं-कहीं तो स्थिति इतनी विकट है कि पुलिसकर्मियों की पहचान पुलिस विभाग के कर्मठ अधिकारी के रूप में नहीं बल्कि मंत्रियों के ‘आदमियोंÓ के रूप में की जाती है। अतएव समस्त राजनीतिक दल अपने निजी स्वार्थों के चलते ही पुलिस प्रशासन को एक स्वायत्त संस्था नहीं बनने देना चाहते। वह यह कतई नहीं चाहते हैं कि जिस पुलिस का इस्तेमाल वे अपना हित साधने के लिए करते हैं वह स्वायत्त हो। बात भले ही कड़वी लगे मगर हकीकत यही है कि नेता पुलिस की ताकत को अपने हाथ से नहीं निकलने देना चाहते।
ऐसे कई सवाल हैं जो कि पुलिस को लेकर हमारे मन में उठते हैं। क्या यह वाकई आम लोगों की पुलिस है या नेताओं की? अब आम आदमी के दिमाग में पुलिस की छवि सिर्फ नेताओं को हिफाजत देने वाले की बन गई है। साफ है ऐसी स्थिति में पुलिस स्वायत्तता पर गौर करना आवश्यक है। भारतीय पुलिस स्वतंत्रता के संदर्भ में हमें पश्चिमी देशों से प्रेरणा लेनी चाहिए जहां पर पुलिस तंत्र को स्वतंत्र निष्पक्ष व जनसहयोगी बनाने पर विशेष बल दिया गया है और उसके अनुरूप सुधार भी किए गए हैं। वहां की पुलिस का स्वरूप ऐसा बनाया गया है कि शासन प्रशासन में पर्याप्त दखल रखने वाले भी पुलिस के कार्यों से घबराते हैं। यही कारण है कि वहां की पुलिस राजनीतिक व नौकरशाही के दबाव से मुक्त होकर निष्पक्ष एवं स्वतंत्र रूप से काम कर रही है। हमारे यहां स्थिति इससे बिल्कुल उलट है।
भारत में बढ़ते राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण पुलिस की किरकिरी बढ़ी है और उसकी निष्पक्ष छवि नहीं बन पा रही है। यही कारण है कि आज देश में पुलिस सुधार की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है। पुलिस की भूमिका यदि प्रभावी और दबावमुक्त नहीं है तो अराजकता तो बढ़ती ही है साथ ही विकास पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यह आवश्यक है कि पुलिस व्यवस्था में ढांचागत सुधार किया जाए व पुलिस की कार्यशैली को दबावमुक्त बनाने के लिए उसे स्वायत्तता प्रदान की जाए। बहरहाल वर्तमान पुलिस तंत्र में व्यापक सुधार करना सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती है। आजादी के सात दशक के बाद भी हमारे देश में अंगे्रजों के समय की 150 साल पुरानी पुलिस व्यवस्था लागू है। अगर इतिहास में झांककर देखें तो पता चलता है पुलिस आज भी 1861 ई. में गोरों द्वारा बनाए गए पुलिस अधिनियम के माध्यम से संचालित होती है। पुलिस प्रशासन का मूल कार्य समाज में अपराध को रोकना एवं कानून व्यवस्था को कायम रखना होता है। ब्रिटिश हुकूमत ने वर्ष 1861 के पुलिस अधिनियम का निर्माण तो भारतीयों के दमन एवं शोषण के मूल उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए किया था। तो दमनकारी एवं शोषणकारी पुलिस अधिनियम के राह पर चलने वाली पुलिस व्यवस्था से आखिर स्वच्छ छवि की परिकल्पना कैसे की जा सकती है? इसी कारण से समाज में पुलिस का चेहरा बदनाम हुआ है। आज समाज के लोगों में क्रूर एवं आराधिक किस्म की पुलिस का चेहरा समा गया है।
ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता जिस दिन पुलिसकर्मियों की क्रूर व काली करतूतें पढने या फिर सुनने को न मिलें। दरअसल इसमें पूरी तरह का दोषी इन पुलिसकर्मियों को नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि इन सभी के अंदर भी शोषण एवं दु:ख की एक कहानी दबी हुई होती है। क्रूर एवं निर्दयी पुलिस के दिल की बात जानने पर हमें यह पता चलता है कि वह आखिर ऐसी क्यों बनी? पुलिस वाले भी तो समाज के ही अंग होते हैं। उन्हें भी घूमने टहलने एवं घर परिवार वालों के साथ समय बिताने की इच्छा होती है और इसके लिए उन्हें फुर्सत तो मिल ही नहीं पाती। मिले भी कहां से जब उनसे 18-20 घंटे की नौकरी कराई जाती है। हालांकि, मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार ने पुलिस कर्मियों के साप्ताहिक अवकाश का निर्णय लिया है, जिसे पुलिस के साथ समाज के विभिन्न वर्गों ने सराहा है, लेकिन जरूरत इसे समग्र रूप में लेने की है। मनोविज्ञान यह कहता है कि लगातार काम करने से व्यक्ति चिड़चिड़ा हो जाता है और अपने मन की खुन्नस दूसरों पर उतारने पर उतारू हो जाता है।
इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए आज देश में पुलिस सुधार की अतिशय आवश्यकता महसूस हो रही है। ऐसा नहीं है कि इस व्यवस्था को बदलने की कोशिश नहीं की गई है। आजादी से लेकर आज तक पुलिस व्यवस्था में सुधार के लिए न जाने कितनी समितियां एवं आयोग गठित किए गए और न जाने कितनी रिपोर्ट सौंपी गईं लेकिन अमल के स्तर पर नतीजा सिफर ही साबित हुआ। अभी तक जितने भी प्रयास किए गए हैं, उनमें राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव देखा गया है। पुलिस सुधार के लिए कई समितियों और आयोगों का गठन किया गया और इन सबने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी पर उन पर कोई अमल ही नहीं किया। 1996 में पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह और एनके सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल लगाकर यह अनुरोध किया था कि केंद्र एवं राज्य सरकारें 1979 के राष्ट्रीय पुलिस आयोग (एनपीसी) रिपोर्ट को लागू करें। सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 1998 में पूर्व पुलिस अधिकारी रिबेरो कमेटी गठित कर दी और उसने अपनी रिपोर्ट 1999 में दे दी। इसके बाद पद्मनभैया कमेटी का गठन किया गया, जिसने वर्ष 2000 में रिपोर्ट दी।
यह सही है कि कानून व्यवस्था राज्य सूची में होने के कारण ज्यादातर पुलिस राज्य सरकारों के अधीन होती है और राज्यों में पुलिस व्यवस्था पर पूरी तरह राजनीतिक प्रभाव होता है। राज्य में जैसी सरकार होगी वैसी ही उसकी पुलिस भी होगी। आज ऐसी पुलिस की आवश्यकता है जो राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त हो तथा जनतांत्रिक हो।
भूख की लाइलाज बीमारी का उपचार
हेमेन्द्र क्षीरसागर
अन्न खाये मन भर छोड़ेना कन भर। अब मंदातों के कारण उलट अन्न खाये कन भर छोड़ो मन भर हो गया। विभीषिका, कोई खां-खां के मरता है तो भूख रहकर यह दंतकथा प्रचलित होने के साथ फलीभूत भी है। ये दोनों ही हालात में भूख को लाइलाज बीमारी बनाने में मददगार है। लिहाजा, भूख और कुपोषण एक सिक्के के दो पहलु हैं। जहां तक कुपोषण की बात करे तो कुपोषण एक बुरा पोषण होता हैं। इसका संबंध आवश्यकता से अधिक हो या कम किवां अनुचित प्रकार का भोजन, जिसका शरीर पर कुप्रभाव पडता हैं। वहीं बच्चों में कुपोषण के बहुत सारे लक्षण होते है। जिनमें से अधिकांश अज्ञानता, गरीबी, भूखमरी और कमजोर पोषण से संबंधित हैं।
दुर्भाग्य जनक, गिरफ्त आऐ बच्चे अपनी पढाई निरंतर जारी नहीं रख पाते और गरीबी के दोषपूर्ण चक्र में फंस जाते हेैं। कुपोषण का प्रभाव प्रौढावस्था तक अपनी जडें जमाए रखता हैं। प्राय: देखा गया है कि भारत में कुपोषण लडकों की अपेक्षा लडकियों में अधिक पाया जाता हैं। और अनिवार्यत: इसका कारण है घर पर लडकियों के साथ किया जाने वाला भेदभाव या पक्षपात। निर्धन परिवारों में और कुछ अन्य जातियों में लडकियों का विवाह छोटी आयु में ही कर दिया जाता हैं। जिससे 14 या 15 वर्ष की आयु में ही बच्चा पैदा हो जाता हैं। ऐसा बच्चा प्राय: सामान्य से काफी कम भार का होता हैं। जिससे या तो वह मर जाता है अथवा उसका विकास अवरूद्ध हो जाता हैं। इससे भी अधिक खतरा इस बात का होता हैं कि शीघ्र गर्भाधान के कारण लडकी का जीवन संकट में आ जाता हैं।
सामान्य रूप से भारत में बच्चों की पोषण संबंधी स्थिति एक चिंता का विषय हैं। यूनेस्को की रिर्पोट में भारत में कुपोषण सब-सहारा अफ्रीका की तुलना में अधिक पाया था। मुताबिक विश्व के एक तिहाई कुपोषित बच्चे भारत में ही पाए गए। कुपोषण बच्चे के विकास तथा सीखने की क्षमता को अवरूद्ध कर देता हैं। इससे बच्चों की मृत्यु भी हो सकती हैं। अमुमन जिन बच्चों की बचपन में मृत्यु हो जाती है उनमें 50 फीसद बच्चे कुपोषण के कारण मरते हैं। भारत में तीन वर्ष से कम आयु के सभी बच्चों में से 46 प्रतिशत अपनी आयु की दृष्टि से बहुत छोटे लगते हैंए लगभग 47 प्रतिशत बच्चे कम भार के होते हैं और लगभग 16 प्रतिशत की मृत्यु हो जाती हैं। इनमें बहुत सारे बच्चे गंभीर रूप से कुपोषित होते हैं। कुपोषण की व्यापकता राज्यों में अलग-अलग हैं।
दरअसल, हमारे देश में पोषण एक मात्र पेट भरने का तरीका है चाहे वह किसी भी तरह से क्यों ना हो भूख मिटना चाहिए। उसके लिए कुछ भी खाना क्यों ना पडे पोषक तत्वों की फ्रिक किसे हैं। हो भी क्यों क्योंकि भूख की तृष्णा शांत करने के लिए इंसान कुछ भी करने को आमदा हो जाता हैं। आखिर! भूख दुनिया की सबसे बडी लाइलाज बिमारी जो बनते जा रही हैं। इसी जद्दोजहाद में भिक्षावृत्ति, वेष्यावृत्ति, बाल मजदूरी और चोरी करना आम बात हो गई हैं। इसमें बची कुची कसर भूखमरी, अशिक्षा, बेरोजगारी, रूढिवादिता, व्यसन, दिखास और असम्यक प्राकृतिक आपदाऐ पूरी कर देती हैं।
बदतर, सवाल यह उत्पन्न होता हैं कि आम इंसान दो वक्त की रोटी कहां से जुगाड करें। किविदंती सरकारों, हुक्मरानों या भगवान भरोसे रहे किवां खाली पेट रहकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर दे यह कोई समस्या का सर्वमान्य निदान नहीं हैं। हमें समाधान में समस्या नहीं, समस्या में समाधान खोजना होगा। वह समाधान मिलेगा कृषि और स्वरोजगार के संवहनीय आजीविका के साधनों में। जरूरत हैं तो खेती में सम्यक् आमूलचूल परिवर्तन तथा निचले स्तर तक रोजगार के संसाधन विकसित करने की। वह आएगा, जल-जंगल-जमीन-पशुधन के संरक्षण और संर्वधन से। अभिष्ठ खेती और पंरपरागत व्यवसायों में कौशल विकास का अभिवर्द्धन ऐसा साधन हैं जो सभी को भूख से बचा सकती हैं। जरूरत है तो भूख मिटाने के वास्ते भोजन के प्रकार नहीं आहार पर ध्यान देते हुए हाथों में काम दिलाने की पहल से भूख की लाइलाज बीमारी का उपचार होगी।
भाजपा पर लगा ब्रेक
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मैंने कल लिखा था कि हरयाणा और महाराष्ट्र के चुनावों में यदि भाजपा को प्रचंड बहुमत याने क्रमशः 75 और 240 सीटें मिल गईं तो भाजपा सरकारें ऐसी हो जाएंगी, जैसे बिना ब्रेक की गाड़ी हो जाती है लेकिन दोनों प्रदेशों की जनता को अब भाजपा की ओर से धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि उसने भाजपा की गाड़ी पर ब्रेक लगा दिया है। दोनों प्रदेशों में भाजपा ने सीटें खोई हैं। हरयाणा में तो उसे साधारण बहुमत भी नहीं मिला है और इस बार शिव सेना के साथ गठबंधन करने के बावजूद उसकी सीटें काफी घट गई हैं। यह ठीक है कि महाराष्ट्र में सरकार बनाने लायक सीटें भाजपा गठबंधन को मिल गई हैं। हरयाणा में भी जोड़-तोड़ करके सरकार बनाना उसके लिए ज्यादा कठिन नहीं होगा। गोवा, कर्नाटक और अरुणाचल के उदाहरण हमारे सामने हैं लेकिन ऐसी सरकारें कितनी जन-सेवा कर पाएंगी, इसका अंदाजा हम लगा सकते हैं। उनके सिर पर अस्थिरता की तलवार बराबर लटकती रहती है। महाराष्ट्र में शिव सेना को भाजपा के मुकाबले बेहतर सफलता मिली है। उसकी कीमत वह जरुर वसूलेगी। वह तो अपना मुख्यमंत्री बनाना चाहती थी लेकिन शायद वह उप-मुख्यमंत्री का पद लेकर चुप हो जाए लेकिन यह निश्चित है कि उनमें तनाव सदा बना रहेगा। इसी आपसी कहा-सुनी का दुष्परिणाम इन दोनों पार्टियों को महाराष्ट्र की जनता ने भुगता दिया है। दोनों प्रदेशों की जनता से ‘एक्जिट पोल’ वालों ने जो उम्मीदें रखी थीं, वे बिल्कुल गलत साबित हुई हैं और यह बात भी गलत साबित हुई है कि हमारी जनता भाजपा को सिर पर बिठाने के लिए मजबूर है। दोनों प्रदेशों की जनता ने दिखा दिया है कि वह मजबूर नहीं है। उसने भाजपा के कान उमेठ दिए हैं। उस पर भाजपा और कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व का असर बिल्कुल भी नहीं दिखा। अगर वह दिखता तो कांग्रेस का सूंपड़ा साफ हो जाता और दोनों प्रदेशों में भाजपा को अपूर्व बहुमत मिल जाता। मोदी ने चुनाव के एक दिन पहले पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक (फर्जीकल) का दांव मारा लेकिन वह बेकार हो गया और राहुल गांधी का जो हाल पहले था, वह अब भी जारी रहा। दूसरे शब्दों में महाराष्ट्र और हरयाणा के चुनाव प्रादेशिक नेतृत्व और प्रादेशिक मुद्दों पर ही हुए हैं। हरयाणा में जातिवाद की दस्तक भी जोरदार रही। अब दिल्ली प्रदेश के चुनाव सिर पर हैं। पता नहीं, भाजपा और कांग्रेस का यहां हश्र कैसा होगा। केंद्र सरकार के लिए अब कठिनाई का दौर शुरु हो गया है। आशा है, अब वह कुछ सबक लेगी।
असमंजस में मीडिया की दुनिया
प्रो. संजय द्विवेदी
मीडिया की दुनिया में आदर्शों और मूल्यों का विमर्श इन दिनों चरम पर है। विमर्शकारों की दुनिया दो हिस्सों में बंट गयी है। एक वर्ग मीडिया को कोसने में सारी हदें पार कर दे रहा है तो दूसरा वर्ग मानता है जो हो रहा वह बहुत स्वाभाविक है तथा काल-परिस्थिति के अनुसार ही है। उदारीकरण और भूमंडलीकृत दुनिया में भारतीय मीडिया और समाज के पारंपरिक मूल्यों का बहुत महत्त्व नहीं है।
एक समय में मीडिया के मूल्य थे सेवा, संयम और राष्ट्र कल्याण। आज व्यावसायिक सफलता और चर्चा में बने रहना ही सबसे बड़े मूल्य हैं। कभी हमारे आदर्श महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, विष्णुराव पराड़कर, माखनलाल चतुर्वेदी और गणेशशंकर विद्यार्थी थे, ताजा स्थितियों में वे रुपर्ट मर्डोक और जुकरबर्ग हों? सिद्धांत भी बदल गए हैं। ऐसे में मीडिया को पारंपरिक चश्मे से देखने वाले लोग हैरत में हैं। इस अंधेरे में भी कुछ लोग मशाल थामे खड़े हैं, जिनके नामों का जिक्र अकसर होता है, किंतु यह नितांत व्यक्तिगत मामला माना जा रहा है। यह मान लिया गया है कि ऐसे लोग अपनी बैचेनियों या वैचारिक आधार के नाते इस तरह से हैं और उनकी मुख्यधारा के मीडिया में जगह सीमित है। तो क्या मीडिया ने अपने नैसर्गिक मूल्यों से भी शीर्षासन कर लिया है, यह बड़ा सवाल है।
सच तो यह है भूमंडलीकरण और उदारीकरण इन दो शब्दों ने भारतीय समाज और मीडिया दोनों को प्रभावित किया है। 1991 के बाद सिर्फ मीडिया ही नहीं पूरा समाज बदला है, उसके मूल्य, सिद्धांत, जीवनशैली में क्रांतिकारी परिर्वतन परिलक्षित हुए हैं। एक ऐसी दुनिया बन गयी है या बना दी गई है जिसके बारे में काफी कुछ कहा जा चुका है। आज भूमंडलीकरण को लागू हुए तीन दशक होने जा रहे हैं। उस समय के प्रधानमंत्री श्री पीवी नरसिंह राव और तत्कालीन वित्तमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने इसकी शुरुआत की तबसे हर सरकार ने कमोबेश इन्हीं मूल्यों को पोषित किया। एक समय तो ऐसा भी आया जब श्री अटलबिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में जब उदारीकरण का दूसरा दौर शुरू हुआ तो स्वयं नरसिंह राव जी ने टिप्पणी की “हमने तो खिड़कियां खोली थीं, आपने तो दरवाजे भी उखाड़ दिए।” यानी उदारीकरण-भूमंडलीकरण या मुक्त बाजार व्यवस्था को लेकर हमारे समाज में हिचकिचाहटें हर तरफ थी। एक तरफ वामपंथी, समाजवादी, पारंपरिक गांधीवादी इसके विरुद्ध लिख और बोल रहे थे, तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी अपने भारतीय मजूदर संघ एवं स्वदेशी जागरण मंच जैसे संगठनों के माध्यम से इस पूरी प्रक्रिया को प्रश्नांकित कर रहा था। यह साधारण नहीं था कि संघ विचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी ने वाजपेयी सरकार के वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा को ‘अनर्थ मंत्री’ कहकर संबोधित किया। खैर ये बातें अब मायने नहीं रखतीं। 1991 से 2019 तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है और सरकारें, समाज व मीडिया तीनों ‘मुक्त बाजार’ के साथ रहना सीख गए हैं। यानी पीछे लौटने का रास्ता बंद है। बावजूद इसके यह बहस अपनी जगह कायम है कि हमारे मीडिया को ज्यादा सरोकारी, ज्यादा जनधर्मी, ज्यादा मानवीय और ज्यादा संवेदनशील कैसे बनाया जाए। व्यवसाय की नैतिकता को किस तरह से सिद्धांतों और आदर्शों के साथ जोड़ा जा सके। यह साधारण नहीं है कि अनेक संगठन आज भी मूल्य आधारित मीडिया की बहस से जुड़े हुए हैं। जिनमें ब्रह्मकुमारीज और प्रो. कमल दीक्षित द्वारा चलाए जा रहे ‘मूल्यानुगत मीडिया अभिक्रम समिति’ के अभियानों को देखा जाना चाहिए। प्रो. दीक्षित इसके साथ ही ‘मूल्यानुगत मीडिया’ नाम की एक पत्रिका का प्रकाशन भी कर रहे हैं। जिनमें इन्हीं विमर्शों को जगह दी जा रही है।
इस सारे समय में पठनीयता का संकट, सोशल मीडिया का बढ़ता असर, मीडिया के कंटेट में तेजी से आ रहे बदलाव, निजी नैतिकता और व्यावसायिक नैतिकता के सवाल, मोबाइल संस्कृति से उपजी चुनौतियों के बीच मूल्यों की बहस को देखा जाना चाहिए। इस समूचे परिवेश में आदर्श, मूल्य और सिद्धांतों की बातचीत भी बेमानी लगने लगी है। बावजूद इसके एक सुंदर दुनिया का सपना, एक बेहतर दुनिया का सपना देखने वाले लोग हमेशा एक स्वस्थ और सरोकारी मीडिया की बहस के साथ खड़े रहेंगे। संवेदना, मानवीयता और प्रकृति का साथ ही किसी भी संवाद माध्यम को सार्थक बनाता है। संवेदना और सरोकार समाज जीवन के हर क्षेत्र में आवश्यक है, तो मीडिया उससे अछूता कैसे रह सकता है।
सही मायने में यह समय गहरी सांस्कृतिक निरक्षता और संवेदनहीनता का समय है। इसमें सबके बीच मीडिया भी गहरे असमंजस में है। लोक के साथ साहचर्य और समाज में कम होते संवाद ने उसे भ्रमित किया है। चमकती स्क्रीनों, रंगीन अखबारों और स्मार्ट हो चुके मोबाइल उसके मानस और कृतित्व को बदलने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। ऐसे में मूल्यों की बात कई बार नक्कारखाने में तूती की तरह लगती है। किंतु जब मीडिया के विमर्शकार,संचालक यह सोचने बैठेंगे कि मीडिया किसके लिए और क्यों- तब उन्हें इसी समाज के पास आना होगा। रूचि परिष्कार, मत निर्माण की अपनी भूमिका को पुनर्परिभाषित करना होगा। क्योंकि तभी मीडिया की सार्थकता है और तभी उसका मूल्य है । लाख मीडिया क्रांति के बाद भी ‘भरोसा’ वह शब्द है जो आसानी से अर्जित नहीं होता। लाखों का प्रसार आपके प्राणवान और सच के साथ होने की गारंटी नहीं है। ‘विचारों के अनुकूलून’ के समय में भी लोग सच को पकड़ लेते हैं। मीडिया का काम सूचनाओं का सत्यान्वेषण ही है, वरना वे सिर्फ सूचनाएं होंगी-खबर या समाचार नहीं बन पाएंगी।
कोई भी मीडिया सत्यान्वेषण की अपनी भूख से ही सार्थक बनता है, लोक में आदर का पात्र बनता है। हमें अपने मीडिया को मूल्यों, सिद्धांतों और आदर्शों के साथ खड़ा करना होगा, यह शब्द आज की दुनिया में बोझ भले लगते हों पर किसी भी संवाद माध्यम को सार्थकता देने वाले शब्द यही हैं। सच की खोज कठिन है पर रुकी नहीं है। सच से साथ खड़े रहना कभी आसान नहीं था। हर समय अपने नायक खोज ही लेता है। इस कठिन समय में भी कुछ चमकते चेहरे हमें इसलिए दिखते हैं क्योंकि वे मूल्यों के साथ, आदर्शों की दिखाई राह पर अपने सिद्धांतों के साथ डटे हैं। समय ऐसे ही नायकों को इतिहास में दर्ज करता है और उन्हें ही मान देता है। आइए भारतीय मीडिया के पारंपरिक अधिष्ठान पर खड़े होकर हम अपने वर्तमान को सार्थक बनाएं।
फेल होते शिक्षक और अक्षर ज्ञान से दूर होते बच्चे
डॉ अजय खेमरिया
मप्र में हजारों सरकारी शिक्षक दक्षता संवर्धन परीक्षा में फेल हो गए तब जबकि उन्हें किताब अपने साथ ले जाकर इस परीक्षा के जबाब लिखने थे।फेल होने वाले प्रदेश की सरकारी माध्यमिक शालाओं यानी मिडिल स्कूलों में पदस्थ है।समझा जा सकता है कि जिस राज्य के मिडिल स्कूल के शिक्षक किताब में से देखकर भी परीक्षा पास नही कर सकते है उस राज्य में बुनियादी शिक्षा की गुणवत्ता किस दर्जे की होगी।मप्र की सरकार ने यह दक्षता परीक्षा उन शिक्षकों के लिये आयोजित की थी जिनके स्कूलों से निकलकर बच्चे नजदीकी हाईस्कूलों में दाखिल हुए थे और इस साल उन स्कूलों का हाईस्कूल रिजल्ट 30 फीसदी से कम रहा था।अफसरों ने माना था कि हाईस्कूलों का रिजल्ट इसलिये बिगड़ा है क्योंकि मिडिल स्कूलों में बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान नही दिया गया है यहां पदस्थ सरकारी शिक्षक अध्यापन में दक्ष नही है।इस परीक्षा को आयोजित करते समय प्रदेश की शिक्षा आयुक्त ने दावा किया था कि जो शिक्षक पर में फेल होंगे उनके विरुद्ध अनिवार्य सेवा निवृत्त की करवाई की जाएगी।बाद में सरकार ने इस महीने अक्टूबर में फिर से अलग अलग तारीखों में परीक्षाओं का आयोजन किया उसमें भी जून की तरह बड़ी संख्या में सरकारी शिक्षक फेल हो गए।अब सरकार क्या अनुशासनात्मक करवाई करेगी यह देखना होगा।लेकिन सवाल प्रदेश की समग्र नीति पर भी उठ रहे है।शिक्षकों के अपने तर्क है उनका कहना है कि जब 2009 के शिक्षा गारंटी कानून में किसी भी बच्चे को फेल नही करने के प्रावधान है तब वह कैसे बच्चों को अगली कक्षा में जाने से रोक सकते है?2009 के आरटीई कानून में मिडिल तक शालेय बच्चों को ग्रेडिंग करने का प्रावधान था इसके पीछे मूल वजह मासूम बच्चों को अंकों की अंधी प्रतिस्पर्धा से दूर रखकर उनका स्वाभाविक विकास करना था।आरटीई के तहत गांव के हर बच्चे का शाला में प्रवेश कराया जाना अनिवार्य है इसके लिये हर गांव का विलेज एजुकेशन रजिस्टर तैयार किया जाता है जिसमें 06 से 14 साल तक के प्रत्येक बच्चे का रिकार्ड रखा जाना है।मप्र में अब हर बच्चे की समग्र आईडी जारी की गई है जिसे समग्र ऑनलाइन पोर्टल पर देखा जा सकता है।0 से 6 साल के सभी बच्चों का रिकॉर्ड गांव कस्बे की आंगनबाड़ी में रखा जाता है जैसे ही बच्चे की आयु 6 वर्ष होती है उसकी सूचना संबंधित शाला के वीइआर यानी विलेज एजुकेशन रजीस्टर में दर्ज हो जाती है।संख्यात्मक पंजीयन के लिये यह सिस्टम भले ही कारगर लगता हो लेकिन बुनियादी शिक्षा की गुणवत्ता के लिहाज से यह बेहद ही खराब साबित हुआ है क्योंकि सरकारी शिक्षक के हाथ पूरी तरह से बंधे हुए है उसकी पहली प्राथमिकता अपनी शाला क्षेत्र के सभी बच्चों को शाला में पंजीकृत करना है ऐसा न करने पर उसके विरुद्ध अफसरों की करवाई का भय है।दूसरा हर बच्चे को अगली शाला में प्रोन्नत करना ही था इसलिए आज मप्र के लाखों बच्चें मिडिल पास करने के बाद भी अक्षर ज्ञान और गणित की प्राथमिकी तक से वाकिफ नही है।कमजोर बच्चों के लिये ग्रीष्मावकाश में अलग से विशेष कक्षाओं के प्रावधान भी है।लेकिन व्यवहार में ग्रामीण शालेय शिक्षा आज बुरी तरह से ध्वस्त हो चुकी है।मंत्रालय में बैठे अफसर पावर प्वाइंट प्रजेंटेशन में आदर्श लगने वाले नित नए प्रयोग सिस्टम के साथ करते रहते है।नवाचार के नाम पर पिछले 25 सालों में बुनियादी शिक्षा के ढांचे को पूरी तरह से प्रयोगशाला की तरह लिया गया।सबसे ज्यादा नुकसान तो मध्यान्ह भोजन और इसमें छिपी लूट के सुगठित रैकेट ने पहुचाया है।कभी शाला विकास समितियों,पालक शिक्षक संघ,फिर जनभागीदारी समिति जैसे प्रयोग कर इन समितियों के माध्यम से स्कूलों में स्थानीय राजनीति का प्रवेश कराया गया क्योंकि सरकारी धन इन्ही के माध्यम से खर्च किया जा रहा है।पहले स्कुलों में सिर्फ पढ़ने पढ़ाने का काम होता था आज स्कुलों में भोजन निर्माण,गणवेश वितरण,स्थानीय विकास के लिये मारामारी होती है।दूसरी तरफ 85 फीसदी गांवों में शिक्षक निवास नही करते है वे पास के कस्बे या शहर में रहते है।जाहिर है स्कूलों में शिक्षक भी समय पर नही आते है।सरकार के लगभग सभी सर्वे शिक्षकों के माध्यम से ही होते है एक गांव में अगर दो मतदान केंद्र है तो दो शिक्षक तो बीएलओ की ड्यूटी में ही हमेशा व्यस्त रहते है।मप्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने शिक्षाकर्मी ,गुरुजी,की भर्ती स्थानीय निकायों से इसलिये कराई थी ताकि शिक्षकों को गांव के बाहर या शहर से न आना पड़े।लेकिन इस अच्छी सोच को शिक्षकों ने भी तिरोहित कर दिया आज हकीकत यही है कि गांवों में मजबूरी में ही कोई शिक्षक निवास करता है।
स्कूलों में आज भी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है 80 फीसदी स्कूलों में बिजली कनेक्शन नही है।शिक्षा के अधिकार कानून से नए स्कूल तो हर जगह खोल दिये गए लेकिन उनमें न शिक्षक है न कोई अन्य सुविधाएं।शालेय शिक्षा में लगातार बढ़ता बजट असल मे उच्च अफसरशाही और नेताओं के लिये दुधारू साबित हो रहा है।इसलिये नित नए प्रयोग हो रहे है जिनकी आड़ में अरबों रुपये अब तक खर्च हो चुके है।मसलन 1999 में मप्र में हेड स्टार्ट नाम की योजना शुरू हुई जिसमें गांव गांव कम्प्यूटर रखवा दिए गए जबकि न इन स्कूलों में बिजली थी न इन्हें चलाने वाले ऑपरेटर।कभी शाला पुस्तकालय,कभी स्मार्ट क्लास,कभी आर ओ वाटर,कभी व्यावसायिक निपुणता, कभी कौशल विकास,कभी अंग्रेजी कौशल ,कभी फिट इंडिया जैसे नित प्रयोग असल मे अफसरों के लिये कुबेर के खजाना साबित हो रहे है।क्योंकि सब खरीदारी केंद्रीयकृत ही होती है और शिक्षको पर थोप दी जाती है।
अक्षर ज्ञान तक से दूर लाखों बच्चों की यह संख्या और किताब से नकल तक न उतार पाने वाले शिक्षकों के युग्म से कैसा भविष्य गढा जा रहा है?यह आसानी से समझा जा सकता है।
सावरकर पर सबर कर
ओमप्रकाश मेहता
कम से कम हमारे शहीदों को तो बख्शों…..? भारत की राजनीति का स्तर अब कौन से पाताल लोक में ले जाया जाएगा, यह आम आदमी की समझ से परे है, क्योंकि आज के राजनेता अपने किए गए कार्यों पर नहीं शहीदों के नाम पर वोट मांगने लगे है, केन्द्र में मौजूदा सत्ताधारी दल ने अब तक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और देश के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल को राजनीति का मोहरा बना रखा था, किंतु अब अपनी राजनीतिक स्वार्थसिद्धी के लिए आजादी के शहीदों का कद उनके ही क्षेत्रों में जाकर उनके नाम पर वोट की फसल काटने के उद्देश्य से उनका कद छोटा किया जा रहा है, जिसका ताजा उदाहरण देश में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी द्वारा महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव हेतु जारी संकल्प पत्र में महाराष्ट्रीयन शहीद विनायक दामोदर सावरकर (वीर सावरकर) को ‘भारतरत्न’ की पदवी से सम्मानित करने का वादा करना है और प्रधानमंत्री द्वारा महाराष्ट्र चुनाव प्रचार में इस वादे का बार-बार जिक्र करना है।
वीर सावरकर को छिछली राजनीति को मोहरा बनाने से न सिर्फ सावरकर जी के जीवन से जुड़ी वे किस्से-कहानियां उजागर की गई जो उन्हें विवादित व निंदा का पात्र बनाती है, बल्कि उनकी गरिमा भी कम करती है। जबकि पूरे देश में वीर सावरकर एक सर्वमान्य स्वतंत्रता सेनानी रहे है, जिनकी महात्मा गांधी ने भी तारीफ की थी, अब उनको राजनीति का मोहरा बनाने के बाद उन्हें बापू की हत्या का साझेदार तक कहा जा रहा है, जबकि देश की नई पीढ़ी सावरकर जी के ऐसे किसी इतिहास को नहीं जानती थी और वे नई पीढ़ी के भी प्रेरणा स्त्रोत रहें, किंतु अब वही नई पीढ़ी उन्हें अब किस नजरिये से देखने लगी है, यह किसी से भी छुपा नहीं है?
दूसरे भारतीय जनता पार्टी ने अपनी स्वार्थ लिप्सा के कारण शहीदों को राष्ट्रीय परीधि से निकालकर क्षेत्रीय खांचे में डालने का भी प्रयास किया है, जो सावरकर जी पूरे देश के स्वातंत्र्य इतिहास के प्रमुख पात्र थे, अब उन्हें क्षेत्रवाद का अंग बना दिया, यही स्थिति चलती रही तो वीर सुभाष पश्चिमी बंगाल तक, चन्द्रशेखर आजाद मध्यप्रदेश तक और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई उत्तरप्रदेश तक सीमित होकर रह जाएगी, क्योंकि अब इन प्रसिद्ध शहीदों के परिजनों ने भी अपने पूर्वज शहीदों के लिए ‘भारतरत्न’ की मांग शुरू कर दी है, तो यह देश पसंद करेगा? यदि यही सिलसिला जारी रहा तो प्रत्येक शहीद के मौजूदा परिजन अपने-अपने पूर्वज शहीद के लिए देश के सर्वोच्च सम्मान की मांग करेंगे, या उस वक्त का इंतजार करंेगे जब उनके क्षेत्र में लोकसभा या विधानसभा का चुनाव हो और राजनीतिक दल उनके शहीद पूर्वजों को ‘भारतरत्न’ देने का वादा अपने संकल्प पत्र में करें? और यदि यह चलन पूरे देश में शुरू हो गया तो शहीद पूर्वजों की आत्माएंे आज की राजनीति व उनके नेताओं को कैसी दुआएं या बददुआऐं देगी?
जब देश में सत्तारूढ़ पार्टी व उसके दिग्गज नेता अपने चुनाव प्रचार का माध्यम इस स्तर पर लाकर खड़ा कर रहे है तो फिर दूसरे क्षेत्रीय या जिलास्तरीय दल कौन से हथकण्डे अपनाएगें इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है, फिर जो राष्ट्रीय दल यह शहीदी हथकण्डा अपना रहा है, वह पिछले साढ़े पांच सालों से देश की सत्ता पर काबिज है, क्या इन सढ़सठ महीनों में उसने कोई ऐसा कार्य नहीं किया, जिसे वह चुनावी मुद्दा बना पाए? जहां तक तीन तलाक या जम्मू-कश्मीर से धारा-370 खत्म करने का सवाल है, वही भी एक सम्प्रदाय व क्षेत्र विशेष में चर्चित है ही, क्योंकि तीन तलाक व जम्मू-कश्मीर से जुड़े लोगों की आवाजें ही सतह पर कहा आ पा रही है, वास्तव में तो सत्तारूढ़ दल की इन उपलब्धियों के सही मूल्यांकनकर्ता ये ही लोग है, हाँ, सत्तारूढ़ दल के लिए बेरोजगारी महंगाई, उन्मूलन, आर्थिक सुधार जैसे मुद््दें चुनावी मुद्दे बन सकते थे, किंतु इन क्षेत्रों में कुछ हो ही नहीं पाया तो इसमें बैचारे सावरकर जी या अन्य शहीदों का क्या दोष?
इस तरह कुल मिलाकर एक प्रदेश की सत्ता बरकरार रखने के लिए शहीदों पर राजनीति को ठीक नहीं कहा जा सकता, शायद इस मामले में भाजपा के सहयोगी दल शिवसेना के प्रमुख का सवाल सही है कि ‘‘वीर सावरकर जी को भाजपाने अभी तक याने पिछले पांच साल में सर्वोच्च सम्मान क्यों नहीं दिया’’?
जिसकी लाठी उसकी भैंस
डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन
यह बात सनातन सत्य हैं की हर युग में शासकों ने अपने अपने कार्यकाल में अपने निजियों ,सम्बन्धियों और विचार धाराओं वालों का उपकृत किया था और यह जरुरी भी होता था ,कारण वे उस शासक के भक्त /पिछलग्गू हो जाते थे। जिनको राजाश्रय मिलता था उनका सम्मान स्वाभाविक रूप से समाज , सत्ता में बढ़ जाता था। उनकी क़द्र भी होने लगती हैं।
स्वामीप्रसादः सम्पदं जनयति न पुनरभिजात्यम पाण्डित्यं वा !
स्वामी की प्रसन्नता से सम्पत्ति प्राप्त होती हैं ,कुलीनता और बुद्धिमत्ता से नहीं।
इसी कारण शासक लोगों के यहाँ चाटुकारों ,कवियों की होड़ लगी रहती थी की कौन कितने नजदीक पहुंचे और वे नवरत्नों में गिने जावे। यह क्षेत्र इतना व्यापक होता हैं की इसमें शासक की कृपादृष्टि होना अनिवार्य हैं। बिना राजा के प्रसन्नता से कुछ नहीं होता और जो राजा द्वारा दण्डित होता हैं वह सब जगह से तिरस्कृत होता हैं जैसे चिदंबरम।
वर्तमान शासन इस बात पर कटिबद्ध हैं की जब तक सत्ता शीन हैं जितने अधिक से अधिक लोगों को कृतार्थ कर दे जिससे आगामी काल में शासक के गुणगान करने वाले पुरुस्कृत तो कम से कम रहेंगे। कारण कोई भी किसी को खुश नहीं कर सकता हैं। जैसे गुलाब के फूल को आप प्रेमिका के गालों में सैंकड़ों बार रगड़ों तो उसे घाव हो जायेगा। हालांकि वह गुलाब का फूल हैं। इसी प्रकार सरकार से सब खुश नहीं रह सकते। विपक्ष तो कभी नहीं पर पक्षधर भी नहीं हो पाते.
जिनको मंत्री पद दिया गया था उनका पत्ता साफ़ कर दिया गया तो वे अप्रतक्ष्य में नाराज़ हो जाते हैं ,इसका मतलब संतुष्टि की कोई सीमा या बंधन नहीं हैं। वर्तमान में सरकारी सम्मान बहुत दरियादिली से बांटे या दिए जा रहे हैं ,इस कारण उनका महत्व कुछ कम होता जा रहा हैं। राजनैतिक ,सामाजिक ,साहित्यिक ,धार्मिक वैज्ञानिक क्षेत्रों में काम करने वाले बहुत होते हैं पर सबको सम्मानित करना संभव नहीं हैं पर उनको सम्मान मिल जाता हैं जो केंद्र के नजदीक होते हैं। अन्यथा परिधि में तो सभी चक्कर लगा रहे हैं।
अब तो सरकार भारत के सर्वोच्च सम्मान उनको भी देने में चूक नहीं कर रही हैं जिनका तत्समय शासन के विरोध में गतिविधियां रही और जिनको उस कारण कारावास भोगना पड़ा पर वर्तमान में उस विचार धारा के कारण वे पूजनीय हो गए। इस आधार पर सरकार चाहे तो अपनी विचार धारा को मानने वालों को कृतार्थ करने में कोई विलम्ब न करे। सरकार के पास लगभग १०० -१५० वर्ष का पूरा इतिहास हैं उनमे से चुनाव करना संभवतः कठिन नहीं होगा। सूची मै दे सकता हूँ पर वो मान्य हो यह कोई जरुरी नहीं हैं।
अभी बहुत समय हैं सरकार के पास कारण वर्तमान सरकारको लगभग ५० वर्षतक शासन करनेलक्ष्य हैं ,उस अवधि तक भारत देश पुरूस्कार /सम्मान प्रधान देश माना जायेगा और जो पुरुस्कृत होंगे वे निश्चित ही सरकार के कृपा पात्र रहेंगे। जो स्वर्गीय हो चुके हैं उनको भी पुनर्जीवित किया जा सकेगा।
हम नित नए नामों की सूची का इंतज़ार करेंगे।
लंदन में नए दक्षिण एशिया का सपना
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कल सुबह लंदन से मैं दिल्ली के लिए रवाना होउंगा। इस दस दिन के प्रवास में ‘दक्षिण एशियाई लोक संघ’ (पीपल्स यूनियन ऑफ साउथ एशिया) का मेरा विचार यहां काफी जड़ पकड़ गया है। पड़ौसी देशों के ही नहीं, ब्रिटेन और इजरायल के कई भद्र लोगों ने भी सहयोग का वादा किया है। उनका कहना था कि इस तरह के क्षेत्रीय संगठन दुनिया के कई महाद्वीपों में काम कर रहे हैं लेकिन क्या वजह है कि दक्षिण एशिया में ऐसा कोई संगठन नहीं है, जो इसके सारे देशों के लोगों को जोड़ सके। मेरा सुझाव था कि दक्षेस (सार्क) के आठ देशों में बर्मा, ईरान, मोरिशस और मध्य एशिया की पांचों राष्ट्र- उजबेकिस्तान, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, किरगिजिस्तान और ताजिकिस्तान को भी जोड़ लिया जाना चाहिए। ये सभी राष्ट्र वृहद आर्यावर्त्त के हिस्से सदियों से रहे हैं। ये एक बड़े परिवार की तरह हैं। यदि यूरोप के परस्पर विरोधी और विभिन्न राष्ट्र जुड़कर यूरोपीय संघ बना सकते हैं तो हम एक दक्षिण एशियाई संघ क्यों नहीं बना सकते ? एक सुझाव यह भी है कि इस संघ में संयुक्त अरब अमारात के सातों देशों को भी क्यों नहीं जोड़ा जाए ? मुझे आश्चर्य यह हो रहा है कि दक्षिण एशिया के इस महासंघ को खड़ा करने में लंदन के लोगों में इतना उत्साह कहां से आ गया है ? शायद यह इसीलिए है कि दक्षिण एशियाई देशों के लोग यहां मिलकर रहते हैं और उनके खुले हुए आपसी संबंध हैं। आज पड़ौसी देशों के कई प्रोफेसर, पत्रकार और उद्योगपति मिलने आए। उन्होंने कहा कि इस संगठन का पहला कार्यालय लंदन में ही क्यों नहीं खोला जाए ? एक भाई का सुझाव था कि ऐसी फिल्म तुरंत बनाई जाए, जो करोड़ों दर्शकों को यह बताए कि यदि अगले पांच-दस साल में दक्षिण एशिया का महासंघ बन जाए तो इस इलाके का रंग-रुप कैसा निखर आएगा। यह विचार सभी देशों को एकजुट होने के लिए जबर्दस्त प्रेरणा दे सकता है। लंदन में पैदा हुआ नए दक्षिण एशिया का यह सपना दो-ढाई अरब लोगों की जिंदगी में नई रोशनी भर देगा।
मध्य-पूर्व में कुर्दिस्तान की आहट
सिद्धार्थ शंकर
बगावत और हिंसक संघर्षों से लंबे समय से जूझते देश सीरिया की आंतरिक राजनीति ने एक बार फिर करवट ली है। इस्लामिक स्टेट (आइएस) के खूनी संघर्ष से निपटने में सीरिया के मददगार रहे तुर्की के तेवर अचानक बदल गए हैं। दरअसल, कुछ दिनों पहले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी सेना को सीरिया की जंग से अलग करने का जैसे ही ऐलान किया, वैसे ही तुर्की ने कुर्दों को निशाना बना कर पश्चिम एशिया में नया संकट खड़ा कर दिया है। तुर्की कुर्दों के संगठन को आतंकवादी समूह मानता है और उसे अपनी संप्रभुता के लिए खतरा बताता रहा है। वहीं, अमेरिका कुर्दों को लेकर उदार रवैया दिखाता रहा है। पश्चिम एशिया की मुसलिम लड़ाकू जनजाति कुर्द अपनी बहादुरी और दिलेरी के लिए दुनिया भर में विख्यात है। इसका प्रभाव सीरिया के उत्तरी इलाकों के साथ ही तुर्की, इराक और ईरान तक है।
सीरिया के उत्तर में कुर्द ठिकानों पर तुर्की की सेना लगातार गोलाबारी कर रही है और इससे इस इलाके में रहने वाले हजारों परिवार युद्ध की मार झेल रहे हैं। दुनिया के सबसे खतरनाक इलाकों में शुमार इस क्षेत्र में आइएस के कई लड़ाके कुर्दों के कब्जे में हैं और तुर्की के हमलों के बाद से वे जेलों से भाग रहे हैं। आइएस के इन खूंखार लड़ाकों को कुर्दों ने अमेरिकी सेना की मदद से बड़ी मुश्किल से पकड़ा था। ऐसे में इनका भाग निकलना पश्चिम एशिया सहित पूरी दुनिया को खतरे में डाल सकता है। यदि ये लड़ाके फिर से संगठित हो गए तो आइएस मध्य-पूर्व में फिर से मजबूत हो जाएगा और इसके दूरगामी परिणाम बेहद खतरनाक होंगे। दूसरी ओर, तुर्की के राष्ट्रपति कुर्दों पर हमले के अमेरिका और यूरोप के विरोध को दरकिनार कर धमका रहे हैं कि यदि उन्हें हमलों से रोका गया तो वे पश्चिमी एशिया के 36 लाख युद्ध प्रभावित शरणार्थियों को यूरोप में धकेल देंगे।
तुर्की का कहना है कि सीरिया से गृह युद्ध के चलते जो शरणार्थी तुर्की में रह रहे हैं, उन्हें वे सुरक्षित क्षेत्र में बसाना चाहते हैं। वह वहां 20 लाख सीरियाई शरणार्थियों के लिए एक शिविर बनाएगा। फिलहाल यह इलाका कुर्दों के पास है। कुर्द लड़ाकों की मदद कर रही सीरिया सरकार की सेना रणनीतिक रूप से अहम मानबिज शहर में दाखिल हो गई है। तुर्की इस इलाके को खाली करवा कर सुरक्षित क्षेत्र बनाने की बात कह रहा है। इस समूचे घटनाक्रम में अमेरिका की पश्चिम एशिया को लेकर पूर्व से चली आ रही अस्थायी और अस्पष्ट नीति एक बार फिर सामने आई है।
बीते कई सालों से महाशक्तियां मध्य-पूर्व को शतरंज की बिसात पर तोल कर शह और मात का खेल खेलती रही हैं। इसमें तेल की राजनीति के साथ मजहब की जोर आजमाइश को बढ़ावा दिया गया है। विश्व के संपूर्ण उपलब्ध तेल का लगभग 66 प्रतिशत ईरान की खाड़ी के आसपास के इलाकों, मुख्य रूप से कुवैत, ईरान और सऊदी अरब में पाया जाता है। सोवियत संघ और अमेरिका तो तेल के मामले में आत्मनिर्भर हैं, लेकिन यदि यूरोप को इस इलाके से तेल मिलना बंद हो जाए तो उसके अधिकांश उद्योग धंधे बंद हो जाएंगे और इस प्रकार यूरोपीय महाद्वीप की औद्योगिक और सामरिक क्षमता बर्बाद हो जाएगी। यही कारण है कि पश्चिमी देश मध्य-पूर्व पर अपना नियंत्रण बनाए रखना चाहते हैं।
ईरान को रोकने के लिए अरब राष्ट्रवाद को तोडऩे की जरूरत थी और इसी का परिणाम हुआ कि वर्तमान में मध्य-पूर्व शिया-सुन्नी के संघर्ष का अखाड़ा बन गया है। शिया बहुल ईरान की इस्लामिक क्रांति से नाराज अमेरिका ने सुन्नी राष्ट्रवाद की कट्टरता को उभारने में अभूतपूर्व योगदान दिया। इसका असर मध्य-पूर्व के एक महत्त्वपूर्ण देश सीरिया पर भी पड़ा। सीरिया में बहुसंख्यक सुन्नी हैं, जबकि वहां के राष्ट्रपति असद शिया हैं और ईरान समर्थित माने जाते हैं। सीरिया के पूर्व में इराक और उत्तर में तुर्की है। 74 फीसद सुन्नी आबादी वाले सीरिया में सत्ता अल्पसंख्यक शिया संप्रदाय के बशर अल असद के हाथों में है। उन्हें रूस, अपने पारंपरिक सहयोगी ईरान और ईरान के समर्थन वाले लेबनानी चरमपंथी गुट हिजबुल्ला से मजबूत कूटनीतिक और सैन्य सहयोग मिलता रहा है।
फिर 2011 में जब मशहूर ‘अरब स्प्रिंग’ विरोध प्रदर्शनों ने ट्यूनीशिया और मिस्र में सत्तापलट कर दिया था तो अमेरिका ने इसे असद को सत्ता से बेदखल करने के स्वर्णिम अवसर के रूप में देखा। सीरिया की सत्ता से असद को हटाने के प्रयास में अमेरिका के मददगार वहां कई विद्रोही संगठन बन गए और इसी बीच आइएस इस इलाके में मजबूती से अपनी पैठ बनाने में सफल हो गया। साल 2013 में अलकायदा से अलग होकर आइएस अस्तित्व में आया और इससे मध्य-पूर्व में संघर्ष का एक नया सिलसिला शुरू हो गया। आइएस ने अमेरिकी योजनाओं के विपरीत ईसाइयों और उदार मुसलमानों के खिलाफ जेहाद की घोषणा कर मध्य-पूर्व के राजनीतिक संघर्ष की दिशा बदल दी।
आईएस ने इस इलाके के तेल कुओं पर अपना कब्जा जमा कर महाशक्तियों के सामने चुनौती पेश कर दी और इसके बाद पश्चिमी देशों, अमेरिका, रूस, तुर्की जैसे देशों ने आईएस को मिल कर खत्म करने में अपनी भूमिका निभाई। लंबे समय से इस युद्धग्रस्त इलाके से आईएस समाप्त होने की कगार पर आया तो अब एक बार फिर तुर्की ने कुर्दों के खिलाफ मोर्चा खोल कर नए संकट को जन्म दे दिया है। कभी विरोधी रहे कुर्द सीरिया की असद सरकार से मिल कर तुर्की का प्रतिरोध कर रहे हैं। वहीं अब रूस भी कुर्दों के समर्थन में आ गया है।
तुर्की से कुर्दों का विरोध पारंपरिक माना जाता है और कुर्द तुर्की को अपने दुश्मन की तरह देखते हैं। पहले विश्व युद्ध में ऑटोमन साम्राज्य की हार के बाद पश्चिमी सहयोगी देशों ने 1920 में संधि कर कुर्दों के लिए अलग देश बनाने की बात कही थी। 1923 में तुर्की के नेता मुस्तफा कमाल पाशा ने इस संधि को खारिज कर दिया था। तुर्की की सेना ने 1920 और 1930 के दशक में कुर्दिश उभार को कुचल दिया था। तब से कुर्दों और तुर्की के बीच दुश्मनी और गहरा गई। तुर्की में इस समय बीस फीसद कुर्द हैं। पीढिय़ों से तुर्की में कुर्दों के साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार होता रहा है। तुर्की में कुर्दिश नाम और उनके रिवाजों को प्रतिबंधित कर दिया गया है। इसके साथ ही कुर्दिश भाषा भी प्रतिबंधित है।
यहां तक कि कुर्दिश पहचान को भी खत्म कर दिया गया है। साल 2017 में इराक में अलग कुर्दिस्तान के लिए जनमत संग्रह हुआ तो भारी तादाद में कुर्दों ने इसके पक्ष में मत डाले। इसके बाद तुर्की कुर्दों को लेकर गहरे दबाव में आ गया। उसे डर है कि इस इलाके में कुर्दिस्तान के बनने से उसके देश में बसने वाले कुर्द विद्रोह कर कुर्दिस्तान में मिलने की मांग करेंगे और इससे तुर्की की संप्रभुता पर नया संकट खड़ा हो सकता है।
यूरोप के एकमात्र मुसलिम बहुल देश तुर्की के राष्ट्रपति की मुसलिम शरणार्थियों के नाम पर दी जा रही धमकियों से यूरोप, रूस और अमेरिका चिंतित हैं। ऐसे में सीरिया में संतुलन, ईरान को दबाने और इराक सहित अन्य खाड़ी देशों पर अपना प्रभाव जमाए रखने के लिए मुमकिन है कि आने वाले समय में अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र अलग कुर्दिस्तान की मांग को मान लें। ऐसा होने पर मध्य-पूर्व का भूगोल एक बार फिर बदल जाएगा और दक्षिणी-पूर्वी तुर्की, उत्तरी-पूर्वी सीरिया, उत्तरी इराक, उत्तर-पूर्वी ईरान और दक्षिण-पश्चिमी आर्मेनिया को मिला कर कुर्दिस्तान अस्तित्व में आ सकता है। कुर्दिस्तान सऊदी अरब और ईरान के प्रभुत्व को खत्म करने का पश्चिमी हथियार बन सकता है और बदलते वैश्विक परिदृश्य में इसकी संभावनाएं बलवती हो गई हैं।
अबकी बार बच गया पाकिस्तान
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आज के दिन पाकिस्तान की सांस अधर में लटकी हुई थी। यदि पेरिस स्थित वित्तीय कार्रवाई टास्क फोर्स (एफएटीएफ) आज पाकिस्तान को उसकी भूरी सूची में से निकालकर काली सूची में डाल देती तो उसकी नय्या डूब जाती। काली सूची में आने का अर्थ है, वह अंतरराष्ट्रीय अछूत बन जाए। पाकिस्तान पर यह ठप्पा लग जाता और वह ईरान और उत्तर कोरिया की श्रेणी में चला जाता। उसकी आर्थिक घेराबंदी हो जाती। दुनिया के देश उसकी आर्थिक मदद नहीं कर पाते। उसका हुक्का-पानी बंद हो जाता। पाकिस्तान का आरोप है कि इस काम के लिए भारत ने अपना पूरा जोर लगा रखा है। आज पेरिस में हुई बैठक में एफएटीएफ ने पाकिस्तान को काली सूची में तो नहीं डाला है लेकिन उसे भूरी सूची से भी बाहर नहीं निकाला है। उसे पिछले साल यह चेतावनी दी गई थी लेकिन लाख दावे करने के बावजूद अभी तक इमरान-सरकार अपने आतंकवादी संगठनों और उनके वित्तीय स्त्रोतों को काबू नहीं कर सकी है। अब उसे फरवरी 2020 तक एक मौका और दिया गया है। उसे जून 2018 में 27 सूत्री योजना दी गई थी। लेकिन अभी तक 15 माह बीत जाने के बावजूद वह सिर्फ 5 मुद्दों पर कार्रवाई कर सका है। पाकिस्तानी सरकार चुप नहीं बैठी है। उसने आतंकवादी संगठनों के खिलाफ कई कदम उठाए हैं। उनके बैंक-खाते सील कर दिए हैं, उनके दफ्तरों से उन्हें बेदखल कर दिया है और उनके कुछ सरगनाओं को जेल में भी डाल दिया है लेकिन उक्त वित्तीय संगठन के सदस्य पाकिस्तानी सरकार की कार्रवाई से पूर्ण संतुष्ट नहीं हैं। इस संगठन का अध्यक्ष आजकल चीन है। चीन इस आड़े वक्त में पाकिस्तान के खूब काम आया है। अगर चीन की जगह कोई और राष्ट्र होता तो पाकिस्तान पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता लेकिन अब भी पाकिस्तान को आतंकवाद के विरुद्ध अपनी कमर कस लेनी चाहिए वरना अगले साल फरवरी में उसे कोई नहीं बचा पाएगा, चीन भी नहीं। यहां लंदन में कुछ पाकिस्तानी दोस्तों ने मुझसे कहा कि जब तक पाकिस्तान को बाहरी मदद बंद नहीं होगी, वह अपने पांव पर खड़ा ही नहीं होगा।
फैसले की धुन्ध : अयोध्या विवाद; क्या फैसला सर्वमान्य होगा….?
ओमप्रकाश मेहता
देश की सबसे बड़ी अदालत ने करीब चालीस दिन की अनवरत मशक्कत के बाद बहुविवादित व चिर प्रतीक्षित अयोध्या रामजन्म भूमि विवाद की सुनवाई पूरी कर ली, अब पूरा देश फैसले की प्रतीक्षा में है, जो नवम्बर के पहले पखवाड़े में कभी भी आज सकता है। चूंकि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश रंजन गोगोई सत्रह नवम्बर को सेवानिवृत्त हो रहे है, इसलिए वे चाहते है कि उनके पद पर रहते हुए इस चिर विवादित विवाद पर फैसला आ जाए, जिससे इस विवाद के पांच सौ साल के इंतिहास में उनका नाम भी दर्ज हो जाए। यदि राजनीतिक दृष्टि से भी देखा जाए तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी अपने कार्यकाल की बड़ी उपलब्धियों में राममंदिर की उपलब्धि भी जोड़ना चाहते है, जिससे की उनके शेष बचे साढ़े चार साल के कार्यकाल में मंदिर बनकर तैयार हो जाए और उनके शासन का मार्ग और प्रशस्त हो जाए।
वैसे इस चिरविवादित मामले को लेकर पिछले पांच सौ सालों में क्या-क्या हुआ यह तो सर्वविदित है, तत्कालीन फैसलों को लेकर कभी मुस्लिम पक्ष खुश हुआ तो कभी हिन्दू पक्ष। इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले से हिन्दू पक्ष सर्वाधिक खुश हुआ, और इसी फैसले के कारण यह विवाद सर्वोच्च न्यायालय की चैखट पर पहुंचा, क्योंकि मुस्लिम पक्ष इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले से काफी निराश, दुःखी व उत्तेजित हो गया था, अब लगातार चालीस दिन सुनवाई करके सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के पांच न्यायाधीशों ने काफी मशक्कत की है, सभी पक्षों को ध्यान से सुना है और अब वे इस विवाद का अंतिम फैसला सुनाने की तैयारी कर रहें है। अब फैसला कैसा व किसके पक्ष या विपक्ष में आएगा? यह तो फिलहाल नहीं कहा जा सकता, किंतु यह सही है कि इस विवाद से जुड़े दोनों ही पक्ष काफी आशान्वित नजर आ रहे है, और सुप्रीम कोर्ट की भी यह मंशा नजर आ रही है कि कथित रामजन्म भूमि का मालिकाना हक किसी को भी मिले, किंतु दूसरे पक्ष को भी न्यायालय निराश नहीं होने देगा, उसे भी कुछ तो उपलब्धि अवश्य हासिल होगी।
इसके साथ ही यहां यह भी उल्लेखनीय है कि फिलहाल दोनों ही पक्ष भावी फैसले को लेकर अपनी आम सहमति जाहिर कर रहे हैं और सभी दावा कर रहे है कि सर्वोच्च न्यायालय जो भी फैसला सुनाएगा वह सर्वमान्य होगा। किंतु दोनों पक्षों के इन दावों के साथ यह आशंका भी प्रकट की जा रही है कि अभी फैसला आने के पूर्व न्यायालय में न्यायाधीशों के सामने ही दस्तावेज (नक्शें) फाड़े जा रहे है और एक पक्ष विशेष से सर्वाधिक सवाल पूछने के आरोप लगाए जा रहे है, अर्थात् अपरोक्ष रूप से माननीय न्यायाधीशों पर पक्षपात के आरोप मढ़े जा रहे है, तो क्या ये पक्ष फैसला अपने पक्ष में नहीं आने के बाद उसे सहर्ष स्वीकार कर लेगें? और क्या तब देश के सबसे बड़े न्यायालय को आरोपों के कटघरे में खड़े करने की कोशिशें नहीं की जाएगी? आज देश को इसी बात की सबसे बड़ी चिंता है।
वैसे यहां एक संभावना यह भी प्रकट की जा रही है कि यदि इस चिरविवादित प्रकरण का फैसला हिन्दूओं के पक्ष में आता है तो सत्तापक्ष व उससे जुड़े संगठन देश में एक ही पखवाड़े में दो बार दीपावली मनाएगी और चूंकि संसद का शीतकालीन सत्र 18 नवम्बर से शुरू हो रहा है और तब तक इस विवाद का फैसला आ चुका होगा, इसलिए वह संसद सत्र शीतकालीन सत्र नहीं बल्कि ‘‘मंगलमयी महोत्सव सत्र’’ होगा, जिसमें सत्तारूढ़ दल इस फैसले को अपने शासनकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि बताने में नहीं चूकेेगा और पूरे देश में विश्व हिन्दू परिषद, भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और अन्य हिन्दू संगठन काफी खुशियां मनाने वाले है, फिर चाहे इस विवाद को निपटाने में मशक्कत चाहे न्याय पालिका ने ही क्यों न की हो, उपलब्धि तो मोदी सरकार की ही गिनाई जाएगी, क्योंकि भाजपा के इसी काल के चुनावी घोषणा-पत्र में जम्मू-कश्मीर से धारा-370 व 35ए हटाने के साथ ही रामजन्म भूमि पर भव्य मंदिर बनाने का वादा भी किया गया था। इस तरह धर्म व न्याय से जुड़े इस विवाद के फैसले का श्रेय सरकार के खाते में जमा हो जाए तो आश्चर्य नहीं होगा।
गाँधी के देश में गोडसे का महिमामण्डन?
तनवीर जाफ़री
कृतज्ञ राष्ट्र इस वर्ष अपने परम प्रिय राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की 150 वीं जयंती मना रहा है। इस अवसर पर गांधीवादी विचारधारा तथा गाँधी दर्शन को लेकर पुनः चर्चा छिड़ गयी है। हिंसा,आक्रामकता,सांप्रदायिकता,ग़रीबी तथा जातिवाद के घोर विरोधी गाँधी को देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में इसलिए भी अधिक शिद्दत से याद किया जाता रहा है क्योंकि विश्व के कई हिस्सों में इस समय हिंसा,आक्रामकता,सांप्रदायिकता,जातिवाद,वर्गवाद,पूंजीवाद तथा नफ़रत का बोल बाला हो रहा है। दुर्भाग्य पूर्ण बात तो यह है कि ख़ुद गाँधी का देश भारत भी इन्हीं हालात का शिकार है। मानवता को दरकिनार कर बहुसंख्यवाद की राजनीति पर ज़ोर दिया जा रहा है। बहुरंगीय संस्कृति व भाषा के इस महान देश को एकरंगीय संस्कृति व भाषा का देश बनाने के प्रयास हो रहे हैं। ज़ाहिर है गाँधी दर्शन के विरुद्ध बनते इस वातावरण में उन्हीं शक्तियों तथा विचारधारा के लोगों की ही सक्रियता है जो गाँधी जी के जीवनकाल से ही गाँधी के सहनशीलता व ‘सर्वधर्म समभाव’ के विचारों से सहमत नहीं हैं। निश्चित रूप से यही वजह है कि आज देश में न केवल गाँधी विरोधी शक्तियां सक्रिय हो रही हैं बल्कि गाँधी के हत्यारे नाथू राम गोडसे का महिमामंडन भी मुखरित होकर किया जाने लगा है। उसकी मूर्तियां स्थापित करने के प्रयास किये जा रहे हैं। इतना ही नहीं जो लोग गोडसे का महिमामंडन करते हैं और उसे राष्ट्रभक्त बताते हैं वह लोग चुनाव जीत कर संसद में भी पहुँच चुके हैं।
ये सांसद कोई साधारण सांसद भी नहीं हैं बल्कि इनमें प्रज्ञा ठाकुर जैसी सांसद तो कई आतंकवादी वारदातों में आरोपी भी रही है। कई भगवाधारी मंत्री व सांसद हैं जो गोडसे का महिमामंडन करने से नहीं चूकते। निश्चित रूप से गाँधी विरोध व गोडसे से हमदर्दी का मत रखने वालों का गाँधी जी से मुख्यतः दो बातों को लेकर ही विरोध है। हिंदूवादी संगठनों का आरोप है कि वे मुसलमानों के हितों का अधिक ध्यान रखते थे तथा यह भी कि देश के बंटवारे में उनका रुख़ नर्म था। एक आरोप यह भी है कि विभाजन के पश्चात् भारत पाक के मध्य हुए संसाधनों के बंटवारे के समय भी गाँधी जी ने कथित रूप से पाकिस्तान के हित में कई फ़ैसले लिए। इस तरह के आरोप ही अपने आप में यह साबित करते हैं कि गांधी जी कितने विशाल ह्रदय के स्वामी थे जबकि ऐसे इल्ज़ाम लगाने वाले लोगों के विचार कितने संकीर्ण व स्वार्थ पर आधारित हैं। बेशक गांधी जी की इस सोच ने खांटी हिंदूवादी सोच रखने से नफ़रत वालों को गाँधी से नफ़रत करने की सीख दी परन्तु उनके ऐसे ही फ़ैसलों ने ही उन्हें गांधी से महात्मा गाँधी बना दिया। हमारे देश के इस अनमोल सपूत को जिसे हमारे ही देश के ‘साम्प्रदायिक विचारवान’ लोग मुस्लिमों का तुष्टिकरण करने वाला नेता बताते हैं वे भी खुलकर गाँधी की आलोचना करने का सहस नहीं कर पाते। आलोचना करना दूर की बात है उल्टे इस विचारधारा के लोग गांधी की तारीफ़ करते या उनके विचारों का अनुसरण करने की दुहाई देते हुए भी दिखाई देना चाहते हैं ताकि दुनिया की नज़रों में वे भी गाँधी जैसे विचारवान नज़र आएं।
वैचारिक दृष्टि से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व इसके सहयोगी संगठनों को गाँधी की विचारधारा का विरोधी ही माना जाता है। आज जो भी गोडसेवादी स्वर मुखरित होते सुनाई दे रहे हैं वे सभी सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी से ही जुड़े हुए हैं। परन्तु इसके विपरीत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गाँधी जी को विश्व के समक्ष भारत का अनमोल रत्न बताने की ही कोशिश करते हैं। पिछले दिनों प्रधानमंत्री मोदी का एक लेख अमेरिका के प्रसिद्ध अख़बार न्यूयार्क टाइम्स में प्रकाशित हुआ। गाँधी जी की 150 वीं जयंती के मौक़े पर प्रकाशित इस लेख का शीर्षक था ‘भारत और दुनिया को गाँधी की ज़रुरत क्यों है’। अपने लेख की शुरुआत में मोदी ने अमरीकी नेता मार्टिन लूथर किंग के 1959 के दौरे को याद करते हुए उनके इस कथन का ज़िक्र किया है जिसमें लूथर किंग ने कहा था -‘दूसरे देशों में मैं एक पर्यटक के तौर पर जा सकता हूँ परन्तु भारत आना किसी तीर्थ यात्रा की तरह है’।इस लेख में ग़रीबी कम करने, स्वच्छता अभियान चलाने व सौर्य ऊर्जा जैसी योजनाओं का भी ज़िक्र है। निश्चित रूप से गाँधी के दृष्टिकोण व उनके विचारों को किसी एक लेख या ग्रन्थ में समाहित नहीं किया जा सकता। गाँधी जी ने हमेशा सह-अस्तित्व की बात की। उन्होंने गांधी हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात की। उनका कहना था कि ‘हमको मानवता में विश्वास नहीं खोना चाहिए’। गाँधी जी का कहना था कि ‘मानवता एक महासागर के सामान है, यदि सागर की कुछ बूंदें गंदी हैं, तो पूरे महासागर को गंदा नहीं कहा जा सकता’। परन्तु आज जान बूझकर पूरी योजना बनाकर कुछ हिंसक लोगों की गतिविधियों को धर्म विशेष के साथ जोड़ने की जीतोड़ कोशिश वैश्विक स्तर पर की जा रही है। वे कहते थे कि ‘दुनिया के सभी धर्म, हर मामले में भिन्न हो सकते हैं, पर सभी एकजुट रूप से घोषणा करते हैं कि इस दुनिया में सत्य के अलावा कुछ भी नहीं रहता है’। गाँधी जी के सभी धर्मों के बारे में ऐसे विचार थे परन्तु गांधी विरोधी इस बात से सहमत नहीं उनकी नज़रों में धर्म विशेष आतंकवादी धर्म भी है और जेहादी व फ़सादी भी। गाँधी जी का विचार था कि ‘अहिंसा की शक्ति से आप पूरी दुनिया को हिला सकते हैं’। परन्तु आज जगह जगह हिंसा से ही जीत हासिल करने की कोशिश की जा रही है। अहिंसा परमो धर्मः की जगह गोया हिंसा परमो धर्मः ने ले ली है।
गाँधी जी की धर्म के विषय में भी जो शिक्षाएं थीं वे मानवतापूर्ण तथा पृथ्वी पर सदा के लिए अमर रहने वाली शिक्षाएं थीं।आप फ़रमाते थे कि – मैं धर्मों में नहीं बल्कि सभी महान धर्मों के मूल सत्य में विश्वास करता हूं।’उनका कहना था कि ‘ सभी धर्म हमें एक ही शिक्षा देते हैं, केवल उनके दृश्टिकोण अलग अलग हैं। इसी प्रकार गाँधी जी का कथन था कि हिंदू धर्म सभी मानव जाति ही नहीं बल्कि भाईचारे पर ज़ोर देता है। गाँधी जी यह भी कहा करते थे कि -‘मैं ख़ुद को हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, यहूदी, बौद्ध और कन्फ़्यूशियस मानता हूं’। ज़ाहिर है महात्मा गाँधी के इन विचारों में न तो कहीं साम्प्रदायिकता की गुंजाईश है न जाति या वर्ण व्यवस्था की। न ग़रीबी पैमाना है न अमीरी। न हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना है न बहुसंख्यवाद की राजनीति करने की गुंजाइश । वे हमेशा केवल मानवता और वास्तविक धर्म की बातें करते दिखाई देते थे। तभी तो वे यह भी कहा करते थे कि निर्धन हो या अमीर, भगवान सभी के लिए है। वो हम में से हर एक के लिए होता है। गाँधी जी के मुताबिक़ -‘सज्जनता, आत्म-बलिदान और उदारता किसी एक जाति या धर्म का अनन्य अधिकार नहीं है’।वे हमेशा लोगों को विनम्र रहने की सीख भी देते थे और कहते थे कि ‘विनम्रता के बिना सेवा, स्वार्थ और अहंकार है’।वे ग़रीबी को हिंसा का सबसे बुरा रूप मानते थे।
आज के सन्दर्भ में यदि हम क़र्ज़ से तंग हुए किसानों की आत्महत्या को देखें,बेरोज़गारी व असुरक्षा की वजह से बढ़ती ख़ुदकशी की घटनाओं को देखें,आसाम में एन आर सी के चलते लोगों में छाया भय तथा धर्म के आधार पर लोगों में फैलाई जा रही दहशत पर नज़र डालें या फिर कश्मीर में कश्मीरियों के साथ होने वाले ज़ुल्म व अन्याय को देखें,जनता के संसाधनों पर सत्ताधीशों की ऐश परस्ती देखें,महिलाओं के साथ दिनोंदिन बढ़ता जा रहा ज़ुल्म व शोषण देखें तो हम आसानी से इस निष्कर्ष पर स्वयं पहुँच जाएंगे कि यह सब गाँधी के देश में बढ़ते गोडसे के महिमामण्डन का ही परिणाम है। परन्तु इसके बावजूद सच्चाई तो यही है कि गोडसे व उसके साम्प्रदायिकता पूर्ण हिंदूवादी विचारों ने गाँधी जी की हत्या कर उनको पूरी दुनिया के लिए इस क़द्र अमर कर दिया कि जो भी भारत की सत्ता पर बैठेगा उसके लिए दिखावे के लिए ही सही परन्तु महात्मा गाँधी की सत्य व अहिंसा,मानवता व सर्वधर्म समभाव के सिद्धांतों की उपेक्षा व अवहेलना कर पाना कभी भी इतना आसान नहीं होगा।
लोक शिक्षण से छूटेगी ई-सिगरेट की लत
मुकेश तिवारी
पाबंदियों और मनाइयों का हमारे देश में क्या हश्र होता है इसे आसानी से जाना जा सकता है लेकिन कानूनी तौर पर भी पाबंदियां लगाने में गुरेज नहीं किया जाता पाबंदी के माध्यम से समस्या का तुरंत-फुरत हल निकाल लिया जाता है और उम्मीद की जाती है कि अध्यादेश जारी होते ही लोग उसे मानना शुरू कर देंगे लेकिन हकीकत में ऐसा होता नहीं पाबंदियां मजाक बन कर रह जाती हैं और मनाइयां बेमौत मर जाती हैं खासतौर पर आबादी के बड़े हिस्से में फैली समस्या के निवारण के लिए लगी पाबंदियां वजह यह है कि ऐसी पाबंदियों नींव को लागू करने की यंत्रणा किसी सरकार के पास नहीं है मसलन सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान कानूनी तौर पर अपराध है लेकिन इसका पालन करवाना मुमकिन नहीं इसलिए बेखौफ धुएं के छल्ले उड़ाते लोग पहले की ही तरह मौजूद हैं दरअसल में कानूनी तौर पर निरोधक कार्यवाही माना गया है उपाय किसी छोटे समूह पर तो कारगर हो सकता है लेकिन विशाल तबके पर नितांत बेमानी है। इलेक्ट्रॉनिक यानी ई- सिगरेट के उत्पादन बिक्री भंडारण प्रचार लाने ले जाने और निर्यात को प्रतिबंधित करने के लिए पिछले माह केंद्र द्वारा जारी अध्यादेश की भी इसी श्रेणी में आता है तथ्य है कि इसके उपयोग से कैंसर जैसा असाध्य रोग होता है यह भी तथ्य है कि किशोर किशोरियों में इसकी लत बढ़ती जा रही है लेकिन यह किसी से ढका छिपा नहीं है कि प्रतिबंध लगाने मात्र से यदि लत छूटती तो अब तक दुनिया से नशे का सारा सामान ओझल हो गया होता उपाय यही है कि सेहत को बर्बाद करने वाली ऐसी जहरीली चीजों के बारे मैं उस तबके को विशेष रूप से शिक्षित किया जाए जिसमें इनका ज्यादा प्रचलन है यह भी एक तरह का लोक जागरण है जिसमें सरकारें सहयोग तो दे सकती हैं लेकिन खुद इसका संचालन नहीं कर सकती सरकारें हद से हद इनके बनने से ज्ञात ठिकानों पर ताले डलवा सकती हैं हालांकि भारत में ई सिगरेट का विनिर्माण नहीं होता है यह आयत की जाती है लोगों को इ सिगरेट की भयावहता के बारे में मनवाने का काम दीर्घकालीन तो है लेकिन दुशवार नहीं आखिर पाबंदियां तभी कारगर होती है जब लोग पूरे मनयोग से तैयार होते हैं।
सावरकर साम्प्रदायिक थे या शुद्ध बुद्धिवादी ?
डॉ -वेदप्रताप वैदिक
स्वातंत्र्यवीर सावरकर का स्वतंत्र भारत में क्या स्थान है ? न तो उन्हें भारत रत्न दिया गया, न संसद के केन्द्रीय कक्ष में उनका चित्र लगाया गया, न संसद के अंदर या बाहर उनकी मूर्ति स्थापित की गई, न उन पर अभी तक कोई बढ़िया फिल्म बनाई गई, न उनकी जन्म-शताब्दि मनाई गई और न ही उनकी जन्म-तिथि और पुण्य-तिथि पर उनको याद किया जाता है। इसका कारण क्या है ?
क्या हमें पता नहीं कि भारत के लिए पूर्ण स्वराज्य की माँग सबसे पहले सावरकर ने की थी। 50 साल की सज़ा पानेवाले वे पहले और अकेले क्रांतिकारी थे। वे पहले ऐसे नेता थे, जिन्होंने विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी। वे ऐसे पहले भारतीय बेरिस्टर थे, जिन्हें ब्रिटेन ने उनके उग्र राजनैतिक विचारों के कारण डिग्री नहीं दी थी। वे ऐसे पहले भारतीय लेखक थे, जिनकी पुस्तकों पर छपने से पहले ही दो देशों की सरकारों ने पाबन्दी लगा दी थी। वे दुनिया के पहले ऐसे कवि थे, जिन्होंने जेल की दीवारों पर कील से कविताएँ लिखी थीं। वे ऐसे पहले कैदी थे, जिनकी रिहाई का मुकदमा हेग के अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय में चला था। वे एकमात्र ऐसे क्रान्तिकारी थे, जिन्होंने उच्च कोटि के काव्य, नाटक, उपन्यास, कहानी, निबंध आदि के अलावा इतिहास और राजनीति पर पांडित्यपूर्ण मौलिक ग्रन्थों की रचना की थी। वे ऐसे पहले भारतीय नेता थे, जिन्होंने भारत की आज़ादी के सवाल को अन्तरराष्ट्रीय मुद्दा बना दिया था। हमने सावरकर के अलावा क्या किसी ऐसे क्रान्तिकारी का नाम सुना है, जिसकी पुस्तकें मदाम भीकाजीकामा, सरदार भगतसिंह और सुभाषचन्द्र बोस जैसे महापुरूषों ने अपने सिर-माथे पर रखी हों और उन्हें छपवाकर चोरी-छिपे बंटवाया हो ? 27 साल तक अण्डमान-निकोबार और रत्नागिरी की जेलों में अपना सर्वस्व होम देनेवाला सावरकर जैसा कोई दूसरा क्रांतिकारी क्या दुनिया में कहीं और हुआ है ? फिर भी क्या बात है कि सावरकर का नाम लेने में आजकल के तथाकथित राष्ट्रवादियों का भी कलेजा काँपता है ?
इसका कारण स्पष्ट है। विनायक दामोदर सावरकर के माथे पर साम्प्रदायिकता और हिंसा का बिल्ला चिपका दिया गया है। यह माना जाता है कि भारत की सशस्त्र क्रांति और हिन्दू साम्प्रदायिकता के जन्मदाता सावरकर ही थे। इसमें शक नहीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दोनों आद्य निर्माता डाॅ0 केशव बलिराम हेडगेवार और गुरू गोलवलकर सावरकर के अनुयायी थे, लेकिन क्या वजह है कि सावरकर के प्रति संघ में भी कोई उत्साह नहीं है ? सावरकर की तरह सशस्त्र क्रांतिकारी तो और भी कई हुए लेकिन उनकी अवहेलना वैसी नहीं हुई, जैसी कि सावरकर की होती रही है। सावरकर की अवहेलना का मुख्य कारण यह था कि गाँधी और नेहरू को सबसे कड़ी चुनौती सावरकर ने ही दी थी। गाँधी के असली वैचारिक प्रतिद्वंद्वी जिन्ना, सुभाष और आम्बेडकर नहीं, सावरकर ही थे। उक्त तीनों नेताओं ने स्वाधीनता संग्राम के दौरान कभी न कभी गाँधी के साथ मिलकर काम किया था लेकिन सावरकर एक मात्र ऐसे बड़े नेता थे, जिन्होंने अपने लन्दन-प्रवास के दिनों से ही गाँधी को नकार दिया था। श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा लंदन में स्थापित ‘इंडिया हाउस’ का संचालन सावरकर किया करते थे। ‘इंडिया हाउस’ में दो बार सावरकर और गाँधी की भेंट भी हुई। गाँधी की तथाकथित ‘अंग्रेज-भक्ति’ और अहिंसा को सावरकर ने पहले दिन से ही गलत बताया था। यद्यपि गाँधी, सावरकर से 14 साल बड़े थे और सावरकर के लंदन पहुँचने (1906) के पहले ही वे अपने साउथ अफ्रीकी आंदोलन के कारण प्रसिद्ध हो चुके थे लेकिन अगले चार साल में ही सावरकर विश्व-विख्यात क्रांतिकारी का दर्जा पा गए थे। 27 साल की आयु में उन्हें पचास साल की सज़ा मिली थी। ब्रिटेन से भारत लाए जाते वक्त उन्होंने जहाज से समुद्र में छलांग क्या लगाई, वे सारी दुनिया के क्रांतिकारियों के कण्ठहार बन गए। दुश्मन के चंगुल से पलायन तो नेपोलियन, लेनिन और सुभाष बोस ने भी किया था, लेकिन सावरकर के पलायन में जो रोमांच और नाटकीयता थी, उसने उसे अद्वितीय बना दिया था। कल्पना कीजिए कि जैसे गाँधी 1915 में दक्षिण अफ्रीका छोड़कर भारत आए, वैसे ही 1910 में सावरकर अपनी बैरिस्टरी पढ़कर भारत लौट आते तो क्या होता ? भारत का राष्ट्रपिता कौन कहलाता ? गाँधी या सावरकर ? भारत की जनता पर किसकी पकड़ ज्यादा होती, किसका असर ज्यादा होता ? गाँधी का या सावरकर का ? सावरकर को बाल गंगाधर तिलक, स्वामी श्रद्धानंद, लाला लाजपतराय, मदनमोहन मालवीय, विपिनचन्द्र पाल जैसे सबसे प्रभावशाली नेताओं का उत्तराधिकार मिलता और गाँधी को दादाभाई नौरोजी और गोपालकृष्ण गोखले जैसे नरम नेताओं का ! कौन जानता है कि खिलाफत का आंदोलन भारत में उठता या न उठता । जिस खिलाफत ने पहले जिन्ना को भड़काया, काँग्रेस से अलग किया और कट्टर मुस्लिम लीगी बनाया, उसी खिलाफत ने सावरकर को कट्टर हिन्दुत्ववादी बनाया। यदि मुस्लिम सांप्रदायिकता का भूचाल न आया होता तो हिन्दू राष्ट्रवाद का नारा सावरकर लगाते या न लगाते, कुछ पता नहीं। सावरकर के पास जैसा मौलिक पांडित्य, विलक्षण वक्तृत्व और अपार साहस था, वैसा काँग्रेस के किसी भी नेता के पास न था। इसमें शक नहीं कि गाँधी के पास जो जादू की छड़ी थी, वह सावरकर क्या, 20 वीं सदी की दुनिया में किसी भी नेता के पास न थी लेकिन अगर सावरकर जेल से बाहर होते तो भारत की जनता काफी चक्कर में पड़ जाती। उसे समझ में नहीं आता कि वह सावरकर के हिन्दुत्व को तिलक करे या गाँधी के ! उसे तय करना पड़ता कि सावरकर का हिन्दुत्व प्रामाणिक है या गाँधी का ! यह भी संभव था कि सावरकर के हिन्दू राष्ट्रवाद और जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद में सीधी टक्कर होती और 1947 की बजाय भारत विभाजन 1937 या 1927 में ही हो जाता और गाँधी इतिहास के हाशिए में चले जाते ! सावरकर के जेल में और गाँधी के मैदान में रहने के कारण जमीन-आसमान का अन्तर पड़ गया। 1937 में सावरकर जब रिहा हुए तब तक गाँधी और नेहरू भारत-हृदय सम्राट बन चुके थे। वे खिलाफत, असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलन चला चुके थे। उन्होंने काँग्रेस को भारत की मुख्यधारा बना दिया था। जिन्ना, आम्बेडकर और मानवेंद्रनाथ राय अपनी अलग धाराएँ काटने की कोशिश कर रहे थे लेकिन गाँधी को उन्हीं के पाले में पहुँचकर चुनौती देनेवाला कोई नहीं था। यह बीड़ा उठाया सावरकर ने। सावरकर को काँग्रेस में आने के लिए किस-किसने नहीं मनाया लेकिन वे ‘मुस्लिम ब्लेकमेल’ के आगे घुटने टेकनेवाली पार्टी में कैसे शामिल होते ? वे 1937 में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बन गए। हिन्दू महासभा ने गाँधी के हिन्दूवाद और अहिंसा, दोनों को चुनौती दी।
सावरकर और गाँधी दोनों हिन्दुत्व के प्रवक्ता थे और दोनों अखंड भारत के समर्थक थे। गाँधी का हिन्दुत्व पारम्परिक, सनातनी, अहिंसक प्रतिकार और जन्मना वर्णाश्रम का समर्थक और अ-हिन्दुओं के प्रति उदार था जबकि सावरकर का हिन्दुत्व अ-हिन्दुओं के प्रति ‘उचित’ रवैए का पोषक, परम्परा-भंजक, हिंसक प्रतिकार और बुद्धिवादी दृष्टिकोण का पक्षधर था। सावरकर ने हिन्दुत्व के दो आवश्यक तत्व बताए। जो व्यक्ति भारत भूमि (अखंड भारत) को अपना पितृभू और पुण्यभू मानता है, वह हिन्दू है। यह परिभाषा समस्त सनातनी, आर्यसमाजी, ब्रह्मसमाजी, देवसमाजी, सिख, बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मणों से दलितों तक को हिन्दुत्व की विशाल परिधि में लाती है और उन्हें एक सूत्र में बाँधने और उनके सैनिकीकरण का आग्रह करती है। वह ईसाइयों और पारसियों को भी सहन करने के लिए तैयार है लेकिन मुसलमानों को वह किसी भी कीमत पर ‘हिन्दू’ मानने को तैयार नहीं है, क्योंकि भारत चाहे मुसलमानों का पितृभू (बाप-दादों का देश) हो सकता है लेकिन उनका पुण्यभू तो मक्का-मदीना ही है। उनका सुल्तान तो तुर्की का खलीफा ही है। यह एक तात्कालिक तथ्य था, चिरंतन सत्य नही। लेकिन इस तथ्य को हिन्दूवादियों ने एक तर्क में ढाल लिया और तत्कालीन मुस्लिम पृथकतावाद की खाई को पहले से अधिक गहरा कर दिया। सावरकर के इस तर्क की कमियों पर कभी अलग से चर्चा करेंगे लेकिन यह मान भी लें कि सावरकर का तर्क सही है और मुसलमान हिन्दुत्व की परिधि के बाहर हैं तो भी सावरकर के हिन्दू राष्ट्र में मुसलमानों की स्थिति क्या होगी, यह कसौटी यह तय करेगी कि सावरकर सांप्रदायिक थे या नहीं। सावरकर को जाँचने की दूसरी कसौटी यह हो सकती है कि यदि उन्होंने मुस्लिम पृथकतावाद और परराष्ट्र निष्ठा पर आक्रमण किया तो उन्होेंने हिन्दुओं की गंभीर बीमारियों पर भी हमला किया या नहीं? दूसरे शब्दों में सावरकर के विचारों के मूल में हिन्दू सांप्रदायिकता थी या शुद्ध बुद्धिवाद था, जिसके कारण हिन्दुओं और मुसलमानों में उनकी क्रमशः व्यापक और सीमित स्वीकृति भी नहीं हो सकी। न हिन्दुओं ने उनका साथ दिया और न मुसलमानों ने उनकी सुनी। न खुदा ही मिला और न ही विसाले-सनम !
इन दोनों कसौटियों पर यदि सावरकर के विचारों को कसा जाए तो यह कहना कठिन जो जाएगा कि वे सांप्रदायिक थे बल्कि यह मानना सरल हो जाएगा कि वे उग्र बुद्धिवादी थे और इसीलिए राष्ट्रवादी भी थे। अगर वे सांप्रदायिक होते तो 1909 में लिखे गए अपने ग्रन्थ ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ में वे बहादुरशाह जफ़र, अवध की बेगमों, अनेक मौलाना तथा फौज के मुस्लिम अफसरों की बहादुरी का मार्मिक वर्णन नहीं करते। इस विश्व प्रसिद्ध ग्रंथ की भूमिका में वे यह नहीं कहते कि अब शिवाजी और औरंगजेब की दुश्मनी के दिन लद गए। यदि सावरकर संकीर्ण व्यक्ति होते तो लंदन में आसफ अली, सय्यद रजा हैदर, सिकन्दर हयात खाँ, मदाम भिकायजी कामा जैसे अ-हिन्दू लोग उनके अभिन्न मित्र नहीं होते। आसफ अली ने अपने संस्मरणों में सावरकर को जन्मजात नेता और शिवाजी का प्रतिरूप कहा है। सावरकर ने हिन्दू महासभा के नेता के रूप में मुस्लिम लीग से टक्कर लेने की जो खुली घोषणा की थी, उसके कारण स्पष्ट थे। पहला, महात्मा गाँधी द्वारा चलाया गया खिलाफत आन्दोलन हिन्दू-मुस्लिम एकता का अपूर्व प्रयास था, इसमें शक नहीं लेकिन उसके कारण ही मुस्लिम पृथकतावाद का बीज बोया गया। 1924 में खुद तुर्की नेता कमाल पाशा ने खलीफा के पद को खत्म कर दिया तो भारत के मुसलमान भड़क उठे। केरल में मोपला विद्रोह हुआ। भारत के मुसलमानों ने अपने आचरण से यह गलत प्रभाव पैदा किया कि उनका शरीर भारत में है लेकिन आत्मा तुर्की में है। वे मुसलमान पहले हैं, भारतीय बाद में हैं। तुर्की के खलीफा के लिए वे अपनी जान न्यौछावर कर सकते हैं लेकिन भारत की आजादी की उन्हें ज़रा भी चिन्ता नहीं है। इसी प्रकार मुसलमानों के सबसे बड़े नेता मोहम्मद अली द्वारा अफगान बादशाह को इस्लामी राज्य कायम करने के लिए भारत पर हमले का निमंत्रण देना भी ऐसी घटना थी, जिसने औसत हिन्दुओं को रुष्ट कर दिया और गाँधी जैसे नेता को भी विवश किया कि वे मोहम्मद अली से माफी मँगवाएँ। एक तरफ हिन्दुओं के दिल में यह बात बैठ गई कि मुसलमान भारत के प्रति वफादार नहीं हैं और दूसरी तरफ मुस्लिम संस्थाओं ने यह मान लिया कि अगर अंग्रेज चले गए तो मुसलमानों को हिन्दुओं की गुलामी करनी पड़ेगी। इसीलिए उन्होंने अंग्रेजों को भारत से भगाने की बजाय उनसे अपने लिए रियायतें माँगना शुरू कर दिया। यदि जनसंख्या में उनका अनुपात 20 से 25 प्रतिशत तक था तो वे राज-काज में 33 से 50 प्रतिशत तक प्रतिनिधित्व माँगने लगे। अपनी प्रकम्पकारी पुस्तक ‘पाकिस्तान पर कुछ विचार’ में डाॅ0 आम्बेडकर ने इसे हिटलरी ब्लेकमेल की संज्ञा दी है। उन्होंने लोगों के बलात् धर्म-परिवर्तन, गुण्डागर्दी और गीदड़भभकियों की भी कड़ी निन्दा की है। सावरकर ने अपने प्रखर भाषणों और लेखों में इसी ब्लेकमेल के खिलाफ झण्डा गाड़ दिया। उन्होंने 1937 के अपने हिन्दू महासभा के अध्यक्षीय भाषण में साफ़-साफ़ कहा कि काँग्रेस की घुटनेटेकू नीति के बावजूद भारत में इस समय दो अलग-अलग राष्ट्र रह रहे हैं। यह भारत के लिए खतरे की घंटी है। यदि पाकिस्तान का निर्माण हो गया तो वह भारत के लिए स्थायी सिरदर्द होगा। भारत की अखंडता भंग होने को है। उसे बचाने का दायित्व हिंदुओं पर है। इसीलिए ‘राजनीति का हिंदूकरण हो और हिंदुओं का सैनिकीकरण हो।’ अहिंसा जहाँ तक चल सके, वहाँ तक अच्छा लेकिन उन्होंने गाँधी की परमपूर्ण अहिंसा को अपराध बताया। जुलाई 1940 में जब सुभाष बोस सावरकर से बंबई में मिले तो उन्होंने सुभाष बाबू को अंग्रेजों के विरूद्ध सशस्त्र संघर्ष की प्रेरणा दी।
अपने अनेक भाषणों और लेखों में सावरकर ने साफ़-साफ़ कहा कि हिन्दू लोग अपने लिए किसी भी प्रकार का विशेषाधिकार नहीं चाहते। वे एक संयुक्त और अखंड राष्ट्र बनाकर रह सकते हैं बशर्ते कि कोई भी समुदाय अपने लिए विशेषाधिकारों की माँग न करे। उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा ”भारतीय राज्य को पूर्ण भारतीय बनाओ। मताधिकार, सार्वजनिक नौकरियों, दफ्तरों, कराधान आदि में धर्म और जाति के आधार पर कोई भेदभाव न किया जाए। किसी आदमी के हिन्दू या मुसलमान, ईसाई या यहूदी होने से कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए। ….जाति, पंथ, वंश और धर्म का अन्तर किए बिना ‘एक व्यक्ति, एक वोट’ का नियम राज्य का सामान्य आधार होना चाहिए।“ क्या यह घोषणा सांप्रदायिक है ? लगभग 10 हजार पृष्ठ के समग्र सावरकर वाडमय (प्रभात प्रकाशन) में ढूँढने पर भी कहीं ऐसी पंक्तियाँ नहीं मिलतीं, जिनमें मुसलमानों को सताने, तंग करने या दंडित करने की बात कही गई हो। ‘हिन्दुत्व’ नामक अत्यंत चर्चित ग्रंथ में तत्कालीन मुसलमानों की ‘राष्ट्रविरोधी गतिविधियों’ पर अपना क्षोभ प्रकट करते हुए सावरकर लिखते हैं कि उन्होंने हिंदुत्व का नारा क्यों दिया था।– ” अपने अहिन्दू बंधुओं अथवा विश्व के अन्य किसी प्राणी को किसी प्रकार से कष्ट पहुँचाने हेतु नहीं अपितु इसलिए कि आज विश्व में जो विभिन्न संघ और वाद प्रभावी हो रहे हैं, उनमें से किसी को भी हम पर आक्रांता बनकर चढ़ दौड़ने का दुस्साहस न हो सके। “उन्होंने आगे यह भी कहा कि ” कम से कम उस समय तक “ हिन्दुओं को अपनी कमर कसनी होगी” जब तक हिन्दुस्थान के अन्य सम्प्रदाय हिन्दुस्थान के हितों को ही अपना सर्वश्रेष्ठ हित और कर्तव्य मानने को तैयार नहीं हैं …। “वास्तव में भारत की आज़ादी के साथ वह समय भी आ गया । यदि 1947 का भारत सावरकर के सपनों का हिन्दू राष्ट्र नहीं था तो क्या था ? स्वयं सावरकर ने अपनी मृत्यु से कुछ माह पहले 1965 में ‘आर्गेनाइज़र’ में प्रकाशित भेंट-वार्ता में इस तथ्य को स्वीकार किया है। सावरकर ने मुसलमानों का नहीं, बल्कि उनकी तत्कालीन ब्रिटिश भक्ति, पर-निष्ठा और ब्लेकमेल का विरोध किया था। क्या स्वतंत्र भारत में यह विरोध प्रासंगिक रह गया है ?
इस विरोध का आधार संकीर्ण साम्प्रदायिकता नहीं, शुद्ध बुद्धिवाद था। यदि वैसा नहीं होता तो क्या हिंदुत्व का कोई प्रवक्ता आपात् परिस्थितियांे में गोवध और गोमांस भक्षण का समर्थन कर सकता था ? स्वयं सावरकर का अन्तिम संस्कार और उनके बेटे का विवाह जिस पद्धति से हुआ, क्या वह किसी भी पारम्परिक हिन्दू संगठन को स्वीकार हो सकती थी ? सावरकर ने वेद-प्रामाण्य, फलित ज्योतिष, व्रत-उपवास, कर्मकांडी पाखंड, जन्मना वर्ण-व्यवस्था, अस्पृश्यता, स्त्री-पुरूष समानता आदि प्रश्नों पर इतने निर्मम विचार व्यक्त किए हैं कि उनके सामने विवेकानंद, गाँधी और कहीं-कहीं आम्बेडकर भी फीके पड़ जाते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उनसे सहमत होना तो असंभव ही था। सावरकर के विचारों पर अगर मुल्ला-मौलवी छुरा ताने रहते थे तो पंडित-पुरोहित उन पर गदा-प्रहार के लिए कटिबद्ध रहते थे। जैसे कबीर और दयानंद की स्वीकृति कहीं भी सहज नहीं है, वैसे ही सावरकर की भी नहीे हैं।
जानलेवा बना पीएमसी
सिद्वार्थशंकर
पीएमसी घोटाला सामने आने के बाद से निवेशकों के बीच हड़कंप मचा हुआ है। मगर अब यह हड़कंप जानलेवा साबित होने लगा है। पीएमसी बैंक में लाखों की रकम फंसने के बाद मुंबई निवासी संजय गुलाटी की मौत हो गई। संजय सोमवार को बैंक के खिलाफ हुए प्रदर्शन में शामिल थे। वहां उन्होंने जिस तरह का माहौल देखा, उससे आहत हुए और घर आने के बाद उनकी मौत हो गई। संजय ने पीएमसी में 90 लाख रुपए जमा कर रखे थे, घोटाले की खबर सुनते ही उनके होश फाख्ता हो गए। बता दें कि पीएमसी बैंक में वित्तीय अनियमितता का मामला सामने आने के बाद केंद्रीय बैंक ने इस बैंक के ग्राहकों के लिए नकदी निकासी की सीमा तय करने के साथ ही बैंक पर कई तरह के अन्य प्रतिबंध लगा दिए हैं। बता दें कि पंजाब एंड महाराष्ट्र कोऑपरेटिव बैंक में फाइनेंशियल फ्रॉड लगभग एक दशक से चल रहा था। जॉय थॉमस की अगुवाई में बैंक मैनेजमेंट ने कंस्ट्रक्शन कंपनी को फंड दिलाने के लिए हजारों डमी अकाउंट खोले हुए थे। यह खेल करीब 10 साल से चल रहा था। थॉमस और मैनेजमेंट के कुछ लोगों ने मिलकर चार हजार 226 करोड़ रुपए (बैंक के टोटल लोन का 73 फीसदी हिस्सा) सिर्फ एक ही कंपनी को दिए थे, जो अब दिवालिया हो गई है। बैंक की तरफ से बांटे गए कुल लोन का दो तिहाई हिस्सा सिर्फ एक कस्टमर को दिया गया था। ऐसे में इस बैंक का दिवाला पिट गया और आरबीआई ने इसके कामकाज पर रोक लगा दी। उसने निवेशकों के पैसे निकालने की लिमिट तय कर दी। पहले आरबीआई ने बैंक के हर खाते से निकासी की ऊपरी सीमा 1,एक हजार रुपए तय की थी जिसे बढ़ाकर 10 हजार रुपए कर दिया गया। इसके बाद यह सीमा 25 हजार कर दी गई और अब यह लिमिट 40 हजार रुपए हो गई है।
मुंबई स्थित पंजाब एंड महाराष्ट्र सहकारी बैंक (पीएमसी बैंक) में घोटाले और अनियमितताओं की परतें अब जिस तरह से खुल रही हैं, उससे ज्यादा हैरानी इसलिए नहीं होनी चाहिए कि भारत की बैंकिंग प्रणाली की असल तस्वीर यही है। ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है। लेकिन अब यह साफ हो चुका है कि बड़-बड़ी कंपनियां कर्ज डकार कर बैंकों को खोखला बना रही हैं और आम जनता की गाढ़ी कमाई पर मौज कर रही हैं। भारतीय रिजर्व बैंक अगर ईमानदारी से जांच कराए तो पता चलेगा कि ज्यादातर सहकारी बैंकों में इसी तरह के खेल चल रहे हैं। देश में हजारों की संख्या में सहकारी बैंक चल रहे हैं और इनका नियंत्रण राज्य सरकार के हाथ में होता है।
सहकारी बैंकों के संचालन में नेताओं के दबदबे और हस्तक्षेप भी जगजाहिर हैं। लेकिन इनका नियामक रिजर्व बैंक है। ऐसे में अगर किसी बैंक में कोई अनियमितता पाई जाती है, जनता के पैसे डूबने का खतरा खड़ा होता है तो उसके लिए रिजर्व बैंक जिम्मेदारी से बच नहीं सकता। भारत में जिस तरह से बैंक घोटाले हो जाते हैं, उससे यह साफ है कि बैंकों पर निगरानी करने वाला तंत्र वाकई बेहद लापरवाह, कमजोर और अक्षम साबित हुआ है।
पीएमसी बैंक में लोगों के जिस तरह से पैसे फंस गए हैं, वह चिंताजनक है। इस बैंक के ग्राहकों में बड़ी संख्या तो उन लोगों की है, जिन्होंने जीवनभर की कमाई बैंक में सावधि जमा के रूप में भी जमा की थी। लोगों की पगार, पेंशन सब इसमें जमा होती है, उस इलाके के छोटे दुकानदारों और आवास समितियों के खाते इसमें हैं। पर अब सब बंद हैं।
सहकारी बैंक हों या बड़ेसरकारी और निजी बैंक, पिछले कुछ सालों में जिस तरह से इनमें घोटालों और गड़बडिय़ों का खुलासा होता रहा है, उसने बैंकिंग व्यवस्था पर लोगों का भरोसा डिगाया है। हाल में एक निजी बैंक के कर्ज देने पर रोक लगा दी गई। इससे लोगों में यह डर बैठना स्वाभाविक है कि कहीं किसी दिन उनके बैंक में भी ऐसा न हो जाए। ऐसे मामलों में समस्या यह होती है कि जब किसी बैंक पर ग्राहकों के धन की निकासी जैसी कठोर पाबंदियां लगा दी जाती हैं तो पैसा लंबे समय तक के लिए अनिश्चितता में फंस जाता है।
रिजर्व बैंक को इस बारे में सोचना चाहिए कि अगर किसी बैंक पर इस तरह की कड़ी कार्रवाई करने की जरूरत है तो पहले यह सुनिश्चित हो कि लोगों के पैसे जब्त न हों। उन्हें रकम निकासी के तुरंत विकल्प दिए जाएं। बैंकों में होने वाली गड़बडिय़ां बता रही हैं कि ऑडिट प्रणाली ठप-सी है। पंजाब नेशनल बैंक घोटाले में यही हुआ था और लंबे समय तक उस शाखा का ऑडिट ही नहीं हुआ जो नीरव मोदी और मेहुल चौकसी पर मेहरबान थी। सहकारी बैंकों को लूट से बचाने के लिए रिजर्व बैंक को अपना निगरानी तंत्र मजबूत करने की जरूरत है।
कमलनाथ ने जगाया उद्योगपतियों का विश्वास
सनत जैन
मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार जो कहती है, वह करती है। इंदौर में 18 अक्टूबर को होने जा रहे, मैग्नीफिसेंट एमपी में आने वाले औद्योगिक घरानों और उद्योगपतियों के लिए सरकार ने जो तैयारियां की हैं। कारोबारियों को निवेश के बाद म.प्र. में किसी भी तरह की परेशानी का सामना न करना पड़े। म.प्र. में बदलाव के वादे के साथ सत्ता में आई कमलनाथ सरकार देश की पहली सरकार है, जिसने उद्योगों की समस्याओं के हिसाब से उद्योग नीति को मूर्तरूप दिया है। सरकार विभिन्न सेक्टर के उद्योग के अनुसार सुविधाएं दे रही है। औद्योगिक सूझबूझ वाले मुख्यमंत्री कमलनाथ का विजन मध्यप्रदेश को विकसित राज्यों की कतार में लाना है। इसके लिए उन्होंने पहले उद्योगों को श्रेणियों में बांटा, फिर उनकी समस्याएं को पहचाना फिर उनके निराकरण की उम्दा कोशिश की। उद्योगों के प्रति कमलनाथ सरकार का यह एजेंडा देश में शायद ही कहीं देखने को मिले। कहा जाता है कि कारोबारी सुगमता वह चाबी है, जो प्रदेश में निवेश और उद्यमिता के ताले को खोलकर औद्योगिक गतिविधियों में इजाफा कर सकती है। इससे एक ओर जहां कारोबारियों की राह आसान हुई है। वहीं बढ़ती गतिविधियों से पनपे नए रोजगार के साधन युवाओं को बेहतर भविष्य देंगे।
कारोबारी सुगमता में म.प्र. अव्वल
किसी प्रदेश में होने वाला निवेश काफी हद तक इस बात पर निर्भर करता है, कि कारोबारियों के लिए मध्यप्रदेश में कारोबार अन्य राज्यों की तुलना में आसान है। कारोबारी सुगमता में उस प्रदेश की स्थिति इसका सटीक पहचान कराती है। मध्यप्रदेश इस मामले में देश के अन्य प्रांतों से बहुत आगे आ रहा है। यही कारण है कि मुख्यमंत्री कमलनाथ के नेतृत्व में प्रदेश सरकार लगातार प्रयास कर रही है, कि कारोबारी सुगमता में निरंतर सुधार हो। प्रदेश में नया निवेश सतत् आता रहे। कमलनाथ का मानना है कि नागरिक सेवाओं की तरह कारोबारियों की समस्याओं की सुनवाई भी जल्द से जल्द हो।
दूसरे प्रदेशों पर भारी म.प्र.
मुख्यमंत्री कमलनाथ के 9 माह के कार्यकाल में ही मध्यप्रदेश तमाम मानकों पर देश के दूसरे प्रदेशों पर भारी पड़ रहा है। हाल ही में विश्व बैंक और उद्योग एवं आंतरिक व्यापार संवद्र्धन विभाग (डीपीआईआईटी) की ओर से तैयार रिपोर्ट में कहा गया है कि कारोबारी सुगमता के मामले में मध्यप्रदेश चुनिंदा राज्यों में शामिल है। कारोबारी प्रस्तावों के क्रियान्वयन के लिए जारी मानकों के अनुसार प्रदेश का अनुपालन 95 प्रतिशत है।
नवाचार से निकल रहा हल
कमलनाथ सरकार ने मध्यप्रदेश में औद्योगिक गतिविधयों को बढ़ाने और रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए नए तरीके अपनाए हैं। जिनके सकारात्मक परिणाम भी हमें देखने को मिल रहे हैं। प्रदेश सरकार अपने इन्वेस्ट पोर्टल के माध्यम से संभावित निवेशकों को एकल खिड़की निस्तारण प्रदान कर रही है। कमलनाथ के राज में मध्यप्रदेश में निवेश के इच्छुक कारोबारियों को विभिन्न विभागों के चक्कर काटने की आवश्यकता नहीं रही है। अब वे एक ही स्थान पर संपर्क करके तमाम मंजूरियां, भूमि आवंटन, जरूरी रियायतें त्वरित हासिल कर सकते हैं। इतना ही नहीं आगे चलकर परियोजना के विस्तार या नवीनीकरण का काम भी यहीं से हो सकता है। वर्तमान में 8 विभागों की 32 सेवाओं का लाभ इन्वेस्ट पोर्टल के माध्यम से लिया जा सकता है।
इन वजहों से म.प्र. पहली पसंद
मध्यप्रदेश में ऐसे अनेक कारक हैं जिनकी बदौलत वह निवेशकों की पहली पसंद बना हुआ है।
भूमि आवंटन
मध्यप्रदेश में औद्योगिक भूमि प्रचुर मात्रा में मौजूद है। इंदौर के निकट पीथमपुर, भोपाल के निकट मंडीदीप, ग्वालियर के निकट मालनपुर इंडिस्ट्रयल एरिया के अलावा भी प्रदेश के विभिन्न जिलों में लैंड बैंक बनाये गये हैं जिन्हें जरूरत पडऩे पर कारोबारियों को आवंटित किया जा सकता है। मप्र औद्योगिक विकास निगम के पास कुल मिलाकर 1.20 लाख एकड़ जमीन उपलब्ध है। बीते कुछ समय में विभाग ने 650 से अधिक लैंड पार्सल कारोबारियों को आवंटित किये हैं।
जरुरत के अनुसार रियायतें
मध्यप्रदेश सरकार उद्यमियों को पूंजीगत रियायतें भी प्रदान कर रही है। प्रदेश में फूड प्रोसेसिंग यूनिट लगाने वाले कारोबारी हों या स्टार्ट अप और एसएमई कारोबारी, सरकार उन्हें विभिन्न बुनियादी सुविधाओं के लिए पूंजीगत रियायत देने की नई नीति बनाई है। विभिन्न उपक्रम लगाने वालों को स्टैंप शुल्क में मुक्ति और निशुल्क बिजली उपलब्ध कराने का प्रावधान भी प्रदेश सरकार ने किया है। उद्योगों को मूल निवेश राशि के 10 प्रतिशत से लेकर 40 प्रतिशत तक की छूट प्रदान की जा रही है। वृहद श्रेणी के उद्योगों के लिए यह राशि 10 प्रतिशत और छोटे उद्योगों के लिए 40 प्रतिशत है। प्रत्येक उद्योग में निवेश रोजगार क्षमता तथा ग्रामीण अंचलों के संसाधनों पर आधारित उद्योग लगाने पर रियायतें भी अलग -अलग हैं।
किसानों और बेरोजगार के हित में
सरसरी तौर पर देखने पर लगता है, कि सरकार ये सारी रियायतें तो कारोबारियों को दे रही है, भला इससे आम जनता का क्या भला हो सकता है? कारोबारी सुगमता का सीधा संबंध प्रदेश की आम जनता से है। प्रदेश में निवेश समर्थक और कारोबार की अहमियत समझने वाली सरकार हो, तो रोजगार की स्थिति में सुधार होता है। प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने बीते कुछ दिनों में देश के शीर्षस्थ कारोबारियों के साथ मुलाकात कर उन्हें मध्यप्रदेश में निवेश करने के लिए आमंत्रित किया। इन कारोबारियों में रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अंबानी, शापूरजी पालोनजी समूह के साइरस मिस्त्री समेत देश के तमाम बड़े उद्यमी शामिल थे। इन उद्यमियों ने प्रदेश में बड़े पैमाने पर निवेश की इच्छा भी जताई है। यह निवेश जब जमीन पर उतरेगा तो प्रदेश के आर्थिक विकास को तो गति मिलेगी ही, स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिलेंगे। प्रदेश सरकार ने निजी उद्यमों में मिलने वाले रोजगार में स्थानीय लोगों को 70 फीसदी आरक्षण देने की घोषणा भी की है। वहीं किसानों को भी लाभ हो उसके उत्पाद का बेहतर मूल्य एवं बड़ा बाजार मिले इसका भी ध्यान रखा गया है।
श्रम शक्ति को कुशल बनाना प्राथमिकता
मुख्यमंत्री कमलनाथ अपने वक्तव्यों में बार-बार यह दोहराते रहे हैं कि उद्योगों को बढ़ावा देना, प्रदेश में रोजगार के अवसर तैयार करना तथा प्रदेश की श्रम शक्ति को कुशल बनाना उनकी प्राथमिकता में है। ऐसे में अगर कारोबारी सुगमता के माध्यम से कारोबार के अनुकूल माहौल तैयार होता है, तो इसमें सभी का हित है। भूमि आवंटन से लेकर श्रम सुधारों तक और राजस्व सुधार से लेकर विभिन्न क्षेत्रों में दी जा रही सब्सिडी तक प्रदेश कारोबारी सुगमता के साथ लगातार आगे बढ़ रहा है।
नाथ का विजन मप्र को देगा नई ऊर्जा
देश की हृदयस्थली होने के नाते मध्यप्रदेश एक विशिष्ट हैसियत रखता है। यहां होने वाला निवेश राज्य के सकल घरेलू उत्पाद को तो मजबूत करेगा साथ ही, रोजगार के अवसरों के साथ ग्रामीण और अद्र्धशहरी इलाकों में रहने वाले लोगों की आय और क्रयशक्ति बढ़ायेगा। मौजूदा वैश्विक आर्थिक परिदृश्य में यह बात बहुत मायने रखती।
*भोपाल नगर निगम का विभाजन: इसमें गलत क्या है?*
राजेन्द्र चतुर्वेदी
मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार ने भोपाल नगर निगम को दो भागों में बांटने का फैसला कर लिया है। यह ऐसा फैसला है, जिसका जनता स्वागत कर रही है, जबकि भाजपा राजनीतिक कारणों से विरोध।
ये लोग एक बहुत ही ‘रोचक’ सवाल पूछ रहे हैं कि सरकार बताए कि आखिर वह भोपाल नगर निगम को दो हिस्सों में क्यों बांटना चाहती है? यह सवाल इतना सरल है कि इसका जवाब कोई भी दे सकता है। क्या यह सवाल भाजपा से नहीं पूछा जाना चाहिए कि उसके नेता यह बताने का कष्ट करेंगे कि वे इसका विरोध क्यों कर रहे हैं?
आखिर,भोपाल नगर निगम के दो हिस्सों में बंटने के बाद उन्हें किस दुकानदारी के बंद होने का डर है? एक पूर्व मंत्री जी ने तो यहां तक कहा है कि अगर भोपाल को दो नगर निगमों में बांटा जाएगा, तो प्रदेश के टुकड़े हो जाएंगे। मंत्री जी नहीं जानते कि वे क्या कह रहे हैं। जो लोग देश को बांटने की राजनीति कर रहे हैं, वे प्रदेश के विभाजन की चिंता में दुबले होने लगें, तो इसे उनकी हताशा ही कहा जाएगा? विरोध के लिए विरोध की राजनीति करने वालों को अपनी हताशा को छिपाकर रखना चाहिए। लेकिन हताशा का स्तर इतना ऊंचा है कि एक ‘नेताजी’ तो यह तक कह बैठे कि कांग्रेस हिंदू-मुसलमान के आधार पर भोपाल नगर निगम को बांट रही है। हिंदू-मुसलमान के आधार पर समाज को बांटने की राजनीति करने वाली भाजपा के नेताओं से यह उम्मीद कोई नहीं कर सकता कि वे सांप्रदायिक विद्वेश नहीं फैलाएंगे। खैर, लोकतंत्र का एक सर्वस्वीकृत सिद्धांत है कि प्रशासनिक इकाइयां जितनी छोटी होंगी, जनता को उतनी ही सुविधा मिलेगी। छोटी प्रशासनिक इकाइयों के पक्ष में भाजपा नेता और पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की आवाज काफी बुलंद हुआ करती थी। वे देश को छोटे-छोटे राज्यों में बांटने के पक्षधर थे। मध्यप्रदेश को बांटकर छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश को बांटकर उत्तराखंड और बिहार को बांटकर झारखंड राज्य का गठन उन्हीं शासनकाल में हुआ था। यदि आज अटल जी हमारे बीच होते, तो वे कमलनाथ सरकार के फैसले का स्वागत ही करते। दरअसल, प्रशासनिक इकाइयों का आकार छोटा करने के लिए ही नए राज्यों, नए जिलों, तहसीलों, नगर निकायों का सृजन किया जाता है। जब प्रशासनिक इकाई छोटी होती है, तो जनता और शासन- प्रशासन के बीच की दूरी कम हो जाती है। जैसे- भोपाल के लोग अपनी किसी समस्या को लेकर जितनी आसानी से मुख्यमंत्री, मंत्रियों, पुलिस-प्रशासन के आला अफसरों से मिल सकते हैं, उतनी आसानी से प्रदेश के सुदूर अंचलों के लोग नहीं मिल सकते। राजधानी एक प्रशासनिक इकाई ही तो है और इस इकाई से जो अंचल जितना दूर है, वहां के लोगों का राजधानी तक आना उतना ही दुष्कर। राजधानी का तो उदाहरण मात्र दिया गया है। आम जनता के ज्यादातर काम ग्रामीण-शहरी निकायों, जिला, तहसील, थानों में पड़ते हैं। इन सभी प्रशासनिक इकाइयों की आम जनता से कम दूरी होनी चाहिए। अंतत: ये इकाइयां जनता की सुविधा, उसकी समस्याओं के निराकरण के लिए ही स्थापित की गई हैं।
एक बहुत बड़ा मसला आबादी का होता है। जब आबादी बढ़ती है, तो प्रशासनिक इकाइयों पर काम का बोझ भी बढ़ता है। इस सूरते-हाल में उस प्रशासनिक इकाई को बांटकर दो मुख्यालय बना दिए जाते हैं। इससे काम का बोझ बंट जाता है और मुख्यालय जनता के करीब पहुंच जाता है। क्या भाजपा नेता यह नहीं जानते कि भोपाल की आबादी लगातार बढ़ रही है? अभी 10-12 साल पहले जो गांव भोपाल से बाहर हुआ करते थे, वे अब भोपाल में शामिल हो गए हैं। शहर का आकर इतना फैलता गया कि उसने गांवों को अपने में समाहित कर लिया। आज भोपाल के दो नहीं, तीन चेहरे हैं। एक चेहरा तो वह है, जहां नागरिकों को ठीक-ठाक सुविधाएं दी जा सकती हैं। वे अभी मिल नहीं पा रही हैं, तो नगर निगम की अकर्मण्यता की वजह से। दूसरा चेहरा वह है, जहां सुविधाएं तो हैं, लेकिन नाम मात्र के लिए। भोपाल के ही कुछ इलाके केवल कहने भर को शहर हैं। वहां बुनियादी सुविधाओं का घोर अकाल है। यह भोपाल का तीसरा चेहरा है। क्या अरेरा कॉलोनी और कोलार के नागरिकों को एक जैसी सुविधाएं देने का दावा कर सकता है, भोपाल का भाजपा शासित नगर निगम? क्या आनंद नगर और महाराणा प्रताप नगर की तुलना की जा सकती है? क्या अयोध्या नगर, करोद या भानपुर की तुलना होशंगाबाद रोड पर स्थित किसी कॉलोनी से हो सकती है? नहीं, क्योंकि जहां नगर निगम की जितनी पहुंच या जहां के लोगों की नगर निगम तक जितनी पहुंच, वहां उतना विकास हुआ है, उतनी ही जनसुविधाओं में इजाफा हुआ है। जो इलाका दूर है, उसके साथ न्याय नहीं हो पाया है।
भोपाल का एक जैसा विकास, शहरवासियों को एक जैसी बुनियादी सुविधाएं तभी मिलेंगी, जब नगर निगम तो दो भागों में बांटा जाएगा। इस तरह के विभाजनों का कहीं विरोध नहीं किया जाता। 2002 में बेंगलुरु नगर निगम तीन हिस्सों में बंटा, तो वहां के सभी लोगों ने इसका स्वागत ही किया। चेन्नई नगर निगम भी अपनी स्थापना से लेकर अब तक चार बार विभाजित हो चुका है। पुणे, मुंबई, कोलकाता आदि नगरीय निकायों का विभाजन हुआ, लेकिन विरोध किसी ने नहीं किया। हां, जब 2011-12 में दिल्ली नगर निगम को चार हिस्सों में बांटा गया था, तब भाजपा के लोगों ने ही हंगामा किया था। यह बात अलग है कि जब उन्हें दिल्ली की जनता का समर्थन नहीं मिला, तो वे चुप हो गए थे। आज भाजपा नेता स्वयं स्वीकार करते हैं कि यदि दिल्ली नगर निगम को चार भागों में नहीं बांटा गया होता, तो उसका वैसा विकास नहीं हुआ होता, जैसा अब हुआ है। दिवंगत वित्त मंत्री अरुण जेटली ने स्वयं स्वीकार किया था कि नगर निगम का विभाजन दिल्ली के हित में रहा, लेकिन जब विभाजन हो रहा था, तब ये जनता की भावनाओं की कद्र नहीं कर रहे थे।
जबकि जनता यह बात खूब समझती है कि सरकार का कौन सा निर्णय उसके हित में है, कौन सा नहीं। उसे पता होता है कि जब प्रशासनिक इकाई के मुख्यालय की दूरी उससे कम होती है, तो उसके पास अपने काम के लिए भाग-दौड़ करने का समय निकल आता है। तब राशन कार्ड सुधरवाने के लिए दो दिन तक दुकान बंद नहीं रखनी पड़ती, नौकरी से छुट्टी नहीं लेनी पड़ती। जब मुख्यालय पास होता है, तो अपने रोज के कार्य करते हुए भी वक्त निकाला जा सकता है। पास में मुख्यालय होने का एक और फायदा यह होता है कि कर्मचारी सतर्क रहते हैं। वे लोगों के काम को टाल नहीं पाते। जैसे- थाने से पांच-10 किलोमीटर दूर अगर एसपी का कार्यालय हो, तो ऐसे थानों में अलग तरह की सतर्कता देश के किसी भी हिस्से में देखी जा सकती है। इसका कारण यही डर होता है कि सामने वाला आदमी शिकायत लेकर कहीं ‘बड़े साहब’ के पास न चला जाए। ज्यादातर कर्मचारियों की मनोदशा यह होती है कि जहां उनकी शिकायत हो सकती है, वह स्थान दूर है, तो वे अपने ही अंदाज में काम करते हैं। उनका रवैया टालने वाला ज्यादा होता है, काम को करने की जगह।
नगर निगम वह प्रशासनिक इकाई है, जहां सभी को काम पड़ता है। इसलिए भोपाल नगर निगम के विभाजन का विरोध कुल मिलाकर जनता का विरोध है। भाजपा कमलनाथ सरकार का विरोध करने के चक्कर में यह तक भूल गई है कि वह जनता का विरोध कर रही है। वह नहीं चाहती कि जनता की समस्याओं का समाधान आसानी से हो। भाजपा को जनविरोधी राजनीति करने से बचना चाहिए।
*लेखक राजेन्द्र चतुर्वेदी, मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं।*
’’लोहिया का कथन सच निकला जे.पी. ने देश को हिलाया’’
रघु ठाकुर
(11 अक्टूबर जन्मदिवस पर विशेष ) जयप्रकाश जी को लोकनायक का संबोधन देश की जनता ने 1974 में दिया था, जब उन्होंने बिहार आंदोलन और उसके बाद समूचे देश में सम्पूर्ण क्रांति के नाम से आंदोलन का नेतृत्व किया था। निसंदेह 1974 का आंदोलन आजादी के बाद के देश में हुये आंदोलनों में सबसे व्यापक था। 1974 की रेल हड़ताल जो शायद दुनिया की सबसे बड़ी हड़ताल थी, इसके हिस्सेदार देश के 20 लाख कर्मचारी थे। परन्तु जे.पी. के आंदोलन मंे शारीरिक और मानसिक भागीदारी करोड़ों लोगों की थी।
1952 के संसदीय आम चुनाव के बाद जिसमें तत्कालीन सोशलिस्ट पार्टी पराजित हुई थी। इसके बाद जे.पी.जो समाजवादी नेता थे, पार्टी व राजनीति छोड़कर सर्वोदय में चले गये थे। डाॅ.लोहिया जो 1940 के दशक से जे.पी. के समतुल्य समाजवादी नेता थे और जयप्रकाश और लोहिया का नाम समाजवादी कार्यकर्ताओं के लिये आदर्श समाजवादी नाम थे। यहाॅ तक कि समाजवादी आंदोलन के नारों में भी लोहिया और जयप्रकाश के नारे साथ-साथ ही लगते थे।
डाॅ.लोहिया, जयप्रकाश की व्यापक छवि और प्रभाव को समझते थे और इसीलिये अपनी मृत्यु के कुछ दिनो पूर्व डाॅ.लोहिया ने पटना मंे भाषण देते हुये जयप्रकाश जी से पुनः समाजवादी आंदोलन का नेतृत्व करने का आवाहन किया था। लोहिया ने कहा था कि ’’जयप्रकाश, तुम देश को हिला सकते हो बशर्ते खुद न हिलो’’ और इस दूसरी पंक्ति का तात्पर्य जे.पी. की भावुकता से था।
1974 में गुजरात के नौजवानों ने छात्रावासों के भोजनालयों में भोजन की थाली के बढ़े दाम के विरुद्व आंदोलन शुरू किया था और जो धीरे-धीरे यह आंदोलन समूचे प्रदेश के छात्रों का आंदोलन बन गया था । रविशंकर महाराज जो गुजरात के सर्वमान्य गांधीवादी नेता थे, ने आंदोलन की अगुवाई की थी और स्व.मोरारजी भाई देसाई ने तत्कालीन कांग्रेस सरकार जिसके मुख्यमंत्री चिमनभाई थे, को बर्खास्त करने की मांग की थी और अनिश्चित कालीन उपवास शुरू किया था। श्रीमति इंदिरा गांधी जो प्रधानमंत्री थी को जनता के दबाव में अपनी ही पार्टी की सरकार को बर्खास्त करना पड़ा। इस आंदोलन में शामिल होने के लिये जब जे.पी. पहुंचे तो उन्हें स्वतः ही एक प्रकार का आत्मविश्वास प्राप्त हुआ और उन्होंने सार्वजनिक रुप से स्वीकार किया था कि गुजरात के नौजवानों ने मुझे नई रोशनी दिखाई है। गुजरात से लौटने के बाद ही जे.पी.ने बिहार के छात्रों के आंदोलन की अगुवाई की और बिहार आंदोलन के नाम से शुरु हुआ आंदोलन लगभग समूचे देश में फैला। हालांकि इसकी सघनता उत्तर भारत, पश्चिमी भारत और पूर्वी भारत में जितनी ज्यादा थी उतनी दक्शिण भारत में नही थी।
जे.पी.ने सम्पूर्ण क्रांति का अर्थ व्यवस्था में सम्पूर्ण बदलाव कहा था और स्व.डाॅ.लोहिया के द्वारा दुनिया में बदलाव के लिये तय की गई ’’सप्त क्रांति’’ का सगुण कार्यक्रम माना था।
जे.पी. ने सम्पूर्ण क्रांति के आंदोलन की अगुवाई करते समय जिन कार्यक्रमों पर तत्कालीन रुप से ज्यादा जोर दिया था उनमें चुनाव सुधार, भ्रष्टाचार की समाप्ति, विकेन्द्रीकरण, मंहगाई को रोकना, बेरोजगारी और राजकीय दमन और काले कानून की समाप्ति प्रमुख रुप से थी। जे.पी. के इस आंदोलन में समाजवादी तो अपनी सम्पूर्ण भावना के साथ थे क्योंकि उनका जे.पी. के साथ लगभग 35 वर्षो का कार्यात्मक और रागात्मक लगाव था। समाजवादी साथियों ने कभी भी जे.पी. को अलग नही माना और सर्वोदय में जाने के बाद भी वे समाजवादियों के लिये पूर्ववत मान्य नेता थे। सर्वोदय के वैचारिक रुप से दो हिस्से हो गये थे और जो लोग विनोवा जी को अपना अंतिम वाक्य मानते थे उन्हें छोड़कर एक बड़ा हिस्सा जे.पी के साथ संघर्ष में आया। बावजूद इसके कि विनोवा जी अन्यानिक कारणों से आंदोलन के हक में नही थे। वामपंथियों में भी बॅटवारा हुआ था और सी.पी.आई. कांग्रेस के साथ थी परन्तु सी.पी.एम और अन्य माक्र्सवादी धड़े इस आंदोलन के सहभागी थे। भारतीय क्रांतिदल जिसका नेतृत्व स्व.चरण सिंह, बीजू पटनायक, राजनारायण और कर्पूरी ठाकुर अपने अपने राज्यों में करते थे, सम्पूर्ण तौर पर सम्पूर्ण क्रांति के आंदोलन का हिस्सेदार थे क्योंकि भारतीय क्रांतिदल में भी राजनायण और कर्पूरी जैसे समाजवादी नेताओं की बड़ी ताकत थी। जनसंघ और राष्ट्रीय स्ंवय सेवक संघ भी अपने निर्णय के माध्यम से इस आंदोलन में सहभागी बने। जब जनसंघ और संघ इसका हिस्सेदार बना तो तत्कालीन सरकार के इशारे पर प्रचार तंत्र ने यह कहकर आंदोलन को विभाजित करने का प्रयास किया था कि जे.पी. के आंदोलन में राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ जैसी संस्थायें जो फासिस्ट है, श्षामिल है। तत्कालीन सरकारी पार्टी की ओर से कुछ लोगो ने जे.पी. को राष्ट्रद्रोही की संज्ञा भी दी थी और जे.पी. ने उत्तर देते हुये कहा कि अगर मैं राष्ट्रद्रोही हो जाऊॅगा तो इस देश में कोई राष्ट्रभक्त नही बचेगा। यह उनका अपनी राष्ट्रभक्ति के प्रति गहरा विश्वास था। जे.पी. ने यह भी कहा कि अगर संघ फासिस्ट है और मेरे साथ है फिर मैं भी फासिस्ट हूं। जे.पी. यह जानते थे और उनका विश्वास इतना गहरा था कि देश कभी भी उनके राष्ट्र प्रेम, लोकतांत्रिक और धर्म निरपेक्ष चरित्र पर शक नही करेगा। जे.पी. को यह भी विश्वास था कि इस आंदोलन में शामिल होने से नई युवा शक्ति का उदय होगा और जो राजनैतिक दल शामिल हुये थे उनके स्वभाव और चरित्र पर शक नही करेगा। जे.पी. ने 1977 के आम चुनाव के पूर्व सबको मिलाकर एक जनता पार्टी का गठन कराया। केवल सी.पी.एम. ने अपना पृथक अस्तित्व बचाये रखा। हांलाकि जनता पार्टी जिसकी सरकार चुनाव के बाद केन्द्र में बनी और अनेक राज्यों में भी बनी से जे.पी.को धोखा हुआ, उनका विश्वास खंडित हुआ। जनता पार्टी सरकारों ने जे.पी. के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन के मुद्दे को लेकर लगभग कुछ भी नही किया और केवल सत्ता और संगठन के कब्जे के अंतर खेल में ही पार्टी फंसी रही। जनसंघ के जो लोग सरकारों में आये थे
उन्होंने सरकारों को चलाना ही अपना लक्श्य समझ लिया और जिस बदलाव की उम्मीद जे.पी. ने की थी उसे निराशा में बदल दिया। दो घटनाओं का मैं विशेष उल्लेख करूंगा:-
1. बिहार सरकार के जनसंघ और संघ पृष्ठभूमि के मंत्री श्री दीनानाथ पांडे, नाथूराम गोडसे के भाई श्री गोपाल गोडसे को लेकर बिहार में दौरा करने लगे और गांधी जी की हत्या को उचित ठहराने लगे।
2. 26 जून 1979 को पटना में जे.पी. का अभिनंदन कार्यक्रम था और एक सम्पूर्ण क्रांति सम्मेलन रखा गया था। इस सम्मेलन में मैं स्वतः भी शामिल था तथा तत्कालीन सर संघ संचालक स्व. बालासाहब देवरस इस सम्मेलन में जे.पी. का अभिनंदन करने आये थे। उनका भाषण जो टेप भी है और 27 जून 1979 के पटना के समाचार पत्रों में छपा भी था वह तथ्य को समझने के लिये महत्वपूर्ण है। स्व.देवरस ने अपने भाषण में कहा कि मैं अक्सर संघ कार्यो के लिये यात्रा में रहता हॅू अतः मैं नही पढ़ सका या जान सका कि सम्पूर्ण क्रांति क्या है? परन्तु जे.पी. जैसे महान व्यक्ति जब उसकी चर्चा कर रहे है तो मुझे लगता है कि वह कुछ अच्छी ही बात होगी। क्या बाला साहब का यह कथन मुद्दों से बच निकलने का कथन नही है? 1977 के चुनाव के पूर्व आपातकाल में वे स्वतः जेल में थे और क्या उन्हें इतनी लम्बी अवधि में सम्पूर्ण क्रांति के बारे में पढ़ने या जानने का अवसर नही मिला होगा?
जो मुद्दे सम्पूर्ण क्रांति के मुद्दे थे वे अभी भी लगभग अनिर्णीत है- बेरोजगारी चरम पर है, भ्रष्टाचार और मंहगाई चरम पर है, चुनाव सुधार, यद्यपि टी.एन.शेषन ने अपने कार्याकाल में कुछ शुरुआत की थी परन्तु बड़े सुधार अभी भी लंबित है। आज केन्द्र में श्री नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री है और उनकी पार्टी ही अकेले बहुमत की सरकार है। श्री नरेन्द्र मोदी जी, जे.पी.आंदोलन के हिस्सेदार भी रहे है तथा समय-समय पर जे.पी. की याद भी करते है और उसका उत्तर वे कैसे देते है वही इतिहास में उनका स्थान तय करेगा। जो लोग आपातकाल में जेलो में रहे है या बाहर रहकर भी आपातकाल के खिलाफ संघर्ष में सहयोगी रहे है और जो विभिन्न प्रदेशों में दलीय सत्ताओं के आधार पर विभिन्न संगठनों में कार्यरत है, आज उनके सामने भी यह चुनौती है।
प्रधानमंत्री से मेरी अपेक्षा है कि वे 11 अक्टूकर को जयप्रकाश जी के जन्मदिन के अवसर पर निम्न कार्यक्रमों की घोषणा करें:-
1. चुनाव सुधार लागू हों जिनमें समूचे देश के पंचायत से लेकर संसद तक याने जनपद, जिला पंचायत, सहकारी समितियाॅ, सहकारी बैंक, विधानसभा और संसद
तक एक साथ हो। हर पाॅच वर्ष में एक माह चुनाव के लिये निर्धारित हो जिसमें सारे चुनाव एक साथ हों जिससे चुनाव खर्च भी सीमित होगा और देश का अमूल्य समय, धन और साधन भी बचेगा।
2. बाजार की मंहगाई को रोकने के लिये ’’दाम बाॅधो’’ नीति का एलान करें ताकि लागत खर्च और बाजार मूल्य में आखिरी छोर तक 50 पैसे से ज्यादा फर्क न हो।
3. कृषि उपजों के दो फसलों के बीच का उतार चढ़ाव 6 प्रतिशत से अधिक न हो, का कानून बने तथा खाद्यान्न की सुरक्षा और संधारण के लिये कृषक भंडारगृह जो किसान के ही घर में हो ऐसी योजना शुरु हो तथा क्षेत्रीय उत्पाद के आधार पर खाद्य प्रस्ंास्करण के क्षेत्रीय उद्योग लगाये जाने की घोषणा करें जिससे कुछ माह के अंदर ही देश में 30-40 लाख लोगों को रोजगार मिल सकता है।
4. लोकतंत्र को नियंत्रित या समाप्त करने वाले काले कानूनों को समाप्त किया जाये।
5. सभी बेरोजगारों को बेकारी भत्ता न्यूनतम 5 हजार रुपया और चयन परीक्षाओं के शुल्क को समाप्त करने की घोषणा करें।
अगर प्रधानमंत्री जी ये घोषणायें करेगे तो वह लोक नायक जयप्रकाश के प्रति सच्ची श्रद्वांजलि होगी। आपातकाल के मीसाबंदियों या आपातकाल के विरुद्व आंदोलन के सहयोगी मित्रों से मैं अपील करुॅगा कि आज भी हमारा दायित्व इन बुनियादी सवालों के प्रति है और इसीलिये हमें दलीय खाकों के ऊपर उठकर अपने और पराये का भेद छोड़कर गीता को सम्मुख रखकर उपरोक्त कार्यक्रमों को पूरा कराने के लिये लड़ने की तैयारी करना होगी। सरकारों में बैठे लोग हमारे अपने है शत्रु नही है परन्तु नीति और कत्र्तव्य की पुकार है कि हम उन्हें प्रेरित करने और बाध्य करने के लिये पुनः सिविल नाफरमानी के मार्ग पर उतरें।
राष्ट्रपिता तुम्हें प्रणाम
रघु ठाकुर
अमेरिका के राष्ट्रपति श्री ट्रंप न केवल दुनिया में बल्कि अमेरिका में भी एक अविश्वसनीय- गैर जिम्मेदार और कमोवेश मूर्ख व्यक्ति माने जाते है। यद्यपि वह अपने राजनैतिक स्वार्थें के प्रति सदैव सजग रहते है। भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की अमेरिकी यात्रा में ”हाउडी मोदी“ के नाम से ह्यूस्टन में जलसा प्रायोजित किया गया था। इसका उद्देश्य एक तरफ भारत में श्री मोदी को वैश्विक नेता बताने और इस प्रकार की छवि निर्माण करने का उद्देश्य था दूसरी तरफ आगामी चुनाव में भारतीय मतदाताओं को ट्रंप के पक्ष, में करना था, चूंकि श्रीमति तुलसी गेवार्ड उनके विरूद्ध प्रत्याशी है, और वे भारतीय मूल की हिन्दू महिला है। इसलिए ट्रंप के लिए भारतीय मतदाताओं का समर्थन कठिन हो सकता था ”हाउडी मोदी“ के माध्यम से इस चुनावी संकट से पार पाने का कुछ प्रयास श्री ट्रंप ने किया है।
मोदी के माध्यम से भारतीय मतदाताओं का समर्थन पाने के लिये श्री ट्रंप इतने उत्साहित हो गए कि उन्होंने श्री मोदी को ”फादर ऑफ इंडिया“ घोषित कर दिया। किसी व्यक्ति को देश याने भौगोलिक इकाई का पिता मानने या न मानने का और घोषित करने या न करने का अधिकार उस देश के निवासी नागरिकों का होता है। महात्मा गाँधी को राष्ट्रपिता का पहला संबोधन, नेता जी श्री सुभाष चंद्र बोस ने किया था जिसे पहले देश ने फिर दुनिया ने स्वीकार किया। अगर ट्रंप ने श्री मोदी को फादर ऑफ अमेरिका या फादर ऑफ ट्रंप घोषित किया होता तो वह उनका व्यक्तिगत अधिकार था, परन्तु किसी दूसरे देश के बारे में, अपने स्वार्थ के लिए ऐसी टिप्पणी करना तो उस पद के लिए घोषित व्यक्ति को भी छोटा या हल्का बनाना है। राष्ट्रपिता जैसी उपाधि कोई संवैधानिक उपाधि नहीं है, बल्कि यह जन स्वीकारिता पर निर्भर करती है। अगर उस दिन श्री नरेन्द्र मोदी स्वत: इसका खंडन करते और विनम्रता पूर्वक कहते की ”भारत में एक ही राष्ट्र पिता है और वह है महात्मा गाँधी“ तो श्री नरेन्द्र मोदी का कद भारतीयों के मन में और ऊँचा हाता। पर उनकी चुप्पी और प्रसन्नता ने न केवल उन्हें देश में लोलुप सिद्ध किया है, बल्कि हास्य का पात्र बना दिया है। आचार्य धर्मेंद्र जैसे कट्टर मानसिकता और गाँधी विरोधी लोग यदा कदा महात्मा गाँधी को राष्ट्रपिता कहने पर इस आधार पर आपत्ति करते रहे है एक व्यक्ति सवा सौ करोड़ लोगों का पिता कैसे हो सकता है? शायद ही अब वे इस मोदी के मामले पर जबान खोले और कहें एक व्यक्ति एक सौ तीस करोड़ लोगों का पिता कैसे हो सकता है। वे और उनके जैसे लोग इतने तो समझदार है, जानते है कि श्री नरेन्द्र मोदी के विरूद्ध बोलने या उनकी नाराजगी का क्या अर्थ होता है? श्री आसाराम, राम रहीम, रामपाल जैसा शायद वे नहीं बनना चाहेंगे। अभी तक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में सर्वेच्च पद सर संघ संचालक का होता रहा है। इस पद को संघ के लोग सम्मान पूर्वक या योजना पूर्वक परम पूज्यनीय कहते रहे है। श्री ट्रंप ने श्री मोदी और संघ के बीच एक संकट खड़ा कर दिया है। और भाजपा सरकार तथा संघ के रिश्तो पर तनाव का संकट खड़ा कर दिया है। अब या तो श्री मोहन भागवत और संघ के लोगों को श्री मोदी को फादर ऑफ इंडिया कहने या मानने से इंकार करना होगा या फिर अपने पिता के पैर छूना होगा। इस ट्रंप जनित नैतिक व व्यवहारिक संकट का हल संघ कैसे निकालेगा यह उन पर ही निर्भर है हालांकि संघ का योजना कौशल निर्विवाद हैं। वैसे ट्रंप ने जाने अनजाने इतना तो अच्छा किया की मोदी को ”फादर ऑफ इंडिया“ कहा। दरअसल इंडिया और राष्ट्र के बीच में मौलिक फर्क है। इंडिया केवल देश के आबादी के 15-20 प्रतिशत लोगों का पर्याय है जो अंग्रेजी दा व पाश्चात्य सभ्यता के पोषक है। पूँजीपति है, कारपोरेट है, और शोषण के पर्याय है। भारत देश की उस 85 प्रतिशत आबादी का पर्याय है जो भारतीय भाषाओं को जानती बोलती है-जो किसान है-मजदूर है- अनुसूचित जाति-जन जाति-पिछड़े व गरीब है, और जो मेहनत कश है। पर दूसरे के श्रम की लूटने वाले नहीं है। महात्मा गाँधी इस भारत के राष्टपिता हैं, और ट्रंप के मोदी उस कारपोरेट जगत के पिता है जो सत्ता की ताकत के माध्यम से कारपोरेट्स को, पूंजीपतियों को और मीडिया के मालिकों को बनाते मिटाते है। श्री ट्रंप ने उन्हें ”फादर ऑफ इंडिया“ कहकर उन 10-15 प्रतिशत लोगों का पर्याय और पिता बता दिया है जो भारतीय सभ्यता पर विश्वास नहीं करते। जो अमेरिका और पश्चिम की पूंजीवादी सभ्यता को अपना आदर्श मानते है। दरअसल इंडिया, भारत रूपी विशाल राष्ट्र का एक बदनुमा दाग जैसा है। जिस प्रकार सुंदर शरीर पर एक छोटा सा निशान बदनुमा बन जाता है। वह तो महात्मा गाँधी ही थे, कि ”अगर उन्हें कोई फादर ऑफ इंडिया कहता तो वे उसे तत्काल हिम्मत के साथ नकार देते और कहते की इस गुलामी के इंडिया को मिटाओ और आजादी का भारत बनाओ। ”परन्तु वे महात्मा गाँधी थे, इसलिए ऐसा कर सकते थे, परन्तु ये मोदी है, जिनसे यह उम्मीद करना बेकार है।
वैसे भी श्री मोदी देश के मामूली से अल्पमत के नुमाइंदे है, चूंकि चुनाव प्रणाली में, जीत-हार कई प्रकार के कारणों पर निर्भर करती है जिसमें कई बार मामूली मतों के अंदर से भी संसदीय संख्या बड़ी हो जाती है। उन्हें 2019 के चुनाव में मतदान करने वाले मतदाताओं का 40 प्रतिशत से कुछ अधिक मत मिला है। अगर इसे देश के कुल मतदाताओं की कसौटी पर रखा जाए तो देश के कुल मतदाताओं का यह लगभग 31 प्रतिशत होता है। फिर जो एन.डी.ए. के घटक दल है जैसे जद यू, लोक जनशक्ति अपना दल आदि के भाजपा को स्थानान्तिरित वोटों की गणना की जाए तो वह भी 4-5 प्रतिशत होंगे। तथा भारतीय जनता पार्टी में, जो मोदी विरोधी तबका है अगर उसकी निजी मत शक्ति की गणना की जाए तो वह लगभग 2 प्रतिशत होगी, यानि श्री मोदी वास्तव में देश के 24 प्रतिशत लोगों के ऐच्छिक नुमाइंदे है, 76 प्रतिशत लोग इसमें उनकी पार्टी के लोग भी शामिल है। जो न उन्हें अपना नेता मानते है, न पिता। देश एक भौगोलिक इकाई होती है और राष्ट्र एक व्यापक, भौगोलिक, एवं सांस्कृतिक इकाई होती है। ”इंडिया“ अंग्रेजी हुकूमत के द्वारा खींची रेखाएं हैं, और भारत एक विशाल और व्यापक स्वाभाविक इकाई है, जो ”अंग्रेजी इंडिया से“ बहुत बड़ी व व्यापक है। अच्छा हुआ कि ट्रंप की जबान नहीं फिसली और उन्होंने श्री मोदी को ”फादर ऑफ इंडिया“ शब्द का ही इस्तेमाल किया।
पाँच सौ गुना तक महंगी बिक रहीं दवाएं
अजित वर्मा
आम आदमी के लिये सबसे जरूरी दवाओं की कीमतों को लेकर हमेशा से विवाद की स्थिति बनी रही है। अब यह बात सामने आयी है कि अस्पताल मालिक डॉक्टरों और केमिस्ट के दबाव में आकर दवा निर्माता दवा के पैकेट पर 500 फीसदी तक बढ़ा मनमाना दाम प्रिंट कर रहे हैं सभी दवा की कीमत पर 30 फीसदी का मार्जिन कैप लगने से दवा और मेडिकल उपकरणों की कीमतें 90 फीसदी तक कम हो जाएंगी, जिससे निर्माताओं के दवाओं की बिक्री के दाम पर कोई असर नहीं पड़ेगा। गैर अधिसूचित दवाओं पर रिटेलर की खरीद की कीमत से 500 फीसदी तक से ज्यादा दाम ग्राहकों से वसूला जा रहा है। अभी हाल ही में प्रमुख कंपनियों के 1107 दवाइयों की स्टडी की गयी है, जिसका औसत एमआरपी रिटेलर की दवाओं की खरीद की कीमत से 500 फीसदी ज्यादा है। वहीं दूसरी ओर यह स्थिति भी है कि ब्रांडेड और जैनेरिक दवा के क्वालिटी में कोई अंतर नहीं है।
डॉक्टरों पर बड़े-बड़े या कैपिटल अक्षरों में जेनेरिक दवाएं लिखने की कोई बाध्यता नहीं है। वहीं अब तो अधिकांश डॉक्टरों ने खुद की दवाईयें की दूकानें भी खोल ली हैं। इसलिए अधिकांश डॉक्टर न पढ़े जाने वाली भाषा में ब्रांडेड दवाइयां लिख रहे हैं मरीजों को डॉक्टरों के पास बनी केमिस्ट की दुकानों से वह दवाएं मनमाने दामों पर खरीदनी पड़ती है।
दवा में ‘ब्रांड’ के नाम पर लूट का काला कारोबार- बीमारी से ज्यादा आम आदमी ‘महंगी दवाओं’ के बोझ से दब रहा है सरकार, निजी दवा कंपनियों के मनमर्जी के दाम वसूलने की प्रवृत्ति पर लगाम लगाने में पूर्णत: असफल साबित हुई है वहीं जन औषधालय, आम मरीज की पहुंच से दूर हैं और प्राइवेट दवा कपंनियों की तादाद बढ़ती जा रही है।
ब्रांडिंग के खेल में जेनरिक दवाओं के महत्व को दबाया जा रहा है। जीवनदाता सफेदपोश डॉक्टरों का ‘कमिशन’ कई गुना बढ़ गया है प्राइवेट दवा कंपनियों के मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव की घुसपैठ सरकारी अस्पतालों के अंदर खाने तक हो गई है और लूट का कारोबार चरम पर है। अब तो दवा कंपनियां डॉक्टरों को तरह-तरह के प्रलोभन भी देती हैं। कई कंपनियां तो ज्यादा दवाईयां खपाने वाले डॉक्टरों को अब विदेशों की सैर भी करवाती हैं। यह विडम्बना ही है कि डॉक्टरों और दवा के कारोबार को लेकर कोई गंभीर प्रयास होते नजर नहीं आ रहे हैं।
एनसीपी-कांग्रेस ही नहीं, भाजपा-शिवसेना की भी परीक्षा
अजित वर्मा
महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान होने के बाद एक ओर भाजपा खेमे में उत्साह का माहौल है, वहीं कांग्रेस-एनसीपी खेमे में निराशा छाई हुई है। विरोधी दलों के ज्यादातर दिग्गज नेता या तो कमल के साथ हो लिए हैं, या शिवसेना के बंधन में बंध गए हैं। एनसीपी प्रमुख शरद पवार राज्य में घूम रहे हैं, लेकिन खेमों में बंटी कांग्रेस अभी भी भ्रम की स्थित में है। इस बार का चुनाव कांग्रेस और एनसीपी राज्य में अपना अस्तित्व बचाने की लड़ाई है।
तीन तलाक और जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने के बाद देश में यह पहला बड़ा चुनाव होने जा रहा हैं। इन चुनाव के माध्यम से जनता का सही मूड भांपने का अवसर मिलेगा, क्योंकि अब तक भाजपा सरकार दावा करती रही है कि दोनों निर्णयों से जनता में खुशी का माहौल है। अगर महाराष्ट्र में भाजपा की सीटें बढ़ती हैं, तो निश्चित ही भाजपा का दावा सही साबित होगा, वर्ना उनके दावों की पोल खुल जाएगी।
लोकसभा चुनावों में मिली हार से कांग्रेस और राकांपा उबरी ही नहीं थी कि उनकी पार्टी में ही विरोध इस कदर शुरू हुआ कि मजबूत से मजबूत नेता भी पार्टी छोड़ गए। दोनों पार्टियों में पूरी तरह से अविश्वास का माहौल है। हालात इस कदर बिगड़ गए हैं कि कब कौन पार्टी छोड़ दे, इसका भरोसा नहीं है। ऐसे में दोनों दलों को अब अपने अस्तित्व को बचाए रखने की चुनौती होगी। महाराष्ट्र की राजनीतिक में मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस बेहद मजबूत होकर उभरे हैं। पिछले पांच साल में उन्होंने अपनी पार्टी के दिग्गजों को जहां चित कर दिया, वहीं विरोधी दल कांग्रेस-राकांपा को भी धूल चटा दी। विधानसभा में विरोधी पक्ष नेता राधाकृष्ण विखे पाटील जैसे दिग्गज नेता को फड़नवीस ने सरकार में शामिल कर लिया। शिवसेना के लिए भी एक लक्ष्मण रेखा खींच दी गयी है। आलम यह है कि मुख्यमंत्री जिसे भाजपा में शामिल नहीं कर सके, उसे शिवसेना में एडजस्ट करा दिया। मुख्यमंत्री ने औरंगाबाद से कांग्रेस के दिग्गज विधायक अब्दुल सत्तार के साथ बैठक की, लेकिन उन्हें शिवसेना में भर्ती करा दिया। अब मुख्यमंत्री के लिए चुनौती है कि वे भाजपा के लिए पिछले विधानसभा चुनाव से ज्यादा सीटें जीतकर लाएं। पिछले चुनाव में भाजपा ने 122 सीटों जीती थी।
वर्ष 2014 के विधानसभा चुनाव में भाजपा-शिवसेना और कांग्रेस-राकांपा का गठबंधन टूट गया था। सभी दलों ने अपने-अपने दम पर चुनाव लड़ा था। लेकिन इस बार भाजपा और शिवसेना तथा कांग्रेस और राकांपा के बीच चुनावी गठबंधन हो रहा है इसलिये अब दोनों गठबंधनों के बीच मुकाबला होने जा रहा है।
रावण ने जानबूझकर राम के हाथों मृत्यु के लिये सीता का अपहरण किया था
हर्षवर्धन पाठक
दशहरा के समय जब राम की विजय का घोष होता है तो रावण की पराजय और मृत्यु की चर्चा भी होती है। वास्तव में दशहरा के मौके पर राम तथा रावण दोनों का स्मरण होता है।
रामानुज लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा का अंग भंग किये जाने का कारण सब को मालूम हैं। लेकिन इस सिलसिले में दो तथ्य ध्यान दिये योग्य हैं। श्रीराम और लक्ष्मण दोनों प्रारंभ में शूर्पणखा का प्रस्ताव टालते हैं। जब शूर्पणखा डरावना रूप धारण करती है तब सीता को भयभीत देखकर लक्ष्मण शूर्पणखा के नाक-कान काटते है। तब भी शूर्पणखा राम की बुराई नहीं करती है, सीता का रूप वर्णन करते हुए वह रावण से कहती है:-
सोभा धाम राम अस नामा।
तिन्ह के संग नारि एक स्यामा।
रूप रासि विधि नारी संवारी।
रति सत कोटि तासु बलहारी।
सीता के रूप की प्रशंसा करते हुए वह रावण को उकसाती है कि सीता का अपहरण कर लो लेकिन राम के विरूद्ध कुछ नही कहती है।
रावण का कथित अहंकार और जिद को तुलसीदास ने बार-बार दिखाया है लेकिन वे अरण्यकांड में रावण के मन की बात कह गये।
कथा प्रसंग यह है कि दरबार में बहिन शूर्पणखा को महाबली रावण अपने बल और शौर्य की कहानियां सुनाकर सांत्वना देता हैं लेकिन वह इसके बाद रात भर सो नहीं पाया। तुलसीदास अरण्यकांड के दोहा क्रमांक 22 में रावण के रात्रि जागरण तथा उसके मनोमंथन की बात कहते है।
शूर्पणखा समुझाई करि, बल बोलेसि बहु भांति।
गयऊ भवन अति सोच बस, नींद परई न राति।
रावण रात भर सो नही पाया। यद्यपि उसने अपनी बहिन को दरबार में अपने बल तथा शौर्य के बहुत किस्से सुनाये परन्तु रात्रि जागते हुए वह यह सोचता रहा कि खर दूषण जैसे मेरे समान बलशाली राक्षसों को राम ने मार दिया तो वे निश्चय ही भगवान के अवतार हैं। भगवान का भजन इस जन्म में इस तन से नहीं हो सकता तो एक ही विकल्प बचता है कि भगवान के हाथ से मृत्यु के द्वारा मुझे मोक्ष मिले।
रावण की इस मनोदशा का वर्णन करते हुए महाकवि यह भी लिखते है कि रावण ने यह निश्चय कर लिया है कि मैं हठ पूर्वक श्रीराम का दुश्मन बनूंगा। यदि वे दोनों (राम और लक्ष्मण) ईश्वर के अवतार नहीं है तो मैं उन दोनों से युद्ध जीत लूंगा और यदि वे ईश्वर के अवतार हुए तो और यदि वे ईश्वर के अवतार हुए तो उनके हाथों मरकर स्वर्ग जाऊंगा। यह उल्लेखनीय प्रसंग है।
रावण के इस मनोमन्थन का उल्लेख संत कवि ने इन शब्दों में किया है:-
तो मैं जाई बैरी हठ करऊ
प्रभु सर प्रान तजे भव तरऊ।
इसके बाद अगले दोहा में तुलसीदास ने एक और रहस्योद्घाटन किया। श्रीराम सीता से कहते हैं कि तुम कुछ समय के लिए अग्नि में निवास करो। तब तक मैं राक्षसों का संहार करूंगा। श्रीराम के मुंह से यह बात सुनकर सीता ने अग्नि में प्रवेश कर लिया। अग्नि से उनका प्रतिबिम्ब सामने आया जो वैसा ही रूप था। लक्ष्मण को यह ज्ञात नहीं था क्योकि उस समय वे वन गये हुये थे।
रावण-वध के बाद सीता की अग्नि परीक्षा का कारण भी यही था कि श्रीराम मूल सीता को अग्नि से वापिस प्राप्त करना चाहते थे, जो पूर्व में अग्नि में समा गई थी। तुलसीदास ने इस प्रसंग का वर्णन इस प्रकार किया है।
सुनहू प्रिया व्रत रूचिर सुसीला
मैं कछू करब ललित नर लीला।
तुम्ह पावक मंह करऊं निवासा।
जो लगि करौं निसाचर नासा।
निज प्रति बिम्ब राखि तंह सीता।
तैसई सील रूप सुविनीत।।
इसके बाद इस सीता का हरण हुआ। रावण इस सीता का अपहरण कर ले गया तथा राम-रावण युद्ध की भूमिका बनी। अरण्यकांड में ही शबरी द्वारा दिये गये कंद मूल फल राम के द्वारा खाये जाने का वर्णन है। श्रीराम ने शबरी को भक्ति के नौ प्रकारों (नवधा भक्ति) का उपदेश दिया।
श्रीराम ने इसके पूर्व लक्ष्मण को भी नवधा भक्ति से अवगत कराया था। यह प्रसंग भी अरण्यकाण्ड मे आया है। लेकिन लक्ष्मण और शबरी को दिये गये नवधा भक्ति के उपदेशों में अन्तर है। यह है कि जहां श्रीराम ने लक्ष्मण को ईश्वर से प्रेम करना सिखाया वहां शबरी की वह भक्ति बताई जिसमे मनुष्य ईश्वर का प्रिय होता है।
शबरी ने ही पंपासुर का मार्ग बताया जहां श्रीराम लक्ष्मण की भेट पहले हनुमान से और फिर सुग्रीव से होती है।
वृन्दावन के विख्यात संत दिवंगत स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती ने अरण्यकाण्ड की तुलना माया नगरी हरिद्वार से की है। उनका कथन यह है कि जिस प्रकार तालाब में उतरने के लिये सीढ़िया उतरनी पड़ती है वैसे ही रामचरित मानस के सात सोपान अर्थात सात सीढ़ियां है। राम चरित मानस के सात सोपानों का नामकरण वे सात मोक्षदायिनी पुरियों के नाम पर करते हैं। वे अरण्यकाण्ड को वे माया प्रथान बताते हुये इसे हरिद्वार बताते है। ये सात पुरियां है अयोध्यां, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी, कांची, अवन्तिका तथा द्वारावती (द्वारका)। अरण्यकाण्ड की वे माया प्रधान बनाते है। इसमें सभी माया करते है। राम-सीता-लक्ष्मण ने अरण्य की शरण ली। वहां राम ने सीता के अग्नि प्रवेश की माया रची तो रावण ने विप्रवेश धारण कर सीता हरण की माया की। मारीच ने कंचन मृग बनकर सीता को लुभाने की माया की, तो अंत में लक्ष्मण के स्वर में सीता का उच्चारण कर एक और माया की। खर-दूषण ने राम से माया युद्ध किया तो राम ने भी माया युद्ध कर उसका उत्तर दिया। शूर्पणखा ने भी राम को प्रलोभित करने की माया की।
विकास की पटरी पर रेल
सिद्धार्थ शंकर
देश की कॉर्पोरेट सेक्टर की पहली ट्रेन तेजस के लिए अब इंतजार खत्म हो गया है। देश की पहली प्राइवेट ट्रेन को सीएम योगी आदित्यनाथ लखनऊ जंक्शन से इसे हरी झंडी दिखाकर रवाना किया। रेलवे ने तेजस एक्सप्रेस के किराए का भी ऐलान कर दिया है। यह ट्रेन सप्ताह में 6 दिन चलेगी। दिल्ली-लखनऊ तेजस एक्सप्रेस के यात्रियों को ट्रेन के विलंब होने पर मुआवजा दिया जाएगा। रेलवे की सहायक कंपनी ने मंगलवार को यह जानकारी दी। इसमें कहा गया कि एक घंटे से अधिक का विलंब होने पर 100 रुपए की राशि अदा की जाएगी, जबकि दो घंटे से अधिक की देरी होने पर 250 रुपए का मुआवजा दिया जाएगा। तेजस मंगलवार को छोड़कर हफ्ते में छह दिन चलेगी। छह अक्टूबर से ट्रेन सुबह 6 बजकर 10 मिनट पर लखनऊ जंक्शन से छूटकर 7 बजकर 20 मिनट पर कानपुर और वहां से 7 बजकर 25 मिनट पर चलकर 11 बजकर 43 मिनट पर गाजियाबाद पहुंचेगी। यहां से 11 बजकर 45 मिनट पर छूटकर 12.25 मिनट पर नई दिल्ली पहुंचेगी। नई दिल्ली से ट्रेन शाम 4 बजकर 30 मिनट पर रवाना होकर शाम 5 बजकर 10 मिनट पर गाजियाबाद, रात 9.30 मिनट पर कानपुर और रात 10 बजकर 45 मिनट पर लखनऊ आएगी।
देश की पहली प्राइवेट ट्रेन को पटरियों पर दौड़ते देखना वाकई सुखद है और रेलवे के कायाकल्प के लिए जरूरी भी। यह ट्रेन रेलवे की विस्तार नीति को बढ़ावा देगी और विभाग पर लगातार आ रहे बोझ से छुटकारा भी दिलाएगी। हालांकि, इस टे्रन के बहाने रेलवे के निजीकरण को लेकर उठ रही शंकाओं का रेल मंत्री पीयूष गोयल समाधान कर चुके हैं, फिर भी यह ऐसा पहलू है, जिसकी तरफ एकबारगी नजर डालनी ही चाहिए। बहरहाल, देश की पहली प्राइवेट ट्रेन की परिकल्पना सुरेश प्रभु की है। रेल मंत्री रहते प्रभु ने कहा था कि वो रेल के विकास के लिए निजी कंपनियों के साथ ज्वाइंट वेंचर करेंगे, साथ ही राज्यों का भी सहयोग लेंगे। अगर मोदी सरकार के अब तक के कार्यकाल में रेलवे के विकास पर नजर डालें तो पता चलेगा कि विकास पटरी पर काफी आगे निकल गया है। रेलवे ने एक नई सेवा का ऐलान किया है। इस सेवा के जरिए टिकट बुक करवाते समय भले ही उन्हें कंफर्म टिकट न मिले, मगर उन्हें यह जरूर पता चल जाएगा कि उनके वेट लिस्ट टिकटों के कन्फर्म होने संभावना कितनी है। लोगों को ट्रेनों में खाने की क्वालिटी को लेकर शिकायत रहती है। अभी राजधानी और शताब्दी में खाने की अधिक मात्रा दी जाती है। भारतीय रेलवे अब ऐसी ट्रेनों में खाने की मात्रा कम करेगी, ताकि इसकी गुणवत्ता में सुधार लाया जा सके। हाल ही में रेल मंत्री पीयूष गोयल ने कहा रेलवे के जोनल प्रमुखों को कहा था कि ट्रेनों में होने वाली देरी का असर उनके अप्रेजल में नजर आएगा। इसमें सुधार के लिए उन्होंने अधिकारियों को एक महीने का वक्त दिया है। संभव है कि प्रमोशन दांव पर लगने के बाद ट्रेनों की समयबाध्यता बढ़ेगी।
अगले साल से भारतीय रेलवे को एयरपोर्ट जैसे स्टेशन मिलेंगे, जो आकर्षण के लिहाज से बड़ा बदलाव होगा। मध्यप्रदेश में हबीबगंज और गुजरात में गांधी नगर के रेलवे स्टेशन किसी सामान्य हवाई अड्डे को टक्कर देंगे। कुल 68 रेलवे स्टेशनों के सुधार के लिए 5,000 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे।
मोदी सरकार ने गुजरात, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश की राज्य सरकारों को 1,504 किलोमीटर लंबे वेस्टर्न फ्रेट कॉरिडर के लिए जमीन अधिग्रहण में होने वाली देरी के लिए आड़े हाथों लिया है। भारतीय रेलवे का नेटवर्क विशालकाय है। इस वजहे से इसमें बदलाव की संभावनाएं और गति काफी सुस्त रहती है. हर जगह एक साथ बदलाव पहुंच पाना संभव भी नहीं है, मगर यदि समय पर सही प्रयास किया जाए, तो परिवर्तन लाया जा सकता है।
किलोमीटर लंबी पटरियों पर दौड़ती भारतीय रेल हमारी अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार है। माल ढुलाई और यात्रियों के आवागमन का प्राथमिक साधन होने के साथ रोजगार उपलब्ध करानेवाली सबसे बड़ी संस्था रेल ही है। सत्ता में आते ही पीएम नरेंद्र मोदी ने इसके कायाकल्प का भरोसा दिलाया था. हालांकि ऐसे वादे पहले भी किये गये थे। रेल के विस्तार एवं विकास की दिशा में उल्लेखनीय उपलब्धियां भी हासिल हुई थीं, लेकिन यात्रियों की सुरक्षा और सुविधा बेहतर करने तथा रेल नेटवर्क की व्यावसायिक संभावनाओं को वास्तविकता में बदलने की आकांक्षाएं संतोषजनक रूप से पूरी नहीं हो सकी थीं। मोदी सरकार के पहले बजट में ही तत्कालीन रेलमंत्री सदानंद गौड़ा ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश तथा निजी क्षेत्र की भागीदारी पर जोर देकर सुधार की पहलकदमी की थी। रेल बजट की एक परंपरा बन गई थी कि व्यापक विकास की आवश्यकताओं को किनारे रख राजनीतिक नफे-नुकसान को देखते हुए नयी यात्री रेलगाडिय़ों की घोषणा की जाती थी। प्रभु ने इस परिपाटी को न सिर्फ तोड़ा, बल्कि पूरे रेल प्रणाली के आधुनिकीकरण, विद्युतीकरण और मौजूदा इंफ्रास्ट्रक्चर के रख-रखाव पर जोर दिया। खस्ताहाल पटरियों के कारण हमारे देश में ट्रेनों की गति कम है, इससे माल ढुलाई और यात्री गाडिय़ां देरी से भी चलती हैं।
यह समस्या अब भी है, क्योंकि इंफ्रास्ट्रक्चर को बेहतर बनाने में समय लगता है, लेकिन मौजूदा सरकार की कोशिशों से इसमें सुधार हुआ है और अनेक तेज गति की ट्रेनें चल रही हैं। एक महत्वपूर्ण निर्णय यह हुआ कि 92 साल से चली आ रही अलग रेल बजट की परंपरा को विराम देते हुए 2017 में रेल बजट को आम बजट में समाहित कर दिया गया. उस वर्ष 2016-17 के बजट से आठ फीसदी की वृद्धि की गई थी। तब वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पांच सालों में रेल सुरक्षा के लिए एक लाख करोड़ रुपए का कोष बनाने की घोषणा की थी। रेल सुरक्षा पर बातें पहले भी होती थीं, पर आवंटन की कमी से अच्छे परिणाम नहीं आते थे, पर बीते चार सालों में इस दिशा में बहुत काम हुआ है और दुर्घटनाओं में कमी आई है।
असंगठित जनता को लूटते संगठित व्यवसायी ?
निर्मल रानी
लगभग दस बारह वर्ष पूर्व आपने मोबाईल नेटवर्क उपलब्ध करने वाली एयरटेल जैसी कई कम्पनीज़ के ऑफ़र्स में लाइफ़ टाइम ऑफ़र दिए जाने के बारे में ज़रूर सुना होगा। मेरे जैसे करोड़ों देशवासियों ने हर महीने मोबाईल टाक टाईम चार्ज करवाने की झंझट से बचने के लिए कंपनी के लाइफ़ टाइम ऑफ़र को स्वीकार करते हुए उसके द्वारा मांगे गए एक हज़ार रूपये भी दे दिए थे। इसके कुछ समय पश्चात् इस प्रकार का लाइफ़ टाइम ऑफ़र स्वीकार करने वालों के मोबाईल फ़ोन पर उन कम्पनीज़ द्वारा इस आशय के सन्देश भेजे गए कि आप का लाइफ़ टाइम कनेक्शन 2030 या किसी पर 2032 या 2033 या 34 आदि तक वैध रहेगा। इस प्रकार की जानकारी भी दी गयी। इस ऑफ़र की घोषणा व इसकी बिक्री को लगभग 10 वर्ष बीत चुके हैं। इसलिए हमें यह जानना ज़रूरी है कि क्या लाइफ़ टाइम ऑफ़र देने वाली सभी कम्पनीज़आज भी सही सलामत भारतीय बाज़ारों में क़ायम रहकर लाइफ़ टाइम ऑफ़र उपलब्ध कराने के अपने वचन पर क़ाएम हैं?वह सभी कम्पनीज़आज भी भारतीय बाज़ारों में जीवित नज़र आ रही हैं? इसी प्रकार अपना मोबाईल पोर्ट करने अर्थात उसी पुराने नंबर को बरक़रार रखते हुए किसी अन्य मोबाईल नेटवर्क कंपनी में अपना कनेक्शन स्थानांतरित करने की व्यवस्था थी। वह नई मोबाईल नेटवर्क कंपनी अपनी शर्तों के अनुसार तथा अपने निर्धारित रेट पर नेटवर्क की सेवाएं उपलब्ध कराती थीं। परन्तु भारतीय बाज़ार का उतार चढ़ाव तथा अपने घाटे मुनाफ़े का अपने तरीक़े से आंकलन करने के बाद गत दो दशकों में नेटवर्क सेवाएं उपलब्धकरने वाली अनेक कम्पनीज़ विशाल भारतीय बाज़ार के क्षितिज पर पहले तो सितारों की तरह चमकीं और कुछ ही समय के बाद सितारों की ही तरह आँखों से ओझल भी हो गयीं।
ऐसे में सवाल यह कि कोई भी नेटवर्क सेवाएं उपलब्ध कराने वाली कम्पनी भारतीय बाज़ार में टिकी रहे या भारतीय बाज़ार को छोड़ जाए। अथवा नेटवर्क सेवाएं उपलब्ध कराने वाली किसी दूसरी कम्पनी में उसका विलय हो जाए। परन्तु एक ग्राहक से कंपनी द्वारा किये गए उस वादे की वैधानिक स्थिति क्या होगी जिसके तहत उसने ग्राहक को लुभाया और तरह तरह की लालच देकर कनेक्शन लेने हेतु वातावरण तैयार किया ? गत दो दशकों के दौरान भारत में मोबाईल नेटवर्क मुहैय्या कराने वाली अनेक कम्पनीज़ आईं और चली गयीं। उनकी शर्तें व ग्राहकों के साथ किये गए उनके सभी क़रार भी धराशायी हो गए। अब न तो कोई लाइफ़ टाइम कनेक्शन रह गया है न ही पिछली कंपनी की शर्तों व रेट पर कोई नई कम्पनी सुविधाएं दे रही है। सब की अपनी अपनी शर्तें हैं आपको उसे मानना ही पड़ेगा। मोबाईल नेटवर्क मुहैय्या कराने वाली अनेक कम्पनीज़ के अपने अपने नियम हैं वे पोर्ट करने वाली किसी अन्य कंपनी के नियमों को मानने के लिए बाध्य नहीं हैं। अब लाइफ़ टाईम ऑफ़र के नाम पर जनता से लूटे गए सैकड़ों करोड़ रुपयों की भी कोई जवाबदेही किसी भी कंपनी की नहीं है। अब यदि आप नियमित रूप से अपना मोबाईल कंपनी के पैकेज के अनुरूप प्रत्येक माह चार्ज करा रहे हैं फिर तो ग़नीमत है अन्यथा आपकी पैकेज की तिथि समाप्त होते ही आने व जाने वाली सभी कॉल्स कंपनी बंद कर देती है। और यदि इनकमिंग कॉल्स की व्यवस्था को जीवित रखना चाहते हैं तो प्रत्येक माह किसी कंपनी का 35 रु तो किसी का 23 रु प्रति माह के हिसाब से ज़रूर चार्ज करना पड़ेगा अन्यथा आपके हाथों का मोबाईल संचार सुविधाएं मुहैय्या करा पाने में पूरी तरह असमर्थ है। भले ही आप ने लाइफ़ टाइम सदस्य के रूप में किसी कम्पनी को एक हज़ार रूपये क्यों न दे रक्खे हों।
यहाँ महीने के नाम पर 30 या 31 दिन गिनने की भी ग़लती मत करें। इन संगठित व्यवसायियों ने लूट खसोट की अपनी सुविधा के मद्देनज़र महीने का निर्धारण भी मात्र 28 दिनों का कर रखा है। गोया हर महीने दो या तीन दिन के फ़ालतू पैसे महीने भर के पैकेज के नाम पर प्रत्येक ग्राहक से ठगे जा रहे हैं। हमें एक वर्ष में बारह महीने की यदि आय होती है तो इन कम्पनीज़ ने साल के 12 नहीं बल्कि 13 महीने या इससे भी कुछ अधिक निर्धारित कर दिए हैं। और असंगठित ग्राहक लूटा भी जा रहा है और तमाशबीन भी बना हुआ है। आपकी कॉल ड्राप होती है या सही सिग्नल नहीं मिलते अथवा बातचीत के दरम्यान काल काट जाती है अथवा रेकार्डेड यंत्र आपको कॉल कनेक्ट करने के बजाए और कुछ बोलता रहता है तो इसकी ज़िम्मेदारी भी कोई कम्पनी नहीं लेती सिवाए इसके की आप सम्बंधित कंपनी के ग्राहक सेवा केंद्र पर फ़ोन करें और यहाँ बैठा कोई युवक या युवती आपको बातों बातों में ही अपनी मीठी व सुरीली भाषा से ही संतुष्ट कर दे और अंत में भी आप से यही पूछे कि और कोई सेवा बताएं या काल करने हेतु धन्यवाद कर आपकी शिकायत का ‘सुखद अंत’ कर दे। वैसे भी जबसे देश के सबसे बड़ा सरकारी संचार संस्थान बी एस एन एल की तरफ़ से सरकार ने जान बूझ कर आँखें फेरनी शुरू की हैं तभी से निजी कम्पनीज़ के हौसले बुलंद हो चुके हैं। अनेक निजी कम्पनीज़ के इस क्षेत्र से ग़ाएब हो जाने के बावजूद जिओ,एयरटेल,आइडिया,व वोडाफ़ोन जैसी कई कम्पनीज़ अपने कारोबार में निरंतर विस्तार भी कर रही हैं। यहाँ यह बताने की ज़रुरत नहीं कि इन कम्पनीज़ के स्वामी सरकार के मुखियाओं से अपने ‘मधुर सम्बन्ध’ रखते हैं लिहाज़ा इन्हें सरकार का पूरा संरक्षण भी हासिल होता है। इतना अधिक कि सरकार अपने संचार संस्थान बी एस एन एल के आधुनिकीकरण पर या इसके कर्मचारियों की मांगों पर गंभीरता पूर्वक ध्यान देने के बजाए संचार क्षेत्र की निजी कम्पनीज़ के समक्ष आने वाली परेशानियों से शीघ्रता से निपटती है। जिओ के बाज़ार में उतरने के समय पूरे देश ने देखा कि किस प्रकार जिओ के विज्ञापन में बड़े पैमाने पर देश के प्रधानमंत्री के चित्र का इस्तेमाल किया गया। जैसे कि जिओ निजी संचार संस्थान न होकर कोई सरकारी संचार संस्थान हो। इस बात को लेकर उस समय थोड़ा बहुत हो हल्ला भी हुआ था परन्तु जो कुछ करना या होना था वह हो चुका था। देश को जिओ पर सरकरी संरक्षण होने का सन्देश सफलतापूर्वक दिया जा चुका था। आज पूरे देश में व्यापक स्तर पर इसका फैला नेटवर्क जिओ पर सरकारी संरक्षण का सुबूत है।
इसी प्रकार के और भी कई ऐसे निजी यहाँ तक कि कई सरकारी क्षेत्र भी ऐसे हैं जहाँ जनता के पैसों की मनमानी तरीक़े से लूट खसोट सिर्फ़ इसलिए की जाती है क्योंकि आम लोग असंगठित हैं,विभिन्न वर्गों में बंटे हुए हैं। जनता को अपने हितों से अधिक चिंता अपने धर्म व जाति,संस्कृति व भाषा आदि की सताने लगी है। और निःसंदेह जनता की इन्हीं कमज़ोरियों का फ़ायदा संगठित संस्थानों या संस्थाओं के लोग बड़ी ही आसानी से उठा रहे हैं।
05अक्टूबर/ईएमएस
अंधविश्वास की काट कब
सिद्धार्थ शंकर
ओडिशा के गंजम से इंसानियत को शर्मसार कर देने वाला एक मामला सामने आया है। कुछ लोगों ने जादूटोना करने के शक में छह बुजुर्गों के दांत तोड़ दिए और उन्हें मानव मलमूत्र खाने के लिए मजबूर किया। हैरानी की बात यह है कि पीडि़त मदद के लिए गुहार लगाते रहे, लेकिन कोई उनकी सहायता के लिए आगे नहीं आया। गोपुरपुर गांव के कुछ लोगों को शक था कि छह बुजुर्ग व्यक्ति जादूटोना कर रहे हैं, जिसके चलते उनके इलाके में कम से कम छह महिलाओं की मौत हो गई और सात अन्य बीमार हो गईं। पुलिस के मुताबिक उन्होंने मंगलवार को छह लोगों को जबरदस्ती घर से बाहर निकाला और उन्हें मानव मलमूत्र खाने के लिए मजबूर किया, बाद में उनके दांत उखाड़ दिए। इन छह ने मदद की गुहार भी लगाई लेकिन कोई भी उनके लिए आगे नहीं आया। जादू टोना के नाम पर किसी के साथ ज्यादती की यह पहली घटना नहीं है। देश में कई मौकों पर इंसानियत को शर्मसार करने वाली तस्वीर सामने आ चुकी है। मगर आज तक कोई समाधान नहीं हो सका।
यह घटना अपने आप में बताने के लिए काफी है कि विकास के बड़े-बड़े दावों के बीच हमारे समाज में बहुत सारे लोग वैज्ञानिक चेतना के अभाव में किस कदर किसी बीमारी के कारण पर विचार करने की स्थिति में नहीं पहुंच सके हैं। यह एक जगजाहिर तथ्य है कि ऐसे अंधविश्वासों की वजह से देश भर में कितने लोगों और खासकर महिलाओं को त्रासद उत्पीडऩ का सामना करना पड़ता है। तांत्रिक या ओझा के बहकावे में आकार किसी महिला को डायन या काला जादू करने वाली बताने, उसे मैला पिलाने, निर्वस्त्र करके घुमाने और हत्या तक कर देने की खबरें अक्सर आती रहती हैं। विडंबना है कि ऐसे अंधविश्वासों में पड़े लोगों को यह भी अहसास नहीं होता कि भ्रम में पड़ कर वे अपराध कर रहे हैं। कई बार धार्मिक परंपरा का नाम देकर ऐसी धारणाओं का बचाव किया जाता है। देश के कुछ राज्यों में जब अंधविश्वास के खिलाफ कानून बनाने की कोशिशें की जा रही थीं, तो उसके विरोध के लिए धार्मिक पक्ष और मान्यताओं का ही हवाला दिया गया था।
साफ है कि अंधविश्वासों के बने रहने में कुछ लोग अपना हित समझते हैं और इसीलिए वैज्ञानिक सोच के बजाय भ्रम पर आधारित परंपराओं को बढ़ावा देने में लगे रहते हैं। महाराष्ट्र में अंधविश्वास विरोधी आंदोलन और जागरूकता अभियानों की कमी नहीं रही है। इसके बावजूद आज भी अगर देश में कहीं भी जादू-टोना या अंधविश्वास पर आधारित मान्यताओं की वजह से किसी की हत्या कर दी जाती है तो यह सोचने की जरूरत है कि व्यवस्थागत रूप से सामाजिक विकास के किन पहलुओं की अनदेखी की गई है। भारतीय संविधान की धारा 51-ए (एच) के तहत वैज्ञानिक दृष्टि के विकास और जरूरत को नागरिकों को बुनियादी कर्तव्य के रूप में रेखांकित किया गया है। पर आजादी से बाद से अब तक सरकारों की ओर से शायद ही कभी इस मकसद से कोई ठोस पहलकदमी की गई या वैज्ञानिक चेतना के विकास, उसके प्रचार-प्रसार को मुख्य कार्यक्रमों में शामिल किया गया। नतीजतन, परंपरागत तौर पर जिस रूप में अंधविश्वास समाज में चलता आया है, लोग उससे अलग कुछ सोचने की कोशिश नहीं करते। जरूरत इस बात की है कि न केवल सामाजिक संगठनों, बल्कि खुद सरकार की ओर से भी शिक्षा-पद्धति में अंधविश्वासों के खिलाफ पाठ शामिल करने के साथ-साथ व्यापक स्तर पर जागरूकता अभियान चलाए जाएं। अन्यथा अंधविश्वास की वजह से होने वाली घटनाएं हमारे तमाम विकास पर सवाल उठाती रहेंगी।
आज की तारीख में अनेक बाबाओं और तांत्रिकों का धंधा अंधविश्वास के कारण ही चल रहा है। सच कहा जाए तो अंधविश्वास फैलाने वाले काफी संगठित और मजबूत हैं, तभी तो उनका विरोध करने पर नरेंद्र दाभोलकर जैसे लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ती है। संविधान में वैज्ञानिक सोच को आगे बढ़ाने के संकल्प के बावजूद कार्यपालिका और विधायिका के स्तर पर अंधविश्वास से लडऩे की इच्छाशक्ति नहीं दिखाई देती।
कुछ राज्यों में भले इस मामले में कानून बन गया हो, लेकिन ज्यादातर राज्य इसे लेकर उदासीन हैं। अक्सर जाने-अनजाने प्रशासन ही इसे बढ़ावा देता रहता है। अंधविश्वास विकास और तरक्की के रास्ते में बड़ी बाधा है। सरकार को चाहिए कि वह अफवाह फैलाने वालों से सख्ती से निपटे और लोगों को जागरूक करे। आज अंधविश्वास और अवैज्ञानिक सोच के खिलाफ सामाजिक आंदोलन की जरूरत है। इसके लिए सरकार, सामाजिक-धार्मिक संगठनों और प्रबुद्ध वर्ग को एकजुट होना होगा।
सीवर में होने वाली मौतों पर सुप्रीम कोर्ट सख्त
रमेश सर्राफ धमोरा
कुछ दिनो पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने देश में हाथ से मैला साफ करने के दौरान सीवर में होने वाली मौतों पर चिंता जताने के साथ ही सख्त टिप्पाणी की थी। कोर्ट ने कहा था कि देश को आजाद हुए 70 साल से अधिक समय हो चुका है। लेकिन देश में जाति के आधार पर भेदभाव जारी है। मनुष्य के साथ इस तरह का व्यवहार सबसे अधिक अमानवीय आचरण है। इस हालात में बदलाव होना चाहिए।
जस्टिस अरुण मिश्रा, एमआर शाह और बीआर गवई की पीठ ने अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल से सवाल किया कि आखिर हाथ से मैला साफ करने और सीवर के नाले या मैनहोल की सफाई करने वालों को मास्क व ऑक्सीजन सिलेंडर जैसे सुरक्षा उपकरण क्यों नहीं मुहैया कराई जाते हैं? दुनिया के किसी भी देश में लोगों को गैस चैंबर में मरने के लिये नहीं भेजा जाता है। इस वजह से हर महीने चार से पांच लोगों की मौत हो जाती है। कोर्ट ने कहा संविधान में प्रावधान है कि सभी मनुष्य समान हैं लेकिन प्राधिकारी उन्हें समान सुविधाएं मुहैया नहीं कराते।
पीठ ने इस स्थिति को अमानवीय करार देते हुए कहा कि बिना सुरक्षा उपकरणों के सफाई करने वाले लोग सीवर और मैनहोल में अपनी जान गंवा रहे हैं। वेणुगोपाल ने पीठ से कहा कि देश में नागरिकों को होने वाली क्षति और उनके लिए जिम्मेदार लोगों से निपटने के लिये अपकृत्य कानून बना नहीं है। ऐसी घटनाओं का स्वत: संज्ञान लेने का मजिस्ट्रेट को अधिकार नहीं है। उन्होंने कहा कि सडक़ पर झाडू लगा रहे या मैनहोल की सफाई कर रहे व्यक्ति के खिलाफ कोई मामला दायर नहीं किया जा सकता, लेकिन ये काम करने का निर्देश देने वाले अधिकारी या प्राधिकारी को इसका जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए।
सीवर सफाई के दौरान हादसों में मजदूरों की दर्दनाक मौतों की खबरें लगातार आती रहती हैं। कुछ माह पूर्व गुजरात के वड़ोदरा जिले के डभोई तहसील में एक होटल की सीवेरेज टैंक साफ करने उतरे सात मजदूरों की दम घुटने से मौत हो गई है। घटना बीती रात की है जब सात मजदूर एक होटल की सीवेज टैंक साफ करने के लिए उतरे थे। लेकिन टैंक सफाई के दौरान दम घुटने से उन सभी मजदूरों की मौत हो गई।
मई में उत्तर पश्चिम दिल्ली के एक मकान के सेप्टिक टैंक में उतरने के बाद दो मजदूरों की मौत हो गई थी। इस मामले में भी जांच में यह बात सामने आई थी कि मजदूर टैंक में बिना मास्क, ग्लव्स और सुरक्षा उपकरणों के उतरे थे। नोएडा सेक्टर 107 में स्थित सलारपुर में सीवर की खुदाई करते समय पास में बह रहे नाले का पानी भरने से दो मजदूरों की डूबने से मौत हो गई थी। गत वर्ष आन्ध्र प्रदेश राज्य के चित्तूर जिले के पालमनेरू मंडल गांव में एक गटर की सफाई करने के दौरान जहरीली गैस की चपेट में आने से सात लोगो की मौत हो गयी थी। देश के विभिन्न हिस्सो में हम आये दिन इस प्रकार की घटनाओं से सम्बन्धित खबरें समाचार पत्रों में पढ़ते रहते हैं।
देश के विभिन्न हिस्सो में पिछले एक वर्ष में सीवर की सफाई करने के दौरान 200 से अधिक व्यक्तियों की मौत हो चुकी है। अधिकतर टैंक की सफाई के दौरान मरने वालों की उम्र 20 से 55 वर्ष के लोगों की होती है। इस अमानवीय त्रासदी में मरने वाले अधिकांश लोग असंगठित दैनिक मजदूर होते हैं। इस कारण इनके मरने पर ना तो कहीं विरोध दर्ज होता है और न ही भविष्य में ऐसी दुर्घटनाएं रोकने के उपाय।
देश भर में 27 लाख सफाई कर्मचारी। जिसमें 7 लाख स्थायी व 20 लाख ठेके पर काम करते हैं। एक सफाईकर्मी की औसतन कमाई 7 से 9 हजार रुपये प्रति माह होती है। आधे से ज्यादा सफाईकर्मी कॉलरा, अस्थमा, मलेरिया और कैंसर जैसी बिमारियों से पीडि़त होते हैं। इस कारण 90 फीसदी गटर-सीवर साफ करने वालों की मौत 60 बरस से पहले हो जाती है। इस कार्य को करने वालों के लिये बीमा की भी कोई सुविधा नहीं होती है।
कोर्ट के निर्देशों के अनुसार सीवर की सफाई करने वाली एजेंसी के पास सीवर लाईन के नक्शे, उसकी गहराई से सम्बंधित आंकड़े होना चाहिए। सीवर सफाई का दैनिक रिकॉर्ड, काम में लगे लोगों की नियमित स्वास्थ्य की जांच, आवश्यक सुरक्षा उपकरण मुहैया करवाना, काम में लग कर्मचारियों का नियमित प्रशिक्षण, सीवर में गिरने वाल कचरे की नियमित जांच कि कहीं इसमें कोई रसायन तो नहीं गिर रहे हैं जैसे निर्देशों का पालन होता कहीं नहीं दिखता है। भूमिगत सीवरों ने भले ही शहरी जीवन में कुछ सहूलियतें दी हों, लेकिन इसकी सफाई करने वालों के जीवन में इन अंधेरे नालो ने और भी अंधेरा कर दिया है। देश में दो लाख से अधिक लोग जाम हो गए सीवरों को खोलने, मेनहोल में घुस कर वहां जमा कचरे को हटान के काम में लगे हैं।
सभी सरकारी दिशा-निर्देशों में दर्ज हैं कि सीवर सफाई करने वालों को गैस -टेस्टर, गंदी हवा को बाहर फेंकन के लिए ब्लोअर, टॉर्च, दस्ताने, चश्मा और कान को ढंकन का कैप, हैलमेट मुहैया करवाना आवश्यक है। मुंबई हाईकोर्ट का निर्देश था कि सीवर सफाई का काम ठेकेदारों के माध्यम से कतई नहीं करवाना चाहिए। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी इस बारे में कड़े आदेश जारी कर चुका है। इसके बावजूद ये उपकरण और सुविधाएं गायब है। एक तरफ दिनों दिन सीवर की लंबाई में वृद्वि हो रही है वहीं दूसरी मजदूरों की संख्या में कमी आई।
सीवर सफाई में लगे श्रमिकों में से आधे लोग सांस की बीमारियों, खांसी व सीने में दर्द के रोगी हैं। 11 प्रतिशत को डरमैटाइसिस, एग्जिमा और ऐसे ही चर्मरोग हैं। लगातार गंदे पानी में डुबकी लगाने के कारण कान बहने व कान में संक्रमण, आंखों में जलन व कम दिखने की शिकायत करने वालों का संख्या 32 फीसदी थी।
गटर की सफाई करने वालो की मौत होने के साथ ही इनका पूरा परिवार भी अनाथ हो जाता है। परिवार की आमदनी का स्रोत समाप्त हो जाता है। मासूम बच्चों की पढ़ाई के साथ-साथ दो वक्त के खाने की भी परेशानी हो जाती है। मरने वालों का पूरा परिवार बेसहारा हो जाता है। देश में जाम सीवर की मरम्मत करने के दौरान प्रतिवर्ष दम घुटने से काफी लोग मारे जाते हैं। इससे पता चलता है कि हमारी गंदगी साफ करने वाले हमारे ही जैसे इंसानों की जान कितनी सस्ती है। ऐसी बदबू, गंदगी और रोजगार की अनिश्चितता में जीने वाले इन लोगों का शराब व अन्य नशों की गिरफ्त में आना लाजिमी ही है। नशे की यह लत उन्हें कई गंभीर बीमारियों का शिकार बना देती है। सीवर सफाई के काम में लगे लोगों को सामाजिक उपेक्षा का भी सामना करना पड़ता है। इन लोगों के यहां रोटी-बेटी का रिश्ता करने में उनके ही समाज वाले परहेज करते हैं।
आमतौर पर ये लोग सीवर में उतरने से पहले शराब पीते हैं, क्योंकि नशे के सरूर में वे भूल पाते हैं कि काम करते समय उन्हें कितनी गंदगी से गुजरना है। शराब पीने के बाद शरीर में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है, फिर गहरे सीवरों में तो वैसे ही आक्सीजन की कमी रहती है। तभी सीवर में उतरते ही इनका दम घुटने लगता है। सफाई का काम करने के बाद उन्हें नहाने के लिए साबुन व पानी तथा पीने का स्वच्छ पानी उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी भी कार्यकारी एजेंसी की है। इसके बावजूद ये उपकरण और सुविधाएं इनको अभी तक नहीं मिल पा रही है।
सामाजिक न्याय और अधिकारिता विभाग के आंकड़ों के मुताबिक 1993 से अब तक इस प्रथा के कारण देश में कुल 620 लोगों की मौत हो चुकी है। तमिलनाडु में ही ऐसे 144 मामले दर्ज किए गए हैं। भारत में हाथ से मैला ढोने की प्रथा को प्रतिबंधित किये जाने के उपरान्त भी यह देश में यह गंभीर समस्या बनी हुई है। अब देश की सर्वोच्च अदालत ने गटर की सफाई करने वालों की सुध ली है व सरकार की खिंचाई की है। इससे लगता है कि सफाई करने वाले इन सिपाहियों के भी जल्दी ही अच्छे दिन आयेगें व सरकारी अकर्मण्यता से होने वाली उनकी मौत पर रोक लग पायेगी।
एससी/एसटी को राहत
सिद्धार्थ शंकर
एससी/एसटी को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को बड़ा फैसला सुनाया। सर्वोच्च न्यायालय ने 2018 में दिए गए आदेश को रद्द कर दिया है और अब इसके बाद इससे जुड़े मामलों में तुरंत गिरफ्तारी होगी। इससे पहले मार्च 2018 में दिए गए कोर्ट के ही एक आदेश में इन मामलों में तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी। कोर्ट के आदेश में कहा गया था कि शिकायत दर्ज होने पर पुलिस पहले मामले की जांच करेगी और दोषी पाए जाने पर ही गिरफ्तारी हो। हालांकि, इस आदेश का देशभर में विरोध हुआ था और सरकार ने भी सर्वोच्च न्यायालय से अपील की थी कि वो इस आदेश को वापस ले ले। 20 सितंबर को प्रावधानों को हल्का करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ सरकार की पुनर्विचार याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई पूरी कर फैसला सुरक्षित रखा था। केंद्र सरकार द्वारा 20 मार्च 2018 को सुनाए गए फैसले को लेकर पुनर्विचार याचिका दायर की गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने 2018 के आदेश को वापस लेते हुए कहा कि इस तरह का आदेश जारी ही नहीं किया जाना चाहिए था। कोर्ट ने इस दौरान कहा कि अनुच्छेद 15 के तहत एससी और एसटी के लोगों को संरक्षण मिला हुआ है लेकिन फिर भी उनके साथ भेदभाव होता है। सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की बेंच ने ये भी माना कि एससी-एसटी समुदाय के लोगों को अभी भी उत्पीडऩ और भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है, ऐसे में इस कानून को डायल्यूट करने का कोई औचित्य नहीं है। पीठ ने कहा था कि कई मौकों पर, निर्दोष नागरिकों को आरोपी और लोकसेवकों को उनके कर्तव्यों को निभाने से रोका जा रहा है जबकि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम को लागू करते समय विधायिका का ऐसा इरादा कभी भी नहीं था। अदालत ने यह कहा था कि अत्याचार अधिनियम के तहत मामलों में अग्रिम जमानत देने के खिलाफ कोई पूर्ण प्रतिबंध नहीं है, अगर कोई भी प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता या जहां शिकायतकर्ता को प्रथम दृष्टया दोषी पाया जाता है। पीठ ने कहा था कि अत्याचार अधिनियम के तहत मामलों में गिरफ्तारी के कानून के दुरुपयोग के मद्देनजर किसी लोक सेवक की गिरफ्तारी केवल नियुक्ति प्राधिकारी द्वारा अनुमोदन के बाद और एक गैर-लोक सेवक की गिरफ्तारी वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के अनुमोदन के बाद ही हो सकती है।
गौरतलब है कि जब फैसला आया था तब नरेंद्र मोदी सरकार को काफी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था कि वह एससी-एसटी समुदाय के लोगों के हितों की रक्षा नहीं कर रही है।
अगर कोर्ट के पहले फैसले के आलोक में देखें तो पता चलेगा कि वह फैसला समाज के उपेक्षित तबके को न्याय दिलाने के मकसद से था। एक अर्से से यह महसूस किया जा रहा था कि अनुसूचित जाति-जनजाति प्रताडऩा निवारण अधिनियम अर्थात एससी-एससी एक्ट का दुरुपयोग हो रहा है, लेकिन इस बारे में सरकार के स्तर पर कोई पहल इसलिए नहीं हो पा रही थी कि कहीं उसकी मनमानी व्याख्या करके उसे राजनीतिक तूल न दे दिया जाए। इन स्थितियों में इसके अलावा और कोई उपाय नहीं रह गया था कि सुप्रीम कोर्ट हस्तक्षेप करके कुछ ऐसे उपाय करता ताकि यह अधिनियम बदला लेने का जरिया बनने से बचे। हालांकि, अब जबकि कोर्ट ने अपना फैसला बदल दिया है तो सरकार और समाज दोनों की भूमिका बढ़ गई है। सरकार के स्तर पर यह देखना होगा कि किसी का अहित न होने पाए। ऐसी व्यवस्था बनानी होगी, जिससे कोई भी किसी को आधार बनाकर कार्रवाई की तलवार न लटका दे।
दरअसल सरकार और समाज के वंचित तबकों के बीच कुछ समय से एक अविश्वास की स्थिति कायम होती जा रही है। यही अविश्वास किसी को भी जेल भेजने व मुकदमा दर्ज कराने तक पहुंच जाता है। अत: यह समाज की भी जिम्मेदारी है कि वह देखे कि लोगों का अंत: मन इतना शुद्ध हो कि सिर्फ निजी स्वार्थ के लिए वह किसी को न फंसा सके। कोर्ट ने अपना जो फैसला पलटा है, वह एक वंचित समुदाय के हितों को देखते हुए ही। अगर पहले की तरह फर्जी मुकदमे होते गए, तो फिर फैसले को पलटने का कोई आधार नहीं बचेगा और समाज में अविश्वास की खाई और गहरी होती जाएगी।
बूचड़खाना और शाकाहार अंडा
डॉ. अरविन्द प्रेमचंद जैन
इसको कहते हैं एक तीर से दो निशान !जी हाँ दिग्विजय सिंह ने अपने पुत्र मंत्री को पात्र लिखा की जान भावनाओं और धरम को देखते हुए आदमपुर में नगर निगम भोपाल द्वारा निर्मित किया जा रहा बूचड़ खाना का निर्माण नहीं होगा, उसके लिए अन्य जगह देखी जाएँगी। अब भविष्य में कोई स्थान की जरुरत नहीं पड़ेंगी कारण केंद्र सरकार द्वारा की गई शोध के अनुसार भविष्य में प्रयोगशाला द्वारा अहिंसा मीट तैयार किया जा रहा हैं और अब पॉलट्री फॉर्म की भी जरुरत नहीं पड़ेगी कारण अब शाकाहारी अण्डों का भी निर्माण
विज्ञान ने बहुत विकास कर लिया और करता ही जा रहा हैं। नित्य नयी खोज होती जा रही हैं, कहीं जी.एम. बीज, क्लोनिंग बच्चे, बकरी, उसके बाद टेस्ट टियूब बेबी। इसके बाद हमारे आहार पर भी बहुत अधिक आक्रमण हो रहे हैं। हरित क्रांति के कारण उत्पादन बढ़ा और रसायनों के उपयोग से गंभीर बीमारियां ने घेरना शुरू किया। उसके बाद श्वेत क्रांति आयी तो दूध की नदियां बहने लगी और नकली मिलावटी दूध इतना मिलने लगा की इतिहास में जैसे दूध की नदियां भारत में बहती थी। इस क्रांति ने भी बहुत अधिक बीमारियों को बढ़ाया। दोनों क्रांतियों ने मनुष्य को जहरीला बना दिया। आज सांप मनुष्य को काटे तो सांप मर जाता हैं।
कहते हैं की आवश्यकता ही आविष्कार की जननी हैं। भारत के भाग्य विधाताओं यानी नेताओं को लगने लगा की हमारा देश आर्थिक रूप से विपन्न हैं और गरीबी नहीं जा रही या हट नहीं पा रही तो उन्होंने पिंक क्रांति यानी मांस का उत्पादन और निर्यात शुरू की इससे हमारा देश विश्व में मांस,चमड़ा, अंडा मछली के निर्यात में नंबर एक पर हैं, मजेदार बात इससे अरबों, खरबों रुपयों की आमद होती हैं और बिना किसी जानवर को मारे ! क्या यह संभव हैं ?जी हां हैं और अब तो सरकार अन्न की बचत के लिए घरो घर मांस, अंडा भेजने की व्यवस्था कर रही हैं, और मध्यान्ह भोजन में तो कुछ राज्य अंडा दे रहे हैं। यानी अब भविष्य में अहिंसा मीट और शाकाहार अंडा आने वाला हैं। यह सब इसलिए की हमारे देश में कुपोषण हैं उसको दूर करना हैं।
यानि मांस अंडा शाकाहारी होगा इससे सरकार के साथ शाकाहारी लोगों को कोई हिचक नहीं होगी। पहले बिरयानी माँसाहारी समझा जाता था पर अब शाकाहारी बिरयानी मिलने लगा। जैसे हॉट डॉग इसको कभी कभी गरम कुत्ता कह देते तो झगड़ा हो जाता। जैसे पिज़्ज़ा बर्गर आदि के ऍफ़ सी, डॉमिनोज,मैक्डोनाल्ड आदि बेचती हैं जिसमे शुद्ध नॉनवेज होता हैं पर वह शुद्ध सफाई से बनता हैं और कोई कोई कहते हैं की उनका किचिन भी अलग अलग होता हैं और बनाने वाला एक होता हैं उससे दोनों प्रकार के आहारियों को सुविधा होती हैं। यानि शाकाहार और मांसाहार का। अहिंसा के घाट पर गाय और शेर एक साथ खाना का रहे हैं।
चलो अच्छा हो रहा हैं की अहिंसा मीट और शाकाहार अंडा मिलने से कम से कम मंदिरों में नकली मावा की मिठाई तो प्रसाद के रूप में नहीं देना होगी या पड़ेगी। सरकार द्वारा प्रामाणिक
अहिंसा मीट यानि मांस और अंडा शाकाहारी मिलेगा तो कोई भी परेशानी नहीं होगी और उसकी आड़ में शुद्ध मांस और अंडा भी खपने लगेगा। कारण सब एक से दिखेंगे तब किसी को क्या आपत्ति। और इस बहाने नकली और असली बिकेगा।
अब तो खुले आम नकली और असली मांस और अंडे की दुकान खुलेंगी जो सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त रहेंगी। और उसमे जो सस्ता और महंगा होगा उसमे आराम से मिलावट होगी और जन भावनाओं से खिलवाड़ होगा।
ये सब अहिंसा प्रेमियों, और जो पक्के धर्म को पालने वाले हैं उनके साथ धोखा किया जा रहा हैं। भविष्य में इनके क्या क्या दुष्परिणाम होंगे यह कोई नहीं जानता पर हमारे देश में चरित्र और नैतिकता का ह्रास होने से कुछ भी संभवहैं। विज्ञानं की अपनी सीमा हैं और व्यापारियों की असीमित। उनमे धन के पीछे क्या क्या खिला रहे हैं भगवान जाने।
पहली बात मांस अहिंसात्मक नहीं होता और न अंडा शाकाहार होता हैं इसीलिए अहिंसा मांस और शाकाहार अंडा का नामकरण बदला जावें जिससे शाकाहारियों और धर्मभीरु लोग भ्रमित न हो। यह सब नाटक सरकार कुपोषण दूर करने के नाम पर कर रही हैं।
यह देश में अहिंसा की शुरुआत हो गयी हैं,
आज भारत को महात्मा की ज्यादा जरूरत
कमलनाथ
वे लोग महान है जिन्होंने इस धरती पर महात्मा गांधी को देखा और सुना था। महात्मा गांधी जैसा व्यक्तित्व सदियों में जन्म लेता है। महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने सच कहा था कि – आने वाली पीढ़ियाँ शायद ही वह विश्वास करें कि इस धरती पर गांधीजी जैसा हाड़-मांस का पुतला कभी चलता था।
आज पूरा देश गांधी जी की 150वीं जयंती मना रहा है। यह हम सब के लिए अभूतपूर्व अवसर है। सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि भारत जैसे कई देशों के लिए यह विशेष अवसर है क्योंकि महात्मा गांधी एक विश्व नागरिक थे। पूरी दुनिया यह जानकर आश्चर्यचकित थी कि सत्य और अहिंसा के दो दिव्य अस्त्रों के साथ भारत ने अपने नागरिक अधिकारों की लड़ाई कैसे लड़ी और जीती। पहले दक्षिण अफ्रीकामें सत्याग्रह और फिर स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करते हुए महात्मा गांधी विश्व के शीर्ष नेताओं की श्रेणी में गिने जाने लगे थे। इसलिए स्वाभाविक रूप से महात्मा की 150वीं जयंती का वैश्विक महत्व है।
आज हमें महात्मा गांधी को याद करने और उनके दर्शन को समझने की सबसे ज्यादा जरूरत है। वह इसलिए कि भारत सहित विश्व के कई देशों की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थितियों में जो तनाव चल रहा है उसका समाधान गांधी जी के दर्शन में है। नैतिक मूल्यों और मानवीय गरिमा पर जो संकट है उसे दूर करने में गांधीजी मदद कर सकते हैं। धर्म और जाति को लेकर उन्माद की जो स्थिति बन रही हैं उससे बचने का उपाय गांधी जी के विचारों में है। गांधी जी अपने समय से बहुत आगे थे। उनका जीवन शिक्षा देता है कि अच्छे विचारों को अपना लो, बुरे विचार अपने आप दूर हो जायेंगे। विचार कोई शोभा की वस्तु नहीं है, विचार आत्मा की शुद्धि के काम आते हैं। उनसे मानव-कल्याण का काम किया जाता है। आज हमें गांधी जी से बहुत सीखने की जरूरत है, उनका जीवन स्वयं एक पाठशाला है। सत्य की पाठशाला, जहाँ जीवन मूल्यों को समझने, समझाने और व्यावहारिक रूप में अपनाने के तौर-तरीके सिखाये जाते हैं। गांधी दर्शन की पाठशाला अब विश्वविद्यालय का स्वरूप ले चुकी है और सबके लिए हमेशा खुली है। यहाँ सभी धर्मों, जाति और विचारधाराओं के लोग शिक्षा लेने आ सकते हैं। महात्मा गांधी भारत की पहचान है । पूरे विश्व में भारत को गांधी का देश कहते हैं। गांधीजी के बिना भारत की कल्पना अधूरी है। गांधीजी भारत के कण-कण में दर्शनीय है। गांधीजी सर्वोदय आधारित समाज की स्थापना करना चाहते थे । सर्वोदय का सीधा अर्थ है सबका कल्याण । सबकी समृद्धि । वे पर्यावरण को भी जीवंत मानते थे । इसलिए पर्यावरण की रक्षा और विवेकपूर्ण उपयोग की बात करते थे। गांधी जी एक महान शिक्षक भी थे। जिन सर्वश्रेष्ठ और मानव हितैषी विचारों को उन्होंने अपनाया, उनका ईमानदारी से पालन किया। सच्चाई के रास्ते पर चलने के तरीके सिखाए, जो आज पूरी दुनिया के लिए मिसाल है। वे कर्मयोगी, ज्ञानयोगी और भक्तियोगी थे। आज हर समाज चाहता है कि वह कर्म, ज्ञान और भक्ति का समन्वय बने और अपने नागरिकों से इसे अपनाने की अपेक्षा करें। इसलिए गांधी जी के दर्शन में हर धर्म का स्थान और मान-सम्मान है। आज भारत सहित पूरे विश्व में सर्वधर्म समभाव की जरूरत है। सत्य और शांति की स्थापना की जरूरत है। साथ ही व्यक्ति की गरिमा को ठेस पहुँचाए बिना तरक्की करने की जरूरत है। मैं युवाओं से आग्रह करूंगा कि गांधी जी की 150वीं जयंती पर उनके जीवन और उनके लेखन को पढ़ें। महात्मा गांधी का जीवन पढ़ने पर खुद इस सवाल का जवाब भी मिल जाएगा कि पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उनके नहीं रहने पर क्यों कहा था कि ‘हमारे जीवन से प्रकाश चला गया।’ गांधीजी को जितना पढ़ेंगे, उतना हमारा रास्ता आसान होगा। वे कहते थे कि शिक्षा का अर्थ है चारित्रिक दुर्गुणों के प्रति सचेत रहना और उन्हें दूर करना।
गांधी जी को अपनाना आसान है। गांधी के रास्ते पर चलना आसान है, हर नागरिक अपने आप में गांधी हैं। यदि आप सच बोलना और सुनना चाहते हैं, यदि आप आत्म-निर्भर बनने के लिए प्रयत्नशील हैं, यदि हर धर्म का सम्मान करते हैं और शांति चाहते हैं, यदि अपने साथी नागरिकों की गरिमा का सम्मान करते हैं, पर्यावरण की रक्षा और आदर करते हैं, यदि अपने कारीगरों की कला पर गर्व करते हैं और कमजोर का साथ देते हैं, तो समझिए कि आप गांधीजी के दर्शन पर अमल कर रहे हैं। आइए हम सब मिलकर सर्वोदय आधारित भारत बनाने में अपनी भूमिका तय करें और पूरी ईमानदारी से अपने कर्त्तव्य का पालन करें।
ब्लागर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री है
गांधीवाद :जीवन की पाठशाला है
प्रो.शरद नारायण खरे
गांधीवाद महात्मा गांधी के आदर्शों, विश्वासों एवं दर्शन से उदभूत विचारों के संग्रह को कहा जाता है, जो स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बड़े राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेताओं में से थे। यह ऐसे उन सभी विचारों का एक समेकित रूप है जो गांधीजी ने जीवन पर्यंत जिया था।सत्याग्रह उनकी राजनीतिक जीवन शैली का अनिवार्य अंग था ।सत्य एवं आग्रह दोनो ही संस्कृत भाषा के शब्द हैं, जो भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दौरान प्रचलित हुआ था, जिसका अर्थ होता है सत्य के प्रति सत्य के माध्यम से आग्रही होना।गांधीवाद के बुनियादी तत्वों में से सत्य सर्वोपरि है। वे मानते थे कि सत्य ही किसी भी राजनैतिक संस्था, सामाजिक संस्थान इत्यादि की धुरी होनी चाहिए। वे अपने किसी भी राजनैतिक निर्णय को लेने से पहले सच्चाई के सिद्धांतो का पालन अवश्य करते थे।गांधीजी का कहना था “मेरे पास दुनियावालों को सिखाने के लिए कुछ भी नया नहीं है। सत्य एवं अहिंसा तो दुनिया में उतने ही पुराने हैं जितने हमारे पर्वत हैं।”सत्य, अहिंसा, मानवीय स्वतंत्रता, समानता एवं न्याय पर उनकी निष्ठा को उनकी निजी जिंदगी के उदाहरणों से बखूबी समझा जा सकता है।
कहा जाता है कि सत्य की व्याख्या अक्सर वस्तुनिष्ठ नहीं होती। गांधीवाद के अनुसार सत्य के पालन को अक्षरशः नहीं बल्कि आत्मिक सत्य को मानने की सलाह दी गयी है। यदि कोई ईमानदारीपूर्वक मानता है कि अहिंसा आवश्यक है तो उसे सत्य की रक्षा के रूप में भी इसे स्वीकार करना चाहिए। जब गांधीजी प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान स्वदेश लौटे थे तो उन्होंने कहा था कि वे शायद युद्ध में ब्रिटिशों की ओर से भाग लेने में कोई बुराई नहीं मानते। गांधीजी के अनुसार ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा होते हुए भारतीयों के लिए समान अधिकार की मांग करना और साम्राज्य की सुरक्षा में अपनी भागीदारी न निभाना उचित नहीं होता। वहीं दूसरी तरफ द्वतीय विश्वयुद्ध के समय जापान द्वारा भारत की सीमा के निकट पहुंच जाने पर गांधीजी ने युद्ध में भाग लेने को उचित नहीं माना बल्कि वहां अहिंसा का सहारा लेने की वकालत की है।
अहिंसा का सामान्य अर्थ है ‘हिंसा न करना’। इसका व्यापक अर्थ है – किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से कोई नुकसान न पहुँचाना। मन में भी किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी आदि के द्वारा भी पीड़ा न देना तथा कर्म से भी किसी भी अवस्था में, किसी भी प्राणी का कोई नुकसान न करना।
गांधीजी का मानना था कि उपवास व्यक्ति के मन पर सकाराकमक असर डालता है |उपवास व्यक्ति केनशारीरिक अंगों में भी तन्दुरस्ती लाता है|यह अनुकुल परिस्थितियों की रचना भी करता है ।वह अंतर्रात्मा को पवित्र व बलशाली भी बनाता है ।
गाँधी जी के अनसार धर्म और राजनीति को अलग नही किया जा सकता है क्योंकि धर्म मनुष्य को सदाचारी बनने के लिए प्रेरित करता है । स्व धर्म सबका अपना अपना होता है,पर धर्म मनुष्य को नैतिक बनाता है । सत्य बोलना, चोरी नहीं करना, परदु:खकातरता, दूसरों की सहायता करना आदि बातें यही सभी धर्म सिखाते हैं । इन मूल्यों को अपनाने से ही राजनीति सेवा भाव से की जा सकेगी । गाँधी जी आडम्बर और कर्मकांड को धर्म नही मानते और जोर देकर कहते हैं कि मन्दिर मे बैठे भगवान मेरे राम नही है । स्वामी विवेकानंद जी के दरिद्र नारायण की संकल्पना को अपनाते हुए मानव सेवा को ही वो सच्चा धर्म मानते हैं । वास्तव मे उनका विश्वास है कि प्रत्येक प्राणी इश्वर की सन्तान हैं और ये सत्य है; सत्य ही ईश्वर है ।
गांधीवाद स्वदेशी को मानते हुए आम आदमी की खुशहाली तथा सद्भाव की बात करते हुए मानवता व देशप्रेम की बात करता है ।सच में गांधीवाद ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’, ‘जियो और जीने दो’ तथा ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:———-‘के आदर्श की बात करता है ।यही कहूंगा कि-
“जीवन को सद् राह नित,देता गांधीवाद ।
रहे गूंजता नित्य ही,सत्य-अहिंसा नाद ।।
अब कश्मीर का हाल क्या है ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संयुक्तराष्ट्र में मोदी और इमरान के बाद कश्मीर का हाल क्या है ? इमरान खान के भाषण का असर चाहे चीन और तुर्की के अलावा किसी भी राष्ट्र पर न पड़ा हो लेकिन 55 दिन से सोये कश्मीर में अब कुछ न कुछ हलचल मची है। जगह-जगह लोगों ने प्रदर्शन भी किए हैं, हथगोले भी फेंके हैं और आतंकियों ने भी अपने तेवर दिखाए हैं। कुछ लोग मारे भी गए हैं। कई इलाकों में कर्फ्यू दुबारा लगाना पड़ा है। फौजियों की संख्या भी बढ़ाने पर विचार हो रहा है। स्कूल-कालेज खुले हैं लेकिन उनमें कोई दिखाई नहीं पड़ता। दुकानें भी मुश्किल से एक-दो घंटे के लिए खुल पा रही हैं। सड़कों पर भी यातायात लगभग बंद-सा हो गया है। यह सब मुझे देश के प्रमुख अखबारों की खबरों से पता चला है, क्योंकि मोबाइल फोन और इंटरनेट तो बंद पड़े हैं। अखबारों ने कश्मीर की इन खबरों को अपने मुखपृष्ठों पर छापा है। इससे पता चलता है कि भारत में अभी भी अभिव्यक्ति की आजादी कायम है और उसका पूरा-पूरा इस्तेमाल पत्रकार व विरोधी नेता लोग खुले-आम कर रहे हैं। मुझे विश्वास था कि संयुक्तराष्ट्र संघ के दंगल के बाद कश्मीर की घुटन कुछ घटेगी लेकिन अब ऐसा लगता है कि प्रतिबंधों का यह दौर शायद लंबा खिंचेगा। हो सकता है कि यह दिसंबर तक खिंच जाए। जहां तक मुझे खबर है, भारत सरकार के इरादे बिल्कुल नेक हैं। वह कश्मीर में खून की एक बूंद भी बहते हुए नहीं देखना चाहती और कश्मीरियों से खुला संवाद करना चाहती है लेकिन यदि वहां हिंसा होती है और आतंकी सक्रिय होते हैं तो सरकार को मजबूरन सख्ती करनी होगी। यहां संतोष का विषय है कि जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने खुले तौर पर घोषणा की है कि उनकी सरकार अगले कुछ दिनों में ही लगभग 70 हजार नौजवानों को नौकरियां देनेवाली है। यह काम अगले तीन महिने में पूरा हो जाएगा। हर गांव से कम से कम पांच लोगों को नौकरी मिलेगी। सरकारी कंपनी ‘नाफेड’ ने पहली बार 8000 करोड़ रु. के सेब खरीदे हैं और 1100 ट्रक रोज सेब कश्मीर से बाहर ले जाए जा रहे हैं। सेबवालों को उनके सेब के डेढ़े दाम भी दिए जा रहे हैं। अस्पतालों में 55 दिन में 70 हजार आपरेशन और एक लाख लोगों का इलाज किया गया है। बच्चे यदि स्कूलों में नहीं आ रहे हैं तो उन्हें पेन ड्राइव के जरिए पढ़ाने का इंतजाम किया जा रहा है। कश्मीर में उद्योग-धंधे लगाने और पर्यटन को बढ़ाने के लिए कुछ नई पहल भी की जा रही हैं। ये सब काम तो ठीक हैं लेकिन मैं सोचता हूं कि कश्मीरी नेताओं और जनता से भी खुले संवाद की खिड़कियां खोलनी अब जरुरी है। यदि इस पहल को सफलता मिलेगी तो भारत-पाक संवाद के हालत अपने आप तैयार हो जाएंगे।
शाकाहार की ओर बढ़ने लगे लोग
डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन
(1 अक्टूम्बर विश्व शाकाहार दिवस पर विशेष) दुनियाभर में आज शाकाहार दिवस मनाया जा रहा है। खुशी की बात ये है कि दुनिया अब शाकाहार की ओर बढ़ने लगी है पिछले कुछ साल के आंकड़ों पर भरोसा करें तो दुनिया में शाकाहारियों की तादाद बढ़ रही है। हालांकि मांसाहारियों की तुलना में अब भी खासी कम है। इस दिवस पर सभी मानव जाति को शुभकामनाएं ,
बढ़ रहे हैं शाकाहारी
दुनिया में तेजी से प्लांट बेस यानि वनस्पति आधारित खानपान के तौर तरीके बढ़ रहे हैं। लोग इसे तेजी से अपना रहे हैं। ये आंदोलन का रूप ले रहा है, जिसे काफी पसंद भी किया जा रहा है।
दुनिया की सबसे बड़ी फूड फैक्ट्री नेस्ले का अनुमान है, “वनस्पति आधारित खानों का क्रेज अब बढेगा।” एक और कंपनी जस्टइट के सर्वे का कहना है, “दुनिया में 94 फीसदी हेल्दी फूड आर्डर बढा है।” एक अन्य अमेरिकी कंपनी ग्रबहब का डेटा कहता है, “अमेरिका में दुकानों और मॉल्स से हरी सब्जियां ले जाने की संख्या बढ रही है।”
गूगल ट्रेंड्स का सर्च डाटा कहता है, ” वर्ष 2014 से 2018 के बीच दुनियाभर में असरदार तरीके से शाकाहार की ओर लोगों का रुझान बढा है। इजराइल, आस्ट्रेलिया, आस्ट्रिया, कनाडा और न्यूजीलैंड में शाकाहारी बढ़ रहे हैं।”
ग्लोबडाटा की रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार, “अमेरिका में शाकाहारी लोगों में 600 फीसदी की बढोतरी हुई है।” रिपोर्ट कहती है, “वर्ष 2014 में अमेरिका में केवल एक फीसदी लोग शाकाहारी होने का दावा करते थे लेकिन वर्ष 2017 में ये संख्या छह फीसदी हो चुकी है। ब्रिटेन में एक दशक पहले की तुलना में वेजन 350 फीसदी बढे हैं।”
कनाडा में वर्ष 2017 में शाकाहार पर सबसे ज्यादा सर्च हुई। पहली बार कनाडा की नई फूड गाइड का मसौदा तैयार हुआ, इसे कनाडा की सरकार ने 2017 में रिलीज किया, जिसमें हरी सब्जियों और वनस्पति आधारित खानों की पैरवी की गई
हर जगह बढ़ रहा है शाकाहार का बाजार
नीलसन की रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार, पुर्तगाल में पिछले एक दशक में शाकाहारियों की संख्या 400 फीसदी तक बढ़ी है। चीन की सरकार अपने लोगों को मांसाहार के लिए हतोत्साहित कर रही है। उसका कहना है कि मांसाहार की खपत को 50 फीसदी तक कम किया जाना चाहिए।
रिसर्च कहता है कि चीन में शाकाहार का बाजार 17 फीसदी की दर से 2015 से 2020 के बीच बढने की उम्मीद जाहिर की जा रही है। हांगकांग में 22 फीसदी लोग शाकाहारी खाने और हरी सब्जियों की आदत डाल रहे हैं।
आस्ट्रेलिया में वर्ष 2014 से 2016 के बीच 02 फीसदी शाकाहार उत्पाद लांच किए गए। आस्ट्रेलिया दुनिया का तीसरा तेजी से बढ़ता शाकाहार का बाजार है। अमेरिका में फास्ट कैजुअल रेस्टोरेंट एक लाख दस हजार मील हर महीने परोसता है और वो इसे दुनियाभर में फैलाने की योजना बना रहा है। मैकडोनाल्ड्स् ने स्वीडन, फिनलैंड सहित कई देशों में मैकवेजन बर्गर लांच किये हैं। पिज्जा हट ने ब्रिटेन में वेजन चीज पिज्जा पेश किया
फ्रेंड्स ऑफ़ अर्थ नामक संस्था के मुताबिक दुनियाभर में 50 करोड़ लोग ऐसे हैं जो पूरी तरह से शाकाहारी हैं लेकिन तादाद बढ़ रही है। दुनिया के सबसे ज्यादा शाकाहारी भारत में हैं, हालांकि ये आंकड़े पुराने हैं। माना जा रहा है कि वर्ष 2018 में शाकाहार के प्रति सबसे ज्यादा ट्रेंड देखा गया है लिहाजा शाकाहारियों की तादाद भी और बढ़ चुकी होगी।
भारत – 30 से 40 फीसदी शाकाहारी
ताइवान – 14 फीसदी
आस्ट्रेलिया – 11 फीसदी
मैक्सिको – 19 फीसदी
इजराइल – 13 फीसदी
ब्राजील – 14 फीसदी
स्वीडन – 10 फीसदी
न्यूजीलैंड- 10.3 फीसदी
जर्मनी – 10 फीसदी
कितनी तरह के भोजन करने वाले
दुनिया में तीन तरह का भोजन करने वाले लोग हैं। पहले जो मांसाहार करते हैं, यानी नॉन -वेजिटेरिअन . दूसरे जो शाकाहारी हैं- यानी वेजेटेरियंस और तीसरे वो लोग हैं जो शाकाहारी हैं और जानवरों से प्राप्त किए जाने वाले पदार्थ जैसे दूध का सेवन भी नहीं करते। ऐसे लोगों को (वीगन) कहा जाता है।
मांसाहार कम होने पर फायदे
– भोजन में मांसाहार की मात्रा कम करने से दुनिया भर में हर साल करीब 66 लाख 73 हज़ार करोड़ रुपये बचाए जा सकते हैं जबकि ग्रीन गैस उत्सर्जन में कमी आने से 34 लाख करोड़ रुपये बचाए जा सकेंगे।
– कम कैलोरी वाला भोजन करने से मोटापे की समस्या कम होगी। स्वास्थ्य पर लगने वाले खर्च में कमी आएगी।
– फल और सब्ज़ियों का उत्पादन बढ़ने से भारत सहित दक्षिण एशियाई देशों की अर्थव्यवस्था को जबरदस्त फायदा होगा
– अमेरिका की नेशनल अकादमी ऑफ़ साइंसेज के एक नए रिसर्च के मुताबिक, अगर पूरी दुनिया में शाकाहार को बढ़ावा मिले तो धरती को ज्यादा स्वस्थ, ज्यादा ठंडा और ज्यादा दौलतमंद बनाया जा सकता है।
मांसाहार उत्पादन में ज्यादा पानी
– एक अनुमान के मुताबिक जानवरों को पालने के लिए उन्हें जो भोजन दिया जाता है, वो अगर इंसानों को मिलने लगे तो दोगुने लोगों का पेट भर सकता है। इसी तरह मीट प्रोडक्ट्स को खाने की टेबल तक पहुंचाने में सब्जियों के मुकाबले 100 गुना ज़्यादा पानी का इस्तेमाल किया जाता है।
– आधा किलो आलू उगाने में 127 लीटर पानी लगता है जबकि आधा किलो मांस का उत्पादन करने के लिए 9 हज़ार लीटर से ज्यादा पानी बर्बाद होता है जबकि आधा किलो गेंहूं का आटा बनाने में 681 लीटर पानी का इस्तेमाल होता है।
– फ्रेंड्स ऑफ़ अर्थ नामक संस्था के मुताबिक मीट प्रोडक्ट्स पैदा करने के लिए हर साल करीब 6 लाख हेक्टेयर जंगल काट दिए जाते हैं ताकि उस ज़मीन पर जानवरों को पाला जा सके।
– कुल मिलाकर अगर वैज्ञानिक रिपोर्ट्स को आधार बनाया जाए तो ये कहना गलत नहीं होगा हफ्ते में सिर्फ एक दिन के लिए शाकाहार को अपनाकर भी, धरती को बचाने की दिशा में बड़ा कदम उठाया जा सकता है, क्योंकि मांसाहार कम होने से ग्लोबल वार्मिंग में कमी आएगी, और धरती के वातावरण को ठंडा बनाने में मदद मिलेगी।
शाकाहार से भी बनती है मसल्स
शाकाहारी भोजन में मसल्स बनाने के लिए सभी जरूरी पोषक तत्व होते हैं। सब्जियों से मिलने वाली कार्बोहाईड्रेट और वसा बीमारियों से बचाव करती है, साथ ही प्रोटीन से आपकी मसल्स का निर्माण होता है। सब्जियों में शरीर के लिए फायदेमंद विटामिन्स, एंटीऑक्सीडेंट और अमीनो एसिड भी पाया जाता है।
कुछ शाकाहारी खाद्य पदार्थों की जिनके सेवन और वर्क आउट से आप आकर्षक और मजबूत मसल्स पा सकते हैं। प्रोटीन के लिए चना, दाल, बादाम, काजू, अनाज और मटर का सेवन फायदेमंद रहता है। बटरमिल्क भी मसल्स बनाने में मददगार है। छाछ में नाम मात्र की वसा होती है, यह भी मसल्स निर्माण में सहायक है
इतिहास क्या कहता है
शाकाहार के शुरुआती रिकॉर्ड ईसा पूर्व छठी शताब्दी में प्राचीन भारत और प्राचीन ग्रीस में पाए जाते हैं। लेकिन प्राचीनकाल में रोमन साम्राज्य के ईसाईकरण के बाद शाकाहार व्यावहारिक रूप से यूरोप से गायब हो गया।
कौन सा धर्म खानपान पर क्या कहता है
हिंदू धर्म – हिंदू धर्म में शाकाहार को श्रेष्ठ माना गया है। ये विश्वास है कि मांसाहारी भोजन मस्तिष्क और आध्यात्मिक विकास के लिए हानिकारक है। हिंदू धर्म पशु-प्राणियों के अंहिसा के सिद्धांत को भी मानता है। हिंदू शाकाहारी आमतौर पर अंडे से परहेज़ करते हैं लेकिन दूध और डेयरी उत्पादों का उपभोग करते हैं, इसलिए वे लैक्टो-शाकाहारी हैं। हालांकि अपने संप्रदाय और क्षेत्रीय परंपराओं के अनुसार हिंदुओं के खानपान की आदतें अलग होती हैं।
जैन धर्म- ये दृढ तरीके से शाकाहार पर जोर देते हैं। यहां तक शाकाहार में कुछ ऐसी सब्जियां नहीं खाते, जो जड़ की होती हैं, क्योंकि वो इसे पौधों की हत्या के रूप में देखते हैं। वे फलियां और फल खाने पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
बौद्ध धर्म- बौद्ध धर्म शाकाहार पर विश्वास करता है। लेकिन थैरवादी या स्थविरवादी आमतौर पर मांस खाया करते हैं। महायान बौद्ध धर्म में, ऐसे अनेक संस्कृत ग्रंथ हैं जिनमे बुद्ध अपने अनुयायियों को मांस से परहेज करने का निर्देश देते हैं। तिब्बत और जापानी बौद्धों के बहुमत सहित महायान की कुछ शाखाएं मांस खाया करती हैं जबकि चीनी बौद्ध मांस नहीं खाते।
सिख धर्म- सिख धर्म के सिद्धांत शाकाहार या मांसाहार पर अलग से कोई वकालत नहीं करते। भोजन का निर्णय व्यक्ति पर छोड़ दिया गया है। कुछ सिख संप्रदाय से संबंधित “अमृतधारी” मांस और अंडे के उपभोग का जोरदार विरोध करते हैं।
यहूदी धर्म- मांस त्याग की पैरवी करता है और इसे नैतिक तौर पर गलत बताता है। हालाँकि यहूदियों के लिए मांस खाना न आवश्यक है और न ही निषिद्ध।
ईसाई धर्म- मौजूदा ईसाई संस्कृति सामान्य रूप से शाकाहार नहीं है। हालाँकि, सेवेंथ डे एडवेंटिस्ट और पारंपरिक मोनैस्टिक शाकाहार पर जोर डालते हैं।
इस्लाम- व्यक्तिगत तौर पर मांस का स्वाद पसंद न करने वालों को शाकाहार चुनने की आजादी प्रदान करता है।
उपरोक्त आधार के अलावा मानव शरीर की संरचना मांसाहार के लिए नहीं हैं ।शाकाहार यानि शांति कारक और हानि रहित .इसको अपनाने में लाभ हैं ।
आये इस दिन हम संकल्प ले की हम स्वयं शाकाहारी बने और और कम से एक व्यक्ति को शाकाहार बनाने प्रेरित करे। कोई भी शाकाहार परिषद् का सदस्य बन सकता हैं जो पूर्णतया शाकाहारी ,अहिंसा प्रेमी और जीवदया के प्रति दया का भाव रखता हो।
भाजपा अपनी इज्जत बचाए
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भाजपा के पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वामी चिन्मयानंद और उनके कालेज की एक छात्रा के मामले ने भाजपा की छवि को धूल में मिलाकर रख दिया है। जो पार्टी अपनी चाल, चेहरे और चरित्र पर गर्व करती थी, क्या अब वह कहीं अपना मुंह दिखाने लायक रह गई है ? वह छात्रा साल भर से चिन्मय पर आरोप लगा रही है कि उसके साथ वह बलात्कार और मारपीट करता रहा है लेकिन जब तक उसने इन बातों को इंटरनेट पर जग-जाहिर नहीं किया, न तो उप्र की पुलिस ने कोई सुनवाई की और न ही उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कोई ध्यान दिया। जब सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप किया तो चिन्मय के खिलाफ कार्रवाई शुरु तो हुई लेकिन उसे बीमारी के बहाने अस्पताल में आराम फरमाने भेज दिया गया है और दूसरी तरफ पीड़िता के साथ क्या हुआ, वह आप जानें तो आप चकित रह जाएंगे। बलात्कारी अस्पताल में है और बलात्कार—पीड़िता जेल में है। पीड़िता पर जो आरोप है, उसके कुछ प्रमाण पुलिस जरुर पेश करेगी लेकिन वे आरोप क्या हैं ? वे मजाक हैं। पीड़िता और उसके तीन साथियों को जेल में इसलिए डाला गया है कि वे चिन्मय से पैसे मूंडने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने पैसे मूंड लिये हैं, यह आरोप उन पर नहीं है। उधर चिन्मय पर जो आरोप लगाया गया है, जरा आप उसकी चतुराई देखिए। चिन्मय पर उप्र की पुलिस ने जो आरोप लगाया है, वह बलात्कार का नहीं है बल्कि ‘शारीरिक संबंधों के लिए सत्ता के दुरुपयोग’ का है। याने चिन्मय ने बलात्कार किया है या नहीं, यह पता नहीं लेकिन उन्होंने सिर्फ सत्ता का दुरुपयोग किया है। क्या यह मजाक नहीं है ? मुख्यमंत्री आदित्यनाथ एक तरफ ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान चला रहे हैं और दूसरी तरफ उनकी सरकार बलात्कारी बचाओ अभियान चला रही है। यह कितने शर्म की बात है कि एक संन्यासी मुख्यमंत्री है और उसकी नाक के नीचे हिंदू धर्म का संन्यास-जैसा पवित्र आश्रम सारी दुनिया में बदनाम हो रहा है। हिंदुत्व पर गर्व करनेवाली मोदी सरकार का हिंदुत्व क्या यही है ? प्रधानमंत्री को अपनी छवि, भाजपा की छवि, भारत की छवि और संन्यास की छवि की रक्षा करनी हो तो उन्हें इस मामले में तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए। यदि चिन्मय से यह पाप हुआ है तो उसे उसको स्वीकार करना चाहिए और अदालत सजा दे, उसके पहले खुद को खुद कठोरतम सजा दे डालनी चाहिए और यदि वे निर्दोष हैं तो अपनी पवित्रता सिद्ध करने के लिए उन्हें आमरण अनशन करके अपनी जान की बाजी लगा देनी चाहिए।
हिंदी, अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषा का क्या समाधान?
डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन
आज विषय बहुत गंभीर हैं की राष्ट्रभाषा /राजभाषा कौन सी होना चाहिए ? यह भाषा की लड़ाई नहीं हैं यह सबके अस्तित्व की लड़ाई हैं। वैसे सबसे पहले हमें राष्ट्रभाषा हिंदी को प्रथम रखना चाहिए और उसके बाद अंग्रेजी को प्राथमिकता दे। स्थानीय भाषाओँको भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
एक मजेदार बात यह हैं की अन्य प्रदेश के वासी जैसे कन्नड़ ,तमिल ,तेलगु ओड़िया, असमी आदि अनेक स्थानीय और प्रांतीय भाषाई लोग हिंदी के माध्यम से अपनी रोजी रोटी खा रहे और कमा रहे। उदाहरण के लिए हिंदी भाषी फिल्मों में इन प्रांतों द्वारा फिल्मों में काम किया जाता हैं ,और सब लोग हिंदी गानों को मस्ती से सुनते हैं। कभी कभी टेलीविजन में साक्षत्कार आते हैं तब वे हिंदी में बात करते हैं तब वे अंग्रेजी या अपनी भाषा में जबाव देते हैं ,इसका आशय वे हिंदी जानते हैं। आज हिंदी वासी लोग उनके प्रान्त घूमने जाते हैं वे उनकी बात समझते हैं।
एक देश, एक भाषा: गृह मंत्री अमित शाह बोले- कभी किसी क्षेत्रीय भाषा पर हिंदी थोपने की बात नहीं क केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि उन्होंने कभी किसी क्षेत्रीय भाषाओं पर हिंदी थोपने की बात नहीं कही थी। उन्होंने कहा कि इसपर राजनीति की जा रही है। उन्होंने विपक्षी दलों को भी आड़े हाथों लिया।
मैंने कभी किसी क्षेत्रीय भाषा पर हिंदी थोपने की बात नहीं की थी। मैंने एक मातृभाषा सीखने के बाद दूसरी भाषा के तौर पर हिंदी सीखने का आग्रह किया था। मैं खुद एक गैर हिंदी भाषी राज्य गुजरात से आता हूं। अगर कोई व्यक्ति इसपर राजनीति करना चाहता है तो वह उसकी इच्छा है।’
शाह ने अपने हिंदी दिवस के भाषण में कहा था कि अनेक भाषाएं, अनेक बोलियां कई लोगों को देश के लिए बोझ लगती हैं। उन्होंने कहा, ‘मुझे लगता है यह हमारी देश की सबसे बड़ी ताकत हैं। परंतु जरूरत है देश की एक भाषा हो, जिसके कारण विदेशी भाषाओं को जगह न मिले। इसी बात को ध्यान में रखते हुए हमारे पुरखों और स्वतंत्रता सेनानियों ने राजभाषा की कल्पना की थी और राजभाषा के रूप में हिंदी को स्वीकार किया था।’
गृह मंत्री द्वारा ऐसा कोई कथन नहीं किया गया जहाँ विरोध हो पर हमने जो अंग्रेजी को सर्वोच्च प्राथमिकता दे रखी उस पर चिंतन जरूरी हैं। इसके लिए जरूरी यह होगा की हमें अपने सरकारी तंत्र जैसे संसद ,न्यायलय और अन्य क्षेत्रों में हिंदी को प्राथमिकता दे.हिंदी को राष्ट्रभाषा होना चाहिए जिससे हम अपने आप गौरवान्वित हो सके उसके बाद अन्य भाषाओं को भी अन्य भाषी सीखे और उनके साहित्य से अवगत हों.
इस विषय पर अन्य भाषायी यदि विवाद करते हैं तो यह उचित नहीं हैं ,यदि बहुलता को देखे और उसके बाद उसकी उपयोगिता को समझे तो कुछ निर्णय निकल सकता हैं। भाषा से कोई परेशानी नहीं पर किसी को इसका दर्ज़ा देना जरूरी हैं। अंग्रेजी से भी कोई विरोध नहीं हैं ,वह संपर्क का सशक्त माध्यम हैं उससे इंकार नहीं किया जा सकता हैं।
भाषा एक ऐसा रोग बन गया हैं
जिसे असाध्य कहा जा सकता हैं
या हो गया
असाध्यनि प्रति नास्ति चिंता
हर साल ऐसी ही रस्म अदायगी
और हम इंडिया से भारत नहीं हो पाएंगे।
लोकतंत्र को मजबूत करने वाला फैसला
विवेक तन्खा
ब्रिटेन के इतिहास में पहली बार तब संवैधानिक संकट की स्थिति बन गई तब वहां के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने संसद को पांच हफ्ते के लिए निलंबित करने का सुझाव दिया। ब्रिटेन की महारानी को दिये गये इस सुझाव के पीछे उनका मंतव्य यूरोपियन युनियन से बाहर होने के लिए होने वाली डील पर बहस से बचना था। उन्होंने यह भी कहा कि इस दौरान उनकी सरकार की नीतियां महारानी के भाषण के जरिये सामने रखी जाएंगी। जॉनसन के इस फैसले की तत्काल चौरफा आलोचनाएं शुरू हो गईं। ब्रिटेन के राजनेताओं ने इस फैसले को लोकतंत्र पर आघात बताया। उनका कहना था कि जॉनसन गैर कानूनी तरीके से संसद को ब्रेगि्जट यूरोपियन यूनियन से अलग होने का फैसला) की तारीख से बिल्कुल पहले रद्द करवा दिया है। ताकि संसद के बिना डील के ब्रेगि्जट की उनकी योजना पर बहस करके बावजूद ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने अपना फैसला वापस लेने से इंकार कर दिया।
उल्लेखनीय है कि ब्रिटेन आने वाले 31 अक्टूबर को 28 देशों के समूह यूरोपियन यूनियन को छोड़ने वाला है। संसद को सस्पेंड करने के फैसले के बाद विपक्षी दलों ने जॉनसन पर महारानी को गुमराह करने का आरोप लगाया था, जिनकी अनुमति संसद को निलंबित करने के लिए अनिवार्य होती है। इस तरह ब्रिटेन में एक संवैधानिक संकट खड़ा हो गया। फैसले को इंग्लैड के हाईकोर्ट में चुनौती दी गई। लेकिन इस अदालत ने मामले की सुनवाई करने से यह कहकर मना कर दिया कि यह मामला न्यायालय में सुनवाई के दायरे से बाहर है।
आखिरकर मामला ब्रिटेन की सुप्रीम कोर्ट पहुंचा गया। वहां एक सप्ताह के भीतर मामला सूचीबद्ध हो गया। इस मामले की सुनवाई के लिए शीघ्र ही 11 जजों की एक पीठ बना दी गई। मामले की सुनवाई दो दिन चल चली। और फिर जल्द ही सुनवाई दो दिन तक चली और फिर जल्द ही फैसला सुना दिया गया।
अदालत ने प्रधानमंत्री जानसन के फैसले को गलत करार दिया। अदालत ने कहा कि प्रधानमंत्री ने संसद को अपने कर्तव्य का फैसला बहुत ही संक्षिप्त था लेकिन दमदार था, अब सवाल यह है कि ब्रिटेन की सुप्रीम कोर्ट का फैसला क्या लोकतंत्र की रक्षा के संदर्भ में भारतीय सुप्रीम कोर्ट के लिए मिसाल हो सकता है?
अब तक का इतिहास इस बात का गवाह रहा है कि भारत की सर्वोच्च अदालत निश्चित दायरे में काम करती रही है। बात यदि दल बदल कानून से संबंधित हो तो भी अदालत ऐसे में सदन के अध्यक्ष के फैसले को तरजीह देती है। देश में ऐसे ही अनेक मामले उठते रहते है, लेकिन अदालत आमतौर पर संसद के फैसलों को गलत नहीं ठहराती।
मुझे आपातकाल के दौर की याद आती है। तब देश के सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के तहत मिले जीवन जीने और निजता के अधिकार को अस्वीकार कर दिया था। 1976 में सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की एक पीठ ने आपातकाल के दौरान यह फैसला दिया था कि आपातकाल के समय व्यक्ति के मिले जीवन और निजता के अधिकार को वापस लिया जा सकता है। यह फैसला कांग्रेस के उस कदम के समर्थन में था जिसे सरकार अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों के विरुद्ध इस्तेमाल कर सकती है।
तत्कालीन भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) जसि्टस ए. एन. रे की अध्यक्षता वाली पांच जजों की इस पीठ में जस्टिस एच आर खन्ना. जस्टिस एच आर बेग, जस्टिस एम एच बेग, जस्टिस वाई वी चंद्रचूढ़ और जस्टिस पीएन भगवती शामिल थे। इस फैसले से केवल जस्टिस एच आर खन्ना असहमत थे। उन्हें अपनी इस असहमति की कीमत भी चुकानी पड़ी थी। इस फैसले के बाद सीजेआई के पद पर नियुक्ती के दौरान जस्टिस खन्ना की वरिष्ठता को दरकिनार कर दिया गया। उनकी जगह जस्टिस एमएच बेग को सीजेआई जस्टिस जे एस खेहर की अध्यक्षता वाली पीठ में जस्टिस डीवाई चंद्रचूढ़ भी शामिल थे। जो सुप्रीम कोर्ट के 1976 के में शामिल रहे जस्टिस वाई वी. चंद्रचूढ़ के पुत्र हैं।
देश के सुप्रीम कोर्ट के फैसले अपने आप में यह बताते हैं कि उसकी स्थिति क्या है। भारत में फैसले प्रधानमंत्री कैबिनेट के साथ राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से करते हैं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के लिए उसके फैसलों को उस तरह से पलटना संभव नहीं होता। जैसे कि ब्रिटेन में सरलता से हो जाता है। बहुत से मामले हैं, जिन्हें देखकर लगता है कि उनमें सुप्रीम कोर्ट को सीधे तौर पर हस्तक्षेप करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट कहता है कि कानून बनाने का काम सरकार का है, वह तो केवल समीक्षा कर सकता है। हां, .यह कह सकते हैं कि ब्रिटेन की सुप्रीम कोर्ट ने जिस सफलता से सरकार के विरोध में फैसला करने की हिम्मत दिखाई, वैसी भारत की सुप्रीम कोर्ट को करनी चाहिए लेकिन जरूर तो नहीं सुप्रीम कोर्ट सरकार के हर फैसले से असहमत ही हो। यह उसकी सोच पर निर्भर करता है।
– 31 अक्टूबर को 28 देशों के समूह यूरोपियन यूनियन को छोड़ने वाला है। संसद को सस्पेंड करने के फैसले के बाद विपक्षी दलों ने जॉनसन पर महारानी को गुमराह करने का आरोप लगाया था, जिनकी अनुमति संसद को निलंबित करने के लिए अनिवार्य होती है।
(राज्यसभा सदस्य, प्रदेश के एडिशनल सॉलिस्टर जनरल रहे)
ट्रंप की नोबेल की चाह
सिद्धार्थ शंकर
अभी कुछ दिन पहले जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने संयुक्त राष्ट्र में खुद को नोबेल पुरस्कार न मिलने को लेकर नाखुशी जाहिर की थी, तब बहुत से लोगों ने इसे ट्रंप की फितरत से जोड़कर देखा था और कहा था कि ट्रंप इसी तरह की बातें करने के लिए विख्यात हैं। मगर जानकारों का कहना है कि ट्रंप की यह पीड़ा न तो चर्चा में बने रहने के लिए थी और न ही माहौल को हल्का करने के लिए। ट्रंप वाकई चाहते हैं कि उन्हें नोबेल पुरस्कार दिया जाए। ट्रंप के अब तक के कार्यकाल को देखें तो पता चलेगा कि उन्होंने न सिर्फ काम करने का एजेंडा सेट किया, बल्कि उसी के मुताबिक चले भी। जहां जरूरत थी वहां भी और जहां जरूरत नहीं थी, वहां भी उन्होंने अपनी टांग फंसाई। नतीजा यह निकला कि कहीं उनकी कोशिशों को सराहा गया तो कहीं खारिज किया गया। अपनी इसी नीतियों के चलते वे विवादित भी कहलाए। नोबेल पुरस्कार पाने की ख्वाहिश पाले ट्रंप को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक सबसे मुफीद समय लग रहा है। कश्मीर को लेकर पिछले कुछ माह से आ रहे ट्रंप के बयानों ने पटकथा लिखने का काम किया। ट्रंप जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र की बैठक में दुनियाभर के राष्ट्र प्रमुख आएंगे और उनकी कोशिशों को सराहेंगे।
ट्रंप लगातार कश्मीर को लेकर स्टैंड बदल रहे हैं। कभी वे पाकिस्तान के साथ खड़े होते हैं, तो कभी भारत के साथ। तो कभी दोनों को ही नसीहत देने की भूमिका में आ जाते हैं। ट्रंप के अब तक के बयानों को देखें तो जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री उनसे मिलने अमेरिका गए तो उन्होंने यहां तक कह दिया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनसे कश्मीर पर मध्यस्थता करने की बात की थी, इसलिए वे यह करने को तैयार हैं। विवाद बढ़ा तो अमेरिका में हर स्तर पर ट्रंप का बयान खारिज किया गया। विदेश मंत्रालय को बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस कर कहना पड़ा कि मोदी ने ट्रंप से इस आशय की कोई बात नहीं की। अब जबकि मोदी संयुक्त राष्ट्र की बैठक में पहुंचे तो ट्रंप कहने लगे कि जब तक भारत तैयार नहीं होगा तब तक वे मध्यस्थता की कोशिश नहीं करेंगे। भारत अकेले ही इस समस्या को सुलझा सकता है। इस बयान को 48 घंटे भी नहीं हुए थे कि अब ट्रंप फिर से भारत और पाकिस्तान को कश्मीर मुद्दा हल करने की नसीहत देने लगे हैं। नोबेल पाने की ट्रंप की चाह उन्हें सिर्फ कश्मीर लेकर नहीं जा रही। इससे पहले वे उत्तर कोरिया तक भी पहुंच बना चुके हैं। खतरनाक हथियारों की होड़ में जुटे उत्तर कोरिया के शासन किम जोंग के साथ ट्रंप तीन बार बात कर चुके हैं, मगर अब तक किम की सोच बदल नहीं पाए हैं। इसीलिए वे फिर से भारत और पाकिस्तान को टारगेट करने पर लगे हैं। हालांकि, भारत कह चुका है कि कश्मीर उसका अंदरूनी मामला है और इसमें किसी तीसरे पक्ष की भूमिका मंजूर नहीं है। ऐसा नहीं है कि भारत का यह पक्ष पहली बार आया है। समस्या के पहले दिन ेसे भारत मध्यस्थता को खारिज करता रहा है। अब ट्रंप इसे मानें या नहीं, मगर इतना तो तय है कि भारत उनकी बातों को तवज्जो नहीं देगा। बेहतर है कि वे पाकिस्तान पर जोर दिखाएं और उसे पीछे हटने को कहें। शायद ऐसा कर ट्रंप नोबेल पाने के हकदार हो जाएं। जहां तक बात भारत की है, वह ट्रंप की मंशा कामयाब नहीं होने देगा।
क्या-क्या अदाएं हैं हमारे ट्रंपजी की
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
ह्यूस्टन में नरेंद्र मोदी और डोनाल्ड ट्रंप की संयुक्त सभा ने जो जलवा पैदा किया है, उससे इन दोनों नेताओं के अंदरुनी और बाहरी विरोधी-सभी हतप्रभ हैं। दोनों नेता प्रचार-कला के महापंडित हैं। दोनों एक-दूसरे के गुरु-शिष्य और शिष्य-गुरु हैं। लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनीति का विद्यार्थी होने के नाते मैं कल जिस अदृश्य तथ्य को समझ रहा था और जिसके बारे में पहले भी लिख चुका हूं, अब वही होने जा रहा है। दो देशों के नेता परस्पर कैसा भी व्यवहार करें लेकिन उन दोनों देशों के संबंधों का निर्धारण उनके राष्ट्रहित ही करते हैं। ट्रंप ने ह्यूस्टन में मोदी और भारत के लिए तारीफों के पुल बांध दिए लेकिन क्या यही उन्होंने इमरान खान के साथ नहीं किया ? कल जब इमरान उनसे न्यूयार्क में मिले तो उनकी हर अदा ऐसी थी, जैसे कि वे भारत और पाकिस्तान में कोई फर्क ही नहीं करते। जो लोग ह्यूस्टन की नौटंकी देखकर फूले नहीं समा रहे थे, वे ट्रंप की इस अदा से पंचर हो गए। ट्रंप ने मोदी और इमरान दोनों को महान बताकर भारत-पाक के बीच मध्यस्थता करने का राग दुबारा अलाप दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने ह्यूस्टन में मोदी के भाषण को काफी ‘आक्रामक’ बता दिया। यह तो उन्होंने पत्रकारों को बताया लेकिन पत्रकारों को जो पता नहीं है याने इमरान को, पता नहीं, उन्होंने क्या-क्या उल्टा-सीधा घुमाया होगा जबकि ह्यूस्टन में मोदी ने पाकिस्तान के खिलाफ किसी आक्रमक शब्द का इस्तेमाल तो किया ही नहीं, घुमा-फिराकर उसका नाम लिये बिना उसकी कुछ आक्रमक प्रवृत्तियों का और उसकी मुश्किलों का जिक्र किया। जबकि खुद ट्रंप महाशय ने ‘इस्लामिक टेररिज्म’ शब्द का इस्तेमाल किया। याने तालियां बजवाने के खातिर ट्रंप कुछ भी बोल सकते हैं। ट्रंप के इस तेवर का साफ-साफ विरोध इमरान खान ने ‘कौंसिल आॅफ फारेन रिलेशंस’ (न्यूयार्क) के अपने भाषण में कर दिया। इमरान को ट्रंप का रवैया इतना अजीब लगा है कि उन्होंने यहां तक कह डाला कि (ट्रंप को क्या पता नहीं है कि) ‘इस्लाम सिर्फ एक प्रकार का है। वह नरम या गरम नहीं है।’ जब ट्रंप और इमरान संयुक्तराष्ट्र संघ भवन में पत्रकारों के साथ खड़े थे तो ट्रंप अपनी ही हांकते चले जा रहे थे। बेचारे इमरान खान चुपचाप खड़े रहे। ट्रंप ने कश्मीर के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा। जब पत्रकारों ने उनसे पूछा कि आतंकवाद के हिसाब से क्या पाकिस्तान सबसे खतरनाक देश नहीं है तो उन्होंने झट से ईरान का नाम ले दिया। वे भारत और पाकिस्तान दोनों को खुश करने में लगे हुए हैं। देखना यह है कि वे भारत-अमेरिका व्यापार के उलझे हुए सवालों पर क्या रवैया अपनाते हैं। ट्रंप अमेरिका को बार-बार दुनिया का सबसे बड़ा महाशक्ति राष्ट्र घोषित करते रहते हैं तो फिर क्या वजह है कि वह सारे दक्षिण एशिया को महासंघ के एक सूत्र में बांधने का व्रत क्यों नहीं लेते ? सिर्फ अमेरिका के संकीर्ण और क्षुद्र स्वार्थों को सिद्ध करने में ही वे लीन क्यों हैं ?
पूरे देश के लिये एक दर्जन सरकारी बैंक काफी हैं
अजित वर्मा
अभी हाल ही में 10 बैंकों का विलय करके चार बैंक बना दिये जाने के फैसले को लेकर बैंकिंग जगत में नयी हलचल मची है। वित्त सचिव राजीव कुमार ने कहा है कि सार्वजनिक क्षेत्र के 10 बैंकों का विलय कर चार बैंक बनाने से बैंकों के एकीकरण की प्रक्रिया लगभग पूरी हो गई है। आकांक्षी और नए भारत की जरूरतों को पूरा करने के लिए 12 सार्वजनिक बैंकों की संख्या बिल्कुल उचित है।
इस एकीकरण के पूरा होने के बाद देश में राष्ट्रीयकृत बैंकों की संख्या घटकर 12 रह जाएगी। 2017 से यह 27 थी। वित्त सचिव दोहरा रहे हैं कि बैंकों की यह संख्या देश की जरूरत के हिसाब से पूरी तरह उचित है। सरकार ने 30 अगस्त को सार्वजनिक क्षेत्र के 10 बैंकों का एकीकरण कर चार बैंक बनाने की घोषणा की थी। सरकार के इस फैसले से 5,000 अरब डॉलर की अर्थव्यवस्था के लक्ष्य को पान में मदद मिलेगी। अगले चरण की वृद्धि को समर्थन के लिए देश को बड़े बैंक की जरूरत है। बैंकों के विलय की जो बड़ी घोषणा हुई है उससे इसमें मदद मिलेगी। अब हमारे पास छह विशाल आकार के बैंक होंगे। इन बैंकों का पूंजी आधार, आकार पैमाना और दक्षता उच्चस्तर की होगी।
वित्त सचिव कुमार ने बैंकिंग क्षेत्र के बहीखातों को साफ-सुथरा बनाने के अभियान की अगुआई की है। उनके कार्यकाल में कई चीजें पहली बार हुई हैं। बैंकिंग इतिहास में उनमें सबसे अधिक पूंजी डाली गई है। इसी तरह पहली बार बैंक ऑफ बड़ौदा की अगुआई में तीन बैंकों का विलय हुआ है। बैंकों की बहीखातों को साफ-सुथरा करने की प्रक्रिया के अब नतीजे सामने आने लगे हैं।
चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में 18 में से 14 सार्वजनिक बैंकों ने लाभ दर्ज किया है। इससे पहले इसी साल विजया बैंक और देना बैंक का बैंक आफ बड़ौदा में विलय हुआ। इससे देश का दूसरा सबसे बड़ा सरकारी बैंक अस्तित्व में आया। अप्रैल 2017 में भारतीय स्टेट बैंक में पांच सहायक बैंकों – स्टेट बैंक ऑफ पटियाला, स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एंड जयपुर,स्टेट बैंक ऑफ मैसूर, स्टेट बैंक ऑफ त्रावणकोर और स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद व भारतीय महिला बैंक का विलय हुआ। यह तय हो गया है कि अब आगे बैंकों का विलय नहीं होगा और मौजूदा 12 सरकारी बैंक ही देश की संपूर्ण बैंकिंग व्यवस्था को सम्हालेंगे।
मोदी और ट्रंप बम-बम
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह अमेरिका-यात्रा उनकी पिछली सभी अमेरिका-यात्राओं से अधिक महत्वपूर्ण और एतिहासिक मानी जाएगी। इसलिए कि संयुक्तराष्ट्र संघ की महासभा के अधिवेशन में भाग लेने के लिए सौ-सवा-सौ राष्ट्राध्यक्ष हर साल न्यूयार्क पहुंचते हैं लेकिन उनमें से ज्यादातर अमेरिकी राष्ट्रपति से हाथ तक नहीं मिला पाते हैं जबकि मोदी इस यात्रा के दौरान उनसे कई बार बात करेंगे और मिलेंगे। ह्यूस्टन में प्रवासी भारतीयों की जो विशाल जन-सभा हुई है, वह एतिहासिक है, क्योंकि पहली बात तो यह कि अमेरिका का कोई भी नेता इतनी बड़ी सभा अपने दम पर नहीं कर सकता। दूसरी बात, यह कि यह शायद पहला मौका है, जब कोई अमेरिकी राष्ट्रपति किसी अन्य देश के प्रधानमंत्री के साथ इस तरह की जनसभा में साझेदारी कर रहा हो। तीसरी बात यह कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने भाषण में ‘इस्लामी आतंकवाद’ और सीमा-सुरक्षा के सवाल उठाकर सभा में उपस्थित 50-60 हजार लोगों का ही नहीं, भारत और दुनिया के करोड़ों टीवी दर्शकों का दिल जीत लिया। अमेरिका के जो प्रवासी भारतीय कट्टर डमोक्रेट हैं और ट्रंप की मजाक उड़ाते रहते हैं, वे भी मंत्र-मुग्ध थे। दोनों नेताओं के भाषण सुनकर ऐसा लगा कि वे अपनी-अपनी चुनावी-सभा में बोल रहे हैं। मोदी ने ट्रंप के दुबारा राष्ट्रपति बनने का भी समर्थन कर दिया। मोदी ने लगे हाथ समस्त गैर-हिंदीभाषियों को भी गदगद कर दिया। उन्होंने कई भारतीय भाषाओं में बोलकर बताया कि ‘भारत में सब कुशल-क्षेम है।’ वह है या नहीं है, यह अलग बात है लेकिन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के हिंदीवाले बयान को लेकर गलतफहमी फैलानेवाले कई भारतीय नेताओं के गाल पर मोदी ने प्यारी-सी चपत भी लगा दी। पाकिस्तान का नाम लिये बिना मोदी और ट्रंप ने यह स्पष्ट कर दिया कि इमरान की इस अमेरिका-यात्रा का हश्र क्या होनेवाला है। क्या कोई पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इस तरह की संयुक्त जन-सभा अमेरिका में आयोजित करने की कल्पना कर सकता है ? हां, खबरें कहती हैं कि ह्यूस्टन की सभा के बाहर एक पाकिस्तानी मंत्री के सानिध्य में पाकिस्तान के कुछ प्रवासियों और सिखिस्तान समर्थकों ने नारेबाजी भी की लेकिन इस एतिहासिक जनसभा के अलावा मोदी ने वहां कश्मीरी पंडितों, सिखों और दाउदी बोहरा प्रतिनिधि मंडलों से भी भेंट की। इसके अलावा मोदी के ह्यूस्टन-प्रवास की एक महत्वपूर्ण घटना यह भी है कि भारत की गैस और तेल की आपूर्ति के लिए अमेरिका की 17 बड़ी कंपनियों के कर्णधारों से भी बात की। एक और भी काम हुआ है, जिससे हर भारतीय का सीना गर्व से फूल सकता है। भारतीय कंपनी पेट्रोनेट अब ह्यूस्टन में 2.5 बिलियन डालर का निवेश करेगी ताकि उसे अगले 40 साल तक 50 लाख मीट्रिक टन गैस हर साल अमेरिका से मिलती रहे।
बड़ी तेजी के साथ बढ़ रहा है राज्यों का राजकोषीय घाटा
सनत जैन
आर्थिक मंदी और केंद्र सरकार द्वारा बजट में टैक्स के रूप में उपकर लगाकर, जो वसूली की जा रही है। उससे राज्यों की स्थिति, दिनों दिन काफी खस्ता हालत होती जा रही है। केंद्र सरकार ने पिछले दो केंद्रीय बजट में पेट्रोल और डीजल में उपकर के रूप में उत्पाद शुल्क बढ़ाया है। उसका कोई भी लाभ राज्यों को नहीं मिल पा रहा है। उपकर के रूप में जो राशि सरकारी खजाने में आती है, वह पूरी की पूरी केंद्र सरकार के पास पहुंचती है।
42 फ़ीसदी का झुनझुना
केंद्र सरकार ने 14वें वित्त आयोग के फार्मूले के अनुसार राज्यों को केंद्र को मिलने वाली राशि का 42 फ़ीसदी हिस्सा राज्यों को देने का फार्मूला बनाया था। पिछले वर्षों के केंद्रीय बजट में केंद्रीय कर सीधे नहीं उपकर के रूप में वसूल करने का नया फार्मूला केंद्र सरकार ने निकाला है । पिछले 2 वर्षों में पेट्रोल और डीजल आयकर अथवा अन्य मामलों में उपकर के रूप में शुल्क बढ़ाया गया है। जिसका लाभ राज्यों को नहीं मिल पा रहा है। जिसके कारण राज्यों का आर्थिक संकट बढ़ रहा है।
नोटबंदी और आर्थिक मंदी के कारण जो संकट उत्पन्न हुआ है। उसमें जीएसटी से जो आए बढ़नी चाहिए थी वह राज्यों की नहीं बढ़ पा रही है। जिसके कारण कई राज्यों की स्थिति बहुत खराब हो गई है। हाल ही में केंद्र सरकार ने कारपोरेट कर में जो कमी की है। उसका नुकसान भी राज्यों को उठाना पड़ेगा है क्योंकि राज्यों की 42 फ़ीसदी हिस्सेदारी होने से उन्हें आर्थिक नुकसान होगा।
रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया से सरकार को 1.76 लाख करोड़ रुपयों का जो लाभांश प्राप्त हुआ है । इसका लाभ भी राज्यों को नहीं मिलना है। अतिरिक्त राजस्व के रूप में यह केंद्र सरकार के खजाने में ही जाएगा।
15वें वित्त आयोग के चेयरमैन एनके सिंह ने सभी राज्यों से वस्तु एवं सेवा कर जीएसटी के राजस्व को बढ़ाने का अनुरोध किया है। जबकि स्थिति ठीक इसके विपरीत है। आर्थिक मंदी के कारण जीएसटी की आय में कोई वृद्धि नहीं हो पा रही है। उल्टे कई राज्यों में पिछले वर्ष की तुलना में कम राजस्व इकट्ठा हुआ है। 2022 तक केंद्र सरकार को जीएसटी में होने वाले नुकसान की भरपाई राज्यों को करनी है। केंद्र सरकार को वर्ष 2022 तक जीएसटी में यदि कोई कमी होती है, तो 14 फ़ीसदी प्रतिवर्ष की वृद्धि के साथ राज्यों को भरपाई करनी है। केंद्र एवं राज्य सरकारें लगातार प्रयास कर रहे हैं कि जीएसटी से प्राप्त होने वाला राजस्व बढ़े, किंतु आर्थिक मंदी के कारण कर राजस्व बढ़ने की स्थान पर और कम हो रहा है, जिससे राज्यों की आर्थिक स्थिति बड़ी तेजी के साथ खराब हो रही है।
अप्रैल से जुलाई माह के पहले 4 माह में जिन राज्यों का राजस्व घाटा बढ़ा है। उनमें आंध्र प्रदेश 59.3 राजस्थान 35.5, पंजाब 12.5 कर्नाटक 12.3 गुजरात 8, केरल 7.6 तथा हरियाणा को 6.1 का नुकसान उठाना पड़ा है। महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भी कर राजस्व में कमी आई है। इसके अतिरिक्त छत्तीसगढ़ उड़ीसा तमिलनाडु, हिमाचल प्रदेश तेलंगाना, उत्तर प्रदेश तथा पश्चिम बंगाल भी कर राजस्व की कमी से जूझ रहे हैं।
आर्थिक मंदी को देखते हुए औद्योगिक एवं व्यापारिक जगत के लोग केंद्र एवं राज्य सरकारों से राहत की मांग कर रहे हैं। किंतु केंद्र एवं राज्य सरकार की ऐसी स्थिति नहीं है, कि वह राहत प्रदान कर सकें। जीएसटी के राजस्व में वृद्धि नहीं होने के कारण केंद्र एवं राज्य सरकारों के समक्ष गंभीर आर्थिक संकट खड़ा हो गया है। राजकोषीय घाटे से निपटने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों को जहां अपनी आय बढ़ानी होगी वही अपने खर्चों को संतुलित कर बजट घाटे को नियंत्रित करना पड़ेगा।
केंद्र एवं राज्यों के संबंध में तल्खी
केंद्र सरकार ने पिछले दो बजटों में पीछे के रास्ते (सेस- उपकर के माध्यम ) से टैक्स बढ़ाने का काम किया है जिसके कारण राज्यों को दोहरा नुकसान हो रहा है. केंद्र सरकार ने पेट्रोल डीजल और अन्य चीजों पर उपकर बढ़ाकर, केंद्र के खजाने को भरने का काम किया है। उपकर से एकत्रित की गई राशि पर राज्यों का कोई अधिकार नहीं होने से, राज्यों को आर्थिक दृष्टि से नुकसान उठाना पड़ रहा है। राज्यों का केंद्र पर दबाव पड़ना शुरू हो गया है। ऐसी स्थिति में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण कैसे निपटती हैं। यह देखना होगा। जिस तरह की आर्थिक ती स्थिति पिछले 4 महीनों में सामने आई है। उससे गैर भाजपा शासित प्रदेशों के साथ-साथ भाजपा शासित राज्य भी आर्थिक संकट का शिकार हो रहे हैं। कर्नाटक और गुजरात राज्य भी उसमें शामिल हैं। केंद्र सरकार द्वारा राज्यों को दी जाने वाली 42 फ़ीसदी हिस्सेदारी की भरपाई करने की के लिए उपकार के रूप में जो राजस्व केंद्र सरकार द्वारा वसूला जा रहा है। उसमें राज्यों को हिस्सा नहीं मिलने से अब राज्यों की आर्थिक स्थिति खस्ता हाल में पहुंच गई हैं। केंद्र सरकार द्वारा पिछले वर्षों में केद्रीय योजनाएं कम करने तथा केंद्रीय योजना की राशि में कटौती करने से भाजपा शासित राज्य भी त्राहिमान त्राहिमान कर रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के भय से वह मौन अवश्य हैं। इससे राज्यों में भाजपा की लोकप्रियता का ग्राफ गिरने लगा है। विरोध बढ़ने लगा है। यह चिंता का विषय है।
गरीबों के लिए सार्वजनिक सेवाओं में बदलाव
नरेन्द्र सिंह तोमर
सार्वजनिक सेवाओं की सुविधाजनक, आसान और विश्वसनीय प्रणाली तैयार करने का कार्य अक्सर इस आधार पर छोड़ दिया जाता है कि यह सब निजी क्षेत्र कर लेगा क्योंकि सार्वजनिक व्यवस्थाओं से गुणवत्तापूर्ण सेवाओं की प्रदायगी कराना कठिन ही नहीं, लगभग असंभव है। भारत जैसे विशाल देश में सर्वाधिक वंचित परिवारों तक जरूरी सेवाओं की समता और न्याय आधारित प्रदायगी अनिवार्य रूप से लाभार्थियों के साक्ष्य-आधारित चयन, भलीभांति किए गए अनुसंधान के आधार पर नीतिगत उपायों, (जिनमें समय पर सुधारात्मक कार्यों का प्रावधान हो), सूचना – प्रौद्योगिकी से जुडे संसाधनों की उपलब्धता और उनके पूर्ण उपयोग के जरिए मानवीय हस्तक्षेप को कम से कम करने, और अन्य के साथ-साथ संघीय संरचना में काम करने वाली विभिन्न एजेंसियों के साथ ठोस तालमेल पर निर्भर करती है। बुनियादी ढांचागत कमियों, विस्तृत भौगोलिक क्षेत्रों और देश के कई दुर्गम भूभागों में दूर-दूर बसी विरल आबादी को ध्यान में रखते हुए यह कार्य और भी जरूरी हो जाता है। वास्तव में इतने बड़े पैमाने पर अपेक्षित सेवाओं की संकल्पना, योजना तैयार करना और सेवाएं प्रदान करना गैर-सरकारी एजेंसियों के लिए असंभव है। हालाँकि निजी क्षेत्र और स्थानीय/राज्य स्तरों पर कुछ उल्लेखनीय उपलब्धियां प्राप्त हुई हैं। तथापि, “सबका साथ सबका विकास” के व्यापक फ्रेमवर्क में “सभी के लिए आवास”, “सभी के लिए स्वास्थ्य”, “सभी के लिए शिक्षा”, “सभी के लिए रोजगार” जैसे महत्त्वाकांक्षी राष्ट्रीय लक्ष्यों की पूर्ति और “नए भारत” का स्वप्न साकार करने के लिए सार्वजनिक सेवाओं की पर्याप्त व्यवस्था बहुत जरूरी है, ताकि अखिल भारतीय आधार पर कार्यक्रमों की आयोजना, वित्तपोषण, कार्यान्वयन और निगरानी के साथ उनमें समय-समय पर अपेक्षित बदलाव किए जा सकें। इस संबंध में निम्नलिखित गतिविधियां आवश्यक और महत्वपूर्ण हैं:-
– परिवारों में अभाव की स्थिति के निर्धारण के लिए अखिल भारतीय स्तर पर अचूक सर्वेक्षण की आयोजना और संचालन तथा स्थानीय सरकारों से उस सर्वेक्षण की पुनरीक्षा कराना;
– पिछले अनुभवों और सर्वोत्तम राष्ट्रीय एवं वैश्विक पद्धतियों से सीख लेते हुए कार्यक्रमों की रूप रेखा तैयार करना, ताकि आवश्यकतानुसार कार्यक्रम सुनिश्चित किए जा सकें;
– भली-भांति तैयार किए गए कार्यक्रमों के लिए पर्याप्त वित्त-पोषण की व्यवस्था करना;
– अनुभवों से सीख लेते हुए प्रशासन के विभिन्न स्तरों पर तालमेल बनाना तथा कार्यान्वयन के दौरान तत्काल सुधारात्मक उपाय करना।
गरीबी उन्मूलन का अंतिम लक्ष्य हासिल करने के वास्ते भारत के एक बड़े अभावग्रस्त जनसमुदाय के लिए सेवाएं सुनिश्चित करने हेतु उपर्युक्त व्यवस्थाएं अपरिहार्य हैं। हाल ही के सफल अनुभव से साबित होता है कि हम इन्हें किसी भी कीमत पर नजर अंदाज नहीं कर सकते।
पिछले कुछ वर्षों के दौरान ग्रामीण विकास के क्षेत्र में चलाए गए ग्राम स्वराज अभियान जैसे कार्यक्रम पूरी तरह पारदर्शी रहे हैं। वास्तव में ये कार्यक्रम समुदाय के प्रति पूरी जवाबदेही के साथ अपेक्षित परिणाम हासिल करने के लिए भरोसेमंद सार्वजनिक सेवा प्रणाली तैयार करने के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
गौरतलब है कि हमारी यह यात्रा जुलाई, 2015 में सामाजिक – आर्थिक और जाति आधारित जनगणना (एसईसीसी) 2011 के आंकड़ों को अंतिम रूप दिए जाने के साथ शुरू हुई। गरीबों के लिए चलाए जाने वाले लोक कल्याण कार्यक्रमों में अभावग्रस्त परिवारों का सटीक और उद्देश्य-परक निर्धारण किया जाना आवश्यक था। गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वालों की वर्ष 2002 में तैयार की गई बी.पी.एल. सूची ग्राम प्रधान का विशेषाधिकार बन चुकी थी और इससे गरीब अक्सर छूट जाते थे। एसईसीसी के तहत अभाव के पैरामीटरों की पहचान करना आसान है। आंकड़े एकत्रित किए जाने के समय लोगों को यह जानकारी नहीं थी कि एसईसीसी का इस्तेमाल क्या और किस तरह होगा। इसके आधार पर तैयार की गई रिपोर्टें वास्तविकता के बहुत नजदीक हैं।
परिवारों की गरीबी के पैरामीटरों को तैयार किए जाने के बाद ग्राम सभा के माध्यम से पुष्टि की प्रक्रिया ने इस डाटाबेस में समुदाय आधारित सुधार का अवसर दिया । एलपीजी कनेक्शन के लिए उज्ज्वला, बिजली के नि:शुल्क कनेक्शन के लिए सौभाग्य, मकान की व्यवस्था के लिए प्रधान मंत्री आवास योजना-ग्रामीण (पीएमएवाई-जी), अस्पताल में चिकित्सीय सहायता के लिए आयुष्मान भारत जैसे कार्यक्रमों के अंतर्गत लाभार्थियों का चयन एसईसीसी के अभाव संबंधी मानदंडों के आधार पर किया गया। यह डाटाबेस धर्म, जाति और वर्ग निरपेक्ष है। यह गरीबी के विभिन्न आयामों को दर्शाने वाले अभाव संबंधी पैरामीटरों पर आधारित है जिनका सत्यापन आसानी से किया जा सकता है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के अंतर्गत राज्यों के श्रम बजटों के निर्धारण तथा दीन दयाल अंत्योदय योजना – राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (डीएवाई-एनआरएलएम) के अंतर्गत महिला स्व-सहायता समूहों (एसएचजी) के गठन में सभी अभावग्रस्त परिवारों के समावेशन के लिए एसईसीसी के आंकड़ों का उपयोग किया गया।
गरीबी के सटीक निर्धारण, आँकड़ों में सुधार और उन्हें अद्यतन बनाने में ग्राम सभाओं की भागीदारी से आधार, आईटी/डीबीटी, परिसंपत्तियों की जियो-टैगिंग, कार्यक्रमों के लिए राज्यों में एक नोडल खाते, पंचायतों को धनराशि खर्च करने का अधिकार दिए जाने किंतु नकद राशि न देने, सार्वजनिक वित्त प्रबंधन प्रणाली (पीएफएमएस) जैसे प्रशासनिक और वित्तीय प्रबंधन सुधारों को अपनाया जा सका। इसके परिणामस्वरूप लीकेज की स्थिति में बड़ा बदलाव आया। गरीबों के जन-धन खाते और अन्य खाते भी बिना बिचौलियों के प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डीबीटी) के माध्यम बन गए। इससे व्यवस्था में काफी सुधार हुआ। पंचायत के खाते में नकद राशि अंतरण किए जाने की बजाय केवल पंचायत के निर्वाचित नेता के प्राधिकार से मजदूरी और सामग्री के लिए भुगतान इस प्रणाली के माध्यम से किए जा सकते हैं।
मनरेगा जैसे कार्यक्रमों से गरीबों के खातों में धनराशि के अंतरण, टिकाऊ परिसंपत्तियों के सृजन और आजीविका सुरक्षा सहित प्रमुख सुधारों को बढ़ावा मिला। मांग के अनुसार दिहाड़ी मजदूरी के लिए रोजगार उपलब्ध कराना जरूरी है, साथ ही यह भी आवश्यक है कि मजदूरी आधारित इस रोजगार के परिणामस्वरूप गरीबों की आय और दशा में सुधार लाने वाली टिकाऊ परिसंपत्तियों का सृजन भी हो। ग्राम पंचायत स्तर पर मजदूरी और सामग्री के 60:40 के अनुपात जैसे नियमों में बदलाव कर इसे जिला स्तर पर भी लागू किया गया। गरीबों के लिए स्वयं अपने मकान के निर्माण कार्य में 90/95 दिन के कार्य के लिए सहायता के रूप में व्यक्तिगत लाभार्थी योजनाएं शुरू की गईं। इन योजनाओं में गरीबों के साथ सीमांत एवं छोटे किसानों को भी शामिल कर, मनरेगा के अंतर्गत पशुओं के बाड़े बनाए गए, कुएं और खेत तालाब खोदे गए और पौधरोपण कार्य किए गए। प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन (एनआरएम) तथा कृषि और इससे जुड़े कार्यकलापों पर अधिक जोर देते हुए सामुदायिक परिसंपत्तियों का निर्माण भी जारी रखा गया। हमने मनरेगा के अंतर्गत लीकेज पर पूरी तरह अंकुश लगाने और गुणवत्तापूर्ण परिसंपत्तियों के सृजन के लिए साक्ष्यों का सहारा लिया। वर्ष 2018 में आर्थिक विकास संस्थान के अध्ययन में पाया गया कि बनाई गई 76 प्रतिशत परिसंपत्तियां अच्छी या बहुत अच्छी थीं । केवल 0.5% परिसंपत्तियां असंतोषजनक पाई गईं। मनरेगा और इसके सुचारू कार्यान्वयन के लिए विश्वसनीय सार्वजनिक व्यवस्था तैयार करना एक महत्वपूर्ण कदम है। यह वही कार्यक्रम है जिसमें संदीप सुखतांकर, क्लीमेंट इम्बर्ट इत्यादि द्वारा वर्ष 2007 से 2013 के दौरान कराए गए अध्ययनों में बड़े पैमाने पर लीकेज का पता चला था। निधियों को उचित और पारदर्शी तरीके तथा सही तकनीकी सहायता के साथ खर्च करने की योग्यता से पहले ही मनरेगा को निधियां मिल चुकी थीं। हमने प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के लिए एक तकनीकी दल गठित कर साक्ष्य आधारित कार्यक्रम लागू करने के लिए इस प्रौद्योगिकी का उपयोग किया। अब इसके परिणाम दिखाई दे रहे हैं। 15 दिनों के भीतर ही भुगतान आदेशों की संख्या 2013-14 के मात्र 26 प्रतिशत से बढ़ कर 2018-19 में 90 प्रतिशत से अधिक हो गई। इस वर्ष हम यह सुनिश्चित करने का प्रयास कर रहे हैं कि भुगतान आदेश न केवल समय पर जारी हों, बल्कि धनराशि पंद्रह दिन के भीतर ही खाते में जमा हो जाए।
ग्रामीण आवास कार्यक्रम में पिछले 5 वर्षों के दौरान 15 मिलियन से अधिक मकान बनाए गए हैं और चरण-वार जियो-टैग किए गए चित्र भी pmayg.nic.in वेबसाइट पर पब्लिक डोमेन में डाल दिये गये हैं । सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञों ने देश भर में विविधता को बढ़ावा देने के लिए अलग-अलग क्षेत्रों में पारंपरिक मकान के डिजाइनों का अध्ययन किया। स्थानीय सामग्री के उपयोग को बढ़ावा देने के साथ राजमिस्त्रियों को कारगर तरीके से प्रशिक्षित किया गया। मौजूदा समय में सभी प्रकार की राशि इलेक्ट्रॉनिक तरीके से सत्यापित बैंक खातों में अंतरित की जाती है। सम्पूर्ण प्रक्रिया की निगरानी उचित समय पर वेबसाइट पर उपलब्ध डैशबोर्ड के जरिए की जाती है। प्रौद्योगिकी के प्रभावी उपयोग से मकानों का निर्माण कार्य पूरा होने की वार्षिक दर में 5 गुना वृद्धि हुई है। इससे हमारा यह विश्वास मजबूत हुआ है कि सभी के लिए 2022 तक मकान का लक्ष्य प्राप्त करना पूरी तरह संभव है। इन मकानों को तालमेल के जरिये स्वच्छ भारत शौचालय, सौभाग्य बिजली कनेक्शन, उज्ज्वला एलपीजी कनेक्शन और मनरेगा योजना के अंतर्गत 90 दिन का काम भी मिला है। कई व्यक्ति आयुष्मान भारत के भी लाभार्थी हैं और महिलाएं डीएवाई-एनआरएलएम के अंतर्गत बैंक लिंकेज वाले स्व-सहायता समूह की सदस्य हैं। बहुआयामी प्रयासों के जरिए गरीबों की जीवन दशा निश्चित रूप से बदली है। बीमारू कहे जाने वाले राज्यों में ज्यादातर लोग जर्जर कच्ची झोपडि़यों में रहते हैं। ऐसे राज्यों ने प्रधानमंत्री आवास योजना – ग्रामीण के अंतर्गत उत्कृष्ट काम कर अन्य राज्यों के लिए मिसाल पेश की है। यह भारत का एकमात्र ऐसा कार्यक्रम है, जहां बीमारू राज्यों ने आगे कदम बढ़ाकर परिवर्तन की अगुवाई की है।
राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के अंतर्गत एसएचजी के माध्यम से महिलाओं की सामुदायिक एकजुटता उल्लेखनीय रहने के बावजूद आजीविका में विविधता लाने और बैंक लिंकेज प्रदान करने के लिए अभी बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है। बैंक लिंकेज पर जोर दिए जाने से पिछले 5 वर्षों में एनआरएलएम के अंतर्गत लगभग तीन करोड़ महिलाओं के लिए दो लाख करोड़ रू. से अधिक के ऋण की मंजूरी मिल चुकी है। इससे आजीविका में बड़े पैमाने पर विविधता आई है। महिलाओं को सार्वजनिक परिवहन, बैंकिंग करेस्पॉन्डेंट और कस्टम सेंटर के स्वामित्व जैसे विभिन्न नए कार्यकलाप शुरू करने के अवसर मिले हैं। आजीविका मिशन से जुड़ी 6 करोड़ से अधिक महिलाएं बगैर किसी पूंजीगत सब्सिडी के, गरीबों का भाग्य बदल रही हैं। उनकी नॉन-परफॉर्मिंग परिसंपत्तियां (एनपीए) वर्ष 2013 की 7 प्रतिशत से घटकर आज 2 प्रतिशत से कुछ ही ज्यादा रह गई हैं। नि:संदेह ये महिलाएं हमारी सर्वश्रेष्ठ कर्जदार हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में रचनात्मक बदलाव के लिए इस बात की जरूरत है कि उनके नैनो उद्यमों को मदद दी जाए ताकि वे आने वाले वर्षों में सूक्ष्म और लघु उद्यम का रूप ले सकें। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने उद्यमों के विकास के लिए डीडीयू-जीकेवाई के अंतर्गत 67 प्रतिशत से अधिक रोजगार और आरएसईटीआई कार्यक्रम के अंतर्गत दो तिहाई से अधिक नियोजन सुनिश्चित किया है। इस योजना में नियोजन आधारित रोजगार और ग्रामीण स्वरोजगार प्रशिक्षण संस्थानों (आरएसईटीआई) के तहत स्वरोजगार पर जोर देने के लिए कौशल विकास कार्यक्रमों में सुधार किए गए है।
14वें वित्त आयोग के अंतर्गत बड़ी धनराशि का अंतरण किए जाने से ग्राम पंचायतें अब ग्रामीण सड़कों और नालियों के साथ जरूरत के मुताबिक अन्य ढांचागत सुधार कर सकती हैं। पिछले एक वर्ष से मनरेगा और पीएमएवाई-जी के अंतर्गत जियो-टैगिंग, आईटी/डीबीटी अंतरण और पीएफएमएस के जरिये पूरी प्रणाली को जवाबदेह एवं पारदर्शी बनाने की कोशिश की गई है। हमें पूरा विश्वास है कि पीआरआईएसॉफ्ट के अंतर्गत खातों की इलेक्ट्रॉनिक निगरानी, परिसंपत्तियों की जियो-टैगिंग, लेन-देन आधारित एमआईएस के जरिए निधियों के अंतरण और एकल नोडल खाते के माध्यम से पारदर्शिता बढ़ेगी। स्थानीय खातों में निधियों के नकद अंतरण से भ्रष्टाचार की गुंजाइश बढ़ती है। अगर प्राधिकरण ग्राम पंचायत में निधियां खर्च करें, लेकिन भुगतान इलेक्ट्रॉनिक तरीके से मजदूरों और विक्रेताओं के खाते में किया जाए, तो भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा। वृद्धों, विधवाओं और दिव्यांगों को पेंशन देने के लिए राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम – एनएसएपी के अंतर्गत इसी प्रकार के प्रयास किए गए थे। उनके अभिलेखों को डिजिटल बनाया गया । आज अधिकांश राज्यों में प्रौद्योगिकी की मदद से गरीबों को उनके बैंक खातों और आईटी/डीबीटी प्लेटफॉर्म के जरिए प्रति माह पेंशन राशि अंतरित करने में मदद मिली है। नि:संदेह, महिला स्व-सहायता समूहों की मदद से दूरदराज के क्षेत्रों में बैंकिंग करेस्पॉन्डेंटों का विस्तार करने से वृद्ध और बीमार विधवाओं को उनके घर पर ही पेंशन उपलब्ध कराने का रास्ता खुलेगा। प्रौद्योगिकी, प्रभावी विश्वसनीय सार्वजनिक व्यवस्था तैयार करने में बहुत सहायक है। पिछले 4 वर्षों का अनुभव हमें विश्वास दिलाता है कि ऐसा कर पाना संभव है ।
ग्राम स्वराज अभियान सरकार के 7 प्रमुख जनकल्याण कार्यक्रमों के अंतर्गत देश के 63974 गांवों में सभी पात्र व्यक्तियों के सर्वव्यापी कवरेज का एक अनोखा प्रयास था। इस कार्यक्रम के तहत एलपीजी कनेक्शन के लिए उज्ज्वला, मुफ्त बिजली कनेक्शन के लिए सौभाग्य, मुफ्त एलईडी बल्ब के लिए उजाला, टीकाकरण के लिए मिशन इंद्रधनुष, बैंक खातों के लिए जन-धन तथा दुर्घटना बीमा एवं जीवन बीमा कार्यक्रमों को एक निर्धारित समय-सीमा के भीतर प्रभावी निगरानी प्रणाली के जरिये गरीबों के घर-घर पहुंचाया गया । इस काम में बड़ी संख्या में केंद्रीय कर्मचारियों की भी मदद ली गई। यह छह करोड़ महिला स्व-सहायता समूहों और पंचायती राज संस्थाओं के 31 लाख निर्वाचित प्रतिनिधियों के साथ केंद्र, राज्य और स्थानीय सरकारों के मिलकर काम करने का अनूठा सहयोगात्मक संघीय प्रयास था। इससे साबित हो गया कि अगर इच्छा-शक्ति हो, तो बड़े से बड़े लक्ष्य को भी प्राप्त कर पाना कठिन नहीं है ।
प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना (पीएमजीएसवाई) के अंतर्गत ग्रामीण सड़कों के लिए भी इसी प्रकार के प्रयास किए गए। इससे पिछले 1000 दिनों में प्रतिदिन 130-135 किमी. लंबाई की सड़कों का निर्माण हुआ जो प्रभावी निगरानी और राज्यों के साथ लगातार बातचीत के जरिए संभव हो पाया । बीमारू राज्यों के मैदानी क्षेत्रों में 500 से अधिक और पर्वतीय क्षेत्रों में 250 से अधिक आबादी वाली पात्र बसावटों को सड़कों से जोड़ने की एक बड़ी चुनौती सामने थी। उन्हें इस बात के लिए प्रेरित किया गया कि लगभग 97 प्रतिशत पात्र और व्यवहार्य बसावटों को मार्च, 2019 तक सड़कों से जोड़ दिया जाए। हालांकि मूल लक्ष्य मार्च, 2022 तक का था। ग्रामीण सड़क कार्यक्रम से इस बात की भी पुष्टि हुई है कि पीएमजीएसवाई जैसा लोक कार्यक्रम किस प्रकार निर्धारित समयसीमा के भीतर और उचित लागत पर सार्वजनिक सेवाएं प्रदान कर सकता है। इसमें कार्बन फुटप्रिंट कम करने और विकास को स्थायी आधार देने के लिए रद्दी प्लास्टिक जैसी हरित प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हुए 30,000 किमी. से अधिक सड़क मार्गों का निर्माण किया गया।
ग्रामीण कृषि बाजार (ग्राम), उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों, अस्पतालों को बस्तियों से जोड़ते हुए 1,25,000 किलीमीटर थ्रु और प्रमुख ग्रामीण सड़कों का 80,250 करोड़ रुपये की लागत से समेकन कार्य की मंजूरी सरकार ने दे दी है । सभी राज्यों को दिशानिर्देश भेज दिए गए हैं और परियोजनाओं की मंजूरी के लिए प्रारम्भिक कार्य भी शुरू हो चुके हैं ।
यह सच है कि हम सार्वजनिक सेवा प्रणलियों की सफलता का जिक्र करने में भी कोई रूचि नहीं लेते क्योंकि हम में से ज्यादातर लोगों की धारणा सरकारों को निष्क्रिय तथा निजी क्षेत्र को कारगर स्वरूप में देखने की बन चुकी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि निजी क्षेत्र ने कई शानदार उपलब्धियां हासिल की हैं, लेकिन हमें इसके साथ-साथ इसे भी समझना जरूरी है कि सामाजिक क्षेत्र में गरीबों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण कार्यक्रम जैसी अनेक सार्वजनिक सेवाओं में अब भी समुदाय के नेतृत्व और स्वामित्व वाली एक ऐसी सार्वजनिक सेवा प्रदायगी व्यवस्था की जरूरत है जो परिणामों पर केंद्रित हो और गरीबों की जीवन दशा में सुधार तथा कल्याण ही उसका अंतिम लक्ष्य हो। विश्वसनीय सार्वजनिक सेवा प्रणाली तैयार करने से अब पीछे नहीं हटा जा सकता, क्योंकि यह गरीबों की जीवन दशा में परिवर्तन और सुधार लाने के लिए अत्यंत आवश्यक है । प्रसन्नता की बात यह है कि केन्द्र में लोकप्रिय और यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के नेतृत्व में वर्तमान राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार शुरू से ही इसके लिए प्रयत्नशील रही है । इसके अनेक सुखद परिणाम सामने आए हैं और यह सिलसिला रूकने वाला नहीं है।
‘लाईफ जैकेट’ विहीन सोनिया; डूबती काँग्रेस…..?
ओमप्रकाश मेहता
आज भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी चिंता प्रतिपक्ष विहीन राजनीति है, इतिहास गवाह है कि मजबूत प्रतिपक्ष के अभाव की स्थिति में ही तानाशाही का जन्म होता है और अब भारतीय लोकतंत्र को यही एक डर सता रहा है, वह इसलिए क्योंकि सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के सामने किसी भी प्रतिपक्षी राष्ट्रीय दल की अहमियत शेष नहीं रही देश का सबसे पुराना राजनीतिक दल भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस धीरे-धीरे अपनी अहमियत और महत्व खोता जा रहा है तथा एक सौ तीस साल की उम्र का यह अतिबुजुर्ग दल कई तरह की व्याधियों से पीड़ित हो राजनीति के महासागर में डूब जाने की स्थिति में है, यद्यपि इसे अच्छे दिन दिखाने वाले परिवार की बहू सोनिया गांधी इसे बचाने के लिए तूफानी समंदर में कूद तो पड़ी है, पर चूंकि उन्होंने किसी तरह की कोई भी ‘लाईफ जैकेट’ नहीं पहन रखी है, इसलिए स्वयं डूबने वाले ही अपने जीवन के प्रति निराश दिखाई दे रहे हैं।
मौजूदा भारतीय लोकतंत्र में कांग्रेस ही एकमात्र ऐसी राजनीतिक संगठन है, जिसने न सिर्फ 130 साल में भारत को हर स्थिति में करीबब से देखा है, बल्कि उसे निखारने और इसे महिमामंडित करने में सक्रिय भूमिका भी निभाई है। इसलिए यही एकमात्र ऐसा दल है जो भारत को हर तरीके से अच्छे से सोचता-समझता है और आज समय के थपैड़ों ने इस दल का मरणासन्न स्थिति में पहुंचा दिया है और इस स्थिति का फायदा सत्तारूढ़ दल उठाकर उसकी सरकार तानाशाही की राह न पकड़ ले यह आशंका मजबूत होती जा रही है।
वैसे यदि कांग्रेस की मौजूदा स्थिति के कारणों का ईमानदारी से विश्लेषण किया जाए तो कांग्रेस की इस दुरावस्था के लिए स्वयं कांग्रेस व उसके ‘‘बिगड़े सपूतों’’ के अलावा कोई दोषी नही हैं। राजनीति का यह तो एक कटू सत्य है कि जब किसी एक दल को सत्ता की लम्बी पारी मिल जाती है तो वह निरंकुश हो बिना अपना भविष्य सोचे कुछ ऐसे फैसले ले लेता है, जो स्वयं उसी के लिए आत्मघाती सिद्ध होते है, आजादी के बाद से यही कांग्रेस के साथ हुआ, आजादी के बाद के अब तक के बहत्तर सालों में से पैसठ से अधिक सालों तक कांग्रेस सत्ता में रही आजादी के बाद सत्रह साल पंडित जवाहर लाल नेहरू और उनके बाद लगभग सत्रह साल ही इंदिरा जी प्रधानमंत्री रही, बीच में कुछ महीनों (ढाई साल) के लिए जनता पार्टी सत्ता में रही, और इन चैतीस सालों में भारत के विभाजन से लेकर आपातकाल जैसे फैसले भी लिए गए, इनके बाद देश की कमान राजीव गांधी तथा नरसिंहराव के हाथों में रही, इनके बाद डाॅ. मनमोहन सिंह एक दशक तक प्रधानमंत्री रहें। इसलिए इतनी लम्बी अवधि में जरूरी नहीं कि सत्तारूढ़ कांग्रेस ने ‘जन हिताय’ फैसले ही लिये हो, और इसीलिए मनमोहन सिंह के पहले अटल जी और मनमोहन सिंह के बाद नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने। चूंकि आजादी के बाद कई सालों तक राष्ट्रीय दल के रूप में कांग्रेस ही थी, इसलिए देश के आम मतदाता के सामने कांग्रेस को चुनने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, इसलिए नेहरू-इंदिरा इतनी लम्बी अवधि तक सत्ता में रहें, इंदिरा के आपातकाल के दौरान चूंकि प्रमुख प्रतिपक्षी दलों ने एकजूट होकर जनता पार्टी नामक संगठन बना लिया था, तो आपातकाल पीड़ित देश की जनता ने उसे चुन लिया, किंतु ये सभी अनुभवहीन थे, इसलिए ढाई साल से ज्यादा नहीं टिक पाए और 1980 में फिर इंदिरा जी को विकल्प के रूप में देश ने सत्ता सौंप दी। किंतु इंदिरा जी की हत्या के बाद कांग्रेस परिवारवाद से बाहर नहीं आ पाई, जिसकी परिणति यह हुई की राजीव की हत्या के बाद नरसिंहराव के कार्यकाल में बाबरी मस्जिद काण्ड हुआ और उसी के साथ कांग्रेस के विकल्प के रूप में भारतीय जनता पार्टी मैदान में आई और अटल जी प्रधानमंत्री बन गए, उसके बाद 2004 में एक बार फिर कांग्रेस को देश की बागडोर सोनिया पर विश्वास कर सौंपी गई और सोनिया ने डाॅ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनवा दिया, डाॅ. मनमोहन सिंह चूंकि राजनीति के ‘घिसे-पिटे’ मोहरे थे, इसलिए उन्होंने एक दशक तक सरकार चलाई, किंतु 2014 में भाजपा ने मोदी नाम के ‘धूमकेतू’ को राजनीति के आकाश में उतार दिया, जिसकी चमक से आज तक जनता ‘चमत्कृत’ है।
…..और इसी ‘धूमकेतु’ की चमक ने कांग्रेस को इस दुरावस्था में ढकेल दिया है, अब कांग्रेस के पास लागू करने को कोई प्रयोग भी शेष नहीं बचे है, बेटा पार्टी को सम्हाल नहीं पाया, इसलिए मजबूर होकर नेहरू खानदान की इस बहू को ही इसे जीवनदान देने को मजबूर होना पड़ा, अब वे अपने प्रयासों में कहां तक सफल हो पाती है, यह तो भविष्य के गर्भ में है, किंतु कांग्रेस के पास इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं था, इसलिए सोनिया जी के सामने कांग्रेस को नया जीवनदान देने की सबसे बड़ी चुनौती है, अब उनके अपने ही पार्टीजन उन्हें इस पुनीत कार्य में कितना योगदान करते है या पार्टी को धक्का देते है यह सब देखने वाली बात होगी।
खुशहाल मध्यप्रदेश की ओर बढ़ते कदम
पी-सी-शर्मा
यह खुशहाल और हरा-भरा नया मध्य प्रदेश है,जो लोक-कल्याण का संकल्प लिए नई ऊँचाइयाँ छू रहा है। यहाँ किसान खुशहाल होकर आगे बढ़ रहे है। ग्रामीण इलाकों का सर्वांगीण विकास हो रहा है। बहनें और बेटियाँ सुरक्षित होकर उन्नति के नए आयाम स्थापित कर रही है। नौनिहालों की आँखों में स्वर्णिम सपने हैं। समाज में सुख-शांति और सद्भावना है। युवाओं के लिए रोजगार की असंख्य संभावनाएँ जगी हैं। कौशल विकास के पुख्ता और सहज इंतजाम होने से समाज का हर तबका लाभान्वित हो रहा है। जल, जंगल और जमीन के असल रक्षक आदिवासी समाज में प्रसन्नता और विश्वास बढ़ा है और उनकी उम्मीदें आसमान पर है। दलित और वंचित वर्ग आत्म-विश्वास से भरा हुआ है। पिछड़ा वर्ग का आरक्षण बढ़कर 27 प्रतिशत होने से समाज के एक बड़े तबके में विकास के साथ कदम-ताल का विश्वास बढ़ा है। अल्पसंख्यक समुदाय भयमुक्त होकर विकास का हमराह बना हुआ है।
पिछले 15 सालों के कुशासन ने युवाओं को हतोत्साहित किया था लेकिन कमलनाथ सरकार ने युवाओं के कल्याण की बेहतरीन परिकल्पना से नई संभावनाएँ जगाई हैं। युवाओं के लिए रोजगार के नए और बेहतर अवसर उत्पन्न हो रहे हैं। मध्य प्रदेश सरकार ने उद्योग नीति मेँ संशोधन कर राज्य मेँ लगने वाले उद्योगों मेँ स्थानीय युवाओं को 70 प्रतिशत रोजगार देना अनिवार्य कर दिया है। खिलाड़ियों को उच्च स्तर की सुविधाएँ देने को सरकार प्रतिबद्ध है। राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता मेँ भाग लेने वाले और जीतने वाले खिलाड़ियों के लिए पुरस्कार राशि कई गुना बढ़ा दी गई है। शिक्षा संस्थानों का कायाकल्प करके आधुनिक संसाधन बढ़ाएँ जा रहे हैं जिससे हमारे नौनिहाल बेहतर और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा अर्जित कर सके।
स्वास्थ्य सेवाओं को दुरुस्त किया गया है। ग्रामीण इलाकों तक आसानी से बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ जन-मानस को मिल सके, इसके लिए लोक स्वास्थ्य और परिवार कल्याण के क्षेत्र मेँ तत्परता से कार्य किए जा रहे हैं। पंचायतों को मजबूत किया गया है और शासन की योजनाओं का लाभ गाँव-गाँव तक पहुँचे यह सुनिश्चित किया गया है। वहीं नगरीय विकास को बेहतर और नियोजित स्वरूप दिया जा रहा है। मुख्यमंत्री शहरी अधोसंरचना योजना से नगरीय विकास को गति मिली है। बिजली की दरों को सस्ता करने से आम आदमी को बहुत राहत मिली है। पर्यटन की दृष्टि से देश-विदेश मेँ राज्य की नई पहचान बनी है। परिवहन की व्यवस्थाएँ बेहतर हुई हैं। कर्मचारी कल्याण हो या सामाजिक न्याय, लोगों का विश्वास बढ़ा है।
हमारी आस्था, धर्म, जन-जागरण और प्रेरणा के प्रतीक साधु-संतों की भी इस प्रदेश में वैसी ही चिंता की जा रही है, जैसी अन्य जन-समुदाय की। आध्यात्म विभाग ने संत समागम के माध्यम से साधु-संतों का सम्मान करके और उनकी समस्याओं पर व्यापक विमर्श कर यह साफ संदेश दिया गया है कि प्रदेश की कमलनाथ सरकार की लोक कल्याणकारी नीति से कोई भी वर्ग अछूता नहीं रहे। राज्य में धर्मस्व, धार्मिक न्यास और आनंद विभाग को मिलाकर अध्यात्म विभाग का गठन इसीलिए किया गया जिससे आस्था और विश्वास के साथ हमारा धर्म निरपेक्ष ढाँचा और मजबूत बने। धार्मिक स्थानों का समुचित और चहुँमुखी विकास कर धर्मावलम्बियों को सुलभ और बेहतर सुविधाएँ मिल सके, इस दिशा मेँ तेजी से कार्य किए जा रहे हैं। प्रदेश में शासन संधारित मंदिरों के पुजारियों के मानदेय में तीन गुना वृद्धि की गई है। इसके साथ ही कई धार्मिक स्थलों को पर्यटन केन्द्रों के रूप में विकसित करके वहाँ आधुनिक और उच्च स्तर की सुविधाओं का भी विकास किया जा रहा है। इससे स्थानीय स्तर पर व्यापक रोजगार बढ़ने की संभावनाएँ बढ़ी है। विमानन के क्षेत्र में शासकीय हवाई पट्टियों को पायलट प्रशिक्षण, उड्डयन गतिविधियों एयर स्पोर्ट्स, हेलीकॉप्टर अकादमी के लिए सुलभ बनाया गया है।
मुख्यमंत्री तीर्थ दर्शन योजना का लाभ प्रदेश की जनता को खूब मिल रहा है और प्रदेश के कोने-कोने से धर्मावलम्बी विभिन्न तीर्थ-स्थानों पर जाकर दर्शन लाभ ले रहे है। धार्मिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण राम वनगमन पथ की प्रस्तावित योजना रचनात्मक होकर राज्य के कई इलाकों में विकास के द्वार खोल रही है। राम वनगमन पथ के प्रस्तावित मार्ग में सतना, पन्ना, कटनी, उमरिया, शहडोल और अनूपपुर जिले आते हैं। इन स्थानों के प्रमुख धर्म-स्थलों का जीर्णोद्धार, संरक्षण और विकास किया जाएगा। नदियो, झरनों और वनों का संरक्षण कर उन्हें प्रदूषण मुक्त रखने के साथ ही समुचित जन सुविधाएँ सुलभ करवाकर पर्यटन के लिए भी विकसित किया जाएगा।
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया को माना जाता है। हमारे पत्रकार कृत-संकल्पित होकर लोकतंत्र को मजबूत करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं और कमलनाथ सरकार पत्रकारों की सुरक्षा और उनकी बेहतरी के लिए निरंतर कार्य कर रही है। पत्रकार प्रोटेक्शन एक्ट लागू करने की तैयारी है। महिला पत्रकारों को प्रोत्साहन और सुरक्षा देने के लिए राज्य स्तरीय समिति का गठन,पत्रकारिता सम्मान, दुर्घटना और स्वास्थ्य बीमा योजना,पत्रकार आवास ऋण योजना जैसे कई अन्य प्रभावकारी कदम उठाये गए है। विधि और विधायी के कार्य समय पर सम्पन्न हो इसके लिये भी व्यवस्था को बेहतर करने के कदम उठाये गए हैं। एडवोकेट प्रोटेक्शन एक्ट को लागू किए जाने को लेकर सरकार तैयार है। अतिरिक्त जिला और सत्र न्यायाधीश के 4 अतिरिक्त न्यायालयों की स्थापना,वाणिज्यिक न्यायालयों का गठन और व्यवहार न्यायाधीश वर्ग-2 की भर्ती सुनिश्चित करने जैसे कार्यों का फायदा निश्चित ही जन-समुदाय को मिलेगा।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी से देश और समाज का तेजी से विकास हो, इसके प्रयास पूर्व प्रधानमन्त्री स्व. राजीव गांधी ने लगभग 35 साल पहले ही प्रारम्भ कर दिए थे। कमलनाथ सरकार इस दिशा में तेजी से कार्य कर रही है। भोपाल में साईंस सिटी का विकास, उज्जैन और जबलपुर में उप क्षेत्रीय विज्ञान केंद्र की स्थापना,समस्त सेवाओं को ऑन लाईन करने जैसे कई प्रभावशाली कदम उसी दिशा में सकारात्मक प्रयास है। विकास से दूर मध्यप्रदेश के विकास के लिए व्यापक और सकारात्मक सोच की आवश्यकता को देखते हुए कमलनाथ सरकार ने संकल्पित होकर प्रतिबद्धता से उसे पूरा करने का प्रयास किया है। पिछली सरकार ने किसानों के खिलाफ जो अन्याय पूर्ण और हिंसात्मक व्यवहार किया था, उससे अन्नदाता भयभीत और बदहाल थे। कमलनाथ सरकार ने जय किसान फसल ऋण माफी योजना से किसानों को व्यापक राहत दी। इसे साथ ही कृषि और किसान कल्याण के लिए व्यापक योजनाओं की शुरुआत की। मुख्यमंत्री कृषक जीवन कल्याण योजना से आकस्मिक और अप्रत्याशित दुर्घटनाओं से निबट पाने के प्रति किसानों में विश्वास जागा है। जाहिर है कमलनाथ सरकार जब से आई है,मध्य प्रदेश मेँ खुशहाली आई है। बेहतर और खुशहाल मध्यप्रदेश बने, इसलिए हम संकल्पित होकर कार्य कर रहे हैं। लोक कल्याण ही हमारा ध्येय है।
( लेखक मध्यप्रदेश के जनसम्पर्क, विधि-विधायी मंत्री है)
हमारे प्रेरक ग़ज़नवी नहीं बल्कि मोहम्मद के घराने वाले हैं
तनवीर जाफ़री
‘पाकिस्तान ने अपनी रक्षा प्रणाली में जिन मिसाइलों को “सुसज्जित” कर रखा है उनमें से कुछ मिसाइलों के नाम हैं- बाबर, गौरी और ग़ज़नी” । पाकिस्तान द्वारा अपनी मिज़ाइलों का इस प्रकार का नामकरण किया जाना ज़ाहिर है उसके इरादों,नीयत व उसकी आक्रामकता को दर्शाता है।पाकिस्तान द्वारा यह नाम अनायास ही नहीं रखे गए बल्कि सही मायने में पाकिस्तान इसी प्रकार के आक्रांताओं व लुटेरे शासकों से ही प्रेरित व प्रभावित रहा है। जबकि भारत में इन शासकों की गिनती लुटेरे आक्रांताओं में की जाती है। ख़ास तौर पर महमूद ग़ज़नवी को तो भारत में आक्रमण के दौरान लूटपाट मचाने व सोमनाथ के प्राचीन मंदिर तोड़ने वाले एक आक्रामक शासक के रूप में जाना जाता है। ग़ौर तलब है कि ग़ज़नवी ने सबसे बड़ा आक्रमण 1026 ई. में काठियावाड़ के सोमनाथ मंदिर पर था। विध्वंसकारी महमूद ने सोमनाथ मंदिर का शिवलिंग तोड़ दिया था और मंदिर को ध्वस्त कर दिया था।इस हमले में हज़ारों लोग मरे गए थे जबकि ग़ज़नवी के लुटेरे सैनिक मंदिर का सोना और भारी ख़ज़ाना लूटकर ले गए थे। अकेले सोमनाथ से उसे अब तक की सभी लूटों से अधिक धन मिला था। ग़ज़नवी जैसे लुटेरे आक्रांताओं ने भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में अपने ऐसे ही लूट पाट के कारनामों से इस्लाम व मुसलमानों की छवि को धूल धूसरित करने का काम किया था। यही वह दौर था जबकि सन 61 हिजरी में करबला में यज़ीद के लश्कर की तर्ज़ पर धर्म के नाम पर अपने इस्लामी साम्राज्य को बढ़ाने की चेष्टा करते हुए लूटपाट,क़त्लो ग़ारत तथा धर्मस्थलों को तोड़ने जैसी अनेक इबारतें लिखी गयीं। कहना ग़लत नहीं होगा कि ऐसे ही शासकों ने अन्य धर्मों के लोगों के दिलों में मुसलमानों के प्रति नफ़रत पैदा की तथा इस्लाम धर्म की छवि धूमिल की।
जिस प्रकार यज़ीद के समर्थक उसके प्रशंसक व उसे अपना प्रेरणा स्रोत मानने वाले लोग 61 हिजरी के दौर में करबला की घटना के समय मौजूद थे उसी तरह यज़ीद व यज़ीदियत के रस्ते पर चलने वाले आतंकी सरग़नाओं के समर्थक व उनके प्रशंसक आज भी मौजूद हैं। यज़ीद भी तलवार के बल पर इस्लामी हुकूमत को फैलाने का दावा तो करता था मगर हक़ीक़त में वह इस्लाम का इतना बड़ा दुश्मन था जिसने रसूल-ए-पाक हज़रत मुहम्मद के परिवार के लोगों को ही करबला (इराक़) में शहीद कर पूरे इस्लामी जगत के चेहरे पर कला धब्बा लगाने की कोशिश की। इसी साम्रज्य्वादी सोच का प्रतिनिधित्व अलक़ायदा, दाइश,आई एस व तालिबान जैसे इनके अनेक सहयोगी संगठन भी कर रहे हैं। देखने में रंग रूप व पहनावे में चूँकि यह भी कट्टर मुसलमान ही प्रतीत होते हैं लिहाज़ा इस्लाम विरोधी शक्तियों को इनकी हर “कारगुज़ारियों” को मुसलमानों व इस्लाम से जोड़ने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगता। निश्चित रूप से पाकिस्तान की तबाही व वहां अल्पसंख्यकों के साथ वहां होने वाले ज़ुल्मो जब्र का मुख्य कारण ही यही है कि पाकिस्तान इस्लाम के वास्तविक नायकों अर्थात नबी,पैग़म्बर,ख़लीफ़ा,इमाम से ज़्यादा ग़ज़नवी,अब्दाली,लाडेन,जवाहरी,मसूद अज़हर व हाफ़िज़ सईद जैसे उन लोगों से प्रेरित होता है जो इस्लाम व मुसलमानों को हमेशा हीकलंकित करते रहे हैं।
अभी पिछले दिनों एक बार फिर कश्मीर के ताज़ा तरीन सुरते-ए-हाल के सन्दर्भ में बात करते हुए पाकिस्तान के धार्मिक संगठन जमात-ए-इस्लामी प्रमुख सिराज उल हक़ ने अपनी गिनती “ग़ज़नवी की औलादों” में की है। ख़बरों के मुताबिक़ जमात प्रमुख सिराज उल हक़ ने ये भी कहा कि “कश्मीर पाकिस्तान के लिए ज़िंदगी और मौत का सवाल है। उन्होंने बड़े ही गौरवान्वित लहजे में अपने लिए यह भी कहा कि वो “महमूद ग़ज़नवी की औलाद” हैं। वे स्वयं को किस रिश्ते से ग़ज़नवी की औलाद बता रहे हैं मुझे नहीं मालूम। क्योंकि शाब्दिक अर्थ के लिहाज़ से तो विलादत देने वाले को वालिद और उससे पैदा होने वाली संतान को औलाद कहा जाता है। हो सकता है उनका शजरा ग़ज़नवी से मिलता भी हो परन्तु यदि वे महज़ एक मुसलमान होने के नाते उस आक्रांता से अपना रिश्ता जोड़ रहे हैं तो उन्हें यह बताना ज़रूरी है कि यह लुटेरे और आक्रांता कभी भी भारतीय मुसलमानों के नायक अथवा प्रेरणा स्रोत नहीं रहे। यह क्या कोई भी मुस्लिम सुल्तान या शासक,बादशाह अथवा नवाब कभी भी इस्लाम धर्म का नायक कभी भी न हुआ है न हो सकता है न ही उसे इस्लामी नायक व मुसलमानों का प्रेरणास्रोत माना जा सकता है। भले ही उसने नमाज़,रोज़ा,हज आदि का पालन भी क्यों न किया हो। इस्लाम पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद व उनके परिजनों हज़रत अली ,बीबी फ़ातिमा ,हज़रत इमाम हसन व हज़रात इमम हुसैन जैसे हज़रत मुहम्मद के घराने वालों से प्रेरणा हासिल करने वाला धर्म है। इस्लाम, पैग़म्बरों,इमामों व मुहम्मद के घराने वालों को अपना आदर्श मानने वाला धर्म है।इस्लाम उस त्याग,तपस्या और क़ुर्बानी का धर्म है जो करबला में हज़रत इमाम हुसैन की शहादत की शक्ल में सिर चढ़ कर बोला। इस्लाम हुसैनियत के बल पर ज़िंदा है यज़ीदियत के बल पर नहीं। यज़ीदियत के लक्षण तो यही हैं जो ग़ज़नवी,अब्दाली,लाडेन,जवाहरी,मसूद अज़हर व हाफ़िज़ सईद जैसे लोगों में और इनके चहेतों में दिखाई दे रहे हैं।
यहाँ पाकिस्तान के जमात प्रमुख सिराज उल हक़ के कश्मीर के सन्दर्भ में दिए गए बयान के विषय में यह बताना भी ज़रूरी है कि कश्मीर में कश्मीरियों के साथ उनकी “ग़ज़नवीयत” से भरी हमदर्दी कश्मीर और कश्मीरियत को नुक़्सान तो ज़रूर पहुंचा सकती है फ़ायदा हरगिज़ नहीं। कश्मीर के विषय पर भारत में ही सरकार की कश्मीर नीति से असहमति रखने वालों द्वारा सरकार की हर संभव आलोचना हो रही है। कश्मीरियों और कश्मीरियत का साथ देने वाले लोग भारतीय समाज में बड़ी संख्या में हैं। परन्तु पाकिस्तान के लोगों की हमदर्दी ख़ास तौर पर उनकी हमदर्दी का “ग़ज़वियाना” अंदाज़ कश्मीरी लोगों के लिए नुक़्सानदे होगा।जहाँ तक कश्मीर के विषय पर भारतीय मुसलमानों के पक्ष का प्रश्न है तो पिछले दिनों जमीयत उलेमा-ए-हिंद के महासचिव महमूद मदनी गत 12 सितंबर को जमीयत उलेमा-ए-हिंद के इस प्रस्ताव के पारित होने की घोषणा कर चुके हैं कि “कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, जम्मू-कश्मीर के लोग भी भारतीय ही हैं। वे हमसे किसी प्रकार अलग नहीं हैं।” महमूद मदनी यह भी स्पष्ट कर चुके हैं कि बावजूद इसके कि “पाकिस्तान वैश्विक स्तर पर ये बात उछालने की कोशिश कर रहा है कि भारतीय मुसलमान भारत के ख़िलाफ़ हैं। हम पाकिस्तान की इस कोशिश का विरोध करते हैं। भारत के मुसलमान अपने देश के साथ हैं। हम अपने देश की सुरक्षा और एकता के साथ कोई समझौता नहीं करेंगे। भारत हमारा देश है और हम इसके साथ खड़े रहेंगे।” मदनी ने ये भी कहा कि देश में रहते हुए बहुत से मुद्दों पर हमारी असहमति हो सकती हैं, लेकिन जब देश की बात आती है तो हम सब एक हैं।”
अतः पाकिस्तानी नेताओं और “ग़ज़नवी की औलादों” को कश्मीरी मुसलमानों के हक़ में घड़ियाली आंसू बहाने के प्रदर्शन से बाज़ आना चाहिए और अपने देश के अल्पसंख्यकों की सुरक्षा पर अपनी ऊर्जा ख़र्च करनी चाहिए। यदि वे अपनी ग़ज़नवीयत भरी सोच का इस्तेमाल पाकिस्तान तक ही सीमित रखें तो ज़्यादा बेहतर है। उनकी ख़ामोशी में ही कश्मीरियों का हित निहित है।
कश्मीर में नई पहल का मौका
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आज कश्मीर में प्रतिबंध लगे पूरा डेढ़ महीना हो गया है। सरकार कहती है कि कश्मीर के हालात ठीक-ठाक हैं। कोई पत्थरबाजी नहीं है। कोई लाठी या गोलीबार नहीं है। न लोग मर रहे हैं और न घायल हो रहे हैं। मरीज़ों के इलाज के लिए अस्पताल खुले हुए हैं। हजारों आपरेशन हुए हैं। लोगों को राशन वगैरह ठीक से मिलता रहे, उसके लिए दुकानें खुली रहती हैं लेकिन मैंने अपने कश्मीरी दोस्तों और नेताओं से लेंडलाइन टेलिफोन पर बात की है। कुछ जेल से छूटे हुए कार्यकर्ता भी दिल्ली और गुड़गांव आकर मुझसे मिले हैं। वे जो कह रहे हैं, वह बिल्कुल उल्टा है। उनका कहना है कि लोग बेहद तकलीफ में हैं। सड़कों पर कर्फ्यू लगा हुआ है। स्कूल-कालेज बंद हैं। सैलानियों ने कश्मीर आना लगभग बंद कर दिया है। गरीब लोगों के पास रोजमर्रा की चीजें खरीदने के लिए पैसा नहीं है। कोई किसी से बात नहीं कर पा रहा है। इंटरनेट और मोबाइल फोन बंद हैं। ज्यादातर घरों में लेंडलाइन अब है ही नहीं। अखबार और टीवी चैनल भी पाबंदियों के शिकार हैं। शुक्रवार को कई मस्जिदों में नमाज़ भी नहीं पढ़ने दी जाती है, क्योंकि सरकार को डर है कि कहीं भीड़ भड़ककर हिंसा पर उतारु न हो जाए। दिल्ली से जानेवाले कई नेताओं को श्रीनगर हवाई अड्डे से ही वापस कर दिया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कई याचिकाओं के जवाब में कहा है कि सरकार वहां जल्दी से जल्दी हालात ठीक करने के लिए कदम उठाए। लगभग सभी अखबारों और टीवी चैनलों पर मांग की जा रही है कि कश्मीरियों को अभिव्यक्ति की आजादी शीघ्रातिशीघ्र दी जाए। मुझे लगता है कि इस मांग पर अमल होना शायद अगले हफ्ते से शुरु हो जाएगा। संयुक्तराष्ट्र महासभा में एक बार भारत-पाक वाग्युद्ध हो ले, उसके बाद भारत सरकार जरुर कुछ नरम पड़ेगी। पाकिस्तान की फौज और सरकार को इस बात पर खुश होना चाहिए कि कश्मीरियों पर से प्रतिबंध उठाने की मांग वे जितने जोरों से कर रहे हैं, उससे ज्यादा जोरों से भारत में हो रही है। फिर भी यह प्रश्न उठता है कि मोदी सरकार ने इतने कड़े प्रतिबंध क्यों लगाए हैं ? क्योंकि वह कश्मीर में खून की नदियां बहते हुए नहीं देखना चाहती। कश्मीरी लोगों को सोचना चाहिए कि उनकी जुबान ज्यादा कीमती है या उनकी जान ? यही सवाल सबसे बड़ा है। मैं तो समझता हूं कि कश्मीरी लोगों को अपना क्रोध या गुस्सा प्रकट करने की इजाजत वैसे ही मिलनी चाहिए, जैसी कि चीन ने हांगकांग के लोगों को दे रखी है। अहिंसक प्रदर्शन करने का पवित्र अधिकार सबको है। अब सही मौका है, जबकि जेल में बंद कश्मीरी नेताओं से सरकार मध्यस्थों के जरिए बात करना शुरु करे।
पीओके पर घिरा पाक
सिद्धार्थ शंकर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के बाद अब विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने पाक अधिकृत कश्मीर को लेकर स्थिति साफ कर दी है। विदेश मंत्री जयशंकर पीओके पर सवाल हुआ तो उन्होंने साफ तौर पर कहा कि पीओके भारत का हिस्सा है और एक दिन भौगोलिक रूप से भी यह भारत में शामिल होगा। विदेश मंत्री का यह बयान दुनियाभर के सामने जम्मू-कश्मीर का मसला उठाने की कोशिश कर रहे पाक के लिए बड़ा झटका है। सिर्फ भारत ही नहीं अब पाक में इस तरह की आवाजें उठने लगी हैं जो पाक के लिए ही खतरा हैं। पाकिस्तान लगातार बलूचिस्तान, पीओके में किए जा रहे अत्याचारों को लेकर घिर रहा है। पाकिस्तानी ह्यूमन राइट एक्टिविस्ट आरिफ अजाकिया का कहना है कि गिलगित-बालटिस्तान, पीओके जम्मू-कश्मीर का हिस्सा है और जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा है। ऐसे में नरेंद्र मोदी को उस गलती को सुधारना चाहिए जो बरसों पहले हो गई थी।
पीओके को लेकर पाकिस्तान चाहे जितने तर्क गढ़े और दुनियाभर को चाहे जो दलीलें दे, मगर सच यह है कि पीओके भारत का हिस्सा है और जल्द ही वह भूभाग भी होगा। अगर अभी पीओके की हालत देखें तो पता चलेगा कि इस जगह को पाक ने नर्क से बदतर बना रखा है। अब भारत का अपने अखंड भूभाग जम्मू कश्मीर पर दावा और पुख्ता होता जा रहा है। जब हम अखंड जम्मू कश्मीर की बात करते हैं तो स्वाभाविक रूप से उसमें पीओके शामिल होता है। पीओके को गुलाम कश्मीर कहा जाता है। वहां के सामाजिक, आर्थिक और मानवाधिकारों की स्थिति पर इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस ने साल 2011 में शोध रिपोर्ट जारी की। रिपोर्ट में किए गए खुलासे वैश्विक जगत को अवाक करने के लिए काफी हैं। पाक ने इस भूभाग पर अवैध कब्जा कर रखा है। अपनी भेदभाव पूर्ण नीतियों से पूरे क्षेत्र को बदहाल और आतंकवाद की नर्सरी बना रखा है। पाकिस्तान यहां की स्थिति को दुनिया के सामने न आने के लिए कोशिशें करता रहा है। वहां पर बड़ी संख्या में अंदरूनी आंदोलन चल रहे हैं। राष्ट्रवादी लोग वहां पर पाकिस्तानियों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों का खुलासा कर रहे हैं।
1990 के बाद से पीओके बढ़ती आतंकी गतिविधियों का गढ़ बन गया है। लश्करए-तैयबा जैसे आतंकी संगठन वहां के लोगों को जिहाद के लिए उकसा कर अपने संगठन में शामिल कर रहे हैं। यह सिलसिला वर्ष 2005 में इलाके में भूकंप से मची तबाही के बाद अधिक हो गया है। जमात-उद-दावा आतंकी संगठन भी लोगों को अपने संगठन में भर्ती कर रहा है। आतंकी संगठनों के लिए वहां काम करना ज्यादा आसान है क्योंकि वहां के आर्थिक व राजनीतिक हालात खराब हैं। तहरीक-ए-तालिबान द्वारा भी कई आतंकी संगठनों को मदद मुहैया होती है। दर्जनों आतंकी संगठन हैं जो इस क्षेत्र में अपनी पैठ बनाए हुए हैं और यहीं से भारत के लिए दिक्कतें खड़ी करते रहते हैं। पाकिस्तान और चीन के बीच काराकोरम हाईवे का 1978 में निर्माण हुआ। यह करीब 1280 किमी लंबा है। यह हाईवे पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वां प्रांत को जेजियांग क्षेत्र के कश्गर से जोड़ता है। करीब 800 किमी का हाईवे क्षेत्र पाकिस्तान में है जो पीओके के गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र से होकर गुजरता है। इस हाईवे का रखरखाव चीन ही करता है इसके जरिये चीन से पाकिस्तान में परमाणु हथियार भी पहुंचाए जाते हैं। चीन पीओके में कई तरह की परियोजनाओं पर भी काम कर रहा है। चीनी कंपनियां वहां पर मौजूद नदियों पर ऊर्जा परियोजनाएं बना रही हैं। इसके अलावा भी गुलाम कश्मीर में पानी से जुड़ी कई योजनाओं पर चीन काम कर रहा है।
4 साल 4 माह में 43 लाख 68 हजार करोड़ भारत से विदेशों में
सनत जैन
भारतीय अर्थव्यवस्था अभी तक के सबसे बड़े संकट के दौर से गुजर रही है। पिछले 5 वर्षों में भारत से लगभग 45 लाख करोड़ रुपया विदेशों में चला गया है। रिजर्व बैंक द्वारा जो हालिया जानकारी प्रकाशित की गई है। उसके अनुसार वर्ष 2014 15 में जब मनमोहन सरकार थी उस साल 1 लाख 32 हजार करोड़ रुपया भारत से विदेश ले जाया गया था। 2014 के बाद से केंद्र में मोदी सरकार है 2015-16 के वित्तीय वर्ष में 4.60 लाख करोड़ 2016 17 में 8.17 लाख करोड़ 2017- 18 में 11.33 लाख करोड़, 2018 -19 में 13.77 लाख करोड, तथा वित्तीय वर्ष के पिछले 4 माह में 5 .80 लाख करोड़ रुपया रिजर्व बैंक की अनुमति से भारत से बाहर जाकर विदेशों में निवेश किया, गया है। पिछले 5 वर्षों में भारत के रईसों ने बड़ी मात्रा में विदेशों में जाकर पैसा निवेश किया, वहीं की नागरिकता भी ले ली।
रिजर्व बैंक और केंद्र सरकार द्वारा पिछले 5 वर्षों में भारतीय रईसों द्वारा बड़े पैमाने पर देश का पैसा विदेशों में ले जाकर निवेश किया है। सरकार और रिजर्व बैंक ने इस मामले में चुप्पी साध रखी थी यह बड़ा आश्चर्य का विषय है। भारत सरकार विदेशों में जाकर वहां के उद्योगपतियों को भारत में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित कर रही थी। वही भारत के रईस भारत से पैसा निकाल कर विदेशों में निवेश कर रहे थे परिणाम स्वरूप पिछले 5 वर्षों में सबसे कम विदेशी निवेश भारत में हुआ है। इसके बाद भी भारत सरकार द्वारा कोई कार्यवाही क्यों नहीं की गई।
भारतीय शेयर बाजार में पिछले 5 वर्षों में कृत्रिम तेजी के माध्यम से निवेशकों ने भारी मुनाफा वसूली की है। भारतीय उद्योग धंधे जब आर्थिक संकट से जूझ रहे थे। बैंकों का एनपीए लगातार बढ़ रहा था। बड़ी संख्या में कंपनियां दिवालिया हो रही थी। उसके बाद भी शेयर बाजार में तेजी बनी रही । मुनाफावसूली का यह पैसा बड़े पैमाने पर भारतीय उद्योगपतियों ने भारत से निकाल कर विदेशों में निवेश किया है। इस गड़बड़ झाले में भारतीय जीवन बीमा निगम राष्ट्रीय कृत बैंकों और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों तथा पीएफ का भी अरबों रुपया खुलेआम शेयर बाजार के माध्यम से लूट लिया गया
अब बाजार में पैसा नहीं है। बैंकों के पास भी नगदी नहीं है। बैंकों और भारतीय जीवन बीमा निगम की बहुत बड़ी राशि शीर्ष जो कंपनियों में निवेश की गई थी। शेयर बाजार की गिरावट के साथ इन कंपनियों और बैंकों का घाटा लगातार बढ़ रहा है। देश में नगदी संकट के कारण सभी सेक्टर आर्थिक मंदी का शिकार हैं। इसके बाद भी सरकार वास्तविकता को यदि अनदेखा कर रही है, तो यह भारत के लिए बहुत बड़ा संकट माना जा सकता है। करोड़ों की संख्या में पहले ही बेरोजगार देश में घूम रहे थे। वर्तमान आर्थिक मंदी के कारण बड़ी तेजी के साथ उद्योग और व्यापार बंद हो रहे हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियां दिवालिया हो रही हैं। यदि यही स्थिति कुछ माह है। और रह गई तो देश भारी आर्थिक संकट में फंस जाएगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अच्छे दिनों का वादा करके केंद्र की सत्ता में आए थे। पिछले 5 वर्षों में आर्थिक स्थिति शनै:शनै: खराब होती रही । जिसका असर मोदी की विश्वसनीयता और लोकप्रियता पर पड़ना तय है। इससे देश में अराजकता की भी स्थिति भी उत्पन्न हो सकती हैं।
देश की चिकित्सा शिक्षा को अफसरशाही से बचाने की गंभीर चुनौती….
डॉ अजय खेमरिया
अनुभव बता रहे है कि किस तरह मोदी सरकार की मंशा को पलीता लगा रहा है सरकारी तंत्र देश भर के सरकारी अस्पतालों को कॉलेजों के दर्जे से हासिल हो सकते है सबको अरोग्य का मिशन यह सही है मोदी सरकार ने पिछले 5बर्षो में चिकित्सा शिक्षा के विस्तार को नई दिशा और आयाम दिया है। अगले दो वर्षों में 75 नए मेडिकल कॉलेज खोलने का निर्णय भी हाल ही में लिया गया है।निर्णय का स्वागत किया जाना चाहिये लेकिन इससे पहले कुछ तथ्यों और उन पहलुओं पर भी ईमानदारी से विचार किये जाने की आवश्यकता है जो इस क्षेत्र के साथ व्यावहारिक धरातल पर जुड़े है। मसलन एक नया मेडिकल कॉलेज जब खोला जाता है तब उसकी जमीनी कठिनाइयों की ओर सरकार के स्तर पर भूमिका क्या वैसी ही मजबूत है जैसी इन्हें खोलने के निर्णय लेते समय होती है। पिछले दो बर्षो में मप्र में सात नए मेडिकल कॉलेज मप्र सरकार द्वारा खोले गए है इनमे से कुछ कॉलेजों को एललोपी यानी कक्षाओं के संचालन की अनुमति एमसीआई द्वारा जारी कर दी गई है।इस बीच मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया की जगह आयुर्विज्ञान आयोग अस्तित्व में आ गया है जो नए प्रावधानों को चिकित्सा शिक्षा से जोड़ता है इस आयोग के माध्यम से मोदी सरकार ने एमसीआई की मनमानी और प्रक्रियागत भृष्टाचार को बंद करने का प्रयास किया है।
मप्र में खोले गए सभी नए मेडिकल कॉलेज इस समय विवादों में है इससे पहले खोले गए कॉलेजों की मान्यता और आधारभूत शैक्षणिक एवं आधारिक सरंचनाओं की उपलब्धता को लेकर विवाद होते रहे है।कमोबेश नए मेडिकल कॉलेजों में भी कक्षाओं को आरम्भ करने की जल्दबाजी में बड़े पैमाने पर अनियमितताओं और फर्जीवाड़े को आधार बनाया जा रहा है।
राज्यों में चिकित्सा शिक्षा का पूरा तंत्र अफसरशाही के हवाले है जो चिकित्सा शिक्षा को वैसे ही चलाना चाहते है जैसे अन्य सरकारी योजनाएं जबकि यह क्षेत्र बहुत ही संवेदनशील और समाज के भविष्य के साथ जुड़ा है।समाज मे अयोग्य और अक्षम चिकित्सक का पैदा होना बहुत ही खतरनाक पक्ष है, क्योंकि भारत जैसे देश मे चिकित्सा सुविधाओं की पहुंच आज भी 50 फीसदी तबके तक है ही नही।इसलिये मोदी सरकार के इस निर्णय को सिर्फ राजनीतिक लिहाज से देखने की जगह इसकी गंभीरता और दीर्धकालिक महत्व को भी समझने की जरूरत है यह सभी राज्य सरकारों का नैतिक दायित्व भी है कि मेडिकल कॉलेजों के लिये परम्परागत सरकारी तौर तरीकों से परिचालित न किया जाए ।मसलन देश भर में आज जब डॉक्टरों की बेहद कमी है तब हमें यह समझना होगा कि नए खुल रहे कॉलेजो के लिये फैकल्टी आएंगे कहां से ?जब इनकी मानक उपलब्धता ही मुल्क में नही है तब इन्हें लाया कहां से जाएगा?मेडिकल एजुकेशन के लिये जो पैरामीटर टीचिंग फेकल्टी के एमसीआई द्वारा निर्धारित है उन्हें देश के 90 फीसदी नए कॉलेज पूरा नहीं कर रहे है यानी स्पष्ट है की नए कॉलेजों में पढ़ाने वाले सक्षम शिक्षक होंगे ही नही।जब शिक्षक ही मानक योग्यताओं को पूरा नही करते है तो काबिल डॉक्टर्स कहां से आएंगे?
वर्तमान में एमसीआई के पास कुल 10 लाख 41 हजार के लगभग डॉक्टरों के जीवित पंजीयन है जिनमें से सिर्फ 1लाख 2 हजार डॉक्टर ही विभिन्न सरकारी संस्थानों में कार्यरत है जाहिर है कोई भी विशेषज्ञ चिकित्सक देश की सरकारी सेवाओं में नही आना चाहता है ऐसे में यह जरुरी हो गया है कि जो विशेषज्ञ पीजी डॉक्टर मेडिकल कॉलेजों से बाहर सरकारी सेवाओं में है उन्हें फैकल्टी के रूप में भी जोड़ा जाए क्योंकि कॉलेज के प्रोफेसर और सरकारी विशेषज्ञ डॉक्टरों के काम मे सिर्फ थ्योरी क्लास लेने का बुनियादी अंतर है ,सरकार के स्तर पर ऐसे अध्ययनशील विशेषज्ञ डॉक्टरों को चिन्हित किया जा सकता है जो ओपीडी,ओटी के अलावा थ्योरी को भी बता सके।इसके लिये इन डॉक्टर्स को विशेष प्रोत्साहन भत्ते दिए जा सकते है।इस प्रयोग से देश भर में सरकारी फैकल्टी की कमी को दूर किया जा सकता है। फिलहाल जो व्यवस्था है उसमें भी कार्यरत पीजी डॉक्टरों को ही डेजीगनेट प्रोफेसर और एशोसिएट प्रोफेसर के रूप में एमसीआई के निरीक्षण में काउंट करा दिया जाता है।अच्छा होगा इस फर्जीवाड़े को स्थाई कर दिया जाए। 2014 के बाद करीब 80 नए मेडिकल कॉलेज मोदी सरकार खोल चुकी है और 75 अतिरिक्त खोलने की मंजूरी अभी पखवाड़े भर पहले ही दी गई है।सभी कॉलेजों में मानक फैकल्टीज का अभाव है। मप्र के सात नए कॉलेजों के अनुभव बता रहे है कि मेडिकल कॉलेज राज्यों में जबरदस्त अनियमितता और भृष्टाचार का केंद्र बन रहे है।अफसरशाही ने पूरे तंत्र को अपनी गिरफ्त में ले रखा है सरकार में बैठे मंत्री, मुख्यमंत्री अफसरों के इस तर्क से खुश है कि उनके राज्य में नए मेडिकल कॉलेज खुल रहे जिन्हें वह अपनी उपलब्धियों के रूप में जनता के बीच प्रचारित कर सकते है लेकिन इस प्रक्रिया में जो खतरनाक खेल अफसरशाही खेल रही है उसकी तरफ न सरकार का ध्यान है न समाज का।इस खेल को आप मप्र के उदाहरण से समझिए।सात नए मेडिकल कॉलेजों के लिये सरकार ने प्रति कॉलेज 250 करोड़ बिल्डिंग के लिये फंड दिया,300 करोड़ उस कॉलेज के चिकिसकीय उपकरण,100 करोड़ अन्य परिचालन व्यय,और करीब एक हजार विभिन्न नियमित सरकारी पदों की स्वीकृति। आरंभिक चरण के लिये दी हैं।सभी कॉलेज जिला मुख्यालयों पर खोले गए जहां पहले से ही परिवार कल्याण विभाग के 300 बिस्तर अस्पताल मौजूद है।इन्ही अस्पताल को नए कॉलेजों से अटैच कर दिया गया है।एमसीआई के निरीक्षण के समय इन्ही अस्पतालों के विशेषज्ञ औऱ अन्य डॉक्टरों को डिजिग्नेट करके नए कॉलेज स्टाफ में दिखाया गया है।दूसरी तरफ
फैकल्टी से लेकर सभी छोटे पदों की भर्तियां मनमाने तरीके से हो रही है मप्र के शिवपुरी, दतिया कॉलेजों की भर्तियों को लेकर तो सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनो के विधायक विधानसभा में तीन सत्रो से हंगामा मचा रहे है क्योंकि इन भर्तियों में बड़े पैमाने पर भृष्टाचार हुआ है।अयोग्य और
अपात्र लोगों को मोटी रकम लेकर भर्ती कर लिया गया है।भर्ती का यह खेल करोड़ो तक पहुँचा है क्योंकि सभी पद रेगुलर है।
मप्र में उपकरणों की खरीदी भी अफसरों के लिये कुबेर खजाना साबित हुई है।
खास बात यह है कि मप्र का चिकित्सा शिक्षा विभाग पूरी तरह से अफसरशाही की शिकंजे में मंत्री के नीचे प्रमुख सचिव,आयुक्त,उपसचिव,आईएएस संवर्ग के है वही हर मेडिकल कॉलेज का स्थानीय सुपर बॉस उस संभाग का कमिश्नर है।यानी उपर से नीचे तक आईएएस अफसरों का शिकंजा है।यही अफसर सभी नीतिगत निर्णय लेते है भर्ती से लेकर सभी खरीदी भी इन्ही के हवाले है।रोचक और अफसरशाही की शाश्वत सर्वोच्चता का साबित करता एक तथ्य यह भी है कि इन अफसरों में से एक भी मेडिकल एजुकेशन से नही आता है कोई इंजीनियरिंग बैकग्राउंड से है या फिर मानविकी से लेकिन वे चिकित्सा शास्त्र जैसे विशुद्ध तकनीकी विषय की नीतियां निर्धारित और लागू कर रहे है।वस्तुतः मेडिकल कॉलेजों के साथ जुड़ा सरकारी धन का आंकड़ा अफ़सरशाही और उच्च नेतृत्व को गठबंधन बनाने के लिये मजबूर कर रहा है।मप्र में नए मेडिकल कॉलेजों का बजट प्रावधान हजारो करोड़ में पहुँच रहा है।7 हजार से ज्यादा सरकारी भर्तियों का मौका यहां व्यापमं का पितामह साबित हो रहा है क्योंकि यहां बगैर किसी लिखित या मौखिक परीक्षाओं के सीधे स्वशासी कॉलेज व्यवस्था के नाम से नियुक्तियों को किया गया है।
अब सवाल यह उठता है कि जब नए मेडिकल कॉलेजों में इस स्तर पर भ्रष्टाचार हो रहा है तो इनसे निकलने वाले डॉक्टरों की चिकिसकीय गुणवत्ता कैसी होगी?क्या वे भारतीय समाज के आरोग्य के लिए प्रतिबद्ध होंगे?
मप्र के अनुभवों के आधार पर सरकारों को चाहिये कि सबसे पहले नए मेडिकल कॉलेजों के लिये बजट प्रावधानों पर पुनर्विचार करे।सैंकड़ो करोड़ की बिल्डिंगस के स्थान पर बेहतर होगा कि देश के सभी जिला अस्पतालों को मेडिकल कॉलेजों की अधिमान्यता प्रदान कर दी जाए क्योंकि जो काम मेडिकल कॉलेजों के अस्पतालों में हो रहा है वही इन सरकारी जिला अस्पतालों में होता है जो नए कोलेज खोले गए हैं वे सभी इन्ही अस्पतालों से अटैच किये गए है चूंकि मान्यता के लिये इन्ही अस्पतालों का निरीक्षण होता है यहां कार्यरत चिकिसकीय एवं पैरा मेडिकल स्टाफ को ही आवश्यक मानव संसाधन के कोटे में गिना जाता है इसलिये अच्छा होगा कि देश के सभी 600 से ज्यादा जिला अस्पताल मेडिकल कॉलेजों में तब्दील कर दिए जाएं।यहाँ पूरक सुविधाएं उपलब्ध कराकर मेडिकल कॉलेजों के मानकों को पूरा किया जाए।
सभी राज्य मेडिकल एजुकेशन औऱ पब्लिक हैल्थ के विभागों का आपस मे मर्जर कर दें ताकि लोक स्वास्थ्य में समरूपता दिखाई दे अभी स्वास्थ्य विभाग के आसपास अलग है और मेडिकल एजुकेशन के अलग।इनके अलग अलग संचालन नियम है अलग सेटअप है जबकि दोनो के काम एक ही है।
सरकारी स्तर पर यह नीतिगत निर्णय भी होना चाहिये कि मेडिकल एजुकेशन में सिर्फ प्रमुख सचिव स्तर पर एक ही आइएएस अफसर का पद होगा जो सरकार और विभाग के बीच समन्वय का काम करेगा।इसमें भी मेडिकल एकेडमिक बैकग्राउंड वाले अफसर को तरजीह दी जाए।शेष सभी पदों पर डॉक्टरों की नियुक्ति प्रशासन के लिहाज से हो।जिला अस्पतालों को आधुनिक सुविधाओं और थ्योरी क्लासेस के अनुरूप बनाने से सभी जिलों में बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हो सकेगी फैकल्टी की समस्याओं का भी समाधान होगा।ग्रामीण क्षेत्रो के स्वास्थ्य केंद्र जिलों में अध्ययन करने वाले मेडिकल स्टूडेंट्स के लिये समयबद्व ढंग से ओपीडी का काम कर सकते है।
मोदी सरकार ने निसंदेह चिकित्सा शिक्षा के लिये 5 साल में क्रांतिकारी कदम उठाए है इस मोर्चे पर सरकार की सराहना करनी चाहिये लेकिन हमें पिछले दिनों लोकसभा में प्रस्तुत किये है तथ्यों पर भी गौर करना होगा :
भारत मे फिलहाल 479 मेडिकल कॉलेज है जिनमें फिलहाल 85218 एमबीबीएस और 29870 पीजी की सीट्स है।वर्ष 2016 से 2018 के बीच मोदी सरकार ने करीब 80 नए मेडिकल कॉलेज को मंजूरी दी है। 2014 में मोदी सरकार के आने से पहले देश मे एमबीबीएस की 52 हजार औऱ पीजी की 13 हजार सीट्स ही थी।
महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारत मे 67 फीसदी नागरिक अपनी बीमारियों का इलाज खुद अपनी जेब के धन से कराते है और देश की कुल आबादी के पचास फीसदी तक स्वास्थ्य सेवाओं की मानक उपलब्धता नही है।
विश्व स्वास्थ्य सांख्यिकीय संस्थान के हवाले से सरकार ने बताया है कि वर्ष 2018 में भारत मे 23 करोड़ नागरिकों ने अपनी आमदनी का 10 फीसदी हिस्सा अपनी बीमारियों के इलाज पर खर्च किया है। यह 23 करोड़ का आंकड़ा यूरोप के एक दर्जन से ज्यादा मुल्कों की आबादी को मिला दिया जाए तब भी अधिक बैठता है। यानि यूरोप के कई मुल्कों की कुल जनसंख्या से ज्यादा लोग भारत मे ऐसे है जो अपनी कमाई का दस प्रतिशत अपने इलाज पर खर्च कर देते है। भारत स्वास्थ्य सेवा सुलभ कराने के मामले में 195 देशों में 154 वे नम्बर पर है।
भारत मे औसत 11082 व्यक्तियों पर एक डॉक्टर है जबकि वैश्विक मानक कहते है 1100 की आबादी पर एक होना चाहिये।
भारत मे पिछले दो बर्षो में ब्लड प्रेशर और शुगर के मरीजों की संख्या दोगुनी हो चुकी है वही कैंसर के 36 फीसदी मरीज बढ़े है।
इन तथ्यों के बीच नए मेडिकल कॉलेजों की गुणवत्ता बनाया जाना कितना अनिवार्य है यह आसानी से समझा जा सकता है।
बगैर अफसरशाही से मुक्ति के यह आसान नही लगता है।