आलेख 21

इंसानियत की ऊंची मिसाल
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गुजरात में सावरकुंडला के एक मुस्लिम परिवार ने इंसानियत की बहुत ऊंची मिसाल कायम कर दी है। मियां भीखू करैशी और भानुशंकर पंडया, दोनों मजदूर थे। चालीस साल पहले एक ही जगह मजदूरी करते-करते दोनों की दोस्ती हो गई। पंडया ने शादी नहीं की। वे अकेले रहते थे। कई साल पहले उनका पांव टूट गया। वे बड़ी तकलीफ में रहते थे। उनके दोस्त कुरैशी ने आग्रह किया कि वे कुरैशी परिवार के साथ रहा करें। पंडया मान गए। साथ रहने लगे। कुरेशी के तीन लड़के थे। अबू, नसीर और जुबैर। तीनों की शादी हो गई। बच्चे हो गए। ये बच्चे पंडया को बाबा कहते थे और कुरैशी की बहुएं रोज सुबह उठकर पंडया के पांव छूती थीं। पंडया के लिए रोज़ अलग से शुद्ध शाकाहारी भोजन बनता था। तीन साल पहले भीखू कुरैशी की मृत्यु हो गई। यह घटना उनके परम मित्र भानुशंकर पंडया के लिए बड़ी हृदय-विदारक सिद्ध हुई। उनका दिल टूट गया। वे बीमार रहने लगे। इस पूरे परिवार ने पंडयाजी की सेवा उसी लगन से की, जैसे कुरैशी की की थी। पिछले हफ्ते जब पंडया का अंत समय आ पहुंचा तो उन्हें गंगाजल मंगवाकर पिलवाया गया। जब उनका निधन हुआ तो कुरैशी-परिवार ने तय किया कि उनको वैसी ही अंतिम बिदाई दी जाएगी, जो किसी ब्राह्मण को दी जानी चाहिए। इस मुस्लिम परिवार के बच्चे अरमान ने नई धोती और जनेऊ धारण की और अपने ‘हिंदू-बाबा’ का शनिवार को दाह-संस्कार किया। कपाल-क्रिया की। यह परिवार है, जो दिन में पांच बार नमाज पढ़ता है और बड़ी निष्ठा से रोजे रखता है। दाह-संस्कार करनेवाले बच्चे अरमान ने कहा है कि वह अपने ‘दादाजी’ की 12 वीं पर अपना मुंडन भी करवाएगा। यह विवरण जब मैंने ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ में पढ़ा तो मेरी आंखें भर आईं। मैं सोचने लगा कि कुरैशी परिवार के द्वारा ऐसा आचरण क्या इस्लाम के खिलाफ है ? यदि मैं किसी मुल्ला-मौलवी से पूछता तो वे कहते कि यह कुरैशियों की काफिराना हरकत है। यह इस्लाम के खिलाफ है। बिल्कुल यही बात मुझे हिंदू पोंगा पंडित भी कहते यदि कोई पंडया-परिवार किसी कुरैशी या अंसारी को ऐसी ही अंतिम बिदाई देता तो। लेकिन मज़हबों के इन ठेकेदारों से मैं पूछता हूं कि क्या धर्म का मर्म इन कर्मकांडों में ही छिपा है ? क्या धर्म याने भंगवान और इंसान के रिश्तों में इन रीति-रिवाजों का ही महत्व सबसे ज्यादा है ? क्या ईश्वर, अल्लाह, यहोवा और गॉड को देश और काल की बेड़ियां पहनाई जा सकती हैं ? कुरैशी परिवार ने इन बेड़ियों को तोड़ा है। उसने इस्लाम की इज्जत बढ़ाई है। मैं उसे बधाई देता हूं।

भारत बीफ निर्यात में विश्व में नंबर वन, 71 फीसदी भारतीय मांसाहारी!
डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन
वर्तमान में देश में आवारा पशुओं का उपयोग मांस निर्यात में किया जा रहा हैं और उसके बदले हम उससे अधिक राशि का रासायनिक खाद का उपयोग खेती में करते हैं .एक निरुपयोगी पशु भी बहुत खाद का काम करता हैं .उसके गोबर और मूत्र का उचित उपयोग करके हम जैविक खाद बनाकर खेती में उपयोग कर सकते हैं .पर उनका रख रखाव महंगा होने से उन्हें हम आवारा छोड़ देते हैं और उनका उपयोग कसाई करते हैं .इसके लिए सरकारों को गौशालाएं और दयोदय केंद्र खोलकर संरक्षण करना होगा .
उल्लेखनीय है कि भारत बीफ निर्यात में विश्व में पहले स्थान पर है। भारत में बीफ का सालाना कारोबार की रकम करीब सालाना 27 हजार करोड़ रुपए है। उल्लेखनीय है कि अमेरिकी कृषि विभाग का कहना है कि बीफ के निर्यात में भारत ब्राजील के साथ संयुक्त रूप से दुनिया में नंबर एक पर है। आंकड़ों के मुताबिक, वित्त वर्ष 2015-16 में भारत की बीफ मार्केट में करीब 20 फीसदी की हिस्सेदारी थी।
वहीं वित्त वर्ष 2014-15 में भारत ने 24 लाख टन बीफ निर्यात किया था। दुनिया में निर्यात होने वाले कुल बीफ में करीब 60 फीसदी हिस्सेदारी भातर, ब्राजील और ऑस्ट्रेलिया की है। 2013-14 में भारत की भागीदारी 20.8 फीसदी की थी। इस लिहाज से बीफ एक्सपोर्ट में भारत ने प्रगति की है।
पिछले दो सालों में भारत ने बासमती चावल से भी ज्यादा बीफ का निर्यात किया है। पिछले 5 सालों में कुल निर्यात रेवेन्यू में बीफ निर्यात से होने वाली आय 0.76 प्रतिशत से बढक़र 1.56 प्रतिशत हो गई है। उधर कुछ दिनों पहले खबर आई थी कि ब्राजील में हानिकारक बीफ बेचे जाने के कारण यहां बीफ का आयात बंद कर दिया गया है।
अगर ब्राजील में ये बैन लगा रहता है तो भारत सहित कई देशों को फायदा हो सकता है। क्योंकि ब्राजील अब भारत से मांस आयात करने के बारे में सोच रहा है। वहीं मांस की सबसे ज्यादा खपत वाले देश चीन ने भारत से बीफ आयात पर हामी भरी है।
मीट प्रॉडक्शन और एक्सपोर्ट को प्रमोट करने के लिए केंद्र सरकार के ‘पिंक रेवॉल्यूशन’ का नतीजा दिखाई देने लगा है। देश में मीट प्रॉडक्शन और इसका एक्सपोर्ट बीते चार साल में 44 फीसदी बढ़ा है लेकिन इंडस्ट्री को रेग्युलेट करने में यह योजना नाकाम रही है।
सभी राज्यों के ऐनिमल हज्बैंड्री डिपार्टमेंट्स से एकत्रित डाटा के मुताबिक, रजिस्टर्ड कसाईघरों के मीट प्रॉडक्शन साल 2008 के 5.7 लाख टन के मुकाबले साल 2011 में 8.05 लाख टन पहुंच गया है। बोवाइन (बीफ और कैटल मीट) से होने वाली आय साल 2012-13 में 18,000 करोड़ रुपए कमाई कर सकती है। साल 2012 में भारत बीफ एक्सपोर्ट करने वाला नंबर एक देश बना।
उत्तर प्रदेश साल 2011 में तीन लाख टन के साथ टॉप बाफलो मीट-प्रड्यूसिंग राज्य बना। कम से कम 70 फीसदी बाफलो की माट एक्सपोर्ट किया गया। उत्तर प्रदेश में हिंद एग्रो इंडस्ट्रीज के डायरेक्टर सुरेंद्र कुमार रंजन ने बताया कि हमारे मीट बिना चर्बी वाले होने के साथ सस्ते भी होते हैं। हम हलाल मीट की सप्लाई करते हैं, जिसे खाड़ी देशों में प्रमुखता मिलती है।
हालांकि अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरा उतरने वाले मीट को यूरोप, दक्षिण-पूर्व एशिया और खाड़ी देशों में भेज दिया जाता है लेकिन एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि देश में बिकने वाले मीट की बड़ी संख्या घटिया किस्म की होती है। बेस्ट क्वॉलिटी मीट को देश से बाहर भेज दिया जाता है जबकि बी-ग्रेड मीट घरेलू मार्केट में पहुंचता है।
सरकारों की दुरंगी नीतियों के कारण पशु हिंसा बढ़ रही हैं और मांस निर्यात निरंतर बढ़ रहा हैं और दूसरी और सरकारें अनमने मन से पशु संरक्षण का नाटक करती हैं .कारण मांस निर्यात से आर्थिक उन्नति होना लक्ष्य हैं .इस रफतार से यह क्रम चला तो आने वाले वर्षों में पशु धन समाप्त हो जायेगा
इसके लिए सरकार आवारा पशुओं के संरक्षण वास्ते घास भूसा और सुरक्षा प्रदान करे ,तथा ऊपर के आंकड़ों के हिसाब से मांस खाना हानि करक हैं और अनेकों वैज्ञानिकों ने चेताया भी हैं पर जिव्हा लोलुपी लोगों के कारण मांसाहार का चलन बढ़ाना और बढ़ना देश ,समाज ,परिवार और व्यक्तिगत रूप से हानिकारक होगा और हैं .कही यह परिपाटी हमारे परिवारों में तो लागु नहीं हो गयी ,हम भी अपने वृद्ध अनुपयोगी माता पिता को वृधाश्रम में तो नहीं डालने लगे ?
गौशालाओं और दयोदय केंद्रों के माध्यम से जीव दया के साथ पशुसंरक्षण भी होगा और हम अहिंसक समाज का निर्माण में योगदान दे सकेंगे।

तेल के दाम में आग
सिद्धार्थ शंकर
सऊदी अरब के ऑइल प्रोसेसिंग प्लांट्स पर शनिवार को ड्रोन से हुए हमलों के चलते इंटरनेशनल मार्केट में तेल के दाम 10 फीसदी बढ़ गए हैं। सोमवार के एशियाई बाजारों में शुरुआती कारोबार में कीमतों में तेजी देखी गई, जिसका असर पूरे विश्व पर पड़ सकता है। हमले की वजह से दुनिया के सबसे बड़े क्रूड उत्पादक की आपूर्ति करीब आधी हो गई और कच्चे तेल की कीमत ऊपर पहुंच गई हैं। एशियाई बाजार में शुरुआत में ब्रेंट क्रूड 11.77 फीसदी की तेजी के साथ 67. 31 डॉलर प्रति बैरल हो गया है। वेस्ट टेक्सास इंटरमीडिएट 10.68 फीसदी चढ़कर 60.71 डॉलर पहुंच गया।
इस बीच अरामको हमले के बाद बाजार में फैली घबराहट दूर करने की कोशिशें कर रही है। कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमिन नसीर ने बाजार को आश्वस्त करने की कोशिश करते हुए कहा, ‘उत्पादन क्षमता को दोबारा पुराने स्तर पर लाने के लिए काम चल रहा है। अरामको को कुछ ही दिनों में अधिकांश उत्पादन दोबारा शुरू कर लेने की उम्मीद है। यह ड्रोन हमला ऐसे समय में हुआ है, जब कंपनी 100 अरब डॉलर की पूंजी जुटाने के लिए आईपीओ (प्रथम सार्वजनिक शेयर बिक्री) की तैयारी में है। विश्लेषकों का मानना है कि इस हमले से शायद ही आईपीओ की योजना टले, लेकिन कंपनी के मूल्यांकन पर इसका असर देखने को मिल सकता है। सऊदी इंक किताब के लेखक एलेन वॉल्ड ने कहा, ‘सउदी अरब के पास प्रचुर मात्रा में तेल का भंडार है, जिससे उपभोक्ताओं की मांग को पूरा किया जा सकता है। मुझे नहीं लगता कि इस कारण अरामको को किसी तरह का आर्थिक नुकसान होने वाला है।Ó ऐसा माना जाता है कि सउदी अरब के पास कई भूमिगत स्टोरेज फैसिलिटीज हैं, जिनमें तमाम रिफाइंड पेट्रोलियम उत्पादों के लाखों बैरल यूनिट्स भंडारित हैं। संकट के समय इनका इस्तेमाल किया जा सकता है।
अरामको की दो तेल रिफाइनरियों पर हुए ड्रोन हमले के बाद अमेरिका और ईरान के बीच तनाव फिर गहरा गया है। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जो कल तक ईरान से बातचीत किए जाने को तैयार थे, अब बिफर गए हैं। ट्रंप की तरफ से विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने कहा कि सऊदी अरब पर लगभग 100 हमलों के लिए तेहरान जिम्मेदार है जबकि रूहानी और जरीफ कूटनीति में शामिल होने का दिखावा करते हैं। ईरान ने अब दुनिया की ऊर्जा आपूर्ति पर एक अभूतपूर्व हमला किया है। यमन के हमलों का कोई सबूत नहीं है। बता दें कि ड्रोन हमले के कारण रियाद से 150 किलोमीटर दूर अबकैक शहर में रिफाइनरी में आग लग गई। अरामको कंपनी दुनिया के सबसे बड़े ऑयल प्रोसेसिंग प्लांट के रूप में जानी जाती है। अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने कहा कि ईरान ने दुनिया भर में तेल सप्लाई रोकने के लिए ड्रोन हमले करवाए हैं।
यमन के ईरान समर्थित हाउती विद्रोहियों ने ऑयल रिफाइनरी पर हमले की जिम्मेदारी ली है। विद्रोहियों ने बड़े पैमाने पर ऑपरेशन शुरू किया जिसमें 10 ड्रोन शामिल थे, जिन्होंने पूर्वी अरब में अबकीक और खुरेस में रिफाइनरियों को निशाना बनाया। इस हमले के बाद फारस की खाड़ी में तनाव बढऩे की आशंका प्रबल हो गई है क्योंकि एटमी डील को लेकर अमेरिका और ईरान पहले से एक-दूसरे के आमने-सामने हैं। अरामको का खुरेस प्लांट हर दिन लगभग 10 लाख बैरल कच्चा तेल प्रोसेस करता है। अरामको के मुताबिक, इस प्लांट के पास फिलहाल 20 अरब बैरल तेल रिजर्व है। यह हमला ऐसे समय हुआ है, जब अमेरिका और ईरान के बीच तनाव के हालात हैं। ईरान और अमेरिका के बीच पैदा हुए तनाव को लेकर दुनिया दो हिस्सों में बंटती नजर आ रही है। फिक्र की बात ये है कि दोनों ही तरफ परमाणु ताकत से लैस देशों की खेमेबंदी है। ऐसे में जरा सी चूक एक भयानक जंग को जन्म दे सकती है।

पर हित सरस धरम नहिं भाई
प्रो.शरद नारायण खरे
परोपकार अथवा परहित के बारे में कहा गया है कि,
“परहित सरस धरम धर्म नहिं भाई।
परपीड़ा सम नहिं अधमाई।।”
परोपकार की भावना मनुष्य को महानता की ओर ले जाती है। परोपकार से बढ़कर कोई पुण्य नहीं है। ईश्वर भी प्रकृति के माध्यम से हमें यह दर्शाता है कि परोपकार ही सबसे बड़ा गुण है क्योंकि पृथ्वी, नदी अथवा वृक्ष सभी दूसरों के लिए ही हैं।
‘वृक्ष कबहुँ नहिं फल भखै,
नदी न सर्चै नीर।
परमारथ के कारणे, साधुन धरा शरीर।’
परोपकार अर्थात् ‘पर+उपकार’ यानी दूसरों के लिए स्वयं को समर्पित करना व्यक्ति का सबसे बड़ा धर्म है। नदी का जल दूसरों के लिए है। वृक्ष कभी स्वयं अपना फल नहीं खाता है। इसी प्रकार धरती की सभी उपज दूसरों के लिए होती है। चाहे कितनी ही विषम परिस्थितियाँ क्यों न हों परन्तु ये सभी परोपकार की भावना का कभी परित्याग नहीं करते हैं।
वे मनुष्य भी महान होते हैं जो विकट से विकट परिस्थितियों में भी स्वयं को दूसरों के लिए, देश की सेवा के लिए अपने आपको बलिदान कर देते हैं। वे इतिहास में अमर हो गए। जब तक मानव सभ्यता रहेगी उनकी कुर्बानी सदा याद रहेगी।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस संदर्भ में बड़ी ही मार्मिक पंक्तियाँ लिखी हैं।
”परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अघमाई।।”
उन्होंने ‘परहित’ अर्थात् परोपकार को मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म बताया है। वहीं दूसरी ओर दूसरों को कष्ट पहुँचाने से बड़ा कोई अधर्म नहीं है। परोपकार ही वह गुण है जिसके कारण प्रभु ईसा मसीह सूली पर चढ़े, गाँधी जी ने गोली खाई तथा गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने सम्मुख अपने बच्चों को दीवार में चुनते हुए देखा।
सुकरात ने विष के प्याले का वरण कर लिया लेकिन मानवता को सच्चा ज्ञान देने के मार्ग का त्याग नहीं किया। ऋषि दधीचि ने देवताओं के कल्याण के लिए अपना शरीर त्याग दिया। इसके इसी महान गुण के कारण ही आज भी लोग इन्हें श्रद्‌धापूर्वक नमन करते हैं।
परोपकार ही वह महान गुण है जो मानव को इस सृष्टि के अन्य जीवों से उसे अलग करता है और सभी में श्रेष्ठता प्रदान करता है। इस गुण के अभाव में तो मनुष्य भी पशु की ही भाँति होता।
‘मैथिलीशरण गुप्त’ जी ने ठीक ही लिखा है कि:
“यह पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
अत: वही मनुष्य महान है जिसमें परोपकार की भावना है। वह निर्धनों की सहायता में विश्वास रखता है। वह निर्बलों का सहारा बनता है तथा खुद शिक्षित होता है और शिक्षा का प्रकाश दूसरों तक फैलाता है। परोपकार की भावना से परिपूरित व्यक्ति ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ भावना को अपनाकर मानवता के कल्याण के लिए निरंतर अग्रसर रहता है।
हमारे समाज में सामान्य जन परोपकार के प्रति सजग नहीं हैं और अपने ही स्वार्थ में लिप्त रहने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इसका साक्षात् प्रमाण बड़े-बड़े सरकारी अस्पतालों में देखा जा सकता है जहाँ गरीब बीमार व्यक्तियों की कोई पूछ नहीं है। डाक्टर, नर्स सभी इन लोगों की उपेक्षा करते है।
मानवीय संवेदनहीनता का पता अन्य दैवी आपदाओं- बाढ़, भूकंप, सूखा आदि स्थितियों में भी चलता है। कभी-कभी जब दंगे-फसाद होते हैं तो लालचियों की बन आती है और वे लूट-खसोट पर उतर आते हैं। ऐसी क्षुद्रताएँ हमार समाज के लिए अभिशाप हैं। अत: आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने अंतर्मन में झाँक कर देखे और अपनी कमजोरियों को दूर करने का प्रयास करें।
“जिसने परमारथ गहा,उसमें है देवत्व।
ममता,करुणा औ’ दया,परहित के ही तत्व।। ”

रैगिंग पर रोक सामाजिक जरूरत
योगेश कुमार गोयल
सुप्रीम कोर्ट के सख्त दिशा-निर्देशों के बावजूद देशभर के कॉलेजों में रैगिंग के मामले थमने का नाम नहीं ले रहे। पिछले महीने 20 अगस्त को इटावा के सैफई मेडिकल कॉलेज में वरिष्ठ छात्रों द्वारा रैगिंग के नाम पर करीब 150 जूनियर छात्रों के जबरन सिर मुंडवा दिए गए थे और मुख्यमंत्री के आदेश पर जिला प्रशासन द्वारा कराई गई शुरूआती जांच में यह भी साबित हो गया कि सैफई विश्वविद्यालय के कुलपति तथा रजिस्ट्रार ने इस मामले में लापरवाही बरती। उस मामले की जांच चल ही रही थी कि देखते ही देखते उसके बाद के एक सप्ताह के भीतर कई और कॉलेजों से भी रैगिंग की घटनाएं सामने आ गई, जो वाकई शर्मसाार कर देने वाली हैं। पिछले दिनों सहारनपुर में शेखुल हिन्द मौलाना महमूद उल हसन मेडिकल कॉलेज, देहरादून के राजकीय दून मेडिकल कॉलेज, हल्द्वानी राजकीय मेडिकल कॉलेज, राजस्थान में चूरू के पं. दीनदयाल उपाध्याय मेडिकल कॉलेज, कानपुर के चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय इत्यादि से भी सारे नियम-कानूनों को ताक पर रखकर जूनियर छात्रों की रैगिंग किए जाने के मामले सामने आए।
करीब एक दशक पहले रैगिंग के ऐसे दो मामले सामने आए थे, जिनका सुप्रीम कोर्ट ने कड़ा संज्ञान लिया था और बहुत कड़े दिशा-निर्देश तय किए थे लेकिन उसके बावजूद जिस प्रकार हर साल कॉलेजों में नए सैशन की शुरूआत के बाद कुछ माह तक रैगिंग के नाम पर जूनियर छात्रों के साथ मारपीट तथा अमानवीय हरकतों की घटनाएं सामने आती रही हैं, उससे स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षण संस्थान अपने परिसरों में रैगिंग की घटनाओं को रोकने के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करने और पर्याप्त कदम उठाने में कोताही बरत रहे हैं। 8 मार्च 2009 को देश के अपेक्षाकृत शांत समझे जाने वाले राज्य हिमाचल प्रदेश में कांगडा स्थित डा. राजेन्द्र प्रसाद मेडिकल कॉलेज में रैगिंग के चलते प्रथम वर्ष के छात्र 19 वर्षीय अमन सत्य काचरू की मौत और उसके 4 दिन बाद आंध्र प्रदेश में गुंटूर के बापतला स्थित कृषि इंजीनियरिंग कॉलेज की एक प्रथम वर्ष की छात्रा की कुछ सीनियर छात्राओं द्वारा की गई अभद्र रैगिंग के चलते उक्त छात्रा द्वारा आत्महत्या के प्रयास ने बुद्धिजीवियों सहित आम जनमानस को भी झकझोर दिया था और देश की सर्वोच्च अदालत को रैगिंग को लेकर कठोर रूख अपनाने पर विवश किया था। वैसे उससे चंद दिन पूर्व ही 11 फरवरी 2009 को भी सुप्रीम कोर्ट ने कठोर रवैया अपनाते हुए रैगिंग में ‘मानवाधिकार हनन की गंध आने’ जैसी टिप्पणियां करते हुए रावघन कमेटी की सिफारिशों को सख्ती से लागू करने का निर्देश दिया था।
यह विड़म्बना ही है कि सुप्रीम कोर्ट के कड़े रूख के बावजूद पिछले कुछ वर्षों में रैगिंग के चलते देशभर में कई दर्जन छात्रों की मौत हो चुकी है। आंकड़ों देखें तो पिछले सात साल के दौरान ही रैगिंग से परेशान होकर 54 छात्रों ने मौत को गले लगा लिया जबकि रैगिंग की कुल 4893 शिकायतें सामने आई। शिक्षण संस्थानों में खौफनाक रूप धारण कर उद्दंडतापूर्वक विचरण करते रैगिंग रूपी दानव के चलते अनेक छात्र मानसिक रोगों तथा शारीरिक अक्षमताओं के भी शिकार हो चुके हैं। रैगिंग के दौरान जूनियर छात्रों को कपड़े उतारकर नाचने के लिए बाध्य करना तो आज एक मामूली सी बात लगती है। कुछ कॉलेजों में तो इतनी भद्दी व अश्लील रैगिंग की जाती है कि छात्र रैगिंग से बचने के लिए होस्टलों की पहली या दूसरी मंजिलों से कूदकर भाग जाते हैं और इस भागदौड़ में कुछ अपने हाथ-पैर भी तुड़वा बैठते हैं तो कुछ को अपनी जान भी गंवानी पड़ती है। कुछ वर्ष पूर्व ऐसे ही कुछ मामले हरियाणा के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में भी सामने आए थे। रैगिंग से शारीरिक व मानसिक तौर पर प्रताडि़त होने वाले छात्रों में आत्महत्या जैसे हृदयविदारक कदम उठाने की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है। रैगिंग के दौरान सीनियरों के अमानवीय व अश्लील आदेशों का पालन न करने वाले नए छात्रों की हत्या किए जाने के मामलों ने तो रैंगिंग के औचित्य पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।
6 नवम्बर 1996 की एक अमानवीय घटना को तो कभी नहीं भुलाया जा सकेगा। उस दिन अन्नामलाई विश्वविद्यालय में रैगिंग के दौरान घटी एक बेहद वहशियाना घटना के बाद हालांकि दोषी सीनियर छात्र डेविड को अदालत द्वारा उसके घृणित अपराध के लिए करीब 36 वर्ष तक की अवधि की तीन अलग-अलग सजाएं सुनाई गई थी लेकिन लगता है कि इस तरह की घटना के परिणामों से रूबरू होने के बाद भी छात्रों ने कोई सबक नहीं लिया। शायद यही वजह है कि अदालतों को ही रैगिंग को लेकर कड़े दिशा-निर्देश जारी करने पर बाध्य होना पड़ा लेकिन फिर भी अगर रैगिंग के मामले लगातार सामने आ रहे हैं तो यह बेहद चिंता की बात है।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों पर कॉलेजों में रैगिंग रोकने के उपायों की निगरानी के लिए नवम्बर 2006 में गठित की गई आर. के. राघवन समिति द्वारा उच्चतर शिक्षण संस्थानों में रैगिंग रोकने हेतु कठोर कदम उठाने के लिए संबंधित नियामक इकाईयों यूजीसी तथा ऐसे ही अन्य संस्थानों को वर्ष 2008 में नए शिक्षा सत्र शुरू होने से ठीक पहले फिर से निर्देश दिए गए थे, जिससे पुनः स्पष्ट हुआ था कि सुप्रीम कोर्ट के तमाम दिशा-निर्देशों और जद्दोजहद के बावजूद रैगिंग की समस्या जस की तस है। शिक्षा संस्थानों में रैगिंग की घटनाओं से निपटने के तौर-तरीकों के बारे में अनुशंसा देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर सीबीआई के पूर्व अध्यक्ष आर के राघवन की अध्यक्षता में गठित समिति के सुझावों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय खण्डपीठ ने रैगिंग के खिलाफ सख्त निर्देश जारी किए थे। राघवन समिति ने अपनी 200 पृष्ठों की रिपोर्ट ‘द मैनिस ऑफ रैगिंग इन एजुकेशनल इंस्टीच्यूट एंड मेजर्स टू कर्ब इट’ में रैगिंग रोकने के संबंध में करीब 50 सुझाव दिए थे लेकिन यह विड़म्बना है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा बार-बार कड़ा रूख अपनाए जाने के बावजूद न ही छात्र और न ही कॉलेज प्रशासन इससे कोई नसीहत लेते नजर आ रहे हैं।
कहना गलत न होगा कि पश्चिम की नकल के रूप में हल्के-फुल्के अंदाज में शुरू हुई रैगिंग रूपी यह परम्परा शिक्षण संस्थानों में एक ऐसे नासूर के रूप में उभरी है, जिसके चलते बीते कुछ वर्षों में बहुत से मेधावी छात्रों को शिक्षा बीच में छोड़कर अपने सपनों का गला घोंट वापस अपने घर लौट जाने का निर्णय लेना पड़ा, कुछ के समक्ष आत्महत्या जैसा कदम उठाने की नौबत आई तो कुछ छात्र रैगिंग के चलते मानसिक रोगी भी बन गए लेकिन स्थिति गंभीर होने के बाद भी जब न तो शिक्षा विभाग ने खौफनाक रूप धारण करती इस समस्या की ओर ध्यान दिया और न ही राज्य सरकारों या केन्द्र ने तो सुप्रीम कोर्ट को ही इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा लेकिन अगर सुप्रीम कोर्ट के कड़े दिशा-निर्देशों के बावजूद देशभर में रैगिंग की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं तो स्पष्ट है कि न तो कॉलेज प्रशासन ऐसी घटनाओं को रोकने के प्रति गंभीर है और न ही संबंधित नियामक इकाईयां। राघवन कमेटी ने तो अपनी रिपोर्ट में रैगिंग से पीडि़त छात्रों के मामलों को दहेज पीडि़त महिलाओं के मामलों के समान देखने और दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा देने की सिफारिश भी की थी।
सर्वोच्च अदालत ने अपने एक फैसले में कहा था कि रैगिंग के मामलों में दंड कठोर होना चाहिए ताकि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। कोर्ट ने शिक्षण संस्थानों को अपनी विवरणिकाओं में यह स्पष्ट निर्देश शामिल करने को भी कहा था कि जो भी छात्र रैगिंग में लिप्त पाए जाएंगे, उनका प्रवेश रद्द कर दिया जाएगा और अगर सीनियर छात्र ऐसा करेंगे तो उन्हें निष्कासित कर दिया जाएगा। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि जो शिक्षण संस्थाएं अपने यहां रैगिंग रोकने में असफल रहेंगी, उन्हें सरकार की ओर से मिलने वाला अनुदान या अन्य आर्थिक सहायता रोक दी जाएगी। अगर रैगिंग पर अंकुश लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के सख्त निर्देशों और इसके लिए शिक्षा संस्थानों, प्रशासन व छात्रावास अधिकारियों की जिम्मेदारियां तय करने के बावजूद रैगिंग के मामले हर साल लगातार बढ़ते रहे हैं तो इसका सा अर्थ यही है कि न तो सरकारें ऐसे मामले सोशल मीडिया के जरिये वायरल होने तक इन पर लगाम लगाने के प्रति कृतसंकल्प दिखती हैं और न ही कॉलेज प्रशासन अपनी जिम्मेदारी ठीक प्रकार से निभा रहे हैं।

लीक से हटकर चलने वाले राम जेठमलानी
डॉ. अरविन्द प्रेमचंद जैन
जैसे कहावत हैं शायर, शेर, सपूत ये हमेशा लीक से हटकर चलते हैं। उनमे से श्री जेठमलानी भी एक थे,बेबाकी, विवादी और निर्भयी होने से निडर थे। वर्तमान में ऐसे बिरले व्यक्तित्व के धनी जेठमलानी जी थे।
श्री राम जेठमलानी एक सुप्रसिद्ध भारतीय वकील और राजनीतिज्ञ थे। 6ठी व 7वीं लोक सभा में वे भारतीय जनता पार्टी से मुंबई से दो बार चुनाव जीते थे। बाद में अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार में केन्द्रीय कानून मन्त्री व शहरी विकास मन्त्री रहे थे। किसी विवादास्पद बयान के चलते उन्हें जब भाजपा से निकाल दिया था तो उन्होंने वाजपेयी के ही खिलाफ लखनऊ लोकसभा सीट से 2004 का चुनाव लड़ा था किन्तु हार गये। 7 मई 2010 को उन्हें सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन का अध्यक्ष चुना गया था। 2010 में उन्हें फिर से भाजपा ने पार्टी में शामिल कर लिया था और राजस्थान से राज्य सभा का सांसद बनाया। राम जेठमलानी उच्च प्रोफाइल से सम्बन्धित मामलों के मुकदमे की पैरवी करने के कारण विवादास्पद रहे और उसके लिए उन्हें कई बार कड़ी आलोचना का सामना भी करना पड़ा था। यद्यी पि वे उच्चतम न्यायालय के सबसे महँगे वकील थे इसके बावजूद उन्होंने कई मामलों में नि:शुल्क पैरवी की। दिनांक 8 सितम्बर 2019 को स्वास्थ्य खराब होने के कारण उनका निधन हुआ
राम जेठमलानी का जन्म 14 सितम्बर 1923 को ब्रिटिश भारत के शिकारपुर शहर में जो आजकल पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त में है, भूलचन्द गुरुमुखदास जेठमलानी व उनकी पत्नी पार्वती भूलचन्द के यहाँ हुआ था। सिन्धी प्रथानुसार पुत्र के साथ पिता का नाम भी आता है अत: उनका पूरा नाम रामभूलचन्द जेठमलानी था परन्तु चूँकि उनके बचपन का नाम राम था अत: आगे चलकर वे राम जेठमलानी के नाम से ही मशहूर हो गये। स्कूली शिक्षा के दौरान दो-दो क्लास एक साल में पास करने के कारण उन्होंने 13 साल की उम्र में मैट्रिक का इम्तिहान पास कर लिया और 17 साल की उम्र में ही एल०एल०बी० की डिग्री हासिल कर ली थी। उस समय वकालत की प्रैक्टिस करने के लिये 21 साल की उम्र जरूरी थी मगर जेठमलानी के लिये एक विशेष प्रस्ताव पास करके 18 साल की उम्र में प्रैक्टिस करने की इजाजत दी गयी। बाद में उन्होंने एस०सी०साहनी लॉ कॉलेज कराची एल०एल०एम० की डिग्री प्राप्त की।
18 साल से कुछ ही अधिक उम्र में उनकी शादी पारम्परिक हिन्दू पद्धति से दुर्गा नाम की एक कन्या से कर दी गयी। 1947 में भारत-पाकिस्तान के बँटवारे से कुछ ही समय पूर्व उन्होंने रत्ना साहनी नाम की एक महिला वकील से दूसरा विवाह कर लिया। जेठमलानी के परिवार में उनकी दोनों पत्नियों से कुल चार बच्चे हैं-रानी, शोभा और महेश, तीन दुर्गा से तथा एक जनक, रत्ना से।
निधन
जेठमलानी की मृत्यु 8 सितंबर 2019 को नई दिल्ली में उनके घर पर हुई। उनके बेटे महेश जेठमलानी के अनुसार, वह पिछले कुछ महीनों से ठीक नहीं थे; राम जेठमलानी ने अपने 96 वें जन्मदिन के ठीक छह दिन पहले 7:45 बजे सुबह अंतिम सांस ली।
तुम जब आये जगत हंसा तुम रोये
अब तुम ऐसी करनी कर गए
कि जग रोया और तुम सो गए
सो गए——- सो गए ।

 

किसानों की सुध
सिद्धार्थ शंकर
यह किसी से छिपा नहीं है कि 60 साल की उम्र के बाद कोई भी व्यक्ति सामाजिक रूप से किस अवस्था में रहता है और बहुत सारे लोगों के लिए परिवार पर निर्भरता कैसी स्थिति पैदा करती है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसान मानधन योजना की शुरुआत की है ताकि किसानों को बुढ़ापे में मुसीबत में न जीना पड़े, यह पेंशन योजना उसकी गारंटी देगी। गौरतलब है कि किसानों को सामाजिक सुरक्षा का कवच देने वाली इस योजना के तहत 60 साल की उम्र के बाद लघु और सीमांत किसानों को तीन हजार रुपए पेंशन देने का प्रावधान है। इस योजना का लाभ लेने के लिए उम्र के मुताबिक हर महीने एक निर्धारित रकम जमा करानी होगी। हालांकि कुछ खास सुविधाप्राप्त वर्ग के लोगों को इस योजना का लाभ नहीं मिल सकेगा।
खेती-किसानी का सवाल काफी समय से देश की मुख्य समस्याओं में शुमार है। मगर खेती के लगातार घाटे का सौदा होते जाने और किसानों के निजी जीवन में खड़ी चुनौतियों का कोई ठोस हल नहीं निकाला जा सका है। अलबत्ता अमूमन सभी सरकारों ने हर मौके पर आश्वासनों और वादों की झड़ी जरूर लगाई, लेकिन किसानों की समस्याएं गहराती ही गईं। फसलों के समर्थन मूल्य के बरक्स खुले बाजार में उनकी कीमतों ने व्यापारियों का लाभ तो सुनिश्चित किया, लेकिन किसानों के हक में कुछ खास नहीं आया। यही वजह है कि किसानों के सामने कई बार गुजारे तक का सवाल एक बड़ी चुनौती बन गया। ऐसे में उनके लिए जो न्यूनतम मदद हो सकती थी, उस पर भी कभी विचार नहीं किया गया। बल्कि खेती-किसानी को बढ़ावा व संरक्षण देने का दावा करने वाली सरकारों की प्राथमिकता में भी इस समस्या को जगह नहीं मिल सकी। नतीजतन, किसानों की मुश्किलें दिनोंदिन बढ़ती गर्इं। कृषि ऋण, फसलों की बर्बादी या खेती में घाटे से उपजे तनाव और दबाव की वजह से लाखों किसानों ने आत्महत्या तक कर ली।
ऐसे में अगर हर महीने उन्हें एक निर्धारित रकम मिलती है, तो यह सेहत संबंधी और दूसरी जरूरतों को पूरा करने के साथ-साथ उनके मान-सम्मान को बनाए रखने में भी मददगार हो सकती है। निश्चित रूप से लघु और सीमांत किसानों के निजी जीवन को खुशहाल और सम्मानजनक बनाने की दिशा में सरकार का यह एक बड़ा कदम है। पर कर्ज सहित खेती की आम मुश्किलों के अलावा फसलों के मारे जाने या उनकी न्यूनतम लागत भी वसूल न हो पाने के बाद किसानों के सामने कैसी समस्या खड़ी होती है, यह एक जगजाहिर सवाल रहा है। इसलिए किसानों को सामाजिक सुरक्षा कवच मुहैया कराने के साथ कृषि क्षेत्र के सामने खड़ी अन्य बड़ी चुनौतियों को दूर करने के लिए भी मजबूत इच्छाशक्ति के साथ ठोस पहलकदमी की जरूरत है। किसान मानधन योजना से निश्चित रूप से किसानों को बड़ी राहत मिल सकेगी।

भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया
विवेक रंजन श्रीवास्तव
(इंजीनियर्स डे 15 सितम्बर) आज अमेरिका में सिलिकान वैली में तब तक कोई कंपनी सफल नही मानी जाती जब तक उसमें कोई भारतीय इंजीनियर कार्यरत न हो ….,भारत के आई आई टी जैसे संस्थानो के इंजीनियर्स ने विश्व में अपनी बुद्धि से भारतीय श्रेष्ठता का समीकरण अपने पक्ष में कर दिखाया है। प्रतिवर्ष भारत रत्न सर मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरैया का जन्मदिवस इंजीनियर्स डे के रूप में मनाया जाता है। पंडित नेहरू ने कल कारखानो को नये भारत के तीर्थ कहा था , इन्ही तीर्थौ के पुजारी , निर्माता इंजीनियर्स को आज अभियंता दिवस पर बधाई ….विगत कुछ दशको में इंजीनियर्स की छबि में भ्रष्टाचार के घोलमाल में बढ़ोत्री हुई है , अनेक इंजीनियर्स प्रशासनिक अधिकारी या मैनेजमेंट की उच्च शिक्षा लेकर बड़े मैनेजर बन गये हैं , आइये आज इंजीनियर्स डे पर कुछ पल चिंतन करे समाज में इंजीनियर्स की इस दशा पर , हो रहे इन परिवर्तनो पर … इंजीनियर्स अब राजनेताओ के इशारो चलने वाली कठपुतली नही हो गये हैं क्या? देश में आज इंजीनियरिंग शिक्षा के हजारो कालेज खुल गये हैं , लाखो इंजीनियर्स प्रति वर्ष निकल रहे हैं , पर उनमें से कितनो में वह योग्यता या जज्बा है जो भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया में था …….मनन चिंतन का विषय है।
भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया की जीवनी ..अध्ययन और प्रेरणा पुंज भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया का जन्म मैसूर (कर्नाटक) के कोलार जिले के चिक्काबल्लापुर तालुक में 15 सितंबर 1860 को हुआ था। उनके पिता का नाम श्रीनिवास शास्त्री तथा माता का नाम वेंकाचम्मा था। पिता संस्कृत के विद्वान थे। विश्वेश्वरैया ने प्रारंभिक शिक्षा जन्म स्थान से ही पूरी की। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने बंगलूर के सेंट्रल कॉलेज में दाखिला लिया। लेकिन यहां उनके पास धन का अभाव था। अत: उन्हें टयूशन करना पड़ा। विश्वेश्वरैया ने 1881 में बीए की परीक्षा में अव्वल स्थान प्राप्त किया। इसके बाद मैसूर सरकार की मदद से इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पूना के साइंस कॉलेज में दाखिला लिया। 1883 की एलसीई व एफसीई (वर्तमान समय की बीई उपाधि) की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करके अपनी योग्यता का परिचय दिया। इसी उपलब्धि के चलते महाराष्ट्र सरकार ने इन्हें नासिक में सहायक इंजीनियर के पद पर नियुक्त किया।
दक्षिण भारत के मैसूर, कर्र्नाटक को एक विकसित एवं समृद्धशाली क्षेत्र बनाने में भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया का अभूतपूर्व योगदान है। तकरीबन 55 वर्ष पहले जब देश स्वंतत्र नहीं था, तब कृष्णराजसागर बांध, भद्रावती आयरन एंड स्टील व‌र्क्स, मैसूर संदल ऑयल एंड सोप फैक्टरी, मैसूर विश्वविद्यालय, बैंक ऑफ मैसूर समेत अन्य कई महान उपलब्धियां एमवी ने कड़े प्रयास से ही संभव हो पाई। इसीलिए इन्हें कर्नाटक का भगीरथ भी कहते हैं। जब वह केवल 32 वर्ष के थे, उन्होंने सिंधु नदी से सुक्कुर कस्बे को पानी की पूर्ति भेजने का प्लान तैयार किया जो सभी इंजीनियरों को पसंद आया। सरकार ने सिंचाई व्यवस्था को दुरुस्त करने के उपायों को ढूंढने के लिए समिति बनाई। इसके लिए भारत रत्न इंजीनियर सर मोक्षगुण्डम विश्वेवश्वरैया ने एक नए ब्लॉक सिस्टम को ईजाद किया। उन्होंने स्टील के दरवाजे बनाए जो कि बांध से पानी के बहाव को रोकने में मदद करता था। उनके इस सिस्टम की प्रशंसा ब्रिटिश अधिकारियों ने मुक्तकंठ से की। आज यह प्रणाली पूरे विश्व में प्रयोग में लाई जा रही है। विश्वेश्वरैया ने मूसा व इसा नामक दो नदियों के पानी को बांधने के लिए भी प्लान तैयार किए। इसके बाद उन्हें मैसूर का चीफ इंजीनियर नियुक्त किया गया।
उस वक्तराज्य की हालत काफी बदतर थी। विश्वेश्वरैया लोगों की आधारभूत समस्याओं जैसे अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी आदि को लेकर भी चिंतित थे। फैक्टरियों का अभाव, सिंचाई के लिए वर्षा जल पर निर्भरता तथा खेती के पारंपरिक साधनों के प्रयोग के कारण समस्याएं जस की तस थीं। इन समस्याओं के समाधान के लिए विश्वेश्वरैया ने इकॉनोमिक कॉन्फ्रेंस के गठन का सुझाव दिया। मैसूर के कृष्ण राजसागर बांध का निर्माण कराया। कृष्णराजसागर बांध के निर्माण के दौरान देश में सीमेंट नहीं बनता था, इसके लिए इंजीनियरों ने मोर्टार तैयार किया जो सीमेंट से ज्यादा मजबूत था। 1912 में विश्वेश्वरैया को मैसूर के महाराजा ने दीवान यानी मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया।
विश्वेश्वरैया शिक्षा की महत्ता को भलीभांति समझते थे। लोगों की गरीबी व कठिनाइयों का मुख्य कारण वह अशिक्षा को मानते थे। उन्होंने अपने कार्यकाल में मैसूर राज्य में स्कूलों की संख्या को 4,500 से बढ़ाकर 10,500 कर दिया। इसके साथ ही विद्यार्थियों की संख्या भी 1,40,000 से 3,66,000 तक पहुंच गई। मैसूर में लड़कियों के लिए अलग हॉस्टल तथा पहला फ‌र्स्ट ग्रेड कॉलेज (महारानी कॉलेज) खुलवाने का श्रेय भी विश्वेश्वरैया को ही जाता है। उन दिनों मैसूर के सभी कॉलेज मद्रास विश्वविद्यालय से संबद्ध थे। उनके ही अथक प्रयासों के चलते मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना हुई जो देश के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक है। इसके अलावा उन्होंने श्रेष्ठ छात्रों को अध्ययन करने के लिए विदेश जाने हेतु छात्रवृत्ति की भी व्यवस्था की। उन्होंने कई कृषि, इंजीनियरिंग व औद्योगिक कालेजों को भी खुलवाया।
वह उद्योग को देश की जान मानते थे, इसीलिए उन्होंने पहले से मौजूद उद्योगों जैसे सिल्क, संदल, मेटल, स्टील आदि को जापान व इटली के विशेषज्ञों की मदद से और अधिक विकसित किया। धन की जरूरत को पूरा करने के लिए उन्होंने बैंक ऑफ मैसूर खुलवाया। इस धन का उपयोग उद्योग-धंधों को विकसित करने में किया जाने लगा। 1918 में विश्वेश्वरैया दीवान पद से सेवानिवृत्त हो गए। औरों से अलग विश्वेश्वरैया ने 44 वर्ष तक और सक्रिय रहकर देश की सेवा की। सेवानिवृत्ति के दस वर्ष बाद भद्रा नदी में बाढ़ आ जाने से भद्रावती स्टील फैक्ट्री बंद हो गई। फैक्ट्री के जनरल मैनेजर जो एक अमेरिकन थे, ने स्थिति बहाल होने में छह महीने का वक्त मांगा। जोकि विश्वेश्वरैया को बहुत अधिक लगा। उन्होंने उस व्यक्ति को तुरंत हटाकर भारतीय इंजीनियरों को प्रशिक्षित कर तमाम विदेशी इंजीनियरों की जगह नियुक्त कर दिया। मैसूर में ऑटोमोबाइल तथा एयरक्राफ्ट फैक्टरी की शुरूआत करने का सपना मन में संजोए विश्वेश्वरैया ने 1935 में इस दिशा में कार्य शुरू किया। बंगलूर स्थित हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स तथा मुंबई की प्रीमियर ऑटोमोबाइल फैक्टरी उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है। 1947 में वह आल इंडिया मैन्युफैक्चरिंग एसोसिएशन के अध्यक्ष बने। उड़ीसा की नदियों की बाढ़ की समस्या से निजात पाने के लिए उन्होंने एक रिपोर्ट पेश की। इसी रिपोर्ट के आधार पर हीराकुंड तथा अन्य कई बांधों का निर्माण हुआ।
वह किसी भी कार्य को योजनाबद्ध तरीके से पूरा करने में विश्वास करते थे। 1928 में पहली बार रूस ने इस बात की महत्ता को समझते हुए प्रथम पंचवर्षीय योजना तैयार की थी। लेकिन विश्वेश्वरैया ने आठ वर्ष पहले ही 1920 में अपनी किताब रिकंस्ट्रक्टिंग इंडिया में इस तथ्य पर जोर दिया था। इसके अलावा 1935 में प्लान्ड इकॉनामी फॉर इंडिया भी लिखी। मजे की बात यह है कि 98 वर्ष की उम्र में भी वह प्लानिंग पर एक किताब लिख रहे थे। देश की सेवा ही विश्वेश्वरैया की तपस्या थी। 1955 में उनकी अभूतपूर्व तथा जनहितकारी उपलब्धियों के लिए उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया। जब वह 100 वर्ष के हुए तो भारत सरकार ने डाक टिकट जारी कर उनके सम्मान को और बढ़ाया। 101 वर्ष की दीर्घायु में 14 अप्रैल 1962 को उनका स्वर्गवास हो गया। 1952 में वह पटना गंगा नदी पर पुल निर्माण की योजना के संबंध में गए। उस समय उनकी आयु 92 थी। तपती धूप थी और साइट पर कार से जाना संभव नहीं था। इसके बावजूद वह साइट पर पैदल ही गए और लोगों को हैरत में डाल दिया। विश्वेश्वरैया ईमानदारी, त्याग, मेहनत इत्यादि जैसे सद्गुणों से संपन्न थे। उनका कहना था, कार्य जो भी हो लेकिन वह इस ढंग से किया गया हो कि वह दूसरों के कार्य से श्रेष्ठ हो। उनकी जीवनी हमारे लिये प्रेरणा है।

तुम्हे जान प्यारी है या पैसे प्यारे हैं ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
केंद्र सरकार द्वारा लागू किए गए नए मोटर वाहन अधिनियम को लेकर देश में विचित्र विवाद चल पड़ा है। इस अधिनियम को लाने का श्रेय केंद्रीय मंत्री नितीन गडकरी को है। केंद्र में भाजपा की सरकार है लेकिन इसी पार्टी की कुछ प्रांतीय सरकारों ने इस अधिनियम को लागू करने से मना कर दिया है। इस नए अधिनियम के मुताबिक यातायात नियमों का उल्लंघन करनेवालों पर जुर्माने की राशि दस गुनी कर दी गई है। लायसेंस के बिना कार-चालन, नशे में वाहन-चालन, हेलमेट और सीट बेल्ट नहीं लगाना, सिग्नल की परवाह न करना, वाहन बहुत तेज चलाना, ट्रकों में सीमा से ज्यादा माल भरना आदि उल्लंघनों के लिए 10,000 रु. तक का जुर्माना और सजा का प्रावधान भी इस नए कानून में है। इतने सख्त प्रावधान इसीलिए रखे गए हैं कि यातायात नियमों का जितना भयंकर उल्लंघन भारत में होता है, दुनिया के बहुत कम देशों में होता है। करोड़ों लोग बिना लायसेंस या फर्जी लायसेंस लेकर कार चलाते हैं। शराब के नशे में धुत्त होकर भी अंधाधुंध चलाते हैं। हर साल लाखों दुर्घटनाएं होती हैं। इसी प्रवृत्ति को रोकने या घटाने के लिए गडकरी ने इतना सख्त कानून बनवाया है लेकिन इसका उद्देश्य सरकारी खजानों को भरना नहीं है। देश के लोगों को यह तय करना है कि उन्हें अपनी जान प्यारी है या पैसे प्यारे हैं। इस नए कानून का पिछले डेढ़ दो हफ्तों में ही जबर्दस्त असर हुआ है। सड़क-दुर्घटनाओं की संख्या घटी हैं और लाइसेंस बनवानेवालों की संख्या तिगुनी-चौगुनी हो गई है। दिल्ली में 15 हजार की बजाय 45 हजार लोग लायसेंस-दफ्तरों पर रोज भीड़ लगाए हुए हैं। अब सड़क के सिग्नलों पर भी कार-चालक विशेष ध्यान देने लगे हैं। मालिकों ने अपने ड्राइवरों को कह दिया है कि सिग्नलों का उल्लंघन करोगे तो जुर्माना तुमको भरना पड़ेगा। यह डर अगर कुछ माह भी बना रहे तो देश के यातायात की दशा में बहुत सुधार हो सकता है। इसके लिए देश गडकरी का आभारी रहेगा लेकिन यह होना नहीं है, क्योंकि प्रांतों की कांग्रेसी सरकारों ने ही नहीं, कई भाजपा सरकारों ने भी इस नए अधिनियम के विरुद्ध खम ठोक दिए हैं। ऐसे में गडकरी क्या करेंगे ? वे भी राज्यों को कह रहे हैं कि आपको जो करना है सो करें। बीमारी गंभीर है और दवा कड़वी है। आपको पसंद नहीं है तो आप मीठी गोली खाइए और मस्त रहिए।

हिंदी राष्ट्र भाषा बनने की बुनियाद कमज़ोर है क्या ?
डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन
(हिंदी दिवस 14 सितम्बर 2019) सौ बरस से अधिक समय हो गया हिंदी को राष्ट्रभाषा का अधिकार मिले पर आज भी हिंदी सिर्फ हिंदी मानने वालों के कारण बची हैं .महात्मा गाँधी ने 1918 मे अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था की हिंदी को राष्ट्रभाषा का अधिकारी घोषित करना और दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार -प्रसार का अनुष्ठान करना ,” नर हो न निराश करो मन को ,कुछ काम करो कुछ काम करो “ये शब्द हमें हर बार पढ़ते पढ़ते धिक्कारते हैं की काम में सफलता क्यों नहीं मिलती ? क्या हमारे प्रयास लक्ष्य को पाने में असफल हैं ? क्या हम इतने स्वाभिमानी नहीं हैं ? क्या हम अब भी पराधीन हैं ?क्या हमें काले अंग्रेजों से फिर लड़ना होंगा?जब लड़ने वाले खुद शासक के साथ हैं तो हमारा हश्र क्या होगा ? हमें कब तक भीख मांगना होगी ?हमें कब तक लड़ना होगा ?कैसे लड़ना होंगा ?और क्यों लड़ें? ये प्रश्न बरबस नहीं उठ रहे। ये प्रश्न हमारे देश की दुरंगी नीति का परिणाम नहीं हैं क्या ?
आज भी हिंदी के समाचार पत्रों में आवेदन अंग्रेजी भाषा में मंगाया गया। बिलकुल ठीक जैसे शराब बंदी की दलील शराब पीने वाला कर रहा हैं कि शराब पीने से बहुत लाभ हैं। सिगरेटबंद करने वाला कहता हैं कि सिगरेट पीने से तीन फायदा पहला घर में चोरी नहीं होती ,कुत्ता नहीं काटता और बुढ़ापा नहीं आता। इसी प्रकार जब गंगोत्री ही अपवित्र हो गयी तब गंगा कहाँ तक पवित्र होंगी।। कारण जहाँ से हिंदी का बिगुल बजाना हैं वहां से अंग्रेजी का गुणगान है रहा हैं। वेश्याओं को सधवा स्त्री से बहुत जलन होती हैं।
हिंदी कि लड़ाई लगभग सौ बरस हो गए कि राष्ट्र भाषा बने, हिंदुस्तान की, भारत की ,इंडिया की पर हम न भारतीय हो पाए ,न हिंदुस्तानी हो पाए और हम हो गए अधकचरे इंडियन। अधकच्चे आम रोमांचकारी होते हैं पर उतना अच्छा स्वाद नहीं देते हैं। हम क्या थे ,क्या हैं और क्या हो रहे। किस्से न्याय की भीख मांगे. जहाँ बेदर्द हाकिम हो वहां फरियाद क्या करना।
हमारे हाकिम असल में पहले के विदेशों में पढ़े थे ,विदेशी भाषा पढ़े थे तो उनकी विदेशी मानसिकता हो गयी. यहाँ कोई बुराई नहीं हैं ज्ञान के लिए भाषा का कोई बंधन नहीं। कारन हमें अपने मस्तिष्क के खिड़की दरवाजे हमेशा खुले रखना चाहिए. पर इतने खुले नहीं की धूल ,कचरा हमारे घर आँगन को गन्दा कर दे। आज की स्थिति यह हैं की विश्व में संपर्क भाषा के लिए अंग्रेजी अनिवार्य हैं तो फिर चीन ,जापान ,रशिया आदि देशों को क्यों नहीं अनिवार्य हैं। हम अब भी गुलामी से मुक्त नहीं हो पाए। हम दूसरों की वैसाखी पर चल कर आगे बढ़नाचाहते हैं ,और शायद बढ़ गए। और इतने आगे निकल गए की शायद वापिस आना संभव नहीं हैं ,अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व इतना अधिक हो गया हैं वह देश की भाषायों की महारानी हो गयी और अन्य भाषाएँ उसकी चेरी बन गयी. अब बस महारानी बनाने के लिए ताज़पोशी करना अनिवार्य हैं तो उसका इन्तज़ार कर रहे हैं. कारण अंग्रेजी को सिंहासन में विराजें, फिर हिंदी और अन्य भाषाएँ अधिकृत चेरी मान ली जाएंगी. अब हिंदी अधकच्चे आम के समान हैं । पता नहीं कब आम पकेगा। पर इस देश में हिंदी के आसार नहीं हैं आने के। तो हम हिंदी प्रेमियों ,साहित्यकारों ,रचनाकारों को मूक दर्शक बन भाषा की गुलामी स्वीकार कर लेना चाहिए. अब तक जितना सृजन किया आपने वह शासक के साथ धोखा दिया ,राजद्रोह किया अंग्रेजी जैसे विक्टोरिया का अपमान किया। क्यों न सब पर देश द्रोह का मुकदमा चलाया जाय. क्यों ?अंग्रेजों के समय उनकी बगावत करने का क्या इलज़ाम होता।
खैर अब बात करने ,विरोध करने का कोई अर्थ नहीं हैं। जब अंग्रेजी को राज्याश्रय मिल चूका हैं तो अब हिंदी के राष्ट्र भाषा बनाने का विचार त्याग देना क्या उचित नहीं होगा ?!और हिंदी राष्ट्र भाषा यदि बन भी जाएंगी तो हमारे लिए कौन गौरव की बात होगी. महात्मा गाँधी और अन्य लोंगो ने व्यर्थ में स्वाधीनता का आंदोलन कर देश को स्वत्रन्त्र कराया। इससे क्या फायदा हुआ. अभी भी पुराने लोग कहते हैं की अंग्रेजो का ज़माना अच्छा था. कम से कम न्याय तो मिलता था ,सस्ता था ,पर अब तो हम और अधिक गुलाम हो गए ,मानसिक आर्थिक,राजनैतिक ,सामाजिक , सांस्कृतिक धार्मिक ,वैचारिक गुलाम,आदि । हमारी सोच ,कार्य संस्कार पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित हो गयी, अब हम सिर्फ यह कहते हैं की मेरा हाथ सुंघों मेरे पिता जी ने शुद्धघी खाया था उसकी खुशबू मेरे हाथ में हैं।
अब हमें पुराणी विरासत पर गर्व करने का कोई अधिकार नहीं हैं उनका मूल्यांकन जब नहीं होना हैं तब क्यों हम उसकी सेवा करे. ?जिन्होंने अंग्रेजी की सेवा की उनको मेवा मिल रहे हैं और मिलेंगे. एक दिन संयुक्त राष्ट्र में भाषण देने से हिंदी का विकास झूठी ,कोरी कल्पना हैं। जब तक जन जन की भाषा को उचित साथ नहीं मिलेंगा तब तक हमारी प्रतिष्ठा बिना नींव की होंगी ,हम कितने भी मंज़िल भवन बनाले पर वह बेबुनियाद कहलायाएंगी।
ससे समझ में आ गया हिंदी को राष्ट्र भाषा होना बहुत कठिन हैं पर हम अपनी माँ ,भाषा हिंदी की सेवा में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे और जहाँ जहाँ सरकार की खामियां हों उनको उजागर कर सरकार को मज़बूर करेंगे. हिंदी राष्ट्र भाषा बनेंगी बनेंगी उस दिन का इंतज़ार करेंगे।

दुश्मनों पर बेरहम साबित होता है ‘अपाचे’
योगेश कुमार गोयल
3 सितम्बर का दिन भारतीय वायुसेना के लिए ऐतिहासिक माना जाएगा, जब पठानकोट स्थित एयरबेस पर कुल 8 अपाचे एएच-64 हेलीकॉप्टर वायुसेना के बेड़े में शामिल किए गए। अपाचे हेलीकॉप्टरों की पहली खेप इसी साल 27 जुलाई को गाजियाबाद के हिंडन एयरबेस पर पहुुंची थी, जिन्हें अब पठानकोट एयरबेस पर तैनात कर दिया गया है। पठानकोट एयरबेस पर इन हेलिकॉप्टरों को पानी की बौछार करके सैल्यूट किया गया। इस एयरबेस पर अपाचे की तैनाती रणनीति का अहम हिस्सा माना जा रहा है क्योंकि यहां से सटी सीमा अक्सर तनावग्रस्त रही है। अपाचे भारतीय सेना में अब रूस में निर्मित बहुत पुराने हो चुके एमआई-36 हेलीकॉप्टरों का स्थान लेंगे। भारत को मार्च 2020 तक कुल 22 अपाचे हेलीकॉप्टर मिल जाएंगे और इन 22 हेलीकॉप्टरों की पूरी खेप वायुसेना में शामिल होने तथा इसी माह फ्रांस से राफेल विमानों की आपूर्ति शुरू होने के बाद निश्चित रूप से भारतीय वायुसेना की ताकत में काफी इजाफा होगा। दरअसल एएच-64ई अपाचे गार्जियन अटैक हेलीकॉप्टर को दुनिया के सबसे खतरनाक हेलीकॉप्टरों के रूप में जाना जाता है। अमेरिकी एयरोस्पेस कम्पनी ‘बोइंग’ द्वारा निर्मित यह हेलीकॉप्टर दुनिया का सबसे आधुनिक और घातक हेलिकॉप्टर माना जाता है, जो ‘लादेन किलर’ के नाम से भी विख्यात है। यह अमेरिकी सेना तथा कई अन्य अतंर्राष्ट्रीय रक्षा सेनाओं का सबसे एडवांस मल्टी रोल कॉम्बैट हेलीकॉप्टर है, जो एक साथ कई कार्यों को अंजाम दे सकता है। अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, सिंगापुर, इजरायल, नीदरलैंड, सऊदी अरब, इंडोनेशिया, मिस्र, ग्रीस, सऊदी अरब, कतर के अलावा कुछ अन्य देशों की सेनाएं भी इस हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल कर रही हैं। ‘बोइंग’ अब तक दुनियाभर में 2200 से भी अधिक अपाचे हेलीकॉप्टरों की आपूर्ति कर चुकी है और भारत दुनिया का 14वां ऐसा देश है, जिसने अपनी सेनाओं के लिए इसका चयन किया है।
पांच वर्षों तक अफगानिस्तान के संवेदनशील इलाकों में अपाचे हेलिकॉप्टर उड़ा चुके ब्रिटिश वायुसेना में पायलट रहे एड मैकी का इस हेलीकॉप्टर के बारे में कहना है कि अपाचे दुनिया की सबसे परिष्कृत किन्तु घातक मशीन है, जो अपने दुश्मनों पर बहुत बेरहम साबित होती है। मैकी के मुताबिक किसी नए पायलट को अपाचे उड़ाने के लिए कड़ी और बहुत लंबी ट्रेनिंग लेनी होती है, जिसमें काफी खर्च भी आता है। इसके लिए सेना को एक पायलट की ट्रेनिंग पर 30 लाख डॉलर तक भी खर्च करने पड़ सकते हैं। ब्रिटिश पायलट मैकी कहते हैं कि अपाचे को दो पायलट मिलकर उड़ाते हैं। मुख्य पायलट पीछे बैठता है, जिसकी सीट थोड़ी ऊंची होती है, वही हेलीकॉप्टर को नियंत्रित करता है जबकि आगे बैठा दूसरा पायलट निशाना लगाता है और फायर करता है। वह बताते हैं कि अपाचे का निशाना बहुत सटीक है, जिसका सबसे बड़ा फायदा युद्ध क्षेत्र में होता है, जहां दुश्मन पर निशाना लगाते समय आम लोगों को नुकसान नहीं पहुंचता। यह सिर्फ दुश्मन पर हमला करने में ही नहीं अपितु सर्जिकल ऑपरेशनों को सफलतापूर्वक अंजाम देने में भी वायुसेना के लिए बहुत मददगार साबित हो सकता है। अपाचे की एक और विशेषता यह है कि यह युद्ध के मैदान में केवल दुश्मन के परखच्चे उड़ाने का ही काम नहीं करता बल्कि यह युद्धस्थल की तस्वीरें खींचकर उन्हें अपने एयरबेस पर ट्रांसमिट भी कर देता है।
करीब 16 फुट ऊंचे और 18 फुट चौड़े अपाचे को उड़ाने के लिए दो पायलट होना जरूरी है। इसके बड़े विंग को चलाने के लिए इसमें दो इंजन फिट हैं, जिस कारण इसकी रफ्तार बहुत ज्यादा है। अमेरिका की डिफेंस सिक्योरिटी कॉरपोरेशन एजेंसी का कहना है कि अपाचे एएच-64ई हेलिकॉप्टर भारतीय सेना की रक्षात्मक क्षमता को बढ़ाएगा, जिससे भारतीय सेना को जमीन पर मौजूद खतरों से लड़ने में मदद मिलेगी, साथ ही सेना का आधुनिकीकरण भी होगा। भारतीय वायुसेना की सामरिक जरूरतों के लिहाज से अपाचे इसलिए भी बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि हमारी वायुसेना की जरूरत के मुताबिक ही इसमें अपेक्षित बदलाव किए गए हैं। ढ़ाई अरब डॉलर अर्थात् करीब साढ़े सत्रह हजार करोड़ रुपये का यह हेलीकॉप्टर सौदा करीब चार साल पहले हुआ था, जब सितम्बर 2015 में भारत ने अमेरिका से 22 अपाचे और 15 चिनूक हेलिकॉप्टर खरीदने के लिए सौदा किया था। रक्षा मंत्रालय द्वारा 2017 में भी 4168 करोड़ रुपये की लागत से बोइंग से हथियार प्रणालियों सहित छह और अपाचे हेलीकॉप्टरों की खरीद को मंजूरी दी गई थी।
अपाचे एक ऐसा अग्रणी बहुउद्देश्यीय लड़ाकू हेलीकॉप्टर है, जो दुश्मन की नाक के नीचे किसी भी मिशन को पूरा करने में सक्षम है। इसे छिपकर वार करने के लिए जाना जाता है, इसीलिए इसका इस्तेमाल दुश्मन के इलाके में आसानी से घुसने में भी किया जाता है। अमेरिकी सेना अपने कई मिशनों में इसका इस्तेमाल कर चुकी है। दुश्मन के इलाके में आसानी से घुसने की क्षमता, जमीन के काफी करीब उड़ान भरने में कारगर, हवा से जमीन में मार करने वाली मिसाइलों और बंदूकों से लैस, सिर्फ 1 मिनट में 128 टारगेट निशाना बनाने तथा दिन के अलावा रात में भी आसानी से कहीं भी जाने में सक्षम, किसी भी मौसम में उड़ान भरने तथा आसानी से टारगेट डिटेक्ट करने में सक्षम, दुश्मन के रडार को आसानी से चकमा देने में माहिर इत्यादि अनेक खूबियों से लैस अपाचे पहली बार वर्ष 1975 में आकाश में उड़ान भरता नजर आया था, जिसे 1986 में अमेरिकी सेना में शामिल किया गया था। अमेरिका ने अपने इसी हेलिकॉप्टर का पनामा से लेकर अफगानिस्तान और इराक तक के साथ दुश्मनों को धूल चटाने के लिए इस्तेमाल किया था। इसके अलावा इजरायल भी लेबनान तथा गाजा पट्टी में अपने सैन्य ऑपरेशनों के लिए अपाचे का इस्तेमाल करता रहा है।
अपाचे की ढ़ेरों विशेषताएं ही इसे भारतीय वायुसेना को नई ताकत प्रदान करने के लिए पर्याप्त हैं। इसमें सटीक मार करने और जमीन से उत्पन्न खतरों के बीच प्रतिकूल हवाईक्षेत्र में परिचालित होने की अद्भुत क्षमता है। अपाचे का डिजाइन कुछ इस प्रकार तैयार किया गया है कि यह आसानी से दुश्मन की किलेबंदी को भेदकर उसके इलाके में घुसकर बहुत सटीक हमले करने में सक्षम है और इसकी इन्हीं विशेषताओं के चलते इससे पीओके से होने वाली आतंकी घुसपैठ को रोकने और वहां के आतंकी ठिकानों को तबाह करने में भारतीय सेना को मदद मिलेगी, जहां लड़ाकू विमानों का प्रभावी इस्तेमाल संभव नहीं है। 280 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से उड़ान भरने में सक्षम यह हेलीकॉप्टर तेज गति के कारण बड़ी आसानी से दुश्मनों के टैंकरों के परखच्चे उड़ा सकता है। बहुत तेज रफ्तार से दौड़ने में सक्षम इस हेलीकॉप्टर को रडार पर पकड़ना बेहद मुश्किल है। यह बगैर पहचान में आए चलते-फिरते या रूके हुए लक्ष्यों को आसानी से भांप सकता है। इतना ही नहीं, सिर्फ एक मिनट के भीतर यह 128 लक्ष्यों से होने वाले खतरों को भांपकर उन्हें प्राथमिकता के साथ बता देता है। इसे इस तरीके से डिजाइन किया गया है कि यह युद्ध क्षेत्र में किसी भी परिस्थिति में टिका रह सकता है। यह किसी भी मौसम या किसी भी स्थिति में दुश्मन पर हमला कर सकता है और नाइट विजन सिस्टम की मदद से रात में भी दुश्मनों की टोह लेने, हवा से जमीन पर मार करने वाले रॉकेट दागने और मिसाइल आदि ढ़ोने में सक्षम है। टारगेट को लोकेट, ट्रैक और अटैक करने के लिए इसमें लेजर, इंफ्रारेड, सिर्फ टारगेट को ही देखने, पायलट के लिए नाइट विजन सेंसर सहित कई आधुनिक तकनीकें समाहित की गई हैं।
अपाचे एक बार में पौने तीन घंटे तक उड़ सकता है और इसकी फ्लाइंग रेंज करीब 550 किलोमीटर है। इसमें 360 डिग्री तक घूम सकने वाला अत्याधुनिक फायर कंट्रोल रडार तथा निशाना साधने वाला सिस्टम लगा है। दो जनरल इलैक्ट्रिक टी-700 हाई परफॉरमेंस टर्बोशाफ्ट इंजनों से लैस इस हेलीकॉप्टर में आगे की तरफ एक सेंसर फिट है, जिसके चलते यह रात के अंधेरे में भी उड़ान भर सकता है। इसका सबसे खतरनाक हथियार है 16 एंटी टैंक मिसाइल छोड़ने की क्षमता। दरअसल इसमें हेलिफायर, स्ट्रिंगर मिसाइलें, 70 एमएम हाइड्रा एंटी ऑर्मर रॉकेट्स लगे हैं और मिसाइलों के पेलोड इतने तीव्र विस्फोटकों से भरे होते हैं कि दुश्मन का बच निकलना नामुमकिन होता है। इसके वैकल्पिक स्टिंगर या साइडवाइंडर मिसाइल इसे हवा से हवा में हमला करने में सक्षम बनाते हैं। अपाचे हेलीकॉप्टर के नीचे दोनों तरफ 30 एमएम की दो ऑटोमैटिक राइफलें भी लगी हैं, जिनमें एक बार में शक्तिशाली विस्फोटकों वाली 30 एमएम की 1200 गोलियां भरी जा सकती हैं। इसका सबसे क्रांतिकारी फीचर है इसका हेल्मेट माउंटेड डिस्प्ले, इंटीग्रेटेड हेलमेट और डिस्प्ले साइटिंग सिस्टम, जिनकी मदद से पायलट हेलिकॉप्टर में लगी ऑटोमैटिक एम-230 चेन गन को अपने दुश्मन पर टारगेट कर सकता है। 17.73 मीटर लंबे, 4.64 मीटर ऊंचे तथा करीब 5165 किलोग्राम वजनी इस हेलीकॉप्टर में दो पायलटों के बैठने की व्यवस्था है। इसका अधिकतम भार 10400 किलोग्राम हो सकता है। डेटा नेटवर्किंग के जरिये हथियार प्रणाली से और हथियार प्रणाली तक, युद्धक्षेत्र की तस्वीरें प्राप्त करने और भेजने की इसकी क्षमता इसकी खूबियों को और भी घातक बना देती है। अगले वर्ष तक अपाचे हेलीकॉप्टरों की पूरी खेप प्राप्त होने के बाद इन हेलीकॉप्टरों को चीन तथा पाकिस्तानी सीमा पर तैनात किया जाएगा, जो वायुसेना को जमीनी बलों की सहायता के लिए भविष्य के किसी भी संयुक्त अभियान में महत्वपूर्ण धार उपलब्ध करांएगे।
यही वजह है कि माना जा रहा है कि वायुसेना में इनके शामिल होने से वायुसेना के साथ-साथ थल सेना की ऑपरेशनल ताकत में भी कई गुना बढ़ोतरी हो जाएगी। कम ऊंचाई पर उड़ने की क्षमता के कारण यह पहाड़ी क्षेत्रों में छिपकर वार करने में सक्षम हैं और इस लिहाज से यह पर्वतीय क्षेत्र में वायुसेना को महत्वपूर्ण क्षमता और ताकत प्रदान करेगा। भारत को इस समय अपने दो पड़ोसी देशों चीन और पाकिस्तान की ओर से कड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। एक ओर जहां पाकिस्तान लगातार कश्मीर को लेकर भारत को धमकी देता रहा है और भारत में आतंकियों की घुसपैठ कराकर खूनखराबे के हालात पैदा करता रहा है, वहीं दूसरी ओर चीन खुलकर उसका साथ देता रहा है तथा भारत के आंतरिक मामलों में अनावश्यक टांग भी अड़ाता रहा है। ऐसे में बहुत जरूरी था कि पड़ोसी दुश्मनों के हौंसलों को पस्त करने के लिए भारत सामरिक रूप से बेहद मजबूत बने और गर्व एवं संतोष की बात है कि भारत की सामरिक क्षमता दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। कहना असंगत नहीं होगा कि कुछ और नए अत्याधुनिक लड़ाकू विमान, हेलीकॉप्टर, मिसाइल प्रणाली तथा अन्य साजोसामान की पूरी खेप मिलने के बाद भारतीय वायुसेना की गिनती दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वायुसेनाओं में होने लगेगी।

गले पड़ा नया ट्रैफिक कानून
सिद्धार्थ शंकर
नितिन गडकरी की गिनती उन मंत्रियों में होती है जो हमेशा कुछ नया फॉर्मूला सामने लाते हैं। गडकरी सड़क बनाने में नई तकनीक लाते हैं, लाइसेंस बनाने के लिए नए फॉर्मूले लाते हैं और अब ट्रैफिक नियमों का पालन करने के लिए गडकरी नया कानून लाए तो अकेले पड़ते नजर आ रहे हैं। सरकार के लिए उसका ही एक कानून मुसीबत बन गया है। ट्रैफिक नियमों का पालन करने के लिए लाए गए नए मोटर व्हीकल एक्ट में जुर्माना राशि को काफी बढ़ाया गया। 1 सितंबर से लागू हुए कानून के तहत हजारों की राशि के चालान कटे, लेकिन कई राज्य सरकारें इससे सतर्क हो गई हैं। कई राज्य सरकारों ने कानून में संशोधन कर जुर्माना राशि को ही घटा दिया और इन राज्यों की लिस्ट में भारतीय जनता पार्टी के राज्य ही अव्वल हैं। केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी के इस नए कानून के तहत जुर्माना राशि 1000 से बढ़कर 5 हजार या 10 हजार रुपए तक बढ़ा दी गई। नया कानून लागू हुआ तो 25 हजार, 50 हजार तक के चालान की खबरें आने लगीं और तीखी बहस शुरू हो गई। आम लोगों के बीच चालान को लेकर मची हलचल के बीच राज्य सरकारों ने इस कानून का ही एक जुगाड़ निकाल लिया और इस फॉर्मूले की अगुवाई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के गृह राज्य गुजरात ने की। राज्य के मुखिया विजय रूपाणी ने जुर्माना राशि में कटौती का ऐलान किया और कई जुर्मानों में राशि को 90 फीसदी तक घटा दिया। गुजरात ने एक रास्ता दिखाया तो अन्य राज्य भी उसपर चल दिए और इनमें सबसे आगे रहे वो राज्य जहां कुछ ही महीनों में चुनाव होने वाले हैं और खास बात ये है कि ये तीनों ही राज्य भाजपा शासित प्रदेश हैं। गुजरात के बाद महाराष्ट्र जागा और राज्य के परिवहन मंत्री ने नितिन गडकरी को चि_ी लिख दी, जुर्माना राशि पर चिंता जताई। देवेंद्र फडणवीस की सरकार को चिंता है कि कहीं बढ़ी हुई राशि वोटों की संख्या ना घटा जाए। महाराष्ट्र की ही राह पर झारखंड और हरियाणा चल पड़े, झारखंड जल्द ही विशेष सत्र बुलाकर केंद्र के नए मोटर व्हीकल एक्ट में संशोधन कर सकता है तो वहीं हरियाणा ने अभी 45 दिनों का जागरूक अभियान चलाने की बात कही है। महाराष्ट्र-झारखंड-हरियाणा में तो चुनाव हैं इसलिए जुर्माना घटाने के फैसले को राजनीतिक चश्मे से देखा जा रहा है लेकिन इनसे इतर उत्तराखंड और कर्नाटक भी इस पंक्ति का हिस्सा बन गए हैं। उत्तराखंड ने 90 फीसदी जुर्माना राशि कम करने का ऐलान कर दिया तो कर्नाटक की ओर से अभी विचार कहे जाने की बात कही जा रही है। इन राज्यों के अलावा भी कई बीजेपी शासित राज्य ऐसे हैं, जहां नए कानून का नोटिफिकेशन जारी नहीं किया गया है। उदाहरण के तौर पर देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में अभी नया मोटर व्हीकल एक्ट लागू नहीं हुआ है। सिर्फ बीजेपी राज्य ही नहीं बल्कि कई विपक्षी पार्टियों के राज्यों ने भी इस कानून को लागू नहीं किया है।

 

भूखे भजन होत नहिं गोपाला
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नई मोदी सरकार के पहले सौ दिन कैसे रहे, इस विषय पर पक्ष और विपक्ष में जबर्दस्त दंगल छिड़ा हुआ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कह रहे हैं कि हमने पहले 100 दिन में वह कर दिखाया है, जो कांग्रेस अपने साठ साल के राज में नहीं कर सकी और कांग्रेसी नेता राहुल गांधी और उनकी बहन दावा कर रहे हैं कि पिछले 100 दिन में देश ने तानाशाही, ढोंग, अराजकता और झूठे दावों का नंगा नाच देखा है। ये दोनों अतिवादी बयान हैं। अगर नेता लोग ऐसे बयान नहीं देंगे तो कौन देगा ? सत्य तो कहीं इन बयानों के बीच छिपा हुआ है। इसमें शक नहीं है कि तीन तलाक, कश्मीर का पूर्ण विलय, सर्वोच्च सेनापति की नियुक्ति का संकल्प, बालाकोट का हमला जैसी कुछ कार्रवाइयां पिछले 100 दिन में ऐसी हुई हैं, जो पिछली कांग्रेसी और गैर-कांग्रेसी सरकारें भी नहीं कर सकी हैं। इसके अलावा हवाई अड्डों, सड़कों और रेल-पथ निर्माण, किसानों को सीधी सहायता, स्वच्छ भारत अभियान, बैंकों का विलय, जल-सुरक्षा, ग्राम-विकास आदि ऐसे कामों में उल्लेखनीय प्रगति इस सरकार ने वैसे ही की है, जैसी कि अन्य सरकारें करती रही हैं। विदेश नीति के क्षेत्र में भारत ने अमेरिका, फ्रांस, रुस और कुछ प्रमुख मुस्लिम राष्ट्रों के साथ पिछले दिनों में इतने अच्छे संबंध बना लिये हैं कि कश्मीर के सवाल पर पाकिस्तान को उसने किनारे लगा दिया है। इन सफल कामों का श्रेय इस सरकार को जरुर दिया जाना चाहिए लेकिन आर्थिक मोर्चे पर इसकी गिरावट इतनी तेज है कि यदि अगले कुछ माह में वह नहीं संभली तो ऊपर गिनाई गई उपलब्धियों पर पानी फिरते देर नहीं लगेगी। जब लोग भूखे मरेंगे तो उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि किसने किसको तलाक दे दिया या सेनापति कौन बन गया या कश्मीर में धारा 370 है या नहीं ? इन मुद्दों पर आजकल हम सब सरकार के भजन गा रहे हैं लेकिन यह ठीक ही कहा गया है कि ‘भूखे भजन होत नहीं गोपाला।’ सरकार भी परेशान है और वह रोज ही कुछ न कुछ द्राविड़ प्राणायाम कर रही है ताकि देश की अर्थ-व्यवस्था पटरी पर आ जाए। अभी कश्मीर का भी ठीक से कुछ पता नहीं कि अगले दो-चार माह में वहां क्या होनेवाला है ? पिछले 100 दिनों में सरकार का कुल रवैया काफी बहिर्मुखी रहा है और उसे इसका श्रेय भी मिला है लेकिन उससे भी ज्यादा जरुरी है- उसका अंतर्मुखी होना। यह ठीक है कि आज भारत में विपक्ष अधमरा हो चुका है लेकिन यदि आर्थिक असंतोष फैल गया तो जनता ही विपक्ष की भूमिका अदा करने लग सकती है।

राष्ट्र को समर्पित संत विनोबा भावे
मनोहर पुरी
(11सितंबर जन्म दिवस पर विशेष) साधु स्वभाव और विनम्र सौम्यता की प्रतिमूर्ति थे आचार्य विनोबा भावे। दृढ़ इच्छा शक्ति ,गहरी निष्ठा और अनवरत परिश्रम उनके चरित्र के ऐसे गुण थे जिनके कारण वह देश में सर्वोदय और भूदान जैसे आंदोलन प्रारम्भ करने में सफल हो पाये। बहुमुखी प्रतिभा के धनी,मौलिक विचारक और दार्शनिक विनोबा भावे में बुद्धि,वाणी और कर्म का अद्भुत समन्वय था। उन्होंने आत्मसंयम,सादगी और त्याग का जीवन व्यतीत करते हुए अपने आपको राष्ट्र और समाज के कल्याण के लिए समर्पित कर दिया। वह गांधीवादी विचारधारा के सबसे बड़े अनुयायी थे। उन्हें विनोबा नाम भी स्नेह और श्रृद्धा के कारण कोचारब आश्रमवासियों ने दिया जिसे गांधी जी ने भी अपना आर्शीवाद प्रदान कर दिया था। बचपन में उनका नाम विनायक रखा गया था।
नरहरि विनायक भावे का जन्म 11 सितंबर 1895 को महाराष्ट्र के कलाबा जिले के गगोदा नामक स्थान पर चितपावन ब्राह्मण कुल में हुआ। वह नरहरि शंभुराव भावे और रुक्मिणी देवी के जेष्ठ पुत्र थे। विनायक के पिता बड़ोदरा की देशी रियासत में वस्त्र तकनीकी विशेषज्ञ के रूप में कार्य करते थे। बचपन में धार्मिक विचारों वाली माता और प्रगतिशील विचारों वाले पितामह का उन पर गहरा प्रभाव हुआ। बाद में वह महात्मा गांधी से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपना पूरा जीवन ही उनके आदर्शों के लिए समर्पित कर दिया। शैशवावस्था से ही उनमें सरलता,आध्यात्मिकतातथा सहिष्णुता के गुण दिखाई देने लगे थे। जब वह मात्र दस वर्ष के थे तभी उन्होंने राष्ट्र सेवा और ब्रह्मचर्य का प्रण ले लिया और उसे जीवनपर्यन्त निभाया। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। 1903 में उनका परिवार बड़ौदा चला गया। यहां पर विनोबा जी को तीसरी कक्षा में प्रवेश दिलाया गया। अपनी कुशाग्र बुद्धि के कारण उनकी गणना कक्षा के होशियार छात्रों में की जाती थी। 1913 में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उर्त्तीण की। इसी समय के दौरान उन्होंने गीता,रामायण और महाभारत का गहन अध्ययन किया। उन्होंने अनेक भाषाओं में भी प्रवीणता प्राप्त की।
सन् 1916 में जब विनायक अपने मित्रों सहित इंटरमीडिएट की परीक्षा देने के लिए बम्बई जा रहे थे तो रेलगाड़ी में ही अचानक उन्होंने एक ऐसा निर्णय ले लिया जिसने उनके जीवन की दिशा को ही बदल दिया। सूरत स्टेशनपर उन्होंने अपने साथियों को सूचित किया कि मैं बम्बई के स्थान पर वाराणसी संस्कृत का गहन अध्ययन करने के लिएजा रहा हूं। इसी आशय का एक पत्र उन्होंने अपने पिता के नाम लिख दिया। शंकर राव कगारे और बेडेकर नामक दो अन्य मित्र भी उनके साथ काशी के लिए चल पड़े। वहां पर उन्होंने नितांत गरीबी में जीवन व्यतीत करना शुरू किया। दोपहर का भोजन वे लोग किसी मन्दिर के लंगर में खाते थे। लंगर लगाने वाले दानियों द्वारा भोजन के बाद दो पैसे की दक्षिणा भी मिलती थी। इस दक्षिणा से उनके रात के भोजन का प्रबंध हो जाता था। इस फटेहाल जीवन से तंग आ कर कुछ समय बाद शंकर राव कगारे घर वापिस चले गए। कुपोषण के कारण बेडेकर का निधन हो गया। विनायक ने एक स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाने की नौकरी कर ली। वेतन के बारे में पूछने पर विनायक ने कहा कि मुझे मात्र दो रुपए मासिक वेतन ही चाहिए क्योंकि मेरे भोजन का प्रबंध दान से हो जाता है। कमरे का किराया दो रुपया है। मुझे केवल उसी की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त मेरा कोई खर्चा नहीं है।
काशी में विनायक ने एक बार महात्मा गांधी का भाषण सुना। वह उनसे अत्याधिक प्रभावित हुए। उन्होंने गांधी जी पत्र लिखा। गांधी जी के बुलाने पर वह साबरमती आश्रम पहुंच गए। आश्रम में वह गांधी जी के विश्वस्त सहयोगीबन गए और आश्रम के राष्ट्रीय विद्यालय में छात्रों को पढ़ाने का दायित्व उन्होंने अपने ऊपर ले लिया। विनोबा जी किसी भी काम को करने में संकोच नहीं करते थे। आश्रम में पाखानों की साफ सफाई करने से लेकर आटा दाल पीसने तक का कार्य वह स्वयं अपने हाथों से करते थे। हर प्रकार का कार्य पूरी तन्मयता से सम्पन्न करके वह आश्रमवासियों के सामने एक आदर्श प्रस्तुत करना चाहते थे। उनकी इस कठोर साधना पर गांधी जी का ध्यान हमेशा रहता था। इसी कारण जब सेठ जमनादास बजाज ने वर्धा में आश्रम की स्थापना की तब वहां के संचालन के लिए गांधी जी ने विनोबा जी को वहां भेज दिया। 1921 की वर्ष प्रतिपदा को विनोबा जी वर्धा पहुंच गए। इस आश्रम में गांधी जी द्वारा निर्देशित भारत के नव निर्माण के सारे रचनात्मक कार्य सम्पन्न होने लगे। उन्होंने सर्वांगीण ग्राम विकास की कई योजनाएं बनाईं और ग्राम सेवा मंडलों का गठन भी किया। जब भी विनोबा जी को जेल जाना पड़ा वहां पर भी उनका जेलवासियों को पढ़ाने और स्वयं अध्ययन करने का कार्य चलता रहा। उन्होंने गीता का गहन अध्ययन किया था इसलिए वह गीता के रहस्यों से उन्हें परिचित करवाते थे। गीता पर उन्होंने अनेक प्रवचन दिए लेख और पुस्तकें भी लिखीं। उनकी गीता रहस्य नामक पुस्तक का देश विदेश की अनेक भाषाओं में प्रकाशन हुआ। ाrवनोबा जी बहुभाषिक थे। किसी भी भाषा को वह बहुत जल्दी सीख लेते थे। उनकी भाषा शैली सूत्रमय होते हुए भी बहुत ही सरल होती थी। उनके पास एक विस्तृत शब्द भंण्डार था जिस कारण वह अपनी बात को बहुत सहजता से उदाहरण दे कर समझाने में सफल होते थे। नलवाडी में रहते हुए उन्होंने अरबी भाषा सीखी और कुरान का मूल अरबी भाषा में अध्ययन किया। उन्होंने बाईबिल का भी अध्ययन किया ।
विनोबा जी का दृढ़ विश्वास था कि सिद्धांत व्यक्ति से अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। सिद्धांतों का पालन करके ही व्यक्ति महान बनता है। जिस विचार को हम अपनाते हैं वह हमारा विचार ही हो जाता है। उन्होंने कहा कि हमने गांधी जी के समस्त विचारों को अपनाया है तो अब वे हमारे विचार ही हैं। गांधी जी के निधन के साथ वह नष्ट नहीं हुए। अब वे विचार सर्वोदय के हैं। वह हमारी बहुमूल्य विरासत है। उनको अपनाने में हमारा ही नहीं सब का कल्याण है। सब के कल्याण के लिए ही उन्होंने भूमिहीनों को भूमि उपलब्ध करवाने की योजना बनाई। इसका प्रारम्भ उन्होंने आंध्र प्रदेश के पांचमपल्ली नामक स्थान से किया। उनके अनुरोध पर वहां के जमींदार रामचन्द्र रेड्डी ने 100 एकड़ भूमि उन्हें दान में दे दी जिसे भूमिहीनों में वितरित कर दिया गया। इस कार्य के लिए विनोबा जी ने देश के कोने कोने में तेरह वर्ष पदयात्राएं कीं। इन यात्राओं के दौरान वह लगभग एक लाख किलोमीटर पैदल चले। इन यात्राओं से स्थान स्थान पर भूदान का कार्य प्रारम्भ हुआ। फलस्वरूप उन्हें लाखों एकड़ भूमि दान में प्राप्त हुई जिसे उन्होंने जरूरतमंदों के मध्य वितरित कर दिया । विनोबा जी के पिता के देहावसान पर उन्हें 25 हजार रुपए और 450 एकड़ पुश्तैनी जमीन मिली। विनोबा जी ने सारी जमीन भूमिहीनों में बांट दी। 25 हजार रुपए रचनात्मक कार्यों पर व्यय करने के लिए ग्राम सेवा मंडलों को सौंप दिए गए। भूदान के साथ ही विनोबा जी ने एक अन्य महान कार्य दस्यू उन्मूलन का भी किया। उनकी प्रेरणा से बहुत से डाकूओं ने आत्म सपमर्पण करके पुन: समाजिक जीवन में पर्दापण किया।
विनोबा जी की सप्रिय राजनीति में कोई रुचि नहीं थी। वे स्वयं को अराजनीतिक ही मानते थे। 1958 में उनके द्वारा किए गए सामाजिक कार्यों के लिए उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त मैगासे पुरुस्कार से सम्मानित किया गया। इससे पूर्व यह पुरुस्कार किसी अन्य भारतीय को नहीं दिया गया था। विनोबा जी मानते थे कि विचार ही चिरंतन होते हैं। इसलिए जब 15 नवम्बर 1982 को उन्होंने देह त्यागी तो वह अपने विचारों की एक सृद्धिशाली वसीयत पूरे विश्व के लिए पीछे छोड़ गए। 1983 में उन्हें मरणोपरान्त भारत रत्न से विभूषित किया गया। उनके कार्यों की मशाल एक दिव्य मिसाल बन कर आज भी हमारा मार्ग प्रशस्त कर रही है।

इमरान थोड़ी हिम्मत करें
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान की मुसीबतों को मैं अच्छी तरह से समझता हूं। उन्हें पाकिस्तान की जनता को बताना है कि कश्मीर के सवाल पर वे ज़मीन-आसमान एक कर देंगे। वे जुल्फिकार अली भुट्टो को भी पीछे छोड़ देंगे। भुट्टो ने कहा था कि जरुरत पड़ी तो पाकिस्तान भारत के साथ एक हजार साल तक भी लड़ता रहेगा। पाकिस्तान के सेनापति जनरल बाजवा ने इमरान के स्वर में स्वर मिलाते हुए कहा है कि पाकिस्तान कश्मीर के लिए अपने खून की आखिरी बूंद तक लड़ता रहेगा। इसका जवाब भारतीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल ने बहुत ही सधे हुए तरीके से दिया है। उन्होंने ठीक ही कहा है कि कश्मीर की शांति पाकिस्तान के रवैए पर निर्भर है। अगर पाकिस्तान कश्मीरियों को हिंसा के लिए भड़काता रहा और आतंकियों को भेजता रहा तो जो प्रतिबंध उन पर अभी लगे हुए हैं, उन्हें हटाना मुश्किल होगा। इमरान खान को अब अच्छी तरह से पता चल गया है कि दुनिया का कोई भी देश भारत में कश्मीर के पूर्ण विलय पर आपत्ति नहीं कर रहा है। बस चीन, ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देश भी अब यह कहने लगे हैं कि कश्मीर में मानव अधिकारों की रक्षा होनी चाहिए। बिल्कुल होनी चाहिए, यह तो हम भी कह रहे हैं लेकिन इसका धारा 370 और 35 ए के खात्मे से क्या संबंध है ? कश्मीर के पूर्ण विलय से क्या संबंध है ? इमरान खान जानते हैं कि कश्मीर में जो हो चुका है, उसे पलटाया नहीं जा सकता है। हां, इतना जरुर हो सकता है, जैसे कि गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में इशारा किया था कि जम्मू-कश्मीर को फिर से राज्य का दर्जा मिल जाए। अब इमरान खान को इतिहास का पहिया उल्टा घुमाने की कोशिश करने की बजाय यह सोचना चाहिए कि दोनों कश्मीरों के कश्मीरियों का भविष्य कैसा हो ? दोनों कश्मीरी अब तक काफी नुकसान उठा चुके हैं। ‘आजाद कश्मीरियों’ को सच्ची आजादी कैसे मिले और दोनों तरफ के कश्मीरी हिंसा और आतंकवाद से छुटकारा कैसे पाएं ? कश्मीर के नाम पर पाकिस्तान की फौज पाकिस्तानियों के सीने पर चढ़ी बैठी है, उसे इमरान नहीं समझाएंगे तो कौन समझाएगा ? कश्मीर की वजह से पूरा पाकिस्तान कराह रहा है। उसी की वजह से पहले पाकिस्तान को अमेरिका की गुलामी करनी पड़ी और अब उसे चीन की चप्पलें उठानी पड़ रही हैं। इमरान चाहें और थोड़ी हिम्मत करें तो वे पाकिस्तान को इस जन्मजात गुलामी से मुक्ति दिला सकते हैं।

मंदी के शोर के बाद कैसे होगा डेमेज कण्ट्रोल
अजित वर्मा
देश की अर्थव्यवस्था को लेकर चल रही बहस और मंदी के शोर के बीच देश के सामने 70 साल के सबसे बड़े संकट की बात कह कर नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने जो हलचल मचायी थी उससे मोदी सरकार को डेमेज कण्ट्रोल के लिए तत्काल सक्रिय होना पड़ा। खुद राजीव कुमार अपने बयान पर सफाई देने मैदान में आये। अब वे कह रहे हैं कि अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए मोदी सरकार कड़े कदम उठा रही है और ऐसा आगे भी करती रहेगी। किसी भी तरह से घबराने और घबराहट का माहौल पैदा करने की जरूरत नहीं है। पहले राजीव कुमार ने कहा था कि देश में 70 साल में अबतक नकदी का ऐसा संकट नहीं देखा गया है। मोदी सरकार के लिए यह अप्रत्याशित समस्या है। कोई भी किसी पर यकीन नहीं कर रहा है। कोई भी मार्केट में पैसा नहीं निकाल रहा है। उन्होंने कहा था, यह सिर्फ सरकार और प्राइवेट सेक्टर की बात नहीं है। निजी क्षेत्र में आज कोई भी किसी और को कर्ज नहीं देना चाहता। राजीव ने यह भी कहा था कि एनपीए बढ़ने के कारण अब बैंकों के नया कर्ज देने की क्षमता घट गई है। इस बीच देश में आर्थिक मंदी के हालातों को सुधारने के लिए केंद्र की मोदी सरकार ने टैक्स सुधारों की घोषणा की है। इस सुधारों के तहत मोदी सरकार देश में कैश फ्लो को बढ़ाने के लिए 5 लाख करोड़ बैंकों को देगी। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने निवेश को बढ़ाने के लिए लॉन्ग टर्म और शॉर्ट टर्म कैपिटल गेन्स पर टैक्स सरचार्ज को वापस लेने की घोषणा की है। विदेशी संस्थागत निवेशकों यानी एफपीआई पर भी अतिरिक्त सरचार्ज को वापस लिया जाएगा। कॉर्पोरेट सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी को उन्होंने क्रिमिनल केस न बनाने की बात कही। उन्होंने कहा कि इस पर सिर्फ जुर्माना ही लगेगा। स्टार्टअप्स पर लगने वाले एंजैल टैक्स की वापसी का भी फैसला लिया गया है। इसके साथ ही बैंकों के लिए 70,000 करोड़ का पैकेज रिलीज करने का ऐलान किया गया है। सरकार की ओर से आर्थिक सुधारों का जिक्र करते हुए वित्तमंत्री ने कहा कि जीएसटी में जो भी खामियां हैं, उसे दूर किया जाएगा। टैक्स और लेबर कानून में लगातार सुधार कर रहे हैं। बैकिंग सेक्टर, ऑटो सेक्टर के लिए भी वित्तमंत्री ने बड़े ऐलान किये हैं।
दरअसल, आर्थिक क्षेत्रों में हलचल के कारण अन्तरराष्ट्रीय हैं तो प्राकृतिक भी एक ओर जहाँ अमेरिका के राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रम्प द्वारा बड़े पैमाने पर छेड़ा गया ट्रेड वॉर एक कारण है तो जलवायु परिवर्तन भी विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन भी भारत की अर्थव्यवस्था को इस सदी के अंत तक 10 प्रतिशत तक कम कर सकता है। कहा जा रहा है कि अगर पैरिस समझौता नहीं होता है तो लगभग सभी देश – चाहे वे अमीर हों या गरीब, उष्ण हों या शीत, सभी आर्थिक रूप से प्रभावित होंगे। शोधकर्ताओं ने कहा कि इसके कारण 2100 तक अमेरिका का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी), मौजूदा से 10.5 प्रतिशत कम हो जाएगा जो कि पर्याप्त रूप से नुकसानदायक हो सकता है। तो जापान, भारत और न्यूजीलैंड भी अपनी आय का 10 प्रतिशत खो देंगे। कनाडा दावा करता है कि वह तापमान में वृद्धि से आर्थिक रूप से लाभान्वित होगा, वह भी साल 2100 तक अपनी मौजूदा आय का 13 प्रतिशत से अधिक खो देगा।
कुछ लोग हैं जो भारत नोटबन्दी, जीएसटी और बैंकिंग तथा लेन-देन के नये नियमों को देश में आर्थिक मंदी के लिए दोषी ठहरा रहे हैं। लेकिन यह फिलहाल बहस का ही विषय है। देखना तो मैदानी हकीकतों को है। इसमें अभी समय लगेगा।

तालिबान के साथ अटपटा समझौता
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका की तरफ से जलमई खलीलजाद अफगानिस्तान के तालिबान नेताओं से पिछले डेढ़-दो साल से जो बात कर रहे थे, वह अब खटाई में पड़ती दिखाई पड़ रही है, क्योंकि अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपियो ने उस पर दस्तखत करने से मना कर दिया है। अभी-अभी ताजा सूचना मिली है कि अगर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने उस समझौते पर अंगूठा लगा दिया तो बेचारा पोंपिओ क्या करेगा ? लेकिन सवाल यह है कि ट्रंप के दस्तखत के बावजूद क्या इस समझौते से अफगानिस्तान में शांति हो जाएगी ? इसका सीधा-सा जवाब यह है कि अफगानिस्तान की शांति से अमेरिका को क्या लेना-देना है ? उसने उसामा बिन लादेन को मारकर न्यूयार्क हमले का बदला निकाल लिया है और शीत युद्ध के दौरान काबुल पर छाई रुस की छाया को उड़ा दिया है। अब वह अफगानिस्तान में अरबों डाॅलर क्यों बहाए और हर साल अपने दर्जनों फौजियों को क्या मरवाए ? ट्रंप का तो चुनावी नारा यही था कि वे अगर राष्ट्रपति बन गए तो वे अफगानिस्तान से अमेरिका का पिंड छुड़ाकर ही दम लेंगे। इसीलिए कोई आश्चर्य नहीं कि वे इस समझौते पर खुद ही अपने दस्तखत चिपका दें। अभी तक हमें क्या, अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी और प्रधानमंत्री डाॅ. अब्दुल्ला को ही पता नहीं कि खलीलजाद और तालिबान के बीच किन-किन मुद्दों पर समझौता हुआ है। सुना है कि गनी को समझौते का मूलपाठ अभी तक नहीं दिया गया है लेकिन माना जा रहा है कि अमेरिकी फौज 5 अफगान अड्डों को खाली करेगी, 135 दिनों में। साढ़े आठ हजार फौजी वापस जाएंगे। यह पता नहीं कि अफगानिस्तान में 28 सितंबर को होनेवाला राष्ट्रपति-चुनाव होगा या नहीं ? समझौते के बाद क्या वर्तमान सरकार हटेगी और उसकी जगह तालिबान की इस्लामी अमीरात आ जाएगी ? यह भी पता नहीं कि तालिबान और गनी के सरकार के बीच सीधी बातचीत होगी या नहीं ? जो लोग पिछले 18 साल से तालिबान का विरोध कर रहे थे और हामिद करजई और गनी सरकार का साथ दे रहे थे, उनका क्या होगा ? तालिबान-विरोधी देशों के दूतावासों को क्या काबुल में अब बंद करना होगा ? जिन स्कूलों और कालेजों में आधुनिक पढ़ाई हो रही थी, उनका अब क्या होगा ? यदि इस समझौते से तालिबान खुश हैं तो लगभग रोजाना वे हमले क्यों कर रहे हैं ? अफगानिस्तान अब लोकतंत्र रहेगा या शरियातंत्र ? इन सब सवालों को लेकर अमेरिकी कांग्रेस (संसद) की विदेश नीति कमेटी भी परेशान है। खलीलजाद को वह तीन बार उसके सामने पेश होने को कह चुकी है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जान बोल्टन भी परेशान हैं। यदि यह गोलमाल समझौता इसी तरह हो गया तो मानकर चलिए कि अफगानिस्तान एक बार फिर अराजकता का शिकार हो जाएगा। पाकिस्तान की मुसीबतें सबसे ज्यादा बढ़ेंगी। भारत भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा।

4 दिन में जुर्माने से 1 करोड़ 71 लाख की वसूली
सनत जैन
मोटर व्हीकल एक्ट में सरकार ने जुर्माने की राशि में जो संशोधन किया है। पिछले 4 दिनों में 1 करोड़ 71 लाख रुपया जर्माने में वसूल किए है। यह जुर्माना हरियाणा राज्य में 52.32 लाख, 343 चालानों के माध्यम से वसूला गया है। उड़ीसा में 88.90 लाख रुपया 4080 चालान काटे गये। कर्नाटक के बैंगलूर में ट्राफिक पुलिस ने 30 लाख रुपया पिछले 4 दिनों में वसूल किये हैं। दिल्ली राज्य में भी 1 दिन में ट्रैफिक पुलिस ने 3900 चालान काटे हैं। इसमें कितना जुर्माना वसूला गया है। इसके आंकड़े अभी सामने नहीं आये हैं। दिल्ली राज्य के जुर्माने को जोड़ दिया जाये, तो यह राशि 4 करोड़ रुपया से ऊपर पहुंच जाएगी। मोटर व्हीकल एक्ट में नए जुर्माने का जो प्रावधान किया है, वह कुछ ही शहरों में लागू हुआ है। जब यह देश भर में कार्यवाही होगी, तो सरकार प्रतिदिन अरबों रुपयों की राशि जुर्माने के रूप में वसूल करेगी। केंद्रीय मंत्री नितिन गड़करी का कहना है कि सड़क हादसों में प्रतिवर्ष लगभग डेढ़ लाख लोगों की मौत दुर्घटनाएं में हो रही है। इससे ज्यादा आत्महत्या, किसान, युवा बेरोजगार एवं छात्र-छात्राएं भारत में हो रही हैं। यदि तीनों की आत्महत्या का आंकड़ा जोड़ दिया जाये, तो प्रतिवर्ष भारत में लगभग 3 लाख 50हजार से ज्यादा मौतें आत्महत्या के कारण हो रही हैं। इन्हें रोकने के लिए केन्द्र सरकार ने क्या उपाय किये, आत्महत्या किन कारणों से हो रही है। जो उसके लिए जिम्मेदार हैं उन पर जुर्माना और उनके प्रति कार्यवाही को लेकर सरकार क्यों मौन है? इसको लेकर आम आदमी का गुस्सा शासन, प्रशासन और व्यवस्थाओ पर स्पष्ट रूप से दिखने लगा है। सारी दुनिया के देशों में सबसे ज्यादा आत्महत्या भारत में हो रही है।
मोटर व्हीकल एक्ट में वाहन चालकों के ऊपर विभिन्म मामलों में 10 हजार रुपया तक का जुर्माना वसूल करने का प्रावधान किया गया है। एक बार में पुलिस किसी भी वाहन चालक पर अधिकतम 52500 रुपये का जुर्माना वसूल कर सकती है। इस दायरे में दुपहिया वाहन से लेकर बड़े वाहनों के चालकों को रखा गया है। भारत की पुलिस लहरें गिनने का पैसा वसूल करती है। जिस देश में रिपोर्ट लिखवाने के लिए पुलिस रिश्वत लेती है, वहां पर पुलिस के हाथों में जुर्माने के इस झुनझुने को पकड़ाने से आम आदमी की क्या दुर्दशा होगी, यह आसानी से समझा जा सकता है। भारत जैसे देश में जहां 90 फीसदी परिवारों की आय 10 हजार से 15 हजार रुपया मासिक है। उनसे यह जुर्माना किस तरह वसूल किया जा सकता है। यदि उन्होने जुर्माना नहीं दिया, तो वाहन जब्त होगा। उन्हें जेल भी जाना पड़ सकता है। जुर्माना यदि चुका दिया तो वह परिवार की पूरे माह गुजर वसर किस तरह करेगा। सरकार ने इसका कोई विकल्प नहीं सुझाया है। जिन सड़क दुर्घनाओं का हवाला दिया जा रहा है। उनमें 60 फीसदी से ज्यादा मौतें खराब सड़कों, वाहन निर्माता कंपनियों की लापरवाही तथा सड़क पर काम चलने के दौरान ठेकेदारों एवं सरकारी एजेंसियों द्वारा सूचनै फलक एवं दुर्घटनाओं को रोकने के लिए जो कार्य करना था, वह नहीं किये जाने के कारण दुर्घटनाएं बढ़ रही हैं। आपातकाल के दौरान जिस तरह संजय गांधी ने नसबंदी कार्यक्रम के लक्ष्य देकर आम जनता के बीच भय का वातावरण बनवाकर जनसंख्या नियंत्रण की कोशिश की थी। ठीक उसी तरह अघोषित अपातकाल में वाहन चालकों के मन में पुलिस का भय वर्तमान सरकार बनाने का काम कर रही है। कहा जाता है कि वाहन की जांच के समय पुलिस कोई न कोई कमी बताकर जुर्माना वसूल सकती है। पहले भी पुलिस और आरटीओ द्वारा जबरिया वसूली की जा रही है। ऐसा हमारा मोटर व्हीकल एक्ट है। जब पुलिस के हाथ में सरकार ने वसूली का इतना बड़ा हथियार थमा दिया हो तो वाहन चालकों की क्या हालत होगी। आसानी से इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। पुलिस के चालान से बचने के लिए जो वाहन भगाने के लिए तेजी से वाहन चलाने का प्रयास करेगे, उससे दुर्घटनाएं और बढ़ने की संभावना है। सरकार ने जुर्माने की राशि लागू करने के पूर्व संवेदनशीलता का जो परिचय देना चाहिए था। वह नहीं दिया गया है। जिसके कारण जनरोष बढ़ना तय है।

भारत-रुस: नई ऊंचाईयां
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह रुस-यात्रा भारतीय प्रधानमंत्रियों की पिछली कई यात्राओं के मुकाबले कहीं अधिक सार्थक रही है। उसका पहला प्रमाण तो यही है कि पूर्वी आर्थिक मंच के बहुराष्ट्रीय सम्मेलन में मोदी को मुख्य अतिथि बनाया गया है। दूसरी बात यह है कि मोदी और पुतिन, दोनों ने साफ-साफ कहा है कि किसी भी देश को अन्य देश के आंतरिक मामलों में टांग अड़ाने का कोई अधिकार नहीं है। पुतिन का यह बयान क्या ख्रुश्चौफ और बुल्गानिन के उस बयान की याद नहीं दिलाता है, जो उन्होंने अपनी पहली यात्रा के दौरान प्र.म. नेहरु के सामने दिया था ? उन्होंने कहा था कि कश्मीर में आपको कोई खतरा हो तो आप हमें आवाज़ दीजिए हम आपके खातिर दौड़े चले आएंगे। शीतयुद्ध के दौरान पाकिस्तानपरस्त अमेरिका को टक्कर देने के हिसाब से यह बात ठीक थी लेकिन पिछले दो-ढाई दशक में रुस-अमेरिका समीकरण बदलने के कारण कश्मीर पर रुसी रवैया थोड़ा ढीला हो गया था। उसने पाकिस्तान के साथ भी पींगें बढ़ानी शुरु कर दी थीं लेकिन रुस के इस ताजा रवैए ने भारत-रुस दोस्ती पर फिर से पक्की मुहर लगा दी है। भारत और रुस ने तरह-तरह के 25 समझौतों पर दस्तखत किए हैं। अभी भी रुस भारत का सबसे बड़ा हथियार-विक्रेता है। यों तो आजकल भारत-अमेरिका के बीच घनिष्टता अपूर्व रुप से बढ़ी हुई है और ट्रंप का रवैया कश्मीर के मामले में भारतपरस्ती का है और अमेरिका यह भी चाहता है कि सुदूर पूर्व में भारत की भूमिका बलवती हो ताकि चीन के प्रभाव को सीमित किया जा सके। इस मामले में रुस भी पीछे नहीं है। रुस वैसे चीन से अच्छे संबंध बनाए हुए हैं लेकिन चीन के महान रेशम पथ की योजना से वह सहमत नहीं है। वह चाहता है कि भारत मध्य एशिया के राष्ट्रों और सुदूर-पूर्व के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाए। इसीलिए ब्लादिवस्तोक में होनेवाले अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में भारत को केंद्र में रखा गया है। जाहिर है कि इससे पाकिस्तान परेशान होगा। इस समय सउदी अरब और संयुक्त अरब अमारात के विदेश मंत्री हताश इमरान सरकार के पिचके हुए गुब्बारे में थोड़ी हवा जरुर भरेंगे लेकिन अब पाकिस्तान का भला इसी में है कि खुद के दिमाग में फंसी भारत-गांठ को खोल दे और अपना ध्यान संकट में फंसे अपने देश पर केंद्रित करे।

जुर्माने पर फिर से सोचना जरूरी
सिद्धार्थ शंकर
यातायात नियमों के उल्लंघन को लेकर जुर्माने के नए कानून पर मचे बवाल के बीच सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने स्पष्ट किया है कि यातायात नियमों के उल्लंघन पर जुर्माने में भारी वृद्धि का फैसला कानून का पालन अनिवार्य बनाने के लिए किया गया है, न कि सरकारी खजाने को भरने के मकसद से। दरअसल, इस महीने से जुर्माने की रकम 30 गुना तक बढऩे और सजा की अवधि में भी इजाफे का नया नियम लागू किए जाने पर कोहराम मचा हुआ है। पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, राजस्थान एवं मध्य प्रदेश के साथ-साथ गुजरात ने बढ़ी हुई दर पर जुर्माना वसूलने से इनकार कर दिया है। गडकरी ने देश में सड़क हादसों में हो रही मौतों का जिक्र करते हुए कहा कि बहुत से ऐसे लोग हैं जिनके लिए कड़े जुर्माने के बिना ट्रैफिक रूल कोई मायने नहीं रखता है। उन्होंने कहा कि जुर्माना बढ़ाने का फैसला काफी समझ-बूझकर और विभिन्न पक्षों से सलाह लेकर लागू किया गया है। दरअसल, एक सितंबर को संशोधित मोटर व्हीकल एक्ट-1988 लागू होने के बाद भारी-भरकम जुर्माने के चालान कटने की घटनाएं सामने आ चुकी हैं।
गुरुग्राम पुलिस ने गुरुवार को एक ट्रैक्टर ट्रॉली ड्राइवर को कई नियमों के उल्लंघन के आरोप में 59 हजार रुपए का चालान काट दिया। उससे पहले, दो सितंबर को गुरुग्राम में ही एक स्कूटी चालक पर विभिन्न मामलों में 23 हजार रुपए का जुर्माना लगाया गया था। उसने यह कहते हुए जुर्माना भरने से इंकार कर दिया था कि उसकी स्कूटी की कीमत ही मात्र 15 हजार रुपए है। बुधवार की ही बात है जब ऑटो ड्राइवर को नशे की हालत में ड्राइव करने, ड्राइविंग लाइसेंस समेत जरूरी दस्तावेज नहीं होने के कारण 47,500 रुपए का चालान काटा गया। चालान की यह रकम पहली नजर में भले ही बहुत ज्यादा लग रही हो, मगर इसके दो पहलू हैं। जिस पर समाज और लोगों को ध्यान देना होगा। साथ ही सरकार को भी जुर्माने की राशि पर नए सिरे से विचार करना होगा। आज सड़कों पर वाहन चालकों की मनमानी किस तरह से सामने आती है, यह किसी से छिपा नहीं है। आए दिन हादसों में मौतों का बढ़ रहा ग्राफ यह बताने को काफी है कि हम किस कदर लापरवाह हैं और इस लापरवाही मे वाहन चालक कभी अपनी जान गंवा देते हैं या कभी दूसरों की जान जोखिम में डाल देते हैं।
अभी कुछ दिन पहले खबर आई थी कि देश का लगभग हर तीसरा ड्राइविंग लाइसेंस फर्जी है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, इस समय पांच करोड़ से अधिक लोग फर्जी दस्तावेजों के सहारे सड़कों पर वाहन चला रहे हैं। सड़क परिवहन व सुरक्षा विधेयक को महत्वपूर्ण बताते हुए गडकरी ने कहा कि लगभग डेढ़ लाख लोग हर साल सड़क हादसों में मारे जाते हैं। नए कानून लागू हो जाने से पूरी व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव आएगा। अगर लोगों को जुर्माने की रकम कुछ ज्यादा लग रही है तो इस पर सरकार को विचार कर लेना चाहिए।

कश्मीरियों से सार्थक संवाद
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गृहमंत्री अमित शाह से जम्मू-कश्मीर के लगभग 100 लोगों के प्रतिनिधि मंडल ने कल दिल खोलकर बात की। उनमें पंचायतों के सरपंच, पंच और सेब-उत्पादक किसान आदि भी थे। यह पूछा जा सकता है कि लगभग 4500 पंचायतों के 35 हजार पंचों में से कुछ दर्जन पंचों के मिलने का क्या महत्व है ? जो मिले हैं, वे कितने कश्मीरियों का प्रतिनिधित्व करते हैं ? यह प्रश्न अपनी जगह सही है लेकिन जो परिस्थितियां अभी कश्मीर में हैं, उन्हें देखते हुए इतने लोगों से भी गृहमंत्री का मिलना अपने आप में महत्वपूर्ण है। कई बार कुछ लोग ही बहुत-से लोगों की इतनी बातें कह देते हैं, जितनी वे बहुत-से लोग सब मिलकर भी नहीं कह पाते। इस भेंट में यही हुआ। पंचों ने जब कहा कि वे डर के मारे घर से बाहर नहीं निकल पाते तो गृहमंत्री ने कहा कि सभी पंचों और ग्रामप्रधानों के लिए सरकार दो-दो लाख का बीमा करेगी। उन्होंने सभी पंचों और दुकानदारों को भी सुरक्षा देने का आश्वासन दिया। एक दुकानदार की इसीलिए हत्या कर दी गई है कि उसे आतंकवादियों ने दुकान बंद रखने की धमकी दी थी। गृहमंत्री ने अगले 15-20 दिन में संचार के सभी साधनों को खोल देने का भी संकेत दिया। कश्मीर के हर गांव के कम से कम पांच नौजवानों को रोजगार का भी भरोसा दिया गया। राज्यपाल सतपाल मलिक पहले ही 50 हजार रोजगार देने की घोषणा कर चुके हैं। गृहमंत्री ने 316 खंडों में शीघ्र ही चुनाव करवाने की घोषणा की है। जम्मू में हुई फौज-भर्ती की रैली में हजारों नौजवानों ने भाग लिया है। गृहमंत्री ने यह आश्वासन भी दिया है कि जम्मू-कश्मीर का ज्यों ही वातावरण ठीक-ठाक होगा, उसे राज्य का दर्जा दिए जाने में देर नहीं की जाएगी। अमित शाह ने यह कहकर कश्मीरियों के घाव पर मरहम रख दिया है कि धारा 35 ए के खत्म होने का अर्थ यह नहीं कि कश्मीर की जमीन बाहरी लोग आकर कब्जा करने लगेंगे। यह बात मैंने 5 अगस्त को ही लिखी थी। मुझे खुशी है कि सरकार ने कश्मीरियत की रक्षा का भरोसा दिलाया है लेकिन मेरी समझ में नहीं आता कि यही बात नरेंद्र मोदी ज़रा साफ-साफ और जोर से क्यों नहीं कहते ? यदि कश्मीरियों को 5 अगस्त के पूर्ण विलय के फायदे सरकार ठीक से समझा पाएगी तो जिस हुड़दंग की आशंका से वह डरी हुई है, उसे काबू में लाना कठिन नहीं होगा।

“विशिष्ट” लोगों के अवैज्ञानिक कुतर्क
निर्मल रानी
भारतीय वैज्ञानिकों ने अपनी योग्यता के बल पर चन्द्रमा पर पताका फहराने के लिए अपनी कमर कस ली है। देश के शिक्षित व योग्य युवाओं के घोर परिश्रम की बदौलत भारतवर्ष दुनिया में पहले से अधिक मज़बूत स्थिति में नज़र आ रहा है। देश में मौजूद अनेक आई आई टी व अन्य कई शिक्षण संस्थान प्रत्येक वर्ष देश को तमाम ऐसे युवा व होनहार वैज्ञानिक इस देश को दे रहे हैं जो देश की तरक़्क़ी में अपना बेशक़ीमती योगदान कर रहे हैं। देश के विकास का मुख्य आधार शिक्षा तथा विज्ञान ही है। परन्तु अफ़सोसनाक बात यह है कि कई ज़िम्मेदार लोग इस हक़ीक़त को झुठलाने तथा अपने अन्धविश्वास व अवैज्ञानिकता भरे विचारों से लोगों को गुमराह करने की कोशिश में लगे हुए हैं। कभी कभी ऐसे लोग जिनमें कि अनेक जनप्रतिनिधि व ‘विशिष्ट’ लोग भी शामिल हैं, ऐसे बयान देते हैं जो हास्यास्पद होने की वजह से पूरे देश को हंसी का पात्र बनाते हैं। पिछले दिनों एक ऐसा ही बयान भोपाल की सांसद प्रज्ञा ठाकुर द्वारा दिया गया जो न केवल अवैज्ञानिक व अतार्किक था बल्कि अज्ञानतापूर्ण भी था। 26 अगस्त को मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में प्रदेश भाजपा कार्यालय में पूर्व वित्तमंत्री एवं भाजपा नेता अरुण जेटली तथा राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौड़ को श्रद्धांजलि अर्पित करने हेतु एक श्रद्धांजलि सभा रखी गयी थी. इसमें राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज चौहान सहित प्रदेश भाजपा के अनेक बड़े नेताओं ने भी भाग लिया। सभी उपस्थित प्रमुख नेताओं ने दिवंगत नेताओं को अपने अपने शब्दों में श्रद्धांजलि दी तथा देश व पार्टी के लिए दिए गए उनके योगदान को याद किया। परन्तु वक्ताओं की कड़ी में जब भोपाल की चर्चित सांसद प्रज्ञा ठाकुर का नंबर आया तो उन्होंने एक ऐसा बेतुका बयान दे डाला जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।प्रज्ञा ठाकुर ने कहा, ‘मैं जब चुनाव लड़ रही थी तब एक महाराज जी आए थे, उन्होंने कहा था ये बहुत बुरा समय चल रहा है. आप अपनी साधना को बढ़ा लो. विपक्ष एक “मारक शक्ति” का प्रयोग आपकी पार्टी और उसके नेताओं के लिए कर रहा है ऐसे में आप सावधान रहें.’ प्रज्ञा ठाकुर ने आगे कहा कि मैं यह बात भूल गई थी, लेकिन अब जब मैं ये देखती हूं कि हमारी पार्टी के नेता यूं एक के बाद एक जा रहे हैं तो मुझे लग रहा है कि कहीं ये सच तो नहीं? ये सच है कि हमारा शीर्ष नेतृत्व हमारे बीच से असमय जा रहा है.”
गोया प्रज्ञा ठाकुर के मुताबिक़ भाजपा नेताओं की मृत्यु के लिए भी विपक्ष ज़िम्मेदार है। संतोषजनक तो यह है कि उन्होंने पूरे विपक्ष को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराया अन्यथा यदि वे पंडित नेहरू को ही इसके लिए अकेले भी ज़िम्मेदार ठहरा देतीं तो भी कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। उनके इस बयान से यह तो ज़ाहिर होता ही है कि तंत्र मन्त्र विद्या से कोई न कोई ऐसा उपाय किया जा सकता है जिससे “मारक शक्ति” पैदा हो। लगता है प्रज्ञा ठाकुर भी इस शक्ति को हासिल कर चुकी हैं। तभी उन्होंने यह दावे भी किये हैं कि ए टी एस प्रमुख हेमंत करकरे को उन्होंने ही श्राप दिया था जिससे वह 2008 में मुंबई के ताज होटल में 26/11 के हमले में पाक प्रायोजित आतंकवादियों के हाथों शहीद हुए थे। उनके इस विवादित एवं शहीद का अपमान करने वाले बयान के बाद ही यह सवाल भी पूछे जाने लगे थे कि जब प्रज्ञा ठाकुर के श्राप में इतनी शक्ति है तो उन्होंने ऐसा ही श्राप अजमल क़साब व हाफ़िज़ सईद जैसे आतंकवादियों को क्यों नहीं दिया। यदि वे समय पूर्व इन्हें श्राप दे देतीं तो 26/11 के मुंबई हमले में 160 से अधिक लोगों की जानें बच गयी होतीं। प्रज्ञा ठाकुर गाय की पीठ पर हाथ फेरने से कैंसर रोग ठीक होने का दवा भी करती रही हैं। इसके सुबूत में वे स्वयं को इससे लाभान्वित हुआ भी बताती हैं। वे गाय के दूध, दही, घी, मूत्र, गोबर के मिश्रण से तैयार पंचगव्य के सेवन द्वारा भी कैंसर व अन्य रोगों के उपचार का दावा करती रही हैं। यदि प्रज्ञा ठाकुर के यह दावे सही हैं तो देश और दुनिया भर के कैंसर अस्पतालों में इन विधियों का उपयोग क्यों नहीं किया जाता।अमरीका जैसे शोध में अग्रणी रहने वाले देश गौमूत्र व पंचगव्य पर शोध क्यों नहीं करते। या दुनिया के अन्य देश इन मान्यताओं या विश्वासों को स्वीकृति क्यों नहीं देते। जबकि यही अमेरिका नीम और हल्दी जैसी गुणकारी चीज़ों का भरपूर लाभ उठा रहा है। यहाँ सवाल यह है कि हमारे देश के प्रगतिशील व वैज्ञानिक सोच रखने वाले युवाओं पर भोपाल जैसे महानगर से निर्वाचित होकर आने वाली प्रज्ञा ठाकुर जैसी जनप्रतिनधि के ऐसे अतार्किक व अवैज्ञानिक “उपदेशों” का क्या प्रभाव पड़ेगा ?
दो वर्ष पूर्व जब चीन की सेना ने सिक्किम सेक्टर में भारतीय सीमा में डोकलाम क्षेत्र में घुसपैठ की थी उस समय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वरिष्ठ नेता इंद्रेश ने चीनी सेना का मुक़ाबला मंत्रोच्चारण के द्वारा करने की बात कही थी। संघ नेता इंद्रेश ने कहा था कि “चीन एक असुर शक्ति है अतः उसका मुक़ाबला करने के लिए सभी देशवासी इस मन्त्र का जाप करें कि- “कैलाश,हिमालय और तिब्बत चीन की असुर शक्ति से मुक्त हों “। उनके अनुसार इस मन्त्र से हमारी ऊर्जा बढ़ेगी और चीन का नुक़्सान होगा। यदि इस कथन में ज़रा सी भी सच्चाई है तो सत्ता में आने के बाद बड़े बड़े वैज्ञानिक व सैन्य शोध संस्थानों पर पैसे ख़र्च करने के बजाए तंत्र मन्त्र विद्या वाले बड़े संसथान तैयार किये जाने चाहिए। इन मन्त्रों का उच्चारण देश की चारों ओर की सीमाओं पर,कश्मीर व अन्य आतंक प्रभावित राज्यों में तथा नक्सल व माओवादी हमलों को रोकने के लिए क्यों नहीं किया जाता। हमारे देश में मंत्रशक्ति से जुड़ी सोमनाथ मंदिर की एक प्राचीन घटना बेहद प्रसिद्ध है।बताया जाता है कि महमूद ग़ज़नवी ने सन 1024 में लगभग पांच हज़ार की सेना के साथ सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण किया था। उसने मंदिर की बेशक़ीमती सम्पत्ति लूटी थी । जिस समय ग़ज़नवी ने आक्रमण किया बताया जाता है कि उस समय लगभग पचास हज़ार भक्तजन मंदिर के अंदर हाथ जोड़कर पूजा अर्चना कर रहे थे। वे ग़ज़नवी की लुटेरी सेना से लड़ने के लिए भी तैयार थे। परन्तु मंदिर के पुजारियों ने उन्हें आश्वस्त किया की उनके द्वारा किये जा रहे मंत्रोच्चारण से ग़ज़नवी व उसकी लुटेरी सेना का अंत हो जाएगा। ग़ज़नवी की सेना के मंदिर में प्रवेश करने तक मंदिर के सभी पुजारी बुलंद आवाज़ में मंत्रोच्चारण करते रहे। पुजारियों ने भक्तों को भी लड़ने नहीं दिया। नतीजतन तंत्र मन्त्र विद्या निष्प्रभावी साबित हुई। पुजारियों सहित मंदिर में मौजूद हज़ारों भक्तों की हत्या कर दी गयी। इसी हमले में ग़ज़नवी ने मंदिर की बेशक़ीमती संपत्ति लूट ली। उस समय से लेकर आज तक इतिहास के उस खंड को तो याद किया जाता है जिसमें ग़ज़नवी को मंदिर पर आक्रमण करने वाला लुटेरा व घुसपैठिया बताया जाता है परन्तु इतने प्रसिद्ध व सिद्ध ज्योतिर्लिंग की रक्षा हेतु पढ़े गए मन्त्रों की असफलता का उल्लेख नहीं किया जाता।
ऐसी तमाम अवैज्ञानिक व तर्कहीन बातें इन दिनों अनेक विशिष्ट लोगों के मुंह से निकलती सुनाई दे रही हैं। कभी प्रधानमंत्री से लेकर और कई बड़े नेता व विशिष्ट लोग गणेश सर्जरी को विश्व का पहला बड़ा सर्जिकल ऑपरेशन बताते हैं तो कभी राजयपाल जैसे पद पर बैठा व्यक्ति कहता है कि मोरनी मोर के आंसू पीकर गर्भवती होती है तो कभी सीता जी को पहला टेस्ट ट्यूब बेबी बता दिया जाता है। मिसाइल और विमान की टेक्नोलॉजी भी प्राचीन भारत की खोज का नतीजा बताई जाती हैं। यह और बात है कि पूरा विश्व इन बातों को गंभीरता से लेने के बजाए ऐसी बातों पर हँसता ज़रूर है। ख़ास तौर पर उस स्थिति में जब ऐसी अवैज्ञानिक व तर्कहीन बातें देश के जनप्रतिनिधियों व विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा की जाती हों। इससे देश के प्रगतिशील व वैज्ञानिक सोच रखने वाले वह युवा भी भ्र्मित होते हैं जिनके कांधों पर देश का भविष्य टिका हुआ है।

भारतीय वायुसेना को ताकतवर बनाएगा अपाचे
योगेश कुमार गोयल
(दुनिया की चंद ताकतवर वायुसेनाओं में शुमार भारतीय वायुसेना की ताकत उस समय और बढ़ गई, जब 27 जुलाई को उसे अमेरिकी एयरोस्पेस कम्पनी ‘बोइंग’ द्वारा चार एएच-64ई अपाचेगार्जियनअटैकहेलीकॉप्टरों की पहली खेप मिल गई, चार अपाचेहेलीकॉप्टर इसी सप्ताह और मिलने की संभावना है। कुछ ही माह पहले बोइंगकम्पनी द्वारा एक अपाचेहेलीकॉप्टर पहले ही भारत को सौंपा जा चुका है, इस तरह भारतीय वायुसेना के बेड़े में फिलहाल 9अपाचेअटैकहेलीकॉप्टर हो जाएंगे तथा आने वाले समय में कई और अपाचेहेलीकॉप्टरों की आपूर्ति भारतीय वायुसेना को होनी है। ये हेलीकॉप्टर भारतीय वायुसेना के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण इसलिए माने जा रहे हैं क्योंकि इन्हें दुनिया के सबसे खतरनाक हेलीकॉप्टरों के रूप में जाना जाता है और यही वजह है कि इन हेलीकॉप्टरों के भारतीय वायुसेना के बेड़े में शामिल होने से हमारी वायुसेना की ताकत बढ़ गई है। बोइंगकम्पनी अब तक विश्वभर में 2200 से भी अधिक अपाचेहेलीकॉप्टरों की आपूर्ति कर चुकी है और भारत दुनिया का 14वां ऐसा देश है, जिसने अपनी सेनाओं के लिए इस हेलीकॉप्टर का चयन किया है। फिलहाल अमेरिका, ब्रिटेन, इजरायल, नीदरलैंड, सऊदी अरब, मिस्र इत्यादि देशों की वायुसेनाएं इसका इस्तेमाल कर रही हैं। बोइंगएएच-64 ई अपाचे को दुनिया का सबसे आधुनिक और घातक हेलिकॉप्टर माना जाता है, जो ‘लादेनकिलर’ के नाम से भी विख्यात है। यह अमेरिकी सेना तथा कई अन्य अतंर्राष्ट्रीय रक्षा सेनाओं का सबसे एडवांसमल्टीरोलकॉम्बैटहेलीकॉप्टर है, जो एक साथ कई कार्यों को अंजाम दे सकता है। अमेरिका, इजरायल, मिस्र तथा नीदरलैंड के अलावा कुछ अन्य देशों की सेनाएं भी इस हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल कर रही हैं। इसलिए इन हेलीकॉप्टरों को भारतीय वायुसेना में शामिल करना वायुसेना के बेड़े के आधुनिकीकरण की दिशा में महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है।
भारतीय वायुसेना का मानना है कि अपाचे बेड़े के जुड़ने से बल की लड़ाकू क्षमताओं में काफी वृद्धि होगी क्योंकि इन हेलीकॉप्टरों में भविष्य की आवश्यकताओं के मद्देनजर बदलाव किए गए हैं। दरअसल भारतीय वायुसेना की जरूरत के मुताबिक ही अपाचेहेलीकॉप्टर में अपेक्षित बदलाव किए गए हैं। वायुसेना का कहना है कि भविष्य में थलसेना के साथ किसी भी तरह के साझा ऑपरेशन में अपाचेअटैक हेलिकॉप्टर बड़ा फर्क पैदा करेंगे। ढ़ाई अरब डॉलर अर्थात् करीब साढ़े सत्रह हजार करोड़ रुपये का यह हेलीकॉप्टर सौदा करीब चार साल पहले हुआ था, जब सितम्बर 2015 में भारत ने अमेरिका से 22अपाचे और 15चिनूक हेलिकॉप्टर खरीदने के लिए सौदा किया था। रक्षा मंत्रालय द्वारा 2017 में भी 4168 करोड़ रुपये की लागत से बोइंग से हथियार प्रणालियों सहित छह और अपाचेहेलीकॉप्टरों की खरीद को मंजूरी दी गई थी। अपाचे एक ऐसा अग्रणी बहुउद्देश्यीय लड़ाकू हेलीकॉप्टर है, जिसे खुद अमेरिकी सेना इस्तेमाल करती है। अमेरिका का अपाचेहेलीकॉप्टर पहली बार वर्ष 1975 में आकाश में उड़ान भरता नजर आया था तथा वर्ष 1986 में इसे पहली बार अमेरिकी सेना में शामिल किया गया था। अमेरिका ने अपने इसी अपाचेअटैक हेलिकॉप्टर का पनामा से लेकर अफगानिस्तान और इराक तक के साथ दुश्मनों को धूल चटाने के लिए इस्तेमाल किया था। इसके अलावा इजरायल भी लेबनान तथा गाजा पट्टी में अपने सैन्य ऑपरेशनों के लिए अपाचे का इस्तेमाल करता रहा है।
अपाचे की ढ़ेरों विशेषताएं ही इसे भारतीय वायुसेना को नई ताकत प्रदान करने के लिए पर्याप्त हैं। इसमें सटीक मार करने और जमीन से उत्पन्न खतरों के बीच प्रतिकूल हवाईक्षेत्र में परिचालित होने की अद्भुत क्षमता है। अपाचे का डिजाइन कुछ इस प्रकार तैयार किया गया है कि यह आसानी से दुश्मन की किलेबंदी को भेदकर उसके इलाके में घुसकर बहुत सटीक हमले करने में सक्षम है और इसकी इन्हीं विशेषताओं के चलते इससे पीओके में आतंकी ठिकानों को तबाह करने में भारतीय सेना को मदद मिलेगी। 365 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से उड़ान भरने में सक्षम यह हेलीकॉप्टर तेज गति के कारण बड़ी आसानी से दुश्मनों के टैंकरों के परखच्चे उड़ा सकता है। बहुत तेज रफ्तार से दौड़ने में सक्षम इस हेलीकॉप्टर को रडार पर पकड़ना बेहद मुश्किल है। यह बगैर पहचान में आए चलते-फिरते या रूके हुए लक्ष्यों को आसानी से भांप सकता है। इतना ही नहीं, सिर्फ एक मिनट के भीतर यह 128 लक्ष्यों से होने वाले खतरों को भांपकर उन्हें प्राथमिकता के साथ बता देता है। इसे इस तरीके से डिजाइन किया गया है कि यह युद्ध क्षेत्र में किसी भी परिस्थिति में टिका रह सकता है। यह किसी भी मौसम या किसी भी स्थिति में दुश्मन पर हमला कर सकता है और नाइटविजनसिस्टम की मदद से रात में भी दुश्मनों की टोह लेने, हवा से जमीन पर मार करने वाले रॉकेट दागने और मिसाइल आदि ढ़ोने में सक्षम है। टारगेट को लोकेट, ट्रैक और अटैक करने के लिए इसमें लेजर, इंफ्रारेड, सिर्फ टारगेट को ही देखने, पायलट के लिए नाइटविजन सेंसर सहित कई आधुनिक तकनीकें समाहित की गई हैं। यह एक बार में पौने तीन घंटे तक उड़ सकता है और इसकी फ्लाइंग रेंज करीब 550 किलोमीटर है। इसमें अत्याधुनिक रडार तथा निशाना साधने वाला सिस्टम लगा है।
दो जनरल इलैक्ट्रिकटी-700 हाई परफॉरमेंसटर्बोशाफ्ट इंजनों से लैस इस हेलीकॉप्टर में आगे की तरफ एक सेंसर फिट है, जिसके चलते यह रात के अंधेरे में भी उड़ान भर सकता है। इसका सबसे खतरनाक हथियार है 16एंटी टैंक मिसाइल छोड़ने की क्षमता। दरअसल इसमें हेलिफायर, स्ट्रिंगरमिसाइलें, 70एमएमरॉकेट्स लगे हैं और मिसाइलों के पेलोड इतने तीव्र विस्फोटकों से भरे होते हैं कि दुश्मन का बच निकलना नामुमकिन होता है। इसके वैकल्पिक स्टिंगर या साइडवाइंडरमिसाइल इसे हवा से हवा में हमला करने में सक्षम बनाते हैं। अपाचेहेलीकॉप्टर के नीचे दोनों तरफ 30एमएम की दो ऑटोमैटिकराइफलें भी लगी हैं, जिनमें एक बार में शक्तिशाली विस्फोटकों वाली 30एमएम की 1200 गोलियां भरी जा सकती हैं। इसका सबसे क्रांतिकारी फीचर है इसका हेल्मेटमाउंटेड डिस्प्ले, इंटीग्रेटेडहेलमेट और डिस्प्ले साइटिंगसिस्टम, जिनकी मदद से पायलट हेलिकॉप्टर में लगी ऑटोमैटिकएम-230 चेन गन को अपने दुश्मन पर टारगेट कर सकता है। 17.73 मीटर लंबे, 4.64 मीटर ऊंचे तथा करीब 5165 किलोग्राम वजनी इस हेलीकॉप्टर में दो पायलटों के बैठने की व्यवस्था है। इसका अधिकतम भार 10400 किलोग्राम हो सकता है। डेटानेटवर्किंग के जरिये हथियार प्रणाली से और हथियार प्रणाली तक, युद्धक्षेत्र की तस्वीरें प्राप्त करने और भेजने की इसकी क्षमता इसकी खूबियों को और भी घातक बना देती है।
अपाचेहेलीकॉप्टरों को चीन तथा पाकिस्तानी सीमा पर तैनात किया जाएगा तथा ये भारतीय सेना में विशुद्ध रूप से हमले करने का ही काम करेंगे। ये लड़ाकू हेलीकॉप्टर जमीनी बलों की सहायता के लिए भविष्य के किसी भी संयुक्त अभियान में महत्वपूर्ण धार उपलब्ध करांएगे। यही वजह है कि माना जा रहा है कि वायुसेना में इनके शामिल होने से वायुसेना के साथ-साथ थल सेना की ऑपरेशनल ताकत में भी कई गुना बढ़ोतरी हो जाएगी। कम ऊंचाई पर उड़ने की क्षमता के कारण यह पहाड़ी क्षेत्रों में छिपकर वार करने में सक्षम हैं और इस लिहाज से यह पर्वतीय क्षेत्र में वायुसेना को महत्वपूर्ण क्षमता और ताकत प्रदान करेगा। इसी साल 26 मार्च को चार हैवीलिफ्ट ‘चिनूक’ हेलीकॉप्टर भी वायुसेना के बेड़े में शामिल हुए थे और 11चिनूक मार्च 2020 तक मिलने की संभावना है। एमआई-17 जैसे मध्यम श्रेणी के भारी वजन उठाने वाले रूसी लिफ्टहेलीकॉप्टर भारतीय वायुसेना के पास पहले से ही मौजूद हैं। कुछ माह पूर्व रूस के साथ भी 37 हजार करोड़ रुपये की लागत से मल्टीफंक्शनरडार से लैस एस-400एंटीएयरक्राफ्टमिसाइल प्रणाली का सौदा किया गया था, जो दुनियाभर में सर्वाधिक उन्नत मिसाइल रक्षा प्रणालियों में से एक है और वायुसेना के लिए ‘बूस्टर खुराक’ मानी जाती रही है। अपाचे युद्ध के समय में गेम चेंजर साबित हो सकता है और एस-400एंटीएयरक्राफ्टमिसाइल प्रणाली, चिनूक, अपाचे तथा आने वाले दिनों में राफेल मिलकर भारतीय वायुसेना को इतनी ताकत प्रदान करेंगे, जिसे देखते हुए यह कहना असंगत नहीं होगा कि भारतीय वायुसेनादिनोंदिन ताकतवर होती जा रही है।

महान शिक्षाशास्त्री थे सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन
मनोहर पुरी
(05 सितम्बर : शिक्षक दिवस पर विशेष) भारत के दूसरे राष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन का जन्म दिवस पूरे देश में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसके पीछे मुख्य कारण उनका शिक्षा के प्रति समर्पण और शिक्षा के वास्तविक गुणों को आत्मसात करना रहा। वह राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत ,दर्शनशास्त्र, कुशल प्रशासक और महान तत्ववेत्ता विचारक थे। सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन का जन्म 5 सितम्बर सन् 1888 को तमिलनाडु के तिरुतणी नामक कस्बे में हुआ। उनका परिवार प्रांगानाडु नियोगी ब्राह्मण जाति का था। उनके पिता का नाम सर्वपल्ली वीरास्वामी एवं माता का नाम श्रीमती सीताम्मा था। डॉ. राधाकृष्णन अपने माता पिता की दूसरी संतान थे। उनके पिता श्री वीरास्वामी शिक्षक होने के साथ पुरोहिताई का कार्य भी करते थे। इस प्रकार उनके परिवार में धर्म एवं शिक्षा का वातावरण था जिसका प्रभाव डॉ. राधाकृष्णन पर होना स्वाभाविक भी था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा अपने ही कस्बे तिरुतणी के अल्लामा राम प्राथमिक स्कूल से प्रारम्भ हुई। दसवीं की परीक्षा लुधरन मिशन हाई स्कूल से पास करने के बाद उन्होंने वूरहेस कॉलेज बेल्लौर से एफ.ए.किया। पढ़ाई के दौरान ही उनका विवाह शिवकामा से साथ हो गया। दर्शन शास्त्र के साथ उन्होंने मद्रास प्रिश्चियन कालेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। कुशाग्र बुद्धि वाले होने के कारण उनकी अपने विषयों के साथ साथ अंग्रेजी भाषा पर बहुत अच्छी पकड़ बन गई।
उन्होंनें इसी महाविद्यालय से दर्शन शास्त्र में एम.ए. किया। एम.ए. की उपाधि के लिए उन्होंने सन् 1908 ई. में शोध प्रबंध ‘ दि एथिक्स ऑफ वेदान्त ` शीर्षक से प्रस्तुत किया। इस प्रकार उन्होंने अपनी शिक्षा का आधार भारतीय वेद दर्शन को बनाया। अपने पहले ही शोध प्रबंध में उन्होंने वेदान्त के मायावाद का गहन विशलेषण किया। उन्होंने कहा कि वेदान्त दर्शन इस जगत को अविद्या की सृष्टि मानता है। यह जगत अनित्य है,भ्रम है और मृगतृष्णा है। अविद्याजनित यह भ्रम ज्ञान के द्वारा समाप्त हो जाता है परन्तु उस स्थिति में भी यह भासमान जगत विद्यमान रहता है। उसका अस्तित्व नहीं मिटता। वह अपनी पहली ही रचना से लेखन के क्षेत्र में पहचाने जाने लगे। उनके शोध प्रबंध की विभिन्न विद्वानों द्वारा प्रशंसा की गई। यहीं से उनकी लेखन क्षमता के साथ साथ विद्वता की चर्चा होनी प्रारम्भ हो गई। अधिकांश विद्वानों का मत था कि ,’ इस शोध प्रबंध में दर्शनशास्त्र के न केवल मूल सिद्धांतों का विवेचन किया गया है बल्कि उन्हें आत्मसात भी कर लिया गया है। जटिल एवं गंभीर मुद्दों को सहज ढंग से अभिव्यक्त करने की अद्भुत क्षमता और अंग्रेजी भाषा में अधिकार पूर्ण प्रवाह में अपनी बात कहने में यह प्रबंध आशातीत सफलता प्राप्त कर सकता है।` बाद में विश्व भर में उन्हें धर्मशास्त्र का विलक्षण व्याख्यता माना गया। अपने संपूर्ण व्यक्तित्व में वह एक महान शिक्षा शास्त्र, मौलिक विचारों के प्रवक्ता,सात्विक लेखक और महान दार्शनिक स्वीकार किए गए।
एम.ए.करने के पश्चात वह प्रेसीडेंसी कालेज मद्रास में दर्शन शास्त्र के अध्यापक नियुक्त हो गए। सन् 1918 ई. में डॉ राधाकृष्णन को मैसूर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर नियुक्त किया गया। 1928 ई. में वह कलकता विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र पढ़ाने के लिए चले गए। उन्होंने सन् 1931 से 1936 तक आन्ध्र विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पद को सुशोभित किया। सन् 1936 से 1952 तक वह ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ाते रहे। इससे पूर्व वह 1939 से 1948 तक बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय के कुलपति रहे थे। एक ऐसा अवसर भी आया था जब डॉ. राधाकृष्णन कलकत्ता,काशी और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालयों का कार्य एक साथ देख रहे थे।
डॉ राधाकृष्णन अपने हृदय में मानवता के प्रति अगाध प्रेम रखते थे। उनका मत था कि यदि निष्ठापूर्वक वस्तुओं पर अतंरात्मा की शक्ति स्थापित कर दी जाए तो मानव जीवन मंगलमय और कल्याणकारी हो जायेगा। उनका दृष्टिकोण सभी के लिए एक जैसा कल्याणकारी था। वह जानते थे कि भारतीय समाज अस्वस्थ वृत्तियों से अप्रांत है,परन्तु यह समाज इतना अधिक बीमार भी नहीं है कि इसे रोगमुक्त किया ही न जा सके। भारतीयों की प्रतिभा और मान्यताओं पर उनका अडिग विश्वास था। एक बार जब वह अमरीका प्रवास कर रहे थे तो उन्होंने कुछ संवाददाताओं को सम्बोबिधत करते हुए कहा कि ,” भारत में विभिन्न धार्मिक विश्वासों ,जातियों और आर्थिक स्तरों के करोड़ों लोगों ने गत दो शताब्दियों के मध्य राष्ट्रीय सामंजस्य और प्रजातंत्रीय भावना उत्पन्न करने में ऐसी सफलता प्राप्त की है कि जिसे देख कर निराशावादी भविष्य वक्ताओं को आश्चर्यचकित रह जाना पड़ा है।“ इसी सन्दर्भ में एक बार उन्होंने पाश्चात्य सभ्यता के विषय में विचार व्यक्त करते हुए कहा था,” आपने लोगों को धरती पर तीव्र गति से दौड़ना,आसमान में बहुत ऊंचाई तक उडना और पानी पर तैरना तो सिखा दिया परन्तु मनुष्यों की तरह रहना आपको नहीं आया।“
लगभग यही विचार मिलती जुलती भाषा में उन्होंने तब व्यक्त किए जब एक ब्रिटिश नेता ने उनसे प्रश्न किया कि जितनी प्रगति पश्चिमी देशों ने की है उतनी भारत क्यों नहीं कर पाया। उन्होंने उत्तर दिया भले ही आपने चिड़ियों की तरह से उडना और मछली की तरह से तैरना सीख लिया हो परन्तु मानव की तरह प्रेम से धरती पर रहना आप लोग नहीं सीख पाये। प्रेम, करूणा और मानवता जैसे सद्गुणों की प्रेरणा देने की क्षमता आज भी भारत में ही है।
डॉ. राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ मानते थे। मानवीय गुणों के विकास एवं धार्मिक शिक्षा पर वह बहुत बल देते थे। वह मानते थे कि व्यक्ति के जीवन में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान। आज हमारी शिक्षा प्रणाली पश्चिम के प्रभाव के कारण विद्यार्थियों में स्वार्थ,बेईमानी और अहंकार की भावनाओं को बढ़ावा दे रही है। वह कहते थे कि विश्वविद्यालय गंगा और यमुना के संगम की तरह शिक्षकों और छात्रों का पवित्र संगम है। शिक्षा के लिए बड़े बड़े भवन और विभिन्न प्रकार की साधन सामग्री उतनी महत्वपूर्ण नहीं होती जितने कि शिक्षक । उन का मत था कि,” विश्वविद्यालय ज्ञान बेचने की दुकानें नहीं हैं,वे तो ऐसे तीर्थस्थल हैं जिन में स्नान करने से व्यक्ति की बुद्धि,इच्छा और भावना का परिष्कार और आचरण का संस्कार होता है। विश्वविद्यालय बौद्धिक जीवन के देवालय हैं,उनकी आत्मा है ज्ञान का शोधहैं । वे संस्कृति के तीर्थ और स्वतंत्रता के दुर्ग हैं।“
डॉ. राधाकृष्णन हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद के प्रबल समर्थक थे। उन्हें इस बात पर गर्व का अनुभव होता था कि वह इस पवित्र और ऋषिमुनियों की धरती पर जन्में और हिन्दुत्व उनकी शिराओं में दौड़ रहा है। वह एक आस्थावान हिन्दू थे परन्तु वह अन्य सभी धर्मों के प्रति समान आदर भाव रखते थे। सादगी पसन्द डॉ. राधाकृष्णान स्वभाव से अत्यंत विनम्र और धौर्यवान थे। कर्मवाद के सिद्धांत कें संबंध में उनका मानना था कि इस सिद्धांत के कारण हम भाग्यवादी अकर्मण्य कभी नहीं बनते इससे हम कर्म करने में स्वाधीन हो कर निराशा,पीड़ा व अपराध बोध से मुक्त हो कर अपने जीवन में आशा का संचार करते हैं। यह सिद्धांत अतीत के द्वारा वर्तमान को नियंत्रित बताता है। किन्तु फिर भी हम भविष्य निर्माण के लिए मुक्त रहते हैं।
जीवन के अंतिम दिनों में सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन की मोतियाबिन्द के कारण देखने की क्षमता कम हो गई थी फिर भी उनका लेखन और पठन पाठन विचार विमर्श के साथ अविरल चलता रहा। 17अपैल 1976 को मद्रास में उन्हें दिल का दौरा पड़ा और हृदयाघत के कारण वह इस नश्वर शरीर को त्याग कर हमारे मध्य से चले गए। उनके परिवार में पांच पंत्रियां एवं एक पुत्र था। आज भी राष्ट्र उन्हें एक महान शिक्षक के अतिरिक्त एक दर्शनिक राष्ट्रपति के रूप में स्मरण करता है।

मुसलमान और हिंदुत्व
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जमीयत उलेमा-ए-हिंद के प्रमुखों की मुलाकात को जितना महत्व खबरपालिका में मिलना चाहिए था, नहीं मिला। मेरी राय में श्री मोहन भागवत और मौलाना अर्शद मदनी की इस भेंट का महत्व ऐतिहासिक है। ऐसा इसलिए भी है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान इधर कई बार कह चुके हैं कि आरएसएस और नरेंद्र मोदी हिटलर और मुसोलिनी के नक्शे-कदम पर चल रहे हैं। वे कश्मीरी मुसलमानों को खत्म करने पर आमादा हैं। संघ के बारे में यह विचार बद्धमूल है कि वह उग्रवादी हिंदुओं का संगठन है और वह पूरी तरह से मुस्लिम-विरोधी है। भारत के मुस्लिम संगठन भी पानी पी-पीकर संघ को कोसते रहे हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में दोनों पक्षों के रवैयों में कुछ सुधार हुआ है। भागवत और मदनी की भेंट इसका प्रमाण है। यह काम सबसे पहले संघ-प्रमुख कुप्प सी. सुदर्शनजी ने शुरु किया था। सुदर्शनजी अब से 50-55 साल पहले जब इंदौर में शाखा चलाते थे, तब मैं उनसे कहा करता था कि देश के करोड़ों मुसलमानों को हम यदि अराष्ट्रीय और अछूत मानते रहेंगे तो भारत न तो कभी महाशक्ति बन पाएगा और न ही संपन्न हो पाएंगा। सर संघचालक बनने पर उन्होंने ‘राष्ट्रीय मुस्लिम मंच’ की स्थापना की। उन्होंने मुझसे अनुरोध किया था कि मैं ही उसका उदघाटन करुं। मैं तो वह दिन देखना चाहता हूं जबकि संघ की शाखाओं में मुसलमान, ईसाई, यहूदी भी जमकर भाग लें। विदेशों में जन्मे मज़हबों या विचारधाराओं के अनुयायिओं को हम विदेशी मानने लगें या उनकी देशभक्ति पर शक करने लगें, यह सर्वथा अनुचित है। यदि मेरे इस विचार से मोहन भागवत सहमत हैं कि हिंदुत्व ही भारतीयता है और भारतीयता ही हिंदुत्व तो मैं कहूंगा कि संघ के दरवाजे समस्त भारतीयों के लिए खोल दिए जाने चाहिए। इसका उल्टा भी लागू होना चाहिए। याने अपने मुसलमान, ईसाई और यहूदी भाइयों से हम यह क्यों नहीं चाहें कि वे अपने नाम, वेश-भूषा, खान-पान, तीज-त्यौहार, नाते-रिश्तों में बाहरी मुल्कों की आंख मींचकर नकल न करें। भारतीयता को मजबूती से पकड़े रहें। वे इंडोनेशिया के मुसलमानों से सबक लें। राष्ट्रपति सुकर्ण, उनकी बेटी मेघावती और उसके पिता अली शास्त्रविदजोजो क्या अपने नाम संस्कृत में या ‘भाषा इंडोनेशिया’ में रखने के कारण काफिर हो गए ? क्या वे मुसलमान नहीं रहे ? सच्चे भारतीय होने और सच्चे मुसलमान होने में कोई अन्तर्विरोध नहीं है।

आरक्षण ख़त्म करने ने से पहले नफ़रत के संस्कारों का ख़ात्मा ज़रूरी
तनवीर जाफ़री
धर्म व शास्त्र प्रदत्त वर्ण व्यवस्था तमाम सरकारी व ग़ैर सरकारी कोशिशों के बावजूद देश से समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रही है। बल्कि ऐसा महसूस होता है कि आधुनिक भारत के शिक्षित समाज में शायद यह और भी बढ़ती ही जा रही है। भले ही हमें महानगरों या अन्य शहरी क्षेत्रों से दलित समाज के उत्पीड़न के समाचार तुलनात्मक रूप से कम सुनाई देते हों परन्तु देश का अधिकांश भाग यहाँ तक कि दक्षिण भारत के वह क्षेत्र जिन्हें उत्तर भारत की तुलना में अधिक आधुनिक व उदारवादी सोच रखने वाला माना जाता है, वे भी अभी तक वर्ण व्यवस्था द्वारा दिखाए गए जातिगत ऊंच नीच की बेड़ियों से मुक्त नहीं हो पाए हैं। मुग़ल व अंग्रेज़ों के शासनकाल में भी दलितों पर सवर्णों द्वारा अत्याचार किये जाने व उन्हें अछूत बताकर उनका अपमान करने की तमाम घटनाएं होती थीं परन्तु आज़ादी के बाद तो जैसे देश क्या आज़ाद हुआ गोया दलितों पर अत्याचार करने की भी पूरी आज़ादी स्वर्ण दबंगों को हासिल हो गयी। दलित उत्पीड़न के नित्य नए इतिहास लिखे जाने लगे। कहना ग़लत नहीं होगा की दलितों से नफ़रत करने वाले लोगों द्वारा कभी कभी दलितों पर ऐसे ज़ुल्म किये जाने के समाचार आते हैं जैसे ज़ुल्म जानवरों पर भी नहीं किये जाते। यही वजह थी कि बाबा साहब भीम राव अंबेडकर जैसे राष्ट्रवादी नेता को भी इस बात की हमेशा चिंता सताती रही कि वर्णाश्रम के संस्कार रखने वाले हिन्दू धर्म में दलितों का भविष्य आख़िर क्या होगा ? उन्होंने अनेक बार इस आशंका को अपने भाषणों व आलेखों के माध्यम से ज़ाहिर भी किया था कि यदि आज़ादी के बाद ” हिंदू भारत” बना तो वह दलितों के लिए अंग्रेज़ी राज की तुलना में और ज़्यादा क्रूर होगा। निःसंदेह दलितों पर स्वतंत्रता के बाद बढ़ते अत्याचार व इनके तरीक़े बाबा साहब की उस दूरदर्शी सोच पर मोहर लगाते हैं।
भारत में आरक्षण की व्यवस्था भी इसी उद्देश्य के लिए की गई थी ताकि सामाजिक अन्याय का दंश सदियों से झेलता आ रहा यह दबा कुचला समाज आरक्षण के सहारे शिक्षित होगा,रोज़गार हासिल करेगा,संपन्न होगा तथा धीरे धीरे उसे शेष समाज के बराबर आने का अवसर मिलेगा। यह व्यवस्था शासन व प्रशासन के अंतर्गत की गयी व्यवस्था तो बनी परन्तु जिस सनातनीय शिक्षा ने वर्णाश्रम की बुनियाद डाली थी उसमें न तो कोई परिवर्तन किया गया न ही उसे समाप्त करने की कोशिश की गयी। परिणाम स्वरूप आज भी दलित के घर में जन्म लेने वाला व्यक्ति जन्म से ही नीच व अछूत माना जाता है। भले ही आगे चलकर वह कितना ही महान व्यक्ति क्यों न बन जाए परन्तु चूँकि उसका जन्म दलित परिवार में हुआ है लिहाज़ा तिरस्कार,उपेक्षा व अवहेलना व स्वयं को नीच व तुच्छ समझना गोया उसका जन्म सिद्ध अधिकार है। स्वयं को हिन्दू धर्म का ठेकेदार समझने वाली वह शक्तियां जो स्वर्ण हिन्दुओं के संरक्षण में संचालित हैं वे कभी कभी सामूहिक भोज का “राजनैतिक प्रदर्शन” कर हिन्दू एकता का सन्देश सिर्फ़ इसलिए तो देना चाहती हैं ताकि दुनिया को यह बताया जा सके कि भारत का हिन्दू समाज एक और संगठित है। अपनी इन्हीं कोशिशों के तहत कभी भारत में दलित राष्ट्रपति बनाया जाता है तो कभी गृह मंत्री,राजयपाल,रक्षा मंत्री या अन्य महत्वपूर्ण पदों पर बिठा दिया जाता है। परन्तु नफ़रत की संस्कारित जड़ों पर सीधे प्रहार नहीं किया जाता। बजाए वर्णाश्रम व्यवस्था को चिन्हित करने या उसे ज़िम्मेदार ठहराने के बजाए कभी मुग़लों को तो कभी अंग्रेज़ों को ही इस व्यवस्था का दोषी ठहरा कर सच्चाई को छुपाने की कोशिश की जाती रही है। महाराष्ट्र के पुणे ज़िले मे स्थित भीमा कोरेगांव वह जगह है जहाँ इसी संस्कारित नफ़रत पर आधारित एक ऐसा इतिहास लिखा जा चुका है जो लाख प्रयासों के बावजूद छुपाए नहीं छुपता।यहाँ महार (दलित) समुदाय द्वारा ब्रिटिशों के साथ मिलकर ब्राह्मण पेशवाओं के खिलाफ युद्ध लड़ा गया।इस युद्ध में ब्राह्मण पेशवाओं को ब्रिटिश सेना से पराजय मिली। ब्रिटिशर्स ने इस जीत का श्रेय महार समुदाय को दिया। इसी युद्ध की वर्षगांठ मनाने के लिए प्रत्येक वर्ष 1 जनवरी को भीमा कोरेगांव में महार समुदाय के हज़ारों लोग इकठ्ठा होते हैं। ब्राह्मण पेशवाओं द्वारा दलितों के साथ कैसा बर्ताव किया जाता था उसका ज़िक्र इतिहास में दर्ज है।
यही मानसिकता आज कहीं दलित समाज के दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ने से रोकती है कहीं निर्वाचित दलित सरपंच को स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस पर तिरंगा फहराने से रोक देती है तो कहीं मध्यान भोजन के समय स्कूलों में दलित छात्रों को अलग बैठाये जाने जैसी घटनाएं सामने आती हैं तो कहीं स्कूल में यही भोजन दलित समुदाय के हाथों से बना होने के कारण स्वर्ण जाति के बच्चे खाने से ही मना कर देते हैं। कहीं कथित उच्च जाति के लोग अपनी बस्ती से दलित की बारात नहीं गुज़रने देते तो कहीं मृतक दलित की शवयात्रा सवर्णों के इलाक़े से नहीं गुज़रने दी जाती। गत वर्ष गुजरात में अहमदाबाद से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित वालथेरा गांव मेंकथित ‘ऊंची’ जाति के लोगों ने एक दलित महिला को केवल इसलिए बुरी तरह मारा क्योंकि वह ‘ऊंची’ जाति के लोगों के सामने कुर्सी पर बैठी हुई थी। हालांकि वह दलित महिला ग्राम पंचायत द्वारा आयोजित शिविर में स्कूल में आधार कार्ड बनवाने के लिए आए एक कथित ‘ऊंची’ जाति के लड़के की उंगलियों के निशान लिए जाने में उस बच्चे की सहायता कर रही थी. इसके बावजूद दबंगों ने लात मारकर उसे कुर्सी से नीचे गिराया और लाठियों से पीटना शुरू कर दिया। जब उस असहाय दलित महिला के पति और पुत्र वहां पहुंचे तो उन्हें भी इन दबंगों ने ख़ूब पीटा। बिहार,झारखण्ड,उड़ीसा व मध्य प्रदेश जैसे कई राज्यों में तो दलित महिलाओं को चुड़ैल या भूतनी बता कर दबंग लोग जब चाहें तब पीटते रहते हैं। दलित दूल्हे की घुड़चढ़ी रोकने की घटना तो कई राज्यों में होती ही रहती हैं। दलित बच्चियों से बलात्कार व हत्या की तमाम घटनाएं भी होती रहती हैं।
संविधान में आरक्षण की व्यवस्था का राजनैतिक लाभ भी देश के कुछ गिने चुने दलित नेताओं द्वारा उठाया जा रहा है। वे आरक्षण को अपनी पारिवारिक बपौती समझ कर गत 70 वर्षों से इसका लाभ ख़ुद लेते आ रहे हैं या अपने परिवार के सदस्यों को पहुंचा रहे हैं। दलितों पर देश भर से आने वाले अत्याचार के संस्कारों के बावजूद आजतक किसी दलित मंत्री सांसद या विधायक ने रोष स्वरूप अपने इस्तीफ़े का प्रस्ताव नहीं रखा। अभी गत 17 अगस्त को तमिलनाडु के वेल्लोर ज़िले के वानियाम्बड़ी क़स्बे में एन कुप्पन नाम के एक 46 वर्षीय दलित व्यक्ति की मृत्यु हो गयी थी। इसकी शव यात्रा को स्थानीय स्वर्ण जाति के लोगों द्वारा शमशान घाट जाने के लिए रास्ता नहीं दिया गया। कुप्पन के शव को अंतिम संस्कार के लिए श्मशान घाट ले जाया जाना था, परन्तु उच्च जाति के स्थानीय लोगों की ज़मीन रास्ते में पड़ती है। इस वजह से दलित व्यक्ति के शव को लोग मुख्य रास्ते से नहीं ले जा पाए। श्मशान घाट पहुंचने के लिए 20 फ़ुट ऊंचे पुल का इस्तेमाल करना पड़ा, जहां नदी के ऊपर बने इस पुल से शव को रस्सियों के सहारे लटकाकर नीचे उतारा गया।बताया जाता है कि सभी लोगों के शमशान घाट तक जाने का एक ही रास्ता है जिसपर स्वर्ण दबंगों द्वारा क़ब्ज़ा कर अपने खेत बना लिए गए हैं। देश के किसी भी दलित नेता द्वारा इस घटना पर कोई संज्ञान नहीं लिया गया। रविदास मंदिर गिराए जाने को लेकर दिल्ली की सड़कों पर उबाल आया हुआ है। अंबेडकर की मूर्ति तोड़ना और अन्य दलित स्मारकों का अपमान करना देश में एक आम बात हो चुकी है। परन्तु नफ़रत की इन जड़ों पर प्रहार करने का न तो किसी में साहस है न ही कोई करना चाहता है क्योंकि राजनेताओं के हित तो सामाजिक विभाजन व सामाजिक बिखराव में ही निहित हैं। हाँ दलितों को मान सम्मान व शिक्षा आदि के अतिरिक्त अवसर उपलब्ध करने वाली आरक्षण व्यवस्था इन कथित स्वर्ण जाति के लोगों को ज़रूर खटक रही है। कितना अच्छा हो कि आरक्षण को समाप्त करने से पहले नफ़रत की उन जड़ों व संस्कारों को समाप्त किया जाए जो सामाजिक असमानता,ऊंच नीच व छूत-अछूत जैसी शिक्षाएं व संस्कार देती हैं।

कश्मीरः अब नया राग
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत में कश्मीर के पूर्ण विलय को अब एक महीना हो रहा है। ऐसा लगता है कि भारत और पाकिस्तान अपनी-अपनी शाब्दिक गोलाबारी से थक गए हैं। दोनों देशों के नेताओं ने अब नया राग छेड़ा है। दोनों एक-दूसरे से बात करना चाहते हैं। पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने कहा है कि यदि भारत सरकार कश्मीरी नेताओं को रिहा कर दे और उनसे उन्हें बात करने दे तो वे भारत से संवाद कर सकते हैं। इधर हमारे विदेश मंत्री ने यूरोपीय संघ से ब्रुसेल्स में कहा है कि भारत भी पाकिस्तान से बात करने को तैयार है बशर्ते कि वह आतंकवाद और हिंसा का रास्ता छोड़ दे। अब दोनों देशों के बीच परंपरागत युद्ध और परमाणु-मुठभेड़ की बात पर्दे के पीछे चली गई हैं। सच्चाई तो यह है कि अब भारत को तो अपनी तरफ से कुछ करना नहीं है। उसे जो करना था, वह उसने 5 अगस्त को कर दिया। जो कुछ करना था या अब करना है, वह पाकिस्तान को करना है। पाकिस्तान आज सीमित युद्ध छेड़ने की स्थिति में भी नहीं है। उसकी आर्थिक और राजनीतिक हालत भी डांवाडोल है। कश्मीर के सवाल पर दुनिया के एक राष्ट्र ने भी भारत की कार्रवाई का विरोध नहीं किया है। सिर्फ चीन कुछ बोला है लेकिन वह क्या बोला है, उसका मतलब क्या है, उसे खुद इसका पता नहीं है। वह खुद हांगकांग, सिक्यांग और तिब्बत के कारण फंसा हुआ है। वह पाकिस्तान का साथ देने का नाटक इसलिए कर रहा है कि एक तो उसे पाक ने कश्मीर की 5 हजार वर्ग किमी जमीन भेंट कर रखी है और दूसरा वह बलूचिस्तान को अपना अड्डा बना रहा है। अब चीन और पाकिस्तान के पास सिर्फ एक ही मुद्दा रह गया है। वह कश्मीर किसका है, यह नहीं, बल्कि यह कि वहां मानव अधिकारों का हनन हो रहा है। मानव अधिकारों की रक्षा के नाम पर अनेक अंतरराष्ट्रीय संगठन चीन और पाकिस्तान की बातों पर कान जरुर देंगे लेकिन भारत सरकार की दक्षता पर यह निर्भर करेगा कि वह इस प्रोपेगंडा की काट कैसे करेगी ? क्या यह बेहतर नहीं होगा कि गिरफ्तार कश्मीरी नेताओं और पाकिस्तानी नेताओं से भी कुछ प्रमुख भारतीय नागरिक बात करने के लिए भेजे जाएं, ऐसे नागरिक जिनकी प्रतिष्ठा और प्रामाणिकता किसी सरकारी नेता से कम नहीं है ? इंदिरा गांधी, नरसिंहराव और अटलजी की सरकारें ऐसी करती रही हैं। जरुरी यह भी है कि कश्मीरी जनता की सुख-सुविधा का पूरा ध्यान रखा जाए और उन पर से प्रतिबंध उठा लिए जाएं लेकिन उन्हें यह बता दिया जाए कि हिंसा और आतंक का प्रतिकार अत्यंक कठोर हो सकता है।

प्रजातन्त्र; दुःखद कहानी
ओमप्रकाश मेहता
राजनीति में विलुप्त संवैधानिक पद…..? भारत को स्वतंत्र राष्ट्र का दर्जा दिलाने वाले महापुरूषों व स्वतंत्रता संग्राम के महायज्ञ में अपने जीवन की आहूतियां चढ़ाने वाले शहीदों को क्या यह अंदाज था कि उनके अपने भारत को मात्र सत्तर साल में राजनीति का ऐसा ‘‘अजीर्ण’’ हो जाएगा कि वह भारत की अस्मिता, संविधान और संवैधानिक पद सभी उदरस्थ कर लेगा। फिर भी भारतीय राजनेताओं का पेट नहीं भरेगा? आज हमारा देश कहने को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्री देश है, किंतु यहां की वास्तविकता यह है कि सत्तर साल बाद भी यहां की राजनीति, उसे चलाने वाले लोग और आम भारतीय लोकतंत्र या स्वतंत्रता का सही-सही अर्थ ही नही समझ पाए और इसी का कारण है कि आज आम भारतीय अपनी ‘मरजी’ को ‘स्वतंत्रता’ समझ बैठे है और अब तो उसके सामने न किसी संविधान की अहमियत रह गई है और न संवैधानिक पद की। जहां तक संविधान का सवाल है, उसे अब तक सवा सौ से अधिक संशोधनों के तीरों से घायल कर उसे ‘‘शर-शैया’’ पर लेटने को मजबूर कर दिया है और अब उसकी उपयोगिता धार्मिक ग्रंथ श्रीमद्भागवत्गीता की तरह शपथ के माध्यम तक ही सीमित होकर रह गई है।
यह तो हुई संविधान की दुःखद कथा, अब यदि हम संवैधानिक पदों की बात करें तो ये सब ऐसे ‘‘रैन कोट’’ बन कर रह गए है जो पद पर विराजित शख्स की आरोपों की बौछारों से रक्षा करते है, फिर इसे औढ़ने वाला चाहे कितनी ही दूसरों पर कैसे ही हीनत्तम शब्दों की बौछारें बरसाये उससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि संवैधानिक पद पर विराजित शख्स केवल सत्तारूढ़ दल का वेतनभोगी राजनेता है, जिसकी आस्था न तो संविधान में है और न अपने अधीन राज्य या राष्ट्र में, वह पद ग्रहण करने के पहले भी सत्तारूढ़ पार्टी का नेता था और पदग्रहण करने के बाद भी है।
वैसे हमारे संविधान की यह एक बहुत बड़ी कमी है कि उसमें राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति व राज्यपाल के पदों को ‘कठपुतली’ से अधिक नहीं माना। केन्द्र सरकार जो भी प्रस्ताव राष्ट्रपति के पास भेजती है, उस पर उसे हस्ताक्षर करना ही होते है, यदि कभी वह असहमत होकर प्रस्ताव लौटा भी देते है तो सरकार उसी प्रस्ताव को फैरबदल का दिखावा कर पुनः राष्ट्रपति जी को भेज देती है और तब असहमति के बावजूद राष्ट्रपति को उस पर हस्ताक्षर कर स्वीकृति की मुहर लगानी पड़ती है।
यह तो हुई प्रथम व सर्वोच्च संवैधानिक पद की चर्चा, अब यदि राज्यों के प्रमुख संवैधानिक पद राज्यपाल की चर्चा करें तो आज राज्यपाल पद पर विराजित शख्स राज्यपाल कम, सत्तारूढ़ दल के एजेण्ट अधिक बनकर रह गए है, जो न सिर्फ प्रधानमंत्री व अन्य महत्वपूर्ण पदों पर विराजित महान नेताओं का व्यक्तिगत प्रचार-प्रसार करते है, बल्कि एक राजनेता की तरह प्रतिपक्षी दलों के नेताओं व सरकार के फैसलों का विरोध करने वालों के लिए अपशब्दों को प्रयोग भी करते है, जिसका ताजा उदाहरण जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल पद की गरिमा को गिराने वाला राज्यापाल का अपशब्दों से मंडित बयान है। भारत के विभिन्न राज्यों के राज्यपालों के अनेक ऐसे उदाहरण है, जो उनकी पद की गरिमा को धूल-घूसरित करते है, यही स्थिति उप-राष्ट्रपति जी की है, जो आए दिन सत्तारूढ़ दल के पक्ष में बयानबाजी करते रहते है। यदि आज की वास्तविकता स्पष्ट की जाए तो वह यही है कि सर्वोच्च संवैधानिक पद केन्द्र की ‘कठपुतली’ बनने को मजबूर है तो राज्यों का सर्वोच्च संवैधानिक पद केन्द्र में सत्तारूढ़ का प्रचारक।
यह दुरावस्था सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है, राज्य के सर्वोच्च संवैधानिक पद की गरिमा उस राज्य में तो और अधिक गिरती नजर आती है, जहां केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी की विरोधी पार्टी की सरकारें है, ऐसे राज्यों में आज राज्यपालों का दुरूपयोग वहां की सरकार गिराने और केन्द्र में सत्तारूढ़ दल की सरकार बनाने में होता है।
इन्हीं सब दुरावस्थाओं को देखते हुए कुछ दिनों पहले देश में यह चर्चा चलाई गई थी कि राज्यपाल के पदों की कोई उपयोगिता नहीं है, इसलिए उन्हें खत्म कर दिया जाना चाहिए। यद्यपि वह चर्चा ज्यादा आगे नहीं बढ़ सकी, क्योंकि केन्द्र सरकार यह अपने राजनीतिक स्वार्थों के चलते ऐसा नहीं चाहती थी, किंतु अब समय आ गया है कि यदि देश में वास्तविक लोकतंत्र स्थापित किया जाना है कि इस वर्तमान दुरावस्था या व्यवस्था पर गंभीर चिंतन कर वर्तमान चलन में कुछ आवश्यक सुधार जरूरी है, वर्ना ऐसे ही चलता रहा तो इस देश में प्रजातंत्र ‘‘मनमर्जी के पिंजरे’’ में कैद होकर रह जाएगा और फिर कोई कुछ नहीं कर पाएगा।

टैक्स वसूली टैक्स टेरर नहीं
रघु ठाकुर
बंगलोर के काफी चेन (कैफे काॐडे) के मालिक वी जी सिद्धार्थ की आत्महत्या के बाद देश में एक नये शब्द को गढ़ा गया है जिसका नाम ”टेक्स टेरर“ दिया गया है चूंकि श्री सिद्धार्थ खरबपति थे और कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री श्री कृष्णा के दामाद थे अत: श्री सिद्धार्थ की आत्महत्या की चर्चा मीडिया ने बहुत ही संवेदनशील ढंग से की। कहा जाता ह,S कि उनके ऊपर 21 सौ करोड़ रूपया की देनदारी बची थी। जिससे वे परेशान थे और अपनी रियल स्टेट प्रापर्टी को बेचना चाह रहे थे। 29 जुलाई को वे अचानक लापता हो गए थे और 31 जुलाई को उनका शव मिला।
किसी भी व्यक्ति का आत्महत्या या मृत्यु इस आधार पर दुखद है कि अंतत: एक इंसान की मृत्यु है। श्री कृष्णा के प्रति और स्व. सिद्धार्थ के परिवार के प्रति मेरी पूर्ण संवेदना है। परन्तु मैं इस घटना को एक भिन्न रूप में देखता हू। उन्हें कर्ज चुकाने के लिए सम्पत्ति बेचने का अवसर नहीं मिला, उन्हें इस प्रक्रिया में वैधानिक दिक्कते आई आदि-आदि तर्क देश में बहुत तेजी के साथ परोसे गए हैं। यह हमारे देश की और वैसे तो दुनिया की दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति है कि जब व्यवस्था से पीड़ित कोई गरीब मर जाता है तो मीडिया के लिए वह केवल एक सूचना मात्र होती है परन्तु जब कोई पैसे वाले की मृत्यु होती है तो उसकी सारी कमी अवगुणों को पीछे कर मीडिया उन मामलों में अति मानवीय और संवेदनशील बन जाता है। यही श्री सिद्धार्थ के मामले में हुआ है। किसी भी कोने से यह सवाल नहीं उठाया गया कि आखिर उन्होंने इतना भारी कर्ज क्यों लिया? आज उद्योग जगत में आम चलन है कि उद्योगपति अनेकों वित्तीय संस्थाओं से भिन्न भिन्न कम्पनियां बना कर कर्ज लेते है और बाद में या तो उसे चुकाते नहीं है या अपने राजनैतिक रसूखों कर इस्तेमाल कर या तो इन हजारों करोड़ों की कर्ज की राशि को एन.पी.ए. में डलवा देते है या फिर कोर्ट कचहरी में लटकाए रखते हैं। और अगर किसी कारण वश कुछ ज्यादा वसूली का दबाव बना तो विदेशों में सम्पत्तियां खरीद कर बेनामी सम्पत्ति तैयार करते है तथा जाकर विदेशों में बस जाते है। विजय माल्या, नीरव मोदी, कुछ अनेकों वर्षें से आराम से विदेशों में रह रहे है और भारतीय कानून और सत्ता उन्हें वापिस लाने में लगभग थककर हार चुकी है। ऐसा नहीं है कि, यह केवल कानून की खामी है। बल्कि कहीं न कहीं सत्ता तंत्र की मिली भगत का इसका कारण है। वर्ना सरकार उन देशों से कूटनीतिक समझौते करती द्विपक्षीय संधिया करती तथा अपने देश के कानून के तहत घोषित अपराधियों को वापिस देने का द्विपक्षीय समझौता करती। विदेशी-अदालते भी कभी-कभी मानव अधिकार के नाम पर या कभी किसी अन्य बहाने के नाम पर अनुचित संरक्षण देती है। उनका बचाव करती है। जैसे श्री नीरव मोदी ने लंदन की अदालत में तर्क दिया कि भारत के जेलों तथा मुंबई की जेलों में बंदियों के रहने लायक सुविधा नहीं है तथा लंदन की अदालत ने सरकारी वकील से भारत की जेलों के ब्यौरा मांगे। मेरी राय में यह देशी या विदेशी अदालतों का अवैधानिक कार्य है। भारत में जो जेल मेनुअल लागू है वह सभी के लिए समान है और कैसे कमरे में अपराधी रहेगा उसे ए.सी. मिलेगा या नहीं मिलेगा, कैसा खाना मिलेगा, यह विदेशी न्याय पालिका का अधिकार नहीं है, बल्कि भारतीय कानून तय करेगा।
यह तो भारत के सर्वेच्च न्यायालय का साहसिक कदम है कि उन्होंने भारत के कुछ आर्थिक अपराध क्षेत्र के बड़े मगरमच्छो को जेल पहुंचाया और उन आर्थिक अपराधियों में थोड़ा सा भय पैदा हुआ जो दशकों से आर्थिक अपराध कर रहे थे अपने आप को भारत का सुपर सत्ता धीश मानते थे तथा अपने सामने सरकार या न्यायपालिका को महत्वहीन मानते थे। हांलाकि ऐसी घटनाएं अभी तक गिनती की हुई है। भारत सरकार ने अगर आर्थिक अपराधियों के विरूद्ध बड़े पैमाने पर कार्यावाही की होती तो स्व. सिद्धार्थ जैसे लोग भारी कर्ज लेने से बचते, अपना टेक्स समय पर चुकाते और शायद उन्हें आत्महत्या करने की लाचारी नहीं होती।
उद्योग जगत की ओर से यह तर्क दिया जा रहा है कि टेक्स दर अधिक है और इसलिये उद्योग घाटे में चले जाते हैं। वे टेक्स, कर्ज अदा करने की स्थिति में नहीं होते। अत: उन्हें कानून से रियायत देनी चाहिए। याने कर्ज व टेक्स की माफी हो या वसूली की कार्यावाही न हो और उन्हें शान से खाता-पीता छोड़ दिया जाए। मेरी राय में यह देश में दो प्रकार के कानूनों का चलन हो जाएगा। जिस प्रकार ”मनु स्मृति“ में एक ही अपराध के लिए शूद्र को अलग व्यवस्था थी और सवर्ण को अलग उसी प्रकार नई मनु स्मृति बनाने का प्रयास उद्योग जगत कर रहा है। वैसे तो नैतिक आधार पर उद्योग जगत को चाहिये था कि वह स्वत: इन टेक्स अदा न करने वालों, कर चोरों के खिलाफ या जन-धन डुबाने वाले लोगों के खिलाफ कार्यावाही की माँग करता। अगर उन्हें ज्यादा ही भाईचारा था तो जिन के उद्योग मुनाफे में चल रहे है इन सबको मिल कर बकाया दरों के टेक्स और कर्ज की बकाया रकम जमा करने की पहल करना चाहिये थी। पर इसके बजाय उन्होंने टेक्स और कर्ज वसूली के विरूद्ध ”टेक्स टेरर“ के नाम से मीडिया अभियान शुरू कर दिया और सत्ताधीशों को मानसिक दबाव में लेने तथा आम आदमी को गुमराह करने का तरीका अपनाया।
क्या टेक्स वसूली आतंक है? क्या टेक्स वसूली को आतंकी कहने वाले लोग अपराधी नहीं है? अब इन सवालों पर विचार करना होगा? दरअसल समय पर टेक्स अदा करना या कर्ज अदा करना यह वैधानिक और राष्ट्रीय दायित्व है। जो बड़े-बड़े मगरमच्छ सरकारी बैंको का याने जनता का पैसा खा जाते है, टेक्स अदा नहीं करते है सही मायने में उनका अपराध राष्ट्रद्रोह जैसा है और यह कानून बनना चाहिये कि निश्चित समय सीमा के अंदर इनकी सम्पत्ति जप्त की जानी चाहिये। (नामी बेनामी दोनों जप्त होना चाहिये) तथा इनके पासपोर्ट और वीजा रद्द कर इन्हें जेल में बंद कर इन पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाना चाहिये। परन्तु इसके उलट ऐसा वातावरण बनाया गया जैसे टेक्स की माँग करना कोई अपराध है। टेक्स की राशि से ही प्रशासन तंत्र को वेतन भत्ते पेन्शन इत्यादि मिलते है। टेक्स की राशि से ही देश में विकास के काम सड़क, पानी, बिजली, के काम चलते है। केवल सरकारी या गैरसरकारी कर्मचारी ही ईमानदारी से टेक्स अदा करते हैं। शायद इसलिये भी की यह उनकी लाचारी है। उनके टेक्स की राशि भी पहले ही वेतन से कट जाती है। यहाँ तक की जो लोग अपनी बचत के रूपये बैंकों में रखते है, (किसान भी) भले ही उन्हें टेक्स (आयकर) देने की अनिवार्यता नहीं हो इसके बावजूद भी उनके टेक्स की राशि पहले ही काट ली जाती है जिसे बाद में वापिस किया जाता है। परन्तु उद्योगपतियों के लिये टेक्स देना वह अपने द्वारा किये जा रहे ऐहसान जैसा मानते हैं। भारत की संसद ने बहुमत से जो टेक्स की दरें तय की है उन्हें ”टेक्स टेरर“ कहना संसद की अवमानना है, परन्तु दुखद है कि देश के मीडिया की प्रथम निष्ठा अपने मालिकों याने उद्योग जगत के प्रति रहती है। श्री व्ही.जी. सिद्धार्थ की आत्महत्या और आये दिन इसी प्रकार घटित हो रहे हो रही घटनाओं अपराधों का कारण मूलत: भोग व लालच हैं। उद्योगपति अपने क्षमता से अधिक कर्ज लालच में ही लेते है और आजकल लालच में कितनी अमानवीय घटनायें घट रही है इसकी कल्पना भी कठिन है। पिछले दिनों समाचार पत्रों में इस प्रकार के समाचार भरे पड़े है जिनमें भोग और लालच के लिए बच्चे अपने माता, पिता तक की हत्यायें कर रहे है। यहाँ तक कि यह शराब पीने के लिए माता-पिता की हत्या करने लगे और अभी तो हाल ही में ऐसी घटना हुई जसमें लड़की दामाद ने संपत्ति की लालच में अपनी माँ की हत्या कर दी। अब कल अगर कोई कहे कि यह घटनायें या ऐसे व्यक्तियों के ऊपर अपराधिक मुकदमें, राजकीय आतंक हैं तो क्या सही होगा? अब हालात को सुधारने के लिए सरकार और समाज दोनों को आगे आना होगा। में श्री एस.एम. कृष्णा, (स्व. व्ही.जी. सिद्धार्थ के ससुर और कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री) की तारीफ करॅगा कि उन्होंने एक बार भी टेक्स आतंक जैसे शब्द का इस्तेमाल नहीं किया बल्कि वह शांत रहे। शायद वे अपने मन में सच्चाई को समझ रहे थे। अगर देश के सभी माता पिता और परिजन अपने परिवार के लोगों के आर्थिक या गैर आर्थिक अपराधों पर पर्दा डालना व उनका वचाव बंद कर दें तभी देश में सुधार हो सकेगा।

पाक का नया पैंतरा गजनवी
सिद्धार्थ शंकर
कश्मीर पर दुनियाभर में बेइज्जत होने के बाद अब पाकिस्तान ने नया पैंतरा चला है। वह जंग और परमाणु हथियारों के बहाने दुनिया को संकट में डालने की धमकी दे रहा है। इसी तारतम्य में उसने गुरुवार को बैलिस्टिक मिसाइल गजनवी का सफल परीक्षण कर लिया है। इस बात की जानकारी खुद सेना पाकिस्तान के मेजर जनरल आसिफ गफूर ने दी है। इसकी मारक क्षमता 290 किमी बताई जा रही है। पाक के राष्ट्रपति आरिफ अल्वी और प्रधानमंत्री इमरान खान ने मिसाइल परीक्षण से जुड़ी टीम की सराहना की और बधाई दी। इंटर सर्विसेज पब्लिक रिलेशंस के महानिदेशक गफूर ने अपने ट्वीट के साथ मिसाइल के परीक्षण का एक वीडियो भी साझा किया। भारत के साथ तनाव के बीच पाकिस्तान युद्ध का माहौल बनाने की कोशिश कर रहा है। उसने दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए इस परीक्षण को अंजाम दिया है। हालांकि गजनवी से कहीं अधिक बेहतर मिसाइलें भारत के पास पहले से ही मौजूद हैं। गजनवी मिसाइल का परीक्षण कराची के करीब सोनमियानी उड़ान परीक्षण रेंज से अंजाम दिए जाने की खबर है।
पाकिस्तान के पास ऐसी मिसाइल पहले से ही है, ऐसे में मिसाइल का परीक्षण कर उसने ऐसा कर दुनिया को तनाव का संदेश दिया है। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 के खंड दो और तीन के हटने के बाद से पाकिस्तान बौखलाया हुआ है। ना केवल पाक के प्रधानमंत्री इमरान खान बल्कि वहां के वित्त मंत्री तक परमाणु युद्ध की धमकी दे रहे हैं। दूसरी ओर रक्षामंत्री राजनाथ सिंह भी कह चुके हैं कि भारत परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की नीति को बदल सकता है। लेकिन क्या वाकई दोनों देश परमाणु युद्ध का जोखिम उठाने की स्थिति में हैं? अगर जापान के हिरोशिमा और नागासाकी की बात करें तो आज भी यहां परमाणु हमले का असर बरकरार है। परमाणु हमले के समय यहां बड़ी संख्या में लोगों की जान गई थी। हालात नर्क से भी बदतर हो गए थे। परमाणु हमले का असर और उसका खौफ आज भी यहां के लोग महसूस करते हैं। तो अगर पाकिस्तान और भारत के बीच परमाणु युद्ध होता है तो उसका असर भी छोटा-मोटा नहीं होगा।
अगर भारत-पाकिस्तान एक दूसरे पर परमाणु हमला करते हैं, तो काफी बड़ी तबाही मचेगी। बम जहां गिरेगा वहां से 0.79 किमी तक सब कुछ खाक हो जाएगा। परमाणु वैज्ञानिकों की रिपोर्ट के अनुसार एयर ब्लास्ट-1 से 3.21 किमी तक झटके महसूस किए जाएंगे और 10.5 किलोमीटर तक इसका रेडिएशन फैलेगा। इससे 50 से लेकर 90 फीसदी लोग प्रभावित होंगे। हालांकि, पाक जैसी धमकी दे रहा है या सोच रहा है, वैसा कर पाना संभव नहीं है। पाक की परमाणु धमकी इस मायने में बेअसर है कि एक तो उसमें ऐसा कर पाने का साहस नहीं है। दूसरी उसकी हालत बदतर है। पाक सिर्फ धौंस दे रहा है, जैसा अब गजनवी के समय किया है।
बैलिस्टिक मिसाइल का परीक्षण करने के बाद माना जा रहा है कि तिलमिलाया पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने के लिए यह तरकीब अपना रहा है। साथ ही पाकिस्तान अपनी इन हरकतों से भारत और पाक के बीच युद्ध का माहौल बनाकर अंतर्राष्ट्रीयकरण समुदाय का ध्यान जम्मू और कश्मीर पर केंद्रित करना चाहता है। भारत और पाकिस्तान के बीच परमाणु युद्ध की आशंकाओं को बढ़ाने के प्रयासों को जारी रखने के लिए पाकिस्तान ने यह रास्ता अपनाया है। पाकिस्तान के प्रधान मंत्री इमरान खान एक हफ्ते पहले दोनों देशों के बीच परमाणु टकराव के संकेत दिया था। पाकिस्तान की यह नापाक कोशिश इसलिए भी भारत के लिहाज से अहम हो जाती है क्योंकि पाकिस्तान के रेल मंत्री ने भी भारत-पाकिस्तान के बीच संभावित युद्ध की तारीख का ऐलान कर दिया है। रेल मंत्री शेख रशीद ने कहा था कि अक्टूबर-नवंबर में भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध हो सकता है।
लगातार बढ़ते खतरों और एक दूसरे पर अविश्वास की भावना के कारण दुनिया के लगभग सभी देश अपने-अपने रक्षा क्षेत्र में सुधार कर रहे हैं। वहीं पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय बेइज्जती करवाने के बाद अब जंग का ढोल पीट रहा है। अकेला पाक नहीं दुनिया के लगभग सभी प्रमुख देश दुश्मन देश के मिसाइलों से रक्षा के लिए जरूरी बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा प्रणाली को अपनाए हुए हैं। भारत के पास खुद की अंतर महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल मौजूद है जबकि पाकिस्तान के लिए यह अब भी सपना है। भारत ने अपनी सुरक्षा के लिए भारत ने विश्व स्तर के कई मिसाइलों का निर्माण किया है। जिसका कोई तोड़ पाकिस्तान के पास नहीं है। भारत शुरू से ही पाकिस्तान और चीन की ओर से मिलने वाले चुनौतियों को बेअसर करने के लिए एक पूर्ण सुरक्षित एंटी मिसाइल डिफेंस सिस्टम को विकसित करना चाहता था, लेकिन शुरुआती समय से ही फंड की कमी और सरकार की उदासीनता के चलते यह प्रोग्राम ठंडे बस्ते में चला गया। 1999 के कारगिल युद्ध के समय पाकिस्तान से मिलने वाली चुनौतियों से सरकार और सेना को मिसाइल डिफेंस सिस्टम की कमी बहुत खली। इसे ध्यान में रखकर भारत ने अपने मिसाइल डिफेंस सिस्टम प्रोग्राम को फिर से शुरू कर दिया। भारत ने दो स्तरीय मिसाइल रक्षा प्रणाली पृथ्वी एयर डिफेंस सिस्टम और एडवांस एयर डिफेंस सिस्टम को देश की सामरिक जरूरतों के हिसाब से विकसित किया है। पीएडी सिस्टम जहां हाई एल्टीट्यूड पर मिसाइल को मार गिराने में कारगर है वहीं एएडी सिस्टम कम ऊंचाई पर टर्मिनल चरण में ही दुश्मन देश की मिसाइल को मार गिराने में सक्षम है।
वर्तमान में देश की डिफेंस रिसर्च एण्ड रिसर्च आर्गनाइजेशन ने पीएडी का आधुनिक वर्जन पृथ्वी व्हीकलर डिफेंस सिस्टम का परीक्षण किया है। यह पिछले मिसाइल रक्षा प्रणाली से उन्नत प्रणाली है। जिसमें रेंज और स्पीड के मामले में यह ज्यादा बेहतर होते हुए कई मामलों में अमेरिका के थाड के बराबरी का मिसाइल रक्षा प्रणाली है।

नेताशाहों और नौकरशाहों को सीधा करें
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेस के नेता चिदंबरम तो अभी फंसे ही हुए हैं, अब दूसरे कांग्रेसी नेता कुलदीप बिश्नोई की गुरुग्राम में स्थित ब्रिस्टल होटल को भी सरकार ने जब्त कर लिया है। कुलदीप की बेनामी संपत्ति को निकालने के लिए उनके और उनके भाई चंद्रमोहन के दर्जनों ठिकानों पर छापे भी मारे गए हैं। जाहिर है कि दाल में कुछ काला जरुर है वरना विरोधी नेताओं को इस तरह तंग करने पर सरकार खुद मुसीबत में फंस सकती है। यह तो अदालतें तय करेंगी कि ये नेता लेाग कितने पाक-साफ हैं लेकिन जैसा कि मैं पहले भी लिख चुका हूं कि आज की राजनीति भ्रष्टाचार के बिना हो ही नहीं सकती। ये अलग बात है कि भ्रष्टाचार से अर्जित संपत्ति का उपयोग कुछ सिरफिरे नेता अपने लिए या अपने परिवार के लिए ना करें लेकिन चुनाव लड़ने और लड़ाने के लिए तो अंधाधुंध पैसा चाहिए या नहीं ? यह वे कहां से लाएंगे ? वे तो एक कौड़ी भी नहीं कमाते। उन्होंने अपने वेतन भी अनाप-शनाप बढ़ा लिये हैं लेकिन उनके खर्चे तो उनके वेतनों से भी कई गुना होते हैं। अपने आप को वे जनता का नौकर कहते हैं लेकिन उनका रहन-सहन बड़े-बड़े सेठों और राजा-महाराजाओं से कम नहीं होता। इन नेताओं को पकड़ने का जिम्मा मोदी सरकार ने लिया है तो यह बहुत अच्छी बात है लेकिन सवाल यह है कि सिर्फ कांग्रेसी नेता ही क्यों, भाजपाई भी क्यों नहीं ? शायद कम्युनिस्ट नेताओं की जेबें खाली मिलें लेकिन पिछड़ों, अनुसूचितों और प्रांतीय नेताओं पर भी हाथ डाला जाए तो भारतीय राजनीति का काफी शुद्धिकरण हो सकता है। 90 प्रतिशत से ज्यादा नेता राजनीति को तलाक दे देंगे। इसी प्रकार वर्तमान सरकार हर कुछ दिनों में दर्जनों अफसरों को जबरन सेवा-निवृत्त कर रही है याने नौकरी से हटा रही है। यह बहुत अच्छा है। नौकरशाहों का भ्रष्टाचार नेताशाहों से अधिक निकृष्ट होता है, क्योंकि उससे प्राप्त सारा पैसा वे खुद जीम जाते हैं और दूसरा, आम जनता उनसे बहुत तंग होती है। उन्हें नौकरी से हटाना ही काफी नहीं है। उनकी सारी चल-अचल संपत्तियां जब्त की जानी चाहिए और उनके नाम के विज्ञापन जारी किए जाने चाहिए। नेताशाहों और नौकरशाहों के नजदीकी रिश्तेदारों की संपत्तियां भी जांच के दायरे में रखी जानी चाहिए। यदि नरेंद्र मोदी सरकार ऐसा कुछ कर सके तो सारे पड़ौसी देश भी भारत का अनुकरण करेंगे।

बाल यौन उत्पीड़न : समस्या व समाधान
प्रो.शरद नारायण खरे
अल्पायु के बालक-बालिकाओं के साथ यौन दुर्व्यवहार अर्थात् दुराचार करना इस श्रेणी में आता है ।अनेक कानूनों व प्रतिबंधों के उपरांत भी बाल यौन जघन्यता का क्रम गतिमान है ।यह एक अक्षम्य सामाजिक अपराध है,जिसे सामाजिक कोढ़ भी निरूपित किया जा सकता है ।
वयस्क सम्बंधियों,परिचितों,पड़ोसियों,मित्रों के अतिरिक्त शिक्षकों व्दारा भी अबोध बालक -बालिकाओं को यौन दुष्कर्म का शिकार बनाया जाता है ।यह यौन प्रताड़ना सहकर या तो बच्चा सहमकर रह जाता है,या फिर उसे आतंकित कर मुंह बंद रखने के लिए विवश कर दिया जाता है । अनेक प्रकरणों में तो माता-पिता/अभिभावकों तक यह जघन्यता आ ही नहीं पाती है ,और यदि उनकी जानकारी में आ भी जाती है तो लोकलाज के भय से प्राय: वे चुप ही रह जाते हैं,जिससे कुकर्मियों के मनोबल में स्वाभाविक रूप से वृध्दि होती है ।
दिन-प्रतिदिन इन कुकर्मों के आंकड़ों में वृध्दि हो रही है,अतएव इस पर रोकथाम लगाने हेतु आवश्यक यह है कि –
(1)माता-पिता/अभिभावक सतर्क रहें,तथा किसी भी सम्बंधी,मित्र,पड़ोसी पर आंख बंद करके विश्वास व करें ।
(2)आवश्यक यह भी है कि माता-पिता अपने बच्चों को ‘गुड टच’ व ‘बेड टच’ के बारे में बताएं,और उन्हें कहें कि बेड टच की स्थिति में वे उसका प्रतिरोध करें,तथा माता-पिता को तत्काल सूचित करें ।
(3)माता-पिता को चाहिए कि वे उनके बच्चों के साथ आंशिक उत्पीड़न होने पर भी निकटतम पुलिस थाने में उसकी प्राथमिकी दर्ज़ कराने से न हिचकें ।
(4)माता-पिता को चाहिए कि वे घर पर आने-जाने वाले हर व्यक्ति पर नज़र रखें,तथा इस परिप्रेक्ष्य में कदापि भी लापरवाही न बरतें ।
(5)माता-पिता को चाहिए कि वे अपने बच्चों को न केवल साहसी-समझदार बनाएं,बल्कि टॉफी/खिलौने के प्रलोभन से दूर रहना सिखाएं ।
(6)माता-पिता को चाहिए कि अपने बच्चों को इस तरह की ड्रेस पहनाएं ,जो कि यौन सुरक्षा में सहायक सिध्द हो ।
(7)माता-पिता को चाहिए कि वे अपने बच्चों को घर के बाहर घूमने -फिरने की खुली छूट न दें,तथा नियंत्रण व नज़र रखें ।
(8)माता-पिता को चाहिए कि वे अपने बालक-बालिका दोनों को ही यौन उत्पीड़न से बचाने के प्रति
चेतनाशील रहें ।प्राय: अभिभावक पुत्री की सुरक्षा पर ही ध्यान देते हैं,पर पुत्र की सुरक्षा के प्रति लापरवाह हो जाते हैं ।जबकि बालक भी व्यापक रूप में अप्राकृतिक यौन उत्पीड़न का शिकार होते देखे गए हैं ।
(9)लोगों को चाहिए कि वे यौन उत्पीड़कों का सामूहिक रूप से सामाजिक बहिष्कार करें,तथा उन्हें लांछित, उपेक्षित,तिरस्कृत व अपमानित करें,जिससे कि ऐसे दुष्कर्मों को हतोत्साहन मिले ।
(10)समाज के लोगों को यह संवेदना धारण करनी होगी,व परिपक्वता का परिचय भी देना होगा कि यौनोत्पीड़ित बालक-बालिकाओं को वे उपेक्षा व हीनता नहीं बल्कि स्नेह व अपनत्व की दृृष्टि से देखेंगे ।
(11)बाल यौन अपराधियों को यदि सार्वजनिक रूप से दंडित करने का प्रावधान (“प्रॉक्सो कानून” में संशोधन करके)अमल में आ जाए,तो निश्चित रूप से
बाल यौनापराध में अपेक्षित न्यूनता परिलक्षित होगी ।
(12)मेरा विचार है कि यदि इंटरनेट को नियंत्रित करके,उन्मुक्त पोर्न वीडियोज की खुली उपलब्धता को प्रतिबंधित किया जाए,तो निश्चित रूप से समाज में फैले दुराचारियों के अनियंत्रित कामावेग में न्यूनता की अपेक्षा तो की जा सकती है ।
हर बालक-बालिका को खिलने/हँसने-मुस्कराने/महकने का अधिकार है,इसलिए यह हमारा,हम सबका,सारे समाज का कर्तव्य है कि “कोई भी पुष्प
खिलने के पूर्व मुरझाना नहीं चाहिए ।”
“वह समाज जो रोक ले,बाल यौन अपराध ।
नैतिकता ,इंसानियत,को लेता जो साध ।।

कश्मीरः जुबान प्यारी या जान ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच फ्रांस में हुई भेंट अगर इमरान खान ने देखी होगी तो पता नहीं उन पर क्या गुजरी होगी ? ट्रंप ने साफ-साफ कह दिया है कि उनके द्वारा बीच-बचाव अनावश्यक है। भारत और पाक बातचीत से अपना मामला खुद सुलझा लेंगे। याने इमरान खान को जो थोड़ी-बहुत आशा अमेरिका से बंधी थी, वह भी अब हवा हो गई है। इस्लामी देशों ने पहले ही कश्मीर पर पाकिस्तान को ठेंगा दिखा दिया है लेकिन अफगानिस्तान के बहाने पाकिस्तान ने अमेरिका को अपने लिए अटका रखा था, वह सहारा भी ढह गया। अब सिर्फ चीन रह गया है लेकिन चीन एक अहसानमंद राष्ट्र है। उसे पाकिस्तान ने कश्मीर की जो 5000 वर्ग मील जमीन 1963 में भेंट की थी, उसका अहसान अब वह दबी जुबान से चुका रहा है। चीन को पता है कि उसके हांगकांग और सिंक्यांग में जो दशा है, वह कश्मीर के मुकाबले कई गुना बदतर है। यह गनीमत है कि इन दोनों मामलों को भारत अंतरराष्ट्रीय मंचों पर नहीं उठा रहा है। कश्मीर के सवाल पर यों ही सारी दुनिया भारत के साथ दिखाई पड़ रही है। ऐसी स्थिति में इमरान खान का बौखला जाना स्वाभाविक है। उन्होंने परमाणु-युद्ध पर भी उंगली रख दी और कश्मीर के लिए आखिरी सांस तक लड़ने का ऐलान कर दिया। मैं उनकी मजबूरी समझता हूं। यदि वे ऐसा नहीं करते तो उनका प्रधानमंत्री की कुर्सी में बने रहना मुश्किल हो जाता लेकिन अब बेहतर होगा कि पाकिस्तान यथार्थ को स्वीकार करे और वह सब कुछ करने से बाज़ आए, जिसके कारण कश्मीर में खून की नदियां बहने लगें। यदि कश्मीर में हिंसा भड़काई जाएगी तो फौजी प्रतिहिंसा किसी भी हद तक पहुंच सकती है। यह बहुत दुखद होगा। यह ठीक है कि कश्मीर में 5 अगस्त को जो कुछ हुआ है, उसे आम कश्मीरी का रत्तीभर भी नुकसान नहीं होगा। हां, पाकिस्तान और कुछ कश्मीरी नेताओं का धंधा जरुर बंद हो जाएगा। आम कश्मीरी का खून न बहे यह इतना जरुरी है कि उसके लिए यदि कुछ दिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता स्थगित हो जाए तो हो जाए। कश्मीरियों की जान ज्यादा प्यारी है या नेताओं को अपनी जुबान ज्यादा प्यारी है? फिर भी सरकार को हर कश्मीरी के लिए ज्यादा से ज्यादा सुविधा जुटानी चाहिए तक वह तहे-दिल से यह समझे कि जो हुआ है, वह उसके लिए बेहतर हुआ है।

मोदी जी का कवच मन्त्र ,मंत्री अरुण जेटली जी
डॉक्टर अरविन्द
मृत्यु एक ऐसा परम सत्य हैं जिसका होना निश्चित हैं पर कब कहाँ कैसे होना हैं यह अनिश्चित होता हैं .मृत्यु अत्यंत दुखदायी होती हैं .जिस प्रकार मनुष्य का जन्म बताता हैं की होनहार विरवान के होत चिकने पात उसी प्रकार मृत्यु बताती हैं की इस व्यक्ति का जीवन कैसा बीता ?कारण जीवन और कर्मों का मिलन अद्भुत होता हैं .
मोदी सरकार में विवादित राफेल काण्ड का तीसरा स्तम्भ का जाना बहुत दुखद हैं कारण उस काण्ड का बचाव करने वाले श्री मनोहर पर्रिकर ,सुषमा स्वराज्य और श्री अरुण जेटली का महत्वपूर्ण योगदान था.
श्री अरुण जेटली (28 दिसम्बर 1952 जन्म — 24 अगस्त 2019 मृत्यु ) भारत के प्रसिद्ध अधिवक्ता एवं राजनेता थे। वे भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख नेता एवं वे पूर्व वित्त मन्त्री थे। वे राजग(राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) के शासन में केन्द्रीय न्याय मन्त्री के साथ-साथ कई बड़े पदों पर आसीन थे।
व्यक्तिगत जीवन
अरुण जेटली का जन्म दिल्ली में महाराज किशन जेटली और रतन प्रभा जेटली के घर में हुआ। उनके पिता एक वकील हैं, उन्होंने अपनी विद्यालयी शिक्षा सेंट जेवियर्स स्कूल, नई दिल्ली से 1957-69 में पूर्ण की।उन्होंने अपनी 1973 में श्री राम कॉलेज ऑफ कॉमर्स, नई दिल्ली से कॉमर्स में स्नातक की। उन्होंने 1977 में दिल्ली विश्‍वविद्यालय के विधि संकाय से विधि की डिग्री प्राप्त की।छात्र के रूप में अपने कैरियर के दौरान, उन्होंने अकादमिक और पाठ्यक्रम के अतिरिक्त गतिविधियों दोनों में उत्कृष्ट प्रदर्शन के विभिन्न सम्मानों को प्राप्त किया हैं। वो 1974 में दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संगठन के अध्यक्ष भी रहे।
अरुण जेटली ने 24 मई 1982 को संगीता जेटली से विवाह किया। उनके दो बच्चे, पुत्र रोहन और पुत्री सोनाली हैं।अरूण जेटली का 24 अगस्त 2019 को दोपहर 12:07 बजे निधन हो गया।
राजनीतिक कैरियर
जेटली 1991 से भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य थे। वह 1999 के आम चुनाव से पहले की अवधि के दौरान भाजपा के प्रवक्ता बन गए।
वाजपेयी सरकार
1999 में, भाजपा की वाजपेयी सरकार के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सत्ता में आने के बाद, उन्हें 13 अक्टूबर 1999 को सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) नियुक्त किया गया। उन्हें विनिवेश राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) भी नियुक्त किया गया। विश्व व्यापार संगठन के शासन के तहत विनिवेश की नीति को प्रभावी करने के लिए पहली बार एक नया मंत्रालय बनाया गया। उन्होंने 23 जुलाई 2000 को कानून, न्याय और कंपनी मामलों के केंद्रीय कैबिनेट मंत्री के रूप में राम जेठमलानी के इस्तीफे के बाद कानून, न्याय और कंपनी मामलों के मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार संभाला।
उन्हें नवम्बर 2000 में एक कैबिनेट मंत्री के रूप में पदोन्नत किया गया था और एक साथ कानून, न्याय और कंपनी मामलों और जहाजरानी मंत्री बनाया गया था। भूतल परिवहन मंत्रालय के विभाजन के बाद वह नौवहन मंत्री थे। उन्होंने 1 जुलाई 2001 से केंद्रीय मंत्री, न्याय और कंपनी मामलों के मंत्री के रूप में 1 जुलाई 2002 को नौवहन के कार्यालय को भाजपा और उसके राष्ट्रीय प्रवक्ता के रूप में शामिल किया। उन्होंने जनवरी 2003 तक इस क्षमता में काम किया। उन्होंने 29 जनवरी 2003 को केंद्रीय मंत्रिमंडल को वाणिज्य और उद्योग और कानून और न्याय मंत्री के रूप में फिर से नियुक्त किया। मई 2004 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की हार के साथ, जेटली एक महासचिव के रूप में भाजपा की सेवा करने के लिए वापस आ गए, और अपने कानूनी कैरियर में वापस आ गए।
2004-2014
उन्हें 3 जून 2009 को एल.के.आडवाणी द्वारा राज्यसभा में विपक्ष के नेता के रूप में चुना गया था। 16 जून 2009 को उन्होंने अपनी पार्टी के वन मैन वन पोस्ट सिद्धांत के अनुसार भाजपा के महासचिव के पद से इस्तीफा दे दिया। वह पार्टी की केंद्रीय चुनाव समिति के सदस्य भी हैं। राज्यसभा में विपक्ष के नेता के रूप में, उन्होंने राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक की बातचीत के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और जन लोकपाल विधेयक के लिए अन्ना हजारे का समर्थन किया। उन्होंने 2002 में 2006 तक संसदीय सीटों को मुक्त करने के लिए भारत के संविधान में अस्सी-चौथा संशोधन सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया और 2004 में भारत के संविधान में नब्बेवें संशोधन ने दोषों को दंडित किया। हालाँकि, 1980 से पार्टी में होने के कारण उन्होंने 2014 तक कभी कोई सीधा चुनाव नहीं लड़ा। 2014 के आम चुनाव में वह लोकसभा सीट पर अमृतसर सीट के लिए भाजपा के उम्मीदवार थे (नवजोत सिंह सिद्धू की जगह), लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उम्मीदवार से हार गए अमरिंदर सिंह। वह गुजरात से राज्यसभा सदस्य थे। उन्हें मार्च 2018 में उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के लिए फिर से चुना गया।
26 अगस्त, 2012 को उन्होंने कहा (संसद के बाहर) “ऐसे अवसर होते हैं जब संसद में बाधा देश को अधिक लाभ पहुंचाती है।” इस कथन को भारत में समकालीन राजनीति में संसद की बाधा को वैधता प्रदान करने वाला माना जाता है। 2014 में सरकार बनाने के बाद भाजपा सरकार को कई बार संसद में व्यवधानोंऔर अवरोधों का सामना करना पड़ा है और विपक्ष उनके पूर्वोक्त बयान का हवाला देता रहता है। जबकि संसदीय चर्चा में उनका योगदान अनुकरणीय है, लेकिन एक वैध मंजिल की रणनीति के रूप में बाधा का उनका समर्थन भारतीय संसदीय लोकतंत्र में उनके सकारात्मक योगदान को उजागर करता है।
मोदी सरकार
26 मई 2014 को, जेटली को नवनिर्वाचित प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा वित्त मंत्री के रूप में चुना गया (जिसमें उनके मंत्रिमंडल में कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय और रक्षा मंत्री शामिल हैं। विश्लेषकों ने जेटली के “अंशकालिक” का हवाला दिया। “पिछली सरकार की नीतियों की एक साधारण निरंतरता के रूप में रक्षा पर ध्यान केंद्रित करें। रॉबर्ट ब्लेक द्वारा विकीलीक्स केबल के अनुसार, अमेरिकी दूतावास पर उनकी सरकार के लिए चार्ज, जब हिंदुत्व के सवाल पर दबाया गया, जेटली ने तर्क दिया था। उस हिंदू राष्ट्रवाद को भाजपा के लिए “हमेशा एक टॉकिंग पॉइंट” कहा जाएगा और इसे एक अवसरवादी मुद्दे के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा। जेटली ने बाद में स्पष्ट किया कि “राष्ट्रवाद या हिंदू राष्ट्रवाद के संदर्भ में अवसरवादी शब्द का उपयोग न तो मेरा विचार है और न ही उनकी भाषा यह राजनयिक का अपना उपयोग हो सकता है।
बिहार विधान सभा चुनाव, 2015 के दौरान, अरुण जेटली ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस बात पर सहमति व्यक्त की कि धर्म के आधार पर आरक्षण का विचार खतरे से भरा है और मुस्लिम दलितों और ईसाई दलितों को आरक्षण देने के खिलाफ है क्योंकि यह जनसांख्यिकी को प्रभावित कर सकता है। वह एशियाई विकास बैंक के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स के सदस्य के रूप में भी कार्य करता है।
नवंबर 2015 में, जेटली ने कहा कि विवाह और तलाक को नियंत्रित करने वाले व्यक्तिगत कानून मौलिक अधिकारों के अधीन होने चाहिए, क्योंकि संवैधानिक रूप से गारंटीकृत अधिकार सर्वोच्च हैं। उन्होंने सितंबर 2016 में आय घोषणा योजना की घोषणा की।
भारत के वित्त मंत्री के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान, सरकार ने 9 नवंबर, 2016 से भ्रष्टाचार, काले धन, नकली मुद्रा और आतंकवाद पर अंकुश लगाने के इरादे से महात्मा गांधी श्रृंखला के 500 और 1000 के नोटों का विमुद्रीकरण किया।
20 जून, 2017 को उन्होंने पुष्टि की कि जीएसटी रोलआउट अच्छी तरह से और सही मायने में ट्रैक पर है।
लीडरशिप ने अरुण जेटली को एक विशेषज्ञ के रूप में सिफारिश की और एलजीबीटी + मुद्दों पर नेताओं की वकालत की।
9 अगस्त 2019 को, उन्हें “सांस फूलने” की शिकायत के बाद गंभीर हालत में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली में भर्ती कराया गया था। 17 अगस्त को, यह बताया गया कि जेटली जीवन आधार (लाइफ सपोर्ट) पर थे। 23 अगस्त तक उनकी तबीयत खराब हो गई थी.
24 अगस्त 2019 को 66 साल की उम्र में 12:07 अपराह्न पर जेटली का निधन हो गया.
श्री जेटली का अल्प समय में जाना देश के साथ पार्टी को बहुत क्षति हुई .एक नेता का जाना उतना हानिकारक नहीं होता जितना एक बौद्धिक व्यक्ति का जाना . उनके जीवित और कर्मशील होने से देश को नयी दिशा मिलती पर मौत पर किसी का वश नहीं हैं .ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे .

मोदी को मुस्लिम सम्मान
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यों तो पहले भी कई मुस्लिम देशों की यात्रा कर चुके हैं लेकिन इस बार उनका संयुक्त अरब अमारात (यूएई) और बहरीन जाना विशेष महत्व का है। बहरीन जानेवाले वे पहले भारतीय प्रधानमंत्री हैं। असली बात यह है कि इन दोनों मुस्लिम देशों में वे गए हैं, दो प्रमुख घटनाओं के बाद ! पहली घटना पुलवामा-बालाकोट कांड और दूसरी कश्मीर से धारा 370 और 35 ए को खत्म करने के बाद ! इन दोनों घटनाओं के बाद पाकिस्तान समझ रहा था कि दुनिया के मुस्लिम देश भारत की भर्त्सना करेंगे और उसके आंसू पोछेंगे लेकिन कश्मीर के मामले में सबसे पहले दो देशों ने भारत का समर्थन किया। वे थे, यूएई और मालदीव। इन दोनों मुस्लिम देशों का समर्थन पाकिस्तान के मनोबल के लिए बड़ा धक्का था। अब यह धक्का और भी गहरा हो गया है। अबू धाबी के शेख मुहम्मद नाह्यान ने न सिर्फ मोदी को वहां का सर्वोच्च सम्मान (आर्डर आफ जायद) दिया बल्कि उन्हें अपना ‘भाई’ कहा और ‘अपने दूसरे घर में’ उनका स्वागत किया। यह सम्मान पहले रुस और चीन के पुतिन और शी को दिया गया था। इस अवसर पर महात्मा गांधी की स्मृति में डाक टिकिट भी जारी किया गया। बहरीन ने भी अपना सर्वोच्च सम्मान मोदी को दिया और 200 साल पुराने श्रीजी मंदिर के पुनर्निर्माण की भी घोषणा की। क्या इससे पाकिस्तान के घावों पर नमक नहीं छिड़क गया होगा ? बिल्कुल छिड़क गया है। पाकिस्तान की सीनेट के अध्यक्ष सादिक संजरानी ने गुस्से में आकर अपनी दुबई-अबूधाबी यात्रा रद्द कर दी। पाक विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने भी इस्लामी संगठन में इसलिए भाग नहीं लिया था कि भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज वहां पुलवामा-बालाकोट पर बोलनेवाली थीं। पाकिस्तान के इन तेवरों का इन प्रमुख मुस्लिम देशों पर कोई असर नहीं हो रहा है। मोदी को घोर सांप्रदायिक और फाशीवादी कहनेवाला पाकिस्तान यह क्यों भूल गया कि उन्हें सउदी अरब, फलीस्तीन और अफगानिस्तान भी अपने सर्वोच्च पुरस्कार दे चुके हैं। पाकिस्तान की शै पर जिंदा रहनेवाले अलगाववादी और आतंकवादियों को क्या यह पता नहीं चल रहा है कि अब सारी दुनिया कश्मीर को भारत का आंतरिक मामला मान रही है ? उन्हें अब ऐसा ही समझकर कश्मीरियों की खुशहाली, सुरक्षा और संपन्नता की भरपूर कोशिश करनी चाहिए।

खेल-खिलाड़ी भारतीय बैडमिंटन की प्रिंसेस पीवी सिंधु सिंधु ने रचा इतिहास
योगेश कुमार गोयल
2013 में पहली बार विश्व बैडमिंटन चैम्पियनशिप में कदम रखने वाली भारत की बैडमिंटन खिलाड़ी पी वी सिंधु ने 25 अगस्त को स्विट्जरलैंड के बासेल शहर में बीडब्ल्यूएफ विश्व चैम्पियनशिप के फाइनल मे अपने कौशल, फिटनेस और मानसिक शक्ति का प्रदर्शन करते हुए जापान की नोजुमी ओकुहारा को 21-7, 21-7 से मात देकर विश्व बैडमिंटन चैम्पियनशिप का महिलाओं का एकल खिताब अपने नाम करके एक नया इतिहास रच दिया और साथ ही नोजुमी से दो वर्ष पहले 2017 के फाइनल में मिली हार का हिसाब भी चुकता कर लिया। 2017 और 2018 में उन्हें रजत पदक से ही संतोष करना पड़ा था लेकिन अब वह यह प्रतिष्ठित चैम्पियनशिप जीतने वाली पहली भारतीय शटलर बन गई हैं। उनसे पहले कोई भी भारतीय पुरूष या महिला खिलाड़ी यह कारनामा नहीं कर सका है। पूरे फाइनल मैच में जापान की तीसरी वरीयता प्राप्त नोजोमी ओकुहारा पांचवी वरीयता प्राप्त सिंधु के सामने कही नहीं टिकी। खुद सिंधु ने भी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि फाइनल मुकाबला इस कदर एकतरफा होगा। दरअसल सिंधु ने अपनी पुरानी कमियों को ध्यान में रखते हुए उनसे उबरकर फाइनल खेला और उसका भरपूर फायदा उन्हें इस टूर्नामेंट में मिला। हालांकि उन्होंने इस साल कोई भी खिताब नहीं जीता था, इसलिए उनसे यह करिश्मा कर दिखाने की उम्मीद कम ही थी लेकिन जब सिंधु ने क्वार्टर फाइनल में दूसरी वरीयता प्राप्त ताईवान की ताई जू यिंग को मुकाबले में हरा दिया, तब उनका आत्मविश्वास बढ़ गया। इसी आत्मविश्वास के साथ उन्होंने सेमीफाइनल मुकाबले में चीन की चेन यू फेई को बेहद आसानी से 21-7, 21-14 से हराया और फाइनल में तो इतना तेज मैच खेला कि मुकाबले को एकतरफा बनाकर शानदार और दमदार जीत हासिल की। इससे पहले वह वर्ष 2013 और 2014 में कांस्य पदक तथा 2017 और 2018 में रजत पदक जीत चुकी थी और विश्व चैम्पियनशिप में उनके खाते में केवल स्वर्ण पदक की कमी थी, जो पूरी हो गई है। 2013 में पहली बार इस टूर्नामेंट में हिस्सा लेने के बाद से सिंधु अब तक इसमें कुल पांच दशकों के साथ 21 मैच जीत चुकी हैं। अभी तक इसमें उनसे ज्यादा पदक कोई भी महिला खिलाड़ी नहीं जीत सकी है।
2016 के रियो ओलम्पिक में रजत पदक विजेता और गत वर्ष राष्ट्रमंडल खेलों, एशियाई खेलों तथा विश्व चैंम्पियनशिप में रजत पदक जीतने के बाद इस वर्ष विश्व चैम्पियन बनकर पी वी सिंधु (पुसरला वेंकट सिंधु) ने हर भारतीय का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया है। यह खिताबी जीत हासिल कर उन्होंने भारतीय बैडमिंटन के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय जोड़ दिया है। वह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उस समय सुर्खियों में आई थी, जब 2013 में चीन के ग्वांगझू में आयोजित विश्व बैडमिंटन चैम्पियनशिप में कांस्य पदक जीतकर वह यह सफलता हासिल करने वाली पहली भारतीय खिलाड़ी बनी थी और उसके अगले ही वर्ष कोपेनहेगन में फिर से इसी सफलता को दोहराकर उन्होंने हर किसी का ध्यान आकर्षित किया था। सिंधु को अभी तक फाइनल मुकाबलों में कुल 14 बार शिकस्त झेलनी पड़ी है जबकि वह अपने कैरियर में एक दर्जन से भी अधिक खिताब अपने नाम कर चुकी हैं। पिछले साल उन्हें विश्व चैम्पियनशिप, एशियाई खेलों, राष्ट्रमंडल खेलों, थाईलैंड ओपन तथा इंडिया ओपन के फाइनल में हार का सामना करना पड़ा था लेकिन जब उन्होंने गत वर्ष जापान की नोजोमी ओकुहारा को शिकस्त देकर ‘विश्व टूर फाइनल्स’ खिताब जीता था, जिसे पहले ‘सुपर सीरिज फाइनल्स’ के नाम से जाना जाता था तो वह यह खिताब जीतने वाली पहली भारतीय बैडमिंटन खिलाड़ी बनी थी। उस टूर्नामेंट में भी लगातार तीन बार खेली लेकिन 2016 में सेमीफाइनल में पराजित हो गई थी जबकि 2017 में फाइनल में मुकाबला हारकर उन्हें रजत पदक से संतोष करना पड़ा था। भारत की ओर से साइना नेहवाल ने इसी टूर्नामेंट के लिए कुल सात बार क्वालीफाई किया और टूर्नामेंट के फाइनल तक भी पहुंची थी किन्तु खिताब जीतने में असफल रही थी लेकिन सिंधु ने पिछले साल वह टूर्नामेंट जीतकर और अब विश्व चैम्पियनशिप जीतकर साबित कर दिया है कि मौजूदा वक्त में भारतीय बैडमिंटन की प्रिंसेस वही हैं।
सिंधु के बारे में विख्यात खिलाड़ी और उनके कोच गोपीचंद फुलेला कहते हैं कि वह छुपी रूस्तम साबित होती है। दरअसल सिंधु अक्सर विश्व वरीयता प्राप्त खिलाडि़यों को मुकाबले में परास्त कर चौंकाती रही हैं किन्तु जब उनका मुकाबला कम रैकिंग वाली खिलाडि़यों से होता है तो कई बार उनसे हार जाती हैं। रियो ओलम्पिक में भी वह उच्च रैंकिंग वाली खिलाडि़यों को हराकर फाइनल तक पहुंची थी। गत वर्ष के एशियाई खेलों में वह भारत का 36 वर्षों का सूखा खत्म करते हुए ताइवान की ताई जू यिंग को हराकर रजत पदक जीतने में सफल रही थी। जिस उम्र में बच्चे पड़ोस में जाने से भी डरते हैं, 8-9 साल उस छोटी सी उम्र में सिंधु प्रतिदिन 56 किलोमीटर की दूरी तय कर बैडमिंटन कैंप में ट्रेनिंग लेने जाया करती थी। आंध्र प्रदेश के हैदराबाद में 5 जुलाई 1995 को पेशेवर वालीबॉल खिलाडि़यों पी.वी. रमण और पी. विजया के घर जन्मी पीवी सिंधु को खेलों के प्रति जुनून अपने माता-पिता से विरासत में ही मिला था किन्तु उन्होंने वालीबॉल के बजाय बैडमिंटन को अपने कैरियर के लिए चुना। दरअसल उनके माता-पिता दोनों ही पेशेवर वालीबॉल खिलाड़ी रहे हैं। उनके पिता पीवी रमण को तो राष्ट्रीय वालीबॉल में उल्लेखनीय योगदान के लिए वर्ष 2000 में भारत सरकार का प्रतिष्ठित अर्जुन पुरस्कार प्राप्त हो चुका है।
सिंधु ने मात्र 6 साल की उम्र में ही 2001 के ऑल इंग्लैंड ओपन बैडमिंटन चैम्पियन बने पुलेला गोपीचंद से प्रभावित होकर बैडमिंटन को अपना कैरियर चुन लिया था और 8 साल की उम्र से ही सक्रिय रूप से बैडमिंटन खेलना शुरू कर दिया था। शुरूआत में उन्होंने सिकंदराबाद में इंडियन रेलवे सिग्नल इंजीनियरिंग और दूरसंचार के बैडमिंटन कोर्ट में महबूब अली के मार्गदर्शन में बैडमिंटन की बारीकियां सीखी और कुछ ही समय बाद पुलेला गोपीचंद की बैडमिंटन अकादमी में शामिल होकर गोपीचंद के मार्गदर्शन में अपने खेल को निखारती चली गई। उसी का नतीजा है कि आज वह भारतीय बैडमिंटन का जगमगाता सितारा बन चुकी हैं। गोपीचंद फिलहाल भारतीय बैडमिंटन टीम के मुख्य कोच हैं।
एक के बाद एक मिली सफलताओं ने विश्व वरीयता प्राप्त भारतीय महिला बैडमिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधु को सदैव सुर्खियों की सरताज बनाए रखा है। वह 2009 में कोलंबो में आयोजित उप-जूनियर एशियाई बैडमिंटन चैंम्पियनशिप में कांस्य पदक, 2010 में ईरान फज्र अंतर्राष्ट्रीय बैडमिंटन मुकाबले में महिला एकल में रजत पदक, 2011 में डगलस कॉमनवेल्थ यूथ गेम्स में स्वर्ण पदक, जुलाई 2012 में एशिया युवा अंडर-19 चैम्पियनशिप, दिसम्बर 2013 में मलेशियाई ओपन के दौरान महिला सिंगल्स का ‘मकाऊ ओपन ग्रैंड प्रिक्स गोल्ड’ खिताब, 2013 तथा 2014 में विश्व चैम्पियनशिप में कांस्य पदक, 2016 में गुवाहाटी दक्षिण एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक, 2016 में रियो ओलम्पिक में रजत पदक जीत चुकी हैं। सिंधु ने ब्राजील के रियो डि जेनेरियो में आयोजित 2016 के ग्रीष्मकालीन ओलम्पिक खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व किया था और महिला एकल स्पर्धा के फाइनल में पहुंचने वाली वह पहली भारतीय महिला खिलाड़ी बनी थी। ओलम्पिक खेलों में भारत की ओर से महिला एकल बैडमिंटन का रजत पदक जीतने वाली सिंधु पहली खिलाड़ी हैं। उससे पहले वे भारत की नेशनल चैम्पियन भी रह चुकी थी। नवम्बर 2016 में उन्होंने चीन ओपन खिताब भी अपने नाम किया था।
सिंधु चीन के ग्वांग्झू में आयोजित 2013 की विश्व बैडमिंटन चैम्पियनशिप में एकल पदक जीतने वाली भी पहली भारतीय महिला बैडमिंटन खिलाड़ी हैं, जिसमें उन्होंने ऐतिहासिक कांस्य पदक जीता था। वर्ष 2014 में उन्हें एनडीटीवी द्वारा ‘इंडियन ऑफ द ईयर’ घोषित किया गया था। 2013 में सिंधु को ‘अर्जुन पुरस्कार’ तथा 30 मार्च 2015 को भारत के चौथे सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘पद्मश्री’ से भी सम्मानित किया जा चुका है। वह केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) और विजाग स्टील की ब्रांड एम्बेसडर हैं। सिंधु भारत के आर्थिक रूप से सम्पन्न खिलाडि़यों में से एक हैं। पिछले साल फोर्ब्स पत्रिका द्वारा जारी विश्व में सर्वाधिक कमाई करने वाली शीर्ष 10 महिला खिलाडि़यों की सूची में सिंधु सातवें स्थान पर रही थी। बहरहाल, सिंधु इस समय जिस बेहतरीन फॉर्म में हैं और दुनिया की चोटी की खिलाडि़यों को जिस प्रकार धूल चटा रही हैं, उससे वो भारतीय बैडमिंटन के सुखद भविष्य की उम्मीदें जगा रही हैं और अब उनका अगला लक्ष्य टोक्यो ओलम्पिक-2020 है तथा ओलम्पिक में स्वर्ण जीतना ही उनका सपना है। उम्मीद की जानी चाहिए कि ओलम्पिक में स्वर्ण जीतने का सिंधु का सपना साकार होगा और वो ओलम्पिक में भी सफलता का इतिहास रचकर भारत का नाम रोशन करेंगी।

फिर वही ढपली; फिर वही राग
ओमप्रकाश मेहता
अब भागवत का ’आरक्षण‘ क्या गुल खिलाएगा…..?
भारत में ’आरक्षण‘ एक ऐसा तम्बाकू जैसा जहरीला पदार्थ बना हुआ है, जिसे हर राजनेता खाने को मजबूर है, हर कोई जानता है कि यह एक राष्ट्र विरोधी जहर है, लेकिन क्या करें, राजनीति में अपना वजूद बनाए रखने के लिए इसे अपनाने की भी हर एक की मजबूरी है। आजादी के बाद जब आजाद भारत के संविधान की रचना की गई तो आर्थिक रूप से कमजोर व जातिगत रूप से उपेक्षित वर्ग को अन्य वर्गों की बराबरी में लाने के लिए मात्र पन्द्रह सालों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। किंतु बाद में जब यह मुद्दा ”वोट की राजनीति में तब्दील हो गया तो समय के साथ यह आरक्षण भी दीर्घजीवी हो गया“। आज हर राजनीतिक दल व उसके नेता दिल से आरक्षण खत्म करने के पक्ष में है, किंतु ऐसा करने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पा रहा है और इसी कारण राजनीति में जाति-धर्म और सम्प्रदाय ने अपने पैर मजबूती से जमा लिए, जिन्हें आज चाहते हुए भी कोई नहीं उखाड़ पा रहा है। जबकि आज राजनेताओं के साथ देश का हर बुद्धिजीवी नागरिक यह चाहता है कि आरक्षण की अब समीक्षा का समय आ गया है और इस आरक्षण का मौजूदा आधार जाति, धर्म या दलित खत्म कर इसे आर्थिक स्थिति के साथ जोड़ा जाना चाहिए, आर्थिक आधार पर यदि आरक्षण हो तो ही वास्तविक रूप से आरक्षण का सही मकसद पूरा होता है।
यद्यपि आज देश के हर वर्ग के नागरिक की आरक्षण को लेकर यही भावना है। अब यह बात अलग है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख जैसे कुछ लोग इस मामले में मुखरित हो जाते है और शेष सत्तारूढ़ सदस्य राजनीतिक स्वार्थ की पट्टी आँखों और होठों पर बांधकर मौन धारण कर लेते है।
बिहार में पिछले विधानसभा चुनाव के कुछ समय पहले संघ प्रमुख मोहनराव भागवत ने आरक्षण को लेकर कुछ विचार व्यक्त कर दिए थे और उसके बाद जब वहां भारतीय जनता पार्टी हार गई तो हार का ठीकरा भागवत जी के सिर पर फोड़ दिया गया था और कहा गया था कि भागवत जी के बयान के कारण आरक्षण प्राप्त दलित व अन्य पिछड़े वर्गो के वोट भाजपा को नही मिल पाए और इसी कारण भाजपा को पराजय का मुँह देखना पड़ा, अब भाजपा का अपने संरक्षक पर लगाया गया यह आरोप कहां तक सही या गलत है यह तो संघ या भाजपा जाने किंतु यह सही है कि संघ प्रमुख पर भाजपा ने अपनी हार का ठीकरा फोड़ा अवश्य था।
……और अब जबकि देश में तीन प्रमुख राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव निकट भविष्य में ही होने वाले है, ऐसे समय में संघ प्रमुख ने फिर आरक्षण को लेकर एक विवादित बयान दे दिया, उनका कहना था कि आरक्षण के पक्षधर और आरक्षण विरोधियों को एक मंच पर बैठकर आरक्षण के गुण-दोषों पर गंभीर चिंतन करना चाहिए और जो इस चिंतन से निष्कर्ष निकले उसके आधार पर आरक्षण की नई नीति तय की जानी चाहिए। भागवत जी की यह कथा भाजपा को फिर रास नहीं आई, और उन्होंने अन्तत: भागवत जी को फिर सफाई देने को मजबूर कर दिया। यद्यपि भागवत जी के बयान में कही थी आरक्षण खत्म करने की ध्वनि नहीं थी, वे सिर्फ भारत के आम नागरिक की तरह ही यह चाहते थे कि आरक्षण की सुविधा उसके सही हकदार को मिले, और उसके लिए आर्थिक आधार पर आरक्षण लागू किया जाना चाहिए, किंतु यह आरक्षण भारतीय राजनीति में अपनी इतनी गहरी पैठ जमा चुका है कि आज हर राजनीतिक दल व उसका नेता आरक्षण का नाम सुनते ही चौंक जाता है और फिर उसे अपनी पार्टी का भविष्य दिखाई देने लगता है, जबकि वह स्वयं भी दिल से वही चाहता है।
यद्यपि भाजपा के भी चुनावी घोषणा पत्र में प्रच्छन्न रूप से आरक्षण की सुविधा आर्थिक आधार पर लागू करने का मुद्दा राम मंदिर व धारा-370 खत्म करने के साथ शामिल है, किंतु फिलहाल भारत सरकार के सर्वेसर्वा नरेन्द्र भाई मोदी व अमित शाह भी इस मुद्दें को छूने से डर रहे है। इसका कारण यह है कि यह मुद्दा आज सत्ता प्राप्ति या सत्ता को बरकरार रखने का एक प्रमुख माध्यम बनकर रह गया है। इसीलिए भागवत जी को अपनी सफाई में यह कहना पड़ा कि ”आरक्षण था, आरक्षण है और आरक्षण रहेगा“। अब यह बात अलग है कि आरक्षण को धारा-370 के समकक्ष लाकर नियंताओं द्वारा अपनी हिम्मत कब दिखाई जाती है?

ऑटो सेक्टर में संकट गहराया
सिद्धार्थ शंकर
अर्थव्यवस्था में मंदी और शेयर बाजार में गिरावट को देखते हुए सरकार ने शुक्रवार को कई ऐलान किए। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि विदेशी और घरेलू निवेशकों पर सरचार्ज बढ़ोतरी का फैसला वापस ले लिया गया है। सरकार कह रही है कि राहत के अभी और उपाय किए जाएंगे। मगर सरकार ने ऑटो सेक्टर के लिए कोई विशेष उपाय नहीं किए हैं। सिर्फ इतना भर कहा गया है कि 31 मार्च 2020 तक खरीदे गए बीएस-4 वाहन रजिस्ट्रेशन की पूरी अवधि के लिए वैध रहेंगे। मगर सवाल यह है कि इतना भर करने से हालात सुधर जाएंगे। सच्चाई यह है कि यात्री वाहनों की बिक्री जुलाई में 19 फीसदी घट गई। यह 19 साल में सबसे बड़ी गिरावट है। कारों की मांग गिरने की वजह से कार कंपनियों ने उत्पादन कम कर दिया है। कुछ कंपनियों ने कई प्लांट्स बंद कर दिए हैं, कुछ ने काम के घंटे घटा दिए हैं। दरअसल, इस संकट के लिए केवल मंदी जिम्मेदार नहीं है। एक साथ कई नीतियों में फेरबदल करने से ग्राहक दुविधा में पड़ गए हैं कि वो कार खरीदें या अभी इंतजार करें। कार कंपनियों पर ये छोटा-मोटा संकट नहीं है। ये संकट इतना बड़ा है जो ग्रोथ की रफ्तार पर ब्रेक लगा सकता है।
इस वक्त मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती कार इंडस्ट्री में नई जान फूंकने की है। मगर पहली कोशिश में सरकार फेल हो गई है। अब दूसरी कोशिश की बात की जा रही है। देखना है कि अगली बार सरकार ऑटो सेक्टर को क्या राहत देती है। देश की सबसे बड़ी कंपनी मारुति सुजुकी हो या कोई और कंपनी, हर किसी की हालत पस्त है। ग्राहकों में दुविधा है कि कार खरीदने के लिए इंतजार करें या फिर ये सही मौका है। मंदी के माहौल में नौकरी का ठिकाना नहीं तो नई ईएमआई का बोझ लेने से भी लोग कतरा रहे हैं। अब राहत पैकेज के बगैर इस सेक्टर में जान फूंकना मुमकिन नहीं है।
मारुति सुजुकी, टाटा मोटर्स, हुंडई, होंडा, महिन्द्रा एंड महिन्द्रा, हीरो मोटोकॉर्प ये देश की वो दिग्गज कार और दोपहिया वाहन बनाने वाली कंपनियां है जो सालाना कई सौ करोड़ों रुपये का मुनाफा कमाती है, लेकिन इन दिनों इन सबपर मंदी हावी है। एक-एक कार बेचने के लिए इन कंपनियों को नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं। इनके प्लांट्स में लाखों गाडिय़ां ग्राहक के इंतजार में खड़ी है लेकिन ग्राहक नदारद है।
कार कंपनियों के बिक्री के आंकड़े पर नजर डाले तो जनवरी से जुलाई के बीच मारुति सुजुकी की बिक्री में 31 फीसदी की गिरावट आई है। हुंडई मोटर्स की बिक्री 15 फीसदी गिरी। महिंद्रा एंड महिंद्रा की बिक्री 29 फीसदी। टाटा मोटर्स की बिक्री 40 फीसदी, जबकि होंडा की बिक्री में 44 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। इन आंकड़ों से साबित होता है कि सभी कार कंपनियों की इन दिनों हवा निकली हुई है। ऑटो सेक्टर में गिरावट देश की अर्थव्यवस्था का खेल खराब करने के लिए काफी है, क्योंकि ऑटो इंडस्ट्री का देश की जीडीपी में 7 फीसदी का योगदान है। इंडस्ट्रियल जीडीपी में ऑटो कंपनियों का 26 फीसदी का योगदान है।
मैन्यूफैक्चरिंग जीडीपी में ऑटो कंपनियों की 49 परसेंट की हिस्सेदारी है। यानी ऑटो सेक्टर का पटरी से उतरना देश की ग्रोथ के लिए खतरनाक है। कारों की बिक्री कम होने से ऑटो पार्ट्स बनाने वाली कंपनियों की भी हालत पतली है। इन कंपनियों ने उत्पादन 30 फीसदी तक कम कर दिया है, जिसकी वजह से हजारों लोगों की नौकरी चली गई है।
अगर आगे भी ऑटो सेक्टर का ये ही हाल रहा तो स्थिति और भी भयावह हो सकती है। चेन्नई को भारत का डेट्रोयट कहा जाता है, यहां कार बनाने वाली कंपनियों के बड़े-बड़े प्लांट्स है। देश में बिकने वाली 30 फीसदी गाडिय़ां इसी शहर में तैयार होती हैं। आरजी ब्रोन्जे जो पिछले 40 साल से कारों के लिए कलपुर्जे तैयार कर रही है, उसने उत्पादन में 40 से 45 फीसदी की कमी की है। दिसंबर से पहले तक यहां 14 घंटे काम होता था अब सिर्फ 10 घंटे काम होता है।
काम में कटौती के चलते सैकड़ों कॉन्ट्रैक्ट मजदूरों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। गुजरात के राजकोट में भी ऑटो पार्ट्स बनाने वाली कंपनियों का बुरा हाल है। कार कंपनियों को जो पहले मोटे ऑर्डर मिलते थे उनमें कमी आई है, राजकोट की ऑटो इंडस्ट्री में काम करने वाले बिहार के करीब 10 हजार लोगों को वापस लौटना पड़ा है।
पूरे प्रदेश में 200 गाडिय़ों के शोरूम बंद हो गए हैं। कारों के बॉडी पार्ट्स बनाने वाली सैकड़ों यूनिट्स बंद हो गई हैं। कार के पार्ट्स बनाने वाली कंपनियों के नुमाइंदों की माने तो ऊंची टैक्स दर और सरकार की गलत नीतियों की वजह से ऑटो उद्योग की दुर्गती हुई है। जहां पहले ही ऑटो उद्योग का बैंड बजा पड़ा है। ऐसे में कारों की कीमत और रजिस्ट्रेशन फीस में इजाफा आग में घी का काम करेगा, यानी ऑटो उद्योग को मंदी के दौर से बाहर निकालना आसान नहीं है। आने वाले कुछ महीनों में भी ऑटो इंडस्ट्री के लिए दूर-दूर तक राहत की किरण नजर नहीं आ रही है। सरकार ने भले ही अप्रैल 2020 से देश में सिर्फ बीएस-6 इंजन वाली गाडिय़ों को बेचने का फैसला वापस ले लिया है, मगर यह उपाय अब भी असरकारी नहीं है। सरकार को पस्त ऑटो सेक्टर को ऐसी डोज देनी होगी, जो बूम लेकर आए।

एक ही छत के नीचे हो . अब सब धर्मों की प्रार्थना’
डा. जगदीश गांधी
अब समय आ गया है जबकि सभी धर्मों के लोगों को एक ही स्थान पर एकत्रित होकर एक ही परमपिता परमात्मा की प्रार्थना करनी चाहिए। अर्थात एक ही छत के नीचे हो-अब सब धर्मों की प्रार्थना’ हो। अज्ञानता के कारण आज एक ही परमपिता परमात्मा की ओर से युग-युग में आये अवतारों को अलग-अलग मानने के कारण ही धर्म के नाम पर चारों ओर जमकर दूरियां बढ़ रही है, जबकि सभी अवतार एक ही परमपिता परमात्मा की ओर से युग-युग में आये हैं। इस प्रकार हम सब एक ही परमात्मा की संतानें हैं। लैटिन भाषा में रिलीजन के मायने जोड़ना होता है। अर्थात जो जोड़े वह धर्म है तथा जो तोड़े वह अधर्म है।
रामायण में तुलसीदास जी ने ठीक ही लिखा है कि ‘जब जब होई धर्म की हानि – बाढ़हि असुर, अधम अभिमानी। तब तब प्रभु धरि विविध शरीरा – हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।। अर्थात जब-जब धर्म की हानि होती है और संसार में असुर, अधर्म एवं अन्यायी प्रवृत्तियों के लोगों की संख्या सज्जनों की तुलना में बढ़ जाने के कारण धरती का संतुलन बिगड़ जाता है, तब-तब परम पिता परमात्मा कृपा करके धरती पर अपने प्रतिनिधियों (अवतारों) कृष्ण, बुद्ध, अब्राहीम, मुसा, महावीर, जरस्थु, ईसा, मोहम्मद, नानक, बहाउल्लाह आदि को मानवता का मार्गदर्शन कर समाज को सुव्यवस्थित करने के लिए युग-युग में विविध रूपों में भेजते रहे हैं।
युग-युग में आये इन सभी अवतारों को दिव्य ज्ञान एक ही परमपिता परमात्मा से प्राप्त हुआ है। उदाहरण के लिए परमपिता परमात्मा ने 5000 वर्ष पूर्व कृष्ण की आत्मा में गीता के माध्यम से ‘न्याय’ का दिव्य ज्ञान भेजा। पुनः 2500 वर्ष पूर्व उसी परमपिता परमात्मा ने भगवान बुद्ध की आत्मा में त्रिपटक के माध्यम से ‘सम्यक ज्ञान’ व समता का दिव्य ज्ञान भेजा। 2000 वर्ष पूर्व उसी परमपिता परमात्मा ने कठोर मानव जीवन को करुणामय जीवन बनाने के लिए प्रभु ईसा मसीह की आत्मा में बाइबिल का ज्ञान भेजा। 1400 वर्ष पूर्व उसी परमपिता परमात्मा ने हज़रत मोहम्मद की आत्मा में कुरान के माध्यम से ‘भाईचारे’ का दिव्य ज्ञान भेजा। 400 वर्ष पूर्व उसी परमपिता परमात्मा ने स्वार्थपूर्ण मानव जीवन को त्याग (सच्चा सौदा) का पाठ पढ़ाने के लिए गुरु नानक देव जी की आत्मा में गुरूग्रंथ साहिब के माध्यम से ‘त्याग’ का दिव्य ज्ञान भेजा तथा लगभग 200 वर्ष पूर्व उसी परमात्मा ने मानव जीवन में बढ़ती हुई दूरियों को समाप्त कर एकता का पाठ मानव जाति को पढ़ाने के लिए बहाउल्लाह की आत्मा में किताबे अकदस का ज्ञान भेजा।
परमात्मा की आत्मा के पुत्र होने के कारण हम सब एक ही परमपिता परमात्मा की संतान हैं। उस परमपिता परमात्मा की प्रार्थना हम मंदिर में करें, मस्जिद में करें, गिरजाघर में करें या गुरूद्वारे में करें, और चाहे किसी भी भाषा में करें, हमारी प्रार्थनाओं को सुनने वाला ईश्वर एक ही है। अलग-अलग स्थानों, भाषाओं, वेश-भूषाओं में परमपिता परमात्मा को याद करने से धरती पर यह अज्ञान फैल गया है कि धर्म एक नहीं अनेक हैं। परमपिता परमात्मा की प्रार्थना करने के लिए किसी विशेष प्रकार की वेश-भूषा, भाषा, जाति-धर्म, स्थान आदि से कोई लेना-देना नहीं है।
गीता में जब भगवान श्रीकृष्ण से उनके शिष्य अर्जुन ने पूछा कि भगवान! आपका धर्म क्या है? भगवान श्रीकृष्ण ने अपने शिष्य अर्जुन को बताया कि मैं सारी सृष्टि का सृजनहार हूँ। इसलिए मैं सारी सृष्टि के सभी प्राणी मात्र से बिना किसी भेदभाव के प्रेम करता हूँ। इस प्रकार मेरा धर्म अर्थात कर्तव्य सारी सृष्टि के प्राणी मात्र से प्रेम करना है। इसके बाद अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा कि भगवन् मेरा धर्म क्या है? भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि तुम मेरी आत्मा के पुत्र हो। इसलिए मेरा जो धर्म अर्थात कर्तव्य है वही तुम्हारा भी धर्म अर्थात कर्तव्य है। अतः सारी मानव जाति की भलाई करना ही तुम्हारा भी धर्म अर्थात् कर्तव्य है। भगवान श्रीकृष्ण ने बताया कि इस प्रकार तेरा और मेरा दोनों का धर्म एक ही है।
इस प्रकार परमपिता परमात्मा की ओर से युग-युग में आये किसी भी महान अवतार ने कोई अलग धर्म नहीं दिया है। जिस प्रकार से परमपिता परमात्मा शाश्वत और अपरिवर्तनीय है उसी प्रकार से उसका धर्म भी शाश्वत और अपरिवर्तनीय है। परमपिता परमात्मा का जो धर्म है वही धर्म उसकी सभी संतानों का भी धर्म है। मनुष्य का सदैव से एक ही धर्म (कर्तव्य) रहा है – प्रभु इच्छाओं को जानना तथा उन पर चलना। पवित्र पुस्तकों गीता, त्रिपटक, बाईबिल, कुरान, गुरू ग्रन्थ साहिब, किताबे अकदस आदि में एक ही परमपिता परमात्मा के द्वारा भेजी गई न्याय, समता, करूणा, भाईचारा, त्याग एवं हृदयों की एकता की शिक्षाओं को जानना तथा उसके अनुसार संसार में रहकर पवित्र भावना से प्रभु की इच्छाओं और आज्ञाओं के अनुसार कार्य करना ही हर प्राणी का धर्म है। इस प्रकार प्रभु की इच्छाओं को जानकर तथा उनके अनुसार कार्य करने के अलावा किसी भी प्राणी का और कोई भी दूसरा धर्म नहीं है।
आज धर्म के नाम पर बढ़ती हुई दूरियाँ सिर्फ अज्ञानता के कारण है। जबकि सभी धर्मों का उद्देश्य सम्पूर्ण मानव जाति के हृदय में प्रेम व एकता की भावना को बढ़ाकर सारी पृथ्वी पर आध्यात्मिक सभ्यता की स्थापना करना है। सभी धर्मो का स्रोत एक ही परमपिता परमात्मा है और हम सब एक ही परमपिता परमात्मा की संतान हैं। धर्म के नाम पर होने वाली दूरियों का कारण धर्म के प्रति लोगों का अज्ञान है। जब हम सभी एक ही परमात्मा की संतानें हैं तो हमारे धर्म अलग-अलग कैसे हो सकते हैं? इसलिए स्कूलों में बच्चों एवं टीचर्स के द्वारा की जाने वाली सामूहिक प्रार्थना की तरह ही समाज में भी सभी धर्मों, जातियों एवं सम्प्रदायों के लोगों को एक ही जगह पर इकट्ठे होकर सामूहिक रूप से एक ही परमपिता परमात्मा की प्रार्थना करनी चाहिए और यही प्रभु-प्रार्थना करने का सबसे सही तरीका भी है। अर्थात एक ही छत के नीचे हो-अब सब धर्मों की प्रार्थना’ हो।

करुणा की प्रतिमूर्ति:संत मदर टेरेसा
(प्रो.शरद नारायण खरे)
“लेकर जो आगे बढ़ा,पर सेवा का भाव ।
सचमुच उसकी ज़िन्दगी,पाती प्रभुता,ताव ।।”
जन्म दिवस (26अगस्त ) पर विशेष मदर टेरेसा का वास्तविक नाम ‘अगनेस गोंझा बोयाजिजू’ था। गोंझा का अर्थ फूल की कली होता है। जब वह मात्र आठ साल की थीं तभी इनके पिता का निधन हो गया, जिसके बाद इनके लालन-पालन की सारी जिम्मेदारी इनकी माता द्राना बोयाजू के ऊपर आ गयी। यह पांच भाई-बहनों में सबसे छोटी थीं। इनके जन्म के समय इनकी बड़ी बहन की उम्र 7 साल और भाई की उम्र 2 साल थी, बाकी दो बच्चे बचपन में ही गुजर गए थे। वह एक सुन्दर, अध्ययनशील एवं परिश्रमी लड़की थीं। पढ़ाई के साथ-साथ, गाना उन्हें बेहद पसंद था। व और उनकी बहन पास के गिरजाघर में मुख्य गायिकाएँ थीं। ऐसा माना जाता है कि जब वे मात्र बारह साल की थीं तभी उन्हें ये अनुभव हो गया था कि वो अपना सारा जीवन मानव सेवा में लगायेंगी और 18 साल की उम्र में उन्होंने ‘सिस्टर्स ऑफ़ लोरेटो’ में शामिल होने का फैसला ले लिया। तत्पश्चात वेआयरलैंड गयीं ,जहाँ उन्होंने अंग्रेजी भाषा सीखी। अंग्रेजी सीखना इसलिए जरुरी था क्योंकि ‘लोरेटो’ की सिस्टर्स इसी माध्यम में बच्चों को भारत में पढ़ाती थीं।
मानव सेवा के पथ पर-
१९८१ ई में उन्होंने अपना नाम बदलकर टेरेसा रख लिया और आजीवन सेवा का संकल्प ले लिया। उन्होंने स्वयं लिखा है – वह १० सितम्बर १९४० का दिन था जब मैं अपने वार्षिक अवकाश पर दार्जिलिंग जा रही थी। उसी समय मेरी अन्तरात्मा से आवाज़ उठी,कि मुझे सब कुछ त्याग देना चाहिए और अपना जीवन ईश्वर एवं दरिद्र नारायण की सेवा कर के दुखी तन को समर्पित कर देना चाहिए।”
मदर टेरेसा दलितों एवं पीडितों की सेवा में किसी प्रकार की पक्षपाती नहीं थीं। उन्होंने सद्भाव बढ़ाने के लिए संसार का दौरा किया था। उनकी मान्यता थी कि ‘प्यार की भूख रोटी की भूख से कहीं बड़ी है।’ उनके मिशन से प्रेरणा लेकर संसार के विभिन्न भागों से स्वयं-सेवक भारत आये,और तन, मन, धन से गरीबों की सेवा में लग गये। मदर टेरेसा क कहना था कि सेवा का कार्य एक कठिन कार्य है और इसके लिए पूर्ण समर्थन की आवश्यकता होती है। वही लोग इस कार्य को संपन्न कर सकते हैं,जो प्यार एवं सांत्वना की वर्षा करें – भूखों को खिलायें, बेघर वालों को शरण दें, दम तोडने वाले बेबसों को प्यार से सहलायें,और अपाहिजों को हर समय ह्रदय से लगाने के लिए तैयार रहें।
मदर टेरेसा को उनकी सेवाओं के लिये विविध पुरस्कारों एवं सम्मानों से विभूषित किय गया है। १९३१ में उन्हें शांति पुरस्कार और धर्म की प्रगति के टेम्पेलटन फाउण्डेशन पुरस्कार प्रदान किए गए। विश्व भारती विध्यालय ने उन्हें “देशिकोत्तम” पदवी दी जो कि उसकी ओर से दी जाने वाली सर्वोच्च पदवी है। अमेरिका के कैथोलिक विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टोरेट की उपाधि से विभूषित किया। भारत सरकार द्वारा १९६२ में उन्हें ‘पद्म श्री’ की उपाधि मिली। १९८८ में ब्रिटेन द्वारा ‘आईर ओफ द ब्रिटिश इम्पायर’ की उपाधि प्रदान की गयी। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय ने उन्हें डी-लिट की उपाधि से विभूषित किया। १९ दिसम्बर १९७९ को मदर टेरेसा को मानव-कल्याण कार्यों के हेतु नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया। वह तीसरी भारतीय नागरिक हैं,जो संसार में इस पुरस्कार से सम्मानित की गयी थीं। मदर टेरेसा के लिए नोबल पुरस्कार की घोषणा ने जहां विश्व की पीड़ित जनता में प्रसन्नता का संचार हुआ है, वही प्रत्येक भारतीय नागरिकों ने अपने को गौर्वान्वित अनुभव किया। स्थान स्थान पर उन्का भव्य स्वागत किया गया। नार्वेनियन नोबल पुरस्कार के अध्यक्ष प्रोफेसर जान सेनेस ने कलकत्ता में मदर टेरेसा को सम्मनित करते हुए सेवा के क्षेत्र में मदर टेरेसा से प्रेरणा लेने का आग्रह सभी नागरिकों से किया था। देश की प्रधान्मंत्री तथा अन्य गणमान्य व्यक्तियों ने मदर टेरेसा का भव्य स्वागत किया। अपने स्वागत में दिये भाषणों में मदर टेरेसा ने स्पष्ट कहा था कि “शब्दों से मानव-जाति की सेवा नहीं होती, उसके लिए पूरी लगन से कार्य में जुट जाने की आवश्यकता है।”
09 सितम्बर 2016 को वेटिकन सिटी में पोप फ्रांसिस ने मदर टेरेसा को संत की उपाधि से विभूषित किया।
कई व्यक्तियों ,सरकारोंऔर संस्थाओं के द्वारा उनकी प्रशंसा की जाती रही है, यद्यपि उन्होंने आलोचना का भी सामना किया है।पर वे मानव सेवा के पथ से कदापि भी विचलित नहीं हुईं ।
अपना सर्वस्व दीन दुखियों व पीड़ितों के लिए समर्पित कर देने वाली संत मदर टेरेसा के लिए बार बार सम्मानपूर्वक नमन् निवेदित करते हुए यही कहूंगा कि,–
“जो बनकर सचमुच रहा,जीवन भर इक संत ।
ऐसी मानव का कभी,हो सकता ना संत ।।”

रैगिंग पर रोक आखिर कब

सिद्धार्थ शंकर
आधुनिकता के साथ रैगिंग के तरीके भी बदलते जा रहे हैं। रैगिंग आमतौर पर सीनियर विद्यार्थी द्वारा कॉलेज में आए नए विद्यार्थी से परिचय लेने की प्रक्रिया। लेकिन अगर किसी छात्र को रैगिंग के नाम पर अपनी जान गंवाना पड़े तो उसे क्या कहेंगे। रैगिंग के नाम पर समय-समय पर अमानवीयता का चेहरा भी सामने आया है। गलत व्यवहार, अपमानजनक छेड़छाड़, मारपीट ऐसे कितने वीभत्स रूप रैगिंग में सामने आए हैं। सीनियर छात्रों के लिए रैगिंग भले ही मौज-मस्ती हो सकती है, लेकिन रैगिंग से गुजरे छात्र के जहन से रैगिंग की भयावहता मिटती नहीं है। इसी भयावहता का उदाहरण ओडिशा में सामने आया है। देश के अलग-अलग राज्यों ने रैगिंग पर बैन लगा रखा है और सुप्रीम कोर्ट ने इसे मानवाधिकारों का हनन तक करार दिया है, लेकिन ऐसी घटनाएं सामने आती रहती हैं। जहां संबलपुर की एक टेक्निकल यूनिवर्सिटी में सीनियर्स के जूनियर्स की रैगिंग करने की तस्वीरें सोशल मीडिया पर सामने आई हैं।
प्रारंभिक जांच में पता चला है कि यह तस्वीरें राज्य सरकार की वीर सुरेंद्र साई यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नॉलजी की हैं। इनमें दिख रहा है कि फस्र्ट और सेकंड क्लास के छात्र स्टेज सिर्फ अंडरगार्मेंट पहने पर नाच रहे हैं और बड़ी संख्या में छात्र नीचे खड़े उन्हें देख रहे हैं। बताया गया है कि यूनिवर्सिटी में रैगिंग का यह पहला मामला नहीं है। पिछले साल भी ऐसी ही घटना सामने आई थी। राज्य के कौशल विकास और तकनीकी शिक्षा मंत्री प्रेमानंद नायक ने घटना का संज्ञान लेते हुए मामले की जांच के आदेश दिए हैं। इसका बाद यूनिवर्सिटी ने गुरुवार को 10 छात्रों को एग्जाम में बैठने से रोक दिया है। इसके अलावा करीब 52 छात्रों पर जूनियर्स की रैगिंग के लिए 2000 रुपए जुर्माना लगाया गया है। गौरतलब है कि संबलपुर की इस घटना से पहले उत्तर प्रदेश के सैफई में मेडिकल कॉलेज से 150 छात्रों का सिर मुंडाकर कैंपस में परेड का वीडियो सामने आया था। हालांकि, यूनिवर्सिटी के कुलपति ने घटना का खंडन किया था। शिक्षण संस्थानों में रैगिंग पर पूरी तरह रोक लगाने के लिए लागू किए गए नियम-कायदों के बावजूद आज भी आए दिन इस तरह की घटनाएं सामने आ रही हैं। हालांकि इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट तक ने बेहद सख्त रुख अख्तियार किया है और यह निर्देश है कि किसी भी रूप में रैगिंग होने पर आरोपी से लेकर संस्थान तक के खिलाफ कार्रवाई होगी। लेकिन यह समझना मुश्किल है कि कुछ संस्थानों में वरिष्ठ माने वाले छात्रों के भीतर कौन-सी सामंती ग्रंथि बैठी होती है कि वे सारे नियम-कायदों को धता बता कर वहां आए नए विद्यार्थियों को परेशान करने से नहीं चूकते।
गत वर्ष पहले इलाहाबाद के मोतीलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज से सामने आया है, जहां एमबीबीएस पाठ्यक्रम के पहले वर्ष में दाखिला लेने वाले सौ से ज्यादा छात्रों के साथ रैगिंग के नाम पर अमानवीय सलूक किया गया था। वहां जूनियर डॉक्टरों को मजबूर किया गया था कि वे घुटनों के बल चल कर सभी वरिष्ठों सहित कर्मचारियों को सलाम करें। छात्राओं को भी परेशान किया गया। जिन्होंने इस रैगिंग का विरोध किया, उनकी पिटाई की गई और शिकायत करने पर उनका भविष्य चौपट कर देने की धमकी दी गई। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट की ओर से सभी शिक्षण संस्थानों के लिए यह सख्त निर्देश है कि अगर वहां रैगिंग की घटना हुई तो इसके लिए उन्हें भी जवाबदेह माना जाएगा। हर उच्च शिक्षा संस्थान में रैगिंग के खिलाफ एक समिति बनाने से लेकर संबंधित नियमों का पालन नहीं करने पर संस्थान की मान्यता रद्द कर देने तक की बात है। इसके बावजूद अगर कुछ शिक्षा संस्थानों में नए विद्यार्थियों को रैगिंग की मार झेलनी पड़ रही है तो यह न केवल संस्थानों की लापरवाही और नियम-कायदों को ताक पर रखने का मामला है, बल्कि यह वरिष्ठ कहे जाने वाले विद्यार्थियों के सामाजिक बर्ताव पर भी सवालिया निशान है।
पिछले कुछ वर्षों में शिक्षा संस्थानों में रैगिंग की वजह से पीडि़त विद्यार्थियों की तकलीफदेह दास्तान से लेकर आत्महत्या तक कर लेने की घटनाएं सामने आने के बाद जागरूकता बढ़ी है। सामाजिक स्तर पर इसका विरोध भी हुआ है। मगर हैरानी की बात है कि जिस दौर में शिक्षण संस्थानों में मानवीय और संवेदनशील व्यवहार की सबसे ज्यादा जरूरत महसूस की जा रही है, उस वक्त में भी रैगिंग के नाम पर नवागंतुकों को अपने साथ इस तरह के बर्ताव का सामना करना पड़ रहा है। कोई विद्यार्थी जब पहली बार किसी संस्थान में दाखिला लेता है तो वहां उसके साथ हुए शुरुआती व्यवहार का गहरा असर उसके मन-मस्तिष्क पर पड़ता है। यहां तक कि कई बार इससे जीवन और समाज के प्रति उनकी दृष्टि सकारात्मक या फिर नकारात्मक हो जाती है। इसलिए किसी भी शिक्षण संस्थान में यह सुनिश्चित किए जाने की जरूरत है कि वहां पहली बार आए विद्यार्थियों को ऐसा व्यवहार मिले, जिससे न केवल अपने व्यक्तित्व में सकारात्मक निखार आए, बल्कि इसका लाभ देश और समाज को भी मिले।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय में अपने अधीन आने वाले शिक्षा संस्थानों में रैगिंग के विरुद्ध कड़े निर्देश जारी किए। कई राज्यों ने भी इस पर रोक लगाने के लिए कानून बनाए। 1997 में तमिलनाडु में विधानसभा में एंटी रैगिंग कानून पास किया गया। मगर नतीजा अब तक ढांक के तीन पात है। रैगिंग एक मानसिक विकृति है। यह सिर्फ कानून से नियंत्रित नहीं हो सकेगी। रैगिंग से पीडि़त छात्रों को इसकी जानकारी अभिभावक, विश्वविद्यालय, प्रशासन और संबंधितों को देने की हिम्मत दिखानी चाहिए। आत्महत्या का विकल्प न चुनें यह सच है फिर भी हर एक की मानसिक क्षमता और सहनशीलता अंतत: अलग-अलग होती है। मगर अब जानलेवा हो चुकी इस बीमारी का इलाज ढूंढना होगा। समाज अपने स्तर पर ढूंढे और सरकार अपने स्तर पर। मगर इलाज में अब देरी संभव नहीं है।

ट्रंप का गोरखधंधा
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का गोरखधंधा भी बड़ा मजेदार है। भारत सरकार द्वारा उनकी मध्यस्थता से इंकार के बावजूद वे मध्यस्थता किए जा रहे हैं। कभी वे नरेंद्र मोदी से बात करते हैं तो कभी इमरान खान से ! मध्यस्थता और क्या होती है ? उनकी मध्यस्थता कश्मीर से बिल्कुल भी संबंधित नहीं है। वे कश्मीर के बारे में तो किसी से कोई बात कर ही नहीं रहे हैं। न तो वे भारत से पूछ रहे हैं कि आपने धारा 370 और 35 ए क्यों खत्म की है और न ही वे पाकिस्तान से कब्जाए हुए कश्मीर को लौटाने की बात कर रहे हैं। उनकी तो बस एक ही टेक है। भई ! मोदी और इमरान, तुम हालात बिगड़ने मत देना ! लड़ मत पड़ना ! इमरान, तुम इतनी लफ्फाजी मत कर देना कि भारत अपना संयम खो दे। इमरान का ट्विटर हेंडल करनेवाले किसी बाबू ने मोदी को फासिस्ट, तानाशाह और न जाने क्या-क्या कह डाला। किसी पाकिस्तानी मंत्री ने अपने परमाणु बम का हवाला भी दे दिया। इधर भारतीय रक्षा मंत्री ने परमाणु-संयम पर शाब्दिक-बल्लेबाजी कर दी। ट्रंप का यह भय निराधार नहीं है कि कश्मीर के खुलने पर हालात इतने न बदल जाएं कि दोनों देशों के बीच लड़ाई छिड़ जाए। इमरान ने दूसरे बालाकोट की बात कई बार कह दी है। दोनों के बीच पारंपरिक युद्ध छिड़ जाए तो अमेरिका को कौनसा नुकसान है ? उसे तो फायदा ही फायदा है। दोनों मुल्क उससे हथियार खरीदेंगे और उसके कृपाकांक्षी बने रहेंगे। लेकिन ट्रंप की चिंता कुछ और ही है। वह है, अफगानिस्तान। ट्रंप चाहते हैं कि राष्ट्रपति के अगले चुनाव में वे खम ठोक सकें कि देखों, मैं हूं कि जिसने अफगानिस्तान से अपनी फौजों की वापसी कर ली और हर माह करोड़ों डाॅलर वहां बर्बाद होने से बचा लिए। ट्रंप को पता है कि भारत-पाक युद्ध चाहे न छिड़े, सिर्फ तनाव ही बढ़ जाए, तो भी पाकिस्तान की जो फौजें अफगान-सीमांत पर लगी हैं, उन्हें वह भारतीय सीमांत पर डटाना चाहेगा। ऐसे में ट्रंप अपने मन की मुराद पूरी करने में काफी परेशान हो सकते हैं। इसीलिए वे अपनी खाल मोटी करके भी मध्यस्थ की भूमिका निभा रहे हैं। उधर इमरान खान को पता है कि वे कहीं भी जाएं, सुरक्षा परिषद या अंतरराष्ट्रीय न्यायालय या अंतरराष्ट्रीय इस्लामी संगठन, कहीं भी उनकी दाल गलनेवाली नहीं है लेकिन पाकिस्तान की जनता के सामने उनकी हंडिया उबलती हुई दिखाई पड़ती रहनी चाहिए। अपनी फौज को काबू में रखने के लिए उन्होंने अपने जनरल बाजवा को तीन साल तक और बने रहने का रसगुल्ला दे दिया है। इस भारत-पाक तनाव के कारण ट्रंप को अपनी छवि सुधारने का मौका भी मिल रहा है। कई राष्ट्रनेताओं के बारे में उटपटांग जुमले उछालनेवाले ट्रंप के मुंह से संयम और शांति की बातें काफी मजेदार लग रही हैं।

दूषित जल से बढ़ेंगी मुश्किलें
सतीश सिंह
नीति आयोग की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में 70 प्रतिशत जल की आपूर्ति दूषित हो रही है। सेफ वाटर नेटवर्क की रिपोर्ट के मुताबिक भी जल गुणवत्ता सूचकांक के 122 देशों में भारत का स्थान 120वां है। इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2050 तक बढ़ती आबादी व जल के बढ़ते कारोबारी इस्तेमाल की वजह से प्रति व्यक्ति जल की खपत में 40 से 50 प्रतिशत तक की गिरावट आ सकती है। वाटर एड की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 16.3 करोड़ लोग स्वच्छ जल पीने से महरूम हैं। शहरी इलाकों में अधिकांशत: झुग्गी-झोपडिय़ों में रहने वाले लोग पीने योग्य जल से महरूम हैं। शहर के ऐसे इलाकों में पाइपलाइन बिछाना भी मुश्किल है। लिहाजा, झुग्गी-झोपडिय़ों में रहने वाले लोगों के लिए जल के छोटे-छोटे उपक्रमों को स्थापित करने की बड़ी जरूरत है। सेफ वाटर नेटवर्क की रिपोर्ट के अनुसार शहरों के झुग्गी-झोपडिय़ों में रहने वाली 37 करोड़ की आबादी को साफ जल मुहैया कराने के लिए सरकार को 2.2 लाख जल के छोटे-छोटे उपक्रम स्थापित करने होंगे, जिनकी लागत 44 हजार करोड़ रुपए के आसपास होगी।
यहां सवाल का उठना लाजिमी है कि क्या सरकार सभी नागरिकों को साफ जल उपलब्ध कराने के लिए तैयार है? सवाल सरकार द्वारा सभी घरों तक पीने योग्य जल पहुंचाने के लिए आधारभूत संरचना विकसित करने की भी है। सभी के घरों तक जल पहुंचाने के लिए पाइप लाइन की जरूरत है। देश की 82 करोड़ आबादी आज भी पाइपलाइन से जल नहीं पी रही है। समस्या गांवों में जल को पीने योग्य बनाने की भी है। वहां जल को साफ करने की कोई बुनियादी सुविधा उपलब्ध नहीं है। ग्रामीण आबादी अभी भी नदी, कुएं, तालाब से सीधे जल पी रही है, जिससे उनके स्वास्थ्य को भारी खतरा है। वर्ष 2014 में दूषित जल को साफ करने वाले 12 हजार सयंत्र उपलब्ध थे, जो 2018 के अंत तक बढ़कर 50 हजार हो गए हैं। सेफ वाटर नेटवर्क के मुताबिक अगर जल को साफ करने की पहल के लिए सरकारी नीति बनाई जाती है तो वर्तमान स्थिति मे जरूर बेहतरी आ सकती है। हालांकि, सरकार ने वर्ष 2030 तक सभी घरों में पाइपलाइन के जरिए पीने योग्य जल पहुंचाने का लक्ष्य रखा है, जिस पर पांच लाख करोड़ रुपए की आधारभूत संरचना विकसित करनी होगी।
भारत की ग्रामीण इलाकों में लगभग 63 करोड़ लोग ऐसे हैं, जो आज भी दूषित जल पीने के लिए मजबूर हैं, जबकि 2017 में विश्व जल दिवस के दिन संयुक्त राष्ट्र संघ ने साफ जल पीना इंसान का बुनियादी हक बताया था। वर्ष 2008 की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत की 88 प्रतिशत आबादी के पास जल उपलब्ध था, लेकिन शहरी क्षेत्र में पीने योग्य पानी तक पहुंच केवल 31 प्रतिशत आबादी की थी, जबकि ग्रामीण इलाकों में यह प्रतिशत महज 21 थी। हमारे देश पर पकृति शुरू से मेहरबान रही है। प्रकृति ने हमें घने जंगल, बड़ी-बड़ी नदियां, तालाब और झील जैसी प्राकृतिक संसाधनों से नवाजा है, लेकिन हम अपनी लालची प्रवृति की वजह से धीरे-धीरे इन्हें खत्म करने पर तुले हैं। मौजूदा स्थिति को दृष्टिगत करके अनुमान लगाया जा रहा है कि वर्ष 2025 तक हमारे देश में जल की भारी कमी हो जाएगी। उपलब्ध पानी भी पीने योग्य नहीं होंगे। ऐसा नहीं है कि सरकार संकट से अंजान है। बावजूद इसके सरकार की नीतियां जल को दूषित करने और जलसंकट को बढ़ावा देने वाली है। सरकार की मेक इन इंडिया की संकल्पना को साकार करने के लिए भारी मात्रा में पानी की जरूरत है।
इस समय कोई भी कल-कारखाना जल के बिना नहीं चल सकता है। कल-कारखानों को जल को दूषित करने वाला सबसे बड़ा कारक माना जा सकता है। सरकार 100 स्मार्ट सिटी भी बनाना चाहती है, जिनके निर्माण के लिए भारी मात्रा में जल की जरूरत होगी। देश की प्रमुख नदी यमुना मर चुकी है। हिंडन का भी स्वर्गवास हो गया है। गंगा नदी भी वेंटीलेटर पर है। बावजूद इनके, सरकार कागजों पर इन्हें पुनर्जीवित करने का दावा कर रही है। जल के वाष्पीकरण, अपवाह या उपसतही जल निकासी से होने वाले नुकसानों का कम करने, भूमि की सिंचाई के लिए जल की जरूरत का निर्धारण करने, वाष्पीकरण को नियंत्रित करने, खेतों में जल का समान वितरण सुनिश्चित करने, सिंचाई के तरीकों में बदलाव लाने, ड्रिप सिंचाई विधि को बढ़ावा देने, अधिक से अधिक पौधा रोपन या वृक्षारोपण करने, वर्षा के जलको सहेजने आदि की मदद से मौजूदा स्थिति में बदलाव लाया जा सकता है।
जल प्रबंधन आज हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए, लेकिन अभी भी हम इसकी अहमियत नहीं समझ पाए हैं। जल-संरक्षण के कार्यान्वयन या जल-दक्षता उपायों को अपनाते हुए जल-प्रयोग में कमी लाने की जरूरत है। जल संरक्षण का उपाय एक क्रिया भर है, जिसे आदतों में लाकर सफल बनाया जा सकता है। दूषित जल पीने से हम जीवित तो जरूर रह सकते हैं, लेकिन हमारी आयु कम हो सकती है। हम कई तरह की बीमारियों से पीडि़त हो सकते हैंं। दूषित जल से फसलों की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। अस्तु, खेती-किसानी के लिए स्वस्थ पानी और पीने के लिए स्वच्छ पानी की जरूरत है। दूषित जल में हजारों की संख्या में कीटाणु होते हैं, जो हमारी मौत के कारक बनते हैं। हालांकि, दूषित जल को उबालकर, कैन्डल वाटर फिल्टर, क्लोरीनेशन, देशी विधि से शुद्धिकरण, हैलोजन टैबलेट व आरओ सिस्टम, यूवी रेडिएशन प्रणाली आदि की मदद से इसे शुद्ध किया जा सकता है, लेकिन इन प्रक्रियाओं से शिक्षा और जानकारी के अभाव में कुछ ही लोग जल को शुद्ध कर सकते हैं।
कहा जा सकता है कि दूषित जल एक गंभीर मसला है, जिसके निदान के लिए सरकार तो कोशिश करने में जुटी है, लेकिन यह हमारी भी जिम्मेदारी है कि हम स्थिति को बेहतर करने के लिए पहल करें। अगर समय रहते अपनी मानसिकता एवं आदतों में बदलाव नहीं लाएंगे तो हम खुद ही अपनी नियति के लिए जिम्मेदार होंगे। धरती के जल के दूषित होने के बाद अब समुद्र के खारे जल को पीने योग्य बनाने की पहल की जा रही है। वैज्ञानिकों ने ऐसा खास फिल्टर तैयार किया है जिससे समुद्र के बेस्वाद पानी को पीने के लायक बनाया जा सकेगा। यूनिवर्सिटी ऑफ मैनचेस्टर के वैज्ञानिकों की एक टीम ने यह उपकरण बनाया है। इससे दूषित पदार्थों को छानने में सफलता मिली है। यह खोज भविष्य के लिए वरदान साबित हो सकती है। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी थी कि 2025 तक दुनिया के 1.20 अरब लोगों को साफ पानी मिलने में मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा।
वैज्ञानिकों के बनाए फिल्टर से पानी से नमक को निकाला जा सकता है और उसे पीने योग्य बनाया जा सकता है। मानव जनित जलवायु परिवर्तन के कारण शहरों में पानी की आपूर्ति पर असर पड़ा है। ऐसे में कई देश डीसैलिनैशन (विलवणीकरण-पानी से लवणों को निकालने की प्रक्रिया) पर काफी खर्च कर रहे हैं। मैनचेस्टर में टीम का नेतृत्व करने वाले प्रोफेसर राहुल नायर ने बताया कि यह आगे बढऩे की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इससे डीसैलिनैशन तकनीक को और बेहतर करने दिशा में नए संभावनाओं का द्वार खुलेगा।

‘आजाद कश्मीर’: मेरे कुछ अनुभव
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
रक्षा मंत्री राजनाथसिंह को मैं हार्दिक बधाई देता हूं कि कश्मीर पर उन्होंने मेरी ऐसी बात का समर्थन कर दिया है, जो पिछले 50 साल से प्रायः मैं ही लिखता और बोलता रहा हूं। मैं हमेशा कश्मीर पर पाकिस्तान से बातचीत का समर्थक रहा हूं लेकिन पाकिस्तान के कई विश्वविद्यालयों, शोध-संस्थानों और पत्रकारों के बीच बोलते हुए मैंने दो-टूक शब्दों में कहा है कि सबसे पहले हम आपके ‘आजाद कश्मीर’ के बारे में बात करेंगे। मैंने प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो और मियां नवाज शरीफ से ही नहीं, राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ से भी पूछा कि आपने कश्मीर के बारे में सयुक्तराष्ट्र संघ का प्रस्ताव पढ़ा है, क्या ? क्या उसके पहले अनुच्छेद में यह नहीं लिखा है कि आप अपने कब्जाए हुए कश्मीर की एक-एक इंच जमीन खाली करें। उसके बाद वहां आप जनमत संग्रह करवाएं। आपने अभी तक क्यों नहीं करवाया ? मैंने उनसे पूछा कि क्या आप अपने कश्मीरियों को ‘तीसरा विकल्प’ देंगे ? याने वे भारत या पाकिस्तान में मिलने की बजाय पृथक राष्ट्र बन जाएं ? इस पर सभी पाकिस्तानी नेता मौन हो जाते हैं। पाकिस्तान की यह नीति कश्मीर के कई उग्रवादी और आतंकवादी नेताओं को भी पसंद नहीं है। जब वे मुझसे कहते कि आप अपना कश्मीर हमारे हवाले क्यों नहीं करते तो मैं उनसे पूछता हूं कि जो कश्मीर आपके पास है, उसका क्या हाल है ? आपके ही लेखकों और कश्मीरी पत्रकारों ने लिखा है कि हमारा ‘आजाद कश्मीर’ गर्मियों में एक विराट वेश्यालय में परिवर्तित हो जाता है। मैं अपनी कश्मीरी माताओं-बहनों को किस मुंह से आपके हवाले करुं ? इसके अलावा हमारे कश्मीर में तो धारा 370 और 35 ए लगी हुई है। आपके यहां तो ऐसा कुछ नहीं है। आपके कश्मीरियों और गिलगिट-बालटिस्तानियों पर पठानों और पंजाबियों की जनसंख्या भारी पड़ती जा रही है। चीन को आपने 5000 वर्ग किमी कश्मीरी जमीन 1963 में तश्तरी पर रखकर दे दी है और आपका कश्मीर उसकी जागीर बनता जा रहा है। तथाकथित ‘आजाद कश्मीर’ के तीन प्रधानमंत्रियों से मेरी लंबी बातें हुई हैं। जब बेनजीर भुट्टो से मैंने कहा कि आपका कश्मीर तो आजाद है, अलग देश है। वहां जाने का ‘वीजा’ कहां से मिलेगा ? उसके प्रधानमंत्री से भेंट कैसे होगी ? वे हंसने लगी। उन्होंने अपने गृहमंत्री जनरल नसीरुल्लाह बाबर से कहा। जनरल बाबर ने नाश्ते पर मुझे अपने घर बुलाया और कहा कि ‘कौन गधा वहां वजीरे-आजम है?’ उसे आप फोन करें। वह ‘मुनसीपाल्टी का सदर’ है। वह खुद आपसे मिलने यहां (इस्लामाबाद) चला आएगा। दूसरे दिन यही हुआ।

हैरान कर रहीं सोने की कीमत
सिद्धार्थ शंकर
सोने के दाम एक साल में करीब 30 फीसदी और बीते दो माह में ही 4,000 रुपए प्रति 10 ग्राम से ज्यादा बढऩे से बुलियन डीलर्स के साथ ही आम निवेशक और खरीदार हैरान हैं। बीते हफ्ते 38,648 रुपए प्रति 10 ग्राम की रिकॉर्ड ऊंचाई के बाद इसके 4,045 और यहां तक की 50 हजारी होने की अटकलें भी लग रही हैं। यही हाल चांदी का है, जो 45,000 रुपए प्रति किग्रा की बुलंदी छू चुकी है। अब संभावना जताई जा रही है कि त्योहारी सीजन में गोल्ड 40000 रुपए प्रति 10 ग्राम से आगे जा सकता है। इस वक्त घरेलू बाजार में डिमांड नहीं है, इसके बावजूद गोल्ड के दाम बढ़ रहे हैं। कई कारणों से इंटरनैशनल मार्केट में गोल्ड में इन्वेस्टमेंट बढ़ रहा है। अगले माह से त्योहारी सीजन शुरू हो जाएगा। उसके बाद घरेलू डिमांड भी बढ़ जाएगी। ऐसे में गोल्ड में तेजी आना तय है। गोल्ड का अगला स्तर 39,000 रुपए का है। इसके बाद कोई बड़ी बात नहीं होगी, अगर गोल्ड 40,000 के लेवल को छू जाए। चीन और अमेरिका के बीच जारी ट्रेड वॉर के कारण इन्वेस्टर्स गोल्ड की तरफ रुख कर रहे हैं। इसके अलावा ग्लोबल मार्केट में भी स्लोडाउन की खबरों से शेयर मार्केट में इन्वेस्टमेंट कम हो रहा है। ऐसे में गोल्ड में तेजी और बढ़ सकती है।
दुनियाभर की अर्थव्यवस्था में छाई सुस्ती और कई देशों में मंदी की दस्तक से शेयरों, म्यूचुअल फंडों से निवेशकों का मुनाफा घटा है और जमा योजनाओं के ब्याज पर भी कैंची चल रही है। अब वे गोल्ड जैसे सुरक्षित निवेश को तरजीह दे रहे हैं। इससे बहुमूल्य धातुओं की डिमांड बढ़ रही है। अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध, ब्याज दरों में कटौती और अमेरिका में लंबी अवधि (30 साल) की बॉन्ड यील्ड अब तक के सबसे निचले स्तरों पर आने से डॉलर पर दबाव बढ़ा है। ज्यादातर देश अपना मुद्रा भंडार डॉलर में रखते हैं और उनकी कोशिश सोने का भंडार बढ़ाकर आगे ऊंची कीमत पर भुनाने या ज्यादा डॉलर हासिल करने की होती है। इससे भी सोने की डिमांड बढ़ी है। पूरी दुनिया के सेंट्रल बैंकों ने 2019 की पहली छमाही में 374 टन सोना खरीदा, जो पिछले साल से 68 फीसदी ज्यादा है। इस दौरान सोने की कीमत 18 फीसदी बढ़ी है। तुर्की, कजाकिस्तान, चीन और रूस के सेंट्रल बैंक सोने के सबसे बड़े खरीदार हैं, जबकि आरबीआई ने भी इस साल खरीद बढ़ाई है और टॉप-10 में शामिल हो गया है। इस साल सोने की कुल डिमांड में सेंट्रल बैंकों की खरीदारी 16 फीसदी रही है।
फिलहाल विश्व अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर और अमेरिकी मौद्रिक नीति के रुझानों से सोने में तेजी बनी रहने के संकेत मिल रहे हैं, लेकिन कई राजनीतिक और आर्थिक मोड़ भी दिख रहे हैं, जहां रुझान पलट सकता है। अमेरिका में नवंबर 2020 में राष्ट्रपति चुनाव है और सत्ता बदली तो आर्थिक नीतियों में भी उथल-पुथल होगी। इसके सोने की कीमतों पर असर का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि पिछले दिनों राष्ट्रपति ट्रंप ने चाइनीज सामान पर ऊंची ड्यूटी दरों को 1 सितंबर के बजाय 15 दिसंबर से लागू करने की बात कही और दुनियाभर के बाजारों में तेजी और सोने में गिरावट आ गई। सोने की अंतरराष्ट्रीय कीमतों के मुकाबले भारत में तेजी थोड़ी पीछे है, जबकि पीक घरेलू डिमांड वाला त्योहारी सीजन अभी बाकी है। बजट में सोने के आयात पर कस्टम ड्यूटी 10 से बढ़ाकर 12.5 फीसदी किए जाने से सप्लाई टाइट रहेगी, जिससे कीमतों को और बल मिलेगा।

छोटे मुंह से बड़ी बड़ी बातें ?
तनवीर जाफ़री
बुज़र्गों से एक कहावत बचपन से ही सुनते आ रहे हैं कि “पहले तोलो फिर बोलो”। इस कहावत का अर्थ यह है कि किसी व्यक्ति को अपना मुंह खोलने से पहले कई बार यह सोच लेना चाहिए कि उसके द्वारा बोले गए वचन कितने सत्य,सार्थक,अर्थपूर्ण व तार्किक हैं। बोलने वाले व्यक्ति को यह भी सोचना चाहिए की कोई व्यक्ति जिसके विषय में कुछ कहने या बोलने जा रहा है उसका व्यक्तित्व किस स्तर का है तथा उसके बारे में बोलने वाले व्यक्ति का अपना व्यक्तिगत स्तर क्या है ? इन्हीं शिक्षाओं व कहावतों के आसपास घूमते कई मुहावरे भी बनाए गए। जैसे कि यदि कोई साधारण या तुच्छ सा व्यक्ति किसी महापुरुष की तारीफ़ों के पुल बांधने लगे तो उस स्थिति को कहा जाता है “सूरज को चिराग़ दिखाना” ।और ठीक इसके विपरीत यदि कोई साधारण या अदना सा शख़्स किसी महान व्यक्ति की निंदा या आलोचना करे तो उस अवसर की कहावत है “आसमान पर थूकना”। इसी की लगभग पर्यायवाची कही जा सकने वाली एक दूसरी कहावत है “छोटा मुंह-बड़ी बात”। इसका अर्थ भी वही है कि इंसान को अपनी हैसियत व औक़ात देख कर ही अपना मुंह खोलना चाहिए। गोया हमारे बुज़ुर्गों द्वारा मुहावरों व कहावतों के माध्यम से आम लोगों को शिक्षित करने का काम प्राचीन समय से होता आ रहा है।सवाल यह है कि क्या इन कहावतों का कोई असर भी समाज पर होता है या यह महज़ हिंदी पाठ्यक्रमों में शामिल किताबी बातें ही बनकर रह गयी हैं।साधारण व आम लोगों की तो बात ही क्या करनी, संवैधानिक पदों पर बैठे व रह चुके तथाकथित विशिष्ट लोगों द्वारा अपनी हैसियत व औक़ात से कहीं लम्बी ज़ुबानें चलाई जाने लगी हैं।
उदाहरण के तौर पर महात्मा गाँधी के व्यक्तित्व को ही ले लें। पूरा विश्व निर्विवादित रूप से महात्मा गाँधी को एक आदर्श पुरुष के रूप में मानता है। विश्व के अनेक महान नेता गाँधी जी को अपने लिए प्रेरणा स्रोत मानते हैं। विश्व को सत्य व अहिंसा का सन्देश देने वाले नेता के रूप में विश्व उन्हें याद करता है। दुनिया के अनेक देशों में गाँधी को सम्मान देने हेतु उनकी प्रतिमाएं लगाई गयी हैं। परन्तु उस महान आत्मा की हमारे देश की ज़हरीली विचारधारा ने न केवल हत्या कर दी बल्कि आज अपराधी अनपढ़ व अज्ञानी क़िस्म के लोगों द्वारा न केवल गाँधी जी को बुरा भला कहा जाता है बल्कि उनके हत्यारे का महिमामंडन भी किया जाता है। गोडसे के जन्मदिवस को देश में कुछ जगहों पर शौर्य दिवस के रूप में मनाया जाता है।गाँधी के बजाए यह शक्तियां गोडसे जयंती मनाती हैं। मेरठ में महात्मा गांधी के जन्मदिन 2 अक्टूबर 2016 को हत्यारे गोडसे की मूर्ति का अनावरण किया गया. अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के लोगों द्वारा यहाँ गांधी दिवस को ‘धिक्कार दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। इतना ही नहीं बल्कि यह गोडसे प्रेमी शक्तियां मेरठ का नाम बदलकर गोडसे के नाम पर रखने की कोशिश भी करती रहती हैं। इसी तरह हिन्दू महासभा के गोडसे प्रेमी लोग 2017 में ग्वालियर में गोडसे के लिए मंदिर बनाना चाह रहे थे। परन्तु प्रशासन की चौकसी के चलते गाँधी के इस हत्यारे को महिमामंडित करने का दुष्प्रयास सफल नहीं हो सका। हमारे बीच ऐसे तत्व भी हैं जो गांधी की हत्या को फिर से जीना चाहते हैं. हत्या की सनक को राष्ट्रभक्ति में बदल देना चाहते हैं.गत वर्ष अलीगढ़ में ऐसे ही एक छोटे से समूह ने गाँधी जी की हत्या को नाटक के रूप में पेश कर उनके पुतले पर गोली चलाई और गाँधी की हत्या व उनके रक्त परवाह का मंचन किया फिर मिठाइयां बांटीं। राष्ट्रपिता की हत्या करने वाले को राष्ट्रभक्त व देशभक्त बताया जाता है। ऐसा कहने वालों के ट्रैक रिकार्ड देखिये,उनकी शिक्षाओं,योग्यताओं व देश के प्रति उनकी सेवाओं नज़र डालिये तो या तो ऐसे लोगों ने सारी उम्र साम्प्रदायिकता का ज़हर बोया है या अपराधी पृष्ठभूमि रही है अथवा धर्म का चोला पहन कर कथा प्रवचन देकर अपना जीविकोपार्जन करते रहे हैं।ऐसे लोगों के लिए शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी महाराज का कहना है कि ‘जो गोडसे को राष्ट्रभक्त बताता है, वह हिंदू ही नहीं है’। जो लोग महात्मा गाँधी के सामने एक कण जैसी हैसियत भी नहीं रखते वे लोग गाँधी जी को गलियां देने उनकी निंदा व आलोचना करते नज़र आ जाते हैं। ऐसे लोगों को न तो गाँधी जी के दर्शन का कोई ज्ञान है न ही उनमें गाँधी जी की सोच को हासिल करने या उसका अध्यन करने की सलाहियत है। फिर भी राजनीति के वर्तमान दौर में गाँधी को राष्ट्रविरोधी और गोडसे को राष्ट्रभक्त बताने की दक्षिणपंथी नेताओं में होड़ सी लगी हुई है।
गाँधी जी की ही तरह देश के प्रथम प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के पीछे भी यही गाँधी विरोधी विचारधारा हाथ धोकर पड़ी हुई है। पंडित नेहरू को राष्ट्र के विकास के प्रथम शिल्पकार के रूप में जाना जाता है। देश की स्वतंत्रता के बाद देश को स्वावलंबी बनाने,देश के सामाजिक ताने बने को जोड़ कर रखने,तथा अनेक धर्म,जाति,भाषा व संस्कृति के इस बहुरंगी देश को एकजुट रखने का ज़िम्मा पंडित नेहरू व उनके परम सहयोगी तत्कालीन गृह मंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल पर था। परन्तु बड़ी सोची समझी साज़िश के तहत नेहरू-पटेल मतभेद की कहानियां गढ़ी जाती हैं। नेहरू व पटेल की तुलना कर सरदार पटेल को बड़ा व नेहरू को छोटा करने की कोशिश की जाती है। जबकि इतिहास गवाह है कि स्वयं सरदार पटेल, नेहरू को अपना नेता भी मानते थे और वे नेहरू को ही देश का प्रथम प्रधानमंत्री देखना चाहते थे।परन्तु नेहरू के वैचारिक विरोधी जो नेहरू व गाँधी जी की धर्मनिरपेक्ष नीतियों से न ही कल सहमत थे न आज सहमत हैं, वही शक्तियां नेहरू-पटेल मतभेद के मनगढंत क़िस्से परोसती रहती हैं। इन्हीं कोशिशों के नतीजे में गुजरात में नर्मदा नदी के बांध पर सरदार पटेल की विश्व की सबसे ऊँची प्रतिमा स्थापित कराई गई। ऐसा कर निश्चित रूप से यही सन्देश दिया गया कि देश में सबसे ऊँचे क़द के नेता महात्मा गाँधी और पंडित नेहरू नहीं बल्कि सरदार पटेल थे। गोया पटेल तो गाँधी और नेहरू को अपने से बड़ा व योग्य नेता मानते थे परन्तु गाँधी व नेहरू से वैचारिक विरोध रखने वाले लोग सरदार पटेल को ही सबसे महान नेता मानते हैं। ऐसी निम्नतरीय सोच रखने वाले राजनीतिज्ञों को गाँधी-नेहरू-पटेल जैसे राष्ट्र के महान नेताओं की विशाल ह्रदयता उनकी निःस्वार्थ सोच,उनकी क़ुर्बानियों,सादगी तथा उच्च विचारों से सीख भी लेनी चाहिए तथा उनकी तुलना में अपने संकीर्ण,सीमित,विभाजनकारी व विद्वेष पूर्ण विचारों का अवलोकन कर बड़ी ईमानदारी से यह महसूस करना चाहिए कि ऐसे नेता गाँधी-नेहरू-पटेलसे अपनी तुलना कराने योग्य हैं भी या नहीं।
मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने तो कश्मीर मसले पर अपना ज्ञान बांटते हुए पंडित जवाहर लाल नेहरू को ‘अपराधी’ तक कह डाला। कहना ग़लत नहीं होगा कि शिवराज सिंह चौहान उसी राजनैतिक दल के नेता हैं जिसमें वह प्रज्ञा ठाकुर उन्हीं के गृह राज्य सेसांसद है जिसने मुंबई हमलों में शहीद हेमंत करकरे के लिए कहा था कि “करकरे मेरे श्राप देने की वजह से मारा गया”।जो प्रज्ञा मालेगांव बम ब्लास्ट की आरोपी है तथा कई वर्षों तक जेल में रहकर अब भी ज़मानत पर है और गोडसे जैसे महात्मा गाँधी के हत्यारे को राष्ट्रभक्त बताकर उसका महिमामंडन करती रही हैं। चौहान की पार्टी में ही आज का सबसे बहुचर्चित बलात्कारी व हत्यारा कुलदीप सिंह सेंगर रहा है। ऐसी पार्टी के नेता जब आधुनिक भारत के शिल्पकार पंडित नेहरू को ‘अपराधी’ बताएंगे तो निश्चित रूप से जवाब वही आएगा जो मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री दिग्विजय सिंह ने दिया। दिग्विजय सिंह ने कहा कि ‘चौहान जवाहरलाल नेहरू के पैरों की धूल भी नहीं हैं. ऐसे बयान देते समय उन्हें शर्म आनी चाहिए’। मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भी चौहान की बदकलामी की निंदा करते हुए कहा कि ‘‘देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू, जिन्हें आधुनिक भारत का निर्माता, कहा जाता है..जिन्होंने आज़ादी के लिए संघर्ष किया, जिनके किए गए कार्य व देशहित में उनका योगदान अविस्मरणीय है. उनको मृत्यु के 55 वर्ष पश्चात आज उन्हें ‘अपराधी’ कह कर संबोधित करना बेहद आपत्तिजनक व निंदनीय है.’। आजकल बरसाती मेंढक की तरह तमाम ऐसे नेता व छुटभैय्ये मिल जाएंगे जो महात्मा गाँधी व पंडित नेहरू की निम्नस्तरीय शब्दों में आलोचना करते दिखाई देंगे। यह उनके संस्कार व उनकी शिक्षाओं का असर ज़रूर हो सकता है फिर भी किसी को भी ‘छोटे मुंह से बड़ी बड़ी बातें’ हरगिज़ नहीं करनी चाहिए।

राजीव गांधी : विश्व राजनीति पर गहरी छाप
मनोहर पुरी
(20 अगस्त जयंती पर विशेष) इसे विधि की विडम्बना ही कहा जा सकता है कि राजीव गांधी जिस तेजी से भारत की राजनीति के क्षितिज पर उदित हुए थे लगभग उसी तीव्रता से विलुप्त भी हो गए। भरपूर यौवन में विधि के व्रूर हाथों ने उन्हें हम से छिन लिया। अपने नाना पंडित जवाहर लाल नेहरू और माता श्रीमती इन्दिरा गांधी की विरासत के सहारे उनकी राजनीति पर एक मजबूत पकड़ बन रही थी। देश को 21वीं शताब्दी में ले जाने के लिए वे निरन्तर प्रयत्नशील थे। वह भारत को ऐसी स्थिति में जल्दी से जल्दी पहुंचा देना चाहते थे जहां वह विश्व के अन्य विकसित देशों के साथ सिर उठा कर खड़ा हो सके। राजीव गांधी का संतुलित स्वभाव उन्हें सहज ही अतंमुर्खी बना देता था परन्तू विमान चालक होने के कारण शायद उन्हें तीव्र गति बहुत पसंदं थी और वह हर काम बहुत जल्दी जल्दी समाप्त कर लेना चाहते थे।
भारत को 21वीं शताब्दी में ले जाने के लिए उन्होंने जिस आर्थिक उदारवाद की नींव रखी वह पंडित नेहरू और श्रीमती इन्दिरा गांधी की नीतियों से अलग दिखाई देती है जबकि वास्तविकता यह है कि वह नेहरू की उन नीतियों की परिणिति कही जा सकती है जो उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरन्त बाद प्रतिपादित की और इन्दिरा गांधी ने ने सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत करने के बाद उन्हें व्यवहार में लाने का प्रयास किया। यह दूसरी बात है कि नेहरू और इन्दिरा दोनों ही अपनी नीतियों को समाजवाद के आस पास रख कर गरीबों के मसीहा के रूप में अपने आपको स्थापित किए रहे जबकि राजीव गांधी ने खुले दिल से आयातित तकनीक की वकालत की।
जल्दी से जल्दी देश में आर्थिक प्रान्ति लाने की उनकी तड़प को उनके भाषणों में सहज ही अनुभव किया जा सकता है। नेहरू एक ऐसे समय में देश की आर्थिक उन्नति का मानचित्र बना रहे थे जब कांग्रेस स्वंतत्रता आन्दोलन की लड़ाई लड़ते हुए थक चुकी थी। कांग्रेस महात्मा गांधी के उन आदर्शों को समेटने में लगी थी जिनके सहारे आर्थिक समस्यायें सुलझाना कोई सुगम कार्य नहीं था। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ सांस्कृतिक पुनर्जागरण के सहारे देश को उन्नति के मार्ग पर ले जाने की बात कर रहा था। समाजवादी अपने अपने ढंग से अमीरी गरीबी के मध्य खाई पाटने के कार्यप्रम बना रहे थे। कम्युनिस्ट भारत को सोवियत संघ के ढांचे में ढालने का प्रयास कर रहे थे। पं. नेहरू को सबसे बड़ी चिन्ता लोकतंत्र को बचाने की थी। नेहरू प्रजातांत्रिक प्रणाली को आहत किए बिना भारत की सामाजिक सच्चाईयों का सामना करते हुए आर्थिक विकास का दर्शन रच रहे थे। इन्दिरा गांधी ने पूरी सूझ बूझ के साथ देश की राजनीति का संचालन नेहरू के बनाए हुए ढांचे के आस पास करना प्रारम्भ कर दिया । आज भले ही कुछ लोग नेहरू की नीतियों के विरोध में कुछ बोल दें परन्तु उस समय भारत की जनता ने उनकी नीतियों को भरपूर सम्मान दिया। बाद में लोगों ने इन्दिरा गांधी को उनकी पुत्री मान कर विरासत सौंपने में कोई आनाकानी नहीं की तो राजीव गांधी को भी उन्हीं का वारिस स्वीकार करते हुए अपने दिल और दिमाग में बिठाया।
इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि नेहरू के दर्शन ने ही इस देश को एक मजबूत सुदृढ आर्थिक आधार प्रदान किया किया। श्रीमती इन्दिरा गांधी ने उस समय की अनिश्चय की राजनीति में स्वयं को स्थापित करने के लिए कई प्रकार की लोकप्रिय घोषणाओं का सहारा लिया। उन्होंने गरीबी हटाओ का नारा दे कर जनता का विश्वास अर्जित करने में सफलता प्राप्त की। राजीव गांधी ने सत्ता के दलालों को बाहर का रास्ता दिखाने की बात करके अपनी एक साफ सुथरी छवि देश के सामने प्रस्तुत की। उन्होंने लोगों को यह आश्वासन दिया कि प्रशासन से वह भ्रष्टाचार को उखाड़ फेकेंगें। बाद में घटनाप्रम इतनी तेजी से बदला कि सब कुछ छिन्न भिन्न हो गया और भारतीय अर्थतंत्र उसी पुराने ढर्रे पर चलता रहा।
नेहरू-इन्दिरा और राजीव तीनों का सम्मोहन जनता को अपनी ओर आकर्षित करता रहा। तीनों ही अपने अपने समय में सबसे अधिक वोट प्राप्त करने वाले सिद्ध हुए। इस क्षेत्र में तो राजीव गांधी अपने दोनों पूर्वजों से कहीं आगे बढ़ गए। 1984 में जब उन्होंने पार्टी की बागडोर संभाली तो कांग्रेस पार्टी ने उन शिखरों को छुआ जहां तक वह पहले कभी पहुंचने में सफल नहीं हुई थी। अपने नाना की भान्ति राजीव गांधी में सैंस ऑफ हयूमर भी थी जिसे इन्दिरा जी ने सदैव अपनी दृढ़ता के पीछे छिपाए रखा। राजीव नेहरू और इन्दिरा जी की भान्ति जल्दी गुस्से में नहीं आते थे। उनका सौम्य व्यक्तित्व उन्हें लोकप्रिय बनाने में काफी सहायक हुआ। वह एक विशाल हृदय वाले इंसान थे। उन्हें जीवन की गहरी समझ थी। जीवन से निरन्तर कुछ न कुछ सीखते रहने की उन्हें आदत थी। उन्होंने बहुत कम समय में अपने आप को राजनीति में स्थापित कर लिया था।
जन्म से राजनीति के आंगन में पले बढ़े राजीव तब तक राजनीति से अलिप्त रहे जब तक उन्हें विवश करके इसमें उतारा नहीं गया। राजीव गांधी जीवन की सुहावनी वस्तुओं में गहरी रूचि रखते थे। फोटोग्राफी और ड्राइविंग में उनकी बहुत रूचि थी। वास्तव में वह एक सुखी और सहज पारिवारिक जीवन व्यतीत करना चाहते थे। राजनीति तो उन पर थोप दी गई थी। यदि उनका वश चलता तो संभवत: वह राजनीतिक सत्ता को ठुकरा देते।
20 अगस्त 1944 को जन्में राजीव राजनीति में 1981 में उस समय आये जब उनके छोटे भाई संजय गांधी एक विमान हादसे के शिकार हो गए। अपनी मां का हाथ बंटाने के लिए ही उन्होंने अमेठी से संसद का चुनाव लड़ा और बाद में पार्टी के महासचिव बने। अपनी विरासत के कारण ही उन्हें राजनीति में सहज रूप से स्वीकार कर लिया गया। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उन्हें बिना किसी विरोध के पार्टी ने प्रधान मंत्री के पद पर बिठा दिया। 1984 में प्रधान मंत्री बनने से पूर्व वह 14 वर्ष तक इंडियन एअर लाइन्स में विमान चालक के रूप में कार्य करते रहे। केम्ब्रिज में शिक्षा प्राप्त करने के दौरान उनकी मूलाकात सोनिया से हुई और 1968 में दोनों परिणय सूत्र में बंध गए।
नेहरू-इन्दिरा-राजीव तीनों ने ही विश्व की राजनीति पर अपनी गहरी छाप छोड़ी। पं. नेहरू ने अपने दर्शन और अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टि, इन्दिरा जी ने अपने सम्पर्कों और दृढ़ता राजीव गांधी ने अपने व्यक्तित्व के कारण विश्व स्तर पर लोकप्रियता इर्जित की। वैश्विक मामलों में तीनों का अपना अपना योगदान रहा। नेहरू की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए राजीव गांधी ने विश्व रंगमंच पर भारत की भूमिका को सदैव प्रभावी बनाए रखा। नेहरू पंचशील के सिद्धांतों, इन्दिरा गंटनिरपेक्ष देशों की नेता और राजीव सार्प,नैम,चोगम और राष्ट्रसंघ में अपनी भूमिका के कारण विश्व की राजनीति में अपने आपको स्थापित किए रहे।
1984 से 1988 तक राजीव गांधी ने भारतीय राजनीति को अपने अनुकूल बनाया। 21 मई 1991 तक जब तमिलनाडु के श्री पेरम्बदूर नामक स्थान पर टाइम बम विस्फोट में उनकी हत्या हुई, वह भारत की राजनीति पर पूरी तरह से हावी रहे। राजीव की दु:खद और आसमियक मृत्यु ने भी भारत की राजनीति को प्रभावित किया। उनके निधन के साथ ही नेहरू-इन्दिरा-राजीव युग की महिमा का अंत हो गया। राजीव गांधी एक बहादुर इंसान थे और उन्हें मृत्यु से कोई भय नहीं था। वह संभवत: जानते थे कि कभी वह हिंसा के शिकार होगें। इस विषय में उन्होंने कहा भी था मृत्यु से भय करने का क्या लाभ जबकि वह इस मामले में कुछ भी कर सकने की स्थिति में भी नहीं थे। यह देश का दुर्भाग्य है कि उसे राजीव जैसे युवा नेतृत्व को अतनी जल्दी खोना पड़ा।

पहलू खान की हत्या किसी ने नहीं की
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पहलू खान की हत्या 1 अप्रैल 2017 को अलवर में हुई थी। उसे गायों की तस्करी करने के शक में 6 लोगों ने घेरकर मार डाला था। दो दिन बाद उसकी मौत हुई। उसके पहले उसने अपने बयान में हत्यारों के नाम भी पुलिस को बताए थे और उस मौके पर जो वीडियो बनाया गया था, वह भी पुलिस के पास था लेकिन राजस्थान की पुलिस ने अदालत के सामने सारा मामला इतने लचर-पचर ढंग से पेश किया कि सभी अभियुक्त बरी हो गए याने पहलू खान को किसी ने नहीं मारा। वह अपने आप मर गया। अदालत ने अपने फैसले में पुलिस की काफी मरम्मत की है लेकिन मैं अदालत से पूछता हूं कि उसने मुकदमे के दौरान पुलिस को बाध्य क्यों नहीं किया कि वह हत्या के सारे तथ्य उजागर करती। हत्या के उस वीडियो को सारे देश ने देखा था। वह खुले-आम उपलब्ध है। अदालत चाहती तो उसे खुद ‘यू टयूब’ पर देख सकती थी। उसे देखा भी लेकिन अदालत ने उस पर भरोसा नहीं किया। अदालत पुलिस की लारवाही का रोना रोती रही लेकिन मैं पूछता हूं कि क्या उसने अपना फर्ज पूरी ईमानदारी से निभाया ? अदालत ने उन पुलिसवालों को कड़ी सजा क्यों नहीं दी, जिन्होंने सारे मामले पर पानी फेरने की कोशिश की ? यह ठीक है कि राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार ने इस मुकदमे पर अपील करने की घोषणा की है लेकिन उसकी कौनसी मजबूरी है कि उन पुलिसवालों को वह दंडित नहीं कर रही है ? उन्हें तुरंत मुअत्तिल किया जाना चाहिए। उसकी मिलीभगत या लापरवाही की वजह से सरकार, अदालत और पुलिस विभाग की इज्जत पैंदे में बैठी जा रही है। भारत की केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री मोदी की बदनामी सारी दुनिया में की जा रही है, जो कि गलत है, क्योंकि भीड़ की हिंसा की ऐसी वारदातें कांग्रेस सरकार के राज (2009-14) में 120 बार हुईं और मोदी राज (2014-19) में सिर्फ 40 बार हुईं। जाहिर है कि इन हिंसक और मूर्खतापूर्ण कुकृत्यों को कोई भी सरकार या पार्टी प्रोत्साहित नहीं कर रही है बल्कि भारतीय समाज में फैले हुए अंधविश्वास और अंधभक्ति का यह दुष्परिणाम है। पहलू खान और उसके जैसे अन्य मामलों में यदि दोषियों को सख्त सज़ा नहीं मिली तो यह भारत की शासन-व्यवस्था के माथे पर काला टीका होगा। मैं सोचता हूं कि लाल किले के अपने भाषण में मोदी को इस भीड़ की हिंसा के विरुद्ध खुलकर बोलना चाहिए था। सच्ची गोभक्ति इसी में है कि गाय की रक्षा के बहाने मनुष्यों की हत्या न हो। गाय और मनुष्य, दोनों की रक्षा हो, यह जरुरी है।

लोकतंत्र के सजग प्रहरी थे डॉ शंकर दयाल शर्मा
मनोहर पुरी
(19 अगस्त : जन्म दिवस पर विशेष) भारतीय राजनीति के सबसे कम विवादास्पद राजनीतिज्ञ थे डॉ. शंकर दयाल शर्मा। उनका जन्म मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में 19 अगस्त 1918 को एक साधारण मध्यवर्गीय परिवार में हुआ। अन्य अनेक राजनेताओं की भान्ति डॉ. शंकर दयाल शर्मा का परिवार भी उत्तर प्रदेश से मध्य प्रदेश आ गया था। उनके पिता परम शिव भक्त थे इसीलिए उन्होंने अपने पुत्र का नाम शंकर दयाल रखा। धार्मिक दृष्टि उन्हें अपने पिता से विरासत में मिली थी। डॉ. शंकर दयाल शर्मा भारत के नौवें राष्ट्रपति थे। निरन्तर राजनीति में सप्रिय भागीदारी करने के वावजूद उन्होंने नियमित पूजा पाठ करने की अपनी दिनचर्या में कभी व्यवधान नहीं आने दिया। वह एक सुयोग्य प्रशासक,स्वतंत्रता सेनानी,विद्वान लेखक,कुशल प्रशासक, कानूनविद् और विचारक के रूप में निरन्तर अपने देश की सेवा में सलंग्न रहे। उनकी शिक्षा आगरा, इलाहाबाद, लखनऊ, ऑक्सफोर्ड तथा व्रैंब्रिज विश्वविद्यालय में हुई। उन्होंने इंग्लिश,हिन्दी और संस्कृत भाषाओं में एम.ए. किया। उन्होंने बार-एट-लॉ की उपाधि प्राप्त करके छात्रों को कानून की शिक्षा भी दी। उनका विवाह विमला शर्मा के साथ हुआ।
स्वतंत्रता आन्दोलन में उन्होंने बढ़ चढ़ कर भाग लिया और भारत के प्रथम प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के साथ उनका घनिष्ठ संबंध था। जब वह इलाहाबाद में थे तब उनका सम्पर्प पं. नेहरू से हुआ। वह पंडित नेहरू के व्यक्तित्व से बहुत अधिक प्रभावित थे और उनकी कही हर बात को अपने जीवन में उतारना चाहते थे। 1936 में नेहरू जी के प्रभाव से उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेना प्रारम्भ किया। एक बार कांग्रेस में आने के बाद वह जीवन पर्यन्त कांग्रेसी ही रहे। उन्हें एक साधारण भारतीय की तरह जीवन व्यतीत करना बहुत पसन्द था इयलिए राष्ट्रपति बनने के बाद भी उन्होंने अपनी दिनचर्या में कोई विशेष बदलाव नहीं किया।
स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान उन्होंने अपनी जेल यात्राओं में कभी भी अपने लिए विशेष व्यवहार की मांग नहीं की। आजादी मिलने के बाद 1952 में वह भोपाल के मुख्य मंत्री बने। वह इस पद पर 1957 तक रहे। इस वर्ष राज्यों का पुनर्गठन किया गया और मध्य प्रदेश अस्तित्व में आया। प्रधान मंत्री के पद के अपवाद के अतिरिक्त उन्होंने देश के हर शीर्ष पद को सुशोभित किया। मध्य प्रदेश के विकास में उनका विशेष योगदान रहा। उन्होंने कांग्रेस की अंदरूनी कलह में स्वर्गीय इन्दिरा गांधी का पूरी तरह से समर्थन किया। 1974 में वह केद्र की राजनीति में आये और केद्रिय सरकार में संचार मंत्री बने। वह इस पद पर 1977 तक बने रहे। वह आन्ध्र प्रदेश,पंजाब और महाराष्ट्र के गवर्नर भी रहे। इसी बीच उनके दामाद और बेटी को सिख आतंकवादियों ने मौत के घाट उतार दिया।
1987 में उन्हें देश का उप राष्ट्रपति बनाया गया। उप राष्ट्रपति होने के कारण उन्हें राज्य सभा की अध्यक्षता भी करनी होती थी। डॉ. शर्मा का लोकतंत्रीय जीवन पद्धति में अटूट विश्वास था। वह ऐसी किसी बात को स्वीकार नहीं करते थे जिससे लोकतंत्र आहत होता हो। 1990 में जब शिवशंकर कांग्रेस के संसदीय दल के नेता थे तब कांग्रेसी सदस्य कई बार सदन की गरिमा की सीमा लांघ जाते थे। शंकर दयाल जी को यह सब बहुत ही नागवार गुजरता था। एक बार जब वह राज्य सभा की पीठ पर विराजमान थे तब निरंकुश कांग्रेसी सदस्यों के व्यवहार से पीडित हो कर वह सदन में ही फूट फूट कर रो पड़े थे। उन्होंने भावुकता भरे कंठ से कहा था,” जब तक मैं पीठासीन हूं मैं लोकतंत्र की हत्या नहीं होने दूंगा। आपके द्वारा की जाने वाली हुड़दंगबाजी देशद्रोह के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप मेरा गला घोंट दें,गोली मार दें,लेकिन लोकतंत्र को बचा लें।“ स्पष्ट है कि वह लोकतंत्रीय व्यवस्था को अपनी जान से भी अधिक प्यार करते थे। उनकी महान देश भक्ति को देखते हुए उन्हें 1992 में भारत के नौवें राष्ट्रपति के रूप में चुना गया। उन्होंने 1997 तक इस सर्वोच्च पद को सुशोभित किया।
राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने कई महत्वपूर्ण निर्णय किए। कई अल्पमतीय सरकारें अस्तित्व में आयीं परन्तु उन्होंने किसी के साथ कोई पक्षपात नहीं किया। उनके मन में विद्वेष की भावना कभी नहीं आई। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी उन्हें अपने संयम और सूझबूझ से हर समस्या का सहज समाधान खोज लेने में महारत हासिल थी। इतने लंबे राजनैतिक जीवन में वह कभी किसी विवाद में नहीं फंसे और न ही उन पर किसी तरह का कोई आरोप लगा। जीवन के अन्तिम दिनों में उन्हें इस बात पर सन्तोष था कि वह सुख चैन की नींद सो पाते हैं क्योंकि उनकी आत्मा पर किसी प्रकार का बोझ नहीं था और उन्हें भावी जीवन की कोई समस्या तंग नहीं करती। भले ही उन्हें इस बात का कष्ट था कि आज कल सार्वजनिक स्तर बहुत नीचे चला गया है। उनका कहना था कि उनकी आत्मा एक दम साफ है। कबीर के शब्दों में कहें तो उन्होंने ज्यों की त्यें धर दीन्हीं चदरिया को अपने जीवन में उतारने में सफलता प्राप्त की। 9 अक्टूबर 1999 को उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उन्हें दिल्ली के एक हस्पताल में भर्ती करवा दिया गया। 26 दिसंबर, 1999 को उनका स्वर्गवास हो गया। उनका अन्तिम संस्कार दिल्ली में ही उनके प्रिय नेता पंडित जवाहर लाल की समाधि के समीप विजय घाट पर किया गया।

आवास निर्माण में तेजी, लेकिन सवाल है गुणवत्ता का
अजित वर्मा
केन्द्र सरकार ने पिछले दिनों दावा किया है कि शहरी क्षेत्रों में सभी जरूरतमंद लोगों को सस्ते आवास मुहैया कराने की प्रधानमंत्री योजना (पीएमएवाई) के तहत 2018 की तुलना में इस साल आवास निर्माण और आवंटन की गति दोगुना तक तेज हुई और योजना का लगभग 24 फीसद लक्ष्य हासिल कर लिया गया है।
आवास निर्माण में तेजी आ रही है, लेकिन आज भी गुणवत्ता का सवाल अपनी जगह है, क्योंकि निर्माण प्रक्रिया को अंजाम देने वाले अवसर और ठेकेदारों के चेहरे, चाल और चरित्र में परिवर्तन नहीं हुआ है। हमारा मानना है कि आवंटन के पहले सभी आवासों का गुणवत्ता परीक्षण भी किया जाना जरूरी है। यों, मंत्रालय ने निम्न एवं मध्य आय वर्ग के लिए विभिन्न श्रेणियों में सस्ते आवास मुहैया कराने के लिए जून 2015 में यह योजना शुरू की थी। इनमें 1.95 लाख आवास मध्य आय वर्ग के लिए हैं जबकि अब तक स्वीकृत 83.68 लाख आवास में से 4.48 लाख घर अनुसूचित जाति जनजाति के परिवारों को दिए जाएंगे। बेघर परिवारों की पहचान की जा रही है। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार देश में चिन्हित बेघर परिवारों की संख्या 2.56 लाख थी। सस्ते आवास योजना में शहरी क्षेत्र के उन बेघर परिवारों को भी शामिल किया गया है, जो सार्वजनिक स्थलों पर गुजर बसर करते हैं।
पिछले दिनों संसद में पेश आंकड़ों के मुताबिक इस साल जुलाई तक विभिन्न श्रेणियों के निर्माणाधीन मकानों की संख्या 49.54 लाख हो गई है। योजना के तहत 26.13 मकान बनकर तैयार हो गए हैं और इनमें 23.96 लाख आवास, योजना के लाभार्थियों को सौंप भी दिए गए हैं। दिसंबर 2018 तक इस योजना के तहत शहरी क्षेत्रों में 35.67 लाख घर निर्माणाधीन थे और 12.19 घर (लगभग 12 फीसद) लाभार्थियों को आबंटित कर दिए गए थे। मंत्रालय का 2020 तक एक करोड़ घरों के निर्माण को मंजूरी देने का लक्ष्य है, जिससे 2022 तक इन घरों का निर्माण कर इन्हें जरूरतमंद लोगों को आबंटित किया जा सके। अब तक 83.68 घरों को मंजूरी दी जा चुकी है।
निर्माण कार्य में तेजी लाने वाले राज्यों में उत्तरप्रदेश, गुजरात और आंध प्रदेश सबसे आगे हैं। इनमें उत्तरप्रदेश में 3.39 लाख आवास बनकर तैयार हो चुके हैं जबकि गुजरात में बनकर तैयार घरों की संख्या 3.16 लाख और आंध प्रदेश में 3.10 लाख है। इस मामले में पीछे रह गए राज्यों में राजस्थान (64 हजार) और (बिहार 57 हजार) शामिल हैं।
कई जगह निर्माण कार्य अवरुद्ध होने का एक बड़ा कारण सामग्री आपूर्तिकर्ताओं, सेवा प्रदाताओं और निर्माणकर्ताओं के भुगतान के देयक लम्बे समय से लम्बित हैं। ऐसे में अर्थाभाव में कार्य तो अटकेंगे ही।

मिलावट पर सक्त कदम उठाने की जरूरत
रहीम खान
इसे विडंबना कहे या दुर्भाग्य की जैसे ही हमारे देश में होली हो या दीवाली जैसे महत्वपूर्ण बड़े पर्व आने की आहत होती है। वैसे ही बाजार में मिठाईयों का बोलबाला बढ़ जाता है। इसी के साथ अधिक से अधिक धन कमाने के चक्कर में व्यापारी कम खर्च में नकली चीजें मिलाकर उसे असली बताकर अधिक कीमत में बेचने से बाज नहीं आते। यही कारण है कि इन पर्वो के आने के पूर्व बड़े पैमाने पर नकली मावा पकड़े जाने की खबरे सुर्खियों मेें बनी रहती है। कम खर्च में अधिक पैसा कमाने के चक्कर में कहीं मावे में तो रंगों में ऐसी चीजे मिलाई जाती है जिसका मिठाई खाने वाले व्यक्ति के स्वास्थ्य पर घातक असर होता है। मिलावटखोरी के चक्कर में हमने देखा है कि लोग बड़े पैमाने पर अस्पताल के चक्कर काटते है। बताया जाता है कि मावे दूध, पनीर में ऐसे ऐसे रसायन मिलाये जाते है जिसके प्रभाव से लीवर ओर किडनी पर प्रतिकूल असर पड़ कर नई बीमारी को जन्म देता है। अफसोस तो इस बात का होता है कि सरकार का खाद्य सुरक्षा एवं स्वास्थ्य विभाग मिलावटी समान के धर पकड़ के लिये दीवाली और होली के पहले धर पकड़ का विशेष अभियान चलाता है जिसमें आप समाचार पत्रों और टी.वी. चैनलों पर मिलावटी समान पकडाये जाने की खबरे सुर्खिया बनी रहती है। सवाल यहीं पैदा होता है कि सरकार के द्वारा गठित विभाग होने के बाद भी मिलावट खोर अपने मन्सूबे में कैसे कामयाब हो जाते है। इसके लिये कहीं न कहीं सरकार का वो विभाग की उदासीनता पूर्ण रूप से जिम्मेदार है जिसके कंधो पर मिलावट रोकने की जिम्मेदारी होती है। टेबल के नीचे से दिये जाने वाले सौजन्य भेंट का परिणाम है कि व्यापारी वर्ग भी बिना कानून के भय के अपने उद्देश्य की प्राप्ति धडल्ले के साथ करते है। कारण स्पष्ट है कि नकली माल को असली कीमत में बेच कर एक मोटी रकम अर्जित की जाती है। प्रत्येक साल आप देख सकते है कि देश के कोने कोने में नकली मावा पकड़ाये जाने की खबरे आती है। परन्तु लचर कानून के कारण दोषी पक्षों के खिलाफ कोई ठोस कार्यवाही नहीं हो पाती जिसके कारण मिलावट खोरी की समस्या दिन दूनी रात चैगनी का रूप धारण कर रही है। अगर न्यायालय से इस प्रकार के कार्यो में शामिल लोगों को कड़ी सजा दी जाय तो शायद मिलावट खोरी में अंकुश लग सकता है। पर वैसा होता नहीं। चीन जैसे देश में मिलावट को संगीन अपराध माना जाता है और वहां इस प्रकार के कार्य करने वाले व्यक्ति यदि दोषी पाये जाते है तो उन्हें मौत की सजा दिये जाने का प्रावधान है। इसके उल्टे भारत में न्यायालय द्वारा मिलावट पर अनेक अवसरों पर चिंता तो प्रदर्शित की जाती है वास्तविकता के धरातल पर उसका सहीं तौर पर पालन नहीं होने से मामला आयाराम गयाराम का हो जाता है। देश के सुप्रीम कोर्ट ने तो इस मामले में वर्तमान कानून में सुधार लाकर उसे और कड़े बनाने में जोर दिया है। ताकि मिलावट खोरी जैसे हरकतों पर रोक लगाई जाये। केन्द्र हो या राज्य की सरकारें मिलावट की बुराईयां गिनाकर अपने कार्यो की इतिश्री कर लेती है। आम उपभोक्ता चाहे वह अमीर हो या गरीब या मध्यम वर्गीय वह तो यही चाहता है कि उसे भी भले दी दाम ज्यादा देना पड़े पर जो खाद्य पदार्थ वह ले रहा है वह सही हो। ताकि जो चीज वह खाये उसका शरीर के भीतर कोई प्रतिकूल प्रभाव न बन पाये। चांवल हुआ मिठाईयां हुई दाल हुई या वैसे ही खाद्य पदार्थ ऐसी चीजें जिसमें मिलावट कर व्यापारी अपनी तिजोरी का वजन बढ़ाने में ही लगे रहते है। उनको इस बात से कोई सरोकार नहीं कि जो काम वह कर रहे है वह अपने उन उपभोक्ताओं के साथ विश्वासघात है जो उनसे अच्छा समान होने की शर्त पर खरीदते है। इसमें सुधार के लिये आवश्यक है कि जिस प्रकार से सरकारे साफ सफाई अभियान को लेकर जनजागृति ला रही है उसी प्रकार से मिलावटखेारी के खिलाफ भी जनजागृति की आवश्यकता है। ताकि इस बुराई पर मजबूती के साथ रोक लगाई जाये। आये दिन फैलने वाले नये नये संक्रमण रोग का एक कारण खान पान में मिलावट भी है। जो शरीर के भीतर जाकर नये रोगों को जन्म देती है और शरीर के रोग प्रतिशोधक क्षमता को कमजोर करती है। मिलावट खोरी को जड़ से खत्म करने के लिये उपभोक्ताओं को भी सरकारी प्रयासों के साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ना होगा और जहां भी मिलावट की सूचनाएं मिलती है उसे विधिवत रूप से संबंधित सरकारी विभाग के पास पहुंचाया जाय ताकि इस बीमारी पर अंकुश लगाया जा सके। इस समय दीपावली का प्रकाश पर्व हमारे सर पर है जिसमें सर्वाधिक मिठाईयों का लेन देन होता है। इसमें भी शातिर दिमाग के व्यापारी तरह तरह के ऐसी चीजों की मिलावट करते है जिससे शरीर को लाभ कुछ नहीं पर हानि बहुत हो जाती हैं। तरह तरह के रंगों पर मिलने वाली मिठाइयों के खरीदने के पहले उपभोक्ताओं को सजगता का परिचय देना चाहिए ताकि मिलावटी खाद्य पदार्थ के सेवन से बचें। मिलावट खोरी समाज और शरीर दोनों के लिये अभिशाप है। जिन विभागों के जिम्मे इस पर अंकुश लगाने की जिम्मेदारी है उन विभाग के अधिकारियों एवं कर्मचारियों को भी छोटे से आर्थिक लाभ के चक्कर में जन जीवन के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने वाले लोगों को संरक्षण न देकर उनके खिलाफ ठोस कार्यवाही करना चाहिये। क्योंकि जिस प्रकार से वर्तमान समय हमारे देश में मिलावट खोरी का बोल बाला बढ़ा है उसके कारण ही आज मानव नये नये बीमारियों का शिकार हो रहा है जिसका ईलाज कई बार डाक्टरों के पास भी नहीं होता। मिलावटी चीज खाने का असर लीवर किडनी के साथ साथ शरीर के भीतर दूसरे अंगों पर होता है और जो अच्छे खासे व्यक्ति को पलक झपकते ही बीमार बना देती है।

राष्ट्र रक्षा और बेटियों की सुरक्षा का लें संकल्प
प्रभुनाथ शुक्ल
भारत वासियों के लिए यह अजब संयोग है कि स्वाधीनता दिवस यानी 15 अगस्त और रक्षाबंधन एक ही दिन मनाया जाएगा। दोनों महापर्व एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों का ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व है। एक हमें जहां त्याग और बलिदान की सीख देता हैं वहीं दूसरा बुराईयों और आसुरी प्रवृत्तियों से समाज को सुरक्षित रखने के लिए अपने दायित्वों की याद दिलाता है। ऐसी स्थिति में हमें स्वाधीनता दिवस और रक्षाबंधन को नए नजरिए और नयी सोच के साथ मनाना चाहिए।देश और समाज की स्थितियां बदल चुकी हैं। इस बार का जश्न-ए-आजादी और रक्षाबंधन विशेष महत्व रखता है। कश्मीर जैसे मसले का एक झटके में समाधान निकाल देश ने बड़ा काम किया है। इस फैसले पर हमें राजनीति नहीं करनी चाहिए। क्योंकि जब देश सुरक्षित रहेगा तो हमरा अस्तित्व भी बचा रहेगा। बदलते दौर में हमारी सामाजिक मान्यताएं और समस्याएं भी बदली हैं। इस तरह की समस्याओं के समाधान में हमारे पर्व बेहद सहायक हो सकते हैं। क्योंकि यह हमारे धार्मिक एंव सांस्कृतिक सरोकार से जुड़े होते हैं। रक्षाबंधन पर्व का सिर्फ भाई-बहन के रिश्तों तक सीमित नहीं है। यह कुरीतियों से लड़ने का संकल्प है।
स्वाधीनता दिवस और रक्षाबंधन पर्व देश, काल, वातावरण, जाति, धर्म, भाषा, प्रांतवाद की सीमा से अलग है। दोनों महापर्व हिंदुस्तान में एक साथ उमंग और उत्साह के वातावरण में मनाएं जाते हैं। यह हमारी सांस्कृतिक एकता की सबसे बड़ी मिसाल है। हमारी आजादी को 72 साल हो जाएंगे। देश इस यात्रा में आर्थिक, सामाजिक और कई अतंरराष्ट्रीय चुनौतियों का सामाना करते हुए एक सशक्त राष्ट्र के रुप में उभरा है। वैश्विक मंच पर भारत को पूरा सम्मान मिल रहा है। भारत अपनी उपस्थिति को मजबूती से दर्ज करा रहा है। दुनिया भर में उसकी अपनी एक अलग छबि निखरी है। कश्मीर में धारा-370 के खात्में पर पास्कितान हर कूटनीति अपना रहा है लेकिन चीन, अमेरिका, रुस, फ्रांस के साथ कई मुस्लिम देशों की तरफ से उसे मुंह की खानी पड़ी है। संयुक्तराष्ट संघ में उसे कश्मीर मसला उठाने की इजाजत तक नहीं मिली। पाकिस्तानी विदेशमंत्री कुरैशी खुद स्वीकार किया है कि दुनिया भर में हमारे समर्थन में कोई नहीं खड़ा है। जिस कश्मीर को पाकिस्तान अब तक विवादित मसला कहता चला आ रहा था कि आज उसी कश्मीर को पूरी दुनिया भारत का आतंरिक मामला बताते हुए पाकिस्तान को जमींन दिखा दिया है। इस बात को हमें समझना होगा। यह मसला हमारे सियासी नफे-नुकसान से अधिक राष्टवाद और उसकी आत्मा से जुड़ा है। कश्मीर के अलगाव वादियों को भी अपनी निहित सोच से बाहर आना चाहिए। जिसमें आम कश्मीरी का हित हो उस बात पर गंभीरता से विचार कर देश की मुख्यधारा से जुड़ना चाहिए। सरकार की नीतियों में सहभागी बन राष्ट्र निर्माण में एक सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए।
रक्षाबंधन सिर्फ हिंदुओं का ही नहीं जैन और दूसरे समाज के लोगों को भी पर्व है। सावन की पूर्णिमा को यह मनाया जाता है जिसकी वजह से इसे श्रावणी भी कहा जाता है। इसका धार्मिक, ऐतिहासिक, सामाजिक महत्व है। इस दिन पर्व पर बहनें भाई के की कलाई में रक्षासूत्र यानी रखी बांध तिलक लगा कर आरती उतारती हैं। भाई से अपनी रक्षा का संकल्प लेती हैं। इस रक्षाबध्ंन पर्व पर हमें अपनी सोच को बदलना होगा। बहन की रक्षा के साथ-साथ देश, समाज और बेटियों की रक्षा का भी संकल्प लेना होगा। इसके लिए युवाओं का आगे आना चाहिए। देश में मासूम बेटियों, स्कूली, कामकाजी और दूसरी महिलाओं के साथ बलात्कार जैसी घृणित घटनाएं हो रही हैं। ऐसी दंरिदगी को जड़ से खत्म करने के लिए आगे आना होगा। जब हमारी बहन हमारे हाथ की कलाई पर पवित्र रक्षासूत्र बांध कर रक्षा का संकल्प लेती है तो उसी दौरान हमें पूरे भारत की बेटियों के रक्षा का संकल्प लेना चाहिए। भारत का हर भाई अगर इस स्वाधीनता दिवस पर यह प्रण कर ले तो देश और समाज से इस कलंक का खात्मा हो जाएगा। यह तभी संभव है होगा जब हमारी युवापीढ़ी आगे आए। देश की दूसरी सबसे बड़ी समस्या पर्यावरण संकट है। अगर हर देशवासी यह संकल्प रखे कि आज से हम गंदगी नही फैलाएंगे। हरे पेड़ों की कटान नहीं होगी। जल की बर्बादी पर रोक लाएंगे। फिर तो एक स्वच्छ भारत का निर्माण होगा।
इसी तरह हम बेगारी की समस्या पर भी हद तक काबू पाया सकते हैं। अपने स्तर से अगर कोई व्यक्ति, संस्था, कंपनी युवाओं को रोजगार मुहैया कराने में सक्षम है तो उसे यह जिम्मेदारी राष्टीय दायित्व के रुप में निभानी चाहिए। भ्रष्टाचार न करने , एक दूसरी की पीड़ा में सहयोग करने का संकल्प लेकर भी हम एक अच्छे समाज का निर्माण कर सकते हैं। हमें अपने सैनिकों का बेहद सम्मान करना चाहिए। बहनों को सैनिक भाईयों को काफी तादात में राखियां भेज कर उनके हौसले बढ़ाने चाहिए। क्योंकि जब हम रात में बेखौफ होकर सोते हैं तो हमारे जमवान हमारी सीमा की सुरक्षा में लगे रहते हैं। इस तरह के संकल्प से समाज को चुटकी बजाते बदला जा सकता है। उसके लिए किसी पैसे की या बजट की आश्यकता नहीं है। बस हर देशवासी को अपनी सोच बदलनी होगी। हम राजनेता हों या अफसर, डाक्टर, पत्रकार, अधिवक्ता, कंपनी मालिक हों या संस्थान संचालक, छात्र, शिक्षक, महिलाएं, युवा, किसान या फिर आम या खास। सब मिल कर यह परिवर्तन ला सकते हैं। एक व्यक्ति देश को नहीं बदल सकता। देश का हर नागरिक इस रक्षाबंधन पर राष्टीय भावना के प्रति समर्पित कर ले तो सारी समस्याओं का समाधान निकल आएगा। लेकिन उसके लिए ईमानदार कोशिश करनी पड़ेगी। सिर्फ मंचीय भाषण से कोई सुधार नहीं होना वाला है।
भारत में जब-जब आसुरी शक्तियों का प्रभाव बढ़ा उस दौरान रक्षाबंधन जैसे पवित्र त्यौहार से हमने उस पर विजय पायी। धार्मिक मान्यता के अनुसार जब राजाबलि देवराज इंद्र का सिंहासन यज्ञ के प्रभाव से लेना चाहा तो इंद्राणी ने एक रक्षासूत्र गुरु बृहस्पति के जरिए इंद्र के हाथों बांध दिया। जिसकी वजह से इंद्र की राजाबलि से रक्षा हुई और उसका इंद्रलोक सुरक्षित बच गया। गुरु रविंद्रनाथ टैगोर ने बंग-भंग आंदोलन में रक्षाबंधन पर्व को सामाजिक और राजनैतिक रुप देकर अंग्रेजों के बंगाल विभाजन नीति का विरोध किया था। पवित्र अमरनाथ यात्रा गुरुपूर्णिमा को प्रारंभ होकर इसी दिन खत्म होती है। इसी दिन शिवलिंग अपने संपूर्ण आकार में आता है। उत्तराखंड में इसी दिन ब्राहमणों का उपनयन संस्कार होता है। महाराष्ट में इसे नारियल पूर्णिमां, राजस्थान में चूड़ाराखी बांधने की प्रथा कहते है। उड़ीसा, तमिलनाडू में इसे अवनि अवित्तम कहा जाता है। यूपी के ब्रज में हरियाली तीज के नाम से जाना जाता है। यह पर्व भगवान कृष्ण और द्रौपदी से भी जुड़ा हैं। कहा जाता है जब भगवान ने शिशुपाल का बध किया था तो चक्रसुदर्शन से उनकी अंगुली कट गयी थी। रक्त की धार को बंद करने के लिए द्रौपदी ने अपनी साड़ी फाड़ कर बांधा था। मान्यता है जब कौरव सभा में द्रौपदी का चीरहरण किया तो भगवान कृष्ण साड़ियों की लाट लगा दिए थे। इतिहास में भी कई उदाहरण मिलते हैं। रक्षाबंधन के दिन लोग प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को भी रक्षासूत्र बांधते हैं। ब्रहमण भी एक दूसरे को रक्षासूत्र बांधते हैं। इस दौरान डाक विभाग राखी भेजने के लिए अपनी सेवा में विशेष सुविधा देता है। यूपी की योगी सरकार ने सरकारी बसों में बहनों के लिए यात्रा छूट दिया है। आइए एक नए उमंग, उत्साह के साथ स्वाधीनता दिवस के साथ रक्षाबंधन पर्व मनाएं। देश की खुशहाली, संवृ़िद्ध और उन्नति के लिए सब मिल कर काम करें। जयहिंद!! जय भारत!! वंदेमातरम्!!!

हम जंग न होने देंगे, विश्व शांति के हम साधक हैं, जंग न होने देंगे
प्रदीप कुमार सिंह
(16 अगस्त अटलजी की पुण्य तिथि पर विशेष ) मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं, लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूं? – विश्वात्मा अटल जी ‘विश्व शांति के हम साधक हैं जंग न होने देंगे, युद्धविहीन विश्व का सपना भंग न होने देंगे। हम जंग न होने देंगे..’ इस युगानुकूल गीत द्वारा महान युग तथा भविष्य दृष्टा कवि अटल जी ने सारी मानव जाति को सन्देश दिया था कि विश्व को युद्धों से नहीं वरन् विश्व शांति के विचारों से चलाने में ही मानवता की भलाई है। इस विश्वात्मा के लिए हृदय से बरबस यह वाक्य निकलता है – जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि। विश्व शान्ति के महान विचार के अनुरूप अपना सारा जीवन विश्व मानवता के कल्याण के लिए समर्पित करने वाले वह अत्यन्त ही सरल, विनोदप्रिय एवं मिलनसार व्यक्ति थे। सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी एक कुशल राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ एक अच्छे वक्ता भी थे।
भले ही 16 अगस्त 2018 में अटल जी इस नाशवान तथा स्थूल देह को छोड़कर विश्वात्मा बनकर परमात्मा में विलीन हो गये। लेकिन उनकी ओजस्वी वाणी तथा महान व्यक्तित्व भारतवासियों सहित विश्ववासियों को युगों-युगों तक सत्य के मार्ग पर एक अटल खोजी की तरह चलते रहो, चलते रहो की निरन्तर प्रेरणा देता रहेगा। चाहे एक विपक्षी नेता की भूमिका हो या चाहे प्रधानमंत्री की भूमिका हो दोनों ही भूमिकाओं में उन्होंने भारतीय राजनीति को परम सर्वोच्चता पर स्थापित किया। संसार में बिरले ही राजनेता ऐसी मिसाल प्रस्तुत कर पाते हैं। जीवन भर अविवाहित रहकर मानवता की सेवा ही उनका एकमात्र ध्येय तथा धर्म था।
अटल जी पूर्व प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई की सरकार में 1977 से 1979 तक विदेश मंत्री रहे। इस दौरान वर्ष 1977 में संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन में उन्होंने अत्यन्त ही विश्वव्यापी दृष्टिकोण से ओतप्रोत भाषण दिया था। अटल जी ही पहले विदेश मंत्री थे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी में भाषण देकर भारत को गौरवान्वित किया था। इस भाषण कुछ अंश इस प्रकार थे – अध्यक्ष महोदय, भारत की वसुधैव कुटुम्बकम् की परिकल्पना बहुत पुरानी है। हमारा इस धारणा में विश्वास रहा है कि सारा संसार एक परिवार है। … मैं भारत की ओर से इस महासभा को आश्वासन देना चाहता हूं कि हम एक विश्व के आदर्शों की प्राप्ति और मानव कल्याण तथा उसके गौरव के लिए त्याग और बलिदान की बेला में कभी पीछे नहीं रहेंगे। अटल जी ने अपने भाषण की समाप्ति ‘‘जय जगत’’ के जयघोष से की थी। इस विश्वात्मा ने ‘‘जय जगत’’ से अपने भाषण की समाप्ति करके दुनिया को सुखद अहसास कराया कि भारत चाहता है, किसी एक देश की नहीं वरन् सारे विश्व की जीत हो। दुनिया को अटल जी के अंदर भारत की विश्वात्मा के दर्शन हुए थे।
अटल जी के इस भाषण में भी उनके विश्व शांति का साधक होने का पता चलता हैं। संयुक्त राष्ट्र में अटल बिहारी वाजपेयी का हिंदी में दिया भाषण उस वक्त काफी लोकप्रिय हुआ था। यह पहला मौका था जब संयुक्त राष्ट्र जैसे शान्ति के सबसे बड़े अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत की ‘विश्व गुरू’ की गरिमा का बोध सारे विश्व को हुआ था। संयुक्त राष्ट्र में उस समय उपस्थित विश्व के 193 सदस्य देशों के प्रतिनिधियों को इतना पसंद आया कि उन्होंने देर तक खड़े होकर भारत की महान संस्कृति के सम्मान में जोरदार तालियां बजाकर अपनी हार्दिक प्रसन्नता प्रकट की थी। इस विहंगम तथा मनोहारी दृश्य ने महात्मा गांधी के इस विचार की सच्चाई को महसूस कराया था कि एक दिन ऐसा अवश्य आयेगा जब दिशा से भटकी मानव जाति सही मार्गदर्शन के लिए भारत की ओर रूख करेगी।
ब्रिटिश शासकों ने जोर-जबरदस्ती से विश्व के 54 देशों में अपने उपनिवेशवाद का विस्तार किया था। मेरे विचार से आधुनिक लोकतंत्र का विचार उसी काल में अस्तित्व में आया तथा विकसित हुआ था। अटल जी लोकतंत्र के प्रहरी थे जब कभी लोकतंत्र की मर्यादा पर आँच आई तो अटल जी ने उसका डटकर मुकाबला किया। इसके साथ ही उन्होंने कभी भी राजनीतिक और व्यक्तिगत संबंधों को मिलाया नहीं। 21वीं सदी में इस विश्वात्मा के दिखाये मार्ग में आगे बढ़ते हुए हमें लोकतंत्र को देश की सीमाओं से निकालकर वैश्विक लोकतांत्रिक व्यवस्था (विश्व संसद) का स्वरूप प्रदान करना चाहिए। लोकतंत्र की स्थापना मानवता की रक्षा के लिए ही की गयी थी। अतः राज्य, देश तथा विश्व से मानवता सबसे ऊपर है।
यूरोप के 27 देश जो कभी आपस में युद्धांे की विभीषका में बुरी तरह से फंसे थे। उन्होंने लोकतंत्र को देश की सीमाओं से निकालकर लोकतांत्रिक यूरोपिन यूनियन की स्थापना कर ली है। इसके अन्तर्गत इन देशों ने मिलकर अपनी एक यूरोपियन संसद, नियम-कानून, यूरो मुद्रा, वीजा से मुक्ति आदि कल्याणकारी कदम उठाकर अपने-अपने देश के नागरिकों को आजादी, समृद्धि तथा सुरक्षा का वास्तविक अनुभव कराया है। साथ ही दकियानुसी विचारकों की इस शंका को झूठा साबित कर दिया कि यूरोप के 27 देशों में आने-जाने के लिए वीजा से मुक्ति देने से यूरोप के अधिकांश लोग लंदन तथा पेरिस जैसे विकसित महानगरों की ओर भागेगे जिससे भारी अराजकता तथा अफरा-तफरी मच जायेगी।
अटल जी सर्वाधिक नौ बार सांसद चुने गए थे। वे सबसे लम्बे समय तक सांसद रहे थे और श्री जवाहरलाल नेहरू व श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद सबसे लम्बे समय तक गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री भी। अटल जी विश्व शांति के पुजारी के रूप में भी जाने जाते हैं। उनके द्वारा सारी दुनिया में शांति की स्थापना हेतु कई कदम उठाये गये। अत्यन्त ही सरल स्वभाव वाले अटल जी को 17 अगस्त 1994 को वर्ष के सर्वश्रेष्ठ सांसद के सम्मान से सम्मानित किया गया। उस अवसर पर अटल जी ने अपने भाषण में कहा था कि ‘‘मैं आप सबको हृदय से धन्यवाद देता हूं। मैं प्रयत्न करूगा कि इस सम्मान के लायक अपने आचरण को बनाये रख सकूं। जब कभी मेरे पैर डगमगायें तब ये सम्मान मुझे चेतावनी देता रहे कि इस रास्ते पर डांवाडोल होने की गलती नहीं कर सकते।’’
25 दिसंबर 1924 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर में जन्में अटल जी ने राजनीति में अपना पहला कदम 1942 में रखा था जब ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के दौरान उन्हें व उनके बड़े भाई प्रेम जी को 23 दिन के लिए गिरफ्तार किया गया था। अटल जी के नेतृत्व क्षमता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह एनडीए सरकार के पहले ऐसे गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे जिन्होंने बिना किसी समस्या के 5 साल तक प्रधानमंत्री पद का दायित्व बहुत ही कुशलता के साथ निभाया।
उनकी प्रसिद्ध कविताओं की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं – ‘बाधाएँ आती हैं आएँ, घिरें प्रलय की घोर घटाएँ, पावों के नीचे अंगारे, सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ, निज हाथों में हँसते-हँसते, आग लगाकर जलना होगा। कदम मिलाकर चलना होगा।’, हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा, काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूं गीत नया गाता हूं, मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं, लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?, ‘हे प्रभु! मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना, गैरों को गले न लगा सकूँ, इतनी रूखाई कभी मत देना’ से उनकी अटूट संकल्प शक्ति तथा मानवीय उच्च मूल्यों का पता चलता है।
अटल जी सदैव दल से ऊपर उठकर देशहित के बारे में सोचते, लिखते और बोलते थे। उनकी व्यक्तित्व इस प्रकार का था कि उनकी एक आवाज पर सभी देशवासी एक जुट होकर देशहित के लिये कार्य करने के लिये सदैव उत्साहित रहते थे। उनके भाषण किसी चुम्बक के समान होते थे, जिसको सुनने के लिये लोगों का हुजूम बरबस ही उनकी तरफ खिंचा आता था। विरोधी पक्ष भी अटल जी के धारा प्रवाह और तेजस्वी भाषण का कायल रहा है। अटल जी के भाषण, शालीनता और शब्दों की गरिमा का अद्भुत मिश्रण था।
अटल व्यक्तित्व वाले हमारे पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न अटल जी हमेशा अपने देशवासियों के साथ ही सारे विश्व के लोगों के हृदय एवं उनकी यादों में सदैव अमर रहेंगे। हमारा मानना है कि अपने जीवन द्वारा सारे विश्व में अटल जी एक कुशल राजनीतिज्ञ व श्रेष्ठ वक्ता के साथ ही विश्व मानवता के सबसे बड़े पुजारी के रूप में अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे हैं। अपने देश की भाषा, अपने देश की ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की महान संस्कृति पर गर्व करने वाले विश्व शांति के साधक माननीय अटल जी के प्रति हम अपनी हार्दिक श्रद्धा एवं सुमन उनकी प्रिय कविता ‘‘विश्व शांति के हम साधक हैं, जंग न होने देंगे’’ के द्वारा सादर अर्पित करते हैं:-
हम जंग न होने देंगे! विश्व शांति के हम साधक हैं, जंग न होने देंगे! कभी न खेतों में फिर खूनी खाद फलेगी, खलिहानों में नहीं मौत की फसल खिलेगी, आसमान फिर कभी न अंगारे उगलेगा, एटम से नागासाकी फिर नहीं जलेगी, युद्धविहीन विश्व का सपना भंग न होने देंगे। जंग न होने देंगे। हथियारों के ढेरों पर जिनका है डेरा, मुँह में शांति, बगल में बम, धोखे का फेरा, कफन बेचने वालों से कह दो चिल्लाकर, दुनिया जान गई है उनका असली चेहरा, कामयाब हो उनकी चालें, ढंग न होने देंगे। जंग न होने देंगे।
हमें चाहिए शांति, जिंदगी हमको प्यारी, हमें चाहिए शांति, सृजन की है तैयारी, हमने छेड़ी जंग भूख से, बीमारी से, आगे आकर हाथ बटाए दुनिया सारी। हरी-भरी धरती को खूनी रंग न लेने देंगे, जंग न होने देंगे। भारत-पाकिस्तान पड़ोसी, साथ-साथ रहना है, प्यार करें या वार करें, दोनों को ही सहना है, तीन बार लड़ चुके लड़ाई, कितना महँगा सौदा, रूसी बम हो या अमेरिकी, खून एक बहना है। जो हम पर गुजरी, बच्चों के संग न होने देंगे। जंग न होने देंगे।
वर्तमान में विश्व की दयनीय सच्चाई यह है कि विश्व न्यायालय के तराजू के एक पलड़े में सुरक्षा के नाम पर देशों द्वारा बनाये गये हजारों की संख्या में घातक तथा मानव संहारक परमाणु बमों का भारी जखीरा रखा है तो दूसरे पलड़े में विश्व भर के ढाई अरब बच्चों को सुरक्षित भविष्य है। मानव जाति को तय करना है कि आखिर हमारे शक्तिशाली देशों के माननीय राष्ट्राध्यक्ष विश्व को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं? क्या उन्हें मानव सम्यता की यात्रा की अगली मंजिल ठीक-ठीक पता है? इस महाप्रश्न को संसार के प्रत्येक जागरूक नागरिक को समय रहते मानवीय ढंग से बहुत सोच समझकर हल करना है! एक भारतीय तथा विश्व नागरिक होने के नाते मेरे विचार से मानव जाति की अन्तिम आशा विश्व संसद तथा उसके प्रभावशाली विश्व न्यायालय के गठन पर टिकी है। किसी महापुरूष ने कहा है कि अभी नहीं तो फिर कभी नहीं!

नए कश्मीर का सूत्रपात
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दिल्ली के नेताओं और अफसरों को आशंका थी कि ईद के दिन कश्मीर में घमासान मचेगा। यह आशंका 14 और 15 अगस्त के लिए भी बनी हुई है लेकिन यह लेख लिखे जाने तक कश्मीर से कोई भी अप्रिय खबर नहीं आई है। मैं प्रायः टेलिविजन नहीं देख पाता हूं लेकिन आज घनघोर व्यस्तता के बावजूद दिन में चार-छह बार उसे देखा, क्योंकि मुझे भी शंका थी कि कश्मीर में कुछ भी हो सकता है, हालांकि तीन दिन पहले मैंने लिखा था कि हमारे कश्मीरी भाई-बहनों को यह ईद एतिहासिक शैली में मनानी चाहिए, क्योंकि 5 अगस्त को उनकी फर्जी हैसियत खत्म हुई है और अन्य भारतीयों की तरह उन्हें सच्ची आजादी मिली है। कश्मीर के आम लोग तो बहुत शालीन, सुसंस्कृत और शांतिप्रिय हैं लेकिन नेताओं और गुमराह आतंकियों की मजबूरी है कि वे लोगों को उकसाते हैं और हिंसा भड़काते हैं। लेकिन कितना गजब हुआ है कि आज पूरा कश्मीर खोल दिया गया है, हजारों लोग मस्जिदों में जाकर नमाज़ पढ़ रहे हैं और बाजारों में खरीदी कर रहे हैं किंतु कहीं से कोई तोड़-फोड़ या मार-पीट की खबर नहीं आई है। हो सकता है कि ऐसा प्रेस, फोन, टेलिविजन आदि पर लगे प्रतिबंधों के कारण हो रहा है। विदेशी अखबार और रेडियो कुछ बता जरुर रहे हैं लेकिन यदि कोई बड़ी घटना घटी होती तो भारत सरकार के लिए उसे छिपाना मुश्किल था। फोन तो कुछ घंटों के लिए चालू थे ही। तो इस शांति और व्यवस्था का अर्थ क्या हम यह लगाएं कि कश्मीर की जनता ने धारा 370 और 35 ए के खात्मे को पचा लिया है ? उसने उसका बुरा नहीं माना है ? यदि ऐसा होता तो सारे नेताओं को भी छोड़ दिया जाता लेकिन सरकार के विरोधियों को भी मानना पड़ेगा कि ईद के मौके पर कश्मीरियों के लिए केंद्र सरकार और राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने जैसी प्रचुर सुविधाएं जुटाई हैं, उन्होंने कश्मीरियों के दिलों में सदभावना जरुर पैदा की होगी। जो भी हो, अभी 14 अगस्त और 15 अगस्त को भी आना है। एक पाकिस्तान-दिवस और दूसरा भारत-दिवस है। यदि इन दोनों दिनों में कोई दुर्घटना नहीं होती है तो माना जा सकता है कि कश्मीर में एक नए युग का सूत्रपात हो गया है।

बाढ़ प्राकृतिक आपदा नहीं हमारी देन
सनत कुमार जैन
देश के कई राज्यों में इन दिनों बाढ़ के हालात हैं। पूर्वोत्तर राज्यों सहित बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों के कई इलाके बाढ़ के पानी से लबालब हैं। कहीं बांध या तटबंध टूट कर बाढ़ से होती तबाही को विकराल रूप दे रहे हैं। अब तक सैकड़ों लोगों की जान जा चुकी है और हजारों लोग बेघर हैं। माना कि प्राकृतिक आपदाओं को पूरी तरह नहीं रोका जा सकता, किंतु उच्च स्तर की तकनीक और बेहतर प्रयासों से उसके प्रभावों को न्यूनतम अवश्य किया जा सकता है। इस साल कई महीने पहले ही सामान्य मानसून के साथ ही बाढ़ की आशंका भी व्यक्त की गई थी, लेकिन बाढ़ की आशंका वाले राज्यों में वहां की सरकारों ने इस आपदा से निपटने के लिए ऐसी तैयारियां नहीं की, जिनसे लोगों को उफनती नदियों के प्रकोप से काफी हद तक बचाया जा सकता था।
चिंता की बात है कि विश्वभर में बाढ़ के कारण होने वाली मौतों का पांचवां हिस्सा भारत में ही होता है और बाढ़ की वजह से हर साल देश को हजारों करोड़ का नुकसान होता है। बाढ़ जैसी आपदाओं के चलते जान-माल के नुकसान के साथ-साथ लाखों हेक्टेयर क्षेत्र में फसलों के बर्बाद होने से देश की अर्थव्यवस्था पर इतना बुरा प्रभाव पड़ता है कि उस राज्य का विकास सालों पीछे चला जाता है। पंजाब में पिछले दिनों घग्गर नदी पर बना बांध टूट जाने से करीब दो हजार एकड़ कृषि भूमि जलमग्न हो गई। बिहार के दरभंगा और मधुबनी में भी कमला बलान बांध कई जगहों से टूट गया व बड़े हिस्से को अपनी जद में ले लिया। सरकारी तंत्र द्वारा हर साल बाढ़ जैसे हालात पैदा होने के बाद बांधों या तटबंधों की कामचलाऊ मरम्मत कर उन्हें भगवान भरोसे छोड़ दिया जाता है और अगले साल फिर बाढ़ का तांडव सामने आने पर प्राकृतिक आपदा की संज्ञा देने की कोशिशें हो जाती हैं।
हालात इतने खराब हो चुके हैं कि जब भी औसत से ज्यादा बारिश हो जाती है तो बाढ़ आ जाती है। दरअसल हम अभी तक वर्षा जल संचयन के लिए कोई कारगर योजना नहीं बना सके हैं। हम समझना ही नहीं चाहते कि सूखा और बाढ़ जैसी आपदाएं पूरी तरह एक-दूसरे से ही जुड़ी हैं और इनका स्थायी समाधान जल प्रबंधन की कारगर योजनाएं बना कर और उन पर ईमानदारीपूर्वक काम करके ही संभव है।
महाराष्ट्र हो या असम अथवा देश के अन्य राज्य, हर साल जब भी किसी राज्य में बाढ़ जैसी कोई आपदा एक साथ करोड़ों लोगों के जनजीवन को प्रभावित करती है तो केंद्र और राज्य सरकारों के मंत्री, मुख्यमंत्री बाढग़्रस्त क्षेत्रों के हवाई दौरे करते हैं और सरकारों द्वरा बाढ़ पीडि़तों के लिए राहत राशि देने की घोषणाएं की जाती हैं। लेकिन जैसे ही बाढ़ का पानी उतरता है, सरकारी तंत्र बाढ़ के कहर को बड़ी आसानी से भुला देता है। पिछले 50 सालों में बाढ़ पर ही सरकारों ने 170 हजार करोड़ रुपए से भी ज्यादा धनराशि खर्च कर डाली। लेकिन इतना कुछ होने के बाद भी अगर हालात सुधरने के बजाय साल दर साल बदतर होते जा रहे हैं तो समझा जा सकता है कि कमी आखिर कहां है! सीधा-सा अर्थ है कि बाढ़ प्रबंधन कार्यक्रम को संचालित करने वाले लोग अपना काम जिम्मेदारी, ईमानदारी और मुस्तैदी के साथ नहीं कर रहे थे।
बहरहाल, यदि हम चाहते हैं कि देश में हर साल ऐसी आपदाएं भारी तबाही न मचाएं तो हमें कुपित प्रकृति को शांत करने के सकारात्मक उपाय करने होंगे और इसके लिए प्रकृति के विभिन्न रूपों जंगल, पहाड़, वृक्ष, नदी और झीलों इत्यादि की महत्ता समझनी होगी। वरना हमारी लापरवाही की भेंट चढ़कर प्रकृति नष्ट हो जाएगी। बाढ़ की विभीषिका हमारी लापरवाही की देन है। अंधाधुंध विकास के नाम पर हम प्रकृति के साथ जो खिलवाड़ कर रहे हैं, वही बदले में पा भी रहे हैं, मगर चेत एक बार भी नहीं रहे।

बायोडीजल को बढ़ावा देना सही फैसला
सिद्धार्थ शंकर
सरकारी ऑयल मार्केटिंग कंपनियों इंडियन ऑयल, भारत पेट्रोलियम और हिंदुस्तान पेट्रोलियम ने एक योजना की शुरुआत की जिसके तहत वे 100 शहरों में इस्तेमाल हो चुके खाने के तेल से बायोडीजल प्राप्त करेंगी। कंपनियां इसके लिए प्राइवेट कंपनियों से समझौता करेंगी, जो बायोडीजल बनाने के लिए प्लांट लगाएंगी। शुरुआत में तेल कंपनियां बायोडीजल 51 रुपए प्रति लीटर लेंगी और दूसरे साल इसकी कीमत ५२.७ रुपए लीटर होगी और तीसरे साल इसकी कीमत बढक़र ५४.५ रुपए प्रति लीटर हो जाएगी। भारत में हर साल २,७०० करोड़ लीटर कुकिंग ऑयल का इस्तेमाल होता है, जिसमें से १४० करोड़ का होटल्स, रेस्त्रां और कैंटीन से एकत्र किया जा सकता है। इनसे हर साल करीब ११० करोड़ लीटर बायोडीजल बनाया जाएगा।
बायोडीजल पारंपरिक या जीवाश्म डीजल के मुकाबले एक वैकल्पिक ईंधन है। इसे सीधे तौर पर वनस्पति तेल, पशुओं के वसा, तेल और खाना पकाने के अपशिष्ट तेल से बनाया जाता है। इन तेलों को बायोडीजल में परिवर्तित करने के लिए प्रयक्त प्रक्रिया को ट्रान्स-इस्टरीकरण कहा जाता है। बायोडीजल जैविक स्त्रोतों से प्राप्त डीजल के जैसा ही गैर-परंपरागत ईंधन होता है। इसका नवीनीकरण ऊर्जा स्त्रोतों से बनाया जाता है। यह परंपरागत ईंधनों का एक स्वच्छ विकल्प है। इसमें कम मात्रा में पेट्रेलियम पदार्थ मिलाया जाता है और विभिन्न प्रकार की गाडि़य़ों में प्रयोग किया जाता है। सबसे खास बात यह कि ये विषैला नहीं होता है और इसी के साथ ही बायोडिग्रेडेबल भी होता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि ये भविष्य का ईंधन है। इस प्रक्रिया में वनस्पति तेल या वसा से ग्लीसरीन को निकालना होता है। इसके बाद इसमें मेथिल इस्टर और ग्लीसलीन आदि सह-उत्पाद भी मिलाए जाते हैं। बायोडीजल में हानिकारक तत्व सल्फर और आरोमैटिक्स नहीं मिलाए जाते हैं जैसा कि परम्परागत ईंधनों में होता है। बायोडीजल को बनाने के लिए जरूरी चीजें जेट्रोफा तेल, मेथेनोल, सोडियम हाइड्रोक्साइड होती हैं।
बायोडीजल भारत के लिए इस लिहाज से भी हम है क्योंकि भारत में पेट्रोलियम जरूरतों का केवल २० फीसदी हिस्सा ही पैदा होता है। बाकी का पेट्रोलियम विदेशों से आयात किया जाता है। जिस रफ्तार से हमारे देश में पेट्रोलियम पदार्थों का इस्तेमाल बढ़ रहा है, उस रफ्तार से देश में तेल का भंडार अगले ४० से ५० सालों में खत्म हो जाएगा।
इसलिए भविष्य में जैविक ईंधन के स्थान पर जैविक ईंधन का विकास करना जरूरी है। इस जरूरत को जैट्रोफा नाम का पौधा खत्म कर सकता है। ये पौधा देश के विभिन्न भागों में बहुतायत में उगने लगा है। इसके कई अन्य नामों से भी जाना जाता है, जैसे ट्रोफा मिथाईल ईस्टर, रतनजोत, बायोडीजल, बायोफ्यूल जैव ईंधन, जैव डीजल, जैट्रोफा करकास। ये पौधा कई सालों तक फल देता है। इसके बीज में लगभग ४० फीसदी तेल होता है। इससे डीजल बनाने के लिए वास्तविक डीजल में लगभग १८ फीसदी जैट्रोफा के बाजों से प्राप्त तेल को मिलाकर बायोडीजल बनाया जाता है। इस प्रकार बने बायोडीजल को डीजल चलित किसी भी इंजन जैसे ट्रक, बस, ट्रैक्टर, जेनरेटर आदि में इस्तेमाल किया जा सकता है। जैट्रोफा का पौधा एक बार उगने के बाद ८ से १० सालों तक लगातार बीज देती रहता है।
आज सडक़ों पर दिखाई देने वाली गाडिय़ों से लेकर बिजली के अभाव में प्रयुक्त जनरेटर तक के इंजन में ईंधन के रूप में ९५ प्रतिशत जीवाश्मश्म ईंधन अर्थात पेट्रोलियम-डीजल का उपयोग होता है। यह ईंधन नवीकरणीय न होने के कारण अपर्याप्त, बल्कि भविष्य में प्राप्त भी नहीं होगा। दूसरी ओर इसके प्रयोग से निकलने वाले धुएं में कई ऐसे कारक हैं, जो जैव-पारिस्थितिकी के संतुलन को बिगाडऩे में अहम भूमिका निभाते हैं। डीजल इंजन के उपयोग हेतु डीजल का प्रतिस्थापन के रूप में सामने आ चुका है, बायोडीजल।
भारत सरकार द्वारा जैव ईंधन पर एक नई परिवर्धित राष्ट्रीय नीति लाने की कोशिश हो रही है। तत्कालीन सरकार के नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा ११ सितम्बर, २००८ को मंजूरी दी गई थी। इस राष्ट्रीय जैव ईंधन नीति के अनुसार, २०१७ से जैव ईंधन के रूप में २० प्रतिशत मिश्रण के लिए बायोइथेनॉल और बायोडीजल प्रस्तावित किया गया था। इसमें घोषित नीति के तहत देश में उपजाऊ भूमि में पौधरोपण को प्रोत्साहन देने की बजाय सामुदायिक, सरकारी, जंगली बंजर भूमि पर जैव ईंधन से सम्बन्धित पौधरोपण को बढ़ावा दिया जाएगा तथा व्यर्थ, डिग्रेडेड एवं सीमान्त भूमि में होने वाले अखाद्य तेल बीजों से बायोडीजल का उत्पादन किया जाएगा।
वर्ष २०११ में अमेरिकन खनन सुरक्षा एवं स्वास्थ्य प्रशासन विभाग के एक अध्ययन में यह बात सामने आई कि बायोडीजल मिश्रित डीजल के उपयोग से भूमिगत जेनसेट में पार्टिकुलेट मैटर का उत्सर्जन प्रभावी ढंग से कम किया जा सकता है। जिसका सकारात्मक प्रभाव श्रमिकों के स्वास्थ्य पर दिखाई दिया। बायोडीजल के उपयोग से इंजन संचालन भी परिवर्धित होती है। इससे इंजन रख-रखाव पर आने वाले खर्चे को कम किया जा सकता है। इंजन की आयु में बढ़ोतरी होती है। पर्यावरण पर भी बायोडीजल का सकारात्मक प्रभाव सिद्ध किया जा चुका है। इस तरह बायोडीजल भविष्य का एक महत्वपूर्ण ईंधन विकल्प के रूप में स्वयं को स्थापित कर रहा है।

क्या इसी आधार पर राम मंदिर निर्माण संभव हैं ?
डॉ. अरविन्द प्रेमचंद जैन
जम्मू कश्मीर से 370 धारा को हटाने का कार्य बहुत स्तुत्य और सराहनीय हैं। पंडित नेहरू की बहुत बड़ी गलतियों को सुधारने का मौका मिला, सरकार, मोदी जी, अमित शाह और उनकी टीम का बहुत साहसिक कदम हैं। इस कदम को उठाने का साहस कोई सामान्य कार्य नहीं था। इसके दूरगामी प्रभाव को भी दृष्टिगत रखकर यह कदम उठाया जिसके लिए बधाई के पात्र हैं। यह दृढ इच्छाशक्ति का प्रतीक और उससे से अधिक संसद में बहुमत का होना।
हर निर्णय को दो पक्ष होते हैं और आप जब कठोर कदम उठाते हैं तो जो प्रभावित होते हैं उनकी असहमति होना लाज़िमी हैं। पर कुछ को खुश करने के लिए जनमत की उपेक्षा नहीं की जाती हैं। जब कोई कार्य जान हित में लिया जाता हैं तब कुछ विरोध का होना जरूरी हैं। आप सब को खुश नहीं कर सकते हो।। यह बहुत पुराना असाध्य रोग था। जब चिकित्सा असफल होती हैं तब शल्य क्रिया जरुरी होती हैं।
हर सिक्के को दो पहलु होते हैं। समस्या आज से ७० वर्ष जिन परिस्थियों में की गयी थी उनका पोस्ट मोर्टेम बहुत हुआ पर होता यह हैं की जिस समय जो स्थितियां थी उसके अनुरूप निर्णय लिया गया होगा और तत्कालीन स्थितियों में भी निर्णय होते हैं वे उस समय की परिस्थिति के अनुकूल होते हैं। और जो काम करता हैं उसकी ही आलोचना होती हैं जो कोई काम नहीं करेगा उसकी भी आलोचना होती हैं।
सादगी नौजवानी की मौत हैं
कुछ न कुछ इलज़ाम होना चाहिए।
किसी कार्य की सफलता के लिए सात बातें होना जरूरी हैं –द्रव्य क्षेत्र काल भव भाव निमित्त और उपादान। इसके अलावा जो काम जिस समय होना होता हैं वह होकर रहता हैं उसके लिए अनुकूलता मिली, जैसे पूर्ण बहुमत, सेना की मौजूदगी, निर्णय, बहुमत सहयोग और समय की अनुकूलता। दूसरा जिसके भाग्य में श्रेय लिखा रहता हैं उसे मिलता हैं। ये सब अपने अपने पुण्य पाप का ठाठ हैं। इसमें कोई को भी अहम भाव नहीं करना और रखना चाहिए। बहुत बड़ी उपलब्धि हैं
जिस ढंग से यह मामला निपटाया हैं अब इस तरीके से राम मंदिर निर्माण भी होगा। न्यायालय का निर्णय स्पष्ट नहीं होगा, होगा तो उस स्थान के तीन हिस्से होंगे और एक पक्ष अपना हिस्सा नहीं छोड़ेगा और विवाद जाति का हैं उसमे अनेक विघ्न संतोषी बैठे हैं जो निर्माण नहीं होने देंगे, तो उसके लिए एक ही मार्ग हैं वहां पर त्रिस्तरित सुरक्षा कवच रखेंगे यानी पूरा क्षेत्र इस प्रकार की नाका बंदी में रखकर तत्काल निर्माण करेंगे, कारण इस निर्णय से हौसला अफ़ज़ाई हो गया हैं। और समझ लिया हैं की बहुमत के आगे कोई कुछ नहीं कर सकता और मोदी जी और सरकार की दृढ इच्छाशक्ति हैं तो अब कोई अड़चन नहीं होगी।
इसके बाद उत्तर प्रदेश को भी पूर्वांचल बनाना हैं कारण वर्तमान में बहुत बड़ा राज्य होने से उसका रख रखाव सही ढंग से नहीं होने से समस्या होती हैं, हो सकता हैं पश्चिमांचल और पूर्वांचल बनाएंगे जिससे दो मुख्य मंत्री और बन जायेंगे और सत्ता हासिल करने में सुविधा होगी और और कई राज्यपाल बनाकर उपकृत करेंगे।
इसी प्रकार पश्चिम बंगाल को भी बोडो लैंड से विभक्त करके उसके भी दो भाग बना सकते हैं। जिससे उन प्रांतों में शांति के साथ विकास के दरवाज़े खुल जायेंगे और सत्ता काबिज़ होने में सहूलियत होगी।
क्योकि एक प्रयोग सफल होने पर उससे प्रेरित होकर अन्य प्रयोग करने में कोई हानि नहीं हैं। होना भी चाहिए। जिनको अपने भविष्य की चिंता हैं उन्हें अभी समयानुकूल मिला हैं सो मत चूको सुलतान। समय होत बलवान। भविष्य अनिश्चितता का होता हैं। इसीलिए गर्म तवे पर चोट जरूर मारो।।
अभी पुण्य का ठाठ हैं। मिटटी छुओ सोना होता हैं और कभी कभी सोना छुओ मिटटी होने लगता हैं। इसीलिए अभी समय अनुकूल हैं और कम हैं, तो कुछ मुख्य समस्याओं को निपटालो।
तुमको हो सलाम, क्योकि किया तुमने कमाल,
तुमने जो किया उसने बताया तुम्हारा हुनर
हुनर की अपनी अदा रही
जिस पर सब फ़िदा हुए
जो किया अच्छा किया,
जो होगा वह भविष्य के गर्भ में
भविष्य वर्तमान से बनता हैं
और वर्तमान बहुत अस्थायी होता हैं
यानि हम भविष्य में जीने की ललक
पर भविष्य अनिश्चित होता हैं
वर्तमान सुदृढ़ हो।

मध्यप्रदेश और गुजरात के बीच नर्मदा को लेकर फिर शुरू हुआ विवाद
अजित वर्मा
मध्यप्रदेश में भाजपा की सत्ता जाने और कांग्रेस की सत्ता आने के बाद एक बार फिर गुजरात में नर्मदा पर बने सरदार सरोवर बांध को लेकर विवाद की स्थिति बनना शुरू हो गयी है। गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने आरोप लगाया है कि दोनों राज्यों के बीच 40 वर्षों में नर्मदा जल के बंटवारे को लेकर कभी विवाद नहीं हुआ, लेकिन मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार नर्मदा जल की सप्लाई को लेकर गंदी राजनीति कर रही है। वहीं गुजरात के मुख्यमंत्री को मध्यप्रदेश ने नर्मदा का पानी बंद करने की चेतावनी दी है। मध्यप्रदेश सरकार का आरोप है कि उसके द्वारा दिए जा रहे पानी का गुजरात सरकार संग्रह कर रही है। जिसकी वजह से मध्यप्रदेश के कई गांव डूब क्षेत्र में चले जाएंगे।
नर्मदा बांध के पानी को लेकर मध्यप्रदेश और गुजरात सरकार के बीच ठन गई है। जानकारी है कि मध्य प्रदेश सरकार कभी भी नर्मदा का पानी गुजरात को देना बंद कर सकती है। अब तक गुजरात और मध्यप्रदेश समेत केन्द्र में भाजपा की सरकार थी, तब तक सब कुछ ठीक चल रहा था। लेकिन अब मध्यप्रदेश में सरकार बदल गई है। मध्यप्रदेश में सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार ने गुजरात की भाजपा सरकार के खिलाफ कड़ा रुख अपना लिया है। मध्यप्रदेश सरकार का दावा है कि उसके पास गुजरात का पानी बंद करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है। उसका कहना है कि जब गुजरात सरकार करार के मुताबिक काम नहीं कर रही तो उसे पानी क्यों दिया जाए। मध्यप्रदेश सरकार का आरोप है कि बिजली उत्पादन के लिए दिए जाने वाला पानी गुजरात सरकार संग्रह कर रही है। मध्यप्रदेश सरकार का आरोप है कि गुजरात सरकार मध्यप्रदेश के लोगों का हित नहीं चाहती। जानकारी के मुताबिक गुजरात सरकार ने नर्मदा बांध पूरी तरह भरने के लिए मध्यप्रदेश से पानी मांगा था। करीब दो साल पहले दिल्ली में हुई बैठक में मध्यप्रदेश और गुजरात सरकार के बीच नर्मदा बांध को भरने को लेकर सहमति बन गई थी। उस वक्त मध्यप्रदेश और गुजरात में भाजपा की सरकारें थीं। सहमति के मुताबिक मध्यप्रदेश से गुजरात को पानी छोड़ा जाने लगा। लेकिन बांध की क्षमता के मुताबिक उसमें पानी बढ़ने से मध्यप्रदेश के डूब क्षेत्र के गांवों में पानी आने लगा।
दरअसल मध्यप्रदेश और गुजरात के बीच हुए करार के मुताबिक मध्य प्रदेश से मिलने वाले पानी से गुजरात बिजली उत्पादन कर मध्य प्रदेश को देगा। परंतु वर्तमान में गुजरात न तो बिजली उत्पादन कर रहा है और न ही नर्मदा बांध से पानी छोड़ रहा है। मध्य प्रदेश से मिलने वाले पानी का गुजरात संग्रह कर रहा है। जिसकी वजह से मध्य प्रदेश के कई गांव डूब क्षेत्र में आ रहे हैं। इन स्थितियों को देखते हुए मध्य प्रदेश सरकार ने गुजरात को दिए जाने वाला पानी रोकने का फैसला किया है। गुजरात को यदि लगातार पानी दिया गया तो बांध का जलस्तर बढ़ेगा और उसकी वजह से मध्य प्रदेश के गांव डूब जाएंगे। यह तय है कि अब मध्यप्रदेश और गुजरात के बीच नर्मदा के पानी को लेकर विवाद और बढ़ता जायेगा।

कश्मीर अभी इम्तिहान आगे और भी
डॉ नीलम महेंद्
कश्मीर में “कुछ बड़ा होने वाला है” के सस्पेंस से आखिर पर्दा उठ ही गया। राष्ट्रपति के एक हस्ताक्षर ने उस ऐतिहासिक भूल को सुधार दिया जिसके बहाने पाक सालों से वहां आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देने में सफल होता रहा लेकिन यह समझ से परे है कि कश्मीर के राजनैतिक दलों के महबूबा मुफ्ती फ़ारूख़ अब्दुल्ला सरीखे नेता और कांग्रेस समेत समूचा विपक्ष जो कल तक यह कहता था कि कश्मीर समस्या का हल सैन्य कार्यवाही नहीं है बल्कि राजनैतिक है, वो मोदी सरकार के इस राजनीतक हल को क्यों पचा पा रहे हैं। शायद इसलिए कि मोदी सरकार के इस कदम से कश्मीर में अब इनकी राजनीति की कोई गुंजाइश नहीं बची है। लेकिन क्या यह सब इतना आसान था ? घरेलू मोर्चे पर भले ही मोदी सरकार ने इसके संवैधानिक कानूनी राजनैतिक आंतरिक सुरक्षा और विपक्ष समेत लागभग हर पक्ष को साधकर अपनी कूटनीतिक सफलता का परिचय दिया है लेकिन अभी इम्तिहान आगे और भी है।
क्योंकि पाक की घरेलू राजनीति, उसके चुनाव सब कश्मीर के इर्दगिर्द ही घूमते हैं तो नापाक पाक इतनी आसानी से हार नहीं मानेगा। चूंकि भारत सरकार के इस कदम से अब कश्मीर पर स्थानीय राजनीति का अंत हो चुका है और प्रशासन की बागडोर पूर्ण रूप से केंद्र के पास होगी, पाक के लिए अब करो या मरो की स्थिति उत्पन्न हो गई है। शायद इसलिए उसने अपनी प्रतिक्रिया शुरू कर दी है और वो अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान इस ओर आकर्षित करने भी लगा है। हालांकि वैश्विक पटल पर भारत की मौजूदा स्थिति को देखते हुए इसकी संभावना कम ही है कि भारत के आंतरिक मामलों में कोई भी देश दखल दे और पाकिस्तान का साथ दे। बालाकोट स्ट्राइक पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की प्रतिक्रिया इसका प्रमाण है।
इसलिए जो लोग इस समय घाटी में सुरक्षा के लिहाज से केंद्र सरकार द्वारा उठाए गए कदमों जैसे अतिरिक्त सैन्य बल की तैनाती, कर्फ़्यू, धारा 144, क्षेत्रीय दलों के नेताओं की नज़रबंदी को लोकतंत्र की हत्या या तानाशाहपूर्ण रवैया कह रहे हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि पाक की कोशिश होगी कि किसी भी तरह से घाटी में कश्मीरियों के विद्रोह के नाम पर हिंसा की आग सुलगाई जाए ताकि वो अंतर्राष्ट्रीय मोर्च पर यह संदेश दे पाए कि भारत कश्मीरी आवाम की आवाज को दबा कर कश्मीर में अन्याय कर रहा है और मानवाधिकारों के नाम पर यू एन और अंर्तराष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसे संस्थानों को दखल देने के लिए बाध्य करे। इसलिए केंद्र सरकार के इन कदमों का विरोध करके ना सिर्फ वो पाकिस्तान की मदद कर रहे हैं बल्कि एक आम कश्मीरी के साथ भी अन्याय कर रहे हैं। क्योंकि विगत 70 सालों ने यह साबित किया है कि धारा 370 वो लौ थी जो कश्मीर के गिने चुने राजनैतिक रसूख़ वाले परिवारों के घरों के चिरागों को तो रोशन कर रही थी लेकिन आम कश्मीरी के घरों को आतंकवाद अशिक्षा और गरीबी की आग से जला रही थी। संविधान की धारा 370 और 35 ए ने कश्मीर में अलगाववाद की आग को कट्टरपंथ और जेहाद के उस दावानल में तब्दील कर दिया था कि पूरा कश्मीर हिंसा की आग से सुलग उठा और बुरहान वाणी जैसा आतंकी वहाँ के युवाओं का आदर्श बन गया । जब 21वीं सदी के भारत के युवा स्किल इंडिया और मेक इन इंडिया के जरिए उद्यमी बनकर अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भविष्य के भारत की सफलता के किरदार बनने के लिए तैयार हो रहे थे तो कश्मीर के युवा 500 रूपए के लिए पत्थरबाज बन कर भविष्य के आतंकवादी बनकर तैयार हो रहे थे। जी हाँ सेना के एक सर्वे के हवाले से यह बात सामने आई थी कि आज का पत्थर फेंकने वाला युवक ही कल का आतंकवादी होता है। सरकार के इस कदम का विरोध करने वालों से देश जानना चाहता है कि 370 या 35ए से राज्य के दो चार राजनैतिक परिवारों के अलावा किसी आम कश्मीरी को क्या फायदा मिला? यही कि उनके बच्चों को पढ़ने के लिए अच्छे अवसर नहीं मिले? उन्हें अच्छी चिकित्सा सुविधाएं नहीं मिलीं? हिंसा के कारण वहाँ का पर्यटन उद्योग पनप नहीं पाया? जो छोटा मोटा व्यापार था वो भी आए दिन के कर्फ़्यू की भेंट चढ़ जाता था? क्या हम एक आम कश्मीरी की तकलीफ का अंदाज़ा गृहमंत्री के राज्यसभा में इस बयान से लगा सकते हैं कि वो एक सीमेंट की बोरी की कीमत देश के किसी अन्य भाग के नागरिक से 100 रूपए ज्यादा चुकाता है सिर्फ इसलिए कि वहाँ केवल कुछ लोगों का रसूख़ चलता है? क्या हम इस बात से इंकार कर सकते हैं कि अब जब सरकार के इस कदम से राज्य में निवेश होगा, उद्योग लगेंगे पर्यटन बढ़ेगा तो रोज़गार के अवसर भी बढ़ेंगे खुशहाली बढ़ेगी इससे वो कश्मीर जो अबतक 370 के नाम पर अनेक राजनैतिक कारणों से अलग थलग किया जाता रहा अब देश की मुख्यधारा से आर्थिक रूप से जुड़ सकेगा। इसके अलावा अपने अलग संविधान और अलग झंडे के अस्तित्व के कारण जो कश्मीरी आवाम आजतक भारत से अपना भावनात्मक लगाव नहीं जोड़ पाई अब भारत के संविधान और तिरंगे को अपना कर उसमें निश्चित रूप से एक मनोवैज्ञानिक परिवर्तन का आगाज़ होगा जो धीरे धीरे उसे भारत के साथ भावनात्मक रूप से भी जोड़ेगा। बस जरूरत है आम कश्मीरी के उस नैरेटिव को बदलने की जो बड़ी चालाकी से सालों से उसे मीठे जहर के रूप में दिया जाता रहा है भारत के खिलाफ भड़का कर जो उसे भारत से जुड़ने नहीं देता। जरूरत है आम कश्मीरी के मन में इस फैसले के पार एक नई खुशहाल सुबह के होने का विश्वास जगाने की, उनका विश्वास जीतने की। कूटनीतिक और राजनैतिक लड़ाई तो मोदी सरकार जीत चुकी है लेकिन उसकी असली चुनौती कश्मीर में सालों से चल रहे इस रणनीतिक युद्ध को जीतने की है।

आदिजन की संस्कृति के प्रति भी सजग रहें
कमल नाथ
विश्व आदिवासी दिवस पर उन सभी जनजातीय बंधुओं को बधाई, जो प्रकृति के करीब रहते हुए प्रकृति की सेवा कर रहे हैं। राज्य सरकार ने आदिजन दिवस पर अवकाश घोषित किया है। हम सब उनका सम्मान करें, जो प्रकृति को हमसे ज्यादा समझते हैं। आदिवासी समाज जंगलों की पूजा करता हैं। उनकी रक्षा करता है। इसी सांस्कृतिक पहचान के साथ समाज में रहते हैं।
वह दिन अब दूर नहीं जब हरियाली और वन संपदा अर्थ-व्यवस्थाओं और देशों की पहचान के सबसे प्रमुख मापदंड होंगे। जिसके पास जितनी ज्यादा हरियाली होगी वह उतना ही अमीर कहलायेगा। उस दिन हम आदिजन के योगदान की कीमत समझ पायेंगे। हम जानते हैं कि बैगा लोग स्वयं को धरतीपुत्र मानते हैं। इसलिए कई वर्षों से वे हल चलाकर खेती नहीं करते थे। उनकी मान्यता थी कि धरती माता को इससे दुख होगा। आधुनिक सुख-सुविधाओं से दूर बिश्नोई समुदाय का वन्य-जीव प्रेम हो या पेड़ों से लिपट कर उन्हें बचाने का उदाहरण हो। जाहिर है कि आदिजन प्रकृति की रक्षक के साथ पृथ्वी पर सबसे पहले बसने वाले लोग हैं। आज हम टंट्या भील, बिरसा मुंडा और गुंडाधुर जैसे उन सभी आदिजन को भी याद करते हैं जिन्होंने विद्रोह करके आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के दांत खटटे कर दिये थे।
हमारी सांस्कृतिक विविधता में अपनी आदिजन की संस्कृति की भी भागीदारी है। आदि संस्कृति प्रकृति पूजा की संस्कृति है। यह खुशी की बात है कि इस साल अंतर्राष्ट्रीय विश्व आदिजन दिवस को आदिजन की भाषा पर केंद्रित किया गया है।
मध्यप्रदेश में हमने निर्णय लिया कि गोंडी बोली में गोंड समाज के बच्चों के लिए प्राथमिक कक्षाओं का पाठ्यक्रम तैयार करेंगे। संस्कृति बचाने के लिए बोलियों और भाषाओं को बचाना जरूरी है। इसका अर्थ यह नहीं है कि वे आधुनिक ज्ञान और भाषा से दूर रहें। वे अंग्रेजी, हिंदी, संस्कृत भी पढे़ और अपनी बोली को भी बचा कर रखें। अपनी बोली बोलना पिछड़ेपन की निशानी नहीं बल्कि गर्व की बात है।
हमारे प्रदेश में कोल, भील, गोंड, बैगा, भारिया और सहरिया जैसी आदिम जातियाँ रहती हैं। ये पशु पक्षियों, पेड़-पौधों की रक्षा करते हैं। इन्हीं के चित्रों का गोदना बनवाते हैं। गोदना उनकी उप-जातियों, गोत्र की पहचान होती है जिसके कारण वे अपने समाज में जाने जाते हैं। यह चित्र मोर, मछली, जामुन का पेड़ आदि के होते हैं।
जनजातियों के जन्म गीत, शोक गीत, विवाह गीत, नृत्य, संगीत, तीज-त्यौहार, देवी-देवता, पहेलियाँ, कहावतें, कहानियाँ, कला-संस्कृति सब विशेष होते हैं। वे विवेक से भरे पूरे लोग है। आधुनिक शिक्षा से थोड़ा दूर रहने के बावजूद उनके पास प्रकृति का दिया ज्ञान भरपूर है।
मुझसे मिलने वाले कुछ आदिवासी परिवारों ने अपने समाज में आम बोलचाल में आने वाली कहावतों का जिक्र किया। उनके अर्थ इतने गंभीर और दार्शनिक हैं कि आश्चर्य होता है। एक भीली व्यक्ति ने मुझे एक कहावत सुनाई – ‘ऊँट सड़ीने भीख मांगे’। इसका मतलब है कि ऊँट पर चढ़कर भीख मांगने से भीख नहीं मिलती। ऐसे ही एक गोंडी समाज के मुखिया ने एक कहावत बताई कि ‘खाडे खेतो गाभिन गाय, जब जानू जब मूंह मा आये।’ इसका मतलब है कि खेतों का अनाज और गर्भवती गाय का दूध जब तब तक मुंह में नहीं आता तब तक भरोसा नहीं किया जा सकता। भील समाज में भी अक्सर बोला जाता है कि – ‘भील भोला आने सेठा मोटा’। इसका मतलब है कि भील के भोलेपन से ही सेठ मालामाल हुआ। ये सब कहावतें दर्शाती हैं कि आदिजन जीवन की बहुत गहरी समझ रखते हैं।
कई जनजातियों का उल्लेख तो रामायण में मिलता है। जब भगवान श्रीराम चित्रकूट आये वे कोल जनजाति के लोगों से मिले थे। ‘कोल विराट वेश जब सब आए, रचे परन तृण सरन सुहाने।’ अभी हाल में जब मेरे ध्यान में लाया गया कि सतना जिले के कोल बहुल गाँव बटोही में कोल समुदाय के बच्चों के लिए स्कूल नहीं है तो मैंने तत्काल स्कूल बनाने के निर्देश दिए। बटोही गांव में बच्चों के लिए प्राथमिक शाला अच्छी तरह चले, यह हमारी जिम्मेदारी है।
आज गोंडी चित्रकला की न सिर्फ मध्यप्रदेश बल्कि पूरे विश्व में पहचान है। गोंड चित्रकला को जीवित रखने वालों को सरकार पूरी मदद करेगी । यह हमारा कर्त्तव्य है। गोंड और परधान लोग गुदुम बाजा बजाते हैं। हम चाहते हैं कि आदिवासी समुदाय की कला प्रतिभा दुनिया के सामने आए।
शिक्षित नागरिक समाज से यह अपेक्षा है कि यह अहसास रहे कि कुछ दूर जंगल में ऐसे आदिजन भी रहते हैं जो हमारे ही जैसे हैं। वे सबसे पहले धरती पर बसने वाले लोग हैं और जंगलों में ही बसे रह गए।
जब कांग्रेस सरकार ने वनवासी अधिकार अधिनियम बनाया था तो कई संदेह पैदा किए गए थे। आज इसी कानून के कारण वनवासियों को पहचान मिली है। जिन जंगलों में उनके पुरखे रहते थे वहाँ उनका अधिकार है। उन्हें कोई नहीं हटा सकता। हमने उनके अधिकार को कानूनी मान्यता दी है।
आदिवासी संस्कृति में देव स्थानों के महत्व को देखते हुए हमने देव स्थानों के रखरखाव के लिए सहायता देने का निर्णय लिया है। यह संस्कृति को पहचानने की एक छोटी सी पहल है। हमारी सरकार आदिजन की नई पीढ़ी के विकास और उनकी संस्कृति बचाने में मदद देने के लिए वचनबद्ध है।
आदिजन दिवस पर एक बार फिर सभी परिवारों को बधाई। आधुनिक समाज में रहने वाले नागरिकों से अपील करता हूँ कि वे समझें कि हमारे समय में हमारे जैसा ही आदि समाज भी रहता है। यह सब लिखते समय स्वीडिश कवि पावलस उत्सी की कुछ लाइनें बरबस याद हो आती हैं जिनका हिंदी में अर्थ यह है कि –
‘जब तक हमारे पास जल है जिसमें मछलियाँ तैरती है,
जब तक हमारे पास जमीन है जहाँ हिरण चरते हैं,
जब तक हमारे पास जंगल है जहाँ जानवर छुप सकते हैं
हम इस पृथ्वी पर सुरक्षित हैं ।’
अब हमारा कर्त्तव्य है कि अपनी जिम्मेदारी के प्रति सजग रहें।
(ब्लागर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री हैं)

सुषमा-जैसा कोई और नहीं
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
बहन सुषमा स्वराज का आकस्मिक महाप्रयाण हृदय विदारक है। वे विलक्षण वक्ता, उदारमना और उत्कृष्ट राजनेता थीं। पिछले 40-45 साल से उनका मेरा भाई-बहन का-सा संबंध था। जब 1998 में प्रधानमंत्री अटलजी ने सांसदों का प्रतिनिधि मंडल पाकिस्तान भेजा था तो उसमें सुषमाजी, मीराकुमार आदि कुछ बहनें भी हमारे साथ थीं। उस समय की विरोधी नेता बेनज़ीर भुट्टो मुझसे मिलने होटल में आईं तो मैंने सुषमाजी का परिचय उनसे कराया और कहा कि ये कुछ दिन पहले तक दिल्ली की वज़ीरे—आला (मुख्यमंत्री) थीं लेकिन किसी दिन आप दोनों देवियां अपने-अपने मुल्क की वजीरे-आज़म (प्रधानमंत्री) बनेंगी। बेनज़ीर उस संक्षिप्त मुलाकात से इतनी खुश हुईं कि जब वे दिल्ली आईं तो उन्होंने मुझे हवाई अड्डे से फोन किया और कहा कि आपकी ‘उस बहन’ से भी मिलना है। मैंने कहा कि आज उनका जन्मदिन है। बेनजीर एक गुलदस्ता लेकर सुषमाजी के घर पहुंचीं। सुषमाजी संघ की स्वयंसेवक नहीं थीं। वे मुझे अक्सर समाजवादी नेता मधु लिमयेजी के घर मिला करती थीं। लगभग 40 साल पहले जब वे देवीलालजी की सरकार में मंत्री बनीं तो वे मुझे एक हिंदी सम्मेलन का मुख्य अतिथि बनाकर गुड़गांव ले गईं। गुड़गांव मैंने पहली बार सुषमाजी की कृपा से ही देखा। एक बार एक बड़े कवि सम्मेलन की अध्यक्षता करने के लिए मुझे और मेरे बेटे सुपर्ण को वे नारनौल ले गईं। 6-7 साल के सुपर्ण को उन्होंने अपनी गोदी में सुलाए रखा। पूरी रात कवि सम्मेलन चला। उन्होंने अपने धन्यवाद भाषण में हर कवि की कविता की पहली दो पंक्तियां बिल्कुल क्रमवार बिना कागज देखे दोहरा दीं। मैं दंग रह गया। मैंने मन में सोचा कि यह बहन तो अद्वितीय प्रतिभा की धनी है। मैंने सुषमा-जैसा कोई और व्यक्ति आज तक देखा ही नहीं। मेरे अनेक प्रदर्शनों, सभाओं और गोष्ठियों में वे हमेशा बढ़-चढ़कर भाग लेती थीं। उनके साथ के दर्जनों चित्र आज मेरे दफ्तर ने जारी किए हैं। पड़ौसी देशों के कई बड़े नेताओं ने सुषमाजी से हुई सार्थक भेंटों का जिक्र मुझसे कई बार किया है। मेरी पत्नी वेदवतीजी के साथ भी उनके मधुर संबंध थे। उनका स्वभाव इतना अच्छा था कि विरोधी दलों के नेता भी उनका सम्मान करते थे। उन्होंने देश के सूचना मंत्री और विदेश मंत्री के तौर पर कई अनूठे कार्य किए। यदि उनको मौका मिलता तो वे भारत की प्रधानमंत्री के तौर पर महान नेता सिद्ध होतीं। सुषमा स्वराज और शीला दीक्षित, दोनों का लगभग एक साथ जाना भारतीय राजनीति की अपूरणीय क्षति है। दोनों के बारे में कई मार्मिक और अंतरंग संस्मरण कभी और ! अभी तो मेरी इस प्यारी बहन को हार्दिक श्रद्धांजलि!
…/राजेश/3.40/ 8 अगस्त 3019

कश्मीर पर विपक्ष की मसखरी
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जम्मू-कश्मीर के सवाल पर कल और आज संसद में विपक्षी नेताओं ने जो तर्क दिए, वे कितने लचर-पचर और बेतुके थे ? इनके हल्केपन का सबसे बड़ा प्रमाण तो यही था कि जब ये तर्क दिए जा रहे थे और तर्क करनेवाले घूंसा तान-तानकर और हाथ-हाथ हिलाकर भाषण झाड़ रहे थे, तब उनकी अपनी पार्टी के लोग भी ताली तक नहीं बजा रहे थे। अपने मुरझाए हुए चेहरों को लेकर वे दाएं-बाएं देख रहे थे। गुलाम नबी आजाद के भाषण के वक्त उनके साथ बैठे कांग्रेसी सांसदों के चेहरे देखने लायक थे। गुलाम नबी ने कहा कि भाजपा सरकार ने भारतमाता के सिर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए हैं। कश्मीर को भारत का मस्तक माना जाता है, यह ठीक है लेकिन लद्दाख को उससे अलग करना उसके टुकड़े-टुकड़े करना कैसे हो गया ? यह ठीक है कि भाजपा नेता धारा 370 और 35 को खत्म करने के पहले कुछ कश्मीरी नेताओं को साथ ले लेते तो बेहतर होता या कुछ कश्मीरी जनमत को प्रभावित कर लेते तो आदर्श स्थिति होती लेकिन क्या यह व्यावहारिक था ? पाकिस्तानी प्रोपेगंडे, पैसे और हथियारों के आगे सीना तानने या मुंह खोलने की हिम्मत किस कश्मीरी नेता में थी ? कांग्रेसी नेताओं का यह तर्क भी बड़ा बोदा है कि भाजपा सरकार ने कश्मीर के साथ बहुत धोखाधड़ी की है। नेहरु के वादे को भंग कर दिया है। ऐसा लगता है कि हमारे कांग्रेसी मित्र सिर्फ विरोध के लिए विरोध कर रहे हैं। क्या अब वे जनमत-संग्रह के लिए तैयार थे ? अपने 50-55 साल के शासन में उन्होंने यह क्यों नहीं करवाया ? सिर्फ 370 और 35ए का ढोंग करते रहे। अब उनके सारे विरोध की तान इसी बात पर टूट रही है कि जम्मू-कश्मीर को केंद्र-प्रशासित क्षेत्र क्यों घोषित किया गया है ? गृहमंत्री अमित शाह ने स्पष्ट कर दिया है कि कश्मीर के हालात ठीक रहे तो उसे पूर्ण राज्य का दर्जा भी दिया जा सकता है। कश्मीर के सवाल पर पूरा पाकिस्तान एक आवाज में भारत की निंदा कर रहा है लेकिन भारत को देखिए कि इसी मुद्दे पर हमारा विपक्ष जूतों में दाल बांट रहा है। हमारे विपक्ष ने खुद को मसखरा या जोकर बना लिया है। कांग्रेस-जैसी महान पार्टी ने कश्मीर के पूर्ण विलय का विरोध करके खुद को कब्र में उतार लिया है। यह भारतीय लोकतंत्र का दुर्भाग्य है। अटलजी ने 1971 में जैसे बांग्लादेश पर इंदिरा गांधी का अभिनंदन किया था, वैसे ही कांग्रेस भी कश्मीर पर मोदी और शाह को शाबाशी दे सकती थी।

अगस्त क्रांति और उसके शहीद
वीरेन्द्र सिंह परिहार
सन् 1942 की अगस्त क्रांति भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है महात्मा गॉधी की ‘करो या मरो‘ की ललकार आम भारतीयों को गहरे तक आंदोलित कर गई। जिसके चलते गुलाम भारत में क्रांतिकारी स्वरूप देखने को मिला।
8 अगस्त सन्् 1942 को मुम्बई में होने वाली कांग्रेस महासमिति का अधिवेशन ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो‘ प्रस्ताव पास करके 10 बजे रात्रि में समाप्त हुआ और 9 अगस्त को सूर्योदय से पहले ही देश के गणमान्य नेतागण बंदी बनाकर जेलों में बंद कर दिए गए। इतना ही नहीं तार, समाचार पत्रों को भी बंद कर दिया गया। देश के भिन्न-भिन्न भागों पर कार्यकर्ता राह चलते या स्टेशनों पर पकड़ लिए गए। बावजूद इसके अपने नेताओं की गिरतारी का समाचार पाते ही आम जन निहत्था होने पर भी मैदान में आ गया। स्थान-स्थान पर रेल की पटरियां उखाड़ दी गई। बिजली के तार काट डाले गए। सरकारी भवनों को गिराने या उस पर कब्जा करने की उपक्रम शुरू हो गया। कुछ क्षेत्रों पर संगठित रूप से लोगों ने प्राणों की बाजी लगा दी। सरकार की ओर से चलने वाले दमन चक्र में कितनी जाने गई, कितने गांव और घर नष्ट हुए, कितने लोगों को जेल भेजा गया- इन सबका पूरा विवरण अप्राप्त है। फिर भी कुछ प्रमुख शहीदों की शहादत इस अवसर पर देखने योग्य है।
पटना सेकेट्रिएट के शहीद- रेडियो द्वारा मुम्बई में हुए अधिवेशन और समिति के निर्णय का समाचार पाकर 11 अगस्त को पटना नगर जयघोष तथा इंकलाब जिंदाबाद के नारों से गूंज उठा। इस अवसर पर एक भारी जुलूस निकाला गया। सेकेट्रिएट पहुंच कर जनता वहां पर राष्ट्रीय ध्वज लगाना चाहती थी। इस अवसर पर जिला मजिस्ट्रट मिस्टर आर्चर ने गुरखे सिपाहियों को गोली चलाने का आदेश दे दिया। जिसके चलते आठ विद्यार्थी शहीद हो गए और कई घायल हुए। फिर भी एक विद्यार्थी द्वारा धारासभा भवन की दीवार पर चढ़कर राष्ट्रीय ध्वज फहरा दिया गया। गोलीकांड में मरने वालों विद्यार्थियों की संख्या दस से ऊपर थी। सासाराम गोलीकांड के शहीद-सासाराम (शाहाबाद) में उत्साहित जनता के एक बड़े दल ने 15 अगस्त सन्् 1942 को स्टेशन और कचहरी पर राष्ट्रीय झंडा लगाकर एस.डी.ओ. के बंगले के सामने पहुंचकर अपना आसन जमा दिया। कुछ आदमियों में सहसा आवेश उत्पन्न होने के कारण ढेलेबाजी आरम्भ हो गई। जिसके साथ ही गोरों ने गोली चलाना शुरू कर दिया। इस गोलीकांड में करीब पांच लोग मारे गय। समस्तीपुर गोलीकांड के शहीद- 15 अगस्त 1942 को गोरों की एक स्पेशल ट्रेन दोपहर के लगभग वहां आकर रूकी। उसे देखकर कुछ लोगों की भीड़ ने आकर ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो‘ ‘इंकलाब जिंदाबाद‘ के नारे लगाए। इस पर जब वह स्पेशल ट्रेन छूटकर गुमटी के पास पहुंची तो वहां गोरे दोनों ओर के फाटक खोलकर गाड़ी में चढ़ गए। गोरे कमांडर की सीटी बजी जिसके साथ ही चलती ट्रेन से गोलियों की वर्षा होने लगी। जिसके चलते पचासों व्यक्ति घायल हुए और दर्जनों व्यक्ति शहीद हुए। धमदाहा गोलीकांड के शहीद- 25 अगस्त सन्् 1942 को बिहार के पूर्णिया जिले के धमदाहा पुलिस थाना क्षेत्र में हुए भयानक गोलीकांड में सैकड़ो व्यक्ति घायल हुए। केवल शहीद होने वाली की संख्या चालीस से ऊपर पहुंच गई थी। बेतिया काण्ड के शहीद- बिहार के चम्पारन जिले के बेतिया नगर के पुलिस थाने के सामने धारा 144 तोड़ने के अपराध में बिट्रिश पुलिस द्वारा 24 अगस्त को किए गए गोलीकांड में दसों व्यक्ति शहीद हुए।
लंसाडी गोलीकांड के शहीद:- 15 सितंबर 1942 को लसांडी ग्राम के पुलिस थाने के सामने वाले मैदान में 10-15 लारी भरे गोरों के दल ने जोश से भरी जनता पर अमानुषिक रूप से गोलियां बरसाईं। इसमें भी दर्जनों लोग काल के ग्रास बने। हिल्सा गोलीकांड के शहीद- हिल्सा थाने (जिला पटना) पर 15 अगस्त 1942 को एकत्रित जनता जो जोश से थाने पर तिरंगा फहराने का प्रयास कर रही थी, मशीनगनों से उन्हें तितर-बितर करने के लिए गोलियां चलाई गई। इस गोलीकांड में सत्रह लोग जख्मी हुए, जिनमें से पांच ने धटना स्थल पर ही दम तोड़ दिया। पीरपैंती काण्ड के शहीद- पीरपैंती (भागलपुर) में 19 अगस्त को निकले जुलूस पर गांव के कुछ जमीदारों ने थाने में जाकर रिपोर्ट करके अंग्रेजों को जनता के खिलाफ उकसा कर गोली चलवाई। जिसमें पचास से ऊपर की शहादतें हुईं जिनमें कुछ स्त्रियां भी थीं। मुजफरपुर कांड के शहीद:- मुजफरपुर जिले के पुपरी और वाजपट्टी थाने पर 23 अगस्त तथा मीनापुर थाने पर 15 अगस्त को हुए जघन्य गोलीकांड में अनेक निहत्थे, निरपराध देशभक्तों की जाने गई अथवा गम्भीर रूप से घायल हुए। छपरा कांड के शहीद- अगस्त 1942 के आंदोलन के समय छपरा ऐसे उत्साही कार्यकर्ताओं का केन्द्र माना जाता था जो चारों ओर संगठित और सहयोग द्वारा तोड़-फोड़ के कामों का नेतृत्व करते थे। 30 अगस्त को जबकि छपरा में कार्यकर्ता लोग किसी आवश्यक समस्या पर विचार-विमर्श कर रहे थे, फौजी सिपाहियों से भरी लारियां वहां आ पहुंची और थाने के सामने जमा लोगों पर अधाधुन्ध गोलियां चलाई गई जिसमें कई लोग शहीद हो गए। सोनबरसा कांड के शहीद:- उत्तर प्रदेश के बलिया में अगस्त आंदोलन में ब्रिटिश हुकूमत का सफाया करके समानान्तर सरकार कायम कर ली गई थी। वहां के 16 वर्षीय वीर विद्रोही बालक सूरज ने आंदोलन के आरम्भ में ही बलिया शहर के अंदर लगी हुई धारा 144 तोड़ने में सबसे आगे कदम उठाया था और पुलिस द्वारा बंदी बनाकर जेल भेज दिया गया था। लेकिन वहां जागरूक जनता ने ब्रिटिश अधिकारियों को हटाकर अपनी सरकार कायम की। जेल के फाटक खोल दिए जिससे निकलने वाले अन्य कैदियों के साथ बलिया का सूरज बाहर निकल आया। यह समाचार पाते ही मार्स स्मिथ गोरी फौज लेकर वहां आ पहुंचा और सोनबरसा थाने पर अधिकार करने के लिए आए युवकों पर दनादन गोलियां बरसाई जिससे अनेक लोग हताहत हुए, उनमे बलिया का वीर बालक सूरज भी था। अनेक लोगों में शहादत दी। वर्धा गोलीकांड के शहीद- कांग्रेस महाधिवेशन समाप्त होने पर मुम्बई से लौटे दीनदयाल चूड़ी वाले के वर्धा पहुंचने पर वर्घा की जनता ने सभा बुलाकर दीनदयाल का भाषण सुनने की इच्छा जाहिर की। अंग्रेजी पुलिस द्वारा विरोध करने पर जनता भड़क उठी और उसने क्रुद्ध होकर, ‘इंकलाब जिंदाबाद‘ के नारे लगाने आरम्भ कर दिया। जवाब में पुलिस ने गोलियां चलाई जिसमें 30 वर्ष का युवा मजदूर जंगलू मारा गया। बाद में जब महात्मा गांधी वर्धा आए तो उन्होंने जंगलू की समाधि पर फूल-माला चढ़ाकर श्रद्धाजलि अर्पित की। इसके अलावा बिहार के सोनपुर, खगड़िया, सुल्तानगंज, पारूथाना, गया, दलसिंह सराय, रोहियार आदि जगहों पर भी अंग्रेजो की गोलियों से सैकड़ों लोगों ने शहादत दी और इससे भी ज्यादा लोग घायन हुए।
उपरोक्त विवरण सन् 1942 में भारत में स्थान-स्थान पर हुए अगस्त आंदोलन की एक छोटी सी सक्षिप्त झांकी मात्र है। अगस्त आंदोलन का यदि पूरा विवरण दिया जाय तो एक मोटा ग्रंथ तैयार हो जाएगा। अगस्त आंदोलन दक्षिण भारत छोड़कर शेष सम्पूर्ण भारत में खूब फैला जिसने जन जाग्रति को अभूतपूर्व प्रमाण प्रस्तुत करके ब्रिटिश हुकूमत को यह दिखा दिया कि भारतवासी स्वराज पाने के लिए कृत संकल्प हैं। अगस्त क्रान्ति की विकरालता का अनुमान अंग्रेजी हुकूमत द्वारा अधिकृत रूप से पेश विवरण से सहज रूप से लगाया जा सकता है। सरकार द्वारा परोसा गया विवरण इस प्रकार है- पुलिस और फौज की गोलियों से 940 व्यक्ति मरे और 1930 घायल हुए, विभिन्न स्थानों पर 60229 व्यक्ति गिरतार हुए, 118000 लोग नजरबंद हुए, 160 स्थानों पर क्रांति को कुचलने के लिए सेना बुलानी पड़ी। यहां तक कि हवाई जहाजों से छ: बार हमले किए गए। क्रांति की चपेट में 59 रेलगाड़ियां गिरायी गई और 318 स्टेशन नष्ट हुए। 954 डाकस्थानों पर हमले हुए और 12000 स्थानों पर टेलीग्राम तार काटे गये। अगस्त क्रांति की घटना के स्वरूप, उसके विस्तृत प्रसार और जन सहभागिता को देखते हुए उसे विश्व की सबसे बड़ी जन क्रान्तियों के रूप में निरूपित किया जा सकता है। इसमें देश के विभिन्न वर्गों, समुदायों और समुदाय के लोगों ने भागीदारी निभाई थी। शहीदों में शुमार किए जाने वाले आंदोलनकारियों में चिकित्सक, अभिभाषक, पत्रकार, कृषक, पुजारी, बढ़ई, व्यवसायी, समाजसेवी, इंजीनियर, मिल मजदूर, लुहार, पुताईकर्मी, अध्यापक, विद्यार्थी, लोकगायक, लोककवि, हांकर व कर्मचारी आदि थे।
अगस्त क्रांति के अन्तर्गत वीरगति पानेवालों में अबोध बालक, किशोर, युवा, अधेड़ तथा वृद्ध भी सम्मिलित थे। यहां तक कि 90 वर्ष की उम्र के राजकुमार दुसाध भी शहीदों के विरादरी में थे। उन्होंने इसके पहले भी आजादी के कई आन्दोलनों में जेल यात्रा की थी। सन् 1942 के आंदोलन में राजकुमार दुसाध को गिरतारी के बाद बलिया की जेल में रखा गया और जेल यात्रा के दौरान ही उन्होंने अपनी जीवन यात्रा पूर्ण की।

सरकार के खिलाफ बोलना अब आसान नहीं होगा
सनत जैन
संसद में जिस तरीके से यूएपीए, एनआईए,सूचना अधिकार कानून और 3 तलाक बिल के संशोधन बिल पास किए गए हैं। उससे सरकार की मंशा स्पष्ट है, कि सरकार के खिलाफ बोलने वाले लोगों और विपक्षी दलों को नियंत्रित करने के लिए ही सरकार ने यह संशोधन बिल पास कराए। जिससे केंद्र सरकार को असीमित शक्तियां मिल गई हैं। संसद में चंद घंटों की बहस के बाद यह सारे बिल पास हुए हैं। इसके साथ ही तीन तलाक बिल भी बड़ी जल्दबाजी में पास किया गया है। सरकार किसी भी बिल को स्टेडिंग कमेटी में भेजने को राजी नहीं हुई। इसको लेकर यह कहा जा रहा है, सरकार एक नई दिशा की ओर बढ़ गई है। जिसके कारण संघीय व्यवस्था और दोहरी नागरिकता जैसे विषयों में गंभीर परिणाम देखने को मिल सकते हैं। गैरकानूनी गतिविधियां निरोधक कानून की अनुसूची 4 के तहत, राष्ट्रीय जांच एजेंसी अब किसी भी व्यक्ति को ना केवल आतंकवादी घोषित कर सकती है, बल्कि उसकी संपत्ति को भी जप्त कर सकती हैं। जो संशोधन बिल पास हुआ है, उसके अनुसार अब संबंधित राज्य के डीजीपी से भी अनुमति लेने की जरूरत नहीं होगी। अर्थात कानून व्यवस्था में जो राज्य की जिम्मेदारी होती थी, उससे वह प्रथक हो गई हैं। केंद्र की राष्ट्रीय जांच एजेंसी एनआईए अब भारत के किसी भी राज्य में जाकर कोई भी कार्यवाही कर सकती है। किसी भी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित कर सकती है, उसकी संपत्ति जप्त कर सकती है। इससे राज्यों तथा नागरिकों के मौलिक अधिकार सीमित हो गए हैं।
इसी तरह सूचना अधिकार कानून में सरकार ने संशोधन करके सूचना अधिकार आयुक्तों को सीधे केंद्र सरकार के नियंत्रण में ले लिया है। अभी तक सूचना आयुक्तों का वेतन सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश और हाईकोर्ट के न्यायाधीशों के समकक्ष होता था। अब यह अधिकार केंद्र सरकार के पास आ गया है। वह सूचना आयुक्तों के वेतन और उनकी सेवाओं के संबंध में निर्धारण कर सके। बिल पास होने के बाद अब सूचना आयुक्त केंद्र सरकार और उसके किसी विभाग के बारे में आदेश करने के बारे में एक बार नहीं, सौ बार सोचेंगे। क्योंकि जो संशोधन हुए हैं, उसके अनुसार उनका कार्यकाल और वेतन निर्धारण करने का अधिकार अब केंद्र सरकार के पास पहुंच गया है। सूचना अधिकार आयुक्त अब भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों की तरह बॉस इज ऑलवेज राइट की तरह सूचना अधिकार कानून में निर्णय देने के लिए बाध्य हो गए हैं, अथवा उनकी रवानगी तय मानी जाएगी। जजों की नियुक्ति में कलेजियम की अनुशंशा के बाद भी सरकार ने नियुक्ति नहीं करके अपने आप से सुप्रीम कोर्ट को अवगत करा दिया है। इस संशोधन के बाद सरकार वही जानकारी देगी, जो वह देना चाहती है। 2005 के सूचना अधिकार कानून में सूचना अधिकार आयुक्तों को जो शक्तियां प्राप्त हुई थी। भले ही उनमें कोई संशोधन नहीं किया गया। उसके बाद भी आम नागरिकों को सूचना अधिकार कानून के तहत सरकार के कामकाज को जानने का जो अधिकार मिला था। वह इस संशोधन के बाद अप्रत्यक्ष रूप से समाप्त कर दिया गया है।
इसी तरह तीन तलाक बिल को पास करते समय केवल मुस्लिम वर्ग के पुरुषों पर ही अपराधिक प्रकरण दायर करने, और गैर जमानती अपराध बनाने का प्रावधान किया गया है। जबकि हिंदू पर्सनल कानून में इस तरह का कोई प्रावधान नहीं है। दोनों कानूनों में इस तरह के परिवर्तन होने से यह कहा जा सकता है कि मुस्लिम पुरुषों को भारत में दूसरे दर्जे का नागरिक मान लिया गया है। इस बिल के पास होने से मुस्लिम महिलाओं की स्थिति और भी खराब होगी। क्योंकि जो व्यक्ति जेल चला जाएगा, 3 साल जेल में रहकर आएगा वह अपनी पत्नी और अपने बच्चों को क्यों अपनाएगा। इससे तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं अपना जीवन यापन करने के लिए या तो अपराधिक गतिविधियों में लिप्त होंगी, या अपना यौन शोषण कराकर जीवन यापन करने को मजबूर होंगी। इससे कानून व्यवस्था की स्थिति बद से बदतर हो सकती है।
सरकार ने उपरोक्त तीनों कानूनों को पास कराने के लिए जिस तरह की हड़बड़ी की है। वह चौंकाने वाली है। सरकार बिल पास कराने समय गंभीर भी नहीं दिखी। कानून बेहतर ढंग से पारित हों, जल्दबाजी में सरकार ने संसद के इन बिलों को प्रवर समिति के पास नहीं भेजा। जिसके कारण सरकार की ओर से जो बिल जैसे आए थे, वैसे ही पास हो गए। संसदीय कार्य प्रणाली के अनुसार इनके कानूनी प्रावधान किस तरह के हों, इसका भी परीक्षण नहीं हुआ। केवल कुछ घंटों की बहस के बाद लोकसभा में बहुमत के बल पर, और राज्यसभा में जोड़-तोड़ और फ्लोर मैनेजमेंट के बल पर, यह बिल पास करा लिए गए। सरकार ने विपक्ष की एक जुटता नहीं होने का लाभ, राज्यसभा में बेहतर तरीके से उठाया है। इसके लिए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की जितनी प्रशंसा की जाए, वह कम है। किंतु संसदीय कार्यप्रणाली को अनदेखा करते हुए सरकार ने जिस तरह से इन बिलों को पास कराया है। आगे चलकर यह सरकार के लिए परेशानी का कारण बनेंगे। भारत के संसदीय इतिहास में पहली बार लोकसभा और राज्यसभा का सत्र खत्म होने जा रहा है। लेकिन संसद की विभिन्न समितियों का गठन ही नहीं हुआ। लोकसभा के अध्यक्ष अथवा राज्यसभा के सभापति बिलों को प्रस्तुत करने के पूर्व स्थाई प्रवर समिति के पास भेजकर उनकी समीक्षा करा लेते थे । इस बार अभी तक समिति का गठन ही नहीं हुआ। संसदीय व्यवस्था में प्रारंभिक रूप से जो काम समिति में बिल पेश करने के पूर्व होता था, वह भी नहीं हुआ। संसदीय परीक्षण के बिना दर्जनों बिल सरकार ने राज्यसभा से भी पास करा लिए । इन बिलों के पास होने से भारत के 125 करोड़ नागरिकों के दैनिक जीवन में बहुत बड़ा असर पड़ने जा रहा है। खासतौर पर सड़क एवं परिवहन मंत्रालय द्वारा जो भारी जुर्माना वाहन चालकों पर आरोपित किया है। उससे करोड़ों आम नागरिक प्रभावित होने जा रहे हैं। तीन तलाक बिल को लेकर यह कहा जा रहा है, कि महिलाएं इसका बड़े पैमाने पर पति से लड़ाई होने पर दुरुपयोग कर सकती हैं। इसके साथ ही सरकार के खिलाफ बोलने पर अब आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त होने का आरोप लगाकर किसी भी व्यक्ति को जेल भेजने और उनकी संपत्ति जप्त करने जैसे अधिकार अब केंद्र सरकार के पास पहुंच गए हैं। केंद्र सरकार ने जो बिल पास कराये हैं। लगभग आधा दर्जन बिल ऐसे हैं, जिसमें राज्य सरकारों की शक्तियों को काफी कम दिया गया है। इससे भारत की संघीय व्यवस्था में केंद्र एवं राज्यों के बीच जबरदस्त टकराव पैदा होने की संभावनाओं को बढ़ा दिया है विपक्ष का एकजुट ना होना और सरकार द्वारा अपनी ताकत के बल पर जिस तरह कानून में संशोधन किए जा रहे हैं। फौरी तौर पर वह भले सरकार के लिए मुफीद साबित हो रहे हो। लेकिन आगे चलकर इससे सरकार और आम नागरिकों की कठिनाई बढ़ने वाली है। यह ठीक है कि आम नागरिकों के पास कोई शक्तियां नहीं होती है। किंतु इसके बाद भी मताधिकार और भीड़तंत्र समय-समय पर सरकार के खिलाफ खड़ा होता रहा है। यह बड़े से बड़ा परिवर्तन एक ही झटके में कर देता है केंद्र सरकार को अपने बहुमत का उपयोग, सत्ता को ज्यादा से ज्यादा समय तक बनाए रखने के लिए जरूरी है कि वह भीड़ को एकजुट ना होने दें। ज्यादा दबाव आने से भीड़तंत्र बड़े से बड़े कर परिवर्तन करने का कारण बनता है। इतिहास यदि देखेंगे, तो इसकी पुनरावृत्ति एक बार नहीं कई बार हो चुकी है। आशा है, सरकार अपने उत्तरदायित्व को समझते हुए भारतीय संविधान की मूल भावना, मौलिक अधिकारों और संघीय व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए निर्णय करेगी।

कश्मीर में नई सुबह का आगाज , ख़त्म हुआ एक इतिहास
प्रभुनाथ शुक्ल
जम्मू-कश्मीर पर केंद्र सरकार का फैसला अपने आप में ऐतिहास है। पूरे देश में जश्न का महौल है। लेकिन इस फैसले से वोटबैंक की राजनीति करने वालों को गहरा आघात पहुंचा है। कश्मीर पर सारी अटकलें और संशय खत्म हो गए हैं। मोदी सरकार के मिशन कश्मीर की सारी तस्वीर साफ हो गई है। जिसकी आशंका जतायी जा रही थी वहीं हुआ। सरकार राज्य से धारा-370 हटाने के लिए कदम बढ़ा दिया। गृहमंत्री अमितशाह ने संसद में इसे हटाने की सिफारिश भी पेश कर दिए। जम्मू-कश्मीर को विशेष नागरिक सुविधा देने वाली धारा-35 ए को खत्म कर दिया गया है। जम्मू-कश्मीर राज्य अब एक और हिस्से बंट जाएगा, दूसरा राज्य लद्दाख होगा।निश्चित तौर पर केंद्र की मोदी सरकार का राष्टीय सुरक्षा पर बड़ा फैसला आया है। जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा और सुविधाएं देने वाली धारा 35 को खत्म कर उसे भारतीय गणराज्य के सामान नागरिक अधिकारों से जोड़ दिया गया है। अब आप वहां जमींन भी खरीद सकते और शादियां भी कर सकते हैं। क्योंकि 35 ए का आदेश राष्टपति की तरफ से दिया गया था। लिहाजा उसे उन्हीं तरीके से खत्म कर दिया गया है। मोदी सरकार के निर्णय से कांग्रेस और पूरा विपक्ष सख्ते हैं। लेकिन पूरा देश सरकार के साथ खड़ा है। क्योंकि कश्मीर एक देश एक कानूनी की तरफ बढ़ रहा है। गृहमंत्री अमितशाह राज्यसभा में यह संवैधानिक संशोधन पेश कर कश्मीरी नेताओं और अलगाव वादियों को जमींन दिखा दिया है। लिहाजा अब धारा-370 का भी कलंक जल्द मिट जाएगा। देश के लिए गौरव की बात है। कांग्रेस तुष्टीकरण की नीति अपना कर सिर्फ वोटबैंक की राजनीति करती रही जिसकी नतीजा है वह पूरे देश से खत्म हो गई और कश्मीर आज वह साफ नीति नहीं बना पायी है।
राज्यसभा में गृहमंत्री अमितशाह की तरफ से धारा-35 ए खत्म होने की सूचना देश की राजनीति में भूचाल आ गया है, लेकिन सरकार को कोई खतरा नहीं है। क्योंकि सरकार के पास बहुमत से अधिक अंक हैं। लिहाजा विपक्ष के पास सिर पीटने के अलावा कोई मुद्दा नहीं है। दूसरी बात सरकार ने इस तरह का कोई गलत कदम भी नहीं उठाया है जिसके खिलाफ देश के लोग हों। देश के लोगों की जो इच्छा थी सरकार ने वही काम किया है। लेकिन प्रतिपक्ष के सीने पर सांप लोटने लगा है। क्योंकि विपक्ष के पास सिर्फ सिर पीटने के अलावा उसके पास कुछ नहीं है। संसद में केवल वह घड़ियाली आंसू बहा रहा है। मोदी सरकार के साहसिक फैसले ने विपक्ष के नेताओं और कश्मीर के अलगाव वादियों को अलग-थलग कर दिया है। सरकार के इस फैसले के बाद अलगाव वादियों और आतंवादियों की सक्रियता देश और जम्मू-कश्मीर में बढ़ सकती है। पाकिस्तान के साथ भारत विरोधी इस्लामिक देश अस्थिर करने की साजिश रच सकते हैं। वैश्विक मंच पर अफवाहें फैलायी जा सकती हैं। भारत विरोधी मुहिम में लगे लोग वैश्विक एकजुटता दिखा सकते हैं। लेकिन अब दौर गुजर गया है भारत हर स्थिति का मुकाबला करने में सक्षम है।
कश्मीर में किसी भी हालात से निपटने के लिए सरकार ने पूरा इंतजाम कर लिया है। पूरे जम्मू-कश्मीर को सेना के हवाले कर दिया गया है। नागरिक सुरक्षा और सतर्कता को लेकर सारे आदेश पहले ही जारी किए जा चुके हैं। मीडिया और प्रबुद्ध वर्ग पहले ही यह आशंका जता रहा था कि सरकार कश्मीर पर साहसिक निर्णय ले सकती है।
भारत सरकार के तत्कालीन राष्टपति डा. राजेंद्र प्रसाद ने धारा-370 के तहत कश्मीर के नागरिकों को विशेष सुविधा के लिए 14 मई 1954 को धारा 35 एक का विशेष आदेश जारी किया था। 1956 में जम्मू-कश्मीर के संविधान में वहां की नागरिकता को परिभाषित किया गया। जिसके अनुसार 1954 के पूर्व या यह कानून लागू होने के 10 साल पहले से जो लोग कश्मीर में निवास कर रहे हैं यहां के नागरिक माने जाएंगे। राज्य को मिले इस विशेष दर्जे के अनुसार देश के दूसरे राज्य का वहां कोई भी व्यक्ति यहां जमींन नहीं खरीद सकता था और न ही वहां की नागरिकता हासिल कर सकता था। शरणार्थियों को वहां सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती थी। वोट देने का अधिकार नहीं था। स्कूलों में उनके बच्चों का दाखिल तक नहीं हो सकता था। वहां की लड़की अगर किसी बाहरी व्यक्ति से शादी कर लिया तो उसे वहां की नाागरिकता नहीं मिलती थी। हालांकि यह कानून संसद के जरिए नहीं पारित था। यह केवल राष्टपति की तरफ से दिया गया विशेष अधिकार था। जिसे मोदी सरकार ने साहत दिखाते हुए राष्टपति के जरिए ही खत्म कर दिया। निश्च तौर पर अपने आप में यह बड़ा और ऐतिहासिक फैसला है।
जम्मू-कश्मीर राज्य को विभाजित कर भाजपा ने कश्मीर और पाकिस्तान राग अलापने वाले नेताओं को जमींन दिखा दिया है। लद्दाख को अलग राज्य बनाकर वहां सीटों को नए जरिए से परिसीमित कर लोकतंत्र की नई जमींन तैयार की जाएगी। देश के सुरक्षा के लिहाज से भी सरकार ने यह बड़ा कदम उठाया है। कोई भी व्यक्ति सरकार के फैसले विरोध में नहीं खड़ा है। सिर्फ चुनावी और वोट बैंक की राजनीति करने वाले आंसू बहा रहे हैं। सरकार की इस नीति से कश्मीर अब पूरे नियंत्रण में होगा। अलगाववादी अपने आप बिल में घुस जाएंगे। आतंकवाद का सफाया होगा। क्योंकि नये गठन के बाद जम्मू-कश्मीर और लद्दाख पर केंद्र का सीधा नियंत्रण होगा। राज्य सरकार उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर पाएगी। कश्मीर देश की सुरक्षा के लिहाज से अहम राज्य है। पाकिस्तान और चीन की कुटिल नीति की वजह से देश की सामरिक सुरक्षा के लिए वहां स्थितियां अनुकुल नहीं थी। लेकिन सरकार के इस निर्णय के बाद स्थितियां बदलेंगी और इस फैसले से जम्मू-कश्मीर का सारा नियंत्रण केंद्र सरकार के अधीन होगा। सरकार ने इस फैसले ने अमेरिका को भी जमींन दिखाई है। जिसमें अमेरिकी राष्टपति डोनाल्ड टंप कश्मीर मसले पर मघ्यस्तता का राग अलाप रहे थे। भारत सरकार का यह फैसला दुनिया को एक नया संदेश देने में कामयाब हुआ है। इसके अलावा पाकिस्तान और चीन के लिए भी कड़ा संदेश है।
मोदी सरकार कश्मीर के राजनैतिक दलों, अलगाव वादियों, आतंकवादियों और पाकिस्तान से निपटने के लिए सारी तैयारी कर लिया है। जम्मू-कश्मीर में भारी तादात में फोर्स तैनात कर दी गयी है। नागरिक सुरक्षा को देखते हुए सारी हिदायतें पहले की जारी की जा चुकी थीं। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह दिन बेहद खास है। इतिहास की भूल को सुधारते हुए राष्टहित में यह कदम स्वागत योग्य है। इस मसले पर सरकार की जीतनी तारीफ की जाय वह कम है। कश्मीर से 370 हटने का भी रास्ता साफ हो गया है। देश में अब एक साफ-सुथरी राजनीति का दौर शुरु हुआ है। अब लोकतंत्र को सिर्फ सत्ता तक पहहुंचने का जरिया समझना बड़ी भूल होगी। देश की जनता जो चाहती है उसे सरकारों को हरहाल में पूरा करना होगा। अ बवह दौर आ गया है जब अलगाव वादियों को वंदेमातरम् और जयहिंद बोलना होगा। जम्मू-कश्मीर में अब सिर्फ भारतीय तिरंगा लहराएगा। जम्मू-कश्मीर को एक नयी आजादी मिली है। इसका स्वागत करना चाहिए। सरकार को अलगाव वादियों को सबक सीखाना चाहिए। लेकिन नागरिक अधिकारों का दमन न हो इसका विशेष खयाल रखना होगा।

आयुर्वेद सौतेली या अवैध संतान हैं शासन की ?
डॉ. अरविन्द प्रेमचंद जैन
जब से आधुनिक चिकित्सा शास्त्र का प्रादुर्भाव हुआ और कुछ अंग्रेजपरस्त लोगो ने इसको अंगीकार किया तब से आयुर्वेद विज्ञानं का तिरस्कार होना शुरू हुआ,जब तक पेनिसिलिन की खोज नहीं हुई थी तब तक आयुर्वेद विज्ञानं भारत में बहुत फला फूला। पर स्वतंत्रता के बाद पहली स्वास्थ्य मंत्री श्रीमती राजकुमारी अमृता कौर ने जो आयुर्वेद की दुर्दशा की जब से आयुर्वेद पनप नहीं पाया।
शुरुआत से इसे स्वास्थ्य विभाग के अंतर्गत रखा गया, वहां पर दोयम दर्ज़े का व्यवहार किया गया, कभी भी मुख्य धारा से नहीं जोड़ा गया। मात्रा सहयोगी के रूप में रखा गया। उस समय कहीं भी औषधालय खोल दिए जाते थे न भवन, न फर्नीचर, न पर्याप्त औषधियां न पूरा स्टाफ, किराये का भवन ढूंढों और काम करो। उसके बाद विभाग अलग बना तब भी मुख्य नियंत्रण सिविल सर्जन के अधीन।
वर्षों की मांग के बाद स्वास्थ्य विभाग से पृथक चिकित्सा चिकित्सा विभाग के अंतर्गत आया। उसका नियंत्रण भी चिकित्सा शिक्षा मंत्री के पास। धीरे धीरे भारतीय चिकित्सा पद्धति एवं होमियोपैथी विभाग का मंत्री बनाया पर वह भी कैबिनेट मिनिस्टर के अधीन। आज भी आयुष विभाग का स्वतंत्र मंत्री नहीं हैं।
बात इस बात से कहनी हैं की दिनांक २६ जुलाई २०१९ को मध्य शासन द्वारा एंटीबॉयटिक्स प्रतिरोध के सम्बन्ध में एक नीति लागु की हैं जिसमे वेटनरी, फ़ूड एंड ड्रग, पशुपालन विभाग, कृषि विभाग को सम्मिलित करके स्वास्थ्य विभाग द्वारा एनटीमिक्रोबिअल रेजिस्टेंस की रोकथाम हेतु राज्य स्तरीय एक्शन प्लान का निर्माण किया गया हैं। जिसका उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों में एंटीबॉयटिक्स दवाओं के अनियंत्रित उपयोग की रोकथाम, एंटीबॉयटिक्स दवाओं का उपयोग सम्बन्धी विभाग वार दिशा निर्देश व विभिन्न स्टेट होल्डर एवं जन समुदाय में जागरूकता लाने हेतु नीति तय करना हैं। इसमें १३६ सदस्यों को कार्य हेतु जोड़ा गया हैं जिसमे आई ए एस, मेडिकलकॉलेज। एम्स पर्यावरण विभाग, स्वास्थ्य विभाग पशु विभाग, नर्सिंग होम एसोसिएशन, मेडिकल फार्मेसी एसोसिएशन, फ़ूड एंड ड्रग्स आदि अनेक विभागों को सम्मिलित किया गया पर स्वास्थ्य से सम्बंधित न चिकित्सा शिक्षा विभाग और न आयुष विभाग के अंतरगत आयुर्वेद एवं यूनानी चिकित्सा पद्धति से सम्बंधित विभाग को नहीं रखा गया।
इस महत्वपूर्ण विषय जो चिकित्सा से सम्बंधित हैं जो चिकित्सा करते हैं और उनके द्वारा भी एंटीबॉयटिक्स काउपयोग किया जाता हैं और जो एंटीबॉयटिक्स की जगह प्रतिनिधि द्रव्य के रूप में चिकित्सा में काम कर सकते हैं उनको नजर अंदाज़ किया गया हैं।
इस सम्बन्ध में एंटीबॉयटिक्स के उपयोग के सम्बन्ध में इस पद्धति का उपयोग करना या उन्हें सम्मिलित करना कितना हानिकारक होता। इसका आशय यह हैं की प्रदेश सरकार आयुष विभाग को अपनी सौतेली संतान या अवैध संतान मानती हैं या अयोग्य या नाकारा मानती और दुःख का विषय हैं की वर्तमान में आयुष और चिकित्सा शिक्षा मंत्री स्वयं एक चिकित्सक हैं। एक चिकित्सक के नाते के साथ एक विभाग का मंत्री जो इस विषय में विभाग की भागीदारी निभाने में सक्रीय योगदान देते उन्हें वंचित किया गया। यह अतयनत दुःख की बात हैं
क्या आयुष विभाग दोयम दर्ज़े का विभाग हैं। इस कार्यक्रम के बाद इस लेख के लेखक ने व्यक्तिगत रूप से माननीय स्वास्थ्य मंत्री श्री तुलसी सिलावट जी, प्रमुख सचिव स्वास्थ्य श्रीमती पल्लवी जैन गोविल, डॉक्टर सुजीत के सिंह उप संचालक महानिर्देशक स्वास्थ्य मंत्रालय नई दिल्ली, डॉक्टर अनुज शर्मा टेक्निकल ऑफिसर विश्व स्वास्थ्य संगठन नई दिल्ली एवं डाक्टर पंकज शुक्ल एन . एच. एम् सेचर्चा की पर किसी की तरफ से कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला और न भविष्य में कोई गुंजाईश समझ में आती हैं। हाँ ध्यान रखेंगे
किसी भी काम की सफलता में सबके साथ जो विभाग सीधे तौर पर इस नीति से जुड़े हैं उनकी भागीदारी शासन नहीं लेना चाहती या उपेक्षा करती हैं तो इससे समझ में आता हैं की सरकार मात्र ओठों से सहानुभति देना चाहती हैं और इस विभाग को मुख्य धारा में नहीं जोड़ना चाहती हैं। जबकि इस विभाग के अधिकांश चिकित्सक एलोपैथी का उपयोग करते हैं और वे बहुत सफल हैं।
यह शासन में बैठे वरिष्ठम अधिकारीयों की संकीर्ण मानसिकता का द्योतक हैं और इसके अलावा कुछ नहीं। किसी से सक्रीय भागीदारी की अपेक्षा करते हैं तो उन्हें भी सम्मान के साथ आमंत्रण देना चाहिए। आखिर ये भी सरकार का एक प्रमुख अंग हैं। जब किसी पद्धति का कोई स्थान नहीं था और हैं तब आयुर्वेद ही कारगर सिद्ध होती हैं पर उसको अंगीकार करने के हिचक क्यों ?
आज भी कोई बड़ा से बड़ा या छोटे से छोटा
अपने किचिन से नहीं बचा हैं
हमारा किचिन पहला दवाखाना हैं,था और रहेगा
आज सब क्यों चिंतित हैं एंटीबॉयटिक्स
जो सब अपने आपको भगवान् मानकर बैठे हैं
प्रोफेसर, नर्सिंग होम फार्मेसी वाले
बड़ी बड़ी कंपनी के दलाल हैं
जिनको बहुत कमीशन, घूमने फिरने का खरचा
ये ही उठाते हैं
जिनका जमीर बिका हुआ हैं
वे ही करते है खिलवाड़ जिंदगी से

पन्द्रह अगस्त को ‘35ए’ खत्म करने का तोहफा…?
( ओमप्रकाश मेहता)
देश की सत्ता के गलियारों में इन दिनों एक ही चर्चा गर्म है, और वह है इस बार लाल किले से प्रधानमंत्री द्वारा आजादी की बहत्तरवीं वर्गग्रंथी पर कश्मीर से अनुच्छेद-35ए खत्म करने की घोषणा। सरकार ने कश्मीर में दस हजार विशेष प्रशिक्षित सैनिक तैनात कर इसकी शुरूआत भी कर दी है। यद्यपि सरकार ने अनुच्छेद-35ए खत्म करने के अधिकारिक संकेत नहीं दिए है और सैनिकों की नई तैनाती के पीछे पुराने थके-हारे सैनिकों की वापसी, बड़े आतंकी या पाकिस्तानी हमले की आशंका आदि कारण बताए जा रहे है, किंतु केन्द्र सरकार के सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की अचानक गुपचुप कश्मीर यात्रा, वहां राज्यपाल व शीर्ष अधिकारियों से विचार-विमर्श और वहां से लौटते ही दस हजार सैनिकों की वहां तैनाती कुछ रहस्यमयी कहानी बयां करती है, जो कश्मीर में पिछले बहत्तर साल से जारी राज्य को विशेष दर्जा दिलाने वाले संविधान के अनुच्छेद-35ए से जुडी है।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि जब राजनाथ सिंह की जगह भाजपाध्यक्ष अमित शाह को गृहमंत्री का दायित्व सौंपा गया था, तो उसके पीछे मोदी जी की एक ही मंशा थी जो कश्मीर में लागू अनुच्छेद-35ए व धारा-370 से जुड़ी थी, देश में राज कर रही भाजपा के चुनावी घोषणा-पत्र में भी जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने वाले संविधान के इन अनुच्छेदों को खत्म करने का वादा किया गया था। इसीलिए गृहमंत्री का पदग्रहण करते ही अमित शाह ने सबसे पहले कश्मीर का ही दौरा किया था और राज्यपाल सतपाल मलिक से काफी गंभीर विचार-विमर्श भी हुआ था। उसके बाद कश्मीर से निष्कासित पण्डितों से गृहमंत्री का विचार-विमर्श तथा कश्मीर की समस्याओं व वहां की स्थितियों पर गंभीर चिंतन यह स्पष्ट करता है कि सरकार शीघ्र ही कश्मीर पर कोई गंभीर कदम उठाने जा रही है, और वह कदम अनुच्छेद-35ए खत्म करने से ही सम्बंधित हो सकता है। जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सतपाल मलिक ने पिछले दिनों एक सार्वजनिक कार्यक्रम में आतंकियों को पुलिस व सेना की जगह भ्रष्ट अधिकारियों व नेताओं को निशाना बनाने का विवादित बयान देकर भी ऐसा ही कुछ संकेत देने की कौशिश की थी, जिसके लिए उन्हें बाद में खेद भी प्रकट करना पड़ा। इस तरह केन्द्र सरकार व जम्मू-कश्मीर प्रशासन के बीच यह खिचड़ी लम्बे अर्से से पक रही है और इसकी भनक जम्मू-कश्मीर के राजनेताओं को भी लग चुकी है, तभी तो ऊमर अब्ब्दुल्ला के बाद मेहबूबा मुफ्ती को अनुच्छेद-35ए को लेकर विस्फोटक बयान देने को मजबूर होना पड़ा। अब ये कश्मीर नेता, जो इस मामले पर एकजुट है, अपने बयानों से कश्मीर में भय और दहशत का माहौल तैयार करने लगे है, जिसका परिणाम यह हो रहा है कि कश्मीरियों ने अपने वतन से पलायन और अनाज (राशन) भंडारण की तैयारी शुरू कर दी है, और सैनिकों की बढ़ती गश्त और उनकी मुस्तैदी से वहां भय की भावना निर्मित होने लगी है। केन्द्र सरकार ने भी सतर्क होकर वहां की पल-पल की खबरों पर नजर रखना शुरू कर दिया है, साथ ही एनआईए ने छापे मारी की भी शुरूआत कर दी है।
अब संविधान की उन विशेष अनुच्छेदों ‘370’ व ‘35ए’ पर नजर डाली जाए, जिसके तहत् जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा मिला हुआ है। यद्यपि ये धाराएं अस्थायी है जो राज्य विधानसभा की अनुमति से कभी भी खत्म की जा सकती है, किंतु आज तक चूंकि किसी भी केन्द्र सरकारर ने इस दिशा में प्रयास नहीं किया, इसलिए ये धाराएं पिछले सत्तर सालों से चली आ रही है और जम्मू-कश्मीर को देश के अन्य राज्यों से अलग विशेष दर्जा प्राप्त है।
धारा-35ए जम्मू-कश्मीर विधानसभा को राज्य के ‘स्थायी निवासी’ की परिभाषा तय करने का अधिकार देता है। वर्ष 1954 मंे इस तत्कालीन राष्ट्रपति डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद के आदेश के माध्यम से संविधान से जोड़ा गया था, इस अनुच्छेद ने स्थायी नागरिकता को विशेष अधिकार दिए है, इसके तहत अस्थायी नागरिक न जम्मू-कश्मीर में स्थायी रूप से निवास कर सकते है और न ही इस राज्य में कोई चल-अचल सम्पत्ति खरीद सकते है। साथ ही इस राज्य की कोई महिला या पुरूष किसी अन्य राज्य के निवासी लड़के-लड़की से विवाह रचा सकता है, यदि विवाह रचाता है तो संबंधित लड़के या लड़की की जम्मू-कश्मीर की स्थायी नागरिकता स्वतः ही खत्म हो जाती है। अब मोदी सरकार का प्रयास है कि जम्मू-कश्मीर से यह विशेष धारा खत्म कर इस राज्य को भी अन्य राज्यों की बराबरी में खड़ा कर दिया जाए।
अब यदि अनुच्छेद-370 पर नजर डाली जाए तो इस अनुच्छेद के प्रावधानों के मुताबिक संसद को जम्मू-कश्मीर के बारे में सिर्फ रक्षा, विदेश मामले और संचार के विषय में कानून बनाने का अधिकार है, किंतु इन तीन विषयों के अलावा किसी अन्य विषय से संबंधित कानून को लागू करवाने के लिए केन्द्र को राज्य सरकार से अनुमति सहमति लेनी पड़ती है, इसी अनुच्छेद के तहत् जम्मू-कश्मीर का राष्ट्रीय ध्वज भी अलग है, साथ ही इसी धारा के प्रावधानों के तहत जम्मू-कश्मीर विधानसभा का कार्यकाल भी छः साल का है, जबकि पूरे देश में संसद व राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल पांच साल है और इसी धारा के तहत जम्मू-कश्मीर में सूचना का अधिकार (आर.टी.आई.) भी लागू नहीं होता।
इस तरह कुल मिलाकर संविधान के ‘370’ व ‘35ए’ के विशेष प्रावधानों के कारण भारतीय गणराज्य में सिर्फ जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त है और पूरे देश में समानता के संवैधानिक अधिकार के तहत देश की मौजूदा मोदी सरकार जम्मू-कश्मीर से ये संवैधानिक बंधन खत्म कर देश के सभी राज्यों के एक ही समानता की श्रेणी में लाना चाहती है और मोदी जी ने गृहमंत्री अमित शाह को यही महत्वपूर्ण साहसिक जिम्मेदाारी सौंपी है। इस बारे में प्रधानमंत्री व गृहमंत्री के बीच गंभीर मंत्रणा कर अगले चरणों पर चर्चा भी हो चुकी है, संभव है प्रधानमंत्री जी अगले महीनें स्वतंत्रता की बहत्तरवी वर्षग्रंथी पर लाल किले की प्राचीर से देश को यह सौगात देने की घोषणा करें!

 

दिल्ली से सीखे सब सरकारें
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने ऐसा एतिहासिक काम कर दिखाया है, जिसका अनुकरण भारत की सभी प्रांतीय सरकारों को तो करना ही चाहिए, हमारे पड़ौसी देशों की सरकारें भी उससे प्रेरणा ले सकती है। ‘आप’ पार्टी की इस सरकार ने दिल्लीवासियों के लिए 200 यूनिट प्रति माह की बिजली का बिल माफ कर दिया है। यदि किसी घर में 201 यूनिट से 400 यूनिट तक बिजली खर्च होती है तो उसे आधा बिल ही चुकाना होगा। इस नई रियायत का सीधा फायदा दिल्ली के लगभग 60 लाख उपभोक्ताओं को मिलेगा। प्रत्येक घर और दुकान को 600 रु. से 1000 रु. तक हर महिने बचत होगी। इतना ही नहीं, दिल्ली प्रदेश की बिजली की खपत भी घट जाएगी, क्योंकि हर आदमी कोशिश करेगा कि वह 200 के बाद एक यूनिट भी न बढ़ने दे। जो 400 यूनिट बिजली जलाएंगे, वे भी अपनी खपत पर सख्त निगरानी रखेंगे ताकि उन्हें आधे पैसों से ज्यादा न देने पड़ें। जाहिर है कि इस कदम से दिल्लीवालों को जबर्दस्त राहत मिलेगी। दिल्ली के 80 प्रतिशत से भी ज्यादा लोग ‘आप’ सरकार के प्रशंसक बन जाएंगे। दिल्ली के विपक्षी दलों, भाजपा और कांग्रेस, का नाराज़ होना स्वाभाविक है। उनके इस आरोप में कोई दम नहीं है कि केजरीवाल सरकार लोगों में मुफ्तखोरी की आदत डाल रही है। क्या उनके मंत्रियों, विधायकों और सांसदों ने उन्हें मुफ्त मिलनेवालीं बिजली का कभी बहिष्कार किया है ? उनका यह कहना सही हो सकता है कि यह अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया का चुनावी पैंतरा है। अगर ऐसा है तो भी इसमें गलत क्या है ? इन दोनों बड़ी पार्टियों के पास केंद्र और राज्यों की कई सरकारें हैं। इन्होंने भी ऐसा पैंतरा क्यों नहीं मार लिया ? सभी पार्टियां चुनाव जीतने के लिए तरह-तरह के पैंतरे मारती हैं। अब यह आरोप लगाने की कोई तुक नहीं है कि दिल्ली की आप सरकार ने पहले बिजली के दामों में फेर-बदल करके 850 करोड़ रु. लुट लिए और अब वह वही पैसा बांटकर जनता को बेवकूफ बना रही है। केजरीवाल सरकार के इस कदम से उसका वोट बैंक मजबूत होगा, इसमें जरा भी शक नहीं है, क्योंकि इसका फायदा सबसे ज्यादा उस तबके को मिलेगा, जो सबसे ज्यादा वंचित है, गरीब है और जिसके मतदाताओं की संख्या सबसे ज्यादा है। यों भी लोकतांत्रिक सरकारें दावा करती हैं कि वे लोक कल्याणकारी होती हैं। तो क्या यह उनका न्यूनतम कर्तव्य नहीं है कि वे जनता को हवा, दवा, पानी और बिजली आसान से आसान कीमत पर उपलब्ध करवाएं ? मेरा बस चले तो मैं इस सूची में हर नागरिक के लिए रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और मनोरंजन को भी जुड़वा दूं।

भ्रामक विज्ञापनों पर शिकंजा कसना जरूरी
सनत जैन
ग्राहकों को अधिक अधिकार देने और उपभोक्ता अदालतों को पहले से ज्यादा मजबूत बनाने संबंधी प्रावधान वाले उपभोक्ता संरक्षण विधेयक पर लोकसभा ने मुहर लगा दी है। अगले सप्ताह राज्यसभा में इस बिल के पारित होने के बाद उपभोक्ताओं के हित में नया कानून उपभोक्ता संरक्षण कानून 1986 की जगह लेगा। इस बिल में केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण के गठन का प्रस्ताव है। यह प्राधिकरण अनैतिक व्यापारिक गतिविधियों को रोकने और ग्राहकों के अधिकारों की रक्षा के लिए हस्तक्षेप कर सकता है। यह बिल इसलिए भी जरूरी है क्योंकि बीते तीन से भी अधिक दशक से बड़ा प्रयास नहीं हुआ है, जबकि इस बीच ऑन लाइन मार्केटिंग समेत व्यापार के क्षेत्र में बड़ा बदलाव आया है। ऐसी परिस्थिति में ग्राहकों के अधिकारों की रक्षा के लिए पुराने कानून में बदलाव की जरूरत है। हालांकि, अब सरकार ने इस दिशा में पहल की है।
ग्राहकों के हितों की रक्षा के लिए केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण का गठन किया जाएगा, निर्माता और सेवा प्रदाताओं की जिम्मेदारी सिर्फ अपने ग्राहक तक नहीं बल्कि सभी उपभोक्ताओं के प्रति होगी, उपभोक्ता अदालत में ग्राहक को वकील की जरूरत नहीं होगर, भ्रामक विज्ञापन पर सेलेब्रिटी को भारी जुर्माना भरना होगा और 21 दिनों में हर हाल में शिकायत दर्ज होगी। सामान के निर्माण, सेवा, पैकेजिंग, लेबलिंग में खामी की वजह से ग्राहक की मौत या उसके किसी भी तरह के नुकसान के लिए अब निर्माता ही नहीं विक्रेता भी जिमेदार होगा। यह कानून इसलिए जरूरी है क्योंकि भ्रामक विज्ञापनों के फेर में फंसकर ग्राहक न सिर्फ जेब ढीली कर रहा है, बल्कि शरीर को भी नुकसान पहुंचा रहा है।
पिछले दो वर्षों में फास्ट फूड मैगी में हानिकारक तत्व की मौजूदगी के मामले उजागर होने के बाद कई फिल्मी सितारों ने किए थे। इस खाद्य पदार्थ का विज्ञापन करने वाली कई मशहूर हस्तियों-अमिताभ बच्चन, प्रीति जिंटा और माधुरी दीक्षित पर बिहार की एक अदालत ने पुलिस केस दर्ज करने व जरूरत पडऩे पर गिरफ्तार करने के निर्देश भी दिए थे। माधुरी दीक्षित हों या महेंद्र सिंह धोनी, उनके कदमों से यह सवाल एक बार फिर उठा है कि क्या मशहूर लोगों और सिने हस्तियों को ऐसी चीजों का प्रचार करना चाहिए, जिनकी गुणवत्ता और उपयोगिता आदि को लेकर कई संदेह हो सकते हैं? क्या उन्हें ऐसी चीजों का बखान करना चाहिए जिनके वे खुद ग्राहक नहीं हैं, जिनका वे खुद तो इस्तेमाल नहीं करते, लेकिन उनके गुणों का बढ़-चढ़कर उल्लेख करते हुए जनता से उन्हें अपनाने की बात कहते हैं। मशहूर हस्तियां ऐसा प्रचार क्यों करती हैं? पिछले साल एक माह (फरवरी) के दौरान भारतीय विज्ञापन मानक परिषद (एएससीआई) की ग्राहक शिकायत परिषद को जिन 167 विज्ञापनों की शिकायतें मिली थीं, उनमें से 73 शिकायतें पर्सनल और हेल्थकेयर वर्ग में भ्रामक विज्ञापनों को लेकर ही की गई थीं और ये शिकायतें सही भी पाई गईं। शिकायतों के आंकड़ों के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि विज्ञापनों द्वारा धोखाधड़ी किस स्तर पर हो रही है? ऐसे में यह समझना भी कठिन नहीं कि इन विज्ञापनों के चमक-दमक भरे दावों पर लगाम लगाना कितना जरूरी है। देखा गया है कि बाजार में किसी भी उत्पाद को चर्चित कराने और उसकी बिक्री बढ़ाने के लिए विभिन्न कंपनियां सिनेमा और खेल जगत की हस्तियों का सहारा लेती हैं।
यह कतई जरूरी नहीं होता कि ये हस्तियां उन सारे उत्पादों का अपने जीवन में इस्तेमाल करते हों, पर विज्ञापनों में उनकी छवि इस तरह पेश की जाती है कि वे उनका धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं और उनके कई फायदे उन्हें नजर आए हैं। अपने चहेते सितारों को किसी चीज का प्रचार करते देख आम लोगों के मन में यह भावना पैदा होती है कि क्यों न वे भी उन चीजों का इस्तेमाल करें। साबुन, तेल, सूप, नूडल्स, वॉटर प्यूरीफायर से लेकर सेहत बनाने वाली दवाओं तक के प्रचार सिनेमा व खेल जगत की हस्तियां खूब करती हैं। यही नहीं, वे शायद ही कभी जांच अपने स्तर पर कराती हैं कि जिन बातों या फायदों का उल्लेख उन्होंने विज्ञापन में किया है, उनमें कोई सचाई है भी या नहीं। वे विज्ञापनदाता द्वारा सुझाई गई लाइनों और दावों को दोहरा देते हैं जिससे आम जनता में यह संदेश जाता है कि उनके चेहेते सितारे तक वे चीजें अपने प्रयोग में ला रहे हैं जो बाजार में आसानी से उपलब्ध हैं और उन्हें खरीदने में कोई हर्ज नहीं हैं।
खास तौर से बच्चों और महिलाओं को किसी खास वस्तु की तरफ आकर्षित करने के लिए ऐसे ही सितारों द्वारा कोई उत्पाद विज्ञापनों में लाया जाता है और देखते ही देखते उस उत्पाद की बिक्री बढ़ जाती है। यह विज्ञापन जगत की सोची-समझी प्रक्रिया है। पर इसमें पेच यही है कि क्या इस तरह भोली-भाली जनता को मूर्ख तो नहीं बनाया जाता है? इस बारे में सच्चाई यह है कि खेल या सिनेजगत की हस्तियों द्वारा प्रचारित चीजों के विज्ञापनों में यह घोषणा कहीं नहीं होती है कि इन चीजों का इस्तेमाल खुद उन हस्तियों ने किया है। किसी उत्पाद की गुणवत्ता को जांचे-परखे बिना उन्हें खरीदने की सलाह देने के बारे में कुछ नियम देश में पहले से हैं। जैसे खाने-पीने की चीजों के बारे में केंद्रीय खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग का नियम यह है कि अगर किसी कंपनी का ब्रांड अंबेसडर किसी चीज की खासियत या गुणवत्ता का बखान करता है और वह गुण उसमें नहीं होता है, तो ऐसे विज्ञापन को भ्रामक माना जाता है। ऐसे विज्ञापन के खिलाफ कार्रवाई भी की जा सकती है।
सितारों को दौलत-शोहरत से आगे बढ़कर जनता के हितों के बारे में भी सोचना चाहिए। वे यह कर बरी नहीं हो सकते हैं कि उन्होंने किसी उत्पाद का सिर्फ प्रचार किया है, उसे उन्होंने खुद इस्तेमाल में नहीं लिया है। यह काम कानून के जरिए भी हो सकता है। भ्रामक विज्ञापनों के लिए सितारों को भी दोषी मानकर कठघरे में लाया जाना चाहिए और इसकी वाजिब सजा दी जानी चाहिए। सरकार का कानून बनाना इसलिए जरूरी है ताकि भ्रामक विज्ञापनों के नकारात्मक प्रभावों को लेकर जनता सतर्क रहे।

कितना शरीफ है, यह बलात्कारी !
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायाधीश रंजन गोगोई ने उन्नाव में हुए बलात्कार के मामले में जिस फुर्ती से कार्रवाई की है, उसने देश के सीने में लगे घाव पर थोड़ा मरहम जरुर लगाया है। उप्र के विधायक कुलदीप सेंगर पर आरोप है कि 2017 में एक कम उम्र की लड़की के साथ उसने जो बलात्कार किया था और उस बलात्कार पर पर्दा डालने के लिए उसने कई नृशंस हत्याओं का सहारा लिया है, वैसा मर्मभेदी किस्सा तो पहले कभी सुनने में भी नहीं आया। जिस लड़की के साथ बलात्कार हुआ था, उसने इंसाफ का दरवाजा खटखटाने के खातिर पिछले साल उप्र के मुख्यमंत्री के घर के आगे आत्मदाह करने की कोशिश भी की थी। उस विधायक पर आरोप है कि उस पीड़ित लड़की के साथ-साथ उसके उन सब रिश्तेदारों को भी वह मौत के घाट उतार देना चाहता है, जो उस कुकर्म के साक्षी रहे हैं या जो उस लड़की को न्याय दिलाने के लिए कमर कसे हुए हैं। लड़की के पिता को पुलिस से फर्जी मामले में गिरफ्तार करवाकर पहले ही मरवा दिया गया। लड़की का चाचा अभी जेल में है। वह लड़की, उसकी चाची और उसका वकील जिस कार से यात्रा कर रहे थे, उस कार को एक छिपे हुए नंबर के ट्रक ने इतनी जोर से टक्कर मारी कि बलात्कार की साक्षी वह चाची मर गई। दूसरी चाची भी मर गईं। वह लड़की और उसका वकील अभी भी मृत्यु-शय्या पर हैं। शंका है कि यह सारा षड़यंत्र सेंगर जेल में रहते हुए ही करवा रहा है। इस हत्याकांड में उप्र के एक मंत्री के दामाद का भी हाथ बताया जा रहा है। ऐसा लगता है कि यह सारा मामला जातिवाद के चक्र में फंस गया है। उप्र की सरकार पर आरोप है कि उसने सारे मामले को ढील दे रखी है। वास्तव में विधायक सेंगर आजकल भाजपा का सदस्य रहा है। उसे पहले निलंबित किया गया था और अब उसे पार्टी से निकाला गया है। सेंगर पहले कांग्रेस में था, फिर वह बसपा में गया, फिर सपा में रहा और फिर 2017 में भाजपा में आया। याने वह इतना शरीफ और काम का आदमी है कि सभी पार्टियों ने उसका स्वागत किया। हमारी राजनीतिक पार्टियों के नैतिक दीवालियेपन का साक्षात प्रतीक है- कुलदीप सेंगर ! सर्वोच्च न्यायालय ने सारे मामले को 45 दिन में पूरा करने और उसे लखनऊ से दिल्ली लाने का निर्देश दिया है। ट्रक-दुर्घटना की जांच सात दिन में पूरी होगी। पीड़िता के परिवार को पूर्ण सुरक्षा और पीड़िता को उप्र सरकार 25 लाख रु. तुरंत देगी। घायलों के इलाज की जिम्मेदारी सरकार लेगी। अदालत ने सरकार के कान तो खींच दिए हैं लेकिन यह समझ में नहीं आता कि हमारी जनता का चरित्र कैसा है ? ऐसे अपराधी चरित्र के नरपशुओं को चुनकर वह विधानसभा और संसद में कैसे भेजेती है ? क्या अपने लिए भी वह कोई सजा सुझाएगी ?

कानून का राज अमीरों के लिए
सनत कुमार जैन
भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू है। यहां के नागरिकों को समान अधिकार संविधान से मिले है। विधायिका को कानून बनाने, कार्यपालिका को कानून का पालन कराने तथा न्यायपालिका को, कार्यपालिका और विधायिका तथा संविधान नागरिकों मौलिक प्रदत्त अधिकारों की रक्षा करने का दायित्व सौंपा गया है। स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई लड़ रहे योद्धाओं ने संघर्ष किया था। उन्होंने ईस्ट इंडिया कम्पनी, अंग्रेजों, राजाओं और जागीरदारों द्वारा आम नागरिकों से गुलामों की तरह जो व्यवहार किया जा रहा था, उसे देखा था। जिसके कारण वह देश को अंग्रेजों की गुलामी से स्वतंत्र कराने और उसके बाद भारतीय संविधान में गरीब एवं अमीर को बिना किसी के भेदभाव के न्याय मिले। इसके लिए संविधान के माध्यम से हमें जो मौलिक अधिकार दिए थे। उन सभी मौलिक अधिकारों के लाभ अब केवल अमीरों को तो मिल रहे हैं। गरीबों के साथ न्याय के नाम पर अन्याय करने का काम अमीरों एवं ताकतवरों लोगों ने पहले से ज्यादा अब करना शुरू कर दिया है। अब तो बुर्जुग भी कहने लगे है कि इससे अच्छा शासन तो अंग्रेजों का था। मुगलराज में जो प्रताणना हिन्दुओं को नहीं सहनी पड़ी। जो वर्तमान राज में हिन्दुओं को सहना पड़ रही है। पिछले तीन दशकों में विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका में अमीरों की दखंलदाजी बढ़ी है। शासन-प्रशासन एवं निर्वाचित प्रतिनिधि जिस तरह अमीरों के साथ मिलकर गरीबों को लूटने और प्रताणित करने का काम कर रहे हैं। उससे गरीबों को न्याय मिलना तो दूर, न्याय के नाम पर उन्हें प्रताणित करने का जो सिलिसला शुरू हुआ है, वह अब अपने चरम पर पहुंच गया है। उससे गरीब त्राहि-त्राहि कर रहा है।
हाल ही में उन्नाव की घटना ने विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की वास्तविक्ता को उजागर कर, हर भारतीय नागरिक को सोचने पर विवश कर दिया है, कि क्या हम लोकतांत्रिक देश में रह रहे है। क्या यहां पर कानून का राज है। भाजपा के विधायक कुलदीप सिंह ने एक पीड़िता के साथ रेप (बलत्कार) किया। पुलिस में शिकायत करने पर आरोपी पर कार्यवाही करने से पुलिस बचती रही।आरोपी के पिता की हत्या रेप के बाद पुलिस पर है। जब मामले ने तूल पकड़ा, तो पुलिस ने तहरीर (रिर्पोट) लिखकर आरोपी को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। आरोपी और उसके परिवारजन लगातार पीड़िता और उसके परिवार को लगातार धमका रहे थे, कि वह अपनी रिर्पोट वापिस ले ले। बाद में कोर्ट में बयान बदलने का दबाव बना रहे थे। भाजपा के एक सांसद जो गेरूआ वस्त्र पहनकर अपने आपको साधु और हिन्दुओं का लंबरदार बताते है। वह आरोपी से मिलने जेल पहुंच जाते है। राजनैतिक दबाव में पीड़िता की रेप के सबूत कमजोर करने का काम पुलिस और जाँच एजेंसियों कर रही थी। आरोपी जेल में था। आरोपी के परिवारजनों ने पीड़ित परिवार के सदस्यों पर झूठे आरोप लगाकर पीड़िता के चाचा को गिरफ्तार कराकर जेल भेज दिया। पीड़िता और उसके परिवार ने 33बार पुलिस से तथा न्यायालय से सुरक्षा की गुहार लगाई। सरकार ने सुरक्षा उपलब्ध करा दी। सुरक्षाकर्मी भी बजाए पीड़िता और उसके परिवार की सुरक्षा देने के स्थान पर पीड़ित परिवार की जासूसी कर आरोपी को खबरें दे रहे थे। पीड़िता का इलाज चल रहा था। उसके परिवार को लगातार प्रताणित किया जा रहा था। पीड़िता ने सुप्रीम कोर्ट में सुरक्षा के लिए 12 जुलाई को पत्र लिखकर की गुहार लगाई। इससे नाराज पीड़ित परिवार के सदस्यों को सरेराह बिना नम्बर के ट्रक से टक्कर मारकर आरोपी ने पीड़िता और उसके परिवार के सदस्यों को मारने की कोशिश कीं। इस टक्कर में पीड़िता की चाची घटना स्थल पर ही मर गई। पीड़िता और परिवार के अन्य सदस्य गंभीर रूप से घायल हो गए। लखनऊ के किंगजार्ज मेडीकल कॉलेज में उसका इलाज चल रहा है। वेंटीलेटर में जीवन-मौत का संघर्ष पीड़िता कर रही है। मामले ने जब तूल पकड़ा तो सरकार हरकत में आई। पुलिस और शासन अभी भी आरोपी को बचाने का प्रयास अप्रत्यक्ष रूप से कर रहा है। प्रत्यक्ष रूप में पीड़िता को न्याय दिलाने की बात कर रहा है। पत्नी का अंतिम संस्कार करने के लिए पीड़िता के चाचा को लाने के लिए पीड़िता के परिवार को पापड़ बेलना पड़ रहा है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है। गरीब अथवा सामान्य परिवार कैसे भारत में न्याय प्राप्त सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने जब इस मामले ने तूल पकड़ा, तो फटाफट सुनवाई करने और पत्र पर कार्यवाही ना करने वाले रजिस्टार को नोटिस जारी कर दिया। भाजपा के गिरफ्तार विधायक को बचाने का काम जब सांसद उ.प्र. की पुलिस और सरकार कर रही है। ऐसी स्थिति में तो यही कहा जा सकता है, होई वही जो राम रचि राखा। इसमें लोकतंत्र में मिले न्याय की तो बात नहीं रही। तुलसीदास जी, रामचरित्र मानस में हमें जो ज्ञान दे गए है। वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में वहीं ज्ञान सार्थक है। “समरथ को नहीं दोष गुसांई” की तर्ज पर पीड़िता और उसका परिवार, यदि अपना भाग्य मानकर चुपचाप बैठ गया होता, तो जो कष्ट उस परिवार को न्याय मांगने में झेलना पड़ रहा है। वह तो नहीं भोगना पड़ता। न्याय की आस में रसूखदार और अमीर किस तरह कानून को अपनी जेब में रखकर मनमानी करते है। यही लोकतांत्रिक व्यवस्था के वर्तमान का सत्य है। वर्तमान शासन व्यवस्था में जो इस सत्य को स्वीकार कर लेगा, वह शोषण कराता रहेगा, अपना भाग्य मानकर चुपचाप स्वीकार कर लेगा। इससे उसके कष्ट एक बार में जो होना था, वह हो जाएगा। रोज-रोज, तिल-तिल करके न्याय, कानून व्यवस्था, मौलिक अधिकार के फेर में पड़कर अभी जो अन्याय और कष्ट हो रहा है। वह तो नहीं होगा। भगवान की आज्ञा समझकर अमीरों एवं रसूखदारों के खिलाफ आवाज उठाना वर्तमान में पाप करने के समान है। गरीब और सामान्य व्यक्ति शोषण को नियति मानकर जितना स्वीकार करेंगे, उतना ही सुखी रहेंगे। यही कलयुग और वर्तमान व्यवस्था का सत्य है। जिस तरह धृतराष्ट्र के दरबार में जब द्रोपदी का चीरहरण हो रहा था। भीष्म पितामह, बिदूर एवं राजगुरु नजरे झुकायें नीचे बैठे थे। कुछ इसी तरह की स्थिति पुन- देखने को मिल रही है।

काबुल में अराजकता
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
एक तरफ तालिबान को पटाने के लिए अमेरिका इमरान खान को फुसलाने की कोशिश कर रहा है और दूसरी तरफ तालिबान ने अफगानिस्तान में उप-राष्ट्रपति के उम्मीदवार अमरुल्लाह सालेह पर हमला बोल दिया है। सालेह राष्ट्रपति हामिद करजई के दौर में अफगानिस्तान के गुप्तचर विभाग के मुखिया थे। कुछ वर्षों पहले वे काबुल होटल में मुझसे मिलने आए थे और मैंने उनका रवैया भारत के बारे में काफी मित्रतापूर्ण पाया था। यह अच्छा हुआ कि उनकी जान बच गई। वे घायल हुए और उनके 20 साथी मारे गए। यहां प्रश्न यही है कि सालेह पर हुए हमले का अर्थ क्या निकाला जाए ? पहली बात तो यह कि सालेह खुद तालिबान के सख्त विरोधी हैं। उन्होंने गुप्तचर विभाग के प्रमुख के तौर पर कई ऐसे कदम उठाए है, जिन पर पाकिस्तान ने काफी नाराजी जाहिर की। वे वर्तमान राष्ट्रपति अशरफ गनी के साथी के तौर पर चुनाव लड़ रहे हैं। उन पर जानलेवा हमले का अर्थ यह हुआ कि पाकिस्तान और तालिबान नहीं चाहते कि सितंबर में होनेवाले चुनाव तक गनी और सालेह-जैसे लोग जिंदा भी रहें। वे इस चुनाव को एक फिजूल की हरकत समझ रहे हो सकते हैं। यदि तालिबान से अमेरिका और पाकिस्तान बात कर रहे हैं तो वह बात इसीलिए हो रही है कि काबुल की सत्ता उन्हें कैसे सौंपी जाए ? यदि सत्ता उन्हें ही सौंपी जानी है तो चुनाव का ढोंग किसलिए किया जा रहा है ? अमेरिका और पाकिस्तान ने तालिबान को चुनाव लड़ने के लिए अब तक तैयार क्यों नहीं किया ? यों भी आधे अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा है। यदि तालिबान सचमुच अपने पांव पर खड़े होते और लोकप्रिय होते तो उन्हें चुनाव से परहेज क्यों होता ? अमेरिका और पाकिस्तान, दोनों को यह गलतफहमी है कि तालिबान का राज होने पर अफगानिस्तान में शांति हो जाएगी। ज्यादातर तालिबान लोग गिलजई पठान हैं। उनके शीर्ष नेताओं से मेरा काबुल, कंधार, लंदन और वाशिंगटन में कई बार संपर्क रहा है। उनके सत्तारुढ़ होने पर उनकी स्वायत्ता पाकिस्तान पर बहुत भारी पड़ सकती है। वे स्वतंत्र पख्तूनिस्तान की मांग भी कर सकते हैं। इसके अलावा तालिबान के लौटने की जरा भी संभावना बनी नहीं कि काबुल, कंधार, हेरात, मज़ारे-शरीफ जैसे शहर खाली हो जाएंगे। अमेरिका अपना पिंड छुड़ाने के लिए अफगानिस्तान को अराजकता की भट्टी में झोंकने पर उतावला हो रहा है।

सवालों के घेरे में अनुच्छेद 35 ए
दिलीप झा संगम
अनुच्छेद 35ए इसलिए सवालों के घेरे में है क्योंकि उसे राष्ट्रपति के आदेश के तहत संविधान में जोड़ा गया था। अनुच्छेद 351 इतना भेदभाव भरा है इसका पता इससे चलता है कि उसके कारण जम्मू-कश्मीर से बाहर के लोग इस राज्य में ना तो अचल संपत्ति खरीद सकते हैं और ना ही सरकारी नौकरी हासिल कर सकते हैं।
इस तरह धारा 35 ए जम्मू कश्मीर विधानसभा को राज्य के स्थाई निवासी की परिभाषा तय करने का अधिकार देता है। वर्ष 1954 में इसे तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद के आदेश के माध्यम से संविधान से जोड़ा गया था। लेकिन इस विवादास्पद और भेदभाव पूर्ण अनुच्छेद 370 को लेकर अब सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के लिए तैयार है और यह महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि उसके समक्ष जम्मू कश्मीर से जुड़ा एक और विवादास्पद अनुच्छेद 35ए पहले से ही विचाराधीन है। इस अनुच्छेद के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट का फैसला जो भी हो, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि राष्ट्रपति के आदेश निर्देश से कोई प्रावधान संविधान का हिस्सा नहीं हो सकता। 370 के बारे में पहले दिन से स्पष्ट है कि यह अस्थाई व्यवस्था है। जाहिर है यह अस्थाई व्यवस्था तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए की गई थी। क्योंकि उस समय के राजनेताओं को यह भरोसा था कि परिस्थितियां जरुर बदलेंगी इसलिए अनुच्छेद 370 को अस्थाई रूप दिया गया था। यह विडंबना है कि जो व्यवस्था अस्थाई तौर पर लागू की गई उससे कुछ राजनीतिक दल स्थाई रूप देने की वकालत कर रहे हैं।
क्या यह संविधान की भावना के प्रतिकूल नहीं? आखिर अस्थाई व्यवस्था को स्थाई रूप कैसे दिया जा सकता है? इस पर विभिन्न दलों के नेताओं और लोगों की राय कुछ भी हो सकती है लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अनुच्छेद 370 भारत से अलगाव का जरिया बन गया है। कश्मीर केंद्रित दल कश्मीरियत का जिक्र कुछ इस तरह करते हैं जैसे वह भारतीयता जैसे विराट स्वरूप से कोई अलग चीज हो। वहीं भाजपा के एजेंडे में वर्षों से शामिल है कि एक देश, एक विधान एवं एक निशान को लागू कर देशव्यापी पहचान को जन-जन तक पहुंचाना है। यह भी सर्वविदित है कि मोदी सरकार को दोबारा प्रचंड बहुमत जनता ने कुछ ऐतिहासिक काम जो आज तक नहीं हुए उन्हें पूरे करने के लिए दिए हैं। जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 35ए हटाने को लेकर केंद्र सरकार ने जो अपनी प्रतिबद्धता दिखाई है उससे अलगाववादी बेचैन है। इसके पीछे कारण यह है कि अलगाववादियों की दुकान अब घाटी में बंद हो रही है। यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर के सूरत ए हालात बदल रहे हैं। आतंकियों को फंडिंग करने वालों पर एनआईए का कड़ा प्रहार जारी है। इससे प्रतीत होता है कि कश्मीर में व्याप्त अलगाववाद एवं आतंकवाद की कमर तोड़ने के लिए मोदी सरकार प्रतिबद्ध है।
यूं तो आतंकवाद को लेकर भाजपा की नीति जीरो टॉलरेंस हमेशा रही है लेकिन वर्तमान में पीएम मोदी और गृह मंत्री शाह की अनोखी जोड़ी कार्यशैली संस्कृति पर बल देकर राजनीतिक भूलों को सुधारने में जुटी हैं। पिछले 70 सालों की समस्या को हल करने की दिशा में मोदी सरकार अग्रसर है क्योंकि अनुच्छेद 370 इस समस्या की जड़ है और इसे खत्म करने के लिए पहल होने लगी है। निसंदेह किसी राज्य को उसके हालात के मद्देनजर विशेष दर्जा देने में कोई हर्ज नहीं है। वर्तमान में 10 राज्यों को विशेष दर्जा हासिल है, लेकिन ऐसा विशेष दर्जा किसी राज्य को नहीं दिया जा सकता जो अलगाववाद को हवा दे और राष्ट्रीय एकता में बाधक बने। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह जम्मू कश्मीर की समस्या की तह में जाकर उसे हल करने के लिए प्रयत्नशील हैं और यही कारण है कि उन्होंने अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा और सहायता बंद कर दी है। जो आज तक कांग्रेस सरकार नहीं कर पायी परिणाम स्वरूप अब कश्मीर के हालात में सुधार हो रहा है लेकिन पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस के नेताओं को अमन बहाली प्रक्रिया रास नहीं आ रही हैं। वे अपने वोट बैंक के लिए घाटी के लोगों को भ्रमित करने में जुटे हैं। वहीं कश्मीर में अतिरिक्त सैन्य बलों की तैनाती पर विभिन्न राजनीतिक दलों की बयानबाजी के बीच पीएम मोदी ने रेडियो पर प्रसारित अपने मासिक कार्यक्रम मन की बात में आतंकियों और अलगाववादियों को भी संदेश दिया है कि घृणा और हिंसा की उनकी मंशा सफल नहीं होगी। उन्होंने कहा कि कश्मीर के लोग अब विकास की मुख्यधारा से जुड़ने को बेताब है।

राज्यपाल अब संविधान के नहीं’ सत्ता के संरक्षक….?
ओमप्रकाश मेहता
इक्कीसवीं सदी के आरंभ में अर्थात् स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में राज्यों के राज्यपालों के पद और उनकी भूमिका पर काफी बहस छिड़ी थी और उस बहस का भावार्थ यही निकाला गया था कि ‘राज्यपाल’ का पद निरर्थक और व्यर्थ है। वास्तव में भारतीय संविधान में राज्यपाल पद का समावेश इसलिए किया गया था, जिससे कि राज्यपाल भारत के राष्ट्रपति जी के प्रतिनिधि के रूप में प्रदेशों में संविधान को ईमानदारी से लागू रहने और उसके उल्लंघन पर सत्तारूढ़ दल या सत्ता पदाधिकारियों पर नियंत्रण रखें। चूंकि राष्ट्रपति को राष्ट्रीय स्तर पर पूरे संवैधानिक अधिकार प्राप्त होते है, वैसे ही राज्यस्तर पर संवैधानिक अधिकार राज्यपाल के पास हो और वे राज्यों में संवैधानिक व्यवस्था सुचारू रूप से चलाने में संरक्षक की भूमिका निभाएं इसी उद्देश्य से राज्यपाल का पद कायम किया गया था और इसी संवैधानिक भावना के अनुरूप आजादी के बाद कुछ दशकों तक राज्यपालों ने अपनी भूमिका का निर्वहन भी किया, किंतु बीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में सत्ता की राजनीति ने राज्यपालों को भी अपनी ‘कठपुतली’ की श्रेणी में ले लिया और उसी समय से जो केन्द्र में सत्तारूढ़ दलों की मंशा के अनुरूप राज्य सरकारों को गिराया व उठाया जाने लगा, तब तत्कालीन प्र्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को यह प्रक्रिया रास नहीं आई और तभी सत्ता के गलियारें से ही राज्यपाल की भूमिकाओं को लेकर सवाल उठाए जाने लगे थे और इस पद की संवैधानिक उपयोगिता के आगे प्रश्न चिन्ह खड़े किए जाने लगे थे किंतु वाजपेयी सरकार के बाद यूपीए सरकार आने पर कुछ समय तक इन चर्चाओं पर विराम लग गया, किंतु यूपीए सरकार के दौरान भी राज्यपालों की नियुक्ति का मुख्य मापदण्ड उनका ‘‘संवैधानिक ज्ञान या अनुभव’’ नहीं ‘‘राजनीतिक जोड़-तोड़ की क्षमता’’ ही रहा, और जब पांच साल पहले मोदी जी की एनडीए सरकार बनी तो उन्होंने भी विरासत में मिली इस प्रक्रिया को अपने अनुसार और सहज बनाकर उसे जारी रखा, और इसका दायरा राज्यपाल से विस्तारित होकर राष्ट्रपति तक बढ़ा दिया गया और इस तरह राष्ट्रपति से लेकर राज्यपाल तक के संवैधानिक पद सत्ता के ‘यस मैन’ बनकर रह गए।
…..और अब तो राज्यपालों की नियुक्ति के पूर्व सम्बंधित राजनेताओं का ‘बाॅयोडाटा’ देखा जाता है और उनकी जोड़-तोड़़ की राजनीतिक क्षमता को रेखांकित कर उन्हें संबंधित परेशानी राज्य में नियुक्ति दी जाती है, जैसा कि हाल ही में मध्यप्रदेश में दी गई। मध्यप्रदेश में नवनियुक्त राज्यपाल का ‘बाॅयोडाटा’ उत्तरप्रदेश के घर-घर में मौजूद है। यही स्थिति आज देश के हर राज्य में मौजूद है, जहां गैर भाजपा सरकारें है, और मेरे इस तर्क का ताजा उदाहरण कर्नाटक राज्य और वहां का राजनीतिक घटनाक्रम के बीच राज्यपाल की भूमिका है।
देश की केन्द्रीय राजनीति आज चूंकि गृृहमंत्री अमित शाह तक सिमटकर रह गई है और राज्यपालों की नियुक्ति में गृृह मंत्रालय की ही अहम् भूमिका होती है, इसलिए अब यह संभावना बढ़ गई है कि राज्यपालों के चयन के मापदण्ड बदल जाएं और उन्हें ही इस अहम् पद पर सुशोभित किया जाए जो गठजोड़ की राजनीति का विशेषज्ञ हो और देश के बुद्धिजीवियों की इस आशंका को लाल जी टंडन की नियुक्ति ने सही साबित भी कर दिया है। यद्यपि टंडन जी भी राजनीति की नदी के घिसे-पीटे शंकर है, जिन्होंने 2009 में अटल जी की अस्वस्थता के बाद ‘‘लखनऊ का अटल’’ बनने की कौशिश की थी, लखनऊ की सरज़मी पर ऐतिहासिक पुस्तक भी लिखी जो काफी चर्चित भी रही। किंतु लेखक से ज्यादा उनकी ख्याति भाजपा मायावती के बीच गठजोड़ की रही इसलिए इस ‘घिसेपीटे’ शंकर की पूजा करने का मोदी सरकार ने फैसला लिया।
वैसे मध्यप्रदेश का तो यह एक महज उदाहरण है, पिछले पांच सालों में नियुक्त किए गए राज्यपालों व उनकी भूमिकाओं की समीक्षा की जाए तो वह समीक्षा इस पद की संवैधानिक गरिमा के अनुकूल कतई नहीं होगी। इससे तो अच्छा होता राज्यपाल का पद विलोपित कर उसकी जगह ‘संवैधानिक नियंत्रक’ का पद कायम कर दिया गया होता, तो आज राज्य सरकारों के लिए अधिक सुविधाजनक होता।

कालजयी रचनाकार-मुंशी प्रेमचंद
प्रो.शरद नारायण खरे
(प्रेमचंद जयंती 31जुलाई पर आलेख) प्रेमचंद हिंदी के युग प्रवर्तक रचनाकार हैं। उनकी रचनाओं में तत्कालीन इतिहास बोलता है। वे ऐसे सर्वप्रथम उपन्यासकार थे जिन्होंने उपन्यास साहित्य को तिलस्मी और ऐय्यारी से बाहर निकाल कर उसे वास्तविक भूमि पर ला खड़ा किया। उन्होंने अपनी रचनाओं में जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया। उनकी कृतियाँ भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियाँ हैं। प्रेमचंद की रचनाओं को देश में ही नहीं विदेशों में भी आदर प्राप्त हैं। प्रेमचंद और उनकी साहित्य का अंतर्राष्ट्रीय महत्व है। आज उन पर और उनके साहित्य पर विश्व के उस विशाल जन समूह को गर्व है जो साम्राज्यवाद, पूँजीवाद और सामंतवाद के साथ संघर्ष में जुटा हुआ है।
प्रेमचंद की रचनाओं में जीवन की विविध समस्याओं का चित्रण हुआ है। उन्होंने मिल मालिक और मजदूरों, ज़मीदारों और किसानों तथा नवीनता और प्राचीनता का संघर्ष दिखाया है।
प्रेमचंद के युग-प्रवर्तक अवदान की चर्चा करते हुए डॉ॰ नगेन्द्र लिखते हैं -“प्रथमतः उन्होंने हिन्दी कथा साहित्य को ‘मनोरंजन’ के स्तर से उठाकर जीवन के साथ सार्थक रूप से जोड़ने का काम किया। चारों और फैले हुए जीवन और अनेक सामयिक समस्याओं …ने उन्हें उपन्यास लेखन के लिए प्रेरित किया।”
प्रेमचंद ने अपने पात्रों का चुनाव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से किया है, किंतु उनकी दृष्टि समाज से उपेक्षित वर्ग की ओर अधिक रहा है। प्रेमचंद जी ने आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को अपनाया है। उनके पात्र प्रायः वर्ग के प्रतिनिधि रूप में सामने आते हैं। घटनाओं ने विकास के साथ-साथ उनकी रचनाओं में पात्रों के चरित्र का भी विकास होता चलता है। उनके कथोपकथन मनोवैज्ञानिक होते हैं। प्रेमचंद जी एक सच्चे समाज सुधारक और क्रांतिकारी लेखक थे। उन्होंने अपनी कृतियों में स्थान-स्थान पर दहेज, बेमेल विवाह आदि का सबल विरोध किया है। नारी के प्रति उनके मन में स्वाभाविक श्रद्धा थी। समाज में उपेक्षिता, अपमानिता और पतिता स्त्रियों के प्रति उनका ह्रदय सहानुभूति से परिपूर्ण रहा है।
मुंशी प्रेमचंद के बारे में मूर्धन्य आलोचक हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं-“अगर आप उत्तर भारत की समस्त जनता के आचार-व्यवहार, भाषा-भाव, रहन-सहन, आशा-आकांक्षा, दुःख-सुख और सूझ-बूझ को जानना चाहते हैं तो प्रेमचंद से उत्तम परिचायक आपको नहीं मिल सकता. . ….समाज के विभिन्न आयामों को उनसे अधिक विश्वसनीयता से दिखा पाने वाले परिदर्शक को हिन्दी-उर्दू की दुनिया नहीं जानती. परन्तु आप सर्वत्र ही एक बात लक्ष्य करेंगे. जो संस्कृतियों औए संपदाओं से लद नहीं गए हैं, अशिक्षित निर्धन हैं, जो गंवार और जाहिल हैं, वो उन लोगों से अधिक आत्मबल रखते हैं और न्याय के प्रति अधिक सम्मान दिखाते हैं, जो शिक्षित हैं, चतुर हैं, जो दुनियादार हैं जो शहरी हैं। यही प्रेमचंद का जीवन-दर्शन है। ”
प्रेमचंद ने अतीत का गौरव राग नहीं गाया, न ही भविष्य की हैरत-अंगेज़ कल्पना की. वे ईमानदारी के साथ वर्तमान काल की अपनी वर्तमान अवस्था का विश्लेषण करते रहे. उन्होंने देखा की ये बंधन भीतर का है, बाहर का नहीं. एक बार अगर ये किसान, ये गरीब, यह अनुभव कर सकें की संसार की कोइ भी शक्ति उन्हें नहीं दबा सकती तो ये निश्चय ही अजेय हो जायेंगे।सच्चा प्रेम सेवा ओर त्याग में ही अभिव्यक्ति पाता है। प्रेमचंद का पात्र जब प्रेम करने लगता है तो सेवा की ओर अग्रसर होता है और अपना सर्वस्व परित्याग कर देता है।
उनकी भाषा —
प्रेमचंद की भाषा सरल और सजीव और व्यावहारिक है। उसे साधारण पढ़े-लिखे लोग भी समझ लेते हैं। उसमें आवश्यकतानुसार अंग्रेज़ी, उर्दू, फारसी आदि के शब्दों का भी प्रयोग है। प्रेमचंद की भाषा भावों और विचारों के अनुकूल है। गंभीर भावों को व्यक्त करने में गंभीर भाषा और सरल भावों को व्यक्त करने में सरल भाषा को अपनाया गया है। इस कारण भाषा में स्वाभाविक उतार-चढ़ाव आ गया है। प्रेमचंद जी की भाषा पात्रों के अनुकूल है। उनके हिंदू पात्र हिंदी और मुस्लिम पात्र उर्दू बोलते हैं। इसी प्रकार ग्रामीण पात्रों की भाषा ग्रामीण है। और शिक्षितों की भाषा शुद्ध और परिष्कृत भाषा है।
डॉ॰ नगेन्द्र लिखते हैं : “उनके उपन्यासों की भाषा की खूबी यह है कि शब्दों के चुनाव एवं वाक्य-योजना की दृष्टि से उसे ‘सरल’ एवं ‘बोलचाल की भाषा’ कहा जाता है। पर भाषा की इस सरलता को निर्जीवता, एकरसता एवं अकाव्यात्मकता का पर्याय नहीं समझा जाना चाहिए।
“भाषा के सटीक, सार्थक एवं व्यंजनापूर्ण प्रयोग में वे अपने समकालीन ही नहीं, बाद के उपन्यासकारों को भी पीछे छोड़ जाते हैं।
वास्तव में,प्रेमचंद ने सहज सामान्य मानवीय व्यापारों को मनोवैज्ञानिक स्थितियों से जोड़कर उनमें एक सहज-तीव्र मानवीय रुचि पैदा कर दी।
“शिल्प और भाषा की दृष्टि से भी प्रेमचंद ने हिन्दी उपन्यास को विशिष्ट स्तर प्रदान किया। …चित्रणीय विषय के अनुरूप शिल्प के अन्वेषण का प्रयोग हिन्दी उपन्यास में पहले प्रेमचंद ने ही किया। उनकी विशेषता यह है कि उनके द्वारा प्रस्तुत किये गए दृश्य अत्यंत सजीव गतिमान और नाटकीय हैं।
शैली –
प्रेमचंद ने हिंदी और उर्दू दोनों की शैलियों को मिला दिया है। उनका हिंदी और उर्दू दोनों पर अधिकार था, अतः वे भावों को व्यक्त करने के लिए बड़े सरल और सजीव शब्द ढूँढ़ लेते थे। उनकी शैली में चुलबुलापन और निखार है। प्रेमचंद की शैली की दूसरी विशेषता सरलता और सजीवता है। उनकी शैली में अलंकारिकता का भी गुण विद्यमान है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों के द्वारा शैली में विशेष लालित्य आ गया है। इस प्रकार की अलंकारिक शैली का परिचय देते हुए वे लिखते हैं- ‘अरब की भारी तलवार ईसाई की हल्की कटार के सामने शिथिल हो गई। एक सर्प के भाँति फन से चोट करती थी, दुसरी नागिन की भाँति उड़ती थी। एक लहरों की भाँति लपकती थी दूसरी जल की मछलियों की भाँति चमकती थी।’
चित्रोपमता भी प्रेमचंद की शैली में खूब मिलती है। प्रेमचंद भाव घटना अथवा पात्र का ऐसे ढंग से वर्णन करते हैं कि सारा दृश्य आँखों के सम्मुख नाच उठता है उसका एक चित्र-सा खिंच जाता है। रंगभूमि उपन्यास के सूरदास की झोपड़ी का दृश्य बहुत सजीव है-
‘कैसा नैराश्यपूर्ण दृश्य था। न खाट न बिस्तर, न बर्तन न भांडे। एक कोने में एक मिट्टी का घड़ा जिसको आयु का अनुमान उस पर जमी हुई काई से हो सकता था। चूल्हे के पास हांडी थी। एक पुरानी चलनी की भाँति छिद्रों से भरा हुआ तवा और एक छोटी-सी कठौत और एक लोटा। बस यही उस घर की संपत्ति थी।’
प्रेमचंद के पात्रों के उत्तर-प्रत्युत्तर उनकी शैली में अभिनयात्मकता का गुण भी समावेश कर देते हैं। उनकी शैली में हास्य-व्यंग्य का भी पुट रहता है, किंतु उनका व्यंग्य ऐसा नहीं होता जो किसा का दिल दुखाए। उसमें एक ऐसी मिठास रहती है जो मनोरंजन के साथ-साथ हमारी आँखें भी खोल देती हैं। एक उदाहरण प्रस्तुत है- ‘वह गाँव में पुण्यात्मा मशहूर थे। पूर्णमासी को नित्य सत्यनारायण की कथा सुनते पर पटवारी होने के नाते खेत बेगार में जुतवाते थे, सिंचाई बेगार में करवाते थे और आसामियों को एक दूसरे से लड़वा कर रकमें मारते थे। सारा गाँव उनसे काँपता था। परमार्थी थे। बुखार के दिनों में सरकारी कुनैन बाँट कर यश कमाते थे।’
मुहावरों और सूक्तियों का प्रयोग करने में प्रेमचंद जी बड़े कुशल थे। उन्होंने शहरी और ग्रामीण दोनों ही प्रकार के मुहावरों का खूब प्रयोग किया है। प्रेमचंद की सी मुहावरेदार शैली कदाचित ही किसी हिंदी लेखक की हो। क्षमा कहानी में प्रयुक्त एक सूक्ति देखें-‘जिसको तलवार का आश्रय लेना पड़े वह सत्य ही नहीं है।’ प्रेमचंद जी की शैली पर उनके व्यक्तित्व की छाप स्पष्ट रूप से अंकित है। नि:संदेह मुंशी प्रेमचंद कालजयी कहानीकार व अमर उपन्यासकार थे।उन्हें उपन्यास-सम्राट के रूप में जाना जाता है।

कश्मीरः भारत-पाक अपना ढोंग खत्म करें
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कश्मीर में 10 हजार नए पुलिसवालों की तैनाती से हड़कंप मचा हुआ है। कश्मीरी नेता और अलगाववादी लोग भी यह मान रहे हैं कि यह तैनाती इसलिए की जा रही है कि सरकार धारा 370 और 35 ए को खत्म करनेवाली है। उन कश्मीरी नेताओं का कहना है कि यदि ऐसा हुआ तो कश्मीर में उथल-पुथल मच जाएगी। जो नेता कश्मीर को भारत का अटूट अंग मानते हैं, वे भी अलगाववादी बन सकते हैं। सरकार का कहना है कि उसने अमरनाथ-यात्रियों की सुरक्षा का विशेष इंतजाम किया है। उसे डर है कि कहीं दूसरा पुलवामा-कांड न हो जाए। करगिल-युद्ध की 20 वीं वर्षगांठ पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कड़े संदेश ने भी कश्मीर में लहर-सी उठा दी है। मुझसे कई भारतीय और पाकिस्तानी टीवी चैनलों ने पूछा है कि इस मामले में आपकी राय क्या है ? मेरी राय तो साफ है। कश्मीर में 50 हजार जवान पहले से हैं अगर 50 हजार और भी भेज दिए जाएं तो आम कश्मीरी को डरने की जरुरत क्या है ? कोई भी जवान ज्यादती करेगा तो उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई होगी। हां, डर उन्हें होना चाहिए, जो हिंसा करते हैं, आतंक फैलाते हैं। ये आतंकवादी किसे मारते हैं ? वे ज्यादातर बेकसूर कश्मीरियों की हत्या करते हैं। उन्होंने हिंदू-कम, मुसलमान ज्यादा मारे हैं। जहां तक धारा 370 का सवाल है, सच्चे मायनों में वह कभी की खत्म हो चुकी है। उसकी लाश को सजाए रखने में क्या तुक है ? जहां तक धारा 35 ए का सवाल है, मेरा मानना है कि कश्मीर और कश्मीरियत की रक्षा करना बेहद जरुरी है। इस धारा के उन सब प्रावधानों को बचाए रखना और कठोर बनाए रखना, भारत का कर्तव्य है, जिनके कारण कश्मीर को ‘पृथ्वी का स्वर्ग’ कहा जाता है। हमें ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए कि कश्मीर की घाटी हरयाणा, पंजाब या उप्र के किसी जिले की तरह दिखने लगे। इसके अलावा कश्मीर के सवाल पर भारत और पाकिस्तान, दोनों को अपना ढोंग खत्म करना चाहिए। दोनों को एक-दूसरे के कश्मीरों पर कब्जे की बात भूल जाना चाहिए। दोनों कश्मीर, दोनों देशों के अभिन्न अंग घोषित हों। पाकिस्तान अपने कश्मीर को ‘आजाद कश्मीर’ कहना बंद करे और उसे पूरी तरह से पाकिस्तान का एक प्रांत बना ले। भारत 370 खत्म करे और कश्मीर को अन्य प्रांतों की तरह अपना एक प्रांत बना ले। दोनों कश्मीरों की कश्मीरियत को दोनों देश हर कीमत पर बरकरार रखें। आज का कश्मीर एक खाई है। मैं चाहता हूं कि वह भारत और पाकिस्तान के बीच प्रेम का पुल बने।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं और कश्मीर से संबंधित सभी पक्षों के नेता उनके संपर्क में हैं)

पानी चोरी करने वाले किसानों को होगी 2 साल की सजा
सनत कुमार जैन
गुजरात सरकार ने विधानसभा में नया कानून जिसे सिंचाई और जल निकासी संशोधन बिल 2019 का नाम दिया गया है इसमें सरकार ने प्रावधान किया है, कि पानी चोरी अब अपराध होगा जो किसान पानी की चोरी करेगा उसे, इस कृत्य पर 2 साल की जेल और जुर्माने का प्रावधान किया गया है। इस कानून के बन जाने के बाद यदि कोई किसान पानी चोरी करते हुए पकड़ा गया, तो उसे 2 साल की जेल और 2 लाख तक का जुर्माना या दोनों सजा एक साथ हो सकती हैं। देश में इस तरह का यह पहला कानून है। जिसमें पानी की चोरी करने पर किसानों को 2 साल के लिए जेल भेजा जाएगा। प्राकृतिक आपदा के कारण यदि पानी नहीं बरसा, और किसान ने फसल को बचाने के लिए पानी की चोरी कर ली। ऐसी स्थिति में उसे 2 साल के लिए जेल जाना पड़ेगा। गुजरात सरकार के इस प्रावधान से किसानों में चिंता व्याप्त हो गई है। फसल में जब पानी बहुत आवश्यक होता है। तभी किसान जब सरकार से पानी नहीं मिलता है, तब चोरी करने को विवश होता है। पानी नहीं मिलने पर पूरी फसल बर्बाद होने से बचाने के लिए किसान चोरी करके भी फसल को बचाने का प्रयास करता है किंतु सरकार अब इस मामले में किसानों को जेल भेजने में अमादा हो गई है। अभी तक बिना अनुमति के सिंचाई के लिए पानी लेने पर जुर्माने का प्रावधान था। गुजरात सरकार ने अब सजा का प्रावधान करके किसानों को चिंता में डाल दिया है। सरकार के इस नए संशोधन प्रस्ताव के बाद किसान खेती करेंगे, या डर के मारे खेती करना ही छोड़ देंगे।
गुजरात देश का पहला ऐसा राज्य है जिसने पानी चोरी करने पर किसानों को जेल भेजने का प्रावधान किया है। गुजरात सरकार की देखा देखी अन्य राज्य में इसी तरह का प्रयास कर सकते हैं। जिसका दीर्घ कालीन असर खेती पर पड़ना तय माना जा रहा है। किसान बहुत जोखिम लेकर खेती करता है। उसके ऊपर खाद बीज और मजदूरी का कर्ज होता है। यदि समय पर बारिश नहीं होती है तो पूरी फसल बर्बाद हो जाती है। ऐसे समय पर यदि उसे फसल बचाने के लिए पानी लेना आवश्यक हो जाता है। बिना अनुमति के यदि उसमें पानी ले लिया तो उसका जेल जाना तय होगा। ऐसी स्थिति में अब किसान खेती करेंगे या नहीं इसको लेकर गुजरात में किसानों के बीच चर्चाएं होने लगी हैं। गुजरात में लगभग दो दशक से भाजपा का शासन है। इतने लंबे शासनकाल में यदि किसानों को फसल के लिए पानी नहीं मिल पा रहा है, तो यह गुजरात सरकार की अक्षमता ही मानी जाएगी। जैसे कोई मां अपने बच्चे को बचाने के लिए हर संभव प्रयास करती है। लगभग वही हालत किसान की होती हैं। किसान अपनी फसल को बच्चे की तरह पालता पोसता हैं। वह अपनी फसल को बर्बाद होते देख नहीं सकता है। खेती के धंधे से हजारों किसान प्रत्येक राज्य में जमीन बेचकर बाहर हो रहे थे। सरकार के इस रुख के बाद किसान फसल बोना ही छोड़ दें। जमीन बेचकर खेती के स्थान पर नौकरी अथवा अन्य धंधे में जाने कि संभावना बढ़ गई है। जिसके कारण अगले कुछ वर्षों में खाद्यान्न, सब्जी, इत्यादि के संकट का सामना करना पड़ सकता है। पिछले डेढ़ दशक में किसानों के उपर कर्ज का बोझ बढ़ता ही जा रहा है। प्रत्येक राज्य में हजारों की संख्या में किसान आत्म हत्या कर रहे है। खेती का लागत मूल्य बढ़ता जा रहा है। फसल की कीमत उस तुलना में किसानों को नहीं मिल पाती है। फसल बीमा के नाम पर सरकार की राह पर बीमा कंपनियों द्वारा शोषण किया जा रहा है। किसान की जिस फसल पर कर्ज दिया गया है। किसान से उसका बीमा प्रीमियम बैंक द्वारा काट लिया जाता है। जब फसल बर्बाद होती है,तो बीमा कंपनी लोन राशि, जिसका प्रीमियम बैंक ने काटा था, वह मुआवजा भी नहीं देती है। किसान को लूटने के लिए पटवारी, तहसीलदार, बैंक, बीमा कंपनियां और,सहकारी समितियां कोई मौका नहीं छोड़ती है। इसके बाद भी किसान खेती कर अपने परंपरागत व्यवसाय से जुड़ा हुआ था। किसानों को जेल भोगने के इस कानून के बाद किसान खेती की जमीन बेचकर नौकरी करने मजबूर होंगे। खेती के धंधे में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाने के लिए सरकार इस तरह के कानून बना रही है। गुजरात सरकार के कानून से यही संदेश मिल रहा है।

राज्यसभा में झूमा झटकी के साथ सूचना अधिकार संशोधन बिल पास
सनत जैन
गुरुवार को राज्यसभा ने सूचना अधिकार संशोधन विधेयक ध्वनि मत से पारित कराने में असाधारण सफलता अर्जित की है। संसद के दोनों सदनों से यह बिल विपक्ष के भारी विरोध के बाद भी बिना किसी संशोधन के पारित कराने का जौहर भाजपा ने करके दिखाया है। उससे सभी राजनैतिक दलों के बीच सरकार के प्रबंधन और कूटनीति की चर्चा हो रही है। विपक्षियों के तरकश से निकले सारे तीर सरकार तक नहीं पहुंच पाए। सूचना अधिकार संशोधन बिल के प्रावधान को लेकर लोकसभा एवं राज्यसभा में काफी तीखी बहस हुई। विपक्ष ने पूरी ताकत से इस बिल का विरोध किया। किंतु लोकसभा में 303 मत के समर्थन से यह बिल पास हुआ। दूसरे दिन राज्यसभा में 75 के मुकाबले 117 वोटों से यह बिल पास हो गया। उल्लेखनीय है, राज्यसभा में सरकार के पास स्पष्ट बहुमत नहीं है। इसके बाद भी जोड़-तोड़ करके तथा फ्लोर मैनेजमेंट के माध्यम से सरकार ने बिल पास कराकर विपक्ष को तगड़ी मात दी है।
राज्यसभा में विपक्ष इस बिल को पेश ही नहीं होने दे रहा था। सारे दिन नारेबाजी होती रही। उसके बाद भी सरकार ने ना केवल इस बिल को सदन में पेश किया, वरन पास भी करा लिया। इस बिल को जिस तरह से पास कराया गया है उसको लेकर राजनीतिक क्षेत्रों में यह कहा जा रहा है कि जो जीता वही सिकंदर की तर्ज पर भाजपा ने राज्यसभा में जिस तरह से बिल पास कराया है। उससे सरकार और संसद की गरीमा गिरी है।
मत विभाजन के लिए राज्यसभा में सरकार के मंत्री और भाजपा के सदस्यों ने पर्चियों का वितरण किया। मत विभाजन के दौरान मत पर्चियों का वितरण और संग्रहण भाजपा के सांसदों द्वारा किए जाने, और उन्हें महासचिव को सौंपने का आरोप लगाकर चुनाव की निष्पक्षता को लेकर कांग्रेस ने अपना विरोध भी दर्ज कराया। कांग्रेस के विप्लव ठाकुर और तृणमूल कांग्रेस की डोला सेन ने भाजपा में हाल ही में शामिल हुए सांसद सीएम रमेश पर पर्चियों की हेराफेरी करने का आरोप लगाया। राज्यसभा में सांसदों के बीच धक्का-मुक्की हुई, इसी बीच ध्वनिमत से 75 के मुकाबले 117 वोटों से विपक्ष का प्रस्ताव गिर गया। सूचना अधिकार संशोधन विधेयक ध्वनिमत से पारित हो गया।
राज्यसभा से, सूचना अधिकार बिल पास हो जाने से सरकार काफी उत्साहित है। सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार अगले सप्ताह सरकार सभी 14 विवादित विधेयकों को राज्यसभा में प्रस्तुत कर पास कराने का काम करेगी। नेशनल मेडिकल बिल पिछले डेढ़ साल से लंबित है। संसद परिसर की चर्चाओं के अनुसार सरकार ने अप्रत्यक्ष रुप से छोटे-छोटे राजनैतिक दलों के सांसद जो यूपीए के समर्थक थे। उनसे लंबित बिलों को पास कराने के लिए सहमति प्राप्त कर ली है। राज्यसभा से 14 विधेयकों को पास कराकर सरकार विपक्ष को उसकी दयनीय स्थिति का अहसार कराने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ने वाली है। भारत में जिस तरह से आर्थिक मामलों को लेकर सरकार का विरोध बढ़ रहा है। उसको देखते हुए सरकार ने अपना रुख काफी आक्रामक कर लिया है। सरकार विपक्ष के दबाब में आए बिना सरकार चलाने की मुद्रा में है।

अपनी व्यवस्था भी बना ली मोदी जी ने !
डॉ. अरविन्द जैन
बहुत पहले पंगत भोज होता था और कहीं कहीं आज भी होता हैं। इसमें यह फायदा होता हैं की सब लोग एक कतार में बैठते हैं और अलग अलग सामग्री परोसने वाले परोसते हैं जैसे कोई पूरी, कोई दाल कोई सब्ज़ी कोई मिठाई, कोई नमकीन आदि आदि। इसमें जब किसी को कुछ अलग से चाहिए रहता तब वह परोसने वाले से कहता भाई चाचा जी को रसगुल्ला परसो तो उसे भी मिलजाता हैं। यह चतुराई कहलाती हैं। दूसरा पंगत में हमेशा वहां बैठो जहाँ से परोसना शुरू होता हैं। सब पीछे बैठने से परोसने वाली सामग्री ख़तम हो जाती हैं। इसीलिए यह भी होशियारी सीखना चाहिए।
मोदी ने कहा, ‘आप सबके आशीर्वाद से मैंने ठान लिया है कि दिल्ली में सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों की स्मृति में एक बहुत बड़ा आधुनिक संग्रहालय बनाया जाएगा ”
इस बहाने स्वयं की भी व्यवस्था पूर्व से कर ली और अब संग्रहालय में स्थापित होने के लिए नए नए स्टाइल की ड्रेस नयी नयी प्रकार की भाषण व्यवस्था जिससे यदि भूतपूर्व हुए तो उनका व्यक्तित्व हमेशा उदीयमान रहेगा और अभी बनना हैं तो उनकी भूमिका विशेष होने से उनका विशेष ध्यान रखा जायेगा और होना भी चाहिए,
परोसने वाला कभी भूखा रह सकता हैं ?,कभी नहीं, अब तो और अच्छा मौका मिलेगा जो उनकी व्यक्तिगत सभी सामग्री को प्रदर्शित किया जा सकेगा, और नहीं होगी तो बना ली जाएगी। आधे में सब और आधे में हम / मैं।
यहाँ एक बात का उल्लेख करना जरुरी हैं की इसमें भूतपूर्व उपप्रधान मंत्री को भी प्रदर्शित किया जाय तो कम से कम प्रधानमंत्री के तथागत गुरु आडवाणी जी को भी वहां जगह मिल जाएगी, ऐसा सुझाव हैं, शायद अमान्य होगा पर उनक लिए दक्षिणा का सही होगा जिससे चिरस्थायी यादगार रहेंगी और गुरु दक्षिणा के साथ प्रधानसेवक का व्यक्तिगत रूप से कुछ खरचा तो नहीं लगना। होगा। कितने २ -४ मात्र। आखिर वे भी प्रधान मंत्री की दौड़ में शामिल थे और प्रधान मंत्री की अनुपस्थिति में वे कार्यवाहक प्रधानमंत्री तो हो जाते थे। नरहे भूतपूर्व परन्तु कार्यवाहक तो रहे। हो सकता हैं की वर्तमान में कार्यवाहक की परम्परा न हो। कारण विदेश यात्रा में भी अपना देश अपने साथ लेकर जाते हो।
यह गंभीर नहीं पर विचारणीय मुद्दा हैं इस पर उनको हिकारत भरी नज़र से नहीं देखना चाहिए। वो उनको देखते तो हैं चाहे दुश्मनी से ही, देखते हैं, पहचानते हैं। वे बेचारे एकलव्य जैसा अंगूठा तो नहीं मांग रहे बस कुछ स्थान दिल में न सही तो संग्रहालय में दे देना चाहिए। संग्रहालय कोई जीवित वस्तु तो नहीं हैं, मात्र दो चार हाल और बन जायेंगे और अब लगभग ५० वर्षों तक न कोई उपप्रधानमंत्री बनना हैं और न कोई प्रधानमंत्री।
और जब मुखिया की इच्छा हो उसको पूरा होना ही हैं। मंदिर न बने कारण उससे राजनीती चलती हैं, वह बन जायेगा फिर चुनाव के लिए क्या मुद्दा रहेगा। हाँ यह जरूर हैं की प्रधान सेवक के धुर विरोधी जैसे नेहरू, इंदिरा, राजीव को मज़बूरी में रखना होगा। हो सकता हैं की कहीं भी जगह दे दे। यानी सबसे पहले या आखिरी में। मज़बूरी हैं पहले में रखना पड़ेगा या पीछे रखेंगे तो वहां से भी पहले माने जायेंगे नेहरू जी। अजब मुसीबत है नेहरू जी के साथ। धुर विरोधी सबसे सामने।
पर राजनीती में सब चलता हैं
ये दिन के दो होते हैं और
रात के एक
एक बार जरूर सोचते होंगे
प्रधान सेवक
की
आपकी नीतियों के कारण
मुझे मौका मिला
जैसे जीतने वाला पहलवान
हारने वाले का शुक्रिया अदा करता हैं
की
आप अच्छे हारे, जिस कारण
मैं जीता।

मध्यप्रदेश में उच्च शिक्षा और खेल की तस्वीर बदलेगी
जीतू पटवारी
शिक्षा समाज और राष्ट्र के सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रशस्त करती है। खेल उत्साह,प्रसन्नता और ऊँचाईयों को प्रतिबिंबित करते है वहीं युवा तेज,पराक्रम और शक्ति के पुंज होते है। मध्यप्रदेश के प्रत्येक विद्यार्थी को गुणवत्तापूर्ण,सुलभ और सस्ती शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए कमलनाथ सरकार प्रतिबद्ध है। खेलों में उत्कृष्ट खिलाड़ी तैयार कर देश का गौरव बढ़ाने में योगदान देना सरकार का लक्ष्य है और युवाओं की बेहतरी से लोककल्याणकारी राज्य को मजबूत करना सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता है।
मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार के कार्यकाल का यह आठवां महीना है और इस दौरान लोकसभा की आचार संहिता का पालन भी हुआ है। कमलनाथ सरकार के सामने चुनौतियां तो असंख्य है लेकिन लोक कल्याण का संकल्प भी है। 15 साल तक भाजपा सरकार ने उच्च शिक्षा,खेल और युवा कल्याण के प्रति जो उपेक्षा का भाव रखा उससे राज्य में निराशा का भाव व्याप्त हो गया था। उच्च शिक्षा विभाग वर्तमान में संसाधनों की कमी से जूझ रहा है। लोक कल्याण का अर्थ जनता की बेहतरी होता है लेकिन भाजपा सरकार ने लोकलुभावन दृष्टि रखकर उच्च शिक्षा की व्यवस्था को ही अस्त व्यस्त कर दिया।
पूर्व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह ने अत्यधिक घोषणाएं कर कालेज तो खोल दिए लेकिन दूसरी और कई कालेजों के पास जमीन ही नहीं है, कई कालेजों के पास भवन नहीं है और अगर ये दोनों भी है तो शिक्षक व पुस्तकालय, लैब नहीं है। 191 महाविद्यालयों के पास स्वयं का भवन नहीं है उनमें से 6 महाविद्यालय किराये के भवनों में संचालित हो रहे है। 128 महाविद्यालय ऐसे है जहां एक भी नियमित शिक्षक पदस्थ नहीं है और 150 महाविद्यालय में एक भी नियमित कर्मचारी पदस्थ नहीं है। पूर्ववर्ती सरकार के इस विभाग के प्रति उपेक्षा भाव के चलते हमारे प्रदेश का राष्ट्रीय स्तर की रैंकिगं में प्रथम 100 में कहीं स्थान नहीं है।
कमलनाथ सरकार ने अपने सालाना बजट से 15 साल की कमियों और आधे अधूरे छोड़ दिए गए कार्यों को पूरा करने का संकल्प लिया है। इस साल बजट में उच्च शिक्षा के लिए दो हजार तीन सौ बयालीस करोड़, छिहत्तर लाख, अठहत्तर हजार, रूपये जबकि खेल और युवा कल्याण के लिए दो सौ करोड़ बाईस लाख रूपये का प्रावधान किया है। राज्य में पहली बार कौशल और खेल विश्वविद्यालय की स्थापना से तस्वीर निश्चित ही बदलेगी वहीं विधायक कप के आयोजन के लिए प्रत्येक वर्ष 1 लाख की राशि और 5 लाख की अतिरिक्त सहायता से राज्य के कोने कोने में खेलों को बढ़ावा मिलने की उम्मीद है। मध्यप्रदेश के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालय कई वर्षों से शिक्षकों की कमी से जूझ रहे है अत: यह कमी चरणपूर्वक भर्ती और नियुक्ति से दूर की जायेगी वहीं सालों से सेवाएं देने वाले अतिथि विद्वान भी व्यवस्था का अंग बने रहेंगे। विद्यार्थियों की प्रवेश प्रक्रिया को सरल और समयबद्ध किया गया है,बालिकाओं के लिए प्रवेश शुल्क पूरी तरह माफ कर दिया गया है वहीं अजा जजा की तरह ही ओबीसी तथा आर्थिक रूप से कमजोर सामान्य वर्ग के विद्यार्थियों को भी निःशुल्क पाठ्यपुस्तकें तथा स्टेशनरी प्रदाय की जा रही है। आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए लागू किये गये 10 प्रतिशत आरक्षण को देखते हुए सीटों में इस प्रकार वृद्धि की गयी है,वहीं एकीकृत प्रबंधन प्रणाली लागू की जा रही है जिससे छात्रों का प्रवेश, परिणाम, डिग्री आदि कार्य छात्र को सुलभता से प्राप्त हो।
उत्कृष्ट शिक्षाविदों को जोड़कर उच्च शिक्षा परिषद का गठन किया जा रहा है इसके साथ ही उत्कृष्ट संस्थानों की तर्ज़ पर ऑटोनामी के साथ उत्कृष्ट संस्थान विकसित किये जा रहे है। विभाग के अंतर्गत संचालित विश्वविद्यालयों महाविद्यालयों में उपलब्ध सुविधाओं के विकास एवं सुदृढ़ीकरण के लिए तीन हजार करोड़ मूल्य की वर्ल्ड बैंक परियोजना लागू की गई है। इस परियोजना में हम 200 महाविद्यालयों को आधुनिक संसाधनों से लैंस कर रहे है,46 कन्या महाविद्यालयों में छात्रावासों का निर्माण,राज्य में नवीन आदर्श महाविद्यालयों की स्थापना के साथ राजगढ़ में एक नवीन व्यावसायिक महाविद्यालय की स्थापना की जा रही है। 33 सेंटर ऑफ एक्सीलेंस के रूप में उन्नत करने के साथ विश्वबैंक परियोजना के तहत 153 कम्प्यूटर लैब, 2000 स्मार्ट क्लासेस, 200 लैंग्वेज लैब,200 ई-लाईब्रेरी तथा विज्ञान विषयों की प्रयोगशालाएँ निर्मित किये जाने की योजना है। रोजगार वृद्धि के लिए एक कॉमन कॅरियर पोर्टल विकसित किया जा रहा है जिससे छात्रों एवं उद्यमियों को एक प्लेटफार्म मिलेगा। पीएससी,यूपीएससी की तैयारी के लिए सरकारी मदद के साथ ही उन्हें बाहर भी भेजा जायेगा। यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज के साथ शिक्षक एवं विद्यार्थी वर्ग के लिए एमओयू किया है जिससे विद्यार्थियों व शिक्षकों की अंग्रेजी भाषा पर दक्षता बढ़े। नॉलेज कार्पोरेशन के गठन से विद्यार्थियों का चहुंमुखी विकास सुनिश्चित होगा वहीं मध्यप्रदेश में युवाओं में पर्यावरण संरक्षण को लेकर व्यापक जागरूकता के लिए अभियान भी शुरू किया जा रहा है।
मध्यप्रदेश सरकार खेलों के सर्वांगीण विकास के साथ खिलाड़ियों के बेहतर भविष्य के लिए भी कृतसंकल्पित है। उत्कृष्ट कोच के लिए डेवलपमेंट प्रोग्राम और खेल अकादमियों के खिलाड़ियों के लिये चिकित्सा व दुर्घटना बीमा योजना प्रारंभ की गई है जिसमे दिव्यांग खिलाड़ी शामिल है। ओलम्पिक विजेता को 2 करोड़ रुपये के पुरस्कार के साथ ही राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतने वाले और भाग लेने वाले खिलाड़ियों को पुरस्कार राशि में 4 गुना से बढ़ाकर 20 से 25 गुना वृद्धि कर दी गई है। खिलाड़ियों के लिए गाँधी,शंकरदयाल शर्मा,इंदिरा और राजीव प्रतिभा और प्रोत्साहन योजना लागू की गई है। खिलाड़ियों को अन्तर्राष्ट्रीय प्रशिक्षण के साथ खेल कोटे से खिलाड़ियों का भविष्य सुरक्षित होगा। पीपीपी योजना से समाज का बड़ा वर्ग भी भागीदार बनेगा। नई विकसित होने वाली कॉलोनियों अथवा आवासीय क्षेत्र में खेल सुविधाओं का निर्माण किया जावेगा। राजीव गांधी ग्रामीण युवा केन्द्र के अंतर्गत प्रत्येक ग्रामीण युवा केन्द्र में इन्डोर व ऑऊटडोर खेल मैदान तथा फिटनेस सेन्टर की सुविधा भी चरणबद्ध तरीके से उपलब्ध कराई जावेगी।
हमारी सरकार प्रदेश की खुशहाली और लोक कल्याण के लिए संकल्पित होकर कार्य कर रही है। खेल और उच्च शिक्षा की उत्कृष्टता से मध्य प्रदेश को विकसित राज्य के रूप में राष्ट्र में पहचान दिलाना हमारा लक्ष्य है।

इमरान पर भरोसा क्यों न करें ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कमाल कर दिया। उन्होंने अमेरिका में अपने आतंकवादियों के बारे में ऐसी बात कह दी, जो आज तक किसी भी पाकिस्तानी नेता ने कहने की हिम्मत नहीं की। उन्होंने अमेरिका के एक ‘शांति संस्थान’ में भाषण देते हुए कह दिया कि पाकिस्तान में 30 हजार से 40 हजार तक सशस्त्र आतंकवादी सक्रिय हैं। उनकी सक्रियता को पिछली पाकिस्तानी सरकारें छिपाती रही हैं और उनके बारे में झूठ बोलती रही हैं। ये आतंकवादी अफगानिस्तान और कश्मीर में खूंरेजी करते रहे हैं। ऐसे 40 गिरोह पाकिस्तान में दनदना रहे हैं। उनके खिलाफ 2014 से कार्रवाई शुरु हुई, जब उन्होंने पेशावर के फौजी स्कूल के डेढ़ सौ बच्चों को मार डाला था। इमरान ने दावा किया कि उनकी सरकार ने सत्ता में आते ही इन दहशतगर्द गिरोहों के खिलाफ सख्त कार्रवाई शुरु कर दी है। हाफिज सईद इस समय गिरफ्तार है और उसकी जमात-उद-दावा के 300 मदरसे, स्कूल, अस्पताल, प्रकाशन संस्थान और एंबुलेंसों को सरकार ने जब्त कर लिया है। इमरान के इस तेवर से पाकिस्तान के कई राजनीतिक दल, टीवी चैनलों के एंकर और देशभक्त पत्रकार लोग बेहद खफा हैं लेकिन वे यह क्यों नहीं समझते कि इमरान की इस साफगोई का जबर्दस्त फायदा पाकिस्तान को मिल सकता है। अंतरराष्ट्रीय वितीय टास्क फोर्स अक्तूबर में पाकिस्तान को काली सूची में डालनेवाली है। क्या वह रहम नहीं खाएगी ? इसके अलावा अमेरिकी नीति-निर्माताओं पर इमरान की इस स्वीकारोक्ति का क्या कोई असर नहीं पड़ेगा ? इमरान ने तालिबान और काबुल सरकार के बीच भी समझौता करवाने का संकल्प प्रकट किया है। पाकिस्तान के विरोधी नेता इस नए तेवर को इमरान का ढोंग बता रहे हैं, उनका शीर्षासन कह रहे हैं, वे उन्हें फौज का चमचा बताते रहे हैं लेकिन मैं सोचता हूं कि इस नये इमरान का जन्म पाकिस्तान की मजबूरी में से हुआ है। यह मजबूरी तात्कालिक हो सकती है लेकिन यह है, सच ! भारत के लिए इस सच को स्वीकारना काफी मुश्किल है। दूध का जला छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीता है लेकिन मैं सोचता हूं कि भारत अपनी सुरक्षा के बारे में पूरी सावधानी रखे लेकिन इमरान पर भरोसा भी क्यों न करे ?

राजनीति तो वेश्या है: भर्तृहरि
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हम समझ रहे हैं कि कर्नाटक के नाटक का समापन हो गया। विधानसभा में विश्वास का प्रस्ताव क्या गिरा और मुख्यमंत्री डी. कुमारस्वामी ने इस्तीफा क्या दिया, देश के लोगों ने चैन की सांस ले ली लेकिन पिछले 18 दिन से चल रहे इस नाटक का यह पटाक्षेप या अंत नहीं है, बल्कि उसकी यह शुरुआत है। यह किसको पता नहीं था कि कांग्रेस+जद (से) गठबंधन की यह सरकार गिरनेवाली ही है। इसे बचाना पहले दिन से ही लगभग असंभव दिख रहा था। अब जिन तेरह विधायकों ने इस्तीफे दिए हैं, उनका भाग्य तो अधर में लटका ही हुआ है, यह भी पता नहीं कि सिर्फ 6 के बहुमत से बननेवाली भाजपा सरकार कितने दिन चलेगी ? इसमें शक नहीं कि 14 महिने पहले विधानसभा चुनाव में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी लेकिन उसे स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने के कारण कांग्रेस और जद के अस्वाभाविक गठबंधन का राज कायम हो गया था। पहले दिन से ही गठबंधन के इस दूध में मक्खियां तैरने लगी थीं और अब जब लोकसभा चुनाव हुए तो इस गठबंधन का सूपड़ा लगभग साफ हो गया। कांग्रेस और जद (से) के जिन विधायकों ने दल-बदल किया है, वे कह रहे हैं कि मुख्यमंत्री ने उनके निर्वाचन-क्षेत्रों की उपेक्षा की है, इसीलिए वे पार्टी छोड़ रहे हैं। उनका करारा जवाब देते हुए मुख्यमंत्री ने विधानसभा को बताया है कि किस विधायक को विकास के नाम पर कितने सौ करोड़ रु. दिए गए हैं। उधर कांग्रेस आरोप लगा रही है कि इन विधायकों को भाजपा ने 40 करोड़ से 100 करोड़ तक प्रति व्यक्ति दिए हैं। दूसरे शब्दों में कर्नाटक में भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा हुई है। कर्नाटक में पहले उन पार्टियों ने हाथ से हाथ मिलाकर सरकार बनाई, जो चुनाव में एक-दूसरे पर गालियों की वर्षा कर रहे थे और अब भाजपा की जो नई सरकार बन रही है, वह उन लोगों के सहारे बन रही है, जो भाजपा, येदियुरप्पा और मोदी को पानी पी-पीकर कोसते रहे हैं। ऐसी स्थिति में जबकि सभी पार्टियों ने सिद्धांतों को ताक पर रख दिया है, आप किसको सही कहें और किसको गलत ? गोवा में जो हुआ, वह इससे भी ज्यादा भीषण है। पैसों और पदों के खातिर कौन नेता और कौन दल कब शीर्षासन की मुद्रा धारण करेगा, कुछ नहीं कह सकते। सत्ता की खातिर कांग्रेस कब भाजपा बन जाएगी और भाजपा कब कांग्रेस बन जाएगी, कोई नहीं जानता। इसीलिए भर्तृहरि ने हजार साल पहले राजनीति को वारांगना (वेश्या) कहा था।

पुलवामा हमले जैसे हालात से निपटने खरीदा जा रहा है खास बम
अजित वर्मा
भारतीय सेना को अत्याधुनिक संसाधनों से लगातार सुसज्जित किया जा रहा है। इसी का नतीजा है कि भारतीय सेना हर दिन अपडेट होती जा रही है। पुलवामा आतंकी हमले के बाद जैसे हालात से निपटने के लिए सेना बेहद सटीक हमले के लिए एक खास बम खरीदने जा रही है। लंबी दूरी की तोपों में इस गोला-बारूद का इस्तेमाल होगा। इसकी खास बात यह है कि बेहद घनी आबादी में भी ऐक्सकैलिबर गाइडेड गोला दुश्मन के टारगेट को पूरी सटीकता से 50 किमी से भी ज्यादा दूरी से निशाना बना सकता है। पाकिस्तान अक्सर नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर गोलाबारी करता रहता है, ऐसे में यह भारतीय हथियार आबादी के बीच मौजूद दुश्मन के ठिकाने को भी बर्बाद कर सकेगा।
भारतीय सेना आपातकालीन खरीद प्रक्रिया के तहत अमेरिका से ऐक्सकैलिबर आर्टिलरी ऐम्यनिशन खरीदने की योजना बना रही है। हथियार प्रणालियों और गोला-बारूद खरीदने के लिए मिले आपातकालीन अधिकारों के तहत इस खरीद की समीक्षा की जा रही है, जिससे भविष्य में पुलवामा हमले के बाद बनी स्थिति के लिए तैयारी पुख्ता की जा सके। यह गोला-बारूद नियंत्रण रेखा पर तैनात यूनिटों के लिए खरीदा जा रहा है जहां पाकिस्तान गोलाबारी करता रहता है। यह बम हवा में और बंकर जैसे मजबूत ढांचे में घुसने के बाद भी धमाका कर सकता है। हाल में हुई एक बैठक में सेना ने रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को अमेरिका से इस गाइडेड ऐम्यनिशन की खरीद की योजना के बारे में जानकारी दे दी है, जो जीपीएस सिस्टम का इस्तेमाल कर 50 किमी की दूरी से ही दुश्मन के ठिकाने को तबाह कर सकता है।
इस बम को अफगानिस्तान में युद्ध के समय तोप से दागे गए गोले के निशाने को बेहद सटीक बनाने के लिए अमेरिका में विकसित किया गया था। अमेरिकी सैनिक करीब दो दशक से अफगानिस्तान में लड़ रहे हैं। उधर, भारतीय सेना अमेरिका में बनी एम-77 अल्ट्रा-लाइट होवित्जर्स तोपें भी खरीद रही है जिससे ऐक्सकैलिबर ऐम्यनिशन को दागा जा सकता है। भारतीय सेना लगातार अपनी तैयारियों को मजबूत करती जा रही है। स्पाइक ऐंटी-टैंक गाइडेड मिसाइलें खरीदी जा रही हैं, जो दुश्मन के बख्तरबंद ठिकाने को भी बर्बाद कर सकती हैं। युद्ध की तैयारी के लिए भारतीय वायुसेना ने हाल में कई हथियार और अपने लड़ाकू विमानों के लिए साजोसामान खरीदे हैं। एयरफोर्स की खरीद में बालाकोट एयर स्ट्राइक में इस्तेमाल किए गए स्पाइस 2000 बम भी शामिल हैं, जिसे इजरायल ने बनाया है। इसका अपडेट वर्जन भी भारत ने खरीदा है। इतना ही नहीं, एमआई-35 अटैक हेलिकॉप्टरों के लिए त्रम अटाका ऐंटी-टैंक गाइडेड मिसाइल भी आईएएफ को मिल रही है।
निश्चित ही भारतीय सेना का अत्याधुनिक संसाधनों से संपन्न होते जाना देश की ताकत बढ़ायेगा।

कश्मीरः ट्रंप की मध्यस्थता ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने मेहमान इमरान खान से कह दिया कि नरेंद्र मोदी ने पिछली मुलाकात में उनसे निवेदन किया था कि वे कश्मीर के मामले में मध्यस्थता करें। ट्रंप के इस बयान ने हमारे विदेश मंत्रालय में भूकंप ला दिया है। रात देर गए उसने ट्रंप के दावे का खंडन किया। अब कैसे मालूम करें कि कौन सही है ? ट्रंप या हमारा विदेश मंत्रालय ? जहां तक ट्रंप का सवाल है, उन्हें अमेरिकी अखबारों ने ‘झूठों के सरदार’ की उपाधि दे रखी है। ‘वाशिंगटन पोस्ट’ के मुताबिक ट्रंप एक दिन में औसत 17 बार झूठ बोलते हैं। उन्होंने अपने दो साल के कार्यकाल में 8158 बार झूठ बोला है। कश्मीर पर मध्यस्थता की जो बात उन्होंने कही है, वह भी इसी श्रेणी में रखने की इच्छा होती है लेकिन इसमें एक अन्य संभावना भी हो सकती है। वह यह कि ट्रंप ने मोदी से पूछा हो कि आप कश्मीर-समस्या हल क्यों नहीं करते ? इस पर मोदी ने कह दिया हो कि आप भी कोशिश कर लीजिए। इसे ट्रंप ने मध्यस्थता समझ लिया हो। समझा न हो तो भी इमरान के मध्यस्थता के सुझाव के जवाब में उन्होंने मध्यस्थता शब्द का प्रयोग कर दिया। कश्मीर मसले पर 1948 में संयुक्तराष्ट्र संघ को बीच में डालकर नेहरुजी पछताए और बाद में जब भी कुछ विश्व नेताओं ने मध्यस्थता की पेशकश की, भारत ने रद्द कर दी। कुछ माह पहले नार्वे के पूर्व प्रधानमंत्री और पाकिस्तान के एक पूर्व राष्ट्रपति ने मुझे सुझाव दिया था कि मध्यस्थता का रास्ता अपनाया जाए। मैं खुद कुछ पहल करुं। मैंने अनौपचारिक बातचीत को तो ठीक बताया लेकिन औपचारिक तौर पर सरकारी मध्यस्थता को मुझे नकारना पड़ा। वैसे भी इस समय ट्रंप को अफगानिस्तान और तालिबान से अमेरिका का पिंड छुड़ाना है। इसीलिए उन्होंने इमरान को वाशिंगटन आने दिया है और उनसे वे लल्लो-चप्पो करना चाहेंगे। इमरान का यह सोच स्वाभाविक है कि जैसे अमेरिकी मध्यस्थता से तालिबान का मामला हल हो रहा है वैसे ही कश्मीर का मसला भी हल हो जाए लेकिन दोनों मामलों में बहुत फर्क है। मैं कश्मीर पर भारत-पाक संवाद के पक्ष में तो हूं लेकिन किसी बिचौलिए को अनावश्यक मानता हूं। ट्रंप के तेवर कितना ही भारत-प्रेम प्रकट करते हों लेकिन वे स्वयं इस योग्य नहीं हैं कि किसी भी अंतरराष्ट्रीय विवाद में वे मध्यस्थता कर सकें।

हमारे जन प्रतिनिधियों जो जनता से चुने हुए हैं को इतनी सुरक्षा क्यों ?
डॉ. अरविन्द जैन
राजशाही काल में जब कोई महामंत्री या मंत्री अत्याचार करता था तब वह अपने साथ 2 -4 सैनिक रखता था कारण मंत्री स्वयं इतना बलवान और सक्षम होता था की जनता से निपटना जानता था, राजा भी बहुत कलाकार, हुनरबाज़ होते थे की वे जनता या दुश्मन की चाल समझ जाते थे। उनको अधिक सुरक्षा की जरुरत नहीं पड़ती थे, उसके बाद हमारे देश में अंग्रेंज आये, वो भी बहुत कम, उस अनुपात में हमारी आबादी उनसे अधिक थी पर उनका प्रभाव इतना था की उनको भी अधिक सुरक्षा की जरुरत नहीं पड़ती थी। फिर आजादी की लड़ाई में तो हमारे नेता सुरक्षा विहीन रहते थे जिसका उदाहरण महात्मा गाँधी की हत्या।
जैसे जैसे आजादी के बाद नेताओं की चाल ढाल में, नैतिकता का अभाव आने लगा और उनके द्वारा धन लोलुपता बड़ी तब उन्होंने पहले अपने साथ निजी तौर गुंडें। लठैत रखना शुरू किया। उसके बाद प्रिवीपर्स ख़तम होने के बाद राजे महाराजे सामान्य स्थिति में आ गए कुछ को छोड़ कर सब बिना सुरक्षा के रहने लगे। उस समय बहुत अधिक से अधिक 500 -600 राजा महाराज जमींदार रहे होंगे पर उसके बाद उनकी आदतों को देखकर हमारे यहाँ वर्तमान में चुने और भूतपूर्व सांसद, मंत्री, विधायक सेवा निवृत न्यायाधीश, आदि आदि लगभग 5,,79, 092 वी आई पी हैं जिनके लिए सुरक्षा व्यवस्था के नाम पर सैनिक, हवाई यात्रा विदेश यात्रायें, आने जाने के लिए वाहन, मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, कम दामों में उच्चतम क्वालिटी का भोजन आदि आदि, की सुविधाएँ पेंशन भत्ता के साथ मिलती हैं।
अब हम अन्य देशों की ओर निगाह डाले की उनके यहाँ कितने वी आई पी होते हैं — जैसे ब्रिटेन में 84, फ्रांस में 109 जापान में 125, जर्मनी में 142 अमेरिएका में 252 रूस में 312 चीन में 435 और भारत नहीं इंडिया में 5, 79,092 को सब सुविधा दी जाती हैं। इसके साथ हमारे देश में अजब गज़ब हैं सांसद, विधायक मंत्री मुख्य मंत्री राज्यपाल, राष्ट्रपति यदि एक व्यक्ति बनता हैं तो उसे हर पद का वेतन भत्ता अलग अलग मिलता हैं ऐसा क्यों ?
इस प्रकार देखा जाय तो कितना पैसा इन पर व्यय होता हैं और इसके अलावा जनता द्वारा चुने हुए जन प्रतिनिधि इतने भयभीत क्यों होते हैं की उनकी सुरक्षा में करोड़ों रुपये साल खरच होते हैं, । क्या वे पद पर आकर अजर अमर हो जाते हैं और पद से हटने के बाद भी उतनी सुरक्षा क्यों और उनके मरने के बाद भी उनके परिवार के लिए भी सुरक्षा। क्या एक बार पद पर आने के बाद उनको स्वर्गवासी होने तक का लाइसेंस मिल जाता हैं और उसके बाद उनके परिवार जनों को। क्या इतनी सहानुभूति सरकारी अधिकारी कर्मचाहरियों को देना चाहिए अथवा नहीं?
जब एक सरकारी कर्मचारी 25 वर्ष की उम्र से 60 वर्ष तक कार्य करता हैं, वह अपनी जवानी पूरी सरकारी नौकरी में झोंक देता हैं तब उसे पेंशन मिलती हैं और इन चुने हुए प्रतिनिधि सिर्फ चुने जाने के बाद ताजिंदगी भत्ता प्राप्त करते हैं, जैसे कोई शादी का जोड़ा शादी करने के बाद सुहाग रात न मना पाए और उनमे से कोई एक मर जाए तब वह विधुर या विधवा कहलाने लगती हैं पर सांसद, विधायक सदा सुहागन होती हैं ऐसा क्यों ?
एक तरफ हम गरीबी की दुहाई दे रहे हैं, दूसरी ओर हमारे ऊपर इतना करारोध हैं की मध्यम वर्ग को अपना भरण पोषण करने में परेशानी हो रही और गरीबों को सरकार ने अपनी तिजोरी खोलकर रख दी हैं जिसका खरचा भी हम मध्यम वर्ग को उठाना पड़ रहा हैं और इसके बाद लाखों वी आई पी का खर्चा हम कर दाताओं से क्यों वसूलकर उनको दिया जा रहा हैं। इस पर पुर्नविचार होना जरूरी हैं और कोई जरूरी नहीं हैं की जनता के द्वारा चुने प्रतिनिधियों को उस कार्यकाल तक देना चाहिए उसके बाद कोई जरुरी नहीं।
मजेदार बात यह होती हैं की जब वेतन भत्ते बढ़ाने की बात आती हैं तब सब एक हो जाते हैं और सरकारी कर्मचारियों की बात आती हैं तो सरकार नंगपन करती हैं। यह दोहरा मापदंड बंद होना चाहिए।
बहुत हो चूका जनता का शोषण
कभी गरीबी कभी महगाईं
कभी कम वर्षा सूखा का बहाना
अपने ऐशो आराम में कोई नहीं कोताही
आने के पहले इतनी चौकसी की
परिंदा न पर मार सके
जिस दिन काल आएगा
जल, थल, नभ महल से भी नहीं बच पाएंगे
क्यों इस गरीब देश का खून
कब तक चूसोगे
कलयुगी सांसद और विधायक
नाकारा
संसद, विधानसभा रोती हैं
इन करतूतें से ।

मिलावटियों को मौत की सजा दें
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मैं आज इंदौर में हूं। यहां के अखबारों में एक खबर बड़े जोरों से छापी है कि भिंड-मुरैना में सिंथेटिक दूध के कई कारखानों पर छापे मारे गए हैं। राजस्थान और उप्र के पड़ौसी प्रांतों के सीमांतों पर भी नकली दूध की ये फेक्टरियां मजे से चल रही हैं। इस मिलावटी दूध के साथ-साथ घी, मक्खन, पनीर और मावे में भी मिलावट की जाती है। दिल्ली, अलवर तथा देश के कई अन्य शहरों से भी इस तरह की खबरें आती रही हैं। यह मिलावट सिर्फ दूध में ही नहीं होती। फलों को चमकदार बनाने के लिए उन पर रंग-रोगन भी चढ़ाया जाता है और सब्जियों को वजनदार बनाने के लिए उन्हें तरह-तरह की दवाइयों के इंजेक्शन भी दिए जाते हैं। यह मिलावट जानलेवा होती है। दूध में पानी मिलाने की बात हम बचपन से सुनते आए हैं लेकिन आजकल मिलावट में ज़हरीले रसायनों का भी इस्तेमाल किया जाता है। इसीलिए देश में लाखों लोग अकारण ही बीमार पड़ जाते हैं और कई बार मर भी जाते हैं। लेकिन सरकार ने इन मिलावटियों के लिए जो सजा रखी है, उसे जानकर हंसी आती है और दुख होता है। अभी कितना ही खतरनाक मिलावटी को पकड़ा जाए, उसे ज्यादा से ज्यादा तीन महिने की सजा और उस पर 1 लाख रु. जुर्माना होता है। वह मिलावट करके लाखों रु. रोज कमाता है और तीन माह तक वह सरकारी खर्चे पर जेल में मौज करेगा। वाह री सजा और वाह री सरकार ! कौन डरेगा, इस तरह के अपराध करने से ? मोदी सरकार को चाहिए था कि मिलावट-विरोधी विधेयक वह संसद की पहली बैठक में ही लाती और कैसा विधयेक लाती ? ऐसा कि उसकी खबर पढ़ते ही मिलावटियों की हड्डियों में कंपकंपी दौड़ जातीं। मिलावटियों को कम से कम 10 साल की सजा हो और उनसे 10 लाख रु. जुर्माना वसूलना चाहिए। खतरनाक मिलावटियों को उम्र-कैद और फांसी की सजा तो दी ही जानी चाहिए, सारे देश में उसका समुचित प्रचार भी होना चाहिए। उनका सारा कारखाना और सारी चल-अचल संपत्ति जब्त की जानी चाहिए। मिलावट करनेवाले कर्मचारियों के लिए भी समुचित सजा का प्रावधान होना चाहिए। मिलावट को रोकने का जिम्मा स्वास्थ्य मंत्रालय का है। स्वास्थ्य मंत्री डाॅ. हर्षवर्द्धन थोड़ा साहस दिखाएं तो हर सांसद, वह चाहे किसी भी पाटी का हो, उनके इस कठोर विधेयक का स्वागत करेगा। यह इस सरकार का सर्वजनहिताय एतिहासिक कार्य होगा।

प्रो. अनुसुईया का दमुआ से लेकर दिल्ली तक का सफर…!
नईम कुरेशी
मध्य प्रदेश की सियासत से चलकर दिल्ली में अपना वजूद स्थापित करना वो भी पिछड़े आदिवासी वर्ग से आने वाली महिला नेत्री के लिये एक बड़ा चैलेंज माना जाता है पर छिंदवाड़ा से चलकर विधायक प्रदेश में वजीर की कुर्सी पर बैठकर अपनी पहचान बनाये रखने का साहस व गुण हमने पिछले 30 सालों में मेडम अनुसुईया उइके में ही देखा वो राज्यसभा में रहकर राष्ट्रीय महिला आयोग में अपनी खास पहचान बनाकर महिला वर्ग के दुखों के पहाड़ों से टकराती हुइऔ राष्ट्रीय एस.टी. कमीशन में उपाध्यक्ष के पद पर 3 साल से काम कर रही थीं। जहां मैने उन्हें आदिवासी वर्ग के लिये भारत सरकार के रेल मंत्रालय के अफसरों को फटकारते हुए भी मार्च-अप्रैल में देखा है।
उइके मैडम के मन में गरीबों, दलितों के लिये असीम प्रेम देखा। उन्हें आदिवासियों कमजोर तब्कों के लिये चिंतित भी मैं 30 सालों से देखता आ रहा हूँ। उन्हें सन्् 2000 में 19 साल पहले हमारे कुछ मित्रों व तत्कालीन पुलिस आई.जी. नरेन्द्र त्रिपाठी ने ग्वालियर में महिलाओं के सम्मेलन में बुलाकर सम्मानित करने का भी गर्व प्राप्त रहा था। आज प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें छत्तीसगढ़ का राजपाल नियुक्त कर महिला व पिछड़े दलितों को सम्मान दिया है। कांग्रेस की तुलना में भारतीय जनता पार्टी शुरू से ही कमजोर तब्कों का ध्यान काफी ज्यादा रखती आ रही हैं। ये भी एक विचारणीय सवाल है। भले ही मध्य प्रदेश में आदिवासी बच्चे पूरे देश में कुपोषण से सबसे ज्यादा मारे जा रहे हों पर फिर भी केन्द्र सरकार बजट देने में पहले से ज्यादा प्रखर रही है।
मुझे डॉ. भागीरथ प्रसाद, होशियार सिंह, एस.व्ही. प्रभात, आम्रवंशी, सरजियस मिंज, के.एल.मीणा आदि कमजोर तब्के के लोगों से 40 सालों से मिलने जुलने व उनकी कार्यशैली देखने का अवसर मिला। देखा गया कि ये लोग आम गरीबों के प्रति काफी संवेदनशील व न्यायप्रिय रहे थे। इसी तरह निर्मला बुच, रंजना चौधरी से लेकर अनसुइया जी को भी देखने का अवसर मिला ये महिलायें अपने अपने क्षेत्र में सक्रिय व सामाजिक न्याय का पक्ष मजबूत करती रही हैं। जब वे मध्य प्रदेश में 2006 में राज्य अ.जा.जा. की अध्यक्ष थीं तब लगभग हर रोज अपने भोपाल ऑफिस में जाती थीं। जबकि आमतौर पर आयोग के अध्यक्ष लोग हते या 15 दिन में एक-दो बार जाते हैं।
प्रोफेसर रहीं अनुसुईया जी छिंदवाड़ा के दमुआ नगर पंचायत क्षेत्र की निवासी हैं। वो तहसील परासिया के शा. महाविद्यालय में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर के तौर पर काफी लोकप्रिय रहीं, 1982 से सियासत में आ गइऔ व 1985-90 में दमुआ विधानसभा से विधायक चुनी गइऔ। उनकी लोकप्रियता के चलते उन्हें अर्जुन सिंह ने अपने मंत्री मंडल में उपमंत्री के तौर पर नियुक्त किया ये घटना आदिवासी क्षेत्र की किसी महिला के लिये 1985-86 में कितनी बड़ी बात रही होगी ये स्वयं कल्पना की जा सकती है। 1991 में उन्होंने कांग्रेस के घुटन भरे माहौल से मुक्त होकर भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया और यहां भी उनकी लोकप्रियता को देखते हुए म.प्र. के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने उन्हें म.प्र. के अ.जा.जा. आयोग का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया था। जनवरी 2006 से मार्च 2006 तक सिर्फ 3 महीने तक ही इस आयोग के माध्यम से उन्होंने खूब समाजसेवा व जनजाति वालों को राहत दिलाई। उनकी इसी सक्रियता के चलते उन्हें भारतीय जनता पार्टी के आला कमान ने राज्यसभा का सदस्य बना दिया। उनके हौसले व संघर्ष को सलाम किया।
खुशी से लोटपोट हैं
अनुसुईया मैडम के बारे में पूर्व विधायक पांढुर्णा जतन उइके से लेकर 3 बार के विधायक रहे पंडित रमेश दुबे तक उनकी तारीफों के पुल बनाते हुए देखे व सुने गये। दुबे जी के अनुसार अनुसुईया जी ने हमारे जिले व इलाके का नाम देश दुनिया में रोशन कर दिया। उनकी सादगी व न्यायप्रियता के ये लाग फैन देखे गये। सन्् 2000 में जब हमने अनुसुईया जी को ग्वालियर व भिण्ड में महिलाओं की समस्याओं से रूबरू कराया तो वो काफी गम्भीरता से महिलाओं की सुरक्षा पर गम्भीर देखी गई थीं। राज्यसभा में उनके साथ ग्वालियर राज घराने की महारानी राजमाता विजयाराजे सिंधिया की भाभी मायासिंह भी सदस्य रही थीं। उन्होंने भी मुझे उईके मैडम की प्रशंसा में कहा कि वो सादगी की मूर्ति हैं। वो जब राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग में वाईस चेयरमैन रही थीं। तब भी उनकी सक्रियता कमाल की देखी गई। उनके छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बाहुल्य राज्य में राजपाल बन जाने से आम लोगों को उनके अनुभव का खूब लाभ मिलने वाला है। दिलचस्प है उनका छिन्दवाड़ा के दमुआ से दिल्ली व अब रायपुर तक का सफर भारतीय जनता पार्टी में लगता है कि कांग्रेस से ज्यादा गरीबों, दलितों, पिछड़ों की फिक्र करने वाले लोग हैं।

शीलाजी प्रधानमंत्री के लायक थीं
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
श्रीमती शीला दीक्षित बीमार थीं और काफी कमजोर हो गई थीं। लेकिन ऐसी संभावना नहीं थी कि वे अचानक हमारे बीच से महाप्रयाण कर जाएंगी। आज अखबारों और टीवी चैनलों ने जिस तरह की भाव-भीनी विदाई उन्हें दी है, बहुत कम नेताओं को दी जाती है। जब वे दिल्ली की पहली बार मुख्यमंत्री बनीं तब और अब भी जो नेता उनका डटकर विरोध करते रहे हैं, वे भी उन्हें भीगे हुए नेत्रों से अलविदा कह रहे हैं। सभी मानते हैं कि आज दिल्ली का जो भव्य रुप है, उसका श्रेय शीलाजी को ही है। उन्हें मेट्रो रेल, सड़कों, पुलों, नई-नई बस्तियों और भव्य भवनों के निर्माण का श्रेय सभी दे रहे हैं। लेकिन मैं मानता हूं कि यदि शीलाजी को मौका मिलता तो वे भारत की उत्तम प्रधानमंत्री भी सिद्ध होतीं। मेरा उनसे लगभग चालीस साल का बहुत आत्मीय संबंध रहा है। उनकी कुछ व्यक्तिगत विशेषताएं मैं आपको बताना चाहता हूं। उनके आदरणीय ससुर उमाशंकरजी दीक्षित से मेरा पुराना परिचय था। जब मैं उनसे मिलने जाता था तो मुझे पता नहीं रहता था कि उनकी बहू कौन है लेकिन एक दिन शीलाजी से परिचय हुआ और वह मित्रता में बदल गया। एक-दूसरे के घर आना-जाना शुरु हो गया। उनके निर्वाचन क्षेत्र कन्नौज में एक सभा में हम साथ-साथ बोले। वे अचार्य नरेंद्रदेव का नाम बोलने में जरा अटक गईं। मैंने धीरे से बता दिया। उन्होंने मुझे बार-बार धन्यवाद दिया। हम लोग फिर अक्सर मिलने लगे। वे प्रधानमंत्री राजीव गांधी के मंत्रालय में राज्यमंत्री थीं। वे जब निजामुद्दीन में रहने लगीं तो वे अक्सर मुझे और उस्ताद अमजदअली खान को खाने पर साथ-साथ बुलातीं। वे साबुत करेले की सब्जी इतनी अच्छी बनाती थीं कि जब भी बुलातीं (मुख्यमंत्री बनने पर भी) तो कहतीं, ‘भाई, आपके लिए करेले की सब्जी तो मैं खुद ही बनाऊंगी।’ एक दिन पाकिस्तान के एक पूर्व प्रधानमंत्री मेरे घर आए। उसी समय शीलाजी का फोन आया। मैंने उन्हें बताया तो कहने लगीं, आज करेला बना रही हूं। आप आइए और उन्हें भी ले आइए। मैंने कहा कि ‘प्रोटोकाॅल’ की अड़चन पड़ सकती है। तत्काल शीलाजी ने कहा कि मैं अभी आती हूं, खुद, उन्हें बुलाने के लिए। उन्हें अपने पद का घमंड बिल्कुल भी नहीं था। एक बार वे दिल्ली के लिए एक राजभाषा विधेयक ले आईं। मुझे लगा कि उसमें हिंदी को उचित स्थान नहीं दिया गया है। मैंने फोन किया तो बोलीं कि आप दो-तीन सांसदों को अपने साथ ले आइए और अफसरों को फटकार लगाइए। हम गए और उन्होंने उस विधेयक को वापस लेकर बदल लिया। ऐसे कई काम हिंदी के लिए मैंने उन्हें जब भी बताए, उन्होंने सहर्ष कर दिए। उनमें सहजता और आत्मीयता इतनी थी कि यदि किसी सभा में वे मंच पर बैठी हों और मैं नीचे श्रोताओं में तो अक्सर मुझे वे आग्रहपूर्वक अपने साथ मंच पर बुला ले जातीं। एक बार मैं 40 सांसदों के साथ लाहौर गया। अटलजी ने भेजा था। प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो से जब मैंने सुषमा स्वराज का परिचय करवाया तो मैंने कहा कि कुछ दिन पहले तक ये दिल्ली की मुख्यमंत्री थीं तो बेनजीर ने पूछा कि आजकल वो दूसरी मेडम कौन हैं? मैंने कहा, वो शीला दीक्षित हैं। वो मेरी बड़ी बहन हैं और ये सुषमाजी मेरी छोटी बहन हैं। शीलाजी से कुछ ऐसा समीकरण बैठ गया था कि जब अर्जुनसिंहजी के साथ मिलकर वे कांग्रेस से अलग होने लगी थीं तो अनुशासन समिति के उपाध्यक्ष बलरामजी जाखड़ ने अन्य नेताओं के साथ शीलाजी को भी निकालने का फैसला कर लिया। मैंने प्रंधानमंत्री नरसिंहरावजी को बताया। शीलाजी ने मेरे कहने पर प्र.मं. को तुरंत एक फेक्स भेजा और उनका निष्कासन उस वक्त टल गया। वे जब केरल की राज्यपाल नियुक्त हुईं तो उन्होंने मुझे वहां कई बार बुलाया। मैं जा नहीं सका। पिछले दिनों मेरी पत्नी बीमार हुई तो चुनाव के दौरान भी उनके फोन आते रहे। मुझे अफसोस है कि इधर मैं उनसे मिल नहीं सका। मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि।

पाक के ये “नापाक रहनुमा ”
तनवीर जाफ़री
भारत को विभाजित कर एक अलग इस्लामी राष्ट्र का गठन करने वाले कुछ मुस्लिम नेताओं ने जब इस राष्ट्र का नामकरण “पाकिस्तान” करने का निर्णय लिया होगा उस समय हो सकता है उन्होंने इस बात की कल्पना की हो कि भविष्य में यह देश अर्थात पाकिस्तान दुनिया का सबसे शक्तिशाली इस्लामी राष्ट्र बनेग। इन्होंने यह भी सोचा होगा कि पाकिस्तान भविष्य में मुस्लिम राष्ट्रों का नेतृत्व करेगा। संयुक्त भारत में रहने वाले मुसलमानों को वरग़लाने के लिए इन चंद नाम निहाद मुस्लिम नेताओं ने इस प्रस्तावित देश का नाम “पाकिस्तान” रखकर यह जताना चाहा था कि यह एक “पाक” अर्थात “पवित्र आस्तां” अर्थात “पवित्र लोगों का घर” बनेगा। परन्तु जब इतिहास से मुझे यह जानकारी मिली कि पाकिस्तान के गठन के सबसे बड़े किरदार और मुख्य संस्थापक यानी मोहम्मद अली जिन्नाह उस समय के एक ऐसे इस्माइली शिया मुसलमान थे जो शराब पिए बिना रात का भोजन नहीं करते थे। इतना ही नहीं बल्कि सूअर के मांस के उपयोग से भी उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी, उसी समय से मेरे ज़ेहन में यह बात उठने लगी थी कि भले ही इस नए नवेले देश का नाम “पाक” आस्तां क्यों न रख दिया गया हो परन्तु दरअसल इसकी बुनियाद डालने वाले पाक के सबसे लोकप्रिय नेता इस्लामी नज़रिये से स्वयं में ही न केवल “नापाक” थे बल्कि ग़ैर इस्लामी भी थे। उनकी जीवनी से पता चलता है कि इस्माइली शिया मुसलमान होते हुए भी उन्होंने कभी हज यात्रा नहीं की। उनकी किसी भी जीवनी में नमाज़ पढ़ने और रोज़े रखने आदि इस्लामिक गतिविधियों का पालन करने का भी कोई ज़िक्र नहीं है। उनके विषय में उपलब्ध जानकारी के मुताबिक़ वे सूअर व शराबख़ोरी लुक छुप कर नहीं करते थे बल्कि उनकी पत्नी रतन बाई जिन्ना के लिए अपने हाथों से सूअर का मांस बनाती थी। सूअर का मांस व शराब के सेवन को इस्लाम में हराम माना जाता है। वे अक्सर समारोहों में भी शराब पीते थे। बल्कि यह चीज़ें उनके सामान्य जीवन का हिस्सा थीं । क्या अजब इत्तेफ़ाक़ है कि आज तक उन्हीं जिन्नाह को तथाकथित इस्लामिक देश, पाकिस्तान के संस्थापक के रूप में जाना जाता है। वे मुस्लिम लीग के भी सर्वोच्च नेता थे। पाकिस्तान के गठन के बाद वे वहां के पहले गवर्नर जनरल बने। पाकिस्तान में उन्हें क़ायदे-आज़म यानी महान नेता और बाबा-ए-क़ौम अर्थात राष्ट्र पिता के लक़ब से नवाज़ा जाता है। उनके जन्म दिन पर पाकिस्तान में अवकाश भी रहता है।पाकिस्तान और दुनिया के तमाम लोग आज भी उनकी मज़ार पर फ़ातिहा पढ़ने जाते हैं। यहाँ मैं यह भी स्पष्ट करता चलूँ कि किसी भी आम व्यक्ति का खान पान निश्चित रूप से उसका अति व्यक्तिगत विषय है। लिहाज़ा एक व्यक्ति के नाते जिन्नाह साहब के किसी भी शौक़ पर आपत्ति करने का किसी को भी कोई हक़ नहीं। परन्तु चूँकि वे एक तथाकथित इस्लामी राष्ट्र के संस्थापक थे इसलिए उनका इस्लामी शिक्षाओं व संस्कारों का अनुसरण करना ज़रूरी था। और निश्चित रूप से इस्लामी शिक्षा किसी भी मुसलमान को शराब और सूअर नोशी की इजाज़त नहीं देती।
बहरहाल ग़ैर इस्लामी चाल चलन रखने वाले रहनुमाओं की कोशिशों के नतीजे में बने देश का हश्र भी आज वैसा ही होता दिखाई दे रहा है जैसी कि इस देश की बुनियाद रक्खी गई है। अपने अस्तित्व में आने के मात्र 24 वर्षों बाद ही पाकिस्तान के इस्लामी राष्ट्र होने के दावे की हवा पूरी तरह उस समय निकल गई जबकि पूर्वी पाकिस्तान ने इस्लाम के नाम पर इकठ्ठा रहने के बजाए क्षेत्र व भाषा के नाम पर अलग रहना ज़्यादा लाभदायक और ज़रूरी समझा। आख़िर जब इस्लामी राष्ट्र का सपना दिखा कर भारत को विभाजित किया गया था तो उस स्थिति को क्योंकर बनाए नहीं रक्खा गया?1971 से पहले भी पाकिस्तान के स्थानीय मुसलमानों द्वारा भारत से 1947 में व उसके बाद पहुँचने वाले मुसलमानों के साथ काफ़ी ज़ुल्म, ज़्यादती व अन्याय करने की ख़बरें आती रही हैं। उन्हें आज तक मुहाजिर कहा जाता है। इसके अतिरिक्त पाकिस्तान को जनरल ज़ियाउलहक़ के रूप में एक ऐसा कट्टर शासक मिला जिसने पाकिस्तान को कट्टरपंथ के मार्ग पर आगे बढ़ाया। ज़िया के समय ही पाकिस्तान में ईश निंदा क़ानून बना जिसका आज तक दुरूपयोग होता आ रहा है। आज पाकिस्तान अलग अलग विचारधारा के कट्टरपंथियों का गढ़ बन चुका है। हिन्दू, सिख, ईसाई, शिया, अहमदिया, बरेलवी तथा सूफ़ी मत के लोग वहां पूरी तरह असुरक्षित हैं। तालिबानों का भी पाकिस्तान के बड़े क्षेत्र में गहरा प्रभाव है। कश्मीर सहित पूरे भारत में कई दशकों से आतंक फैलाने की पाकिस्तान की जो कोशिशें हैं वह भी इस्लामी शिक्षाओं का हिस्सा क़तई नहीं हैं। इस्लाम धर्म में झूठ बोलना भी गुनाह है। परन्तु पाकिस्तान तो भारत में प्रायोजित की जा रही दहशतगर्दी को लेकर भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया से झूठ बोलता रहता है। यह तथाकथित इस्लामी राष्ट्र पाकिस्तान ही है जहाँ जुलाई 2007 में इस्लामाबाद में इतना बड़ा लाल मस्जिद हादसा हुआ जिसकी पूरी दुनिया में दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती। ग़ौर तलब है कि परवेज़ मुशर्रफ़ के राष्ट्रपति काल में लाल मस्जिद में सेना द्वारा एक बड़ा आतंकवाद विरोधी ऑप्रेशन छेड़ा गया था। 3 से 11 जुलाई 2007 तक चले 8 दिन के इस ऑपरेशन में 154 लोग मारे गए थे जबकि 50 आतंकी हिरासत में लिए गए थे। इस मस्जिद का एक जेहादी इमाम मारा गया था जबकि दूसरा फ़ौजियों से अपनी जान बचाने के लिए बुर्क़ा ओढ़ कर भागते हुए पकड़ा गया था।
क्या उपरोक्त घटनाओं व इनके पात्रों के बारे में पढ़कर यह सोचा जा सकता है कि यह उस इस्लामी मत के लोगों या किसी ऐसे इस्लामी देश की बातें हैं जो इस्लाम हज़रत मोहम्मद, हज़रत अली व हज़रत इमाम हुसैन व इमाम हसन की शिक्षाओं का इस्लाम है? झूठ, मक्कारी, क़त्लोग़ारत, साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार, बेईमानी, रिश्वतख़ोरी, आतंकवाद को सरपरस्ती देना जैसी बातें क्या “पाक” व “इस्लामिक रिपब्लिक” जैसे शब्द अपने देश के नाम के साथ जोड़ने की इजाज़त देती हैं। पिछले दिनों पाकिस्तान के बारे में सिलसिलेवार तरीक़े से छपी ख़बरों ने पूरी दुनिया को चौंका कर रख दिया। ख़बर यह थी कि इस “पाक” और “इस्लामी” देश के एक पूर्व राष्ट्रपति व दो पूर्व प्रधानमंत्री रिश्वत, धनशोधन, पद के दुरूपयोग तथा भ्रष्टाचार के मामले में जेल की सलाख़ों के पीछे पहुँच चुके हैं जबकि दो अन्य पूर्व प्रधानमंत्री ऐसे ही आरोपों में मुक़ददमों का सामना कर रहे हैं। इस समय जहाँ आसिफ़ ज़रदारी के रूप में एक पूर्व राष्ट्रपति पाकिस्तान की जेल की शोभाबढ़ा रहे हैं वहीँ नवाज़ शरीफ़ और शाहिद ख़ाकान अब्बासी जैसे पाक के दो पूर्व प्रधानमंत्री भी जेलों की रौनक़ में इज़ाफ़ा कर रहे हैं। सभी पर भ्रष्टाचार व आर्थिक अनियमिताओं तथा इसके लिए पद का दुरूपयोग करने का इलज़ाम है। आसिफ़ अली ज़रदारी को तो उनकी पत्नी बेनज़ीर भुट्टो के प्रधानमंत्री रहते हुए ही “मिस्टर 10 परसेंट” की उपाधि मिल गयी थी।आश्चर्य तो यह है की बदनाम व्यक्ति होने के बावजूद उनकी पार्टी ने बेनज़ीर की हत्या के बाद उन्हें कैसे राष्ट्रपति बना दिया। इन तीन “नापाक रहनुमाओं ” के अलावा दो और पूर्व”पाक” प्रधानमंत्री यूसुफ़ रज़ा गिलानी और राजा परवेज़ अशरफ़ भी ऐसे ही मामलों का अदालती सामना कर रहे हैं। यदि अदालत ने इन्हें भी “नापाक ” साबित कर दिया तो पाकिस्तान “नापाक रहनुमाओं ” के सज़ा पाने व जेल जाने के अपने ही मौजूदा 3 के रिकार्ड को तोड़ कर 5 “नापाक रहनुमाओं ” तक पहुंचा देगा।
भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी के अलावा भी हैवानियत व अराजकता जैसे ग़ैर इस्लामी व ग़ैर इंसानी मामलों में भी पाकिस्तान का रेकार्ड पूरी तरह नापाक है। कभी इस देश ने राजनैतिक मतभेदों के चलते प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो को फांसी के फंदे पर लटकते देखा तो कभी औरत होने के बावजूद तथाकथित इस्लाम परस्तों द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो को हलाक कर दिया गया। मस्जिदों, इमामबारगाहों, दरगाहों आदि को निशाना बनाकर हज़ारों लोगों की जानें जाना तो इस “पाक” देश में आम बात हो गयी है। कभी नमाज़ियों पर हमला, कभी मुहर्रम के जुलूस पर आत्मघाती हमला, कभी फ़ौजियों और उनके मासूम बच्चों की सामूहिक हत्याएं यही वह हालात हैं जिसने पाक को “नापाक” देश के रूप में प्रचारित कर दिया है। पिछले दिनों पाकिस्तान पर आए भयंकर आर्थिक संकट पर प्रधानमंत्री इमरान ख़ान की मार्मिक अपील ने यह सोचने के लिए मजबूर किया कि आख़िर पड़ोसी देश की दुर्दशा की वजह क्या है। तो पीछे मुड़कर देखने पर यही नज़र आया कि जिस तरह इस की बुनियाद ही नापाक थी उसी तरह आगे चलकर भी यहाँ के रहनुमाओं ने भी नपाकीज़गी में और इज़ाफ़ा करने में कोई कसर बाक़ी नहीं रक्खी। पाकिस्तान की रुसवाई का सबसे बड़ा कारण ही यही है।

प्रत्यक्ष कर संग्रह का लक्ष्य
अजित वर्मा
भारत सरकार ने प्रत्यक्ष कर संग्रहण का इस बार जो लक्ष्य निर्धारित किया है, उसे विशेषज्ञ यह मान रहे हैं कि यह लक्ष्य हासिल करने के करीब रहेगा। सरकार ने चालू वित्त वर्ष के लिए प्रत्यक्ष कर संग्रह का लक्ष्य नए सिरे से तय करते हुए इसे 13.35 लाख करोड़ रुपए तय किया है जिसे केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) प्रमुख ने कठिन लेकिन हासिल किया जा सकने वाला बताया है।
यह भी कहा जा रहा है कि सरकार छूट और कटौती समाप्त होने के बाद कंपनी कर की दरों में और कमी लाने के बारे में सोच सकती है। पिछले संशोधित अनुमान में 2019 -20 के लिए हमारा लक्ष्य 13.78 लाख करोड़ रुपए तय किया गया था। यह अपेक्षाकृत अवास्तविक दिखता था क्योंकि यह सालाना आधार पर करीब 24 फीसद की वृद्धि को दर्शा रहा था।
बजट पर विचार के दौरान प्रत्यक्ष कर बोर्ड ने इस बारे में अपनी बातें रखी थीं। इसी का नतीजा है कि सरकार ने पिछले साल के वास्तविक संग्रह को देखते हुए उस आधार पर लक्ष्य तय किया। और प्रत्यक्ष कर के लिये बजट में तय संग्रह लक्ष्य को अब 13.35 लाख रुपये तय किया गया है। यह अपेक्षाकृत अवास्तविक दिखता था क्योंकि सालाना आधार पर करीब 17.5 फीसद वृद्धि को बताता है।
विशेषज्ञ कहते हैं कि यह लक्ष्य हमें काफी उम्मीद देता है कि हम दिए गए लक्ष्य के अनुसार 17.5 फीसद वृद्धि हासिल करने में कामयाब होंगे। आयकर विभाग ने पिछले वित्तवर्ष में प्रत्यक्ष संग्रह 11.37 लाख करोड़ रुपए प्राप्त किया।
निवेश और वृद्धि को गति देने के लिए बजट में जो कदम उठाया गया है, उस पर यह भरोसा जताया गया है कि अर्थव्यवस्था अच्छी करेगी और परिणामस्वरूप राजस्व संग्रह भी अच्छा रहेगा। प्रत्यक्ष कर संग्रह में व्यक्तिगत आयकर, प्रतिभूति सौदा कर और कपंनी कर शामिल हैं। कंपनी कर की दर के बारे में यह बताया जा रहा है कि वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले सप्ताह बजट में लगभग सभी कंपनियों के लिए कर की दरें कम की है।
सवाल यह है कि कंपनी की कर दरें कुछ छूट और कटौती से जुड़ी हैं जिसे कंपनियां प्राप्त कर रही हैं। सरकार की नीति कहती है कि छूट और कटौती को समय के साथ धीरे-धीरे समाप्त किया जाएगा। यह करीब पांच से 10 साल हो सकता है। सीबीडीटी प्रमुख मोदी ने कहा- इसीलिये छूट और कटौती खत्म होने के साथ हम निश्चित रूप से मान सकते हैं कि कंपनी कर की दर कम होगी। वहीं दूसरी ओर प्रत्यक्ष कर संग्रह का निर्धारित लक्ष्य हासिल भी हो सकेगा।

नारी शक्ति की प्रतीक शीला दीक्षित का यूं चले जाना
डॉ हिदायत अहमद खान
यह खबर स्तब्ध कर देने वाली है कि कांग्रेस की वरिष्ठ नेत्री और दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित अब हमारे बीच नहीं रहीं। इस सूचना पर विश्वास करने को मन नहीं करता, क्योंकि जिस लगन और मेहनत के साथ राजनीति के क्षेत्र में वो लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहीं थीं, उसे देखते हुए लोगों को यही उम्मीद थी कि उनकी चहेती नेता आज नहीं तो कल एक बार फिर दिल्ली की मुख्यमंत्री बनेंगी। इस दुनिया को उन्होंने ऐसे समय हमेशा के लिए अलविदा कह दिया है जबकि कांग्रेस को ही नहीं बल्कि राजनीतिक जगत को भी उनकी महती आवश्यकता थी। दरअसल एक तरफ चुनावी हार से कांग्रेस मायूसी के दलदल में समाती चली गई है, जिसे उबारने के लिए शीला दीक्षित जैसे मजबूत नेतृत्व की ही आवश्यकता थी। वहीं दूसरी तरफ सिद्धांतों से समझौता कर धन और पद-प्रतिष्ठा को महत्व देने वाले तमाम नेताओं के लिए शीला दीक्षित एक सबक साबित हो सकतीं थीं। आज राजनीति के क्षेत्र में भ्रष्टाचारियों, अपराधियों और धन कुबेरों का बर्चस्व कायम होता जा रहा है, जिससे निपटने के लिए सिद्धांतों पर चलने वालों की आवश्यकता महसूस होती है। इसलिए कुछ बेहतर करने वाले आत्मविश्वास से भरी नारी शक्ति के तौर पर राजनीति में स्थापित शीला दीक्षित की कमी देश को हमेशा खलेगी। चेहरे पर हल्की मुस्कान लिए, जरा हल्के से बोलने वाली दृढ़ प्रतिज्ञ शीला दीक्षित कुछ समय से बीमार चल रहीं थीं, जिस कारण दिल्ली के एस्कॉर्ट अस्पताल में जेरे इलाज उन्होंने 81 साल की उम्र में अंतिम सांसें लीं। दिल्ली की सियासत में बतौर महिला मुख्यमंत्री बने रहने का तमगा भी उन्हें हासिल रहा, जिसे तोड़ पाना अब भविष्य में किसी के बूते की बात नहीं लगती है। दरअसल सब की चहेती शीला दीक्षित 15 साल तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं। बतौर मुख्यमंत्री उनका कार्यकाल 1998 से 2013 तक रहा। वो केरल की राज्यपाल भी रहीं। इससे पहले शीला दीक्षित 1984 से 1989 तक उत्तर प्रदेश की कन्नौज लोकसभा सीट से सांसद भी रहीं। महिला सशक्तिकरण का उदाहरण पेश करने वाली शीला दीक्षित का जन्म 31 मार्च 1938 को पंजाब के कपूरथला में हुआ था। उनकी स्कूली शिक्षा दिल्ली के कॉन्वेंट ऑफ जीसस एंड मैरी स्कूल में संपन्न हुई। इसके बाद उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी के मिरांडा हाउस कॉलेज से ग्रेजुएशन के साथ ही एमए की डिग्री भी हासिल की। आपका विवाह प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी एवं पूर्व राज्यपाल व केन्द्रीय मंत्रिमंडल में मंत्री रहे उमाशंकर दीक्षित के परिवार में हुआ। आपके पति स्व. विनोद दीक्षित भारतीय प्रशासनिक सेवा के सदस्य थे। आपकी दो संतानें, एक पुत्र और एक पुत्री है। एक पढ़ी-लिखी संभ्रांत महिला होने के नाते राजनीतिक क्षेत्र का इस्तेमाल उन्होंने महिला उत्थान के लिए सफलता पूर्वक किया। उन्होंने समाज में महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिलाने के लिए अथक प्रयास किए। उन्होंने ऐसे अनेक अभियानों का नेतृत्व किया, जिनसे महिलाओं का भला हो सकता था। यही नहीं बल्कि महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों के विरोध में भी उन्होंने आवाज बुलंद की और इसी के साथ अगस्त 1990 में 23 दिनों तक अपने 82 साथियों के साथ उन्होंने जेल यात्रा भी की। ऐसी संघर्षशील महिला नेत्री को पाकर दिल्ली ही नहीं बल्कि संपूर्ण देश अपने आपको गौरवांवित महसूस करता रहा है। यह कम गौरव की बात नहीं है कि शीला दीक्षित ने 1984 से 1989 तक संयुक्त राष्ट्र संघ की महिला स्तर समिति में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। इन तमाम उपलब्धियों से पहले 1970 में, वे यंग विमन्स असोसियेशन की अध्यक्षा बनीं और इसी दौरान उन्होंने दिल्ली में दो बड़े महिला छात्रावास खुलवाए। इसके साथ ही वो इंदिरा गाँधी स्मारक ट्रस्ट की सचिव भी हैं। यह वही ट्रस्ट है जो शांति, निशस्त्रीकरण एवं विकास के लिए इंदिरा गांधी पुरस्कार प्रदान करता है। यही नहीं शीला दीक्षित धर्म-निर्पेक्षता पर अडिग रहने वाली नेता रही हैं, उन्होंने सदा ही सांप्रदायिक ताकतों का हर संभव विरोध किया। दरअसल शीला दीक्षित का मानना था कि विविधता वाले हमारे देश हिंदुस्तान में यदि जनतंत्र को जीवित रखते हुए मजबूती प्रदान करना है तो सही व्यवहार और सत्यता के मानदंडों का पालन करना जीवन का एक अभिन्न अंग होना चाहिये। राजनीति के बदलते प्रतिमानों में शीला दीक्षित का स्थान सर्वोच्च शिखर वाला ठहरता है। उनके यूं अचानक चले जाने से सियासी जगत में जो जगह खाली हुई है अब वो भर पाना नामुमकिन जैसी बात है।

सैकड़ों मायावती और हजारों आनंद
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के लगभग सभी टीवी चैनलों और अखबारों में यह खबर खूब छपी है कि मायावती के भाई की 400 करोड़ रुपये की संपत्ति जब्त कर ली गई है। दिल्ली के पास नोएडा इलाके में उप्र की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के भाई आनंदकुमार की यह सात एकड़ जमीन थी। यह जमीन आनंद ने उस समय कब्जाई थी, जब उसकी बड़ी बहन उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री थी। यह जमीन बेनामी है। आनंद और उसकी पत्नी विचित्रा इस मंहगी जमीन पर एक पांच सितारा होटल और कई आलीशान इमारतें बनाने की तैयारी कर रहे थे। आनंद के पास जाहिरा तौर पर इस समय 1350 करोड़ रु. की संपत्ति है। उसने कई फर्जी कंपनियां बना रखी हैं। यह वही आनंदकुमार है, जो 1996 में इसी नोएडा-प्रशासन में 7-8 सौ रु. माहवार की नौकरी करता था लेकिन बहनजी के राज में वह अरबपति बन गया। मायावती ने अपने इसी भाई को बहुजन समाज पार्टी का उपाध्यक्ष बना दिया है। जाहिर है कि आनंद पर लगे आरोप अदालत में सिद्ध हो गए तो उसे कम से कम सात साल की सजा मिलेगी और कुल संपत्ति का 25 प्रतिशत याने अरबों रु. जुर्माना भी भरना पड़ेगा। केंद्र की मोदी सरकार और उप्र की योगी सरकार को बधाई कि उसने लिहाजदारी नहीं दिखाई और नेताजी को कठघरे में खड़ा कर दिया लेकिन मैं पूछता हूं कि क्या देश में मायावती एक ही है और आनंद एक ही है ? सरकार ने सिर्फ आनंद को पकड़ा, मायावती कैसे छूट गई ? आपने पत्ते तोड़ लिये लेकिन जड़ तो हरी की हरी है। आनंद ने यदि यह भ्रष्टाचार किया है तो किसके दम पर किया है ? देश में सैकड़ों मायावतियां हैं और हजारों आनंद हैं ? क्या देश में एक भी नेता ऐसा है, जो कह सके कि मेरा दामन साफ है ? मायावती का तो कोई परिवार नहीं है। कहा जाता है कि लोग अपने बाल-बच्चों के लिए भ्रष्टाचार करते हैं। मायावती का संदेश है कि अब देश बिना परिवारवाले नेताओं से भी सावधान रहे। नेतागीरी इस देश में काजल की कोठरी बन गई है। किसी नेता का दामन साफ रह ही नहीं सकता। यदि मोदी और योगी भारत की राजनीति शुद्धिकरण करना चाहते हैं तो उन्हें चाहिए कि वे सभी दलों के प्रमुख नेताओं और उनके रिश्तेदारों की खुली जांच करवाएं और उनकी सारी संपत्तियां जब्त करवाएं। भाजपा को भी न छोड़ें। सरकार के पास इतना धन इकट्ठा हो जाएगा कि उसे आयकर वसूलने की जरुरत नहीं रहेगी।

सरकार जरूरी या संगठन
ओमप्रकाश मेहता
अमित शाह के सरकार में जाने से संगठन कमजोर हुआ….? हर शख्स का अपनी जगह अपना महत्व होता है, फिर वह चाहे परिवार हो या समाज, या कि राजनीति, इस ब्रह्म वाक्य को आज पूरा देश महसूस करने को मजबूर है, देश की सत्ता का जबसे मोदी और अमित शाह के बीच बंटवारा हुआ है, तभी से देश के सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी का रूतबा कम होता दिखाई दे रहा है, पिछले माह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने ‘हनुमान’ अमित शाह जी को संगठन की राजनीति से बाहर कर उन्हें सरकार में अपना प्रमुख सहयोगी बनाकर पार्टी के चुनावी घोषणा-पत्र के क्रियान्वयन और कश्मीर समस्या जैसे मुद्दे सौंपकर उन्हें गृहमंत्री बना दिया, अब अमित शाह अपने आपमें इतने उलझ गए कि उन्हें पार्टी संगठन की ओर ध्यान देने का समय ही नहीं मिल पा रहा, यद्यपि अमित भाई पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अभी भी है, किंतु उन्होंने कार्यवाहक अध्यक्ष जे.पी. नड्डा जी को सम्पूर्ण कार्यभार सौंपकर अपने आपको गृह मंत्रालय तक सीमित कर लिया, यद्यपि सरकार में ऐसा कहा जाता है कि अमित शाह का हर शब्द मोदी का ही शब्द मानकर उस पर अमल किया जा रहा है, क्योंकि मोदी जी ने सरकार के दैनंदिनी कार्य अमित भाई को सौंपकर स्वयं के राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय मामलों तक ही सीमित कर लिया है। इस प्रकार कुल मिलाकर सरकार का अस्सी फीसदी महत्वपूर्ण कार्यभार अमित भाई के कंधों पर आ गया है और अमित भाई उसी में व्यस्त हो गए है, इसलिए वे न तो अब पार्टी को देख पा रहे है और न ही संघ व विहिप जैसे अहम् अनुषांगिक संगठनों को? इसी कारण से पिछले दिनों से यह महसूस किया जा रहा है कि पार्टी व पार्टी के साथ तालमेल कर सरकार से जुड़े दलों में अनुशासन हीनता बढ़ती जा रही है, जिस नड्डा जी जैसे तीसरी श्रेणी के नेता नियंत्रण नहीं कर पा रहे हैं।
हाल ही में देश में सत्तारूढ़ एनडीए संगठन में शामिल जदयू की बिहार सरकार ने भाजपा के सरंक्षक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की गतिविधियों पर खूफिया जांच शुरू करवा दी और भाजपा कुछ नहीं कर पाई। इसी तरह भारतीय जनता पार्टी संसदीय दल की बैठक में भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री के क्रिकेट-बल्लेबाज विधायक की करतूतों की प्रधानमंत्री मोदी ने खुलकर भत्र्सना की और यह भी कहा कि उक्त विधायक चाहे किसी का भी बेटा हो उसके खिलाफ व उसका जेल के द्वार पर स्वागत करने वाले पार्टीजनों के खिलाफ पार्टी से निकालने की कार्यवाही की जाए, किंतु चूंकि उक्त विधायक के दबंग पिता का पार्टी में रूतबा है, इसलिए उक्त विधायक को पार्टी ने सिर्फ एक नोटिस या ‘कारण बताओं सूचना-पत्र’ देकर कत्र्तव्य की खानापूर्ति कर ली, अर्थात् प्रधानमंत्री जी के निर्देशों की भी अनदेखी कर दी गई, इसके पूर्व भोपाल की सांसद प्रज्ञा भारती ठाकुर द्वारा गांधी जी के हत्यारें नाथूराम गोड़से की तारीफ करने पर भी प्रधानमंत्री जी ने काफी दुःखी होकर अपने विचार व्यक्त किए थे, किंतु उक्त घटना को भी पार्टी ने कोई विशेष महत्व नहीं दिया। जबकि आज की वास्तविकता यह है कि मोदी रूपि गंगा में साथ बहने के कारण इन कथित पापियों का भी राजनीति में उद्धार हुआ है और आज ये लोग जो भी है, जिस जगह पर भी है, मोदी जी के कारण है।
यदि हम भाजपा का पुराना इतिहास देखें तो यह वहीं पार्टी है, जिसके शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवानी को पाकिस्तान के जनक मोहम्मद अली जिन्ना की मजार पर जाकर उनके बारें में सिर्फ दो शब्द बोलने पर पार्टी के शीर्ष पदों से इस्तीफा देना पड़ा था, आज स्वयं अड़वानी व उनके साथी डाॅ. मुरली मनोहर जोशी को पार्टी के ऐसे दिन देखने पड़ रहे है, वे आखिर क्या सोचते होंगे? क्या इन पितृपुरूषों की घुटन को पार्टी के किसी शीर्ष नेता ने आज तक महसूस किया?
इस तरह कुल मिलाकर इतनी लम्बी जिरह करने का मकसद यह है कि अब कांग्रेस के रसातल की ओर जाने के बाद देश के आम वोटर की आस मोदी-शाह की भाजपा से ही है, और यदि ये शीर्ष नेता भी संगठन की जगह सत्ता को वरीयता देने लगे है तो फिर देश की भावी राजनीति का क्या होगा? क्या फिर देश में राष्ट्रीय दल एक भी नहीं बचेगा और क्षेत्रिय दल देश पर बारी-बारी से राज करेंगे?

जाधव को रिहा करे पाकिस्तान
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हेग के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के जज इस समय परम आनंद की स्थिति में होंगे। उन्होंने अपनी जिंदगी में कूलभूषण जाधव के मामले-जैसा फैसला कभी नहीं दिया होगा। इस फैसले का सबसे बड़ा चमत्कार यह है कि वादी और प्रतिवादी दोनों ही जश्न मना रहे हैं। भारत कह रहा है कि 16 में से 15 जजों ने जाधव के मुकदमे को फिर से चलाने और उसे भारतीय वकीलों की मदद लेने का अधिकार देकर पाकिस्तान के मुंह पर करारा तमाचा लगाया है और पाकिस्तान कह रहा है कि अदालत ने भारत की इस प्रार्थना को रद्द कर दिया है कि जाधव को वह निर्दोष माने और उसे रिहा करे। अदालत ने उस पर फिर से मुकदमा चलाने को कहा है। पाकिस्तान उसका स्वागत करता है। अगर पाकिस्तानी लोग इस फैसले पर जश्न मना रहे हैं तो भारत में भी लोग खुश हैं कि कुलभूषण जाधव की जान बच गई। वह बचेगी या नहीं, यह तो पाकिस्तान की अदालत तय करेगी लेकिन अब पाकिस्तान की फौजी या नागरिक अदालत अपनी मनमानी नहीं कर सकती। उसे भारतीय वकीलों के लिए भी अपने दरवाजे खोलने होंगे। पाकिस्तान ने जाधव पर एकतरफा फैसला देकर अंतरराष्ट्रीय अदालत के सामने अपनी नाक नीची कर ली। उसके मृत्युदंड के फैसले पर पुनर्विचार की बात कहकर हेग की अदालत ने पाकिस्तान को परेशानी में डाल दिया है। पाकिस्तानियों को इस बात की तकलीफ जरुर होगी कि इस मामले में अमेरिका और चीन ने भी उसका साथ नहीं दिया। उनके जजों ने भी पाकिस्तान की आलोचना की है कि उसने जाधव के मामले में वियना अभिसमय या अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का उल्लंघन किया है। अब यदि जाधव पर दुबारा मुकदमा चलाकर पाकिस्तान उसे फांसी देना चाहेगा तो वह आसान नहीं होगा। बेहतर यही होगा कि इमरान खान गहरी उदारता का परिचय दें। जैसे उन्होंने भारतीय पायलट अभिनंदन को रिहा किया, वैसे ही वे जाधव को रिहा कर दें। इस काम से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी प्रतिष्ठा बढ़ेगी और भारत-पाक संवाद का रास्ता खुलेगा। ऐसा होने पर जाधव के मामले में न भारत हारेगा और न ही पाकिस्तान। भारत और पाकिस्तान, दोनों ही जीतेंगे।

वृद्धजनों को दें पूर्ण सम्मान
डा0 जगदीश गाँधी
माँ की ममता तथा करूणा से भरी बचपन की एक बड़ी ही मार्मिक कहानी मुझे याद आ रही है – सांसारिक स्वार्थ में डूबा एक व्यक्ति अपनी बूढ़ी माँ का दिल निकालने के लिए हाथ में छुरी लेकर गया और माँ को मारकर उसका दिल हाथ में लेकर खुशी-खुशी चला। रास्ते में उसे जोर की ठोकर लगी वह गिर पड़ा। छिटककर हाथ से गिरा माँ का कलेजा बेटे की तकलीफ से तड़प गया। माँ के दिल से आह निकली मेरे प्यारे बेटे चोट तो नहीं आयी। माँ तो सदैव अपने बच्चों पर जीवन की सारी पूँजी लुटाने के लिए लालयित रहती है। मोहम्मद साहब ने कहा था कि अगर धरती पर कहीं जन्नत है तो वह माँ के कदमों में है।
पारिवारिक एकता का ज्ञान देने की जिम्मेदारी परिवार तथा स्कूल निभाये :-
समाज में बढ़ रही घोर प्रतिस्पर्धा से नैतिक मूल्यों का पतन हो रहा है। बुजुर्गो पर इसका प्रभाव ज्यादा है। उनकी उपेक्षा में बढ़ोतरी हुई है। जीवन के अंतिम पड़ाव में वह बेटे व परिवार के सुख से वंचित हो रहे हैं। इस पर जल्द नियंत्रण नहीं किया गया तो स्थिति भयावह हो जाएगी। बच्चों में बुजुर्गो के प्रति स्नेह व लगाव पैदा करना बहुत जरूरी है। बच्चों को यह बताया जाए कि बुजुर्गो की सेवा से ही जीवन सफल हो सकता है। समाज तथा विशेषकर स्कूलों के लिए यह एक चुनौती है। इसके लिए मानवीय सूझबूझ से भरी व्यापक योजना बनाने की जरूरत है।
केवल प्रेमपूर्ण हृदय वाला परिवार ही प्रकाशित है :-
समाज में बुजुर्गो का परम स्थान है लेकिन तेजी से बदलते समाज में उनका स्थान गिरता जा रहा है। विदेशों में पढ़ाने व अधिक धन कमाने के लिए वहीं नौकरी करने वालों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। आधुनिक सुख-सुविधाओं की चाह में वे स्वयं तो बड़े शहरों में रहना चाहते हैं लेकिन अपने मां-बाप को गांव-कस्बे में रखना चाहते हैं। बेटा जब अपने बूढ़े मां-बाप को अपने से दूर रखेगा तो उनकी सेवा कैसे हो सकती है?
वृद्धजनों को पूरा सम्मान तथा सामाजिक सुरक्षा देना समाज का उत्तरदायित्व है :-
वर्तमान भौतिक युग में आज सारे विश्व में वृद्धजनों के प्रति घोर उपेक्षा बरती जा रही हैं। विकसित देशों ने इस समस्या से निपटने के लिए सरकार की ओर से वृद्धजनों के लिए ओल्ड ऐज होम स्थापित किये हैं। जिसमें वृद्धजनों के खाने-पीने, बेहतर आवासीय सुविधायें, आधुनिक चिकित्सा, स्वस्थ मनोरंजन, खेलकूद, ज्ञानवर्धन हेतु लाइब्रेरी आदि-आदि सब कुछ उपलब्ध कराया गया है। साथ ही वृद्धजनों को सम्मानजनक जीवन जीने के लिए अच्छी खासी पेन्शन भी सरकार की ओर से दी जाती है। हमारे देश में वृद्धजनों के लिए ओल्ड ऐज होम की सुविधायें नहीं हैं। सीनियर सिटीजन को दी जाने वाली पेन्शन की राशि भी बहुत कम है। इस दिशा में सरकार तथा कॅारपोरेट जगत को सार्थक कदम उठाकर वृद्धजनों को सम्मानजनक जीवन जीने के अवसर उपलब्ध कराने के लिए आगे आना चाहिए।
संयुक्त परिवार वसुधैव कुटुम्बकम् की सीख देने की प्राथमिक पाठशाला है :-
प्राचीन काल में हमारे देश में संयुक्त परिवारों में वृद्धजनों को पूरा सम्मान, सुरक्षा तथा देखभाल मिलती थी। उद्देश्यहीन शिक्षा तथा भौतिकता की अंधी दौड़ ने हमारे देश में भी संयुक्त परिवारों की श्रेष्ठ परम्परा को बुरी तरह बिखेर दिया है। विशेषकर शहरों में एकल परिवार का रिवाज तेजी से बढ़ रहा है।
धरती में यदि कहीं जन्नत है तो माता-पिता के कदमों में है :-
इस धरती पर हमारे भौतिक शरीर के जन्मदाता माता-पिता संसार में सर्वोपरि हैं। हमें उनका सम्मान करना चाहिए। जिन मां-बाप ने अपना सब कुछ लगाकर अपनी संतानों को योग्य बनाया वे संतानें जब बड़े होकर अपने वृद्ध मां-बाप की उपेक्षा करती हैं तो उन पर क्या बीतती है इस पीड़ा की अभिव्यक्ति कोई भुगत-भोगी ही भली प्रकार कर सकता है। वृद्धजनों का मूल्यांकन केवल भौतिक दृष्टि से करना सबसे बड़ी नासमझी है। वृद्धजन अनुभव तथा ज्ञान की पूंजी होते हैं। बहाई धर्म के संस्थापक बहाउल्लाह का कहना है कि जब हमारे सामने माता-पिता तथा परमात्मा में से किसी एक का चयन करने का प्रश्न आये तो हमें माता-पिता को चुनना चाहिए। माता-पिता की सच्चे हृदय से सेवा करना परमात्मा की नजदीकी प्राप्त करने का सबसे सरल तथा सीधा मार्ग है। साथ ही मानव जीवन के परम लक्ष्य अपनी आत्मा का विकास करने का श्रेष्ठ मार्ग भी है। हमारे शास्त्र कहते हैं कि जिस घर में माता-पिता का सम्मान होता है उस घर में देवता वास करते हैं। माता-पिता धरती के भगवान है। माता-पिता इस धरती पर परमात्मा की सच्ची पहचान है।

भारतीय भाषाओं की विजय
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
तमिलनाडु के राज्यसभा सदस्यों को मैं हार्दिक बधाई देता हूं कि उन्होंने राज्यसभा का काम ठप्प करवाकर सारी भारतीय भाषाओं को मान्यता दिलवाई। कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद की सराहना करनी होगी कि उन्होंने तत्काल फैसला करके तमिल ही नहीं, सभी भाषाओं के द्वार खोल दिए। तमिलनाडु में 14 जुलाई को पोस्ट आफिसों में भर्ती के लिए कुछ परीक्षाएं हुईं। उनका माध्यम सिर्फ अंग्रेजी और हिंदी रखा गया। तमिलनाडु में कोई आदमी पोस्ट आफिस का कर्मचारी बने और वह तमिल न जाने तो वह किस काम का है ? यही बात देश के सभी प्रांतों पर लागू होती है। उन्हें एक अखिल भारतीय भाषा के साथ-साथ प्रांतीय भाषा भी आनी चाहिए। याने अखिल भारतीय भाषा का कामचलाऊ ज्ञान हो और प्रांतीय भाषा इस लायक आए कि उसमें ही वे अपनी भर्ती परीक्षा दे सकें । इस नियम को तमिलनाडु में उलट दिया गया था। इसी बात पर द्रमुक और अन्नाद्रमुक ने राज्यसभा में हंगामा खड़ा कर दिया था। जब मैंने अब से 54 साल पहले इंडियन स्कूल आॅफ इंटरनेशनल स्टडीज़ में अपना पीएच.डी. का शोधग्रंथ हिंदी में लिखने की मांग की थी तो द्रमुक के नेता अन्नादुरई और के. मनोहरन ने लोकसभा ठप्प कर दी थी। तब डाॅ. लोहिया ने उन्हें समझाया था कि वैदिक सिर्फ हिंदी में लिखने की मांग नहीं कर रहा है, वह सभी भारतीय भाषाओं के दरवाजे खुलवाना चाहता है। अन्नादुरईजी घनघोर हिंदी- विरोधी थे लेकिन उनसे मिलकर मैंने उन्हें अपना दृष्टिकोण समझाया तो वे काफी नरम पड़ गए। आज उनके शिष्यों ने पोस्ट आफिस की भर्ती परीक्षा में तमिल माध्यम की मांग करके समस्त भारतीय भाषाओं के दरवाजे खुलवा दिए हैं। 14 जुलाई को हुई भर्ती—परीक्षा को रद्द कर दिया गया है। बहुत पहले से हम मांग करते रहे हैं कि ससंद में सभी भारतीय भाषाओं में बोलने और संघ लोकसेवा आयोग में परीक्षाएं देने की अनुमति होनी चाहिए। यह काम तो शुरु हो गया है लेकिन अभी भी देश की न्यायपालिका पिछड़ी हुई है। उसका लगभग सारा काम अब भी अंग्रेजी में ही होता है। राष्ट्रपतिजी की पहल पर सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसलों का संक्षिप्त हिंदी अनुवाद करना शुरु कर दिया है, जो कि अच्छी शुरुआत है लेकिन यह काफी नहीं है। समस्त भारतीय भाषाओं को हर क्षेत्र में उनका उचित स्थान मिलने लगे तो हिंदी अपने आप सर्वभाषा बन जाएगी।

राजस्थान कांग्रेस में जारी है वर्चस्व की जंग
रमेश सर्राफ धमोरा
राजस्थान में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी की लड़ाई अब सडक़ों पर आ गई है। विधानसभा में बजट पेश करने के बाद मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बयान ने राजनीति में नई हलचल मचा दी थी। अब तक मुख्यमंत्री पद पर अपने उम्मीदवारी के बारे में चुप्पी साधने वाले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने साफ कहा कि विधानसभा चुनाव के दौरान प्रदेश की जनता चाहती थी कि अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बने और कोई नहीं। राहुल गांधी ने उसी भावना का आदर करते हुए मुझे यह अवसर दिया था। विधानसभा चुनाव को याद करते हुए अशोक गहलोत ने कहा था कि प्रदेश की जनता चाहती थी कि मैं मुख्यमंत्री बनूं, जनता ने किसी और का नाम नहीं लिया और इसीलिए मैंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
दरअसल पहली बार मुख्यमंत्री ने इस तरह का बयान दिया है। इससे पहले अशोक गहलोत कभी इस तरह खुलकर नहीं बोले। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को प्रदेश में करारी हार मिली और प्रदेश में कांग्रेस की राजनीति में उथलपुथल मच गई। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा कि लोकसभा चुनाव में हम सफल नहीं हो पाए, लेकिन यह सिर्फ प्रदेश में ही नहीं बल्कि पूरे देश में हुआ। राहुल गांधी के इस्तीफे देने के बाद कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति गरमाई हुई है। अशोक गहलोत को जयपुर से दिल्ली अध्यक्ष बनाकर भेजने की भी चर्चा चली थी। लेकिन प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अप्रत्यक्ष रूप से संकेत दे दिया कि वे राजस्थान ही रहेंगे, क्योंकि प्रदेश की जनता का मन था कि वे मुख्यमंत्री बने। मुख्यमंत्री का सीधा ईशारा उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट की तरफ था। विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद की लड़ाई हारे सचिन पायलट को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के साथ उप मुख्यमंत्री बनाया गया था।
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का बयान आते ही उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट ने गहलोत पर पलटवार करते हुये कहा कि राजस्थान की जनता ने पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी के नाम पर वोट दिए थे। देश के 3 राज्यों राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव एक साथ हुये थे। तीनो ही प्रदेशो में कांग्रेस की सरकार बनी है। तीनो ही प्रदेशो में कांग्रेस पार्टी की नीतियों व राहुल गांधी के कुशल नेतृत्व के कारण बहुमत मिल पाया था। विधानसभा चुनावों में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने बहुत मेहनत करके कांग्रेसी सरकार बनवाई थी। इसमें प्रदेश के किसी एक नेता का योगदान नहीं था जिसके कारण प्रदेश में सरकार बन पाई थी।
राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अचानक विवादित बयान देकर ठंडे पड़े माहौल में अचानक गर्माहट ला दी। गहलोत के बयान से राजस्थान में कांग्रेस की लड़ाई खुलकर सडक़ों पर आ गई है। प्रदेश की जनता में साफ संदेश जा रहा है कि राजस्थान कांग्रेस में दो खेमें बने हुये हैं। एक खेमें का नेतृत्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कर रहे हैं। वहीं दूसरे खेमे का नेतृत्व में उप मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट कर रहें हैं। प्रदेश की राजनीति में अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए दोनों नेता में जंग जारी है।
लोकसभा चुनाव में राजस्थान में कांग्रेस को मिली करारी हार के बाद उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट दिल्ली में मुख्यमंत्री बनने के लिए लोबिंग करने लगे हैं। सचिन पायलट का तर्क है कि 2018 के विधानसभा चुनाव का नेतृत्व राहुल गांधी ने किया था जिस कारण प्रदेश में सरकार बनी थी। वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव का राजस्थान में नेतृत्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने किया था जिनके नेतृत्व में पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई।
आज राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बने सात महीने हो गए हैं। लेकिन प्रदेश की जनता को कोई बदलाव नजर नहीं आ रहा है। पूर्ववर्ती भाजपा सरकार के समय में जो समस्याएं थी वह जस की तस मुंह बाये खड़ी है। सात माह में राज्य सरकार कोई नई योजना शुरू नहीं कर पाई है। बिजली की दरों में बढ़ोत्तरी होने से आम आदमी खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है। विधानसभा चुनावो से पूर्व कांग्रेस ने प्रदेश के किसानो से वादा किया था कि उनकी सरकार बनने के दस दिन के अंदर प्रदेश के सभी किसानों का दो लाख रूपये तक का कृषि से सम्बधित कर्जा माफ कर दिया जायेगा। मगर कांग्रेस सरकार अपना कर्ज माफी का वादा आज तक पूरा नहीं कर पायी है।
किसानो का कर्ज माफ नहीं होने के कारण कर्ज से परेशान किसान आये दिन आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। इससे प्रदेश के किसानो में सरकार के प्रति नाराजगी व्याप्त हो रही है। जिसका खामियाजा कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में सभी सीटो पर हार कर उठाना पड़ा था। प्रदेश में सभी विकास कार्य ठप पड़े हैं। बजट के अभाव में भाजपा सरकार के दौरान से चल रहे सडक़ों के निर्माण, मरम्मत के कार्य बंद पड़े हैं। बकाया भुगतान की मांग को लेकर ठेकेदारों ने हड़ताल कर रखी है।
प्रदेश में कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ती जा रही है। प्रदेश में भ्रष्टाचार पूर्व वत जारी है। राज्य में भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो छोटी-मोटी कार्यवाही कर खानापूर्ति कर रहा है। प्रशासन पर नौकरशाही हावी हो रही है। विधायक, मंत्री तबादलों में लगे हैं। इस कारण उनके जिलो में दौरे नहीं हो पा रहे हैं। काम नहीं होने से कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में निराशा व्याप्त होने लगी है। प्रदेश में सत्तारूढ़ दल के विधायकों की मंत्रियों से शिकायत है कि उनके काम नहीं कर रहे हैं।
ऊपर से प्रदेश के दो बड़े नेताओं के आपसी टकराव के चलते प्रदेश की जनता को लगने लगा है कि उन्होंने काग्रेस को वोट देकर कहीं गलती तो नहीं कर दी है। कांग्रेस नेताओं के आपसी टकराव के चलते लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सभी 25 सीटों पर हार का सामना देखना पड़ा था। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपने गृह जिले जोधपुर सीट से अपने पुत्र वैभव गहलोत को भी नहीं जिला सके।
मुख्यमंत्री गहलोत ने अपने बजट में कुछ लोक लुभावनी घोषणाएं करके वाहवाही पाने का प्रयास किया है। मगर योजनाएं धरातल पर कितना उतर पाती है यह तो आने वाला समय बताएगा। प्रदेश में जबसे गहलोत तीसरी बार मुख्यमंत्री बने हैं उनके सामने आए दिन सत्ता बचाने का संकट खड़ा रहता है। उनको बार-बार दौड़ कर दिल्ली जाकर कांग्रेस के बड़े नेताओं के सामने अपनी पैरवी करनी पड़ती है।
विधानसभा सत्र चल रहा है जिसमें विपक्षी दल सरकार पर हमलावर हो रहे हैं। विधानसभा अध्यक्ष डा. सीपी जोशी सरकार के मंत्रियों को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे हैं। ऐसे में प्रदेश के लोगों को लगता है कि ऐसा माहौल ज्यादा दिन चलने वाला नहीं है। कांग्रेस शासन चलाने के लिये जब तक कोई स्थाई फॉर्मूला लागू नहीं करेगा व गहलोत- पायलेट के मध्य चलने वाली उठापटक पर रोक नहीं लगायेगी तब तक प्रदेश में सत्ता की लड़ाई इसी तरह चलती रहेगी।

सत्ता सत्य है, राजनीति मिथ्या
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कर्नाटक और गोवा में जो कुछ हो रहा है, उसने सारे देश को वेदांती बना दिया है। वेदांत की प्रसिद्ध उक्ति है- ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या- याने ब्रह्म ही सत्य है, यह जगत तो मिथ्या है। दूसरे शब्दों में सत्ता ही सत्य है, राजनीति मिथ्या है। सत्ता ही ब्रह्म है, बाकी सब सपना है। राजनीति, विचारधारा, सिद्धांत, परंपरा, निष्ठा सब कुछ मिथ्या है। कर्नाटक और गोवा के कांग्रेसी विधायकों ने अपनी पार्टी छोड़ने की घोषणा क्यों की है ? क्या अपने केंद्रीय या प्रांतीय नेतृत्व से उनका कोई मतभेद था ? क्या वे वर्तमान सरकारों से कोई बेहतर सरकार बनाने का दावा कर रहे हैं ? क्या उनकी पार्टियों ने कोई भयंकर भ्रष्ट आचरण किया है ? ऐसा कुछ नहीं है। जो है, सो एक ही बात है कि इन विधायकों पर मंत्री बनने का भूत सवार हो गया है। तुमने हमें मंत्री क्यों नहीं बनाया ? अब हम तुम्हें सत्ता में नहीं रहने देंगे। हम मंत्री बनें या न बनें, तुमको तो हम सत्ता में नहीं ही रहने देंगे। हमें पुरस्कार मिले या न मिले, तुम्हें हम सजा जरुर दिलवा देंगे। यह तो कथा हुई कर्नाटक की और गोवा के 10 कांग्रेस विधायक भाजपा में इसलिए शामिल हो गए कि उनमें से दो-तीन को तो मंत्रिपद मिल ही जाएगा, बाकी के विधायक सत्तारुढ़ दल के सदस्य होने के नाते माल-मलाई पर हाथ साफ करते रहेंगे। दल-बदल कानून उनके विरुद्ध लागू नहीं होगा, क्योंकि उनकी संख्या दो-तिहाई से ज्यादा है, 14 में से 10 । यह तो हुई कांग्रेसी विधायकों की लीला लेकिन जरा देखिए भाजपा का भी रवैया ! कर्नाटक में उसे अपनी सरकार बनाना है, क्योंकि संसद की 28 में से 25 सीटें जीतकर उसने अपना झंडा गाड़ दिया है। उसे इस बात की परवाह नहीं है कि देश भर में उसकी छवि क्या बनेगी ? आरोप है कि हर इस्तीफेबाज विधायक को 40 करोड़ से 100 करोड़ रु. तक दिए गए हैं। यह आरोप निराधार हो सकता है लेकिन इस्तीफे देनेवाले विधायक आखिर इतनी बड़ी कुर्बानी क्यों कर रहे हैं ? उन पर तो दल-बदल कानून लागू होगा, क्योंकि उनकी संख्या एक-चौथाई भी नहीं है। जाहिर है कि वे कहीं के नहीं रहेंगे। दुबारा चुनाव लड़ने पर उनकी जीत का भी कोई भरोसा नहीं है। इस सारे मामले में सबसे रोचक रवैया कर्नाटक की कांग्रेस और जनता दल का है। वे इन विधायकों के इस्तीफे ही स्वीकार नहीं होने दे रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बावजूद विधानसभा अध्यक्ष जैसी पलटियां खा रहे हैं, उनसे उनका यह पद ही मजाक का विषय बन गया है। कर्नाटक और गोवा ने भारतीय राजनीति की मिट्टी पलीत करके रख दी है। अब संसद को एक नया दल-बदल कानून बनाना होगा। वह यह कि अब किसी भी पार्टी के विधायक और सांसद, उनकी संख्या चाहे जितनी भी हो, यदि वे दल-बदल करेंगे तो उन्हें इस्तीफा देना होगा। दलों को भी अपना आतंरिक कानून बनाना चाहिए कि जो भी सांसद या विधायक दल बदलकर नई पार्टी में जाना चाहे, उसे प्रवेश के लिए कम से कम एक साल प्रतीक्षा करनी होगी।

अब क्या नया ठिकाना बनायेगें सिद्धू ?
रमेश सर्राफ
क्रिकेटर से राजनेता बने नवजोत सिंह सिद्धू ने आखिर पंजाब सरकार के मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है। सिद्धू ने खुद ट्वीट के जरिए इसकी जानकारी दी। ट्विटर पर उन्होंने वह पत्र भी पोस्ट किया है, जिसे उन्होंने पार्टी अध्यक्ष को संबोधित करते हुए मंत्री पद से इस्तीफा दिया था। सिद्धू के मुताबिक 10 जून को ही उन्होंने यह पत्र तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को सौंप दिया था। हालांकि नवजोत सिंह सिद्धू ने अपना इस्तीफा 10 जून को ही दे दिया था लेकिन इसका खुलासा आज किया है। सिद्धू ने आज एक ट्वीट कर कहा है कि वे अपना इस्तीफा पंजाब के मुख्यमंत्री को भी भेज रहे हैं।
पंजाब में मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह और मंत्री नवजोत सिह सिद्धू के बीच लम्बे समय से अनबन चल रही थी। लोकसभा चुनाव में पंजाब में कांग्रेस को अच्छी संख्या में सीटें न मिलने का ठीकरा अमरिंदर सिंह ने सिद्धू के सिर पर फोड़ा था और केंद्रीय आलाकमान से उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग की थी। इतना ही नहीं मुख्यमंत्री ने लोकसभा चुनाव के बाद 6 जून को हुई कैबिनेट की पहली ही बैठक में सिद्धू का स्थानीय स्वशासन विभाग बदल कर ऊर्जा और नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा विभाग दिया था। लेकिन सिद्धू ने नये विभागों का कार्यभार ग्रहण नहीं किया था और न ही उन विभागों की मीटिंग में शामिल हुए थे।
उसके बाद से लगातार सिद्धू को लेकर नाराजगी की अटकलें लगाई जा रही थीं जिन पर विराम लगाते हुए रविवार को उन्होंने खुद अपने इस्तीफे की पेशकश को सार्वजनिक कर दिया। पिछली मीटिंग में मुख्यमंत्री ने पर्यटन और संस्कृति मामलों का प्रभार भी उनसे वापस ले लिया था। यहां सवाल उठता है कि सिद्धू ने अपना इस्तीफा कांग्रेस अध्यक्ष को क्यों भेजा जबकि इस्तीफा राज्यपाल या मुख्यमंत्री को भेजना चाहिये था। अब सिद्धू ने कहा है कि वो अपना स्तीफा मुख्यमंत्री को भी भेज रहे हैं।
6 जून को अपना विभाग बदलने से मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह से खफा नवजोत सिंह सिद्धू ने नये विभाग का कार्यभार ग्रहण नहीं किया बल्कि 10 जून को दिल्ली जाकर पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी से भी मुलाकात की थी। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर और सिद्धू के बीच पिछले काफी दिनों से मनमुटाव जारी है।
कांग्रेस नेता सिद्धू पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर के साथ जारी विवाद को लेकर लगातार सुर्खियों में रहे हैं। लोकसभा चुनावों के समय से ही दोनों नेताओं में मनमुटाव जारी है। लोकसभा चुनावों के दौरान पार्टी के खराब प्रदर्शन के लिए खुद को जानबूझकर निशाना बनाए जाने का सिद्धू ने आरोप लगाया। वहीं मुख्यमंत्री ने सिद्धू से उनका विभाग छीन लिया था। इसके बाद से ही सिद्धू कैप्टन से नाराज बताए जा रहे थे।
सिद्धू का इस्तीफा ऐसे वक्त आया है, जब कांग्रेस पार्टी में लीडरशिप को लेकर संकट की स्थिति है। लोकसभा चुनावों के परिणाम आने के बाद राहुल गांधी ने पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया है। सिद्धू और पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के बीच अनबन तब शुरू हुई जब सिद्धू पिछले साल इमरान खान के पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बनने पर उनके शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने पाकिस्तान गए थे।
पंजाब में मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की कैबिनेट के सदस्य रहे नवजोत सिंह सिद्धू ने उन्हें कभी अपना कैप्टन माना ही नहीं। एक प्रेस कांफ्रेस ने खुद सिद्धू ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा था कौन कैप्टन? किसका कैप्टन? मेरे कैप्टन तो राहुल गांधी हैं। यही नहीं पाकिस्तान में इमरान खान के शपथ ग्रहण समारोह, करतारपुर कॉरिडोर के शिलान्यास कार्यक्रम में जाने सहित कई अन्य मामलों में भी दोनों के बीच मतभेद खुलेआम सामने आए। स्थिति इतनी बिगड़ गई कि पिछले माह अमरिंदर ने सिद्धू का मंत्रालय बदल दिया। मामला राहुल गांधी तक पहुंचा था लेकिन फिर भी दोनों के बीच सुलह नहीं हो पाई।
नवजोत सिंह सिद्धू पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के शपथ समारोह के दौरान पाकिस्तानी आर्मी चीफ जनरल कमर बाजवा के गले मिले थे। इसे लेकर खूब विवाद हुआ था। इसके बाद करतारपुर गलियारे की नींव रखी जानी थी तो 26 नवंबर को भारत की तरफ आयोजित कार्यक्रम में सिद्धू नदारद रहे। लेकिन 28 नवंबर को पाकिस्तान में आयोजित शिलान्यास समारोह में वह शामिल हुए। तब कैप्टन अमरिंदर ने कहा था कि सिद्धू हाईकमान की परमिशन के बिना वहां गए हैं। पाकिस्तान से वापसी के बाद सिद्धू से कैप्टन की नाराजगी पर मीडिया ने बात की तो सिद्धू ने बड़े व्यंग्यात्मक लहजे में कहा था कौन कैप्टन? ओह कैप्टन? ओह आर्मी दे कैप्टन मेरे कैप्टन तो राहुल गांधी हैं।
फरवरी 2019 में पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर आतकी हमले को लेकर भी कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू के बयान एक-दूसरे अलग थे। एक तरफ कैप्टन अमरिंदर ने 41 के बदले 82 मारने की बात कहते हुए पाकिस्तान के खिलाफ सख्त कार्रवाई की बात कही थी। वहीं इस मसले पर सिद्धू का बयान था कि आतंकियों का कोई देश और मजहब नहीं होता। कुछ लोगों की करतूत के लिए किसी राष्ट्र को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। अमरिंदर और नवजोत सिंह सिद्धू के बीच की खींचतान का एक कारण सिद्धू की पत्नी का टिकट कटना भी माना जा रहा है। सिद्धू की पत्नी ने आरोप लगाया था कि अमरिंदर के कहने पर उनका टिकट काटा गया है। इस पर सिद्धू ने कहा था कि उनकी पत्नी झूठ नहीं बोलतीं।
पंजाब सरकार के मंत्री पद से स्तीफा देने के बाद अब सिद्धू के पास कोई काम नहीं बचा है। यदि पार्टी उन्हे संगठन में राष्ट्रीय पदाधिकारी बना भी देती है तो उससे सिद्धू संतुष्ठ होने वाले नहीं हैं। सिद्धू बहुत महत्वकांक्षी है तथा उनकी नजर पंजाब के मुख्यमंत्री पद पर है जो कैप्टन अमरिन्द्र सिंह के रहते मुश्किल है। राष्ट्रीय सचिव तो वो भाजपा में भी थे। उनको तो भाजपा ने राज्यसभा में भी मनोनित करवा दिया था। मगर उससे वो संतुष्ठ होने वाले नहीं थे जिस कारण उन्होने भाजपा व राज्यसभा से स्तीफा दे दिया था। भाजपा छोडऩे के बाद कांग्रेस व आप में उन्हे शामिल करने की होड़ सी लग गयी थी। अंत में वो कांग्रेस में शामिल होकर मंत्री बने। मगर अपनी हरकतों से वो जल्दी ही कैप्टन अमरिन्द्र सिंह के निशाने पर आ गये थे। कैप्टन को नजर अंदाज कर वो अलग चलने की कोशिश करते रहे मगर मंत्रीमंडल में उनके विभाग बदलकर कैप्टन ने उनको औकात बता दी थी। उसके बाद सिद्धू के समझ में यह बात अच्छी तरह से आ गयी कि यहां उनकी मनमानी चलने वाली नहीं हैं। ताजा घटनाक्रम व सिद्धू के पिछले इतिहास को देखने से लगता है कि शिघ्र ही कहीं वो नया ठिकाना बना लेगें।

‘‘सलाम करो, उस लड़के को!’’
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कल कुछ समाजवादी साथियों ने दिल्ली में दो दिन का समाजवादी समागम आयोजित किया था। देश भर से लगभग 150-200 ऐसे समाजवादी इकट्ठे हुए थे, जो देश की वर्तमान राजनीतिक दशा से चिंतित थे और कुछ पहल करने का विचार कर रहे थे। दूसरे दिन के सत्र में श्री रमाशंकरसिंह और श्री सुनीलम ने मुझे एक मुख्य वक्ता के रुप में बहुत ही आदर और आग्रह से निमंत्रित किया था। मैं जब बोलने खड़ा हुआ तो एक सज्जन खड़े होकर जोर-जोर से चिल्लाने लगे कि आप आरएसएस के आदमी हैं। आप यहां क्यों बोल रहे हैं ? उन सज्जन को यह शायद पता नहीं कि उनके पूज्य पिताजी के साथ भी, जो डाॅ. राममनोहर लोहियाजी के सहयोगी थे, मैंने कई बार प्रदर्शन, जुलुस और मंच साझा किया है। उनको सबसे बड़ी आपत्ति यह थी कि 5-6 साल पहले मैंने नरेंद्र मोदी का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए क्यों प्रस्तावित किया था और सारे देश में घूम-घूमकर उसके लिए समर्थन क्यों जुटाया था ? उनको यह पता नहीं कि पिछले पांच साल में प्रधानमंत्री और सरकार की मैंने जितनी कड़ी समीक्षा की है, किसी विरोधी दल के नेता ने भी इतना साहस नहीं किया है। लेकिन मैं न तो किसी दल और न ही किसी नेता का अंधभक्त हूं। मैं तो सिद्धांतों और विचारों पर कुर्बान जाता हूं। यदि मोदी अच्छे काम करें तो मैं उनका डटकर समर्थन क्यों नहीं करुंगा ? अब से 62 साल पहले मैंने हिंदी आंदोलन में जेल काटी है। उसके बाद मैंने कई आंदोलन इंदौर और दिल्ली में चलाए। कई बार जेल गया। मेरे साथ जेल गए लड़के आगे जाकर राज्यों और केंद्र में मंत्री, मुख्यमंत्री सांसद और विधायक बने हैं। उनमें से एक दो कल की सभा में भी मौजूद थे। अब से लगभग 60 साल पहले मैंने इंदौर के क्रिश्चियन काॅलेज में डाॅ. लोहिया का भाषण करवाने का खतरा मोल लिया था। उन्होंने मुझे अंग्रेजी हटाओ आंदोलन का बीड़ा उठाने की प्रेरणा दी थी। मैंने 1977 में नागपुर में और 1998 में इंदौर में अंग्रेजी हटाओ सम्मेलन आयोजित किए थे, जिनमें सर्वश्री राजनारायण, जार्ज फर्नांडीस, जनेश्वर मिश्र, कर्पूरी ठाकुर के अलावा भाजपा के कई मुख्यमंत्रियों और देश भर के हजारों समाजवादी, जनसंघी, कांग्रेसी, कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं ने भाग लिया था। मैंने हमेशा पार्टीबाजी से ऊपर उठकर काम किया है, क्योंकि मेरा लक्ष्य मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बनना कभी नहीं रहा। इसीलिए मैं कभी किसी पार्टी का सदस्य नहीं बना और मैंने कभी चुनाव नहीं लड़ा। मेरा रास्ता तो बचपन से वह है, जो महर्षि दयानंद, महात्मा गांधी, डाॅ. लोहिया और जयप्रकाश का रहा है। इसलिए जब मई 1966 में मेरे पीएच.डी. के शोधप्रबंध को हिंदी में लिखने के कारण संसद में जबर्दस्त हंगामा हुआ तो मेरा समर्थन मद्रास की द्रमुक पार्टी के अलावा सभी पार्टियों ने किया। इंदिरा गांधी, डाॅ. लोहिया, आचार्य कृपालानी, मधु लिमए, भागवत झा आजाद, हीरेन मुखर्जी, हेम बरुआ, अटलबिहारी वाजपेयी, दीनदयाल उपाध्याय, गुरु गोलवलकर, चंद्रशेखर राजनारायण, डाॅ. जाकिर हुसैन, दिनकरजी, बच्चनजी- सभी ने किया। मैं द्रमुक के नेता अन्नादुराईजी से भी मिला। डाॅ. लोहिया ने ही मेरे समर्थन का बीड़ा उठाया था। जब शिक्षा मंत्री छागलाजी ने मुझ पर हमला किया तो लोहियाजी ने संसद में कहा था, ‘‘सलाम करो, उस लड़के को।’’ डाॅ. लोहिया से उनके निवास, 7 गुरुद्वारा रकाबगंज पर रोज मुलाकात होती थी। उनके निधन के पहले जब वे विलिंगडन अस्पताल में भर्ती हुए तो मैं उन्हें बंगाली मार्केट रसगुल्ले खिलाने ले गया था, जहां मप्र के मंत्री आरिफ बेग, रमा मित्रा और उर्मिलेश झा (डाॅ. लोहिया के सचिव) भी साथ थे। मेरी ही पहल पर दीन दयाल शोध संस्थान ने ‘गांधी, लोहिया और दीनदयाल’ पुस्तक प्रकाशित की थी। अब के प्रौढ़ या नौजवान यदि मुझ पर किसी पार्टी या संगठन का बिल्ला चिपकाना चाहें तो यह उनकी नादानी है। ये मेरे नादान भाई मुझे तो क्या, जयप्रकाशनारायणजी को भी कोसते हैं, क्योंकि उन्होंने आपात्काल के विरुद्ध आरएसएस का सहयोग लिया था। मैं यह मानता हूं कि आज देश नेतृत्वविहीन है। ऐसी स्थिति में सत्तालोलुपता की बजाय हमें ऐसा राष्ट्रीय मोर्चा खड़ा करना चाहिए, जिसमें लोग दलों, जातियों, संप्रदायों से ऊपर उठकर देश की सेवा करें। जन-जागरण करें।

समाज में गुरु का स्थान
डॉक्टर अरविन्द पी जैन
जिसके जीवन में गुरु नहीं ,उसका जीवन शुरू नहीं .वर्तमान में गुरु का स्थान टीचर ने या शिक्षक ने ले लिया हैं .दूसरा टीचर का ध्यान अब ज्ञान देने की अपेक्षा धन की ओर होने से महत्व कम हो गया .आज छात्र शिक्षक से यह भी कहने से नहीं चूकता की आपको पैसा दे रहा हूँ और अहसान नहीं कर रहे हैं .जबकि अज्ञान ज्ञान मिलने से समाप्त हो जाता हैं .
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरु पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरम्भ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-सन्त एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से भी सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, वैसे ही गुरु-चरणों में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शान्ति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।
यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म इसी दिन हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे।
शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है।अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ‘गुरु’ कहा जाता है।
“अज्ञान तिमिरांधश्च ज्ञानांजन शलाकया,चक्षुन्मीलितम तस्मै श्री गुरुवै नमः ”
गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। [क] बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है।
इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरु पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरम्भ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-सन्त एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से भी सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, वैसे ही गुरु-चरणों में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शान्ति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।
हिंदू तथा बौद्ध धर्म के साथ ही जैन धर्म में भी गुरु पूर्णिमा को एक विशेष स्थान प्राप्त है। इस दिन को जैन धर्म के अनुयायियों द्वारा भी काफी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है।
जैन धर्म में गुरु पूर्णिमा को लेकर यह मत प्रचलित है कि इसी दिन जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने गांधार राज्य के गौतम स्वामी को अपना प्रथम शिष्य बनाया था। जिससे वह ‘त्रिनोक गुहा’ के नाम से प्रसिद्ध हुए, जिसका अर्थ होता है प्रथम गुरु। यही कारण है कि जैन धर्म में इस दिन को त्रिनोक गुहा पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है
गुरु पूर्णिमा की आधुनिक परम्परा
प्राचीनकाल के अपेक्षा में आज के गुरु पूर्णिमा मनाने के तरीके में काफी परिवर्तन हो चुका है। आज के समय में ज्यादेतर लोगो द्वारा इस पर्व को विशेष महत्व नही दिया जाता है। पहले के समय में लोगो द्वारा इस दिन को बहुत ही पवित्र माना जाता था और गुरुकुल परंपरा में इस दिन को एक विशेष दर्जा प्राप्त था, अब लोग इस दिन को मात्र एक साधरण दिन की तरह मनाते हैं और नाहि पहले के तरह गुरु की महत्ता में विश्वास रखते है।
यही कारण है, लोगो के अंदर गुरु के महत्व को लेकर जागरुकता दिन-प्रतिदिन कम होते जा रही है। यदि हम ज्यादे कुछ नही कर सकते तो कम से कम अपने गुरु का आदर तो कर ही सकते हैं और वास्तव में उनका सदैव सम्मान करके हम गुरु पूर्णिमा के वास्तविक महत्व को सार्थक करने का कार्य और भी अच्छे से कर सकते हैं।
गुरु पूर्णिमा का महत्व
शास्त्रों में गुरु को पथ प्रदर्शित करने वाला तथा अंधकार को दूर करने वाला बताया गया है। गुरु का अर्थ ही है अंधकार को दूर करने वाला क्योंकि वह अज्ञानता का अंधकार दूर करके एक व्यक्ति को ज्ञान के प्रकाश के ओर ले जाते हैं। बच्चे को जन्म भले ही उसके माता-पिता द्वारा दिया जाता हो, लेकिन उसे जीवन का अर्थ समझाने और ज्ञान प्रदान करने का कार्य गुरु ही करते है।
सनातन धर्म में मनुष्य को मोक्ष और स्वर्ग प्राप्ति बिना गुरु के संभव नही है। गुरु ही है जो एक व्यक्ति की आत्मा का मिलन परमात्मा से कराते है और उनके बिना यह कार्य दूसरा कोई नही कर सकता है। एक व्यक्ति को जीवन के इस बंधन को पार करने के लिए गुरु की आवश्यकता होती है। यहीं कारण है कि हिंदू धर्म में गुरु को इतना महत्व दिया जाता है।
विद्यालाभो गुरोरवशात !
विद्या की प्राप्ति गुरु से ही होती हैं !
उपदेशम दद्तपात्रे गुरुर्याति कृतार्थताम !
पात्र को उपदेश देने वाला गुरु कृतकृत्य हो जाता हैं !
किं न स्याद गुरुसेवया !
गुरु सेवा से सब कुछ हो सकता हैं !
गुरौ भक्तिस्तु कामदा !
गुरु भक्ति इष्ट फल देती हैं !
तुम सा दानी क्या कोई हो ,जग को दे दी जग की निधियाँ !
दिन रात लुटाया करते हो समशम की अविनश्वर मणियाँ!!
गुरुवर की जय हो जय हो जय हो !

कश्मीर में जवाहिरी का जिहाद
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अल कायदा के मुखिया एयमान जवाहिरी ने अजीब-सा एलान जारी किया है। उसने कश्मीरी नौजवानों से अपील की है कि वे अब बड़े जोर-शोर से आतंकवाद फैलाएं और हिंदुस्तान की नाक में दम कर दें। वे हिंदुस्तान की सरकार और अर्थव्यवस्था को पंगु बना दें। जवाहिरी या उसके मरहूम उस्ताद उसामा बिन लादेन या कोई अन्य इस्लामी अतिवादी इस तरह के बयान जारी करें, उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है लेकिन इस बार जवाहिरी ने जो कहा है, उससे पाकिस्तान को बहुत एतराज हो सकता है, क्योंकि उसका यह कथन पाकिस्तान को सारी दुनिया में बदनाम भी कर देगा और भारत उस पर जो इल्जाम लगाता है, उसे वह मजबूती भी प्रदान करेगा। जवाहिरी ने कहा है कि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसियां अमेरिका की गुलाम हैं। वे भारत को ब्लेकमेल करने का काम करती हैं। वे कश्मीर की आजादी के लिए नहीं लड़ती, बल्कि अमेरिका के स्वार्थों को सिद्ध करती हैं। आज पाकिस्तानी एजेंसियां कश्मीरी मुजाहिदीन के साथ वैसे ही गद्दारी कर रही हैं, जैसी उन्होंने अफगानिस्तान से रुसी वापसी के बाद अरब मुजाहिदीन के साथ की थी। इसी तर्क के आधार पर जवाहिरी ने कश्मीरी आतंकवादियों से आग्रह किया है कि वे पाकिस्तानी एजेंसियों से अपना संबंध विच्छेद करें। बिल्कुल यही बात चार-पांच दिन पहले ‘अंसार गजबतुल हिंद’ के नए मुखिया हमीद ललहरि ने कही थी। इस संगठन को ज़ाकिर मूसा ने ‘हिजबुल मुजाहिदीन’ को तोड़कर बनाया था। हिज्ब को पाकिस्तानपरस्त संगठन माना जाता है। इधर मूसा भी मारा गया और बालाकोट हमला भी हुआ। साल भर में दर्जनों प्रमुख आतंकवादी भी मारे गए। उनके गिरते हुए मनोबल को उठाने के लिए जवाहिरी ने यह पैंतरा मारा है लेकिन जवाहिरी को यह पता होना चाहिए कि पाकिस्तान की मदद के बिना ‘कश्मीरी जिहाद’ की कमर टूट जाएगी। भूवेष्टित कश्मीर के आतंकवादियों का दम घुट जाएगा। दूसरी बात यह कि आतंकवाद हजार साल भी चलता रहे तो वह कश्मीर को भारत से अलग नहीं कर पाएगा। हां, पाकिस्तान को जरुर बर्बाद कर देगा। फौजी खर्च ने पाकिस्तान को दिवालिया बना दिया है। इमरान खान जैसे स्वाभिमानी पठान को किस-किस के आगे अपना दामन नहीं पसारना पड़ रहा है ? आतंकवाद के चलते जितने लोग भारत में मारे जा रहे हैं, उससे ज्यादा पाकिस्तान और अफगानिस्तान में मारे जा रहे हैं ? ये मरनेवाले कौन हैं ? बेचारे बेकसूर मुसलमान हैं। इन बेकसूर मुसलमानों को मौत के घाट उतारना कौनसा जिहाद है ? जरा जवाहिरी हमें बताए कि कुरान-शरीफ की कौनसी आयात में इसे जिहाद कहा गया है ?

जितना बजट, उतना ही कर्ज
ओमप्रकाश मेहता
मध्यप्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री कमलनाथ पिछली शिवराज सरकार की ‘‘ऋणम् धृत्वा, घृतम् पीबेत’’ (कर्जा लो और घी पियो) की विरासत में मिली नीति से काफी परेशान है, यद्यपि उन्होंने अपनी सरकार का पहला बजट तो प्रस्तुत कर दिया, किंतु उन्हें इस बात का बेहद अफसोस रहा कि राज्य की आर्थिक स्थिति और कर्ज की भारी मात्रा के कारण वे जनकल्याण व विकास की अपनी उम्मीदें पूरी नहीं कर पा रहे है, प्रदेश की जनता के प्रति सद्भावना का ताजा और सबसे अहम् उदाहरण तो यह है कि प्रदेश की विषम आर्थिक स्थिति के बावजूद उन्होंने अपने नए बजट में जनता के किसी भी वर्ग पर कोई कर का बोझ नहीं डाला और अपने सीमित बजट में ‘‘सर्वजन सुखाय, सर्वजन हिताय’’ की ही बात की।
मध्यप्रदेश में पिछले पन्द्रह वर्षों से भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी और इन पन्द्रह वर्षों में लगभग तेरह वर्ष शिवराज सिंह जी ही मुख्यमंत्री रहे, और उनका हर बजट प्रदेश की आर्थिक स्थिति का आईना सिद्ध हुआ, हर साल उन्हें कर्ज लेना पड़ा और वह कर्ज पन्द्रह साल में डेढ़ लाख हजार करोड़ तक पहुंच गया, इसके बाद जब सात माह पूर्व प्रदेश में कमलनाथ जी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी तो उसे पिछली सरकार से विरासत में डेढ़ लाख करोड़ का कर्ज भी मिला, अब कमलनाथ जी के सामने सबसे बड़ी परेशानी किसानों के कर्ज चुकाने का वादा और शिक्षित युवाओं को रोजगार मुहैय्या कराने की थी, जिस पर उन्होंने अपने तरीके से अमल किया। फिलहाल इस सरकार को केवल सात माह अर्थात् करीब दो सौ दिन का समय मिला है, इस बीच सरकार के सामने जनहित व जनकल्याण का बजट प्रस्तुत करने की अहम् जिम्मेदारी आ गई। अतः सरकार को बिना आगा-पीछे सोचे ऐसा बजट प्रस्तुत करने को अघत होना पड़ा जो सरकार के लिए आर्थिक बोझ बढ़ाने वाला था, फिर भी इस बजट की सबसे अहम् बात तो यह कि बिना कोई नया कर थोपे सरकार ने जनता के हर वर्ग के कल्याण व उनकी मुसीबतें हल करने का विशेष ध्यान रखा, खासकर किसानों व युवाओं का। किसानों का कृषि बजट में जहां 66 फीसदी की वृद्धि कर उसे 46 हजार 559 करोड़ का कर दिया गया वहीं किसानों की कर्ज माफी के लिए आठ हजार करोड़ की राशि सुरक्षित रखी गई। साथ ही प्रदेश में स्थापित होने वाले उद्योगों में प्रदेश के शिक्षित बेरोजगारों से सत्तर फीसदी नौकरियां देने का भी सख्त आदेश पारित कर दिया गया। बजट में ग्रामीण विकास हेतु 17,186 करोड़ स्कूली शिक्षा के लिए 24,499 करोड़ राज्य में बेहतर स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराने हेतु उसकी बजट राशि में 32 फीसदी की वृद्धि। इस प्रकार कुल दो लाख चैदह हजार 85 करोड़ का राज्य का नया बजट प्रस्तुत किया गया। वह भी तब जक केन्द्र की मोदी सरकार ने प्रदेश के हिस्से के 2,700 करोड़ रूपए की राशि का भुगतान नहीं किया।
अब सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौति बिना किसी विशेष आय के प्रदेश के सपनों में रंग भरना है, इसके लिए सरकार ने सामाजिक कुरीतियों से जुड़ी एश-ओ-आराम की वस्तुओं पर अधिभार लगाकर पैसा जुटाने का रास्ता खोजा है, जिसमें सबसे पहले क्रम पर शराब है, इसकी एक्साईज ड्यूटी से 3,500 करोड़ जुटाने का लक्ष्य रखा गया है, इसके बाद स्टाॅम्प ड्यूटी के तहत प्राॅपर्टी रजिस्ट्री शुल्क दो फीसदी बढ़ा दिया, इससे बारह सौ करोड़ की अतिरिक्त आय होगी। इसी तरह यात्री वाहनों के प्रति सीट लिए जाने वाले टेक्स में वृद्धि कर उससे तीन हजार करोड़ की आय का लक्ष्य निर्धारित किया गया, जो अभी तक 2,691 करोड़ था। इसी तरह ईंधन (पेट्रोल-डीजल) माईनिंग (खनिज) आदि के माध्यमों से भी सरकार का आर्थिक बोझ कम करने का प्रयास किया गया। ये सब तो आर्थिक संसाधन खोजे गए पर सरकार ने अपने प्रयासों से प्रदेश के आम गरीब व मध्यम वर्ग के साथ किसान व युवा महिला वर्ग की सुविधाओं का विशेष ध्यान रखा गया। यद्यपि इतने सब प्रयासों के बावजूद एक वर्ष में प्रदेश सरकार पर 28 हजार करोड़ रूपए का कर्ज बढ़ जाने का अनुमान है, किंतु सरकार का भी यह मजबूरीपूर्ण दायित्व है कि वह अपनी असुविधाओं को नजर अंदाज कर प्रदेशवासियों के कल्याण व विकास का विशेष ध्यान रखे, वही कमलनाथ सरकार करने जा रही है, इस सरकार के दिल में उम्मीदें तो अनंत है, किंतु झोली खाली होने से वह असहाय भी है। केन्द्र में अपने दल की सरकार नहीं होना भी राज्य सरकार की सबसे बड़ी चुनौति होती है।

आओ चलें एक पेड़ लगाएं …
निर्मल रानी
तेज़ रफ़्तार ज़िन्दिगी के इस दौर में हम इतने आगे निकलते जा रहे हैं की ज़िंदिगी की सबसे महत्वपूर्ण ज़रूरतों को हम न केवल पीछे छोड़े जा रहे हैं बल्कि इन ज़रूरतों की तरफ़ से प्रायः हम अपनी आँखें भी बंद किये बैठे हैं। यह ज़रूरतें भी ऐसी हैं जिनके बिना प्राणी के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इतना ही नहीं बल्कि प्रकृति प्रदत्त इन बेशक़ीमती चीज़ों का कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है। क़ुदरत द्वारा अपने प्राणियों को मुफ़्त में दी गई यह अमूल्य नेमतें हैं हवा अर्थात ऑक्सीजन एवं पानी। पृथ्वी की संरचना के समय प्रकृति द्वारा जीवनोपयोगी समस्त तत्वों की पूरी तरह से संतुलित व समीकरण के मुताबिक़ ही उत्पत्ति की गई थी। प्रकृति ने हमें स्वच्छ एवं पर्याप्त जल दिया जिसके बिना हम चंद दिन भी ज़िंदा नहीं रह सकते। हरे भरे पेड़ों के असीमित जंगल दिए जो हमें ऑक्सीजन भी देते हैं तथा सम्पूर्ण पृथ्वी के लिए सबसे लाभदायक व ज़रूरी, वर्षा कराने में अपनी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। इस प्रकार की और असंख्य चीज़ें क़ुदरत ने हमें अता की हैं जिनका प्रकृति हमसे कोई मूल्य भी नहीं लेती। यह भी कहा जा सकता है कि संसार में सभी कल कारख़ानों में निर्मित होने वाली कोई भी चीज़ ऐसी नहीं जिसकी आधार सामग्री या कच्चा माल क़ुदरत द्वारा अता किया गया न हो।
हालाँकि प्रकृति अपनी अता की गई नेमतों के बदले में तो हमसे कुछ भी नहीं मांगती परन्तु हम मानव जाति के स्वयंभू “शिक्षित व ज्ञानवान ” लोग इन बेशक़ीमती प्रकृतिक चीज़ों की क़ीमत देना या इसके बारे में सोचना तो दूर,हम उस प्रकृति का उसकी असीम कृपा व नवाज़िशों का शुक्र तक अदा करना अपनी झूठी शान के ख़िलाफ़ समझते हैं। बात सिर्फ़ इतनी भी नहीं कि हम क़ुदरत से एहसान फ़रामोशी करते हैं और उसके एहसानों का शुक्र अदा नहीं करते। बल्कि बात तो यहाँ तक पहुँच चुकी है कि विकास,प्रगति,आधुनिकता तथा विज्ञान के नाम पर मची विश्वव्यापी अंधी दौड़ में हम अपने जीवन के लिए जल,वायु तथा वृक्ष की ज़रूरतों की अनदेखी कर जल और वृक्ष दोनों के ही स्वयं दुश्मन बन बैठे हैं। अनावश्यक जल दोहन करना तथा इसे बर्बाद करना तो हमें ख़ूब आता है परन्तु जल संरक्षण करना या जल की अहमियत को समझना हम नहीं जानते। मकानों के निर्माण से लेकर फ़र्नीचर,काग़ज़ व गत्ते आदि बनाने की लिए वृक्षों को काटना तो हमें आता है परन्तु वृक्ष लगाना हम ज़रूरी नहीं समझते। इन सब चीज़ों की बर्बादी का ठेका तो हमने ले रखा है परन्तु जल जंगल के संरक्षण या इसे सुचारु रखने की उम्मीदें हम सरकार से लगाए रहते हैं। गर्मी में धूप से बचने के लिए यहाँ तक कि अपने वाहन को खड़ा करने के लिए,अपनी रेहड़ी दुकान आदि लगाने के लिए हर व्यक्ति छायादार वृक्ष की तलाश करता है।परन्तु छाया ढूंढने वाले इन्हीं लोगों से पूछिए कि इनमें से कितने लोग ऐसे हैं जो वृक्ष लगाकर अपने ही मानव समाज के लिए छाया का प्रबंध करते हैं ?कथित विकास की इस अंधी दौड़ ने केवल मानव का ही नहीं बल्कि पशु पक्षियों का जीवन भी नर्क के सामान बना दिया है। मानवीय ग़लतियों का ही नतीजा है की आज पशु पक्षियों द्वारा इस्तेमाल में लाए जाने वाले तालाब ,झीलें,जोहड़,बड़े बड़े पेड़, घास के मैदान,हरियाली आदि इतिहास की बातें बनकर रह गए हैं।
निश्चित रूप से मानव समाज की इन्हीं “कारगुज़ारियों ” की वजह से पृथ्वी का तापमान अकल्पनीय रूप से बढ़ता जा रहा है। बुद्धिजीवी वैश्विक समाज ने इसे ग्लोबल वार्मिंग का नाम दिया है। और अब इस ग्लोबल वार्मिंगसे निपटने के लिए आए दिन अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन आयोजित किये जा रहे हैं। इससे बचने व इसे कम करने के उपाए ढूंढें जा रहे हैं। दुनिया के कई “चौधरी” देश ख़ुद तो विकास के नाम पर धुआँ उगलने की रोज़ नई चिमनियां बना रहे हैं,वातावरण को ज़हरीला बनाने वाले शस्त्र निर्मित कर रहे हैं,पहाड़ों को काट काट कर उसका भूगोल बदल रहे हैं,पर्वत की छाती को चीर कर तो कहीं भूतलीय सुरंगों का निर्माण कर रहे हैं। परन्तु जब पर्यावरण के यही दुश्मन विश्व पंचायत में कहीं इकठ्ठा होते हैं तो एक दूसरे को प्रदूषण फैलाने व ग्लोबल वार्मिंग का ज़िम्मेदार बताते हैं। इन्हीं “विकास दूतों ” की विकास की होड़ का नतीजा है कि अब आम लोगों को पानी ख़रीद कर पीना पड़ रहा है। मुंह पर मास्क लगाकर घर से बाहर निकलना मजबूरी बन चुकी है। और तो और स्वच्छ ऑक्सीजन लेने के लिए भी अब “ऑक्सीजन बॉर” खुलने लगे हैं। यानी वह वक़्त भी आ चुका है कि हमें पानी ही नहीं बल्कि सांस लेने के लिए ऑक्सीजन भी ख़रीदनी पड़ेगी। गोया हमारे “विकास” और पर्यावरण के प्रति हमारी नकारात्मक सोच व लापरवाही ने हमें जाने अनजाने उस मोड़ पर ला खड़ा कर दिया है जहाँ एक घूँट पीने का साफ़ पानी और साफ़ सुथरी एक सांस भी ख़रीदनी पड़ेगी और ख़रीदनी पड़ रही है।
ज़रा सोचिये जिस देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा दो वक़्त की रोटी ख़रीद कर नहीं खा पाता,जहाँ किसान,ग़रीब मज़दूर सिर्फ़ क़र्ज़ या आर्थिक तंगी के चलते आत्म हत्या करने को मजबूर हो जाते हों जो लोग जंगलों में अपनी विरासत को बचने के लिए दशकों से जूझ रहे हों और बड़े उद्योगपति, सरकार के सहयोग से उनके जल जंगल और ज़मीन पर क़ब्ज़े कर रहे हों वह ग़रीब व आदिवासी क्या पानी की बोतलें ख़रीद कर साफ़ पानी पीने की कल्पना कर सकते हैं ? क्या इनसे ऑक्सीजन बार में स्वच्छ सांस ख़रीदने की उम्मीद की जा सकती है? यदि नहीं तो देश के इस बड़े ग़रीब व असहाय वर्ग का रखवाला कौन है ? औद्योगिक घरानों,राजनीतिज्ञों,धनाढ्य लोगों तथा विकास के स्वप्नदर्शी लोगों ने तो धरती व पर्यवारण का जो सत्यानाश करना था वो कर ही लिया। बल्कि या सिलसिला अभी भी जारी है। पिछले दिनों एक विचलित कर देने वाली यह रिपोर्ट सुनने को मिली कि पूरी पृथ्वी को अकेले ही 20 प्रतिशत ऑक्सीजन देने वाले आमेज़ॉन के जंगल सरकारी संरक्षण में 2000 फ़ुटबाल के मैदान के बराबर प्रतिदिन काटे जा रहे हैं। यह काम भी विकास के लिए और पशुओं के लिए चरागाह बनाने के नाम पर किया जा रहा है। पूरा विश्व तथा पर्यावरण के प्रति चिंता रखने वाले लोग इस ख़बर से बहुत दुखी व परेशान हैं। कहाँ तो पर्यावरण संरक्षण के उपाए किये जा रहे थे तो कहाँ वैश्विक स्तर पर जलवायु को नियंत्रित करने वाला धरती का मुख्य स्रोत यानी अमेज़ॉन के वन ही समाप्त होने जा रहे हैं ?
उपरोक्त हालात में एक बात तो स्पष्ट दिखाई दे रही है कि सरकारों या दुनिया चलाने वाले दूसरे तंत्रों के भरोसे पर स्वयं हाथ पर हाथ रखकर बैठने से पर्यावरण का संरक्षण क़तई नहीं होने वाला। इनकी पहली प्राथमिकता ही औद्योगीकरण,विकास,कंक्रीट के जंगल बनाना,बेदर्दी से जल दोहन करना तथा जंगल व पहाड़ की बर्बादी है। वृक्षारोपण करना या इसके लिए चिंतित होना तो शायद दिखावा मात्र है। इसलिए यह हम साधारण मध्य व निम्न वर्ग के लोगों का ही न केवल कर्तव्य बल्कि हमारा धर्म भी है कि हम में से प्रत्येक व्यक्ति स्वयं अपने प्रयासों से वृक्षारोपण करे। जिस प्रकार हम लंगरों,भंडारों व धार्मिक समागमों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं उसी जोश जज़्बे और हौसले के साथ हम वृक्षारोपण की भी मुहिम शुरू करें और इसमें हिस्सा लें। पिछले दिनों इसी तरह का जज़बा रखने वाले सिख समाज के भाइयों का एक अनूठा लंगर देख कर आत्मा भी प्रसन्न हुई और उम्मीदें भी जगीं । पंजाब में सिख भाइयों द्वारा लंगर में बड़ी तादाद में लोगों को प्रसाद के रूप में पौधे वितरित किये गए।और लोगों द्वारा बड़े हर्ष व उत्साह के साथ इन पौधों को स्वीकार किया गया। देश व दुनिया के हर समाज सेवी व निजी संगठनों को यही करना चाहिए। एक वक़्त की रोटी खिलाकर पुण्य कमाने की मनोकामना करने के बजाए हमें जलवायु संरक्षण के लिए तथा पृथ्वी व अपनी नस्लों को बचने के लिए पौधों का दान लेना व देना चाहिए। इस मुहिम को चलाने के लिए इंतेज़ार करने का अब वक़्त बिलकुल नहीं रहा। बल्कि हमें इस दिशा में क़दम बढ़ाने में काफ़ी देर हो चुकी है। आइये मानसून के इसी मौसम में हम संकल्प लें और अपने जीवन में जब और जहाँ भी संभव हो हवादार,फलदार और छायादार दरख़्त की पौध ज़रूर लगाएं। धरती के स्वयंभू ठेकेदारों की प्राथमिकताएं हथियारों का उत्पादन,सामाजिक विभाजन,दंगा फ़साद झूठ,भ्रष्टाचार,धर्म व जाति के नाम पर विभाजन व पाखंड करना,पर्यावरण को नुक़्सान पहुँचाना व अपने उद्योगपति आक़ाओं को लाभ पहुँचाना है। यह पृथ्वी हमारी है,हमें ही इसे बचाना चाहिए और हम ही इसे बचा भी सकते हैं। इसलिए आओ, जीवन दायिनी पृथ्वी को बचाएं। आओ चलें एक पेड़ लगाएं।

काँग्रेसः कभी खुद पे, कभी हालात पे रोना आया…..?
ओमप्रकाश मेहता
आज से करीब पचास साल पहले स्व. देवानंद अभिनीत एक फिल्म आई थी, कालापानी। इस फिल्म में एक बहुत ही लोकप्रिय गीत था, ‘‘कभी खुद पे, कभी हालात पे रोना आया, बात निकली तो फिर हर बात पे रोना आया…’’, किस स्थिति-परिस्थिति में यह गाना फिल्म की कहानी के अनुरूप फिलमाया गया था, वह अलग बात है, किंतु आज यह पूरा गाना देश की मरणासन्न सबसे वरिष्ठ पार्टी कांग्रेस पर पूरी तरह अवतरित हो रहा है, आज कांग्रेस अध्यक्ष राहुल जी की स्थिति ठीक कालापानी के देवानंद जी जैसी ही हो रही है और राहुल जी भी वही गीत गुनगुनाने को मजबूर है।
वास्तव में कांग्रेस की नसीबी और बदनसीबी का एक सौ तीस साल पुराना इतिहास मानव जीवन की इन्हीं दो स्थितियों के बीच सिमट कर रह गया है। आजादी की लड़ाई जिस कांग्रेस के तिरंगें के छत्रछात्रा में लड़ी गई और फिरंगियां को यह देश छोड़कर भागने को मजबूर होना पड़ा आज वहीं तिरंगा और उसकी छत्रछाया में पली कांग्रेस अपनी आजादी को लेकर संघर्ष करने को मजबूर है। यद्यपि इसमें दोषी कोई और नहीं इसी पार्टी के पूर्वज रहे है, जिन्होंने इस पार्टी को एक परिवार विशेष तक ही सीमित रखा, किंतु पूर्वजों के साथ वे अधिक दोषी है, जिन्होंने पूर्वजों को मनमानी करने की पूरी छूट दी, अब चाहे इसे लगातार सत्ता में रहने के अहंकार को दोषी माना जाए या उस समय की स्थिति-परिस्थिति को? यह एक अलग बात है, किंतु इंदिरा जी के जाने के बाद इस पार्टी की जो फिसलन शुरू हुई थी, वह आज भी तेज गति से जारी है और पार्टी रसातल की ओर अभिमुख है, अब तो कोई चमत्कार या देवीय अवतार ही इसे बचा सकता है, फिर पार्टी की इस दुरावस्था का कारण यह भी है कि इंदिरा-राजीव के बाद जब पार्टी सोनिया के हाथों में पहुंची और उन्होंने डेढ़ दशक तक पार्टी को सहेज कर रखा, वह पार्टी बाद में पुत्र प्रेम व ममत्व के कारण ऐसे हाथों में सौंप दी गई, जो राजनीति का अनुभवहीन और बचकानी हरकतों वाला शख्स रहा, यद्यपि इसके बाद बुजुर्गों ने पार्टी से कन्नी काट ली किन्तु युवाओं ने अपनी उम्मीद कायम रखी, सोनिया जी की यह सबसे बड़ी भूल थी, वे भी बुजुर्गों को तवज्जोह देने के मामले में भाजपा के रास्ते पर चली प्रणव मुखर्जी तथा उनके समकक्ष अन्य बुजुर्गों को उपेक्षित रखा और अपनी बेटी प्रियंका का भी सहयोग उस समय लिया, जब पार्टी का रसातल में जाना तय माना जा रहा था।
यदि हम कांग्रेस की इस स्थिति की तुलना भाजपा से करें, तो भाजपा भी एक समय काफी संकट में थी, जब उसके केवल दो सदस्य संसद में थे और पार्टी बाहर भी काफी बदहवास और परेशान थी, किंतु उसी के नेताओं की सूझबूझ और दूरदृष्टि ने उसे आज की स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया, यद्यपि इस काम को करने वाले बुजुर्ग और उपेक्षित है, किंतु पूरी पार्टी उस शख्स के साथ है जो पार्टी के राष्ट्रीय पटल पर पांच साल पहले ‘नवागत’ व संसद का अनुभवहीन होने के बावजूद वह अपने बल पर राजनीति के क्षितिज पर छाया हुआ है। वैसे जहां तक मोदी का सवाल उन्होंने स्थिति-परिस्थितियों से सीख लेकर सब कुछ सीखा और पार्टी में ‘दारासिंह’ की स्थिति में आ गए, किंतु इसके ठीक विपरित कांग्रेस के नौसीखिया अध्यक्ष संसद में मोदी से गले मिलकर ‘आँख मारते’ रहे और पार्टी रसातल में जाती रही। अब जब कांग्रेस के हरे-भरे खेत को स्वार्थी चिड़ियाओं द्वारा चुग लिया गया तब अब इसका मालिक ‘रणछोड़दास’ बन अपना सिर घुन रहा है, पर इससे होता क्या है? और खेत को चुग जाने वाली चिड़ियाएँ दिखावे मात्र के लिए पार्टी की मौत पर घर आकर संवेदना व्यक्त करने वालों की भूमिका में है, आज की पार्टी की यही दुःखद स्थिति है।
कांग्रेस की इस दुःखद स्थिति का केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा पूरा राजनीतिक लाभ उठाने की तैयारी में है, और कांग्रेसशासित गिने-चुने राज्यों से भी कांग्रेस ने अभी भी कोई ठोस व सार्थक कदम नही उठाया तो हर कांग्रेसशासित राज्य में कर्नाटक की पुनरावृत्ति होगी और भाजपा के ‘‘चक्रवर्ती सम्राट’’ बनने का सपना पूरा होगा, इसलिए कांग्रेस को अंतिम चरण की लड़ाई के पहले खुद की सैन्य ताकत को मजबूत करने का करिश्मा करके दिखाना होगा।

कनाडा की तरह रहने लायक हो भारत
डॉ हिदायत अहमद खान
बेहतर रोजगार की तलाश में देश छोड़कर विदेश जाने का चलन तो पुराना है, लेकिन जिस वादे और दावे के साथ भाजपा नीत एनडीए सरकार की कमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संभाली उसके बाद सभी को उम्मीद बंधी थी कि विदेशों से लोग भारत वापस आएंगे और बेहतर जिंदगी जी सकेंगे। अफसोस पांच साल के पहले कार्यकाल में तो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। अब दूसरे कार्यकाल की भी शुरुआत हो चुकी है, लेकिन कहीं से कोई सकारात्मक संदेश आता दिखलाई नहीं दे रहा है। बल्कि अब पहले से ज्यादा कठिनाइयों का सामना करते हुए देश का बेरोजगार युवा और योग्यतम कामकाजी इंसान विदेश में अपने बेहतर भविष्य को तलाशने में लगा हुआ है। कहने में हर्ज नहीं कि बीते सालों में जिस आसानी से अमेरिका व अन्य देशों का कामकाजी इंसान रुख कर लेता था अब उसे तमाम तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। अमेरिका की ही बात कर लें जिसके बहुत करीब होने का दावा हमारी मादी सरकार करती चली आई है और अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी प्रधानमंत्री मोदी को घनिष्ट मित्र बतलाने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी है, बावजूद इसके अमेरिका ने एचवनबी वीजा संबंधी नियमों में परिवर्तन करके भारतीय नागरिकों के लिए परेशानी खड़ी कर दी है। ऐसे में खबर आ रही है कि भारतीय लोग अब अमेरिका के स्थान पर कनाडा में रहना ज्यादा पसंद कर रहे हैं। गौरतलब है कि अमेरिका नंबर वन का नारा देते हुए राष्ट्रपति ट्रंप ने ज्यादा से ज्यादा कारोबारियों व कंपनी प्रबंधकों को देश के बेरोजगारों को नौकरी देने और उन्हें आगे बढ़ाने का सख्त संदेश दिया था। इसके बाद अमेरिका में काम करने वाले विदेशी नागरिकों के साथ दोयम दर्जे का बर्ताव किए जाने की खबरें भी आईं, लेकिन इस पर किसी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, क्योंकि उम्मीद थी कि समय के साथ सब कुछ सही हो जाएगा। अमेरिका में वीजा और अन्य तरह की दिक्कतों के चलते ज्यादातर भारतीय नागरिक अब कनाडा का रुख कर रहे हैं। कनाडा के इमिग्रेशन डिपार्टमेंट के आंकड़े बतलाते हैं कि साल 2017 की तुलना में साल 2018 में 51 फीसदी ज्यादा लोगों ने कनाडा में स्थायी निवास यानी परमानेंट रेजिडेंस हासिल किया है। इन आंकड़ों के मुताबिक, 2018 में कुल 41,675 भारतीयों को स्थायी निवास के लिए आमंत्रण भेजा गया। इसके साथ ही संभावना व्यक्त की जा रही है कि मौजूदा साल 2019 में यह संख्या और ज्यादा बढ़ सकती है। हद यह है कि अमेरिका में रहने वाले भी कनाडा में स्थायी निवास हासिल करना चाहते हैं। एक तरफ अमेरिका में काम करते हुए परेशानियों का सामना करना और दूसरी तरफ नौकरी और बेहतर काम करते हुए स्थाई निवासी बनने की आसानियां। दरअसल कनाडा का रुख करने की एक बड़ी वजह यह भी है कि कनाडा ने जीटीएस यानी ग्लोबल टैलेंट स्ट्रीम को हाल ही में पाइलट स्कीम से बदलकर स्थायी स्कीम बना दिया गया। इसके चलते कनाडाई कंपनियां सिर्फ दो हफ्ते में किसी भी अप्रवासी को कनाडा लाने का अधिकार पा लेती हैं। इस बदलाव के चलते संभावना व्यक्त की जा रही है कि कनाडा में नौकरी के लिए भारतीयों की तादाद तेजी से बढ़ेगी। दरअसल भारत में बेरोजगारी बढ़ी हुई है, काम की उपलब्धता न के बतौर है, जबकि योग्य और प्रशिक्षित लोगों की तादात बढ़ती चली जा रही है। ऐसे में विदेश जाने वालों की पहली पसंद कनाडा रहने वाली है। वैसे कहा यह भी जाता है कि इसके चलते जीटीएस कर्मचारी भविष्य में स्थानीय नागरिकता के लिए आवेदन करते नजर आ जाएं तो आश्चर्य नहीं होगा। इस प्रकार एक अमेरिका है जहां मुश्किलें बढ़ रही हैं वहीं दूसरी तरफ कनाडा है जिसने अपने यहां आने वाले कामकाजी इंसान के लिए आसानियां पैदा करने का काम किया है। दरअसल कनाडा सरकार का एक्सप्रेस एंट्री सिस्टम एक ऐसा सिस्टम है जो कि स्किल्ड और क्वालिफाइड इंसानों को स्थायी निवास के लिए मैनेज करने का काम करता है। इसके तहत स्थायी निवास चाहने वालों का एक ऑनलाइन प्रोफाइल तैयार किया जाता है और उन्हें एंट्री पूल में रखा जाता है। इस बीच सीआरएस में जॉब ऑफर, उम्र, शिक्षा, अनुभव और अंग्रेजी व फ्रेंच के भाषाई ज्ञान को आधार बनाकर चयन कर लिया जाता है। नियमानुसार कटऑफ मार्क वाली लाइन पार करने वालों से स्थायी निवास के लिए आवदेन करने को कहा जाता है। ऐसा करना योग्य और जरुरतमंद के लिए आसान काम होता है, इसलिए लोगों ने अमेरिका की जगह कनाडा को स्थायी निवास स्थल बनाने को तरजीह देने का काम किया है। यह तो रही विदेश में बेहतर भविष्य की तलाश करते हुए ग्रीन कार्डधारी होने की बात, लेकिन यही स्थिति देश में देखने को कब मिलेगी? अब सवाल यह भी उठता है कि भारत सरकार इस मामले में क्या कर रही है या आगे क्या करना चाहेगी? क्योंकि जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ेगी समस्याएं और बढ़ती चली जाएंगी और इससे पहले कि विदेश में रहना मुश्किल हो जाए देश में ऐसी स्थितियां पैदा करनी होंगी ताकि विदेश गए भारतीय भी वापस आ सकें और अपना बेहतर भविष्य बना सकें। आखिर अपने देश में ही योग्यतम शिक्षित और प्रशिक्षित कामकाजी इंसान को काम का ऑफर क्योंकर नहीं मिल पाता है? यह विचार करने वाली बात है। इसके साथ ही देश में श्रम का बेहतर मूल्य देने की परिपाटी कब शुरु हो पाएगी? केंद्र सरकार को इस मामले में यहां-वहां की बातें करना छोड़ देनी चाहिए और कोशिश की जानी चाहिए कि हर हाथ को काम मिले।

राज्यसभा में बहुमत पर बेचैनी
अजित वर्मा
भारतीय जनता पार्टी अपने महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित कराने के लिए राज्यसभा में बहुमत हासिल करने के मिशन पर लगतार तेजी से आगे बढ़ रही है। ऐसा पहली बार हो रहा है जब भाजपा दूसरे दलों के राज्यसभा सदस्यों को अपने पाले में लाने के अभियान में जुट गयी है। भाजपा कई छोटे-छोटे दलों के राज्यसभा सदस्यों को तोड़ने में ज्यादा जोर लगा रही है ताकि दल बदल की कार्यवाही से बचा जा सके।
लोकसभा चुनाव के बाद तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) के चार और इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) के एकमात्र राज्यसभा सांसद भाजपा में शामिल हो चुके हैं। इस तरह संसद के ऊपरी सदन में पार्टी के सांसदों की संख्या बढ़कर 76 हो गई है।
राज्यसभा में वर्तमान में सदस्यों की कुल संख्या 239 है जिसमें 76 सांसदों के साथ भाजपा सबसे बड़ी पार्टी है। इसके बाद कांग्रेस का नंबर आता है, जिसके पास कुल 48 सदस्य हैं। तीसरे नंबर पर तीन पार्टियां- समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस और अन्नाद्रमुक हैं जिनके पास 13-13 सांसद हैं।
भाजपा आश्वस्त है कि जिन राज्यों में इस साल के अंत में या अगले साल चुनाव होने हैं, वहां वह विधानसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करेगी और राज्यसभा में उसकी अंक तालिका में और सुधार होगा। इस तरह अगले साल नवंबर में उसे अपने बलबूते राज्यसभा में पूर्ण बहुमत मिल जाने की पूरी उम्मीद है।
राज्यसभा में बहुमत को लेकर भाजपा इतना इंतजार करने के मूड में नहीं दिखाई देती। पिछली लोकसभा के जिन अहम विधेयकों को राज्यसभा में विपक्ष ने लटका दिया था, भाजपा अब उन्हें जल्द से जल्द पास कराने की जुगत में लग गई है। इस समय भाजपा की नजरें एक, दो या तीन-चार सांसदों वाली पार्टियों पर लग गई है।
राज्यसभा में वर्तमान में 8 राजनीतिक दल ऐसे हैं जिनके सांसदों की संख्या 1-1 है। भाजपा के इस एक्शन प्लान की भनक लगने से छोटे दलों में हाहाकार मच गया है। ये पार्टियां अपने सांसदों को अपने साथ बनाए रखने की कोशिशों में जुट गई हैं। ऐसी खबरें हैं कि तीन राज्यसभा सांसदों वाली एक नई पार्टी के दो सांसद जल्दी ही भाजपा आने वाले हैं।
हाल ही में तेदेपा के छह सांसदों में से चार ने भाजपा का दामन थाम लिया तो उन पर दल-बदल कानून लागू नहीं हो पाया। इसी तरह जब इनेलो के एकमात्र राज्यसभा सांसद भाजपा में आए तो यह कानून उन्हें भी प्रभावित नहीं कर पाया।
भाजपा को समय-समय पर मुद्दों के आधार पर वाईएसआर कांग्रेस पार्टी के 2 और बीजू जनता दल के 7 सांसदों का समर्थन मिलता रहा है।
एनडीए के कुल सांसदों की बात करें तो राज्यसभा में वर्तमान में यह आंकड़ा 111 का हो गया है और वर्तमान में दस स्थान रिक्त हैं। राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनावों के बाद 5 जुलाई को सदन की दलीय स्थिति में परिवर्तन होगा और एनडीए के सांसदों की संख्या 115 हो जाएगी। 245 सदस्यीय सदन में बहुमत के लिए 123 सदस्य चाहिए। इस तरह एनडीए लगातार बहुमत के करीब पहुंचता जा रहा है। भाजपा के लिए मुश्किल यह है कि तीन तलाक और नागरिकता संशोधन विधेयक ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर एनडीए में शामिल जेडीयू को आपत्ति है, इसलिए भाजपा ने ज्यादा से ज्यादा राज्यसभा सदस्यों को अपने साथ जोड़ने का अभियान चला रखा है।

कांग्रेसः निजी दुकान बने पार्टी
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेस के अध्यक्ष पद से राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद कई अन्य युवा नेताओं के इस्तीफों की झड़ी लग गई है। लेकिन कांग्रेस के खुर्राट बुजुर्ग नेताओं में से किसी ने भी इस्तीफा नहीं दिया है, क्योंकि चुनाव-प्रचार के दौरान उनका कोई महत्व ही नहीं था। कांग्रेस का मतलब सिर्फ राहुल गांधी था जैसे भाजपा का मतलब था, सिर्फ नरेंद्र मोदी। 2019 का चुनाव वास्तव में न तो किसी विचारधारा पर लड़ा गया और न ही किसी नारे पर। यह चुनाव तो अमेरिकी चुनाव की तरह अध्यक्षात्मक चुनाव था। भाजपा फिर भी भाई-भाई पार्टी थी। अमित शाह और नरेंद्र मोदी। नरेंद्र भाई और अमित भाई ! लेकिन इस चुनाव में कांग्रेस तो मां-बेटा पार्टी भी नहीं रही। सिर्फ बेटा पार्टी बनकर रह गई। बेटे ने यों तो कोई कसर नहीं छोड़ी। बड़ी मेहनत की। बहुत घूमा। बहुत बोला। नहीं बोलने लायक भी बोला। अपनी पप्पूपने की छवि को भी सुधारा लेकिन चुनाव-परिणाम ने दिल तोड़ दिया। अब इस्तीफा दे दिया। कांग्रेस पार्टी के होश गुम हैं। अभी तक वह नया अध्यक्ष नहीं ढूंढ पाई। कोई भी इस प्रायवेट लिमिटेड कंपनी का अध्यक्ष बनकर करेगा क्या ? उसे मां-बेटे का रबर का ठप्पा ही बनना पड़ेगा। क्या अध्यक्ष का चुनाव कांग्रेस के लाखों कार्यर्त्ता मिलकर करेंगे ? क्या प्रदेशों की कार्यकारिणी समितियां करेगी ? क्या केंद्रीय कार्यसमिति में चुनाव के द्वारा अध्यक्ष बनाया जाएगा ? सबसे पहले कांग्रेस को प्रायवेट लिमिटेड कंपनी से बदलकर एक राजनीतिक पार्टी का रुप दिया जाना चाहिए। कांग्रेस के फैलाए हुए जहर को भाजपा ने भी निगल लिया है। उसका स्वरुप भी प्राइवेट लिं. कं. की तरह होता चला जा रहा है। हमारी प्रांतीय पार्टियां तो पहले से ही प्रायवेट कंपनी ही नहीं, निजी दुकानें भी बनी हुई हैं। हमारी सभी पार्टियां नोट और वोट के झांझ कूटने में लगी हुई हैं। सबने अपना-अपना जातीय और सांप्रदायिक जनाधार बना रखा है। कांग्रेस के लिए यह अमूल्य अवसर है कि वह इस समय देश को लोकतंत्र के मार्ग पर चला दे। अभी वह चाहे हारी हुई उदास और छोटी पार्टी ही है लेकिन वह अपने अध्यक्ष का चुनाव लाखों सदस्यों के वोट से करे तो वह अध्यक्ष इस प्रा. लि. कं. को सचमुच राजनीतिक पार्टी में बदल सकता है। वह प्रचंड जन-आंदोलन छेड़ सकता है। सरकार को वह सही रास्ते पर चलने के लिए मजबूर कर सकता है। आज देश के हर जिले, हर शहर और हर गांव में कांग्रेस का कोई न कोई नामलेवा मौजूद है। उसके पास कई अनुभवी नेता भी हैं। यदि कांग्रेस में अब भी बुनियादी सुधार नहीं हुआ तो वह भी ब्रिटेन की टोरी और व्हिग पार्टी की तरह इतिहास का विषय बन जाएगी। भारत के लोकतंत्र का यह दुर्भाग्य ही होगा।

भ्रष्ट नौकरशाही का सफाया?
अजित वर्मा
केंद्र सरकार ने जिस तरीके से भ्रष्ट अधिकारियों को बाहर का रास्ता दिखाना शुरू किया है, उससे साफ संकेत मिले हैं कि पहले कार्यकाल में सफलतापूर्वक स्वच्छ भारत अभियान चलाने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का दूसरा कार्यकाल अब नौकरशाही में स्वच्छता लाने वाला होगा। पहले बारह वरिष्ठ वित्त अधिकारियों को बाहर का रास्ता दिखाने के बाद अब राजस्व सेवा के पंद्रह वरिष्ठ अधिकारियों को तत्काल प्रभाव से जबरन सेवानिवृत्त कर दिया गया है। केंद्र सरकार ने सेवा के सामान्य वित्त नियम 56- जे के तहत इन यह कार्रवाई की है। ये पंद्रह अधिकारी मुख्य अप्रत्यक्ष कर और सीमा शुल्क बोर्ड से संबंधित हैं।
अंग्रेज शासनकाल की बिगड़ैल नौकरशाही के लिए चलाया गया यह चिरप्रतीक्षित सफाई अभियान न केवल समयानुकूल बल्कि स्वागतयोग्य भी है। यह किसी से छिपा नहीं है कि आजादी के सात दशक बाद भी देश को पिछड़ा और गरीब रखने के लिए इसी नौकरशाही का एक बड़ा तबका सर्वाधिक जिम्मेवार है। यह ठीक है कि कुछ भ्रष्ट तत्त्वों के चलते पूरी नौकरशाही को भ्रष्ट नहीं कहा जा सकता लेकिन हर सरकारी विभाग में छिपी काली भेड़ों को पहचानना और उनके खिलाफ इसी तरह सख्त कार्रवाई करना अब अत्यंत जरूरी हो गया है।
केंद्र सरकार ने ऐसे अधिकारियों की सूची बनाई है जिनकी उम्र 50 साल से अधिक है और वे अपेक्षा के मुताबिक काम नहीं कर रहे हैं। ऐसे अधिकारियों को सरकार नियम 56 के तहत सेवानिवृत्त करने जा रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ शून्य सहनशीलता की नीति के तहत अपने पहले कार्यकाल में ऐसे अधिकारियों की सूची बनाने के बाद दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार ने तेजी से इन अधिकारियों को बाहर का रास्ता दिखाना शुरू किया है।
जिन अधिकारियों पर अनिवार्य सेवानिवृत्ति की कार्यवाही होना है वे ऐसे अधिकारी हैं जिन पर घूसखोरी, फिरौती, कालेधन को सफेद धन करने,आय से अधिक संपत्ति अर्जन, किसी कंपनी को गलत फायदा पहुंचाने जैसे आरोप हैं। इनमें से अधिकांश अधिकारी पहले से ही सीबीआई के शिकंजे में भी हैं।
भाजपा को 2014 में स्पष्ट जनादेश मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली तत्कालीन यूपीए सरकार में व्यापक स्तर पर फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ ही मिला था। यह ठीक है कि भाजपा सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान उसके किसी मंत्री पर बेईमानी के गंभीर आरोप नहीं लगे पर यह तथ्य भी उतना ही ठीक है कि नौकरशाही में फैले भ्रष्टाचार के चलते आम लोगों को भ्रष्टाचार की समस्या से राहत नहीं मिली। प्रशासन में निचले स्तर पर भ्रष्टाचार की उसी तरह शिकायतें आती रहीं। ईमानदार होने का दावा करने वाली केन्द्र की मोदी सरकार में भ्रष्ट नौकरशाही को देख लोगों में यह भावना घर करती दिखी कि शायद इसका कोई स्थायी समाधान है ही नहीं और सरकार कोई भी आए, अधिकारी और बाबू अपनी ही रीति-नीति पर ही चलेंगे। यह संतोष का विषय है कि मौजूदा केंद्र सरकार ने जनता की इस परेशानी को न केवल समझा बल्कि इस दिशा में काम करना शुरू कर दिया है।

आंकड़ों की जगह कल्पनाओं वाला बजट
डॉ हिदायत अहमद खान
भले ही केंद्र सरकार और उसके नुमाइंदे दावा करें कि संसद में पेश बजट 2019-20 नए भारत के उदय का द्योतक है, लेकिन हकीकत यही है कि अच्छे दिनों की झलक पाने के इंतजार में बैठा आमजन इससे निराश ही हुआ है। इसके साथ ही आमजन को मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल से जिस खास तरह के बजट की दरकार थी उसमें यह खरा उतरता हुआ दिखाई नहीं देता है। इसकी वजह यही है कि बजट में गांव, गरीब और किसानों के साथ ही साथ बेरोजगार युवा पीढ़ी के लिए कुछ खास नजर नहीं आता है। जबकि यह सभी मानते हैं कि इस समय देश में इन वर्गों की दशा और दिशा सबसे ज्यादा दयनीय हो चुकी है। महंगाई से त्राहिमाम करते आमजन को इस बजट से महंगाई कम होने के स्थान पर और बढ़ती नजर आ रही है। बजट में महंगाई से निजात दिलवाने वाले कोई नुस्खे भी नहीं बतलाए गए हैं। न ही ऐसा कोई विशेष प्रावधान ही है, जिससे यह कहा जा सके कि अच्छी बारिश और अच्छी फसल के साथ ही देश में महंगाई कम हो जाएगी। देश आज भी गांवों में बसता है, अत: समझा जा सकता है कि देश का विकास इसी रास्ते से होकर गुजरेगा अन्यथा वह एकांगी हो कहीं किसी किनारे औंधेमुंह गिरा मिलेगा। इसके बाद भी एक मायने में यह बजट ऐतिहासिक साबित हुआ है। वह इस मायने में कि भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद पहली बार किसी पूर्णकालिक महिला वित्त मंत्री के तौर पर निर्मला सीतारमण ने अपना पहला बजट संसद में पेश करने जैसा अहम काम किया है। इसके बावजूद कहना पड़ता है कि यह बजट गरीब, मजदूर और मध्यम वर्ग के लोगों को कोई राहत देता प्रतीत नहीं हो रहा है। अच्छे दिन आएंगे जैसा सुनहरा सपना मोदी सरकार दिखाती चली आई है, लेकिन कैसे आएंगे उसकी रुपरेखा भी इस मौजूदा बजट से नदारद है। बजट के अभी तक के इतिहास में पहली बार ऐसा बजट प्रस्तुत हुआ है जिसमें किस मद से कितनी आय होगी। किस मद में कितना खर्च होगा। यह भी नहीं बताया गया है। 2019-20 का बजट कल्पनाओं का बजट है। इसमें आय-व्यय का कोई ब्योरा नहीं है। इस बजट में प्रधानमंत्री मोदी की कल्पनाओं को स्थान जरुर मिला है। वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि यह देश को समृद्ध और जन-जन को समर्थ बनाने वाला बजट है। इस बजट से गरीब को बल मिलेगा और युवा को बेहतर कल की ओर लेकर जाएगा। इस पर विपक्ष ने सवाल करते हुए कहा कि इस बजट में कुछ भी नया नहीं है। पुराने वादों को ही फिर से दोहरा दिया गया है। इस प्रकार सुनहरे सपने दिखाने में माहिर मोदी सरकार का बजट भी सिर्फ सपनों की दुनिया में ले जाने वाला है। एक तरह से देखा जाए तो यह बजट अमीरों को केंद्र में रखकर जरुर तैयार किया गया है, लेकिन तमाम तरह की सुविधाओं का शुल्क भी उन्हीं से वसूलने का इंतजाम भी टैक्स के तौर पर कर दिया गया है। पेट्रोल और डीजल के दाम घटाने की बजाय बढ़ाने का इंतजाम कर दिया गया है। इससे महंगाई बढ़ना तय है। इसकी सीधी मार आमजन पर ही पड़ेगी, क्योंकि पेट्रोल और डीजल पर जो 1-1 रुपये सेस लगाने की बात सरकार ने बजट में कही है। वह भी आमजन के जेब से ही निकाला जाएगा। इसलिए मोदी सरकार के इस बजट से आमजन अपने आपको ठगा महसूस कर रहा है तो कोई गलत बात नहीं है। सुनहरे भविष्य की बात बजट में की गई है, लेकिन बजट में गांव, गरीब के साथ ही बेरोजगारों की बेहतरी के लिए कोई प्रावधान नजर नहीं आया है। इसलिए यह पूर्णकालिक निराशा बढ़ाने वाला बजट है। सरकार के प्रत्यक्ष कर में जबरदस्त बढ़ावा होता हुआ दिख रहा है, क्योंकि पिछले साल जो कर की राशि 6.38 लाख करोड़ थी। वह साल 2019-20 में बढ़कर 11.37 लाख करोड़ रुपए होने की संभावना व्यक्त की गई है। इस प्रकार आमजन के लिए निराशा वाला बजट और सरकार के खजाने को भरने वाला है। सरकार ने अमीरों पर जो टेक्स लगाया है वह टेक्स भी कम्पनियॉं उपभोक्ताओं से ही वसूल करती है, जिससे स्पष्ट है कि गरीब एवं मध्यम वर्ग की परेशानी बढ़ाने वाला बजट सरकार ने प्रस्तुत किया है। मध्यम व गरीब वर्ग को अपनी खुशहाली के रास्ते खुद तलाशने होंगे।

भौंसला से सीखे सारा देश
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हरयाणा में जींद के पास एक गांव है, भौंसला। इस गांव में आस-पास के 24 गांवों की एक पंचायत हुई। यह सर्वजातीय खेड़ा खाप पंचायत हुई। इसमें सभी गांवों के सरपंचों ने सर्वसम्मति से एक फैसला किया। यह फैसला ऐसा है, जो हमारी संसद को, सभी विधानसभाओं को और देश की सभी पंचायतों को भी करना चाहिए। आजादी के बाद इतना क्रांतिकारी फैसला भारत की किसी पंचायत ने शायद नहीं किया है। हमारे पड़ौस में कुछ बौद्ध और इस्लामी देश हैं, जो यह फैसला आसानी से कर सकते हैं लेकिन उनकी भी हिम्मत नहीं हुई। क्या है, यह फैसला ? यह है, अपने अपने नाम के साथ इन गांवों के लोग अब अपना जातीय उपनाम और गौत्र उपनाम नहीं लगाएंगे। सिर्फ अपना पहला नाम लिखेंगे। जैसे सिर्फ बंसीलाल, सिर्फ भजनलाल, सिर्फ देवीलाल ! वे अपने मकानों, दुकानों, वाहनों पर से भी जातीय उपनाम हटाएंगे। मैं कहता हूं कि पाठशालाओं, कालेजों, अस्पतालों, धर्मशालाओं, प्याऊओं आदि पर से जातीय नाम क्यों नहीं हटाए जाएं ? जन्मना जातीय संगठनों पर भी प्रतिबंध लगना चाहिए। जातीय भेदभाव खत्म करने के लिए अब सारे देश को तैयार होना होगा। कुछ वर्ष पहले जब मनमोहनसिंह सरकार ने जातीय जन-गणना शुरु करवाई तो मैंने ‘मेरी जाति हिंदुस्तानी’ आंदोलन चलाया था। देश की सभी पार्टियों ने इस आंदोलन का समर्थन किया था। स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के हस्तक्षेप से वह जातीय जन-गणना रोक दी गई थी। यदि देश से जातीयता खत्म करनी है तो जातीय उपनाम आदि हटाना तो बस एक शुरुआत भर है। ज्यादा जरुरी है कि जातीय आधार पर नौकरियों में आरक्षण को तत्काल खत्म किया जाए। आरक्षण जरुर दिया जाए लेकिन सिर्फ शिक्षा में और उन्हें जो आर्थिक दृष्टि से कमजोर हों। विवाह करते समय वर-वधू की जात देखना बंद करें, उनके गुण, कर्म और स्वभाव को ही कुंजी बनाएं। जाति-प्रथा ने भारत-जैसे महान राष्ट्र को पंगु बना दिया है। यह हिंदू समाज का सबसे भयंकर अभिशाप है। इस सर्प ने हमारे मुसलमानों, बौद्धों, ईसाइयों, सिखों और जैनियों को भी डस लिया है। जातिवाद के विरुद्ध आर्यसमाज के प्रणेता महर्षि दयानंद ने जो मंत्र डेढ़ सौ साल पहले फूंका था, उसने हरयाणा में अपना रंग दिखाया है। मैं चाहता हूं कि इस मंत्र की प्रतिध्वनि सिर्फ भारत में ही नहीं, हमारे पड़ौसी देशों में भी हो। कुछ समाजसेवी, कुछ समाज सुधारक, कुछ साधु-संन्यासी और डाॅ. लोहिया-जैसे कुछ महान नेता उठें और दक्षिण एशिया के इन पौने दो अरब लोगों की जिंदगी में नई जान फूंक दें।

पोंगापंथी हिंदुत्व और पोंगापंथी इस्लाम
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आज हमारे विचार के लिए दो विषय सामने आए हैं। एक तो कानपुर के युवा मुहम्मद ताज का, जिसे कुछ हिंदू नौजवानों ने बेरहमी से पीटा और उससे ‘जय श्रीराम’ बुलवाने की कोशिश की और दूसरा प. बंगाल से चुनी गई सांसद तृणमूल कांग्रेस की नुसरत जहां का, जिनके खिलाफ देवबंद के किसी मौलवी ने फतवा जारी किया है, क्योंकि उन्होंने किसी जैन से शादी कर ली है और संसद में शपथ लेते समय वे सिंदूर लगाकर और मंगलसूत्र पहनकर आई थीं। ये दोनों मसले ऐसे हैं, जिनमें हमें हिंदुत्व और इस्लाम का अतिवाद दिखाई पड़ता है। इन दोनों मामलों का न तो हिंदुत्व से कुछ लेना-देना है और न ही इस्लाम से ! किसी मुसलमान या ईसाई की हत्या या पिटाई आप इसलिए कर दें कि वह राम का नाम नहीं ले रहा है, यह तो राम का ही घोर अपमान है। आप रामभक्त नहीं, रावणभक्त हैं। आपको अपने आप को हिंदू कहने का अधिकार भी नहीं है। ‘जय श्रीराम’ तो कोई भी बोल सकता है। कोई भ्रष्टाचारी नेता, कोई पतित पुरोहित, कोई वेश्या, कोई बलात्कारी, कोई चोर और कोई ठग यदि राम का नाम ले ले तो क्या वह पवित्र माना जाएगा ? क्या उस पर कोई हिंदू होने का गर्व करेगा ? जो लोग राम की जगह शिव, कृष्ण, ब्रह्मा, विष्णु आदि को मानते हैं, क्या वे हिंदू नहीं हैं ? कई संप्रदाय राम को मर्यादा पुरुषोत्तम तो मानते हैं लेकिन भगवान नहीं मानते, क्या आप उन्हें भी गैर-हिंदू कहेंगे ? इसी तरह नुसरतजहां को इस्लाम-विरोधी समझना भी बिल्कुल पोंगापंथी इस्लाम है। क्या अरबों की नकल करना ही इस्लाम है ? क्या बुर्का पहनना, तीन तलाक देना, चार-चार बीवियां रखना, अपने अरबी नाम रखना, आदि अरबी प्रथाओं को मानना ही इस्लाम है ? इस्लाम का तात्विक अर्थ यही है कि आप एक ईश्वर को मानें और बुतपरस्ती से बाज आएं। क्या मुसलमान के लिए उर्दू बोलना जरुरी है ? नुसरत अगर बांग्ला बोलती है, इंडोनेशिया के सुकर्ण यदि ‘भाषा’ बोलते हैं, अफगान बादशाह जाहिरशाह ‘पश्तो’ बोलते हैं और अफ्रीकी मुसलमान ‘स्वाहिली’ बोलते हैं तो क्या वे घटिया मुसलमान कहलाएंगे ? उत्तम मुसलमान ,उत्तम ईसाई, उत्तम यहूदी और उत्तम हिंदू वही है, जो जिस देश और काल में रहता है, उसके मुताबिक रहे और अपने मजहब की मूल तात्विक बातों को अमल में लाए। डेढ़-दो हजार साल पुराने देश-काल के ढर्रे का अंधानुकरण करना उचित नहीं है।

उत्तर प्रदेश में योगी सरकार ने साधा बड़ा वोट बैंक
रमेश सर्राफ धमोरा
उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने प्रदेश की पिछड़ी जातियों को लेकर एक बड़ा फैसला लिया है। हाल ही में योगी सरकार ने एक निर्णय लेकर उत्तर प्रदेश में अन्य पिछड़े वर्ग की 17 जातियों को अनुसूचित जातियों की श्रेणी की सूची में शामिल कर दिया है। इन जातियों को अनुसूचित जातियों की श्रेणी में शामिल करने के पीछे योगी सरकार का कहना है कि ये जातियां सामाजिक और आर्थिक रूप से बहुत ज्यादा पिछड़ी हुई हैं। अब इन 17 पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति का प्रमाणपत्र दिया जाएगा। राज्य सरकार ने इसके लिए जिला अधिकारियों को इन 17 जातियों के परिवारों को अनुसूचित जाति प्रमाण पत्र जारी करने का आदेश दिया गया है।
अनुसूचित जाति में शामिल की गयी ये 17 पिछड़ी जातियां निषाद, बिंद, मल्लाह, केवट, कश्यप, भर, धीवर, बाथम, मछुआरा, प्रजापति, राजभर, कहार, कुम्हार, धीमर, मांझी, तुरहा, गौड़ हैं। इन पिछड़ी जातियों को अब एससी कैटेगरी की लिस्ट में डाल दिया गया है। अनुसूचित जाति वर्ग में शामिल की गयी ये सभी 17 जातियां वास्तव में बहुत पिछड़ी हुयी है तथा इनकी आर्थिक स्थिति भी काफी कमजोर है। इन जातियों के लोग काफी समय से उनको अनुसूचित जाति वर्ग में शामिल करने की मांग करते आ रहें हैं। मुख्यमंत्री योगी के इस फैसले से इन सभी 17 जातियों के लोगों को सरकारी योजनाओं को और अधिक लाभ मिलने लगेगा जिनसे उनका जीवन स्तर उपर उठेगा। उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार हो सकेगा। योगी सरकार द्वारा लिये गये इस फैसले को इन सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को आरक्षण का लाभ प्रदान करने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है। योगी सरकार ने इन 17 जाति समूहों द्वारा 15 साल से की जा रही मांग को पूरा किया है।
इन 17 जातियों को अनुसूचित जाति वर्ग में शामिल करने के पीछे यह तर्क दिया जा रहा कि इन सभी जातियों की सामाजिक, आर्थिक व शैक्षणिक स्थिति निम्न स्तर की है और ये जातियां अनुसूचित जाति की सूची में शामिल होने की सभी शर्तें पूरी करती हैं। साथ ही इन जातियों को अनुसूचित जाति वर्ग की सूची में शामिल किए जाने से वर्तमान अनुसूचित जातियों को कोई नुकसान भी नहीं होगा। उत्तर प्रदेश की 12 विधानसभा सीटों पर शिघ्र ही होने वाले उपचुनाव से पहले राज्य सरकार द्वारा उठाये गये इस कदम से भारतीय जनता पार्टी को फायदा होने के आसार हैं। इससे बहुजन समाज पार्टी व समाजवादी पार्टी के वोट बैंक में कमी आना स्वाभाविक है।
हालांकि इससे पहले की सरकारों ने भी ऐसा करने की कोशिश की थी, लेकिन वो सफल नहीं हो पायी थी। पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की इस कोशिश पर कोर्ट ने रोक लगा दी थी। लेकिन कुछ महीने पहले कोर्ट ने लगायी गयी रोक हटा दी थी जिसके बाद ये सरकारी आदेश जारी हुआ है। इस पर अभी अंतिम फैसला इलाहाबाद हाई कोर्ट से आना बाकी है। ऐसा माना जा रहा है कि योगी सरकार के इस फैसले से उत्तर प्रदेश में राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ेगी। माना कुछ दिनों में ही यूपी में विधानसभा के उप चुनाव होने हैं, ऐस में सरकार का यह फैसला पिछड़ी जातियों को लुभाने के तौर पर देखा जा रहा है।
2004 में मुलायम सिंह यादव मे मुख्यमंत्रीत्व काल में भी एक प्रस्ताव पेश कर तत्कालीन सपा सरकार ने पिछड़े वर्ग की 17 जातियों को अनुसूचित वर्ग में शामिल करने के लिए उप्र लोक सेवा अधिनियम, 1994 में संशोधन किया था। लेकिन किसी भी जाति को अनुसूचित जाति घोषित करने की शक्ति केंद्र सरकार के पास है। उस समय केंद्र सरकार की सहमति नहीं मिलने के कारण मुलायम सरकार का फैसला निर्थक साबित हुआ था। बाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस निर्णय को असंवैधानिक और व्यर्थ घोषित कर फैसले को रद्द कर दिया।
2012 में जब अखिलेश यादव सत्ता में आए तो उनकी सरकार द्वारा एक और प्रयास किया गया। सरकार ने तत्कालीन मुख्य सचिव जावेद उस्मानी की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति गठित कर इस संबंध में समाज कल्याण विभाग से विवरण मांगा गया था। जिसमें अनुसूचित जाति वर्ग के भीतर 17 से अधिक पिछड़ी उप-जातियों को हिस्सा बनाना शामिल था। हालांकि इस मामले को बाद में केंद्र सरकार ने खारिज कर दिया था।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के इस फैसले को प्रदेश में एक बड़े वोट बैंक को साधने के मास्टर स्ट्राक के तौर पर देखा जा रहा है। इससे जहां मायावती का अनुसूचित जाति वर्ग के वोटो पर से एक छत्र प्रभाव कम होगा वहीं भाजपा से इन जातियों के सहारे एक बड़ा वोट बैंक जुड़ेगा जिसका उसे आने वाले चुनावों में लाभ मिलेगा। मुख्यमंत्री योगी के इस फैसले से बसपा नेता मायावती व सपा नेता अखिलेश यादव के पिछड़े वोट बैंक में भाजपा ने सेंध लगा दी है। वहीं योगी मंत्रीमंडल से बर्खास्त किये गये मंत्री ओमप्रकाश राजभर भी सरकार के फैसले से हासिये पर आयेगें। उनके राजभर समाज को अनुसूचित जाति वर्ग में शामिल करने ये उनकी जाति के वोटो का भी भाजपा से पूर्णतया जुड़ाव होगा।

बरसाती नदियों का भविष्य
जया केतकी शर्मा
हम केवल बड़ी नदियों के विषय में ही विचार करते हैं। उनके जल स्तर, रखरखाव, संरक्षण आदि के बारे में प्रयास करते हैं। हम उन छोटी नदियों के बारे में क्यों सोच विचार नहीं करते जो इन बड़ी नदियों के जल स्तर को बनाए रखने में खुद मिट जाती हैं। हम यहां बात करते हैं मध्यप्रदेश की। हम जानते हैं मध्यप्रदेश में आठ प्रमुख नदियाँ हैं। केन, तवा, क्षिप्रा, नर्मदा, बेतवा, सोन, चंबल, मंदाकिनी। आइए एक नजर में देखें ये नदियाँ कितनी समृद्ध हैं और किन सहायक नदियों के कारण:-
केन 250 किमी. लंबी है और यमुना की एक सहायक नदी है जो बुन्देलखंड क्षेत्र से गुजरती है। मंदाकिनी तथा केन यमुना की अंतिम उपनदियाँ हैं। केन नदी जबलपुर, मध्यप्रदेश से प्रारंभ होती है, पन्ना में इससे कई धारायें आ जुड़ती हैं इसके बाद यमुना गंगा से जा मिलती है। और फिर बाँदा, उत्तरप्रदेश में इसका यमुना से संगम होता है। इस नदी के पत्थर प्रसिद्ध है। क्षिप्रा, मध्यप्रदेश में बहने वाली एक प्रसिद्ध और ऐतिहासिक नदी है। यह भारत की पवित्र नदियों में एक है। उज्जैन में कुम्भ का मेला इसी नदी के किनारे लगता है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर भी यहीं है।
तवा नदी मध्य प्रदेश ही नहीं भारत की भी एक प्रमुख नदी है। यह नर्मदा की सबसे बड़ी सहायक नदी है। यह सतपुड़ा श्रेणी की नदी है जो होशंगाबाद जिले में है। नर्मदा मध्य भारत के मध्य प्रदेश और गुजरात राज्य में बहने वाली एक प्रमुख नदी है। महाकाल पर्वत के अमरकण्टक शिखर से नर्मदा नदी की उत्पत्ति हुई है। इसकी लम्बाई प्रायः 1310 किलोमीटर है। यह नदी पश्चिम की तरफ जाकर खम्बात की खाड़ी में गिरती है। इस नदी के किनारे बसा शहर जबलपुर उल्लेखनीय है। इस नदी के मुहाने पर डेल्टा नहीं है। जबलपुर के निकट भेड़ाघाट का नर्मदा जलप्रपात प्रसिद्ध है। इस नदी के किनारे अमरकंटक, नेमावर, शुक्लतीर्थ आदि प्रसिद्ध तीर्थस्थान हैं जहाँ काफी दूर-दूर से यात्री आते रहते हैं। नर्मदा नदी को ही उत्तरी और दक्षिणी भारत की सीमारेखा माना जाता है।
जो नदियां गर्मी में लुप्त हो जाती हैं वे बारिश में फिर बहने लगतीं हैं। पिपरिया से निकलते ही पहली नदी मछवासा पड़ती है।बेतवा मध्य प्रदेश राज्य में बहने वाली एक नदी है। यह यमुना की सहायक नदी है। यह मध्य-प्रदेश में भोपाल से निकलकर उत्तर-पूर्वी दिशा में बहती हुई भोपाल, विदिशा, झाँसी, जालौल आदि जिलों में होकर बहती है। इसके ऊपरी भाग में कई झरने मिलते हैं किन्तु झाँसी के निकट यह काँप के मैदान में बहती है। इसकी सम्पूर्ण लम्बाई 480 किलोमीटर है। यह हमीरपुर के निकट यमुना में मिल जाती है। इसके किनारे सॉंची और विदिशा के प्रसिद्ध व सांस्कृतिक नगर स्थित हैं।
चंबल नदी मध्य भारत में यमुना नदी की सहायक नदी है। यह नदी ‘जानापाओ पर्वत, महू से निकलती है। इसका प्राचीन नाम चरमवाती है। इसकी सहायक नदिया शिप्रा, सिंध, कलिसिन्ध, ओर कुननों नदी है। यह नदी भारत में उत्तर तथा उत्तर-मध्य भाग में राजस्थान तथा मध्य प्रदेश से होकर बहती है। यह नदी दक्षिण मोड़ को उत्तर प्रदेश राज्य में यमुना में शामिल होने के पहले राजस्थान और मध्य प्रदेश के बीच सीमा बनाती है। इस नदी पर चार जल विधुत परियोजना चल रही है। गांधी सागर, राणा सागर, जवाहर सागर, कोटा वेराज (कोटा)। प्रसिद्ध चूलीय जल प्रपात चंबल नदी (कोटा) में है।
यह एक बारहमासी नदी है। इसका उद्गम स्थल जानापाओ की पहाड़ी (मध्य प्रदेश) है। यह दक्षिण में महू शहर के, इंदौर के पास, विंध्य रेंज में मध्य प्रदेश में दक्षिण ढलान से होकर गुजरती है। चंबल और उसकी सहायक नदियॉं उत्तर पश्चिमी मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र के नाले, जबकि इसकी सहायक नदी, बनास, जो अरावली पर्वतों से शुरू होती है इसमें मिल जाती है। चंबल, कावेरी, यमुना, सिन्धु, पहुज भरेह के पास पचनदा में, उत्तर प्रदेश राज्य में भिंड और इटावा जिले की सीमा पर शामिल पांच नदियों के संगम समाप्त होता है।
सोन नदी या सोनभद्र नदी भारत के मध्य प्रदेश राज्य से निकल कर उत्तर प्रदेश, झारखंड के पहाड़ियों से गुजरते हुए वैशाली जिले के सोनपुर में जाकर गंगा नदी में मिल जाती है। यह बिहार की एक प्रमुख नदी है। इस नदी का नाम सोन पड़ा क्योंकि इस नदी की रेत पीले रंग की है जो सोने की तरह चमकती है। इस नदी की रेत पूरे बिहार में भवन निर्माण के लिए उपयोग में लाया जाता है तथा रेत उत्तर प्रदेश के कुछ शहरों में भी निर्यात की जाती है। गंगा और सोन नदी के संगम स्थल सोनपुर में एशिया का सबसे बड़ा सोनपुर पशु मेला लगता है।
मन्दाकिनी नदी, मध्य प्रदेश के सतना जिले में बहने वाली एक नदी है। इस नदी के तट पर प्रसिद्ध तीर्थ स्थल चित्रकूट स्थित है। इस नदी पर एक बार सफाई अभियान हो चुका है। रामचरित मानस मंे इस नदी का उल्लेख दोहे में होता है।
नदी शब्द का अर्थ संस्कृत भाषा के कई अर्थों में लिया गया है, इस शब्द को दरिया,प्रवहणी, सरिता, निरन्तर चलने वाली कहा गया है। वैदिक कोष में भी नदी शब्द को कुछ इस प्रकार परिभाषित किया गया है- ‘‘नदना इमा भवन्ति‘‘ अर्थात् नदी कलकल की ध्वनि करने वाली होती है। हमारे देश में नदियों को माता का संज्ञा मिला हुआ है और नदियों के किनारे ही हमारी संस्कृति पनपी। लोग अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए नदियों के किनारे ही अपना घर बनाकर रहने लगे। लेकिन अब मानव समाज अपनी स्वार्थ सिद्धी के लिए इन नदियों को औद्योगिक कचरा, शहरों के गंदे नाले का सीवर डालकर तथा नदियों को पाटकर मार रहा है।
इसका एक उदाहरण है कृष्णी नदी। सहारनपुर के खैरी गांव से कृष्णी नदी का उद्गम हुआ है। यह नदी सहारनपुर से निकलकर जिला शामली, मुजफ्फरनगर से होती हुई बागपत के बरनावा में हिडंन नदी में मिल जाती है। भारत उदय एजूकेशन सोसाइटी के कार्यकर्ता जिला बागपत के बरनावा गांव में भ्रमण के दौरान इस नदी के क्षेत्र में संगम को भी देखने गये थे। यहाॅं पर हिंडन व कृष्णी नदी का संगम है। जो सिमट कर एक नाली का रूप ले लिया है।
इस नदी के किनारे महाभारतकालीन लाक्षागृह भी खंडहर हो चुका है इसके बारे में जनश्रुति है कि महाभारत के समय कौरवों ने पांडवों को जलाकर मारने के लिए लाख का घर बनाया था। लाख ज्वलनशील होता है जो बहुत तेजी से जलता हैं। लेकिन पांडवों को दुर्योधन के इस षड़यंत्र का पता चल गया था और वे जलते हुए इस घर से सुरंग के माध्यम से निकट बहती हुई कृष्णी नदी को पारकर जान बचाने में सफल रहे थे। इस प्रकार यह नदी महाभारत काल से भी जुड़ी हुई है। आज भी इन नदियों के संगम के पास लाक्षागृह में एक गुरुकुल का संचालन होता है। जो आज भी प्राचीन संस्कृति को संजोये हुए है। इसमें विद्यार्थियों को संस्कृत, वैदिक शिक्षा, गौ सेवा आदि का संचालन किया जाता है।
यह नदी सहारनपुर के गाँव खैरी से निकलकर नानौता व शामली के पास से 150 किलोमीटर की दूरी तय कर औद्योगिक कचरों को ढोती हुई बरनावा में हिंडन नदी में मिल जाती है। लेकिन अब इस नदी की क्षमता औद्योगिक कचरों को ढोने की भी नहीं रह गयी है। चन्देनामल, धकौड़ी, जलालपुर, सिक्का आदि गांॅव इस नदी के जल से बुरी तरह प्रभावित हैं। चन्देनामल गांॅव में प्रदूषण की वजह से सरकारी कार्यक्रमों का बहिष्कार भी किया था। बरसात के मौसम में जब नदियों के उफान से बाढ़ आ रही है, गंगा व यमुना नदी भी अपने उफान पर होती हैं, तब भी कृष्णी एक छोटी नाली के रूप में बहती है। यह इस नदी की करूणादायिक कहानी है। जो हम सबके लिए चिंता का विषय है।
पहले यही स्वच्छ जल से कल-कल करते हुए बहती थी। नदी के किनारे बसने वाले गाँव के लोग इस नदी में नहाते थे, पशुओं को इसका पानी पिलाते थे तथा इस नदी के जल से फसलों की सिंचाई भी किया करते थे। उसके बाद यह नदी शुगर मिल, गत्ता कारखाने, शराब बनाने के कारखाने आदि के प्रदूषण की चपेट में आ गयी। जिस कारण लोग इसके पानी को छूने से भी डरने लगे। क्योंकि इसके जल को छूने मात्र से ही त्वचा सम्बन्धी रोग होने लगे। इसके किनारे बसने वाले गाॅंवों को पानी की बदबू झेलनी पड़ी। भूजल के स्तर में भी गिरावट आयी, भूजल भी प्रदूषित हो गया और लोग पेट की बीमारियों से ग्रसित हो गये। इसका पानी धीरे-धीरे कम होने लगा और अब यह नदी अब मृत होने की कगार पर है। आने वाले वर्षों में हो सकता है कि नदी भूगोल के नक्शे से ही समाप्त हो जाये।
यदि यही हाल रहा तो हम आने वाली पीढ़ी को बतायेंगे कि यहाँ एक कृष्णी नामक नदी बहती थी। जो अब पूर्णतः समाप्त हो गयी। चैगामा क्षेत्र की यह इकलौती नदी है जिससे लोग पहले अपनी प्यास बुझाते थे। अगर इस प्रकार एक-एक कर नदी समाप्त होती गयी तो हमारे पास नदी शब्द ही बचेगा, जल स्रोत नहीं। लेकिन अब हम उस नदी को क्या नदी कहेंगे जिसमें प्रवाह नहीं बचा हो। नदियों में ध्वनि एवं निरन्तर बहना मुख्य गुण समाप्त होते जा रहे हैं। मेरी अपने नदी प्रेमी साथियों से अपील है कि एक-एक नष्ट होती नदियों को हम सबको मिल कर बचाना है।
सागर जिले में प्रमुख रूप से धसान, बेबस, बीना, बामनेर और सुनार नदियाँ निकलती हैं। इसके अलावा कड़ान, देहार, गधेरी व कुछ अन्य छोटी बरसाती नदियाँ भी हैं। अन्य प्राकृतिक संसाधनों के मामले में सागर जिले को समृद्ध नहीं कहा जा सकता लेकिन वास्तव में जो भी संसाधन उपलब्ध हैं, उनका बुद्धिमत्तापूर्ण दोहन शेष है। कृषि उत्पादन में सागर जिले के कुछ क्षेत्रों की अच्छी पहचान हैं। खुरई तहसील में उन्नत किस्म के गेहूँ का उत्पादन बड़ी मात्रा में होता है।
बड़ी नदियाँ तो वर्ष भर जल से तर रहती हैं परंतु बरसात में जल से भर कर बड़ी नदियों को जल देने का महत्वपूर्ण कार्य करती हैं। बरसात बीतते तक उनका जलस्तर कम होते होते सूख जाता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि उनके गहरीकरण की ओर कभी किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। प्रश्न यह है कि क्या इन बरसाती नदियों में पहले की तरह वर्ष भर पानी रह सकता है? यदि एक एक कर इन बरसाती नदियों को गहरा कर संरक्षित किया जाए तो जो वर्षा का जल बेकार बहकर समुद्र में समा जाता है वह गाँव वालों को पूरे साल पानी दे सकता है। तो आइए एक पहल हम भी करें।

म.प्र. में भा.ज.पा. व कांग्रेस एक ही घर में…!
नईम कुरेशी
मध्य प्रदेश सरकार पूर्व भा.ज.पा. सरकार के 15 सालों में किये गये भ्रष्टाचारों की जांचें करने के मामलों में काफी बातें की जा रही हैं। इसी तरह 10 साल तक कांग्रेस की दिग्विजय सिंह सरकार पर भी भ्रष्टाचारों की बातें की जा रही थीं। सुन्दर लाल पटवा व उमा भारती पूर्व मुख्यमंत्रियों ने भी खुलकर कांग्रेस सरकार पर तमाम तरह के आरोपों की झड़ी लगा दी थी, जिस पर र्दििग्वजय सिंह ने पटवा व उमा भारती पर एक निजी शिकायत न्यायालय में जरूर की थी जिसमें न तो सुन्दर लाल पटवा और ना ही उमा भारती शिकायतों की सच्चाई न्यायालयों में सिद्ध कर पाये थे, नतीजे में पटवा ने 90 साल की उम्र का हवाला देकर दिग्विजय सिंह से तमाम अपीलें की थीं अपना केस वापस करने हेतु।
आमतौर से माना जा रहा है कि मध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी व कांग्रेस लगभग एक ही परिवार से चलते आ रहे हैं। सत्ता की मलाई सबसे ज्यादा सिर्फ 2 जातियों के लोग खाते दिखाई दे रहे हैं। ब्राम्हण व राजपूत जाति के लोग ही दबंग बनकर आम तौर से कमजोर तब्कों पर जुल्म भी करते दिखाई दे रहे हैं। प्रकाशचन्द्र सेठी के 1971-74 के शासन के बाद से ये ट्रेंड बढ़ता दिखाई दे रहा है। लोकायुक्त पुलिस मध्य प्रदेश ने भी सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार करने में इन्हीं दो तब्कों को रिश्वत मामलों में पकड़ा है पर सियासत में इस वर्ग की धमक कांग्रेसी व भा.ज.पा. दोनों शासन में बराबर से देखी व सुनी जाती है। दलित, आदिवासी, अति पिछड़ों व अल्पसंख्यकों पर भी अत्याचार कांग्रेस व भा.ज.पा. शासन में लगातार बराबर ही रहते हैं।
पिछले 15 सालों में जहां भा.ज.पा. शासन में सत्ता का सबसे ज्यादा लाभ संघ परिवार के जनेऊधारी लोग उठाते रहे हैं। ज्यादातर विश्वविद्यालयों व राजस्व, सहकारिता, पुलिस व स्कूली शिक्षा विभाग के लगभग सभी मलाईदार पदों संघ वालों ने कब्जा करके रखा था। खूब जमकर मलाई मारी जा रही थी। भोपाल का पत्रकारिता विश्वविद्यालय में तो हद से ज्यादा हद करके ऐसे लोगों को पदों पर बैठा दिया गया था जो संघ के कार्यकत्र्ता थे या संघ के बड़े पदाधिकारियों के बेटे-बेटियां या अन्य परिजन थे। इस विश्वविद्यालय के कुलपति से लेकर रजिस्ट्रार शर्मा तक पर आर्थिक अपराध के मामले दर्ज हैं। यहां के तमाम प्रोफेसर्स भी गलत व अवैध रूप से नौकरी पर रखे जाने की खबरें हैं। लाखों रुपये खर्च करके हर महीने दिल्ली के पास एक गेस्ट हाउस किराये पर लिया गया था, जिसमें संघ के कार्यकत्र्ता ठहरते थे पर उसका किराया भोपाल के इसी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के खजाने से दिया जाता था। ऐसी ही तमाम मध्य प्रदेश की संस्थाओं का दोहन संघ परिवार ने भा.ज.पा. के शासन में किया था।
मध्य प्रदेश में शुरू से ही एक ही घर एक ही महल से दोनों पार्टियों का शासन चलता आ रहा है। जब माधवराव सिंधिया ने 1982 में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी को लाखों मतों से हराया था तब लगने लगा था कि अब महल के दो दरवाजों में से एक शायद बंद हो जायेगा पर ऐसा नहीं हुआ, सिंधिया तो बहुत ही लोकप्रिय व संवेदनशील थे पर उन्होंने सरदार अंग्रे से उनके कब्जे का महल जरूर जबरन खाली करवा लिया था। जिसमें शरद शुक्ल, राजेन्द्र तोमर आदि को मुलजिम माना गया था फिर भी मध्य प्रदेश में खासतौर से उत्तरी मध्य प्रदेश के श्योपुर-मुरैना, भिण्ड, दतिया, शिवपुरी, गुना, ग्वालियर आदि में तो एक परिवार में यदि 4 लड़के होते हैं तो उनमें से एक को कांग्रेस में दूसरे को भा.ज.पा. में व तीसरे को ठेकेदार या अफसर बनाया जाता है जिससे सत्ता हमेशा ठाकुर साहब या पंडित जी के घर में ही बनी रहती है। ज्योतिरादित्य सिंधिया भी कह चुके हैं कि हमारे कार्यकत्र्ता दिन में कांग्रेसी व रात में कमलछाप हो जाते हैं। सिंधिया अपने पिता की तरह आम जनता से दूरी यदि न बनाते होते और सुपर महाराज बनने का नाटक न करते होते तो वो चुनाव शायद नहीं हारते। राहुल गांधी को इस तरफ ध्यान देना होगा।

बल्ला मैच की जीत का प्रतीक हो,प्रजातंत्र की हार का नहीं
हिंदुस्तान की दो बड़ी खूबियाँ हैं, एक तो यह विश्व का सबसे बड़ा प्रजातंत्र है और दूसरा विश्व में सर्वाधिक युवा देश। ऐसे में स्वाभाविक है कि चुने हुए युवा जन प्रतिनिधियों से देश को अपेक्षाएं भी अधिक होंगी, और हों भी क्यों न, हमारे पास अपने प्रजातंत्र की गौरवशाली विरासत जो है। भारतीय प्रजातंत्र का जो छायादार वटवृक्ष आज हमें दिखाई देता है, इसके त्याग और बलिदान का बीज बहुत गहरा बोया गया है और आज समूचे विश्व के लिए यह प्रेरणादायी है।
पंडित नेहरू कहते थे, ‘संस्कारवान युवा ही देश का भविष्य सँवारेगा।’ आज हमारे चुने हुए युवा जनप्रतिनिधियों को आत्ममंथन-आत्मचिंतन करना चाहिए कि वो किस रास्ते पर भारत के भविष्य को ले जाना चाहते हैं। एक रास्ता प्रजातंत्र की गौरवशाली विरासत की उम्मीदों को पूरा करने वाला है, और दूसरा उन्मादी। दोस्तों, उन्मादी व्यवहार सस्ता प्रचार तो दे सकता है, प्रजातंत्र को परिपक्वता नहीं दे सकता।
युवा जनप्रतिनिधियों, आप पर दायित्व है सदन में कानून बनाने का, सड़कों पर कानून हाथ में लेने का नहीं। आप अपनी बात दृढ़ता और मुखरता से रखें, मर्यादा को लाँघ कर नहीं।
आज समूचे विश्व को हमारे बल्ले की चमक देखने को मिल रही है। हमारी क्रिकेट टीम लगातार जीत हासिल कर रही है और हमें पूरी उम्मीद है कि हम विश्व कप में अपना परचम लहराएंगे। मगर बल्ले की यह जीत बगैर मेहनत के हासिल नहीं की जा सकती। खिलाड़ियों को मर्यादित मेहनत करनी होती है। मर्यादा धैर्य सिखाती है, धैर्य से सहनशीलता आती है, सहनशीलता से वे परिपक्व होते हैं और परिपक्वता जीत की बुनियाद बनती है। अर्थात खेल का मैदान हो या प्रजातंत्र, मूल मंत्र एक ही है। यह बात मैं सीमित और संकुचित दायरे में रह कर नहीं कह रहा हूँ। सभी दल के युवा साथियों से मेरा यह अनुरोध है। मुख्यमंत्री होने के नाते मेरा दायित्व भी है कि मैं अपने नौजवान और होनहार साथियों के साथ विमर्श करता रहूँ। युवा जनप्रतिनिधि साथियों, बल्ले को मैदान में भारत की जीत का प्रतीक बनाइए, सड़कों पर प्रजातंत्र की हार का नहीं।
( कमलनाथ मुख्यमंत्री, मप्र का ब्लॉग )

काला धन खत्म कैसे हो ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
काले धन ने हमारी संसद को भी अंगूठा दिखा दिया है। कोई यह बताए कि जिनकी जिंदगी ही काले धन पर निर्भर है, वे यह क्यों और कैसे बताएंगे कि देश और विदेशों में काला धन कितना है और उसे कैसे-कैसे छिपाकर रखा गया है। हमारी लोकसभा की स्थायी वित्त समिति ने काले धन का पता करने में बरसों खपा दिए लेकिन उसके हाथ अभी तक कोई ठोस आंकड़ा तक नहीं आया है। तीन गहन अनुसंधान करनेवाली वित्तीय संस्थाओं ने संसदीय समिति की मदद में जमीन-आसमान एक कर दिए लेकिन उनका भी कहना है कि 1980 से 2010 के दौरान भारतीयों ने विदेशों में 15 लाख करोड़ से 35 लाख करोड़ रु. तक काला धन छिपा रखा है। यह धन पैदा हुआ है, निर्माण-कार्यों, खनन, दवा-निर्माण, पान-मसाला, गुटखा, तंबाकू, सट्टा, फिल्म और शिक्षा के क्षेत्रों में। तीनों संस्थाओं ने अलग-अलग दावे किए हैं। तीनों ने यह भी कहा है कि यह काला धन देश की सकल संपदा (जीडीपी) के सात प्रतिशत से 120 प्रतिशत भी हो सकता है। इन तीनों संस्थाओं को 2011 में डाॅ. मनमोहनसिंह की कांग्रेस सरकार ने यह काम सौंपा था। वास्तव में यह काम तो करना चाहिए था, मोदी सरकार को। क्योंकि 2014 का चुनाव वह इसी नारे पर जीती थी लेकिन कोई भी सरकार काले धन को खत्म कैसे कर सकती है ? यदि काला धन खत्म हो जाए तो हमारे नेताओं की दुकानें कैसे चलेंगी ? सारे राजनीतिक दलों के दफ्तरों पर ताले ठुक जाएंगे। वर्तमान सरकार को चाहिए था कि उसने नोटबंदी और जीएसटी जो लागू की, उससे काले धन पर कितना काबू पाया गया, वह यह बताती। इस सरकार ने तो बेनामी चुनावी बांड जारी करके काले धन की आवाजाही को और भी सरल बना दिया है। अच्छा तो यह है कि सरकार किसी तरह आयकर को ही खत्म करे ताकि कालेधन की कल्पना ही खत्म हो जाए। सरकार को जिस धन पर टैक्स नहीं दिया जाता, उसे काला कहने की बजाय रिश्वत, ठगी, ब्लेकमेल, वेश्यावृत्ति, हरामखोरी से कमाए पैसे को काला कहा जाए तो बेहतर होगा। लेकिन सरकार के खर्चे चलाने के लिए वैकल्पिक आमदनी के रास्ते खोजने की कोशिशें क्यों नहीं की जाए ? नागरिकों पर उनकी आय के बजाय व्यय पर टैक्स लगाने की कोई नई व्यवस्था क्यों नहीं बनाई जाए ? यह काम मुश्किल है लेकिन असंभव नहीं।

बेरोजगारी के लिए फिर आर्थिक सर्वेक्षण
अजित वर्मा
लोकसभा के आम चुनाव में देश के सभी राजनीतिक दलों ने बेरोजगारी को प्रमुखता से मुद्दा बनाया था। जिस तरह बेरोजगारी के आंकड़े सामने आ रहे हैं, वे वास्तव में चिंताजनक हैं। इस चिंता से वाकिफ देश की मोदी सरकार बेरोजगारी को लेकर कुछ नये और बड़े कदम उठाने की तैयारी कर रही है। इसके लिये देश में सातवें बार आर्थिक सर्वेक्षण होने जा रहा है।
केन्द्र सरकार ने सातवें आर्थिक सर्वेक्षण की तैयारी लगभग पूरी तरह कर ली है और इसके लिए देशभर में प्रशिक्षण का काम भी जारी है। ऐसा अनुमान है कि अगले छह माह में देश में समग्र आर्थिक सर्वेक्षण का काम पूरा कर लिया जाएगा। दरअसल, केन्द्र सरकार ने इस सर्वेक्षण में रोजगार के आंकड़े जुटाने का खास निर्णय लिया है। चाय-पानी की रेहड़ी से लेकर पटरी पर बैठने वालों तक को इस सर्वेक्षण के दायरे में लाने का निर्णय लिया गया है। इसमें करीब सत्ताईस करोड़ परिवारों को शामिल किया जायेगा। इसके साथ ही सात करोड़ स्थापित लोगों को भी इस दायरे में लाने का फैसला किया गया है। यह भी तय किया गया है कि सरकार अब इस तरह के सर्वेक्षण हर तीसरे साल करायेगी।
रोजगार के मामले में चाहे किसी भी दल की सरकार हो, विपक्ष के निशाने पर रही है। तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव और हाल ही में सम्पन्न हुए लोकसभा चुनावों में बेरोजगारी का मुद्दा प्रमुखता से उठा और बेरोजगारों को भत्ता देने सहित 21 लाख पद खाली होने के बावजूद नहीं भरे जाने और जीएसटी, नोटबंदी के कारण रोजगार के अवसर घटने को लेकर काफी विवाद रहा। सभी दलों ने अपने-अपने घोषणापत्रों में बेरोजगारी भत्ता देने का वादा किया था। लेकिन यह माना जा रहा है कि वास्तव में बेरोजगारी भत्ता इसका कोई समाधान नहीं हो सकता, लेकिन रोजगार के अवसर पैदा करना सरकार का दायित्व भी होता है। दरअसल, सरकार आर्थिक सर्वेक्षण के माध्यम से स्पष्ट व सही आंकड़े प्राप्त करना चाहती है। आर्थिक सर्वेक्षण में सही आंकड़ा आना जरूरी है, क्योंकि इसी के आधार पर सरकार सामाजिक व आर्थिक विकास का रोडमैप तैयार करेगी।
जब सरकार के सामने वास्तविक आंकड़े होंगे तो लोगों के जीवनस्तर को ऊंचा उठाने,पानी, बिजली, स्वास्थ्य शिक्षा, परिवहन आदि सुविधाओं के विस्तार में सहायता मिल सकेगी। माना जाना चाहिए कि सर्वेक्षण के आंकड़े आते ही सरकारी स्तर पर विश्लेषण से लेकर उसके आधार पर आर्थिक विकास की व्यवहारिक योजनाओं पर अमल करना होगा ताकि लोगों के जीवनस्तर में सुधार हो और देश के प्रत्येक नागरिक को सम्मानजनक जीवन यापन करने के साधन उपलब्ध हो सकें।

भाजपा-सत्ता का मद: काँग्रेस गिरती साख…..!
ओमप्रकाश मेहता
देश में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी अभी अपनी उम्र के चार दशक भी पूरे नहीं कर पाई और अपनी परम्परागत अस्मिता खो बैठी, क्योंकि अब यह जन-जन की नहीं बल्कि मात्र दो हस्तियों की पार्टी बनकर रह गई है, वही देश की सबसे पुरानी अर्थात् 130 साल की उम्र वाली कांग्रेस अब अपनी चमक छोड़कर अस्ताचलगामी हो रही है। जहां तक देश की शेष पार्टियों का सवाल है, वे क्षेत्रीय होकर रह गई है। अब ऐसी स्थिति में पूरा देश यह तय नहीं कर पा रहा है कि आखिर वह किसके साथ जाए? एक तरफ एकाधिकारी व अहंकारी भारतीय जनता पार्टी है, तो दूसरी ओर नेतृत्व विहिन तथा दिग्भ्रमित स्थिति वाली कांग्र्रेस….? इसीलिए पिछले लोकसभा चुनावों के समय रसातल जाती कांग्रेस को छोड़ झूठी आशाऐं जगाने वाली भाजपा का साथ दिया और कांग्रेस को दुर्दिन देखने को मजबूर होना पड़ा। किंतु अब ऐसा महसूस किया जा रहा है कि कांग्रेस अपने लिए ‘संजीवनी’ ढूंढ़ने में भी सक्षम प्रतीत नहीं हो रही है और राहुल की जिद और पार्टी की गिरती साख के बीच फंसी है, इसे इस स्थिति से उबारने के कोई सार्थक प्रयास भी नहीं हो रहे हैं।
जहाँ तक भारतीय जनता पार्टी का सवाल है, उसके दोनों मुख्य आकाओं (नरेन्द्र मोदी व अमित शाह) का एक ही मुख्य ध्येय है, वह देश की जनता की सेवा नहीं बल्कि पूरे देश का ‘चक्रवर्ती राजा’ बनना, अर्थात् देश के सभी राज्यों व केन्द्र पर राज करना और इस उद्देश्य की चमक में ये दोनों नेता पार्टी की साख, बुजुर्गों का सम्मान, पार्टी के संस्कार आदि सब कुछ भूल गए और अहंकारी सम्राट की तरह अपनी मनमर्जी देश पर थोपने लगे। आज देश के इन दोनों कर्णधारों देशवासियों के सुख-दुख या कल्याण की कोई चिंता नहीं है, चिंता है तो सिर्फ अपना ‘वोट बैंक’ बढ़ाने की, इसीलिए जनकल्याण पर खर्च होने वाला पैसा मदरसों और मुस्लिम छात्रों की छात्रवृत्ति पर खर्च करने की योजना है। आज एक ओर जहां भावी बजट को लेकर देश के अर्थशास्त्रियों से राय लेने का दिखावा किया जा रहा है, वहीं वास्तविक बजट ‘वोट बैंक’ का बनाया जा रहा है। क्योंकि देशवासियों को पिछले पांच साल का अच्छा-खासा यह अनुभव है कि 2014 में चुनाव के समय कितने वादे किए गए थे और उनमें से कितनों को जुमलों में बदल दिया गया? इसलिए अब 2019 में चुनाव के समय इन आधुनिक भाग्यविधाताओं द्वारा किए गए वादों की पूर्ति पर भी कोई भरोसा नहीं है। क्योंकि इन हस्तियों को आज की नहीं, 2024 की चिंता सताने लगी है, ये 2024 तक देश के ‘चक्रवर्ती सम्राट’ बन जाने का सपना जो देख रहे है? अपनी इसी चमक के पीछे इन हस्तियों ने पार्टी के परम्परागत उसूलों को भी धुमिल कर दिया है, जिसका ताजा उदाहरण ‘‘एक व्यक्ति-एक पद’’ का सिद्धांत है। इस सिद्धांत की हत्या की सीमा भाजपाशासित राज्यों तक पहुंच गई है, क्योंकि कई राज्यों में एक नेता दो पदों पर विराजित है। वैसे अतीत में इस पार्टी की पहचान इसमें व्याप्त अनुशासन व इसके चाल-चरित्र व चेहरे के कारण थी, किंतु अब इसमें न अनुशासन रहा और न इसका चाल, चरित्र व चेहरा चमकीला रहा। यह अब केवल ‘आत्ममुग्धा’ बनकर रह गई है, जिसके चालू भाषा में ‘‘अपने मूंह मियां मिट्ठू’’ कहा जाता है। इस पार्टी के चर्चित क्रियाकलापों में से सबसे चर्चित क्रियाकलाप बुजुर्गों का अपमान रहा। पार्टी के दो वरिष्ठतम नेता लालकृष्ण आड़वानी और डाॅ. मुरली मनोहर जोशी मौजूदा नेतृत्व के शिकार है।
ण्थी, आज सब कुछ खोने के बाद जो पद छोड़ने की जिद राहुल भाई कर रहे है, काश यह जिद उन्होंने पहली बार पद सौंपे जाने के समय की होती तो आज पार्टी का चेहरा कुछ अलग ही नजर आता। किंतु यहां दुःख का विषय यह है कि अभी भी कांग्रेस के दिग्गज अशोक गेहलोद जैसे गए-गुजरे चेहरे को पार्टी का नेतृत्व सौंपने की तैयारी कर रहे है, जबकि डाॅ. मनमोहन सिंह, प्रणव मुखर्जी व गुलामनबी आजाद जैसे अनेक अनुभवी चेहरे पार्टी में विद्यमान है, या फिर किसी युवा उभरते व्यक्तित्व के हाथों में पार्टी की कमान सौंप देनी चाहिए, जो बुजुर्गों से अनुभवी सलाह लेकर नए जोश से पार्टी की पुरानी साख को पुनः स्थापित कर सके। कांग्रेस के पुरोघाओं को यह कार्य प्राथमिकता से करना होगा क्योंकि पार्टी केन्द्र के बाद राज्यों में भी तेजी से अपनी साख खोजी जा रही है।

44 साल बाद घोषित और अघोषित आपातकाल की यादें
सनत जैन
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। आज से 44 साल पहले भारत में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की थी। लगभग 18 माह तक आपातकाल की छाया में भारत के नागरिकों ने शासन व्यवस्था को देखा आपातकाल के दौरान नागरिकों के सभी मूलभूत अधिकार खत्म कर दिए गए थे। विपक्षी राजनेताओं, ट्रेड यूनियन के नेताओं और छात्र संगठन से जुड़े पदाधिकारियों को आपातकाल में ‎बिना मुकदमा जेल भेज दिया गया था। अखबारों में सेंसरशिप लगा दी गई थी, जिसके कारण लगभग 18 माह तक लोगों के मौलिक अधिकार और विचारों की स्वतंत्रता लगभग लगभग समाप्त हो गई थी। 2019 में अब अघोषित आपातकाल जैसी स्थितियां होने की बात कही जा रही है। घोषित और अघोषित आपातकाल को लेकर यदि चर्चाएं हो रहे हैं, तो इसमें निश्चित रूप से कुछ ना कुछ समानताएं तो होंगी ही।
1971 में भारत-पाक के बीच युद्ध हुआ था। इस युद्ध के बाद बांग्लादेश का गठन हुआ। हजारों पाकिस्तानी सैनिकों का समर्पण कराया गया, लाखों बांग्लादेशी नाग‎रिक बांग्लादेश की सीमा पार करके भारत आ गए थे। उन्हें शरणार्थी के रूप में सरकार को रखना पड़ा। आर्थिक व्यवस्था चरमरा गई थी, जिसके कारण 1973 से 1975 के बीच इंदिरा गांधी के खिलाफ देश भर में एक राजनीतिक असंतोष पनपा था। महंगाई के खिलाफ आम जनता नाराज थी। इसी दौरान जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में संपूर्ण क्रांति के आव्हान पर सभी विपक्षी दल एकजुट होकर सरकार के विरोध में खड़े हो गए थे।
1971 के लोकसभा के आम चुनाव में इंदिरा गांधी ने रायबरेली से राजनारायण को चुनाव हराया था। इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी के चुनाव को 12 जून 1975 को अवैध घोषित कर दिया था। इस चुनाव में इंदिरा गांधी की चुनावी सभा में जो बिजली उपयोग की गई थी, वह सरकारी खर्च पर थी तथा उनके साथ उनके निजी सचिव साथ थे इस कारण चुनाव अवैध घोषित हो गया था। 24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश वीआर कृष्णा ने हाई कोर्ट के निर्णय को बरकरार रखा था। इस निर्णय के तुरंत बाद अगले दिन जो रैली दिल्ली में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आयोजित हुई, उसमें उन्होंने सार्वजनिक रूप से पुलिस अधिकारियों और सेना से आव्हान किया था कि वह सरकार के आदेशों का पालन नहीं करें। उस समय जयप्रकाश नारायण लोक नायक के रूप में जन जन के नेता थे। इस स्थिति को देखते हुए 25 जून 1975 को राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने प्रधानमंत्री की सलाह पर संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल घोषित करते हुए समस्त मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए थे। संवैधानिक प्रावधानों के तहत प्रत्येक 6 माह में आपातकाल की समय अवधि बढ़ती रही और यह तीन बार बढ़ाई गई।
18 जनवरी 1977 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने चुनाव की घोषणा करते हुए आपातकाल को समाप्त घोषित कर दिया। सभी राजनीतिक दलों के कैदियों को जेल से रिहा कर दिया गया। इस चुनाव में आपातकाल को लेकर लोगों में गुस्सा था। नसबंदी और जेल में नेताओं को प्रताड़ित किए जाने की अफवाहों का उत्तर भारत के राज्यों में बड़ा असर हुआ। चुनाव में इंदिरा गांधी संजय गांधी सहित कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता चुनाव में पराजित हो गए। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में कांग्रेस का खाता भी 1977 के चुनाव में नहीं खुला। मध्य प्रदेश जैसे राज्य से 40 लोकसभा सीटों में से मात्र एक लोकसभा सीट छिंदवाड़ा ही कांग्रेस जीत सकी। विपक्षी दलों ने संयुक्त रूप से चुनाव लड़ा। इंदिरा गांधी ने पराजित होते ही अपना इस्तीफा राष्ट्रपति को भेजा और केंद्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार 1977 में गठित हुई।
केंद्र की नई सरकार ने आपातकाल मैं हुई ज्यादतियों की जांच करने के लिए शाह आयोग का गठन किया था। इसके अलावा किस्सा कुर्सी का और अन्य कई मामलों की जांच कराई गई। यह सरकार ढाई वर्ष भी अपने आप को स्थिर नहीं रख पाई। 1980 में पुनः लोकसभा चुनाव हुए और इंदिरा गांधी पुन: दो तिहाई बहुमत के साथ केंद्र में सरकार बनाने में सफल हुई। यह कहा जा सकता है कि आपातकाल के जो 18 माह आम जनता ने देखे थे। उसकी वस्तु स्थिति जानने के बाद आपातकाल का जो कलंक इंदिरा गांधी पर लगा था, वह जनता ने भारी बहुमत देकर परिस्थितियों के कारण आपातकाल को जायज मान लिया। आपातकाल के दौरान देश में शासन-प्रशासन एवं जनता के बीच एक अनुशासन बना था। सभी ‎नियं‎त्रित हो गए थे। स्वतंत्र भारत के इ‎तिहास में आपातकाल के दौरान ही जनता ने सुशासन देखा था। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के एक बयान ने यह कहकर सनसनी फैला दी थी, कि देश में आपातकाल जैसे हालात बन रहे हैं। पिछले 5 वर्षों में केंद्र की मोदी सरकार पर विपक्षी दल हमेशा यह आरोप लगाते रहे हैं कि देश में एक बार फिर आपातकाल जैसे हालात हो गए हैं। विपक्षी नेताओं और राजनीतिक दलों द्वारा सरकार पर लगातार हमले कर रहे हैं। मीडिया पर अघोषित रूप से सरकारी नियंत्रण है मीडिया वही दिखा रहा है, जो सरकार दिखाना चाहती है देश में सेंसरशिप जैसे हालात बन गए हैं। देश की अर्थव्यवस्था 1975 की तरह कमजोर ‎स्थिति में है। 45 वर्ष में पहली बार देश में सबसे ज्यादा बेरोजगारी की समस्या से देश को गुजरना पड़ रहा है। आपातकाल की 44 वीं वर्षगांठ में आपातकाल को लेकर तब और अब के बीच समानताएं खोजी जाने लगी हैं। इससे स्पष्ट है कि कहीं ना कहीं सरकार विपक्ष और आम जनता के बीच अविश्वास और विश्वसनीयता का संकट पैदा हुआ है।

आपातकाल स्वतंत्र भारत का काला अध्याय
कैलाश सोनी
हम भारतवासी सदैव से ही स्वतंत्रता के प्रेमी और उपासक रहे है इसलिए जब जब भी हमारी स्वाधीनता को अपह्त करने के प्रयत्न हुए हमने उसका प्रतिकार किया है, अनेकबार विदेशी शक्तियों ने हमें पराधीन बनाने की कोशिश की किन्तु हमारे पूर्वजो ने उनके विरूद्ध सतत संघर्ष किया और अंतत: विजयी हुए।
स्वतंत्रता की महिमा से मंडित हमारे देश के लोकतांत्रिक इतिहास से हमारी आजादी के हरण का एक काला अध्याय दर्ज है किन्तु उसके साथ ही दूसरी आजादी की हमारी संघर्ष गाथा भी जुडी है, वह हमारे आजादी से जीने के संस्कार का एक ज्वलंत उदाहरण है, पंरतु वर्तमान की नई पीढ़ी को लोकतंत्र पर आई इस अमावस्या की शायद ही कोई जानकारी होंगी। स्वतंत्र भारत के इतिहास में 25 जून 1975 में एक ऐसा भी अवसर आया जब तक सत्तासीन व्यक्ति ने जिनका उनके अपने भ्रष्टाचार के कारण चुनाव परिणाम इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा रद्द कर दिया गया, अपनी सत्ता पिपासा को पूरा करने के लिये देशवासियों के सारे लोकतांत्रिक अधिकारों को तथा सारी संवैधानिक मर्यादाओं को समाप्त कर संपूर्ण देश को आपातकाल की बेड़ी में जकड़ दिया। आपातकाल लगाने के लिये आवश्यक सारे संवैधानिक प्रावधानों को दरकिनार करके यह घोषणा की गई थी। प्रावधानों के तहत आधे से अधिक प्रांत जब मांग करें, नोट भेजें कि कानून व्यवस्था संकट में है और केन्द्रीय कैबिनेट सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित करे तब आपातकाल लगता है।
किंतु इंदिरा जी और उनके निकटस्थी को भय सता रहा था कि वे कहीं सत्ता से बेदखल ना हो जाये इसलिये सारे कानून हाथ में लेकर अपनी मनमर्जी से वह किया जो कतयी कानून संगत नहीं था वह तो जब आम निर्वाचन की घोषणा हुई तो उनकी अनेक साजिशे उजागर हुई निर्वान प्रक्रिया के आरंभ होते होते इंदिरा जी के मंत्रीमंडल के वरिष्ठ मंत्री बाबू जगजीवन राम ने इस्तीफा दे दिया और कांग्रेस छोड़ दी उस समय उन्होंने खुलासा किया कि देश पर आपातकाल थौपने संबंधी प्रस्ताव कैबिनेट में कभी आया ही नही, उसे सिर्फ सूचित किया गया उनके शब्द में के‎बीनेट वॉस टोल्ड नॉट कन्सल्टेड और इसके विपरीत फखरूद्दीन अली महोदय को लिखित सूचना दी गयी कि वह प्रस्ताव कैबिनेट द्वारा सर्वसम्मति से पारित किया गया था इस प्रकार सारे संवैधानिक प्रावधानो का उल्लंघन करते हुए बिना कैबिनेट के प्रस्ताव के पूरे देश पर तानाशाही का जो तांडव थोप दिया गया उसका नाम था आपातकाल ।
कोई अपील नही, कोई न्यायिक व्यवस्था नहीं, न्यायालयों के सारे अधिकार समाप्त कर दिये गये और लाखो निरपराध लोगो की धड़ाधड़ गिरफ्तारी हुई तथा लोकनायक जयप्रकाश नारायण सहित सभी विरोधी दलो के नेता जिसमें अटल बिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण आड़वाणी, जार्ज फर्नाडीज, कांग्रेस के भी नेता 250 से अधिक पत्रकार जेलो में डाल दिये गये। निरपराध नागरिको के साथ हिंसा का एक ऐसा ताडव देश ने पहले कभी नही देखा था।
न्यायपालिका समाप्त कर दी गई सुप्रीम कोर्ट मे तीन जजो को सुपरसीड करके अपने चुनाव को वैध करा लिया गया संपूर्ण देश मे हाकार जेल के भीतर अकेले म.प्र. में 100 से अधिक लोकतंत्र प्रेमियो की असमय मृत्यु हुई। 110806 राजनैतिक और समाजिक नागरिको को मीसा/डीआईआर मे बिना मुकद्दमा चलाये जेलो मे निरूद्ध किया गया। इस इतिहास को जानना और परखना लोकतंत्र मे विश्वास लोकतंत्र मे विश्वास रखने वाले सभी के लिये आवश्यक है। नयी पीढी को भी इसे जानने की जरूरत है। जिसकी प्रेरणा से भविष्य मे लोकतंत्र को अक्षुण्ण रखा जा सके। देश हित मे यह बहुत आवश्यक है, ताकि अभिव्यक्ति की आजादी फिर कभी बाधिक न हो पाये। 25 एवं 26 जून 2006 को करेली मे दीवसीय का आयोजन किया था। जिसमे मध्यप्रदेश के साथ ही छत्तीसगढ के भी कुछ लोकतंत्र सेनानी शामिल हुये थे। तब लोकतंत्र सेनानी संघ को एक राज्यस्तरीय संगठन बना दिया गया था। 26 जून 2015 को भोपाल मे आयोजित सम्मेलन मे इसे अखिल भारतीय स्वरूप प्रदान किया गया । आज इस संगठन का परिपूर्ण आकार सभी के सामने है। वह इसके केन्द्रीय पदाधिकारियो के निंरतर प्रवास और प्रयास का परिणाम है। आज कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से कामरूप तक के लोकतंत्र सेनानी संगठित हो चुके है। लगभग सभी वरिष्ठ नागरिक की श्रेणी मे आ चुके, इन सेनानियो के उत्साह मे आज भी कोई कमी नही आयी है। देश हित मे कुछ भी कर गुजरने को आज भी ये सभी तत्पर है । इसलिये सम्पर्क होते ही हर प्रांन्त मे प्रांन्तीय संगठन खड़ा हो गया, जिनके प्रांतीय सम्मेलन भी आयोजित हो रहै है।
इन सेनानियो के त्याग और तपस्या को सम्मानित करने का अर्थ अपने गौरवशाली इतिहास को सम्मानित करना है । जो लोग इतिहास को भुलाने के लिये अमादा थे उन्हे आज सम्पूर्ण देश नकार चुका है। जिन्होने इसके महत्व को समझा ऐसे कईS प्रान्त के माननीय मुख्यमंत्रीगण लोकतंत्र सेनानियो को मानधन सहित चिकित्सा, यातायात आदि की सुविधा मुहैया करके लोकतंत्र के प्रति अपने श्रद्धा भाव का उदाहरण प्रस्तुत कर रहै है । पिछले एक वर्ष मे हमारे संगठन के प्रयास और संबधित सरकारो के समर्थन से जिन प्रान्तो मे यह योजना पहली बार लागू हुई वह है। उत्तराखंड और महाराष्ट्र। उत्तरप्रदेश मे नयी सुविधाओ के साथ यह नये रूप मे लागू हुई है। असम मे इसे लागू करने के लिये आश्वसन मिल चुका है। आवश्यक प्रक्रिया से गुजरने के बाद घोषणा होने की संभावना है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार ने पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा दी जा रही वित्तीय सुविधाओं पर अस्थायी रोक लगा दी है। मैं मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों को आगाह करना चाहता हू कि वे इतिहास से सबक ले तथा तानाशाही का मार्ग छोडकर वित्तीय सुविधाओं पर लगाई अस्थायी पावंदी को समाप्त कर आपातकाल के विरूद्ध संघर्ष करने वाले योद्धाओं को सम्मानित करे, अन्यथा आंदोलन का सामना करने के लिये तैयार रहे।
आपातकाल की समाप्ति के पश्चात् आई तत्कालीन केन्द्र सरकार ने यह अनुभव किया था कि यह देश का दूसरा स्वतंत्रता संग्राम है जिसने देश के लोकतंत्र को उसकी बेड़ियॉ तोडकर कारागार से मुक्त किया। इस गौरवशाली संघर्ष की महिमा को भावी पीढ़ी के सामने प्रस्तुत करने की उनकी मंशा जरूर रही होगी क्योंकि वे स्वयं इसके सेनापति व मार्गदर्शक थे, पंरतु दुर्भाग्य से वे अपना कार्यकाल पूरा नही कर पाए आज इतने वर्षो के बाद उसी संघर्ष से निकले, लोकतंत्र सेनानी अच्छी संख्या मे केन्द्र में सत्तासीन है। हमें उम्मीद थी कि सरकार आते ही स्वयं इस पर अवश्य ध्यान देगी लेकिन ऐसा नही हो सका, जनता जनार्दन के आशीर्वाद से केन्द्र में श्री नरेन्द्र मोदी जी के नेतृत्व में प्रचण्ड बहुमत से सरकार बनी है। इसमें देश के लोकतंत्र सेनानियों की भी महती भूमिका रही है हम आशान्वित है ।
स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहला महासंग्राम था। जिसमें संपूर्ण देश ने अपनी भूमिका निभाई, परंतु कैसा दुर्भाग्य नई पीढ़ी से इस इतिहास को छुपाकर रखा गया। इस संघर्ष गाथा को बच्चों के पाठयक्रम में शामिल करने की आवश्यकता से हमने सरकार को दृढतापूर्वक अवगत कराया है। हमें विश्वास है कि शीघ्र ही बच्चो को इसकी जानकारी उपलब्ध हो जाएगी। तत्कालीन केन्द्र सरकार ने ही लोकतंत्र को कलंकित किया था अत: आज की केन्द्र सरकार का यह दायित्व बनता है कि लोकतंत्र पर लगे उस कलंक को मिटाने वाले लोकतंत्र सेनानियों को स्वतंत्रता सेनानियों का दर्जा देकर इतिहास के साथ इस निमित्त हमें सरकार के प्रभावशाली मंत्रियों का समर्थन मिल रहा है इसे निर्णायक स्तर तक पहुचाने के लिये संगठन की ओर से निरंतर प्रयास जारी है। यह सब किय जाना इसलिये भी आवश्यक है कि जिससे इस संग्राम से वर्तमान तथा आगे आने वाली पीढिया स्वाधीन जीने के लिये कोई भी मूल्य चुकाने की सतत् प्रेरणा ग्रहण कर सके और दूसरी ओर शासन प्रशासन में बैठे लोगो की शक्ति और सामर्थ का भी विस्मरण न हो।
हम तो केन्द्र से बस इतना निवेदन कर सकते है कि जिस संघर्ष की सीढी चढकर आज आप आसमान की ऊंचाई को छू रहे है उस सीढी को उस इतिहास को महत्व दे और उन इतिहास पुरूषो को सम्मानित करे। पिछले 44 साल में हम लगभग 70 हजार लोकतंत्र सेनानियों को हम खो चुके है। रोज देशभर से जिस प्रकार के शोक समाचार मिल रहे है उससे लगता है कि अगले 10 साल में इनकी प्रजाति विलुप्ति की कगार तक पहुच जाएगी। अत: ऐसे महत्वपूर्ण निर्णय को और अधिक टाला नही जाना चाहिए ।
(लेखक- राज्यसभा सदस्य एवं आपातकाल योद्धाओं के अ.भा.संगठन लोकतंत्र सेनानी संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष है)

भ्रष्टाचारों पर सियासतदां कार्यवाही नहीं करते…!
नईम कुरैशी
भ्रष्टाचार हमारे देश में एक बड़ा सवाल रहा है, एक बड़ा मुद्दा रहा है पर देश के सियासतदानों ने इसे कभी भी गम्भीरता से नहीं लिया क्योंकि हमारे तथाकथित नेतागण खुद ही भ्रष्टाचारों में गले गले तक डूबे दिखे हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री रहे प्रताप सिंह कैरो पर भ्रष्टाचारों के आरोप लगे थे 1960 के आसपास तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने निर्वाचित हुये कहा था क्या मैं लाल किले से ये कहूँ कि मेरे मुख्यमंत्री भ्रष्ट हैं। इसके बाद रक्षा मंत्री रहे व्ही.के. कृष्ण मेनन पर भी सेना के लिये जीप खरीदने के मामलों में भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। इस पर भी नेहरू जी कुछ खास नहीं कर पाये थे।
नेहरू जी के चले जाने पर गुलजारी लाल नन्दा कुछ समय रहे थे। उन्हें काफी ईमानदार भी माना जाता रहा था पर उन्हें वक्त कुछ खास नहीं मिला। लाल बहादुर शास्त्री जी को ईमानदार कहा व सुना जाता रहा था।
श्रीमती गांधी के दौर में बढ़ा भ्रष्टाचार
श्रीमती इन्दिरा गांधी के आने के साथ ही भ्रष्टाचारों की देश में बहार सी आ गई थी। नागर वाला कांड से लेकर आपातकाल के दौरान इतने भ्रष्टाचारों व अत्याचारों के काण्ड हुये कि उन पर अनेकों उपन्यासों व किताबों को लिखा जा चुका है। इन्दिरा जी के दौर में कांग्रेस भी काफी कुछ विचारों से दूर हो गयी थी। उसके विचारों में अब गांधी के विचार दूर से होते जा रहे थे। बस अब ये विचार संजय गांधी के विचार थे या फिर विद्याचरण शुक्ल, बंसीलाल के बोल कांग्रेस में होते थे। संजय गांधी ने परिवार को नियोजित करने का अभियान जरूर चलाया पर उसके लिये भी जुल्मोसितम भी बरपाया गया। कांग्रेस एक गिरोह के तौर पर चलने लगी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री नारायणदत्त तिवारी संजय गांधी को चप्पलें पहनाते हुये देखे जाते रहे थे। भ्रष्टाचारों की नदियां भी इस दौर में समुन्दर बन गये थे। आज उसका ही नतीजा है कि हमारे संसद में 40 फीसद लोग अपराधों में देखे जा रहे हैं। उसमें आधे सांसदों पर बलात्कार, लूट, अपहरण जैसे मामले भी दर्ज देखे जाते रहे हैं।
मध्य प्रदेश में सबसे महिला अत्याचार
उत्तर प्रदेश, बिहार में तो हर तीसरा सांसद व विधायक महिलाओं की इज्जतों से खेलता दिखाई दे रहा है पर हमारा कानून इसके सामने बोना व पुलिस इन सबके सामने नौकरानी या रखैल की तरह हाथ जोड़े खड़ी रहती है। जैसे उत्तर प्रदेश में सेंगर नाम के विधायक जी के सामने पिछले साल खड़ी थी, यदि आंदोलन न किया होता, मीडिया की सक्रियता न होती तो सी.बी.आई. जांच न होती और विधायक जी 16 वर्षीय नवयुवती के गुनहेगार बनकर सीना फुलाते न घूम रहे होते। मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश के बिरादरी के नाते उन्हें कानून का कोई डर ही न था। उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा महिलाओं पर अत्याचार देखे व सुने जाते हैं। उत्तर प्रदेश पुलिस शुरू से ही पैसे के लिये अपनी कुर्सी बचाने के लिये अत्याचारियों के पक्ष लेती आ रही है। सियासतदां यहां चापलूस व बेईमान पुलिस अफसरानों को थानों पर पदस्थापनायें कराते आ रहे हैं। भारत के हिन्दी वेल्ट में पुलिस वालों का अत्याचार भी गरीब वर्ग के लिये कमजोर तब्कों, दलितों, पिछड़ों के लिये एक बड़ी समस्या बनी हुई है पर सियासतदां अपने सामंती मिजाज के चलते इस पर कभी भी ध्यान नहीं देते। 1970 में उत्तर प्रदेश के मेरठ में माया त्यागी नामक महिला के पति को हत्या करने का सरेआम कारनामा व खुद मामा त्यागी को बेइज्जत करने का कारनामा यहां की पुलिस ने कर दिखाया था, जो चरित्र पुलिस का बीमारू राज्यों बिहार, उत्तर प्रदेश, म.प्र. व राजस्थान का है या दिल्ली पुलिस का है। वो केरला या तमिलनाडु, मुम्बई जैसी नहीं है। उत्तर प्रदेश में तो भ्रष्टाचारों की सारी हदें पार कराने का काम उत्तर प्रदेश की पुलिस व राजस्व मेहकमा भर करता रहा है। यहां तो 90 के दशक में मुलायम सिंह यादव ने तो अपने मुख्यमंत्री काल में सारी हदें तोड़ते हुये अपने यादव बिरादरी वालों को बिना परीक्षा के व बिना ट्रेनिंग के ही थानेदार बनवा दिया था जो लम्बे वक्त तक उनके वफादार भी रहे थे।
म.प्र. में मंत्री भी कार्यवाही की जद में
मध्य प्रदेश में जवाहर लाल नेहरू ने अपने बिरादरी वाले कैलाश नाथ काटजू को जबरन मुख्यमंत्री जरूर बना दिया था पर आगे वो कामयाब नहीं हुये थे और हटाये गये। उन्हें सुनाई भी नहीं देता था। डी.पी. मिश्रा, प्रकाशचन्द्र सेठी काफी अच्छे मुख्यमंत्री मध्य प्रदेश में रहे थे। बाद में 1984 में अर्जुन सिंह व 1992 में सुन्दरलाल पटवा भी अच्छे प्रशासक व मुख्यमंत्री रहे थे। वर्तमान नरेन्द्र मोदी सरकार की इच्छा शक्ति भी भ्रष्टाचारों के मामले में काफी मजबूती देखी व सुनी जा रही है। दिल्ली के बड़े नौकरशाह भी सामंती शैली में जिंदगी जीने के आदी हो चुके थे। उन्हें मोदी सरकार ने काफी सबक सिखाया। बताया जा रहा है संयुक्त सचिव स्तर तक के बड़े आय.ए.एस. अफसरों तक को दतरों में समय पर आना पड़ रहा है। उन्हें भी टाईम पर अंगूठा लगाकर हाजरी देना पड़ती है। दो हजार उप सचिव स्तर के अफसरों की जांचें की जा चुकी हैं। उनमें से आधों को घर भेजा जाने वाला है। इनकम टैक्स के आला अफसरों की तरह जिन्हें पिछले दिनों ही सरकार ने जबरन सेवानिवृत्त कर घर भेज दिया गया। नोएडा में आई.टी. के एक कमिश्नर स्तर के अफसर पर भी बड़ी कार्यवाही मोदी सरकार ने की है व 123 भ्रष्ट अफसरों पर कार्यवाही हेतु सी.बी.सी. को रुकी हुई मंजूरी दी जाने वाली है। मध्य प्रदेश में भी आर्थिक अपराध शाखा कुछ बड़े मामलों में कार्यवाही करने जा रही है जो पिछले 15 सालों से कम्बल ओढ़कर घी पीने का काम कर रहे थे। उसमें पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति भी माने जा रहे हैं। कई मंत्रीगणों पर भी कार्यवाही की तलवार लटकी है।

स्वागत है इस युद्धाभ्यास का….
अजित वर्मा
पिछले एक दशक में हम लगातार इस बात पर जोर देते रहे हैं कि आने वाला समय साइबर स्पेस और अंतरिक्ष में लड़े जाने वाले युद्धों का है और भारत को इसकी तैयारी करने के साथ आर्टिफिशियल इण्टेलिजेन्स और डाटा नियंत्रण की दिशा में काम तेज करना चाहिए ताकि भारत किसी भी समय किसी भी चुनौती का सामना कर सके।
अब आये दिन जो खबरें आती हैं आश्वस्तिदायी और देश यह विश्वास कर सकता है कि हमारी सेना और वैज्ञानिक हर क्षेत्र में सक्रिय हैं। यह स्वागतेय है कि भारत ने अगले महीने पहली बार अंतरिक्ष युद्धाभ्यास करने की योजना बनाई है। इसका नाम रखा गया है ‘इंडस्पेसएक्स’। इस अभ्यास में सैन्य अधिकारी और वैज्ञानिक हिस्सा लेंगे। अंतरिक्ष का सैन्यीकरण हो रहा है। साथ ही साथ प्रतिस्पर्धा भी बढ़ रही है। जुलाई के अंतिम हफ्ते में आयोजित होने वाले अभ्यास का मुख्य उद्देश्य भारत द्वारा सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक अंतरिक्ष व अंतरिक्ष रोधी क्षमताओं का आकलन करना है। इससे हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा का आकलन भी होगा। भारत ने मार्च में एंटी-सैटेलाइट (ए-सैट) मिसाइल का सफलतापूर्वक परीक्षण किया था और हाल ही में ‘ट्राई सर्विस डिफेंस स्पेस एजंसीÓ की शुरुआत भी की है।
अधिकारिक रूप से कहा गया है कि भारत को स्पेस में विरोधियों पर निगरानी, संचार, मिसाइल की पूर्व चेतावनी और सटीक टारगेट लगाने जैसी चीजों की आवश्यकता है। इससे हमारे सशस्त्र बल की विश्वसनीयता बढ़ेगी और राष्ट्रीय सुरक्षा भी मजबूत होगी। ऐसे में ‘इंडस्पेसएक्स’ हमें अंतरिक्ष में रणनीतिक चुनौतियों को बेहतर ढंग से समझने में मदद करेगा, जिन्हें संभालने की आवश्यकता है।’
भारत के लिए एक चुनौतीपूर्ण स्थिति यह है कि चीन ने जनवरी 2007 में एक मौसम उपग्रह के खिलाफ ए-सैट मिसाइल का परीक्षण करने के बाद दोनों गतिज (प्रत्यक्ष चढ़ाई मिसाइलों सह-कक्षीय मार उपग्रहों) के साथ-साथ गैर गतिज के रूप में अंतरिक्ष में सैन्य क्षमताओं को विकसित किया है। चीन ने अंतरिक्ष में अमेरिका के वर्चस्व को चुनौती देने वाले अपने महत्वाकांक्षी कार्यक्रम (समंदर में एक जहाज से 7 सैटेलाइट छोडऩे) को हाल ही लांच किया है। चीन के इन अभियानों के मद्देनजर भारत के लिए ‘इंडस्पेसएक्स’ कार्यक्रम बेहद महत्वपूर्ण है।
भारत लंबे समय से स्थाई मजबूती से अंतरिक्ष कार्यक्रमों को अंजाम दे रहा है। इसके बावजूद वह चीन की संचार, नेविगेशन, पृथ्वी अवलोकन और अन्य उपग्रहों से मिलकर 100 से अधिक अंतरिक्ष यान मिशन की बराबरी नहीं कर पाया है। भारतीय सशस्त्र बल अब भी दो सैन्य उपग्रहों के अलावा, निगरानी, नेविगेशन और संचार उद्देश्यों के लिए बड़े पैमाने पर दोहरे उपयोग वाले रिमोट सेसिंग उपग्रह का उपयोग करते हैं।
हाल में भारत ने अंतरिक्ष में सैन्य अभियान की पहली की, जब मिशन शक्ति के तहत पृथ्वी की कक्षा में 283 कि.मी. की ऊंचाई पर 740 किलोग्राम की माइक्रोसेट-आर उपग्रह को नष्ट करने के लिए 19- टन की इंटरसेप्टर (छएड) 27 मार्च को छोड़ा गया।
भारत काउंटर-स्पेस क्षमताओं को विकसित करने के लिए काम कर रहा है, मसलन, निर्देशित ऊर्जा हथियार, लेजर, ईएमपी आदि। नई डिफेंस स्पेस एजंसी ने रक्षा इमेजरी प्रसंस्करण और विश्लेषण केंद्र (दिल्ली) और डिफेंस सेटेलाइट कंट्रोल सेंटर (भोपाल) को नया रूप देने का काम शुरू किया है।

एक देश-एक चुनाव; देश अहम् या राजनीति……?
ओमप्रकाश मेहता
एक प्रजातांत्रिक देश की धड़कन चुनाव है, चुनाव के बिना प्रजातंत्र नहीं और प्रजातंत्र नहीं तो चुनाव नहीं। चुनाव एक ऐसी संवैधानिक प्रक्रिया है, जिसका निर्धारित समय पर पूरा होना जरूरी है। फिर उसका समय क्या हो? इसी पर आज जंग छिड़ी है, मोदी सरकार चाहती है कि देश में पंचायत से लेकर लोकसभा तक के सभी चुनाव एक साथ हो, इसके पीछे दलील यह दी जा रही है कि एक साथ चुनाव नहीं हो पाने के कारण प्रजातंत्र की गाड़ी रफ्तार नहीं पकड़ पा रही है, चुनाव खर्चीले होते जा रहे है, सरकारें ठीक से काम नहीं कर पा रही, देश की प्रगति व कल्याण के कार्यों में बाधा उत्पन्न हो रही है और चुनावों के चक्कर में देश व सरकार का बहुमूल्य समय नष्ट हो रहा है, फिर चुनाव आयोग भी चुनाव की तैयारियों के अलावा कई महत्वपूर्ण दायित्वों पर ध्यान नहीं दे पा रहा है। इसलिए ऐसा कुछ होना चाहिए जिससे सभी चुनाव एक साथ हो, फिर इसके लिए कुछ भी क्यों न करना पड़े?
भारत की आजादी के बाद 1952 में हुए पहले आम चुनाव के बाद अगले तीन आम चुनाव अर्थात् 1967 तक सभी चुनाव एक साथ ही हुए, किंतु 1987 अर्थात इंदिरा जी के सत्तारोहण के बाद यह परिपाटी बदल दी गई और संसद के साथ राज्य विधानसभाओं को भंग कर व राष्ट्रपति शासन लागू कर देश की अधिकांश विधानसभाओं के निर्धारित पांच साला कार्यकाल को गड़बड़ा दिया गया, और इस चलन का दुष्परिणाम आज पूरा देश भुगतने को मजबूर है।
यद्यपि इसमें कोई दो राय नहीं कि एक देश-एक चुनाव को लेकर सरकार द्वारा जो दलीलें दी जा रही है, वे गलत नहीं है जो लोकसभा चुनाव 2014 में 38 हजार करोड़ में सम्पन्न हुआ था, वह महज पांच सालों में दुगुना महंगा हो गया 2019 के लोकसभा चुनाव पर करीब साठ हजार करोड़ रूपया खर्च हुआ और चुनाव सात चरणों में होने के कारण ढाई महीने आचार संहिता लागू रही, जिससे केन्द्र व राज्य सरकारों के कई महत्वपूर्ण जन कल्याणकारी कार्य सम्पन्न नहीं हो पाए, किंतु यहां सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि जब देश में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के 2014 के चुनावी घोषणा-पत्र में एक देश-एक चुनाव का जिक्र था, तो फिर राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ राज्यों के विधानसभा चुनावों के साथ लोकसभा के चुनाव क्यों नहीं कराए गए? महज दो-तीन महीनें बाद लोकसभा चुनाव होना थे तो इन तीन राज्यों के चुनावों को रोका जा सकता था?
…..फिर सबसे बड़ा सवाल यह कि अब इस महत्वपूर्ण मसले को तूल क्यों दी जा रही है, फिर फिलहाल तो केन्द्र सरकार अपने दम पर यह एक देश-एक चुनाव की योजना लागू कर नहीं सकती क्योंकि इसके लिए संविधान के पांच अनुच्छेद दो 83, 85, 124, 174 और 356 में संशोधन कर संसद से पारित करना पड़ेगा और इसके लिए संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत जरूरी है, इसलिए फिलहाल यह संभव नजर नहीं आता, चाहे मोदी जी अपने आपकों कितना ही क्यों न बदल लें? जब तक समूचा प्रतिपक्ष इस मुद्दें पर सरकार के साथ नहीं आता, तब तक यह होना संभव नहीं है। जहां तक कांग्रेस का सवाल है, वह तो पहले ही अपने राजनीतिक प्रस्ताव में एक साथ चुनाव को गलत बता चुकी है, रही बात सपा-बसपा की, तो वे भी इसे अपने नजरियें से देखकर इस मुद्दें को उठाने की पहल को देश के अन्य ज्वलंत मुद्दों से ध्यान बांटने का प्रयास बता रहे है। जबकि कांग्रेस को आशंका है कि आज एक देश-एक चुनाव को मुद्दा बना रहे है, कल ‘एक देश-एक धर्म’ को मुद्दा बनाएगें। यद्यपि यह सही है कि यह मुद्दा मोदी जी या भाजपा का नया मुद्दा नहीं है, यह हमारे संविधान में वर्णित सबसे पुराने विचारों में से एक है, इसलिए इस मुद्दें को लेकर मोदी जी या भाजपा का कोई राजनीतिक स्वार्थ नजर नहीं आता, किंतु सबसे बड़ा सवाल यह है कि पिछले बावन सालों से बिगड़े इस चुनावी चलन को तत्कालीन शासकों ने इतनी विकृत स्थिति तक पहुंचा दिया है कि इस प्रजातंत्र व संविधान के अनुरूप स्वरूप प्रदान करने के लिए सरकार को काफी मशक्कत करनी पड़ेगी, वह भी तभी जब प्रतिपक्षी दलों को भगवान सद्बुद्धि प्रदान करें। क्योंकि एक बार यदि प्रजातंत्र सही पटरी पर आ गया तो वह सभी के हित में होगा।
अब मोदी जी ने प्रतिपक्ष की महिमा को मंडित कर प्रयास तो शुरू किया है, देखियें अब आगे-आगे होता है क्या? वैसे यदि यह हो जाए तो वह देश व देशवासियों के हित में ही होगा।

प्रदूषण: लामबंद हो यूरोप के खिलाफ
अजित वर्मा
जलवायु परिवर्तन के मामले में वैश्विक समझौता अमल में न आने का दुष्प्रभाव भारत सहित न केवल समस्त हिमालयी देशों को वरन पूरे एशिया को भुगतना पड़ रहा है क्योंकि यूरोपीय देशों में तेजी से बढ़ रहे प्रदूषण का असर हिमालय पर्वतमाला पर भी पड़ रहा है। इस क्षेत्र में कार्बन की बढ़ती मात्रा चिंता पैदा कर रही है। बर्फ से ढकी हिमालय की वादियां इस प्रदूषण का तेजी से शिकार हो रही हैं और प्रदूषण का खतरनाक स्तर इन बर्फीली पर्वतमालाओं पर भी पहुँच गया है।
यूरोपीय देशों में प्रदूषण बहुत खतरनाक स्थिति में पहुँच चुका है। जिसके प्रभाव से पश्चिमी विक्षोभ के माध्यम से कार्बन की अत्यधिक मात्रा हिमालयी इलाकों में तेजी के साथ पहुंच रही है। वक्त रहते भारत और चीन सहित समस्त एशियाई देशों को यूरोप के विरुद्ध इस सवाल पर लामबन्द होकर दबाव बनाना चाहिए।
हिमालयी क्षेत्र से जिस तरह से कार्बन की मात्रा निरंतर बढ़ रही है, वह पूरी दुनिया के लिए खतरे की घंटी है। तेजी के साथ बिगड़ते पर्यावरण के कारण दुनिया का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है।
हाल ही किये गए शोधों का निष्कर्ष है कि यूरोपीय देशों में बढ़ते प्रदूषण का प्रभाव तेजी के साथ हिमालयी देशों पर पड़ रहा है। पश्चिमी विक्षोभ के द्वारा बड़ी मात्रा में कार्बन हिमालयी इलाकों में बसे देशों में भी अपने पैर पसार रहा है। इसका प्रभाव हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र पर तेजी के साथ हो रहा है और हिमालय के वायु मंडल में कई परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं।
वैज्ञानिकों का कहना है कि उच्च हिमालयी क्षेत्रों में लगातार कार्बन की मात्रा बढ़ रही है। पहली बार वैज्ञानिकों ने उच्च हिमालयीन क्षेत्रों में कार्बन की बढ़ती मात्रा का अध्ययन किया है। इस क्षेत्र में कार्बन की मात्रा 0.1 से चार माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर तक मापी गई है। यदि उच्च हिमालयी इलाकों में कार्बन तथा अन्य गैसों की मात्रा तेजी के साथ बढ़ती रहेगी, तो इसका प्रभाव हिमालय के ग्लेशियरों पर भी अवश्य पड़ेगा, जिससे इस क्षेत्र के ग्लेशियर तेजी से पिघलेंगे और इन ग्लेशियरों का आकार भी घटेगा।
स्थितियां चेतावनी दे रही हैं कि पर्यावरण संरक्षण के लिए और अधिक संवेदनशील होने की आवश्यकता है। और पर्यावरण संरक्षण का काम केवल सरकारी तंत्र के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है।

सेवानिवृत्ति की आयु 58 वर्ष करने पर विचार
सनत जैन
बीएसएनएल के कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति उम्र 60 वर्ष से घटाकर 58 वर्ष करने पर सरकार बड़ी गंभीरता से विचार कर रही हैं। सरकार में जो विचार मंथन हो रहा है, उसके अनुसार बीएसएनएल के 1 लाख 76 हजार कर्मचारियों में से 50 फ़ीसदी कर्मचारी अगले 5 से 6 वर्षों में सेवानिवृत्त होने जा रहे हैं। यदि उनकी आयु 60 वर्ष से घटाकर 58 वर्ष कर दी जाती है, तो 3 से 4 साल के अंदर लगभग 85,000 अधिकारी कर्मचारी सेवानिवृत्त हो जाएंगे।
सरकारी क्षेत्र की दूरसंचार कंपनी बीएसएनएल पिछले 3 वर्षों से लगातार घाटे में चल रही है। 2016-17 में 4793 करोड़, 2017-18 में 7992 करोड़ और 2018-19 में भी लगभग 7000 करोड़ रुपए के नुकसान का अनुमान लगाया जा रहा है। बीएसएनएल के बढ़ते हुए घाटे को देखते हुए कंपनी, बीआरएस के माध्यम से 50 वर्ष की उम्र में तथा सेवानिवृत्त आयु 60 वर्ष से घटाकर 58 वर्ष करने पर गंभीरता से विचार कर रही है। इसके लिए कंपनी को 6365 करोड़ रुपए वीआरएस में खर्च करने की जरूरत होगी। वित्त मंत्रालय ने इतनी बड़ी रकम वीआरएस में खर्च करने के स्थान पर और कोई उपाय सुझाने के लिए कहा था। इसके बाद कर्मचारियों की आयु 60 वर्ष से घटाकर 58 वर्ष करने तथा वीआरएस के माध्यम से जो बोझ कंपनी पर पड़ने वाला था, वह कम हो जाएगा। बीएसएनएल में कुल कर्मचारियों और अधिकारियों की संख्या 176000 बताई जा रही है। सेवानिवृत्ति की आयु घटाने से केंद्र सरकार को फौरी तौर पर कोई मदद नहीं देनी पड़ेगी। अगले तीन-चार वर्षों में अधिकारियों और कर्मचारियों की संख्या अपने आप आधी हो जाएगी।
वीआरएस का लाभ देने पर प्रत्येक वर्ष के लिए सरकार को 35 दिन का वेतन और शेष वर्षों के लिए 25 दिन का वेतन दिया जाता है। सरकार 50 वर्ष की आयु पूर्ण कर चुके अधिकारियों कर्मचारियों को अनिवार्य सेवानिवृत्ति तथा वीआरएस योजना का लाभ लेकर नौकरी छोड़ने का विकल्प रखती है, ऐसी स्थिति में सरकार को लग रहा है, कि यदि सेवानिवृत्ति की आयु 60 वर्ष से घटाकर 58 वर्ष की जाती है। तो इसका अन्य कंपनियां विरोध कर सकती हैं। ऐसी स्थिति में केंद्र सरकार पुनरुद्धार योजना में सेवानिवृत्ति की उम्र घटाकर तथा बीएसएनल को परिसंपत्तियों की बिक्री कर राशि जुटाने का विकल्प कंपनी को देने पर गंभीरता से विचार कर रहे हैं। बीएसएनएल जैसी एकाधिकार वाली कंपनी पिछले 3 वर्षों से लगातार घाटे में चल रही है। इसके पहले वर्षों में भी उसका मुनाफा तेजी के साथ घट रहा था। केंद्र सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की इस कंपनी को उबारने का कोई प्रयास नहीं किया। जिसके कारण बीएसएनएल की हालत बड़ी तेजी के साथ खस्ता होती चली गई। वही जिओ जैसी कंपनी ने बीएसएनएल के मार्केट में बड़ी तेजी के साथ कब्जा जमाते हुए, उसे आर्थिक रूप से इतना कमजोर कर दिया है। बी एस एन एल अपने कर्मचारियों और अधिकारियों को समय पर वेतन भी नहीं बांट पा रही हैं। दूरसंचार क्षेत्र की एकाधिकार वाली यह कंपनी यदि डूबती है, तो इसका असर अन्य कंपनियों पर भी पड़ना तय है, केंद्र सरकार को इस दिशा में काफी गंभीरता से सोच समझ कर निर्णय लेने की जरूरत है। बेरोजगारी और आर्थिक मंदी के इस दौर में विशेष रूप से, जब निजी क्षेत्र की टेलीकॉम कंपनियां भी आर्थिक दृष्टि से सरकार के ऊपर भार बन गई हैं। ऐसी स्थिति में सरकार की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। आशा है केंद्र सरकार बीएसएनल की कार्यप्रणाली को सुधारने और आर्थिक रूप से सक्षम बनाने के लिए बेहतर निर्णय लेगी।
शेयर बाजार में सूचीबद्ध 400 कंपनियां लापता
भारत में कंपनियों के माध्यम से किस तरह काला धन और भ्रष्टाचार का खेल होता है। इसका उदाहरण है, शेयर बाजार की 400 सूचीबद्ध कंपनियॉं जिनके बारे में सरकार एवं कंपनी मामलों के मंत्रालय और सेबी को कोई जानकारी नहीं है। निवेशकों का काफी बड़ा निवेश इन सूचीबद्ध कंपनियों में होता है। इसके अलावा सरकार की वित्तीय संस्थाएं भी कंपनियों में भारी निवेश करती हैं। उसके बाद यह कंपनियां यदि गायब हो जाती हैं, तो इससे बड़ी चिंता की कोई बात नहीं हो सकती हैं।
भारत के कंपनी रजिस्टर के पास करीब 11 लाख कंपनियां पंजीकृत हैं। इनमें से लगभग 5 लाख कंपनियां सक्रिय हैं। शेष छह लाख कंपनियां मुखौटा कंपनियों के रूप में उपयोग में आती हैं। जो कंपनियों के नाम पर काले धन का लेन-देन बेरोक-टोक करने का काम करते हैं। 2016 में नोटबंदी के बाद बड़ी तेजी के साथ मुखौटा कंपनियों पर कार्रवाई सरकार द्वारा की गई थी। जिसके कारण लाखों कंपनियां रातों-रात बंद हो गईं और लगभग 6000 कंपनियां एलएलपी में परिवर्तित हो गई। एलएलपी कंपनियों के लिए संसद ने सीमित दायित्व भागीदारी कानून 2008 में बनाया था। जिसमें प्रत्येक साझेदार का सीमित दायित्व निर्धारित होने की वैधता का नियम है। भागीदारों के अधिकार और दायित्व का निर्धारण उनके बीच हुए समझौते की शर्तों के आधार पर तय होता है।
नोटबंदी के बाद पहले चरण मैं सरकार ने 2 लाख 25 हजार कंपनियों के खिलाफ कार्यवाही की थी। इसमें कंपनियों के तीन लाख डायरेक्टर भी शामिल थे। इन कंपनियों का कारोबार जरूर बंद हो गया। किंतु किसी पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। जिसके कारण कंपनियों का यह गोरखधंधा लगातार चल रहा है। 400 कंपनियां जो शेयर बाजार में सूचीबद्ध हुई थी। उनका पैन कार्ड नहीं होना और उनका गायब हो जाना, इस बात का द्योतक है, कि भारत में कंपनियों के माध्यम से किस तरह कर चोरी और आम जनता के पैसों की बंदरबांट कंपनियों के माध्यम से की जा रही है। कंपनियों में सरकार की वित्तीय संस्थाओं का भी समय-समय पर भारी निवेश होता है। शेयर बाजार के आधार पर इसका निवेश होने से यदि यह कंपनियां गायब होती हैं , या घाटे में जाती हैं, या दिवालिया घोषित होती हैं, ऐसी दशा में सरकार के वित्तीय संस्थानों को भी अरबों खरबों रुपए का नुकसान उठाना पड़ता है। इसके साथ ही जिन लोगों ने बैंकों में अपने पैसे जमा कराए हैं, या कंपनियों पर सीधा निवेश किया है। उन सभी को भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है। केंद्र सरकार को इस दिशा में विशेष सजगता बरतनी होगी। अरबों खरबों रुपए के घोटाला करने वाले कंपनियों के कर्ताधर्ताओं के ऊपर कड़ी से कड़ी कार्रवाई करनी होगी। अन्यथा भारत का आर्थिक संकट और तेजी के साथ बढ़ेगा। इस पर नियंत्रण कर पाना सरकार की वश में भी नहीं होगा।

प्रश्न संविधान के मंदिर की मर्यादा का
निर्मल रानी
सत्रहवीं लोकसभा अस्तित्व में आ चुकी है। इस बार की लोकसभा में जहाँ कई नए चेहरे चुनाव जीत कर आए हैं वहीं कई अतिविवादित लोगों को भी देश की जनता ने निर्वाचित किया है। बहरहाल, जनभावनाओं का सम्मान करते हुए तथा निर्वाचन आयोग द्वारा लोकसभा को प्रेषित की गई निर्वाचित सांसदों की नई सूची के अनुसार पिछले दिनों नव निर्वाचित सांसदों ने शपथ ली। परन्तु अफ़सोस की बात यह है कि इस बार सांसदों का लोकसभा की सदस्यता ग्रहण करना जितना विवादित व शर्मनाक रहा उससे निश्चित रूप से देश के संविधान का मंदिर समझी जाने वाली भारतीय संसद अत्यंत शर्मिंदा हुई। सबसे पहला विवाद तो भोपाल से चुनी गई भाजपा सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर की शपथ को लेकर हुआ जबकि उन्होंने अपना नाम प्रज्ञा सिंह ठाकुर लेने के बजाए संस्कृत में शपथ लेते हुए कुछ इन शब्दों में शपथ की शुरुआत की -‘मैं साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर स्वामी पूर्ण चेतनानंद अवधेशानंद गिरि लोकसभा सदस्य के रूप में शपथ लेती हूँ ‘ । प्रज्ञा सिंह ठाकुर द्वारा अपना उक्त पूरा नाम लिए जाने पर विपक्षी सदस्यों द्वारा टोका टाकी शुरू कर दी गई और उनके इस नाम का विरोध किया गया। विपक्षी सदस्य प्रज्ञा सिंह ठाकुर द्वारा अपने नाम के साथ अपने गुरु का नाम जोड़े जाने का विरोध कर रहे थे। जबकि लोकसभा के अधिकारियों ने उनसे अपने नाम के साथ अपने पिता का नाम जोड़ने का अनुरोध किया। ग़ौरतलब है कि मध्य प्रदेश के भिण्ड ज़िले में जन्मी प्रज्ञा ठाकुर के पिता का नाम सी पी ठाकुर है जबकि अवधेशानंद गिरि उनके अध्यात्मिक गुरु हैं।
लोकसभा में विवादों का सिलसिला यहीं नहीं थमा बल्कि इसके अगले दिन भी संविधान का यह मंदिर धर्म का अखाड़ा बनता दिखाई दिया। जिस संसद में केवल जयहिंद या भारत माता की जय के नारों की गूँज सुनाई देनी चाहिए थी अथवा अनुशासनात्मक दृष्टिकोण से देखा जाए तो निर्वाचित माननीयों द्वारा केवल शपथ पत्र में दिए गए निर्धारित वाक्यों व शब्दों मात्र का ही उच्चारण किया जाना चाहिए। उसी संसद में राधे राधे , जय मां दुर्गा , जय श्री राम , अल्लाहु अकबर तथा हर हर महादेव के नारे सुनाई दिए। अफ़सोस की बात तो यह है कि संसद में इस प्रकार का उत्तेजनात्मक वातावरण पैदा करने वाले बेशर्म माननीयों को उस समय बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर में राजनीतिज्ञों की असफलता का वह कुरूप चेहरा भी याद नहीं आया जिसने कि लगभग 150 मासूम बच्चों की जान ले ली। ऐसे सभी अनुशासनहीन सांसद देश के संविधान की धज्जियाँ उड़ाने में व्यस्त थे। कल्पना की जा सकती है कि जब शपथ ग्रहण के दौरान ही अर्थात संसद के पहले व दूसरे दिन ही इनके तेवर ऐसे हैं तो आने वाले पांच वर्षों में इनसे क्या उम्मीद की जानी चाहिए। शिकायत इस बात को लेकर भी है कि जिस समय माननीयों द्वारा शपथ ग्रहण के दौरान इस प्रकार की असंसदीय नारेबाज़ी की जा रही थी अर्थात अनुशासन की धज्जियाँ उड़ाई जा रही थीं उस समय लोकसभा के प्रोटेम स्पीकर भी असहाय दिखाई दे रहे थे तथा उनहोंने भी सदस्यों के इस असंसदीय व्यवहार की न तो आलोचना की न ही उनहोंने इसे रोकने का अनुरोध किया।
पश्चिम बंगाल में हुआ इस बार का लोकसभा चुनाव अन्य राज्यों के चुनाव की तुलना में सबसे अधिक विवादित व हिंसक रहा। भाजपा ने पश्चिम बंगाल में चुनाव को ऐसा रूप दे दिया था गोया भाजपा भगवान श्री राम की पक्षधर है और वहां की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस राम विरोधी है। भाजपा ने पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार के दौरान भी न सिर्फ़ जय श्री राम के नारों का भरपूर प्रयोग किया बल्कि कई जगह अपने जुलूसों में भगवान राम व रामायण के विभिन्न पात्रों को भी भगवा वेश भूषा में प्रस्तुत किया। गोया पूरे चुनाव को धार्मिक रंग देने की कोशिश की गई। निश्चित रूप से इसी रणनीति के परिणामस्वरूप भाजपा को पश्चिम बंगाल में 18 सीटों पर विजय प्राप्त हुई। जय श्री राम के नारों की गूंज संसद में उस समय भी बार बार सुनाई दे रही थी जबकि पश्चिम बंगाल के भाजपाई सांसद लोकसभा की सदस्य्ता की शपथ ले रहे थे। हुगली से भाजपा के सांसद लॉकेट चटर्जी ने तो शपथ लेने के बाद जय श्री राम , जय मां दुर्गा, जय माँ काली के भी जयकारे जय हिन्द व भारत माता की जय के साथ लगवा दिए। उधर गोरखपुर के निर्वाचित सांसद रवि किशन का नाम आते ही सदन हर-हर महादेव के नारों से गूंजने लगा. शपथ के बाद रविकिशन ने भी उत्साह में आकर हर-हर महादेव, जय पार्वती तथा गोरखनाथ की जय के नारे लगवाए. उसके बाद उन्होंने लोकसभा के सदस्यता रजिस्टर पर अपने हस्ताक्षर किये. यहां तक की सांसद हेमा मालिनी ने भी शपथ के अंत में राधे-राधे का जयघोष किया. पिछले लोकसभा में अनेक विवादित बयानों के लिए अपनी पहचान बनाने वाले साक्षी महाराज ने संस्कृत भाषा में शपथ ली और अंत में जय श्री राम का उद्घोष किया. परन्तु जब वे शपथ ले चुके, उस समय संसद में मंदिर वहीँ बनाएंगे के नारे भी गूंजने लगे.
जय श्री राम और वन्दे मातरम जैसे नारों की गूँज केवल उसी समय नहीं सुनाई दी जबकि कई भाजपाई सांसद शपथ ले रहे थे बल्कि यह जयकारे उस समय भी लगाए गए जबकि हैदराबाद के एम् आई एम् के सांसद असदुद्दीन ओवैसी का नाम शपथ लेने हेतु पुकारा गया। साफ़तौर से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि नशे में चूर नवनिर्वाचित सत्तारूढ़ सांसदों द्वारा विपक्षी सांसदों को छेड़ा या चिढ़ाया जा रहा हो । जैसे ही ओवैसी शपथ लेने के लिए आगे बढ़े, उसी समय संसद में जय श्री राम और वन्दे मातरम के नारे गूंजने लगे। देश की संसद को ‘धर्म संसद ‘ बनते देख ओवैसी भी स्वयं को विवादों से नहीं बचा सके। उन्होंने भी अल्लाहु अकबर का नारा लोकसभा में उछाल दिया। ओवैसी को देखकर जय श्री राम का नारा लगाने वालों से ओवैसी ने इशारों से और अधिक नारा लगाने के लिए भी कहा। परन्तु साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि मुझे देखकर ही भाजपा के लोगों को जय श्री राम की याद आती है। यदि ऐसा है तो यह अच्छी बात है और मुझे इससे कोई आपत्ति नहीं है। परन्तु अफ़सोस इस बात का है कि उन्हें बिहार में हुई बच्चों की मौत याद नहीं आ रही है। ऐसी ही स्थिति संभल से निर्वाचित सांसद शफ़ीक़ुर रहमान बर्क़ के शपथ के दौरान भी पैदा हुई। उन्होंने भारतीय संविधान को तो ज़िंदाबाद कहा परन्तु वन्दे मातरम कहने पर ऐतराज़ जताया। उनकी इस बात से असहमति जताते हुए सत्ताधारी भाजपा सदस्यों ने शेम शेम के नारे लगाए। केवल सोनिया गाँधी की शपथ के दौरान न केवल कांग्रेस सदस्यों बल्कि सत्ताधारी व विपक्षी समस्त सांसदों ने तालियां बजाकर सोनिया गाँधी द्वारा हिंदी में शपथ लिए जाने का ज़ोरदार स्वागत किया।
17 वीं लोकसभा की शुरुआत के पहले ही दिनों में जब माननीयों की अनुशासनहीनता के ऐसे रंग ढंग दिखाई दे रहे हों तो वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उस सद्भावनापूर्ण अपील पर कितने खरे उतरेंगे जो उन्होंने संसदीय दल का नेता चुने जाने के बाद केंद्रीय कक्ष में दिए गए अपने पहले भाषण में की थी। देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया प्रज्ञा ठाकुर जैसी उस सांसद के निर्वाचन पर ही आश्चर्यचकित है जो कि ना केवल मालेगाँव बम ब्लास्ट की आरोपी रही हैं बल्कि शहीद हेमंत करकरे को श्राप दिए जाने तथा नाथूराम गोडसे को देशभक्त बताये जाने जैसे अतिविवादित बयानों के लिए भी सुर्ख़ियों में रही हैं। आने वाले पांच वर्षों में यह सांसद देश के समक्ष अनुशासन की कैसी मिसाल पेश करेंगे, इसका ट्रेलर शुरुआती दिनों में ही देखा जा चुका है। निश्चित रूप से यदि यह माननीय इसी तरह बेलगाम रहे तो देश के संविधान के मंदिर की मर्यादा पर ज़रूर प्रश्न चिन्ह लग सकता है।

योग की उपयोगिता के प्रति सजग होता विश्व
डॉक्टर अरविन्द जैन
(21 जून अंतराष्ट्रीय योग दिवस पर विशेष) स्वास्थ्य के प्रति जागरूक और सजग बनाने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र द्वारा योग को हर वर्ष २१ जून को अंतरराष्ट्रीय दिवस के रूप में मानने की घोसना की। 11 दिसंबर 2014 को संयुक्त राष्ट्र द्वारा २१ जून को दिन विश्व योग दिवस घोषित किया गया। वैसे तो योग भारतीय संस्कृति की लिए नया नही हैं। ऋषि मुनियों के समय से ही योग क्रिया चली आ रही है लेकिन संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रति वर्ष २१ जून को विश्व योग दिवस घोषित करने से विश्व में योग के प्रति लोग ज़्यादा सजग, उत्साहित, और समर्पित हुए हैं
योग क्या है?
योग का शाब्दिक अर्थ होता है जोड़ना या बाँधना या एकता। शरीर, मन और भावनाओं को आपस में जोड़ने या बाँधने की कला को ही योग कहते हैं।
योग एक व्यायाम की क्रिया है जिससे एक इंसान को मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक सकून प्राप्त होता है। योग करने के लिए किसी भी प्रकार के मशीनी औजार की ज़रूर नहीं पड़ती। योग कभी भी कहीं भी किया जा सकता है। प्रतिदिन योग करने से हर इंसान के शरीर को तरह की बीमारियों से लड़ने की शक्ति प्राप्त होती है। योग ना केवल इंसान को शारारिक मजबूती प्रदान करता है बल्कि मानसिक शक्ति भी प्राप्त होती है जो की आजकल की भागदौड़ वाली लाइफ स्टाइल के लिए बहुत ही ज़रूरी है। सुबह-सुबह रोजाना योग करने से शरीर स्वस्थ होता है और दिनभर शरीर में जोश और उत्साह रहता है।
योग के प्रकार
योग के 4 प्रमुख प्रकार हैं जो युगों से चले आ रहे हैं-
राज योग
कर्म योग
भक्ति योग
ज्ञान योग
योग करने का सही समय
वैसे तो योग कभी भी किया जा सकता है इसके लिए को फिक्स टाइम नही हैं लेकिन सुबह सूर्योदय से पहले एक से दो घंटे योग के लिए सबसे अच्छा समय माना गया है क्यूंकी उस समय हवा साफ और ताज़ा होती है और शरीर भी आरामदायक स्थिति में होता है। अगर सुबह आपके लिए योग करना मुमकिन ना हो तो सूर्यास्त के समय भी कर सकते हैं। लेकिन कुछ बातों का ध्यान रखना ज़रूरी है-
प्रतिदिन योग का समय निर्धारित कर लें
योग मैट या दरी बिछा कर ही करें
योग खुली जगह जैसे पार्क या घर की छत में कर सकते हैं
योग की क्रियायें धीरे धीरे और आसान तरीके से शुरूवात करें
योग किसी एक्सपर्ट से ज़रूर सीखें या सलाह लें
साल २०१४ में अपने पहले भाषण के दौरान नरेन्द्र मोदी ने यू।एन। की आम सभा से कहा कि “भारतीय परंपरा का एक अनमोल उपहार है।” योग से विश्वभर में शांति का संदेश दिया जा सकता है। और योग आज के समय में विश्वभर के लोगों के लिए बहुत ही ज़रूरी है क्यूंकी योग शरीर और मान दोनो को आपस में जोड़ कर रखता है। जो की हर एक आदमी की आत्म शांति के लिए बहुत जरूरी है।
भारत सरकार की अनेकों कोशिशों के बाद साल 2014 की 11 दिसंबर तारीख को संयुक्त राष्ट्र आम सभा द्वारा हर वर्ष 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस या विश्व योग दिवस के रुप में पूरे विश्वभर में मानने की घोषणा की गयी। इस तरह 21 जून 2015 को पहली बार विश्व योग दिवस का आयोजन किया गया।
अंतरराष्ट्रीय योग दिवस का उद्देश्य
योग के महत्व पूरी दुनिया ने जाने हैं और माने भी हैं। योग को मिले विश्वव्यापी पहचान के लिए इसकी सरलता है आसानी है। बिना खर्चे के स्वस्थ रहने का तरीका है योग। विश्व योग दिवस के अनेको उद्देश्य हैं-
योग विश्व शांति के लिए बहुत ही ज़रूरी है
योग स्वस्थ रहने का सबसे आसान और बिना खर्चे का तरीका है
योग द्वारा लोगों को प्रकृति से जोड़ना
योग शारारिक मजबूती और आत्मविश्वास के लिए ज़रूरी है
पूरे विश्व भर में स्वास्थ्य चुनौतीपूर्ण बीमारियों की दर को घटना
वैश्विक समन्वय और तालमेल के लिए
अंतरराष्ट्रीय योग दिवस या विश्व योग दिवस के कारण योग सीखने वालों की माँग विश्वभर में बढ़ी है। स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी में योग टीचर्स की भारी माँग बढ़ी है और साल दर साल यह बढ़ती ही जाएगी। स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी में योग विषय पर क्लास चल रही हैं योग टीचर्स की नयी जॉब्स आ रही हैं। यह सब अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के कारण ही संभव हो सका है। योग आज हर किसी की लिए ज़रूरी हो गया है। हर किसी के लिए जिम जाना आसान नही हैं। भागदौड़ की इस लाइफ स्टाइल के कारण हर किसी के पास समय नहीं है की वो रोज जिम के लिए समय निकल सके। इसलिए लोग योग को आसानी से आपना रहे हैं क्यूँ की योग कहीं भी किया जा सकता है वो भी बिना किसी खर्चे के। योग सबसे आसान और किफायती तरीका है अपनेआप को फिट और आत्मविश्वास रखने का।
योग ,साधना, भजन, ध्यान ,पूजा पाठ,व्यायाम में मात्र आपको समय देना पड़ता हैं और अन्य कोई लागत नहीं लगती ।इसके लिए नियमितता जरुरी हैं और एक बार रूचि होने पर आनंद की अनुभूति होना शुरू हो जाती हैं ।
योग एक प्रकार से अनुशासित जीवन जीने की कला हैं इसके माध्यम से हम तन मन विचारों में एकाग्रता आने से सुखद अनुभूति होती हैं ।बस इससे जुड़ने भर की देरी हैं ।

बदले-बदले मेरे ‘सरकार’ नज़र आते है…?
ओमप्रकाश मेहता
प्रचंड बहुमत से देश में फिर से अपनी सरकार बनाने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी में भी अचानक भारी परिवर्तन सा नजर आने लगा है, मोदी जी की बदली हुई चाल, परिवर्तन चरित्र और विनम्र चेहरा देखकर आज हर कोई आश्चर्यचकित है, अपनी हठ, जिद और अहम् के लिए प्रसिद्ध हो चुके नरेन्द्र भाई में आया यह अचानक परिवर्तन हर किसी को विस्मित कर रहा है, किंतु देश की यह आम धारणा है कि मोदी जी अब देश के सच्चे प्रथम सेवक की भूमिका अख्तियार करने का प्रयास कर रहे है और अपने पांच साल के शासनकाल के खट्टे-मीठे अनुभवों के आधार पर अब उन्होंने जहां अपने अगले पांच साल के शासनकाल में देश का नया इतिहास लिखने की ठान ली है, वहीं वे अपने आप को बदलने का भी प्रयास कर रहे है, ऐसा लगता है कि वे अब सब को साथ लेकर ‘न्यू इण्डिया’ के अपने सपने को साकार करना चाहते है, जिसकी शुरूआत उन्होंने ‘‘निन्दक नीयरे राखिये’’ के मंत्र को अपनाकर, और इसी शुद्ध भावना के तहत् उन्होंने संसद का पहला सत्र शुरू होने से पहले विपक्ष की महिमा को मंडित करने का प्रयास किया और यह स्वीकार किया कि विपक्ष का एक-एक शब्द हमारे लिए मूल्यवान है, विपक्ष को नम्बर की चिंता छोड़ सरकार के साथ एकजुट होकर देश को बदलने की दिशा में हाथ बंटाना चाहिए, उन्होंने कहा विपक्ष का अपना महत्व है, जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। इस प्रकार संसद के पहले सत्र के पहले ही दिन मोदी ने बिना किसी स्वार्थ के जो प्रतिपक्ष की तरफ सहयोग का हाथ बढ़ाया, वह प्रशंसनीय है, यदि अगले पांच साल अपनी सरकार के साथ प्रतिपक्ष की भी मोदी ने इतनी ही चिंता की तो यह देश पूरे विश्व में प्रजातंत्री देशों का सरताज बन सकता है।
मोदी जी अपने पिछले पांच साला कार्यकाल में अपने देशहित के सपनों को साकार रूप इसलिए नहीं दे पाए थे, क्योंकि राज्यसभा (ऊपरी सदन) में उन्हें बहुमत हासिल नहीं था और कोई भी विधेयक या संविधान संशोधन प्रस्ताव दोनों सदनों से पारित होने के बाद ही मूर्तरूप गृहण करता है, किंतु इस बार तो राज्यसभा में भी बदली हुई स्थितियां है और अगले कुछ दिनों में होने वाले कुछ सीटों के चुनाव के बाद राज्यसभा में भी मोदी जी की स्थिति मजबूत हो जाएगी, इसलिए वे चाहते तो बिना प्रतिपक्ष की परवाह किए कोई भी विधेयक या संशोधन पारित करवा सकते थे, किंतु मोदी जी ने उपलब्धियों के फलों से लदे और झुके वृक्ष की भूमिका अदा कर प्रतिपक्ष को वृक्ष की छांव में आकर मीठे फलों का स्वाद चखने का आमंत्रण दिया, यह उनके बदले हुए व्यक्तित्व का साक्षात स्वरूप है।
अब मोदी जी अपने अगले पांच साल के कार्यकाल के लिए एक महान सपना संजोये हुए है, जिसमें देश को हर क्षेत्र में सर्वोच्च शिखर पर ले जाने का सपना है और इसमें प्रतिपक्ष भी सहभागी बने इसी आकांक्षा से मोदी ने प्रतिपक्ष को अपने साथ आने का निमंत्रण दिया है, जिससे कि इस पुनीत कार्य में सभी की अहम् भूमिका के साथ सहयोग प्राप्त हो सके। यदि बिखरे हुए प्रतिपक्ष ने मोदी जी के आमंत्रण को राजनीतिक चाल न समझ गंभीरता से लेकर मोदी जी को सहयोग करने का देशहित में संकल्प लिया तो यह देश के पिछले सत्तर साल के इतिहास की महत्वपूर्ण मिसाल बनकर सामने आएगा और पूरे विश्व के देश इसे एक अनुकरणीय पहल मानकर उसका अनुकरण करेंगे। यद्यपि मोदी जी ने यह भी कहा है कि प्रतिपक्ष का एक-एक शब्द उनके लिए मूल्यवान है, यदि मोदी जी ने अपने हर देशहित के कदम से पहले उसके बारे में प्रतिपक्ष को साथ लेकर उसकी सलाह को महत्व दिया तो वह प्रतिपक्ष के लिए हौंसला अफजाई होगा। क्योंकि मोदी जी के सामने तीन तलाक, देश में एक साथ चुनाव, आंतरिक व बाहरी चुनौतियां जैसे कई अहम् मुद्दे है, साथ ही ‘न्यू इण्डिया’ के सपने को साकार करने की भी चुनौति है, ऐसे में यदि प्रतिपक्ष का पूर्ण सकारात्मक सहयोग उन्हें प्राप्त हो जाता है तो फिर ये चुनौतियां अपने-आप खत्म हो जाती है, इसलिए अब प्रतिपक्ष से यह दरकार है कि वह देश को नया स्वरूप प्रदान करने की दिशा में मोदी जी को अपना अमूल्य योगदान प्रदान करें।

भूमिगत जल का गिरता स्तर-कारण क्या हैं?
डॉ अरविंद जैन
तेजी से बढ़ती जनसंख्या, बढ़ता औद्योगिकीकरण, फैलते शहरीकरण के अलावा ग्लोबल वार्मिंग से उत्पन्न जलवायु परिवर्तन भी इसके लिये जिम्मेदार हैं। सन 1901 में हुई प्रथम जनगणना के समय भारत की जनसंख्या 23.8 करोड़ थी जो सन 1947 यानी स्वतंत्रता प्राप्ति के समय बढ़कर 400 करोड़ हो गई। सन 2001 में भारत की जनसंख्या 103 करोड़ थी। इस समय देश की जनसंख्या 130 करोड़ (1.30 अरब) है। एक अनुमान के अनुसार सन 2025 तक भारत की जनसंख्या 139 करोड़ तथा सन 2050 तक 165 करोड़ तक पहुँच जाएगी। इस बढ़ती जनसंख्या का पेयजल खासकर भूमिगत जल पर जबर्दस्त दबाव पड़ेगा। बढ़ती आबादी के कारण जहाँ जल की आवश्यकता बढ़ी है वहीं प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता भी समय के साथ कम होती जा रही है। कुल आकलनों के अनुसार सन 2000 में जल की आवश्यकता 750 अरब घन मीटर (घन किलोमीटर) यानी 750 जीसीएम (मिलियन क्यूबिक मीटर) थी। सन 2025 तक जल की यह आवश्यकता 1050 जीसीएस तथा सन 2050 तक 1180 बीसीएम तक बढ़ जाएगी। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश में प्रति व्यक्ति जल की औसत उपलब्धता 5000 घन मीटर प्रति वर्ष थी। सन 2000 में यह घटकर 2000 घन मीटर प्रतिवर्ष रह गई। सन 2050 तक प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 1000 घन मीटर प्रतिवर्ष से भी कम हो जाने की सम्भावना है।
स्पष्ट है कि बढ़ती जनसंख्या के कारण जल की उपलब्धता कम हो जाने के चलते भूमिगत जल पर भी दबाव बढ़ा जिसका परिणाम इसके गिरते स्तर के रूप में सामने आया।
बढ़ते औद्योगिकीकरण तथा गाँवों से शहरों की ओर तेजी से पलायन तथा फैलते शहरीकरण ने भी अन्य जलस्रोतों के साथ भूमिगत जलस्रोत पर भी दबाव उत्पन्न किया है। भूमिगत जल-स्तर के तेजी से गिरने के पीछे ये सभी कारक भी जिम्मेदार रहे हैं।
जल प्रदूषण की समस्या ने बोतलबन्द जल की संस्कृति को जन्म दिया। बोतलबन्द जल बेचने वाली कम्पनियाँ भूमिगत जल का जमकर दोहन करती हैं। नतीजतन, भूजल-स्तर में गिरावट आती है। गौरतलब है कि भारत बोतलबन्द पानी का दसवाँ बड़ा उपभोक्ता है। हमारे देश में प्रति व्यक्ति बोतलबन्द पानी की खपत पाँच लीटर सालाना है जबकि वैश्विक औसत 24 है। देश में सन 2013 तक बोतलबन्द जल का कारोबार 60 अरब रुपये था। सन 2018 तक इसके 160 अरब हो जाने का अनुमान है।
पहले तालाब बहुत होते थे जिनकी परम्परा अब लगभग समाप्त हो चुकी है। इन तालाबों का जल भूगर्भ में समाहित होकर भूजल को संवर्द्धित करने का कार्य करता था। लेकिन, बदलते समय के साथ लोगों में भूमि और धन-सम्पत्ति के प्रति लालच बढ़ा जिसने तालाबों को नष्ट करने का काम किया। वैसे वर्षा का क्रम बिगड़ने से भी काफी तालाब सूख गए। रही-सही कसर भू-माफियाओं ने पूरी कर दी। उन्होंने तालाबों को पाटकर उन पर बड़े-बड़े भवन खड़े कर दिए अथवा कृषिफार्म बना डाले।
धरातल से विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जल के भूगर्भ में पहुँचने के कारण ही भूजल की सृष्टि होती है। इन स्रोतों में एक है वर्षा का जल जो पाराम्य शैलों से होकर रिस-रिसकर अन्दर पहुँचता है। शैल रंध्रों में भी जल एकत्रित होता है। जब कोई शैल पूर्णतया जल से भर जाती है तो उसे संतृप्त शैल कहते हैं। शैल रंध्रों के बन्द हो जाने से जल रिसकर नीचे नहीं जा पाता है। इस प्रकार जल नीचे न रिसने के कारण जल एकत्रित हो जाता है।यही एकत्रित जल जलभृत यानी एक्विफर कहलाता है।

दोषी प्रकृति या हम?
योगेश कुमार गोयल
तापमान में बढ़ोतरी के इस बार सारे रिकॉर्ड टूट रहे हैं। दिल्ली में जहां पारे ने सारे रिकार्ड तोड़ते हुए 48 डिग्री तापमान के आंकड़े को भी पार कर लिया है, वहीं चुरू सहित राजस्थान के कुछ इलाकों में तापमान कुछ दिन पहले ही 50 डिग्री के पार जा चुका है और श्रीगंगानगर में भी भीषण गर्मी का 75 साल का रिकॉर्ड टूट गया है, दूसरी ओर पहाड़ भी बुरी तरह तप रहे हैं। मैदानी इलाकों से इतर पहाड़ी इलाकों की बात करें तो शिमला, मसूरी जैसे पर्वतीय क्षेत्रों में भी तापमान सामान्य से चार डिग्री अधिक दर्ज किया गया है। मौसम विभाग द्वारा कुछ दिन पहले ही हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र इत्यादि राज्यों में रेडअलर्ट जबकि हिमाचल तथा उत्तराखण्ड जैसे पर्वतीय राज्यों में यैलोअलर्ट जारी किया गया था। उल्लेखनीय है कि यैलोअलर्ट में लू का पूर्वानुमान जारी किया जाता है जबकि रेडअलर्ट तापमान में सामान्य से चार डिग्री तक बढ़ोतरी होने पर जारी किया जाता है। लू तथा भीषण गर्मी के कहर से देशभर में कई दर्जन लोग प्राण गंवा चुके हैं।
एक ओर जहां इस समय देशभर के अनेक मैदानी और पर्वतीय इलाके भीषण गर्मी से झुलस रहे हैं, वहीं कुछ ही दिनों पहले मई माह में ही शिमला, मनाली, रोहतांग, लाहौलस्पीति सहित ऊंचाई वाले क्षेत्रों में बारिश और बर्फबारी ने दिसम्बर-जनवरी जैसी शीतलहर पैदा कर दी थी। हिमाचल की अधिकांश पर्वत श्रृंखलाएं तब बर्फ की सफेद चादर से ढ़क गई थी और प्रदेश के कई इलाकों में लोग ठंड से कांपने लगे थे। दूसरी ओर दिल्ली सहित आसपास के इलाकों में भी गत 17 मई को बारिश के साथ हुई ओलावृष्टि ने हर किसी को चौंका दिया था। मई-जून में दिल्ली सहित उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में आंधी-तूफान के बाद हल्की बारिश होना सामान्य बात है किन्तु इस मौसम में एकाएक ओलावृष्टि शुरू हो जाना और फिर चंद ही दिनों बाद आसमान से आग का बरसना निश्चित रूप से पर्यावरण के बिगड़ते मिजाज और मौसम चक्र में बदलाव का स्पष्ट संकेत है। स्मरणीय रहे कि इसी साल अप्रैल माह के तीसरे सप्ताह में भी देश के कुछ राज्यों में तेज आंधी और बारिश के रूप में प्रकृति ने कहर बरपाया था। ऐसे में पिछले कुछ समय से मौसम के तेजी से बिगड़ते मिजाज के मद्देनजर इन परिस्थितियों की अनदेखी करना उचित नहीं।
हर साल गर्मी के दिनों में मौसम में थोड़ा बदलाव देखा जाना कोई नई बात नहीं है किन्तु मौसम के बदलाव ने अप्रैल माह के पहले ही पखवाड़े में ही जिस प्रकार करवटें बदलकर देखते ही देखते कई दर्जन लोगों की बलि ले ली, उसके कुछ दिनों बाद पर्वतीय इलाकों में एकाएक ठंड का प्रकोप देखा गया और अब भीषण गर्मी का कहर बरप रहा है, आसमान से आग बरस रही है, यह सब मौसम के बिगड़ते मिजाज का स्पष्ट संकेत है। मैदानी इलाकों के पर्यावरण को तो हमने अपनी करतूतों से कहीं का नहीं छोड़ा और अब पर्वतीय इलाकों के पर्यावरण से हम किस कदर खिलवाड़ कर रहे हैं, इसका जीता-जागता उदाहरण पहाड़ों में बढ़ती पर्यटकों की बेतहाशा भीड़ है, जिसके चलते हाल ही में शिमला, मसूरी जैसे पर्वतीय इलाकों में भी कई-कई घंटों तक कई किलोमीटर लंबा ट्रैफिक जाम का आलम देखा गया।
वर्ष दर वर्ष अब जिस प्रकार मौसम के बिगड़ते मिजाज के चलते समय-समय पर तबाही देखने को मिल रही है, ऐसे में हमें अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि मौसम चक्र के बदलाव के चलते प्रकृति संतुलन पर जो विपरीत प्रभाव पड़ रहा है, उसकी अनदेखी के कितने भयावह परिणाम होंगे। हमें यह भी समझ लेना होगा कि यह सब प्रकृति के साथ बड़े पैमाने पर हो रही मानवीय छेड़छाड़ का ही दुष्परिणाम है। विड़म्बना है कि हम यह समझना ही नहीं चाहते कि मनुष्य प्रकृति की गोद में एक अबोध शिशु के समान है किन्तु आधुनिकता की अंधी दौड़ में वह स्वयं को प्रकृति का स्वामी समझने की भूल कर बैठा है और मानवीय गतिविधियों के चलते प्रकृति के बुरी तरह से दोहन का नतीजा बार-बार प्रकृति के प्रचण्ड प्रकोप के रूप में हमारे सामने आता रहा है।
न सिर्फ भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर तापमान में निरन्तर हो रही बढ़ोतरी और मौसम का लगातार बिगड़ता मिजाज गहन चिंता का विषय बना है। हालांकि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पिछले कुछ वर्षों में दुनियाभर में दोहा, कोपेनहेगन, कानकुन इत्यादि बड़े-बड़े अंतर्राष्ट्रीय स्तर के सम्मेलन होते रहे हैं और वर्ष 2015 में पेरिस सम्मेलन में तो 197 देशों ने सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करते हुए अपने-अपने देश में कार्बन उत्सर्जन कम करने और 2030 तक वैश्विक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री तक सीमित करने का संकल्प लिया था किन्तु उसके बावजूद इस दिशा में अभी तक कोई ठोस कदम उठते नहीं देखे गए हैं। दरअसल वास्तविकता यही है कि राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर प्रकृति के बिगड़ते मिजाज को लेकर चर्चाएं और चिंताएं तो बहुत होती हैं, तरह-तरह के संकल्प भी दोहराये जाते हैं किन्तु सुख-संसाधनों की अंधी चाहत, सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि, अनियंत्रित औद्योगिक विकास और रोजगार के अधिकाधिक अवसर पैदा करने के दबाव के चलते इस तरह की चर्चाएं और चिंताएं अर्थहीन होकर रह जाती हैं।
मौसम चक्र में बदलाव का आलम यह है कि वर्षा ऋतु में आसमान में बादलों का नामोनिशान तक नजर नहीं आता, वहीं वसंत ऋतु में बादल झमाझम बरसने लगते हैं, सर्दियों में मौसम एकाएक गर्म हो उठता है और गर्मियों में अचानक पारा लुढ़क जाता है। अचानक ज्यादा बारिश होना या एकाएक ज्यादा सर्दी या गर्मी पड़ना और फिर तूफान आना, पिछले कुछ समय से जलवायु परिवर्तन के ये भयावह खतरे बार-बार सामने आ रहे हैं और मौसम वैज्ञानिक स्वीकारने भी लगे हैं कि इस तरह की घटनाएं आने वाले समय में और भी जल्दी-जल्दी विकराल रूप में सामने आ सकती हैं। हालांकि प्रकृति बार-बार मौसम चक्र में बदलाव के संकेत, चेतावनी तथा संभलने का अवसर देती रही है लेकिन हम आदतन किसी बड़े खतरे के सामने आने तक ऐसे संकेतों या चेतावनियों को नजरअंदाज करते रहे हैं, जिसका नतीजा अक्सर भारी तबाही के रूप में सामने आता रहा है। पर्यावरण प्रदूषण के कारण पिछले तीन दशकों से जिस प्रकार मौसम चक्र तीव्र गति से बदल रहा है और प्राकृतिक आपदाओं का आकस्मिक सिलसिला तेज हुआ है, उसके बावजूद अगर हम नहीं संभलना चाहते तो इसमें भला प्रकृति का क्या दोष?
अगर पिछले वर्ष इन्हीं दिनों में प्रकृति के कहर को याद करें तो एक दर्जन से भी अधिक राज्यों में कुछ ही दिनों के भीतर प्रचण्ड धूल भरी आंधियों, बेमौसम बर्फबारी, ओलावृष्टि, बादलों का फटना, भारी बारिश और आसमान से गिरती बिजली ने सैंकड़ों जिंदगियां लील ली थी, हजारों लोग घायल हुए थे, हजारों मकान बुरी तरह ध्वस्त हुए थे, हजारों मवेशी मारे गए थे और अरबों रुपये की चल-अचल सम्पत्ति तथा फसलें तबाह हुई थी। बदरीनाथ-केदारनाथ में बेमौसम बर्फबारी ने हर किसी को आश्चर्यचकित कर दिया था। हिमाचल के शिमला, मनाली, रोहतांग सहित कई इलाके गर्मी के मौसम में भी बर्फ की सफेद चादर से ढ़क गए थे और जम्मू कश्मीर में बेमौसम बर्फबारी से कई इलाके एकाएक सर्दी की चपेट में आने से स्थिति विकराल हो गई थी। देश के इतिहास में पहली बार देखा गया था, जब करीब दो दर्जन राज्यों में बार-बार तूफान की आशंका के मद्देनजरअलर्ट जारी किए जाते रहे। मानसून जाते-जाते केरल सहित कुछ पहाड़ी राज्यों में भी विकराल बाढ़ के रूप में जिस तरह की भयानक तबाही मचा गया था, उसके स्मरण मात्र से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
कुछ साल पहले तक पहाड़ी इलाकों का ठंडा वातावरण हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करता था किन्तु पर्वतीय क्षेत्रों में यातायात के साधनों से बढ़ते प्रदूषण, बड़े-बड़े उद्योग स्थापित करने और राजमार्ग बनाने के नाम पर बड़े पैमाने पर वनों के दोहन और सुरंगें बनाने के लिए बेदर्दी से पहाड़ों का सीना चीरते जाने का ही दुष्परिणाम है कि हमारे इन खूबसूरत पहाड़ों की ठंडक भी धीरे-धीरे कम हो रही है। स्थिति इतनी बदतर होती जा रही है कि अब हिमाचल की धर्मशाला, सोलन व शिमला जैसी हसीन वादियों और यहां तक कि जम्मू कश्मीर में कटरा जैसे ठंडे माने जाते रहे स्थानों पर भी पंखों, कूलरों व ए.सी. की जरूरत महसूस की जाने लगी है। पहाड़ों में बढ़ती इसी गर्माहट के चलते हमें अक्सर घने वनों में भयानक आग लगने की खबरें भी सुनने को मिलती रहती हैं। पहाड़ों की इसी गर्माहट का सीधा असर निचले मैदानी इलाकों पर पड़ता है, जहां का पारा अब हर वर्ष बढ़ता जा रहा है।
मानवीय करतूतों के चलते वायुमंडल में कार्बन मोनोक्साइड, नाइट्रोजन, ओजोन और पार्टिक्यूलेटमैटर के प्रदूषण का मिश्रण इतने खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है कि हमें सांस के जरिये असाध्य बीमारियों की सौगात मिल रही है। सीवरेज की गंदगी स्वच्छ जल स्रोतों में छोड़ने की बात हो या औद्योगिक इकाईयों का अम्लीय कचरा नदियों में बहाने की अथवा सड़कों पर रेंगती वाहनों की लंबी-लंबी कतारों से वायुमंडल में घुलते जहर की या फिर सख्त अदालती निर्देशों के बावजूद खेतों में जलती पराली से हवा में घुलते हजारों-लाखों टन धुएं की, हमारी आंखें तब तक नहीं खुलती, जब तक प्रकृति का बड़ा कहर हम पर नहीं टूट पड़ता। अधिकांश राज्यों में सीवेजट्रीटमेंट और कचरा प्रबंधन की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है। पैट्रोल, डीजल से उत्पन्न होने वाले धुएं ने वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड तथा ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा को खतरनाक स्तर तक पहुंचा दिया है। पेड़-पौधे कार्बन डाईऑक्साइड को अवशोषित कर पर्यावरण संतुलन बनाने में अहम भूमिका निभाते रहे हैं लेकिन पिछले कुछ दशकों में वन-क्षेत्रों को बड़े पैमाने पर कंक्रीट के जंगलों में तब्दील कर दिया गया है। ब्रिटेन के प्रख्यात भौतिक शास्त्री स्टीफनहॉकिंग ने कहा था कि यदि मानव जाति की जनसंख्या इसी कदर बढ़ती रही और ऊर्जा की खपत दिन-प्रतिदिन इसी प्रकार होती रही तो करीब छह सौ वर्षों बाद पृथ्वी आग का गोला बनकर रह जाएगी। धरती का तापमान बढ़ते जाने का ही दुष्परिणाम है कि ध्रुवीय क्षेत्रों में बर्फ पिघल रही है, जिससे समुद्रों का जलस्तर बढ़ने के कारण दुनिया के कई शहरों के जलमग्न होने की आशंका जताई जाने लगी है।
प्रकृति बार-बार अपना रौद्र रूप दिखाकर हमें स्पष्ट चेतावनी देती रही है कि अगर हमने उसके साथ अंधाधुंध खिलवाड़ बंद नहीं किया तो उसके कितने घातक परिणाम होंगे लेकिन विड़म्बना है कि अब लगातार प्रकृति का प्रचण्ड रूप देखते रहने के बावजूद हम हर बार प्रकृति की इन चेतावनियों को नजरअंदाज कर खुद अपने विनाश को आमंत्रित कर रहे हैं। हम यह समझना ही नहीं चाहते कि पहाड़ों का सीना चीरकर हरे-भरे जंगलों को तबाह कर हम जो कंक्रीटके जंगल विकसित कर रहे हैं, वह वास्तव में विकास नहीं है बल्कि विकास के नाम पर हम अपने ही विनाश का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। हम हैं कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के नाम पर वैश्विक चिंता व्यक्त करने से आगे शायद कुछ करना ही नहीं चाहते। प्रकृति कभी समुद्री तूफान तो कभी भूकम्प, कभी सूखा तो कभी अकाल के रूप में अपना विकराल रूप दिखाकर हमें बारम्बार चेतावनी देती रही है कि हम यदि इसी प्रकार प्रकृति के संसाधनों का बुरे तरीके से दोहन करते रहे तो हमारे भविष्य की तस्वीर कैसी होने वाली है।

हीरा जनम अनमोल था, कौड़ी बदले जाये
प्रदीप कुमार सिंह
(17 जून कबीर जयन्ती पर विशेष) आज समाज, देश और विश्व के देशों में बढ़ती हुई भुखमरी, अशिक्षा, बेरोजगारी, स्वार्थलोलुपता, अनेकता आदि समस्याओं से सारी मानवजाति चिंतित है। वास्तव में ये ऐसी मूलभूत समस्यायें हैं जिनसे निकल कर ही हत्या, लूट, मार-काट, आतंकवाद, धार्मिक विद्वेष, युद्धों की विभीषिका आदि समस्याओं ने जन्म लिया है। इस प्रकार आज इन समस्याओं ने पूरे विश्व की मानवजाति को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। ऐसी भयावह परिस्थिति में समाज को सही राह दिखाने के लिए आज कबीर दास जी जैसे युग प्रवर्तक की आवश्यकता है। कबीरदास जी ने समाज में व्याप्त भेदभाव को समाप्त करने पर बल देते हुए कहा था कि ‘‘वही महादेव वही मुहम्मद ब्रह्मा आदम कहिए। कोई हिंदू कोई तुर्क कहांव एक जमीं पर रहिए।’’ कबीरदास जी एक महान समाज सुधारक थे। उन्होंने अपने युग में व्याप्त सामाजिक अंधविश्वासों, कुरीतियों और रूढ़िवादिता का विरोध किया। उनका उद्देश्य विषमताग्रस्त समाज में जागृति पैदा कर लोगों को भक्ति का नया मार्ग दिखाना था, जिसमें वे काफी हद तक सफल भी हुए। कबीर दास जी ने कहा था कि ‘‘बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो हितय ढूंढो आपनो, मुझसा बुरा न कोय।।’’
कबीर दास जी कहते हैं कि मनुष्य जीवन तो अनमोल है इसलिए हमें अपने मानव जीवन को भोग-विलास में व्यतीत नहीं करना चाहिए बल्कि हमें अपने अच्छे कर्मों के द्वारा अपने जीवन को उद्देश्यमय बनाना चाहिए। कबीर दास जी कहते हैं कि ‘‘रात गंवाई सोय कर, दिवस गवायों खाय। हीरा जनम अनमोल था, कौड़ी बदले जाये।। अर्थात् मानव जीवन तो अनमोल होता है किन्तु मनुष्य ने सारी रात तो सोने में गंवा दी और सारा दिन खाने-पीने में बिता दिया। इस प्रकार अज्ञानता में मनुष्य अपने अनमोल जीवन को भोग-विलास में गंवा कर कौड़ी के भाव खत्म कर लेता है। कबीर दास जी कहते हैं कि ‘‘पानी मेरा बुदबुदा, इस मानुष की जात। देखत ही छिप जायेंगे, ज्यौं तारा परभात।।’’ अर्थात् मनुष्य का जीवन पानी के बुलबुले के समान है, जो थोड़ी सी हवा लगते ही फूट जाता है। जैसे सुबह होते ही रात में निकलने वाले तारे छिप जाते हैं, वैसे ही मृत्यु के आगमन पर परमात्मा द्वारा दिया गया यह जीवन समाप्त हो जाता है। इसलिए हमें अपने मानव जीवन के उद्देश्य को जानकर उनको पूरा करने का हरसंभव प्रयत्न करना चाहिए।
आज भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ का मूल मंत्र संसार से लुप्त होता जा रहा है। कहीं हिंदू, कहीं मुसलमान, कहीं ईसाई, कहीं पारसी और न जाने कितनी कौमों के लबादे ओढ़े आदमी की शक्ल के लाखों, करोड़ों लोगों की भीड़ दिखाई दे रही है। गौर से देखने पर ऐसा लगता है कि जैसे इस भीड़ में आदमी तो नजर आ रहे हैं पर आदमियत कहीं खो गई है। शक्ल सूरत तो इंसान जैसी है, मगर कारनामे शैतान जैसे होते जा रहे हैं, जबकि मानव शरीर तो नश्वर है इसे एक न एक दिन मिट्टी में मिल ही जाना है। इसलिए हमें अपने शरीर पर कभी अभिमान नहीं करना चाहिए। कबीर दास जी कहते हैं कि ‘‘माटी कहै कुम्हार को, क्या तू रौंदे मोहि। एक दिन ऐसा होयगा, मैं रौदँूगी तोहि।’’ अर्थात् मिट्टी कुम्हार से कहती है कि समय परिवर्तनशील है और एक दिन ऐसा भी आयेगा जब तेरी मृत्यु के पश्चात् मैं तुझे रौंदूगी। इसलिए हमें परमपिता परमात्मा द्वारा दिये गये शरीर पर अभिमान न करते हुए इस जगत् में रहते हुए मानव हित का अधिक से अधिक काम करना चाहिए।
कबीर तो सच्चे अर्थों में मानवतावादी थे। उन्होंने हिंदू और मुसलमानों के बीच मानवता का सेतु बांधा। जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे। कबीरदास ने हिन्दू-मुसलमान का भेद मिटाकर हिन्दू भक्तों तथा मुसलमान फकीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को हृदयांगम कर लिया। कबीरदास जी एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। वे भेदभाव रहित समाज की स्थापनाा करना चाहते थे। उन्होंने ब्रह्म के निराकार रूप में विश्वास प्रकट किया। वे हर स्तर पर सामाजिक विसंगतियों के विरूद्ध लड़ते रहे और सभी धर्मों के खिलाफ बोलते भी रहे। जैसे उन्होंने मूर्ति पूजा को लक्ष्य करते हुए कहा कि ‘‘पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजौं पहार। या ते तो चाकी भली, जासे पीसी खाय संसार।।’’ इसी प्रकार उन्होंने मुसलमानों से कहा- ‘‘कंकड़ पत्थर जोरि के, मस्जिद लयी बनाय, ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।।’’
एकेश्वरवाद के समर्थक कबीरदास जी का मानना था कि ईश्वर एक है। उन्होंने व्यंग्यात्मक दोहों और सीधे-सादे शब्दों में अपने विचार को व्यक्त किया। फलतः बड़ी संख्या में सभी धर्म एवं जाति के लोग उनके अनुयायी हुए। संत कबीर का कहना था कि सभी धर्मों का लक्ष्य एक ही है। सिर्फ उनके कर्मकांड अलग-अलग होते हैं। उनका कहना था कि ‘‘माला फेरत जुग गया, मिटा न मनका फेर। कर का मनका डारि के, मन का मनका फेर।’’ अर्थात् मनुष्य ईश्वर को पाने की चाह में माला के मोती को फिरता रहता है परन्तु इससे उसके मन का दोष दूर नहीं होता है। कबीर जी कहते हैं कि हमें हाथ की माला को छोड़ देना चाहिए क्योंकि इससे हमें कोई लाभ नहीं होने वाला है। हमें तो केवल अपने मन को एकाग्र करके भीतर की बुराइयों को दूर करना चाहिए। कबीर दास जी का कहना है कि ‘‘मन मक्का दिल द्वारिका, काया काशी जान। दस द्वारे का देहरा, तामें जोति पिछान।’’ अर्थात् यह पवित्र मन ही मक्का, हृदय द्वारिका और सम्पूर्ण शरीर ही काशी है।
मानव आलस्य के कारण आज का काम कल पर टालने का प्रयास करता है। कबीर दास जी कहते हैं कि हमें आज का काम कल पर न टाल कर उसे तुरन्त पूरा कर लेना चाहिए। कबीर जी काम को टालते रहने की आदत के बहुत विरोधी थे। वे इस तथ्य को जानते थे कि मनुष्य का जीवन छोटा होता है जबकि उसे ढेर सारे कामों को इसी जीवन में रहते हुए करना है। आज से छः सौ वर्ष पूर्व भी समय के सदुपयोग के महत्व को समझते हुए कबीर दास जी ने कहा कि ‘‘काल करे जो आज कर, आज करे सो अब। पल में परलय होयगी, बहुरी करोगे कब।’’ इस दोहे मंे कबीर जी ने समय के महत्व को थोड़े शब्दों में ही समझा दिया है। उनका कहना था कि मनुष्य जीवन की उपयोग की बात तो करते हैं किन्तु उन क्षणों एवं समय पर, जो कि जीवन की इकाई है, कोई ध्यान नहीं देते हैं। इस प्रकार समय को गवांकर वास्तव में हम अपने अनमोल जीवन को गंवाने का काम करते हैं। आज मानव जीवन में पाये जाने वाले तनाव का भी सबसे बड़ा कारण ‘समय का दुरुपयोग’ ही है। जब हम किसी काम को तुरन्त न करके आगे के लिए टाल देते हैं तो यही काम हमें बहुधा आपात स्थिति में ला देता है, जिससे मनुष्य में तनाव की समस्या उत्पन्न हो जाती है।
कबीरदास जी जिस युग में आये वह युग भारतीय इतिहास में आधुनिकता के उदय का समय था। वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और उसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ झलकती है। लोककल्याण हेतु ही मानो उनका समस्त जीवन था। कबीर दास जी एक सच्चे विश्व-प्रेमी थे। कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है। डाॅ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि साधना के क्षेत्र में वे युग-युग के गुरू थे, उन्होंने संत काव्य का पथ प्रदर्शन कर क्षेत्र में नव-निर्माण किया था। कबीरदास जी अपने जीवन में प्राप्त की गयी स्वयं की अनुभूतियों को ही काव्यरूप में ढाल देते थे। उनका स्वयं का कहना था ‘‘मैं कहता आंखिन देखी, तू कहता कागद की लेखी।’’ इस प्रकार उनके काव्य का आधार स्वानुभूति या यर्थाथ ही है। इसलिए अब वह समय आ गया है जबकि हम वर्तमान समाज में व्याप्त धर्म, जाति, रंग एवं देश के आधार पर बढ़ते हुए भेदभाव जैसी बुराइयों को जड़ से उखाड़ फेकें और संसार की समस्त मानवजाति में इंसानियत एवं मानवता की स्थापना के लिए कार्य करें।

मोदी के रवैए में सुधार
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
चार दिन पहले मैंने लिखा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपना आत्म-सम्मान क्यों घटा रहे हैं ? उन्हें शांघाई सहयोग संगठन की बैठक में भाग लेना है और उन्हें किरगिजिस्तान की राजधानी बिश्केक जाना है तो क्या यह जरुरी है कि वे पाकिस्तान की हवाई-सीमा में से उड़कर जाएं, जैसे कि पूर्व विदेशमंत्री सुषमा स्वराज 21 मई को गई थीं? सुषमा और मोदी को इस सुविधा के लिए इमरान खान की सरकार से निवेदन करना पड़ा है। पाकिस्तान की सरकार ने मेहरबानी दिखाई और मोदी को अपनी हवाई सीमा में से अपने जहाज को ले जाने की अनुमति दे दी ताकि वे अपना आठ घंटे का सफर चार घंटे में ही कर सकें। यदि वे ओमान और ईरान होकर जाते तो उन्हें आठ घंटे लगते। मैंने अपने लेख में नरेंद्र भाई से यही पूछा था कि एक तरफ तो वे इमरान के बातचीत के हर प्रस्ताव को ठुकरा रहे हैं, पाकिस्तान से व्यापार का विशेष दर्जा उन्होंने खत्म कर दिया है, दक्षेस के इस सदस्य को अछूत बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं और अपने चार घंटे बचाने के लिए उसके आगे गिड़गिड़ा रहे हैं। कल मुझे मोदी के और मेरे दो-तीन साझा मित्रों ने दोपहर को फोन करके बताया कि मोदी ने पाकिस्तान को कह दिया है कि वे उसके हवाई मार्ग का इस्तेमाल नहीं करेंगे। क्या खूब ! यह हुई किसी भी नीति की एकरुपता ! लेकिन इसका अर्थ यह भी है कि आज और कल बिश्केक में मोदी और इमरान के बीच कोई संवाद नहीं होगा। न हो तो न हो इससे शांघाई-देशों का कुछ बिगड़नेवाला नहीं है लेकिन उन शेष छह देशों पर इसका क्या कोई अच्छा असर पड़ेगा ? मुझे कुछ मित्रों ने यह भी कहा कि मोदी इसलिए पाकिस्तान की हवाई-सीमा में से भी नहीं जा रहे हैं कि उन्हें अपनी सुरक्षा की भी चिंता है। मुझे नहीं लगता कि ऐसा होगा। फिर भी मैं सोचता हूं, जैसे कि गत माह बिश्केक में दोनों देशों के विदेश मंत्रियों के बीच संक्षिप्त शिष्टाचार भेंट हो गई, वैसी भेंट दोनों प्रधानमंत्रियों के बीच हो जाए तो इसे नाक का सवाल नहीं बनाया जाना चाहिए। इस बैठक का इस्तेमाल एक-दूसरे पर हमला करने की बजाय आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए किया जाए तो बेहतर होगा। मुझे यह भी समझ में नहीं आता कि शांघाई सहयोग संगठन में अफगानिस्तान का न होना कहां तक ठीक है ? अफगानिस्तान तो संपूर्ण मध्य एशिया और भारत के बीच एक जबर्दस्त और महान सेतु है। अफगानिस्तान को इसका सदस्य बनाया जाना बहुत जरुरी है। यदि सार्क, बिम्सटेक और एससीओ में से चीन और रुस को हटा दिया जाए तो यही क्षेत्र मेरी कल्पना का महान आर्यावर्त्त है।

हाई स्पीड ट्रेनों की ललक : दुर्घटनाओं से सबक लें
अजित वर्मा
हाल ही फ्रांस की राजधानी पेरिस में अचानक बिजली चले जाने से एक तेज रफ्तार ट्रेन में सवार यात्री करीब 6 घंटे तक सुरंग के भीतर फंसे रहे। इस दौरान गर्मी और रोशनी की कमी के साथ-साथ उन्हें शौचालय की कमी से भी जूझना पड़ा। फ्रेंच रेल ऑपरेटर एसएनसीएफ ने बताया कि बार्सिलोना जा रही ट्रेन पैरिस के बाहर सुरंग में फंस गई। बिजली हालांकि 10-15 मिनट के लिए ही गई थी, लेकिन ट्रेन जहां रुकी थी, उस वजह से वह देर तक स्टार्ट नहीं हुई।
सुरंग के भीतर फंसे हुए यात्रियों को लाने के लिए एक नई ट्रेन भेजी गई, लेकिन इससे कोई लाभ नहीं हुआ। यात्रियों को एसएनसीएफ कर्मचारियों, पुलिस और अग्निशमन दल के कर्मियों ने मिलकर सभी यात्रियों को सुरक्षित बाहर निकाल लिया। 6 घंटे फंसे रहने के बाद यात्रियों को सुरंग में ही एक दूसरी ट्रेन में शिफ्ट किया गया। ट्रेन में ज्यादा संख्या में पर्यटक सवार थे। पर्यटकों ने कहा कि 6 घंटे तक बिना शौचालय के ट्रेन में फंसे रहने का अनुभव भयावह था।
यह अपने तरह की एक घटना है, लेकिन जब हम विकास की प्रक्रिया में हैं, तो हमें, खास तौर पर भारत जैसे देशों को अपनी विकास योजनाओं में ऐसी घटनाओं से बचने का प्रावधान करने की दूरदर्शिता अवश्य बरतना चाहिए। यह वक्त है, जब भारत में हाई स्पीड ट्रेनों की ही नहीं, बुलेट ट्रेन चलाने की तैयारियां चल रही हैं। यों ऐसी ट्रेनें दुनिया के तमाम विकसित देशों में चल रही हैं और इनकी तकनीक तथा इनसे जुड़े सुरक्षा पहलुओं का काफी अध्ययन भी दुनिया कर चुकी है और अनुभव भी हासिल कर चुकी है।
लेकिन ये भारत है, जहाँ आये दिन भीषण रेल-दुर्घटनाएं होती हैं। इसीलिए हमने यहां सावधान और सतर्क रहने पर जोर दिया है। फ्रांस की दुर्घटना एक अलग तरह का सबक है। इसलिए संज्ञान उसका भी लिया जाना चाहिए।

मैं सूअर और तू मेरा बच्चा’
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बारे में एक ट्वीट पर पत्रकार प्रशांत कनोजिया को उप्र की पुलिस ने दिल्ली आकर गिरफ्तार कर लिया था सर्वोच्च न्यायालय ने इस पत्रकार को तुरंत रिहा कर दिया और कहा कि उप्र सरकार की यह कार्रवाई नागरिकों के मूल अधिकारों का उल्लंघन है। क्या किया था ऐसा कनोजिया ने, जिसके कारण उसे गिरफ्तार कर लिया गया था ? उसने किसी महिला के उस वीडियो को ट्वीट कर दिया था, जिसमें उसने दावा किया था कि उसने योगी के साथ शादी करने का प्रस्ताव भेजा है। यह ठीक है कि किसी संन्यासी को शादी का प्रस्ताव भेजना बिल्कुल बेहूदा बात है लेकिन यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। हमारे कई विश्व-प्रसिद्ध संन्यासियों और केथोलिक पादरियों को भी इस तरह के प्रस्ताव आते रहे हैं लेकिन उन्होंने प्रस्तावकों को हंसकर टाल दिया है या कभी कभी उन्हें स्वीकार करने की भी घटनाएं हुई हैं। यदि किसी महिला ने ऐसा प्रस्ताव रख भी दिया है तो उसका योगी बुरा मानने की बजाय उसे यह कह सकते थे कि बहन, यह असंभव है। हो सकता है कि उस महिला ने अज्ञानतावश या मोहवश या जानबूझकर बदमाशी करते हुए यह प्रस्ताव रखा है। हर स्थिति में उसे हवा में उड़ा दिया जाना चाहिए था लेकिन उस प्रस्ताव को दुबारा ट्वीट करनेवाले पत्रकार को जेल भिजवाना तो उस प्रस्तावक औरत की मूर्खता से भी अधिक गंभीर मूर्खता है। ऐसे कई प्रस्ताव मुझे अपने ब्रह्मचर्य-काल में भी मिला करते थे। इंदौर, न्यूयार्क और मास्को में अब से लगभग 50-55 साल पहले जब ऐसे प्रस्ताव आते थे तो उन्हें छुए बिना ही मैं रद्दी की टोकरी के हवाले कर देता था। एक संन्यासी को ऐसे प्रस्ताव पर बुरा लगना स्वाभाविक है लेकिन वह एक पार्टी का नेता, जनता का प्रतिनिधि और मुख्यमंत्री भी है। गुस्से में आकर एक पत्रकार को गिरफ्तार करना तो अपनी छवि को विकृत करना है। सार्वजनिक जीवन में ऐसे कई क्षण आते हैं, जब उत्तेजित होने की बजाय हास्य-व्यंग्य की मुद्रा धारण करना बेहतर होता है। पिछले दिनों पद्यावती फिल्म पर मेरे लेख पर उत्तेजित होकर कई लोगों ने मुझ पर तीव्र वाक-प्रहार किए। किसी नौजवान ने मुझे लिखा कि ‘बुड्ढ़े, तू सूअर है’। मैंने उसे लिखा कि ‘तुमने मुझे कितना सुंदर तोहफा दिया है। मैं सूअर हूं और तू मेरा बच्चा है।’ उसके बाद उसका कोई जवाब नहीं आया। उसकी बोलती बंद हो गईं।

दक्षिण भारत की यात्रा से साधे मोदी ने समीकरण
रमेश सर्राफ धमोरा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने दूसरे कार्यकाल की पहली विदेश यात्रा पर जाने से पहले दक्षिण भारत के केरल की यात्रा कर एक सियासी संदेश दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मालदीप दीप व श्रीलंका की दो दिवसीय विदेश यात्रा पर रवाना होने से पहले केरल के त्रिशूर स्थित गुरुवायुरप्पन मन्दिर (श्री कृष्ण मंदिर) में वहां की पारंपरिक वेशभूषा में जा कर पूजा अर्चना की व तुला दान भी किया।
त्रिशूर में भाजपा कार्यकर्ताओं की अभिनव सभा को संबोधित करते हुए मोदी ने कहा कि वो लोकसभा चुनाव में सिर्फ राजनीति करने के लिए ही मैदान में नहीं थे। हमारा लक्ष्य देश की जनता की सेवा करना है। उन्होंने कहा के चाहे केरल में हमारा एक भी प्रत्याशी लोकसभा चुनाव में नहीं जीता हो लेकिन हमारे लिये केरल का भी उतना ही महत्व है जितना बनारस का है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि लोकसभा चुनाव में जीतने के बाद देश के 130 करोड़ नागरिकों की जिम्मेदारी हमारी है। साल के 365 दिन हम अपने राजनीतिक चिंतन के आधार पर जनता की सेवा में जुटे रहते हैं। हम सिर्फ सरकार नहीं देश बनाने आए हैं।
केरल के गुरूवायूर शहर में स्थित गुरूवायुरप्पन मंदिर करीब 5000 साल पुराना माना गया है। यहां भगवान श्री कृष्ण विराजमान है। दक्षिण भारत में इस मंदिर की गुजरात के द्वारकाधीश मन्दिर के समान ही बड़ी मान्यता है। दो दिन की विदेश यात्रा से लौटते समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आंध्र प्रदेश के तिरुपति स्थित बालाजी मंदिर में पूजा अर्चना करने गए। दक्षिण भारत में तिरूपति मन्दिर की बहुत बड़ी मान्यता है। यह मन्दिर देश के सबसे ज्यादा धनवान मंदिरो में प्रमुख हैं। आंध्र प्रदेश में भी भाजपा का एक भी प्रत्याशी लोकसभा चुनाव में नहीं जीता है। मगर मोदी ने अपनी प्रथम यात्रा के लिये दो ऐसे प्रदेशों का चयन किया जहां आगे आने वाले समय में उन्हे अपनी पार्टी का जनाधार बढ़ाना है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की दक्षिण भारत के 2 प्रदेशों की यात्रा करने से यह साफ हो गया है कि उनका अगला लक्ष्य दक्षिण भारत ही है। भारतीय जनता पार्टी ने दक्षिण भारत के 6 प्रदेशों की कुल 130 लोकसभा सीटों में से 90 सीटों पर चुनाव लड़ कर 30 सीटे जीती है। दक्षिण भारत के तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक व केंद्र शासित प्रदेश पुड्डुचेरी में से भाजपा को सिर्फ तेलंगाना व कर्नाटका में ही सफलता मिली है। बाकी चार प्रदेशों में भाजपा का खाता भी नहीं खुला। भाजपा का अगला निशाना दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश, केरल, तमिलनाडु व पुड्डुचेरी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस बात का अच्छी तरह से पता है कि जब तक दक्षिण भारत के सभी छ: प्रदेशों में भाजपा के सांसद जीत कर नहीं आयेगें तब तक भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रव्यापी छवी नहीं बन पायेगी।
भाजपा ने तेलंगाना की सभी 17 सीटो पर चुनाव लडक़र 4 लोकसभा सीटें जीती है तथा वहां पर भाजपा को 19.45 प्रतिशत वोट मिले हैं। आंध्र प्रदेश की 25 सीटों में से भाजपा को एक भी सीट नहीं मिली है। वहां भाजपा को मात्र 0.96 प्रतिशत वोट मिले हैं। तमिलनाडू की 39 सीटों में से भाजपा ने अन्नादु्रमक के साथ गठबंधन करके मात्र 5 सीटों पर चुनाव लड़ा था मगर वहां एक भी सीट नहीं जीत पाई। तमिलनाडू में भाजपा को 3.66 प्रतिशत वोट मिले हैं। केरल की 20 सीटों में से भाजपा ने 16 सीटों पर चुनाव लड़ा था मगर एक भी सीट नहीं मिली। लेकिन केरल में भाजपा के वोट पिछली बार से काफी बढ़े हैं। हाल ही के लोकसभा चुनाव में केरल में भाजपा को 12.93 प्रतिशत वोट मिले हैं। तिरूवनंतपुरम सीट पर तो भाजपा दूसरे नम्बर पर रही है।
कर्नाटक की 28 में से भाजपा ने 27 सीटों पर चुनाव लड़ा और 25 सीटें जीती। एक सीट भाजपा के सहयोग से निर्दलिय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ी सुमनलता अम्बरीश ने जीती है। कर्नाटक में भाजपा को सर्वाधिक 51.38 प्रतिशत वोट मिले। पांडिचेरी की एकमात्र सीट पर भाजपा ने गठबंधन के तहत चुनाव नहीं लड़ा था।
इस तरह देखे तो आन्ध्र प्रदेश व केरल में भाजपा के प्रत्याशी कहीं भी मुख्य मुकाबले में नहीं रहे। इसके उपरांत भी मोदी ने इन दोनो प्रदेशो की यात्रा कर वहां के मतदाताओं को सीधा संदेश दिया है कि आपने हमें समर्थन नहीं दिया लेकिन फिर भी हम आपके साथ हैं। आपकी हर सम्भव मदद को तैयार है। मोदी की दक्षिण भारत की यात्रा करने से वहां के भाजपा कार्यकर्ताओं में उत्साह बढ़ा है। वहां अन्य राजनीतिक दलों से जुड़े लोगों का भाजपा की तरफ रुझान बढ़ेगा। अपनी इसी सोच को लेकर प्रधानमंत्री मोदी ने अपना मिशन दक्षिण शुरू कर दिया है।
प्रधानमंत्री मोदी ने दक्षिण भारत की यात्रा वहां के बड़े धार्मिक मंदिरो से प्रारम्भ की ताकि वहां के हिन्दू मतदाताओं को भाजपा से जोड़ा जा सके। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मानना है कि जिस तरह पूर्वोत्तर भारत, बंगाल, उड़ीसा में भाजपा ने अपना संगठन मजबूत कर अच्छा प्रदर्शन किया उसी तरह अगले लोकसभा चुनाव में दक्षिण भारत के राज्यो में भाजपा मजबूत होकर उभरे। मोदी के दौरे के दौरान ही कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष अध्यक्ष राहुल गांधी भी केरल में अपने लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र वायनाड का तीन दिवसीय दौरा कर रहे थे मगर मोदी की यात्रा के चलते राहुल गांधी की यात्रा को राष्ट्रीय मीडिया में स्थान नहीं मिल सका।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपना हर कदम एक सोची-समझी रणनीति के तहत उठाते हैं। उनको अच्छी तरह पता रहता है कि कहां पर कौन सा दाव आजमाने से पार्टी को कितना फायदा होगा। जिस तरह भाजपा ने कर्नाटक को पार्टी के मजबूत किले में बदल दिया उसी तरह आने वाले समय में दक्षिण भारत के अन्य राज्यों में भी भाजपा झंडा लहराने लगे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
अपनी आंध्र प्रदेश में तिरुपति मन्दिर यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री मोदी का आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी को विशेष महत्व देने हुये पूरे कार्यक्रम में अपने साथ रखना व तिरूपति में भाजपा की जनसभा में जगनमोहन रेड्डी की तारीफ करना इस बात का संकेत है कि समय आने पर जगनमोहन रेड्डी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ खड़े नजर आएंगे। जगन मोहन रेड्डी के माध्यम से ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तेलुगु देशम पार्टी के अध्यक्ष व आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू को भी राजनीतिक मात देंगे।

बलात्कारियों को फांसी दी जाए
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जम्मू-कश्मीर के कठुआ जिले में बकरवाल समुदाय की एक मुस्लिम लड़की के साथ पहले बलात्कार किया गया और फिर उसकी हत्या कर दी गई। वह लड़की सिर्फ आठ साल की थी। उसे एक मंदिर में ले जाकर नशीली दवाइयां खिलाई गईं और फिर उक्त कुकर्म किया गया। उन अपराधियों पर विशेष मुकदमा चला और उनमें से तीन को उम्र-कैद हुई और तीन को पांच-पांच साल की सजा ! सिर्फ डेढ़ साल में यह फैसला आ गया, यह गनीमत है। लेकिन मैं इस फैसले को नाकाफी मानता हूं। पहली बात तो यह कि इस घोर राक्षसी मामले को सांप्रदायिक रुप दिया गया। एक हिंदू रक्षा मंच ने अपराधियों को बचाने की कोशिश की, क्योंकि वे हिंदू थे और वह बच्ची मुसलमान थी। इस मामले में भाजपा के दो मंत्रियों को अपनी बेवकूफी के कारण इस्तीफे भी देने पड़े। इसके लिए भाजपा-नेतृत्व बधाई का पात्र है लेकिन कितने शर्म की बात है कि यह जघन्य अपराध एक मंदिर में हुआ और उस मंदिर का पुजारी इस नृशंस अपराध का सूत्रधार था। मैं पूछता हूं कि वह मंदिर क्या अब पूजा के लायक रह गया है ? वह किसी वेश्यालय से भी अधिक घृणित स्थान बन गया है। उस पर कठुआ के लोगों को ही बुलडोजर चला देना चाहिए। जहां तक तीन लोगों को उम्र-कैद का सवाल है, उसमें वह पुलिस अधिकारी भी है, जो बलात्कार में शामिल था और जिसने सारे मामले को रफा-दफा कराने की कोशिश की थी। जिन अन्य अपराधियों को पांच-पांच साल की सजा मिली है और जुर्माना भी ठोका गया है, वे लोग इतने वीभत्स कांड में शामिल थे कि यह सजा उनके लिए सजा नहीं है, इनाम है। अब उनमें से आधे पूरी उम्रभर और आंधी पांच साल तक जेल में सुरक्षित रहेंगे, सरकारी रोटियां तोड़ेंगे और मौज करेंगे। कभी-कभी पेरोल पर छूटकर मटरगश्ती भी करेंगे। उनको मिली इस सजा का भावी अपराधियों पर क्या असर पड़ेगा ? यही न, कि पहले अपराध करो और फिर चैन से सरकारी रोटियां तोड़ते रहो। मेरी राय में इन सभी लोगों को न सिर्फ मौत की सजा मिलनी चाहिए बल्कि इन्हें लाल किले पर फांसी दी जानी चाहिए और इनके शव कुत्तों से घसिटवाकर यमुना में बहा दिया जाना चाहिए ताकि इस तरह के संभावित अपराध करनेवालों के मन में अपराध का विचार पैदा होते ही उनकी हड्डियों में कंपकंपी दौड़ जाए। इस तरह की कठोर सजा नहीं होने का परिणाम यह है कि कठुआ-कांड के बाद उससे भी अधिक नृशंस दर्जनों घटनाएं देश में हो चुकी हैं और आज भी मध्यप्रदेश से कठुआ-जैसी ही खबर आई है।

कार्य संस्कृति बदलने के नाम
अजित वर्मा
उदारवाद की अवधारणाओं के अनुरूप देश में नयी कार्य संस्कृति विकसित करने के लिए अब एक बार फिर श्रम कानूनों में बदलाव होने वाला है।
वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय ने विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए श्रम कानूनों में परिवर्तन करने के लिए 100 दिन के अंदर एक कार्य योजना तैयार की है। इस कार्य योजना के लागू हो जाने पर वियतनाम और दक्षिण एशिया के देशों से भारी विदेशी निवेश आने की संभावना मंत्रालय जता रहा है। एशियाई देशों में देसी, विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करने कारपोरेट टैक्स श्रम कानूनों में छूट और बेहतर वातावरण देने का प्रयास इन 100 दिनों में नीति के रूप में किया जाएगा।
श्रम कानूनों की अड़चनों को समाप्त करने के लिए मौजूदा कानूनों में संशोधन कर उन्हें निवेशकों के लिए काफी आसान बनाया जाएगा। इसके लिए वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय श्रम मंत्रालय से लगातार संपर्क कर 10 सूत्रीय एक्शन प्लान तैयार कर रहा है, ताकि विदेशी निवेशक बड़ी तेजी के साथ भारत की ओर आकर्षित हों जो संशोधन किए जा रहे हैं। उसके बाद अब बड़ी-बड़ी कंपनियां भी अपने यहां पर पार्ट टाइम जॉब दे सकेगी। वही श्रमिकों की जिम्मेदारी भी तय करने, श्रम कानूनों में संशोधन होगा।
कोई शक नहीं कि आर्थिक विकास को गति देने के लिए देश में विदेशी निवेश बढ़ना आवश्यक है। और इसके लिए देश में कार्य संस्कृति को बदलने की जरूरत सरकार महसूस कर रही है। बड़ी कम्पनियां भारत में लागू श्रम कानूनों को अपने कामकाज को सुगमतापूर्वक करने में बाधक मानती हैं। हमारा मानना है कि कम्पनियों को पार्ट टाइम जाब देने की सुविधा मिलना चाहिए, लेकिन श्रम कानूनों में ऐसे संशोधन नहीं होना चाहिए, जिनसे श्रमिकों के हित प्रभावित हों, या उनके शोषण का मार्ग प्रशस्त हो। देखना होगा कि सरकार क्या संशोधन लागू करती है।
11जून/ईएमएस

ज्ञानियों की मूर्खता और अज्ञानियों की समझ
सनत जैन
राजस्थान के कई गांवों में 50 मिलीमीटर बारिश से भी तालाब भरे रहते हैं, मगर भोपाल में एक हजार मिलीमीटर से ज्यादा बारिश होने के बाद भी बड़ा तालाब सूख रहा है। पानी का स्तर नीचे जा रहा है और शहर के कई इलाकों में पानी को लेकर हाहाकार मचा है। भोपाल आए पर्यावरणविद फरहाद कान्ट्रैक्टर ने जल दोहन को लेकर ऐसी कई बातों का खुलासा किया है, जो आज के पढ़े-लिखे लोगों की सोच पर सवाल उठाता है। सही मायने में कहें तो आज के जमाने की सोच ने ही जलसंकट को बढ़ावा दिया है। जेसीबी से तालाब को खोदकर कभी भी उसे नहीं भरा जा सकता। हर जगह की जमीन और मिट्टी का स्वभाव अलग होता है, लेकिन आज जहां देखो, वहां जेसीबी मशीन तालाब को गहरा बनाने में लगी है। यह हाल शहरों का है, गांव का नहीं। गांव की कम पढ़ी-लिखी आबादी को जल संरक्षण के बेहतर तरीकों का पता है, वह अपने हिसाब से ऐसा कर भी रही है। बात नाराज करने वाली है, लेकिन मूर्खों की अज्ञानता अब ज्ञानियों की समझ पर भारी पड़ रही है। देश को ‘इंडिया और भारत दो भागों में बांटा जा चुका है। कम से कम जल संरक्षण के मामले में भारत, इंडिया से कई कदम आगे है…। ऐसा क्यों? कभी हमने समझने की कोशिश ही नहीं की। समझ की कमी की समस्या गांव की कम पढ़ी-लिखी में थोड़ी और शहर की शिक्षित विशेषझों से काफी ज्यादा है। सवाल यह भी है सरकारी और एनजीओ के स्तर पर जल संरक्षण के किए जा रहे कई दशकों के उपायों से पहले क्या लोगों को पानी नहीं मिलता था? वॉटर हार्वेस्टिंग और आधुनिक जल स्रोतों को बनाने के बाद हमने समस्या को किस हद तक बढ़ा दिया है, किसी को देखने की फुर्सत नहीं। आधुनिक युग में करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाकर भी हम एक बूंद का संचय नहीं कर पा रहे हैं। तो क्या हमें थोड़ी देर रुककर गलतियों पर मंथन नहीं करना चाहिए। एक समय था जब शहर हो या गांव कुएं, तालाब, पोखर आदि जल से लबालब होते थे। बरसात से पहले ही बच्चे, युवा तालाब और पोखरों में दिनभर मस्ती किया करते थे। फिर अब ऐसा क्या हो गया कि तालाब सूखते जा रहे हैं, कुएं कम होते जा रहे हैं। यह पर्यावरणीय बदलाव नहीं, हमारी आधुनिक सोच का घातक परिणाम है, जो कह रहा है कि अगर अब भी हमारी मनमानी जारी रही, तो कल कुछ भी हाथ नहीं लगेगा।
पानी की सबसे ज्यादा खपत सिंचाई में होती है। फिर, औद्योगिक तथा घरेलू उपयोग में होता है। घरेलू उपयोग का 60 फीसदी पेयजल हम शौचालयों में बहा रहे हैं। भारत में कुल जल-उपयोग का करीब 70 फीसद कृषि-कार्यों में होता है। खेती तो बंद नहीं की जा सकती, क्योंकि यह हमारे पोषण का आधार है, लेकिन खेती में पानी की खपत जरूर घटाई जा सकती है। असल में, खेती में पानी की बेतहाशा खपत का दौर हरित क्रांति के समय शुरू हुआ। हरित क्रांति ने एक समय पैदावार बढ़ाने में बहुत अहम भूमिका निभाई, पर उसने रासायनिक खादों, कीटनाशकों पर अत्यधिक निर्भरता और पानी की बेतहाशा खपत वाली जिस कृषि प्रणाली का प्रसार किया वह आज पर्यावरणीय संकट की वजह बन गई है। इसलिए अब ऐसी कृषि प्रणाली की जरूरत दिनोंदिन अधिक शिद्दत से महसूस की जा रही है जो रासायनिक खादों व कीटनाशकों पर निर्भरता घटाती जाए और पानी की कम खपत से संभव हो सके। इस सिलसिले में बूंद-बूंद सिंचाई की विधि को अधिक से अधिक अपनाने की जरूरत है। तालाबों को पाटते जाने और नदियों के सिकुड़ते जाने के कारण भी सिंचाई के लिए भूजल का दोहन तेज हुआ और इसके फलस्वरूप धरती के नीचे का जल भंडार लगातार कम होता जा रहा है।
अब 800 फीट तक नलकूप खोदे जा रहे हैं। जिसके कारण जंगल नष्ट हो रहे हैं। पेड़ पौधों का पानी हमने भूजल से निकालकर इसका जीवन नष्ट कर दिया है। पेड़ पौधे लगाते हैं तो वह पानी के अभाव में सूख जाते हैं। पौधारोपण के नाम पर पेड़ पौधे का जंगल खत्म हो रहे हैं।
पानी बेचने का कारोबार इतना चोखा है कि यह अब बड़ा व्यवसाय बन गया है। शहर के लेकर ग्रामीण इलाकों में आरओ प्लांट लगा रहे हैं, जो दिन रात पानी का दोहन कर रहे हैं। पीने वाला एक डिब्बा पानी 20 रुपए बिक रहा है। वहीं भवन या सड़क निर्माण प्रयुक्त होने वाले एक टैंकर पानी की कीमत पांच सौ से 1000 रुपए है। पानी बेचने के गोरखधंधे में बड़े लोगों के शामिल होने से यह बड़ा व्यवसाय का रूप ले चुका। आज नेताओं तक के टैंकर शहर में दौड़ रहे हैं। सिर्फ मराठवाड़ा में आज की तारीख में 4 हजार टैंकर पानी की सप्लाई कर रहे हैं। दरअसल, यह एक धंधे का स्वरूप ले चुका है। पानी की कमी की समस्या है नहीं, इसे पैदा किया जा रहा है। आधुनिक संयंत्रों के जरिए पानी की कमी पूरी करने का जो खिलवाड़ चल रहा है, उसकी आड़ में टैंकरों के मालिक राजनेता करोड़ों रुपए सिर्फ 4 माह में कमाकर ऐश कर रहे हैं।
आज पूरे भारत में पानी की कमी पिछले 30-40 साल की तुलना में तीन गुना हो गई है। देश की कई छोटी-छोटी नदियां सूख चुकी हैं या सूखने की कगार पर हैं। बड़ी-बड़ी नदियों में पानी का प्रवाह कम होता जा रहा है। आखिर क्यों? क्या नदियों के उद्गम स्थल से पानी का प्रवाह कम हो गया है, या फिर उन्होंने पानी का हिसाब रखना शुरू कर दिया है। कतई नहीं…यह हमारी करनी का फल है। आज नदियां कमाई का साधन बन गई हैं। फिर हमें चिंता किस बात की। नदियों का पाट आज समझ में ही नहीं आता। कहीं ज्यादा तो कहीं थोड़ा। पता ही नहीं चलता कहां नदी है और कहां नाला। सरकार ने ही आंकड़ा जारी कर बताया था कि 1960 में देश में 10 लाख कुएं थे, लेकिन आज इनकी संख्या 2 से 3 करोड़ के बीच है। हमारे देश के 55 से 60 फीसदी लोगों को पानी की आवश्यकता की पूर्ति भूजल द्वारा होती है।
इसकी मुख्य वजह है कि बिना सोचे-समझे भूजल का अंधाधुंध दोहन। कई जगहों पर भूजल का इस कदर दोहन किया गया कि वहां आर्सेनिक और नमक तक निकल आया है। हमनें लाखों साल से जमा भूजल की विरासत का अंधाधुंध दोहन कर करोड़ों वृक्षों एवं वनस्पति का जीवन समाप्त कर पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचाया है। खरबों रुपया खर्च करने के बाद भी हम पीने के पानी और जंगल सुरक्षित नहीं रख पा रहे हैं। ऐसे पढ़े लिखे जरुर थे। कई-कई साल निरंतर अकाल पढ़ता था। उसके बाद भी ऐसा पेयजल संकट नहीं आया, जैसे आज देखने को मिल रहा है। जनता जनार्दन एवं सरकार को इस दिशा में सोचना होगा।

यादे बनकर रह गयी है प्याऊ
रमेश सर्राफ धमोरा
एक दौर था जब शहरों, कस्बों और गांवों में हर दूसरे-तीसरे चौराहे पर किसी सेठ -शाहूकार या स्थानीय लोगों की तरफ से लगी प्याऊ और उस प्याऊ में पीने के ठंडे पानी के साथ खाने को मिलने वाली गुड़ की डली व भूंजे चने (भूंगडें) राहगीरों को लू की गर्मी सहन करने की ताकत देता था। उस समय में आम रास्तो पर बनी प्याऊ राह गुजर रहे लोगों के हलक को सूखने से बचाती थी। पहले गांव, कस्बों और शहरों में कई प्याऊ देखने को मिल जाती थी। जहां बोरे या कूंचो की पानी(घास) से बनाये गये एकछोटे से झोंपड़े में जमीन पर बालू रेत के ऊपर पानी से भरे घड़े रखे होते थे। प्याऊ पर जाकर पानी कहते ही वहां बैठा व्यक्ति गंगासागर से ठंडा पानी पिलाता था। प्यास खत्म होने पर केवल अपना सर हिलाते ही पानी आना बंद हो जाता था।
पहले के समय में लोगो ने कई प्याऊ ऐसी जगह बनवायी थी जहां कई गांवो के रास्ते मिलते थे जिस कारण वहां राहगीरो का आवागमन लगातार लगा रहता था। वहां की प्याऊ के महत्व को देखते हुये लोगो ने उस जगह का नाम ही प्याऊ स्टैण्ड रख दिया था। इससे हमारे जीवन में प्याऊ के महत्व का पता लगाया जा सकता है। आज भी प्याऊ स्टैण्ड के नाम से जगह-जगह बस स्टैण्ड देखे जा सकते हैं।
हमारे देश में अरसे तक यह परम्परा रही है कि रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों व अन्य सार्वजनिक स्थानों पर प्याऊ हुआ करते थे। रेल स्टेशनों पर तो रेल विभाग बाकायदा एक कमर्चारी नियुक्त रहता था, जो ट्रेन आने पर यात्रियों को मुफ्त में पानी पिलाया करता था। ऐसी सभी जगहों पर घड़ों में रखा साफ पेयजल भी लोगों को मुफ्त मिलता था। उसे पीकर लोग तृप्त होते थे, पानी पिलाने और उसकी व्यवस्था करने वाले को दुआ देते थे।
कई रेल्वे स्टेशनों पर गर्मियों में पानी पिलाने का पुण्य कार्य किया जाता था। पानी पिलाने वालों की यात्रियों से केवल यही प्रार्थना होती, जितना चाहे पानी पीयें, चाहे तो सुराही में भर लें, पर पानी बरबाद न करें। उनकी यह प्रार्थना उस समय लोगों को भले ही प्रभावित न करती हों, पर आज जब उन्हीं रेल्वे स्टेशनों में एक रुपए में पानी का छोटा-सा पाऊच खरीदना पड़ता है, तब समझ में आता है कि उनकी पानी बचाओ की अपील आज कितनी सार्थक लग रही है। मगर आज के दौर में बाजारू ताकतों के आगे वे सब सुविधायें गौण हो गई हैं।
प्यासे को पानी पिलाना आज भी पुण्य का काम माना जाता है, पर ऐसे प्याऊ अब सिर्फ पर्व-त्योंहारों पर ही नजर आते हैं। इनके स्थान पर अब तकरीबन हर जगह बोतल बंद पानी ही ऊंची कीमत पर बेचा जाता है। पहले के जमाने में कुछ लोग अपनी कमाई हुई दौलत का एक हिस्सा उन लोगों की मदद में खर्च करते थे जो आर्थिक रूप से कमजोर थे। गर्मियों का मौसम आते ही बसों, ट्रेनों और सार्वजनिक उपस्थिति वाली सभी जगहों पर अब यह आम बात हो गई है कि वहां बोतलबंद बिकने वाले पानी के दर्शन तो हो जाते हैं, लेकिन ऐसा कोई सार्वजनिक हैंडपंप या नल चालू हालत में दिखाई नहीं देता है जिसका पानी पीकर तृप्त हुआ जा सके और जिसे पीने से बीमारियों के किसी खतरे का अहसास भी न हो।
वर्तमान में हालात यह हैं कि आज आम आदमी अपनी प्यास बुझाने के लिये एक लीटर पानी की बोतल के लिए 15-20 रुपये चुकाने को बाध्य है। मौजूदा स्थिति को ध्यान से देखेंगे तो पता चलेगा कि गर्म मौसम की मार से बचाने वाला हमारा जो सामाजिक तंत्र था, वह आज के इस आधुनिकता के दौर में समाप्त सा हो गया है।
शेखावाटी के सेठ साहूकारों द्वारा आमजन की पीड़ा समझते हुए जगह जगह प्याऊ बनवाकर इस सोच के साथ पुण्य का काम किया गया था कि उन द्वारा निर्मित की जा रही प्याऊ सदियों तक राहगीरों की प्यास बुझाती रहेगी। मगर उन्हें नहीं मालूम था कि कुछ ही समय पश्चात यह तो मात्र दिखावे की प्याऊ बन कर रह जाएगी और प्याऊ पर लगी रह जाएगा सिर्फ उनकी नाम पट्टिका। झुंझुनू शहर में स्टेशन से निकलने के बाद परमवीर पीरू सिंह स्कूल के पास स्वर्गीय राम कुमार मोहनी देवी रूंगटा की याद में मंड्रेला निवासी रूंगटा परिवार ने जो प्याऊ बनवाई थी आज वह खुद पानी को खुद तरस रही है। प्याऊ का संचालन बंद होने से वहां पर लगी टूटियां भी अपना अस्तित्व खोती जा रही है।
जिला कलेक्टर के बंगले के पास गोल प्याऊ के नाम से मशहूर प्याऊ जो कन्हैयालाल मोदी चैरिटेबल ट्रस्ट मुंबई द्वारा 1991 में निर्मित करवायी गई थी उस प्याऊ का संचालन बंद होना आश्चर्य की बात है। केंद्रीय बस डिपो के सामने लायंस क्लब झुंझुनू द्वारा संचालित लायंस शीतल जल मंदिर जो राधा किशन काशीनाथ जालान के आर्थिक सहयोग से संचालित की जाती है। यह प्याऊ 1990 में बनी थी जिसका उद्घाटन 14 अक्टूबर 1990 को किया गया था। बाद में यह प्याऊ डॉक्टर कुंदन बालाला जैन फैमिली ट्रस्ट द्वारा संचालित हुई। वर्तमान में यह प्याऊ केंद्रीय बस स्टैंड के नजदीक व शहर के मध्य होने के कारण अधिकांश राहगीरों के लिए अमृतम जलम का कार्य कर रही है। लेकिन प्रशासन की अनदेखी के चलते प्याऊ के बाहर अवैध रूप से रेहडी संचालकों ने अतिक्रमण कर इस प्याऊ को नजर आने से भी रोक रखा है। वर्तमान में उक्त प्याऊ प्रशासन की उदासीनता के चलते संचालन पूर्ण रूप से बंद है।
समय के साथ सब कुछ बदल रहा है। पर अच्छी परम्पराएं जब देखते ही देखते दम तोडऩे लगती है, तब दु:ख का होना स्वाभाविक है। प्याऊ परंपरा में यह भावना कभी हावी नहीं रही कि पानी पिलाना एक पुण्य कार्य है। मात्र कुछ लोग चंदा करते और एक प्याऊ शुरू हो जाती। आजकल तो प्याऊ के उद्धाटन की खबरें भी पढऩे को मिलती है। देखते ही देखते आज पानी बेचना एक बड़ा व्यवसाय बन गया है। यह हमारे द्वारा किए गए पानी की बरबादी का ही परिणाम है। आज प्याऊ अतीत बनकर रह गयी है। हमारी नयी पीढ़ी को तो शायद पता भी नहीं होगा कि कभी प्याऊ की मानव जीवन में बड़ी भूमिका होती थी।

हिंदी मत लादिए लेकिन….
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
त्रिभाषा-सूत्र के विवाद पर तीन-तीन मंत्रियों को सफाई देनी पड़ी है। उन्होंने कहा है कि यह तो शिक्षा समिति की रपट भर है। यह सरकार की नीति नहीं है। अभी इस पर सांगोपांग विचार होगा, तब यह लागू होगी। क्यों कहना पड़ा, उन्हें ऐसा ? इसलिए कि मोदी सरकार पर यदि हिंदी थोपने का ठप्पा जड़ दिया गया तो वह दक्षिण के चारों राज्यों में चारों खाने चित हो जाएगी और बंगाल में भी उसे नाकों चने चबाने पड़ेंगे। पहले जनसंघ और फिर भाजपा पर हिंदी थोपने का आरोप तो लगता ही रहा है। इसी से तंग आकर डाॅ. लोहिया ने तमिलों से कहा था कि ‘हिंदी जाए भाड़ में।’ आप पहले अंग्रेजी हटाइए। जब अंग्रेजी हटेगी तो उसकी जगह नौकरशाहों, नेताओं, सेठों, विद्वानों और संपूर्ण भद्रलोक की भाषा कौन बनेगी ? हिंदी ! अब से लगभग 30 साल पहले जब उप्र के मुख्यमंत्री मुलायमसिंह और मैं मद्रास में मुख्यमंत्री करुणानिधि से मिलने गए तो उनका पहला सवाल यही था कि क्या आप हम पर हिंदी थोपने यहां आए हैं ? हमने कहा, हम आप पर तमिल थोपने आए है। आप अपना सारा काम तमिल में कीजिए। ऐसा होगा तो हम तमिल सीखने को मजबूर होंगे और आप हिंदी सीखने को। हिंदी और सारी भारतीय भाषाओं के बीच बस एक ही दीवार है, अंग्रेजी की ! गुलामी की यह दीवार गिरी कि सारी भाषाओं में सीधा संवाद कायम हो जाएगा। शिक्षा की नई भाषा नीति में अंग्रेजी की इस दीवार पर जबर्दस्त हमले किए गए हैं। उसके लिए मैं बधाई देता हूं। किसी सरकारी रपट में यह पहली बार कहा गया है कि अंग्रेजी की अनिवार्यता ने भारत को कितनी आर्थिक और बौद्धिक हानि पहुंचाई है। अंग्रेजी थोपने के विरुद्ध जो तर्क पिछले 60 साल में लोहिया, विनोबा और मैंने दिए हैं, पहली बार उन्हें किसी सरकारी रपट में मैं देख रहा हूं। यह रपट एक तमिलभाषी वैज्ञानिक श्री कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में तैयार हुई है और वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण और विदेश मंत्री जयशंकर ने भी तमिलनाडु के नेताओं को आश्वस्त किया है। ये दोनों भी तमिल है और दोनों ज.ने.वि. के पढ़े हुए हैं। इसके बावजूद यह मामला तूल पकड़ेगा। इसका हल सिर्फ एक ही है कि जो हिंदी न पढ़ना चाहे, उस पर हिंदी लादी न जाए। वह हिंदी न पढ़े लेकिन अंग्रेजी को सभी जगह से हटा दें याने शासन से, प्रशासन से, शिक्षा से, न्याय से, नौकरियों से ! तब अंग्रेजी को अपनी कीमत खुद मालूम पड़ जाएगी और अंग्रेजीप्रेमी फिर क्या करेंगे ? आपके कहे बिना ही सब लोग अपने आप हिंदी पढ़ेंगे। किस सरकार में इतना दम है कि वह यह नीति लागू करे।

धार्मिक नारों से नहीं बल्कि गंदी सियासत से है देश को दिक्कत
डॉ हिदायत अहमद खान
पिछले कुछ सालों में धार्मिक नारे लगाने और दूसरे लोगों से जबरदस्ती लगवाने का खेल कुछ इस तरह से खेला गया है, जिससे एक खास राजनीतिक पार्टी को लाभ मिल सके और अन्य पार्टियों को खासा नुक्सान हो। लोकसभा चुनाव 2019 से पहले इस बात को विपक्ष ने भी भांप लिया था, इसलिए कट्टर हिंदुत्व के सामने सॉफ्ट हिंन्दुत्व का कॉन्सेप्ट लाया गया और नफरतों के खिलाफ मोहब्बतों की खुशबू बिखेरने की पुरजोर कोशिशें भी की गईं, लेकिन इसका असर और हश्र क्या हुआ यह देश और दुनिया देख चुकी है। वैसे भी धर्म में राजनीति का क्या काम और जहां राजनीति आ जाए वहां धर्म कैसे रह सकता है। क्योंकि धर्म आस्था से जुड़ा हुआ होता है, जबकि राजनीति निरा अवसरवादिता पर केंद्रित होती है। धर्म, आस्था और श्रद्धा के संबंध में गीता में कहा गया है कि ‘श्रद्धावानलभते ज्ञानम्।’ कुल मिलाकर धार्मिक आस्था का संबंध हृदय से होता है, जबकि राजनीति दिमाग से की जाती है, उसमें भावनाओं को लेशमात्र भी स्थान नहीं दिया जा सकता है। बावजूद इसके जाने-अनजाने में धार्मिक नारे लगाने और लगवाने को लेकर विवाद भी खूब हुए हैं। हद यह रही कि जिन्होंने बंदेमातरम् बुलवाने की कोशिश की जब उनसे बंदेमातरम गाने को कहा गया तो वो ही बगलें झांकते नजर आ गए। मतलब साफ था कि राजनीति साधने सिर्फ नारे लगाना है, उसकी आत्मा को समझने और आत्मसात करने की जरुरत नहीं है। इसलिए इसका बेजा लाभ राजनीतिक तौर पर उठाया गया है, जिसके चलते पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को तो वो लोग भी नहीं भा रहे हैं जो धार्मिक नारे लगाते हुए उनके सामने आ जाते हैं। ऐसे लोगों के शरीर से चमड़ी उधेड़ लेने जैसी बातें भी की जा रही हैं, लेकिन यहां समझना होगा कि धर्म कभी भी किसी पर हावी होने और उससे जोर-जबरदस्ती करवाने को नहीं कहता है। बल्कि प्रत्येक धर्म हृदय परिवर्तन पर विश्वास करता है और वही करने को कहता है। यहां कुछ कट्टरपंथी धर्म को बदनाम करने और हिंसा फैलाने का काम करते चले जा रहे हैं। इस कारण सच्चे और अच्छे धार्मिक लोग भी बदनाम हो रहे हैं, जबकि धर्म को राजनीति से जोड़कर देखने वाले कह रहे हैं कि यदि धर्म की रक्षा करनी है तो राजनीति को तो साधना ही होगा, इसके बगैर धर्म नहीं बचेगा। इस बीच राम के नाम पर राजनीति करने वाले भाजपा के नेता भी खूब मुखर हुए हैं। पश्चिम बंगाल के मामले में तो पूरी लड़ाई इसी बात को लेकर लड़ी गई है। बहरहाल दिल्ली के भाजपा नेता प्रवीण शंकर कपूर ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को पत्र लिखते हुए उन्हें आड़े हाथ लिया है। कपूर कह रहे हैं कि तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता को भगवान राम का नाम जपना चाहिए, ऐसा करने से उन पर जो बुरी शक्तियों का साया है उन्हें दूर करने में भी मदद मिलेगी। बकौल कपूर, ममता पर बुरी शक्तियों का असर इस कदर हो चुका है कि उनके सामने कोई जय श्री राम का नारा लगाता है तो वो आपा खो देती हैं और चिल्लाने लग जाती हैं। अब इस तरह की बातें करने वालों को कोई समझाए कि जब किसी स्थापित नेता के पैरों तले की जमीन धर्म के नाम पर यूं सरकाई जाएगी तो उसका हाल वैसा ही होगा है, जैसा कि इस समय ममता का हुआ है। धार्मिक नारों के जरिए उन्हें छेड़ा जाता है और वो अपना आपा खो देती हैं। गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल के 24 परगना जिले में जब ममता बनर्जी के सामने कुछ लोगों ने जय श्री राम के नारे लगाए थे तो वो नाराज हो गईं थीं, घटना का वीडियो भी वायरल कर दिया गया था। इस पर ममता बनर्जी ने आरोप लगाते हुए कहा था कि भाजपा बारंबार जय श्री राम के नारे लगवाकर धर्म को राजनीति से मिलाने का काम कर रही है। अगर ऐसा नहीं है तो फिर क्या कारण है कि ममता के व्यवहार का विरोध करते हुए कपूर के सहयोगी तेजिंदरपाल सिंह बग्गा और पश्चिम बंगाल के भाजपा सांसद अर्जुन सिंह ने जय श्री राम लिखे पोस्टकार्ड भेजने का अभियान क्यों चलाया गया। यह तो सीधे-सीधे राजनीति चमकाने के लिए धर्म का सहारा लेने जैसी बात हो गई है। इसलिए धर्म से राजनीति को भले कोई खतरा न हो, लेकिन गंदी राजनीति के चलते धर्म जरुर संकट में आता चला जा रहा है। याद रखें कि भगवान राम और माता सीता की पूजा-पाठ, अराधना, स्तुति करने में हर्ज नहीं है, बल्कि आत्मशांति के लिए आस्थावानों को तो ऐसा करना ही चाहिए, लेकिन यही कार्य राजनीति साधने के लिए होने लग जाए तो उसे सही करार नहीं दिया जा सकता है। इसका विरोध करते हुए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सफाई देने का भी काम किया है। ममता का कहना है कि इन राजनीति प्रेरित धार्मिक नारों को जबरन थोपे जाने का सम्मान नहीं करती हैं, यह कार्य कथित तौर पर आरएसएस के नाम पर किया जा रहा है, जिसे बंगाल ने कभी स्वीकार नहीं किया है। कुल मिलाकर धार्मिक नारे लगाने वालों की भावनाओं को भी समझने की आवश्यकता है, क्योंकि जब तक भावनाएं शुद्ध आत्मशुद्धि और पुण्य कमाने से ओतप्रोत नहीं होंगी, तब तक विवाद से भी मुक्ति नहीं मिल सकती है। अंतत: धार्मिक मामलों में राजनीतिक हस्तक्षेप को कतई बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि गंदी राजनीति इसका इस्तेमाल अपने लाभ के लिए करेगी और बदनामी का ठीकरा धर्म के माथे फोड़ा जाएगा, जो सही नहीं है।

कांग्रेस: डगर कठिन परंतु असंभव नहीं
तनवीर जाफरी
लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतंत्र गंठबंधन की शानदार वापसी के साथ ही कांग्रेस पार्टी के भी एक मृत प्राय: संगठन हो जाने के कयास लगाए जाने लगे थे। ऐसा महसूस किया जाने लगा था कि जहां देश की वर्तमान राजनैतिक परिस्थितियों से जूझ पाने में कांग्रेस प्रमुख राहुल गांधी तथा यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी स्वयं को असहाय महसूस करते हुए संगठन से नाता तोडऩे की कोशिश कर रहे हैं वहीं कांग्रेस विरोधी ख़ेमों की भी यही प्रबल इच्छा थी कि नेहरू-गांधी परिवार किसी तरह अपनी पराजय से घबरा कर राजनीति विशेषकर कांग्रेस पार्टी को संरक्षण देना बंद कर दे। पूरे योजनाबद्ध तरीके से मीडिया तथा सोशल मीडिया के माध्यम से सोनिया व राहुल गांधी के मनोबल को गिराने का प्रयास भी किया गया। कांग्रेस से इत्तेफाक न रखने वाले अनेक राजनैतिक दलों के नेता भी यही सलाह देते सुनाई दिए कि अब कांग्रेस को नेहरू-गांधी परिवार के ‘शिकंजे’ से बाहर निकलना चाहिए। ऐसे आलोचनाकार पार्टी में परिवारवाद हावी होने की दलीलें दे रहे थे। पूर्व आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव एक अकेले ऐसे नेता थे जो राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद से पराजय के बाद त्यागपत्र दिए जाने के किसी भी निर्णय के बिल्कुल ‎खिलाफ थे। वे अपनी दूरदर्शी राजनीति की नज़रों से यह देख रहे थे कि राहुल गांधी के मनोबल को गिराकर किसी भी तरह उनसे त्यागपत्र लिए जाने की साजि़श रची जा रही है। वे यह भी समझ रहे थे कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस द्वारा अच्छा प्रदर्शन न किए जाने को लेकर जहां राहुल गांधी भी सदमें में हैं वहीं कांग्रेस विरोधी भी उनके समक्ष अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने जैसा वातावरण बनाकर कांग्रेस को और अधिक नुकसान पहुंचा सकते हैं।
परंतु चुनाव परिणाम आने के बाद पूरे एक सप्ताह तक चले चिंतन-मंथन के बाद कांग्रेस पार्टी ने एक बार फिर अंगड़ाई लेनी शुरू कर दी है। पिछले दिनों संसद भवन के केंद्रीय कक्ष में जहां सोनिया गांधी को कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुना गया वहीं कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में अपनी सेवाओं को जारी रखते हुए राहुल गांधी ने भी पार्टी के निराश होते जा रहे कार्यकर्ताओं का उत्साह वर्धन करने की पूरी कोशिश की। पूरा का पूरा कांग्रेस संसदीय दल सोनिया गांधी तथा राहुल गांधी के नेतृत्व में एकजुट नज़र आया। सोनिया गांधी ने जनता के अधिकारों की लड़ाई सड़क से लेकर संसद तक लडऩे का आह्वान किया। उन्होंने देश के उन 12. 5 करोड़ मतदाताओं का भी आभार व्यक्त किया जिन्होंने संसद में कांगेस के 52 सांसद जिताकर भेजे हैं। परंतु प्रश्र यह है कि क्या कांग्रेस पार्टी प्रत्येक स्तर पर भारतीय जनता पार्टी जैसे उस सत्ताधारी संगठन से मुकाबला कर सकती है जिसके पीछे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ सहित और भी कई हिंदूवादी कट्टरपंथी संगठन एकजुट होकर खड़े हुए हैं? क्या कांग्रेस पार्टी भारतीय जनता पार्टी के उन हथकंडों का मुकाबला कर सकती है जिनके तहत भाजपा कांग्रेस को एक ऐसी पार्टी प्रचारित करने के षड्यंत्र में काफी हद तक सफल हो जाती है कि कांग्रेस हिंदू विरोधी संगठन है? इतना ही नहीं वह कांग्रेस को हिंदू विरोधी साबित करने के लिए उस पर मुस्लिमों का तुष्टीकरण करने वाले राजनैतिक दल का लेबल भी चिपका देती है। गौरतलब है कि भारतीय जनता पार्टी व उसके सहयोगी संगठनों द्वारा 2014 के चुनाव के दौरान कांग्रेस के विरुद्ध सबसे मज़बूती के साथ यही दुष्प्रचार किया गया था कि कांग्रेस पार्टी लक्षित हिंसा विरोधी बिल संसद में पास कराकर हिंदुओं के विरुद्ध साजि़श रच रही है। इसके अतिरिक्त तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के उस बयान का भी काफी प्रचार किया गया जिसमें उन्होंने कहा था कि देश की संपदा पर अल्पसंख्यकों का पहला अधिकार है।
दरअसल कांग्रेस की ओर से जो भी इस प्रकार के बयान दिए जाते हैं या नीतियां बनाई जाती रही हैं उनका मकसद किसी धर्म विशेष का तुष्टीकरण नहीं बल्कि यह रहता था कि देश के सर्व समाज में इस बात का एहसास कायम रह सके कि वे सभी इस देश के सम्मानित नागरिक हैं और उनका भी देश पर वैसा ही अधिकार है जैसाकि देश के बहुसंख्य समाज का। दरअसल यह धारणा कांग्रेस पार्टी की नहीं बल्कि महात्मा गांधी के दर्शन से प्राप्त होने वाली धारणा है। परंतु दुर्भाग्यवश गांधी दर्शन की जगह गत् कुछ वर्षों से ‘गोडसे दर्शन’ लेने लगा है। देश के विभिन्न भागों से धर्म आधारित हिंसा के समाचार प्राप्त होते रहते हैं। गांधी जी किसी भी प्रकार की सांप्रदायिक हिंसा के घोर विरोधी थे। अपने जीवनकाल में वे कई बार हिंदुओं के मध्य जाकर मुसलमानों की रक्षा करने तथा मुसलमानों के मध्य जाकर हिंदुओं की रक्षा किए जाने के उपदेश देते रहते थे। अपने इसी उद्देश्य को लेकर धर्म आधारित हिंसा के विरुद्ध उन्हें अनशन भी करना पड़ा। परंतु मानवता के दुश्मन मुस्लिम परस्त तथा हिंदुवादी दल सभी की नज़रों में गांधीजी महज़ इसलिए खटकते रहे कि वे धार्मिक उन्माद के उस विभाजनकारी वातावरण में प्रेम व सद्भाव के बीज क्यों बो रहे हैं? ईश्वर अल्लाह एक ही नाम का संदेश क्यों दे रहे हें? और आखिरकार घोर हिंदूवादी विचारधारा में डूबे एक गिरोह ने सांप्रदायिक विचारधारा के एक प्रतिनिधि नाथू राम गोडसे के हाथों गांधी की हत्या करवा ही डाली।
यहां यह बताना भी ज़रूरी है कि सर्वघर्म संभाव की धारणा की शुरुआत महात्मा गांधी द्वारा नहीं की गई थी बल्कि महात्मा गांधी स्वयं उस भारतीय दर्शन के हिमायती थे जो न केवल सर्वधर्म संभाव बल्कि विश्व बंधुत्व तथा सर्वे भवंतु सुखिन: की शिक्षा स्हस्त्राब्दियों से देता आ रहा है। गांधी जी हिंदुत्व की उस परिभाषा को भारतीयों के जन-जन में बसाना चाहते थे जो हमें वसुधैव कुटंबकम की शिक्षा देता है। परंतु नाथू राम गोडसे व उसके सभी साथी जो गांधी जी की हत्या में शामिल थे वे सबके सब कट्टरपंथी हिंदूवादी राजनीति के पैरोकार थे। और इसी विचारधारा ने महात्मा गांधी को हिंदुओं का दुश्मन मानकर उनकी हत्या कर डाली। गांधी जी के मुंह से अंतिम समय में निकले शब्द ‘हे राम’ स्वयं इस बात का सुबूत हैं कि महात्मा गांधी वास्तविक रामभक्त थे न कि राम के नाम का सहारा लेकर अपनी राजनैतिक मज़बूती की कोशिश करने वाले नेता। ठीक इसके विपरीत वर्तमान सत्ताधारी दल की पूरी की पूरी बुनियाद ही भगवान राम के सहारे पर खड़ी की गई है। दूसरी ओर इसी के साथ-साथ गोडसेवादी विचारधारा का सिर उठाना भी जारी है। इतना ही नहीं बल्कि गोडसे का ज़बरदस्त तरीके से महिमामंडन भी किया जाने लगा है। गांधी के उस हत्यारे की प्रतिमाएं बनने की खबरें आती रहती हैं। गांधी की हत्या का चित्रण करते हुए वीडियो दिखाई देते हैं। यहां तक की पिछले दिनों हिंदू महासभा ने भारतीय मुद्रा पर प्रकाशित गांधी के चित्र को हटाकर गोडसे का चित्र प्रकाशित करने की मांग तक कर डाली।
ऐसे प्रदूषित राजनैतिक वातावरण में जबकि सत्ताधारी दल दर्जनों हिदूवादी संगठनों को साथ लेकर सत्ता पर काबिज़ होने के साथ-साथ कांग्रेस पर भी हिंदू विरोधी होने का आरोप लगाता रहता है निश्चित रूप से कांग्रेस के समक्ष एक बड़ी व कठिन चुनौती के समान है। परंतु चूंकि हमारा यह देश पीरीे-फकीरों, संतों व ऋषियों-मुनियों के दौर से ही सर्वधर्म संभाव का पालन करने वाला एक धर्मनिरपेक्ष देश रहा है और धर्मनिरपेक्षता भारतीयों के डीएनए में शामिल है। लिहाज़ा कांग्रेस पार्टी को गांधी के उन सौहाद्र्रपूर्ण विचारों को लेकर जनता के मध्य जाना और सफलता हासिल करना मुश्किल तो हो सकता है परंतु असंभव नहीं।

पर्यावरण प्रदूषण के भयावह दुष्परिणाम
योगेश कुमार गोयल
(विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष) इन दिनों भीषण गर्मी समस्त भारत में कहर बरपा रही है। मैदानी इलाकों के साथ-साथ पहाड़ों में भी तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि के रिकॉर्ड टूट रहे हैं। लू और गर्मी की प्रचण्डता का आलम यह है कि जहां हिमाचल, उत्तराखण्ड जैसे पर्वतीय राज्यों में मौसम विभाग द्वारा यैलोअलर्ट जारी किया गया है, वहीं हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र इत्यादि राज्यों में तो रेडअलर्ट जारी किया गया है। राजस्थान के श्रीगंगानगर में तापमान 50 डिग्री के करीब जा पहुंचा और वहां भीषण गर्मी का 75 साल का रिकॉर्ड टूट गया, वहीं चुरू में तापमान 50 डिग्री को भी पार कर गया। लू के थपेड़ों और गर्मी की प्रचण्डता के चलते विभिन्न राज्यों में कई दर्जन लोगों की मौत हो चुकी हैं। एक ओर जहां देशभर में चारों तरफ गर्मी अपना कहर बरपा रही है, वहीं कुछ ही दिनों पहले के मौसम के मिजाज की बात करें तो रोहतांग, लाहौलस्पीति, शिमला, मनाली जैसे ऊंचाई वाले पर्वतीय क्षेत्रों में भारी बारिश तथा बर्फबारी के चलते उत्पन्न हुई शीतलहर के साथ-साथ दिल्ली सहित आसपास के इलाकों में हुई ओलावृष्टि ने हर किसी को हतप्रभ कर दिया था। निसंदेह यह सब प्रकृति के बिगड़ते मिजाज और बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण के ही भयावह दुष्परिणाम हैं, जिसका खामियाजा हमें बार-बार जान-माल के भारी नुकसान के रूप में चुकाना पड़ रहा है।
देश के कई बड़े शहर इस समय पर्यावरण प्रदूषण के चलते कितनी बुरी तरह हांफ रहे है, यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है। पिछले कुछ समय में पर्यावरण संबंधी अंतर्राष्ट्रीय स्तर की अनेक रिपोर्टों में स्पष्ट हो चुका है कि भारत के कई बड़े शहरों में प्रदूषण विकराल रूप धारण कर चुका है और देश की राजधानी दिल्ली तो दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में शुमार है। वायु प्रदूषण की दिनों-दिन विकराल होती यही स्थिति हालात को दिन-ब-दिन बद से बदतर बनाने के लिए जिम्मेदार है। चंद माह पहले ही दिल्ली में प्रदूषण की जो भयावह तस्वीर देखी गई थी, वो रोंगटे खड़े कर देने वाली थी, जब यहां की हवा 14 गुना जहरीली दर्ज की गई थी। समय-समय पर दिल्ली तथा आसपास के इलाकों में वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) का स्तर सारी सीमाएं लांघता नजर आता है। पीएम-10 तथा पीएम-2.5 का स्तर भी कई गुना बढ़ जाता है। कड़ाके की ठंड हो या भीषण गर्मी, प्रदूषण का स्तर अब हर समय खतरनाक स्तर पर ही देखा जाता है।
तय मानकों के अनुसार पीएम-10 तथा पीएम-2.5 की मात्रा वातावरण में क्रमशः 100 व 60माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से अधिक नहीं होनी चाहिए लेकिन इनका स्तर वातावरण में सदैव कई गुना ज्यादा बना रहता है, जिन्हें नियंत्रित करने के अभी तक के तमाम प्रयास नाकाफी ही साबित हुए हैं। वायु में पीएम-2.5 और पीएम-10 का स्तर बढ़ जाने से यह प्रदूषित वायु फेफड़ों के अलावा त्वचा तथा आंखों को भी बहुत नुकसान पहुंचाती है। प्रदूषित हवा के चलते दिल्ली की हालत तो अक्सर गैस चैंबर सरीखी होती रही है, जहां एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए सांस लेना भी मुश्किल हो जाता है। हर साल दिल्ली में करीब पांच हजार लोग वायु प्रदूषण के कारण दम तोड़ देते हैं। मेडिकलजर्नल ‘द लांसेट’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक तो भारत में वायु प्रदूषण के चलते प्रतिवर्ष दस लाख से ज्यादा लोग मौत के मुंह में समा जाते हैं।
कार्बन उत्सर्जन के मामले में दिल्ली दुनिया के 30 शीर्ष शहरों में शामिल है। पहाड़नुमा कूड़े के ढ़ेरों से निकलती जहरीली गैसें, औद्योगिक इकाईयों से निकलते जहरीले धुएं के अलावा सड़कों पर वाहनों की बढ़ती संख्या कार्बन उत्सर्जन का बड़ा कारण है और कहा जाता रहा है कि अगर दिल्ली जैसे अत्यधिक प्रदूषित शहर में वायु प्रदूषण पर नियंत्रण पाना है तो लोगों को निजी वाहनों का प्रयोग कम कर सार्वजनिक परिवहन को अपनाना चाहिए और साथ ही दिल्ली में बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण को बढ़ावा देकर हरियाली बढ़ानी होगी लेकिन इन दिनों दिल्ली में हो क्या रहा है? कैग की एक रिपोर्ट पर नजर डालें तो दिल्ली पहले से ही करीब नौ लाख पेड़ों की कमी से जूझ रही है और दूसरी तरफ शहरीकरण की कीमत पर सरकारी आदेशों पर साल दर साल हजारों हरे-भरे विशालकाय वृक्षों का सफाया किया जा रहा है। पिछले 5-6 वर्षों के दौरान दिल्ली में नए आवासीय परिसर, भूमिगत पार्किंग, व्यापारिक केन्द्र खोलने और मार्गों को चौड़ा करने के लिए करीब बावन हजार छायादार वृक्षों का अस्तित्व मिटाया जा चुका है और इन्हीं पांच वर्षों के प्रदूषण के आंकड़ों का विश्लेषण किया जाए तो पता चलता है कि इस दौरान हरियाली घटने से दिल्ली में वायु प्रदूषण करीब चार सौ फीसदी बढ़ा है।
कैग की रिपोर्ट के अनुसार 2015-17 के बीच दिल्ली में 13018 वृक्ष काटे गए थे और उसके बदले 65090 पौधे लगाए जाने थे किन्तु लगाए गए मात्र 21048 पौधे और इनमें भी बहुत सारे सजावटी पौधे लगाकर खानापूर्ति कर दी गई। पेड़ों को काटने के बदले जो पौधे लगाए जाते हैं, उनमें से महज दस फीसदी ही बचे रह पाते हैं और ये छोटे-छोटे पौधे प्रदूषण से निपटने तथा वातावरण को स्वच्छ बनाए रखने में मददगार साबित नहीं होते। मौसम चक्र तेजी से बदल रहा है, जलवायु संकट गहरा रहा है और इन पर्यावरणीय समस्याओं से निपटने का एक ही उपाय है वृक्षों की अधिकता। वायु प्रदूषण हो या जल प्रदूषण अथवा भू-क्षरण, इन समस्याओं से केवल ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाकर ही निपटा जा सकता है।
ऊंचे और पुराने वृक्ष काटे जाने से दिल्ली में पक्षियों की 15प्रजातियों का जीवन भी खतरे में है। दरअसल दिल्ली में स्पॉटेडआउलेट, कॉपरस्मिथबारबेट, ब्राउनहेडेडबारबेट, अलेवजेंडरपैराकीट, रोडविंगपैराकीट, ग्रेटरप्लेनबैकवुडपैकर, ग्रेहॉर्नबिल, ब्लैक काइट, ब्लैक शोल्डरकाइट, एशियनपैराडाइजफ्लाईकैचर इत्यादि पक्षियों की 15प्रजातियां ऐसी हैं, जो ऊंचे दरख्तों पर घोंसला बनाते हैं और अपने खान-पान तथा रहन-सहन की आदतों के चलते ऊंचे पेड़ों पर ही रहना पसंद करते हैं, इनमें कुछ प्रजातियां दुर्लभ पक्षियों की भी हैं। ऐसे ऊंचे वृक्ष काटे जाने से इन पक्षियों का घर भी उजड़ता है और पक्षी विज्ञानियों का कहना है कि ऊंचे दरख्तों की कमी की वजह से पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली पक्षियों की कई प्रजातियां दिल्ली का रूख करने से कतराने लगी हैं। दिल्ली हाईकोर्ट ने भी हाल ही में अपनी एक टिप्पणी में कहा है कि दिल्ली कभी पक्षियों की आबादी को लेकर मशहूर हुआ करती थी किन्तु आज स्थिति विपरीत है, पेड़-पौधों व पक्षियों के लिए यहां जगह कम होती जा रही है।
सुखद स्थिति यह है कि आम जन में पर्यावरण संरक्षण और वृक्षों के महत्व को लेकर जागरूकता आने लगी है, जो पिछले दिनों उत्तराखण्ड के करीब पांच दशक पुराने चिपको आन्दोलन की तर्ज पर दिल्ली में भी देखने को मिली थी, जब पेड़ों से चिपककर लोगों ने इन्हें जीवनदान देने के लिए आन्दोलन शुरू किया और सरकार को हजारों पेड़ काटने का अपना आदेश वापस लेना पड़ा। इन तथ्यों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि दिल्ली में यहां की आबादी और क्षेत्रफल के हिसाब से नौ लाख पेड़ों की कमी है और यहां स्वस्थ जीवन के लिए प्राणवायु अब बहुत कम बची है। स्वच्छ प्राणवायु के अभाव में लोग तरह-तरह की भयानक बीमारियों के जाल में फंस रहे हैं, उनकी प्रजनन क्षमता पर इसका दुष्प्रभाव पड़ रहा है, उनकी कार्यक्षमता भी इससे प्रभावित हो रही है। कैंसर, हृदय रोग, अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, फेफड़ों का संक्रमण, न्यूमोनिया, लकवा इत्यादि के मरीजों की संख्या तेजी से बढ़ रही है और लोगों की कमाई का बड़ा हिस्सा इन बीमारियों के इलाज पर ही खर्च हो जाता है।

कांग्रेस का मौन “असत्याग्रह”
गोविन्द मालू
कहते हैं, कि “नादां की दोस्ती जी का जंजाल” राहुल और उनकी टीम पर यह कहावत सही चरितार्थ होती है। सेंसरशीप की पक्षधर, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की विरोधी कांग्रेस के लिए अपने प्रवक्ताओं पर एक माह की वाणी का उपवास करवाने का तुगलकी निर्णय तुगलक रोड पर रहने का परिणाम तो है, ही और जरा भी आश्चर्यजनक नहीं है।
वैसे “कांग्रेस” जो निर्णय ले ये उनका आतंरिक मामला है, लेकिन लोकतंत्र के तकाजों से दूर रहकर पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर करने से कोई राजनैतिक दल कैसे जिंदा रह सकता है। उसे तो अपना विघटन कर गांधीजी की “लोक सेवा संघ”बनाने की इच्छा को पूरा कर ही देना चाहिए। जनता ने तो उन्हें यह जनादेश दे ही दिया है।
वैसे भी अब ज्यादा कुछ बोलने को बचा नहीं, और जो बोलने वाले थे उन्हें जिम्मेदारी से वंचित कर पहले से ही दूर कर दिया गया। गुणवत्ता की कमी सत्ता में तो चल जाती है, लेकिन विपक्ष में काम करना पड़ता है। जो आरामतलबी और जी हुजूरी की शिकार कांग्रेस को रास नहीं आ सकता।
विद्वत्ता और मूर्खता के बीच तर्क और गोली का अंतर है। विपक्ष में रहते हुए भी तर्क सहित बातों को अध्ययन और जनता के मूड के हिसाब से बोला जा सकता है। लेकिन ऐसे लोग हमेशा कांग्रेस संगठन में उपेक्षित होते रहे,रही सही बेचारी प्रियंका चतुर्वेदी, बहन प्रियंका के आते ही रुखसत हो गई या कर दी गई ?
यही कांग्रेस का कुनबा है,शेखचिल्ली की बारात है !
अब बोलें भी तो क्या बोलें कब तक मुंहजोरी – सीनाजोरी करते रहें और फिर आयकर छापों का तुगलक रोड के साथ कनेक्शन उठते ही कांग्रेस नेता बैचेन हैं, कि क्या बोलें,कैसे बचें। मीडिया तो ठीक, सोशल मीडिया पर भी कांग्रेस के नेता आरोप लगा-लगा कर कोस रहे हैं, कि भाजपा ने अनाप-शनाप सोशल मीडिया केम्पेन पर खर्च किया, इससे चुनाव का माहौल मोदीमय हो गया और राहुल बाबा की टीम हार गई।
यह अल्पज्ञान का सबसे बड़ा उदाहरण है,जो मैदान खाली,उन्मुक्त और स्वतंत्र है। उस पर खेलने की क्षमता चाहिए, खेल नहीं पाओगे और हारने का दोष मत्थे मढ़ोगे यह कैसे चलेगा ,गले उतरने वाली बात ही चर्चा में दूर तलक जाती है।
एक तो जमीनी लड़ाई लड़ने की शक्ति, आदत और तरीका नहीं है। दूसरा कम से कम अपनी बात कहने और नेताओं को चर्चा में दिखने-दिखाने का जो अवसर था। वह भी R.G. की टीम ने उनके प्रवक्ताओं से छीनकर बेरोजगार बना दिया। भाजपा को अपनी बात कहने के लिए और ज्यादा समय देने के लिए धन्यवाद ।
लेकिन कांग्रेस को यह भरम नहीं होना चाहिए कि उनके डिबेट में शिरकत न करने से चैनल बंद हो जाएँगे, या इस नई राह के ब्याह में रूठी हुई बूआ को कोई मनाने जाएगा। शोर-शराबे को अभिशप्त कांग्रेस का यह “मौन असत्याग्रह” है। डूबना अच्छा है,लेकिन किनारे पर बैठकर सूखना बुरा है।

चुनौतियों का चक्रव्यूह : नई सरकार, चुनौतियाँ हजार……!
ओमप्रकाश मेहता
आज देश में कितनी विसंगतिपूर्ण स्थिति है, एक सत्तारूढ़ पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष अपना पद छोड़कर मंत्री नही बनना चाहता तो दूसरी राष्ट्रीय पार्टी का अध्यक्ष अपने पद पर बने रहने को तैयार नहीं? भारतीय राजनीति का यही मौजूदा आईना है, देश में मोदी जी की सरकार पुनः स्थापित होने से जहां राजनीति का एक वर्ग हर्षोल्लास में डूबा है तो राजनीति का दूसरा वर्ग चुनाव में हारने का ‘सूतक’ पाल रहा है। इस तरह कुल मिलाकर इन दिनों देश का राजनीतिक माहौल एक अजीब स्थिति में पहुंच गया है, आज एक ओर जहां शपथ-ग्रहण जैसे संवैधानिक कार्य में भी राजनीति का प्रवेश कराया जा चुका है तो दूसरी ओर प्रतिपक्ष सभी राजनीतिक मान-मर्यादाओं को खंूटी पर टांग कर अपने मूल दायित्व से विमुख होता जा रहा है। खैर, यह तो देश के राजनीतिक माहौल का जिक्र हुआ, अब यदि देश में फिर से सत्तारूढ़ हुई मोदी सरकार की बात करें तो अब उसके सामने चुनाव से भी बड़ी चुनौतियां मुंह बाये खड़ी है, इसमें कोई दो राय नहीं कि विश्व के इस सबसे बड़े प्रजातांत्रिक देश में यहां के वोटरों ने एक अजीब उदाहरण पेश किया, न तो भारतीय जनता पार्टी की इस सरकार ने अपने पांच वर्षीय शासनकाल में अपने चुनावी वादे पूरे किए और अपने घोषणा-पत्र की पूर्ति पर ही विशेष ध्यान दिया, उल्टे नोटबंदी व जीएसटी जैसे पीड़ा दायक कदम उठाए, और जब चुनाव आया तो राष्ट्रवाद और सैना के शौर्य के बलबूते पर वोट बटौरने की कौशिश की, यह बिल्कुल भी संभव नहीं था यदि मोदी जैसे निष्कपट, ईमानदार व नेक प्रधानमंत्री नहीं होते, कुल मिलाकर यदि यह कहा जाए कि देश में भारतीय जनता पार्टी नहीं, बल्कि मोदी जीते है तो कतई गलत नहीं होगा, फिर मोदी जी के भाग्य को पर उस समय भी लग गए जब सामने प्रतिपक्ष जैसी कोई मजबूत दीवार भी नहीं रही, कांग्रेस बचकाने हाथों में खेलती रही और शेष प्रतिपक्षी दल अपनी क्षैत्रीय सीमा तक सीमित रहे, अब ऐसे विकल्प के अभाव में देश का आम वोटर करता भी क्या? जो विकल्प सामने था, उसका ही वरण कर लिया और पांच साल के लिए अपना भाग्य भी सौंप दिया। अब यह मोदी जी के सामने है कि वे देश को किस डगर पर ले जाए।खैर, जो भी हो, देश में फिर से मोदी जी की सरकार बन ही बई, पांच साल पहले जब पहली बार मोदी जी प्रधानमंत्री बने थे तब उनके सामने दस वर्षीय कांग्रेसी शासन के कथित कचरे को साफ करने की चुनौति थी, इस दौरान मोदी जी ने चाहे डेढ़ सौ से अधिक देशों की यात्राएँ कर देश के विश्व के अन्य देशों से सम्बंध ठीक करने का अभियान चलाया हो, किंतु देश वही खड़े रहने को मजबूर रहा, जहां वो पांच साल पहले खड़ा था, अर्थात् समस्याएँ व चुनौतियाँ यथावत रही, और अब इस बार मोदी जी को अपने ही पांच साला कार्यकाल की समीक्षा करनी है और यहां व्याप्त गंभीर चुनौतियों से रूबरू होना है। आज देश में चारों ओर चुनौतियाँ नजर आ रही है, फिर वह चाहे बेरोजगारी की चुनौति हो या किसानों की, या कि महंगाई की, ये चुनौतियां कोई आज की नई नहीं है, ये पहले भी थी, जिन पर पिछले पांच सालों में ध्यान नहीं दिया गया। पिछले अर्थात् 2014 के चुनाव के समय प्रतिवर्ष दो करोड़ अर्थात् पांच साल में दस करोड़ युवाओं को नौकरी देने का वादा किया गया था, किंतु यह वादा कुछ लाख तक सिमट कर रह गया। यही स्थिति किसान की है, पिछले पांच सालों में पांच लाख से अधिक किसानों ने कर्जा नहीं चुका पाने के कारण आत्म हत्याएं की, इनके कर्जे माफ करने की भी कई बार घोषणाऐं की गई, किंतु यह आत्म हत्याओं का सिलसिला आज भी जारी है।
आज नई सरकार के सामने सबसे अहम् चुनौति देश को आर्थिक विषमता के समुद्र से उबारने की है, देश में मंदी जहां सबसे ऊँचाई पर है, वहीं देश की राष्ट्रीयकृत बैंकों की हालत अत्यंत गंभीर हो गई क्योंकि बैंकों का लाखों करोड़ रूपया या तो उद्योगपति बटौर कर विदेश भाग गया कर्जा न किसान ने चुकाया न सरकार ने, भारतीय मुद्रा का अब मूल्यन अलग इस सरकार के सामने चुनौति बना हुआ है। इसके साथ आए दिन घटती-बढ़ती जीडीपी दरें सरकार का सबसे बड़ा ‘सिरदर्द’ है। फिर निर्यात क्षेत्र की मंदी पर भी ध्यान देना जरूरी हो गया है। जब तक इन प्रमुख मुद्दों पर ध्यान नहीं दिया जाता तब तक आर्थिक वृद्धि दर में सुधार की कल्पना भी नही की जा सकती।
इस प्रकार कुल मिलाकर यदि यह कहा जाए कि देश के हर क्षेत्र में सरकार के सामने चुनौतियों का अम्बार है, तो कतई गलत नहीं होगा विशेषकर यदि सरकार प्राथमिकता के आधार पर आर्थिक, बेरोजगारी और किसानों से जुड़ी चुनौतियों पर ही कुछ सार्थक कदम उठाकर इनसे निपटना शुरू करें तो देश की ही नहीं इस सरकार की भी इसमें भलाई है।

इस मंत्रिमंडल के अर्थ
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नरेंद्र मोदी मंत्रिमंडल का यह शपथ-समारोह अपने आप में एतिहासिक है, क्योंकि यह ऐसा पहला गैर-कांग्रेसी मंत्रिमंडल है, जो अपने पहले पांच साल पूरे करके दूसरे पांच साल पूरे करने की शपथ ले रहा है। पिछले शपथ-समारोह से यह इस अर्थ में भी थोड़ा भिन्न है कि इसमें दक्षेस (सार्क) की बजाय ‘बिम्सटेक’ सदस्य-राष्ट्रों के प्रतिनिधि आए हैं। इसके कारण हमारे तीन पड़ौसी देशों की उपेक्षा हो गई। मालदीव, पाकिस्तान और अफगानिस्तान! मेरी राय यह थी कि दक्षेस और बिम्सटेक के अलावा अन्य पड़ौसी राष्ट्रों को भी बुलाया जाता तो बेहतर होता। ऐसे पड़ौसी राष्ट्र, जो भारत को महाशक्ति और महासम्पन्न बनाने में विशेष सहायक हो सकते हैं। शपथ-समारोह इतने कम समय में आयोजित हुआ है कि शायद इतने राष्ट्रों को एक साथ बुलाना संभव नहीं था। खैर, इस नए मंत्रिमंडल के शपथ-समारोह में मुझे यह भी अच्छा लगा कि राजनाथसिंह, अमित शाह और नितिन गडकरी की वरिष्ठता को यथोचित्त रखा गया। इन लोगों के बीच सुषमा स्वराज और अरुण जेटली को बैठा न देखकर मुझे दुख हो रहा है। सुषमा और अरुण, दोनों अपने स्वास्थ्य के कारण बाहर रहने को मजबूर हुए हैं। यह इस नए मंत्रिमंडल के लिए घाटे का सौदा है। स्वर्गीय पर्रिकर और अनंतकुमार की भी याद ताजा हुई। अमित शाह को मंत्री बनाकर मोदी ने अनौपचारिक उप-प्रधानमंत्री का पद कायम कर दिया है। जैसे अटलजी और आडवाणीजी की जुगल-जोड़ी ने काम किया, उससे भी बेहतर काम यह नरेंद्र भाई और अमित भाई की भाई-भाई जोड़ी काम करेगी। डाॅ. जयशंकर को मंत्री बनाकर मोदी ने अपनी विदेशनीति को नई धार देने की कोशिश की है। जयशंकर चीन और अमेरिका में हमारे राजदूत रह चुके हैं और विदेश सचिव भी रहे हैं। उनके पिता स्वर्गीय के. सुब्रहमण्यम भारत के माने हुए रणनीति-विशेषज्ञ रहे हैं। कुछ पूर्व मुख्यमंत्रियों की भी इस बार मंत्रिमंडल में जोड़ा गया है, इससे केंद्र सरकार को उनके अनुभव का लाभ तो मिलेगा ही, उन-उन प्रांतों में भी भाजपा का जनाधार भी बढ़ेगा। इस नए मंत्रिमंडल में कई पुराने मंत्रियों को बरकरार रखा गया है। जाहिर है कि ज्यादातर मंत्रियों ने अपना काम ठीक-ठाक किया है। जैसे कई कांग्रेसी सरकार के मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे, वैसे आरोप मोदी मंत्रिमंडल के सदस्यों पर नहीं लगे। आशा है कि मोदी सरकार की इस दूसरी अवधि में भी इस मंत्रिमंडल के सदस्यों का आचरण विवादों के परे रहेगा। इस मंत्रिमंडल में कई नए सदस्यों को भी जोड़ा गया है। इनमें से कुछ भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष रहे सांसद भी मंत्री बने हैं। यह भी भाजपा के जनाधार को बढ़ाने में मदद करेगा। इस मंत्रिमंडल में महिलाओं और अहिंदी प्रांतों के सांसदों को काफी स्थान मिला है। यह भाजपा के लिए ही नहीं, संपूर्ण भारत के लिए शुभ-संकेत है। देश की जनता को सरकार, नौकरशाही, पुलिस और फौज से ज्यादा जोड़नेवाली ताकत कोई होती है तो वह एक अखिल भारतीय राजनीतिक पार्टी होती है। यह काम जो कांग्रेस करती रही, अब वही भाजपा करती दिखाई पड़ रही है। एक मजबूत पार्टी और मजबूत सरकार भारत को अगले पांच साल में विश्व-स्तरीय शक्ति बना सकती है।

मध्य प्रदेश सरकार पर संकट के बादल !
डॉक्टर अरविन्द जैन
जब कोई राजा चक्रवर्ती बनने निकलता हैं तो उसे सत्ता का मद इतना अधिक हो जाता हैं की वह समझ नहीं पाता कि क्या अन्याय हैं और क्या न्याय। इसी प्रकार अश्वमेघ यज्ञ के समय लवकुश ने अपने पिता के अश्व को बंधक बना लिया था। जब कोई भी राजा या जुआरी जीत हासिल करने लगता हैं, उस समय जीत के जोश में होश भी खोने लगता हैं और यह स्वाभाविक प्रक्रिया और गुण होते हैं ,जबकि जीतने और हारने वाले दया के पात्र होते हैं और पराधीन भी होते हैं और कटु सत्य कहें तो वे भिखारी या याचक होते हैं ,क्योकि वे घर घर वोट मांगने जाते हैं और हमेशा दाता का हाथ ऊपर होता हैं और याचक का हाथ नीचे होता हैं।
जबतक नयी सरकार का गठन नहीं हो पाता तब तक मध्य प्रदेश सरकार वेंट्रिलेटर या कृतिम सांस पर जी रही हैं और जिस दिन नव गठित केंद्र सरकार ने नजर फेरी उसी दिन से कर्णाटक और मध्य प्रदेश सरकार का अंत होना निश्चित हो जाएगा। उसका कारण कांग्रेस सरकार बहुमत के करीब हैं और कुछ निर्दलीय जिनका ज़मीर होता है या नहीं वह सुविधा शुल्क पर डिपेंड करता है। वर्तमान में प्रदेश सरकार अपने वादों को पूरा करने में सफल नहीं हो पा रही हैं उसके लिए आचार संहिता का रोड़ा रहा और अब केंद्र सरकार के इशारों पर सत्ता परिवर्तन के लिए उनके पास धनबल, जनबल और भयबल का इतना अधिक प्रभाव रहेगा कि कांग्रेस उनको नहीं सम्हाल पाएंगी और इसी समय मंत्री मंडल का गठन और परिवर्तन होने से असंतुष्ट विधायक पाला बदलने में कोई देरी नहीं करेंगे। उनको पार्टी से प्रिय सत्ता सुख होता हैं। सत्ता के लिए वे किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। इस मामले में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के विधायकों का चरित्र समान हैं।
वर्तमान में कांग्रेस आला कमान में अस्थिरता का दौर चल रहा है और मेढकों का तोलना सरल नहीं होता। हमारे देश में नेताओं का चरित्र किसी से छिपा नहीं है। ,चंद चांदी के टुकड़ों में बिकने वाले और उनकी चमड़ी इतनी मोटी होती हैं और बेशरमी कूट कूट के भरी हैं कि उनको पाला बदलना बहुत सामान्य बात हैं ,जब सीट न मिलने पर पार्टी बदली तो पद मिलने पर वे अपनी बल्दियत तक बदल सकते हैं।
प्रदेश सरकार वर्तमान में लोकसभा चुनाव में पराजय के कारण चिंतित के साथ पशोपेश में है। मुख्य मंत्री का मंत्री परिषद् में आमूल चूल परिवर्तन उनके पद को न ले डूबे, कई धड़े उनसे अप्रसन्न हैं और उन्होंने यदि इसमें कोई भूल या गलती की तो आतंरिक बगावत होना सुनिश्चित है ,कारण जब शेर नरभक्षी हो जाता है तब उसे घास फूस अच्छा नहीं लगता।
चुनाव हारना या जीतना व्यक्तिगत और सामूहिक उत्तरदायित्व होता हैं, जब जीतते हैं सब उसका श्रेय लेते हैं और हारने में किसी न किसी पर लांक्षन लगाते हैं। यह समय आत्म निरीक्षण का हैं और सब अपने अपने कर्मों के हिसाब से फल भोगना होता है ,उगते सूरज को सब नमस्कार करते हैं पर अभी भी निराशा की जरुरत नहीं हैं।
मध्य प्रदेश में संख्या बल के कारण अस्थिरता बन सकती हैं और केंद्र के इशारे से सब कुछ होना संभव हैं। यह समय कमलनाथ सरकार के लिए संक्रमण काल है। इस समय बहुत सम्हाल कर कदम उठाने की जरुरत है अन्यथा सत्ताच्युत होना कोई कठिन नहीं हैं। इतिहास अपनी पुनरावृत्ति खुद करता है।

तंबाकू का निषेध अति आवश्यक है
(प्रो.शरद नारायण खरे)
(विश्व तंबाकू निषेध दिवस 31मई पर विशेष) पूरे विश्व के लोगों को तंबाकूमुक्त करनेे और स्वस्थ बनाने के लिये तथा स्वास्थ्य के सभी खतरों से बचाने के लिये तंबाकू चबाने या धूमपान के द्वारा होने वाली सभी परेशानियों और स्वास्थ्य जटिलताओं से लोगों को आसानी से जागरुक बनाने के लिये पूरे विश्व भर में एक मान्यता-प्राप्त कार्यक्रम के रुप में मनाने के लिये विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पहली बार विश्व तंबाकू निषेध दिवस को आरम्भ किया गया।
रोग और इसकी समस्याओं से पूरी दुनिया को मुक्त बनाने के लिये डबल्यूएचओ द्वारा विभिन्न दूसरे स्वास्थ्य संबंधी कार्यक्रम भी आयोजित किये जाते हैं जैसे एड्स दिवस, मानसिक स्वास्थ्य दिवस, रक्त दान दिवस, कैंसर दिवस आदि। बहुत ही महत्वपूर्ण ढंग से पूरी दुनिया में सभी कार्यक्रम आयोजित और मनाये जाते हैं। इसे पहली बार 7 अप्रैल 1988 को डबल्यूएचओ की वर्षगाँठ पर मनाया गया और बाद में हर वर्ष 31 मई को तंबाकू निषेध दिवस के रुप में मनाने की घोषणा की गयी। डबल्यूएचओ के सदस्य राज्यों के द्वारा वर्ष 1987 में विश्व तंबाकू निषेध दिवस के रुप में इसका सृजन किया गया था।
पूरे विश्व से किसी भी रुप में तंबाकू का सेवन पूरी तरह से रोकने या कम करने के लिये लोगों को बढ़ावा देने और जागरुकता के विचार से इसे मनाया जाता है। दूसरों पर इसकी जटिलताओं के साथ ही तंबाकू इस्तेमाल के नुकसानदायक प्रभाव के संदेश को फैलाने के लिये वैश्विक तौर पर लोगों का ध्यान खींचना इस उत्सव का लक्ष्य है। इस अभियान में कई वैश्विक संगठन शामिल होते हैं जैसे राज्य सरकार, सार्वजनिक स्वास्थ्य संगठन आदि विभिन्न प्रकार के स्थानीय लोक जागरुकता कार्यक्रम आयोजित करते हैं।
निकोटीन की आदत स्वास्थ्य के लिये बहुत हानिकारक है जो कि जानलेवा होता है और मस्तिष्क “अभावग्रस्त” रोग के रुप में जाना जाता है जो कभी भी उपचारित नहीं हो सकता है हालाँकि पूरी तरह से गिरफ्तार किया जा सकता है। दूसरे गैर-कानूनी ड्रग्स, मेथ, शराब, हीरोइन आदि की तरह ये मस्तिष्क डोपामाइन पथ को रोक देता है। दूसरी उत्तरजीविता क्रियाएँ जैसे खाना और पीने वाले भोजन और द्रव की तरह शरीर के लिये निकोटीन की जरुरत के बारे में गलत संदेश भेजने के लिये ये दिमाग को तैयार करता है।
उनके जीवन को बचाने के लिये धरती पर पहले से इस्तेमाल करने वालो की मदद के लिये स्वास्थ्य संगठनों के द्वारा विभिन्न प्रकार के निकोटीन की लत छुड़ाने के तरीके उपलब्ध हैं। “तंबाकू मुक्त युवा” के संदेश अभियान के द्वारा और 2008 का विश्व तंबाकू निषेध दिवस को मनाने के दौरान इसके उत्पाद या तंबाकू के प्रचार, विज्ञापन और प्रायोजन को डबल्यूएचओ ने प्रतिबंधित कर दिया है।
डबल्यूएचओ एक मुख्य संस्था है जो पूरे विश्व में विश्व तंबाकू निषेध दिवस को आयोजित करने के लिये एक केन्द्रिय हब के रुप में कार्य करती है। तंबाकू उपभोग को घटाने में इस अभियान के लिये पूरी सक्रियता और आश्चर्यजनक रुप से अपना योगदान देने वाले विभिन्न संगठनों और व्यक्तित्वों को बढ़ावा देने के लिये डबल्यूएचओ द्वारा 1988 से पुरस्कार समारोह भी आयोजित किया जाता है जो इस पुरस्कार समारोह के दौरान किसी भी देश और क्षेत्र के संगठनों और व्यक्तियों को खास अवार्ड और पहचान सर्टिफिकेट प्रदान किया जाता है।
विश्व तंबाकू निषेध दिवस मनाये जाने का इतिहास –
तंबाकू या इसके उत्पादों के उपभोग पर रोक लगाने या इस्तेमाल को कम करने के लिये आम जनता को बढ़ावा और प्रोत्साहन देने के लिये पूरे विश्व भर में विश्व तंबाकू निषेध दिवस को मनाना मुख्य लक्ष्य है क्योंकि ये हमें कुछ घातक बीमारियों की ओर अग्रसर करता है जैसे (कैंसर, दिल संबंधी समस्याएँ) या मृत्यु भी हो सकती है। देश के विभिन्न क्षेत्रों से व्यक्ति, वैश्विक सफलता प्राप्ति के लिये अभियान मनाने में बहुत ही सक्रियता से गैर-लाभकारी और सार्वजनिक स्वास्थ्य संगठन भाग लेते हैं तथा विज्ञापन बाँटने में शामिल होते हैं, नयी थीम और तंबाकू इस्तेमाल या इसके धुम्रपान संबंधी उत्पादों के बुरे प्रभावों से संबंधित जानकारी पर पोस्टर की प्रदर्शनी की जाती है।
अपने उत्पादों के उपभोग को बढ़ाने के लिये इसके उत्पाद या तंबाकू के खरीद, बिक्री या कंपनियों के विज्ञापन पर भी लगातार ध्यान देने का इसका लक्ष्य है। अपनी मुहिम को असरदार बनाने के लिये, डबल्यूएचओ विश्व तंबाकू निषेध दिवस से संबंधित वर्ष के एक विशेष थीम को बनाता है। पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त बनाने के साथ ही विश्व स्तर पर तंबाकू के उपभोग से बचाने के लिये सभी प्रभावशाली कदम की वास्तविक जरुरत की ओर लोगों और सरकार का ध्यान खींचने में ये कार्यक्रम एक बड़ी भूमिका निभाता है।
विश्व तंबाकू निषेध दिवस पर कथन–
“तंबाकू छोड़ना इस दुनिया का सबसे आसान कार्य है। मैं जानता हूँ क्योंकि मैंने ये हजार बार किया है।”- मार्क तवैन
“तंबाकू मारता है, अगर आप मर गये, आप अपने जीवन का बहुत महत्वपूर्ण भाग खो देंगे।”- ब्रुक शील्ड
“तंबाकू का वास्तविक चेहरा बीमारी, मौत और डर है- ना कि चमक और कृत्रिमता जो तंबाकू उद्योग के नशीली दवाएँ बेचने वाले लोग हमें दिखाने की कोशिश करते हैं।”-डेविड बिर्न
ज्यादा धूम्रपान करना जीवित इंसान को मारता है और मरे सुअर को बचाता है।”- जार्ज डी प्रेंटिस
सिगरेट छोड़ने का सबसे अच्छा तरीका है तुरंत इसको रोकना- कोई अगर, और या लेकिन नहीं।”- एडिथ जिट्लर
सिगरेट हत्यारा होता है जो डिब्बे में यात्रा करता है।”- अनजान लेखक
“तंबाकू एक गंदी आदत है जैसे कथन के लिये मैं समर्पित हूँ।”- कैरोलिन हेलब्रुन
विश्व तंबाकू निषेध दिवस थीम-
विश्व तंबाकू निषेध दिवस को पूरे विश्व भर में प्रभावशाली तरीके से मनाने के लिये, अधिक जागरुकता के लिये लोगों में एक वैश्विक संदेश फैलाने के लिये केन्द्रिय अंग के रुप में हर साल एक खास विषय का डबल्यूएचओ चुनाव करता है। विश्व तंबाकू निषेध दिवस के उत्सव को आयोजित करने वाले सदस्यों को इस विषय पर दूसरे प्रचारक वस्तुएँ जैसे ब्रौचर, पोस्टर, फ्लायर्स, प्रेस विज्ञप्ति, वेबसाइट्स आदि भी डबल्यूएचओ के द्वारा उपलब्ध कराया जाता है।1987 से लेकर 2019के विषय (थीम) वर्ष के आधार पर दिये गये जो विश्व स्तर पर तंबाकू के विरुद्ध जागरुकता का प्रसारण करते हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम चेतनाशील बनकर अपने
तन-मन व धन की रक्षा करें।

‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’में है विश्व की समस्याओं का समाधान
पीके सिंह
(महारानी अहिल्या बाई होल्कर की जयन्ती 31मई पर विशेष) भारत सांस्कृतिक विविधता के कारण एक लघु विश्व का स्वरूप धारण किये हुए हैं। भारत की सांस्कृतिक विविधता ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का सन्देश देती है अर्थात सारी वसुधा एक विश्व परिवार है। भारत की महान नारी लोकमाता अहिल्या बाई होल्कर ने लोक कल्याण की भावना से होलकर साम्राज्य का संचालन हृदय की विशालता, असीम उदारता तथा लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर बड़ी ही कुशलतापूर्वक किया। देश-विदेश में इस महान नारी की जयन्ती प्रतिवर्ष बड़े ही उल्लासपूर्ण तथा प्रेरणादायी वातावरण में मनायी जाती है। इस महान नारी की जयन्ती पर हमें उन्हीं की तरह अपने हृदय को विशाल करके उदारतापूर्वक सारी वसुधा को कुटुम्ब बनाने का संकल्प लेना चाहिए। भारत सरकार से मेरी अपील है कि वह लोकमाता अहिल्याबाई की जयन्ती 31 मई को राष्ट्रीय स्तर पर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ दिवस के रूप में मनाने के लिए प्रस्ताव पारित करें।
वह भारत की ऐसी प्रथम नारी शासिका थी जिन्होंने अपनी प्रजा को अपनी संतानों की तरह लोकमाता के रूप में संरक्षण दिया। साथ ही अत्यन्त ही लोक कल्याणकारी कानून बनाये जिसमें सभी का हित सुरक्षित था। पड़ोसी राजाओं के साथ उन्होेंने मित्रतापूर्ण संबंध स्थापित किये। वे युद्ध के पक्ष में कभी भी नहीं रही, वरन् वे कानून आधारित न्यायपूर्ण राज संचालन पर विश्वास करती थी। आज भी महारानी के सम्बोधन की बजाय वह देश में लोकमाता या देवी के रूप में सबके हृदय में श्रद्धापूर्वक वास करती हैं। उन्होंने एक महारानी होते हुए भी एक सादगीपूर्ण, शुद्ध, दयालु तथा ईश्वरीय प्रकाश से प्रकाशित हृदय जीवन पर्यन्त धारण किये रहने की मिसाल प्रस्तुत की।
वसुधैव कुटुम्बकम् भारतीय संस्कृति का आदर्श तथा सर्वमान्य विचारधारा है। जो महा उपनिषद सहित कई ग्रन्थों में लिपिबद्ध है। चारों वेदों का एक लाइन में सार है – उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।। उदार चरित्र वाले लोगों के लिए यह सम्पूर्ण धरती ही परिवार है। यह वाक्य विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक तथा युवा भारत की संसद के प्रवेश कक्ष में भी अंकित है। भारतीय संविधान में निहित वसुधैव कुटुम्बकम् के विचार को सारे संसार में फैलाना है।
अब आगे भारत के प्रत्येक नागरिक को वसुधैव कुटुम्बकम पर आधारित वैश्विक लोकतांत्रिक व्यवस्था (विश्व संसद) का गठन करने का लक्ष्य बनाना चाहिए। वर्तमान में विश्व का संचालन पांच वीटो पाॅवर सम्पन्न शक्तिशाली देश अपनी मर्जी से कर रहे हैं। विश्व को अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद, वीटो पाॅवर रहित, परमाणु शस्त्रों की होड़ से मुक्त तथा युद्ध रहित बनाने का संकल्प भी हमें आज के महान दिवस पर लेना है। यह चिन्ता का विषय है कि आम आदमी की प्रसन्नता की रैंकिंग में भारत विश्व में 113वें स्थान पर है जबकि भूखों की सूचकांक में भारत का दर्जा विश्व में 119वां है। ‘ग्लोबल विलेज’ के रूप में विकसित 21वीं सदी के विश्व समाज में भी अहिल्या बाई के लोक कल्याणी विचार आज भी पूरी तरह सारगर्भित तथा युगानुकूल हैं।
भारत के गौरव को बढ़ाने वाली इस महान नारी लोकमाता अहिल्या बाई का जन्म 31 मई, 1725 को औरंगाबाद जिले के चैड़ी गांव (महाराष्ट्र) में एक साधारण परिवार में हुआ था। अहिल्या बाई के जीवन को महानता के शिखर पर पहुॅचाने में उनके ससुर महान यौद्धा मल्हार राव होलकर की मुख्य भूमिका रही है। इन्दौर जिले के आसपास के एक बड़े मालवा क्षेत्र में होल्कर साम्राज्य की स्थापना श्रीमंत मल्हार राव होल्कर ने अपने पराक्रम से की थी। मल्हार राव विशेष रूप से मध्य भारत में मालवा के पहले मराठा सुबेदार होने के लिए जाने जाते थे। महान यौद्धा मल्हार राव का जन्म 16 मार्च 1693 में तथा मृत्यु 20 मई 1766 में हुई। उनकी जीवन यात्रा एक भेड़ पालक चारवाहे के रूप में शुरू होकर एक महान यौद्धा के शिखर तक पहुंची।
अठारहवीं सदी के मध्य में मल्हारराव होल्कर ने पेशवा बाजीराव प्रथम की ओर से अनेक लड़ाइयाँ जीती थीं। मालवा पर पूर्ण नियंत्रण ग्रहण करने के पश्चात, 18 मई 1724 को इंदौर मराठा साम्राज्य में सम्मिलित हो गया था। 1733 में बाजीराव पेशवा ने इन्दौर को मल्हारराव होल्कर को पुरस्कार के रूप में दिया था। मल्हारराव ने मालवा के दक्षिण-पश्चिम भाग में अधिपत्य कर होल्कर राजवंश की नींव रखी और इन्दौर को अपनी राजधानी बनाया।
लोकमाता अहिल्या बाई होल्कर ने सदैव लोक कल्याण की भावना से अपने जीवन के एक-एक पल को एकमात्र अपनी आत्मा को विकसित करने के लिए लगाया। लोकमाता अहिल्या बाई होल्कर आज स्थूल देह रूप में हमारे बीच नहीं है किन्तु उनकी सूक्ष्म विश्वात्मा जाति, धर्म तथा राष्ट्र से ऊपर उठकर लोकमाता के रूप में भारत सहित प्रत्येक विश्ववासी को विश्व एकता, विश्व शान्ति तथा विश्व बन्धुत्व के मार्ग पर चलते हुए अब आगे सारी वसुधा को कुटुम्ब बनाने के लिए सदैव प्रेरित करती रहेगी। पृथ्वी एक देश है हम सभी इसके नागरिक हैं।

शपथ में इमरान को बुलाएं या नहीं ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनकी विजय पर बधाई देते हुए दोनों देशों के बीच बातचीत शुरु करने की पेशकश की है। भारत की तरफ से कहा गया कि बातचीत और आतंक साथ-साथ नहीं चल सकते। इसका मतलब क्या हुआ ? शायद यही कि 30 मई को होनेवाले शपथ-समारोह में इमरान को नहीं बुलाया जाएगा ? यदि इमरान को नहीं बुलाएं और सभी पड़ौसी देशों के नेताओं को बुलाएं तो क्या यह अटपटा नहीं लगेगा ? जब नवाज शरीफ को 2014 में बुलाया गया था, तब भी आतंकवाद चल रहा था या नहीं ? यह ठीक है कि इमरान खान पाकिस्तानी फौज के ज्यादा करीब हैं लेकिन इमरान जबसे प्रधानमंत्री बने हैं, वे भारत के साथ ताल्लुकात सुधारने की बात बार-बार करते रहे हैं। करतारपुर का मामला उन्होंने ही सुलझाया है। हमारी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को किरगिजिस्तान जाने के लिए पाकिस्तान की वायु-सीमा में से उड़ने की सुविधा उन्हीं की सरकार ने दी है। चुनाव के पहले इमरान खान ने खुले-आम यह बयान दिया था मोदी अगर जीत गए तो भारत-पाक रिश्ते जरुर सुधरेंगे। किरगिजिस्तान की राजधानी बिश्केक में हुए सम्मेलन में भारत और पाक विदेशमंत्री एक-दूसरे से काफी अच्छे ढंग से पेश आए। इन घटनाओं से ऐसा लगता है कि दोनों देशों में बात शुरु होना चाहिए। इमरान-सरकार ने प्रमुख आतंकियों पर काफी बंदिशे भी लगाई हैं। उन्होंने पश्चिमी राष्ट्रों को आश्वस्त किया है कि वे पाकिस्तान से आतंकवाद को खत्म करके ही रहेंगे। जाहिर है कि उनकी अपनी सीमाएं हैं। उनकी घोषणाओं पर विश्वास करके यदि उनके शपथ-समारोह में मोदी ने बुला लिया तो विपक्ष के द्वारा पुलवामा के हत्याकांड को जबर्दस्त ढंग से उछाला जाएगा। यह दुविधा तो है। यह भी हो सकता है कि इस बार शपथ-समारोह में सिर्फ पांच महाशक्तियों के नेताओं को ही बुलाया जाए लेकिन इतनी अल्प-सूचना पर उनका आना बहुत मुश्किल है। इस सब उहा-पोह के बीच मोदी थोड़ी हिम्मत दिखा सकते हैं और इमरान को बुलाकर उनसे आतंकियों के विरुद्ध स्पष्ट और कठोर घोषणाएं करवा सकते हैं। इस बार के शपथ समारोह को पहले से भी अधिक भव्य और प्रचारात्मक होना चाहिए लेकिन पाकिस्तान की फांस निकाले बिना वह कैसे होगा ?

काँग्रेस के सिर से ‘वंशवाद’ का कलंक मिटा देना चाहते है राहुल……!
ओमप्रकाश मेहता
ऐसा लगता है लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार ने राहुल गांधी की कार्यशैली को एक नई दिशा दी है, इसकी झलक चुनाव परिणामों के बाद राहुल की अध्यक्ष पद से इस्तीफे की जिद और पुत्र प्रेम में आबद्ध वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं को सीख देने व कांग्रेस को गांधी-नेहरू परिवार से अलग अध्यक्ष देने के उनके कथन से परिलक्षित है। क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री जी से लेकर अन्य सत्तारूढ़ दल के नेताओं द्वारा कांग्रेस को ‘‘पारिवारिक पार्टी’’ कहा गया, उससे राहुल काफी व्यथित है। अब राहुल चाहते है कि कांग्रेस गांधी-नेहरू परिवार से मुक्ति पाकर ‘वंशवाद’ के कलंक से मुक्त हो, तथा यह जन-जन की पार्टी बने, अब आज की स्थिति में राहुल के इन विचारों को कांग्रेस में कितना स्थान मिलता है, यह तो फिलहाल कहना मुश्किल है, किंतु इसी परिवार के एक युवा मुखिया के दिल-दिमाग में आए ये विचार यह स्पष्ट अवश्य करते है कि राहुल कांग्रेस के वास्तविक हितचिंतक है और अब कांग्रेस की वरिष्ठ पीढ़ी में कोई भी कुछ भी करने की स्थिति में नहीं है, चाहे वे प्रणव मुखर्जी हो या डाॅ. मनमोहन सिंह या कि शीला दीक्षित, इसलिए आज की युवा पीढ़ी में से ही ऐसा एक सक्षाम युवा खोजना पड़ेगा, जो नेहरू गांधी की इस विरासत को पुष्पित-पल्लवित कर सके और इस दल की पुरानी गरिमा लौटा सके, फिर वह चाहे ज्योतिरादित्य सिंधिया हो या सचिन पाॅयलट। किंतु यह सही है कि सुविचार चोंट खाने के बाद ही आता है और वह राहुल जी के दिल-दिमाग पर छा गया है।
इस तरह कांग्रेस की इस हार को यदि पार्टी के भविष्य के हिसाब से ‘वरदान’ माना जाए तो कतई गलत नहीं होगा, क्योंकि अब अकेले राहुल जी के विचार में ही नहीं, हर सच्चे कांग्रेसी के दिल-दिमाग में यह भावना कुलांचे मार रही है कि पार्टी को नवजीवन देने का यही सही वक्त है। इस दिशा में कांग्रेस को भाजपा को ‘गुरू’ मान लेना चाहिए, क्योंकि लोकसभा में मात्र दो सदस्यों के बुरे समय से बाहर निकलकर आज वह 303 सदस्यों के ‘अच्छे दिनों’ तक पहुंची है और इस दौरान भाजपा किस दुष्काल से गुजरी यह किसी से भी छिपा नहीं है, मोदी जैसा एक भगीरथ आया जिसने भाजपा के नाले को गंगा में बदल दिया।
फिर जहां तक कांग्र्रेस के दौर का सवाल है, उसे इन दिनों सिर्फ आत्मचिंतन की नहीं बल्कि पुनर्निमाण के दौर की आवश्यकता है, जो उसके मूलभूत ढ़ांचे को बदलकर उसे सही रास्ते पर खड़ा कर दे। किंतु इस पथ तक पहुंचने के लिए पार्टी नेतृत्व को उन बड़बोले नेताओं को दूर रखना होगा, जो इसी पार्टी को अपने वाणी के तीक्ष्ण बाणों से हर समय बेधने के प्रयास में रहते है और पुराने घावों में नमक भरने का प्रयास करते रहते है, मेरा इशारा आप समझ ही गए होंगे, जी, सही समझा सैम पित्रौदा और मणीशंकर अय्यर जैसे नेताओं से। क्योंकि सैम पित्रौदा के ‘‘हुआ तो हुआ’’ ने जितना पार्टी को नुक्सान पहुंचाया उतना नरेन्द्र मोदी जी के ‘नामदार’ ने भी नहीं पहुंचाया। फिर सबसे बड़े खेद की बात यह है कि राहुल जी को भी ‘सब कुछ’ लुट जाने के बाद अब यह समझ मंे आ रहा है कि कौन पार्टी के हित में है और कौन नहीं? यहां यदि यह कहा जाए कि राहुल जी की अपनी टीम के सदस्यों सर्वश्री निखिल अल्वा, अलंकार सवाई, कौशल विद्यार्थी, के. राजू तथा सैम पित्रौदा का पार्टी की हार में सर्वाधिक योगदान रहा तो कतई गलत नहीं होगा।
किंतु ‘‘देर आये दुरूस्त आये’’ की तर्ज पर यह बड़ी ठांेकर लगने के बाद भी यदि पार्टी सम्भल जाती है, अपनी बुराईयां खोजकर उन्हें दूर करने का प्रयास करती है तो वास्तव में ये चुनाव और इनके परिणाम पार्टी के लिए संजीवनी सिद्ध हो सकते है। ….. और अब राहुल ने जो ठान लिया है, वे उसे करके रहेंगे। राहुल अब विकासखण्ड स्तर से राष्ट्रीय स्तर तक पार्टी में फैरबदल चाहते है, ‘‘पूरे घर के बदल डालूंगा’’ की तर्ज पर उन्होंने सत्ता वाले राज्यों व अन्य राज्यों की इकाईयों में व्यापक रूप से फैरबदल का फैसला ले लिया है, साथ ही राहुल जी पार्टी पर चुनाव प्रचार के दौरान लगे सभी कलंकों को मिटाकर अगले चुनावों तक पार्टी को नए रूप में पेश करना चाहते है। क्योंकि अब पार्टी के पास खोने के लिए कुछ नहीं बचा है, जो भी मिलेगा वही इसकी उपलब्धि होगी।

राहुल गांधी का अमेठी से ‘बेआबरू’ होना…
तनवीर जाफरी
उत्तर प्रदेश का अमेठी लोकसभा क्षेत्र (37)गत् 40 वर्षों से कांग्रेस पार्टी का अभेद दुर्ग समझा जाता रहा है। 1977 में आपातकाल के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस की पहली राष्ट्रव्यापी पराजय के दौरान सर्वप्रथम संजय गांधी को उनके जनता पार्टी के प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार रवींद्र प्रताप सिंह ने पराजित किया था। बाद में 1979 में संजय गांधी यहां से विजयी हुए। उस समय से लेकर 2019 तक अर्थात् पूरे चार दशक तक अमेठी लोकसभा क्षेत्र कांग्रेस पार्टी का एक ऐसा अभेद दुर्ग समझा गया जिसे अब तक कोई पराजित नहीं कर सका था। यहां तक कि अमेठी के राजघराने द्वारा कांग्रेस प्रत्याशी का विरोध किए जाने के बावजूद भी यह संसदीय सीट गांधी परिवार के किसी न किसी सदस्य की झोली में ही रही। 1979 में पहली बार संजय गांधी से लेकर 2014 में राहुल गांधी तक यहां से गांधी परिवार का ही कोई न कोई सदस्य अपनी जीत दर्ज कराता रहा। संजय गांधी की मृत्यु के पश्चात राजीव गांधी फिर सोनिया गांधी तथा 2019 तक राहुल गांधी यहां के जनप्रतिनिधि चुने जाते रहे हैं। इस बार यह पहला अवसर था जबकि कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी को इसी क्षेत्र से अपनी प्रतिद्वंद्वी भारतीय जनता पार्टी की उम्मीदवार स्मृति ईरानी से लगभग 50 हज़ार वोटों से पराजय का मुंह देखना पड़ा। आ‎खिर क्या कारण था कि चार दशकों तक अमेठी पर एकछत्र वर्चस्व रखने वाले गांधी परिवार से अमेठी के मतदाता विमुख हो गए? कौन से ऐसे हालात थे जिनकी वजह से राहुल गांधी को अमेठी के साथ-साथ पहली बार केरल के वायनाड से भी चुनाव लडऩे की ज़रूरत महसूस हुई?
इसमें कोई संदेह नहीं कि चार दशकों से अमेठीवासियों का गांधी परिवार से गहरा व आत्मिक रिश्ता रहा है। इस रिश्ते को प्रगाढ़ करने तथा इसमें आत्मीयता का बोध पैदा करने में राजीव गांधी की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इत्तेफाक से मुझे संजय गांधी व राजीव गांधी दोनों ही के चुनाव अभियान को अमेठी में लंबे समय तक रहकर बेहद करीब से देखने का अवसर मिला। संजय गांधी की मृत्यु के पश्चात अमेठी में हुए उपचुनाव में जब राजीव गांधी विमान पायलेट की सेवा त्यागकर अमेठी की जनता से अपने भाई संजय गांधी के किए गए वादों को पूरा करने के हौसले के साथ चुनाव मैदान में उतरे थे उसी समय राजीव गांधी की सादगी, उनकी विनम्रता, उनकी शराफत तथा मधुर वाणी ने अमेठी के लोगों के दिलों को छू लिया था। अमेठी में जो भी बड़े विकास कार्य किए गए वह संजय गांधी व राजीव गांधी के सांसद काल में ही किए गए। उसी दौर में अमेठी लोकसभा क्षेत्र में पडऩे वाला जगदीशपुर व मुसा‎फिरखाना क्षेत्र औद्योगिक क्षेत्र के रूप में विकसित हुआ। यहां कई बड़े व मंझौले उद्योग स्थापित हुए। परंतु इसमें कोई दो राय नहीं कि राहुल गांधी के सांसद चुने जाने के बाद न तो इस क्षेत्र में कोई नया बड़ा उद्योग स्थापित हुआ न ही इस क्षेत्र के विकास का पहिया राजीव गांधी के सांसद काल के समय की तुलना में आगे बढ़ सका।
इसके अतिरिक्त राजीव गांधी की तुलना में राहुल गांधी अमेठीवासियों से उतनी निकटता तथा अपनत्व कायम नहीं रख सके। बिना किसी सुरक्षा के तामझाम के ही राजीव गांधी अमेठी के आम लोगों से मिलते-जुलते थे, वे अपने कार्यकर्ताओं को व्यक्तिगत. रूप से उनके नामों से जानते थे यहां तक कि अमेठी संसदीय क्षेत्र की समस्याओं के समाधान के लिए राजीव गांधी ने अपने कार्यालय में एक अलग अमेठी सेल स्थापित किया था। प्रत्येक गांव का सरपंच उनसे किसी भी समय सीधे तौर पर संपर्क स्थापित कर सकता था। परंतु राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद से ही अमेठी के लोगों से उनका फासला बढऩा शुरु हो गया। वैसे भी वे जब कभी अमेठी आते तो भी जनता के बीच में जाने के बजाए सरकारी अतिथिगृहों तक ही अपनी अमेठी यात्रा सीमित रखते और पार्टी के ही प्रमुख कार्यकर्ताओं से मिल-मिला कर अपने अमेठी दौरे की इतिश्री कर देते। एक अनुमान के अनुसार वे गत् पांच वर्षों में एक संासद के रूप में 28 बार अपने निर्वाचन क्षेत्र पधारे। इनमें से अधिकांशत: उन्होंने पार्टी नेताओं व अधिकारियों से ही बैठकें कीं तथा मतदाताओं से प्राय: फासला बनाकर रखा। गोया राहुल गांधी को इस बात का मुगालता हो गया था कि अमेठी के मतदाता उनके ऐसे ‘पारिवारिक मतदाता’ हैं जो संभवत:कभी उनके परिवार से विमुख नहीं हो सकते।
दूसरी ओर राहुल गांधी को अमेठी से धूल चटाने की दूरगामी योजना पर काम करते हुए भारतीय जनता पार्टी ने 2014 में ही अपना पहला कार्ड तो उसी समय खेल दिया था जबकि राहुल गांधी से पराजित होने के बाद भी स्मृति ईरानी को मोदी मंत्रिमंडल में शामिल किया गया। इतना ही नहीं बल्कि पराजित होने के बावजूद केंद्र सरकार की सहायता से स्मृति ईरानी ने अमेठी में अनेक छोटे व मध्यम श्रेणी के विकास कार्य करवाए। यहां तक कि रूस-भारत सहयोग से बनने वाली क्लाशिनिकोव 203 के निर्माण की एक यूनिट भी अमेठी में स्थापित की गई। स्मृति ईरानी 2014 से 2019 के बीच न केवल बार-बार जनता के मध्य आती-जाती रहीं बल्कि उनके दु:ख-सुख में भी बराबर शरीक होती रहीं। कहा जाता है कि ईरानी ने गत् पांच वर्षों में साठ से अधिक बार अमेठी के दौरे किए। उन्होंने अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी सहित कई और प्रमुख स्टार प्रचारकों के दौरे कराए। स्मृति ने अमेठी के कई गांवों में जाकर जूते, कपड़े, साडिय़ां, कापी-किताबें तथा कलम आदि भी वितरित किए। अमेठी की गऱीब जनता ने जहां इसे स्मृति ईरानी की कृतज्ञता समझी वहीं कांग्रेस की ओर से स्मृति ईरानी की इस कारगुज़ारी को यह कहकर प्रचारित किया गया कि ‘स्मृति ईरानी ने अमेठी के लोगों को गरीब व भिखारी समझकर यह सामग्री वितरित की है’। उधर स्मृति ईरानी इन सभी आरोपों की परवाह किए बिना लगभग दो महीने तक लगातार अमेठी में रहकर जनसंपर्क साधती रहीं तथा किसानों के खाद, बीज, बिजली-पानी आदि सभी ज़रूरतों के प्रति संवेदनशील रहीं।
उधर राहुल गांधी ने अमेठी के साथ-साथ केरल की वायनाड सीट से चुनाव लडऩे का जो फैसला किया उसे भी स्मृति ईरानी की ओर से अमेठी में यह कहकर खूब प्रचारित किया गया कि अमेठी के मतदाताओं पर राहुल को विश्वास नहीं था इसीलिए उन्होंने दूसरी सीट से भी चुनाव लडऩे का फैसला किया। अमेठी के मतदाताओं में यह भी संदेश गया कि यदि राहुल अमेठी से जीत भी जाते हैं तो भी वे यहां से इस्तीफा दे सकते हैं। रही-सही कसर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राहुल गांधी पर किए गए उसे आक्रमण ने पूरी कर दी जिसमें मोदी ने राहुल गांधी पर वायनाड से इसलिए चुनाव लडऩे का आरोप लगाया था क्योंकि वहां अल्पसंख्यक मतदाताओं की संख्या अधिक है। गोया राहुल गांधी को अमेठी के बहुसंख्य समाज के मतदाताओं पर विश्वास नहीं रहा। उपरोक्त समस्त परिस्थितियों व रणनीति को देखते हुए साफतौर पर यह कहा जा सकता है कि 2019 में राहुल गांधी की अमेठी से पराजय की स्क्रिप्ट लिखने की शुरुआत भारतीय जनता पार्टी ने 2014 से ही कर दी थी परंतु राहुल गांधी व उनके सलाहकार इसे गंभीरता से नहीं से नहीं ले सके। निश्चित रूप से भारतीय जनता पार्टी अमेठी के मतदाताओं को स्मृति ईरानी को मंत्रिमंडल में शामिल कर तथा पराजित होने के बावजूद क्षेत्र के विकास में उनकी भागीदारी तय करने की बदौलत यह विश्वास दिला पाने में पूरी तरह सफल रही कि क्षेत्र का विकास राहुल गांधी की तुलना में स्मृति ईरानी कहीं अधिक अच्छे तरीके से करा सकती हंै। इन्हीं कारणों से राहुल गांधी को इस बार अमेठी से ‘बेआबरू’ होना पड़ा।

कांग्रेस की संगत से साफ हुये वामपंथी दल
रमेश सर्राफ धमोरा
देश में सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव परिणामों की घोषणा हो चुकी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पहले से भी अधिक बहुमत हासिल कर देश में दूसरी बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने जा रहे हैं। इन चुनावो में जहां भाजपा व उसके सहयोगी दलो की सीटो की संख्या में बढ़ोत्तरी हुयी है। वहीं लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा घाटा वामपंथी दलों को उठाना पड़ा है। एक तरह से देखा जाये तो वामपंथी दलों का देश में सूपड़ा ही साफ हो गया है। कभी देश में मुख्य विपक्षी दल रहे वामपंथी दलो का अपने प्रभाव क्षेत्र वाले पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा व केरला में पूरी तरह सफाया हो गया। तीनो प्रदेशो की कुल 64 लोकसभा सीटो में से सिर्फ माकपा केरला में एक सीट जीत पायी है जबकि केरला में माकपा की अगुवाई में वामदलो की प्रदेश सरकार भी चल रही है।
2004 में 63, 2009 में 24, 2014 में 11 सीट जीतने वाला वाम मोर्चा 2019 के लोकसभा चुनाव में मात्र पांच सीट ही जीत पाया है। इन पांच सीटो में से चार तो अकेले तमिलनाडू की है जहां उनका दु्रमक से गठबंधन था व दु्रमक के पक्ष में चली लहर का फायदा वामपंथियो को भी मिल गया। अन्यथा तमिलनाडू में कभी उनका जनाधार नहीं रहा है। तमिलनाडू में माकपा को दो सीट व भाकपा को दो सीट मिली जबकि वहां उनको वोट क्रमश: 2.40 फीसदी माकपा को व 2.43 फीसदी भाकपा को मिले हैं। इतने कम वोट मिलने के बाद भी दो- दो सीटे जीतने का का मुख्य कारण दु्रमक से गठबंधन करने को माना जा रहा है।
वामपंथी दलो ने पश्चिम बंगाल पर 1977 से लेकर 2011 तक लगातार 34 वर्षो तक एकछत्र शासन किया था। वहां उनको एक भी सीट नहीं मिलना उनके गिरते जनाधार को दर्शाता है। पश्चिम बंगाल में तो वामपंथी दलो के वोट बैंक में भी भारी गिरावट देखने को मिली है। हाल ही के लोकसभा चुनाव में यहां माकपा को मात्र 4.12 फीसदी, भाकपा को 00.40 फीसदी, आरएसपी को 00.51 फीसदी वोट ही मिले। जबकि सत्तारूढ़ त्रूणमल कांग्रेस को 43.28 फीसदी, भाजपा को 40.25 फीसदी, कांग्रेस को 5.61 फीसदी वोट मिले। यहां गत 42 वर्षो से सरकार से बाहर चल रही कांग्रेस ही वामदलो से ज्यादा वोट व दो सीट जीत पाने में सफल रही है।
वामपंथी दलो ने त्रिपुरा में लगातार 25 वर्ष तक शासन किया। 2018 में वहां भाजपा ने वामपंथियों को करारी शिकस्त देकर पहली बार अपनी सरकार बनायी थी। मगर उस वक्त सरकार भले ही भाजपा की बनी हो मगर वोट प्रतिशत में वामपंथी दल भाजपा से लगभग बराबरी पर ही रहे थे। उस समय जहां भाजपा को 9 लाख 99 हजार 93 (43 फीसदी)वोट व 36 सीट मिली थी वहीं वामपंथी दल माकपा को 9 लाख 92 हजार 575 (42.7 फीसदी)वोट व 16 सीट मिली थी। इस तरह देखे तो मात्र 6 हजार 518 वोट ही कम मिले थे। मगर 2019 के लोकसभा चुनाव में तो त्रिपुरा में भी वाम दलो का सफाया हो गया। वामदल त्रिपुरा में अपनी दोनो लाकसभा सीटो पर हार गये। उन्हे मात्र 17.31 फीसदी ही वोट मिले जबकि विधानसभा चुनाव में मात्र 1.80 फीसदी वोट लेने वाली कांग्रेस के वोट बढक़र 25.24 फीसदी हो गये हैं।
केरला में सरकार चला रहे वामपंथी दलो को 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रदेश की 20 में से मात्र एक सीट मिली है जबकि वहां कांग्रेस को 15 व उसके गठबंधन के सहयोगियों ने चार सीटे जीती हैं। 2016 में विधानसभा चुनाव में वहां वाममोर्चा ने 140 में से 91 सीटे जीत कर सरकार बनायी थी। मगर अब अपनी सरकार के होते हुये भी वामदलो को केरल में मात्र एक सीट पर संतोष करना पड़ा है। केरला में सत्तारूढ़ वामदलो को कांग्रेस से वोट भी कम मिले। वहां कांग्रेस को 37.24 फसदी वोट व वामदलो को 34.33 फसदी वोट मिले।
देश में आज वामपंथी दल अप्रासंगिक बनते जा रहे हैं। वामपंथी दलो का जनाधार धीरे-धीरे सिकुड़ता जा रहा है। वामदलो के घटते जनाधार का मुख्य कारण है उनका अपनीमूल विचारधारा से दूर होना व जनसंघर्ष जिसके बल पर उनकी देश में पहचान बनी थी उसको छोडक़र सुविधा भोगी बन जाना रहा है। आंख मीच कर कांग्रेस की हर बात का समर्थन करने से आम जन में वामपंथी दलो की कांग्रेस के पिछलगू होने की छवी बन गयी जो उनके खिसकते जनाधार का सबसे बड़ा कारण है।
चूंकी देश में कांग्रेस व वामदल सेक्युलर विचारधारा के हिमायती माने जाते रहे हैं। इस कारण दोनो का वोट बैक भी एक जैसा ही है। ऐसे में कांग्रेस के साथ होने से वामदलो का वोट खिसककर कांग्रेस की तरफ जाने लगा है। उपर से केरला जहां उनकी देश में एकमात्र सरकार चल रही है वहां की वायनाड सीट से कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी के चुनाव लड़ने से कांग्रेस के पक्ष में वोटो का ध्रुवीकरण हो गया। केरला की आधी आबादी मुस्लिम व ईसाई है। राहुल गांधी कांग्रेस के सबसे बड़े नेता हैं। उनके केरला से चुनाव लड़ने का कांग्रेस को खासा फायदा मिला व कांग्रेस 20 में से 19 सीटे जीत गयी।
देश में सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ कांग्रेस कोई भी मार्चा बनाती है उसमें वाम दल सबसे पहले शामिल होते हैं। संसद में भी वो कांग्रेस की लाईन का ही समर्थन करते है। आज कांग्रेस पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा व केरला में वामपंथी दलो से ज्यादा ताकतवर बन चुकी है जबकि कभी ये तीनो ही प्रदेश वामदलो के गढ़ माने जाते थे। अपने ही गढ़ में पिछड़ते जाने के बाद भी अभी तक वामपंथी दल सावचेत नहीं हुये लगते हैं।
देश की राजनीति में कामरेडो को अपना अस्तित्व बचाना है तो उनको अपनी मौजूदा नीति में परिवर्तन करना होगा। उनको अपनी पुरानी पहचान कायम करनी होगी। पार्टी को बंद कमरो से निकाल कर सडक़ पर लाना होगा। पार्टी में नये लोगों को जोडऩा होगा। आज वामदलो में नये कार्यकर्ता जुड़ने का सिलसिला थम सा गया है जिसे पुन: शुरू करना होगा। दलित, महिलाओं को जोडऩे के लिये पोलित ब्यूरो में दलितो, महिलाओं को प्रतिनिधित्व देना होगा। वामदलो ने आज तक पोलित ब्यूरो में किसी दलित को सदस्य नहीं बनाया है। वाम दलो के कांग्रेस के पीछे चिपके रहने से एक दिन कांग्रेस उनका रहा-सहा जनाधार भी निगल जायेगी। आज भाजपा विराध के नाम पर वामदल कांग्रेस की हर बात का समर्थन करते नजर आते हैं जो उनके घटते जनाधार का बड़ा कारण है।
देश की जनता कभी कामरेडो को कांग्रेस का विकल्प मानती थी मगर कांग्रेस का विकल्प बनने के स्थान पर कांग्रेस की गोद में बैठते चले गये। 2016 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव कांग्रेस के साथ मिलकर लडऩे से उनका वहां रहा सहा जनाधार भी खत्म हो गया। वहां कांग्रेस वामपंथी दलो से ज्यादा सीटे जीतकर विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल बन गयी व कामरेड मुंह ताकते रह गये। अभी भी कामरेडो का कांग्रेस से मोह भंग नहीं हुआ है। इसी के चलते देश में भोपाल सहित कई सीटो पर बिन मांगे कांग्रेस प्रत्याशियों का समर्थन किया था। यदि समय रहते कम्युनिष्ट पार्र्टियां अपनी कार्यशैली में परिवर्तन नहीं लायेगी तो आने वाले समय में वो देश की राजनीति में अप्रसांगिक बन कर रह जायेगी।

जनादेश में छिपे संदेशों को काश ! विपक्षी दल समझें !
प्रभात झा
सन् 2019 लोकसभा चुनाव के जनादेश का सभी राजनैतिक दलों को गहरा अध्ययन करना चाहिए। मुझे विश्वास है कि वे ऐसा कर भी रहे होंगे। अभी तक जो हमने विश्लेषण किया है, उसमे राजनैतिक दलों के लिए अनेक सन्देश छिपे है, उसे क्रमशः रखने का प्रयास कर रहा हूं। इस जनादेश में इतिहास रचा है। ‘इतिहास’ घटता है न कि घटाया जाता है। अवसर तो भारत में बहुत बड़े बड़े नेताओं और राजनैतिक दलों को मिला, पर प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय अध्यक्ष के नाते अमित शाह ने सहमति और समन्वय का इतिहास रचा है। यह वर्तमान राजनीति में आद्वितीय घटना है। इस सन्देश के पीछे इस ‘समन्वय’ की बहुत बड़ी भूमिका है।
नेता जो सोचता है, संगठन उसे पूरा करने में लग जाए और संगठन जो सोचे उसे नेता पूरा करने में लग जाए यह सामान्य बात नहीं है। भाजपा को छोड़कर देश में अभी ऐसा राजनैतिक दल कोई नहीं है। राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने असंभव को संभव कर दिखाया है। इस जनादेश में जो सबसे बड़ा सन्देश है, वह यह है कि नेता को अपने अध्यक्ष यानी संगठन पर और संगठन को अपने नेता पर अटूट विश्वास होना चाहिए। जबकि आज की राजनीति में होता यह है कि ‘नेता’ सरकार पर ही नहीं संगठन को भी चलाने लगता है और संगठन नेता को हटाने में लग जाता है। आज भारतीय राजनीति के शीर्ष नेतृत्व में इस स्तर पर ऐसे ही सात्विक विश्वास की आवश्यकता लगती है। कमोवेश इस धुरी पर विपक्षी दल अपने को देखंगे तो बहुत ही कमजोर पाएंगे।
इस जनादेश में कुछ महत्वपूर्ण सन्देश और भी है जैसे भारत के जनविवेक को जातीय आधार पर देखना। जनतंत्र के 73 वर्ष हो गए। अब जनता परिपक्व हो गई है। उसके जन विवेक को जात से जोड़कर अपना गुलाम या मजबूरी समझना हमारी नादानी हो सकती है, समझदारी नहीं। ‘जातीय’ मिथक तोड़ने का यह प्रयास निरंतर जारी रहना चाहिए। सब समाज को लिए साथ में बढ़ते जाना सिर्फ गीत नहीं है, इस भावना को संगठन में साकार करना चाहिए।
इस जनादेश में सन्देश है की ”दल से बड़ा देश” है। इस विचार से हटकर अन्य राजनैतिक दलों की स्थिति यह है कि सबसे पहले स्वयं फिर दल और उसके बाद देश। अधिकतर राजनैतिक दल तो सिर्फ परिवार चलाने के लिए पार्टी चलाते है। इस जनादेश ने साफतौर पर सन्देश दिया है कि अपवाद स्वरुप परिवारवाद या वंशवाद ठीक है, पर इसी भाव पर आधारित राजनैतिक दलों को जनता ने धराशाही कर दिया। इस चुनाव में ऐसा कई जगह देखने को मिला।
जनादेश 2019 में एक और बड़ा सन्देश है की यदि आप जनप्रतिनिधि है तो आप पर जनता का हक़ है। आपको न्यूज़ चैनलों की तरह ‘चौबीस घंटे’ दिखना पडेगा। चैनलों को तो दिखना पड़ता है, पर अब राजनैतिक तौर पर निर्वाचित जनप्रतिनिधि को दिखने के साथ-साथ काम भी करते रहना होगा।
इस जनादेश में एक और सन्देश कि आप विरोध के लिए विरोध न करें। विरोध सार्थक – समर्थ और तथ्यों के साथ साथ जनता के विवेक को स्वीकार भी होना चाहिए। अनर्गल आरोपों से नेता और उसके राजनैतिक दल का ही बुरा हश्र होता है। पुलवामा के बाद बालाकोट की घटना को देश ने सराहा, पर विपक्षी दलों ने मजाक उड़ाया। विपक्ष की इसको लेकर बड़ी आलोचना हुई । भारतीय राजनीति में मतभेद सदैव रहेंगे, पर उसकी मर्यादाएं और मानदंड को कभी नहीं भूलना चाहिए।
एक और महत्वपूर्ण सन्देश है इस जनादेश में। इसे सभी राजनैतिक दलों को खासकर विरोधी दलों को समझना चाहिए। जैसे देश में होते हुए विकास और दिखते हुए काम की अनदेखी नहीं करनी चाहिए। विपक्षी दलों ने आंखे होते हुए भी इन मसलों पर अंधे होने का प्रमाण दिया। आप दो आंखों से जनता को देखना चाहते हो, पर आप यह भूल जाते हो कि जनता हजारों आंखों से आपके हर कार्य को देखती है।अतः विरोध विचारों का होना चाहिए न की देश में हो रहे विकास का। विपक्षी दल विकास का विरोध करती रही अतः उनका स्वयं का विकास रुक गया और साथ ही उनकी सोच भी थम गयी।
जनादेश में सन्देश यह भी है कि धर्म निरपेक्षता के नाम पर अब मतदाता को, आम नागरिक को गुमराह नहीं किया जा सकता |
इस जनादेश में एक बहुत ही गहरा सन्देश है, जिसे सभी दलों को गौर से समझना चाहिए। आज भारतीय राजनीति में नए लोगों को दल से जोड़ना। पीढ़ियों में परिवर्तन। अनुभव और ऊर्जा का समन्वय। प्रतिमा की रक्षा और अमर्यादितों को पलायन पर मजबूर करना । आज भाजपा को छोड़कर किसी राजनैतिक दल ने इस तरह का साहस नहीं दिखाया।
सन् 2019 के जनादेश में जो सबसे महत्वपूर्ण सन्देश दिया है, कि देश उसे पसंद करता है जो देश हित में साहसिक निर्णय लेते हैं न कि केवल दल हित में। मोदी सरकार के साहस को लोगों ने वोट की नजरों से नहीं देखा। देश ने मोदी सरकार के साहसिक निर्णयों को देश हित में देखा। जबकि सभी विपक्षी दलों ने उन साहसी निर्णयों को वोटों की नजरों से देखा। अब यहां समझ में आता है कि जिस साहसिक निर्णय को जनता ख़ुशी से स्वीकार करती है, उस निर्णय के विरुद्ध विपक्षी दल विरोध जताकर क्या जनता के मन के विरुद्ध नहीं जा रहे ? यह बाट तो स्पष्ट हो गयी है की जनता साहसिक निर्णय वाली सरकार चाहती है । इस जनादेश में सन्देश तो बहुत है पर एक अंतिम और महत्वपूर्ण सन्देश है कि संविधान संसद, सरहद और सुरक्षाके साथ-साथ उपलब्ध लोगों में देश किनके हाथों में सुरक्षित है। इन अहम् मसलों पर लोग जब विचार करते हैं तो उनकी आंखों से सभी नेताओं के चेहरे चलचित्र की तरह सामने आते है। ऐसा होने पर लोग उसी की ओर जिन पर उनका अटूट विश्वास होता है। जन- जन का विश्वास जीतने के लिए विश्वास पूर्ण कार्य भी करना पड़ता है। नरेंद्र मोदी इस मसले पर सबसे अव्वल रहे। उन्हें इसका दोहरा ईनाम मिला। एक यह की उनपर जनता में अटूट विश्वास था और अमित शाह ने उस अटूट जनविश्वास को जन-जन तक बड़ी ताकत से संगठन के माध्यम से घर घर ले गए। इस जनादेश का मेरी नजरों में एक महत्वपूर्ण सन्देश जिसे मै मानता हूं, वह यह है कि अपने दल के नेताओं और कार्यकर्ताओं को सम्मान देना। दल का श्रृंगार होता है दल का कार्यकर्ता। जिस दल को उनके कार्यकताओं का विश्वास नहीं वह दल जनता में कैसे विश्वास हांसिल कर सकता है। आज भारतीय राजनीति और राजनैतिक दलों में इसकी महती आवश्यकता होनी चाहिए। कार्यकर्ता राजनैतिक दलों और जनता के बीच सेतु का कार्य करता है। इस जनादेश में सन्देश तो बहुत है क्रमश ! राजनैतिक दल ईमानदारी से समझने का प्रयत्न कर लें । (लेखक- भाजपा नेता एवं राज्यसभा सांसद हैं)

प्रथम आम चुनाव और जवाहरलाल नेहरू
एल एस हरदेनिया
(पुण्यतिथि के अवसर पर विशेष ) चुनाव समाप्त हो चुके हैं और नतीजे आ गए हैं। नतीजों से यह सिद्ध हो गया है कि हमारे देश में संसदीय प्रजातंत्र की नींव काफी मजबूत है। इस नींव को डालने में महान स्वतंत्रता सेनानी, चिंतक, लेखक एवं प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की महती भूमिका रही है। आज उनकी पुण्यतिथि (27 मई) के अवसर पर हम उनके योगदान को याद करें और इतिहास के उन पन्नों को पलटें जब जद्दोजहद के बीच प्रथम चुनाव हुआ था। उस चुनाव के दौरान नेहरूजी ने पूरे देश का सघन भ्रमण किया था और सैंकड़ों जनसभाओं को संबोधित किया था।
नेहरूजी ने लोकतंत्र की मजबूत नींव डालने के लिए जो अनेक निर्णय लिए उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण था वह निर्णय जिसके अंतर्गत उन्होंने हर वयस्क भारतीय, अर्थात जिसकी आयु 21 वर्ष अथवा उससे अधिक हो, को मताधिकार दिया। यह अधिकार इस तथ्य के बावजूद दिया गया कि उस समय 90 प्रतिशत भारतीय निरक्षर थे।
इस निर्णय से सारी दुनिया भौचक्की हो गई थी। यह शंका प्रकट की गई थी कि निरक्षर अपने मताधिकार का प्रयोग ठीक से नहीं कर पाएंगे। वे न तो उम्मीदवार का नाम पढ़ सकेंगे और ना ही उसकी पार्टी का।
हमारे देश में भी अनेक व्यक्तियों और संगठनों ने ऐसी शंका प्रकट की थी। ऐसी शंका व्यक्त करने वाले संगठनों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी शामिल था। संघ ने अपने मुखपत्र ‘आर्गनाईजर‘ में लिखा कि ‘‘नेहरू स्वयं इस निर्णय की असफलता के प्रत्यक्षदर्शी होंगे। नेहरू की आदत है नारों व सपनों के सहारे जिंदा रहने की। इसलिए वे किसी की नहीं सुनते हैं और अपनी जिद के चलते अव्यवहारिक फैसले लेते हैं।‘‘
चौतरफा विरोध के चलते नेहरू स्वयं चिंतित एवं आशंकित हुए किंतु अंततः अपने निर्णय पर कायम रहे। उन्होंनें चुनाव की तैयारी करने की जिम्मेदारी वरिष्ठ आईसीएस अधिकारी सुकुमार सेन को सौंपी। चुनावों का संचालन करने के लिए चुनाव आयोग का गठन किया गया और सेन को मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त किया गया। नेहरू चाहते थे कि चुनाव जल्द से जल्द हों।
चुनाव संपन्न कराना एक अत्यधिक चुनौतीपूर्ण कार्य था। उस समय (सन् 1950 में) 21 वर्ष या उससे अधिक आयु के भारतीयों की संख्या लगभग 17 करोड़ थी। इनमें से लगभग 85 प्रतिशत पूर्णतः निरक्षर थे। उस दौरान एक अमरीकी विद्वान ने शंका प्रकट की थी कि चुनाव संपन्न कराना लगभग असंभव होगा। यह तय किया गया कि 500 प्रतिनिधि लोकसभा के लिए और लगभग चार हजार प्रतिनिधि राज्यों की विधानसभाओं के लिए चुने जाएंगे। मतदान के लिए 2,24,000 मतदान केन्द्र बनाए गए। इन मतदान केन्द्रों के लिए लोहे की 20 लाख मतपेटियों की जरूरत थी। इन पेटियों को बनाने के लिए 8,200 टन इस्पात की आवश्यकता थी। मतपत्र बनाने के लिए कागज की 3 लाख 80 हजार रीमों की जरूरत थी। मतदान केन्द्रों पर 56,000 प्रेसाईडिंग अधिकारियों व इनकी सहायता के लिए दो लाख अस्सी हजार क्लर्कों को भर्ती किया गया। निर्वाचन सुरक्षित ढ़ंग से संपन्न हों इसके लिए 2 लाख 24 हजार पुलिस जवानों की आवश्यकता थी।
चुनाव की तैयारियां पूरी होते ही जवाहरलाल नेहरू चुनाव प्रचार के लिए निकल पड़े। चुनाव प्रचार की यात्राएं हवाई जहाज, कार, ट्रेन, नाव और कहीं-कहीं बैलगाड़ी और घोड़े पर सवार होकर की गईं। एक मोटे अंदाज के अनुसार नौ सप्ताहों में नेहरू ने 25 हजार मील की यात्रा की। नेहरूजी की पहली चुनावी सभा 30 सितंबर 1951 को पंजाब के लुधियाना शहर में हुई। इस जनसभा में नेहरू ने साम्प्रदायिक संगठनों पर जोरदार हमला बोला और चेतावनी दी कि जिस दिन ये साम्प्रदायिक ताकतें देश की सत्ता पर काबिज हो जाएंगी और अपने उद्देश्यों में सफल हो जाएंगी उस दिन पूरे देश में हाहाकार मच जाएगा और देश की एकता छिन्न-भिन्न हो जाएगी। आज जब हम देखते है लोगों में राजनीतिक असहिष्णुता इतनी बढ़ती जा रही है कि अब लोग आपसी रिश्तों का भी ख्याल नहीं रखते तब हमें लगता है कि नेहरूजी की यह आशंका सच साबित तो नहीं हो रही है। पांच लाख से ज्यादा श्रोताओं को संबोधित करते हुए नेहरू ने कहा कि अपने दिमाग की खिड़कियां खुली रखें और हर तरह के विचारों के झोंकों को प्रवेश दें।
नेहरूजी का दूसरा महत्वपूर्ण भाषण दिल्ली में हुआ। गांधीजी के जन्मदिन पर आयोजित इस जनसभा में नेहरू ने घोषणा की कि उनका लक्ष्य देश से छुआछूत और सामंतवाद को समाप्त करना है। इस अवसर पर भी नेहरू ने साम्प्रदायिकता पर जोरदार हमला किया। साम्प्रदायिकता को देश की एकता के लिए सबसे बड़ा खतरा बताते हुए उन्होंने कहा कि इसके विरूद्ध सामूहिक चेतना जागृत करना और उसे जड़-मूल से उखाड़ फेंकना आवश्यक है। उनके भाषण के दौरान बार-बार तालियां बजीं और उस समय तो तालियां लगातार काफी समय तक बजती रहीं जब उन्होंने अपनी आवाज ऊँची करते हुए कहा कि ‘‘यदि कोई व्यक्ति धर्म के नाम पर किसी पर हमला करता है तो ऐसे व्यक्ति और संगठन के विरूद्ध में अपनी अंतिम सांस तक लड़ूंगा – सरकार के मुखिया के रूप में और एक साधारण नागरिक की हैसियत से भी।‘‘
अपने चुनाव प्रचार के दौरान नेहरू लगभग प्रत्येक जनसभा में साम्प्रदायिकता के जहर के प्रति लोगों को आगाह करते थे। एक जनसभा में उन्होंने जातिवाद की भी सख्त शब्दों में भर्त्सना की। मध्यप्रदेश के बिलासपुर में उन्होंने वामपंथियों की भी आलोचना की। उन्होंने कहा कि समाजवादी समाज के निर्माण के लिए धैर्य की आवष्कता है।
एक सभा में उन्होंने कहा कि ‘‘प्रतिपक्षी भी शक्तिशाली और विद्वान व्यक्ति होना चाहिए। मेरी प्रबल इच्छा है कि डॉ. अंबेडकर, जयप्रकाश नारायण और जे. बी. कृपलानी जैसे लोग संसद में आएं। मैं ऐसे लोगों का सम्मान करता हूं।‘‘ उन्होंने इस बात पर दुःख प्रकट किया कि उन्हें राजनीतिक रूप से अपने समाजवादी मित्रों के खिलाफ चुनाव प्रचार करना पड़ रहा है।
उनके चुनाव प्रचार के संबंध में एक पत्रकार ने लिखा था कि वे इस दौरान सोये कम और भ्रमण ज्यादा किया। उन्होंने 300 सभाओं में लगभग दो करोड़ लोगों को संबोधित किया। इसके अतिरिक्त लाखों लोगों ने सड़क किनारे खड़े होकर उनके दर्शन किए। उनके श्रोताओं में मजदूर, किसान, महिलाएं, मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग के लोग शामिल थे।
इस बारे में उन्होंने एक पत्र में लिखा कि ‘‘मेरी सभाओं में लाखों लोग आते थे। मैं उनकी आंखो में झांकने का प्रयास करता था। मेरी बातों पर उनकी प्रतिक्रिया को समझने की कोशिश करता था। उनके बीच रहते हुए मुझे अपने देश के गौरवशाली अतीत के दृश्य याद आते थे। अतीत के साथ-साथ मुझे उनकी आंखों में भविष्य की चिंताएं और महत्वाकांक्षाएं नजर आती थीं। इनके बीच रहने में मुझे भारी आनंद आता था।‘‘
नेहरूजी के चुनाव प्रचार के बाद पूरे देश में चुनाव शांतिपूर्ण ढ़ंग से संपन्न हो गए। चुनाव की सफलता का संपूर्ण विश्व ने स्वागत किया। चुनाव के दौरान चेस्टर बाउल्स भारत में अमेरिका के राजदूत थे। उन्होंने चुनाव की सफलता पर शंका प्रकट की थी। उन्हें यह समझ में नहीं आता था कि निरक्षर मतदाता कैसे अपने जनप्रतिनिधि चुनेंगे। पर उनकी यह आशंका निर्मूल साबित हुई और उन्होंने अपनी भूल स्वीकारी।

अब विरोधी दल क्या करें ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इस चुनाव के परिणाम आने के बाद देश के विरोधी दलों की हवा निकली हुई-सी क्यों लग रही है ? चुनाव के पहले वे एकजुट न हो सके तो चुनाव के बाद क्या वे एकजुट हो सकेंगे ? उन्हें हताशा और निराशा के गर्त्त में गिरने से बचना चाहिए। यदि वे भारतीय लोकतंत्र से सचमुच प्यार करते हैं तो उन्हें कमर कसकर फिर खड़े होना चाहिए। इस समय सारे विरोधी सांसदों की संख्या 200 के आस-पास है। सत्तारुढ़ भाजपा गठबंधन की संख्या 350 के आस-पास है। लेकिन जरा याद करें कि अकेली सत्तारुढ़ कांग्रेस के पास कभी 410 कभी 361 और कभी 352 सांसद भी रहे हैं। विपक्षी सांसदों की संख्या अब से भी बहुत कम रही है लेकिन उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी। वे मानते थे कि मोटर कार जितने ज्यादा हाॅर्स पावर की हो, उसका ब्रेक भी उतना ही तगड़ा होना चाहिए लेकिन ब्रेक कार के एंजिन जितना बड़ा तो नहीं हो सकता। वह तो छोटा ही होगा। विपक्ष इस बार संख्या में थोड़ा छोटा है तो क्या हुआ ? उसकी जिम्मेदारी पहले से भी ज्यादा है। मुझे याद है कि 1962 और 1967 में संयुक्त सोश्यलिस्ट पार्टी के पांच-छह सांसद ही नेहरु और इंदिरा सरकार का दम फुलाने के लिए काफी होते थे। उनके सदन में पांव रखते ही प्रधानमंत्रियों के चेहरों की रंगत बदलने लगती थी। यह ठीक है कि सभी विपक्षी सांसद सत्ता-विरोधी नहीं होते। कुछ विपक्षी दल तो ऐसे हैं, जो अभी तक अलग-थलग बैठे थे, वे भाजपा के साथ गठबंधन में शामिल हो जाएंगे लेकिन जो अब भी विरोध में हैं, उन्हें तुरंत अपनी एक बैठक बुलानी चाहिए और अपना एक ढीला-ढाला महासंघ खड़ा करना चाहिए। पहले जो महागठबंधन बनता उसका एकमात्र आधार सत्ता प्राप्ति होती लेकिन अब जो बने, उसका आधार एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम हो। ऐसा कार्यक्रम, जिसे लागू करवाने के लिए संसद में और उसके बाहर जबर्दस्त दबाव बनाया जाए। ऐसा कार्यक्रम बनवाने के लिए पहले तो खुद नेताओं को गंभीरतापूर्वक पढ़ाई-लिखाई करनी होगी और फिर विशेषज्ञों से सलाह-मश्विरा करना होगा। सरकार जहां भी गलती करती दिखे, उसकी जमकर खिंचाई करने की क्षमता विपक्ष में होनी चाहिए। सिर्फ आंख मारने और झप्पी मारने से काम नहीं चलेगा। यह कहना भी बेमतलब है कि भाजपा के साथ कांग्रेस की लड़ाई वैचारिक है। यदि यह वैचारिक होती तो कांग्रेस के नेताओं को मोदी की तरह नौटंकियां नहीं करनी पड़तीं। उन्होंने जनेऊधारी और पूजा-पाठी होने का नाटक क्यों किया ? अब प्रांतीय नेताओं को यह भी समझ में आ गया होगा कि जात और संप्रदाय की नावें उन्हें पार नहीं लगा सकतीं। अब देश के हर दल को जनता की समस्याओं के व्यावहारिक हल खोजने होंगे और उनकी हार-जीत के आधार वे ही बनेंगे। ये व्यावहारिक हल तात्कालिक और दूरगामी, दोनों होना चाहिए। भारतीय समाज में मूलभूत सुधार सिर्फ कानून के जरिए नहीं हो सकता। हमारे राजनीतिक दल सिर्फ सरकार बनाने में अपनी सारी शक्ति खर्च कर देते हैं। वोट और नोट ही उनके लिए ब्रह्म है। जन-सेवा और समाज सुधार तो उनके लिए सिर्फ माया है। वे गांधी की कांग्रेस, लोहिया की संसोपा, विनोबा के सर्वोदय और गोलवलकर के संघ की तरह जन-जागरण और जन-आंदोलन में भी रुचि लें, यह बहुत जरुरी है।

मोदी जीत –विपक्ष को सीख !
डॉक्टर अरविन्द जैन
प्रधान मंत्री मोदी जी को हार्दिक बधाई उनके कौशलीय विजय पर और विपक्ष की सफलता पर। एक बार की भूल क्षम्य होती हैं पर बारबार की गयी भूल अपराध के श्रेणी में मानी जाती हैं। जब सामने वाला शक्तिशाली ,सत्ताशीन हो और उसकी निरंतर कार्य क्षमता बढ़ रही हो उस समय यदि किसी को हराना हो तो उसके लिए एकता की आवश्यकता होती हैं। एकता के लिए सबसे पहली शर्त अपना अहम त्यागना जो की मानवीय गुणों के प्रतिकूल होने के बाद भी जरुरी होता हैं।
भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार द्वारा निरन्तर बाह्य मतभेद बनाये गए और वे निरंतर एक दूसरे के पूरक रहे ,यानी वे दिन के दो और रात के एक रहे जबकि विपक्ष एक के एक और रात में अलग लग रहे. सबसे पहली बात कांग्रेस का आचरण या उसके विरोध में जो भ्रष्टाचार के दाग लगे उन्हें उसने सक्षमता से सामना न करके बिखरे रहे। दूसरा उनके पास नेर्तृत्व का अभाव यानी दूसरी पंक्ति की तैयारी नहीं और पार्टी में व्यक्तिवाद होने से आतंरिक विखराव और आपसी मेल मिलाप का अभाव।
दूसरा अन्य पार्टियां जो की बहुत शक्तिशाली न होने के बाद भी किसी की अधीनता न स्वीकारना और अपना हम सर्वोपरि रखकर बिना आधार के अपने अपने तिलस्मी भवनों में रहकर स्वयं का राजा बनने का अहसास होना जिस कारण एकता न होना और जिसका फायदा सत्ता पार्टी को उठाना या सत्ता पार्टी के पिट्ठू रहना कारण सत्ता में न भी ए तो सत्ता से लाभ मिलता रहे.ऐसा क्या कारण हैं की आपसी मेल मिलाप किसी एक नेता के साथ न होना। इसका ही परिणाम हैं की सत्ता पार्टी ने फुट डालो की नीति का उपयोग कर लाभ उठाया चिड़िया चुग गयी खेत अब पस्ताये का होत।
अब कुछ दिन दुःख में बिताये और उसके बाद आत्मचिंतन और आत्मविश्लेषण करे और समझे। यदि इस विषय पर आगामी चुनाव की रणनीति तैयार करे तो ठीक हैं और जीतने वाली पार्टी अब और ज़ोरदार तरीके से आगामी चुनाव कीतैयारी करेगी। उससे लड़ने के लिए एकता के साथ मतभिन्नता दूर करना होंगी। मतभिन्नता होना जरुरी हैं पर मनभिन्नता नहीं होना चाहिए पर मन भिन्नता की खाई इतनी गहरी हैं की उस कारण आपस में मिलना कठिन लगता हैं जबकि होना नहीं चाहिए.
पार्टी ,प्रत्याशी के लिए चुनाव न लड़कर मोदी व्यक्ति के लिए चुनाव लड़े.चुनाव लड़ना और उसका प्रबंधन करना दोनों अलग अलग बात हैं पर इस बार दोनों का भरपूर उपयोग किया गया. इस बार चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने मुद्दों पर चुनाव न लड़कर व्यक्तिवाद पर चुनाव लड़ा। मोदी जी सुबह से रात तक अपना भाषण गाँधी नेहरू से शुरू कर अंत उसी पर करते थे,उन्होंने नौकरी ,बेरोजगारी ,किसान की समस्याओं पर कोई अपना दृष्टिकोण रखा और उन्होंने और पार्टी ने एक जुट होकर संघर्ष किया और उसका प्रतिफल उनकी विजय हुई जिसकी अपेक्षा नहीं थी पर मिली। अपने उद्बोधन में बहुत अच्छी बात कही की केंद्रीय चुनाव आयोग (केंचुआ ) की कार्यशैली से खुश हैं। अब पता नहीं तीसरे आयोग की क्या दशा होंगी ?स्वाभाविक हैं जो पालतू —होगा उसको मालिक के प्रति बफादार होना होगा. वे अब किसी से बदले की कार्यवाही नहीं करेंगे पर जो कानून के अंदर आएगा उसको बख्शा नहीं जायेगा ,हो सकता हैं की कांग्रेस पार्टी के नेताओं पर नियमानुसार कार्यवाही की जा सकती हैं।
विपक्ष यदिअपना भविष्य बनाना चाहे उसके लिए किसी एक को जो योग्य हो ,पप्पू न हो को अभी से अपना नेता मानकर उसकी रज़ामंदी से काम करेंगे तो भविष्य उज्जवल होगा अन्यथा भविष्य किसी को कोसते कोसते निकलेगा और प्रचंड बहुमत के कारण जो भी निर्णय लिए जायेंगे वो मान्य होंगे और आप फन मार कर कोसते रहेंगे। प्रजातंत्र में जनता का विश्वास जीतना सरल और कठिन दोनों हैं।
इस संसार में कोई भी किसी का न मित्र हैं और न शत्रु ,मेरे द्वारा किये गए कर्म ही मेरे मित्र हैं और मेरे शत्रु। दूसरी बात द्रव्य क्षेत्र काल भव भाव निम्मित और उपादान की अनुकूलता से सफलता मिलती हैं ,व्यक्ति का पुण्य पाप का ठाठ होने से सुख सफलता मिलती हैं।
नामोपलब्धिमात्रेण कार्यसिद्धिः किमिष्यते?— नाम की उपलब्धि मात्र से कार्य की सिद्धि नहीं होती।
अकालसाधनम शौर्य न फलाय प्रकल्पते !—-प्रतिकूल समय में प्रगट की हुई शूरता फलदायी नहीं होती।
बुद्धिनारग्रेसरी यस्य न निबरन्धः फलतयसौ!—-बुद्धिहीन प्रयत्न कभी सफल नहीं होता।
इस प्रकार सत्ता पक्ष और विपक्ष की बहुत बड़ी जिम्मेदारियां हैं उन्हें पूरा करेंगे क्योकि सत्ता उस पक्षी जैसा होता हैं जिसके दोनों पंख हो। एक पंख से वह उड़ नहीं सकता इसी प्रकार बिना विपक्ष के सत्ता निरकुंश हो जाती हैं और इसकी संभावना होती हैं। देश में प्रजातंत्र के कारण बिना खुनी हिंसा के सत्ता का हस्तांतरण हो जाता हैं।
नयी जीत के अवसर पर नयी उम्मीद रखते हैं और भविष्य शुभ हो यह कामना करते हैं।

हित साधक कैसे साबित होंगे राष्ट्रपति ट्रंप के फैसले
डॉ हिदायत अहमद खान
अमेरिका के 45वें राष्ट्रपति के तौर पर शपथ लेने के साथ ही डोनाल्ड ट्रंप ने ऐसे अनेक फैसले लिए, जिससे वो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बनते चले गए। इसके साथ ही जब उनके 100 दिन का कार्यकाल पूरा हुआ तो उन्होंने खुद भी कहा कि उनके सौ दिन का कार्यकाल अमेरिकी इतिहास में सबसे बेहतर है। इस प्रकार राष्ट्रपति के तौर पर ट्रंप ने अमेरिका समेत दुनिया को यह जतलाने का प्रयास किया कि उनका कार्यकाल पिछले राष्ट्रपतियों के कार्यकालों से बेहतर रहने वाला है, लेकिन शुरु से जिस तरह के फैसले उन्होंने लिए, उससे अमेरिका की मुसीबतें बढ़ती नजर आई हैं, जिस कारण वो अपने फैसलों को वापस लेते हुए भी नजर आए हैं। मौजूदा हालात पर नजर डालें तो मालूम चलता है कि अमेरिका अभी भी नीतिगत अनिश्चिंतता से उबर नहीं पाया है। इस कारण ट्रंप की लोकप्रियता का ग्राफ भी लगातार गिरता चला गया है। इससे पहले 2016 में जब राष्ट्रपति चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप ने ‘अमेरिका फर्स्ट’ का नारा दिया था, तभी राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय नीतियों पर संशय के बादल छा गए थे। तब सवाल खड़े किए गए थे कि आखिर ट्रंप की मंशा क्या है? यहां ट्रंप ने सत्ता की कमान संभालने के पहले ही दिन अपने पहले एजुकेटिव आदेश में पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के एफोरडेबल एक्ट का विखंडन कर दिया, जिससे संदेश गया कि पूर्व सरकारों के फैसलों को ट्रंप हटाने में देर नहीं लगाएंगे। इसके तीन दिन बाद ही बारह देशों के संगठन ट्रांस-पेसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) समझौते से अमेरिका को हटा लिया गया। इसके बाद और भी ऐसे अनेक फैसले सामने आते गए जिससे ट्रंप शासन लगातार विवादों में आता चला गया। यहां सात मुस्लिम बहुल देशों के नागरिकों पर प्रतिबंध लगाने के फैसले पर वो अपने ही घर में घिरते नजर आए थे। वहीं मैक्सिको-अमेरिका सीमा पर दीवार बनाने का फैसला, पूर्वी अफगानिस्तान में ‘मातृ-बम’ गिराए जाने का फैसला, उत्तर कोरिया को लेकर सख्त रुख और चीन पर दबाव बनाने वाला फैसला, एचवनबी वीजा पर पाबंदी ऐसे अनेक फैसले हैं, जिससे ट्रंप तो सुर्खियों में बने रहे लेकिन कहीं न कहीं अमेरिका और अमेरिकावासी पीछे होते चले गए। इन फैसलों ने अमेरिका को मुसीबत में डालने का काम भी किया। चूंकि ये फैसले ट्रंप के प्रारंभिक काल के रहे हैं, अत: कहा जाता रहा कि महज सौ दिन का समय किसी प्रशासन के बारे में ठोस आंकलन के लिए पर्याप्त समय नहीं है। अमेरिका की भलाई के लिए ट्रंप नीतियां बदलेंगे और बेहतर परिणाम देने वाले फैसले भी लेंगे, लेकिन अभी तक तो ऐसा कुछ होता हुआ दिखाई नहीं दिया। अब तो हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि सीरिया के बाद उत्तर कोरिया, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, ईरान और चीन से भी दो-दो हाथ किए जाने जैसी बातें हो रही हैं। चीन से व्यापार को लेकर तनाव जारी है तो वहीं ईरान से युद्ध करने जैसे हालात पैदा कर दिए गए हैं। यह अलग बात है कि ट्रंप ने चारों ओर से खतरा बढ़ता देख जारी ट्रेड वॉर में कुछ नरमी के संकेत भी दे दिए हैं। दरअसल अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने वाहनों के आयात पर टैरिफ में भारी वृद्धि के फैसले को आगामी छह माह के लिए टाल दिया है। वैसे इस छूट के पीछे की रणनीति यह भी है कि व्यापार में छूट की खातिर यूरोप और जापान पर बातचीत के लिए दबाव बनाया जा सके। बहरहाल इस फैसले से व्यापार युद्ध के बढ़ने की आशंका जरुर कम होती नजर आ रही है। गौरतलब है कि ट्रंप के फैसले के बाद वैश्विक स्तर पर ट्रेड वार शुरु हो जाने की आशंका ने जन्म ले लिया था। ट्रंप के फैसले से जापान और जर्मनी के साथ अमेरिकी रिश्तों पर भी खटास पड़ सकती थी। इस मामले से हटकर जब ईरान पर नजर दौड़ाते हैं तो पाते हैं कि यहां पर भी युद्ध के बादल मंडरा रहे हैं। असल में अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप ने ईरान को धमकाते हुए ट्वीट किया है कि अमेरिकी हितों के खिलाफ कोई भी हमला होने पर भयावह परिणाम भुगतने होंगे। गौरतलब है कि पूर्व राष्ट्रपति ओबामा के कार्यकाल में ईरान के साथ ‘पी फाइव प्लस वन’ देशों, जर्मनी और यूरोपीय संघ की न्यूक्लियर डील पर सहमति बनी थी, लेकिन राष्ट्रपति ट्रंप ने इस डील से अमेरिका को हटा लिया और अमेरिका-ईरान परमाणु समझौते को अपने स्तर पर खत्म कर दिया। यही नहीं बल्कि इसके बाद तो ट्रंप ने ईरान पर फिर से कड़े प्रतिबंध लगा दिए। इसमें तेल निर्यात पर पाबंदी है, जिसके तहत भारत जैसे अनेक तेल आयातक देशों को ईरान से तेल नहीं लेने की चेतावनी दी गई है। इससे अमेरिका और ईरान के बीच अस्थिरता बढ़ती चली जा रही है। बावजूद इसके कहा जा रहा है कि अमेरिका अपनी नीतियों को लेकर स्पष्ट नहीं है, जबकि ईरान की इच्छा इस मामले को आगे ले जाने की लग रही है। इसे लेकर खाड़ी देशों में भी उथल-पुथल शुरु हो गई है। यह तेल की आग बहुत भयानक रुप ले सकती है, इसलिए इस मामले में बीच का रास्ता निकालना ही होगा। इसलिए राष्ट्रपति ट्रंप ने भले ही कहा हो कि उनके देश ने ईरान से बातचीत की कोई पेशकश नहीं की है, लेकिन उसे इसकी पहल करनी ही चाहिए। जहां तक ईरान का सवाल है तो उसकी स्थिति इस समय मरता क्या नहीं करता वाली हो गई है। ट्रंप भी इस बात को मानते हैं कि ईरान की अर्थव्यवस्था तबाह हो रही है, जो कि ईरान के लोगों के लिए वाकई दु:खद है। अब सवाल यही है कि यदि ईरान के आम नागरिकों के जान-माल की चिंता अमेरिका को है तो फिर वह यह क्योंकर धमकी दे रहा है कि यदि अमेरिकी हितों पर हमला किया गया तो उसे तबाह कर दिया जाएगा। मतलब साफ है कि ट्रंप ने अपने कार्यकाल में कहा कुछ और किया कुछ और है। उनके लिए कथित तौर पर अमेरिकी हित पहले हैं बाद में दुनिया के आमजन की बात आती है। इस समय ईरान जहां अमेरिका को माकूल जवाब देने की बात कह रहा है तो वहीं राष्ट्रपति ट्रंप उसे पूरी तरह बर्बाद कर देने की धमकी दे रहे हैं। इस युद्ध की आशंका के बीच यदि चीन और रुस समेत अन्य ईरान के समर्थक आगे आए और वो भी युद्ध की भाषा बोलने लगे तो यह दुनिया के लिए तबाही वाला मंजर होगा। इसलिए इसे टाला जाना चाहिए और कोशिश की जानी चाहिए कि जिस तरह से दूसरे मामलों में ट्रंप ने अपने कदम वापस लिए हैं, ठीक उसी तरह ईरान मामले में भी वह विचार करते हुए सही कदम उठाए।

पत्रकारिता का स्वरूप,विविध आयाम व महत्व
प्रो.शरद नारायण खरे
पत्रकारिता शब्द अंग्रेज़ी के “जर्नलिज़्म”का हिंदी रूपांतर है। शब्दार्थ की दृष्टि से “जर्नलिज्म” शब्द ‘जर्नल’ से निर्मित है और इसका आशय है ‘दैनिक’। अर्थात जिसमें दैनिक कार्यों व सरकारी बैठकों का विवरण हो। आज जर्णल शब्द ‘मैगजीन’ का द्योतक हो चला है। यानी, दैनिक, दैनिक समाचार-पत्र या दूसरे प्रकाशन, कोई सर्वाधिक प्रकाशन जिसमें किसी विशिष्ट क्षेत्र के समाचार हो। पत्रकारिता लोकतंत्र का अविभाज्य अंग है। प्रतिपल परिवर्तित होनेवाले जीवन और जगत का दर्शन पत्रकारिता द्वारा ही संभंव है। परिस्थितियों के अध्ययन, चिंतन-मनन और आत्माभिव्यक्ति की प्रवृत्ति और दूसरों का कल्याण अर्थात् लोकमंगल की भावना ने ही पत्रकारिता को जन्म दिया है।
सी. जी. मूलर ने बिल्कुल सही कहा है कि- सामायिक ज्ञान का व्यवसाय ही पत्रकारिता है। इसमें तथ्यों की प्राप्ति उनका मूल्यांकन एवं ठीक-ठाक प्रस्तुतीकरण होता है।’
डॉ॰ अर्जुन तिवारी के कथानानुसार- ज्ञान और विचारों को समीक्षात्मक टिप्पणियों के साथ शब्द, ध्वनि तथा चित्रों के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाना ही पत्रकारिता है। यह वह विद्या है जिसमें सभी प्रकार के पत्रकारों के कार्यो, कर्तव्यों और लक्ष्यों का विवेचन होता है। पत्रकारिता समय के साथ समाज की दिग्दर्शिका और नियामिका है।”श्री प्रेमनाथ चतुर्वेदी के अनुसार पत्रकारिता विशिष्ट देश, काल और परिस्थिति के आधार पर तथ्यों का, परोक्ष मूल्य का संदर्भ प्रस्तुत करती है।
टाइम्स पत्रिका के अनुसार- पत्रकारिता इधर-उधर उधर से एकत्रित, सूचनाओं का केंद्र, जो सही दृष्टि से संदेश भेजने का काम करता है, जिससे घटनाओं का सहीपन को देखा जाता है।
डॉ कृष्ण बिहारी मिश्र के अनुसार- पत्रकारिता वह विद्या है जिसमें पत्रकारों के कार्यों, कर्तव्यों, और उद्देश्यों का विवेचन किया जाता है। जो अपने युग और अपने संबंध में लिखा जाए वह पत्रकारिता है।
डॉ भुवन सुराणा के अनुसार- पत्रकारिता वह धर्म है जिसका संबंध पत्रकार के उस धर्म से है जिसमें वह तत्कालिक घटनाओं और समस्याओं का अधिक सही और निष्पक्ष विवरण पाठक के समक्ष प्रस्तुत करता है।
उपरोक्त परिभाषाएं के आधार पर हम कह सकते हैं कि पत्रकारिता जनता को समसामयिक घटनाएं वस्तुनिष्ठ तथा निष्पक्ष रुप से उपलब्ध कराने का महत्वपूर्ण कार्य है।सत्य की आधार शीला पर पत्रकारिता का कार्य आधारित होता है तथा जनकल्याण की भावना से जुड़कर पत्रकारिता सामाजिक परिवर्तन का साधन बन जाता है।
पत्रकारिता का स्वरूप व विशेषताएं
सामाजिक सरोकारों तथा सार्वजनिक हित से जुड़कर ही पत्रकारिता सार्थक बनती है। सामाजिक सरोकारों को व्यवस्था की दहलीज तक पहुँचाने और प्रशासन की जनहितकारी नीतियों तथा योजनाओं को समाज के सबसे निचले तबके तक ले जाने के दायित्व का निर्वाह ही सार्थक पत्रकारिता है।
पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा पाया (स्तम्भ) भी कहा जाता है। पत्रकारिता ने लोकतंत्र में यह महत्त्वपूर्ण स्थान अपने आप नहीं हासिल किया है बल्कि सामाजिक सरोकारों के प्रति पत्रकारिता के दायित्वों के महत्त्व को देखते हुए समाज ने ही दर्जा दिया है। कोई भी लोकतंत्र तभी सशक्त है जब पत्रकारिता सामाजिक सरोकारों के प्रति अपनी सार्थक भूमिका निभाती रहे। सार्थक पत्रकारिता का उद्देश्य ही यह होना चाहिए कि वह प्रशासन और समाज के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी की भूमिका अपनाये।
पत्रकारिता के इतिहास पर नजर लडालें तो स्वतंत्रता के पूर्व पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्ति का लक्ष्य था। स्वतंत्रता के लिए चले आंदोलन और स्वाधीनता संग्राम में पत्रकारिता ने अहम और सार्थक भूमिका निभाई। उस दौर में पत्रकारिता ने पूरे देश को एकता के सूत्र में पिरोने के साथ-साथ पूरे समाज को स्वाधीनता की प्राप्ति के लक्ष्य से जोड़े रखा।
इंटरनेट और सूचना के आधिकार (आर.टी.आई.) ने आज की पत्रकारिता को बहुआयामी और अनंत बना दिया है। आज कोई भी जानकारी पलक झपकते उपलब्ध की और कराई जा सकती है। मीडिया आज काफी सशक्त, स्वतंत्र और प्रभावकारी हो गया है। पत्रकारिता की पहुँच और आभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का व्यापक इस्तेमाल आमतौर पर सामाजिक सरोकारों और भलाई से ही जुड़ा है, किंतु कभी कभार इसका दुरपयोग भी होने लगा है।
संचार क्रांति तथा सूचना के आधिकार के अलावा आर्थिक उदारीकरण ने पत्रकारिता के चेहरे को पूरी तरह बदलकर रख दिया है। विज्ञापनों से होनेवाली अथाह कमाई ने पत्रकारिता को काफी हद्द तक व्यावसायिक बना दिया है। मीडिया का लक्ष्य आज आधिक से आधिक कमाई का हो चला है। मीडिया के इसी व्यावसायिक दृष्टिकोन का नतीजा है कि उसका ध्यान सामाजिक सरोकारों से कहीं भटक गया है। मुद्दों पर आधारित पत्रकारिता के बजाय आज इन्फोटेमेंट ही मीडिया की सुर्खियों में रहता है।
इंटरनेट की व्यापकता और उस तक सार्वजनिक पहुँच के कारण उसका दुष्प्रयोग भी होने लगा है। इंटरनेट के उपयोगकर्ता निजी भड़ास निकालने और अतंर्गततथा आपत्तिजनक प्रलाप करने के लिए इस उपयोगी साधन का गलत इस्तेमाल करने लगे हैं। यही कारण है कि यदा-कदा मीडिया के इन बहुपयोगी साधनों पर अंकुश लगाने की बहस भी छिड़ जाती है। गनीमत है कि यह बहस सुझावों और शिकायतों तक ही सीमित रहती है। उस पर अमल की नौबत नहीं आने पाती। लोकतंत्र के हित में यही है कि जहाँ तक हो सके पत्रकारिता हो स्वतंत्र और निर्बाध रहने दिया जाए, और पत्रकारिता का अपना हित इसमें है कि वह आभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग समाज और सामाजिक सरोकारोंके प्रति अपने दायित्वों के ईमानदार निवर्हन के लिए करती रहे।
मनुष्य स्वभाव से ही जिज्ञासु होता है। उसे वह सब जानना अच्छा लगता है जो सार्वजनिक नहीं हो अथवा जिसे छिपाने की कोशिश की जा रही हो। मनुष्य यदि पत्रकार हो तो उसकी यही कोशिश रहती है कि वह ऐसी गूढ़ बातें या सच उजागर करे जो रहस्य की गहराइयों में कैद हो। सच की तह तक जाकर उसे सतह पर लाने या उजागर करने को ही हम अन्वेषी या खोजी पत्रकारिता कहते हैं।
खोजी पत्रकारिता एक तरह से जासूसी का ही दूसरा रूप है जिसमें जोखिम भी बहुत है। यह सामान्य पत्रकारिता से कई मायनों में अलग और आधिक श्रमसाध्य है। इसमें एक-एक तथ्य और कड़ियों को एक दूसरे से जोड़ना होता है तब कहीं जाकर वांछित लक्ष्य की प्राप्ति होती है। कई बार तो पत्रकारों द्वारा की गई कड़ी मेहनत और खोज को बीच में ही छोड़ देना पड़ता है, क्योंकि आगे के रास्ते बंद हो चुके होते हैं। पत्रकारिता से जुड़ी पुरानी घटनाओं पर नजर दौड़ायें तो माई लाई कोड, वाटरगेट कांड, जैक एंडर्सन का पेंटागन पेपर्स जैसे अंतरराष्ट्रीय कांड तथा अन्य राष्ट्रीय घोटाले खोजी पत्रकारिता के चर्चित उदाहरण हैं। ये घटनायें खोजी पत्रकारिता के उस दौर की हैं जब संचार क्रांति, इंटरनेट या सूचना का आधिकार (आर.टी.आई) जैसे प्रभावशाली अस्त्र पत्रकारों के पास नहीं थे। इन प्रभावशाली हथियारों के अस्तित्व में आने के बाद तो घोटाले उजागर होने का जैसे एक दौर हीशुरु हो गया। जाने-माने पत्रकार जुलियन असांज के ‘विकीलिक्स’ ने तो ऐसे-ऐसे रहस्योद्घाटन किये जिनसे कई देशों की सरकारें तक हिल गई।
इंटरनेट और सूचना के आधिकार ने पत्रकारों और पत्रकारिता की धार को अत्यंत पैना बना दिया लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि पत्रकारिता की आड़ में इन हथियारों का इस्तेमाल ’ब्लैकमेलिंग’ जैसे गलत उद्देश्य के लिए भी होने लगा है। समय-समय पर हुये कुछ ’स्टिंग ऑपरेशन’ और कई बहुचर्चित सी. डी. कांड इसके उदाहरण हैं।
पर पत्रकारिता मर्यादाओं के घेरे में होना चाहिए। खोजी पत्रकारिता साहसिक तक तो ठीक है, लेकिन इसका दुस्साहस न तो पत्रकारिता के हित में है और न ही समाज के।सदैव स्वस्थ सकारात्मक पत्रकारिता ही जनहितैषी सिध्द होती है।

एक्जिट पोलः अंदाजी घोड़े
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
एक्जिट पोल की खबरों ने विपक्षी दलों का दिल बैठा दिया है। एकाध को छोड़कर सभी कह रहे हैं कि दुबारा मोदी सरकार बनेगी। विपक्षी नेता अब या तो मौनी बाबा बन गए हैं या हकला रहे हैं। उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि वे अगले तीन-चार दिन कैसे काटें। लेकिन भाजपा गदगद है। यदि एक्जिट पोल की भविष्यवाणियां सत्य सिद्ध हो गईं तो जैसा कि मैंने कल कहा था, भारत में एक मजबूत और स्थिर सरकार अगले पांच साल के लिए आ जाएगी लेकिन यह तो 23 मई को ही पता चलेगा। अभी तो हमें यह भी जानना चाहिए कि ये एक्जिट पोल कितने पोले होते हैं या हो सकते हैं। चुनाव परिणाम के पहले दौड़ाए गए ये अंदाजी घोड़े कई बार मुंह के बल गिरे हैं। देश ने यह खेल 1971 और 1977 में भी देखा था और 2004 में अटलजी ने और 2009 में मनमोहनसिंह को भी उल्टे परिणामों ने भी यही खेल दिखाया था। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप, इस्राइल में नेतन्याहू और अभी-अभी आस्ट्रेलिया में भी यही हुआ है। अपना वोट डालने के बाद जो वोटर बाहर आता है कि वह किसी अनजान आदमी को अपने गुप्त मतदान की सही जानकारी दे, यह जरुरी नहीं है। यदि देश के 90 करोड़ मतदाताओं में से आठ-नौ लाख से बात करके अपने नतीजों का आप ढोल पीटने लगते हैं तो आपको कहां तक सही माना जा सकता है ? एक प्रतिशत की राय को 100 प्रतिशत की राय कैसे मान सकते हैं ? मतदाता मनुष्य है, चना या चावल नहीं। हंडिया का एक चावल पका हो तो हम मानकर चलते हैं कि सभी चावल पक गए हैं लेकिन आदमी तो चावल नहीं है। जड़ नहीं है, निर्जीव वस्तु नहीं है। हर आदमी का अपना अंतःकरण है, अपनी बुद्धि है, अपनी पसंदगी और नापसंदगी होती है। इसके अलावा एक्जिट पोल करनेवाले लोगों को आप बेहद ईमानदार और निष्पक्ष मान लें तो भी उनका अपना रुझान तो होता ही है। जब ठोस तथ्य सामने न हों और आपके अंदाजी घोड़े दौड़ने हों तो वह रुझान आपके नतीजों पर हावी हो सकता है। इसीलिए कोई जिसे 350 सीटें देता है, उसे कोई और 150 में ही निपटा देता है। ऐसी स्थिति में एक्जिट पोल के नतीजों को दिल से लगा बैठना ठीक नहीं है। बहुत सुखी और बहुत दुखी होना ठीक नहीं है। फिर भी एक्जिट पोल और चुनाव के पहले होनेवाले सर्वेक्षणों को आप एकदम अछूत भी घोषित नहीं कर सकते हैं। यह एक अनिवार्य मानवीय कमजोरी है। अब से चालीस-पचास साल पहले, जब कोई गर्भवती महिला प्रसूति-घर में जाती थी तो लोग डाॅक्टरों से पूछते थे कि लड़का होगा या लड़की ? मतदान के बारे में यह रहस्य हमेशा बना रहेगा, क्योंकि उसका गुप्त रहना बेहद जरुरी है। चुनाव के पहले तरह-तरह की दर्जनों भविष्यवाणियां होती हैं। कई बार तीर फिसल जाता है और तुक्का निशाने पर बैठ जाता है।

गरीबी हटाओ महज एक राजनैतिक नारा
अजित वर्मा
नितिन गड़करी देश के ऐसे केन्द्रीय मंत्री हैं जो अपनी बात बेवॉकी से करते हैं। गड़करी कहते हैं कि देश में गरीबी हटाने के लिये कभी भी गंभीरतापूर्वक प्रयास नहीं किये गये। वे कहते हैं कि गरीबी हटाओ महज एक राजनैतिक नारा बनकर रह गया है। गड़करी का मानना है कि आर्थिक नीतियों के आधार पर भविष्य के निर्णय होते हैं। दुर्भाग्य से इस चुनाव में जिन विषयों पर जो चर्चा होनी चाहिए थी, वह नहीं हो पा रही है। देश में आजादी के बाद कई विचारधाराएं आई और गईं, लेकिन समाज के अंतिम व्यक्ति को लेकर कोई आर्थिक चिंतन नहीं हुआ। जवाहर लाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, मनमोहन सिंह तक सभी ने गरीबी हटाओं की बात की और अब राहुल गांधी भी यही बात कह रहे हैं। अगर इतने समय के बाद भी कांग्रेस यहीं बात दोहरा रही है तो अब तक उन्होंने सत्ता में रहते हुए क्या किया?
श्री गडकरी बताते हैं कि हमारे आर्थिक चिंतन का केंद्र पं. दीनदयाल उपाध्याय का दिया हुआ एकात्म मानववाद है। हमारी योजनाएं अंत्योदय पर केंद्रित हैं। समाज के सबसे पिछड़े व्यक्ति दरिद्रनारायण को भगवान मानकर सेवा करना हमारा लक्ष्य है। अंत्योदय हमारा सामाजिक और आर्थिक चिंतन है। उन्होंने कहा कि इस चिंतन के आधार पर ही सरकार हर वर्ग तक पहुंचने का काम कर रही है।
श्री गडकरी ने एक बड़ी महत्वपूर्ण बात भी कही कि जिसका राजा व्यापारी होता है, उसकी जनता भिखारी होती है। सरकार का काम होटल और उद्योग चलाना नहीं, सरकार का काम नीति निर्धारक का होता है और इसलिए मोदी सरकार ‘िमनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ पर काम कर रही है। अच्छी लीडरशिप, अच्छी सरकार सबकुछ कर सकती है। बशर्त है, जनता की उसमे भागीदारी हो। गड़करी दावा करते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने ऐसे अनेक प्रकल्प और अभियान चलाकर जनता की उनमें भागीदारी सुनिश्चित की है। भारतीय जनता पार्टी की पॉलिसी रही है कि जनता को भय, भूख, भ्रष्टाचार और आतंक मुक्त वातावरण दें, इस दिशा में मोदी सरकार ने काफी हद तक सफलता हासिल की है।

अब कमान राष्ट्रपति के हाथों
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यदि इस 2019 के चुनाव में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिल जाए और एक स्थिर सरकार बन जाए तो भारतीय लोकतंत्र के लिए इससे बढ़िया बात तो कोई हो ही नहीं सकती। वह सरकार पिछले पांच साल की सरकार से बेहतर होगी, ऐसी आशा हम सभी कर सकते हैं। एक तो वह अपनी भयंकर भूलों से सबक लेगी। दूसरे, इस बार विपक्ष जरा मजबूत होगा। वह भी कान खींचने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा। इस दूसरी अवधि में प्रचार मंत्रीजी प्रधानमंत्री बनने की पूरी कोशिश करेंगे। जहां तक विपक्षी दलों का सवाल है, उनके धुआंधार और आक्रामक प्रचार के बावजूद किसी दल ने ऐसा दावा करने की हिम्मत तक नहीं की है कि वह सरकार बना पाएगा। ऐसा दावा तो जाने दीजिए, किसी ने यह भी नहीं कहा है कि वह सबसे बड़ा दल बनकर उभरेगा। यदि सारे विरोधी दल मिलकर बहुमत में आ जाएं तो आश्चर्य नहीं होगा। हो सकता है कि भाजपा को 200 के आस-पास सीटे मिलें और 2014 की तरह अपने दम पर सरकार बनाने में वह सफल न हो। ऐसे में क्या होगा ? ऐसे में भारतीय लोकतंत्र की कमान मोदी या राहुल या ममता या मायावती के हाथ में नहीं होगी। वह होगी, भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के हाथों में। जब किसी का भी स्पष्ट बहुमत नहीं होगा तो वे किसी को भी प्रधानमंत्री की शपथ दिला सकते हैं और उसे एक सप्ताह या एक मास का समय दे सकते हैं कि वह लोकसभा में अपना बहुमत सिद्ध करे। वे ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री की शपथ दिलवाना चाहेंगे, जो लोकसभा में अपना बहुमत सिद्ध कर सके और बाद में पांच साल तक सरकार चला सके। यह जरुरी नहीं है कि वह सबसे अधिक सीटें जीतनेवाली पार्टी के नेता को ही यह मौका दें। वे कह सकते हैं कि आप तो हारे हुए हैं, जनता द्वारा रद्द किए हुए हैं। आपको दुबारा मौका क्यों दूं ? बासी कढ़ी को चूल्हे पर फिर क्यों चढ़ाऊं ? उस पार्टी के नेता राजीव गांधी की तरह खुद ही प्रधानमंत्री की दौड़ से बाहर भी हो जा सकते हैं। ऐसे में उस पार्टी के किसी दूसरे नेता को मौका देने के बात भी राष्ट्रपति सोच सकते हैं। राष्ट्रपति कम सीटोंवाली किसी अन्य पार्टी के नेता को भी शपथ दिला सकते हैं और उससे सदन में शक्ति-परीक्षा करवा सकते हैं जैसे कि भाजपा के अटलबिहारी वाजपेयी को राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा ने मौका दिया था। तात्पर्य यह कि अस्पष्ट बहुमत की स्थिति में राष्ट्रपति का पद, जिसे ध्वजमात्र समझा जाता है, सबसे अधिक महत्वपूर्ण और शक्तिशाली बन जाता है। उनका स्वविवेक ही यह तय करेगा कि अगले पांच साल में भारत के लोकतंत्र की दशा और दिशा कैसी होगी ?

उत्तरप्रदेश को लेकर कांग्रेस के दीर्घकालीन हित
अजित वर्मा
दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तरप्रदेश से ही होकर जाता है यह एक मान्य तथ्य है। 80 लोकसभा वाले उत्तरप्रदेश की देश की सियासत में महत्वपूर्ण भूमिका भी है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस इस बार अकेले अपनी दम पर चुनाव लड़ी है। सपा-बसपा के गठबंधन में इस बार कांग्रेस को शामिल नहीं किया गया। कांग्रेस के लिये सिर्फ रायबरेली और अमेठी सीट गठबंधन ने छोड़ दी थी। कांग्रेस ने 2009 के चुनाव के आधार पर 21 सीटों की मांग की थी जो उसने जीती थीं। लेकिन कांग्रेस की यह मांग नहीं मानी गयी। अंतत: कांग्रेस ने अकेले अपनी दम पर ही लोकसभा का यूपी में चुनाव लड़ा है।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता यू पी के प्रभारी ज्योतिरादित्य सिंधिया ने उत्तरप्रदेश में उनकी पार्टी के 2014 की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करने का भरोसा जताते हुए कहा कि पार्टी ने दीर्घकालीन हितों को ध्यान में रखकर राज्य में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया है। कांग्रेस महासचिव ने कहा कि राज्य में पार्टी को मजबूत करने की रणनीति है और परिणाम दिखाएंगे कि अपने दम पर चुनाव लड़ना सही फैसला था।
उत्तरप्रदेश (पश्चिम) के मामलों के लिए पार्टी प्रभारी सिंधिया ने कहा कि हमने इस बार उत्तरप्रदेश में अपने दम पर खड़े होने और राज्य में पार्टी को मजबूत करने का फैसला किया है। उत्तरप्रदेश में परिणाम के बाद आप देखेंगे कि पार्टी के दीर्घकालीन हित को दिमाग में रखकर यह संभवत: सही फैसला है। हम इस बार पूरे उत्तरप्रदेश में बेहतर काम करेंगे…मतदाताओं को फैसला करने दीजिए।‘क्या बसपा-सपा-रालोद महागठबंधन से कांग्रेस को उत्तरप्रदेश में नुकसान होगा, सिंधिया कहते हैं कि मुझे लगता है कि हर दल उस जगह आगे रहेगा जहां वह सबसे मजबूत है। इसलिए महागठबंधन से कांग्रेस की संभावनाओं को नुकसान पहुंचने या इसके विपरीत होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यह इस बात पर निर्भर करता है कि किस पार्टी के पास सबसे मजबूत उम्मीदवार और सबसे मजबूत संगठन है।’ सिंधिया ने यह कहा कि राजनीति संभावनाओं की कला है। अंतत: राजनीति में कुछ भी संभव है और आपको डटे रहना होगा और प्रयास करना होगा। कभी-कभी प्रयास रंग लाते हैं, कभी-कभी ऐसा नहीं हो पाता।’ 23 मई को मतगणना के बाद क्या होगा, यह तब देखेंगे जब पता चलेगा कि ऊंट किस करवट बैठता है।
जब सिंधिया उत्तरप्रदेश में कांग्रेस के दीर्घकालीन हित की बात करते हैं तो इसे गंभीरता से समझना होगा। वास्तव में कांग्रेस उत्तरप्रदेश में प्राय: मारणासन्न है। पिछले विधानसभा चुनाव में भी वह कुछ खास नहीं कर पायी। इसीलिये इस बार उत्तरप्रदेश में कांग्रेस को लोकसभा चुनाव के बहाने जीवनदान देने की कोशिश की गयी है। यह तो नतीजे से पता चलेगा कि कांग्रेस ने यूपी में क्या हासिल किया है। वास्तव में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की नजर यूपी में 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव पर है। इसीलिए राहुल ने यूपी में कांग्रेस को खड़ा करने की जिम्मेदारी अपनी बहन प्रियंका गांधी और अपने अभिन्न ज्योतिरादित्य सिंधिया को इस बार सौंपी है। कांग्रेस की कोशिश रहेगी कि वह 2022 में उत्तरप्रदेश में अपनी सरकार बनाये और प्रियंका गांधी मुख्यमंत्री बनें। यही कांग्रेस का दीर्घकालीन हित यूपी में नजर आ रहा है।

मुसीबत में डालकर माफी मांगने का आशय
सात चरणों वाले लोकसभा चुनाव 2019 बिगड़े और स्तरहीन बयानों के लिए तो याद किए ही जाएंगे, इसके साथ ही महात्मा गांधी की हत्या के दोषी नाथूराम गोडसे को महात्मा और देशभक्त बताने जैसे विवादित बयान से शर्मसार होते हुए भी दिखेंगे। दरअसल महात्मा गांधी का अपमान देश का अपमान जैसा है और उनके हत्यारे को यूं महिमामंडित करना किसी बड़े गुनाह से कम नहीं है। इसलिए इन बयानों का राजनीति में बेजा असर भी देखने को मिलेगा। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि लोकसभा के अंतिम चरणों में ये बयान भाजपा की लुटिया डुबोने का काम करते नजर आएंगे। गौरतलब है कि मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल लोकसभा सीट से कांग्रेस प्रत्याशी दिग्विजय सिंह के खिलाफ भारतीय जनता पार्टी ने साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को अपना प्रत्याशी बनाया, जो कि मालेगांव ब्लास्ट की आरोपी रहते हुए जमानत पर हैं। लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान गोडसे को लेकर कमल हासन ने जो कहा उससे संबधित सवाल साध्वी प्रज्ञा से किया गया, जिसके जवाब में उन्होंने कहा था कि ‘नाथूराम गोडसे देश भक्त थे, हैं और रहेंगे।’ इस बयान का वीडियो फुटेज सोशल मीडिया पर जैसे ही तेजी से वायरल होना शुरु हुआ मानों राजनीतिक गलियारे में हंगामा मच गया। इस बयान के कारण भाजपा बैकफुट पर जाती दिखी। लोगों ने कहना शुरु कर दिया कि महात्मा गांधी के हत्यारों के साथ खड़े होने वालों को आखिर देश की सत्ता कैसे सौंपी जा सकती है। तगड़ा राजनीतिक विरोध होता देख पार्टी ने इस घृणित और विवादित बयान से पल्ला झाड़ लिया। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि यह पार्टी विचारधारा से हटकर की गई बात है और यह उनका अपना निजी बयान है, इससे पार्टी का कोई लेना-देना नहीं है। इस पर सवाल किया जा रहा है कि पार्टी ने उन्हें प्रत्याशी बनाया है तो कुछ तो जिम्मेदारी बनती ही होगी। मतलब सफाई देने का काम अब पार्टी नेतृत्व करता दिखा, जबकि दूसरी तरफ साध्वी के समर्थन में पार्टी नेता और मंत्री भी सामने आते दिखे। केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार हेगड़े ने तो साध्वी का समर्थन करते हुए ट्विट पर एक के बाद एक पोस्ट कर मामले को मानों तूल देने का काम ही कर दिया। वहीं नलिन कटील ने भी बयान दे दिया। इन तमाम नेताओं के विवादास्पद बयानों को संज्ञान में लेते हुए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि पार्टी की गरिमा और विचारधारा के विपरीत इन बयानों को पार्टी ने गंभीरता से लेकर तीनों बयानों को अनुशासन समिति को भेजने का निर्णय किया है। बहरहाल जब तक जांच होगी और फैसला आएगा, तब तक तो चुनाव मैदान में असर हो चुका होगा। वैसे भी कहा तो यही जाता है कि बंदूक से निकली गोली और जुबान से निकली बोली अपना असर तो छोड़कर ही दम लेती हैं। अत: विपक्ष के साथ ही साथ सामान्यजन ने भी इस तरह के बयानों पर तीखी प्रतिक्रियाएं देना शुरु कर दीं, जिससे लोकसभा चुनाव के अंतिम चरण में भाजपा पूरी तरह से बैकफुट पर आ गई है। इसी बीच ट्विटर के जरिए साध्वी प्रज्ञा सिंह ने माफी मांगने का काम किया, जिसे लेकर कहा जाने लगा कि साध्वी को भी एहसास हो गया है कि उनसे बहुत बड़ी गलती हो गई है। इसलिए उन्होंने देश की जनता से माफी मांगते हुए कहा है कि उनका बयान पूरी तरह से गलत था और वो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी का बहुत सम्मान करती हैं। इस माफी पर कहने को तो कहा जा सकता है कि पहली भूल होती तो माफ भी किया जा सकता था, लेकिन भाजपा में शामिल होने से लेकर महज एक माह में तीन-तीन बार अपने बयानों के जरिए पार्टी को शर्मशार कर देना कोई नादानी तो नहीं कही जा सकती है। मुंबई आतंकी हमले में शहीद हुए हेमंत करकरे के बारे में जो बोला उसे यहां दोहराना भी उचित नहीं लगता, इसी तरह राम मंदिर के बारे में उन्होंने जो कहा उससे विवाद खड़ा हुआ और अब तो हद ही हो गई कि सीधे महात्मा गांधी के हत्यारे को देशभक्त बतला दिया गया। यहां गौर करने वाली बात यह है कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी इस मामले में सफाई देनी पड़ गई, उन्होंने एक साक्षात्कार के दौरान कहा कि ‘गांधीजी और गोडसे के संबंध में जो भी बयान दिए गए, वे भयंकर खराब हैं, घृणा और आलोचना के लायक हैं, सभ्य समाज में यह सोच नहीं चल सकती है। इस तरह की बातें करने वालों को आगे सौ बार सोचना होगा। उन्होंने माफी मांग ली है, यह अलग बात है, लेकिन मैं अब मन से माफ नहीं कर पाऊंगा।’ अब जबकि प्रधानमंत्री मोदी खुद कह रहे हैं कि उन्हें वो मन से माफ नहीं कर पाएंगे तो फिर देश की जनता कैसे माफ करेगी, यह बड़ा विचारणीय प्रश्न हो गया है। इससे नुक्सान तो पार्टी को ही होने वाला है। वैसे गांधी विरोधी पोस्ट लिखे जाने पर मध्य प्रदेश के भाजपा प्रवक्ता अनिल सौमित्र को निलंबित किया जा चुका है तो कहा जा रहा है कि क्या साध्वी प्रज्ञा समेत अन्य नेताओं पर भी इसी तरह की कोई बड़ी कार्रवाई करते हुए उन्हें पार्टी से बेदखल किया जाएगा या नहीं, क्योंकि इससे कम में तो बात बनती नहीं दिख रही है। विपक्ष को तो मानों घर बैठे मुद्दा मिल गया है इसलिए वो भाजपा से माफी मांगने की बात कह रही है। गौरतलब है कि सौमित्र ने तो गांधीजी को पाकिस्तान का राष्ट्रपति बतलाने का काम किया था, जिसे संज्ञान में लेते हुए उन्हें निलंबित कर दिया गया। कुल मिलाकर राजनीतिक पार्टियों को भी समझना होगा कि जीत ही सब कुछ नहीं होती, जिसके लिए इस तरह के शॉर्टकट अपनाए जाएं, कि देश की बदनामी ही होने लग जाए। चुनाव के दौरान संयम और साहस के साथ ही साथ पार्टी को सिद्धांतों और विचारधारा पर भी ध्यान केंद्रित करना चाहिए और हो सके तो देश के विकास और जनहित की बातों के अलावा कोई अन्य विवादित बयानों को जगह मिलनी ही नहीं चाहिए। तभी इस तरह के विवादित बयानों और देश की इज्जत के साथ खिलवाड़ करने वालों से छ़टकारा मिल सकता है।

सत्ता की धमक- डरा-सहमा चुनाव आयोग…..?
ओमप्रकाश मेहता
हमारे संविधान द्वारा प्रदत्त शक्तियों के अनुसार देश में चुनावों के दौर में चुनाव आयोग सरकार से भी सर्वोपरी व शक्तिमान होता है, फिर मौजूदा लोकसभा चुनावों के समय आमतौर पर यह महसूस क्यों किया जा रहा है कि भारतीय चुनाव आयोग डरा-सहमा और सरकार के अधीन कार्यरत् है? इसी चुनाव आयोग का एक वह सुनहरा कार्यकाल था, जब टी.एन. शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त हुआ करते थे और प्रदेश के मुख्यमंत्रीगण उनकी अटैची उठाए नजर आते थे। किंतु आज तो स्थिति एकदम विपरीत है और चुनाव आयोग की नजर सत्तासीनों की भूकुटी पर रहती है जो उनके इशारे का इंतजार करती रहती है, क्या यह मौजूदा सरकार द्वारा संवैधानिक संगठनों पर कब्जे के प्रयासों का असर तो नहीं?
मौजूदा लोकसभा चुनावों को लेकर चुनाव आयोग शुरू से ही संदेह के घेरे में है, चुनाव आयोग ने जो लोकसभा के चुनावों के लिए करीब दो महीने लम्बा सात चरणों में मतदान का कार्यक्रम जारी किया, इसी फैसले को लेकर चुनाव आयोग पर कई तरह के आरोप लगाए गए, यहां तक कहा गया कि सत्तारूढ़ दल को राजनीतिक लाभ पहुंचाने और उसकी सुविधानुसार इतना लम्बा चुनाव कार्यक्रम जारी किया गया। चुनाव तिथियों की घोषणा के साथ ही आदर्श आचार संहिता लागू हो जाने से राज्य सरकारों के कई जनहितैषि कार्यक्रमों पर विराम लग गया और देश की जनता को सही समय पर सरकार की आर्थिक सहायताएँ नहीं मिल पाई।
फिर इसके बाद चुनाव आयोग पर यह गंभीर आरोप लगाए जाने लगे कि आदर्श चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में आयोग निष्पक्ष नहीं है, सत्तारूढ़ दल प्रमुख व सरकार के नेतृत्व के खिलाफ पहुंचने वाली शिकायतों को नजर अंदाज करने का गंभीर आरोप चुनाव आयोग पर लगाया गया, जबकि प्रतिपक्ष का आरोप है कि प्रतिपक्षी दलों के लोगों के खिलाफ शिकायतें प्राप्त होने पर चुनाव आयोग तत्काल सक्रिय होकर कार्यवाही करता है, किंतु प्रधानमंत्री व भाजपाध्यक्ष की दर्जनों शिकायतें मिलने के बाद भी कोई कार्यवाही नहीं करता और जब सुप्रीम कोर्ट निर्देश देता है तब भी शिकायत निर्मूल घोषित कर देता है, चुनाव आयोग ने शिकायतें सही पाए जाने पर भी कोई सख्त कार्यवाही करने की अपेक्षा कुछ घण्टों के लिए प्रचार पर रोक ही लगाई।
आखिर चुनाव आयोग स्वयं गंभीर आरोपों के घेरे में क्यों आ रहा है? ताजे घटनाक्रम में पश्चिम बंगाल में हुई चुनावी हिंसा, आगजनी व ईश्वरचन्द्र विद्या सागर की प्रतिमा भंजन की घटनाओं में चुनाव आयोग ने सिर्फ सरकार के कुछ अफसरों को इधर से उधर कर दिया तथा पश्चिम बंगाल में मतदान पूर्व प्रचार बंद करने की अवधि में बीस घण्टें का फैरबदल कर दिया, भारत में अब तक हुए चुनावों के दौर में चुनाव आयोग ने अनुच्छेद-324 का उपयोग पहली बार किया, किंतु इस फैसले को लेकर भी वह फिर विवादों में आ गया, क्योंकि सार्वजनिक चुनाव प्रचार की सीमा सिर्फ बीस घण्टे पहले की गई अर्थात् नियमानुसार चुनाव प्रचार 17 मई को शाम 5ः00 बजे बंद होना था, उसके बजाए 16 मई को रात 10ः00 बजे सार्वजनिक प्रचार प्रतिबंधित किया गया, इस पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी व कांग्रेस का आरोप है कि 16 मई को प्रधानमंत्री जी की दो रैलियों के आयोजनों को दृष्टिगत रखते हुए चुनाव आयोग ने यह समयसीमा निर्धारित की, वर्ना चुनाव आयोग 15 मई की रात से ही यह प्रतिबंध लागू कर सकता था, साथ ही चुनाव आयोग पर एक गंभीर आरोप यह भी लगाया कि सत्तारूढ़ दल के अध्यक्ष के तीखे तैवरों व आरोपों के बाद चुनाव आयोग सक्रिय हुआ और ये फोरे कदम उठाए, जबकि तोड़फोड़, आगजनी व हिंसक कार्यवाही करने वाले राजनीतिक कार्यकर्ताओं व उनके दलों के खिलाफ आयोग ने कोई सख्त कार्यवाही नहीं की?
इस तरह कुल मिलाकर भारतीय चुनाव आयोग जितना इस बार आरोपों के कटघरें में खड़ा नजर आया, उतना इससे पहले कभी नजर नहीं आया, शायद इसके पीछे दो ही कारण हो सकते है- या तो मुख्य चुनाव आयुक्त को अपने सुनहरे भविष्य की चिंता या फिर मौजूदा सरकार द्वारा संवैधानिक संगठनों को अपने कब्जें में करने का असर?

महाराष्ट्र का भीषण सूखा
डॉ हिदायत अहमद खान
इस अत्याधुनिक युग में भी सूखा जैसी विकट समस्या से लोग जूझ रहे हैं और सरकारें हैं कि हमने देखा, हम देख रहे हैं और हम देखेंगे जैसे रटे-रटाए जुमलों से काम चलाती नजर आ रही हैं। संकट को लेकर विपक्ष हमलावर होता है तो कह दिया जाता है कि आपने अपने कार्यकाल में क्या कर लिया था जो आज सवाल उठा रहे हैं। मतलब एक सोची-समझी रणनीति के तहत पक्ष और विपक्ष के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता रहता है और संकट का दौर भी निकल जाता है, मानों हर्र लगे न फिटकरी और रंग चोखा हो गया हो। मतलब मानसून दस्तक देता है और समझ लिया जाता है कि जल संकट समाप्त हो गया, जबकि अगले साल जल संकट की तस्वीर और डरावनी हो जाती है। अब ऐसा भी नहीं है कि शासन-प्रशासन कुछ नहीं करता, बल्कि जो योजनाएं बनाई जाती हैं उन्हें जमीनी स्तर पर फलीभूत करने का काम ईमानदारी के साथ नहीं ही किया जाता है। इस कारण समस्या विकराल रुप लेती चली जाती है। इन्हीं वजहों से महाराष्ट्र का जल संकट लगातार भयावह होता चला गया है। वैसे कहने को तो सरकार वही अच्छी मानी जाती है, जो आमजन की खातिर मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति बिना किसी संकट के मुहैया करा सके। अब जबकि बताया जा रहा है कि महाराष्ट्र में 47 साल में सबसे भीषण सूखा पड़ा है और इसकी जानकारी मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार दे रहे हैं तो शर्म करने के अलावा कुछ बचता नहीं है। कहते हैं शरद पवार ने पहले तो मुख्यमंत्री को पत्र लिखा और उसके बाद खुद मुलाकात करने पहुंचे और भीषण अकाल की यथा स्थिति से उन्हें अवगत कराते हुए जरुरी कदम उठाने की अपील की। यहां सवाल यह उठता है कि हर साल जल संकट की स्थिति बद से बदतर होती चली जाती है, लेकिन जिम्मेदार क्या कु्छ कर रहे हैं और यह संकट आजादी के बाद से अब तक क्योंकर खत्म नहीं हो पा रहा है, इस पर उचित व ठोस कदम उठाए नहीं गए हैं। पहले जिस जमीन पर महज 30 से 40 फिट गहराई पर पानी आसानी से मिल जाता था अब वहां 400 फीट पर पानी बमुश्किल मिलता है। भू-जल स्तर लगातार गिरता चला गया है। उस पर वर्षा की कमी और जल स्रोतों का लगातार सूखते जाना ग्रामीण अंचलों के रहवासियों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन गया है। बताया जाता है कि महाराष्ट्र में 1972 के बाद का यह सबसे भीषण अकाल है, जिसमें महाराष्ट्र के 21 हजार गांव सूखे की चपेट में हैं और 151 तहसीलों को सरकार सूखाग्रस्त घोषित कर चुकी है। संपूर्ण राज्य के बांधों में कुल 16 फीसदी पानी ही बचा है। मराठवाड़ा की स्थिति तो और भी भयावह होती जा रही है, क्योंकि यहां पांच प्रतिशत से भी कम पानी बचा है। मानसून आने में अभी करीब एक माह का समय शेष बताया जाता है, ऐसे में जल संकट और भी भयावह होने वाला है। कहने को तो सरकार ने पानी की वैकल्पिक व्यवस्था करने के इंतजाम कर दिए हैं। इनमें टैंकरों से सूखाग्रस्त क्षेत्रों में पेयजल पहुंचाने के आदेश दिए गए हैं, लेकिन इससे क्या, क्योंकि जहां टैंकर पहुंचते भी हैं तो वो नाकाफी होते हैं, क्योंकि उनका रोटीन तो 20 से 25 दिन में एक बार ही आने का होता है। ऐसे हालात में पूरा गांव अपना काम धंधा छोड़कर यहां से वहां पानी की तलाश में भटकता फिरता है। समस्या के समाधान में सबसे बड़ी वजह जो अवरोधक बनती है वह राजनीतिक जुमलेबाजी ही है। वादों का पूरा नहीं करना। सत्ता हासिल करने के लिए बड़े-बड़े वादे करना और फिर कुर्सी में बैठते हुए सब कुछ भूल जाना। उन राजनीतिक पार्टियों और नेताओं से पूछा जाना चाहिए कि चुनाव के समय में जनता से बड़े-बड़े वादे जो किए जाते हैं, उनका सही से पालन क्यों नहीं होता है। चुनाव के दौरान कहा जाता है कि हर छोटी बड़ी समस्या का समाधान तलाश लिया जाएगा और गांवों को चमन कर दिया जाएगा। किसी को मूलभूत आवश्यकताओं के लिए भटकना नहीं पड़ेगा, लेकिन सरकार बनते ही तमाम वादों को भुला दिया जाता है और उन्हें जुमले करार दिए जाते हैं, ताकि सरकार की दहलीज पर कोई उनके किए वादों की याद दिलाने न पहुंचने पाए। एक तरह से आमजन के लिए सरकार के बंगलों और दफ्तरों के दरबाजे पूरी तरह बंद कर दिए जाते हैं और चंद अमीरजादों के बीच बैठकर सरकार-सरकार खेलने का जो खेल खेला जाता है उससे वो चंद अमीर ही फायदा उठा पाते हैं, जो हमेशा सरकार की नजरों के सामने रहते हैं। ऐसे हालात में महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त क्षेत्र के निवासी तेज आवाज में अपनी मांगों को रख भी नहीं सकते हैं, क्योंकि यदि अपनी बात ऊंची आवाज में रख दी तो सूखते गले की प्यास बुझाएंगे कैसे और नहीं कह पाए तो प्यासे मरना ही मरना है। इसलिए विपक्ष तो सरकार पर अकाल से निपटने में नाकाम रहने का आरोप लगा कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेता है, जबकि सरकार में बैठे लोग दिलासा देते नजर आते हैं कि आज नहीं तो कल हालात सुधर ही जाएंगे। मतलब सब रामभरोसे ही चलता दिखता है, इसलिए नाराज आमजन कहता दिखता है कि जब रामभरोसे ही रहना है तो फिर ये सरकारें आखिर किस काम की हैं और ये किसके प्रति जवाबदेही रखती हैं, क्योंकि अपनी सरकार बनाने वाला आमजन तो त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रहा है। महाराष्ट्र के सूखे के हालात ये हैं कि यवतमाल जिले का आजंती गांव सूखे के कारण बदनाम हो चुका है और कोई अपनी लड़की की शादी इस गांव के लड़के से करने को तैयार नहीं होता है। पानी की कमी के चलते युवा अविवाहित हैं। इनकी अपनी घर बसाने और परिवार चलाने की समस्या है, लेकिन क्या किया जाए क्योंकि शासन-प्रशासन तो समस्या के समाधान मामले में निकम्मा जो साबित हो रहा है। फिलहाल प्रशासन ने ऐसे करीब आठ सौ गांवों को सूखाग्रस्त घोषित किया हुआ है, जहां वाकई अकाल की स्थिति उत्पन्न हो गई है। इससे निपटने के लिए जरुरी हो गया है कि इन ग्रामीण अंचलों को ज्यादा से ज्यादा हरा-भरा बनाया जाए और ज्यादा से ज्यादा जल स्रोतों को उपलब्ध कराया जाए। इसके बगैर जल संकट का कोई समाधान नहीं है। वर्ना अभी तो जल के अभाव में किसान और ग्रामीणजन अपने मवेशियों को आधे दामों में बेंचने को मजबूर हुए हैं, कल के लिए उनकी अपनी जिंदगी भी दूभर हो जाएगी। वैसे भी अनेक ग्रामों के लोग शहर की ओर पलायन कर चुके हैं, जिस कारण गांवों के घरों में ताले लटके दिखाई दे रहे हैं। अब सवाल यह उठता है कि यह जल संकट अचानक तो आया नहीं है, फिर इससे बचने के उपाय पहले से क्यों नहीं किए गए हैं। यही वह सवाल है, जो सरकार के कामकाज पर सवालिया निशान लगाता है।

बौद्ध दर्शन में है जीवन का यथार्थ
प्रो.शरद नारायण खरे
(बुध्द पूर्णिमा 18मई पर विशेष) बौद्ध दर्शन से अभिप्राय उस दर्शन से है जो भगवान बुद्ध के निर्वाण के बाद बौद्ध धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों द्वारा विकसित किया गया और बाद में पूरे एशिया में उसका प्रसार हुआ। ‘दुःख से मुक्ति’ बौद्ध धर्म का सदा से मुख्य ध्येय रहा है। कर्म, ध्यान एवं प्रज्ञा इसके साधन रहे हैं।
बुद्ध के उपदेश तीन पिटकों में संकलित हैं। ये सुत्त पिटक, विनय पिटक और अभिधम्म पिटक कहलाते हैं। ये पिटक बौद्ध धर्म के आगम हैं। क्रियाशील सत्य की धारणा बौद्ध मत की मौलिक विशेषता है। उपनिषदों का ब्रह्म अचल और अपरिवर्तनशील है। बुद्ध के अनुसार परिवर्तन ही सत्य है। पश्चिमी दर्शन में हैराक्लाइटस और बर्गसाँ ने भी परिवर्तन को सत्य माना। इस परिवर्तन का कोई अपरिवर्तनीय आधार भी नहीं है। बाह्य और आंतरिक जगत् में कोई ध्रुव सत्य नहीं है। बाह्य पदार्थ “स्वलक्षणों” के संघात हैं। आत्मा भी मनोभावों और विज्ञानों की धारा है। इस प्रकार बौद्धमत में उपनिषदों के आत्मवाद का खंडन करके “अनात्मवाद” की स्थापना की गई है। फिर भी बौद्धमत में कर्म और पुनर्जन्म मान्य हैं। आत्मा का न मानने पर भी बौद्धधर्म करुणा से ओतप्रोत हैं। दु:ख से द्रवित होकर ही बुद्ध ने सन्यास लिया और दु:ख के निरोध का उपाय खोजा। अविद्या, तृष्णा आदि में दु:ख का कारण खोजकर उन्होंने इनके उच्छेद को निर्वाण का मार्ग बताया।
अनात्मवादी होने के कारण बौद्ध धर्म का वेदांत से विरोध हुआ। इस विरोध का फल यह हुआ कि बौद्ध धर्म को भारत से निर्वासित होना पड़ा। किन्तु एशिया के पूर्वी देशों में उसका प्रचार हुआ। बुद्ध के अनुयायियों में मतभेद के कारण कई संप्रदाय बन गए। जैन संप्रदाय वेदांत के समान ध्यानवादी है। इसका चीन में प्रचार है।
सिद्धांत भेद के अनुसार बौद्ध परंपरा में चार दर्शन प्रसिद्ध हैं। इनमें वैभाषिक और सौत्रांतिक मत हीनयान परंपरा में हैं। यह दक्षिणी बौद्धमत हैं। इसका प्रचार भी लंका में है। योगाचार और माध्यमिक मत महायान परंपरा में हैं। यह उत्तरी बौद्धमत है। इन चारों दर्शनों का उदय ईसा की आरंभिक शब्ताब्दियों में हुआ। इसी समय वैदिक परंपरा में षड्दर्शनों का उदय हुआ। इस प्रकार भारतीय पंरपरा में दर्शन संप्रदायों का आविर्भाव लगभग एक ही साथ हुआ है तथा उनका विकास परस्पर विरोध के द्वारा हुआ है। पश्चिमी दर्शनों की भाँति ये दर्शन पूर्वापर क्रम में उदित नहीं हुए हैं।
वसुबंधु, कुमारलात, मैत्रेय और नागार्जुन इन दर्शनों के प्रमुख आचार्य थे। वैभाषिक मत बाह्य वस्तुओं की सत्ता तथा स्वलक्षणों के रूप में उनका प्रत्यक्ष मानता है। अत: उसे बाह्य प्रत्यक्षवाद अथवा “सर्वास्तित्ववाद” कहते हैं। सैत्रांतिक मत के अनुसार पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं, अनुमान होता है। अत: उसे बाह्यानुमेयवाद कहते हैं। योगाचार मत के अनुसार बाह्य पदार्थों की सत्ता नहीं। हमे जो कुछ दिखाई देता है वह विज्ञान मात्र है। योगाचार मत विज्ञानवाद कहलाता है। माध्यमिक मत के अनुसार विज्ञान भी सत्य नहीं है। सब कुछ शून्य है। शून्य का अर्थ निरस्वभाव, नि:स्वरूप अथवा अनिर्वचनीय है। शून्यवाद का यह शून्य वेदांत के ब्रह्म के बहुत निकट आ जाता है।
बौद्ध दर्शन अपने प्रारम्भिक काल में जैन दर्शन की ही भाँति आचारशास्त्र के रूप में ही था। बाद में बुद्ध के उपदेशों के आधार पर विभिन्न विद्वानों ने इसे आध्यात्मिक रूप देकर एक सशक्त दार्शनिकशास्त्र बनाया। बुद्ध द्वारा सर्वप्रथम सारनाथ में दिये गये उपदेशों में से चार आर्यसत्य इस प्रकार हैं :- ‘दुःखसमुदायनिरोधमार्गाश्चत्वारआर्यबुद्धस्याभिमतानि तत्त्वानि।’ अर्थात् –
1. दुःख- संसार दुखमय है।
2. समुदय – दुख उत्पन्न होने का कारण है (तृष्णा)
3. निरोध- दुख का निवारण संभव है।
4. मार्ग- दुख निवारक मार्ग (आष्टांगिक मार्ग)
बुद्धाभिमत इन चारों तत्त्वों में से दुःखसमुदाय के अन्तर्गत द्वादशनिदान (जरामरण, जाति, भव, उपादान, तृष्णा, वेदना, स्पर्श, षडायतन, नामरूप, विज्ञान, संस्कार तथा अविद्या) तथा दुःखनिरोध के उपायों में अष्टांगमार्ग (सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीव, सम्यक् प्रयत्न, सम्यक् स्मृति तथा सम्यक् समाधि) का विशेष महत्व है। इसके अतिरिक्त पंचशील (अहिंसा, अस्तेय, सत्यभाषण, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह) तथा द्वादश आयतन (पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, पंच कर्मेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि), जिनसे सम्यक् कर्म करना चाहिए- भी आचार की दृष्टि से महनीय हैं। वस्तुतः चार आर्य सत्यों का विशद विवेचन ही बौद्ध दर्शन है,जो दुख, समुदय, निरोध व मार्ग केे रूप मेंं न केवल हमेें चेतना देता
है, बल्कि हमें जीवन जीने का मार्ग भी दिखाता है।

अमेरिका: वैश्विक ‘थानेदारी’ की बढ़ती सनक
तनवीर जाफरी
अमेरिका व ईरान के संबंध हालांकि गत् चार दशकों से तनावपूर्ण चल रहे हैं। परंतु पिछले दिनों अमेरिका द्वारा मध्यपूर्व में विमानवाहक युद्धपोत यूएसएस अब्राहम लिंकन तैनात करने के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि इन दोनों देशों में किसी भी समय युद्ध भी छिड़ सकता है। अमेरिका ने इससे पहले लंबे समय तक ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए। इतना ही नहीं बल्कि अमेरिका ने ईरान के अनेक सहयोगी देशों को भी ईरान से अलग-थलग करने की कोशिश की। ईरान द्वारा की जाने वाली तेल की बिक्री को बाधित किया। कई देशों को ईरान से तेल न लेने के निर्देश दिए गए। कई देशों से ईरान से व्यापार प्रतिबंधित कराए गए। यह सब केवल इसलिए किया गया ताकि ईरान को आर्थिक रूप से कमज़ोर किया जा सके। अमेरिका ईरान की वर्तमान सरकार को अस्थिर कर वहां सत्ता परिवर्तन कराना चाहता है। कुल मिलाकर अमेरिका की यही मंशा है कि वह आर्थिक व सामरिक सभी मोर्चों पर ईरान को कमज़ोर करे। गौरतलब है कि अमेरिका द्वारा थोपे गए युद्ध व अस्थिरता की मार झेलने वाले इराक व सीरिया जैसे देशों के बाद ईरान ही मध्यपूर्व में इस समय सबसे मज़बूत देश है। ज़ाहिर है अमेरिका अपनी अंतर्राष्ट्रीय नीति के तहत दुनिया के किसी भी देश को शक्तिशाली देश के रूप में देखना नहीं चाहता। खासतौर पर उन देशों को तो कतई नहीं जो इसराईल व अरब की तरह अमेरिका की खुशामदपरस्ती न करते हों। ईरान 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद अब एक ऐसे देश के रूप में स्थापित हो चुका है जहां के लोग अमेरिका की आंखों से आंखें मिलाकर बात करने का साहस रखते हैं। वे अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद शिक्षा,साईंस,टेक्नोलजी तथा सामरिक क्षेत्र में निरंतर आगे बढ़ते जा रहे हैं।
वैसे भी अमेरिका व ईरान के मध्य पैदा हुई तल्खी का इतिहास लगभग 40 वर्ष पुराना है। 1979 से पूर्व शाह रज़ा पहलवी जो ईरान के बादशाह थे जो पश्चिमी सभ्यता के पैरोकार होने के साथ-साथ अमेरिका की कठपुतली बनकर रहा करते थे। अमेरिका को ईरान का वह दौर पसंद था। परंतु उस दौर में ईरान के लोग पथभ्रष्ट हो रहे थे। वहां का समाज पश्चिमी सभ्यता में डूबता जा रहा था। अनेक गैर इस्लामी तथा गैर इंसानी कृत्य हुआ करते थे। तानाशाही के उस दौर में अनेक धर्मावलंबी लोगों को तरह-तरह के ज़ुल्म व ज़्यादतियों का सामना करना पड़ता था। इसी दौर में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे आयतुल्ला खुमैनी की ईरान वापसी हुई। खोमैनी ईरानी समाज के पश्चिमीकरण के लिए तथा धीरे-धीरे अमेरिका पर बढ़ती जा रही निर्भरता के लिए शाह को ही जि़म्मेदार मानते थे। यदि हम शाह पहलवी के पूर्व के ईरान पर भी नज़र डालें तो 1953 से पहले भी ईरान में मोहम्मद मूसा देगा की लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार थी। उन्होंने ही ईरान के तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण किया था। परंतु उस समय भी अमेरिका व ब्रिटेन ने साजि़श रचकर ईरान की लोकतांत्रिक मूसा देगा सरकार को अपदस्थ करवाकर शाह रज़ा पहलवी को सत्ता सौंप दी थी। ज़ाहिर है ऐसे में अमेरिका की कठपुतली बने शाह ने ईरान के भविष्य का हर फैसला अमेरिकी हितों तथा उसकी इच्छाओं के अनुरूप ही लेना था।
अमेरिका 1979 की इस्लामी क्रांति के फौरन बाद ईरान में घटी उस घटना को भी नहीं भूल पा रहा है जिसने अमेरिका के विश्व के सर्वशक्तिमान होने के भ्रम को तोड़ दिया था। शाह के तख्तापलट के फौरन बाद जैसे ही ईरान व अमेरिका के राजनयिक संबंध समाप्त हुए उसके साथ ही ईरानी छात्रों के एक बड़े समूह ने तेहरान में अमेरिकी दूतावास पर अपना नियंत्रण कर लिया। दूतावास में 52 अमेरिकी नागरिकों को 444 दिनों तक बंधक बनाकर रखा गया। ईरान के लोग उस समय तत्कालीन राष्ट्रपति जिम्मी कार्टर से शाह पहलवी को वापस ईरान भेजे जाने की मांग कर रहे थे। उस समय शाह न्यूयार्क में कैंसर का इलाज करवा रहे थे। बाद में मिस्र में शाह पहलवी का देहांत हो गया। परंतु अमेरिकी बंधकों को ईरानी छात्रों ने उस समय तक नहीं छोड़ा जबतक कि अमेरिका में जिम्मी कार्टर का शासन समाप्त नहीं हुआ और रोनाल्ड रीगन अमेरिका के नए राष्ट्रपति नहीं बने। अमेरिका उस समय से लेकर अब तक यही मानता आ रहा है कि ईरान की इस्लामी क्रांति तथा इस्लामी क्रांति के प्रमुख आयतुल्ला खुमैनी का भी इस पूरे बंधक प्रकरण में पूरा समर्थन व योगदान था। 1979 की क्रांति के बाद अमेरिका ने ईरान को सबक सिखाने का एक दूसरा रास्ता यह चुना कि उसने ईरान के पड़ोसी देश इराक को ईरान के विरुद्ध उकसाकर 1980 में ईरान पर आक्रमण करवा दिया। आठ वर्षों तक चले इस इराक-ईरान युद्ध में एक अनुमान के अनुसार दोनों ही देशों के लगभग पांच लाख लोग मारे गए थे। कहा जाता है कि इसी युद्ध में इराक द्वारा ईरान के विरुद्ध रासायनिक हथियारों का प्रयोग किया गया था जिसका प्रभाव ईरान पर काफी लंबे समय तक देखा गया। इसी युद्ध के बाद ईरान ने परमाणु हथियारों की संभावनाओं की ओर देखना शुरु किया था।
वर्तमान समय में ईरान को इज़राईल जैसे उस पड़ोसी देश से पूरा खतरा है जो परमाणु शस्त्र संपन्न देश है। सऊदी अरब का शाही घराना गत् कई दशकों से अमेरिका की गोद में बैठकर न केवल ईरान के विरुद्ध साजि़शें रच रहा है बल्कि प्रत्येक ऐसे मानवाधिकार विरोधी कार्य कर रहा है जिसकी अन्य देशों में किए जाने पर अमेरिका निंदा किया करता है। अमेरिका न तो इज़राईल के ‎फिलिस्तीनियों पर किए जा रहे अत्याचार की आलोचना करता है न ही सऊदी अरब शासन द्वारा किए जाने वाले ज़ुल्म पर अपनी कोई प्रतिक्रिया देता है। पूरे विश्व में लोकतंत्र की हिमायत करने वाले अमेरिका को सऊदी अरब में लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करने या चुनाव कराने की ज़रूरत महसूस नहीं होती। अमेरिका को केवल चीन,रूस,उत्तर कोरिया,ईरान,वेनेज़ुएला,सीरिया,यमन,मिस्र जैसे देश ही दिखाई देते हैं। यदि हम पूरे विश्व के मानचित्र पर नज़र डाल कर देखें तो हम यही पाएंगे कि दुनिया के जिन-जिन देशों ने अपने स्वाभिमान की रक्षा करने की कोशिश की तथा अमेरिका के आगे नतमस्तक होने से इंकार किया वही देश अमेरिका की नज़रों में न केवल अलोकतांत्रिक हैं बल्कि उन्हीं देशों में मानवाधिकारों का हनन भी हो रहा है । दुनिया यह भी जानती है कि अमेरिका किसी भी स्वाभिमानी व आत्मनिर्भर राष्ट्र का सगा दोस्त नहीं है। इराक जैसे देश का उदाहरण सबके सामने है।
अब अमेरिका ने ईरान को उसके द्वारा चलाए जाने वाले परमाणु कार्यक्रम को लेकर घेरना शुरु कर दिया है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ईरान को शैतान की धुरी का नाम दे चुके हैं तो दूसरी ओर अमेरिका का परम सहयोगी देश इज़राईल भी अपने लिए ईरान को ही सबसे बड़ा खतरा मान रहा है। अमेरिका द्वारा मध्य-पूर्व के समुद्री क्षेत्र में अपने दो विमानवाहक युद्धपोत तैनात करने के बाद ईरान ने अपने-आप को 2015 में हुए अंतर्राष्ट्रीय परमाणु समझौते से आंशिक रूप से अलग कर लिया है। अमेरिका पिछले वर्ष ही स्वयं को इस समझौते से अलग कर चुका था। इस बीच यह भी खबर है कि अमेरिका ने बड़ी संख्या में बी-52 लड़ाकू विमानों को भी इस क्षेत्र में भेज दिया है। अभी कुछ ही दिन पूर्व ईरान के रेव्यूलेशनरी गार्ड कापर््स को भी अमेरिका ने आतंकवादियों का गिरोह बताते हुए उसे काली सूची में डाल दिया थी। इन सब तेज़ी से बदलते घटनाक्रमों के बीच पिछले दिनों अमेरिकी विदेश मंत्री माईक पाम्पियो अपनी जर्मनी की यात्रा को रद्द करके अचानक इराक की राजधानी बगदाद जा पहुंचे। ऐसा माना जा रहा है कि उन्होंने अमेरिका व ईरान के बीच बनते जा रहे जंग के माहौल के संबंध में ही इराकी नेताओं के साथ बैठक की है। यदि अमेरिका ईरान पर युद्ध थोपता है तो पूरे विश्व पर इसका क्या दुर्भाव होगा यह तो वक्त ही बताएगा परंतु यह तो तय है कि अमेरिकी थानेदारी की बढ़ती सनक पूरे विश्व को अस्थिरता तथा संकट की ओर ले जा रही है।

मोदी जी ‘विभाजक’ अधिक; ‘सुधारक’ कम…..!
ओमप्रकाश मेहता
भारत में लोकसभा चुनावों के दौर में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त ‘टाईम’ पत्रिका ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी पर दस पृष्ठीय विश्लेषण प्रस्तुत किया है, जिसके सात पृष्ठो में मोदी जी को ‘विभाजक’ और लोक लुभावनवादी बताया गया है, जबकि तीन पृष्ठों में उन्हें ‘सुधारवादी’ बताया गया है।
‘टाईस’ पत्रिका के वरिष्ठ लेखक आतिश तासीर ने जहां अपने नाम के अनुसार भारतीय सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री जी के लिए ‘आतिश’ (विस्फोटक पदार्थ) का काम किया है, वहीं एक अन्य लेखक इवान ब्रेमर ने मोदी जी को ‘सुधारवादी’ बताने की कौशिश की है और उनके पांच साला कार्यकाल का विश्लेषण किया है।
अपने सात पृष्ठीय विश्लेषण में जहां आतिश तासीर ने अपनी ‘आतीशी तासिर’ बताने की कौशिश की और मोदी पर आरोप लगाया कि ‘‘वे एक बार फिर गढ़े हुए राष्ट्रवाद के सहारे सत्ता में आना चाहते है।’’ तासीर ने अपने विश्लेषण की शुरूआत 2014 से करते हुए मोदी जी द्वारा 2014 में लिए गए मनमोहक वादों का स्मरण किया तथा स्पष्ट रूप से कहा कि वे वादे आज भी अधूरे है और देश की आम जनता आज भी उनके पूरे होने की वाट जोह रही है। कहा गया है कि मोदी जी ने अपनी लोकप्रियता के विस्तार हेतु तुर्की, ब्राजिल, ब्रिटेन और अमेरिका के भारतीय बहुसंख्यक वर्ग को साधने की कौशिश की। कहा गया कि मोदी ने देश के संस्थापक पितामहों जवाहरलाल के सिद्धांतों व अन्यों को बदनाम करने की कौशिशें की और अपने को इनसे अधिक राष्ट्रभक्त व सुधारक बताया। नेहरू के धर्म निरपेक्ष समाजवाद को खत्म करने का प्रयास किया। यह भी लिखा गया कि मोदी ने भारत के हिन्दुओं व मुसलमानों के बीच वैमनस्यता बढ़ाने की कौशिशें की। उन्होंने उदारवादी संस्कृति के बजाए धार्मिक राष्ट्रवाद, जातिवादी, कट्टरता व मुस्लिमों के प्रति हीन भावना को आगे बढ़ाया। मोदी के शासनकाल में पुराने उच्च आदर्श शक्तिशाली ‘एलिट क्लाॅस’ का खेल लगने लगे। मोदी ने अपने पांच वर्षीय शासनकाल में युवा, महिला, गरीब सभी की उपेक्षा की व इनके लिए किए गए वादों की पूर्ति पर ध्यान नहीं दिया, इस कारण बेरोजगारी का आंकड़ा दिन दूना रात चैगुना बढ़ता गया। इस विश्लेषण में आतिश ने गाय के नाम पर की गई कुछ हत्याओं का भी जिक्र किया। लिखा गया कि मोदी ने बिखरे हुए प्रतिपक्ष व राहुल गांधी की बचकानी हरकतों व अनुभवहीनता का पूरा राजनीतिक लाभ उठाने की कौशिश की। मोदी अब अपने ही द्वारा गढ़े गए नव राष्ट्रवाद के सहारे पुनः सत्ता प्राप्त करना चाहते है। वे पाकिस्तान, राष्ट्रवाद व सैना के शौर्य के बलबूते पर फिर से सत्ता में वापसी चाहते है, अपनी पांच साला उपलब्धियों के बल पर नहीं। आतिश ने आरोप लगाया कि भारतीय सांस्कृतिक अनुसंधान परिषद से लेकर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय तक प्रशासकों व प्रोफेसरों का चयन योग्यता के आधार पर नहीं बल्कि राजनीतिक समर्पण भाव के आधार पर किया। इस के बावजूद आतिश का कहना है कि अपनी भाषण कला के आधार पर वे फिर सत्ता हथिया सकते है।
एक और जहां आतिश तासीर ने सात पृष्ठों में मोदी जी की कथित असलियत उजागर करने की कौशिशें की वहीं शेष तीन पृष्ठों पर इवान बे्रमर ने मोदी जी की तारीफ में लिखा कि- ‘‘मोदी पहले की तुलना में अब ज्यादा लोकप्रिय नतीजें दे सकते है।’’ लेखक की धारण है कि मोदी के विकास कार्यक्रमों ने लाखों लोगों के जीवनस्तर को बेहतर बनाया व बेहतर अवसर पैदा किये। श्री ब्रेमर ने लिखा कि हांलाकि भारत विश्व की सबसे तेज गति में बढ़ने वाली बड़ी अर्थव्यवस्था का स्पर्धी है, पर पिछली जनवरी में लीक एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार 2017 में बेरोजगारी की दर पिछले 45 वर्षों में सबसे ज्यादा (6.1 फीसदी) रही, फिर भी मोदी ऐसे शख्स है जो अच्छे नतीजे दे सकते है उन्होंने चीन, अमेरिका व जापान से सम्बंध सुधारे है व इन देशों से काफी अपेक्षाएं की जा रही है।
ब्रेमर के अनुसार मोदी ने सबसे पहले यह महसूस किया कि सरकार के पास खर्च करने के लिए ज्यादा पैसा हो, 2017 में लागू जीएसटी ने केन्द्र व राज्यों के पैचिदा कर ढ़ांचे को चुस्त-दुरूस्त करने का प्रयास किया। जिसका लाभ अभी भी मिल रहा है। साथ ही इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए भारी धनराशि आवंटित की, माइक्रो-हाईवे, पब्लिक ट्रांसपोर्ट और विमान तलों के निर्माण में विश्वस्तरीयता का ख्याल रखा।
लेखक ने यूपीए सरकार के समय के आधार कार्ड में सुधार तथा तीस करोड़ गरीबों के बैंक खाते खुलवाने का भी जिक्र किया। ऐसे कदमों ने भ्रष्टाचार में कमी की है। साथ ही जन स्वास्थ्य बीमा योजना से पचास करोड़ को लाभ मिलने व उज्जवला योजना से गरीब वर्ग में रसोई गैस कनेक्शन बांटने की भी तारीफ की गई। इस प्रकार पत्रिका के दोनों ख्यातनाम लेखकों ने मोदी जी पर सटीक व प्रभावी विश्लेषण पेश किया है, इससे मोदी जी को राजनीतिक लाभ मिलता है या उनकी छवि प्रभावित होती है? यह तो अगले सप्ताह ही पता चल पाएगा।

अंकों की अंधी दौड़ में बच्चों को नहीं ढकेले माता-पिता
सनत जैन
मई माह तक अधिकांश स्कूल और कालेजों के परीक्षा परिणाम आते हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में इस समय छात्र-छात्राएं परिणाम के बाद या परिणाम आने के पूर्व ही डर भय और अवसाद के कारण घर छोड़कर भाग जाते हैं, या आत्महत्या कर लेते हैं। ऐसे समाचार परीक्षा परिणाम आने के समय बड़ी संख्या में देखने को मिलते हैं। बच्चों और युवाओं में कम नंबर आने के बाद उनका आत्मविश्वास लगभग खत्म हो जाता है। उन्हें लगता है, कि कैरियर बनाने के लिए जो अवसर मिला था, वह समाप्त हो गया है। जिसके चलते वह इतने मानसिक दबाव में होते हैं, कि वह आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं। इसमें बच्चों और युवाओं से ज्यादा गलती, उनके माता-पिता की होती है। जो बच्चे को बालपन से ही अंको की दौड़ में शामिल कर देते हैं। कम अंक आने से उनका विश्वास डिगने लगता है। माता-पिता उनके कम अंक लाने से उन पर नाराज होते हैं। धीरे-धीरे बच्चों की पढ़ाई से या तो रूचि खत्म हो जाती है, या जिस कैरियर बनाने के लिए वह निकले थे। जब वह सपना पूरा नहीं होता है, तो वह आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं।
सामाजिक एवं पारिवारिक रिश्तो में दरार
अंको की इस अंधी दौड़ ने पारिवारिक एवं सामाजिक रिश्तो में बड़ी दरार पैदा कर दी है। मेरिट में सहेली या बच्चे के दोस्त के एक या दो नंबर कम ज्यादा हो जाने से मां क्लासटीचर भी लड़ जाती है, कि उनके बच्चे को जानबूझकर कम नंबर दिए हैं। इसी तरह अंको की दौड़ ने बच्चों की दोस्ती को दुश्मनी में बदल दिया है। माता पिता के रिश्ते भी अब अंको के कारण बनते और बिगड़ते रहते हैं। जिसके कारण जो आत्मीय रिश्ता बच्चे का माता-पिता से बनना चाहिए था। वह बनने के पहले ही बिखरने लगता है।
स्कूल कॉलेज बने ढोर (पशु) बाजार
मीडिया और शैक्षिक संस्थानों ने डिग्री को रोजगार नौकरी का बाजार बनाकर प्रचारित किया है। इसका असर माता पिता पर सबसे ज्यादा हुआ है। उन्हें लगता है कि महंगे स्कूल और कालेजों में अपने बच्चों को पढ़ाकर, उनका भविष्य बेहतर बना देंगे। डिग्री मिलते ही उन्हें लाखों रुपए का पैकेज मिल जाएगा। इस मानसिकता ने बच्चों के ऊपर बेहतर अंक लाने और प्रतिस्पर्धा में बने रहने का बचपन से ही दबाव बना दिया है। माता-पिता सोचते हैं, कि मोटी फीस देखकर वह अपने बच्चों के ऊपर उपकार कर रहे हैं, या उसका बेहतर भविष्य बना रहे हैं। लेकिन इसके ठीक विपरीत असर होता है। अंको के मानसिक दबाव से बच्चा अपनी प्रतिभा को खोने लगता है। वह पशुओं की तरह टाइप्ड ज्ञान जो बहुत सीमित होता है, उसी से अंक लेकर प्रतिस्पर्धा की दौड़ में शामिल होता है। जिसमें 1 फ़ीसदी भी कैरियर बनाने में सफल नहीं हो पाते हैं। 99 फ़ीसदी युवा असफल होने के कारण अपने परिवार और समाज से धीरे-धीरे दूर होकर विद्रोही होने लगते हैं। डिग्री से रोजगार प्रचारित करके शिक्षण संस्थानों ने पिछले दो दशक में अरबों रुपए की कमाई की है। इसी तरह मीडिया हाउस ने भी अरबों रुपयों की कमाई की है। लेकिन माता पिता से बच्चे दूर होते चले गए। वहीं डिग्री लेकर भी 8 करोड़ से ज्यादा स्नातक युवा बेरोजगार घूम रहे हैं। धीरे-धीरे यह अपराध की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं। कैम्पस सिलेक्शन के नाम पर कालेज में युवाओं को ढोर बाजार की तरह पेश किया जाता है। यहां पर समझना जरुरी होते हैं, युवा संवेदनशील होते हैं। सफल और असफल होने पर उन पर मानसिक दबाव बनता है।
डॉक्टर इंजीनियर और सरकारी नौकरी सभी को नहीं मिल सकती
पिछले 25 वर्षों में भारतीय समाज में पढ़ाई अच्छे नंबर, अच्छे कॉलेज से डिग्री लेने पर माना जाता है, कि उसके बाद उनके बच्चों का भविष्य पूरी तरह सुरक्षित हो जाएगा। वास्तविकता यह है की अंको की दौड़ में 100 में से 40 बच्चों को यदि अच्छे नंबर मिल भी गए। हर विषय के हर साल लाखों बच्चे उच्च शिक्षा संस्थानों से निकलते हैं। सरकारी और कारपोरेट नौकरी कुछ हजार लोगों को ही मिल पाती है। उसमें भी लाखों रुपए की रिश्वत या कोचिंग के रूप में खर्च होते हैं। वर्तमान शिक्षा पद्धति में जो बच्चे डिग्री लेकर बाहर निकल रहे हैं। उन्हें अन्य कोई ज्ञान ना होने के कारण वह किसी अन्य नौकरी या अन्य काम के लिए उपयोगी नहीं हो पाते हैं। पिछले कई वर्षों से पीएचडी, स्नातक और परास्नातक युवाओं को अच्छे तरीके से ना तो अंग्रेजी लिखना आती है, नाही हिंदी, उन्हें कंप्यूटर का भी कोई ज्ञान नहीं होता है। सेमेस्टर सिस्टम के कारण आगे पाठ और पीछे सपाट के कारण उन्हें अपने विषय का भी मूल ज्ञान नहीं होता है। ऐसी स्थिति में करोड़ों युवा, अंको की दौड़ तथा डिग्री होते हुए बेरोजगार हैं। यह माता पिता और समाज के लिए भी सबसे बड़ी चिंता का विषय हैं।
बच्चों के टैलेंट को पहचाने, सही शिक्षा को प्रेरित करें
हर माता-पिता अपने बच्चों को बेहद प्यार करते है। इसमें कोई शक नहीं है। बच्चों को तो कोई ज्ञान नहीं होता है। लेकिन मां-बाप को बेहतर समझ होती है। बच्चों के लिए जीवन जीने की शिक्षा भी जरूरी है। प्राइमरी और मिडिल की शिक्षा में मातृभाषा, हिंदी, अंग्रेजी तथा कंप्यूटर का बेहतर ज्ञान होने पर, बच्चे की जिस विषय में रुचि युवा अवस्था में बनेगी। वह उसमें आगे बढ़ेगा। भाषा और कंप्यूटर का ज्ञान होने के कारण उसे जो भी अवसर मिलेंगे। वह उसको हमेशा आगे बढ़ाते रहेंगे। डिग्री से कोई ज्ञान हासिल नहीं होता है। जब तक उसका व्यवहारिक ज्ञान ना हो। यह बात माता-पिता को समझनी होगी। वर्तमान समय में हजारों सेवा और रोजगार के नए क्षेत्र विकसित हुए हैं। जहां करोणों प्रशिक्षित लोगों की जरुरत है। योग्यता के आधार पर कम पढ़े लिखे लोग भी लाखों रुपए कमा रहे हैं। उनकी समाज में विशिष्टता बनी हैं।
भारतीय शिक्षा पद्धति
भारत में हमेशा से शिक्षा देने का काम माता-पिता और गुरुजन करते रहे हैं। माता-पिता बच्चों को जीवन जीने के लिए सभी सामाजिक और पारिवारिक कार्यों से जोड़कर, आत्मीयता के साथ उसे अक्षर ज्ञान दिलाकर आगे बढ़ाने का काम करते है। पिछले दो दशक में केवल स्कूली किताबी ज्ञान और कॉलेज में आने के बाद सेमेस्टर सिस्टम का किताबी ज्ञान का बोझ बच्चों के ऊपर डाल दिया जाता है। वह सामाजिक एवं पारिवारिक जिम्मेदारियों से भी नहीं जुड़ पाते हैं। जिसके कारण उच्चशिक्षा की पढ़ाई करने के बाद भी समाज और परिवार के किसी काम के लिए तैयार नहीं हो पाते हैं। बच्चा जो काम लगातार होते हुए देखता है। उसी को करने लगता है। उसी काम में विशेषज्ञता के साथ अपना विशेष स्थान बनाता हुआ, आया है। अंको की अंधी दौड़ ने कालेजों का फायदा कराया है। किंतु बच्चों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। अब इसका असर परिवार और समाज के बीच हो रहा है, इसे समझना आवश्यक है।
औपचारिक शिक्षा जरुरी नहीं
नोबेल पुरस्कार विजेता रविंद्र नाथ टैगोर ने कोई औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की थी। भारत के पूर्व राष्ट्रपति एवं मिसाइल में अब्दुल कलाम आजाद मात्र स्नातक थे। 1990 तक भारत के तकनीकी और अन्य क्षेत्रों में केवल स्नातक व्यक्ति भारत और विश्व स्तर पर, उच्च पदों पर पहुंचे। दुनिया भर के जो सफल व्यक्ति हैं। उनमें से अधिकांश हायर सेकेंडरी की परीक्षा भी पास नहीं कर पाए। बीच में पढ़ाई छोड़ कर उन्होंने रोजगार व्यवसाय और शोध के क्षेत्र में नए-नए काम करके करोड़ों अरबों रुपए कमाकर विशिष्ट स्थान बनाया। ऐसे उदाहरणों की कोई कमी नहीं है। भारत की आचार्य परंपरा जो वास्तविक ज्ञान के आधार पर बोलकर सुनकर और लिखकर आचार्य परंपरा के माध्यम से ज्ञान को सतत आगे बढ़ाती रही है। शंकराचार्य, संत महात्मा, कबीर और जैन आचार्य विद्यासागर जैसे हजारों उदाहरण है। जिनकी औपचारिक शिक्षा ना के बराबर थी। किंतु इन्होंने कई भाषाओं में कई विषयों में ग्रंथ लिखकर और सामान्य भाषा में उसे प्रतिपादित करके शिक्षा का विकास के क्रम में सही महत्व समय-समय पर देने का काम किया है। वर्तमान स्थिति में माता-पिता अपने बच्चों को पशुओं की तरह सीमित शिक्षा देकर उनके गले में डिग्री के टेक लगवाकर, उनके साथ बहुत बड़ी नाइंसाफी कर रहे हैं। माता-पिता अपने बच्चों को जिन्हें वह सबसे ज्यादा प्यार करते हैं। उन्हीं के भविष्य से अनजाने में खिलवाड़ कर रहे हैं, उससे बचें। बच्चे भले कम अंक लाएं, लेकिन बच्चों में ईश्वर ने उन्हें कोई ना कोई विशिष्ट गुण और विशिष्ट रुचि के साथ पैदा होता है। माता-पिता अब भगवान बनने की चेष्टा कर रहे हैं। वह अपनी मर्जी से बच्चों को अपनी इच्छा से वह बनाना चाहते हैं, जिसके लिए वह तैयार नहीं है। इससे जितना ज्यादा से ज्यादा बचा जा सके, उतना अच्छा है। समय स्वयं सीखने का अवसर देता है। जीवन और समय मिलकर हर व्यक्ति को अवसर देकर उनके भाग्य का निर्माण करते हैं। इस बात को हर माता पिता समाज और सरकार को समझना होगा।

म.प्र में व्यवसायिक शिक्षा की हकीकत
डॉक्टर अरविन्द जैन
मध्यप्रदेश सरकार को मनपसन्द सरकार कहना उचित हैं कारण यहाँ पर सब काम जो असंभव कहलाते हैं यहाँ संभव हैं ।हजारो स्कूलें बिना शिक्षक के चल रही हैं ,बिना भवन के हैं और कोई कोई स्कूल बिना छात्रों के हैं ,और जहाँ सब कुछ हैं वहां पढाई नहीं हैं ।प्राथमिक स्तर की पढाई इतनी निम्म स्तरीय होती हैं की पांचवी पास छात्र अपना नाम नहीं लिख पता ।और उसके बाद छठवीं से आठवीं तक वो पूरी पढाई न कर पाने से उसके माँ बाप को उसकी नौकरी की चिंता नहीं रहती कारण आठवीं पास न होने से रोजगार कार्यालय में पंजीकृत नहीं हो सकता ,जिसके कारण उनके माँ बाप को यह चिंता नहीं रहती की लड़का पढाई करने के बाद दूसरे शहर या देश भाग जाएगा ।कम से कम वह माँ बाप की सेवा के योग्य रहेगा और कम पढ़ा लिखा होने से वह कोई भी छोटा मोटा काम करके अपना भरण पोषण कर लेगा और बेरोजगार की श्रेणी में नहीं आएगा और वह और उसका परिवार,सरकार चिंता मुक्त रहेगी ।
इसके बाद आजकल माध्यमिक ,प्राइमरी स्कूल स्तर के शिक्षकों की भारी कमी हैं कारण आजकल सबसे सरल सुविधाजनक शिक्षा इंजीनिरिंग की हो गयी हैं तो शिक्षकीय कार्य इंजीनियर नहीं कर सकते और बी एड आजकल प्राइमरी शिक्षा से भी गयी बीती हैं ,उनकी परीक्षा एक प्रकार की औपचरिकता होती हैं ।उसके बाद हर साल नित्य नए प्रयोग शिक्षा में होते हैं और उनका पाठ्यक्रम भी बदलता जाता हैं जो शिक्षकों को पल्ले नहीं पड़ता तो वे क्या ख़ाक छात्रों को पढ़ाएंगे ।११ वी के बाद विषय चयन भी बहुत सामान्य व्यवस्था के अंतरगत होती हैं और फिर प्रवेश परीक्षा के माध्यम से इंजीनरिंग ,मेडिकल ,लॉ और अन्य शाखाओं में प्रवेश विश्वविधयालय स्तर पर होता हैं ।।ये कॉलेज एक प्रकार के इंजीनियरिंग मेडिकल लॉ विषयों की फैक्ट्री हैं जहाँ से एक से सांचे में ढले छात्र निकलते हैं और जिनकी योग्यता किसी भी अन्य प्रदेश की स्तरीय संसथान से श्रेष्ठ न होकर घटिया होती हैं ।
मनपसंद सरकार के अंतरगत शासकीय के साथ निजी कॉलेजों की स्थिति बहुत ही निम्म स्तर की हैं जहाँ न शिक्षक हैं न अधोसंरचना हैं और न कोई क्लास लगती मात्र फीस के आधार पर उपाधि दी जाती हैं ,इसी कारन अधिकांश संस्थाओं की मान्यताएं खतरे में हैं और अनेकों कॉलेज बंद होने की कगार पर हैं और यहाँ से पास छात्रों की योग्यता और उपाधि की मान्यता का कोई अन्य जगह महत्व नहीं हैं। आज स्थिति यह हैं की उपाधि धारक कोई भी निम्म स्तरीय काम करने को तैयार हैं ,मजबूर हैं ,बाध्य अहइँ कारण पेट के खातिर कुछ भी करने को तैयार हैं ।और कोई कोई तो अवसाद में आने पर आत्महत्या भी कर लेते हैं ।
इसके बाद मेडिकल कॉलेजों की स्थिति और भी दयनीय हैं पहली बात प्रवेश परीक्षा में धांधलियां मामूली बात हैं उसके बाद प्रवेश में लाखों रुपये का लेन देन और उसके बाद बिना योग्यता के उपाधि मिलना और फिर योग्यता न होने पर किसी निजी नरसिंघ होम में नर्सिंग स्टाफ का काम करते हैं और मध्य प्रदेश का व्यापम काण्ड विश्व स्तर पर कुख्यात हो चूका हैं और कभी बिना परीक्षा के पास होना आदि आदि अनियमितायें होती हैं ।निजी कॉलेज तो कुछ योगदान देते हैं पर वहां पैसों की धांधलियां होती हैं और कहीं कहीं अधोसंरचना का अभाव होने से उनके भविष्य अंधकारमय हो जाते हैं ।
भोपाल स्थित नेशनल लॉ इंस्टिट्यूट यूनिवर्सिटी में कितने फ़ैल हुए छात्रों को पास किया गया और कितनों को फ़ैल किया गया और अब तो स्थिति यहाँ तक पहुंच गयी हैं की कई छात्रों के विरोधः पुलिस में रिपोर्ट दर्ज़ की गयी हैं ।ये उस स्थान की बात हैं जहाँ से न्याय की गंगा बहती हैं ।जब गंगोत्री ही अपवित्र हैं तो गंगा कहाँ तक पवित्र होगी ?
ऐसे ना जाने कितनी संस्थाएं बिना अनुमति के धलले से चल रही हैं और सरकार में पदस्थ अफसर कुम्भकर्णी निद्रा में लोभ लालच के कारण अंधे बैठे हुए हैं ।हमारे प्रान्त में क्या देश में ला एंड आर्डर (लाओ और आदेश ले जाओं ) की व्यवस्था हैं ।जितना अधिक नियंत्रण उतना अधिक भ्रष्टाचार ।जो जितना अधिक कड़क अफसर उतना अधिक भ्रष्ट या जितना मधुर बोलने वाला उतना लक्ष्मी विलासी होता हैं ,उनका स्पष्ट कहना हैं की नौकरी करने का वेतन मिलता हैं और काम करने /कराने के लिए लक्ष्मी चाहिए ।घोडा घास से यारी करेगा तो उसका पेट कैसे भरेगा ?
लाखों शिक्षकों /प्रोफेसरों के पद खाली हैं ,प्रभारियों से कार्य सम्पादित कराया जा रहा हैं ,उससे शासन को और उच्च अधिकारीयों को यह फायदा होता हैं की वे प्रभारी कार्यालयीन कार्यों में अनुभवहीन होने से गलतियां करते हैं हैं या हो जाती हैं तो उन पर अप्रत्यक्ष्य दबाव बनाया जाता हैं और इसके अलावा उन्हें प्रभार से हटाने का भय दिखते रहते हैं जिससे कार्यालयीन कार तो प्रभावित होते हैं और कई जाँच के कारण अकाल काल के गाल में समां जाते हैं ।इससे उच्च अधिकारीयों को दोनों तरह से फायदा होता हैं ।नियुक्ति और हटाने के भय से सुविधा शुल्क मिलती रहती हैं और शासन का कार्य अप्रभावित होता हैं ।
जब बुनियाद ही कमजोर होती हैं या रहती हैं तो कुछ बिरले ही छात्र शोध में काम कर पाते हैं अन्यथा अधिकांश अपने पेट की लड़ाई में लगते हैं या रूचि के अनुरूप काम नहीं मिलने से अनमने मन से काम करते हैं ।आजकल शिक्षा पर बजट भी सरकार कम करती जा रही हैं ,और जिस पार्टी की सरकार होती हैं वे अपनी विचारधारा थोपती हैं ।मनपसंद सरकार ने विगत १५ वर्षों में संघ की विचार धारा से प्रभावित होकर सब संस्थाओं में संघीय दर्शन को जबरन थोपा हैं ,इतिहास को तोड़ मरोड़ कर परोसा जा रहा हैं और गया ।वैसे ही केंद्र सरकार ने सर्वोच्च संवैधानिक संस्थाओं को संघीय ढांचा में ढाल दिया हैं ,जबकि शिक्षा को राजनीती से अप्रभावित होना चाहिए पर शिक्षा विभाग से ही राजनीती का पाठ पठाया और सिखाया जाता हैं ।विश्वविद्यालय राजनीती की पाठशाला होती हैं ।
अब यह प्रश्न हमारे सामने उपस्थित हैं की इस प्रकार के मानदंडों पर हम कैसे विश्वगुरु की कल्पना कर सकते हैं ,इस सम्बन्ध यह बात सही भी हैं की देश में क्रांति मूर्खों से ही आती हैं ,पढ़े लिखे लोग कब क्यों कहाँ जैसे प्रश्न करते हैं और मूर्खो अपढ़ को आदेश का पालन करना पड़ता हैं ।वह किन्तु परन्तु नहीं करता ,इसीलिए वर्तमान सरकारें इसी प्रथा का पालन कर रही हैं ।और उनके लिए जरुरी हैं ,जैसा प्रधान सेवक वैसी प्रजा ,यानी मुर्ख राजा मुर्ख प्रजा ।राजा के कृत्यों का प्रभाव प्रजा पर पड़ता हैं ।राजा यदि झूठ बोलता हैं ,मक्कारी करता हैं आत्मप्रशंसा में लीं रहता हैं ,पर निंदा में उसे निंदा रस मिलता हैं ,बातों से ही दिन में तारें दिखाता हैं ,जिसे अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करने में दिन रात बेचैन रहता हैं ,कल्पना लोक में सैर कराता हैं उस देश की प्रजा भी कल्पना लोक में ही जीती हैं ।
शिक्षा एक ऐसा संवेदनशील विषय हैं जिसमे पूरी गंभीरता की जरुरत हैं ,इसके कारण देश का भविष्य निर्माण होता हैं ,जिस देश की शिक्षा कमजोर हो उसका भविष्य अंधकारमय होता हैं और होगा ।मात्र नवीनतम तकनीकी से हम ज्ञानवान नहीं बन पायेगें ,हम मात्र सूचना एकत्रित करने वाली मशीन रह जायेंगे और उसी पर आधारित रहेंगे ,
यह अजीबोगरीब संधिकाल हैं इससे यदि हम नहीं उबरे तो सिर्फ मात्र कागज़ों में ही श्रेष्ठ रहेंगे ,मूलरूप से शून्य होंगे ।

सत्ता के किंगमेकर
डॉ हिदायत अहमद खान
इसमें शक नहीं कि मौजूदा लोकसभा चुनाव बिना किसी लहर के लड़े जा रहे हैं। ऐसा कोई मुद्दा भी नहीं है, जिसके नाम पर देशभर में एकतरफा मतदान हो जाता। इसलिए मतदाता तो खामोश है, लेकिन राजनीतिक पार्टियां और उनके प्रमुख कद्दावर कहे जाने वाले नेता लगातार अपनी बात जनता के बीच में रखने की खातिर कान के पर्दे फाड़ने वाले अंदाज में चीखते और असंयमित व गिरी हुई भाषा का उपयोग करते देखे जा रहे हैं। आदर्श चुनाव आचार संहिता का पालन करवाने में चुनाव आयोग को भी पसीना आया जा रहा है। आचार संहिता उल्लंघन की शिकायतों पर शिकायतें हो रही हैं और जो कार्रवाई हो रही है उससे भी सियासी तौर पर कोई संतुष्ट नजर नहीं आता है। इसलिए कहने में हर्ज नहीं कि पूरा घमासान राजनीतिक है, जिसमें जनता का कोई रोल नहीं, क्योंकि वह समझ गई है कि निर्णय तो उसे ही करना है, इसलिए ये जो चाहें करते रहें, इससे फर्क क्या पड़ता है। जहां तक लहर की बात है तो इसमें शक नहीं कि 2014 के पिछले आम चुनाव में मोदी लहर थी, जिस कारण पूर्ण बहुमत हासिल हुआ और मोदी सरकार को अपने कार्यकाल में किसी तरह की कोई परेशानी का सामना भी नहीं करना पड़ा। मौजूदा आम चुनाव में मोदी लहर इसलिए अप्रभावी सिद्ध हुई क्योंकि पिछले चुनाव में जनता से जो वादे किए गए थे उन्हें पूरा नहीं किया गया। इसके विपरीत हुआ यह कि जिन योजनाओं और फैसलों को लेकर गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी यूपीए की मनमोहन सरकार को खुद भी घेरते देखे जाते थे, उन्होंने ही अपने कार्यकाल में उन्हीं योजनाओं और फैसलों को लागू करने का काम युद्धस्तर पर किया, जिसका जिक्र भी नहीं किया जाना चाहिए था। इनमें सबसे पहला नोटबंदी का फैसला रहा है, जिसे लेकर कहा गया था कि मनमोहन सरकार कोई बड़ा घोटाला करने जा रही, इसलिए नोटबंदी का देशभर में विरोध करने की बात कही गई थी। इसके बाद जीएसटी लागू करने को लेकर संसद से लेकर सड़क तक आंदोलन करने की चेतावनी दी गई थी और इसे आगे बढ़ने नहीं दिया गया। ऐसे ही यूपीए सरकार आधार कार्ड को अनिवार्य करने जा रही थी तो भाजपा ने टांग अड़ाकर उसे रोक दिया था। इन तमाम योजनाओं और सरकार के फैसलों का विरोध करते हुए कहा गया था कि विदेश में जमा कालाधन सरकार बनते ही वापस लाया जाएगा और प्रत्येक नागरिक के खाते में 15-15 लाख रुपये जमा कराए जाएंगे। इसके साथ ही न तो अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए सरकार ने कोई अध्यादेश लाया और न ही पड़ोसी दुश्मन देश को ही सबक सिखाया जा सका। उल्टा सीमा पार से आतंकवादी घुसपैठ करते रहे और हमारे देश के जवान शहीद होते रहे। पुलवामा आतंकी हमले के बाद वायुसेना ने जरुर एयर स्ट्राइक करके पाकिस्तान को करारा जवाब देने जैसा गौरवशाली कार्य किया, लेकिन इससे क्या, क्योंकि सेना के जवानों की जांबाजी और सरकार के दावों को मिलाकर तो नहीं देखा जा सकता है। इन तमाम कारणों से भाजपा के ही अनेक अनुवांशिक संगठन मोदी सरकार से खिन्न होते चले गए, जिसका नुक्सान भाजपा को अब लोकसभा चुनाव परिणाम में देखने को मिल सकता है। बहरहाल चुनाव परिणाम तो 23 मई को ही आएंगे, लेकिन इससे पहले राजनीतिक पंडितों ने भविष्यवाणी कर दी है कि इस आम चुनाव में किसी पार्टी विशेष को पूर्ण बहुमत मिलने वाला नहीं है। ऐसे में सभी की नजरें क्षेत्रीय पार्टियों के उन कद्दावर और प्रभावी कहे जाने वाले नेताओं पर टिक गई हैं जो भविष्य में सत्ता के किंगमेकर साबित हो सकते हैं। इस नजरिये से देखें तो यदि लोकसभा चुनाव में एनडीए या यूपीए को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता है तो समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव, बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमों मायावती, बीजू जनता दल के मुखिया और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव और उनकी पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति एवं वाईएस जगनमोहन रेड्डी और उनकी पार्टी वाईएसआर कांग्रेस महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। गौरतलब है कि कांग्रेस की अगुवाई में उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने की बजाय इस बार सपा और बसपा ने साथ चुनाव लड़ने का फैसला लिया। इस फैसले पर तरह-तरह के सवाल भी उठाए गए, लेकिन कुछ कर गुजरने की चाहत लिए बुआ और भतीजे की जोड़ी आगे बढ़ती गई है। अब देखना होगा कि यह बुआ-भतीजे की जोड़ी क्या कमाल करके दिखा रही है। वैसे संभावना तो यही है कि सपा-बसपा गठबंधन को उत्तर प्रदेश में सीटों का अच्छा-खासा फायदा हो सकता है। चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दे प्रभावी नहीं होने के कारण भी आंध्र प्रदेश में भी वाईएसआर कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद जागी है। अब यदि इस आंकलन के मुताबिक ही चुनवा नतीजे आते हैं तब तो केंद्र की कुर्सी पर आसीन होने के लिए इन नेताओं की भूमिका पर ही डिपेंड होना पड़ेगा। यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के नामों को प्रधानमंत्री की दौड़ से हटा भी दिया जाए, तब भी कोई एक सिंगल नाम प्रधानमंत्री के दावेदार के तौर पर नजर नहीं आता है। इसलिए यह मामला जितना सीधा नजर आता है उतना है नहीं। अखिलेश कह चुके हैं कि वो मायावती को प्रधानमंत्री बनते देखना चाहते हैं, इससे पहले उन्होंने पिता मुलायम सिंह को प्रधानमंत्री बनने पर खुशी होने की बात कही थी। दरअसल इसके पीछे अखिलेश एक बार फिर उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने की लालसा रखे हुए हैं, जिससे यह सिद्ध हो जाता है कि वो उसे ही समर्थन देंगे जो उन्हें यूपी का मुख्यमंत्री बनाने का दम रखता होगा। इसलिए भाजपा ने अपना दांव खेलते हुए कह दिया था कि बुआ जी तो ठगी गई हैं, वहीं ममता बनर्जी पर भी दबाव बनाने का काम बदस्तूर जारी है। यह सब इसलिए है क्योंकि राष्ट्रीय पार्टियों को एहसास हो चुका है कि पूर्ण बहुमत हासिल करना अब मुमकिन नहीं रह गया है। फिर भी मतदाता खामोश है, इसलिए परिणाम तो चौंकाने वाले आएंगे।

क्या मोदी जी भारत के प्रमुख विभाजनकारी?
डॉक्टर अरविन्द जैन
ये शब्द अमेरिका से प्रकाशित टाइम पत्रिका के नए अंक में प्रकाशित हुआ हैं। जिसका शीर्षक ” क्या दुनिया का लोकतंत्र मोदी सरकार के पांचा साल सहन कर पायेगा “नीति शास्त्र में लिखा हैं की जब कोई अपने मुख से अपनी प्रशंसा करता हैं वह उतना महत्वपूर्ण नहीं होता जितना कोई और आपकी प्रशंसा करे।
“निंदक नियरें राख किये” इसका मतलब हैं की हमारी कोई निंदा करता हैं तो वह हमारा हितेषी होता हैं और जो मुख पर आपकी प्रशंसा करता हैं और पीठ पीछे बुराई करता हैं वह आपका शत्रु हैं ऐसा समझना चाहिए।
हमारे प्रधान मंत्री के शब्दकोष में उनकी आलोचना के लिए कोई स्थान नहीं होता हैं कारण उनमे इतनी सहन शक्ति नहीं हैं की वे अपनी कमजोरी, बुराई सुन सके या सहन कर सके। उनके पास तर्क बहुत होते हैं और उनके लिए बहुत सलाहकार बैठे हुए रहते हैं जो इतनी सलाह देते हैं। हम देश वासी उनकी योग्यता /ज्ञान /अनुभव से पूर्ण वाकिफ हैं। वे तोता रटंत हैं। उनकी हठधर्मिता के कारण उनके निजी भी उनसे किनारा काटने लगे। वर्तमान में उनके मंत्रिमंडल में मत विभाजन हो तो उनको स्वयं की वोट के अलावा अन्य की वोट न मिल पाए। कारण मंत्रियों, सांसदों, विधायकों पर इतना मानसिक दबाव हैं की उनके और पार्टी अध्यक्ष के समक्ष कोई मुख नहीं खोल सकता, बोलने की स्वन्त्रता नहीं। उन दोने केद्वारा सत्ता और शासन चलाया जा रहा हैं और उनकी छवि बहुत अच्छी हैं वह उनके लिए, जनसामान्य, उनके कार्यकर्त्ता को हिटलरशाही महसूस हो रही हैं।
लेख में इस बात का उल्लेख किया गया हैं की मोदी ने अपने भाषणों और बयानों में भारत की महान शखिसयतों पर राजनैतिक हमले किये। इसमें नेहरू तक शामिल हैं। वह कांग्रेस मुक्त भारत की चर्चा करते हैं पर वे भारतीय जनता पार्टी और उनके प्रत्याशियों को छोड़कर मोदी के लिए वोट माँगते हैं !उन्होंने कभी भी हिन्दू मुस्लिमों के बीच भाईचारे की भावना मजबूत करने को कोई इच्छाशक्ति नहीं दिखाई। मोदी का सत्ता में आना दिखाता हैं की भारत में जिस उदार संस्कृति की चर्चा की जाती थी, वहां धार्मिक राष्ट्रवाद, मुसलमानों के खिलाफ भावनाएं और जातिगत कट्टरता पनप रही थी।
ऐसा नहीं हैं की मोदी जी कार्यकाल में आर्थिक नीतियों की जमकर तारीफ की और विदेशों से संपर्क बहुत बढे किन्तु बुनयादी समस्याओं को हल करने में असफल रहे जिनकी चर्चा अपने भाषणों में नहीं करते जिनके आधार पर पिछला चुनाव जीते थे। जैसे रोजगार के मामलों में पूर्णतः असफल रहे, किसानों की आत्महत्यायों का प्रतिशत बढ़ा, शिक्षा में बजट की कटौती, स्वस्थ्य व्यवस्था की कमी का कारण लाखों हजारों रिक्त पद।
कभी कभी मोदी अपनी असफलता का कारण पिछली सरकार की कुप्रबंधन पर २०१४ में जितनी अधिक सीटें मिली और अधिकांश राज्यों में उनकी पार्टी की सरकार होने के बाद क्रियान्वनयन में कमजोरी का श्रेय कौन को देना होगा। इसका मुख्य कारण पूरा तंत्र उन्होंने अपने नियंत्रण में रखा, पूर्ण उपलब्धियों का श्रेय उनके नाम होना चाहिए। मैं- मैं के कारण अन्य मंत्रियों में हीन भावना से कोई काम करना नहीं चाहता। वे इतने कड़े काम करने वाले हैं की कोई उनके साथ काम नहीं करना चाहते। अपनी अपनी ढपली ढपली और अपना अपना राग। यदि आज भी मंत्रिमण्डल में मत विभाजन हो तो मोदी जी को स्वयं की वोट मिलें।
हर सिक्के को दो पहलु होते हैं। जैसे खाली गिलास भरा हैं तो कोई कहता हैं आधा गिलास भरा और कोई कहता हैं आधा ग्लास खाली। जितनी अपेक्षा की थी उसमे कितने खरे उतरे और कितने असफल हुए। एक फायदा जरूर हुआ की जन सामान्य की रूचि अब टी वी देखने की नहीं रही। क्योकि पूर्ण संचार और सूचना तंत्र मोदी मीडिया के नाम से जाने लगा और उसमे जो परोसा जा रहा हैं वह एकपक्षीय होता हैं जिससे अरुचि और सच्चाई से दूर जो बहुत हानिकारण होगा।
अब बहुत सावधानी से निर्णय लेने का वक़्त आ गया हैं की हमें देश को विभाजित करने वालों को सत्ता सौपना हैं ! निर्णय आपके हाथ में हैं। एक बार परिवर्तन होना चाहिए अन्यथा लोकतंत्र भी खतरे में पड़ेगा।

अगली सरकार और अहंकार
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
2019 का चुनाव अब अंतिम चरण में है। लोग पूछ रहे हैं कि सरकार किसकी बनेगी ? यह क्यों पूछ रहे हैं ? क्योंकि किसी की भी बनती नहीं दिख रही है याने किसी की भी बन सकती है। किसी की याने क्या ? किसी एक पार्टी की नहीं। जो भी बनेगी, वह मिली-जुली बनेगी। उसे आप गठबंधन की कहें या ठगबंधन की! तो पहला प्रश्न यह है कि सबसे बड़ी पार्टी कौन उभरेगी ? सबसे ज्यादा सीटें किसे मिलेंगी ? इसका जवाब तो काफी सरल है। या तो भाजपा को मिलेंगी या कांग्रेस को मिलेंगी ? कांग्रेस को सबसे ज्यादा नहीं मिल सकतीं। उसकी 50 सीटों की 300 नहीं हो सकतीं। उसके पास न तो वैसा कोई नेता है, न नीति है, न नारा है। लेकिन मोहभंग को प्राप्त हुई जनता कांग्रेस को कुछ न कुछ लाभ जरुर पहुंचाएगी। 50 की 80 भी हो सकती हैं और 100 भी ! 100 सीटोंवाली कांग्रेस सरकार कैसे बना सकती है ? इसी प्रकार भाजपा, जिसे 2014 में 282 सीटें मिली थीं, यदि उसे इस बार 200 या उससे कम सीटें मिलीं तो वह भी मुश्किल में पड़ जाएगी। 2014 में उसे 282 सीटें मिली थीं। वह चाहती तो अकेले ही राज कर सकती थी लेकिन इस बार मामला काफी टेढ़ा है। उसके सत्ता में रहते हुए भी वह 282 से खिसककर 272 पर आ गई तो अब आम चुनाव में उसका क्या हाल होगा ? उसे बहुमत तो मिलने से रहा। अल्पमतवाली भाजपा के नेता यदि नरेंद्र मोदी रहे तो उसके साथ गठबंधन बनाने के लिए कौन पार्टी तैयार होगी ? भाजपा और संघ के वरिष्ठ नेताओं को पटाना ही मुश्किल होगा, अन्य दलों की बात तो दूर की कौड़ी है। इसीलिए भाजपा को अपने वैकल्पिक नेता के बारे में अभी से सोचना होगा। यही बात कांग्रेस पर भी लागू होती है। मोदी में जो कमी व्यक्ति के तौर पर है, वह कांग्रेस में पार्टी के तौर पर है। कांग्रेस विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी होगी लेकिन अन्य पार्टियां उसके अहंकार को कैसे पचा पाएंगी ? यदि कांग्रेस चाहती है कि देश में नई सरकार बने तो उसे थोड़ा पीछे खिसककर बैठना होगा। विपक्ष में प्रधानमंत्री के ज्यादातर उम्मीदवार पुराने कांग्रेसी ही हैं। गठबंधन कोई भी बने, उसकी सफलता में अहंकार सबसे बड़ी बाधा सिद्ध होगा।

सरोकार विहीन नेता और मुद्दे विहीन चुनाव
रघु ठाकुर
भोपाल लोकसभा के चुनाव एक अर्थ में धार्मिक प्रयोगशाला या हिन्दुत्व की प्रयोगशाला के रूप में हो रहे है। भाजपा की ओर से साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को प्रत्याशी बनाया गया है। शायद यही सोचकर कि हिन्दु-मुसलमान के मजहबी खानों में बांटकर चुनाव जीतना आसान हो सकता है। दूसरी तरफ कांग्रेस ने भले ही किसी साधु या साध्वी को खड़ा नही किया हो परन्तु कांग्रेस भी लगातार हिन्दू होने को प्रमाणित करने में लगी है। और आजकल हर चौराहे कार्यालय के शुरू होने के पहले पूजा-अर्चना, दक्षिणा का कार्यक्रम चल रहा है। कांग्रेस प्रत्याशी का अपना अधिकांश समय मंदिरों में जाकर माथा टेकने में जाता है। और यह बोल भी रहे है और दिखाने का प्रयास भी कर रहे है कि वे भी कम हिन्दू नहीं है। यहाँ तक कि उन्होंने अपने राघोगढ़ के किले और परंमपराओं का भी जिक्र किया और अनेक माध्यमों से करवाया भी कि वे हिन्दू विरोधी नही हैं, बल्कि पूरे हिन्दू है।
साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के प्रचार में भोपाल की पूर्व सांसद एवं पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री उमा भारती काफी सक्रिय है और वह अपनी शैली में प्रज्ञा ठाकुर का चुनाव अभियान चला रही है।
कांग्रेस पार्टी ने अपने रणनीति के तहत अप्रत्यक्ष व आक्रामक हिन्दुत्व का प्रचार शुरू किया है। शायद इसका ठेका उन्ही कम्प्यूटर बाबा को दिया है, जिन्हें पिछले वर्ष श्री शिवराज सिंह चौहान के मंत्रिमण्डल में एक निगम का अध्यक्ष बनाया गया था और राज्य मंत्री का दर्जा दिया था। उस समय विधानसभा के चुनाव का भाजपा का टिकिट पाने की अभिलाषा में कम्प्यूटर बाबा श्री शिवराज सिंह चौहान के प्रति प्रतिबद्ध थे और उनके सरकारी मकान की छत पर शीर्षासन करते फोटो अखबारों में प्रमुखता से छपते थे। अब अखबारों के मुताबिक कम्प्यूटर बाबा 7,000 साधुओं की फौज कांग्रेस प्रत्याशी के पक्ष में प्रचार कराने के लिये उतारने की तैयारी में हैं। साध्वी और साधुओं के इस तथाकथित धर्म युद्ध में किसकी विजय होगी कहना कठिन है। परन्तु 3 बाते निश्चित रूप से निष्कर्ष के रूप में सामने हैं :-
1. इस पूजा पाठ के अभियान से मंदिरों के पूजारियों की आमदनी निसंदेह रूप से अच्छी खासी हो गयी है और जितनी कमाई उन्हें साल दो साल में होती है उससे अधिक कमाई इस संक्षिप्त चुनाव अभियान में हो रही है।
2. कौन बड़ा हिन्दू कौन छोटा हिन्दू, कौन नकली कौन असली हिन्दू। यह सिद्ध करने का अभियान इतना तेज चला है कि ऐसा लगने लगा है कि जैसे प्रदेश की राजधानी भोपाल में भाजपा के मानस के दो प्रत्याशी चुनाव लड़ रहें हों। चुनाव असली मुद्दों पर नहीं बल्कि भाजपा बनाम भाजपा जैसा हो गया है। मानसिक घबराहट इतनी ज्यादा है कि किसने जाकर अयोध्या में राम लला के दर्शन के किये, किसने – कितने बार ढोक बजाई यह भी चुनाव प्रचार का मुद्दा है। कांग्रेस के एक नेता ने तो अपना जनेऊ भी दिखाया तथा बताया कि वे कौन से ब्राम्हण है? कौन सा गोत्र है? यह भी खुलासा किया और उज्जैन के महाकाल मंदिर में तो आजकल चुनावबाज नेता परम्परागत धोती लपेट कर अर्धवस्त्रों में पूजा पाठ कर रहे हैं। पता नहीं ऐसी पूजाओं से ये नेता भगवान को बेवकूफ बना रहें हैं या फिर उस निरीह जनता को जो केवल अखबार या मीडिया तक ही अपनी दृष्टि सीमित रखती है। उससे आगे जाने की समझ ही उसने विकसित नहीं की है। कुल मिलाकर एक तो निष्कर्ष यह भी है कि चुनाव के इस पाषाण पूजा के युद्ध में ईश्वर और धर्म, मानवता और सच्चाई चारों हारेगें केवल ताकतवर झूठ जीतेगा।
भारतीय राजनीति और चुनाव कितने अमानवीय और मुद्दे विहीन हो गये है इसकी कल्पना कुछ घटनाओं से की जा सकती है। 5 मई के समाचार पत्रों में प्रमुखता से एक समाचार छपा कि भोपाल में एक गरीब और आदिवासी परिवार जिसके मुखिया का नाम बंटी कौली है कि पत्नी लक्ष्मी कौली ने शीतलदास की बगिया में जाकर अपनी छोटी-छोटी बच्चियों को पहले पोहा और भजिया खिलाया और फिर कूद कर बच्चों सहित जान दे दी। इसकी वजह यह है कि बंटी कौली का बेटा राजा कौली कई दिनों से बीमार था इसके ईलाज के लिये उसके पास पैसे नहीं थे। एक दिन पहले रात में उसकी पत्नी से चर्चा हुई थी। उसने कहा कि उसने निजी बैंक से 15,000/- रूपया कर्जा के लिए आवेदन किया है जो शायद एक दो दिन में मंजूर हो जायगा, और उसने यह भी कहा कि मैं फिर आत्महत्या कर लूगा ताकि बेटे का ईलाज हो जायेगा और तुम्हें कर्ज भी नहीं चुकाना पड़ेगा। उसकी पत्नी ने दुखी: होकर उससे कहा कि ऐसा नहीं कहते। हो सकता है कि बंटी की मन की शंका उसके मन में इतनी गहरी बैठ गई और उसने इसलिये भयभीत होकर अपनी बच्चियों को लेकर स्वयं यह आत्महत्या का फैसला कर लिया हो।
5 मई के समाचार पत्रों को मैंने और भी बारीकी से देखा कि शायद कोई प्रत्याशी इस गरीब बंटी कौली के घर सांत्वना के दो शब्द कहने या फिर उसकी मदद करने पहुंचा हो। परन्तु ऐसा कोई समाचार मेरे पढ़ने में नहीं आया। हिन्दुत्व का यह अमानवीय चेहरा वही लोग बना रहे है जो आजकल दिन रात हिन्दुत्व का नाम लेकर हिन्दुत्व के हँसिये या हारवेस्टर का प्रयोग कर वोट की फसलें काटने की तैयारी में लगे है। इतनी बड़ी दुखद: घटना इन सत्ता आकांक्षी दलों, नेताओं, साध्वी और साधुओं के लिये कोई मुद्दा नहीं है। हो सकता है कि पूँछने पर वे मुस्कुराते हुये यह कह दें कि ”बंटी कौली की पत्नी और बच्चियों को तो मोक्ष मिल गया है।“
महाराष्ट्र के विदर्भ एवं मराठवाडा में जल संकट इतना भयानक है कि वहाँ के समाचार पत्रों में प्रमुखता से छप रहे हैं। 5 मई 19 के समाचार पत्रों में समाचार छपा है कि एक बाल्टी पानी लेने घण्टों इंतजार करना पड़ता है। जल स्त्रोत नदी नाले अभी से सूख चुके है। हालात इतने चिन्ताजनक हैं कि महिलाओं को 5-6 कि.मी. दूर जाकर गड्डों से पानी लाना पड़ रहा है। एक 70 वर्ष की बुजुर्ग महिला के गड्डे में गिरने से कमर की हड्डी टूट गयी। 440 या 450 तापमान में भी महिलायें पानी लेने को जा रही हैं। यहां तक कि गर्मी से उनकी नाक से खून भी बह जाता है। जल संकट की ऐसी स्थिति केवल महाराष्ट्र में ही है। ऐसा नहीं है बल्कि देश के कई अन्य हिस्सों में भी ऐसे ही अमानवीय और सरोकार विहीन चुनावी मुद्दे एवं मुद्दे विहीन राजनीति की कल्पना भी भयाभय है। जहाँ एक तरफ प्रत्याशी एक से एक महँगी वातानुकूलित कारों में दौरे कर रहें हो, लाखों करोड़ों रूपया हवाई जहाज, हैली-कॉपटरों और प्रचार पर खर्च कर रहें हों, लाखों रूपये रोज पूजा-पुजारियों पर खर्च कर रहें हो, वहाँ गरीबी के चलते आत्महत्या और जल के चलते मरती जिन्दगियों का अन्तरविरोध दुखद: है। क्या भारत के मतदाता कभी इन मुद्दों पर विचार कर अपना वोट देंगे?
बंटी कौली की पत्नी की आत्महत्या के पहले उनकी बात-चीत से एक और नया आयाम सामने आया है। अभी तक यह किस्से आम थे कि कर्ज न चुकाने की वजह से किसान आत्महत्या कर रहें हैं अब तो यह हालात हो गयी है कि कर्ज लेकर चुकाना न पड़े, इसलिये लोग आत्महत्या की तैयारी कर रहें हैं। ऐसे चुनावों में कुछ नहीं बदलेगा, अंतत: जनता फिर हारेगी।

तू मूर्ख, मैं महामूर्ख !
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अब ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ फिर से राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन गई है। सितंबर 2016 में जब सरकार ने प्रचार किया था कि उसने पाकिस्तान पर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की है, तभी मैंने लिखा था कि यह ‘फर्जीकल स्ट्राइक’ है। हमारे प्रचार मंत्रीजी को यह पता ही नहीं है कि ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ क्या होती है ? लेकिन प्रचार मंत्रीजी की ताकत का लोहा मानना पड़ेगा कि उन्होंने कांग्रेस को अब मजबूर कर दिया है कि वह भी अपनी ‘सर्जिकल स्ट्राइकों’ की डोंडी पीटने लगी है। उसका कहना है कि अगर मोदी ने एक ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की है तो मनमोहनसिंह ने छह की थी लेकिन उसका प्रचार नहीं किया था। कांग्रेस ने उन स्ट्राइकों के नाम और तिथि भी प्रसारित की है। यह ऐसा ही है कि जैसे अखाड़े में भिड़ रहे दो पहलवानों में से पहला कहे कि मैं मूर्ख हूं तो दूसरा अपने आप को बड़ा सिद्ध करने के लिए कहे कि मैं महामूर्ख हूं। इन सर्जिकल स्ट्राइक करनेवाली सरकारों से कोई पूछे कि आपकी ये फौजी शल्य-चिकित्सा क्या मजाक साबित नहीं हुई हैं ? ऐसी फौजी कार्रवाइयां नरसिंहरावजी, अटलजी और डाॅ. मनमोहनसिंह की सरकारें दसियों बार कर चुकी हैं लेकिन उन्होंने कभी इनके नगाड़े नहीं पीटे। वे नगाड़े पीटने लायक थीं भी नहीं। सर्जिकल स्ट्राइक के नगाड़े पीटने की जरुरत ही नहीं पड़ती है। अगर वे सचमुच हों तो अपने आप नगाड़े पिटने लगते हैं। 1967 में इस्राइल ने जब मिस्र के सैकड़ों जहाज एक ही झटके में उड़ा दिए थे, 1976 में इस्राइली कमांडो ने उगांडा के एंटेबी हवाई अड्डे और 1981 में ओसीराक के परमाणु-संयंत्र पर हमला किया था, 1983 में जब अमेरिका ने सद्दाम के एराक पर खंजर भौंका था, अफगानिस्तान में फजलुल्लाह का सिर कलम किया था और पाकिस्तान के जबड़े से उसामा बिन लादेन को खींच लाया था, तब कहा जा सकता था कि यह सर्जिकल स्ट्राइक हुई है। आपकी स्ट्राइकों में आपने क्या किया, सद्दाम और उसामा तो क्या, आप एक मच्छर भी नहीं मार सके। आपकी सर्जिकल स्ट्राइकों के बावजूद आपकी संसद पर हमला हुआ, आपकी मुंबई की होटलों पर आतंकी टूट पड़े, आपके फौजी अड्डों पर भी मार पड़ गई, पुलवामा में सामूहिक हत्याकांड हो गया। यदि एक भी सच्ची सर्जिकल स्ट्राइक हो जाती तो पाकिस्तान कश्मीर का नाम ही भूल जाता। सर्जिकल स्ट्राइक के जो वीडियो हमारी सरकार ने दिखाए, वे भी इतने बेजान थे कि उन्हें देखने के बाद लग रहा था कि सरकार खुद ही सिद्ध कर रही है कि उसकी सर्जिकल स्ट्राइक कितनी फर्जी थी। अब इस फर्जीवाड़े में देश की दोनों पार्टियां फंस गई हैं।

आतंकी मसूद अज़हर पर प्रतिबन्ध और प्रधान सेवक
डॉक्टर अरविन्द जैन
जब किसी मोटी लकड़ी या पीढ़ को कुल्हाड़ी से काटा जाता हैं तब उसको काटने में मानलो 20 घाव लगे और 21 वे घाव में कटी तो यह नहीं मानना चाहिए की 20 घाव अकारथ गए। इसी प्रकार मसूद अजहर के सम्बन्ध में जो आज सफलता मिली उसमे प्रधान सेवक अपनी स्वयं की पीठ थपथपा रहें हैं यह बहुत हास्यपद हैं। इस प्रक्रिया में वर्ष २०००,२०१६ ,२०१७, औरमार्च २०१९ में असफलता मिली थी उस समय प्रधान सेवक क्यों चुप्पी बांधे रहें।
प्रधान सेवक वैसे विदूषक हैं और उनके पास लफ़्फ़ाज़ी के अलावा विशेष कुछ नहीं हैं ,बढ़ चढ़कर बोलना और इस समय चुनाव की गर्मी और मौसम की गर्मी के कारण उनके दिमाग को नवरत्न कोई तेल की जरुरत हैं और जब उन्होंने अपने कार्यकाल में इतनी उपलब्धियां प्राप्त करि ली हैं या थी तो इतने क्यों परेशां हो रहे हैं .और उन्होंने सत्ता की सर्वोच्च संस्थाओं को अपने गिरफ्त में कर रखा हैं की उनके प्रतिकूल कोई भी किसी प्रकार की टिप्पणी नहीं करना चाहता। वर्तमान में चुनाव आयोग उनका गुलाम बना हैं। ऐसी स्थिति हो गयी हैं की —
वो क़त्ल भी करते हैं तो चरचा नहीं होती ,
और हम भी बरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम।
उच्च भी बोलना चाहते हैं जैसे मनोरोगी की हालत होती हैं। कभी कहेंगे की कोई उनको मार डालना चाहता हैं। एक बात ध्यान देने योग्य हैं की नेता ,की मौत से देश को को हानि नहीं होते कारण उनके पीछे बहुत लम्बी कतार होती हैं ,हाँ हानि होती हैं लेखक। वकवि ,साहित्यकार संगीतकार, कलाकार,रंगकर्मी ,वैज्ञानिक आदि की। नेता देश के भार होते हैं ,वे अपराधों के जनक और संरक्षक होते हैं ,वे स्वयं गुंडे बदमाश लुच्चे लफंगे होते हैं।
अजहर मसूद के प्रतिबन्ध से क्या आतंकवाद समाप्त हो जाएगा। आतंकवाद का कीड़ा दुगनी मात्रा में बढ़ता हैं जैसे अमीबा होता हैं। जब तक उसके सर पर वहां की सरकार का हाथ रहेगा उसको कोई चिंता नहीं हैं और वहां की सरकार इनकी दम पर चलती हैं। इनका नेटवर्क इतना बड़ा होता हैं की पाकिस्तान का प्रधान मंत्री या राष्ट्रपति या सेना कब कितनी सांस लेती हैं उनको पहले पता चलता हैं। वे इतने खूंखार होते हैं की जब वो हत्या करने या कराने के बाद हाथ नहीं धोते तब वे इन प्रतिबंधों से कैसे डरेंगे और क्यों डरेंगे।
इनकी मानसिकता खून खराबा करने की होती हैं ,ये लोग रोज अपनी जान हथेली पर रखकर चलते हैं की उनको मौत से दर नहीं लगता हैं ,वे तो खुद मौत के सौदागर हैं और उनके लिए मौत के घात उतारना सामान्य बात हैं।
प्रधान सेवक को अभी नवरत्न तेल की जरुरत हैं और भाषा पर नियंत्रण न रखना और चुनाव आयोग के द्वारा उन्हें क्लीन चिट देना उनको और मुंहफट बनाने का प्रमाण पत्र देना हैं।
प्रतिबन्ध के क्या परिणाम होंगे यह तो समय बताएगा कारण उस पर कार्यवाही करने का दायित्व पाकिस्तान सरकार का हैं और वह स्वयं वैशाखी पर चलती हैं तो वह क्या कार्यवाही करेंगी। और प्रधान सेवक दिवास्वप्न देखने और दिखाने में माहिर हैं। उनके द्वारा देश की मुलभुत समस्याओं से निपटने को कोई कारगर मार्ग नहीं ढूंढा और अब हवा हवाई हो रहे हैं। रोजगार किसानों की समस्याएं ,भिक्षा स्वास्थ्य व्यापार की स्थिति दयनीय हैं ,कोई रोजगार सृजन नहीं किया ,जो था उसे चौपट किया।
आत्मप्रशंसा और परनिंदा ही उनका मूल उद्देश्य हैं ,सबसे पहले नींद से उठने के बाद ध्यान में नेहरू गाँधी परिवार का ध्यान करते हैं ,इतना नाम भगवान् का लिया होता तो शायद कोई सिद्धि मिल जाती। ये दो गले के हैं अंदर कुछ और बाहर कुछ।इनसे अब कोई भी संतुष्ट नहीं हैं। चुनाव में प्रबंधन करना हैं और सत्ता में होने से सुगम और सरल हैं। छोटो छोटी सफलता से कुछ नहीं होने वाला ,जमीनी हकीकत होना चाहिए।

चार चुभते हुए मामले
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आज अदालत के चार मामलों ने देश में बड़ी खबरें बनाईं। एक तो प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगाई का मामला, दूसरा राहुल गांधी की माफी, तीसरा किरन बेदी पर लगाम और चौथा नारायण सांई की उम्र-कैद का मामला। रंजन गोगोई पर लगे यौन-उत्पीड़न के आरोप की सुनवाई का पीड़ित महिला ने बहिष्कार कर दिया। उसका कहना है कि तीन जजों की वह कमेटी उसे इतना डरा-धमका रही थी और उसकी नौकरी बहाल करने का लालच भी दे रही थी कि उसे यह समझ नहीं पड़ रहा था कि यह उसके आरोपों की न्यायिक जांच है या कुछ और है। उसकी शिकायत यह भी है कि न तो वहां होनेवाली बातचीत का कोई रेकार्ड रखा जा रहा था और न ही उसकी मदद के लिए किसी वकील या साथी को वहां बैठने दिया जा रहा था। उसे यह भी हिदायत थी कि वहां हुई बातचीत को वह गोपनीय रखे। इसमें शक नहीं कि उस महिला को कई प्रसिद्ध वकीलों का समर्थन मिल रहा है। लेकिन यह मामला इतना उलझ गया है कि पहले तो प्रधान न्यायाधीश और अब उस जजों की न्यायिक जांच कमेटी पर भी प्रश्न-चिन्ह लग गए हैं। राहुल गांधी को सर्वोच्च न्यायालय से माफी मांगने पर मजबूर होना पड़ा लेकिन राहुल अभी भी यह नहीं समझ पा रहे हैं कि उनका आचरण देश की सबसे महान पार्टी के अध्यक्ष के लायक नहीं है। पुद्दुचेरी की उप-राज्यपाल किरन बेदी को मद्रास उच्च न्यायालय ने फटकार लगाई है। जनता द्वारा चुनी हुई सरकार को दरकिनार करके अपनेवाली चलाना कहां तक ठीक है ? किरनजी को अब अपनी पुरानी पुलिसवाली आदत छोड़कर संवैधानिक मर्यादा में रहना होगा। चौथा मामला आसाराम के कुपुत्र नारायण सांई का है। उसे अदालत ने उम्र-कैद से नवाजा है। एक साध्वी के साथ बलात्कार और व्यभिचार करने की यह सजा है। जैसा बाप वैसा बेटा ! आसाराम को मैंने झांसाराम और निराशाराम की उपाधि दी थी। अंदाजा है कि नारायण की मां और बहन भी शीघ्र ही जेल जाएंगी। इस परिवार ने साधु-संतों और संन्यास की जितनी बदनामी की है, उतनी शायद ही किसी ने की हो। ये अकेले नहीं हैं। इनके जैसे कई हैं। सच्चे साधु तो बस गिनती के ही हैं। इन पाखंडी साधुओं से भी ज्यादा दोष उन अंधभक्तों का है, जो भगवा वस्त्र देखते ही अपना दिमाग ताक पर रख देते हैं।

खाद्य विशेषज्ञों की भ्रमित सलाह
डॉक्टर अरविन्द जैन
वर्तमान सेलिब्रटी न्यूट्रिशनिस्ट प्रचलन में चल रही भ्रांतियों को दूर करते हैं जैसे देशी घी अच्छा हैं वशर्ते दिन में दो -तीन चम्मच ही लिया जाए। दूसरा कई अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के खाने के बारे में बताना कि वे वीगन फ़ूड ,सलाद और सब्जियों का रस लेते हैं। यहाँ तक कि बात बहुत हद तक ठीक और अनुकरणीय हैं और मान्य है। तथा जो दूषित दूध है उसको कम करें यह भी ठीक है। इसके साथ ही खाद्य विशेषज्ञ बच्चों के लिए नाश्ता में प्रोटीन के लिए अंकुरतित अन्न ,पोहा आदि लेना चाहिए बताने के साथ अंडे का प्रयोग करने की बात करते हैं तो उनके बताए पर प्रश्न चिन्ह लगता है।
इसके साथ शरीर की प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाने विटामिन बी १२ और जिंक के साथ मीट, अंडे, मछली और दूध से मिलता हैं वही मीट और अंडे मछली के अलावा काजू बादाम, चना, मटर सोया प्रॉडक्ट्स में जिंक मिलता हैं। इसके साथ वकालत की जाती है कि संतुलित आहार दाल रोटी सब्जी से ही शक्ति मिलत्ती हैं।
इसके अलावा कोर्बोहड्रेटपर भी योग्य प्रकाश डाला जाता है और ऑर्गनिक सब्जी अन्न का उपयोग करने कि सलाह दी जाती है। यहां कहना पड़ता है कि उनके द्वारा अंडा मछली मीट के उपयोग के बारे में जो सलाह दी जाती है और प्रेरित किया यह अवैज्ञानिक हैं। और दोनों विपरीत ध्रुव हैं।
शाकाहार, अहिंसा, जीव दया के क्षेत्र में काम करने वालों के पास दस्तावेजी साक्ष्य हैं जिसमे स्पष्ट इंगित किया गया हैं कि मछली, अंडा, मांस प्राकृतिक भोजन नहीं हैं ये स्वास्थ्य के लिए पूर्णतः हानिकारक हैं इन्हे विषाहार कहा जाता हैं। ये स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ भी करते हैं। और कैंसर हृदय किडनी आदि गंभीर बीमारियोंको आमंत्रित करती हैं। एक तरफ आप जैविक खाद्य, साग सब्जी के बारे में प्रोत्साहन देते हैं और दूसरी और अभक्ष्य और दूषित आहार की वकालत करतं हैं। जहां तक प्रोटीन की बात है तो सोया और चना के साथ आप मूंगफली से १००% प्रोटीन ले सकते हैं।
१०० ग्राम सोयाबीन में ४५।२ ग्राम प्रोटीन मिलता हैं, मूंगफली में ३२।५ ग्राम प्रोटीन और चना में २३।५ ग्राम प्रोटीन मिलता हैं इस प्रकार ३००ग्राम में आपको १०० ग्राम प्रोटीन मिलेगा। इसके अलावा आर्थिक रुप से सोयाबीन १०० ग्राम ५ रुपये ,मूंगफली १५ रुपये और चना १५ रुपये इस प्रकार ३५ रुपये में आपको १०० ग्राम शुद्ध प्रोटीन के अलावा अन्य खनिज तत्व मिलते हैं जबकि अंडा १०० ग्राम में १४।३ ग्राम प्रोटीन, एक अंडा का वजन २५ ग्राम तो ४ अण्डों में १४।३ ग्राम प्रोटीन और सौ ग्राम अंडे से प्रोटीन पाने के लिए लगभग ३० अंडे लगेंगे जिनकी कीमत ६ रुपये के हिसाब से १८० रुपये खर्च करने पड़ेंगे और अशुद्ध, हानिकारक तत्व मिलेंगे, इसी प्रकार मछली और मांस में भी प्रोटीन नगण्य होता हैं और महंगा के साथ मौत का आमंत्रण होता हैं।
इस विषय पर बहुत शोध और साहित्य उपलब्ध हैं जिससे सिद्ध होता हैं कि अंडा ,मछली और अंडा सामान्यतः स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं, जबकि उनके विकल्प हमारे पास बहुत प्रचुर मात्रा में मिलते हैं।
हम अहिंसा प्रधान देश कि निवासी हैं तो हमें अधिकतम शाकाहार का प्रयोग करना चाहिए। वैसे खान पान व्यक्तिगत विषय पर जन सामान्य को ऐसी बातों के लिए प्रत्साहित नहीं करना चाहिए। जिनसे असाध्य बीमारियां ही फैलती हैं और जिनका इलाज मौत हैं। विचार करें कि जब हम बीमार होते हैं तब हम दाल रोटी सब्जी खाते हैं या मांस मछली अंडा खाते हैं !

लोकतंत्र में नोटा की सार्थकता
योगेश कुमार गोयल
71 वर्ष पूर्व देश की आजादी के समय भारत में लोकतंत्र की स्थापना करते हुए जिस आम आदमी को इस लोकतंत्र की महत्वपूर्ण नींव माना गया था, वह आम आदमी हर पांच साल बाद इस भरोसे के साथ मतदान करते हुए सरकार का चयन करता है कि चुनी जाने वाली सरकार उसके दुख-दर्द को समझेगी और उसकी तरक्की के लिए हरसंभव जरूरी कदम उठाएगी किन्तु इस आदमी का भरोसा हर बार टूटता रहा और यह सिलसिला यथावत चला आ रहा है। इसके चलते मतदाताओं के मन में रोष पनपता गया क्योंकि चुनावों के दौरान उसके समक्ष कोई विकल्प मौजूद नहीं था लेकिन कुछ वर्ष उसे ‘नोटा’ के रूप में एक ऐसा विकल्प मिला, जिसके जरिये वो चुनाव में पसंद न आने वाले सभी उम्मीदवारों को नकार सकता है। ‘नोटा’ का अर्थ है ‘नन ऑफ द अबॉव’ अर्थात् इनमें से कोई नहीं। गत वर्ष हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में जिस प्रकार करीब 12 लाख मतदाताओं ने सभी उम्मीदवारों को खारिज करते हुए ‘नोटा’ के विकल्प को चुना था, उसके बाद से ही नोटा चर्चा में है और फिलहाल हो रहे लोकसभा चुनाव के इस दौर में लोकतंत्र में नोटा की सार्थकता पर चर्चा करना और भी जरूरी हो गया है। अनुमान लगाया जा सकता है कि चुनाव में जहां एक-एक वोट की अत्यधिक महत्ता होती है, वहां पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में 12 लाख नोटा वोटों का कितना महत्व रहा होगा।
आंकड़ों पर नजर डालें तो सबसे ज्यादा छत्तीसगढ़ में 2.1 फीसदी वोट नोटा के खाते में गए थे, जहां आप को 0.9प्रतिशत, सपा और राकांपा को 0.2 तथा भाकपा को 0.3प्रतिशत वोट मिले थे। मध्य प्रदेश में डेढ़ फीसदी अर्थात् 5 लाख 42 हजार मतदाताओं ने नोटा का बटन दबाया था, जहां नोटा को सपा तथा आप से भी ज्यादा वोट मिले, जिन्हें क्रमशः 1 तथा 0.7 फीसदी वोट मिले थे। यहां 22सीटों पर तो नोटा वोटों की संख्या हार-जीत के अंतर से भी अधिक रही थी जबकि राजस्थान में 15सीटों पर ऐसा ही हाल देखा गया था, जहां सपा को सिर्फ 0.2 फीसदी वोट मिले थे जबकि सभी दलों के उम्मीदवारों को नकारते हुए नोटा पर 1.3 फीसदी मतदाताओं ने भरोसा जताया था। तेलंगाना में माकपा व भाकपा को 0.4 फीसदी तथा राकांपा को 0.2प्रतिशतमत प्राप्त हुए थे जबकि नोटा के खाते में 1.1प्रतिशतमत पड़े थे। मिजोरम में भी 0.5प्रतिशत मतदाताओं ने नोटा को अपनाया था।
अगर 2017 में हुए पांच विधानसभा चुनावों में नोटा के इस्तेमाल की बात करें तो सभी राज्यों में कई उम्मीदवारों की हार-जीत में नोटा एक बड़ा कारक बनकर उभरा था। उन विधानसभा चुनावों में नोटा को कुल 936503 वोट मिले थे, जिन्हें किसी भी दृष्टि से नजरअंदाज करना उचित नहीं होगा। उत्तर प्रदेश में नोटा को 0.9प्रतिशत अर्थात् करीब 7.58 लाख वोट मिले, जो सीपीआई, एआईएमआईएम तथा बीएमयूपी को मिले कुल मतों से भी ज्यादा थे। इसी प्रकार उत्तराखंड में 50408 लोगों ने नोटा को पसंद किया था और एक प्रतिशत वोट हासिल करते हुए नोटा भाजपा, कांग्रेस तथा बसपा के बाद चौथे स्थान पर रहा था। पंजाब में नोटा को 0.7प्रतिशत अर्थात् एक लाख 84 हजार लोगों ने पसंद किया था जबकि मणिपुर में 0.5 फीसदी अर्थात् 9062 लोगों ने नोटा का बटन दबाया था। गोवा में नोटा को कुल मतों के 1.2 फीसदी वोट मिले थे और नोटा को पसंद करने वाले लोगों की संख्या 10919 रही। 2016 में हुए पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में तो 831835 मतदाताओं ने नोटा का बटन दबाया था, जो कुल मतदान का डेढ़ फीसदी रहा। तमिलनाडु में 557888 मतदाताओं ने जबकि केरल में 1 लाख 7 हजार मतदाताओं ने नोटा बटन दबाया था।
हालांकि बहुत से लोगों और खासकर राजनीतिक दलों द्वारा कहा जाता रहा है कि नोटा बटन दबाने से मतदाता का वोट बर्बाद हो जाता है क्योंकि कानून के मुताबिक नोटा को मिले मत अयोग्य माने जाते रहे हैं और चुनाव में हार-जीत का निर्णय योग्य वोटों के आधार पर ही होता है। उम्मीदवारों की जमानत जब्त करने के लिए भी नोटा वोटों को वैध नहीं माना जाता। दरअसल अभी तक नोटा को मिले मतों का मतगणना पर कोई असर नहीं पड़ता था क्योंकि अगर किसी चुनाव क्षेत्र में नोटा को सभी उम्मीदवारों से अधिक मत भी मिल जाते थे तो भी सर्वाधिक मत पाने वाला उम्मीदवार ही विजयी होता था। दरअसल मतगणना के दौरान भले ही नोटामतों की गिनती उसी प्रकार की जाती रही है, जिस प्रकार उम्मीदवारों के मतों की गिनती होती है लेकिन नोटा को मिले मतों की वजह से चुनाव निरस्त नहीं होता किन्तु गत वर्ष हरियाणा नगर निगम चुनावों में राज्य निर्वाचन आयोग की ऐतिहासिक पहल के बाद नोटा की सार्थकता लोकतंत्र में पहले के मुकाबले कई गुना बढ़ गई है।
हमें यह समझने की दरकार है कि नोटा वोटर वे मतदाता नहीं हैं, जो कोई न कोई बहाना बनाकर मतदान करने से बचते हैं और चुनाव उपरांत दूषित राजनीतिक व्यवस्था को कोसने में अपनी ऊर्जा नष्ट करते हैं बल्कि वे ऐसे वोटर हैं, जो किसी के बहकावे में आकर सिर्फ वोट देने के लिए ही मतदान प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बनते बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास रखते हुए लंबी-लंबी कतारों में लगकर मतदान करते हैं और अपना स्पष्ट विरोध दर्ज कराते हैं, इसलिए ‘नोटा’ को वोट बर्बाद करने वाला औजार मानना उचित नहीं। वास्तव में नोटा वर्तमान दूषित राजनीति में बदलाव को गति देने का हथियार है। कुछ वर्ष पहले तक चुनाव के दौरान बहुत से लोगों से प्रायः यही सुनने को मिलता था कि वे बहती हवा को देखकर अर्थात् जीत की संभावना वाले प्रत्याशी को अपना वोट देंगे वरना उनका कीमती वोट बर्बाद हो जाएगा किन्तु नोटा ने मजबूरी में जीत की संभावना वाले प्रत्याशी को वोट न देने की स्थिति में वोट बर्बाद हो जाने की धारणा को तोड़ने में अहम भूमिका निभाई है।
ऐसे में बेहतर यही है कि ‘नोटा’ कानून में संशोधन करते हुए हरियाणा निर्वाचन आयोग की पहल को समूचे देश में लागू किया जाए ताकि लोकतंत्र में नोटा की सार्थकता और उपयोगिता बढ़े और यह लोकतांत्रिक व्यवस्था को नए आयाम प्रदान करते हुए सौ फीसदी मतदान की दिशा में सार्थक भूमिका निभा सके। बहरहाल, नोटा लोकतांत्रिक व्यवस्था में मजबूती के साथ अपनी सार्थकता साबित कर सके, इसके लिए जरूरी है कि आमजन को ‘नोटा’ की व्यवस्था और उसके महत्व के बारे जागरूक करने के लिए व्यापक स्तर पर अभियान चलाया जाए और उन्हें बताया जाए कि नोटा उनका ऐसा एकमात्र सशक्त अधिकार है, जिसके जरिये वे अपने लोकतांत्रिक उत्तरदायित्वों के निर्वहन के साथ राजनीतिक दलों को राजनीति में शुचिता, नैतिकता एवं ईमानदारी बनाने के लिए योग्य उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारने पर विवश कर सकते हैं।

एयर इंडिया, किंगफिशर, जेट के बाद अब पवनहंस
सनत जैन
भारत में हवाई सेवाओं की स्थिति बद से बदहाल स्थिति में पहुंच गई है। सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी एयरइंडिया आर्थिक रुप से पहिले से ही बदहाल है। विजय माल्या की किंगफिशर बंद हो चुकी है। किंगफिशर में हुए घाटे और बैंक का कर्ज नहीं चुका पाने के कारण विजय माल्या भारत छोड़कर विदेश भाग गए है। यह क्रम रुका नहीं, अब जेट एयरवेज, बैंक का कर्ज नहीं चुका पाने और आर्थिक बदहाली के कारण बंद होने की कगार पर है। कई महीनों से इसके पायलट और कर्मचारियों को वेतन नहीं मिला। यात्रियों ने जो टिकट एडवांस में खरीदे थे। उड़ाने रद्द होने पर जेट एयरवेज यात्रियों का पैसा वापिस नहीं कर रही है। जेट एयरवेज के अध्यक्ष नरेश गोयल ने इस्तीफा दे दिया है। नया बोर्ड बना, वह भी जेट एयरवेज की सेवायें शुरु नहीं कर पाया। बैंकों ने आगे फायनेंस करने से मना कर दिया। सरकार ने भी कोई मदद नहीं की। हजारों कर्मचारियों को कई माह से वेतन नहीं मिलने के कारण वह सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे है। जेट एयरवेज का एक कर्मचारी जो कैंसर की बीमारी से जूझ रहा था। उसने आत्महत्या कर ली।
अब पवनहंस एयरवेज आर्थिक संकट में आ गई है। 2018-19 में इस सरकारी कम्पनी को 89 करोड़ का घाटा था। बैंकों का इस कम्पनी पर हजारों करोड़ रुपया बकाया है। कर्मचारियों को कम्पनी अप्रैल माह से वेतन भी नहीं दे पाएगी। एयरवेज सेक्टर की यह स्थिति क्यों बनी। इसको लेकर सभी पक्ष मौन है। पिछले एक माह से भारत की हवाई सेवायें अस्त-व्यस्त हैं। यात्री लगातार परेशान हो रहे है। हाल ही में एयरइंडिया का सर्वर खराब हो जाने से यात्री कई घंटों परेशान होते रहे। हवाई यात्राओं में इस तरह की अराजक स्थिति इससे पहिले कभी नहीं देखी गई।
फ्यूल की बढ़ती कीमतें एयरपोर्ट में विमानों की लैंडिंग शुल्क, रखरखाव, हेंगर इत्यादि के शुल्क कई गुना बढ़ा दिए गए है। एयरवेज कम्पनियों ने भी बैंकों से कर्ज लेकर बेतहाशा खर्च और हेराफेरी की। जिसके कारण आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपया की स्थिति पिछले तीन वर्षों से बनी हुई है। सरकार एवं बैंकों ने ऑख मूंदकर रखी थी। जिसके कारण देश की हवाई सेवायें अस्त-व्यस्त हो गई। वहीं भारत की चौथी हवाई कम्पनी घाटे के कारण औने-पौने दामों में बिकने जा रही है।
पिछले पांच वर्षों में देश की सार्वजनिक क्षेत्र की कई कम्पनियां आर्थिक रुप से घाटे में चल गई हैं। भारत संचार निगम की आर्थिक स्थिति बहुत खराब है। हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स को वेतन बांटने के लिए बैंक से कर्ज लेना पड़ा, ओएनजीसी जैसी नवरत्न कम्पनी भी सरकार की गलत नीतियों के कारण आर्थिक बदहाली की शिकार हो गई है। सार्वजनिक क्षेत्र की लगभग सभी कम्पनी आर्थिक रुप से पिछले वर्षों में बीमार हो गई हैं। वहीं निजी क्षेत्र की रिलायंस जैसी कम्पनियां भारी मुनाफा कमा रही है। पिछले कई दशकों से अरबों रुपया निवेश करके सार्वजनिक क्षेत्र की जो कम्पनियां बेहतर प्रदर्शन कर रही थी। पिछले वर्षों में सरकार के गलत निर्णयों से यह बंद होने की कगार पर पहुंच गई है। सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों को निजी क्षेत्र को सौंपने की साजिश की बात राजनैतिक एवं सचिवालय के गलियारों में चर्चा का विषय बना हुआ है। चर्चाओं के अनुसार भारत संचार निगम और ओएनजीसी जैसी कम्पनियों को रिलायंस समूह अधिग्रहित करना चाहता है। एयरइंडिया को लेकर टाटा समूह ने अपनी रुचि जताई थी। उसके बाद से ही सार्वजनिक क्षेत्र की नवरत्न एवं प्रमुख कम्पनियां तेजी से आर्थिक बदहाली की शिकार हुई है। जीवन बीमा निगम जैसी कम्पनियों का सरकार ने घाटे की कम्पनियों में निवेश कराकर भारतीय जीवन बीमा निगम की स्थिति भी काफी कमजोर कर दी है। सरकार इस ओर कोई ध्यान क्यों नहीं दे रही है। इसको लेकर तरह-तरह की चर्चायें हैं।

न्यायपालिका की अग्नि-परीक्षा
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हमारे सर्वोच्च न्यायालय की इज्जत दांव पर लग गई है। पहले तो प्रधान न्यायाधीश रंजन-गोगोई पर यौन-उत्पीड़न का आरोप लगा और अब एक वकील ने अपने हलफनामे में दावा किया है कि जस्टिस गोगोई को फंसाने के लिए कुछ ताकतवर लोगों ने यह षड़यंत्र रचा है। उस वकील ने बंद लिफाफे में सारा मामला उजागर करते हुए लिखा है कि जो लोग गोगोई को फंसाना चाहते हैं, उन्होंने उनके यौन-अत्याचार पर दिल्ली में प्रेस-कांफ्रेंस करने के लिए उन्हें डेढ़ करोड़ रु. देने की भी पेशकश की थी। यह सचमुच बड़ा गंभीर आरोप है। इसकी जांच की जिम्मेदारी सेवानिवृत्त न्यायाधीश ए.के. पटनायक को दी गई है और उन्हें यह अधिकार भी दे दिया गया है कि वह सरकार की प्रमुख जांच एजेंसियों और पुलिस की सहायता भी ले सकते हैं। इस जांच को उस जांच से अलग रखा गया है, जो उस महिला के आरोपों के यौन-उत्पीड़न की जांच करेगी। याने एक साथ दो जांचें होंगी। कहा नहीं जा सकता कि इन दोनों जांचों में से क्या निकलेगा लेकिन आशा है कि ये जांचें निष्पक्ष होंगी। यौन-उत्पीड़न की जांच कमेटी के एक जज ने अपने आपको उससे अलग कर लिया है, क्योंकि उस यौन-पीड़ित महिला ने उनके बारे में शक प्रकट किया था। इस आतंरिक कमेटी में अब दो महिलाएं हो गई हैं। जो दूसरी कमेटी है, वह जस्टिस पटनायक की है। जस्टिस पटनायक अपनी निर्भीकता और निष्पक्षता के लिए विख्यात हैं। पहले भी इसी तरह के मामलों में वे दो-टूक फैसले दे चुके हैं। यदि उस वकील के आरोप सही साबित हो गए तो देश की न्यायपालिका और राज्य-व्यवस्था की प्रामणिकता पर गहरा संदेह उत्पन्न हो जाएगा। यह मामला उस गहरे षड़यंत्र को उजागर करेगा, जो निष्पक्ष न्याय के विरुद्ध सत्ताधीश और धनाधीश  लोग करते रहते हैं। न्यायपालिका को पथ-भ्रष्ट करनेवाले इन तत्वों को यदि कठोरतम सजा नहीं दी गई तो देश में न्याय की हत्या के ये निर्मम और अदृश्य षड़यंत्र जारी रहेंगे। उसका यह लाभ जरुर होगा कि जस्टिस गोगोई इस अग्नि-परीक्षा से यदि सही-सलामत बच निकले तो उनकी प्रतिष्ठा और न्यायपालिका की प्रतिष्ठा बची रह जाएगी।

वंशबेल के सहारे : कौन पहुंचेगा हरियाणा से लोकसभा के द्वारे ?
जग मोहन ठाकन
हरियाणा में मौसमी तापमान के साथ साथ राजनैतिक पारा भी चुनावी गर्माहट का अहसास करा रहा है। तीन लालों की धरती हरियाणा में लोक सभा के चुनाव 12 मई को होंगे। कभी बंसीलाल, देवीलाल तथा भजन लाल के इर्द गिर्द घूमने वाली राजनीति आज एक नए लाल, भाजपा के वर्तमान मुख्यमंत्री मनोहर लाल की परिक्रमा करती नज़र आ रही है। चाहे कांग्रेस हो, जेजेपी हो या पारिवारिक लड़ाई में धरातल खो चुकी इंडियन नेशनल लोकदल पार्टी या अन्य छुट- पुट पार्टी हो, सभी का पब्लिक के सामने प्रस्तुत व प्रचारित किया जा रहा एक ही मुख्य टारगेट दिखता है – वर्तमान लाल यानि भाजपा को हराना। यह बात इतर है कि कुछ पार्टियों के खाने के दांत अलग हैं और दिखाने के अलग।
कभी हरियाणा की राजनीति के धुरंधर रहे दिवंगत नेताओं के तीसरी व चौथी पीढ़ी के वंशज अपने खुद के कार्यों एवं गुणों की बजाय अपने दादाओं और परदादाओं के नाम पर आज भी लोक सभा की सीढियों पर चढ़ने को प्रयासरत हैं और अपने भाषणों में अपने पूर्वजों के यशोगान व बलिदानों की कहानियां सुनाकर चुनाव की वैतरणी पार करना चाह रहे हैं, उन्हें कितनी सफलता मिलेगी, यह तो 23 मई को ही पता चलेगा। कुल दस लोकसभा सीटों में से आठ सीटों पर पुराने धुरंधरों के ग्यारह वंशज लिगेसी के दम पर ताल ठोक रहे हैं। हालांकि भारतीय राजनैतिक क्षितिज पर जब भी कोई वंशवाद / परिवारवाद के नाम पर टीका –टिपण्णी होती है तो केवल नेहरु –गाँधी परिवार का ही नाम उभारा जाता है, जबकि वास्तविकता यह है कि हर प्रदेश व हल्का स्तर तक वंशवाद के नाम पर राजनैतिक फायदा उठाने में कोई भी दल पीछे नहीं है।
वंशवाद के आसरे वोट बटोरने हेतु कांग्रेस ने भिवानी (श्रुति चौधरी –बंशीलाल ), रोहतक व सोनीपत (दीपेंदर हुडा / भूपेंदर हुडा –चौधरी रणबीर सिंह), हिसार ( भव्य बिश्नोई-भजन लाल ), अम्बाला ( कुमारी शैलजा –दल बीर सिंह ), करनाल ( कुलदीप शर्मा पुत्र चिरंजीलाल शर्मा ) ; भाजपा ने हिसार ( ब्रिजेंदर सिंह –बिरेंदर सिंह / चौधरी छोटूराम ), गुरुग्राम ( राव इन्दर जीत सिंह –राव बिरेंदर सिंह ) ; इंडियन नेशनल लोकदल ने कुरुक्षेत्र ( अर्जुन चौटाला –ओमप्रकाश चौटाला/ चौधरी देवीलाल ) तथा जन नायक जनता पार्टी ने हिसार (दुष्यन्त चौटाला –ओमप्रकाश चौटाला /चौधरी देवीलाल ) तथा सोनीपत (दिग्विजय चौटाला -–ओमप्रकाश चौटाला /चौधरी देवीलाल ) लोकसभाई क्षेत्रो से पुराने राजनैतिक घरानों के पहलवान मैदान में उतारे हैं।
सबसे ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री एवं उप प्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल के वंशजों ने कमर कसी है। देवीलाल के तीन प्रपोत्र –दुष्यन्त हिसार से, दिग्विजय सोनीपत से तथा अर्जुन चौटाला कुरुक्षेत्र से महाभारत का युद्ध लड़ रहे हैं।
देवीलाल के इन वंशजों में सत्ता हासिल करने की इतनी ललक जगी है कि उन्होंने अपनी दादा-परदादा की पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल को विभाजित कर एक अन्य नए दल जननायक जनता पार्टी, जे जे पी, का गठन तक कर डाला। हरियाणा की कुल दस लोकसभा सीटों में से तीन सीटों पर चौधरी देवीलाल के वंशज चुनाव मैदान में उतरे हैं। हिसार सीट से देवीलाल के प्रपोत्र एवं पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला के पौत्र वर्तमान सांसद दुष्यन्त चौटाला (जेजेपी) दुबारा संसद में जाने को लालायित हैं। उनका मुकाबला भी पुराने राजनीतिज्ञों के वंशजों से है। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री चौधरी भजन लाल के पौत्र भव्य बिश्नोई (कांग्रेस ) तथा आजादी से पूर्व के संयुक्त पंजाब में ताकतवर मंत्री तथा किसान नेता रहे चौधरी छोटू राम के दोहते एवं वर्तमान में केंद्र में भाजपा सरकार में मंत्री बिरेंदर सिंह, के पुत्र हाल में आईएएस की नौकरी को तिलांजलि दे राजनीति के माध्यम से समाज सेवा का सपना पालने वाले ब्रिजेंदर सिंह(भाजपा ) दुष्यन्त की सीट छीनने को आतुर हैं। हिसार की यह सीट तय कर देगी कि किसकी लिगेसी आज भी कायम है।
गुरुग्राम सीट से हरियाणा के मात्र आठ माह ( 24.03.1967 से 02.11.1967 ) मुख्यमंत्री रहे राव बिरेंदर सिंह के पुत्र राव इंद्र जीत सिंह, जो 1998, 2004, 2009 में कांग्रेस के सांसद रहे हैं, 2014 में पाला बदल कर भाजपा से सांसद बने और अब पुनः 2019 के चुनाव में भाजपा की टिकट पर सांसद बनने का प्रयास कर रहे हैं।
राव बिरेन्द्र सिंह के बाद हरियाणा की मुख्यमंत्री की कुर्सी पर 22.11.68 से 30.11.1975, 05.07.85 से 19.06.87 तथा 11.05.96 से 23.07.99 के दौरान तीन बार काबिज रहे चौधरी बंशीलाल की पौत्री तथा पूर्व सांसद सुरेन्द्र सिंह एवं वर्तमान में तोशाम (भिवानी) से कांग्रेस विधायक किरण चौधरी की पुत्री श्रुति चौधरी भिवानी –महेंद्रगढ़ लोकसभा सीट से अपने दादा व पिता के राजनैतिक विरोधी एवं वर्तमान सांसद धर्मवीर सिंह से कड़े मुकाबले में जीत के लिए आतुर हैं। 2014 में धर्मवीर से हुई अपनी हार का श्रुति चौधरी इस बार बदला हर हाल में लेना चाहती हैं।
सोनीपत एवं रोहतक की दो सीटों पर तो बाप व बेटा चुनाव मैदान में हैं। कभी संविधान सभा के सदस्य तथा सांसद व विधायक रहे चौधरी रणबीर सिंह के पुत्र एवं पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुडा (कांग्रेस ) सोनीपत से देवीलाल के प्रपोत्र से मुकाबला कर रहे हैं तो वहीँ रोहतक सीट से भूपेन्द्र हुडा के पुत्र एवं पूर्व में तीन बार सांसद रह चुके दीपेन्द्र हुडा (कांग्रेस ) अपनी ही पुरानी सीट पर पुनः काबिज होने के लिए लंगोट कसे हुए हैं। भूपेन्द्र सिंह हुडा वर्ष 2005 से 2014 तक हरियाणा के मुख्यमंत्री तथा 1991, 1996, 1998 तथा 2004 में रोहतक से लोक सभा सदस्य रह चुके हैं और उसके बाद 2005, 2009 तथा 2014 में उनके पुत्र दीपेन्द्र हुडा यहाँ से सांसद बने हैं। रोहतक की सीट पर हुडा परिवार का एक तरफ़ा वर्चस्व माना जाता है, हरियाणा की बिग गन चौधरी देवीलाल को भूपेंदर हुडा तीन बार रोहतक से हरा चुके हैं।
एक और पुराने धुरंधर कांग्रेसी नेता एवं पूर्व केन्द्रीय मंत्री दिवंगत चौधरी दलबीर सिंह(1967, 1971,1980 एवं 1984 में चार बार कांग्रेस के सांसद ) की पुत्री एवं वर्तमान राज्य सभा सांसद कुमारी शैलजा (कांग्रेस ) अम्बाला रिज़र्व सीट से पुनः जीत का स्वाद चखना चाहती हैं। कुमारी शैलजा 2004 तथा 2009 में अम्बाला से और 1991 व 1996 में सिरसा से कांग्रेस पार्टी की टिकट पर सांसद रह चुकी हैं।
करनाल सीट पर चार बार ( 1980 1984 1989, 1991) लगातार कांग्रेसी सांसद रह चुके धुरंधर ब्राह्मण नेता पंडित चिरंजीलाल के पुत्र एवं पूर्व विधानसभा स्पीकर कुलदीप शर्मा, हालाँकि अपने पुत्र चाणक्य को टिकट दिलाकर अगली पीढ़ी को आगे लाना चाहते थे, कांग्रेस के प्रत्यासी के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं।
लोकसभा की दस में से आठ सीटों पर ग्यारह वंशज मैदान में हैं, इनमे से तीन वंशजों (हिसार सीट पर तीन में से दो तथा सोनीपत सीट पर दो में से एक ) का हारना तो तय है ही। अगर इन सीटों पर एक एक वंशज चुनाव जीतता है, तो हरियाणा की अस्सी प्रतिशत सीटों पर वंशज ही राज करेंगे। वर्तमान हालात में छह वंशजों का जीतना लगभग तय लग रहा है। पर यदि ऐसा होता है तो काफी चिंतनीय विषय है कि फिर आम आदमी कैसे पहुँच पायेगा संसद तक ? अब देखना यह है कि अपने पूर्वजों की वंशबेल के सहारे कितने वंशज लोकसभा की सीढियाँ चढ़ पाते हैं ? और हरियाणा की जनता इन वंशजों को हराकर इनके लिगेसी के दावे को कितना धराशाही करती है ?

ईरान पर अमेरिका की दादागीरी
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
परमाणु-समझौते को लेकर डोनाल्ड ट्रंप का अमेरिका ईरान से इतना नाराज है कि उसने अब ईरानी तेल खरीदने पर प्रतिबंध की घोषणा कर दी है। 2 मई के बाद जो भी राष्ट्र ईरान से तेल खरीदेगा, अमेरिका उसके खिलाफ कार्रवाई करेगा। दूसरे शब्दों में ईरान का हुक्का-पानी बंद करने पर अमेरिका तुल पड़ा है। भारत ईरान से 11 बिलियन डॉलर का अपना 11 प्रतिशत तेल आयात करता है। इसी प्रकार वह वेनेजुएला से भी लगभग 6.4 प्रतिशत तेल हर साल खरीदता है। ट्रंप ने वेनेजुएला पर भी प्रतिबंध लगा रखा है। याने भारत के कुल तेल-आयात का 17 प्रतिशत खतरे में पड़ जाएगा। यो भी तेल की कीमत 64 डॉलर प्रति बेरल से बढ़कर 74 डॉलर हो गई है। इसी कारण डॉलर के मुकाबले रुपया गिर गया है। लेकिन भारत में तेल के दाम अभी नहीं बढ़े हैं, क्योंकि सरकार यह खतरा मोल नहीं लेना चाहती, खासतौर से चुनाव के मौसम में। उसने अमेरिकी प्रतिबंध की भी निंदा नहीं की है, जैसी कि चीन-जैसे कुछ देशों ने की है। भारत सरकार का कहना है कि वह अपने तेल की कमी एराक, सउदी अरब और अमारात से कहकर पूरा करेगी। अमेरिका भी तेल भेज सकता है। लेकिन कांग्रेस ने कहा है कि मोदी सरकार ने भारत की संप्रभुता खो दी है, क्योंकि वह ट्रंप के दबाव में आ गई है। ट्रंप ने हमारी संप्रभुता पर सर्जिकल स्ट्राइक कर दी है। यह प्रतिक्रिया जरा अतिवादी है। हम यह क्यों भूल रहे हैं कि ट्रंप मसूद अजहर के मामले में भारत का कितना साथ दे रहे हैं और पाकिस्तान को आतंकवाद से मुक्त करने के लिए कितना दबाव डाल रहे हैं। वे भारत द्वारा संचालित ईरान के चाहबहार-प्रोजेक्ट में भी कोई अड़ंगा नहीं लगा रहे हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपेयो ने आश्वस्त किया है कि इस प्रतिबंध का मित्र-राष्ट्रों पर वे कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ने देंगे। लेकिन यह समझ में नहीं आता कि ईरानी तेल का रुपए में जो भुगतान होता है और बदले में ईरान जो भारतीय माल खरीदता है, उसकी भरपाई डॉलरों में कैसे होगी, कौन करेगा ? ईरान पर अमेरिका की यह एकतरफा कार्रवाई शुद्ध ब्लेकमेल से कम नहीं है, हालांकि उसके पीछे कुछ अनुमानित कारण भी हैं लेकिन उनका समाधान संयुक्तराष्ट्र संघ के जरिए होता तो कहीं बेहतर रहता। ईरान के साथ हुए छह राष्ट्रों के परमाणु-समझौते को अकेले अमेरिका ने रद्द करके फिर से अपनी विश्व-दादागीरी जमाने की कोशिश की है।

अब न्याय पालिका पर नज़र……?
ओमप्रकाश मेहता
लोकतंत्र के महल की किरायेदार मौजूदा सत्ताधारी दल ने सत्ता प्राप्ति के बाद से ही लोकतंत्री महल के आधार स्तंभों पर कब्जे की शुरूआत कर दी थी, अब तक के पांच सालों में इस सत्ताधारी दल ने इस लोकतंत्री महल के तीन स्तंभों कार्यपालिका, विधायिका और कथित चैथे स्तंभ खबर पालिका पर कब्जा कर लिया, अब इन तीनों स्तंभों में सत्ताधारी दल के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। सत्ताधारी दल की इस नियंत्रण करने की हवस के कारण देश का आम नागरिक काफी हलाकान और परेशान हो गया था, क्योंकि सत्ताधारी दल के नियंत्रण वाले तीनों स्तंभों ने जनतंत्री देश के ‘जन’ की उपेक्षा कर ‘तंत्र’ के लिए काम करना शुरू कर दिया था इसलिए हलाकान व परेशान आम आदमी का भरोसा सिर्फ चैथे स्तंभ न्याय पालिका पर ही केन्द्रित हो गया था। इसीलिए पिछले चार साल में देश की न्याय पालिका में काम काफी बढ़ गया और देश की न्याय पालिका ईमानदारी से अपने दायित्व का निर्वहन कर रही है, इसी दौर में न्याय पालिका ने कई बार अपने फैसलों में सरकार के अहम्् फैसलों पर नाराजी व्यक्त की और उन्हें रद्द करके उन सरकारी निर्णयों से प्रभावित वर्गों को न्याय दिया।
अब अहम् में डूबे सत्ताधारी दल ने अन्य स्तंभों की तरह इस न्याय पालिका स्तंभ पर भी कब्जा करने पर मंथन किया, और पहले तो सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायाधीशों का चयन करने वाले ‘काॅलेजियम पद्धति’ को बदलने या उस पर कब्जे की कोशिश की और जब उसमंे वांछित सफलता नहीं मिल पाई तो माननीय न्यायाधीशों के चरित्र हनन तक का हथकण्डा अपना लिया, और इसके पहले शिकार हुए सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री रंजन गोगोई, उनकी भूतपूर्व महिला सहायक से आरोप लगवा दिया कि गोगोई साहब ने उस महिला का यौन शोषण किया व उसके परिजनों को नौकरी से निकलवा दिया। इस गंभीर आरोप से मुख्य न्यायाधिपति का विचलित होना स्वाभाविक था, किंतु उन्होंने दृढ़ता के साथ कहा कि वे ऐसे आरोपों से डरने वाले या पद छोड़कर भागने वाले नहीं है।
इस आरोप के बाद मीडिया व सोशल मीडिया के माध्यम से ये आरोप लगाए जाने लगे कि मुख्य न्यायाधिपति चूंकि असम के पूर्व कांग्रेस मुख्यमंत्री के पुत्र है, इसलिए वे कांग्रेसी विचारधारा के व्यक्ति है, इसीलिए अपने फैसलों में वे कांग्रेसियों का बचाव करते है, उदाहरण के रूप में चिदम्बरम परिवार तथा सोनिया गांधी के परिजनों की जमानत की मिसालें पेश की गई, यही नही उनके सरकार विरोधी फैसलों व राम मंदिर के मुद्दें को भी कथित कांग्रेसी विचारधारा से जोड़कर मीडिया में पेश किया गया। शायद सत्ताधारी दल की यह भी धारण थी कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से यदि इस अभियान की शुरूआत की गई तो देश के उच्च न्यायालय व जिला न्यायाधीश भी भविष्य में सरकार के मामलों में सोच समझ कर फैसलें देंगे? किंतु रंजन गोगोई पर हुए इस चरित्र हनन के हमले के विरोध में पूरे देश के वकील खुलकर सत्ताधारी व सरकार के विरोध में आ गए, ऐसा माहौल देखकर स्वयं केन्द्र में वित्तमंत्री पद पर विराजित और मूलतः वकील अरूण जेटली ने भी अपने ही दल व सरकार द्वारा चलाए गए इस अभियान की निंदा की। शायद उनकी यह धारणा रही होगी कि मंत्री पद तो अस्थाई है, आज है कल नहीं, किंतु वकीली तो उन्हें जिन्दगी भर करना है इसलिए वे स्वयं सत्ताधारी दल के ‘चरित्र हनन’ अभियान का हिस्सा नहीं बनना चाहते थे।
यद्यपि सत्ताधारी दल के इस हीन कृत्य के कई सबूत भी सामने आने लगे है, सुप्रीम कोर्ट के ही वरिष्ठ वकील उत्सव बैंस ने यह प्रकरण सामने आने के बाद खुलकर कहा कि उनके पास भी कुछ लोग मुख्य न्यायाधीश को बदनाम करने का प्रस्ताव लेकर रिश्वत देने आए थे। जिस पर उन लोगों को अपमानित कर भगा दिया गया था। श्री बैंस का कहना है कि यह सोची समझी सर्वोच्च साजिश के तहत किया जा रहा है, जिससे कि मुख्य न्यायाधीश इसी सप्ताह कोर्ट में पेश होने वाले महत्वपूर्ण मामलों पर सरकार या सत्ताधारी दल पर विरोधी फैसले न दे सके और उन्हें शर्मिंदगी में पद छोड़कर जाना पड़े? किंतु दृढ़ न्यायाधीश श्री गोगोई ने ऐसी सभी संभावनाओं को यह कहकर खत्म कर दिया कि ‘‘वे डरने वाले नहीं है।’’ साथ ही यह भी कहा कि ‘‘अब न्यायपालिका की भी राह आसान नहीं है, वह खतरे में है।’’ अब इस मामले की धीरे-धीरे परतें खुल रही है, और वह दिन दूर नहीं जब साजिशकर्ताओं के चेहरे सामने आ जाएगें। लेकिन अब यह तय है कि आज हर संवैधानिक संगठन भयाक्रांत है, क्योंकि उन पर कब्जे की चाले चली जा रही है, और शायद इसी कारण चुनाव आयोग पर भी अनैक तरह के आरोप लगने लगे है।

श्रीलंका में अपूर्व आतंक
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
श्रीलंका के सिंहल और तमिल लोगों के बीच हुए घमासान युद्ध ने पहले सारी दुनिया का ध्यान खींचा था लेकिन इस बार उसके ईसाइयों और मुसलमानों के बीच बही खून की नदियों ने सारी दुनिया को थर्रा दिया है। ईस्टर के पवित्र दिन श्रीलंका के गिरजाघरों और होटलों में हुए बम-विस्फोटों में 300 से ज्यादा लोग मारे गए और सैकड़ों लोग घायल हुए। उनमें दर्जनों, यूरोपीय, अमेरिकी और एशियाई लोग भी थे। इतना बड़ा आतंकी हिंसक हादसा दुनिया में शायद पहले कभी नहीं हुआ। दुनिया के ईसाई और मुस्लिम देशों में इस घटना की कड़ी भर्त्सना हो रही है। यहां प्रश्न यही है कि आखिर यह हुआ क्यों ? सवा दो करोड़ की आबादीवाले श्रीलंका में लगभग डेढ़ करोड़ बौद्ध हैं, 25 लाख हिंदू हैं, 20 लाख मुसलमान हैं और 15 लाख ईसाई हैं। बौद्ध लोग सिंहलभाषी हैं। सिंहली हैं। ज्यादातर मुसलमान तमिल हैं और ईसाइयों में सिंहल और तमिल दोनों हैं। मुसलमानों और ईसाइयों के बीच जातिगत झगड़े का सवाल ही नहीं उठता। मुसलमानों और बौद्धों के बीच 2014 और 2018 में दो बार व्यक्तिगत मामलों को लेकर झगड़ा हुआ और वह दंगों में बदल गया। मुसलमानों का बहुत नुकसान हुआ। मुसलमानों को पता है कि बौद्ध लोग महात्मा बुद्ध की अहिंसा की बातें तो बहुत करते हैं लेकिन उनके-जैसी सामूहिक हिंसा दुनिया में बहुत कम जातियां करती हैं। इसीलिए उन्होंने अपना गुस्सा ईसाइयों पर उतारा। इसके लिए उन्होंने अंतरराष्ट्रीय आतंकवादियों का सहारा लिया। इस्लाम के नाम पर आतंक करनेवाले संगठनों की साजिश के बिना इतना बड़ा हमला करना श्रीलंकाई मुसलमानों के बस की बात नहीं है। कई श्रीलंकाई मुसलमानों को गिरफ्तार किया गया है। उनसे पता लगेगा कि इस साजिश के पीछे असली तत्व कौनसे हैं। ईस्टर के दिन श्रीलंका के गिरजाघरों पर आक्रमण का एक बड़ा संदेश यह भी है कि इस्लामी आतंकवादी यूरोप और अमेरिका के ईसाइयों को बता रहे हैं कि लो, वहां नहीं तो यहां तुमसे हम बदला निकाल रहे हैं। इस घटना के बाद श्रीलंका के मुसलमानों का जीना हराम हो जाएगा। अब बौद्ध और ईसाई मिलकर उनका विरोध करेंगे। कोई आश्चर्य नहीं कि 300 लोगों की मौत का बदला हजारों में लिया जाए। श्रीलंका के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच पहले से दंगल चल रहा है और उसकी अर्थ-व्यवस्था भी पैंदे में बैठे जा रही हैं। ऐसे में श्रीलंका को सांप्रदायिक दंगों से बचाना बेहद जरुरी है। दक्षिण एशिया के राष्ट्रों को इस मुद्दे पर एकजुट होना होगा और पाकिस्तान को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी।

चुनाव में सबसे ज्यादा खर्च करने वाली पार्टी बनी भाजपा
अजित वर्मा
भारतीय जनता पार्टी जहां खर्चा करने में सबसे आगे है, वहीं पैसे बचाने में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का कोई जवाब नहीं है। पार्टियों की ओर से चुनाव आयोग को जो खर्च का ब्यौरा दिया गया है, उसमें बसपा ने अपना बैंक बैलेंस 669 करोड़ रुपए बताया है।
दूसरी ओर भाजपा की बचत सिर्फ 82 करोड़ हैं और इस मामले में वह सपा, कांग्रेस और तेदपा से भी पीछे पांचवें स्थान पर है। हालांकि कांग्रेस की ओर से पिछले साल हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद अभी ब्यौरा नहीं दिया गया है। इनमें से तीन राज्यों में उसकी सरकार बनी है। दिसंबर के आंकड़ों के हिसाब से वह बचत के मामले में तीसरे स्थान पर है।
खर्चा करने में भाजपा ने सभी दलों को बहुत पीछे छोड़ दिया है। पार्टी की ओर से 758 करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च करने की बात आयोग को बताई गई है। इसके अलावा भाजपा ऐसी पार्टी भी है जिसे सबसे ज्यादा चंदा मिल रहा है। पार्टी ने वर्ष 2017-18 में कुल 1027 करोड़ रुपए चंदा मिलने की बात घोषित की है। पार्टियों के इनकम टैक्स रिटर्न के आधार पर एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफाम्र्स ने जो रिपोर्ट तैयार की है, उसके अनुसार भाजपा को 2016-17 में भी 1034 करोड़ रुपए का चंदा मिला था। गत 25 फरवरी तक बसपा के आठ बैंक खातों में कुल 669 करोड़ रुपए जमा थे, यह राशि पिछले साल 13 दिसंबर की तुलना में एक करोड़ कम और मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना राज्यों के चुनाव से पहले 6 अक्तूबर 2018 की तुलना में पांच करोड़ रुपए ज्यादा है। हालांकि इन चुनाव के दौरान उसने 24 करोड़ रुपए जुटाए। बचत के मामले में सपा दूसरे स्थान पर है। उसके खातों में 471 करोड़ रुपए जमा हैं। हालांकि उक्त राज्यों के चुनाव के बाद उसके खाते में 11 करोड़ रुपए कम हुए हैं। 196 करोड़ की बैंक बचत के साथ कांग्रेस तीसरे स्थान पर है। चौथे स्थान पर तेलगु देशम पार्टी का बैंक बैलेंस 107 करोड़ रुपए है, जो भाजपा से ज्यादा है।
राजनैतिक दलों के खर्च को लेकर जो आंकड़े सामने आये हैं, वो लोकसभा चुनाव के पहले के हैं। अब जब अभी के लोकसभा चुनाव में किस पार्टी को कितना चंदा मिला किस पार्टी ने कितना खर्च किया है। इसका हिसाब आना अभी बाकी रहेगा। फिर भी इस मामले में भाजपा ही आगे रहने वाली है इस बात की पूरी उम्मीद है। क्योंकि केन्द्र में भाजपा की सरकार है महाराष्ट्र और गुजरात जैसे अमीर राज्यों में भाजपा की सरकार तो है ही जहां से उसे सबसे ज्यादा चंदा मिलेगा। वहीं सब मिलाकर एक दर्जन से ज्यादा राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं, जिनसे चुनावी चंदा सबसे ज्यादा भाजपा को ही मिलने की उम्मीद है। देश के बड़े औद्योगिक घराने भी सबसे ज्यादा भाजपा को ही चंदा देते हैं। कुल मिलाकर इस बार के लोकसभा चुनाव में भाजपा ही सबसे अमीर पार्टी बनकर एक बार फिर उभरेगी यह तय माना जा रहा है।

चुनाव आयोग की क्षमता पर उठते सवाल
योगेश कुमार गोयल
चुनाव के दौरान देश के लोकतांत्रिक महोत्सव की गरिमा गिराते तमाम राजनीतिक दलों के बड़बोले नेताओं पर लगाम लगाने के लिए जो कदम चुनाव आयोग द्वारा बहुत पहले ही उठा लिए जाने चाहिएं थे, अंततः सुप्रीम कोर्ट के सख्त रूख के बाद आयोग को चुनावों की शुचिता बरकरार रखने हेतु उसके लिए बाध्य होना पड़ा। अदालत को कहना पड़ा था कि आयोग ऐसे मामलों को नजरअंदाज नहीं कर सकता। चुनावी प्रक्रिया में शुचिता लाने के लिए इससे पहले भी सर्वोच्च न्यायालय ने ही समय-समय पर कड़े कदम उठाए हैं। अदालती सक्रियता के चलते ही चुनावों के दौरान जेल से चुनाव न लड़ पाने, अपराधियों, दागियों, धन-बल या विभिन्न अनैतिक तरीकों से मतदाताओं को लुभाने, कानफोडू प्रचार, गली-मोहल्लों में पोस्टरों इत्यादि से निजात मिल सकी। इस बार भी चुनावी शुचिता के लिए निर्वाचन आयोग को सख्त हिदायत देते हुए अदालत ने जो पहल की है, उसके लिए देश की सर्वोच्च अदालत प्रशंसा की हकदार है। आश्चर्य की बात रही कि अदालत की कड़ी फटकार से पहले आयोग ऐसे बदजुबान नेताओं को नसीहत या चेतावनी देने और नोटिस थमाने तक ही अपनी भूमिका का निर्वहन करता रहा, जिसका किसी भी नेता पर कोई असर नहीं देखा गया और जब अदालत द्वारा आयोग से इस संबंध में सवाल किए गए तो आयोग ने अपने अधिकारों और शक्तियों को लेकर अपनी लाचारगी का रोना रोना शुरू कर दिया। ऐसे में सर्वोच्च अदालत द्वारा आयोग को उसकी शक्तियों और अधिकारों की याद दिलाई गई, जिसके बाद आयोग की तंद्रा टूटी और वह न केवल बदजुबान नेताओं पर कार्रवाई के मामले में सक्रिय दिखा बल्कि आदर्श चुनाव संहिता के उल्लंघन के मामले में उसने कर्नाटक की वेल्लोर सीट पर 18 अप्रैल को होने वाले चुनाव को भी रद्द कर दिया, जहां 10 अप्रैल को डीएमके प्रत्याशी के. आनंद तथा उनके दो सहयोगियों के घरों पर आयकर विभाग के छापों के दौरान 11.53 करोड़ की नकदी बरामद हुई थी। आरोप लग रहे थे कि इस तरह का काला धन बड़ी संख्या में मतदाताओं को लुभाने के लिए बांटा जा रहा है।
चुनाव आयोग एक स्वायत्त संवैधानिक संस्था है, जिसके मजबूत कंधों पर शांतिपूर्वक निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव कराने की अहम जिम्मेदारी है। वह किसी प्रकार के राजनीतिक दबाव से मुक्त होकर यह कार्य सम्पन्न करा सके, इसके लिए उसे अनेक शक्तियां और अधिकार संविधान प्रदत्त हैं। देश की चुनाव प्रणाली में शुचिता बरकरार रखते हुए उसमें देश के हर नागरिक का भरोसा बनाए रखना निर्वाचन आयोग की सबसे पहले और आखिरी जिम्मेदारी है किन्तु वह अपनी इस भूमिका का किस कदर निर्वहन करता रहा है, इसका अनुमान अदालती फटकार के बाद योगी आदित्यनाथ, मायावती, आजम खान, मेनका गांधी इत्यादि विभिन्न दलों के कुछ दिग्गज नेताओं पर आयोग की सख्ती पर सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी से लगाया जा सकता है कि ऐसा लगता है कि निर्वाचन आयोग ‘जाग गया’ है। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने आयोग से ऐसे मामलों को लेकर पूछा था कि आप बताएं कि आप क्या कर रहे र्हैं? चुनाव आयोग के पास अभी तक आचार संहिता के उल्लंघन और मर्यादाहीन बयानबाजी की करीब साढ़े तीन सौ शिकायतें मिली किन्तु आयोग ने उन शिकायतों पर कितना लचीला रूख अपनाया, सभी जानते हैं।
ऐसा नहीं है कि आयोग शक्तिहीन है बल्कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत उसके पास चुनावी रंग को बदरंग करने वाले नेताओं या राजनीतिक दलों के खिलाफ कार्रवाई करने के पर्याप्त अधिकार हैं और चुनावी प्रक्रिया की शुरूआत से ही होना तो यही चाहिए था कि आयोग द्वारा अश्लील बयानबाजी और समाज को बांटने वाली टिप्पणियां करने वाले लोगों से सख्ती से निपटा जाता ताकि आचार संहिता की इस प्रकार सरेआम धज्जियां उड़ाने की दूसरों की हिम्मत ही नहीं होती। सुप्रीम कोर्ट की पहले से ही यह स्पष्ट व्याख्या है कि अगर कोई नेता धर्म या जाति के आधार पर वोट मांगे तो उस पर कार्रवाई की जाए और आयोग के पास इतने अधिकार भी हैं कि आचार संहिता का उल्लंघन करने वाले या भड़काऊ अथवा अश्लील बयानबाजी करने वाले नेताओं के स्पष्टीकरण से संतुष्ट न होने पर वह उन्हें दंडित भी कर सकता है। अगर आयोग के दावों के अनुरूप मान भी लें कि उसके अधिकार सीमित हैं तो सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद उसके पास एकाएक बदजुबान नेताओं और आचार संहिता की धज्जियां उड़ाने वाले प्रत्याशियों पर कार्रवाई करने के अधिकार कहां से पैदा हो गए?
वास्तव में अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही का अहसास आयोग को अदालत के सख्त रूख के बाद ही हुआ है। आश्चर्य की बात है कि अदालत को कहना पड़ा कि अधिकारी आयोग के अधिकारों के बारे में जानकारी लेकर उसके समक्ष पेश हों। संविधान के तहत निर्वाचन आयोग को निर्बाध शक्तियां प्राप्त हैं। हकीकत यही है कि मतदान प्रक्रिया को शांतिपूर्ण और निष्पक्ष तरीके से सम्पादित कराने के लिए संविधान में निर्वाचन आयोग को पर्याप्त अधिकार दिए गए हैं किन्तु आयोग अगर अपने इन अधिकारों का सही तरीके से उपयोग ही नहीं कर पाता। यहां सवाल आयोग की निष्पक्षता या एक संवैधानिक संस्था के रूप में उसकी स्वायत्तता पर नहीं है बल्कि सवाल है उसकी क्षमता पर, जो तमाम अधिकारों के बावजूद आचार संहिता के गंभीर मामलों में भी कहीं दिखाई नहीं दी। देश के 90 करोड़ मतदाताओं के दिलोदिमाग में आयोग की क्षमता और निष्पक्षता के प्रति पहले जैसा भरोसा बरकरार रहे, उसके लिए जरूरी है कि आयोग चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन के मामलों में बेहद कड़ा रूख अपनाए।
देशभर में चुनाव आचार संहिता के सरासर उल्लंघन के अनेकों मामले सामने आने के बाद भी आयोग के नरम रूख का ही असर है कि सुप्रीम कोर्ट के सख्त रूख के बाद चार बड़े नेताओं पर कार्रवाई करने के बाद भी विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं की फिजां में जहर घोलने की फितरत बदलने का नाम नहीं ले रही। एक ओर जहां जयाप्रदा को लेकर अश्लील टिप्पणी के बाद आयोग की कार्रवाई के पश्चात् भी आजम खान ने दो ही दिन बाद फिर मर्यादाहीन टिप्पणी की कि चुनाव के बाद कलेक्टरों से मायावती के जूते साफ करवाएंगे तो विवादास्पद कांग्रेसी नेता नवजोत सिंह सिद्धूकटिहार में नफरत फैलाने वाली राजनीतिक बयानबाजी करते नजर आए। शिवसेना सांसद संजय राउत ने तो सरेआम बयान दे डाला कि वे न कानून को मानते हैं और न ही उन्हें चुनाव आयोग या आचार संहिता की कोई परवाह है। ऐसे में यह देखना होगा कि अदालत द्वारा पेंच कसे जाने के बाद आयोग अब आचार संहिता का उल्लंघन करने वाले नेताओं पर कितना सख्त रूख अपनाता है।
आयोग के लचीले रूख के कारण ही इस बार राजनीति का बेहद छिछला स्तर देखते हुए कदम-कदम पर यही लगता रहा है, जैसे किसी भी राजनीतिक दल या नेता को चुनाव आयोग के डंडे का कोई भय ही नहीं है। हमारी राजनीति की मर्यादा तो दिनों दिन गर्त में जा ही रही है, कम से कम निर्वाचन आयोग को तो मर्यादाहीन नेताओं पर सख्ती दिखाते हुए अपनी मर्यादा की रक्षा करने के साथ-साथ लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले लोगों के लिए एक स्वस्थ मिसाल बनकर सामने आना चाहिए ताकि लोकतंत्र में उनका भरोसा बरकरार रहे। आज आयोग भले ही स्वयं को सीमित अधिकारों और शक्तियों वाली संवैधानिक संस्था के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहा है मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कुछ ही दशकों पहले इसी आयोग के टीएनशेषन नामक एक कठोर, निष्पक्ष और सख्त मिजाज अधिकारी ने आयोग की इन्हीं शक्तियों और अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए तमाम राजनीतिक दलों और नेताओं की बोलती बंद कर दी थी। अगर इतने वर्षों पहले एक चुनाव अधिकारी इतना कुछ कर सकता था तो आज आयोग स्वयं को इतना बेबस क्यों दिखा रहा है? सही मायने में आज निर्वाचन आयोग में चुनाव सुधारों के लिए विख्यात रहे टीएनशेषन जैसे सख्त अधिकारियों की ही जरूरत है, जो आयोग की अपने अधिकारों का निर्भय होकर इस्तेमाल करते हुए आयोग की विश्वसनीयता बहाल कर आमजन का भरोसा स्वयं के साथ-साथ लोकतांत्रिक प्रणाली के प्रति भी बरकरार रख सकें।

आतंकवाद के खिलाफ एकजुटता के साथ हो कार्रवाई
डॉ हिदायत अहमद खान
कहने को तो भारत के दक्षिणी पड़ोसी देश श्रीलंका का हिंसा और आतंकी घटनाओं से पुराना रिश्ता रहा है। यहां करीब तीन दशक तक प्रभाकरन का आतंक रहा है, वहीं लिट्टे के दंश को आखिर हम कैसे भुला सकते हैं, जबकि हमें अपने प्रिय पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को एक आत्मघाती हमले में सदा के लिए खोना पड़ गया था। बहरहाल श्रीलंका से सुबह के करीब खबर आई कि सिलसिलेबार बम धमाकों में करीब दो सौ लोगों की जानें जा चुकी हैं, जबकि पांच सौ के करीब लोग जख्मी बताए जा रहे हैं। इस प्रकार सुबह के समय करीब 9 बजे लगातार सात बम धमाकों से श्रीलंका ही नहीं बल्कि पड़ोसी मुल्क भारत भी दहल गया और दुनिया को एक बार फिर संदेश गया कि आतंकवादी अपनी मौजूदगी का एहसास एशियाई देशों में कुछ ज्यादा ही करा रहे हैं। इस कायराना हमले की जितने कड़े शब्दों में निंदा की जाए कम ही है। एक बार फिर दोहराना होगा कि आतंकवाद कभी किसी का सगा नहीं हो सकता, क्योंकि न तो उसका कोई धर्म होता है, न ही कोई जाति होती है, न वह भाषा से बंधा हुआ है और न ही वह किसी विशेष क्षेत्र से ही ताल्लुक रखता है। ऐसे में उसे सिर्फ और सिर्फ इंसानियत का दुश्मन करार दिया जाना ही उचित होगा। अब वह समय आ गया है जबकि सभी शांति व सहअस्तित्व की जिम्मेदारी लेने वालों को एकसाथ इसके खिलाफ उठ खड़ा होना चाहिए। यहां यह नहीं देखा जाना चाहिए कि हमला किस पर और किन परिस्थितियों में हुआ, बल्कि यह देखा जाना उचित होगा कि हमला मानवजाति पर हुआ है, जिसमें बेगुनाहों और निहत्थों ने अपनी जानें गवाई हैं। इसलिए इस पर महज निंदा प्रस्ताव लाकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेना अब उचित नहीं लगता है। दरअसल इससे पहले पुलवामा में हुए आतंकी हमले में हमने अपने 44 जवानों को खोया था। इसके बाद सीमा पार आतंकी ठिकानों पर भारतीय वायुसेना को सर्जिकल स्ट्राइक करनी पड़ गई थी। वहीं अफगानिस्तान में तो लगातार आतंकी हमले होते ही रहते हैं। इसके बाद बांग्लादेश, पाकिस्तान व नेपाल जैसे अन्य छोटे देशों में भी आतंकियों ने अपनी मौजूदगी दर्शाने के लिए समय-समय पर हमले किए हैं। इसलिए कहना पड़ता है कि अब सभी को अच्छे और बुरे आतंकवाद में फर्क करने की बजाय आतंकवाद को सिर्फ आतंकवाद मानकर कार्रवाई करने के लिए एकजुट होना चाहिए। दरअसल मौजूदा समय में हो यह रहा है कि यदि भारत में आतंकी हमला होता है तो सीधे पाकिस्तान पर शक की सुई जाती है और कहा जाता है कि कश्मीर के कारण ऐसा हो रहा है, मतलब आतंकवाद को भी किसी क्षेत्र से जोड़कर देखा जाने लगता है। वहीं जब पाकिस्तान पर आतंकी हमला होता है तो कहा जाता है कि उसके अपने पाले हुए भस्मासुर हैं जो अब उसी के लिए घातक साबित हो रहे हैं। इससे हटकर पाकिस्तान हाल ही में हुए हमले के लिए ईरान में मौजूद आतंकियों को जिम्मेदार ठहराता नजर आता है। मतलब आतंकी अपना काम करते जाते हैं और विभिन्न देश अपने-अपने नजरिये से इसे अलग-अलग खानों में रखकर इसकी भयावहता को कम करने का प्रयास करते रहते हैं। यह मानवजाति पर कुठाराघात है और इससे जितनी जल्दी छुटकारा मिलेगा शांतिप्रिय दुनिया के लिए उतना ही अच्छा होगा। बहरहाल श्रीलंका में हुए आतंकी हमले की निंदा करते हुए भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि ‘मैं इन हमलों की कड़ी निंदा करता हूं। हमारे क्षेत्र में इस तरह की बर्बरता के लिए कोई जगह नहीं है। भारत इस मुश्किल घड़ी में श्रीलंका के लोगों के साथ एकजुटता के साथ खड़ा है। मेरी संवेदना शोक संतप्त परिवारों के साथ है। मैं इन हमलों में घायल हुए लोगों के जल्‍द स्‍वस्थ होने की कामना करता हूं।’ वहीं उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने भी हमलों पर दुख जताते हुए अपनी संवेदनाएं व्यक्त कीं। विदेश मंत्री सुषमा स्‍वराज ने श्रीलंका में मौजूद भारतीयों को सलाह दी कि वो संकट में भारतीय उच्चायोग से संपर्क कर सकते हैं। यहां पाकिस्‍तान ने भी हमलों की निंदा करते हुए कहा है कि वह इस मुश्किल घड़ी में श्रीलंका सरकार और वहां के लोगों के साथ खड़ा है। इस प्रकार मुश्किल घड़ी में सभी साथ होने की बात कहते हैं। श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना ने भी धमाकों पर गहरा शोक जताते हुए देशवासियों से शांति बनाए रखने की अपील की है। दरअसल ये हमले ईसाई समुदाय के मुख्य त्योहार ईस्टर के अवसर पर किए गए हैं, जिससे आतंकियों के इरादों को साफतौर भांपा जा सकता है। त्यौहार के समय जुटने वाली भीड़ को ध्यान में रखकर किए गए आतंकी हमले सही मायने में ज्यादा से ज्यादा लोगों की जान लेने के इरादे से किए जाते हैं ताकि दुनिया देख सके कि उनमें कितनी ताकत है। एक तरह से आतंकी गुटों में भी वर्चस्व को लेकर इस तरह के हमले कुछ ज्यादा ही हो रहे हैं। श्रीलंका में इन सीरियल धमाकों से ईस्टर काले दिवस के तौर पर परिवर्तित हो गया और सभी ओर मातम पसर गया। यह सब तब हो रहा है जबकि लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम यानी लिट्टे का खात्मा 21 मई 2009 को हो गया था। दरअसल इसके संस्थापक वेलुपिल्लई प्रभाकरन को श्रीलंका सेना ने तब मार गिराया था। इसी के साथ लिट्टे ने हथियार डालने का ऐलान भी किया और जाफना को हिंसा के दौर से भी आजादी मिल गई। इस घटना के एक दशक बाद एक बार फिर श्रीलंका बम धमाकों से दहल गया है, जिससे चिंतित होना लाजमी है। गौर करने वाली बात यह भी है कि फरवरी 2018 में ही भारत आए श्रीलंका के चीफ ऑफ डिफेंस, एडमिरल आरसी विजेगुनारतने ने इंडो-पैसेफिक डायलॉग में पूरे विश्वास के साथ दावा किया था कि श्रीलंका दुनिया का एक मात्र ऐसा देश है, जिसने आतंकवाद को पूरी तरह से अपनी धरती से उखाड़ फेंकने में कामयाबी हासिल की है। उनका भी यह इशारा लिट्टे की तरफ ही था‌ अत: अब जबकि सीरिलय बम धमाके हो चुके हैं तो ज्यादातर लोगों का ध्यान भी लिट्टे की ही तरफ जा रहा है, लेकिन न तो इन धमाकों की किसी ने जिम्मेदारी ही ली है और न ही किसी प्रकार के पुख्ता सुबूत ही मिले हैं, जिससे दोषियों को सख्त से सख्त सजा दी जा सके। बावजूद इसके कहना पड़ता है कि आतंकवाद के खिलाफ एकजुटता जरुरी है, तभी इससे पार पाया जा सकता है।

मोदी की भी जांच क्यों न हो ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
चुनाव आयोग ने अपने एक अफसर को मुअत्तिल कर दिया, क्योंकि उसने ओडिशा में प्र.मं. नरेंद्र मोदी के हेलिकाॅप्टर को जांच के लिए 15 मिनिट तक रोक लिया था। आयोग ने अपने हिसाब से ठीक किया, क्योंकि आयोग के नियम के अनुसार जो लोग एसपीजी (विशेष सुरक्षा समूह) की देख-रेख में रहते हैं, उनकी सुरक्षा जांच नहीं की जानी चाहिए। मोहम्मद मोहसिन नामक इस आईएएस अफसर ने आयोग के नियम का उल्लंघन कर दिया था। यहां मेरा प्रश्न यह है कि चुनाव आयोग ने यह बेतुका प्रावधान रखा ही क्यों ? जिन-जिन लोगों को एसपीजी सुरक्षा मिली हुई है, वे कौन लोग हैं? उनमें से ज्यादातर नेता लोग हैं। इनमें से कौन दूध का धुला हुआ है ? राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति की बात जाने दें, बाकी जितने भी नेता हैं, सबके सब पार्टीबाज हैं। और यह तो चुनाव का मौसम है याने करेला और नीम चढ़ा। इन दिनों हर नेता चुनाव जीतने के लिए कोई भी पैंतरा अपना सकता है। वह अपने हेलिकाॅप्टर और जहाज में बांटने के लिए करोड़ों रु., शराब की बोतलें और दुनिया भर की चीजे ले जा सकता है। उसकी जांच क्यों नहीं होनी चाहिए ? जरुर होनी चाहिए और सबसे पहले होनी चाहिए। यदि मुझे यह सुरक्षा मिली होती (कुछ वर्षों तक मुझ पर भी एक सुरक्षा थोप दी गई थी) तो मैं आगे होकर कहता कि आप कृपया मेरी जांच करें। ऐसी जांच से निर्दोष नेता की छवि में चार चांद लग जाते हैं, जैसे कि इस जांच में मोदी के लगे हैं। मोदी के हेलिकाॅप्टर में से कुछ नहीं निकला। मोदी को स्वयं चाहिए कि वे चुनाव आयोग से सार्वजनिक अपील करें कि वह अपने जांच संबंधी इस नियम को बदले। यही नियम लागू करते हुए जब ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के हेलिकाॅप्टर की जांच की गई तो वे एक शब्द भी नहीं बोले। उन्होंने चुपचाप जांच होने दी लेकिन केंद्रीय तेल मंत्री धर्मेंद्र प्रधान की जांच होने लगी तो वे भड़क उठे। उनके हेलिकाॅप्टर में एक सीलबंद बड़ा सूटकेस रखा हुआ था। सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग के कान खींचे तो वह इन दिनों थोड़ा मुस्तैद हो गया है लेकिन उसकी यह मुस्तैदी सबके लिए एक-जैसी होनी चाहिए, चाहे वह प्रधानमंत्री हो या चपरासी हो।

….और अब राष्ट्रवाद के बाद जातिवाद…..?
ओमप्रकाश मेहता
अब ऐसा लगने लगा है कि इस देश में प्रजातंत्रीय संविधान की जगह नया सत्ता का संविधान लाने की तैयारी की जा रही है, इस नए संविधान का मूल मकसद सत्ता प्राप्ति के उचित-अनुचित अनुच्छेदों को जोड़कर सत्ता प्राप्ति के उद्देश्य को हासिल करने के तरीके सुझाना होगा। प्रतिपक्षी नेता जो आज के सत्तासीन नेताओं पर यह गंभीर आरोप लगा रहे है कि इस बार यदि मौजूदा सत्ता की वापसी हो गई तो देश का यह आखिरी चुनाव कहा जाएगा, यह नया संविधान इसी आरोप की पुष्टि करता है।
आज यह सब इसलिए लिखना पड़ रहा है क्योंकि आजादी के बाद डाॅ. भीमराव आम्बेडकर की सदारत में जो संविधान तैयार कर आजाद भारत में 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया था, वह संविधान अब अंतिम सांस ले रहा है, इसे पहले तो अब तक के सत्तासीनों ने अपनी राजनीतिक स्वार्थ सिद्धी के लिए सवा सौ संशोधनों के तीरों से छलनी कर दिया और अब इसमें जो शेष अनुच्छेद है, उनकी अवहेलना कर संविधान की धज्जियाँ उड़ाने की कौशिशें सत्तारूढ़ नेताओं द्वारा ही की जा रही है। संविधान में स्पष्ठ उल्लेख है कि चुनावों या अन्य राजनीतिक कार्यों के लिए धर्म-जाति या सम्प्रदाय का उपयोग नहीं किया जाए, लेकिन आज देश में चुनाव प्रचार के दौर में जो कुछ भी चल रहा है, वह किसी से भी छुपा नहीं है, स्वयं देश के प्रधानमंत्री जब अपनी राजनीतिक स्वार्थ सिद्धी के लिए पहले राष्ट्रवाद, फिर देश की सेना के पराक्रम और अब जातिवाद का सहारा ले रहे है, तो अन्य नेताओं के बारे में क्या कहा जाए? और अब तो अपनी राजनीतिक चैसर फिट करने के लिए प्रतिपक्षी नेतागण संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति तक पहुंच गए? उन्हेें भी चुनावी राजनीति का मोहरा बनाने का प्रयास किया गया? यह अति नहीं तो और क्या हैं?
देश में अब तक एक दर्जन से भी अधिक लोकसभा चुनाव हो चुके है, किंतु इस चुनाव में जो निम्न और घटिया स्तर की राजनीति के दर्शन हो रहे है, उससे नेता तो नहीं देश का आम वोटर शर्मसार हो रहा है। गाली के शब्दकोष से नित नई गालियाँ चुनी जा रही है, फिर वह चाहे महिलाओं के लिए ही क्यों न हो?
ऐसा कतई नहीं है कि यह राजनीतिक स्तर सिर्फ सत्तारूढ़ दल या उससे जुड़े नेताओं का गिरा हो, बल्कि प्रतिपक्षी दलों ने भी इस गिरावट में पूरी सहभागिता निभाई।
अब यह समझ नहीं आ रहा है, आम वोटर या आम आदमी को, कि प्रधानमंत्री जी अपने पांच साल के शासनकाल की उपलब्धियाँ छोड़कर राष्ट्रवाद व जातिवाद तक कैसे पहुंच गए? क्या उनकी सरकार की एक भी उपलब्धि ऐसी नहीं है, जो चुनावी रण में सहयोगी बन सके? इसलिए उन्हें ऐसे हीनतम हथकण्डे़ अपनाने को मजबूर होना पड़ रहा है, आज चुनाव प्रचार में सत्तारूढ़ दल अपनी उपलब्धि की चर्चा क्यों नहीं कर रहा? क्या ऐसी एक भी उपलब्धि नहीं है, जो चुनाव प्रचार में सहयोगी बन सके? फिर सबसे बड़ी बात यह कि प्रतिपक्षी दल तो फिर भी गालियों के बीच अपने चुनावी घोषणा-पत्र का कभी-कभी जिक्र कर देते है, किंतु सत्तारूढ़ दल तो अपने घोषणा-पत्र में समाहित तथ्यों का भी जिक्र नहीं करता, सिर्फ प्रतिपक्ष को गालियाँ व स्वयं के प्रति सहानुभूति अर्जित करने के प्रयासों में भी प्रचार भाषण खत्म हो जाता है, शायद इसका कारण यह भी हो सकता है कि 2014 के चुनावी वादों की ये लोग याद दिलाना नहीं चाहते? क्योंकि उन वादों की किताब का हश्र भी हमारी संविधान पुस्तिका जैसा ही हुआ है।
इस तरह कुल मिलाकर इस बार जो देश में आम चुनाव हो रहे है, ये पिछले चुनावों से एकदम भिन्न है, पिछले चुनावों में प्रचार का माध्यम सत्तारूढ़ दल के लिए उसकी उपलब्धियां और प्रतिपक्ष के लिए महत्वाकांक्षी घोषणा-पत्र हुआ करते थे, किंतु इस बार पक्ष-प्रतिपक्ष सभी गालियों का कोष लेकर बैठ गए है और अपनी कर्कश वाणी से एक- दूसरे पर गालियों के तीर बरसा रहे है, इसमें इन्हें न कोई लाज आ रही है और न शर्म? और इसीलिए आम वोटर मतदान के वक्त तक यह तय नहीं कर पाता कि वोट किसे दिया जाए- साँपनाथ को, या नागनाथ को?

हिंसक सत्ता की नाकामी
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
महावीर जयंति के अवसर पर हार्वर्ड केनेडी स्कूल की एक रपट दुनिया के आंदोलनों पर छपी है। यह खोजपूर्ण रपट इस मुद्दे पर छपी है कि पिछले 100 वर्षों में कितने हिंसक आंदोलन सफल हुए हैं और कितने अहिंसक ? इसके मुताबिक 36 प्रतिशत हिंसक आंदोलन सफल हुए हैं जबकि 54 प्रतिशत अहिंसक आंदोलन सफल हुए हैं। इस शोध-कार्य में विद्वानों ने दुनिया के 323 आंदोलनों का विश्लेषण किया था। पिछले 20 वर्षों में 69 प्रतिशत अहिंसक आंदोलनों ने सफलता प्राप्त की है। 20 वीं सदी में सबसे बड़े दो आंदोलन हुए। एक रुस में और दूसरा चीन में। ये दोनों आंदोलन मार्क्सवादी थे। दोनों हिंसक थे। दोनों में लाखों लोग मारे गए। रुस के सोवियत आंदोलन के नेता व्लादिमीर इलिच लेनिन थे और चीन के माओ-त्से-तुंग थे। एक ने जारशाही को उखाड़ फेंका और दूसरे ने च्यांग काई शेक को ! दोनों आंदोलन सफल हुए लेकिन उनका अंजाम क्या हुआ ? दोनों सिर के बल खड़े हो गए। दोनों असफल हो गए। वर्गविहीन समतामूलक समाज स्थपित करने की बजाय दोनों कम्युनिस्ट राष्ट्र निरंकुश तानाशाही में बदल गए। आज कोई भी उनका नामलेवा-पानीदेवा नहीं बचा है। इसी तरह के हिंसक तख्ता-पलट पूर्वी यूरोप, क्यूबा, एराक, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, मिस्र, ईरान आदि में भी हुए लेकिन वे कितने दिन चल पाए ? उन्होंने कौनसी ऊंचाइयां छुईं ? या तो शीघ्र ही उनका अंत हो गया या उनसे जन्मी व्यवस्थाएं अभी तक सिसक रही हैं। भारत में भी हिंसा हुई लेकिन उसकी आजादी का संघर्ष मूलतः अहिंसक था। इसीलिए भारत में आज भी लोकतंत्र जगमगा रहा है और विविधतामयी समाज लहलहा रहा है। भारत में आज भी कई स्थानों पर हिंसक आंदोलन चल रहे हैं लेकिन वे बांझ साबित हो रहे हैं। नक्सलवादी और कश्मीरी आतंकवादी हजार साल तक भी खून बहाते रहें तो वे सफल नहीं हो सकते। यह बात अफगानिस्तान और पाकिस्तान के तालिबान और इस्लामी आतंकवादियों को भी अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए। वे नेपाल के माओवादियों से कुछ सबक क्यों नहीं लेते ? वे इस परम सत्य को क्यों नहीं समझते कि हिंसा से प्राप्त सत्ता को बनाए रखने के लिए उससे दुगुनी हिंसा निरंतर करते रहनी पड़ती है। नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी अपने-अपने समय में सफल जरुर हुए लेकिन उनका हश्र क्या हुआ, क्या हमें पता नहीं है ?

सिंदूर का चोला चढाने से होगी मनोकामना पूरी
अरविन्द जैन
(हनुमान जन्म पर विशेष) संकट मोचन, अंजनी सुत, पवन पुत्र हनुमान का जन्मोत्सव चैत्र माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है| प्रभु के लीलाओं से कौन अपरिचित अंजान है| हनुमान जयंती के दिन बजरंगबली की विधिवत पूजा पाठ करने से शत्रु पर विजय और मनोकामना की पूर्ति होती है|
हनुमान जी भगवान शिव के 11वें रूद्र अवतार माने जाते हैं| उनके जन्म के बारे में पुराणों में जो उल्लेख मिलता है उसके अनुसार अमरत्व की प्राप्ति के लिये जब देवताओं व असुरों ने मिलकर समुद्र मंथन किया को उससे निकले अमृत को असुरों ने छीन लिया और आपस में ही लड़ने लगे। तब भगवान विष्णु मोहिनी के भेष अवतरित हुए। मोहनी रूप देख देवता व असुर तो क्या स्वयं भगवान शिवजी कामातुर हो गए। इस समय भगवान शिव ने जो वीर्य त्याग किया उसे पवनदेव ने वानरराज केसरी की पत्नी अंजना के गर्भ में प्रविष्ट कर दिया| जिसके फलस्वरूप माता अंजना के गर्भ से केसरी नंदन मारुती संकट मोचन रामभक्त श्री हनुमान का जन्म हुआ|
केसरी नंदन मारुती का नाम हनुमान कैसे पड़ा? इससे जुड़ा एक जग प्रसिद्ध किस्सा है| यह घटना हनुमानजी की बाल्यावस्था में घटी| एक दिन मारुती अपनी निद्रा से जागे और उन्हें तीव्र भूख लगी| उन्होंने पास के एक वृक्ष पर लाल पका फल देखा| जिसे खाने के लिए वे निकल पड़े| दरअसल मारुती जिसे लाल पका फल समझ रहे थे वे सूर्यदेव थे| वह अमावस्या का दिन था और राहू सूर्य को ग्रहण लगाने वाले थे। लेकिन वे सूर्य को ग्रहण लगा पाते उससे पहले ही हनुमान जी ने सूर्य को निगल लिया। राहु कुछ समझ नहीं पाए कि हो क्या रहा है? उन्होनें इंद्र से सहायता मांगी| इंद्रदेव के बार-बार आग्रह करने पर जब हनुमान जी ने सूर्यदेव को मुक्त नहीं किया तो, इंद्र ने बज्र से उनके मुख पर प्रहार किया जिससे सूर्यदेव मुक्त हुए| वहीं इस प्रहर से मारुती मूर्छित होकर आकाश से धरती की ओर गिरते हैं| पवनदेव इस घटना से क्रोधित होकर मारुती को अपने साथ ले एक गुफा में अंतर्ध्यान हो जाते हैं| जिसके परिणामस्वरूप पृथ्वी पर जीवों में त्राहि- त्राहि मच उठती है| इस विनाश को रोकने के लिए सारे देवगण पवनदेव से आग्रह करते हैं कि वे अपने क्रोध को त्याग पृथ्वी पर प्राणवायु का प्रवाह करें| सभी देव मारुती को वरदान स्वरूप कई दिव्य शक्तियाँ प्रदान करते हैं और उन्हें हनुमान नाम से पूजनीय होने का वरदान देते हैं| उस दिन से मारुती का नाम हनुमान पड़ा| इस घटना की व्याख्या तुलसीदास द्वारा रचित हनुमान चालीसा में की गई है –
जुग सहस्र जोजन पर भानू।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।
एकबार, एक महान संत अंगिरा स्वर्ग के स्वामी, इन्द्र से मिलने के लिए स्वर्ग गए और उनका स्वागत स्वर्ग की अप्सरा, पुंजीक्ष्थला के नृत्य के साथ किया गया। हालांकि, संत को इस तरह के नृत्य में कोई रुचि नहीं थी, उन्होंने उसी स्थान पर उसी समय अपने प्रभु का ध्यान करना शुरु कर दिया। नृत्य के अन्त में, इन्द्र ने उनसे नृत्य के प्रदर्शन के बारे में पूछा। वे उस समय चुप थे और उन्होंने कहा कि, मैं अपने प्रभु के गहरे ध्यान में था, क्योंकि मुझे इस तरह के नृत्य प्रदर्शन में कोई रुचि नहीं है। यह इन्द्र और अप्सरा के लिए बहुत अधिक लज्जा का विषय था; उसने संत को निराश करना शुरु कर दिया और तब अंगिरा ने उसे शाप दिया कि, “देखो! तुमने स्वर्ग से पृथ्वी को नीचा दिखाया है। तुम पर्वतीय क्षेत्र के जंगलों में मादा बंदर के रुप में पैदा हो।”
उसे फिर अपनी गलती का अहसास हुआ और संत से क्षमा याचना की। तब उस संत को उस पर थोड़ी सी दया आई और उन्होंने उसे आशीर्वाद दिया कि, “प्रभु का एक महान भक्त तुमसे पैदा होगा। वह सदैव परमात्मा की सेवा करेगा।” इसके बाद वह कुंजार (पृथ्वी पर बन्दरों के राजा) की बंटी बनी और उनका विवाह सुमेरु पर्वत के राजा केसरी से हुआ। उन्होंने पाँच दिव्य तत्वों; जैसे- ऋषि अंगिरा का शाप और आशीर्वाद, उसकी पूजा, भगवान शिव का आशीर्वाद, वायु देव का आशीर्वाद और पुत्रश्रेष्ठी यज्ञ से हनुमान को जन्म दिया। यह माना जाता है कि, भगवान शिव ने पृथ्वी पर मनुष्य के रुप पुनर्जन्म 11वें रुद्र अवतार के रुप में हनुमान वनकर जन्म लिया; क्योंकि वे अपने वास्तविक रुप में भगवान श्री राम की सेवा नहीं कर सकते थे।
सभी वानर समुदाय सहित मनुष्यों को बहुत खुशी हुई और महान उत्साह और जोश के साथ नाचकर, गाकर, और बहुत सी अन्य खुशियों वाली गतिविधियों के साथ उनका जन्मदिन मनाया। तब से ही यह दिन, उनके भक्तों के द्वारा उन्हीं की तरह ताकत और बुद्धिमत्ता प्राप्त करने के लिए हनुमान जयंती को मनाया जाता है।
हनुमान मंत्र:
मनोजवं मारुततुल्यवेगम्
जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं
श्री रामदूतं शरणं प्रपद्ये।।
हनुमान जयंती व्रत पूजा विधि
इस दिन व्रत रखने वालों को कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है| व्रत रखने वाले व्रत की पूर्व रात्रि से ब्रह्मचर्य का पालन करें| हो सके तो जमीन पर ही सोये इससे अधिक लाभ होगा| प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठकर प्रभू श्री राम, माता सीता व श्री हनुमान का स्मरण करें| तद्पश्चात नित्य क्रिया से निवृत होकर स्नान कर हनुमान जी की प्रतिमा को स्थापित कर विधिपूर्वक पूजा करें| इसके बाद हनुमान चालीसा और बजरंग बाण का पाठ करें| फिर हनुमान जी की आरती उतारें| इस दिन स्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के सुंदरकांड या हनुमान चालीसा का अखंड पाठ भी करवाया जाता है| प्रसाद के रुप में गुड़, भीगे या भुने चने एवं बेसन के लड्डू हनुमान जी को चढ़ाये जाते हैं| पूजा सामग्री में सिंदूर, केसर युक्त चंदन, धूप, अगरबती, दीपक के लिए शुद्ध घी या चमेली के तेल का उपयोग कर सकते हैं|पूजन में पुष्प के रूप में गैंदा, गुलाब, कनेर, सूरजमुखी आदि के लाल या पीले पुष्प अर्पित करें| इस दिन हनुमान जी को सिंदूर का चोला चढ़ाने से मनोकामना की शीघ्र पूर्ति होती है|
एक मान्यता के अनुसार हनुमान जी जैन थे ,इसके बहुत प्रमाण शास्त्रों में मिलते हैं .
हनुमान जयंती की सबको शुभकामनाएं .

गरीब देश : महंगे चुनाव
ओमप्रकाश मेहता
हमारा लोकतंत्र अब हमारे गरीब देश के लिए काफी खर्चीला और महंगा साबित होने लगा है, हमारे इसी देश में हमने अपना पहला लोकतंत्र महापर्व (चुनाव 1952) सिर्फ दस करोड़ रूपए में मनाया था, जो अब मात्र सढ़सठ साल बाद मनाए जा रहे इस लोकतंत्र महापर्व पर इस वर्ष इकहत्तर हजार करोड़ रूपया खर्च होने का अनुमान है, इतनी वृद्धि दर तो हमारे देश में महंगाई की भी नहीं रही, जितनी कि चुनावी खर्च की है और इस लोकसभा चुनाव के बाद पूर्व विश्व के प्रजातंत्री देशों में सबसे महंगा चुनाव कराने का सेहरा हमारे देश के सिर पर बंध जाएगा। इससे पहले हुए लोकसभा चुनाव (2014) पर हमने 35,577 करोड़ रूपए खर्च किए थे। अर्थात् इस बार पिछली बार के मुकाबले दुगुने से भी अधिक राशि खर्च होने का अनुमान है। यहां यह उल्लेखनीय है कि 2016 में अमेरिका में हुए राष्ट्रपति चुनाव पर 46,270 करोड़ रूपए खर्च हुए थे, और चुनाव खर्च मंे अब तक वही सिरमौर देश था, और अब भारत अमेरिका से यह खर्चीला ताज छीनने जा रहा है।
……फिर सबसे बड़ा और अहम् तथ्य तो यह है कि यह खर्च तो वह है जो खुले आम कागजों पर दिखाया जाता है, इससे कई गुना अधिक खर्च राजनीतिक दल सब कुछ छुपाकर करते है। अर्थात् यदि यह कहा जाए कि चुनावों में देश के कालाधन का भी उपयोग हो रहा है, तो कतई गलत नहीं होगा, क्योंकि देश के बड़े उद्योगपति व पूंजीपति अरबों में पार्टियों को चंदा जो देते है, जिसका हिसाब कभी भी उजागर नहीं होता, चूंकि ये ही सत्ता के कर्णधार होते है, इस लिये इन्होंने कोई ऐसा सख्त कानून भी नहीं बनाया, जिससे इनकी यह कारगुजारी उजागर हो सके। यहां तक कि सूचना के अधिकार का कानून भी पार्टियों के चुनावी चंदे पर लागू नहीं होता। हमारे प्रजातंत्र की यह भी एक विसंगति है कि देश के पूंजीपति व उद्योगपति राजनीतिक दलों को जितनी राशि चंदे में देते है, सम्बंधित दल के सत्ता में आ जाने के बाद वह दी गई राशि से कई गुना वसूलने का प्रयास भी करते है और राजनीतिक दल सत्ता में आने के बाद चंदा दाताओं का विशेष ध्यान भी रखते है और उन्हें हर तरीके से ‘उपकृत’ करने का प्रयास करते है।
लोकतंत्र के साथ यह भी तो एक विसंगति जुड़ी है कि पांच साल में एक बार ही राजनीति का पहाड़ झुककर आम आदमी के पास आता है, बाकी चार साल तो आम आदमी अपने हाल पर रोता रहता है, उसके आंसू पौछने वाला कोई नहीं होता, किंतु अब समय के साथ देश का आम वोटर भी समझदार, जागरूक और सर्वज्ञाता हो गया है, अब वह समझ गया है कि उसे क्या करना है? और सत्तारूढ़ दल की कौन सी ज्यादती या गलती का उसे दण्ड देना है, शायद इसी लिए इस बार सत्ताधारी दल कुछ डरा सहमा सा नजर आ रहा है।
इसलिए कुल मिलाकर यदि इस बार चुनाव के नतीजे कुछ चमत्कारी हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि देश के आम मतदाता की स्मृति भी अब समय के अनुसार तीक्ष्ण हो चुकी है और वह हर बात व घटना को याद रखने लगा है। वह यह भी याद रखने लगा है कि पिछले चुनाव के समय कौन से दल के नेता ने कौनसे वादे किए थे और सत्ता में आने के बाद उनमें से कितने वादों को मूर्तरूप दिया? शायद इसी लिए सत्ताधारी दल चुनाव के समय अपनी विगत को और भविष्य की दुर्गति को लेकर चिंतित व भयभीत रहता है, आज देश में सत्तारूढ़ दल की भी वहीं स्थिति है।
इस तरह कुल मिलाकर अब देश में दैनंदिनी उपयोग की वस्तुओं के साथ चुनाव भी काफी महंगे होते जा रहे है, यदि कोई ऐसा चमत्कार हो, जिससे चुनावों के प्रबंधन और प्रचार पर खर्च होने वाली अपार धन राशि देश के गरीबों के कल्याण व विकास पर खर्च हो तो सोचिए यह भारत की विश्व में कितनी बड़ी और दुनिया के लिए अनुकरणीय मिसाल होगी?

नमो टी वी और आचार संहिता
डॉ. अरविन्द जैन
कृष्ण के मुख में किसी ने माखन लिपटाया, जब उनकी माँ ने उनसे पूछा की तुम्हारे मुख पर माखन किसने लगाया तो कहने लगे मो नहीं माखन खाओ, ग्वाल बाल मोहे मुख पर माखन लिपटाओ। एक मुहल्ले का पहलवान फुर्सत में रहता और चौराहे पर बैठा रहता, हर कोई बच्चे से पूछता बताओ अमेरिका का राष्ट्रपति कौन हैं तो बच्चा बौलता और रहो घर में, बाहर निकला करो ज्ञान बढ़ेगा, ट्रम्प हैं, दूसरे दिन पहलवान ने बालक से पूछा ब्रिटेन का प्रधान मंत्री कौन हैं, बालक चुप तो पहलवान ने बताया मे हैं, तीसरे दिन पहलवान ने बालक से पूछा भारत का राष्ट्रपति कौन हैं, तो लड़के ने नहीं बताया तो पहलवान बोलै कोविंद जी हैं, इस प्रकार बालक रोज रोज की पढाई से तंग आ कर चौथे दिन बालक पूछा ने पूछा पहलवान हीरालाल कौन हैं इस पर पहलवान चुप रहा तब बालक ने कहा रोज बाहर घुमा करो, वह रोज तुम्हारे घर जाता हैं !
इसी प्रकार नमो टी वी इस समय बहुत तेज़ी से चल रही हैं जो मोदी जी का खुला प्रचार कर रही हैं और मोदी जी का कहना हैं की मुझे नहीं मालूम हैं, यह क्या संभव हैं ? क्या मोदी जैसे तानाशाह और एकला चलने वाला व्यक्ति की इच्छा वगैर कोई पत्ता हिल सकता हैं, असंभव पर वह जान भूझ कर झूठ बोलते हैं जो उनके जन्मजात गुण हैं, बिना झूठ बोले उन्हें खाना नहीं पचता, दिन रात उनके गुणों का वर्णन करता हैं टी वी चॅनेल और उन्हें पता नहीं।
मजेदार बात यह हैं की इस टी वी को सूचना प्रसारण मंत्रालय से कोई
स्वीकृति नहीं मिली और न आजतक इस टी वी का मालिक कौन हैं का पता चला ? क्या यह बी जे पी का प्रचार तंत्र हैं। आखिर इतना कुछ हो रहा हैं और प्रधान सेवक अनभिज्ञ कैसे हो सकते हैं ? इसका खरच कौन वहन कर रहा हैं ?क्या इस प्रकार का विज्ञापन और प्रचार आचार संहिता का उल्लंघन नहीं हैं ?क्या इस प्रकार की सुविधा अन्य पार्टी को भी प्रदाय की जाना चाहिए। इस बात को आधार लेकर सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियां भी नमो टी वी जैसे समूह में मांग करे। इस पर सूचना प्रसारण मंत्रालय क्या कार्यवाही करता हैं और चुनाव आयोग क्या बंदिश लगाता हैं।
क्या इस टी वी का मालिक कोई नहीं है या बिना मालिक के चल रहा हैं या बिना धन के सर्कार व्यय पर प्रसारण होना चाहिए, यह भी खुले रूप से भ्रष्टाचार के अंतरगत आता हैं। इस पर को कार्यवाही करेगा और किस पर कार्यवाही करेगा। इतना बड़ा छल खुले आम जनता और शासन और प्रशासन के सामने हो रहा हैं और सब मूक बधिर जैसे बैठे हैं, इसका मतलब इसके पीछे कोई बड़ा गिरोह काम कर रहा हैं। जैसा की कहा जाता हैं की यदि कोई चूहा, बिल्ली को आँख दिखाए तो समझो चूहा का बिल नजदीक हैं। इसी प्रकार नमो टी वी पर पार्टी और सत्ता का खुला प्रशय होने से दबंगता के साथ चल रहा हैं और कोई भी कार्यवाही नहीं करने का साहस कर पा रहा हैं।
चुनाव आयोग बिना रीढ़ का हैं वह इतना कमजोर हैं की कोई भी कार्यवाही करने में ढीलापन अख्तियार करता हैं, जैसे होली में आग लगी और सावन में आग बुझाएंगी। न योगी के ऊपर कार्यवाही की न कल्याण सिंह पर कुछ भी नहीं किया। जो स्वयं कार्यवाही करने में सक्षम हैं वह दूसरे की पाली में डालकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर देते हैं।
नमो टी वी भी भ्र्ष्टाचार का खुला खेल हैं और आचारसंहिता का खुला उल्लंघन हैं इस आधार पर नमो का चुनाव रद्द किया जाना चाहिए जिससे अन्यों को भी शिक्षा मिल सकेगी, और अन्य सभी राजनैतिक पार्टियों को भी इस प्रकार के प्रसारण की अनुमति मिलनी चाहिए।

क्या दोबारा भाजपा आने पर बंद हो जाएगी पेंशन ?
जग मोहन ठाकन
किसान कर्जा माफ़ी का नारा देकर वर्ष 2018 में तीन राज्यों –राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में जब से कांग्रेस ने जीत हासिल की है, सभी राजनैतिक पार्टियाँ किसान के कल्याण की घोषणायें करने में एक दूसरी से आगे आने की होड़ में लग गयी हैं।
भाजपा ने अपने इस पारी के अंतिम बजट में घोषणा की कि प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना के तहत पांच एकड़ तक के सभी छोटे और सीमान्त किसानों को प्रतिवर्ष छह हज़ार रूपए दिए जायेंगे।
बाद में राहुल गाँधी के पांच करोड़ गरीब परिवारों को न्यूनतम आय योजना के तहत प्रति परिवार प्रतिवर्ष 72000/ रूपए देने की घोषणा ने बीजेपी के गरीब परिवारों के वोट बैंक में सेंध लगाने के प्रयास को विफल कर दिया और भाजपा द्वारा गरीबों के वोट खींचने की आस पर पानी फेर दिया।
कांग्रेस के इस तीर को काटने के लिए भाजपा ने अपने ताज़ा जारी संकल्प पत्र में एक और तीर चलाया कि प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना के तहत बिना भू सीमा के सभी किसानों को 6 हजार रुपये का लाभ मिलेगा।
केवल छोटे किसानों को ही मदद देने से छोटे किसान तो भाजपा से जुड़ेंगें या ना जुड़ेंगें यह तो वक्त बताएगा, परन्तु सभी किसानों को इस योजना के दायरे में न लेने से बड़े किसान अवश्य भाजपा से नाराज हो गए थे।
अब संकल्प पत्र में सभी किसानों को जोड़ने की घोषणा से भाजपा ने अपने विश्वसनीय वोट बैंक रहे बड़े किसानों को पुनः अपने से बांधे रखने का प्रयास किया है। परन्तु क्या तर्क ले रही है भाजपा अपने इस अचानक तब्दीली बारे ?
केंद्र में रेलवे एवं कोयला मंत्री, पियूष गोयल, जिन्होंने भाजपा की इस पारी का अंतिम बजट भी पेश किया था, ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया को दिए एक इंटरव्यू में, जो 10 अप्रैल 2019 के अंक में प्रकाशित हुआ है, तर्क दिया है कि – “हमारे संज्ञान में एक जेन्युइन मामला आया कि देश के कई क्षेत्रों में बड़े किसान भी अतिवर्षा, सुखा या बाढ़ की मार से पीड़ित होते रहे हैं। बुन्देलखण्ड की भांति कई क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ किसान सूखे से प्रभावित हैं। सभी किसानों ने, चाहे वे छोटे हैं या बड़े, सामूहिक रूप से देश को खाद्यान्न तथा अन्य फसलों के उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने में बहुत बड़ा योगदान दिया है। इसलिए हमने सोचा कि सभी किसानों को प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना के तहत कवर किया जाए। ”
फिर पांच एकड़ से अधिक वाले किसान बुढापा पेंशन से वंचित क्यों ?
भाजपा द्वारा जारी संकल्प पत्र में भाजपा ने घोषणा की है कि सभी छोटे और सीमांत किसानों को 60 साल के बाद पेंशन की सुविधा देंगे। हम देश में सभी सीमांत और छोटे किसानों के लिए पेंशन की योजना आरंभ करेंगे ताकि 60 वर्ष के बाद भी उनकी सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।
यदि भाजपा के संकल्प पत्र को ही भाजपा की आगामी योजनाओं का संकेत माना जाये तो भाजपा तो केवल 60 वर्ष से अधिक आयु के केवल सीमांत और छोटे किसानों को ही बुढापा पेंशन देगी।
जब भाजपा के केन्द्रीय मंत्री पियूष गोयल प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना में बड़े किसानों को शामिल करने हेतु तर्क देते हैं कि छोटे या बड़े – सभी किसान अतिवर्षा, सुखा या बाढ़ 0की मार से पीड़ित होते हैं और सभी किसानों ने सामूहिक रूप से देश को खाद्यान्न तथा अन्य फसलों के उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने में बहुत बड़ा योगदान दिया है, तो फिर किसानों को पेंशन देने में पांच एकड़ की सीमा क्यों लगाई जा रही है ?
क्यों नहीं पांच एकड़ से ऊपर वाले सभी किसानों को भी उनके देश की तरक्की में योगदान को देखते हुए बुढ़ापा पेंशन दी जाए ?
हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री एवं देश के उप प्रधानमंत्री दिवंगत चौधरी देवीलाल द्वारा हरियाणा में 1987 में शुरू की गयी 60 वर्ष से अधिक आयु वाले, न केवल किसान अपितु हरियाणा के हर नागरिक को बिना किसी व्यवसाय का भेदभाव किये अभी भी दी जा रही दो हज़ार रुपये प्रति माह सम्मान पेंशन की तर्ज पर देश के हर नागरिक को सम्मान पेंशन क्यों नहीं ?
अब प्रश्न उठता है कि क्या सारे देश में समान सिविल कोड लागु करने की हिमायती भाजपा अपने संकल्प पत्र को सारे देश में समान रूप से लागु करेगी ?
यदि हाँ, तो क्या भाजपा सारे देश में समरूपता लाते हुए केवल पांच एकड़ तक वाले किसानों को ही साठ वर्ष से अधिक आयु होने पर पेंशन देगी ? तो क्या हरियाणा में, जहाँ प्रदेश में भी भाजपा की सरकार है, और जहाँ सभी किसान, बिना किसी भूमि सीमा रेखा के, बुढापा पेंशन ले रहे हैं, वहां भी केवल छोटे और सीमान्त यानि पांच एकड़ तक के किसानों को ही पेंशन मिलेगी ? तो क्या लोकसभा चुनाव के बाद हरियाणा में पांच एकड़ से अधिक वाले किसानो की बुढ़ापा पेंशन बंद कर दी जायेगी ? क्या भाजपा इतना कठोर कदम उठा पायेगी ? क्या भाजपा पहले से पीड़ित किसानों के आक्रोश को झेल पायेगी ? इन सवालों के उत्तर भाजपा पहले दे चुकी है। वर्ष 2004 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने कर्मचारी यूनियनों के आक्रोश की परवाह किये बिना मिलिटरी कर्मियों को छोड़कर पैरामिलिटरी फोर्सेज समेत सभी केन्द्रीय एवं राज्य कर्मचारियों की पेंशन बंद कर दी थी, जिसका खामियाजा कर्मचारी आज तक भुगत रहे हैं और बार बार पुरानी पेंशन बहाली की मांग उठाते रहते हैं, परन्तु हाथी की चाल से मस्ती में चल रही भाजपा इसकी कोई परवाह नहीं कर रही है। और चले भी क्यों नहीं ? हमारे देश का वोटर मुद्दों को नहीं देखता, बल्कि जुमलों से प्रभावित होकर वोट देता है या जातिगत व धार्मिक आधार पर निर्णय कर भेडचाल में इ वी एम मशीन का बटन दबाता है, और इसी बटन के साथ ही दबा देता है अपना, देश का और प्रगति का गला। और फिर पांच साल तक मिमियाता रहता है बकरे की तरह अपनी ही कुर्बानी के इंतज़ार में, मात्र उस हरे घास की आस में जो वास्तविक नहीं है, अपितु आभासी है और सपने पाल पाल कर केवल हरी हो चुकी उसकी आँखों को हरी घास दिखाई देती है या दिखाई जाती है।

दो सीटों से क्यों लड़ रहे हैं राहुल गांधी
अजित वर्मा
राहुल गांधी इस बार दो लोकसभा सीटों से चुनाव लड़ रहे हैं। वे अपनी परम्परागत सीट अमेठी के साथ ही दक्षिणी राज्य केरल के वायनाड लोकसभा क्षेत्र से च़ुनाव लड़ने जा रहे हैं। राहुल ने वायनाड से नामांकन पत्र भर दिया है, अब वे अमेठी से भी नामांकन भरेंगे। दो सीटों से चुनाव लड़ने को लेकर आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी जारी है। अमेठी से राहुल गांधी के खिलाफ दूसरी बार चुनाव मैदान में उतरने जा रहीं भाजपा केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने राहुल पर निशाना साधते हुए कहा कि यह अमेठी की जनता का अपमान और उनके साथ धोखा है।
राहुल के दो सीटों पर चुनाव लड़ने का एक कारण यह भी बताया जा रहा है कि पिछले 2014 के चुनाव में अमेठी में राहुल का जीत का अंतर घटकर 1 लाख वोट रह गया था इसलिये हार के डर से राहुल गांधी दो सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं।
राहुल गांधी की दादी श्रीमती इंदिरा गांधी भी एक बार यूपी की रायबरेली की सीट के अलावा कर्नाटक की चिकमंगलूर सीट से तथा राहुल की मां श्रीमती सोनिया गांधी भी रायबरेली के साथ ही कर्नाटक के बेल्लारी सीट से चुनाव लड़ चुकी हैं। दोनों ने ही दोनों सीटों से जीत भी हासिल की थी। अब राहुल गांधी ने भी अपनी दादी और मां की तरह पहली बार दक्षिण का रुख किया है। राहुल ने वायनाड से नामांकन भरने के बाद यह कहा कि वो इस बार उत्तर के अलावा दक्षिण से भी चुनाव लड़ने जा रहे हैं क्योंकि दक्षिण की संस्कृति और समस्याएं भी अलग तरह की हैं और वे इन पर ध्यान देना चाहते हैं।
दक्षिणी राज्य हमेशा- कांग्रेस के संकट में साथ निभाते रहे हैं। 1977 में आपातकाल के बाद जब लोकसभा के चुनाव हुए थे तब भी दक्षिण ने श्रीमती इंदिरा गांधी को 145 सीटें दी थीं। पिछले चुनाव में कांग्रेस को पूरे देश से जो 44 सीटें मिलीं थीं उनमें से 17 सीटें कांग्रेस को केरल और कर्नाटक ने दी थीं। इससे साबित होता है कि दक्षिणी राज्य कांग्रेस के संकट के साथी हैं। राहुल गांधी ने भी इस बार दक्षिणी राज्यों पर ध्यान केन्द्रित किया है। पहले उनका नाम कर्नाटक से चुनाव लड़ने के लिये चर्चाओं में आया था लेकिन वे केरल के वायनाड से चुनाव लड़ने जा रहे हैं। वायनाड ऐसा क्षेत्र है जो कर्नाटक और तमिलनाडु की सीमा पर है। इस तरह राहुल गांधी केरल के साथ ही कर्नाटक और तमिलनाडु पर भी ध्यान केन्द्रित कर पायेंगे।
केरल अब वामपंथियों की सत्ता का आखरी राज्य बचा है। इसलिये इस राज्य में राहुल गांधी के धमक जाने से वामपंथी दल बौखला गए हैं। कामरेड प्रकाश कारंत कहते हैं कि हम राहुल गांधी को हरायेंगे। राहुल गांधी कहते हैं कि वो साम्यवादियों के खिलाफ कुछ नहीं बोलेंगे। साम्यवादियों को खतरा हो चला है कि राहुल के बहाने कांग्रेस केरल में पैर पसार लेगी। केरल में हाथ और हसियां के बीच कड़ा मुकाबला होने की स्थिति बन गयी है।
राहुल गांधी के दक्षिण में दस्तक देने से कांग्रेस की संभावनाएं बढ़ने की उम्मीद तो की जा रही है लेकिन राहुल की बदौलत दक्षिण में कांग्रेस को कितना फायदा होगा ये तो चुनावी नतीजों से पता चल सकेगा। यह भी पता चल पायेगा कि राहुल गांधी दोनों सीटों से जीतते हैं या नहीं।

अब मुकाबला ‘ढकोसला’ और ‘झाँसा’ के बीच……?
ओमप्रकाश मेहता
लोकसभा चुनावी महासंग्राम के पहले दौर के महज चार दिन पहले देश पर राज कर रही भारतीय जनता पार्टी ने अपनी ‘वादा पुस्तिका’ या घोषणा-पत्र जारी किया, जिसे ‘संकल्प-पत्र’ नाम दिया। इसके करीब पांच दिन पूर्व इस महासंग्राम के प्रतिपक्षी महानायक कांग्रेस ने अपना इसी तरह का दस्तावेज जारी किया। भाजपा के इस घोषणा-पत्र को जहां कांग्रेस ने ‘झाँसा-पत्र’ नाम दिया, वहीं भाजपा ने कांग्रेस के घोषणा-पत्र को ‘ढकोसला-पत्र’ नाम दिया, इस प्रकार इस बार यह महासंग्राम ‘झाँसा’ और ‘ढकोसला’ के बीच होगा और इस स्पद्र्धा में जो आम वोटर सबसे अधिक प्रलोभित कर लेगा, वही इस संग्राम का ‘मीर’ होकर इस देश पर राज करेगा, फिलहाल दोनों ही इस हेतु पूरी तरह तैयारी में जुटे है।
सत्तारूढ़ और मुख्य प्रतिपक्षी दलों के इन घोषणा पत्रों में अंतर सिर्फ इतना है कि प्रतिपक्षी दल कांग्रेस ने देश के बीस करोड़ गरीबों को 72 हजार रूपए प्रतिवर्ष देने के ‘न्याय’ से नामित योजना से सत्ता प्राप्त करने की उम्मीद जताई है, वहीं सत्तारूढ़ प्रतिपक्षी दल भारतीय जनता पाटी ने घोषणा पत्र की परम्परागत परम्परा को निभाने की भूमिका निभाई, ऐसा इसलिए लगा क्योंकि भाजपा के घोषणा पत्र में कोई विशेष नया मुद्दा नहीं है, वहीं राम मंदिर निर्माण, कश्मीर से धारा 370 व 35ए हटाने और वो ही वादे है जो 2014 के घोषणा पत्र में शामिल थे और जिनकी पांच साल तक कोई चिंता नहीं की गई, फिर भी बहात्तर हजार के मुकाबले छः हजार रूपए वार्षिक गरीबों को देने की बात अवश्य की गई। बेरोजगारी बेहाल किसानों और अन्य ज्वलंत मुद्दों पर वही घीसा-पीटा राग अलापा गया है। भाजपा ने इस बार वादा संस्कृति से ऊपर उठ देश या राष्ट्र के नाम पर चुनाव लड़ने का फैसला किया औश्र सैना व वैज्ञानिकों के शौर्यों को अपने खाते में डालकर उनके नाम पर वोट मांगने का फैसला लिया। इस तरह यदि यह कहा जाए कि भाजपा ने उनके बारे में 93 वादे किए और राष्ट्र धर्म को सबसे ऊपर रख घोषणा पत्र की औपचारिकता निभाई वहीं कांग्रेस ने 52 विषयों का चयन कर बड़े उत्साह के साथ 487 वादे किए और रोजगार को सबसे ज्यादा अहमियत दी।
यदि हम देश के अहम् मुद्दों को दोनों घोषणा पत्रों के आईने में देखें तो हम पाते है कि हमारे देश के अन्नदाता किसान के लिए भारतीय जनता पार्टी ने अगले दो सालों में किसानों की आय दुगुनी करने का पुराना राग अलापा है और एक लाख तक का कर्ज पांच साल तक ब्याज मुक्त रखने का जिक्र किया है वही 25 लाख करोड़ ग्रामीण विकास पर खर्च करने की बात कहीं है साथ ही साठ वर्ष से अधिक उम्र के किसानों को पेंशन देने की भी बात कहीं है, वहीं कांग्रेस ने किसानों के लिए अलग बजट का प्रावधान करने, कर्ज नहीं पटा पाने के अपराध को ‘आपराधिक’ दायरें से निकालकर ‘सिविल’ के पाले में डालने तथा मनरेगा के कार्य दिवसों की सीमा एक से बढ़ाकर डेढ़ सौ करने की बात कही है। इसी तरह गरीबों के लिए भाजपा ने गैस सिलेण्डर का वादा दोहराया है तथा प्रत्येक परिवार को पक्का मकान देने व बिजली, पानी, शौचालय की सुविधा मुहय्या कराने की बात कहीं है, वहीं कांग्रेस ने ‘न्याय’ (न्यूनतम आय योजना) के माध्यम से प्रतिवर्ष हर गरीब परिवार को बहात्तर हजार रूपए देने की घोषणा की, अर्थात् हर गरीब परिवार को पांच साल में तीन लाख साठ हजार रूपया मिल सकेगा। इसी घोषणा से भाजपा से घबराहट महसूस की जा रही है।
अब जहां तक रोजगार का सवाल है भाजपा ने कहा है कि देश की अर्थ व्यवस्था से जुड़े बाईस बड़े क्षेत्रों मंे रोजगार के नए अवसर पैदा करने के लिए ज्यादा से ज्यादा मद्द दी जाएगी, साथ ही प्रधान मंत्री मुद्रा योजना के तहत सभी सत्रह करोड़ से ज्यादा उद्यमियों को कर्ज मुहैय्या कराया जा चुका है, उल्लेखनीय है कि भाजपा ने 2014 के चुनावी घोषणा पत्र में प्रतिवर्ष दो करोड़ बेरोजगारों को रोजगार मुहैय्या कराने की बात कही थी। कांग्रेस ने 2020 तक 22 लाख सरकारी रोजगार उपलब्ध कराने की बात कही है, इसके साथ ही दस लाख युवाओं को देश की ग्राम पंचायतों में नौकरी दिलाने का भी वादा किया है, देश के युवा बेरोजगारों को यह भी कहा गया है कि कांग्रेस की सरकार बनने पर तीन साल तक युवाओं को कोई भी नया रोजगार प्रारंभ करने के लिए सरकार से अनुमति लेने की जरूरत नही पड़ेगी।
इस प्रकार भाजपा-कांग्रेस दोनों ने ही अपने घोषणा-पत्रों के माध्यम से देश के आम वोटर को लुभाने की भरपूर कौशिश की है। किंतु ऐसा माना है कि ‘‘ये पब्लिक है, जो सब जानती है’’।

गांधी के नाम भूल जाने पर चलो कबीरदास को तो याद रखा…!
नईम कुरेशी
म.प्र. में कांग्रेस ने समझदारी से इस बार टिकिटों का बँटवारा करके अपने सियासी दांव में बढ़त जरूर बना ली है। जहां देवास से संत कबीर वाणी के प्रचार प्रसार करने वाले लोकगायक प्रहलाद टिपानिया को आगे लाकर उनकी लोकप्रियता को सलाम किया है। कांग्रेस वैसे तो अपने गांधीवादी दर्शन से काफी पहले हट चुकी थी। उसके यहां प्लेन हायजैक करने वाले गोपाल पाण्डे, कमलापति त्रिपाठियों, नारायणदत्त तिवारियों का उत्तर प्रदेश में सत्ता की चाबियाँ रही थीं वहीं बिहार में तमाम मिश्राओं के हाथों में सत्ता थी। नतीजे में उत्तर प्रदेश में कांग्रेसियों से सत्ता मुलायम व उनक परिजनों ने सत्ता छीन कर कांग्रेस को बैसाखियों पर पिछले 30 सालों से ला दिया, राजीव गांधी को उनका भोलापन खा गया। कांग्रेसियों ने संजय गांधी उनके चमचों में अकबर अहमद जैसे नये अवतारों को जन्म दिया जो उनके ताबूत में कीलें ठोकते रहे। बंसीलाल से लेकर मध्य प्रदेश के श्यामा व विद्याचरण शुक्ल की मंडली भी संजय के साथ मिलकर मलाई काटती रही।
भला हो अर्जुन सिंह, माधवराव सिंधिया का जिन्होंने 82-84 में शुक्ल बंधुओं से कांग्रेसी सत्ता का जहाज छीन लिये वरना मध्य प्रदेश में भी कांग्रेस उत्तर प्रदेश की तरह लंगड़ी लूली बनकर रह जाती। कांग्रेस ने न सिर्फ अपने गांधीवादी विचारों के छिन जाने का कभी गुमान भी नहीं रहा बस सत्ता और सिर्फ सत्ता चाहे वो सामंतों, राजपूतों से मिले या फिर विचार व सिद्धांतों को बेचकर फिर भी मध्य प्रदेश में अभी भी काफी कुछ बचा है। उत्तर प्रदेश व बिहार में तो सब कुछ वो लुटवा चुकी है। दलित, पिछड़े, अति पिछड़े व अल्पसंख्यक मुसलमानों को कांग्रेसियों ने अक्सर अपना वोट बैंक समझा। उन्हें आर.एस.एस. का डर दिखाकर उनसे वोट लेते रहे पर विकास की गंगा से उन्हें अक्सर दूर भगाते रहे। कांग्रेस के ज्यादातर दलित नेता ऐसे दिये जो शराब और शवाब में मस्त रहे। बस गांधी नेहरू परिवार उन्हें वोट दिलाता रहा। उस दौर में 70-80 के दशकों में मेरठ, संभल, अलीगढ़ से लेकर इतने दंगे कराये गये संघ परिवार व कांग्रेसियों की उन पर कई बड़े ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। कांग्रेसी नेता अपनी सत्ता के दौर में संघ परिवार को भी पालते पोसते रहे। वो तो कुछ वामपंथी लोग उनके साथ लगे रहे थे 1980-90 के दशकों में उन्होंने कांग्रेसियों को बीच बीच में रोका टोका वरना मध्य प्रदेश भी उत्तर प्रदेश की तरह तथाकथित समाजवादियों की जेबों में चला जाता। 1960-70 के दशक में ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने कांग्रेसी मुख्यमंत्री रहे डी.पी. मिश्रा के घमण्ड व अत्याचारों के खिलाफ जन आंदोलन छेड़ कर उन्हें धराशाही कर जनसंघ को खड़ा करने में अहम रोल अदा किया और अटल बिहारी वाजपेयी व नारायण कृष्ण शेजवलकर, माधवशंकर इन्दापुरकर आदि संघ के नेताओं को ग्वालियर राजपरिवार के कारण लोकप्रियता मिली। शेजवलकर जी ने मध्य प्रदेश में जनसंघ का झंडा ऊँचा कर समाजवादियों व कांग्रेसियों की अवसरवादिता पर काफी लगाम लगाई।
भोपाल के शाकिर अलि खॉन व ग्वालियर से रामचन्द्र सर्वटे, बालकृष्ण शर्मा आदि ने एक दो दशक तक खूब गरीबों मजदूरों व किसानों को मजबूत मंच दिये जो 70 से 90 तक ही चल पाये। उन्हें भी कांग्रेसियों ने संघ के साथ मिलकर धराशाही कर दिया। अर्जुन सिंह के शागिर्द रहे दिग्विजय सिंह ने जरूर अपनी सत्ता के 10 सालों में कभी-कभी दलितों पिछड़ों व मुसलमानों का साथ दिया व कांग्रेस की इज्जत बचाते रहे वरना मोतीलाल बोरा रीवा के श्री निवास तिवारी आदि ने कांग्रेस को एक बार फिर से डुबाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसी बीच छत्तीसगढ़ से एक फर्जी आदिवासी सामंत का जन्म भी हो गया जिसे अर्जुन सिंह साहब नेकरशाही से लेकर आये थे अजीत जोगी, उसने भी कांग्रेस को डुबाने में उत्तर प्रदेश के तिवारी, त्रिपाठियों, मिश्रा, दीक्षितों की तरह काम किया। इस बीच माधवराव सिंधिया ने कांग्रेस के लिये काफी कुछ किया। संघ परिवार के एक बड़े नायक रहे अटल बिहारी वाजपेयी को 84 में लोकसभा में लाखों वोटों से धराशाही कर डाला।
अच्छी बात ये है कि भले ही कांग्रेसी गांधीवाद गांधी दर्शन को जरूर भूल चुकी है पर देवास से कबीर साहब के विचारों के गायक टिपानिया को याद करके उन्हें प्रत्याशी बनाकर अपने कुछ पाप जरूर धोलेगी। आर.एन. बेरबा की बेटी किरन सिंह का चुनाव भी काफी बेहतर है वरना कांग्रेस अभी ऐसे-ऐसे नेताओं के भरासे है जो कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ चुके हैं फिर भी उन्हें जिलों में पार्टी की कमान सौंपना पड़ रही है क्योंकि विचारों और समाजसेवियों में उसकी पैठ खत्म जो हो चुकी है। जमीन माफिया, शराब कारोबारी, अवसरवादी ही अब उसके पास रह गये हैं।
बेलगाम युवा नौकरशाह
कांग्रेसी दौर में जहां नौकरशाहों को सामंती अंदाज में जीने व उनकी शैली में परिवर्तन करने पर मजबूर होना पड़ा था वरना 80-90 के दौर में तो कलेक्टर व कमिश्नरों से मिल पाना अकबर बादशाह से मुलाकात जैसा रहा था। मुरैना व ग्वालियर में कलेक्टर रहे खन्ना को देखने का मौका मिला। उनकी पत्नी को ए.डी.एम. जैसे लोग शॉपिंग कराते देखे जाते थे। इन सब पर अर्जुन सिंह के चाबुक से ये लोग कुछ संवेदनशील होने को मजबूर हुये थे। शिवराज मामा व उमा भारती के दौर में भी नौकरशाही जवाबदेह नहीं थी। उन्हें मामा ने क्षेत्रीय छत्रयों की सेवा में दे रखा था। हमने अपने 45 सालों के अनुभवों में 2007-8 बैच के अनय द्विवेदी व अजय गुप्ता जैसे उद्दंड व घमण्डी युवा नौकरशाह भी देखे जो क्षेत्रीय सांसद से घरोबा बनाकर न सिर्फ जन प्रतिनिधियों व समाजसेवियों से फोन पर बात करने में परहेज करते थे बल्कि जनता के हित का कोई काम उन्हें कराने में भा.ज.पा. वालों को ही पसीना आता था। राहुल नाम के एक कलेक्टर ने तो पिछले साल ही उच्च न्यायालय व सारे कायदे कानूनों को मुंह चिड़ाकर जीवाजी विश्वविद्यालय के कुलपति के निवास के सामने अपने समाज की मूर्तियों का बीस फीट ऊँचा शिलालेख लगवाने व ग्वालियर फोर्ट जैसे महत्वपूर्ण विश्वप्रसिद्ध स्मारक के मैन गेट पर भी अतिक्रमण कराने की हिमाकत कर डाली। कोई सत्ताधारी जनप्रतिनिधि या प्रेस रिपोर्ट इस पर नहीं बनायी जा सकी। कांग्रेस के दौर में ये जरूर है कि अतिपिछड़ों व दलितों की भी कभी-कभी पूछ परख हो जाती है। काश कोई ज्योति बसु, प्रकाशचन्द्र सेठी व अर्जुन सिंह जैसे लोग और होते।

संवेदनशील क्षेत्रों में घुसपैठ का रोना
अजित वर्मा
पुलवामा धमाके के बाद चले तेज घटनाक्रम के बाद तनाव कुछ कम होता भले दिख रहा है, लेकिन खुफिया एजेंसियें के हवाले से खबरें आ रही हैं कि आतंकवादी समूह भारत में सैनिकों और सैन्य प्रतिष्ठानों को फिर निशाना बना सकते हैं। इसीलिए सेना को आतंकवादी समूहों की घुसपैठ की आशंका के कारण हाईअलर्ट पर रखा गया है। पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में सीमा पर आबादी वाले इलाके में काफी संख्या में आतंकवादी मौजूद हैं और आशंका यह है कि भारत में घुसपैठ करके ऐसे हमले करने के लिए उनका इस्तेमाल किया जा सकता है।
जम्मू क्षेत्र में पुंछ से लेकर उत्तर कश्मीर में कुपवाड़ा तक 740 किलोमीटर लंबी नियंत्रण रेखा पर गतिविधियों पर नजर रख रहे अधिकारियों को आशंका है कि हालिया तनाव के दौरान भारी नुकसान झेल चुका पाकिस्तान भारतीय सीमा में आतंकवादियों के जरिये अपनी पुरानी शूट एंड स्कूट (हमला करो और भागो) युद्ध तकनीक का इस्तेमाल कर सकता है। पहले भी आतंकवादी समूहों ने ऐसी घुसपैठ की है, जिसमें या तो हमारे कुछ जवान मारे गए या सैन्य प्रतिष्ठानों को नुकसान पहुंचा।
कई बार वे भारतीय सीमा पर कुछ सौ मीटर तक ही घुसते हैं, गश्ती दल पर हमला करते हैं और वापस भाग जाते हैं। पाकिस्तानी सेना भारतीय चौकियों पर गोलीबारी कर उन्हें सुरक्षा कवच मुहैया कराती हैं। पूर्व में जम्मू क्षेत्र के कठुआ, पुंछ और राजौरी सेक्टरों के साथ-साथ कश्मीर क्षेत्र में कुपवाड़ा, उरी और गुरेज में इस तरह की घुसपैठ देखी जा चुकी है। इसमें घुसपैठिये नियंत्रण रेखा पार करने के बाद जो भी पहला सैन्य प्रतिष्ठान या सैनिक दिखाई देता है, उस पर हमला करते हैं। इसके साथ ही विभिन्न तरीकों का इस्तेमाल कर नजदीक से जवानों को निशाना बनाने की घटनाएं भी देखी गई हैं। इनमें चाकू से हमला या भारतीय सेना के गश्ती दल के रास्तों पर आइईडी लगाना भी शामिल है।
हम यह बातें दशकों से सुनते आ रहे हैं और यह भी घुसपैठ रोकने के लिए उपाय किये गये हैं, तो हमारे मन में यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है जब हमारा देश अंतरिक्ष के क्षेत्र में दुनिया के अग्रणी देशों में शामिल हो चुका है तो हम अपनी सीमा, विशेषत: संवेदनशील सीमा की सूक्ष्म निगरानी अंतरिक्ष में उपग्रह स्थापित करके क्यों नहीं कर सकते? दूसरे, पूरी दुनिया जानती है कि अंतरिक्ष में हमारे उपग्रह स्थापित हैं, तो क्या वे ऐसा कर पाने में सक्षम नहीं हैं? हम चन्द्रयान पर पहुँच गये। मंगल की ओर हमारा यान अग्रसर है तो आखिर पाकिस्तान और चीन के साथ अपनी सीमा की उपग्रहीय निगरानी में हमारे सामने क्या बाधा है? कौन रोक रहा है हमें? यह बात हम बहुत उच्चस्वरों में 1999 के कारगिल युद्ध के समय से लिख रहे हैं। उपग्रह स्थापित करने की खबरें आयी भी थीं। पर अब क्या स्थिति है? सरकार और सेना को इस विषय में स्वत: चिंतन करना चाहिए और देश को आश्वस्ति भी देना चाहिए।

मोदी सरकार पर विश्वसनीयता का संकट
सनत जैन
सुप्रीम कोर्ट ने राफेल मामले में जो फैसला दिया है, उससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार पर विश्वसनीयता का संकट खड़ा हो गया है। लोकसभा चुनाव के प्रथम चरण के मतदान के पूर्व सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का असर भारत सहित अन्य देशों में भी होगा। 2014 में नरेंद्र मोदी की छवि आम जनता के बीच एक ऐसे नेता के रूप में बनी थी, जो बेहद ईमानदार है। भ्रष्टाचार और कालेधन को भारत से समाप्त कर देगा। उसके नेतृत्व में देश में कानून व्यवस्था का राज होगा। सबका साथ और सबका विकास होगा और अच्छे दिन आएंगे।
विदेशों से जो काला धन भारत ने वापस आएगा, उससे आम लोगों के खाते में पैसे आएंगे। आम जनता ने उन्हें हीरो के रूप में स्वीकार कर यह माना था कि मोदी राज में कांग्रेस जो 60 वर्षों में नहीं कर पाई, वह मोदी 60 माह में कर दिखाएंगे। मोदी ने अपनी सभाओं में एक आम जनता से स्पष्ट बहुमत की मांग की थी। भारत की जनता ने 30 वर्ष बाद केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार देकर मोदी अर्थात अपने हीरो की कथनी और करनी में विश्वास किया था।
2014 में केंद्र में पूर्ण बहुमत की भाजपा सरकार बनी। राज्य के चुनाव में भी मोदी का जादू चला। अधिकांश राज्यों में भाजपा की सरकारें बनी। दिल्ली एवं बिहार का विधानसभा चुनाव जरूर मोदी की इच्छा के विपरीत गए। मोदी का दिग्विजय रथ दिल्ली और बिहार ने रोका था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके सलाहकार अमित शाह का जादू जनता के साथ चढ़कर बोल रहा था। जम्मू- कश्मीर में भी भाजपा पीडीपी के साथ सरकार बनाने में सफल रहीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी की। भारत में पहली बार महिलाएं अपने पति और बच्चों की नजरों में अपमानित हुई। उनकी कई वर्षों की बचत जो उन्होंने अपने कठिन समय पर पति और बच्चों से छुपाकर एकत्रित की थी वह बैंकों में जमा करनी पड़ी। शादी विवाह और बीमारी की हालत में उन्हें बाकी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसके बाद भी आम जनता ने अपने हीरो मोदी को समर्थन दिया। नोटबंदी के समय भी कहा गया कि 60 दिनों में सारा काला धन बैंकों में जमा हो जाएगा। इसका फायदा गरीबों को मिलेगा। लोगों को लगा कि जनधन खाते में नोटबंदी के बाद जो काला धन बैंकों में जमा होगा उसे गरीबों में बांटा जाएगा। उत्तर प्रदेश की विधानसभा चुनावों में लोगों ने भाजपा के पक्ष में मतदान करके भारी बहुमत के साथ भाजपा की सरकार उत्तर प्रदेश में बनवा दी।
नोटबंदी के बाद मीटर उल्टा घूमना शुरू हो गया। सारा धन बैंक में वापस आया। 15 लाख को जुमला बता दिया गया। 60 दिन का सपना भी जुमला बन कर रह गया। स्पष्ट बहुमत होने के बाद भी राम मंदिर नहीं बना। जम्मू कश्मीर में भाजपा की गठबंधन सरकार बनने के बाद 35 ए एवं धारा 370 समाप्त नहीं हुई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नेतृत्व एवं गठबंधन सरकार होते हुए भी सबसे ज्यादा सैनिक जम्मू कश्मीर में शहीद हुए। पाकिस्तान में सीमा का उल्लंघन करते हुए सबसे ज्यादा हमले पिछले 3 वर्षों में किए। सैकड़ों कश्मीर नागरिक आतंकी मुठभेड़ में मारे गए। गौ मांस का निर्यात मोदी राज में सबसे ज्यादा बढ़ा। 2 करोड़ लोगों को रोजगार देने का वादा किया था किंतु रोजगार नहीं मिला। उल्टा नोटबंदी के बाद बेरोजगारी ने पिछले 45 वर्षों का रिकॉर्ड तोड़ दिया। किसानों की आत्महत्या बढ़ गई और महिलाओं एवं दलितों पर अत्याचार बढ़े हैं। मॉब लिंचिंग की घटनाएं बढ़ी है। जीएसटी के माध्यम से आम लोगों पर टैक्स बढ़ाया गया। पेट्रोल डीजल के दाम अंतरराष्ट्रीय बाजार में कम होने के बावजूद महंगे दामों पर बेचा गया। गरीब और गरीब हुआ अरबपति और खरबपति का धन पिछले 5 वर्षों में तेजी के साथ बड़ा है।
पिछले कई माह से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी राफेल मामलों में चौकीदार चोर है के नारे लगवा रहे हैं। राफेल मामले में सरकार कह रही है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में सरकार को क्लीन चिट दे दी है। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की थी। इसमें कहा गया था कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को गलत जानकारी दी थी। सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने याचिकाकर्ताओं और सरकार का पक्ष सुना। उसके बाद सरकार की दलील खारिज करते हुए राफेल मामले की खुली सुनवाई करने की मांग स्वीकार कर ली है। लोकसभा चुनाव का प्रचार शुरू है। 2013- 14 में मोदी के पक्ष में एक लहर चल रही थी। लहर अब देखने को नहीं मिल रही है। 5 साल की मोदी राज में जनता की अपेक्षाएं और जो बातें मोदी ने 2014 में किए थे उसका मंथन जनता कर रही है। नरेंद्र मोदी के ऊपर 5 वर्ष पूर्व किए गए वादों के अनुसार यदि काम हुआ है तो जनता उन पर विश्वास करती किंतु जिस तरह की स्थिति देखने को मिल रही है उससे स्पष्ट है कि नरेंद्र मोदी और भाजपा को लेकर आम जनता के मन में विश्वसनीयता पर संकट है। सुप्रीम कोर्ट के आए फैसले से यह संकट और बढ़ गया है। लोकसभा चुनाव में इसका असर जरूर होगा।

यूरोप-ओशिनिया देशों के बीच व्यापारिक संबंध
अजित वर्मा
भारत में यूरोपीय और ओशिनिया देश प्रमुख व्यापारिक साझेदार होने के साथ ही निवेश के प्रमुख स्रोत भी हैं। इन देशों में व्यापार की प्रचुर संभावनाए मौजूद हैं जिनका लाभ उठाया जा सकता है। इन देशों के साथ भारत ने हाल के दिनों में आर्थिक संबंधों को अगले स्तर तक ले जाने के प्रयासों के तहत कुछ व्यापारिक समझौते किए गए हैं। इन प्रयासों को तार्किक निष्कर्ष पर ले जाने की आवश्यकता है। वाणिज्य सचिव डॉ.अनूप वधावन ने नई दिल्ली में यूरोपीय और ओशिनिया देशों के राजदूतों और उच्चायुक्तों के साथ व्यापार और आर्थिक सहयोग पर वार्ता भी की है। ओशिनियाई देश प्रशांत महासागर और उसके आसपास के क्षेत्र के द्वीपीय देश हैं जिन्हें उनकी भौगोलिक समानता के कारण ओशिनियाई देशों के रूप में जाना जाता है। विकासशील और विकसित देशों के साथ होने वाली व्यापार वार्ताओं की तरह ही यूरोपीय और ओशिनियाई देशों के साथ भी लंबे समय से ऐसी वार्ताएं की जा रही हैं।
भारत एक विकासशील देश है जबकि यूरोपीय संघ और ओशिनिया देश मुख्य रूप से विकसित हैं और इस वजह से हमारी महत्वाकांक्षाएं, आकांक्षाएं और संवेदनाएं कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में इन देशों के साथ मेल नहीं खाती हैं। यह आशा व्यक्त की जा रही है कि भारत, यूरोपीय संघ और ओशिनिया देश इन मुद्दों को सुलझाने में सक्षम होंगे और निकट भविष्य में आपासी समझ विकसित कर किसी प्रकार के औपचारिक समझौते तक पहुंच पाएंगे।
भारत,यूरोपीय संघ और ओशिनिया में उपलब्ध अवसरों को समझने के लिए सरकार, निर्यात, व्यापार और निवेश से संबंधित संस्थानों, निर्यातकों और व्यवसायों आदि के हर स्तर पर संपर्क बनाए रखना जरूरी है। एक-दूसरे की बाध्यताओं को समझते हुए सभी पक्षों की रजामंदी से बीच का रास्ता निकालने की भी आज सबसे बड़ी आश्यकता समझी जा रही है।

विश्व का पहला संगीत विद्यालय दतिया में…
नईम कुरेशी
यहां ब्रम्हाजी के 4 मानस पुत्रों सनत कुमारों ने जिन्हें सनक, सनन्दन, सनातन और सनत कुमारों ने घोर तप किया था व 4 गहरे कुँए भी खोदे थे जिनमें जल न निकलने पर सिन्धु नदी जो विदिशा के सिरोंज से निकलती है उसे आवाहन करना लिखा गया है।
– सिन्धु नाम्नी नदी चन्द्रे पुरे चोतर वाहिनी।
नदी उत्तर की ओर जा रही थी। ऋषियों के आवाहन पर उसने अपना कुछ मार्ग बदल लिया तेज गर्जन के साथ। ऋषियों द्वारा खोदे गये कुओं को भरकर आगे बढ़ गई। यही स्थान सनत्कूप या सनकुआ कहलाता है।
पद्म पुराण के दूसरे खण्ड में भी ”सनकुआ“ का खास जिक्र है।“ नारदजी की तपस्थली भी इसी सनकुआ सेंवढ़ा से 5-6 किलोमीटर जंगल में है। उसका भी वर्णन पद्मपुराण में पाया जाता है।
”शुण्डस्य चोत्तरे भागे नारदस्त पतेैघुना“
यहाँ ऊँची पहाड़ी पर वन खण्डेश्वर शिव मंदिर है, पद्म पुराण में यहीं का वर्णन है। यहीं नारद जी का तप स्थल है। सनत कुमारों को नारदजी ने ही इसी क्षेत्र में संगीत की शिक्षा प्रदान करने के प्रमाण मिलते हैं।
ये इलाका देश दुनिया का प्राचीन संगीत विद्यालय माना जा सकता है। इसी क्षेत्र में सेंवढ़ा दुर्ग, महल दतिया नरेश ने 3 सदी पूर्व बनवाये थे। यहां उनके शिकारगाह अभी भी मौजूद हैं। यहाँ के मंदिरों में महान शैलचित्र भी बने पाये गये हैं जो हजारों साल पुराने कहे जाते हैं। इसी इलाके में रतनगढ़ माता का काफी प्राचीन मंदिर भी है। जहां शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास की भी यादें जुड़ी हैं। वो सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड से जुड़े रहे थे। यहाँ हर सोमवार को मेला भरता है जहाँ हजारों श्रद्धालु आते रहते हैं।
17 वीं सदी के एक नामचीन संत कवि अक्षर अनन्य ने भी सनकुआ पर साधना की थी। उन्हें ब्रम्ह ज्ञानी और पूर्णतया आडम्बरहीन संत कवि माना गया है। हिन्दी साहित्य में उनका बड़ा स्थान है।
सेंवढ़ा के सिन्धु नदी तट से जो 5 किलोमीटर जंगल में नारद जी का प्राचीन मंदिर बताया गया है वहां प्राचीन हजारों साल पुरानी चित्रकारी का भी वर्णन देखा जा सकता है। कई इतिहासकार व साहित्यकार डाॅ. श्यामबिहारी श्रीवास्तव व डाॅ. कामिनी के अनुसार ये इलाका सनकादि क्षेत्र अतीतकाल से कछारों, पुरानी तपस्यास्थली से लेकर प्राकृतिक सौंदर्य का इलाका माना गया है।
तानसेन का जन्म बेहट, ग्वालियर
भारतमुनि के नाट्यशास्त्र, जो उनके पुत्रों ने पूर्ण किया था उसमें आचार कोहलका नाम उल्लेखनीय है। उसे भी दुनिया का वही स्थान माना गया है। इसी वजह से हम कह सकते हैं कि यह दुनिया का पहला संगीत क्षेत्र रहा था। अमर गायक तानसेन से भी हजारों साल पहले वैसे भी – तानसेन बेहट में जन्मे थे जो ग्वालियर जिले में यहीं से 50 किलोमीटर मात्र की दूरी पर है।
सेंवढ़ा से दतिया
ये इलाका इतिहास में भी काफी लोकप्रिय है। दतिया जिसे श्रीकृष्ण के बुआ के लड़के वक्रदन्त ने स्थापित किया था। ये बुन्देलखण्ड का काफी प्राचीन नगर माना जाता है। दतिया अपने मंदिरों के लिये काफी प्रसिद्ध रहा है। इसलिये ही इसे लघु वृन्दावन भी कहा गया है। इस इलाके में जैन मंदिर समूह भी सैकड़ों साल पुराने हैं सोनागिरी ग्राम पहाड़ी पर। दतिया जिले के गामा पहलवान भी विश्व विजेता रहे थे कुश्ती में जिन्होंने काफी नाम दिलाया दतिया को। आज भी उनका घर परिजन इस दतिया में मौजूद हैं।
रानी कुंती का घर
ग्वालियर इलाके की पौराणिकता का केन्द्र महाभारत काल तक जाता है। ग्वालियर इलाका आदि मानव की प्रिय और सुरक्षित क्रीडा स्थल भी रहा है। जौरा के समीप पहाड़गढ़ में लाखों साल पहले की बनीं पेंटिंग भी इसका प्रमाण कही जा सकती हैं। ग्वालियर से मात्र 25 किलोमीटर की दूरी पर ही बानमौर के समीप नूराबाद से लगा हुआ सांक नदी है। यहां के राजा कुंती भोज हुये हैं जिनका देजी राजवंश का इतिहास माना गया है, जो दतिया तक जाता था। इसे आसन नदी भी लिखा गया है। इन्हीं की बेटी कुंती हुईं हैं जो श्रीकृष्ण की बुआ और पाण्डवों की माताश्री थीं। राजा कुंत भोज का महाभारत में भी जिक्र है। वो पाण्डवों की ओर से कौरवों से युद्ध करते हैं। महाभारत काल में भी ग्वालियर मुख्य शक्ति केन्द्र रहा था। ईसा से 6-7 सदी तक द्वापर युग में भी इसकी चर्चा रही है। यहीं से कुंती ने अपने नवजात पुत्र को मंजूषा में रखकर सांक नदी के संगम में प्रवाहित करना इतिहासकार बताते हैं। जो आगे चलकर जालौन जिले के रामपुरा-जगम्मनपुर में एक केवट को मिली थी। ये इलाका पंचनदा- पांच नदियों का संगम कहलाता है। इसी मंजुषा में दानवीर कर्ण रहे थे।
§ शैलचित्र
§ नारद जी मंदिर
§ सनकुआ प्रपात
§ झरने आदि।

चौकीदारो! एक नज़र गौवंश पर भी…
निर्मल रानी
लोकसभा चुनावों का रण प्रारंभ हो चुका है। अनेक राजनैतिक दल मतदाताओं के मध्य तरह-तरह के वादों व आश्वासनों के साथ संपर्क साध रहे हैं। ऐतिहासिक रूप से इस चुनाव में पूरा चुनावी विमर्श जनसरोकारों से जुड़े मुद्दों से हटकर पूरी तरह से भावनाओं, राष्ट्रवाद, धर्म-जाति तथा भारत-पाकिस्तान जैसे विषयों की ओर मोडऩे की कोशिश की जा रही है। दूसरी ओर विपक्षी दल बेरोज़गारी, मंहगाई, नोटबंदी, सांप्रदायिकता, जातिवाद तथा भ्रष्टाचार जैसे विषय लेकर जनता के बीच जा रहे हैं। परंतु इस बार के चुनावों में गौवंश या गौरक्षा का विषय कोई चुनावी मुद्दा नहीं है। न तो तथाकथित स्वयंभू गौरक्षकों की हमदर्द भारतीय जनता पार्टी की ओर से न ही विपक्षी दलों की तरफ से। यहां यह याद दिलाने की ज़रूरत नहीं कि 2014 से लेकर गत् वर्ष तक पूरे देश में गौरक्षा तथा गाय को लेकर होने वाली हिंसा का बोलबाला रहा। नरेंद्र मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान अपने चुनावी भाषणों में वादा किया था कि उनके सत्ता में आने के बाद यूपीए सरकार द्वारा चलाई जा रही ‘गुलाबी क्रांति’ अर्थात् बीफ मांस के व्यापार व निर्यात को बंद कर दिया जाएगा। परंतु सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया। बजाए इसके आंकड़े यही बता रहे हैं कि बीफ निर्यात के क्षेत्र में यूपीए सरकार की तुलना में कहीं अधिक व्यवसाय बढ़ा है।
सवाल यह है कि गौवंश की रक्षा का विषय चुनावी सभाओं में उठाना तथा देश के गौभक्तों की भावनाओं को झकझोरना मात्र ही क्या इस विषय को उछालने का मकसद था? यह सोचना बेहद ज़रूरी है 2014 से लेकर 2019 के मध्य के पांच वर्षों के दौरान गिौवंश का कितना कल्याण हुआ है? उसे राष्ट्रीय स्तर पर कितनी सुरक्षा व देखभाल मयस्सर हो सकी है? कल तक किसानों तथा आम लोगों के लिए वरदान समझा जाने वाला गौवंश क्या इन पांच वर्षों के दौरान भी आम लोगों के लिए लाभदायक व सहयोगी साबित हुआ है? देश के शहरी लोगों से लेकर ग्रामवासियों तक के लिए आज के समय में गौवंश लाभदायक साबित हो रहा है या हानिकारक? स्वयं गायों के पैदा होने वाले बछड़ों पर इन दिनों क्या गुज़र रही है? खेतिहर किसानों के लिए आज गौवंश वरदान साबित हो रहा है या अभिशाप? गौरक्षा की बातें करने वाले तथा इसे अपनी राजनीति तथा व्यवसाय का सबसे महत्वपूर्ण कारक समझने वाले तथाकथित राष्ट्रवादी इन दिनों गौवंश की रक्षा, सुरक्षा, स्वास्थय व देखभाल के लिए क्या कर रहे हैं? निश्चित रूप से मतदाताओं को चुनाव के समय तथाकथित स्वयंभू गौरक्षकों से यह सवाल ज़रूर पूछना चाहिए।
गौवंश की रक्षा के नाम पर गत् पांच वर्षों में दक्षिणपंथियों द्वारा जो चंद गिने-चुने कदम उठाए जा रहे थे उनमें या तो किसी अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति के ‎‎फ्रिज अथवा रसोई में रखे हुए मांस को लेकर हंगामा बरपा करना तथा किसी कमज़ोर व्यक्ति की पीट-पीट कर हत्या कर देना शामिल रहा या फिर गौवंश के साथ आते-जाते किसी अकेले व्यक्ति पर धर्म के आधार पर टृट पडऩा व उसे पीट-पीट कर मार डालना। इन घटनाओं से न तो गौवंश की रक्षा हो सकी न ही इसके बिक्री अथवा निर्यात पर कोई अंकुश लग सका। हां इतना फर्क ज़रूर पड़ा कि स्वयंभू गौरक्षकों द्वारा रास्ते में की जा रही नाजायज़ वसूली, मारपीट व हिंसा से भयभीत होकर लोगों ने गौवंश का व्यापार करना ही छोड़ दिया। ट्रांसपोर्टस ने भी गौवंश लादने व लाने-ले जाने हेतु अपनी ट्रकों को भेजना बंद कर दिया। इसका सीधा प्रभाव उन गौपालकों पर पड़ा जो अपनी गायों का दूध कम हो जाने की स्थिति में उस गाय को किसी व्यापारी को बेच दिया करते थे तथा अधिक दूध देने वाली गाय खरीद कर लाया करते थे। परंतु ट्रकों के उपलब्ध न होने तथा व्यापारियों द्वारा गौवंश की खरीददारी बंद कर देने के परिणामस्वरूप अब स्थिति बहुत ही खतरनाक मोड़ पर आ गई है। जिन गायों से गौपालक किसी फायदे की उम्मीद नहीं रखता उसे अपने घर के बाहर का रास्ता दिखा रहा है। हद तो यह है कि पैदा होते ही गायों के बछड़े सड़कों पर छोड़े जा रहे हैं।
पूरे देश में इस समय गौवंश के सड़कों पर घूमने के चलते दुर्घटनाओं में काफी तेज़ी आई है। पैदल, साईकल सवार व कार अथवा मोटरसाईकल पर चलने वाला कोई भी व्यक्ति किसी भी समय इस प्रकार के आक्रामक आवारा पशुओं का शिकार हो सकता है। शहरों के अलावा गांवों की सिथति तो पहले से भी ज़्यादा खराब हो चुकी है। देश के मैदानी इलाकों का जो किसान पहले नील गाय के झुंड से ही बेहद परेशान था उसके लिए अब गाय व सांड जैसे आवारा पशुओं के झुंड भी एक बड़ी चुनौती बन गए हैं। कई जगहों से ऐसी खबरें आती रहती हैं कि इन दिनों गेहूं की फसल की रखवाली करने हेतु किसानों के परिवार के लोग 24 घंटे हाथों में लाठियां लेकर आवारा पशुओं से अपनी फसल की चौकीदारी करने में डटे हुए हैं। उधर किसानों के गुस्से के चलते तथा शहरों में वाहन से होने वाली दुर्घटनाओं की वजह से गौवंश को भी मनुष्यों की हिंसा या आक्रामकता का सामना करना पड़ रहा है। चंडीगढ़ जैसे महानगर में चारों ओर यहां तक कि शहर के बीचो-बीच चंडीगढ़-दिल्ली राजमार्ग पर कई बार ऐसे आवारा पशुओं के बड़े-बड़े झुंड न केवल यातायात को बाधित कर रहे हैं बल्कि कई बार सड़कों पर सांडों के मल्लयुद्ध भी दिखाई दे जाते हैं। इसके कारण कई लोगों की कारों के शीशे टूट चुके हैं व गाडिय़ां क्षतिग्रस्त हो चुकी हैं। कई लोग घायल हो चुके हैं।
पिछले दिनों देश के एक वरिष्ठ पत्रकार द्वारा गुजरात-महाराष्ट्र के मध्य एक स्टिंग आप्रेशन कर तथाकथित गौरक्षकों की हकीकत का पर्दाफाश किया गया था। उन्होंने दिखाया कि किस प्रकार दक्षिणपंथी संगठनों से जुड़े लोग मोटे पैसे लेकर वध हेतु जाने वाले गौवंश को मुख्य मार्गों से आने-जाने की अनुमति देते हैं। स्टिंग करने वाले पत्रकार निरंजन टाकले ने स्वयं एक गौवंश व्यवसायी की भूमिका अदा करते हुए ऐसे अनेक तथाकथित गौरक्षकों को बेनकाब किया जो केवल पैसे ठगने व वसूलने की खातिर गौरक्षा के नाम का आवरण अपने ऊपर चढ़ाए हुए थे। परंतु हमारे देश के धर्मभीरू लोग इन पाखंडी तथाकथित गौरक्षकों तथा इन्हें संचालित करने वाले शातिर दिमाग राजनीतिज्ञों के झांसे में आ जाते हैं और यह महसूस करने लगते हैं कि वास्तव में यही लोग गौमाता के असल रखवाले हैं जबकि सच्चाई ठीक इसके विपरीत है? अन्यथा क्या वजह है कि देश में चलने वाले अधिकांश कत्लखाने सत्ता के संरक्षण में सत्ता के चहेतों द्वारा ही संचालित किए जा रहे हैं? क्या वजह है कि यूपीए सरकार की तुलना में वर्तमान सरकार के दौर में गत् पांच वर्षों में बीफ निर्यात में बेतहाशा वृद्धि दर्ज की गई है?
इसलिए ‘मैं भी चौकीदार’ का नारा बुलंद करने वालों से देश के किसानों को यह ज़रूर कहना चाहिए कि वे आएं और सबसे पहले उनके खेतों की चौकीदारी कर उनकी फसल की रक्षा करें। शहरी लोगों को भी इन स्वयंभू चौकीदारों से यह कहना चाहिए कि यह चौकीदार शहरों में घूमने वाले आवारा पशुओं के हमलों से उनकी चौकीदारी करें। इतना ही नहीं बल्कि बेज़ुबान गौवंश को भी इन्हीं चौकीदारों से यह सवाल पूछना चाहिए कि पांच वर्षों तक उसकी सुरक्षा के नाम पर जो उन्माद पूरे देश में फैलाया गया उसके बाद आ‎खिर इन पांच वर्षों में उन्हें सड़कों पर और बड़ी संख्या में दर-दर भटकने के लिए तथा कूड़ों के ढेर पर प्लास्टिक व पॉलिथिन खाने व वाहनों की टक्कर झेल कर घायल होने के लिए क्यों छोड़ दिया गया ? केवल टीर्शर्टस पर ‘मैं भी चौकीदार’ लिखे जाने से न तो गौवंश की रक्षा हो सकती है न ही किसानों की फसल की न ही शहरी राहगीरों की।

संवत्सर पड़वा के प्रणेता विक्रमादित्य
डॉ. अरविन्द जैन
इतिहास हमेशा विवाद का विषय रहा हैं और उससे हमेशा विवाद का रौद्र रूप हो जाता हैं। वो तो धन्य हैं इतिहासकार और विद्वान् जिन्होंने अपनी खोज से बहुत सीमा तक खोज कर अनेक विवादों को निर्विवाद कर दिया अन्यथा संकीर्ण मानसिकता के कारण विरोध का होना स्वाभाविक होता हैं। ऐसे कई उदाहरण इतिहास के मिल जाते हैं।
ऐतिहासिक राजकीय भारतीय संवत् के सर्वप्रथम प्रवर्तक राजा विक्रमादित्य थे। आप अनेक भारतीय लोककथाओं के नायक हैं। अयोध्या के राजा राम के बाद उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने इस देश की परम्परा में जैसा गहरा स्थान बनाया है, वैसा दूसरा कोई राजा कभी नहीं बना सका। राजा विक्रमादित्य तीव्र बुद्धिमान, पराक्रमी, उदार, दानशील, धर्मसहिष्णु, विद्यारसिक, विद्वानों के प्रश्रयदाता, न्यायपरायण, धर्मात्मा, प्रजावत्सल एवं सुशासक के रूप में आदर्श भारतीय नरेश माने जाते हैं।
पूर्ववर्ती चन्द्रगुप्त मौर्य एवं खारवेल जैसे महान् जैन सम्राटों की परम्परा में देश को विदेशियों के आक्रमण से मुक्त करने में यह महान् जैन सम्राट विक्रमादित्य भी अविस्मरणीय है। जैन अनुश्रुतियों के अनुसार वह जैनधर्म का परमभक्त था। कुलधर्म और राजधर्म भी जैनधर्म था। विक्रमादित्य ने चिरकाल तक राज्य किया और स्वदेश को सुखी, समृद्ध एवं नैतिक बनाया। विक्रमादित्य तथा उसके उपरान्त उसके वंशजों ने मालवा पर लगभग १०० वर्ष राज्य किया था। विक्रमादित्य जैसे राजा के आदर्शों का स्मरण हम लोग चैत्र शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन यानि युग प्रतिपदा को राष्ट्रीय नव वर्ष दिवस के रूप में मना कर करते हैं।
विक्रमादित्य उज्जैन के अनुश्रुत राजा थे, जो अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे। “विक्रमादित्य” की उपाधि भारतीय इतिहास में बाद के कई अन्य राजाओं ने प्राप्त की थी, जिनमें गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय और सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य (जो हेमु के नाम से प्रसिद्ध थे) उल्लेखनीय हैं। राजा विक्रमादित्य नाम, ‘विक्रम’ और ‘आदित्य’ के समास से बना है जिसका अर्थ ‘पराक्रम का सूर्य’ या ‘सूर्य के समान पराक्रमी’ है।उन्हें विक्रम या विक्रमार्क (विक्रम + अर्क) भी कहा जाता है (संस्कृत में अर्क का अर्थ सूर्य है)। भविष्य पुराण व आईने अकबरी के अनुसार विक्रमादित्य पंवार (प्रमार) वंश के सम्राट थे जिनकी राजधानी उज्जयनी थी।
हिन्दू शिशुओं में ‘विक्रम’ नामकरण के बढ़ते प्रचलन का श्रेय आंशिक रूप से विक्रमादित्य की लोकप्रियता और उनके जीवन के बारे में लोकप्रिय लोक कथाअनुश्रुत विक्रमादित्य, संस्कृत और भारत के क्षेत्रीय भाषाओं, दोनों में एक लोकप्रिय व्यक्तित्व है। उनका नाम बड़ी आसानी से ऐसी किसी घटना या स्मारक के साथ जोड़ दिया जाता है, जिनके ऐतिहासिक विवरण अज्ञात हों, हालांकि उनके इर्द-गिर्द कहानियों का पूरा चक्र फला-फूला है। संस्कृत की सर्वाधिक लोकप्रिय दो कथा-श्रृंखलाएं हैं वेताल पंचविंशति या बेताल पच्चीसी (“पिशाच की 25 कहानियां”) और सिंहासन-द्वात्रिंशिका (“सिंहासन की 32 कहानियां” जो सिहांसन बत्तीसी के नाम से भी विख्यात हैं)। इन दोनों के संस्कृत और क्षेत्रीय भाषाओं में कई रूपांतरण मिलते हैं।
पिशाच (बेताल) की कहानियों में बेताल, पच्चीस कहानियां सुनाता है, जिसमें राजा बेताल को बंदी बनाना चाहता है और वह राजा को उलझन पैदा करने वाली कहानियां सुनाता है और उनका अंत राजा के समक्ष एक प्रश्न रखते हुए करता है। वस्तुतः पहले एक साधु, राजा से विनती करते हैं कि वे बेताल से बिना कोई शब्द बोले उसे उनके पास ले आएं, नहीं तो बेताल उड़ कर वापस अपनी जगह चला जाएगा| राजा केवल उस स्थिति में ही चुप रह सकते थे, जब वे उत्तर न जानते हों, अन्यथा राजा का सिर फट जाता| दुर्भाग्यवश, राजा को पता चलता है कि वे उसके सारे सवालों का जवाब जानते हैं; इसीलिए विक्रमादित्य को उलझन में डालने वाले अंतिम सवाल तक, बेताल को पकड़ने और फिर उसके छूट जाने का सिलसिला चौबीस बार चलता है। इन कहानियों का एक रूपांतरण कथा-सरित्सागर में देखा जा सकता है।
सिंहासन के क़िस्से, विक्रमादित्य के उस सिंहासन से जुड़े हुए हैं जो खो गया था और कई सदियों बाद धार के परमार राजा भोज द्वारा बरामद किया गया था। स्वयं राजा भोज भी काफ़ी प्रसिद्ध थे और कहानियों की यह श्रृंखला उनके सिंहासन पर बैठने के प्रयासों के बारे में है। इस सिंहासन में 32 पुतलियां लगी हुई थीं, जो बोल सकती थीं और राजा को चुनौती देती हैं कि राजा केवल उस स्थिति में ही सिंहासन पर बैठ सकते हैं, यदि वे उनके द्वारा सुनाई जाने वाली कहानी में विक्रमादित्य की तरह उदार हैं। इससे विक्रमादित्य की 32 कोशिशें (और 32 कहानियां) सामने आती हैं और हर बार भोज अपनी हीनता स्वीकार करते हैं। अंत में पुतलियां उनकी विनम्रता से प्रसन्न होकर उन्हें सिंहासन पर बैठने देती हैं।
विक्रम और शनि
शनि से संबंधित विक्रमादित्य की कहानी को अक्सर कर्नाटक राज्य के यक्षगान में प्रस्तुत किया जाता है। कहानी के अनुसार, विक्रम नवरात्रि का पर्व बड़े धूम-धाम से मना रहे थे और प्रतिदिन एक ग्रह पर वाद-विवाद चल रहा था। अंतिम दिन की बहस शनि के बारे में थी। ब्राह्मण ने शनि की शक्तियों सहित उनकी महानता और पृथ्वी पर धर्म को बनाए रखने में उनकी भूमिका की व्याख्या की। समारोह में ब्राह्मण ने ये भी कहा कि विक्रम की जन्म कुंडली के अनुसार उनके बारहवें घर में शनि का प्रवेश है, जिसे सबसे खराब माना जाता है। लेकिन विक्रम संतुष्ट नहीं थे; उन्होंने शनि को महज लोककंटक के रूप में देखा, जिन्होंने उनके पिता (सूर्य), गुरु (बृहस्पति) को कष्ट दिया था। इसलिए विक्रम ने कहा कि वे शनि को पूजा के योग्य मानने के लिए तैयार नहीं हैं। विक्रम को अपनी शक्तियों पर, विशेष रूप से अपने देवी मां का कृपा पात्र होने पर बहुत गर्व था। जब उन्होंने नवरात्रि समारोह की सभा के सामने शनि की पूजा को अस्वीकृत कर दिया, तो शनि भगवान क्रोधित हो गए। उन्होंने विक्रम को चुनौती दी कि वे विक्रम को अपनी पूजा करने के लिए बाध्य कर देंगे। जैसे ही शनि आकाश में अंतर्धान हो गए, विक्रम ने कहा कि यह उनकी खुशकिस्मती है और किसी भी चुनौती का सामना करने के लिए उनके पास सबका आशीर्वाद है। विक्रम ने निष्कर्ष निकाला कि संभवतः ब्राह्मण ने उनकी कुंडली के बारे में जो बताया था वह सच हो; लेकिन वे शनि की महानता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। विक्रम ने निश्चयपूर्वक कहा कि “जो कुछ होना है, वह होकर रहेगा और जो कुछ नहीं होना है, वह नहीं होगा” और उन्होंने कहा कि वे शनि की चुनौती को स्वीकार करते हैं।
एक दिन एक घोड़े बेचने वाला उनके महल में आया और कहा कि विक्रम के राज्य में उसका घोड़ा खरीदने वाला कोई नहीं है। घोड़े में अद्भुत विशेषताएं थीं – जो एक छलांग में आसमान पर, तो दूसरे में धरती पर पहुंचता था। इस प्रकार कोई भी धरती पर उड़ या सवारी कर सकता है। विक्रम को उस पर विश्वास नहीं हुआ, इसीलिए उन्होंने कहा कि घोड़े की क़ीमत चुकाने से पहले वे सवारी करके देखेंगे। विक्रेता इसके लिए मान गया और विक्रम घोड़े पर बैठे और घोड़े को दौडाया। विक्रेता के कहे अनुसार, घोड़ा उन्हें आसमान में ले गया। दूसरी छलांग में घोड़े को धरती पर आना चाहिए था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। इसके बजाय उसने विक्रम को कुछ दूर चलाया और जंगल में फेंक दिया। विक्रम घायल हो गए और वापसी का रास्ता ढूंढ़ने का प्रयास किया। उन्होंने कहा कि यह सब उनका नसीब है, इसके अलावा और कुछ नहीं हो सकता; वे घोड़े के विक्रेता के रूप में शनि को पहचानने में असफल रहे। जब वे जंगल में रास्ता ढ़ूढ़ने की कोशिश कर रहे थे, डाकुओं के एक समूह ने उन पर हमला किया। उन्होंने उनके सारे गहने लूट लिए और उन्हें खूब पीटा। विक्रम तब भी हालत से विचलित हुए बिना कहने लगे कि डाकुओं ने सिर्फ़ उनका मुकुट ही तो लिया है, उनका सिर तो नहीं। चलते-चलते वे पानी के लिए एक नदी के किनारे पहुंचे। ज़मीन की फिसलन ने उन्हें पानी में पहुंचाया और तेज़ बहाव ने उन्हें काफ़ी दूर घसीटा।
किसी तरह धीरे-धीरे विक्रम एक नगर पहुंचे और भूखे ही एक पेड़ के नीचे बैठ गए। जिस पेड़ के नीचे विक्रम बैठे हुए थे, ठीक उसके सामने एक कंजूस दुकानदार की दुकान थी। जिस दिन से विक्रम उस पेड़ के नीचे बैठे, उस दिन से दुकान में बिक्री बहुत बढ़ गई। लालच में दुकानदार ने सोचा कि दुकान के बाहर इस व्यक्ति के होने से इतने अधिक पैसों की कमाई होती है और उसने विक्रम को घर पर आमंत्रित करने और भोजन देने का निर्णय लिया। बिक्री में लंबे समय तक वृद्धि की आशा में, उसने अपनी पुत्री को विक्रम के साथ शादी करने के लिए कहा। भोजन के बाद जब विक्रम कमरे में सो रहे थे, तब पुत्री ने कमरे में प्रवेश किया। वह बिस्तर के पास विक्रम के जागने की प्रतीक्षा करने लगी। धीरे- धीरे उसे भी नींद आने लगी। उसने अपने गहने उतार दिए और उन्हें एक बत्तख के चित्र के साथ लगी कील पर लटका दिया। वह सो गई। जागने पर विक्रम ने देखा कि चित्र का बत्तख उसके गहने निगल रहा है। जब वे अपने द्वारा देखे गए दृश्य को याद कर ही रहे थे कि दुकानदार की पुत्री जग गई और देखती है कि उसके गहने गायब हैं। उसने अपने पिता को बुलाया और कहा कि वह चोर है।
विक्रम को वहां के राजा के पास ले जाया गया। राजा ने निर्णय लिया कि विक्रम के हाथ और पैर काट कर उन्हें रेगिस्तान में छोड़ दिया जाए। जब विक्रम रेगिस्तान में चलने में असमर्थ और ख़ून से लथपथ हो गए, तभी उज्जैन में अपने मायके से ससुराल लौट रही एक महिला ने उन्हें देखा और पहचान लिया। उसने उनकी हालत के बारे में पूछताछ की और बताया कि उज्जैनवासी उनकी घुड़सवारी के बाद गायब हो जाने से काफी चिंतित हैं। वह अपने ससुराल वालों से उन्हें अपने घर में जगह देने का अनुरोध करती है और वे उन्हें अपने घर में रख लेते हैं। उसके परिवार वाले श्रमिक वर्ग के थे; विक्रम उनसे कुछ काम मांगते हैं। वे कहते हैं कि वे खेतों में निगरानी करेंगे और हांक लगाएंगे ताकि बैल अनाज को अलग करते हुए चक्कर लगाएं। वे हमेशा के लिए केवल मेहमान बन कर ही नहीं रहना चाहते हैं।
एक शाम जब विक्रम काम कर रहे थे, हवा से मोमबत्ती बुझ जाती है। वे दीपक राग गाते हैं और मोमबत्ती जलाते हैं। इससे सारे नगर की मोमबत्तियां जल उठती हैं – नगर की राजकुमारी ने प्रतिज्ञा कि थी कि वे ऐसे व्यक्ति से विवाह करेंगी जो दीपक राग गाकर मोमबत्ती जला सकेगा। वह संगीत के स्रोत के रूप में उस विकलांग आदमी को देख कर चकित हो जाती है, लेकिन फिर भी उसी से शादी करने का फैसला करती है। राजा जब विक्रम को देखते हैं तो याद करके आग-बबूला हो जाते हैं कि पहले उन पर चोरी का आरोप था और अब वह उनकी बेटी से विवाह के प्रयास में है। वे विक्रम का सिर काटने के लिए अपनी तलवार निकाल लेते हैं। उस समय विक्रम अनुभव करते हैं कि उनके साथ यह सब शनि की शक्तियों के कारण हो रहा है। अपनी मौत से पहले वे शनि से प्रार्थना करते हैं। वे अपनी ग़लतियों को स्वीकार करते हैं और सहमति जताते हैं कि उनमें अपनी हैसियत की वजह से काफ़ी घमंड था। शनि प्रकट होते हैं और उन्हें उनके गहने, हाथ, पैर और सब कुछ वापस लौटाते हैं। विक्रम शनि से अनुरोध करते हैं कि जैसी पीड़ा उन्होंने सही है, वैसी पीड़ा सामान्य जन को ना दें। वे कहते हैं कि उन जैसा मजबूत इन्सान भले ही पीड़ा सह ले, पर सामान्य लोग सहन करने में सक्षम नहीं होंगे। शनि उनकी बात से सहमत होते हुए कहते हैं कि वे ऐसा कतई नहीं करेंगे। राजा अपने सम्राट को पहचान कर, उनके समक्ष समर्पण करते हैं और अपनी पुत्री की शादी उनसे कराने के लिए सहमत हो जाते हैं। उसी समय, दुकानदार दौड़ कर महल पहुंचता है और कहता है कि बतख ने अपने मुंह से गहने वापस उगल दिए हैं। वह भी राजा को अपनी बेटी सौंपता है। विक्रम उज्जैन लौट आते हैं और शनि के आशीर्वाद से महान सम्राट के रूप में जीवन व्यतीत करते हैं।
नौ रत्न और उज्जैन में विक्रमादित्य का दरबार
भारतीय परंपरा के अनुसार धन्वन्तरि, क्षपनक, अमरसिंह, शंकु, खटकरपारा, कालिदास, वेतालभट्ट (या (बेतालभट्ट), वररुचि और वराहमिहिर उज्जैन में विक्रमादित्य के राज दरबार का अंग थे। कहते हैं कि राजा के पास “नवरत्न” कहलाने वाले नौ ऐसे विद्वान थे।
कालिदास प्रसिद्ध संस्कृत राजकवि थे। वराहमिहिर उस युग के प्रमुख ज्योतिषी थे, जिन्होंने विक्रमादित्य की बेटे की मौत की भविष्यवाणी की थी। वेतालभट्ट एक धर्माचार्य थे। माना जाता है कि उन्होंने विक्रमादित्य को सोलह छंदों की रचना “नीति-प्रदीपकालिदास प्रसिद्ध संस्कृत राजकवि थे। वराहमिहिर उस युग के प्रमुख ज्योतिषी थे, जिन्होंने विक्रमादित्य की बेटे की मौत की भविष्यवाणी की थी। वेतालभट्ट एक धर्माचार्य थे। माना जाता है कि उन्होंने विक्रमादित्य को सोलह छंदों की रचना “नीति-प्रदीप” (“आचरण का दीया”) का श्रेय दिया है।
विक्रमार्कस्य आस्थाने नवरत्नानि
धन्वन्तरिः क्षपणकोऽमरसिंहः शंकूवेताळभट्टघटकर्परकालिदासाः।
ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेस्सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य॥
नौ रत्नों के चित्र
मध्यप्रदेश में स्थित उज्जैन-महानगर के महाकाल मन्दिर के पास विक्रमादित्य टिला है। वहाँ विक्रमादित्य के संग्रहालय में नवरत्नों की मूर्तियाँ स्थापित की गई। इस प्रकार जैन राजा विक्रमादित्य का योगदान भारतीय इतिहास के साहित्य ,ज्योतिष आदि सभी विधाओं में उन्नत किया जिसके कारण हम उनके पदचिन्हों पर चल रहे हैं।
धन्य हैं ऐसे महामानव जिनकी देन से मानवता हमेश ऋणी रहेंगी।
05अप्रैल/ईएमएस

न्यायाधीशों का आचरण : एक अधूरी कार्यवाही
अजित वर्मा
पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने तीन उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को प्रोन्नति न देने का फैसला किया है। क्योंकि तीनों के खिलाफ न्यायिक कदाचार, अनुशासन की कमी, उच्च न्यायिक मानकों के विपरीत आदेश सुनाने जैसे मामले सामने आए हैं। कहा जा रहा है कि एक सीजे का नाम इसलिए रोका गया, क्योंकि वे काम के दिनों में छुट्टी लेकर गोल्फ खेलने चले गए। दूसरे सीजे को इसलिए प्रोन्नति नहीं दी जाएगी, क्योंकि वे लगातार राज्य सरकार के हेलिकॉप्टर का इस्तेमाल करते रहे। तीसरे सीजे ने सर्वोच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश को खुश करने के लिए एक लोक सेवा आयोग के खिलाफ आदेश सुनाए।
हालांकि कॉलेजियम ने इन तीनों मुख्य न्यायाधीशों के नाम सार्वजनिक न करने का फैसला भी किया क्योंकि नाम सार्वजनिक होने से उनके पद पर बने रहने पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। इससे उन्हें कार्यकाल पूरा करने में कठिनाई आ सकती है।
हम कहना चाहते हैं कि पूरा देश अपने सर्वोच्च न्यायालय का सम्मान करता है। न्यायपालिका की छाव और प्रतिष्ठा सबके लिए महत्वपूर्ण है। लेकिन हम पहले भी लिख चुके हैं और यहाँ फिर लिख रहे हैं कि सीजर और सीजर की पत्नी दोनों को संदेह से परे रहना चाहिए। न्यायाधीशों और सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम दोनों सर्वथा सम्माननीय हैं। परन्तु सवाल यह उठता है कि जिन लोगों को कॉलेजियम ने न्यायिक कदाचार, अनुशासन की कमी और उच्च न्यायिक मानकों के विपरीत आदेश सुनाने जैसे मामलों में दोषी पाया वे किसी भी राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भी कैसे बने रह सकते हैं। कॉलेजियम अगर इस दलील के साथ उनके नाम उजागर करे कि ऐसा किये जाने पर उन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है या उन्हें अपना कार्यकाल पूरा करने में कठिनाई आ सकती है, तो इस पर सवाल उठना लाजिमी है। एक दोष सिद्ध व्यक्ति मुख्य न्यायाधीश तो क्या न्यायाधीश रहने बल्कि विधिजगत में प्रतिष्ठा पाने के योग्य भी नहीं हो सकता यह इसलिए कॉलेजियम में प्रतिष्ठित न्यायाधीश होते हैं। अगर वे किसी मुख्य न्यायाधीश के आचरण पर अंगुली उठाते हैं तो इसे दोष सिद्ध ही माना जायेगा। तो फिर न तो नामों की पोशीदागी जायज है, न उनका पद पर बने रहना। आज कोई नहीं जानता कि न्यायपालिका के पावन सरोवर को गंदा करने वाली ये तीन मछलियां कौन हैं, लेकिन यह तो तय ही है न कि तीन गंदी मछलियां मौजूद हैं। तो फिर उन्हें इस पवित्र सरोवर से निकाल कर बाहर फेंका जाना ही नैतिकता का तकाज़ा है।

वायनाड से देश को साधने की जुगत
डॉ हिदायत अहमद खान
पिछले कुछ दिनों से केरल का वायनाड लोकसभा क्षेत्र देशभर में चर्चा का विषय बना हुआ है। यह क्षेत्र चर्चा में इसलिए आया क्योंकि यहां से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी बतौर पार्टी उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरे हैं। वैसे राहुल गांधी उत्तर प्रदेश की अमेठी लोकसभा सीट से वर्ष 2004 से लगातार तीन बार चुनाव जीतते आ रहे हैं। इस प्रकार जीतने की हैट्रिक बनाने के साथ अमेठी के जनादेश से लोकसभा संसदीय क्षेत्र से संसद पहुंचते रहे राहुल गांधी को अचानक ऐसा क्या हुआ कि उन्हें अमेठी के अतिरिक्त वायनाड को भी अपना चुनाव क्षेत्र बनाना पड़ गया? इस सवाल को लेकर जहां तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे हैं वहीं सत्ता पक्ष के लोग तंज कसते दिख रहे हैं और देश व दुनिया को बतलाने का काम कर रहे हैं कि राहुल गांधी असल में भाजपा उम्मीदवार स्मृति ईरानी (जो पिछले चुनाव में उनसे हार चुकी हैं) से घबरा गए हैं और हार की आशंका के चलते उन्होंने एक अन्य सीट से चुनाव लड़ने जैसा फैसला मजबूरी में लिया है। इस तरह के जुबानी जमा खर्च करने वालों में किसी और की बात क्या की जाए खुद भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने राहुल पर तंज कसते हुए कहा था कि ‘वॉट्स ऐप पर मैंने पढ़ा कि राहुल अमेठी को छोड़कर केरल भाग गए हैं। आखिर उन्हें केरल क्यों जाना पड़ा? हम सब जानते हैं कि राहुल का अमेठी से ही लड़ना तय था, लेकिन अब वो वहां जाकर ध्रुवीकरण की राजनीति से जीत हासिल करना चाहते हैं।’ मतलब भाजपा और उसके नेता अभी तक जिस ध्रुवीकरण से चुनाव साधते हाए हैं वही राहुल कर रहे हैं, इसलिए तकलीफ बढ़ गई है। बहरहाल भाजपा अध्यक्ष शाह के बयान में जहां तंज है वहीं एक तरह की घबराहट भी देखने को मिल रही है। दरअसल भाजपा ने अमेठी संसदीय क्षेत्र से राहुल के खिलाफ इस बार भी केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी को ही मैदान में उतारा है। बावजूद इसके कि 2014 के लोकसभा चुनाव में राहुल ने उन्हें करीब 1.07 लाख वोटों से हराया था। इसलिए असमंजस की स्थिति तो अभी भी बनी हुई है, लेकिन बिचलित करने वाली बात यह है कि वायनाड तीन राज्यों की सीमा को मिलाने वाला क्षेत्र है और एक खास रणनीति के तहत ही राहुल को यहां से उतारा गया है। इस संबंध में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एके एंटोनी के बयान को देखा जा सकता है, जिसमें वो कहते हैं कि राहुल गांधी को अमेठी के अलावा वायनाड से चुनाव में उतारने की कई वजहें हैं। पहली वजह तो यही है कि यह सीट सांस्कृतिक और भौगोलिक रूप से काफी अहम है। दूसरा यह कि केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु की सीमाओं को यह जोड़ती है। इस प्रकार राहुल यहां से चुनाव लड़कर एक तरह से पूरे दक्षिण भारत का प्रतिनिधित्व करते नजर आएंगे। अब चूंकि भाजपा और उसके अनुवांशिक संगठनों पर देश के सांस्कृतिक माहौल को खराब करने के आरोप लगते रहे हैं और इसकी आवाजें सबसे ज्यादा दक्षिण प्रांतों से ही उठती रही हैं अत: राहुल का वायनाड को चुनना सही मायने में भाजपा के लिए सिरदर्द पैदा करने के बराबर है। कहना गलत नहीं होगा कि महज एक सीट से चुनाव लड़ कर पूरे दक्षिण भारत को अपने पक्ष में कर लेने जैसा काम कांग्रेस की बेहतरीन रणनीति का हिस्सा है, इस पर जमीनी कार्य करने और मन मुताबिक परिणाम लेने की आवश्यकता है। आखिर यह कैसे भुलाया जा सकता है कि दक्षिण से जो बात उठती है वह देश के मध्य क्षेत्र से होते हुए उत्तर व पश्चिम क्षेत्र में तेजी से फैलती और उसका असर भी होता है। ऐसे में कांग्रेस महज एक सीट के जरिए पूरे देश को अपनी बात सुनाने में कामयाब होती दिख रही है। वहीं दूसरी तरफ भाजपा से भी कहा जा रहा है कि वह दक्षिण ही नहीं बल्कि उत्तर भारत की ओर भी अपना ध्यान लगाए, क्योंकि यदि यहां पर भी फिफ्टी-फिफ्टी वाला परिणाम आया तो सत्ता हाथ से जाती चली जाएगी। गौरतलब है कि राहुल ने वायनाड से नामांकन पत्र भरने के साथ ही रोड शो किया, जिसमें कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी भी उनके साथ नजर आईं। यहां प्रियंका ने राहुल को साहसी व्यक्ति बताया और वायनाड की जनता से उन्होंने अपील की कि राहुल का ख्याल रखें। प्रियंका की अपने भाई के लिए यह भावनात्मक अपील थी, जो आमजन के दिलों को छू गई। दरअसल गांधी परिवार की शहादतें देश भूला नहीं सकता है। भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से लेकर राहुल व प्रियंका गांधी के पिता भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के शहीद होने का अपना ही गौरवपूर्ण इतिहास है। बहरहाल वायनाड में 23 अप्रैल को मतदान होना है, जिससे पहले विभिन्न धर्मों की संस्कृति बचाने की खातिर पूरे देश को मथने की जुगत भी राजनीतिक पार्टियां जरुर ही भिड़ाती नजर आएंगी। अंतत: केरल की वायनाड लोकसभा सीट से देश को साधने का काम कांग्रेस किस तरह से करती है यह देखने वाली बात है, क्योंकि पिछले चुनावों की तरह इस चुनाव में किसी के नाम का कोई जादू देश में चलता दिखाई नहीं दे रहा है। इसलिए मुद्दों और बेहतर चुनाव मैनेजमेंट के जरिए ही चुनाव साधे जा सकेंगे।

एक भारतीय आत्मा : माखनलाल चतुर्वेदी
वीरेन्द्र सिंह परिहार
(4 अप्रैल जन्म तिथि पर विशेष) माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म 4 अप्रैल 1889 होषंगाबाद जिले के बाबई नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम नंदलाल चतुर्वेदी था। 1906 में वह मसगगॉव में अध्यापक के पद पर नियुक्त हुए, बाद में खण्डवा में। माखनलाल जी अध्यापन काल से ही 1912 से ही सुबोध सिंधु में लेख, समाचार आदि लिखने लगे थे। दषहरे के अवसर पर उनके लिखे लेख ”षक्ति पूजा“ में अंग्रेज षासन को राजद्रोह की गंध मिली, पर वह बच गए। माखनलाल जी के संपादकीय जीवन की षुरुआत 7 अप्रैल 1913 से ’प्रभा‘ से हुई। लेकिन यह पत्रिका फरवरी 1914 में बंद हो गई और तब माखनलाल जी का तय वेतन 30 रु. भी बंद हो गया। नौबत यहां तक आ गई कि घर के जेबर बेंच-बेंचकर घर चलाना पड़ा। बाद में ’प्रताप‘ के युवा संपादक गणेष षंकर विद्यार्थी जब खण्डवा आए तो उन्होंने ’प्रभा‘ को अपने कानपुर स्थित ’प्रताप‘ प्रेस से छपवाने का प्रस्ताव किया। यद्यपि इसी बीच माखनलाल जी की पत्नी ग्यारसी बाई का निधन हो गया। उल्लेखनीय है कि माखनलाल जी आजीवन दूसरा विवाह नहीं किया। पर 1915 में मार्च से ’प्रभा‘ के द्वितीय वर्श का प्रथम अंक प्रताप प्रेस से पूर्ववत साज-सजा के साथ निकला। ’प्रभा‘ के माध्यम से माखनलाल जी यह संकेत देने लगे कि वह साहित्य को राजनीतिक आंदोलन की प्रेरक वाणी बनाने में विष्वास करते हैं। लेकिन दो वर्शों तक कठोर घाटा सहने के बाद ’प्रभा‘ का प्रकाषन पुन: बंद हो गया। बाद में ’प्रभा‘ को गणेष षंकर विद्यार्थी को हस्तांतरित कर दिया गया। 1916 से 1919 तक ’स्वतंत्र‘ पत्रकार के रूप में माखनलाल ने खूब लिखा। इस बीच वह गणेष षंकर विद्यार्थी के साथ रहे। ’प्रताप‘ को हर संभव सहयोग दिया। इसी दौरान उनके नाटक ’कृश्णार्जुन युद्ध‘ का मंचन भी हुआ और प्रकाषन भी। उसी दौरान उन्होंने गणेष षंकर विद्यार्थी के साथ महात्मा गांधी से प्रथम भेंट की। बाद में गांधी जी उनकी जन्मभूमि बावई भी गए। इसके पहले 1922 में जेल से लौटते ही ’कर्मवीर‘ से मुक्त होकर माखनलाल जी नागपुर सत्याग्रह में षामिल होने चल पड़े और 1923 में अपने नायकत्व में झंडा सत्याग्रह को सफल किया। इतिहासकार कहते हैं- झंडा सत्याग्रह आजादी के आंदोलन का अद्वितीय और सर्वोत्तम अध्याय है। उन्होंने यह भी कहा, हम सब लोग बात करते हैं, बोलना तो माखनलाल जी ही जानते हैं। गणेष षंकर विद्यार्थी के एक वर्श जेल में रहने के दौरान अक्टूबर 1923 से मार्च 1924 तक माखनलाल जी ने ’प्रताप‘ को संभाला। ’प्रताप‘ के संपादन से मुक्त होने के बाद उन्होंने कानपुर में ही ’प्रभा‘ के प्रकाषन का दायित्व भी संभाला। फिर 1928 से पुन: ’कर्मवीर‘ का खण्डवा से प्रकाषन षुरू किया जो 1959 तक चला।
1919 में इतिहास प्रसिद्ध आयोजन हुआ- फकीर गांधी का। माखनलाल जी भी इसमें सम्मिलित थे। वह गांधी जी के भाशण से आष्वस्त नहीं हुए लेकिन आयोजन में फकीर की बानी से राजा-महाराजाओं के पानी उतरने का जो नजारा देखा, उससे निष्चय किया कि अब वही कार्यक्रम स्वीकार करना है, जिसे गांधी जी अपनाएंगे। प्रगट रूप से माखनलाल जी अपने सषस्त्र क्रांति के विचार की सक्रियता से विश्राम लेकर गांधी जी की राजनीति में संगी-यात्री हो गए।
अप्रैल 1919 में तृतीय मध्य प्रान्तीय हिंदी साहित्य सम्मेलन हुआ। उसमें प्रस्ताव पारित हुआ कि मध्य प्रांत के हिंदी क्षेत्रों से एक हिंदी पत्र निकलना चाहिए। 1919 की जुलाई-अगस्त में पत्रिका (साप्ताहिक) का डिक्लेरेषन लिया गया। जबलपुर से डिक्लेरेषन के वक्त उन्हें सलाह दी गई थी कि वह अंग्रेज अधिकारियों को बताए कि रोजी-रोटी के लिए यह पत्र निकाला जा रहा है। पर माखनलाल जी ने मजिस्टेट मिस्टर मिथाइस से कहा- मैं ऐसा पत्र निकालना चाहूंगा कि ब्रिटिष षासन चलते-चलते रुक जाए। फिर भी ’कर्मवीर‘ के डिक्लेरेषन की अर्जी मंजूर हो गई। 17 जनवरी 1920 से ’कर्मवीर‘ का प्रकाषन जबलपुर में आरंभ हुआ। पण्डित विश्णुदत्त षुक्ल एवं पं. माधवराव ने पहले अंक का प्रथम अग्रलेख लिखा- ’हम चल पड़े हैं।‘ हमारी ऑखों में भारतीय जीवन गुलामी की जंजीरों से कसा दिखता है। हृदय से पवित्रता पूर्वक हम प्रयत्न करेंगे कि वे जंजीरें फिसल जाए या टुकड़े-टुकड़े होकर गिरने की कृपा करें। हम स्वतंत्रता के हामी हैं, मुक्ति के उपासक हैं। हम जिस तरह भीरूता नश्ट कर देने के लिए तैयार रहेंगे, उसी तरह अत्याचारों को भी। जिनके पास बल है, किन्तु मनुश्यता नहीं, उनको हम मनुश्यता की याद दिलाएंगे। जिनके पास मनुश्यता है, किन्तु संसार का कोई बल नहीं, उन निर्बलों को उनके बल की याद दिलाएंगे। संसार के इस सिद्धान्त के षंखध्वनि में साथ देंगे कि अपने आप पर षासन करने के लिए तैयार हों। हमारा विष्वास हैं कि संसार के सब विभागों की गुलामी खड़ी नहीं रह सकती, यदि हम अपने आपके षासक हो जाएं। माखनलाल जी ने स्पश्ट लिखा कि ’भारत को उस ताकत की जरूरत है, जिसमें चाहे प्राण देना पड़े, चाहे अपने बच्चों को कटवाना पड़े, किन्तु जिसका एकमात्र लक्ष्य हो स्वाधीनता। जिस स्वाधीनता के लिए देष की हजारों जाने कुर्बान न हों, वह स्वाधीनता भारत की स्वाधीनता नहीं। भारत के लिए एक ही पथ है- प्राण देकर स्वाधीनता प्राप्त करना, डिप्लोमेसी नहीं जो कायरता का चिन्ह है। भारत के लिए सच्चा मार्ग अहिंसात्मक असहकारिता ही है।
जो होना था, वही हुआ। ’कर्मवीर‘ के अहिंसक सत्याग्रही रूप के तेज से ब्रिटिष हुकूमत की ऑखें चौंधियाने लगीं। प्रषासन बौखला गया। उसने 124(ए) (राजद्रोह) का अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ा। 12 जून 1921 को पं. माखनलाल चतुर्वेदी राजद्रोह के अपराध में गिरतार कर लिए गए, वह भी ’कर्मवीर‘ में प्रकाषित किसी रिपोर्ट या आलेख के लिए नहीं, बल्कि 12 मार्च 1921 को बिलासपुर जिला कान्फ्रेन्स में दिए गए भाशण के लिए। उन्हें आठ महीने की कड़ी कैद की सजा दी गई। सजा काटकर माखनलाल जी वापस आए तो देखा कि ’कर्मवीर‘ का वातावरण बदला हुआ था। मूल नीति न बदलने पर उन्हें ’कर्मवीर‘ के संपादक पद से डिसमिस कर दिया गया।
4 अप्रैल 1925 से रामनवमी के दिन ’कर्मवीर‘ दुबारा प्रकाषित हुआ, इस बार वह खण्डवा से निकला, अब यह माखनलाल चतुर्वेदी का निजी प्रकाषन था। चंद अंकों से ही ’कर्मवीर‘ अखिल भारतीय ख्याति का पत्र बन गया। ’कर्मवीर‘ सहस्त्रों पाठकों की आषा-आकांक्षाओं का प्रतीक बन गया। उसकी वैचारिक तेजस्विता और आधुनिकता से भयभीत होकर अनेक रियासतों- भोपाल, झाबुआ, धार, इंदौर, ग्वालियर एवं देवास और साथ ही राजस्थान की कुछ रियासतों ने ’कर्मवीर‘ का प्रवेष अपने यहां निशिद्ध कर दिया। इंदौर में तो कानूनन निशिद्ध कर दिया गया। चतुर्वेदी जी ने ’कर्मवीर‘ के पाठकों से लेकर लेखकों और व्यवस्थापकों के बीच प्रतिश्ठा के साथ पत्रकारिता व पत्र-उद्यम व व्यवसाय चलाने के लिए निम्न पैमाने रखे- कर्मवीर के संपादन और कर्मवीर की कठिनाईयों का उल्लेख न करना, कभी धन के लिए अपील न निकालना, ग्राहक संख्या बढ़ाने के लिए ’कर्मवीर‘ के कालमों में न लिखना, सनसनीखेज खबरे कभी न छापना, विज्ञापन जुटाने के लिए किसी आदमी की नियुक्ति न करना, क्रांतिकारी पार्टी के खिलाफ गांधी जी के भी वक्तव्य छापने से इंकार करना। ऐसी स्थिति में ’कर्मवीर‘ जन-जीवन का लाडला बना। वह जितनी तीक्ष्णता से ब्रिटिष षासन के पापों पर आक्रमण करता था, उतनी ही तीव्रता से उन लोगों को चुनौती देता जो देषद्रोह और षोशण का खुला खेल खेलते थे। इसीलिए ’कर्मवीर‘ अपने समय का विष्वास-सेतु बन गया। पत्रकारिता की षक्ति ’कर्मवीर‘ के माध्यम से उजागर हुई। अनेक आंदोलनों में ’कर्मवीर‘ ने नेतृत्व किया और अभूतपूर्व सफलताऍ अर्जित कीं। माखनलाल जी ने ’कर्मवीर‘ के माध्यम से एक ऐसे राश्ट्रीय चिंतन को जन्म दिया जिसे अंतर्राश्ट्रीय राश्ट्रीयता कहा जा सकता है।
माखनलाल जी का स्पश्ट कहना था, जिस देष में कलम तलवार जैसी प्रखर नहीं होती, उस देष में तलवार भी तलवार बनकर नहीं रह सकती। 1930 में बैतूल के जगल सत्याग्रह में उन्होंने सहयोग किया। 29 अप्रैल 1930 जबलपुर में असहयोग आंदोलन में गिरतार किए गए। 1943 में ’हिम किरीटनी‘ और ’साहित्य देवता‘ का प्रकाषन हुआ। ’हिम किरीटनी‘ पर उन्हें देव पुरस्कार प्राप्त हुआ। देष की आजादी के बाद ’हिम तरंगिनी‘ पर उन्हें 1954 में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। यह पुरस्कार पाने वाले चतुर्वेदी जी प्रथम हिंदी साहित्यकार थे। 1963 में उनकी विषिश्ट साहित्यिक सेवाओं के लिए पद्म भूशण सम्मान प्राप्त हुआ। जिसे अपने विद्रोही स्वभाव के चलते 10 सितम्बर 1967 को राश्ट्र भाशा विधेयक के विरोध के चलते उन्होंने परित्याग कर दिया। अंतत: 30 जनवरी 1968 के दिन वह सदैव के लिए पृथ्वी की गोद में सो गए।

चुनौतीपू्र्ण सफर को आसान बनाया
बी.डेविड
कमलनाथ ने जब मध्यप्रदेश का नेतृत्व सम्हाला। फिर चाहे वह कांग्रेस पार्टी का हो या सरकार का, उनके सामने चुनौतियों का पहाड़ था। प्रदेश में संगठन की स्थिति बद से बदतर वाली थी। पंद्रह साल भाजपा राज के कारण जमीनी कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटा हुआ था। सरकार के दमन चक्र से आम कार्यकर्ता हतोत्साहित था। एकजुटता का अभाव था। धन, बल दल या अहंकार से लबरेज भाजपा सरकार से दो-दो हाथ करने की एक पहाड़ जैसी चुनौती उनके सामने थी। विधानसभा चुनाव नजदीक थे। ऐसे में हताश कार्यकर्ता के साथ एक अहंकारी, धन, बल और छल की भाजपा सरकार के साथ चुनाव के महायुद्ध में लड़ना और जीतना असंभव सा दिखलाई देता था। जादू की कोई छड़ी नहीं थी कि वे उसे छुआकर इन सारी स्थितियों को सामान्य कर दें। कमल नाथ जी के अध्यक्ष बनने के बाद केन्द्रीय नेतृत्व हो या आम कांग्रेस कार्यकर्ता बड़ी उम्मीद से कमल नाथ जी की और देख रहा था। आसान काम करना उनकी फितरत में नहीं था। चुनौतियाँ स्वीकार करना और उनसे दो-दो हाथ करना कमल नाथ जी का स्वभाव है। उनका राजनीति में 45 साल का एक ऐसा लंबा अनुभव है जिसमें उन्होंने कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के देशव्यापी चुनौतियों का सामना किया है।
मई 2018 में जब वे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बने तब विधानसभा चुनाव आते-आते उन्होंने पूरे प्रदेश में कांग्रेसी संगठन को जो मजबूती दी वह आश्चर्य चकित कर देने वाली थी। इन छह माह में उन्होंने गाँव-गाँव में कार्यकर्ताओं की एक ऐसी फौज तैयार की जो हताशा से उबर कर उत्साह और ऊर्जा से परिपूर्ण थी। इस दौरान उन्होंने संगठन में लगभग दो लाख नियुक्तियाँ कर सोए हुए संगठन को खड़ा कर दिया। विधानसभा चुनाव आते-आते उन्होंने एक ऐसी फौज तैयार कर ली थी जो 15 साल की चुनौती का सक्षमता के साथ मुकाबला कर सके। यह उनका आत्म-विश्वास और साहसिक फैसला था कि उन्होंने प्रदेश में किसी भी गठबंधन के बगैर कार्यकर्ताओं की दम पर चुनाव लड़ने का निर्णय लिया। उन्होंने जो ठाना, जैसा सोचा, वह 11 दिसम्बर को कर दिखाया। जब प्रदेश में कांग्रेस पार्टी को 15 साल बाद सत्ता में लौटने का जनादेश मिला। मध्यप्रदेश में कांग्रेस का न केवल 15 साल का वनवास खत्म हुआ बल्कि एक अहंकारी, कुशासित और भ्रष्टाचारी भाजपा शासन से प्रदेश के किसानों, बेरोजगारों और आम नागरिकों को मुक्ति भी मिली।
सालभर पहले इस तरह के परिणाम की उम्मीद करने की कोई सोच भी नहीं सकता था। कमल नाथ जी ने 11 माह में मध्यप्रदेश में एक ऐसा चमत्कार दिखलाया जिससे इतने कम समय में 15 साल के बिखरे-टूटे और सुस्त संगठन ऊर्जावान नहर आने लगा। वहीं 15 साल के लंबे समय के बाद कांग्रेस को जनादेश दिलवाने में सफलता हासिल कीं। भाजपा के खोखले “ओरा” मेंअपनी कुशल रणनीति से सबके साथ मिलकर उन्होंने जो सेंध लगाई उसने उन्हें प्रदेश के आम कार्यकर्ताओं का मसीहा बना दिया। कांग्रेस की सरकार प्रदेश में बनाना तो एक चुनौती तो थी ही लेकिन उससे बड़ी चुनौती अब उनके सामने सरकार चलाने की थी। किसानों की कर्ज माफी, बेरोजगारी में नंबर-वन प्रदेश, महिलाओं के ऊपर बलात्कार में नंबर वन प्रदेश, किसानों की आत्महत्या में नंबर-वन प्रदेश को भाजपा से मुक्त कराकर इन समस्याओं से मुक्त कराने की चुनौती आसान नहीं थी। यह चुनौती उन्होंने 17 दिसम्बर को मुख्यमंत्री बनते ही स्वीकारी।
खाली-खजाना और आसन्न लोकसभा चुनाव उनके सामने एक बड़ी बाधा थी। राहुल गांधी का वचन 10 दिन में किसानों की कर्ज माफी का फैसला उनके सामने था। पर वे इस दौरान कभी विचलित नहीं हुए। उनके चेहरे का आत्म-विश्वास और उनके कद, अनुभव और चुनौतियों से निपटने की उनकी अभिनव रणनीतियों ने हर मुश्किल चीज को आसान कर दिया। शपथ लेते ही पहले घंटे के अंदर उन्होंने कर्ज माफी का मध्यप्रदेश के इतिहास का सबसे बड़ा साहसिक फैसला लिया। यहाँ एक और तथ्य का उल्लेख जरूरी है। किसी भी पार्टी का घोषणा पत्र वह भी वचन-पत्र के रूप में प्रदेश की जनता के सामने रखना खेल नहीं था। कमल नाथ जी ने वचन-पत्र के हर बिन्दु को पूरे होशो-हवास के साथ शामिल किया। वे कमिटमेंट वाले व्यक्तित्व हैं इसलिए उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि सिर्फ चुनाव जीतने के लिए वचन-पत्र नहीं बनेगा। वह पाँच साल में पूरा हो, इस आधार पर उन्होंने वचन-पत्र बनाया। हर क्षेत्र के विशेषज्ञों की मदद से उन्होंने उस वचन-पत्र को तैयार किया। उन्हें पता था कि शिवराज सरकार ने चुनाव जीतने के लिये पूरे प्रदेश को दाँव पर लगा दिया है। उन्होंने वचन-पत्र के हर बिन्दु को पूरे होने पर क्या वित्तीय भार आएगा इसका आंकलन करवाया तब जाकर उन्होंने वचन-पत्र को अंतिम रूप दिया।
कमिटमेंट पूरा करने और लोगों का सरकार के प्रति विश्वास लौटाने के लिए उन्होंने वचन-पत्र के हर बिन्दु पर पहले दिन से ही काम शुरू कर दिया। 50 लाख किसानों के 53 हजार करोड़ का कर्ज माफ करने का फैसला लिया और उसे 40वें दिन पूरा कर दिखाया। यह उनकी सोची-समझी रणनीति का परिणाम था कि एक एतिहासिक फैसले को उन्होंने इतने कम समय में पूरा करके एक नया इतिहास बनाया। उसके बाद नौजवानों के लिए युवा स्वाभिमान योजना शुरू कर, बिजली के बिल को आधा कर, कन्यादान विवाह योजना की अनुदान राशि 28 हजार से 51 हजार करने, सामाजिक सुरक्षा पेंशन 300 से बढ़ाकर 600 रुपये करने सहित 76 दिन में वचन-पत्र के 83 बिन्दुओं को पूरा कर दिया। यह उनके प्रशासनिक अनुभव और दृढ़ इच्छाशक्ति का ही कमाल था। यही नहीं उन्होंने प्रदेश की आधी आबादी पिछड़ा वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण देने एवं 10 प्रतिशत सवर्णों को आरक्षण देने की घोषणा करके सबको चौंका दिया। कोई इतने कम दिन में इतने बड़े फैसले कैसे ले सकता है। वह भी बगैर आडम्बर के, शोर शराबे, के बिना फोटो विज्ञापन के। 17 दिसम्बर के पहले तो इसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती थी कि प्रदेश में ऐसी भी कोई सरकार हो सकती है। उद्योगों का विश्वास लौटाने के लिए उन्होंने निवेश की नई रणनीति बनाई। इसमें रोजगार की संभावना और उपलब्धता को सर्वोच्चता पर रखा। उन्होंने सबसे पहले मौजूदा उद्योगों का सरकार पर विश्वास कायम हो, इस बुनियादी जरूरत पर ध्यान दिया। गोलमेज कांफ्रेंस बुलाई। यानी इतने कम दिनों में हर वर्ग, हर क्षेत्र और हर स्तर पर उन्होंने जो फैसले लिए वे इतने कम समय में गागर में सागर भरने के समान ही हैं।
जैसा कि ऊपर इस बात का जिक्र है कि कमल नाथ जी के पास ऐसी कोई जादू की छड़ी नहीं थी कि वे संगठन से लेकर सरकार तक बिखरी पड़ी चुनौतियों को समाप्त कर सकें। पर आज 100 दिन बाद यह महसूस होता है कि कोई न कोई तो उनके पास छड़ी जरुर है जिसका जादू साफ नजर आ रहा है। उसके दम पर उन्होंने इतना कुछ कर दिखाया। वह भी पूरी सादगी और बगैर किसी हो हल्ला के। यही कमल नाथ जी की काबिलियत है जिसकी बहुत समय से जरूरत इस प्रदेश को थी। पाँच साल बाद इस प्रदेश को जब हम देखेंगे तो खुद ही कहेंगे कि यह तो जादू की छड़ी का कमाल है।